You are on page 1of 7

Ram Lakshman Parshuram Samvad Explanation

keepinspiringme.in/ram-lakshman-parshuram-samvad-class-10-hindi-kshitij/

परशुराम लक्ष्मण संवाद के दोहे और चौपाइयाँ रामचरितमानस के बालकाण्ड से ली गई हैं। बालकाण्ड में
भगवान राम के जन्म से लेकर राम-सीता विवाह तक के प्रसंग आते हैं।

यह प्रसंग उस समय का हैं जब राजा जनक ने अपनी पुत्री माता सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन
किया था। जिसमें दे श विदे श के सभी राजाओं को आमंत्रित किया गया। स्वयंवर की शर्त के अनस
ु ार जो भगवान
शिव का धनुष तोड़ेगा , माता सीता उसी को अपने पति के रूप में वरण करें गी।

भगवान राम ने शिव का धनुष तोड़ दिया।और माता सीता ने भगवान राम को अपना पति स्वीकार कर उन्हें
वरमाला पहनाई। लेकिन जब भगवान राम ने भगवान शिव का धनुष तोडा तो , उसके टूटने की आवाज तीनों
लोकों में सुनाई दी।

परशुराम जो भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। जब उन्होंने धनुष टूटने की आवाज सूनी तो वो बहुत क्रोधित
हुए। और तुरंत राजा जनक के दरबार में पहुँच गए। यह प्रसंग क्रोधित परशुराम और भगवान राम और उनके
भाई लक्ष्मण के बीच हुए संवाद का है ।

चौपाई 1.
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
अर्थ –
परशुराम को क्रोधित दे खकर राम कहते हैं कि हे नाथ !! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई सेवक/
दास होगा। आपकी क्या आज्ञा हैं। मुझे बताइए। यह सुनकर क्रोधित परशुराम नाराज होकर कहते हैं।

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई॥


सन
ु हु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
अर्थ –
सेवक तो वो होता है जो सेवा करे । शत्रु के जैसे काम करके तो लड़ाई होनी निश्चित है । इसीलिए हे राम ! जिसने
भी यह शिव धनष
ु तोड़ा है । वह सहस्रबाहु के समान ही मेरा शत्रु है ।

सो बिलगाइ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥


सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥
अर्थ –
फिर वो राजसभा की तरफ दे खते हुए कहते हैं कि जिसने भी शिव धनष
ु तोड़ा है वह व्यक्ति खद
ु बखद
ु इस
समाज से अलग हो जाए , नहीं तो यहाँ बैठे सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएँगे। परशुराम के ऐसे बचन सुनकर
लक्ष्मण मुसकराने लगे और परशुराम का अपमान करते हुए बोले। …
बहु धनह
ु ी तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस किन्हि गोसाईँ॥
येहि धनु पर ममता केहि हे तू। सुनि रिसाइ कह भग
ृ ुकुलकेतू॥
अर्थ –
हे मनि
ु वर ! हमने बचपन में बहुत सी धनहि
ु याँ तोड़ी थी। लेकिन तब आपने कभी भी हम पर क्रोध नहीं किया
था। इसी धनुष पर इतनी ममता का क्या कारण है ? यह सुनकर भग
ृ ुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुराम क्रोधित
होकर बोले। …

दोहा –
रे नप
ृ बालक कालबस बोलत तोहि न सँभार्।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥
अर्थ –
अरे राजकुमार ! तम
ु अपना मँह
ु संभाल कर क्यों नहीं बोलते हो , लगता है तम्
ु हारे सिर पर काल नाच रहा है ।
सारे संसार में प्रसिद्ध शिव का यह प्राचीन धनुष क्या तझ
ु े मामूली धनुही के समान लग रहा हैं।

चौपाई 2 .
लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु दे व सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जन
ू धनु तोरें । दे खा राम नयन के भोरें ।।
अर्थ –
तब लक्ष्मण ने हँस कर कहा हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरी समझ से तो सभी धनुष एक समान ही हैं। इस पुराने धनुष के
टूटने से क्या लाभ , क्या हानि । श्री राम ने तो इसे नया समझ कर उठाया था।

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥


बोलै चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
अर्थ –
लेकिन यह धनष
ु तो श्रीराम के छूते ही टूट गया । इसमें रघप
ु तिजी का कोई दोष नहीं हैं। इसीलिए हे मनि
ु ! आप
बिना कारण के ही क्रोधित हो रहे हैं। इसके बाद परशुराम जी अपने फरसे की ओर दे खकर बोले हे दष्ु ट ! क्या तुने
मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना हैं।

बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मनि


ु जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही॥
अर्थ –
मैं बालक समझ कर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। पर तुम मुझे केवल एक साधारण ऋषि समझने की भूल कर
रहे हो। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यंत क्रोधी भी हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का विनाश करने के लिए परू े विश्व में
विख्यात हूं ।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदे वन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छे दनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
अर्थ –
मैंने अपनी भुजाओं के बल से इस पथ्
ृ वी को कई बार क्षत्रिय विहीन कर सारी भूमि ब्राह्मणों को दान कर दी हैं ।
मुझे भगवान शिव का वरदान भी प्राप्त है । मैंने सहस्रबाहु की भुजाओं को इसी फरसे से कटा था। इसीलिए हे
राजकुमार ! तम
ु मेरे इस फरसे को गौर से दे ख लो।

दोहा-
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
अर्थ –
तुम अपने व्यवहार के कारण उस गति को पाओगे जिससे तुम्हारे माता पिता को असहनीय पीड़ा होगी। मेरे
फरसे की गर्जना सुनकर गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है ।

चौपाई 3 .
बिहसि लखनु बोले मद
ृ ु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि दिखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
अर्थ –
इस पर लक्ष्मणजी हँसकर अपनी मधरु बाणी से बोले हे मनि
ु वर ! आप अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं
। इसीलिए मुझे बार-बार कुल्हाड़ी (फरसा) दिखा रहे हैं। ऐसा लग रहा हैं मानो आप फूँक मारकर ही पहाड़ को उड़ा
दे ना चाहते हों ।

इहाँ कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी दे खि मरि जाहीं॥


दे खि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
अर्थ –
मैं कोई कुम्हड़े की बतिया नहीं हूँ जो तर्जनी अंगुली दिखाने से ही कुम्हला (मर) जाती है ।आपके कुठार व
धनष
ु बाण दे खकर ही मैंने यह बात अभिमान से कही हैं ।

भग
ृ ुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
अर्थ –
जनेऊ से तो आप एक भग
ृ ुवंशी ब्राह्मण जान पड़ते हैं। इसलिए मैंने अब तक अपने क्रोध को काबू किया हुआ है ।
दे वता , ब्राह्मण , हरिजन और गाय , इन सब पर हमारे कुल के लोग अपनी वीरता नहीं दिखाते हैं।

बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।।


कोटि कुलिस सम बचनु तम्
ु हारा। व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
अर्थ –
क्योंकि इनको मारने से पाप लगता हैं। और इन सब से युद्ध में हार जाने से अपकीर्ति होती है । इसीलिए आप
मारें तो भी , हमें आपके पैर पकड़ने चाहिए। वैसे आपका एक-एक वचन ही करोड़ों बज्रों के समान हैं। आप धनष
ु -
बान और कुल्हाड़ी को तो व्यर्थ ही धारण करते है ।

दोहा –
जो बिलोकि अनुचित कहे उँ छमहु महामुनि धीर।
सनि
ु सरोष भग
ृ ब
ु ंसमनि बोले गिरा गंभीर।
अर्थ –
आपके धनुष बाण और कुठार (फरसे) को दे खकर अगर मैंने कुछ अनुचित कह दिया हो तो हे मुनिवर ! आप मुझे
क्षमा कीजिए। यह सन
ु कर भग
ृ व
ु ंशमणि परशरु ाम गंभीर बाणी में बोले। ..

चौपाई 4 .
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरं कुसु अबुधु असंकू॥

ऐसा सन
ु कर परशरु ाम ने विश्वामित्र से कहा। हे विश्वामित्र ! यह बालक कुटिल और कुबद्धि
ु लगता है । और यह
काल के वश में होकर अपने ही कुल का घातक बन रहा है । यह सूर्यवंशी रुपी चंद्रमा में एक कलंक के समान है ।
यह बालक मूर्ख , उदं ण्ड , निडर है और इसे भविष्य का भान तक नहीं है ।

कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥


तम्
ु ह हटकहु जौ चाहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
अर्थ –
यह तो क्षण भर में ही काल के गाल (मँह
ु ) में समा जायेगा। मैं अभी बता दे रहा हूं फिर मुझे दोष मत दे ना । यदि
तम
ु इस बालक को बचाना चाहते हो तो , इसे मेरे प्रताप , बल और क्रोध के बारे में बता कर इसे मना लो।

लखन कहे उ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥


अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
अर्थ –
इस पर लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि ! आपके सुयश के बारे में आपके रहते हुए दस
ू रा कौन वर्णन कर सकता है ।
आपने अपने मुंह से ही अपने कामों के बारे में अनेक बार , अनेक तरीकों से वर्णन किया है ।

नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दस


ु ह दख
ु सहहू॥
बीरब्रती तम्
ु ह धीर अछोभा। गारी दे त न पावहु सोभा॥
अर्थ –
इतना कहने के बाद भी अगर आपको संतोष नहीं हुआ हो तो , आप फिर से कुछ कह दीजिए । आप अपना क्रोध
दबाकर असह्य दख
ु मत सहन कीजिए । आप वीरता का व्रत धारण करने वाले धैर्यवान हैं। इसीलिए गाली दे ते
हुए आप शोभायमान नहीं दिखते हैं।
दोहा-
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥
अर्थ –
जो शूरवीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते , बल्कि यद्ध
ु भूमि में अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। यद्ध
ु में
अपने शत्रु को सामने दे खकर अपनी झठ
ू ी प्रशंशा तो कायर करते हैं।

चौपाई 5.
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरे उ कर घोरा॥
अर्थ –
ऐसा लग रहा है मानो आप तो काल (यमराज) को आवाज लगाकर बार-बार मेरे लिए बुला रहे हो। लक्ष्मण के कटु
वचन को सुनकर परशुराम ने क्रोधित होकर अपना फरसा हाथ में ले लिया।

अब जनि दै दोसु मोहि लोग।ू कटुबादी बालकु बधजोग॥



बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा॥
अर्थ –
और बोले अब मझ
ु े कोई दोष नहीं दे ना। यह कड़ुवा वचन बोलने वाला बालक मरने के ही योग्य है । मैं अब तक
इसे बालक समझकर बचा रहा था। लेकिन लगता है कि अब इसकी मत्ृ यु निकट आ गई है ।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥


खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
परशरु ाम को क्रोधित होते दे खकर विश्वामित्र बोले हे मनि
ु वर ! साधु लोग तो बालकों के गण
ु और दोष की गिनती
नहीं करते हैं। इसलिए आप इसके अपराध को क्षमा कर दीजिए। परशुराम ने क्रोधित होते हुए कहा मै दयारहित
और क्रोधी हूँ। और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने। …

उतर दे त छोड़ौं बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ॥


न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ॥
अर्थ –
उत्तर दे रहा हैं फिर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ । हे विश्वामित्र ! सिर्फ तुम्हारे प्रेम के कारण। नहीं तो मैं इस
फ़रसे से इसका काम तमाम कर दे ता और मझ
ु े बिना किसी परिश्रम के ही अपने गरु
ु के कर्ज को चक
ु ाने का मौका
मिल जाता।

दोहा –
गाधिसूनू कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ॥
ऐसा सुनकर विश्वामित्र मन ही मन हँसे और सोचने लगे कि परशुरामजी आज तक सभी क्षत्रियों पर विजयी रहे ।
इसीलिए ये राम-लक्ष्मण को भी एक साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। ये बालक (लक्ष्मण) फौलाद का बना हुआ ,
न कि गन्ने की खांड का। परशुराम जी अभी भी इनकी साहस , वीरता व क्षमता से अनभिज्ञ हैं।

चौपाई 6 .
कहे उ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गरु रिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥

तब लक्ष्मण ने परशुरामजी कहा , हे मुनिश्रेष्ठ ! आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता। वह सारे संसार में प्रसिद्ध
है । आपने अपने माता पिता का ऋण तो चुका ही दिया हैं और अब अपने गुरु का ऋण चुकाने की सोच रहे हैं।

सो जनु हमरे हि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥


अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तरु त दे उँ मैं थैली खोली॥
अर्थ –
और अब आप ये बात भी मेरे माथे डालना चाहते हैं। बहुत दिन बीत गये। इसीलिए उस ऋण में ब्याज बहुत बढ़
गया होगा। बेहतर है कि आप किसी हिसाब करने वाले को बल
ु ा लीजिए। मैं आपका ऋण चक
ु ाने के लिए तरु ं त
थैली खोल दं ग
ू ा।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥


भग
ृ ुबर परसु दे खाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नप
ृ द्रोही॥
अर्थ –
लक्ष्मण के कडुवे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा उठाया और लक्ष्मण पर आघात करने को दौड़ पड़े ।
सारी सभा हाय हाय पुकारने लगी । इस पर लक्ष्मण जी बोले हे मुनिश्रेष्ठ !! आप मुझे बार बार फरसा दिखा रहे
हैं। हे छत्रिय राजाओं के शत्रु !! मैं आपको ब्राह्मण समझ कर बार-बार बचा रहा हूं।

मिले न कबहोँ सुभट रन गाढ़े । द्विजदे वता घरहि के बाढ़े ॥


अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे । रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ॥
अर्थ –
हे मुनिश्रेष्ठ !! लगता है आपको पहले कभी सचमुच के बलवान वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण दे वता ! आप घर में ही
बड़े हैं। यह सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग अनुचित है , अनुचित है , कहकर पुकारने लगे। तभी भगवान
श्रीराम ने इशारा कर लक्ष्मण को रोक दिया।

दोहा-
लखन उतर आहुति सरिस भग
ृ ुबरकोपु कृसानु।
बढ़त दे खि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
अर्थ –
लक्ष्मण के उत्तरों ने , परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि में आहुति का काम किया। जिससे उनका क्रोध अत्यधिक
बढ़ गया। जब श्री राम ने दे खा कि परशरु ाम का क्रोध अत्यधिक बढ़ चक
ु ा है । अग्नि को शांत करने के लिए जैसे
जल की आवश्यकता होती हैं। वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने के लिए मीठे वचनों की आवश्यकता होती
हैं। श्रीराम ने भी वही किया। श्रीराम ने अपने मीठे वचनों से परशुराम का क्रोध शांत करने का प्रयास किया।

तुलसीदास का जीवन परिचय


तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदे श के बाँदा जिले के राजापुर गांव में सन 1532 में हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार उनका जन्म स्थान
सोरों (जिला एटा) में भी माना जाता हैं। तल
ु सीदास का बचपन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा। बचपन में ही उनका अपने माता-पिता से बिछोह
(बिछुड़ना) हो गया था।

कहा जाता है कि गुरु कृपा से ही उन्हें राम भक्ति का मार्ग मिला। वो मानव मल्
ू यों के उपासक कवि थे। तल
ु सीदास राम भक्ति परम्परा के
अतल
ु नीय कवि है । सन 1623 में काशी में उनका निधन हो गया था।

You might also like