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अध्याय १६

दैवी तथा आसरु ी स्वभाव


यह प्रस्तति
ु भगवद् गीता यथारूप पस्ु तक
पर आधारित है |
कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद 
सस्ं थापकाचार्य : अतं र्राष्ट्रीय कृष्णभावनामतृ सघं  
श्रीमान राधेश्याम दास, इस्कॉन NVCC, पुणे द्वारा
गीता रहस्यम्   एक 18-सत्र की प्रस्तुति
हिन्दी भाषां तर
१. अभय गो विं द दा स
गीता रहस्यम्
२. आदि गो पा ल दा स
३. अमर हरि ना म दा स
४. अनं त वि जय दा स
Courtesy Slides & Video team :
५. बलभद्र आनं द दा स
Overview content : 1. Bhakta Shivaji
1. Gauranga Darshan Das
६. भक्त चे तन 2. Rukmini Vallabh Das
2. Gauranga Das
७. की र्त न रा ज दा स 3. Antardvipa Das
Bhaktivedanta Vidyapitham,
८. कृ ष् णलो क दा स www.vidyapitha.in
९. भक्त प्र बी न Govardhan Eco Village, Mumbai.
१०. भक्त प्रां जल
११. शरद पू र्णि मा दा स Pictures, Snapshots & Notes :
१२. तमा ल गो विं द दा स 1. Gaura Vilas das, GEV, Mumbai
१३. वे दना थ दा स 2. Sutapa Das, Bhaktivedanta Manor, London
१४. व्र ज प्र सा द दा स 3. North American VIHE Guide
१५. व्र ज ना यक गो विं द दा स 4. Surrender Unto Me by HG Bhurijan Prabhu.
१६. यमु ना जी वन दा स 5. Bhagavad Gita Study Guide by HG Gaurangapriya Das
पिछले सत्र की पुनरावत्ति

अध्याय १५ - H.O.M.E.

Home or Hotel? (15.1-5) - घर या होटल ? (१५.१-५)


On and on, over and over again (15.6-11) - बार बार लगातार (१५.६-११)
Maintainer of body, mind and soul (15.12-15)
- शरीर, मन और आत्मा का पोषक (१५.१२-१५)
Essence in three verses (15.16-18) - तीन श्लोकों मे सार (१५.१६-१८)
आज के सत्र का सारांश
अध्याय १६ - D.O.G.
Divine or Demoniac (16.1-6) दैवी या आसरु ी गुण (१६.१-६)
Opinions and Outlooks of Demons (16.7-20)
असरु ों का मत और दृष्टिकोण (१६.७-२०)
Getting Free from Demoniac qualities (16.21-24)
आसरु ी प्रवत्ति
ृ ओ ं से मुक्त होना (१६.२१-२४)
अध्याय १६
शिक्षा १- D.O.G.
Divine or Demoniac (16.1-6)
दैवी या आसरु ी गुण (१६.१-६)
अध्याय १५ और १६ के बीच सम्बन्ध
पिछले अध्याय में कृष्ण ने अश्वत्थ वक्ष
ृ रूपी भौतिक जगत् के बारे में वर्णन किया था. परन्तु उस वक्ष
ृ के फलों का वर्णन नहीं किया था |
कृष्ण दैवी (श्लोक १-३) और आसरु ी व्यक्तियों (श्लोक ४) के गणु ों के बारे में बताते हैं |
दैवी गणु : मक्त
ु करते हैं | (श्लोक ५)
आसरु ी गणु : बंधन में डालते हैं | (श्लोक ५)
अच्छे फल (दैवी गणु ) बरु े फल (आसरु ी गणु )
हमारे भीतर स्थित
देवता
और
दानव

गतिविधि
दैवी आसरु ी
भगवान् के नियमों का पालन करते हैं | ईश्वर के नियमों के विरोधी |

भगवान् और उनकी सतं ानों की निस्वार्थ अपनी स्वयं की सतं ष्टि


ु के बारे में चिति
ं त रहते हैं |
भाव से सेवा करते हैं |

सभी वस्तओ ु ं को भगवान् का उपहार मानते मेरे पास जो कुछ भी है, वह मेरी अपनी क्षमताओ,ं
हुए कृतज्ञ रहते हैं | कुशलता और मेहनत के द्वारा अर्जित किया गया
है ।
दैवी आसरु ी
कार्य करने से पहले सोचते हैं | बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं |

मैं गरुु , साधु और शास्त्रों के आदेशों का मैं जो चाहता हू,ँ वही करता हू;ँ मैं किसी की परवाह
पालन करता हूँ | नहीं करता; कोई मझु े नियत्रि
ं त नहीं कर सकता ।

शाश्वत आनंदमय जीवन, ज्ञान और ईश्वर तत्काल सख


ु मेरा लक्ष्य है ।
सेवा मेरे जीवन के लक्ष्य हैं ।
हम अपने अमीर पिता के भटके हुए पत्रु के समान हैं |

सच्चे सख
ु के लिए हमें पिता-पुत्र के शाश्वत सम्बन्ध को पुनर्स्थापित करना है |
अध्याय १६. सारांश
भाग १ (१६.१-६) आसरु ी और दैवी गुण
• कृष्ण पहले छब्बीस दिव्य गणु ों का वर्णन करते हैं ।
• इसके बाद उन्होंने छह आसरु ी गणु ों का वर्णन किया ।
 
भाग २ (१६.७-१६.२०) आसरु ी गुण
• कृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करना चाहते हैं कि उनके पास दैवी गणु है और आसरु ी गणु नहीं ।
• आसरु ी प्रवत्ति
ृ वाले व्यक्तियों की गतिविधियों, मानसिकता और गणु ों का वर्णन करते है ।
• कृष्ण इन राक्षसों को निरन्तर घणिृ त आसरु ी योनियों में डालते हैं ।
 
भाग ३ (१६.२१-१६.२४) - हमारा चयन : परम गति को प्राप्त करना
• तीन द्वार आत्मा के पतन और आसरु ी मानसिकता में बँधने की ओर ले जाते हैं ।
o काम, क्रोध और लोभ
• प्रत्येक समझदार व्यक्ति को इनका त्याग करना चाहिए, शद्धि ु के लिए कार्य करके परम गति को प्राप्त करना चाहिए ।
• इनके नियत्रं ण में कार्य करने के स्थान पर, व्यक्ति को शास्त्रों के अनसु ार कार्य करना चाहिए ।
भगवद ् गीता १६ .१-३
दै व ी सम् पद : दि व् य ग ु ण

श्रीभगवानवु ाच
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 अभयं सत्त्वसश ं द्धि
ु र्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
अहिसं ा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशनु म् |
दया भतू ेष्वलोलप्ु त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
तेजः क्षमा धति
ृ ः शौचमद्रोहो नातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||
भगवद ् गीता १६ .४-९
आस ु र ी सम् पद – आस ु र ी ग ु ण
(अ) आसरु ी गुण (भगवद् गीता १६.४)
१) दम्भ २) दर्प ३) अभिमान ४) क्रोध ५) कठोरता ६) अज्ञान

४. आसरु ी गुण :
(तमस् और रजस)्
दम्भो दर्पोSभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च | 
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासरु ीम् ||
 
अगले श्लोक से सम्बंध - दैवी और आसरु ी गणु ों के बारे में सनु कर,
अर्जुन को संदहे हो सकता है कि क्या एक योद्धा होने के नाते यद्ध
ु में
उनकी भागीदारी - एक हत्यारे के रूप में - आसरु ी स्वभाव के कारण है ।
तो कृष्ण अब इसे स्पष्ट करते हैं ।
भगवद ् गीता १६ .४-९
आस ु र ी सम् पद – आस ु र ी ग ु ण
५. दैवी और आसरु ी की नियति
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासरु ी मता |
मा शचु ः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ||

अगले श्लोक से सबं ंध - यह देखकर कि अर्जुन की हताशा


दरू नहीं हुई, कृष्ण असरु ों के गणु ों का वर्णन करते है ।

६. सस
ं ार में दो प्रकार के प्राणी हैं – दैवी तथा आसरु ी
अध्याय १६
शिक्षा २ - D.O.G.
Opinions and Outlooks of Demons
(16.7-20)
असरु ों का मत और दृष्टिकोण (१६.७-२०)
ब) आसरु ी प्रवत्ति
ृ (१६.७)
• उन्हें पता नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है ।
• वे शास्त्र का पालन नहीं करते हैं ।
• अस्पष्ट और अनचि ु त व्यवहार ।
• असत्य और स्व-कें द्रित आचरण ।
ड) आसरु ी दर्शन (१६.८)
• विश्व काल्पनिक है और कोई भगवान नहीं है ।
• यह दनिु या काम के वशीभतू उत्पन्न हुई है, कोई अन्य कारण नहीं है ।
भगवद गीता१६ .१०-२०
अस ु र ों की गति वि धि याँ और उनके परि णाम
१० . आसरु ी स्वभाव और आचार –
काममाश्रित्य दष्ु परू ं दम्भमानमदान्विताः |
मोहाद्गहृ ीत्वासदग्र् ाहान्प्रवर्तन्तेSशचि
ु व्रताः ||
 
११ . मनोवत्ति ृ (कामोपभोगपरमा) और
इसके परिणाम (चिन्तामपरिमेयां)

१२. कार्य –
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः
भगवद गीता १६.१०-२०
अस ु र ों की गति वि धि याँ और उनके परि णाम
१३-१५. धनार्जन के उपरांत विचार –
Use black text here for font इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् |
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पनु र्धनम् ||
.

असौ मया हतः शत्रर्हु निष्ये चापरानपि |


ईश्वरोSहमहं भोगी सिद्धोSहं बलवान्सख
.
ु ी ||
आढ्योSभिजनवानस्मि कोSन्योSस्ति सदृशो मया |
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानमोहिताः ||
भगवद गीता १६.१०-२०
अस ु र ों की गति वि धि याँ और उनके परि णाम

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१६. आसरु ी व्यक्तियों की नियति –


नरक
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावतृ ाः |
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरके Sशुचौ ||
ड) आसरु ी स्वभाव और उनके कार्य (१६.९ और १६.११-१२)
• मनोवत्ति

- असरु ों ने खदु को भ्रमित कर दिया है और उनके पास कोई बद्धि
ु नहीं होती है ।
- इन्द्रिय तप्ति
ृ "मानव सभ्यता की प्रमख ु आवश्यकता" है ।
• कार्य
- दनिु या का विनाश करने के लिए अभद्र, भयानक कार्यों में लगे हुए हैं ।
- इन्द्रिय तष्टि
ु के लिए अवैध तरीकों से धन अर्जित करते हैं ।
 
ई) आसरु ी मानसिकता (१६.१० और १६.१३ – १६.१५)
• वे अतप्तृ काम वासना का आश्रय लेते हैं ।
• वे गर्व और झठू ी प्रतिष्ठा के दभं में लीन रहते हैं ।
• वे हमेशा अस्वच्छ और अस्थायी कार्य से आकर्षित रहते हैं ।
• “मैं नियंत्रक और भोक्ता हूँ ।”
• “मैं परिपर्णू और शक्तिशाली हूँ ।”
• “मेरे दश्ु मन हारें गे और मैं खश
ु रहूगँ ा ।”
• “मैं हर उस चीज़ का भगवान हूँ जिसका मैं सर्वेक्षण करता हूँ ।”
भगवद गीता१६ .१०-२०
अस ु र ों की गति वि धि याँ और उनके परि णाम
१७. राक्षसी पाखंडी स्वभाव -
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः |
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपर्वू कम् ||
१८. आसरु ी गतिविधियों के अन्य परिणाम -
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः |
मामात्मपरदेहषे ु प्रद्विषन्तोSभ्यसयु काः ||
भगवद गीता१६ .१०-२०
अस ु र ों की गति वि धि याँ और उनके परि णाम

१९-२०. कृष्ण का असरु ों के साथ व्यवहार -


तानहं द्विषतः क्रूरान्ससं ारे षु नराधमान् |
क्षिपाम्यजस्रमशभु ानासरु ीष्वेव योनिषु ||
आसरु ीं योनिमापन्ना मढू ा जन्मनिजन्मनि |
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ||

अगले श्लोक से सबं ंध - कृष्ण बताएगं े कि यह किसी के विरुद्ध उनका व्यक्तिगत द्वेष नहीं है, कि वह
किसी को नरक में भेजें । नरक में जाने के लिए तीन विशिष्ट द्वार हैं ।
फ) आसुरी गतिविधियों के परिणाम (१६.१६)
• विभिन्न चितं ाओ ं से चिति
ं त
• भ्रम का जाल
• इद्रि
ं य भोग के प्रति आसक्ति
• नरक में पतन
ग) आसुरी उपदेश (१६.१७-१६.१८)
• वे ईश्वर, साधओ ु ं और शास्त्रों से ईर्ष्या करते हैं
• वे बिना किसी नियम या नियमों का पालन किए, के वल गर्व के कारण यज्ञ करते हैं
• प्रचार करते हैं कि कोई आदर्श मार्ग नहीं है, व्यक्ति अपना मार्ग स्वयं बनाता है
• ईश्वर की मनगढ़त रचना करते हैं
• कुछ प्रचार करते हैं कि परमेश्वर मर चक ु ा है
• दसू रों का कहना है: "तमु खदु भगवान हो"
ह) असरु ों की दुर्गति (१६.१९-१६.२०)
• वे भवसागर में विभिन्न आसरु ी योनिओ ं में सदा के लिए भेजे जाते हैं
• आसरु ी योनियों में बार-बार जन्म लेने से ऐसे व्यक्ति कभी कृष्ण से सपं र्क नहीं कर सकते हैं
• धीरे -धीरे वे सबसे घणिृ त जीवन जीते हैं
• वे नरक में जाते हैं
अध्याय १६
शिक्षा ३ - D.O.G.
Getting Free from Demoniac qualities (16.21-24)
आसरु ी प्रवत्ति
ृ यों से मुक्त होना (१६.२१-२४)
भगवद गीता१६ .२१-२४
आस ु र ी प्र व ृ त्ति यों को त् यागना और शास्त्र ों का पालन करना
२१. नरक के तीन द्वार:
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः |
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ||
२२. जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच
पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए
कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार
क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है |
अगले श्लोक से सबं ंध – कोई शास्त्रानसु ार निहित कर्म किये बिना इन तीन द्वारों से नहीं बच सकता है |
कृष्ण अब शास्त्रों के नियमों को पालन करने का महत्त्व बतायेंगे ।
हे कुन्तीपत्रु ! जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच
पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी
कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त
होता है |
[भगवद् गीता १६.२२]
आध्यात्मि
क ज्ञान
इंद्रिय निग्रह
तपस्या

वेदों का अध्ययन

गुरु का आश्रय
भगवद गीता१६ .२१-२४
आस ु र ी प्र व ृ त्ति यों को त् यागना और शास्त्र ों का पालन करना
२३. शास्त्रों की अवमानना का परिणाम –
यः शास्त्रविधिमत्ु सज्ृ य वर्तते कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सख ु ं न परां गतिम् ||
२४. शास्त्रों के पालन का फल –
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते
कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं
कर्म कर्तुमिहार्हसि ||
आज के सत्र का सारांश
अध्याय १६ - D.O.G.
Divine or Demoniac (16.1-6) दैवी या आसरु ी गुण (१६.१-६)
Opinions and Outlooks of Demons (16.7-20)
असरु ों का मत और दृष्टिकोण (१६.७-२०)
Getting Free from Demoniac qualities (16.21-24)
आसरु ी प्रवत्ति
ृ ओ ं से मुक्त होना (१६.२१-२४)
हरे कृष्ण !!!
धन्यवाद ! हरे कृष्ण !
कल हम सीखेंगे …….
अध्याय सत्रह – श्रद्धा के विभाग

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