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Festivals of India Hanuman Bahuk in Hindi With Meaning - 2
Festivals of India Hanuman Bahuk in Hindi With Meaning - 2
सेवक
सयकाई
जानि
जानकीस
मानै
कानि,
सानुकूल
सूलपानि
नवै
नाथ
नाँक
को ।
दे वी
दे व
दानव
दयावने
हव
जोरै
हाथ,
बापुरे
बराक
कहा
और राजा राँक को ।।
जागत
सोवत
बैठे
बागत
बिनोद
मोद,
ताके
जो अनर् सो समर् एक आँक को ।
सब दिन ररो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ।।१२।।
भावार् :– सेवक हनुमान् जी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थत् अहसान से दब गये, शिवजी पक मे रहते और
सर् के सवमी इन नवते है । दे वी-दे वता, दानव सब दया के पात बनकर हाथ जोडते है, फिर दू सरे बेचारे दरिद-दु ः खियाराजा कौन
चीज है । जागते, सोते, बैठते, डोलते, करड़ करते और आनन मे मग (पवनकुमार के) सेवक का अनिष चाहेगा ऐसा कौन सिदधन
का समर् है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन शरष रीति से पूरा पड़ गा, जिसके हदय मे अंजनीकुमार की हाँक का भरोसा है ।।१२।।
~*~*~
सानुग
सगौरि
सानुकूल
सूलपानि
ताहि,
लोकपाल
सकल
लखन
राम
जानकी
।
लोक
परलोक
को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काह बीर आनकी ।।
केसरी
किसोर
बनदछोर
के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करनानिधान की ।
बालक-ज्ो पालिहै कृपालु मुनि सिद ताको, जाके हिये हलसति हाँक हनुमान की ।।१३।।
भावार् :– जिसके हदय मे हनुमान् जी की हाँक उलसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्तीजी के सहित शंकर भगवान्,
समस लोकपाल, शररामचन, जानकी और लकणजी भी पसन रहते है । तुलसीदासजी कहते है फिर लोक और परलोक मे
शोकरहित हए उस परणी को तीनों लोकों मे किसी योदध के आशरत होने की कय लालसा होगी ? दया-निकेत केसरी-ननन निर्ल
कीर्तवाले हनुमान् जी के पसन होने से समपर् सिद-मुनि उस मनुष पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते है, उन
करणानिधान कपीशर की कीर्त ऐसी ही निर्ल है ।।१३।।
~*~*~
करनानिधान, बलबुदध के निधान मोद-महिमा निधान, गुन-जञन के निधान हौ ।
बामदे व-रप भूप राम के सनेही, नाम लेत-दे त अर् धर् काम निरबान हौ ।।
आपने
पभाव
सीताराम
के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदू ष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहू पकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।।१४।।
भावार् :- तुम दया के सथन, बुदध-बल के धाम, आनन महिमा के मनदर और गुण-जञन के निकेतन हो; राजा रामचन के सनही,
शंकरजी के रप और नाम लेने से अर्, धर्, काम, मोक के दे ने वाले हो । हे हनुमान् जी ! आप अपनी शकत से शररघुनाथजी के
शील-सभाव, लोक-रीति और वेद-विधि के पणडत हो !मन, वचन, कर् तीनों पकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर सवमी है
अर्थत् भीतर-बाहर की सब जानते है ।।१४।।
~*~*~
मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे है ।
दे व-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे है ।
बीर
बरजोर,
घटि
जोर
तुलसी
की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे है ।
बिगरी
सँवार
अंजनी
कुमार
कीजे
मोहिं,
जैसे
होत
आये
हनुमान
के निवाजे है ।।१५।।
भावार् :– हे कपिराज ! महाराज रामचनजी के कार् के लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मन को दु र्म था, उसको आपने
शरीर से करके सुलभ कर दिया । हे केशरीकिशोर ! आप दे वताओं को बनदखाने से मुक करने वाले, संगरम-भूमि मे कोलाहल
मचाने वाले है, और आपकी नामवरी युग-युग से संसार मे विराजती है । हे जबरदस योदध ! आपका बल तुलसी के लिये क्ो घट
गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये है और दु षगण पसन हो रहे है, हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ बात उसी तरह सुधारिये जिस
पकार आपके पसन होने से होती (सुधरती) आयी है ।।१५।।
सवैया:
जान
सिरोमनि
हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़रो
बिगारो
मै
काको
कहा
केहि
कारन
खीझत
हौं
तो तिहारो ।।
साहेब
सेवक
नाते
तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो ।
दोष
सुनाये
ते
आगेहु
को होशियार हव हों मन तौ हिय हारो ।।१६।।
भावार् :- हे वानरराज ! आपके बसाये हए को शंकर भगवान् भी नहीं उजाड सकते और जिस घर को आपने नष कर दिया उसको
कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर पसन हए, वे शतरओं के हदय मे पीड़ रप होकर विराजते है । तुलसीदास जी
कहते है, आपका नाम लेने से समपर् संकट और सोच मकड़ के जाले के समान फट जाते है । बलिहारी ! कय आप मेरी ही बार बूढ़
हो गये अथवा बहत-से गरीबों का पालन करते – करते अब थक गये है ? (इसी से मेरा संकट दू र करने मे ढील कर रहे है) ।।१७।।
~*~*~
सिंध
ु तरे ,
बड़
बीर
दले
खल, जारे है लंक से बंक मवा से ।
तै
रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छै ल छवा से ।।
तोसों
समत
सुसाहेब
सेई
सहै
तुलसी
दु ख
दोष
दवा
से ।
बानर
बाज
! बढ़
खल-खेचर, लीजत क्ो न लपेटि लवा-से ।।१८।।
भावार् :– आपने समुद लाँघकर बड़ -बड़ दु ष राकसों का विनाश करके लंका -जैसे विकट गढ को जलाया । हे संगरम-रपी वन के
सिंह ! राकस शतर बने-ठने हाथी के बचच के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष कर डाला । आपने बराबर समर् और
अचछ सवमी की सेवा करते हए तुलसी दोष और दु ः खकी आग को सहन करे (यह आशर् की बात है) । हे वानर-रपी बाज ! बहत-से
दु ष-जन-रपी पकष बढ गये है, उनको आप बटेर के समान क्ो नहीं लपेट लेते ? ।।१८।।
~*~*~
अच-विमर् न कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद
अकंपन
कुंभकरन-से कुञर केहरि-बारो ।।
राम-पताप-हतासन, कच, बिपच, समीर समीर-दु लारो ।
पाप-ते साप-ते ताप तिहू-ते सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ।।१९।।
भावार् :– हे अकयकुमार को मारने वाले हनुमान् जी ! आपने अशोक-वाटिका को विधवस किया और रावण-जैसे पतापी योदध के
मुख के तेज की ओर दे खा तक नहीं अर्थत् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की । आप मेघनाद, अकमन और कुमकर् -सरीखे
हाथियों के मद को चूर् करने मे किशोरावसथ के सिंह है । विपकरप तिनकों के ढे र के लिये भगवान् राम का पताप अगन-तुल है
और पवनकुमार उसके लिये पवन-रप है । वे पवनननन ही तुलसीदास को सर्दा पाप, शाप और संताप – तीनों से बचाने वाले है ।।
१९।।
घनाकरी:
जानत
जहान
हनुमान
को निवाजय जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये ।
सेवा-जोग तुलसी कबहु कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।।
अपराधी
जानि
कीजै
सासति
सहस
भाँति,
मोदक
मरै
जो ताहि माहर न मारिये ।
साहसी
समीर
के दु लारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ।।२०।।
~*~*~
भावार् :- हे हनुमान् जी ! बलि जाता हू, अपनी पतिजञ को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन मे विचारिये, आपका कृपा-पात
जन बाधारहित और सदा पसन रहता है । हे सवमी कपिराज ! तुलसी कभी सेवा के योग था ? कय चूक हई है, अपनी साहिबी को
सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहसतर भाँति की दु र्शा कीजिये, किनत जो लडड दे ने से मरता हो उसको विष से न मारिये । हे
महाबली, साहसी, पवन के दु लारे , रघुनाथजी के पयरे ! भुजाओं की पीड़ को शीघ दू र कीजिये ।।२०।।
~*~*~
बालक
बिलोकि,
बलि
बारे ते
आपनो
कियो,
दीनबनध
दया
कीन्ी
निरपाधि
नयरिये
।
रावरो
भरोसो
तुलसी
के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये ।।
बड़
बिकराल
कलि,
काको
न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।
केसरी
किसोर,
रनरोर,
बरजोर
बीर,
बाँहपीर
राहमातु
ज्ौ
पछारि
मारिये
।।२१।।
भावार् :– हे दीनबनध ! बलि जाता हू, बालक को दे खकर आपने लडकपन से ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की । सोचिये
तो सही, तुलसी आपका दास है, इसको आपका भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है । अतन भयानक कलिकाल ने
किसको बेचैन नहीं किया ? इस बलवान् का पैर मेरे मसक पर भी दे खकर उसको हटाइये । हे केशरीकिशोर, बरजोर वीर ! आप
रण मे कोलाहल उतन करने वाले है, राह की माता सिंहिका के समान बाह की पीड़ को पछाडकर मार डालिये ।।२१।।
~*~*~
उथपे
थपनथिर
थपे
उथपनहार,
केसरी
कुमार
बल आपनो सँभारिये ।
राम
के गुलामनि को कामतर रामदू त, मोसे दीन दू बरे को तकिया तिहारिये ।।
साहेब
समर्
तोसों
तुलसी
के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी
बिसाल
बाँह,
बलि,
बारिचर
पीर,
मकरी
ज्ौ
पकरि
कै बदन बिदारिये ।।२२।।
भावार् :– हे केशरीकुमार ! आप उजड़ हए (सुगरव-विभीषण) – को बसाने वाले और बसे हए (रावणादि) – को उजाडने वाले है,
अपने उस बल का सरण कीजिये । हे रामदू त ! रामचनजी के सेवकों के लिये आप कलवृक है और मुझ-सरीखे दीन-दु र्लों को
आपका ही सहारा है । हे वीर ! तुलसी के माथे पर आपके समान समर् सवमी विदमान रहते हए भी वह बाँधकर मारा जाता है ।
बलि जाता हू, मेरी भुजा विशाल पोखरी के समान है और यह पीड़ उसमे जलचर के सदश है, सो आप मकरी के समान इस जलचरी
को पकडकर इसका मुख फाड डालिये ।।२२।।
~*~*~
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