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स्वामी विवेकानन्द
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स्वामी विवेकानन्द (बांग्ला: স্বামী বিবেকানন্দ, बंगाली उच्चारण सहायता·सूचना) (जन्म: 12 जनवरी 1863 - मृत्यु: 4 जुलाई स्वामी विवेकानन्द
1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने
अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व
किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की
वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृ ष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृ ष्ण
परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था किन्तु उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण का आरम्भ "मेरे
अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" के साथ करने के लिये जाना जाता है।[4] उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत
लिया था।

कलकत्ता के एक कु लीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु
रामकृ ष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव
जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दो की मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।
रामकृ ष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन
स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य
अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का
प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त
सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।[5]

जन्म नरेन्द्रनाथ दत्त

अनुक्रम
12 जनवरी 1863
कलकत्ता
(अब कोलकाता)
कहानियाँ
मृत्यु 4 जुलाई 1902 (उम्र 39)
लक्ष्य पर ध्यान के न्द्रित करना
बेलूर मठ, बंगाल रियासत, ब्रिटिश राज
नारी का सम्मान (अब बेलूर, पश्चिम बंगाल में)

प्रारम्भिक जीवन (1863-88) गुरु/शिक्षक रामकृ ष्ण परमहंस


साहित्यिक राज योग (पुस्तक)
जन्म एवं बचपन
कार्य
शिक्षा कथन "उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब
आध्यात्मिक शिक्षुता - ब्रह्म समाज का प्रभाव तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए"[1]

हस्ताक्षर
निष्ठा

सम्मेलन भाषण धर्म हिन्दू

यात्राएँ दर्शन आधुनिक वेदांत,[2][3] राज योग[3]

राष्ट्रीयता भारतीय
विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व
मृत्यु
0:03

विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन

कृ तियाँ

महत्त्वपूर्ण तिथियाँ

चित्र दीर्घा

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

कहानियाँ

लक्ष्य पर ध्यान के न्द्रित करना

एक बार स्वामी विवेकानन्द अपने आश्रम में सो रहे थे। कि तभी एक व्यक्ति उनके पास आया जो कि बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ा और बोला
महाराज मैं अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूँ हर काम खूब मन लगाकर भी करता हूँ फिर भी आज तक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति कि बाते सुनकर स्वामी
विवेकानंद ने कहा ठीक है। आप मेरे इस पालतू कु त्ते को थोड़ी देर तक घुमाकर लाये तब तक आपके समस्या का समाधान ढूँढ़ता हूँ। इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कु त्ते को घुमाने

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के लिए चला गया। और फिर कु छ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति वापस आया। तो स्वामी विवेकानन्द ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कु त्ता इतना हाँफ क्यों रहा है। जबकि तुम थोड़े
से भी थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ ?

इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कु त्ता इधर उधर रास्ते भर भागता रहा और कु छ भी देखता तो उधर ही दौड़ जाता था. जिसके
कारण यह इतना थक गया है । इसपर स्वामी विवेकानन्द ने मुस्कु राते हुए कहा बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है. तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है.
लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नही हो पाए. यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था। की यदि सफल
होना है तो हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए।

कहानी से शिक्षा

स्वामी विवेकानन्द के इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है की हमें जो करना है। जो कु छ भी बनना है। हम उस पर ध्यान नहीं देते है, और दूसरों को देखकर वैसा
ही हम करने लगते है। जिसके कारण हम अपने सफलता के लक्ष्य के पास होते हुए दूर भटक जाते है। इसीलिए यदि जीवन में सफल होना है! तो सदा हमें अपने
लक्ष्य पर ध्यान के न्द्रित करना चाहिए !।

नारी का सम्मान

स्वामी विवेकानन्द की ख्याति देश – विदेश में फै ली हुई थी। एक बार कि बात है। विवेकानन्द समारोह के लिए विदेश गए थे। और उनके समारोह में बहुत से विदेशी लोग आये हुए
थे ! उनके द्वारा दिए गए स्पीच से एक विदेशी महिला बहुत ही प्रभावित हुईं।

और वह विवेकानन्द के पास आयी और स्वामी विवेकानन्द से बोली कि मैं आपसे विवाह करना चाहती हूँ ताकि आपके जैसा ही मुझे गौरवशाली पुत्र की प्राप्ति हो।

इसपर स्वामी विवेकानन्द बोले कि क्या आप जानती है। कि ” मै एक सन्यासी हूँ ” भला मै कै से विवाह कर सकता हूँ यदि आप चाहो तो मुझे आप अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा
सन्यास भी नही टू टेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि आप धन्य है। आप
ईश्वर के समान है ! जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते है।

कहानी से शिक्षा

स्वामी विवेकानन्द के इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करे —

प्रारम्भिक जीवन (1863-88)

जन्म एवं बचपन

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् 1920)[6] को कलकत्ता में एक कु लीन
कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया[7], किन्तु उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था।[8]
पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे।[9][10] दुर्गाचरण दत्ता, (नरेंद्र के दादा) संस्कृ त और फ़ारसी के विद्वान
थे उन्होंने अपने परिवार को २५ वर्ष की आयु में छोड़ दिया और एक साधु बन गए।[11] उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की
महिला थीं।[11]उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक,
प्रगतिशील व तर्क संगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता की।[12][13]

गौड़ मोहन मुखर्जी स्ट्रीट कोलकाता स्थित बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कु शाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ
स्वामी विवेकानन्द का मूल जन्मस्थान वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं
जिसका पुनरुद्धार करके अब सांस्कृ तिक चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण
के न्द्र का रूप दे दिया गया है माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक
था।[13] कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता
रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में
बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में
बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी
वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक चक्कर में पड़ जाते थे।[14]

शिक्षा
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कू ल
गए।[15] 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने
माँ भुवनेश्वरी देवी (1841-1911) का एक
प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये।[16] चित्र

वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक थे।[17] इनकी वेद, उपनिषद, भगवद्
गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था,[18]और ये नियमित रूप
से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क , पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटू शन (अब स्कॉटिश चर्च
कॉलेज) में किया।[19] 1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।[20][21]

नरेन्द्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कू पइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टु अर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के
कामों का अध्ययन किया।[22][23] उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुके शन (1860) का बंगाली में अनुवाद किया। [24][25] ये हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे।[26]
पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृ त ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा।[23] विलियम हेस्टी (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा, "नरेन्द्र वास्तव में
एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के
दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।" अनेक बार इन्हें श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति वाला एक व्यक्ति) भी कहा गया है।

आध्यात्मिक शिक्षुता - ब्रह्म समाज का प्रभाव

1880 में नरेन्द्र, ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृ ष्ण के प्रभाव से परिवर्तित के शव चंद्र सेन की नव विधान में शामिल हुए, नरेन्द्र 1884 से पहले कु छ बिन्दु पर, एक फ्री मसोनरी लॉज
और साधारण ब्रह्म समाज जो ब्रह्म समाज का ही एक अलग गुट था और जो के शव चन्द्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में था। 1881-1884 के दौरान ये सेन्स बैंड ऑफ़ होप में
भी सक्रीय रहे जो धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था।

ई र्ति
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यह नरेन्द्र के परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ परिचित हो गया था। उनके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति
पूजा का प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग
से अध्यन पर प्रोत्साहित किया।

निष्ठा
एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ
पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फें कते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के
प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके । गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके । और
आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फै ला सके । ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य
निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृ ष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो
गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कु टु म्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।

विवेकानन्द बड़े स्‍


वप्न‍
दृष्‍
टा थे। उन्‍
होंने एक ऐसे समाज की कल्‍पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्‍ य-मनुष्‍
य में कोई भेद न रहे। उन्‍
होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को
इसी रूप में रखा। अध्‍यात्‍
मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्‍ द ने दिया उनसे सबल बौद्धिक
आधार शायद ही ढूँढा जा सके । विवेकानन्‍ द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्‍
वी संन्‍
यासी का जीवन एक आदर्श है। उनके नाना का नाम श्री नंदलाल
बसु था।

सम्मेलन भाषण
मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों!

आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं।
संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि
हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।

मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर
देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को
सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृ त- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति के वल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार
करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए
गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन
जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका
पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कु छ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य
किया करते हैं:

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकु टिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से
जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।

यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार
मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज
आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा
ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटु ता का मृत्यु
निनाद सिद्ध हो।

यात्राएँ
25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। विवेकानंद ने
31 मई 1893 को अपनी यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों (नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो समेत)
का दौरा किया,चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुँचे सन्‌ 1893 में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही
थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को
बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न
मिले। परंतु (परन्तु) एक अमेरिकन प्रोफे सर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान
चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे
अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए
वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।[27] "अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो
जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृ ष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक स्वामी विवेकानन्द शिकागो के विश्व धर्म परिषद्
अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में बैठे हुए
(देश-देशान्तर) में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।

विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व


स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय (https://web.archive.org/web/20190819094915/https://hindipath.com/swami-vivekananda-biography-in-hindi/)
बताता है कि उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।

तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकु र ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कु छ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कु छ भी नहीं।"

रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे
ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक
चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"

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वे के वल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का
आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे
झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। महात्मा गान्धी को
आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक
प्रमुख प्रेरणा के स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म
हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-के वल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं
मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं
रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।"

उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के जरिये भी देश
को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन
इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला चलो‘ की नीति का
पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला।

उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फै लकर देशवासियों
की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक
मुम्बई में गेटवे ऑफ़ इन्डिया के निकट
आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के
स्थित स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमूर्ति
के न्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और
वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और
कु पोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा
दिया जाये।

उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान
को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को
हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि उन्नीसवी सदी के अन्तिम वर्षों में लिया
ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है। गया क्रान्तिकारी वेशधारी विवेकानन्द का
एक दुर्लभ चित्र। यह चित्र देखकर उन्होंने
उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी कहा था-"यह चित्र तो डाकु ओं के किसी
विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी सरदार जैसा लगता है।"[28]
ईर्ष्या का विषय है। स्वामी ने संके त दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं
बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कु छ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।

यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृ ति की तटस्थ, वस्तुपरक और
मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी।

मृत्यु

विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की
और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझाने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार
जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया
और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी।
इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृ ष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।[29]

उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृ ष्ण के
सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक के न्द्रों की स्थापना की। इनका एक प्रसिद्ध कथन था उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको वेलूर मठ स्थित स्वामी विवेकानन्द
मन्दिर

विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी
शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके । बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित
शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कु छ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर
वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर
जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ?

अतः स्वामी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए
शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में,

तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।

स्वामी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे
चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।' पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति
है।'

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके ।

२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।

३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।

४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।

५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।

६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।

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७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।

८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।

९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।

१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।

११. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ती दे।
१२. स्वामी विवेकानंद (https://www.motivationhindi.com/2020/01/the-importance-of-education-in-life.html) Archived (https://web.archive.org/web/20
200131121308/https://www.motivationhindi.com/2020/01/the-importance-of-education-in-life.html) 2020-01-31 at the Wayback Machine के
अनुसार व्यक्ति को अपनी रूचि को महत्व देना चाहिए|

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा पर विचार मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया पर के न्द्रित हैं, न कि महज़ किताबी ज्ञान पर। एक पत्र में वे लिखते हैं–"शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक-विद्या है?
नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा
कहलाती है।" शिक्षा का उपयोग किस प्रकार चरित्र-गठन के लिए किया जाना चाहिए, इस विषय में विवेकानंद कहते हैं, "शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी
बहुत-सी बातें इस तरह ठूँ स दी जायँ, जो आपस में, लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग़ उन्हें जीवन भर में हज़म न कर सके । जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें , मनुष्य
बन सकें , चरित्र-गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हज़म कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित
कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।"

देश की उन्नति–फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक–में स्वामी शिक्षा की भूमिका के न्द्रिय मानते थे। भारत तथा पश्चिम के बीच के अन्तर को वे इसी दृष्टि से वर्णित करते
हुए कहते हैं, "के वल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहाँ के ग़रीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर हमारे ग़रीबों की बात याद आती थी और मैं
आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ? उत्तर पाया – शिक्षा!" स्वामी विवेकानंद का विचार था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए और चरित्र की
उन्नति होनी चाहिए। सन् १९०० में लॉस एंजिल्स, कै लिफ़ोर्निया में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी यही बात सामने रखते हैं, "हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य
के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम के वल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कु छ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या
लाभ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।"

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन


उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।

हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी
एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है।

एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों
में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।

एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कु छ भूल जाओ।

पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।

एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।

खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।

सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।

बाहरी स्वभाव के वल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।

विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।

शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकु चन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

जो कु छ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।

विवेकानंद (https://www.huntinews.com/swami-vivekananda-precious-thoughts/स्वामी) ने कहा था - चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।

हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।


विवेकानंद ने (https://suvichar.net/swami-vivekananda-quotes-in-hindi/) कहा था - महात्मा वो है, जो गरीबों और असहाय के लिए रोता है अन्यथा वो दुरात्मा है

कृ तियाँ
उनके जीवनकाल में प्रकाशित[30] वर्तमान भारत (बांग्ला में ; मार्च 1899), उद्बोधन
My Master (1901), The Baker and Taylor Company, New York
संगीत कल्पतरु (1887, with Vaishnav Charan Basak)[31] Vedânta philosophy: lectures on Jnâna Yoga (1902) Vedânta
Society, New York OCLC 919769260 (http://www.worldcat.org/oclc/91
कर्म योग (1896)[32][33]
9769260)
राज योग (1896 [1899 edition])[34] ज्ञान योग (1899)
Vedanta Philosophy: An address before the Graduate Philosophical
मरणोपरान्त प्रकाशित[30]
Society (1896)
Lectures from Colombo to Almora (1897)
Addresses on Bhakti Yoga

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भक्ति योग Practical Vedanta


Speeches and writings of Swami Vivekananda; a comprehensive
The East and the West (1909)[35] collection
Inspired Talks (1909) Complete Works: a collection of his writings, lectures and discourses
Narada Bhakti Sutras – translation in a set of nine volumes (ninth volume will be published soon)
Para Bhakti or Supreme Devotion
Seeing beyond the circle (2005)

महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
12 जनवरी 1863 -- कलकत्ता में जन्म

1879 -- प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में प्रवेश

1880 -- जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश

नवम्बर 1881 -- रामकृ ष्ण परमहंस से प्रथम भेंट

1882-86 -- रामकृ ष्ण परमहंस से सम्बद्ध

1884 -- स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास

1885 -- रामकृ ष्ण परमहंस की अन्तिम बीमारी

16 अगस्त 1886 -- रामकृ ष्ण परमहंस का निधन

1886 -- वराहनगर मठ की स्थापना

जनवरी 1887 -- वड़ानगर मठ में औपचारिक सन्यास

1890-93 -- परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण

25 दिसम्बर 1892 -- कन्याकु मारी में

13 फ़रवरी 1893 -- प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकन्दराबाद में

31 मई 1893 -- मुम्बई से अमरीका रवाना

25 जुलाई 1893 -- वैंकू वर, कनाडा पहुँचे


अन्य सन्यासियों के साथ स्वामी विवेकानन्द ( १८८७ ,
30 जुलाई 1893 -- शिकागो आगमन बड़ानगर )

अगस्त 1893 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो॰ जॉन राइट से भेंट

11 सितम्बर 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान

27 सितम्बर 1893 -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम व्याख्यान

16 मई 1894 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण

नवंबर 1894 -- न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना

जनवरी 1895 -- न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरम्भ

अगस्त 1895 -- पेरिस में

अक्टू बर 1895 -- लन्दन में व्याख्यान

6 दिसम्बर 1895 -- वापस न्यूयॉर्क

22-25 मार्च 1896 -- फिर लन्दन

मई-जुलाई 1896 -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान

15 अप्रैल 1896 -- वापस लन्दन

मई-जुलाई 1896 -- लंदन में धार्मिक कक्षाएँ

28 मई 1896 -- ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट

30 दिसम्बर 1896 -- नेपाल से भारत की ओर रवाना

15 जनवरी 1897 -- कोलम्बो, श्रीलंका आगमन

जनवरी, 1897 -- रामनाथपुरम् (रामेश्वरम) में जोरदार स्वागत एवं भाषण

6-15 फ़रवरी 1897 -- मद्रास में

19 फ़रवरी 1897 -- कलकत्ता आगमन

1 मई 1897 -- रामकृ ष्ण मिशन की स्थापना

मई-दिसम्बर 1897 -- उत्तर भारत की यात्रा

जनवरी 1898 -- कलकत्ता वापसी

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19 मार्च 1899 -- मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना

20 जून 1899 -- पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा

31 जुलाई 1899 -- न्यूयॉर्क आगमन

22 फ़रवरी 1900 -- सैन फ्रांसिस्को में वेदान्त समिति की स्थापना

जून 1900 -- न्यूयॉर्क में अन्तिम कक्षा

26 जुलाई 1900 -- योरोप रवाना

24 अक्टू बर 1900 -- विएना, हंगरी, कु स्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा

26 नवम्बर 1900 -- भारत रवाना

9 दिसम्बर 1900 -- बेलूर मठ आगमन

10 जनवरी 1901 -- मायावती की यात्रा

मार्च-मई 1901 -- पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा

जनवरी-फरवरी 1902 -- बोध गया और वाराणसी की यात्रा

मार्च 1902 -- बेलूर मठ में वापसी

4 जुलाई 1902 -- महासमाधि

चित्र दीर्घा

विवेकानन्द शिला विवेकानन्द की मूर्ति बेलूर मठ, कलकत्ता विवेकानन्द


मठ,कन्याकु मारी

सन्दर्भ
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70706/http://www.vivekananda.net/BooksBySwami.html). 33. Kearney 2013, पृ॰ 169.
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ml) से 12 मार्च 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 March 2012.
35. Urban 2007, पृ॰ 314.

[1]

इन्हें भी देखें
भगवान महावीर का साधना काल
राष्ट्रीय युवा दिवस
विवेकानन्द के न्द्र, कन्याकु मारी
विवेकानन्द नीडम्, ग्वालियर
विश्व धर्म महासभा
रामकृ ष्ण मिशन
भगिनी निवेदिता
राष्ट्रीय युवा दिवस

बाहरी कड़ियाँ
Swamiji's book From Colmobo to Almora (https://web.archive.org/web/20160304084855/http://www.vivekanan स्वामी विवेकानन्द से संबंधित
da.net/PDFBooks/ColomboToAlmora1897.pdf) मीडिया विकिमीडिया कॉमंस
पर उपलब्ध है।

स्वामी विवेकानन्द
दे · वा · सं (https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE:%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E
[दिखाएँ]

रामकृ ष्ण परमहंस


दे · वा · सं (https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE:%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E
[दिखाएँ]

हिन्दू धर्म
दे · वा · सं (https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE:%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E
[दिखाएँ]

वर्ल्डकै ट (https://www.worldcat.org/identities/lccn-n80-032751) · वी॰आई॰एफ॰ए॰: 89471868 (https://viaf.org/viaf/89471868) · एल॰सी॰सी॰एन॰:


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cb121727683 (http://catalogue.bnf.fr/ark:/12148/cb121727683) (आँकड़े) (http://data.bnf.fr/ark:/12148/cb121727683) · BIBSYS:
प्राधिकरण नियंत्रण 90891844 (http://ask.bibsys.no/ask/action/result?cmd=&kilde=biblio&cql=bs.autid+%3D+90891844&feltselect=bs.autid) · म्यूज़िकब्रैन्ज़:
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35583282 (https://nla.gov.au/anbd.aut-an35583282) · एन॰डी॰एल॰: 00459810 (http://id.ndl.go.jp/auth/ndlna/00459810) · एन॰के ॰सी॰:
jn19990210655 (http://aleph.nkp.cz/F/?func=find-c&local_base=aut&ccl_term=ica=jn19990210655&CON_LNG=ENG) · The SBN id SBLV190478
is not valid. · बी॰एन॰ई॰: XX832910 (http://catalogo.bne.es/uhtbin/authoritybrowse.cgi?action=display&authority_id=XX832910) · CiNii:
DA03812603 (http://ci.nii.ac.jp/author/DA03812603?l=en)

1. "संग्रहीत प्रति" (https://web.archive.org/web/20220627121607/http://rammayan.co.in/hindjano/swami-vivekananda-biography-in-hindi/index.html).


मूल (http://rammayan.co.in/hindjano/swami-vivekananda-biography-in-hindi/index.html) से 27 जून 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 अप्रैल 2022.

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अन्तिम परिवर्तन 09:52, 20 मार्च 2023।

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