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“हे पुरुषश्रेष्ठ, ये शीतोष्णादि विषय जिस धीर व्यक्ति को व्यथित नहीं कर पाते, वह सुख और दःु ख में समान रहने

वाला
व्यक्ति आनन्द रूप अमत
ृ का अधिकारी होता है ।“ ~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 15
जीवन में कुछ इतना महत्वपूर्ण होना चाहिए जिसके सामने ये छोटी-मोटी बातें पता ना चलें। सहना तो है ही लेकिन अगर सहने पर
बहुत ध्यान चला गया तो सह नहीं पाओगे। किसी ऐसी चीज़ के प्रेम में पड़ जाइए कि सहने पर भी ध्यान ना दे ना पड़े, फिर सह भी लेते
हो और सहने की पीड़ा से भी नहीं गुज़रना पड़ता। इसी को ‘आनंद’ कहते हैं। आनंद एक निष्कर्ष जैसा है , आनंद के बस अप्रत्यक्ष
प्रमाण हो सकते हैं।

एक व्यक्ति है जिसको आप बाहर से दे खें, ज़रा दरू से दे खें तो दिखाई पड़े कि ये कितने संघर्ष में है , कितनी प्रतिकूल परिस्थितियों में है
और वो व्यक्ति फिर भी डटा हुआ है । आवश्यक नहीं है कि मुसकुरा कर ही डटा हुआ हो। जैसा भी है , डटा हुआ है । तो इससे फिर हम
एक अप्रत्यक्ष निष्कर्ष निकालते हैं कि इसके भीतर कहीं कोई बहुत गहरा सुख है । उस सुख के कारण ही ये बाहर की सब प्रतिकूलताओं
को आसानी से या मुश्किल से, जैसे भी, सह पा रहा है । इसके भीतर कुछ ऐसा बैठा हुआ है जिसमें ये इतना मग्न है , इतना आप्लावित
है कि बाहर इसे जो भी दःु ख आदि मिल रहे हैं, उनपर ये बहुत ध्यान नहीं दे रहा।…………………..

अर्जुन इस प्रकार प्रवर्तित कर्मचक्र का जो अनुसरण नहीं करता, वह इन्द्रिय सुखासक्त पापी व्यर्थ ही जीवन जीता है ।

कृष्ण की तरह होने का क्या अर्थ है ? जीवन को यज्ञ बना दो। तुम्हारे पास जो कुछ भी है , उसको भें ट करते रहो ऊँचाई, और ऊँचाई की
तरफ़।

सबसे महत्वपूर्ण हमारे पास जो संसाधन हैं, बार-बार कहता हूँ, वो क्या है ? समय ही, जीवन ही। अपना समय लगाना है चेतना को
ऊँचाई दे ने की तरफ़। जीवन के हर निर्णय में बात यही होनी चाहिए कि ये जो मैं निर्णय करने जा रहा हूँ, छोटा निर्णय बड़ा निर्णय कोई
भी, इसका मेरे मन पर क्या असर पड़ेगा। बाकी बातें एक तरफ़!

बाकी सब बातें एक तरफ़ क्योंकि एक ही चीज़ है जिसका महत्व है , वो है चेतना। अपना सबकुछ होम कर दो चेतना को उठाने के लिए।
कृष्ण कह रहे हैं ‘ऐसे मैं जीता हूँ, ऐसे ही तुम जियो और कोई इच्छा रखनी ही नहीं है ।' निष्काम होने का अर्थ यही है कि एक ही कामना
रहे गी, क्या? चेतना को ऊपर उठाने की। चेतना जब ऊपर उठती है तो कृष्णत्व कहलाता है । तो कृष्ण की कामना रहे गी बस, और कोई
कामना नहीं रहे गी.

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