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1- लाग-डाट
2- रामलीला
3- कजाक
4- गरीब क हाय
5- परी ा
6- केट मैच
7- पंच-परमे र
8- धोखा
9- भाड़े का ट ू
10- जुगनू क चमक
11- सुजान भगत
12- ईदगाह
13- बेट वाली वधवा
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चौधरी के उपदेश सुनने के लए जनता टूटती थी। लोग को खड़े होने क जगह भी न
मलती। दनो दन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ न पंचायत म रा ो त क
चचा रहती, जनता को इन बात म बड़ा आनंद और उ ाह होने लगा। उनके राजनै तक
ान क वृ होने लगी। वह अपना गौरव और मह समझने लगे, उ स ा का अनुभव
होने लगा। नरं कुशता और अ ाय पर अब उनक तैया रयाँ चढ़ने लग । उ तं ता
का ाद मला। घर क ई, घर का सूत, घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर क अदालत,
न पु लस का भय, न अमला क खुशामद, सुख और शां त से जीवन तीत करने लगे।
कतन ही ने नशेबाजी छोड़ दी और स ाव क एक लहर सी दौड़ने लगी।
ले कन भगतजी इतने भा शाली न थे। जनता को दनो दन उनके उपदेश से अ च
होती जाती थी। यहाँ तक क ब धा उनके ोताओं म पटवारी, चौक दार, मुद रस और
इ कमचा रय के म के अ त र और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हा कम भी
आ नकलते और भगतजी का बड़ा आदर-स ार करते, जरा देर के लए भगतजी के
आँसू प छ जाते, ले कन ण भर का स ान आठ पहर के अपमान क बराबरी कैसे
करता! जधर नकल जाते उधर ही उँ ग लयाँ उठने लगत । कोई कहता, खुशामदी ट ू है,
कोई कहता, खु फया पु लस का भेदी है। भगतजी अपने त ं ी क बड़ाई और अपनी
लोक नदा पर दाँत पीस-पीसकर रह जाते थे। जीवन म यह पहला ही अवसर था क उ
सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चरकाल से जस कुल-मयादा क र ा करते आए थे
और जस पर अपना सव अपण कर चुके थे, वह धूल म मल गई। यह दाहमय चता
उ एक ण के लए चैन न लेने देती। न सम ा सामने रहती क अपना खोया आ
स ान कर पाऊँ, अपने तप ी को कर पदद लत क ँ , कैसे उसका ग र
तोड़ू ँ? अंत म उ ने सह को उसी क माँद म पछाड़ने का न य कया।
रामलीला समा हो गई थी। राजग ी होने वाली थी, पर न जाने देर हो रही थी।
शायद चंदा कम वसूल आ था। रामचं क इन दन कोई बात भी न पूछता था। न ही घर
जाने क छु ी मलती थी और न ही भोजन का बंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से
सीदा कोई तीन बजे दन को मलता था, बाक सारे दन कोई पानी को नह पूछता।
ले कन मेरी ा अभी तक -क - थी। मेरी म वह अब भी रामचं ही थे। घर
पर मुझे खाने क कोई चीज मलती, वह लेकर रामचं को दे आता। उ खलाने म मुझे
जतना आनंद मलता था, उतना आप खा जाने म भी कभी न मलता। कोई मठाई या
फल पाते ही म बेतहाशा चौपाल क ओर दौड़ता। अगर रामचं वहाँ न मलते तो चार
ओर तलाश करता और जब तक वह चीज उ न खला देता, चैन न आता था।
खैर, राजग ी का दन आया। रामलीला के मैदान म एक बड़ा सा शा मयाना ताना गया।
उसक खूब सजावट क गई। वे ाओं के दल भी आ प ँ चे। शाम को रामचं क सवारी
नकली और ेक ार पर उनक आरती उतारी गई। ानुसार कसी ने पए दए,
कसी ने पैस।े मेरे पता पु लस के आदमी थे, इस लए उ ने बना कुछ दए ही आरती
उतारी। उस व मुझे जतनी ल ा आई, उसे बयान नह कर सकता। मेरे पास उस व
संयोग से एक पया था। मेरे मामाजी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक पया दे गए
थे। उस पए को मने रख छोड़ा था। दशहरे के दन भी उसे खच न कर सका। मने तुरंत
वह पया लाकर आरती क थाली म डाल दया। पताजी मेरी ओर कु पत ने से देखकर
रह गए। उ ने कुछ कहा तो नह , ले कन मँ◌ुह ऐसा बना लया, जससे कट होता था
क मेरी इस धृ ता से उनके रोब म ब ा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह प र मा
पूरी ई। आरती क थाली पय और पैस से भरी ई थी। ठीक तो नह कह सकता, मगर
अब ऐसा अनुमान होता है क चार-पाँच सौ पय से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ
ादा ही खच कर चुके थे। उ इसक बड़ी फ ई क कसी तरह कम-से-कम दो सौ
पए और वसूल हो जाएँ और इसक सबसे अ ी तरक ब उ यही मालूम ई क
वे ाओं ारा मह फल म वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ और मह फल का रं ग जम
जाए, तो आबादीजान र सकजन क कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दखाएँ क
लोग शरमाते- शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मर। आबादीजान और चौधरी साहब म
सलाह होने लगी। म संयोग से उन दोन ा णय क बात सुन रहा था। चौधरी साहब ने
समझा होगा क यह ल डा ा मतलब समझेगा। पर यहाँ ई र क दया से अ के
पुतले थे। सारी दा ान समझ म आती जाती थी।
चौधरी,"सुनो आबादीजान, यह तु ारी ादती है। हमारा और तु ारा कोई पहला
सा बका तो है नह । ई र ने चाहा तो हमेशा तु ारा आना-जाना लगा रहेगा। अब क
चंदा ब त कम आया, नह तो म तुमसे इतना इसरार न करता।"
करता।"
आबादीजान,"आप मुझसे भी जम दारी चाल चलते ह, ? मगर यहाँ जूर क दाल न
गलेगी। वाह! पए तो म वसूल क ँ और मूँछ पर ताव आप द। कमाई का अ ा ढं ग
नकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दन म राजा हो जाएँ गे। उसके सामने
जम दारी झक मारे गी! बस कल ही से एक चकला खोल दी जए! खुदा क कसम,
मालामाल हो जाइएगा।"
चौधरी,"तुम द गी करती हो और यहाँ का फया तंग हो रहा है।"
आबादीजान,"तो आप भी तो मुझी से उ ादी करते ह। यहाँ आप जैसे कइय को रोज
उँ ग लय पर नचाती ँ ।"
चौधरी,"आ खर तु ारी मंशा ा है?"
आबादीजान,"जो कुछ वसूल क ँ , उसम आधा मेरा, आधा आपका। लाइए, हाथ मा रए।"
चौधरी,"यही सही।"
आबादीजान,"तो पहले मेरे सौ पए गन दी जए। पीछे से आप अलसेट करने लगगे।"
चौधरी,"वह भी लोगी और यह भी।"
आबादीजान,"अ ा! तो ा आप समझते थे क अपनी उजरत छोड़ ँ गी? वाह री
आपक समझ! खूब, न हो। दीवाना बकारे दरवेश शयार!"
चौधरी,"तो ा तुमने दोहरी फ स लेने क ठानी है?"
आबादीजान,"अगर आपको सौ दफे गरज हो तो। वरना मेरे सौ पए तो कह गए ही नह ।
मुझे ा कु े ने काटा है, जो लोग क जेब म हाथ डालती फ ँ ?"
चौधरी क एक न चली। आबादीजान के सामने दबना पड़ा। नाच शु आ। आबादीजान
बला क शोख औरत थी। एक तो कम सन, उस पर हसीन और उसक अदाएँ तो इस
गजब क थ क मेरी तबीयत भी म ई जाती थी। आद मय को पहचानने का गुण भी
उसम कुछ कम न था। जसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लया। पाँच पए
से कम तो शायद ही कसी ने दए ह । पताजी के सामने भी वह बैठी। म मारे शरम के गड़
गया। जब उसने उनक कलाई पकड़ी, तब तो म सहम उठा। मुझे यक न था क पताजी
उसका हाथ झटक दगे और शायद ार भी द, कतु यह ा हो रहा है ई र! मेरी आँख
धोखा तो नह खा रही ह। पताजी मूँछ म हँ स रहे ह। ऐसी मृ हँ सी उनके चेहरे पर मने
कभी नह देखी थी। उनक आँख से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम
पुल कत हो रहा था, मगर ई र ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उ ने धीरे से
आबादीजान के कोमल हाथ से अपनी कलाई छु ड़ा ली। अरे ! यह फर ा आ? आबादी
तो उनके गले म बाँह डाले देती है। अब पताजी उसे ज र पीटगे। चुडै़ल को जरा भी शरम
नह ।
एक महाशय ने मुसकराकर कहा,"यहाँ तु ारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाजा
देखो।"
बात तो इन महाशय ने मेरे मन क कही और ब त ही उ चत कही, ले कन न जाने
पताजी ने उसक ओर कु पत ने से देखा और मूँछ पर ताव दया। मुँह से तो वह कुछ न
बोले, पर उनके मुख क आकृ त च ाकर सरोष श म कह रही थी, ‘तू ब नया, मुझे
समझता ा है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक नसार करने को तैयार ह। पए क
हक कत ही ा! तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे नी रकम न डालूँ तो मुँह न दखाऊँ!’
महान् आ य! घोर अनथ! अरे , जमीन तू फट नह जाती। आकाश, तू फट नह
पड़ता? अरे , मुझे मौत नह आ जाती! पताजी जेब म हाथ डाल रहे ह। कोई चीज
नकाली और सेठजी को दखाकर आबादीजान को दे डाली। आह! यह तो अशरफ है।
चार ओर ता लयाँ बजने लग । सेठजी उ ू बन गए। पताजी ने मुँह क खाई, इसका
न य म नह कर सकता। मने केवल इतना देखा क पताजी ने एक अशरफ
नकालकर आबादीजान को दी। उनक आँख म इस समय इतना गवयु उ ास था
मानो उ ने हा तम क क पर लात मारी हो। यही पताजी ह, ज ने मुझे आरती म
एक पया डालते देखकर मेरी ओर इस तरह से देखा था, मानो मुझे फाड़ ही खाएँ गे। मेरे
उस परमो चत वहार से उनके रोब म फक आता था और इस समय इस घृ णत, कु त
और न दत ापार पर गव और आनंद से फूले न समाते थे।
आबादीजान ने एक मनोहर मुसकान के साथ पताजी को सलाम कया और आगे बढ़ी,
मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शरम के मेरा म क झुका जाता था, अगर मेरी आँख
देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी ऐतबार न होता। म बाहर जो कुछ देखता-सुनता
था, उसक रपोट अ ा से ज र करता था। पर इस मामले को मने उनसे छपा रखा। म
जानता था, उ यह बात सुनकर बड़ा ःख होगा।
रात भर गाना होता रहा, तबले क धमक मेरे कान म आ रही थी। जी चाहता था, चलकर
देखूँ, पर साहस न था। म कसी को मुँह कैसे दखाऊँगा? कह कसी ने पताजी का ज
छेड़ दया तो म ा क ँ गा?
ातःकाल रामचं क वदाई होने वाली थी। म चारपाई से उठते ही आँख मलता आ
चौपाल क ओर भागा। डर रहा था क कह रामचं चले न गए ह । प ँ चा तो देखा,
तवायफ क सवा रयाँ जाने को तैयार ह। बीस आदमी हसरत नाक-मुँह बनाए उ घेरे
खड़े ह। मने उनक ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचं के पास प ँ चा। ल ण और
सीता बैठे रो रहे थे और रामचं खड़े काँधे पर लु टया-डोर डाले उ समझा रहे थे। मेरे
सवा वहाँ और कोई न था। मने कुं ठत र म रामचं से पूछा," ा तु ारी वदाई हो
गई?"
रामचं ,"हाँ, हो तो गई। हमारी वदाई ही ा? चौधरी साहब ने कह दया, जाओ, चले
जाते ह।"
" ा पया और कपड़े नह मले?"
"अभी नह मले। चौधरी साहब कहते ह,"इस व बचत म पए नह ह, फर आकर ले
जाना।"
"कुछ नह मला?"
"एक पैसा भी नह । कहते ह, कुछ बचत नह ई। मने सोचा था क कुछ पए मल जाएँ गे
तो पढ़ने क कताब ले लूँगा। सो कुछ न मला। राह खच भी नह दया। कहते ह, कौन र
है, पैदल चले जाओ!"
मुझे ऐसा ोध आया क चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथ लूँ। वे ाओं के लए पए,
सवा रयाँ, सबकुछ, पर बेचारे रामचं और उनके सा थय के लए कुछ भी नह । जन
लोग ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस पए ोछावर कए थे, उनके पास
ा इनके लए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नह ? पताजी ने भी आबादीजान को एक
अशरफ दी थी। देख,ूँ इनके नाम पर ा देते ह। म दौड़ा आ पताजी के पास गया। वह
कह त ीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले,"कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के व
तु घूमने क सूझती है।"
मने कहा,"गया था चौपाल। रामचं वदा हो रहे थे। उ चौधरी साहब ने कुछ नह दया।"
"तो तु इसक ा फ पड़ी है?"
"वह जाएँ गे कैसे? उनके पास राह-खच भी तो नह है।"
" ा कुछ खच भी नह दया? यह चौधरी साहब क बेइनसाफ है।"
"आप अगर दो पया दे द तो म उ दे आऊँ। इतने म शायद वह घर प ँ च जाएँ ।"
पताजी ने ती से देखकर कहा,"जाओ अपनी कताब देखो, मेरे पास पए नह ह।"
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दन से पताजी पर से मेरी ा उठ गई। मने
फर कभी उनक डाँट-डपट क परवाह नह क । मेरा दल कहता, ‘आपको मुझको उपदेश
देने का कोई अ धकार नह है।’ मुझे उनक सूरत से चढ़ हो गई। वह जो कहते, म ठीक
उसका उलटा करता। य प इसम मेरी हा न ई। ले कन मेरा अंतःकरण उस समय
व वकारी वचार से भरा आ था।
मेरे पास दो आने पड़े ए थे। मने उठा लये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचं को दे
दए। उन पैस को देखकर रामचं को जतना हष आ, वह मेरे लए आशातीत था। टूट
पड़े, मानो ासे को पानी मल गया। यही दो आने पैसे लेकर तीन मू तयाँ वदा ।
केवल म ही उनके साथ क े के बाहर तक प ँ चाने आया।
उ वदा करके लौटा तो मेरी आँख सजल थ , पर दय आनंद से उमड़ा आ था।
मे री बचपन क याद म ‘कजाक ’ एक न मटने वाला है। आज चालीस वष
गुजर गए, कजाक क मू त अभी तक मेरी आँख के सामने नाच रही है। म उस समय
अपने पता के साथ आजमगढ़ क एक तहसील म था। कजाक जा त का पासी था, बड़ा
ही हँ समुख, बड़ा ही जदा दल। वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता
और सुबह डाक लेकर चला जाता।
शाम को फर उधर से डाक लेकर आ जाता। म दन भर उ हालत म उसक राह देखा
करता। ही चार बजते, बेचैन होकर सड़क पर आकर खड़ा हो जाता। वह र से दौड़ता
आ आता दखलाई पड़ता। वह साँवले रं ग का गठीला, लंबा जवान था। ज साँचे म
ऐसा ढला आ क चतुर मू तकार भी उसम कोई दोष न नकाल सकता। उसक छोटी-
छोटी मूँछ उसके सुडौल मुँह पर ब त ही अ ी तीत होती थ ।
मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता, उसक झुँझुनी और तेजी से बजने लगती तथा
मेरे दल म जोर से खुशी क धड़कन होने लगती। हषा तरे क म म भी दौड़ पड़ता और एक
पल म कजाक का कंधा मेरा सहासन बन जाता। वह जगह मेरी अ भलाषाओं का ग
थी।
ग के नवा सय को शायद वह आंदो लत आनंद नह मलता होगा, जो मुझे कजाक के
वशाल कंधे पर मलता था। नया मेरी आँख म तु हो जाती और कजाक मुझे कंधे
पर लये ए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा महसूस होता, मानो म हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा
ँ।
कजाक डाकखाने म प ँ चता तो पसीने से तर-बतर रहता; ले कन आराम करने क आदत
नह थी। थैला रखते ही वह हम लोग को लेकर कसी मैदान म नकल जाता, कभी हमारे
साथ खेलता, कभी बरहे गाकर सुनाता और कभी-कभी कहा नयाँ सुनाता। उसे चोरी
तथा डाके, मारपीट, भूत- ेत क सैकड़ कहा नयाँ याद थ । म कहा नयाँ सुनकर व च
आनंद म म हो जाता; उसक कहा नय के चोर और डाकू स े यो ा थे, जो धनी लोग
को लूटकर दीन- खी ा णय का पालन करते थे। मुझे उन पर नफरत के बदले ा
होती थी।
एक रोज कजाक को डाक का थैला लेकर आने म देर हो गई। सूया हो गया और वह
दखलाई नह पड़ा। म खोया आ सा सड़क पर र तक ने फाड़-फाड़कर देखता था; पर
वह प र चत रे खा न दखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था; ‘झुन-झुन’ क वह
आमोदमय न नह सुनाई देती थी। काश के साथ मेरी उ ीद भी म लन होती जाती
थी। उधर से कसी को आते देखता तो पूछता,"कजाक आता है?" मगर या तो कोई
सुनता ही न था या फर सर हला देता था।
अचानक ‘झुन-झुन’ क आवाज कान म आई। मुझे अँधेरे म चार ओर भूत ही दखलाई
देते थे। यहाँ तक क माताजी के कमरे म ताक पर रखी ई मठाई भी अँधेरा हो जाने के
प ात् मेरे लए ा हो जाती थी; ले कन वह आवाज सुनते ही म उसक ओर जोर से
दौड़ा। हाँ, कजाक ही था। उसे देखते ही मेरी वकलता गु े म बदल गई। म उसे मारने
लगा, फर ठ करके अलग खड़ा हो गया।
कजाक ने हँ सकर कहा,"मारोगे तो म जो लाया ँ , वह न ँ गा।"
मने साहस करके कहा,"जाओ मत देना, म लूँगा भी नह ।"
कजाक ,"अभी दखा ँ , तो फर दौड़कर गोद म उठा लोगे।"
मने पघलकर कहा,"अ ा, दखा दो।"
कजाक ,"तो आकर मेरे कंधे के ऊपर बैठ जाओ, भाग चलूँ। आज काफ देर हो गई है।
बाबूजी गु ा हो रहे ह गे।"
मने अकड़कर कहा,"पहले दखा तो दो।"
मेरी वजय ई। य द कजाक को देर न होती और वह एक मनट भी और क सकता, तो
शायद पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दखाई, जसे वह एक हाथ से सीने से
चपकाए ए था। लंबा मुँह था, दो आँख चमक रही थ ।
मने उसे भागकर कजाक क गोद से ले लया। यह हरन का ब ा था। आह! मेरी उस
स ता का कौन अनुमान करे गा? तब से क ठन परी ाएँ पास क , अ ा पद भी पाया,
रायबहा र भी आ, मगर वह खुशी फर भी न हा सल ई। म उसे गोद म लये, उसके
कोमल श का मजा उठाता आ घर क ओर दौड़ा। कजाक को आने म इतनी देर
ई, इसका वचार ही न रहा।
मने पूछा,"यह कहाँ पर मला कजाक ?"
कजाक ,"भैया, यहाँ से थोड़ी री पर एक छोटा सा वन है, उसम ब त से हरन ह। मेरा
ब त दल चाहता था क कोई ब ा मल जाए तो तु ँ । आज यह ब ा हरन के झुंड
के साथ दखलाई दया। म झुंड क तरफ दौड़ा तो ब त र नकल गए, यही पीछे रह गया।
मने इसे पकड़ लया और इसी से इतनी देर ई।"
इस तरह बात करते हम दोन डाकखाने प ँ च।े बाबूजी ने मुझे न देखा, हरन के ब े को
भी न देखा, कजाक पर ही उनक पड़ी। बगड़कर बोले,"आज इतनी देर कहाँ
लगाई? अब थैला लेकर आया है, उसे लेकर म ा क ँ ? डाक तो चली गई। बता, तूने
इतनी देर कहाँ पर लगाई?"
कजाक के मुख से आवाज न नकली।
बाबूजी बोले,"तुझे शायद अब नौकरी नह करनी है। नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया!
जब भूख मरने लगेगा तो ने खुलगे।"
कजाक खामोश खड़ा रहा।
बाबूजी का गु ा और बढ़ा। बोले,"अ ा, थैला रख दे और अपने घर क राह ले। सूअर,
अब डाक लेकर आया है। तेरा ा बगडे़गा, जहाँ पर चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथे पर
मेरे आएगी, उ र तो मुझसे तलब होगा।"
कजाक ने ँ आसा होकर कहा," जूर, अब कभी देर नह होगी।"
बाबूजी,"आज देर क , इसका उ र दे?"
कजाक के पास इसका कोई जवाब न था। आ य तो यह था क मेरी भी जबान बंद हो
गई। बाबूजी बड़े ोधी थे। उ काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुँझला पड़ते
थे। म तो उनके स ुख कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी ार न करते थे। घर म
सफ दो बार घंटे-घंटे भर के लए भोजन करने आते थे, शेष सारे दन द र म लखा
करते थे। उ ने बार-बार एक सहकारी के लए अफसर से ाथना क थी, पर इसका
असर न आ था। यहाँ तक क तातील (छु ी) के दन भी बाबूजी द र ही म रहते थे।
सफ माताजी उनका गु ा शांत करना जानती थ । पर वह द र म कैसे आत ? बेचारा
कजाक उसी समय मेरे देखते-देखते नकाल दया गया। उसका ब म, चपरास और
साफा छीन लया गया और उसे डाकखाने से नकल जाने का ना दरी आदेश सुना दया।
आह! उस व मेरा ऐसा दल चाहता था क मेरे पास सोने क लंका होती तो कजाक को
दे देता और बाबूजी को दखा देता क तु ारे नकाल देने से कजाक का बाल भी बाँका
नह आ। कसी यो ा को अपनी तलवार पर जतना गव होता है, उतना ही गव कजाक
को अपनी चपरासी पर था। जब वह चपरासी खोलने लगा तो उसके हाथ काँप रहे थे और
ने से आँसू बह रहे थे, और इस सारे उप व क जड़ वह कोमल चीज थी, जो मेरी गोद म
मुँह छपाए ऐसे चैन से बैठी ई थी मानो माता क गोद म हो। जब कजाक चला तो म
आ ह ा-आ ह ा उसके पीछे चला। मेरे घर के दरवाजे पर आकर कजाक ने
कहा,"भैया, अब घर जाओ। साँझ हो गई।"
म खामोश खड़ा अपने आँसुओ ं के वेग को सारी ताकत से दबा रहा था। कजाक फर
बोला,"भैया, म कह बाहर थोड़े ही चला जाऊँगा, फर आऊँगा तथा तु कंधे पर बैठाकर
कुदाऊँगा, बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो ा इतना भी न करने दगे! तुमको छोड़कर म
कह नह जाऊँगा, भैया! जाकर अ ा से कह दो, कजाक जाता है। उसका कहा-सुना
मा कर।"
म दौड़ा आ घर गया, कतु अ ाजी से कुछ कहने के बदले बलख- बलखकर रोने लगा।
अ ाजी कचन के बाहर नकलकर पूछने लग , " ा आ बेटा? कसने मारा! बाबूजी
ने भी कुछ कहा है? अ ा; रह तो जाओ, आज घर आते ह, पूछती ँ । जब देखो, मेरे लड़के
को मारा करते ह। खामोश रहो बेटा, अब तुम उनके पास कभी न जाना।"
मने बड़ी क ठनता से आवाज सँभालकर कहा,"कजाक !"
अ ा ने समझा, कजाक ने मारा है कहने लग ,"अ ा, आने दो कजाक को, देखो, खड़े-
खड़े नकलवा देती ँ । हरकारा होकर मेरे राजा पु को मारे ! आज ही तो साफा, ब म,
सब छनवाए लेती ँ । वाह!"
मने शी ता से कहा,"नह , कजाक ने नह मारा। बाबूजी ने उसे नकाल दया है। उसका
साफा, ब म छीन लया, चपरास भी ले ली।"
अ ा,"यह तु ारे बाबूजी ने ब त बुरा कया। वह बेचारा अपने काय म इतना सतक रहता
है, फर उसे नकाला?"
मने बताया,"आज उसे देर हो गई थी।"
इतना कहकर हरन के ब े को गोद से उतार दया। घर म उसके भाग जाने का डर न था।
अब तक अ ाजी क नगाह भी उस पर न पड़ी थी। उसे फुदकते देखकर वह अचानक
च क पड़ और लपककर मेरा हाथ पकड लया क कह यह भयानक जीव मुझे काट न
खाए! म कहाँ तो फूट-फूटकर रो रहा था और कहाँ अ ा क घबराहट देखकर
खल खलाकर हँ सने लगा। अ ा,"अरे , यह तो हरन का ब ा है! कहाँ मला?"
मने हरन के ब े का इ तहास और उसका भीषण अंजाम आ द से अंत तक कह
सुनाया,"अ ा, यह इतना तेज भागता था क कोई अ होता तो पकड़ ही न सकता।
सन्-सन् हवा क तरह उड़ता चला जाता था। कजाक पाँच-छह घंटे तक इसके पीछे
दौड़ता रहा, तब कह जाकर ब ा मला। अ ाजी, कजाक क भाँ त कोई संसार भर म
नह दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गई। इस लए बाबूजी ने बेचारे को नकाल दया,
चपरास, साफा, ब म, सबकुछ छीन लया। अब बेचारा ा करे गा? भूख मर
जाएगा।"
अ ा ने पूछा,"कहाँ है कजाक , जरा उसे बुलाकर तो लाओ।"
मने कहा,"बाहर तो खड़ा है। कहता था, अ ाजी से मेरा कहा-सुना माफ करवा देना।"
अब तक अ ाजी मेरे हाल को मजाक समझ रही थ । शायद वह समझती थ क बाबूजी
ने कजाक को डाँटा होगा। मगर मेरा अं तम वा सुनकर संशय आ क वाकई कजाक
बरखा तो नह कर दया गया। बाहर आकर ‘कजाक ! कजाक ’ पुकारने लग , कतु
कजाक का कह पता नह था। मने बार-बार पुकारा, मगर कजाक वहाँ न था।
भोजन तो मने खा लया, ब े शोक म खाना नह छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी सामने
हो। ले कन बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास पए होते तो एक लाख पए
कजाक को दे देता और कहता, ‘बाबूजी से कभी नह बोलना। बेचारा भूख मर जाएगा!
देख,ूँ कल आता है क नह । अब वह ा करे गा आकर? ले कन आने को तो कह गया है।
म कल उसे अपने साथ खाना खलाऊँगा।’
यही हवाई कले बनाते ए मुझे न द आ गई।
इसी गाँव म मूँगा नाम क एक वधवा ा णी रहती थी। उसका प त बमा क काली
पलटन म हवलदार था और लड़ाई म वह मारा गया। सरकार क ओर से उसके अ े
काम के बदले मूँगा को पाँच सौ पए मले थे। वधवा ी, जमाना नाजुक था, बेचारी ने
ये सब पए मुंशी रामसेवक को स प दए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसम से माँगकर
अपना नवाह करती रही।
परं तु अनाथ का ोध पटाखे क आवाज है, जससे ब े डर जाते ह और असर कुछ नह
होता। अदालत म उसका कुछ जोर न था। न लखा-पढ़ी थी, न हसाब- कताब। हाँ,
पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठी। कई गाँव के लोग इक े ए। मुंशीजी नीयत
और मामले के साफ थे! सभा म खड़े होकर पंच से कहा,"भाइयो! आप सब लोग
स परायण और कुलीन ह। म आप सब साहब का दास ँ । आप सब साहब क उदारता
और कृपा से, दया और ेम से, मेरा रोम-रोम कृत है। ा आप लोग सोचते ह क म
इस अना थनी और वधवा ी के पए हड़प कर गया ँ ?"
पंच ने एक र म कहा,"नह , नह ! आपसे ऐसा नह हो सकता।" रामसेवक,"य द आप
सब स न का वचार हो क मने पया दबा लया, तो मेरे लए डूब मरने के सवा और
कोई उपाय नह । म धना नह ँ , न मुझे उदार होने का घमंड है। पर अपनी कलम क
कृपा से, आप लोग क कृपा से कसी का मोहताज नह ँ । ा म ऐसा ओछा हो
जाऊँगा क एक अना थनी के पए पचा लू?ँ "
पंच ने एक र म कहा,"नह -नह , आपसे ऐसा नह हो सकता। मुँह देखकर टीका काढ़ा
जाता है।" पंच ने मुंशी को छोड़ दया। पंचायत उठ गई। मूँगा ने आह भर संतोष कया
और मन म कहा, ‘अ ा! यहाँ न मला तो न सही, वहाँ कहाँ जाएगा।’
मूँगा उनक आँख म घुसी ई थी। अपनी परछा को देखकर मूँगा का भय होता था।
अँधेरे कोन म बैठी मालूम होती थी। वही ह य का ढाँचा, वही बखरे बाल, वही
पागलपन, वही डरावनी आँख, मूँगा का नख- शख दखाई देता था। इसी कोठरी म आटे -
दाल के मटके रखे ए थे, वह कुछ पुराने चथड़े भी पड़े ए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन
कया (मटक ने कभी अनाज क सूरत नह देखी थी, पर सारे गाँव म मश र था क इस
घर के चूहे गजब के डाकू ह) तो वह उन दोन क खोज म जो मटक से कभी नह गरे थे,
रगता आ इस चथड़े के नीचे आ नकला। कपड़े म खड़खड़ाहट ई। फैले ए चथड़े मूँगा
क पतली टाँग बन ग , ना गन देखकर झझक और चीख उठी। मुंशीजी बदहवास होकर
दरवाजे क ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर इनक टाँग से लपट गया। चूहा बाहर नकल
आया। उसे देखकर इन लोग के होश ठकाने ए। अब मुंशीजी साहस करके मटके क
ओर चले। ना गन ने कहा,"रहने भी दो, देख ली तु ारी मरदानगी।"
मुंशीजी अपनी या ना गन के इस अनादर पर ब त बगड़े," ा तुम समझती हो, म डर
गया? भला डर क ा बात थी। मूँगा मर गई। ा वह बैठी है? म कल नह दरवाजे के
बाहर नकल गया था-तुम रोकती रह , म न माना।" मुंशीजी क इस दलील ने ना गन को
न र कर दया। कल दरवाजे के बाहर नकल जाना या नकलने क को शश करना
साधारण काम न था। जसके साहस का ऐसा माण मल चुका है, उसे डरपोक कौन कह
सकता है? यह ना गन क हठधम थी। खाना खाकर तीन आदमी सोने के कमरे म आए,
परं तु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा। वे बात करते थे, दल बहलाते थे। ना गन ने राजा
हरदौल और रानी सारं धा क कहा नयाँ कह । मुंशीजी ने फौजदारी के कई मुकदम का
हाल कह सुनाया। परं तु इन उपाय से भी मूँगा क मू त उनक आँख के सामने से न
हटती थी। जरा भी खटखटाहट होती क तीन च क पड़ते। इधर प य म सनसनाहट ई
क उधर तीन के र गटे खड़े हो गए! रह-रहकर धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके
कान म आती थी, ‘तेरा ल पीऊँगी।’
आधी रात को ना गन न द से च क पड़ी। वह इन दन गभवती थी। लाल-लाल आँख
वाली, तेज और नोक ले दाँत वाली मूँगा उसक छाती पर बैठी ई जान पड़ती थी। ना गन
चीख उठी। बावली क तरह आँगन म भाग आई और यकायक धरती पर च गर पड़ी।
सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसक चीख सुनकर च के, पर डर के मारे
आँख न खुल । अंध क तरह दरवाजा टटोलते रहे। ब त देर के बाद उ दरवाजा मला।
आँगन म आए। ना गन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाए,
पर रात भर उसने आँख न खोल । भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर बाद र हो
आया। बदन लाल तवा सा हो गया। साँझ होते-होते उसे स पात हो गया और आधी रात
के समय जब संसार म स ाटा छाया आ था, ना गन इस संसार से चल बसी। मूँगा के
डर ने उसक जान ले ली। जब तक मूँगा जीती रही, वह ना गन क फुफकार से सदा डरती
रही। पगली होने पर भी उसने कभी ना गन का सामना नह कया, पर अपनी जान देकर
उसने आज ना गन क जान ली। भय म बड़ी श है। मनु हवा म एक गरह भी नह
लगा सकता, पर इसने हवा म एक संसार रच डाला है।
रात बीत गई। दन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी ना गन क लाश उठाने को
आता न दखाई दया। मुंशीजी घर-घर घूमे, पर कोई न नकला। भला ह ारे के दरवाजे
पर कौन जाए? ह ारे क लाश कौन उठावे? इस समय मुंशीजी का रोब-दाब, उनक
बल लेखनी का भय और उनक कानूनी तभा एक भी काम न आई। चार ओर से
हारकर मुंशीजी फर घर आए। यहाँ उ अंधकार-ही-अंधकार दीखता था। दरवाजे तक तो
आए पर भीतर पैर नह रखा जाता था, न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूँगा थी, भीतर
ना गन। जी को कड़ा करके हनुमान चालीसा का पाठ करते ए घर म घुस।े उस समय
उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे, उसका अनुमान करना क ठन है। घर म लाश
पड़ी ई, न कोई आगे, न पीछे। सरा ाह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन म तो
पचासवाँ लगा है, पर ऐसी सुयो और मीठी बोल वाली ी कहाँ मलेगी? अफसोस!
अब तगादा करने वाल से बहस कौन करे गा, कौन उ न र करे गा? कसक कड़ी
आवाज तीर क तरह तगादेदार क छाती म चुभेगी? यह नुकसान अब पूरा नह हो
सकता। सरे दन मुंशीजी लाश को ठे लेगाड़ी पर लादकर गंगाजी क तरफ चले।
इसके बाद कई दन तक बूढ़ी खाला हाथ म एक लकड़ी लये आस-पास के गाँव म घूमती
रही। कमर झुककर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना भर था, मगर बात आ पड़ी
थी, उसका नणय करना ज री था।
बरला ही कोई भला आदमी होगा, जसके सामने बु ढ़या ने ःख के आँसू न बहाए ह ।
कसी ने तो य ही ऊपरी मन से ँ -हाँ करके टाल दया, और कसी ने इस अ ाय पर
जमाने को गा लयाँ द । कहा,"क म पाँव लटके ए ह, आज मरे कल सरा दन, पर
हवस नह मानती। अब तु ा चा हए? रोटी खाओ और अ ाह का नाम लो। तु
अब खेती-बाड़ी से ा काम है?" कुछ ऐसे स न भी थे, ज हा -रस के रसा ादन
का अ ा अवसर मला। झुक ई कमर, पोपला मुँह, सन के से बाल, इतनी साम ी
एक हो, तब हँ सी न आवे? ऐसे ाय य, दयालु, दीन-व ल पु ष ब त कम थे,
ज ने उस अबला के खड़े को गौर से सुना हो और उसको सां ना दी हो। चार तरफ
घूम-घामकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम लेकर
बोली,"बेटा, तुम भी दम भर के लए मेरी पंचायत म चले आना।"
अलगू,"मुझे बुलाकर ा करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवगे ही।"
खाला,"अपनी वपदा तो सबके आगे रो आई। अब जाने न जाने का इ यार उनको है।"
अलगू,"अब इसका ा जवाब ँ ? अपनी खुशी। जु न मेरा पुराना म है। उससे बगाड़
नह कर सकता।"
खाला,"बेटा, ा बगाड़ के डर से ईमान क बात न कहोगे?"
हमारे सोए ए धम- ान क सारी संप लुट जाए, तो उसे खबर नह होती, परं तु
ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है, फर उसे कोई जीत नह सकता। अलगू इस
सवाल का कोई उ र न दे सका, पर उसके दय म ये श गूँज रहे थे," ा बगाड़ के डर
से ईमान क बात न करोगे?"
सं ा समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जु न ने पहले से ही फश बछा रखा
था। उ ने पान, इलायची, े -तंबाकू आ द का बंध भी कया था। हाँ, वह यं
अलब ा अलगू चौधरी के साथ जरा री पर बैठे ए थे। जब पंचायत म कोई आ जाता
था, तब दबे ए सलाम से उसका ागत करते थे। जब सूय अ हो गया और च ड़य
क कलरवयु पंचायत पेड़ पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शु ई। फश क एक-एक
अंगुल जमीन भर गई पर अ धकांश दशक ही थे। नमं त महाशय म से केवल वे ही लोग
पधारे थे, ज जु न से अपनी कुछ कसर नकालनी थी। एक कोने म आग सुलग रही
थी। नाई ताबड़तोड़ चलम भर रहा था। यह नणय करना असंभव था क सुलगते ए
उपल से अ धक धुआँ नकलता था या चलम के दम से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे।
कोई आपस म गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चार तरफ कोलाहल मच रहा था।
गाँव के कु े इस जमाव को भोज समझकर झुंड-के-झुंड जमा हो गए थे।
पंच लोग बैठ गए, तो बूढ़ी खाला ने उनसे वनती क ,"पंचो, आज तीन साल ए, मने
अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जु न के नाम लख दी थी। इसे आप लोग जानते ही
ह गे। जु न ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल कया। साल भर तो मने इसके
साथ रो-धोकर काटा, पर अब रात- दन का रोना नह सहा जाता। मुझे न पेट क रोटी
मलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा ँ , कचहरी-दरबार नह कर सकती। तु ारे सवा
और कसको अपना ःख सुनाऊँ? तुम लोग जो राह नकाल दो, उसी राह पर चलू।ँ अगर
मुझम कोई ऐब देखो तो मेरे मुँह पर थ ड़ मारो। जु न म बुराई देखो, तो उसे समझाओ,
एक बेकस क आह लेता है। म पंच का सर-माथे पर चढ़ाऊँगी।"
रामधन म , जनके कई आसा मय को जु न ने अपने गाँव म बसा लया था,
बोले,"जु न मयाँ, कसे पंच बदते हो? अभी से इसका नपटारा कर लो, फर जो कुछ
पंच कहगे, वही मानना पड़ेगा।"
जु न को इस समय पंचायत के सद म वशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जनसे कसी-
न- कसी कारण उनका वैमन था। जु न बोले,"पंच का अ ाह का है।
खालाजान जसे चाह, उसे बद। मुझे कोई उ नह ।"
खाला ने च ाकर कहा,"अरे अ ाह के बंदे! पंच का नाम नह बता देता? कुछ
मुझे भी तो मालूम हो।"
जु न ने ोध म कहा,"अब इस व मेरा मुँह न खुलवाओ। तु ारी बन पड़ी है, जसे
चाहो, पंच बदो।"
खालाजान जु न के आ ेप को समझ गई, बोली,"बेटा, खुदा से डरो। पंच न कसी के
दो होते ह, न कसी के न। कैसी बात करते हो! और तु ारा कसी पर व ास न
हो तो जाने दो अलगू चौधरी को तो मानते हो? लो, म उ को सरपंच बदती ँ ।"
जु न शेख आनंद से फूल उठे , परं तु भाव को छपाकर बोले,"अलगू ही सही, मेरे लए
जैसे रामधन वैसे अलगू।"
अलगू इस झमेले म फँसना नह चाहते थे। वे क ी काटने लगे।
बोले,"खाला, तुम जानती हो क मेरी जु न से गाढ़ी दो ी है।"
खाला ने गंभीर र म कहा,"बेटा, दो ी के लए कोई अपना ईमान नह बेचता। पंच के
दल म खुदा बसता है। पंच के मुँह से जो बात नकलती है, वह खुदा क तरफ से
नकलती है।"
अलगू चौधरी सरपंच ए। रामधन म और जु न के सरे वरो धय ने बु ढ़या को मन
म ब त कोसा।
अलगू चौधरी बोले,"शेख जु न! हम और तुम पुराने दो ह। जब काम पड़ा, तुमने
हमारी मदद क है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तु ारी सेवा करते रहे ह, मगर इस समय
तुम व बूढ़ी खाला, दोन हमारी नगाह म बराबर हो। तुमको पंच से कुछ अज करना हो,
करो।"
जु न को पूरा व ास था क अब बाजी मेरी है। अलगू यह सब दखावे क बात कर रहा
है। अतएव शांत च होकर बोले,"पंच , तीन साल ए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे
नाम ह ा कर दी थी। मने उ ता-हयात खाना-कपड़ा देना कबूल कया था। खुदा गवाह
है, आज तक खालाजान को कोई तकलीफ नह दी। म उ अपनी माँ के समान समझता
ँ । उनक खदमत करना मेरा फज है मगर औरत म जरा अनबन रहती है, उसम मेरा
ा बस है? खालाजान मुझसे माहवार खच अलग माँगती ह। जायदाद जतनी है, वह
पंच से छपी नह । उससे इतना मुनाफा नह होता है क माहवार खच दे सकूँ। इसके
अलावा ह ानामे म माहवार खच का कोई ज नह । नह तो म भूलकर भी इस झमेले
म न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइं दा पंच को इ यार है, जो फैसला चाह, कर।"
अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी म काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था।
उसने जु न से जरह शु क । एक-एक जु न के दय पर हथौड़े क चोट क तरह
पड़ता था। रामधन म इन पर मु ए जाते थे। जु न च कत थे क अलगू को
ा हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा आ कैसी-कैसी बात कर रहा था। इतनी ही
देर म ऐसी कायापलट हो गई क मेरी जड़ खोदने पर तुला आ है। न मालूम कब क
कसर नकाल रहा है? ा इतने दन क दो ी भी काम न आवेगी?
जु न शेख तो इसी संक - वक म पड़े ए थे क इतने म अलगू ने फैसला
सुनाया,"जु न शेख! पंच ने इस मामले पर वचार कया। उ यह नी त-संगत मालूम
होता है क खालाजान को माहवार खच दया जाए। हमारा वचार है क खाला क
जायदाद से इतना मुनाफा अव होता है क माहवार खच दया जा सके। बस, यही
हमारा फैसला है, अगर जु न को खच देना मंजूर न हो, तो ह ानामा र समझा जाए।"
यह फैसला सुनते ही जु न स ाटे म आ गए। जो अपना म हो, वह श ु का वहार
करे और गले पर छु री फेरे , इसे समय के हेर-फेर के सवा और ा कह? जस पर पूरा
भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दया। ऐसे ही अवसर पर झूठे-स े म क
परी ा क जाती है। यही क लयुग क दो ी है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते,
तो देश म आप य का कोप होता? यह हैजा- ेग आ द ा धयाँ म के ही दं ड
ह।
मगर रामधन म और अ पंच अलगू चौधरी क इस नी त-परायणता क शंसा जी
खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे,"इसका नाम पंचायत है। ध-का- ध और पानी-का-पानी
कर दया। दो ी दो ी क जगह है, कतु धम का पालन करना मु है। ऐसे ही
स वा दय के बल पर पृ ी ठहरी है, नह तो वह कब क रसातल को चली जाती।"
इस फैसले ने अलगू और जु न क दो ी क जड़ हला दी। अब वे साथ-साथ बात करते
नह दखाई देते थे। इतना पुराना म ता- पी वृ स का एक झ का भी न सह सका,
सचमुच वह बालू क ही जमीन पर खड़ा था।
उनम अब श ाचार का अ धक वहार होने लगा। एक- सरे क आवभगत ादा करने
लगे। वे मलते-जुलते थे, मगर उसी तरह, जैसे तलवार से ढाल मलती है। यही चता
रहती थी क कसी तरह बदला लेने का अवसर मले।
अ े काम क स म बड़ी देर लगती है पर बुरे काम क स म यह बात नह होती।
जु न को भी बदला लेने का अवसर ज ही मल गया। पछले साल अलगू चौधरी
बटे सर से बैल क एक ब त अ ी जोड़ी मोल लाए थे। बैल पछाही जा त के सुंदर, बड़े-
बड़े स गवाले थे। महीन तक आस-पास के गाँव के लोग दशन करते रहे। दैवयोग से
जु न क पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जु न ने
दो से कहा,"यह दगाबाजी क सजा है। इनसान स भले ही कर जाए, पर खुदा नेक-
बद सब देखता है।" अलगू को संदेह आ क जु न ने बैल को वष दला दया है।
चौधराइन ने भी जु न पर ही इस घटना का दोषारोपण कया। उसने कहा,"जु न ने
कुछ कर-करा दया है। चौधराइन और करीमन म इस वषय पर एक दन खूब ही वाद-
ववाद आ। दोन दे वय ने श -बा क नदी बहा दी। ं , व ो , अ ो और
उपमा आ द अलंकार म बात । जु न ने कसी तरह शां त ा पत क । उ ने अपनी
प ी को डाँट-डपटकर समझा दया। वह उसे उस रणभू म से हटा भी ले गए। उधर अलगू
चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तकपूण सोटे से लया।
अब अकेला बैल कस काम का? उसका जोड़ ब त ढू ँ ढ़ा गया, पर न मला। नदान, यह
सलाह ठहरी क इसे बेच डालना चा हए। गाँव म एक समझू सा थे, वह इ ा-गाड़ी
हाँकते थे। गाँव से गुड़-घी लादकर मंडी ले जाते, मंडी से तेल-नमक भर लाते और गाँव म
बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उ ने सोचा, यह हाथ लगे तो दन भर म
बेखटके तीन खेप ह । आजकल तो एक ही खेप म लाले पड़े रहते ह। बैल देखा, गाड़ी म
दौड़ाया, बाल-भ री क पहचान कराई, मोल-तोल कया और उसे लाकर ार पर बाँध ही
दया। एक महीने म दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे क
परवाह न क ।
समझू सा ने नया बैल पाया तो लगे उसे रगेदने। वह दन म तीन-तीन, चार-चार खेप
करने लगे। न चारे क फ थी, न पानी क , बस खेप से काम था। मंडी ले गए, वहाँ कुछ
सूखा भूसा सामने डाल दया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया क फर जोत
दया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन क वंशी बजती थी। बैलराम छठे -छमाहे कभी बहली
म जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोस तक दौड़ते चले जाते थे। वहाँ बेलराम का
रा तब था, साफ पानी, दली ई अरहर क दाल और भूसे के साथ खली और यही नह ,
कभी-कभी घी का ाद भी चखने को मल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे
करता, प छता और सहलाता था। वहाँ वह सुख-चैन, कहाँ यह आठ पहर क खपत! महीने
भर ही म वह पस सा गया। इ े का जुआ देखते ही उसका ल सूख जाता था। एक-एक
पग भर था, ह याँ नकल आई थ पर था वह पानीदार, मार क बरदा थी।
एक दन चौधरी खेप म सा जी ने ना बोझ लादा। दन भर थका जानवर, पैर न उठते थे,
पर सा जी कोड़े फटकारने लगे। बस फर ा था, बैल कलेजा तोड़कर चला। कुछ र
दौड़ा और चाहा क जरा दम ले लूँ, पर सा जी को ज प ँ चने क फ थी, अतएव
उ ने कई कोड़े बड़ी नदयता से फटकारे । बैल ने एक बार फर जोर लगाया; पर अबक
बार श ने जवाब दे दया। वह धरती पर गर पड़ा, और ऐसा गरा क फर न उठा।
सा जी ने ब त पीटा, टाँग पकड़कर ख चा, नथुन म लकड़ी ठूँस दी, पर कह मृतक भी
उठ सकता है? तब सा जी को कुछ शक आ। उ ने बैल को गौर से देखा, खोलकर
अलग कया और सोचने लगे क गाड़ी कैसे घर प ँ च।े ब त चीखे- च ाए; पर देहात का
रा ा ब क आँख क तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-
पास कोई गाँव भी न था। मारे ोध के उ ने मरे ए बैल पर और र लगाए और कोसने
लगे,"अभागे! तुझे मरना ही था तो घर प ँ चकर मरता, ससुरा बीच रा े ही म मर गया!
अब गाड़ी कौन ख चे?" इस तरह सा जी खूब जले-भुन।े कई बोरे गुड़ और पीपे घी उ ने
बेचे थे दो-ढाई सौ पए कमर म बँधे थे। इसके अलावा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थे
अतएव छोड़कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गए। वह रतजगा
करने क ठान ली। चलम पी या फर ा पया। इस तरह सा जी आधी रात तक न द
को बहलाते रहे। अपनी जान म तो वह जागते ही रहे, पर पौ फटते ही जो न द टूटी और
कमर पर हाथ रखा तो थैली गायब! घबराकर इधर-उधर देखा, तो कई कन र तेल भी
नदारद। अफसोस म बेचारे ने सर पीट लया और पछाड़ खाने लगा। ातःकाल रोते-
बलखते घर प ँ चे। सा आइन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोई, फर
अलगू चौधरी को गा लयाँ देने लगी," नगोड़े ने ऐसा कुल नी बैल दया क ज भर
क कमाई लुट गई।"
इस घटना को ए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम माँगते, तब सा
और सा आइन, दोन ही झ ाए ए कु े क तरह चढ़ बैठते और अंडबंड बकने
लगते,"वाह! यहाँ तो सारे ज क कमाई लुट गई, स ानाश हो गया, इ दाम क पड़ी
है। मुरदा बैल दया था, उस पर दाम माँगने चले ह। आँख म धूल झ क दी, स ानाशी
बैल गले बाँध दया, हम नरा प गा ही समझ लया है। हम भी ब नए के ब े ह, ऐसे बु ू
कह और ह गे, पहले जाकर कसी ग े म मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो
तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो, और ा लोगे?"
यशवंत ने भी पशन लेकर वकालत शु क थी। ाय- वभाग के सभी लोग से उसक
म ता थी। उनक वकालत ब त ज चमक उठी। यशवंत के पास लाख पए थे। उ
पशन भी ब त मलती थी। वह चाहते तो घर बैठे आनंद से अपनी उ के बाक दन काट
देते। देश और जा त क कुछ सेवा करना भी उनके लए मु ल न था। ऐसे ही पु ष से
न ाथ सेवा क आशा क जा सकती है। यशवंत ने अपनी सारी उ पए कमाने म
गुजारी थी और वह अब कोई ऐसा काम न कर सकते थे, जसका फल पय क सूरत म
न मले।
य तो सारा स समाज रमेश से घृणा करता था, ले कन यशवंत सबसे बढ़ा आ था।
कहता, अगर कभी रमेश पर मुकदमा चलेगा, तो म बना फ स लये सरकार क तरफ से
पैरवी क ँ गा। खु मखु ा रमेश पर छ टे उड़ाया करता, "यह आदमी नह , शैतान है,
रा स है, ऐसे आदमी का तो मुँह न देखना चा हए! उफ! इसके हाथ कतने भले घर का
सवनाश हो गया, कतने भले आद मय के ाण गए। कतनी याँ वधवा हो ग ,
कतने बालक अनाथ हो गए। आदमी नह , पशाच है। मेरा बस चले, तो इसे गोली मार ँ ,
जीता दीवार म चनवा ँ ।"
सारे शहर म शोर मचा आ था, "रमेश बाबू पकड़े गए।" बात स ी थी। रमेश चुपचाप
पकड़ा गया था। उसी युवक ने, जो रमेश के सामने कूदकर भागा था, पु लस के धान से
सारा क ा च ा बयान कर दया था। अपहरण और ह ा का कैसा रोमांचकारी, कैसा
पैशा चक, कैसा पापपूण वृ ांत था!
भ समुदाय बगल बजाता था। सेठ के घर म घी के चराग जलते थे। उनके सर पर एक
नंगी तलवार लटकती रहती थी, आज वह हट गई। अब वे मीठी न द सो सकते थे।
अखबार म रमेश के हथकंडे छपने लगे। वे बात जो अब तक मारे भय के कसी क जबान
पर न आती थ , अब अखबार म नकलने लग । उ पढ़कर पता चला था क रमेश ने
कतना अंधेर मचा रखा था? कतने ही राजे और रईस उसे महावार टै दया करते थे।
उसका परचा प ँ चता, फलाँ तारीख को इतने पए भेज दो, फर कसक मजाल थी क
उसका टाल सके। वह जनता के हत के लए जो काम करता, उसके लए भी
अमीर से चंदे लए थे। रकम लखना रमेश का काम था। अमीर को बना कान-पूँछ
हलाए वह रकम दे देनी पड़ती थी।
ले कन भ समुदाय जतना ही स था, जनता उतनी ही ःखी थी। अब कौन पु लस
वाल के अ ाचार से उनक र ा करे गा? कौन सेठ के जु से उ बचाएगा, कौन
उनके लड़क के लए कला-कौशल के मदरसे खोलेगा? वे अब कसके बल पर कूदगे? वह
अब अनाथ थे। वही उनका अवलंब था। अब वे कसका मुँह ताकगे। कसको अपनी
फ रयाद सुनाएँ गे?
पु लस शहादत जमा कर रही थी। सरकारी वक ल जोर से मुकदमा चलाने क तैया रयाँ
कर रहा था। ले कन रमेश क तरफ से कोई वक ल न खड़ा होता था। जले भर म एक ही
आदमी था, जो उसे कानून के पंजे से छु ड़ा सकता था। वह था यशवंत! ले कन यशवंत
जसके नाम से कान पर उँ गली रखता था, ा उसी क वकालत करने को खड़ा होगा?
असंभव। रात के 9 बजे थे। यशवंत के कमरे म एक ी ने वेश कया। यशवंत अखबार
पढ़ रहा था। बोला, " ा चाहती ह?"
ी, "वही जो आपके साथ पढ़ता था और जस पर डाके का झूठा अ भयोग चलाया जाने
वाला है।"
यशवंत ने च ककर पूछा, "तुम रमेश क ी हो?"
ी, "हाँ।"
यशवंत, "म उनक वकालत नह कर सकता।"
ी, "आपको इ यार है। आप अपने जले के आदमी ह और मेरे प त के म रह चुके
ह, इस लए सोचा था, बाहर वाले को बुलाऊँ, मगर अब इलाहाबाद या कलक े से ही
कसी को बुलाऊँगी।"
यशवंत, "मेहनताना दे सकोगी?"
ी ने अ भमान के साथ कहा, "बड़े-से-बड़े वक ल का मेहनताना ा होता है?"
यशवंत, "तीन हजार पए रोज?"
ी, "बस, आप इस मुकदमे को ले ल तो आपको तीन हजार पए रोज ँ गी।"
यशवंत, "तीन हजार पए रोज?"
ी, "हाँ, और य द आपने उ छु ड़ा लया, तो पचास हजार पए आपको इनाम के तौर
पर और ँ गी।"
यशवंत के मुँह म पानी भर आया। अगर मुकदमा दो महीने भी चला, तो कम-से-कम एक
लाख पए सीधे हो जाएँ गे। पुर ार ऊपर से, पूरे दो लाख क गोटी है। इतना धन तो
जदगी भर जमा न कर पाए थे, मगर नया ा कहेगी? अपनी आ ा भी तो नह
गवाही देती। ऐसे आदमी को कानून के पंजे से बचाना असं ा णय क ह ा करना है।
ले कन गोटी दो लाख क है। रमेश के फँस जाने से इस ज े का अंत तो आ नह जाता।
इसके चेले-चापड़ तो रहगे ही। शायद वे अब और भी उप व मचाएँ । फर म दो लाख क
गोटी जाने ँ ? ले कन मुझे कह मुँह दखाने क जगह न रहेगी। न सही। जसका जी
चाहे खुश हो, जसका चाहे नाराज। ये दो लाख नह छोड़े जाते। कुछ म कसी का गला तो
दबाता नह , चोरी तो करता नह ? अपरा धय क र ा करना तो मेरा काम ही है।"
सहसा ी ने पूछा, "आप जवाब देते ह?"
यशवंत, "म कल जवाब ँ गा। जरा सोच लूँ।"
ी, "नह , मुझे इतनी फुरसत नह है। अगर आपको कुछ उलझन हो तो साफ-साफ कह
दी जएगा, म और बंध क ँ ।"
यशवंत को और वचार करने का अवसर न मला। ज ी से फैसला ाथ ही क ओर
झुकता है। यहाँ हा न क संभावना नह रहती।
यशवंत, "आप कुछ पए पेशगी के दे सकती ह?"
ी, " पय क मुझसे बार-बार चचा न क जए। उनक जान के सामने पय क ह ी
ा है? आप जतनी रकम चाह, मुझसे ले ल। आप चाहे उ छु ड़ा न सक, ले कन
सरकार के दाँत ख े ज र कर द।"
यशवंत, "खैर, म ही वक ल हो जाऊँगा। कुछ पुरानी दो ी का नवाह भी तो करना
चा हए।"
सुजान महतो सुजान भगत हो गए। भगत के आचार- वचार कुछ और होते ह, वह बना
ान कए कुछ नह खाता। गंगाजी अगर घर से र ह और वह रोज ान करके दोपहर
तक घर न लौट सकता तो पव के दन तो उसे अव ही नहाना चा हए। भजन-भाव
उसके घर अव होना चा हए। पूजा-अचना उसके लए अ नवाय है। खान-पान म भी
उसे ब त वचार करना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है क झूठ का ाग करना पड़ता है।
भगत झूठ नह बोल सकता। साधारण मनु को अगर झूठ का दं ड एक मले तो भगत
को एक लाख से कम नह मल सकता। अ ान क अव ा म कतने ही अपराध हो
जाते ह। ानी के लए मा नह है, ाय नह है, य द है तो ब त क ठन। सुजान को
भी अब भगत क मयादा को नभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था।
उसका कोई आदश, कोई मयादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन म वचार का
उदय आ, जहाँ तक माग काँट से भरा आ था। ाथ-सेवा ही पहले उसके जीवन का
ल था, इसी काँटे से वह प र तय को तौलता था। वह अब उ औ च के काँट
पर तौलने लगा। य कहो क जड़-जगत से नकलकर उसने चेतन-जगत म वेश कया।
उसने कुछ लेन-े देन करना शु कया था। अब उसे ाज लेते ए आ ा न-सी होती
थी। यहाँ तक क गउओं को हते समय उसे बछड़ का ान बना रहता था। कह बछड़ा
भूखा न रह जाए, नह तो उसका रोयाँ ःखी होगा। वह गाँव का मु खया था, कतने ही
मुकदम म उसने झूठी शहादत बनवाई थ , कतन से डाँड लेकर मामले को रफा-दफा
करा दया था। अब इन ापार से उसे घृणा होती थी। झूठ और पंच से कोस र भागता
था। पहले उसक यह चे ा होती थी क मजूर से जतना काम लया जा सके, लो और
मजूरी जतनी कम दी जा सके, दो, पर अब उसे मजूर के काम क कम, मजूरी क अ धक
चता रहती थी, कह बेचारे मजूर का रोयाँ ःखी हो जाए। उसके दोन जवान बेटे बात-बात
म उस पर फ याँ कसते, यहाँ तक क बुलाक भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी
थी, जसे घर के भले-बुरे से कोई योजन न था। चेतन-जगत म आकर सुजान भगत कोरे
भगत रह गए।
सुजान के हाथ से धीरे -धीरे अ धकार छीने जाने लगे। कस खेत म ा बोना है, कसको
ा देना है, कससे ा लेना है, कस भाव ा चीज बक , ऐसी-ऐसी मह पूण बात
म भी भगतजी क सलाह न ली जाती थी। भगत के पास कोई जाने ही न पाता। दोन
लड़के या यं बुलाक र ही से मामला तय कर लया करती। गाँव भर म सुजान का
मान-स ान बढ़ता था, अपने घर म घटता था। लड़के उसका स ार अब ब त करते।
हाथ से चारपाई उठाते देख लपककर खुद उठा लाते, चलम न भरने देत,े यहाँ तक क
उसक धोती छाँटने के लए भी आ ह करते थे, मगर अ धकार उसके हाथ म न था। वह
अब घर का ामी नह , मं दर का देवता था।
फूलमती रात को भोजन करके लेटी थ क उमा और दया उसके पास जाकर बैठ गए।
दोन ऐसा मुँह बनाए ए थे, मानो कोई भारी वप आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर
पूछा, "तुम दोन घबराए ए मालूम होते हो।"
उमा ने सर खुजलाते ए कहा, "समाचार-प म लेख लखना बड़े जो खम का काम है
अ ा, कतना ही बचकर लखो, ले कन कह -न-कह पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने
एक लेख लखा था। उस पर पाँच हजार क जमानत माँगी गई है! अगर कल तक
जमानत न जमा क गई, तो गर ार हो जाएँ गे और दस साल क सजा ठुक जाएगी।"
फूलमती ने सर पीटकर कहा, "तो ऐसी बात लखते हो बेटा, जानते नह हो,
आजकल हमारे अ दन आए ए ह। जमानत कसी तरह टल नह सकती?"
दयानाथ ने अपराधी भाव से उ र दया, "मने तो अ ा ऐसी कोई बात नह लखी थी;
ले कन क त को ा क ँ ? हा कम जला इतना कड़ा है क जरा भी रयायत नह
करता। मने जतनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।"
"तो तुमने कामता से पए का बंध करने को नह कहा?"
उमा ने मुँह बनाया, "उनका भाव तो तुम जानती हो अ ा, उ पए ाण से ारे ह।
उ चाहे काला पानी हो जाए, वह एक पाई न दगे।"
दयानाथ ने समथन कया, "मने तो उनसे इसका ज ही नह कया।"
फूलमती ने चारपाई से उठते ए कहा, "चलो, म कहती ँ , देगा कैसे नह ? पए इसी दन
के लए होते ह क गाड़कर रखने के लए?"
उमानाथ ने माता को रोककर कहा, "नह अ ा, उनसे कुछ न कहो। पए तो न दगे, घर
म रहने भी न दगे उ े , और हाय-हाय मचाएँ गे। उनको अपनी नौकरी क खै रयत मनानी
है, इ घर म रहने न दगे, अफसर म जाकर खबर दे द, तो आ य नह ।"
फूलमती ने लाचार होकर कहा, "तो फर जमानत का ा बंध करोगे? मेरे पास तो कुछ
नह है। हाँ, मेरे गहने ह, इ ले जाओ, कह गरवी रखकर जमानत दे दो और आज से
कान पकड़ो क कसी प म एक श भी न लखोगे।"
दयानाथ कान पर हाथ रखकर बोला, "यह तो नह हो सकता अ ा, क तु ारे जेवर
लेकर म अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल क कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यह बैठा-
बैठा ा कर रहा ँ ?"
फूलमती छाती पीटते ए बोली, "कैसी बात मुँह से नकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तु
कौन गर ार कर सकता है? उसका मुँह झुलस ँ गी। गहने इसी दन के लए ह या और
कसी दन के लए। जब तु न रहोगे, तो गहने लेकर ा आग म झ कूँगी?"
उसने पटारी लाकर उसके सामने रख दी।
दया ने उमा क ओर जैसे फ रयाद क आँख से देखा, और बोला, "आपक ा राय है
भाईसाहब? इसी मारे म कहता था, अ ा को बताने क ज रत नह । जेल ही हो जाती या
और कुछ।"
उमा ने जैसे सफा रश करते ए कहा, "यह कैसे हो सकता था क इतनी बड़ी वारदात हो
जाती और अ ा को खबर न होती। मुझसे यह नह हो सकता था क सुनकर पेट म डाल
लेता; मगर अब करना ा चा हए; यह म खुद नणय नह कर सकता। न तो यही अ ा
लगता है क तुम जेल जाओ और न यही अ ा लगता है क अ ा के गहने रखे जाएँ ।"
फूलमती ने थत कंठ से पूछा, " ा तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ादा ारे ह। म
तो अपने ाण तक तु ारे ऊपर ोछावर कर ँ , गहन क बसात ही ा है?"
दया ने ढ़ता से कहा, "अ ा, तु ारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही नआ
पड़े। जब आज तक तु ारी कुछ सेवा न कर सका, तो कस मुँह से तु ारे गहने उठा ले
जाऊँ। मुझ जैसे कपूत को तो तु ारी कोख से ज ही न लेना चा हए था। सदा तु
क देता रहा।" फूलमती ने भी उतनी ढ़ता से कहा, "तुम अगर य न लोगे, तो म खुद
जाकर इ गरवी रख ँ गी और हा कम जला के पास जाकर जमानत कर आऊँगी।
अगर इ ा हो तो यह परी ा भी ले लो। आँख बंद हो जाने के बाद ा होगा, भगवान्
जाने, ले कन जब तक जीती ँ , कोई तु ारी ओर तरछी आँख से देख नह सकता।"
उमानाथ ने मानो माता पर अहसान रखकर कहा, "अब तो हमारे लए कोई रा ा नह
रहा, दयानाथ! ा हरज है, ले लो, मगर याद रखो, ही हाथ म पए आ जाएँ , गहने
छु ड़ाने पड़गे। सच कहते ह, मातृ दीघ तप ा है। माता के सवाय इतना ेह और कौन
कर सकता है। हम बडे़ अभागे ह क माता के त जतनी ा रखनी चा हए, उसका
शतांश नह रखते।"
दोन ने जैसे बड़े धम-संकट म पड़कर गहन क पटारी सँभाली और चलते बने। माता
वा भरी आँख से उनक ओर देख रही थी और उसक संपूण आ ा का आशीवाद
जैसे उ अपनी गोद म समेट लेने के लए ाकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद
उनके भ मातृ- दय को अपना सव अपण करके जैसे आनंद क वभू त मली। उसक
ा मनी-क ना इसी ाग के लए, इसी आ -समपण के लए जैसे कोई माग ढू ँ ढ़ती
रहती थी। अ धकार या लोभ या ममता क वहाँ गंध तक न थी। ाग ही उसका अ धकार
है। आज अपना खोया आ अ धकार पाकर, अपनी सरजी ई तमा पर अपने ाण क
भट करके वह नहाल हो गई।
तीन महीने और गुजर गए। माँ के गहन पर हाथ साफ करके चार भाई उसक दलजोई
करने लगे थे। अपनी य को भी समझाते रहते थे क उसका दल न खाएँ । अगर थोड़े
श ाचार से उसक आ ा को शां त मलती है, तो इसम ा हा न है। चार करते अपने
मन क पर माता से सलाह ले लेते, या ऐसा जाल फैलाते क वह सरला उनक बात म
आ जाती और हरे क काम म सहमत हो जाती। बाग का बेचना उसे ब त बुरा लगता था,
ले कन चार ने ऐसी माया रची क वह उसे बेचने पर राजी हो गई, कतु कुमुद के ववाह
के वषय म मतै न हो सका। माँ पं- मुरारीलाल पर जमी ई थी, लड़के दीनदयाल पर
अड़े ए थे। एक दन आपस म कलह हो गई।
फूलमती ने कहा, "माँ-बाप क कमाई म बेटी का ह ा भी है। तु सोलह हजार का बाग
मला, प ीस हजार का एक मकान। बीस हजार नगद ह। ा पाँच हजार भी कुमुद का
ह ा नह है?"
कामता ने न ता से कहा, "अ ा, कुमुद आपक लड़क है तो हमारी ब हन है। आप दो-
चार साल म ान कर जाएँ गी, पर हमारा और उसका ब त दन तक संबंध रहेगा। तब
यथाश कोई ऐसी बात न करगे, जससे उसका अमंगल हो, ले कन ह े क बात
कहती हो तो कुमुद का ह ा कुछ नह । दादा जी वत थे तब और बात थी। वह उसके
ववाह म जतना चाहते खच करते, कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था, ले कन अब तो
हम एक-एक पैसे क कफायत करनी पड़ेगी, जो काम एक हजार म हो जाए, उसके लए
पाँच हजार खच करना कहाँ क बु मानी है।" उमानाथ ने सुधारा, "पाँच हजार दस
हजार क हए!" कामता ने भव सकोड़कर कहा, "नह , म पाँच हजार ही क ँ गा। एक ववाह
म पाँच हजार खच करने क है सयत नह ह।"
फूलमती ने जद पकड़कर कहा, " ववाह तो मुरारीलाल के पु से ही होगा, चाहे पाँच हजार
खच ह , चाहे दस हजार। मेरे प त क कमाई है। मने मर-मरकर जोड़ा, अपनी इ ा से
खच क ँ गी। तु ने मेरी कोख से नह ज लया है, कुमुद भी उसी कोख से आई है।
मेरी आँख म तुम सब बराबर हो, म कसी से कुछ माँगती नह । तुम बैठे तमाशा देखो, म
सबकुछ कर लूँगी, बीस हजार कुमुद का है।"
कामतानाथ को अब कड़वे स क शरण लेने के सवा और कोई माग न रहा। बोला,
"अ ा, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जन पय को तुम अपना समझती हो, वह तु ारे
नह ह, हमारे ह। तुम हमारी अनुम त के बना उसम से कुछ नह खच कर सकती!"
फूलमती को जैसे सप ने डस लया, " ा कहा! फर तो कहना। म अपने ही संचे पए
अपनी इ ा से खच नह कर सकती?"
"वह पए तु ारे नह रहे, हमारे हो गए।"
"तु ारे ह गे, ले कन मेरे मरने के पीछे।"
"नह , दादा के मरते ही हमारे हो गए।"
उमानाथ ने बेहयाई से कहा, "अ ा कानून-कायदा तो नह जानती, नाहक उलझती ह।"
फूलमती ोध- व ल होकर बोली, "भाड़ म जाए तु ारा कानून। म ऐसे कानून को नह
मानती। तु ारे दादा ऐसे बड़े ध ासेठ न थे। मने ही पेट और तन काटकर यह गृह ी
जोड़ी है, नह आज बैठने को छाँह न मलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे पए नह छू सकते।
मने तीन भाइय के ववाह म दस-दस हजार खच कए ह। वही म कुमुद के ववाह म भी
खच क ँ गी।"
कामतानाथ भी गरम पड़ा, "आपको कुछ भी खच करने का अ धकार नह है।" उमानाथ ने
बडे़ भाई को डाँटा, "आप खाम ाह अ ा के मुँह लगते ह। भाईसाहब! मुरारीलाल को
प लख दी जए क तु ारे यहाँ कुमुद का ववाह न होगा, बस छु ी ई। यह कायदा-
कानून तो जानती नह , थ क बहस करती ह।"
फूलमती ने संय मत र म कहा, "अ ा, ा कानून है, जरा म भी सुन।ूँ " उमा ने नरीह
भाव से कहा, "कानून यही है क बाप के मरने के बाद जायदाद बेट क हो जाती है, माँ का
हक केवल रोटी-कपड़े का है?"
फूलमती ने तड़पकर पूछा, " कसने यह कानून बनाया है।"
उमा ने शांत- र र म बोला, "हमारे षय ने, महाराज मनु ने, और कसने।"
फूलमती एक ण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोली, "तो इस घर म म तु ारे टुकड़ पर
पड़ी ई ँ ।"
उमानाथ ने ायाधीश क नममता से कहा, "तुम जैसे समझो।"
फूलमती क संपूण आ ा मानो इस व पात से ची ार करने लगी। उसके मुख से
जलती ई चगा रय क भाँ त ये श नकल पड़े, "मने घर बनवाया, मने संप जोड़ी,
मने तु ज दया, पाला और आज म इस घर म गैर ँ ? मनु का यही कानून है और तुम
उसी कानून पर चलना चाहते हो? अ ी बात है। अपना घर- ार लो। मुझे तु ारी
आ ता बनकर रहना ीकार नह ! इससे कह अ ा है क मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मने
पेड़ लगाया और म ही उसक छाँव म खड़ी नह हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसम
आग लग जाए।"
चार युवक पर माता के इस ोध और आतंक का कोई असर न आ। कानून का
फौलादी कवच र ा कर रहा था। इन काँट का उन पर ा असर हो सकता था?
जरा देर म फूलमती उठकर चली गई। आज जीवन म पहली बार उसका वा -भ
मातृ अ भशाप बनकर उसे ध ारने लगा। जस मातृ को उसने जीवन क वभू त
समझा था, जसके चरण पर वह सदैव अपनी सम अ भलाषाओं और कामनाओं को
अ पत करके अपने को ध मानती थी, वही मातृ आज उसे अ कुंड सा जान पड़ा,
जसम उसका जीवन जलकर भ हो रहा था।
सं ा हो गई थी। ार पर नीम का वृ सर झुकाए न खड़ा था, मानो संसार क
ग त पर ु हो रहा हो। अ ाचल क ओर काश और जीवन का देवता फूलमती के
मातृ क ही भाँ त अपनी चता म जल रहा था।
फूलमती अपने कमरे म जाकर लेटी, तो उसे मालूम आ, उसक कमर टूट गई है। प त
के मरते ही लड़के उसके श ु हो जाएँ गे, उसको म भी मालूम न था। जन लड़क को
उसने दय-र पला- पलाकर पाला, वही आज उसके दय पर य आघात कर रहे ह।
अब वह घर उसे काँट क सेज लग रहा था। जहाँ उसक कुछ क नह , कुछ गनती नह ,
वहाँ अनाथ क भाँ त पड़ी रो टयाँ खाए, यह उसक अ भमानी कृ त के लए अस था।
पर उपाय ही ा था? वह लड़क से अलग होकर रहे भी तो नाक कसक कटे गी! संसार
उसे थूके तो ा, और लड़क को थूके तो ा, बदनामी तो उसी क है। नया यही तो
कहेगी क चार जवान बेट के होते बु ढ़या अलग पड़ी ई मजूरी करके पेट पाल रही है।
ज उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँ सगे। नह , वह अपमान इस अनादर से
कह ादा दय वदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने म ही कुशल है। हाँ,
अब उसे अपने बेट क बात और लात गैर क बात और लात क अपे ा फर भी
गनीमत है।
वह बड़ी देर तक मुँह ढाँपे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आ वेदना म कट
गई। शरद का भात डरता-डरता ऊषा क गोद से नकला, जैसे कोई कैदी छपकर जेल
से भाग आया हो। फूलमती अपने नयम के व आज तड़के ही उठी, रात भर म उसका
मान सक प रवतन हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आँगन म झाड़ू लगा रही
थी। रात क ओस म भीगी ई प जमीन नंगे पैर से काँट क तरह चुभ रही थी।
पं डतजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लए ब त हा नकारक थी, पर
अब वह दन नह । कृ त को भी समय के साथ बदल देने का य कर रही थी। झाड़ू r से
फुरसत पाकर उसने आग जलाई और चावल-दाल क कंक ड़याँ चुनने लगी। कुछ देर म
लड़के जागे, ब एँ उठ । सभी ने बु ढ़या को सद से सकुड़े ए काम करते देखा, पर कसी
ने यह न कहा क अ ा, हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बु ढ़या के इस मान-
मदन पर स थे।
आज से फूलमती का यही नयम हो गया क जी-तोड़कर घर का काम करना और अंतरं ग
नी त से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक आ गौरव झलकता रहता था, उसक
जगह अब गहरी वेदना छाई ई नजर आती थी। जहाँ बजली जलती थी, वहाँ अब तेल का
दीया टम टमा रहा था, जसे बुझा देने के लए हवा का एक हलका सा झ का काफ है।
मुरालीलाल को इ ारी प लखने क बात प हो चुक थी। सरे दन प लख दया
गया। दीनदयाल से कुमुद का ववाह न त हो गया, दीनदयाल क उ चालीस के कुछ
अ धक थी, मयादा म भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बना कसी ठहराव के
ववाह करने पर राजी हो गए। त थ नयत ई, बारात आई, ववाह आ और कुमुद वदा
कर दी गई। फूलमती के दल पर ा गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है पर चार
भाई ब त स थे, मानो उनके दय का काँटा नकल गया हो। ऊँचे कुल क क ा मुँह
कैसे खोलती। ह र-इ ा बेकस का अं तम अवलंब है। घरवाल ने जससे ववाह कर
दया, उसम हजार ऐब ह तो भी उसका उपा , उसका ामी है। तरोध उसक
क ना से परे था।
फूलमती ने कसी काम म दखल न दया। कुमुद को ा दया गया, मेहमान का कैसा
स ार कया गया, कसके यहाँ से नेवते म ा आया, कसी बात से भी उसे सरोकार न
था। उससे कोई सलाह भी ली गई तो यही कहा, "बेटा, तुम लोग जो करते हो, अ ा ही
करते हो, मुझसे ा पूछते हो।"
जब कुमुद के लए ार पर डोली आ गई और कुमुद माँ के गले लपटकर रोने लगी तो वह
बेटी को अपनी कोठरी म ले गई और जो कुछ सौ-पचास पए और दो-चार मामूली गहने
उसके पास बच रहे थे, बेटी के आँचल म डालकर बोली, "बेटी, मेरी तो मन क मन म रह
गई नह ा आज तु ारा ववाह इस तरह होता और तुम इस तरह वदा क जात ।"
आज तक फूलमती ने अपने गहन क बात कसी से न कही थी। लड़क ने उसके साथ जो
कपट- वहार कया था, इसे चाहे वह अब तक न समझी हो, ले कन इतना जानती थी क
गहने फर न मलगे और मनोमा ल बढ़ने के सवा कुछ हाथ न लगेगा; ले कन इस
अवसर पर उसे अपनी सफाई देने क ज रत मालूम ई। कुमुद यह भाव मन म लेकर
जाए क अ ा ने अपने गहने ब ओं के लए रख छोड़े, इसे वह कसी तरह न सह सकती
थी, इसी लए वह अपनी कोठरी म ले गई थी; ले कन कुमुद को पहले ही इस कौशल क
टोह मल चुक थी, उसने गहने और पए आँचल से नकालकर माता के चरण पर रख
दए और बोली, "अ ा, मेरे लए तु ारा आशीवाद ही लाख पय के बराबर है। तुम इन
चीज को अपने पास रखो। न जाने अभी तु कन वप य का सामना करना पड़े?"
फूलमती कहना ही चाहती थी क उमानाथ ने आकर कहा, " ा कर रही है कुमुद? चल,
ज ी कर, साइत टली जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे ह, फर तो दो-चार महीने म
आएगी ही, जो कुछ लेना-देना हो ले लेना।"
फूलमती के घाव पर मानो नमक पड़ गया। बोली, "मेरे पास अब ा है भैया, जो म इसे
ँ गी। जाओ बेटी, भगवान् तु ारा सोहाग अमर कर।"
कुमुद वदा हो गई। फूलमती पछाड़ खाकर गर पड़ी। जीवन क
अं तम लालसा न हो गई।
एक साल बीत गया।
फूलमती का कमरा घर के सब कमर म बड़ा और हवादार था। कई महीन से उसने बड़ी
ब के लए खाली कर दया था और खुद एक छोटी सी कोठरी म रहने लगी थी, जैसे कोई
भखा रन हो। बेट और ब ओं से अब उसे जरा भी ेह न था। वह अब घर क ल डी थी।
घर के कसी ाणी, कसी व ु, कसी संग से उसे योजन न था। वह केवल इसी लए
जीती थी क मौत न आती थी। सुख या ःख का अब उसे लेशमा भी ान न था।
उमानाथ का औषधालय खुला, म क दावत ई, नाच-तमाशा आ। दयानाथ का ेस
खुला, फर जलसा आ। सीतानाथ को वजीफा मला और वलायत गया, फर धूमधाम
ई; ले कन फूलमती के मुख पर आनंद क छाया तक न आई। कामतानाथ टाइफाइड म
महीने भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबक अपने प का चार बढ़ाने के
लए वा व म एक आप जनक लेख लखा और छह महीने क सजा पाई। उमानाथ ने
एक फौजदारी के मामले म र त लेकर गलत रपोट लखी और उनक सनद छीन ली
गई पर फूलमती के चेहरे पर रं ज क परछा तक न पड़ी। उसके जीवन म अब कोई आशा,
कोई दलच ी, कोई चता न थी। बस पशुओ ं क तरह काम करना और खाना, यही
उसक जदगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है, पर खाता है मन से।
फूलमती बे-कहे काम करती थी, पर खाती थी वष के कौर क तरह। महीन सर म तेल न
पड़ता, महीन कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नह । वह चेतनाशू हो गई थी।
सावन क झड़ी लगी ई थी। मले रया फैल रहा था। आकाश म म टयाले बादल थे, जमीन
पर म टयाला पानी। आ वायु शीत- र और ास का वतरण करती फरती थी। घर क
महरी बीमार पड़ गई। फूलमती ने घर के सारे बरतन माँजे, पानी म भीग-भीगकर सारा
काम कया, फर आग जलाई और चू े पर पती लयाँ चढ़ा द । लड़क को समय पर
भोजन तो मलना ही चा हए। सहसा उसे याद आया क कामतानाथ नल का पानी नह
पीते। उसी वषा म गंगाजल लाने चली।
कामतनाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा, "हने दो अ ा, म पानी भर लाऊँगा। आज महरी
खूब बैठी रही।"
फूलमती ने म टयाले आकाश क ओर देखकर कहा, "तुम भीग जाओगे बेटा, सद लग
जाएगी।"
कामतानाथ बोले, "तुम भी तो भीग रही हो। कह बीमार न पड़ जाओ।"
फूलमती नमम भाव से बोली, "म बीमार न पड़ू ँगी! मुझे भगवान् ने अमर कर दया है।"
उमानाथ भी वह बैठा था। उसके औषधालय म कुछ आमदनी न होती थी; इसी लए ब त
च तत रहता था। भाई-भावज क मुँहदेखी करता रहता था। बोला, "जाने भी दो भैया!
ब त दन ब ओं पर राज कर चुक ह, उसका ाय तो करने दो।"
गंगा बढ़ी ई थी, जैसे समु हो। तज सामने के कूल से मला आ था। कनारे के
वृ क केवल फुन गयाँ पानी के ऊपर रह गई थ । घाट ऊपर तक पानी म डूब गए थे।
फूलमती कलसा लये नीचे उतरी। पानी भरा और ऊपर जा रही थी क पाँव फसला,
सँभल न सक , पानी म गर पड़ी। पल भर हाथ-पाँव चलाए, फर लहर उसे नीचे ख च ले
ग । कनारे पर दो-चार पंडे च ाए, "अरे दौड़ो, बु ढ़या डूबी जाती है।" दो-चार आदमी
दौड़े भी, ले कन फूलमती लहर म समा गई थी, उन बल खाती ई लहर म, ज देखकर
दय काँप उठता था।
एक ने पूछा, "यह बु ढ़या कौन थी?"
"अरे , वही पं डत अयो ानाथ क वधवा है।"
"अयो ानाथ तो बड़े आदमी थे।"
"हाँ, थे तो पर इसके भा म ठोकर खाना लखा था।"
"उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े ह और सब कमाते ह।"
"हाँ, सब ह भाई, मगर भा भी तो कोई व ु है?"
Published by
Pratibha Pratishthan
ISBN 978-93-5048-759-4