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Paragraph 1:
व्याख्या:- प्रस्ततु काव्य पंक्तियां रघव ु ीर सहाय की कविता कैमरे में बंद अपाहिज शीर्षक से ली गई हैं। इस
कविता में कवि ने संवेदनहीनता का चित्रण किया है , जो मीडिया द्वारा किया जाता है । इस कविता में कवि के
अनस ु ार मीडिया वाले औरों के दख ु को भी अपने व्यापार का माध्यम बनाने से थोड़ा सा भी नहीं हिचकते हैं,
उन्हें सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है और इसी बात पर व्यंग्य करते हुए कवि ने इस कविता को लिखा है ।
कवि कहते हैं कि मीडिया के लोग अपने आपको बहुत ज्यादा शक्तिशाली मानते हैं और वही वह अपने समक्ष
औरों को बहुत ही कमजोर मानते हैं। यह मीडिया वाले विकलांगों के पास जाकर उनसे प्रश्न पछ ू ते हैं कि क्या
आप अपाहिज हैं? यदि हां तो क्यों अपाहिज है , क्या उनका यह अपाहिज होना उनको दख ु दे त ा है ?
वह अपाहिज से इतने प्रश्न पछ ू ते हैं कि वे अपाहिज उन प्रश्नों का उत्तर बिल्कुल भी नहीं दे पाते और वह चप ु हो
जाते हैं और जब वह चप ु हो जाते हैं तभी यह मीडिया प्रवक्ता अपने कैमरामैन को निर्देश दे ते हुए कहते हैं कि
इन विकलांगों की तस्वीर को हमारे स्क्रीन पर बहुत बड़ा-बड़ा करके दिखाओ और ऐसा करके वह उन लोगों का
अपमान करते हैं, उनको जिल्लत दे ते हैं उनका मजाक उड़ाते हैं।

Paragraph 2:
व्याख्या:- आगे बढ़ते हुए कवि कहते हैं कि यह मीडिया के प्रवक्ता इतने क्रूर प्रकृति के होते हैं कि वह
जानबझ ू कर अपाहिज लोगों से बेतक ु े सवाल पछू ते हैं ताकि वे सवालों का उत्तर ना दे पाए।
जब सचमच ु में यह अपाहिज उन सवालों का उत्तर नहीं दे पाते हैं, तब यह मीडिया के प्रवक्ता खद ु ही उन
सवालों के जवाब दे ना आरं भ कर दे ते हैं।
अपना नाम कमाने के लिए यह मीडिया के प्रवक्ता अपाहिज लोगों को कहते हैं कि यदि आप अपने पीड़ा को
हमारे समक्ष नहीं बता पाएंगे, तो लोग कभी नहीं जान पाएंगे आपके दख ु एवं दर्द को उन्हें जानबझ ू कर उनके
कमजोरी पर चोट पहुंचाते हैं और उन्हें रोने पर मजबरू कर दे ते हैं। कवि ने ऐसा कहकर समाज पर भी कटाक्ष
किया है कि समाज के लोग अपना मान- सम्मान पाने के लिए किसी को भी दर्द में रख सकते हैं।

Paragraph 3:
व्याख्या:- आगे बढ़ते हुए कवि कहते हैं कि मीडिया प्रभारी प्रश्न पछ
ू कर अपाहिज लोगों का मानसिक शोषण
करते हैं। जब यह कमजोर लोग रोते हैं, तब यह मीडिया प्रवक्ता अपने टीवी स्क्रीन के पर्दों पर दिखाने के लिए
उनके तस्वीरों को खींचते हैं, ताकि परू ा समाज उनका मजाक उड़ा सके।
ऐसा करके वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाते हैं, समाज के लोगों की भावनाओं के साथ खेलते हैं और अंत में
यह लोग अपना कैमरा बंद कर दे ते हैं और बंद होने से पर्व
ू वह यह घोषणा करते हैं कि आप सभी दर्शक समाज
के जिस उद्दे श्य के लिए यह कार्यक्रम दे ख रहे थे वह कार्यक्रम अब समाप्त हो चक
ु ा है ।
बस हमारे कार्यक्रम में यह एक त्रटि
ु रह गई है कि हम आप लोगों को अच्छे से रुला नहीं पाए फिर भी यह
कार्यक्रम दे खने के लिए आप सभी का धन्यवाद।

Paragraph 1:
उषा कविता की व्याख्या: प्रस्तत ु काव्य पंक्तियां कवि शमशेर बहादरु सिंह द्वारा रचित कविता उषा से ली गई
हैं। इस कविता में कवि ने प्रकृति का बहुत ही सदंु र चित्रण किया है । कवि सर्य
ू के उदय होने से पर्व
ू के दृश्य का
वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह आकाश नीले शंख जैसा प्रतीत होता है । जिस तरह से घर की औरतें सब ु ह
उठकर अपना चल् ू हा मिट्टी से लीपती हैं, ठीक उसी तरह से यह संपर्ण ू आकाश ऐसा प्रतीत होता है , मानो किसी
ने इस आकाश को भी राख से लीप दिया है ।

Paragraph 2:
उषा कविता की व्याख्या: प्रस्तत
ु काव्य पंक्तियों में कवि प्रातः काल का वर्णन करते हुए कहते हैं, कि जैसे जैसे
सर्य
ू उदय होता है और अपने लालिमा को संपर्ण ू पथ्
ृ वी पर बिखेरता है , वैसे-वैसे ही आकाश का रं ग बदलने
लगता है । प्रकृति को सर्य
ू की लालिमा उस वक्त ऐसे प्रतीत होती है , मानो किसी ने काले रं ग के सिल को लाल
केसर से धोकर साफ कर दिया हो।
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काले सिल कहने का तात्पर्य रात के अंधेरे से है , जिसे सरू ज रुपी रोशनी ने साफ किया है । कवि फिर कहते हैं कि
मझ ु े उस वक्त आकाश ऐसा लगता है , मानो किसी ने काले रं ग के स्लेट पर लाल खरी मिट्टी का प्रयोग किया
हो।
कवि को काली अंधेरी रात स्लेट के समान लगती है और उन्होंने सब ु ह की लालिमा को लाल खरी मिट्टी के रूप
में प्रस्तत
ु किया है ।
Paragraph 3:
उषा कविता की व्याख्या: प्रस्तत ु कविता के अंतिम भाग में कवि ने सब ु ह के बदलते दृश्य का वर्णन करते हुए
कहा है कि मझ ु े स ब
ु ह का दृश्य सबसे ज्यादा सदं ु र लगता है । नीले आकाश का धीरे -धीरे लाल रं ग में परिवर्तित
होना। यह सब कुछ ऐसा लगता है मानो किसी ने प्रकृति पर अपना जाद ू चला कर सद ंु र दृश्य को धीरे -धीरे
बदला हो।

Paragraph 1:
छोटा मेरा खेत कविता की व्याख्या: छोटा मेरा खेत कविता में उमा शंकर जोशी जी ने कवि कर्म की तल ु ना
कृषि कर्म से की है । कवि यहां पर पन्ने को खेत कहते हैं। पन्ना अर्थात पेज जिस पर हम लिखते हैं और विचारों
को कवि ने बीज माना है । यानी जिस तरीके से खेत पर किसान खेती करता है , ठीक उसी तरह पन्ने पर कवि
कविता लिखता है । कृषि बीज के माध्यम से खेती उगाता है और कवि अपने विचार रूपी बीज के माध्यम से
कविता को लिखता है ।
जिस तरह किसान खेत में बीज बो दे ता है उसके बाद आंधी तफ ू ान इत्यादि के आने के बाद उस बीच का रोपण
होता है , ठीक उसी प्रकार जब कवि के मन में विचार रूपी आंधी उत्पन्न होती है , भाव उत्पन्न होते हैं, तो यही
भाव आगे चलकर कविता का रूप धारण कर लेते हैं|

Paragraph 2:
व्याख्या: प्रस्ततु काव्य पंक्तियां कवि उमाशंकर जोशी द्वारा रचित हैं। इन काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि
कहते हैं कि मझ ु े कागज का पन्ना एक चौकोर खेत के समान लगता है आगे चलकर कवि कहते हैं कि जिस
तरीके से कृषि द्वारा खेतों में सोए हुए बीज को हवा, आंधी तफू ान ,वर्षा, नमी, शष्ु क, गर्मी इत्यादि प्राप्त होने
के बाद बीज अंकुरित होता दिखाई दे ता है ।
ठीक उसी प्रकार कविता में भी कवि द्वारा बोए गए बीज को कल्पना के माध्यम से भाव के माध्यम से ही
पोषण प्राप्त होता है । बिना कल्पना के, बिना भाव के कवि द्वारा कोई भी बीज यानी कि विचार अंकुरित नहीं
हो सकता है , क्योंकि इनके बिना तो कविता लिखी ही नहीं जा सकती है ।
इसलिए कविता लिखते वक्त कल्पना का होना, भावों का होना बहुत अधिक जरूरी है । अगर ये नहीं होंगे, तो
‌कविता लिख पाना असंभव है । जब शब्द रूपी बीज बढ़कर पेड़ का रूप लेते हैं, तब उसमें अलंकार रूपी नए छं द
एवं भाव रूपी पत्ते का जन्म होता है ।
इस चौकोर कागज के खेत में जो बीज बोए जाते हैं, वे भावात्मक बीज होते हैं। यह बीज कवि मन के भाव से
उनके अहं कार को समाप्त करता है । अहं कार के समाप्त होते ही कवि की रचना में शब्द रूपी अंकुर प्रफुल्लित
होते हैं, यही अंकुर आगे बढ़कर रचना का रूप ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार खेती के दौरान भी बीज विकसित
होता है , जो आगे चलकर पौधे का विशाल रूप धारण करता है एवं धीरे -धीरे वह पौधा पत्तों एवं फूलों से लदकर
अंत में झक ु जाता है ।

Paragraph 3:
व्याख्या: आगे बढ़ते हुए कवि कहते हैं कि जब पन्ने रूपी खेत में कविता रूपी फूल खिलने लगते हैं, तो उसके
अंदर एक अद्भत ु रस दे खने को मिलता है । यह रस अमत ृ जैसा होता है । कवि के अनसु ार यह रचना ऐसे क्षण
में रची गई थी, जिसका फल उन्हें उनके जीवन के अंत काल तक मिलता रहे गा। कवि कविता रूपी इस रस को
जितना लट ु ाने की चेष्टा करते हैं, यह रस उतना ही अधिक बढ़ता चला जाता है ।
कवि के अनस ु ार पेड़ बड़ा होते-होते एक दिन समाप्त हो जाता है । उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है , लेकिन
कविता रूपी खेत कभी भी समाप्त नहीं होता। उसकी कटाई कभी समाप्त नहीं होती और ना ही उसका
अस्तित्व कभी खत्म होता है ।
छोटा मेरा खेत कविता के अंतिम छं द में कवि उमाशंकर जोशी जी ने कृषि रूपी फसल का वर्णन किया है । कवि
कहते हैं कि उनके कृषि रूपी खेत में अलौकिक रुपी फल आ चक ु े हैं। अलौकिक से यहां तात्पर्य कोई ऐसी चीज
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से है , जो ना यहां मिलता हो और ना ही दसू रे लोक में मिलता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि जब कोई कवि
एक कविता को लिखता है , तो उसकी कविता के सारे बोल, समस्त भाव उसकी अपनी होती है , जो अलौकिक
होती है ।
कविता अलग होने के कारण पाठकों को बहुत ज्यादा आनंद आता है । जब पाठक ऐसी कविताओं को पढ़ते हैं,
तो उन्हें परम आनंद मिलता है । उन्हें ऐसा लगता है कि मानो वह अमत ृ का पान कर रहे हों।
वहीं कवि दस ू री ओर कहते हैं कि जब कल्पना का बीज एक बार रोपण कर दिया जाता है , तो यह बीज ऐसा
बीज होता है , जिसको काटने से भी कभी कमता नहीं है । ये तो इसके विपरीत बढ़ता ही चला जाता है , क्योंकि
यह भावों का बीज है , कल्पना का बीज है , जिसे आप जितना काटें गे वह कमेगा नहीं, बल्कि बढ़ता ही चला
जाएगा।

यही कारण है कि प्रसिद्ध कवि की कविता यग ु ो यग


ु ो तक पाठकों को पसंद आती है और कवि द्वारा एक
क्षणभर में की गई कल्पना, एक कालजयी कविता को जन्म दे ता है ।
रहीमदास, तल ु सीदास, कबीर, सरू दास इत्यादि ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताओं को, लेखनी को आज भी हम
पढ़ते हैं और हर यग
ु में इनकी कविताओं को पढ़ा जाएगा क्योंकि इनकी रचना है ही ऐसी, जो हर व्यक्ति के
आत्मा को छू जाती हैं।
अंतिम छं द में कवि कहते हैं कि आप चाहे जितना ऐसी कविताओं का आनंद लें, लत्ु फ़ उठाएं, लेकिन इनका रस
कभी खत्म नहीं होगा। कवि के अनस ु ार साहित्य का आनंद कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है । किसान की
फसल खत्म हो सकती है , मगर साहित्य रूपी आनंद नहीं।
कवि अपने चौकन्ने खेत की तल ु ना अमत ृ पात्र से करते हैं, जो कभी भी खाली नहीं रहता है ।

बगल ु ों के पंख कविता की व्याख्या:


कवि उमा शंकर जोशी प्रस्तत ु काव्य पंक्तियों के माध्यम से बताते हैं कि आकाश में घिरे हुए काले-काले बादलों
में सफेद बगल ु े को उड़ते हुए मैंने दे खा है । आगे कवि कहते हैं, जब यह सफेद बगल ु े आकाश में पंक्तियों में उड़ते
हैं, तो मैं सिर्फ उन्हें दे खता रहता हूं।
पंक्तियों में बगल ु ों का यूँ आकाश में उड़ना मेरी नज़रे चरु ा लेता है । मझ
ु े यह दृश्य ऐसा लगता है , मानो कोई
सफेद काया आसमान पर तैर रही है ।
कवि कहते हैं कि यह दृश्य मझ ु े इतना आकर्षक लगता है कि मझ ु े ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति ने मझु े
अपने इस जाद ू भरे आकाश में बांध लिया है और मैं उस जाद ू में वशीभत ू होकर उस दृश्य को दे खने के लिए खो
जा रहा हूं।
कवि अंत में आवाहन करते हैं कि मझ ु े इस आकर्षक दृश्य को दे खने से कोई आकर रोक ले। क्योंकि इस दृश्य
को दे खने के लिए मैं सब कुछ भल ू जाता हूं। मझु े उस वक्त कुछ भी याद नहीं रहता है और अंत में कवि गह ु ार
लगाते-लगाते थक जाते हैं और अपने आप को इस मनमोहक दृश्य से बाहर निकालने में असफल हो जाते हैं।

Paragraph 1:
बादल राग कविता की व्याख्या – जैसे ही आकाश पर बादल छाते हैं, तो कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि मानों
ये बादल यद् ु ध की नौकाएं हैं, जो हवा और सागर के बीच में तैर रही हैं। कवि कहते हैं कि ये बदल रूपी नौकाएं
निम्न वर्गों के आकांक्षाओं रूपी अस्त्र शास्त्रों से भरी हुई हैं। हे बादल ये जो तम्
ु हारी गर्जना है , रन भेरी के समान
है , जिसे सन
ु कर निम्न वर्ग सजग हो गया है और वो त म्
ु हारी ओर आशा से दे ख रहे हैं l हे क्रांति दत
ू मेघों तम

आओ।

Paragraph 2:
व्याख्या – कवि सर्य
ू कांत त्रिपाठी निराला जी कहते हैं कि बादल तम ु बार-बार गरजते हो और भीषण वर्षा करते
हो और तम्ु हारी गर्जन को स न
ु कर संस ार भयभीत हो रहा है l बादलों में चमकने वाले बिजलियों से जैसे बड़े-बड़े
पहाड़ खंडित हो जाते हैं, उसी प्रकार शोषित वर्ग जब हुंकार भरते हैं, तो बड़े से बड़े पज
ंू ीपतियों का घमंड चरू -चरू
हो जाता है l
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Paragraph 3:
व्याख्या – कवि सर्य ू कांत त्रिपाठी निराला जी कहते हैं कि क्रांति कि गर्जना को सनु कर छोटे पौधे अर्थात जब
वर्षा होती है , वर्षा का जल पाकर छोटे -छोटे हर्षित होते हैं और चारो ओर हरियाली छा जाती है । कवि निष्पस्ट
रूप से कह रहे हैं कि क्रांति का स्वर सन ु कर वंचित वर्ग ही प्रसन्न होता है । जब क्रांति आती है , तो सब से ज्यादा
पजंू ीपति भयभीत होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी धन-संपत्ति की हानि का भय सताता है ।

काले मेघा पानी दे का सारांश


“काले मेघा पानी दे ” एक संस्मरण हैं जिसके लेखक धर्मवीर भारती जी हैं। संस्मरण की शरुवात करते हुए
धर्मवीर भारती जी कहते हैं कि गाँव में बच्चों की एक मंडली हुआ करती थी जिसके सदस्य 10-12 से लेकर
16-18 साल के लड़के होते थे। ये बच्चे अपने बदन पर सिर्फ एक लंगोटी या जांगिया पहने रहते थे।

जब गर्मी बहुत अधिक बढ़ जाती थी और बादल दरू -दरू तक आसमान में कही नहीं दिखाई दे ते थे। तब ये बच्चे
एक जगह इकट्ठा होकर “बोल गंगा मैया की जय…..काले मेधा पानी दे , गगरी फूटी …. बैल प्यासा , पानी दे
गड़ ु धानी दे ” लोकगीत गाते हुए गाँव की गलियों में धम ू ा करते थे।
इस लोकगीत को सन ु कर गां व के सभी लोग सावधान हो जाते थे और महिलाएं व लड़कियों घरों की खिड़कियों
से झांकने लगती थी। यह मंडली “पानी दे मैया , इंद्र सेना आयी हैं….” कहते हुए अचानक गली के किसी मकान
के सामने रुक जाती , तो उस घर के लोग बाल्टी भर पानी उस मंडली के ऊपर फेंका दे ते थे।
कुछ लोग जो इस मंडली को पसंद नही करते थे वो इसे “में ढक मंडली” कहा करते थे और जो लोग यह मानते थे
कि इस मंडली पर पानी फेंकने से बारिश हो जाएगी। वो इस मंडली को “इंद्र सेना” कहा करते थे।
जब जेठ बीतकर , आषाढ़ भी आधा गज ु र जाता मगर फिर भी बारिश नहीं होती। गांवों व शहरों में सख ू े के से
हालत हो जाते। मिट्टी सख ू कर जमीन फटने लगती है । इंसान व जानवर पानी के बैगर तड़प-तड़प कर मरने
लगते फिर भी आसमान में बादलों का कही नामोनिशान दिखाई नहीं दे ता।
ऐसे मश्कि
ु ल हालातों में लोग अपने क्षेत्रों में प्रचलित लोक विश्वासों जैसे पज ू ा पाठ , हवन यझ आदि के सहारे
भगवान इंद्र से प्रार्थना कर वर्षा की उम्मीद लगाते थे। जब सब कुछ करके हार जाते हैं तो फिर इंदर सेना को
बलु ाया जाता था।
इंद्र सेना , भगवान इंद्र से वर्षा की प्रार्थना करती हुई , गीत गाती हुई परू े गांव में निकलती थी। उस समय
लेखक को भी पानी मिलने की आशा में यह सब कुछ ठीक लगता था।
परं तु एक बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है । जानवर और इंसान ,
दोनों ही पानी के लिए तड़प रहे हैं तो फिर इतनी मश्कि ु ल से इकट्ठा किया हुआ पानी लोग इंद्रसेना पर डाल कर
उसे क्यों बर्बाद करते हैं। उनको लगता था कि यह तो सरासर अंधविश्वास हैं जो दे श को न जाने कितना
नक ु सान पहुंचा रहा हैं।
फिर लेखक कहते हैं कि यह इंद्र सेना नही बल्कि पाखंड हैं। अगर यह इंद्र सेना , सच में इंद्र महाराज से पानी
दिलवा सकती तो , क्या वो पहले अपने लिए पानी नहीं मांग लेती । इस तरह के अंधविश्वास के कारण ही तो
हम अंग्रेजों से पिछड़ गए हैं और उनके गल ु ाम हो गये।
लेखक आगे अपने बारे में बताते हैं कि वो भी तब लगभग इंद्र सेना में शामिल बच्चों की ही उम्र के थे । उनके
अंदर बचपन से ही आर्य समाजी संस्कार पड़े थे। वो उस समय “कुमार सध ु ार सभा” के उपमंत्री भी थे। जिसका
कार्य समाज में सध ु ार करना व अं ध विश्वास को दरू करना था।
हालाँकि लेखक हमेशा अपनी वैज्ञानिक सोच के आधार पर इन अंधविश्वासों के तर्क ढूंढते रहते थे। फिर भी वो
इस बात को स्वीकारते हैं कि उन्होंने भी अपनी वैज्ञानिक सोच को अलग रखते हुए ऐसे कई रीति-रिवाजों को
अपनाया जो उन्हें उनकी जीजी ने अपनाने को कहा था। उन्होंने वो सब बातें मानी जो उन्हें उनकी जीजी ने
स्नेह बस उनसे करने के लिए कहा था ।
लेखक कहते हैं कि उन्हें सबसे अधिक प्यार उनकी जीजी से ही मिला। वो रिश्ते में लेखक की कोई नहीं थी। वो
उम्र में उनकी मां से भी बड़ी थी लेकिन वो अपने परिवार वालों से पहले लेखक को ही पज ू ा-पाठ , तीज त्यौहार
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आदि में बल ु ाया करती थी और उनके हाथों से ही सारा काम करवाया करती थी। ताकि लेखक को उसका पण् ु य
मिल सके। और लेखक उनकी हर बार मानते थे।
लेकिन इस बार जब जीजी ने लेखक से इंद्रसेना पर पानी फेंकने को कहा तो , लेखक ने साफ मना कर दिया।
लेकिन जीजी ने खद ु ही बाल्टी भर पानी उनके ऊपर फेंक दिया जिसे दे खकर लेखक नाराज हो गए।
लेखक को मनाते हुए जीजी ने उन्हें बड़े प्यार से समझाया कि यह पानी की बर्बादी नहीं है । यह तो पानी का
अर्क है जो हम इंद्रसेना के माध्यम से इंद्रदे व पर चढ़ाते हैं। फिर उन्होंने कहा जो चीज इंसान पाना चाहता है उसे
पहले दे गा नहीं तो पाएगा कैसे। इसीलिए ऋषि-मनि ु यों ने दान को सबसे ऊंचा स्थान दिया है ।
इस पर लेखक कहते हैं कि ऋषि-मनि ु यों को क्यों बदनाम करती हो जीजी। जब आदमी पानी की एक-एक बँद ू
को तरसे , तब पानी को इस तरह बहाओगी क्या ।
इस पर जीजी थोड़ी दे र चप ु रही । फिर उन्होंने कहा कि दे खो भैय्या बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर
तम्
ु हारे पास करोड़ो रुपए हैं और तम
ु ने उसमें से कुछ रूपये दान कर दिए तो , वो दान नहीं हैं।
दान तो वह है जब किसी के पास कोई चीज कम है । फिर भी वह उस वस्तु का दान कर रहा है । तो उसको उस
दान का फल मिलता है । लेखक उनकी बात काटते हुए कहते हैं कि यह सब ढकोसला है और मैं इस बात को
नहीं मानता।
जीजी ने फिर लेखक को समझाते हुए कहा कि तू पढ़ा-लिखा है मगर मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। लेकिन मैं इस बात
को अनभ ु व से जानती हूँ कि जब किसान 30 – 40 मन गेहूँ उगना चाहता हैं तो वह 5-6 शेर अच्छा गेहूं जमीन
में क्यारियों बनाकर फेंक दे ता है ।और वह इस तरह गेहूँ की बव ु ाई करता है ।

बस हम भी तो पानी की बव ु ाई ही कर रहे हैं । जब हम यह पानी गली में बोयेंगे , तब तो शहर , कस्बे और गाँव
में पानी वाले बादलों की फसल आएगी। हम बीज बनाकर पानी दे ते हैं फिर काले मेघा से पानी मांगते हैं।
जीजी लेखक को आगे समझाते हुए कहती हैं कि सब ऋषि मनि ु कह गए , पहले खद ु दो , तब दे वता तम् ु हें
चौगन ु ा , आठग न
ु ा कर लौटाऐं ग े । यह तो हर आदमी का आचरण हैं जिससे सबका आचरण बनता हैं । “यथा
राजा तथा प्रजा” , सिर्फ यही सही नहीं है । सच यह भी हैं “यथा प्रजा तथा राजा” अर्थात जैसी प्रजा होगी वैसा ही
राजा का व्यवहार भी होगा। और यही बात गांधीजी भी कहते थे।
लेखक ने जब यह संस्मरण लिखा था तब दे श की आजादी के 50 साल परू े हो रहे थे। लेकिन आज भी लेखक के
द्वारा उठाए हुए प्रश्न उतने ही प्रासंगिक है जितने तब थे। उन्होंने कहा कि हम अपने दे श के लिए करते क्या हैं
?
मांगें तो हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी है पर त्याग का कहीं नामोनिशान नहीं है । अपना स्वार्थ एकमात्र लक्ष्य रह गया।
हम चटकारे लेकर लोगों की भ्रष्टाचार की बातें तो खब ू करते हैं लेकिन क्या हम खद ु उसी भ्रष्टाचार के अंग नहीं
है ।
लेखक कहते हैं कि “बादल आते हैं पानी बरसता है लेकिन बैल प्यासे के प्यासे और गगरी फूटी की फूटी रहती
हैं। आखिर यह स्थिति कब बदलेगी ” । लेखक की यह पंक्ति हमारी समाजिक व्यवस्था पर एक व्यंग्य है ।
क्योंकि हमारे दे श में हर वर्ष गरीब , बेबस , बेसहारा , अनाथ लोगो के लिए हजारों योजनाएं बनाती हैं। लेकिन
इन योजनाओं का लाभ उस वर्ग को नहीं मिलता हैं। ये सभी योजनाओं भ्रष्टाचार की भें ट चढ़ जाती हैं। उच्च
अधिकारी वर्ग से लेकर निम्न स्तर तक के सभी सरकारी कर्मचारियों की जेबों भर जाती हैं मगर जिनके लिए
योजनाएं बनाई जाती हैं उनको उसका लाभ नहीं मिलता हैं ।
विकास की बातें तो बहुत की जाती हैं मगर यह विकास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहता हैं। इसीलिए लेखक
कहते हैं कि “बरसात होने के बाद भी बैल प्यासा रह जाता हैं और गगरी फूट जाती हैं ।

प्रश्न 1.
लोगों ने लड़कों की टोली की “मेढक मंडली” नाम किस आधार पर दिया ? यह टोली अपने आपको “इंदर सेना”
कहकर क्यों बल ु ाती थी ?
उत्तर- गाँव के कुछ लोगों को लड़कों के नंगे शरीर, उछल-कूद, शोर-शराबे और उनके कारण गली में होने वाले
कीचड़ से चिढ़ थी। वे इसे अंधविश्वास मानते थे। इसी कारण वे इन लड़कों की टोली को मेढक-मंडली कहते थे।
यह टोली स्वयं को ‘इंदर सेना’ कहकर बल ु ाती थी। ये बच्चे इकट्ठे होकर भगवान इंद्र से वर्षा करने की गह
ु ार
लगाते थे। बच्चों का मानना था कि वे इंद्र की सेना के सैनिक हैं तथा उसी के लिए लोगों से पानी माँगते हैं ताकि
इंद्र बादलों के रूप में बरसकर सबको पानी दें ।
प्रश्न 2: जीजी ने इंदर सेना पर पानी फेंके जाने को किस तरह सही ठहराया?
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उत्तर- यद्यपि लेखक बच्चों की टोली पर पानी फेंके जाने के विरुद्ध था लेकिन उसकी जीजी (दीदी) इस बात
को सही मानती है । वह कहती है कि यह अंधविश्वास नहीं है । यदि हम इस सेना को पानी नहीं दें गे तो इंदर हमें
कैसे पानी दे गा अर्थात ् वर्षा करे गा। यदि परमात्मा से कुछ लेना है तो पहले उसे कुछ दे ना सीखो। तभी परमात्मा
खश ु होकर मनष्ु यों की इच्छाएँ परू ी करता है ।
प्रश्न 3. पानी दे , गड़ ु धानी दे मेघों से पानी के साथ-साथ गड़ ु धानी की माँग क्यों की जा रही है ?
उत्तर: गड़ु धानी गड़ ु व अनाज के मिश्रण से बने खाद्य पदार्थ को कहते हैं। बच्चे मेघों से पानी के साथ-साथ
गड़ु धानी की माँग करते हैं। पानी से प्यास बझ ु ती है , साथ ही अच्छी वर्षा से ईख व धान भी उत्पन्न होता है ,
यहाँ ‘गड़
ु धानी’ से अभिप्राय अनाज से है । गाँ व की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित होती है जो वर्षा पर निर्भर
है । अच्छी वर्षा से अच्छी फसल होती है जिससे लोगों का पेट भरता है और चारों तरफ खश ु हाली छा जाती है ।
प्रश्न 4 . गगरी फूटी बैल पियासा इंदर सेना के इस खेलगीत में बैलों के प्यासा रहने की बात क्यों मख ु रित हुई
है ?
उत्तर: इस खेलगीत में बैलों के प्यासा रहने की बात इसलिए मख ु रित हुई है कि एक तो वर्षा नहीं हो रही। दस
ू रे
जो थोड़ा बहुत पानी गगरी (घड़े) में बचा था। वह भी घड़े के टूटने से गिर गया। अब घड़े में भी कुछ पानी नहीं
बचा। इसलिए बैल प्यासे रह गए। बैल तभी खेत-जोत सकेंगे जब उनकी प्यास बझ ु ग
े ी। हे मेघा! इसलिए पानी
बरसा ताकि बैलों और धरती दोनों की प्यास बझ ु जाए! चारों ओर खश ु ी छा जाए।
प्रश्न 5. इंदर सेना सबसे पहले गंगा मैया की जय क्यों बोलती है ? नदियों का भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक
परिवेश में क्या महत्त्व है ? (CBSE-2011)
उत्तर: वर्षा न होने पर इंदर सेना सबसे पहले गंगा मैया की जय बोलती है । इसका कारण यह है कि भारतीय
जनमानस में गंगा, नदी को विशेष मान-सम्मान प्राप्त है । हर शभ ु कार्य में गंगाजल का प्रयोग होता है । उसे
‘माँ’ का दर्जा मिला है । भारत के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में नदियों का बहुत महत्त्व है । दे श के लगभग
सभी प्रमख ु बड़े नगर नदियों के किनारे बसे हुए हैं। इन्हीं के किनारे सभ्यता का विकास हुआ। अधिकतर
धार्मिक व सांस्कृतिक केंद्र भी नदी-तट पर ही विकसित हुए हैं। हरिद्वार, ऋषिकेश, काशी, बनारस, आगरा
आदि शहर नदियों के तट पर बसे हैं। धर्म से भी नदियों का प्रत्यक्ष संबध ं है । नदियों के किनारों पर मेले लगते
हैं। नदियों को मोक्षदायिनी माना जाता है ।
प्रश्न 6. रिश्तों में हमारी भावना-शक्ति बँट जाना विश्वासों के जंगल में सत्य की राह खोजती हमारी बधि ु की
शक्ति को कमज़ोर करती है । पाठ में जीजी के प्रति लेखक की भावना के संदर्भ में इस कथन के औचित्य की
समीक्षा कीजिए।
उत्तर: लेखक का अपनी जीजी के प्रति गहरा प्यार था। वह अपनी जीजी को बहुत मानता था। दोनों में
भावनात्मक संबध ं बहुत गहरा था। लेखक जिस परं परा कां या अंधविश्वास का विरोध करता है जीजी उसी का
भरपरू समर्थन करती है । धीरे -धीरे लेखक और उसकी जीजी के बीच की भावनात्मक शक्ति बँटती चली जाती
हैं। लेखक का विश्वास डगमगाने लगता है । वह कहता भी है कि मेरे विश्वास का किला ढहने लगा था। उसकी
जीजी लेखक की बधि ु शक्ति को भावनात्मक रिश्तों से कमजोर कर दे ती है । इसलिए लेखक चाहकर भी किसी
बात का विरोध नहीं कर पाता । यद्यपि वह विरोध जताने का प्रयास करता है लेकिन अंत में उसे जीजी के आगे
समर्पण करना पड़ता है ।

CBSE BOARD QUESTIONS


प्रश्न. ‘काले मेघा पानी दे ’ कैसा संस्मरण है ?
उत्तर: ‘काले मेघा पानी दे ’ एक सार्थक संस्मरण है । इसमें लेखक ने लोक प्रचलित विश्वास और विज्ञान के
द्वंद्व का सद ंु र चित्रण किया है । विज्ञान का अपना तर्क होता है और विश्वास का अपना सामर्थ्य। लेखक जहाँ
तर्क के आधार पर सब कुछ सिद्ध करना चाहता है वहीं दीदी के विश्वास के सामने वह निरुत्तर हो जाता है ।
प्रश्न: दिन-दिन गहराते पानी के संकट से निपटने के लिए क्या आज का यव ु ा वर्ग ‘काले मेघा पानी दे ’ की इंदर
सेना की तर्ज पर कोई सामहि ू क आंदोलन प्रारं भ कर सकता है ? अपने विचार लिखिए। (CBSE-2008)
उत्तर: दिन-दिन गहराते पानी के संकट से निपटने के लिए आज का यव ु ा वर्ग ‘इंदर सेना’ की तर्ज पर सामहि ू क
आंदोलन चला। सकता है । यव ु ा वर्ग जागरुकता रै ली निकाल सकते हैं। वे नक्
ु कड़ नाटकों, रै ल, पोस्टरों, चर्चाओं,
रे डियों व टीवी के माध्यम से पानी के संरक्षण, उसके सदप ु योग आदि के बारे में जागति ृ पैदा कर सकता है । वे
वक्ष
ृ ारोपण करक े , तालाबों की ख द
ु ाई आदि के जरिए पानी के सं
क ट को काफ़ी हद तक दरू कर सकते हैं।
प्रश्न: ‘काले मेघा पानी दे ’ संस्मरण विज्ञान के सत्य पर सहज प्रेम की विजय का चित्र प्रस्तत ु करता है - स्पष्ट
कीजिए।
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उत्तर: लेखक अपनी जीजी से स्नेह करता है । जीजी भी उसे बहुत चाहती है । दोनों का भावनात्मक लगाव है ।
लेखक जीजी के अंधविश्वासों को निरर्थक मानता है , परं तु जीजी उसे अपने तर्को से चप ु करा दे ती है । अत्यधिक
स्नेह भाव के कारण लेखक की तर्क क्षमता कमजोर हो जाती है । जीजी की भावनाएँ लेखक की बधि ु पर हावी हो
जाती है । वह चाहकर जीजी के अंधविश्वासों का विरोध नहीं कर पाता।
प्रश्न .‘काले मेघा पानी दे ’ के आधार पर लिखिए कि आज कैसी स्थितियों के कारण लेखक को कहना
पड़ा-आखिर कब बदलेगी यह स्थिति? (CBSE-2016)
उत्तर: लेखक ने इस निबंध में सख ू े के दिनों में अंधविश्वास के नाम पर पानी की बरबादी पर कड़ा एतराज
जताया है । वह समाज के दोहरे आचरण पर भी व्यंग्य करता है । आज समाज के हर क्षेत्र में सिर्फ माँग है , त्याग
का कहीं नामोनिशान नहीं है । कोई भी अपने कर्तव्य की बात नहीं करता। सभी भ्रष्टाचार की पोल खोलकर
आनंद लेते हैं। दस ू रों के काले कारनामों पर चटखारे लेते नज़र आते हैं। परं तु स्वयं भी भ्रष्टाचार का अंग बन रहे
हैं। इसके कारण समाज में समद् ृ धि नहीं आती। वर्ग विशेष ही फायदा उठाता है । इन स्थितियों के कारण लेखक
को कहना पड़ा-आखिर कब बदलेगी यह स्थिति?
प्रश्न. में ढक मंडली पर पानी डालने को लेकर लेखक और जीजी के विचारों में क्या भिन्नता थी?
उत्तर: में ढक मंडली पर पानी डालने को लेकर लेखक और जीजी के विचारों में अत्यधिक भिन्नता है । लेखक
आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित है । इंदर सेना वर्षा की स्थिति में निरर्थक उछलकूद करती थी। उन पर
पानी फेंकना मर्ख ू ता थी। क्योंकि पानी की भारी कमी थी। जीजी में ढक मंडली पर पानी फेंकने को उचित मानती
है । वह कहती है कि किसी से कुछ पाने के लिए पहले कुछ चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है । यह पानी का अर्घ्य है । पहले
त्याग करने से ही फल मिलता है । वह गेहूं की फ़सल पाने के लिए अच्छे बीजों को खेत में डालने का तर्क दे कर
अपनी बात को ठीक बताती है ।
प्रश्न. ‘काले मेघा पानी दे ’ में लेखक ने लोक मान्यताओं के पीछे छिपे किस तर्क को उभारा है , आप भी अपने
जीवन के अनभ ु व से किसी अंधविश्वास के पीछे छिपे तर्क को स्पष्ट कीजिए। (सैंपल पेपर-2015)
उत्तर: लेखक ने अंधविश्वासों के लोक मान्यताओं के तर्कों में सबसे प्रमख ु भाव जनकल्याण, सहभाव को उभारा
है । कष्ट के समय समाज का हर व्यक्ति अपनी क्षमतानस ु ार सहायता में योगदान करता है । इस भावना के
साथ धार्मिक मान्यताएँ जोड़ी जाती हैं ताकि व्यक्ति इन्हें आसानी से कर सके। भावनात्मक लगाव भी
पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंधविश्वासों को प्रसारित करता रहता है ।
प्रश्न. ‘गगरी फूटी बैल पियासा” कथन भारतीय जनजीवन पर स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद कितना उपयक् ु त
ठहरता है ? ‘काले मेघा पानी दे ’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। (CBSE-2011)
उत्तर: ‘गगरी फूटी बैल पियासा’ कथन आज के समय में पर्ण ू तया सही नहीं है । आजादी के बाद दे श में बड़े-बड़े
बाँधों में पानी इकट्ठा करके नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुँचाया जाता है । आज किसान केवल वर्षा पर
आश्रित नहीं है । खेती अब वर्ण का जआ ु नहीं रही। आज किसान के पास ट्यब ू वैल, कुएँ, नहरें आदि हैं। इसके
अलावा, सख ू ा पड़ने पर सरकार द्वारा भारी आर्थिक मदद की जाती है । नई तकनीक, नए बीजों से कम पानी में
अच्छी फ़सल उत्पन्न होती है । आज के किसान की दशा बिलकुल बदल गई है ।
प्रश्न. ग्रीष्म में कम पानी वाले दिनों में गाँव-गाँव डोलती में ढक मंडली पर बालटी से पानी उं डेलना जीजी के
विचार से पानी का बीज बोना है , कैसे?
उत्तर: जीजी का मानना है कि गरमी के कम पानी वाले दिनों में गाँव-गाँव डोलती में ढक मंडली पर एक बालटी
पानी उँ डेलना पानी का बीज बोना है । यदि कुछ पाना है तो पहले त्याग करना होगा। ऋषियों व मनि ु यों ने त्याग
व दान की महिमा गाई है । पानी के बीज बोने से काले मेघों की फ़सल होगी जिससे गाँव, शहर, खेत-खलिहानों
को खब ू पानी मिलेगा।
प्रश्न. लेखक ‘इंदरसेना’ पर पानी फेंकने का समर्थक क्यों नहीं था? उसके रूठ जाने पर जीजी ने उसे क्या
कहकर समझाया?
उत्तर: लेखक इंदर सेना पर पानी फेंकने का समर्थक नहीं था। उसका मानना था कि सख ू े के दिनों में पानी की
कमी होती है । इस तरह मेहनत से इकट्ठा किया गया पानी अंधविश्वास के नाम पर इंदर सेना पर फेंका जाना
गलत है । जीजी फिर भी यह कार्य करती है तो वह नाराज हो जाता है । जीजी उसे कहती है कि बादलों से वर्षा
लेने के लिए इंदर सेना लोगों से जल का दान कराती है । यह फ़सल बोने के समान है । इसके बाद ही भगवान इंद्र
वर्षा करते हैं।

पहलवान की ढोलक
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“पहलवान की ढोलक” कहानी के लेखक फणीश्वर नाथ रे णु जी हैं। जाड़ों के मौसम में श्यामनगर के समीप के
एक गाँव में महामारी फैली हुई थी। गांव के अधिकतर लोग मलेरिया और है जे से पीड़ित थे। जाडे के दिन थे
और रातें एकदम काली अंधेरी व डरावनी।
कभी कभी उस काली अंधेरी रात में भगवान को पक ु ारता हुआ कोई कमजोर स्वर , तो कभी किसी बच्चे के
द्वारा अपनी माँ को पक ु ारने की आवाज सन ु ाई दे ती थी।
लेखक आगे कहते हैं कि रात की खामोशी में सिर्फ सियारों और उल्लओ ू ं की आवाज ही सन ु ाई दे ती थी। कुत्तों में
परिस्थिति को समझने की विशेष बद् ु धि होती है । इसीलिए वो रात होते ही रोने लगते थे। और गांव के दख ु में
अपना स्वर मिलाने लगते थे।
रात की इस खमोशी को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही तोड़ती थी । पहलवान की ढोलक संध्याकाल से लेकर
प्रात:काल तक लगातार एक ही गति से बजती रहती थी और मौत को चन ु ौती दे ती रहती थी। ढोलक की आवाज
निराश , हताश , कमजोर और अपनों को खो चक ु े लोगों में सं
ज ीवनी भरने का काम करती थी। और इस ढोलक
को लट् ु टन सिंह पहलवान बजाया करता था ।
इसके बाद लेखक लट् ु टन सिंह के बचपन के बारे में बताते हुए कहते हैं कि लट् ु टन सिंह पहलवान अपने बारे में
कहता था कि “होल इंडिया” उसे जानता है लेकिन लेखक के अनस ु ार उसका “होल इंडिया” उसके जिले तक ही
सीमित होगा क्योंकि वहाँ उसे अधिकतर लोग जानते थे।
लट् ु टन सिंह के माता-पिता का दे हांत बचपन में ही हो चक ु ा था। और उसकी शादी भी 9 साल की उम्र में हो गयी
थी। उसकी विधवा सास ने ही उसको पाल पोस कर बड़ा किया। वह गाय चराता , खब ू दधू -दही खाता और
कसरत करता था।
मगर उसे यह दे ख कर अच्छा नहीं लगता था कि गांव के लोग उसकी सास को परे शान करते हैं। इसीलिए उसने
गांव के लोगों से बदला लेने के लिए पहलवान बनने की ठानी। और यव ु ावस्था तक आते आते वह अच्छा खासा
पहलवान बन गया था। उसने कुश्ती के दाँव पें च भी सीख लिए थे।
एक बार लट् ु टन सिंह श्याम नगर मेले में दं गल दे खने गया। पहलवानों की कुश्ती दे खकर उसने बिना सोचे
समझे वहां चाँद सिंह नाम के एक पहलवान को चन ु ौती दे दी। चाँद सिंह पहलवान अपने गरु ु बादल सिंह के
साथ पंजाब से वहां आया था और उसे “शेर के बच्चे” का टाइटल भी मिला था।
श्याम नगर के राजा चाँद सिंह को अपने यहां राज पहलवान रखने की भी सोच रहे थे। लट् ु टन सिंह की चन ु ौती
चाँद सिंह ने स्वीकार कर ली लेकिन जब लट् ु टन सिंह , चाँद सिंह से भिड़ा तो उसने पहली बार में ही उसे जमीन
में पटक दिया।
लेकिन लट् ु टन सिंह उठ खड़ा हुआ और दब ु ारा दं गल शरू ु हुआ। इस बार लट् ु टन सिंह ने सभी की उम्मीदों के
विपरीत चांद सिंह को चित कर दिया। उसने इस परू ी कुश्ती में ढोल को अपना गरु ु मानते हुए उसके स्वरों के
हिसाब से ही दांव-पें च लगाया और कुश्ती जीत ली । राजा ने प्रसन्न होकर उसे राज पहलवान बना दिया।
राजा का संरक्षण मिलने के बाद लट् ु टन सिंह को अच्छा खाना व कसरत करने की सभी सवि ु धाएं मिलने लगी ।
बाद में उसने काले खाँ समेत कई नामी-गिरामी पहलवानों को हराया। इसीलिए उसके ऊपर हमेशा राजा की
विशेष कृपा दृष्टि बनी रहती थी। धीरे -धीरे राजा उसे किसी से लड़ने भी नहीं दे ते थे। अब वह राज दरबार का
सिर्फ एक दर्शनीय जीव बन कर रह गया था।
लट् ु टन सिंह ने अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बना दिया। वह ढोलक को ही अपना गरु ु मनाता था इसीलिए
अपने दोनों बेटों को भी ढोलक की आवाज में परू ा ध्यान दे ने को कहता था।
लट् ु टन सिंह की जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी। लेकिन 15 साल बाद अचानक एक दिन राजा की मत्ृ यु हो गई
जिसके बाद उसकी जिंदगी में एक जबरदस्त मोड़ आया। राजा की मत्ृ यु के बाद उनके बेटे (राजकुमार) ने राज्य
संभाल लिया। नये राजा को कुश्ती में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी। इसीलिए उसने लट् ु टन सिंह को
राजदरबार से निकाल दिया।
लट् ु टन सिंह अपने दोनों बेटों के साथ गांव वापस आ गया। गाँव वालों ने गांव के एक छोर पर उसकी एक छोटी
सी झोपड़ी बना दी और उसके खाने-पीने का इंतजाम भी कर दिया। बदले में वह गांव के नौजवानों को
पहलवानी सिखाने लगा।
लेकिन यह भी बहुत दिन नही चला। इसीलिए अब वह अपनी ढोलक की थाप पर अपने दोनों बेटों को ही कुश्ती
सिखाया करता था। उसके बेटे दिन भर मजदरू ी करते और शाम को कुश्ती के दांव पें च सीखते थे।
एक बार गांव में सख ू ा पड़ गया। बारिश ने होने के कारण चारों ओर हाहाकार मच गया। ऊपर से गांव के लोगों
को है जे और मलेरिया ने जकड़ लिया। भख ु मरी , गरीबी और सही उपचार न मिलने के कारण लोग रोज मर रहे
थे। घर के घर खाली हो रहे थे और लोगों का मनोबल दिन प्रतिदिन टूटता जा रहा था।
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ऐसे में पहलवान की ढोलक की आवाज ही लोगों को उनके जिंदा होने का एहसास दिलाती थी। वह उनके लिए
संजीवनी का काम करती थी। पहलवान के दोनों बेटे भी बीमारी की चपेट में आकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच
चक ु े थे।
मरने से पहले वो अपने पिता से ढोलक बजाने को कहते हैं। लट् ु टन सिंह रात भर ढोलक बजाता है और सब ु ह
जाकर दे खता है तो वो दोनों पेट के बल मरे पड़े थे। वह अपने दोनों बेटों को कंधे पर ले जाकर नदी में बहा दे ता
हैं।
इसके बाद लट् ु टन सिंह ने उसी रात को फिर से ढोलक बजाई। लोगों ने उसकी हिम्मत की दाद दी। इसके
चार-पांच दिन बाद एक रात ढोलक की आवाज सन ु ाई नहीं दी। पहलवान के कुछ शिष्यों ने सब ु ह जाकर दे खा तो
उसकी लाश पड़ी थी। पहलवान ने बहुत कोशिश की लेकिन वह हार गया और मौत जीत गई।
शव यात्रा के वक्त आंसू पछ ू ते हुए उसके एक शिष्य ने कहा कि “गरु ु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊं तो
मझ ु े पीठ क े बल नहीं बल्कि पे ट क े बल चिता पर लिटाना और चिता जलाते वक्त ढोलक अवश्य बजाना”। वह
आगे नहीं बोल पाया।
प्रश्न 1. कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लट् ु ट्टन के दाँव-पें च में क्या तालमेल था? पाठ में आए
ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।
उत्तर: कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लट् ु टन के दाँव-पें च में अद्भत ु तालमेल था। ढोल बजते ही लट् ु टन
की रगों में खन ू दौड़ने लगता था। उसे हर थाप में नए दाँव-पें च सन ु ाई पड़ते थे। ढोल की आवाज उसे साहस
प्रदान करती थी। ढोल की आवाज और लट् ु टन के दाँव-पें च में निम्नलिखित तालमेल था|
● धाक-धिना, तिरकट तिना – दाँव काटो, बाहर हो जाओ।
● चटाक्र-चट्-धा – उठा पटक दे ।
● धिना-धिना, धिक-धिना — चित करो, चित करो।
● ढाक्र-ढिना – वाह पट्ठे ।
● चट्-गिड-धा – मत डरना। ये ध्वन्यात्मक शब्द हमारे मन में उत्साह का संचार करते हैं।
प्रश्न 2. कहानी के किस-किस मोड़ पर लट ु े न के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए? (CBSE-2008)
उत्तर: लट् ु न पहलवान का जीवन उतार-चढ़ावों से भरपरू रहा। जीवन के हर दख ु -सखु से उसे दो-चार होना पड़ा।
सबसे पहले उसने चाँद सिंह पहलवान को हराकरे राजकीय पहलवान का दर्जा प्राप्त किया। फिर काला खाँ को
भी परास्त कर अपनी धाक आसपास के गाँवों में स्थापित कर ली। वह पंद्रह वर्षों तक अजेय पहलवान रहा।
अपने दोनों बेटों को भी उसने राजाश्रित पहलवान बना दिया। राजा के मरते ही उस पर दख ु ों का पहाड़ टूट पड़ा।
विलायत से राजकुमार ने आते ही पहलवान और उसके दोनों बेटों को राजदरबार से अवकाश दे दिए। गाँव में
फैली बीमारी के कारण एक दिन दोनों बेटे चल बसे। एक दिन पहलवान भी चल बसा और उसकी लाश को
सियारों ने खा लिया। इस प्रकार दस ू रों को जीवन संदेश दे ने वाला पहलवान स्वयं खामोश हो गया।
प्रश्न 3. लट्ु टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गरु ु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है ?
(CBSE-2008, 2009)
उत्तर: पहलवान ने ढोल को अपना गरु ु माना और एकलव्य की भाँति हमेशा उसी की आज्ञा का अनक ु रण करता
रहा। ढोल को ही उसने अपने बेटों का गरु ु बनाकर शिक्षा दी कि सदा इसको मान दे ना। ढोल लेकर ही वह
राज-दरबार से रुखसत हुआ। ढोल बजा-बजाकर ही उसने अपने अखाड़े में बच्चों-लड़कों को शिक्षा दी, कुश्ती के
गरु सिखाए। ढोल से ही उसने गाँव वालों को भीषण दख ु में भी संजीवनी शक्ति प्रदान की थी। ढोल के सहारे ही
बेटों की मत्ृ यु का दख ु पाँच दिन तक दिलेरी से सहन किया और अंत में वह भी मर गया। यह सब दे खकर
लगता है कि उसका ढोल उसके जीवन का संबल, जीवन-साथी ही था।
प्रश्न 4. गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के दे हांत के बावजद ू लट्
ु टन पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा?
उत्तर: ढोलक की आवाज़ सन ु कर लोगों में जीने की इच्छा जाग उठती थी। पहलवान नहीं चाहता था कि उसके
गाँव का कोई आदमी अपने संबध ं ी की मौत पर मायस ू हो जाए। इसलिए वह ढोल बजाता रहा। वास्तव में ढोल
बजाकर पहलवान ने अन्य ग्रामीणों को जीने की कला सिखाई। साथ ही अपने बेटों की अकाल मत्ृ यु के दख ु को
भी वह कम करना चाहता था।
प्रश्न 5. ढोलक की आवाज़ का परू े गाँव पर क्या असर होता था। अथवा
पहलवान की ढोलक की उठती गिरती आवाज़ बीमारी से दम तोड़ रहे ग्रामवासियों में संजीवनी का संचार कैसे
करती है ?
उत्तर: महामारी की त्रासदी से जझ ू ते हुए ग्रामीणों को ढोलक की आवाज संजीवनी शक्ति की तरह मौत से लड़ने
की प्रेरणा दे ती थी। यह आवाज बढ़ ू े -बच्चों व जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दं गल का दृश्य उपस्थित कर
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दे ती थी। उनकी स्पंदन शक्ति से शन् ू य स्नायओ ु ं में भी बिजली दौड़ जाती थी। ठीक है कि ढोलक की आवाज में
बख ु ार को दरू करने की ताकत न थी, पर उसे सन ु कर मरते हुए प्राणियों को अपनी आँखें मद ंू ते समय कोई
तकलीफ़ नहीं होती थी। उस समय वे मत्ृ यु से नहीं डरते थे। इस प्रकार ढोलक की आवाज गाँव वालों को मत्ृ यु
से लड़ने की प्रेरणा दे ती थी।
प्रश्न 6. महामारी फैलने के बाद गाँव में सर्यो ू दय और सर्या ू स्त के दृश्य में क्या अंतर होता था? (CBSE-2008)
उत्तर: महामारी ने सारे गाँव को बरु ी तरह से प्रभावित किया था। लोग सर्यो ु दय होते ही अपने मत ृ संबधि
ं यों की
लाशें उठाकर गाँव के श्मशान की ओर जाते थे ताकि उनका अंतिम संस्कार किया जा सके। सर्या ू स्त होते ही
सारे गाँव में मातम छा जाता था। किसी न किसी बच्चे, बढ़ ू े अथवा जवान के मरने की खबर आग की तरह फैल
जाती थी। सारा गाँव श्मशान घाट बन चक ु ा था।
प्रश्न 7. कुश्ती या दं गल पहले लोगों और राजाओं का प्रिय शौक हुआ करता था। पहलवानों को राजा एवं लोगों
के द्वारा
विशेष सम्मान दिया जाता था।
(क) ऐसी स्थिति अब क्यों नहीं है ?
(ख) इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है ?
(ग) कुश्ती को फिर से प्रिय खेल बनाने के लिए क्या-क्या कार्य किए जा सकते हैं?
उत्तर:
(क) कुश्ती या दं गल पहले लोगों व राजाओं के प्रिय शौक हुआ करते थे। राजा पहलवानों को सम्मान दे ते थे,
परं तु आज स्थिति बदल गई है । अब पहले की तरह राजा नहीं रहे । दस ू रे , मनोरं जन के अनेक साधन प्रचलित
हो गए हैं।
(ख) कुश्ती की जगह अब अनेक आधनि ु क खेल प्रचलन में हैं; जैसे-क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टे निस, शतरं ज,
फुटबॉल आदि।
(ग) कुश्ती को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए ग्रामीण स्तर पर कुश्ती की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जा
सकती साथ-साथ पहलवानों को उचित प्रशिक्षण तथा कुश्ती को बढ़ावा दे ने हे तु मीडिया का सहयोग लिया जा
सकता है ।
प्रश्न 8. आंशय स्पष्ट करें आकाश से टूटकर यदि कोई भावक ु तारा पथ्ृ वी पर जाना भी चाहता तो उसकी
ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावक ु ता अथवा असफलता पर
खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
उत्तर: लेखक ने इस कहानी में कई जगह प्रकृति का मानवीकरण किया है । यह गद्यांश भी प्रकृति का
मानवीकरण ही है । यहाँ लेखक के कहने का आशय है कि जब सारा गाँव मातम और सिसकियों में डूबा हुआ था
तो आकाश के तारे भी गाँव की दर्दु शा पर आँसू बहाते प्रतीत होते हैं। क्योंकि आकाश में चारों ओर निस्तब्धता
छाई हुई थी। यदि कोई तारा अपने मंडल से टूटकर पथ् ृ वी पर फैले दख ु को बाँटने आता भी था तो वह रास्ते में
विलीन (नष्ट) हो जाता था। अर्थात ् वह पथ् ृ वी तक पहुँच नहीं पाता था। अन्य सभी तारे उसकी इस भावना को
नहीं समझते थे। वे तो केवल उसका मजाक उड़ाते थे और उस पर हँस दे ते थे।
प्रश्न 9. पाठ में अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है । पाठ में ऐसे अंश चनि ु ए और उनका
आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: मानवीकरण के अंश
● औधेरी रात चप ु चाप आँसू बहा रही थी। आशय-रात का मानवीकरण किया गया है । ठं ड में ओस रात के
आँसू जैसे प्रतीत होते हैं। वे ऐसे लगते हैं मानो गाँव वालों की पीड़ा पर रात आँसू बहा रही है ।
● तारे उसकी भावक ु ता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। आशय-तारों को हँसते हुए
दिखाकर उनका मानवीकरण किया गया है । वे मजाक उड़ाते प्रतीत होते हैं।
● ढोलक लढ़ ु की पड़ी थी। आशय-यहाँ पहलवान की मत्ृ यु का वर्णन है । पहलवान व ढोलक का गहरा
संबधं है । ढोलक का बजना पहलवान के जीवन का पर्याय है ।

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प्रश्न: क्या यह कहानी रे ण’ु को आंचलिक कहानीकार बनाती है ?
उत्तर: यह कहानी निर्विवाद रूप से रे ण’ु को आंचलिक कहानीकार बना दे ती है । ग्रामीण अंचल का इतना यथार्थ
और मार्मिक चित्रण पहले शायद नहीं हुआ। ग्रामीण लोक कलाएँ किस तरह विलप्ु त होती जा रही हैं इसका
चित्रण उन्होंने किया है । यह कहानी परु ानी सत्तात्मक व्यवस्था के टूटने के साथ-साथ लोक कलाओं में आ रही
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रुकावट का चित्रण करती है । बदलते ग्रामीण परिवेश का यथार्थ अंकन करती यह कहानी रे ण’ु को आंचलिक
कहानीकारों की श्रेणी में खड़ा कर दे ती है ।
प्रश्न: लट् ु टन पहलवान की पारिवारिक पष्ृ ठभमि ू के बारे में लिखिए।
उत्तर: लट् ु टन के माता-पिता की मत्ृ यु नौ साल में ही हो चक ु ी थी। उसकी शादी हो चक ु ी थी। उसकी विधवा सास
ने उसे पाला और पोसा। वह अपनी सास के यहाँ कसरत करते-करते बड़ा हो गया। इसी कारण वह पहलवानी में
जोर आजमाइश करने लगा।
प्रश्न: गाँव में फैली बीमारी से उत्पन्न गाँव की दशा का चित्रण कहानीकार ने किस प्रकार किया है ?
(CBSE-2008)
उत्तर: गाँव में महामारी ने पाँव पसार लिए थे। चारों ओर मौत का भयानक तांडव फैला था। रे ण’ु लिखते हैं कि
सियारों का क्रंदन और चेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर दे ती थी। गाँव की
झोपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़ ‘हरे राम, हे भगवान! की टे र अवश्य सन ु ाई पड़ती थी। बच्चे
कभी-कभी निर्बल कंठों से माँ-माँ पक ु ारकर रो पड़ते थे।
प्रश्न: जब मैनेजर और सिपाहियों ने लट् ु टन पहलवान को चाँद सिंह से लड़ने से मना कर दिया तो लट् ु टन ने
क्या कहा?
उत्तर: मैनेजर और सिपाहियों की बातें सन ु कर लट्
ु न सिंह गिड़गिड़ाने लगा। वह राजा साहब के सामने जा खड़ा
हुआ। उसने कहा दह ु ाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊँगा लेकिन लडूग ं ा अवश्य सरकार, वह कहने
लगा-लड़ेंगे सरकार हुकुम हो सरकार।
प्रश्न: ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी के संदेश को स्पष्ट कीजिए। (CBSE-2016)
उत्तर: ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में व्यवस्था के बदलने के साथ लोककला व इसके कलाकार के अप्रासांगिक
हो जाने की कहानी है । राजा साहब की जगह नए राजकुमार का आकर जम जाना सिर्फ व्यक्तिगत सत्ता
परिवर्तन नहीं, बल्कि जमीनी परु ानी व्यवस्था के परू ी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एक
दम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है । यह ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के छा जाने की समस्या है जो
लट् ु टन पहलवान को लोक कलाकर के आसन से उठाकर पेट भरने के लिए हायतौबा करने वाली निरीहता की
भमि ू पर पटक दे ती है ।
प्रश्न राजा साहब ने लट् ु टन को क्यों सहारा दिया था? अंत में उसकी दर्ग ु ति होने का क्या कारण था? OR
पहलवान लट् ु टन सिंह को राजा साहब की कृपादृष्टि कब प्राप्त हुई ? वह उन सवि ु धाओं से वंचित कैसे हो गया?
उत्तर:लट्ु टन ने बचपन से ही कु श्ती सीखी। उसने चाँ द पहलवान को हरा दिया। श्यामनगर के मेले के दं गल में
उसने यह चमत्कार दिखाया। राजा साहब ने उसे आश्रय दिया। इसके बाद उसने सभी नामी पहलवानों को हरा
दिया। अब वह दर्शनीय जीव बन गया था। पंद्रह साल तक वह राजदरबार में रहा। उसने दोनों बेटों को भी
पहलवानी में उतारा। राजा साहब के मरने के बाद नए राजा को घड़ ु सवारी में रुचि थी। उसने पहलवान व उसके
बेटों को राजदरबार से निकाल दिया। अब वह गाँव आकर रहने लगा। यहाँ उसे भोजन भी मश्कि ु ल से मिलना
था। महामारी ने उसके बेटों को लील लिया। उनके चार-पाँच दिन बाद वह भी मर गया।
प्रश्न: लट् ु टन से राज पहलवान लट् ु टन सिंह बन जाने के बाद की दिनचर्या पर प्रकाश डालिए? अथवा
पहलवान लट् ु टन के सख ु -चैन भरे दिनों का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर: लट् ु टन की कीर्ति राज पहलवान बन जाने के बाद दरू -दरू तक फैल गई। राजा ने उसे दरबार में रखा।
पौष्टिक भोजन व राजा की स्नेह दृष्टि से उसने सभी नामी पहलवानों को हरा दिया। वह दर्शनीय जीव बन
गया। मेलों में वह घट ु ने तक लंबा चोगा पहनकर अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह चलता
था। हलवाई उसे मिठाई खिलाते थे।
प्रश्न: ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी के आधार पर बताइए कि महामारी फैलने पर चिकित्सा और दे खरे ख के
अभाव में ग्रामीणों की दशा कैसी हो जाती थी। पहलवान की ढोलक उनकी सहायता किस प्रकार करती थी?
(CBSE 2010)
उत्तर : महामारी फैलने पर गाँव में चिकित्सा और दे खरे ख के अभाव में ग्रामीणों की दशा दयनीय हो जाती थी।
लोग दिन भर खाँसते कराहते रहते थे। रोज दो-चार व्यक्ति मरते थे। दवाओं के अभाव में उनकी मत्ृ यु निश्चित
थी। शरीर में शक्ति नहीं रहती थी। पहलवान की ढोलक मत ृ प्राय शरीरों में आशा व जीवंतता भरती थी। वह
संजीवनी शक्ति का कार्य करती थी।
प्रश्न ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में किस प्रकार परु ानी व्यवस्था और नई व्यवस्था के टकराव से उत्पन्न
समस्या को व्यक्त किया गया है ? लिखिए। ( सैंपल पेपर-2015)
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उत्तर: ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में परु ानी और नई व्यवस्था के टकराव से उत्पन्न समस्या को व्यक्त किया
है । परु ानी व्यवस्था में राजदरबार लोक कलाकारों को संरक्षण प्रदान करता था। उनके सहारे ये जीवित रहते थे,
परं तु नई व्यवस्था में विलायती दृष्टिकोण को अपनाया गया। लोक कलाकार हाशिए पर चले गए।

शिरीष के फूल
Question:शिरीष के पष्ु य को शीतपष्ु प भी कहा जाता है । ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को
शीतपष्ु प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
उत्तर: शिरीष का फूल प्रचंड गरमी में भी खिला रहता है । वह लू और उमस में भी जोर शोर से खिलता है अर्थात ्
विषम परिस्थितियों में भी वह समता का भाव रखता है । इसीलिए लेखक ने शिरीष को शीतपष्ु प का अर्थ है
ठं डक दे ने वाला फूल और शिरीष का फूल भयंकर गरमी में भी ठं डक प्रदान करता है ।
प्रश्न 1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधत ू ( संन्यासी ) की तरह क्यों माना है ? अथवा
शिरीष को ‘अद्भत ु अवधत ू ’ क्यों कहा गया है ? (CBSE-2014, 2017)
उत्तर: लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधत ू कहा है । अवधत ू वह संन्यासी होता है जो विषय-वासनाओं से ऊपर
उठ जाता है , सख ु -दखु हर स्थिति में सहज भाव से प्रसन्न रहता है तथा फलता-फूलता है । वह कठिन
परिस्थितियों में भी जीवन-रस बनाए रखता है । इसी तरह शिरीष का वक्ष ृ है । वह भयंकर गरमी, उमस, लू आदि
के बीच सरस रहता है । वसंत में वह लहक उठता है तथा भादों मास तक फलता-फूलता रहता है । उसका परू ा
शरीर फूलों से लदा रहता है । उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सख ू ता रहता है , तब भी शिरीष
कालजयी अवधत ू की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है , वह काल व समय को जीतकर
लहलहाता रहता है ।
प्रश्न 2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है – प्रस्तत ु
पीठ के आधार पर स्पष्ट करें । (सैंपल पेपर-2013) (CBSE-2017)
उत्तर: परवर्ती कवि ये समझते रहे कि शिरीष के फूलों में सब कुछ कोमल है अर्थात ् वह तो कोमलता का आगार
हैं लेकिन विवेदी जी कहते हैं कि शिरीष के फूलों में कोमलता तो होती है लेकिन उनका व्यवहार (फल) बहुत
कठोर होता है । अर्थात ् वह हृदय से तो कोमल है किंतु व्यवहार से कठोर है । इसलिए हृदय की कोमलता को
बचाने के लिए व्यवहार का कठोर होना अनिवार्य हो जाता है ।
प्रश्न 3. विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु
बने रहने की सीख दी है । स्पष्ट करें । (CBSE-2008)
उत्तर: द्रविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर
जिजीविषु बने रहने की सीख दी है । शिरीष का वक्ष ृ भयंकर गरमी सहता है , फिर भी सरस रहता है । उमस व लू
में भी वह फूलों से लदा रहता है । इसी तरह जीवन में चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ आएँ मनष्ु य को सदै व संघर्ष
करते रहना चाहिए। उसे हार नहीं माननी चाहिए। भ्रष्टाचार, अत्याचार, दं गे, लट ू पाट के बावजदू उसे निराश
नहीं होना चाहिए तथा प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाते रहना चाहिए।
प्रश्न 4. हाय, वह अवधत ू आज कहाँ है ! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर दे हबल के वर्चस्व की वर्तमान
सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है । कैसे?
उत्तर: लेखक कहता है कि आज शिरीष जैसे अवधत ू नहीं रहे । जब-जब वह शिरीष को दे खता है तब-तब उसके
मन में ‘हूक-सी’ उठती है । वह कहता है कि प्रेरणादायी और आत्मविश्वास रखने वाले अब नहीं रहे । अब तो
केवल दे ह को प्राथमिकता दे ने वाले लोग रह रहे हैं। उनमें आत्मविश्वास बिलकुल नहीं है । वे शरीर को महत्त्व
दे ते हैं, मन को नहीं। इसीलिए लेखक ने शिरीष के माध्यम से वर्तमान सभ्यता का वर्णन किया है ।
प्रश्न 5. कवि ( साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थित प्रज्ञता और विदग्ध प्रेम का हृदय एक साथ
आवश्यक है । ऐसा विचार प्रस्तत ु कर लेखक ने साहित्य कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदं ड निर्धारित किया है ।
विस्तारपर्व ू क समझाइए।
उत्तर: विचार प्रस्ततु करके लेखक ने साहित्य-कम के लिए बहुत ऊँचा मानदं ड निर्धारित किया हैं/विस्तारपर्व ू क
समझाएँ/ उत्तर लेखक का मानना है कि कवि के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का
हृदय का होना आवश्यक है । उनका कहना है कि महान कवि वही बन सकता है जो अनासक्त योगी की तरह
स्थिर-प्रज्ञ तथा विदग्ध प्रेमी की तरह सहृदय हो। केवल छं द बना लेने से कवि तो हो सकता है , किंतु महाकवि
नहीं हो सकता। संसार की अधिकतर सरस रचनाएँ अवधत ू ों के मँह
ु से ही निकलती हैं। लेखक कबीर व
कालिदास को महान मानता है क्योंकि उनमें अनासक्ति का भाव है । जो व्यक्ति शिरीष के समान मस्त,
बेपरवाह, फक्कड़, किंतु सरस व मादक है , वही महान कवि बन सकता है । सौंदर्य की परख एक सच्चा प्रेमी ही
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कर सकता है । वह केवल आनंद की अनभ ु ति


ू के लिए सौंदर्य की उपासना करता है । कालिदास में यह गण ु भी
विद्यमान था।
प्रश्न 6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता
छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरं तर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है । पाठ के आधार पर स्पष्ट करें ।
उत्तर: परिवर्तन प्रकृति का नियम है । मनष्ु य को समयानस ु ार परिवर्तन करते रहना चाहिए। एक ही लीक पर
चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है । शिरीष के फूल हमें यही सिखाते हैं। वह हर मौसम में अपने को और अपने
स्वभाव को बदल लेता है । इसी कारण वह निर्लिप्त भाव से वसंत, आषाढ़ और भादों में खिला रहता है । प्रचंड लू
और उमस को सहन करता है । लेकिन फिर भी खिला रहता है । फूलों के माध्यम से कोमल व्यवहार करता है तो
फलों के माध्यम से कठोर व्यवहार। इसीलिए वह दीर्घजीवी बन जाता है । मनष्ु य को भी ऐसा ही करना चाहिए।
प्रश्न 7. आशय स्पष्ट कीजिए
1. दरु ं त प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरं तर चल रहा है । मर्ख ू समझते हैं कि जहाँ बने
हैं, वहीं दे र तक बने रहें तो कालदे वता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते डुलते रहो, स्थान
बदलते रहो, आगे की ओर मँह ु किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हैं। जमे कि मरे ।
2. जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने
में उलझ गया, वह भी क्या कवि है ?…मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तों, तो फक्कड़ बनो।
3. फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है । वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई
अंगल ु ी है । वह इशारा है ।
उत्तर:
1. लेखक कहता है कि संसार में जीवनी शक्ति और सब जगह समाई कालरूपी अग्नि में निरं तर
संघर्ष चलता रहता है । बद्ु धिमान निरं तर संघर्ष करते हुए जीवनयापन करते हैं। संसार में
मर्ख
ू व्यक्ति यह समझते हैं कि वे जहाँ हैं, वहीं दे र तक डटे रहें गे तो कालदे वता की नजर से
बच जाएँगे। वे भोले हैं। उन्हें यह नहीं पता कि एक जगह बैठे रहने से मनष्ु य का विनाश हो
जाता है । लेखक गतिशीलता को ही जीवन मानता है । जो व्यक्ति हिलते-डुलते रहते हैं, स्थान
बदलते रहते हैं तथा प्रगति की ओर बढ़ते रहते हैं, वे ही मत्ृ यु से बच सकते हैं। लेखक जड़ता
को मत्ृ यु के समान मानता है तथा गतिशीलता को जीवन।
2. लेखक कहता है कि कवि को सबसे पहले अनासक्त होना चाहिए अर्थात तटस्थ भाव से
निरीक्षण करने वाला होना चाहिए। उसे फक्कड़ होना चाहिए अर्थात उसे सांसारिक आकर्षणों
से दरू रहना चाहिए। जो अपने किए कार्यों का लेखा-जोखा करता है , वह कवि नहीं बन
सकता। लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है , उसे फक्कड़ बनना चाहिए।
3. लेखक कहता है कि फल व पेड़-दोनों का अपना अस्तित्व है । वे अपने-आप में समाप्त नहीं
होते। जीवन अनंत है । फल व पेड़, वे किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई औगल ु ी
हैं। यह संकेत है कि जीवन में अभी बहुत कुछ है । सद ंु रता व सज ृ न की सीमा नहीं है । हर यगु
में सौंदर्य व रचना का स्वरूप अलग हो जाता है ।

CBSE BOARD QUESTIONS


प्रश्न 1. निबंधकार ने किस तरह कोमल और कठोर दोनों भावों का सम्मिश्रण शिरीष के माध्यम से किया है ?
उत्तर: प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति में दो भाव एक साथ विद्यमान रहते हैं। उसमें कोमलता भी रहती है और
कठोरता भी। संवेदनशील प्राणी कोमल भावों से यक् ु त होगा लेकिन समाज में अपने को बनाए रखने के लिए
कठोर भावों का होना भी अनिवार्य है । ठीक यही बात शिरीष के फूल पर भी लागू होती है । यद्यपि संस्कृत
साहित्य में शिरीष के फूल को अत्यंत कोमल माना गया है तथापि लेखक का कहना है कि इसके फल बहुत
कठोर (मजबत ू ) होते हैं। वे नए फूलों के आ जाने पर भी नहीं निकलते, वहीं डटे रहते हैं।
कोमलता और कठोरता के माध्यम से इस निबंध के लालित्य को इन शब्दों में निबंधकार ने प्रस्तत ु किया
है -”शिरीष का फूल संस्कृत साहित्य में बहुत कोमल माना गया है । मेरा अनम ु ान है कि कालिदास ने यह बात
शरू ु -शरू
ु में प्रचार की होगी। कह गए हैं, शिरीष पष्ु प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है ,
पक्षियों का बिलकुल नहीं। …. शिरीष के फूलों की कोमलता दे खकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब
कुछ कोमल है । यह भल ू है । इसके फल इतने मज़बत ू होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं
छोड़ते। जब तक नए फल, पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर दे ते तब तक वे डटे रहते हैं।
प्रश्न 2. ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध किस श्रेणी का निबंध है ? इस पर प्रकाश डालिए?
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उत्तर: हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कई विषयों पर निबंध लिखे हैं। उनके निबंधों को कई वर्गों में विभाजित
किया जा सकता है । उन्होंने ज्यादातर ललित निबंध लिखें हैं। अपनी निबंध कला से आचार्य द्विवेदी ने हिंदी
ललित निबंध साहित्य को विकसित किया है । उनके साहित्यिक निबंध ही ललित निबंध हैं। अनेक विद्वान भी
ऐसा ही मानते हैं। ललित निबंध क्या है इस बारे में डॉ. बैजनाथ सिंहल ने लिखा है -शोधार्थी ललित निबंध को
सामान्यतः जिसे हम निबंध कहते हैं। ऊलगते हुए केवल एक ही आधार को अपनाते दिखाई दे ते हैं-यह आधार
है लालित्य का। ललित शब्द को लेकर किसी विधा के अंतर्गत एक अलग विधा को बनाया जाना स्वीकार नहीं
हो सकता। लालित्य साहित्य मात्र में रहता है तथा ललित कलाओं में साहित्य लालित्य के कारण ही सर्वोच्च
कला है । इसलिए लालित्य तो साहित्य का अंतवर्ती तत्व है । डॉ० हजारी प्रसाद का ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध
भी एक ललित निबंध है ।
प्रश्न 3. प्रकृति के माध्यम से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लालित्य दिखाने का सफल प्रयास किया है ,
सिद्ध करें ।
उत्तर: ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध की रचना का मल ू ाधार प्रकृति है । निबंधकार ने प्रकृति को आधार बनाकर
इस निबंध की रचना की है । इसलिए इस निबंध में लेखक ने प्रकृति के माध्यम से लालित्य दिखाने का सफल
प्रयास किया है । प्रकृति का इतना मनोरम और यथार्थ चित्रण निबंध को लालित्य से परिपर्ण ू कर दे ता है । लेखक
ने बड़े सदंु र शब्दों में प्रकृति को चित्रित किया है । शिरीष के फूल का वर्णन इस प्रकार किया है -
“वसंत के आगमन से लहक उठता है , आषाढ़ तक तो निश्चित रहता रूप से मस्त बना रहता है । मन रम गया
तो भरे भादों में भी निर्यात फूलता रहता है । …एक-एक बार मझ ु े मालमू होता है कि यह शिरीष का एक अद्भत ु
अवधत ू है । दखु हो या सख ु , वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का दे ना। जब धरती और आसमान
जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं।
एक वनस्पति शास्त्री ने मझ ु े बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायम ु डं ल से अपना रस खींचता है । ज़रूर
खींचता होगा, नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल ततज ंु ाल और ऐसे सकुमार केसर को कैसे उगा सकता
था?”
प्रश्न 4. यह निबंध भावों की गंभीरता को समच् ु चय जान पड़ता है । प्रस्तत ु पाठ के आधार पर इस कथन की
समीक्षा कीजिए।
उत्तर: विचारों के साथ ही भावों की प्रधानता भी इस निबंध में मिलती है । भाव तत्व निबंध का प्रमख ु तत्व है ।
इसी तत्व के आधार पर निबंधकार मल ू भावना या चेतना प्रस्तत ु कर सकता है । वातावरण का पर्ण ू ज्ञान उन्हें
था। कवि न होने के बावजद ू भी प्रकृ ति को चित्रण भावात्मक ढं ग से करते थे । प्रकृ ति के प्रत्ये क परिवर्तन का
उन पर गहरा प्रभाव होता था। वे भावक ु थे इसलिए प्रकृति में होने वाले नित प्रति परिवर्तनों से वे भावक ु हो
जाते थे। इस बात को स्वीकारते हुए वे लिखते हैं –

“यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल पत्ते को दे खकर मग्ु ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है , पर नितांत
ढूँठ भी नहीं हैं। शिरीष के पष्ु प मेरे मानस में थोडा हिल्लोल ज़रूर पैदा करते हैं।” निबंधकार का मानना है कि
व्यक्तियों की तरह शिरीष का पेड़ भी भावक ु होता है । उसमें भी संवेदनाएँ और भावनाएँ भरी होती हैं –
“एक-एक बार मझ ु े मालम
ू होता है । कि यह शिरीष एक अद्भत ु अवधत ू हैं। दख
ु हो या सखु वह हार नहीं मानता
न ऊधो को लेना न माधो का दे ना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से
अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं।” अतः निबंधकार ने इस निबंध में भावात्मकता
का गण ु भरा है ।
प्रश्न 5: जीवन शक्ति का संदेश इस पाठ में छिपा हुआ है ? कैसे? स्पष्ट करें ।
उत्तर: द्विवेदी जी ने इस निबंध में फूलों के द्वारा जीवन शक्ति की ओर संकेत किया है । लेखक बताता है कि
शिरीष का फूल हर हाल में स्वयं के अस्तित्व को बनाए रखता है । इस पर गरमी-लू आदि का कोई प्रभाव नहीं
होता क्योंकि इसमें जीवन जीने की लालसा है । इसमें आशा का संचार होता रहता है । यह फूल तो समय को
जीतने की क्षमता रखता है । विपरीत परिस्थितियों में जो जीना सीख ले उसी का जीवन सार्थक है । शिरीष के
फूलों की जीवन शक्ति की ओर संकेत करते हुए निबंधकार ने लिखा है -
“फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है , आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है ।
मन रम गयो तो भरे भादों में भी निर्यात फूलता रहता है । जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय
सख ू ता रहता है , एकमात्र शिरीष कालजयी अवधत ू की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है ।”
इस प्रकार निबंधकार ने शिरीष के फूल के माध्यम से जीवन को हर हाल में जीने की प्रेरणा दी है । उन्होंने कई
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भावों को इस निबंध में प्रस्तत ु किया है । यह निबंध संवेदनाओं से भरपरू है । इन संवेदनाओं और भावनाओं का
विस्तारपर्व ू क चित्रण आचार्य जी ने किया है । यह एक श्रेष्ठ निबंध है ।
प्रश्न 6. निबंधकार का अधिकार लिप्सा से क्या आशय है ?
उत्तर: इस निबंध में एक प्रसंग में निबंधकार ने अधिकार लिप्सा की बात कही है । इस तथ्य ने भी प्रस्तत ु निबंध
के लालित्य को बढ़ाया है । निबंधकार कहता है कि प्रत्येक में अधिकार लिप्सा होनी चाहिए लेकिन अधिकार
लिप्सा का अर्थ यह है । कि जीवनभर आप एक ही जगह जमे रहो। दस ू रों को भी मौका दे ना चाहिए ताकि उनकी
योग्यता को सिद्ध किया जा सके। “वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पष्ु प-पत्र ु से मर्मरित होती
रहती है , शिरीष के परु ाने फल बरु ी तरह लड़खड़ाते रहते हैं। मझ ु े इनको दे खकर उन ने ताओं की याद आती है जो
किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं
दे ते तब तक जमे रहते हैं। मैं सोचता हूँ परु ाने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो
जाती?” इस तरह निबंधकार ने अधिकार भावना को नए अर्थों में प्रस्तत ु कर इस निबंध की लालित्य योजना
को प्रभावी बना दिया है ।
प्रश्न 7. व्यंग्यात्मकता इस निबंध की मल ू चेतना है । प्रस्तत ु पाठ के आलोक में इस पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: इस तत्व का प्रयोग करके निबंधकार ने अपने निबंध को बोझिल होने से बचा लिया है । डॉ. सक्सेना के
शब्दों में आपकी रचना पद्धति में कहीं-कहीं व्यंग्य एवं विनोद भी विद्यमान है । आपको यह व्यंग्य अधिक
कटु एवं तीखा नहीं होता किंतु मर्मस्पर्शी होता है और हृदय को सीधी चोट न पहुँचाकर स्थायी प्रभाव डालने
वाला होता है । परं तु निबंध में व्यंग्य तत्व का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है । द्विवेदी जी ने शिरीष के पेड़ की
शाखाओं की कमजोरी और कवियों के मोटापे पर व्यंग्य करते हुए लिखा है -
यद्यपि परु ाने कवि बहुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा दे खना चाहते थे पर शिरीष भी क्या बरु ा है ? डाल
इसकी अपेक्षाकृत कमज़ोर ज़रूर होती हैं पर उसमें झल ू ने वालियों का वजन भी तो ज्यादा नहीं होता। कवियों
की यही तो बरु ी आदत है कि वज़न का एकदम ख्याल नहीं करते। मैं तदि ंु ल नरपतियों की बात नहीं कर रहा हूँ,
वे चाहें तो लोहे का पेड़ लगवा लें। इस निबंध की एक और विशेषता है -स्पष्टता। विवेदी जी ने जो विचार अथवा
भाव प्रकट किए हैं उनमें स्पष्टता का गण ु विद्यमान है । उनके भावों में कोई उलझाव या बिखराव नहीं है ।
प्रश्न 8. शिरीष, अवधत ू और गांधी जी एक-दस ू रे के समान कैसे हैं? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(CBSE-2013)
उत्तर: शिरीष के अवधत ू रूप के कारण लेखक को महात्मा गांधी की याद आती है । शिरीष तरु अवधत ू की तरह,
बाहय परिवर्तन धप ू , वर्षा, आँधी, ल-ू सब में शां त बना रहता है तथा प ष्पि
ु त-पल्लवित होता रहता है । इनकी
तरह ही महात्मा गांधी भी मारकाट, अग्निदाह, लट ू पाट, खन ू खच्चर को बवंडर के बीच स्थिर रह सके थे। इस
समानता के कारण लेखक गांधी जी को याद करता है । जिस तरह शिरीष वायम ु ड
ं ल से रस खींचकर इतना
कोमल व कठोर हो सकता है , उसी तरह महात्मा गांधी भी कोमल-कठोर व्यक्तित्व वाले थे। यह वक्ष ृ और
मनष्ु य दोनों ही अवधत ू हैं।
प्रश्न 9. ‘हाय वह अवधत ू आज कहाँ है !’ लेखक ने यहाँ किसे स्मरण किया है ? क्यों? अथवा
हजारी प्रसाद विवेदी ने शिरीष के संदर्भ में महात्मा गांधी का स्मरण क्यों किया है ? साम्य निरूपित कीजिए।
उत्तर: ‘हाय, वह अवधत ू आज कहाँ है !’-लेखक ने यहाँ महात्मा गांधी का स्मरण किया है । शिरीष भयंकर गरमी
व लू में भी सरस वे फूलदार बना रहता है । गांधी जी अपने चारों छाए अग्निकांड और खन ू -खच्चर के बीच
स्नेही, अहिंसक व उदार दोनों एक समान कठिनाइयों में जीने वाले सरस व्यक्तित्व हैं।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

प्रश्न 1.
उत्तर : जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं –
1. जाति-प्रथा, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन भी करती है ।
2. सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है , परं तु श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन
किसी अन्य दे श में नहीं है ।
3. भारत की जाति-प्रथा में श्रम-विभाजन मनष्ु य की रुचि पर आधारित नहीं होता। वह मनष्ु य की क्षमता
या प्रशिक्षण को दरकिनार करके जन्म पर आधारित पेशा निर्धारित करती है ।
4. ज:ु शल्ु यक विपितपिस्थितयों में पेश बालक अनपि
ु तनाह दे ता फल भख ू े मरने की नौबत आ जाती है ।
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प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भख ु मरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है ? क्या यह
स्थिति आज भी है ? (CBSE-2011)
उत्तर: जातिप्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भख ु मरी का भी एक कारण बनती रही है क्योंकि यहाँ जाति
प्रथा पेशे का दोषपर्ण
ू पर्व ू निर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनष्ु य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी दे ती
है । उसे पेशा बदलने की अनम ु ति नहीं होती। भले ही पेशा अनप ु यक्ु त या अपर्याप्त होने के कारण वह भख ू ों मर
जाए। आधनि ु क यग ु में यह स्थिति प्रायः आती है क्योंकि उद्योग धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरं तर
विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है जिसके कारण मनष्ु य को अपना पेशा बदलने की
आवश्यकता पड़ सकती है ।
ऐसी परिस्थितियों में मनष्ु य को पेशा न बदलने की स्वतंत्रता न हो तो भख ु मरी व बेरोजगारी बढ़ती है । हिंद ू
धर्म की जातिप्रथा किसी भी व्यक्ति को पैतक ृ पेशा बदलने की अनम ु ति नहीं दे ती। आज यह स्थिति नहीं है ।
सरकारी कानन ू , समाज सधु ार व शिक्षा के कारण जाति प्रथा क े बंध न कमजोर हुए हैं। पेशे संबध ं ी बंधन समाप्त
प्राय है । यदि व्यक्ति अपना पेशा बदलना चाहे तो जाति बाधक नहीं है ।
प्रश्न 3. लेखक के मत से दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है ? (CBSE-2011, 2012, 2013, 2014, 2016)
उत्तर: लेखक के मत से ‘दासता’ से अभिप्राय केवल कानन ू ी पराधीनता नहीं है । दासता की व्यापक परिभाषा
है -किसी व्यक्ति को अपना व्यवसाय चन ु ने की स्वतंत्रता न दे ना। इसका सीधा अर्थ है -उसे दासता में जकड़कर
रखना। इसमें कुछ व्यक्तियों को दस ू रे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए
विवश होना पड़ता है ।
प्रश्न 4. शारीरिक वंश-परं परा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनष्ु यों में असमानता संभावित रहने के
बावजद ू आंबेडकर समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या
तर्क हैं?
उत्तर: शारीरिक वंश परं परा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनष्ु यों में असमानता संभावित रहने के
बावजद ू आंबेडकर समता को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति
को अपनी क्षमता का विकास करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए। वे शारीरिक वंश परं परा व सामाजिक
उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार को अनचि ु त मानते हैं। उनका मानना है कि समाज को यदि अपने
सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है । तो उसे समाज के सदस्यों को आरं भ से ही समान अवसर व
समान व्यवहार उपलब्ध करवाने चाहिए। राजनीतिज्ञों को भी सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
समान व्यवहार और स्वतंत्रता को सिद्धांत ही समता का प्रतिरूप है । सामाजिक उत्थान के लिए समता का
होना अनिवार्य हैं।
प्रश्न 5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मल ू न चाहा है ,
जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सवि ु धाओं का तर्क दिया है । क्या इससे आप सहमत हैं?
उत्तर: हम लेखक की बात से सहमत हैं। उन्होंने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का
उन्मल ू न चाहा है जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सवि ु धाओं का तर्क दिया है ।
भावनात्मक समत्व तभी आ सकता है जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन-सवि ु धाएँ उपलब्ध होंगी। समाज
में जाति-प्रथा का उन्मल ू न समता का भाव होने से ही हो सकता है । मनष्ु य की महानता उसके प्रयत्नों के
परिणामस्वरूप होनी चाहिए। मनष्ु य के प्रयासों का मल् ू यांकन भी तभी हो सकता है जब सभी को समान
अवसर मिले। शहर में कान्वें ट स्कूल व सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के बीच स्पर्धा में कान्वें ट स्कूल का
विद्यार्थी ही जीतेगा क्योंकि उसे अच्छी सवि ु धाएँ मिली हैं। अत: जातिवाद का उन्मल ू न करने के बाद हर
व्यक्ति को समान भौतिक सवि ु धाएँ मिलें तो उनका विकास हो सकता है , अन्यथा नहीं ।
प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक भ्रातत ृ ा’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को
भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातत ृ ा’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या
शब्द उचित समझेंगे/ समझेंगी?
उत्तर: लेखक ने अपने आदर्श समाज में भ्रातत ृ ा के अंतर्गत स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है । भ्रातत ृ ा से
अभिप्राय भाईचारे की भावना अथवा विश्व बंधत्ु व की भावना से है । जब यह भावना किसी व्यक्ति विशेष या
लिंग विशेष की है ही नहीं तो स्त्रियाँ स्वाभाविक रूप से इसमें सम्मिलित हो जाती हैं। आखिर स्त्री का स्त्री के
प्रति प्रेम भी तो बंधत्ु व की भावना को ही प्रकट करता है । इसलिए मैं इस बात से परू ी तरह सहमत हूँ कि यह
शब्द पर्ण ू ता का द्योतक है ।

CBSE BOARD QUESTIONS


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प्रश्न 1. डॉ० आंबेडकर के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए – गर्भधारण के समय से ही मनष्ु य का पेशा
निर्धारित कर दिया जाता है । क्या आज भी यह स्थिति विद्यमान है । (CBSE-2010)
उत्तर: डॉ० आंबेडकर ने भारत की जाति प्रथा पर सटीक विश्लेषण किया है । यहाँ जातिप्रथा की जड़ें बहुत गहरी
हैं। जाति व धर्म के ठे केदारों ने लोगों के पेशे को जन्म से ही निर्धारित कर दिया भले ही वह उसमें पारं गत हो या
नहीं हो। उसकी रुचि न होने पर भी उसे वही कार्य करना पड़ता था। इस व्यवस्था को श्रम विभाजन के नाम पर
लागू किया गया था। आज यह – स्थिति नहीं है । शिक्षा, समाज सध ु ार, तकनीकी विकास, सरकारी कानन ू
आदि के कारण जाति के बंधन ढीले हो गए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में जाति का महत्त्व नगण्य हो गया है ।

प्रश्न 2. डॉ० भीमराव की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभत ू बातें संक्षेप में समझाइए। आदर्श सामाज की
स्थापना में डॉ० आंबेडकर के विचारों की सार्थकता पर अपने विचार प्रकट कीजिए। (CBSE-2011, 2015)
उत्तर: डॉ० भीमराव आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभत ू बातें निम्नलिखित हैं –
1. उनका यह आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता व भ्रातत ृ ा पर आधारित होगा।
2. उस समाज में गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दस ू रे
तक संचारित हो सके।
3. ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होगा तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना
चाहिए।
4. सामाजिक जीवन में अवाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। डॉ० आंबेडकर के
विचार निश्चित रूप से क्रांतिकारी हैं, परं तु व्यवहार में यह बेहद कठिन हैं। व्यक्तिगत गण ु ों के कारण
जो वर्ग समाज पर कब्ज़ा किए हुए हैं, वे अपने विशेषाधिकारों को आसानी से नहीं छोड़ सकते। यह
समाज कुछ सीमा तक ही स्थापित हो सकता है ।
प्रश्न 3. जाति और श्रम विभाजन में बनि ु यादी अंतर क्या है ? ‘ श्रम विभाजन और जातिप्रथा’ के आधार पर
उत्तर दीजिए।
उत्तर: जाति और श्रम विभाजन में बनि ु यादी अंतर यह है कि जाति के नियामक विशिष्ट वर्ग के लोग हैं। जाति
वाले व्यक्तियों की इसमें कोई भमि ू का नहीं है । ब्राह्मणवादी व्यवस्थापक अपने हितों के अनरू ु प जाति व
उसका कार्य निर्धारित करते हैं। वे उस पेशे को विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं बदलने दे त,े भले ही लोग भख ू े
मर गए। श्रम विभाजन में कोई व्यवस्थापक नहीं होता। यह वस्तु की माँग, तकनीकी विकास या सरकारी
फैसलों पर आधारित होता है । इसमें व्यक्ति अपना पेशा बदल सकता है ।
प्रश्न 4. लोकतंत्र से लेखक को क्या अभिप्राय है ?
उत्तर: लेखक कहता है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है । यह मल ू तः सामहि ू क दिनचर्या की
एक रीति और समाज के सम्मिलित अनभ ु वों के आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त है । इनमें यह आवश्यक है कि
अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो। उनका मानना है कि दध ू -पानी के मिश्रण की तरह
भाईचारे का नाम ही लोकतंत्र है । इसमें सभी का सहयोग होना चाहिए।
प्रश्न 5. लेखक ने मनष्ु य की क्षमता के बारे में क्या बताया है ।
उत्तर: लेखक बताता है कि मनष्ु य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती हैं –
1. शारीरिक वंश परं परा
2. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात ् सामाजिक परं परा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना शिक्षा
तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिसके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा
विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करता है ।
3. मनष्ु य के अपने प्रयत्न
लेखक का मानना है कि असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार को अनचि ु त नहीं कहा जा सकता। वे
प्रथम दो बातों पर असमानता को अनचि ु त मानते हैं।
प्रश्न 6. “श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जातिप्रथा गंभीर दोषों से यक् ु त है ।” स्पष्ट करें ।
उत्तर: लेखक कहता है कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जातिप्रथा दोषों से यक् ु त है । इस विषय में लेखक
निम्नलिखित तर्क दे ता है –
1. जातिप्रथा का श्रम विभाजन मनष्ु य की इच्छा से नहीं होता।
2. मनष्ु य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता।
3. जातिप्रथा के कारण मनष्ु य में दर्भा ु वना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने वे कम काम करने की भावना
उत्पन्न होती
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4. जातिप्रथा के कारण श्रम विभाजन होने पर निम्न कार्य समझे जाने वाले कार्यों को करने वाले श्रमिक
को भी हिंद ू समाज घणि ृ त व त्याज्य समझता है ।
प्रश्न 7. डॉ० आंबेडकर ‘समता’ को काल्पनिक वस्तु क्यों मानते हैं?
उत्तर:डॉ० आंबेडकर का मानना है कि जन्म, सामाजिक स्तर, प्रयत्नों के कारण भिन्नता व असमानता होती है ।
पर्व
ू समता एक काल्पनिक स्थिति है । इसके बावजद ू वे सभी मनष्ु यों को विकसित होने के समान अवसर दे ना
चाहते हैं। वे सभी मनष्ु यों के साथ समान व्यवहार चाहते है |

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