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हनुमानजी का सीता शोध के लिए िंका प्रस्थान

जामवंत के बचन सुहाए।

सुनन हनुमंत हृदय अनत भाए॥

तब लनि मोनह परिखेहु तुम्ह भाई।

सनह दु ख कंद मूल फल खाई॥

जाम्बवान के सुहावने वचन सुनकि हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लिे॥

औि हनुमानजी ने कहा की हे भाइयो! आप लोि कन्द, मूल व फल खा, दु ुःख सह कि मेिी

िाह दे खना॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जब लनि आव ं सीतनह दे खी।

होइनह काजु मोनह हिष नबसेषी॥

यह कनह नाइ सबन्हि कहुुँ माथा।

चलेउ हिनष नहयुँ धरि िघुनाथा॥

जबतक मै सीताजीको दे खकि ल ट न आऊुँ, क्ोंनक कायय नसद्ध होने पि मन को बड़ा हषय

होिा॥

ऐसे कह, सबको नमस्काि किके, िामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धिकि, प्रसन्न होकि हनुमानजी

लंका जाने के नलए चले॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नसंधु तीि एक भूधि सुंदि।

क तुक कूनद चढे उ ता ऊपि॥

बाि-बाि िघुबीि सुँभािी।

तिकेउ पवनतनय बल भािी॥

समुद्र के तीि पि एक सुन्दि पहाड़ था| उसपि कूदकि हनुमानजी क तु की से चढ िए॥

नफि वािं वाि िामचन्द्रजी का स्मिण किके, बड़े पिाक्रम के साथ हनुमानजी ने िजयना की॥
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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जेनहं निरि चिन दे इ हनुमंता।

चलेउ सो िा पाताल तुिंता॥

नजनम अमोघ िघुपनत कि बाना।

एही भाुँ नत चलेउ हनुमाना॥

नजस पहाड़ पि हनुमानजी ने पाुँ व िखे थे , वह पहाड़ तुिंत पाताल के अन्दि चला िया॥

औि जैसे श्रीिामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है , ऐसे हनुमानजी वहा से चले॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जलनननध िघुपनत दू त नबचािी।

तैं मैनाक होनह श्रम हािी॥

समुद्र ने हनुमानजी को श्रीिाम (िघुनाथ) का दू त जानकि मैनाक नाम पवयत से कहा की हे

मैनाक, तू जा, औि इनको ठहिा कि श्रम नमटानेवाला हो॥


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मैनाक पर्वत की हनुमानजी से लर्नती


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सोिठा – Sunderkand

नसन्धुवचन सुनी कान, तुित उठे उ मैनाक तब।

कनपकहुँ कीि प्रणाम, बाि बाि कि जोरिकै॥

समुद्रके वचन कानो में पड़तेही मैनाक पवयत वहां से तुिंत उठा औि हनुमानजीके पास आकि

वािं वाि हाथ जोड़कि उसने हनुमानजीको प्रणाम नकया॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

हनूमान तेनह पिसा कि पुनन कीि प्रनाम।

िाम काजु कीिें नबनु मोनह कहाुँ नबश्राम ॥1॥


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हनुमानजी ने उसको अपने हाथसे छूकि नफि उसको प्रणाम नकया, औि कहा की, िामचन्द्रजीका

का कायय नकये नबना मुझको नवश्राम कहा है ? ॥1॥

सुंदरकाण्ड – 01

हनुमानजीकी सुरसा से भेंट

जात पवनसुत दे वि दे खा।

जानैं कहुुँ बल बुन्हद्ध नबसे षा॥

सुिसा नाम अनहि कै माता।

पठइन्हि आइ कही तेनहं बाता॥

हनुमानजी को जाते दे खकि उसके बल औि बुन्हद्ध के वैभव को जानने के नलए दे वताओं ने

नाि माता सुिसा को भे जा|

उस नािमाताने आकि हनुमानजी से यह बात कही॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

आजु सुिि मोनह दीि अहािा।

सुनत बचन कह पवनकुमािा॥

िाम काजु करि नफरि मैं आव ।ं

सीता कइ सुनध प्रभुनह सु नाव ॥


आज तो मुझको दे वताओं ने यह अच्छा आहाि नदया| यह बात सुन हुँ स कि, हनुमानजी बोले॥

की मैं िामचन्द्रजी का काम किके ल ट आऊ औि सीता की खबि िामचन्द्रजी को सुना दू ं ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तब तव बदन पैनठहउुँ आई।

सत्य कहउुँ मोनह जान दे माई॥

कवनेहुुँ जतन दे इ ननहं जाना।

ग्रसनस न मोनह कहे उ हनुमाना॥


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नफि हे माता! मै आकि आपके मुुँह में प्रवेश कर


ं िा| अभी तू मुझे जाने दे | इसमें कुछभी

फकय नहीं पड़े िा| मै तुझे सत्य कहता हुँ ॥

जब उसने नकसी उपायसे उनको जाने नहीं नदया, तब हनुमानजी ने कहा नक तू क्ों दे िी

किती है ? तू मुझको नही खा सकती॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जोजन भरि तेनहं बदनु पसािा।

कनप तनु कीि दु िुन नबस्तािा॥

सोिह जोजन मुख तेनहं ठयऊ।

तुित पवनसुत बनिस भयऊ॥

सुिसाने अपना मुंह एक योजनभिमें फैलाया| हनुमानजी ने अपना शिीि दो योजन नवस्तािवाला

नकया॥

सुिसा ने अपना मुुँह सोलह (१६) योजनमें फैलाया| हनुमानजीने अपना शिीि तुिंत बिीस

(३२) योजन बड़ा नकया॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जस जस सुिसा बदनु बढावा।

तासु दू न कनप रप दे खावा॥

सत जोजन तेनहं आनन कीिा।

अनत लघु रप पवनसुत लीिा॥

सुिसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दु िना नदखाया॥

जब सुिसा ने अपना मुंह स योजन (चाि स कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुिंत बहुत

छोटा स्वरुप धािण कि॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बदन पइनठ पुनन बाहे ि आवा।

मािा नबदा तानह नसरु नावा॥


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मोनह सुिि जेनह लानि पठावा।

बुनध बल मिमु तोि मैं पावा॥

उसके मुंहमें पैठ कि (घुसकि) झट बाहि चले आए| नफि सुिसा से नवदा मां ि कि

हनुमानजी ने प्रणाम नकया॥

उस वक़्त सुिसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! दे वताओंने मुझको नजसके नलए भेजा

था, वह तेिा बल औि बुन्हद्ध का भेद मैंने अच्छी तिह पा नलया है ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िाम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुन्हद्ध ननधान।

आनसष दे इ िई सो हिनष चलेउ हनुमान ॥2॥

तुम बल औि बुन्हद्ध के भण्डाि हो, सो श्रीिामचंद्रजी के सब कायय नसद्ध किोिे| ऐसे आशीवाय द

दे कि सुिसा तो अपने घि को चली, औि हनुमानजी प्रसन्न होकि लंकाकी ओि चले ॥2॥


सुंदिकाण्ड – 03

हनुमानजी की छाया पकड़ने र्ािे राक्षस से भेंट

च पाई – सुंदिकाण्ड

नननसचरि एक नसंधु महुुँ िहई।

करि माया नभु के खि िहई॥

जीव जंतु जे ििन उड़ाहीं।

जल नबलोनक नति कै परिछाहीं॥

समुद्र के अन्दि एक िाक्षस िहता था| सो वह माया किके आकाशचािी पक्षी औि जंतुओको

पकड़ नलया किता था॥

जो जीवजन्तु आकाश में उड़कि जाता, उसकी पिछाई जल में दे खकि॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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िहइ छाहुँ सक सो न उड़ाई।

एनह नबनध सदा ििनचि खाई॥

सोइ छल हनूमान कहुँ कीिा।

तासु कपटु कनप तुितनहं चीिा॥

उसकी पिछाई को जल में पकड़ लेता, नजससे वह नजव जंतु नफि वहा से सिक नहीं सकता|

इसतिह वह हमेशा आकाशचािी नजवजन्तुओ को खाया किता था॥

उसने वही कपट हनुमानसे नकया| हनुमान ने उसका वह छल तु िंत पहचान नलया॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तानह मारि मारुतसुत बीिा।

बारिनध पाि ियउ मनतधीिा॥

तहाुँ जाइ दे खी बन सोभा।

िुंजत चंचिीक मधु लोभा॥

धीि बुन्हद्धवाले पवनपुत्र वीि हनुमानजी उसे मािकि समुद्र के पाि उति िए॥

वहा जाकि हनुमानजी वन की शोभा दे खते है नक भ्रमि मकिं द के लोभसे िुुँजाहट कि िहे

है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

हनुमानजी िंका पहंचे


_

नाना तरु फल फूल सु हाए।

खि मृि बृंद दे न्हख मन भाए॥

सैल नबसाल दे न्हख एक आिें।

ता पि धाइ चढे उ भय त्यािें॥


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अनेक प्रकाि के वृक्ष फल औि फूलोसे शोभायमान हो िहे है । पक्षी औि नहिणोंका झंु ड

दे खकि मन मोनहत हुआ जाता है ॥

वहा सामने हनुमान एक बड़ा नवशाल पवयत दे खकि ननभयय होकि उस पहाड़पि कूदकि चढ

बैठे॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

उमा न कछु कनप कै अनधकाई।

प्रभु प्रताप जो कालनह खाई॥

निरि पि चनढ लंका तेनहं दे खी।

कनह न जाइ अनत दु िय नबसेषी॥

महदे व जी कहते है नक हे पावयती! इसमें हनुमान की कुछ भी अनधकता नहीं है | यह तो

केवल एक िामचन्द्रजीके ही प्रताप का प्रभाव है नक जो कालकोभी खा जाता है ॥

पवयत पि चढकि हनुमानजी ने लंका को दे खा, तो वह ऐसी बड़ी दु ियम है की नजसके नवषय में

कुछ कहा नहीं जा सकता॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अनत उतंि जलनननध चहु पासा।

कनक कोट कि पिम प्रकासा॥

पहले तो वह पुिी बहुत ऊुँची, नफि उसके चािो ओि समुद्र की खाई|

उसपि भी सुवणयके कोटका महाप्रकाश नक नजससे नेत्र चकाच ध


ं हो जावे॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िंका का र्र्वन
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छं द – Sunderkand Lyrics

कनक कोनट नबनचत्र मनन कृत सुंदिायतना घना।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुि बहु नबनध बना॥

िज बानज खच्चि ननकि पदचि िथ बरथन्हि को िनै।

बहुरप नननसचि जूथ अनतबल सेन बिनत ननहं बनै॥

उस नििीका ित्ों से जड़ा हुआ सुवणय का कोट अनतव सुन्दि बना हुआ है | च हटे , दु काने व

सुन्दि िनलयों के बहाि उस सुन्दि नििी के अन्दि बनी है ॥

जहा हाथी, घोड़े , खच्चि, पैदल व िथोकी निनती कोई नहीं कि सकता| औि जहा महाबली

अद् भुत रपवाले िाक्षसोके सेनाके झुंड इतने है की नजसका वणयन नकया नहीं जा सकता॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बन बाि उपबन बानटका सि कूप बापीं सोहहीं।

नि नाि सुि िंधबय कन्या रप मुनन मन मोहहीं॥

कहुुँ माल दे ह नबसाल सै ल समान अनतबल िजयहीं।

नाना अखािे ि नभिनहं बहुनबनध एक एकि तजयहीं॥

जहा वन, बाग़, बािीचे, बावनडया, तालाब, कुएुँ , बावनलया शोभायमान हो िही है | जहा मनुष्यकन्या

नािकन्या दे वकन्या औि िन्धवयकन्याये नविाजमान हो िही है नक नजनका रप दे खकि

मुननलोिोका मन मोनहत हुआ जाता है ॥

कही पवयत के समान बड़े नवशाल दे हवाले महाबनलष्ट मल्ल िजयना किते है औि अनेक अखाड़ों

में अनेक प्रकािसे नभड िहे है औि एक एकको आपस में पटक पटक कि िजयना कि िहे

है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

करि जतन भट कोनटि नबकट तन निि चहुुँ नदनस िच्छहीं।

कहुुँ मनहष मानुष धेनु खि अज खल ननसाचि भच्छहीं॥

एनह लानि तु लसीदास इि की कथा कछु एक है कही।

िघुबीि सि तीिथ सिीिन्हि त्यानि िनत पैहनहं सही॥


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जहा कही हाथीनकेसे मदोमि औि नवकट शिीि वाले किोडो भट चािो तिफसे नििकी िक्षा

किते है औि कही वे िाक्षस लोि भैंसे, मनुष्य, ि , िधे, बकिे औि पक्षीयोंको खा िहे है ॥

िाक्षस लोिो का आचिण बहुत बुिा है | इसीनलए तुलसीदासजी कहते है नक मैंने इनकी कथा

बहुत संक्षेपसे कही है | चाहो ये महादु ष्ट है , पिन्तु िामचन्द्रजीके बानरप पनवत्र तीथयनदीके अन्दि

अपना शािीि त्यािकि िनत अथाय त मोक्षको प्राप्त होंिे इसमें कुछभी फकय नहीं है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

पुि िखवािे दे न्हख बहु कनप मन कीि नबचाि।

अनत लघु रप धिों नननस निि कि ं पइसाि ॥3॥

हनुमानजी ने बहुत से िखवालो को दे खकि मन में नवचाि नकया की मै छोटा रप धािण

किके निि में प्रवेश कर


ुँ ॥3॥
सुंदिकाण्ड – 04 (लंनकनी से भेंट)

हनुमानजी की िंलकनी से भेंट


_

च पाई – सुंदिकाण्ड

मसक समान रप कनप धिी।

लंकनह चलेउ सुनमरि निहिी॥

नाम लंनकनी एक नननसचिी।

सो कह चलेनस मोनह ननं दिी॥

हनुमानजी मच्छि के समान, छोटा-सा रप धािण कि, प्रभु श्री िामचन्द्रजी के नाम का सुनमिन

किते हुए लंका में प्रवेश किते है ॥

लंका के द्वाि पि हनुमानजी की भेंट लंनकनी नाम की एक िाक्षसी से होती है ॥ वह पूछती है

नक मेिा ननिादि किके कहा जा िहे हो?


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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जानेनह नहीं मिमु सठ मोिा।

मोि अहाि जहाुँ लनि चोिा॥

मुनठका एक महा कनप हनी।

रुनधि बमत धिनीं ढनमनी॥

तूने मेिा भेद नहीं जाना? जहाुँ तक चोि हैं , वे सब मेिे आहाि हैं ।

महाकनप हनुमानजी उसे एक घूुँसा मािते है , नजससे वह पृथ्वी पि लुढक पड़ती है ।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पुनन संभारि उठी सो लंका।

जोरि पानन कि नबनय ससंका॥

जब िावननह ब्रह्म बि दीिा।

चलत नबिं च कहा मोनह चीिा॥

वह िाक्षसी लंनकनी अपने को सुँभालकि नफि उठती है | औि डि के मािे हाथ जोड़कि

हनुमानजी से कहती है ॥

जब ब्रह्मा ने िावण को वि नदया था, तब चलते समय उिोंने िाक्षसों के नवनाश की यह

पहचान मुझे बता दी थी नक॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नबकल होनस तैं कनप कें मािे ।

तब जानेसु नननसचि संघािे ॥

तात मोि अनत पुन्य बहता।

दे खेउुँ नयन िाम कि दू ता॥

जब तू बंदि के मािने से व्याकुल हो जाए, तब तू िाक्षसों का संहाि हुआ जान लेना।

हे तात! मेिे बड़े पुण्य हैं , जो मैं श्री िामजी के दू त को अपनी आुँ खों से दे ख पाई।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

तात स्विय अपबिय सुख धरिअ तुला एक अं ि।

तूल न तानह सकल नमनल जो सुख लव सतसंि ॥4॥

हे तात! स्विय औि मोक्ष के सब सुखों को तिाजू के एक पलड़े में िखा जाए, तो भी वे सब

नमलकि उस सुख के बिाबि नहीं हो सकते , जो क्षण मात्र के सत्संि से होता है ॥4॥
सुंदिकाण्ड – 05 (लंका में प्रवेश)

हनुमानजी का िंका में प्रर्ेश


च पाई – सुंदिकाण्ड

प्रनबनस निि कीजे सब काजा।

हृदयुँ िान्हख कोसलपुि िाजा॥

ििल सुधा रिपु किनहं नमताई।

िोपद नसंधु अनल नसतलाई॥

अयोध्यापुिी के िाजा िघुनाथ को हृदय में िखे हुए निि में प्रवेश किके सब काम कीनजए।

उसके नलए नवष अमृत हो जाता है , शत्रु नमत्रता किने लिते हैं , समुद्र िाय के खुि के बिाबि

हो जाता है , अनि में शीतलता आ जाती है ।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िरुड़ सुमेरु िे नु सम ताही।

िाम कृपा करि नचतवा जाही॥

अनत लघु रप धिे उ हनु माना।

पैठा निि सुनमरि भिवाना॥

औि हे िरुड़! सुमेरु पवयत उसके नलए िज के समान हो जाता है , नजसे िाम ने एक बाि

कृपा किके दे ख नलया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रप धािण नकया औि भिवान का

स्मिण किके निि में प्रवेश नकया।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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हनुमानजी की िंका में सीताजी की खोज

मंनदि मंनदि प्रनत करि सोधा।

दे खे जहुँ तहुँ अिननत जोधा॥

ियउ दसानन मंनदि माहीं।

अनत नबनचत्र कनह जात सो नाहीं॥

उिोंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाुँ -तहाुँ असंख्य योद्धा दे खे। नफि वे िावण

के महल में िए। वह अत्यंत नवनचत्र था, नजसका वणयन नहीं हो सकता।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सयन नकएुँ दे खा कनप ते ही।

मंनदि महुुँ न दीन्हख बैदेही॥

भवन एक पुनन दीख सुहावा।

हरि मंनदि तहुँ नभन्न बनावा॥

हनुमानजी ने महल में िावण को सोया हुआ दे खा| वहा भी हनुमानजी ने सीताजी की खोज

की, पिन्तु सीताजी उस महल में कही भी नदखाई नहीं दीं। नफि उिें एक सुंदि भवन नदखाई

नदया। उस महल में भिवान का एक मंनदि बना हुआ था।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िामायुध अंनकत िृह सोभा बिनन न जाइ।

नव तुलनसका बृंद तहुँ दे न्हख हिष कनपिाई ॥5॥

वह महल िाम के आयुध (धनुष-बाण) के नचह्ों से अंनकत था, उसकी शोभा वणयन नहीं की

जा सकती। वहाुँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को दे खकि कनपिाज हनुमान हनषयत हुए॥

5॥
सुंदिकाण्ड – 06 (Sunderkand Path)

हनुमानजी की लर्भीषर् से भेंट


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च पाई – सुंदिकाण्ड

लंका नननसचि ननकि ननवासा।

इहाुँ कहाुँ सज्जन कि बासा॥

मन महुुँ तिक किैं कनप लािा।

तेहीं समय नबभीषनु जािा॥

औि उिीने सोचा की यह लंका नििी तो िाक्षसोंके कुलकी ननवासभूमी है । यहाुँ सत्पुरुषो के

िहने का क्ा काम॥

इस तिह हनुमानजी मन ही मन में नवचाि किने लिे। इतने में नवभीषण की आुँ ख खुली॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम िाम तेनहं सुनमिन कीिा।

हृदयुँ हिष कनप सज्जन चीिा॥

एनह सन सनठ करिहउुँ पनहचानी।

साधु ते होइ न कािज हानी॥

औि जािते ही उिोंने ‘िाम! िाम!’ ऐसा स्मिण नकया, तो हनुमानजीने जाना की यह कोई

सत्पुरुष है । इस बात से हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ॥ हनुमानजीने नवचाि नकया नक इनसे

जरि पहचान किनी चनहये , क्ोंनक सत्पुरुषोके हाथ कभी काययकी हानन नहीं होती॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नबप्र रप धरि बचन सुनाए।

सुनत नबभीषन उनठ तहुँ आए॥

करि प्रनाम पूुँछी कुसलाई।

नबप्र कहहु ननज कथा बुझाई॥

नफि हनुमानजीने ब्राम्हणका रप धिकि वचन सुनाया तो वह वचन सुनतेही नवभीषण उठकि

उनके पास आया॥ औि प्रणाम किके कुशल पूुँ छा, की हे नवप्र (ब्राह्मणदे व)! जो आपकी बात

हो सो हमें समझाकि कहो॥


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

की तुम्ह हरि दासि महुँ कोई।

मोिें हृदय प्रीनत अनत होई॥

की तुम्ह िामु दीन अनुिािी।

आयहु मोनह किन बड़भािी॥

नवभीषणने कहा नक शायद आप कोई भिवन्तोमेंसे तो नहीं हो! क्ोंनक मेिे मनमें आपकी

ओि बहुत प्रीती बढती जाती है ॥

अथवा मुझको बडभािी किने के वास्ते भक्तोपि अनुिाि िखनेवाले आप साक्षात नदनबन्धु ही

तो नहीं पधाि िए हो॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

तब हनुमंत कही सब िाम कथा ननज नाम।

सुनत जुिल तन पुलक मन मिन सुनमरि िुन ग्राम ॥6॥

नवनभषणके ये वचन सुनकि हनुमानजीने िामचन्द्रजीकी सब कथा नवभीषणसे कही औि अपना

नाम बताया।

पिस्पिकी बाते सुनतेही दोनोंके शिीि िोमां नचत हो िए औि श्री िामचन्द्रजीका स्मिण आ

जानेसे दोनों आनंदमि हो िए ॥6॥


सुंदिकाण्ड – 07 (श्रीिाम की मनहमा)

हनुमानजी और लर्भीषर् का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनहु पवनसुत िहनन हमािी।

नजनम दसनन्हि महुुँ जीभ नबचािी॥


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तात कबहुुँ मोनह जानन अनाथा।

करिहनहं कृपा भानुकुल नाथा॥

नवभीषण कहते है की हे हनुमानजी! हमािी िहनी हम कहते है सो सुनो। जैसे दां तों के

नबचमें नबचािी जीभ िहती है , ऐसे हम इन िाक्षसोंके नबचमें िहते है ॥

हे प्यािे ! वे सूययकुल के नाथ (िघुनाथ) मुझको अनाथ जानकि कभी कृपा किें िे? ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तामस तनु कछु साधन नाहीं।

प्रीत न पद सिोज मन माहीं॥

अब मोनह भा भिोस हनुमंता।

नबनु हरिकृपा नमलनहं ननहं संता॥

नजससे प्रभु कृपा किे ऐसा साधन तो मेिे है नहीं। क्ोंनक मेिा शिीि तो तमोिुणी िाक्षस है ,

औि न कोई प्रभुके चिणकमलों में मेिे मनकी प्रीनत है ॥

पिन्तु हे हनुमानजी, अब मुझको इस बातका पक्का भिोसा हो िया है नक भिवान मुझपि

अवश्य कृपा किें िे। क्ोंनक भिवानकी कृपा नबना सत्पुरुषोंका नमलाप नहीं होता॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ज ं िघुबीि अनुग्रह कीिा।

त तुम्ह मोनह दिसु हनठ दीिा॥

सुनहु नबभीषन प्रभु कै िीती।

किनहं सदा सेवक पि प्रीनत॥

िामचन्द्रजी ने मुझपि कृपा की है । इसीसे आपने आकि मुझको दशयन नदए है ॥

नवभीषणके यह वचन सुनकि हनुमानजीने कहा नक हे नवभीषण! सुनो, प्रभुकी यह िीतीही है

की वे सेवकपि सदा पिमप्रीनत नकया किते है ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कहहु कवन मैं पिम कुलीना।

कनप चंचल सबहीं नबनध हीना॥


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प्रात लेइ जो नाम हमािा।

तेनह नदन तानह न नमलै अहािा॥

हनुमानजी कहते है की कहो मै क नसा कुलीन पुरुष हुँ । हमािी जानत दे खो (चंचल वानि

की), जो महाचंचल औि सब प्रकािसे हीन निनी जाती है ॥ जो कोई पुरुष प्रातुःकाल हमािा

(बंदिों का) नाम ले लेवे तो उसे उसनदन खानेको भोजन नहीं नमलता॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

अस मैं अधम सखा सुनु मोह पि िघुबीि।

कीिीं कृपा सुनमरि िुन भिे नबलोचन नीि ॥7॥

हे सखा, सुनो मै ऐसा अधम नीच हुँ । नतस पि भी िघुवीिने कृपा कि दी, तो आप तो सब

प्रकािसे उिम हो॥

आप पि कृपा किे इस में क्ा बड़ी बात है । ऐसे प्रभु श्री िामचन्द्रजी के िुणोंका स्मिण

किनेसे दोनों के नेत्रोमें आं सू भि आये॥


सुंदिकाण्ड – 09 (Sundarkand Hindi)

अशोक र्ालटका में रार्र् और सीताजी का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

तरु पल्लव महुँ िहा लुकाई।

किइ नबचाि कि ं का भाई॥

तेनह अवसि िावनु तहुँ आवा।

संि नारि बहु नकएुँ बनावा॥

हनुमानजी वृक्षों के पिो की ओटमें नछपे हुए मनमें नवचाि किने लिे नक हे भाई अब मै क्ा

कर? ।।
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उस अवसिमें बहुतसी न्हियोंको संि नलए िावण वहा आया। जो न्हिया िावणके संि थी, वे

बहुत प्रकाि के िहनों से बनी ठनी थी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बहु नबनध खल सीतनह समुझावा।

साम दान भय भेद दे खावा॥

कह िावनु सुनु सुमुन्हख सयानी।

मंदोदिी आनद सब िानी॥

उस दु ष्टने सीताजी को अनेक प्रकाि से समझाया। साम, दाम, भय औि भेद अनेक प्रकािसे

नदखाया।।

िावणने सीतासे कहा नक हे सुमुखी! जो तू एकबाि भी मेिी तिफ दे ख ले तो हे सयानी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तव अनुचिी ं किउुँ पन मोिा।

एक बाि नबलोकु मम ओिा॥

तृन धरि ओट कहनत बैदेही।

सुनमरि अवधपनत पिम सनेही॥

जो ये मेिी मंदोदिी आदी िाननयाुँ है इन सबको तेिी दानसयाुँ बनादू ं यह मेिा प्रण जान।।

िावण का वचन सुन बीचमें तृण िखकि (नतनके का आड़ – पिदा िखकि), पिम प्यािे

िामचन्द्रजीका स्मिण किके सीताजीने िावण से कहा।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।

कबहुुँ नक ननलनी किइ नबकासा॥

अस मन समुझु कहनत जानकी।

खल सुनध ननहं िघुबीि बान की॥

की हे िावण! सुन, खद्योत अथाय त जुिनू के प्रकाश से कमनलनी कदापी प्रफुन्हल्लत नहीं होती।

नकंतु कमनलनी सूययके प्रकाशसेही प्रफुन्हल्लत होती है । अथाय त तू खद्योतके (जुिनूके) समान है
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औि िामचन्द्रजी सूययके सामान है ।।

सीताजीने अपने मन में ऐसे समझकि िावणसे कहा नक िे दु ष्ट! िामचन्द्रजीके बाणको अभी

भूल िया क्ा? वह िामचन्द्रजी का बाण याद नहीं है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सठ सूनें हरि आनेनह मोही।

अधम ननलज्ज लाज ननहं तोही॥

अिे ननलयज्ज! अिे अधम! िामचन्द्रजी के सूने तू मुझको ले आया। तुझे शमय नहीं आती।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

आपुनह सुनन खद्योत सम िामनह भानु समान।

परुष बचन सुनन कानढ अनस बोला अनत न्हखनसआन ॥9॥

सीता के मुख से कठोि वचन अथाय त अपनेको खद्योतके (जुिनूके) तु ल्य औि िामचन्द्रजीको

सुययके समान सुनकि िावण को बड़ा क्रोध हुआ। नजससे उसने तलवाि ननकाल कि ये वचन

कहे ॥9॥
सुंदिकाण्ड – 10 (Ashokvaatika)

रार्र् और सीताजी का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

सीता तैं मम कृत अपमाना।

कनटहउुँ तव नसि कनठन कृपाना॥

नानहं त सपनद मानु मम बानी।

सुमुन्हख होनत न त जीवन हानी॥


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हे सीता! तूने मेिा मान भंि कि नदया है । इस वास्ते इस कठोि खडि (कृपान) से मैं तेिा

नसि उड़ा दू ं िा।।

हे सुमुखी, या तो तू जल्दी मेिा कहना मान ले, नहीं तो तेिा जी जाता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

स्याम सिोज दाम सम सुंदि।

प्रभु भुज करि कि सम दसकंधि॥

सो भुज कंठ नक तव अनस घोिा।

सुनु सठ अस प्रवान पन मोिा॥

िावण के ये वचन सुनकि सीताजी ने कहा हे शठ िावण, सुन मेिा भी तो ऐसा पक्का प्रण है

की या तो इस कंठपि श्याम कमलोकी मालाके समान सुन्दि औि हानथओ के सुन्ड के समान

सुढाि िामचन्द्रजी की भुजा िहे िी या तेिा यह महाघोि खडं ि िहे िा। अथाय त िामचन्द्रजी के

नबना मुझे मिना मंजूि है पि अन्यका स्पशय नहीं कर


ं िी।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

चंद्रहास हरु मम परितापं ।

िघुपनत नबिह अनल संजातं॥

सीतल नननसत बहनस बि धािा।

कह सीता हरु मम दु ख भािा॥

सीता उस तलवाि से प्राथयना किती है नक हे तलवाि! तू मेिा नशि उडाकि मेिे संताप को

दू ि कि क्ोंनक मै िामचन्द्रजीकी नविहरप अनिसे संतप्त हो िही हुँ ।।

सीताजी कहती है , हे अनसवि! तेिी धािरप शीतल िानत्रसे मेिे भािी दु ख़को दू ि कि।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनत बचन पुनन मािन धावा।

मयतनयाुँ कनह नीनत बुझावा॥

कहे नस सकल नननसचरिि बोलाई।

सीतनह बहु नबनध त्रासहु जाई॥


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सीताजीके ये वचन सुनकि, िावण नफि सीताजी को मािने को द ड़ा। तब मय दै त्यकी कन्या

मंदोदिी ने नननतके वचन कह कि उसको समझाया।।

नफि िावणने सीताजीकी िखवािी सब िाक्षनसयोंको बुलाकि कहा नक तुम जाकि सीता को

अनेक प्रकाि से त्रास नदखाओ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मास नदवस महुुँ कहा न माना।

त मैं मािनब कानढ कृपाना॥

यनद वह एक महीने के भीति मेिा कहना नहीं मानेिी तो मैं तलवाि ननकाल कि उसे माि

डालूुँिा।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

भवन ियउ दसकंधि इहाुँ नपसानचनन बृंद।

सीतनह त्रास दे खावनहं धिनहं रप बहु मंद ॥10॥

उधि तो िावण अपने भवनके भीति िया। इधि वे नीच िाक्षनसयोंके झंुडके झंु ड अनेक

प्रकािके रप धािण कि के सीताजी को भय नदखने लिे।।


सुंदिकाण्ड – 11 (नत्रजटा का सपना)

लिजटा का स्वप्न

च पाई – सुंदिकाण्ड

नत्रजटा नाम िाच्छसी एका।

िाम चिन िनत ननपुन नबबेका॥

सबि बोनल सुनाएनस सपना।

सीतनह सेइ किहु नहत अपना॥


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उनमें एक नत्रजटा नाम की िाक्षसी थी। वह िामचन्द्रजीके चिनोकी पिमभक्त औि बड़ी ननपुण

औि नववेकवती थी।।

उसने सब िाक्षनसयों को अपने पास बुलाकि जो उसको सपना आया था वहा सबको सुनाया

औि उनसे कहा की हम सबको सीताजी की सेवा किके अपना नहत किलेना चानहए।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सपनें बानि लंका जािी।

जातुधान सेना सब मािी॥

खि आरढ निन दससीसा।

मुंनडत नसि खंनडत भुज बीसा॥

क्ोनक मैंने सपने में ऐसा दे खा है नक एक वानिने लंकापुिीको जलाकि िाक्षसों की सािी

सेनाको माि डाला।।

औि िावण िधेपि सवाि होकि दनक्षण नदशामें जाता हुआ मैंने सपने में दे खा है । वह भी

कैसा की निशिीि, नसि मुंडा हुआ औि बीस भुजायें टू टी हुई।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

एनह नबनध सो दन्हच्छन नदनस जाई।

लंका मनहुुँ नबभीषन पाई॥

निि नफिी िघुबीि दोहाई।

तब प्रभु सीता बोनल पठाई॥

औि मैंने यह भी दे खा है नक मानो लंकाका िाज नवनभषणको नमल िया है ।।

औि निरिके अन्दि िामचन्द्रजी की दु हाई नफि ियी है । तब िामचन्द्रजीने सीताको बुलाने के

नलए बुलावा भेजा है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

यह सपना मैं कहउुँ पुकािी।

होइनह सत्य िएुँ नदन चािी॥


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तासु बचन सुनन ते सब डिीं।

जनकसुता के चिनन्हि पिीं॥

नत्रजटा कहती है की मै आपसे यह बात खूब सोच कि कहती हुँ की यह स्वप्न चाि नदन

नबतने के बाद सत्य हो जाएिा।।

नत्रजटाके ये वचन सुनकि सब िाक्षनसया डि िई। सो डिके मािे सब िाक्षनसया सीताजीके

चिणों में निि पड़ी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

जहुँ तहुँ िईं सकल तब सीता कि मन सोच।

मास नदवस बीतें मोनह मारिनह नननसचि पोच ॥11॥

नफि सब िाक्षनसयां नमलकि जहां तहां चली ियी। तब सीताजी अपने मनमें सोच किने लिी

की एक मनहना नबतने के बाद यह नीच िाक्षस (िावण) मुझे माि डालेिा ॥11॥
सुंदिकाण्ड – 12 (Sundarkand Hindi Lyrics)

सीताजी और लिजटा का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

नत्रजटा सन बोलीं कि जोिी।

मातु नबपनत संनिनन तैं मोिी॥

तज ं दे ह करु बेनि उपाई।

दु सह नबिहु अब ननहं सनह जाई॥

नफि नत्रजटाके पास हाथ जोड़कि सीताजी ने कहा की हे माता! तू मेिी सच्ची नवपनिकी

सानथन है ।।

सीताजी कहती है की जल्दी उपाय कि नहीं तो मै अपना दे ह तजती हुँ । क्ोंनक अब मुझसे

अनत दु खद नविहका दु ुःख सहा नहीं जाता।।


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

आनन काठ िचु नचता बनाई।

मातु अनल पुनन दे नह लिाई॥

सत्य किनह मम प्रीनत सयानी।

सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥

हे माता! अब तू जल्दी काठ ला औि नचता बना कि मुझको जलानेके वास्ते जल्दी उसमे

आि लिा दे ।।

हे सयानी! तू मेिी प्रीनत सत्य कि। सीताजीके ऐसे शूलके सामान महाभयानाक वचन सुनकि।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

लिजटा ने सीताजी को सान्तर्ना दी


सुनत बचन पद िनह समुझाएनस।

प्रभु प्रताप बल सुजसु सु नाएनस॥

नननस न अनल नमल सुनु सुकुमािी।

अस कनह सो ननज भवन नसधािी॥

नत्रजटा ने तुिंत सीताजी के चिणकमल िहे औि नसताजीको समझाया औि प्रभु िामचन्द्रजी का

प्रताप, बल औि उनका सुयश सुनाया।।

औि नसताजीसे कहा की हे िाजपुत्री! अभी िात्री है , इसनलए अभी अनि नहीं नमल सकती। ऐसा

कहा कि वहा अपने घिको चली ियी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह सीता नबनध भा प्रनतकूला।

नमनलनह न पावक नमनटनह न सूला॥

दे न्हखअत प्रिट ििन अं िािा।

अवनन न आवत एकउ तािा॥


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तब अकेली बैठी बैठी सीताजी कहने लिी की क्ा कर दै वही प्रनतकूल हो िया। अब न तो

अनि नमले औि न मेिा दु ुःख कोई तिहसे नमटसके।।

ऐसे कह तािोको दे ख कि सीताजी कहती है की ये आकाशके भीति तो बहुतसे अंिािे प्रकट

दीखते है पिं तु पृथ्वीपि पि इनमेसे एकभी तािा नहीं आता।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पावकमय सनस स्रवत न आिी।

मानहुुँ मोनह जानन हतभािी॥

सुननह नबनय मम नबटप असोका।

सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

सीताजी चन्द्रमा को दे खकि कहती है नक यह चन्द्रमा का स्वरुप साक्षात अनिमय नदख पड़ता

है पि यहभी मानो मुझको मंदभानिन जानकाि आिको नहीं बिसाता।।

अशोकके वृक्ष को दे खकि उससे प्राथयना किती है नक हे अशोक वृक्ष! मेिी नवनती सुनकि तू

अपना नाम सत्य कि। अथाय त मुझे अशोक अथाय त शोकिनहत कि। मेिे शोकको दू ि कि।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नूतन नकसलय अनल समाना।

दे नह अनिनन जनन किनह ननदाना॥

दे न्हख पिम नबिहाकुल सीता।

सो छन कनपनह कलप सम बीता॥

हे अनिके समान िक्तवणय ननवन कोंपलें (नए कोमल पिे )! तु म मुझको अनि दे कि मुझको

शां त किो।।

इस प्रकाि सीताजीको नविह से अत्यन्त व्याकुल दे खकि हनुमानजीका वह एक क्षण कल्पके

समान बीतता िया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

कनप करि हृदयुँ नबचाि दीन्हि मुनद्रका डारि तब।

जनु असोक अंिाि दीि हिनष उनठ कि िहे उ ॥12॥

उस समय हनुमानजीने अपने मनमे नवचाि किके अपने हाथमेंसे मुनद्रका (अुँिूठी) डाल दी।

सो सीताजी को वह मुनद्रका उससमय कैसी नदख पड़ी की मानो अशोकके अंिािने प्रिट हो

कि हमको आनंद नदया है (मानो अशोक ने अंिािा दे नदया।)। सो नसताजीने तुिंत उठकि

वह मुनद्रका अपने हाथमें ले ली ॥12॥


सुंदिकाण्ड – 13 (Sunderkand Katha – 13)

हनुमान सीताजी से लमिे


च पाई – सुंदिकाण्ड

तब दे खी मुनद्रका मनोहि।

िाम नाम अंनकत अनत सुंदि॥

चनकत नचतव मुदिी पनहचानी।

हिष नबषाद हृदयुँ अकुलानी॥

नफि सीताजीने उस मुनद्रकाको दे खा तो वह सुन्दि मुनद्रका िामचन्द्रजीके मनोहि नामसे अंनकत

हो िही थी अथाय त उसपि श्री िाम का नाम खुदा हुआ था।।

उस मुनद्रकाको दे खतेही सीताजी चनकत होकि दे खने लिी। आन्हखि उस मुनद्रकाको पहचान कि

हृदय में अत्यंत हषय औि नवषादको प्राप्त हुई औि बहुत अकुलाई।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जीनत को सकइ अजय िघुिाई।

माया तें अनस िनच ननहं जाई॥

सीता मन नबचाि कि नाना।

मधुि बचन बोलेउ हनुमाना॥


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यह क्ा हुआ? यह िामचन्द्रजीकी नामां नकत मुनद्रका यहाुँ कैसे आयी? या तो उिें नजतनेसे यह

मुनद्रका यहाुँ आ सकती है , नकंतु उन अजेय िामचन्द्रजीको जीतसके ऐसा तो जितमे क न है ?

अथाय त उनको जीतनेवाला जितमे है ही नहीं। औि जो कहे की यह िाक्षसोने मायासे बनाई है

सो यहभी नहीं हो सकता। क्ोंनक मायासे ऐसी बन नहीं सकती।।

इस प्रकाि सीताजी अपने मनमे अनेक प्रकाि से नवचाि कि िही थी। इतनेमें ऊपिसे

हनुमानजी ने मधुि वचन कहे ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िामचंद्र िुन बिनैं लािा।

सुनतनहं सीता कि दु ख भािा॥

लािीं सुनैं श्रवन मन लाई।

आनदहु तें सब कथा सुनाई॥

हनुमानजी िामचन्द्रजीके िुनोका वणयन किने लिे। उनको सुनतेही सीताजीका सब दु ुःख दू ि हो

िया।।

औि वह मन औि कान लिा कि सुनने लिी। हनुमानजीनेभी आिं भसे लेकि सब कथा

सीताजी सुनायी।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

श्रवनामृत जेनहं कथा सुहाई।

कही सो प्रिट होनत नकन भाई॥

तब हनुमंत ननकट चनल ियऊ।

नफरि बैठी ं मन नबसमय भयऊ॥

हनुमानजीके मुखसे िामचन्द्रजीका चरितामृत सुनकि सीताजीने कहा नक नजसने मुझको यह

कानोंको अमृतसी मधुि लिनेवाली कथा सुनाई है वह मेिे सामने आकि प्रकट क्ों नहीं होता?

सीताजीके ये वचन सुनकि हनुमानजी चलकि उनके समीप िए तो हनुमानजी का वानि रप


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दे खकि सीताजीके मनमे बड़ा नवस्मय हुआ की यह क्ा! सो कपट समझकि हनुमानजी को

पीठ दे कि बैठ ियी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम दू त मैं मातु जानकी।

सत्य सपथ करुनाननधान की॥

यह मुनद्रका मातु मैं आनी।

दीन्हि िाम तुम्ह कहुँ सनहदानी॥

तब हनुमानजीने सीताजीसे कहा की हे माता! मै िामचन्द्रजीका दू त हं । मै िामचन्द्रजीकी शपथ

खाकि कहता हुँ की इसमें फकय नहीं है ।।

औि िामचन्द्रजीने आपके नलए जो ननशानी दी थी, वह यह मुनद्रका (अुँिूठी) मैंने लाकि

आपको दी है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नि बानिनह संि कहु कैसें।

कही कथा भइ संिनत जैसें॥

तब नसताजी ने कहा की हे हनुमान! नि औि वानिोंके बीच आपसमें प्रीनत कैसे हुई वह मुझे

कह। तब उनके पिस्पमे जैसे प्रीनत हुई थी वे सब समाचाि हनुमानजी ने नसताजीसे कहे ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

कनप के बचन सप्रेम सुनन उपजा मन नबस्वास

जाना मन क्रम बचन यह कृपानसंधु कि दास ॥13॥

हनुमानजीके प्रेमसनहत वचन सुनकि सीताजीके मनमे पक्का भिोसा आ िया औि उिोंने जान

नलया की यह मन, वचन औि कायासे कृपानसंधु श्रीिामजी के दास है ।।


सुंदिकाण्ड – 14 (Sundarkand Lyrics – 14)

हनुमान ने सीताजी को आश्वासन लदया



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च पाई – सुंदिकाण्ड

हरिजन जानन प्रीनत अनत िाढी।

सजल नयन पुलकावनल बाढी॥

बूड़त नबिह जलनध हनु माना।

भयहु तात मो कहुुँ जलजाना॥

हनुमानजी को हरिभक्त जानकाि सीताजीके मन में अत्यंत प्रीनत बड़ी, शिीि अत्यंत पुलनकत हो

िया औि नेत्रोमे जल भि आया।।

सीताजीने हनुमान से कहा की हे हनुमान! मै नविहरप समुद्रमें डूब िही थी, सो हे तात!

मुझको नतिानेके के नलए तुम न का हुए हो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अब कहु कुसल जाउुँ बनलहािी।

अनुज सनहत सुख भवन खिािी॥

कोमलनचत कृपाल िघुिाई।

कनप केनह हे तु धिी ननठु िाई॥

अब तुम मुझको बताओ नक सुखधाम श्रीिाम लक्ष्मणसनहत कुशल तो है ।।

हे हनुमान! िामचन्द्रजी तो बड़े दयालु औि बड़े कोमलनचि है । नफि यह कठोिता आपने क्ों

धािण नक है ? ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सहज बानन सेवक सुखदायक।

कबहुुँ क सुिनत कित िघु नायक॥

कबहुुँ नयन मम सीतल ताता।

होइहनहं ननिन्हख स्याम मृदु िाता॥

यह तो उनका सहज स्वभावही है नक जो उनकी सेवा किता है उनको वे सदा सुख दे ते िहते

है ।। सो हे हनु मान! वे िामचन्द्रजी कभी मुझको भी याद किते है ? ।।

कभी मेिे भी नेत्र िामचन्द्रजीके कोमल श्याम शरििको दे खकि शीतल होंिे।।
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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बचनु न आव नयन भिे बािी।

अहह नाथ ह ं ननपट नबसािी॥

दे न्हख पिम नबिहाकुल सीता।

बोला कनप मृदु बचन नबनीता॥

सीताजीकी उस समय यह दशा हो ियी नक मुखसे वचन ननकलना बंद हो िया औि नेत्रोमें

जल भि आया। इस दशा में सीताजीने प्राथयना की नक हे नाथ! मुझको आप नबल्कुलही भू ल

िए।।

सीताजीको नविह्से अत्यंत व्याकुल दे खकि हनुमानजी बड़े नवनयके साथ कोमल वचन बोले।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।

तव दु ख दु खी सुकृपा ननकेता॥

जनन जननी मानह नजयुँ ऊना।

तुम्ह ते प्रेमु िाम कें दू ना॥

हे माता! लक्ष्मणसनहत िामचन्द्रजी सब प्रकाि से प्रसन्न है , केवल एक आपके दु ुःख से तो वे

कृपाननधान अवश्य दु खी है । बाकी उनको कुछ भी दु ुःख नहीं है ।।

हे माता! आप अपने मनको उन मत मानो (अथाय त िं ज मत किो, मन छोटा किके दु ुःख मत

कीनजए), क्ोंनक िामचन्द्रजीका प्याि आपकी औि आपसे भी दु िुना है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िघुपनत कि संदेसु अब सुनु जननी धरि धीि।

अस कनह कनप िदिद भयउ भिे नबलोचन नीि ॥14॥

हे माता! अब मै आपको जो िामचन्द्रजीका संदेशा सुनाता हं सो आप धीिज धािण किके

उसे सुनो ऐसे कह्तेही हनुमानजी प्रेम से िदिद हो िए औि नेत्रोमे जल भि आया ॥14॥
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सुंदिकाण्ड – 15

हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्दे श लदया


च पाई – सुंदिकाण्ड

कहे उ िाम नबयोि तव सीता।

मो कहुुँ सकल भए नबपिीता॥

नव तरु नकसलय मनहुुँ कृसानू।

कालननसा सम नननस सनस भानू॥

हनुमानजी ने सीताजी से कहा नक हे माता! िामचन्द्रजी ने जो सन्दे श भेजा है वह सुनो।

िामचन्द्रजी ने कहा है नक तुम्हािे नवयोिमें मेिे नलए सभी बाते नवपिीत हो ियी है ।।

ननवन कोपलें तो मानो अनिरप हो िए है । िानत्र मानो कालिानत्र बन ियी है । चन्द्रमा सूिजके

समान नदख पड़ता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कुबलय नबनपन कुंत बन सरिसा।

बारिद तपत ते ल जनु बरिसा॥

जे नहत िहे कित तेइ पीिा।

उिि स्वास सम नत्रनबध समीिा॥

कमालोका वन मानो भालोके समूहके समान हो िया है । मेघकी वृनष्ट मानो तापेहुए तेलके

समान लिती है ।।

मै नजस वृक्षके तले बैठता हं , वही वृक्ष मुझको पीड़ा दे ता है औि शीतल, सुिंध, मंद पवन

मुझको साुँ पके श्वासके समान प्रतीत होता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कहे ह तें कछु दु ख घनट होई।

कानह कह ं यह जान न कोई॥


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तत्व प्रेम कि मम अरु तोिा।

जानत नप्रया एकु मनु मोिा॥

औि अनधक क्ा कहं ? क्ोंनक कहनेसे कोई दु ुःख घट थोडाही जाता है ? पिन्तु यह बात

नकसको कहं ! कोई नहीं जानता।।

मेिे औि आपके प्रेमके तत्वको क न जानता है ! कोई नहीं जानता। केवल एक मेिा मन तो

उसको भलेही पहचानता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सो मनु सदा िहत तोनह पाहीं।

जानु प्रीनत िसु एतनेनह माहीं॥

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।

मिन प्रेम तन सुनध ननहं तेही॥

पि वह मन सदा आपके पास िहता है । इतनेहीमें जान लेना नक िाम नकस कदि प्रेमके वश

है ।।

िामचन्द्रजीके सन्दे श सुनतेही सीताजी ऐसी प्रे ममे मि होियी नक उिें अपने शिीिकी भी सुध

न िही।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह कनप हृदयुँ धीि धरु माता।

सुनमरु िाम सेवक सुखदाता॥

उि आनहु िघुपनत प्रभुताई।

सुनन मम बचन तजहु कदिाई॥

उस समय हनुमानजीने सीताजीसे कहा नक हे माता! आप सेवकजनोंके सुख दे नेवाले श्रीिाम

को याद किके मनमे धीिज धिो।।

श्रीिामचन्द्रजीकी प्रभुताको हृदयमें मानकि मेिे वचनोको सुनकि नवकलताको तज दो (छोड़

दो)।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

नननसचि ननकि पतंि सम िघुपनत बान कृसानु।

जननी हृदयुँ धीि धरु जिे ननसाचि जानु ॥15॥

हे माता! िामचन्द्रजीके बानरप अनिके आिे इस िाक्षससमूहको आप पतंिके समान जानो

औि इन सब िाक्षसोको जले हुए जानकि मनमे धीिज धिो ॥15॥


सुंदिकाण्ड – 16

सीताजीके मन में संदेह


च पाई – सुंदिकाण्ड

ज ं िघुबीि होनत सुनध पाई।

किते ननहं नबलंबु िघुिाई॥

िाम बान िनब उएुँ जानकी।

तम बरुथ कहुँ जातुधान की॥

हे माता! जो िामचन्द्रजीको आपकी खबि नमल जाती तो प्रभु कदानप नवलम्ब नहीं किते।।

क्ोंनक िामचन्द्रजी के बानरप सूययके उदय होने पि िाक्षस समूहरप अन्धकाि पटलका पता

कहाुँ है ? ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अबनहं मातु मैं जाउुँ लवाई।

प्रभु आयुस ननहं िाम दोहाई॥

कछु क नदवस जननी धरु धीिा।

कनपि सनहत अइहनहं िघुबीिा॥

हनुमानजी कहते है की हे माता! मै आपको अभी ले जाऊं, पिं तु कर


ं क्ा? िामचन्द्रजीकी

आपको ले आनेकी आज्ञा नहीं है । इसनलए मै कुछ कि नहीं सकता। यह बात मै


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िामचन्द्रजीकी शपथ खाकि कहता हुँ ।।

इसनलए हे माता! आप कुछ नदन धीिज धिो। िामचन्द्रजी वानिोंकें साथ यहाुँ आयेंिे।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नननसचि मारि तोनह लै जैहनहं ।

नतहुुँ पुि नािदानद जसु िैहनहं ॥

हैं सुत कनप सब तुम्हनह समाना।

जातुधान अनत भट बलवाना॥

औि िाक्षसोंको मािकि आपको ले जाएुँ िे। तब िामचन्द्रजीका यह सुयश तीनो लोकोमें नािदानद

मुनन िाएुँ िे।।

हनुमानजी की यह बात सुनकि सीताजी ने कहा की हे पुत्र! सभी वानि तो तुम्हािे सामान है

औि िाक्षस बड़े योद्धा औि बलवान है । नफि यह बात कैसे बने िी? ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मोिें हृदय पिम संदेहा।

सुनन कनप प्रिट कीन्हि ननज दे हा॥

कनक भूधिाकाि सिीिा।

समि भयंकि अनतबल बीिा॥

इसका मेिे मनमे बड़ा संदेह है । सीताजीका यह वचन सुनकि हनुमानजीने अपना शिीि प्रकट

नकया।।

की जो शिीि सुवणय के पवयत के समान नवशाल, युद्धके नबच बड़ा नवकिाल औि िणके बीच

बड़ा धीिजवाला था।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सीता मन भिोस तब भयऊ।

पुनन लघु रप पवनसुत लयऊ॥

हनुमानजीके उस शिीिको दे खकि सीताजीके मनमें पक्का भिोसा आ िया। तब हनुमानजी ने

अपना छोटा स्वरप धि नलया।।


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सुनु माता साखामृि ननहं बल बुन्हद्ध नबसाल।

प्रभु प्रताप तें िरुड़नह खाइ पिम लघु ब्याल ॥16॥

हनुमानजीने कहा नक हे माता! सुनो, वानिोंमे कोई नवशाल बुन्हद्ध का बल नहीं है । पिं तु प्रभुका

प्रताप ऐसा है की उसके बलसे छोटासा सां प िरडको खा जाता है ॥16॥


सुंदिकाण्ड – 17

लसताजीने हनुमानको आशीर्ावद लदया


च पाई – सुंदिकाण्ड

मन संतोष सुनत कनप बानी।

भिनत प्रताप तेज बल सानी॥

आनसष दीन्हि िामनप्रय जाना।

होहु तात बल सील ननधाना॥

भन्हक्त, प्रताप, तेज औि बलसे नमलीहुई हनुमानजी की वाणी सुनकि सीताजीके मनमें बड़ा संतोष

हुआ।।

नफि सीताजीने हनुमान को श्री िाम का नप्रय जानकि आशीवाय द नदया नक हे तात! तुम बल

औि शील के ननधान होओ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अजि अमि िुननननध सुत होह।

किहुुँ बहुत िघुनायक छोह॥

किहुुँ कृपा प्रभु अस सुनन काना।

ननभयि प्रेम मिन हनुमाना॥


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हे पुत्र! तुम अजि (जिािनहत – बुढापे से िनहत), अमि (मिणिनहत) औि िुणोंका भण्डाि हो

औि िामचन्द्रजी तुमपि सदा कृपा किें ।।

‘प्रभु िामचन्द्रजी कृपा किें िे’ ऐसे वचन सुनकि हनुमानजी प्रेमानन्दमें अत्यंत मि हुए।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बाि बाि नाएनस पद सीसा।

बोला बचन जोरि कि कीसा॥

अब कृतकृत्य भयउुँ मैं माता।

आनसष तव अमोघ नबख्याता॥

औि हनुमानजी ने वािं वाि सीताजीके चिणोंमें शीश नवाकि, हाथ जोड़कि, यह वचन बोले।।

हे माता! अब मै कृताथय हुआ हुँ , क्ोंनक आपका आशीवाय द सफलही होता है , यह बात

जित्प्रनसद्ध है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

हनुमानजीने अशोकर्नमें फि खाने की आज्ञा मांगी


सुनहु मातु मोनह अनतसय भूखा।

लानि दे न्हख सुंदि फल रखा॥

सुनु सुत किनहं नबनपन िखवािी।

पिम सुभट िजनीचि भािी॥

हे माता! सुनो, वृक्षोंके सुन्दि फल लिे दे खकि मुझे अत्यंत भूख लि ियी है , सो मुझे आज्ञा

दो।।

तब सीताजीने कहा नक हे पुत्र! सुनो, इस वनकी बड़े बड़े भािी योद्धा िाक्षस िक्षा किते है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नति कि भय माता मोनह नाहीं।

ज ं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥


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तब हनुमानजी ने कहा नक हे माता! जो आप मनमे सुख माने (प्रसन्न होकि आज्ञा दें ), तो

मुझको उनका कुछ भय नहीं है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

दे न्हख बुन्हद्ध बल ननपुन कनप कहे उ जानकीं जाहु।

िघुपनत चिन हृदयुँ धरि तात मधुि फल खाहु ॥17॥

तुलसीदासजी कहते है नक हनुमानजीका नवलक्षण बुन्हद्धबल दे खकि सीताजीने कहा नक हे पुत्र!

जाओ, िामचन्द्रजी के चिणों को हृदयमे िख कि मधुि मधुि फल खाओ ॥17॥


सुंदिकाण्ड – 18

अशोक र्ालटका लर्ध्वंस और अक्षय कुमार का र्ध


च पाई – सुंदिकाण्ड

चलेउ नाइ नसरु पैठेउ बािा।

फल खाएनस तरु तोिैं लािा॥

िहे तहाुँ बहु भट िखवािे ।

कछु मािे नस कछु जाइ पुकािे ॥

सीताजी के वचन सुनकि उनको प्रणाम किके हनुमानजी बाि के अन्दि घुस िए। फल फल

तो सब खा िए औि वृक्षोंको तोड़ मिोड़ नदया।।

जो वहां िक्षाके के नलए िाक्षस िहते थे उनमेसे से कुछ मािे िए औि कुछ िावणसे पुकािे

(िावण के पास िए औि कहा)।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाथ एक आवा कनप भािी।

तेनहं असोक बानटका उजािी॥


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खाएनस फल अरु नबटप उपािे ।

िच्छक मनदय मनदय मनह डािे ॥

नक हे नाथ! एक बड़ा भािी वानि आया है । उसने तमाम अशोकवनका सत्यानाश कि नदया

है ।।

उसने फल फल तो सािे खा नलए है , औि वृक्षोंको उखड नदया है । औि िखवािे िाक्षसोंको

पटक पटक कि माि नििाया है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनन िावन पठए भट नाना।

नतिनह दे न्हख िजेउ हनुमाना॥

सब िजनीचि कनप सं घािे ।

िए पुकाित कछु अधमािे ॥

यह बात सुनकि िावण ने बहुत सुभट पठाये (िाक्षस योद्धा भेजे)। उनको दे खकि युद्धके

उत्साहसे हनुमानजीने भािी िजयना की।।

हनुमानजीने उसी समय तमाम िाक्षसोंको माि डाला। जो कुछ अधमिे िह िए थे वे वहा से

पुकािते हुए भािकि िए।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पुनन पठयउ तेनहं अच्छकुमािा।

चला संि लै सुभट अपािा॥

आवत दे न्हख नबटप िनह तजाय ।

तानह ननपानत महाधुनन िजाय ॥

नफि िावण ने मंदोदरिके पुत्र अक्षय कुमाि को भेजा। वह भी असंख्य योद्धाओं को संि लेकि

िया।

उसे आते दे खतेही हनुमानजीने हाथमें वृक्ष लेकि उसपि प्रहाि नकया औि उसे मािकि नफि

बड़े भािी शब्दसे (जोि से ) िजयना की।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

कछु मािे नस कछु मदे नस कछु नमलएनस धरि धूरि।

कछु पुनन जाइ पुकािे प्रभु मकयट बल भूरि ॥18॥

हनुमानजीने कुछ िाक्षसोंको मािा औि कुछ को कुचल डाला औि कुछ को धूल में नमला

नदया। औि जो बच िए थे वे जाकि िावण के आिे पुकािे नक हे नाथ! वानि बड़ा बलवान

है । उसने अक्षयकुमािको मािकि सािे िाक्षसोंका संहाि कि डाला।।


सुंदिकाण्ड – 19 (Sundarkand Katha – 19)

हनुमानजी का मेघनाद से युद्ध


च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनन सुत बध लंकेस रिसाना।

पठएनस मेघनाद बलवाना॥

मािनस जनन सुत बाुँ धेसु ताही।

दे न्हखअ कनपनह कहाुँ कि आही॥

िावण िाक्षसोंके मुखसे अपने पुत्रका वध सुनकि बड़ा िुस्सा हुआ औि महाबली मेघनादको

भेजा।।

औि मेघनादसे कहा नक हे पुत्र! उसे मािना मत नकंतु बां धकि पकड़ लें आना, क्ोंनक मैभी

उसे दे खूं तो सही बह वानि कहाुँ का है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

चला इं द्रनजत अतुनलत जोधा।

बंधु ननधन सुनन उपजा क्रोधा॥

कनप दे खा दारुन भट आवा।

कटकटाइ िजाय अरु धावा॥


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इन्द्रजीत (इं द्र को जीतनेवाला) असंख्य योद्धाओ को संि लेकि चला। भाई के वध का

समाचाि सुनकि उसे बड़ा िुस्सा आया।।

हनुमानजी ने उसे दे खकि यह कोई दारुण भट (भयानक योद्धा) आता है ऐसे जानकाि

कटकटाके महाघोि िजयना की औि द ड़े ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अनत नबसाल तरु एक उपािा।

नबिथ कीि लंकेस कुमािा॥

िहे महाभट ताके संिा।

िनह िनह कनप मदय ई ननज अंिा॥

एक बड़ा भािी वृक्ष उखाड़ कि उससे मेघनादको नविथ अथाय त िथहीन कि नदया।।

उसके साथ जो बड़े बड़े महाबली योद्धा थे, उन सबको पकड़ पकड़कि हनुमानजी अपने शिीि

से मसल डाला।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नतिनह ननपानत तानह सन बाजा।

नभिे जुिल मानहुुँ िजिाजा॥

मुनठका मारि चढा तरु जाई।

तानह एक छन मुरुछा आई॥

ऐसे उन िाक्षसोंको मािकि हनुमानजी मेघनादके पास पहुुँ चे। नफि वे दोनों ऐसे नभड़े नक मानो

दो िजिाज आपस में भीड़ िहे है ।।

हनुमान मेघनादको एक घूुँसा मािकि वृक्ष पि जा चढे औि मेघनादको उस प्रहाि से एक

क्षणभि के नलए मूच्छाय आियी।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

उनठ बहोरि कीन्हिनस बहु माया।

जीनत न जाइ प्रभंजन जाया॥

नफि मेघनादने सचेत होकि अनेक मायाये फैलायी पि हनुमानजी नकसी प्रकाि जीते नहीं िए।।
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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मेघनादने ब्रम्हास्त्र चिाया


दोहा – Sunderkand

ब्रह्म अि तेनह साुँ धा कनप मन कीि नबचाि।

ज ं न ब्रह्मसि मानउुँ मनहमा नमटइ अपाि ॥19॥

मेघनाद अनेक अि चलाकि थक िया, तब उसने ब्रम्हाि चलाया। उसे दे खकि हनुमानजी ने

मनमे नवचाि नकया नक इससे बंध जाना ही ठीक है ।

क्ोंनक जो मै इस ब्रम्हािको नहीं मानूंिा तो इस अिकी अद् भुत मनहमा घट जाये िी ॥19॥
सुंदिकाण्ड – 20 (Sunderkaand Paath – 20)

मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रार्र्की सभा में िे गया


च पाई – सुंदिकाण्ड

ब्रह्मबान कनप कहुुँ तेनहं मािा।

पिनतहुुँ बाि कटकु सं घािा॥

तेनहं दे खा कनप मुरुनछत भयऊ।

नािपास बाुँ धेनस लै ियऊ॥

मेघनादने हनुमानजीपि ब्रम्हाि चलाया, उस ब्रम्हािसे हनुमानजी नििने लिे तो नििते समय भी

उिोंने अपने शिीिसे बहुतसे िाक्षसोंका संहाि कि डाला।।

जब मेघनादने जान नलया नक हनुमानजी अचेत हो िए है , तब वह उिें नािपाशसे बां धकि

लंकामे ले िया।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जासु नाम जनप सुनहु भवानी।

भव बंधन काटनहं नि ग्यानी॥


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तासु दू त नक बंध तरु आवा।

प्रभु कािज लनि कनपनहं बुँधावा॥

महादे वजी कहते है नक हे पावयती! सुनो, नजनके नामका जप किनेसे ज्ञानी लोि भवबंधन को

काट दे ते है ।।

उस प्रभुका दू त (हनु मानजी) भला बंधन में कैसे आ सकता है ? पिं तु अपने प्रभुके काययके

नलए हनुमानने अपनेको बंधा नदया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कनप बंधन सुनन नननसचि धाए।

क तुक लानि सभाुँ सब आए॥

दसमुख सभा दीन्हख कनप जाई।

कनह न जाइ कछु अनत प्रभुताई॥

हनुमानजी को बंधा हुआ सुनकि सब िाक्षस दे खनेको द ड़े औि क तुकके नलए उसे सभामे ले

आये।।

हनुमानजी ने जाकि िावण की सभा दे खी, तो उसकी प्रभुता औि ऐश्वयय नकसी कदि कही जाय

ऐसी नहीं थी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कि जोिें सुि नदनसप नबनीता।

भृकुनट नबलोकत सकल सभीता॥

दे न्हख प्रताप न कनप मन संका।

नजनम अनहिन महुुँ िरुड़ असंका॥

कािण यह है की, तमाम दे वता बड़े नवनय के साथ हाथ जोड़े सामने खड़े उसकी भ्रुकुटीकी

ओि भयसनहत दे ख िहे है ।।

यद्यनप हनुमानजी ने उसका ऐसा प्रताप दे खा, पिं तु उनके मन में ज़िा भी डि नहीं था।
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हनुमानजी उस सभामें िाक्षसोंके बीच ऐसे ननडि खड़े थे नक जैसे िरुड़ सपोके बीच ननडि

िहा किता है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

कनपनह नबलोनक दसानन नबहसा कनह दु बाय द।

सुत बध सुिनत कीन्हि पुनन उपजा हृदयुँ नबसाद ॥20॥

िावण हनुमानजी की औि दे खकि हुँ सा औि कुछ दु वयचन भी कहे , पिं तु नफि उसे पुत्रका मिण

याद आजानेसे उसके हृदयमे बड़ा संताप पै दा हुआ।।


सुंदिकाण्ड – 21

हनुमानजी और रार्र् का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

कह लंकेस कवन तैं कीसा।

केनह कें बल घालेनह बन खीसा॥

की ध ं श्रवन सुनेनह ननहं मोही।

दे खउुँ अनत असंक सठ तोही॥

िावण ने हनुमानजी से कहा नक हे वानि! तू कहां से आया है ? औि तू ने नकसके बल से मेिे

वनका नवध्वंस कि नदया है ।।

मैं तुझे अत्यंत ननडि दे ख िहा हुँ सो क्ा तूने कभी मेिा नाम अपने कानों से नहीं सुना है ?।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मािे नननसचि केनहं अपिाधा।

कहु सठ तोनह न प्रान कइ बाधा॥

सुनु िावन ब्रह्मां ड ननकाया।

पाइ जासु बल नबिचनत माया॥


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तुझको हम जीसे नहीं मािें िे, पिन्तु सच कह दे नक तूने हमािे िाक्षसोंको नकस अपिाध के नलए

मािा है ?।।

िावणके ये वचन सुनकि हनुमानजीने िावण से कहा नक हे िावण! सुन, यह माया (प्रकृनत)

नजस पिमात्माके बल (चै तन्यशन्हक्त) को पाकि अनेक ब्रम्हां डसमूह िचती है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जाकें बल नबिं नच हरि ईसा।

पालत सृजत हित दससीसा॥

जा बल सीस धित सहसानन।

अंडकोस समेत निरि कानन॥

हे िावण! नजसके बलसे ब्रह्मा, नवष्णु औि महे श ये तीनो दे व जितको िचते है , पालते है औि

संहाि किते है ।।

औि नजनकी सामर्थ्यसे शेषजी अपने नशिसे वन औि पवयतोंसनहत इस सािे ब्रम्हां डको धािण

किते है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

धिइ जो नबनबध दे ह सुित्राता।

तुम्ह से सठि नसखावनु दाता॥

हि कोदं ड कनठन जेनहं भंजा।

तेनह समेत नृप दल मद िंजा॥

औि जो दे वताओके िक्षा के नलए औि तुम्हािे जै से दु ष्टोको दं ड दे नेके नलए अनेक शिीि

(अवताि) धािण किते है ।।

नजसने महादे वजीके अनत कनठन धनुषको तोड़कि तेिे साथ तमाम िाजसमूहोके मदको भंजन

नकया (िवय चूणय कि नदया) है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

खि दू षन नत्रनसिा अरु बाली।

बधे सकल अतुनलत बलसाली॥


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औि नजसने खि, दू षण, नत्रनशिा औि बानल ऐसे बड़े बलवाले योद्धओको मािा है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

जाके बल लवलेस तें नजतेहु चिाचि झारि।

तास दू त मैं जा करि हरि आनेहु नप्रय नारि ॥21॥

औि हे िावण! सुन, नजसके बलके लवलेश अथाय त नकन्हित्मात्र अंश से तूने तमाम चिाचि जित

को जीता है , उस पिमात्मा का मै दू त हुँ । नजसकी प्यािी सीता को तू हि ले आया है ॥21॥


सुंदिकाण्ड – 22

च पाई – सुंदिकाण्ड

जानउुँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।

सहसबाहु सन पिी लिाई॥

समि बानल सन करि जसु पावा।

सुनन कनप बचन नबहनस नबहिावा॥

हे िावण! आपकी प्रभुता तो मैंने तभीसे जान ली है नक जब आपको सहस्रबाहुके साथ युद्ध

किनेका काम पड़ा था।।

औि मुझको यह बातभी याद है नक आप बानलसे लड़ कि जो यश पाये थे। हनुमानजी के ये

वचन सुनकि िावण ने हुँ सी में ही उड़ा नदए।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

खायउुँ फल प्रभु लािी भूुँखा।

कनप सुभाव तें तोिे उुँ रखा॥

सब कें दे ह पिम नप्रय स्वामी।

मािनहं मोनह कुमािि िामी॥

तब नफि हनुमानजी ने कहा नक हे िावण! मुझको भूख लि ियी थी इसनलए तो मैंने आपके

बाग़ के फल खाए है औि जो वृक्षोको तोडा है सो तो केवल मैंने अपने वानि स्वाभावकी


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चपलतासे तोड़ डाले है ।।

औि जो मैंने आपके िाक्षसोंको मािा उसका कािण तो यह है की हे िावण! अपना दे ह तो

सबको बहुत प्यािा लिता है , सो वे खोटे िास्ते चलने वाले िाक्षस मुझको मािने लिे।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नजि मोनह मािा ते मैं मािे ।

तेनह पि बाुँ धेउुँ तनयुँ तु म्हािे ॥

मोनह न कछु बाुँ धे कइ लाजा।

कीि चहउुँ ननज प्रभु कि काजा॥

तब मैंने अपने प्यािे शिीिकी िक्षा किनेके नलए नजिोंने मुझको मािा था उनको मैंने भी मािा।

इसपि आपके पुत्र ने मुझको बाुँ ध नलया है ।।

हनुमानजी कहते है नक मुझको बंध जाने से कुछ भी शमय नहीं आती क्ोंनक मै अपने

स्वामीका कायय किना चाहता हुँ ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नबनती किउुँ जोरि कि िावन।

सुनहु मान तनज मोि नसखावन॥

दे खहु तुम्ह ननज कुलनह नबचािी।

भ्रम तनज भजहु भित भय हािी॥

हे िावण! मै हाथ जोड़कि आपसे प्राथयना किता हुँ । सो अनभमान छोड़कि मेिी नशक्षा सुनो।

औि अपने मनमे नवचाि किके तुम अपने आप खूब अच्छीतिह दे खलो औि सोचनेके बाद भ्रम

छोड़कि भक्तजनोंके भय नमटानेवाले प्रभुकी सेवा किो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जाकें डि अनत काल डे िाई।

जो सुि असुि चिाचि खाई॥

तासों बयरु कबहुुँ ननहं कीजै।

मोिे कहें जानकी दीजै॥


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हे िावण! काल भी जो दे वता, दै त्य औि सािे चिाचिको खा जाता है वह भी नजसके सामने

अत्यंत भयभीत िहता है ।।

उस पिमात्मासे कभी बैि नहीं किना चानहये। इसनलए जो तू मेिा कहना माने तो सीताजीको

िामचन्द्रजीको दे दो।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

प्रनतपाल िघुनायक करुना नसंधु खिारि।

िएुँ सिन प्रभु िान्हखहैं तव अपिाध नबसारि ॥22॥

हे िावण! खिके मािनेवाले िघुवंशमनण िामचन्द्रजी भक्तपालक औि करुणाके सािि है ।

इसनलए यनद तू उनकी शिण चला जाएिा तो वे प्रभु तेिे अपिाधको माफ़ किके तेिी िक्षा

किें िे ॥22॥
सुंदिकाण्ड – 23

च पाई – सुंदिकाण्ड

िाम चिन पंकज उि धिह।

लंका अचल िाजु तुम्ह किह॥

रिनष पुलन्हस्त जसु नबमल मयंका।

तेनह सनस महुुँ जनन होहु कलंका॥

इसनलए तू िामचन्द्रजीके चिणकमलोंको हृदयमें धािण कि औि उनकी कृपासे लंकामें अनवचल

िाज कि।।

महामुनन पुलस्त्यजीका यश ननमयल चन्द्रमाके समान पिम उज्वल है इसनलए तू उस कुलके

बीचमें कलंक के समान मत हो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम नाम नबनु नििा न सोहा।

दे खु नबचारि त्यानि मद मोहा॥


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बसन हीन ननहं सोह सुिािी।

सब भूषन भूनषत बि नािी॥

हे िावण! तू अपने मनमें नवचाि किके मद औि मोहको त्यािकि अच्छी तिह जां चले नक

िामके नाम नबना वाणी कभी शोभा नहीं दे ती।।

हे िावण! चाहे िी सब अलंकािोसे अलंकृत औि सुन्दि क्ों न होवे पिं तु विके नबना वह

कभी शोभायमान नहीं होती। ऐसेही िामनाम नबना वाणी शोभायमान नहीं होती।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम नबमुख संपनत प्रभुताई।

जाइ िही पाई नबनु पाई॥

सजल मूल नजि सरिति नाहीं।

बिनष िएुँ पुनन तबनहं सु खाहीं॥

हे िावण! जो पुरुष िामचन्द्रजीसे नवमुख है उसकी संपदा औि प्रभुता पानेपि भी न पानेके

बिाबि है । क्ोंनक वह न्हथथि नहीं िहती नकन्तु तुिंत चली जाती है ।।

दे खो, नजन ननदयों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है वहां बिसात हो जाने के बाद नफि सब

जल सुख ही जाता है , कही नहीं िहता।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनु दसकंठ कहउुँ पन िोपी।

नबमुख िाम त्राता ननहं कोपी॥

संकि सहस नबष्नु अज तोही।

सकनहं न िान्हख िाम कि द्रोही॥

हे िावण! सुन, मै प्रनतज्ञा कि कहता हुँ नक िामचन्द्रजीसे नवमुख पुरुषका िखवािा कोई नहीं

है ।।

हे िावण! िामचन्द्रजीसे द्रोह किनेवाले तुझको ब्रह्मा, नवष्णु औि महादे व भी बचा नहीं सकते।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यािहु तम अनभमान।

भजहु िाम िघुनायक कृपा नसंधु भिवान ॥23॥

हे िावण! मोह्का मूल कािण औि अत्यंत दु ुःख दे नेवाली अनभमानकी बुन्हद्धको छोड़कि कृपाके

सािि भिवान् श्री िघुवीिकुलनायक िामचन्द्रजीकी सेवा कि ॥23॥


सुंदिकाण्ड – 24 (Sundarkand Katha – 24)

रार्र् ने हनुमानजी की पूँछ जिाने का हक्म लदया


च पाई – सुंदिकाण्ड

जदनप कही कनप अनत नहत बानी।

भिनत नबबेक नबिनत नय सानी॥

बोला नबहनस महा अनभमानी।

नमला हमनह कनप िुि बड़ ग्यानी॥

यद्यनप हनुमानजी िावणको अनत नहतकािी औि भन्हक्त, ज्ञान, धमय औि नीनतसे भिी वाणी कही

पिं तु उस अनभमानी अधमके उसके कुछभी असि नहीं हुआ।।

इससे हुँ सकि बोला नक हे वानि! आज तो हमको तु बडा ज्ञानी िुरु नमला।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मृत्यु ननकट आई खल तोही।

लािेनस अधम नसखावन मोही॥

उलटा होइनह कह हनुमाना।

मनतभ्रम तोि प्रिट मैं जाना॥

हे नीच! तू मुझको नशक्षा दे ने लिा है सो हे दु ष्ट! कहीं तेिी म त तो ननकट नहीं आियी

है ?।।
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िावणके ये वचन सुन पीछे नफिकि हनुमान् ने कहा नक हे िावण! अब मैंने तेिा बुन्हद्धभ्रम स्पष्ट

िीनतसे जान नलया है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनन कनप बचन बहुत न्हखनसआना।

बेनि न हिहु मूढ कि प्राना॥

सुनत ननसाचि मािन धाए।

सनचवि सनहत नबभीषनु आए॥

हनुमान् के वचन सुनकि िावणको बड़ा कोध आया, नजससे िावणने िाक्षसोंको कहा नक हे

िाक्षसो! इस मूखयके प्राण जल्दी लेलो अथाय त इसे तुिंत माि डालो।।

इस प्रकाि िावण के वचन सुनतेही िाक्षस मािनेको द ड़ें तब अपने मंनत्रयोंके साथ नवभीषण

वहां आ पहुुँ चे।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाइ सीस करि नबनय बहता।

नीनत नबिोध न मारिअ दू ता॥

आन दं ड कछु करिअ िोसाुँ ई।

सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

बहे नवनयके साथ िावणको प्रणाम किके नबभीषणने कहा नक यह दू त ( वकील) है । इसनलए

इसे मािना नही चानहये ; क्ोंनक यह बात नीनतसे नवरुद्ध है ।।

हे स्वामी! इसे आप औि हिएक दं ड दे दीनजये पि मािें मत। नबभीषणकी यह बात सुनकि

सब िाक्षसोंने

कहा नक हे भाइयो! यह सलाह तो अच्छी है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनत नबहनस बोला दसकंधि।

अंि भंि करि पठइअ बंदि॥


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िावण इस बातको सुनकि बोला नक जो इसको मािना ठीक नहीं है तो इस बंदिका कोई अंि

भंि किके इसे भेजदो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

कनप कें ममता पूुँछ पि सबनह कहउुँ समुझाइ।

तेल बोरि पट बाुँ नध पुनन पावक दे हु लिाइ ॥24॥

सब लोिोने समझा कि िावणसे कहा नक वानिका ममत्व पु छ


् पि बहुत होता है । इसनलए

इसकी पूंछमें तेलसे भीिेहुए कपडे लपेटकि आि लिा दो ॥24॥


सुंदिकाण्ड – 25 (Sunderkand in Hindi)

राक्षसोंने हनुमानजी की पूँछ में आग िगा दी


च पाई – सुंदिकाण्ड

पूुँछहीन बानि तहुँ जाइनह।

तब सठ ननज नाथनह लइ आइनह॥

नजि कै कीन्हिनस बहुत बड़ाई।

दे खउ मैं नति कै प्रभुताई॥

जब यह वानि पूंछहीन होकि अपने मानलकके पास जायिा तब अपने स्वामीको यह ले

आएिा।। इस वानिने नजसकी अतुनलत बडाई की है भला उसकी प्रभुताको मैं दे खूं तो सही

नक वह कैसा है ?।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बचन सुनत कनप मन मुसुकाना।

भइ सहाय सािद मैं जाना॥

जातुधान सुनन िावन बचना।

लािे िचैं मूढ सोइ िचना॥


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िावनके ये वचन सुनकि हनुमानजी मनमें मुसकुिाए औि मनमें सोचने लिे नक मैंने जान नलया

है नक इस समय सिस्वती सहाय हुई है । क्ोंनक इसके मुंहसे िामचन्द्रजीके आनेका समाचाि

स्वयं ननकल िया।।

तुलसीदासजी कहते है नक वे िाक्षसलोि िावणके वचन सुनकि वही िचना किने लिे अथाय त

तेलसे नभिो नभिोकि कपडे उनकी पूंछमें लपेटने लिे।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िहा न निि बसन घृत तेला।

बाढी पूुँछ कीि कनप खेला॥

क तुक कहुँ आए पुिबासी।

मािनहं चिन किनहं बहु हाुँ सी॥

उस समय हनुमानजीने ऐसा खेल नकया नक अपनी पूंछ इतनी लंबी बड़ा दी नजसको

लपेटनेकेनलये नििीमें कपडा, घी व तेल कुछभी बाकी न िहा।।

नििके जो लोि तमाशा दे खनेको वहां आये थे वे सब लातें माि मािकि बहुत हुँ सते हैं ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बाजनहं ढोल दे नहं सब तािी।

निि फेरि पुनन पूुँछ प्रजािी॥

पावक जित दे न्हख हनुमंता।

भयउ पिम लघुरप तुिंता॥

अनेक ढोल बज िहे हे , सबलोि ताली दे िहे हैं , इस तिह हनुमानजीको नििीमें सवयत्र नफिाकि

नफि उनकी पूंछमें आि लिा दी।।

हनुमानजीने जब पूंछमें आि जलती दे खी तब उिोने तुिंत बहुत छोटा स्वरप धािण कि

नलया।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ननबुनक चढे उ कप कनक अटािीं।

भईं सभीत ननसाचि नािीं॥


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औि बंधन से ननकलकि पीछे सुवणयकी अटारियोंपि चढ िए, नजसको दे खतेही तमाम िाक्षसोंकी

िीयां भयभीत होियी।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

हरि प्रेरित तेनह अवसि चले मरुत उनचास।

अट्टहास करि िजाय कनप बनढ लाि अकास ॥25॥

उस समय भिवानकी प्रे िणासे उनचासो पवन बहने लिे औि हनुमानजीने अपना स्वरप ऐसा

बढाया नक वह आकाशमें जा लिा नफि अट्टहास किके बड़े जोिसे ििजे ॥25॥
सुंदिकाण्ड – 26 (Lanka Dahan)

हनुमानजी ने िंका जिाई


च पाई – सुंदिकाण्ड

दे ह नबसाल पिम हरुआई।

मंनदि तें मंनदि चढ धाई॥

जिइ निि भा लोि नबहाला।

झपट लपट बहु कोनट किाला॥

यद्यनप हनुमानजीका शिीि बहुत बड़ा था पिं तु शिीिमें बड़ी फुती थी नजससे वह एक घिसे

दू सिे घिपि चढते चले जाते थे।।

नजससे तमाम निि जल िया। लोि सब बेहाल हो िये औि झपट कि बहुतसे नवकिाल

कोटपि चढ िये।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तात मातु हा सुननअ पुकािा।

एनहं अवसि को हमनह उबािा॥


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हम जो कहा यह कनप ननहं होई।

बानि रप धिें सुि कोई॥

औि सबलोि पु कािने लिे नक हे तात! हे माता! अब इस समयमें हमें क न बचाएिा।।

हमने जो कहा था नक यह वानि नहीं है , कोई दे व वानिका रप धिकि आया है | सो दे ख

लीनजये यह बात ऐसीही है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

साधु अवग्या कि फलु ऐसा।

जिइ निि अनाथ कि जैसा॥

जािा निरु नननमष एक माहीं।

एक नबभीषन कि िृह नाहीं॥

औि यह निि जो अनाथके नििके समान जला है सो तो साधुपुरुषोंका अपमान किनेंका फल

ऐसाही हुआ किता है ।।

तुलसीदासजी कहते हैं नक हनुमानजीने एक क्षणभिमें तमाम नििको जला नदया. केवल एक

नबभीषणके घिको नहीं जलाया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ता कि दू त अनल जेनहं नसरिजा।

जिा न सो तेनह कािन निरिजा॥

उलनट पलनट लंका सब जािी।

कूनद पिा पुनन नसंधु मझािी॥

महादे वजी कहते है नक हे पावयती! नजसने इस अनग्रको पैदा नकया है उस पिमेश्विका नबभीषण

भक्त था इसकािणसे उसका घि नहीं जला।। हनुमानजी ने उलट पलट कि (एक ओि से

दू सिी ओि तक) तमाम लंकाको जला कि नफि समुद्रके अंदि कूद पडे ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

पूुँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रप बहोरि।

जनकसुता कें आिें ठाढ भयउ कि जोरि ॥26॥

अपनी पूछको बुझाकि, श्रमको नमटाकि (थकावट दू ि किके), नफिसे छोटा स्वरप धािण किके

हनुमानजी हाथ जोड़कि सीताजीके आिे आ खडे हुए ॥26॥


सुंदिकाण्ड – 27 (Sampoorna Sunderkand – 27)

हनुमानजी िंकासे िौटने से पहिे सीताजी से लमिे


च पाई – सुंदिकाण्ड

मातु मोनह दीजे कछु चीिा।

जैसें िघुनायक मोनह दीिा॥

चूड़ामनन उतारि तब दयऊ।

हिष समेत पवनसुत लयऊ॥

औि बोले नक हे माता! जैसे िामचन्द्रजीने मुझको पहचानके नलये मुनद्रकाका ननशान नदया था,

वैसे ही आपभी मुझको कुछ नचि दो।।

तब सीताजीने अपने नशिसे उताि कि चूडामनण नदया। हनुमानजीने बड़े आनंदके साथ वह ले

नलया।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कहे हु तात अस मोि प्रनामा।

सब प्रकाि प्रभु पूिनकामा॥

दीन दयाल नबरिदु संभािी।

हिहु नाथ सम संकट भािी॥

सीताजीने हनुमानजीसे कहा नक है पुत्र! मेिा प्रणाम कह कि प्रभुसे ऐसे कहना नक हे प्रभु !

यद्यनप आप सवय प्रकािसे पूणयकाम हो (आपको नकसी प्रकाि की कामना नहीं है )।।
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हे नाथ! आप दीनदयाल हो, इसनलये अपने नविदको सुँभाल कि (दीन दु ुःन्हखयों पि दया किना

आपका नविद है , सो उस नविद को याद किके) मेिे इस महासंकटको दू ि किो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तात सक्रसुत कथा सनाएहु।

बान प्रताप प्रभुनह समुझाएहु॥

मास नदवस महुुँ नाथु न आवा।

त पुनन मोनह नजअत ननहं पावा॥

हे पुत्र । नफि इन्द्रके पुत्र जयंतकी कथा सुनाकि प्रभुकों बाणोंका प्रताप समझाकि याद

नदलाना।।

औि कहना नक हे नाथ! जो आप एक महीनेके अन्दि नहीं पधािोि तो नफि आप मुझको

जीती नहीं पाएुँ िे।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कहु कनप केनह नबनध िाख ं प्राना।

तुम्हह तात कहत अब जाना॥

तोनह दे न्हख सीतनल भइ छाती।

पुनन मो कहुुँ सोइ नदनु सो िाती॥

हे तात! कहना, अब मैं अपने प्राणोंको नकस प्रकाि िखूुँ ? क्ोंनक तुमभी अब जाने को कह िहे

हो।।

तुमको दे खकि मेिी छाती ठं ढी हुई थी पिं तु अब तो नफि मेिेनलए वही नदन हैं औि वही िातें

हैं ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

जनकसुतनह समुझाइ करि बहु नबनध धीिजु दीि।

चिन कमल नसरु नाइ कनप िवनु िाम पनहं कीि ॥27॥
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हनुमानजीने सीताजीको (जानकी को) अनेक प्रकािसे समझाकि कई तिहसे धीिज नदया औि

नफि उनके चिणकमलोंमें नशि नमाकि वहां से िामचन्द्रजीके पास िवाना हुए ॥27॥
सुंदिकाण्ड – 28 (Sunderkand Hindi – 28)

हनुमानजीका िंका से र्ालपस िौटना


च पाई – सुंदिकाण्ड

चलत महाधुनन िजेनस भािी।

िभय स्रवनहं सुनन नननसचि नािी॥

नानघ नसंधु एनह पािनह आवा।

सबद नकनलनकला कनपि सुनावा॥

जाते समय हनुमानजीने ऐसी भािी िजयना की, नक नजसको सुनकि िाक्षनसयोंके िभय निि िये ।।

सपुद्रको लां घकि हनुमानजी समुद्रके इस पाि आए। औि उस समय उिोंने नकलनकला शब्द

(हषयध्वनन) सब बन्दिोंको सुनाया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

(िाका नदन पहुँ चेउ हनुमन्ता। धाय धाय कापी नमले तुिन्ता।।

हनुमानजीने लंकासे ल टकि कानतयककी पूनणयमाके नदन वहां पहुं चे। उस समय द ड़ द ड़ कि

वानि बडी त्विाके साथ हनुमानजीसे नमले।।)


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

हिषे सब नबलोनक हनुमाना।

नूतन जन्म कनपि तब जाना॥

मुख प्रसन्न तन तेज नबिाजा।

कीिे नस िामचंद्र कि काजा॥

हनुमानजीको दे खकि सब वानि बहुत प्रसन्न हए औि उस समय वानिोंने अपना नया जन्म

समझा।।
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हुनमानजीका मुख अनत प्रसन्न औि शिीि तेजसे अत्यंत दे दीप्यमान दे खकि वानिोंने जान नलया

नक हनुमानजी िामचन्द्रजीका कायय किके आए है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नमले सकल अनत भए सु खािी।

तलफत मीन पाव नजनम बािी॥

चले हिनष िघुनायक पासा।

पूुँछत कहत नवल इनतहासा॥

औि इसीसे सब वानि पिम प्रेमके साथ हनुमानजीसे नमले औि अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे कैसे

प्रसन्न हुए सो कहते हैं नक मानो तड़पती हुई मछलीको पानी नमल िया।।

नफि वे सब सुन्दि इनतहास पूंछतेहुए आि कहते हुए आनंदके साथ िामचन्द्रजीके पास चले।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तब मधुबन भीति सब आए।

अंिद संमत मधु फल खाए॥

िखवािे जब बिजन लािे।

मुनष्ट प्रहाि हनत सब भािे॥

नफि उन सबोंने मधुवनके अन्दि आकि युविाज अंिदके साथ वहां मीठे फल खाये।।

जब वहां के पहिे दाि बिजने लिे तब उनको मुक्कोसे ऐसा मािा नक वे सब वहां से भाि िये।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

जाइ पुकािे ते सब बन उजाि जुबिाज।

सुनन सुग्रीव हिष कनप करि आए प्रभु काज ॥28॥

वहां से जो वानि भाि कि बचे थे उन सबोंने जाकि िाजा सुग्रीवसे कहा नक हे िाजा! युविाज

अंिदने वनका सत्यानाश कि नदया है । यह समाचाि सुनकि सुग्रीवको बड़ा आनंद आया नक वे

लोि प्रभुका काम किके आए हैं ॥28॥


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सुंदिकाण्ड – 29 (Sundarkand Katha – 29)

हनुमानजी सुग्रीर् से लमिे


च पाई – सुंदिकाण्ड

ज ं न होनत सीता सुनध पाई।

मधुबन के फल सकनहं नक खाई॥

एनह नबनध मन नबचाि कि िाजा।

आइ िए कनप सनहत समाजा॥

सुग्रीवको आनंद क्ों हुआ? उसका कािण कहते हैं । सुग्रीवने मनमें नवचाि नकया नक जो उनको

सीताजीकी खबि नहीं नमली होती तो वे लोि मधुवनके फल कदानप नहीं खाते।।

िाजा सुग्रीव इस तिह मनमें नवचाि कि िहे थे। इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानि बहां

चले आये।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

आइ सबन्हि नावा पद सीसा।

नमलेउ सबन्हि अनत प्रेम कपीसा॥

पूुँछी कुसल कुसल पद दे खी।

िाम कृपाुँ भा काजु नबसे षी॥

(सबने आकि सुग्रीव के चिणों में नसि नवाया।

औि आकि उन सभीने नमस्काि नकया तब बड़े प्यािके साथ सुग्रीव उन सबसे नमले।।

सुग्रीवने सभीसे कुशल पूं छा तब उिोंने कहा नक नाथ! आपके चिण कुशल दे खकि हम

कुशल हैं औि जो यह काम बना है सो केवल िामचन्द्रजीकी कृपासे बना है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाथ काजु कीिे उ हनुमाना।

िाखे सकल कनपि के प्राना॥


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सुनन सुग्रीव बहुरि तेनह नमलेऊ।

कनपि सनहत िघुपनत पनहं चलेऊ॥

हे नाथ! यह काम हनुमानजीने नकया है । यह काम क्ा नकया है मानो सब वानिोंके इसने

प्राण बचा नलये हैं ।।

यह बात सुनकि सुग्रीव उठकि नफि हनुमानजीसे नमले औि वानिोंके साथ िामचन्द्रजीके पास

आए।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम कनपि जब आवत दे खा।

नकएुँ काजु मन हिष नबसेषा॥

फनटक नसला बैठे द्व भाई।

पिे सकल कनप चिनन्हि जाई॥

वानिोंको आते दे खकि िामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ नक ये लोि काम नसद्ध किके

आ िये हैं ।। िाम औि लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फनटकमनणकी नशलापि बैठे हुए थे। वहां जाकि

सब वानि दोनों भाइयोंके चिणोंमें नििे ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

प्रीनत सनहत सब भेंटे िघु पनत करुना पुंज॥

पूछी कुसल नाथ अब कुसल दे न्हख पद कंज ॥29॥

करुणाननधान श्रीिामचन्द्रजी प्रीनतपूवयक सब वानिोंसे नमले औि उनसे कुशल पूुँछा. तब उिोंने

कहा नक हे नाथ! आपके चिणकमलोंको कुशल दे खकि (चिणकमलोंके दशयन पाने से ) अब

हम कुशल हें ॥29॥


सुंदिकाण्ड – 30 sundarkand-chaupai-030

हनुमानजी और सुग्रीर् रामचन्द्रजी से लमिे



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च पाई – सुंदिकाण्ड

जामवंत कह सुनु िघुिाया।

जा पि नाथ किहु तुम्ह दाया॥

तानह सदा सुभ कुसल ननिं ति।

सुि नि मुनन प्रसन्न ता ऊपि॥

उस समय जाम्बवान िामचन्द्रजीसे कहा नक हे नाथ! सुनो, आप नजसपि दया किते हो।।

उसके सदा सवयदा शुभ औि कुशल ननिं ति िहते हें । तथा दे वता मनुष्य औि मुनन सभी उसपि

सदा प्रसन्न िहते हैं ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सोइ नबजई नबनई िुन सािि।

तासु सुजसु त्रैलोक उजािि॥

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।

जन्म हमाि सुफल भा आजू ॥

औि वही नवजयी (नवजय किनेवाला), नवनयी (नवनयवाला) औि िुणोंका समुद्र होता है औि

उसकी सुख्यानत तीनों लोकोंमें प्रनसद्ध िहती है ।।

यह सब काम आपकी कृपासे नसद्ध हुआ हैं । औि हमािा जन्म भी आजही सफल हुआ है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाथ पवनसुत कीन्हि जो किनी।

सहसहुुँ मुख न जाइ सो बिनी॥

(जो मुख लाखहु जाइ न बिणी।।)

पवनतनय के चरित सुहाए।

जामवंत िघुपनतनह सुनाए॥

दे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजीने जो काम नकया है उसका हजाि मुखों से भी वणयन नहीं नकया

जा सकता
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(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे तो भी वह कहा नहीं जा सकता)।।

हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन औि कायय जाम्बवानने िामचन्द्रजीको सुनाये।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनत कृपानननध मन अनत भाए।

पुनन हनुमान हिनष नहयुँ लाए॥

कहहु तात केनह भाुँ नत जानकी।

िहनत किनत िच्छा स्वप्रान की॥

उन वचनोंको सुनकि दयालु श्रीिामचन्द्द्वजीने उठकि हनुमानजीको अपनी छातीसे लिाया।।

औि श्रीिामने हनुमानजीसे पूछा नक हे तात! कहो, सीता नकस तिह िहती है ? औि अपने

प्राणोंकी िक्षा वह नकस तिह किती है ?।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

नाम पाहर नदवस नननस ध्यान तुम्हाि कपाट।

लोचन ननज पद जंनत्रत जानहं प्रान केनहं बाट ॥30॥

हनुमानजीने कहा नक हे नाथ । यद्यनप सीताजीको कष्ट तो इतना है नक उनके प्राण एक

क्षणभि न िह। पिं तु सीताजीने आपके दशयनके नलए प्राणोंको ऐसा बंदोबस्त किके िखा है नक

िात नदन अखंड पहिा दे नेके वास्ते आपके नामको तो उसने नसपाही बना िखा है (आपका

नाम िात-नदन पहिा दे नेवाला है )। औि आपके ध्यानको कपाट वनाया है (आपका ध्यान ही

नकवाड़ है )| औि अपने नीचे नकये हुए नेत्रोंसे जो अपने चिणकी ओि ननहािती है वह यंनत्रका

अथाय त् ताला है . अब उसके प्राण नकस िास्ते बाहि ननकलें ॥30॥


सुंदिकाण्ड – 31

हनुमान ने रामचन्द्रजी को सीताजी का सन्दे श लदया



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च पाई – सुंदिकाण्ड

चलत मोनह चूड़ामनन दीिी।

िघुपनत हृदयुँ लाइ सोइ लीिी॥

नाथ जुिल लोचन भरि बािी।

बचन कहे कछु जनककुमािी॥

औि चलते समय मुझको यह चूड़ामनण नदया हे . ऐसे कह कि हनुमानजीने वह चूड़ामनण

िामचन्द्रजीको दे नदया। तब िामचन्द्रजीने उस ित्को लेकि अपनी छातीसे लिाया॥

तब हनुमानजीने कहा नक हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कि नेत्रोंमें जल लाकि सीताजीने कुछ

वचनभी कहे है सो सुननये॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अनुज समेत िहे हु प्रभु चिना।

दीन बंधु प्रनतािनत हिना॥

मन क्रम बचन चिन अनुिािी।

केनहं अपिाध नाथ ह ं त्यािी॥

सीताजीने कहा है नक लक्ष्मणजीके साथ प्रभुके चिण धिकि मेिी ओिसे ऐसी प्राथयना किना नक

हे नाथ! आप तो दीनबंधु औि शिणाितोके सं कटको नमटानेवाले हो॥

नफि मन, वचन औि कमयसे चिणोमें प्रीनत िखनेवाली मुझ दासीको आपन नकस अपिाधसे त्याि

नदया है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अविुन एक मोि मैं माना।

नबछु ित प्रान न कीि पयाना॥

नाथ सो नयनन्हि को अपिाधा।

ननसित प्रान किनहं हनठ बाधा॥

हाुँ , मेिा एक अपिाध पक्का (अवश्य) हैं औि वह मैंने जान भी नलया है नक आपसे नबछु ितेही

(नवयोि होते ही) मेिे प्राण नही ननकल िये ॥


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पिं तु हें नाथ! वह अपिाध मेिा नहीं है नकन्तु नेत्रोका है ; क्ोंनक नजस समय प्राण ननकलने

लिते है उस समय ये नेत्र हटकि उसमें बाधा कि दे ते हैं (अथाय त् केवल आपके दशयनके

लोभसे मेिे प्राण बने िहे हैं )॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नबिह अनिनन तनु तूल समीिा।

स्वास जिइ छन मानहं सिीिा॥

नयन स्रवनहं जलु ननज नहत लािी।

जिैं न पाव दे ह नबिहािी॥

हे प्रभु! आपका नविह तो अनि है मेिा शिीि तू ल (रुई) है । श्वास प्रबल वायु है । अब इस

सामग्रीके िहते शिीि क्षणभिमें जल जाय इसमें कोई आश्चयय नहीं॥

पिं तु नेत्र अपने नहतके नलए अथाय त् दशयनके वास्ते जल बहा बहा कि उस नविह की आि को

शां त किते हैं , इससे नविह की आि भी मेि शिीिको जला नहीं पाती॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सीता कै अनत नबपनत नबसाला।

नबननहं कहें भनल दीनदयाला॥

हनुमानजी ने कहा नक हे दीनदयाल! सीताकी नवपनि ऐसी भािी है नक उसको न कहना ही

अच्छा है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

नननमष नननमष करुनानननध जानहं कलप सम बीनत।

बेनि चनलअ प्रभु आननअ भुज बल खल दल जीनत ॥31॥

हे करुणाननधान! हे प्रभु ! सीताजीके एक एक क्षण, स स कल्पके समान व्यतीत होते हैं ।

इसनलए जल्दी चलकि औि अपने बाहुबलसे दु ष्टोंके दलको जीतकि उनको जल्दी ले आइए

॥31॥
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सुंदिकाण्ड – 32

रामचन्द्रजी और हनुमान का संर्ाद


च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनन सीता दु ख प्रभु सुख अयना।

भरि आए जल िानजव नयना॥

बचन कायुँ मन मम िनत जाही।

सपनेहुुँ बूनझअ नबपनत नक ताही॥

सुखके धाम श्रीिामचन्द्रजी सीताजीके दु ुःखके समाचाि सुन अनत न्हखन्न हुए औि उनके कमलसे

दोनों नेत्रोंमें जल भि आया।। िामचन्द्रजीने कहा नक नजसने मन, वचन व कमयसे मेिा शिण

नलया है क्ा स्वप्नमें भी उसको नवपनि होनी चानहये ? कदानप नहीं।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह हनुमंत नबपनत प्रभु सोई।

जब तव सुनमिन भजन न होई॥

केनतक बात प्रभु जातुधान की।

रिपुनह जीनत आननबी जानकी॥

हनुमानजीने कहा नक हे प्रभु ! मनुष्यकी यह नवपनि तो वही (तभी) है जब यह मनुष्य

आपका भजन स्मिण नही किता।। हे प्रभु इस िाक्षसकी नकतनीसी बात है । आप शत्रुको

जीतकि सीताजीको ले आइये।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनु कनप तोनह समान उपकािी।

ननहं कोउ सुि नि मुनन तनुधािी॥

प्रनत उपकाि कि ं का तोिा।

सनमुख होइ न सकत मन मोिा॥


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िामचन्द्रजीने कहा नक हे हनुमान! सुन, तेिे बिाबि मेिे उपकाि किनेवाला दे वता मनुष्य औि

मुनन कोइभी दे हधािी नहीं है ।।

हे हनुमान! में तेिा क्ा प्रत्युपकाि (बदले में उपकाि) कर


ं ; क्ोंनक मिा मन बदला दे नेके

वास्ते सन्मुखही (मेिा मन भी तेिे सामने ) नहीं हो सकता।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनु सुत तोनह उरिन मैं नाहीं।

दे खेउुँ करि नबचाि मन माहीं॥

पुनन पुनन कनपनह नचतव सुित्राता।

लोचन नीि पुलक अनत िाता॥

हे हतुमान! सुन, मेंने अपने मनमें नवचाि किके दे ख नलया है नक मैं तुमसे उऋण नहीं हो

सकता।।

िामचन्द्रजी ज्ों ज्ों वािं वाि हनुमानजीकी ओि दे खते है ; त्यों त्यों उनके नेत्रोंमें जल भि आता

है औि शिीि पुलनकत हो जाता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सुनन प्रभु बचन नबलोनक मुख िात हिनष हनुमंत।

चिन पिे उ प्रेमाकुल त्रानह त्रानह भिवंत ॥32॥

हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकि औि प्रभुके मुखकी ओि दे खकि मनमें पिम हनषयत हो िए।।

औि बहुत व्याकुल होकि कहा ‘हे भिवान् ! िक्षा किो’ ऐसे कहता हुए चिणोंमे निि पड़े

॥32॥
सुंदिकाण्ड – 33

च पाई – सुंदिकाण्ड

बाि बाि प्रभु चहइ उठावा।

प्रेम मिन तेनह उठब न भावा॥


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प्रभु कि पंकज कनप कें सीसा।

सुनमरि सो दसा मिन ि िीसा॥

यद्यनप प्रभु उनको चिणोंमेंसे बाि-बाि उठाना चाहते हैं , पिं तु हनुमान् प्रेममें ऐसे मि हो िए थे

नक वह उठाना नहीं चाहते थे।।

कनव कहते है नक िामचन्द्रजीके चिणकमलोंके बीच हनुमानजी नसि धिे है इस बातको स्मिण

किके महादे वकी भी वही दशा होियी औि प्रे ममें मि हो िये ; क्ोंनक हनु मान् रुद्रका

अंशावताि है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सावधान मन करि पुनन संकि।

लािे कहन कथा अनत सुंदि॥

कनप उठाई प्रभु हृदयुँ लिावा।

कि िनह पिम ननकट बैठावा॥

नफि महादे व अपने मनको सावधान किके अनत मनोहि कथा कहने लिे।।

महादे वजी कहते है नक हे पावयती! प्रभुने हनमान् कों उठाकि छातीसे लिाया औि हाथ पकड

कि अपने बहुत नजदीक नबठाया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कहु कनप िावन पानलत लंका।

केनह नबनध दहे उ दु िय अनत बंका॥

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

बोला बचन नबित अनभमाना॥

औि हनुमानसे कहा नक हे हनुमान! कहो, वह िावणकी पालीहुई लंकापुिी नक जो बड़ा बंका

नकला हे उसको तुमने कैसे जलाया?।।

िामचन्द्रजीकी यह बात सुन उनको प्रसन्न जाकि हनुमानजीने अनभमानिनहत होकि यह वचन

कहे नक।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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साखामि कै बनड़ मनुसाई।

साखा तें साखा पि जाई॥

नानघ नसंधु हाटकपुि जािा।

नननसचि िन बनध नबनपन उजािा॥

हे प्रभु! बानिका तो अत्यंत पिाक्रम यही है नक वृक्षकी एक डािसे दू सिी डािपि कूद जाय।।

पिं तु जो मै समुद्रको लां घकि लंका में चला िया औि वहा जाकि मैंने लंका को जला नदया

औि बहुतसे िाक्षसोंको मािकि अशोक वनको उजाड़ नदया।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सो सब तव प्रताप िघुिाई।

नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥

हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है । हे नाथ! इसमें मेिी प्रभुता कुछ नहीं है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

ता कहुुँ प्रभु कछु अिम ननहं जा पि तुम्ह अनुकूल।

तव प्रभावुँ बड़वानलनह जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

हे प्रभु! आप नजस पि प्रसन्न हों, उसके नलए कुछ भी असाध्य (कनठन) नहीं है ।

आपके प्रतापसे ननश्चय रई बड़वानलको जला सकती है (असंभव भी संभव हो सकता है )

॥33॥
सुंदिकाण्ड – 34 (Saral Sundarkand – 34)

च पाई – सुंदिकाण्ड

नाथ भिनत अनत सुखदायनी।

दे हु कृपा करि अनपायनी॥

सुनन प्रभु पिम सिल कनप बानी।

एवमस्तु तब कहे उ भवानी॥


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िामचन्द्रजीके ये वचन सुनकि हनुमानजीने कहा नक हे नाथ! मुझे तो कृपा किके आपकी

अनपानयनी (नजसमें कभी नवच्छे द नहीं पडे ऐसी, ननश्चल) कल्याणकािी औि सुखदायी भन्हक्त

दो।।

महादे वजीने कहा नक हे पावयती! हुनुमानकी ऐसी पिम सिल वाणी सुनकि प्रभुने कहा नक हे

हनुमान् ! ‘एवमस्तु ’ (ऐसाही हो) अथाय त् तुमको हमािी भन्हक्त प्राप्त हो।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

उमा िाम सुभाउ जेनहं जाना।

तानह भजनु तनज भाव न आना॥

यह संबाद जासु उि आवा।

िघुपनत चिन भिनत सोइ पावा॥

हे पावयती! नजिोंने िामचन्द्रजीके पिम दयालु स्वभावको जान नलया है उनको िामचन्द्रजीकी

भन्हक्तको छोंड़कि दू सिा कुछभी अच्छा नहीं लिता।।

यह हनुमान् औि िामचन्द्रजीका संवाद नजसके हृदयमें दृढ िीनतसे आजाता है वह श्री

िामचन्द्द्वजीकी भन्हक्तको अवश्य पालेता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनन प्रभु बचन कहनहं कनपबृंदा।

जय जय जय कृपाल सु खकंदा॥

तब िघुपनत कनपपनतनह बोलावा।

कहा चलैं कि किहु बनावा॥

प्रभुके ऐसे वचन सुनकि तमाम वानिवृन्दने पुकाि कि कहा नक हे दयालू! हे सुखके

मूलकािण प्रभु ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो।।

उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकि कहा नक हे सुग्रीव! अब चलनेकी तै यािी किो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अब नबलंबु केह कािन कीजे।

तुिंत कनपि कहुँ आयसु दीजे॥


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क तुक दे न्हख सुमन बहु बिषी।

नभ तें भवन चले सुि हिषी॥

अब नवलम्ब क्ों नकया जाता है । अब तुम वानिोंको तुिंत आज्ञा क्ो नहीं दे ते हो।।

इस क तुकको दे खकि (भिवान की यह लीला) दे वताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बिसाये

औि नफि वे आनंनदत होकि अपने अपने लोक को चल नदये।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

कनपपनत बेनि बोलाए आए जूथप जूथ।

नाना बिन अतुल बल बानि भालु बरथ ॥34॥

िामचन्द्रजीकी आज्ञा होतेही सुग्रीवने वानिोंके सेनापनतयोंको बुलाया औि सु ग्रीवकी आज्ञाके

साथही वानि औि िीछोके झुंड नक नजनके अनके प्रकािक वणय हैं औि अतूनलत बल हैं वे

वहां आये।।
सुंदिकाण्ड – 35

च पाई – सुंदिकाण्ड

प्रभु पद पंकज नावनहं सीसा।

िजयनहं भालु महाबल कीसा॥

दे खी िाम सकल कनप सेना।

नचतइ कृपा करि िानजव नैना॥

महाबली वानि औि िीछ वहां आकि िजयना किते हैं औि िामचन्द्रजीके चिणकमलोंमें नसि

झुुँकाकि प्रणाम किते हैं ।।

तमाम वानिॉकी सेनाको दे खकि कमलनयन प्रभुने कृपा दृनष्टसे उनकी ओि दे खा।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िाम कृपा बल पाइ कनपं दा।

भए पच्छजुत मनहुुँ निरिं दा॥


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हिनष िाम तब कीि पयाना।

सिुन भए सुंदि सुभ नाना॥

प्रभुकी कृपादृनष्ट पड़तेही तमाम वानि िघुनाथजीके कृपाबलको पाकि ऐसे बली औि बड़े होिये

नक मानों पक्षसनहत पहाड़ ही (पंखवाले बड़े पवयत) तो नहीं है ? ।।

उस समय िामचन्द्रजीने आनंनदत होकि प्रयाण नकया. तब नाना प्रकािके अच्छे औि सुन्दि

शकुनभी होने लिे।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जासु सकल मंिलमय कीती।

तासु पयान सिुन यह नीती॥

प्रभु पयान जाना बैदेहीं।

फिनक बाम अुँ ि जनु कनह दे हीं॥

यह दस्तूि है नक नजसके सब मंिलमय होना होता है (नजनकी कीनतय सब मंिलों से पूणय है )

उसके प्रयाणके समय शकुनभी अच्छे होते है ।।

प्रभुने प्रयाण नकया उसकी खबि सीताजीको भी हो िई; क्ोंनक नजस समय प्रभुने प्रयाण नकया

उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंि फड़कने लिे (मानो कह िह है की श्री िाम आ िहे

हैं )।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जोइ जोइ सिुन जाननकनह होई।

असिुन भयउ िावननहं सोई॥

चला कटकु को बिनैं पािा।

िजयनहं बानि भालु अपािा॥

ओि जो जो शकुन सीताजीके अच्छे हुए वे सब िावणके बुिे शकुन हुए।।

इस प्रकाि िामचन्द्रजीकी सेना िवान हुई, नक नजसके अन्दि असंख्यात वानि औि िीछ ििज

िहे है . उस सेनाका वणय न किके क न आदमी पाि पा सकता है (क न कि सकता है ?)।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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नख आयुध निरि पादपधािी।

चले ििन मनह इच्छाचािी॥

केहरिनाद भालु कनप किहीं।

डिमिानहं नदग्गज नचक्किहीं॥

नजनके नखही तो शि हैं । पवयत व वृक्ष हाथोंमें है वे इच्छाचािी वानि (इच्छानुसाि सवयत्र

बेिोक-टोक चलनेवाले) औि िीछ आकाशमें कूदते हुए आकाशमािय होकि सेनाके बीच जा िहे

है ।।

वानि व िीछ माियमें जाते हुए नसंहनाद कि िहे है . नजससे नदग्गज हाथी डिमिाते हैं औि

चीत्काि किते हैं ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

छं द – Sunderkand

नचक्किनहं नदग्गज डोल मनह निरि लोल सािि खिभिे ।

मन हिष सभ िंधबय सुि मुनन नाि नकंनि दु ख टिे ॥

कटकटनहं मकयट नबकट भट बहु कोनट कोनटि धावहीं।

जय िाम प्रबल प्रताप कोसलनाथ िुन िन िावहीं॥

जब िामचन्द्रजीने प्रयाण नकया तब नदग्गज नचंघाड़ने लिे, पृथ्वी डिमिाने लिी, पवयत कां पने लिे,

समुद्र खड़भड़ा िये, सयुय आनंनदत हुआ नक हमाि वंशमें दु ष्टोंको दं ड दे नेवाला पैदा हुआ।

दे वता, मुनन, नाि व् नकन्नि ये सब मन में हनषयत हुए नक अब हमािे दु ुःख टल िए। वानि

नवकट िीनतसे कटकटा िहे है , कोटयानकोट बहुतसे भट इधि उधि द ड़ िहे हैं औि

िामचन्द्रजीके िुणिणोंको िा िहे हैं नक हे प्रबलप्रतापवाले िाम! आपकी जय हो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

छं द – Sunderkand

सनह सक न भाि उदाि अनहपनत बाि बािनहं मोहई।

िह दसन पुनन पुनन कमठ पृष्ठ कठोि सो नकनम सोहई॥


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िघुबीि रुनचि प्रयान प्रन्हथथनत जानन पिम सुहावनी।

जनु कमठ खपयि सपयिाज सो नलखत अनबचल पावनी॥

उस सेनाके अपाि भािको शेषजी (सपयिाज शेष) स्वयं सह नहीं सकते नजससे वािं वाि मोनहत

होते

हें औि अपने दाुँ तोंसे बाि-बाि कमठकी (कच्छप की) कठोि पीठको पकडे िहते है । सो वह

शोभा कैसी मालूम होती है नक मानो िामचन्द्रजीके सुन्दि प्रयाणकी प्रन्हथथनत (प्रथथान यात्रा) को

पिमिम्य जानकि शेषजी कमठकी पीठरप खप्पिपि अपने दां तोसे नलख िहै हैं , नक नजससे वह

प्रथथानका पनवत्र संवत् च नमती सदा न्हथथि बनी िहे , जैसे कुएं बावली मंनदि आनद बनानेवाले

उसपि पत्थिमें प्रशन्हस्त खुदवाकि लिा दे ते है ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपि प्रशन्हस्तही

खोद िहे थे।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

एनह नबनध जाइ कृपानननध उतिे सािि तीि।

जहुँ तहुँ लािे खान फल भालु नबपुल कनप बीि ॥35॥

कृपाके भ्रंडाि श्रीिामचन्दज्ञी इस तिह जाकि समुद्रके तीिपि उतिे , तब वीि िीछ औि वानि

जहां तहां वहुतसे फल खाने लिे ॥35॥


सुंदिकाण्ड – 36

च पाई – सुंदिकाण्ड

उहाुँ ननसाचि िहनहं ससंका।

जब तें जारि ियउ कनप लंका॥

ननज ननज िृहुँ सब किनहं नबचािा।

ननहं नननसचि कुल केि उवािा॥

जबसे हनुमान् लंकाको जलाकि चले िए तबसे वहां िाक्षसलोि शंकासनहत (भयभीत) िहने

लिे।।
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औि अपने अपने घिमें सब नवचाि किने लिे नक अब िाक्षसकुल बचने का नहीं है (िाक्षस

कुल की िक्षा का कोई उपाय नहीं है )।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जासु दू त बल बिनन न जाई।

तेनह आएुँ पुि कवन भलाई॥

दू नति सन सुनन पुिजन बानी।

मंदोदिी अनधक अकुलानी॥

हम लोि नजसके दू तके बलको भी कह नहीं सकते उसके आनेपि नफि पुिका भला कैसे हो

सकेिा (बुिी दशा होिी)।।

नििके लोिोंकी ऐसी अनत भयसनहत वाणी सुनकि मन्दोंदिी अपने मनमें बहुत घबिायी।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िहनस जोरि कि पनत पि लािी।

बोली बचन नीनत िस पािी॥

कंत किष हरि सन परिहिह।

मोि कहा अनत नहत नहयुँ धिह॥

औि एकान्तमें आकि हाथ जोड़कि पानतके चिणोंमे नििकि नननतके िससे भिे हुए ये वचन

बोली।।

हे कान्त! हरि भिवानसे जो आपके वैिभाव हैं उसे छोड़ दीनजए। मै जो आपसे कहती हुँ वह

आपको अत्यंत नहतकािी है सो इसको अपने नचिमें धािण कीनजए।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

समुझत जासु दू त कइ किनी।

स्रवनहं िभय िजनीचि घिनी॥

तासु नारि ननज सनचव बोलाई।

पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥


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भला अब उसके दू तके कामको तो दे खो नक नजसको नाम लेनेसे िाक्षनसयोंके िभय निि जाते हैं

।।

इसनलए हे कान्त! मेिा कहना तो यह है नक जो आप अपना भला चाहो तो ।

अपने मंनत्रयोंको बुलाकि उसके साथ उनकी िी को भेज दीनजए।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तव कुल कमल नबनपन दु खदाई।

सीता सीत ननसा सम आई॥

सुनहु नाथ सीता नबनु दीिें ।

नहत न तुम्हाि संभु अज कीिें ॥

जैसे शीतऋतु अथाय त् नशनशि िीतुकी िानत्र (जाड़े की िानत्र) आनेसे कमलोंके बनका नाश हो

जाता हे ऐसे तुम्हािे कुलरप कमलबनका सं हाि किनेके नलये यह सीता नशनशि रितुकी िानत्रके

समान आयी है ।।

हे नाथ! सुनो, सीताको नबना दे नेके तो चाहे महादे व ओि ब्रह्माजी भले कुछ उपाय क्ों न किे

पि उससे आपका नहत नहीं होिा।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िाम बान अनह िन सरिस ननकि ननसाचि भेक।

जब लनि ग्रसत न तब लनि जतनु किहु तनज टे क ॥36॥

हे नाथ िामचन्द्रजीके बाण तो सपोके िणके (समूह) समान है औि िाक्षससमूह मेंडकके

झुंडके समान हैं । सो वे इनका संहाि नहीं किते इससे पहले पहले आप यत् किो औि नजस

बातका हठ पकड़ िक्खा है उसको छोड़कि उपाय कि लीनजए।।


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सुंदिकाण्ड – 37 sundarkand-chaupai-037

च पाई – सुंदिकाण्ड

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।

नबहसा जित नबनदत अनभमानी॥

सभय सुभाउ नारि कि साचा।

मंिल महुुँ भय मन अनत काचा॥

कनव कहता है नक वो शठ मन्दोदिीकी यह वाणी सुनकि हुँ सा क्ोंनक उसके अनभमानक

तमाम संसाि जानता है ।।

औि बोला नक जित् में जो यह बात कही जाती है नक िीका स्वभाव डिपोक होता है सो यह

बात सच्ची है ।औि इसीसे तेिा मन मंिलकी बातमें अमंिल समझता है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ज ं आवइ मकयट कटकाई।

नजअनहं नबचािे नननसचि खाई॥

कंपनहं लोकप जाकीं त्रासा।

तासु नारि सभीत बनड़ हासा॥

क्ोंनक अब वानिोकी से ना यहां आवेिी तो क्ा नबचािा वह जीती िह सकेिी क्ोंनक िाक्षस

उसको आतेही खा जायें िे।।

नजसकी त्रासके मािे लोकपाल कां पते है उसकी िीका भय होना यह तो एक बड़ी हुँ सीकी

बात है ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अस कनह नबहनस तानह उि लाई।

चलेउ सभाुँ ममता अनधकाई॥

मंदोदिी हृदयुँ कि नचंता।

भयउ कंत पि नबनध नबपिीता॥


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वह दु ष्ट मंदोदािीको ऐसे कह, उसको छातीमें लिाकि मनमें बड़ी ममता िखता हुआ सभामें

िया।।

पिन्नु मन्दोदिीने उस वक़्त समझ नलया नक अब इस कान्तपि दै व प्रनतकूल होिया है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बैठेउ सभाुँ खबरि अनस पाई।

नसंधु पाि सेना सब आई॥

बूझेनस सनचव उनचत मत कहह।

ते सब हुँ से मष्ट करि िहह॥

िावण सभामे जाकि बैठा वहां ऐसी खबि आयी नक सब सेना समुद्र के उस पाि आ ियी

है ।।

तब िावणने सब मंनत्रयोसे पूुँछा की तुम अपना अपना जो योग्य मत हो वह कहो। तब वे सब

मंत्री हुँ से औि चुप लिा कि िह िए (इसमें सलाह की क न-सी बात है ?)।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नजतेहु सुिासुि तब श्रम नाहीं।

नि बानि केनह लेखे माहीं॥

नफि बोले की हे नाथ! जब आपने दे वता औि दै त्योंको जीता उसमेंभी आपको श्रम नही हुआ

तो मनुष्य औि वानि तो क न निनती है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सनचव बैद िुि तीनन ज ं नप्रय बोलनहं भय आस

िाज धमय तन तीनन कि होइ बेनिहीं नास ॥37॥

जो मंत्री भय वा लोभसे िाजाको सुहाती बात कहता है , तो उसके िाजका तुिंत नाश हो जाता

है , औि जो वैद्य िोिीको सुहाती बात कहता है तो िोिीका वेिही नाश हो जाता है , तथा िुरु

जो नशष्यके सुहाती बात कहता है , उसके धमयका शीघ्रही नाश हो जाता है ॥37॥
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सुंदिकाण्ड – 38

च पाई – सुंदिकाण्ड

सोइ िावन कहुुँ बनी सहाई।

अस्तुनत किनहं सुनाइ सुनाई॥

अवसि जानन नबभीषनु आवा।

भ्राता चिन सीसु तेनहं नावा॥

सो िावणके यहां वैसीही सहाय बन ियी अथाय त् सब मंत्री सुना सुना कि िावणकी स्तुनत किने

लिे।।

उस अवसिको जानकि नवभीषण वहां आया औि बड़े भाईके चिणोंमें उसने नसि नवाया।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पुनन नसरु नाइ बैठ ननज आसन।

बोला बचन पाइ अनुसासन॥

ज कृपाल पूुँनछहु मोनह बाता।

मनत अनुरप कहउुँ नहत ताता॥

नफि प्रणाम किके वह अपने आसनपि जा बैठा।।

औि िावणकी आज्ञा पाकि यह वचन बोला, हे कृपालु! आप मुससे जो बात पूछते हो सो है

तात! मैं भी मेिी बुन्हद्धके अनुसाि कहं िा।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जो आपन चाहै कल्याना।

सुजसु सुमनत सुभ िनत सुख नाना॥

सो पिनारि नललाि िोसाईं।

तजउ चउनथ के चंद नक नाईं॥

हे तात! जो आप अपना कल्याण, सुयश, सुमनत, शुभ-िनत, औि नाना प्रकािका सुख चाहते हो।।

तब तो हे स्वामी! पििीके नललािका (ललाट को) च थके चां दकी नाई (तिह) त्याि दो

(जैसे लोि च थ के चंद्रमा को नहीं दे खते , उसी प्रकाि पििी का मुख ही न दे खे)।।
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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

च दह भुवन एक पनत होई।

भूतद्रोह नतष्टइ ननहं सोई॥

िुन सािि नािि नि जोऊ।

अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

चाहो कोई एकही आदमी च दहा लोकोंका पनत होजावे पिं तु जो प्राणीमात्रसे द्रोह िखता है वह

न्हथथि नहीं िहता अथाय त् तुिंत नष्ट हो जाता है ।ुँ ।

जो आदमी िुणोंका सािि औि चतुि है पिं तु वह यनद थोड़ा भी लोभ कि जाय तो उसे

कोईभी अच्छा नहीं कहता।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ निक के पंथ।

सब परिहरि िघुबीिनह भजहु भजनहं जेनह संत ॥38॥

हे नाथ! ये सद्ग्रन्थ अथाय त् वेद आनद शाि ऐसे कहते हैं नक काम, कोध, मद औि लोभ ये सब

निकके मािय हैं इसवास्ते इिें छोड़कि िामचन्द्रजीके चिणोंकी सेवा किो ॥38॥
सुंदिकाण्ड – 39 (Sundarkand Katha – 39)

च पाई – सुंदिकाण्ड

तात िाम ननहं नि भूपाला।

भुवनेस्वि कालहु कि काला॥

ब्रह्म अनामय अज भिवं ता।

ब्यापक अनजत अनानद अनंता॥

हे तात! िाम मनुष्य औि िाजा नहीं हैं , नकंतु वे साक्षात नत्रलोकीनाथ औि कालके भी काल

है ।।

जो साक्षात् पिब्रह्म, नननवयकाि, अजन्मा, सवयव्यापक, अजेय, आनद औि अनंत ब्रह्म है ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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िो नद्वज धेनु दे व नहतकािी।

कृपा नसंधु मानुष तनुधािी॥

जन िं जन भंजन खल ब्राता।

बेद धमय िच्छक सुनु भ्राता॥

वे कृपानसंधु ि , ब्राह्मण, दे वता औि पृथ्वीका नहत किनेके नलये , दु ष्टोके दलका संहाि किनेके

नलये, वेद औि धमयकी िक्षा किनेके नलये प्रकट हुए हे ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तानह बयरु तनज नाइअ माथा।

प्रनतािनत भंजन िघुनाथा॥

दे हु नाथ प्रभु कहुुँ बैदेही।

भजहु िाम नबनु हे तु सनेही॥

सो शिणितोंके संकट नमटानेवाले उन िामचन्द्रजीको वैि छोड़कि प्रणाम किो।।

हे नाथ! िामचन्द्रजीका सीता दे दीनजए औि कामना छोडकि स्नेह िखनेवाले िामका भजन

किो।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सिन िएुँ प्रभु ताहु न त्यािा।

नबस्व द्रोह कृत अघ जेनह लािा॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन।

सोइ प्रभु प्रिट समुझु नजयुँ िावन॥

हे नाथ! वे शिण जानेपि ऐसे अधमीको भी नहीं त्यािते नक नजसको नवश्वद्रोह किनेका पाप

लिा हो।।

हे िावण! आप अपने मनमें ननश्चय समझो नक नजनका नाम लेनेसे तीनों प्रकािके ताप ननवृि

हो जाते हैं वेही प्रभु आज पृथ्वीपि प्रकट हुए हैं ।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

बाि बाि पद लािउुँ नबनय किउुँ दससीस।

परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥39(क)॥

हे िावण! मैं आपके वािं वाि पावोंमें पड़कि नवनती किता हुँ , सो मेिी नवनती सुनकि आप

मान, मोह, औि मदको छोड़ श्रीिामचन्द्रजीकी सेवा किो ॥39(क)॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

मुनन पुलन्हस्त ननज नसष्य सन कनह पठई यह बात।

तुित सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥39(ख)॥

पुलस्त्यऋषीने अपने नशष्यको भेजकि यह बात कहला भेजीथी सो अवसि पाकि यह बात हे

िावण! मैंने आपसे कही है ॥39(ख)॥


सुंदिकाण्ड – 40 (Sundarkand Lyrics – 40)

च पाई – सुंदिकाण्ड

माल्यवंत अनत सनचव सयाना।

तासु बचन सुनन अनत सुख माना॥

तात अनुज तव नीनत नबभूषन।

सो उि धिहु जो कहत नबभीषन॥

वह माल्यावान नाम एक सुबुन्हद्ध मंत्री बैठा हुआ था. वह नवभीषणके वचन सुनकि. अनतप्रसन्न

हुआ ।।

औि उसने िावणसे कहा नक तात ‘आपका छोटाभाइ बड़ा नीनत जाननेवाला है ुँ इसवास्ते

नबभीषण जो बात कहता है उसी बातको आप अपने मनमें धािण किो।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

रिपु उतकिष कहत सठ दोऊ।

दू रि न किहु इहाुँ हइ कोऊ॥


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माल्यवंत िह ियउ बहोिी।

कहइ नबभीषनु पुनन कि जोिी॥

माल्यवान्की यह बात सु नकि िावणने कहा नक हे िाक्षसो! ये दोनों नीच शत्रुकी बड़ाई किते

हैं उनको तुममेंसे कोईभी यहां से ननकाल नहीं दे ने यह क्ा बात है ।।

तय माल्यवान् तो उठकि अपने घिको चला िया. औि नबभीषणने हाथ जोड़कि नफि कहा।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुमनत कुमनत सब कें उि िहहीं।

नाथ पुिान ननिम अस कहहीं॥

जहाुँ सुमनत तहुँ संपनत नाना।

जहाुँ कुमनत तहुँ नबपनत ननदाना॥

नक हे नाथ! वेद औि पुिानोमें ऐसा कहा है नक सुबुन्हद्ध औि कुबुन्हद्ध सबके मनमें िहती है

जहा सुमनत है , वहा संपदा है . आि जहा कुबुन्हद्ध है वहां नवपनि।।


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तव उि कुमनत बसी नबपिीता।

नहत अननहत मानहु रिपु प्रीता॥

कालिानत नननसचि कुल केिी।

तेनह सीता पि प्रीनत घने िी॥

हे िावण! आपके हृदयमें कुबुन्हद्ध आ बसी है इसीसे आप नहत औि अननहतको. नवपिीत

मानते हो की नजससे शत्रुको प्रीनत होती है ।।

जो िाक्षसोंके कुलकी कालिानत्र है उस सीतापि आपकी बहुत प्रीनत हैं यह कुबुन्हद्ध नहीं तो औि

क्ा हे ।।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

तात चिन िनह मािउुँ िाखहु मोि दु लाि।

सीता दे हु िाम कहुुँ अनहत न होइ तुम्हाि ॥40॥


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हे तात में चिण पकडकि आपसे प्राथयना किता हं सो मेिी प्राथयना अंिीकाि किो आप सीता

िामचंद्रजीको दे दो, नजससे आपका बहुत भला होिा ॥40॥


सुंदिकाण्ड – 41 (Sundarkand with Hindi Meaning – 41)

च पाई – सुंदिकाण्ड

बुध पुिान श्रुनत संमत बानी।

कही नबभीषन नीनत बखानी॥

सुनत दसानन उठा रिसाई।

खल तोनह ननकट मृत्यु अब आई॥

सयाने नबभीषणने नीनतको कहकि वेद औि पुिाणके संमत वाणी कही||

नजसको सुनकि िावण िुस्सा होकि उठ खड़ाहुआ औि बोला नक हे दु ष्ट! तेिी मृत्यु ननकट

आियी दीखती है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नजअनस सदा सठ मोि नजआवा।

रिपु कि पच्छ मूढ तोनह भावा॥

कहनस न खल अस को जि माहीं।

भुज बल जानह नजता मैं नाहीं॥

हे नीच! सदा तू जीनवका तो मेिी पाता है औि शत्रुका पक्ष उसका सदा अच्छा लिता है ||

हे दु ष्ट! तू यह नही कहता नक नजसको हमने अपन भुजबलसे नहीं जीता ऐसा जित् में क न

है ? ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मम पुि बनस तपनसि पि प्रीती।

सठ नमलु जाइ नतिनह कहु नीती॥

अस कनह कीिे नस चिन प्रहािा।

अनुज िहे पद बािनहं बािा॥


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हे शठ मेिी नििीमें िहकि जो तू तपस्वीसे प्रीनत किता है तो हे नीच! उससे जा नमल औि

उसीसे नीनतका उपदे श कि||

ऐसे कहकि िावणने लातका प्रहाि; नकया पिं तु नबभीषणने तो इतने पिभी वािं त्राि पैिही

पकड़े ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

उमा संत कइ इहइ बड़ाई।

मंद कित जो किइ भलाई॥

तुम्ह नपतु सरिस भलेनहं मोनह मािा।

िामु भजें नहत नाथ तुम्हािा॥

नशवजी कहते हैं , है पावय ती! सत्पुरुषोंकी यही बड़ाई है नक बुिा किनेपि भी वे तो पीछा

उसकी भलाईही किते हैं ||

नवभीषण ने कहा, हे िावण! आप मेिे नपताके बिाबि हो इसवास्ते आपने जो मुझको मािा वह

ठीकही है , पिं तु आपका भला तो िामचन्द्रजीके भजनसेही होिा||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सनचव संि लै नभ पथ ियऊ।

सबनह सुनाइ कहत अस भयऊ॥

ऐसे कहकि नबभीषण अपने मंनत्रयोंको सं ि लेकि आकाशमािय िया औि जातेसमय सबको

सुनाकि ऐसे कहता िया||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।

मैं िघुबीि सिन अब जाउुँ दे हु जनन खोरि ॥41॥

नक हे प्रभु! िामचन्द्रजी सत्यप्रनतज्ञ है औि तेिी सभा कालके आधीन है | औि में अब

िामचन्द्रजीके शिण जाता हुँ सो मुझको अपिाध मत लिाना ॥41॥


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सुंदिकाण्ड – 42 (Sunderkand Hindi – 42)

च पाई – सुंदिकाण्ड

अस कनह चला नबभीषनु जबहीं।

आयूहीन भए सब तबहीं॥

साधु अवग्या तुित भवानी।

कि कल्यान अन्हखल कै हानी॥

नजस वक़्त नवभीषण ऐसे कहकि लंकासे चले उसी समय तमाम िाक्षस आयुहीन हो िये॥

महादे वजीने कहा नक हे पावयती! साधू पुरुषोकी अवज्ञा किनी ऐसी ही बुिी है नक वह तुिंत

तमाम कल्याणको नाश कि दे ती है ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िावन जबनहं नबभीषन त्यािा।

भयउ नबभव नबनु तबनहं अभािा॥

चलेउ हिनष िघुनायक पाहीं।

कित मनोिथ बहु मन माहीं॥

िावणने नजस समय नबभीषणका परित्याि नकया उसी क्षण वह मंदभािी नवभवहीन हो िया॥

नबभीषण मनमें अनेक प्रकािके मनोिथ कितेहुए आनंदके साथ िामचन्द्रजीके पास चला॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दे न्हखहउुँ जाइ चिन जलजाता।

अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥

जे पद पिनस तिी रिषनािी।

दं डक कानन पावनकािी॥

नवभीषण मनमें नवचाि किने लिा नक आज जाकि मैं िघुनाथजीके भक्तलोिोंके सुखदायी अरुण

(लाल वणय के सुंदि चिण) औि सुकोमल चिणकमलोंके दशयन कर


ं िा॥

कैसे हे चिणकमल नक नजनको पिस कि (स्पशय पाकि) ि तम ऋनषकी िी (अहल्या)

ऋनषके शापसे पाि उतिी. नजनसे दं डक वन पनवत्र दु आ है ॥


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जे पद जनकसुताुँ उि लाए।

कपट कुिं ि सं ि धि धाए॥

हि उि सि सिोज पद जेई।

अहोभाग्य मैं दे न्हखहउुँ ते ई॥

नजनको सीताजी अपने हृदयमें सदा लिाये िहतीं है . जो कपटी हरिण ( मािीच िाक्षस) के

पीछे द ड़े ॥

रप हृदयरपी सिोवि भीति कमलरप हैं , उन चिणोको जाकि मैं दे खूंिा। अहो! मेिा बड़ा

भाग्य हे ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

नजि पायि के पादु कन्हि भितु िहे मन लाइ।

ते पद आजु नबलोनकहउुँ इि नयनन्हि अब जाइ ॥42॥

नजन चिणोकी पादु काओमें भितजी िातनदन मन लिाये है आज मैं जाकि इिी नेत्रोसे उन

चिणोंको दे खूंिा ॥42॥


सुंदिकाण्ड – 43 (Sampoorna Sundarkand – 43)

च पाई – सुंदिकाण्ड

ऐनह नबनध कित सप्रेम नबचािा।

आयउ सपनद नसंदु एनहं पािा॥

कनपि नबभीषनु आवत दे खा।

जाना कोउ रिपु दू त नबसेषा॥

नयभीषण इस प्रकाि प्रेमसनहत अनेक प्रकािके नवचाि किते हुए तुिंत समुद्रके इस पाि आए॥

वानिोंने नबभीषणको आते दे खकि जाना नक यह कोई शत्रुका दू त है ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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तानह िान्हख कपीस पनहं आए।

समाचाि सब तानह सुनाए॥

कह सुग्रीव सुनहु िघुिाई।

आवा नमलन दसानन भाई॥

वानि उनको वही िखकि सुग्रीवके पास आये औि जाकि उनके सब समाचाि सुग्रीवको

सुनाये॥

तब सुग्रीवने जाकि िामचन्द्रजीसे कहा नक हे प्रभु ! िावणका भाई आपसे नमलनेको आया है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह प्रभु सखा बूनझऐ काहा।

कहइ कपीस सुनहु निनाहा॥

जानन न जाइ ननसाचि माया।

कामरप केनह कािन आया॥

तब िामचन्द्रजीने कहा नक हे सखा! तुम्हािी क्ा िाय है (तुम क्ा समझते हो)? तब सुग्रीवने

िामचन्द्रजीसे कहा नक हे निनाथ! सुनो,॥

िाक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती. इसीबास्ते यह नहीं कह सकते नक यह मनोवां नछत

रप धिकि यहां क्ों आया है ?॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

भेद हमाि लेन सठ आवा।

िान्हखअ बाुँ नध मोनह अस भावा॥

सखा नीनत तुम्ह नीनक नबचािी।

मम पन सिनाित भयहािी॥

मेिे मनमें तो यह जुँचता है नक यह शठ हमािा भेद लेने को आया है । इसवास्ते इसको

बां धकि िख दे ना चानहये॥


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तब िामचन्द्रजीने कहा नक है सखा! तुमने यह नीनत बहुत अच्छी नबचािी पिं तु मेिा पण

शिणाितोंका भय नमटाने का है ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनन प्रभु बचन हिष हनुमाना।

सिनाित बच्छल भिवाना॥

िामचन्द्रजीके वचन सुनकि हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ नक भिवान् सच्चे शिणाितवत्सल हैं

(शिण में आए हुए पि नपता की भाुँ नत प्रेम किनेवाले)॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सिनाित कहुुँ जे तजनहं ननज अननहत अनुमानन।

ते नि पावुँि पापमय नतिनह नबलोकत हानन ॥43॥

कहा है नक जो आदमी अपने अनहतको नवचाि कि शिणाितको त्याि दे ते हैं . उन

आदनमयोंको पामि (पािल) औि पापरप जानना चानहये क्ोंनक उनको दे खनेहीसे हानन होती

है ॥43॥
सुंदिकाण्ड – 44 (Sundarkand Hindi Arth – 44)

च पाई – सुंदिकाण्ड

कोनट नबप्र बध लािनहं जाह।

आएुँ सिन तजउुँ ननहं ताह॥

सनमुख होइ जीव मोनह जबहीं।

जन्म कोनट अघ नासनहं तबहीं॥

प्रभुने कहा नक चाहे कोई महापापी होवे अथाय त् नजसको किोड़ ब्रह्महत्याका पाप लिा

हुआ होवे औि वह भी यनद मेिे शिण चला आवे तो में, उसको नकसीकदि छोंड़ नहीं सकता॥

यह जीव जब मेिे सन्मुख हो जाता है तब मैं उसके किोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कि दे ता

हं ॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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पापवंत कि सहज सुभाऊ।

भजनु मोि तेनह भाव न काऊ॥

ज ं पै दु ष्ट हृदय सोइ होई।

मोिें सनमुख आव नक सोई॥

पापी पुरुषोंका यह सहज स्वभाव है नक उनको नकसी प्रकािसे मेिा भजन अच्छा नहीं लिता॥

हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह िावण का भाई) दु ष्टहृदय होिा क्ा वह मेिे सत्पि आ सकेिा?

कदानप नहीं॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ननमयल मन जन सो मोनह पावा।

मोनह कपट छल नछद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा।

तबहुुँ न कछु भय हानन कपीसा॥

दे सुग्रीव! जो आदमी ननमयल अंतुःकिणवाला होिा वही मुझको पावेिा क्ोंनक मुझको छल

नछद्र औि कपट कुछभी अच्छा नहीं लिता॥

कदानचत् िावणने इसको भेद लेनेके नलए भेजा होिा तोभी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो

कुछ भय है औि न नकसी प्रकािकी हानन है ॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जि महुुँ सखा ननसाचि जेते।

लनछमनु हनइ नननमष महुुँ तेते॥

ज ं सभीत आवा सिनाईं।

िन्हखहउुँ तानह प्रान की नाईं॥

क्ोंनक जित् में नजतने िाक्षस है उन सबोंको लक्ष्मण एक क्षणभिमें माि डालेिा॥

औि उनमेंसे भयभीत होकि जो मेिे शिण आजायिा उसको तो में अपने प्राणोंके बिाबि

िखूुँिा॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

उभय भाुँ नत तेनह आनहु हुँ नस कह कृपाननकेत।

जय कृपाल कनह कनप चले अंिद हनू समेत ॥44॥

हुँ सकि कृपाननधान श्रीिामने कहा नक हे सु ग्रीव! चाहो वह शुद्ध मनसे आया हो अथवा

भेदबुन्हद्ध नवचािकि आया हो, दोनो ही तिहसे इसको यहां ले आओ। िामचन्द्रजीके ये वचन

सुनकि अंिद औि हनुमान् आनद सब बानि हे कृपालु! आपका. जय हो ऐसे कहकि चले

॥44॥
सुंदिकाण्ड – 45

च पाई – सुंदिकाण्ड

सादि तेनह आिें करि बानि।

चले जहाुँ िघुपनत करुनाकि॥

दू रिनह ते दे खे द्व भ्राता।

नयनानंद दान के दाता॥

वे वानि आदिसनहत नवभीषणको अपने आिे लेकि उस थथानको चले नक जहां करुणाकी खान

श्री िघुनाथजी नविाजमान थे||

नवभीषणने नेत्रोंको आनन्द दे नेवाले उन दोनों भाइयोंको दू ि ही से दे खा||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बहुरि िाम छनबधाम नबलोकी।

िहे उ ठटु नक एकटक पल िोकी॥

भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।

स्यामल िात प्रनत भय मोचन॥

नफि वह छनवके धाम श्रीिामचन्द्रजीको दे खकि पलकोको िोककि एकटक दे खते खड़े िहे ||

श्रीिघुनाथजीका स्वरप कैसा है नजसमें लंबी भुजा है , कमलसे लालनेत्र हैं | मेघसा सधन श्याम

शिीि है , जो शिणाितोंके भयको नमटानेवाला है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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सघ कंध आयत उि सोहा।

आनन अनमत मदन मन मोहा॥

नयन नीि पुलनकत अनत िाता।

मन धरि धीि कही मृदु बाता॥

नजसके नसंहकेसे कंधे है , नवशाल वक्षुःथथल शोभायमान है , मुख ऐसा है नक नजसकी छनवको

दे खकि असंख्य कामदे व मोनहत हो जाते हैं ||

उस स्वरपका दशयन होतेही नवभीषणको नेत्रोंमें जल आिया| शिीि अत्यंत पुलनकत हो िया,

तथानप उसने मनमें धीिज धिकि ये सुकोमल वचन कहे ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाथ दसानन कि मैं भ्राता।

नननसचि बंस जनम सुित्राता॥

सहज पापनप्रय तामस दे हा।

जथा उलूकनह तम पि नेहा॥

नक हे दे वताओंके पालक! मेिा िाक्षसोंके वंशमें तो जन्म है औि हे नाथ! मैं िावणका भाई||

स्वभावसेही पाप मुझको नप्रय लिता है , औि यह मेिा तामस शिीि है सो यह बात ऐसी है नक

जैसे उल्लूका अंधकािपि सदा स्नेह िहता है | ऐसे मेिे पाप पि प्याि है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

श्रवन सुजसु सुनन आयउुँ प्रभु भंजन भव भीि।

त्रानह त्रानह आिनत हिन सिन सुखद िघुबीि ॥45॥

तथानप हे प्रभु ! हे भय औि संकट नमटानेवाले! मै कानोंसे आपका सुयश सुनकि आपके

शिण आया हुँ | सो हे आनतय (दु ुःख) हिण हािे ! हे शिणाितोंको सुख दे नेवाले प्रभु ! मेिी िक्षा

किो िक्षा किो ॥45॥


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सुंदिकाण्ड – 46

च पाई – सुंदिकाण्ड

अस कनह कित दं डवत दे खा।

तुित उठे प्रभु हिष नबसे षा॥

दीन बचन सुनन प्रभु मन भावा।

भुज नबसाल िनह हृदयुँ लिावा॥

ऐसे कहते हुए नबभीषणको दं डवत किते दे खकि प्रभु बड़े अल्हादके साथ तुिंत उठ खड़े

हए||

औि नबभीषणके दीन वचन सुनकि प्रभुके मनमें वे बहुत भाए आि उसीसे प्रभुने अपनी नवशाल

भुजासे उनको उठाकि अपनी छातीसे लिाया||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अनुज सनहत नमनल नढि बैठािी।

बोले बचन भित भयहािी॥

कहु लंकेस सनहत परिवािा।

कुसल कुठाहि बास तुम्हािा॥

लस्मणसनहत प्रभुने उससे नमलकि उसको अपने पास नबठाया. नफि भक्तोंके नहत किनेवाले

प्रभुने ये वचन कहे ||

नक है लंकेश नवभीषण! आपके परिवािसनहत कुशल तो है ? क्ोंनक आपका िहना कुमानिययोंके

बीचमें है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

खल मंडली बसहु नदनु िाती।

सखा धिम ननबहइ केनह भाुँ ती॥

मैं जानउुँ तुम्हारि सब िीती।

अनत नय ननपुन न भाव अनीती॥


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िात नदन तुम दु ष्टोंकी मंडलीके बीच िहते हो इससे , हे सखा! आपका धमय कैसे ननभता होिा||

मैने तुम्हािी सब िनत जानली है | तुम बडे नीनतननपुण हो औि तुम्हािा अनभप्राय अन्यायपि नहीं

है (तुम्हें अनीनत नहीं सु हाती)||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बरु भल बास निक कि ताता।

दु ष्ट संि जनन दे इ नबधाता॥

अब पद दे न्हख कुसल िघु िाया।

ज ं तुम्ह कीन्हि जानन जन दाया॥

िामचन्द्रजीके ये वचन सुनकि नवभीषणने कहा नक हे प्रभु ! चाहे निकमें िहना अच्छा है पिं तु

दु ष्टकी संिनत अच्छी नहीं. इसनलये हे नवधाता! कभी दु ष्टकी संिनत मत दे ओ||

हे िधुनाथजी! आपने अपना जन जानकि जो मुझपि दया की, उससे आपके दशय न हुए सो| हे

प्रभु! अब में आपके चिणोके दशयन किनेसे कुशल हुँ ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

तब लनि कुसल न जीव कहुुँ सपनेहुुँ मन नबश्राम।

जब लनि भजत न िाम कहुुँ सोक धाम तनज काम ॥46॥

है प्रभु! यह मनुष्य जबतक शोकके धामरप काम अथाय त् लालसाको छोंड कि श्रीिामचन्द्रजीके

चिणोंकी सेवा नहीं किता तबतक इस जीवको स्वप्रमें भी न तो कुशल है औि न कहीं मनको

नवश्राम (शां नत) है ॥46॥


सुंदिकाण्ड – 47

च पाई – सुंदिकाण्ड

तब लनि हृदयुँ बसत खल नाना।

लोभ मोह मच्छि मद माना॥


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जब लनि उि न बसत िघुनाथा।

धिें चाप सायक कनट भाथा॥

जबतक धनुप बाण धािण नकये औि कमिमें तिकस कसेहुए श्रीिामचन्द्रजी हृदयमें आकि नहीं

नबिाजते तबतक लोभ, मोह, मत्सि, मद औि मान ये अनेक दु ष्ट हृदयके भीति ननवास कि

सकते हैं औि जब आप आकि हृदयमें नविाजते हो तब ये सब भाि जाते हैं ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ममता तरुन तमी अुँनधआिी।

िाि द्वे ष उलूक सुखकािी॥

तब लनि बसनत जीव मन माहीं।

जब लनि प्रभु प्रताप िनब नाहीं॥

जबतक जीवके हृदयमें प्रभुका प्रतापरप सूयय उदय नहीं होता तबतक िािद्वे षरप उल्लुओं को

सुख दे नेवाली ममतारप सघन अंधकािमय अंनधयािी िानत्र िहा किती है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अब मैं कुसल नमटे भय भािे ।

दे न्हख िाम पद कमल तु म्हािे ॥

तुम्ह कृपाल जा पि अनुकूला।

तानह न ब्याप नत्रनबध भव सूला॥

हे िाम! अब मैंने आपके चिणकमलोंका दशयन कि नलया है इससे अब मैं कुशल हं औि

मेिा नवकट भय भी ननवृि हो िया है ||

हे प्रभु! हे दयालु! आप नजसपि अनुकूल िहते हो उसको तीन प्रकािके भय औि दु ुःख

(आध्यान्हत्मक, आनधदै नवक औि आनधभ नतक ताप) कभी नहीं व्यापते ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मैं नननसचि अनत अधम सुभाऊ।

सुभ आचिनु कीि ननहं काऊ॥


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जासु रप मुनन ध्यान न आवा।

तेनहं प्रभु हिनष हृदयुँ मोनह लावा॥

हे प्रभु! मैं जानतका िाक्षस हं | मेिा स्वभाव अनत अधम है | मैंने कोईभी शु भ आचिन नहीं नकया

है ||

नतसपिभी प्रभुने कृपा किके आनंदसे मुझको छातीसे लिाया नक नजस प्रभुके स्वरपको ध्यान

पाना मुननलोिोंको कनठन है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

अहोभाग्य मम अनमत अनत िाम कृपा सुख पुंज।

दे खेउुँ नयन नबिं नच नसव सेब्य जुिल पद कंज ॥47॥

सुखकी िानश िामचन्द्रजीकी कृपासे अहो! आज मेिा भाग्य बड़ा अनमत औि अपाि हैं क्ोनक

ब्रह्माजी औि महादे वजी नजन चिणािनवन्दयुिलकी (युिल चिण कमलों नक) सेवा किते हैं उन

चिणकमलोंका मैंने अपने नेत्रोंसे दशयन नकया ॥47॥


सुंदिकाण्ड – 48 (Sunder Kand Hindi – 48)

च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनहु सखा ननज कहउुँ सुभाऊ।

जान भुसुंनड संभु निरिजाऊ॥

ज ं नि होइ चिाचि द्रोही।

आवै सभय सिन तनक मोही॥

नबभीषणकी भन्हक्त दे खकि िामचन्द्रजीने कहा नक हे सखा! मैं अपना स्वभाव कहता हं , सो तू

सुन, मेिे स्वभावको या तो काकभुशुंनड जानते हैं या महादे व जानते है , या पावयती जानती है |

इनके नसवा दू सिा कोई नहीं जानता||

प्रभु कहते हैं नक जो मनुष्य चिाचिसे (जड़-चेतन) द्रोह िखता हो, औि वह भी जो भयभीत

होंके मेिे शिण आ जाए तो||


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तनज मद मोह कपट छल नाना।

किउुँ सद्य तेनह साधु समाना॥

जननी जनक बंधु सुत दािा।

तनु धनु भवन सुहृद परिवािा॥

मद, मोह, कपट औि नानाप्रकािके छलको छोड़कि हे सखा! मैं उसको साधु पुरुषके समान

किलेता हुँ ||

दे खो, माता, नचता, बंचु, पुत्र, श्री, सन, धन, घि, सुहृद औि कुटु म्ब
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सब कै ममता ताि बटोिी।

मम पद मननह बाुँ ध बरि डोिी॥

समदिसी इच्छा कछु नाहीं।

हिष सोक भय ननहं मन माहीं॥

इन सबके ममतारप तािोंको इकट्ठा किके एक सुन्दि डोिी बट (डोिी बनाकि) औि उससे

अपने मनको मेिे चिणोंमें बां ध दे | अथाय त् सबमेंसे ममता छोड़कि केवल मुझमें ममता िखें, जैसे

”त्वमेव माता नपता त्वमेव त्वमेव बंधूश्चा सखा त्वमेव। त्वमेव नवद्या द्रनवणं त्वमेव त्वमेव सवय मम

दे वदे व”||

जो भक्त समदशी है औि नजसके नकसी प्रकािकी इच्छा नहीं हे तथा नजसके मनमें हषय , शोक,

औि भय नहीं है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अस सज्जन मम उि बस कैसें।

लोभी हृदयुँ बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत नप्रय मोिें ।

धिउुँ दे ह ननहं आन ननहोिें ॥


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ऐसे सत्पुरुप मेिे हृदयमें कैसे िहते है , नक जैसे लोभी आदमीके मन. धन सदा बसा िहता है

||

हे नबभीषण! तुम्हािे जैसे जो प्यािे सन्त भक्त हैं उिीके अथय मैं दे ह धािण किता हं औि

दू सिा मेिा कुछभी प्रयोजन नहीं है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सिुन उपासक पिनहत ननित नीनत दृढ नेम।

ते नि प्रान समान मम नजि कें नद्वज पद प्रेम ॥48॥

जो लोि सिुण उपासना कितै हैं , बड़े नहतकािी हैं , नीनतमें ननित है , ननयममें दृढ है औि नजनकी

ब्राह्मणोंके चिणकमलों प्रीनत है वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान प्यािे लिते हें ॥48॥
सुंदिकाण्ड – 49

च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनु लंकेस सकल िुन तोिें ।

तातें तुम्ह अनतसय नप्रय मोिें ॥

िाम बचन सुनन बानि जूथा।

सकल कहनहं जय कृपा बरथा॥

है लंकेश (लंकापनत)! सुनो, आपमें सब िुण है औि इसीसे आप मुझको अनतशय प्यािें लिते

हो||

िामचन्द्रजीके ये वचन सुनकि तमाम वानिोंके झंु ड कहने लिे नक हे कृपाके पुंज! आपकी

जय हो||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनत नबभीषनु प्रभु कै बानी।

ननहं अघात श्रवनामृत जानी॥


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पद अंबुज िनह बािनहं बािा।

हृदयुँ समात न प्रेमु अपािा॥

ओि नवभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ उसको कणाय मृतरप जानकि तृप्त नहीं होता

था||

औि वािं वाि िामचन्द्द्वजीके चिणकमल धिकि ऐसा आल्हानदत हुआ नक वह अपाि प्रेम हृदयके

अंदि नहीं समाया||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनहु दे व सचिाचि स्वामी।

प्रनतपाल उि अंतिजामी॥

उि कछु प्रथम बासना िही।

प्रभु पद प्रीनत सरित सो बही॥

इस दशाको पहुुँ च कि नबभीषणने कहा नक हे दे व! चिाचिसनहत संसािके (चिाचि जितके)

स्वामी! हे शिणाितोंके पालक! हे हृदयके अंतयाय मी! सुननए,||

पहले मेिे जो कुछ वासना थी वहभी आपके चिणकमलकी प्रीनतरप नदीसे बह िई||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अब कृपाल ननज भिनत पावनी।

दे हु सदा नसव मन भावनी॥

एवमस्तु कनह प्रभु िनधीिा।

मािा तुित नसंधु कि नीिा॥

हे कृपालू! अब आप दया किके मुझको आपकी वह पावन किनहािी भन्हक्त दीनजए नक

नजसको महादे वजी सदा धािण किते हैं ||

िणधीि िामचन्द्रजीने एमवस्तु ऐसे कहकि तुित समुद्रका जल मुँिवाया||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

जदनप सखा तव इच्छा नहीं।

मोि दिसु अमोघ जि माहीं॥


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अस कनह िाम नतलक ते नह सािा।

सुमन बृनष्ट नभ भई अपािा॥

औि कहा नक हे सखा! यद्यनप तेिे नकसी बातकी इच्छा नहीं है तथानप जित् में मेिा दशयन

अमोघ है अथाय त् ननष्फल नही है || ऐसे कहकि प्रभुने नबभीषणके िाजनतलक किनदया. उस

समय आकाशमेंसे अपाि पुष्ोंकी वषाय हुई||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

िावन क्रोध अनल ननज स्वास समीि प्रचंड।

जित नबभीषनु िाखेउ दीिे उ िाजु अखंड ॥49(क)॥

िावणका क्रोध तो अनिके समान है औि उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है | उससे जलते हुए

नवभीषणको बचाकि प्रभुने उसको अखंड िाज नदया ॥49(क)॥


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

जो संपनत नसव िावननह दीन्हि नदएुँ दस माथ।

सोइ संपदा नबभीषननह सकुनच दीन्हि िघुनाथ ॥49(ख)॥

महादे वने दश माथे दे नेपि िावणको जो संपदा दी थी वह संपदा कम समझकि िामचन्द्रजीने

नबभीषणको सकुचते हुए दी ॥49(ख)॥


सुंदिकाण्ड – 50

च पाई – सुंदिकाण्ड

अस प्रभु छानड़ भजनहं जे आना।

ते नि पसु नबनु पूुँछ नबषाना॥

ननज जन जानन तानह अपनावा।

प्रभु सुभाव कनप कुल मन भावा॥


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ऐसे प्रभुको छोड़कि जो आदमी दू सिे को भजते हैं वे मनुष्य नवना सींि पूंछके पशु हैं ||

प्रभुने नबभीषणको अपना भक्त जानकि जो अपनाया, यह प्रभुका स्वभाव सब वानिोंको अच्छा

लिा||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पुनन सबयग्य सबय उि बासी।

सबयरप सब िनहत उदासी॥

बोले बचन नीनत प्रनतपालक।

कािन मनुज दनुज कुल घालक॥

प्रभु तो सदा सवयत्र, सबके घटमें िहनेवाले (सबके हृदय में बसनेवाले), सवयरप (सब रपों में

प्रकट), सवयिनहत औि सदा उदासीनही हैं ||

िाक्षसकुलके संहाि किने वाले, नीनतको पालनेवाले, मायासे मनुष्यमूनतय (कािण से भक्तों पि कृपा

किने के नलए मनुष्य बने हुए), श्रीिामचन्द्रजीने सब मंनत्रयोंसे कहा||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनु कपीस लंकापनत बीिा।

केनह नबनध तरिअ जलनध िंभीिा॥

संकुल मकि उिि झष जाती।

अनत अिाध दु स्ति सब भाुँ नत॥

नक हे लंकेश (लंकापनत नवभीषण)! हे वानििाज! हे वीि पुरुषो सुनो, अब इस िंभीि समुद्रको

पाि कैसे उतिें ? वह युन्हक्त ननकालो||

क्ोंनक यह समुद्र सपय , मिि औि अनेक जानतकी मछनलयोंसे व्याप्त हो िहा है , बड़ा अथाह है ,

इसीसे सब प्रकािसे मुझको तो दु स्ति (कनठन) मालूम होता है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह लंकेस सुनहु िघु नायक।

कोनट नसंधु सोषक तव सायक॥


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जद्यनप तदनप नीनत अनस िाई।

नबनय करिअ सािि सन जाई॥

उसवक्त लंकेश अथाय त् नवभीषणने कहा नक हे िधुनाथ! सुनो, आपके बाण ऐसे हैं नक नजनसे

किोडो समुद्र सूख जाय, तब इस समुद्रका क्ा भाि है ||

तथानप नीनतमें ऐसा कहा है नक पहले साम वचनोंसे काम लेना चानहये , इसवास्ते समुद्रके पास

पधाि कि आप नवनती किो||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

प्रभु तुम्हाि कुलिुि जलनध कनहनह उपाय नबचारि॥

नबनु प्रयास सािि तरिनह सकल भालु कनप धारि ॥50॥

नबभीषण कहता है नक हे प्रभु ! यह समुद्र आपका कुलिुरु है | सो नवचाि कि अवश्य उपाय

कहे िा औि उपायको धिकि ये वानि औि िीछ नवनाही परिश्रम समुद्रके पाि हो जाएुँ िे ॥50॥
सुंदिकाण्ड – 51

च पाई – सुंदिकाण्ड

सखा कही तुम्ह नीनत उपाई।

करिअ दै व ज ं होइ सहाई॥

मंत्र न यह लनछमन मन भावा।

िाम बचन सुनन अनत दु ख पावा॥

नबभीषणकी यह बात सुनकि िामचन्द्रजीने कहा नक हे सखा! तुमने यह उपाय तो बहुत अच्छा

बतलाया औि हम इस उपायको किें िे भी, पिं तु यनद दै व सहाय होिा तो सफल होिा||

यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लिी अतएव िामचन्द्रजीके वचन सुनकि लक्ष्मणने बड़ा

दु ख पाया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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नाथ दै व कि कवन भिोसा।

सोनषअ नसंधु करिअ मन िोसा॥

कादि मन कहुुँ एक अधािा।

दै व दै व आलसी पुकािा॥

औि लक्ष्मणने कहा नक हे नाथ! दै वका क्ा भिोसा है ? आप तो मनमें क्रोध लाकि समुद्रको

सुखा दीनजये ||

दै वपि भिोसा िखना यह तो कायि पुरुषोंके मनका एक आधाि है ; क्ोंनक वेही आलसी लोि

दै व किे िा सो होिा ऐसा नवचाि कि दै व दै व किके पुकािते िहते हैं ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनत नबहनस बोले िघु बीिा।

ऐसेनहं किब धिहु मन धीिा॥

अस कनह प्रभु अनुजनह समुझाई।

नसंधु समीप िए िघुिाई॥

लक्ष्मणके ये वचन सुनकि प्रभुने हुँ सकि कहा नक हे भाई! मैं ऐसेही कर
ं िा पि तू मनमे

कुछ धीिज धि||

प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके ननकट पधािे ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

प्रथम प्रनाम कीि नसरु नाई।

बैठे पुनन तट दभय डसाई॥

जबनहं नबभीषन प्रभु पनहं आए।

पाछें िावन दू त पठाए॥

औि प्रथमही प्रभुने जाकि समुद्रको प्रणाम नकया औि नफि कुश नबछा कि उसके तटपि

नविाजे ||

जब नबभीषण िामचन्द्रजीके पास चला आया तब पीछे से िावणने अपना दू त भेजा||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

सकल चरित नति दे खे धिें कपट कनप दे ह।

प्रभु िुन हृदयुँ सिाहनहं सिनाित पि नेह ॥51॥

उस दू तने कपटसे वानिका रप धिकि वहां का तमाम हाल दे खा. तहां प्रभुका शिणाितोंपि

अनतशय स्नेह दे खकि उसने अपने मनमें प्रभुके िुणोंकी बड़ी सिाहना की ॥51॥
सुंदिकाण्ड – 52

च पाई – सुंदिकाण्ड

प्रिट बखाननहं िाम सुभाऊ।

अनत सप्रेम िा नबसरि दु िाऊ॥

रिपु के दू त कनपि तब जाने।

सकल बाुँ नध कपीस पनहं आने॥

औि दे खते दे खते प्रेम ऐसा बढ िया नक वह नछपाना भूल कि िामचन्द्रजीके स्वभावकी प्रकटमें

प्रशंसा किने लिा||

जब वानिोने जाना नक यह शत्रुका दू त है तब उसे बां धकि सुग्रीवके पास लाये


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह सुग्रीव सुनहु सब बानि।

अंि भंि करि पठवहु नननसचि॥

सुनन सुग्रीव बचन कनप धाए।

बाुँ नध कटक चहु पास नफिाए॥

सुग्रीवने दे खकि कहा नक हे वानिो सुनो, इस िाक्षस दु ष्टको अंि-भंि किके भेज दो||

सुग्रीवके ये वचन सुनकि सब वानि द ड़े , नफि उसको बां ध कि कटक (सेना) में चािों ओि

नफिाया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

बहु प्रकाि मािन कनप लािे।

दीन पुकाित तदनप न त्यािे॥


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जो हमाि हि नासा काना।

तेनह कोसलाधीस कै आना॥

वानि उसको अनेक प्रकािसे मािने लिे औि वह अनेक प्रकािसे दीनकी भां नत पुकािने लिा

नफि भी वानिोंने उसको नहीं छोड़ा||

तब उसने पुकाि कि कहा नक जो हमािी नाक कान काटते है उनको श्रीिामचन्द्रजीकी शपथ

है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सुनन लनछमन सब ननकट बोलाए।

दया लानि हुँ नस तुित छोड़ाए॥

िावन कि दीजहु यह पाती।

लनछमन बचन बाचु कुलघाती॥

सेनामें खिभि सुनकि लक्ष्मणने उसको अपने पास बुलाया औि दया आ जानेसे हुँ सकि

लक्ष्मणने उसको छु ड़ा नदया||

एक पत्री नलख कि लक्ष्मणने उसको दी औि कहा नक यह पत्री िावणको दे ना औि उस

कुलघातीकों कहना नक ये लक्ष्मणके नहत वचन (संदेसे को) बाुँ चो||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

कहे हु मुखािि मूढ सन मम संदेसु उदाि।

सीता दे इ नमलहु न त आवा कालु तुम्हाि ॥52॥

औि उस मूखयसे मेिा बड़ा अपाि सन्दे शा मुहुँसेंभी कह दे ना नक या तो तू सीताजीको दे दे औि

हमािे शिण आजा, नही तो तेिा काल आया समझ ॥52॥


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सुंदिकाण्ड – 53

च पाई – सुंदिकाण्ड

तुित नाइ लनछमन पद माथा।

चले दू त बिनत िुन िाथा॥

कहत िाम जसु लंकाुँ आए।

िावन चिन सीस नति नाए॥

लक्ष्मणके ये वचन सुन तुिंत लक्ष्मणके चिणोंमें नशि झुका कि िामचन्द्रजीके िुणोंकी प्रशंसा

किता हुआ वह वहां से चला||

िामचन्द्रजीके यशकों िाता हुआ लंकामें आया. िावणके पास जाकि उसने िावणके चिणोंमें

प्रणाम नकया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नबहनस दसानन पूुँछी बाता।

कहनस न सुक आपनन कुसलाता॥

पुन कहु खबरि नबभीषन केिी।

जानह मृत्यु आई अनत नेिी॥

उस समय िावणने हुँ सकि उससे पूंछा नक हे शु क! अपनी कुशलताकी बात कहो||

औि नफि नवभीषणकी कुशल कहो, नक नजसकी म त बहुत ननकट आियी है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कित िाज लंका सठ त्यािी।

होइनह जव कि कीट अभािी॥

पुनन कहु भालु कीस कटकाई।

कनठन काल प्रेरित चनल आई॥

उस शठने लंकाको िाज किते किते छोड़नदया सो अब उस अभािेकी जवके (ज के) घुनके

(कीड़ा) समान दशा होिी अथाय त् जैसे जव पीसनेके साथ उसमेंका घुनभी पीस जाता है ऐसे

िामके साथ वह भी मािा जायिा||


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नफि कहो नक िीछ औि वानिोंकी से ना कैसी औि नकतनी है नक जो कनठन कालकी प्रेिणासे

इधिको चली आती है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नजि के जीवन कि िखवािा।

भयउ मृदुल नचत नसं धु नबचािा॥

कहु तपनसि कै बात बहोिी।

नजि के हृदयुँ त्रास अनत मोिी॥

हे शुक! अभी उनके जीवकी िक्षा किनेवाला नबचािा कोमलहृदय समुद्र हुआ है (उनके औि

िाक्षसों के बीच में यनद समुद्र न होता तो अब तक िाक्षस उिें मािकि खा िए होते )| सो

िहे , इससे नकतने नदन बचेंिे||

औि नफि उन तपन्हस्वयोकी बात कहो नजनके ह्रदयमें मेिी बड़ी त्रास बैठ िही है (मेिा बड़ा

डि है )||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

की भइ भेंट नक नफरि िए श्रवन सुजसु सुनन मोि।

कहनस न रिपु दल तेज बल बहुत चनकत नचत तोि ॥53॥

हे शुक! क्ा तेिी उनसे भेट हुई? क्ा वे मेिी सुख्यानत (सुयश) कानोंसे सुनकि पीछे ल ट

िए| हे शुक! शत्रुके दलका तेज आि बल क्ों नहीं कहता? तेिा नचि चनकत-सा (भ च
ं क्का-

सा) कैसे हो िहा है ? ॥53॥


सुंदिकाण्ड – 54

च पाई – सुंदिकाण्ड

नाथ कृपा करि पूुँछेहु जै सें।

मानहु कहा क्रोध तनज तैसें॥


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नमला जाइ जब अनुज तुम्हािा।

जातनहं िाम नतलक तेनह सािा॥

िावणके ये वचन सुनकि शुकने कहा नक हे नाथ! जैसे आप कृपा किके पूंछते हो ऐसे ही

क्रोधको त्यािकि जो वचन में कहं उसको मानो||

हे नाथ! नजससमय आपका भाई िामसे जाकि नमला उसीक्षण िामने उसके िाजनतलक कि

नदया है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िावन दू त हमनह सुनन काना।

कनपि बाुँ नध दीिें दु ख नाना॥

श्रवन नानसका काटैं लािे।

िाम सपथ दीिें हम त्यािे॥

मै वानिका रप धिकि सेनाके भीति घुसा सो नफिते नफिते वानिोंने जब मुझको आपका दू त

जान नलया तब उिोंने मुझको बां धकि अनेक प्रकािका दु ुःख नदया||

औि मेिी नाक कान काटने लिे तब मैंने उनको िामकी शपथ दी तब उिोंने मुझको छोड़

नदया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पूुँनछहु नाथ िाम कटकाई।

बदन कोनट सत बिनन न जाई॥

नाना बिन भालु कनप धािी।

नबकटानन नबसाल भयकािी॥

हे नाथ! आप मुझको वानिोंकी सेनाके समाचाि पूुँछते हो सो वे स किोड़ मुखोंसे तो कहही

नहीं जा सकती||

हे िावण! िीछ औि वानि अनेक िं ि धािण नकये बड़े डिावने दीखते हैं , बड़े नवकट उनके

मुख हैं औि बड़े नवशाल उनके शिीि हैं ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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जेनहं पुि दहे उ हतेउ सु त तोिा।

सकल कनपि महुँ तेनह बलु थोिा॥

अनमत नाम भट कनठन किाला।

अनमत नाि बल नबपुल नबसाला॥

हे िावण! नजसने इस लंकाको जलाया था औि आपके पुत्र अक्षकुमािको मािा था उस

वानिका बल तो सब वानिों में थोड़ा है ||

उनके बीच कई नामी भट पड़े हे , नक जो बड़े भयानक औि बड़े कठोि हैं . नजनके नाना

वणयवाले औि नवशाल व तेजस्वी शिीि हैं ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

नद्वनबद मयं द नील नल अंिद िद नबकटानस।

दनधमुख केहरि ननसठ सठ जामवंत बलिानस ॥54॥

उनमें जो बड़े बड़े योद्धा हैं उनमेंसे कुछ नाम कहता हुँ सो सुनो – नद्वनवद, मयन्द, नील,

नल, अंिद विैिे, नवकटास्य, दनधिख, केसिी, कुमुद, िव. औि बलका पुंज जाम्बवान ॥54॥
सुंदिकाण्ड – 55

च पाई – सुंदिकाण्ड

ए कनप सब सुग्रीव समाना।

इि सम कोनटि िनइ को नाना॥

िाम कृपाुँ अतुनलत बल नतिहीं।

तृन समान त्रैलोकनह िनहीं॥

ये सब वानि सुग्रीवके समान बलवान हैं | इनके बिाबि दू सिे किोड़ों वानि हैं , क न निन सकता

है ? ||

िामचन्द्रजीकी कृपासे उनके बलकी कुछ तु लना नहीं है | वे उनके प्रभावसे नत्रलोकीको त्रनके

समान समझते हैं


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अस मैं सुना श्रवन दसकंधि।

पदु म अठािह जूथप बंदि॥

नाथ कटक महुँ सो कनप नाहीं।

जो न तुम्हनह जीतै िन माहीं॥

हे िावण! वहां मैं निन तो नहीं सका पिं नु कानोंसे ऐसा सुना था नक अठािह पद्म तो अकेले

वानिों के सेनापनत हैं ||

हे नाथ! उस कटकमें (सेना) ऐसा वानि एकभी नहीं है नक जो िणमें आपको जीत न

सके||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

पिम क्रोध मीजनहं सब हाथा।

आयसु पै न दे नहं िघुनाथा॥

सोषनहं नसंधु सनहत झष ब्याला।

पूिनहं न त भरि कुधि नबसाला॥

सब वानि बड़ा कोध किके हाथ मीजते हैं ; पिं तु नबचािे किें क्ा? िामचन्द्रजी उनको आज्ञा नहीं

दे ते||

वे ऐसे बली है नक मछनलयां औि सपोंके साथ समुद्रको सुखा सकते हैं औि नखोंसे नवशाल

पवयतको चीि सकते है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मनदय िदय नमलवनहं दससीसा।

ऐसेइ बचन कहनहं सब कीसा॥

िजयनहं तजयनहं सहज असं का।

मानहुुँ ग्रसन चहत हनहं लंका॥

औि सब वानि ऐसे वचन कहते हैं नक हम जाकि िावणको माि कि उसी क्षण धूल में नमला

दें िे||
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वे स्वभावसेही ननशंक है , सो बेधड़क ििजते है औि तजयते है . मानों वे अभी लंकाको ग्रसना

(ननिलना) चाहते है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सहज सूि कनप भालु सब पुनन नसि पि प्रभु िाम।

िावन काल कोनट कहुुँ जीनत सकनहं संग्राम ॥55॥

हे िावण! वे िीछ औि वानि अव्वल तो स्वभावहीसे शूि-बीि हैं औि नतसपि नफि

श्रीिामचन्द्रजी नसि पि है | इसनलए हे िावण! वे किोड़ों कालों को भी सं ग्राममें जीत सकते हैं

॥55॥
सुंदिकाण्ड – 56

च पाई – सुंदिकाण्ड

िाम तेज बल बुनध नबपु लाई।

सेष सहस सत सकनहं न िाई॥

सक सि एक सोनष सत सािि।

तव भ्रातनह पूुँछेउ नय नािि॥

िामचन्द्रजीके तेज, बल, औि बुन्हद्धकी बढाईको किोड़ों शेषजी भी िा नहीं सकते तब औिकी तो

बातही क न?||

यद्यनप वे एक बाणसे स समुद्रकों सुखा सकते है पिं तु आपका भाई नबभीषण नीनतमें पिम

ननपुण है इसनलए श्री िाम ने समुद्रका पाि उतिनेके नलये आपके भाई नवभीषणसे पूछा||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तासु बचन सुनन सािि पाहीं।

माित पंथ कृपा मन माहीं॥

सुनत बचन नबहसा दससीसा।

ज ं अनस मनत सहाय कृत कीसा॥


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तब उसने सलाह दी नक पहले तो निमीसे काम ननकालना चानहये औि जो निमीसे काम नहीं

ननकले तो पीछे तेजी किनी चानहये || नबभीपणके ये वचन सुनकि श्री िाम मनमें दया िखकि

समुद्रके पास मािय मां िते है ||

दू तके ये वचन सुनकि िावण हुँ सा औि बोला नक नजसकी ऐसी बुन्हद्ध है , तभी तो वानिोंको तो

सहाय बनाया है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सहज भीरु कि बचन दृढाई।

सािि सन ठानी मचलाई॥

मूढ मृषा का किनस बड़ाई।

रिपु बल बुन्हद्ध थाह मैं पाई॥

औि स्वभावसे डिपोंकके (नवभीषण के) वचनोंपि दृढता बां धी है तथा समुद्रसे अबोध बालककी

तिह मचलना (बालहठ) ठाना है ||

हे मूखय! उसकी झूठी बड़ाई तू क्ों किता वै ? मैंने शत्रुके बल औि बुन्हद्धकी थाह पा ली है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

सनचव सभीत नबभीषन जाकें।

नबजय नबभूनत कहाुँ जि ताकें॥

सुनन खल बचन दू त रिस बाढी।

समय नबचारि पनत्रका काढी॥

नजसके डिपोंक नबभीषणसे मंत्री हैं उसके नवजय औि नवभूनत कहाुँ ? ||

खल िावनके ये वचन सुनकि दू तको बड़ा क्रोध आया| इससे उसने अवसि जानकि लक्ष्मणके

हाथकी पत्री ननकाली||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

िामानुज दीिीं यह पाती।

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥


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नबहनस बाम कि लीिीं िावन।

सनचव बोनल सठ लाि बचावन॥

ओि कहा नक यह पनत्रका िामके छोटे भाई लक्ष्मणने दी है | सो हे नाथ! इसको पढकि अपनी

छातीको शीतल किो||

िावणने हुँ सकि वह पनत्रका बाएं हाथमें ली औि यह शठ (मूखय) अपने मंनत्रयोंको बुलाकि

पढाने लिा||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

बाति मननह रिझाइ सठ जनन घालनस कुल खीस।

िाम नबिोध न उबिनस सिन नबष्नु अज ईस ॥56(क)॥

(पनत्रका में नलखा था -) हे शट (अिे मूखय)! तू बातोंसे मनको भले रिझा ले, हे कुलां तक!

अपने कुलका नाश मत कि, िामचन्द्रजीसे नविोध किके नवष्णु , ब्रह्मा औि महे शके शिण जाने

पि भी तू बच नही सकेिा॥56(क)॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

की तनज मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंि।

होनह नक िाम सिानल खल कुल सनहत पतंि ॥56(ख)॥

तू अनभमान छोड़कि अपने छोटे भाईके जैसे प्रभुके चिणकमलोंका भ्रमि होजा| अथाय त्

िामचन्द्रजीके चिणोंका चेिा होजा| अिे खल! िामचन्द्रजीके बाणरप आिमें तू कुलसनहत पतं ि

मत हो, जैसे पतंि आिमें पड़कि जल जाता है ऐसे तू िामचन्द्रजीके बाणसे मिे मत ॥56(ख)॥
सुंदिकाण्ड – 57

च पाई – सुंदिकाण्ड

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।

कहत दसानन सबनह सुनाई॥


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भूनम पिा कि िहत अकासा।

लघु तापस कि बाि नबलासा॥

ये अक्षि सुनकि िावण मनमें तो कुछ डिा, पिं तु ऊपिसे हुँ सकि सबको सुनाके िावणने

कहा||

नक इस छोटे तपस्वीकी वाणीका नवलास तो ऐसा है नक मानों पृथ्वीपि पड़ा हुआ आकाशको

हाथसे पकड़े लेता है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

कह सुक नाथ सत्य सब बानी।

समुझहु छानड़ प्रकृनत अनभमानी॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।

नाथ िाम सन तजहु नबिोधा॥

उस समय शु कने (दू त) कहा नक हे नाथ! यह वाणी सब सत्य है , सो आप स्वाभानवक

अनभमानको छोड़कि समझलों||

हे नाथ! आप कोध तजकि मेिे वचन सुनो, औि िामसेजो नविोध बां ध िक्खा है उसे छोड़

दो||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अनत कोमल िघु बीि सुभाऊ।

जद्यनप अन्हखल लोक कि िाऊ॥

नमलत कृपा तुम्ह पि प्रभु करिही।

उि अपिाध न एकउ धरिही॥

यद्यनप वे िाम सब लोकोंके स्वामी हैं तोभी उनका स्वभाव बड़ाही कोमल है ||

आप जाकि उनसे नमलोिे तो नमलते ही वे आपपि कृपा किें िे, आपके एकभी अपिाधको वे

नदलमें नही िक्खेंिे||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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जनकसुता िघुनाथनह दीजे।

एतना कहा मोि प्रभु कीजे॥

जब तेनहं कहा दे न बैदेही।

चिन प्रहाि कीि सठ तेही॥

हे प्रभु । एक इतना कहना तो मेिा भी मानो नक सीताको आप िामचन्द्रजीको दे दो||

(शुकने कई बातें कहीं पिं तु िावण कुछ नहीं बोला पिं तु ) नजस समय सीताको दे नेकी बात

कही उसीक्षण उस दु ष्टने शुकको (दू तको) लात मािी||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

नाइ चिन नसरु चला सो तहाुँ ।

कृपानसंधु िघुनायक जहाुँ ॥

करि प्रनामु ननज कथा सुनाई।

िाम कृपाुँ आपनन िनत पाई॥

तब वहभी (नवभीषण की भाुँ नत) िावणके चिणोंमें नशि नमाकि वहां को चला नक जहां कृपाके

नसंधु श्री िामचन्द्रजी नविाजे थे||

िामचन्द्रजी को प्रणाम किके उसने वहां की सब बात कही| तदनंति वह िाक्षस िामचन्द्रजीकी

कृपासे अपनी िनत अथाय त् मुननशिीिको प्राप्त हुआ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

रिनष अिन्हस्त कीं साप भवानी।

िाछस भयउ िहा मुनन ग्यानी॥

बंनद िाम पद बािनहं बािा।

मुनन ननज आश्रम कहुुँ पिु धािा॥

महादे वजी कहते हैं नक हे पावयती! यह पूवयजन्ममें बड़ा ज्ञानी मुनन था, सो अिस्त्य ऋनषके

शापसे िाक्षस हुआ था||

यहां िामचन्द्रजीके चिणोको वािं वाि नमस्काि किके नफि अपने आश्रमको िया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम
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दोहा – Sunderkand

नबनय न मानत जलनध जड़ िए तीनन नदन बीनत।

बोले िाम सकोप तब भय नबनु होइ न प्रीनत ॥57॥

जब जड़ समुद्रने नवनयसे नहीं माना अथाय त् िामचन्द्रजीको दभाय सनपि बैठे तीन नदन बीत िये

तब िामचन्द्रजीने क्रोध किके कहा नक भय नवना प्रीनत नहीं होती ॥57॥


सुंदिकाण्ड – 58

च पाई – सुंदिकाण्ड

लनछमन बान सिासन आनू।

सोष ं बारिनध नबनसख कृसानु॥

सठ सन नबनय कुनटल सन प्रीनत।

सहज कृपन सन सुंदि नीनत॥

हे लक्ष्मण! धनुष बाण लाओ. क्ोंनक अब इस समुद्रको बाणकी आिसे सुखाना होिा||

दे खो, इतनी बातें सब ननष्फल जाती हैं | शठके पास नवनय किना, कुनटल आदमीसे प्रीनत िखना,

स्वाभानवक कंजूस आदमीके पास सुन्दि नीनतका कहना||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

ममता ित सन ग्यान कहानी।

अनत लोभी सन नबिनत बखानी॥

क्रोनधनह सम कानमनह हरिकथा।

ऊसि बीज बएुँ फल जथा॥

ममतासे भिे हुए जनके पास ज्ञानकी बात कहना, अनतलोभीके पास वैिाग्यका प्रसंि चलाना||

क्रोधीके पास समताका उपदे श किना, कामी (लंपट) के पास भिवानकी कथाका प्रसंि चलाना

औि ऊसि भूनममें बीज बोना ये सब बिाबि है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

अस कनह िघुपनत चाप चढावा।

यह मत लनछमन के मन भावा॥
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संधानेउ प्रभु नबनसख किाला।

उठी उदनध उि अंति ज्वाला॥

ऐसे कहकि िामचन्द्रजीने अपना धनुष चढाया. यह िामचन्द्रजीका मत लक्ष्मणके मनको बहुत

अच्छा लिा||

प्रभुने इधि तो धनुषमें नवकिाल बाणका सन्धान नकया औि उधि समुद्रके हृदयके बीच

संतापकी ज्वाला उठी||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मकि उिि झष िन अकुलाने।

जित जंतु जलनननध जब जाने॥

कनक थाि भरि मनन िन नाना।

नबप्र रप आयउ तनज माना॥

मिि, सां प, औि मछनलयां घबिायीं औि समुद्रने जाना नक अब तो जलजन्तु जलने है ||

तब वह मानको तज, ब्राह्मणका स्वरप धि, हाथमें अनेक मनणयोंसे भिाहुआ कंचनका थाि ले

बानहि आया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

काटे नहं पइ कदिी फिइ कोनट जतन कोउ सींच।

नबनय न मान खिेस सुनु डाटे नहं पइ नव नीच ॥58॥

काकभुशुंनडने कहा नक हे िरुड़! दे खा, केला काटनेसही फलता है . चाहो दू सिे किोडों उपाय

किलो औि ख़ूब सीच लो, पिं तु नबना काटे नहीं फलता| ऐसेही नीच आदमी नवनय किनेसे नहीं

मानता नकंतु डाटनेहीसे नमता है ॥58॥


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सुं दिकाण्ड – 59

च पाई – सुंदिकाण्ड

सभय नसंधु िनह पद प्रभु केिे ।

छमहु नाथ सब अविुन मेिे॥

ििन समीि अनल जल धिनी।

इि कइ नाथ सहज जड़ किनी॥

समुद्रने भयभीत होकि प्रभुके चिण पकड़े औि प्रभुसे प्राथयना की नक हे प्रभु मेिे सवय अपिाध

क्षमा किो||

हे नाथ! आकाश, पवन, अनग्र, जल, औि पृथ्वी इनकी किणी स्वभावहीसे जड़ है ||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

तव प्रेरित मायाुँ उपजाए।

सृनष्ट हे तु सब ग्रंथनन िाए॥

प्रभु आयसु जेनह कहुँ जस अहई।

सो तेनह भाुँ नत िहें सुख लहई॥

औि सृनष्टके नननमि आपकीही प्रेिणासे मायासे ये प्रकट हुए है , सो यह बात सब ग्रंथोंमें प्रनसद्ध

हे ||

हे प्रभु! नजसको स्वामीकी जैसी आज्ञा होती है वह उसी तिह िहता है तो सुख पाता है ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

प्रभु भल कीि मोनह नसख दीिी।

मिजादा पुनन तुम्हिी कीिी॥

ढोल िवाुँ ि सूद्र पसु नािी।

सकल ताड़ना के अनधकािी॥

हे प्रभु! आपने जो मुझको नशक्षा दी, यह बहुत अच्छा नकया; पिं तु मयाय दा तो सब आपकी ही

बां धी हुई है ||

ढोल, िुँवाि, शूद्र, पशु औि िी ये तो सब ताड़नकेही अनधकािी हैं ||


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जय नसयािाम जय जय नसयािाम

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।

उतरिनह कटकु न मोरि बड़ाई॥

प्रभु अग्या अपेल श्रुनत िाई।

कि ं सो बेनि जो तुम्हनह सोहाई॥

हे प्रभु! मैं आपके प्रतापसे सूख जाऊंिा औि उससे कटक भी पाि उति जायिा. पिं तु इसमें

मेिी मनहमा घट जायिी||

औि प्रभुकी आज्ञा अपेल (अथाय त अनुल्लंघनीय – आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) है | सो

यह बात वेदमें िायी है | अब जो आपको जुँचे वही आज्ञा दे वें सो मै उसके अनुसाि शीघ्र

कर
ं ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सुनत नबनीत बचन अनत कह कृपाल मुसुकाइ।

जेनह नबनध उतिै कनप कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥

समुद्रके ऐसे अनतनवनीत वचन सुनकि, मुस्कुिा कि, प्रभुने कहा नक हे तात! जैसे यह हमािा

वानिका कटक पाि उति जाय वैसा उपाय किो ॥59॥


सुंदिकाण्ड – 60

च पाई – सुंदिकाण्ड

नाथ नील नल कनप द्व भाई।

लरिकाईं रिनष आनसष पाई॥

नति कें पिस नकएुँ निरि भािे ।

तरिहनहं जलनध प्रताप तु म्हािे ॥

िामचन्द्रजीके ये वचन सुनकि समुद्रने कहा नक हे नाथ! नील औि नल ये दोनों भाई है |

नलको बचपनमें ऋनषयोंसे आशीवाय द नमला हुआ है ||


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इस कािण हे प्रभु ! नलका छु आ हुआ भािी पवयत भी आपके प्रतापसे समुद्रपि तैि जायिा||

(नील औि नल दोनो बचपनमें खेला किते थे | सो ऋनषयोंके आश्रमोंमें जाकि नजस समय

मुननलोि शालग्रामजीकी पूजा कि आख मूंद ध्यानमें बैठते थे , तब ये शालग्रामजीको लेकि

समुद्रमें फेंक दे ते थे | इससे ऋनषयोंने शाप नदया नक नलका डाला हआ पत्थि नहीं डु बेंिा| सो

वही शाप इसकेवास्ते आशीवाय दात्मक हुआ|)


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

मैं पुनन उि धरि प्रभु प्रभुताई।

करिहउुँ बल अनुमान सहाई॥

एनह नबनध नाथ पयोनध बुँधाइअ।

जेनहं यह सुजसु लोक नतहुुँ िाइअ॥

हे प्रभु! मुझसे जो कुछ बनसकेिा वह अपने बलके अनुसाि आपकी प्रभुताकों हदयमें िखकि

में भी सहाय कर
ं िा||

हे नाथ! इस तिह आप समुद्रमें सेतु बां ध दीनजपे नक नजसको नवद्यमान दे खकि नत्रलोकीमें लोि

आपके सुयशको िाते िहें िे||


जय नसयािाम जय जय नसयािाम

एनह सि मम उिि तट बासी।

हतहु नाथ खल नि अघ िासी॥

सुनन कृपाल सािि मन पीिा।

तुितनहं हिी िाम िनधीिा॥

हे नाथ! इसी बाणसे आप मेिे उिि तटपि िहने वाले पापके पुंज दु ष्टोंका संहाि किो||

ऐसे दयालु िणधीि श्रीिामचन्द्रजीने साििके मनकी पीड़ाका जानकि उसको तुिंत हिनलया||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दे न्हख िाम बल प रुष भािी।

हिनष पयोनननध भयउ सु खािी॥


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सकल चरित कनह प्रभुनह सुनावा।

चिन बंनद पाथोनध नसधावा॥

समुद्र िामचन्द्रजीके अपरिनमत (अपाि) बलको दे खकि आनंदपूवयक सुखी हुआ||

समुद्रने सािा हाल िामचन्द्रजीको कह सुनाया, नफि चिणोंको प्रणाम कि अपने धामको नसधािा||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

छं ० – ननज भवन िवनेउ नसंधु श्रीिघुपनतनह यह मत भायऊ।

यह चरित कनल मलहि जथामनत दास तुलसी िायऊ॥

सुख भवन संसय समन दवन नबषाद िघुपनत िुन िना।

तनज सकल आस भिोस िावनह सुननह संतत सठ मना॥

समुद्र तो ऐसे प्राथयना किके अपने घिको िया| िामचन्द्रजीके भी मनमें यह समुद्रकी सलाह भा

ियी|

तुलसीदासजी कहते हैं नक कनलयु ि के पापों को हिनेवाला यह िामचन्द्रजीका चरित मेिी जैसी

बुन्हद्ध है वैसा मैंने िाया है ; क्ोंनक िामचन्द्रजीके िुणिाण (िुणसमूह) ऐसे हैं नक वे सुखके तो

धाम हैं , संशयके नमटानेवाले है औि नवषाद (िं ज) को शां त किनेवाले है सो नजनका मन पनवत्र

है औि जो सज्जन पुरुष है , वे उन चरित्रोंको सब आशा औि सब भिासोंको छोड़ कि िाते हैं

औि सुनते हैं ||
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

दोहा – Sunderkand

सकल सुमंिल दायक िघुनायक िुन िान।

सादि सुननहं ते तिनहं भव नसंधु नबना जलजान ॥60॥

सवय प्रकािके सुमंिल दे नेवाले िामचन्द्रजीके िुणोंका जो मनुष्य िान किते है औि आदिसनहत

सुनते हैं वे लोि संसािसमुद्रको नबना नाव पाि उति जाते हें ॥60॥
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

इनत श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकनलकलुषनवध्वंसने पंचमुः सोपानुः समाप्तुः।


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कनलयुि के समस्त पापों का नाश किनेवाले श्री िामचरितमानस का यह पाुँ चवाुँ सोपान समाप्त

हुआ।
जय नसयािाम जय जय नसयािाम

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