You are on page 1of 3

जिंदगी के नवरंग

कहा गया है कि जीवन के नौ रस होते हैं । और बिना किसी शिकवे शिकायत के जीवन के विभिन्न रसों का स्वाद लेते हुए आगे बढ जाना, वाकई एक कला होती है । जिस
बाल अवस्था में हमें जीवन की उपस्थिती का अहसास होना प्रारम्भ ही होता है, तब यकीनन हम जीवन के उतार चढाव भरे स्वभाव से परिचित नहीं होते । ना ही हम इतने
योग्य होते हैं कि हम जीवन के बाह्य रूप को ही समझा पायें । लेकिन हमारी उपस्थिती दर्ज हो चुकी है , हमारी यात्रा शुरू हो चुकी है, इसमें तो कोई शक नहीं । एक नन्हीं
समझ से जीवन का निरीक्ष्ण भी शुरू हो गया है, यह भी सत्य है । और ये भी कितना अचरजपूर्ण है कि हम सबके जीवन परस्पर कितने भिन्न होते हैं | जीवन के विभिन्न पलों
का आनंद भी सबके लिए अलग अलग मापदण्ड का होता है । फिर भी हर व्यक्ति अपने स्तर पर संतुष्ट और और प्रसन्न होता है । किसा व्यक्ति ने संसार में आकर क्या पाया है
, इसका कोई मानक तराजू नहीं होता । यह सब इस पर बहुत निर्भर करता है कि हमने शुरूआत कहां से की, खासतौर पर तब , जब आकलन भौतिक उप्लब्धियों और
संग्रहण पर निर्भर करता है । हमारे जीवन के सफर में क्या हमारे लक्ष्य रहे और क्या हमारे साधन रहे , क्या हमारे बलिदान रहे , ये सभी हमारे जीवन को निर्मित करते हैं ।
अपने जीवन की छोटी छोटी उप्लब्धियों को धीरे धीरे बडा बनाना , भरपूर योगदान देना और अपने परिवारजनों और मित्रों को सहयोग करना भी अत्यंत महत्त्वपूर्णॅ होता है और
वास्तव में एक सफलता की इकाई होते हैं । सपने बनते रहते हैं , बिगडते रहते हैं , परंतु अपने हिस्से का प्रयास हमें नहीं छोडना चाहिये । “सुख दु:ख , लाभ हानि, यश
अपयश , ये सब हैं विधि हाथ । सबसे बडी संतुष्टि होती है , प्रयास । इक सम्पूर्ण प्रयास , सम्पूर्ण सफलता होता है । भले ही हमें पूर्व निर्धारित सफलताएँ ना मिले, लेकिन
किसी न किसी रूप में हमें लाभ मिलता है । ये कहानी उन सब लोगों की है, जो हर पल , लगन और कठिन परिश्रम से अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं ।
अनथक , लगातर , हर अंधेरे में एक नये सूर्य की तलाश में जुटे रहते हैं । ह्र्दय से कोमल, निष्छ्ल , परोपकारी , वक्त की बेरूखी जिन्हे हताश नहीं करती , अपने कर्त्तव्य
जिनके लिए एक साधना की तरह होते हैं । एसी ही एक कहानी है, एक छोटे से शहर में रहने वाली ओमवती की । ओमवती जो अपने पिता की लाडली थी । उसकी छोटी
छोटी खुशियों की पोटली हमेशा भरी रहती थी । आज भी उछ्लती कू दती विद्यालय से आ रही थी, पिता जी ने जेब खर्च जो दिया था बेर खाने के लिये । और शनिवार को
सिनेमा भी दिखाने वाले हैं । और बुआ की शादी के लिये , साटिन का नया लहँगा-कोटि भी मिलने वाला है । बचपन के रंग और आनंद कितने विरले होते हैं । बचपन की यादें
, पसंद और जोश, हम उम्र भर महसूस कर पाते हैं । और अपना वक्त आने पर हम वही आनंद और लाड अपनों को देना चाहते हैं । परंतु समय के साथ आनंद की परिभाषा
बदलती है । आज की पीढी वो पुराने तरीकों में मजा ना ले पाये तो, ओह! यहाँ भी जनेरेशन गैप । लेकिन सिर्फ मजा लेना ही मजा नहीं होत है । मैं भी यहाँ ई-मौजी और
इमोटिकोंस डालना चाह्ती हूँ । लेकिन की-बोर्ड गैप । भावनाओं को शब्दों में लिख्नने के लिए बहुत मेहनत चाहिये ।
“ ज्यों आती थी याद उसे बचपन और ठठेली, चंद्रकला सी खिल जाती थी त्यों उसकी मुस्कान ।
सज़ संवर के जब निकले वो सखियों के साथ , नहीं भूलती थी मेले की रंग बिरँगी बात ।।“
ओमवती हर काम मन लगा कर करती थी और पढ्ना तो उसे बहुत पसंद था , और पिताजी ने भी वादा कर लिया था कि जब तक पास हों तब तक पढ्ते रहना । ओमवती
की अम्मा तो अनपढ थी । तो उसने अम्मा को हस्ताक्षर करना सिखाया । विदित है कि एक वक्त ऐसा था जब शिक्षा और शिक्षित व्यक्ति को बहुत सम्मान मिलता था । अभी
भी मिलता है, पर समय के साथ कु छ अपभ्रंश भी हैं । खैर! अभी तो हम ओमवती के बारे में बात कर रहे हैं । उसका भी सपना था , खूब पढाई करेगी तो ससुराल में भी
ईज्जत मिलेगी । पिताजी की विचारधारा आजाद भारत की तरह आजाद थी , जहां बेटी की शिक्षा का भी उतना ही महत्तव है, जितना बेटे की शिक्षा का । एक स्वतंत्रता सेनानी
की तरह पिताजा बहुत बार जेल भी हो कर आए थे । वो कभी कभी सबको आजादी के आंदोलन की कहानी सुनाते थे । ओमवती के दिल में भी कू ट कू ट कर देशभक्ति भरी
थी, .. थोडी फिल्मी अंदाज में । देशप्रेम के गानों को सुनकर वो खुद को नायिका ही समझने लगती थी – अपनी आजादी को हम हर गिज मिटा सकते नहीं , सर कटा
सकते हैं लेकिन सर झुका सक्ते नहीं .., वंदे मातरम्। और थोडे समय के लिए तो वो नयिका प्रेरणास्रोत बन ही जाती थी । एक स्वाभिमानी स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र महिला ।
एसी आजादी के साथ अम्मा ने ओमवती को गृहकार्य में भी निपुण बनाया था । तरह तरह के व्यंजन बनाना, सिलाई, कढाई , बुनाई , संगीत इत्यादि । बचपन सही में कितना
आनंददायक होत है । तीज त्यौहारों का उल्लास – ईद पर सलमा मौसी के साथ गला फाड फाड कर गाना हो “मुझे मिल गया बहाना तेरी दीद का, कै सी खुशी ले के आया
चाँद ईद का “ या फिर दीवाली पर पूरे घर को दिए से सजाना हो , कु लजीत के साथ गुरुद्वारे के जुलूस में जाना हो, या फिर एनालिस के साथ कै रोल गाना हो, उत्साह पूरे
चरम सीमा पर रहता था “ । सहेलियों के साथ हँसी मजाक या गपशप में ही घंटों गुज़ारना हो, तो पिताजी के टेलीफोन से बढिया और क्या हो सकता था । या फिर , मेले में
जाकर खरीदारी करना और अपनी गुल्लक तोड कर अमीर बनना हो ।

तो जिंदगी रसदार चल रही थी । अभी कौन कौन से रस हो गये होंगे – “ शृंगार रस ( ( तीज -त्यौहारों पर सजना सँवरना ) , हास्य रस , वीर रस ( पिताजी
की स्वतंत्रता आंदोलन की कहानियां ), आश्चर्य रस ( जिंदगी कितनी अद्भुत है ) और शांत रस ( अम्मा के साथ बैठ कर ध्यान लगान और भजन कीर्तन करनी ) पिता जी
घर में सबको उसका सम्पूर्ण स्थान देते थे । कभी कोई किसी का दिल नहीं दुखाते था । खुद भले ही वो कितनी परेशानियां झेलें । सबका सम्पूर्ण विकास और अपनी क्षमताओं
का भरपूर उपयोग , वो सबसे चाहते थे । ओमवती धीरे धीरे ग्रेजुएट भी हो गयी, फर्स्ट क्लास में । ओह ! शहर में तो आगे की पढाई भी नहीं थी । तो फिर ओमवती की शादी
हो गई ।
जिंदगी तो जैसे रसों से ही भर गयी । इतने रस तो ओमवती ने सोचे भी नहीं होंगे । इतना बडा परिवार , घर का साफ सफाई खत्म , तो रसोई
शुरू, नाश्ता खतम तो कपडे लत्ते शरू, वो निबटते तो दोपहर का खाना शुरू , ..........तो इस तरह से उसे जो जिंदगी का भरपूर रस मिल रहा था जिसको हम ग़ृह-श्रम
रस कह सकते हैं । विद्वानों ने इस स्थिती को किसी रस से नहीं जोडा । इतना काम कर के भी वो कभी दुखी नहीं रहती थी , जैसे कि कु छ लोग बोलते हैं कोल्हू के बल की
तरह पिसना । पर उसको हम रूद्र रस, करूण रस, वीभत्स रस इत्यादि की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं, क्योंकि उसके लिए अपनों की सेवा एक आनंद था । पर मैं इसको
शृंगार , हास्य , भयानक और अद्भुत रस की तरह भी नहीं समझ सकती क्योंकि ऐसा तो कोई लक्षण नहीं दिखता मुझे ! हां मैं उसको शांति से सब काम करते हुए देखा थी ।
शांत रस शायद इसे कह सकते हैं । शांति से हर काम पूरा करना, कभी किसी से कु छ शिकयत ना करना, चेहरे पर हमेशा एक मनमोहक मुस्कान रख्नना । एक भक्ति की तरह
वो सारे किरदार निभाती थी , लेकिन मैं इसको भक्ति रस की तरह भी नहीं समझ सकती , क्योंकि ये तो खुद को भगवान का दर्जा देने वाली बात हो जायेगी । जो भी
तकलीफ हो उसको वह भगवान को ही कहती थी । मुझे तो लगता है कि ओमवती और भगवान का संवाद ही चलता था । इतना भरोसा उसे कै से रहता था भगवान पर !
थोडी बहुत तकलीफों से ही ईंसान का विश्वास डोलने लगता है । कु छ तो बात थी ओमवती में । अपने ईष्ट की आराधना वास्तव में बहुत ताकत देने वाली होती है । छोटी मोटी
तकलीफों चाहे शारीरिक हो या मानसिक, उनको तो वो कभी हावी ही नहीं होने देती थी । एक दोहा है – “ राम नाम की लूट है , लूट सके तो लूट, अंतकाल पछ्तायेगा जब
प्राण जायेंगे छू ट “ , तो मुझे तो लगता है कि बडी चतुराई से उसने भगवान को अपनी ताकत बना रखा था और सबसे ज्यादा उसी के पास था । वरना हम भी तो किसी से
कम नहीं । ऐसा वो सभी सोचते थे, जो भी ओमवती से जलते थे । लेकिन ओमवती की मुस्कान नहीं चुरा पाते थे ।
सरल दिखने वाली हर वस्तु ओमवती के लिये एक चुनौती हो गयी थी । उलझाने वाले तानो बानों ने उसकी जिंदगी में पूरी जगह बना ली थी ।
जैसे कु छ अच्छा होने की आहट होती, तो फिर सि सब कु छ रीसेट हो जाता । ओमवती कब हार मानने वाली थी । जीवन में छोटे छोटे त्यागों की सँख्या बढती ही जा रही थी
। करूण रस भी जीवन में दस्तक दे ही देता था । अपने आप से किए वादों की सूची भी बढ्ती जा रही थी । एक वादा दूसरे वादे को आगे धकलने के लिए काफी होता,
अन्यथा थककर कहीं बैठ ही ना जाती । लेकिन बहुत बार थककर चूर भी हो जाती थी । फिर पूरा आकलन करने बैठ जाती थी । ऐसा इसलिये हुआ होगा और फिर ऐसा
इसलिए । अगर मैं यह करूं तो फिर ऐसा नहीं होगा और पता नहीं क्या कमी रह गयी थी इस बार कि सब गडबड हो गया । मेरे अंदर कही कु छ कमी रह गयी होगी शायद ।
आगे बढने के लिए कु छ तो बहाना चाहिये । तो इस तरह के बहाने में तो वो स्वार्थी थी । समय के साथ कितना कु छ बदलता जाता है । नहीं बदलता तो सिर्फ जज्बा और
साहस । नहीं बदलता तो सिर्फ अपने , अपनों के ऊपर विश्वास और आत्मविश्वास । कु छ नया सीखने और नया कर पाने का साहस , इस भँवर में अपना स्वरूप बनाने में
मदद करते हैं ।
“ धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कु छ होए, माली सींचे सौ घडा ऋतु आए फल होए। “
ओमवती जिन उसूलों को मानती थी, उन पर अमल भी करती थी । भाषणबाजी और नित कलह से बिल्कु ल परे । एक चुप सौ सुख के बराबर । बहुत सारे
निराशा भरे क्षणों में भी ओमवती धैर्य बना कर रखती थी । कितने उतार चढाव देखे, पर हौसला नहीं खोया । दिल में भले ही कितने तूफान चलते हों पर चेहरे पर कोई
शिकन नहीं होती थी । आज नहीं तो कल अपने कर्मों का फल जरूर मिलेगा , बस ऐसी आशा बनाकर रखने को हमेशा कहती थी । अपने परिवार के पालन पोषण के लिए
खुद की जरूरतों को हमेशा पीछे रख्नना, उसे बखूबी आता था । ओमवती कभी किसी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखती थी । अगर कोई चीज उसको अथाह पसंद है लेकिन
पा नहीं सकती , तो वो उस से अलग हो जाती थी , कि जब समय आयेगा तब मिल जायेगी । एक चालाक लोमडी की तरह कि अँगूर खट्टे हैं । अपने बच्चों को भी उसने यही
शिक्षा दी थी, जितना मिले उसी में संतोष करो । “ जब आवै संतोष धन, सब धन धुरि समान “ दूसरों के वैभव से अपनी तुलना मत करो । समय से पहले और वक्त से
ज्यादा किसी को कु छ नहीं मिलता । तुलना ही करनी है तो गुणों की करो । ज्ञान की करो । उसको तो तुम अथक परिश्रम और लगन से बढा सकते हो । छोटे छोटे ख्वाब पूरा
करो । छोटी उपलब्धियां ही , एक दिन बडी बन जाती हैं । ओमवती कभी नहीं कहती थी कि सबसे शक्तिशाली, सबसे अमीर , या सबसे खूबसूरत बनो ।
“ बडा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड खज़ूर,
पन्थी को छाया नहीं फल लागे अते दूर”
अपने आप को, लोगों के लिए कु छ उपयोगी बनाओ । ज़रूरी भी नहीं कि तुम धन से ही लोगों की सहायता कर सक्ते हो । भगवान भी इंसान का रूप लेकर भक्तों की सहायता
कतने के लिए आ जाते हैं । ऐसे थोडे ही किसी ने भगवान को देखा है । क्या पता भगवान कभी तुम्हारी सहायता को आएँ भी हों । एक अच्छे मार्ग पर चलो , परंतु जो भी
रास्ता चुनो , वो छलरहित और ईमानदारी से भरा होना चाहिये । ज़रूरत से ज्यादा वो किसी से अपेक्षित नहीं करती थी , अपने भगवान से भी नहीं । गलत अपेक्षाएँ ही कईं
बार लोगों को कु मार्ग की और धके ल देती है । तुम ही बताओ कि क्या महल में बैठी माँ और झोपडी में बैठी माँ में तुम फर्क महसूस कर सकते हो । माँ अपने बच्चों को सदा सही
राह दिखाती है । माँ अपने बच्चों की तकलीफ को महसूस कर सकती है । मां अपने बच्चों के लिये बडे से बडा बलिदान कर सकती है । तो मै भी माँ और माँ में भेद नहीं कर
सकती । मै हमेशा ही ओमवती को छोटी छोटी खुशियां देना चाहती थी । उसके चेहरे की मुस्कान में मुझे भक्ति रस मिलता था । कभी कभी ऐसा ओप्रतीत होता था कि दो ही
काम थे उसके , भगवान की भक्ति और अपने प्रियजनों की भक्ति ।
अपना प्यार जाहिर करने का तरीका उसका भजन की तरह ही था । हम भगवान का भजन करते हैं तो क्या कठोर और कटु वचनों का उसमें कोई स्थान होता है
? उसका भगवान से इतना जुडाव था कि वो कडवे वचन बोलने वाले लोगों से दूर ही रहना चाह्ती थी । बेरूखी और कटु वचन ओमवती की सहनशक्ति से बाहर थे ।
“ ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोये ,
औरन को सीतल करे , आपहुं सीतल होये ।“
“रहीमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाये,
टू टे पे फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाये “
आज के परिपेश में , दुर्व्यवहार करके कु छ लोग अपने आप को बहुत ही चतुर समझने लगते हैं । ओमवती की सोच ही नहीं मिलती थी ऐसे लोगों से । कितनी ही
बार उसे लगता था कि सब कु छ वैसा क्यूँ नहीं जैसा पिताजी के घर में था । कितनी ही बार वो फिर से सब कु छ रिवाईंड करती थी, अपने आप को इस दुनिया में कै से फिट
करना है , इसकी योजना बनाती थी , जैसे कि भारत सरकार का कोई विशेष सत्र चल रहा हो । तो उसकी जिंदगी में योजना रस भी भरपूर था । ये भी एक नया नाम है । कईं
बार तो उसे इस रस में इतनी संतुष्टि मिलती थी कि मानो उसने ऐसे लोगों पर उसने फतह हासिल कर ली हो । लेकिन फतह इतनी आसान होती तो भला बडे बडे विद्वानों को
इतने उपदेश ही क्यों देने पडते । सब कु छ ओमवती की परीकथा जैसा हो जाता । एक राजकु मार, एक राजकु मारी ओमवती और खुशियां ही खुशियां ।
लेकिन जीवन वही है जिसमें सभी रस घुले मिले होते हैं । सिर्फ परी कथा नहीं । लेकिन ये बात तो ओमवती को भी पता थी । उसको पता था कि सुख-दुख ,
लाभ हानि , एक सिक्के के दो पहलू हैं । जीवन की गाडी चलती रह्ती है । ओमवती की भी चलती रही, उबड – खाबड सी डगर पर । हर पल कु छ नया सपना देकर, कोई
सपना पूरा करते हुए, और किसी पुराने सपने को तोडते हुए । गाडी चलती रहती है कु छ साथी छू टते जाते हैं , कु छ नये बनते जाते हैं । आशा और विश्वास बनते बिगडते
रहते हैं । अस्थिरता जीवन में बनी रह्ती है । सबसे स्थिर जो ये प्रकृ ति है , वो भी तो बदलती रह्ती है , अस्थिरता में स्थिरता का आभास देकर । जीवन के रस भी ऐसे ही
रंग दिखाते रह्ते हैं ।
इन सब बातों के बीच , मैने अपना परिचय तो दिया ही नहीं ! मैं तुम ही तो हूँ । मैं तुम में और मुझ्में फर्क नहीं कर पा रही हूं । तुम्हारे जीवन में ओमवती जरूर
होगी । अगर तुम जानते हो तो तुम उसको पहचान पाये हो , अगर नहीं जानते तो तलाश जारी रखना , कभी तो मिल जायेगी । मिलने लायक किरदार तो है!
नलिनी सिंह

You might also like