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आ धरती कितना देती है
आ धरती कितना देती है
hindikunj.com/2018/01/aah-dharati-kitna-deti-hai.html
व्याख्या - पन्तजी कहते हैं कि मैंने बचपन में घरवालों से छिपाकर जमीं में कु छ पैसे इस आशा के साथ गाड दिए थे इन
पैसों से सुन्दर तथा प्र्यारे - प्यारे पेड़ उत्पन्न होंगे जिन पर चमकीले तथा चाँदी के समान सुन्दर रुपयों की सरस फसलें
उगेंगी और हवा के झोंका आने पर रुपये खनकें गे.उन रुपयों को मैं तोड़कर तोड़कर इक्कठा करूँ गा और थोड़े ही दिनों
में मैं मोटा सेठ बन जाऊँ गा . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उस बंजर जमीन पर उनका एक भी अंकु र नहीं निकला क्योंकि
उसने एक भी पैसा किया था परिणामस्वरूप उन पैसों को बो कर मैंने सेठ बनने का जो स्वप्न देखा था ,वह धरासायी हो
गया . मैं हताश होकर बहुत दिनों टक इनकी प्रतीक्षा करता रहा और अपनी बाल कल्पना के पांवड़े बिछाता रहा कि
कब पैसों के पेड़ उगेंगे .
व्याख्या - कवि कहता है कि पैसों को जमीं में बोने के बहुत दिनों के बाद टक वह आशा की दृष्टि से एकटक उनको
देखता रहा . परन्तु उन्हें जमता नहीं न देखर उसे बड़ी निराशा हुई . अब बड़ा होने पर कवि स्वीकार करता है की उसने
अनुचित बीज बोये थे . ऐसे बीजों से पेड़ उगने की आशा करना मुर्खता थी .
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व्याख्या - कवि का विचार है कि प्रथम अर्थात पैसों के बीज बोने की घटना को बीते पचास वर्ष हो चुके हैं . उसके
जीवन की अर्धशती हर्हरती हुई निकल गयी है .तब से न जाने कितनी बार बसंत तथा पतझड़ की ऋतुएँ आई और देखते
-देखते बीत गयी .इसी बीच कभी ग्रीष्म ऋतु की तपन आई ,कभी वर्षा ऋतु की झड़ी लगी और कभी शरद ऋतु भी
अपनीसुन्दरता लेकर जीवन में आई . कवि का कहना कि उसके जीवन में पुनः एक बार बर्ष ऋतु का आगमन हुआ ,जब
काजल की तरह काले - काले बादल ह्रदय में गहरी लालसा लेकर पृथ्वी पर बरस पड़े थे ,तब कवि ने उत्सुकतावश
अपने गृह - आँगन के कोने की गीली मिटटी की पर्त को उँगली से सहलाकर कु छ सेम के बीजों को मिटटी के नीचे दबा
दिया था .वह कहता कि उन सेम के बीजों में बोना वैसा ही लगा जैसे उसने धरती के आँचल में मणि और माणिक्य के
दानों को बो दिया था .
व्याख्या - कवि कहता है कि आँगन में सेम के बीज बोने की छोटी घटना को वह जल्द ही भूल गया . उसके लिए यह कोई
महत्वपूर्ण बात भी नहीं थी कि उसे मन में याद रखा ही जाय . अतः भूलना स्वाभाविक था . लेकिन एक दिन अचानक
संध्या समय अचानक आँगन में टहलते समय ,उस समय मैंने वहाँ जो दृश्य देखा ,उसे देख मैं ख़ुशी से पागल हो गया .
मैंने आँगन के कोने में जहाँ सेम के बीज बोये थे ,उसमें सेम का अंकु र देखा . अतः कवि के आनंद की कोई सीमा नहीं
रही . उसने देखा कि उस आँगन में अनेक नए -नए पौधे छोटे -छोटे छातों को तानकर खड़े हो गए हैं . यहाँ कवि पत्तों को
छाता मान रहा है . कवि को लगता है कि जैसे वे अंडा तोड़कर निकले हुए पक्षियों के बच्चे हों जो छोटे - छोटे पंखों को
फै लाकर उड़ने का पर्यंत कर रहे हों .भाव यह है कि सेम के छोटे - छोटे पौधे बढ़ने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ रहे थे .
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सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फू टी!
व्याख्या - आँगन में नव -अंकु रित सेम के पौधों को कवि एकटक देखता रहा . सहसा उसे स्मरण हो आया कि उसने स्वयं
कु छ दिन पूर्व यहाँ सेम के बीज धरती में गाड़ा था . उसी के फलस्वरूप छोटे - छोटे पौधों की यह सेना मेरी आँखों से
सामने गर्व से भरी पड़ी है . कवि कहता है कि उसका आँगन सेम के पौधों की हरि भरी झाड़ियों से भर गया . धीरे -धीरे
हरि भरी झाड़ियाँ आँगन में चारों ओर फ़ै ल गयी .उनको देखने से ऐसा लगता था मानों हरे -भरे मखमल के तम्बू आँगन में
तान दिए गए हो . पन्त जी ने फू लों की उपमा आकाश के तारों तथा फू ल के बूटों से दी है .ल कवि का मानना है कि
असंख्य लहराती हुई श्यामल लताओं से सफ़े द पुष्पों की सुरंद्ता झाग जैसी प्रतीत हो रही है ,उन्हें देखर वह अमावश्य
काले बादलों को याद करता है . कवि और हैरान हो जाता है कि जब कु छ दिन उपरान्त उन लताओं में निकली सेम की
फलियाँ भी तोड़ी जाति है .
व्याख्या - कवि कहता है कि उसके द्वारा लगायी गयी सेम की लता में निरंतर फलियाँ लगती गयी . प्यारी -प्यारी ,ढेर की
ढेर ,कु छ पतली -पतली ,कु छ चौड़ी चौड़ी असंख्य फलियों से लताएँ भर गयी . फलियों से लड़ी इन लताओं का वर्णन
करता हुआ कवि कहता है कि उनका स्वरुप लम्बी -लम्बी उंगलियाँ तथा छोटी तलवारों जैसा लगता था अथवा इसा
प्रतीत होता जैसे वे पन्ने से निर्मित सुन्दर हार हों . सेम की फलियाँ सच्चे मोती की ढेरियाँ की तरह खिली हुई थी .इस
प्रकार झुण्ड की झुण्ड सेम की लटकती हुई फलियाँ ऐसी लगती थी जैसे आकाश में झिलमिलाते तारों के छोटे -छोटे
समूह हो .
व्याख्या - कवि कहता है कि उसके द्वारा रोपी गयी सेम में इतनी अधिक निकली की सुबह शाम पास पड़ोस क एलोग
खाते खाते उब गए . वह कहता है कि परिचितों अपर्चितों के बीच भी फलियाँ बाटी गयी . इनता ही नहीं ,उसके बन्धु
-बान्दवों ,मित्रों मेहमानों तथा मोहल्ले भर के लोगों द्वारा भी उसके आँगन की फलियाँ जी भर कर खायी गयी . कवि
धरती माता की उदारता पर प्रकाश डालता हुआ कहता है की यह धरती कितनी दाल्शाली है . यह अपने प्यारे पुत्रों
को कितना स्नेह प्रदान करती है .इस सन्दर्भ में वह अपनी लोभ की प्रवृति और पैसा बोने वाली घटना को स्मरण कर
उसकी निंदा करता है .
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८. रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
व्याख्या - पन्त जी कहते है कि सेम की फलियों को देखकर अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि धरती रत्न उपरत्न
करती है इस कारण लोभ और स्वार्थ से रहित होकर हमें इसमें सच्ची ममता के बीज बोने होंगे . इससे अंकु रित ,पुष्पित
और फलित ममता के दालों को हमें घर - घर पहुँचाना होगा .कवि अपनी इच्छा व्यक्त करता है कि धरती के गर्व में हमकों
मनुष्य की शक्ति का बीज बोना चाहिए और उससे उत्पन्न शक्ति की फलियों को घर -घर में बात कर लोगों में समर्थ
बनने का भाव भरना चाहिए .
एक बार कवि ने अपनी बालयवस्था में पृथ्वी में कु छ पैसे इस आशय से बोया था कि उनमें से रुपयों के फल लगेगें।
उनका विचार था कि जिस प्रकार अन्न की खेती होती है ,उस प्रकार पैसों की भी खेती की जा सकती है। किन्तु
पैसों के पेड़ नहीं उगे और उनकी आशा पूर्ण न हो सकीय। कु छ समय बाद अपने आँगन में सेम के कु छ बीज बोये।
कु छ ही दिनों में वे सेम के बीज फू ट निकले।धीरे - धीरे सेम की लताएँ बढ़ने लगी। अगणित सेम की फलियाँ लगी।
कवि के परिवार के सभी सदस्यों ,पड़ोसियों ,परचितों ने उन फलियों को आनंद के साथ खाया।
कवि को जब धरती में पैसे बोन पर निराशा मिली थी तो उसे इस कथन को असत्य मान लिया था कि व्यक्ति जैसा बोटा
है वैसा ही पाटा है। किन्तु सेम की फलियाँ पाकर इस कथन की सत्यता का उसे ज्ञान हुआ और वह मान बैठा कि
धरती अपने पुत्रों को बहुत कु छ प्रदान करती है। वास्तव में यह धरती माता के सामान है। अपने पुत्रों के प्रति
उसमे अपार स्नेह और ममता है। अतः कवी इस निष्कर्ष पर आता है कि समस्त धरती पर प्रेम ,त्याग ,सज्जनता
,उदारता और मानवता का दाना बोना है। मानवता का विकास होगा। मनुष्य का श्रम सार्थक होगा।
अपने जीवन की एक छोटी सी घटना जिसमें कवि पैसा बोकर पैसों कजा फल चाहता है ,के द्वारा उसने एक बहुत बड़ा
जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है। मनुष्य सीमा भौतिक बन गया है। धन के लाभ में पढ़कर उसने उच्च मानवीय गुणों को
भुला दिया है। अर्थमय जीवन में आज सभी चाहते हैं कि हमारे घर में पैसों का पेड़ लग जाय और हम बहुत बड़े सेठ बन
जाए। बालक कवि भी सामान्य बीजों की तरह पैसों का बीज बोकर यह आशा करता है कि उसमें पैसों के असंख्य फल
लगेंगे। बालक ने भले ही अज्ञानता में ऐसा किया हो परन्तु यह बात वर्तमान युग के सभी लोगों के सत्य सिद्ध होती है।
यह सम्पूर्ण युग की अभिलाषा है। इस प्रकार कवि ने पैसे बोन की बात से समाज के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है।
वह मानता है कि सभी गुण धन में है। इसी कारण सभी गुणों को मानव इस पर बलि कर देता है। लेखक इस दृषिकोण
के प्रति चिंता व्यक्त करता है और कहता है कि पैसा स्वार्थ और लोभ का प्रतिक है। इससे समाज और राष्ट्र का
कल्याण सम्भव नहीं है।
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कविवर पंत ने सेम के बीज के अंकु रित होने से उसमें पत्तियों लगने तक की अवस्थ्ता का बड़ा ही सजीव चित्रण किया
है। कवि आँगन में सेम के बीज बोन की घटना को भूल गया था कि सहसा उसने एक दिन वहाँ सेम के कई अंकु र
निकलते हुए देखा। वह आश्चर्य और हर्ष से उछल पड़ा. चारों ओर सेम के अंकु र उगे थे। फिर कवि ने देखा कि सेम
के अंकु र नन्हे - नन्हे पौधे बन गए थे। उनमें छोटी -छोटी पत्तियां ऊपरी भाग में इस प्रकार फै ली थी मानों वे छाता
हों। इन्हे कवि विजय पताका कहते हैं क्योंकिउ जीवन की घोषणा कर रहा था। सेम के छोटे -छोटे पौधे हथेलियां की
तरह बनने लगे थे। उनके उल्लास को देखने से ऐसा लगत है कि वे डिम्ब को तोड़कर बाहर निकलने वाले पेक्षियों के
बच्चे हैं। ये बच्चे अपने पंख और विकसित हुए और असंख्य पत्तियों से भर गए। कालांतर में लताएँ झाइदों की तरह बन
गयी। हरी -भरी लताओं वाली सेमें मखमली तब्बू की तरह शोभयान होने लगी। कालांतर में वे लताएँ लहलहटी हुई
चारों ओर आँगन में फ़ै ल गयी, देखते -देखते आँगन की टाटी का सहारा लेकर वे ऊपर चढ़ गयी. अब वे हरी भरी लताएँ
ऐसी लगती मानों हरे भरे झरने ऊपर की ओर फू ट पड़े हो।
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