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भैरवी

िशवानी

गौरा पंत ‘िशवानी’ का ज म 17 अ टू बर 1923 को िवजयादशमी के दन राजकोट


(गुजरात) म आ । आधुिनक अ गामी िवचार के समथक िपता ी अि नीकु मार
पा डे राजकोट ि थत राजकु मार कॉलेज के ंिसपल थे, जो कालांतर म माणबदर और
रामपुर क रयासत म दीवान भी रहे । माता और िपता दोन ही िव ान संगीत ेमी
और कई भाषा के ाता थे । सािह य और संगीत के ित एक गहरी झान ‘िशवानी’
को उनसे ही िमली । िशवानी जी के िपतामह सं कृ त के कांड िव ान-पं. ह रराम
पा डे, जो बनारस िह दू िव िव ालय म धम पदेशक थे, पर परािन और कट् टर
सनातनी थे । महामना मदनमोहन मालवीय से उनक गहन मै ी थी । वे ाय:
अ मोड़ा तथा बनारस म रहते थे, अतः अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ िशवानी
जी का बचपन भी दादाजी क छ छाया म उ थान पर बीता । उनक
कशोराव था शाि तिनके तन म, और युवाव था अपने िश ािवद् पित के साथ उ र
देश के िविभ भाग म । पित के असामियक िनधन के बाद वे ल बे समय तक
लखनऊ म रह और अि तम समय म द ली म अपनी बे टय तथा अमरीका म बसे पु
के प रवार के बीच अिधक समय िबताया । उनके लेखन तथा ि व म उदारवा दता
और पर परािन ता का जो अद्भुत मेल है, उसक जड़ इसी िविवधमयतापूण जीवन म
थ ।

िशवानी क पहली रचना अ मोड़ा से िनकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पि का


म छपी थी । तब वे मा बारह वष क थ । इसके बाद वे मालवीय जी क सलाह पर
पढ़ने के िलए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई ि भुवन के साथ शाि तिनके तन भेजी
गई, जहाँ कू ल तथा कॉलेज क पि का म बां ला म उनक रचनाएँ िनयिमत प से
छपती रह । गु देव रवी नाथ टैगोर उ ह ‘गोरा’ पुकारते थे । उनक ही सलाह पर,
क हर लेखक को मातृभाषा म ही लेखन करना चािहए, िशरोधाय कर उ ह ने िह दी म
िलखना ार भ कया । ‘िशवानी’ क पहली लघु रचना ‘म मुगा ’ँ 1951 म धमयुग म
छपी थी । इसके बाद आई उनक कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन- म शु
आ, उनके जीवन के अि तम दन तक अनवरत चलता रहा । उनक अि तम दो
रचनाएँ ‘सुन ँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके िवल ण जीवन पर
आधा रत आ मवृता मक आ यान ह।

1979 म िशवानी जी को पद्म ी से अलंकृत कया गया । उप यास, कहानी,


ि िच , बाल उप यास और सं मरण के अित र , लखनऊ से िनकलनेवाले प
‘ वत भारत’ के िलए ‘िशवानी’ ने वष तक एक च चत त भ ‘वातायन’ भी िलखा
। उनके लखनऊ ि थत आवास-66, गुिल तां कालोनी के ार लेखक , कलाकार ,
सािह य ेिमय के साथ समाज के हर वग से जुड़े उनके पाठक के िलए सदैव खुले रहे ।
21 माच 2003 को द ली म 79 वष क आयु म उनका िनधन आ ।

आवरण : आ द य पा डे
ा फ स िडज़ाइनर । नेशनल इं ि ट् टयूट ऑफ िडज़ाइ नंग (NID) से िश ा ा ।
द ली म
अपना िडजाइ नंग टिडयो है ।
िशवानी

भैरवी

राधाकृ ण पेपरबै स
राधाकृ ण पेपरबै स म
पहला सं करण : 2006
छठी आवृि : 2015

© िशवानी सािह य काशन ा. िल.

राधाकृ ण पेपरबै स : उ कृ सािह य के जनसुलभ सं करण

राधाकृ ण काशन ाइवेट िलिमटेड


7/31, अंसारी माग, द रयागंज
नई द ली-110 002
ारा कािशत
शाखाएँ : अशोक राजपथ, साइं स कॉलेज के सामने, पटना-800 006
पहली मंिजल, दरबारी िब डंग, महा मा गांधी माग, इलाहाबाद-211 001
36 ए, शे सिपयर सरणी, कोलकाता-700 017
वेबसाइट : www.radhakrishanprakashan.com
ई-मेल : info@radhakrishanprakashan.com

BHAIRAVEE
Novel by Shivani

ISBN : 978-81-8361-069-8
साम ी

भैरवी
आ काश क नीिलमा मानो उस अर य को चीरती ई झपाटे से नीचे उतर आई थी ।
ाचीन वट और अ थ के धूिमल वृ मौन साधक क तरह अचल खड़े थे । वह
उस खुली िखड़क से, बड़ी देर से इ ह वृ को देख रही थी। या इन वृ क पि याँ
भी, अर य क मूल भयावहता से सहमकर िहलना भूल गई थ ? उसने करवट बदलने
क कोिशश क । जरा िहली क रग-रग म दद दौड़ गया । वह कराह उठी। उस दन
िससक म डू बे ए क ण िनः ास को सुनकर, कोठरी के कसी अँधेरे कोने पर लगी
ख टया से कू दकर थुलथुले बदनवाली एक ौढ़ा उसके चेहरे पर झुक गई ।
‘जय गु , जय गु ‘ क रट लगाते ए वह ौढ़ा अपना चेहरा, उसके इतने िनकट
ले आई क जदा- ककाम क महक, कसी तेज ग धवाली अगर क धूनी क याद ताजा
करते ए, उसक सु चेतना को झकझोर गई । उसने सहमकर आँख मूँद ल । बेहोशी
का बहाना बनाए वह लेटी ही रही । ौढ़ा सं यािसनी बड़बड़ाती ई एक बार फर
अपने अ धकारपूण कोने म खो गई।
ओफ, कै सी भयावह आकृ ित थी उस सं यािसनी क ! ऊँची बँधी गे आ मदाना
धोती, िजसे उसने घुटन तक ख चकर, कमर क िवराट प रिध म ही आँचल से
लपेटकर बाँध िलया था । परत म झूल रहे, न उदर से लेकर, तु बी-से ब धनहीन
लटके तन तक र -च दन का गाढ़ लेप, िजसक रि म आभा उसके खे खुरदरे
चेहरे को भी ललछ हा बना गई थी । एक तो मे दंड क अस वेदना, उस पर
सं यािसनी क वह रौ मू त । उसने आँख ब द कर ल , पर कब तक वा तिवकता से ऐसे
आंख मूँदे अचेत पड़ी रहेगी? या जीवन-भर उसे ऐसी ही भयावह भगवा मू तय के
बीच अपनी पंगु अव था िबतानी होगी? और फर उस भयानक कालकोठरी क
अमानवीय िन त धता ही उसका गला घ ट देने के िलए पया थी। देखा जाए तो वह
कोठरी थी ही कहाँ, कसी मालगाड़ी के ब द िड बे-सी संकरी गुफा थी, िजसक एक
दीवार को तोड़-फोड़कर एक न ही-सी टेढ़ी िखड़क बना दी गई थी । िखड़क भी ऐसी
क कभी अपने बं कम गवा से मु ी-भर ताजी हवा का झ का लाती भी, तो दूसरे ही
ण उसी त परता से, फटाफट अपने अनाड़ी जजर पट मूँदकर, दूसरे झ के का पथ,
वयं ही अव भी कर देती । कभी-कभी कोने म जल रही धूनी के धुएँ क कड़वी
दुग ध से उसका दम घुटने लगता, च दन के जी म आता क वह भागकर बाहर चली
जाए, पर भागेगी कै से?
उस दन, िववशता क िससक उस गुहा क नीची, झुक-झुक आती छत से
टकराकर, गु गजना-सी गूँज उठी थी, और वह चंिडका-सी वै णवी, उसके कु हलाए
आँसु से भीगे चहरे पर एक बार फर झुककर बाहर भाग गई । थोड़ी ही देर म कई
कं ठ का गुंजन, उसके कान से टकराने लगा, पर वह दाँत से दाँत िमलाए, आँख ब द
कए पड़ी रही । बादल से अधढके दूज के चाँद का थका-हारा-सा काश उसके पीले
चेहरे पर फै ला आ था। बड़े-बड़े मुँदे नयन क कोर पर टपक आँसु क बूंद गौर से
देखने पर नजर आ ही जाती थ ।
“देखा न? होश म आ गई है, होश म न आई होती तो आँख म आँसू आते? दो बार
तो मने इसे कराहते ए सुना ।” वही सं यािसनी कहे जा रही थी, “म तो कहती ँ
गुसाई, कह भीतर भारी गुम चोट खा गई है, आज आठवाँ दन है, पानी क एक बूँद भी
गले के नीचे नह उतरी- कसी क मोटर माँगकर इसे शहर के बड़े अ पताल म प च ँ ा
दो... ।”
“नह !” नगाड़े पर पड़ती चोट-सा एक-कठोर वर गूँज उठा, “यह मरे गी नह ।”
‘ जय गु , जय गु !” सं यािसनी कहने लगी, “गु का वचन या कभी िम या हो
सकता है? ये लीिजए, चरन नई िचलम भरकर ले आई, आप िव ाम कर । म तो इसके
पास बैठी ही ,ँ जब आपने कह दया क यह नह मरे गी तब फर हम कोई डर नह
रहा ।”
“ य री चरन, िचलम भरना भूल गई या ?” गाँजे के दम से अव गु का
वर चरन से बेदम िचलम क कै फयत माँगने लगा ।
“अरे भूलेगी कै से, असल म इस ससुरी क हमने आज खूब िपटाई क है ।”
सं यािसनी ने अपनी चौड़ी हथेली, ख टया पर टका दी ।
“ य , आज या इसने फर हमारी स मी चुरा ली?”
“और या! िगनकर पाँच पुिड़याँ धरी थ । आज जब आपक िचलम सजाने को
ढू ँढ़ने लगी तो देखा तीन ही पुिड़याँ ह । हम समझ गई । आिखर साँप का पैर तो सांप ही
ची ता है गुसाई, हमने हरामजादी को उजाले म ख चकर आँख देख तो एकदम लाल
जवाफू ल । बस चोरी पकड़ ली । स ह क पूरी नह ई और लगाएगी गाँजे का दम, वह
भी गु का गाँजा–बस तीन िचमटे ऐसे दए क पीठ पर गु का ि शूल उभर आया है
।”
“अ छा, अ छा, अब जो हो गया सो हो गया, हाथ-बाथ चलाना ठीक नह है,
माया! चलो सो जाओ अब, हम राघव ने बुलाया है, बदवान से कोई रामदासी
क तिनया आया है–हम कल तक लौटगे ।”
गु का कं ठ- वर क स मी के रं ग म रँ ग गया था... ।
खड़ाऊँ क मश: िवलीन होती खटखट से च दन आँख ब द होने पर भी गु के
िवदा हो चुकने के स ब ध म आ त हो सक । वै णवी उठी, और उसके उठते ही
उसक देह-ग रमा से एक कोने को झूला-सी बन गई मूँज क ख टया, एक बार फर
अपना स तुलन लौटा लाई । अब तक नीचे अतल जल म डू बती हलक पोटली-सी ही
च दन सहसा ऊपर उठ आई । थोड़ी ही देर म, कोने क ख टया से वै णवी के नािसका-
गजन से आ त होकर उसने आँख खोल ल । गगन क धृ ा चाँदनी, अब पूरे कमरे म
रगती फै ल गई थी । कृ पण वातायन से घुस आया हवा का एक उदार झ का उसे चैत य
बना गया । पहली बार, अनुस धानी दृि फे र-फे रकर उसने पूरे कमरे को ठीक से देखा।
कतनी नीची छत थी ! लगता था, हाथ बढ़ाते ही वह छत क बि लय को छू सकती है
। धुएँ से काली पड़ी ई काठ क उन मोटी-मोटी बि लय के सहारे , कई गे आ
पोटिलयाँ झूल रही थ , खूँ टय पर टँगी गे आ धोितयाँ, दो-तीन बड़े-बड़े दान क
ा -कं ठयाँ और काले िचकने कमंडल को देखकर, इतना समझने म उसे िवल ब
नह आ क वह वैरािगय क कसी ब ती म आ गई । अचानक उसक भटकती दृि
कोने म गड़े एक ल बे िस दूर-पुते ि शूल पर िनब हो गई । िनवात दीप क िशखा
हवा म झूम रही थी, ि शूल पर लाल और सफे द िचथड़ -सी न ह वजाएँ फड़फड़ा
रही थ और ठीक ि शूल के नीचे पड़े थे, तूपीकृ त नरमुंड ।
भय से च दन काँप उठी, बड़ी मुि कल से काबू म आए ए उसके होश-हवास फर
गुम होने लगे। या यह कसी कापािलक क गुहा थी या कसी मशान-साधक का
आ म?
सं यािसनी का नािसका-गजन और भी ऊँचे अवरोह के सोपान पर लसने लगा ।
ठं डे पसीने से तर-बतर च दन, सारी रात दम साधे, सतर लेटी रही । भोर होने से कु छ
पहले न जाने कब उसक आँख लग गई । आँख लगी ही थ क उसे लगा, कसी ने उसके
ललाट का पश कया है । न चाहने पर भी उसक आँख खुल ग । एक ह शी का-सा
काला चेहरा, उसक ओर बढ़ रहा था । काले चेहरे पर, अंगारे -सी दहकती दो लाल-
लाल आँख देख, शायद वह जोर से चीख ही पड़ती क सहसा मोती-से दमकते दाँत क
उ वल हँसी देखकर आ त हो गई । यह हँसी तो मै ी का हाथ बढ़ा रही थी ।
“भूख लगी है या?” ि ध हा यो वल के उ र म, िब तर से लगी असहाय
देह िसस कय म टू टकर काँपने लगी।
“िछ:–रोओ मत, ऐसे रोने से तबीयत और खराब होगी । को, मने अभी दूध
गरम कया है, जैसे भी हो, थोड़ा-ब त गुटक लो।”
थोड़ी ही देर म वह काँसे के चपटे कटोरे म भरकर दूध ले आई । सहारा देकर
उसने च दन को िबठाया और दूध का कटोरा उसके ुधातुर ह ठ से लगा दया । एक
ही साँस म वह पूरा कटोरा खाली कर गई। उस काली लड़क ने, बड़े य से उसे एक
बार फर िलटा दया।
“चुपचाप लेटी रहो, समझ ?” वह हँसकर कहने लगी, “म मं दर को झाड़-
प छकर अभी आती ,ँ थोड़ा समय लगेगा, मं दर जरा दूर है न, इसी से ।” वह अनगल
बोलती जा रही थी, “लौटते म तु हारे िलए सादी के के ले भी लेती आऊँगी। बाहर से
साँकल चढ़ाए जा रही ।ँ आज कोई है नह , गु महाराज बाहर गए ह और माया दीदी
अपने पुराने अखाड़े म गई ह, कल तक लौटगी, भगवान करे उनक नाव वह डू ब जाए
।” वह फर हँसने लगी ।
‘‘ य जी, तुम तो कु छ बोलती ही नह , गूँगी हो या?” इस बार उस काली
लड़क ने उसक ठोड़ी पकड़ ली । यह चंचल लड़क बस एक पतली-सी भगवा साड़ी
पहने थी और उसे भी ऊँचे बाँधे ए थी। साड़ी क पतली भाँज से झाँकते ए पु
यौवन क झल कयाँ देखकर च दन नारी होते ए भी लजाकर रह गई । क तु उस वन-
क या को, ल ा के िलए अवकाश ही नह था।
“अ छा जी, नई भैरवी–इतने दन तक या तुम सचमुच दन-रात बेहोशी म
पड़ी रही थ !”
च दन ने इस बार भी कु छ उ र नह दया... ।
“हाय राम, सचमुच ही गूँगी हो या? राम रे राम! ऐसा ग धव क रय का-सा
प दया और मुँह म एक छटंक जीभ नह दे पाया । वाह रे भगवान, वाह! इसी दु:ख
से तुम चलती रे लगाड़ी से कू द पड़ी थ या ?”
च दन असहाय क ण दृि से अपनी इस िविच अप रिचता सहचरी को देखती
रही।
“बाप रे बाप! िह मत तो तु हारी कम नह है जी! हमारा तो उस कलमुंहे इं जन
को देखते ही कलेजा धड़कने लगता है ।...और जानती हो, कहाँ िगरी थ तुम?”
सुना है, साँप को देखकर प ी म मु ध हो जाता है। कसी ऐसे ही म मु ध प ी
क तरह च दन इस बड़ी-बड़ी आँख वाली जंगली लड़क क ल छेदार बात म बंधकर
रह गई।
“ठीक जलती िचता से आधे गज क दूरी पर। जरा भी और तेजी से िगरी होत तो
घोषाल बाबू के लड़के के साथ सती हो जात ।” वनक या ने अपनी बात पूरी क और
जोरदार ठहाका लगाया ।
च दन को मौन देखकर उसने खुद ही बातचीत का िसलिसला आगे बढ़ाया,
“तु हारा भा य अ छा था, जो गु उस दन िशवपुकुर के महा मशान म, वट-तले
साधना करने चले गए थे । नवे दु घोषाल के जवान लड़के क अधजली िचता छोड़कर
ही लोग तु ह हवा म तैरती लाश समझ ‘भूत-भूत’ कहते भाग गए तो गोसाई तु ह क धे
पर रखकर आधी रात को ार खटखटाने लगे–मने ही ार खोला। पहले तो घबरा गई।
ऐसे मुदा घर लाकर तो कभी शव-साधना नह करते थे गु , फर आज क धे पर मुदा
कै से ले आए? फर तु ह मेरी ख टया पर सुलाकर लगे हाँक लगाने, ‘माया! माया!’–
माया ससुरी एक बार दम लगाकर फर या कभी इस लोक म रहती है ! नह उठी तो
मुझसे बोले, ‘देख चरन, अमावस के दन िचता के पास िगरी होती तो आ म को अपूव
तोहफा जुटता। जलती िचता, वह भी अकाल मृ यु- ा चारी त ण क िचता! पर
फर भी वयं िवधाता ने इस नई भैरवी को सादी प म पटका है, बीच मशान म,
वह िशवपुकुर का महा मशान, जहाँ दन हो या रात एक-न-एक िचता जलती ही रहती
है । तू इसक देखभाल करना, समझी ।’ और म रात भर तु हारे िसरहाने बैठी रही, सच
पूछो तो म तु ह मुदा ही समझे रखवाली कर रही थी । गु शव-साधना तो िन य करते
ही रहते ह– कशोरी के शव को, इस बार शायद धूनी रमाकर घर पर ही साधगे, पर
तु हारे कलेजे पर हाथ धरा तो जान गई क तुम मुदा नह हो ।”
“यह कोई मठ है या?” ीण वर म च दन ने पूछा और उसके के साथ ही
वह काली लड़क उससे िलपट गई, “तब तुम गूँगी नह हो–इतनी देर तक गूँगी बनी
य ठग रही थ जी?”
“तुमने मुझे कु छ कहने का अवसर ही कब दया?” इस बार च दन हँसी । सच ही
तो कह रही थी वह । बकर-बकर करती ई यह मुखरा लड़क चुप ही कहाँ ई थी?
“ या नाम है तु हारा?” च दन ने ही फर पूछा ।
“चरन, चरनदासी, और तु हारा?” उसक मोहक हँसी पलभर म उसके डू बते
काले ि व को स हाल लेती थी। मोटे अधर पर िथरकती मधुर हँसी का मोहक
माधुय तीखी नाक के रा ते चढ़कर उन बड़ी कणचु बी आँख म काजल क सुरमा-रे खा
बनकर सँवर जाता।
“ च दन । ”
“वाह, कै सा मेल खाता है तु हारी देह के रं ग से! इतनी गोरी कै से हो जी तुम? माँ-
बाप म से कोई अं ेज था या?”
“ य ?” च दन को हँसी आ गई, उसके सरल को सुनकर वह ण-भर को पीठ
क था को भी भूल गई।
“एक बार माया दीदी अपने पुराने अखाड़े के लोग से िमलने नैिमषार य गई थ ,
हम भी साथ थ । वहाँ सीतापुर के एक गाड बाबू अपनी पगली िब टया को भभूती
लगवाने लाते थे। एकदम तुम-सी ही गोरी थी। वह गाड बाबू थे िनखािलस साहब, मेम
थी काली-कलूटी और िब टया ऐसी गोरी-िच ी क छु ओ तो दाग लग जाए। चलूँ, अब
कह माया दीदी आ गई तो ब त िबगड़गी ।” वह आँचल को कमर से लपेटती चली गई

च दन एक बार फर अके ली रह गई । उसके जी म आ रहा था क वह एक बार
फर अपनी अचेतन अव था म डू ब जाए। एक अ ात भय क िसहरन रह-रहकर उसे
कँ पा रही थी । वह भागना भी चाहेगी तो कै से भाग पाएगी ? चार ओर गहन वन,
स मुख बाँह पसारे िशवपुकुर का महा मशान, अनजान प रवेश, िविच संगी-साथी ।
और फर इस पंगु अव था म पलायन कै से स भव होगा? उसने पलंग क पाट का
सहारा लेकर उठने क चे ा क । दो कदम चलने पर ही पैर डगमगाने लगे। वह पलंग
पर बैठकर हाँफने लगी; ले कन इस बात क खुशी ई क पीठ क ह ी िन य ही नह
टू टी है । य द टू टी होती तो वह या सतर चाल से ये च द डग भी भर पाती? वह एक
बार फर खड़ी ई । इस बार दीवार का सहारा लेकर वह ार तक चली गई । बड़े
आ मिव ास से, सधे कदम रखती वह पलंग पर लौट आई । पीठ म दद अभी था, पर
ह ी म इस बार वैसी अस शूल वेदना नह उठी । कु छ दन तक एका त म ऐसी ही
चहलकदमी करती वह िन य ही अपनी मांसपेिशय क खोई ई शि फर पा लेगी ।
इस सुखद अनुभूित से पुल कत होकर वह एक बार फर लेट गई ।
अचानक उसक दृि एक कोने म गै रक कथरी से बंधी टोकरी पर पड़ी । टोकरी
का ढ न जैसे कसी जादुई चम कार से िहलता-डु लता, मशः हवा म ऊपर उठता जा
रहा था । सहसा एक अदृ य झटके से ढ न नीचे िगर गया और कथरी क िशिथल गाँठ
को ठे लकर खोलता, एक काला चमकता नाग फन फै लाता, फू कार छोड़ता अपनी िचरी
ई जीभ लपलपाने लगा ।
च दन थर-थर काँपती सवथा अवश पड़ी रही। कुं डली खोलता िवषधर भयावह
प से फन फै लाए झूमने लगा । इस बार च दन अपनी चीख नह रोक पाई । उसी
चीख को सुनकर एक मू त ार पर आकर खड़ी हो गई ।
“ या बात है?” अं ेजी म पूछे गए को सुनकर वह च क उठी । सारी देह पर
भ म, कं धे तक फै ली, उलझी कु छ सुनहली कु छ भूरी जटाएँ, आर च ु और न देह।
“चीख य रही थ ?”
इस बार का उ र दया, वयं ु िवषधर क फू कार ने–
“ओह!” वह उदासीन सहसा ठठाकर हँसने लगा । कै सी अ भुत हँसी थी, जैसे
कसी ने ऊँची पवत- ेणी से ब त बड़ी िशला नीचे लुढ़का दी हो । “भोले के कं ठहार ने
डरा दया लगता है, य ?”
फर वह ल बी-ल बी डग भरता उसी िपटारी क ओर बढ़ गया। अब मानो वह
च दन क उपि थित भी भूल गया ।
“खाना माँग रहा है मेरा बेटा? लगता है, चटोरी चरन आज इसके िह से का सब
दूध पी गई, बेटे का काँसे का कटोरा तो रतो पड़ा है । यही नािलश कर रहा है न ?”
च दन का कलेजा धक् -धक् कर उठा । काँसे के कटोरे का दूध तो चरन ने नह , उसी ने
िपया था।
“आने दे चरन को।” वह कह रहा था, “आज उसक नीली देह को डसकर और भी
नीली कर देना अ छा?” फर उसे टोकरी से उठाकर अपनी न छाती पर लगाकर ऐसे
दुलारने लगा, जैसे वह सचमुच ही उसका लाड़ला बेटा हो। मूक नािलश करते नागराज
को अब उसने अपनी ीवा म लपेट िलया और कभी ेहपूण आ ासन से िविच
कं ठहार सहलाता, वह बाहर चला गया ।
“अभी बताशा डालकर दूध िपलाऊँगा अपने बेटे को ।”
फर अपने िवषधर पु को दूध िपलाकर या यह सुलाने लाएगा वह नंगा
अवधूत? और य द अपनी अंगारे -सी दहकती आँख चमकाता, उलझी जटाएँ फै लाता वह
अपना दुदा त चेहरा िववश पंगु असहाय पड़ी च दन के चेहरे से ही सटा बैठा तब? या
कर लेगी वह? कं ठहार से कं ठ का वामी तो कु छ कम भयावना नह था। उसका चेहरा
वह ठीक से नह देख पाई थी । उसने देखी थ के वल लाल आँख और भ मपुती छाती ।
गुफा म दूसरा ार होता तो वह अपने सम त मनोबल क बैसािखयाँ टेकती भाग
िनकलती । पर िजस ार से वह गया था, उससे वह जाती भी तो शायद अवधूत से ही
टकरा जाती ।
हवा के अ यािशत झ के -सा वह लौटा। हाथ म कटोरा और उसके गले म िलपटा
लाड़ला । उसने एक बार भी च दन क ओर नह देखा । दूध का कटोरा खाली होते ही
उसने उस त क क िचकनी मोटी देह ऐसे य से उतारी मानो हीर का हार उतार रहा
हो । फर इस ब मू य आभूषण को उसने तहाकर टोकरी म रख दया और तब च दन
ने एक आ यजनक नाटक य घटना देखी। अवधूत झुका, टोकरी म कुं डली मारे त क ने
िसर उठाया। अपनी जीभ वामी के अधर तक लाकर वह फर टोकरी म दुबक गया ।
मानव और उसके ज म-ज मा तर के श ु का मै ी-चु बन देखकर च दन क िव फा रत
दृि पल-भर को ि थर बन गई । वह एकटक उस औघड़ सं यासी को देखती रही ।
सं यासी ने टोकरी को बाँधा और धरा पर गड़े ि शूल के स मुख पालथी मारकर बैठ
गया। फर ण-भर म उसने इधर-उधर िबखरी ई अ वि थत लकिड़य का ि कोण
बना डाला। एक दीघ थायी धूनी क सृि कर पूरे कमरे को धुएँ से भर दया ।
सं यासी क अब तक अ प आकृ ित सहसा िखड़क खुलने पर प हो उठी। अंग-
भर म पुती भ म, आ यजनक प से ल बा कद और बैठने क अिडग मु ा देखकर लग
रहा था, जैसे धूल-गद के अ बार से ढक कोई धातव मू त हो । कमरे म रहने पर भी वह
जैसे बा ान से शू य था, िब तर पर पड़ी सु दरी च दन क उपि थित क ओर से
सवथा उदासीन। ग भीर चेहरा और उस गा भीय को चीरकर पूरे कमरे म फै ल रही
एक तेजोमय दीि । च दन एकटक उसे देखती जा रही थी । कै सा शा त चेहरा लग रहा
था, न ती णता, न ण-भर पूव चरन के ित उठ रहा ोध का भभका । अ भुत बाल-
सुलभ ि ध हँसी से रं गी भ मपुती आँख और उसी भ म के मैसेकरा से रं गे ए
लड़ कय के -से रे शमी बाल । कसे देख रहा था वह पागल योगी? अपने दुलारे त क
को, राख से ठं डी धूनी को या ि शूल के नीचे पड़े नर-कं काल के तूपीकृ त िपरै िमड को ?
उस िन वकार न ता को देखकर भी च दन को भय नह आ । बीच- बीच म वह
अपने ल बे िचमटे से बुझती धूनी क राख को उखेलता और अपनी िशशु-सुलभ हँसी से
चमकते ए चेहरे को नीचे झुका लेता । वह हँस रहा है, यह च दन उसक िहलती चौड़ी
पीठ को देखकर ही समझ लेती, पर कौन-सी मृित उसे ऐसे गुदगुदा रही थी? अचानक
एक झटके से वह जलती धूनी म िचमटे का कड़ा हार कर उठ गया । िचमटे क चोट से
जलती धूनी के मु ी-भर अंगारे पूरे कमरे म फु लझड़ी क बौछार से िबखर गए और
राख-िमि त धुएँ के गु बार से च दन का दम घुटने लगा । उसने आँख ब द कर ल ।
पता नह , अब यह पागल बाबा या कर बैठेगा ! आँख खुल तो धुआँ पूरे कमरे म
फै लता ार से िनकलने लगा था और उसी िवलीयमान धू रे खा को चीरती चरन हाथ
म पूजा क थाली िलए बढ़ रही थी ।
“लो, आज तु हारे भा य से सादी म खूब सारे के ले चढ़े थे ।” तीन-चार के ले
चरन ने उसक चारपाई पर डाल दए। फर वह उकसाई गई धूनी को देख घबरा गई,
“हाय राम! गु या आज अबेला ही लौट आए? लगता है, आज मशान म कोई
अभागा फुँ कने नह आया । और ज र इस कलमुँहे ने मेरी नािलश क होगी । य है
न?” ब द िपटारी क ओर उसके इं िगत को च दन समझ गई ।
“इसके िह से का दूध तुमने मुझे य िपला दया, चरन?”
च दन के पास ही थाल रखकर, चरन ध म से बैठ गई ।
“अ छा तो गु महाराज लौट आए । अब वह लौट आए ह तब माया दीदी भी
आती ही ह गी । उ ह तो उनके आने और जाने क खबर जैसे हवा से िमल जाती है ।
फर तु हारे पास मुझे वह बैठने देगी? अ छा अब बताओ जी, तुम रे लगाड़ी से खुद ही
कू द गई थ या कसी ने धके ल दया?”
कदली- ास सहसा च दन के गले म अटक गया । उसे लगा, वह इस वन-मृगी-सी
आँख वाली सरल वनक या के स मुख िम या भाषण नह कर पाएगी । पर वह कु छ
उ र देती, इससे पहले ही ि शूल के घुँघ छमकाती माया दीदी ार पर खड़ी हो गई ।
“म जानती थी, खूब जानती थी ।” माया दीदी ने अपने पु ष-कं ठ- वर क
व क ं ार से पूरी गुफा गुँजा दी, “यह तु हारे पास बैठी बात मार रही होगी । आज
मंगलवार है, मि दर म एक ही बजे भीड़ जमा हो जाएगी–बुहार आई या नह ?”
अ स , अबा य मु ा म चरन हाथ बाँधे बैठी रही । वह कब क मं दर हो आई है,
यह सब उसने नह कहा ।
“भूखी- यासी दो मील चलकर आ रही ँ ।” माया दीदी कहने लगी, “पर इस
अभागी के रहते मुझे इतना भी तो सुख नह क यह मुझसे इतना तो पूछ ले, ‘दीदी,
तुमने कु छ खाया या नह ?’ इसी से चलने लगी तो बहन ने साथ चबैना बाँध दया ।
कहने लगी, ‘दीदी, वह कलूटी तो मुझे पानी को भी नह पूछेगी–तेरा खाया-िपया न
िनकाल ले, वही ब त है ।’ ”
फर उसने अपनी पु जाँघ पर गे आ पोटली धरकर, मोटी - मोटी चने क
रो टयाँ िनकाल ल , बीच-बीच म अचार क फाँक चाटती, वह एक के बाद एक मोटी
रो टय क गुंिजया-सी बनाकर उदर थ करने लगी तो च दन क ुधा अचानक
दयहीन श ु बनकर उसके िजहा पर चढ़ आई । उसके जी म आया क वह उसके
हाथ से रोटी छीनकर खा ले। शायद उसक लोलुप ुधातुर दृि क याचना वै णवी ने
भी देख ली।
“ य जी, ऐसे या देख रही हो ? खाओगी या? आज तो खूब होश म हो, य ?”
फर उसने ं या मक हँसी से उसे छेदकर एक रोटी ऐसे थमाई, जैसे दीन-िभ ुक क
झोली म बड़ी अिन छा से अपने मुख का ास डाल रही हो, क तु च दन क ुधा के
िवकराल सवभ ी प के स मुख आ मस मान कसी कायर िम क ही भाँित दुबककर
अदृ य हो गया था । उसने लपककर रोटी थाम ली ।
“लगता है, चटोरी चरन ने तु ह कु छ नह िखलाया ।” वह कहने लग , “अपने को
तो जब देखो तब, कु छ-न-कु छ चरती रहती है, यहाँ पेट नह भरा तो भागती है उस
गोपिलया क दुकान पर।”
सब रो टयाँ खाकर, माया ने माल िहला-िहलाकर रो टय का चूरा हथेली पर
रखा और फॉक गई, फर िवलि बत लय म दो भावशाली डकार लेकर चरन को
पुकारा ।
“ऐ चरन, चल इधर, एक पल बैठ नह सकती या? जब देखो तब चौके म । अब
या फॉक रही है वहाँ?”
चरन उसी अबा य मु ा म मुँह फु लाए खड़ी हा गई । “सुन!” माया दीदी खड़ी
क उनका आ यजनक प से ल बा मदाना कद और गढ़न देखकर च दन अवाक् रह
गई । रात के गहन अ धकार म बेहोशी क अटपटी चेतना म जो वै णवी उसे
महाकु ि सत लगी थी–वह या यही थी? या दन के उजाले ने उस पर सहसा जादू क
डंडी फे र दी थी? शा त ि ध दृि , साँवला होने पर भी सलोना चेहरा, जैसे तांबे का
खूब िघसा-मँजा लाल-लाल चमकता कसी मि दर का कलश हो । उठे कपोल पर
िनर तर चबाए जा रहे बँगला पान क नशीली रि म आभा, नुक ली ठोड़ी पर तीन-
तीन बुँद कय म खुदा गोदना और माथे पर उससे मेल खाती एक नीलाभ ल बोतरी
िब दी, जो श त’चमकते ललाट को समान भाग म िवभ करती माँग को पश कर
रही थी। उसी के नीचे र -च दन का टीका। शरीर भरा-भरा था, जो वयस के वाध य
से िशिथल होकर कह -कह सामा य परत म झूलने भी लगा था, क तु चेहरे क दीि
ने जैसे बढ़ती वयस क प पदचाप सुनकर भी अनसुनी कर दी थी । आंख म काजल
क मोटी रे खा । मोटी गठनवाले िवलासी अधर से उठता खुशबूदार जद का भभका ।
ा के वीच-बीच गूँथे एक रं गीन मनक के दाने । प रपाटी से सँवारा गया जटाजूट
का जूड़ा और उसम लगा धतूरे का पु प । सब मानो उसके िवराग के रे िग तान म य से
बनाए गए नखिल तान थे । वह चेहरा यौवनकाल म िन य ही कसी भी णयी पु ष
को रझा लेता होगा। चेहरे म सबसे बड़ा आकषण था लाल डोरीदार रसीली आँख का!
एक बार उन आंख से आँख चार होने पर कोई भी सहज ही आँख फे र नह सकता था ।
‘‘खबरदार !” चरन ने च दन को बाद म सावधान भी कर दया, “कभी भी माया
दीदी क आँख क ओर देखकर कसी चीज के िलए हाँ मत कहना । वह तो
िस योिगनी है, आँख ही के भाले से सबको छेदकर रख सकती है ।”
सचमुच एसा ही ि व था माया का । जैसे च सठ योगिनय के मि दर क
आ मा ही वयं साकार होकर उस अर य से अवत रत हो गई थ । ताि क क शि
हो, िव ा-अिव ा, ान-अ ान, योग एवं भोग को मु ी म ब द कर पल-पल म अपनी
यौिगक बाजीगरी से च दन को छलने लगी। कभी उन सरल आँख म वा स य छलक
उठता, कभी छलकने लगती असीम क णा, पर दूसरे ही पल वही ि ध चेहरा कठोर
बन उठता। चरन क ओर वह िश ूल तानकर डा कनी, शा कनी का प धारण कर
खड़ी हो उठती। आँख से ऐसे अि बाण छू टते क लगता अभागी चरन भ म हो
जाएगी। उसी ोध क लपट पर पानी उँ ड़ेल देती थी अवधूत वामी क आकि मक
उपि थित। जादू क छड़ी फे रकर वह उसे कशोरी बना देता तो च दन को अपनी आँख
पर िव ास ही नह होता । वह या व देख रही होगी? कहाँ गई वह ोध क लपट
से वीभ स बनी झुलसी ौढ़ा? यही तो था योिगनी का स ा प । कभी सुर-सु दरी
नाियका और कभी पावती मातृ- व पा गौरी। यही तो है िस योिगनी क ताि क
िवजय । नंगे अवधूत क स ी सहचरी, महामाया, महािव ा, धूनी-धू से अव
अवस मुसकान । न वह ान क उपािसका थी, न वेद क । संसार क माया उस
योिगनी के िलए मृग-मरीिचका थी, क प-िवक प के जाल म वह उलझती ही कब थी !
आकाश गगन, िस कु ल क यासाधना, कुं डिलनी-जागरण, षटच , काया-साधन, सबके
बाघ मारकर अब वह बाघ बर पर बैठ चुक थी, क तु जीवन का सबसे बड़ा दु:ख तो
छाती पर िशला बनकर रात- दन उसे धरातल म धँसा रहा था । गु थे िस ामृत माग
के अनुयायी । तृषा ा ता िस योिगनी अमृत-वा णी के वग-कलश को दूर से ही
िनहार सकती थी, िनकट आकर पश कर भी लेती तो वामी के तेज से भ मीभूत हो
जाती–यह च दन ब त दन बाद जान पाई ।

चरन को ताजी िचलम लाने का आदेश देकर माया दीदी दीवार का सहारा लेकर बैठ
गई, “वाह, खासा चेहरा पाया है तुमने।” वह बोली, “पर देखो, बात साफ कहनी ही
हम पस द है । यह है अघोरी गु का आ म! दस तरह के औघड़ अवधूत जुटते रहते ह।
ऐसी दहकती आँच म भला हम घी रख सकती ह।” फर माया दीदी क अध मीिलत
दृि , एक ीण रे खा म खो गई ।
“यहाँ, हम ऐसी पवती भैरवी को भला कै से रख पाएँगी ? इस अभागी चरन को
ही दूसरे अखाड़े म भेजने का ब ध कर रही थी, दूसरी मुसीबत तुम आ गई ।” उसका
वर अचानक एक झंकार से झंकृत हो उठा । पल-भर चुप रहकर, वह फर से जद
का पीक गुलगुलाती कहने लगी, “हम दोन ानी दन-रात तं -मं क िसि य म
मसान म भटकते ह ।” मसान का उ लेख करते ही उस कपालकुं डला का पूरा चेहरा
बदल गया । वर अ य त मधुर बनता कोमल ग धार को छू ने लगा ।
“चलने- फरने लगोगी तो तु ह अपनी गु -बहन के अखाड़े म प च ं ा दूग
ँ ी । कह
िच ी-प ी या तार भेजकर कसी को बुलाना चाहो तो वैसा ब ध भी हो जाएगा ।”
पर कसे बुलाएगी वह– कसे?
वह तो सोच रही थी, इस सँकरी सुरंग-सी वैरा य गुहा म, एक बार उसने एक
नया ज म ले िलया था । आ मीय वजन से दूर वह एक नये जीवन का सू पकड़कर
वैरा य-सोपान पर कदम रखती िनभय बढ़ती चली जाएगी । पर माया दीदी का आदेश
प था । वह इस गुहा म वेश पाकर भी थायी प से नह रह पाएगी। जो जननी,
उसक िवदा के दन रोती-कलपती, पछाड़ खाती, उसक डोली के पीछे, दूर तक
भागती चली आई थी, वह या उसे अब जीिवत पाकर भी छाती से लगा पाएगी? और
फर या माँ क ही भाँित, उमड़ते यौवन क वेगवती धारा को, संयम के बाँध से
बाँधती, समाज से मोचा ले पाएगी? मशः अंधकार म डू बती, उस एका त िनजन
कालकोठरी म, एक साथ तीन-चार दानव क ेताकृ ितयाँ उसके इद-िगद घूमने लग ।
िवषा चु बन क मृित रे तीले िब छु के -से डंक-सी, उसके सवाग क िशरा को
झनझना गई । अपने जीवन का यह अिभश प र छेद खोलकर वह न अपने िपतृकुल
क मिहमा धूिमल कर सकती थी, न सुरकु ल क । चाहे अघोरी अखाड़ा हो या
व लभी, अनजाने अनचाहे कं ठ म पड़ गई ा क माला ही, अब उसका मंगल-सू
थी और गु के हाथ क लगी िचताभ म क भभूत ही उसके सीमा त क िस दूर रे खा ।
माया दीदी बड़ी देर तक नह लौट , साथ म चरन को भी लेती गई थ । च दन
अब इस एका त क अ य त हो गई थी । दवस का अवसान आस ाय था, पर अब
तक दोन नह लौटी थ । अ धकार गुहा को ाय: िनगल चुका था, पर बीच-बीच म
िनर तर जल रही धूनी के बीच वयं सुलगती-बुझती लुकाटी के धुएँ क एकाध कड़वी
घूँट, उसके कं ठ-तले उतर जाती और वह अजीब घुटन से भर जाती। बि लय से झूल
रही गै रक पोटिलय का च दोबा ल बी झालर क भाँित हवा म मंडलाकर फहरा रहा
था । िखड़क से आती, म वा क मादक सुग ध और दूर के मि दर से उसी हवा क
सुग ध के साथ तैरती आ रही घं टय क नुकझुनुक म वह अपनी सम िच ता भूल
गई । यही तो सुख है इस अनजाने वैरा य के तहखाने म डू बने का। यहाँ कभी कोई नह
जान पाएगा, वह कौन है ? वह िववािहत है या कु मारी? वह रे लगाड़ी से य कू द गई–
कौन-सी ऐसी िवपि पड़ी थी उस पर? जैसा ही िविच प रवेश है यहाँ का, वैसे ही
िज ासािवहीन, कु तूहल-शू य संगी-साथी । चुलबुली चरन ने एक बार भी अपना धृ
फर नह दुहराया–और माया दीदी? मायािवनी! अखंड सि दान द क िविच
उपािसका ! वह या लेशमा भावुकता को भी सह सकती थी? उसके िलए भावावेश
का थान ही कहाँ था ? वह कु छ भी जानना नह चाहती थी, शायद इसिलए क वह
वयं ही िबना कसी के कु छ बतलाए, अपनी द ाण-शि से सबकु छ सूँघ सकती
थी। यही नह –अपनी स धानी दृि क हथकिड़य म बाँधकर यह वष के फरार खूनी
से भी, उसका अपराध वीकार करा सकती थी।
“अनजाने म कया गया पाप, पाप नह है, भैरवी!” उसने एक बार दवा- व म
डू बी च दन से कहा तो वह ऐसे च क पड़ी, जैसे गम लोहे से दाग दी गई हो ।
कै सी अ भुत दृि से माया दीदी ने उसक त वीर उतारकर सामने रख दी थी,
“तुमने या जान-बूझकर पाप कया था, जो कू द ग ? मूरख हो तुम, भैरवी! ऐसा
चेहरा देखकर कोई प थर दल मरद भी तु हारे सात खून माफ कर देता– फर वह तो
तु हारा प-िपपासु पित था। तु ह हथेली पर िबठाकर रखता । खैर...अब तो गु ने
िचताभ मी टेक दी है, अब इस ललाट पर िस दूर का टीका कभी नह लगेगा।” एक
ल बी साँस ख चकर, माया दीदी चली गई। गला न जाने य अव -सा हो गया था।
सुना क उसक अचेतनाव था म ही, गु उसके िहमशीतल ललाट पर िचताभ म
का टीका लगा गए थे । िशवमि दर म िति त ा क माला उसे अपने हाथ से
पहनाकर, बड़ी देर तक उसे टु कुर-टु कुर देखते भी रहे थे ।
“ ‘दी ा के बाद नाम या धरा, गोसा ?’ माया दीदी ने पूछा था–‘भैरवी’, गु ने
कहा और माया दीदी का चेहरा एकदम बगनी पड़ गया। खूब मजा आया हमको ।”
चरन ने ही सब उससे कहा था ।
“ य ?”
“लो, पूछती हो य ? या अपना चेहरा कभी आईने म नह देखा? गोसा ने तु ह
अपने हाथ से कं ठी पहनाई–नाम दया–भैरवी, फर टु कर-टु कर देखते रहे, इसी से माया
दीदी जल-भुन गई। अभी भी नह समझ ?” इस बार वह िखलिखलाकर हँस पड़ी थी।
“नह तो चालीस बरस क उमर म घर-दुआर, भरी-पूरी िगर ती, तीन-तीन बेट , और
मािलक को छोड़कर, इनके पीछे मसान घाट क धूल छानती?
“कभी-कभी रात-रात-भर-गु के पीछे मसान घाट म घूमती रहती है । कभी
िशवमि दर म कुं डिलनी जगाकर, भूखी- यासी प थर क मूरत बनी ऐसे बैठी रहती है,
जैसे परान ही िनकल गए ह । बीच-बीच म िचलम भरकर मुझे वह प च ँ ानी होती है ।
दोन के हाथ म िचलम थमाती ँ तो लगता है, अथ म बँधे दो मुद ही खुलकर आमने-
सामने बैठ गए ह । िचलम के अंगार -सी ही लाल-लाल आँख और तमतमाता चेहरा ।
कै सी बदल जाती है माया दीदी! मेरी तो देह ही थरथरा जाती है । घर लौटकर ार
ब द कर काँपती बैठी रहती ।ँ कभी-कभी दोन तीसरे -चौथे दन इस लोक म लौटते ह
।”
“यहाँ इतना डरती हो तो भाग य नह जात ?” एक दन च दन ने उससे पूछा
और वह चोट खाई स पणी-सी ही उसक ओर पलटी और ि थर दृि से च दन उसे
देखने लगी थी, “जब तुम चलने- फरने लगोगी तब यही म एक दन तुमसे पूछूँगी,
भैरवी–देख,ूँ तुम या कहती हो?”–और सचमुच ही महीने-भर बाद जब चरन ने उससे
एक दन यही पूछा तो वह कोई उ र नह दे पाई ।
अघोरी आ म म आए उसे दो महीने हो गए थे । उस दूसरे अखाड़े म भेजने क
धमक को शायद माया दीदी वयं ही भूल गई थ । रात को माया दीदी उसे अपने ही
साथ सुलाती थ , चरन भी उनके पायताने सोती थी । कभी-कभी आँख खुलत तो
देखती, दोन िब तरे से नदारद ह। पहले दन तो भय के मारे , उसका बोल भी नह
फू टा था । उस अनजान खंदक-खाई म िछपा कोई श ु ही अचानक उसे दबोच बैठा, तो
वह कर ही या लेगी ? एक बार सौभा य-क पत िव ुत-बिहन के आकि मक व पात
म जड़ तक झुलसकर ठूँ ठ मा रह गया था, इसी से अब सामा य मेघखंड के बीच
चमकती िबजली क तड़प भी उसे थरथर कँ पा देती।
कहाँ गई ह गी दोन ? कह जान-बूझकर ही तो उसे नह छोड़ ग ? या पता, उस
नंगे अवधूत से ही कोई साँठ-गाँठ हो? ‘तु ह एकटक देख रहे थे गोसा !’ चरन ने कहा
तो वह ल ा से लाल पड़ गई थी । िछः-िछ:, उ ह ने उसे अपने हाथ से ा क कं ठी
पहनाई थी, के वल नौ हाथ क भगवा धोती म िलपटी उसक अरि त देह और उस पर-
पु ष का पश अके ले म, यह सब सोचकर उसका मन न जाने कै सा-कै सा हो जाता।
कभी-कभी सारी रात ही आशंका म कट जाती । दन िनकलने से कु छ पहले दोन
लौटत , चरन अाकर चुपचाप अपनी ख टया पर लेट जाती, पर माया दीदी बड़ी देर
तक ख टया पर बैठी एकटक न जाने खुली िखड़क से कसे देखती रहत । उनका चेहरा
एकदम कसी कु शल ब िपए के चेहरे -सा रं ग बदलने लगता । धूप म तपे ता पा -सा
दमकता चेहरा, कपाल पर चढ़ी आँख, ऊँची जटा पर लगा धतूरे का पु प और ि ितज
म खोई ई परलोक क दृि !
‘क हे माया दी, आनबी को ।’
चरन उनसे बंगला म ही बोलती। वैसे भी माया दीदी क िह दी म बंगला ही का
पुट रहता। िबहार के छपरा िजला क लड़क थी, पर पहले गु का अखाड़ा था िजला
बदमान म । वीरभूिम के मीठे लहजे म ही कभी-कभी च दन को पुकारती थी ‘लतून
भैरवी’ (नूतन भैरवी) कहकर । ‘ ?ँ ’ माया दीदी के का क ं ारा ऐसी भयावह मक
से गुहा म गूँजता क कोने म लेटी च दन क छाती से लेकर पेट तक, भय से असं य
डम डम-डम कर बजने लगते।
‘पगला गई है या? ऐसी आँख या साधारण मानवी क होती ह?’ और उस दन
फर च दन क पाँच अँगुिलयाँ घी म रहत । दन-भर एक के बाद एक कई िचलम पर
दम लगाती माया दी, इस लोक से ब त ऊपर उठती सीधे ांड म प च
ँ जात ।
उस दन भी यही आ, रात-भर क साधना माया दी क लाल-लाल आँख म
उतर आई थी । जूड़ा िशिथल होकर चौड़े क ध पर झूल रहा था । गु क धूनी िनर तर
धधक रही थी, क तु गु थे ही कहाँ? िपछले तीन दन से वह अपने लाड़ले को दुलारने
भी नह आए थे । चरन लाख जबान चलाने पर भी माया दीदी क वाभािवक अव था
रहने पर एक ग सा रोटी का भी िबना पूछे नह िनगलती थी । ले कन उ ह इस
यानाव था म देखकर वह ठाठ से िसल पर लहसुन क चटनी पीस रो टय के थ े का
थ ा साफ कर गई । च दन के िलए भी चटपटी चटनी से सजाकर रो टय का एक थ ा
ले आई ।
माया दी बाल-सुलभ हँसी से दी अपनी उ वल दृि पीपल के पेड़ पर टकाए,
चुपचाप बैठी थ । चरन उनक इसी यानाव था का मनमाना लाभ उठा रही थी।
उनके ही सामने, उसने पहले उनके ‘ल मी िवलास’ सुगि धत के श-तेल से छपाक् -
छपाक् अपने खे बाल को रसिस कया, फर उनक गे आ पोटली से छािलय और
सुगि धत ता बूल मुखरं जन मसाले क गहरी चुटक भरकर िनकाली । चाँदी क काजल
क िडिबया से काजल िनकाल अपनी बड़ी-बड़ी आँख को आँजा, काले ललाट क
मिहमा को एक बड़ी-सी काजल क िब दी लगाकर और भी गहन बना हँसती-हँसती
च दन के पास आकर बैठ गई ।
“ऐसा य कर रही हो, चरन? माया दी सब देख जो रही ह !”
“तो या हो गया, तुम या समझती हो, वह इस लोक म ह? सं या छह-सात बजे
तक ऐसी ही रहगी। बड़ा मजा है–चलो, य न आज तु ह मि दर दखा लाऊँ? माया दी
आज घर का पहरा दगी, ह न माया दी ।”
और वह धृ ा सचमुच ही उनके स मुख घुटने टेककर पूछने लगी थी । उ र म
माया दी का साँवला चेहरा, अनुपम हँसी से उ ािसत हो उठा ।
ार ब द कर वह उसे बाहर ख च ले गई । कतनी मोड़-मरोड़वाली पतली
पगडंिडय के गड़बड़झाले के भूल-भुलैया क -सी परत के बीच, चरन उसे मजबूत डोरी
से बाँधकर ख चने लगी । आमलक के गहन वन, हरीतक क हरीितमा, कह -कह
अर यपाल से खड़े ना रयल के रौबदार वृ , और कह वेणुवन के झुरझुट से बहती,
खोखले बाँस के र को भेदती वंशी क -सी मीठी मुखरा बयार। गहन अर य का जो
थान, च दन क िव फा रत मु ध दृि के स मुख वयं खुलता चला जा रहा था, उसे
छापने, रँ गने और सँवारने म कृ ित ने या कु छ कम प र म कया था? जवापु प के
रि म वैभव से लदे-फदे ठगने कतारब पेड़ क पंि , शेष होते ही वयं कृ ित के
द हाथ से सजे, मालती लता के कई गुलद ते, एक टू टी-सी मजार के स मुख एकसाथ
िबखर गए थे। मजार पर जलती ई लोबान का सुगि धत धुआँ उस अर य के ओर-छोर
सुवािसत कर रहा था। बड़े भि भाव से, चरन ने आंचल से मजार पर िबखरे सूखे प े
झाड़े, फर दोन घुटने टेककर, णाम करती उठ गई ।
“चाँद बाबा क मजार है यह । हर शु वार को दूर-दूर से लोग आकर यहाँ म त
के डोरे बांध जाते ह । कहते ह : यहाँ क बँधी डोरी कभी झूठी नह होती।”
सचमुच ही मजार के जालीदार पाय पर, असं य रं ग-उड़ी नई-पुरानी डो रयाँ
बँधी थ ।
“वह पीली जरीदार डोरी देख रही हो न? वह हमारी माया दी क है ।” चरन
कहने लगी, “एक दन म िछप-िछपकर देख रही थी । वह खूब लोट- लोटकर रोती रही
थ यहाँ । म जानती ,ँ या माँग रही थ लोट-लोटकर ।” वह दु ता से मु कु राने लगी,
“डोरी बाँधने से या होता है? गोसाई तो कभी आँख उठाकर नह देख सकते, वह दूसरी
लाल डोरी हमने जो बाँध दी है ।”
मजार के पास खड़ी च दन के नाक-मुँह म लोबान का तेज खुशबूदार धुआँ,
महराब से छनकर घुसा, उसका माथा घूम गया । या सचमुच ही उस िन वकार
अवधूत के ेम म िव वला, इन दो सौत के बीच उसे अपना जीवन गुजारना होगा?
“चलो, अभी तो मि दर ब त दूर है, पता नह गोपाल खैपा (पगला) भी कह हाट-
बाजार न गया हो, तब तो चाय का एक याला भी नह जुटेगा, य ?”
च दन को भी बड़ी जोर क यास लग आई थी — वैसे भी वह तुलसीदास क
साि वक चाय पीकर ऊबने लगी थी।
“वह या मि दर का पुजारी है?” उसने फर पूछा ।
“नह जी ।” हँसकर चरन ने चाल तेज कर दी क च दन हाँफती-हाँफती उसके
पीछे भागने लगी।
“उस मि दर का कोई पुजारी-वुजारी नह है । वह तो मशान का चांडाल है ।
वह पर चाय-पानी क छोटी-सी दुकान भी करता है । खासी िब हो जाती है । पर
मूरख धेले-पैसे का िहसाब रखना नह जानता । और कोई होता तो हजार क माया
जुटा ली होती । मने तो कई बार कहा, ‘अरे िमठाई- िवठाई, के क-िब कु ट भी रख िलया
कर न दुकान पर । न हो तो खूब याज- िमच डालकर पकौिड़याँ ही एक थाल सजा
िलया कर। मुदा फूँ क-फाँककर, थके -मादे हारे जुआरी दो घड़ी चटपटी चीज खाकर,
सु ता ही लगे ।‘ पर अभागे के दमाग म तो िनरा गोबर भरा है। बोला, ‘सूतक म भला
कोई याज खाएगा! कै सी बात कर रही है तू?’ अब कौन समझाए उसे? अरे , इसी
मसान म सगे छोटे भाई को फूँ ककर, पीपल-तले बैठे एक बड़े भाई को बोतल खोलते भी
देख चुक ।ँ हँसी-मजाक सबकु छ चलता है यहाँ । िचता पर चढ़नेवाली क हिड् डय के
अंगार बनने से पहले ही, एक बार पास म खड़े उसके पित से कसी को यह कहते भी
सुन चुक –ँ ‘ य इतना दु:ख ले रहे हो भाई–तु हारी अभी उ ही या है । मेरी एक
िववाह-यो य भानजी है, देखने म सा ात ल मी!’ जी म आया, ससुरे भानजी के मामा
को, उसी जलती िचता म धके ल दूँ । अरे अभागी को पूरी तरह जलने तो दे, हरामी!
कौन कहता है, मसान म बैराग उपजता है?”
“तुम या अकसर यहाँ आती रहती हो?” अवाक् होकर च दन ने पूछा तो वह
हँसने लगी।
“हाँ, जी हाँ, म ही नह अब तुम भी यहाँ अकसर आया करोगी । जब गोसाई यहाँ
साधना के िलए आते ह, कई बार िचलम प च ँ ानी होती है, फर माया दी बार-बार कह
देती ह, ‘देख चरन, वह बनी रहना, कशोरी सािधका ह, गु क साधना का फू ल । तू
वह बनी रहेगी तो साधना पूण होगी गु क ।’ गु तो बैठे रहते ह, जैसे प थर क मूरत
। उ ह िचलम थमाकर, इसी पीपल क ओट ये यह नाटक देखती ।ँ कभी-कभी खैपा
देख लेता है तो यह चाय प च ँ ाता है। दमाग का कोठा तो खाली है अभागे का, पर
दल का पूरा िसक दर है। एक शीशी म इलायची, दालचीनी, स ठ, न जाने या- या
कू टकर रखता है । कहता है, पेशल चाय बनाता ँ तेरे िलए। वैसे है हरामी, एक न बर
का मजा कया, होटल का नाम धरा है–‘ मशान िवहार’ ।’’
थककर च दन बुरी तरह हाँफने लगी थी ।
“बस, इतने ही म थक गई!” चरन ने आँचल से एक बड़ा-सा प थर प छकर उसे
िबठा दया और वयं भी उसके पैर के पास बैठ गई ।
“म तो कभी उसे ाहक के सामने ही खूब िचढ़ा देती ।ँ चाय एकदम ठं डी है, रे
खैपा! लगता है, आज कसी बुझी िचता के अंगार पर ही के टली धरकर उबाल लाया है
। झट हँसकर दूसरा याला बना लाता है । मजाल जो कभी मेरी बात का बुरा माने।
अके ले, माया दी को फू टी आँख नह देख सकता। कहता है, िजस दन तेरी माया दीदी
िचता पर चढ़ने आएगी, उस दन सब ाहक को एकदम फरी पेशल चाय िपलाऊँगा’
लो यह आ गई उसक दुकान । चलो, अ छा आ, खुली ही िमल गई ।”
“ओहे खैपा, कोथाय गैली रे ।”
(अरे पगले, कहाँ गया रे ?)
दुकान के पास ही लगे, ना रयल के सतर वृ क डािलयाँ िहल , और साँप-सा
सुरसुराता, ना रयल क -सी कठोर देह का खैपा हँसता आ उनके स मुख खड़ा हो गया
। पहले उसने चरन को देखा फर च दन को । धीरे -धीरे महाकु ि सत चेचक के दाग से
भरे चेहरे पर आ य, आन द और िज ासा क असं य झु रयाँ उभर आई ।
च दन िसहर उठी।
सामने फै ला, मरघट का सपाट मैदान, ीण से ीणतर होती नदी क म रयल
धारा, और फटे टाट के च दोबे के नीचे खड़ा मसान का वह िवकराल चांडाल ! “वाह,
वाह! आज तो एकदम ब ढ़या दुशाला पा गया है रे ! कस भागव ती ने िचता चढ़कर
यह चूनर थमा दी तुझे । मुझे दे देना रे , वटतला के मेले म, उस िछनाल से िछपाकर ओढ़
लूँगी तो नई दु हन-सी लगूँगी, देख तो, लग रही ँ न दु हन?”
सचमुच ही िचता पर स -द ध देह से िवलग क गई चूनर ओढ़ वह दुकान म लगे
टू टे दपण के स मुख खड़ी हो गई और झुक-झुककर अपना चेहरा देखने लगी, “अरे , या
करती है?” गोपाल ने घबराकर उसे अपनी ओट म िछपा िलया, “देखती नह , अभी तो
इसे पहननेवाली क आधी देह भी नह फुँ क । वे लोग देखगे तो या कहगे?”
पर वह धृ ा, दुःसाहसी कशोरी चूनर को मफलर-सा लपेटती, लोहे क टू टी
कु रसी पर बैठ गई ।
“अरे देखने दे, अभी उनके लौटने म देर है, फर सबक पीठ है हमारी ओर, चेहरे
नह । हाय-हाय, एकदम गोरी उजली है यह तो, कसके घर क िम ी है रे ? पैर तो
देखो, भैरवी!”
च दन ने अपने जीवन म पहली बार जलती िचता क ओर अन य त भयच कत
दृि फे री।
दो सफे द आलता लगे पैर छोटी-सी िचता का घेरा तोड़-फोड़कर ऐसे बाहर लटक
आए थे, जैसे गौर-चरणयुगल क वािमनी, अभी-अभी लपट क झुलस से ाकु ल
होकर िचता से नीचे कू द पड़ेगी ।
“न द बाबू क िब टया है ।” गोपाल कहने लगा, “अभी िपछले फागुन ही म तो
िववाह आ था । याद नह है तुझ,े इसी क शादी के तो स देश िखलाए थे। जापे के
िलए मायके आई थी। तीन दन छटपटाकर आज सुबह मर गई ।”
चरन ने हड़बड़ाकर चूनर उतार दूर पटक दी। िजसके याह के स देश का मीठा
वाद अभी भी िजहा पर था, उसी के महा थान क राही चूनर लेकर भला हास-
प रहास कै से कर गई वह!
च दन काठ बनी चुपचाप खड़ी रह गई । जलती िचता से आँख फे र ही नह पाई ।
अि क लपट, गौर-चरणयुगल को लीलने बढ़ और उसने दोन हाथ म मुँह िछपा
िलया ।
कभी अपनी माँ से सुना, एक ऐसा ही संग उसे मरण हो आया । पहाड़ के उ ेती
कु ल के नाम क मिहमा क द तकथा । न जाने कब कस बािलका-वधू क अज मा
स तान, ऐसे ही उसके ाण ले बैठी थी। पेट चीरकर मशान म िशशु िनकला था–
जीिवत । उसी का नाम पड़ा उ ेती। पता नह , घटना म स य का अंश भी था या कोरी
कपोलक पना; क तु या इस गोरे -गोरे सफे द पैर क वािमनी को भी, अज मा
गभ थ िशशु को देखने क ललक िलए ही िचता पर चढ़ना पड़ा? िचता को घेरकर खड़े
आ मीय वजन, कु छ पीछे िखसक आए थे ।
या तो, उसका िपता, िजसने एक साल पहले अि को सा ी कर, ाणािधका
क या का क यादान कया था, आज फर उसी िव ासघाती अि को सा ी कर, एक
बार फर क यादान करने, इसी भीड़ म िसर झुकाए िववश खड़ा है!
“ऐ खैपा!” चरन के तीखे वर को सुनकर च दन च क तो देखा, काले भूत-सा
खैपा, एकटक उसी को देख रहा है। चरन क पुकार सुन, वह अ ितम होकर के टली के
नीचे क आग उकसाने लगा । “कै से देख रहा है मरा तु ह! लगता है, सु दरी नई भैरवी
देखकर पुरानी क माया भूल रहा है । य , है न रे ? अ छा सुन, हम मं दर होकर
लौटगी तब तक ब ढ़या पेशल दो याला चाय तैयार रखना । और अगर तेरी िबरादरी
िवदा नह ई, भगवान न करे , कोई दूसरी बारात न जुटी तो िपछवाड़े, हमारी चाय
िभजवा देना ।”
वह च दन को ख चकर एक ढालू-सी पगडंडी म उतर गई।
कै सा आ य था क वही च दन, जो कभी सड़क पर िनकलती अथ क रामनामी
सुनकर माँ से िचपट जाती थी, रात-भर भय से थरथराती रहती थी, आज महा मशान
के बीच बीच जा रही सड़क पर िनःशंक चली जा रही थी। कह पर बुझी िचता के
घेरे से उसक भगवा धोती छू जाती, कभी बुझ रही िचता का दुगधमय धुआँ हवा के
कसी झ के के साथ नाक-मुँह म घुस जाता । ऐसी दुगध, जो कभी उसक पड़ोिसन के
भो टया चीके से आकर उसक माँ के साि वक नथुन को ोध से फड़का देती थी।
‘आग लगे इस अघोर ल याणी को, लगता है आज फर भेड़ भून रही है, दामाद
आ गया होगा।’ अ मा कहती और िखड़क पटापट मूँदती, उबकाइयाँ लेने लगती।
ितवेिशनी ित बती मौसी क चार बे टयाँ थ और चार दामाद भेड़ पर बसाते
ऊन क लि छयाँ, बदबूदार मोटे थु भे लादकर ापार को िनकलते और सास के यहाँ
अकसर पड़ाव करते रहते । उ ह जामाता वर के वागत म, पाँगती मौसी, पशम-
सिहत भेड़ भूनकर पूरा मुह ला बसा देती। पर आज च दन को वही प रिचत दुग ध
मायके क सुध दला गई । वह पल-भर ठठककर खड़ी हो गई । और चरन ने फर
झकझोर दया, “ऐ जी, चलो ज दी, वह रहा मं दर ।” मशान क ीण नदी क धारा
अचानक ही युवती बन गई, कसी कशोरी क देह क ही भाँित यहाँ मं दर के पास
आकर सहसा गदरा गई थी।
“साड़ी घुटन तक समेट लो और मेरा हाथ कसकर पकड़ लो, समझी? प थर पर
पाँव मत रखना, एकदम िचकने ह, फसलोगी तो फर महीना भर खाट पर पड़ी रहोगी
।” मि दर तक ही नदी क ल मण रे खा-सी खंच गई थी, और पानी भी तो गहरा था।
शीतल जल क दु:साहसी लहर, उसे मशः नीचे क ओर ख चने लग , और वह
घबराकर अपना स तुलन खो बैठी ।
लपककर, उसे कसी ने थाम िलया, मुड़कर देखा तो भय से आँख मूँद ल ।
आजानुबा य ने उसे थामकर सीधी खड़ी कर दया और इससे पूव क वह दोन तट थ
होत –उसे स हालनेवाला एक ऊँची छलाँग से, वनशावक-सा, झरबेरी क कं टकाक ण
झाड़ी क बाढ़ को लाँघ चुका था । कसी को कु छ न समझनेवाली चरन भी, पल-भर को
ह -ब सी रह गई, फर हँसकर च दन को गहरे पानी के बीच ख च ले गई ।
“डर य ग ? इनका तो यही हाल रहा है, न जाने कब कहाँ से सर साँप क तरह
रगते चले आएँ । ठीक ही तो कहते ह क साँप और सं यासी का घर या एक जगह
होता है । लगता है, हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे थे, मखमली पंजे ह इनके । एक दन
ऐसे ही मुझे च का दया ।”
च दन अभी भी उन दो ल बी बाँह के पश को नह भुला पा रही थी । के सी
उ बाँह थ दोन , जैसे धूनी म तपाए िचमटे क दो फाल ह ! या वार म ही बाहर
िनकल पड़ा होगा वह अवधूत? चरन ने जैसे उनके मन क भाषा पढ़ ली, बड़ी-बड़ी
आँख वाली इस चपल कशोरी को भी, या वामी क िसि का वरदान िमल गया
था।
“ य जी भैरवी, या सोच रही हो? हाथ खूब गरम-गरम लगे ह गे न गोसाई के ?
अरे , पहले दन िचलम थमाने म कु हनी से छू गई तो फफोला ही पड़ गया समझो । बाप
रे बाप! बाँह थ क चू हे म लगी लकड़ी का अंगारा । चाहो तो रोटी सक लो ।”
फर वह एक दीघ ास ख चकर एक वगत भाषण म डू ब-सी गई, जैसे वह
अके ली ही चली जा रही हो, “वह या हमारी-तु हारी तरह साधारण मानुस ह–एक
धूनी बाहर जलती है तो एक उसके भीतर । वैसी ही तप उठती ह कभी-कभी माया
दीदी! एक दन िचलम प च ँ ाने, वटतला ग , तो दोन आमने-सामने तने बैठे थे, जैसे
नाग-नािगन का जोड़ा । मने सुना, वामी उनसे कह रहे थे, ‘िशव िजसे शि कहकर
पुकारते ह, सां य परा कृ ित सूयपूजक महारजनी, बौ तारा, जैनी ी, ानी
वधा, वै दक गाय ी और अ ािनय क मोहनी, वही हो तुम महामाया महािव ा ।’
उधर माया दी क उस दन या अपूव पछटा थी, काले िछटके के श, कपाल म चढ़ी
आँख, लिलतासन म बैठी देवी क मू त-सी ही जगमगा रही थ –कहने लग , “तु ह मेरे
िशव हो गोसाई, और म तु हारी िशव शि ।” च दन उस जंगली-सी दीखनेवाली चरन
के पांिड यपूण लाप को सुनकर उसे देखने लगी ।
या यह अपढ़ लड़क अघोरी अखाड़े म झाड़-बुहार, िचलम सजाते ही यह सब
सीख गई थी?
गहरे जल म डू बती-िनकलती उसक काली चमकती सुडौल टाँग नील कमल और
चौड़े-चौड़े प के पाड़ क हावड़ाहाट क स ती मोटी धोती, िजसका पलास फू ल म
रँ गा रं ग कह गहरा और कह िचतकबरा-बाितक-सा बनकर उभर आया था, और
ब धनहीन व थल पर बड़ी उदासीनता से फहरा रहा आंचल, कृ ित क वन थली म
वे छा से िवचरण करती यह चंचल िततली–और ऐसी बात– या िन य सुन-सुनकर ही
रट गई ह गी ?
“यही है मि दर, पैर धोकर मेरे पीछे-पीछे चली आओ, िबना हाथ पकड़े नह आ
पाओगी ।” लोहे क मोटी जंजीर म लटका एक िवराट घंटा िहलाती चरन सी ढ़य पर
च दन के िलए धमककर क गई । घंटे क व क ं ार, कसी िगरजे के घंटे क भीम-
गजना-सी ही पेड़ से टकराकर लौट आई । ाचीन देवालय के वेश ार से भीतर जाते
ए च दन को अपनी ल बी देह धनुष क यंचा के समान दुहरी करनी पड़ी । दो कदम
रखते ही भयावह सूिचभेद अ धकार म सहसा उसक पथ- द शका खो गई । “कहा था
न मने, हाथ पकड़े रहो ।” चरन का वर एक दबी हँसी म खो गया, फर वह उसके
िनकट आकर चमगादड़-सी फड़फड़ाने लगी।
“लो पकड़ो मेरा हाथ और मेरे पीछे-पीछे चली आओ।”
बफ क िस ली-सी ठं डी जमीन पर सहमे कदम रखती वह चरन के हाथ क
लकु टी पकड़े कसी अ धी िभ ुणी-सी ही चली जा रही थी। आधे गज के अ धकार क
दूरी पार करते ही एक न ह घृतदीप के आले पर जल रहे योितपुंज ने देवालय के छोटे-
से क को; आ यजनक दीि दान कर रखी थी ।
‘जय िशव, जय गु ’ कहती चरन, जीण च दोबे से लटके चाँदी के छ को िहला-
िहलाकर बजाने लगी । च दन एक बार फर हतबुि -सी खड़ी रह गई, न वह हाथ ही
जोड़ पाई, न पलक ही झपका सक । कै सा जाना-पहचाना देव थल लग रहा था वह,
फर भी वह आज पहली बार यहाँ आई थी । तब या कसी पूवज म क मृित ही उसे
ऐसे िव वल कए जा रही थी ? नह -नह , वह ऐसे ही अ धकार म डू बकर, दशन मा
से ही उ वलता के तीखे काश से उभरते एक अ य िशव मि दर क मृित प हो उठी
थी। या िशव के सभी ाचीन मि दर, जान-बूझकर ही ऐसे घना धकार म िति त
कए जाते ह गे? उसक सि पात-सी मरणास अव था म, माँ क मानी गई मनौती
पूण करने, वह शक बार जागे र के िशव मि दर म गई यी। ऐसा ही भयावह अ धकार
मशान क िनकटता, िहमशीलता देवालय क धरा पर पड़ते सहमे कदम, ओर
िशव लंग को आलो कत का रहे ऐसे ही घृतदीप क योित को थामे पीतल के पानस म
गढ़ी च द वंश के राजा के िश प को अमर करती द मू त ।
माँ का मीठा वर जैसे उसके कान म गूँजने लगा :
तुषारा संकाश गौरं -गभीरं
मनोभूत को ट भा ी शरीरं
फु र मौिल क लोिलनी चा गंगा
लसत भाल बाले दु कं ठे भुजंगा ।
माँ क यह ि य िशव तुित कौन गाने लगा था यहाँ? वह च ककर इधर-उधर
देखने लगी, तब ही देखा चरन, चाँदी का छ िहलाती, झूम-झूमकर गा रही थी–
मृगाधीश चमा बर मुंडमालं ।
बारहव शता दी के बने उस मि दर क थाप य कला म, पालवंशीय राजा क
सु िच क छाप थी । मू तय के सुघड़ आकार, जीव त हाव-भाव, ला य कटा , ब ती
क सु प भाँज–सबके िनमाण म बंगाल के मू तकार ने जैसे छेनी तोड़कर रख दी थी–
काले राजमहल पर खुदी पावती क वह मू त वा तव म दशनीय थी। सा रत दि ण
करतल पर ि थत था भ िशव लंग, एक ओर संहवाहन को दुलारते मु कु रा रहे थे
न ह का तके य और दूसरी ओर मूषका ढ़ गजानन अपने गजद त से माँ का आंचल
पकड़े ठु मक रहे थे । चार ओर बंगाल के िशि पय के ि य कदली वन क झूमती
चौकोर पि याँ, पावती के माथे के ऊपर चँवर-सा डु ला रही थी ।
“यह धूनी यहाँ िनर तर जलती रहती है - हमारे गोसाई के गु क धूनी है यह!
तब ही तो रोज इसे जलाने आती ।ँ चलो, तु ह उनक साधना क कोठरी दखा लाऊँ
!”
च रदार सी ढ़य का एक गु छा का गु छा पार कर चरन उसे इमामबाड़े के से
एक जालीदार खरोखे म ले गई । जालीदार मेहराब से नीचे बह रही नदी क धारा दीख
रही थी । बाँस के वन से आती साँय-साँय करती हवा से, पहाड़ के सरल क ध पश
वातास का कै सा अ भुत सा य था! एक खूँटी पर ा क कं ठी झूल रही थी, दूसरी
खूँटी पर लटका था एक र काला कमंडलु ।
“वह देखो, गोपिलया क दुकान! ऐसी दीख रही है, जैसे छू ते ही हाथ म आ
जाएगी, वैसे होगी कोई एक मील ! हाय राम, वहाँ तो तीन-तीन िचताएँ जल रही ह
जी ! आज या बशीरहाट का पूरा गाँव ही मुआ जलने के िलए जुट गया है । लगता है,
आज लौटती बखत भी वहाँ चाय नह िमलेगी।”
पास ही धरी शीशी से चरन ने तेल िनकाला, ई क ब ी बनाकर य से जलाई,
फर दोन हाथ जोड़कर खूँटी पर टँगी ा क माला के सामने खड़ी हो गई।
जालीदार मेहराब के भीतर जल रहा दीप न ही जािलय के असं य िछ से काश
क करण छोड़ने लगा । गरबा नृ य करती गुजर क या के योितपुंजवाली जालीदार
हाँिड़य क याद ताजा करनेवाले इस आलो कत झरोखे म िवधाता क गढ़ी दो अ ितम
ितमाएँ दमक रही थ –एक दुबली-पतली, ल बी, गौर-वणा और दूसरी काली–
चमकती पु भरे -भरे हाथ-पैर क नंगी नेपाली खुकरी-सा नाचती, पल-पल म कृ ित
के बदलते प के साथ अपनी पछटा बदलती–वनक या!
“चलो!” वह ा के एक दाने को अपने कृ णललाट से छु आकर च दन क ओर
मुड़ गई, “धूनी म एक लकड़ी लगा आऊँ, फर लौट चलगे!” चरन उसे एक बार फर
दीघ प र मा कराती एक दूसरी ही कोठरी म ले गई, जहाँ लकिड़य का एक िवराट
तूप खड़ा था । उनम से चरन ने एक मोटी-सी लकड़ी ख चकर िनकाली । च दन के मन
म उठती िज ासा को उसने फर अपनी अलौ कक ाण-शि से सूँघ िलया, “ य जी,
यही सोच रही हो न, क कौन इस बीहड़ जंगल म वह लकिड़याँ पटक गया । िशवराि
को यहाँ बड़ा भारी मेला लगता है । िह दू-मुसलमान सब ह इस भोले के भ । सु दर
वन के जंगल म तो सुना है आज भी मजदूर हमारे गोसाई के गु के ही नाम का जोर-
जोर से जप करते जाते ह। शेर भी दुम दबाकर भाग जाता है, उस वन-फक र के नाम
से। यहाँ चढ़ावे म चढ़ती ह धूनी क लकड़ी और धतूरे का फू ल–बस! ये ही दो चीज
माँगते ह हमारे भोलानाथ! एक बार तो कलक े के एक सेठ ने दस गाड़ी लकड़ी
एकसाथ डलवा दी थ ।” मोटी लकड़ी को धूनी म लगाकर चरन ने हाथ प छे। फर वह
आँचल क गाँठ खोलने लगी।
“थोड़ी देर सु ताकर अब चल दगे । पहले तो म दन डू बे पर लौटती थी । लगाई
एकदम और बस फर न द ही न द। सब सर जाम लाई ँ साथ म, ऐसी बात नह है!”
उसने अपने आंचल म बँधी न ही-सी िचलम िनकाली और मू त के पीछे हाथ
डालकर एक पुिड़या िनकाल, िचलम म उँ डलकर हँसने लगी, “िन य भोले क सादी
का एक दम यहाँ लगाती ,ँ दूसरा घर पर । यहाँ का दम रा ते के भूत- ेतिनय के डर
को भगाता है और घर पर लगाया गया दम वहाँ क चुड़ल ै को बेदम कर देता है । पर
इधर जब से शि मंडल को बाघ ख च ले गया, तब से ज दी घर भागना होता है!”
भरी िचलम को धूनी के अंगार से दहकाकर, उसने ‘जय िशव गु ’ क क ं ार
भरकर, िशव लंग म छु आया, फर अपने माथे पर, फर दोन हाथ क मु ी म िचलम
साधकर वह एक दम कश ख च खाँसती-खाँसती दुहरी हो गई । देवालय क घृतजोक
िशखा, मशः म दी पड़ती जा रही थी । चरन को मानो िह रया का दौरा पड़ गया ।
“जय बम, जय बम, बमलहरी, बम बबम बबम बम बमलहरी” कहती ई वह
झूमती-गाती-हँसती जा रही थी । एक कं ठ से िनकली िवकृ त बमलहरी, सहसा देवालय
क िविच ढंग से बनी दीवार से टकराकर शतकं ठ म गूँजने लगी ।
अब च दन या करे ?
िच के धुएँ म डू बे रा ते, नरमांस-लोभी भूखे और चालाक वाघ से मुठभेड़ क
आशंका, अनजाने स पल पथ क सुदीघ प र मा, चांडाल क हं , ती अ तभदी दृि
क मृित, इधर अ धकार म कं ठ तक डू ब गए अनजान देवालय म गाँजे-चरस के नशे के
साथ अनजाने आकाश म िवचरण करती ग भा सहचरी !
कह भ म पुती दो त ल बी बाँह के घेरे ने यह बाँध िलया तो ?
दीया बुझने से पहले च दन ने िचलम छीनने को दोन हाथ बढ़ा दए, “ या कर
रही हो चरन, अब तुम नह पीओगी! चलो घर, मुझे डर लग रहा है !”
उसका गला इतना क कहकर वयं अव हो गया । िचलम छीनने को सा रत
बाँह शू य म लटककर रह ग –मि दर क टू टी दीवार म खुदी, िशव क भ मू त म
बनी दो दपदपाती, म आँख ने जैसे दो तीखे भाल से उसे पीछे हटा दया । यह मू त
कहाँ से आ गई ? या यह ताि क मि दर भी उसे छलने लगा था या अनचाहे नथुन म
घुस गया चरन क जादुई िचलम का धुआँ ही उसे यह सपने दखाने लगा था!
“खाली गाँजा ही थोड़े है इसम !” चरन ने तभी ठठाकर कहा, “इसम कु छ और भी
रहता है-कु कु रमु े का िवष ! या समझ ? एक दम लो और बन जाओ रानी-पटरानी।
सोने के पेड़ म लटकते हीरे के फल तोड़कर खाओ! वाह, वाह! तब ही गोपिलया कहता
है ना, ‘िजसने न सूँघी गाँजे क कली, उस लड़के से लड़क भली!”
कै सी िवल ण मू त थी, बाप रे बाप! संहा ढ़ा पावती और मकरा ढ़ा गंगा, एक
ओर प थर क खुदाई म खुदा नागलोक, आधा शरीर मनु य का, आधा नाग का, हाथ
जोड़े ल बी कतार म चले जा रहे िशव के गण, कदम ऐसे उठे थे, जैसे अभी पदचाप से
मि दर को गुँजा दगे–खट-खट, खट-खट! िसर के ऊपर वगलोक, िविभ वाहन पर
आ ढ़ िविभ देवता, उनके बीच दस भुजाएँ नचाते ए िशव क रौ मू त, और उस
मू त के कं ठ म पड़ा सप का य ोपवीत! देखकर ही च दन दो कदम पीछे हट गई थी ।
यह तो उसी अवधूत का दुलारा सप लग रहा था। दीया बुझ गया था, अँधेरे म चमकती
चरन क लाल-लाल आँख और दहकती िचलम के लाल अंगारे –उ ह ही देख पा रही थी
च दन ।
“जय गु , जय गु ! लो, एक दम तुम भी लगाओ, फर चल दगे।” चरन ने यौता
दया, पर च दन मू तवत् खड़ी रही।
“खबरदार, नाह मत करना–िशव क सादी है–देखो, ऐसे साँस ख चना !” उसने
नथुने भ चकर एक ल बी साँस ख ची । इस दशन के बाद उसने च दन का हाथ पकड़ा
और बड़े यार से उसे अपने पास िबठा िलया। अपनी मुट्ठी म बँधी िचलम उसने च दन
के थरथराते ह ठ से लगा दी।
“लो! लो, लगाओ दम, बहरी हो गई हो या? देखती नह अबेर हो गई है?” चरन
ने िचरौरी क ।
वह धुआँ वयं ही च दन के नथुन म घुस गया या चरन क अपलक घूरती लाल
अंगार -सी दहकती उन आँख ने कु छ ऐसा जादू डाला क वह खुद ही एक दम लगा
बैठी ।
खाँसी के िवकट दौरे के साथ ही फर उसे कोई अंगुली पकड़कर अपने साथ नई
उड़ान म उड़ा ले चला । न द म चलनेवाले कसी रोगी क तरह वह चरन के पीछे-पीछे
चल रही थी । दीघ थायी अनाहार क िन ु र या ने िजन मांसपेिशय को अब तक
ज टलता क गाँठ म बाँध दया था, वह वयं ही फटाफट खुलने लग । उस अर य क
िनिवड़ता के व लोक को चीरती ई च दन बढ़ती जा रही थी । िजस नदी क
अनजान गहराई म वह डरती-काँपती, कणधार-िवहीन तरणी-सी डगमगाती चली आई
थी, उसी पर वह अब ऐसे गहरे आ मिव ास से चली आई थी, जैसे वह अ ात
जलरािश नह , घर के सामने का िचरप रिचत लॉन हो ।
रा ते-भर चरन कु छ बकर-बकर करती रही, ले कन च दन उसक बात का
शतांश भी, सुनने क कोिशश करने पर भी, सुन नह पाई । िच न जाने कहाँ-कहाँ
भटक रहा था। इस बार चरन उसे कसी दूसरे ही पथ से लेकर आ म म प च ँ गई ।
माया भी ठीक उसी अव था म बैठी झूम रही थ , िजसम वे उ ह छोड़ गई थी।
“कहा था न मने?” चरन कहने लगी, “एक-दो दन तक अब ऐसी ही बौराई-सी
झूमती रहगी–िबलकु ल ताजा चरस पीसकर गोली िचलम म धरी थी। य जी, तुम
या एक ही कश लेकर ढेर हो ग ? अभी तो एक दम घर प च ं ने क भी लेनी होगी।
मने कह जो दया था, एक दम राह के भूत- ेत को भगाने के िलए और दूसरी घर क
चुड़लै को खदेड़ने के िलए। बस, अभी तैयार करे देती ँ िचलम– फर लगे दम, िमटे गम!
ठीक है न ?”
खोई-सी दृि से च दन उसे देखने लगी।
“बाप रे –तुम तो सा ात योगमाया लग रही हो जी! कै सी न द भरी है इन आँख
म! को, सोने से पहले एक चुटक तु ह और सुंघा दू,ँ िजससे तु हारा यह आधा नशा
दु मन न बन बैठे। एक कश ख चकर ख टया पकड़ना और फर रात-भर मजे से उन
सबसे िमलती रहना, िजनक बस याद ही बच रही है तु हारे पास!” हँसती-हँसती चरन
चली गई और थोड़ी ही देर म िचलम भरकर लौट आई ।
आते ही उसने बैठी-बैठी झूमती-झामती माया दीदी को हाथ पकड़कर ऐसा िलटा
दया, जैसे वह न ही ब ी ह , पर दीदी िलटाते ही सीसे से भरी गुिड़या-सी फर उठ
बैठ और तमाशा करने लग । गे आ धोती जाँघ तक उठाकर तािलयाँ बजात , कभी
जोर-जोर से हँसती, कभी भगी दृि च दन को देखकर गाने लगत :
“मन ना रांगाए
कापड़ रांगाले
क भूल कोरीले जोगी!”
(हाय रे जोगी, मन नह रगा, पर कपड़े रँ गाकर तू कै सी भूल कर बैठा!) कसी
अधेड़ बाईजी का-सा ही मांसल प से भरभराता कं ठ था माया दी का! उस पर हाव-
भाव कटा से सँवारकर तुत कए जा रहे गीत का अथ न समझने पर भी च दन
उसके बुभुि त ाण के कु ि सत आ वान को खूब समझ गई । कौन कहेगा, यह
अर यवािसनी तापसी है! कस नशे ने झुका दया है इ ह ऐसे ?
यह या िचलम का धुआं है, या वयं कृ ित क सुँघाई गई िचलम का नशा?
कन- कन अतृ वासना के द ध अंगारे इस म मयूरी को उछल-उछलकर बेढंगा
नाच करते रहने पर मजबूर कए दे रहे थे?
“थाक माया दी, और नैकामी करते हौबे ना!’ (रहने दो माया दी, अब और नखरे
मत दखाओ)-चरन क यह डपट सुनकर माया दी सहम गई । चरन ने उ ह उठाकर
ख टया पर डाल दया और मुँह तक चादर ख च दी ।
“नह , नह , चरन! मेरी दुलारी यारी चरन! बस एक दम और दला दे!” माया
दी िगड़िगड़ाने लग और हँसती चरन िचलम को कभी ऊँचा उठाती, कभी नीचे झुकाती
माया दी को ऐसे िचढ़ाने लगी, जैसे कोई ड़ा- ेमी वामी पालतू कु े को हड् डी से
लुभा रहा हो।
“अ छा लो, बस एक ही कश ख चना, समझ ? अभी म ,ँ नई भैरवी है!” स त
सौ य बािलका-सी ‘हाँ-हाँ’, कहती माया दी एक ल बा लोभी कश ख चकर जैसे अचेत
हो गई ।
फर उसी िचलम क सदय धू रे खा च दन को सचमुच ही चेतना-जगत से ब त
ऊँचा उड़ाती महीन से िबछु ड़े आ मीय वजन के बीच उठा ले गई । मृितय के सागर
का वार-भाटा, कभी उसे उठाकर पटक देता धारचूला, कभी द ली और कभी
शाहजहाँपुर । पहले-पहले हँसकर िख ली उड़ाने लगा, चाची का याह चेहरा... ।
“वाह, ठीक ही कहा था मने, अपनी माँ क काठी पर मत जाना, लड़क ! पर वही
कया तून।े ”
इस चाची ने िववाह के ठीक तीन दन पहले उसको कतना लाया था । रात-
रात भर रजाई म मुँह िछपाकर रोई थी वह । हाय, अ माँ ने इस कलमुँही चाची को
य यौता होगा! पर अ माँ भी भला या करत ? लाख हो, थी तो सगी चाची, उसे
भला कै से नह यौतत , वैसे चतुरा अ माँ ने िचट् ठी ऐसे कौशल से िलखी थी क हवाई
जहाज से उड़कर आत तब भी शायद चाची नह प च ँ पात , पर उ ह जाने कहाँ से
खबर लग गई!
“अरी, तूने नह बुलाया तो या आ !” उ ह ने अ माँ को खूब खरी-खरी
सुनाकर, का पिनक अ ुजल प छ, अपनी भ डी मोटी नाक आँचल से िनचोड़कर रख
दी थी, “आिखर अपना खून ही तो जोर मारता है–जैसे ही मने सुना, इधर-उधर से
धेला-टका कज िलया और बगटु ट भागी ।”
तीसरे दन अ माँ बाजार करने गई तो झट चाची उसे छत पर ख च ले ग , “और
या म झूठ कहती !ँ ” वह अपनी िब ली क -सी कं जी आंख को काँच क गोिलय -सा
चमकाती उससे कहती जाती थ , “म तो तुझसे कहती भी नह , पर सोचा, पराए घर
जा रही है, वह भी ऐसे घर, जहाँ क जूितय क धूल क भी बराबरो न तू कर सकती
है, न तेरी अ माँ । अब उस घर क इ त रिखयो, िब ी ! कह अपनी माँ क काठी पर
मत जइयो !”

और फर आर भ आ माँ क कलंक-गाथा का गुटका सं करण । बीच-बीच म अपनी


जबान के सलोने छ क लगाती, चाची आव यकतानुसार अ ुजल- िवसजन भी करती
चली जा रह थ –कभी उसके मृत िपता के िलए, कभी नाना के दा ण दुःख के िलए।
“वह तो हमारे जेठजी क द रया दली थी, जो ा ण के घर क िब टया को
उबार िलया, नह तो या कोई जान-बूझकर म खी िनगलता है। तेरे नाना बेचारे !
कहते ह, उ ह ने काली म कू दकर ही जान दे दी। वही हाल तेरी नानी का आ। बदनामी
ने या उ ह अपने समाज म कह मुँह दखाने लायक रखा था!”
रात-भर च दन रोती रही थी। उसक शा त सरल अ माँ का िनरीह चेहरा, उसके
स मुख मु कु राने लगता । नह , उसक माँ ऐसी कभी नह हो सकती । यह िन य ही
उसक ई यालु चाची के मन क भड़ास रही होगी । का पिनक बतकही का अनाव यक
जाल फै लाकर वह उसे फाँसने आई थी, िजससे सुख क पग म झूलती भा यवती
भतीजी को जमीन पर घसीटकर ला सके । चाची सधवा होकर भी जेठ-जेठानी पर
आि ता थी। उसके अकम य चाचा, जीवन-भर ताऊ के गृह ार के चौक दार ही बने
रहे। कभी उनके ब को कू ल प च ँ ाते, कभी बाजार से सौदा लाते, कभी भाई के
प रवार को पहाड़ प च ँ ाते, और कभी उनक अनुपि थित म उनके घर क रखवाली
करते । उधर उसक अ माँ, िवधवा होने पर भी, अपने ही साहस से अपने पैर पर खड़ी
थ । वैध रपु को उ ह ने पूरी शि लगाकर धके ला था । स पूण प से परािजत और
धराशायी कर दया । एम. ए., एल. टी. कर अब वह धाना यािपका थ । रहने को
सरकारी बँगला था । एक दजन अ यािपकाएँ उनके रोब से दन-रात थर-थर काँपती
रहती थ । नौकर-चपरासी थे । सु दर सौ य पु ी थी और ई र क कृ पा से अब उसी
को इतने बड़े समृ गृह का राजपु , वयं माँगकर अपनी हथेली पर िबठाने के िलए ले
जा रहा था ।
फर भला, चाची य नह कु ढ़ उठत ? उनक साँवली पु ी को तो कोई उनके
लाख तीर पटकने पर भी नह ले गया था । इसीिलए उ ह ने कसी तरह कह-सुनकर
उसे मेिडकल कॉलेज म भरती कराया, पर लड़क ने िश ा- े म ऐसी गित दखाई
क अपने बार-बार फे ल ए फसड् डी िवजातीय सहपाठी के साथ चुपचाप कह भाग
गई । शायद, उसी अस दु:ख ने चाची के ई या-डंक को और भी घातक बना दया था
। अब अपने समाज का कोई भी नौशा उनके ार पर क यादान हण करने नह
आएगा, यह कटु स य उनक छाती म घूँसा-सा मार गया था और शायद उसी
आकि मक घूँसे क मार से ितलिमलाकर चाची उसके िववाह क मह फल म िव मृत
कलंक का यह हथगोला छोड़ने चली आई थ । क तु अ त म चाची को ई र ने सुमित
दी या वह अ माँ क ही कसी व चाल का िशकार बन , बहरहाल िववाह से ठीक
एक दन पहले वह अपने बीमार भाई क िगरती हालत का तार पाकर चली गई ।
च दन क चाची के कथन म अितशयोि होने पर भी, बात सवथा बेिसरपैर क
नह थी। उसक माँ का प देखकर ही नाना ने नाम रखा राजराजे री । िसर से पैर
तक यह राजराजे री, िवसजन के िलए डोले म ले जाई जा रही न दादेवी क ितमा
क -सी ही ग रमा िलये ए थी।
नानी का मायका था नैनीताल क नई बाजार म । सूित के िलए नानी वह
अपनी माँ के पास रहने चली गई थ । िन य आस-पास क छत मुँडरे पर चढ़ती-
उतरती शाह-प रवार क गोरी-िच ी ललाइन क ठु मकती पशलाका ही शायद
उनक गभ थ पु ी को छू गई थी। शाहिनय जैसा ही दूिधया रं ग, तीखी नाक और ऐसे
दमकते िचकने कपोल क लगता छू ते ही ल टपक पड़ेगा । एक तो ऐसा गजब का प,
ितस पर सवा स यानाश यह क चौदहव म कदम रखा था क चौबीस क लगने लगी।
जैसा ही उ लिसत प दया था िवधाता ने, वैसा ही उ ाम वा य दया ।
तीसरी प ी ने ही उ ह इस स तान का िपता बनाया था। इसी से यही इकलौती
बेटी नानाजी के िलए बेटा भी थी। अपनी इस लाड़ली को वह अ छी-से-अ छी िश ा-
दी ा, ब ढ़या से ब ढ़या घर-वर दलाना चाहते थे । अपनी इसी सनक के पीछे उ ह ने
घर-भर का िवरोध लेकर पु ी को अलमोड़ा के िमशनरी कू ल म पढ़ने भेज दया था ।
पु ी को िश ा क सब सुिवधाएँ उपल ध हो सक, इसिलए वह वयं धारचूला रहकर
अपने गलीचे-ऊन-शम का ापार देखते थे, और एक कोठी लेकर प ी को पु ी के साथ
अलमोड़ा म रखते थे । हाई कू ल पास करने तक राजराजे री अपने प के सोने म
िमशन रय क सुघड़ िश ा का सोहागा िमलाकर वयं ही अपना मू य ब त बढ़ा चुक
थी। अब वह कसी भी उ गृह क कु लवधू बनकर उसे आलो कत कर सकती थी । पर
तभी िवनाशकाले िवपरीत बुि ई । रस क वािमनी रसातल म ख च ले जाई गई ।
िमशनरी कू ल म राजे री क अ तरं ग सखी थी-उससे भी अिधक लाव यमंिडना
एक कशोरी । जब यह सहपा ठन पहले दन राजराजे री के घर आई तब उसक
परािश देखकर सभी दंग रह गए । राजराजे री क माताजी भी इस सखी को देखकर
मु ध हो गई ।
“आहा! कसक लड़क है री, तेरी सहेली!” उसके जाते ही उ ह ने राजे री से
सखी के कु लगो का लेखा-जोखा माँगा।
राजे री कु छ सकपकाकर ही अपनी सखी का प रचय दे सक । प रचय सुनते ही
माँ आगबबूला हो गई, “उस पतु रया क बेटी क यह िह मत! खबरदार, जो मने आज
से तुझे कभी उस छोकरी के साथ उठते-बैठते देखा । तब ही तो तेरे बाबूजी से मने कहा
था, ‘लड़क को इसाइय के कू ल म भेज रहे हो, वहाँ तो ऊँची-नीची सभी जाितय क
लड़ कयाँ एक साथ बैठकर पढ़ती ह । या हमारे ऊँचे खानदान क िब टया ऐरे -गैरे
घर क लड़ कय के साथ पढ़ने बैठेगी?’ पर उ ह कौन समझाए? लगे ान बघारने,
‘ई र के यहाँ तो सब एक ही ह, राजी क माँ!’ पर देख छोकरी!” माताजी ने राजे री
के क धे पकड़कर झकझोरते ए कहा, “उससे हेल-मेल बढ़ाया तो म तुझे िज दा ही
गाड़ दूगँ ी समझी! जात का बछड़ा औकात का घोड़ा, ब त नह तो थोड़ा-थोड़ा!”
पर उनक धमक रे त म पड़ी बूँद-सी सूखकर रह गई । आ बस यही क सहेली
चि का फर उनके घर कभी नह आई । राजराजे री ही लुक- िछपकर उसके यहाँ
जाने लगी । िजतने अनादर से राजी क माँ ने चि का के िलए अपने घर के दरवाजे
ब द कर दए थे, उतने ही आदर से चि का माँ क दुलार-भरे आ ह क बाँह पसार
अपने ार खोलकर िन य राजराजे री क ती ा म खड़ी रहती । यह ठीक था क वह
वारांगणा थी, और वह भी ऐसी पसी वारांगणा, जो उन दन कु माऊँ क अिधकतर
कु ल-ललना क आँख क कर करी बनी ई थी। उन दन म, जो भी समृ
गृह वामी एक-आध ऐसी रं गीली रखैल न रखता, वह अभागा ही माना जाता था। तब
रखैल ित ा- तीक का काम देती थी। । िजस रईस के रखैल न हो, उसक रईसी का
सूय अभाव के मेघखंड से िघरता आ मान िलया जाता था । एक ल बी अविध तक
च दन के नाना भी पलोभी ष पाद क भाँित उसी अनुपम पु प के चार ओर मँडराते
रहे थे। उस तेज वी पु ष का ेम पाकर चि का क माँ भी अपने पेशे म ढीली पड़ने
लगी थी। कई साज वयं नीरव हो गए । सािज दे वेतन न पाकर दूसरी जगह चले गए ।
घुँघ पर धूल जम गई । पखावज क काली िच द कयाँ सफे द पड़ने लग , जैसे
चमक ले कजरारे नयन म मोितयािब द उभर आया हो । पर इसी समय तीसरे िववाह
क सु दरी प ी के ेम ने च दन के नाना को फर घरे लू और पालतू बना दया। उ ह ने
इस िववाह के बाद भूलकर भी उस ब ती म पैर नह रखा ।
फर वह कोठे वाली भी वे छा से घरवाली बनकर प क हाट से गृह थी क
गहराई म उतर आई थी । िजसका हाथ पकड़कर उसने प क हाट क अपनी सजी
दुकान पर लात मारी, उसने उसे सबकु छ दे दया । रहने को ब त बड़ा महल, एक पु
और एक पु ी । प म एक ग धव, तो दूसरी क री । पु िमिलटरी ऐके डमी म िश ा
पा रहा था और पु ी को िमशन रय को स प अब वह िनि त हो गई थी ।
“माँ! िमस समरिवल कहती ह क वह मुझे िमशन क ओर से िवलायत भेजगी । तू
तब तक द ा का याह कर छु ी पा लेना, फर म िवदेश म नौकरी क ँ गी और तू वह
आराम से माला जपना।” चुलबुली चि का कहती और माँ हँसने लगती–िव ेभर क
लड़क , पर कै सी समझदारी क बात कह जाती है ।
यहाँ तो चाहने पर भी वह आराम से कभी माला नह जप सकती। उसके िपछले
जीवन के कलुष को, या कभी वदेश का समाज िमटने देगा ? सात समु पार जाकर
वह अपने नवीन जीवन का सवथा नवीन प र छेद िन य ही खोल सके गी ।
फर उसक स तान या ऐसे-वैसे िपता क देन थी ? कु माऊँ के राज- प रवार का
र था उसक धमिनय म । इसी से तो उसक लाड़ली चि का जब अपनी िजद म
मचलती, तब उसे बड़ा गव होता-इसी को तो कहते ह राजहठ, ीहठ, बालहठ! वह
मन ही मन अपनी राजक या के बीिसय नखरे सहने को त पर रहती ।

राजराजे री ने पहली बार सखी के गृह का वैभव देखा तो दंग रह गई । या- या


न ाशीदार कु स -मेज थे और वैसे ही आदमकद आईने, झाड़फानूस और ित बती गलीचे
। चाँदी क त तरी म जलपान लेकर चि का क माँ आई तो उसने पहले उ ह नह
देखा । वह तो एकटक दीवार पर लगे रं गीन तैल-िच को देख रही थी। तंग नेपाली
पायजामा, ब द गले का कोट, कार-चोबी क सलमा जड़ी मखमली गोल टोपी और
ित बती भेड़ क पूँछ-सी पु मूँछ । हाथ म थ एक चाँदी क मूठ क पतली छड़ी,
मखमली पायदान पर चमक ला प पशू ऐसा चमक रहा था, जैसे अभी-अभी कोई द
पेशेदार बु श मारकर चमका गया हो।
“ या देख रही हो, बेटी?” मु कु राकर चि का क माँ ने कहा और वह हड़बड़ाकर
मुड़ी ।
“यह ह तु हारी सहेली के िपताजी । जो भी यहाँ आता है, पहले इस त वीर को
देखता रहता है ।”
पर राजे री तो अब चि का के मृत िपता को नह , जीिवत माता के अनूठे िच
को ही स मुख देखकर हतबुि ई जा रही थी। जैसा ल बा कद, वैसा ही सुडौल शरीर
का गठन। इस उ म भी यह कसी नवयुवती क गदराई देहयि से लोहा ले सकता था
। चेहरा देखने पर ही समझ म आता था क कृ ित के ू र आतप-वषाकालीन घात-
ितघात को सहता इस बुल द इमारत का बुज अब ढहने को है । “ कसका घर उजाला
कया है तुमने, बेटी? या नाम है तु हारे िपता का?” पेशेवर गाियका क मधुर श द-
ंजना घुँघ -सी झनक उठी थी ।
“िवशाड़ के मिहमच ितवारी ह मेरे िपताजी ।” राजराजे री ने यह सूचना
सहज भाव से दी, ले कन इसे सुनते ही एक ण को रोबदार मेजबान का सुदशन चेहरा
न जाने कस िव मृत वेदना से नीला पड़ गया, पर दूसरे ही ण उसने अपने को स हाल
िलया, “वाह–वाह, तब तो तुम हमारे जान-पहचानवाल क ही िब टया हो– य ,
आजकल कहाँ ह िपताजी?” वह कु स ख चकर उसके पास बैठ गई ।
“ या आप बाबूजी को जानती ह?” राजराजे री ने पूछा और साथ ही माँ क
ोधपूण गजना का मरण कर, वयं ही चुप हो गई । कह िपता का अता-पता पूछती
यह उसके घर पर ही न चली आए!
“जानती य नह जी, ितवारीजी को कौन नह जानता? कौन-सी होली क
बैठक उनके िबना जम सकती थी भला?”
ठीक ही कह रही थी राम यारी । होली क बैठक म ठं डाई से छलकते कलश,
पहाड़ी गुिझयाँ और सुगि धत आलू के गुटक के थाल बैठक म भेजती अ माँ, कभी बुरी
तरह झुँझला उठत , क तु दूसरे ही ण बाबूजी का लड़ कय को भी लजानेवाला
िम ी कं ठ- वर गूँजता तो अ माँ भी परदे क ओट से सुनती ई झूमने लगत ।
बाबूजी का गोरा चेहरा, तान आलाप क कशमकश से तमतमा उठता । कान पर
हाथ धरकर वह पहाड़ क अनूठी चाँचर ताल क होली क गूँज से बैठक गुँजा देते :
जाय प ँ पी के अंक
चाहे कलंक लगे री !
साथ ही ‘अंक’ के सम को पकड़ने, पूरी मह फल ऐसे झूमने लगती, जैसे सम न हो,
हवा म उछाली गई गद हो।
राम यारी ने फर पूछा, “ य , कहाँ ह आजकल ितवारीजी?”
“ धारचूला ! ”
“हाय राम, इतनी दूर? या करते ह वहाँ?”
“थु मे, ऊन और गलीच का ापार करते ह ।”
राम यारी सहसा उदास हो गई । हाय रे भा य ! प के उस रिसक गुणी जौहरी
का ऐसा पतन ! प क हाट का सौदागर, या अ त म गँधाते ित बती ऊन-गलीचे-
थु म का सौदागर बन गया! एक बार उसने अनुस धानी दृि से राजराजे री को फर
से देखा।
कै सी मूखा थी वह!
पहली ही झलक म ेमी क पु ी को य नह पहचान सक ? -ब- वही न शा
और बोली म भी वैसी ही सामा य-सी हकलाहट!
कहाँ वह उसे देखते ही अपने सुदशन पु क वधू बनाने का फै सला करने जा रही
थी । अब तो ऐसा स ब ध सोचने म भी पाप लगेगा। पर उसके सोचने, न सोचने से या
होता, िवधाता ने तो पंच-शर को िबना सोचे-समझे ही पूरी कु मुक के साथ मोचाब दी
पर बैठा दया था । िनशाने म अचूक वह सेनापित या फर चूक सकता था?
राजराजे री िन य ही कू ल से लुक-िछपकर आने लगी। अब सखी से भी अिधक ि य
उसे सखी का भाई था! सजीला कु दन संह उन दन छु य म घर आाया था, कभी
तीन ताश खेलते, कभी िपकिनक पर िनकल जाते । राम यारी सं द ध दृि से िववश-
सी उ ह िखड़क से देखती और एक कु टल मु कान उसके सु दर चेहरे को िवकृ त बना
देती। घूमने का े ाय: संकुिचत ही रहता, कभी बड़ी-सी कोठी क थ प र मा,
िजसम जान-बूझकर ही सु दरी समझदार बहन िपछड़ जाती और उसक ती ा म वे
एक लगभग शु क जलकुं ड म दोन पैर लटकाकर बैठे बितयाते रहते। बाहर घूमने का
ही नह उठता था, अलमोड़ा का े फल तब और भी सीिमत था, वयं अपने
यौवनकाल म मनमानी कु रं गी छलाँग ले चुके रिसक शंकालु बुजुग, एक साथ दस जोड़ी
आँख िलए इधर-उधर घूमते रहते।
राम यारी जान-बूझकर ढील देने लगी थी। बेटा यल उ ा ण धुल क लड़क
ले आए तो या दोष था? ऐसी ब िन य ही उसके िलए ितलपा -सी मह वपूण हो
सकती थी। फर उस ा ण के ब े को सबक भी िमल जाएगा, जो सु दरी प ी का
िवधु-मुख देखते ही अपने िशखासू का झोला-थैला बटोर उसके प यौवन क र गभा
मंजूषा को िनममता से लितयाकर चला था!

उधर ेमीयुगल भिव य क स पूण बचकानी योजना को िलिपब कर चुका था ।


एक वष ही म कु दन नौकरी पा जाएगा। के वल उसी छोटी-सी अविध तक
राजराजे री को बड़े धैय से िपता के कठोर च ूह से जूझना होगा, पर इसी बीच,
एक दन च ूह क क ठन मोचाब दी का आभास पाकर वह छटपटाती, कु दन के
पास भाग आई । पानी क उसी सूखी िड गी के पास उसने अपने कोमल बा पाश म
त ण ेमी को बाँध िलया । िपता ने उसका िववाह ही नह , िववाह-ितिथ भी िनि त
कर दी थी। उ ह पता नह कै से अपनी भोली पु ी क णय-गाथा का आभास हो गया
था । कु माऊँ के ा ण क बेटी एक ि य को वरे और वह ि य वर भी उनक
बाजा ेिमका का पु हो, ऐसा होने से पहले वह ा ण िन वकार िच से, इकलौती
ाणािधका पु ी को गोली से उड़ा सकता था । पर उड़ती िचिड़या को पहचाननेवाले
उस दुिनयादार ि से भी न जाने कहाँ चूक हो गई! ऊँची िखड़क से कू दकर जंगली
िब ली-सी राजराजे री भाग खड़ी ई और साहसी ेमी क बाँह म खो गई ।
अिववेक कशोर के पास न अनुभव था, न आगा-पीछा सोचने का समय। उसके
बाद क कहानी य णा और के वल य णा क ही कहानी थी। राजराजे री के िपता ने
लाल कु आँ के टेशन पर भगोड़े ेिमय को पकड़ िलया । कु दन को शायद वह सचमुच
ही गोली से उड़ा देते । ोध कसी बावरे भूत क भाँित उनके िसर पर चढ़ आया था;
ले कन कु दन जापानी जुजु सु का-सा िघ सा देकर भाग गया और मालगाड़ी म लदे
ग े के ढेर के नीचे दुबक गया । रह गई काँपती-थरथराती राजराजे री, िजसे ेम के
सुनहले संहासन से, बाल पकड़कर कसाई क भाँित घसीटते ए मिहम ितवारी घर ले
आए । कू ल छु ड़ाकर उसे घर क चहारदीवारी म मूँद दया गया ।
पु ी क कलंक-कथा कान कान बाहर न जाए, इस चे ा म ितवारीजी ने हजार
पया पानी क भाँित बहा दया, क तु ऐसी बात पहाड़ म िछपाए नह िछपत । ऐसी
ेम-कथा क सामा य गूँज भी, इन िविच िग र-क दरा म टकराकर न दादेवी के
मेले म ू र ं य से भरे लोकगीत का प लेकर शत-शत कं ठ म ललक उठती ह । उसी
मेले म पु ी क कलंक-कथा का नया गीत गूँजने लगा तो राजराजे री को और भी
क ठन कपाट म मूँद दया गया । देखते ही देखते चार ओर िव तृत पवत ेिणयाँ, उसी
अपमानजनक गीत से आ दोिलत होने लगी :
‘अहा कु दनी रं ग ठा
मेरी राजी के ि हलैगो!
मेरी रजुला भली बाना–
गेरी कु दनी ि हलैगो। ।’
‘कु दन रं ग ट मेरी राजी को ले गया रे ! मेरी सु दरी रजुला को, मेरा कु दन ही ले गया
।’
इस गीत क चार पंि य ने च दन क माँ का सौभा य- ार अव -सा कर दया
। यो य जामाता पाने का जो व साकार होने जा रहा था, वह मूखा पु ी ने अपने ही
हाथ से थ करके रख दया। पहाड़ म अब कोई भी वे या-पु के साथ भाग चुक ,
उस नादान कशोरी के बचपने को मादान नह दे पाएगा। सरल पवतीय समाज क
दृि म उसका अपराध जघ य था। अब कौन िव ास करे गा क ितवारीजी क पु ी
पिव है? कौन-सी अि -परी ा, अब उसे समाज म वेश-प दे सके गी?
अपने ही एक द र िम के पैर पर टोपी रखकर िगड़िगड़ाए भी थे, मिहम
ितवारी। उसके इं टर पास पु को भी शायद वह अपने वैभव के अंग-राग से आकषक
बना सकते थे। एक वष पूव, शायद वह उस िम पु क ओर देखकर थूकते भी नह ,
पर अब जो देखा उसी िम ने उलटे उ ह के मुँह पर जैसे प से थूक दया ।
“नह जी, मिहम !” उसने अपने फटे कोट क जेब म दोन हाथ डालकर, सीना
कबूतर क भाँित तानकर कहा था, “गरीब ह तो या आ, हमारी या इ त नह है?
लाख भूखे ह , पर पहले जब बारात क पंगत म नह यौते गए तो या अब ऐसे ही
खाना बच रहा है, हमारे िलए–जानकर यौते गए, कं गल क तरह? या अब हम जूठी
प ल चाट ल?”
उसी रात को राजराजे री के िपता चोट-खाए नाग क तरह अपनी ू फू कार
से घर-भर को िवषमय बनाकर दामाद ढू ँढ़ने िनकल पड़े थे । अ धा, लूला, लँगड़ा जो भी
िमलेगा, उसी के प ले अब कु ल-बोरनी पु ी को बाँधकर िवदा कर दगे । उनक आशा
आशातीत प से सफल ई । जामाता के प म िमला अपने ही कु ल का एक धनवान
पा । िबरादरी कह बड़ी मुि कल से िमले इस जामाता के कान न भर दे, यह सोचकर
मिहम ितवारी िववाह कराने के िलए प ी और पु ी को लेकर अलमोड़ा से हल ानी
चले गए ।
“माघ के महीने, पहाड़ म िववाह िनबाहना, हँसी-खेल नह है भाई!” उ ह ने बड़ी
चतुराई से अपने पलायन के प म पु दलील बाँध दी थ , “इसी से तो इतना खचा
उठाकर हल ानी जा रहा !ँ ”
पर समझनेवाले समझ गए । एक-आध ने मरे सप क आँख म जान-बूझकर
शलाका भी घुसेड़ दी, “ य जी मिहम, हमने तो सुना, क यादान करने रानी
राम यारी को भी साथ िलए जा रहे हो !”
और ह -ह कर हँसने भी लगे थे उनके एक-आध मुँहलगे साथी। जब से राम यारी
राजा साहब क घरनी बनी थी, तब से उसे चाहे-अनचाहे रानी का िखताब, वयं ही
िमल गया था । ल क घूँट पीकर, मिहम ने िसर झुका िलया । करता भी या? या
िनधूत के शा, गत-गौरवा दु ा पु ी ने डू बने को चु लू-भर पानी भी रहने दया था?
दुहाजू स तानहीन जामाता क शाहजहाँपुर म िमटाई क ब त बड़ी दुकान थी।
ब त पहले, घर से भागकर उस पहाड़ी ा ण ने गुड़ क गजक-रे वड़ी का खोमचा
लगाया था । तब ढबरी के िलए आधी छटाँक तेल जुटाना भी मुि कल हो जाता था ।
आज ल मी क कृ पा से, बीिसय नौकर दुकान म खोया घोटते थे । दामाद को देखकर
राजे री क माँ तो जोर-जोर से रोने लगी । पिलत के श, भ द त-पंि , उस पर
दहकती भ ी के साहचय से याह पड़ गया चेहरा । राजराजे री क डोली या उठी,
कसी ाणहीना क अरथी उठी। राजराजे री को िवदा करने के बाद उसक माँ ने
खाट पकड़ी तो फर नह उठी । आंख म अमृत क अंजन शलाका-सी प ी का िवछोह
मिहम ितवारी के िलए अस हो उठा । वह दन-रात, याक और भो टया भेड़ पर
बीस-बीस सेर के थु मे लाद, इधर-उधर भटकने लगे । एक दन उनका का फला िबना
वामी के ही घर लौट आया । लोग ढू ँढ़ने िनकले और कई दन बाद उनक लाश एक
गहरी घाटी म पड़ी ई िमली । पता नह , वामी को ोधी ित बती याक ने ही उस
गहरी घाटी म िगरा दया था, या वह वयं ही जीवन क र ता से ऊबकर उस गहराई
म टू टकर िबखर जाने को कू द गए थे।
राजराजे री अपने पचास वष के पित के साहचय के कु छ ही दन बाद जान गई
क सुदरू वासी होने पर भी उसक कलंक कथा के अिभश पृ उड़ते-उड़ते यहाँ उसके
पित तक भी प च ँ गए ह। वह इसी से और भी सावधान बनी, फूँ क-फूँ ककर पैर रखने
लगी। न कभी हँसती, न सजती-सँवरती । घर से बाहर जाना तो दूर, वह आंगन म या
छत पर भी न जाती। यहाँ तक क कभी आईने के स मुख भी खड़ी नह होती । फर उस
शंकालु वभाव के ि ने भी अपनी ओर से प कलेब दी करना आव यक समझा !
दुकान पर जाता तो अपनी सु दरी प ी को ताले म ब द कर जाता । ठीक एक वष
प ात च दन ई, पर फर भी वह ताले म ब द रखी गई । सु दरी प ी ारा
ईमानदारी से तुत क गई स तान को भी वह िनमल िच से हण नह कर पाया ।
उसके अहम ने उसका मि त क स भवत: कु छ अंश म िवकृ त ही कर दया था । दुकान
का काम भी अब नौकर-चाकर देखते। वह चौबीस घंटे, अपनी बि दनी प ी के इद-
िगद भौरे -सा मँडराता रहता । उससे एक ही बार-बार पूछता, “ य जी, यह तो
मेरी ही पु ी है न? कह पानी तो नह िमलाया दूध म?”
फर वह अपनी िवकृ त हँसी से उसे सहमा देता, पर तब भी वह आ यजनक धैय
से िच क झुँझलाहट पर कड़ा अंकुश गाड़कर रख देती ।
“पागल हो गए हो या?” वह ऐसी मीठी मु कान का मधु घोलती क सनक
हलवाई को अपनी तीन-तार क चाशनी का मरण हो आता ।
“बस तो तुझे हवा ने भी नह छु आ!” वह एक बार फर, उसक प र मा करता,
उसे पान के प -े सा फे रने लगता, “बुरा मत मानना री, पर अभी उस दन अखबार म
पढ़ा क िवलायत म एक मेम ने, तेरहव महीने ब ा जना है । मेरा बस चलता, ता ऐसी
खबर छापनेवाले को गोली से उड़ा देता । या िमलता है इ ह ऐसे कसी क हरी-भरी
गृह थी चौपट करके !”
राजे री का सवाग घृणा से िसहर उठता । उसके जी म आता, उस ठगने, ठु के ,
द तहीन कलूटे को, उसी क चाशनी म डु बोकर रख दे; ले कन उसके िलए यह सब
सहना जैसे ायि त करना था । वह श िजतना ही उसको दबाता, वह उतनी ही
अिधक दबती । त-अनु ान म अपने को डु बाकर रख देती। बूढ़े पित क वह स े अथ
म सहध मणी बन चुक थी। वह पग-पग पर उसके पित य क परी ा लेता, पर कभी
मुँह क नह खाती । कभी-कभी खाँसते-खाँसते वह थाली ही म थूक देता और फर जूठी
थाली प ी क ओर िखसकाकर कहता, “इसी म खा लेना, ढेर-सी स जी परस दी थी
मुझे । भला इतनी स जी य बनाती है तू?” और वह चुपचाप अिधक स जी बनाए
जाने का दंड वयं भोगने के िलए थाली म बची-खुची जूठन का चरी-भूसा िनरीह गैया
क भाँित िनगल जाती ।
च दन दो वष क भी नह ई थी क राजराजे री िवधवा हो गई । पाँच ही दन
के चर म बूढ़ा मरा तो यह भी नह बता पाया क अपनी अटू ट स पि वह कस चू हे
के नीचे गाड़ गया है । सूम क स पि क , वही तृतीय गित ई, जो ायः आ करती है
। राजराजे री को अिलिखत िवल के प म ा ई, एक बड़ी-सी हवेली, अ सी वष
क अ धी-बहरी सास, सात-आठ कड़ाही और आठ-दस थाल बासी लड् डू -बफ , िज ह
अथ उठानेवाले वयं ही िनकालकर खा गए।
जेठ क छ म बीड़ी के ापारी थे, उतनी दूर अ धी माँ क पोटली कहाँ लादे
फरते? देवर-देवरानी पहले ही क ी काटकर यारे हो चुके थे। इसी से बेचारी
राजराजे री अके ली ही इस िवराट हवेली म ब ी और बु ढ़या के साथ रहने लगी।
सुरगृह म आकर उसने एक ही सुख का उपभोग कया था और वह था हवेली के
आवास का सुख। उसके कृ पण पित ने जीवन-भर फटी बिनयान और चीकट धोती
पहनकर दहकती भ ी के साि य म, अपने जीवन क सब आकां ाएँ खो दी थ ।
क तु उसी ने, पता नह कस औदाय से उस सु दर हवेली के िनमाण म, छाती खोलकर
रख दी थी ।
पित क तेरहव के प ात्, आ मीय वजन कं िवदा होते ही, चतुरा
राजराजे री ने भिव य क योजना बना ली। इतनी बड़ी हवेली म, यह अबोध पु ी
और वय-भार से निमत होकर ब ी से भी अिधक अबोध बन गई अ धी-बहरी सास को
लेकर कै से रहेगी? तीन कोठ रयाँ अपने िलए रखकर, उसने पूरी हवेली, ग स कू ल
बनवाने के िलए दान कर दी । पूरे शहर म, उस वािसनी पवतीय िवधवा युवती के
दान क चचा चल पड़ी । कोई कहता, ‘‘ दल हो तो ऐसा ही हो । चाहती तो कसी
द तर को कराये पर उठाकर, िज दगी-भर आराम से पैर पसारे दन काट लेती !” कोई
कहता : “देख लेना म खीचूस बूढ़ा रात को ग स कॉलेज क ंिसपल क छाती पर
चढ़कर, उसके ाण ले लेगा।”
पर ऐसा कु छ भी नह आ । कू ल चला और चलते-चलते कॉलेज बन गया, और
उसी कॉलेज के साथ-साथ कदम रखती, चल पड़ी वयं दु:साहिसनी राजराजे री ।
कू ल क ंिसपल थ ौढ़ा िमसेज ख ा। उ ह ने वयं बाल-वैध क पीड़ा का
यथाथ भागा था। अपने फटे पैर क िबवाई ने उ ह पराई पीर क अनुभूित करा दी।
वयं उ ह ने वैध से मोचा लेकर, बुरी तरह पछाड़ दया था । सूने मन और चीखते
समाज से लोहा लेने को सारे दाँव-पच उ ह ने अपनी इस ितभावान िश या को िसखा
दए और फर अपने अखाड़े म ख चकर गंडा बांध दया । उ ह क ेहमयी छ छाया
म राजराजे री पढ़ने लगी। स तानहीना शारदा ख ा ने च दन को छाती से लगा
िलया । च दन उ ह दादी कहती थी और सगी दादी को कहती थी–हाऊ ।
सचमुच हौवा ही थी दादी । जूड़ा खोलकर वह कभी उलझे सफे द के श पूरे चेहरे
पर फै ला देती । दहाड़ मारती मृत पु को पुकारने लगती और कभी अपने अतृ यौवन
क उ ाम मृितय का ऐसा न दशन करने लगती क सड़क के आवारा छोकरे ,
तािलयाँ बजा-बजाकर उसे अ ील ढंग से बढ़ावा देते । एक दन अँधेरी रात म, वह
ऐसी ही अव था म रोती-कलपती घर से िनकली तो फर नह लौटी।
राजराजे री को उसके पैर म खड़ी कर, शारदा खाना भी समय से कु छ पूव
वे छा से अवकाश हण करके अपनी बहन के पास रहने िवदेश चली गई थ । उनक
बड़ी इ छा थी क च दन भी उनके साथ िवदेश चले, क तु राजराजे री के ाण ही
उस इकलौती स तान म बसते ह, यह वह बुि मती नारी जानती थी। उ ह ने च दन को
साथ ले चलने क िजद नह क । राजराजे री कह भूल से यह न समझ बैठे क
िन: वाथ भावना से कए गए अनु ह का ितपादन माँगा जा रहा है–इस बात का
परोपका रणी िमसेज ख ा ने पूरा खयाल रखा । ाण से भी ि य बन गई च दन को
छाती से लगाकर िमसेज ख ा ने आँख प छी और राजराजे री को ऐरो म के एका त
कोने म ख च ले गई ।
“राजे री!” उ ह ने िवदा लेते-लेते अपनी सखी और िश या के कान म गु म
क गाय ी फूं क दी, “लड़क के हाथ, ज दी ही पीले कर छु ी पा लेना । उसम ढील-
ढलाव मत करना, समझ ?”
“ य ?” भीतर ही भीतर एक अनजानी धड़कन म धड़कती राजराजे री का
कलेजा बैठ गया ।
वैसे तो वह सु दरी पु ी को दन-रात आँख म मूंदकर रखती थी । यौवन क िजस
देहरी पर उसने वयं एक घातक ठोकर खाई थी, उस पर कह लड़क भी ठोकर खाकर
न िगर पड़े, इसका वह दन-रात यान रखती थी। कॉलेज जाती तो वह साथ रहती,
लौटती तो वह पु ी के कदम से कदम िमलाती चलती । जाग क संिहका क ही भाँित,
वह िन य पु ी का छाया ास िनगलती रहती। पर या उसने वयं, अपनी ऐसी ही
सजग हरी बनी माँ को नह छल िलया था? अ माँ या कु छ जान पाई थ , जो वह
जान लेगी? हो सकता है, शारदा बहनजी ने कु छ दाल म काला देख िलया हो ।
“पगली कह क !” शारदा ख ा ने, उसक दोन दुबली कलाइयाँ थाम ली थ ,
“तु हारे िलए तो तु हारी च दन अब भी िबना ॉक के खाली क छे म घूमनेवाली
च दन है, य ? तु हारी लड़क -सी सु दर लड़क पूरे शहर म दीया लेकर ढू ँढ़ने पर भी
नह िमलेगी, राजे री! ऐसा प, िजसे देखकर हम अधेड़ औरत क भी आँखे झपकना
भूल जाती ह, फर उस सौ दय के िचकने प थर पर, कस नौजवान के पैर नह
फसलगे? जरा अपने पड़ोस पर ही आँख फे रो। एक से एक गब जवान पटे पड़े ह। वह
भी तु हारी िबरादरी के होते तो मुझे िच ता नह थी। अँगुली उठाते ही तुम एकसाथ
सह राजपु का वयंवर अपने आँगन म ही रचा सकती थ । पर भगवान न करे ,
उनम से एक क भी आँख इस पर पड़े । इसी से कहती ँ राजे री, तु हारी कई छु याँ
पड़ी ह, ल बी छु ट् टी लेकर पहाड़ चली जाओ और अ छा घर-वर देखकर चटपट गंगा
नहा लो । कसी भी समाज म पमती पु ी क माँ के िलए जामाता ढू ँढ़ना कोई िसरदद
नह होता । ऐसी भा यवती सास को दामाद ढू ँढ़ने नह पड़ते; दामाद वयं उसे ढू ँढ़ लेते
ह ।”
ठीक कह रही थ शारदा बहनजी ।
सारी रात वह बेचैनी म डू बी, बरामदे म टहलती, आसपास क हवेिलय के बुज
को देखती रही। उसक हवेली के चार ओर, कं धे पर हाथ धरे , शाहजहाँपुर के समृ
रोिहला पठान क ऊँची-ऊँची को ठयाँ खड़ी थ । एक से एक सु दरी, गोरी-नीली
आँख वाली, कोहकाफ क -सी प रयाँ हाथ िहला-िहलाकर, सु दरी च दन को िन य
अपने यहाँ बुलाती रहत । आज ईद है, कल मौलूद है, परस पीर मलंग क मजार पर
चादर चढ़ेगी और हर उ सव म च दन को साथ ले चलने का दुरा ह ! राजराजे री के
हाँ या ना कहने से पूव ही, कभी बचपन से उसके साथ खेली तािहरा च दन को घसीट
ले जाती, कभी नसीम न जाने कब उनक ईद, इस छोकरी क भी ईद बन जाए! यह
िच ता ही तो अब उसे सताने लगी थी। दन डू ब,े ितवेिशनी सखी के उ सव-समारोह
से, च दन खस और िहना-मोितया म सँवरी लौटती, तो राजे री उसके िनद ष चेहरे
क म ा तक अपनी स धानी दृि से उधेड़कर देख लेती । च दन के प क ओर अब
तक उसक दृि ही नह पड़ी थी। शारदा बहनजी क चलते-चलते दी गई िश ा ने
च दन को या एक ही दन म बदल दया था?
या रं ग था लड़क का गुइयाँ और कै सी अपूव आँख– एक तो इधर उसक तािहरा
ने, उन शरबती आँख म सुरमे के याह डोरे डाल, उ ह और भी सरस बना दया था,
उस पर पारदश वचा पर मुसलमानी धानी-ऊदे ल छे क शोभा, लहर-सी मारने
लगी थ ।
“चची ने िजद कर एकसाथ इतनी चूिड़याँ पहना द , अ माँ! पूरे चार पये क ह
।” वह चची के औदाय का बढ़ा-चढ़ाकर उ लेख करती, ठी माँ को मनाने का य
करती। वह जानती थी क अ माँ, चाहे मुँह से कु छ न कहे, क तु अपनी खतरनाक
आँख के डम बजाकर, उसे शाखामृगी-सी ही उठा-बैठा सकती है ।
ितवेशी मुसलमान प रवार के लड़के भी, सब नहले पर दहला थे । एक से एक
बाँके, सजीले जवान, कभी कोई पा क तान के इं जीिनय रं ग कॉलेज से छु याँ िबताने
आ जाता, कभी कोई अलीगढ़ का अधूरा डॉ टर ही, बारजे म सी टयाँ बजाता, िनरथक
च र लगाने लगता । जब-जब उनके छु य म घर आने क खबर राजे री को
िमलती, वह वयं गे टापो बनी पु ी के पीछे, छाया-सी डोलने लगती । वह वयं,
ेमदुग क एक-एक गु सुरंग से प रिचत थी, कब और कै से पु ी माँ को छल सकती है,
वह सब सूँघकर ही बता सकती थी, क तु इतना वह जान गई थी क पु ी क िनद ष
दृि म, अभी कह भी छल-कपट क धोखाधड़ी नह उभरी है, क तु कभी भी
डाइनामाइट का धड़ाका, उनक गृह थी क सुदढ़ृ च ान को ढहा सकता है । तब य न
वह वयं आग क जली, समय रहते ही मठा भी फूँ ककर पी ले !
ल बी नीरस नौकरी के म म उसने कभी एकसाथ दस दन क भी छु ी नह ली
थी। दूसरे ही दन दो महीने क ल बी छु ी लेकर, वह यह कहकर पहाड़ चली गई क
माँ-बाप का, बड़े शौक से बनवाया घर एकदम खँडहर हो गया है, ऐसी िच ी घर से
आई है, वह उसी क देखभाल करने जा रही है ।
पु ी के उ साह का अ त नह था, क तु जैस-े जैसे अलमोड़ा िनकट आता जाता,
उसक माँ अ वाभािवक प से गुमसुम बनी जा रही थी। लाल-कु आँ का टेशन आते ही
राजे री को न जाने कै सी दहशत होने लगी । उसे अभी भी यही लग रहा था, जैसे
कनेर क घनी छाँह म, सा ात् दुवासा बने उसके ोधी बाबूजी थरथरा रहे ह और
लपपो ट क कु हरे म काँपती लौ म उसके वष के िव मृत ेमी का सफे द पड़ गया
चेहरा, कसी अदृ य तर मू त म, वहाँ सदा के िलए खुदकर रह गया है ।
अलमोड़ा प च ँ ने का तार उसने अपने आ मीय वजन को न देकर अपनी एक
प रिचता ेही धाना यािपका को दया था, जो अपनी अ यािपका क , एक छोटी-
मोटी फौज ही लेकर बस टड पर माता-पु ी क ती ा म खड़ी थी। दोन ने एकसाथ
एल. टी. कया था । फर र ते म शाि त, शारदा बहन क मौसेरी बहन भी लगती थी।
बड़े ेह से, वह माँ-बेटी को लेकर अपने िजस बँगले म प च ँ ी, वहाँ राजराजे री पल
भर को, ठठककर खड़ी रह गई । अचानक जैसे कसी ने, पैर म लोहे क बेिड़याँ डाल
दी ह ।
“ कतना ब ढ़या बँगला है न, अ माँ? एकदम कसी राजा का महल लगता है यह
तो !” च दन चहकती जा रही थी, पर उसक माँ को तो ू र िनयित, पग-पग पर अँगूठा
दखाती, िचढ़ाती जा रही थी।
“हाँ-हाँ, ठीक ही कह रही है बेटी !” शाि त ने कहा। वह उ ह िजस तेजी से लेकर
दीवानखाने म प च ँ ी, उसके िलए राजे री तुत नह थी ।
“ मा करना शाि त, मोटर क ल बी या ा के घुमार से मेरा िसर अभी भी चकरा
रहा है ।” यह सामने धरी एक मखमली कु स पर ही ध म से बैठ गई । कु स वहां बड़े
मौके से धरी न िमलती तो शायद वह नीचे ही बैठ जाती । सचमुच ही कोई उसे बाँह म
िलए तेजी से च र िखला रहा था । पर वह या मोटर-घुमार था?
कमरे क एक-एक कु स , एक-एक मेज, झाड़फानूस के लटकन म िलपटी- मृितय
के ेत कं काल, उसे घेरकर मंडलाकार नृ य म घूमने लगे। अब तक अवश पड़ी सह
मृितयाँ, िज ह उसने हलवाई पित क उबलती चाशनी म, गृह थी के पाग म पागकर
रख दया था, वे एकसाथ सह भाले तानकर खड़ी हो ग । दीवार पर लगे राजा
साहब के िनज व िच म भी जैसे कसी ने पल-भर को जान फूँ क दी थी– ं य से मूँछ
बं कम ि मत म तनी, उसे छेदने लग ।
“तुम चलकर आराम से मेरे कमरे म लेट जाओ, राजे री!” शाि त बोली, “लगता
है, बेहद थक गई हो, एक न बू डालकर गम चाय िपलाऊँगी तो तु हारी सब घुमारी दूर
हो जाएगी।”
पर उस कोठी का कौन-सा कमरा ऐसा था, जहाँ वह आराम से लेट सकती थी ?
कस कमरे म, उसके ेमी का ेत उसक छाती पर सवार हो, उसका गला नह दबा
बैठेगा ?
शाि त के कमरे म जाकर वह और ाकु ल हो उठी । यही तो था कु दन का
कमरा। अपने िपता क खुकरी से उसने, इसी कमरे क दीवार पर लता-प ां कत एक
पान का प ा खोद, दो अ र, खजुराहो क िमथुन मू तय से गूँथकर रख दए थे–‘के ’
और ‘आर’ । शायद अभी भी वह ह ।
शाि त, चाय बनाने चली राई थी और पहली बार पहाड़ को देखकर मु ध हो गई
उसक चपला पु ी कभी भाग-भागकर, झूमते, देवदार- म ु को देख रही थी, कभी
िहमा छा दत कामेत और ि शूल क चो टय को। वह एका त के अल य ण पाकर
सहसा बौराकर, दीवार को घूम-घूमकर देखती, अपनी मृितय का खोया खजाना ढू ँढ़ने
लगी ।
रं ग-चूने क अनेक परत के नीचे, सहसा एक-दूसरे से गुंथे दो अ र उसे िमल गए
। भावुक कै शोय क िलखावट क याही या ऐसी ही अिमट होती होगी? अं ेजी क
एक कहावत को वह मन-ही-मन दुहराने लगी- ‘ थम ेम क कभी मृ यु नह होती।
फर वह तो उसका थम और अि तम ेम था ।’
“लो, चाय पी लो।” शाि त चाय का याला लेकर आई तो वह ऐसी च क , जैसे
पोरी करती, रँ गे हाथ पकड़ ली गई हो।
शाि त ने उसे चाय थमाई, फर अपना याला लेकर कु स पर बैठ गई ।
“यहाँ रहने का बस यही आन द है, राजे री! !” वह चाय क चुि कयाँ लेती
कहने लगी, “ब त ही सामा य कराये म यह फ न ड कोठी िमल गई-दरी, गलीचे,
सोफा सबकु छ। सुना है, कसी राजा साहब ने अपनी िम ेस के िलए बनवाई थी, पर
िजसके भा य म आवास का सुख िलखा होता है, उसी को िमलता है । है न ? कोठी बनी
िम ेस के िलए, िमली हेड िम ेस को ।” और वह अपने अनूठेपन पर वयं यौछावर
होती, हँसती-हँसती उठ गई, “देखूँ तु हारी बेटी कहाँ घूम रही है? उसे भी चाय का एक
याला िपला दू,ँ राजे री”–वह चलती-चलती एक बार मुड़कर कहने लगी, “जब
तु हारी िच ी िमली क तुम अपने समाज म, च दन के िलए लड़का ढू ँढ़ने आ रही हो
तब तु हारी द कयानूसी पर मुझे बड़ा गु सा आया, खुद तो वैध क ठोकर खाकर तुम
वावल बी बन सक , अबोध पु ी को या पूरी िश ा भी नह दोगी ? मुझे बड़ा
अचरज-सा आ था। अभी तो लड़क ने इं टर कया है, छोटी-सी लड़क – फर आजकल
तो इं टर म आकर लड़ कय के दूध के दाँत टू टते ह । सोचने लगी, या दमाग फर गया
है राजी का, जो इस क ी उ म उसके िववाह क सोच रही है? पर आज तु हारी
िब टया को देखा तो तु हारी समझदारी क दाद ही देनी पड़ रही है ।”
“ य ?” एक बार फर राजे री के शंकालु वभाव का सजग श ु गदन उठाने
लगा ।
“पगली!” वह हँसकर कहने लगी, “दामी हीरे को या समझदार संसारी गाँठ म
बाँधकर रखते ह? िजतनी ज दी अपने इस अनमोल र को कसी सु िति त बक म
जमा कर सको, उतना ही अ छा है । मने, तुम दोन के िलए ऊपर का कमरा ठीक करवा
दया है । यहाँ तो सुबह छह ही बजे कमरे म धूप आकर जगा देती है ।”–भूल कर रही
थी शाि त ।
ठीक साढ़े छह बजे धूप आती थी उस कमरे म और कभी-कभी उस धूप से भी
पहले आकर कोई उस कमरे के सुदशन सोनेवाले को गुदगुदाकर जगा देती थी।
“आजकल तो मकान-माल कन वयं आई ई ह। उसने कहा और राजे री क
बस, जैसे उसे म रवाली के घुमावदार मोड़ पर, एकसाथ सौ बार तेजी से घुमा गई ।
“वैसे मकान-माल कन क लड़क ह डॉ. चि का िव , टोरॉ टो म ही माँ-बेटी
बस गई ह । माँ वह ह, ये इस बार घर क देखभाल करने और भाई से िमलने चली आई
ह। कल वापस चली जाएँगी । बड़ी ही िमलनसार मिहला ह, जैसी ही सु दरी ह, वैसी
ही िवदुषी । था -भो टया उ सव पर डॉ टरे ट ली है।”
एकसाथ कई हथौिड़याँ राजे री क कनपटी पर घन क -सी चोट करने लग –तो
या कु दन संह भी यहाँ था? इ ह सोलह कमर म से कसी एक म? या उसके िच
म भी कै शोय के उस दौब य क खर च का िनशान बचा होगा? या पता, लड़कपन क
उस छलाँग क , अब मृित ही शेष हो ?
क तु या वह लड़कपन था ? क तु य द वह लड़कपन ही था तो य आज भी
उ ीस वष के अ तराल को पार करने पर अब भी उसका ौढ़ कलेजा, धड़कता, मुँह
को आ रहा था? य त कये म गड़ाए गए चेहरे का, एक-एक कपोल दहकती भ ी बन
रहा था? य अब भी, वह उसी रात क -सी दु:साहसी छलाँग लगा ेमी क बाँह म
िसमट जाने को िववेकशू य अिभसा रका-सी ाकु ल हो उठी थी ?
रात-भर, कं ठ म अटक गई कु नैन क गोिलय क ही भाँित, वष क भूली-िबसरी
मृितयाँ, उसके मुँह का वाद कड़वा कर गई । जो चि का कभी उसे ाण से भी ि य
थी, िजससे िमलने वह माता क कठोर धमक क बड़े दु:साहस से अवहेलना करती
खूँटा उखाड़कर भागी ड ं ल
े बिछया-सी ही भागती थी, आज उसक ही स भािवत
मुठभेड़ का भय उसे सहमाने लगा । अचानक उसके दमाग म िबजली-सी क धती, एक
नई योजना झटका दे गई । य न दन िनकलने से पहले ही वह वयं ही कह घूमने का
बहाना कर िनकल पड़े? शाि त तो कह ही रही थी क आठ बजे क बस नह भी िमली
तो डॉ. िव , दस बजे क बस से तब भी िनकल जाएँगी। चटपट उठकर वह तैयार हो
गई ।
न जाने कतने वष से वह काषार देवी के दशन को ललक रही थी। आज उसी दूरी
को नापकर जब वह घर लौटेगी, तब तक मकान-माल कन िन य ही िवदा हो चुक
होगी। आ त होकर वह उठी और िखड़क खोलकर बाहर देखने लगी। उजाला आकर
पूरे बरामदे म फै ल गया था । िखड़क ब द थी, इसी से या वह भुलावे म रह गई?
पलटकर उसने पास क पलंग पर बेखबर सो रही बेटी को देखा । थके सलोने चेहरे पर
सूय क म द आभा फै ल गई थी । कतनी बार उठ-उठकर वह उसके िचिड़या के -से छोटे
अधरपुट वयं ब द कर देती थी–‘मुँह से साँस लेना अ छा नह होता च दन, मुख ब द
य नह करती?’ वह लाख बार टोकती, क तु ब त पतली गढ़ी गई यूनानी नाक के
सुघड़ नथुन से साँस लेते ही उसके न ह ह ठ फर खुल जाते, जैसे पाटल क मुँदी कली
ह । आज भी दोन हाथ छाती पर धरे मुँह खोल वह ऐसी ही गहरी न द म डू बी थी क
उसे कोई काटकर फक भी देता तो शायद वह न जान पाती । ऐसे म, उसे या िबना
जगाए ही छोड़ जाना ठीक होगा? चुलबुली चि का कह उससे िमलने आई और पु ी
को ही जगाकर, कु छ अंड-बंड बक गई तब? वह िसर फरी, कु छ भी कर सकती थी। या
पता, उसे और कु दन को लेकर कु छ मजाक ही कर बैठे? वैसे वह मन-ही-मन अपनी
मूख आशंका के खोखलेपन को वयं समझ रही थी। ऐसी बचकानी बात भला चि का,
उसक पु ी से अपनी पहली ही मुलाकात म कभी कह सकती थी? क तु पग-पग पर
चोट खाया राजे री का दुबल िच , पागलखाने म िबजली के झटक से सहमाए गए
कसी रोगमु रोगी के िच क भाँित, सामा य िनमूल आशंका से ही त हो उठता
था । य न उसे भी जगाकर, वह अपने साथ ले चले ?
ठीक इसी क उमर क थी वह । जब ऐसी ही एक उजली भोर के धुँधलके म घर से
भाग आई थी और ठीक इसी कोने म खड़ी हाँफने लगी थी। भोली माँ को कै से-कै से
छलावे क ल छेदार बात म भरमाकर वह उस दन आ पाई थी, कू ल क कसी
मा टरनी ने ए ा लास लेने हाई कू ल क पूरी क ा को सुबह सात बजे बुलाया है,
फर वह सबको खाना िमलेगा और सब पढ़कर दन डू बे लौटगी, आ द-आ द । बात
असल म दूसरी थी, कु दन ने ही योजना का सू पात कया था क बहन और उसक
सहेली को लेकर वह काषार देवी जाएगा, वह उसका एक िवदेशी िच कार िम भी
रहता था । दन-भर उसके बँगले म िबताकर िपकिनक भी मना ली जाएगी और मि दर
के दशन भी हो जाएँगे । राम यारी ने बड़े से कटोरदान म ना ता भर, तीन को एक ऐसे
अ चिलत माग क बीहड़ सुरंग से िवदा कर दया था, जहाँ से लोग, कभी-कभार
अरथी कं धे पर धरकर ही िनकलते थे। दो मील का िनरथक फे र लेते, तीन काली िम ी
क सुर य सड़क तक प च ँ पाए थे । माग-भर, कु दन उसे काली सड़क क कािलमा का
इितहास बताता गया था। कै से कु माऊँ के लोहिनय ने यहाँ लोटकर होम कया था,
इसी से होम करनेवाल का नाम सदा के िलए पड़ गया ‘लोहमी’ और सड़क हो गई
जलकर खाक :
‘पर म िबरहन ऐसी जली–
क कोयला भई न राख!’
कहता, वह उसके चेहरे के पास ही अपना हँसता चेहरा ले आया था। च ी बार-
बार जान-बूझकर ही िपछड़ गई थी, िजस एका त क दो ेम-िवभोर दय को कामना
थी, उसके यथोिचत ब ध क सूझ-बूझ शायद माँ के पेशे ने, च ी क र म ा म
वयं ही बसा दी थी । वह कभी-कभी इतनी दूरी का फासला रखती िपछड़ जाती क
दोन णयी कसी च ान पर बैठकर उसक ती ा करते और हर फलांग क दूरी पार
कर च ान पर कया गया वह िव ाम राजे री के चेहरे को और भी सु दर बना देता ।
आज सोती पु ी को देख उसे ऐसा लगा, जैसे कै शोय के दपण म वह वयं अपना
ही ितिब ब देख रही है। कतनी- कतनी कही-अनकही बात नवीन प लव-सी अंकु रत
ेमी क मूँछ का थम पश, और काली िम ी क ल बी सड़क पर सदा-सदा के िलए
अं कत हो गए दो जोड़ी अनुभवहीन पैर के पदिच न सहसा उसक बड़ी सूझ-बूझ से
रची योजना को िमटाकर रख गए । वह जाए या न जाए, इसी उधेड़बुन म खड़ी
मृितय के सागर म डू ब-डू बकर उतरा रही थी क ार खोलकर हँसती-हँसती शाि त
खड़ी हो गई ।
“लो, तुम तो एकदम फटफाट होकर तैयार भी हो ग , यहाँ श भी नह कया ।
डॉ. िव , सुबह से ही कु छ िलखने-पढ़ने म लगी थ । सोचा, तुमसे िमला दू,ँ फर तो
आज चली ही जाएँगी । कु माऊँ क इस ितभाशािलनी मिहला से तु हारा प रचय न
कराती तो मन म एक लािन ही रह जाती ।–अरे , आप यह आ ग ? म तो राजे री को
आप ही के कमरे म ला रही थी ।... ”
िवदेशी जी स म, कटे के शगु छ का फु गा, बड़ी अदा से पीछे फकती, िसर से पैर
तक िबलकु ल ही बदल गई चि का, या उसका नाम सुनकर भी नह समझी? वह
िवदेशी म ती म झूमती, हाथ बढ़ाती राजे री क ओर बढ़ी और सहसा, कसी अदृ य
ख ग क धार ने जैसे उसके बढ़े हाथ को कलाई से काटकर िवलग कर दया । शू य म
हाथ लटका और उसका मुँह आ य से खुला ही रह गया–“राजी–तू!”
उ र म राजे री हँसने लगी, क तु वह िबलखकर रोने भी लगती तो शायद
उसका सफे द पड़ गया चेहरा उतना क ण नह लगता।
चि का ने लपककर उसे बाँह म भर िलया, “अरी, तू तो और भी दुबला गई है
री!” वह उसे छेड़ती, दुलारती एक बार फर पुरानी चि का बन गई । “मने तो सुना
था तूने कसी हलवाई क दुकान म अपने प क चाँदनी िछटका दी है । म तो सोच
रही थी, तू इमरती, बालूशाही खा-खाकर खूब मु ठया गई होगी।” इतना कहते ही वह
अपनी ग भता से वयं संकुिचत होकर सहम गई । सखी का, ीहीन वैध -मंिडत
चेहरा उसे उपाल भ दे उठा ।
शाि त, हतबुि -सी खड़ी-खड़ी उस िविच िमलन को देख रही थी । कं ठ- वर के
गूँजने के ाघात से बेखबर सो रही च दन भी जगकर पलंग पर ही बैठ गई थी। कौन
ह गी ये? अ माँ ने तो कभी उसे अपनी इस सहेली के बारे म कु छ नह बतलाया था,
फर भी वे िजस अ तरं गता से उसक माँ से िलपट , बार-बार िपछड़े दन क मृित म,
आँख प छ रही थ , उसे देखकर लगता था, वह कभी उसक माँ से घिन मै ी क डोर
म बँधी रह चुक थ । कै सी ठसके दार मिहला थ ! लड़क क -सी चु त काली पट,
सतरं गी जस और कटे के शगु छ क एक-एक तरं ग जैसे ग द से िचपकाई धरी हो ।
“ मा क िजएगा ।” वह शाि त क ओर मुड़ी और ठे ठ िवदेशी िश ाचार के ठसके
म दुहरी होकर मा माँगने लगी, “हम दोन बचपन क सहेिलयाँ ह, आपने दो-तीन
बार शायद इसका नाम भी िलया था, पर म इतनी मूख ँ क तब भी नह सोच सक
क यह मेरी राजी भी हो सकती है।”
“अरे ! यह या तेरी लड़क है?”
वह झपटकर, लजाती च दन को, िब तर से बाहर ख च लाई और दोन बाँह म
थाम, हाथ-भर क दूरी पर घर, मु ध होकर उसका गुलाबी पड़ गया चेहरा देखने लगी,
“ऐ शाबाश, कटोरे पर कटोरा बेटा, बाप से भी गोरा–ऐसी ही कु छ पहेली भी है न ?
राजी, म तो आज तक सोचती थी क तू ही संसार क सव े सु दरी है, पर यह तो
आसानी से कसी भी िमस यूिनवस को चुट कय म उड़ा देगी।”
बड़े लाड़ से उसने सखी क लजाती छु ईमुई बन गई िब टया का माथा चूमा और
बड़े अधैय से हाथ क घड़ी देखती कहने लगी, “डेम इट! ऐयर पैसेज बुक न कया होता
तो आज तुझे छोड़कर कभी नह जाती। ऐ राजी, चल न मेरे साथ पुर ।” फर
अचानक, अपने ताव क धृ ता से वयं ही सहमकर, पल-भर को चुप हो गई ।
कस दु:साहस से वह उसे अपने साथ पुर चलने का यौता दे रही थी ?
ि गेिडयर भाई के तराई फाम क लहलहाती फसल, ार पर बँधे हाथी-से े टर, पाँच
पु और उसक थूलांगी प ी को देखकर, यह या सुखी होगी ?
“चल न, मेरे जाने से पहले एक िमनट के िलए मेरे कमरे म तो चल । आई होप यू
वो ट माइं ड।” एक बार उसने झुक-झुककर, अपनी टेनट और सखी क पु ी से मा
माँगी, फर राजे री को अपने साथ ख च ले गई ।
िवदेश से लौटकर, चि का जैसे बढ़ती वयस को पीछे धके लती और भी चपल डग
धरने लगी थी।
कमरे म प चँ कर, उसने अपने िलए एक कु स ख च ली और खाली पलंग पर धरा
अपना िवदेशी ह का सूटके स हटाकर राजे री को हाथ पकड़कर बैठा दया । कु स पर
बैठते ही, उसने अपना सुनहला िसगरे ट-के स िनकाल िलया और एक िसगरे ट जलाकर
फूँ कने लगी ।
“िछ: िछ: चि का!” ज मजात सं कार क िसहरन से, ा ण कु ल क पु ी क
रीढ़ काँप उठी । “तू या िसगरे ट भी पीने लगी है?” उसने कहा ।
“ओ िसली ।” चि का जोर से हँसी और उस खोखली हँसी ने सु दर चेहरे का
मुखौटा, उतारकर दूर फक दया । रगे के श, नुची भ ह, िचपकाई गई पलक और िनरं तर
िलपि टक के हार से, सूखे पपड़ी पड़े अधर, कतनी थक और अधेड़ लग रही थी
चि का! “यह पूछ क या नह पीने लगी !ँ िजस समाज म अब रहने लगी ,ँ वहाँ
िसगरे ट तो दुधमुंहे ब े माँ का दूध छोड़ते ही पीने लगते ह और सयाने कु ला भी करते
ह तो शराब से! ”
राजे री उसे फटी-फटी आँख से देख रही थी । दोन एक ही वयस का
माइल टोन थामे खड़ी थ , क तु दोन चेहर म कतना अ तर था! एक चेहरे को संयम
और स र ता के तेज ने ऐसा चमका दया था क वयस के दस वष वयं ही घटकर रह
गए थे, उधर असंयम क याही से याह बना दूसरा चेहरा, एक ऐसी थक अधेड़
मिहला का था, जो कसी भी पु ष के क ध का सहारा पाते ही ढु लक सकती थी।
“ य राजी, या द ा के िलए कु छ भी नह पूछोगी?”
राजे री चुप रही, फर भी उसक चु पी से उदंड चि का नह सहमी । उसक
ठं डी हथेिलय को सहलाती, वह फु सफु साने लगी, “तू तो कु छ नह पूछती, पर इस बार
उससे िमली तो उसने अ माँ क कु शल पूछने से पहले तेरी ही कु शल पूछी । तू कहाँ है,
तूने या सचमुच ही कसी हलवाई से शादी कर ली है? तेरा पित कै सा है, या तू मुझे
िचट् ठी भी िलखती है? आ द-आ द और–एक तू है क झूठे मुँह से ही उसक कु शल नह
पूछती । वह तुझे भूला थोड़े ही है! इसी से तो पी-िपलाकर, िलवर एकदम चौपट कर
िलया है बदजात ने! एक दन, अपने बड़े लड़के को देर से घर लौटने के िलए खूब डॉट
रहा था। मने अके ले म छेड़ दया, ‘ य द ा, लड़के को तो मेरे सामने ही ऐसे डाँट दया
क आँसा हो गया, पर या अपना लालकु आँ भूल गए?’
“हँसने लगा, बोला, ‘उसे कभी भूल सकता ,ँ च ी! मेरा बस चले तो उस टेशन
का नाम बदलकर रख दूँ ताजमहल ।’ ”
राजे री एक श द भी िबना कहे उठ गई । अपने उठने क मु ा से ही, उसने िबना
कु छ कहे भी प कर दया क वह अब गड़े मुद उखाड़ने के मूड म नह है । दोन
सिखयाँ, मन-ही-मन एक ही बात सोच रही थ ।
राजे री या अब पहले क राजे री रह गई है? नह तो द ा का नाम सुनकर
या िन वकार मु ा म बैठी रह सकती ?–सोच रही थी चि का ।
उधर चि का क बेहया वेशभूषा, फकाफक िसगरे ट फूँ कना और अनवरत बकर-
बकर से राजे री उठकर जाने को ाकु ल ई जा रही थी। िजस अतीत क डोरी, कटी
पतंग क डोरी-सी ही उड़कर शू य ि ितज म िवलीन हो गई थी, उसे फरकर ख च भी
लेगी तो हाथ या लगेगा? शायद यह नुची-फटी पतंग-सा ही फटे यथाथ का टु कड़ा ।
चतुरा राजे री ने हँसकर, उसक बात का संग ही पलट दया, “ तू शायद यह
भूल गई है, च ी, क म अब एक िववाहयो य क या क माँ ।ँ इसी से तो पहाड़ आई
,ँ ता क देखभालकर कोई लड़का ढू ँढ़ सकूँ ।”
“जैसा तूने अपने िलए ढू ँढ़ा था या जैसा तेरी माँ ने तेरे िलए ढू ँढ़ा था ।” चि का
जान-बूझकर, उसक बिखया उधेड़ने पर तुली थी।
राजे री कु छ कहती, इससे पहले ही परदा उठाकर च दन माँ को ढू ँढ़ती आ गई
थी, “अ माँ, तुमने चािबय का गु छा कहाँ रखा है?”
उसी के पीछे-पीछे, शाि त अपने अितिथय को, मेज पर लगे ना ते का तकाजा
करने आ गई। चि का के जाने तक फर दोन सिखय को आपस म उलझने का एका त
नह जुट पाया ।
चलते-चलते शारदा बहनजी क भाँित, चि का भी उसे वैसी ही सीख दे गई थी,
“राजे री, ऐसी सु दर लड़क को साथ िलए, इधर-उधर मत फरा कर । जमाना ब त
सुिवधा का नह है, अ छा लड़का देखकर इसे ठकाने लगा दे।”
राजे री, आ मीय वजन क बार-बार दी गई उस ेहपूण चेतावनी से भी बुरी
तरह झुँझलाने लगी थी। लड़का या आकाश से टपक पड़े? क तु बार-बार दोहराई गई
वह सीख, उसे भिव य के ित और भी सतक बना गई । अचेत म चल रहे िनर तर
संघष ने िवकट प ले िलया, अपने अ तर के उस अमूत भय को न उसका चेतन समझ
पाया, न उसने समझने क चे ा क । प रणाम व प पु ी पर उसका कठोर िनय ण
और कठोर हो गया ।

कु छ दन अलमोड़ा रहकर वह धारचूला चली आई । यहाँ आकर जैसे उसके उलझे-थके


िच को िणक शाि त िमल गई । एक अस से उसके पैतृक मकान म एक अ यापक का
प रवार रहता था, उसके आने के कु छ ही दन पूव अ यापक क बदली हो गई थी। जब
राजे री ने ितवेशी प रवार से चाबी लेकर मकान खोला, तब वह उसे साफ-सुथरा
िमला । उसके िपता एक ल बे अस से ‘शौक न’ प रवार से घुल-िमलकर एक कार से
वयं ही उनके रहन-सहन के रं ग म रँ ग गए थे, इसिलए उनके मकान क बनावट म भी
ठे ठ ‘शौक’ मकान क िनमाण-कला जीव त हो उठी थी। लाल वा नश के शीशम के
नीचे ार, ित बती ारपाल और शादूल बने काठ के झरोखे, और सबसे ऊपर मंिजल म
बना ‘िमलन’ जो समृ ग याग िनवािसय के ही ‘िमलन’ का न शा लेकर उसके िपता
ने उ ह क स ा म सजाया था, आज भी -ब- वैसा ही धरा था। अ यापक वयं
‘शौक’ था और शायद उसी से इस ‘िमलन’ क ित ा पर उसने आंच भी नह आने दी
थी।
मिहम ाय: ही राजे री से कहा करता, ‘लोग जापािनय के कला मक घर क
सजावट क इतनी शंसा करते ह, पर या आज तक कभी कसी ने एक पंि भी अपढ़
‘शौक’ जाित क अनूठी कलाि यता पर िलखी है? शौक-प रवार का यह ‘िमलन’ जैसे
एक ही साथ उनका ाइं ग और डाइ नंग म होता है, वैसा ही मिहम का अ तरं ग क
भी था । ठीक उसी ढंग क बीचोबीच, हवन क -सी वेदी बनी थी, उस पर बने चू हे पर
उबलती, म खन, दूध और नमक डली चाय कला मक पीतल के बने ‘द गवो’ म फट,
एकदम ए ेसो के झाग-से उठाकर चाँदी के िगलास म अितिथय को थमाई जाती ।
एकाएक हाथ क िलपी जमीन क दूरी छोड़, चौड़े-चौड़े ‘मो ट ’ (चटाइयाँ) पर, वयं
उसके माँ के हाथ के बुने मोटे गलीच के घन व म अितिथ धँसकर रह जाते। फर या
ऐसे-वैसे अितिथ वहाँ वेश पा सकते थे? िविश अितिथ, घिन आ मीय या अ तरं ग
िम ही ‘िमलन’ क पावन प रिध को लाँघकर, वेश-प पा सकते थे । खाना समा
होता तो बड़ी सुघड़ िलपाई से अितिथय क ही उपि थित म चौका िलप-पुत जाता
और उसी चू हे म झ क दी जाती–‘दाऊ’ क लकिड़याँ । फर कोने म बैठी ि याँ ऊन
कातत , बुनत और चीन, नेपाल से लौटे ापारी दल के अितिथय क मनोरं जक
क सागोई म डू बी दन-भर क थकान तथा अपने वासी पितय क िवरहाि क
था भूलकर रह जात ।
गृह के पु ष क अनुपि थित म दूर से आ ला त पिथक क अ यथना म कसी
कार क ु ट न रहने पाए, इसका उन पोिषता पि य को िवशेष यान रखना पड़ता
। राजी के िपता भी, ‘शौक’ ापा रय क ही भाँित ल बे दौर पर कभी चले जाते,
ित बत, चीन या नेपाल। अपनी छु य म वह माँ के साथ धारचूला चली आती और
िजस प रवेश म ज मी पली थी, उसम आकर वह उस मछली क भाँित िनि त होकर
तैरने लगती, जो कु छ देर के िलए पोखर से िनकालकर फर उसी म डाल दी गई हो।
पूरी ग याग घाटी म खेती क एक ही फसल होती थी, इसी से ि य के िलए अवकाश
के मधुर ण का अभाव नह था।
दन-भर वह अपनी ‘शौ कया’ सहेिलय के साथ कातती, बुनती और ‘िमलन’ के
रं गीन वातावरण म डू बकर रह जाती थी । िपता का ापार उनक वहार एवं
वसाय-कु शल बुि का सहारा पाकर दन-दुगुनी और रात-चौगुनी उ ित करने लगा
था । एक ही ब दूक से उ ह ने न जाने कतने हजार क क तूरी बेच ली थी । इधर-उधर
भटक, क तूरी-मृग के िलए िस ग याग घाटी के ओर-छोर छान, वे आए दन
क तूरी-मृग का िशकार कर, बेचने िनकल पड़ते, कभी अमृतसर और कभी पानीपत ।
उधर ‘कौगर’ क मुलायम ‘फर’ के न जाने कतने िनज व सं करण, िवदेशी सु द रय
के क ध पर डाल, उ ह ने घड़ा-भर िवदेशी-मु ा अपने ‘िमलन‘ म गाड़कर रख दी
थी। यही उनका बक भी था।

आज भी िपता के बनाए उस मकान म सबकु छ वैसा का वैसा ही धरा था, पर अब वह


जैसे िवदेश के िस मोम के िनज व पुतल क मृितय का सं हालय मा रह गया
था । चार ओर िन संग शू यता म खड़े उसके सुनहले शैशव के सा ी, पीपल के पेड़,
बरगद क धूिमल ज़टाएँ, ‘हराबा’ (हर) और बराड़ा (बहेड़ा) क शीतल छाया म,
रि म पु प क चादर-सी िबछाए ‘दाऊ’ के वृ !
बीते शैशव क एक-एक पगडंडी पर वह उलटा मुँह कए पीछे क ओर चली जा
रही थी। िमिलटरी ने खेत के खेत साफ कर दए थे, पर अभी भी कसी परािजत वीर
शासक के टू टे-फू टे दुग क भाँित अचल खड़े थे, वे ही िचर-पुरातन सूखी घास के ‘लूटे’
कदली वन के झुरमुट और आँवल से लदे-फँ दे वृ । बचपन म झुंड क झुंड कशोरी
शौ यािणय के साथ वह काली नदी म तैरने जाती और देखते ही देखते उसक मकट
सेना एकसाथ लपककर एक-एक आँवला मुख म धरती, पेड़ को नंगा कर देती। वष पूव
आँवला मुख म धरकर ली गई काली के जल क मीठी घूँट सहसा इतने ल बे अस के बाद
उसके मुख का वाद ित कर गई । दो मील क चढ़ाई पार करती वह ‘तपोवन’ के
िशवालय म जो माँगने गई थी, वह या उसे िमल गया था ? उ र-दि खन से खुली
धारचूला क र य घाटी अब भी य क य धरी थी! बीच से िनकाली गई माँग क ही
भाँित उसे दो भाग म िवभ करती काली नदी, इठलाती अभी भी उसी भुजंग यात
के -से छ द से चली जा रही थी, सामने दूसरे छोर पर दखती नेपाल क सीमा म सजी
‘धारचूला’ क चोटी ।
उसके आने क खबर पाने पर, एकसाथ ही, उसके िपता के प रिचत कई िम क
पूरी टोली, उससे िमलने चली आई थी। कतने ग याल, कु टयाल और निबयाल,
बु दयाल बुजुग क ेहपूण आँख, अपने ि य ‘पोदपंचा’ (बड़ा ापारी) क पु ी को
देखकर गीली हो गई ।
“याद है राजी, तू कै से हमारे यहाँ से चुरा-चुराकर ‘छत या’ (सुखाया नमक न
गो त) ले जाया करती थी और एक दन ‘पोदपंचा’ ने तुझे पकड़कर खूब पीटा था-और
याद है राजी, जब मेरी ‘कं च’ (चाँदी क कटोरी) म तूने ि मणी के साथ ‘ या ’ पी
ली थी और नशा चढ़ने पर आधी रात तक नाचती रही थी?” सब याद था उसे!
ि मणी थी उसक सु दरी शौ याणी सहेली । वह उसे लेकर एक बार अपने कुँ आरे
छोटे मामा के साथ ‘तपोवन’ के रामकृ ण आ म म या लेने गई थी और दु मामा ने,
मालूशाही गा-गाकर ि मणी को ला दया था ।
‘बाबा माँगी दी छ
माँगी दे
सुनपता शौके क चेली–’
(ऐ मेरे िपता, मेरे िलए सुनपता शौक क बेटी का र ता माँग दो ।)
थोड़ी दूर चलकर फर वह अ तरा अलापता :
‘बेटा काँ देखी
काँ सुंणी वीलै–
सुनपता शौके क चेली–
शौक देशा जोहारा देखी
बाक ँ का वाला देखी
बाग यारा का याला देखी
सुनपता शौक क चेली–’
(अरे मेरे बेटे, तूने इस सुनपत शौक क सु दरी लड़क को कहाँ देख-सुन िलया?
भला शौक क बेटी से उसके कु म या बेटे का िववाह कभी हो सकता है ?)
इस बार ि मणी का चेहरा ोध से तमतमा उठता और याम मामा फर मूँछ
पर ताव देते गाने लगते–मने तो उस लड़क को शौक जोहार म देखा है, बागे र के मेले
म देखा है और देखा है बक रय के झुंड को हाँकते !
ि मणी रो पड़ी थी, और कु छ दन तक उसने राजी के ‘िमलन’ क बैठक म
आना वयं ही ब द कर दया था । पर राजे री का तो उसके िबना एक पल भी साथक
नह था । चावल, गे ँ और जौ क बनी उस गृह क अपूव ‘ या ’ क घूँट वह आज भी
नह भूली थी । कपड़ से मढ़कर, उबले अनाज क हंिडया म, ‘बलमा’ क खमीरी
ट कया डालकर कै से वा द ‘सोमौ’ बनाई जाती है, और फर कै से वही मीठा रस
छानकर बनती है ‘दा !’ कै सी ‘जुगली’ क धार से, टप-टपकर टपकती बूँद से, जो
पहली बोतल भरती है वही ‘ डी’ कहलाती है, यह सब राजी अनायास ही सीख गई
थी ।
‘एक अं ेज साहब तो एक बार हम इसी पहली बोतल के पाँच सौ पये दे रहा था
।” ि मणी ने उससे कहा था, पर बाबू ने उसे खूब डाँट दया–‘तु हारे बाप-दादे भी
इसक एक घूँट लेकर सीधे पैर नह रख पाएँगे साहब, यह या तु हारे देश क डी
है?’
उसी ब च चत घूँट क चोरी से गुटक गई ‘कं च’ भरी डी ने राजी को आधी रात
तक नचाया था । आज उसक वह सखी ि मणी, धारचूला क नेपाली घाटी म जाकर,
सदा के िलए सो गई थी। आसपास अब भी तीन-चार शौक भा टया प रवार बसे थे, पर
वहाँ भी राजे री क अनुस धानी दृि ने दो-तीन त ण चेहरे देख िलए थे, इसी से
उसने च दन को एक बार फर बि दनी बना दया । इन प रवार के उ मु मनमौजी
जीवन से वह प रिचत थी । वयं उसका अतीत, िजसके ेह-सौज य क मृितयाँ अब
भी सूम के धन क भाँित रोते, उसके साथ-साथ चला आ रहा था, उससे जैसे वह पु ी
को वंिचत रखना चाहती थी। पर लाख कड़ाई बरतने पर भी वह सयानी लड़क को
या कमरे म ब द कर सकती थी ? फर उ ाम यौवन क तरं ग को आज तक कौन
कमरे म ब द कर सका है? वह ग याल मौसी क ेहपूण छोटी-छोटी आँख का
सामा य आम ण पाते ही, कभी-कभी माँ से िबना पूछे ही भाग जाती । उसे िच ता
पु ी के ऐसे पलायन क नह थी, िच ता थी तो उसी मौसी के -पु िवदेश से
लौटकर काठमांडू म ऊँची नौकरी पा गए पु रणधीर क उपि थित क । दुभा य से वह
भी छु ी लेकर, घर आया आ था। यह या उसक करम-जली का दुभा य था, जो
उसके कह जाते ही पास-पड़ोस के जवान छोकरे उसक पवती पु ी के इद-िगद
भ र -से मँडराते, ल बी छु ी लेकर घर आ जाते थे?
वैसे राजे री क यह कपोलक पना मा थी। रणधीर संह बेचारा या जानता
था क उसके पड़ोस म कोई उवशी पंख लगाकर अचानक आकाश से उतर पड़ी है ।
िजस दन माँ-बेटी आ , उस दन ब द घर क चाबी थमाने वह वयं ही आया था। यही
नह , च दन को बार-बार देखता, वह अपने उजले दाँत को व छ हँसी म चमकाता
दो-तीन बार आकर पूछ भी गया था क उ ह कसी कार का क तो नह है । उसक
माँ अपनी बीमार बड़ी बहन को दखाने अलमोड़ा ले गई है और लौटने पर यह िन य
ही उनके आराम का यथोिचत ब ध कर दगी। उसका कहना ठीक था । उस उदार ेही
मिहला ने अपनी जाित के एक-एक अदब कायदे कं ठ कए थे, फर राजे री फटाफट
उसक भाषा बोल सकती थी। कसी भी अ ात अप रिचत ि को य द अनायास ही
वश म कया जा सकता है तो वह उसक भाषा के वशीकरण से, पहले ही दन उसने
माँ-बेटी के िलए अपने ‘िमलन’ के ार खोल दए।
“बेटी, मेरी भी एक तेरी ही-सी बेटी थी, भगवान ने उसे ज म के सातव ही साल
अपने पास बुला िलया, मुझे तो देखकर यही लगता है क मेरी मनसाबती ही फर
लौटकर आ गई है ।”
पर राजे री यह सब सुनकर भी आ त नह ई। आए दन ितवेिशय के
‘िमलन’ म च दन बड़े ेम से यौती जाने लगी। ‘िमलन’ के उ मु वातावरण को उसने
वयं ब त िनकट से देखा था। जान-बूझकर ही वह कभी उसे लेकर दूर-दूर तक घूमने
चली जाती और कभी अपनी निनहाल । निनहाल म एक टू टे-फू टे मकान म रहकर उसके
द र मामा एक ‘घट’ चलाकर अपनी गुजर कर रहे थे । उस घर म अब और कोई भी
नह बचा था, मामी क ब त पहले ही मृ यु हो चुक थी और मझले तथा छोटे मामा
वासी बनकर कलक ा-ब बई के ही हो गए थे। इधर राजे री क बुि मती
ितवेिशनी भी मन ही मन समझ गई थी क उसे सु दरी पु ी का उनके घर आना-
जाना पस द नह है।
एक दन जान-बूझकर ही उस मुँहफट मिहला ने राजी को खूब सुना भी दया था,
“राजी बहन, म तो सोचती थी, तुम बचपन से ही हमारे समाज म ज मी-पली हो,
शायद हमारे सरल व छ द जीवन को िनकट से देखकर परख चुक होगी, पर देखती ँ
तुम भी हम नह समझ पा ।” एक ल बी साँस ख चकर बस वह फर हँस-हँसकर
कहती चली गई थी, “ हमारी जाित क मनमौजी म ती को सबने बदनाम ही कया,
कोई भी हम ठीक से समझ नह पाया । अगर कसी ने समझा, तो वह थे िवदेशी। हम
शौ यािणय का व थ शरीर, हँसमुख चेहर पर िन य िथरकनेवाली हँसी देखकर ही
परदेशी लोग स देह से भड़क उठते ह । हम इस हँसी के िलए या कु छ नद करना
पड़ता? बुरा मत मानना, राजी बहन !” उसने हंसकर राजी के हाथ पकड़कर कहा था,
“हमारे घर के मद, जब तीखी घा टय म ऊन का ापार करने जान हथेली पर धरे
घूमते ह, तब या हम अपनी म ती म डू बी उ ह भूल जाती ह? दु:ख तो दो तरह से सहा
जाता है ! एक चेहरा लटकाकर, मन सी म अपने को डु बाकर, और दूसरा हँस-खेलकर,
क से-कहानी कह, कताई-बुनाई म अपने दु:ख को भुलाकर! कसी क िह मत है, जो
हमारे ‘िमलन’ म बैठी तु हारी पु ी को कोई बुरी नजर से देख ले? वह य द मेरा
रणधीर भी होगा तो म वयं उसक आँख िनकाल लूँगी ।”
लािन से ु ध होकर राजी ने फर च दन को कभी नह टोका। कभी-कभी लाठी
टेकते उसके वृ पीता बर मामा वयं आकर भानजी क कु शल पूछ जाते । अपने
बहनोई ारा के श पकड़, घसीटकर घर लाई गई इस पवती भानजी को उस रात
उ ह ने भी तीन-चार झापड़ धर दए थे। उसके बाद फर वह उसे अब इतने साल म
देख रहे थे । ौढ़ा बनकर राजी का चेहरा ब त कु छ उनक मृत बहन से ही िमलने लगा
था । अपनी मूखता से इस छोकरी ने माँ-बाप का असमय ही पटरा बैठा दया था । पर
समय कतनी तेजी से िनकल जाता है, सोचने लगे थे पीता बरजी । िजसक माँ उसके
वर-स धान के िलए उनका हाथ पकड़कर उ ह िविभ दशा म धके ल उठी थी, आज
वह वयं अपनी पु ी के िलए वर ढू ंढ़ने का आ ह करती, वैसी ही ाकु ल बन गई थी।
“मामा, अब मुझे इसी छोकरी क िच ता म रात-भर न द नह आती ।” कै सा
आ य था! ठीक अपनी माँ के वे ही श द दुहरा रही थी छोकरी! पीता बरजी क दबी
हँसी, भ द तपंि से छलकती, सफे द मूँछ पर फै ल गई । जी म आया, उससे पूछ ल,
“ य री, ढेरी िच ता म जो तेरी माँ ऐसे ही रात-रात भर जगी रही थी, और वयं तेरे
ही अिववेक ने उसे ऐसे जगा-जगाकर एक दन सदा के िलए सुला दया था, वह या तू
इतनी ज दी भूल गई”–“जैसे ही हो, आपको इसके िलए अ छा-सा घर-वर ढू ँढ़ना है ।
मेरी इ छा तो यही है क अगले फागुन तक म इसे ठकाने लगा दू।ँ ”
क तु अगले फागुन तक न िच तातुरा राजे री को कना पड़ा, न मामा को ही।
झुक कमर वर-स धान म और झुक । िजस पु ी के भिव य के िलए वह अधपगली
होकर ायः पूण मित माव था को प च ँ रही थी, उसी पु ी के प ने वयं ही उसके
िलए वर जुटा दया, वह भी ऐसा क कु छ पल तक वयं राजे री को ही अपनी पु ी
के सौभा य पर िव ास नह आ ।
धारचूला म आए माँ-बेटी को दो महीने हो चुके वे। मामा कह से एक-आध वर
ढू ँढ़कर भी लाते तो अता-पता सुनकर ही राजे री का चेहरा लटक जाता। कोई वयस म
च दन के बाप से कु छ ही वष छोटा होता तो कोई दुहजे ।ू अलमोड़ा म राजे री क एक
िवधवा बुआ रहती थी, आज तक उसने कभी अपनी उस बुआ का मरण नह कया था,
पर इधर मामा ने ही बतलाया क बुआ बड़े-बड़े घर म पंजीरी, मेथी के लड् डू और
लबंगा द चूण बनाकर फे री लगाती ह, ब त स भव है क वह कसी यो य पा को
जुटाने म उसक सहायता कर सके ।
च दन अँगीठी से िचपक बैठी थी उस दन, उसे फर देर तक इधर-उधर घूमने के
िलए अनुशासनि या जननी ने कसकर डॉटा था । इसी से मुँह फु लाए वह कह से एक
जीण-शीण फ मी पि का जुटाकर अपनी आँख जुड़ा रही थी, और राजे री अपनी
उसी बुआजी को अपनी ल बी मृित के िलए लाख-लाख बार मा माँगती, कुं आरी
च दन के िलए कसी यो य पा क स धान-याचना सहज भाषा म िपरोती िच ी िलख
रही थी।
उस दन कड़ाके क सद पड़ रही थी । के वल 3,500 फु ट ऊँचाई क वह घाटी,
िजसे हल ानी क तराई क ही भाँित गम होना चािहए था, कभी-कभी ग मय म भी
आ यजनक प से िहमिशला-सी बन उठती थी । जेठ का महीना था, पर मौसम क
तुनुकिमजाजी देखकर लग रहा था क अवांिछत अितिथ बना पवतवािसय का वैरी,
माघ का महीना ही घाटी म उतरकर असमय ही नाचने लगा है। दन-भर िशला वृि
क तड़ातड़ ने पथरीली छत पर गोलाबारी क थी। अब आकाश शा त था, क तु
िखड़क के पट सामा य प से खुलते तो साँय-साँय करती हवा शरीर को सह भाल
से क चने लगती । च दन ने उस दन कह दया था क रात का खाना नह खाएगी, उसे
अपच हो गया है । िच ी िलखते-िलखते कनिखय से ही, मुँह फु लाए बैठी पु ी क न ज
पकड़कर राजी जान गई थी क उसे कै सा अपच है । ितवेशी प रवार के संग बैठ आधी
रात तक ग प न मारने से ही उसे यह अपच हो गया था । ठीक है, एक दन भूखी रहेगी
तो कोई मर नह जाएगी छोकरी । अपच के िलए दी गई अनुशासन चूण क चुटक ने
ही चेहरे पर झुंझलाहट क रे खाएँ ख च दी थ । उसने वयं भी कु छ नह खाया। चाय
का एक अधसेरी िगलास गटक, वह फर के तली चू हे पर चढ़ाने जा रही थी क कसी
ने ार खटखटाया। कौन हो सकता है इतनी ठं ड म? बाहर कृ ित ने एक बार फर
ऊधमबाजी आर भ कर दी थी, पाव-पाव-भर के ओले पथरीली छत पर पटाख -से
चटक रहे थे । ार क कुं डी इस बार बड़े जोर से खटक ।
या वह रणधीर संह ही तो नह था ? कु छ न कु छ बहाना बनाकर वह ऐसे ही आ
जाता, कभी अखबार लेकर और कभी दयासलाई माँगने । आकर फर या वह कभी
सहज म टलता था? अगर अब भी वही होगा तो वह उसे ार से ही गदन मरोड़कर
टरका देगी । पर इस बार वह नह था। जो गदन मरोड़ने का संक प कर उठ गई थी,
उसे शायद पूरी एक ही ऊँचाई आैर एक दजन गदन ही मरोड़नी पड़त , य क वहाँ तो
पूरे एक दजन लगभग एक ही ऊँचाई और एक ही वद के दस-बारह लड़के क धे पर बैग
लटकाए ऐसे खड़े थे, जैसे पवतारोही दल के शेरपा ह ।
पहले तो वह भौच -सी उ ह देखती ही रह गई ।
यह या कोई फौजी टु कड़ी ही इधर भटककर आ गई थी?
“ मा क िजएगा माँजी!” उनक टु कड़ी का एक सुदशन आगे बढ़ आया । “हमारा
पवतारोही दल द ली से आया है, और अचानक इस अंधड़ म फँ स गया है । या कृ पा
कर थोड़ी देर हम अपने यहाँ सु ताने दगी?” उसका बात पूरी भी नह िनकली थी क
बल भंजन के एक साइ लोनी तेजी से आए झ के से उनक िविच पोशाक को
पैराशूट-सा फु ला दया। बरसाती के कपड़े से बने कोट, िजसम मशीनी शकरपारे
काटकर शायद ई क मोटी-मोटी तह िबछा दी गई थ , हवा से फू लकर गैस के गु बार
से तन गए। साथ ही िशलावृि और भी तेजी से ताबड़तोड़ छत पीटने लगी। झर-झार
पाँगर के कठोर दाने ढालू छत से लुढ़कते-पुढ़कते धरा पर क थई चादर-सी िबछा गए
और गुलाबी पु प से लदा पं या का वृ पल-भर म अंग झाड़, पु प से गदराए यौवन
को खोकर ‘नीरस त वर िवलसित’ पुरत:’ बन गया । राजे री पल-भर को यह भी
भूल गई क कमरे के भीतर उसक पवती राजक या बैठी है और दीवानखाने म जाते
ही एकसाथ चौबीस त ण आँख उसे देख लगी । बरसते आकाश और गरजती िशलावृि
के नीचे खड़ बारह कमनीय चेहरे देखकर उसका सु मातृ व जग गया । उनक वद
अब इतनी अिधक फू ल गई थी क राजे री को लगा, दूसरा बल झ का आते ही बारह
के बारह छोकड़े हवा म उड़ जाएँग।े बेचारे परदेशी लड़के इतनी रात को– या वह ार
से लौटा देगी ?
“आ जाइए ।” अब तक काप य से खोले गए ार उसने पूण औदायं से खोल दए ।
वषा म भीगे लड़के , थ स, थ स से दशाएँ गुँजाते, जूते खोलकर दीवानखाने के
गुदगुदे गलीचे म धँस गए ।
जहाँ अपनी माँ को छोड़, िजसने कभी कोई दूसरा कं ठ- वर सुना भी था तो शायद
रणधीर संह का या पीता बर नाना का, वहाँ एकसाथ उतने गल का ताजा कं ठ- वर
सुन च दन अपना कु तूहल नह रोक पाई । ार पर परदा तो था नह ; वह भागकर ार
पर खड़ी हो गई, साथ ही चौबीस आँख उसके औ सु य-िमि त कु तूहल से और भी भोले
बन गए, कमनीय चेहरे पर नग-सी जड़ गई । अचकचाकर राजे री उठकर भीतर गई
और पु ी को भी न जाने या कहकर साथ लेती गई । माँ-बेटी के जाते ही उस पुराने
ढंग से बने दीवानखाने क नई भीड़ म ार पर पल-भर को खड़ी उवशी को लेकर
गरमागरम बहस चल पड़ी ।
कोई कहता–यह िन य ही उसक बेटी है।
दूसरा कहता–अरे आशावा दयो! य बालू म कला बाँधते हो, हो सकता है, हम
सबक बदनसीबी से वह मकान-माल कन क ब हो ! पहाड़ म तो ऐसी छोटी क ी
उमर क ब एँ होती ह ।
साथ ही एक दबा ठहाका गूँज उठा। उसी ठहाके को उसके कमरे म आते ही पुनः
कं ठ म ख च िलया गया है, यह चतुरा राजी समझ गई ।
तब या उसी क हँसी उड़ाने लगे थे ये छोकरे ! वह अब कर ही या सकती थी?
‘जब कभी कु छ िववशता से ही करना पड़े, राजे री!’ उसक पथ द शका शारदा
बहनजी कहा करती थ , ‘डू इट िवद ेस? या फायदा है मुँह लटकाकर, झुँझलाकर,
उस िववशता को िनभाने म ? हँस-खेलकर भी तो वह िववशता झेली जा सकती है?’
वह अपनी अदश गु आइन क सीख को िसर-आँख पर झेलती, बड़ी-सी अ कोणी
पहाड़ी स गड़ म धधकाते बाज के सूखे फू ल और दहकते कोयले सजा लाई ।
“आप लोग आराम से हाथ-पैर ताप, म अभी चाय बनाकर ले आती ।ँ ” थोड़ी देर
म वह बारह िगलास गम, नमक न म खन डली चाय लेकर आ गई, “इस चाय को पीते
ही आप अपनी थकान भूल जाएँग।े ” उसने हँसकर एक-एक को िगलास थमा दया और
फर खाली थाली लेकर उठ गई । “म थोड़ा पानी और चढ़ा आऊँ, आपम से कोई शायद
दूसरा िगलास पीना पस द करे ।” वह चली गई।
“बड़ी प है यार !” वही अगुआ अपने सािथय को फर एक कहकहे के जलजले
म धंसा गया, “ लगता है, चाय का दूसरा राउं ड देने भी सुसरी खुद आएगी । उस लड़क
को या चू हे म गाड़ आई है?” रिसक अभी सबको गुदगुदाकर शा त नह आ था
क सचमुच ही वह दूसरी बार भी वयं ही चाय भरी के तली लेकर आ गई। वषा क
गई थी, दो-तीन बार आकर राजे री उ ह हंट भी दे गई थी, पर वे अनजान बने
गुदगुदे गलीचे पर गठ रयाँ बने लुढ़कने लगे । रात के दस बज गए थे, अब वह इतनी
रात गए उ ह जाने के िलए कह भी कै से सकती थी? पल-भर क मूखता का अब उसे
गहरा मू य चुकाना पड़ रहा था । वह तीसरी बार उ ह देखने आई तो वे पीठ के बँधे
झोले उतार, वयं ही जीन-लगाम-काठी-िवहीन अ दल क भाँित अ तबल क जुगाली
म रम चुके थे । कोई िसगरे ट फूँ क रहा था, कोई पैर पर पैर धरे गुनगुना रहा था, और
कोई हाथ-पैर फै लाकर चार खाने िच हो गया था।
उसे अचानक कमरे म देखकर वह समझ गए क राजे री उ ह न तापूवक
ध कयाने-सी चली आई है । च दन को न देखा होता तो वे शायद चाय पीकर अपना
र, ता नाप लेते, पर अब अनजाने ही उनके पैर म बेिडयाँ पड़ गई थ ।
“माँजी!” उनका वही अगुआ खड़ा होकर हँसता आ राजे री क ओर बढ़ आया।
कु छ उर के सु प अं ेजी के उ ारण ने और उसके बचकाने चेहरे क लुनाई ने उसक
याचना को और भी आकषक बना दया, ‘लगता है, आज रात का क हम आपको और
देना ही पड़ेगा। देिखए न, मौसम कै सा पतरा बदल रहा है ।” सरासर बोले जा रहे सफे द
झूठ का खोखलापन वयं छोकरे क दु हँज़ी म गुखर हो उठा था । आकाश एकदम
साफ था, छत पर पानी तो दूर, ओस क बूँद भी नह टपक रही थी।
“हम वहाँ एकदम अनजान ह।” उसने पारसी िथए कल क पनी के कसी छोकरे
अिभनेता के ही चातुय से दयिनय कं ठ- वर को लड़ कय क भाँित कँ पा िलया, “वैसे तो
उ राखंड के किम र साहब ने वयं हम एक िच ी दे दी है ।” उसने अपनी जेब से एक
मोटा िलफाफा भी िनकालकर दखा दया, िजससे राजे री को िव ास हो सके वे कोई
उठाईगीर क पाट नह है । “जहाँ-जहाँ इ सपै शन हाउस ह , वहाँ-वहाँ हमारे िलए
खोल दए जाएँ–पर आप ही बताइए, संसार के कस इ सपै शन हाउस म ऐसी ब ढ़या
चाय िमल जाती?”
राजे री उस चतुर वाचाल कशोर क िड लोमेसी देखकर मु ध हो गई । उसने
कु छ नह कहा, के वल उसे देखकर मु कु राती खड़ी रही । उसी ि मत के आ ासन से
ो सािहत होकर छोकरे का टेप रकाडर फर चालू हो गया, “खाने क आप िच ता न
कर, हमारे साथ आज क ही नह , पूरे दो महीने क खुराफ, िड ब और िवटािमन क
गोिलय के प म साथ चल रही है । सोने के िलए हमारे पास ली पंग बै स ह ‘ सुबह
उठते ही हम चल दगे ।” याचना ऐसी िश भाषा म क गई थी, और याचक का
बचकाना चेहरा ऐसा यारा भोला-सा था क राजे री के ‘हाँ‘ या ‘ना‘ कहने का
ही नह उठता था, वैसे उस भोले चेहरे से वामी क जेब म बोतल म जो ‘गंगाजल’ भी
साथ-साथ चल रहा था । अना द सं कारशीला राजे री तो उसे िन य ही गरदिनया
देकर बाहर िनकाल देती, पर वह तो उस चेहरे क माया से ही बँध गई थ । उसक
उजली हँसी, उसे ऐसे ही एक कै शोषा वल त ण क हँसी का मरण दलाती, उसके
कलेजे म एक मीठी टीस-सी उठा गई थी। बारह लड़के रात-भर यहा रह भी गए तो
कौन-सा उसका दीवानखाना िघस जाएगा ! न होगा तो एकसाथ बारह जोड़ी जूत के
साथ आ गई धूल ही तो झाड़नी पड़ेगी?
“आप लोग शौक से सोएँ, म सुबह ब त तड़के उठ जाती ,ँ आपको जाने से पहले
चाय िपला दूगँ ी ।” चतुरा राजी ने प कर दया क वह तड़के ही उ ह चाय िपलाकर
िवदा कर देगी।
“ध यवाद, ध यवाद !”
कई कं ठ से गूँजते ध यवाद के पु पहार से लदी-फँ दी वह अपने कमरे म लौट आई
तो देखा च दन पीठ फे रकर सो रही है ।
“च दन!” उसने पुकारा, पर वह सचमुच ही गहरी न द म डू ब गई थी, वही उस
लड़क का सबसे बड़ा गुण था, चाहे कतनी ही डाँट-फटकार पड़त , रात होते ही वह
सबकु छ भूल-भाल, , त कए पर िसर रखते ही ब ी-सी न द म लुढ़क लड़ती । उसक
यह बाल-सुलभ िन ा, माँ के िच म श ु से िछप अमू भय को लाठी लेकर खदेड़ देती
थी । य द सचमुच ही वह पंचशर से िबधी होती तो या ऐसी चैन क न द म डू ब
सकती थी? उसने ार पर िचटकनी लगा दी और बेखबर सो रही पु ी को एक ओर
िखसकाती उसके साथ सो गई ।
दीवानखाने से उमड़ती हँसी का वर तैरता आ रहा था और जो जनशू य गृह,
शाम से छह ही बजे से, भाँय-भाँय कर काटने को दौड़ता था, वह आज ऐसा गुलजार
था, जैसे कोई बारात का जनवासा उतर आया हो । बेटी सो रही थी, पर माँ क आँख
म न द नह थी। उसे अपना िबयाबान घर, आज बचपन म पढ़ी गई वाथ दानव के
बगीचे क कहानी का मरण दला रहा था, जहाँ हर सूखे पेड़ क टहिनयाँ, ब के
चढ़ते ही फल-फू ल से लदी, लहलहाने लगी थ । एक बार उसके जी म आया, वह िपता
के गोदाम म धरे क बल के ढेर उठाकर अितिथय को दे आए । बेचारे पहाड़ क ठं ड से
अन य त लड़के जाड़े म थुरथुरा रहे ह गे । पर फर दूसरे ही ण उसके सनक िच ने
उसे सावधान कर दया, ‘ब त आराम दे दया तो कल देर तक सोते रहगे ।’
वह करवट बदलकर सोने क तैयारी कर रही थी क ार पर कसी ने द तक दी।
सोई च दन को एक ओर धके लती वह साड़ी स हालती उठी और ार के आधे पट
खोलकर खड़ी हो गई । िन य ही उस पवतारोही दल का लड़का कु छ ओढ़ने-िबछाने के
िलए माँगने आया होगा। उसका अनुमान ठीक था ।
िसर से पैर तक, िमरजई से ढंका, उ ह बारह लड़क म से एक लड़का हँसकर
कहने लगा, “ मा क िजएगा माँजी, मुझे असल म आपसे ब त पहले ही कह देना
चािहए था–कै न आई लीप िवद योर डॉटर?”
राजे री य द उतनी ग भीर और वैसी धैयवती संयमी मिहला न होती, तो
शायद एक मु ा मारकर, वह उस बे दे छोकरे क ब ीसी उसके पेट म डाल देती, पर
वह एक ल बे अस से कॉलेज क ंिसपल के पद पर रहती चली आई थी। उसक
लड़ कय क कॉलेज-बस पर, पथराव के साथ, खुशबूदार नीले गुलाबी िलफाफे
फकनेवाले, सी टयाँ बजाकर अ ील रमाक कसनेवाले, ऐसे बीिसय छोकर से उसका
दन-रात पाला पड़ता रहता था । फर सरकारी नौकरी से पूव वह कई ाइवेट कू ल-
कॉलेज म भी काम कर चुक थी, उन कू ल के कु छ मैनेजर भी, कसी अंश म उन बे दे
सीटी बजाने वाले छोकर से कम नह थे । अपने ोध को उसने उ ह प रि थितय म
जीतकर ऐसा पालतू बना िलया था क उसके गाल पर कोई चाँटा मार भी देता तो अब
वह हँसकर बड़ी वाभािवकता से अपना दूसरा गाल बढ़ा सकती थी।
उस अनजान छोकरे ने बारह बजे रात को एक ऐसा बे दा ताव कर दया था,
पर वह एक अ र भी नह बोली । वैसे भी ोध आने पर, वह कभी मुँह से नह बोलती
थी, उसक आँख ही सबकु छ कह लेती थ ।
उसका चेहरा तमतमा गया और आँख से िनकली ती ोध क लपट ने ार पर
खड़े दु:साहसी छोकरे को वह भूँज दया । वह अचानक ठठाकर हँसने लगा और बोला,
“ओह, समझ म आया, कै सी मूखता कर दी थी मने !” और फर वह पटापट अपनी
िविच वद क ल बी िजप को सरसराकर खोलने लगा। राजे री काँप गई । यह
या? यह बेहदा छोकरा या उसी के सामने नंगा हो जाएगा? हड़बड़ाकर वह ार ब द
करने लगी, पर तब तक खुली वद , घाँस खोलकर ढहा दए गए कसी छोटे त बू क ही
भाँित नीचे ढहकर गठरी-सी बन चुक थी। राजे री ने देखा, उसके सामने कोई लड़का
नह , छरहरे शरीर क उस लड़के क -सी ही आकषक सूरत क एक साँवली हँसमुख
लड़क खड़ी थी।
“अभी भी िव ास नह हो रहा है या आपको?” इस बार अपने और भी आकषक
ि मत क यंचा ख च, उसने अचूक िनशाना साधा । वद क मंजूषा म िछपी, एक से
एक ब ढ़या बाजीगरी के साधन िनकालती, वह बात के मनोहारी िव म म उसे
बाँधने लगी। अपने टटल नेक (Turtle neck) के वेटर के बीच से उसने इस बार कसी
संपेरे क ही-सी मु ा म िछपी मोटी चोटी ख चकर अपने सुडौल व थल के उभार पर
लटका दी और ठीक जैसे मदारी कहता है; उसी मीठे अ दाज म, वह चपला कशोरी
चोटी िहलाती अपनी माँ क वयस क राजे री हो हँस-हँसकर छेड़ने लगी, “असली
पदमनाग है, सरकार ! गोरखपुर के जंगल से पकड़ा है, कसी को सूँघ भी ले तो अभागा
वह तड़पकर जान दे दे। जय गु गोरखनाथ!”
इस बार पलंग पर च दन िखलिखलाकर हँस पड़ी, “ या बेवकू फ कर रही हो
अ माँ! उ ह अ दर तो आने दो । देखती नह , ठं ड से काँप रही ह?”
वह बड़ी देर से जगकर धृ ताव का आर भ और मैलो म ै े टक अ त सुन रही
थी ।
कृ त ता से उसे देखती वह धृ ा कशोरी राजे री के हाँ या ना कहने से पूव ही
जमीन पर िगरी वद उठाकर भीतर आ गई ।
“अब आप ही बताइए, माँजी!” वह कहने लगी, “उतने सारे लड़क के बीच म
भला कै से सो सकती थी? पवतारोही दल म म ही एकमा लड़क ।ँ ”
‘नाक कटकर झड़ नह जाती यह कहते ?’ राजे री ने मन ही मन दाँत पीसकर
कहा, ‘ या आ था, जो इतने सारे पांडव के बीच ौपदी बनकर आ गई?’ पर मुँह से
वह एक श द भी नह बोली।
“अ माँ, तुम यहाँ सो जाओ, हम दोन ऊपर के गोदाम म सो जाएँगी, वहाँ ओढ़ने-
िबछाने को सब धरा ही है ।”
और च दन उसे लेकर ऊन के गोदाम म ऐसी वाभािवकता से चली गई, जैसे वह
उसक सगी ममेरी-मौसेरी बहन हो। राजे री पलंग पर लेट तो गई, पर रात-भर उसके
शंकालु वभाव का भूत उसक छाती पर चढ़ा ही रहा ।
‘ या पता छोकरा कोई सरदार हो?’ पर दूसरे ही पल वयं उसका िववेक उसके
सनक मूख िच क सह धमिनय से धि याँ उड़ा गया ।
अपनी चौक ी दृि से तो उस बेचारी को एकदम नंगा कर ए स-रे उतार िलया
और फर भी तु ह स तोष नह आ ? कोई सरदार कशोर चाहे कतनी ही भोली सूरत
य न हो, या िवधाता- द उस सुडौल अंग-िव यास के उतार-चढ़ाव को कह से
उधार माँगकर ला सकता था?
गोदाम का कमरा सबसे ऊपर क मंिजल पर था और आधी रात को श
राजे री दबे पैर जाकर, उस कमरे के बाहर, कान सटाकर खड़ी भी ई थी। दो हमउ
लड़ कयाँ एकसाथ िमल जाएँ तो संसार क कौन-सी शि उ ह चुप रख सकती है ?
नक मै ी िचर-पुरातन हो या िचर-नवीन, वे पल-भर म िजस आ यजनक
वाभािवकता से घुल-िमलकर क े गल क हँसी से दीवार ढहा देती ह, वैसी ही हँसी
सुन आ त होकर राजी अपने पलंग पर आकर सो गई । ठगनी न द भी उसे छलती
रही। फर यह तो ठीक था क दोन इस रात के बाद शायद िज दगी-भर कभी नह
िमल पाएँगी, पर उसने तो अपनी भोली लड़क को नई वहशी स यता से एकदम ही
अछू ती रखा था और उस स यता क छू त तो एक ही रात म लग सकती थी ।
उसक यह आशंका इस बार िनमूल नह थी।

दूसरे दन पवतारोही दल िवदा आ तो दोन , एक-दूसरे के बारे म ब त कु छ जान


चुक थ । च दन के साथ रात-भर सोनेवाली का नाम सोिनया था । न भाषा और
वहार म वह पहाड़ी थी, न रं ग- प म, फर भी वह उतनी ही पहाड़ी थी, िजतनी
च दन । वष पूव, उसके दादा द ली म जाकर बस गए थे। अब उसके िपता, वहाँ के
समृ वसायी थे। वह वयं, माता-िपता क इकलौती पु ी थी । पढ़ने म उसक
िवशेष िच नह थी, इसीिलए वह चंडीगढ़ क कसी ांस गृह िश ण सं था म
गृहिश ा का कोस कर रही थी।
“हाय या गृहिश ा के भी कॉलेज होते ह ?” ह भोली च दन, आज पहली बार,
उस िविच िश ण के िवषय म सुन रही थी । गृहिश ा भी या सीखनी पड़ती
होगी? यहा तो उसक माँ ही ऐसी चलती- फरती सं था थी।
“तुम या िबना कसी से सीखे ही खाना-बाना सब बना लेती हो?” सोिनया ने
आ य से पूछा । वयं उस िनपुणा नाग रका ने, मेज पर काँटे-छू री के िवदेशी मापदंड
म िनधा रत ि थित को रटने म दो वष िबता दए थे ।
“और या?” च दन ने हँसकर कहा था, “खाना पकाना भी भला पहाड़ क
लड़ कय को सीखना पड़ता है !” वह तो म अ माँ को देख-देखकर ही सीख गई थी।
‘तब ही तो!’ सोिनया ने मन ही मन कहा ।
वह तो अपनी अ माँ से सीख सकती थी, क तु सोिनया बेचारी अपनी माँ से सीख
ही या सकती थी? भाभी, साल म छह महीने िवदेश घूमती रहती और म मी? वह
या अपने िलए एक अंडा भी उबाल सकती ह?
पर यह लड़क तो सचमुच ही गजब क थी । सुबह ई और वह चौके म चली ग
। पीछे-पीछे जाकर, सोिनया खड़ी हो गई, और माँ-बेटी क कायकु शलता देखकर दंग
रह ग ।
एक, चू हे म लकिड़याँ िखसकाकर, ध प से सधी लौ िनकाल देती, जैसे गैस का
चू हा हो । दूसरी, चटपट दजन-भर िगलास माँज, कसी कटीन के वामी क द ता
और अ दाज से, मु ी-भर चाय क पि याँ छोड़, दजन-भर िगलास म सुनहली चाय
छलका देती ।
इस बार भी, खुद, दीवानखाने म चाय प च ँ ाने, राजे री धोती संभाल ही रही
थी क चील का-सा झप ा मार, िगलास से सजी दो थािलय म से एक को च दन ने
उठा िलया और दूसरी को सोिनया ने । इससे पहले क राजे री आँख के अंकुश से
च दन को क चती, वे दोन जा चुक थ । चाय गम है या ठं डी, चीनी कम है या यादा,
वह सोचने के िलए फर समय ही कसे था?
अपने सौ दय क अपूव द छटा िवक ण करती, इस नवो दत बाल-सूय क
अ ण रि मयाँ माँ के आते ही फर अँधेरे कमरे क बदली म िछप जाएँगी, यह वे द ली
के चतुर नटवर नागर जान गए थे। एक साथ ही यारह हाथ, सोिनया क चाय छोड़
च दन के प रवेिशत थाल पर भूखे कं गल -से ऐसे टू ट पड़े क थाली िहलकर, चाय
लानेवाली क मीठी ढेर सारी हँसी छलककर पूरे कमरे म िबखर गई ।
“दाँत तो देख सोिनया, लगता है, एकदम म मी के बसरावाले पल ंग ह ।” वही
सुदशन लड़का बहन के कान के पास, फु सफु साकर कहने लगा, िजसक सुमधुर याचना
ने कठोर राजे री को भी जीत िलया था।
“ य ? कहो तो यह ंग भी म मी के कले शन म एड कर दी जाए, य या
याल है तु हारा?” बहन ने हँसकर कहा और तब ही कमरे म अचानक टपक पड़ी
राजे री ने देखा, दोन शहरी चेहरे उसक पु ी को देखते, न जाने कौन-सी म णा म
फु सफु सा रहे ह ।
“च दन जा, चू हे पर दूध रख आई ,ँ वह बैठकर देखती रहना, कह उबाल न
आ जाए।” माँ क कठोर दृि को देखते ही च दन समझ गई क उतने सारे लड़क क
बैठक म उसक उपि थित ने माँ को अ स कर दया है और उनके जाते ही कभी भी वे
उस पर बरस पड़गी ।
इधर सब थ मनाते रहे क चू हे क तेज आंच म ज दी से दूध उबालने वाली,
कड़ाही उतारकर एक बार फर उनके बीच आ जाए; पर वह नह आई ।
वह आती या न आती, पवतारोही दल क िवदा से ठीक प हव ही दन,
राजे यरी को ढू ँढ़ती एक ठाठदार ‘शेव‘ आकर उसके ार पर खड़ी हो गई ।
राजे री, पहले तो ह -ब -सी रह गई । दन-भर, माँ-बेटी ने कमर क
िलपाई-पुताई क थी। जब ढू ँढ़ने पर भी, राजिम ी नह िमले तब राजे री ने वयं ही
बाजार से गारा-चूना लाकर, कमर कस ली।
राजे री दो महीना रहकर भी, जब पु ी के िलए कोई सुपा नह जुटा पाई, तब
उसने हारकर हिथयार डाल दए । वर तो नह िमला, पर स ा त करायेदार िमल
गया था । उसी को घर साफ-सूफकर स प, वह बो रया-िब तरा बाँध याव न का
संक प कर चुक थी। साथ ही छु याँ भी ख म हो चली थ ।
एक फटी-सी धोती पहने, वह हाथ का चूना, झाव से िघस-िघसाकर बहा रही थी।
उधर, एक गुलाबी चूड़ीदार और ढीले कु त म सलोने चेहरे पर, चूने-गारे क अपूव
कशीदाकारी िछटकाती च दन, बाल को गद से बचाने को गुलाबी चु ी का साफा-सा
बाँधे एक टू टी अधेड़ रि सय से बँधी सीढ़ी पर चढ़ी, माईके ल जेलो क -सी आ महारा
लगन से पहाड़ी मकान क ऊँची छत को रँ ग रही थी । वैसे राजे री कभी उसे चूड़ीदार
नह पहनने देती थी । एक तो छोकरी उस मुसलमानी पहरावे म और भी सु दर लगने
लगती थी; दूसरे , िजस ेही मुि लम प रवार ने, उसे वह अनुपम जोड़ा ईद पर
िसलवाकर भट कया था, उसे वह फू टी आँख नह देख सकती थी । पर चूँ क उस दन
कमरे म ब द रहकर काम करना था और रणधीर संह भी काठमांडू चला गया था, इसी
से राजी को पु ी के वह प रधान हण करने म, कोई आपि नह रही थी ।
ऐसी भड़क ली गाड़ी, धारचूला म पहली बार आई थी, इसी से ब के साथ-
साथ, सयान का भी झुंड, गाड़ी को गाइड करता, ठीक राजी के ार तक ले आया था ।
“राजे री देवी, या इसी मकान म रहती ह?”
“आइए,” वह पर हाथ धो रही थी राजी । आँचल से हाथ प छती राजे री के
िलए अ यथना के अित र आेर कोई चारा भी नह रह गया था । न वह भीतर भाग
सकती थी, न बाहर । उठने क हड़बड़ी म जीण साड़ी का एक ब त बड़ा भाग,
िनल ता से चरचराता चर कर फटता गया और वह स मुख खड़ी, लाल रे शमी साड़ी
म अि िशखा-सी लपट मारती, उस युवती के स मुख कटकर रह गई ।
“आई वाज राइट म मी, ये ही मकान है ।” अब च ककर, राजे री ने दुबारा
स मुख खड़ी उस युवती को देखा ।
वह बड़ी धृ ता से मु कु राई, “नह पहचान सक न ? अभी प ह दन पहले तो
आपके यहाँ रहकर गए ह, इतने ही दन म भूल गई ।”
वह फर हँस-हँसकर कहने लगी, “ फर हम िबना पवतारोहण के ही घर लौट गए
। मौसम बेहद बुरा हो गया था । घर प च ं ते ही हमने अपने आित य क और आपक
पवती पु ी के प क , म मी से इतनी तारीफ क क वे वयं ही आपसे िमलने
भागती चली आई । अभी तो हमारे दल म पूरे दस लड़के ह-एक-एक कर, शायद येक
कुं आरा सद य अपनी म मी को आपके पास भेजेगा!” और वह फर ठठाकर हँसने लगी।
“चुप कर,” हाथ का िवराट बटु आ िहलाती, पु ी से कह अिधक आकषक, एक
अ य मिहला के ऐ य-मंिडत चेहरे को देखकर, सहसा राजी को अपनी फटी धोती का
मरण हो आया ।
“आप भीतर चलकर बैठ, म एक िमनट म साड़ी बदलकर आती ।ँ असल म,
छोटी जगह है । राज-िम ी, सहज म जुटते नह , रं ग, चूना, सब काम खुद ही संभालना
पड़ता है ।” वह अपने अ वाभािवक काय-कलाप क कै फयत देती उ ह भीतर ले चली।
सोपाना ढ़ा च दन सीढ़ी पर बैठी उनका िविच वातालाप सुन रही थी । उसक
समझ म ही नह आ रहा था क यह चूने क बा टी और हाथ क झाड़ िलए नीचे उतर
आए या वह दुबक रहे । अ माँ अितिथय को लेकर भीतर जा रही थी, वह उनके जाते
ही, नीचे उतर िपछवाड़े के माग से अपने कमरे म जाकर अब कपड़े बदल सकती थी।
पर उसी योजना क ललक म न जाने कब उसका हाथ काँपा और कब टप से चूना सनी
झाडू माननीय अितिथ-दल के चरन चूम उठी । लाल रे शमी साड़ी पर चूने का ‘बाितक’
िबखर गया।
मिहमामयी माता और पु ी क आँख एकसाथ ऊपर उठ और अनाड़ी िम ी के
सलोने चेहरे पर जड़ गई ।
सोिनया जोर से हँसने लगी, “लुक ऐट हर, म मी ! कहा था न मने? इज ट शी ए
यूटी?”
और पु ी क ज मदा ी को समझते देर नह लगी क य उसके पु ने उसे एक
कार से ध ा देकर, इतनी ठं ड म भेज दया था । वही पु , जो पु होकर भी, कभी-
कभी श ु का-सा बन, उसके िच को सालने लगता था। दो वष से माँ-बेटे म
बोलचाल, एक कार से ब द ही थी। जो वह कहती, िव म ठीक उसका उलटा करके
रख देता । पर इस बार उसने वयं सोिनया से माँ को स देशा िभजवाया था क वह
पहाड़ म िजस लड़क को देख आया है, उसी का र ता माँ जाकर माँग लाए । ि मणी
जैसे आकाश से िगरी थी । यह या सुन रही थी वह! आिखर, उसका जंगली िबलाव-सा
बेटा, ऊँचे पेड़ से नीचे कू द ही आया?

दो पु और एक पु ी क िश ा म उसने कोई कसर नह छोड़ी थी । छु य म दोन


बेटे अपनी पि लक कू ल क अं ेज वद म चमकते घर लौटते तो उसे बड़ा स तोष
होता। फटाफट अं ेजी बोलनेवाले, माँ को उठते ही ‘गुड मॉ नग’ और ‘गुड नाइट‘ के
गुलद ते भट करनेवाले, उसके लो-इं िडयन-से ही लुभावने चेहरे -मुहरे वाले दोन
राजपु , युवा होने पर माँ को न जाने कन- कन उपहार से लादकर रख दगे । पर जब,
यथाथ ने िवपरीत पतरा बदलकर ि मणी क छाती म ही खंजर झ क दी, तो वह
सँभल भी नह पाई । वयस के साथ-साथ पु क अबा य दुर त गितिविध म िनर तर
िवकास होने लगा था । बार-बार, उनके िवदेशी ंिसपल क चेतावनी आती रहती,
क तु ि मणी तो कब क कान म ई ठूँ से पड़ी थी। पित के वसाय ने गृह म समृि
क नहर खोलकर रख दी । वयं अभाव म पले गजानन, कृ पणता से कु छ संचय करने
क चे ा भी करते तो रोबदार सु दरी प ी उ ह चीरकर रख देती।
‘बाप-दाद ने पैसा खचा कया होता तो तु हारा दल भी बड़ा होता ।‘ वह वयं
अपने समृ मायके का छ उ लेख करती, िववाह से ही दबाए पित दो और दबा
देती। बेचारे गजानन, प ी को स करने के िलए, अपना िसर भी काटकर उसके
चरण म डाल सकते थे, फर उसके आदेश को टाल ही कै से सकते थे? िन य वैयि क
िवलासपू त। क अनाव यक सामि य से गृहस ा म चार चाँद लगने लगे । ल मी क
ू र दृि से सहमकर गृह क मयादा कोने म इधर-उधर दुबकती एक दन सहसा ही
िवलीन हो गई । गजानन अपने वसाय क दूर-दूर तक फै ली जड़ को सँभालने इधर-
उधर भागते रहते। ि मणी क ृंगारि यता, बढ़ती वयस के साथ-साथ िनल ता से
बढ़ती चली जा रही थी । एक से एक भड़क ली सािड़य और नए-नए कट के आभूषण
क छटा िबखेरती वह अपनी अ याधुिनक स ा म सजे दीवानखाने म बैठी, ताश के
प पर घर बनाती और िबगाड़ती रहती । कभी-कभी रात के बारह-बारह बजे तक
ताश क वह मह फल चलती रहती, िजसम ि य क उपि थित तो अँगुिलय पर िगनी
जा सकती थी; क तु उससे आधी वयस के युवा, सजीले पु ष को िगनने के िलए शायद
चार हाथ क अँगुिलयाँ भी कम पड़त । पहले दबे वर म कानाफू िसयाँ चल , फर
लोग खुलेआम ि मणी के िनल आचरण क िन दा करने लगे । क तु अपनी मु ी-
भर मुहर से, वह अब कसी भी कठोर आलोचक का मुँह ब द कर सकती थी।
पु ी सोिनया, तीन-चार बो डग कू ल से अधूरी िश ा क ही पोटली बाँधकर,
खोटे िस े -सी घर लौट आई थी । िजस कू ल म दोन भाई पढ़ते थे, वहाँ क ऊँची
िश ा का ब त बड़ा मह व था । वा षक क त म दी गई ऊँची फ स, साधारण वग के
माता-िपता नह चुका सकते थे, क तु जो चुका सकते थे, उन भा यशािलय के पु के
िलए यह एक कार से भिव य का सुनहला जीवन बीमा था । टी-गाडन क वे
नौक रयाँ, जहाँ सुरा और सु दरी दोन का अभाव नह रहता, या फर बमा शेल, कसी
िवदेशी फम के राजसी ास, उ ोगपितय का मंि पद-सबकु छ इन ा लन छा के
िलए वयं यह सु यात पि लक कू ल, जुटाकर उनके करतल पर रख देता ।
इसी से ि मणी के बड़े पु च गु को, ऊँची नौकरी जुटाने म िवशेष य नह
करना पड़ा । वैसे तो ि मणी, ब भी अपने ही समाज क लाई थी, क तु अपने
समाज का वह चमकता सोना भी खोटा ही िनकला । वयं ि मणी ने ही, भावी पु -
वधू को ठ क-पीटकर छाँटा था । िजन पु को उसने िवदेशी कू ल म पढ़ाया था,
िवदेशी भाषा म ही हँसना, बोलना और िख िखलाना िसखाया था, िजनक ‘राम’ को
‘रामा’ और ‘सीता को ‘िसता’ पढ़नेवाली शैशवाव था क ु ट को वह अपने ऊँचे तबके
क ह ठरँ गी गतयौवना को बड़े गव से सुनाया करती थी, उ ह भला िह दी कू ल क
पढ़ी लड़ कयाँ कभी पस द आ सकती थ ? इसी से उसक पहली शत थी क उसके गृह
क देहरी लाँघने के पूव क या को अपनी कनवट िश ा का वेशप दखलाना होगा।
उसक बड़ी ब ने यह शत बड़ी सगमता से पूरी कर दी थी। वह िशमला के तार हॉल’
क पढ़ी थी, जो ि मणी क शत म पूरा-पूरा टीक उतरता था। दूसरी शत थी, लड़क
सु दर अव य हो। सुमीता इस शत क हडल को भी बड़ी सुगमता से फाँद गई थी।
लड़क असाधारण प से सु दरी न होने पर भी आकषक थी, यह ठीक था क उस
आकषण म कु छ अंश उसके िपता के वैभव का था, कु छ उसक ऊँचो िश ा का और कु छ
वयं उसक साधनकला म िनपुण अँगुिलय का ।
क तु िववाह के छठे ही महीने, ि मणी जान गई क उसक दोन शत को पूरा
करने पर भी ब के िपता उसको कसी वाचाल चतुर दुकानदार क ही भाँित ठग गए थे
। गु सा, सुमीता क नाक पर रहता, िबगड़ैल घोड़ी क भाँित वह दुल ी झाड़ती, कभी-
कभी आधी रात को च को कमरे से बाहर िनकाल देती। ताश क मह फल से उठकर
आती तो ि मणी देखती, उसका कभी तेज-तरार बेटा, दुम दबाए िपटे कु -े सा ही
कारीडोर म बैठा पु तक पढ़ रहा है ।
“ य रे , इतनी ठं ड म तू यहाँ य है? अपने कमरे म य नह पढ़ता ? ”
“ओह म मी, म जहाँ चा ँ वहाँ एढ़ नह सकता?” उसका गाय-सा सीधा बेटा
हँस-हँसकर माँ को भुलाने क चे ा म उसे गुदगुदाने क थ चे ा करता। “असल म
सुमीता को रोशनी म न द नह आती, इसी से यहाँ पढ़ रहा ।ँ ”
पर धीरे -धीरे ि मणी सब समझ गई । ब उसी के सामने, जी स और जस म
कठपुतली-सी सजी-धजी िसगरे ट फूँ कती रहती, पर वह कह ही या सकती थी? या
वयं उसी का कया उसके सामने नह आ रहा था । जब वह देर-देर तक ताश खेलकर
लौटती तो देखती, न जाने कब से उसका पित, उसक अनुपि थित म ही िबना खाए-
िपए पलंग पर सो रहा है । न जाने कतने ल बे ावसाियक दौर क लाि त, िवदेशी
सराय, भ टयारखाने का असंयम और गृिहणी क उदासीनता, उसे बेहोशी म डु बाकर.
दूसरे दन दस बजे तक, अचेतन िन ा म सुलाए रखती। अब तो दोन पित-प ी, एक-
दूसरे क उदासीनता को बड़ी वाभािवकता से हण कर चुके थे । ब से, वह कु छ
कहती भी तो कस मुँह से? दन-रात िवदेश घूम-घूमकर सुमीता कु छ और भी धृ बन
गई थी। न उसे सास का भय था, न ससुर क ल ा । एक पु पित के ही कू ल म पढ़
रहा था और पु ी वयं उसके कू ल म । कभी-कभी उनक पोट क छु याँ होने पर,
सुमीता धूप का च मा लगाए अपनी ब मू य सािड़य क छटा िबखेरती, उन
अिभभावक क भीड़ म अकड़कर बैठ जाती, िजनके ब े भी उसी के ब े क भाँित
िवदेशी दूध के िड ब से तनपोषी न रह, ‘फै रे स’ से अपना अ ाशन ध य कर चुके
थे।
कभी-कभी, सास-ब म को ड वार चलती तो छोटा पु िव म भाभी का ही प
लेता।
“तू य नह कहता उस बेशरम से?” ि मणी ने, िव म को एक दन फटकारकर
कहा था, “तेरे डैडी के सामने, जी स पहने घूमती है बेहया!”
“तो या हो गया म मी, नंगी तो नह घूमती, म तो सोचता ,ँ जी स िह दु तानी
ब क नेशनल- स ै बना दी जानी चािहए। कम से कम टखिनयाँ तो ढंक रहती ह ।
फर म मी, जब तु हारी सोिनया, जी स पहनकर डैडी के सामने घूम सकती है, तब
भला भाभी य नह घूम सकत ?”
ि मणी, फर कह ही या सकती यी? इधर, जब से उसके बैठकखाने म, घनी
मूँछ के नीचे, अपनी क थे-सनी मु कान िबखेरता, नरे आने लगा था, तब से उसका
यह मुँहफट बेटा, जैसे और भी मुँहफट बना, िबना बात के बगावत क झंडी दखा रहा
था । नरे ि मणी के दूर के र ते से ममेरा भाई था । क तु िव म क घाघ सूझ-बूझ
को यह दूर का र ता अिधक दन तक छल नह सका । बड़े अिधकार से उसके िन य-
योजन के साधन को वहार म लानेवाला, िबना कसी के यौते ही घर म आ गया
यह दूर के र ते का मामा, उसके सवाग म आग लगा देता । कभी िव म क इलैि क
शेवर लेकर अपना चेहरा िचकना बनाता, वह अंजुली-भर उसका िवदेशी ऑ टर-शेव-
लोशन अनाड़ी क भाँित पोतता, बेसुरी अं ेजी झाड़ता, िव म को झुँझला देता । कभी-
कभी िव म उसे माँ के ही स मुख िझड़क देता, पर उसक खाल या साधारण मानव
क खाल थी? वह अपने गडे क खाल पर थोड़ा ओडीकोलीन िछड़कता उसे और िचढ़ाने
लगता ।
सोिनया भी इधर उसके साथ खूब घुल-िमल गई थी। घर क इसी अमयादा ने बेटे
को पूणतया िव ोही बना दया था। इसी िव ोह क भावना म बहता, वह कभी अपने
दजन िवदेशी िम को घर पर यौत लेता और उसका कमरा तब चंडूखाने क सड़ाँध
को भी तु छ कर देता । कह िसल पर भाँग पीसता पहाड़ी नौकर राम संह, कह गमछे
म बँधी ठर क बोतल पर बोतल चली आत । एक बार तो िव म ने नाक ही काटकर,
जैसे मुँह म धर ली थी । उधर म मी क समाज-सेिवका सिखय क मी टंग चल रही
थी, इधर छोटे बेटे क िभ ुिणयाँ और िवदेशी िभ ु का िनल ‘जोगीड़ा’ पव चल
रहा था। दो-तीन ऊँची-ऊँची नौक रय पर वयं लात मारकर बड़ी चे ा से िपता क
दलवाई एक चौथी नौकरी म उसे उलझा दया था । िवर िस ाथ, इस नौकरी से भी
ल बी छु ी लेकर छोड़ने के इरादे से ही पवतारोही दल के साथ िनकल पड़ा था, और
वह िमल भी गई थी उसे यशोधरा । नाि तक ि मणी इधर खोए पु को पाने के िलए
त-अनु ान िनभाती घोर आि तक बनी चली जा रही थी ।

ठे ठ पहाड़ी मयादा म पली इस सुपा ी को देख वह वयं भी मु ध हो गई । कपोल पर


कृ ित द कु चले पाटल सून क लािलमा, और पहाड़ी काफल िहसालू के रस से
छलकते अधर! गुलाबी चूड़ीदार और ढीला कु ता, िसर पर बँधी गुलाबी चु ी का
उ रीय जैसे कोई कशोर राजकुं वर मु कु रा रहा हो ।
कै सी मूखा थी वह! कार से उतरते समय कै मरा भी उतार िलया होता तो इस
अपूव भाव-भंिगमा को लै स म बाँध अपने ऊँचे तबके वािलय के रँ गे-पुते चेहर पर
झाड़ फे रकर रख सकती थी । जैसे भी हो, इस र को रा यकोष म लाना ही होगा ।
एक तो यह सौ दय शायद उसके जंगली िब ले बन गए बेटे को पालतू बना लेगा, दूसरे
बड़ी ब , जो अपनी पीतल क ही नथुनी पर सौ-सौ गुमान कए फु दकती रहती है, कम
से कम उसे यह अँगूठा दखा ही देगी।
फर एक िच ता उसे इधर और भी घुने जा रही थी । सोिनया क पंजाबी सहेली
दशन, जान-बूझकर भी उसके इस छोटे बेटे पर िगरी जा रही थी। चाहे चेहरा तो इस
पये के सामने चव ी-भर भी नह था, हर उ तो गधी क परी लगनेवाली उ थी।
लाख हो, लड़का जवान हो चला था, उस पर िवदेशी सोहबत म चल रहा आयुवदी
क प, कभी भी उसे ले बैठ सकता था । चलो, दशन से तो छु ी िमलेगी।
“ऐ ईिडयट!” सोिनया फर चहक , “हम इतनी दूर से तुमसे िमलने आए ह और
तुम या ट-गारा ही ढोती रहोगी? नीचे उतरो।”
िखिसयाई-सी हँसी हँसकर च दन ने कसी सधे िम ी क ही भाँित चूने क
बा टी सीढ़ी पर लगी क ल पर टाँग दी और उलटा मुँह उतरती, उनके स मुख खड़ी हो
गई ।
“अवे िसर का साफा तो खोल-एकदम डाँडी रासवाला काठी राजपूत लग रही है
।” फर झटककर उसने च दन क चु ी ख च, उसके क ध पर डाल दी और हाथ
ख चकर उसे ऐसी अ तरं गता से भीतर ले चली जैसे वह वयं मेजवान हो और च दन
हो कोई लजाई अितिथ बाला। कपड़े बदलकर राजे री के कमरे म आते ही सोिनया
शायद जान-बूझकर ही च दन को लेकर दूसरे कमरे म चली गई ।
सोिनया क माँ के आने का कारण कु छ तो राजे री वय ही समझ गई थी और
कु छ उ ह ने िबना कसी अनाव यक उलझाव-फै लाव के खुद उसे समझा दया । उसके
छोटे पु ने उसक लड़क को पहली ही झलक म देखकर पस द कर िलया था ।
“वैसे द ली म हमारे समाज क एक से एक सु दर और पढ़ी-िलखी लड़ कयाँ ह
।” फर वह वयं ही घबराकर कहने लगी, “आप कह यह मत सोिचएगा क म आपको
‘इ ेस’ करने क चे ा कर रही ,ँ पर ई र क कृ पा से सोिनया के िपता का वसाय
अ छा-खासा है, यह कु छ तो ल मी क कृ पा-दृि का फल है और कु छ वयं उनक
साधना का। बड़ा लड़का बमा शेल म है । छोटा िव म, जो आपके यहाँ प ह दन पूव
अितिथ बन, अब जामाता बनना चाहता है ।” यहाँ पर पल-भर ककर वह
वहारकु शल मिहला अपनी भुवन-मोिहनी ि मित से कथन को सवारना नह भूली ।
“वह ‘महे ा एंड महे ा’ म काफ तगड़ी तन वाह ले रहा है। म तो अचरज म
डू ब गई थी क मेरे िजस नाक-भ चढ़ानेवाले बेटे को आज तक एक भी लड़क पस द
नह आई, वह एक ही रात म आिखर कस उवशी पर रीझ गया? पर आज जब खुद
देखा, तब अब ना कोई िज ासा रही न कु तूहल !”
ऐसी िविच प रि थित म उसे या िन य लेना चािहए, यह राजे री क समझ
म नह आया । फर ऐसी ही अपनी चट मँगनी पट याह का अनुभव बड़ा सुखद था।
िववाह जैसी मह वपूण योजना क वीकृ ित पर उसके मतानुसार गु जन क
राय िलए िबना वयं ह ता र कर देना बड़ी भारी मूखता थी । न वह इस वासी
प रवार के िवषय म ही कु छ जानती थी, न पा का ही ठीक- ठकाना था। के वल ऊँची
नौकरी और चेहरे के बूते पर ही तो कोई कसी को दामाद नह बना लेता । वह जो
शंसा सुन रही थी, वह थी, वयं माँ के मुँह से अपने पु क । संसार क कौन माँ भला
अपने पु क शंसा नह करती? अपना ब ा तो बँद रया को भी िवधाता क सव े
कृ ित लगता है । िबना सोचे-समझे ही हवा म लगाई गई उसके अबूझ यौवन क छलाँग
उसे एक बार खाई म पटक शरीर और मन दोन पर िचर थायी आघात दे चुक थी,
इससे अब वह मुँह खोलने से पूव, एक-एक वा य को मन ही मन िववेक के तराजू पर
ऐसे तोल रही थी, जैसे कोई पटु वणकार तोला-र ी-माशा के बाट से, सोना तोल रहा
हो उधर उसक यह चु पी, चट योजना बनाकर पट कायाि वत करनेवाली, उतावली
ि मणी को महाअधैथ बावली बना रही थी। वह अपनी सू म संसारी दृि से स मुख
धरे उस िन वकार चेहरे क िजतनी ही परत चीरती, उतनी ही और याज क -सी परत
िनकलकर उसे छलती, जा रही थ ।
पूरे एक युग के बाद जैसे उसके ह ठ खुले, फं स क चु पी के पट खुले,
मु कु राकर वह बोली, “आपक बड़ी कृ पा है, पर म अपने मामा से पूछकर ही आपको
उ र दे पाऊँगी । देिखए न, एक तो हम दोन एक-दूसरे के बारे म कु छ भी नह जानत
”- इस बार शायद अपनी खाई से वयं ही संकुिचत हो, उसने अि तम वा य को जोड़
अपने कथन क पुि क ।
पर दन-रात ताश के देखे आर अनदेखे प क ि थित भाँपनेवाली चतुरा
ि मणी ने राजे री के हाथ के फू हड़ ढंग से िछपाए गए अदृ य प क चाल भाँप
ली। उसने ज म से ही द ली देखी थी। वह समझ गई क सामा य गोलाबारी से ही कब
दुग ढहाया जा सकता था ।
“आफ ओह !” उसने िवदेशी अ दाज से क धे िहलाकर दोन बाँह शू य म फै ला
द , “आप भी कै सी बचकानी बात कर रही ह, बहन! ी होकर भी या हम ि य के
वभाव को आज तक नह परख पा ? आप ही बताइए जरा, इस संसार म एक ही माँ
क जाई कौन-सी ऐसी दो सगी बहन ह, जो एक-दूसरी के बारे म सबकु छ जानती ह?
जब हमारा र ता हो जाएगा, तब ही तो हम परखगी? आिखर आप अपने कस बुजुग
क राय लेना चाहती ह? उ ह बुला लीिजए न ! जो चाह, हमसे पूछ ल ।” उसने ऐसे
लहजे म कहा, जैसे कह रही हो-चलो, उनम भी हो जाएँ दो-दो हाथ?
अब राजे री और फँ सी । उसके आ मीय वजन म अब था ही कौन ? ले-देकर
एक पीता बर मामा ही ऐसे थे, िजनसे वह कु छ पूछ सकती थी । वैसे उपनाम देने म
बेजोड़ कु माऊँवािसय ने कभी उनक अनुपम जानकारी के िलए उ ह िवभूिषत कया
था, ‘गजट’ क उपािध देकर । कु माऊँ क पर परा आज भी वैसी ही चली आ रही थी,
िजसम कसी ि को लोग उसके नाम से नह , उपनाम से चट पहचान िलया करते
थे। गजट मामू शायद सचमुच ही उसक िज ासा को शांत कर उसे उिचत दशािनदश
कर पाएँगे । पर उ ह बुलाना भी तो टेढ़ी खीर था । दो मील क खड़ी चढ़ाई कर तब
कह वहाँ प च ँ पाएँगी और फर बेकार बुड्ढ क कस मह फल को गजट मामू ध य
कर रहे ह गे, उसका कोई ठकाना था?
“आप िच ता न कर, ऐसे काम उतावली म कए भी नह जाने चािहए । म आपको
शी उनसे पूछकर सूिचत कर दूग ँ ी ।”
“पर म तो घर से यही संक प लेकर िनकली ँ क िबना आपसे वरदान िलए यहाँ
से नह टलूँगी ।” और फर वह बड़ी आ मीयता से राजे री के गुदगुदे ित बती कालीन
पर अधलेटी मु ा म ल बी होकर मु कु राने लगी ।
“आप आराम तो कर!” राजे री हँसकर भीतर चली गई । थोड़ी देर म सोिनया
भी आकर माँ के पास लेट गई ।
“ य कहाँ गई तेरी सहेली ?” ि मणी ने पूछा ।
“उसक माँ बुलाकर ले गई। य म मी, कु छ मामला बना ?”
“खाक बना!” ि मणी बटु ए से कं धा िनकालकर, बाल पर फे रती बैठ गई, “बड़ी
गहरी औरत है । आज पहली बार-आई ड ट नो हेअर आई टड!” उसने एक बार फर
क धे उठाकर, िगरा दए-यह शायद उसक ि य मु ा बन गई थी। सोिनया, कई बार
सोचती थी क म मी को इसके िलए टोक दे, उस मु ा को वह पहचान भी गई थी।
राजधानी के कसी उ सव म डे डीमोना बनी लीनाद क ही ब च चत मु ा थी यह ।
पर म मी, बार-बार शायद यह भूल जाती थी क िजन क ध के उठने-िगरने पर हॉल
तािलय से गूँज उठा था, वे क धे थे अट् ठारह वष के और म मी बेकार म ही अपने
पतालीस वष के क ध क बेसुरी कसरत कए जा रही थ ।
माँ-बेटी, फु सफु सा ही रही थ क राजे री चाय बनाकर ले आई, पीछे-पीछे
त त रय म मेवा-िम ान, गम-गम पूिड़याँ, आलू के खुशबूदार ज बू-छ के गुटके , पीला
रायता िलए, दो हाथ म दो थाल, कसी होटल के द बैरा क ही भाँित साधे, च दन
आकर खड़ी हो गई ।
िन य, बावच -बैरा के हाथ के बने उलटे-सीधे खाने या फर सौसेज और ेड का
िडनर खानेवाले फू हड़ नथुने, फड़कने लगे।
“अरे , यह या! यह सब कब तैयार कर िलया आपने ? अरी सोिनया, हमारी लंच-
बा के ट भी तो कार म धरी है, बेटी! जा, कै मरा, बैग, सबकु छ िलवा ला- य बहन, जरा
अपने नौकर को इसके साथ भेज दगी?”
“नौकर?” राजे री ने हँसकर पूछा और खाने क साम ी, नीचे लगा दी ।
“नौकर तो म कभी रखती ही नह , बहन!”- ि मणी जैसे आकाश से िगरी ।
कहती या ह-नौकर ही नह रखती-मन-ही-मन, वह आनि दत हो उठी थो, यह तो
लड़क क एक और िवशेषता बन उठे गी । माँ, नौकर नह रखती तो बेटी, िन य ही
उसका हाथ बँटाती होगी । रं ग-चूना लगाना, झाड़-प छ, खाना बनाना सब अल य
गुण से यु , उस पर चेहरा-मोहरा, रं ग-न शा, सब सवा लाख का’
“जाओ, च दन !” राजे री ने पु ी से कहा, “सोिनया के साथ जाकर तु ह सब
सामान भीतर ले आओ ।”
सोिनया और च दन, सामान से लदी-फँ दी लौट और लंच-बा के ट के साथ आई
अंडे क सडिवच भुने काजू और सोहन हलवे के रं गीन िड बे िनकालकर, ि मणी ने
अपने शाही द तरखान पर सजा िलए ।
“ये चार िड बे तो म आप ही के िलए लाई ,ँ चिखए न एक टु कड़ा ।” उसने एक
टु कड़ा तोड़कर, राजे री के मुँह म ठूँ स दया, और वह बड़ी अिन छा से चबाने लगी ।
सोहन हलुवे का टु कड़ा ग र अितिथय क ही भाँित, उसके कं ठ म अटका जा रहा था ।
घी से लथपथ, ऐसे िम ान खाने का न उसे अ यास था, न िच ।
“यह या? आप तो खड़ी ही रह गई, या हमारा साथ भी नह दगी?” ि मणी,
साथ लाए व छ नैप कन से लेट प छने लगी।
राजे री, संकोच से पहले कु छ कह नह पाई, फर दबी आवाज म हाथ जोड़कर
कहने लगी, “आप खाएँ-च दन आपका साथ देगी-म तो िबना जप कए वैसे ही नह
खाती, वह तो आपने इतने ेम से िमठाई िखला दी, इसी से खा गई...” फर वा य
अधूरा छोड़, िबना और कु छ कहे अंडे क सडिवच को अथपूण दृि से देख, उसने नजर
झुका ली।
ि मणी ने शायद देख िलया । “ओह, कै सी मूख ँ म!” वह ु ध वर से कहने
लगी, “ अंडा भी यह धर दया मने, हम तो बड़ी भूख लगी है भाई, उस पर आपने ऐसी
ब ढ़या सुग ध उठा दी है क अब हम क नह सकत ।” वह सचमुच ही अपने सारे
अदब-कायदे भूल, िजसी भूखे कं गले क ही भाँित लार टपकाने लगी थी। उन गम-गम
पूिड़याँ म या वन पित घृत क मरीिचका थी ! शु पहाड़ी घी क सुग ध, कुं डे का
दानेदार खोए-सा वा द दही, और िन य ली गई ज से नकली िहमशीतल जल क
घूँट को फ क करती, मीठे पहाड़ी सोते के व छ जल क ठडी घूँट ितवेिशय के यहाँ
से ‘चंग’ भरकर, राजे री ‘ या ’ ले आई “इसे िपएँ, खूब ब ढ़या न द आएगी इसे
पीकर ।” और देश-िवदेश के आसव क गुणी जौहरी िज वा, एक ही घूँट म तृ हो गई।
रात को, दीवानखाने ही म अितिथय के सोने क व था कर, राजे री वयं सोने
जाने लगी तो ि मणी ने बड़े आ ह से च दन को अपने हा कमरे म सुलाने के िलए रोक
िलया ।
अपने कमरे म अके ली पड़ी राजे री, रात-भर गहरे सोच-िवचार म डू बती-
उतराती रही । यह भी स भव था क यह र ता, वा तव म उतना ही वांछनीय हो,
िजतना ि मणी बतल रही थी, और एक स भावना यह भी थी, क ब त ऊँची उस
दुकान का पकवान एकदम ही फ का िनकल पड़े ।
उसके अितिथ, थककर ऐसे चूर ए सो रहे थे क सुबह आठ बजे से पूव उनके
जगने क कोई स भावना नह थी। इस बीच, वह रात ही को अपने मामा का अनुभवी
परामश लेकर लौट सकती थी । वह दबे पैर उठी, मोटी गम पंखी से अपना शरीर त बू
-सा बनाती, िपछवाड़े के ार से चुपचाप िनकल गई ।
मामा को लेकर वह जब लौटी, तब माँ-बेटी बेखबर सो रही थ । अके ली च दन
ही न जाने कब उठकर उसके पलंग पर हाथ-पाँव िसकोड़े गठरी बनी बैठी थी ।
“हाय अ माँ, इतनी सुबह-सुबह कहाँ से आ रही हो-अरे , भजट नानाजी आप !”
वह एकदम उठकर, चाय बनाने जाने लगी तो माँ ने रोक िलया ।
“देख च दन, खटर-पटर मत होने देना, दो िगलास चाय बनाकर हम यह दे जा,
अभी माँ-बेटी को मत जगाना, समझी?” माग-भर राजे री मामा से परामश करती
आई थी। मामा ने कहा था क वे वयं आकर उसक भावी समिधन के अजाने कु लगो
का ठीक- ठकाना ढू ँढ़ लगे । वासी पवतीय प रवार, चाहे वे अंडमान, जापान ही म
जाकर य न बस गए ह , सबको गजट मामा, हथेली पर चल रही जु क ही भाँित
बीन सकते थे।
सुबह चाय-ना ता िनबटाकर, सोिनया च दन को लेकर घूमने चली गई और इधर
गजट मामा ने ि मणी के साथ शा ाथ आर भ कर दया । फर तो उ ह ने कसी
वाचाल पंडे क ही भाँित, एक-एक कर, ि मणी के िपतृकुल, सुर-कु ल यहाँ तक क
िपतामह के भी भाई-भतीज के नाम एक-एक कर, ऐसे सुना दए क वह दंग रह गई ।
उधर मामा के कसकर िलए गए ‘वायवा’ म, ि मणी ने भी सव थान पाया ।
“आँख ब द कर, क यादान कर दे, भानजी!” पीता बरजी ने एका त म भानजी
क पीठ थपथपाकर कहा, “खबरदार, देरी मत करना । अपनी सरलता के बावजूद
हमारा समाज, भाँजी मारने म अनूठी यो यता रखता है, यह मत भूलना।” यही नह ,
गाँव जाने से पहले गजट मामा ने वयं ही भानजी क सु दरी पु ी का हाथ पकड़,
ि मणी के पास बैठा दया- फर हाथ जोड़कर कहने लगे, “हमारी भानजी क क मत
खुल गई समिधन, जो ऐसा घर-वर िमला। वैसे हमारी िब टया भी सा ात् िहमालय-
क या गौरी है-जब आपका म होगा, तभी इसे आपक चरण-सेवा के िलए भेज दया
जाएगा।”
“हाय-हाय, ऐसी ल मी से म चरण-सेवा कराऊँगी?” लपककर उसने लजाती
च दन को ख चकर छाती से लगा िलया और ब त दन बाद, िनखािलस अ ुजल से,
उसक आँख छलछला उठी थ -यह भोला यारा मुखड़ा य द उसके अक मात खो गए
पु को, उसक माँ के पास लौटा सके , तो या वह वयं उसक चरण-सेवा करने नह
झुक पड़ेगी?
चलने से पूव, ि मणी ने भावी पु वधू क िविभ वेषभूषा और भंिगमा म, न
जाने कतनी तसवीर ख च डाल । कभी माँ के िववाह के पहाड़ी लहँगे-दुप े प ओर
कभी उस गुलाबी चूड़ीदार कु त म, दुप ा उसी फटे क भाँित िसर पर बाँध, हाथ म चूने
क बा टी-झाड़ू थमा, वह उसे सीढ़ी पर खड़ी कर, खट कै मरा खटका देती। उसके
उ साह क छू त, जैसे राजे री को भी लग गई । उसने ब त पहले अपने हाथ से कात-
बुनकर, अपने िलए ‘शौक’ पोशाक तैयार क थी । वह भागकर उसे िनकाल लाई और
जब उसने पु ी को, उस अनोखी वेशभूषा म सजाकर, ि मणी के कै मरे के स मुख खड़ी
कया, तो चपला सोिनया, कसी मनचले छोकरे क ही भाँित सीटी बजाने लगी ।
“म मी, िहयर इज ए रयल लैमर गल!” एक पल को, कं ठ म झूल रहे कै मरे को नीचे
लटका, ि मणी भी स मुख खड़ी उस अनुपम कशोरी के चेहरे को, अपनी आँख के हो
फोकस म बाँधकर देखती रही।
एक तो उस ‘शौक’ पोशाक का जादू, उस पर वयं पहननेवाली का जादुई
ि व । खड़ी धा रय से सजा, गाढ़े मै न रं ग का आधी खु लमखुला बाँह का,
कसी मुसलमान फक र का-सा कु तानुमा ‘ युंग’, उसके ऊपर कु त के अनाव यक घेर
को कसी मंजूषा म बाँधे, सुडाल उभार को उभारती वा कट ‘रक च’, नीचे गहरे नीले
रं ग का टखिनय तक झूलता कसी िवदेशी नन का-सा झ बा ‘बाला’ िजसक ितरछी
धा रय और नीले रं ग म, कु त क सीधी धारी तथा मै न रं ग से उिचत क ा ट का
अि तीय पुट देकर, उन अनपढ़ भो टया ि य क कला मक कढ़ाई ‘ मो’ ने कला मक
चार चाँद जड़ दए थे । िवदेशी माकट म जहाँ के वल बनारस क जरी या लखनऊ के
िचकन क ही याित थी, वहाँ वह अनूठी िश पकला भारत के िलए िवदेशी मु ा का
अटू ट कोष संकिलत कर सकती थी।
ि मणी, पल-भर को, कै मरा खटकाना भी भूल गई । पैर म थे, घुटने तक चढ़े
‘बौ च’ उन पर ित बती जूत क कढ़ाई, कसी भी हंगे रयन िश पकला म पटु मिहला
को पटकनी दे सकती थी । िसर पर, एक खुले बुक-सा ही िविच बारह िगरह जमन
ंट का प रधान था ‘चु ’, उसके च दोबे-सा ेत ‘दौरा’ उसे कसी डच सु दरी-सा
ही अिभनव प दान कर रहा था। कं ठ म झूल रहा था माँ का ‘करे ला’ और मूँग क
दुहरी लड़ का हार ।
“सुिनए, एक ऐसी ही से या हमारे िलए भी बनवा दगी ? लीज...” सोिनया ने
कहा ।
“ द ली म तो हमारे ामे टक लब क लड़ कयाँ एकदम पागल हो जाएँगी इसे
देखकर।”
“पर यह तो िबकती नह बेटी ।” राजे री ने कहा, “यहाँ क ि याँ वयं कात-
बुनकर, बड़े प र म से इसे चार-पाँच महीने म तैयार करती ह, मने भी तो यह वयं ही
कात-बुनकर पूरे पाँच महीने म तैयार क थी ।”
“तो या आप, गलीचे-कालीन बुन लेती ह?” ि मणी िबना पूछे नह रह सक ।
“म धारचूला ही म ज मी और पली ।ँ ” राजे री ने हँसकर कहा, िजस लड़क
को कातना-बुनना, गलीचे-कालीन बनाना नह आता, वह फू हड़ समझी जाती है ‘ इसी
से शायद मुझे भी सीखना पड़ा और इसी भय से आ भी गया क कह कोई फू हड़ न कह
दे ।”
उसके कथन म न बनावट थी, न ओछापन ।

त वीर ख च, ि मणी ने राजे री के दोन हाथ पकड़कर बार-बार िहला दए, और


वयं कृ त ता से दुहरी होकर झुक गई, “कह नह सकती, कतनी आन द द रही यह दो
दन क या ा, और आपके यहाँ का सुखद पड़ाव! भगवान ने चाहा तो हम अगले ही
महीने दूसरे पड़ाव के िलए भी हािजर ह गे । हम के वल तु हारी गुणी पु ी चािहए
बहन, बस अपनी लड़क के हाथ पीले कर िवदा कर देना ।” और वह हँसती-हँसती,
वयं कार चलाती धूल के अ बार और अचरज म डू बी समिधन को छोड़ गई थी।
या, एसे सवथा अनजान प रवेश म, फटाफट अं ेजी फूँ कनेवाली, कार
चलानेवाली मेम-सी साप के साथ उसक गऊ-सी शा त लड़क , अ त तक िनभा पाएगी
, छु री-काँटा पकड़ना तो दूर, वह अभागी तो कसी अप रिचत अितिथ के सामने ग सा-
भर भात भी नह िनगल पाती।
चाहे ि मणी, बार-बार कह गई थी क उसे लड़क के हाथ-भर पीले कर िवदा-
भर कर देनी होगी बस, और उ ह िवधाता ने सबकु छ दया था फर वह समथ थी और
ितस पर बेटे क माँ थी ! वह चाहने पर पहाड़ क कसी भी पर परा पर कु ठाराघात
कर सकती थी, क तु राजे री तो दुभा य से बेटी क माँ थी। संसार क कौन-सी िह दू
माँ आज तक बेटी के हाथ म खाली ह दी पोत उसे िवदा कर सक है? और कु छ न हो,
तोला भर सोना तो क यादान के िलए तब भी लेना ही होगा।

समिधन का आ ासन थ नह था । उ ह ने जाते ही ल बी-चौड़ी िचट् ठी म प कर


दया था क िववाह क ितिथ प हव ही दन पड़ रही थी, उसके बाद फर कोई शु
ल नह जुट रहा था । पर राजे री दो कोई िच ता नह करनी होगी । उसने
क यादान के िलए भी वयं एक बँगला देख िलया था । वह उसके आने तक, वहाँ सब
ब ध कर लेगी । वह के वल पा ी एवं अपने आ मीय वजन लेकर चली आए। क तु
इधर आ मािभमािननी राजे री को, समिधन का यह ताव मा य नह था ।
क यादान उसन अपने ही मकान से कया । पवतारोही दल के यारह प रिचत
मु कु राते चेहरे , एक बार फर उसके आँगन म जुट गए। स न समधी ने कसी भी
कार का भार उस पर नह पड़ने दया यहाँ तक क बारात का खाना बनवाने भी वे
रसद सिहत पूरे एक दजन रसोइए, नौकर-चाकर, कड़ाही-पतीले, दो मोटरा म भरकर
ले आए थे।
च दन के िवदा होते ही वह अपने कमरे म िखसक गई ।
च दन चली गई थी, उसक एकदम भोली सुकुमार च दन िजस पर उसने कु टल
संसार क छाया भी कभी नह पड़ने दी, िजसक फरे बी चाल का, उसे अ र- ान भी
नह करवाया । या यह उसक बुि म ा थी या मूखता! सास जब इतनी आधुिनका
थी तब या बेटा दूध का धुला होगा?
क यादान के िनबटते ही उसने कोने म लुढ़क , चौकोर बोतल भी देख ती थी, बड़े
कौशल से वह उसे आँचल म संभालती गे ँ के बोरे म िछपा आई थी। उसक देवरानी क
तो पीठ म आँख थ । यही नह , िवदा से पूव, यारह छोकरे उसे ध यवाद देने आए तो
इलायची, पान से िछपाई गई दुग ध को, उसक साि वक ाण-शि ने पकड़ भी
िलया था।
िववाह के दन भी चढ़ानेवाला, उसका यह अनजान जामाता या उसक भोली
पु ी को सुख से रखेगा?
क तु जब, पलंग पर बैठी, राधागोिव द-सी पु ी-जामाता क जोड़ी क आरती
कर ितलक लगाने उसने पु ी का घूँघट उठाया तो वह च दन का िखले फू ल-सा दमकता
चेहरा देखकर अपना सबकु छ भूल गई । कम-से-कम इस चेहरे को देखकर कोई इसका
अिन नह कर पाएगा ।
यही तो भूल थी राजे री क । जब च दन िवदा ई, तब भी उसका चेहरा वैसा
ही िखला था, न आँख म आँसू थे, न चेहरे पर माँ के िवछोह का दु:ख ।
हाय, कतनी बे खी से पली-पलाई बेटी पराई हो जाती हे! उसक िहचक य से
दबाए जाने पर भी शायद िनकल ही पड़ती क देवरानी आकर डंक दे गई ।
“आज क लड़ कयाँ, या हमारी-तु हारी तरह रोती ह, च दन क माँ? बेशरम
हँसती-हँसती ससुराल को चल देती ह । मने तो कहा भी-बेहया, एक बूंद तो लोकलाज
के िलए िगरा दे, पर राम भजो-तु हारी च दन तो मना रही थी क कब कार चले और
कब मायका छू टे ।” जली-भुनी देवरानी ने तो छ क लगाई थी, पर च दन सचमुच ही
आकाश म उड़ती जा रही थी ।

अपनी ससुराल के नये प रवेश क ऊँची-नीची देह रय पर जब कभी ठोकर खाती,


आन दी वभाव क हँसमुख ननद सोिनया उसको हाथ थमाकर संभाल लेती !
“यह भाभी ह, इनके पैर छू ना, यह तु हारी िजठानी ह, समझ ? यह मेरी दो त है,
दशन!”
िजठानी सुमीता और सहेली दशन, दोन क आँख म ई याि क दमदमाती
वाला क सरला च दन ने पहली ही झलक म पहचान िलया था ’
“असल म दशन चार साल से द ा के पीछे पागल बनी घूमती रही है ।” सोिनया
के पेट म भला कोई बात पच सकती थी? वह अपनी भोली नई भाभी के कान म, दशन
के आने से पहले ही फु सफु साकर कह गई थी-सुमीता ने कटे बाल क एक लट पीछे फक,
अपना अि बाण, ‘ऐट होम’ क पाट के बीच ही छोड़ दया, “हाय देवरजी! तुम तो
कह से दूu-पीती ब ी हा को उठा लाए, चाहने पर शारदा ऐ ट म तु ह पकड़वाया जा
सकता है । य जी देवरानी, दूध के दाँत टू ट गए है तु हारे ?” और अितिथय के बीच
ठहाक क मार से, लाल साड़ी म िलपटी च दन लाल पड़ती और भी सु दर लगने लगी
थी ।
उसी के सोफे पर, उससे सटकर बैठे पित ने सबक दृि बचाकर अपनी बािलका-
वधू का हाथ हलके से दबाकर मूक आ ासन दया था, जैसे कह रहा हो, ‘डरना मत
च दन, ये सब भूखी आदमखोर शेरिनयाँ ह । म तो यहाँ ,ँ फर तु ह कै सा भय?’
सुर-गृह के एक-एक क का वैभव देखकर च दन क िनद ष आँख और भी बड़ी
होकर, उसके सलोने चेहरे पर फै ल गई थ । कतने आभूषण, कै सी-कै सी सािड़याँ और
कै से-कै से हीरे फर सबसे अिधक जगमगाता हीरा, वयं उसका पित ।
िववाह के दस दन बीतने पर च दन क ल ा कु छ-कु छ कट चुक थी। माँ ने
िलखा था क ि रागमन के िलए पित को लेकर वह पहाड़ चली आए, पहाड़ क यह
र म तो मायके ही आकर िनभाई जाती है । क तु उसके उतावले पित ने वह र म भी
वह उसक माँ के कसी दूर के र ते के मामा के यहाँ जाकर िनबटा ली थी।
“चलो, अब हम एक ल बा-सा ‘हनीमून’ मना आएँ ।” िव म ने च दन को छाती
के पास ख चकर कहा था ।
शाहजहाँपुर क चची का भानजा भी शादी के बाद पा क तान से हनीमून मनाने
िह दु तान आया था, वह भी उड़कर । उस रं गीन जोड़े क ‘ताजमहल’ के सामने ख ची
गई तसवीर देखकर अ माँ ने उसे खूब डाँटा भी था ।
“िछ:-िछः कुँ आरी लड़क को ऐसी तसवीर, तेरी चची ने भला या सोचकर दे दी
?”
“ य अ माँ, या है इस तसवीर म?”
सचमुच ही तो कु छ भी नह था उस तसवीर म । दोन एक-दूसरे का हाथ पकड़े
खड़े थे, बस।
“नजमा के भाईजान क हनीमून क तसवीर है, अ माँ ।” उसने कै फयत दी तो
अ माँ और भड़क गई थ ।
“चू हे म जाए यह हनीमून ! यही सब मना-मनाकर तो अब हम पहािड़य के ब -
बेटे भी रसातल को जा रहे ह ।”
“म नह जाऊँगी ।” च दन ने पित क रसीले ताव का समथन नह कया था ।
“ “ य ?” ”
“अ माँ नाराज ह गी !”
“वाह-वाह!” खूब जोर से हँस उठा था िव म और फर च दन क नुक ली ठोड़ी
पकड़, उसके दूिधया चेहरे पर झुक आया था, “सच, कभी-कभी तो मेरा भी मन करता
है क तुमसे भाभी क ही तरह पूछ दूं क तु हारे दूध के दांत टू ट गए ह या नह : य
नाराज ह गी जी तु हारी अ माँ? या म उनक बेटी को भगाकर लाया ?ँ
“देख तो रही हो ।” वह फर उसे ब ी क भाँित फु सलाने लगा, “रात होने तक
या यहाँ एक पल भी अके ले बैठ पाते ह? और रात ससुरी भी तो सवा घंटे म कट जाती
है । दन म जहाँ देखो, वहाँ मेहमान ! िववाह के दस दन बीत गए ह, पर एक भी
ससुरा टलने का नाम नह लेता । चलो, ठाठ से जहाँ तबीयत आएगी, वह घूमगे ।
उठाया बैग और वत पड़े, िजस टेशन पर तबीयत करे गी, वह उतर पड़गे और िजस
ेन को देखकर मन ललचेगा, उसी पर चढ़ जाएँगे ।”
सच, ऐसी ही हनीमून क बचकानी उमंग म रँ गा वह रं गीन जोड़ा अटपटे टेशन
पर चढ़ता-उतरता पूरा महीना-भर घूमता रहा । हर टेशन पर एक च दन उतरती,
और जैसे दूसरी नई ही च दन पित का हाथ पकड़ चढ़ आती । पल-पल भर म रं ग
बदलती अपनी अपूव त वी सहचरी को िव म ने बड़े य से कै शोय क सी ढ़याँ फँ दा
ता य के जगमगाते संहासन पर िबठा दया । कभी कसी ाम के अनजाने कु एँ के
पास ही नीम क छाया म दोन सु ताने लगते, लाठी म लटकाया बैग और जूते पेड़ से
टका, िव म कसी गंवार उजड् ड क ही भाँित नये-नये गौने से िवदा कर लाई गई-सी
ब को ख चकर छाती से लगाता जोर-जोर से गाने लगता। “िछ-िछ, या कर रहे हो,
कोई देख लेगा तब?” च दन पित को दूर धके लती वयं िनकट िखसक आती।
“तब या! म तो चाहता ही ँ क सब हम देख-ऐसी जोड़ी बड़े भा य से देखने को
िमलती है, व दन!” कभी उसे ख चता वह अरहर के खेत म उठा ले जाता, “ऐसे ही
खेत म गाँव क ि य के आभूषण उतार उ ह काट-कू टकर गाढ़ दया जाता है च दन!”
वह उसे ऐसी अनुभूत दृि से सहमा देता, जैसे वयं उसी ने कसी सु दरी को
लूटपाटकर वहाँ गाड़ दया हो। भय से काँपती ब ी-सी अपनी नई ब क डरी-सहमी
आंख को फर वह णयी अधर के आ ासन से मूँद देता। कभी कसी जीण मि दर के
गूढ़ मंडप म ही रात कटती और कभी कसी धमशाला म ।
एक दन भूले-भटके दोन घर लौटे तो सोिनया भागकर च दन से िलपट गई,
“तुम तो इसे और भी सु दर बना लाए, द ा! देखो न म मी, कै सा टड चेहरा बना लाई
है!” सुमीता फर िवदेश चली गई थी। दशन शायद मन क था भुलाने अपनी माँ के
साथ क मीर चली गई थी। उन दोन क उपि थित ही च दन को सहमाती थी, इसी से
इस बार उसे ससुराल भयावह नह लगी । वैसे सुर-गृह क िविच स ा देखकर वह
अब भी बीच-बीच म िसहर उठती थी। वह भी कै सी सजावट थी बाबा! मुद क खोपड़ी
क ऐश- े, वह भी असली। वयं सोिनया ने उसे बताया था क कसी लावा रस लाश
जलानेवाले जमादार से म मी ने पूरे सौ पये म यह खोपड़ी खरीदी थी । एक िवदेशी
िम तो उ ह इस खोपड़ी के पाँच सौ दे रहा था, पर म मी ने नह बेची। दीवार पर
जगह-जगह टाँगे गए थे, टू टी-फू टी खंिडत मू तय के िछ -िभ अंग! कह कसी
घन तनी का खंिडत तन, कह पर अ ांग से िवलग कया गया िछ म तक और ार
पर करघनी से िवभूिषत कटी जंघा तक धड़हीन मू त के िनत ब पर ही बड़े कौशल से
लगी थी ‘कॉल-बैल’ । जब कभी अितिथ आकर घंटी बजाते और ार खोलने च दन
जाती, उतनी ही बार ल ा उसे रसातल को ख च ले जाती ।
‘पता नह , हमारी म मी का ऐसा मौरिबड टे ट यो है ?’ सोिनया ाय: ही
कहती रहती, पर ि मणी बड़े गव से मु कु रा देती। सचमुच ही महा-मौरिबड िच थी
उसक । दीवार पर दस फु टी नंगी चुड़ल ै क तसवीर बनी थ , िजनके अंग- यंग से
िनकली िनरथक लतागु म क े को कला, पूरी छत को घेरे थी। दीवानखाने म कह
कटे पेड़ का तना पड़ा था, तो कह एक िवराट गजद त । गृह वामी ने यह सु दर कोठी
टेहरी के महाराजा से खरीदी थी, क तु उसका सौ दय मणी ने अपने जंगली गोदने
से गोद-गोद कर सचमुच ही कसी आ दवासी के चेहरे क ही भाँित वीभ स बना दया
था । दीवार पर कह लाल रं ग क मोटी-मोटी धा रयाँ पड़ी थ और कह था एक मोटा
काला आकारहीन ध बा, जैसे कोलतार का पीपा ही उलट दया गया हो । उस पर
ि मणी दन-रात एक त त पर पड़ी ऐसी िविच तसवीर आँकती रहती, िजनका न
िसर रहता, न पैर ।
पर ेमदीवानी च दन को डेढ़ ही महीने म अपनी ससुराल का एक-एक प थर भी
यारा लगने लगा था । कभी-कभी वह माँ क याद म उदास हो भी जाती तो रिसक
पित न जाने कै से उसक उदासी को भाँप लेता ।
“चलो च दन, आज तु ह हम कु तुब दखा लाएँ ।” और हवा के वेग से भगाई कार
म वह अपनी नवेली को काँख म दबा-दबाकर पृ वी से दूर न जाने कन- कन ह-
न क सैर करा लाता, और वह मायके क ड़क भूलकर रह जाती। दशन क मीर से
लौट आई थी और उसे एक दन डँस भी गई “ऐ, जी डौल- ाइड! अपने पित का पीना-
िपलाना भी छु ड़ा दया या नह ! उसे छु ड़ा सको तो हम भी तु हारा लोहा मान जाएँ।
इ ी-सी उ म यह बे दा बेहद पीने लगा है।"
“ या पीने लगे ह?” भोली च दन ने आ य िव फा रत दृि पा म बैठे पित के
चेहरे पर िनब कर पूछा । उसका सरल और िन पाप दृि नंगी संगीन-सी ही
िव म क छाती म धँस गई । उसके जी म आया, वह दशन के रँ गे चेहरे पर एक झापड़
धर दे ।
“शराब! और या म दूध-चाय पीने क बात कर रही ?ँ ” दशन ने िनल ता से
फर दाँत दखा दए थे ।
उस रात को मािननी का मान भंग करने, िव म ने घुटने टेककर शपथ खाई थी
क वह आज से नह िपएगा और दशन को दखा देगा क उसक प ी के सौ दय म
कै सी अ भुत शि है ।

“िव म!”-उसक छु यां ख म होने ही वाली थ क ि मणी ने खाने क मेज पर


अपना सुझाव दया था, “च दन, अभी एकदम ब ी है। तु हारी गृह थी या स हाल
पाएगी? य नह उसे यह छोड़ जाते। यहाँ कॉलेज वाइन कर लेगी और छु य म
तु हारे पास आती-जाती रहेगी।”
सास के ताव से च दन वह पर अनमनी हो गई थी । रात को वह पित के गले
म दोन बाँह डालकर ब ी-सी मचल पड़ी थी । वह यहाँ अके ली नह रहेगी । सुमीता,
दशन-सबसे उसे बड़ा डर लगता है । फर पढ़ने म कभी भी उसक िच नह रही। जहाँ
िव म जाएगा, वह वह जाएगी। दुबली कलाइय को थामकर पित ने हँस-हँसकर उसे
ेम-पगे आ ासन म बाँध िलया था । वह उसे नह छोड़ेगा, “तु ह जो हम पढ़ा रहे ह
च दन, वह और कौन पढ़ा सकता है? इससे अ छी पढ़ाई और हो ही या सकती है?”
वह अपने कथन क पुि करने, चेहरा उसके पास ले आया था।
“हट, हट।” कहती उसे दोन हाथ से दूर धके लती, सु दरी िश या हँसती-हँसती
फर अपने उदार िश क क बाँह म खो गई थी । माँ से िबना िमले ही वह पित के साथ
कलक ा जाने को वयं उ त हो गई तो ि मणी मन-ही-मन स ही ई थी । उसके
िबगड़े पु को उसने सचमुच ही छोटी-सी अविध म साध िलया था । पीना तो दूर, वह
अब िसगरे ट भी नह छू ता था । िवदेशी िम -मंडली वयं ही बिह कृ त हो गई थी।
दशन आती भी तो िव म नह िमलता, जली-भुनी वह वयं ही थोड़ी देर म लौट जाती

सुर भी अपनी इस ब ी-सी ब पर अनोखा लाड़ लड़ाते । वह उनके सामने
छोटा-सा घूँघट िनकालकर आती और िन य वे उसे एक न एक उपहार थमा देत।े इसी से
जब ब को लेकर बेटे के नौकरी पर जाने क बात सुर तक प च ँ ी, तब उ ह ने अपनी
प ी से कहा, “पहली बार ब अपनी गृह थी सँभालने जा रही है, पुरोिहतजी को प ा
दखाकर साईत िनकलवा लेना ।”
वयं उनके सुर थे साहबी िच के बै र टर! पु ी को उनके साथ िवदा कया था
ठीक अमावस के दन, तब से वही अमावस जीवन-भर उनके साथ चली आ रही थी।
सुर ने शायद जान-बूझकर ही सं कारी जामाता के अंधिव ास पर कु ठाराघात कया
था, क तु सं कार क ज टल ंिथ कटी नह । उनके ि टफ टाचवाले कालर के नीचे
अब भी य ोपवीत का पिव साया था, इसी से कु छ सं कार बचे रह गए थे ।
“ या बेवकू फ क बात करते हो! प ह को उसे वाइन करना है और आज बारह
तारीख है । अब बेकार म पोथी-प ा दखाकर या उसे उलझन म डालोगे? कह प गा
पंिडत ने कह दया क साईत सोलह को पड़ती है तो बेचारा साईत छोड़ेगा या नौकरी
?”
पित के साथ, उसे फर मनचाहा ल बा एका त िमलेगा, यह सोच-सोचकर,
च दन दो-तीन रात से ठीक सो भी नह पा रही थी । सास ने ढेर-सारी चीज रख दी
थ , िजससे नई गृह थी का त बू तानने म उसे कसी कार का प र म न करना पड़े ।

कलक े म िव म का एक नेपाली िम था । उसने बड़े आ ह से, नविववािहत जोड़े को


िनम ण दया था क वह ब बई जाने से पूव उससे िमल जाए। फर वहाँ से ब बई क
दूरी, वह उ ह अनायास ही हवाई-या ा से पार करा देगा, य क वह वयं इं िडयन
एयरलाइं स का एक ऊँचा कमचारी था ।
या ा का पहला दन, हँसी-खेल म ही कट गया था और फर आर भ आ था
कालराि का थम पहर । खा-पीकर, दोन पास-पास क बथ पर लेटे थे । न जाने
कस छोटे-से टेशन पर गाड़ी क और तीन-चार फौजी छोकरे से अफसर, उनके
एका त म ाघात डालने घुस आए । उ ह िबना सामान के चढ़ते देख, च दन मन ही
मन आ त भी ई थी। लगता था एक या दो टेशन क व या ा के वे या ी, दो-
तीन घंटे म ही कह उतर पड़गे । रात-भर रहनेवाले होते तो या इतनी ठं ड म एक
छोटा-सा बुकचा लटकाए चले आते? कु छ ओढ़ना-िबछाना तो होता साथ म !
तब या वह जानती थी क उनक या ा का आर भ, उनक या ा का अ त होगा
। वेगवती गाड़ी गित ती करती जा रही थी, उधर उन चार ने बैग खोलकर बोतल
िनकाल और बड़ी ही अभ तापूण िनल ता से बोतल खोल बंगला म न जाने या-
या कहते, च दन को देखते गुटकने लगे। सकपकाकर, िनरीह दृि से च दन ने पित क
ओर देखा, जैसे कह रही हो, मुझे डर लग रहा है!’ िव म का चेहरा तमतमा गया । पित
के सुदशन चेहरे क वह तमतमाहट, च दन आज भी नह भूल पाई थी ।
“च दन, तुम मेरे पास चली आ ।” उसने उसे बड़े अिधकार से पुकारा ।
“नह च दन, तुम मेरे पास चली आओ इधर ।” उन चार म से एक नाटे फ मी
खलनायक के -से चेहरे पर घनी मूँछ वाले ि ने हँसकर बाँह फै ला द । दूसरा उठकर
ब ी के पास गया और हठात् पूरा िड बा घु प-से
अ धकार म डू ब गया।
पित से िलपटी, काँपती च दन को उसी ि ने बड़ी िनममता से अपनी ओर
ख चा । फर तीन , प ी को बचाने के िलए छटपटाते िव म को तड़ातड़ घूँस से
मारते, उसी क बथ पर चादर से बाँधने लगे । रे लगाड़ी ज म-ज मा तर क बैरन बनी,
गित को ती से ती तर करती जा रही थी।
“ऐई जे नैडा-एक बारे बािघनी जे!”
“अरे गंजे-यह तो एकदम शेरनी है रे !” वही नाटा खूँखार ि अपने गंजे साथी
से कहने लगा।
पर, चार-चार, नर- ा क मार से और भी खूँखार बन गई वािघनी, या उ ह
परािजत कर सक ?
उधर िववश बँधा उसका पित कराह रहा था-ओफ! या अभाग ने उसका मुँह भी
बाँध दया था?
या उसक जान ही ले लगे वे? य द पित क जान नह भी ली तो अब, या वह
अपना अिभश चेहरा उसे दखा पाएगी?
दूसरा नर ा उसे अपनी ओर ख चने ही लगा था क वह िबजली-सी तड़पी ।
और कु छ न हो, रे लगाड़ी का ार तो वह अँधेरे म भी टटोल ही सकती थी। पूरे वेग से
भाग रही रे लगाड़ी का ार पाते ही, उसने फर एक ण भी िवल ब नह कया । आठ-
आठ भूखी बाँह को छलती वह ार खोलकर कू द गई थी ।
मृ यु और के वल मृ यु ही अब उसके इस कलुष को िमटा सकती थी । क तु मृ यु ने
भी सहसा अपनी बाँह पीछे ख च ल । आज पूरा एक वष बीत गया था और वह अपने
अिभशाप के साथ ही जी रही थी... ।
पूरा एक वष कतनी ज दी बीत गया और उन बीते दन का एक-एक पल िनर तर उसे
अतीत क ओर ख चता रहा, पर वह भाग नह सक ।
य ?
इस ‘ य ’ का उसके पास, कोई उ र नह था।
“िस योिगनी है माया दी ।” चरन ने एक दन मि दर के एका त म उससे कहा
था, “िजसे वह चाहने लगती है, उसे वह छोड़ नह सकती । अपनी म पूत डोरी से ही
बाँधकर रख देती है। तु ह ब त चाहती है, अब देख लेना, चाहने पर भी तुम कभी भाग
नह पाओगी ।”
“पर तुमसे तो इतना िचढ़ती ह, फर तु ह य नह भगा देत ?” कु छ झुँझलाकर
च दन पूछ बैठी । पर दूसरे ही ण, वह वयं िखिसया गई। यह भी भला कोई बात थी
पूछने क !
उससे तो, कभी भी कसी ने कु छ नह पूछा-वह कौन है, कहाँ से आई है, य
चलती गाड़ी से कू द पड़ी? घर य नह लौट जाती?
यही तो इस वैरा य-क दरा म रहने का सुख था । कसी को भी, न कोई िज ासा
न कोई कु तूहल! या गाँजे-चरस के दम ने ही इन दो ना रय क नारी-सुलभ िज ासा
को बेदम कर दया था?
“हाँ ठीक कह रही हो तुम, मुझे माया दी देख नह सकत । सोचती है म उनके गु
को छीन लूँगी, अपने चेहरे के बल पर नह , इस िनगोड़े शरीर के बल पर। छीन सकती
तो सच, कबका छीन चुक होती, भैरवी!”
चरन अपना काला चेहरा च दन के पास ले आई, गाँजे के दम से आर आँख
देखकर च दन समझ गई क नशे ने ही उसे और भी ग भ बना दया है ।
“गु तो एकदम प थर ह प थर ।” वह िवरि के वर म कहने लगी, “आधी-
आधी रात को अमावस चीरती गई ँ मशान, उस प थर क मूरत क मु ी म िचलम
थमा, घंट खड़ी रही ,ँ कभी आँख उठाकर भी िजसने नह देखा, उसे या म छीन
सकती ?ँ यही तो जान गई है वह योगमाया । इसी से न भागती है, न भागने देती है।
पर म भी तो परीबाबा क मजार पर डोरी बाँध आई ,ँ देख,ूँ कै से नह भागने देती !”
और एक दन, चरन क डोरी ने काँच लगे माँजे क ही भाँित, िस योिगनी क
डोरी काट दी, फर उस कटी पतंग क डोर माया दी, लाख लपकने पर भी नह पकड़
पाई । उनका यह रौ प देखकर, च दन भी थर-थर काँपने लगी थी। खुले बाल, नशे
से कपाल पर चढ़ गई लाल आँख और हाथ म नंगा ि शूल! म -भैरवी-सी हो वे नाचने
लगी थ ।
“सच बताना, भैरवी, या तु ह पता नह है क वह कहाँ है? कै से मने इस छोकरी
को छाती से लगाकर पाला! ठीक कहती थी िव णुि या दी! िजस थाली म खाया है,
उसी म यह एक दन छेद करे गी।
कै सा चट-चट जवाब देने लगी थी, म जानती ,ँ वह कहाँ गई है । हो न हो, वही
मसानी चांडाल उसे ले भागा है ।
“एक बार सोचती ,ँ अ छा ही आ, भाग गई। ि या दी कहती
थी–‘भृ य ो रदायक:, ससप च गृहे वासे मृ युरेव न संशयः ।’ वह मुँह लगानेवाली
चरन दासी यहाँ रहती भी तो साथ म मौत ले आती ।” माया दी का अनुमान ठीक था।
चरन खैपा के साथ ही चली गई थी । चरन चली गई थी, इसी से च दन ही को
मि दर क धूनी जलाने जाना पड़ा । माया दी के घुटन म वात-िवकार था, वह उतनी
दूर चल नह पाती थ । मि दर के माग म ही च दन ने देखा, ‘ मशान-िवहार’ के टीन के
ार ब द थे और एक बड़ा-सा ताला लटक रहा था। वह समझ गई क चरन खैपा के
साथ ही भाग गई है । चौथे दन फर वह उसी माग से िनकली तो देखा, ताला खुल
गया था ।
अके ले म, खैपा को देखकर च दन को न जाने कै सा भय होता था, इसी से वह तेजी
से िनकल रही थी क आँधी के झ के -सी ही चरन, न जाने कस टीले से कू दकर, हँसती-
हँसती उसका माग अव करती खड़ी हो गई ।
“ क गो लतून भैरवी-खूब फाँक दि छले तो?”
-“ य हे नई भैरवी, खूब बु दू बनाकर भाग रही थ य ? माया दी ने तु ह भी
भड़का दया है या? यतो भीतर, पहले तु ह अपने ‘कौ ा’ (कता) के हाथ क गम-गम
पेशल चाय िपलाऊँ, तब बात ह गी।”
आज चरन दासी क वेशभूषा ही िनराली थी। माँग म थी पाब-भर िस दूर क
गाढ़ी रे खा, काले पैर म महावर क दो अंगुल चौड़ी बाढ़, लाल चटक के ले क रे शमी
साड़ी और दोन हाथ भरी चूिड़य के बीच ेत ‘शाखा’ और ‘नोआ’ (लोहे क चूड़ी)
उधर लाल चेक क बु शट और काली चु त पट पहने खैपा भी, दूसरा ही प धारण
कए मु कु रा रहा था। दोन के ेमतृ चेहर पर एक अनोखी द छटा ने ुश-सा
फे र, कािलमा को चमका दया था ।
“बैठो” उसने अबक भैरवी को, लकड़ी के एक उलटे खोखे पर, हाथ पकड़कर
िबठा दया और हँस-हँसकर पूछने लगी, “ य जी, या हाल है हमारी माया दी का?
पता नह कै सी-कै सी गािलयाँ दे रही है खूसट क रोज गल म खरास लग रही है ।”
च दन चुपचाप चाय पीती रही, इतने दन बाद चाय का वह याला उसे अमृत
पा -सा ही लग रहा था। जब से चरन गई थी, उसने चाय पी ही कहाँ थी ! माया दी, न
चाय पीती थ , न पीने देती थ ।
“हमने तो भाई, भैरवी!” चरन कहने लगी, “गृह थी बसा ही ली । आज यहाँ का
डेरा-डंडा उखाड़ने ही आए ह । बस यह चांडाली धंधा एकदम ख म । आज ही दो
बारात को हमने ठीक बोहनी के व भी लौटा दया, अपने ‘हजबड’ से एकदम बोल
दया ‘नो’ । अरे , िजस हाथ से मेरी माँग म िस दूर भरा है, उस हाथ से अब सूत कय
को चाय थमाएँगे क ा? य ठीक कहा न भैरवी?” फर वह खैपा क ओर अपनी
भुवनमोिहनी हँसी से सबरा कटा फकती, दोन टाँग िहलाती टीन क कु स पर झूला-
सा झूलने लगी ।
“कलक ा म इनके चाचा ह ।” िजस खैपा को यह ‘तू’ कहकर पुकारती थी उसे
अब ‘आप’ कहती बार-लार वग के संहासन पर िबठा दे रही थी। “वैसे तो सारे
िह दु तान म उनक क पनी घूमती रहती है, पर आजकल पड़ाव कलक ा म है ।
उनक सकस क पनी के मनीजर ह म ासी, इनके काका बाबू उ ह का खाना बनाते ह ।
कहते ह, मुझे भी काम दलवा दगे । बड़ा मजा आता है, भैरवी! शेरनी क आँख ह
एकदम अपनी माया दी क - सी । जो चाहो खाओ-िपओ, िबना टकट के तीन-तीन शो
का तमाशा देखो और फर अपने-अपने त बू के पद तान, दन चढ़ने तक मजे से सोती
रहो। रात-भर तमाशा करते ह कारीगर, इसी से िजसका िजतनी देर जी चाहे, उतनी
देर सो ले । यह नह क िचमटा क च-क चकर, ससुमी माया दी सुबह चार बजे जगा
रही है । ऐ बड़े-उड़े लोहेदार पंजर म चीते, भालू, शेर, बड़े-बड़े हाथी, अजगर । उधर
चेहर पर फलकारी कए जोकर और के ले के पेड़-सी मोटी जाँघ वाली लड़ कयाँ-ऐ
भैरवी तु हारी कसम, रे शमी जाँिघया और लाउज पहनकर, ऊँचे झूल म ऐसी छलाँग
लगाती ह क म तो मारे डर के आँख ब द कए, ‘जयगु जयगु ’ जपती रहती ।ँ नीचे
खड़े रहते ह, बड़ी-ही जाली िलए आठ नौकर । ऐसी बात नह है प ा इ तजाम रहते ह
मनीजर बाबू। काका बाबू कहते ह । सीखने पर एकदम वैसी ही छलाँग लगाने लगूँगी
तो पूरे डेढ़ सौ पया महीना बाँध दगे। मुि कल काम नह है छलाँग लगानी । काका
बाबू बतला रहे थे क जब तारा और मदा नौकरी करने आई थ तब ढलढल नाक बहा
करती थी, और आज आग के जलते छ ले के बीच से सर से िनबल जाती ह ।”
च दन के हाथ से चाय का याला लेकर चरन ने नीचे धर दया और फर चहकने
लगी, “इधर काका, क ा को ‘मौत का कु आँ’ म फटफ टया चलाना िसखा रहे ह, कहते
ह, बड़ा तेज दमाग पाया है भतीजे ने, एकदम नह डरता मौत के कु एँ से। सो हमने
कहा, ‘डरे गा कै से खुड़शशूर‘ (चिचया ससुर), आधी जवानी ही तो मौत के कु एँ म फूँ क
दी है तु हारे भतीजे ने ।’-खूब हँसे काका बाबू।
“ऐ भैरवी!’ वह च दन का हाथ पकड़कर अनुनय-भरे वर म कहने लगी, “चलो
न हमारे साथ तु ह तो चेहरा देखकर एकदम ही भत कर लगे मनीजर साहब ।”
च दन िबना कु छ कहे ही उठ गई । बात ही बात म उसे माया दी का यान ही
नह रहा था ।
‘ज दी लौट आना, भैरवी!’ उ ह ने चलते समय कहा था । उसी आदेश ने, उसे
चाबुक-सा मारकर उठा दया । चरन क आवेग-तरल धारा क एक बूँद भी उसे नह छू
पाई ।
“चलूँ चरन, माया दी के घुटन म आज ब त दद है ।”
वह उठकर जाने लगी तो चरन ने फर उससे कु छ नह कहा । शायद अपने
दु:साहसी आहान क थता वह समझ गई थी। उस दन दूसरे ही माग से च दन घर
लौट गई ।

दूसरे दन, जब वह मि दर क झाड़-प छ करने गई तो मशान-िवहार के टीन-ट ड़


सब नदारद थे । चरन चली गई थी। माया दी अब भी उस अकृ त लड़क को मा नह
कर पाई थ । वष से, िजसक सेवा क वे अ य त हो चुक थ , उसके एकदम चले जाने
से वे वयं ही अपनी पराजय से मूक बन गई थ । कहाँ पर चूक हो गई थी उनके त -
म म? या वयं उनके ही िच के िवकार- ाल ने, उनक शि को डँस िलया था?
उसक -सी िचलम अब कौन सजा सकता था? फर लाख दोष ह छोकरी म, पैर दबाने
म, रोटी बनाने म, समय-असमय गु को िचलम प च ँ ाने म कौन पा सकता था उसे?
उस पर िनर तर उसे गिलयाने क अ य त माया दी क िज वा के िलए, अब मनोरं जन
ही या रह गया था?
च दन को वे या उसक तरह डाँट सकती थ ? और वह कलूटी, िजसे चाहने पर
ही, टु कड़ पर गली के कु े क भाँित, वह दु कार और पुचकार सकती थ -उ ह छोड़
गई।
‘खुद भुगतेगी हरामजादी ।’ वह आप ही आप कभी रात को उठ-उठकर ऐसे
बड़बड़ाने लगत क च दन को लगता क उनका दमाग भी फर रहा है। दन-रात
डाँटने-मारने पर भी शायद अनजाने म, उ ह ने उस पािलता दुदा त कशोरी को यार
भी कया था । इसी से उसक वंचना उ ह और भी गहरा ध ा दे गई थी।
“जाना ही था, तो मुझसे कहकर जाती । म या उसे रोक लेती, भैरवी? कह तुम
तो मुझे ऐसे छोड़कर नह भागोगी?” आधी रात को वह उसे ख चकर छाती से लगा
लेत और अकारण ही देर तक िससकती रहत ।
पर भैरवी नह भागी, भाग गई वयं योगमाया!
इधर चरन के जाने के बाद गु को िचलम प च ँ ाने च दन ही जाती थी। पहले-
पहले उसे भय भी आ था, क तु ठीक ही कहती थी चरन! िचलम, या वह कसी भी
हाड़-चाम के पुतले को थमाती थी ? वह तो जैसे ठोस प थर क मू त बढ़ाकर िचलम
थाम लेता ।
क तु एक दन िचलम थमाकर गु ने पुकारा, “भैरवी!”
उसका कलेजा धड़कने लगा, क तु, धूनी धू से अवस धुँधलके म अनोखे तेज से
दमकता चेहरा देखकर, भय क बेिड़याँ वयं कट ग ।
‘‘ तुम अं ेजी पढ़ी हो न ?” आँख ब द थ -के वल मू त के दो ह ठ िहल रहे थे।
“ जी !”
“तब तु ह एक काम करना होगा-हमको िह दी ठीक नह आती ।” आँख अभी ब द
थ । िविच दुग धमय धुएँ क एक िवलि बत रे खा, घूमती-घामती च दन के इद-िगद
च र काटने लगी।
“म तु ह कु छ अं ेजी क पु तक दूगँ ा, तुम उ ह िह दी म िलखना,हम भी िह दी
िलख लेगा ।”
आँख पूववत मुँदी ही रह , क तु ह ठ हँसने लगे-कै सा द ि मत था गु का!
दूसरे दन से, गु साधना को िनकलते तो कई मोटी-मोटी पु तक म लाल पिसल क
रे खाएँ ख चकर उसे थमा जाते। येक पु तक म, गु का नाम, उनके सु दर अ र म
िलखा रहता-भैरवान द! ऊपर िलखे य से काटे-कू टे नाम को भी च दन ने पढ़ िलया
था, िशवशंकर वामीनाथन । िन य ही यह भी उनका ही नाम था । चेहरे से, बोलने के
ढंग से वे प े दि णी लगते थे, उस पर वयं माया दी ने भी एक दन कहा था, ‘गु ,
इस बार शायद फर दि ण चले जाएँग-े वह तो घर है उनका ।’
कौन थे यह वामीनाथन? कै से, अघोरी साधना-च के जाल म बन गए वामी
भैरवान द? यह सब चरन भी नह जानती थी। माया दी उ ह कु भ के मेले म िमली थ ,
इतना ही उसे पता था। पहले माया दी थ बाल-िवधवा और व लभी अखाड़े क
वै णवी, फर वह से सधवा बनकर चल दी थ कसी घरबारी नाथ-जोगी के साथ और
फर जब ह र ार के कु भ म गु को देखा, तब अपनी सुखी गृह थी वे छा से
ठु कराकर इ ह के पीछे चली आई ।
‘माया दी !’ एक दन दु ा चरन ने नशे के झ क म झूम रही माया दी को च दन
के ही सामने छेड़ दया था, ‘आप कब से जानती ह गु को ?’
‘ज म-ज मा तर से जानती ँ री, चरन!’ और माया दी न जाने कै सी आ महारा
दृि से उन दोन को देखकर हँसने लगी थ ।
‘खबरदार छोकरी, आज तो पूछ िलया, पर आगे से ऐसी बात कभी मत पूछना ।
मूरख कह क , या पावती से कसी ने पूछा था क वह िशव को कब से जानती है?”
इधर, चरन के चले जाने से माया दी वैसे ही ब त बदल गई थ , फर जब से गु
च दन से िह दी सीखने लगे, तो वह और भी अनमनी हो गई ।
गु के जाते ही अपना काम िनबटाकर च दन ब ता संभालकर िलखने बैठती तो
माया दी नहा-धोकर वह बैठ जात । न साबुन लगाती थ , न और कु छ, फर भी
खुशबूदार साबुन क ब ी-सी ही महकती थ माया दी, जैसे संदली अगरब ी का बंडल
खोलकर नाक के सामने धर दया हो।
“ या- या िलखने को दे गए गु , जरा मुझे भी तो सुना दो, भैरवी?” और च दन
उ ह एक-एक पंि का अनुवाद कर सुना देती :
‘आई एम द लाड ऑफ ऑल माई सैि सज
ऑल अटैचम स हैव आई शैड
ईवन डम योस मी नॉट
चे जलस एम आई-फॉमलैस
एंड ओमनी ेजे ट
आई एम िशव, िशव इज इन मी!”
(म िजतेि य ,ँ मोह के सम त ब धन म तोड़ चुका -ँ मुि भी मुझे अब नह
लुभा सकती-म अप रवतनशील -ँ िनराकार सव ापी िशव ,ँ म-िशवोहं िशवव ह!)
साथ ही दोन हाथ म तक से टेक माया दी कह उठत , “जय गु , जय गु , जय
गु , कसने तु ह ऐसे खुली पु तक-सा बाँच दया?” झर-झरकर माया दी क आँख से
आँसू बहने लगते और वह मू त-सी बनी एकाएक ि थर, अचल हो उठत ।
क तु एक दन का अनुवाद च दन उ ह नह सुना पाई ।
लाल पिसल से गहरी लािलमा म रं गे उस दन कई प े, गु कै से उसे थमा गए थे
! उस दन कै सा बदला-बदला चेहरा लग रहा था उनका!
“आज ब त काम दे गया ,ँ कु छ क ठन भी ह प , तुम कर पाओगी?”
और उसने पु तक थाम, िबना देखे ही गदन िहला दी थी।
अनुवाद करते-करते उसे अब अपने गु के दए इस गृह-काय म आन द भी आने
लगता-िच मय िशव त व क योित आँख के सामने जगमगाती रहेगी तो या वह
अ धी थी, जो नह देख पाएगी!
त -म , कुं डिलनी शि , ष च , इं गला- पंगला, सुषु ा, सहज समािध,
याहार ाणायाम, सबकु छ तो उसके सहिजया िस उसे जाने अनजाने पढ़ाने लगे थे

वह घंट बैठी िलखती रहती और पास बैठी माया दी एक-एक पंि का अनुवाद
सुनत ।
‘इन टू द फायर, ि हच इज द सु ीम से फ ाइटड बाई द पो रं ग अब द घी अब
मे रट एंड िडमे रट-आई, बाई द पाथ अब सुषु ा, एवर से फाइस द फ श स अव द
सेि सज, यू जंग द माइं ड ऐज द लेडल ।”
अचानक वह माया दी को आगे क पंि य का अनुवाद नह सुना सक । उसके
दोन कान सहसा लाल होकर दहकने लगे। वह या िलख गए थे । गु ?
‘हेअर कु ड वन फाइं ड, एनअदर ए जाि पल ऑफ सच यूटी?
‘द वेअर सफस ऑफ हर िमरर इज अनवद ऑफ द फे स, िहच इट रफलै स ।
‘लाइक द वा स ऑफ बीज, लाइं ग टू द पा रजात, लाइक द सो स ऑफ द
सेिजस, ए पाइ रं ग टू द मेिडटेशन ऑफ आ मन, सो डू द आइज ऑफ मैन, ले एसाइड
ऑल ए टीिवटी एंड डाइरे ट देमसे ज टू वड स हर अलोन ।’
“सुनाती य नह , भैरवी? या समझ नह पा रही हो?”
माया दी क आँख चपल होकर नाचने लगी थ । कह अं ेजी न जानने का झूठा
बहाना तो नह बना रही थी वे?
या पता, पढ़कर सब समझ चुक ह । उनक ओर देखकर च दन या कभी
उनका आदेश आज तक टाल सक थी?
वह क- ककर कहने लगी, “कहाँ िमलेगा ऐसा सौ दय? उस सु दरी का दपण भी
उसके मुख को ितिबि बत करने क मता नह रखता। पा रजात क सुग ध से खंची
मराविल-सी आ मन् म एकाकार होने क आकां ा म साधनारत तपि वय क
आ मन्-सी-उसे देखते ही मानवमा क दृि सब कु छ छोड़ इसी क ओर खंची चली
जाती है ।”
माया दी का चेहरा िबना नशा कए ही नशे म तमतमा उठा । उसके हाथ से
कागज छीनकर उ ह ने फाड़ दया और प े- ी काँपती खड़ी हो गई ।
“कु छ नह िलखना होगा अब तु ह । चुपचाप जाकर मेरे कमरे म सो जाओ । म
गुसाई से िनबट लूँगी ।”

बड़ी रात को गु लौटे। च दन क आँख म न द नह थी। माया खड़ाऊँ क खरपट सुनते


ही धूनी उकसाने उठ गई । थोड़ी देर म वह उनक गजना सुनकर उठ बैठी ।
माया दी का कं ठ- वर ु होने पर अ भुत प से ककश हो उठता था, जैसे
कसी माईक म मुँह डालकर कोई मेघ गरज रहा हो ।
“ या- या िलखकर दे गए हो उसे ? अब या महागु म ये नाथ क तरह
िस ामृत माग छोड़ धाममाग बनोगे, गु ? िछः-िछः! म इस आ म म अनाचार नह
होने दूग
ँ ी, समझे ? यहाँ बीस-बीस नरमुंड साधकर मने गु का ि शूल गाड़ा है । तुम
यहाँ सोचते हो, म मूख ?ँ िजस अधोमुखी ि कोण म डू बने उतर रहे हो, वह या यह
अभागी माया देख नह सकती?”
माया दी क गु गजना और भी उ अवरोह म चढ़ती जा रही थी, उधर गु
िज ह देखकर वह, चरन यहाँ तक क वयं माया दी कभी थर-थर काँपती थ , वे थे
चुप। एक ओर था दहकता वालामुखी पवत और दूसरी ओर ि थर अचल िहमभूधर ।
“जय गु जाल धर!” माया दी ि शूल को फटाफट धरती पर मारती फर चीखने
लगी थ , “ चुप य हो, कहो गु जाल धर क शपथ खाकर ! देह से पिव हो, यह म
जानती ,ँ पर या मन से भी पिव रह पाए हो ? ”
फटाक-फटाक कर खड़ाऊँ एक बार फर खटक और फर सब शांत हो गया ।
ब त देर बाद माया दी उसके पास आकर लेट गई । एक-एक साँस से िचलम क
सुग ध उठ रही थी।
“अ छा है, चले गए । तू तो एकदम भोली है, भैरवी! पर अनथ होते देरी नह
लगती । मरद का मन, चाहे वह लाख साधे, औकात म होता है एकदम देसी कु ता!
सामने हड् डी रख दो, तो कतना ही िसखाया-पढ़ाया हो, कभी लार टपकाए िबना रह
सकता है ? सो गई या?”
वह पास लेटी च दन के माथे पर हाथ फे रने लग , “बड़ी अ छी है तू, वह चरन
होती तो अनथ घट गया होता ।” पर नह , उ ह ने एक ल बी साँस ख चकर हाथ ख च
िलया, “अब मायामोह नह बढ़ाऊँगी । मेरे पुराने अखाड़े क गु बहन, िव णुि या अब
द ली म है। है तो व लभी अखाड़े म, पर खाने-पीने का खूब सुख है और फर ि या,
तुझे िसर-आँख पर िबठाकर रखेगी। कई बार मुझे िलख चुक है-अपनी चरनदासी-सी
एक टहलुवा छोकरी ढू ँढ़कर भेज दो। इधर रानीजी ने अपनी िब टया का छतरी बनवाई
है, वह उसे भी एक कोठरी दे दी है, मि दर क देखभाल भी करती रहती है । तुझे वह
प च ँ ा दूग
ँ ी। ि या को तुमने देखा भी है, य ?”
ि या दी को च दन देख चुक थी । एक बार अपनी गु बहन का अता पता पूछती
िव णुि या इस अर य म भी उसे ढू ँढ़ती प च ँ गई थ । गोरी-उजली सी िव णुि या
बड़ी ही मीठी आवाज म क तन गाती थ , पर उससे भी मीठा था उनका वभाव ! पर
उनका अखाड़ा था द ली म ।
और जो वय उसके गु का अखाडा था द ली म, वह या माया दी जानती थ !
वह िन य का काम-ध धा िनबटाकर मि दर क झाँड़-प छ के िलए चली गई ।
मि दर से लौटते-लौटते उस दन उसे बड़ी अबेर हो गई थी ।
िपछली रात क उ ेजना से माथे क नस झनझना रही थ ! धूनी रमाई, उसी से
जलते अंगारे िचलम पर धरे , फर हाथ वयं चला गया मू त के पीछे । गहरा दम
लगाकर वह फर मि दर के ठं डे फश पर न जाने कब तक बेहोश पड़ी रही । कै सा सुख
था उस िन ा म । दोन हाथ पकड़कर जैसे कोई आकाश म िलए जा रहा था। जब आँख
खुल , तब दन डू ब चुका था। वह हड़बड़ाकर उठी और माग टटोलती बाहर आई । दूर
जलती िचता क लािलमा डू बते सूय से हाथ-सा िमला रही थी ।
‘जय गु जाल धर’-वह माया दी का िसखाया उनके कापािलक गु का नाम
जपने लगी ।
‘दो अ र गु के नाम के लेना, भय वयं ही भाग जाएगा ।’ माया दी कहती थ ।
पर आज या कहगी माया दी ? इतनी देर तक कहाँ थी ? या कर रही थी? या
चरन क भाँित उसे भी आज माया दी अपने सं द ध दृि के अि बाण से झुलसा दगी?
वह एक कार से दौड़ लगाती हाँफती-हाँफती गुहा ार तक प च ँ ी तो सं या के
घनीभूत अ धकार ने गुफा पर काला क बल फै ला दया था ।
ार ब द था ।
“माया दी !” उसने कुं डी खटकाई ।
“च दन, च दन !” माया दी कराह रही थ ।
च दन कसी अिन क आशंका से ठठककर खड़ी रह गई, फर उसने ार को
धके ला, खट से मुँदे पट खुल गए । वह तेजी से भीतर गई । िस दूर पुते ि शूल के नीचे
गै रक पोटली म कसकर बँधी िपटारी से ोध क फू कार उठ रही थ , और वह पर
पड़ा माया दी का शरीर घायल यं णा म ठ रहा था।
“च दन!” अजब लटपटे वर म माया दी एक बार फर कराह ।
‘‘ या हो गया, माया दी?” च दन ने उनके ठते, टेढ़े पड़ रहे चेहरे को दोन हाथ
म साधकर पूछा ।
एकदम भगी दृि से उसे देखकर वह बोल , “डँस िलया बैरी ने । दूध देने गई और
यह देख ।”-तजनी पर िवषेले द त त उभर आए थे ।
‘‘गु क यही इ छा थी भैरवी, जो कभी उनक साधना-माग क पु पलता थी,
वही बन गई कं टक क बेल-उखाड़कर दूर फक दया-ठीक ही कया । जय गु , जय
गु !”
“माया दी, या बक रही हो, लाओ म अँगुली कसकर बाँध दूँ ।” वह काँपते हाथ
से अपना आँचल फाड़ने लगी, पर आँख के उमड़ते अ ुवेग ने उसे अ धी बना दया ।
या सचमुच ही माया दी नह बचगी? कतना बदलता जा रहा था चेहरा !
“मत बाँध भैरवी, ेम वर म म नाग ने डँसा है मुझे । संसार का कोई
झाड़नेवाला भी अब उसका िवष नह उतार सकता । देखती नह , अभागा स पणी के
िलए ही तो ाकु ल होकर फु फकार छोड़ रहा है । उोई जे, सोहागेर आक (वह है ेम क
पुकार) ।” उस यं णा के बीच भी आन दी माया दी ने हँसने क चे ा क , पर मुँह टेढ़ा
हो गया और ढेर सारा फे न िनकल आया, जैसे साबुन का टु कड़ा चबाकर थूक रही ह ।
“आँख मुँदी जा रही ह भैरवी! मेरे िसरहाने बैठकर काँसे क थाली पीट। या
पता, मरने से पहले उ ह देख सकूँ !”
च दन उनक उलझी ल बी जटा को सहलाने लगी थी क ही लट उसके हाथ म
आ गई ।
आस मृ यु च दन से सटकर खड़ी थी ।
‘साँप के काटे मनु य के बाल जब छू ते ही जड़ से िनकल आते ह ’ चरन ने एक दन
कहा था, ‘तब समझ लो, अब उसे कोई नह बचा सकता ।’
माया दी क बड़ी-बड़ी आँख झपकती जा रही थ । । च दन काँपते हाथ से काँसे
क थाली पीटती, उ ह जगाने क थ चे ा कर रही थी ।
“माया दी !” वह उ ह क धा पकड़कर िहलाने लगी । सहसा टेढ़े हो गए चेहरे का
तेज बुझते दीये क लौ क ही भाँित एक बार फर लौट आया ।
ठता शरीर साधारण च दन को ध ा देती माया दी तनकर बैठ गई । उनक देह
थर-थर कांपने लगी । ठीक ऐसी ही काँपती थी, च दन क जागे र वाली िवधवा बुआ
। जरा-सा छु आछू त का वहम होते ही उन पर देवी उतर आती। माँ के चू हे से जलते
अंगारे हाथ से िनकाल बुआ मुँह म धरकर ऐसे कचर-कचर चबा जात , जैसे फटी
सुपारी खा रही ह ।
च दन के त-िव मृत शैशव को माया दी क भयानक मू त एक बार फर
झकझोर गई । नीला पड़ गया चेहरा, ठु ी पर िबखर फे नो वल बं कम हँसी, और
आंख जैसे सामने बुझी राख म िछपे दहकते अंगारे ह । वह जैसे सामने बैठी च दन को
भी नह देख रही थी । कसी अदृ य मू त पर उनक ि थर दृि िनब थी। ।
“आन द व िपणी, बुि व पा, शि ही है । आलोक और अ धकार- वही राि
है और वही ऊषाकाल, वही है मृ यु और सह सु द रय के प म मु काती वही है
तार क छटा, कु मारी का सौ दय और सहचरी का साहचय! गु , देखना, सब याद है
मुझ?े ”
अनोखे गव से उ लिसत होकर वे फर िनढाल होकर च दन क गोदी म लुढ़क गई
। कौन कहेगा क माया दी अपढ़ ह? या- या बक रही थ , और कै सी-कै सी बात । पर
समय बीतता जा रहा था, और एक-एक पल, घातक िवष क ापकता भी बढ़ रही
थी, काँसे क थाली पीट-पीटकर ही तो उ ह बचाया नह जा सकता था । पर या करे ?
कहाँ जाए, उ ह अके ले छोड़कर? गु ऐसे असमय लौटते ही कब थे, फर जब से उ ह
माया दी ने फटकारा था, बस पता नह कहाँ चले गए थे?
यह भी स भव था क वे लौट नह ।
पर गु उस दन असमय ही लौट आए। अपनी अनुपि थित म आ गई िवपि को
या उ ह ने अपने योगबल क खुदबीन से देख िलया था?
मू त-सी ि थर बैठी च दन को देखते ही उनके कठोर चेहरे क एक-एक रे खा
ि ध हो गई ।
िबना कु छ पूछे ही वे घुटने टेककर च दन के पास बैठ गए । उसक गोदी म िसर
धरे िन े पड़ी माया दी क िशिथल पड़ी कलाई को उ ह ने अपने कठोर पंजे म जकड़
िलया ।
“माया माया!” वह िन वकार नीले चेहरे पर झुककर पुकारते िनराश होकर बैठ
गए ।
उनक सूखी जटा क एक लट च दन का िचबुक पश कर गई, पर वह उसी अिडग
मु ा म बैठी रही ।
या यह िविच अघोरी एक बार भी नह पूछेगा क माया दी को या हो गया
ह? वह तो के वल झुक-झुककर नाड़ी ही देख रहे थे ।
“बेहोश होने से पहले इसने कु छ कहा था या?” गु का वर जैसे दूर कसी जंगल
म गूंज रहा था ।
च दन चुप रही ।
कै से कहेगी, वह माया दी का स देश?
‘गु ने ही मुझे इसी धूनी के पास बोध च ोदय क कहानी सुनाई थी भैरवी!’
माया दी ने कहा था, उससे पूछना-‘मेरे कौलाचाय, अ तत: तुमने नई भैरवी को ही या
पावती बनाया?’
‘उ ह तुम कापािलक गु भैरवान द मत बनने देना भैरवी-तुम भाग जाना, दूर
चली जाना, ब त दूर ।’
या वह यह सब गु से कह सकती थी?
माया दी क र च दन-पुती छाती भी बगनी पड़ने लगी। साँस अभी भी चल रही
थी, पर रात क दोन प याँ कस गई थ ।
“भूल मेरी ही थी, माया।” गु वयं ही बड़बड़ाने लगे, “म जानता था, एक दन
यही होगा । इसे प ह दन पहले ही जंगल म छोड़ देता तो यह अनथ नह घटता ।”
धीरे -से गु ने माया दी का म तक अपनी गोदी म धर िलया, और फर न जाने
कस भाषा म बड़बड़ाने लगे।
कभी उनके साँवले चेहरे क नस तन उठत , कभी थककर गदन माया दी के चेहरे
पर झुक आती।
या उनके िवष को नीलकं ठ अब वयं अपने कं ठ म धारण कर रहे थे ?
कतनी देर तक उनके त -म चलते रहे, पर अब माया दी क साँस भी क गई
थी। गु जैसे मोह िन ा से जागे।
“भैरवी!” उ ह ने च दन क ओर िबना देखे ही उसे पुकारा, जैसे हदय म िछपे
िवकार से थ बन गई उसक साधना क पराजय च दन ने भी देख ली हो...“गरमी के
दन ह, अब मृत देह को और यहाँ रखना ठीक नह । िचताि तो इसे दे ही नह सकता,
जलसमािध के िलए भी बड़ी दूर ले जाना होगा । वो खाई का पानी इतना गहरा नह ,
अजया या फर इ छामती नदी म देह वािहत करनी होगी । तुम अके ली डरोगी तो
नह ?”
मोहमयी दृि एक बार फर तरल ि धता से छलकने लगी ।
अ ात भय धड़कता च दन का कलेजा मुँह को आ गया ।
“नह ।” उसने दृढ़ वर म कहा।
“तब ठीक है, मुझे लौटने म देर हो सकती है, घबराना मत, ार भीतर ब द कर
लेना।”
उ ह ने माया दी क िनज व देह अपने चौड़े क धे पर ऐसे डाल ली, से िनचोड़ी
गई धोती हो, फर दूसरे से कु मुँफकार से कांपती गै रक पोटली को उठाकर बोले,
“डँसी गई देह के साथ ही इस डँसनेवाले वंचक को भी आज जलसमािध दूग ँ ा ।”
फर न जाने कस ओर देखकर हँसते-हँसते ल बी डग भरता वह रौव अघोरी तेजी
से बाहर िनकल गया ।
च दन ने लपककर कुं डी चढ़ा दी।

ओफ, कै सा िवकट प था गु का! जैसे वयं सा ात िशव ही द क या क िनज व देह


िलए सृि का संहार करने के िलए िनकल पड़े ह !
‘तुम डरोगी तो नह , भैरवी?’
उस ि ध दृि को तो उसने पहचान िलया था ।
अरहर के खेत म पित से िलपटी वह नवोढ़ा, ब त पूव ही उस दृि को पहचान
चुक थी। िव म, उसे खेत म ही छोड़ कु एँ क रहट पर भूल आया अपना कै मरा लेने
गया था और जाने से पहले इसी दृि क ि धता म सराबोर कर गया था...‘तुम
अके ली डरोगी तो नह , च दन?
वह काँप उठी।
‘इस क दरा म अनाचार मत होने देना, भैरवी !’ यही था माया दी का अि तम
आदेश ।
सोचने-िवचारने का समय था ही कहाँ? माया दी का कमंडलु ही था उनका
अटैची, बक सबकु छ । उसी म से मु ी-भर पये िनकालकर च दन ने कमर म ख से,
फर खोजी िव णुि या दी क िच ी, उ ह भी तो खबर देनी होगी। िसरहाने, पुआल के
त कए के नीचे माया दी अपनी नेपाली भुजाली रखती थ , उसे िनकालकर अपनी कमर
म ख सने लगी तो पकड़, छ प ाताप से वयं िशिथल हो गई । िजसक देह भी
अभी वािहत नह ई होगी, उसको लूटपाटकर वह ‘द यु-क या’ भाग रही थी।
पर माया दी, तु ह ने तो यह आदेश दया है मुझ-े भाग जाना भैरवी —दूर, ब त
दूर ।’ वह वयं अपने को आ ासन देती, ार खोलने बढ़ी तो त ध रह गई ।
ार बाहर से भी ब द था ।
उसे भीतर से कुं डी चढ़ाने का आदेश देकर, या गु आ त नह ए? वयं भी
उसे बि दनी बना गए । वह िखड़क खोलकर देखने लगी। एक बार ऊँचाई देखकर
िझझक , फर माया दी क ही भगवा धोती का एक िसरा, खूँटी से बाँध, दूसरा अपनी
कमर से कस वह जंगली िब ली-सी सरसराती उतर गई ।
िजस भगवा धोती ने कमर बाँधकर उसे मृ यु प से बाहर ख चा था, उसी ने आज
मुि भी दे दी ।
कमर का फटा खोल उसने एक बार उस िखड़क को देखा और फर तेजी से भागने
लगी । कह भी मोड़ पर, उसे वह सहिजया साधक पकड़ सकता था। हाँफती, वह मजार
के पास प च ँ ी तो उस अर य म, आधी रात को न हा जादुई िचराग चल रहा था ।
लोबन का खुशबू से तर नीम क बयार पसीने से लथ-पथ अधमरी च दन पर पंखा-सा
डु लाने लगी ।
इस अर य म, इतनी रात को भी कौन जलाता होगा, यह दीपक और लोबान?
या यह भी कसी भ क आ मा का चम कार था? च दन के र गटे खड़े हो गए? दीये
क काँपती लौ म, मजार पर बँधे रं गीन डोरे भी िहल-िहलकर टेढ़ी-मेढ़ी छाया के िच
ख चकर कँ पा रहे थे।
च दन घुटने टेककर बैठ गई, उसने अपने भगवा आँचल का चीर फाड़कर पाए से
बाँध दया, आँख ब द कर न जाने कस मनौती म उसके ह ठ बुदबुदाए, फर वह गहरे
आ मिव ास से मु कु राती उठ गई ।
मजार से िनकला एक टेढ़ा-मेढ़ा पथ सीधा चला गया था, ‘तािलत’ । वह पर जो
भी गाड़ी िमलेगी, उसी म बैठ जाएगी वह ।
‘हम ऐसे ही चल दगे च दन!’ कभी कसी ने कहा था, ‘िजस टेशन पर तबीयत
करे गी, वह उतर पड़गे और िजस ेन को देखकर मन ललचेगा, उसी पर चढ़ जाएँगे ।’
िव म ही या उसके कान के पास आकर फु सफु साने लगा था ।
हाँफती-काँपती वह टेशन पर खड़ी, उस रे लगाड़ी के जनाने िड बे म चढ़ गई ।
सुबह का उजाला ठीक से फै ला भी नह था क गाड़ी उसके बैठते ही चल दी जैसे
अब तक उसी क ती ा कर रही हो । आज तक जो अर यवािसनी, अपनी
लाउजिवहीन वेशभूषा क ओर से एकदम उदासीन थी, अचकचाकर िड बे क मिहला
याि िणय को देखकर लजा गई । कसी मेले क भीड़ लौट रही थी। उस जन-कोलाहल
के बीच उसक स य चेतना एकाएक लौट आई । िछः-िछः, ऐसी अ न देह देखकर
सब या कहगी! अंग क गे आ चादर से उसने हाथ-मुँह सब लपेट िलया ।
न पास म टकट था, न कोई संगीसाथी । गे आ पोटली-सी बनी वह एक कोने म
बैठ गई । गाड़ी के चलते ही मेले क भीड़ म दो ककशा ा या का भयानक यु
िछड़ गया । ण-भर को उस पर टक कु तूहली दृि य का फोकस, अब नवीन
मनोरं जक यु पर के ि त हो गया । झगड़ा तब ख म आ, जब भीड़ का ग त टेशन
भी आ चुका था । च दन अब उस िड बे म अके ली रह गई थी।
एका त के ण म ऐसी ही एक या ा क मृित उसका कलेजा कचोटने लगी । वे
चार वीभ स चेहरे , कु क भाँित उसे झँझोड़ते चार दानव और कराहते पित क
भराई पुकार, ‘च दन, च दन!‘ उसका सवनाश देख चुका था िव म, फर भी वह कस
दु:साहस से मजार पर डोरी बाँध आई?
एक बार उसके जी म आया, वह उतरकर फर वापस भाग, उस डोरी को खोल-
खाल हवा म उड़ा दे। लगता था, वह गाड़ी एक-एक िसगनल को सलामी देती, क-
ककर लँगड़ाती चली जा रही है । न उस िड बे म कोई चढ़ा, न कोई टकट ही देखने
आया । जहाँ कसी टेशन के आने का आभास िमलता, वह भागकर गुसलखाने क
िचटखनी चढ़ा िछप जाती, पर वह आिखर कब तक, यह लुका-िछपी खेल सकती थी?
अदृ ग त आया और उसका कटा िड बा भी कटी-सी गाड़ी के साथ जुड़ा, याड
के सीमा त म जाकर खड़ा हो गया । चहल-पहल एकदम ही शा त हो गई, तब वह
डरती-डरती िपछवाड़े का ार खोल बाहर िनकल गई । छोटे-से लोहे के फाटक को
अरि त देख, कू दने म उसने िवल ब नह कया ।
बाहर आई और प रिचत शहर ने उसक गे आ चादर ख च सहसा नंगी कर दया

‘लाख िछपो हे नूतन भैरवी! हमसे या खाक िछप सकोगी?’
लोहे क छड़ से लदी-फदी क, आधा कलेवर पीताभ कए घूमती टैि सयाँ,
ब रं गी मोटर और कू टर । िनर तर बह रहे और जन वाह को बहा रहे भीड़ के
रे लमपेल के बीच वह हतबुि -सी खड़ी थी, जैसे मेले म खो गई भीड़ म भटकती कोई
गाँव क हकबकाई बािलका हो।
“ऐई जे लतून भैरवी गा, तुई को कोथाय थेके ऐली ।”
(अरे यह ता नूतन भैरवी है, य तुम कहाँ से आ गई यहाँ?)
गै रक दरी म बंधा िब तरा, िसर पर धरे हँसती-हँसती िव णुि या दी ने उसका
हाथ पकड़ िलया ।
‘‘ या अके ली आई हो या माया भी ह संग म? लो अ छा आ म िमल गई, हाय
राम, सामान या गाड़ी म ही छोड़ आई?” ि या दी के ढेर सारे म से एक का भी
उ र नह दे सक च दन।
कनिखय से ही उसके उतरे चेहरे को देखकर चतुरा वै णवी समझ गई क कु छ
अनहोनी घटना घट गई ह ।
‘चलो-चलो, टै सी कर लूँ पहले, ब त थक लग रही हो, बस पकड़ने म और थक
जाओगी । जब से कू टर से िगरी ,ँ तब से अब कू टर म नह बैठती ।”
वह वयं ही बकर-बकर करती, उसे लेकर टै सी म बैठ गई ।
“अ छा आ, जो म आज लौट आई। नह तो तुम कहाँ-कहाँ ढू ँढ़ती फरत !
रानीजी को लेकर गई थी मथुरा, वृ दावन और फर नाथ ारा। रानीजी वही ँ क गई,
बोल , ‘िव णुि या, तुम चली जाओ, वहाँ मेरे राधागोिव द अके ले ह ।‘ इसी से लौट
आई । मि दर के पट, कभी आठ दन से यादा ब द नह रहने देत । सोच रही थी
अके ली कै से र ग
ँ ी? चलो अ छा आ, गोिव द ने तु ह भेज दया ।” माग क थकान दो
रात क उन दी आँख म उतर आई थी, िबना कु छ कहे चुपचाप हवा क गित से
भागती टै सी के क च से च दन न जाने, या देखती और भी उदास हो उठी थी।
टै सी को रोककर िव णुि या दी ने अपना िब तर उतार, च दन से हँसकर कहा,
“ क गा, नामबी ना?” ( या री, उतरोगी नह या?)
रानीजी क िवराट हवेली म ही पि म के कोने म राधागोिव द का मि दर था,
और उसक कोठरी म िव णुि या दी के रहने क भी व था थी ।
‘‘ य भैरवी, तु हारी चु पी देखकर तो मुझे डर लग रहा है । कु शलमंगल तो है
ना? माया क इधर कोई िच ी भी नह आई, ठीक है माया?”
माया ठीक होती तो वह यहाँ आती? अब तक य से रोका गया, अ -ु वाह वयं
ही ब त कु छ कह गया, फर च दन ने आँख प छ ल । क- ककर, वह आर भ से अ त
तक सब कह गई । माया दी क गु बहन थी िव णुि या । माया दी आज होत , तो वह
शायद उनसे भी सबकु छ कह देत । एक ल बी अविध से, भीतर ही भीतर घोटी गई
वेदना का उफान, अब उसके मौन को ठे लकर उफनता वयं ही बाहर िगरता जा रहा था

“म जानती थी, एक दन ऐसे ही अभागी का अ त होगा, वै णवी अखाड़ा छोड़कर
गई, नाथ-कनफट क सोहबत म । उस अघोरी अवधूत ने मोिहनी जो फूँ क दी थी ।”
आंचल से आँख प छकर, उ ह ने एक ल बी साँस ख ची ।
“अब तुम कहाँ जाओगी, भैरवी?”
च दन च क उठी, वह वैसे इस के िलए तुत नह थी।
इस प क चंगारी को, अपने यहाँ के बा दखाने म रखने का साहस, िव णुि या
सहसा खो बैठी । रानीजी का युवा भानजा बीच-बीच म, अपने िम को लेकर आता
रहता था । फर वयं िव णुि या के गु भी तो उससे िमलने कभी आ सकते थे । िजसके
अलौ कक प ने, माया के िस -सहिजया का दयासन िडगा दया, वह या उसके
अधेड़ गु को िवकार तरं ग म घुरिनयाँ नह िखला सकता था?
प था क सदा के िलए अपना अखाड़ा छोड़कर आई है, जानकर, अब
िव णुि या दी उसे अपने अखाड़े क थायी सद या बनाने म िहचक रही थ ।
वह माया क चेली बनकर द ली घूमने आई है, यह जानकर ही वह उसे साथ ले
आई थ । उनके दो बार पूछे गए का िबना कु छ उ र दए ही च दन उठ गई ।
“म अब चलूँ, ि या दी!” उसने गे आ चादर क धे पर डाल ली।
कु छ स या क उतावली आगमनी ने और कु छ मेघखंड के जमघट ने, अँधेरे का
त बू-सा तान दया था। लगता था, असमय ही वषा आर भ हो जाएगी ।
“ओ माँ! नई जगह म ऐसे कहाँ चली जाओगी ? और फर यह
चेहरा लेकर । यहाँ तो अधेड़ वै णिवय के पीछे भी गुंडे लग जाते ह, फर
तुम...?” उ ह बीच म ही रोककर, च दन ने हँसकर कहा, “तुम मेरे चेहरे क िच ता मत
करो ि या दी, अब इसे िछपाना मने खूब सीख िलया है ।”
सचमुच ही चादर को लपेट-लपेट उसने बुका-सा तान िलया ।
“देखा, न ?” घुटी आवाज म वह कहने लगी, “अब कौन पहचान सकता है भला
वह सं यासी है या सं यािसनी?” वह चली गई और ि या दी देखती ही रह । चलो
अ छा ही आ, िसर पर आई बला वयं ही टल गई ।
गे आ चादर से कसकर चेहरा ढाँप-ढू ँप, च दन बस- टड पर खड़ी हो गई ।
सोिनया-िव म के साथ न जाने कतनी बार, वह इसी बस- टड पर खड़ी ई थी।
सामने रं ग-िबरं गे धप-धप जलते और दप-दप बुझते अ र म चमकती एल. आई. सी.
क बुल द इमारत, उसे हाथ पकड़कर मृितय के खँडहर म ख चने लगी। जहाँ चढ़ना
था वहाँ चढ़ने म, और जहाँ उतरना था, वहाँ उतरने म फर उसने र ी-मा भी भूल
नह क । फर इस िवराट कोठी को पहचानने म वह भूल ही कै से कर सकती थी?
राह म ही चाय क दुकान पर बैठकर उसने चाय पी, फर चादर से ही मुँह ढाँपे,
उसने कमर म ख सी िचलम िनकाली, आँचल म बंधे बा द से सजा, दुकानदार से चार
जलते अंगारे माँगने गई तो वह च क पड़ा । सारा मुँह ढँका, के वल दो ही आँख देख
पाया वह । कै सा मुँह ढाँपे था वह सं यासी! या पता कसी वीभ स रोग के कोप से,
नाक झड़ गई हो और चेहरे के वीभ स अवयव को िछपाने ही गे आ बुका बाँधे घूम
रहा हो। द ली म तो एक से एक नमूने दीखते रहते ह ।
कु छ देर से ही, उसने भट् टी से चार जले कोयले िनकालकर उसक िचलम म छोड़
दए।
िचलम लेकर, वह चौराहे पर खड़ी िजस नेता क मू त क ठं डी िशला पर बैठ गई,
उसे भी वह खूब पहचानती थी।
‘‘कभी रा ता भूल जाओ तो याद रखना भाभी!’ सोिनया ने कहा था, ‘इसी मू त
क नाक क सीध म चलती, इसके बाएँ कान क ओर मुड़ जाना । सफे द जालीदार
मेहराबवाला फाटक है हमारा ।’ मू त क ही ओट म बैठकर, उसने कसकर दम
ख चा-‘जय गु जाल धर, बस यहाँ तक जब ले ही आए हो, तो तु ह रखना लाज ।’
बाबा पीर, तु हारे मजार पर डोरी बाँधी है, िचलम का नशीला धुआँ धीरे -धीरे
मि त क म चढ़ता, शरबती मदम त आंख म अंजन बनकर उतर आया ।
वह उठी तो न पैर काँप रहे थे, न दय । यह तो कोई मरा धा नाियका, िनःशंक
अिभसा रका बनी चली जा रही थी, अपने भवजलिधर को ढू ँढ़ने ।
मेहराबदार फाटक पर लगी, दूिधया बि य के दो गोलाकार गु बद देखकर भी
वह र ी-पा िवचिलत नह ई । यह माग, या अब उसके िलए खुला रह गया था ?
‘ वामी के घर से भागना क ठन नह होता, भैरवी’-माया दी एक दन नशे म
झूम-झूमकर उसे सुना गई थ , ‘क ठन होता है लौटना! िजस ार को खोलकर कू द गई
हो, उससे अब या लौट पाओगी!’
पर िपछवाड़े का माग तो था । वह सँकरा माग, िजससे घोसी अपनी भस दुहने
लाया करता था। वह से वह ऐसे गहरे आ मिव ास से भीतर चली गई, जैसे कह घूम-
घामकर लौटी हो । अपनी िखड़क पहचानने म उसे समय नह लगा, उसी के नीचे
आगत भ का बनी वह ती ा म खड़ी हो गई ।
बाबा क मजार पर बँधी डोरी, नशे म झूम रही आँख के सामने सचमुच फहराने
लगी थी ।
दूर के कमरे से िवदेशी संगीत का वर लहराता, तैरता चला आ रहा था। िनबोरी
क कड़क -मीठी सुग ध से मृित के नथुने फड़कने लगे। स ोदृ व क भाँित
सुनहला अतीत सामने िबखर गया । एकसाथ ही छोटे-छोटे अनजान टेशन पर पित
का हाथ पकड़, ेम के न दन वन क सह गिलय म भटकती रिसकि या, फर चढ़ने-
उतरने लगी । न अब उसे यह भय था क कोई उसे देख लेगा, न सामा य-सी आहट ही
उसे च का रही थी ।
पो टको म न ककर एक ल बी कार, सीधी उसी के पास क गई ।
चालक, य द इतनी सावधानी से न रोक लेता तो गाड़ी, िन य ही उससे टकरा
जाती।
‘कौन है यह बे दा?’ वह गु से म भ ाया आ उतरकर, उसके स मुख खड़ा हो
गया ।
वह हँसी ।
कै सी अ भुत हँसी थी वह । जैसे परलोक का कोई या ी सहसा िणक चेतना के
धुँधलके म, क णािवमु ध ि मृित का जाल िबछाता, आ मीय वजन से अि तम बार
हाथ िमलाने चला आया हो।
देहव लरी को भगवा उ रीय से आवेि त कए, वह मदालसा ल ा, समपण,
असहायता क साकार ि वेणी बनी उसके स मुख खड़ी थी।
“म जानती थी, तु ह देख लूँगी, बाबा के मजार पर डोरी जो बाँध आई थी! !” वह
फर हँसी और इस बार उसी हँसी के साथ, अरहर के खेत, कु एँ क रहट और धारचूला
क घाटी, िव म के स मुख आकर िबखर गई ।
“च दन, च दन!” वह पागल क भाँित उसे बाँह म भरकर चूमने लगा । वह भूल
गया क अभी-अभी मृ यु से जूझकर उसक दूसरी प ी ने उसे एक िशशु-पु का िपता
बनाया है। वह भूल गया क िजस मोटर से वह अभी उतरा है और िजसके उदार साये म
वह पागल क भाँित, उसे चूम रहा है, वह भी उसक दूसरी सास क भट है । वह यह
भी भूल गया क प ी के सव क कु शल-मंगल के िबना, उसक सास और माँ, कमरे म
च र काट रही ह । वह तो बाँह म अपनी अिभरामा क नवीन प-छटा देखकर
पागल बन गया था । घुटन तक क भगवा धोती, कं ठ म ा क माला, पूण औदाय
से द शत अ न यौवन क र -मंजूषा िजसे वह अि को सा ी बनाकर अपने
राजकोष म लाया था! उसक प ी, सहचरी, उसक ेिमका।
नह , कोई भी कलंक इस चेहरे को कलं कत नह कर सकता । च मा के कलंक
क ही भाँित या इसके कलंक ने भी इसे, इस अिभनव प म रं ग दया है! वह एक बार
फर उसके अधर पर झुका, पर यह तो उस क तूरी क सुग ध नह थी, जो उसके
िशकारी नाना के गृह म रहने से उसके शरीर म कभी रस गई थी । इस सुग ध को वह
पहचानता था। िवदेशी िम के दीघकालीन साहचय क सुग ध थी वह। हाल क पढ़ी
पि याँ उसक आंख के स मुख नाचने लग ।
‘द मेल ऑफ म रजुआना, लं स टु ेथ एंड लो दंग । द मोकस सफर ॉम
लड शाट आइज ।‘ भगवा धोती क एक-एक भाँज से उठती मदभरी सुग ध क लपट,
या आँख को भी लाल बना गई होगी ।
अपने स देह क पुि के िलए, िव म ने छाती लगा चेहरा उठाया, पर उसक
अलस सहचरी ने बा पाश क जगड़ को और भी कठोर बना िलया। उसे जैसे भय हो
रहा था क इतनी कठोर साधना से जुटा यह स बल कह कोई छीन न ले ।
“िव म! कहाँ गया तू?” हड़बड़ाकर दोन िवलग हो गए, सास का कं ठ वर
च दन को अ चेतना से यथाथ के धरातल पर ख च लाया । वह तेजी से ख भे क आड़
म िछप गई।
“आ रहा ,ँ म मी!” िव म माँ क ओर बढ़ा, आैर वह तेजी से सी ढ़याँ उतरती
मोटर के पास खड़ी हो गई थी ।
ख भे के पीछे िछपी छाया ने सास को देखा, उमड़ती िहचक को कं ठ म घुटककर
उसने आँख मूँद ल ।
“ या आ, कहता य नह ?” सास बेहद घबराई-सी लग रही थी।
िव म माँ का हाथ पकड़कर पो टको क ओर ले चला-
“बोलता य नह ? ठीक तो है दशन? बीिसय बार अ पताल को फोन कया ।
तेरी सास तो सी बार बेहोश हो गई । एक तो वैसे ही युरो टक ह, उस पर जब से सुना,
िसजे रयन होगा, तब से दशन-दशन कर बौरा-सी गई । या आ? कह न बेटा, आई
एम ि पेयड फॉर द व ट ।”
“दशन ठीक है म मी, लड़का आ है ।” उसने ब त ही धीमे वर म फु सफु साकर
कहा, िजससे गज-भर क दूरी पर ख भे क ओट म खड़ी छाया न सुन ले।
भा य ने कै से िविच दलदल म फँ सा दया था उसे!
पर माँ ने उसक फु सफु साहट का बा द अपनी कं ठ क बुल द तोप म गोला
बनाकर छोड़ दया : “अरी सोिनया, दशन क म मी को फर मे लंग सा ट तो सुंघा दे
! लड़का आ है । चल-चल भीतर, यहाँ खड़ा या कर रहा है, डैडी को ंककॉल तो
िमला।”
“भा य देखो, रोज घर पर रहते ह, आज नाती आ तो चल दए ब बई ।” पु का
हाथ पकड़कर वह साथ ख च ले गई ।
िजस माग से जो आई थी, वह चुपचाप फर उसी माग से िनकल गई । माया दी ने
ठीक ही कहा था..‘यह चेहरा देखकर तो कोई भी पु ष तेरे सात खून माफ कर देगा
भैरवी, फर वह तो तेरा प-िपपासु पित है!’
दयालु यायाधीश ने सचमुच ही उसके सात खून माफ कर दए थे । क तु मुि
पाकर भी या कारागार के कलंक क अिमट याही छू ट सकती है ?
बेिड़याँ कटने पर भी तो काल-कोठरी से छू टा कै दी, मृ यु-दंड को नह भुला पाता,
वयं उसक ही अ तरा मा उसके पैर म बेिड़याँ डाल देती है ।
संशय म बँधा, वह च कत दृि से, अपने ब दी-जीवन काल म एकदम बदल गए
संसार को देखता, सोचता ही रह जाता है । वह अब कहाँ
जाएगा.. कहाँ ?
ठीक वैसे ही, अनजान भीड़-भरे चौराहे पर खड़ी वह मु वि दनी भी यही सोच
रही थी — वह कहाँ जाए? कहाँ!

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