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चित्रगुप्त कथा

चित्रगुप्त पूजा कथा, और


आरती
चित्रगुप्त कथा

मंत्री श्री धममराजस्य चित्रगुप्तः शुभंकरः।


पायान्मां सर्मपापेभ्यः शरणागत र्त्सलः॥

एक बार युधधष्ठिरजी भीष्मजी से बोले- हे ष्ठपतामह! आपकी कृपा से मैंने धममशास्त्र सुने, परन्तु यमद्वितीया का क्या पुण्य है, क्या फल
है यह मैं सुनना िाहता हू ूँ। आप कृपा करके मुझे वर्स्तारपूर्क
म कद्वहए। भीष्मजी बोले- तूने अच्छी बात पूछी। मैं उस उत्तम व्रत को
वर्स्तारपूर्मक बताता हू ूँ। कावतमक मास के उजले और िैत्र के अूँधेरे की पक्ष जो द्वितीया होती है, र्ह यमद्वितीया कहलाती है।
युधधष्ठिरजी बोले- उस कावतमक के उजले पक्ष की द्वितीया में ष्ठकसका पूजन करना िाद्वहए और िैत्र महीने में यह व्रत कैसे हो, इसमें
ष्ठकसका पूजन करें ?

भीष्मजी बोले- हे युधधष्ठिर, पुराण संबंधी कथा कहता हू ूँ। इसमें संशय नहीं ष्ठक इस कथा को सुनकर प्राणी सब पापों से छूट जाता है।
सतयुग में नारायण भगर्ान् से, जजनकी नाधभ में कमल है, उससे िार मुूँह र्ाले ब्रह्माजी उत्पन्न हु ए, जजनसे र्ेदर्ेत्ता भगर्ान् ने िारों
र्ेद कहे। नारायण बोले- हे ब्रह्माजी! आप सबकी तुरीय अर्स्था, रूप और योगगयों की गवत हो, मेरी आज्ञा से संपूणम जगत् को शीघ्र
रिो। हरर के ऐसे र्िन सुनकर हर्म से प्रफुल्लित हु ए ब्रह्माजी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहु ओ ं से क्षष्ठत्रयों को, जंघाओं से र्ैश्यों को और
पैरों से शूद्रों को उत्पन्न ष्ठकया।

उनके पीछे देर्, गंधर्म, दानर्, राक्षस, सपम, नाग जल के जीर्, स्थल के जीर्, नदी, पर्मत और र्ृक्ष आद्वद को पैदा कर मनुजी को पैदा
ष्ठकया। इनके बाद दक्ष प्रजापवतजी को पैदा ष्ठकया और तब उनसे आगे और सृष्ठि उत्पन्न करने को कहा। दक्ष प्रजापवतजी से 60 कन्या
उत्पन्न हु ई, जजनमें से 10 धममराज को, 13 कश्यप को और 27 िंद्रमा को दीं।
कश्यपजी से देर्, दानर्, राक्षस इनके जसर्ाय और भी गंधर्म, ष्ठपशाि, गो और पजक्षयों की जावतयाँ पैदा हु ईं। धममराज को धमम प्रधान
जानकर सबके ष्ठपतामह ब्रह्माजी ने उन्हें सब लोकों का अधधकार द्वदया और धममराज से कहा ष्ठक तुम आलस्य त्यागकर काम करो।
जीर्ों ने जैसे-जैसे शुभ र् अशुभ कमम ष्ठकए हैं, उसी प्रकार न्यायपूर्मक र्ेद शास्त्र में कही वर्धध के अनुसार कता को कमम का फल दो
और सदा मेरी आज्ञा का पालन करो। ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर बुद्धिमान धममराज ने हाथ जोड़कर सबके परम पूज्य ब्रह्माजी को
कहा- हे प्रभो! मैं आपका सेर्क वनर्ेदन करता हू ूँ ष्ठक इस सारे जगत के कमों का वर्भागपूर्मक फल देने की जो आपने मुझे आज्ञा दी
है, र्ह एक महान कमम है।

आपकी आज्ञा जशरोधायम कर मैं यह काम करूूँगा ष्ठक जजससे कत्ताओं को फल वमलेगा, परन्तु पूरी सृष्ठि में जीर् और उनके दे ह भी
अनन्त हैं। दे शकाल ज्ञात-अज्ञात आद्वद भेदों से कमम भी अनन्त हैं। उनमें कता ने ष्ठकतने ष्ठकए, ष्ठकतने भोगे, ष्ठकतने शेर् हैं और कैसा
उनका भोग है तथा इन कमों के भी मुख्य र् गौण भेद से अनेक हो जाते हैं एर्ं कता ने कैसे ष्ठकया, स्वयं ष्ठकया या दूसरे की प्रेरणा से
ष्ठकया आद्वद कमम िक्र महागहन हैं। अतः मैं अकेला ष्ठकस प्रकार इस भार को उठा सकूूँगा, इसजलए मुझे कोई ऐसा सहायक दीजजए
जो धावममक, न्यायी, बुद्धिमान, शीघ्रकारी, लेख कमम में वर्ज्ञ, िमत्कारी, तपस्वी, ब्रह्मवनि और र्ेद शास्त्र का ज्ञाता हो।

धममराज की इस प्रकार प्राथमनापूर्मक ष्ठकए हु ए कथन को वर्धाता सत्य जान मन में प्रसन्न हु ए और यमराज का मनोरथ पूणम करने की
चिंता करने लगे ष्ठक उक्त सब गुणों र्ाला ज्ञानी लेखक पुरुर् होना िाद्वहए। उसके वबना धममराज का मनोरथ पूणम न होगा। तब
ब्रह्माजी ने कहा- हे धममराज! तुम्हारे अधधकार में मैं सहायता करूूँगा। इतना कह ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गए।उसी अर्स्था में उन्होंने एक
हजार र्र्म तक तपस्या की। जब समाधध खुली तब अपने सामने श्याम रं ग, कमल नयन, शंख की सी गदमन, गूढ़ जशर, िंद्रमा के
समान मुख र्ाले, कलम, दर्ात और पानी हाथ में जलए हु ए, महाबुद्धि, दे र्ताओं का मान बढ़ाने र्ाला, धमाधमम के वर्िार में
महाप्रर्ीण लेखक, कमम में महाितुर पुरुर् को दे ख उसे पूछ ष्ठक तू कौन है?

तब उसने कहा- हे प्रभो! मैं माता-ष्ठपता को तो नहीं जानता, ष्ठकन्तु आपके शरीर से प्रकट हु आ हू ूँ, इसजलए मेरा नामकरण कीजजए और
कद्वहए ष्ठक मैं क्या करूूँ? ब्रह्माजी ने उस पुरुर् के र्िन सुन अपने हृदय से उत्पन्न हु ए उस पुरुर् को हूँसकर कहा- तू मेरी काया से
प्रकट हु आ है, इससे मेरी काया में तुम्हारी स्थस्थवत है, इसजलए तुम्हारा नाम कायस्थ चित्रगुप्त है। धममराज के पुर में प्राद्धणयों के
शुभाशुभ कमम जलखने में उसका तू सखा बने, इसजलए तेरी उत्पधत्त हु ई है। ब्रह्माजी ने चित्रगुप्त से यह कहकर धममराज से कहा- हे
धममराज! यह उत्तम लेखक तुझको मैंने द्वदया है जो संसार में सब कममसूत्र की मयादा पालने के जलए है। इतना कहकर ब्रह्माजी
अन्तध्यान हो गए।
ष्ठफर र्ह पुरुर् (चित्रगुप्त) कोष्ठट नगर को जाकर िण्ड-प्रिण्ड ज्वालामुखी कालीजी के पूजन में लग गया। उपर्ास कर उसने भगक्त
के साथ िण्डण्डकाजी की भार्ना मन में की। उसने उत्तमता से चित्त लगाकर ज्वालामुखी देर्ी का जप और स्तोत्रों से भजन-पूजन और
उपासना इस प्रकार की- हे जगत् को धारण करने र्ाली! तुमको नमस्कार है, महादेर्ी! तुमको नमस्कार है। स्वगम, मृत्यु, पाताल आद्वद
लोक-लोकान्तरों को रोशनी देने र्ाली, तुमको नमस्कार है। सन्ध्या और राष्ठत्र रूप भगर्ती तुमको नमस्कार है। श्वेत र्स्त्र धारण करने
र्ाली सरस्वती तुमको नमस्कार है। सत, रज, तमोगुण रूप देर्गणों को कान्तन्त देने र्ाली देर्ी, द्वहमािल पर्मत पर स्थाष्ठपत
आद्वदशगक्त िण्डी देर्ी तुमको नमस्कार है।

उत्तम और न्यून गुणों से रद्वहत र्ेद की प्रर्ृधत्त करने र्ाली, तैंतीस कोष्ठट दे र्ताओं को प्रकट करने र्ाली ष्ठत्रगुण रूप, वनगुमण, गुणरद्वहत,
गुणों से परे , गुणों को देने र्ाली, तीन नेत्रों र्ाली, तीन प्रकार की मूवतम र्ाली, साधकों को र्र देने र्ाली, दैत्यों का नाश करने र्ाली,
इंद्राद्वद देर्ों को राज्य देने र्ाली, श्री हरर से पूजजत देर्ी हे िण्डण्डका! आप इंद्राद्वद दे र्ों को जैसे र्रदान देती हैं, र्ैसे ही मुझको र्रदान
दीजजए।मैंने लोकों के अधधकार के जलए आपकी स्तुवत की है, इसमें संशय नहीं है।

ऐसी स्तुवत को सुन देर्ी ने चित्रगुप्तजी को र्र द्वदया। देर्ीजी बोलीं- हे चित्रगुप्त! तूने मेरा आराधन पूजन ष्ठकया, इससे मैंने आज
तुमको र्र द्वदया ष्ठक तू परोपकार में कुशल अपने अधधकार में सदा स्थस्थर और असंख्य र्र्ों की आयु र्ाला होगा। यह र्र देकर दुगा
देर्ीजी अन्तध्यान हो गईं। उसके बाद चित्रगुप्त धममराज के साथ उनके स्थान पर गए और र्ह आराधना करने योग्य अपने आसन पर
स्थस्थत हु ए।

उसी समय ऋष्ठर्यों में उत्तम ऋष्ठर् सुशमा ने जजसको सन्तान की िाहना थी, उसने ब्रह्माजी का आराधन ष्ठकया। तब ब्रह्माजी ने
प्रसन्नता से उसकी इरार्ती नाम की कन्या को पाकर चित्रगुप्त के साथ उसका वर्र्ाह ष्ठकया। उस कन्या से चित्रगुप्त के आठ पुत्र
उत्पन्न हु ए , जजनके नाम यह हैं- िारु, सुिारु, चित्र, मवतमान, द्वहमर्ान, चित्रिारु, अरुण और आठर्ाँ अतीन्द्रिय। दूसरी जो मनु की
कन्या दजक्षणा चित्रगुप्त से वर्र्ाही गई, उसके िार पुत्र हु ए।उनके भी नाम सुनो- भानु, वर्भानु, वर्श्वभानु और र्ीर्य्यार्ान्। चित्रगुप्त के
ये बारह पुत्र वर्ख्यात हु ए और पृथ्वी-तल पर वर्िरे । उनमें से िारु मथुराजी को गए और र्हाँ रहने से मथुरा हु ए।हे राजन् सुिारु गौड़
बंगाले को गए, इससे र्ह गौड़ हु ए।

चित्र भट्ट नदी के पास के नगर को गए, इससे र्े भट्टनागर कहलाए। श्रीर्ास नगर में भानु बसे, इससे र्ह श्रीर्ास्तव्य कहलाए।
द्वहमर्ान अम्बा दुगाजी की आराधन कर अम्बा नगर में ठहरे इससे र्ह अम्बि कहलाए। सखसेन नगर में अपनी भाया के साथ
मवतमान गए इससे र्ह सूयमध्वज कहलाए और अनेक स्थानों में बसे अनेक जावत कहलाए।
उस समय पृथ्वी पर एक राजा जजसका नाम सौदास था, सौरािर नगर में उत्पन्न हु आ। र्ह महापापी, पराया धन िुराने र्ाला, पराई
ण्डस्त्रयों में आसक्त, महाअधभमानी, िुगलखोर और पाप कमम करने र्ाला था। हे राजन्! जन्म से लेकर सारी आयु पयमन्त उसने कुछ भी
धमम नहीं ष्ठकया। ष्ठकसी समय र्ह राजा अपनी सेना लेकर उस र्न में, जहाँ बहु त द्वहरण आद्वद जीर् रहते थे, जशकार खेलने गया। र्हाँ
उसने वनरंतर व्रत करते हु ए एक ब्राह्मण को दे खा।र्ह ब्राह्मण चित्रगुप्त और यमराजजी का पूजन कर रहा था।

यमद्वितीया का द्वदन था। राजा ने पूछा- महाराज! आप क्या कर रहे हैं? ब्राह्मण ने यम द्वितीया व्रत कह सुनाया। यह सुनकर राजा ने
र्हीं उसी द्वदन कावतमक के महीने में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को धूप तथा दीपाद्वद सामग्री से चित्रगुप्तजी के साथ धममराजजी का पूजन
ष्ठकया। व्रत करके उसके बाद र्ह अपने घर में आया। कुछ द्वदन पीछे उसके मन को वर्स्मरण हु आ और र्ह व्रत भूल गया। याद आने
पर उसने ष्ठफर से व्रत ष्ठकया।

समयोपरान्त काल संयोग से र्ह राजा सौदास मर गया। यमदूतों ने उसे दृढ़ता से बाँधकर यमराजजी के पास पहु ूँिाया। यमराजजी
ने उस घबराते हु ए मन र्ाले राजा को अपने दूतों से ष्ठपटते हु ए दे खा तो चित्रगुप्तजी से पूछा ष्ठक इस राजा ने क्या कमम ष्ठकया? उस
समय धममराजजी का र्िन सुन चित्रगुप्तजी बोले- इसने बहु त ही दुष्कमम ष्ठकए हैं, परन्तु दैर्योग से एक व्रत ष्ठकया जो कावतमक के
शुक्ल पक्ष में यमद्वितीया होती है, उस द्वदन आपका और मेरा गन्ध, िंदन, फूल आद्वद सामग्री से एक बार भोजन के वनयम से और
राष्ठत्र में जागने से पूजन ष्ठकया।हे देर्! हे महाराज! इस कारण से यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है। चित्रगुप्तजी के ऐसा कहने से
धममराजजी ने उसे छुड़ा द्वदया और र्ह इस यमद्वितीया के व्रत के प्रभार् से उत्तम गवत को प्राप्त हु आ।

ऐसा सुनकर राजा युधधष्ठिर भीष्म से बोले- हे ष्ठपतामह! इस व्रत में मनुष्यों को धममराज और चित्रगुप्तजी का पूजन कैसे करना
िाद्वहए? सो मुझे कद्वहए। भीष्मजी बोले- यमद्वितीया के वर्धान को सुनो। एक पवर्त्र स्थान पर धममराज और चित्रगुप्तजी की मूवतम
बनाएूँ और उनकी पूजा की कल्पना करें । र्हाँ उन दोनों की प्रवतिा कर सोलह प्रकार की र् पाँि प्रकार की सामग्री से श्रिा
भगक्तयुक्त नाना प्रकार के पकर्ानों, लड्डुओं, फल, फूल, पान तथा दजक्षणाद्वद सामगग्रयों से धममराजजी और चित्रगुप्तजी का पूजन
करना िाद्वहए।पीछे बारम्बार नमस्कार करें ।

हे धममराजजी! आपको नमस्कार है। हे चित्रगुप्तजी! आपको नमस्कार है। पुत्र दीजजए, धन दीजजए सब मनोरथों को पूरे कर दीजजए।
इस प्रकार चित्रगुप्तजी के साथ श्री धममराजजी का पूजन कर वर्धध से दर्ात और कलम की पूजा करें । िंदन, कपूर, अगर और नैर्ेद्य,
पान, दजक्षणाद्वद सामगग्रयों से पूजन करें और कथा सुनें। बहन के घर भोजन कर उसके जलए धन आद्वद पदाथम दें। इस प्रकार भगक्त के
साथ यमद्वितीया का व्रत करने र्ाला पुत्रों से युक्त होता है और मनोर्ांचछत फलों को पाता है।
चित्रगुप्त पूजा वर्धध

पूजा स्थान को साफ़ कर एक िौकी पर कपड़ा वर्छा कर श्री चित्रगुप्त जी का फोटो स्थाष्ठपत करें यद्वद चित्र उपलब्ध न हो
तो कलश को प्रतीक मान कर चित्रगुप्त जी को स्थाष्ठपत करें

दीपक जला कर गणपवत जी को िन्दन ,हल्दी,रोली अक्षत ,दूब ,पुष्प र् धूप अष्ठपत
म कर पूजा अिमना करें |
श्री चित्रगुप्त जी को भी िन्दन ,हल्दी,रोली अक्षत ,पुष्प र् धूप अष्ठपत
म कर पूजा अिमना करें |
फल ,वमठाई और वर्शेर् रूप से इस द्वदन के जलए बनाया गया पंिामृत (दूध ,घी कुिला अदरक ,गुड़ और गंगाजल )और
पान सुपारी का भोग लगायें |
इसके बाद पररर्ार के सभी सदस्य अपनी ष्ठकताब,कलम,दर्ात आद्वद की पूजा करें और चित्रगुप्त जी के समक्ष रक्खें |

अब पररर्ार के सभी सदस्य एक सफ़ेद कागज पर एप्पन (िार्ल का आंटा,हल्दी,घी, पानी )र् रोली से स्वस्तस्तक बनायें
|उसके नीिे पांि दे र्ी दे र्तार्ों के नाम जलखें ,जैसे -श्री गणेश जी सहाय नमः ,श्री चित्रगुप्त जी सहाय नमः ,श्री सर्मदेर्ता
सहाय नमः आद्वद |

इसके नीिे एक तरफ अपना नाम पता र् द्वदनांक जलखें और दूसरी तरफ अपनी आय व्यय का वर्र्रण दें ,इसके साथ ही
अगले साल के जलए आर्श्यक धन हेतु वनर्ेदन करें |ष्ठफर अपने हस्ताक्षर करें | इस कागज और अपनी कलम को हल्दी
रोली अक्षत और वमठाई अष्ठपत
म कर पूजन करें |
चित्रगुप्त आरती

जय चित्रगुप्त यमेश तर् ,शरणागतम ,शरणागतम|

जय पूज्य पद पद्मेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||

जय देर् देर् दयावनधे ,जय दीनबंधु कृपावनधे |

कमेश तर् धमेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||

जय चित्र अर्तारी प्रभो ,जय लेखनीधारी वर्भो |

जय श्याम तन चित्रेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||

पुरुर्ाद्वद भगर्त् अंश जय ,कायस्थ कुल अर्तंश जय |

जय शगक्त बुद्धि वर्शेर् तर् शरणागतम ,शरणागतम||

जय वर्ज्ञ मंत्री धमम के ,ज्ञाता शुभाशुभ कमम के |

जय शांवतमय न्यायेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||

तर् नाथ नाम प्रताप से ,छूट जाएूँ भय त्रय ताप से |

हों दूर सर्म क्लेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||

हों दीन अनुरागी हरर, िाहें दया दृष्ठि तेरी |

कीजै कृपा करुणेश तर् शरणागतम ,शरणागतम||


॥ इवत चित्रगुप्त कथा सम्पूणम ॥

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