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कवि इन पंक्तियों में कह रहे है कि यह जो दुनिया है, दुनिया के लोग भिखारियों की तरह कु छ न कु छ माँग करते रहते है । भिखारी की आदत

माँगना होती है । इस
दुनिया के लोगों को उन्होंने भिखमंगे कहा है ।

भिखमंगों की इस दुनिया में अपनी मन मरजी से अपना प्यार लुटाकर चले है। वे अपने हृदय में यही एक निशानी लेकर आगे चले है । उन्होंने जीवन में असफलता
भी पाई है, हार भी मानी है, लेकिन उस का बोझ स्वयं ही उठाया है। उसका बोझ किसी पर नहीं डाला है अर्थात उसके लिए जिम्मेदार किसी अन्य व्यक्ति को नहीं
मानते हैं । जो अपनी मंजिल पर रूके है वह आबाद रहे, बसे रहे यही आर्शीवाद देते है। कवि कहते है कि हम स्वयं ही अपने इन बँधनों में बँधे थे, अपनी स्वतत्रंता
से, अपनी मरजी से, और हम स्वयं ही यह बँधन तोड़ आगे चल निकले है। कवि का यह मानना है कि वे संकल किस्म के मस्त-मौला आदमी दीवाने कभी किसी
बँधन में नहीं बँधे है । अगर बँधे है तो वह अपनी मरजी से और अब वो आगे बढ़ निकले है अर्थात् बँधनों को तोड़ चले है तो भी वे अपनी मन मरजी से ही उन बँधनों
को तोड़कर आगे बढ़े है । वह स्वयं ही इस बात का अफसोस जताते है अपने जीवन में इस बात की हार मानते है कि वे कभी भी एक संसारिक व्यक्ति नहीं बन पाए,
एक संसारिक व्यक्ति का सुख नहीं भोग पाए ।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठय पुस्तक “वसंत-3″ में संकलित कविता” दीवानों की हस्ती” से ली गयी है। इसके कवि “भगवती चरण वर्मा” है। इस
काव्यांश में कवि संसार से दूर अपनी अलग राह पर चलने की बात कह रहे हैं।

व्याख्या- संसार जब कवि से जानना चाहता है अब वो किस ओर जा रहे हैं तो वे कहते हैं कि ये मत पूछो कि मैं कहाँ जा रहा हूँ क्योंकि मेरी कोई निश्चित मंजिल
नहीं है। मैं चलता हूँ क्योंकि यह मेरा स्वभाव है। कवि कहते हैं कि वो संसार से कु छ ज्ञान लेकर और कु छ अपने पास से देकर जा रहे हैं। कवि का स्वभाव चलने का
है परन्तु वह जहां रुकते हैं वहां लोगों से प्रेम भरी बातें करते हैं तथा उनकी बातें सुनते हैं और उनसे अपना तथा उनका सुख-दुख बाटतें हैं तथा सुख-दुःख रूपी
अमृत का घूँट पीकर वह फिर नये सफर पर चल देते हैं।

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