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दोहा
चौपाई
जय ििम
ु न्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज िमारी।।
लाि समाि लंक जरर गई। जै जै धनु ि सरु परु में भई।।
जै ििम
ु न्त अिन्त अगाधा। दुःु ख पाित जि केहि अपराधा।।
िि उपिि जल-थल गि
ृ मािीं। तम्
ु िरे बल िम डरपत िािीं।।
इन्िहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु िाथ मयााद िाम की।।
जिक सत
ु ा पनत दास किाओ। ताकी शपथ विलम्ब ि लाओ।।
जयनत जयनत मद
ु मंगलदाता। जयनत जयनत त्रिभि
ु ि विख्याता।।
सुनि कवप आरत िचि िमारे । मेििु सकल दुःु ख भ्रम भारे ।।
डीि, मि
ू , िोिाहदक िासै। परकृत यंि मंि ििीं िासे।।
आित
ृ नयारि प्रनतहदि जापै। ताकी छाुँि काल िहिं चापै।।
दै गूगल
ु की धप
ू िमेशा। करै पाि ति समिै कलेषा।।
दोहा