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1- लाग-डाट
2- रामलीला
3- कजाक
4- गरीब क हाय
5- परी ा
6- केट मैच
7- पंच-परमे र
8- धोखा
9- भाड़े का ट ू
10- जुगनू क चमक
11- सुजान भगत
12- ईदगाह
13- बेट वाली वधवा
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ह दी सा ह जगत् म मुंशी ेमचंद का नाम बड़े आदर और स ान के साथ लया


जाता है। इनका वा वक नाम धनपत राय था। इनका ज 31 जुलाई, 1880 को
बनारस शहर से करीब चार मील र लमही गाँव म आ था। इनके पता का नाम मुंशी
अजायब लाल था, जो डाक मुंशी के पद पर थे। इनके म मवग य प रवार म साधारणतया
खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने क तंगी तो न थी, परं तु इतना कभी न हो पाया क इ उ
र का खान-पान अथवा रहन-सहन मल सके, इसी आ थक सम ा से मुंशी ेमचंद
भी पूरी उ जूझते रहे। तंगी म ही उ ने इस न र संसार को छोड़ा।
मातृ - ेह से वं चत हो चुके और पता क देख-रे ख से र रहने वाले बालक धनपत ने
अपने लए कुछ ऐसा रा ा चुना, जस पर आगे चलकर वे ‘उप ास स ा , महान
कथाकार, कलम का सपाही जैसी उपा धय से वभू षत ए। उ ने बचपन से ही अपने
समय क मश र और ऐयारी क पु क पढ़नी शु कर द । इन पु क म सबसे बढ़कर
‘ त ल ी होश बा’ थी। बारह-तेरह वष क उ म उ ने अनेक पु क तो पढ़ ही डाल ,
साथ म और ब त कुछ पढ़ डाला, जैसे क रे ना क ‘ म ीज ऑफ द कोट ऑफ
लंदन’, मौलाना स ाद सैन क हा कृ तयाँ, मजा सवा और रतनशार के ढे र
क े।
लगभग चौदह वष क उ म बालक धनपत के पता का देहांत हो गया। घर म यूँ पहले से
ही काफ गरीबी थी, फर पता क मृ ु के प ात् तो मानो उसके सर पर मुसीबत का
पहाड़ टूट पड़ा। रोजी-रोटी कमाने क चता सर पर सवार हो गई। ूशन कर-करके
उ ने कसी कार मै क क परी ा तीय ेणी म पास क । वे आगे पढ़ना तो चाहते
थे, पर कसी कारणवश कॉलेज म वेश न मल सका।
धनपत तब पं ह-सोलह वष के ही थे क उनका ववाह कर दया गया। उनके लए यह
ववाह ब त ही भा पूण रहा; ले कन एक अ ा संयोग यह जुड़ा क सन् 1898 म
मै क करने के बाद बनारस के पास चुनार के एक व ालय म श क क नौकरी मल
गई। नौकरी करते ए ही उ ने इं टर और फर बी-ए- पास कया।
इनक पहली पु क ‘सोज-ए-वतन’ जब सरकार के ारा ज कर ली गई तो इ ने
‘ ेमचंद’ नाम से लखना शु कर दया। 1916-17 म ेमचंदजी ने ‘सेवासदन’ लखा।
इस समय तक वह भारतीय तं ता-सं ाम से प र चत ही नह , उसके रं ग म रँ ग चुके थे
और उनक लेखनी भारतीय सामा जक सम ाओं पर बड़े वेग से चलने लगी थी।
‘रं गभू म’ छपने पर इ ‘उप ास-स ा ’ कहा जाने लगा था। ेमचंदजी ने अनेक
उप ास लखे, जनम-‘कमभू म’ और ‘गोदान’ व स उप ास माने जाते ह।
ेमचंदजी काफ समय से पेट के अ र से बीमार थे, जसके कारण उनका ा दन-
त दन गरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अ ू बर, 1936 को हदी का यह महान्
लेखक हदी सा ह जगत् से हमेशा के लए वदा हो गया। ले कन इस महान् लेखक क
कहा नयाँ आज भी इ जी वत रखे ए ह।
-मुकेश ‘नादान’
जो खू भगत और बेचन चौधरी म तीन पी ढ़य से अदावत चली आती थी। कुछ डाँड़-
मड़ का झगड़ा था। उनके परदादाओं म कई बार खून-ख र आ। बाप-दादाओं के समय
से मुकदमेबाजी शु ई। दोन कई बार हाईकोट तक गए। लड़क के समय म सं ाम क
भीषणता और भी बढ़ी, यहाँ तक क दोन ही अश हो गए। पहले दोन इसी गाँव म
आधे-आधे के ह ेदार थे। अब उनके पास उस झगड़ने वाले खेत को छोड़कर एक अंगुल
जमीन न थी। भू म गई, धन गया, मान-मयादा गई, ले कन वह ववाद -का- बना
रहा। हाईकाट के धुरंधर नी त एक मामूली सा झगड़ा तय न कर सके।
इन दोन स न ने गाँव को दो वरोधी दल म वभ कर दया था। एक दल क भंग-
बूटी चौधरी के ार पर छनती तो सरे दल के चरस-गाँजे के दम भगत के ार पर लगते
थे। य और बालक के भी दो दल हो गए थे। यहाँ तक क दोन स न के सामा जक
और धा मक वचार म भी वभाजक रे खा खची ई थी। चौधरी कपड़े पहने स ू खा लेते
और भगत को ढ गी कहते। भगत बना कपड़े उतारे पानी भी न पीते और चौधरी को
बतलाते। भगत सनातनधम बने तो चौधरी ने आयसमाज का आ य लया। जस
बजाज, पंसारी या कुंजडे़ से चौधरी सौदे लेते, उसक ओर भगतजी ताकना भी पाप
समझते थे और भगतजी क हलवाई क मठाइयाँ, उनके ाले का ध और तेली का तेल
चौधरी के लए ा थे। यहाँ तक क उनके अरो ता के स ांत म भी भ ता थी।
भगतजी वै क के कायल थे, चौधरी यूनानी था के मानने वाले। दोन चाहे रोग से मर
जाते, पर अपने स ांत को न तोड़ते।

जब देश म राजनै तक आंदोलन शु आ तो उसक भनक उस गाँव म आ प ँ ची। चौधरी


ने आंदोलन का प लया, भगत उनके वप ी हो गए। एक स न ने आकर गाँव म
कसान-सभा खोली। चौधरी उसम शरीक ए, भगत अलग रहे। जागृ त और बढ़ी,
रा क चचा होने लगी। चौधरी रा वादी हो गए, भगत ने राजभ का प
लया। चौधरी का घर रा वा दय का अ ा बन गया, भगत का घर राजभ का ब
बन गया।
चौधरी जनता म रा वाद का चार करने लगे, " म ,े रा का अथ है अपना राज।
अपने देश म अपना राज हो, वह अ ा है क कसी सरे का राज हो?"
जनता ने कहा, "अपना राज हो, वह अ ा है।"
चौधरी, "तो यह रा कैसे मलेगा? आ बल से, पु षाथ से, मेल से, एक- सरे से ष

करना छोड़ दो। अपने झगड़े आप मलकर नपटा लो।"
एक शंका, "आप तो न अदालत म खड़े रहते ह।"
चौधरी, "हाँ, पर आज से अदालत जाऊँ तो मुझे गऊह ा का पाप लगे। तु चा हए क
तुम अपनी गाढ़ी कमाई अपने बाल-ब को खलाओ और बचे तो परोपकार म लगाओ।
वक ल-मु ार क जेब भरते हो, थानेदार को घूस देते हो, अमल क चरौरी
करते हो? पहले हमारे लड़के अपने धम क श ा पाते थे वह सदाचारी, ागी,
पु षाथ बनते थे। अब वह वदेशी मदरस म पढ़कर चाकरी करते ह, घूस खाते ह, शौक
करते ह, अपने देवताओं और पतर क नदा करते ह, सगरे ट पीते ह, साल बनाते ह और
हा कम क गोड़ध रया करते ह। ा यह हमारा कत नह है क हम अपने बालक को
धमानुसार श ा द।"
जनता, "चंदा करके पाठशाला खोलनी चा हए।"
चौधरी, "हम पहले म दरा को छूना पाप समझते थे। अब गाँव-गाँव और गली-गली म
म दरा क कान ह। हम अपनी गाढ़ी कमाई के करोड़ पए गाँज-े शराब म उड़ा देते ह।"
जनता, "जो दा -भाँग पए उसे डाँट लगानी चा हए।"
चौधरी, "हमारे दादा-बाबा, छोटे -बड़े सब गाढ़ा-गजी पहनते थे। हमारी दा दयाँ-ना नयाँ
चरखा काता करती थ । सब धन देश म रहता था, हमारे जुलाहे भाई चैन क वंशी बजाते
थे। अब हम वदेश के बने ए महीन रं गीन कपड़ पर जान देते ह। इस तरह सरे देश वाले
हमारा धन ढो ले जाते ह बेचारे जुलाहे कंगाल हो गए। ा हमारा यही धम है क अपने
भाइय क थाली छीनकर सर के सामने रख द?"
जनता, "गाढ़ा कह मलता ही नह ।"
चौधरी, "अपने घर का बना आ गाढ़ा पहनो, अदालत को ागो, नशेबाजी छोड़ो, अपने
लड़क को धम-कम सखाओ, मेल से रहो, बस यही रा है। जो लोग कहते ह क
रा के लए खून क नदी बहेगी, वे पागल ह, उनक बात पर ान मत दो।"
जनता ये सब बात चाव से सुनती थी। दनो दन ोताओं क सं ा बढ़ती जाती थी।
चौधरी के सब ाभाजन बन गए।
भगतजी भी राजभ का उपदेश करने लगे, "भाइयो, राजा का काम राज करना और
जा का काम उसक आ ा का पालन करना है। इसी को राजभ कहते ह और हमारे
धा मक ंथ म हम इसी राजभ क श ा दी गई है। राजा ई र का त न ध है,
उसक आ ा के व चलना महान् पातक है। राज वमुख ाणी नरक का भागी होता
है।"
एक शंका, "राजा को भी तो अपने धम का पालन करना चा हए?" सरी शंका, "हमारे
राजा तो नाम के ह, असली राजा तो वलायत के ब नए-महाजन ह।"
तीसरी शंका, "ब नए धन कमाना जानते ह, राज करना ा जान?"
भगत, "लोग तु श ा देते ह क अदालत म मत जाओ, पंचायत म मुकदमे ले जाओ
ले कन ऐसे पंच कहाँ ह, जो स ा ाय कर, ध का ध और पानी का पानी कर द! यहाँ
मुँह-देखी बात ह गी। जनका कुछ दबाव है, उनक जीत होगी, जनका कुछ दबाव नह है,
वह बेचारे मारे जाएँ गे। अदालत म सब काररवाई कानून पर होती है, वहाँ छोटे -बड़े सब
बराबर ह, शेर-बकरी एक घाट पर पानी पीते ह।"
सरी शंका, "अदालत का ाय कहने को ही है, जसके पास बने ए गवाह और दाँव-पच
खेले ए वक ल होते ह, उसी क जीत होती है, झूठे-स े क परख कौन करता है? हाँ,
हैरानी अलब ा होती है।"
भगत, "कहा जाता है क वदेशी चीज का वहार मत करो। यह गरीब के साथ घोर
अ ाय है। हमको बाजार म जो चीज स ी और अ ी मले, वह लेनी चा हए, चाहे
देशी हो या वदेशी। हमारा पैसा सत म नह आता है क उसे र ी-फ ी देशी चीज पर
फक।"
एक शंका, "अपने देश म तो रहता है, सर के हाथ म तो नह जाता।"
सरी शंका, "अपने घर म अ ा खाना न मले तो ा वजा तय के घर का अ ा
भोजन खाने लगगे?"
भगत, "लोग कहते ह, लड़क को सरकारी मदरस म मत भेजो। सरकारी मदरस म न
पढ़ते तो आज हमारे भाई बड़ी-बड़ी नौक रयाँ कैसे पाते, बड़े-बड़े कारखाने कैसे बना लेत?े
बना नई व ा पढ़े अब संसार म नवाह नह हो सकता, पुरानी व ा पढ़कर प देखने
और कथा बाँचने के सवाय और ा आता है? राज-काज ा प ी-पोथी बाँचने वाले
लोग करगे?"
एक शंका, "हम राज-काज नह चा हए। हम अपनी खेती-बाड़ी ही म मगन ह, कसी के
गुलाम तो नह ?"
सरी शंका, "जो व ा घमंडी बना दे, उससे मूख ही अ ा, नई व ा पढ़कर तो लोग
सूट-बूट, घड़ी-छड़ी, हैट-कोट लगाने लगते ह और अपने शौक के पीछे देश का धन
वदे शय क जेब म भरते ह। ये देश के ोही ह।"
भगत, "गाँजा-शराब क ओर आजकल लोग क कड़ी नगाह है। नशा बुरी लत है, इसे
सब जानते ह। सरकार को नशे क कान से करोड़ पए साल क आमदनी होती है।
अगर कान म न जाने से लोग क नशे क लत छूट जाए तो बड़ी अ ी बात है। वह
कान पर न जाएगा तो चोरी- छपे कसी-न- कसी तरह ने-चौगुने दाम देकर, सजा
काटने पर तैयार होकर अपनी लत पूरी करे गा। तो ऐसा काम करो क सरकार का
नुकसान अलग हो और गरीब रै यत का नुकसान अलग हो और फर कसी- कसी को
नशा खाने से फायदा होता है। म ही एक दन अफ म न खाऊँ तो गाँठ म दद होने लगे,
दम उखड़ जाए और सद पकड़ ले।"
एक आवाज, "शराब पीने से बदन म फुरती आ जाती है।"
एक शंका, "सरकार अधम से पया कमाती है। यह उ चत नह । अधम के राज म रहकर
जा का क ाण कैसे हो सकता है?"
सरी शंका, "पहले दा पलाकर पागल बना दया। लत पड़ी तो पैसे क चाट ई। इतनी
मज री कसको मलती है क रोटी-कपड़ा भी चले और दा -शराब भी उड़े? या तो बाल-
ब को भूख मारो या चोरी करो, जुआ खेलो और बेईमानी करो। शराब क कान ा
है? हमारी गुलामी का अ ा है।"

चौधरी के उपदेश सुनने के लए जनता टूटती थी। लोग को खड़े होने क जगह भी न
मलती। दनो दन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ न पंचायत म रा ो त क
चचा रहती, जनता को इन बात म बड़ा आनंद और उ ाह होने लगा। उनके राजनै तक
ान क वृ होने लगी। वह अपना गौरव और मह समझने लगे, उ स ा का अनुभव
होने लगा। नरं कुशता और अ ाय पर अब उनक तैया रयाँ चढ़ने लग । उ तं ता
का ाद मला। घर क ई, घर का सूत, घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर क अदालत,
न पु लस का भय, न अमला क खुशामद, सुख और शां त से जीवन तीत करने लगे।
कतन ही ने नशेबाजी छोड़ दी और स ाव क एक लहर सी दौड़ने लगी।
ले कन भगतजी इतने भा शाली न थे। जनता को दनो दन उनके उपदेश से अ च
होती जाती थी। यहाँ तक क ब धा उनके ोताओं म पटवारी, चौक दार, मुद रस और
इ कमचा रय के म के अ त र और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हा कम भी
आ नकलते और भगतजी का बड़ा आदर-स ार करते, जरा देर के लए भगतजी के
आँसू प छ जाते, ले कन ण भर का स ान आठ पहर के अपमान क बराबरी कैसे
करता! जधर नकल जाते उधर ही उँ ग लयाँ उठने लगत । कोई कहता, खुशामदी ट ू है,
कोई कहता, खु फया पु लस का भेदी है। भगतजी अपने त ं ी क बड़ाई और अपनी
लोक नदा पर दाँत पीस-पीसकर रह जाते थे। जीवन म यह पहला ही अवसर था क उ
सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चरकाल से जस कुल-मयादा क र ा करते आए थे
और जस पर अपना सव अपण कर चुके थे, वह धूल म मल गई। यह दाहमय चता
उ एक ण के लए चैन न लेने देती। न सम ा सामने रहती क अपना खोया आ
स ान कर पाऊँ, अपने तप ी को कर पदद लत क ँ , कैसे उसका ग र
तोड़ू ँ? अंत म उ ने सह को उसी क माँद म पछाड़ने का न य कया।

सं ा का समय था। चौधरी के ार पर एक बड़ी सभा हो रही थी। आस-पास के गाँव के


कसान भी आ गए। हजार आद मय क भीड़ थी। चौधरी उ रा - वषयक उपदेश
दे रहे थे। बार-बार भारतमाता क जय-जयकार क न उठती थी। एक ओर य का
जमाव था। चौधरी ने अपना उपदेश समा कया और अपनी जगह पर बैठे। यंसेवक
ने रा फंड के लए चंदा जमा करना शु कया क इतने म भगतजी न जाने कधर
से लपके ए आए और ोताओं के सामने खड़े होकर उ र म बोले, "भाइयो, मुझे
यहाँ देखकर अचरज मत करो, म रा का वरोधी नह ँ । ऐसा प तत कौन ाणी
होगा, जो रा का नदक हो ले कन इसके ा करने का वह उपाय नह है, जो चौधरी
ने बताया है और जस पर तुम लोग ल ू हो रहे हो। जब आपस म फूट और रार है, पंचायत
से ा होगा? जब वला सता का भूत सर पर सवार है तो नशा कैसे छूटे गा, म दरा क
कान का ब ह ार कैसे होगा? सगरे ट, साबुन, मोजे, ब नयान, अ ी, तंजेब से कैसे
पड छूटे गा? जब रोब और कूमत क लालसा बनी ई है तो सरकारी मदरसे कैसे छोड़ोगे,
वधम श ा क बेड़ी से कैसे मु हो सकोगे? राज लेने का केवल एक ही उपाय है
और वह आ संयम है। यही महौष ध तु ारे सम रोग को समूल न करे गी। आ ा
को बलवान् बनाओ, इं य को साधो, मन को वश म करो, तुमम ातृभाव पैदा होगा,
तभी वैमन मटे गा, तभी ई ा और षे का नाश होगा, तभी भोग- वलास से मन हटे गा,
तभी नशेबाजी का दमन होगा। आ बल के बना रा कभी उपल न होगा।
यंसेवा सब पाप का मूल है। यही तु अदालत म ले जाता है, यही तु वधम श ा
का दास बनाए ए है। इस पशाच को आ बल से मारो और तु ारी कामना पूरी हो
जाएगी। सब जानते ह, म चालीस साल से अफ म का सेवन करता ँ । आज से म अफ म
को गऊ-र समझता ँ । चौधरी से मेरी तीन पी ढ़य क अदावत है। आज से चौधरी मेरे
भाई ह। आज से मुझे या मेरे घर के कसी ाणी को घर के कते सूत से बुने ए कपड़े के
सवाय और कुछ पहनते देखो तो जो दं ड चाहो दो। बस मुझे यही कहना है, परमा ा हम
सबक इ ा पूरी करे ।"
यह कहकर भगतजी घर क ओर चले क चौधरी दौड़कर उनके गले से लपट गए। तीन
पु क अदावत एक ण म शांत हो गई।
उस दन से चौधरी और भगत साथ-साथ रा का उपदेश करने लगे। उनम गाढ़ी
म ता हो गई और यह न य करना क ठन था क दोन म जनता कसका अ धक
स ान करती है।
इ धर एक मु त से रामलीला देखने नह गया। बंदर के भ े चेहरे लगाए, आधी टाँग का
पजामा और काले रं ग का ऊँचा कुरता पहने आद मय को दौड़ते, - करते देखकर अब
हँ सी आती है, मजा नह आता। काशी क रामलीला जग ात है। सुना है, लोग र- र
से देखने आते ह। म भी बड़े शौक से गया, पर मुझे तो वहाँ क लीला और कसी व देहात
क लीला म कोई अंतर न दखाई दया। हाँ, रामनगर क लीला म कुछ साज-सामान
अ े ह। रा स और बंदर के चेहरे पीतल के ह, गदाएँ भी पीतल क ह, कदा चत्
वनवासी ाताओं के मुकुट स े काम के ह , ले कन साज-सामान के सवा वहाँ भी वही
- के सवा और कुछ नह । फर भी लाख आद मय क भीड़ लगी रहती है।
ले कन एक जमाना वह था, जब मुझे भी रामलीला म आनंद आता था। आनंद तो ब त
हलका सा श है। वह आनंद उ ाद से कम न था। संयोगवश उन दन मेरे घर से ब त
थोड़ी र रामलीला का मैदान था और जस घर म लीला पा का प-रं ग भरा जाता था,
वह तो मेरे घर से बलकुल मला आ था। दो बजे दन से पा क सजावट होने लगती
थी। म दोपहर ही से वहाँ जा बैठता और जस उ ाह से दौड़-दौड़कर छोटे -मोटे काम
करता, उस उ ाह से तो आज अपनी पशन लेने भी नह जाता। एक कोठरी म
राजकुमार का ंगार होता था। उनक देह म रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर
लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे , नीले रं ग क बुंद कयाँ लगाई जाती थ ।
सारा माथा, भ ह, गाल, ठोड़ी बुंद कय से रच उठती थ । एक ही आदमी इस काम म
कुशल था। वही बारी-बारी से तीन पा का ंगार करता था। रं ग क ा लय म पानी
लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था।
जब इन तैया रय के बाद वमान नकलता, तो उस पर रामचं जी के पीछे बैठकर मुझे जो
उ ास, जो गव, जो रोमांच होता था, अब वह लाट साहब के दरबार म कुरसी पर बैठकर
भी नह होता। एक बार होम-मबर साहब ने व ापक-सभा म मेरे एक ाव का
अनुमोदन कया था, उस व मुझे कुछ उसी तरह का उ ास, गव और रोमांच आ था।
हाँ, एक बार जब मेरा े पु नायब-तहसीलदारी म नामजद आ, तब भी ऐसी ही तरं ग
मन म उठी थ , पर इनम और उस बाल- व लता म बड़ा अंतर है। तब ऐसा मालूम होता
था क म ग म बैठा ँ ।
नषाद नौका-लीला का दन था। म दो-चार लड़क के बहकाने म आकर गु ी-डंडा
खेलने गया था। आज ंगार देखने न गया। वमान भी नकला, पर मने खेलना न छोड़ा।
मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लए उससे कह बढ़कर आ ाग क
ज रत थी, जतना म कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो म कब का भाग खड़ा होता;
ले कन पदाने म कुछ और ही बात होती है। खैर, दाँव पूरा आ। अगर म चाहता तो धाँधली
करके दस-पाँच मनट और पदा सकता था, इसक काफ गुंजाइश थी, ले कन अब इसका
मौका न था। म सीधे नाले क तरफ दौड़ा। वमान जल-तट पर प ँ च चुका था। मने र से
देखा, म ाह क ी लये आ रहा है। दौड़ा, ले कन आद मय क भीड़ म दौड़ना क ठन
था। आ खर जब म भीड़ हटाता, ाण-पण से आगे बढ़ता घाट पर प ँ चा तो नषाद अपनी
नौका खोल चुका था।
रामचं पर मेरी कतनी ा थी! अपने पाठ क चता न करके उ पढ़ा दया करता था,
जससे वह फेल न हो जाएँ । मुझसे उ ादा होने पर भी वह नीची क ा म पढ़ते थे,
ले कन वही रामचं नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-
पहचान ही नह । नकल म भी असल क कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भ पर जनक
नगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे उबारते! म वकल होकर उस बछड़े क भाँ त
कूदने लगा, जसक गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले क
ओर जाता, कभी कसी सहायक क खोज म पीछे क तरफ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी
धुन म म थे, मेरी चीख-पुकार कसी के कान तक न पहँ ◌ुची। तब से बड़ी-बड़ी
वप याँ झेल , पर उस समय जतना ःख आ, उतना फर कभी न आ।
मने न य कया था क अब रामचं से न कभी बोलूँगा, न कभी खाने क कोई चीज ही
ँ गा; ले कन ही नाले को पार करके वह पुल क ओर लौटे , म दौड़कर वमान पर चढ़
गया और ऐसा खुश आ, मानो कोई बात ही न ई थी।

रामलीला समा हो गई थी। राजग ी होने वाली थी, पर न जाने देर हो रही थी।
शायद चंदा कम वसूल आ था। रामचं क इन दन कोई बात भी न पूछता था। न ही घर
जाने क छु ी मलती थी और न ही भोजन का बंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से
सीदा कोई तीन बजे दन को मलता था, बाक सारे दन कोई पानी को नह पूछता।
ले कन मेरी ा अभी तक -क - थी। मेरी म वह अब भी रामचं ही थे। घर
पर मुझे खाने क कोई चीज मलती, वह लेकर रामचं को दे आता। उ खलाने म मुझे
जतना आनंद मलता था, उतना आप खा जाने म भी कभी न मलता। कोई मठाई या
फल पाते ही म बेतहाशा चौपाल क ओर दौड़ता। अगर रामचं वहाँ न मलते तो चार
ओर तलाश करता और जब तक वह चीज उ न खला देता, चैन न आता था।
खैर, राजग ी का दन आया। रामलीला के मैदान म एक बड़ा सा शा मयाना ताना गया।
उसक खूब सजावट क गई। वे ाओं के दल भी आ प ँ चे। शाम को रामचं क सवारी
नकली और ेक ार पर उनक आरती उतारी गई। ानुसार कसी ने पए दए,
कसी ने पैस।े मेरे पता पु लस के आदमी थे, इस लए उ ने बना कुछ दए ही आरती
उतारी। उस व मुझे जतनी ल ा आई, उसे बयान नह कर सकता। मेरे पास उस व
संयोग से एक पया था। मेरे मामाजी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक पया दे गए
थे। उस पए को मने रख छोड़ा था। दशहरे के दन भी उसे खच न कर सका। मने तुरंत
वह पया लाकर आरती क थाली म डाल दया। पताजी मेरी ओर कु पत ने से देखकर
रह गए। उ ने कुछ कहा तो नह , ले कन मँ◌ुह ऐसा बना लया, जससे कट होता था
क मेरी इस धृ ता से उनके रोब म ब ा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह प र मा
पूरी ई। आरती क थाली पय और पैस से भरी ई थी। ठीक तो नह कह सकता, मगर
अब ऐसा अनुमान होता है क चार-पाँच सौ पय से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ
ादा ही खच कर चुके थे। उ इसक बड़ी फ ई क कसी तरह कम-से-कम दो सौ
पए और वसूल हो जाएँ और इसक सबसे अ ी तरक ब उ यही मालूम ई क
वे ाओं ारा मह फल म वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ और मह फल का रं ग जम
जाए, तो आबादीजान र सकजन क कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दखाएँ क
लोग शरमाते- शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मर। आबादीजान और चौधरी साहब म
सलाह होने लगी। म संयोग से उन दोन ा णय क बात सुन रहा था। चौधरी साहब ने
समझा होगा क यह ल डा ा मतलब समझेगा। पर यहाँ ई र क दया से अ के
पुतले थे। सारी दा ान समझ म आती जाती थी।
चौधरी,"सुनो आबादीजान, यह तु ारी ादती है। हमारा और तु ारा कोई पहला
सा बका तो है नह । ई र ने चाहा तो हमेशा तु ारा आना-जाना लगा रहेगा। अब क
चंदा ब त कम आया, नह तो म तुमसे इतना इसरार न करता।"
करता।"
आबादीजान,"आप मुझसे भी जम दारी चाल चलते ह, ? मगर यहाँ जूर क दाल न
गलेगी। वाह! पए तो म वसूल क ँ और मूँछ पर ताव आप द। कमाई का अ ा ढं ग
नकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दन म राजा हो जाएँ गे। उसके सामने
जम दारी झक मारे गी! बस कल ही से एक चकला खोल दी जए! खुदा क कसम,
मालामाल हो जाइएगा।"
चौधरी,"तुम द गी करती हो और यहाँ का फया तंग हो रहा है।"
आबादीजान,"तो आप भी तो मुझी से उ ादी करते ह। यहाँ आप जैसे कइय को रोज
उँ ग लय पर नचाती ँ ।"
चौधरी,"आ खर तु ारी मंशा ा है?"
आबादीजान,"जो कुछ वसूल क ँ , उसम आधा मेरा, आधा आपका। लाइए, हाथ मा रए।"
चौधरी,"यही सही।"
आबादीजान,"तो पहले मेरे सौ पए गन दी जए। पीछे से आप अलसेट करने लगगे।"
चौधरी,"वह भी लोगी और यह भी।"
आबादीजान,"अ ा! तो ा आप समझते थे क अपनी उजरत छोड़ ँ गी? वाह री
आपक समझ! खूब, न हो। दीवाना बकारे दरवेश शयार!"
चौधरी,"तो ा तुमने दोहरी फ स लेने क ठानी है?"
आबादीजान,"अगर आपको सौ दफे गरज हो तो। वरना मेरे सौ पए तो कह गए ही नह ।
मुझे ा कु े ने काटा है, जो लोग क जेब म हाथ डालती फ ँ ?"
चौधरी क एक न चली। आबादीजान के सामने दबना पड़ा। नाच शु आ। आबादीजान
बला क शोख औरत थी। एक तो कम सन, उस पर हसीन और उसक अदाएँ तो इस
गजब क थ क मेरी तबीयत भी म ई जाती थी। आद मय को पहचानने का गुण भी
उसम कुछ कम न था। जसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लया। पाँच पए
से कम तो शायद ही कसी ने दए ह । पताजी के सामने भी वह बैठी। म मारे शरम के गड़
गया। जब उसने उनक कलाई पकड़ी, तब तो म सहम उठा। मुझे यक न था क पताजी
उसका हाथ झटक दगे और शायद ार भी द, कतु यह ा हो रहा है ई र! मेरी आँख
धोखा तो नह खा रही ह। पताजी मूँछ म हँ स रहे ह। ऐसी मृ हँ सी उनके चेहरे पर मने
कभी नह देखी थी। उनक आँख से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम
पुल कत हो रहा था, मगर ई र ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उ ने धीरे से
आबादीजान के कोमल हाथ से अपनी कलाई छु ड़ा ली। अरे ! यह फर ा आ? आबादी
तो उनके गले म बाँह डाले देती है। अब पताजी उसे ज र पीटगे। चुडै़ल को जरा भी शरम
नह ।
एक महाशय ने मुसकराकर कहा,"यहाँ तु ारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाजा
देखो।"
बात तो इन महाशय ने मेरे मन क कही और ब त ही उ चत कही, ले कन न जाने
पताजी ने उसक ओर कु पत ने से देखा और मूँछ पर ताव दया। मुँह से तो वह कुछ न
बोले, पर उनके मुख क आकृ त च ाकर सरोष श म कह रही थी, ‘तू ब नया, मुझे
समझता ा है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक नसार करने को तैयार ह। पए क
हक कत ही ा! तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे नी रकम न डालूँ तो मुँह न दखाऊँ!’
महान् आ य! घोर अनथ! अरे , जमीन तू फट नह जाती। आकाश, तू फट नह
पड़ता? अरे , मुझे मौत नह आ जाती! पताजी जेब म हाथ डाल रहे ह। कोई चीज
नकाली और सेठजी को दखाकर आबादीजान को दे डाली। आह! यह तो अशरफ है।
चार ओर ता लयाँ बजने लग । सेठजी उ ू बन गए। पताजी ने मुँह क खाई, इसका
न य म नह कर सकता। मने केवल इतना देखा क पताजी ने एक अशरफ
नकालकर आबादीजान को दी। उनक आँख म इस समय इतना गवयु उ ास था
मानो उ ने हा तम क क पर लात मारी हो। यही पताजी ह, ज ने मुझे आरती म
एक पया डालते देखकर मेरी ओर इस तरह से देखा था, मानो मुझे फाड़ ही खाएँ गे। मेरे
उस परमो चत वहार से उनके रोब म फक आता था और इस समय इस घृ णत, कु त
और न दत ापार पर गव और आनंद से फूले न समाते थे।
आबादीजान ने एक मनोहर मुसकान के साथ पताजी को सलाम कया और आगे बढ़ी,
मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शरम के मेरा म क झुका जाता था, अगर मेरी आँख
देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी ऐतबार न होता। म बाहर जो कुछ देखता-सुनता
था, उसक रपोट अ ा से ज र करता था। पर इस मामले को मने उनसे छपा रखा। म
जानता था, उ यह बात सुनकर बड़ा ःख होगा।
रात भर गाना होता रहा, तबले क धमक मेरे कान म आ रही थी। जी चाहता था, चलकर
देखूँ, पर साहस न था। म कसी को मुँह कैसे दखाऊँगा? कह कसी ने पताजी का ज
छेड़ दया तो म ा क ँ गा?
ातःकाल रामचं क वदाई होने वाली थी। म चारपाई से उठते ही आँख मलता आ
चौपाल क ओर भागा। डर रहा था क कह रामचं चले न गए ह । प ँ चा तो देखा,
तवायफ क सवा रयाँ जाने को तैयार ह। बीस आदमी हसरत नाक-मुँह बनाए उ घेरे
खड़े ह। मने उनक ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचं के पास प ँ चा। ल ण और
सीता बैठे रो रहे थे और रामचं खड़े काँधे पर लु टया-डोर डाले उ समझा रहे थे। मेरे
सवा वहाँ और कोई न था। मने कुं ठत र म रामचं से पूछा," ा तु ारी वदाई हो
गई?"
रामचं ,"हाँ, हो तो गई। हमारी वदाई ही ा? चौधरी साहब ने कह दया, जाओ, चले
जाते ह।"
" ा पया और कपड़े नह मले?"
"अभी नह मले। चौधरी साहब कहते ह,"इस व बचत म पए नह ह, फर आकर ले
जाना।"
"कुछ नह मला?"
"एक पैसा भी नह । कहते ह, कुछ बचत नह ई। मने सोचा था क कुछ पए मल जाएँ गे
तो पढ़ने क कताब ले लूँगा। सो कुछ न मला। राह खच भी नह दया। कहते ह, कौन र
है, पैदल चले जाओ!"
मुझे ऐसा ोध आया क चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथ लूँ। वे ाओं के लए पए,
सवा रयाँ, सबकुछ, पर बेचारे रामचं और उनके सा थय के लए कुछ भी नह । जन
लोग ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस पए ोछावर कए थे, उनके पास
ा इनके लए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नह ? पताजी ने भी आबादीजान को एक
अशरफ दी थी। देख,ूँ इनके नाम पर ा देते ह। म दौड़ा आ पताजी के पास गया। वह
कह त ीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले,"कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के व
तु घूमने क सूझती है।"
मने कहा,"गया था चौपाल। रामचं वदा हो रहे थे। उ चौधरी साहब ने कुछ नह दया।"
"तो तु इसक ा फ पड़ी है?"
"वह जाएँ गे कैसे? उनके पास राह-खच भी तो नह है।"
" ा कुछ खच भी नह दया? यह चौधरी साहब क बेइनसाफ है।"
"आप अगर दो पया दे द तो म उ दे आऊँ। इतने म शायद वह घर प ँ च जाएँ ।"
पताजी ने ती से देखकर कहा,"जाओ अपनी कताब देखो, मेरे पास पए नह ह।"
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दन से पताजी पर से मेरी ा उठ गई। मने
फर कभी उनक डाँट-डपट क परवाह नह क । मेरा दल कहता, ‘आपको मुझको उपदेश
देने का कोई अ धकार नह है।’ मुझे उनक सूरत से चढ़ हो गई। वह जो कहते, म ठीक
उसका उलटा करता। य प इसम मेरी हा न ई। ले कन मेरा अंतःकरण उस समय
व वकारी वचार से भरा आ था।
मेरे पास दो आने पड़े ए थे। मने उठा लये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचं को दे
दए। उन पैस को देखकर रामचं को जतना हष आ, वह मेरे लए आशातीत था। टूट
पड़े, मानो ासे को पानी मल गया। यही दो आने पैसे लेकर तीन मू तयाँ वदा ।
केवल म ही उनके साथ क े के बाहर तक प ँ चाने आया।
उ वदा करके लौटा तो मेरी आँख सजल थ , पर दय आनंद से उमड़ा आ था।
मे री बचपन क याद म ‘कजाक ’ एक न मटने वाला है। आज चालीस वष
गुजर गए, कजाक क मू त अभी तक मेरी आँख के सामने नाच रही है। म उस समय
अपने पता के साथ आजमगढ़ क एक तहसील म था। कजाक जा त का पासी था, बड़ा
ही हँ समुख, बड़ा ही जदा दल। वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता
और सुबह डाक लेकर चला जाता।
शाम को फर उधर से डाक लेकर आ जाता। म दन भर उ हालत म उसक राह देखा
करता। ही चार बजते, बेचैन होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता। वह र से दौड़ता
आ आता दखलाई पड़ता। वह साँवले रं ग का गठीला, लंबा जवान था। ज साँचे म
ऐसा ढला आ क चतुर मू तकार भी उसम कोई दोष न नकाल सकता। उसक छोटी-
छोटी मूँछ उसके सुडौल मुँह पर ब त ही अ ी तीत होती थ ।
मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता, उसक झुँझुनी और तेजी से बजने लगती तथा
मेरे दल म जोर से खुशी क धड़कन होने लगती। हषा तरे क म म भी दौड़ पड़ता और एक
पल म कजाक का कंधा मेरा सहासन बन जाता। वह जगह मेरी अ भलाषाओं का ग
थी।
ग के नवा सय को शायद वह आंदो लत आनंद नह मलता होगा, जो मुझे कजाक के
वशाल कंधे पर मलता था। नया मेरी आँख म तु हो जाती और कजाक मुझे कंधे
पर लये ए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा महसूस होता, मानो म हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा
ँ।
कजाक डाकखाने म प ँ चता तो पसीने से तर-बतर रहता; ले कन आराम करने क आदत
नह थी। थैला रखते ही वह हम लोग को लेकर कसी मैदान म नकल जाता, कभी हमारे
साथ खेलता, कभी बरहे गाकर सुनाता और कभी-कभी कहा नयाँ सुनाता। उसे चोरी
तथा डाके, मारपीट, भूत- ेत क सैकड़ कहा नयाँ याद थ । म कहा नयाँ सुनकर व च
आनंद म म हो जाता; उसक कहा नय के चोर और डाकू स े यो ा थे, जो धनी लोग
को लूटकर दीन- खी ा णय का पालन करते थे। मुझे उन पर नफरत के बदले ा
होती थी।
एक रोज कजाक को डाक का थैला लेकर आने म देर हो गई। सूया हो गया और वह
दखलाई नह पड़ा। म खोया आ सा सड़क पर र तक ने फाड़-फाड़कर देखता था; पर
वह प र चत रे खा न दखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; ‘झुन-झुन’ क वह
आमोदमय न नह सुनाई देती थी। काश के साथ मेरी उ ीद भी म लन होती जाती
थी। उधर से कसी को आते देखता तो पूछता,"कजाक आता है?" मगर या तो कोई
सुनता ही न था या फर सर हला देता था।
अचानक ‘झुन-झुन’ क आवाज कान म आई। मुझे अँधेरे म चार ओर भूत ही दखलाई
देते थे। यहाँ तक क माताजी के कमरे म ताक पर रखी ई मठाई भी अँधेरा हो जाने के
प ात् मेरे लए ा हो जाती थी; ले कन वह आवाज सुनते ही म उसक ओर जोर से
दौड़ा। हाँ, कजाक ही था। उसे देखते ही मेरी वकलता गु े म बदल गई। म उसे मारने
लगा, फर ठ करके अलग खड़ा हो गया।
कजाक ने हँ सकर कहा,"मारोगे तो म जो लाया ँ , वह न ँ गा।"
मने साहस करके कहा,"जाओ मत देना, म लूँगा भी नह ।"
कजाक ,"अभी दखा ँ , तो फर दौड़कर गोद म उठा लोगे।"
मने पघलकर कहा,"अ ा, दखा दो।"
कजाक ,"तो आकर मेरे कंधे के ऊपर बैठ जाओ, भाग चलूँ। आज काफ देर हो गई है।
बाबूजी गु ा हो रहे ह गे।"
मने अकड़कर कहा,"पहले दखा तो दो।"
मेरी वजय ई। य द कजाक को देर न होती और वह एक मनट भी और क सकता, तो
शायद पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दखाई, जसे वह एक हाथ से सीने से
चपकाए ए था। लंबा मुँह था, दो आँख चमक रही थ ।
मने उसे भागकर कजाक क गोद से ले लया। यह हरन का ब ा था। आह! मेरी उस
स ता का कौन अनुमान करे गा? तब से क ठन परी ाएँ पास क , अ ा पद भी पाया,
रायबहा र भी आ, मगर वह खुशी फर भी न हा सल ई। म उसे गोद म लये, उसके
कोमल श का मजा उठाता आ घर क ओर दौड़ा। कजाक को आने म इतनी देर
ई, इसका वचार ही न रहा।
मने पूछा,"यह कहाँ पर मला कजाक ?"
कजाक ,"भैया, यहाँ से थोड़ी री पर एक छोटा सा वन है, उसम ब त से हरन ह। मेरा
ब त दल चाहता था क कोई ब ा मल जाए तो तु ँ । आज यह ब ा हरन के झुंड
के साथ दखलाई दया। म झुंड क तरफ दौड़ा तो ब त र नकल गए, यही पीछे रह गया।
मने इसे पकड़ लया और इसी से इतनी देर ई।"
इस तरह बात करते हम दोन डाकखाने प ँ च।े बाबूजी ने मुझे न देखा, हरन के ब े को
भी न देखा, कजाक पर ही उनक पड़ी। बगड़कर बोले,"आज इतनी देर कहाँ
लगाई? अब थैला लेकर आया है, उसे लेकर म ा क ँ ? डाक तो चली गई। बता, तूने
इतनी देर कहाँ पर लगाई?"
कजाक के मुख से आवाज न नकली।
बाबूजी बोले,"तुझे शायद अब नौकरी नह करनी है। नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया!
जब भूख मरने लगेगा तो ने खुलगे।"
कजाक खामोश खड़ा रहा।
बाबूजी का गु ा और बढ़ा। बोले,"अ ा, थैला रख दे और अपने घर क राह ले। सूअर,
अब डाक लेकर आया है। तेरा ा बगडे़गा, जहाँ पर चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथे पर
मेरे आएगी, उ र तो मुझसे तलब होगा।"
कजाक ने ँ आसा होकर कहा," जूर, अब कभी देर नह होगी।"
बाबूजी,"आज देर क , इसका उ र दे?"
कजाक के पास इसका कोई जवाब न था। आ य तो यह था क मेरी भी जबान बंद हो
गई। बाबूजी बड़े ोधी थे। उ काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुँझला पड़ते
थे। म तो उनके स ुख कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी ार न करते थे। घर म
सफ दो बार घंटे-घंटे भर के लए भोजन करने आते थे, शेष सारे दन द र म लखा
करते थे। उ ने बार-बार एक सहकारी के लए अफसर से ाथना क थी, पर इसका
असर न आ था। यहाँ तक क तातील (छु ी) के दन भी बाबूजी द र ही म रहते थे।
सफ माताजी उनका गु ा शांत करना जानती थ । पर वह द र म कैसे आत ? बेचारा
कजाक उसी समय मेरे देखते-देखते नकाल दया गया। उसका ब म, चपरास और
साफा छीन लया गया और उसे डाकखाने से नकल जाने का ना दरी आदेश सुना दया।
आह! उस व मेरा ऐसा दल चाहता था क मेरे पास सोने क लंका होती तो कजाक को
दे देता और बाबूजी को दखा देता क तु ारे नकाल देने से कजाक का बाल भी बाँका
नह आ। कसी यो ा को अपनी तलवार पर जतना गव होता है, उतना ही गव कजाक
को अपनी चपरासी पर था। जब वह चपरासी खोलने लगा तो उसके हाथ काँप रहे थे और
ने से आँसू बह रहे थे, और इस सारे उप व क जड़ वह कोमल चीज थी, जो मेरी गोद म
मुँह छपाए ऐसे चैन से बैठी ई थी मानो माता क गोद म हो। जब कजाक चला तो म
आ ह ा-आ ह ा उसके पीछे चला। मेरे घर के दरवाजे पर आकर कजाक ने
कहा,"भैया, अब घर जाओ। साँझ हो गई।"
म खामोश खड़ा अपने आँसुओ ं के वेग को सारी ताकत से दबा रहा था। कजाक फर
बोला,"भैया, म कह बाहर थोड़े ही चला जाऊँगा, फर आऊँगा तथा तु कंधे पर बैठाकर
कुदाऊँगा, बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो ा इतना भी न करने दगे! तुमको छोड़कर म
कह नह जाऊँगा, भैया! जाकर अ ा से कह दो, कजाक जाता है। उसका कहा-सुना
मा कर।"
म दौड़ा आ घर गया, कतु अ ाजी से कुछ कहने के बदले बलख- बलखकर रोने लगा।
अ ाजी कचन के बाहर नकलकर पूछने लग , " ा आ बेटा? कसने मारा! बाबूजी
ने भी कुछ कहा है? अ ा; रह तो जाओ, आज घर आते ह, पूछती ँ । जब देखो, मेरे लड़के
को मारा करते ह। खामोश रहो बेटा, अब तुम उनके पास कभी न जाना।"
मने बड़ी क ठनता से आवाज सँभालकर कहा,"कजाक !"
अ ा ने समझा, कजाक ने मारा है कहने लग ,"अ ा, आने दो कजाक को, देखो, खड़े-
खड़े नकलवा देती ँ । हरकारा होकर मेरे राजा पु को मारे ! आज ही तो साफा, ब म,
सब छनवाए लेती ँ । वाह!"
मने शी ता से कहा,"नह , कजाक ने नह मारा। बाबूजी ने उसे नकाल दया है। उसका
साफा, ब म छीन लया, चपरास भी ले ली।"
अ ा,"यह तु ारे बाबूजी ने ब त बुरा कया। वह बेचारा अपने काय म इतना सतक रहता
है, फर उसे नकाला?"
मने बताया,"आज उसे देर हो गई थी।"
इतना कहकर हरन के ब े को गोद से उतार दया। घर म उसके भाग जाने का डर न था।
अब तक अ ाजी क नगाह भी उस पर न पड़ी थी। उसे फुदकते देखकर वह अचानक
च क पड़ और लपककर मेरा हाथ पकड लया क कह यह भयानक जीव मुझे काट न
खाए! म कहाँ तो फूट-फूटकर रो रहा था और कहाँ अ ा क घबराहट देखकर
खल खलाकर हँ सने लगा। अ ा,"अरे , यह तो हरन का ब ा है! कहाँ मला?"
मने हरन के ब े का इ तहास और उसका भीषण अंजाम आ द से अंत तक कह
सुनाया,"अ ा, यह इतना तेज भागता था क कोई अ होता तो पकड़ ही न सकता।
सन्-सन् हवा क तरह उड़ता चला जाता था। कजाक पाँच-छह घंटे तक इसके पीछे
दौड़ता रहा, तब कह जाकर ब ा मला। अ ाजी, कजाक क भाँ त कोई संसार भर म
नह दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गई। इस लए बाबूजी ने बेचारे को नकाल दया,
चपरास, साफा, ब म, सबकुछ छीन लया। अब बेचारा ा करे गा? भूख मर
जाएगा।"
अ ा ने पूछा,"कहाँ है कजाक , जरा उसे बुलाकर तो लाओ।"
मने कहा,"बाहर तो खड़ा है। कहता था, अ ाजी से मेरा कहा-सुना माफ करवा देना।"
अब तक अ ाजी मेरे हाल को मजाक समझ रही थ । शायद वह समझती थ क बाबूजी
ने कजाक को डाँटा होगा। मगर मेरा अं तम वा सुनकर संशय आ क वाकई कजाक
बरखा तो नह कर दया गया। बाहर आकर ‘कजाक ! कजाक ’ पुकारने लग , कतु
कजाक का कह पता नह था। मने बार-बार पुकारा, मगर कजाक वहाँ न था।
भोजन तो मने खा लया, ब े शोक म खाना नह छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने
हो। ले कन बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास पए होते तो एक लाख पए
कजाक को दे देता और कहता, ‘बाबूजी से कभी नह बोलना। बेचारा भूख मर जाएगा!
देख,ूँ कल आता है क नह । अब वह ा करे गा आकर? ले कन आने को तो कह गया है।
म कल उसे अपने साथ खाना खलाऊँगा।’
यही हवाई कले बनाते ए मुझे न द आ गई।

सरे रोज म दन भर अपने हरन के ब े क सेवा-स ार म रहा। पहले उसका


नामकरण सं ार आ और ‘मु ’ू नाम रखा गया, फर मने उसका अपने सब दो और
सहपा ठय से प रचय कराया। दन भर म वह मुझसे इतना हल गया क मेरे पीछे-पीछे
भागने लगा। इतनी ही देर म मने उसे अपनी जदगी म एक मह पूण ान दे दया।
अपने भ व म बनने वाले वशाल भवन म उसके लए अलग कमरा बनाने का भी
फैसला कर लया; चारपाई, सैर करने क फटन आ द क भी योजना बना ली।
ले कन शाम होते ही म सबकुछ छोड़-छाड़कर सड़क पर जा खड़ा आ और कजाक क
बाट देखने लगा। जानता था क कजाक नकाल दया गया है, अब उसे यहाँ आने क
कोई आव कता नह रही, फर भी न जाने मुझे यह उ ीद हो रही थी क वह आ
रहा है। अचानक मुझे खयाल आया क कजाक भूख मर रहा होगा। म फौरन घर आया।
अ ा दीया-ब ी कर रही थ । मने चुपके से एक टोकरी म आटा नकाला। आटा हाथ म
लपेटे ए टोकरी से गरते आटे क एक लक र बनाता आ भागा। जाकर रा े पर खड़ा
आ ही था क कजाक सामने से आता दखलाई दया। उसके नकट ब म भी था,
कमर म चपरास भी थी, सर पर साफा भी बाँधा आ था। ब म म डाक का थैला भी
बँधा आ था। म भागकर उसक कमर म चपट गया और हैरान होकर बोला,"तु
चपरास और ब म कहाँ से मल गया कजाक ?"
कजाक ने मुझे उठाकर कंधे पर बठाते ए कहा,"वह चपरास कस काम क थी भैया?
वह तो गुलामी क चपरास थी, यह पुरानी स ता क चपरास है। पहले सरकार का नौकर
था, अब तु ारा सेवक ँ ।"
यह कहते-कहते उसक टोकरी पर पड़ी, जो वह रखी थी। बोला, "वह आटा कैसा है,
भैया?"
मने झझकते ए कहा,"तु ारे ही लए तो लाया ँ । तुम भूखे होगे, आज ा खाया
होगा?"
कजाक क आँख तो म नह देख सकता, उसके कंधे पर बैठा आ था। हाँ, उसक आवाज
से महसूस आ क उसका गला भर आया है। बोला, "भैया, ा खी ही रो टयाँ
खाऊँगा? दाल, नमक, घी और कुछ नह है।" म अपनी भूल पर काफ श मदा आ। सच
तो है, बेचारा खी रो टयाँ खाएगा? ले कन नमक, दाल, घी कैसे लाऊँ? अब तो अ ा
रसोई म ह गी। आटा लेकर तो कसी तरह भाग आया था (अभी तक मुझे न पता था क
मेरी चोरी पकड़ ली गई है। आटे क लक र ने सुराग दे दया था।) अब ये तीन-तीन व ुएँ
कैसे लाऊँगा? अ ा से माँगँ◌ूगा तो कभी न दगी। एक-एक पैसे के लए तो घंट लाती
ह, इतनी सारी व ुएँ देने लग ? एकाएक मुझे एक बात याद आई। मने अपनी
पु क के ब े म कई आने पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे इक ा करके रखने म बड़ा आनंद
आता था। मालूम नह अब वह आदत बदल गई! अब भी वही त होती तो शायद
इतना फाकेम रहता। बाबूजी मुझे ार तो कभी नह करते थे, पर पैसे खूब देते थे,
शायद अपने काय म रहने के कारण, मुझसे पड छु ड़ाने के लए इसी नु े को
सबसे सरल समझते थे। इनकार करने म रोने और मचलने का भय था। इस व को वह
र ही से टाल देते थे। अ ाजी का भाव इससे ठीक तकूल था। उ मेरे रोने तथा
मचलने से कसी काम म बाधा पड़ने का डर न था। आदमी लेटे-लेटे दन भर रोना सुन
सकता है, हसाब लगाते ए जोर क आवाज से ान बँट जाता है। अ ा मुझे ेम तो
ब त करती थ , पर पैसे का नाम सुनते ही उनक ो रयाँ बदल जाती थ । मेरे पास
पु क न थ । हाँ, एक ब ा था, जसम डाकखाने के दो-चार फाम तह करके कताब के
प म रखे ए थे। मने सोचा-दाल, नमक और घी के लए ा उतने पैसे काफ नह
ह गे? मेरी तो मु ी म नह आते। यह तय करके मने कहा,"अ ा, मुझे उतार दो, म दाल
और नमक ला ँ , ले कन रोज आया करोगे न?"
कजाक ,"भैया, खाने को दोगे तो नह आऊँगा।"
मने कहा,"म त दन खाने को ँ गा।"
कजाक बोला,"तो म रोज आऊँगा।"
म नीचे उतरा तथा दौड़कर सारी पूँजी उठा लाया। कजाक को रोज बुलाने के लए उस
समय मेरे पास कोहनूर हीरा भी होता तो उसक भट करने म मुझे पसोपेश न होता।
कजाक ने आ यच कत होकर पूछा,"ये पैसे कहाँ से पाए भैया?"
मने ग वत होकर कहा,"मेरे ही तो ह।"
कजाक ,"तु ारी अ ाजी तुमको मारगी, कहगी, कजाक ने बहलाकर मँगवा लये ह गे।
भैया, इन पैस क मठाई ले लेना तथा मटके म रख देना। म भूख नह मरता। मेरे दो हाथ
ह। म भला कभी भूख मर सकता ँ ?"
मने ब त कहा क पैसे मेरे ह, कतु कजाक ने न लये। उसने बड़ी देर तक इधर-उधर सैर
कराई, गीत सुनाए और मुझे घर प ँ चाकर चला गया। मेरे दरवाजे पर आटे क टोकरी भी
रख दी।
मने घर म पग रखा ही था क अ ाजी ने डाँटकर कहा," रे चोर! तू आटा कहाँ ले
गया था? अब चोरी करना सीख गया? बता, कसको आटा दे आया, नह तो म तेरी खाल
उधेड़कर रख ँ गी।"
मेरी नानी मर गई। अ ा गु े म सहनी हो जाती थ । सट पटाकर बोला, " कसी को
भी नह दया।"
अ ा,"तूने आटा नह नकाला? देख, कतना आटा पूरे आँगन म बखरा पड़ा है?"
म खामोश खड़ा था। वह कतना ही धमकाती थ , पुचकारती थ , पर मेरी जबान न खुलती
थी। आने वाली मुसीबत के भय से ाण सूख रहे थे। यहाँ तक क यह भी कहने क ह त
नह पड़ती थी क बगड़ती हो, आटा तो ार पर रखा आ है, और न उठाकर लाते ही
बनता था, मानो या-श ही गायब हो गई हो, मानो पाँव म हलने क साम न रही
हो।
सहसा कजाक ने आवाज लगाई,"ब जी, आटा ार पर रखा आ है। भैया मुझे देने को ले
गए थे।"
यह सुनते ही अ ा दरवाजे क ओर चली ग । कजाक से वह परदा न करती थ , उ ने
कजाक से कोई बात क अथवा नह , यह तो म नह जानता; ले कन अ ाजी खाली
टोकरी लेकर घर म आ , फर कोठरी म जाकर सं क से कुछ नकाला और दरवाजे क
ओर ग ।
मने देखा क उनक मु ी बंद थी। अब मुझे वहाँ खड़ा नह रहा गया। अ ाजी के पीछे-
पीछे म भी गया। अ ा ने दरवाजे पर कई बार पुकारा, मगर कजाक वहाँ से चला गया
था।
मने बड़ी ाकुलता से कहा,"म बुलाकर लाऊँ, अ ाजी?" अ ाजी ने कवाड़ बंद करते
ए कहा,"तुम अँधेरे म कहाँ जाओगे, अभी तो यह खड़ा आ था। मने कहा क यहाँ रहना
म आती ँ , तब तक न जाने कहाँ खसक गया। बड़ा संकोची लड़का है, आटा तो लेता ही
नह था। न जाने बेचारे के मकान म कुछ खाने को है क नह । पए लाई थी क दे ँ गी,
पर न जाने कहाँ चला गया।" अब तो मुझे भी थोड़ा साहस आ। मने अपनी चोरी क पूरी
कहानी कह डाली। ब के साथ समझदार ब े बनकर माँ-बाप उन पर जतना भाव
डाल सकते ह, जतनी श ा दे सकते ह, उतने बूढ़े बनकर नह ।
अ ाजी ने कहा,"तुमने मुझसे पूछ नह लया? ा म कजाक को थोड़ा सा आटा
नह देती?"
मने इसका जवाब न दया। दल ने कहा, ‘इस व तु कजाक पर दया आ गई है, जो
चाहे दे डालो।’ कतु म माँगता तो मारने दौड़त । हाँ, यह सोचकर च खुश आ क अब
कजाक भूखा न मरे गा। अ ाजी उसे रोज खाने को दगी और वह न मुझे कंधे पर
बठाकर सैर कराएगा।
सरे दन म दन भर मु ू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर जाकर खड़ा हो गया,
ले कन अँधेरा हो गया और कजाक का कह पता नह ।
दीये जल गए, माग म स ाटा छा गया, पर कजाक न आया।
म रोता आ घर आया। अ ाजी ने कहा," रोते हो, बेटा? ा कजाक नह आया?"
म और जोर से रोने लगा। अ ाजी ने मुझे सीने से लगा लया। मुझे ऐसा महसूस आ
क उनका कंठ भी ँ आसा हो गया है।
उ ने कहा,"बेटा, शांत हो जाओ, म कल कसी हरकारे को भेजकर कजाक को
बुलाऊँगी।"
म रोते-रोते सो गया। सवेरे जैसे ही आँख खुल , मने अ ाजी से कहा, "कजाक को
बुलवा दो।"
अ ा ने कहा,"आदमी गया है, बेटा! कजाक आता होगा।"
म स होकर खेलने लगा। मुझे मालूम था क अ ाजी जो बात कहती ह, उसे पूरा
अव करती ह। उ ने सवेरे ही एक हरकारे को भेज दया था। दस बजे जब म मु ू को
लये ए घर आया, मालूम आ क कजाक अपने घर पर नह मला। वह रात को भी घर
नह गया था। उसक ी रो रही थी क न जाने कहाँ चले गए। उसे डर था क वह कह
भाग गया है।
बालक का मन कतना कोमल होता है, इसका अनुमान सरा नह कर सकता। उनम
भाव को जा हर करने के लए श नह होते। उ यह भी ात नह होता क कौन सी
बात उ वकल कर रही है, कौन सा काँटा उनके दल म खटक रहा है, बार-बार
रोना आता है, वे दय मारे बैठे रहते ह, खेलने म मन नह लगता? मेरी भी यही
दशा थी। कभी घर म आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा प ँ चता। आँख कजाक
को तलाश कर रही थ । वह कहाँ चला गया? कह भाग तो नह गया?
तीसरे पहर को म खोया आ सा सड़क पर खड़ा था। अचानक मने कजाक को एक गली
म देखा। हाँ, कजाक ही था। म उसक तरफ च ाता आ दौड़ा, पर गली म उसका पता
नह था, न जाने कधर गायब हो गया। मने गली के इस सरे से उस सरे तक देखा,
ले कन कह कजाक क गंध तक न मली।
घर जाकर मने अ ाजी से यह बात कही। मुझे ऐसा तीत आ क वह यह बात सुनकर
ब त फ मंद हो गई थ ।
इसके बाद दो-तीन दन तक कजाक नह दखाई दया। म भी अब उसे कुछ-कुछ भूलने
लगा। ब े पहले जतना ेम करते ह, बाद को उतने ही न ु र भी हो जाते ह। जस
खलौने पर जान देते ह, उसी को दो-चार दन बाद पटककर तोड़ भी डालते ह।
दस-बारह रोज और बीत गए। दोपहर का समय था। बाबूजी खाना खा रहे थे। म मु ू के
पाँव म पीनस क पैज नयाँ बाँध रहा था। एक औरत घूँघट नकाले ए आई और आँगन
म खड़ी हो गई। उसके व फटे ए और मैले थे, पर गोरी सुंदर औरत थी। उसने मुझसे
पूछा,"भैया, ब जी कहाँ ह?"
मने उसके नकट जाकर मुँह देखते ए कहा,"तुम कौन हो, ा बेचती हो?"
औरत,"कुछ बेचती नह ँ , बस तु ारे लए ये कमलग े लाई हँ ◌।ू
भैया, तु तो कमलग े बड़े अ े लगते ह न?"
मने उसके हाथ म लटकती ई पोटली को उ ुक आँख से देखकर पूछा,"कहाँ से लाई
हो? देख।"
ी,"तु ारे हरकारे ने भेजा है, भैया!"
मने उछलकर कहा,"कजाक ने?"
ी ने सर हलाकर ‘हाँ’ कहा और पोटली खोलने लगी। इतने म अ ाजी भी चौके से
नकलकर आ । उसने अ ा के पैर का श कया। अ ा ने पूछा,"तू कजाक क प ी
है?"
औरत ने अपना सर झुका लया।
अ ा,"आजकल कजाक ा कर रहा है?"
औरत ने रोकर कहा,"ब जी, जस रोज से आपके पास से आटा लेकर गए ह, उसी दन से
बीमार पड़े ए ह। बस भैया-भैया कया करते ह। भैया म उनका मन बसा रहता है। च क-
च ककर भैया-भैया कहते ए दरवाजे क ओर दौड़ते ह। न जाने उ ा हो गया है,
ब जी! एक दन भी कुछ नह कहा, न सुना, घर से चल दए और एक गली म छपकर
भैया को देखते रहे। जस समय भैया ने उ देख लया, तो भागे। तु ारे पास आते ए
शरमाते ह।" मने कहा,"हाँ-हाँ, मने उस रोज तुमसे जो कहा था, अ ाजी!"
अ ा,"घर म कुछ खाने-पीने को भी है?"
औरत,"हाँ ब जी, तु ारे आशीवाद से खाने-पीने का क नह है। आज सुबह उठे और
तालाब क तरफ चले गए। ब त कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जाएगी, ले कन न
माने! मारे कमजोरी के पैर काँपने लगते ह, मगर तालाब म घुसकर ये कमलग े तोड़
लाए। तब मुझसे कहा, ले जा, और भैया को दे आ। उ कमलग े ब त अ े लगते ह,
कुशल- ेम भी पूछती आना।"
मने पोटली से कमलग े नकाल लए थे तथा मजे से चख रहा था। अ ा ने ब त आँख
दखा , कतु यहाँ इतना स कहाँ!
अ ा ने कहा,"कह देना सब कुशल- ेम है।"
मने कहा,"यह भी कह देना क भैया ने बुलाया है। नह जाओगे तो फर तुमसे कभी न
बोलगे, हाँ।"
बाबूजी खाना खाकर नकल आए थे। तौ लए से हाथ-मुँह प छते ए कहने लगे,"और यह
भी कह देना क साहब ने तुम को बहाल कर दया है। शी जाओ, नह तो कोई सरा
रख लया जाएगा।"
औरत ने अपना व उठाया और चली गई। अ ा ने ब त पुकारा, मगर वह न क ।
शायद अ ाजी उसे कुछ देना चाहती थ । अ ा ने पूछा,"वाकई बहाल हो गया?"
बाबूजी,"और ा झूठे ही बुला रहा ँ । मने तो पाँचव ही रोज बहाली क रपोट क थी।"
अ ा,"यह तुमने बड़ा अ ा कया।"
बाबूजी,"उसक बीमारी क भी यही दवा है।"

ातःकाल म उठा, तो ा देखता ँ क कजाक लाठी टे कता आ चला आ रहा है। वह


ब त कमजोर हो गया था, मालूम होता था, बूढ़ा हो गया है। हरा-भरा वृ सूखकर ठूँठ हो
गया था। म उसक ओर दौड़ा और उसक कमर से चपट गया। कजाक ने मेरे गाल चूमे
और मुझे उठाकर कंधे पर बैठाने क को शश करने लगा; पर म न उठ सका। तब वह
जानवर क भाँ त भू म पर हाथ -घुटन के बल खड़ा हो गया। और म उसक पीठ पर
सवार होकर डाकखाने क ओर चला। म उस समय फूला न समाता था और शायद
कजाक मुझसे भी अ धक खुश था।
बाबूजी ने कहा,"कजाक , तुम बहाल हो गए। अब कभी देर मत करना।" कजाक रोता
आ पताजी के चरण म गर पड़ा; मगर शायद मेरे भा म दोन सुख भोगना नह
लखा था, मु ू मला, तो कजाक छूटा; कजाक आया तो मु ू हाथ से गया और ऐसा
गया क आज तक उसके जाने का क है। मु ू मेरी ही थाली म खाता था। जब तक म
खाने नह बैठूँ, वह भी कुछ नह खाता था। उसे भात म ब त ही च थी; कतु जब तक
खूब घी न पड़ा हो, उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता था और मेरे ही साथ
उठता भी था। सफाई तो उसे इतनी पसंद थी क मल-मू ाग करने के लए घर से बाहर
मैदान म ही नकल जाता था, कु को घर म नह घुसने देता था। कु े को देखते ही थाली
से उठ जाता तथा उ दौड़ाकर घर से बाहर नकाल देता था।
कजाक को डाकखाने म छोड़कर जब म खाना खाने लगा तो मु ू भी आ बैठा। अभी दो-
चार ही कौर खाए थे क तभी एक बड़ा सा झबरा कु ा आँगन म दखाई दया। मु ू उसे
देखते ही भागा। सरे घर म जाकर कु ा चूहा हो जाता है। झबरा कु ा उसे आते देखकर
दौड़ा। मु ू को उसे घर से नकालकर भी इ ीनान न आ। वह उसे घर के बाहर मैदान म
भी दौड़ाने लगा। मु ू को शायद ान न रहा क यहाँ मेरी अमलदारी नह है। वह उस
इलाके म प ँ च गया था, जहाँ झबरे का भी उतना ही अ धकार था जतना मु ू का। मु ू
कु े को भगाते-भगाते शायद अपने बा बल पर गव करने लगा था। वह यह नह समझता
था क घर म उसक पीठ पर घर के ामी का भय काय कया करता है। झबरे ने इस
मैदान म आते ही उलटकर मु ू क गरदन दबा दी। बेचारे मु ू के मुख से आवाज तक न
नकली। जब पड़ो सय ने शोर मचाया तो म भागा। देखा तो मु ू मरा आ पड़ा है और
झबरे का कह भी पता नह ।
मुं शी रामसेवक भ ह चढ़ाए ए घर से नकले और बोले,"इस जीने से तो मरना भला है।
मृ ु को ायः इस तरह से जतने नमं ण दए जाते ह, य द वह सबको ीकार करती तो
आज सारा संसार उजाड़ दखाई देता।"
मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईस के सभी गुण इनम भरपूर थे।
मानव च र क बलताएँ उनके जीवन का आधार थ । वह न मुं सफ कचहरी के हाते
म एक नीम के पेड़ के नीचे कागज का ब ा खोले एक टूटी सी चौक पर बैठे दखाई देते
थे। कसी ने कभी उ कसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे क पैरवी करते नह
देखा। परं तु उ सब मु ार साहब कहकर पुकारते थे। चाहे तूफान आए, पानी बरसे,
ओले गर, पर मु ार साहब वहाँ से टस-से-मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो
देहा तय के झुंड के झुंड उनके साथ हो लेत।े चार ओर से उन पर व ास और आदर क
पड़ती। सबम स था क उनक जीभ पर सर ती वराजती है। इसे वकालत कहो
या मु ारी, परं तु वह केवल कुल-मयादा क त ा का पालन था। आमदनी अ धक न
होती थी। चाँदी के स क तो चचा ही ा, कभी-कभी ताँबे के स े भी नभय
उनके पास आने म हचकते थे। मुंशीजी क कानूनदानी म कोई संदेह न था। परं तु पास के
बखेड़े ने उ ववश कर दया था। खैर जो हो, उनका यह पेशा केवल त ा-पालन के
न म था। नह तो उनके नवाह का मु साधन आस-पास क अनाथ, पर खाने-पीने म
सुखी वधवाओं और भोले-भाले कतु धनी वृ क ा थी। वधवाएँ अपना पया उनके
यहाँ अमानत रखत । बूढ़े अपने कपूत के डर से अपना धन उ स प देते। पर पया एक
बार मु ी म जाकर फर नकलना भूल जाता था। वह ज रत पड़ने पर कभी-कभी कज ले
लेते थे। भला बना कज लये कसी का काम चल सकता है? भोर क साँझ के करार पर
पया लेते, पर साँझ कभी नह आती थी। सारांश ये क मुंशीजी कज लेकर देना सीखे
नह थे। यह उनक कुल था थी। यही सब मामले ब धा मुंशीजी के सुख-चैन म व
डालते थे। कानून और अदालत का तो उ कोई डर न था। इस मैदान म उनका सामना
करना पानी म मगर से लड़ना था। परं तु जब कोई उनसे भड़ जाता, उनक
ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उता हो जाता, तब
मुंशीजी के दय पर बड़ी चोट लगती। इस कार क घटनाएँ ायः होती रहती थ । हर
जगह ऐसे ओछे रहते ह, ज सर को नीचा दखाने म आनंद आता है। ऐसे ही लोग का
सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुँह लग जाते थे। नह तो, कुंज ड़न क
इतनी मजाल नह थी क उनके आँगन म जाकर उ बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके
पुराने ाहक थे, बरस तक उससे साग-भाजी ली थी। य द दाम न दया तो कुंज ड़न को
संतोष करना चा हए था। दाम ज ी या देर से मल ही जाता। परं तु वह मुँहफट कुंज ड़न दो
ही बरस म घबरा गई और उसने कुछ आने-पैस के लए एक त त आदमी का पानी
उतार लया। झुँझलाकर मुंशीजी अपने को मृ ु का कलेवा बनाने पर उता हो गए तो
इसम उनका कुछ दोष न था।

इसी गाँव म मूँगा नाम क एक वधवा ा णी रहती थी। उसका प त बमा क काली
पलटन म हवलदार था और लड़ाई म वह मारा गया। सरकार क ओर से उसके अ े
काम के बदले मूँगा को पाँच सौ पए मले थे। वधवा ी, जमाना नाजुक था, बेचारी ने
ये सब पए मुंशी रामसेवक को स प दए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसम से माँगकर
अपना नवाह करती रही।
परं तु अनाथ का ोध पटाखे क आवाज है, जससे ब े डर जाते ह और असर कुछ नह
होता। अदालत म उसका कुछ जोर न था। न लखा-पढ़ी थी, न हसाब- कताब। हाँ,
पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठी। कई गाँव के लोग इक े ए। मुंशीजी नीयत
और मामले के साफ थे! सभा म खड़े होकर पंच से कहा,"भाइयो! आप सब लोग
स परायण और कुलीन ह। म आप सब साहब का दास ँ । आप सब साहब क उदारता
और कृपा से, दया और ेम से, मेरा रोम-रोम कृत है। ा आप लोग सोचते ह क म
इस अना थनी और वधवा ी के पए हड़प कर गया ँ ?"
पंच ने एक र म कहा,"नह , नह ! आपसे ऐसा नह हो सकता।" रामसेवक,"य द आप
सब स न का वचार हो क मने पया दबा लया, तो मेरे लए डूब मरने के सवा और
कोई उपाय नह । म धना नह ँ , न मुझे उदार होने का घमंड है। पर अपनी कलम क
कृपा से, आप लोग क कृपा से कसी का मोहताज नह ँ । ा म ऐसा ओछा हो
जाऊँगा क एक अना थनी के पए पचा लू?ँ "
पंच ने एक र म कहा,"नह -नह , आपसे ऐसा नह हो सकता। मुँह देखकर टीका काढ़ा
जाता है।" पंच ने मुंशी को छोड़ दया। पंचायत उठ गई। मूँगा ने आह भर संतोष कया
और मन म कहा, ‘अ ा! यहाँ न मला तो न सही, वहाँ कहाँ जाएगा।’

अब कोई मूँगा का ःख सुननेवाला और सहायक न था। द र ता से जो कुछ ःख भोगने


पड़ते ह, वह उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पु थी, चाहती तो प र म कर सकती थी। पर
जस दन पंचायत पूरी ई, उसी दन से उसने काम न करने क कसम खा ली। अब उसे
रात- दन पए क रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते उसे केवल एक काम था, और
वह मुंशी रामसेवक का भला मानना। झ पड़े के दरवाजे पर बैठी ई रात- दन उ स े
मन से असीसा करती; ब धा अपनी असीस के वा म ऐसे क वता के भाव और
उपमाओं का वहार करती क लोग सुनकर अचंभे म आ जाते। धीरे -धीरे मूँगा पगली हो
चली। नंगे सर, नंगे शरीर, हाथ म एक कु ाड़ी लये ए सुनसान ान म जा बैठती।
झ पड़े के बदले अब वह मरघट पर नदी के कनारे खँडहर म घूमती दखाई देती। बखरी
ई लट, लाल-लाल आँख, पागल सा चेहरा, सूखे ए हाथ-पाँव। उसका यह प
देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँ सी म भी नह छेड़ता। य द वह कभी गाँव म
नकल आई तो याँ घर के कवाड़ बंद कर लेत । पु ष कतराकर इधर-उधर से नकल
जाते और ब े चीख मारकर भागते। य द कोई लड़का भागता न था तो वह मुंशी
रामसेवक का सुपु रामगुलाम था। बाप म जो कुछ कोर-कसर रह गई थी, वह बेटे म पूरी
हो गई थी। लड़क का उसके मारे नाक म दम था। गाँव के काने और लँगड़े आदमी उसक
सूरत से चढ़ते थे और गा लयाँ खाने म तो शायद ससुराल म आने वाले दामाद को भी
इतना आनंद न आता हो। वह मूँगा के पीछे ता लयाँ बजाता, कु को साथ लये उस
समय तक भागता रहता जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से नकल न जाती। पया-
पैसा, होशोहवास खोकर उसे पगली क पदवी मली और अब वह सचमुच पगली थी।
अकेली बैठी अपने आप घंट बात कया करती, जसम रामसेवक के मांस, ह ी, चमड़े,
आँख, कलेजा आ द को खाने, मसलने, नोचने-खसोटने क बड़ी उ ट इ ा कट क
जाती थी और जब उसक यह इ ा सीमा तक प ँ च जाती तो वह रामसेवक के घर क
ओर मुँह करके खूब च ाकर और डरावने श म हाँक लगाती,"तेरा ल पीऊँगी।"
ायः रात के स ाटे म यह गुजरती ई आवाज सुनकर याँ च क पड़ती थ । परं तु इस
आवाज से भयानक उसका ठठाकर हँ सना था। वह मुंशीजी के ल पीने क क त खुशी
म जोर से हँ सा करती थी। इस ठठान से ऐसी आसु रक उ ं डता, ऐसी पाश वक उ ता
टपकती थी क रात को सुनकर लोग का खून ठं डा हो जाता था। मालूम होता, मानो
सैकड़ उ ू एक साथ हँ स रहे ह। मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे। न
उ दीवानी का डर था, न फौजदारी का, परं तु मूँगा के इन डरावने श को सुन वह भी
सहम जाते। हम मनु के ाय का डर न हो, परं तु ई र के ाय का डर ेक मनु के
मन म भाव से रहता है। मूँगा का भयानक रात का घूमना रामसेवक के मन म कभी-
कभी ऐसी ही भावना उ कर देता और उनसे अ धक उनक ी के मन म। उनक ी
बड़ी चतुर थी। वह इनको इन सब बात म ायः सलाह दया करती थी। उन लोग क भूल
थी, जो कहते थे क मुंशीजी क जीभ पर सर ती बराजती है। वह गुण तो उनक ी को
ा था। बोलने म वह इतनी ही तेज थी, जतना मुंशी लखने म थे। और यह दोन ी-
पु ष ायः अपनी अवश दशा म सलाह करते क अब ा करना चा हए।
आधी रात का समय था। मुंशीजी न नयम के अनुसार अपनी चता र करने के लए
शराब के दो-चार घूँट पीकर सो गए थे। यकायक मूँगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से
हाँक लगाई,"तेरा ल पीऊँगी" और खूब खल खलाकर हँ सी।
मुंशीजी यह भयावना र सुनकर च क पड़े। डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे। कलेजा
धक्-धक् करने लगा। दल पर ब त जोर डालकर उ ने दरवाजा खोला, जाकर ना गन
को जगाया। ना गन ने झुँझलाकर कहा,
" ा कहते हो?" मुंशीजी ने दबी आवाज म कहा,"वह दरवाजे पर आकर खड़ी है।"
ना गन उठ बैठी," ा कहती है?"
"तु ारा सर।"
" ा दरवाजे पर आ गई?"
"हाँ, आवाज नह सुनती हो।"
ना गन मूँगा से नह , परं तु उसके ान से ब त डरती थी, तो भी उसे व ास था क म
बोलने म उसे ज र नीचा दखा सकती ँ । सँभलकर बोली, "कहो तो म उससे दो-दो बात
कर लू।ँ " परं तु मुंशीजी ने मना कर दया।
दोन आदमी पैर दबाए ए ोढ़ी म गए और दरवाजे से झाँककर देखा, मूँगा क धुँधली
मूरत धरती पर पड़ी थी और उसक साँस तेजी से चलती सुनाई देती थी। रामसेवक के ल
और मांस क भूख से वह अपना ल और मांस सुखा चुक थी। एक ब ा भी उसे गरा
सकता था, परं तु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता। हम जीते मनु से नह डरते, पर मुरदे
से डरते ह। रात गुजरी। दरवाजा बंद था, पर मुंशीजी और ना गन ने बैठकर रात काटी।
मूँगा भीतर नह घुस सकती थी, पर उसक आवाज को कौन रोक सकता था। मूँगा से
अ धक डरावनी उसक आवाज थी।
भोर को मुंशीजी बाहर नकले और मूँगा से बोले,"यहाँ पड़ी है?" मूँगा बोली,"तेरा ल
पीऊँगी।"
ना गन ने बल खाकर कहा,"तेरा मुँह झुलस ँ गी।"
पर ना गन के वष ने मूँगा पर कुछ असर न कया। उसने जोर से ठहाका लगाया, ना गन
ख सयानी सी हो गई। हँ सी के सामने मुँह बंद हो जाता है। मुंशीजी फर बोले,"यहाँ से उठ
जा।"
"न उठूँगी।"
"कब तक पड़ी रहेगी?"
"तेरा ल पीकर जाऊँगी।"
मुंशीजी क खर लेखनी का यहाँ कुछ जोर न चला और ना गन क आग भरी बात यहाँ
सद हो ग । दोन घर म जाकर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी, इस आप से
कैसे छु टकारा होगा?
देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है, पर यह डायन मनु का खून पीने
आई है। वह खून, जसक अगर एक बूँद भी कलम बनाने के समय नकल पड़ती थी तो
अठवार और महीन सारे कुनबे को अफसोस रहता, और यह घटना गाँव म घर-घर फैल
जाती थी। ा यही ल पीकर मूँगा का सूखा शरीर हरा हो जाएगा।
गाँव म यह चचा फैल गई, मूँगा मुंशीजी के दरवाजे पर धरना दए बैठी है। मुंशीजी के
अपमान म गाँव वाल को बड़ा मजा आता था। देखते-देखते सैकड़ आद मय क भीड़ लग
गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी।
मूँगा पर उसे ऐसा ोध आ रहा था क य द उसका बस चलता तो वह उसे कुएँ म धकेल
देता। इस तरह का वचार उठते ही रामगुलाम के मन म गुदगुदी समा गई और वह बड़ी
क ठनता से अपनी हँ सी रोक सका। अहा! वह कुएँ म गरती तो ा मजे क बात होती।
परं तु यह चुडै़ल यहाँ से टलती ही नह , ा क ँ ? मुंशीजी के घर म एक गाय थी, जसे
खली, दाना और भूसा तो खूब खलाया जाता, पर वह सब उसक ह य म मल जाता,
उसका ढाँचा पु हो जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी म घोला और
सबका सब बेचारी मूँगा पर उड़ेल दया। उसके थोड़े-ब त छ टे दशक पर भी डाल दए।
बेचारी मूँगा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े ए। कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का
दरवाजा है। यहाँ इसी कार का श ाचार कया जाता है। ज भाग चलो, नह तो अबके
इससे भी बढ़कर खा तर क जाएगी। इधर भीड़ कम ई, उधर रामगुलाम घर म जाकर
खूब हँ सा और ता लयाँ बजा । मुंशीजी ने थ क भीड़ को ऐसे सहज म और ऐसे सुंदर
प से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के क पीठ ठ क । सब लोग तो चंपत हो
गए, पर बेचारी मूँगा क बैठी रह गई।

दोपहर ई। मूँगा ने कुछ नह खाया। साँझ ई, हजार कहने-सुनने से भी उसने खाना नह


खाया। गाँव के चौधरी ने बड़ी खुशामद क । यहाँ तक क मुंशीजी ने हाथ तक जोड़े, पर
देवी स न ई। नदान, मुंशीजी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे क ठने वाले को
भूख आप ही मना लया करती है। मूँगा ने यह रात भी बना दाना-पानी के काट दी।
लालाजी और ललाइन ने आज फर जाग-जागकर भोर कया। आज मूँगा क गरज और
हँ सी ब त कम सुनाई पड़ती थी। घरवाल ने समझा, बला टली। सवेरा होते ही जो दरवाजा
खोलकर देखा तो वह अचेत पड़ी थी, मुँह पर म याँ भन भना रही ह और उसके
ाणपखे उड़ चुके ह। वह इस दरवाजे पर मरने ही आई थी। जसने उसके जीवन क
जमा-पूँजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी स प दी, अपने शरीर क म ी तक उसक
भट कर दी। धन से मनु को कतना ेम होता है। धन अपनी जान से भी ारा होता है।
वशेषकर बुढ़ापे म ण चुकाने के बाद दन - पास आते जाते ह, - उसका
ाज बढ़ता जाता है।
यह कहना यहाँ थ है क गाँव म इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक
कैसे अपमा नत ए! एक छोटे से गाँव म ऐसी असाधारण घटना होने पर जतनी हलचल
हो सकती, उससे अ धक ही ई। मुंशीजी का अपमान जतना होना चा हए था, उससे
बाल बराबर भी कम न आ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब
गाँव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने या उ छूने का रवादार न था। य द कसी घर
म कोई गाय खूँटे पर मर जाती है तो वह आदमी महीन ार- ार भीख माँगता फरता है। न
नाई उसक हजामत बनाए, न कहार उसका पानी भरे , न कोई उसे छूए, यह गो-ह ा का
ाय है। ह ा का दं ड तो इससे भी कड़ा है और इसम अपमान भी ब त है। मूँगा
यह जानती थी और इसी लए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। वह जानती थी क म जीते
जी जो कुछ नह कर सकती, मरकर ब त कुछ कर सकती ँ । गोबर का उपला जब
जलकर खाक हो जाता है, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते ह। प र का ढे ला आग म
जलकर आग से अ धक तीखा और मारक हो जाता है।
मुंशी रामसेवक कानूनदां थे। कानून ने उन पर कोई दोष नह लगाया था। मूँगा कसी
कानूनी दफा के अनुसार न मरी थी। ताजीराते- हद म उसका कोई उदाहरण नह मलता
था, इस लए जो लोग उनसे ाय करवाना चाहते थे, उनक भारी भूल थी। कुछ हज
नह , कहार पानी न भरे न सही, वह आप पानी भर लगे। अपना काम करने म भला लाज
ही ा? बला से नाई बाल न बनाएगा। हजामत बनाने का काम ही ा है? दाढ़ी ब त
सुंदर व ु है। दाढ़ी मद क शोभा और सगार है। और जो फर बाल से ऐसी घन होगी तो
एक-एक आने म अ ुरे मलते ह। धोबी कपड़ा न धोवेगा, इसक भी कुछ परवाह नह ।
साबुन तो गली-गली कौ ड़य के मोल आता है। एक ब ी साबुन म दजन कपड़े ऐसे साफ
हो जाते ह, जैसे बगुले के पर। धोबी ा खाकर ऐसा साफ कपड़ा धोवेगा? प र पर
पटक-पटककर कपड़ का ल ा नकाल लेता है। आप पहने, सरे को भाड़े पर पहनाए,
भ ी म चढ़ावे, रे ह म भगावे, कपड़ क तो गत कर डालता है। तभी तो कुरते दो-तीन
साल से अ धक नह चलते। नह तो दादा हर पाँचव बरस दो अचकन और दो कुरते
बनवाया करते थे। मुंशी रामसेवक और उनक ी ने दन भर तो य ही कहकर अपने मन
को समझाया। साँझ होते ही तकनाएँ श थल हो ग ।
अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई क । जैसे-जैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था।
बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर कसी क ह त न पड़ती थी क जाकर
बंद कर आए। नदान, ना गन ने हाथ म दीया लया, मुंशीजी ने कु ाड़ा, रामगुलाम ने
गँड़ासा, इस ढं ग से तीन च कते- हचकते दरवाजे पर आए। यहाँ मुंशीजी ने बड़ी बहा री
से काम लया। उ ने नधड़क दरवाजे से बाहर नकलने क को शश क । काँपते ए, पर
ऊँची आवाज म ना गन से बोले,"तुम थ डरती हो, वह ा यहाँ बैठी है?" पर उनक
ारी ना गन ने उ ख च लया और झुँझलाकर बोली,"तु ारा यही लड़कपन तो अ ा
नह ।" यह दं गल जीतकर तीन आदमी रसोई के कमरे म आए और खाना पकने लगा।

मूँगा उनक आँख म घुसी ई थी। अपनी परछा को देखकर मूँगा का भय होता था।
अँधेरे कोन म बैठी मालूम होती थी। वही ह य का ढाँचा, वही बखरे बाल, वही
पागलपन, वही डरावनी आँख, मूँगा का नख- शख दखाई देता था। इसी कोठरी म आटे -
दाल के मटके रखे ए थे, वह कुछ पुराने चथड़े भी पड़े ए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन
कया (मटक ने कभी अनाज क सूरत नह देखी थी, पर सारे गाँव म मश र था क इस
घर के चूहे गजब के डाकू ह) तो वह उन दोन क खोज म जो मटक से कभी नह गरे थे,
रगता आ इस चथड़े के नीचे आ नकला। कपड़े म खड़खड़ाहट ई। फैले ए चथड़े मूँगा
क पतली टाँग बन ग , ना गन देखकर झझक और चीख उठी। मुंशीजी बदहवास होकर
दरवाजे क ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर इनक टाँग से लपट गया। चूहा बाहर नकल
आया। उसे देखकर इन लोग के होश ठकाने ए। अब मुंशीजी साहस करके मटके क
ओर चले। ना गन ने कहा,"रहने भी दो, देख ली तु ारी मरदानगी।"
मुंशीजी अपनी या ना गन के इस अनादर पर ब त बगड़े," ा तुम समझती हो, म डर
गया? भला डर क ा बात थी। मूँगा मर गई। ा वह बैठी है? म कल नह दरवाजे के
बाहर नकल गया था-तुम रोकती रह , म न माना।" मुंशीजी क इस दलील ने ना गन को
न र कर दया। कल दरवाजे के बाहर नकल जाना या नकलने क को शश करना
साधारण काम न था। जसके साहस का ऐसा माण मल चुका है, उसे डरपोक कौन कह
सकता है? यह ना गन क हठधम थी। खाना खाकर तीन आदमी सोने के कमरे म आए,
परं तु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा। वे बात करते थे, दल बहलाते थे। ना गन ने राजा
हरदौल और रानी सारं धा क कहा नयाँ कह । मुंशीजी ने फौजदारी के कई मुकदम का
हाल कह सुनाया। परं तु इन उपाय से भी मूँगा क मू त उनक आँख के सामने से न
हटती थी। जरा भी खटखटाहट होती क तीन च क पड़ते। इधर प य म सनसनाहट ई
क उधर तीन के र गटे खड़े हो गए! रह-रहकर धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके
कान म आती थी, ‘तेरा ल पीऊँगी।’
आधी रात को ना गन न द से च क पड़ी। वह इन दन गभवती थी। लाल-लाल आँख
वाली, तेज और नोक ले दाँत वाली मूँगा उसक छाती पर बैठी ई जान पड़ती थी। ना गन
चीख उठी। बावली क तरह आँगन म भाग आई और यकायक धरती पर च गर पड़ी।
सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसक चीख सुनकर च के, पर डर के मारे
आँख न खुल । अंध क तरह दरवाजा टटोलते रहे। ब त देर के बाद उ दरवाजा मला।
आँगन म आए। ना गन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाए,
पर रात भर उसने आँख न खोल । भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर बाद र हो
आया। बदन लाल तवा सा हो गया। साँझ होते-होते उसे स पात हो गया और आधी रात
के समय जब संसार म स ाटा छाया आ था, ना गन इस संसार से चल बसी। मूँगा के
डर ने उसक जान ले ली। जब तक मूँगा जीती रही, वह ना गन क फुफकार से सदा डरती
रही। पगली होने पर भी उसने कभी ना गन का सामना नह कया, पर अपनी जान देकर
उसने आज ना गन क जान ली। भय म बड़ी श है। मनु हवा म एक गरह भी नह
लगा सकता, पर इसने हवा म एक संसार रच डाला है।
रात बीत गई। दन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी ना गन क लाश उठाने को
आता न दखाई दया। मुंशीजी घर-घर घूमे, पर कोई न नकला। भला ह ारे के दरवाजे
पर कौन जाए? ह ारे क लाश कौन उठावे? इस समय मुंशीजी का रोब-दाब, उनक
बल लेखनी का भय और उनक कानूनी तभा एक भी काम न आई। चार ओर से
हारकर मुंशीजी फर घर आए। यहाँ उ अंधकार-ही-अंधकार दीखता था। दरवाजे तक तो
आए पर भीतर पैर नह रखा जाता था, न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूँगा थी, भीतर
ना गन। जी को कड़ा करके हनुमान चालीसा का पाठ करते ए घर म घुस।े उस समय
उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे, उसका अनुमान करना क ठन है। घर म लाश
पड़ी ई, न कोई आगे, न पीछे। सरा ाह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन म तो
पचासवाँ लगा है, पर ऐसी सुयो और मीठी बोल वाली ी कहाँ मलेगी? अफसोस!
अब तगादा करने वाल से बहस कौन करे गा, कौन उ न र करे गा? कसक कड़ी
आवाज तीर क तरह तगादेदार क छाती म चुभेगी? यह नुकसान अब पूरा नह हो
सकता। सरे दन मुंशीजी लाश को ठे लेगाड़ी पर लादकर गंगाजी क तरफ चले।

शव के साथ जाने वाल क सं ा कुछ भी न थी। एक यं मुंशीजी, सरे उनके पु र


रामगुलामजी! इस बेइ ती से मूँगा क लाश भी न उठी थी। मूँगा ने ना गन क जान
लेकर भी मुंशीजी का पड न छोड़ा। उनके मन म हर घड़ी मूँगा क मू त वराजमान रहती
थी। कह रहते, उनका ान इसी ओर रहा करता था। य द दल-बहलाव का कोई उपाय
होता तो शायद वह इतने बेचैन न होते, पर गाँव का एक पुतला भी उनके दरवाजे क ओर
न झाँकता। बेचारे अपने हाथ पानी भरते, आप ही बरतन धोते। सोच और ोध, चता
और भय, इतने श ुओ ं के सामने एक दमाग कब तक ठहर सकता था। वशेषकर वह
दमाग, जो रोज कानून क बहस म खच हो जाता था।
अकेले कैदी क तरह उनके दस-बारह दन तो - कर कटे । चौदहव दन मुंशीजी ने
कपड़े बदले और बो रया-ब ा लये ए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खला आ
था। जाते ही मेरे मुव ल मुझे घेर लगे, मेरी मातमपुरसी करगे। म आँसुओ ं क दो-चार
बूँद गरा ँ गा, फर बैनाम , रे हननाम और सुलहनाम क भरमार हो जाएगी। मु ी गरम
होगी, शाम को जरा नशे-पानी का रं ग जम जाएगा, जसके छूट जाने से जी और भी उचट
रहा था। इ वचार म म मुंशीजी कचहरी प ँ चे।
पर वहाँ रे हननाम क भरमार और बैनाम क बाढ़ और मुव ल क चहल-पहल के
बदले नराशा क रे तीली भू म नजर आई। ब ा खोले घंट बैठे रहे, पर कोई नजदीक भी
न आया। कसी ने इतना भी न पूछा क आप कैसे ह? नए मुव ल तो खैर, बड़े-बड़े
पुराने मुव ल जनका मुंशीजी से कई पी ढ़य से सरोकार था, आज उनसे मुँह छपाने
लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जसक मुंशीजी हँ सी उड़ाते थे और जसे शु
लखना भी न आता था, आज गो पय का क ैया बना आ था। वाह रे भा ! मुव ल
य मुँह फेरे चले जाते ह मानो कसी क जान-पहचान ही नह । दन भर कचहरी क खाक
छानने के बाद मुंशीजी घर चले, नराशा और चता म डूबे ए। - घर के नकट
आते थे, मूँगा का च सामने आता जाता था। यहाँ तक क जब घर का ार खोला और दो
कु े, ज रामगुलाम ने बंद कर रखा था, झपटकर बाहर नकले तो मुंशीजी के होश उड़
गए, एक चीख मारकर जमीन पर गर पड़े।
मनु के मन और म पर भय का जतना भाव होता है, उतना और कसी श
का नह । ेम, चता, हा न यह सब मन को अव खत करते ह, पर यह हवा के हलके
झ के ह और भय चंड आँधी है। मुंशीजी पर इसके बाद ा बीती, मालूम नह । कई दन
तक लोग ने उ कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाए ए लौटते देखा। कचहरी जाना
उनका कत था और य प वहाँ मुव ल का अकाल था, तो भी तगादेवाल से गला
छु ड़ाने और उनको भरोसा दलाने के लए अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद
कई महीने तक दखाई न पड़े, बदरीनाथ चले गए। एक दन गाँव म एक साधु आया।
भभूत रमाए, लंबी जटाएँ , हाथ म कमंडल। उसका चेहरा मुंशी रामसेवक से ब त मलता-
जुलता था। बोलचाल म भी अ धक भेद न था। वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठा रहा।
उसी रात को मुंशी रामसेवक के घर से धुआँ उठा, फर आग क ाला दीखने लगी और
आग भड़क उठी। गाँव के सैकड़ आदमी दौड़े, आग बुझाने के लए नह , तमाशा देखने के
लए। एक गरीब क हाय म कतना भाव है! रामगुलाम मुंशीजी के गायब हो जाने पर
अपने मामा के यहाँ चला गया और वहाँ कुछ दन रहा, पर वहाँ उसक चाल-ढाल कसी
को पसंद न आई।
एक दन उसने कसी के खेत म मूली नोची। उसने दो-चार धौल लगाए। उस पर वह इस
कदर बगड़ा क जब उसके चने ख लहान म आए तो उसने आग लगा दी। सारा का सारा
ख लहान जलकर खाक हो गया। हजार पय का नुकसान आ। पु लस ने तहक कात
क , रामगुलाम पकड़ा गया। इसी अपराध म वह चुनार के रफारमेटरी ू ल म मौजूद है।
ज ब रयासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजान सह बूढे़ ए तो परमा ा क याद आई।
जाकर महाराज से वनय क ,"दीनबंध!ु दास ने ीमान् क सेवा चालीस साल तक क ,
अब मेरी अव ा भी ढल गई, राज-काज सँभालने क श नह रही। कह भूल-चूक हो
जाए तो बुढ़ापे म दाग लगे, सारी जदगी क नेकनामी म ी म मल जाए।"
राजा साहब अपने अनुभवशील नी तकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। ब त
समझाया, ले कन जब दीवान साहब ने न माना तो हारकर उसक ाथना ीकार कर
ली; पर शत यह लगा दी क रयायत के लए नया दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा।
सरे दन देश के स प म यह व ापन नकला,"देवगढ़ के लए एक सुयो दीवान
क ज रत है। जो स न अपने को इस पद के यो समझ, वे वतमान सरदार
सुजान सह क सेवा म उप त ह । यह ज रत नह है क वे ेजुएट ह , मगर दय पु
होना आव क है, मंदा के मरीज को यहाँ तक क उठाने क कोई ज रत नह । एक
महीने तक उ ीदवार के सहन-सहन, आचार- वचार क देखभाल क जाएगी। व ा का
कम, परं तु कत का अ धक वचार कया जाएगा। जो महाशय इस परी ा म पूरे उतरगे,
वे इस उ पद पर सुशो भत ह गे।"

इस व ापन ने सारे मु म तहलका मचा दया। ऐसा ऊँचा पद और कसी कार क


कैद नह ? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ आदमी अपना-अपना भा परखने के लए
चल खड़े ए। देवगढ़ म नए-नए और रं ग- बरं ग के मनु दखाई देने लगे। ेक
रे लगाड़ी से उ ीदवार का एक मेला सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई
म ास से, कोई नए फैशन का ेम, कोई पुरानी सादगी पर मटा आ। पं डत और
मौल वय को भी अपने-अपने भा क परी ा करने का अवसर मला। बेचारे सनद के
नाम रोया करते थे, यहाँ उसक कोई ज रत नह थी। रं गीन एमामे, चोगे और नाना
कार के अँगरखे और कनटोप देवगढ़ म अपनी सज-धज दखाने लगे। ले कन सबसे
वशेष सं ा ेजुएट क थी, क सनद क कैद न होने पर भी सनद तो ढका रहता है।
सरदार सुजान सह ने इन महानुभाव के आदर-स ार का बड़ा अ ा बंध कर दया था।
लोग अपने-अपने कमर म बैठे ए रोजेदार मुसलमान क तरह महीने के दन गना करते
थे। हर एक मनु अपने जीवन को अपनी बु के अनुसार अ े प म दखाने क
को शश करता था। म र ‘अ’ नौ बजे दन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे म
टहलते ए ऊषा का दशन करते थे। म र ‘ब’ को ा पीने क लत थी, आजकल
ब त रात गए कवाड़ बंद करके अँधेरे म सगार पीते थे। म र ‘द’, ‘स’ और ‘ज’ से
उनके घर पर नौकर क नाक म दम था, ले कन ये स न आजकल ‘आप’ और
‘जनाब’ के बगैर नौकर से बातचीत नह करते थे। महाशय ‘क’ ना क थे, ह ले के
उपासक, मगर आजकल उनक धम न ा देखकर मं दर के पुजारी को पद ुत हो जाने
क शंका लगी रहती थी! म र ‘ल’ को कताब से घृणा थी, परं तु आजकल वे बड़े-बड़े ंथ
देखने-पढ़ने म डूबे रहते थे।
जससे बात क जए, वह न ता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शमाजी
घड़ी रात से ही वेद-मं पढ़ने म लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के
सवा और कोई काम न था। लोग समझते थे क एक महीने का झंझट है, कसी तरह
काट ल, कह काय स हो गया तो कौन पूछता है।
ले कन मनु का वह बूढ़ा जौहरी आड़ म बैठा आ देख रहा था क इन बगुल म हं स कहाँ
छपा आ है।

एक दन नए फैशन वाल को सूझी क आपस म हॉक का खेल हो जाए। यह ाव


हॉक के मँजे ए खला ड़य ने पेश कया। यह भी तो आ खर एक व ा है, इसे
छपाकर रख? संभव है क कुछ हाथ क सफाई ही काम कर जाए। च लए तय हो गया,
फ बन गई, खेल शु हो गया और गद कसी द र के अ टस क तरह ठोकर खाने
लगी।
रयासत देवगढ़ म यह खेल बलकुल नराली बात थी। पढ़े- लखे भलेमानुस लोग शतरं ज
और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल ब के खेल समझे जाते थे।
खेल बड़े उ ाह से जारी था। धावे के लोग जब गद को लये तेजी से उड़ते तो ऐसा जान
पड़ता था क कोई लहर बढ़ती चली आती है। ले कन सरी ओर के खलाड़ी इस बढ़ती
ई लहर को इस तरह रोक लेते थे क मानो लोहे क दीवार है।
सं ा तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर हो गए। खून क गरमी आँख और चेहरे
से झलक रही थी। हाँफते-हाँफते बेदम हो गए, ले कन हार-जीत का नणय न हो सका।
अँधेरा हो गया था। इस मैदान से जरा र हटकर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था।
प थक को नाले म से चलकर आना पड़ता था। खेल अभी बंद ही आ था और खलाड़ी
लोग बैठे दम ले रहे थे क एक कसान अनाज से भरी ई गाड़ी लये ए उस नाले म
आया। ले कन कुछ तो नाले म क चड़ था और कुछ उसक चढ़ाई इतनी ऊँची थी क
गाड़ी ऊपर न चढ़ सकती थी। वह कभी बैल को ललकारता, कभी प हय को हाथ से
ढकेलता, ले कन बोझ अ धक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती
भी तो कुछ र चढ़कर फर खसककर नीचे प ँ च जाती। कसान बार-बार जोर लगाता
और बार-बार झुँझलाकर बैल को मारता, ले कन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा
इधर-उधर नराश होकर ताकता, मगर वहाँ कोई सहायक नजर न आता।
गाड़ी को अकेले छोड़कर कह जा भी नह सकता। बड़ी आप म फँसा आ था। इसी
बीच म खलाड़ी हाथ म डंडे लये घूमते-घामते उधर से नकले। कसान ने उनक तरफ
सहमी ई आँख से देखा; परं तु कसी से मदद माँगने का साहस न आ। खला ड़य ने भी
उसको देखा, मगर बंद आँख से, जनम सहानुभू त न थी। उनम ाथ था, मद था, मगर
उदारता और वा का नाम भी न था।

ले कन उसी समूह म एक ऐसा मनु था, जसके दय म दया थी और साहस था। आज


हॉक खेलते ए उसके पैर म चोट लग गई थी। वह लँगड़ाता आ धीरे -धीरे चला आता
था। अक ात् उसक नगाह गाड़ी पर पड़ी। वह ठठक गया। उसे कसान क सूरत देखते
ही सब बात ात हो ग । उसने डंडा एक कनारे रख दया, कोट उतार डाला और कसान
के पास जाकर बोला,"म तु ारी गाड़ी नकाल ँ ?"
कसान ने देखा, एक गठे ए बदन का आदमी सामने खड़ा है। झुककर बोला," जूर, म
आपसे कैसे क ँ ?" युवक ने कहा,"मालूम है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अ ा, तुम
गाड़ी पर जाकर बैल को साधो, म प हय को ढकेलता ँ , अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।"
कसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने प हए को जोर लगाकर उकसाया। क चड़ ब त ादा
था। वह घुटने तक जमीन म गड़ गया, ले कन ह त न हारी। उसने फर जोर कया,
उधर कसान ने बैल को ललकारा। बैल को सहारा मला, ह त बँध गई, उ ने कंधे
झुकाकर एक बार जोर कया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी।
कसान युवक के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला,"महाराज, आपने मुझे उबार
लया, नह तो सारी रात मुझे यहाँ बैठना पड़ता।"
युवक ने हँ सकर कहा,"अब मुझे कुछ ईनाम देते हो?" कसान ने गंभीर भाव से
कहा,"नारायण चाहगे तो दीवानी आपको ही मलेगी।"
युवक ने कसान क तरफ गौर से देखा। उसके मन म एक संदेह आ, ा यह
सुजान सह तो नह है? आवाज मलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। कसान ने भी उसक
ओर ती से देखा। शायद उसके दल के संदेह को भाँप गया। मुसकराकर
बोला,"गहरे पानी म पैठने से ही मोती मलता है।"

नदान, महीना पूरा आ। चुनाव का दन आ प ँ चा। उ ीदवार लोग ातःकाल ही से


अपनी क त का फैसला सुनने के लए उ ुक थे। दन काटना पहाड़ हो गया। ेक
के चेहरे पर आशा और नराशा के रं ग आते थे। नह मालूम, आज कसके नसीब जागगे!
न जाने कस पर ल ी क कृपा होगी।
सं ा समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर के रईस और धना लोग, रा
के कमचारी और दरबारी तथा दीवानी के उ ीदवार का समूह, सब रं ग- बरं गी सज-धज
बनाए दरबार म आ बराजे! उ ीदवार के कलेजे धड़क रहे थे।
जब सरदार सुजान सह ने खड़े होकर कहा,"मेरे दीवान के उ ीदवार महाशयो! मने आप
लोग को जो क दया है, उसके लए मुझे मा क जए। इस पद के लए ऐसे पु ष क
आव कता थी, जसके दय म दया हो और साथ-साथ आ बल। दय, वह जो उदार
हो, आ बल वह, जो आप का वीरता के साथ सामना करे और इस रयासत के
सौभा से हम ऐसा पु ष मल गया। ऐसे गुण वाले संसार म कम ह और जो ह, वे क त
और मान के शखर पर बैठे ए ह, उन तक हमारी प ँ च नह । म रयासत को पं डत
जानक नाथ सा दीवान पाने पर बधाई देता ँ ।"
रयासत के कमचा रय और रईस ने जानक नाथ क तरफ देखा। उ ीदवार दल क
आँख उधर उठ , मगर उन आँख म स ार था, इन आँख म ई ा।
सरदार साहब ने फर फरमाया,"आप लोग को यह ीकार करने म कोई आप न होगी
क जो पु ष यं ज ी होकर भी एक गरीब कसान क भरी ई गाड़ी को दलदल से
नकालकर नाले के ऊपर चढ़ा दे, उसके दय म साहस, आ बल और उदारता का वास
है। ऐसा आदमी गरीब को कभी न सतावेगा। उसका संक ढ़ है, जो च को र
रखेगा। वह चाहे धोखा खा जाए, परं तु दया और धम से कभी न हटे गा।"
1 जनवरी, 1935
आज केट मैच म मुझे जतनी नराशा ई, म उसे नह कर सकता। हमारी टीम
न से कह ादा मजबूत थी, मगर हम हार ई और वे लोग जीत का डंका बजाते ए
ॉफ उड़ा ले गए। ? सफ इस लए क हमारे यहाँ यो ता शत नह । हम नेतृ के
लए धन-दौलत ज री समझते ह। हज हाइनेस क ान चुने गए, केट बोड का फैसला
सबको मानना पड़ा। मगर कतने दल म आग लगी, कतने लोग ने -े हा कम
समझकर इस फैसले को मंजूर कया, वह खेलने वाल से पू छए और जहाँ सफ मुँहदेखी
है वहाँ उमंग कहाँ, हम खेले और जा हरा दल लगाकर खेले। मगर यह स ाई के लए
जान देने वाल क फौज न थी। खेल म कसी का दल न था।
म े शन पर खड़ा अपना तीसरे दरजे का टकट लेने क फ म था क एक युवती ने,
जो अभी कार से उतरी थी, आगे बढ़कर मुझसे हाथ मलाया और बोली,"आप भी इसी
गाड़ी से चल रहे ह, म र जफर?"
मुझे हैरत ई, यह कौन लड़क है और इसे मेरा नाम कर मालूम हो गया। मुझे एक
पल के लए सकता-सा हो गया क जैसे श ाचार और अ े आचरण क सब बात
दमाग से गायब हो गई ह । स दय म एक ऐसी शान होती है जो बड़े-बड़ का सर झुका
देती है। मुझे अपनी तु ता क ऐसी अनुभू त कभी न ई थी। मने नजाम हैदराबाद से,
हज ए ीलसी वायसराय से, महाराज मैसूर से हाथ मलाया, उनके साथ बैठकर खाना
खाया, मगर यह कमजोरी मुझ पर कभी न छाई थी। बस यही तो चाहता था क अपनी
पलक से उसके पाँव चूम लू।ँ यह वह सलोनापन न था, जस पर हम जान देते ह, न वह
नजाकत जसक क व लोग कसम खाते ह। उस जगह बु क कांत थी, गंभीरता थी,
ग रमा थी, उमंग थी और थी आ -अ भ क न ंकोच लालसा। मने सवाल भरे
अंदाज म कहा,"जी हाँ।"
यह कैसे पूछूँ क मेरी आपसे भट कब ई। उसक बेतक ुफ कह रही थी, वह मुझसे
प र चत है। म बेगाना कैसे बनू।ँ इसी सल सले म मने अपने मद होने का फज अदा कर
दया,"मेरे लए कोई खदमत।"
उसने मुसकराकर कहा,"जी हाँ, आपसे ब त से काम लूँगी। च लए, अंदर वे टग- प म
बैठ। लखनऊ जा रहे ह गे? म भी वह चल रही ँ ।"
वे टग- म आकर उसने मुझे आरामकुरसी पर बठाया और खुद एक मामूली कुरसी पर
बैठकर सगरे ट केस मेरी तरफ बढ़ाती ई बोली,"आज तो आपक बॉ लग बड़ी भयानक
थी, वरना हम लोग पूरी इ नग से हारते।"
मेरा ता ुब और भी बढ़ा। इस सुंदरी को ा केट म भी शौक है? मुझे उसके सामने
आरामकुरसी पर बैठते ए झझक हो रही थी, ऐसी बदतमीजी मने कभी न क थी। ान
उसी तरफ लगा था। तबीयत म कुछ घुटन सी हो रही थी। रग म यह तेजी और तबीयत म
वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर भावतः मुझ पर छा जाना चा हए था। मने
पूछा," ा आप वह तशरीफ रखती थ ?"
उसने अपना सगरे ट जलाते ए कहा,"जी हाँ, शु से आ खर तक, मुझे तो सफ आपका
खेल जँचा। और लोग तो कुछ बे दल से हो रहे थे और म उसका राज समझ रही ँ । हमारे
यहाँ लोग म सही आद मय को सही जगह रखने का मा ा ही नह है, जैसे इस राजनी त
पर ी ने हमारे सभी गुण को कुचल डाला हो। जसके पास धन है, उसे हर चीज का
अ धकार है। वह कसी ान- व ान के, सा ह क-सामा जक जलसे का सभाप त हो
सकता है, इसक यो ता उसम हो या न हो। नई इमारत का उ ाटन उसके हाथ कराया
जाता है, बु नयाद उसके हाथ रखवाई जाती ह, सां ृ तक आंदोलन का नेतृ उसे दया
जाता है, वह का ोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़क को इनाम बाँटेगा, यह सब हमारी दास-
मनोवृ का साद है। कोई ता ुब नह क हम इतने नीचे और गरे ए ह, जहाँ
और अ यार का मामला है वहाँ तो खैर मजबूरी है, हम लोग के पैर चूमने ही पड़ते ह।
मगर जहाँ हम अपने तं वचार और तं आचरण से काम ले सकते ह, वहाँ भी
हमारी जी- जूरी क आदत हमारा गला नह छोड़ती। इस टीम का क ान आपको होना
चा हए था, तब देखती क न कर बाजी ले जाता। महाराजा साहब म इस टीम का
क ान बनने क इतनी यो ता है जतनी आपने असबली का सभाप त बनने क या
मुझम सनेमा ए ग क ।"
बलकुल वही भाव जो मेरे दल म थे, मगर उसी जबान से नकलकर कतने असरदार
और कतने आँख खोलने वाले हो गए। मने कहा,"आप ठीक कहती ह। सचमुच यह हमारी
कमजोरी है।"
"आपको इस टीम म शरीक न होना चा हए था।"
"म मजबूर था।"
इस सुंदरी का नाम मस हेलेन मुखज था। अभी इं ड से आ रही है, यही केट मैच
देखने के लए बंबई उतर गई थी। इं ड म उसने डॉ री क श ा ा क है और
जनता क सेवा उसके जीवन का ल है। वहाँ उसने एक अखबार म मेरी त ीर देखी थी
और मेरा ज भी पढ़ा था। तब से वह मेरे लए अ ा ाल रखती है। यहाँ मुझे खेलते
देखकर और भी भा वत ई। उसका इरादा है क ह ान क एक नई टीम तैयार क
जाए और उसम वही लोग लये जाएँ जो रा का त न ध करने के अ धकारी ह।
उसका ाव है क म इस टीम का क ान बनाया जाऊँ। इसी इरादे से वह सारे
ह ान का दौरा करना चाहती है। उसके ग य पता डॉ- एनमुख् शज ने ब त संप
छोड़ी है और वह उसक संपूण उ रा धका रणी है। उसका ाव सुनकर मेरा सर
आसमान म उड़ने लगा। मेरी जदगी का सुनहरा सपना इतने अ ा शत ढं ग से
वा वकता का प ले सकेगा, यह कौन सोच सकता था। अलौ कक श म मेरा
व ास नह , मगर आज मेरे शरीर का रोआँ-रोआँ कृत ता और भ भावना से भरा
आ था। मने उ चत और वन श म मस हेलेन को ध वाद दया।
2 जनवरी-म हैरान ँ , हेलेन को मुझसे इतनी हमदद है, और यह सफ दो ाना
हमदद नह है। इसम मुह त क स ाई है। दया म तो इतना आ त -स ार नह आ
करता, और रही मेरे गुण क ीकृ त, तो म अ से इतना खाली नह ँ क इस धोखे म
पडूँ। गुण क ीकृ त ादा-से- ादा एक सगरे ट और एक ाली चाय पा सकती है।
यह सेवा-स ार तो म वह पाता ँ जहाँ कसी मैच म खेलने के लए मुझे बुलाया जाता
है। तो भी वहाँ भी इतने हा दक ढं ग से मेरा स ार नह होता, सफ र ी खा तरदारी बरती
जाती है उसने जसै मरे ी सु वधा आरै मरे आराम के लए अपने को सम पत कर दया हो।
म तो शायद अपनी े मका के सवा और कसी के साथ इस हा दकता का बरताव न कर
सकता। याद रहे, मने े मका कहा है, प ी नह कहा। प ी क हम खा तरदारी नह करते,
उससे तो खा तरदारी करवाना ही हमारा भाव हो गया है और शायद स ाई भी यही है।
मगर फलहाल तो म इन दोन नेमत म से एक का भी हाल नह जानता। उसके ना ,े
डनर, लंच म तो म शरीक था ही, हर े शन पर (वह डाक थी और खास-खास े शन पर
ही कती थी) मेवे तथा फल मँगवाती और मुझे आ हपूवक खलाती। कहाँ क ा चीज
मश र है, इसका उसे खूब पता है। मेरे दो और घरवाल के लए तरह-तरह के तोहफे
खरीदे, मगर हैरत यह है क मने एक बार भी उसे मना न कया। मना करता, मुझसे
पूछकर तो लाती नह । जब वह एक चीज लाकर मुह त के साथ मुझे भट करती है तो म
कैसे इनकार क ँ । खुदा जाने म मद होकर भी उसके सामने औरत क तरह
शरमीला, कम बोलने वाला हो जाता ँ क जैसे मेरे मुँह म जबान ही नह । दन क थकान
क वजह से रात भर मुझे बेचैनी रही। सर म हलका सा दद था, मगर मने इस दद को
बढ़ाकर कहा। अकेला होता तो शायद इस दद क जरा भी परवाह न करता, मगर आज
उसक मौजूदगी म मुझे उसे दद को जा हर करने म मजा आ रहा था। वह मेरे सर पर तेल
क मा लश करने लगी और म खामखाह नढाल आ जाता था। मेरी बेचैनी के साथ
उसक परे शानी बढ़ती जाती थी। मुझसे बार-बार पूछती, ‘अब दद कैसा है’ और म
अनमने ढं ग से कहता, ‘अ ा ँ ।’ उसक नाजुक हथे लय के श से मेरे ाण म
गुदगुदी होती थी। उसका वह आकषक चेहरा मेरे सर पर झुका है, उसक गरम साँस मेरे
माथे को चूम रही ह और म गोया ज त के मजे ले रहा ँ , मेरे दल म अब उस पर फतह
पाने क ा हश झकोले ले रही है। म चाहता ँ वह मेरे नाज उठाए। मेरी तरफ से कोई
ऐसी पहल न होनी चा हए, जससे वह समझ जाए क म उस पर ल ू हो गया ँ । चौबीस
घंटे के अंदर मेरी मनः त म कैसे यह ां त हो जाती है, म कर ेम के ाथ से ेम
का पा बन जाता ँ । वह बद ूर उसी त ीनता से मेरे सर पर हाथ रखे बैठी ई है। तब
मुझे उस पर रहम आ जाता है और म भी उस अहसास से बरी नह ँ । मगर इस माशूक
म आज जो लु आया, उस पर आ शक नछावर है। मुह त करना गुलामी है, मुह त
कया जाना बादशाहत।
मने दया दखलाते ए कहा,"आपको मेरे से बड़ी तकलीफ ई।" उसने उमगकर
कहा,"मुझे ा तकलीफ ई। आप दद से बेचैन थे और म बैठी थी। काश! यह दद मुझे हो
जाता।"
म सातव आसमान पर उड़ा जा रहा था।
5 जनवरी-कल शाम को हम लखनऊ प ँ च गए। रा े म हेलेन से सां ृ तक,
राजनी तक और सा ह क पर खूब बात । ेजुएट तो भगवान् क दया से म भी
ँ और तब से फुरसत के व कताब भी देखता ही रहा ँ । व ान क संगत म भी बैठा ँ ,
ले कन उसके ान के व ार के आगे कदम-कदम पर मुझे अपनी हीनता का बोध होता
है। हर एक पर उसक अपनी राय है और मालूम होता है क उसने छानबीन के बाद
वह राय कायम क है। उसके वपरीत म उन लोग म ँ , जो हवा के साथ उड़ते ह, ज
णक ेरणाएँ उलट-पुलटकर रख देती ह। म को शश करता था क कसी तरह उस पर
अपनी अ का स ा जमा ँ , मगर उसके कोण मुझे बेजबान कर देते थे। जब
मने देखा क ान- व ान क बात म तो म उससे न जीत सकूँगा तो मने एबीसी नया
और इटली क लड़ाई का ज छेड़ दया, जस पर मने अपनी समझ म ब त कुछ पढ़ा
था और इं ड तथा"रांस ने इटली पर जो दबाव डाला है, उसक तारीफ म मने अपनी
वाक्-श खच कर दी। उसने एक मुसकराहट के साथ कहा,"आपका यह खयाल है क
इं ड और"रांस सफ इनसा नयत और कमजोर क मदद करने क भावना से भा वत
हो रहे ह तो आपक गलती है। उनक सा ा - ल ा यह नह बरदा कर सकती क
नया क कोई सरी ताकत फले-फूले। मुसो लनी वही कर रहा है, जो इं ड ने कतनी
ही बार कया है और आज भी कर रहा है। यह सारा ब पयापन सफ एबीसी नया म
ावसा यक सु वधाएँ ा करने के लए है। इं ड को अपने ापार के लए बाजार क
ज रत है, अपनी बढ़ी ई आबादी के लए जमीन के टुकड़ क ज रत है, अपने श त
के लए ऊँचे पद क ज रत है तो इटली को न हो? इटली जो कुछ कर रहा है,
ईमानदारी के साथ एला नया कर रहा है। उसने कभी नया के सब लोग से भाईचारे का
डंका नह पीटा, कभी शां त का राग नह अलापा। वह तो साफ कहता है क संघष ही
जीवन का ल ण है। मनु क उ त लड़ाई ही के ज रए होती है। आदमी के अ े गुण
लड़ाई के मैदान म ही खुलते ह। सबक बराबरी के कोण को वह पागलपन कहता है।
वह अपना शुमार भी उ बड़ी कौम म करता है, ज रं गीन आबा दय पर कूमत करने
का हक है। इस लए हम उसक काय णाली को समझ सकते ह। इं ड ने हमेशा
धोखेबाजी से काम लया है। हमेशा एक रा के व भ त म भेद डालकर या उनके
आपसी वरोध को राजनी त का आधार बनाकर उ अपना पछल ू बनाया है। म तो
चाहती ँ क नया म इटली, जापान और जमनी खूब तर कर तथा इं ड का
आ धप टूटे । तभी नया म असली जनतं और शां त पैदा होगी। वतमान स ता जब
तक मट न जाएगी, नया म शां त का रा न होगा। कमजोर कौम को जदा रहने का
कोई हक नह , उसी तरह जस तरह कमजोर पौधे को। सफ इस लए नह क उनका
अ यं उनके लए क का कारण है ब इस लए क वही नया के इस झगड़े
और र पात के लए ज ेदार ह।"
म भला इस बात से सहमत होने लगा। मने जवाब तो दया और इन वचार का इतने
ही जोरदार श म खंडन भी कया। मगर मने देखा क इस मामले म वह संतु लत बु
से काम नह लेना चाहती या नह ले सकती।
े शन पर उतरते ही मुझे यह फ ई क हेलेन को अपना मेहमान कैसे बनाऊँ। अगर
होटल म ठहराऊँ तो भगवान् जाने अपने दल म ा कहे। अगर अपने घर ले जाऊँ तो
शरम मालूम होती है। वहाँ ऐसी च-संप और अमीर जैसे भाव वाली युवती के लए
सु वधा क ा साम याँ ह। यह संयोग क बात है क म केट अ ा खेलने लगा और
पढ़ना- लखना छोड़-छाड़कर उसी का हो रहा और एक ू ल का मा र ँ , मगर घर क
हाल बद ूर है। वही पुराना, अँधेरा, टूटा-फूटा मकान तंग गली म, वही पुराने रं ग-ढं ग,
वही पुराना ढ र। अ ा तो शायद हेलेन को घर म कदम ही न रखने द। और यहाँ तक
नौबत ही आने लगी, हेलेन खुद दरवाजे से ही भागेगी। काश! आज अपना मकान
होता, सजा-सँवरा, म इस का बल होता क हेलेन क मेहमानदारी कर सकता, इससे
ादा खुशनसीबी और ा हो सकती थी क बेसरोसामानी का बुरा हो।
म यही सोच रहा था क हेलेन ने कुली से असबाब उठवाया और बाहर आकर एक टै ी
बुला ली। मेरे लए इस टै ी म बैठ जाने के सवा सरा चारा ा बाक रह गया था।
मुझे यक न है, अगर म उसे अपने घर ले जाता तो उस बेसरोसामानी के बावजूद वह खुश
होती। हेलेन च-संप है, मगर नखरे बाज नह । वह हर तरह क आजमाइश और तजुरबे
के लए तैयार रहती है। हेलेन शायद आजमाइश को और नागवार तजुरब को बुलाती है,
मगर मुझम न वह क ना है, न वह साहस।
उसने जरा गौर से मेरा चेहरा देखा होता तो उसे मालूम हो जाता क उस पर कतनी
श मदगी और कतनी बेचारगी झलक रही थी। मगर श ाचार का नबाह तो ज री था,
मने आप क ,"म तो आपको भी अपना मेहमान बनाना चाहता था, मगर आप उलटा
मुझे होटल लये जा रही ह।"
उसने शरारत से कहा,"इसी लए क आप मेरे काबू से बाहर न हो जाएँ । मेरे लए इससे
ादा खुशी क बात ा होती क आपके आ त स ार का आनंद उठाऊँ, ले कन ेम
ई ालु होता है, यह आपको मालूम है। वहाँ आपके इ म आपके व का बड़ा ह ा
लगे, आपको मुझसे बात करने का व ही न मलेगा और मद आमतौर पर कतने
बेमुर त तथा ज भूल जाने वाले होते ह, इसका मुझे अनुभव हो चुका है। म तु एक
ण के लए भी अलग नह छोड़ सकती। मुझे अपने सामने देखकर तुम मुझे भूलना भी
चाहो तो नह भूल सकते।"
मुझे अपनी इस खुशनसीबी पर हैरत ही नह , ब ऐसा लगने लगा क जैसे सपना देख
रहा ँ । जस सुंदरी क एक नजर पर म अपने को कुरबान कर देता, वह इस तरह मुझसे
मुह त का इजहार करे । मेरा तो जी चाहता है क इसी बात पर उनके कदम को पकड़कर
सीने से लगा लूँ और आँसुओ ं से तर कर ँ ।
होटल म प ँ च।े मेरा कमरा अलग था। खाना हमने साथ खाया और थोड़ी देर तक वह
हरी-हरी घास पर टहलते रहे। खला ड़य को कैसे चुना जाए, यही सवाल था। मेरा जी तो
यही चाहता था क सारी रात उसके साथ टहलता र ँ , ले कन उसने कहा,"आप अब
आराम कर, सुबह ब त काम है।" म अपने कमरे म जाकर लेटा रहा, मगर सारी रात न द
नह आई। हेलेन का मन अभी तक मेरी आँख से छपा आ था, हर ण वह मेरे लए
पहेली होती जा रही थी।
12 जनवरी-आज दन भर लखनऊ के केटर का जमाव रहा। हेलेन दीपक थी और
पतंगे उसके गद मँडरा रहे थे। यहाँ से मेरे अलावा दो लोग का खेल हेलेन को ब त पसंद
आया-बृज और सा दक। हेलेन उ ऑल इं डया टीम म रखना चाहती थी।
इसम कोई शक नह है क दोन इस फन म उ ाद ह, ले कन उ ने जस तरह शु आत
क है, उससे तो यही मालूम होता है क वह केट खेलने नह , अपनी क त क बाजी
खेलने आए ह। हेलेन कस मजाज क औरत है, यह समझना मु ल है। बृज मुझसे
ादा सुंदर है, यह म भी ीकार करता ँ , रहन-सहन म पूरा साहब है। ले कन प ा
शोहदा, लोफर है। म नह चाहता क हेलेन उससे कसी तरह का संबंध रखे। अदब तो उसे
छू नह गया। बदजबान पहले सरे का, बे दा गंदे मजाक, बातचीत का ढं ग नह और
मौके-महल क समझ नह । कभी-कभी हेलेन से ऐसे मतलब भरे इशारे कर जाता है क म
शरम से सर झुका लेता ँ ले कन हेलेन को शायद उसका बाजा पन, उसका छछोरापन
महसूस नह होता। नह , वह शायद उसके गंदे इशार का मजा लेती है। मने कभी उसके
माथे पर शकन नह देखी। यह म नह कहता क यह हँ समुखपन कोई बुरी चीज है, न
जदा दली का म न ँ , ले कन एक लेडी के साथ तो अदब और कायदे का लहाज
रखना ही चा हए।
सा दक एक त त कुल का दीपक है, ब त ही शु -आचरण, यहाँ तक क उसे ठं डे
भाव का भी कह सकते ह। वह ब त घमंडी, देखने म चड़ चड़ा है, ले कन अब वह भी
शहीद म दा खल हो गया है। कल आप हेलेन को अपने शेर सुनाते रहे और वह खुश होती
रही। मुझे तो उन शेर म कुछ मजा न आया। इससे पहले मने इन हजरत को कभी शायरी
करते नह देखा, यह म ी कहाँ से फट पड़ी है? प म जा ई ताकत है, और ा क ँ ?
इतना भी न सूझा क उसे शेर ही सुनाना है तो हसरत या जगर या जोश के कलाम से दो-
चार शेर याद कर लेता। हेलेन सबका कलाम पढ़ थोड़े ही बैठी है। आपको शेर कहने क
ा ज रत, मगर यही बात उनसे कह ँ तो बगड़ जाएँ गे, समझगे मुझे जलन हो रही है।
मुझे जलन होने लगी। हेलेन क पूजा करने वाल म एक म ही ँ ? हाँ, इतना ज र
चाहता ँ क वह अ े-बुरे क पहचान कर सके, हर आदमी से बेतक ुफ मुझे पसंद
नह , मगर हेलेन क नजर म सब बराबर ह। वह बारी-बारी से सबसे अलग हो जाती है
और सबसे ेम करती है। कसी क ओर ादा झुक ई है, यह फैसला करना मु ल
है। सा दक क धन-संप से वह जरा भी भा वत नह जान पड़ती। कल शाम को हम
लोग सनेमा देखने गए थे। सा दक ने आज असाधारण उदारता दखाई। जेब से पया
नकालकर सबके लए टकट लेने चले। मयाँ सा दक, जो इस अमीरी के बावजूद
तंग दल आदमी है, म तो कंजूस क ँ गा, हेलेन ने उसक उदारता को जगा दया है। मगर
हेलेन ने उ रोक लया और खुद अंदर जाकर सबके लए टकट लाई। और य भी वह
इतनी बेदद से पया खच करती है क मयाँ सा दक के छ े छूट जाते ह। जब उनका
हाथ जेब म जाता है, हेलेन के पए काउं टर पर जा प ँ चते ह। कुछ भी हो, म तो हेलेन के
भाव- ान पर जान देता ँ । ऐसा मालूम होता है क वह हमारी फरमाइश का इं तजार
करती रहती है और उनको पूरा करने म उसे खास मजा आता है। सा दक साहब को उसने
अलबम भट कर दया, जो यूरोप के लभ च क अनुकृ तय का सं ह है और जो उसने
यूरोप क तमाम च शालाओं म जाकर खुद इक ा कया है। उसक आँख कतनी स दय-
ेमी ह। बृज जब शाम को अपना नया सूट पहनकर आया, जो उसने अभी सलाया है,
तो हेलेन ने मुसकराकर कहा,"देखो कह नजर न लग जाए तु ! आज तो सरे यूसुफ बने
ए हो।" बृज बाग-बाग हो गया। मने जब लय के साथ अपनी ताजा गजल सुनाई तो वह
एक-एक शेर पर उछल पड़ी। अ ु त का -मम है। मुझे अपनी क वता-रचना पर इतनी
खुशी नह ई थी, मगर तारीफ जब सबका बुलौवा हो जाए तो उसक ा क मत। मयाँ
सा दक को कभी अपनी सुंदरता का दावा नह कया। भीतरी स दय से आप जतने
मालामाल ह, बाहरी स दय म उतने ही कंगाल। मगर आज शराब के दौर म कहा,"भई,
तु ारी ये आँख तो जगर के पार ई जाती ह।" और सा दक साहब उस व उसके पैर
पर गरते क गए। ल ा बाधक ई। उनक आँख क ऐसी तारीफ शायद ही कसी ने
क हो। मुझे कभी अपने प-रं ग, चाल-ढाल क तारीफ सुनने क इ ा नह ई। म जो
कुछ ँ , जानता ँ । मुझे अपने बारे म यह धोखा कभी नह हो सका क म खूबसूरत ँ । यह
भी जानता ँ क हेलेन का यह सब स ार कोई मतलब नह रखता। ले कन अब मुझे भी
यह बेचैनी होने लगी क देखो मुझ पर ा इनायत होती है। कोई बात न थी, मगर म
बेचैन रहा। जब म शाम को यू नव सटी ाउं ड से खेल क ै स करके आ रहा था तो
मेरे ये बखरे ए बाल कुछ और ादा बखर गए थे। उसने आस ने से देखकर फौरन
कहा,"तु ारी इन बखरी ई जु पर नसार होने को जी चाहता है।" म नहाल हो गया,
दल म ा- ा तूफान उठे , कह नह सकता।
मगर खुदा जाने , हम तीन म से एक भी उसक कसी अदा या अंदाज या प क
शंसा श से नह कर पाता। हम लगता है क हम ठीक श नह मलते। जो कुछ हम
कह सकते ह, उससे कह ादा भा वत ह। कुछ कहने क ह त ही नह होती।
1 फरवरी-हम द ी आ गए। इस बीच म मुरादाबाद, नैनीताल, देहरा न वगैरह जगह के
दौरे कए, मगर कह कोई खलाड़ी न मला। अलीगढ़ और द ी से कई अ े
खला ड़य के मलने क उ ीद है, इस लए हम लोग वहाँ कई दन रहगे। माच म
ऑ े लयन टीम यहाँ से रवाना होगी। तब तक वह ह ान म सारे पहले से न त
मैच खेल चुक होगी। हम उससे आ खरी मैच खेलगे और खुदा ने चाहा तो ह ान क
सारी शक का बदला चुका दगे। सा दक और बृज भी हमारे साथ घूमते रहे। म तो न
चाहता था क ये लोग आएँ , मगर हेलेन को शायद े मय के जमघट म मजा आता है।
हम सब-के-सब एक ही होटल म ह और सब हेलेन के मेहमान ह। े शन पर प ँ चे तो
सैकड़ आदमी हमारा ागत करने के लए मौजूद थे। कई औरत भी थ , ले कन हेलेन को
न मालूम औरत से आप है। वह उनक संगत से भागती है, खासकर सुंदर औरत
क छाया से भी र रहती है। हालाँ क उसे कसी सुंदरी से जलने का कोई कारण नह है।
यह मानते ए भी क उस पर ख नह हो गया है, उसम आकषण के ऐसे त
मौजूद ह क कोई परी भी उसके मुकाबले खड़ी नह हो सकती। नख- शख ही तो सबकुछ
नह है, च का स दय, बातचीत का स दय, अदाओं का स दय भी तो कोई चीज है। ेम
उसके दल म है या नह , खुदा जाने, ले कन ेम के दशन म वह
बेजोड़ है। दलजोई और नाजबरदारी के फन म हम जैसे दलदार को भी उससे श मदा
होना पड़ता है। शाम को हम लोग नई द ी क सैर को गए। दलकश जगह है, खुली ई
सड़क, जमीन के खूबसूरत टुकड़े, सुहानी र बश, उसको बनाने म सरकार ने बेदरे ग पया
खच कया है और बेज रत। यह रकम रआया क भलाई पर खच क जा सकती थी,
मगर इसको ा क जए क जनसाधारण इसके नमाण से जतने भा वत ह, उतने
अपनी भलाई क कसी योजना से न होते। आप दस-पाँच मदरसे ादा खोल देते या
सड़क क मर त म या खेती क जाँच-पड़ताल म इस पए को खच कर देते, मगर
जनता को शान-शौकत, धन-वैभव से आज भी जतना ेम है, उतना आपके रचना क
काम से नह है। बादशाह क जो क ना उसके रोम-रोम म घुल गई है, वह अभी स दय
तक न मटे गी। बादशाह के लए शान-शौकत ज री है। पानी क तरह पया बहाना
ज री है। कफायतशार या कंजूस बादशाह, चाहे वह एक-एक पैसा जा क भलाई के
लए खच करे , इतना लोक य नह हो सकता। अं ेज मनो व ान के पं डत ह। अं ेज ही
, हर एक बादशाह जसने अपने बा बल और अपनी बु से यह ान ा कया है,
भावतः मनो व ान का पं डत होता है। इसके बगैर जनता पर उसे अ धकार कर
ा होता। खैर, यह तो मने यूँ ही कहा, मुझे ऐसा अंदेशा हो रहा है क शायद हमारी टीम
सपना ही रह जाए। अभी से हम लोग म अनबन रहने लगी है। बृज कदम-कदम पर मेरा
वरोध करता है। म आम क ँ तो वह अदबदाकर इमली कहेगा और हेलेन को उससे ेम है।
जदगी के कैसे-कैसे मीठे सपने देखने लगा था, मगर बृज , कृत ाथ बृज मेरी
जदगी तबाह कए डालता है। हम दोन के य पा नह रह सकते, यह तय बात है एक
को मैदान से हटना पड़ेगा।
7 फरवरी-शु है द ी म हमारा य सफल आ। हमारी टीम म तीन नए खलाड़ी जुड़े-
जाफर, मेहरा और अजुन सह। आज उनके कमाल देखकर ऑ े लयन केटर क
धाक मेरे दल से जाती रही। तीन गद फकते ह। जाफर अचूक गद फकता है, मेहरा स
क आजमाइश करता है और अजुन ब त चालाक है। तीन ढ़ भाव के लोग ह, नगाह
के स े और अकथ। अगर कोई इनसाफ से पूछे तो म क ँ गा क अजुन मुझसे बेहतर
खेलता है। वह दो बार इं ड हो आया है, अं ेजी रहन-सहन से प र चत है और मजाज
पहचानने वाला भी अ ल दरजे का है, स ता
और आचार का पुतला। बृज का रं ग फ का पड़ गया। अब अजुन पर खास कृपा- है
और अजुन पर फतेह पाना मेरे लए आसान नह है, मुझे तो डर है क वह कह मेरी राह का
रोड़ा न बन जाए।
25 फरवरी-हमारी टीम पूरी हो गई। दो ेयर हम अलीगढ़ से मले, तीन लाहौर से और
एक अजमेर से और कल हम बंबई आ गए। हमने अजमेर, लाहौर और द ी म वहाँ क
टीम से मैच खेले तथा उन पर बड़ी शानदार वजय पाई। आज बंबई क ह टीम से
हमारा मुकाबला है और मुझे यक न है क मैदान हमारे साथ रहेगा। अजुन हमारी टीम का
सबसे अ ा खलाड़ी है और हेलेन उसक इतनी खा तरदारी करती है क मुझे जलन नह
होती, इतनी खा तरदारी तो मेहमान क ही क जा सकती है, मेहमान से ा डर! मजे क
बात यह है क हर अपने को हेलेन का कृपा-पा समझता है और उससे अपने नाज
उठवाता है। अगर कसी के सर म दद है तो हेलेन का फज है क उसक मजाजपुरसी
करे , उसके सर म चंदन तक घसकर लगा दे। मगर उसके साथ ही उसका रोब हर एक
के दल म इतना छाया आ है क उसके कसी काम क आलोचना करने का साहस नह
कर सकता। सब-के-सब उसक मरजी के गुलाम ह। वह अगर सबके नाज उठाती है तो
कूमत भी हर एक पर करती है। शा मयाने म एक-से-एक सुंदर औरत का जमघट है,
मगर हेलेन के कै दय क मजाल नह क कसी क तरफ देखकर मुसकरा भी सक। हर
एक के दल म ऐसा डर छाया रहता है क जैसे वह हर जगह पर मौजूद है। अजुन ने एक
मस पर यूँ ही कुछ नजर डाली थी, हेलेन ने ऐसी लय क आँख से उसे देखा क सरदार
साहब का रं ग उड़ गया। हर एक समझता है क वह उसक तकदीर क मा लक है और
उसे अपनी तरफ से नाराज करके वह शायद जदा न रह सकेगा। और क तो म ा क ँ ,
मने ही गोया अपने को उसके हाथ बेच दया है। मुझे तो अब ऐसा लग रहा है क मुझम
कोई ऐसी चीज ख हो गई, जो पहले मेरे दल म डाह क आग सी जला दया करती थी।
हेलेन अब कसी से बोले, कसी से ेम क बात करे , मुझे गु ा नह आता। दल पर चोट
लगती ज र है, मगर उसका इजहार अकेले म आँसू बहाकर करने को जी चाहता है। वह
ा भमान कहाँ गायब हो गया, नह कह सकता। अभी उसक नाराजगी से दल के टुकड़े
हो गए थे क एकाएक उसक एक उचटती ई सी नगाह ने या एक मुसकराहट ने
गुदगुदी पैदा कर दी। मालूम नह क उसम वह कौन सी ताकत है, जो इतने हौसलामंद
नौजवान दल पर कूमत कर रही है। उसे बहा री क ँ , चालाक और फुरती क ँ , हम सब
जैसे उसके हाथ क कठपुत लयाँ ह। हमम अपनी कोई शि सयत, कोई ह ी नह है,
उसने अपने स दय से, अपनी बु से, अपने धन से और सबसे ादा सबको समेट
सकने क अपनी ताकत से हमारे दल पर अपना आ धप जमा लया है।
1 माच-कल ऑ े लयन टीम से हमारा मैच ख हो गया। पचास हजार से कम
तमाशाइय क भीड़ न थी। हमने पूरी ई न से उनको हराया और देवताओं क तरह
पुज।े हमम से हर एक ने दलोजान से काम कया और सभी यकसां तौर पर फूले ए थे।
मैच ख होते ही शहरवाल क तरफ से हम एक शानदार पाट दी गई। ऐसी पाट तो
शायद वायसराय क तरफ से भी न दी जाती होगी। म तो तारीफ और बधाइय के बोझ से
दब गया। मने 44 रन म पाँच खला ड़य का सफाया कर दया था। मुझे खुद अपने
भयानक गद फकने पर अचरज हो रहा था। ज र कोई अलौ कक श हमारा साथ दे रही
थी। इस भीड़ म बंबई का स दय अपनी पूरी शान और रं गीनी के साथ चमक रहा था और
मेरा दावा है क सुंदरता क से यह शहर जतना भा शाली है, नया का सरा
शहर शायद ही हो। मगर हेलेन इस भीड़ म भी सबक य का क बनी ई थी। यह
जा लम महज हसीन ही नह , मीठा बोलती भी है और उसक अदाएँ भी मीठी ह।
सारे नौजवान परवान क तरह उस पर मँडरा रहे थे, एक से एक खूबसूरत, मनचले, और
हेलेन उनक भावनाओं से खेल रही थी, उसी तरह जैसे वह हम लोग क भावनाओं से
खेला करती थी। महाराज कुमार जैसा सुंदर जवान मने आज तक नह देखा। सूरत से रोब
टपकता है। उनके ेम ने कतनी सुंद रय को ख दया है, कौन जाने। मरदाना दलकशी
का जा सा बखरता चलता है। हेलेन उनसे भी वैसी ही आजाद बेतक ुफ से मली
जैसे सरे हजार नौजवान से। उनके स दय का, उनक दौलत का उस पर जरा भी असर
न था। न जाने इतना गव, इतना ा भमान उसम कहाँ से आ गया है! कभी नह
डगमगाती, कह रोब म नह आती, कभी कसी क तरफ नह झुकती। वही हँ सी-मजाक,
वह ेम का दशन, कसी के साथ कोई वशेषता नह , दलजोई सबक क , मगर उसी
बेपरवाही क शान के साथ।
हम लोग सैर करके कोई दस बजे रात को होटल प ँ चे तो सभी जदगी के नए सपने देख
रहे थे। सभी के दल म एक धुकधुक -सी हो रही थी क देख अब ा होता है। आशा और
भय ने सभी के दल म एक तूफान सा उठा रखा था, गोया आज हर एक के जीवन क
एक रणीय घटना होने वाली है। अब ा ो ाम है, इसक कसी को खबर न थी।
सभी जदगी के सपने देख रहे थे। हर एक के दल पर एक पागलपन सवार था, हर एक को
यक न था क हेलेन क खास उस पर है, मगर यह अंदेशा भी हर एक के दल म था
क खुदा न खा ा कह हेलेन ने बेवफाई क तो यह जान उसके कदम पर रख देगा, यहाँ
से जदा घर जाना कयामत था।
उसी व हेलेन ने मुझे अपने कमरे म बुला भेजा। जाकर देखता ँ तो सभी खलाड़ी जमा
ह। हेलेन उस व अपनी शरबती बेलदार साड़ी म आँख म चकाच ध पैदा कर रही थी।
मुझे उस पर झुँझलाहट ई, इस आम मजमे म मुझे बुलाकर कवायद करने क ा
ज रत थी। म तो खास बरताव का अ धकारी था। म भूल रहा था क शायद इसी तरह
उनम से हर एक अपने को खास बरताव का अ धकारी समझता था।
हेलेन ने कुरसी पर बैठते ए कहा,"दो ो, म कह नह सकती क आप लोग क कतनी
कृत ँ और आपने मेरी जदगी क कतनी बड़ी आरजू पूरी कर दी। आपम से कसी को
म र रतनलाल क याद आती है?"
रतनलाल! उसे भी कोई भूल सकता है। वह जसने पहली बार ह ान क केट टीम
को इं ड क धरती पर अपने जौहर दखाने का मौका दया, जसने अपने लाख पए
इस चीज पर नजर कए और आ खर बार-बार पराजय से नराश होकर वह इं ड म
आ ह ा कर ली। उसक वह सूरत अब भी हमारी आँख के सामने फर रही है।
सब ने कहा,"खूब अ ी तरह, अभी बात ही कै दन क है।"
"आज इस शानदार कामयाबी पर म आपको बधाई देती ँ । भगवान ने चाहा तो अगले
साल हम इं ड का दौरा करगे। आप अभी से इस मोरचे के लए तैया रयाँ क जए। लु
तो जब है क हम एक मैच भी न हार, मैदान बराबर हमारे साथ रहे। दो ो, यही मेरे जीवन
का ल है। कसी ल को पूरा करने के लए जो काम कया जाता है, उसी का नाम
जदगी है। हम कामयाबी वह होती है, जहाँ हम अपने पूरे हौसले से काम म लगे ह , वही
ल हमारा हो, हमारा ेम हो, हमारे जीवन का क हो। हमम और इस ल के बीच
म और कोई इ ा, कोई आरजू दीवार क तरह न खड़ी हो। माफ क जएगा, आपने अपने
ल के लए जीना नह सीखा। आपके लए केट सफ एक मनोरं जन है, आपको
उससे ेम नह । इसी तरह हमारे सैकड़ दो ह, जनका दल कह और होता है, दमाग
कह और, और वह सारी जदगी नाकाम रहते ह। आपके लए म ादा दलच ी क
चीज थी, केट तो सफ मुझे खुश करने का ज रया था। फर भी आप कामयाब ए।
मु म आप जैसे हजार नौजवान ह, जो अगर कसी ल क पू त के लए जीना और
मरना सीख जाएँ तो चम ार कर दखाएँ । जाइए और वह कमाल हा सल क जए। मेरा
प और मेरी रात वासना का खलौना बनने के लए नह ह। नौजवान क आँख को
खुश करने और उनके दल म म ी पैदा करने के लए जीना म शमनाक समझती ँ ।
जीवन का ल इससे कह ऊँचा है। स ी जदगी वह है, जहाँ हम अपने लए नह
सबके लए जीते ह।"
हम सब सर झुकाए सुनते रहे और झ ाते रहे। हेलेन कमरे से नकलकर कार म जा
बैठी। उसने अपनी रवानगी का इं तजाम पहले ही कर लया था। इसके पहले क हमारे
होशोहवास सही ह और हम प र त समझ, वह जा चुक थी।
हम सब ह े भर तक बंबई क ग लय , होटल , बँगल क खाक छानते रहे, हेलेन कह न
थी और ादा अफसोस यह है क उसने हमारी जदगी का जो आइ डयल रखा, वह हमारी
प ँ च से ऊँचा है। हेलेन के साथ जदगी का सारा जोश और उमंग ख हो गई।
जु न शेख और अलगू चौधरी म गाढ़ी म ता थी। साझे म खेती होती थी। कुछ लेन-
देन म भी साझा था। एक को सरे पर अटल व ास था। जु न जब हज करने गए थे,
तब अपना घर अलगू को स प गए थे और अलगू जब कभी बाहर जाते तो जु न पर
अपना घर छोड़ देते थे। उनम न खान-पान का वहार था, न धम का नाता; केवल वचार
मलते थे। म ता का मूल मं भी यही है।
इस म ता का ज उसी समय आ, जब दोन म बालक ही थे और जु न के पू
पता जुमराती उ श ा दान करते थे। अलगू ने गु जी क ब त सेवा क थी, खूब
रका बयाँ माँजी, खूब ाले धोए। उनका ा एक ण के लए भी व ाम न लेने पाता
था, क ेक चलम अलगू को आध घंटे तक कताब से अलग कर देती थी। अलगू
के पता पुराने वचार के मनु थे। उ श ा क व ा क अपे ा गु क सेवा-शु ूषा
पर अ धक व ास था। वह कहते थे क व ा पढ़ने से नह आती, जो कुछ होता है, गु के
आशीवाद से। बस गु जी क कृपा- चा हए। अतएव य द अलगू पर जुमराती शेख के
आशीवाद अथवा स ंग का कुछ फल न आ, तो यह मानकर संतोष कर लेगा क
व ोपाजन म मने यथाश कोई बात उठा नह रखी, व ा उसके भा ही म न थी तो
कैसे आती? मगर जुमराती शेख यं आशीवाद के कायल न थे। उ अपने सोटे पर
अ धक भरोसा था, और उसी सोटे के ताप से आज आस-पास के गाँव म जु न क
पूजा होती थी। उनके लखे ए रे हननामे या बैनामे पर कचहरी का मुह रर भी कलम न
उठा सकता था। हलके का डा कया, कां े बल और तहसील का चपरासी-सब उनक
कृपा क आकां ा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जु न
शेख अपनी अनमोल व ा से ही सबके आदरपा बने थे।

जु न शेख क एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास ब त थोड़ी सी म यत थी;


परं तु उसके नकट संबं धय म कोई न थी। जु न ने लंब-े चौड़े वादे करके वह म यत
अपने नाम लखवा ली थी। जब तक दानप क र ज ी न ई थी, तब तक खालाजान
का खूब आदर-स ार कया गया। उ खूब ा द पदाथ खलाए गए। हलवे-पुलाव
क वषा क गई पर र ज ी क मोहर ने इन खा तरदा रय पर भी मानो मोहर लगा दी।
जु न क प ी करीमन रो टय के साथ कड़वी बात के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने
लगी। जु न शेख भी न ु र हो गए। अब बेचारी खालाजान को ायः न ही ऐसी बात
सुननी पड़ती थ ।
बु ढ़या न जाने कब तक जएगी। दो-तीन बीघे ऊसर ा दे दया, मानो मोल ले लया है!
बघारी दाल के बना रो टयाँ नह उतरत ! जतना पया इसके पेट म झ क चुके, उतने से
तो अब तक गाँव मोल ले लेते।
कुछ दन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जु न से शकायत क ।
जु न ने ानीय कमचारी-गृह ामी के बंध म दखल देना उ चत न समझा। कुछ दन
तक और य ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत म एक दन खाला ने जु न से
कहा,"बेटा! तु ारे साथ मेरा नवाह न होगा। तुम मुझे पए दे दया करो, म अपना पका
खा लूँगी।"
जु न ने धृ ता के साथ उ र दया," पए ा यहाँ फलते ह?"
खाला ने न ता से कहा,"मुझे कुछ खा-सूखा चा हए भी क नह ?"
जु न ने गंभीर र म जवाब दया,"तो कोई यह थोड़े ही समझा था क तुम मौत से
लड़कर आई हो?"
खाला बगड़ गई, उ ने पंचायत करने क धमक दी। जु न हँ स,े जस तरह कोई
शकारी हरन को जाल क तरफ जाते देखकर मन-ही-मन हँ सता है। वह बोले,"हाँ, ज र
पंचायत करो। फैसला हो जाए, मुझे भी यह रात- दन क खट-खट पसंद नह ।"
पंचायत म कसक जीत होगी, इस वषय म जु न को कुछ भी संदेह न था। आस-पास
के गाँव म ऐसा कौन था, जो उसके अनु ह का ऋणी न हो ऐसा कौन था जो उसको श ु
बनाने का साहस कर सके? कसम इतना बल था, जो उसका सामना कर सके?
आसमान के फ र े तो पंचायत करने आवगे नह ।

इसके बाद कई दन तक बूढ़ी खाला हाथ म एक लकड़ी लये आस-पास के गाँव म घूमती
रही। कमर झुककर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना भर था, मगर बात आ पड़ी
थी, उसका नणय करना ज री था।
बरला ही कोई भला आदमी होगा, जसके सामने बु ढ़या ने ःख के आँसू न बहाए ह ।
कसी ने तो य ही ऊपरी मन से ँ -हाँ करके टाल दया, और कसी ने इस अ ाय पर
जमाने को गा लयाँ द । कहा,"क म पाँव लटके ए ह, आज मरे कल सरा दन, पर
हवस नह मानती। अब तु ा चा हए? रोटी खाओ और अ ाह का नाम लो। तु
अब खेती-बाड़ी से ा काम है?" कुछ ऐसे स न भी थे, ज हा -रस के रसा ादन
का अ ा अवसर मला। झुक ई कमर, पोपला मुँह, सन के से बाल, इतनी साम ी
एक हो, तब हँ सी न आवे? ऐसे ाय य, दयालु, दीन-व ल पु ष ब त कम थे,
ज ने उस अबला के खड़े को गौर से सुना हो और उसको सां ना दी हो। चार तरफ
घूम-घामकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम लेकर
बोली,"बेटा, तुम भी दम भर के लए मेरी पंचायत म चले आना।"
अलगू,"मुझे बुलाकर ा करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवगे ही।"
खाला,"अपनी वपदा तो सबके आगे रो आई। अब जाने न जाने का इ यार उनको है।"
अलगू,"अब इसका ा जवाब ँ ? अपनी खुशी। जु न मेरा पुराना म है। उससे बगाड़
नह कर सकता।"
खाला,"बेटा, ा बगाड़ के डर से ईमान क बात न कहोगे?"

हमारे सोए ए धम- ान क सारी संप लुट जाए, तो उसे खबर नह होती, परं तु
ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है, फर उसे कोई जीत नह सकता। अलगू इस
सवाल का कोई उ र न दे सका, पर उसके दय म ये श गूँज रहे थे," ा बगाड़ के डर
से ईमान क बात न करोगे?"
सं ा समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जु न ने पहले से ही फश बछा रखा
था। उ ने पान, इलायची, े -तंबाकू आ द का बंध भी कया था। हाँ, वह यं
अलब ा अलगू चौधरी के साथ जरा री पर बैठे ए थे। जब पंचायत म कोई आ जाता
था, तब दबे ए सलाम से उसका ागत करते थे। जब सूय अ हो गया और च ड़य
क कलरवयु पंचायत पेड़ पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शु ई। फश क एक-एक
अंगुल जमीन भर गई पर अ धकांश दशक ही थे। नमं त महाशय म से केवल वे ही लोग
पधारे थे, ज जु न से अपनी कुछ कसर नकालनी थी। एक कोने म आग सुलग रही
थी। नाई ताबड़तोड़ चलम भर रहा था। यह नणय करना असंभव था क सुलगते ए
उपल से अ धक धुआँ नकलता था या चलम के दम से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे।
कोई आपस म गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चार तरफ कोलाहल मच रहा था।
गाँव के कु े इस जमाव को भोज समझकर झुंड-के-झुंड जमा हो गए थे।
पंच लोग बैठ गए, तो बूढ़ी खाला ने उनसे वनती क ,"पंचो, आज तीन साल ए, मने
अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जु न के नाम लख दी थी। इसे आप लोग जानते ही
ह गे। जु न ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल कया। साल भर तो मने इसके
साथ रो-धोकर काटा, पर अब रात- दन का रोना नह सहा जाता। मुझे न पेट क रोटी
मलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा ँ , कचहरी-दरबार नह कर सकती। तु ारे सवा
और कसको अपना ःख सुनाऊँ? तुम लोग जो राह नकाल दो, उसी राह पर चलू।ँ अगर
मुझम कोई ऐब देखो तो मेरे मुँह पर थ ड़ मारो। जु न म बुराई देखो, तो उसे समझाओ,
एक बेकस क आह लेता है। म पंच का सर-माथे पर चढ़ाऊँगी।"
रामधन म , जनके कई आसा मय को जु न ने अपने गाँव म बसा लया था,
बोले,"जु न मयाँ, कसे पंच बदते हो? अभी से इसका नपटारा कर लो, फर जो कुछ
पंच कहगे, वही मानना पड़ेगा।"
जु न को इस समय पंचायत के सद म वशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जनसे कसी-
न- कसी कारण उनका वैमन था। जु न बोले,"पंच का अ ाह का है।
खालाजान जसे चाह, उसे बद। मुझे कोई उ नह ।"
खाला ने च ाकर कहा,"अरे अ ाह के बंदे! पंच का नाम नह बता देता? कुछ
मुझे भी तो मालूम हो।"
जु न ने ोध म कहा,"अब इस व मेरा मुँह न खुलवाओ। तु ारी बन पड़ी है, जसे
चाहो, पंच बदो।"
खालाजान जु न के आ ेप को समझ गई, बोली,"बेटा, खुदा से डरो। पंच न कसी के
दो होते ह, न कसी के न। कैसी बात करते हो! और तु ारा कसी पर व ास न
हो तो जाने दो अलगू चौधरी को तो मानते हो? लो, म उ को सरपंच बदती ँ ।"
जु न शेख आनंद से फूल उठे , परं तु भाव को छपाकर बोले,"अलगू ही सही, मेरे लए
जैसे रामधन वैसे अलगू।"
अलगू इस झमेले म फँसना नह चाहते थे। वे क ी काटने लगे।
बोले,"खाला, तुम जानती हो क मेरी जु न से गाढ़ी दो ी है।"
खाला ने गंभीर र म कहा,"बेटा, दो ी के लए कोई अपना ईमान नह बेचता। पंच के
दल म खुदा बसता है। पंच के मुँह से जो बात नकलती है, वह खुदा क तरफ से
नकलती है।"
अलगू चौधरी सरपंच ए। रामधन म और जु न के सरे वरो धय ने बु ढ़या को मन
म ब त कोसा।
अलगू चौधरी बोले,"शेख जु न! हम और तुम पुराने दो ह। जब काम पड़ा, तुमने
हमारी मदद क है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तु ारी सेवा करते रहे ह, मगर इस समय
तुम व बूढ़ी खाला, दोन हमारी नगाह म बराबर हो। तुमको पंच से कुछ अज करना हो,
करो।"
जु न को पूरा व ास था क अब बाजी मेरी है। अलगू यह सब दखावे क बात कर रहा
है। अतएव शांत च होकर बोले,"पंच , तीन साल ए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे
नाम ह ा कर दी थी। मने उ ता-हयात खाना-कपड़ा देना कबूल कया था। खुदा गवाह
है, आज तक खालाजान को कोई तकलीफ नह दी। म उ अपनी माँ के समान समझता
ँ । उनक खदमत करना मेरा फज है मगर औरत म जरा अनबन रहती है, उसम मेरा
ा बस है? खालाजान मुझसे माहवार खच अलग माँगती ह। जायदाद जतनी है, वह
पंच से छपी नह । उससे इतना मुनाफा नह होता है क माहवार खच दे सकूँ। इसके
अलावा ह ानामे म माहवार खच का कोई ज नह । नह तो म भूलकर भी इस झमेले
म न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइं दा पंच को इ यार है, जो फैसला चाह, कर।"
अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी म काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था।
उसने जु न से जरह शु क । एक-एक जु न के दय पर हथौड़े क चोट क तरह
पड़ता था। रामधन म इन पर मु ए जाते थे। जु न च कत थे क अलगू को
ा हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा आ कैसी-कैसी बात कर रहा था। इतनी ही
देर म ऐसी कायापलट हो गई क मेरी जड़ खोदने पर तुला आ है। न मालूम कब क
कसर नकाल रहा है? ा इतने दन क दो ी भी काम न आवेगी?
जु न शेख तो इसी संक - वक म पड़े ए थे क इतने म अलगू ने फैसला
सुनाया,"जु न शेख! पंच ने इस मामले पर वचार कया। उ यह नी त-संगत मालूम
होता है क खालाजान को माहवार खच दया जाए। हमारा वचार है क खाला क
जायदाद से इतना मुनाफा अव होता है क माहवार खच दया जा सके। बस, यही
हमारा फैसला है, अगर जु न को खच देना मंजूर न हो, तो ह ानामा र समझा जाए।"
यह फैसला सुनते ही जु न स ाटे म आ गए। जो अपना म हो, वह श ु का वहार
करे और गले पर छु री फेरे , इसे समय के हेर-फेर के सवा और ा कह? जस पर पूरा
भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दया। ऐसे ही अवसर पर झूठे-स े म क
परी ा क जाती है। यही क लयुग क दो ी है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते,
तो देश म आप य का कोप होता? यह हैजा- ेग आ द ा धयाँ म के ही दं ड
ह।
मगर रामधन म और अ पंच अलगू चौधरी क इस नी त-परायणता क शंसा जी
खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे,"इसका नाम पंचायत है। ध-का- ध और पानी-का-पानी
कर दया। दो ी दो ी क जगह है, कतु धम का पालन करना मु है। ऐसे ही
स वा दय के बल पर पृ ी ठहरी है, नह तो वह कब क रसातल को चली जाती।"
इस फैसले ने अलगू और जु न क दो ी क जड़ हला दी। अब वे साथ-साथ बात करते
नह दखाई देते थे। इतना पुराना म ता- पी वृ स का एक झ का भी न सह सका,
सचमुच वह बालू क ही जमीन पर खड़ा था।
उनम अब श ाचार का अ धक वहार होने लगा। एक- सरे क आवभगत ादा करने
लगे। वे मलते-जुलते थे, मगर उसी तरह, जैसे तलवार से ढाल मलती है। यही चता
रहती थी क कसी तरह बदला लेने का अवसर मले।
अ े काम क स म बड़ी देर लगती है पर बुरे काम क स म यह बात नह होती।
जु न को भी बदला लेने का अवसर ज ही मल गया। पछले साल अलगू चौधरी
बटे सर से बैल क एक ब त अ ी जोड़ी मोल लाए थे। बैल पछाही जा त के सुंदर, बड़े-
बड़े स गवाले थे। महीन तक आस-पास के गाँव के लोग दशन करते रहे। दैवयोग से
जु न क पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जु न ने
दो से कहा,"यह दगाबाजी क सजा है। इनसान स भले ही कर जाए, पर खुदा नेक-
बद सब देखता है।" अलगू को संदेह आ क जु न ने बैल को वष दला दया है।
चौधराइन ने भी जु न पर ही इस घटना का दोषारोपण कया। उसने कहा,"जु न ने
कुछ कर-करा दया है। चौधराइन और करीमन म इस वषय पर एक दन खूब ही वाद-
ववाद आ। दोन दे वय ने श -बा क नदी बहा दी। ं , व ो , अ ो और
उपमा आ द अलंकार म बात । जु न ने कसी तरह शां त ा पत क । उ ने अपनी
प ी को डाँट-डपटकर समझा दया। वह उसे उस रणभू म से हटा भी ले गए। उधर अलगू
चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तकपूण सोटे से लया।
अब अकेला बैल कस काम का? उसका जोड़ ब त ढू ँ ढ़ा गया, पर न मला। नदान, यह
सलाह ठहरी क इसे बेच डालना चा हए। गाँव म एक समझू सा थे, वह इ ा-गाड़ी
हाँकते थे। गाँव से गुड़-घी लादकर मंडी ले जाते, मंडी से तेल-नमक भर लाते और गाँव म
बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उ ने सोचा, यह हाथ लगे तो दन भर म
बेखटके तीन खेप ह । आजकल तो एक ही खेप म लाले पड़े रहते ह। बैल देखा, गाड़ी म
दौड़ाया, बाल-भ री क पहचान कराई, मोल-तोल कया और उसे लाकर ार पर बाँध ही
दया। एक महीने म दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे क
परवाह न क ।
समझू सा ने नया बैल पाया तो लगे उसे रगेदने। वह दन म तीन-तीन, चार-चार खेप
करने लगे। न चारे क फ थी, न पानी क , बस खेप से काम था। मंडी ले गए, वहाँ कुछ
सूखा भूसा सामने डाल दया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया क फर जोत
दया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन क वंशी बजती थी। बैलराम छठे -छमाहे कभी बहली
म जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोस तक दौड़ते चले जाते थे। वहाँ बेलराम का
रा तब था, साफ पानी, दली ई अरहर क दाल और भूसे के साथ खली और यही नह ,
कभी-कभी घी का ाद भी चखने को मल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे
करता, प छता और सहलाता था। वहाँ वह सुख-चैन, कहाँ यह आठ पहर क खपत! महीने
भर ही म वह पस सा गया। इ े का जुआ देखते ही उसका ल सूख जाता था। एक-एक
पग भर था, ह याँ नकल आई थ पर था वह पानीदार, मार क बरदा थी।
एक दन चौधरी खेप म सा जी ने ना बोझ लादा। दन भर थका जानवर, पैर न उठते थे,
पर सा जी कोड़े फटकारने लगे। बस फर ा था, बैल कलेजा तोड़कर चला। कुछ र
दौड़ा और चाहा क जरा दम ले लूँ, पर सा जी को ज प ँ चने क फ थी, अतएव
उ ने कई कोड़े बड़ी नदयता से फटकारे । बैल ने एक बार फर जोर लगाया; पर अबक
बार श ने जवाब दे दया। वह धरती पर गर पड़ा, और ऐसा गरा क फर न उठा।
सा जी ने ब त पीटा, टाँग पकड़कर ख चा, नथुन म लकड़ी ठूँस दी, पर कह मृतक भी
उठ सकता है? तब सा जी को कुछ शक आ। उ ने बैल को गौर से देखा, खोलकर
अलग कया और सोचने लगे क गाड़ी कैसे घर प ँ च।े ब त चीखे- च ाए; पर देहात का
रा ा ब क आँख क तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-
पास कोई गाँव भी न था। मारे ोध के उ ने मरे ए बैल पर और र लगाए और कोसने
लगे,"अभागे! तुझे मरना ही था तो घर प ँ चकर मरता, ससुरा बीच रा े ही म मर गया!
अब गाड़ी कौन ख चे?" इस तरह सा जी खूब जले-भुन।े कई बोरे गुड़ और पीपे घी उ ने
बेचे थे दो-ढाई सौ पए कमर म बँधे थे। इसके अलावा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थे
अतएव छोड़कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गए। वह रतजगा
करने क ठान ली। चलम पी या फर ा पया। इस तरह सा जी आधी रात तक न द
को बहलाते रहे। अपनी जान म तो वह जागते ही रहे, पर पौ फटते ही जो न द टूटी और
कमर पर हाथ रखा तो थैली गायब! घबराकर इधर-उधर देखा, तो कई कन र तेल भी
नदारद। अफसोस म बेचारे ने सर पीट लया और पछाड़ खाने लगा। ातःकाल रोते-
बलखते घर प ँ चे। सा आइन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोई, फर
अलगू चौधरी को गा लयाँ देने लगी," नगोड़े ने ऐसा कुल नी बैल दया क ज भर
क कमाई लुट गई।"
इस घटना को ए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम माँगते, तब सा
और सा आइन, दोन ही झ ाए ए कु े क तरह चढ़ बैठते और अंडबंड बकने
लगते,"वाह! यहाँ तो सारे ज क कमाई लुट गई, स ानाश हो गया, इ दाम क पड़ी
है। मुरदा बैल दया था, उस पर दाम माँगने चले ह। आँख म धूल झ क दी, स ानाशी
बैल गले बाँध दया, हम नरा प गा ही समझ लया है। हम भी ब नए के ब े ह, ऐसे बु ू
कह और ह गे, पहले जाकर कसी ग े म मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो
तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो, और ा लोगे?"

चौधरी के अशुभ चतक क कमी न थी। ऐसे अवसर पर वे भी एक हो जाते और सा जी


के बराने क पु करते। परं तु डेढ़ सौ पए से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक
बार वह भी गरम पडे़। सा जी बगड़कर लाठी ढू ँ ढ़ने घर चले गए। अब सा आइन ने मैदान
लया। ो र होते-होते हाथापाई क नौबत आ प ँ ची। सा आइन ने घर म घुसकर
कवाड़ बंद कर लये। शोरगुल सुनकर गाँव के भलेमानस जमा हो गए। उ ने दोन को
समझाया। सा जी को दलासा देकर घर से नकाला। वह परामश देने लगे क इस तरह
से काम न चलेगा, पंचायत कर लो, जो कुछ तय हो जाए, उसे ीकार कर लो। सा जी
राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।

पंचायत क तैया रयाँ होने लग । दोन प ने अपने-अपने दल बनाने शु कर दए।


इसके बाद तीसरे दन उसी वृ के नीचे पंचायत बैठी। वही सं ा का समय था। खेत म
कौए पंचायत कर रहे थे। ववाद वषय यह था क मटर क फ लय पर उनका कोई
है या नह ? और जब तक यह हल न हो जाए, तब तक वे रखवाले क पुकार पर
अपनी अ स ता कट करना आव क समझते थे। पेड़ क डा लय पर बैठी शुक-मंडली
म छड़ा आ था क मनु को उ बेमुरौ त कहने का ा अ धकार है, जब उ
यं अपने म से दगा करने म भी संकोच नह होता।
पंचायत बैठ गई, तो रामधन म ने कहा,"अब देरी ा है? पंच का चुनाव हो जाना
चा हए। बोलो चौधरी, कस- कस को पंच बदते हो?" अलगू ने दीन भाव से कहा,"समझू
सा ही चुन ल।" समझू खड़े ए और कड़ककर बोले,"मेरी ओर से जु न शेख।" जु न
का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानो कसी ने
अचानक थ ड़ मार दया हो। रामधन अलगू के म थे, वह बात को ताड़ गए। पूछा,"
चौधरी, तु कोई उ तो नह ?"
चौधरी ने नराश होकर कहा,"नह , मुझे ा उ होगा?"

अपने उ रदा य का ान ब धा हमारे संकु चत वहार का सुधारक होता है। जब हम


राह भूलकर भटकने लगते ह, तब यही ान हमारा व सनीय पथ- दशक बन जाता है।
प -संपादक अपनी शां त कुटी म बैठा आ कतनी धृ ता और तं ता के साथ अपनी
बल लेखनी से मं मंडल पर आ मण करता है। परं तु ऐसे अवसर आते ह, जब वह यं
मं मंडल म स लत होता है। मंडल के भवन म पग धरते ही उसक लेखनी कतनी
मम , कतनी वचारशील, ायपरायण हो जाती है। इसको उ रदा य का ान कहा
जाता है। नवयुवक युवाव ा म कतना उ ं ड रहता है। माता- पता उसक ओर से कतने
च तत रहते ह, वे उसे कुल-कंलक समझते ह, परं तु थोड़े ही समय म प रवार का बोझ सर
पर पड़ते ही अ त- च उ युवक, कतनी धैयशील, कैसा शांत च हो जाता है,
यह भी उ रदा य के ान का फल है।
जु न शेख के मन म भी सरपंच का उ ान हण करते ही अपनी ज ेदारी का
भाव पैदा आ। उसने सोचा, म इस व ाय और धम के सव आसन पर बैठा ँ । मेरे
मुँह से इस समय जो कुछ नकलेगा, वह देववाणी के स श है-और देववाणी म मेरे
मनो वकार का कदा प समावेश न होना चा हए। मुझे स से जौ भर भी टलना उ चत
नह ।
पंच ने दोन से सवाल-जवाब करने शु कए। ब त देर तक दोन दल अपने-अपने प
का समथन करते रहे। इस वषय म तो सब सहमत थे क समझू को बैल का मू देना
चा हए। परं तु दो महाशय इस कारण रयायत करना चाहते थे क बैल के मर जाने से
समझू को हा न ई। इसके तकूल दो स मूल के अ त र समझू को दं ड भी देना
चाहते थे, जससे फर कसी को पशुओ ं के साथ ऐसी नदयता करने का साहस न हो।
अंत म जु न ने फैसला सुनाया,"अलगू चौधरी और सा , पंच ने तु ारे मामले पर
अ ी तरह वचार कया। समझू के लए उ चत है क बैल का पूरा दाम द। जस व
उ ने बैल लया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दए जाते तो आज
समझू उसे फेर लेने का आ ह न करते। बैल क मृ ु केवल इस कारण ई क उससे बड़ा
क ठन प र म लया गया और उसके दाने-चारे का कोई अ ा बंध न कया गया।"
रामधन म बोले,"समझू ने बैल को जान-बूझकर मारा है, अतएव उससे दं ड लेना
चा हए।" जु न बोले,"यह सरा सवाल है। हमको इससे कोई मतलब नह ।"
झगड़ू सा ने कहा,"समझू के साथ कुछ रयायत होनी चा हए।" जु न बोले,"यह अलगू
चौधरी क इ ा पर नभर है। वह रयायत कर, तो उनक भलमनसी।"
अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े ए और जोर से बोले, "पंच-परमे र क जय!"
इसके साथ ही चार ओर से त न ई,"पंच-परमे र क जय!"
े मनु जु न क नी त को सराहता था,"इसे कहते ह ाय! यह मनु का काम

नह । पंच म परमे र वास करते ह, यह उ क म हमा है। पंच के सामने खोटे को कौन
खरा कह सकता है?"
थोड़ी देर के बाद जु न अलगू चौधरी के पास आए और उनके गले लपटकर बोले,
"भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत क , तब से म तु ारा ाणघातक श ु बन गया था; पर
आज मुझे ात आ क पंच के पद पर बैठकर न कोई कसी का दो होता है, न न।
ाय के सवा और कुछ नह सूझता। आज मुझे व ास हो गया क पंच क जुबान से
खुदा बोलता है।" अलगू रोने लगे। इस पानी से दोन के दल का मैल धुल गया। म ता
क मुरझाई ई लता फर हरी हो गई।
स तीकुंड म खले ए कमल वसंत के धीमे-धीमे झ क से लहरा रहे थे और ातःकाल
क मंद-मंद सुनहरी करण उनसे मल- मलकर मुसकराती थ । राजकुमारी भा कुंड के
कनारे हरी-भरी घास पर खड़ी सुंदर प य का कलरव सुन रही थी। उसका कनकवण
तन इ फूल क भाँ त दमक रहा था, मानो भात क सा ात् सौ मू त है, जो
भगवान् अंशुमाली के करण-कर ारा न मत ई थी।
भा ने मौल सरी के वृ पर बैठी ई एक ामा क ओर देखकर कहा, "मेरा जी चाहता
है क म भी एक च ड़या होती।
उसक सहेली उमा ने मुसकराकर पूछा, " ?"
भा ने कुंड क ओर ताकते ए उ र दया, "वृ क हरी-भरी डा लय पर बैठी ई
चहचहाती, मेरे कलरव से सारा बाग गूँज उठता।"
उमा ने छेड़कर कहा, "नौगढ़ क रानी ऐसे कतने ही प य का गाना जब चाहे सुन
सकती है।"
भा ने संकु चत होकर कहा, "मुझे नौगढ़ क रानी बनने क अ भलाषा नह है। मेरे लए
कसी नदी का सुनसान कनारा चा हए। एक वीणा और ऐसी ही सुंदर सुहावने प य के
संगीत क मधुर न म मेरे लए सारे संसार का ऐ य भरा आ है।"
भा का संगीत पर अप र मत ेम था। वह ब धा ऐसे ही सुख- देखा करती थी। उमा
उ र देना ही चाहती थी क इतने म बाहर से कसी के गाने क आवाज आई, "कर गए
थोड़े दन क ी त।"
भा ने एका मन होकर सुना और अधीर होकर कहा, "ब हन, इस वाणी म जा है।
मुझसे अब बना सुने नह रहा जाता, इसे भीतर बुला लाओ।" उस पर भी गीत का जा
असर कर रहा था। वह बोली, " न ंदेह, ऐसा राग मने आज तक नह सुना, खड़क
खोलकर बुलाती ँ ।"
थोड़ी देर म रा गया भीतर आया, "सुंदर-सजीले बदन का नौजवान था। नंगे पैर, नंगे सर
कंधे पर एक मृगचम, शरीर पर एक गे आ व , हाथ म एक सतार। मुखार वद से तेज
छटक रहा था। उसने दबी ई से दोन कोमलांगी रम णय को देखा और सर
झुकाकर बैठ गया।
भा ने झझकती ई आँख से देखा और नीचे कर ली। उमा ने कहा, "योगीजी,
हमारे बड़े भा थे क आपके दशन ए, हमको भी कोई पद सुनाकर कृताथ क जए।"
योगी ने सर झुकाकर उ र दया, "हम योगी लोग नारायण का भजन करते ह। ऐसे-ऐसे
दरबार म हम भला ा गा सकते ह, पर आपक इ ा है तो सु नए,
"कर गए थोड़े दन क ी त।
कहाँ वह ी त, कहाँ यह बछरन,
कहाँ मधुवन क री त,
कर गए थोड़े दन क ी त।"
योगी का रसीला क ण र, सतार का सुमधुर ननाद, उस पर गीत का माधुय भा को
बेसुध कए देता था। इसका रस भाव और उसका मधुर रसीला गान, अपूव संयोग
था। जस भाँ त सतार क न गगनमंडल म त नत हो रही थी, उस भाँ त भा के
दय म लहर क हलोर उठ रही थ । वे भावनाएँ जो अब तक शांत थ , जाग पड़ । दय
सुख- देखने लगा। सतीकुंड के कमल त ल क प रयाँ बन-बनकर मँडराते ए
भ र से कर जोड़ सजल नयन हो, कहते थे-
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
सुख और हरी प य से लदी ई डा लयाँ सर झुकाए चहचहाते ए प य से रो-रोकर
कहती थ -
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
और राजकुमारी भा का दय भी सतार क म ानी तान के साथ गूँजता था-
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
भा बघौली के राव देवीचंद क इकलौती क ा थी। राव पुराने वचार के रईस थे। कृ
क उपासना म लवलीन रहते थे, इस लए इनके दरबार म र- र के कलावंत और गवैये
आया करते और इनाम-एकराम पाते थे। राव साहब को गान से ेम था, वे यं भी इस
व ा म नपुण थे। य प अब वृ ाव ा के कारण यह श नःशेष हो चली थी, पर फर
भी व ा के गूढ़ त के पूण जानकार थे। भा बा काल से ही इनक सोहबत म बैठने
लगी। कुछ तो पूवज का सं ार और कुछ रात- दन गाने क ही चचाओं ने उसे भी इस
फन म अनुर कर दया था। इस समय उसके स दय क खूब चचा थी। राव साहब ने
नौगढ़ के नवयुवक और सुशील राजा ह र ं से उसक शादी तजवीज क थी। उभय प
म तैया रयाँ हो रही थ । राजा ह र ं मेयो कॉ लज अजमेर के व ाथ और नई रोशनी के
भ थे। उनक आकां ा थी क उ एक बार राजकुमारी भा से सा ा ार होने और
ेमालाप करने का अवसर दया जाए, कतु राव साहब इस था को षत समझते थे।
भा राजा ह र ं के नवीन वचार क चचा सुनकर इस संबंध से ब त संतु न थी। पर
जब से उसने इस ेममय युवा योगी का गाना सुना था, तब से तो वह उसी के ान म
डूबी रहती। उमा उसक सहेली थी। इन दोन के बीच कोई परदा न था। परं तु इस भेद को
भा ने उससे भी गु रखा। उमा उसके भाव से प र चत थी, ताड़ गई। परं तु उसने
उपदेश करके इस अ को भड़काना उ चत न समझा। उसने सोचा क थोड़े दन म ये
अ आप से आप शांत हो जाएगी। ऐसी लालसाओं का अंत ायः इसी तरह हो जाया
करता है कतु उसका अनुमान गलत स आ। योगी क वह मो हनी मू त कभी भा क
आँख से न उतरती, उसका मधुर राग त ण उसके कान म गूँजा करता। उसी कुंड के
कनारे वह सर झुकाए सारे दन बैठी रहती। क ना म वही मधुर दय ाही राग सुनती
और वही योगी क मनोहरणी मू त देखती। कभी-कभी उसे ऐसा आभास होता क बाहर से
यह आवाज आ रही है। वह च क पड़ती और तृ ा से े रत होकर वा टका क चारदीवारी
तक जाती और वहाँ से नराश होकर लौट आती। फर आप ही वचार करती, "यह मेरी
ा दशा है! मुझे यह ा हो गया है! म ह क ा ँ , माता- पता जसे स प द, उसक
दासी बनकर रहना धम है। मुझे तन-मन से उसक सेवा करनी चा हए। कसी अ पु ष
का ान तक मन म लाना मेरे लए पाप है! आह! यह कलु षत दय लेकर म कस मुँह
से प त के पास जाऊँगी! इन कान से कर णय क बात सुन सकूँगी, जो मेरे लए
ं से भी अ धक कणकटु ह गी! इन पापी ने से वह ारी- ारी चतवन कैसे देख
सकूँगी, जो मेरे लए व से भी दयभेदी ह गी। इस गले म वे मृ ल ेमबा पड़गे जो
लौहदं ड से भी अ धक भारी और कठोर ह गे। ारे , तुम मेरे दय-मं दर से नकल जाओ।
यह ान तु ारे यो नह । मेरा वश होता तो तु दय क सेज पर सुलाती; परं तु म धम
क र य म बँधी ँ ।"
इस तरह एक महीना बीत गया। ाह के दन नकट आते जाते थे और भा का कमल-
सा मुख कु लाया जाता था। कभी-कभी वरह-वेदना एवं वचार- व व से ाकुल होकर
उसका च चाहता क सतीकुंड क गोद म शां त लू,ँ कतु राव साहब इस शोक म जान
ही दे दगे, यह वचार कर वह क जाती। सोचती, म उनक जीवन-सव ँ , मुझ
अभा गनी को उ ने कस लाड़- ार से पाला है म ही उनके जीवन का आधार और
अंतकाल ही आशा ँ । नह , य ाण देकर उनक आशाओं क ह ा न क ँ गी। मेरे दय
पर चाहे जो बीते, उ न कुढ़ाऊँगी! भा का एक योगी गवैये के पीछे उ हो जाना
कुछ शोभा नह देता। योगी का गान तानसेन के गान से भी अ धक मनोहर न हो,
पर एक राजकुमारी का उसके हाथ बक जाना दय क बलता कट करता है राव
साहब के दरबार म व ा क , शौय क और वीरता से ाण हवन करने क चचा न थी। यहाँ
तो रात- दन राग-रं ग क धूम रहती थी। यहाँ इसी शा के आचाय त ा के मसनद पर
वरा जत थे और उ पर शंसा के ब मू र लुटाए जाते थे। भा ने ारं भ ही से इसी
जलवायु का सेवन कया था और उस पर इनका गाढ़ा रं ग चढ़ गया था। ऐसी अव ा म
उसक गान- ल ा ने य द भीषण प धारण कर लया तो आ य ही ा है!

शादी बड़ी धूमधाम से ई। राव साहब ने भा को गले लगाकर वदा कया। भा ब त


रोई। उमा को वह कसी तरह छोड़ती न थी।
नौगढ़ एक बड़ी रयासत थी और राजा ह र ं के सु बंध से उ त पर थी। भा क सेवा
के लए दा सय क एक पूरी फौज थी। उसके रहने के लए वह आनंद-भवन सजाया गया
था, जसके बनाने म श - वशारद ने अपूव कौशल का प रचय दया था। ंगार-
चतुराओं ने ल हन को खूब सँवारा। रसीले राजा साहब अधरामृत के लए व ल हो रहे
थे। अंतःपुर म गए। भा ने हाथ जोड़कर, सर झुकाकर, उनका अ भवादन कया। उसक
आँख से आँसू क नदी बह रही थी। प त ने ेम के मद म म होकर घूँघट हटा दया,
दीपक था, पर बुझा आ। फूल था, पर मुरझाया आ।
सरे दन से राजा साहब क यह दशा ई क भ रे क तरह त ण इस फूल पर मँडराया
करते। न राज-पाट क चता थी, न सैर- शकार क परवाह। भा क वाणी रसीला राग थी,
उसक चतवन सुख का सागर और उसका मुख-चं आमोद का सुहावना कुंज। बस,
ेम-मद म राजा साहब बलकुल मतवाले हो गए थे, उ ा मालूम था क ध म म ी
है।
यह असंभव था क राजा साहब के दयहारी और सरस वहार का, जसम अनुराग भरा
आ था, भा पर कोई भाव न पड़ता। ेम का काश अँधेरे दय को भी चमका देता है।
भा मन म ब त ल त होती। वह अपने को इस नमल और वशु ेम के यो न
पाती थी, इस प व ेम के बदले म उसे अपने कृ म, रँ गे ए भाव कट करते ए
मान सक क होता था। जब तक राजा साहब उसके साथ रहते, वह उनके गले लता क
भाँ त लपटी ई घंट ेम क बात कया करती। वह उनके साथ सुमन-वा टका म चुहल
करती, उनके लए फूल का हार गूँथती और उनके गले म हार डालकर कहती, " ारे ,
देखना ये फूल मुरझा न जाएँ , इ सदा ताजा रखना।" वह चाँदनी रात म उनके साथ नाव
पर बैठकर झील क सैर करती और उ ेम का राग सुनाती। य द उ बाहर से आने म
जरा भी देर हो जाती, तो वही मीठा-मीठा उलाहना देती, उ नदय तथा न ु र कहती।
उनके सामने वह यं हँ सती, उसक आँख हँ सती और आँख का काजल भी हँ सता था।
कतु आह! जब वह अकेली होती, उसका चंचल च उड़कर उसी कुंड के तट पर जा
प ँ चता_ कुंड का वह नीला-नीला पानी, उस पर तैरते ए कमल और मौल सरी क वृ -
पं य का सुंदर आँख के सामने आ जाता। उमा मुसकराती और नजाकत से
लचकती ई आ प ँ चती, तब रसीले योगी क मो हनी छ व आँख म आ बैठती और
सतार से सुल लत सुर गूँजने लगते-
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
तब वह एक दीघ नः ास लेकर उठ बैठती और बाहर नकलकर पजरे म चहकते ए
प य के कलरव म शां त ा करती। इस भाँ त यह तरो हत हो जाता।

इस तरह कई महीने बीत गए। एक दन राजा ह र ं भा को अपनी च शाला म ले


गए। उसके थम भाग म ऐ तहा सक च थे। सामने ही शूरवीर महाराणा ताप सह का
च नजर आया। मुखार वद से वीरता क ो त ु टत हो रही थी। त नक और आगे
बढ़कर दा हनी ओर ा मभ जगमल, वीरवर साँगा और दलेर गादास वराजमान थे।
बा ओर उदार भीम सह बैठे ए थे। राणा ताप के स ुख महारा केसरी वीर शवाजी
का च था। सरे भाग म कमयोगी कृ और मयादा पु षो म राम वराजते थे। चतुर
च कार ने च - नमाण म अपूव कौशल दखाया था। भा ने ताप के पाद-प को
चूमा और वह कृ के सामने देर तक ने म ेम और ा के आँसू भरे , म क झुकाए
खड़ी रही। उसके दय पर इस समय कलु षत ेम का भय खटक रहा था। उसे मालूम
होता था क यह उन महापु ष के च नह , उनक प व आ ाएँ ह। उ के च र से
भारतवष का इ तहास गौरवा त है। वीरता के ब मू जातीय र उ को ट के जातीय
ारक और गगनभेदी जातीय तुमुल न है। ऐसी उ आ ाओं के सामने खड़े होते
उसे संकोच होता था। वह आगे बढ़ी, सरा भाग सामने आया। यहाँ ानमय बु
योगसाधना म बैठे ए दीख पड़े। उनक दा हनी और शा शंकर थे और दाश नक
दयानंद। एक दीवार पर गु गो वद अपने देश और जा त पर ब ल चढ़ने वाले दोन ब
के साथ वराजमान थे। सरी दीवार पर वेदांत क ो त फैलाने वाले ामी रामतीथ और
ववेकानंद वराजमान थे। च कार क यो ता एक-एक अवयव से टपकती थी। भा ने
इनके चरण पर म क टे का। वह उनके सामने सर न उठा सक । उसे अनुभव होता था
क द आँख उसके षत दय म चुभी जाती ह।
इसके बाद तीसरा भाग आया। यह तभाशाली क वय क सभा थी। सव ान पर
आ दक व वा ी क और मह ष वेद ास सुशो भत थे। दा हनी ओर ंगार रस के अ तीय
क व कालीदास थे, बा तरफ गंभीर भाव से पूण भवभू त। नकट ही भतृह र अपने
संतोषा म म बैठे ए थे।
द ण क दीवार पर रा भाषा हदी के क वय का स ेलन था। स दय क व, सूर,
तेज ी तुलसी, सुक व केशव और र सक बहारी यथा म वराजमान थे। सूरदास से भा
का अगाध ेम था। वह समीप जाकर उनके चरण पर म क रखना ही चाहती थी क
अक ात् उ चरण के स ुख सर झुकाए उसे एक छोटा सा च दखाई पड़ा। भा
उसे देखकर च क पड़ी। यह वही च था, जो उसके दय-पट पर खचा आ था। वह
खुलकर उसक तरफ ताक न सक , दबी ई आँख से देखने लगी। राजा ह र ं ने
मुसकराकर पूछा, "इस को तुमने कह देखा है?"
इस से भा का दय काँप उठा। जस तरह मृग-शावक ाध के सामने ाकुल
होकर इधर-उधर देखता है, उसी तरह भा अपनी बड़ी-बड़ी आँख से दीवार क ओर
ताकने लगी। सोचने लगी, ‘ ा उ र ँ ? इसको कह देखा है, उ ने यह मुझसे
कया? कह ताड़ तो नह गए? हे नारायण! मेरा तप तु ारे हाथ है, कर इनकार
क ँ ?’ मुँह पीला हो गया। सर झुकाकर ीण र म बोली, "हाँ, ान आता है क कह
देखा है।"
ह र ं ने कहा, "कहाँ देखा है?"
भा के सर म च र सा आने लगा। बोली, "शायद एक बार यह गाता आ मेरी वा टका
के सामने जा रहा था। उमा ने बुलाकर इसका गाना सुना था।"
ह र ं ने पूछा, "कैसा गाना था?"
भा के होश उड़े ए थे। सोचती थी, राजा के इन सवाल म ज र कोई बात है। देख,ूँ लाज
रहती है या नह । बोली, "उसका गाना ऐसा बुरा न था।"
ह र ं ने मुसकराकर कहा, " ा गाता था?"
भा ने सोचा, इन का उ र दे ँ तो बाक ा रहता है। उसे व ास हो गया क
आज कुशल नह है, वह छत क ओर नरखती ई बोली, "सूरदास का कोई पद था।"
ह र ं ने कहा, "यह तो नह ,
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
भा क आँख के सामने अँधेरा छा गया। सर घूमने लगा, वह खड़ी न रह सक , बैठ गई
और हताश होकर बोली, "हाँ, यह पद था।" फर उसने कलेजा मजबूत करके पूछा,
"आपको कैसे मालूम आ?"
ह र ं बोले, "वह योगी मेरे यहाँ अकसर आया-जाया करता है। मुझे भी उसका गाना
पसंद है। उसी ने मुझे यह हाल बताया था, कतु वह तो कहता था क राजकुमारी ने मेरे
गान को ब त पसंद कया और पुनः आने के लए आदेश कया।"
भा को अब स ा ोध दखाने का अवसर मल गया। वह बगड़कर बोली, "यह
बलकुल झूठ है। मने उससे कुछ नह कहा।"
ह र ं बोले, "यह तो म पहले ही समझ गया था क उन महाशय क चालाक है। ड ग
मारना गवैय क आदत है परं तु इसम तो तु इनकार नह क उसका गान बुरा न था?"
भा बोली, "ना! अ ी चीज को बुरा कौन कहेगा?"
ह र ं ने पूछा, " फर सुनना चाहो तो उसे बुलवाऊँ। सर के बल दौड़ा आएगा।"
ा उनके दशन फर ह गे? इस आशा से भा का मुखमंडल वक सत हो गया। परं तु इन
कई महीन क लगातार को शश से जस बात को भुलाने म वह क चत् सफल हो चुक
थी, उसके फर नवीन हो जाने का भय आ। बोली, "इस समय गाना सुनने को मेरा जी
नह चाहता।"
राजा ने कहा, "यह म न मानूँगा क तुम और गाना नह सुनना चाहत , म उसे अभी
बुलाए लाता ँ ।"
यह कहकर राजा ह र ं तीर क तरह कमरे से बाहर नकल गए। भा उ रोक न सक ।
वह बड़ी चता म डूबी खड़ी थी। दय म खुशी और रं ज क लहर बारी-बारी से उठती थ ।
मु ल से दस मनट बीते ह गे क उसे सतार के म ाने सुर के साथ योगी क रसीली
तान सुनाई दी-
"कर गए थोड़े दन क ी त।"
वह दय ाही राग था, वही दय-भेदी भाव, वही मनोहरता और वही सबकुछ, जो मन को
मोह लेता है। एक ण म योगी क मो हनी मू त दखाई दी थी।
वह म ानापन, वही मतवाले ने , वही नयना भराम देवताओं का सा प। मुखमंडल
पर मंद-मंद मुसकान थी। भा ने उसक तरफ सहमी ई आँख से देखा। एकाएक उसका
दय उछल पड़ा। उसक आँख के आगे से एक परदा हट गया। ेम- व ल हो, आँख म
आँसू भरे वह अपने प त के चरणर वद पर गर पड़ी और ग द कंठ से बोली, " ारे
यतम!"
राजा ह र ं को आज स ी वजय ा ई। उ ने भा को उठाकर छाती से लगा
लया। दोन आज एक ाण हो गए।
राजा ह र ं ने कहा, "जानती हो, मने यह ाँग रचा था? गाने का मुझे सदा से
सन है और सुना है तु भी इसका शौक है। तु अपना दय भट करने से थम एक
बार तु ारा दशन करना आव क तीत आ और उसके लए सबसे सुगम उपाय यही
सूझ पड़ा।"
भा ने अनुराग से देखकर कहा, "योगी बनकर तुमने जो कुछ पा लया, वह राजा रहकर
कदा प न पा सकते। अब तुम मेरे प त हो और यतम भी हो पर तुमने मुझे बड़ा धोखा
दया और मेरी आ ा को कलं कत कया। इसका उ रदाता कौन होगा?"
आ गरा कॉलेज के मैदान म सं ा-समय दो युवक हाथ-से-हाथ मलाए टहल रहे थे।
एक का नाम यशवंत था, सरे का रमेश।
यशवंत डीलडौल का ऊँचा और ब ल था। उसके मुख पर संयम और ा क कां त
झलकती थी। रमेश छोटे कद और इकहरे बदन का, तेजहीन और बल आदमी था। दोन
म कसी वषय पर बहस हो रही थी।
यशवंत, "हाँ, देख लेना। तुम ताना मार रहे हो, ले कन म दखला ँ गा क धन को कतना
तु समझता ँ ?"
रमेश, "खैर, दखला देना। म तो धन को तु नह समझता। धन के लए 15 वष से
कताब चाट रहा ँ , धन के लए माँ-बाप, भाई-ब हन सबसे अलग यहाँ पड़ा ँ , न जाने
अभी कतनी सला मयाँ देनी पड़गी, कतनी खुशामद करनी पड़ेगी। ा इसम आ ा का
पतन न होगा? म तो इतने ऊँचे आदश का पालन नह कर सकता। यहाँ तो अगर कसी
मुकदमे म अ ी र त पा जाएँ तो शायद छोड़ न सक। ा तुम छोड़ दोगे?"
यशवंत, "म उनक ओर आँख उठाकर भी न देखूँगा और मुझे व ास है क तुम जतने
नीच बनते हो, उतने नह हो।"
रमेश, "म उससे कह नीच ँ , जतना कहता ँ ।"
यशवंत, "मुझे तो यक न नह आता क ाथ के लए तुम कसी को नुकसान प ँ चा
सकोगे?"
रमेश, "भाई, संसार म आदश का नवाह केवल सं ासी ही कर सकता है म तो नह कर
सकता। म तो समझता ँ क अगर तु ध ा देकर तुमसे बाजी जीत सकूँ, तो तु
ज र गरा ँ गा और बुरा न मानो तो कह ँ , तुम भी मुझे ज र गरा दोगे। ाथ का ाग
करना क ठन है।"
यशवंत, "तो म क ँ गा क तुम भाड़े के ट ू हो।"
रमेश, "और म क ँ गा क तुम काठ के उ ू हो।"
यशवंत और रमेश साथ-साथ ू ल म दा खल ए और साथ-ही-साथ उपा धयाँ लेकर
कॉलेज से नकले। यशवंत कुछ मंदबु , पर बला का मेहनती था। जस काम को हाथ म
लेता, उससे चपट जाता और उसे पूरा करके ही छोड़ता। रमेश तेज ी था पर आलसी।
घंटे-भर भी जमकर बैठना उसके लए मु ल था। एम-ए- तक तो वह आगे रहा और
यशवंत पीछे, मेहनत बु -बल से परा होती रही; ले कन स वल स वस म पासा पलट
गया। यशवंत सब धंधे छोड़कर कताब पर पल पड़ा, घूमना- फरना, सैर-सपाटा,
सरकस- थएटर, यार-दो , सबसे मुँह मोड़कर अपनी एकांत कुटीर म जा बैठा। रमेश
दो के साथ गपशप उड़ाता, केट खेलता रहा। कभी-कभी मनोरं जन के तौर पर
कताब देख लेता। कदा चत् उसे व ास था क अब क भी मेरी तेजी बाजी ले जाएगी।
अकसर जाकर यशवंत को परे शान करता, उसक कताब बंद कर देता; कहता, " ाण
दे रहे हो? स वल स वस कोई मु तो नह है, जसके लए नया से नाता तोड़ लया
जाए।" यहाँ तक क यशवंत उसे आते देखता, तो कवाड़ बंद कर लेता।
आ खर परी ा का दन आ प ँ चा। यशवंत ने सबकुछ याद कया, पर कसी का उ र
सोचने लगता तो उसे मालूम होता, मने जतना पढ़ा था, सब भूल गया। वह ब त घबराया
आ था। रमेश पहले से कुछ सोचने का आदी न था। सोचता, जब परचा सामने आएगा,
उस व देखा जाएगा। वह आ व ास से फूला-फूला फरता था।
परी ा का फल नकला तो सु कछु आ तेज खरगोश से बाजी मार ले गया था।

अब रमेश क आँख खुल , पर वह हताश न आ। यो आदमी के लए यश और धन क


कमी नह , यह उसका व ास था। उसने कानून क परी ा क तैयारी शु क और य प
उसने ब त ादा मेहनत न क , ले कन अ ल दरजे म पास आ। यशवंत ने उसको
बधाई का तार भेजा; वह अब एक जले का अफसर हो गया था।
दस साल गुजर गए। यशवंत दलोजान से काम करता था और उसके अफसर उससे ब त
स थे। पर अफसर जतने स थे, मातहत उतने ही अ स रहते थे। वह खुद जतनी
मेहनत करता था, मातहत से भी उतनी ही मेहनत लेना चाहता था, खुद जतना बेलौस
था, मातहत को भी उतना ही बेलौस बनाना चाहता था। ऐसे आदमी बड़े कारगुजार
समझे जाते ह। यशवंत क कारगुजारी का अफसर पर स ा जमता जाता था। पाँच वष
म ही वह जले का जज बना दया गया।
रमेश इतना भा शाली न था। वह जस इजलास म वकालत करने जाता, वह असफल
रहता। हा कम को नयत समय पर आने म देर हो जाती तो खुद भी चल देता और फर
बुलाने से भी न आता। कहता, "अगर हा कम व क पाबंदी नह करता तो म कँ?
मुझे ा गरज पड़ी है क घंट उनके इजलास पर खड़ा उनक राह देखा क ँ ?" बहस
इतनी नभ कता से करता है क खुशामद के आदी ाम क नगाह म उसक
नभ कता गु ाखी मालूम होती। सहनशीलता उसे छू नह गई थी। हा कम हो या सरे
प का वक ल, जो उसके मुँह लगता, उसक खबर लेता था। यहाँ तक क एक बार वह
जला जज ही से लड़ बैठा। फल यह आ क उसक सनद छीन ली गई, कतु मुव ल
के दय म उसका स ान -का- रहा।
तब उसने आगरा कॉलेज म श क का पद ा कर लया, कतु यहाँ भी भा ने साथ
न छोड़ा। सपल से पहले ही दन खटखट हो गई। सपल का स ांत यह था क
व ा थय को राजनी त से अलग रहना चा हए। वह अपने कॉलेज के कसी छा को
कसी राजनी तक जलसे म शरीक न होने देते। रमेश पहले ही दन इस आ ा का
खु मखु ा वरोध करने लगा। उसका कथन था क अगर कसी को राजनी तक
जलस म शा मल होना चा हए तो व ाथ को। यह भी उसक श ा का एक अंग है।
अ देश म छा ने युगांतर उप त कर दया है तो इस देश म उनक जुबान बंद
क जाती है। इसका फल यह आ क साल ख होने से पहले ही रमेश को इ ीफा देना
पड़ा, कतु व ा थय पर उसका दबाव तल भर भी कम न आ।
इस भाँ त कुछ तो अपने भाव और कुछ प र तय ने रमेश को मार-मारकर हा कम
बना दया। पहले मुव ल का प लेकर अदालत से लड़ा, फर छा का प लेकर
सपल से राड़ मोड़ ली और अब जा का प लेकर सरकार को चुनौती दी। वह भाव
से ही नभ क, आदशवादी, स भ तथा आ ा भमानी था। ऐसे ाणी के लए जा-
सेवक बनने के सवा और उपाय ही ा था? समाचार-प म वतमान प र त पर
उसके लेख नकलने लगे। उसक आलोचनाएँ इतनी , इतनी ापक और इतनी
मा मक होती थ क शी ही उसक क त फैल गई। लोग मान गए क इस े म एक
नई श का उदय आ है। अ धकारी लोग उसके लेख पढ़कर तल मला उठते थे।
उसका नशाना ठीक बैठता था, उससे बच नकलना असंभव था। अ त ो याँ तो
उनके सर पर से सनसनाती ई नकल जाती थ । उनका वे र से तमाशा देख सकते थे,
अ भ ताओं क वे उपे ा कर सकते थे। ये सब श उनके पास प ँ चते ही न थे, रा े ही
म गर पड़े थे। पर रमेश के नशाने सर पर बैठते और अ धका रय म हलचल और
हाहाकार मचा देते थे।
देश क राजनी तक त चताजनक हो रही थी। यशवंत अपने पुराने म के लेख को
पढ़-पढ़कर काँप उठते थे। भय होता, कह वह कानून के पंजे म न आ आए। बार-बार उसे
संयत रहने क ताक द करते, बार-बार म त करते क जरा अपनी कलम को और नरम
कर दो, जान-बूझकर वषधर कानून के मुँह म उँ गली डालते हो? ले कन रमेश को
नेतृ का नशा चढ़ा आ था। वह इन प का जवाब तक न देता था।
पाँचव साल यशंवत बदलकर आगरा का जला-जज हो गया।
देश क राजनी तक दशा चताजनक हो रही थी। खु फया पु लस ने एक तूफान खड़ा कर
दया था। उसक कपोलक त कथाएँ सुन-सुन कर ाम क ह फना हो रही थी।
कह अखबार का मुँह बंद कया जाता था, कह जा के नेताओं का। खु फया पु लस ने
अपना उ ू सीधा करने के लए ाम के कुछ इस तरह कान भरे क उ हर एक
तं वचार रखने वाला आदमी खूनी और का तल नजर आता था।
रमेश यह अंधेर देखकर चुप बैठने वाला मनु न था। - अ धका रय क
नरं कुशता बढ़ती थी, - उसका भी जोश बढ़ता था। रोज कह -न-कह ा ान
देता; उसके ायः सभी ा ान व ोहा क भाव से भरे होते थे। और खरी बात
कहना ही व ोह है। अगर कसी का राजनी तक भाषण व ोहा क नह माना गया तो
समझ लो, उसने अपने आंत रक भाव को गु रखा है। उसके दल म जो कुछ है, उसे
जबान पर लाने का साहस उसम नह है। रमेश ने मनोभाव को गु रखना सीखा ही न
था। वह सबकुछ सहने तो तैयार बैठा था। अ धका रय क आँख म भी वह सबसे ादा
गड़ा आ था।
एक दन यशवंत ने रमेश को अपने यहाँ बुला भेजा। रमेश के जी म तो आया क कह दे,
तु आते ा शरम आती है? आ खर हो तो गुलाम ही। ले कन फर कुछ सोचकर कहला
भेजा, कल शाम को आऊँगा। सरे दन वही ठीक 6 बजे यशवंत के बँगले पर जा प ँ चा।
उसने कसी से इसका ज न कया। कुछ तो यह खयाल था क लोग कहगे, म अफसर
क खुशामद करता ँ और कुछ यह क शायद इससे यशवंत को कोई हा न प ँ च।े
वह यशवंत के बँगले पर प ँ चा तो चराग जल चुके थे। यशवंत ने आकर उसे गले से लगा
लया। आधी रात तक दोन म म खूब बात होती रह । यशवंत ने इतने समय म नौकरी
के जो अनुभव ा कए, सब बयान कए। रमेश को यह जानकर आ य आ क
यशवंत के राजनी तक वचार कतने वषय म मेरे वचार से भी ादा तं ह। उसका
यह खयाल बलकुल गलत नकला क वह बलकुल बदल गया होगा, कादारी के राग
अलापता होगा।
रमेश ने कहा, "भले आदमी, जब इतने जले ए हो तो छोड़ नह देते नौकरी? और
कुछ न सही, अपनी आ ा क र ा तो कर सकोगे।"
नौकरी? और कुछ न सही, अपनी आ ा क र ा तो कर सकोगे।"
यशवंत, "मेरी चता पीछे करना, इस समय अपनी चता करो। मने तु सावधान करने
को बुलाया है। इस व सरकार क नजर म तुम बेतरह खटक रहे हो। मुझे भय है क तुम
कह पकड़े न जाओ।"
रमेश, "इसके लए तो तैयार बैठा ँ ।"
यशवंत, "आ खर आग म कूदने से लाभ ही ा?"
रमेश, "हा न-लाभ देखना मेरा काम नह । मेरा काम तो अपने कत का पालन करना
है।"
यशवंत, "हठी तो तुम सदा के हो, मगर मौका नाजुक है, सँभले रहना ही अ ा है। अगर म
देखता क जनता म वा वक जागृ त है, तो तुमसे पहले मैदान म आता। पर जब देखता
ँ क अपने ही मरे ग देखना है तो आगे कदम रखने क ह त नह पड़ती।"
दोन दो ने देर तक बात क । कॉलेज के दन याद आए। कॉलेज के सहपा ठय क
पुरानी ृ तयाँ मनोरं जन और हा का अ वरल ोत आ करती ह। अ ापक पर
आलोचनाएँ , कौन-कौन साथी ा कर रहा है, इसक चचा ई। बलकुल यह मालूम
होता था क दोन अब भी कॉलेज के छा ह। गंभीरता नाम को भी न थी।
रात ादा हो गई, भोजन करते-करते एक बज गया। यशवंत ने कहा, "अब कहाँ जाओगे,
यह सो जाओ, और बात ह गी। तुम तो कभी आते भी नह ?" रमेश तो रमते जोगी थे ही;
खाना खाकर वह बात करते-करते सो गए। न द खुली तो 9 बज गए थे। यशवंत सामने
खड़ा मुसकरा रहा था। इसी रात को आगरे म भयंकर डाका पड़ गया।

रमेश 10 बजे घर प ँ चा तो देखा, पु लस ने उसका मकान घेर रखा है। इ देखते ही एक


अफसर ने वारं ट दखाया। तुरंत घर क तलाशी होने लगी। मालूम नह , कर रमेश के
मेज क दराज म एक प ौल नकल आया। फर ा था, हाथ म हथकड़ी पड़ गई। अब
कसे उनके डाके म शरीक होने से इनकार हो सकता था, और भी कतने ही आद मय पर
आफत आई। सभी मुख नेता चुन लए गए। मुकदमा चलने लगा।
और क बात को ई र जाने, पर रमेश नरपराध था। इसका उसके पास ऐसा बल
माण था, जसक स ता से कसी को इनकार न हो सकता था। पर ा वह इस माण
का उपयोग कर सकता था?
रमेश ने सोचा, यशवंत यं मेरे वक ल ारा सफाई के गवाह म अपना नाम लखवाने
का ाव करे गा। मुझे नद ष जानते ए वह कभी मुझे जेल न जाने देगा। वह इतना
दयशू नह है। ले कन दन गुजरते जाते थे और यशवंत क ओर से इस कार का कोई
ाव न होता था; रमेश खुद संकोचवश उसका नाम लखवाते ए डरता था। न जाने
इसम उसे ा बाधा हो। अपनी र ा के लए वह उसे संकट म न डालना चाहता था।
यशवंत दयशू न था, भावशू न था, ले कन कमशू था। उसे अपने परम म को
नद ष मारे जाते देखकर ःख होता था, कभी-कभी रो पड़ता था; पर इतना साहस न होता
क सफाई देकर उसे छु ड़ा ले। न जाने अफसर को ा महसूस हो? कह यह न समझने
लग क म भी ष ं का रय से सहानुभू त रखता ँ , मेरा भी उनके साथ कुछ संपक है।
यह मेरे ह ानी होने का दं ड है, जानकर जहर नगलना पड़ रहा है। पु लस ने अफसर
पर इतना आतंक जमा दया क चाहे मेरी शहादत से रमेश छूट भी जाए, खु मखु ा
मुझ पर अ व ास न कया जाए, पर दल से यह संदेह कर र होगा क मने केवल
एक देश-बंधु को छु ड़ाने के लए झूठी गवाही दी? और बंधु भी कौन? जस पर राज-
व ोह का अ भयोग है।
इसी सोच- वचार म एक महीना गुजर गया। उधर म ज े ट ने यह मुकदमा यशंवत ही के
इजलास म भेज दया। डाके म कई खून हो गए थे और उस म ज े ट को उतनी ही कड़ी
सजाएँ देने का अ धकार न था जतनी उसके वचार म दी जानी चा हए थ ।
यशवंत अब बड़े संकट म पड़ा। उसने छु ी लेनी चाही; मंजूर न ई। स वल सजन अं ेज
था। इस वजह से उसक सनद लेने क ह त न पड़ी। बला सर पर आ पड़ी थी और
उससे बचने का उपाय न सूझता था।
भा क कु टल ड़ा दे खए। साथ खेले और साथ पढ़े ए दो म एक- सरे के स ुख
खड़े थे, केवल एक कठघरे का अंतर था। पर एक क जान सरे क मु ी म थी। दोन क
आँख कभी चार न होत । दोन सर नीचा कए रहते थे। य प यशवंत ाय के पद पर था
और रमेश मुल जम, ले कन यथाथ म दशा इसके तकूल थी। यशवंत क आ ा ल ा,
ा न और मान सक पीड़ा से तड़पती थी और रमेश का मुख नद षता के काश से
चमकता रहता था।
दोन म म कतना अंतर था? एक उदार था, सरा कतना ाथ ? रमेश चाहता तो भरी
अदालत म उस रात क बात कह देता। ले कन यशवंत जानता था, रमेश फाँसी से बचने
के लए भी उस माण का आ य न लेगा, जसे म गु रखना चाहता ँ ।
जब तक मुकदमे क पे शयाँ होती रह , तब तक यशवंत को अस ममवेदना होती रही।
उसक आ ा और ाथ म न सं ाम होता रहता था; पर फैसले के दन तो उसक
वही दशा हो रही थी जो कसी खून के अपराधी क हो। इजलास पर जाने क ह त न
पड़ती थी। वह तीन बजे कचहरी प ँ चा। मुल जम अपना भा - नणय सुनने को तैयार
खड़े थे। रमेश भी आज रोज से ादा उदास था। उसके जीवन-सं ाम म वह अवसर आ
गया था, जब उसका सर तलवार क धार के नीचे होगा। अब तक भय सू प म था,
आज उसने ूल प धारण कर लया था।
यशवंत ने ढ़ र म फैसला सुनाया। जब उसके मुख से ये श नकले क रमेशचं को
7 वष क क ठन कारावास, तो उसका गला ँ ध गया। उसने तजवीज मेज पर रख दी।
कुरसी पर बैठकर पसीना प छने के बहाने आँख से उमड़े ए आँसुओ ं को प छा। इसके
आगे तजवीज उससे न पढ़ी गई।

रमेश जेल से नकलकर प ा ां तकारी बन गया। जेल क अँधेरी कोठरी म दन भर के


क ठन प र म के बाद सुधार के मनसूबे बाँधा करता था। सोचता, मनु पाप करता
है? इस लए न क संसार म इतनी वषमता है। कोई तो वशाल भवन म रहता है और
कसी को पेड़ क छाँह भी मय र नह । कोई रे शम और र से मढ़ा आ है, कसी को
फटा व भी नह । ऐसे ाय वहीन संसार म य द चोरी, ह ा और अधम है तो यह
कसका दोष? वह एक ऐसी स म त खोलने का देखा करता, जसका काम संसार से
इस वषमता को मटा देना हो। संसार सबके लए है और उसम सबको सुख भोगने का
समान अ धकार है। न डाका, डाका है, न चोरी, चोरी। धनी अगर अपना धन खुशी से नह
बाँट देता तो उसक इ ा के व बाँट लेने म ा पाप? धनी उसे पाप कहता है तो
कहे। उसका बनाया आ कानून दं ड देना चाहता है तो दे। हमारी अदालत भी अलग होगी।
उसके सामने वे सभी मनु अपराधी ह गे, जनके पास ज रत से ादा सुख-भोग क
साम याँ ह। हम भी उ दं ड दगे, हम भी उनसे कड़ी मेहनत लगे। जेल से नकलते ही
उसने इस सामा जक ां त क घोषणा कर दी। गु सभाएँ बनने लग , श जमा कए
जाने लगे और थोड़े ही दन म डाक का बाजार गरम हो गया। पु लस ने उसका पता
लगाना शु कर दया। उधर ां तका रय ने पु लस पर भी हाथ साफ करना शु कर
दया। उनक श दन- दन बढ़ने लगी। काम इतनी चतुराई से होता था क कसी को
अपराधी का कुछ सुराग न मलता। रमेश कह गरीब के लए दवाखाना खोलता, कह
बक डाके के पय से उसने इलाके खरीदना शु कया। जहाँ कोई इलाका नीलाम होता,
वह उसे खरीद लेता। थोड़े ही दन म उसके अधीन एक बड़ी जायदाद हो गई। इसका नफा
गरीब के उपकार म खच होता था। तुरा यह क सभी जानते थे, यह रमेश क करामात है,
पर कसी क मुँह खोलने क ह त न होती थी। स -समाज क म रमेश से ादा
घृ णत और कोई ाणी संसार म न था। लोग उसका नाम सुन कान पर हाथ रख लेते थे।
शायद उसे ासा मरता देखकर कोई एक बूँद पानी भी उसके मुँह म न डालता; ले कन
कसी क मजाल न थी क उस पर आ ेप कर सक।
इस तरह कई साल गुजर गए। सरकार ने डाकुओं का पता लगाने के लए बड़े-बड़े इनाम
रखे। यूरोप से गु पु लस के स ह आद मय को बुलाकर इस काम पर नयु
कया। ले कन गजब के डकैत थे, जनक ह त के आगे कसी क कुछ न चलती थी।
पर रमेश खुद अपने स ांत का पालन न कर सका। - दन गुजरते थे, उसे
अनुभव होता था क मेरे अनुया यय म असंतोष बढ़ता जाता है। उनम भी जो ादा चतुर
और साहसी थे, वे सर पर रोब जमाते और लूट के माल म बराबर ह ा न देते थे। यहाँ
तक क रमेश से कुछ लोग जलने लगे। वह राजसी ठाट से रहता था। लोग कहते, "उसे
हमारी कमाई को य उड़ाने का ा अ धकार है?" नतीजा यह आ क आपस म फूट पड़
गई।
रात का व था; काली घटा छाई ई थी। आज डाकगाड़ी म डाका पड़ने वाला था। ो ाम
पहले से तैयार कर लया गया था। पाँच साहसी युवक इस काम के लए चुने गए थे।
सहसा एक युवक ने खड़े होकर कहा, "आप बार-बार मुझी को चुनते ह? ह ा लेने
वाले तो सभी ह, म ही बार-बार अपनी जान जो खम म डालूँ?"
रमेश ने ढ़ता से कहा, "इसका न य करना मेरा काम है क कौन कहाँ भेजा जाए।
तु ारा काम केवल मेरी आ ा का पालन है।"
युवक, "अगर मुझसे काम ादा लया जाता है तो ह ा नह ादा दया जाता?"
रमेश ने उसक ो रयाँ देख और चुपके से प ौल हाथ म लेकर बोला, "इसका फैसला
वहाँ से लौटने के बाद होगा।"
युवक, "म जाने से पहले इसका फैसला करना चाहता ँ ।"
रमेश ने इसका जवाब न दया। वह प ौल से उसका काम-तमाम कर देना ही चाहता था
क युवक खड़क से नीचे कूद पड़ा और भागा। कूदने-फाँदने म उसका जोड़ न था। चलती
रे लगाड़ी से फाँद पड़ना उसके बाएँ हाथ का खेल था।
वह वहाँ से सीधा गु पु लस के धान के पास प ँ चा।

यशवंत ने भी पशन लेकर वकालत शु क थी। ाय- वभाग के सभी लोग से उसक
म ता थी। उनक वकालत ब त ज चमक उठी। यशवंत के पास लाख पए थे। उ
पशन भी ब त मलती थी। वह चाहते तो घर बैठे आनंद से अपनी उ के बाक दन काट
देते। देश और जा त क कुछ सेवा करना भी उनके लए मु ल न था। ऐसे ही पु ष से
न ाथ सेवा क आशा क जा सकती है। यशवंत ने अपनी सारी उ पए कमाने म
गुजारी थी और वह अब कोई ऐसा काम न कर सकते थे, जसका फल पय क सूरत म
न मले।
य तो सारा स समाज रमेश से घृणा करता था, ले कन यशवंत सबसे बढ़ा आ था।
कहता, अगर कभी रमेश पर मुकदमा चलेगा, तो म बना फ स लये सरकार क तरफ से
पैरवी क ँ गा। खु मखु ा रमेश पर छ टे उड़ाया करता, "यह आदमी नह , शैतान है,
रा स है, ऐसे आदमी का तो मुँह न देखना चा हए! उफ! इसके हाथ कतने भले घर का
सवनाश हो गया, कतने भले आद मय के ाण गए। कतनी याँ वधवा हो ग ,
कतने बालक अनाथ हो गए। आदमी नह , पशाच है। मेरा बस चले, तो इसे गोली मार ँ ,
जीता दीवार म चनवा ँ ।"
सारे शहर म शोर मचा आ था, "रमेश बाबू पकड़े गए।" बात स ी थी। रमेश चुपचाप
पकड़ा गया था। उसी युवक ने, जो रमेश के सामने कूदकर भागा था, पु लस के धान से
सारा क ा च ा बयान कर दया था। अपहरण और ह ा का कैसा रोमांचकारी, कैसा
पैशा चक, कैसा पापपूण वृ ांत था!
भ समुदाय बगल बजाता था। सेठ के घर म घी के चराग जलते थे। उनके सर पर एक
नंगी तलवार लटकती रहती थी, आज वह हट गई। अब वे मीठी न द सो सकते थे।
अखबार म रमेश के हथकंडे छपने लगे। वे बात जो अब तक मारे भय के कसी क जबान
पर न आती थ , अब अखबार म नकलने लग । उ पढ़कर पता चला था क रमेश ने
कतना अंधेर मचा रखा था? कतने ही राजे और रईस उसे महावार टै दया करते थे।
उसका परचा प ँ चता, फलाँ तारीख को इतने पए भेज दो, फर कसक मजाल थी क
उसका टाल सके। वह जनता के हत के लए जो काम करता, उसके लए भी
अमीर से चंदे लए थे। रकम लखना रमेश का काम था। अमीर को बना कान-पूँछ
हलाए वह रकम दे देनी पड़ती थी।
ले कन भ समुदाय जतना ही स था, जनता उतनी ही ःखी थी। अब कौन पु लस
वाल के अ ाचार से उनक र ा करे गा? कौन सेठ के जु से उ बचाएगा, कौन
उनके लड़क के लए कला-कौशल के मदरसे खोलेगा? वे अब कसके बल पर कूदगे? वह
अब अनाथ थे। वही उनका अवलंब था। अब वे कसका मुँह ताकगे। कसको अपनी
फ रयाद सुनाएँ गे?
पु लस शहादत जमा कर रही थी। सरकारी वक ल जोर से मुकदमा चलाने क तैया रयाँ
कर रहा था। ले कन रमेश क तरफ से कोई वक ल न खड़ा होता था। जले भर म एक ही
आदमी था, जो उसे कानून के पंजे से छु ड़ा सकता था। वह था यशवंत! ले कन यशवंत
जसके नाम से कान पर उँ गली रखता था, ा उसी क वकालत करने को खड़ा होगा?
असंभव। रात के 9 बजे थे। यशवंत के कमरे म एक ी ने वेश कया। यशवंत अखबार
पढ़ रहा था। बोला, " ा चाहती ह?"
ी, "वही जो आपके साथ पढ़ता था और जस पर डाके का झूठा अ भयोग चलाया जाने
वाला है।"
यशवंत ने च ककर पूछा, "तुम रमेश क ी हो?"
ी, "हाँ।"
यशवंत, "म उनक वकालत नह कर सकता।"
ी, "आपको इ यार है। आप अपने जले के आदमी ह और मेरे प त के म रह चुके
ह, इस लए सोचा था, बाहर वाले को बुलाऊँ, मगर अब इलाहाबाद या कलक े से ही
कसी को बुलाऊँगी।"
यशवंत, "मेहनताना दे सकोगी?"
ी ने अ भमान के साथ कहा, "बड़े-से-बड़े वक ल का मेहनताना ा होता है?"
यशवंत, "तीन हजार पए रोज?"
ी, "बस, आप इस मुकदमे को ले ल तो आपको तीन हजार पए रोज ँ गी।"
यशवंत, "तीन हजार पए रोज?"
ी, "हाँ, और य द आपने उ छु ड़ा लया, तो पचास हजार पए आपको इनाम के तौर
पर और ँ गी।"
यशवंत के मुँह म पानी भर आया। अगर मुकदमा दो महीने भी चला, तो कम-से-कम एक
लाख पए सीधे हो जाएँ गे। पुर ार ऊपर से, पूरे दो लाख क गोटी है। इतना धन तो
जदगी भर जमा न कर पाए थे, मगर नया ा कहेगी? अपनी आ ा भी तो नह
गवाही देती। ऐसे आदमी को कानून के पंजे से बचाना असं ा णय क ह ा करना है।
ले कन गोटी दो लाख क है। रमेश के फँस जाने से इस ज े का अंत तो आ नह जाता।
इसके चेले-चापड़ तो रहगे ही। शायद वे अब और भी उप व मचाएँ । फर म दो लाख क
गोटी जाने ँ ? ले कन मुझे कह मुँह दखाने क जगह न रहेगी। न सही। जसका जी
चाहे खुश हो, जसका चाहे नाराज। ये दो लाख नह छोड़े जाते। कुछ म कसी का गला तो
दबाता नह , चोरी तो करता नह ? अपरा धय क र ा करना तो मेरा काम ही है।"
सहसा ी ने पूछा, "आप जवाब देते ह?"
यशवंत, "म कल जवाब ँ गा। जरा सोच लूँ।"
ी, "नह , मुझे इतनी फुरसत नह है। अगर आपको कुछ उलझन हो तो साफ-साफ कह
दी जएगा, म और बंध क ँ ।"
यशवंत को और वचार करने का अवसर न मला। ज ी से फैसला ाथ ही क ओर
झुकता है। यहाँ हा न क संभावना नह रहती।
यशवंत, "आप कुछ पए पेशगी के दे सकती ह?"
ी, " पय क मुझसे बार-बार चचा न क जए। उनक जान के सामने पय क ह ी
ा है? आप जतनी रकम चाह, मुझसे ले ल। आप चाहे उ छु ड़ा न सक, ले कन
सरकार के दाँत ख े ज र कर द।"
यशवंत, "खैर, म ही वक ल हो जाऊँगा। कुछ पुरानी दो ी का नवाह भी तो करना
चा हए।"

पु लस ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, सैकड़ शहादत पेश क । मुख बर ने तो पूरी गाथा ही


सुना दी; ले कन यशवंत ने कुछ ऐसी दलील पेश क शहादत को कुछ इस तरह झूठा स
कया और मुख बर क कुछ ऐसी खबर ली क रमेश बेदाग छूट गया। उन पर कोई
अपराध स न हो सका। यशवंत जैसे संयत और वचारशील वक ल का उनके प म
खड़े हो जाना ही इसका माण था क सरकार ने गलती क ।
सं ा का समय था। रमेश के ार पर शा मयाना तना आ था। गरीब को भोजन कराया
जा रहा था। म क दावत हो रही थी। यह रमेश के छूटने का उ व था। यशवंत को चार
ओर से ध वाद मल रहे थे। रमेश को बधाइयाँ दी जा रही थ । यशवंत बार-बार रमेश से
बोलना चाहता था, ले कन रमेश उसक ओर से मुँह फेर लेता था। अब तक उन दोन म
एक बात भी न ई थी।
आ खर यशवंत ने एक बार झुँझलाकर कहा, "तुम तो मुझसे इस तरह ऐं ठे ए हो, मानो
मने तु ारे साथ कोई बुराई क है।"
रमेश, "और आप ा समझते ह क मेरे साथ भलाई क है? पहले आपने मेरे इस लोक
का सवनाश कया, अबक परलोक का कया। पहले ाय कया होता तो मेरी जदगी
सुधर जाती और अब जेल जाने देते, तो आकबत बन जाती।"
यशवंत, "यह तो कहोगे क इस मामले म कतने साहस से काम लेना पड़ा?"
पं जाब के सह राजा रणजीत सह संसार से चल चुके थे और रा के वे त त पु ष,
जनके ारा उनका उ म बंध चल रहा था, पर र के ष े और अनबन के कारण मर
मटे थे। राणा रणजीत सह का बनाया आ सुंदर कतु खोखला भवन अब न हो चुका
था। कुँवर दलीप सह अब इं ड म थे और रानी चं कुँव र चुनार के ग म। रानी
चं कुँव र ने वन होते ए रा को ब त सँभालना चाहा कतु शासन- णाली न
जानती थी और कूटनी त ई ा क आग भड़काने के सवा और ा करती?
रात के बारह बज चुके थे। रानी चं कुँव र अपने नवास-भवन के ऊपर छत पर खड़ी गंगा
क ओर देख रही थी और सोचती थी, "लहर इस कार तं ह? उ ने कतने गाँव
और नगर डुबोए ह, कतने जीव-जंतु तथा नगल गई ह, कतु फर भी वे तं ह।
कोई उ बंद नह करता। इसी लए न क वे बंद नह रह सकत ? वे गरजगी, बल खाएँ गी
और बाँध के ऊपर चढ़कर उसे न कर दगी, अपने जोर से उसे बहा ले जाएँ गी।"
यह सोचते-सोचते रानी गादी (ग ी) पर लेट गई, उसक आँख के सामने पूवाव ा क
ृ तयाँ मनोहर क भाँ त आने लग । कभी उसक भ ह क मरोड़ तलवार से भी
अ धक ती थी और उसक मुसकराहट वसंत क सुगं धत समीर से भी अ धक ाण-
पोषक, कतु हाय! अब इनक श हीनाव ा को प ँ च गई। रोए तो अपने को सुनाने के
लए, हँ से तो अपने को बहलाने के लए। य द बगड़े तो कसी का ा बगाड़ सकती है
और स हो तो कसी का ा बना सकती है? रानी और बाँदी म कतना अंतर है? रानी
क आँख से आँसू क बूँद झरने लग , जो कभी वष से अ धक ाणनाशक और अमृत से
अ धक अनमोल थ । वह इसी भाँ त अकेली, नराश, कतनी बार रोई, जब क आकाश के
तार के सवा और कोई देखने वाला न था।
इसी कार रोते-रोते रानी क आँख लग ग । उसका ारा, कलेजे का टुकड़ा, कुँवर
दलीप सह, जसम उसके ाण बसते थे, उदास मुख आकर खड़ा हो गया। जैसे गाय दन
भर जंगल म रहने के प ात् सं ा को घर आती ह और अपने बछड़े को देखते ही ेम और
उमंग से मतवाली होकर न म ध भरे , पूँछ उठाए दौड़ती ह, उसी भाँ त चं कुँव र अपने
दोन हाथ फैलाए कुँवर को छाती से लपटाने के लए दौड़ी। परं तु आँख खुल ग और
जीवन क आशाओं क भाँ त वह वन हो गया। रानी ने गंगा क ओर देखा और
कहा, "मुझे भी अपने साथ लेती चलो।" इसके बाद रानी तुरंत छत से उतरी। कमरे म
लालटे न जल रही थी। उसके उजाले म उसने एक मैली साड़ी पहनी, गहने उतार दए, र
के एक छोटे से ब े को और एक ती कटार को कमर म रखा। जस समय वह बाहर
नकली, नैरा पूण साहस क मू त थी।
संतरी ने पुकारा, "कौन?"
रानी ने उ र दया, "म ँ झंगी।"
"कहाँ जाती है?"
"गंगाजल लाऊँगी। सुराही टूट गई है, रानी जी पानी माँग रही ह।"
संतरी कुछ समीप आकर बोला, "चल, म भी तेरे साथ चलता ँ , जरा क जा।"
झंगी बोली, "मेरे साथ मत आओ। रानी कोठे पर ह, देख लगी।"
संतरी को धोखा देकर चं कुँव र गु ार से होती ई अँधेरे म काँट से उलझती, च ान
से टकराती गंगा के कनारे पर जा प ँ ची।
रात आधी से अ धक बीत चुक थी। गंगाजी म संतोषदा यनी शां त वराज रही थी। तरं ग
तार को गोद म लये सो रही थ । चार ओर स ाटा था। रानी नदी के कनारे - कनारे चली
जाती थी और मुड़-मुड़कर पीछे देखती थी। एकाएक एक ड गी खूँटे से बँधी ई दखाई
पड़ी। रानी ने उसे ान से देखा तो म ाह सोया आ था। उसे जगाना काल को जगाना
था। वह तुरंत र ी खोलकर नाव पर सवार हो गई। नाव धीरे -धीरे धार के सहारे चलने
लगी, शोक और अंधकारमय क भाँ त, जो ान को तरं ग के साथ बहाता चला
जाता हो। नाव के हलने से म ाह च ककर उठ बैठा। आँख मलते-मलते उसने सामने
देखा तो पटरे पर एक ी हाथ म डाँडा लये बैठी है। घबराकर पूछा, "तू कौन है रे ? नाव
कहाँ लये जाती है?"
रानी हँ स पड़ी। भय के अंत को साहस कहते ह। बोली, "सच बताऊँ या झूठ?"
म ाह कुछ भयभीत सा होकर बोला, "सच बताया जाए।"
रानी बोली, "अ ा तो सुनो। म लाहौर क रानी चं कुँव र ँ । इसी कले म कैदी थी। आज
भागी जाती ँ । मुझे ज ी बनारस प ँ चा दे, तुझे नहाल कर ँ गी और शरारत करे गा तो
देख, कटार से सर काट ँ गी। सवेरा होने से पहले मुझे बनारस प ँ चना चा हए।"
यह धमक काम कर गई। म ाह ने वनीत भाव से अपना कंबल बछा दया और तेजी से
डाँड चलाने लगा। कनारे के वृ और ऊपर जगमगाते ए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे।
ातःकाल चुनार के ग म े मनु अचं भत और ाकुल था। संतरी, चौक दार और

ल डयाँ सब सर नीचे कए ग के ामी के सामने उप त थे। अ ेषण हो रहा था,
परं तु कुछ पता न चलता था।
उधर रानी बनारस प ँ ची, परं तु वहाँ पहले से ही पु लस और सेना का जाल बछा आ था,
नगर के नाके बंद थे। रानी का पता लगाने वाले के लए एक म मू पा रतो षक क
सूचना दी गई थी।
बंदीगृह से नकलकर रानी को ात हो गया क वह और ढ़ कारागार म है। ग म ेक
मनु उसका आ ाकारी था, ग का ामी भी उसे स ान क से देखता था, कतु
आज तं होकर भी उसके ह ठ बंद थे। उसे सभी ान म श ु दीख पड़ते थे। पंखर हत
प ी को पजरे के कोने म ही सुख है।
पु लस के अफसर ेक आने-जाने वाल को ान से देखते थे कतु उस भखा रन क
ओर कसी का ान नह जाता था, जो एक फटी ई साड़ी पहने, या य के पीछे-पीछे,
धीरे -धीरे सर झुकाए गंगा क ओर चली आ रही थी। न वह च कती है, न हचकती है, न
घबराती है। इस भखा रन क नस म रानी का र है।
यहाँ से भखा रन ने अयो ा क राह ली। वह दन भर वकट माग से चलती और रात
को कसी सुनसान ान पर लेट जाती थी। मुख पीला पड़ गया था। पैर म छाले थे। फूल
सा बदन कु ला गया था।
वह ायः गाँव म लाहौर क रानी के चरचे सुनती। कभी-कभी पु लस के आदमी भी उसे
रानी क टोह म द च दीख पड़ते। उ देखते ही भखा रनी के दय म सोई ई रानी
जाग उठती। वह आँख उठाकर उ घृणा- से देखती और शोक तथा ोध से उसक
आँख जलने लगत । एक दन अयो ा के समीप प ँ चकर रानी एक वृ के नीचे बैठी ई
थी। उसने कमर से कटार नकालकर सामने रख दी थी। वह सोच रही थी क कहाँ जाऊँ?
मेरी या का अंत कहाँ है? ा इस संसार म अब मेरे लए कह ठकाना नह है? वहाँ से
थोड़ी र पर आम का एक ब त बड़ा बाग था। उसम बड़े-बड़े डेरे और तंबू गड़े ए थे। कई
संतरी चमक ली वर दयाँ पहने टहल रहे थे, कई घोड़े बँधे ए थे।
रानी ने इस राजसी ठाट-बाट को शोक क से देखा। एक बार वह भी कभी क ीर
गई थी। उसका पड़ाव इससे कह बड़ा था।
बैठे-बैठे सं ा हो गई। रानी ने वह रात काटने का न य कया। इतने म एक बूढ़ा
मनु टहलता आ आया और उसके समीप खड़ा हो गया। ऐं ठी ई दाढ़ी थी, शरीर म
सटी ई अचकन थी, कमर म तलवार लटक रही थी। इस मनु को देखते ही रानी ने
तुरंत कटार उठाकर कमर म ख स ली। सपाही ने उसे ती से देखकर पूछा, "बेटी,
कहाँ से आई हो?"
रानी ने कहा, "ब त र से।"
"कहाँ जाओगी?"
"यह नह कह सकती, ब त र।"
बैठे-बैठे सं ा हो गई। रानी ने वह रात काटने का न य कया। इतने म एक बूढ़ा
मनु टहलता आ आया और उसके समीप खड़ा हो गया। ऐं ठी ई दाढ़ी थी, शरीर म
सटी ई अचकन थी, कमर म तलवार लटक रही थी। इस मनु को देखते ही रानी ने
तुरंत कटार उठाकर कमर म ख स ली। सपाही ने उसे ती से देखकर पूछा, "बेटी,
कहाँ से आई हो?"
रानी ने कहा, "ब त र से।"
"कहाँ जाओगी?"
"यह नह कह सकती, ब त र।"
सपाही ने रानी क ओर फर ान से देखा और कहा, "जरा अपनी कटार दखाओ।"
रानी कटार सँभालकर खड़ी हो गई और ती र म बोली, " म हो या श ?ु " सपाही ने
कहा, " म ।" सपाही के बातचीत करने के ढं ग म और चेहरे म कुछ ऐसी वल णता थी,
जससे रानी को ववश होकर व ास करना पड़ा।
वह बोली, " व ासघात न करना। यह देखो।"
सपाही ने कटार हाथ म ली। उसको उलट-पुलटकर देखा और बड़े न भाव से उसे आँख
से लगाया। तब रानी के आगे वनीत भाव से सर झुकाकर वह बोला, "महारानी
चं कुँव र?"
रानी ने क ण र म कहा, "नह , अनाथ भखा रनी। तुम कौन हो?" सपाही ने उ र
दया, "आपका एक सेवक।"
रानी ने उसक ओर नराश से देखा और कहा, " भा के सवा इस संसार म मेरा
कोई नह ।"
सपाही ने कहा, "महारानीजी, ऐसा न क हए। पंजाब के सह क महारानी के वचन पर
अब भी सैकड़ सर झुक सकते ह। देश म ऐसे लोग व मान ह, ज ने आपका नमक
खाया है और उसे भूले नह ह।"
रानी, "अब इसक इ ा नह । केवल एक शांत ान चाहती ँ , जहाँ पर एक कुटी के
सवा कुछ न हो।"
सपाही, "ऐसा ान पहाड़ म ही मल सकता है। हमालय क गोद म च लए, वह आप
उप व से बच सकती ह।"
रानी, "(आ य से) श ुओ ं म जाऊँ? नेपाल कब हमारा म रहा है?" सपाही, "राणा
जंगबहा र ढ़ त राजपूत ह।"
रानी, " कतु वही जंगबहा र तो है, जो अभी-अभी हमारे व लॉड डलहौजी को सहायता
देने पर उ त था?"
सपाही (कुछ ल त सा होकर), "तब आप महारानी चं कुँव र थ , आज आप भखा रन
ह। ऐ य के ष े ी और श ु चार ओर होते ह। लोग जलती ई आग को पानी से बुझाते ह,
पर राख माथे पर लगाई जाती है। आप जरा भी सोच- वचार न कर, नेपाल म अभी धम
का लोप नह आ है। आप भय- ाग कर, हमालय क ओर चल। दे खए, वह आपको
कस भाँ त सर और आँख पर बठाता है?"
रानी ने रात इसी वृ क छाया म काटी। सपाही भी वह सोया। ातःकाल वहाँ दो
ती गामी घोड़े दखाई पड़े। एक पर सपाही सवार था और सरे पर एक अ ंत पवान
युवक। यह रानी चं कुँव र थी, जो अपने र ा ान क खोज म नेपाल जाती थी। कुछ देर
बाद रानी ने पूछा, "यह पड़ाव कसका है?"
सपाही ने कहा, "राणा जंगबहा र का। वे तीथया करने आए ह, कतु हमसे पहले प ँ च
जाएँ गे।"
रानी, "तुमने उनसे मुझे यह न मला दया? उनका हा दक भाव कट हो जाता।"
सपाही, "यहाँ उनसे मलना असंभव है। आप जासूस क से न बच सकत ।"
उस समय या करना ाण को अपण कर देना था। दोन या य को अनेक बार डाकुओं
का सामना करना पड़ा। उस समय रानी क वीरता, उसका यु -कौशल तथा फुरती
देखकर बूढ़ा सपाही दाँत तले उँ गुली दबाता था। कभी उनक तलवार काम कर जाती
और कभी घोड़े क तेज चाल।
या बड़ी लंबी थी। जेठ का महीना माग म ही समा हो गया। वषा तु आई। आकाश म
मेघ-माला छाने लगी। सूखी न दयाँ उतर चल । पहाड़ी नाले गरजने लगे। न न दय म
नाव, न नाल पर घाट; कतु घोड़े सधे ए थे। यं पानी म उतर जाते और डूबते-उतराते,
बहते, भँवर खाते पार प ँ च जाते। एक बार ब ू ने कछु ए क पीठ पर नदी क या क
थी। यह या उससे कम भयानक न थी।
कह ऊँचे-ऊँचे साखू और म ए के जंगल थे और कह हरे -भरे जामुन के वन। उनक गोद
म हा थय और हरण के झुंड कलोल कर रहे थे। धन क ा रयाँ पानी से भरी ई थ ।
कसान क याँ धन रोपती थ और सुहावने गीत गाती थ । कह उन मनोहारी नय
के बीच म, खेत क मड़ पर छाते क छाया म बैठे ए जम दार के कठोर श सुनाई देते
थे।
इसी कार या के क सहते, अनेकानेक व च देखते दोन या ी तराई पार करके
नेपाल क भू म म व ए।
ातःकाल का सुहावना समय था। नेपाल के महाराज सुर व म सह का दरबार सजा
आ था। रा के त त मं ी अपने-अपने ान पर बैठे ए थे। नेपाल ने एक बड़ी
लड़ाई के प ात् त त पर वजय पाई थी। इस समय सं ध क शत पर ववाद छड़ा था।
कोई यु - य का इ ु क था, कोई रा - व ार का। कोई-कोई महाशय वा षक कर पर
जोर दे रहे थे। केवल राणा जंगबहा र के आने क देर थी। वे कई महीन के देशाटन के
प ात् आज ही रात को लौटे थे और यह संग, जो उ के आगमन क ती ा कर रहा
था, अब मं -सभा म उप त कया गया था। त त के या ी आशा और भय क दशा
म, धानमं ी के मुख से अं तम नणय सुनने को उ ुक हो रहे थे। नयत समय पर
चोबदार ने राणा के आगमन क सूचना दी। दरबार के लोग उ स ान देने के लए खड़े
हो गए। महाराज को णाम करने के प ात् वे अपने सुस त आसन पर बैठ गए।
महाराज ने कहा, "◌ाणाजी, आप सं ध के लए कौन सा ाव करना चाहते थे?"
राणा ने न भाव से कहा, "मेरी अ -बु म तो इस समय कठोरता का वहार करना
अनु चत है। शोकाकुल श ु के साथ दयालुता का आचरण करना सवदा हमारा उ े रहा
है। ा इस अवसर पर ाथ के मोह म हम अपने ब मू उ े को भूल जाएँ गे? हम
ऐसी सं ध चाहते ह, जो हमारे दय को एक कर दे। य द त त का दरबार हम ापा रक
सु वधाएँ दान करने को क टब हो तो हम सं ध करने के लए सवथा उ त ह।"
मं मंडल म ववाद आरं भ आ। सबक स त इस दयालुता के अनुसार न थी, कतु
महाराज ने राणा का समथन कया। य प अ धकांश सद को श ु के साथ ऐसी नरमी
पसंद न थी, तथा प महाराज के वप म बोलने का कसी को साहस न आ।
या य के चले जाने के प ात् राणा जंगबहा र ने खड़े होकर कहा, "सभा म उप त
स नो, आज नेपाल के इ तहास म एक नई घटना होने वाली है, जसे म आपक जातीय
नी तम ा क परी ा समझता ँ , इसम सफल होना आपके ही कत पर नभर है। आज
राज-सभा म आते समय मुझे यह आवेदन-प मला है, जसे म आप स न क सेवा म
उप त करता ँ । नवेदक ने तुलसीदास क यह चौपाई लख दी है-
आपत-काल पर खए चारी।
धीरज धम म अ नारी।"
महाराज ने पूछा, "यह प कसने भेजा है?"
"एक भखा रन ने।"
" भखा रन कौन है?"
"महारानी चं कुँव र।"
कड़बड़ ख ी ने आ य से पूछा, "जो हमारी म अं ेजी सरकार के व होकर भाग
आई ह?"
राणा जंगबहा र ने ल त होकर कहा, "जी हाँ! य प हम इसी वचार को सरे श म
कट कर सकते ह।"
कड़बड़ ख ी, "अं ेज से हमारी म ता है और म के श ु क सहायता करना म ता क
नी त के व है।"
जनरल शमशेर बहा र, "ऐसी दशा म इस बात का भय है क अं ेजी सरकार से हमारे
संबंध टूट न जाएँ ।"
राजकुमार रणवीर सह, "हम यह मानते ह क अ त थ-स ार हमारा धम है, कतु उसी
समय तक, जब तक क हमारे म को हमारी ओर से शंका करने का अवसर न मले!"
इस संग पर यहाँ तक मतभेद तथा वाद- ववाद आ क एक शोर सा मच गया और कई
धान यह कहते ए सुनाई दए क महारानी का इस समय आना देश के लए कदा प
मंगलकारी नह हो सकता।
तब राणा जंगबहा र उठे । उनका मुख लाल हो गया था। उनका स चार ोध पर
अ धकार जमाने के लए थ य कर रहा था। वे बोले, "भाइयो, य द इस समय मेरी
बात आप लोग को अ ंत कड़ी जान पड़ तो मुझे मा क जएगा, क अब मुझम
अ धक वण करने क श नह है। अपनी जातीय साहसहीनता का यह ल ाजनक
अब मुझसे नह देखा जाता। य द नेपाल के दरबार म इतना भी साहस नह क वह
अ त थ-स ार और सहायता क नी त को नभा सके तो म इस घटना के संबंध म सब
कार का भार अपने ऊपर लेता ँ । दरबार अपने को इस वषय म नद ष समझे और
इसक सवसाधारण म घोषणा कर दे।"
कड़बड़ ख ी गरम होकर बोले, "केवल यह घोषणा देश को भय से र हत नह कर सकती।"
राणा जंगबहा र ने ोध से ह ठ चबा लया, कतु सँभलकर कहा, "देश का शासन-भार
अपने ऊपर लेने वाल क ऐसी अव ाएँ अ नवाय ह। हम उन नयम से, ज पालन
करना हमारा कत है, मुँह नह मोड़ सकते। अपनी शरण म आए ए का हाथ पकड़ना,
उनक र ा करना राजपूत का धम है। हमारे पूव-पु ष सदा इस नयम पर-धम पर ाण
देने को उ त रहते थे। अपने माने ए धम को तोड़ना एक तं जा त के लए ल ा द
है। अं ेज हमारे म ह और अ ंत हष का वषय है क बु शाली म ह। महारानी
चं कुँव र को अपनी म रखने से उनका उ े केवल यह था क उप वी लोग के
गरोह का कोई क शेष न रहे। य द उनका यह उ े भंग न हो, तो हमारी ओर से शंका
न होने का न उ कोई अवसर है और न हम उनसे ल त होने क कोई आव कता।"
कड़बड़ ख ी, "महारानी चं कुँव र यहाँ कस योजन से आई ह?"
राणा जंगबहा र, "केवल एक शां त य सुख- ान क खोज म, जहाँ उ अपनी रव ा
क चता से मु होने का अवसर मले। वह ऐ यशाली रानी जो रं गमहल म सुख-
वलास करती थी, जसे फूल क सेज पर भी चैन न मलता था, आज सैकड़ कोस से
अनेक कार के क सहन करती, नदी-नाले, पहाड़-जंगल छानती यहाँ केवल एक र त
ान क खोज म आई है। उमड़ी ई न दय और उबलते ए नाले, बरसात के दन, इन
ख को आप लोग जानते ह और यह सब उसी एक र त ान के लए, उसी एक भू म
के टुकड़े क आशा म। कतु हम ऐसे दयहीन ह क उनक यह अ भलाषा भी पूरी नह
कर सकते। उ चत तो यह था क उतनी-सी भू म के बदले हम अपना दय फैला देते।
सो चए, कतने अ भमान क बात है क एक आपदा म फँसी ई रानी अपने ःख के दन
म जस देश को याद करती है, यह वही प व देश है। महारानी चं कुँव र को हमारे इस
अभय द ान पर, "हमारी शरणागत क र ा का पूरा भरोसा था और वही व ास
उ यहाँ तक लाया है। इसी आशा पर क पशुप तनाथ क शरण म मुझे शां त मलेगी,
वह यहाँ तक आई ह। आपको अ धकार है, चाहे उनक आशा पूण कर या धूल म मला द।
चाहे र णता के, शरणागत के साथ सदाचरण के नयम को नभाकर इ तहास के पृ
पर अपना नाम छोड़ जाएँ , या जातीयता तथा सदाचार-संबंधी नयम को मटाकर यं
अपने को प तत समझ। मुझे व ास नह है क यहाँ एक भी मनु ऐसा नरा भमान है
क जो इस अवसर पर शरणागत-पालनधम को व ृत करके अपना सर ऊँचा कर सके।
अब म आपसे अं तम नपटारे क ती ा करता ँ । क हए, आप अपनी जा त और देश का
नाम उ ल करगे या सवदा के लए अपने माथे पर अपयश का टीका लगाएँ गे?"
राजकुमार ने उमंग म कहा, "हम महारानी के चरण तले आँख बछाएँ गे।"
क ान रणवीर सह, "हम उनको ऐसी धूम से लाएँ गे क संसार च कत हो जाएगा।"
राणा जंगबहा र ने कहा, "म अपने म कड़बड़ ख ी के मुख से उसका फैसला सुनना
चाहता ँ ।"
कड़बड़ ख ी एक भावशाली पु ष थे और मं मंडल म वे राणा जंगबहा र के व
मंडली के धान थे। वे ल ा भरे श म बोले, "य प म महारानी के आगमन को
भयर हत नह समझता, कतु इस अवसर पर हमारा धम यही है क हम महारानी को
आ य द। धम से मुँह मोड़ना कसी जा त के लए मान का कारण नह हो सकता।"
कई नय ने उमंग भरे श म इस संग का समथन कया। महाराज सुर व म
सह, "इस नपटारे पर बधाई देता ँ । तुमने जा त का नाम रख लया। पशुप त इस उ म
काय म तु ारी सहायता कर।"
सभा वस जत ई। ग से तोप छूटने लग । नगर-भर म खबर गूँज उठी क पंजाब क
रानी चं कुँव र का शुभागमन आ है। जनरल रणवीर सह और जनरल रणधीर सह
बहा र पचास हजार सेना के साथ महारानी क अगवानी के लए चले।
अ त थ-भवन क सजावट होने लगी। बाजार अनेक भाँ त क उ म साम य से सज
गए।
ऐ य क त ा व स ान सब कह होता है, कतु कसी ने भखा रनी का ऐसा स ान
देखा है? सेनाएँ बड बजाती और पताका फहराती ई एक उमड़ी नदी क भाँ त जाती थ ।
सारे नगर म आनंद-ही-आनंद था। दोन ओर सुंदर व भूषण से सजे दशक का समूह
खड़ा था। सेना के कमांडर आगे-आगे घोड़ पर सवार थे। सबके आगे राणा जंगबहा र
जातीय अ भमान के मद म लीन, अपने सुवणख चत हौदे म बैठे ए थे। यह उदारता का
एक प व था। धमशाला के ार पर यह जुलूस का। राणा हाथी से उतरे । महारानी
चं कुँव र कोठरी से बाहर नकल आ । राणा ने झुककर वंदना क । रानी उनक ओर
आ य से देखने लग । यह वही उनका म बूढ़ा सपाही था।
आँखे भर आ , मुसकरा , खले ए फूल पर से ओस क बूँद टपक । रानी बोली, "मेरे बूढ़े
ठाकुर, मेरी नाव पार लगाने वाले, कस भाँ त तु ारा गुण गाऊँ?"
राणा ने सर झुकाकर कहा, "आपके चरणा वद से हमारे भा उदय हो गए।"
नेपाल क राजसभा ने प ीस हजार पए से महारानी के लए एक उ म भवन बनवा
दया और उनके लए दस हजार पए मा सक नयत कर दए।
वह भवन आज तक वतमान है और नेपाल क शरणागत यता तथा णपालन-त रता
का ारक है। पंजाब क रानी को लोग आज तक याद करते ह।
यह वह सीढ़ी है जससे जा तयाँ, यश के सुनहरे शखर पर प ँ चती ह। ये ही घटनाएँ ह,
जनसे जातीय इ तहास काश और मह को ा होता है।
सी धे-सादे कसान धन हाथ आते ही धम और क त क ओर झुकते ह। द समाज
क भाँ त वह पहले अपने भोग- वलास क ओर नह दौड़ते। सुजान क खेती म कई साल
से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी कसान करते थे, पर सुजान के चं मा
बली थे, ऊसर म भी दाना छ ट आता तो कुछ-न-कुछ पैदा हो जाता था। तीन वष लगातार
ईख लगती गई। उधर गुड़ का भाव तेज था। कोई दो-ढाई हजार हाथ म आ गए, बस च
क वृ धम क ओर झुक पड़ी। साधु-संत का आदर-स ार होने लगा, ार पर धूनी
जलने लगी, कानूनगो इलाके म आते तो सुजान महतो के चौपाल म ठहरते। हलके के हैड
कां े बल, थानेदार, श ा- वभाग का अफसर, एक-न-एक उस चौपाल म पड़ा रहता।
महतो मारे खुशी के फूले न समाते। ध भाग! उसके ार पर अब इतने बड़े-बड़े हा कम
आकर ठहरते ह, जन हा कम के सामने उसका मुँह न खुलता था, उ क अब ‘महतो-
महतो’ करते जबान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महा ा ने डौल
अ ा देखा तो गाँव म आसन जमा दया। गाँजे और चरस क बहार उड़ने लगी। एक
ढोलक आई, मंजीरे मँगाए गए, स ंग होने लगा। यह सब सुजान के दम का जलूस था।
घर म सेर ध होता था, मगर सुजान के कंठ तले एक बूँद भी जाने क कसम थी। कभी
हा कम लोग चखते, कभी महा ा लोग। कसान को ध-घी से ा मतलब? उसे रोटी
और साग चा हए। सुजान क न ता का अब पारावार न था। सबके सामने सर झुकाए
रहता, कह लोग यह न कहने लग क धन पाकर उसे घमंड हो गया। गाँव म कुल तीन कुएँ
थे, ब त से खेत मे पानी न प ँ चता था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने प ा कुआँ बनवा
दया। कुएँ का ववाह आ, य आ, भोज आ। जस दन पहली बार पुर चला,
सुजान को मानो चार पदाथ मल गए। जो काम गाँव म कसी ने न कया था, वह बाप-
दादा के पु - ताप से सुजान ने कर दखाया।
एक दन गाँव म गया के या ी आकर ठहरे । सुजान ही के ार पर उनका भोजन बना।
सुजान के मन म भी गया करने क ब त दन से इ ा थी। यह अ ा अवसर देखकर वह
भी चलने को तैयार हो गया। उसक ी बुलाक ने कहा, "अभी रहने दो, अगले साल
चलगे।"
सुजान ने गंभीर भाव से कहा, "अगले साल ा होगा, कौन जानता है? धम के काम म
मीन-मेख नकालना अ ा नह , जदगी का ा भरोसा?"
बुलाक , "हाथ खाली हो जाएगा।"
सुजान, "भगवान् क इ ा होगी तो फर पए हो जाएँ गे। उनके यहाँ कस बात क कमी
है?"
बुलाक इसका ा जवाब देती? स ाय म बाधा डालकर अपनी मु बगाड़ती?
ातःकाल ी और पु ष गया करने चले। वहाँ से लौटे तो य और भोज क ठहरी।
सारी बरादरी नमं त ई, ारह गाँव म सुपारी बँटी। इस धूमधाम से यह लाभ आ
क चार ओर वाह-वाह मच गई। सब यही कहते थे क भगवान् धन दे तो दल भी ऐसा दे।
घमंड तो छू नह गया, अपने हाथ से प ल उठाता फरता, कुल का नाम जगा दया। बेटा
हो तो ऐसा हो। बाप मरा तो भूनी-भाँग भी नह थी। अब ल ी घुटने तोड़कर आ बैठी है।
एक ष
े ी ने कहा, "कह गड़ा आ धन पास आ गया है।"
इस पर चार ओर से उस पर बौछार पड़ने लग , "हाँ, तु ारे बाप-दादा जो खजाना छोड़
गए थे, वही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धम क कमाई है। तुम भी तो छाती
फाड़कर काम करते हो, ऐसी ईख नह लगती? ऐसी फसल नह होती? भगवान्
आदमी का दल देखते ह। जो खच करता है, उसी को देते ह।"

सुजान महतो सुजान भगत हो गए। भगत के आचार- वचार कुछ और होते ह, वह बना
ान कए कुछ नह खाता। गंगाजी अगर घर से र ह और वह रोज ान करके दोपहर
तक घर न लौट सकता तो पव के दन तो उसे अव ही नहाना चा हए। भजन-भाव
उसके घर अव होना चा हए। पूजा-अचना उसके लए अ नवाय है। खान-पान म भी
उसे ब त वचार करना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है क झूठ का ाग करना पड़ता है।
भगत झूठ नह बोल सकता। साधारण मनु को अगर झूठ का दं ड एक मले तो भगत
को एक लाख से कम नह मल सकता। अ ान क अव ा म कतने ही अपराध हो
जाते ह। ानी के लए मा नह है, ाय नह है, य द है तो ब त क ठन। सुजान को
भी अब भगत क मयादा को नभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था।
उसका कोई आदश, कोई मयादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन म वचार का
उदय आ, जहाँ तक माग काँट से भरा आ था। ाथ-सेवा ही पहले उसके जीवन का
ल था, इसी काँटे से वह प र तय को तौलता था। वह अब उ औ च के काँट
पर तौलने लगा। य कहो क जड़-जगत से नकलकर उसने चेतन-जगत म वेश कया।
उसने कुछ लेन-े देन करना शु कया था। अब उसे ाज लेते ए आ ा न-सी होती
थी। यहाँ तक क गउओं को हते समय उसे बछड़ का ान बना रहता था। कह बछड़ा
भूखा न रह जाए, नह तो उसका रोयाँ ःखी होगा। वह गाँव का मु खया था, कतने ही
मुकदम म उसने झूठी शहादत बनवाई थ , कतन से डाँड लेकर मामले को रफा-दफा
करा दया था। अब इन ापार से उसे घृणा होती थी। झूठ और पंच से कोस र भागता
था। पहले उसक यह चे ा होती थी क मजूर से जतना काम लया जा सके, लो और
मजूरी जतनी कम दी जा सके, दो, पर अब उसे मजूर के काम क कम, मजूरी क अ धक
चता रहती थी, कह बेचारे मजूर का रोयाँ ःखी हो जाए। उसके दोन जवान बेटे बात-बात
म उस पर फ याँ कसते, यहाँ तक क बुलाक भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी
थी, जसे घर के भले-बुरे से कोई योजन न था। चेतन-जगत म आकर सुजान भगत कोरे
भगत रह गए।
सुजान के हाथ से धीरे -धीरे अ धकार छीने जाने लगे। कस खेत म ा बोना है, कसको
ा देना है, कससे ा लेना है, कस भाव ा चीज बक , ऐसी-ऐसी मह पूण बात
म भी भगतजी क सलाह न ली जाती थी। भगत के पास कोई जाने ही न पाता। दोन
लड़के या यं बुलाक र ही से मामला तय कर लया करती। गाँव भर म सुजान का
मान-स ान बढ़ता था, अपने घर म घटता था। लड़के उसका स ार अब ब त करते।
हाथ से चारपाई उठाते देख लपककर खुद उठा लाते, चलम न भरने देत,े यहाँ तक क
उसक धोती छाँटने के लए भी आ ह करते थे, मगर अ धकार उसके हाथ म न था। वह
अब घर का ामी नह , मं दर का देवता था।

एक दन बुलाक ओखली म दाल छाँट रही थी। एक भखमंगा ार पर आकर च ाने


लगा। बुलाक ने सोचा, दाल छाँट लूँ तो उसे कुछ दे ँ । इतने म बड़ा लड़का भोला आकर
बोला, "अ ा, एक महा ा ार पर खड़े गला फाड़ रहे ह? कुछ दे दो, नह तो उनका रोयाँ
ःखी हो जाएगा।"
बुलाक ने उपे ा के भाव से कहा, "भगत के पाँव म ा मेहँदी लगी है, कुछ ले
जाकर नह देते? ा मेरे चार हाथ ह? कस- कस का रोयाँ सुखी क ँ ? दन भर तो ताँता
लगा रहता है।"
भोला, "चौपट करने पर लगे ए ह, ा? अभी महगू बग ( पए) देने आया था।
हसाब से 7 मन आ। तोला तो पौने सात मन ही नकले।"
मने कहा, "दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे कहते ह, अब इतनी र कहाँ जाएगा।
भरपाई लख दो, नह तो उसका रोयाँ ःखी होगा। मने भरपाई नह लखी। दस सेर बाक
लख दी।"
बुलाक , "ब त अ ा कया तुमने, बकने दया करो। दस-पाँच दफे मुँह क खा जाएँ गे, तो
आप ही बोलना छोड़ दगे।"
भोला, " दन भर एक-न-एक खुचड़ नकालते ह। सौ दफे कह दया क तुम घर-गृह ी के
मामले म न बोला करो, पर इनसे बना बोले रहा ही नह जाता।"
बुलाक , "म जानती थी क इनका यह हाल होगा तो गु मं न लेने देती।"
भोला, "भगत ा ए क दीन- नया दोन से गए। सारा दन पूजा-पाठ म उड़ जाता है।
अभी ऐसे बूढ़े नह हो गए क कोई काम ही न कर सक।"
बुलाक ने आप क , "भोला, यह तु ारा कु ाय है। फावड़ा, कुदाल अब उनसे नह हो
सकता, ले कन कुछ-न-कुछ तो करते ही रहते ह। बैल को सानी-पानी देते ह, गाय हते ह,
और भी जो कुछ हो सकता है, करते ह।"
भ ुक अभी तक खड़ा च ा रहा था। सुजान ने जब घर म से कसी को कुछ लाते न
देखा, तो उठकर अंदर गया और कठोर र म बोला, "तुम लोग को कुछ सुनाई नह देता
क ार पर कौन घंटे भर से खड़ा भीख माँग रहा है? अपना काम तो दन भर करना ही है,
एक ण भगवान् का काम भी तो कया करो।"
बुलाक , "‘तुम तो भगवान् का काम करने को बैठे ही हो, ा घर-भर भगवान् ही का काम
करे गा?"
सुजान, "आटा मने मर-मरकर पीसा है, अनाज दे दो। ऐसे मुड़ चर के लए पहर रात से
उठकर च नह चलाती ँ ।"
सुजान भंडार-घर म गए और एक छोटी सी छबड़ी को जौ भरे ए नकले। जौ सेर भर से
कम न था। सुजान ने जान-बूझकर केवल बुलाक और भोला को चढ़ाने के लए, भ ा
परं परा का उ ंघन कया था। तस पर भी यह दखाने के लए क छबड़ी म ब त ादा
जौ नह ह, वह उसे चुटक से पकड़े ए थे। चुटक इतना बोझ न सँभाल सकती थी। हाथ
काँप रहा था। एक ण वलंब होने से छबड़ी के हाथ से छूटकर गर पड़ने क संभावना थी।
इस लए वह ज ी से बाहर नकल जाना चाहते थे। सहसा भोला ने छबड़ी उनके हाथ से
छीन ली और ो रयाँ बदलकर बोला, "सत का माल नह है, जो लुटाने चले हो। छाती
फाड़-फाड़कर काम करते ह, तब दाना घर म आता है।"
सुजान ने ख सयाकर कहा, "म भी तो बैठा नह रहता।"
भोला, "भीख भीख क तरह ही दी जाती है, लुटाई नह जाती। हम तो एक बेला खाकर
दन काटते ह क दाना-पानी बना रहे, और तु लुटाने क सूझी। तु ा मालूम क
घर म ा हो रहा है?"
सुजान ने इसका कोई जवाब न दया। बाहर आकर भखारी से कह दया, "‘बाबा, इस
समय जाओ, कसी का हाथ खाली नह है।" और पेड़ के नीचे बैठकर वचार म म हो
गया। अपने ही घर म उसका यह अनादर! अभी वह अपा हज नह है, हाथ-पाँव थके नह ह।
घर का कुछ-न-कुछ काम करता ही रहता है। उस पर यह अनादर? उसी ने घर बनाया, यह
सारी वभू त उसी के म का फल है, पर अब इस घर पर उसका कोई अ धकार नह रहा।
अब वह ार का कु ा है, पड़ा रहे और घर वाले जो खा दे द, वह खाकर पेट भर लया
करे । ऐसे जीवन को ध ार है। सुजान ऐसे घर म नह रह सकता।
सं ा हो गई थी। भोला का छोटा भाई शंकर ना रयल भरकर लाया। सुजान ने ना रयल
दीवार से टकाकर रख दया। धीरे -धीरे तंबाकू जल गया। जरा देर म भोला ने ार पर
चारपाई डाल दी। सुजान पेड़ के नीचे से न उठा।
कुछ देर और गुजरी, भोजन तैयार आ, भोला बुलाने आया। सुजान ने कहा, "भूख नह
है।" ब त मनावन करने पर भी न उठा।
तब बुलाक ने आकर कहा, "खाना खाने नह चलते? जी तो अ ा है?"
सुजान को सबसे अ धक ोध बुलाक पर था। यह भी लड़क के साथ है। यह बैठी देखती
रही और भोला ने मेरे हाथ से अनाज छीन लया। इसके मुँह से इतना न नकला क ले
जाते ह तो ले जाने दो। लड़क को न मालूम हो क मने कतने म से यह गृह ी जोड़ी है,
पर यह तो जानती है। दन को दन और रात को रात नह समझा। भाद क अँधेरी रात म
मड़ैया लगा के जुआर क रखवाली करता था।
जेठ-बैसाख क दोपहरी म भी दम न लेता था, और अब मेरा घर पर इतना भी अ धकार
नह है क भीख तक दे सकूँ। माना क भीख इतनी नह दी जाती, ले कन इनको तो चुप
रहना चा हए था, चाहे म घर म आग ही न लगा देता। कानून से भी मेरा कुछ होता है।
म अपना ह ा नह खाता, सर को खला देता ँ , इसम कसी के बाप का ा साझा?
अब इस व मनाने आई है, जसने खसम क लात न खाई ह , कभी कड़ी नगाह से देखा
तक नह । पए जमा कर लए ह, तो मुझी से घमंड करती है। अब इसे बेटे ारे ह, म तो
नख ू , लुटाऊ, घर-फँू कू, घ घा ँ । मेरी इसे ा परवाह? तब लड़के न थे, जब बीमार पड़ी
थी और म गोद म उठाकर वै के घर ले गया था। आज इसके बेटे ह और यह उनक माँ
है। म तो बाहर का आदमी ँ । मुझे घर से मतलब ही ा?
बोला, "अब खा-पीकर ा क ँ गा, हल जोतने से रहा, फावड़ा चलाने से रहा। मुझे
खलाकर दाने को खराब करे गी? रख दे, बेटे सरी बार खाएँ गे?"
बुलाक , "तुम तो जरा-जरा सी बात पर तनक जाते हो। सच कहा है, बुढ़ापे म आदमी क
बु मारी जाती है। भोला ने इतना तो कहा था क इतनी भीख मत ले जाओ या और
कुछ?"
सुजान, "हाँ, बेचारा इतना कहकर रह गया। तु तो मजा तब आता, जब वह ऊपर से दो-
चार डंडे लगा देता। ? अगर यही अ भलाषा है तो पूरी कर लो। भोला खा चुका होगा,
बुला लाओ। नह , भोला को बुलाती हो, तु न जमा दो दो-चार हाथ। इतनी कसर
है, वह भी पूरी हो जाए।"
बुलाक , "हाँ, और ा, यही तो नारी का धरम है। अपने भाग सराहो क मुझ जैसी सीधी
औरत पा ली। जस बल चाहते हो, बठाते हो। ऐसी मुँहजोर होती तो घर म एक दन भी
नबाह न होता।"
सुजान, "हाँ भाई, वह तो म ही कह रहा ँ क देवी थी और हो। म तब भी रा स था और
अब भी दै हो गया ँ । बेटे कमाऊ ह, उनक सी न कहोगी तो ा मेरी सी कहोगी,
मुझसे अब ा लेना-देना है?"
बुलाक , "तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और म झगड़ा बचाती ँ क चार आदमी हँ सगे।
चलकर खाना खा लो सीधे से, नह तो म जाकर सो र ँ गी।"
सुजान, "तुम भूखी सो रहोगी? तु ारे बेट क तो कमाई है। हाँ, म बाहरी आदमी ँ ।"
बुलाक , "बेटे तु ारे भी तो ह।"
सुजान, "नह , म ऐसे बेट से बाज आया। कसी और के बेटे ह गे। मेरे बेटे होते तो ा
मेरी ग त होती?"
बुलाक , "गा लयाँ दोगे तो म भी कुछ कह बैठूँगी। सुनती थी, मरद बड़े समझदार होते ह,
पर तुम सबसे ारे हो। आदमी को चा हए क जैसा समय देखे वैसा ही काम करे । अब
हमारा और तु ारा नबाह इसी म है क नाम के मा लक बने रह और वही कर जो लड़क
को अ ा लगे। म यह बात समझ गई, तुम नह समझ पाते? जो कमाता है, उसी का
घर म राज होता है, यही नया का द ूर है। म बना लड़क से पूछे कोई काम नह करती,
तुम अपने मन क करते हो? इतने दन तक तो राज कर लया, अब इस माया
म पड़े हो? आधी रोटी खाओ, भगवान् का भजन करो और पड़े रहो। चलो, खाना खा लो।"
सुजान, "तो अब म ार का कु ा ँ ?"
बुलाक , "बात जो थी, वह मने कह दी। अब अपने को जो चाहो समझो।"
सुजान न उठा। बुलाक हारकर चली गई।

सुजान के सामने अब एक नई सम ा खड़ी हो गई थी। वह ब त दन से घर का ामी


था और अब भी ऐसा ही समझता रहा। प र त म कतना उलट-फेर हो गया था, इसक
उसे खबर न थी। लड़के उसका सेवा-स ान करते ह, यह बात उसे म म डाले ए थी।
लड़के उसके सामने चलम नह पीते, खाट पर नह बैठते, ा यह सब उसके गृह ामी
होने का माण न था? पर आज उसे यह ात आ क यह केवल ा थी, उसके
ा म का माण नह । अब तक जस घर म राज कया, उसी घर म पराधीन बनकर
वह नह रह सकता। उसको ा क चाह नह , सेवा क भूख नह । उसे अ धकार चा हए।
वह इस घर पर सर का अ धकार नह देख सकता, मं दर का पुजारी बनकर वह नह रह
सकता।
न जाने कतनी रात बाक थी। सुजान ने उठकर गँड़ासे से बैल का चारा काटना शु
कया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान चारा काट रहा था। इतना म उ ने अपने
जीवन म कभी न कया था। जब से उ ने काम करना छोड़ दया था, बराबर चारे के लए
हाय-हाय पड़ी रहती थी। शंकर भी काटता था, भोला भी काटता था, पर चारा पूरा न पड़ता
था। आज वह इन ल ड को दखा दगे, चारा कैसे काटना चा हए, उसके सामने क टया
का पहाड़ खड़ा हो गया और टुकड़े कतने महीन और सुडौल थे, मानो साँचे म ढाले गए
ह।
मुँह-अँधेरे बुलाक उठी तो क टया का ढे र देखकर दं ग रह गई और बोली, " ा भोला
आज रात भर क टया को काटता रह गया? कतना कहा क बेटा, जी से जहान है, पर
मानता ही नह । रात को सोया ही नह ।"
सुजान भगत ने ताने से कहा, "वह सोता ही कब है? जब देखता ँ , काम ही काम करता
रहता है। ऐसा कमाऊ संसार म और कौन होगा?"
इतने म भोला आँख मलते ए बाहर नकला। उसे भी यह ढे र देखकर आ य आ। माँ से
बोला, " ा शंकर आज बड़ी रात को उठा था अ ा?"
बुलाक , "वह तो पड़ा सो रहा है। मने तो समझा, तुमने काटी होगी।"
भोला, "म तो सवेरे उठ ही नह पाता। दन भर चाहे जतना काम कर लू,ँ पर रात को
मुझसे नह उठा जाता।"
बुलाक , "तो ा तु ारे दादा ने काटी है?"
भोला, "हाँ, मालूम होता है रात भर सोए नह । मुझसे कल बड़ी भूल ई। अरे , वो तो हल
लेकर जा रहे ह। जान देने पर उता हो गए ह ा?"
बुलाक , " ोधी तो सदा के ह। अब कसी क सुनगे थोड़े ही।"
भोला, "शंकर को जगा दो, म भी ज ी से मुँह-हाथ धोकर हल ले जाऊँ।"
जब और कसान के साथ भोला हल लेकर खेत म प ँ चा तो सुजान आधा खेत जोत चुका
था। भोला ने चुपके से काम करना शु कया। सुजान से कुछ बोलने क ह त न पड़ी।
दोपहर ई। सभी कसान ने हल छोड़ दया, पर सुजान भगत अपने काम म म रहा।
भोला थक गया था। उसक बार-बार इ ा होती क बैल को खोल दे, मगर डर के मारे
कुछ कह नह सकता। सबको आ य हो रहा है क दादा कैसे इतनी मेहनत कर रहे ह?
आ खर डरते-डरते बोला, "दादा, अब तो दोपहर हो गई। हल खोल द न?"
सुजान, "हाँ, खोल दो। तुम बैल को लेकर चलो, म डाँड फककर आता ँ ।"
भोला, "‘म संझा को डाँड फक ँ गा।"
सुजान, "‘तुम ा फक दोगे। देखते नह हो, खेत कटोरे क तरह गहरा हो गया है। तभी
तो बीच म पानी जम जाता है। इस गोइं ड के खेत म बीस मन का बीघा होता था। तुम
लोग ने इसका स ानाश कर दया।"
बैल खोल दए गए। भोला बैल को लेकर घर चला गया, पर सुजान डाँड फकते रहे। आध
घंटे के बाद डाँड फककर वह घर आए, मगर थकान का नाम न था। नहा-खाकर आराम
करने के बदले उ ने बैल को सहलाना शु कया, उनक पीठ पर हाथ फेरा, उनके पैर
मले, पूँछ सहलाई। बैल क पूँछ खड़ी थ । सुजान क गोद म सर रखे उ अकथनीय
सुख मल रहा था। ब त दन के बाद आज उ यह आनंद ा आ था। उनक आँख
म कृत ता भरी ई थी, मानो वे कह रहे थे, हम तु ारे साथ रात- दन काम करने को
तैयार ह।
अ कृषक क भाँ त भोला अभी कमर सीधी कर रहा था क सुजान ने फर हल उठाया
और खेत क ओर चले। दोन बैल उमंग से भरे दौड़े चले जाते थे, मानो उ यं खेत म
प ँ चने क ज ी थी।
भोला ने मड़ैया म लेटे-लेटे पता को हल लये जाते देखा, पर उठ न सका। उसक ह त
छूट गई। उसने कभी इतना प र म न कया था। उसे बनी-बनाई गृह ी मल गई थी,
उसे - चला रहा था। इन दाम वह घर का ामी बनने का इ ु क न था। जवान
आदमी को बीस धंधे होते ह। हँ सने-बोलने के लए, गाने-बजाने के लए भी तो उसे कुछ
समय चा हए। पड़ोस के गाँव म दं गल हो रहा है। जवान आदमी कैसे अपने को वहाँ जाने
से रोकेगा? कसी गाँव म बारात है? वृ जन के लए ये बाधाएँ नह । उ न नाच-गाने से
मतलब, न खेल-तमाशे से गरज, केवल अपने काम से काम है।
बुलाक ने कहा, "भोला, तु ारे दादा हल लेकर गए।"
भोला, "जाने दो अ ा, मुझसे यह नह हो सकता।"

सुजान भगत के इस नवीन उ ाह पर गाँव म टीकाएँ , " नकल गई सारी भगती।


भगत बना आ था, माया म फँसा आ है। आदमी काहे को, भूत है।"
मगर भगतजी के ार पर अब फर साधु-संत आसन जमाए देखे जाते ह। उनका आदर-
स ार होता है। अबक उसक खेती ने सोना उगल दया है। बुखारी म अनाज रखने क
जगह नह मलती। जस खेत म पाँच मन मु ल से होता था, उसी खेत म अबक दस
मन क उपज ई है।
चैत का महीना था। ख लहान म सतयुग का राज था। जगह-जगह अनाज के ढे र लगे ए
थे। यही समय है, जब कृषक को भी थोड़ी देर के लए अपना जीवन सफल मालूम होता है,
जब गव से उनका दय उछलने लगता है। सुजान भगत टोकरे म अनाज भर-भर कर देते
थे और दोन लड़के टोकरे लेकर घर म अनाज रख आते थे। कतने ही भाट और भ ुक
भगतजी को घेरे ए थे। उनम वह भ ुक भी था, जो आज से आठ महीने पहले भगत के
ार से नराश होकर लौट गया था।
सहसा भगत ने उस भ ुक से पूछा, " बाबा, आज कहाँ-कहाँ च र लगा आए?"
भ ुक, "अभी तो कह नह गया भगतजी, पहले तु ारे ही पास आया ँ ।"
भगत, "‘अ ा, तु ारे सामने यह ढे र है। इसम से जतना अनाज उठाकर ले जा सको, ले
जाओ।"
भ ुक ने ु ने से ढे र को देखकर कहा, " जतना अपने हाथ से उठाकर दे दोगे, उतना
ही लूँगा।"
भगत, "नह , तुमसे जतना उठ सके, उठा लो।"
भ ुक के पास एक चादर थी, उसने कोई दस सेर अनाज उसम भरा और उठाने लगा।
संकोच के मारे और अ धक भरने का साहस न आ।
भगत उसके मन का भाव समझकर आ ासन देते ए बोले, "बस, इतना तो एक ब ा
भी उठा ले जाएगा।"
भ ुक ने भोला क ओर सं द ने से देखकर कहा, "मेरे लए इतना ही काफ है।"
भगत, "नह , तुम सकुचाते हो। अभी और भरो।"
भ ुक ने एक पँसेरी अनाज और भरा, और फर भोला क ओर सशंक से देखने
लगा।
भगत, "उसक ओर ा देखते हो, बाबाजी? म जो कहता ँ , वह करो। तुमसे जतना
उठाया जा सके, उठा लो।"
भ ुक डर रहा था क कह उसने अनाज भर लया और भोला ने गठरी न उठाने दी तो
कतनी भ होगी, और भ ुक को हँ सने का अवसर मल जाएगा। सब यही कहगे क
भ ुक कतना लोभी है? उसे अनाज भरने क ह त न पड़ी।
तब सुजान भगत ने चादर लेकर उसम अनाज भरा और गठरी बाँधकर बोले, "इसे उठा ले
जाओ।"
भ ुक, "बाबा, इतना तो मुझसे उठ न सकेगा।"
भगत, "अरे ! इतना भी न उठ सकेगा। ब त होगा तो मन भर, भला जोर तो लगाओ, देख,ूँ
उठा सकते हो या नह ।"
भ ुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी, जगह से हली भी नह , फर बोला, "भगतजी,
यह मुझसे न उठ सकेगी।"
भगत, "अ ा, बताओ कस गाँव म रहते हो?"
भ ुक, "बड़ी र है भगतजी, अमोला का नाम तो सुना होगा।"
भगत, "अ ा, आगे-आगे चलो, म प ँ चा ँ गा।"
यह कहकर भगत ने जोर लगाकर गठरी उठाई और सर पर रखकर भ ुक के पीछे हो
लये। देखने वाले भगत का पौ ष देखकर च कत हो गए। उ ा मालूम था क भगत
पर इस समय कौन सा नशा था। आठ महीने के नरं तर अ वरल प र म का आज उ
फल मला था। आज उ ने अपना खोया अ धकार फर पाया था। वही तलवार, जो केले
को नह काट सकती, सान पर चढ़कर लोहे को काट देती है। मानव-जीवन म लाग बड़े
मह क व ु है। जसम लाग है, वह बूढ़ा भी हो तो जवान है। जसम लाग नह , गैरत
नह , वह जवान भी मृतक है। सुजान भगत म लाग थी और उसी ने उ अमानुषीय बल
दान कर दया था। चलते समय उ ने भोला क ओर सगव ने से देखा और बोले, "ये
भाट और भ ुक खड़े ह, कोई खाली हाथ न लौटने पाए।"
र मजान के पूरे तीस रोज के बाद ईद आई है। कतना मनोहर, कतना सुहावना भाव
है! वृ पर अजीब ह रयाली है, खेत म कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब
ला लमा है। आज का सूय देखो, कतना ारा, कतना शीतल है, यानी संसार को ईद क
बधाई देता है! गाँव म कतनी हलचल है। ईदगाह जाने क तैया रयाँ हो रही ह! कसी के
कुरते म बटन नह ह, पड़ोस के घर म सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। कसी के जूते कड़े हो
गए ह, उनम तेल डालने के लए तेली के घर पर भागा जाता है। ज ी-ज ी बैल को
सानी-पानी दे द, ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रा ा,
फर सैकड़ आद मय से मलना, दोपहर के पहले लौटना असंभव है। लड़के सबसे ादा
स ह। कसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, कसी ने वह भी नह , ले कन
ईदगाह जाने क खुशी उनके ह े क चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ के लए ह गे, इनके लए तो
ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब ज ी पड़ी है क लोग ईदगाह
नह चलते। इ गृह ी क चताओं से ा योजन! सेवैय के लए ध और
श र घर म है या नह , इनक बला से, ये तो सेवैयाँ खाएँ गे। वह ा जान क
अ ाजान बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे ह। उ ा खबर क
चौधरी आँख बदल ल, तो यह सारी ईद मुहरम हो जाए। उनक अपनी जेब म तो कुबेर का
धन भरा आ है। बार-बार जेब से अपना खजाना नकालकर गनते ह और खुश होकर
फर रख लेते ह। महमूद गनता है, एक-दो, दस, बारह, उसके पास बारह पैसे ह। मोह सन
के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पं ह पैसे ह। इ अन गनत पैस म अन गनती चीज
लाएँ गे- खलौने, मठाइयाँ, बगुल, गद और जाने ा- ा, और सबसे ादा स है
हा मद। वह चार-पाँच साल का गरीब सूरत, बला-पतला लड़का, जसका बाप गत वष
हैजे क भट हो गया और माँ न जाने पीली होती-होती एक दन मर गई। कसी को
पता ा बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दल पर जो कुछ बीतती थी, वह दल
म ही सहती थी और जब न सहा गया तो संसार से वदा हो गई। अब हा मद अपनी बूढ़ी
दादी अमीना क गोद म सोता है और उतना ही स है। उसके अ ाजान पए कमाने
गए ह, ब त सी थै लयाँ लेकर आएँ गे। अ ीजान अ ाह के घर से उसके लए बड़ी
अ ी-अ ी चीज लाने गई ह, इस लए हा मद स है। आशा तो बड़ी चीज है, और फर
ब क आशा! उनक क ना तो राई का पवत बना लेती है। हा मद के पाँव म जूते नह
ह, सर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जसका गोटा काला पड़ गया है, फर भी वह स
है। जब उसके अ ाजान थै लयाँ और अ ीजान नयामत लेकर आएँ गी, तो वह दल के
अरमान नकाल लेगा। तब देखेगा, मोह सन, नूरे और श ी कहाँ से उतने पैसे नकालगे।
अभा गन अमीना अपनी कोठरी म बैठी रो रही है। आज ईद का दन, उसके घर म दाना
नह ! आज आ बद होता तो ा इसी तरह ईद आती और चली जाती! इस अंधकार और
नराशा म वह डूबी जा रही है। कसने बुलाया था इस नगोड़ी ईद को? इस घर म उसका
काम नह , ले कन हा मद! उसे कसी के मरने-जीने से ा मतलब? उसके अंदर काश
है, बाहर आशा। वप अपना सारा दल-बल लेकर आए, हा मद क आनंद भरी चतवन
उसका व ंस कर देगी।
हा मद भीतर जाकर दादी से कहता है, "तुम डरना नह अ ा, म सबसे पहले आऊँगा।
बलकुल न डरना।"
अमीना का दल कचोट रहा है। गाँव के ब े अपने-अपने बाप के साथ जा रहे ह। हा मद
का अमीना के सवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ म ब ा
कह खो जाए तो ा हो? नह , अमीना उसे य न जाने देगी। न ी सी जान! तीन कोस
चलेगा कैसे? पैर म छाले पड़ जाएँ गे। जूते भी तो नह ह। वह थोड़ी-थोड़ी र पर उसे गोद म
ले लेती, ले कन यहाँ सेवैयाँ कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब साम ी जमा
करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंट चीज जमा करने म लगगे। माँगे का ही तो भरोसा
ठहरा। उस दन फहीमन के कपड़े सले थे, आठ आने पैसे मले थे। उस अठ ी को ईमान
क तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लए, ले कन कल ालन सर पर सवार हो
गई तो ा करती? हा मद के लए कुछ नह है तो दो पैसे का ध तो चा हए ही। अब तो
कुल दो आने बचे रहे ह। तीन पैसे हा मद क जेब म, पाँच अमीना के बटुवे म। यही तो
बसात है और ईद का ोहार, अ ाह ही बेड़ा पार लगाए। धोबन और नाइन, मेहतरानी
और चु ड़हा रन सभी तो आएँ गी? और मुँह चुराए? साल भर का ोहार है। जदगी
खै रयत से रहे, उनक तकदीर भी तो उसी के साथ है। ब को खुदा सलामत रखे, ये
दन भी कट जाएँ गे।
गाँव से मेला चला, और ब के साथ हा मद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर
आगे नकल जाते, फर कसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वाल का इं तजार करते। यह
लोग इतना धीरे -धीरे चल रहे ह? हा मद के पैर म तो जैसे पर लग गए ह। वह कभी
थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोन ओर अमीर के बगीचे ह। प
चारदीवारी बनी ई ह। पेड़ म आम और ली चयाँ लगी ई ह। कभी-कभी कोई लड़का
कंकड़ी उठाकर आम पर नशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता आ नकलता है।
लड़के वहाँ से एक फलाँग पर ह। खूब हँ स रहे ह, माली को कैसा उ ू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारत आने लग । यह अदालत है, यह कॉलेज है, यह ब-घर है। इतने बड़े
कॉलेज म कतने लड़के पढ़ते ह गे? सब लड़के नह ह जी! बड़े-बड़े आदमी ह, सच! उनक
बड़ी-बड़ी मूँछ ह। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते ह। न जाने कब तक पढ़गे और
ा करगे इतना पढ़कर! हा मद के मदरसे म दो-तीन बड़े-बड़े लड़के ह, बलकुल तीन
कौड़ी के! रोज मार खाते ह, काम से जी चुरानेवाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग ह गे
और ा, ब-घर म जा होता है। सुना है, यहाँ मुरद क खोप ड़याँ दौड़ती ह और बड़े-
बड़े तमाशे होते ह, पर कसी को अंदर नह जाने देते और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते
ह। बड़े-बड़े आदमी खेलते ह, मँ◌ूछ -दाढ़ी वाले। और मेम भी खेलती ह, सच! हमारी अ ाँ
को यह दे दो, ा नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही न सक, घुमाते ही लुढ़क जाएँ ।
महमूद ने कहा, "हमारी अ ीजान का तो हाथ काँपने लगे, अ ाह कसम।"
मोह सन बोला, "चलो माना, आटा पीस डालती ह। जरा सा बैट पकड़ लगी तो हाथ
काँपने लगगे! सैकड़ घड़े पानी रोज नकालती ह। पाँच घड़े तो तेरी भस पी जाती है। कसी
मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े तो आँख तक अँधेरा छा जाए।"
महमूद, "हाँ, उछल-कूद तो नह सकत , ले कन उस दन मेरी गाय खुल गई थी और
चौधरी के खेत म जा बड़ी थी, अ ा इतना तेज दौड़ी क म उ न पकड़ सका, सच।"
आगे चले। हलवाइय क कान शु । आज खूब सजी ई थ । इतनी मठाइयाँ कौन
खाता? देखो न, एक-एक कान पर मन ह गी। सुना है, रात को ज ात आकर खरीद ले
जाते ह। अ ा कहते थे क आधी रात को एक आदमी हर कान पर जाता है और जतना
माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के पए देता है, बलकुल ऐसे ही पए।
हा मद को यक न न आया, "ऐसे पए ज ात को कहाँ से मल जाएँ गे?"
मोह सन ने कहा, " ज ात को पए क ा कमी? जस खजाने म चाह चले जाएँ । लोहे
के दरवाजे तक उ नह रोक सकते जनाब, आप ह कस फेर म! हीरे -जवाहरात तक
उनके पास रहते ह। जससे खुश हो गए, उसे टोकर जवाहरात दे दए। अभी यह बैठे ह,
पाँच मनट म कलक ा प ँ च जाएँ ।" हा मद ने फर पूछा, " ज ात ब त बड़े-बड़े होते ह?"
मोह सन, "एक-एक सर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो
उसका सर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे म घुस जाए।"
हा मद, "लोग उ कैसे खुश करते ह गे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जन को खुश
कर लूँ।"
मोह सन, "अब यह तो न जानता, ले कन चौधरी साहब के काबू म ब त से ज ात ह।
कोई चीज चोरी हो जाए, चौधरी साहब उसका पता लगा दगे और चोर का नाम बता दगे।
जुमराती का बछवा उस दन खो गया था। तीन दन हैरान ए, कह न मला, तब झख
मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरंत बता दया, मवेशीखाने म है और वह मला।
ज ात आकर उ सारे जहान क खबर दे जाते ह।"
अब उसक समझ म आ गया क चौधरी के पास इतना धन है और उनका
इतना स ान है।
आगे चले। यह पु लस लाइन है। यह सब कानस ट बल कवायद करते ह। रै टन! फाय फो!
रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते ह, नह तो चो रयाँ हो जाएँ । मोह सन ने तवाद
कया, "यह कानस ट बल पहरा देते ह? तभी तुम ब त जानते हो अजी हजरत, यह चोरी
करते ह। शहर के जतने चोर-डाकू ह, सब इनके मुह े म जाकर ‘जागते रहो! जागते
रहो!’ पुकारते ह। तभी इन लोग के पास इतने पए आते ह। मेरे मामू एक थाने म
कानस ट बल ह। सौ पया महीना पाते ह, ले कन पचास पए घर भेजते ह। अ ाह
कसम! मने एक बार पूछा था क मामू, आप इतने पए कहाँ से पाते ह? हँ सकर कहने
लगे-बेटा, अ ाह देता है। फर आप ही बोले-हम लोग चाह तो एक दन म लाख मार
लाएँ । हम तो इतना ही लेते ह, जसम अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।"
हा मद ने पूछा, "यह लोग चोरी करवाते ह, तो कोई इ पकड़ता नह ?" मोह सन उसक
नादानी पर दया दखाकर बोला, "अरे पागल! इ कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह
लोग खुद ह, ले कन अ ाह इ सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम म जाता है।
थोड़े ही दन ए, मामू के घर म आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक
न बचा। कई दन पेड़ के नीचे सोए, अ ाह कसम, पेड़ के नीचे! फर जाने कहाँ से एक
सौ कज लाए तो बरतन-भाँड़े आए।"
हा मद, "एक सौ तो पचास से ादा होते ह? कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली
भर होता है। सौ तो दो थै लय म भी न आएँ ?" अब ब ी घनी होने लगी। ईदगाह जाने
वाल क टो लयाँ नजर आने लग , एक से एक भड़क ले कपड़े पहने ए। कोई ताँगे पर
सवार, कोई मोटर पर, सभी इ म बसे, सभी के दल म उमंग। ामीण का यह छोटा सा
दल अपनी वप ता से बेखबर, संतोष और धैय म मगन चला जा रहा था। ब के लए
नगर क सभी चीज अनोखी थ । जस चीज क ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे
से हॉन क आवाज होने पर भी न चेतते। हा मद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृ क छाया है, नीचे प ा फश है, जस
पर जानमाज बछी ई ह और रोजदार क पं याँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक
चली गई ह, प जगह के नीचे तक, जहाँ जानमाज भी नह ह। नए आने वाले आकर
पीछे क कतार म खड़े हो जाते ह, आगे जगह नह है। यहाँ कोई धन और पद नह देखता।
इसलाम क नगाह म सब बराबर ह। इन ामीण ने भी वजू कया और पछली पं म
खड़े हो गए। कतना सुंदर संचालन है, कतनी सुंदर व ा! लाख सर एक साथ सजदे
म झुक जाते ह और एक साथ खड़े हो जाते ह, कई बार यही या होती है, जैसे बजली
क लाख ब याँ एक साथ दी ह और एक साथ बुझ जाएँ , और यही म चलता रहे।
कतना अपूव था, जसक सामू हक याएँ व ार और अनेकता दय को ा,
गव और आ ानंद से भर देती थी, मानो ातृ का एक सू इन सम आ ाओं को
एक लड़ी म परोए ए है।
नमाज ख हो गई। लोग आपस म गले मल रहे ह। तब मठाई और खलौने क कान
पर धावा होता है। ामीण का यह दल इस वषय म बालक से कम उ ाही नह है। यह
देखो, हडोला है, एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते ए मालूम होगे,
कभी जमीन पर गरते ए। यह चरखी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट छड़ म लटके ए ह।
एक पैसा देकर बैठ जाओ और प ीस च र का मजा लो। महमूद और मोह सन, नूरे
और श ी इन घोड़ और ऊँट पर बैठते ह। हा मद र खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास
ह। अपने कोष का एक तहाई जरा सा च र खाने के लए नह दे सकता।
सब चर खय से उतरते ह। अब खलौने लगे। उधर कान क कतार लगी ई ह। तरह-
तरह के खलौने ह- सपाही और गुज रया, राज और वक , भ ी और धो बन और साधु।
वाह! कतने सुंदर खलौने ह, जैसे अब बोलना ही चाहते ह । महमूद सपाही लेता है,
खाक वरदी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बं क रखे ए, मालूम होता है, अभी कवायद
कए चला आ रहा है। मोह सन को भ ी पसंद आया। कमर झुक ई है, ऊपर मशक
रखे ए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े ए है। कतना स है, शायद कोई गीत गा
रहा है। बस, मशक से पानी उडे़लना ही चाहता है। नूरे को वक ल से ेम है। कैसी व ा है
उसके मुख पर, काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने क जेब म घड़ी,
सुनहरी जंजीर, एक हाथ म कानून का पोथा लये ए। मालूम होता है, अभी कसी
अदालत से जरह या बहस कए चला आ रहा है। यह सब दो-दो पैसे के खलौने ह। हा मद
के पास कुल तीन पैसे ह, इतने महँ गे खलौने वह कैसे ले? खलौना कह हाथ से छूट पड़े
तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रं ग धुल जाए। ऐसे खलौने लेकर वह ा
करे गा, कस काम के!
मोह सन कहता है, "मेरा भ ी रोज पानी दे जाएगा साँझ-सबेरे।"
महमूद कहता है, "और मेरा सपाही घर का पहरा देगा। कोई चोर आएगा तो फौरन बं क
से ढे र कर देगा।"
नूरे कहता है, "और मेरा वक ल खूब मुकदमा लड़ेगा।"
श ी कहता है, "और मेरी धो बन रोज कपड़े धोएगी।"
हा मद खलौन क नदा करता है, " म ी ही के तो ह, गरे तो चकनाचूर हो जाएँ ।" ले कन
ललचाई ई आँख से खलौन को देख रहा है और चाहता है क जरा देर के लए उ
हाथ म ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते ह ले कन लड़के इतने ागी नह होते
ह, वशेषकर जब अभी नया शौक है। हा मद ललचाता रह जाता है।
खलौने के बाद मठाइयाँ आती ह। कसी ने रे व ड़याँ ली ह, कसी ने गुलाब जामुन, कसी
ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे ह। हा मद बरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे
ह। नह कुछ लेकर खाता? ललचाई आँख से सबक ओर देखता है।
मोह सन कहता है, "हा मद, रे वड़ी ले जा, कतनी खुशबूदार ह!"
हा मद को संदेह आ, ये केवल ू र वनोद है, मोह सन इतना उदार नह है, ले कन यह
जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोह सन दोने से एक रे वड़ी नकालकर हा मद क
ओर बढ़ाता है। हा मद हाथ फैलाता है। मोह सन रे वड़ी अपने मुँह म रख लेता है। महमूद,
नूरे और श ी खूब ता लयाँ बजा-बजाकर हँ सते ह। हा मद ख सया जाता है।
मोह सन, "अ ा, अबक ज र दगे हा मद, अ ाह कसम, ले जा।"
हा मद, "खे रहो। ा मेरे पास पैसे नह ह?"
श ी, "तीन ही पैसे तो ह। तीन पैसे म ा- ा लोगे?"
महमूद, "हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हा मद। मोह सन बदमाश है।"
हा मद, " मठाई कौन बड़ी नेमत है। कताब म इसक कतनी बुराइयाँ लखी ह।"
मोह सन, "ले कन दल म कह रहे होगे क मले तो खा लू।ँ अपने पैसे नह
नकालते?"
महमूद, "खूब समझते ह इसक चालाक । जब हमारे सारे पैसे खच हो जाएँ गे, तो हम
ललचा-ललचाकर खाएगा।"
मठाइय के बाद कुछ कान लोहे क चीज क लगी थ , कुछ गलट और कुछ नकली
गहन क । लड़क के लए यहाँ कोई आकषण न था। वे सब आगे बढ़ जाते ह, हा मद लोहे
क कान पर क जाता है। कई चमटे रखे ए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास
चमटा नह है। तवे से रो टयाँ उतारती है तो हाथ जल जाता है। अगर वह चमटा ले
जाकर दादी को दे दे, तो वह कतना स ह गी! फर उनक उँ ग लयाँ कभी न जलगी।
घर म एक काम क चीज हो जाएगी। खलौने से ा फायदा? थ म पैसे खराब होते ह।
जरा देर ही तो खुशी होती है, फर तो खलौने को कोई आँख उठाकर नह देखता। यह तो
घर प ँ चते-प ँ चते टूट-फूट बराबर हो जाएँ गे। चमटा कतने काम क चीज है। रो टयाँ
तवे से उतार लो, चू म सक लो। कोई आग माँगने आए तो चटपट चू े से आग
नकालकर उसे दे दो। अ ा बेचारी को कहाँ फुरसत है क बाजार आएँ , और इतने पैसे ही
कहाँ मलते ह? रोज हाथ जला लेती ह।
हा मद के साथी आगे बढ़ गए। सबील पर सबके सब शरबत पी रहे थे। देखो, सब कतने
लालची ह। इतनी मठाइयाँ ल , मुझे कसी ने एक भी न दी। उस पर कहते ह, मेरे साथ
खेलो, मेरा यह काम करो। अब अगर कसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछँ◌ूगा।
खाएँ मठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फंु सयाँ नकलगी, आप ही जबान चटोरी हो
जाएगी। तब घर से पैसे चुराएँ गे और मार खाएँ गे। कताब म झूठी बात थोड़े ही लखी ह।
मेरी जबान खराब होगी? अ ा चमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लगी और
कहगी, ‘मेरा ब ा अ ा के लए चमटा लाया है। कतना अ ा लड़का है।’ इन लोग
के खलौने पर कौन इ आएँ देगा? बड़ क आएँ सीधे अ ाह के दरबार म प ँ चती ह
और तुरंत सुनी जाती ह। म भी इनके मजाज स ँ ? हम गरीब ही सही, कसी से कुछ
माँगने तो नह जाते। आ खर अ ाजान कभी-न-कभी आएँ गे। अ ा भी आएँ गी ही। फर
इन लोग से पूछूँगा, कतने खलौने लोगे? एक-एक को टोक रय खलौने ँ गा और
दखा ँ गा क दो के साथ इस तरह का सलूक कया जाता है। यह नह क एक पैसे
क रे व ड़याँ ल , तो चढ़ा- चढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँ सगे क हा मद ने चमटा
लया है। हँ स मेरी बला से! उसने कानदार से पूछा, "यह चमटा कतने का है?"
कानदार ने उसक ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा, "तु ारे काम का
नह है जी!"
" बकाऊ है क नह ?"
" बकाऊ नह है? और यहाँ लाद लाए ह?"
"तो बताते नह , कतने पैसे का है?"
"छह पैसे लगगे।"
हा मद का दल बैठ गया।
"ठीक-ठीक पाँच पैसे लगगे, लेना हो लो, नह चलते बनो।"
हा मद ने कलेजा मजबूत करके कहा, "तीन पैसे लोगे?"
यह कहता आ वह आगे बढ़ गया क कानदार क घुड़ कयाँ न सुन।े ले कन कानदार
ने घुड़ कयाँ नह द , बुलाकर चमटा दे दया। हा मद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो
बं क है और शान से अकड़ता आ सं गय के पास आया। जरा सुन, सबके सब ा- ा
आलोचनाएँ करते ह।
मोह सन ने हँ सकर कहा, "यह चमटा लाया पगले, इसे ा करे गा?"
हा मद ने चमटे को जमीन पर पटकर कहा, "जरा अपना भ ी जमीन पर गरा दो।
सारी पस लयाँ चूर-चूर हो जाएँ गी बेचारे क ।" महमूद बोला, "तो यह चमटा कोई
खलौना है?"
हा मद, " खलौना नह है! अभी कंधे पर रखा, बं क हो गई। हाथ म ले लया, फक र
का चमटा हो गया। चा ँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता ँ । एक चमटा जमा ँ तो
तुम लोग के सारे खलौन क जान नकल जाए। तु ारे खलौने कतना ही जोर लगाएँ ,
मेरे चमटे का बाल भी बाँका नह कर सकते। मेरा बहा र शेर है चमटा।"
श ी ने खँजरी ली थी। भा वत होकर बोला, "मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने क है।"
हा मद ने खँजरी क ओर उपे ा से देखा, "मेरा चमटा चाहे तो तु ारी खँजरी का पेट
फाड़ डाले। बस, एक चमड़े क झ ी लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा सा पानी लग
जाए तो ख हो जाए। मेरा बहा र चमटा आग म, पानी म, आँधी म, तूफान म बराबर
डटा खड़ा रहेगा।" चमटे ने सभी को मो हत कर लया, अब पैसे कसके पास धरे ह? फर
मेले से र नकल आए ह, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर प ँ चने क ज ी हो
रही है। बाप से जद भी कर तो चमटा नह मल सकता। हा मद है बड़ा चालाक, इसी लए
बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालक के दो दल हो गए ह। मोह सन, अहमद, श ी और नूरे एक तरफ ह, हा मद
अकेला सरी तरफ। शा थ हो रहा है। श ी तो वधम हो गया, सरे प से जा मला,
ले कन मोह सन, महमूद और नूरे भी हा मद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी
हा मद के आघात से आतं कत हो उठे ह। उसके पास ाय का बल है और नी त क
श । एक ओर म ी है, सरी ओर लोहा, जो इस व अपने को फौलाद कह रहा है। वह
अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए, मयाँ भ ी के छ े छूट जाएँ , मयाँ
सपाही म ी क बं क छोड़कर भाग, वक ल साहब क नानी मर जाए, चोगे म मुँह
छपाकर जमीन पर लेट जाएँ । मगर यह चमटा, यह बहा र, यह मे- हद लपककर
शेर क गरदन पर सवार हो जाएगा और उसक आँख नकाल लेगा।
मोह सन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा, "अ ा, पानी तो नह भर सकता?"
हा मद ने चमटे को सीधा खड़ा करके कहा, " भ ी को एक डाँट लगाएगा, तो दौड़ा आ
पानी लाकर उसके ार पर छड़कने लगेगा।"
मोह सन परा हो गया, पर महमूद ने कुमुक प ँ चाई, "अगर बचा पकड़ जाए तो अदालत
म बँधे-बँधे फरे गा। तब तो वक ल साहब के पैर पड़ेगा।"
हा मद इस बल तक का जवाब न दे सका। उसने पूछा, "हम पकड़ने कौन आएगा?
नूरे ने अकड़कर कहा, "यह सपाही बं कवाला।"
हा मद ने मुँह चढ़ाकर कहा, "यह बेचारा हम बहा र मे- हद को पकड़ेगा! अ ा
लाओ, अभी जरा कु ी हो जाए। इसक सूरत देखकर र से भागेगा। पकड़ेगा ा
बेचारा।"
मोह सन को एक नई चोट सूझ गई, "तु ारे चमटे का मुँह रोज आग से जलेगा।"
उसने समझा था क हा मद लाजवाब हो जाएगा, ले कन यह बात न ई। हा मद ने तुरंत
जवाब दया, "आग म बहा र ही कूदते ह जनाब, तु ारे यह वक ल, सपाही और भ ी
ल डय क तरह घर म घुस जाएँ गे। आग म वह काम है, जो यह मे- हद ही कर सकता
है।"
महमूद ने एक जोर लगाया, "वक ल साहब कुरसी-मेज पर बैठगे, तु ारा चमटा तो
बावरचीखाने म जमीन पर पड़ा रहने के सवा और ा कर सकता है?"
इस तक ने श ी और नूरे को भी राजी कर दया! कतने ठकाने क बात कही है प े ने!
चमटा बावरचीखाने म पड़ा रहने के सवा और ा कर सकता है? हा मद को कोई
फड़कता आ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शु क , "मेरा चमटा बावरचीखाने म
नह रहेगा। वक ल साहब कुरसी पर बैठगे, तो जाकर उ जमीन पर पटक देगा और
उनका कानून उनके पेट म डाल देगा।"
बात कुछ बनी नह , खाली गाली-गलौज थी। ले कन कानून को पेट म डालने वाली बात
छा गई। ऐसी छा गई क तीन सूरमा मुँह ताकते रह गए, मानो कोई धेलचा कानकौआ
कसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर नकलने वाली चीज है।
उसको पेट के अंदर डाल दया जाना बेतुक सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है।
हा मद ने मैदान मार लया। उसका चमटा मे- हद है। अब इसम मोह सन, महमूद,
नूरे, श ी कसी को भी आप नह हो सकती।
वजेता को हराने वाल से जो स ार मलना ाभा वक है, वह हा मद को भी मला।
और ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खच कए, पर कोई काम क चीज न ले सके।
हा मद ने तीन पैसे म रं ग जमा लया। सच ही तो है, खलौन का ा भरोसा? टूट-फूट
जाएँ गे। हा मद का चमटा तो बना रहेगा बरस ।
सं ध क शत तय होने लग । मोह सन ने कहा, "जरा अपना चमटा दो, हम भी देख। तुम
हमारे भ ी लेकर देखो।"
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खलौने पेश कए।
हा मद को इन शत को मानने म कोई आप न थी। चमटा बारी-बारी से सबके हाथ म
गया, और उनके खलौने बारी-बारी से हा मद के हाथ म आए। कतने खूबसूरत खलौने
ह।
हा मद ने हारने वाल के आँसू प छे, "म तु चढ़ा रहा था, सच! यह चमटा भला इन
खलौन क ा बराबरी करे गा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।"
ले कन मोह सन क पाट को इस दलासे से संतोष नह होता। चमटे का स ा खूब बैठ
गया था। चपका आ टकट अब पानी से नह छूट रहा है।
मोह सन, "ले कन इन खलौन के लए कोई हम आ तो न देगा?" महमूद, " आ को
लए फरते हो, उलटे मार न पड़े। अ ा ज र कहगी क मेले म यही म ी के खलौने
मले?"
हा मद को ीकार करना पड़ा क खलौन को देखकर कसी क माँ इतनी खुश न होगी,
जतनी दादी चमटे को देखकर ह गी। तीन पैस ही म तो उसे सबकुछ करना था और उन
पैस के इस उपाय पर पछतावे क बलकुल ज रत न थी। फर अब तो चमटा मे-
हद है और सभी खलौन का बादशाह है। रा े म महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने
केले खाने को दए थे। महमूद ने केवल हा मद को साझी बनाया, उसके अ म मुँह
ताकते रह गए। यह उस चमटे का साद था।
ारह बजे गाँव म हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोह सन क छोटी बहन दौड़कर
आई और भ ी उसके हाथ से छीन लया। मारे खुशी के जो उछली तो मयाँ भ ी नीचे
आ रहे और गलोक सधार गए। इस पर भाई-ब हन म मार-पीट ई, दोन खूब रोए।
उसक अ ा यह शोर सुनकर बगड़ी और दोन को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाए।
मयाँ नूरे के वक ल का अंत उनके त ानुकूल इससे ादा गौरवमय आ। वक ल
जमीन पर या ताक पर तो नह बैठ सकता था, उसक मयादा का वचार तो करना ही
होगा। दीवार म खूँ टयाँ गाड़ी गई ं, उन पर लकड़ी का पटरा रखा गया। पटरे पर कागज
का कालीन बछाया गया। वक ल साहब राजा भोज क भाँ त सहासन पर वराजे। नूरे ने
उ पंखा झलना शु कया। अदालत म खर क ऊ ट याँ और बजली के पंखे रहते
ह, ा यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून क गरमी दमाग पर चढ़ जाएगी क नह ?
बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगा। मालूम नह , पंखे क हवा से या पंखे क
चोट से वक ल साहब गलोक से मृ ुलोक म आ गए और उनका माटी-चोला माटी म
मल गया! फर बड़े जोर-शोर से मातम आ और वक ल साहब क अ घूरे पर डाल दी
गई।
अब रहा महमूद का सपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चाज मल गया, ले कन
पु लस का सपाही कोई साधारण तो नह , जो अपने पैर चले। वह पालक पर
चलेगा। एक टोकरी आई, उसम कुछ लाल रं ग के फटे -पुराने चथड़े बछाए गए, जसम
सपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने ार का च र लगाने
लगे। उनके दोन छोटे भाई सपाही क तरह ‘सोने वालो जागते रहो’ पुकारते चलते ह।
मगर रात तो अँधेरी होनी चा हए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से
छूटकर गर पड़ती है और मयाँ सपाही अपनी बं क लये जमीन पर आ जाते ह और
उनक एक टाँग म वकार आ जाता है।
महमूद को आज ात आ क वह अ ा डॉ र है, उसको ऐसा मरहम मल गया है
जससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन म जोड़ सकता है, केवल गूलर का ध चा हए।
गूलर का ध आता है। टाँग जवाब दे देती है। श - या असफल ई तब उसक सरी
टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक
टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सपाही सं ासी हो गया है,
अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सर का
झालरदार साफा खुरच दया गया है। अब उसका जतना पांतर चाहो कर सकते हो।
कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लया जाता है।
अब मयाँ हा मद का हाल सु नए। अमीना उसक आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद म
उठाकर ार करने लगी। सहसा उसके हाथ म चमटा देखकर वह च क ।
"यह चमटा कहाँ था?"
"मने मोल लया है।"
"कै पैसे म?"
"तीन पैसे दए।"
अमीना ने छाती पीट ली, "यह कैसा बेसमझ लड़का है क दोपहर ई, कुछ खाया न पया।
लाया ा, चमटा! सारे मेले म तुझे और कोई चीज न मली, जो यह लोहे का चमटा
उठा लाया?"
हा मद ने अपराधी-भाव से कहा, "तु ारी उँ ग लयाँ तवे से जल जाती थ , इस लए मने इसे
लया।" बु ढ़या का ोध तुरंत ेह म बदल गया, ेह भी वह नह , जो ग होता है और
अपनी सारी कसक श म बखेर देता है। यह मूक ेह था, खूब ठोस, रस और ाद से
भरा आ। ब े म कतना ाग, कतना स ाव और कतना ववेक है! सर को खलौने
लेते और मठाई खाते देखकर इसका मन कतना ललचाया होगा! इतना ज इससे
आ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बु ढ़या दादी क याद बनी रही। अमीना का मन ग द हो
गया।
और अब एक बड़ी व च बात ई, हा मद के इस चमटे से भी व च ! ब े हा मद ने बूढ़े
हा मद का पाट खेला था। बु ढ़या अमीना बा लका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन
फैलाकर हा मद को आएँ देती जाती थी और आँसू क बड़ी-बड़ी बूँद गराती जाती थी।
हा मद इसका रह ा समझता!
पं डत अयो ानाथ का देहांत आ तो सबने कहा, "ई र आदमी को ऐसी ही मौत दे।"
चार जवान बेटे थे, एक लड़क । चार लड़क के ववाह हो चुके थे, केवल लड़क ाँरी थी।
संप भी काफ छोड़ी।
एक प ा मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नगद। वधवा फूलमती
को प त-शोक तो आ और कई दन तक वह बेहाल रही; ले कन जवान बेट को सामने
देखकर उसे ढाँढ़स आ। चार लड़के एक-से-एक सुशील, चार ब एँ एक-से-एक बढ़कर
आ ाका रणी। जब वह रात को लेटती तो चार बारी-बारी से उसके पाँव दबात । वह ान
करके उठती तो उसक साड़ी छाँटत । सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का
कामता एक द र म 50 पए पर नौकर था, छोटा उमानाथ डॉ री पास कर चुका था
और कह औषधालय खोलने क फ म था, तीसरा दयानाथ बी-ए- थम म फेल हो गया
था और प काओं म लेख लखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था, चौथा सीतानाथ चार म
सबसे कुशा और होनहार था और अब क साल बी-ए- क तैयारी म लगा आ था।
कसी लड़के म वह सन, वह छैलापन, वह लुटाऊपन न था, जो माता- पता को
जलाता और कुल-मयादा को डुबाता। फूलमती घर क माल कन थी, गोया क कुं जयाँ
बड़ी ब के पास रहती थ । बु ढ़या म वह अ धकार- ेम न था, जो वृ जन को कटु और
कलहशील बना दया करता है कतु उसक इ ा के बना कोई बालक मठाई तक न
मँगा सकता था।
सं ा हो गई थी। पं डत को मरे आज बारहवाँ दन था। कल तेरह है, भोज होगा।
बरादरी के लोग नमं त ह गे। उसी क तैया रयाँ हो रही थ । फूलमती अपनी कोठरी म
बैठी देख रही थी क प ेदार बोरे म आटा लाकर रख रहे थे। घी के टीन आ रहे ह। शाक-
भाजी के टोकरे , श र क बो रयाँ, दही के मटके चले आ रहे ह। महापा के लए दान
क चीज लाई ग -बरतन, कपड़े, पलंग, बछापन, छाते, जूते, छ ड़याँ, लालटे न आ द,
कतु फूलमती को कोई चीज नह दखाई गई। नयमानुसार ये सब सामान उसके पास
आने चा हए थे। वह ेक व ु को देखती, उसे पसंद करती, उसक मा म कमी-बेशी
का फैसला करती, तब इन चीज को भंडारे म रखा जाता। उसे दखाने और उसक
राय लेने क ज रत नह समझी गई? अ ा! वह आटा तीन बोरी आया? उसने तो
पाँच बोर के लए कहा था। घी भी पाँच ही कन र ह, उसने तो दस कन र मँगवाए थे।
इसी तरह शाक-भाजी, श र, दही- ध आ द म भी कमी क गई होगी। कसने उसके
मह ेप कया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब कसे उसको घटाने-बढ़ाने
का अ धकार है।
आज चालीस वष से घर के ेक मामले म फूलमती क बात सवमा थी। उसने सौ
कहा तो सौ खच कए गए, एक कहा तो एक! कसी ने मीन-मेख न क । यहाँ तक क पं-
अयो ानाथ भी उसक इ ा के व न कहते थे पर आज उसक आँख के सामने
प से उसके क उपे ा क जा रही है। इसे वह कर ीकार कर सकती?
कुछ देर तक तो वह ज कए बैठी रही; पर अंत म न रहा गया। ाय -शासन उसका
भाव हो गया था। वह ोध म भरी ई आई और कामतानाथ से बोली, " ा आटा तीन
बोरे ही लाए? मने तो पाँच बोरे के लए कहा था और घी भी पाँच ही टन मँगवाया! तु
याद है, मने दस कन र कहा था? कफायत को म बुरा नह समझती, ले कन जसने यह
कुआँ खोदा, उसी क आ ा पानी को तरसे, यह कतनी ल ा क बात है!"
कामतानाथ ने मा-याचना न क , अपनी भूल ीकार न क , ल त भी नह आ।
एक मनट तो व ोही भाव से खड़ा रहा, फर बोला, "हम लोग क सलाह तीन ही बोर क
ई और तीन बोरे के लए पाँच टन घी काफ था। इसी हसाब से और चीज भी कम कर
दी गई ह।" फूलमती उ होकर बोली, " कसक राय से आटा कम कया गया है?"
"हम लोग क राय से।"
"तो मेरी राय कोई चीज नह है?"
"है नह ले कन अपना हा न-लाभ तो हम भी समझते ह।"
फूलमती ह -ब होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वा का आशय उसक
समझ म न आया। अपना हा न-लाभ! अपने घर म हा न-लाभ क ज ेदार वह आप है।
सर को, चाहे वे उसके पेट के जनमे पु ही न ह , उसके काम म ह ेप करने का
ा अ धकार? यह ल डा तो इस ढठाई से जवाब दे रहा है मानो घर उसी का है, उसी ने
मर-मरकर गृह ी जोड़ी है, म तो गैर ँ ! जरा हेकड़ी तो देखो।
उसने तमतमाते ए मुख से कहा, "मेरे हा न-लाभ के ज ेदार तुम नह हो। मुझे
इ यार है, जो उ चत समझूँ वह क ँ । अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच टन घी और
लाओ। आगे के लए खबरदार, जो कसी ने मेरी बात काटी।"
अपने वचार से उसने काफ त ीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनाव क थी।
उसे अपनी उ ता पर खेद आ। लड़के ही तो ह, समझे ह गे, कुछ कफायत करनी
चा हए। उनसे इस लए न पूछा होगा क अ ा तो खुद हरे क काम म कफायत कया
करती ह।
अगर इ मालूम होता क इस काम म म कफायत पसंद न क ँ गी, तो कभी इ मेरी
उपे ा करने का साहस न होता। य प कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और
उसक भावभं गमा से ऐसा ात होता था क इस आ ा का पालन करने के लए वह ब त
उ ुक नह है, पर फूलमती न श्ंचत होकर अपनी कोठरी म चली गई। इतनी त ीह पर
भी कसी को उनक अव ा करने क साम हो सकती है, इसक संभावना का ान भी
उसे न आया।
पर - समय बीतने लगा, उस पर यह हक कत खुलने लगी क इस घर म अब
उसक वह है सयत नह रही, जो दस-बारह दन पहले थी। संबं धय के यहाँ से नेवते म
श र, मठाई, दही, अचार आ द आ रहे थे। बड़ी ब इन व ुओ ं को ा मनी-भाव से
सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नह आता। बरादरी के लोग भी जो
कुछ पूछते ह, कामतानाथ से या बड़ी ब से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इं तजामकार है,
रात- दन भंग पए पड़ा रहता है, कसी तरह रो-धोकर द र चला जाता है। उनम भी
महीने म पं ह नाग से कम नह होते। वह तो कहो, साहब पं डतजी का लहाज करता है,
नह अब तक कभी का नकाल देता और बड़ी ब जैसी फूहड़ औरत भला इन बात को
ा समझेगी? अपने कपड़े-ल े तक तो जतन से रख नह सकती, चली है गृह ी
चलाने। भद होगी और ा। सब मलकर कुल क नाक कटवाएँ गे। व पर कोई-न-कोई
चीज कम हो जाएगी। इन काम के लए बड़ा अनुभव चा हए! कोई चीज तो इतनी ादा
बन जाएगी क मारी-मारी फरे गी। कोई चीज इतनी कम बनेगी क कसी प ल पर
प ँ चेगी, कसी पर नह । आ खर इन सब को हो ा गया है! अ ा, ब तजोरी
खोल रही है? वह आज मेरी आ ा के बना तजोरी खोलने वाली कौन होती है। कुंजी
उसके पास है अव ; ले कन जब तक म पए न नकलवाऊँ, तजोरी नह खोलती;
आज तो इस तरह खोल रही है मानो म ँ ही नह । यह मुझसे न बरदा होगा।
वह झमककर उठी और ब के पास जाकर कठोर र म बोली, " तजोरी खोलती हो
ब , मने तो खोलने के लए नह कहा?"
बड़ी ब ने न ंकोच भाव म उ र दया, "बाजार से सामान आया है, तो दाम न दया
जाएगा?"
"कौन चीज कस भाव से आई है और कतनी आई है, यह मुझे कुछ नह मालूम! जब तक
हसाब- कताब न हो जाए, पए कैसे दए जाएँ ?"
" हसाब- कताब सब हो गया है?"
" कसने कया?"
"अब म ा जानूँ, कसने कया? जाकर मरद से पूछो। मुझे मला, पए लाकर दे
दो, पए लये जाती ँ ।"
फूलमती खून का घूँट पीकर रह गई। इस व बगड़ने का अवसर न था। घर म मेहमान
ी-पु ष भरे ए थे। अगर इस व उसने लड़क को डाँटा तो लोग यही कहगे क इनके
घर म पं डतजी के मरते ही फूट पड़ गई। दल पर प र रखकर फर अपनी कोठरी म चली
आई। जब मेहमान वदा हो जाएँ गे, तब वह एक-एक क खबर लेगी। तब देखेगी, कौन
उसके सामने आता है और ा कहता है? इनक सारी चौकड़ी भुला देगी।
कतु कोठरी के एकांत म भी वह न त न बैठी थी, सारी प र त को ग - से देख
रही थी, कहाँ स ार का कौन सा नयम भंग होता है, कहाँ मयादाओं क उपे ा क जाती
है। भोज आरं भ हो गया। सारी बरादरी एक साथ पंगत म बठा दी गई। आँगन म
मु ल से दो सौ आदमी बैठ सकते ह। ये पाँच सौ आदमी इतनी सी जगह म कैसे बैठ
जाएँ गे? ा आदमी के ऊपर आदमी बैठाए जाएँ गे? दो पंगत म लोग बठाए जाते तो
ा बुराई हो जाती? यही तो होता क बारह बजे क जगह भोज दो बजे समा होता;
मगर यहाँ तो सबको सोने क ज ी पड़ी ई है। कसी तरह यह बला सर से टले और चैन
से सोएँ । लोग कतने सटकर बैठे ए ह क कसी को हलने क भी जगह नह । प ल
एक-पर-एक रखे ए ह। पू रयाँ ठं डी हो ग , लोग गरम-गरम माँग रहे ह। मैदे क पू रयाँ
ठं डी होकर चमड़ी हो जाती ह। इ कौन खाएगा? रसोइए को कढ़ाव पर से न जाने
उठा लया गया। यही सब बात नाक काटने क ह।
सहसा शोर मचा, तरका रय म नमक नह । बड़ी ज ी-ज ी नमक पीसने लगी।
फूलमती ोध के मारे ह ठ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मुँह न खोल सकती थी। नमक
पसा और प ल पर डाला गया। इतने म फर शोर मचा, "पानी गरम है, ठं डा पानी
लाओ।" ठं डे पानी का कोई बंध नह था, बरफ भी न मँगाई थी। आदमी बाजार दौड़ाया
गया, मगर बाजार म इतनी रात गए बरफ कहाँ? आदमी खाली हाथ लौट आया। मेहमान
को वही नल का पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता तो लड़क का मुँह नोच लेती।
ऐसी छीछालेदर उसके घर म कभी न ई थी। उस पर सब मा लक बनने के लए मरते ह!
बरफ जैसी ज री चीज मँगवाने क भी कसी को सु ध कहाँ से रहे, जब कसी को गप
लड़ाने से फुरसत मले। मेहमान अपने दल म ा कहगे क चले ह बरादरी को भोज देने
और घर म बरफ तक नह ।
अ ा, फर यह हलचल मच गई! अरे , लोग पंगत से उठे जा रहे ह। ा मामला है?
फूलमती उदासीन न रह सक । कोठरी से नकलकर बरामदे म आई और कामतानाथ से
पूछा, " ा बात हो गई ल ा? लोग उठे जा रहे ह?"
कामता ने कोई जवाब न दया, वहाँ से खसक गया। फूलमती झुँझलाकर रह गई। सहसा
कहा रन मल गई। फूलमती ने उससे भी वही कया। मालूम आ, कसी के शोरबे म
मरी ई चु हया नकल आई। फूलमती च ल खत सी वह खड़ी रह गई। भीतर ऐसा
उबाल उठा क दीवार से सर टकरा ले। अभागे, भोज का बंध करने चले थे। इस
फूहड़पन क कोई हद है, कतने आद मय का धम स ानाश हो गया। फर पंगत न
उठ जाए? आँख से देखकर अपना धम कौन गँवाएगा? आह! सारा कया-धरा म ी म
मल गया! सैकड़ पए पर पानी फर गया, बदनामी ई वह अलग।
मेहमान उठ चुके थे। प ल पर खाना -का- पड़ा था। चार लड़के आँगन म
ल त से खड़े थे। एक सरे को इलजाम दे रहा था। बड़ी ब अपनी देवरा नय पर बगड़
रही थी। देवरा नयाँ सारा दोष कुमुद के सर डालती थ । कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी व
फूलमती झ ाई ह आकर बोली, "मुँह पे का लख लगी क नह ? या अभी कुछ कसर
बाक है? डूब मरो सब-के-सब जाकर चु ू भर पानी म। शहर म कह मुँह दखाने लायक
भी नह रहे!"
कसी लड़के ने जवाब न दया।
फूलमती और भी चंड होकर बोली, "तुम लोग को ा? कसी को शरम-हया तो है नह ।
आ ा तो उनक रो पड़ी है, ज ने अपनी जदगी घर क मरजाद बनाने म ख कर दी।
उनक प व आ ा को तुमने कलं कत कया? सारे म थू-थू हो रही है। अब कोई
तु ारे ार पर पेशाब करने तो आएगा नह ।"
कामतानाथ कुछ देर तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा, आ खर झुँझलाकर बोला, "अ ा, अब
चुप रहो अ ा। भूल ई, हम सब मानते ह, बड़ी भयंकर भूल ई ले कन ा अब उसके
लए घर के ा णय को हलाल कर डालोगी? सभी से भूल होती ह। आदमी पछताकर रह
जाता है। कसी क जान तो नह मारी जाती?"
बड़ी ब ने अपनी सफाई दी, "हम ा जानते थे क बीबी (कुमुद) से इतना सा काम भी
न होगा। इ चा हए था क देखकर तरकारी कढ़ाव म डालत । टोकरी उठाकर कढ़ाव म
डाल दी। इसम हमारा ा दोष?"
कामतानाथ ने प ी को डाँटा, "इसम न कुमुद का कसूर है न तु ारा, न मेरा। संयोग क
बात है। बदनामी भाग म लखी थी, वह ई। इतने बड़े भोज म एक-एक मु ी तरकारी
कढ़ाव म नह डाली जाती, टोकरे -के-टोकरे उड़ेल दए जाते ह। कभी-कभी ऐसी घटना
हो ही जाती है, पर इसम कैसी जग-हँ साई और कैसी नाक-कटाई। तुम खामखाह जले पर
नमक छड़कती हो।"
फूलमती ने दाँत पीसकर कहा, "शरमाते तो नह , उलटे बेहयाई क बात करते हो।"
कामता ने नःसंकोच होकर कहा, "शरमाऊँ , कसी क चोरी क है। चीनी म च टे
और आटे म घुन, यह नह देखे जाते। पहले हमारी नगाह न पड़ी, बस यह बात बगड़
गई। नह , चुपके से चु हया नकालकर फक देते। कसी को खबर तक न होती।"
फूलमती ने च कत होकर कहा, " ा कहता है, मरी चु हया खलाकर सबका धम बगाड़
देता?" कामता हँ सकर बोला, " ा पुराने जमाने क बात करती हो, अ ा? इन बात से
धम नह जाता। यह धमा ा लोग जो प ल पर उठ गए ह, इनम ऐसा कौन है जो भेड़-
बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछु ए और घ घे तक तो कसी से बचते नह । जरा
सी चु हया म ा रखा था?"
फूलमती को ऐसा तीत आ क अब लय आने म ब त देर नह है। जब पढ़े- लखे
आद मय के मन म ऐसे अधा मक भाव आने लग, तो फर धम क भगवान् ही र ा करे ।
वह अपना मुँह लेकर चली गई।
दो महीने गुजर गए ह। रात का समय है। चार भाई दन के काम से छु ी पाकर कमरे म
बैठ गप-शप कर रहे ह। बड़ी ब भी ष ं म शरीक है। कुमुद के ववाह का छड़ा आ
है।
कामतानाथ ने मसनद पर टे क लगाते ए कहा, "दादा क बात दादा के साथ गई। मुरारी
पं डत व ान भी ह और कुलीन भी ह गे। ले कन जो आदमी अपनी व ा और कुलीनता
भी कुलहनता को पय पर बेचे, वह नीच है, ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद का
ववाह सत म भी न करगे, पाँच हजार दहेज तो र क बात है। उसे बताओ धता और
कसी सरे वर क तलाश करो। हमारे पास कुल बीस हजार ही तो ह। एक-एक ह े म
पाँच-पाँच हजार आते ह। पाँच हजार दहेज म दे द, तो और पाँच हजार नेग- ोछावर,
बाजे-गाजे म उड़ा द, तो फर हमारी तो ब धया ही बैठ जाएगी।"
दयानाथ एक समाचार-प देख रहे थे। आँख से ऐनक उतारते ए बोले, "मेरा वचार भी
एक प नकालने का है। ेस और प म कम-से-कम दस हजार का कै पटल चा हए।
पाँच हजार मेरे रहगे, तो कोई-न-कोई साझेदार पाँच हजार का मल जाएगा। प म लेख
लखकर मेरा नवाह नह हो सकता।"
कामतानाथ ने सर हलाते ए कहा, "अजी, राम भजो, सत म कोई लेख छापता नह ,
पए कौन दए देता है।"
दयानाथ ने तवाद कया, "नह , यह बात तो नह है। म तो कह भी बना पेशगी पुर ार
लए नह लखता।"
कामता ने जैसे अपने श वापस लये, "तु ारी बात म नह कहता भाई! तुम तो थोड़ा-
ब त मार लेते हो ले कन सबको तो नह मलता।"
बड़ी ब ने ा से कहा, "क ा भा वान हो तो द र घर म सुखी रह सकती है। अभागी
हो तो राजा के घर म भी रोएगी। यह सब नसीब का खेल है।"
कामतानाथ ने ी क ओर शंसा भाव से देखा, " फर इसी साल हम सीता का ववाह भी
करना है।"
सीतानाथ सबसे छोटा था। सर झुकाए भाइय क ाथ भरी बात सुन-सुनकर कुछ
कहने के लए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोला, "मेरे ववाह क आप लोग
चता न कर। म जब तक कसी धंधे म न लग जाऊँगा, ववाह का नाम भी न लूँगा, और
सच पू छए तो म ववाह करना नह चाहता। देश को इस समय बालक क ज रत नह ,
काम करने वाल क ज रत है। मेरे ह े के पए आप कुमुद के ववाह म खच कर द।
सारी बात तय हो जाने के बाद यह उ चत नह क पं डत मुरारीलाल से संबंध तोड़ लया
जाए।"
उमा ने ती र म कहा, "दस हजार कहाँ से आएँ गे?"
सीता ने डरते ए कहा, "म तो अपने ह े के पए देने को कहता ँ ।"
"और शेष?"
मुरारीलाल से कहा जाए क दहेज म कुछ कमी कर द। वह इतने ाथाध नह ह क इस
अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो जाएँ अगर वह तीन हजार म संतु हो जाएँ , तो
पाँच हजार म ववाह हो सकता है।"
उमा ने कामतानाथ से कहा, "सुनते ह भाईसाहब, इनक बात?"
दयानाथ बोल उठे , "तो इसम आप लोग का ा नुकसान है? यह अपने पए दे रहे ह,
खच क जए। मुरारी पं डत से हमारा कोई बैर नह है। मुझे तो इस बात क खुशी हो रही है,
भला हमम कोई तो ाग करने यो है। इ त ाल पए क ज रत नह है। सरकार से
वजीफा पाते ही ह। पास होने पर कह -न-कह जगह मल जाएगी। हम लोग क हालत तो
ऐसी नह ।"
कामतानाथ ने रद शता का प रचय दया, "नुकसान क एक ही कही। इसम से एक को
क हो तो ा और लोग बैठे देखगे? यह अभी लड़के ह, इ ा मालूम, समय पर एक
पया एक लाख का काम करता है? कौेन जानता है, कल इ वलायत जाकर पढ़ने के
लए सरकारी वजीफा मल जाए, या स वल स वस म आ जाएँ । उस व सफर क
तैया रय म चार-पाँच हजार लग जाएँ गे। तब कसके सामने हाथ फैलाए फरगे? म यह
नह चाहता क दहेज के पीछे इनक जदगी न हो जाए।"
इस तक ने सीतानाथ को भी तोड़ लया। सकुचाता आ बोला, "हाँ, य द ऐसा आ तो
बेशक मुझे पए क ज रत होगी।"
" ऐसा होना असंभव है?"
"असंभव तो म नह समझता, ले कन क ठन अव है। वजीफे उ मलते ह, जसके
पास सफा रश होती ह, मुझे कौन पूछता है?"
"कभी-कभी सफा रश धरी रह जाती ह और बना सफा रश वाले बाजी मार ले जाते ह।"
"तो आप जैसा उ चत समझ। यहाँ तक मंजूर है क वलायत न जाऊँ, पर कुमुद अ े घर
जाए।"
कामतानाथ ने न ा भाव से कहा, "अ ा घर दहेज देने से नह मलता भैया। जैसा
तु ारी भाभी ने कहा, यह नसीब का खेल है। म तो चाहता ँ क मुरारीलाल को जवाब दे
दया जाए और और कोई ऐसा वर खोजा जाए, जो थोड़े म राजी हो जाए। इस ववाह म म
एक हजार से ादा खच नह कर सकता। पं डत दीनदयाल कैसे ह?"
उमा ने स होकर कहा, "ब त अ े। एम-ए-, बी-ए- न सही, जजमानी से आमदनी
अ ी है।"
दयानाथ ने आप क , "अ ा से भी तो पूछ लेना चा हए।"
कामतानाथ को इसक कोई ज रत न महसूस ई। बोले, "उनक तो जैसे बु ही हो
गई है। वही पुराने युग क बात। मुरारीलाल के नाम पर उधार खाए बैठी ह, यह नह
समझत क वह जमाना नह रहा। उनको तो बस कुमुद मुरारी पं डत के घर जाए, चाहे हम
लोग तबाह हो जाएँ ।"
उमा ने शंका उप त क , "अ ा अपने सब गहने कुमुद को दे दगी, देख ली जएगा।"
कामतानाथ का ाथ नी त से व ोह न कर सका। बोले, "गहन पर उनका पूरा अ धकार
है। यह उनका ी-धन है, जसे चाह दे सकती ह।"
उमा ने कहा, " ी-धन है तो ा वह उसे लुटा दगी। आ खर वह भी तो दादा क ही
कमाई है।"
" कसी क कमाई हो। ी-धन पर उनका अ धकार है।"
"यह कानूनी गोरखधंधे ह। बीस हजार म तो चार ह ेदार ह और दस हजार के गहने
अ ा के पास रह जाएँ । देख लेना, इ के बल पर वह भी कुमुद का ववाह मुरारी पं डत
के घर करगी।"
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नह छोड़ सकता। वह कपट-नी त म
कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस व तक कुमुद के ववाह
क चचा करके फूलमती को भड़काना उ चत नह । कामतानाथ ने सर हलाकर कहा,
"भई, म इन चाल को पसंद नह करता।"
उमानाथ ने ख सयाकर कहा, "गहने दस हजार से कम के न ह गे।"
कामतानाथ ने अ वच लत र म कहा, " कतने ही के ह , म अनी त म हाथ नह डालना
चाहता।"
"तो आप अलग बै ठए। हाँ, बीच म भाँजी न म रएगा।"
"और तुम सीता?"
"म भी अलग र ँ गा।"
ले कन जब दयानाथ से यही कया गया, तो वह उमानाथ का सहयोग करने को तैयार
हो गया। दस हजार म ढाई हजार तो उसके ह गे ही। इतनी बड़ी रकम के लए य द कुछ
कौशल भी करना पड़े तो है।

फूलमती रात को भोजन करके लेटी थ क उमा और दया उसके पास जाकर बैठ गए।
दोन ऐसा मुँह बनाए ए थे, मानो कोई भारी वप आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर
पूछा, "तुम दोन घबराए ए मालूम होते हो।"
उमा ने सर खुजलाते ए कहा, "समाचार-प म लेख लखना बड़े जो खम का काम है
अ ा, कतना ही बचकर लखो, ले कन कह -न-कह पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने
एक लेख लखा था। उस पर पाँच हजार क जमानत माँगी गई है! अगर कल तक
जमानत न जमा क गई, तो गर ार हो जाएँ गे और दस साल क सजा ठुक जाएगी।"
फूलमती ने सर पीटकर कहा, "तो ऐसी बात लखते हो बेटा, जानते नह हो,
आजकल हमारे अ दन आए ए ह। जमानत कसी तरह टल नह सकती?"
दयानाथ ने अपराधी भाव से उ र दया, "मने तो अ ा ऐसी कोई बात नह लखी थी;
ले कन क त को ा क ँ ? हा कम जला इतना कड़ा है क जरा भी रयायत नह
करता। मने जतनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।"
"तो तुमने कामता से पए का बंध करने को नह कहा?"
उमा ने मुँह बनाया, "उनका भाव तो तुम जानती हो अ ा, उ पए ाण से ारे ह।
उ चाहे काला पानी हो जाए, वह एक पाई न दगे।"
दयानाथ ने समथन कया, "मने तो उनसे इसका ज ही नह कया।"
फूलमती ने चारपाई से उठते ए कहा, "चलो, म कहती ँ , देगा कैसे नह ? पए इसी दन
के लए होते ह क गाड़कर रखने के लए?"
उमानाथ ने माता को रोककर कहा, "नह अ ा, उनसे कुछ न कहो। पए तो न दगे, घर
म रहने भी न दगे उ े , और हाय-हाय मचाएँ गे। उनको अपनी नौकरी क खै रयत मनानी
है, इ घर म रहने न दगे, अफसर म जाकर खबर दे द, तो आ य नह ।"
फूलमती ने लाचार होकर कहा, "तो फर जमानत का ा बंध करोगे? मेरे पास तो कुछ
नह है। हाँ, मेरे गहने ह, इ ले जाओ, कह गरवी रखकर जमानत दे दो और आज से
कान पकड़ो क कसी प म एक श भी न लखोगे।"
दयानाथ कान पर हाथ रखकर बोला, "यह तो नह हो सकता अ ा, क तु ारे जेवर
लेकर म अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल क कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यह बैठा-
बैठा ा कर रहा ँ ?"
फूलमती छाती पीटते ए बोली, "कैसी बात मुँह से नकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तु
कौन गर ार कर सकता है? उसका मुँह झुलस ँ गी। गहने इसी दन के लए ह या और
कसी दन के लए। जब तु न रहोगे, तो गहने लेकर ा आग म झ कूँगी?"
उसने पटारी लाकर उसके सामने रख दी।
दया ने उमा क ओर जैसे फ रयाद क आँख से देखा, और बोला, "आपक ा राय है
भाईसाहब? इसी मारे म कहता था, अ ा को बताने क ज रत नह । जेल ही हो जाती या
और कुछ।"
उमा ने जैसे सफा रश करते ए कहा, "यह कैसे हो सकता था क इतनी बड़ी वारदात हो
जाती और अ ा को खबर न होती। मुझसे यह नह हो सकता था क सुनकर पेट म डाल
लेता; मगर अब करना ा चा हए; यह म खुद नणय नह कर सकता। न तो यही अ ा
लगता है क तुम जेल जाओ और न यही अ ा लगता है क अ ा के गहने रखे जाएँ ।"
फूलमती ने थत कंठ से पूछा, " ा तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ादा ारे ह। म
तो अपने ाण तक तु ारे ऊपर ोछावर कर ँ , गहन क बसात ही ा है?"
दया ने ढ़ता से कहा, "अ ा, तु ारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही नआ
पड़े। जब आज तक तु ारी कुछ सेवा न कर सका, तो कस मुँह से तु ारे गहने उठा ले
जाऊँ। मुझ जैसे कपूत को तो तु ारी कोख से ज ही न लेना चा हए था। सदा तु
क देता रहा।" फूलमती ने भी उतनी ढ़ता से कहा, "तुम अगर य न लोगे, तो म खुद
जाकर इ गरवी रख ँ गी और हा कम जला के पास जाकर जमानत कर आऊँगी।
अगर इ ा हो तो यह परी ा भी ले लो। आँख बंद हो जाने के बाद ा होगा, भगवान्
जाने, ले कन जब तक जीती ँ , कोई तु ारी ओर तरछी आँख से देख नह सकता।"
उमानाथ ने मानो माता पर अहसान रखकर कहा, "अब तो हमारे लए कोई रा ा नह
रहा, दयानाथ! ा हरज है, ले लो, मगर याद रखो, ही हाथ म पए आ जाएँ , गहने
छु ड़ाने पड़गे। सच कहते ह, मातृ दीघ तप ा है। माता के सवाय इतना ेह और कौन
कर सकता है। हम बडे़ अभागे ह क माता के त जतनी ा रखनी चा हए, उसका
शतांश नह रखते।"
दोन ने जैसे बड़े धम-संकट म पड़कर गहन क पटारी सँभाली और चलते बने। माता
वा भरी आँख से उनक ओर देख रही थी और उसक संपूण आ ा का आशीवाद
जैसे उ अपनी गोद म समेट लेने के लए ाकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद
उनके भ मातृ- दय को अपना सव अपण करके जैसे आनंद क वभू त मली। उसक
ा मनी-क ना इसी ाग के लए, इसी आ -समपण के लए जैसे कोई माग ढू ँ ढ़ती
रहती थी। अ धकार या लोभ या ममता क वहाँ गंध तक न थी। ाग ही उसका अ धकार
है। आज अपना खोया आ अ धकार पाकर, अपनी सरजी ई तमा पर अपने ाण क
भट करके वह नहाल हो गई।

तीन महीने और गुजर गए। माँ के गहन पर हाथ साफ करके चार भाई उसक दलजोई
करने लगे थे। अपनी य को भी समझाते रहते थे क उसका दल न खाएँ । अगर थोड़े
श ाचार से उसक आ ा को शां त मलती है, तो इसम ा हा न है। चार करते अपने
मन क पर माता से सलाह ले लेते, या ऐसा जाल फैलाते क वह सरला उनक बात म
आ जाती और हरे क काम म सहमत हो जाती। बाग का बेचना उसे ब त बुरा लगता था,
ले कन चार ने ऐसी माया रची क वह उसे बेचने पर राजी हो गई, कतु कुमुद के ववाह
के वषय म मतै न हो सका। माँ पं- मुरारीलाल पर जमी ई थी, लड़के दीनदयाल पर
अड़े ए थे। एक दन आपस म कलह हो गई।
फूलमती ने कहा, "माँ-बाप क कमाई म बेटी का ह ा भी है। तु सोलह हजार का बाग
मला, प ीस हजार का एक मकान। बीस हजार नगद ह। ा पाँच हजार भी कुमुद का
ह ा नह है?"
कामता ने न ता से कहा, "अ ा, कुमुद आपक लड़क है तो हमारी ब हन है। आप दो-
चार साल म ान कर जाएँ गी, पर हमारा और उसका ब त दन तक संबंध रहेगा। तब
यथाश कोई ऐसी बात न करगे, जससे उसका अमंगल हो, ले कन ह े क बात
कहती हो तो कुमुद का ह ा कुछ नह । दादा जी वत थे तब और बात थी। वह उसके
ववाह म जतना चाहते खच करते, कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था, ले कन अब तो
हम एक-एक पैसे क कफायत करनी पड़ेगी, जो काम एक हजार म हो जाए, उसके लए
पाँच हजार खच करना कहाँ क बु मानी है।" उमानाथ ने सुधारा, "पाँच हजार दस
हजार क हए!" कामता ने भव सकोड़कर कहा, "नह , म पाँच हजार ही क ँ गा। एक ववाह
म पाँच हजार खच करने क है सयत नह ह।"
फूलमती ने जद पकड़कर कहा, " ववाह तो मुरारीलाल के पु से ही होगा, चाहे पाँच हजार
खच ह , चाहे दस हजार। मेरे प त क कमाई है। मने मर-मरकर जोड़ा, अपनी इ ा से
खच क ँ गी। तु ने मेरी कोख से नह ज लया है, कुमुद भी उसी कोख से आई है।
मेरी आँख म तुम सब बराबर हो, म कसी से कुछ माँगती नह । तुम बैठे तमाशा देखो, म
सबकुछ कर लूँगी, बीस हजार कुमुद का है।"
कामतानाथ को अब कड़वे स क शरण लेने के सवा और कोई माग न रहा। बोला,
"अ ा, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जन पय को तुम अपना समझती हो, वह तु ारे
नह ह, हमारे ह। तुम हमारी अनुम त के बना उसम से कुछ नह खच कर सकती!"
फूलमती को जैसे सप ने डस लया, " ा कहा! फर तो कहना। म अपने ही संचे पए
अपनी इ ा से खच नह कर सकती?"
"वह पए तु ारे नह रहे, हमारे हो गए।"
"तु ारे ह गे, ले कन मेरे मरने के पीछे।"
"नह , दादा के मरते ही हमारे हो गए।"
उमानाथ ने बेहयाई से कहा, "अ ा कानून-कायदा तो नह जानती, नाहक उलझती ह।"
फूलमती ोध- व ल होकर बोली, "भाड़ म जाए तु ारा कानून। म ऐसे कानून को नह
मानती। तु ारे दादा ऐसे बड़े ध ासेठ न थे। मने ही पेट और तन काटकर यह गृह ी
जोड़ी है, नह आज बैठने को छाँह न मलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे पए नह छू सकते।
मने तीन भाइय के ववाह म दस-दस हजार खच कए ह। वही म कुमुद के ववाह म भी
खच क ँ गी।"
कामतानाथ भी गरम पड़ा, "आपको कुछ भी खच करने का अ धकार नह है।" उमानाथ ने
बडे़ भाई को डाँटा, "आप खाम ाह अ ा के मुँह लगते ह। भाईसाहब! मुरारीलाल को
प लख दी जए क तु ारे यहाँ कुमुद का ववाह न होगा, बस छु ी ई। यह कायदा-
कानून तो जानती नह , थ क बहस करती ह।"
फूलमती ने संय मत र म कहा, "अ ा, ा कानून है, जरा म भी सुन।ूँ " उमा ने नरीह
भाव से कहा, "कानून यही है क बाप के मरने के बाद जायदाद बेट क हो जाती है, माँ का
हक केवल रोटी-कपड़े का है?"
फूलमती ने तड़पकर पूछा, " कसने यह कानून बनाया है।"
उमा ने शांत- र र म बोला, "हमारे षय ने, महाराज मनु ने, और कसने।"
फूलमती एक ण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोली, "तो इस घर म म तु ारे टुकड़ पर
पड़ी ई ँ ।"
उमानाथ ने ायाधीश क नममता से कहा, "तुम जैसे समझो।"
फूलमती क संपूण आ ा मानो इस व पात से ची ार करने लगी। उसके मुख से
जलती ई चगा रय क भाँ त ये श नकल पड़े, "मने घर बनवाया, मने संप जोड़ी,
मने तु ज दया, पाला और आज म इस घर म गैर ँ ? मनु का यही कानून है और तुम
उसी कानून पर चलना चाहते हो? अ ी बात है। अपना घर- ार लो। मुझे तु ारी
आ ता बनकर रहना ीकार नह ! इससे कह अ ा है क मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मने
पेड़ लगाया और म ही उसक छाँव म खड़ी नह हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसम
आग लग जाए।"
चार युवक पर माता के इस ोध और आतंक का कोई असर न आ। कानून का
फौलादी कवच र ा कर रहा था। इन काँट का उन पर ा असर हो सकता था?
जरा देर म फूलमती उठकर चली गई। आज जीवन म पहली बार उसका वा -भ
मातृ अ भशाप बनकर उसे ध ारने लगा। जस मातृ को उसने जीवन क वभू त
समझा था, जसके चरण पर वह सदैव अपनी सम अ भलाषाओं और कामनाओं को
अ पत करके अपने को ध मानती थी, वही मातृ आज उसे अ कुंड सा जान पड़ा,
जसम उसका जीवन जलकर भ हो रहा था।
सं ा हो गई थी। ार पर नीम का वृ सर झुकाए न खड़ा था, मानो संसार क
ग त पर ु हो रहा हो। अ ाचल क ओर काश और जीवन का देवता फूलमती के
मातृ क ही भाँ त अपनी चता म जल रहा था।

फूलमती अपने कमरे म जाकर लेटी, तो उसे मालूम आ, उसक कमर टूट गई है। प त
के मरते ही लड़के उसके श ु हो जाएँ गे, उसको म भी मालूम न था। जन लड़क को
उसने दय-र पला- पलाकर पाला, वही आज उसके दय पर य आघात कर रहे ह।
अब वह घर उसे काँट क सेज लग रहा था। जहाँ उसक कुछ क नह , कुछ गनती नह ,
वहाँ अनाथ क भाँ त पड़ी रो टयाँ खाए, यह उसक अ भमानी कृ त के लए अस था।
पर उपाय ही ा था? वह लड़क से अलग होकर रहे भी तो नाक कसक कटे गी! संसार
उसे थूके तो ा, और लड़क को थूके तो ा, बदनामी तो उसी क है। नया यही तो
कहेगी क चार जवान बेट के होते बु ढ़या अलग पड़ी ई मजूरी करके पेट पाल रही है।
ज उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँ सगे। नह , वह अपमान इस अनादर से
कह ादा दय वदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने म ही कुशल है। हाँ,
अब उसे अपने बेट क बात और लात गैर क बात और लात क अपे ा फर भी
गनीमत है।
वह बड़ी देर तक मुँह ढाँपे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आ वेदना म कट
गई। शरद का भात डरता-डरता ऊषा क गोद से नकला, जैसे कोई कैदी छपकर जेल
से भाग आया हो। फूलमती अपने नयम के व आज तड़के ही उठी, रात भर म उसका
मान सक प रवतन हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आँगन म झाड़ू लगा रही
थी। रात क ओस म भीगी ई प जमीन नंगे पैर से काँट क तरह चुभ रही थी।
पं डतजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लए ब त हा नकारक थी, पर
अब वह दन नह । कृ त को भी समय के साथ बदल देने का य कर रही थी। झाड़ू r से
फुरसत पाकर उसने आग जलाई और चावल-दाल क कंक ड़याँ चुनने लगी। कुछ देर म
लड़के जागे, ब एँ उठ । सभी ने बु ढ़या को सद से सकुड़े ए काम करते देखा, पर कसी
ने यह न कहा क अ ा, हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बु ढ़या के इस मान-
मदन पर स थे।
आज से फूलमती का यही नयम हो गया क जी-तोड़कर घर का काम करना और अंतरं ग
नी त से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक आ गौरव झलकता रहता था, उसक
जगह अब गहरी वेदना छाई ई नजर आती थी। जहाँ बजली जलती थी, वहाँ अब तेल का
दीया टम टमा रहा था, जसे बुझा देने के लए हवा का एक हलका सा झ का काफ है।
मुरालीलाल को इ ारी प लखने क बात प हो चुक थी। सरे दन प लख दया
गया। दीनदयाल से कुमुद का ववाह न त हो गया, दीनदयाल क उ चालीस के कुछ
अ धक थी, मयादा म भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बना कसी ठहराव के
ववाह करने पर राजी हो गए। त थ नयत ई, बारात आई, ववाह आ और कुमुद वदा
कर दी गई। फूलमती के दल पर ा गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है पर चार
भाई ब त स थे, मानो उनके दय का काँटा नकल गया हो। ऊँचे कुल क क ा मुँह
कैसे खोलती। ह र-इ ा बेकस का अं तम अवलंब है। घरवाल ने जससे ववाह कर
दया, उसम हजार ऐब ह तो भी उसका उपा , उसका ामी है। तरोध उसक
क ना से परे था।
फूलमती ने कसी काम म दखल न दया। कुमुद को ा दया गया, मेहमान का कैसा
स ार कया गया, कसके यहाँ से नेवते म ा आया, कसी बात से भी उसे सरोकार न
था। उससे कोई सलाह भी ली गई तो यही कहा, "बेटा, तुम लोग जो करते हो, अ ा ही
करते हो, मुझसे ा पूछते हो।"
जब कुमुद के लए ार पर डोली आ गई और कुमुद माँ के गले लपटकर रोने लगी तो वह
बेटी को अपनी कोठरी म ले गई और जो कुछ सौ-पचास पए और दो-चार मामूली गहने
उसके पास बच रहे थे, बेटी के आँचल म डालकर बोली, "बेटी, मेरी तो मन क मन म रह
गई नह ा आज तु ारा ववाह इस तरह होता और तुम इस तरह वदा क जात ।"
आज तक फूलमती ने अपने गहन क बात कसी से न कही थी। लड़क ने उसके साथ जो
कपट- वहार कया था, इसे चाहे वह अब तक न समझी हो, ले कन इतना जानती थी क
गहने फर न मलगे और मनोमा ल बढ़ने के सवा कुछ हाथ न लगेगा; ले कन इस
अवसर पर उसे अपनी सफाई देने क ज रत मालूम ई। कुमुद यह भाव मन म लेकर
जाए क अ ा ने अपने गहने ब ओं के लए रख छोड़े, इसे वह कसी तरह न सह सकती
थी, इसी लए वह अपनी कोठरी म ले गई थी; ले कन कुमुद को पहले ही इस कौशल क
टोह मल चुक थी, उसने गहने और पए आँचल से नकालकर माता के चरण पर रख
दए और बोली, "अ ा, मेरे लए तु ारा आशीवाद ही लाख पय के बराबर है। तुम इन
चीज को अपने पास रखो। न जाने अभी तु कन वप य का सामना करना पड़े?"
फूलमती कहना ही चाहती थी क उमानाथ ने आकर कहा, " ा कर रही है कुमुद? चल,
ज ी कर, साइत टली जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे ह, फर तो दो-चार महीने म
आएगी ही, जो कुछ लेना-देना हो ले लेना।"
फूलमती के घाव पर मानो नमक पड़ गया। बोली, "मेरे पास अब ा है भैया, जो म इसे
ँ गी। जाओ बेटी, भगवान् तु ारा सोहाग अमर कर।"
कुमुद वदा हो गई। फूलमती पछाड़ खाकर गर पड़ी। जीवन क
अं तम लालसा न हो गई।
एक साल बीत गया।
फूलमती का कमरा घर के सब कमर म बड़ा और हवादार था। कई महीन से उसने बड़ी
ब के लए खाली कर दया था और खुद एक छोटी सी कोठरी म रहने लगी थी, जैसे कोई
भखा रन हो। बेट और ब ओं से अब उसे जरा भी ेह न था। वह अब घर क ल डी थी।
घर के कसी ाणी, कसी व ु, कसी संग से उसे योजन न था। वह केवल इसी लए
जीती थी क मौत न आती थी। सुख या ःख का अब उसे लेशमा भी ान न था।
उमानाथ का औषधालय खुला, म क दावत ई, नाच-तमाशा आ। दयानाथ का ेस
खुला, फर जलसा आ। सीतानाथ को वजीफा मला और वलायत गया, फर धूमधाम
ई; ले कन फूलमती के मुख पर आनंद क छाया तक न आई। कामतानाथ टाइफाइड म
महीने भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबक अपने प का चार बढ़ाने के
लए वा व म एक आप जनक लेख लखा और छह महीने क सजा पाई। उमानाथ ने
एक फौजदारी के मामले म र त लेकर गलत रपोट लखी और उनक सनद छीन ली
गई पर फूलमती के चेहरे पर रं ज क परछा तक न पड़ी। उसके जीवन म अब कोई आशा,
कोई दलच ी, कोई चता न थी। बस पशुओ ं क तरह काम करना और खाना, यही
उसक जदगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है, पर खाता है मन से।
फूलमती बे-कहे काम करती थी, पर खाती थी वष के कौर क तरह। महीन सर म तेल न
पड़ता, महीन कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नह । वह चेतनाशू हो गई थी।
सावन क झड़ी लगी ई थी। मले रया फैल रहा था। आकाश म म टयाले बादल थे, जमीन
पर म टयाला पानी। आ वायु शीत- र और ास का वतरण करती फरती थी। घर क
महरी बीमार पड़ गई। फूलमती ने घर के सारे बरतन माँजे, पानी म भीग-भीगकर सारा
काम कया, फर आग जलाई और चू े पर पती लयाँ चढ़ा द । लड़क को समय पर
भोजन तो मलना ही चा हए। सहसा उसे याद आया क कामतानाथ नल का पानी नह
पीते। उसी वषा म गंगाजल लाने चली।
कामतनाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा, "हने दो अ ा, म पानी भर लाऊँगा। आज महरी
खूब बैठी रही।"
फूलमती ने म टयाले आकाश क ओर देखकर कहा, "तुम भीग जाओगे बेटा, सद लग
जाएगी।"
कामतानाथ बोले, "तुम भी तो भीग रही हो। कह बीमार न पड़ जाओ।"
फूलमती नमम भाव से बोली, "म बीमार न पड़ू ँगी! मुझे भगवान् ने अमर कर दया है।"
उमानाथ भी वह बैठा था। उसके औषधालय म कुछ आमदनी न होती थी; इसी लए ब त
च तत रहता था। भाई-भावज क मुँहदेखी करता रहता था। बोला, "जाने भी दो भैया!
ब त दन ब ओं पर राज कर चुक ह, उसका ाय तो करने दो।"
गंगा बढ़ी ई थी, जैसे समु हो। तज सामने के कूल से मला आ था। कनारे के
वृ क केवल फुन गयाँ पानी के ऊपर रह गई थ । घाट ऊपर तक पानी म डूब गए थे।
फूलमती कलसा लये नीचे उतरी। पानी भरा और ऊपर जा रही थी क पाँव फसला,
सँभल न सक , पानी म गर पड़ी। पल भर हाथ-पाँव चलाए, फर लहर उसे नीचे ख च ले
ग । कनारे पर दो-चार पंडे च ाए, "अरे दौड़ो, बु ढ़या डूबी जाती है।" दो-चार आदमी
दौड़े भी, ले कन फूलमती लहर म समा गई थी, उन बल खाती ई लहर म, ज देखकर
दय काँप उठता था।
एक ने पूछा, "यह बु ढ़या कौन थी?"
"अरे , वही पं डत अयो ानाथ क वधवा है।"
"अयो ानाथ तो बड़े आदमी थे।"
"हाँ, थे तो पर इसके भा म ठोकर खाना लखा था।"
"उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े ह और सब कमाते ह।"
"हाँ, सब ह भाई, मगर भा भी तो कोई व ु है?"
Published by
Pratibha Pratishthan

1661 Dakhni Rai Street,


Netaji Subhash Marg,
New Delhi-110002

ISBN 978-93-5048-759-4

PREMCHAND KI LOKPRIYA KAHANIYAN


by Premchand

Edition First, 2012

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