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पूर्ण स्लोक मैया मेरी,चिंद्र खिलौना लैिों।। धौरी को पय पान न कररिौ उर पर,बेनी ससर न गथ
ु ैिौं। मोततन माल
न धररिौ उर पर झुिंगली किंठ न लैिौं। जैिों लोट अबहििं धरनी पर, तेरी गोद न एिौं। लाल किै िों निंद बबा को,
तेरो सत
ु न किै िौं।। कान लाय कछु कित जसोदा, दाउहििं नाहििं सन
ु ैिौं। चिंदा िूँ ते अतत सद
िंु र तोहििं,नवल दल
ु हिया
ब्यैिौं।। तेरी सौं मेरी सन
ु मैया, अबिीिं ब्यािन जैिौं। 'सूरदास' सब सिा बराती, नूतन मिंगल गैिौं।
उत्तर:
भावाथत- श्रीकृष्ण िन्रमा को दे खते कहते हैं कक मैया मैं तो िाूँद खखलौना लूँ ग
ू ा,वनात में गाय का दध
ू
नह ीं पपऊूँगा, िोट नह ीं गुथावाऊूँगा, मोततयों की माला नह ीं पहनूँग
ू ा, अभी धरती पर लोट जाऊूँगा पर
तम्
ु हार गोद में नह ीं आऊूँगा, तम्
ु हारा और नींद बाबा का बेटा भी नह ीं कहलवाऊूँगा। तब माूँ यशोदा
कृष्ण को बहकाते हुए कहती है कक पुत्र मेर बात सन
ु ो पर यह बात बलराम को भी न बताना मैं
तुम्हारा ब्याह िींदा से भी अतत सद
ुीं र दल्
ु हन से करूँगी। यह सन
ु कर कृष्ण अपनी माूँ यशोदा से कहते
मझ
ु े तम्
ु हार सौगींध है मैं अभी ब्याह करने जाऊूँगा। इस पर सरू कहते हैं कक वे कृष्ण की बारात में
बाराती बनकर मींगल गीत गाएूँगे
ससिवतत चलन जसोदा मैया | अरबराइ कर पातन गिावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया || कबिुँक सुिंदर बदन
बबलोकतत, उर आनँद भरर लेतत बलैया | कबिुँक कुल दे वता मनावतत, चचरजीविु मेरौ कुँवर कन्िै या || कबिुँक
बल कौं टे रर बुलावतत, इहििं आँगन िेलौ दोउ भैया |सूरदास स्वामी की लीला, अतत प्रताप बबलसत नँदरै या ||
भावाथत :-- माता यशोदा (श्यामको) िलना लसखा रह हैं | जब वे लड़खड़ाने लगते हैं,
उनका सन्
ु दर मख
ु दे खकर माताका हृदय आनन्द से पूणत हो जाता है वे बलैया लेने लगती
हैं | कभी कुल-दे वता मनाने लगती हैं कक `मेरा कुूँवर कन्हाई चिरजीवी हो |' कभी पुकार
कर बलरामको बुलाती हैं (और कहती हैं-) `दोनों भाई इसी आूँगनमें मेरे सामने खेलो |
अत्यन्त बढ गया है |
िमारे तनधणन के धन राम। चोर न लेत, घटत नहििं कबिूँ, आबत गाढैं काम॥ जल नहििं बूड़त, अचगतन न दाित, िै
ऐसो िरर-नाम। बैकुँठनाथ सकल सुि दाता, सूरदास सुि-धाम॥
हम तनधतनों का धन राम-
नाम है । इसे िोर िुरा नह ीं सकता, कभी यह घटता नह ीं और आपपि के समय काम आता है । श्रीहरर
का नाम ऐसा है कक न तो जल में डूबता है , न अजग्न उसे जला सकता है । सरू दास कहते हैं—
सख
ु धाम श्रीबैकींु ठनाथ समस्त सख
ु ों के दाता हैं।
चरन-कमल बिंदौं िरर-राइ। जाकी कृपा पिंगु चगरर लिंघ,ै अिंधे कौं सब कछु दरसाइ॥ बहिरौ सुन,ै गूँग पुतन बोलै, रिं क
चलै ससर छत्र धराइ। सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बिंदौं ततहििं पाइ॥
सवेश्वर श्रीहरर के िरणकमलों की मैं वींदना करता हूूँ। जजनकी कृपा से पींगु भी पवतत को पार करने में स
मथत हो जाता है , जजनकी कृपा से अींधे को सब कुछ द खने लगता है , जजनके अनुग्रह से बहरा सन
ु ने लग
ता है और गूँग
ू ा कफर से बोलने लगता है । जजनकी कृपा से अत्यींत कींगाल भी लसर पर छत्र धारण करके
िलने वाला नरे श हो जाता है । सरू दास कहते हैं कक मैं अपने उस करुणामय स्वामी के िरणों की बार-
बार वींदना करता हूूँ।
अबबगत–गतत कछु कित न आवे। ज्यों गूिंगे मीठे फल को रस अिंतगणत िी भावे।। परम स्वाद सबिी सु तनरिं तर
असमत तोष उपजावे। मन बानी कों अगम अगोचर, सो जाने जो पावे।। रूप-रे ि-गुर्-जातत-जुगाती- बबनु तनरालिंब
ककत धावै। सब बबचध अगम बबचारहि तातै सुर सगुन –पद गावै।।
जो दे सोई िाऊँ। मेरी उर् की प्रीत पुरार्ी उर् बबन पल न रिाऊँ॥ जिाँ बैठावें तततिी बैठूँ बेचै तो बबक जाऊँ। मीरा
के प्रभु चगरधर नागर बार-बार बसल जाऊँ॥
मैं चगरधर के घर जाती हूूँ। चगरधर मेरा सच्िा प्रीतम है । जजसका हुस्न दे खकर मेरा ददल खश
ु हो जाता
है । रात होते ह मैं उठकर िल जाती हूूँ। रात-
ददन उसके साथ खेलती हूूँ और हर मम ु ककन तर के से उसे ररझाती हूूँ। जो वह पहनाता है वह पहनती
हूूँ। जो दे ता है वह खाती हूूँ, मेर उनकी मह
ु ब्बत बहुत पुरानी है , उसके बगैर एक पल नह ीं रह सकती।
वह जहाूँ बबठाएगा वह ीं बैठ जाऊूँगी और अगर बेिेगा तो बबक जाऊूँगी। मीरा के प्रभु चगरधर नागर, उन
पर कुबातन जाऊूँ।
बसो मेरे नैनन में निंदलाल। मोिनी मूरत, साँवरी सूरत, नैना बने बबसाल। अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजत
िं ी
माल॥ छुद्रघिंहटका कहटतट सोसभत, नूपुर सबद रसाल। मीरािं प्रभु सिंतन सुिदाई भगत बछल गोपाल॥
ऐ नींदलाल, मेर आूँखों में आ बसो। कैसी मोहनी मरू त, कैसी साूँवल सरू त है । आूँखें ककतनी बड़ी हैं! तु
म्हारे िरणों पर गीतों के रस से भर हुई बाूँसरु सजी हुई है और सीने पर वैजयींती माला है । कमर के चग
दत छोट
छोट घींदटयाूँ सजी हुई हैं और पैरों में बूँधे हुए नप
ू रु मीठी आवाज़ में बोल रहे हैं। ऐ मीरा के प्रभ,ु तम
ु सीं
तों के सख
ु पहिानते हो और अपने भक्तों के सींरक्षक हो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो ! वस्तु अमोसलक दी मेरे सतगुरु ककरपा करर अपनायो। पायो जी मैंन…
े
िरचै न िूटै चोर न लूटै हदन हदन बढत सवायो। पायो जी मैंन…
े
1. बिुत हदनान को अवचध आसपास परे , िरे अरबरतन भरे िैं उहठ जान को। कहि कहि आवन छबीले मनभावन
को, गहि गहि राितत िी दै दै सनमान को ॥ झूठी बततयातन की पतयातन तें उदास िवै कै, अब ना तघरत घन
आनिंद तनदान को। अधर लगे िैं आतन करर कै पयान प्रान, चाित चलन ये सँदेसो लै सुजान को ॥
सावन बररस मेि अतत पानी। सरतन भरइ िौं बबरि झुरानी॥ लागु पुनबणसु पीउ न दे िा। भै बाउरर किँ किंत सरे िा॥
रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रें चग चली जनु बीर बिूटी॥ सखिन्ि रचा पपउ सिंग हिँडोला। िररयर भुइँ कुसुिंसभ तन
चोला॥ हिय हिँडोल जस डोले मोरा। बबरि झुलावै दे इ झँकोरा॥ बाट असूझ अथाि गँभीरा। जजउ बाउर भा भवै
भँभीरा॥ जग जल बूडड़ जिाँ लचग ताकी। मोर नाव िेवक बबनु थाकी॥ परबत समुँद अगम बबच बन बेिड़ घन
ढिं ि। ककसम करर भेटौं किंत तोहि ना मोहि पाँव न पिंि॥
नागमती चचतउर पिंथ िे रा। पपउ जो गए कफरर कीन्ि न फेरा॥ नागरर नारर कािूँ बस परा। तेइँ बबमोहि मोसौं चचतु
िरा॥ सुवा काल िोइ लै गा पीऊ। पपउ नहििं लेत लेत बरु जीऊ॥ भएउ नरायन बावन करा। राज करत बसल राजा
छरा॥ करन बान लीन्िे उ कै छिं द।ू भारथ भएउ खझलसमल आनिंद॥
ू मानत भोग गोपीचँद भोगी। लै उपसवा जलिंधर
जोगी॥ लै कान्िहि भा अकरुर अलोपी। कहठन बबछोउ जजऐ ककसम गोपी॥ सारस जोरी ककसम िरी मारर गएउ ककन
िजग्ग। झुरर झुरर पाँजरर धतन भई बबरि कै लागी अजग्ग॥
नागमती चििौड़ में बाट दे खती थी। ‘पप्रयतम जो गए लौट कर न आए। वे ककसी नागर नार के फेर में
पड़ गए हैं। उसने मोदहत करके उनका चिि मेर ओर से हर ललया है । सग्ु गा काल बनकर पप्रयतम को
ले गया। हाय! पप्रय को न ले जाता िाहे प्राण ले जाता। वह सग्ु गा वामन रप में नारायण बनकर आया
और राज करते हुए राजा बलल को छल ले गया। उसने छल करके कणत की पर क्षा ल , जजससे अजन
ुत को
उसके कवि से आनींद हुआ। भोगी गोपीिन्द भोगों में फूँसे थे। जोगी जालन्धर नाथ उन्हें लेकर िले
गए। कृष्ण को लेकर अक्रूर अदृष्ट हो गया। कदठन बबछोह में गोपी कैसे जीपवत रहे गी?
सारस की जोड़ी में से एक को वह क्यों हर ले गया? हरना ह था तो खगी को मार क्यों नह ीं गया?’ पवर
ह की ऐसी आग लगी कक युवती सख
ू -सख
ू कर पपींजर हो गई।
मैया, मैं तो चिंद-खिलौना लैिौं। जैिौं लोहट धरतन पर अबिीिं, तेरी गोद न ऐिौं॥
सुरी कौ पय पान न कररिौं, बेनी ससर न गुिैिौं। ह्वैिौं पूत निंद बाबा कौ, तेरौ सुत न किै िौं॥ आगैं आउ, बात सुतन
मेरी, बलदे वहि न जनैिौं। िँसस समुझावतत, कितत जसोमतत, नई दल
ु हिया दै िौं॥ तेरी सौं, मेरी सुतन मैया, अबहििं
बबयािन जैिौं। सरदास ह्वै कुहटल बराती, गीत सुमिंगल गैिौं॥
उिर:तनगुण
त परीं परा के सवतश्रेष्ठ कपव कबीर के पदों से उद्धत
ृ है । इस पद में उन्होंने धमत के नाम पर
हो रहे बाहय आडींबरों पर तीखा प्रहार ककया है ।कपव सींसार को पागल कहता है । इसका कारण है कक
सींसार सच्िी बात कहने वाले को मारने के ललए दौड़ता है तथा झूठी बात कहने वाले पर पवश्वास कर
लेता है ।
व्याख्या:
सिंतौ भाई आई ग्यान की आँधी. रे ! भ्रम की टाटी सबै उड़ार्ी, माया रिै न बाँधी रे ।। हितचचत की दोउ थुनी
चगरानी, मोि बलीिंडा टूटा। बत्रस्न छाँतन परी घर ऊपर, कुबुचध का भािंडा फूटा।। जोग जुगतत करर सिंतौ बाँधी,
तनरचू चुवै न पार्ीिं। कूड़-कपट काया का तनकस्या, िरर की गतत जब जाँर्ी।। आँधी पीछे जल बूठा, प्रेम िरी जन
भीना। किै कबीर भािंन के प्रगटे , उहदत भयो तम घीनाँ।
कबीर कहते हैं। हे सींतो ! हमारे अींतमतन में ज्ञान की आूँधी आई हुई है । इस आूँधी ने हमारे मन की
भ्रमरपी टदटया को उड़ा ददया है । माया बींधन भी उसे रोक नह ीं पा रहे हैं। भाव यह है कक ज्ञानोदय
होने पर हमारे मन का भ्रम और माया का प्रभाव समातत हो गया है । हमारे मनरपी घर पर तष्ृ णारपी
छतपर पड़ा था और द्पवपवधा या अतनश्ियरपी दो खम्भे इसे साधे हुए थे। ज्ञान की प्रबल आूँधी ने
इनको चगरा ददया है । इससे इन खम्भों पर दटकी हुई मोहरपी बल्ल भी टूट गई है । भाव यह है कक
ज्ञानोदय होने से हमारे मन की द्पवपवधा और मोह भी नष्ट हो गया। यह बल्ल के टूटते ह
तष्ृ णारपी छतपर (छान) भी चगर पड़ी और वहाूँ जस्थत कुबुद्चध रपी सारे बततन, भाूँड़े फूट गए अथातत ्
सारे कुपविार नष्ट हो गए। हे सींतो ! अबकी बार हमने घर पर सींतोषरपी नया छतपर बड़े यत्न से
ढका और बाूँधा है । अब हम पण
ू त
त : तनजश्िन्त हैं, क्योंकक अब इसमें से एक बींद
ू भी वषात का पानी नह ीं
टपक सकता अथातत ् साींसाररक पवषय पवकार अब हमारे हृदय को लेश मात्र भी प्रभापवत नह ीं कर
सकते। मन में ज्ञान के आगमन से मझ
ु े हरर’ के स्वरप का ज्ञान हो गया है और मन . का सारा कूड़ा-
करकट (दग
ु ण
ुत ) साफ हो गया है । ज्ञानोदय के पश्िात ् मेरा भक्त हृदय प्रभु प्रेम की वषात में भीग ग..
है । ज्ञानरपी सय
ू त के उदय से अज्ञानरपी अींधकार पण
ू त
त ः नष्ट हो िक
ु ा है ।
सतगरु
ु की मदहमा अनींत, अनींत ककया उपगार।
लोिन अनींत उघाडड़या, अनींत ददखावणहार ।।
प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी कहते हैं सतगुरु की मदहमा का कोई सानी नह ीं है । कोई भी अींत नह ीं है
अथातत असीलमत है क्योंकक उन्होंने मेरे ऊपर बहुत से उपकार ककए हैं। कहने का अथत यह है की सतगुरु
की मदहमा असीलमत है और उन्होंने मझ
ु पर अनींत (असीलमत) उपकार ककये हैं। कबीरदास जी कहते हैं
कक माया के कारण मेर आूँखें बींद पड़ी थी, सत्य मझ
ु े ददखाई नह ीं दे रहा था, सतगुरु ने मेर आूँखों को
खोला और मझ
ु े सत्य ददखाया, सत्य का दशतन करवाने वाले ऐसे सींत की मदहमा असीलमत और अपार
है । कहने का तात्पयत यह है कक सतगरु
ु ने हमार अज्ञानता भर आींखों को खोलकर ज्ञान (सत्यता) से
मेल करवाया।
बबरितन ऊभी पिंथ ससरर, पिंथी बझ
ू ै धाइ
एक सबद कहि पीव का, कबर समलेंगे आई ॥5॥
शब्दाथण - ऊभी =खड़ी हुई। पथ लसरर= मागत के ककनारे । कबर= कबा
व्याख्या - पवरदहणी मागत में पप्रय की प्रतीक्षा में खड़ी आते जाते पचथक से जजस प्रकार
उत्कण्ठा सदहत पप्रय आगमन का समािार पूछती है उसी प्रकार साधक की ब्रह्म पवयुक्त
आत्मा गुरु से पप्रय (ब्रह्म की ) ििात सन
ु ती हुई यह जानना िाहती है कक प्रभु से कब भें ट
होगी।
पवशेष- प्रस्तत
ु ालींकार । (लौककक एवीं आध्याजत्मक प्रेम की व्यींजना एक ह पवभाव के
माध्यम से युगपत रप से हो रह है, अतः यहाूँ प्रस्तुत अप्रस्तुत का तनणतय न होने से
प्रस्तुतालींकार है ।)
सखु िया सब सिंसार िै, िायै अरु सौवै।
दखु िया दास कबीर िै, जागै अरु रोवै ॥ 451
व्याख्या- कबीर कहते हैं कक समस्त सींसार सख
ु ी है जो भोग-पवलास का जीवन व्यतीत कर
अज्ञान राबत्र में सोता है । दख
ु ी तो केवल एक कबीर है जो ज्ञान-प्राजतत के ललए जग भी रहा
है और प्रभ-ु लमलन के ललए रो भी रहा है ।
पवशेष-वस्तु से वस्तु ध्वतनत है । ध्वतनत है-सींसारासक्त मनष्ु य तनजश्िन्त ददखाई पड़ता
है , ककींतु भगवान का भक्त पवरह में व्याकुल ।
इस पिंजक्त द्वारा कपव का किना िै कक जब तक मनुष्य में अज्ञान रुपी अिंधकार छाया िै वि ईश्वर को
निीिं पा सकता। अथाणत अििं कार और ईश्वर का साथ-साथ रिना नामम
ु ककन िै । यि भावना दरू िोते िी
वि ईश्वर को पा लेता िै ।