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Class- VIII (हिन्दी) पाठ- 12 सुदामा चरित

Sub : वसंत हदनांक- 04/12 /2021


कवव – निोत्तमदास
व्याख्या (छात्र केवल पढ़ें व याद किें )
क) सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा ।
धोती फटी-सी लटी दप
ु टी, अरु पाँय उपानि को नहििं सामा ।।
द्वार खड़ो हद्वज दब
ु ल
ब एक, रह्यो चहकसों बसुधा अभभरामा ।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा ।।
शब्दार्ब- सीस=भसर । पगा = पगड़ी । झँगा = कुरता । तन = शरीर ।
जाने को = न जाने कौन । आहि = आया । बसे = बसना ।
ग्रामा = गाँव । दप
ु टी = चादर । लटी = लटक रिी । अरु = और ।
पाँय = पाँव । उपानि = जूता, पादक
ु ा । दब
ु ल
ब = कमज़ोर । चहकसो = चहकत ।
बसुध = धरती । अभभरामा = सुिंदर, मनोिर । धाम = भवन ।
दीनदयाल = श्रीकृ ष्ण, दीनों पर दया करनेवाले। बतावत = बताता िै ।
प्रसिंग – प्रस्तुत पद्ािंश कवव नरोत्तमदास द्वारा रभचत कववता “सुदामा चररत” से ली गई
िै । उन्िोंने अपनी कववता में पौराणणक कर्ा को आधार बनाकर भमत्रता के वास्तववक रूप
को जनमानस के सम्मुख प्रकट हकया िै । यिाँ कवव ने सुदामा की दीन-िीन दशा का सुिंदर
शब्द-भचत्र बनाया िै ।
व्याख्या – श्रीकृ ष्ण से भमलने गए गरीबी से बेिाल सुदामा को दे खकर द्वारपाल ने भवन में
जाकर श्रीकृ ष्ण से किा – िे प्रभु! बािर मिल के द्वार पर एक भनधबन-सा व्यवि खड़ा िै ।
उसके भसर पर न तो पगड़ी िै और न शरीर पर कोई कुरता िै । पता निीिं वि हकस ग्राम
से आया िै । उसकी धोती फट चुकी िै और उसकी चादर की दशा अत्यिंत बदिाल िै । उसके
पैरों में जूता तक निीिं िै । वि भनधबन, कमज़ोर सा ब्राह्मण िै रान िोकर द्वारका की धरती
की सुिंदरता को आश्चयबचहकत िोकर दे ख रिा िै । वि आपका पता पूछ रिा िै और अपना
नाम सुदामा बता रिा िै ।

ख) ऐसे बेिाल वबवाइन सों, पग किंटक जाल लगे पुभन जोए ।


िाय! मिादख
ु पायो सखा, तुम आए इतै न हकतै हदन खोए ।।
दे णख सुदामा की दीन दसा, करुना कररकै करुनाभनभध रोए ।
पानी परात को िार् छुयो नहििं , नैनन के जल सों पग धोए ।।
शब्दार्ब – बेिाल = बुरा िाल । वबवाइन = पैरों की फटी एहड़याँ । पग = पैर ।
किंटक जाल = काँटों का जाल । पुभन = बार-बार । जोए = दे खना ।
सखा = भमत्र । इतै = यिाँ । हकतै = हकधर । दीन दसा = बुरी िालत ।
करुणा = दया । करूनाभनभध = दया के सागर । परात = बिुत बड़ी र्ाली।
छुयो = छुआ । नैनन के जल = आँसुओिं से ।
व्याख्या – कवव ने सुदामा की दीन-िीन दशा का भचत्रण करते िुए श्रीकृ ष्ण के भावों का
माभमबक दृश्य प्रस्तुत हकया िै । श्रीकृ ष्ण ने जब सुदामा के पैरों को धोने के भलए िार्
लगाया तो दे खा हक उनकी एहड़याँ फटी िुई िैं । पैरों में काँटों का जाल बना िुआ िै । यि
दे खकर श्रीकृ ष्ण ववह्वल िो उठते िैं । तब उन्िोंने किा हक िे भमत्र! तुम इतने दख
ु भोगते
रिे । तुमने यिाँ आने में हकतने हदन लगा हदए। सुदामा की यि िालत दे खकर करुणा के
सागर श्रीकृ ष्ण फूट-फूटकर रोने लगे । सुदामा के पैरों को धोने के भलए परात में लाया
जल उन्िोंने छुआ तक निीिं और अपने आँसुओिं से िी सुदामा के पैरों को धोया।

ग) कछु भाभी िमको हदयो, सो तुम कािे न दे त ।


चाँवप पोटरी काँख में, रिे किो केहि िे तु ।।
शब्दार्ब- कछु = कुछ । कािे = क्यों निीिं । चाँवप = दबाकर । पोटरी = पोटली ।
काँख = बगल । केहि िे तु = हकस कारण ।
व्याख्या- कृ ष्ण अपने सखा सुदामा से किते िैं हक भमत्र मेरी भाभी ने मेरे भलए कुछ-न-
कुछ अवश्य हदया िोगा। तुम मुझे वि क्यों निीिं दे रिे िो? तुम उस पोटली को अपनी
बगल में हकसभलए दबाए बैठे िो ? भाभी ने जो पोटली मेरे भलए दी िै , तुम मुझे वि क्यों
निीिं दे रिे िो ?

घ) आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चावब िमें नहििं दीने ।


स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों, “चोरी की बान में िौ जू प्रवीने” ।।
पोटरी काँख में चाँवप रिे तुम, खोलत नाहििं सुधा रस भीने ।
पभछली बाभन अजौ न तजो तुम, तैसई भाभी के तिंदल
ु कीन्िे ।।
शब्दार्ब- दए = दे ना । चावब = चबाना । स्याम = श्रीकृ ष्ण । बान = कला ।
प्रवीने = प्रवीण, कुशल । सुधा = अमृत, प्रेम । अजौ = आज भी ।
तजो = छोड़ी । तिंदल
ु = चावल के दाने । कीन्िे = हकया ।
व्याख्या – पुरानी बात को याद करते िुए श्रीकृ ष्ण सुदामा से किते िैं हक तुमने बचपन में
भी इसी तरि वस्तुओिं को दे ने में आनाकानी की र्ी । गुरु आश्रम में गुरुमाता ने िम दोनों
को जो चने हदए र्े उसे तुम अकेले िी चबा गए र्े और मुझे हदए िी निीिं। कृ ष्ण
मुसकुराते िुए किते िैं हक चोरी की कला में तुम आज भी कुशल िो। तुम पोटली को
अपनी काँख में दबाए िुए िो। अमृत रूपी प्रेम रस से भीगे उन चावल के दानों के सार्
वैसा निीिं कर सकते । तुम्िें तो इसे मुझे दे ना िी पड़े गा।

ङ) वि पुलकभन , वि उहठ भमलभन, वि आदर की बात ।


वि पठवनी गोपाल की, कछु ना जानी जात ।।
घर-घर कर ओड़त हफरे , तनक दिी के काज ।
किा भयो जो अब भयो, िरर को राज-समाज ।।
िौं आवत नािीिं िुतौ, वािी पठयो ठे भल ।।
अब कहििौं समुझाय कै, बिु धन धरौ सकेभल ।।
शब्दार्ब- पुलकनी = िर्ब, आनिंद से युि । पठवभन = ववदाई ।
कर ओड़त हफरै = िार् फैलाकर घूमना । तनक= र्ोड़ा । ठे भल = बलपूवक
ब भेजना
धरौ सकेभल = सिंभालकर रखना ।
व्याख्या- इन पिंवियों में खाली िार् घर लौटते सुदामा की मनोणस्र्भत का वणबन िै । वे
सोचते िैं हक मेरे आगमन पर श्रीकृ ष्ण हकतने प्रसन्न र्े। आसन से उठकर मुझसे भमले
र्े, स्नेि और आदर के सार् मुझसे बात की र्ी । लेहकन मेरी णस्र्भत जानने के बाद भी
मुझे खाली िार् लौटा हदया । ये विी कृ ष्ण िैं जो र्ोड़े से दिी के भलए घर-घर जाकर िार्
फैलाते र्े। क्या िुआ जो आज इनके पास राजपाट और सुख-सुववधाएँ िैं । मैं तो यिाँ आना
िी निीिं चािता र्ा, लेहकन मेरी पत्नी ने जबरन मुझे यिाँ भेज हदया । ये मुझे िी धन
सिंभालने की सीख दे रिे िैं ।

च) वैसोई राज-समाज बने, गज-बाणज घने मन सिंभ्रम छायो ।


कैधों परयो किूँ मारग भूभल, हक फैरर कै मैं अब द्वारका आयो ।।
भौन वबलोहकबे को मन लोचत, सोचत िी सब गाँव मझायो ।
पूँछत पाड़े हफरे सब सों, पर झोंपरी को किुँ खोज न पायो ।।

शब्दार्ब- गज = िार्ी । सिंभ्रम = भ्रभमत । कैधों = या, अर्वा। मारग = मागब ।


भौन = भवन । वबलोहकबे = दे खना । लोचत = लालाभयत ।
गाँव मझायो = गाँव भर छान मारा ।
व्याख्या – इस पद्ािंश में कवव ने सुदामा के मन के भावों और णस्र्भत का वणबन करते
िुए किा िै हक जब सुदामा अपने गाँव पिुँचे तो वे िै रान रि गए । उनका सारा गाँव
द्वारका जैसा बन गया िै । िार्ी-घोड़े उसी प्रकार घूम रिे िैं । सुदामा मन िी मन सोचते िैं
हक किीिं रास्ता भूलकर वापस द्वारका तो निीिं आ गए। यि सब दे खकर सुदामा का मन
भचिंभतत िो उठता िै । अपनी झोपड़ी ढू ँ ढने के भलए वे सारा गाँव छान मारते िैं । ब्राह्मण
सुदामा सभी से अपनी झोपड़ी के बारे में पूछते िैं लेहकन उन्िें अपनी झोपड़ी किीिं हदखाई
निीिं पड़ती िै ।

छ) कै वि टू टी-सी छानी िती, किँ किंचन के अब धाम सुिावत ।


कै पग में पनिी न िती, किँ लै गजराजिु ठाढ़े मिावत ।।
भूभम कठोर पै रात कटै , किँ कोमल सेज पै नीिंद न आवत ।
कै जुरतो निीिं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप तें दाख न भवत ।।
शब्दार्ब- कै = हकस कदर । छानी = झोंपड़ी । िती = िोती र्ी । किंचन = सोना, स्वणब ।
सुिावत = सुिंदर लगना । पग = पैर । पनिी = पादक
ु ा, जूता। किँ लै= किाँ अब।
गजराजिु = िार्ी । ठाढ़े = खड़े िैं । मिावत = िार्ी चलाने वाला ।
जुरतो = पूरा पड़ना। कोदो सवाँ = मोटा अनाज । दाख = मेवा (काजू,हकशभमश)।
व्याख्या – आगे कवव किते िैं हक जिाँ सुदामा की टू टी-फूटी झोपड़ी िुआ करती र्ी, आज
विाँ सोने का सुिंदर मिल सुशोभभत िै । कवव आगे किते िैं हक णजसके पैरों मे कभी जूता
तक निीिं िोता र्ा, आज उसके भलए मिावत िार्ी लेकर तैयार खड़े रिते िैं । णजस व्यवि
की सारी रातें कठोर भूभम पर सोकर बीतती र्ी, उसे अब कोमल, मुलायम वबस्तर पर
नीिंद निीिं आती िै । पिले खाने के भलए कोदो सवाँ जैसा मोटा घहटया अनाज निीिं भमल
पाता र्ा, अब घर मेवा भमष्ठान से भरा िुआ िै हफर भी वे चीजें उन्िें अच्छी निीिं लग रिीिं
िैं । अर्ाबत अब सुदामा को हकसी भी प्रकार की कोई कमी निीिं िै ।

(अगले सप्ताि इसके प्रश्नोत्तर प्रकाभशत हकए जाएिंगे। छात्र इन्िें ध्यान से पढ़ें व अर्ब याद
करें ।)

टीप : यि पाठ्य-सामग्री घर में िी रिकर तैयार की गई िै ।

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