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मैया मोहि दाऊ बिुत खिझायौ। मोसौं कित मोल कौ लीन्िौ, तू जसम ु तत कब जायौ?

किा करौं इहि


ररस के मारैं िेलन िौं नहििं जात। पुतन-पुतन कित कौन िै माता को िै तेरौ तात॥ गोरे निंद जसोदा
गोरी, तू कत स्यामल गात। चुटुकी दै -दै ग्वाल नवावत, िँसत, सबै मुसुकात॥ तू मोिी कौं मारन सीिी,
दाउहि कबिुँ न िीझै। मोिन-मुि ररस की ये बातैं, जसम
ु तत सुतन-सुतन रीझै॥ सन
ु िु कान्ि, बलभद्र
चबाई, जनमत िी कौ धूत। सरू स्याम मोहि गोधन की सौं, िौं माता तू पूत॥

श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैया! दाऊ दादा ने मझ


ु े बहुत चिढाया है । मझ
ु से कहते हैं “तू मोल ललया
हुआ है , यशोदा मैया ने भला तझ ु े कब उत्पन्न ककया।” क्या करूँ, इसी क्रोध के मारे मैं खेल
ने नह ीं जाता। वे बारबार कहते हैं “तेर माता कौन है ? तेरे पपता कौन हैं? नींदबाबा तो गोरे
हैं, यशोदा भी गोर है , तू साूँवले रीं ग वाला कैसे?” िुटकी दे कर फुसलाकर ग्वाल-
बाल मझ
ु े निाते हैं, कफर सब हूँसते और मस
ु कराते हैं। तन
ू े तो मझ
ु े ह मारना सीखा है , दाऊ
दादा को कभी डाूँटती भी नह ीं।” सरू दास कहते हैं मोहन के मूँह
ु से गस्
ु से भर बातें बार-
बार सन
ु कर माता यशोदा जी अींदर-ह
अींदर खश
ु हो रह हैं। वे कहती हैं, कान्हा! सन
ु ो, बलराम तो िग
ु लखोर है , वह जन्म से ह
धत
ू त है ।” सरू दास कहते हैं कक माता यशोदा अपने बालक श्रीकृष्ण को पवश्वास भरे शब्दों में
कह रह हैं कक “कृष्ण, मझ
ु े गायों की शपथ, मैं ह तुम्हार माता हूूँ, और तुम मेरे बेटे हो।

पूर्ण स्लोक मैया मेरी,चिंद्र खिलौना लैिों।। धौरी को पय पान न कररिौ उर पर,बेनी ससर न गथ
ु ैिौं। मोततन माल
न धररिौ उर पर झुिंगली किंठ न लैिौं। जैिों लोट अबहििं धरनी पर, तेरी गोद न एिौं। लाल किै िों निंद बबा को,
तेरो सत
ु न किै िौं।। कान लाय कछु कित जसोदा, दाउहििं नाहििं सन
ु ैिौं। चिंदा िूँ ते अतत सद
िंु र तोहििं,नवल दल
ु हिया
ब्यैिौं।। तेरी सौं मेरी सन
ु मैया, अबिीिं ब्यािन जैिौं। 'सूरदास' सब सिा बराती, नूतन मिंगल गैिौं।

उत्तर:

भावाथत- श्रीकृष्ण िन्रमा को दे खते कहते हैं कक मैया मैं तो िाूँद खखलौना लूँ ग
ू ा,वनात में गाय का दध

नह ीं पपऊूँगा, िोट नह ीं गुथावाऊूँगा, मोततयों की माला नह ीं पहनूँग
ू ा, अभी धरती पर लोट जाऊूँगा पर
तम्
ु हार गोद में नह ीं आऊूँगा, तम्
ु हारा और नींद बाबा का बेटा भी नह ीं कहलवाऊूँगा। तब माूँ यशोदा
कृष्ण को बहकाते हुए कहती है कक पुत्र मेर बात सन
ु ो पर यह बात बलराम को भी न बताना मैं
तुम्हारा ब्याह िींदा से भी अतत सद
ुीं र दल्
ु हन से करूँगी। यह सन
ु कर कृष्ण अपनी माूँ यशोदा से कहते
मझ
ु े तम्
ु हार सौगींध है मैं अभी ब्याह करने जाऊूँगा। इस पर सरू कहते हैं कक वे कृष्ण की बारात में
बाराती बनकर मींगल गीत गाएूँगे

अब कै राखि लेिु भगवान। िौं अनाथ बैठ्यो द्रम


ु डररया, पारधी साधे बान। ताकैं डर मैं भाज्यौ चाित, ऊपर
ढुक्यौ सचान।दि
ु ू ँ भाँतत दि
ु भयौ आतन यि, कौन उबारै प्रान?सुसमरत िी अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ सिंधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहििं, जय-जय कृपातनधान।।
सूरदास जी कहते हैं कक हे प्रभ!ु इस बार मेर रक्षा कर ल जजए। मैं घोर सींकट में फींसा हूूँ। मेर जस्थतत तो उस
पक्षी की तरह है , जो ककसी व्यजक्त की डाल पर बैठा हो और नीिे लशकार उस पर तीर िलाना िाहता हो और
ऊपर बाज उस पर झपट्टा मारने के ललए तैयार बैठा हो। वक्ष
ृ पर बैठे ककसी भी पक्षी के ललए यह दोनों तरह की
जस्थततयाीं बेहद कष्टकार हो सकती हैं। उसकी जस्थतत आगे कुआीं-पीछे खाई जैसी है । यदद वह उड़कर जाने की
कोलशश करे गा तो बाज उस पर झपट्टा मार लेगा और यदद वह पेड़ पर ह बैठा रहे गा तो लशकार अपने तीर से
उसका लशकार कर लेगा। ऐसी जस्थतत में उसे अपने प्राण बिाने वाला कोई नह ीं ददखाई दे ता है तो वह स्वयीं को
अनाथ महसस
ू करता है और अपनी रक्षा के ललए प्रभु का स्मरण करता है। उसकी पुकार सुनकर प्रभु अपनी
माया रिते हैं, जजसके कारण लशकार जब बाण िला रहा होता है तो अिानक उसे कह ीं से आकर एक साींप डस
लेता है, जजससे लशकार का तनशाना िक
ू जाता है और तीर पक्षी को न लगकर ऊपर बाज को लग जाता है । इससे
पक्षी का सींकट दोनों तरफ से टल जाता है । सूरदास जी कहते हैं कक हे कृपा तनधान! जजस तरह आपने उस पक्षी
की रक्षा की, उसी तरह आप मेरे ऊपर भी कृपा करो और मुझे सींकट की इस घड़ी से तनकाल लो। हे प्रभ!ु हे कृपा
तनधान! हे दयातनधान! बार मेर रक्षा करो, आप की सदा ह जय हो।

ससिवतत चलन जसोदा मैया | अरबराइ कर पातन गिावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया || कबिुँक सुिंदर बदन
बबलोकतत, उर आनँद भरर लेतत बलैया | कबिुँक कुल दे वता मनावतत, चचरजीविु मेरौ कुँवर कन्िै या || कबिुँक
बल कौं टे रर बुलावतत, इहििं आँगन िेलौ दोउ भैया |सूरदास स्वामी की लीला, अतत प्रताप बबलसत नँदरै या ||

भावाथत :-- माता यशोदा (श्यामको) िलना लसखा रह हैं | जब वे लड़खड़ाने लगते हैं,

तब उसके हाथोंमें अपना हाथ पकड़ा दे ती हैं, डगमगाते िरण वे पथ्


ृ वीपर रखते हैं | कभी

उनका सन्
ु दर मख
ु दे खकर माताका हृदय आनन्द से पूणत हो जाता है वे बलैया लेने लगती

हैं | कभी कुल-दे वता मनाने लगती हैं कक `मेरा कुूँवर कन्हाई चिरजीवी हो |' कभी पुकार

कर बलरामको बुलाती हैं (और कहती हैं-) `दोनों भाई इसी आूँगनमें मेरे सामने खेलो |

`सरू दासजी कहते हैं कक मेरे स्वामीकी यह ल ला है की श्रीनन्दरायजीका प्रताप और वैभव

अत्यन्त बढ गया है |

िमारे तनधणन के धन राम। चोर न लेत, घटत नहििं कबिूँ, आबत गाढैं काम॥ जल नहििं बूड़त, अचगतन न दाित, िै
ऐसो िरर-नाम। बैकुँठनाथ सकल सुि दाता, सूरदास सुि-धाम॥
हम तनधतनों का धन राम-
नाम है । इसे िोर िुरा नह ीं सकता, कभी यह घटता नह ीं और आपपि के समय काम आता है । श्रीहरर
का नाम ऐसा है कक न तो जल में डूबता है , न अजग्न उसे जला सकता है । सरू दास कहते हैं—
सख
ु धाम श्रीबैकींु ठनाथ समस्त सख
ु ों के दाता हैं।

चरन-कमल बिंदौं िरर-राइ। जाकी कृपा पिंगु चगरर लिंघ,ै अिंधे कौं सब कछु दरसाइ॥ बहिरौ सुन,ै गूँग पुतन बोलै, रिं क
चलै ससर छत्र धराइ। सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बिंदौं ततहििं पाइ॥

सवेश्वर श्रीहरर के िरणकमलों की मैं वींदना करता हूूँ। जजनकी कृपा से पींगु भी पवतत को पार करने में स
मथत हो जाता है , जजनकी कृपा से अींधे को सब कुछ द खने लगता है , जजनके अनुग्रह से बहरा सन
ु ने लग
ता है और गूँग
ू ा कफर से बोलने लगता है । जजनकी कृपा से अत्यींत कींगाल भी लसर पर छत्र धारण करके
िलने वाला नरे श हो जाता है । सरू दास कहते हैं कक मैं अपने उस करुणामय स्वामी के िरणों की बार-
बार वींदना करता हूूँ।

अबबगत–गतत कछु कित न आवे। ज्यों गूिंगे मीठे फल को रस अिंतगणत िी भावे।। परम स्वाद सबिी सु तनरिं तर
असमत तोष उपजावे। मन बानी कों अगम अगोचर, सो जाने जो पावे।। रूप-रे ि-गुर्-जातत-जुगाती- बबनु तनरालिंब
ककत धावै। सब बबचध अगम बबचारहि तातै सुर सगुन –पद गावै।।

सरू दास जी कहते हैं कक तनगण


ुत ब्रह्मा की आराधना करना कदठन है ।उसके स्वरप के पवषय
में कुछ कहा नह ीं जा सकता। तनगण
ुत ब्रह्म की उपासना के आनींद का वणतन कोई व्यक्त
नह ीं कर सकता। जजस प्रकार गूींगा व्यजक्त मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ह अनुभव
करता है , वह उसका मौखखक वणतन नह ीं कर सकता, उसी प्रकार तनगण
ुत ब्रह्म की भजक्त के
आनींद का केवल अनभ
ु व ककया जा सकता है उसे मौखखक बोलकर प्रकट नह ीं ककया जा
सकता है । यधापप तनगुण
त ब्रह्म की प्राजतत से तनरीं तर अतत अत्यचधक आनींद प्रातत होता है
और उपासक को उससे असीम सींतोष भी प्रातत होता है । मन और वाणी द्वारा ईश्वर तक
पहुींिा नह ीं जा सकता है , जो इींदरयों से परे हैं, इसललए उसे अगम अगोिर कहा गया है । उसे
जो प्रातत कर लेता है , वह उसे जानता है । उस तनगण ुत ईश्वर का कोना कोई रप है ना
आकृतत, ना ह हमें उसके गुणों का ज्ञान है , जजससे हम उसे प्रातत कर सके। बबना ककसी
आधार के उसे कैसे पाया जा सकता है ? ऐसी जस्थतत में भक्तों का मन बबना ककसी आधार
के कहाीं-कहाीं भटकता रहे गा, क्योंकक तनगुण
त ब्रह्म तक पहुींिना असींभव है । इसी कारण सभी
प्रकार से पविार करके ह सरू दास जी ने सगुण श्री कृष्ण ल ला के पद का गाना अचधक
उचित समझा है ।
मैं चगरधर के घर जाऊँ। चगरधर मिाँरो साँचो प्रीतम दे ित रूप लुभाऊँ॥ रै र् पड़ै तब िी उठ जाऊँ भोर भये उठ
आऊँ। रै र् हदना वा के सिंग िेलँ ू ज्यूँ तयूँ तािी ररझाऊँ॥ जो पहिरावै सोई पहिरूँ

जो दे सोई िाऊँ। मेरी उर् की प्रीत पुरार्ी उर् बबन पल न रिाऊँ॥ जिाँ बैठावें तततिी बैठूँ बेचै तो बबक जाऊँ। मीरा
के प्रभु चगरधर नागर बार-बार बसल जाऊँ॥

मैं चगरधर के घर जाती हूूँ। चगरधर मेरा सच्िा प्रीतम है । जजसका हुस्न दे खकर मेरा ददल खश
ु हो जाता
है । रात होते ह मैं उठकर िल जाती हूूँ। रात-
ददन उसके साथ खेलती हूूँ और हर मम ु ककन तर के से उसे ररझाती हूूँ। जो वह पहनाता है वह पहनती
हूूँ। जो दे ता है वह खाती हूूँ, मेर उनकी मह
ु ब्बत बहुत पुरानी है , उसके बगैर एक पल नह ीं रह सकती।
वह जहाूँ बबठाएगा वह ीं बैठ जाऊूँगी और अगर बेिेगा तो बबक जाऊूँगी। मीरा के प्रभु चगरधर नागर, उन
पर कुबातन जाऊूँ।

बसो मेरे नैनन में निंदलाल। मोिनी मूरत, साँवरी सूरत, नैना बने बबसाल। अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजत
िं ी
माल॥ छुद्रघिंहटका कहटतट सोसभत, नूपुर सबद रसाल। मीरािं प्रभु सिंतन सुिदाई भगत बछल गोपाल॥

ऐ नींदलाल, मेर आूँखों में आ बसो। कैसी मोहनी मरू त, कैसी साूँवल सरू त है । आूँखें ककतनी बड़ी हैं! तु
म्हारे िरणों पर गीतों के रस से भर हुई बाूँसरु सजी हुई है और सीने पर वैजयींती माला है । कमर के चग
दत छोट
छोट घींदटयाूँ सजी हुई हैं और पैरों में बूँधे हुए नप
ू रु मीठी आवाज़ में बोल रहे हैं। ऐ मीरा के प्रभ,ु तम
ु सीं
तों के सख
ु पहिानते हो और अपने भक्तों के सींरक्षक हो।

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो ! वस्तु अमोसलक दी मेरे सतगुरु ककरपा करर अपनायो। पायो जी मैंन…

जनम जनम की पूिंजी पाई जग में सभी िोवायो। पायो जी मैंन…


िरचै न िूटै चोर न लूटै हदन हदन बढत सवायो। पायो जी मैंन…

सत की नाव िेवहटया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंन…


मीरा के प्रभु चगररधर नागर िरष िरष जस गायो। पायो जी मैंन…


व्याख्या : इस पद / दोहे में कृष्ण की द वानी मीरा बाई कहती हैं कक मझ


ु े राम रपी बड़े धन की प्राजतत
हुई है । मेरे सद्गुरु ने मझु पर कृपा करके ऐसी अमल् ू य वस्तु भेट की हैं, उसे मैंने पूरे मन से अपना
ललया हैं। उसे पाकर मझ ु े लगा मझु े ऐसी वस्तु प्रातत हो गईं हैं, जजसका जन्म-जन्मान्तर से इन्तजार
था। अनेक जन्मो में मझ
ु े जो कुछ लमलता रहा हैं बस उनमे से यह नाम मल्
ू यवान प्रतीत होता हैं।
जब से यह नाम मझ
ु े प्रातत हुआ है मेरे ललए दतु नयाीं की अन्य िीज़े खो गई हैं। इस नाम रपी धन की
यह पवशेषता हैं कक यह खित करने पर कभी घटता नह हैं, न ह इसे कोई िुरा सकता हैं, यह ददन पर
ददन बढता जाता हैं। यह ऐसा धन हैं जो मोक्ष का मागत ददखता हैं। इस नाम को अथातत श्री कृष्ण को
पाकर मीरा ने खश
ु ी – खश
ु ी से उनका गुणगान ककया है ।

1. बिुत हदनान को अवचध आसपास परे , िरे अरबरतन भरे िैं उहठ जान को। कहि कहि आवन छबीले मनभावन
को, गहि गहि राितत िी दै दै सनमान को ॥ झूठी बततयातन की पतयातन तें उदास िवै कै, अब ना तघरत घन
आनिंद तनदान को। अधर लगे िैं आतन करर कै पयान प्रान, चाित चलन ये सँदेसो लै सुजान को ॥

व्याख्या – कपव अपनी प्रेयसी सज


ु ान के दशतन करना िाहता है । उसे लगता है कक सज
ु ान को दे खने के
ललए ह उसके प्राण अटके हुए हैं। वह सज
ु ान को सींबोचधत करते हुए कहता है कक अब बहुत ददनों की
अवचध बीतने वाल है और सज
ु ान के दशतन नह ीं हुए। अब मेरे प्राण पविललत होकर शर र छोड़ने के
ललए आतरु हैं। मेर इस पवरहाकुल दशा के सींदेश को सज
ु ान तक पहुूँिा ददया गया है , जजसे वह
आदरपूवक
त रख लेती है , परीं तु आने के ललए बार-बार कहकर भी मझ
ु े अपनी एक झलक ददखाने नह ीं
आती है । उसके अब तक के सारे वायदे झूठे ह तनकले हैं। उसके झूठे वायदों पर भरोसा करते-करते
अब तो मन उदास हो गया है । उसके झठ
ू े वायदों के कारण न अब घन (बादल) तघरते हैं और न आनींद
(जल) प्रातत होता है । अब तो प्राण भी शर र से तनकलने के ललए होठों तक आ गए हैं, लेककन जाने से
पहले ये सज
ु ान का सींदेश लेना िाहते हैं। भाव यह है कक सज
ु ान के दशतन के ललए ह कपव के प्राण
अटके पड़े हैं।

सावन बररस मेि अतत पानी। सरतन भरइ िौं बबरि झुरानी॥ लागु पुनबणसु पीउ न दे िा। भै बाउरर किँ किंत सरे िा॥
रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रें चग चली जनु बीर बिूटी॥ सखिन्ि रचा पपउ सिंग हिँडोला। िररयर भुइँ कुसुिंसभ तन
चोला॥ हिय हिँडोल जस डोले मोरा। बबरि झुलावै दे इ झँकोरा॥ बाट असूझ अथाि गँभीरा। जजउ बाउर भा भवै
भँभीरा॥ जग जल बूडड़ जिाँ लचग ताकी। मोर नाव िेवक बबनु थाकी॥ परबत समुँद अगम बबच बन बेिड़ घन
ढिं ि। ककसम करर भेटौं किंत तोहि ना मोहि पाँव न पिंि॥

सावन में मेघों से खब


ू पानी बरसता है । भरन पड़ रह है , कफर भी मैं पवरह में सख
ू ती हूूँ। पुनवतसु लग ग
या। क्या पप्रयतम ने उसे नह ीं दे खा? ितुर पप्रयतम कहाूँ रहे , यह सोि-
सोि मैं बावल हो गई। रक्त के आूँसू पथ्
ृ वी पर बबखर रहे हैं। वे ह मानों बोर-
बहूदटयाूँ रें ग रह हैं। मेर सखखयों ने अपने पप्रयतमों के साथ दहींडोला डाला है । हर भलू म दे खकर उन्होंने
अपना तन कुसम् ु मी िोले से सजा ललया है । पर मेरा हृदय दहींडोले की तरह ऊपर नीिे हो रहा है । पवरह
झकोले दे कर उसे झल
ु ा रहा है । बाट असझ
ू , अथाह और गींभीर है । मेरा जी बावला हुआ भूँभीर की भाूँतत
घूम रहा है । जहाूँ तक दे खती हूूँ, सींसार जल में डूबा है । मेर नाव खेवक के बबना ठहर हुई है ।
पवतत, अगम समर
ु , बीहड़ वन और घने ढाक के जींगल मेरे और पप्रयतम के बीि में हैं। हे तयारे , तम
ु से
कैसे लमलूँ ू? न मेरे पाूँव हैं, न पींख।

नागमती चचतउर पिंथ िे रा। पपउ जो गए कफरर कीन्ि न फेरा॥ नागरर नारर कािूँ बस परा। तेइँ बबमोहि मोसौं चचतु
िरा॥ सुवा काल िोइ लै गा पीऊ। पपउ नहििं लेत लेत बरु जीऊ॥ भएउ नरायन बावन करा। राज करत बसल राजा
छरा॥ करन बान लीन्िे उ कै छिं द।ू भारथ भएउ खझलसमल आनिंद॥
ू मानत भोग गोपीचँद भोगी। लै उपसवा जलिंधर
जोगी॥ लै कान्िहि भा अकरुर अलोपी। कहठन बबछोउ जजऐ ककसम गोपी॥ सारस जोरी ककसम िरी मारर गएउ ककन
िजग्ग। झुरर झुरर पाँजरर धतन भई बबरि कै लागी अजग्ग॥

नागमती चििौड़ में बाट दे खती थी। ‘पप्रयतम जो गए लौट कर न आए। वे ककसी नागर नार के फेर में
पड़ गए हैं। उसने मोदहत करके उनका चिि मेर ओर से हर ललया है । सग्ु गा काल बनकर पप्रयतम को
ले गया। हाय! पप्रय को न ले जाता िाहे प्राण ले जाता। वह सग्ु गा वामन रप में नारायण बनकर आया
और राज करते हुए राजा बलल को छल ले गया। उसने छल करके कणत की पर क्षा ल , जजससे अजन
ुत को
उसके कवि से आनींद हुआ। भोगी गोपीिन्द भोगों में फूँसे थे। जोगी जालन्धर नाथ उन्हें लेकर िले
गए। कृष्ण को लेकर अक्रूर अदृष्ट हो गया। कदठन बबछोह में गोपी कैसे जीपवत रहे गी?
सारस की जोड़ी में से एक को वह क्यों हर ले गया? हरना ह था तो खगी को मार क्यों नह ीं गया?’ पवर
ह की ऐसी आग लगी कक युवती सख
ू -सख
ू कर पपींजर हो गई।

मैया, मैं तो चिंद-खिलौना लैिौं। जैिौं लोहट धरतन पर अबिीिं, तेरी गोद न ऐिौं॥

सुरी कौ पय पान न कररिौं, बेनी ससर न गुिैिौं। ह्वैिौं पूत निंद बाबा कौ, तेरौ सुत न किै िौं॥ आगैं आउ, बात सुतन
मेरी, बलदे वहि न जनैिौं। िँसस समुझावतत, कितत जसोमतत, नई दल
ु हिया दै िौं॥ तेरी सौं, मेरी सुतन मैया, अबहििं
बबयािन जैिौं। सरदास ह्वै कुहटल बराती, गीत सुमिंगल गैिौं॥

श्री कृष्ण कह रहे हैं, “मैया! मैं तो यह िींरमा-


खखलौना लूँ ग
ू ा। यदद तू इसे नह ीं दे गी तो अभी ज़मीन पर लोट जाऊूँगा, तेर गोद में नह ीं आऊूँगा। न तो
गैया का दध
ू पीऊूँगा, न लसर में िुदटयाूँ गूँथ
ु वाऊूँगा। मैं अपने नींद बाबा का पुत्र बनूँग
ू ा, तेरा बेटा नह ीं क
हलाऊूँगा।” तब मैया यशोदा हूँसती हुई समझाती हैं और कहती हैं “आगे आओ! मेर बात सन
ु ो, यह बा
त तम्
ु हारे दाऊ भैया को मैं नह ीं बताऊूँगी। तम्
ु हें मैं नई दल्
ु हतनया लाकर दूँ ग
ू ी।” यह सन
ु कर कृष्ण कह
ने लगे “तू मेर मैया है , तेर शपथ, सन
ु ! मैं इसी समय ब्याह करने जाऊूँगा।” सरू दास जी कहते हैं प्रभ!ु
मैं आपका कुदटल बाराती बनूँग
ू ा और आपके पववाह में मींगल के सुींदर गीत गाऊूँगा।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप ततलक अनुमाना सािी शब्द गावत भूले आतम िबर न जाना इस इस दोिे का
क्वेश्चन िै कपव ने पाििंडी ककसे किा िै और क्यों स्पष्ट करें

उिर:तनगुण
त परीं परा के सवतश्रेष्ठ कपव कबीर के पदों से उद्धत
ृ है । इस पद में उन्होंने धमत के नाम पर
हो रहे बाहय आडींबरों पर तीखा प्रहार ककया है ।कपव सींसार को पागल कहता है । इसका कारण है कक
सींसार सच्िी बात कहने वाले को मारने के ललए दौड़ता है तथा झूठी बात कहने वाले पर पवश्वास कर
लेता है ।

व्याख्या:

इन पजक्तयों का आशय यह है कक दहन्द ू और मस


ु लमान दोनों धमों के लोग बाह्य आडींबर में उलझे
रहते हैं। कोई टोपी पहनता है , तो कोई ततलक लगाता है और अपने-अपने अींहकार का प्रदशतन करते
हैं। वे साखी-सबद आदद गाकर अपने आत्म स्वरुप को ह भल
ू जाते है । वे साखी व शब्द को गाना
भल
ू गए हैं तथा अपनी आत्मा के रहस्य को नह ीं जानते हैं। इन लोगों को साींसाररक जीवन पर घमींड
है । दहींद ू कहते हैं कक उन्हें राम तयारा है तो तुकत रह म को अपना बताते हैं। दोनों समह
ू ईश्वर की
श्रेष्ठता के िक्कर में लड़कर मार जाते हैं, परीं तु ककसी ने भी ईश्वर की सिा के रहस्य को नह ीं जाना।

सिंतौ भाई आई ग्यान की आँधी. रे ! भ्रम की टाटी सबै उड़ार्ी, माया रिै न बाँधी रे ।। हितचचत की दोउ थुनी
चगरानी, मोि बलीिंडा टूटा। बत्रस्न छाँतन परी घर ऊपर, कुबुचध का भािंडा फूटा।। जोग जुगतत करर सिंतौ बाँधी,
तनरचू चुवै न पार्ीिं। कूड़-कपट काया का तनकस्या, िरर की गतत जब जाँर्ी।। आँधी पीछे जल बूठा, प्रेम िरी जन
भीना। किै कबीर भािंन के प्रगटे , उहदत भयो तम घीनाँ।
कबीर कहते हैं। हे सींतो ! हमारे अींतमतन में ज्ञान की आूँधी आई हुई है । इस आूँधी ने हमारे मन की
भ्रमरपी टदटया को उड़ा ददया है । माया बींधन भी उसे रोक नह ीं पा रहे हैं। भाव यह है कक ज्ञानोदय
होने पर हमारे मन का भ्रम और माया का प्रभाव समातत हो गया है । हमारे मनरपी घर पर तष्ृ णारपी
छतपर पड़ा था और द्पवपवधा या अतनश्ियरपी दो खम्भे इसे साधे हुए थे। ज्ञान की प्रबल आूँधी ने
इनको चगरा ददया है । इससे इन खम्भों पर दटकी हुई मोहरपी बल्ल भी टूट गई है । भाव यह है कक
ज्ञानोदय होने से हमारे मन की द्पवपवधा और मोह भी नष्ट हो गया। यह बल्ल के टूटते ह
तष्ृ णारपी छतपर (छान) भी चगर पड़ी और वहाूँ जस्थत कुबुद्चध रपी सारे बततन, भाूँड़े फूट गए अथातत ्
सारे कुपविार नष्ट हो गए। हे सींतो ! अबकी बार हमने घर पर सींतोषरपी नया छतपर बड़े यत्न से
ढका और बाूँधा है । अब हम पण
ू त
त : तनजश्िन्त हैं, क्योंकक अब इसमें से एक बींद
ू भी वषात का पानी नह ीं
टपक सकता अथातत ् साींसाररक पवषय पवकार अब हमारे हृदय को लेश मात्र भी प्रभापवत नह ीं कर
सकते। मन में ज्ञान के आगमन से मझ
ु े हरर’ के स्वरप का ज्ञान हो गया है और मन . का सारा कूड़ा-
करकट (दग
ु ण
ुत ) साफ हो गया है । ज्ञानोदय के पश्िात ् मेरा भक्त हृदय प्रभु प्रेम की वषात में भीग ग..
है । ज्ञानरपी सय
ू त के उदय से अज्ञानरपी अींधकार पण
ू त
त ः नष्ट हो िक
ु ा है ।
सतगरु
ु की मदहमा अनींत, अनींत ककया उपगार।
लोिन अनींत उघाडड़या, अनींत ददखावणहार ।।
प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी कहते हैं सतगुरु की मदहमा का कोई सानी नह ीं है । कोई भी अींत नह ीं है
अथातत असीलमत है क्योंकक उन्होंने मेरे ऊपर बहुत से उपकार ककए हैं। कहने का अथत यह है की सतगुरु
की मदहमा असीलमत है और उन्होंने मझ
ु पर अनींत (असीलमत) उपकार ककये हैं। कबीरदास जी कहते हैं
कक माया के कारण मेर आूँखें बींद पड़ी थी, सत्य मझ
ु े ददखाई नह ीं दे रहा था, सतगुरु ने मेर आूँखों को
खोला और मझ
ु े सत्य ददखाया, सत्य का दशतन करवाने वाले ऐसे सींत की मदहमा असीलमत और अपार
है । कहने का तात्पयत यह है कक सतगरु
ु ने हमार अज्ञानता भर आींखों को खोलकर ज्ञान (सत्यता) से
मेल करवाया।
बबरितन ऊभी पिंथ ससरर, पिंथी बझ
ू ै धाइ
एक सबद कहि पीव का, कबर समलेंगे आई ॥5॥
शब्दाथण - ऊभी =खड़ी हुई। पथ लसरर= मागत के ककनारे । कबर= कबा
व्याख्या - पवरदहणी मागत में पप्रय की प्रतीक्षा में खड़ी आते जाते पचथक से जजस प्रकार
उत्कण्ठा सदहत पप्रय आगमन का समािार पूछती है उसी प्रकार साधक की ब्रह्म पवयुक्त
आत्मा गुरु से पप्रय (ब्रह्म की ) ििात सन
ु ती हुई यह जानना िाहती है कक प्रभु से कब भें ट
होगी।
पवशेष- प्रस्तत
ु ालींकार । (लौककक एवीं आध्याजत्मक प्रेम की व्यींजना एक ह पवभाव के
माध्यम से युगपत रप से हो रह है, अतः यहाूँ प्रस्तुत अप्रस्तुत का तनणतय न होने से
प्रस्तुतालींकार है ।)
सखु िया सब सिंसार िै, िायै अरु सौवै।
दखु िया दास कबीर िै, जागै अरु रोवै ॥ 451
व्याख्या- कबीर कहते हैं कक समस्त सींसार सख
ु ी है जो भोग-पवलास का जीवन व्यतीत कर
अज्ञान राबत्र में सोता है । दख
ु ी तो केवल एक कबीर है जो ज्ञान-प्राजतत के ललए जग भी रहा
है और प्रभ-ु लमलन के ललए रो भी रहा है ।
पवशेष-वस्तु से वस्तु ध्वतनत है । ध्वतनत है-सींसारासक्त मनष्ु य तनजश्िन्त ददखाई पड़ता
है , ककींतु भगवान का भक्त पवरह में व्याकुल ।

इस पिंजक्त द्वारा कपव का किना िै कक जब तक मनुष्य में अज्ञान रुपी अिंधकार छाया िै वि ईश्वर को
निीिं पा सकता। अथाणत अििं कार और ईश्वर का साथ-साथ रिना नामम
ु ककन िै । यि भावना दरू िोते िी
वि ईश्वर को पा लेता िै ।

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