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समयसार प्रवचन भाग-3

सहजानंद शास्त्रमाला

समयसार प्रवचन
तृ तीय भाग

(कताा-कमा अधिकार, पु ण्य-पाप अधिकार - गाथा 99-157)

रचधयता

अध्यात्मयोगी, न्यायतीर्थ , सिद्धान्तन्यायिासित्यशास्त्री


पूज्य श्री क्षु ० मनोिरजी वर्णी ‘‘ििजानन्द’’ मिाराज

प्रकाशक

श्री माणकचंद हीरालाल धदगम्बर जैन पारमाधथाक न्‍यास गांिीनगर,


इन्‍दौर
Online Version : 001

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समयसार प्रवचन भाग-3

प्रकाशकीय
श्री ििजानन्‍द शास्‍त्रमाला िदर मे रठ द्वारा पूज्‍यवर्णीजी के िासित्‍य प्रकाशन का गुरूतर कायथ सकया गया िै । प्रस्‍तुत पुस्‍तक
‘समयसार प्रवचन सप्तम भाग’ अध्‍यात्‍मयोगी न्‍यायतीर्थ पूज्‍य श्रीमनोिरजी वर्णी की ि्‍रल शब्‍दोों व व्‍यविाररक शै ली में रसित
पुस्‍तक िै एवों िामान्‍य श्रोता/पाठक को शीघ्र ग्राह्य िो जाती िै ।

ये ग्रन्‍र् भसवष्‍य में िदै व उपलब्‍ध रिें व नई पीढी आधुसनकतम तकनीक (कम्‍प्‍यूटर आसद) के माध्‍यम िे इिे पढ व िमझ िके इि
िे तु उक्‍त ग्रन्‍र् िसित पूज्‍य वर्णीजी के अन्‍य ग्रन्‍र्ोों को http://www.sahjanandvarnishastra.org/ वेबिाइड पर रखा गया िै । यसद
कोई मिानु भाव इि ग्रन्थको पुन: प्रकासशत कराना िािता िै , तो वि यि कोंप्यूटर कॉपी प्राप्त करने िे तु िोंपकथ करे । इिी ग्रन्थ की
PDF फाइल www.jainkosh.org पर प्राप्त की जा िकती िै।

इि कायथ को िम्‍पासदत करने में श्री माणकचंद हीरालाल धदगम्बर जैन पारमाधथाक न्‍यास गांिीनगर इन्‍दौर का पूर्णथ िियोग
प्राप्‍त हुआ िै । ग्रन्‍र् के टों कर्ण कायथ में श्रीमती मनोरमाजी राधहं ज, गांिीनगर एवों प्रूसफोंग करने िे तु श्री दीपकजी शास्त्री, इन्दौर
का िियोग रिा िै — िम इनके आभारी िैं ।

िुधीजन इिे पढकर इिमें यसद कोई अशु द्धद्ध रि गई िो तो िमें िूसित करे तासक अगले िोंस्करर्ण (वजथ न) में त्रु सट का पररमाजथन
सकया जा िके।

धवनीत

सवकाि छाबडा

53, मल्हारगोंज मे नरोड

इन्‍दौर (म०प्र०)

Phone:94066-82889
Email-vikasnd@gmail.com
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समयसार प्रवचन भाग-3

Contents
प्रकाशकीय ....................................................................................................................................................................... 2
गार्ा 39 ......................................................................................................................................................................... 5
गार्ा 40 ....................................................................................................................................................................... 11
गार्ा 41 ....................................................................................................................................................................... 12
गार्ा 42 ....................................................................................................................................................................... 14
गार्ा 43 ....................................................................................................................................................................... 15
गार्ा 44 ....................................................................................................................................................................... 16

गार्ा 45 ....................................................................................................................................................................... 23
गार्ा 46 ....................................................................................................................................................................... 28

गार्ा 47-48 ................................................................................................................................................................. 32


गार्ा 49 ....................................................................................................................................................................... 34
गार्ा 50 ....................................................................................................................................................................... 50

गार्ा 51 ....................................................................................................................................................................... 57
गार्ा 52 ....................................................................................................................................................................... 65

गार्ा 53 ....................................................................................................................................................................... 73
गार्ा 54 ....................................................................................................................................................................... 76

गार्ा 55 ....................................................................................................................................................................... 78
गार्ा 56 ....................................................................................................................................................................... 80

गार्ा 57 ....................................................................................................................................................................... 81
गार्ा 58-60 ................................................................................................................................................................. 83
गार्ा 61........................................................................................................................................................................ 86
गार्ा 62 ....................................................................................................................................................................... 88
गार्ा 63-64 ................................................................................................................................................................. 92

गार्ा 65-66 ................................................................................................................................................................. 98


गार्ा 67...................................................................................................................................................................... 106
गार्ा 68 ..................................................................................................................................................................... 109

(तृतीय पुस्तक)
नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
धचत्स्वाभावाय भावाय सवाभावान्‍तरच्छिदे ।।
1. अध्यात्मनाट्य—आत्मा की पयाथ योों की िन्तसत एक नाटक िै । इन नाटकोों के करने वाले िी दे खने वाले िैं । विी

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समयसार प्रवचन भाग-3

करने वाला िै , विी दे खने वाला िै । जब इि नाट् यिभा के आत्ममोंि पर ज्ञान उपद्धसर्त िोता िै , उि िमय ज्ञान उपद्धसर्त
िोते िी नाटक दे खने वाले इन अज्ञानी भोले िोंिारी जीवोों को यकायक सवश्‍वाि उत्पन्न करा दे ता िै । जैिे—आप लोगोों
ने कभी-न-कभी नाटक दे खा िी िोगा । जब नाटक िो रिा िो, उि िमय कोई अन्याय अत्यािार का िीन िल रिा िो,
तब उि अन्‍याय को िमूल सवनाश करने वाला जब मोंि पर उपद्धसर्त िोता िै , उि िमय दशथ कोों को आह्लाद िो जाता िै
। सजि िमय नाटक में यि प्रिोंग िल रिा िो सक धवल िेठ श्रीपाल के प्रसत ऐिा अन्याय करने वाला िै , उि िमय
दशथकगर्ण सिद्धन्तत और आकुसलत िो जाते िैं , स्टे ज पर रक्षा करने वाला दे व उपद्धसर्त िोता िै , उि िमय दशथकगर्ण िर्थ
िे गद् गद् िो ताली बजाने लगते िैं और िािते िैं सक इि अन्यायी िेठ को शीघ्र दण्ड दे डाले तो अच्छा िै । उिी प्रकार
जब मोि का नाटक िल रिा र्ा, ज्ञान िामने आया तो उिने िभािदोों को सवश्‍वाि उत्पन्न कर सदया । क्या मैनािुन्दरी
नाटक में रक्षक दे व ने स्टे ज पर आते िी रै नम जू र्ा के िी शोक को दू र सकया? निीों असपतु रै नम जू र्ा के िार्-िार्
उि दृश्य को दे खने वाले उपद्धसर्त िभािदोों को भी आह्लासदत सकया । जब यि ज्ञान नाट् यभूसम में िामने आता िै ,
उिकी झलक दे खकर िी दशथ कोों को सवश्‍वाि जग जाता िै सक अब मोि का नामोसनशाों न रिे गा । जब ज्ञान िामने आया
तो जीव अजीव के भेद की प्रबल दृसि के द्वारा ज्ञान के पििानने वाले िन्तोों को सवश्‍वाि िो गया सक िमारी रक्षा तो िो
गई । इि अध्याय में वसर्णथत आशोंकाओों के िल करने में यि ज्ञान िी िवथत्र काम दे ता िै । सशष्य अनेक बातोों को आिायथ
के िामने रखकर प्रश्‍न करता िै सक मिाराजे जो शु भ, अशुभ भाव उत्पन्न िोते िैं , इनके उत्पन्न िोने की जो िूक्ष्म
िन्तसतया िैं , वि क्‍या आत्मा िोगा? सशष्य सजज्ञािा प्रकट करता िै सक मिाराज, क्‍या यि आत्मा िोगा, क्या यि आत्मा
िोगा? तब आिायथ परभावोों का सनर्ेध करते हुए परम पाररर्णासमक शुद्ध भावोों को सिद्ध करें गे ।
२. ज्ञानपात्र के आते ही आततायी मोह के हौसले समाप्त—वि ज्ञान नाट् यभूसम पर उपद्धसर्त हुआ तो आते िी
उिने उपिगथ के बन्धन ढीले कर सदए, केवल सवश्‍वाि िी निीों सदलाया, असपतु उि मोंि पर रिने वाले आततासययोों के
भी िौिले सबगड गए और दशथकोों को भी प्रिन्नता हुई । सजि प्रकार िे अन्याय को दू र करने वाला पात्र स्टे ज पर उपद्धसर्त
िोता िै , तो आततासययोों के िौिले ढीले िो जाते िैं , उिी प्रकार जब यि ज्ञान नाट् यभूसम पर आया तो अनासदकाल िे
बँधे हुए इन कमों के तो िौिले सबगडे और दशथक अपन लोगोों को आनन्द आया । जीव अजीव के सववेक की पुष्कल
दृसि के द्वारा िभािदोों का सवश्‍वाि सदलाता हुआ ज्ञान प्रकट हुआ, तब स्टे ज की शोभा बडी, आततासययोों के िौिले
सबगडे और स्टे ज पर िमत्कार-िा भी छा गया । इिी प्रकार यि मोि आत्मा पर अन्याय करता आ रिा र्ा और भी बडे
उपद्रव िो रिे र्े । इि पर मोि बडा भारी अन्याय कर रिा र्ा, ऐिी द्धसर्सत में जब स्टे ज पर ज्ञान आया, कुछ सवशुद्धता
जोंिने लगी, दशथ कोों को कुछ शाद्धन्त समली, दशथकोों को आनन्द आया और बन्धनोों के िौिले सबगडे । इि प्रकार श्रीमत्
अमृतिन्‍द्र िूरर ने बडे कलात्मक ढङ्ग िे इि बात का सववेिन सकया िै । दे द्धखये कीमत िोती िै सकिी अविर पर बात
बनने की । जब मोि इि आत्मा को परे शान कर रिा र्ा, गुर्णोों को सवकृत कर रिा र्ा, ऐिे िमय पर मोंि पर ज्ञान आता
िै , ऐिे िमय की सकतनी बडी कीमत िै ? उि िमय पिली बार आत्मा में ज्ञान उत्पन्न िोता िै , उि िमय आत्मा में सजतने
कमों की सनजथरा िोती िै , इतने कमों की सनजथरा सकिी िमय निीों िोती िै । ज्ञान िोते िी िारा अनन्त िोंिार कट गया,
यि सकतनी बडी सनजथरा िै बाद में इतने कमों की सनजथ रा निीों िोती िै , रि भी तो र्ोडे िे जाते । जब यि ज्ञान इि
आत्मस्टे ज पर प्रकट हुआ तो एक िार् तीन बातें प्रकट हुई—स्टे ज पर िमत्कार, आक्रान्ताओों के बन्धन ढीले िोना और
िभािदोों को सवश्‍वाि िोना । इतनी िी बात निीों । आत्मारूपी बगीिे में झक्‍कारे को उत्पन्न करता हुआ यि ज्ञान प्रकट
हुआ । सकिी आक्राों ता पर जब कोई आक्रमर्ण करता िै उि िमय यि आनन्द िोता िी िै ।
३. धनत्य उधदत ज्ञान—यि ज्ञान स्टे ज पर आज आया । परन्तु र्ा वि पसिले िे िी सनत्य अन्त: प्रकाशमान । जैिे वि
दे व अभी आया िी र्ा, वैिे वि र्ा विाँ पसिले िे िी । अत: उिको दे खते िी दशथ कोों को आनन्द प्राप्त हुआ र्ा । सजि
ज्ञान नायक के दे खने पर जनता को अपार िर्थ हुआ और मोि के िोश उड गए, वि र्ा पसिले िे िी, सकन्तु दे खा गया
अब । जैिे मैनािुन्दरी का नाटक िल रिा िै , जब वि स्टे ज पर आती िै , उि िमय दशथकोों में बडी उमङ्ग पैदा िोती िै ,
ऐिी उमङ्ग के शेर् िीनोों के दे खने पर निीों िोती । नाटकोों की नायक जब िामने उपद्धसर्त िोता िै , उि िमय िीन बडा
िी आकर्थ क िोता िै । यि ज्ञान आत्मा के गुर्णोों िे मुख्य िैं, नायक िैं । जब-जब आत्मा में ज्ञान आता िै , तब-तब पाररर्दोों
की उमङ्ग िी और िो जाती िै । सकिी भी नाटक के नायक में ३ गुर्ण िोते िैं :—धीर, उदात्त और अनाकुल । तुम्हें जो

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समयसार प्रवचन भाग-3

िीज सदखानी िोती िै , उिकी मसिमा िे िम्बद्धन्धत मसिमा को करने वालो नायक िोता िै । मैनािुन्दरी ने रोग िोने पर
भी सकतनी िेवा की, यि उिकी उदारता र्ी । उिी प्रकार जब यि ज्ञान आत्ममोंि पर उपद्धसर्त िोता िै , उि िमय वि
धीर िै , अनाकुल िै और उदात्त िै । उिने िभी को छोटोों को भी (मन को भी) प्रिन्न कर सदया । ज्ञान ने आत्मा को तो
प्रिन्न सकया िै । मन केवल सवर्योों िे प्रिन्न िोता िो, यि बात निीों, असपतु यसद यि, आत्मा ित्पर् में िले तो वि अनुपम
प्रिन्न रिता िै । जब यि ज्ञान प्रकट हुआ तब इिने स्टे ज पर क्या-क्या कायथ सकये —वि सवलाि करता िै । ज्ञान को इि
िमय कोई कि निीों िो रिा िै । सकन्तु दशथकोों की बडी सवपसत्तयाँ दू र िो गईों मिान् आक्राों ताओों—मोि, राग, कर्ायोों को
सवनि सकया । ज्ञान को इिमें तसनक भी पररश्रम निीों करना पडा । ये िारी बातें ज्ञान की िीधीिादी मुद्रा िे िी प्रकट िो
गई । अत: किा गया िै सक यि ज्ञान का सवलाि िै । सवलाि मानें सजि कायथ के करने में तसनक भी कि न िो और कायथ
िो जाये । यि ज्ञान यिाँ प्रकट हुआ । इि असधकार की पिली गार्ा में आिायथ मिाराज इि ज्ञान की छत्रछाया में रिकर
दू िरोों को िम्बोध रिे िैं :—
गाथा 39
अप्पाणमयाणंता मूढा हु, परप्‍पवाधदणो केई ।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूधवंधत ।।३९।।
४. अज्ञानी की अध्यवसान में आत्मत्व की मान्यता—आत्मा को न जानने वाले व पर को आत्मा किने वाले िी मूढ
पुरुर् अध्यविान को िी जीव किते िैं तर्ा सकतने िी मूढ कमथ को िी जीव प्ररूसपत करते िैं । असध=आत्मा में जो कुछ
भी सनश्‍िय कर सलया जाता िै उिे किते िैं अध्यविान । यि अध्यविान शब्द िवथ सवभावोों को असवशेर्तया िूसित
करने वाला िै अर्वा सवभावोों को वािना को अध्यविान किते िैं । यि पयाथ यमुग्ध प्रार्णी अध्यविान को व और भी अन्य
भाव व द्रव्ोों को, सजनका वर्णथन इि प्रिङ्ग में िार गार्ाओों में िै , आत्मा मानता िै । क्योों इन िबको आत्मा मानता िै यि
? इिसलए मानता िै सक उिके उपयोग में आत्मा का अिाधारर्ण लक्षर्ण तो आता िी निीों, इिसलए आत्मा के तथ्य को
िमझने में क्‍लीव िै , अयोग्य िै , अतएव वि अपने में गुजरने वाले सवभावोों में मुग्ध िो गया, सवमूढ िो गया । अब वि
ताद्धिक आत्मा को न जानता हुआ नाना प्रकार के परपदार्थ व परभावोों को आत्मा बकता िै । उनमें िे एक मू ढ यि िै
जो अध्यविान को आत्मा बता रिा िै । इिका मन्तव् िै सक नैिसगथक राग, द्वे र् िे कल्‍मासर्त जो अध्यविान िै वि जीव
िै । इिकी दृसि में रागद्वे र् का पु ज िी यि जीव िै तभी तो इिे राग-द्वे र् नैिसगथक सदख रिे िैं । इन राग द्वे र्ोों िे मलीमि
जो भीतरी सनश्‍िय िै , िोंस्कार िै , वािना िै वि िी जीव िैं । ये मोिी लोग परपदार्थ को आत्मा िमझने वाले िैं , िो आत्मा
को न जानते हुए अध्यविान और राग द्वे र् कमथ आसद को जीव कि बैठते िैं । जीव िे अपररसित कोई निीों िै । कोई
आत्मा िे सकिी रूप में पररसित िै , कोई सकिी रूप में । यि मैं हँ , शरीर मैं हों —ऐिे ज्ञान में कुछ सववेक तो आया । दो
बात तो कि दी, िो ऐिा निीों । इिे दे खते िी मैं हों —यि प्रतीसत िोने में मोि का जकडाव हुआ । यि मोि उन्हें क्योों
बना? इिसलए सक उन्हें जीव की पसििान तो र्ी िी निीों । जो गेहों और कूडा को िमझ निीों पाया, उिके सलए कूडा भी
गेहों िै और िारा गेहों भी कूडा िै । इन गार्ाओों में आगे अनेक और िूक्ष्म भी आशङ्कायें िोोंगी । तीव्र और मन्द जो आत्मा
में गुर्ण िैं , वि तो आत्मा िोगा, यिाँ तक सशष्य प्रश्‍न करे गा ।
५. अध्यवसानात्मवाधदता—जो जन आत्मा को निीों जानते , पर को आत्मा किते िैं वे पुरुर् जीव को सकि-सकि
रूप में सनरखा करते िैं , इिकी ििाथ इि गार्ा में की िै । जो पर को आत्मा मानते िैं वे अपने ज्ञायकस्वभाव िे सभन्न
अन्यत्र दृसि िी तो रख रिे िैं । आत्मा में उत्पन्न िोने वाले जो अध्यविान भाव िैं , रागद्वे र्ासद िे कलुसर्त जो कुछ आत्मा
का पररर्णाम िै उि पररर्णाम को िी जीव मानते िैं । अपने बारे में यि कल्पना तक भी निीों जगती सक मैं एक सवशुद्ध
ज्ञानमात्र हँ और उिी कारर्ण न यि कल्पना जग िकती—मैं एक सवशुद्ध ज्ञानमात्र प्रकट भी िो िकूँगा । उनके मत में
कुछ निीों । और कदासित मोक्ष का नाम भी तो लें, योों िमसझये सक जैिे भोगभूसमया, स्वगथ; यि नाम ले सलया जाता िै सक
इिमें बडा िुख िै तो इििे कुछ और ऊँिा िुख मोक्ष में िै , इतनी तक बुद्धद्ध रिती िै । ऐिी उनको, अध्यविान में
आत्मा की प्रतीसत हुई । जैिे सक कोयले में कालापन । कोयले का कालापन जैिे अलग निीों सकया जा िकता, कोयला
और कालापन एक िै , कासलमा िे सभन्न कोयला और कुछ निीों प्राप्त िोता िै । इिी प्रकार अध्यविान िे सभन्न कोई
आत्मा अलग प्राप्त निीों िोोंता । योों सनज ििज ज्ञायकस्वभाव िे अपररसित बाह्य भाव में िी भटकने की आदत रखने
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 39

वाले मूढ अज्ञानी जन अध्यविान को आत्मा मानते िैं ।


६. अज्ञानी की कमा में आत्मत्व की मान्यता—अब दू िरा सवमूढ मिानुभाव किता िै सक कमथ िी जीव िै , कमथ िे
असतररक्त कोई जीव निीों िै । दे खो भैया ! क्या इिने , अत्यन्त िूक्ष्म इि पौद् गसलक कमथ का अवगम कर सलया? निीों,
उिको लक्ष्य करके यि ऐिा निीों कि रिा, सकन्तु यद्धत्कमसप कुछ तो कमथ के नाम पर मान रिा िै । वि उिी सवकद्धल्पत
कमथ को आत्मा मान रिा िै । सजि कमथ को यि मोिी जीव जीव मान रिा िै उिे यि अनासद अनन्त िमझता िै । अनासद
अनन्त िमझे सबना सकिी को जीव माना िी निीों जा िकता, क्योोंसक अपने को अध्रुव कोई निीों मानता । अध्रुव को भी
आत्मा माने तो उिे ध्रुवत्वरूप िे अङ्गीकार सकए सबना आत्मा निीों मान िकता । अनासद अनन्त सजिके पूवथ और अपर
अवयव िैं ऐिे एक िोंिरर्ण रूप सक्रया िे खेलता, लीला करता, सवलाि करता, जो कमथ िै विी जीव िै । इिे भी ऐिा िी
सद खता सक जैिे कृष्णता िे असतररक्त कोई अङ्गार फङ्गार कुछ निीों, इिी तरि इि कमथ िे असतररक्त आत्मा फात्मा
और कुछ निीों िै । ज्ञानिेतना का अनुभव न कर िकने िे सकतने िी मोिी जीव सकि सकिको आत्मा मान बैठे िैं , कोई
अध्यविान को आत्मा किता िै तो कोई कमथ को आत्मा किता िै ।
७. कमाात्मवाधदता—कोई कोई पुरुर् कमथ को िी आत्मा मानते िैं । कमथ का नाम िब लेते िैं —दै व, भाग्य, सवसध,
तकदीर, कमथ आसदक शब्दोों िे प्राय: मनुष्यव्विार करते िैं , लेसकन ििी पता कमथ का भी निीों िै अज्ञानी जीवोों को ।
जैिे ििी पता निीों अपना, इिी प्रकार कमथ का भी सकिी भी परति का भी पता निीों िोता । िाँ इतना अवश्य वे अज्ञानी
जन कमथ और तकदीर के बारे में अोंदाजा रखते िैं सक कोई कमथ िै जो मुझे िुखी करता, दु ुःखी करता, जन्म दे ता, मरर्ण
कराता । इतना भी ज्ञान िो तो र्ोडा विाँ भी भेद आ गया । कमथ कराते िैं , मुझे कराते िैं । सकन्तु ऐिा अज्ञान गिरा पडा
हुआ िै सक इतना भी भेद निीों िै । उनकी दृसि में तो जो कमथ िै िो िी मैं हँ । कमथ िे सभन्न और कुछ मैं निीों हँ ।
८. अध्यवसान व कमा की सकलानात्मत्व प्रतीकता—इि गार्ा में एक ऐिा िामान्य कर्न आ गया सक सजतने भी
आत्मा के बारे में भूलें बतायी जायेंगी उन िबकी दशा इन दो में िमा गयी । जो अपने िे िम्बोंसधत िैं , आत्मा के प्रदे शोों
में िोने वाले जो कुछ भी परभाव िैं सजिे सक यि अज्ञानी आत्मा मानेगा, उिका तो अन्तभाथ व िो गया अध्यविान में और
जो परति िैं सजन्हें यि आत्मा मानेगा उन िब पर का प्रतीक यि कमथ िै । योों अज्ञानी जीव अध्यविान और कमथ को
आत्मा िमझता िै । अध्यविान शब्द िे शब्दार्थ की दृसि िे यि भाव सनकलता िै सक जो मुझमें निीों िै , जो मेरे स्वरूप
में, स्वभाव में पाया निीों जाता, उििे असधक सकिी भाव का सनर्णथय रखना आत्मस्वरूप के रूप में इिको अध्यविान
किते िैं । असध + अविान । अपने स्वरूप से अधिक अवसान अधतररक्त भाव में ‘मैं आत्मा हूँ ’ ऐसे धनश्‍चयरूप
धवकल्‍प को अध्यवसान कहते हैं , उनमें जो भी पररर्णाम आत्मा के स्वभाव िे असतररक्त िैं वे िब अध्यविान किलाते
िैं । आत्मा में आत्मा का स्वभावत: पररर्णाम िै िेतन । उि िेतनभाव िे असतररक्त जो पररर्णाम िै , राग, द्वे र्, मोि, क्रोध,
मान, माया, लोभ, सवर्य-कर्ाय आसदक, वे िब अध्यविान किलाते िैं । उन अध्यविानोों को यि मूढ जीव आत्मा
मानता िै । यि मैं हँ , इिी कारर्ण अध्यविान भाव में जब कभी कोई सवघ्‍न िा आता िै तो उि िमय इिे बडी िै रानी
िोती िै । यि अपनी िासन िमझता िै और अध्यविान की तरक्‍की में अध्यविान के लगाव में िन्तोर् मानता िै । इिी
प्रकार कमथ के िम्बन्ध में भी कोई तो इि िागररूप में जो िल रिा िै ऐिे भाव को आत्मा मानकर िन्तुि िोता िै और
कोई िुने हुए कमथ तकदीर दै व आसदक नाम िे सजनका पररिय सदया िै बुद्धद्ध के अनुिार उन्हें आत्मा मान करके िन्तुि
िोता िै । ये िब परात्मवादी जीव िैं जो सक अजीव को जीव मानते िैं ।
९. अज्ञानी को शाच्छिधनधि ज्ञानचेतन का अपररचय—ज्ञानिेतना वि द्धसर्सत िै , सजिमें रागासद सवकल्पोों का अनुभव
निीों िोता िै । सनसवथकल्प जानना सनजिै तन्य ति को िी मैं दे खता हँ और करता हँ , इि प्रकार का अनुभवनमात्र िी
ज्ञानिेतना िै । ज्ञान के सवकल्प को ज्ञानिेतना का असवरोधी भाव कि िकते िैं । सवकल्प दो प्रकार के िोते िै —(१) ज्ञान
का सवकल्प और (२) राग का सवकल्प । जगत में जो जैिे पदार्थ िैं उि तरि का प्रसतवेदन िो जाना जानने का सवकल्प
किलाता िै । ज्ञान का सवकल्प ज्ञान का लक्षर्ण िै । राग का सवकल्प आत्मा का लक्षर्ण निीों िै । राग का सवकल्प ज्ञानिेतना
में बाधक िै । स्‍ने ि, मोि िोना भी ज्ञान िेतना में बाधक िै । ज्ञान का सवकल्प िभी आत्माओों के िार् िलता िै । राग का
सवकल्प मोि और राग में िलता िै । सजतने काल ज्ञानिेतना की अनुभूसत रिती िै , उतने काल उपयोग बदलता याने
सवर्म िोता निीों िै । अत: वि उपयोग भी सनसवथकल्प िै । जीव का िार्ी ब्रह्मज्ञान िै । आत्मा का ज्ञान िोना, यि द्धसर्सत

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 39

जीव का सम त्र िै । इिके असत रर क्त दु सनया में अपना कोई िार्ी निीों िै । मोि में ऐिा सवश्‍वाि िो जाता िै सक पु त्र,
समत्र, कलत्र आसद िब मेरे िैं , मेरे आज्ञाकारी िैं और मेरा कल्यार्ण करने वाले िैं । परन्तु उि मोिी को यि मालूम निीों
सक वे िब स्वतन्‍त्र पदार्थ िैं , उनका पररर्णमन उनमें िी िोता िै , उनका पररर्णमन मेरे में निीों िो िकता िै । उनके स्वार्थ
में जब कोई बाधा आती िै , सफर कोई ध्यान निीों ला िै । अपनी सनसवथकल्प पररद्धसर्सत में द्धसर्त आत्मा आत्मा में िी रमे तो
इि जीव का आत्मा स्वयों िार्ी िै । पर के स्मरर्ण िे , कभी किीों शाद्धन्त निीों समलेगी, शाों सत समलेगी तो अपने िी आप में
समलेगी । िवथ त्र िले जाओ, आपके सलये आप िी सजम्मेवार िैं । इि जगत में मेरे सिवाय मेरा कुछ निीों िै । ऐिी वस्तु की
द्धसर्सत िै । जो धन के झुकाव में िै , उिे क्‍लेश िी क्‍लेश िै । जो अपनी ओर झुका हुआ िै , उिे शाद्धन्त, िन्तोर् व धैयथ िै

१०. ज्ञानी जीव के ज्ञानचेतना—यसद यि सवश्‍वाि िो जाये सक मैं अमुक का कताथ हँ तो जीव की ज्ञानिेतना छूट
जायेगी । यसद ऐिा समथ्या सवश्‍वाि निीों िै तो जीव की ज्ञानिेतना ज्योों की त्योों बनी रिती िै , उिका लेश भी निीों सबगडता
िै । यसद कोई यि प्रतीसत करे सक मैं पर का स्वामी हँ , पर का कताथ , भोक्ता हँ तो उिकी ज्ञानिेतना नि िो जायेगी ।
परन्तु जब तक यि आत्मा अपना सवश्‍वाि ििी रखता िै तब तक उिे कैिे परबुद्धद्ध किा जा िकता िै । यसद यि ज्ञानी
पर का भी ज्ञान व राग करे तो भी इिकी ज्ञानिेतना लुप्त निीों िोती । जो आनन्द अपने अनुभव में िै , वि आनन्द िोंिार
के िब िोंग्रिोों में भी निीों िै । प्रश्‍न—ऐिी द्धसर्सत में जब सक िम्यग्ददृसि बाह्य की द्धसर्सत में िै , तो क्या जीव के उपयोग में
बाह्य अर्थ निीों िोता िै ? िमाधान-—ज्ञानोपयोग का स्वरूप िी ऐिा िै , ज्ञानोपयोग की मसिमा िी ऐिी िै सक सनश्‍िय िे
वि केवल स्व का प्रकाशक िै , पर का निीों । व्विार िे वि ज्ञानोपयोग स्व और पर दोनोों का प्रकाशक िै । कभी-कभी
िम्यग्ददृसि का उपयोग बाह्य में भी जाता िै , परन्तु उिका उि िमय भी आत्मा की ओर उपयोग िै , अत: उिे बाह्य में
आिद्धक्त निीों रि िकती िै । िम्यग्ददृसि जीव के िम्यक्‍त्‍व के मािात्म्य िे िम्‍यक्‍त्‍व उत्पन्न रिता िै । िम्यग्ददृसि के ज्ञान में
एक प्रकार की ऐिी सवशुद्धता आ जाती िै सक उिको सवपरीत सवश्‍वाि बनाये भी निीों बनता । जैिे सकिी िे किा जाये
सक तुम एक समनट को मान लो यि िीज िमारी निीों िै , समथ्यादृसि किे गा सक कैिे मान लें सक यि िीज िमारी निीों िै ,
सकन्तु ज्ञानी में इिके सवपरीत िोता िै । दे खो, दोनोों में सकतना अन्तर िै ? अत: ज्ञानी न स्व के सवर्य में और न पर के
सवर्य में उल्टा सवश्‍वाि करता िै । ज्ञानी के भी सवश्‍वाि िै सक मेरी िम्पसत्त मेरे सलए िी िै , समत्र के सलये निीों िै । और
करता िै समत्रोों िे अनुराग । िम्यग्ददृसि जीव के सवश्‍वाि भी रिे और पुत्र में राग भी रिे तो क्या ऐिा निीों िो िकता िै?
उल्टी बात सजि सदन आ पडे गी सक यि पुत्रासद के सबना कुछ निीों िै , उि सदन ज्ञानिेतना नि िो जायेगी ।
११. सम्यक्‍त्‍व का लाभ—जब तक िम्यक्‍त्‍व िै , तब तक क्षासयक िम्यग्दशथन, क्षायोपशसमक िम्यक्‍त्‍व और
औपशसमक िम्यक्‍त्‍व के लाभ प्राय: एक िे िैं । उपशम िम्यक्‍त्‍व की अन्तमुथहतथ द्धसर्सत िै । क्षासयक िम्यक्‍त्‍व की िोंिार
में ३३ िागर द्धसर्सत िै । क्षयोपशम िम्यक्‍त्‍व में िूक्ष्म िलासद दोर् िैं । इतना िी अन्तर िै । सजि प्रकार सजि िमय आत्मा
अपने सवर्य में उपयोग करता िै , उि िमय आत्मा का आत्मज्ञान किलाने लगता िै और आत्मा प्रेय िो जाता िै , विाँ
पर भी वि स्व को जानता िै । पर में उपयोग िो तब भी वि स्व की प्रतीसत िे च्युत निीों िोता िै । प्रे य विाों पर विी खुद
िोता िै । जैिे दे िातोों में बच्‍िे खेलने िले जाते िैं , रात िोने पर घर आना िी पडता िै । जब वे खेल में र्े , तब भी उनकी
प्रतीसत र्ी सक िमारा घर यिाँ निीों िै , परन्तु उपयोग खेल में र्ा, यसद उनकी प्रतीसत िी नि िो जाती तो उनको घर की
याद आना िी निीों िासि ये र्ी । यिी बात िम्यग्ददृसि जीव के िैं , प्रतीसत बनी रिती िै और उनका उपयोग अन्यत्र रिता
िै । िम्यग्ददृसि के राग िोता रिता िै , परन्तु उनके प्रतीसत ऐिी िै सक िमारा राग निीों िै । जैिे कोई सकिी के मर जाता
िै , उिको प्रतीसत तो बनी रिती िै सक यि िमारा कुछ र्ा िी निीों, परन्तु आँ िू तो बिाने िी पडते िैं । वैिे िी इि ज्ञानी
आत्मा को प्रतीसत तो बनी रिती िै सक रागासद अब मेरा निीों िै , मेरे स्वरित: उत्पन्न निीों हुआ िै तर्ासप उि प्रकार के
उपादान सनसमत्त का ऐिा िी मेल िै सक कमोदय उपासध को सनसमत्तमात्र करके यि मलीमि योग्यतावाला जीव
रागासदरूप पररर्णम जाता िै । जीव का स्वभाव रागासद निीों िै तब बाह्य पदार्थ जो रागासद भाव के सवर्य पडते िैं वे जीव
के क्या िो िकते िैं ? आत्मा पर िे राग निीों करता । आत्मा पर को क्या रों गेगा, िािे सनज को जानो या पर को, परन्तु
सजनका यर्ार्थ सवश्‍वाि िै , उनका आशय शुद्ध िी िै । आत्मा पर को जाने या स्व को जाने —इििे आत्मा में कोई सबगाड
निीों िै , परन्तु आत्मा में प्रतीसत बदलने पर िासन िोती िै । सवपरीत श्रद्धा िोने पर असधक िासन कुछ न िो तो उत्कर्थ भी

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निीों िोता िै । जानने में कुछ भी आओ, यसद उिमें उपराग अर्वा उपयोग निीों िै तो आत्मा का उििे कोई सबगाड निीों
िै । अपनी उपयोग भूसम को सनमथल बनाना अपना िबिे बडा कतथव् िै ।
१२. वस्तुस्वातन्‍त्र्य के श्रद्धान से ही जीव का कल्याण—िे आत्‍मन् ! तू िािता तो यि र्ा सक मैं िदा सनराकुल रहँ ,
परन्तु तुझे सवपरीत श्रद्धा िो गई, अत: तू दु ुःखी िो रिा िै । अत: िुख पाने के सलए तू इन िातोों तिोों को तो दे ख । िातोों
तिोों के श्रद्धान का नाम िम्यग्दशथन िै । मोक्ष मागथ के सवपरीत तिोों पर आत्मरूप व सित रूप श्रद्धा करने का नाम
समथ्या दशथन िै । िे आत्मन् ! तू अपने िे सवपरीत तिोों में श्रद्धा न कर । जैिा जो पदार्थ िै उि पदार्थ का वै िा श्रद्धान
करना िम्यग्दशथन िै , सवपरीत श्रद्धा करना समथ्या दशथन िै । मेरा कोई कुछ निीों िै , ऐिी श्रद्धा करने में आनन्द समलेगा
। क यसद यि बात श्रद्धा में आ गई सक सनज का सनज िै और पर का पर िै तो आत्मा का कभी कोई सबगाड निीों िोना िै
। प्रत्येक पदार्थ केवल अपने आपकी पररर्णसत िे िी पररर्णमता िला जाता िै । यसद तुम अपना जीवन ित्य की श्रद्धा के
अनुकूल बनाओ तो तुम्हारा जीवन ठीक िलेगा । तुम्हारा सकिी ने कुछ निीों सकया । िबकी दु कानें अलग-अलग िल
रिी िैं , वे िी ग्रािक िैं , वे िी सवक्रेता िै , उिी में िे उनको माल समल जाता िै , उिी में िे माल िला जाता िै —ऐिी दु कान
िबकी अपनी-अपनी िल रिी िै । ऐिी प्रतीसत करो सक िारे िोंिार में मैं स्वतन्‍त्र एक हँ । िबिे अपररसित रिकर भी
अपने आपमें पररर्णमता रिता हँ । यि भी िमारा भ्रम िै सक यि मुझे पसििानता िै । सकिी के द्वारा कोई पसििानने में
निीों आता िै । ऐिे अपररिय में रिकर यि आत्मा अपने आपमें पररर्णमता िला जा रिा िै । अपने आप में इिका
उपयोग जम जाये तो इि जीव का कल्यार्ण िो जाए । ज्ञाता का स्वभाव जानना िै । िम और आपका ज्ञान इतना कमजोर
िै सक अपने ज्ञान में इिासनि कल्पना कर लेते िैं । परन्तु इििे श्रद्धा में कोई सवसशि गुर्ण िासन निीों िोती िै । सजतना भी
बन्ध िोता िै वि प्रतीसत के अनुिार िोता िै । आपका सवश्‍वाि आपके अनुिार निीों िो पाया तो िािे सकतनी भी तपस्या
करते रिो, िब व्र्थ िै । बन्ध को रोकने वाला आत्मा का स्पशथ याने अनुभव िी िै ।
१३. अध्यवसान में जीवत्व की प्रतीधत का मूल अज्ञान—यिाँ आत्मा के अिाधारर्ण लक्षर्ण न जानने वाले एवों पर
को िी आत्मा िमझने वाले एक पयाथ यमुग्ध की मान्यता बताई जा रिी िै सक वि अध्यविान िे पृर्क् कोई आत्मति िी
निीों मान रिा िै । उिका यि ठोक बजाकर किना िो रिा िै सक अध्यविान िी जीव िै । क्योोंसक इििे असतररक्त अन्य
कोई जीव पाया िी निीों जाता, जैिे सक कृष्णता (कासलमा ) िे असतररक्त अन्य कुछ अोंगार िै िी निीों । यि दृिान्त भी
इि ितुर ने सकतना बसढया सदया िै सजिमें अपना िारा भाव झलका सदया । अर्वा यिाँ अन्य कोई किने वाला िै िी
निीों, िो श्री पूज्य अमृतिन्द जी िूरर का कौशल दे खो । अमृतिन्दजी िूरर िम्यग्ददृसि, स्वानुभावी मिापुरुर् र्े । तभी
समथ्यात्व में िो िकने वाली गलसतयोों का भी ठीक-ठीक वर्णथन व उदािरर्ण दे रिे िैं । िुलझा हुआ िी पुरुर् उलझन व
िुलझनोों को यर्ार्थ प्रसतपादन कर िकता । पयाथ यमूढ प्रार्णी समथ्यात्व का यर्ार्थ वर्णथन क्या करे गा? वि तो बेिोश िै ।
दे खो यिाँ अोंगार द्रव्सर्ानीय िै और कृष्णता सवकारसर्ानीय िै । मूढ की मान्यता िै सक जैिे कृष्णता िे असतररक्त
अोंगार कुछ निीों िै इिी तरि अध्यविान िे असतररक्त आत्मा कुछ निीों िै । अोंगार को बुझाकर दे ख लो कासलमा समलेगी,
िो जलते अोंगार में भी कासलमा के असतररक्त कुछ निीों िै । कोयला के िारे पदे खोल लो, धो-धो करके दे ख लो, कसलमा
िे असतररक्त कुछ निीों िै । अोंगार जलते को भी किते िैं , बुझे को, अधजलते को भी किते िैं । किीों भी दे ख लो, कासलमा
िे असतररक्त वि कुछ निीों । िो जैिे कृष्णता के सिवाय अङ्गार फङ्गार कुछ निीों, इिी तरि अध्यविान के असतररक्त
आत्मा-फात्मा कुछ निीों, ऐिी सवभावमूढ की मान्यता िै । वि खुलािे में इि तरि निीों कि पाता सकन्तु झुकता इिी
कुति की ओर िै ।
१४. ज्ञानधवकल्प से सम्यक्‍त्‍व की क्षधत का अभाव—िम्यक्‍त्‍व में बाधा ज्ञान के सवकल्पोों िे निीों आती िै । ज्ञान का
सवकल्प मायने िीज ज्ञान में आना । िीज के ज्ञान में आने िे िम्यक्‍त्‍व को क्षसत निीों पहुों िती िैं । िम्यक्‍त्‍व की क्षसत यिी
िै सक या तो िम्यक्‍त्‍व समट जाये या िोंवर और सनजथरा की िासन िो जाये । आत्मा में रागद्वे र् कर्ायासय भी िोते रिें , मगर
इनिे िम्यक्‍त्‍व की िासन निीों िोती िै । यि बात जरूर िै सक राग-द्वे र् मोि के आत्मा में पररर्णमन िे आत्मा का सवकाि
रुक जाता िै , रागासद आत्मा के सवकाि को निीों िोने दे ते, उिमें बाधक िोते िैं —परन्तु िम्यक्‍त्‍व को इनके िोने िे कोई
िासन निीों पहुँ िती िै । कर्ाय भी िम्यक्‍त्‍व का नाश निीों करती िैं । कर्ाय िोती रिें , बार-बार िोती रिें , यि परम्परा
िम्यक्‍त्‍व के नाश का कारर्ण बन िकती िै , विाँ भी उनिे िम्यक्‍त्‍व में बाधा निीों पहुों िी । सवपरीत असभप्राय िे िी िम्यक्‍त्‍व

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 39

की क्षसत हुई । रागासदक बाधक अवश्य िैं आत्मोत्कर्थ में । यिाँ तो केवल स्वरूप की दृसि रखकर वर्णथन िो रिा िै सक
राग िररत्र गुर्ण का सवकार िै , वि िम्यक्‍त्‍व का सवपक्षी निीों । केवल िम्यग्दशथ न िी आत्मा के उत्कर्थ का कारर्ण निीों िै ,
असपतु िाररत्र भी तो आत्मा के िुसवकाि के उत्कर्थ में कारर्ण िै । सकतने िी जीव जो सवपरीत असभप्राय में पडे हुए िैं , वे
किते िैं —अध्यविान िी जीव िै । रागद्वे र् आसद सवभावोों िे कलुसर्त पररर्णमन अध्यविान किलाता िै । रागासद
पररर्णामोों िे िम्यक्‍त्‍व का नाश निीों िोता, इनिे िाररत्र की क्षसत िै । िम्यक्‍त्‍व के कारर्ण जो िोंवर सनजथरा िोती िैं , वि
रागासद के िोने पर भी िोती रिती िै । िम्यक्‍त्‍व के रिने पर राग का रिना एक दोर् िै । परन्तु राग िाररत्र पर आक्रमर्ण
करता िै , िम्यक्‍त्‍व का घात निीों कर िकता िै । आत्मा में जो रागासद पररर्णाम पाये जाते िैं उन्हें अध्यविान किते िैं ,
रागासद भाव बुद्धद्धपूवथक िोों या अबुद्धद्धपूवथक िोों, िमझमें आते िोों या न आते िोों—रागासद िे कलुसर्त जो पररर्णाम िै , उिे
अध्यविान किते िैं । समथ्यादृसि जीव अध्यविान के जीव मागथ बैठा िै । क्रोध मान-माया-लोभ-राग-द्वे र्, मद मोि भय
करते हुए उन्हें यि प्रतीसत रिती िै सक यिी ( क्रोधासद) मैं ह । उिके आगे पीछे रिने वाला भी कोई िै , यि भी उन्हें
खबर निीों रिती िै । िम्यक्‍त्‍व में िैतन्यमात्र की िी प्रतीसत िोती िै , रागासदक पररर्णाम मैं हँ , यि प्रतीसत िम्यक्‍त्‍व में निीों
िोती िै ।
१५. धचद्भाव की प्रतीधत होने पर भी रागाधद की संभावना पर शंका समािान—शोंका-—आत्मा में िै तन्य की
प्रतीसत िोने पर रागासद कैिे िो िकते िैं ? िमाधान—जैिे जब सकिी का कोई इि गुजर जाता िै , वि भोजन भी करता
िै , िोता भी िै , परन्तु प्रत्ये क िमय इि की ओर सित्त रिता िै । भोजन करते हुए भी उिे इि की प्रतीसत िै , लेसकन
भोजन भी करता िी िै । इिी प्रकार िम्यग्ददृसि के प्रतीसत तो िैतन्य स्वभाव की िै , कदासित् आत्मा में रागासद भाव भी
आये , परन्तु उनिे आत्मा का सवशेर् सबगाड निीों िै । आत्मा का सबगाड िै तो सवपरीत असभप्राय िे िै । वि राग सजि
िमय घसनष्ठ िो जाये सक सवपरीत असभप्राय उत्पन्न करने लगे तो िम्यक्‍त्‍व में तब बाधा िोती िै । रागासद भाव िार जासत
के िोते िै —(१) अनन्तानुबन्धी, (२) अप्रत्याख्यानावरर्ण, (३) प्रत्याख्यानावरर्ण, (४) िोंिलन । अनन्तानुबन्धी राग तो
समथ्यात्व को पोर्ता िै , िोंिारबन्धन कराता िै । शेर् राग उपभोग के िे तु तो िै परन्तु िोंिार-बन्धन निीों कराते अर्ाथ त्
समथ्यात्व को निीों पोर्ते । अनन्तानुबन्धी राग आसद पररर्णाम सवपरीत असभप्राय के उद् भावक िी हुए, लेसकन िम्यक्‍त्‍व
का बाधक सवपरीत असभप्राय िी िै । ऐिा िम्बन्ध िोने िे अनन्तानुबोंधी भी िम्यक्‍त्‍व की घातक हुई ।
१६. मोह में रागद्वे षकल्‍माधषतभाव में जीवत्व की कल्पना—राग-द्वे र्-मोिासद जो अध्‍यविान िै , उनमें िी मानना
सक यिी मैं हँ , यिी सवपरीत असभप्राय िै । राग भी सवपरीत असभप्राय िै , परन्तु राग समथ्याश्रद्धा निीों िै । स्वरूप पर दृसि
दो?, राग समथ्या श्रद्धा निीों । राग राग िै , राग िाररत्र गुर्ण का सवकार िैं , परन्तु वि समथ्या श्रद्धा रूप निीों िैं । जीव का
स्वरूप अध्यविान मानने पर मुद्धक्त कैिे िो? कोई किता िै सक अध्यविान िी जीव िैं । जैिे िमको उिने ऐिा क्योों
कि सदया? ऐिा सवर्ाद सकया तो इिमें रागद्वे र् रूप पररर्णमन िी “िम” िैं , यि श्रद्धा सनश्‍सि त िमझी गई ।
अिमानजातीय व्ोंजन पयाथ य िी उिका िम िैं । रागद्वे र् िे कलुसर्त जो पररर्णाम िै , विी जीव िै , ऐिी मोसियोों की
कल्पना िै । वे किते िैं , जै िे कोयले िे कालापन अलग निीों िै , उिी प्रकार राग-द्वे र्-मोि िे अलग आत्मा िै िी क्या?
अत: राग द्वे र् िोना िी तो जीव िै । कोई लोग किते िैं सक रागासदक मल के रूप िे ज्ञान िोना िी जीव िै । जैिे अोंगारे
िे “कालापन” कोई अलग िीज निीों िै , इिी तरि आत्मा िे सभन्न राग-द्वे र्-मोि निीों िैं और रागासद िे सभन्न आत्मा निीों
िै । अत: मैं जानता हँ सक रागासद पररर्णाम िी आत्मा िै । एक बार दे िली में जब िम र्े तो सकिी आिायथ श्री िू यथिागरजी
मिाराज िे सजक्र सकया सक—“राग द्वे र् आत्मा िे कतई निीों छूटते िैं और राग-द्वे र् के मन्द पडने पर मोक्ष िो जाता िै
।” यद्यसप प्रश्‍नकताथ ने यि प्रश्‍न िों ि करके सकया, परन्तु यि जोंिा सक उन्हें यि प्रतीसत िै सक आत्मा िे रागद्वे र् कभी
छूटते निीों िैं । जब रागासद अत्यन्त कम िो जाते िैं , यिी मोक्ष िै । उनकी ऐिी प्रतीसत बनी र्ी, अतएव वे इि भूल पर
भ्रि िो गए ।
१७. स्वभावभान के धिना पयाायिुच्छद्ध का धवलास—ज्ञानस्वभाव की झलक सबना पयाथ यबुद्धद्ध िी रिती िै । उि
अवसर्ा में यिी श्रद्धा िो जाती िै सक रागासद िे अलग जीव िै िी निीों । िम्यक्‍त्‍व के सलए िासन यिी िै और यिी िम्यक्‍त्‍व
का दोर् िै । राग द्वे र् भाव िम्यक्‍त्‍व के दोर् निीों िैं , और न ज्ञान के सवकल्प िी िम्यक्‍त्‍व के दोर् िैं । िम्यक्‍त्‍व का दोर्,
िम्यक्‍त्‍व का पूर्णथतया सवनाश िो जाना या कुछ क्षसत िो जाना िी िम्यक्‍त्‍व का दोर् िै । िोंवर सनजथरा न िोना, यिी िम्यक्‍त्‍व

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 39

का दोर् िै । यि तो िम्यक्‍त्‍व का िीधा दोर् िै । पापबन्ध की अपेक्षा पुण्यबोंध भी कम िोने लगना यि भी िम्यक्‍त्‍व का
दोर् िै । िम्यक्‍त्‍व के रिते जो बन्ध िोता िै , वि सवशेर्त: पुण्यबोंध िै । यसद पृष्ठबोंध की कदासित् कमी िो जाये और
पापबोंध िो जाये, एतावतासप भैया ! िम्यक्‍त्‍व में कोई िासन निीों िै । पापबोंध िोने िे िम्यक्‍त्‍व में कोई िासन निीों िै , मगर
जिाँ पुण्य कम िोने लगा और पाप असधक िोने लगा, इििे िम्यक्‍त्‍व की िासन िै । एक बार सगर जाना उतना बुरा निीों,
सजतना सगरते जाना बुरा िै । सगरते जाना माने सनरन्तर सगरना िै । सगरते जाने में बेिोशी िै । अत: सनरन्तर सगरने िे
िम्यक्‍त्‍व में िासन िै । जैिे बरिात में पैर सफिलना सगरना िै । मगर सफिलते जाना यि सनरन्तर सगरते जाना िै । पाप
िम्यग्ददृसि के भी िोता िै , मगर पाप सनरन्तर िोते रिने और पुण्य कम िोने में िम्यक्‍त्‍व की िासन िै । पु ण्य का सनरन्तर
अपकर्थ िोने लगे, यि भी िम्यक्‍त्‍व की िासन का कारर्ण िै । िम्यक्‍त्‍व की उत्पसत्त िोना या िम्यक्‍त्‍व में सकन्हीों अोंशोों का
बढना, या सनजथरा िोंवर सवशेर् रूप िे िोने लगना—ये िब िम्यक्‍त्‍व के गुर्ण िैं । क्षयोपशम िम्यक्‍त्‍व िे क्षासयक िम्यक्‍त्‍व
िो गया यि िम्यक्‍त्‍व का गुर्ण िै ।
१८. ज्ञानोपयोग में स्वयं में धवकार की अकारणता—ज्ञानोपयोग में आकार बनता िै । इि आकार के बनने िे
िम्यक्‍त्‍व की क्षसत निीों िोती । ज्ञानोपयोग न िम्यक्‍त्‍व के गुर्ण का कारर्ण िै , और न दोर् का कारर्ण । क्योोंसक ज्ञान और
िम्यक्‍त्‍व गुर्ण न्यारे -न्यारे िैं । ज्ञान की सक्रया िे िम्यक्‍त्‍व में गुर्ण दोर् निीों पडता िै िम्यक्‍त्‍व की िासन िोना, पाप बढने
लगना, पुण्य घटने लगना—ये िब िम्यक्‍त्‍व के दोर् िै , िम्यक्‍त्‍व की क्षसत के कारर्ण िैं । दशथनमोिनीय के नि िोने िे
जो पररर्णाम िोता िै , वि िम्यक्‍त्‍व िै । जैिे एक दपथर्ण में तैल लगा िै , कुछ मटमैला िा िो रिा िै , उिकी िफाई कर
दी तो वि िफाई क्या िीज िै ? िफाई जो स्वच्छता िै , उिके -िोने पर जो िमक आई, उिे िफाई किते िैं । िम्यक्‍त्‍व
आत्मा की िफाई िै ुः—सजि िफाई के िोने पर ज्ञान गुर्ण प्रकट िोता िै , वि िफाई दशथनमोिनीय के अस्त िोने पर
िोती िै । ज्ञान न िम्यक्‍त्‍वरूप पररर्णमता, न समथ्यारूप । िम्यक्‍त्‍व के िार् रिने वाले ज्ञान को िम्यक् किते िैं , और
समथ्यात्व के िार् रिने वाले ज्ञान को समथ्या किते िैं । जैिे काँ ि के िरे सगलाि में पानी िरा मालूम पडता िै लेसकन
पानी िरा निीों िै । उिी प्रकार ज्ञान समथ्यात्व के िार् समथ्यारूप मालूम पडता िै और िम्यक्‍त्‍व के िार् िम्यक्रूप ।
ज्ञान का काम िै , जानना । जैिे कोई मुसन िै , उिके िामने उिका गृिसर्ावसर्ा का पुत्र जाये तो वि उिे जान मात्र लेगा,
उिमें सवकल्प निीों करता । यसद कोई गृिसर् िो तो वि पुत्र को पुत्र तो जान जाता िै , परन्तु उिके िार् वि सवकल्प भी
करता िै सक यि मेरा पु त्र िै । भगवान का काम तो ज्ञाता द्रिा रिना िै , लेसकन मोसियोों के समथ्या श्रद्धा सवशेर् िै । ज्ञान
तो बेिारा िरल िै , उिका काम तो जानना मात्र र्ा, लेसकन जानकर उिमें सवकल्पासद िोना समथ्याज्ञान के व्पदे श का
कारर्ण िो जाता िै । भगवान् में और िममें कम बढ का फकथ िै । भगवान् तो पदार्थ को जानते मात्र िै , िम उिमें सवकल्प
भी तो करते िैं यिी िमारा सवशेर् जानना िै । जीव का कल्यार्ण अकल्यार्ण अद्धस्ति गुर्ण के पररर्णमन िे निीों िै ।
आत्मद्रव् के िाधारर्ण गुर्णोों के कारर्ण आत्मा का भला बुरा निीों िै । योग के पररर्णमन िे भी आत्मा की भलाई-बुराई
निीों िै । अरिन्त भगवान का सकतना योग िलता िै , परन्तु योग के पररर्णमन िोने िे उनमें कोई िासन निीों पहुों िती ।
आत्मा के अन्य गुर्णोों के पररर्णमन िे भी आत्मा की बुराई निीों िै । आत्मा की बुराई िम्यक्‍त्‍व और िाररत्रगुर्ण के सवकार
िे िै । िम्यक्‍त्‍व और िाररत्र के सबगडने पर आत्मा की िासन हुई । जिाँ िम्यक्‍त्‍व की िासन हुई, विाँ राग द्वे र् मोिासद िी
पररर्णमते िैं । विाँ वे स्वयों वि िै ऐिी प्रतीसत िोती िै । जैिे बच्‍िा धाय या ठसगनी के द्वारा पाला गया, वि उिी धाय को
या ठसगनी को अपनी माँ िमझता िै और किता िै । परन्तु कुछ बडा िोने पर मालूम पडा सक सकिी ठसगनी ने िमें पाला
पोिा िै , तो उि धाय या ठसगनी के प्रसत प्रतीसत िो जाएगी, सक यि मेरी माँ निीों िै , परन्तु कुछ पररद्धसर्सतयाँ ऐिी िैं उििे
वि तुरन्त निीों छूट िकता और उिे माों भी किता रिे गा, मगर ज्ञान िोते िी उिकी यि प्रतीसत बदल गई सक यि मेरी
माँ निीों िै । इिी प्रकार इि िोंिार में रिने वाले जीव की जब प्रतीसत बदल गई सक मैं एक हँ , शुद्ध हँ , िैतन्य मात्र आत्मा
हँ , जानना-दे खना मेरा स्वभाव िै , दु सनया के िमस्त पदार्थ मेरे िे सभन्न िैं , उन जीवोों की परपदार्थ िे बुद्धद्ध िट जाती िै
और स्व की प्रतीसत िोने लगती िै । सफर भी कुछ पररद्धसर्सतयाों ऐिी िैं सक इनका त्याग निीों िो पाता । राग द्वे र् की
पररर्णसतयाों आत्मा में िोती रिें , परन्तु इििे िम्यक्‍त्‍व का सबगाड िोने वाला निीों िै ।
१९. धमथ्या अधभप्राय के धवकल्प—िम्यक्‍त्‍व की क्षसत समथ्या असभप्राय िे िोती िै । रागद्वे र् का िोने लगना समथ्या
असभप्राय का कारर्ण बन जाता िै । अत: राग-द्वे र् भी निीों करना । कोई किता िै सक कमथ सवधना, ब्रह्मा, सवसध—यिी

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 39

एक जीव िै , इिके असतररक्त अन्य कोई जीव निीों िै । जो लगातार िोंिार की परम्परा िे कीडा करता हुआ िला आया
िै , विी जीव िै । यि कमथ िों िार में खेलता हुआ िला आया, इिमें कमथ का क्या सबगाड? क्षसत तो आत्मा की हुई तभी तो
यि कमथ की कीडा किलाई । बहुत िे जीव किते िैं सक कमथ के असतररक्त िमें िेतन वगैरि सदखाई निीों दे ता िै । भैया
! िम्यक्‍त्‍व की िासन िोने पर जीव के कैिे भाव हुए—इिका िी तो वर्णथन िल रिा िै ।
गाथा 40
अवरे अज्झवसाणेसु धतव्वमंदाणुभावगं जीवं ।
मण्णं धत तहा अवरे णोकम्मं चा धव जीवो धि ।।४०।।
२०. तीव्रमंदानुभावग अध्यवसान में जीवत्व की कल्पना—अन्य अज्ञानी जीव अध्यविानोों में तीव्र मोंद अनु भावोों में
गत जो िै उिे जीव मानते िैं तर्ा अन्य अज्ञानी जीव नोकमथ (शरीर) को जीव मानते िैं । यि एक तीिरा सवमूढ पुरुर् िै
जो जरा और ितुर-िा िै । इिके आशय में यि बैठा िै सक अध्यविान कोई तीव्र अनुभाग वाला िै , कोई मन्द अनुभाग
वाला िै , तो ये सवशेर् अनुभव तो समटते िले जाते िैं , तभी तो तीव्र िे मन्द और मन्द िे तीव्र िोगा, परन्तु मैं (आत्मा) तो
समटने वाला निीों, िो अध्यविान िी जीव निीों िै , सकन्तु अध्यविान की िोंतान जीव िै । इिको भी अध्यविान के
असतररक्त तो कुछ समला निीों और अध्यविान कुछ बदलते सदखे , िार् िी अध्यविान अनासद अनन्त सदखे , ऐिी द्धसर्सत
में अध्यविान की िोंतान को जीव मान लेना प्राकृसतक बात िै । कासलमा के असतररक्त कोयला क्या, कासलमा के
असतररक्त आकार क्या? इिी तरि अध्यविान की िोंतान के असतररक्त आत्मा भी कुछ निीों िै ।
२१. प्रभुता के भान धिना अध्यवसानसंतान में जीवत्व की कल्पना—भैया ! सवज्ञानघन परमानन्दमय सनज प्रभु
की प्रभुता भूलकर यि जीव, कैिी-कैिी पयाथ योों को धारर्ण करता िै , कैिा-कैिा बरबाद िोता िै ? मुफ्त भ्रम में दु ुःखी
िोता िै यि । आत्मन् ! अब तो दृसि करो अपने प्रभु की ओर । पूवथ गार्ा में बतलाया र्ा सकतने िी मोिी जीव अध्यविान
को आत्मा मानते िैं । सकतने िी लोग कुछ जरा सववेक करते िैं , िोिते िैं सक अध्यविान पररर्णाम बदलते रिते िैं यि
तो जीव निीों िै , परन्तु उन पररर्णामोों में जो तीव्र मन्द सवपाक िोते िैं , उनमें जो रिता िै , वि जीव िै । तीव्रमन्द फलोों की
जो परम्परा िै वि जीव िै । क्रोध जीव निीों िै , परन्तु क्रोध की जो िन्तसत िै , वि जीव िै । तीव्रमन्द और मध्यम जो फल
िै , इन तरीकोों िे िोने वाले नाना प्रकार के अध्यविान िैं , उनमें रिने वाला जो िोंतान िै वि जीव िै । क्योोंसक राग-द्वे र्
आसद सवभाव की िन्तसत िे सभन्न कोई जीव निीों िै । राग-द्वे र् िे सभन्न जीव समल िकता िै , परन्तु राग द्वे र् की िन्तान के
असतररक्त जीव निीों िै , ऐिा लोग किते िैं । जैिे क्षसर्णकवादी लोग किते िैं सक आत्मा नया-नया पैदा िोता रिता िै ,
एक िी आत्मा लगातार निीों रिता िै । वतथमान में सजतनी िालतें िैं उनका उतना िी आत्मा िै , सविारोों का नाम िी आत्मा
िै । उनिे यि पूछा जाये सक जब सविारोों का नाम िी आत्मा िै तो एक क्षर्ण के बाद दू िरे िी क्षर्ण एकदम सवरुद्धसविार
क्योों निीों िलते अनुकूल सविार िी क्योों आते िैं ? जैिे दीपक जल रिा िै , वि अनेक िै । सजतनी तेल की बूोंद िैं उतने िी
दीपक िैं । एक बूँद जली वि एक ज्योसत िै , दू िरी बूोंद जली, वि दू िरी ज्योसत िै । वे ज्योसत अनेक िैं । परन्तु वे एक िी
क्योों मालूम पडती िै ? लोग सदया जलाते िैं सक लगातार वे बूँदें जलने लगती िैं । लगातार जलने के कारर्ण वे एक मालूम
पडती िैं । तो इिमें लगातारपने का अर्ाथ त िन्तान भी तो जानता िै इिी प्रकार सविारोों का नाम आत्मा िै । एक के बाद
दू िरा, दू िरे के बाद तीिरे के क्रम िे सविार आते रिते िैं , अत: मालूम पडता िै सक सविार एक िी आया । इि प्रकार
सविार अनेक िोते िैं । उन सविारोों की जो िन्तान िै वि जीव िै , ऐिा भी कोई किते िैं । सविार, राग, मोि आसद को
दे ख-दे ख मोिी जीव किता िै सक राग की जो िन्तान िलती िै , विी जीव िै । इि प्रकार आत्मा को न जानने वाले मोिी
जीव आत्मा के सवर्य में किते िैं सक अध्यविान की िन्तानें िी जीव िैं , क्योोंसक इनके असत रर क्त िमें कोई जीव निीों
सद खता िै । सक तने िी मोिी किते िैं सक शरीर िी जीव िै । शरीर िे सभन्न कोई जीव निीों िै । जो नया बने, जो पुराना
बने —इि प्रकार प्रवतथमान जो शरीर िै , विी जीव िै , इिके असतररक्त जीव निीों िै —ऐिा आत्मा को न जानने वाले किते
िैं ।
२२. अध्यवसान-वेगात्मवाधदता—पढे सलखे समथ्यादृसि लोग अध्यविानोों में जो तीव्र मोंद अनुभाग को प्राप्त िोते िैं
उिे जीव किते िैं । रागद्वे र् भाव को जीव किा, एक तो यि पररर्णाम और दू िरे रागद्वे र् भावोों में जो अनु भाग पडा िै ,
फलदानशद्धक्त पडी िै , तीव्र मोंद अनुभाग िै उि शद्धक्त को जीव माना । तो कोई जीव इि नोकमथ को िी जीव िमझता
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 40

िै । शरीर का जो नया बनना िै , पुराना बनना िै उिे यि मानता िै सक मैं अब पैदा हुआ अर्वा मैं अब मरा ।
२३. मोही की शरीर में जीवत्व की कल्पना—यि एक िौर्े प्रकार का सवमूढ पुरुर् िै । यि शरीर को िी जीव
मानता । उनमें भी कोई ठक्‍के के मूढ िैं , कोई ितुर मूढ िैं । भोले मूढ तो इि शरीर को िी जीव मानते िैं । शरीर समट
गया तो जीव समट गया, शरीर िो गया तो लो जीव िो गया, ऐिी बुद्धद्ध इनकी िै । परन्तु जो ितुर िौर्े सवमूढ िैं वे किते
िैं सक नई पुरानी अवसर्ा में प्रवतथमान जो नोकमथ (शरीर) िै वि जीव िै । यि शरीर िामान्य को जीव कि रिा िै । उिके
नए-नए प्रादु भाथ व अर्वा सवकाि िलते रिते िैं । उन सवसशि शरीरोों का िन्तानभूत अर्वा उन सवसशि शरीरोों में व्ापक
जो नोकमथ (शरीर) िै वि जीव िै इिके आशय में । िो जैिे कृष्णता के असतररक्त कोयला और कुछ िीज निीों िै , इिी
तरि नोकमथ के असतररक्त और कुछ जीव निीों िै । भैया ! यि तो ज्ञासनयोों की भार्ा में अज्ञासनयोों की बात बताई जा रिीों
िै । अज्ञानी र्ोडे िी जानता िै सक यि नोकमथ िै , यिी जीव िै । वि तो उिको लसक्षत करके यिी मैं हँ ऐिा अनुभव
करता िै । यसद कोई नोकमथ िमझे तो कमथ भी िमझना िोगा और सफर आगे बढना िोगा । सप्रय आत्मन् ! अपने पर अब
तो दया करो, इि शरीर सवडम्बना को िी आत्मिवथस्व मानकर क्योों अपार कि उठा रिे िो? बाह्य िे नेत्र बन्द करो,
अपने में ज्ञाननेत्र खोलो, आत्मा स्विोंवेद्य िीज िै । यिाँ लौसकक तकों िे और इद्धियोों िे आत्मा को जानना िािते िैं ।
शरीर का नाम नोकमथ इिसलए किा गया सक िुख दु :ख के खाि कारर्ण कमथ िैं , उिी प्रकार प्राय: दु :ख का कारर्ण शरीर
पडता िै । नो=ईर्त् र्ोडा । जैिे कमथ िुख दु :ख के कारर्ण िै , उि प्रकार शरीर भी िुख दु ुःख का कारर्ण िै । ऐिा निीों
सक नोकमथ के सबना िुख दु :ख का कमथ को पूरा असधकार िो जाये । िियोग िम्बन्धी जैिे कायथ नोकमथ (शरीर) करता िै
। नोकमथ िे सभन्न िमें कोई जीव सदखता िी निीों, ऐिा सकन्हीों लोगोों का किना िै ।
२४. दृष्ट शरीर में जीवत्व की कल्पना—शरीर ५ प्रकार का िै ुः—औदाररक, वैसक्रयक, आिारक, तैजि और कामथर्ण
। शोंकाकार जो कि रिा िै , उिके लक्ष्य में अद्धन्तम िार शरीर निीों िैं , केवल औदाररक शरीर िै । शोंकाकार तो औदाररक
शरीर को िी लक्ष्य करके किता िै सक शरीर िी जीव िै । कोई यसद ितुर शोंकाकार िोता वि किता सक तैजि और
कामाथ र्ण शरीर रूप िूक्ष्म नोकमथ जीव िै जो सक जीव के िार् प्रसत िमय लगा रिता िै , वि सर्ूल शरीर प्राप्त िोने के
कारर्ण बनते िैं , वि सनरन्तर रिता िै अत: शरीर िे सभन्न जीव िै िी निीों । जो पुनजथन्म मानने वाले िैं वे किते िैं सक
तैजि और कामाथ र्ण के अलावा जीव रिता िी निीों िै । जो पुनजथन्म निीों मानते िैं , वे किते िैं सक शरीर नि िो जाता िै
और शरीर के उत्पन्न िोने पर जीव भी उत्पन्न िो जाता िै । प िति (भूसम जल, पावक गगन, िमीर) िे अलावा कोई
शरीर निीों िै । शरीर िी जीव िै , ऐिा सकतने िी आत्मा को न मानने वाले जीव किते िैं । अभी तक आिायथ मिाराज वे
बातें बता रिे िैं सक सजन्हें मोिी जीव िोि िकता िै । आत्मति के अनसभज्ञ सकिी-सकिी प्रार्णी की मान्यता िै :—
गाथा 41
कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्‍माणुभागधमच्‍छं धत ।
धतव्विणमंदिण गुणेधहं जो सो हवधद जीवो ।।४१।।
२५. कमोदय में जीवत्व की कल्पना—अन्य कोई कमथ के उदय को िी जीव मानते िैं तो अन्य कोई कमथ के अनुभाग
को जीव मानते िैं सक तीव्र मोंद गुर्णोों िे नानारूप िै । सकतने िी जीव कमथ के उदय को िी जीव मानते िैं । कैिा िै वि
उदय याने फल? जो पुण्य और पाप के उदय में आकर जीव पर आक्रमर्ण करता िै , उिी को सकतने िी लोग जीव किते
िैं । पुण्य पाप के माने शुभ और अशुभ भाव िे िै । शुभ और अशुभ भावोों के असतररक्त िमें कोई जीव नजर निीों आता
िै । इन भावोों के असतररक्त भी क्या कोई जीव िै? पुण्य और पाप के असतररक्त कोई जीव निीों िै , ऐिा वि किता िै ।
कमथ का उदय, कमथ का सवपाक िी जीव िै ।
२६. कमाानुभाग में जीवत्व की कल्पना—सकतने िी जीव मानते िैं सक िुख-दु :ख का अनुभवन िी जीव िै , इिके
असतररक्त कोई जीव निीों िै , िुख-दु :ख के अलावा मोिी जीवोों को कोई िीज िमझ में निीों आती िै । िाता-अिाता रूप
पररर्णाम में व्ाप्त जो तीव्र मोंद गुर्ण, उन गुर्णोों िे भेद को प्राप्त िोने वाला जो कमों का अनुभवन िै , विी जीव िै । िुख-
दु ुःख में न्यूनासधक जो िन्तान िल रिी िै , उिे जीव किते िैं । परन्तु ये िब यर्ार्थ बात निीों िैं । िुख दु ुःख क्या िैं ? यि
आत्मा के सवकार िैं , आनन्द गुर्ण की पयाथ यें िैं । आनन्द गुर्ण की तीन पयाथ य िैं —िु ख, दु ुःख और आनन्द । आनन्द
सनसवथकार पयाथ य िै । आनन्द गुर्ण की सवकृत पयाथ यें िुख दु ुःख िैं । जो इद्धियोों को िुिावना लगे, उिे िु ख किते िैं और
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 41

जो इद्धियोों को िुिावना न लगे, उिे दु ुःख किते िैं । आ समिात् नन्दधत आत्मानम् इधत आनन्द: अर्ाथ त् जो आत्मा
को िारोों ओर िे िमृद्ध करे , उिे आनन्द किते िैं । शोंकाकार की दृसि सनसवथकार पयाथ य आनन्द तक भी निीों पहुों ि पाई
िै । वि किता िै सक िुख दु :ख रूप जो पयाथ य िैं —विी जीव िै , इिके अलावा जीव निीों िै । परन्तु आत्मा न िुख रूप
िै और न दु ुःख रूप िै तर्ा न सनसवथकार आनन्दरूप पररर्णमन िी जीव िै , क्योोंसक सनसवथकार आनों द तो बाद की अवसर्ा
िै , जीव तो इनिे पिले िे िी जीव र्ा । निीों तो जीव प्रारम्भ िे अों त तक सनसवथकार िोना िासिए र्ा? आनन्द गुर्ण भी जीव
निीों िै । यसद आनन्द गुर्ण मात्र िी जीव िोता तो आनन्दमात्र िी जीव नजर आना िासिए र्ा । दशथन, ज्ञान, िाररत्र आसद
अनेक गुर्णोों का िमुदाय भी जीव निीों िै । िुख दु ुःख तो सवकृत अवसर्ा िै , वि जीव निीों िै , यि तो जल्दी स्पि िो जाता
िै । तुम्हारी िमझ में आने वाले अनेक गुर्णोों का एक नाम जीव िै । “िमगुर्ण-पयाथ यों द्रव्म् ।” जैिे पत्ता, कोपल, फल,
फूल, बीज, शाखा-—इन िबका एक नाम एक वृक्ष िै । वास्तव में यि भार्ा गलत िै सक वृक्ष में फूल लगे िैं । अरे , इन
िबका नाम िी तो वृक्ष िै । इिी प्रकार यिाँ सजतने भी अनेक गुर्ण िैं , उन िब गुर्णोों का जो एक पयाथ यवािी शब्द िै ,
उिका नाम आत्मा िै । आत्मा तो अभेदरूप िै । उिके गुर्णरूप भी भेद निीों सकये जा िकते िैं । इि तरि आत्मा और
स्वभाव िी वि गुर्ण के भेदरूप भी जीव निीों किा जा िकता िै । यिाँ कोई यि किता िै सक सविारोों के िमूि का नाम
िी जीव िै । यिाँ पर दृसियोों के िमूि का नाम िी जीव किा गया िै , ऐिी उनकी मान्यता िै । जीवोों का यि अनुभव िै
सक िुख दु ुःख के अलावा जीव िै िी क्या? मालूम पडता िै आिायथ मिाराज सजनको िुना रिे िैं , उनके मन में यि श्रद्धा
जमी िो, परन्तु कि न पा रिे िोों सक िुख दु ुःख के अलावा कोई जीव निीों िै । जीव कोई भौसतक िीज तो िै निीों, जो
िामने लाकर रख सदया जाये, यि स्विोंवेद्य िै ।
२७. शुभ, अशुभ भाव में मी जीवत्व का अभाव—कोई किते िैं सक तीव्र मन्द गुर्णोोंकर भेद को प्राप्त हुए नाना-
प्रकार के शुभ अशुभ भाव जीव िैं । सवर्य पोर्ने के भाव व उन्हीों िे िम्बद्धन्धत कर्ाय भाव के उपयोग को अशुभभाव
किते िैं और िेवा, िसद्विार, लोकसित भावना आसद मन्दकर्ाय िे िोने वाले उपयोग को शुभ भाव किते िैं । िातारूप
(राजी िोने रूप) पररर्णाम को िुख किते िैं और अिातारूप पररर्णाम को दु ुःख किते िैं । जैिे शुभ अशुभ कमथ के
उदय िैं अत: जीव निीों िै , इिी प्रकार िुख दु ुःख भी कमथ के सवपाक िैं अत: जीव निीों िै । शुभ अशुभ भाव और िुख
दु :ख में क्या अन्तर िै? इिको सदखाने के सलए पूज्य श्रीमद् अमृतिि जी िूरर ने शुभ अशुभ भाव के सलए कमथ का उदय
शब्द सदया िै और िुख दु ुःख के सलए कमथ का अनुभाग शब्द सदया िै । शुभ अशुभ भाव में तो कतथव् की भाव िलता िै
व िुख दु ुःख में भोक्तृत्व का भाव िलता िै । उदय अल्पस्पशी िै , अनुभाग दृढस्पशी िै । यि एक पाँ िवें प्रकार का सवग्रि
पुरुर् िै सजिकी मान्यता िै सक कमथसवपाक िी जीव िै । कमथसवपाक शुभ और अशुभ भाव िै जो सक पुण्य और पापरूप
िे िारे सवश्‍व को व्ाप रिा िै , आक्रान्त कर रिा िै । इिने भीतर दे खा तो कुछ और खाली राग द्वे र् व अध्यविान भाव
में जीव माने जाने का िन्तोर् निीों हुआ इिे । यि कुछ उपयोग के िमीप आ रिा िै ? सकन्तु उपयोग की स्वच्छता के ममथ
को निीों पा िका िै । इिी कारर्ण शुभोपयोग और अशु भोपयोग िे असतररक्त कुछ जीव न सदखा ।
२८. कमाानुभाग में आत्मत्व का मोह—अब छट᳭ठे प्रकार के सवरुद्ध पुरुर् का मन्तव् दे खें—वि कमथ के अनुभव
को जीव मानता िै । यिाँ अनुभव किने िे िुख दु ुःख का ग्रिर्ण करना िै । िुख दु ुःख के असतररक्त कोई जीव निीों, िुख
दु ुःख रूप अनुभव िी जीव िै । िुख दु ुःख रूप में जो कमथ का अनुभव िलता िै वि जीव िै , यि अनुभव िी तीव्र मोंदि
गुर्णोों (सडसग्रयोों) के कारर्ण नाना भेदरूप िै । िो नाना रिो सकन्तु िाता अिातारूप िे िदा असभव्ाप्त िै । इिकी मान्यता
में िुख दु ुःख के अलावा कुछ जीव िै िी निीों । अिो आत्मन् ! तुम िैतन्यसपण्ड, ििजानन्दस्वरूप िो । यि क्या तेरी
गसत िो रिी िै , मसत िो रिी िै सक सव कल्प सवडम्बना की परे शानी िे छु ट्टी िी निीों पाते । ऐसिक िुख दु ुःख में इतने
आिक्त िो गए िो सक िुख दु ुःख के असतररक्त तुम कुछ ििज सवलक्षर्ण स्वरूप वाले िो, यि िुनने को भी तैयार निीों
िोते । यि छटा छटाया छट्ठा मूढ िुख दु ुःख के असतररक्त कुछ जीव िी निीों मानता ।
२९. कमोदय व कमाानुभाग में अनात्मवाधदता—कोई अज्ञानी कमथ के उदय को िी जीव िमझते िैं । कमथ का उदय
हुआ और उिमें जो कुछ भी अपने में प्रभाव हुआ उिका भी नाम उदय िै और द्रव्‍यकमथ प्रकृसत का उदय िो, सनकलना
िो, उिका भी नाम उदय िै । तो प्राय: कमोदय िे प्रभाव उत्पन्न िोने में प्रभावरूप उदय को िमझता िै सक यि मैं ह ,
मैं इििे सनराला कोई ज्ञानमात्र स्वरूप हँ ऐिी उि अज्ञानी की बुद्धद्ध निीों जगती । कोई कमथ के अनुभाग को िी जीव

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 41

मानते िैं । जो फलदान शद्धक्त िै विी मैं जीव हँ , ऐिी बातें कुछ लोग मानते िैं । क्योोंसक जो सनपट मूखथ लोग िैं वे अनुभाग
को क्या जानें, वे फलशद्धक्त को क्या िमझें , सकन्तु जो कुछ पढे सलखे लोग िैं , कुछ शब्दोों का पररज्ञान रखते िैं और न
प्राप्त िो अपने आत्मा का स्वरूप तो जब अपना सठकाना अपने को न समला तो बािर भटकते िैं और अपने िैतन्यस्वरूप
िे बािर जो कुछ उन्हें आत्मरूप िे सवसदत िो उिे आत्मा मानते िैं ।
गाथा 42
जीवो कम्मं उहयं दोच्छण्ण धव खलु केधव जीवधमिं धत ।
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवधमिं धत ।।४२।।
३०. जीव और कमा के उभय में आत्मत्व की कल्पना—दे खो आत्मा के बारे में लोगोों की क्या-क्या धारर्णाएों िैं ? कोई
किते िैं सक जीव और कमथ का समश्रर्ण जीव िै । वैिे जीव और कमथ इन दोनोों का समश्रर्ण जीव िै , यि बात अज्ञानी निीों
िमझता, क्योोंसक उन्हें खाली जीव और कमथ सदखा निीों, कमथ कभी दृसि में निीों आया—अत: अज्ञानी जीव उन दोनो के
समश्रर्ण को जीव तो किता िै , सकन्तु उनकी स्वयों -स्वयों की ित्ता न जानकर किता िै । इि िातवें सवमूढ पु रुर् को
शुद्धित्ताक जीव तो िमझ में आया निीों और कमथ को जीव कि िकता निीों । इतना तो जानता िै सक सजिमें िुख, दु ुःख,
जानकारी आसद िो रिी िै वि जीव िै , पर वि िब सदख रिा िै कमथ के नाट् य में । अत: न केवल जीव इिकी िमझ में
आत्मा िै , न केवल कमथ इिकी िमझ में आत्मा िै । इनका उभय िी आत्मा िै ऐिा यि िप्तम सवरुद्ध मानता िै , िािता
िै । इि कद्धल्पत स्वरूप िे िी बने रिने की िाि िै इिकी ।
३१. जीवकमोभयात्मवाधदता—कोई पुरुर् ऐिे िोते िैं सक जीव और कमथ इन दोनोों के मेल को जीव िमझते िैं ।
केवल जीव निीों दृसि में, केवल कमथ निीों दृसि में, सकन्तु जीव कमथ का समल करके आत्मा बना िै ऐिा मानते िैं । ऐिा
मानने का कारर्ण उनका अज्ञान िै । यि बोध निीों िै सक प्रत्येक पदार्थ अपना सनजी-ितुिय रखता िै । दो समल कर कभी
एक पदार्थ िोता िी निीों िै , िो स्वरूप ितुिय का पररज्ञान निीों, जीवति का बोध निीों और कमों के प्रभाव िे सलपटे
हुये िी िैं , कमों के प्रभाव में सलपटकर भी िमझ िै , बुद्धद्ध िै , ऐिा कुछ ख्याल करते िैं तो कुछ बात तो िेतन की पकडी
गई और िारी बातें कमथ की पकडी गईों । इि प्रकार जब एक समश्रर्ण कर सलया तो वि अज्ञानी जीव और कमथ इन दोनोों
के मेल को जीव िमझता िै । इन शब्दोों में कोई कि िके या न कि िके, पर इि प्रकार की बुद्धद्ध अनेक लोगोों के रिा
िी करती िै । एक जीवति जब दृसिगत निीों िोता और जीव की बात, जीव का प्रताप बराबर िल िी रिा िै , िमझ बन
िी रिी िै , ऐिी द्धसर्सत में कुछ अपना ति समलाया, शेर् परति समलाया तो इन िबको समल करके यि मानता िै सक मैं
जीव हँ ।
३२. कमासंयोग में जीवत्‍व की कल्पना—अब अिम सवमूढ की बात दे द्धखये —यि कमों के िोंयोग को िी जीव मानता
िै । अर्थ सक्रया में िमर्थ कमथ का िोंयोग िी तो िै । सभन्न-सभन्न रूप िे कमथ रिें तो वे क्या कर िकते िैं ? खाट में आठ
काठ िोते िैं —४ समिवा, २ पाटी, २ िीरा । ये सभन्न-सभन्न रिें तो ये पुरुर् के िुलाने में िमर्थ िैं क्या? इनका िोंयोग करके
बुना दो, सफर काम करें गे ये । इनका िोंयोग कोई अलग िीज निीों । सकतने िी अज्ञानी कमों के िोंयोग को जीव किते िैं
। जैिे—ईोंटोों के िों योग िे सभसत्त िै और आठ काठ के िोंयोग का नाम खाट िै , उिी प्रकार आठ कमों के िोंयोग का नाम
िी जीव िै । जैिे आठ काठ के सबना कोई खाट निीों िोती िै , इिी प्रकार यि अज्ञानी किता िै सक आठ कमों के िोंयोग
के सबना जीव निीों िै । उक्त िब कल्पनायें मोि में िोती िैं ।
३३. कमासंयोगात्मवाधदता—कुछ लोग कमों के िोंयोग को जीव मानते िैं । केवल एक-एक कमथ क्या करे ? कमथ जैिे
सक ८ माने िैं —ज्ञानावरर्ण, दशथनावरर्ण, वेदनीय, मोिनीय, आयु , नाम, गोत्र और अन्तराय । इनका जो मेल िै , िोंयोग िै
विी जीव िै । जैिे िारवाक लोग मानते िैं सक आठ काठ का जो िोंयोग िै िो खाट िै । उन आठ में िे अगर एक न िो
कुछ िीज, एक समिवा या एक पाटी या कोई पाया, तो काम बन िकता िै क्या? निीों बन िकता । वि खाट निीों किला
िकती । ८ काठ का जो िोंयोग िै िो िी तो खाट िै । आठ काठ िे सभन्‍न और खाट क्या? इिी तरि आठ कमथ निीों,
सफर जीव कुछ न रिा । आठ कमों के िोंयोग का िी नाम जीव िै । कुछ मूढ जीव अपने को न जानकर इन कमों के
िमूि को जीव िमझते िैं और जानते िैं । िुन रखा िै सक ज्ञानावरर्ण का उदय आता तो ज्ञान कम िो जाता िै । ज्ञानावरर्ण
जरा िहसलयत दे ता िै तो यि ज्ञान प्रकट िो जाता िै । दशथनावरर्ण िे दशथन का िम्बोंध िै , वेदनीय कमथ िे िु ख दु :ख
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 42

समलता िै । मोिनीय कमथ के कम बढ िोने िे िम जीवोों को कुछ प्रकाश आवरर्ण आसदक समलते िैं । आयु के कारर्ण
शरीर सटका हुआ िै , नामकमथ िे यि िब मैं बन बैठा हँ , इि शरीर की रिना हुई िै । गोत्र िे िम ऊँि नीि किलाते िैं
। अोंतराय िे िब दे ना लेना न दे ना लेना आसदक बनते िैं । तो ८ कमों िे रसित िम और रिे क्या? जो भी व्विार िै , जो
भी प्रवृसत्तयाँ िैं ये िब अि कमों के प्रताप िे िै । तो यि अज्ञानी जीव अिकमों के िों योग को िी जीव िमझता िै । उििे
सभन्न मैं कुछ जीव हँ ऐिा उिकी दृसि में निीों िै ।
गाथा 43
एवंधवहा िहुधवहा परमप्पाणं वदं धत दु म्मेहा ।
ते ण परमट्ठवाई धणियवाईधहं धणधिट्ठा ।।४३।।
३४. परात्मवाधदयों में परमाथावाधदता का अभाव—इि तरि के बहुत िे दु बुथद्धद्ध जन पर को िी आत्मा मानते िैं ।
वे परमार्थवादी निीों िै ऐिा सनश्‍ियवासदयोों ने सनसदथ ि सकया िै । आिायथ किते िैं सक इि प्रकार की कल्पना करने वाले
जीव परमार्थवादी निीों िैं —इि प्रकार बहुत िे लोग परपदार्ों को आत्मा कि दे ते िैं । िैतन्यस्वभाव के असतररक्त जो
कुछ भी िै , िो िब पर िै । अत: शरीर, कमथ, रागद्वे र् की परम्परा आसद िभी पर िैं । एक िैतन्यस्वभाव की दृसि िे दे खा
गया आत्मा तो सनज िै , इिके असतररक्त िब पर िैं । सजनकी बुद्धद्ध िोई हुई िै , वे पर को आत्मा किते िैं । सनश्‍िय ति
के मानने वालोों ने बताया िै सक वे परमार्थवादी निीों िैं । यि विी बता पायेगा, सजन्होोंने परमार्थ को जाना िै । एक के
जानने में अनेक का सनर्ेध िो िकता िै । जो अनेक का सनर्ेध करे गा, उिे इि एक िीज का पता िै , तभी तो सनर्ेध
करे गा । आत्मा की जानकारी िबिे बडी िीज िै । दे खो जो सवमूढािक द्वारा आठ कुतिोों में ति की कल्पना की िै
उनमें िे अध्यविान तो जीव का पररर्णमन िै , सकन्तु वि नैिसगथक निीों िै , औपासधक िै , अध्रुव िै अत: परति िै , जीव
निीों िै । कमथ तो पौद् गसलक िै , अजीव प्रकट िी िै । अध्यविान की िोंतान कल्पना िै , प्रत्येक अध्यविान भाव अपने
िमय में उि जासत की पररपू र्णथ पयाथ य िै , उिका अगले िमय में व्य िो जाता िै वि द्रव् तो िै निीों सजिकी िोंतानरूप
में कल्पना की जावे । शरीर (नोकमथ) तो प्रकट अिेतन िै । कमोदयजसनत भाव (शुभ अशुभ भाव) औपासधक भाव िै,
परभाव िै , अध्रुव िै वि जीव निीों िै । जीव तो परमार्थत शुद्ध िेतनामात्र िै । िुख दु ुःख आसद भी इिी तरि इन्हीों कारर्णोों
िे जीव निीों िैं । कमथ और जीव का समश्रर्ण तो िो निीों िकता क्योोंसक वे जु दे-जु दे पदार्थ िैं । अपना-अपना अद्धस्ति
रखने वाले दोनोों का िमुदाय भी जीव निीों िै । कमथ अिेतन िैं , उनका िोंयोग भी जीव निीों िै । आत्मा तो इनिे परे
सनजिैतन्यस्वभावमात्र िै । इिका प्रकट अनुभव तो सनज ज्ञायकस्वभाव के उपयोग द्वारा एकला िोने की द्धसर्सत में िोता
िै । आत्मज्ञान िोने के बाद सवकार का अभाव िो जाता िै । उिके िोंिार बढाने वाला बन्ध निीों िै । जैिे सकिी मिाजन
के यिाँ लाखोों रुपए का कजाथ िोता र्ा वि सनपटा सदया जावे सिफथ मामूली िा कजाथ शेर् रिे तो विाँ िौ दो िौ रुपए के
कजथ की सगनती निीों िोती िै । पर को आत्मा किने वाले जीव परमार्थवादी निीों िैं ।
३५. अज्ञान में अनेक परात्मवाधदता—इिी प्रकार और और भी परजीवोों में परतिोों में ‘यि मैं हँ ’ ऐिा मानता िै ।
कुछ लोग तो पुत्रासदक को िी ऐिा िमझते िैं सक यिी मैं हँ । इतनी आिद्धक्त िोती िै सजि आिद्धक्त में और कुछ िूझता
िी निीों । कुछ लोग जो धन में आिक्त िैं वे धन को िी िमझते िैं सक यिी मैं हँ , धन न रिा तो मैं कुछ न रिा । जो लोग
नाम इज्‍जत को िमझते िैं सक यि मैं हँ वे नाम इज्‍जत न रिे तो ऐिा अनुभव करते सक अब मैं कुछ रिा िी निीों । बहुत
िे लोग किते िैं अब क्या जीवन िै वि तो मर गया । जैिे कोई तीन वर्थ पसिले प्रधानमोंत्री र्ा रूि का तो उिका लोग
बडा आदर करते र्े, उिका बडा नाम सलया जाता र्ा, उिका नाम अखबारोों में खूब आया करता र्ा, पर अब उिके
प्रधानमोंत्री न रिने पर उिका कोई नाम भी लेने वाला िै क्या? लोग बडे आश्‍ियथ िे दे खते िैं सक अरे अब वि क्या रिा?
वि तो मर गया । तो जो लोग इज्‍जत में आिद्धक्त रखते िैं उनकी दृसि में इज्‍जत न रिे तो उिे जीवन िी निीों िमझते ।
सजन्हें पयाथ य में, नाम में, सवभाव में, सक िी वस्‍तु में आिद्धक्त िैं वे उि उिमें मानते िैं सक यि मैं हँ । और इि अज्ञान ने,
आिद्धक्त ने , बडोों-बडोों को परे शान कर सलया िै , पर जो यर्ार्थत: मिापुरुर् िैं वे कभी इनिे परे शान निीों िोते ।
३६. अवधशष्ट समय को सत्पथ में व्यतीत करने में भलाई—वे भी पसिले इिी िक्‍कर में पडे हुए र्े , जो आज िुलझ
गये िैं ऐिे मिापुरुर् और सिद्ध भगवन्त, वे भी कभी िम आप जैिे िी िक्‍कर में पडे हुए र्े । उन्हें भी इि दु सनया का
िब कुछ रों ग ढों ग िी िवथस्व सदखता र्ा, लेसकन जब ज्ञानप्रकाश हुआ, उििे सवरक्त हुए तो पार पा गये िोंिार िे । िम
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 43

आप भी एक सवकल्पोों में िी उलझकर अपने आपको बरबाद सकए जा रिे िैं , उििे समलेगा क्या, दू िरोों पर नजर डालकर
िमझ लो । जो लोग घर में रिे , अच्छा सकया बुरा सकया, आद्धखर मर गए, तो क्या समला उन्हें ? उनको दृसि में रखकर भी
िमझा जा िकता िै सक इि िोंिार में रिने का कुछ निीों । जब अपना कुछ भी निीों िै , और उि िी को िवथस्व िमझा
जाये तो इि िोंिार का दु ुःख कैिे समट िकता िै ? बाह्यपदार्ों के प्रसत तो िठ ऐिी सकया करते िैं , इन इद्धिय सवर्योों के
प्रसत तो िठ ऐिी करते िैं सक कुछ भी िो, सकिी प्रकार िो, बात योों िी िोना िासिये , पर कदासित् यि ज्ञान निीों जगता
सक अपने आत्मस्वभाव में ठिरने के सलए, अन्य िबको सबल्कुल भुलाने के सलए िमारी िठ िो तो िमारी इिमें दया िै ।
जब िम परपदार्ों िे धोखा िी धोखा खाते आ रिे िैं , कोई िमझे सक मायािार करके िम सवर्य िाधन बढा लें तो िमने
बुद्धद्धमानी की, िो बुद्धद्धमानी निीों िै । वि तो एक अपना पतन िै , बरबादी िै । िमने अपने आपको धोखा िी सदया ।
कोई पुरुर् सकिी दू िरे को िताकर यि माने सक मैं बडा ितुर हँ , मैंने धोखा सदया दू िरे को और अपना काम सिद्ध
सकया, पर वास्तव में उिने अपने को िी धोखा सदया और अपने आपका िी सबगाड सकया । कुछ बडी उम्र बीतने पर
स्वयों िमझ में आ जाता िै कर्ायोों का वेग कम िोने पर स्वयों िमझ में आ जाता िै सक मैंने व्र्थ िी इतना जीवन खो
सदया । कैिे खो सदया? सवर्योों में रत रिे , कर्ायोों में प्रीसत र्ी, दू िरोों िे सवरोध ईष्याथभाव रखा आसदक अनेक पररर्णामोों
िे सवकल्पोोंिसित जो जीवन गुजरता िै उििे िन्तोर् निीों समल िकता । आद्धखर पछतावा िी समलेगा, क्योोंसक अपनी िी
जासत की िीज िोती तो विाँ िन्तोर् का अविर र्ा । की गई अपने सवरुद्ध अपनी परे शानी की बात तो उन दु ष्कमों के
फल में अन्त में पछतावा िी समलेगा । िम रिे ििे िमय के सलए भी िेत निीों पाते िैं , न यि िों कल्प कर पाते िैं सक जो
िमय गुजरा िो गुजरा, अब जो रिा ििा िमय िै उिे तो सबल्कुल ठीक ढों ग िे गुजार लें, यसद ऐिा सकया जा िका तो
िमसझये सक िम लोग िब भले मागथ में िल रिे िैं । यसद यि निीों सकया जा िकता तो िमसझये सक िम लोग एक अनुसित
पर् में जा रिे िैं ।
३७. प्रशमाधद सद् भावों से जीवन की सफलता—प्रशम, िोंवेग, अनुकम्पा, आद्धस्तक इन िार प्रकार के पररर्णामोों
को रखने में कौन-िी अशाद्धन्त िै ? प्रशमभाव रखें , शाद्धन्तभाव रखें , िोंवेग पररर्णाम, िोंिार शरीर भोगोों िे सवरद्धक्त का
पररर्णाम, इन भोगोों में लोग तो कल्पनाओों में राजी िोते लेसकन अन्त में रीते रिना पडता िै । इि कारर्ण अिन्तोर् बढे गा,
और सफर विाँ मैं क्या करू , कुछ उिे सदखेगा निीों ित्पर् । शरीर में आिक्त रिे गा तो शरीर तो बूढा बनेगा, रोगी
बनेगा, समटे गा, तो इििे शरीर को सनरखकर आिद्धक्त के कारर्ण यि बडे सवह्वल िोता िै । जो पसिले िे िी अनािक्त
िो, रोग में वि घबडाया निीों, अपना असित न मानेगा । तो िोंवेगभाव रखने में शाद्धन्त िी िै । अनुकम्पा दया का
पाररर्णाम—स्वयों पर दया, दू िरे पर दया, सकिी पर अन्याय न करना ऐिे पररर्णामोों में आिद्धक्त िै , मैं आत्मा हँ , मुद्धक्त
ऐिे िोती िै , जीव की ऐिी अवसर्ायें िैं , स्वभाव सवभाव जो जैिे िैं तैिे दृसि में रिे अपने आत्मा के अद्धस्तत्व की प्रतीसत
में रिे तो इिमें इिका क्या सबगाड? इिका लाभ िी िै । तो इििे िासिये सक रिे ििे िमय को िम शाद्धन्त में गुजारें ,
वैराग्यपूवथक गुजारें । मैं हँ , ऐिा अपने प्रत्यक्ष श्रद्धा में रिे , ऐिे भाव में गुजरे तो िमसझये सक जीवन िफल िै , और रिे
ििे जीवन को भी यसद ऐिे िी अनापिनाप सवर्योों में, कर्ायोों में गवायें तो मरर्ण के बाद कीडा मकोडा अिोंज्ञी िो गये
तो सफ र कुछ वश निीों िलने का । इि कारर्ण बुद्धद्ध समली िै , कुल श्रे ष्ठ िै , जैनशािन समला िै तो इनका उपयोग यि िै
सक प्रशम, िोंवेग, अनुकम्पा, आद्धस्तक आसदक गुर्णोों की वृद्धद्ध में अपना प्रयत्‍न रिे , यिी बडे िन्तोर् की बात िोगी ।
गाथा 44
एए सव्‍वे भावा पुग्गलदव्वपररणामधणप्पण्णा ।
केवधल धजणेधहं भधणया कह ते जीवो धि वुच्‍चंधत ।।४४।।
३८. परभावों की पु द्गलपररणामधनष्पन्नता—ये िमस्त भाव पुद्गलद्रव् के परर र्णाम िे सनष्पन्न िैं ऐिा केवली
सजनेि भगवान के द्वारा किा गया िै । अत: वे जीव िैं ऐिा कैिे किा जा िकता िै ? कोई किते िैं सक जो िम में राग-
द्वे र् उठ रिे िैं , विी जीव िै । यसद राग-द्वे र् िी जीव िै तो राग-द्वे र् िी करते रिो । यसद राग द्वे र्ासद को जीव न माना तो
रागासद िे छु टकारा समल िकता िै । जिाँ राग-द्वे र् मैं हँ , विाँ “मैं” को कैिे समटाया जा िकता िै ? इि प्रकार बन्धन निीों
छूट िकता िै । आत्मा के आश्रय िे बन्धन छूटता िै , क्षसर्णक के आश्रय िे बन्धन निीों छूटता िै । इन परभावोों में कुछ तो
िीजें ऐिी िैं , जो पुदगल के सनसमत्त िे हुई िैं और कुछ ऐिी िैं सक जो पुद्गल द्रव् का पररर्णमन िै । अज्ञानी इन दोनोों
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 44

को जीव मानता िै । पुद्गल द्रव् के सनसमत्त िे राग-द्वे र्, िाता-अिाता, शुभाशुभ भाव िोते िैं , ये पु द्गल द्रव् के सनसमत्त
िे हुए पररर्णमन िैं । पुद᳭गल द्रव् के सनसमत्त िे हुए वे भी जीव निीों िैं । जो पुद्गल द्रव् के पररर्णमन िैं , वे भी जीव
निीों िैं । िबिे पिले यि श्रद्धा करनी िै सक शरीर मैं निीों हँ । यि बात जल्दी िे िीखी जा िकती िै , क्योोंसक औरोों के
शरीर जलाते प्रसतसदन दे खे जाते िैं । बहुत िे लोगोों को यि अनुभव िोता िै सक जै िी िमारी बुद्धद्ध िोती िै , वै िी सकिी
की िै िी निीों । जैिा िमारा पुण्य िै , वैिा सकिी का िै िी निीों । मरने वाले तो और कोई िोोंगे मैं िदा सजन्दा रहों गा, परन्तु
यि िब अज्ञानी की कल्पना िै । सभखारी भी यिी मानते िैं सक जैिी िममें ितुराई िै , वैिी सकिी में िै िी निीों । जीव को
अपने -अपने बारे में ऐिी श्रद्धाएों जमी हुई िैं । िम्भव िै सक सजन में आज बुद्धद्ध निीों िै वे इिी पयाथ य में या सकिी अन्य:
पयाथ य में िमिे असधक ज्ञानी बन िकते िैं । राग में कोई िफल निीों िोता िै , परन्तु वि मानता िै सक मैं राग िे िफल
िो गया ।
३९. रागाधद धवकारों में स्वभावरूपता होने की अशक्यता—सकतने िी लोग मानते िैं सक राग-द्वे र् िी जीव िै ,
क्योोंसक जीव ने अपने को एक िमय भी रागद्वे र् िे रसित अनुभव निीों सकया िै । अत: अज्ञानी रागासद को िी जीव मानता
िै । अज्ञानी मानता िै सक राग िी मैं हँ , राग िी मेरा िब कुछ िै और वि ऐिी श्रद्धा रखता िै सक मैं राग िे अलग निीों
िो िकता हँ । सजन बच्‍िोों के मन में यि भाव भरा रिता िै सक मैं परीक्षा में िफल न िो पाऊोंगा तो वि पाि निीों िो
पाता िै । राग-द्वे र् मैं निीों हँ , क्योोंसक ये पुद्गल द्रव् के सनसमत्त िे उत्पन्न िोते िैं । जै िे दपथर्ण िै , दपथर्ण में िरा रों ग सदखाई
दे ता िै । ज्ञानी को यि पता िै सक यि प्रसतसबम्ब दपथर्ण की िीज निीों िै । िामने सनसमत्त आया, िरा प्रसतसबम्ब िो गया ।
यि तो दपथर्ण का स्वभाव िै सक सनसमत्त पाये इि रूप पररर्णम जाये । मसलन जीव की भी कुछ ऐिी आदत िै सक सनसमत्त
पाये रागद्वे र् रूप पररर्णम जाये । अत: रागद्वे र् मैं निीों हँ । ये रागासद िैतन्य स्वभाव रूप निीों बन िकते िैं , क्योोंसक
रागद्वे र् आसद का स्वभाव िै तन्य निीों िै । जब स्वानुभव िोता िै तब उपयोग आत्मा की ओर लगा रिता िै , शु द्ध द्रव्रूप
आत्मा की ओर उपयोग लगता िै । ऐिे उपयोग के िमय भी रागासद द्रव् िलते रिते िैं , परन्तु उपयोग उन्हें निीों पकड
रिा िै । ये रागासद भाव आत्मा में िोते िैं , िोने दो, इििे आत्मा का क्या सबगाड? मैं तो िैतन्य मात्र ज्ञानवाला आत्मा हँ ।
यसद आत्मा को िेतना आप सदख जाये तो रागासद अबुद्धद्धपूवथक िी िोते रिें गे । सजतनी भी बातें ऊपर बताई गई िैं , ये
जीवद्रव् के िो निीों िकती । अत: रागासद जीव निीों िो िकते िैं । रागासद को जीव मानने में आगम िे बाधा, युद्धक्त िे
बाधा, स्वानुभव िे भी बाधा आती िै । इतना तो सनश्‍सित िै सक यसद यि जीव सवर्य कर्ाय की ओर उपयोग लगाता तो
दु ुःखी िोता और यसद िैतन्य स्वभाव की ओर ध्यान लगाता िै तो िुखी िोता िै । यसद िम परपदार्थ की ओर उपयोग
लगाते िैं तो उिका फल केवल आकुलता िी िै । क्योोंसक यसद इिमें ऐिा उपयोग लगाया तो ऐिा िी पररर्णम जाना
िासिये , लेसकन पररर्णमता निीों िै , सकन्तु अज्ञानी का इिकी ओर उपयोग िै , अत: अज्ञानी को दु ुःख स्वयमेव िोता िै ।
यसद अखण्ड सित्स्‍वभाव की ओर दृसि लग जाये तो शाों सत समलती िै । िम वैिा सविार बना पायें , िािे न बना पायें, लेसकन
जीव के वि अनुकूल िै । आगम, युद्धक्त आसद िे बाधा िोने के कारर्ण शरीर रागासद को जीव मान लेना समथ्यात्व िै ।
सजन-सजनको मोिी जीव ने आत्मा माना, वे िीजें या तो पुद्गल द्रव् के पररर्णमन िैं या पु द्गल द्रव् के सनसमत्त िे हुई िैं ,
ये दोनोों िी जीव निीों िैं । मैं इनिे अलग एक शुद्ध आत्मा हँ ।
४०. समस्त अनात्मतत्त्ों की पु द्गलमयता—कोई पुरुर् किता िै सक रागद्वे र्भावोों को कलुसर्तपने का जो पररर्णाम
िै वि जीव िै तो कोई किता िै सक रागद्वे र्ासदक सक्रया में अर्वा ज्ञानावरर्ण आसदक कमथ ये िी जीव िैं , तो कोई किता
िै सक निीों, उन अध्यविान भावोों में, उन रागद्वे र्ासदक पररर्णामोों में जो तीव्रता मोंदता की शद्धक्त पडी िै उि तीव्र मोंद
अनुभाग में जो रि रिा िै वि जीव िै । तो सकन्ही का किना र्ा सक शरीर िी जीव िै । इि मान्यता वाले तो िभी िैं सजतने
समथ्यादृसि िैं । जो कुछ सवद्वान िैं , दाशथसनक िैं कुछ बोलने में ितुर िैं वे और-और तरि िे जीव किते िैं ; पर शरीर को
जीव किने वाले तो िभी समथ्यादृसि िैं । अिोंज्ञी भी शरीर को आपा मानते िैं , एकेद्धिय आसदक भी । और ये मनुष्य भी
िभी किते िैं सक शरीर िी जीव िै । तो कोई किता िै सक कमों ने जो सवपाक पडा हुआ िै कमों का उदय, कमों में िोने
वाले कमथ का उदय इनकी तो सकिे खबर िै ? और कमों के उदय में उत्पन्न िोने वाले जो सवभावोों का उदय िै उन सवभावोों
के उदय को जीव किते िैं । कोई कमों की शद्धक्त को जीव किते िैं । कोई किते सक निीों, जीव और कमथ दोनोों का जो
समलावट िै िो जीव िै । कुछ जीव जैिी बात सदखें तो और कुछ जीव न िो, इि तरि की बात अपने में सदखें और िबका

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 44

समले सदखे तो किते सक जीव और कमथ दोनोों का मेल जीव िै । तो सकन्हीों का किना िै सक इन कलिोों में क्या िै ? आठ
कमों का जो िोंयोग िै विी जीव िै । यि मानने वाला अज्ञानी बहुत बसढया िा रिा, िुनने में किने में सक बताओ आठ
काठ के सिवाय खाट क्या िै , योों िी आठ कमों के सिवाय और जीव क्या ? इि प्रकार अनेक तरि िे परतिोों को जो
जीव मानते िैं उनको िमझाया जा रिा िै सक ये िभी की िभी बातें जो किी गयी िैं वे तो पुद्गल के पररर्णाम िे उत्पन्न
हुए भाव िैं अर्ाथ त् पौद् गसलक सजतनी भी बातें अभी किीों गई िैं अज्ञासनयोों िे , वे िब पौद् गसलक बातें िैं , अर्ाथ त् पुद्गल
के पररर्णाम िे उत्पन्न हुये िैं । उनमें िे कुछ तो िैं पौद् गसलक भाव िीधे उपादान दृसि िे और कुछ िैं जीवभाव, जैिे
अध्यविाय सवकार, लेसकन ये पुद्गलकमथ के उदय के सनसमत्त िे उत्पन्न हुये िैं इि कारर्ण पौद् गसलक िैं । भाव यि िै
सक स्वयों के सनज की िीजें निीों िैं । जैिे कमथ शरीर ये स्वयों की िीज निीों िैं , इिी प्रकार रागद्वे र्ासदक सवकार ये भी स्वयों
के ति निीों िैं , हुये िैं स्वयों में, सकन्तु स्वयों की ओर िे स्वयों के ििज स्वभाव के नाते हुए निीों िैं , सकन्तु पुद्गल कमथ के
उदय के सनसमत्त िे हुये िैं ।
४१. पौद् गधल कता के दो ममा —जो पुद्गल का िीधा भावों िै वि भी पौद् गसलक िै और जो पुद्गल के सनसमत्त िे
उत्‍पन्‍न हुये पररर्णाम िैं वे भी पौद᳭गसलक िैं । पौद᳭गसलक शब्‍द के योों दो प्रकार के अर्थ िोते िैं और दो अर्ों में िे
सकिी न सकिी अर्थ वाले ये भाव िैं जो अ्‍ज्ञासनयोों के द्वारा अभी बताये गए । जब सकिी में भे द करना िोता िै , दो बातोों
में भेद करना िै तो उन दो का अिाधारर्ण स्‍वरूप जरूर जानना िासिये । ये दो अोंगुसलया अलग-अलग क्‍योों िैं ? योों
सक इन अोंगुसलयोों का द्रव्‍य, क्षेत्र, काल, भाव दू िरे में निीों िै । दू िरी अोंगुली का द्रव्‍य, क्षेत्र, काल, भाव पिली में निीों िै
। सकिी छोटी अोंगुली में कोई फोडा िो जाये तो उििे बडी अोंगुली में कुछ निीों िै । सजिमें जो पररर्णमन िो रिा िै वि
उिमें िै । इििे ये पृर्क् दो िीजें िैं और यिाँ दो िी पृर्क्-पृर्क् क्‍या किें —एक िी अोंगुली में रिने वाले जो िूक्ष्म-
िूक्ष्‍म स्‍कोंध िैं वे पृर्क्-पृर्क् िैं । उन िूक्ष्‍म स्‍कोंधोों में रिने वाले जो एक-एक अर्णु िैं वे पृर्क्-पृर्क् िैं , अपना-अपना
िि रखते िैं तो सकिी जीव की ये दो िीजें अलग-अलग िैं , इििे जान जायें गे सक इन दो का अिाधारर्ण लक्षर्ण जान लें
। तो यिाँ िमें जीव और अजीव में भेद करना िै । जीव मायने अपने आपमें ििज अनासद अनन्‍त अिे तुक शाश्‍वत जो
स्‍वभाव िै वि तो ह मैं और जो ऐिा निीों िै और और कुछ िै वि िब िै पर । मैं जीव ह , अनासद अनोंत अिे तुक
शाश्‍वत अिाधारर्ण िैतन्यस्वभाव ह , और रागासदक अजीव िैं , अर्ाथ त् यि अनासद अनोंत अिे तुक िैतन्‍यस्‍वभाव निीों िै

४२. जीव अजीव जानने का प्रयोजन अजीव से हटकर जीवस्‍वरूप में आना—यिाँ अजीव िै , ऐिा किने पर
यि जोर दे ना जीव निीों िै और क्या िै , इिके सलए सजज्ञािा न कीसजये । सजिको केवल जीवत्‍व स्वभाव के ग्रिर्ण का
प्रयोजन िै वि केवल इतना िी जानना िािे गा सक यि मैं जीव हँ और ये िब मैं जीव निीों, सफर िै क्या? जैिे िैं यि जानने
की जरूरत तो िै क्‍योोंसक उनका सवशे र् िमझे सबना, उनका अिाधारर्ण स्वरूप जाने सबना िम स्पितया उनिे सवसवक्त
अपने को मान न िकेंगे पर सजि काल में एक अध्यात्मरूप अनु भव करने का प्रिोंग िो उि काल में पर का केवल परत्व
जानना इतना िी प्रयोजन रख करके आगे बढा जाता िै । सनर्णथय के काल में वि पर क्‍या िै , सकि उपादान िे िै आसदक
िब कुछ जानना िासिए । ये अध्यविान आसदक भाव, ये राग-द्वे र् कमथ शरीर आसदक पदार्थ जीव निीों िैं । जीव तो एक
अनासद अनन्त अिाधारर्ण िैतन्‍यस्‍वभाव िै । प्रयोजन पररज्ञान के आशयानुिार अलग-अलग िोता िै । िभी जगि
व्‍यविार क्षेत्र में व्ाविाररक शास्‍त्र में या व्विार में यि बात यसद किने लगे सक ये िब कोई जीव निीों िैं जो सदख रिे
िैं । कीडा मकोडा पशु पक्षी मनुष्य । तो इिमें सवडम्‍बना बन जायेगी । पर अध्यात्म अनुभव के सलए तै यार हुये योगी
सनुःशोंकता िे सनरख रिे िैं सक ये िब कोई जीव निीों िैं । पसिले तो इि अमूतथ स्वरूप िे िी यि सनर्णथय िो जाता िै सक
जो-जो कुछ सदखते िैं वे भी िब जीव निीों । तो व्विार क्षेत्र में यद्यसप यि बात युक्त निीों बैठती सक यि किने लगें सक
ये मनुष्य पशु, पक्षी ये िब जीव निीों िैं , सकन्तु जीव के अिाधारर्ण स्वभाव पर ििजस्वभाव पर दृसि दे कर यि सनश्‍िय
रखकर सक स्वभाववान स्वभाव में िोता िै । सफर सनरखा तो पसिले तो एक मोटे रूप िे यिी भेद आ गया सक जो सदखे
वि जीव निीों । जीव इद्धिय िे निीों सदखा करता । इद्धिय का सवर्य िै रूप, और जीव काला, पीला, नीला, लाल, िफेद
आसदक निीों िै वि तो ज्ञानभाव स्वरूप िै । तो जो कुछ सदख रिा यि जीव निीों । अब और अन्दर िले तो सजिने
स्वभावमात्र िे जीव सनरखने का आशय बनाया िै —एक अध्यात्मयोग में बिने के सलए सवशुद्ध दृसि बनाया िै ऐिे पुरुर्

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सनरख रिे िैं सक ये रागद्वे र् आसद क भाव ये पुद᳭गल के पररर्णाम िे उत्पन्न हुए िैं , पुद्गल के सनसमत्त िे उत्पन्न हुए िैं ,
अत: यि भी मैं निीों हँ । मैं हँ अनासद अनन्त अिे तुक शाश्‍वत अिाधारर्ण िैतन्यस्वभाव । ऐिा सनर्णथ य सजि दृसि में बिा
िै उि दृसि का यि कर्न िल रिा िै ।
४३. अध्यात्‍मयोगवृधि के प्रयोजन का प्रकरण—इि असधकार में सजिका सक नाम जीवजीवासधकार िै , यि बताने
का प्रयोजन िै सक वास्तव में जीव क्या िै , और जो यि निी िै वि िब जीव निीों िै , अर्ाथ त् अजीव िै । अजीव िोकर
सफर िम उिे सकि द्रव् में डालें? उिे िम पुद्गल द्रव् माने या अन्‍य कुछ मानें? धमथ आसदक मानें — यि सनर्णथय करने
का प्रिोंग निीों िै । उिमें आशय जीव के शुद्ध स्वरूप को सनरखकर जीव को ग्रिर्ण करने के आग्रि का बनाया िै । उि
िमय यि प्रश्‍न निीों उत्पन्न िोता सक रागासदक भाव यसद जीव निीों िैं , अजीव िैं तो शेर् ५ द्रव्ोों में िे कौनिा द्रव् िै?
क्या धमथ अधमाथ सदक? ऐिा प्रश्‍न उठाये जाने का प्रिोंग निीों िै । यिाँ तो केवल जीव के स्वरूप को सनरखकर उिके
असतररक्त िमस्त भावोों का प्रसतर्ेध करके उि स्‍वभाव में उपयु क्त िोने का प्रकरर्ण िै । सनर्णथय यसद करना िै तो सनर्णथय
में यि बात आयेगी सक रागद्वे र्ासदक पररर्णाम जीव के पररर्णमन िैं , सकन्तु पुद्गलकमथ के उदय का सनसमत्त पाकर हुए िैं
। यिाँ एक स्वभावदृसि िे जीव का स्वरूप किा जा रिा िै । िैतन्यशून्य जो-जो कुछ भी भाव िैं , जो-जो भी द्रव् िैं उन
िबिे सनराला यि मैं िै तन्यस्वभाव जीवद्रव् ह , अन्‍यरूप मैं कैिे िोऊ गा? सजन पुरुर्ोों ने इि िैतन्यस्‍वभावरूप
स्वति का अनुभव सकया िै वे पुरुर् िमझ रिे िैं सक जै िे स्वर्णथ सकट्टकासलमा में रिकर भी उििे सभन्न िै इिी प्रकार
जीव का ििजस्वरूप इन अध्यविान आसदक इन शरीरासदकरूप निीों िै । भले िी ये कमथ अनासदकाल िे अब तक
एक िोंिरर्ण की धारा बनाये हुये आ रिे िैं और इि वजि िे जीव धाराप्रवाि िोंिार भावोों में िला आ रिा िै , सफर भी
स्वति का अनुभव करने वाले जानते िैं सक उि िोंिरर्ण िे , उि क्रीडन िे , उि कमथ िे यि मैं पृर्क् केवल
सित्स्वभावमात्र हँ । भले िी िढाव उतार के िार् यि अध्‍यविानोों का िोंतान िला आ रिा िै । रागद्वे र् मोि आसदक
पररर्णामोों की िोंतसत िढाव उतार को सलए हुए िै सजिका सक फल बहुत िी बुरा िै । ये िब िले आ रिे िैं , पर यि मैं
जीव निीों हँ , सजिने िमस्त पर और परभावोों िे उपेक्षा करके एक ििज सवश्राम सलया िै और उि सवश्राम में आत्मा के
स्वभाव का दशथन सकया िै , अनुभव सकया िै , उन्हें यि स्पि सवसदत िै सक यि िब बखेडा, ये िब औपासधक भाव, ये िब
उपासधयाँ , ये मैं निीों हँ । मैं तो एक िैतन्यमात्र जीव हँ ।
४४. ज्ञानमात्र अिस्‍तत्त् िोि का प्रताप—दे द्धखये —यि अपना मूल मोंत्र िमझ लीसजये अपनी भार्ा में । मूल
उपािना यि ध्यान में रिे सक मैं िबिे सनराला ज्ञानमात्र हँ । अपने स्‍वरूप की परख करनी िै ना, यि बात तो ध्‍यान में
बनी िी रिना िासिये , िािे अपने रिने के सर्ान पर कमरे में सलख भी लें, सजििे दे खते हुए रिें सक मैं िबिे सनराला
ज्ञानमात्र हँ । यि ध्यान रिे गा तो सकतनी िी सवपदाओों िे, व्िनोों िे, पापोों िे , दु ष्कल्पनाओों िे सनवृसत्त उिकी झट िो
जायेगी । मैं ज्ञानमात्र हँ । जो ज्ञानस्वरूप िै वि िाधारर्ण िै अर्ाथ त् व्द्धक्तरूपता में निीों आ पाता िै सक सजिका नाम
रखा जा िके । लोग नाम रखते िैं इि पयाथ य का, वि व्द्धक्तरूप बन जाता िै , इि मूतथ का तो नाम रखा जाता िै , सकन्तु
जो ज्ञानस्वरूप िो ज्ञानभावमात्र, उिका नाम क्या? और कदासित कुछ नाम भी रखा जाये तो उि नाम िे यि भेद निीों
िो िकता सक इन अनन्तानन्‍त जीवोों में िे इि नाम के द्वारा केवल मुझको िी पु कारा गया िै । ज्ञानस्वभावमात्र अन्‍तस्‍ति
का नाम आप क्या रखेंगे, ज्ञान रखें , आत्मा रखें , जीव रखें , जो यिाँ रखे जाते नाम अमुकिोंद, अमुकलाल, अमुकप्रिाद
आसदक । ये क्या इि ज्ञानमात्र आत्मति के नाम िैं? मैं ज्ञानमात्र हँ ऐिा ध्यान जाते िी बहुत िे अवगुर्ण िमाप्त िो जाते
िैं । सजनको सित की लगन िै , अपने को असवकार बनाने की बुद्धद्ध लगी िै और अभ्याि द्वारा बहुत कुछ सनर्णथ य और
िाधन सकया िै वि एक ज्ञानमात्र मैं हँ , इि अर्थ को जानकर इि शब्द को िुनकर वे अवगुर्णोों िे झट दू र िो जाते िैं ।
मैं ज्ञानमात्र ह तो इि मुझ का सफर कोई क्या िो िकता िै? यि घर इि ज्ञानमात्र का कुछ िै क्या? प्रकट सभन्न िै , दे ि
तक भी मेरा निीों िैं , सफर ये पररकर मेरे क्या िोोंगे? ज्ञानमात्र सनज ति को जानने पर यि ममता िुगमता िे मौसलक ढों ग
िे िट जाती िै सक इिके असतररक्त अन्य उपाय करने पर िटना कसठन िो जाता िै ।
४५. ममता दू र करने का उपाय—उपदे श िोता िै सक ममता दू र करो, ममता सकि तरि दू र करें , कोई उपाय तो
बताओ । अच्छा उन उपायोों में िसलये । यि सनरखते जावो सक कोई सकिी का िार्ी निीों िै कोई सकिी का कुछ िािता
निीों िै , िब स्वार्थ के गजी िैं , िब अपने भाग्य िे उत्पन्न िोते िैं , अपने िी भाग्य िे िले जायेंगे, ऐिी िारी बातें भी िमझ

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लें, लेसकन मोि की जड िमाप्त निीों हुई िै , वि तो एक ऊपरी िी ज्ञानप्रकाश िै और क्षर्ण भर को िन्तोर् करा दे ने वाला
ज्ञान िै । जिाँ मोि मूल िे नि िो और िमारी तृद्धप्त िन्तोर् के सलए द्धसर्र रि िके ऐिा कोई उपाय िै तो वि प्रकाश िै
। िबिे सनराला मैं ज्ञानमात्र हँ , ऐिा बोलते हुए भी यसद तृद्धप्त िन्तोर् निीों िो पा रिा, ऐिा िुनते हुये भी यसद कोई तृद्धप्त
निीों िो रिी िै तो िमझना िासिए सक इिका प्रयोगात्मक ज्ञान निीों कर रिा हँ , सकन्तु अब भी सकिी परति का राग
लगा िै , पर िे परभाव िे राग हुये सबना आकुलता निीों िोती । यसद िच्‍िाई िे एक तान िोकर लगन के िार् अपने
अन्तज्ञाथ न उपयोग को प्रवेश कराते हुए अपने आपके इि स्वरूप को तक लें, यि हँ मैं ज्ञानमात्र—ऐिा तकते िी विाँ
भार निीों रिता । किाँ बोझ? आकाश में बोझ किाँ , वि तो अमूतथ िै , ऐिे िी आत्मा में बोझ किाँ ? वि तो अमूतथ िै ,
ज्ञानभावमात्र िै , सजिमें ऐिा िोिने में िी सनभाथ रता, ऐिा लखने में िी सनभाथ रता, और शाद्धन्त उत्पन्न िोती िै । कभी दृढ
अभ्याि के बल िे ऐिी पररर्णसत बन जायेगी, तब विाँ व्क्त सनभाथ र कृतार्थ िो जायेगा ।
४६. कृताथाता का अि: उद्यम—जीव ने अपने को कृतार्थ करने के सलए नाना उपाय सकए । जैिे मनुष्य जीवन में
जवानी में जो धनाजथन करते िैं उिमें वे यिी भाव रखते िैं ना सक िम इतने वर्थ खूब उद्यम कर लेवें तासक उिके बाद
कृतार्थ रिें । जो प्रयोजन िैं वे िब ििी िलामत समलते रिें गे । यिी तो भाव रखते िैं । जो कोई भी जो उद्यम करते िैं
उनके उद्यम का भाव िै कृतार्थ िोना, क्योोंसक शाद्धन्त कृतार्थता में िी िै । जो प्रयोजन िै वि पूरा िो िुका, बाद में कुछ
करने को न रिे , ऐिी द्धसर्सत को कृतार्थता किते िैं । कृतार्थ िोने के सलए िारे यत्‍न िैं , मगर कोई कृतार्थ न िो िका ।
िभी लोग कुछ न कुछ सवकल्पोों में, कल्पनाओों में िमाये िी रिते िैं । कृतार्थ िोने का उपाय तो यिी िै सक यि दृसि में
आ जाये सक मैं यि ज्ञानस्वभावमात्र हँ । इिको दू र करने को क्या पडा िै ? जो कुछ करने को पडा हुआ माना जा रिा
र्ा वि िब अज्ञान में भ्रम में माना जा रिा र्ा । इि मुझ ज्ञानमात्र आत्मा का बािर में िै क्या? जो कुछ माना जा रिा र्ा
तो वि अज्ञान में माना जा रिा र्ा । उिे ज्ञानस्वभावमात्र स्वति की िुध हुई िै । उि िुध में तत्काल िी अलौसकक
स्वाधीन आनन्द भी अनुभूत िो रिा िै । तब मेरी यि कृतार्थता की िी द्धसर्सत िै । यि रिा-ििा जो कुछ भी अकृतार्थपन
िै या झोंझट िै वे िब इि िी के प्रिाद िे दू र िो जाते िैं । अपने को ऐिा अनुभव करें सक मैं ज्ञानमात्र हँ । भले िी कुछ
लोग नया पुराना बन रिे शरीर को जीव मान रिे लेसकन तसनक भी बुद्धद्ध का प्रयोग करने वाले िमझ जाते िैं सक शरीर
मैं निीों हँ । शरीर िै जड पौद् गसलक सवनश्‍वर । मैं हँ िैतन्यस्वरूप अमर असवनाशीति । भले िी लोग िुख दु :ख को
कमथ के उदय को जीव रूप िे मानें, सकन्तु जो सववेिक जन िैं ऐिे ज्ञानीजनोों ने िुख दु ुःख पररर्णाम िे सनराला केवल
ज्ञानानन्द का अनुभव कर िकने वाले इि ति को स्वभाव िे िमझा िै सक उन िुख दु ुःख पररर्णामोों िे यि सनराला िै ।
कुछ लोगोों की िमझ में आता िोगा सक जीव और कमथ इन दोनोों का जो उभय मेल िै वि जीव िै । लेसकन यि तो
वस्तुस्वरूप िी निीों । दो िीजें समल कर एक बनें —यि वस्तुस्वरूप में निीों पडा िै । ८ कमों का िों योग भी जीव निीों ।
वि तो जो कुछ िै िो िै , उििे सभन्न ज्ञानमात्र सनज जीवति का ज्ञासनयोों ने पररिय पाया िै । अरे और कुछ निीों करते
तो पर को पर जानकर उििे उपेक्षा करके सवश्राम िे िी अगर बैठ जाये तो इन पौद् गसलक तिोों िे सभन्न सित्स्वभावमात्र
मैं हँ यि स्वयों तेरे अनुभव में आ िकेगा । जो िैतन्यस्वरूप िै िो जीव िै और जो िैतन्‍यशून्‍य िै , िो जीव निीों िै ।
४७. उिम लक्ष्य िनाने का ध्‍यान—जीवन का उत्तम लक्ष्‍य बनाना िासिये कैिे िी बनें अपने उद्धार करने वाले
अपने िम िी बनें गे, अत: िममें आज यि बात आ जानी िासिए सक िम सवर्य कर्ाय आसद में इच्छाएों कम करके ज्ञान
की ओर झुकें । मान के लोभ में यसद आपकी अपनी िम्हाल न हुई तो बडी िासन िै । मरर्ण िमासध िसित िो जाये यि
िबका लक्ष्य िोना िासिये । जब मैं मरू ों तब मेरे में सकिी प्रकार का सवकल्प न उठे , मैं मरू ों तो सनसवथकल्प शाद्धन्तपूवथक
मरू ों —यि भाव और काम मरते वक्त भी िोना िासिये । पाण्डवोों ने क्या-क्या निीों सकया, सकन्‍तु उनके मरर्ण िमय इतने
अच्छे पररर्णाम रिे सक तीन को मोक्ष समला, दो िवाथ र्थसिद्धद्ध गये । अपना उत्तर जीवन िुधार लो पूवथ जीवन कैिे गुजरा,
पूवथ जीवन में कैिे रिे ? इनका सवकल्प भी करना लाभदायक निीों िै । आत्मा का स्वभाव मोक्ष िै , कैिा यि जीव अपना
उपयोग बनाता रिे , यिी िबिे बडा ििायक िै । आत्मा का िार् दे ने वाला स्वयों आत्मा का ज्ञान िै , अत: ऐिा मत मानो
सक रागद्वे र् िी जीव िै । सकट्टकासलमा िे जुदे िोने की तरि, रागद्वे र् कमथ, नोकमथ आसद िे जुदा आत्मा ज्ञासनयोों के
उपयोग में आता िै ।
४८. आत्‍मा के उपयोग में चैतन्य आत्मा होने पर अपनी शोभा—िब कुछ कर सलया । रागद्वे र् आसद के करने िे

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 44

कुछ निीों समल जाये गा । पररवार कुटु म्ब के बीि में रिकर भौसतक िीजोों को बढा सलया जाये, उनिे क्या िोता िै ? आत्मा
इतना िी मात्र तो िै निीों । आत्मा की शोभा तो ज्ञान और शील िे िै । ज्ञान प्राप्त करने के सलए िारोों अनुयोग िैं ।
करर्णानुयोग तो इतना अिीम िै सक उिका ज्ञान प्राप्त करते -करते सजन्‍दगी िमाप्त िो जाती िै । द्रव्‍यानु योग के ज्ञान
का तो ऊोंिा ममथ िै । इिका पररिय िोने पर तो आत्मा जै िे आठ काठ िे न्यारी कोई खाट निीों िै , उिी प्रकार आठ
कमथ िे न्यारा कोई जीव निीों िै । क्योोंसक कमथ िे सभन्न आत्मा ज्ञासनयोों की िमझ में आया िै । आठ काठ की खाट अवश्य
िोती िै , सकन्तु उि पर िोने वाला तो उििे न्यारा िै । उिी प्रकार कमों के ढे र कामाथ र्ण शरीर िे न्यारा जीव िै ऐिा
ज्ञासनयोों की िमझ िे आया िै । इि प्रकार नाना प्रकार की दृसि वाले मोिी जीव आत्मा के बारे में सववाद कर रिे िैं सक
पुदगल िे न्यारा कोई जीव निीों िै , तो किते िैं सक उन्हें शाों सत िे इि प्रकार िमझा दे ना िासिए । सवशेर् किने िे कोई
प्रयोजन निीों िै , सवशेर् िे अर्थ की सिद्धद्ध निीों िोती िै ।
४९. धवसंवादकों को शाच्छि से समझाने को अनुरोि—अभी-अभी तो प्रकरर्ण सनकला र्ा । मोिी लोग कैिी-कैिी
कल्पना कर भटक रिे र्े? अनेक बातें मोसियोों की सनकली और अन्‍त में तो कुछ मोसियोों ने यि बताया । क्या? कोई
मोिी कि रिा र्ा कमों का अनुभवन जो सक तीव्र िाता, तीव्र अिाता; मन्द िाता, मन्द अिाता के उदयरूप िोती र्ी,
विी जीव िै । आिायथ किते िैं ऐिा निीों िै । िुख दु :ख के अलावा भी कोई जीव िै , ऐिा ज्ञासनयोों ने िमझा िै । इि पर
कुछ मोसियोों ने यि किा सक जैिे दिी और बूरा समल जाने पर तीिरी अवसर्ा िोती िै , उिे श्रीखण्ड किते िैं । इिी
प्रकार जीव और कमथ का समश्रर्ण िी जीव िै ऐिा िम जानते िैं । उत्तर—कमों िे सभन्न कोई जीव िै , ऐिा ज्ञासनयोों ने
िमझा िै । भौसतक पदार्ों में जैिे िाइन्स काम करती िै । अग्द्‍सन का सनसमत्त पाया और पानी गमथ िो गया । अग्द्‍सन का
सनसमत्त िटने पर पानी ठण्डा िो जाता िै । पर ये दृसि दे ने िे सवह्वलताएों उत्पन्न िोती िैं । आत्मा की ओर दृसि दे ने िे
सनराकुलता प्राप्त िोती िै । कमथ िे सभन्न आत्मा को ज्ञासनयोों ने पसििाना िै । कोई लोग मानते सक इििे तु म्‍िें क्या समलेगा?
िुख दु ुःख समटाने का उपाय अनुभव करना, यि उद् दे श्य तो सकन्हीों अोंशोों में ठीक िै । िम मसलन िै , िोंिारी िैं , कमथ िे
ढके िैं , इिका उपाय िमझना िै अतएव िम मद्धन्दर में जाते िैं , ऐिा िमझने िे तो कल्यार्ण िै । ति सनकलता िै , सकिी
सनश्‍सित उद᳭दे श्य िे । इि प्रकार बडी शाद्धन्त िे आिायथ मिाराज ने उन मोसियोों को िमझाया । यसद िमझाने पर
कोई निीों माने तो लो ऐिा उपाय करो सक न तुम अपने को सिनदू मानो और न िम अपने को जैन िमझें , ऐिा सनष्पक्ष िो
करके आत्मध्यान में बैठ जाओ तो दे खो छ: माि में िी सिद्धी िोती िै या निीों? और यि जानोगे सक दु ुःख िे छूटने का
उपाय क्या िै ? छ: माि इि प्रकार करके दे खो तो जान जाओगे सक आत्मा क्या िै ? सजन्हें आत्मा व अनात्मा का पररिय
निीों िै ऐिे पयाथ यमुग्ध पुरुर्ोों ने सजि-सजि िीज को आत्मा मान डाला िै उनके बारे में जरा ध्यान तो दो, वे क्या िैं ? वे
िारे भाव पुद्गलद्रव् के पररर्णाम िे सनष्पन्न िैं अर्ाथ त् पु द्गलद्रव् के पररर्णाम िैं और ऐिा िी सवश्‍विाक्षी अिथ न्त दे वोों
के द्वारा प्रज्ञप्त िै , उनकी सदव्ध्वसन में भी बडे -बडे मिसर्थयोों, ज्ञासनयोों तक ने ऐिा िी जाना ।
५०. व्यथा का शोर खतम करके आत्मा में सत्य आराम पाने का अनुरोि—आिायथ मिाराज मोसियोों िे किते िैं
सक िे भाई ! जरा आराम लो, तुम बहुत र्क गए िोगे । वस्तुस्वरूप के सवरुद्ध सविारोों में र्कान आ िी जाती िै । व्र्थ
के कोलािल िे कोई लाभ निीों िै । तु म स्वयों िी अपने अन्दर स्वतन्‍त्र िोकर दे खो, उि एक आत्मा को । अपने हृदय
िरोवर में छ: माि उिे दे खो तो ििी, सफर तुम्हें आत्मा समलता िै या निीों? वि आत्मा पुद्गल िे न्यारा िै । ऐिा आत्मा
अपने अन्दर दे खने िे अवश्य प्राप्त िोगा । अनन्तानुबोंधी कर्ाय छ: माि िे ऊपर भी फलती िै यसद छ: माि सवशुद्ध
उपयोग रिे तो अनन्तानुबन्धी िमाप्त िो जाये । मान सलया सकिी की आयु ६० वर्थ की िै १ वर्थ में प्राय: ३ घण्टे रोज धमथ
ध्यान में लग जाते िैं । इि प्रकार 60 वर्थ में ७।। वर्थ तु म्हारे धमथ ध्यान में सनकले । उि िाढे िात वर्थ में बजाय प्रसतसदन
तीन घण्टे के २ घण्टा धमथध्यान कर लो और कभी सनरन्तर तुम छ: माि ऐिे व्तीत करो सक जिाँ वातावरर्ण अच्छा िो
और उद् दे श्य आत्मसिद्धद्ध का िो तो असधक लाभ िै । मोि को छोडकर छ: माि िी तो धमथध्यान करो, इिसिद्धद्ध िोती िै
या निीों, यि तुम स्वयों जान जाओगे । व्र्थ के कोलािल िे क्या फायदा सकिी भी धमथ का िो, अपने कुल धमथ का पक्ष
भी भुलाकर मानोों मान सलया सक तुम इि कुल में उत्पन्न िी निीों हुए िो ऐिा िमझ करके िवथ आग्रि छोड आत्मा में
व्वद्धसर्त रिो । सफर इतना जानो सक मैं क्या हों ? अन्य िबके ििारे छोडकर खुद िमझो सक मैं आत्मा क्या हों ? आपको
इि प्रकार एक सदन ित्य समल िी जावेगा । आत्मा स्वयों प्रभु िै । स्वयों भीतर िे सनर्णथय उठता आयेगा सक िम क्या िैं ?

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५१. सत्य का आग्रह होने पर आत्मा की समझ—मैं कौन हँ , यि मैं अपने आप िमझूोंगा, यि ित्याग्रि करके अपने
को दे खो । इि प्रकार वि आत्मा अपने आप नजर आ जायेगा । इि शैली िे जो िमझ में आयेगा विी जैन शास्‍त्रोों में
पिले िे िी वसर्णथत िै । परन्तु जैन शास्‍त्रोों में सलखा िै , इि पराधीनता को भी छोडो । सफर दे खना तुम्हें आत्मा को उपलद्धि
िोती िै या निीों? िम जैन िैं , इिसलए िम सजनमद्धन्दर में दशथन करने जाते िैं , िवथस्व िार प्राप्त कर लेता िै । सजतना भी
ज्ञान करते जाओ आनन्द िी बढता जायेगा । ज्ञान के सिवाय शाद्धन्त किीों निीों िै । रागद्वे र् िे न्यारा ज्ञानी जीव ने अपने
आत्मा का अनुभव सकया िै । ऐिा अनुभव िोने पर र्ोडी िी दृसि में पूरा का पूरा आत्मा िमा जाता िै । सजिने बम्बई
दे खी िै , उिके िामने बम्बई की बात की जाये तो उिके िामने िारे बम्बई का सित्र-िा द्धखोंि जाता िै । िमने इि आत्मा
के असतररक्त बहुत िे आनन्द सलए, परन्तु एक बार िब कुछ भूलकर केवल आत्मीय ति का अनुभव करो तो जीवन
का उद्धार िो जाए । यसद लक्ष्य निीों बनाया तो जैिे नाव पर तैर रिे िो, कभी इि तरफ आओगे, कभी उधर जाओगे,
लक्ष्य बन जाने पर पहुों ि िी जाओगे । अपना लक्ष्य बन जाये , यिी िबिे बडी िीज िै । आत्मा का काम िब सवकल्पोों
को दू र करके अपने को सनसवथकल्प द्धसर्सत में अनु भव करना िै ऐिे आत्मा के अनुभव िे शाश्‍वत िुख की प्राद्धप्त िो जाती
िै । यि भी मत िोिो सक िम सनसवथ कल्प िमासध में आ गए, कोई भी सवकल्प निीों आना िासिए । मन विन काय तो
जीव के सन समत्त िे पै दा हुए िैं , धन तो जीव का कुछ िै िी निीों । िमें मरना िै , यिाँ तो ठीक िै , परन्तु इिके सलए यि
करना, इिके सलए यि करना—ये िब व्र्थ के झोंझट िैं । अत: अपना यि लक्ष्य बने सक िमें अपने को ज्ञानमय अनुभव
करना िै । इिके सलए एक दो घण्टा प्रसत सदन अध्ययन मनन करो तो लाभ िोगा । अपने भीतरी भाव उठने में जो िमय
लगाओ, वि बहुत लाभदायक िै । िमय ऐिा िोना िासिए सक कुछ मुमुक्षु समलकर आत्मा के सवर्य में ििाथ करें । धमथ
की ओर सदलिस्पी िै तो आत्मा का उद्धार िो िी जाये गा अन्यर्ा मोसियोों की गोष्ठी में आकुलता का उपिार समलता रिे गा

५२. धवकारों की पु द्गलपररणाममयता—पररर्णाममय के दो अर्थ िोते िै —(१) पररर्णामस्वरूप फलस्वरूप, (२)
परर र्णमनरूप । जैिे शुभ भाव अशुभभाव, िुखानुभाव, दु ुःखानुभाव राग, द्वे र्, मोि आसद भाव ये िब पु द्गलद्रव् के
पररर्णामस्वरूप िैं अर्ाथ त् पुद्गल कमथ के उदय का सनसमत्त समला तो उिका पररर्णाम जीव में यिी सनकला सक जीव में वे
सवभाव व्क्त हुए । इि प्रकार पररर्णाममय का अर्थ नैसमसत्तक भाव िैं , यि सनकला । पररर्णमनरूप का अर्थ तो प्रकट
िी िै सक शरीर, कमथ आसद पुद्गल के िी पररर्णमन िैं । सफर तो अध्यविानासदक िमस्त भाव िैतन्यशून्य पुद्गलद्रव्
िे सवलक्षर्ण िैतन्यस्वभावमय जीव द्रव् रूप िोने का उत्साि भी निीों करते अर्ाथ त् उनमें जीवत्व की िोंभावना की तो
बात भी निीों िल िकती । अरे यि बतों गडा मोसियोों ने कैिा बना सदया? दे खो तो मोसियोों का ऊधम, भगवान िे भी
बढकर जानकार बनना िािते िैं । भगवान के तो कल्पना भी निीों उठती, ज्ञान में भी निीों िै सक ये परद्रव् जीव िैं ।
भगवान तो िमस्त सवश्‍व के िाक्षी िैं , ज्ञाता द्रिा िैं , सजिका जो स्वरूप िै उिी रूप िे उिके ज्ञाता िै । सकन्तु इि मोिी
को बहुत-िी सवकलायें याद िैं ।
५३. व्यथा कोलाहल का पररहार करके अिस्तत्त् के दशान के धलये आत्मधवश्राम की सलाह—िे आत्मन् ! व्र्थ
का कोलािल छोड दो, व्र्थ की कलकल करना छोड दो । कल मायने शरीर िै , जो शरीर शरीर िी वराथ ना िै विी तो
कलकल करना िै । आप स्वयों ज्ञानमय िैं तो आप क्या अपने को निीों जान िकोगे? अपना जानना तो असत िरल िै ,
सकन्तु आत्मा को जानने के सलए तैयार िो जीव तभी तो िरल िै । जो आत्मा को जानने के सलए तैयार िोता िै वि पर में
उपयोग लगाने का रों ि भी उत्साि निीों रखता । पर की रुसि िटे तो आत्मा के ज्ञान में सफर दे र क्या िै ? यि आत्मा तो
िनातन ज्ञानस्वभाव िी िै । अिो! सजिके ज्ञानोपयोग की ज्ञानस्वभाव में एकता िो जाती िै वि आत्मा धन्य िै । ऐिी
द्धसर्सत पाने सलए वस्तुस्वरूप का यर्ार्थ दशथन करो । मोि के रों ग सववेकज्योसत के आगे सटक िकते निीों िैं । मोिी अज्ञानी
राग-द्वे र्, शरीर व कमों को िी जीव मान रिा र्ा परन्तु पुद्गल कमथ के पररर्णमन और पुद्गल कमथ के सनसमत्त िोने वाला
वि िब जीव निीों िै । मोटे रूप िे दे िाती भी जानते िैं सक वेदना िोने पर सजिे तुम पुकारते िो, वि परमात्मा िै और
सजिमें वेदना िो रिी िै , वि आत्मा िै । ये मोिी जीव इि आत्मा के सवर्य में कई प्रकार िे सववाद कर रिे र्े । कोई
रागासद भावोों को आत्मा किता र्ा, कोई किता इन आठ कमों िे सभन्न कोई जीव निीों िै , कोई मानता सक पौद् गसलक
शरीर िी जीव िै । ऐिे नाना प्रकार की मान्यता वाले इि मोिी जीव को, जो पुद्गल िे न्यारा जीव निीों मानता उिे शाद्धन्त

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िे इि प्रकार िमझा दे ना िासिए । िे आत्मन् ! सजन्हें तू आत्मा मानता, वे या तो पुद्गल के सवकार िैं , या पु द्गल के
सनसमत्त िे पैदा हुए िैं । अब आिायथ मोसियोों के प्रसत किते िैं सक व्र्थ में सिल्‍लाने िे क्या फायदा? तुम अपने आपमें
स्वतन्‍त्र िोकर उि आत्मा को एक बार दे खो तो ििी । अपने िी अन्दर छ: माि तो दे खो, जीव समलता िै या निीों ? प्रत्येक
आत्मा सजि वातावरर्ण में पैदा हुआ िै उिी को जीव मान लेता िै । यसद यि आत्मा एक बार भी अपना भरोिा करके
िािे सकिी भी धमथ को न मानकर अर्ाथ त् धमों को भु लाकर सक मैं जैन हँ , बौद्ध ह —इिे भुलाकर इि आत्मा का ध्यान
करे , स्वयों िमझे सक मैं क्या हँ , तो वास्तसवक तथ्‍य की प्राद्धप्त िो िकती िै । मजिबोों को भु लाकर िब सवकल्पोों को
छोडकर सफर बुद्धद्ध िे सनर्णथ य करे । विाँ िब सवकल्प शान्त िोते और सनसवथ कल्प पररर्णमन िोता िै । यिी िम्यग्दशथन
का कारर्ण िै । िम अमुक धमथ में पैदा हुए अतुः िमें यिी धमथ िलाना िै यिी ठीक िै , अन्य िब समथ्या िै —ऐिी मान्‍यता
िे वास्तसवक ित्य की अनुवृसत्त निीों िो िकती ।
५४. धनज आत्मतत्त् को समझे धिना िमालाभ का अभाव—िमस्त धमथ को गौर्ण करके, मैं क्या िीज हँ , इिका
एक बार अपने आपमें सनर्णथ य कर लेना िासिए | ऐिी दृढ प्रतीसत बनाओ सक मैं स्वयमेव अनुभव करू ों गा सक मैं कौन हँ ।
िम कैिे जानें सक परम्परा का िलाया हुआ धमथ ित्य िै अर्वा निीों िै । िब सवकल्पोों को दू र करो । सवकल्पोों को छोडकर
िब पक्षोों को भुलाकर स्वतन्‍त्र रूप िे यि सनर्णथय करो सक क्या िम अपने को अपने आपमें निीों जान िकते? जान िकते
िैं अवश्य, परन्तु उिके जानने का उपाय यि िै सक अपने में यि लगन लगा लो सक मैं आत्मा क्या हों ? इि अपने आत्मा
को िमझे सबना धमथ िो िी निीों िकता । अत: धमथ िेवन की इच्छा करने वाला जीव िब मजिबोों को भुलाकर अपने
आत्मा को एक बार जाने । आत्मा के जानने के पश्‍िात् अपने आप स्पि िो जाये गा सक मैं आत्मा क्या हँ ?
५५. आत्मलक्षण का धदग्दशान—जरा ठिरो, सवराम लो । िे मोसियोों! सजि-सजि िीज को तुम आत्मा मानते आये
िो, उन भ्रमोों को छोडो । सजन-सजन िीजोों में तुम आत्मा का भ्रम करते िो, सववाद करते िो, उनमें आत्मा का लक्षर्ण निीों
िै । लक्षर्ण वि िोता िै जो अनासद िे लेकर अनन्तकाल तक िार् बना रिे । परन्तु आत्मा में िदा राग निीों बना रिता िै
। राग क्षीर्णकर्ायोों में निीों पाया जाता िै , अत: राग आत्मा का लक्षर्ण निीों िो िकता िै । सिद्ध आत्मा में राग सबल्कुल भी
निीों पाया जाता । िाँ , यसद िभी आत्माओों में राग पाया जाता तो राग को िम आत्मा का लक्षर्ण मान िकते िैं । परन्‍तु
राग प्रारम्भ िे अन्त तक जीव के िार् निीों रिता िै अत: राग आत्मा का लक्षर्ण कैिे िो िकता िै ? जो िीज पर के
सनसमत्त िे िोती िै और घटती बढती रिे , उिका िवथर्ा किीों न किीों नाश अवश्य िो जाता िै । राग सकिी जीव में असधक
दे खा जा िकता िै —सकिी जीव में उििे कम पाया जाता िै , सकिी जीव में उििे भी कम राग की मात्रा िोती िै तो सफर
राग िदा बना रिे , वि भी निीों िो िकता िै । राग परवस्तु को सनसमत्त पा करके िोता िै , और घटता बढता रिता िै
अतएव राग मूलत: नि भी िो जाता िै । अत: कोई आत्‍मा ऐिा अवश्य िै , सजिमें राग का लेश भी निीों िै । राग सकिी
न सकिी तरि नि िो जाता िै , अत: राग आत्मा का लक्षर्ण निीों िो िकता िै । शरीर भी जीव का लक्षर्ण निीों िै , क्योोंसक
शरीर को िम लोग नि िोता दे खते िैं । अपना शरीर भी सकिी न सकिी सदन नि िो जाये गा, सफर शरीर आत्मा का
लक्षर्ण कैिे िो िकता िै ? अमूतथपना भी जीव का लक्षर्ण निीों िै । अमूतथ किते िैं , सजिमें रूप, रि, गोंध, स्पशथ न पाया
जाये । अमूतथ तो धमथ, अधमथ , आकाश और काल द्रव् भी िैं । यसद अमूतथपना जीव का लक्षर्ण िोता तो धमाथ सद भी जीव
किलाने लग जायेंगे । यद्यसप जीव में रूप निीों िै , रि निीों िै , स्पशथ निीों िै , गन्ध निीों िै , शब्द निीों िै तो भी अमूतथपना
िोने िे जीव का लक्षर्ण निीों िो िकता िै । क्योोंसक अमूतथत्व लक्षर्ण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनोों में पाया जाता िै । अत: उिमें
असतव्ाद्धप्त दोर् का प्रिों ग आता िै । इि प्रकार राग, मोि, शरीर व अमूतथि जीव का लक्षर्ण निीों िै । जीव का लक्षर्ण
िै ज्ञान, िेतना । िेतना के सबना कोई भी जीव निीों पाया जाता । िेतना को जीव को लक्षर्ण मानना िासिए ।
प्रश्‍न—रागासदक भाव आत्मा में िी िोते िैं , सफर उि राग को पुद्गल का स्वभाव क्योों किते िो ? रागासदक भाव भी
आत्मा के स्वभाव माने जाने िासिए । उत्तर—
गाथा 45
अट्ठधवहं धप य कम्मं सव्‍वं पुग्गलमयं धजणा धवंधत ।
जस्स फलं तं वुच्‍चइ दु क्खं धत धवपच्‍चमाणस्स ।।४५।।
५६. कमा की पुद्गलमयता—आठोों िी प्रकार का जो कमथ िै वि िब पुद्गलमय िै ऐिा सजनेिदे व जानते िैं । उि
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 45

सवपच्चमान पुद्गलकमथ का जो फल िै वि दु ुःख िी िै ऐिा आगम में किा गया िै । आठ प्रकार का जो कमथ िै , वि
पुद्गलमय िै । यद्यसप कमथ सदखाई निीों दे ता िै , परन्तु आत्मा में जो खरासबयाँ उत्पन्न िोती िैं वे आत्मा में उत्पन्न हुई िैं ,
यि अवश्य िमझ में आता िै । जब रागासदक भाव िोते िैं वे अनुभव में आते िैं । अत: स्पि िै सक कोई परपदार्थ आत्मा
में रागासद उत्पन्न करने में सनसमत्त कारर्ण स्वरूप िै । सजिके िम्बन्ध िे राग िोता िै वि सनसमत्त आत्मा के स्वभाव िे
उल्टा िोना िासिए । जैिा िैतन्य स्वरूप मैं हँ , वैिा िैतन्य स्वरूप पदार्थ राग उत्पन्न िोने का कारर्ण निीों िो िकता िै
। कमथ पौद् गसलक िै , अिेतन िै , अत: वि राग के उत्पन्न िोने में सनसमत्त कारर्ण िै ।
५७. दु ुःख की कमाफलरूपता—दु ुःख कमथ का फल िै , अत: दु ुःख कमथ का असवनाभावी िै , दु ुःख आत्मा का स्वभाव
निीों िै । जैिे सकिी का लडका जुआरी िै , उिकी माँ किती िै सक यि तो अमुक लडके की आदत लग गई याने अमुक
के लडके ने िमारे लडके को यि आदत सिखा दी िै । इिका भाव यि िै सक पर के लडके को सनसमत्त पाकर यि लडका
जुआरी बना िै । उिी प्रकार आत्मा में जो दु ुःख उत्पन्न हुआ िै , वि कमथ का फल िै । कमथ का बोंध न िो तो फल अच्छा
समलेगा । अब इि मनुष्यभव को पाकर अपने जीवन को िुधारने का मौका समला िै अत: आत्‍मा को दु ुःख िे सनवृत्त करने
का उपाय करना िासिए । व्र्थ के कर्ाय भावोों में, अिङ्कार ममकारोों में िमय निीों सबताना िासिए । तेरे में ऐिी कौनिी
िीज िै —सजिका तू घमण्ड करता िै ? कमथ के उदय में आने पर कमथ का जो फल समलता िै , वि दु ुःख िी िै । आत्मा में
पररर्णसत िोती िै , परन्तु आत्मा का स्वभाव निीों िै । रागासद पुद्गल के सनसमत्त के कारर्ण िोते िैं । कमथ के उदय िे उत्पन्न
इन रागासदक को उत्पन्न करने वाला सनसमत्त पुद्गल िी िै । पौद् गसलक शब्द के दो अर्थ िैं :—१-जो पुद्गल के सनसमत्त िे
हुआ िो, और २-पुद᳭गल की िी पररर्णसत िो । रागासद िैतन्य के पररर्णमन िै , परन्तु कमथ के सनसमत्त िे राग, द्वे र्, मोि
उत्पन्न िोते िैं । रागासद को न पुद्गल के िी कि िकते और न आत्मा के । रागासद कमथ का सनसमत्त पाकर आत्मा की
सवभाव पयाथ य मानी जाती िै । रागासद सनसमत्त रूप िे पौद् गसलक िैं , उपादान रूप में निीों िैं । आकुलता नाम दु ुःख का
िै । जीव के दु ुःखासदक में पुद्गल द्रव् सनसमत्त पडता िै । जैिे दपथर्ण िै । दपथर्ण लाल िीज का सनसमत्त पाकर लाल िो
गया । तो दपथर्ण की लासलमा दपथर्ण के सनसमत्त िे तो निीों बन गई । यसद रागासदक का सनसमत्त आत्मा िै तो रागासद आत्मा
िे कभी निीों छूटने िासिएों । परन्तु दे खा जाता िै सक रागासद का आत्मा िे िवथर्ा अभाव िो जाता िै । अत: रागासद कमथ
के सनसमत्त िे िी िैं । रागासद पुद्गल कमथ के सनसमत्त िे आत्मा के स्वभाव के सवकार का नाम िैं । रागासद आत्मा में िोते
िैं , यि कि िै , आत्मा की सवपसत्त िै । रागासद को नि करके िोंिार िे छूट िकते िैं । अपना ध्यान, अपनी सिन्ता सवशेर्
रिे । िैतन्य में रागासद िोते िैं , सफर भी रागासद को िैतन्य का स्वभाव न मानो, सकन्तु पुद्गल का स्वभाव मानो ।
५८. अज्ञाधनयों का पु द्गलधवपाक से लगाव—शोंकाकार ने जो कई प्रकार के आशय बताये िैं पर को आत्मा मानने
के वे िबके िब पौद् गसलक िैं । उनमें िे कुछ तो िैं पुद्गल के सनसमत्त िे उत्पन्न िोने वाले और कुछ स्वयों पुद᳭गल
उपादान वाले, िो जो पुद᳭गल उपादान वाले िैं वे तो प्रकट सभन्न िी िैं और जो पु द᳭गल के सनसमत्त िे उत्पन्न हुए िैं
अर्ाथ त् पुद्गल के उदय का फल िै वि भी दु ुःखरूप िै , और पुद्गल के सनसमत्त िे जायमान िोने के कारर्ण पौद् गसलक
िैं । आठोों प्रकार के िारे िी कमथ पुद्गलमय बताये गए िैं सजनका सक उदय काल आता िै तो उि िमय दु ुःखरूप फल
हुआ करते िैं । राग, द्वे र्, मोि आसदक उत्पन्न करने वाले िैं ये ८ प्रकार के कमथ । वे िब पुद्गलमय िैं । उनका
सवपाककाल जब आता िै तो फल समलता क्या िै ? दु ुःख, जो सक आत्मा के स्वभाव िे सबल्कुल सवपरीत िै । आत्मा का
स्वभाव तो िै अनन्तिु ख, परमशाद्धन्त, उििे सवलक्षर्ण िै यि दु ुःख । तो सजतने भी ये भाव िैं वे िब आकुलतामय िैं , इि
कारर्ण यद्यसप वि आत्मा में िम्बन्ध िै और अन्वयरूप िे आत्मा में रिते िैं , आत्मा के पररर्णमन िैं , सफर भी वे
आत्मस्वभाव निीों िैं सकन्तु पुद्गल स्वभाव िैं । यिाँ अब शोंकाकार यि पूछता िै सक यसद अध्यविान आसदक भाव
पुद्गल स्वभाव िैं तो उन्हें जीवरूप िे सफर क्योों किा गया अनेक खण्डोों में । िार गसतयाँ िोती िैं आसदक वर्णथन जीवोों
के बारे में सफर शास्‍त्रोों में क्योों किा गया िै ? उिका उत्तर दे ते िैं ।
५९. दे ह दे वालय में धनज सनातन दे व का दशान—आत्मा के िम्बन्ध में मोिी जीव की नाना प्रकार की कल्पनाएों
हुई । सकन्हीों ने राग की िन्तान को आत्मा किा, सकिी ने िुख दु :ख को आत्मा जाना, सकिी ने शुभ-अशुभ भाव में जीव
की कल्पना की, कोई अज्ञानी शरीर को िी आत्मा मान बैठा, सकन्हीों ने कमथ को आत्मा की िोंज्ञा दी, कोई जीव और कमथ
के समश्रर्ण को आत्मा मानता िै , परन्तु ये िब पदार्थ आत्माएों निीों िैं । आत्मा का वि लक्षर्ण िै , जो आत्मा में त्रैकासलक

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सनसवथकल्प पाया जाता िै , वि िै िैतन्य । िैतन्य स्वभाव आत्मा िै , ऐिा ज्ञासनयोों ने अनुभव सकया । उि िैतन्य स्वभाव
आत्मा को किाों खोजा जाये, यि योगीिोों ने किा सक यद्यसप वि आत्मा दे ि में बि रिा िै , परन्तु दे ि को छूता तक निीों
िै । दे ि अपना दे वालय िै , सजिमें वि कारर्णपरमात्मा अभी सनवाि करता िै । यि दे ि दे वालय िै , क्योोंसक इिमें वि
दे व बिता िै सजिे स्‍वभावदृसि िे दे खा जाये तो विी परमात्मा नजर आता िै । स्‍वभावदृसि िे दे खा गया वि सित्‍स्‍वभाव
आत्मा कारर्णपरमात्मा िै । वि कारर्णपरमात्मा दे ि में बिता हुआ भी दे ि को न छूता िै और न वि दे ि िे अलग िै याने
दे ि िे जुदे बािर के आकाश में । जो िमताभाव में द्धसर्त िैं , ऐिे योसगयोों को परमात्मा सदखाई पडता िै । परमात्मा के
अवलोकन का बाधक अिङ्कार और ममकार िै । अिङ्कार और ममकार का अभाव िो तो परमात्‍मति अनुभव में आता
िै । एक गाँ व में एक नकटा रिता र्ा, उिे लोग नकटा िी किते र्े । एक सदन उि नकटे ने किा सक इि नाक की नोक
के ओट में परमात्मा निीों सदखाई दे ता िै , जब इि नोक को काट सदया जाता िै , तो िाक्षात् परमात्मा के दशथन िो जाते िैं
। जो उिको सिढा रिा र्ा, उिने किा यसद ऐिी बात िै तो मेरी भी नाक की नोक काट दो । नकटे ने दू िरे आदमी को
भी छु री लेकर नकटा कर डाला । सफर पूछा सक अब तुझे परमात्मा सदखाई दे ता िै ? उि नये नकटे ने किा सक निीों ।
सफर पूवथ नकटे ने उिे उल्टी पट्टी पढाई सक अरे , तू तो नकटा िोने के िार् पागल भी िो गया िै और किा सक अब यसद
तेरे िे कोई नकटा किे तो तू उिे िमझा सदया कर सक इि नाक की नोक की ओट में परमात्मा सदखाई दे ने में बाधा
पडती िै । इि प्रकार लोग नये नकटे को नकटा किने लगे । जो उिे नकटा किते उििे वि कि दे ता—भैय्या, इि
नाक की नोक की ओट में परमात्मा सदखाई पडने में बाधा पडती िै , परमात्मा सदख जाने की तृष्णा िे लोग नाकें कटाने
लगे । इि प्रकार उि नगर में िभी नकटे िो गये । एक सदन राजगृि में मीसटों ग िोनी र्ी, िभी लोग पहुों िे । िबको नकटे
(नाक कटे ) दे खकर राजा को अपनी नाक की िोोंि बहुत भद्दी मालूम पडने लगी । उिने पूछा सक भाइयोों, आप लोगोों
की नाकें तो बहुत िुन्दर िैं , मेरी नाक की िोोंि बहुत भद्दी मालूम पडती िै । िब लोग बोले सक राजन् इि नाक की नोक
के िटने पर परमात्मा के दशथन िोते िैं , तो राजा ने किा सफर तो मेरी भी नाक काट दो । मूल नकटा (जो िबिे पिले
नकटा र्ा) बोला सक राजन् मैं आपिे एकान्त में कुछ पू छना िािता हँ । एकान्त में किा, आप इन झूठोों के फेर में मत
पडो, ये िब झूठ बोलते िैं , मैं भी झूठ बोलता हँ । उिने िारी वास्तसव क बात राजा िे कि दी । अब इिका ममथ दे खो
नाक माने वास्तव में मान िै । अर्ाथ त् नाक के (मान के) कटे जाने पर, नि िोने पर परमात्मा के दशथन िो जाते िैं ।
परमात्मा के दशथन में बाधक अिों वृसत्त िी िै । मैं सवद्वान् हँ , मैं श्रीमान हँ मैं त्यागी हँ , मैं मुसन हँ , इि तरि की आत्मबुद्धद्ध
को मान किते िैं । दे ि को अलग माने सबना आत्मबुद्धद्ध कर िी निीों िकते । शरीर िी आत्मा िै , ऐिा सजिके सदमाग में
जम जाये, विी शरीर को धनी, पद्धण्डत किा करता िै । पर सजिमें यि आत्म-बुद्धद्ध खतम िो जाये और िमताभाव जगे
तो िाक्षात् परमात्मा के दशथ न िो जाते िैं ।

६०. परमपाररणाधमक धनज कारणसमयसार की उपासना—परमात्मा दो प्रकार िे िैं —(१) कारर्णपरमात्मा और


(२) कायथ परमात्‍मा अरिन्त-सिद्ध िैं । कायथपरमात्मा सकि बात सवशेर् के िोने िे बन गये ? अरिन्‍त सिद्ध में कोई नई बातें
आ करके जम निीों गई । उनके िैतन्यस्वभाव का सवकाि िो गया िै । वि िैतन्यस्वभाव सजिका पूर्णथत: सव काि
कायथपरमात्मा किलाता िै , कारर्णपरमात्मा किलाता िै । िैतन्यस्वभाव िी कारर्णपरमात्‍मा िै । िैतन्यस्वभाव सजिके न
िो, ऐिा कोई जीव निीों िै । िमस्त जीव कारर्णपरमात्‍मा िैं । कोई भी जीव ऐिा निीों िै , जो कारर्णपरमात्मा न िो । वि
िैतन्यस्वभाव सजिे कारर्णपरमात्मा किते िैं , वि िब आत्माओों में िै । वि स्वभाव िब जीवोों में िै , परन्तु अर्थ अने कोों के
प्रच्छन्न िै , अत्यन्त प्रच्छन्न निीों िै , सफर भी बहुत कुछ अोंशोों में प्रच्छन्न िै । जो िैतन्यस्वभाव र्ोडा प्रकट िोते -िोते जब
पूर्णथ प्रकट िो जाये विी कायथपरमात्मा िै । कारर्णपरमात्मा सवशुद्ध पररर्णसत का नाम निीों िै , पर सवशुद्ध पररर्णसत का
नाम कायथपरमात्मा िै , उिका जो उपादान स्वभाव िै वि कारर्णपरमात्मा िै । स्वभावदृसि िे प्रत्ये क जीव कारर्णपरमात्मा
िै , अभव् भी कारर्णपरमात्मा िै । अभव् के केवलज्ञानावरर्ण िोता िै । यसद अभव्‍य के केवलज्ञान की योग्यता न िो तो
केवलज्ञानावरर्ण निीों िो िकता िै । अभव्‍य माने सजिके केवलज्ञान न िो िके । कारर्णपरमात्मा सनश्‍िल िै , अभेद्य िै ।
कारर्णपरमात्मा, कारर्णिमयिार, पाररर्णासमक भाव, जीवत्व—ये िब कारर्णपरमात्मा के पयाथ यवािी शब्‍द िैं ।
कारर्णपरमात्मा उि स्वभाव को किते िैं सक सजिके अवलम्बन िे कायथपरमात्मा बनते िैं । पूर्णथ कायथपरमात्मा अरिन्त,
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सिद्ध िैं । कायथपरमात्मा सजि स्वभाव के अवलम्‍बन िे बनते िै ? वि िै कारर्णपरमात्मा ।


६१. कारणपरमात्मा के प्रसंग में पाररणाधमक भाव का धववरण—द्रव्दृसि िे भव् और अभव् दोनोों िमान िैं ।
शुद्धता की दृसि िे उनके भेद कर सलए गये िैं । अनन्त गुर्णोों की अपेक्षा िे िभी जीव िमान िैं । द्रव्ोों की जासत बनाने
की यि पद्धसत िै सक तुम ऐिी बात बनाओ सक जो बात िबमें िमान रूप िे घट िके । जीव द्रव् की दृसि िे भव्-
अभव् िभी िमान िै । अनन्त गुर्ण भव् में िैं और वैिे िी अनन्त गुर्ण अभव् में भी िैं । गुर्ण सवकाि को प्राप्त िो, तब
भी उिका नाम गुर्ण िी िै और गुर्ण सवकाि को न प्राप्त िो, तब भी उिको गुर्ण िी किते िैं । यसद सकिी द्रव् में एक
भी गुर्ण कम या असधक िोता तो भी िात द्रव् माने जाते । पाररर्णासमक भाव ४ िैं —१ शुद्ध जीवत्व, २ दश प्रार्णरूप जीव,
३ भव्‍यत्‍व, ४ अभव्त्व । इनमें िे शुद्ध जीवत्व परमपाररर्णासमक भाव िै और शेर् के ३ अशुद्ध पाररर्णासमकभाव िैं । शुद्ध
पाररर्णासमक भाव कारर्णपरमात्मा िै । कारर्णपरमात्मा िैतन्यस्वभाव को किते िैं । कायथपरमात्मा बनने की योग्यता िो
या न िो, िभी जीव कारर्णपरमात्मा िैं । कारर्णपरमात्मति के आधार पर कायथ परमात्मति प्रकट िोता िै जिाँ सफर
प्रसतिमय केवलज्ञान का सवशुद्ध पररर्णमन िोता रिता िै । अत: सजिका आधार पाकर ज्ञानमय पररर्णसत िोती िै उिे
कारर्णपरमात्मा किते िैं । यि दे ि दे वालय िै । परपदार्थ के अवलम्बन िे धमथभाव उत्पन्न निीों िोता िै । परपदार्थ के
आश्रय िे या तो पुण्य भाव िोता िै , या पाप भाव िोता िै । धमथ भाव तो स्व की दृसि बनाने िे िोता िै । कायथपरमात्मा
अरिन्त भगवान् की भद्धक्त करते यसद सनज स्वभाव का अवलम्बन िो जाये तो धमथभाव िोता िै । यसद सनज सित्स्वभाव
का अवलम्बन न िो तो भगवान् की भद्धक्त िे पुण्य भाव प्रकट िोता िै । कोई गरीब, रोगी या अििाय धमथ निीों कर
िकता, यि बात निीों िै ।
६२. कारणपरमात्मतत्त् के आश्रय में िमाधवकास—वास्तव में िैतन्यस्वभाव के अवलम्बन को धमथ किते िैं ।
कारर्णपरमात्मा िैतन्यस्वभाव के अवलम्बन का नाम निीों िै , सकन्तु िैतन्यस्वभाव का नाम िै । िैतन्यस्वभाव का
अवलम्बन पयाथ य िै । जैिे यि अोंगुली िै । िीधी, गोल, टे ढी आसद अवसर्ाओों िे युक्त यि अोंगुली िै । परन्तु िभी
अवसर्ाओों में रिने वाली अों गुली एक िै । वि एक अोंगुली अोंगुली िामान्य किलाती िै । अोंगुली िामान्य आ खोों िे नजर
निीों आती िै । िब टे ढी, िीधी, गोल आसद िब अवसर्ाओों में रिने वाली कोई एक अोंगुली िामान्य िै । इिी तरि आत्मा
भी नाना पयाथ योों को करने वाला कारर्णपरमात्मा िै । वि एक, जो िभी पयाथ योोंरूप पररर्णत हुआ, उि एक आत्मद्रव्
को स्वभाव दृसि बनाये तो जान िकते िैं । स्वभावदृसि िे दे खा गया आत्मा कारर्णपरमात्मा िै । उि कारर्णपरमात्मा के
अवलम्बन िे धमथ िोता िै । स्वभाव िै कारर्णपरमात्मा, उिकी दृसि िो तो मोक्षमागथ िलता िै , और धमथ बनता िै । यि
सनयम निीों सक कारर्णपरमात्मा कायथपरमात्मा बन कर िी रिे । अन्तरात्मा, बसिरात्मा और परमात्मा का नाम
कारर्णपरमात्मा निीों िै , सकन्तु कारर्णपरमात्मा की ये तीन (अन्तरात्मा, बसिरात्मा और परमात्मा) पयाथ य िैं । पाररर्णासमक
भाव का नाम कारर्णपरमात्मा िै । कारर्णपरमात्मा की दृसि िोवे तो कायथपरमात्मा बन िकते िैं । वि कारर्णपरमात्मा
प्रत्येक जीव में मौजूद िै । जो उिको जान ले या अनुभव कर ले वि कायथपरमात्मा बन िकता िै । उि स्वभाव की दृसि
िे धमथ प्रकट िोता िै । वि कारर्णपरमात्मा िबमें बि रिा िै । जैिे दू ध में घी िवथत्र प्रत्येक अोंश में व्ाप्त िै । दू ध में घी
कारर्ण-घी िै । दू ध किो और उिे कारर्ण-घी भी कि िकतें िो । कारर्णपरमात्मा के दशथन िोने पर समथ्यात्व खतम िो
जाता िै ।
६३. पदाथों का स्वतन्‍त्र-स्‍वतन्‍त्र अच्छस्तत्‍व—प्रत्‍येक द्रव् अपने प्रदे श में, अपने गुर्ण में और अपनी-अपनी पयाथ य में
द्धसर्त िै , यि द्रव् का स्वभाव िै । प्रत्येक जीव अखण्ड ित् िै । प्रत्येक पुद्गल द्रव् अखण्ड िै । अखण्डत्व द्रव् का
लक्षर्ण िै । सजिका खण्ड िोवे, उिे पयाथ य किते िैं । प्रत्येक द्रव् अपना-अपना प्रदे श, गुर्ण पयाथ य रखता िै । पुद्गल
का एक-एक परमार्णु अखण्ड िै । जीवद्रव् भी अखण्ड िै । धमथ -अधमथद्रव् तर्ा आकाश, काल द्रव् अखण्ड िैं ।
अनन्तानन्त परमार्णुओों की समलकर एक पयाथ य बनी िै उिे िमानजातीय द्रव्पयाथ य किते िैं । जीव और शरीर समल
कर एक बने, उिे अिमानजातीय द्रव् पयाथ य किते िैं । सजन्हें अपने व्विार में जीव किते िैं , वे िब अिमान-जातीय
द्रव् पयाथ य िैं । जो अखण्ड िै वि द्रव् िै । प्रत्येक द्रव् अपने गुर्णोों में, अपने -अपने प्रदे श और अपनी-अपनी पयाथ योों में
बिता िै । ये परमार्णु भले िी समले िोों, परन्तु एक परमार्णु दू िरे परमार्णु के प्रदे श, गुर्ण, पयाथ य में निीों जाता िै । यि द्रव्
इतना िी अखण्ड िै , इििे बािर निीों िै , ऐिी प्रतीसत द्रव् के सवर्य में जाये तो मोि बली जल जायेगा । सम्बन्ध दृधष्ट

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से पदाथों को धनरखना यह सि धमथ्यात्व है । पदाथों को धभन्न-धभन्न दे खे, उसे सम्यक्‍त्‍व का धचह्न कहते हैं ।
योसगयोों को परमात्मा मिान् आनन्द को उत्पन्न करता हुआ दृि िोता िै ।
६४. आनन्द की आत्माश्रयता—दु ुःख िुख के सलये जीव को श्रम निीों करना पडता । परन्तु मोिी जीव दु ुःख-िुख में
श्रम न िमझकर आनन्द में अत्यन्त श्रम िमझता िै । इि आत्मा में सवकल्प न िोने िे िमताभाव जागृत िोता िै ।
िमताभाव के जगने िे परमानन्द प्रकट िोता िै । िमस्त सवकल्पोों की आहुसत दे ने पर, छोड दे ने पर परमात्मति प्रकट
िोता िै । परपदार्थ में आत्मबुद्धद्ध िी परमात्मा के दशथन में बाधक िै । यि कारर्णपरमात्मा प्रत्येक प्रार्णी के दे ि में बिा
हुआ िै । िे योगी ! कमथ में सनबद्ध िोकर भी यि परमात्मा िकल (शरीर िसित) निीों िोता िै । दे ि में बिता हुआ भी
यि आत्मा िकल निीों िै । ऐिे आत्मा को कारर्णपरमात्मा किते िैं । जो कारर्णपरमात्मा ज्ञानमयता की दृसि िे ध्याया
जाता िै , मैं ज्ञानमात्र हँ , ऐिा ध्यान बने और सवकल्प न उठें —केवल यि ज्ञान िी उिकी आत्मा में रि जाये तो उिे
कारर्णपरमात्मा के दशथन िोते िैं । योगीजन इि कारर्णपरमात्मा का सनरन्तर ध्यान करते िैं । सजनके उपयोग में यिी
िैतन्यस्वभाव रि गया उिे आत्मा का आत्मा में लीन िोना किते िैं । भगवान् के स्वरूप में उपयोग िो तो वि आत्मा में
लीन िोना निीों िै । भगवान् में उपयोग लगना, कर्ाय अशुभोपयोगरूप सवपसत्तयोों को दू र करने के सलए िै । भगवान् की
भद्धक्त करने िे आत्मा आत्मसर् निीों किलाता िै । सकन्तु कारर्णपरमात्मा की अभेददृसि िे आत्मा आत्मरूप िोता िै ।
जो िैतन्यस्वभाव िै , उिका पूर्णथ सवकाि िी कायथ परमात्मा िै । कारर्णपरमात्मा की दृसि बने रिना यिी कायथ परमात्मा
को प्रकट करना िै ।
६५. औपाधिक धवकार स्वाभाधवक तत्त् नही ं—ये रागासदभाव िोते िैं आत्मा में, परन्तु कमोदय के सनसमत्त िे िोते
िैं , अत: ये रागासद आत्मा का सवकार िैं । स्वभाव वि किलाता िै , जो सबना सकिी पर के सनसमत्त िोता िै और जो आत्मा
के िार् सत्रकाल बना रिता िै । रागासदक भाव पुद्गल के सनसमत्त िे िोते िैं , अत: इनको पुद्गल के स्वभाव किा गया िै
। वस्तुत: रागासद सकिी के स्वभाव निीों िैं , न आत्मा के स्वभाव िैं , और न पुद्गल के िी । वस्तुत: रागासद पुद्गल के
पररर्णमन निीों िैं , अत: पु द्गल के स्वभाव निीों िैं तर्ा रागासदक भाव आत्मा में सत्रकाल निीों रिते , अत: आत्मा के स्वभाव
भी निीों िैं । तभी तो िाों ख्य लोग भ्रम करने भान की रागासद किते िैं । कमथ को सनसमत्त पाकर ये रागासद आत्मा में िोते
िैं , ऐिा िमझना िासिए । अत: सनसमत्त की अपेक्षा िे दे खो तो रागासद पु द᳭गल का स्वभाव िै और उपादान की अपेक्षा
दे खो तो आत्मा के स्‍वभाव के सवकारभाव िैं । जैिे कोई खोटा कायथ करता िै , उिे कोई किता सक तुम्हारे कुल का यि
काम निीों िै । जब उि व्द्धक्त को गौख िोता सक जो कायथ मैंने सकया वि मेरे कुल के योग्य निीों र्ा, मुझे करना िी निीों
िासिए र्ा, इििे मेरे कुल में ला छन लगता िै । इिी तरि आत्मा सजिका काम िैतन्यमात्र िै रागासद सबल्कुल भी निीों
िै । यसद वि राग-द्वे र् मोि आसद अकृत्य कृत्य करे तो उिे ज्ञानी आिायथ िमझाते सक अरे मूढ आत्मन् ! िे त, रागासद
करना तेरे योग्य कायथ निीों िै । तब आत्मा को स्वयमेव गौख िोता सक मेरा स्वभाव ज्ञाता-दृिा रिने का िै । रागासद करना
मेरा स्वभाव निीों िै । अत: इन रागासद को मैं सफर क्योों करता हों ?
६६. रागाधदभाव के स्वाधमत्व का धवचार—प्रश्‍न—सजज्ञािु पूछता िै सक आिायथ देव सफर ये रागासद सकिके स्वभाव
िैं ? उत्तर—ये रागासद पुद्गल के स्वभाव िैं । सनसमत्त दृसि िे रागासद पुद᳭गल के मत्थे मढे गये । जैिे दपथर्ण िै । दपथर्ण
के िामने कोई द्धखलौना रख सदया गया तो दपथर्ण द्धखलौने को सनसमत्त पाकर द्धखलौना के आकार रूप दपथर्ण अपने में
प्रसतसबम्ब बनाता िै । यिाँ पूछा जा िकता िै सक दपथ र्ण में उत्पन्न हुआ प्रसतसबम्बरूप दपथर्ण सकिका स्वभाव िै ? यि
प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव तो निीों िै । क्योोंसक द्धखलौने का प्रसतसबम्ब दपथर्ण में पिले तो र्ा निीों । जब दपथ र्ण के िामने
द्धखलौना आया तो दपथर्ण द्धखलौनेरूप पररर्णम गया और जब द्धखलौना दपथर्ण के िामने िे िटा सदया तो दपथर्ण में प्रसतसबम्ब
भी िट जाता िै , सफर प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव कैिे रिा? यसद द्धखलौने का प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव िोता तो वि
प्रसतसबम्ब दपथर्ण में सत्रकाल झलकना िासिए र्ा । यसद फोटो दपथर्ण का स्वभाव िोता तो द्धखलौने का प्रसतसबम्ब द्धखलौना
िामने आने िे पिले भी आना िासिए र्ा, और द्धखलौना िटने पर भी द्धखलौना का प्रसतसबम्ब दपथर्ण में सदखाई दे ना िासिए
। जब द्धखलौने का प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव निीों िै , तो द्धखलौने का प्रसतसबम्ब द्धखलौने का िी स्‍वभाव िोना िासिए ?
निीों, द्धखलौने का प्रसतसबम्‍ब द्धखलौने का स्‍वभाव निीों िो िकता । क्योोंसक द्धखलौने की कोई िीजें द्धख लौने के बािर दपथर्ण
में निीों जा िकती िै , द्धखलौने की िीज द्धखलौने में िी रिती िै । यसद प्रसतसबम्ब द्धखलौने का स्वभाव िोता तो उिका

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 45

प्रसतसबम्ब दपथर्ण में निीों पडना िासिए र्ा । जै िे अपन लोग व्विार में किते िैं सक यि सकताब मेरी िै , सकन्तु यि सकताब
मेरी तो निीों िै , कागज की िै । उिी प्रकार यि प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव निीों िै । यसद प्रसतसबम्ब दपथर्ण का स्वभाव
िोता तो प्रसतसबम्ब दपथर्ण के िार् सत्रकाल रिता । प्रसतसबम्ब द्धखलौने का स्‍वभाव भी निीों िै । यसद प्रसतसबम्ब द्धखलौने का
स्वभाव िोता तो द्धखलौने िे बािर निीों जाना िासिए र्ा । अत: प्रसतसबम्ब द्धखलौना और दपथर्ण का स्वभाव निीों िै ।
प्रसतसबम्ब द्धखलौने को सनसमत्त पाकर दपथर्ण के गुर्णोों का सवकाररूप पररर्णमन िै । द्धखलौने को सनसमत्त पाकर दपथर्ण सवभाव
रूप पररर्णम गया । क्रीडनक दपथर्णभाव वि फोटो िै । ये रागासद पुद᳭गल स्वभाव िैं पु द्गल=कमथ, स्व=आत्मा और
भाव=पररर्णमन । रागासद आत्मा के स्वभाव निीों िैं , सकन्तु पु द᳭गल के स्वभाव िैं । कमथ को सनसमत्त पाकर आत्मा के
भाव िैं । उपादान दृसि िो तो आत्‍मा के स्वभाव िे रागासद हुए तर्ा सनसमत्त पर दृसि िो तो रागासद पुद्गल के स्वभाव िैं ।
वस्तुत: ये रागासद न पुद᳭गल के स्वभाव िैं और न आत्मा के िी स्वभाव िैं । रागासद तो भ्रम की अवसर्ा िैं ।
६७. रागाधद को पु द्गलस्वभाव जानकर अपना कताव्य—ये रागासद भाव पुद्गल के सनसमत्त िे िोने वाले आत्मा
के पररर्णमन िैं । ऐिा जानकर रागासद भावोों को आत्मा मत िमझो । जो भी तुम पर पररर्णमन िल रिे िैं उन्हें तुम अपना
मत िमझो । पुद्गल के सनसमत्त िे िोने वाले रागासद को पुद्गल के स्वभाव मत िमझो । यसद यि प्रतीसत िो जाये सक
रागासद मैं निीों हँ तो रागासद िे तत्काल सनवृसत्त िो जाये । जैिे कोई रास्ते पर दौडता जा रिा िै । दौडते -दौडते उिे यि
प्रतीसत िो जाये सक सजि रास्‍ते पर मैं दौड रिा हँ , वि रास्ता गलत िै तो उिे उि रास्ते पर दौडने िे तत्‍काल सनवृसत्त िो
जायेगी । यद्यसप वेग के कारर्ण वि दि कदम आगे िल कर रूक िकेगा, परन्तु उिे तत्काल पिले कदम पर िी उि
रास्ते पर दौडने िे असनच्छा िो जायेगी तर्ा उिका उि ओर प्रयाि भी निीों रिे गा । इिी प्रकार रागासद मैं निीों हँ , यि
प्रतीसत आत्मा में सजि िमय उत्पन्न हुई, उिी िमय िे रागासद िे सनवृसत्त िो जाती िै । रागासद मैं निीों हँ , यि प्रतीसत िोने
में पिले मैं िैतन्य मात्र आत्मा हँ , यि प्रतीसत िोनी िासिए । चैतन्यमात्र मैं हूँ यह प्रतीधत होने पर रागाधद मैं नही ं हं ,
यह प्रतीधत सच्‍ची है । िैतन्यमात्र आत्मा को आत्मा िमझकर आत्मा की ओर दृसि िोना िासिए । कर्ायोों को समटाना
यिी कल्यार्ण के सलए एक प्रयोजन िै । िम्यक᳭श्रद्धा िे कर्ाय समटती िैं , अतएव आत्मति के सवर्य में दृसि लगानी
िासिए और िम्यक्‍त्‍वभाव जानना िासिये । अब यिाँ सजज्ञािु पूछता िै सक राग-द्वे र् मोिासदभाव पुद्गल के स्वभाव िैं तो
इन्हें अनेक तोंत्रोों में अध्यविानासदक जीव के क्योों बताये गये िैं ? इिके िमाधान में श्रीमत्कुन्दकुन्द दे व किते िैं —
गाथा 46
ववहारस्स दरीसणमु वएसो वच्छण्णदो धजणवरे धहं ।
जीवा एदे सव्‍वे अज्झवसाणादओ भावा ।।४६।।
६८. जीव की अध्यवसानाधदरूपता का धनश्‍चय से अभाव—ये िब अध्यविान आसद भाव जीव िैं ऐिा यि िब
व्‍यविार का प्रदशथन कराया िै , ऐिा सजनेन्‍द्रदे वोों के द्वारा वसर्णथत हुआ िै । िमय के वास्तसवक स्वरूप को जानने के सलये
दृसि स्वभाव पर करनी िोती िै । न तो पुद्गल की रिना जीव िै और न पुद्गल के सनसमत्त िे िोने वाली रिना जीव िै ,
जो कारर्णिमयिार िै िो जीव िै । परमशुद्ध सनश्‍ियदृसि में जो पाररर्णासमक भाव जाना गया उिे जीव किते िैं ।
एकेद्धिय, बि, रागद्वे र्, मोि, शरीरासद जीव निीों िैं । केवलज्ञान भी शुद्ध दृसि िे जीव निीों िै क्योोंसक केवलज्ञान ज्ञान की
पररर्णसत िै । पररर्णसत जीव िै निीों, अत: केवलज्ञान भी जीव निीों िो िकता िै । जीव असवनाशी िै , केवलज्ञान प्रसतिमय
नि िोता रिता िै , और नया-नया पैदा िोता रिता िै । केवलज्ञान की यि सवशेर्ता िै सक उिकी पररर्णसत उिी प्रकार
की िोती िै , सजििे उिका प्रसतिमय बदलना मालूम निीों पडता िै । शुद्धता दो प्रकार की िोती िैं —१-पयाथ य की शुद्धता
और २-द्रव् की शुद्धता । पयाथ य की शुद्धता भगवान अरिन्त, सिद्ध में िै , द्रव्रूप शुद्धत्व द्रव् में िनातन िै । िमयिार
दो प्रकार िे िै :—कारर्णरूप िमयिार और कायथरूप िमयिार । कायथरूप िमयिार भगवान अरिन्त, सिद्ध िैं । पर
िे सभन्नत्व और अपने िे असभन्नत्व को द्रव्शुद्धद्ध किते िैं । द्रव्शुद्धद्ध जीव में अनासद िे अनन्त तक िै । पयाथयशुद्धद्ध
जीव में सकिी क्षर्ण िे िोती िै । जीव द्रव्दृसि िे शुद्ध िै । उिको अध्यविानासदरूप किना व्विारनय का उपदे श िै

६९. पयाायशुच्छद्ध के धलये आलम्ब्य तत्त् का धवचार—पदार्थ अवक्तव् िै , जो कुछ िै िो िै । आत्मा को यसद िवथर्ा
अशुद्ध िी माने तो कभी शुद्ध निीों िो िकता िै । शुद्ध की दृसि करने िे बनता िै शुद्ध और अशुद्ध की दृसि करने िे
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 46

बनता िै अशुद्ध—यि अध्यात्मशास्‍त्र का प्रर्म सिद्धान्त िै । अब िोसिये एक समथ्यादृसि जीव पयाथ य में अशुद्ध िै , राग-
द्वे र् को अपनाता िै , अशुद्ध का अवलम्बन सकये हुए िै । अब वि कौन िे शुद्ध का अवलम्बन करे सक वि िम्यग्ददृसि िो
िके? तकथ—अरिों त सिद्ध का अवलम्बन करे । उत्तर—जीव पर का अवलम्बन कर िी निीों िकता । यि अध्यात्मशास्‍त्र
का सनयम िै । जैिे आपने अरिन्त भगवान का स्मरर्ण सकया, तो यि आपने अरिन्त भगवान का अवलम्बन निीों सकया,
परन्तु अरिन्त भगवान के सवर्य में तुम्हारे मन में जो पयाथ य उत्पन्न हुई िै ; उिका तुमने अवलम्बन सकया िै । वास्तव में
तुम दृश्यमान पदार्ों को निीों जान रिे िो । एक भी िीज को तुम निीों जानते । सकिी भी परमार्णु को तुम निीों जान
िकते । सनश्‍िय िे जानते िो उिे , जो तुम्हारे आत्मा में अर्थसवकल्प िो रिा िै । वास्तव में िमने क्या जाना िै , इि अन्तर
की िीज को बताने के सलए उिका नाम बताना पडता िै सक िमने इिरूप पररर्णत आत्मा को जाना । वि ज्ञेयाकार इि
तरि का इि अद् भुत िीज को बताने के सलए किा जाता िै । सजि वस्तु का जो गुर्ण िोता िै , उि गुर्ण का पररर्णमन उिी
वस्तु में िोता िै , अन्य वस्तु में दू िरी वस्तु के गुर्ण का पररर्णमन निीों िो िकता िै । सजि वस्तु का जो गुर्ण िै , उि वस्तु
की सक्रया उिी वस्तु में िोती िै —यि एक िाधारर्ण सनयम िै । भगवान् सनश्‍िय िे अपनी िी आत्मा को जानते िैं ।
व्विार में किते िैं सक भगवान िमस्त पदार्ों को जानते िैं , अतएव िवथज्ञ िैं । वास्तव में उनका केवलज्ञान आत्मा को
िी जानता िै । उनकी आत्मा में िम्पूर्णथ सवश्‍व झलकता िै । भगवान् सवश्‍व के आकाररूप पररर्णत आत्मा को िी जानते
िैं , इि बात को िमझने के सलए कि सदया गया िै सक भगवान् सवश्‍व के ज्ञाता िैं । जैिे एक दपथ र्ण िै । उिके िामने
अपने पीछे ५-७ लडके खडे हुए िैं जो दपथर्ण में प्रसतसबद्धम्बत िैं । िमारे पीछे खडे हुए लडके क्या कर रिे िैं , यि िम
दपथर्ण में दे खकर बता िकते िैं । परन्तु िम केवल दपथर्ण को िी दे ख रिे िैं । िम सकि प्रकार के पररर्णत दपथर्ण को दे ख
रिे िैं , यि बात िम लडकोों की सक्रयाओों का सनदे श कर बता रिे िैं । इिी प्रकार िम दृश्यमान पदार्ों को निीों जान रिे
िैं । सनश्‍िय िे िम ज्ञान का जो ज्ञेयाकार पररर्णमन िै , उिको जान रिे िैं । केवलज्ञान की ऐिी योग्यता िै सक उिका
ज्ञेयाकार पररर्णमन सवश्‍वरूप बना रिता िै । परन्तु सनश्‍ियत: भगवान् सवश्‍व को निीों जानते िैं , सवश्‍वरूप पररर्णत अपने
आत्मा को जानते िैं । सनश्‍िय िे आत्मा पर को निीों जानता िै , आत्मा आत्मा को जानता िै । कोई-कोई मनुष्य केवलज्ञान
को जीव स्वीकार करता िै , परन्तु केवलज्ञान जीव निीों िै । केवलज्ञान ज्ञान का पररर्णमन िै । अत: केवलज्ञान जीव निीों
िो िकता िै ।
७०. कारणपरमात्मतत्त् के आश्रय से पयाा यधवशुच्छद्ध—अब प्रकृत ति पर आइए, प्रकृत यि िीज िै सक शुद्ध का
अवलम्बन करने िे शुद्ध पररर्णमन िोता िै और अशुद्ध का अवलम्बन करने िे अशुद्ध पररर्णमन िोता िै । दू िरे कोई
पर का अवलम्बन कर िी निीों िकता िै । िदा जीव अपना िी अवलम्बन कर पाता िै । जब यि जीव अपना िी
अवलम्बन करता िै तो मसलन आत्मा सकिका अवलम्बन करे सक वि शुद्ध बन जाये? रागद्वे र् आसद के अवलम्बन िे
शुद्ध बन निीों िकता िै । करे गा अपना िी अवलोंबन, दू िरे का कर निीों िकता िै । मसलन आत्मा में भी ऐिा कौन-िा
ति िै , सजििे आत्मा शुद्ध बन िके? अरिों त का सविाररूप जो ध्यान िै , वि भी अशुद्ध भाव िै । जीव अरिोंत का
अवलोंबन कर िी निीों िकता िै । अरिों त का अवलम्‍बनरूप पयाथ य अशुद्ध िै । शुभ भाव और अशुभ भाव दोनोों अशुद्ध
भाव िैं । जब मसलन आत्मा को िैतन्यरूप की खबर िोती िै —िैतन्यस्वभाव मसलन दशा में भी िै । िैतन्य स्वभाव का
अवलम्बन सकया तो उिकी शुद्ध पयाथ य बन जाती िै । सिद्धोों के बारे में आप जो सविार कर रिे िैं , वि सविार शुभ िै
अत: अशुद्ध िै । पर के िम्बन्ध में हुए सनज सविार को िी जीव जान िकता िै , सविारमात्र अशुद्ध िै । इि मसलन अवसर्ा
में भी िैतन्यस्वभाव अनासद अनन्त शुद्ध िै आत्मा द्रव्दृसि िे शुद्ध िै , पयाथ यदृसि िे अशुद्ध िै । द्रव् और पयाथ य के
मुकाबले में सजतने भी पयाथ य ज्ञान िैं , िब अशुद्ध िैं , गुर्ण मात्र शुद्ध िैं । जैिे ज्ञान की मत्यासद ५ पयाथ य अशुद्ध िैं , परन्तु
ज्ञान िामान्य गुर्ण िै , अत: शुद्ध िै । भेददृसि िे गुर्ण शु द्ध िै , और अभेददृसि िे स्वभाव शुद्ध िै । ज्ञान के मसत श्रुतासद ५
पररर्णमन अशुद्ध िैं । अशुद्ध माने पयाथ य िै । शुद्ध माने स्वभाव—यिाँ पर शुद्ध अशुद्ध का यि अर्थ लेना । सवशे र्, पयाथ यें
सवनाशी िै , जो सवनाशीक िै , वि जीव ति निीों िैं । जो सवनाशीक िैं , वि अशुद्ध िै और जो असवनाशी िै वि शु द्ध िै ।
केवल शुद्ध िैतन्य स्वभाव के अवलम्ब िे शुद्धता प्रकट िोती िै । यिाँ अशुद्ध का अर्थ ‘िल’ िै और शुद्ध का अर्थ
सनश्‍िल िै । इिी के अवलम्बन िे जीव शुद्ध िोता िै । जो शुद्ध को आश्रय करके जानता िै , वि शुद्ध िोता िै और जो
अशुद्ध को आश्रय करके जानता िै , वि अशुद्ध िोता िै ।

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 46

राग-द्वे र्, क्रोध, सर्ावर त्रि, िोंिारी, मुक्त आसद जीव िैं —यि िब व्विार का कर्न िै । मुक्त िी यसद जीव िोता,
तो सजि िमय जीव मुक्त निीों हुआ र्ा तो क्या उि िमय वि जीव निीों र्ा ? यसद िोंिारी िी जीव िोता तो मुक्त जीव
जीव निीों रिे गा?
७१. धनश्‍चयदृधष्ट से ज्ञात तत्त् के अवलम्बन से द्रव्य में धनमा ल पयााय—शुद्ध द्रव् के अवलम्बन िे तो जीव का
कल्यार्ण िोना िै , सकन्तु यसद कोई किे सक िम तो सनश्‍िय-सनश्‍िय को मानेंगे, व्विार को िम निीों मानते तो वि िमझ
िी निीों िकता । सकिी बात को व्विार िे िमझकर सफर सनश्‍ियदृसि िे किो तो वि िमझना तुम्हारा ठीक िै । जीव
न वीतराग िै , न िराग िै ; जीव न िकर्ाय िै और न अकर्ाय िै ; जीव न िोंिारी िै और न मुक्त िै ; जीव न प्रमत्त िै और
न अप्रमत्त िै , सकन्‍तु एक ज्ञायकस्‍वभाव और िैतन्‍यस्‍वभाव जीव िै । बाकी पयाथ य-रूप को जीव किना यि िब व्विार
का दशथन िै । मोटे रूप में ऐिा जानो सक शरीर मैं निीों हँ , क्योोंसक शरीर नि िो जाने वाली िीज िै । मनुष्य मैं निीों हँ ,
दे व मैं निीों हँ , नारकी मैं निीों हँ , क्योोंसक ये िब पयाथ य िैं । पयाथ यमात्र नि िो जाने वाली िीज िै । राग मैं निीों हँ तर्ा
वतथमान ज्ञान, जो िो रिा िै , वि भी मैं निीों हँ , क्योोंसक ये िीजें िब समट जायेगी, परन्तु मैं नि िोने वाला निीों ह । मैं
िैतन्यस्वरूप आत्मा हँ । जो-जो पररर्णमन मेरे में िो रिे िैं , वे िब मैं निीों हँ । िवथ त्र द्रव् पररपूर्णथ िै , ऐिी बात द्रव्-दृसि
िे िमझ पाओगे । द्रव्-दृसि का जो ति िै , वि कारर्णिमयिार िै । कारर्णिमयिार के अवलम्बन िे जो कायथ बनता
िै , वि िब कायथिमयिार िै । जीवरूप िे जो रागासद किे गये िैं यि िब व्‍यविारदशथन िै । क्योोंसक यि जीव िब
पयाथ योों में गया िै । जीव का पयाथ योों िे िी सवशेर् पररिय िै , अत: उिे पयाथ य की बात किकर िी िमझाया जा िकता िै
। अतएव िाधारर्णतया बताया जाता िै सक जीव िोंिारी िै , मुक्त िै , त्रि िै , स्‍र्ावर, मनुष्य िै , दे व िै आसद । यि िब
व्विार का कर्न िै । व्विार सनश्‍िय का िी कि िकते िैं या योों कसिये सक सनश्‍िय की बात को व्विार द्वारा िी
िमझाया जा िकता िै । जै िे िम मद्धन्दर में दे ख रिे िैं , िरा रों ग सदखाई दे रिा िै । िम उिे दे खकर जान िकते िैं सक
मद्धन्दर में सबजली जल रिी िै । इिी प्रकार जीव में राग िै । जीव में राग किने िे िी तु म िमझ जाओगे सक जीव में िेतना
गुर्ण अवश्य िै । जैिे मद्धन्दर में खू टी पर माला टों गी सदखाई दे रिी िै । उिे दे खकर िी िम िमझ जायें गे सक मद्धन्दर में
सबजली जल रिी िै । मोटे रूप में यि जानना सक शरीर मैं निीों हँ , राग मैं निीों हँ । मैं इिका सपता हँ , मैं इिका मामा हँ ,
मैं इिका भानजा हँ आसद बातें तो िब कल्पना की िीज िैं । इन िब अिङ्कारोों को दू र करना िै और कारर्णिमयिार
को िमझना िै । कारर्णिमयिार को िमझकर उिकी ओर दृसि लगानी िै । उिकी ओर दृसि लगाने िे िी िमारा
कल्यार्ण िोना िै ।
७२. आत्मधहत में आलम्ब्य तत्त्—सजिका आलम्बन करके िम िम्यक्‍त्‍व प्राप्त कर िकते िैं , वि िीज जीव में
अनासद िे िी िै । जीव को जब उि अनासद अनन्त िीज का ज्ञान िोता िै , तभी िम्यक्‍त्‍व िोता िै । उिका आलम्बन
सलया िमझो, िम्यक्‍त्‍व पैदा िो गया । उि अनासद अनन्त िैतन्यस्वभाव के अवलम्बन न लेने िे िम्यक्‍त्‍व निीों उत्पन्न
िोता िै । वि अपने अन्दर अनासदकाल िे मौजूद िै और िदा तक बना रिे गा । सजिके आलम्बन िे िम्यक्‍त्‍व जगता िै ,
उिे कारर्णिमयिार किते िैं । उिका आलम्बन लो या न लो, सफर भी वि िीज अनासदकाल िे अपने अन्दर िै , और
अन्त तक बनी रिे गी । सजि तरि पत्थर में िे जो मूसतथ सनकालनी िै , वि उिमें पिले िे िी सवद्यमान िै । पत्थर में जो
परमार्णु स्कन्ध मूसतथ को ढके हुए िैं , िारोों ओर लगे िैं उि मूसतथ को ज्योों की त्योों सनकालने के सलए उन पत्थरोों को िटाना
पडता िै । जो मूसतथ उि पत्थर में िे प्रकट िोगी, वि उिमें पिले िे िी सवद्यमान िै । इिी तरि वि स्वभाव जो सक प्रकट
िोने पर भगवान किलाता िै , आत्मा में पसिले िे िी सवद्यमान िैं , सकन्तु उिके आवरक राग द्वे र् आसद भाव िैं , उन्हें िटा
दे ने पर स्वयों प्रकट िो जाता िै । स्वभाव के िमान पयाथ य का िोना सिद्ध अवसर्ा िै । स्वभाव िे सवर्म अवसर्ाओों का
िोना िोंिार अवसर्ा िै । िम िैतन्यस्वभाव का अवलम्बन लें, तभी िम शुद्ध बन िकते िैं । िैतन्यस्वभाव के अवलम्बन
िे िी िम्यक्‍त्‍व जागृत िोता िै । ित्सोंग, पूजा, भद्धक्त, ध्यान ये सवकल्प िाक्षात् धमथ निीों िैं । सजिके आलम्बन िे धमथ
िोता िै , िम्यक्‍त्‍व जगता िै , वि िमारे में पिले िे िी मौजूद िै । िैतन्य स्वभाव िी जीव िै , इि बात को लक्ष्य में लेकर
‘रागासद जीव िै ’ इि बात का खण्डन सकया गया िै ।
७३. व्यवहारदशान में अध्यवसानाधद को जीव कहने का वणान—सजतने भी ये अध्यविान आसदक भाव िैं वे िब
जीव ऐिे भगवान िवथज्ञदे व ने बताये िैं , िो इिे भूतार्थनय िे निीों बताया, सकन्तु अभूतार्थनय अर्वा व्विार उिकी दृसि

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 46

में यि मोंतव् िै । किते िैं सक व्विार िे यि जीव निीों िै , सनश्‍िय िे यि जीव निीों िै , इिमें अन्तर क्या आया? अन्तर
यि आया सक सनश्‍िय िे जीव वि किलाता िै जो जीव अपने स्‍वरूप िे स्वयों अपने आपमें जो कुछ िो और जो सकिी
उपासध के िोंिगथ िे ज्ञात आये वि जीव निीों िै । यि उपासध के िोंिगथ िे आया, सफर व्विार िे इिे बताना पडा । जैिे
कोई िोंस्कृत भार्ा निीों जानता और िोंस्कृत में सकिी ने आशीवाथ द सदया तो उि म्‍लेच्छ भार्ावादी को म्‍लेच्छ भार्ा में िी
किें तो उिकी िमझ में आयेगा, योों िी व्विार पररर्णमन अवसध िोंिगथ सनसमत्त भाव इन्हीों िे जो अपररसित परमार्थ
उपादान शुद्धनय का सवर्यभूत परमस्वभाव, इनिे जो पररसित निीों िैं उनको एकदम यि पद कि सदया जाये गा । उन्हें
गसत इद्धिय आसदक व्विार जीव को बताकर यि जीव िै िूोंसक एक िम्बोंध िै ना मूल में, जीव िम्बोंध न िोता तो ये
पयाथ यें बन कैिे जातीों? जीव जब तक रिता िै तब तक इि पयाथ य में िजगता रिती िै , िलन िलन रिती िै । तो वि िब
एक मूल जीव के रिने का िी तो प्रताप िै और यिी क्योों, सजतने पदार्थ आज अजीव पुद्गल िामने सदख रिे िैं िौकी
पत्थर िटाई आसदक वे िब भी जीव का िोंिगथ न पाते तो इि िकल को न धारर्ण कर िकते । यद्यसप उनमें आज जीव
निीों िै लेसकन कभी तो र्ा, िजीव तो र्ा । तो इि तरि वे अध्यविान आसदक भाव यद्यसप िाक्षात् जीवति निीों िैं ,
िैतन्यशून्य िैं , सकन्तु एक िम्बोंध पाकर िी ये हुए िैं , उिमें आये िैं पररर्णमन और सफर उि भव के िम्बोंध िे ये
शरीरासदक पररर्णमन बने िैं इि कारर्ण ये िब व्विार िे जीव िैं । सनश्‍िय िे तो एक शुद्ध ज्ञानमात्र ति जीव िै ।
व्विारनय भी व्विारनय िे कायथकारी िै । सजि कारर्ण व्विार में व्विार न माना जाये तो इिका अर्थ िै सक िूोंसक
रि तो रिे िैं व्विार में और बात करें सनश्‍िय एकान्त की और यि किा करें सक जीव तो शरीर िे सबल्कुल जुदा िै ,
शरीर के पररर्णमन िे जीव का कुछ भी निीों िोता । अगर शरीर को मार डालें तो उिमें सिों िा कािे की, क्योोंसक शरीर
अजीव िै , जड िै , उिमें लाठी मारने िे उिका कुछ सबगडता निीों, जैिे सक पदार्थ ईोंट, भीत ों , इन पर लाठी मारने िे
कुछ सबगडता निीों, क्योोंसक वे पुद्गल िैं , शरीर भी पुद्गल िै । रिा जीव, वि शरीर िे मारा िै , उििे जीव को कुछ िोता
निीों िै । तो सफर व्विार में दया की प्रवृसत्त िी कुछ निीों रिी । दू िरे अगर यि बुद्धद्ध करते सक इिमें बोंध भी निीों िोता
तो शरीर न्यारा, जीव न्यारा । अगर शरीर को मरने पर जीव को बोंधे निीों िोता तो सफर मोक्ष सकिका कराओगे ? सफर
मोक्ष का उपदे श करना भी व्र्थ िै । तो िभी तिोों में बाधा आती िै । यसद व्विारनय निीों मानते और एकान्त कर लेते
िैं सक बि एक यिी सनश्‍िय एकान्त िै । बात यिाँ योों िमझना िै सक जो िम आप ये शरीर में सदख रिे िैं ये जीव िैं या
निीों? यि जो कुछ सदख रिा िै , सजििे व्विार कर रिे िैं ऐिे मनुष्य पशु पक्षी जरूर ये िब जीव िैं या निीों? तो उत्तर
यि िै सक व्विार िे जीव िैं , और सनश्‍िय िे ये जीव निीों िैं । सनश्‍िय िे तो शुद्ध ज्ञानस्वभाव िै िो िी जीव िै ।
७४. व्यवहारदशान और धनश्‍चयदशान का प्रयोजन—िमस्त ये अध्यविानासदक भाव जीव िैं ऐिा सिद्धान्त शास्‍त्र
में वसर्णथत िै , िवथज्ञदे व द्वारा प्रज्ञप्त िै वि अभूतार्थनय का दशथन िै , व्विारनय का दशथन िै । यि बात यद्यसप अभूतार्थ
िै , अर्ाथ त् स्वयों ििज निीों हुआ अर्थ िै तो भी िोंिगथ एवों िाों िसगथकता रूप व्विार के आशय िे तो ठीक िै । यिाँ शुद्ध
स्वरूप की दृसि िै अत: वास्तव में ठीक निीों िै अर्ाथ त् उक्त परपदार्थ व परभाव जीव निीों िैं । सफर भी व्विार तीर्थप्रवृसत्त
के सलये सदखाना न्याययुक्त िै , क्योोंसक यद्यसप व्विार में जो किा गया वि अपरमार्थ िै तर्ासप परमार्थ का प्रसतपादक
अवश्य िै । िाँ , यसद कोई परमार्थ की प्रसतपदकता रूप िे व्विार का अर्थ न करे तो उिकी यि व्विार सवमूढता िै
। तर्ा जो व्विार को झूठ किकर िवथत्र भेद िी भेद दे खे, जैिा सक परमार्थ दृसि में परभाव िे भेद सदखा करता िै ,
पयाथ य दृसि में भी दे खे तो उिकी यि सनश्‍ियसवमूढता िै । इि मान्यता में क्या अनर्थ िो िकता िै िो दे खो—इिने ऐिा
दे खा सक जीवसर्ान सजतने िैं अर्ाथ त् त्रि सर्ावर ये िब कोई जीव निीों िैं । तब जीव का दे ि िे िम्बन्ध न मानने पर त्रि
और सर्ावरोों का राख धूल की तरि सनुःशङ्क उपमदथ न सकया जायेगा, उििे सकिी की सिों िा िोगी निीों, ऐिी स्वच्छन्दता
िो जावेगी । इििे अनर्थ क्या िोगा—(१) परसित के सलये तो यि अनर्थ िोगा सक परजीव उि उपमदथ नासद के सनसमत्त िे
िोंक्‍लेशिसित मरर्ण करे गा और जो सजतने सवकािपद िे मरर्ण करे गा उििे नीिे के सर्ान में जन्म लेगा, इि तरि वि
मोक्षमागथ िे दू र िोगा और नीि योसन, नीि कुल, नीि गसत में जीवन रिने िे दु ुःखी रिे गा । (२) खुद के सलये क्या अनर्थ
िोगा सक वि तो भेद िी भेद दे ख रिा और सनुःशङ्क प्रसतघात कर रिा िै , और सिों िा भी न िो तो बन्ध का भी अभाव िो
जायेगा । अब दे खो मोक्ष तो बद्ध का िो तो िोता, िो बद्ध ये िैं निीों तो मोक्ष का उपाय क्योों सकया जाये , लो इिी तरि
मोक्ष का भी अभाव िो गया । लो, कल्यार्ण मागथ िी खतम िो गया िै । िवथर्ा भेददशी तो राग, द्वे र्, मोि िे जीव को

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 46

िवथर्ा सभन्न िी दे ख रिा, अब राग, द्वे र्, मोि िे मुक्त िोने का उपाय िी क्योों िोगा? िो भै या ! व्विार व परमार्थ को
ठीक-ठीक िमझो, एकान्त दृसि में लाभ निीों िै , िासन िै । अत: व्विार की बात व्‍यविार में ित्‍य मानकर उिका सवरोध
न करके मध्यसर् िोकर परमार्थ दृसि का अवलम्बन करके सनस्तरङ्ग ति का सनस्तरङ्ग अनु भव करो । भू तार्थदृसि िे
िैतन्य स्वभाव िी जीव िै तर्ा राग, द्वे र्, मोिासद अध्यविानोों को जीव किना व्विार का दशथन िै । भू तार्थ माने स्वयों
िी िोने वाला ति । यि ति अनासद, अनन्त, सर्ायी िोता िै । रागासद भाव मसलन भाव िैं । रागासद अभूतार्थ िैं , रागासद
अभूतार्थदृसि िे किे गये िैं । ये व्विार जीव िैं ।
७५. अभूताथा होने पर भी व्यवहार के कहने का प्रयोजन—जैिे म्‍लेच्छ भार्ा म्‍लेच्छोों को परमार्थ िमझाने के सलए
बोली जाती िै वैिे अपरमार्थ परमार्थ को बताने के सलये किा जाता िै । व्विार का दशथन धमथ की प्रवृसत्त िलाने के सलये
सकया जाता िै । यसद व्विार न िो तो एक बडा नुक्सान यि िोता िै सक धमथप्रवृसत्त नि िो जाती िै । केवल सनश्‍िय िी
एकान्त िो और व्विार सबल्कुल न मानो तो अर्थ यिी हुआ सक शरीर िे जीव अत्यन्त न्यारा िै तो सजि िािे जीव की
सिों िा करते रिो, सकिी तरि का कोई भय निीों रिे गा । शरीर को कुिलते जाओ, जीव तो न्यारा िै िी, अत: जीव का
क्या सबगाड? करते जाओ सिों िा, पाप निीों लगेगा । व्विार न मानने यि स्वच्छन्द प्रवृसत्त उत्पन्न िो जायेगी । राख समट्टी
की तरि त्रिोों को लोग कुिलेंगे व्विार न मानने िे शरीर के िनन िे जीवोों की सिों िा न िोने िे बन्ध भी निीों िोगा ।
जब बन्ध निीों हुआ तो मुक्त िोने की क्या अवश्यकता िै? अतएव मोक्ष का उपाय भी व्र्थ िै । जो व्विार जीव न माने ,
उिे मोक्ष के उपाय में भी निीों लगना िासिए । क्योोंसक उिकी दृसि में शरीर के कुिलने िे सिों िा निीों िोती िैं एवमेव
अन्‍य पाप भी निीों िोते । क्योोंसक विाँ रागद्वे र् जीव िे न्यारा िै सफर उििे छूटने की क्‍या जरूरत िै ? मोक्ष का उपाय न
बनने िे मोक्ष भी निीों रिता । इि प्रकार सजन ग्रन्थोों में बताया गया सक त्रि जीव िै सर्ावर जीव िै मुक्त जीव िै िों िारी
जीव िै —यि भी धमथ को िलाने के सलये किा गया िै । सनश्‍िय का जीव तो ज्ञान के काम का िै सक उिे िमझो । व्विार
न मानने िे यि दोर् आयेगा सक कोई ऐिी बुद्धद्ध बनी रिे सक शरीर सभन्न िै और जीव सभन्न िै तो शरीर को मानते जाओ,
जीव उिकी दृसि में मरे गा िी निीों । जीव न मरने िे सफर सिों िा सकिकी? जो व्विार को निीों मानता उिको मोक्ष का
उपाय भी निीों बन िकता िै । और सफर यि भी कसठन िोगा सक अपने बारे में जीवपना कैिे स्वीकार सकया जाये , ऐिा
सक मैं िैतन्य मात्र जीव हँ । प्रश्‍न—पयाथ योों को जब जीव रूप िे निीों माना िै , यिाँ स्वभाव को जीव रूप िे माना िै तब
तो सफर त्रिासद जीव िैं , यि व्विार क्योों िला? इिका उत्तर आिायथ मिाराज दृिान्तपूवथक किते िैं :—
गाथा 47-48
राया हु धणग्गदो धि य एसो िलसमुदयस्‍स आदे सो ।
ववहारे ण हु उच्‍चइ तत्‍थेकको्‍ धणग्‍गदो राया ।।४७।।
एमेव य ववहारो अज्‍झवसाणाधद अण्‍णभावाणं ।
जीवो धि कदो सुिे तत्‍थेकको ्‍ धणच्छिदो जीवो ।।४८।।
७६. दृष्‍टान्‍तपूवाक प्रकृत व्‍यवहार धनश्‍चय प्रधतपादन—िेना िमुदाय के िोंबोंध में ऐिा कर्न िोता िै सक यि राजा
जा रिा िै , िो यि व्‍यविारनय िे किा जाता िै । सनश्‍िय िे दे खो तो विाँ एक िी राजा जा रिा । बाकी तो िब िेना के
लोग िैं । इिी प्रकार अध्यविानासद अन्य भावोों के िम्बन्ध में ऐिा कर्न िोता िै सक यि जीव िै िो िूत्र (सिद्धान्तशास्‍त्र)
में व्विार सकया गया िै (व्विारनय िे ऐिा किा गया िै ) । सनश्‍िय िे दे खो तो वि एक िी (अनाद्योंनन्त एकस्वरूप)
जीव सनश्‍सि त सकया गया िै । जैिे एक राजा िज-धज करके िेना के िार् जा रिा िै । लोग उिको दे खकर किते िैं
सक दे खो, यि राजा १० कोि में फैला हुआ गया िै । लेसकन राजा तो एक ३-४ िार् का िोगा, वि तो १० कोि में फैल
निीों िकता िै । परन्तु व्विार में किते िैं सक यि राजा १० कोि में फैल करके जा रिा िै । राजा तो एक पुरुर् मात्र िै ;
मगर राजा का िेना के िार् िम्बन्ध िै अत: राजा को १० कोि में फैलकर िलने वाला बताया जाता िै । इिी प्रकार जीव
तो एक िै । वि नाना पररर्णसतयोों में जाता िै , अत: सजन-सजन पयाथ योों में िे वि गुजरता िै , उन-उन पयाथ योों को भी व्विार
में जीव किने लग गये िैं । अत: पयाथ योों में जीव का उपिार सकया जाता िै । दे खो, सजतनी पयाथ यें िैं , उतने जीव निीों िैं ,
क्योोंसक जीव तो नाना पयाथ योों में क्रम-क्रम िे जाता िै । जीव तो वास्तव में उन अनुगत पयाथ योों में एक िै , वि नाना पयाथ योों
में िलता रिता िै । िम जीव एक िैं , मनुष्य सतयंि दे वासद नाना पयाथ योों में क्रम-क्रम िे जाते िैं । नाना पयाथ योों में जाना
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 47-48

जीव तो निीों हुआ । जीव यद्यसप एक िै , िैतन्यमात्र िै , तर्ासप रागासद जो अनेक पररर्णमन िै , वि उनमें व्ाप्त िो गया
िै । वस्तुत: जीव का जैिा स्वरूप माना, वैिा िै , जीव का स्वरूप रागासद में व्ाप्त निीों िै , सफर भी व्विारी जन रागासद
भावोों में जीव मानते िैं ।
७७. आनन्दिाम अिस्तत्त् के आश्रय से आनन्द लाभ—दे खो, आत्मा में आनन्द भरा िै , सजि आनन्द को आश्रय
करके जीव अत्यन्त आनन्द को प्राप्त िोता िै । धन के उपाजथ न िे आकुलता िी समलती िै । धन को िोर, डाकू लूट ले
जायेंगे, २४ घण्टे इिी का भय बना रिता िै । बाह्य सजतने भी पदार्थ िैं उनमें आत्मबुद्धद्ध जाने िे जीव को अनाकुलता
निीों समलती िै । वास्तव में दे खा जाये तो शरीर, मैं निीों हँ । जैिे जीव के सनकलने पर शवमात्र रि जाता िै , ऐिा िी तो
यि शरीर िै । सजि काल शरीर में जीव रि रिा िै , तब भी शरीर जीव निीों िै । शरीर िे मैं जुदा हँ । शरीर मेरे िे जुदा
िै । इि आत्मा में रूप निीों िै , स्पशथ निीों िै , रि निीों िै , गन्ध निीों िै , शब्द निीों िै । यि आत्मा पकडने पर निीों पकडा
जाता िै । यि आत्मा ज्ञान द्वारा िमझ में आता िै । जीव का िीधा िाधा लक्षर्ण यि िै सक जो जानता िै , िो जीव िैं ।
जीव अखण्ड िै । यि जीव अपने गुर्णोों पयाथ योों में रत िै । इिका पररर्णमन इिमें िी िोता िै । आत्मा का पररर्णमन इििे
बािर निीों िो िकता िै । इिे दु सनया के लोग पसििान निीों िकते िैं । लोग सजिे दे खते िैं , वि मैं आत्मा निीों हँ । मैं तो
िैतन्यमात्र हँ , इि प्रकार की भावना िे पर के सवकल्प दू र िो जाते िैं , इन सवकल्पोों के िटने िे आनन्द प्राप्त िोता िै ।
इि सनसवथकल्प दशा िे जो आनन्द प्राप्त िोता िै , ऐिा आनन्द कुछ भी सकया जाये , अन्यत्र निीों समल िकता िै ।
७८. अध्यवसानाधद में जीवत्वव्यवहार के दशान का दृष्टाि—व्विारनय सकि तरि सनरूपर्ण करता िै और
सनश्‍ियनय सकि तरि उििे िटा हुआ िै ? इि सवर्य में दृिान्त सदया जा रिा िै । जैिे कोई बडा राजा अपनी बडी िेना
िजाकर बडे ठाठ िे जा रिा िै तो दे खने वाले लोग किते िैं सक आज तो राजा बीि कोश में फैला हुआ जा रिा िै ।
अर्वा सजतने भी उिके पररकर िैं उतने में फैला हुआ जा रिा िै तो यि तो बतलावो सक क्या राजा २० कोश का लम्बा
िौडा िै जो सक २० कोश में फैला हुआ जा रिा िै ? राजा तो विी िाढे तीन िार् का लम्बा िै पर उिका जो ठाठ िै , जो
सक राजा के िार् िलता िै , राजा िे िम्बोंसधत िै , उि पररकर में राजा के िम्बन्ध के कारर्ण राजा का व्पदे श सकया गया
िै , इिी प्रकार इन िबको जीव किते िैं । जीव इन िबमें व्ाप्त िै , फैला हुआ िै । मनुष्य भी जीव, पशु भी जीव, पक्षी
भी जीव, सजतने ये भाव िैं उन भावोों को दे खकर और उिमें सजतने रागासदक भाव उठ रिे िैं उन रागासदक भावोों को
सनरखकर किते िैं सक ये िारे अध्यविान, सवकल्प इिमें फैलकर प्रवृसत्त कर रिा िै , जा रिा िै , मगर यि तो बतलावो
सक परमार्थभूत जो कुछ भी एक जीव सजिका िैतन्य िे िी िम्बोंध िै , जो िैतन्यात्मक िो िो जीव; वि जीव क्या इन
रागासदक भावोों में फैलकर रि रिा िै । र्ोडा दृिान्त में एक िीज लीसजये । एक दपथ र्ण िै , दपथर्ण में िामने के मनु ष्योों की
फोटो पडी, छाया हुई तो छाया में क्या स्वच्छता व्ाप्त रिी िै ? स्वच्छता का स्वरूप दे खना िै , तन्मात्र दपथर्ण को िमझना
िै तो स्वच्छता िे छाया न्यारी मालूम िोती िै । दे द्धखये —उि स्वच्छता की वजि िे छायारूप पररर्णमन हुआ अर्वा वि
स्वच्छता विाँ सतरोभूत हुई, स्वच्छता का स्वच्छतारूप में स्वाभासवक पररर्णमन निीों रिा, छायारूप िे सवभाव पररर्णमन
िो गया, सति पर भी बुद्धद्ध यि किती िै सक छाया स्वच्छता िे सनराली िीज िै । दपथर्ण तो स्वच्‍छतामात्र िै , इिी प्रकार
आत्मा में उपासध के िम्बन्ध िे राग-द्वे र्ासदक नाना अध्यविान िल रिे िैं सति पर भी िूँसक आत्मा िैतन्यस्वरूप िै , इन
रागासदकोों िे िेतन निीों नजर आता । लगता ऐिा िै सक सजि िमय राग अर्वा द्वे र्रूप पररर्णमन करते िैं तो िार् िी
िार् िोश िेतना िैतन्य ज्ञान यि भी बना हुआ िै । ज्ञान के सबना राग क्या लेसकन जब स्वरूप पर दृसि डालते िैं । राग
का स्वरूप क्या िै , िैतन्य का स्वरूप क्‍या िै ? वे दोनोों एकासधकरर्ण िैं इि कारर्ण िब कुछ ठीक-िा ज ि रिा िै ,
लेसकन रागभाव िैतन्‍यभाव िे सनराला िै । िैतन्‍य का िेतन काम िै , रागासदक का रज्‍जमानता काम िै । तो व्विार िे
िी यि किा जाता सक यि िेतन रागासद भावोों को व्ाप कर रि रिा िै । वस्तुत: वि तो स्वभावमात्र िै । यि जीव निीों
िै , तब सफर जीव क्या िै ? उिके उत्तर में अगला श्‍लोक किते िैं ।
७९. परमाथा में पहुूँचने का उपाय—िम परमार्थ में कैिे पहुों िें, इिके सलये उपाय व्विार िै । जैिे व्विार िे िेना
को राजा कि दे ते िैं , उिी प्रकार इन रागासद को भी व्विार में जीव कि दे ते िैं । परमार्थ िे जीव एक िी िै । दे खो जैिे
व्विारी जन सकिी िम्बन्ध के कारर्ण िेना िमुदाय में यि राजा िै ऐिा व्विार करते िैं । परमार्थ िे तो राजा एक िी
िै न; इिी प्रकार व्विारी जन सकिी िम्बन्ध के कारर्ण अध्यविानासद अन्य भावोों में “यि जीव िै ” ऐिा व्‍यविार करते

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 47-48

िैं । परमार्थ िे तो जीव की सजतनी पयाथ यें िैं वे जीव िोों तो जीव अनेक िो गये । यिाँ अनन्‍त जीवोों को एक िोने का दोर्
निीों सदया जा रिा िै सकन्तु सकिी भी एक जीव के बारे में सविार करो, उि जीव की भूत, भसवष्य, वतथमान िम्बन्धी अनन्त
पयाथ यें िैं । वे यसद जीव िोों तो जीव अनेक िो जावेंगे । उनमें एक जीव तो रिा निीों, सफर तो अित् का उत्पाद, ित् का
सवनाश, व्विार का लोप, मोक्षमागथ का लोप आसद िभी सवडम्बनायें प्रस्तुत िोगी, जो सक िैं निीों । अत: व्विार को
अित्य न िमझो, सकन्तु व्विार का सवर्य जानकर उिमें मध्यसर् िोकर परमार्थ ति का आश्रय लो । यर्ार्थ ज्ञान िोने
पर िब िमझ में आ जाता िै । सवज्ञेष्वलमसधकेन । अब पूछते िैं सक परमार्थ में एक िी जीव िै तो यि सकि लक्षर्ण वाला
िै ? इिका उत्तर आिायथ इि गार्ा द्वारा दे ते िैं :—
गाथा 49
अरसमरूवमगंिं अव्विं चेदणागु णमसद् दं ।
जाण अधलंगग्गहणं जीवमधण द् दट्ठसंठाणं ।।४९।।
८०. जीव का लक्षण और अधविमानरसगुणत्व—जीव को रिरसित, रूपरसित, गन्धरसित, अव्क्त (स्पशथरसित),
शब्दरसित, िे तना गुर्ण वाला, असलङ्गग्रिर्ण (सजिका सकिी सलङ्ग, िाधन व सिह्न िे ग्रिर्ण निीों िोता) व असनसदथ ि-िोंसर्ान
(सजिका स्वभावत: कोई आकार सनसदथ ि निीों िै ) जानो । जीव रिरसित िै । जीव द्रव् इद्धिय के द्वारा भी रि का रिन
निीों करता िै । जीव भावेद्धिय के द्वारा रि ग्रिर्ण निीों करता िै । जीव जानता िै , केवल वि रि को िी निीों जानता िै ।
जीव रूपासदक, ज्ञानासदक गुर्ण व उिकी अनेक पयाथ योों को जानता िै । जीव रि को जानता िै , सफर भी जीव में और
रि में तादात्म्य निीों िो जाता िै । इन िब बातोों के कारर्ण जीव रि िे रसित िै । जै िे िमने भोजन सकया । भोजन करने
िे िमें रि आया । परन्तु वि भोजन का रि भोजन में िी रिे गा । भोजन का रि आत्मा में निीों जा िकता िै । जैिे आम
खाने में स्वाद आया । उि स्वाद में िै आत्मा की आिद्धक्त, अत: िम कि दे ते िैं सक आम का स्वाद िम में आया, सनश्‍िय
िे रि मुझमें निीों । रि गुर्ण का तादातम्‍य पुद्गल द्रव् में िै वि आत्मा का कुछ निीों िो िकता । इि अमूतथ आत्मा का
काम दशथन, ज्ञान, िाररत्र का पररर्णमन िै । अमूतथ तो आत्मा अनासद िे अनन्त काल तक िै , ऐिा निीों सक जीव सिद्ध िोने
पर िी अमूतथ िोता िो । आत्मा में कमथ-बोंध िोने के कारर्ण जीव को उपिार िे मूतथ भी कि सदया िै । आत्मा दशथन, ज्ञान,
िाररत्र का पु ज िै । सजिके रागबुद्धद्ध न िो उिे रों ि भी दु ुःख निीों िोता । शरीर में राग िोने िे आत्मा दु :खी रिता िै ।
जैिे व्विार में किते िैं सक उिे भूख लगी िै । परन्तु भूख को िार् में लेकर या सकिी भी प्रकार सदखाया निीों जा िकता
िै । ‘भूख’ ‘बुभुक्षा’ िे बना िै । भोक्तुसमच्छसत बुभुक्षा । अर्ाथ त् खाने की इच्छा को भूख किते िैं । शरीर में राग िै , तभी
तो भूख लगती िै । जीव को भूख तो लग िकती िै परन्तु जीव खा निीों िकता । भूख तो आत्मा का पररर्णमन िै । भूख
शरीर का भी पररर्णमन निीों िै । वस्तुत: आत्मा का भी पररर्णमन निीों िै । खाने िे भूख इिसलए शान्त िोती िै सक खाने
की इच्छा समट जाती िै । खाने की इच्छा समटते िे भूख शान्त िोती िै । वि शाद्धन्त सकिी को खाने के सनसमत्त िे आवे या
सबना खाये आवे । बडे -बडे योगी सबना खाये िी इच्छा शान्त कर लेते िैं । यसद िम्पूर्णथ इच्छाएों शान्त िो जाये तो केवलज्ञान
िो जाता िै । परन्तु आजकल इच्छा िी सकिी की शान्त निीों िोती िै । भू ख की शाद्धन्त इच्छा के िी समटने िे िोती िै ।
अत: खाना जीव का काम निीों िै । िाँ , भूख लगना जीव का काम िै । यि सवभाव िै । कोई सबना खाये िी इच्छा शान्त
कर लेते िैं । कोई खा करके इच्छा शान्त करते िैं । इच्छा समटने का नाम िी भूख का समटना िै । भूख का अर्थ खाने की
इच्छा िै । जीव का लक्षर्ण बताया जा रिा िै सक जीव वि िै , सजिमें रूप-रि-गोंध-स्पशथ निीों िै , परन्तु जीव में िैतन्यगुर्ण
िै । इिकी और भी सवशेर्तायें बताई जायेंगी । आत्मा में रि निीों िै , इिको छि ढों ग िे बताया गया िै :—
८१. आत्मा के रस गुणत्व का अभाव—आत्मा में रि गुर्ण निीों िै , रि गुर्ण पुद्गल में िोता िै , आत्मा पुद्गल िे जुदा
िै । कोई यि किे सक आत्मा में रि गुर्ण निीों िै , यि तो िम भी मानते िैं , परन्तु आत्मा स्वयों रि गुर्ण िै । आिायथ किते
िैं सकों निीों, आत्मा स्वयों रि गुर्ण भी निीों िै , क्योोंसक रि गुर्ण पुद्गल का ति िै । पु द्गल िे अत्यन्त सभन्न िोने िे आत्मा
स्वयों रि भी निीों िै । प्रश्‍न:—अनुभवरि भी तो रि िै सफर कैिे रि िे जुदा िै ? उिर—आनन्द गुर्ण की ३ पयाथ य िैं :—
१-िुख, २-दु :ख, और ३-आनन्द । ‘ख’ इद्धिय को किते िैं । जो इद्धियोों को िुिावना लगे, उिे िुख किते िैं और जो
इद्धियोों को न रुिे , उिे दु :ख किते िैं । आ समिात् आत्मानं नन्दतीत्यानन्द: । अर्ाथ त् जो िारोों ओर िे आत्मा को
िमृद्ध करे , उिे आनन्द किते िैं । ‘टु नसद िमृद्धौ’ धातु िै । अत: आनन्द आत्मा को िमृद्ध करने वाला िै । इि िों िार
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

में िुख दु ुःख दोनोों िल रिे िैं । अर्ाथ त् िुख और दु ुःख दोनोों िी िोंिार के कारर्ण िैं । आनन्द िोंिार में निीों िै । किीों-
किीों पर आिायों ने आनन्द का भी िुख नाम िे सनदे श सकया िै । इिका कारर्ण यि िै सक आिायों का उद् दे श्य
अज्ञासनयोों को िरल िे िरल भार्ा में िमझाने का रिा िै । अत: आिायों ने आनन्द को ‘िुख’ नाम िे सनसदथ ि सकया िै ,
क्योोंसक िोंिारी जीवोों का िु ख िे असधक पररिय िै । आनन्द पयाथ य भगवान केवली के पाया जाता िै । जब भगवान्
केवली के इद्धियाँ िी निीों िोती िैं तो उनकी इद्धियोों को िुिावना िी क्या लगेगा? अत: भगवान में अनन्त आनन्द िै ।
ऐिे िी आनन्‍द को अनुभव रि शब्‍द िे कि सदया जाता िै । यिाँ प्रकरर्ण उि रि का िै सजिका काला, पीला, नीला,
लाल िफेद पररर्णमन िोता िै ।
८२. परमाथात: द्रव्ये च्छिय के द्वारा रसन न होने से आत्मा की अरसता—कोई यि किे सक आत्मा द्रव्ेद्धिय के
द्वारा रि का रिन करता िै । अत: आत्मा रिवान िै । उत्तर में किते िैं सक आत्मा रिनेद्धिय के द्वारा रिता िी निीों िै
। द्रव्ेद्धिय पुद्गल द्रव् का पररर्णमन िै । आत्मा पुद्गल द्रव् का स्वामी निीों िै । तब आत्मा जो करे गा वि अनात्मा के
द्वारा कैिे करे गा? आत्मा रिज्ञान ज्ञान के द्वारा िी करता । स्वादना, दे खना, िूोंघना, िुनना िब ज्ञान िी तो िैं । आत्मा
द्रव्ेद्धिय के द्वारा निीों रिता । अत: आत्मा द्रव्े द्धिय के द्वारा रिने िे रिवान िै , यि युक्त निीों िै । आत्मा अरि िी िै
। भैया ! जो कुछ यि सदख रिा िै शरीर में, यि िब स्पशथन इद्धिय िै । अन्य इद्धियाों िैं , सकन्तु वे व्क्त निीों िैं । क्योोंसक
स्पशथनेद्धिय का ज्ञान तो छूकर जानकर अर्वा दे खकर िो िकता िै , परन्तु शेर् िार इद्धियाँ (रिना, घ्रार्ण, िक्षु और
श्रोत्र) अव्क्त िैं । स्पशथनेद्धिय व्क्त िै । जो बताओगे सक यि रिना िै , यि घ्रार्ण िै , यि िक्षु िै अर्वा यि कर्णथ िै , वि
िब स्पशथनेद्धिय िैं । रिना इद्धिय किाों िे स्वाद लेती िै , पता निीों िलता, क्योोंसक वि अव्क्त िै । घ्रार्णइद्धिय किाँ िे
गोंध ग्रिर्ण करती िै , पता निीों िलता िै क्योोंसक ये िब इों सद्रयाों अव्क्त िैं । सदखने वाले स्पशथनोों के अोंदर कुछ ऐिी
क्‍वासलटी िै सक उिको सनसमत्त पाकर जीव िखता, िूोंघता, दे खता और िुनता िै । वे स्पशथ िे सभन्न िैं , अत: अन्य इद्धियाों
िैं । आिायथ किते िैं सक यि आत्मा अरि िै , अगन्ध िै , अदृश्य िै और अशब्द िै । इि पुद्गल द्रव् का मासलक जीव
निीों िै । जो सजिका स्व िै , विी उिका स्वामी िै । शरीर का स्वामी शरीर िै , परमार्णु का स्वामी प्रत्येक परमार्णु िै ।
क्योोंसक प्रत्येक परमार्णु के प्रदे श गुर्ण पयाथ य दू िरोों िे न्यारे -न्यारे िैं । इि प्रकार एक द्रव् दू िरे द्रव् का कैिे स्वामी बन
िकता िै ? अत: आत्मा द्रव्ेद्धियोों के द्वारा भी रिन निीों करता िै । िकर्ाय जीव िै तो सनसमत्त-नैसमसत्तक भाव के कारर्ण
उिका शरीर स्वयमेव बन जाता िै , अन्य कोई इिका आसवष्कार निीों करता िै । जीभ, नाक, आ ख आसद सनसमत्त-
नैसमसत्तकता िे बन जाते िैं । इि जीभ के पीछे िी िारे झगडे सफिाद िोते िैं । पता निीों, इि जीभ में किाँ िे रि ग्रिर्ण
िोता िै और कैिे स्वाद आ जाता िै ? जीभ के असग्रम भाग िे िी स्वाद आता िै । विाँ भी स्पशथन िै और विीों अव्क्त
रिनाइद्धिय िै न यि जीव पुद्गल द्रव् का स्वामी निीों िै । अत: यि भी मत किो सक यि जीव रिनेद्धिय के द्वारा स्वाद
लेता िै ।
८३. स्‍वभावत: भावेच्छिय द्वारा रसन न होने से आत्‍मा की अरसता—अब सफर सजज्ञािु किता िै सक अच्‍छा, यि
जीव रिनेद्धिय के द्वारा स्‍वाद निीों लेता िै , न ििी परन्‍तु यि भावे द्धि योों के द्वारा तो रि ग्रिर्ण करता िै । इद्धि योों के
सनसम त्त िे जो ज्ञान िोता िै , उिे भावेद्धिय किते िैं । यि आत्मा भावे द्धिय के द्वारा तो रिज्ञान करता िै ? तो किते िैं
सक यि आत्मा स्वभावत: भावेद्धियोों के द्वारा भी रि ग्रिर्ण निीों करता िै । जीव का लक्षर्ण विी िो िकता िै , जो जीव में
अनासद िे अनन्तकाल तक पाया जाये । जीव में िमेशा रिने वाला िैतन्य स्वभाव िै । िैतन्य गुर्ण जीव में सत्रकाल रिता
िै । आत्मा में स्वभाव िे क्षायोपशसमक भाव का अभाव िै । अत: यि आत्मा सनश्‍ियत: भावरिनेद्धिय के द्वारा भी रि
ग्रिर्ण निीों करता िै । अत: स्वभावत: अरि िै ।
८४. केवल रसवेदनापररणामापन्‍न रूप से रसन न होने से आत्मा की अरसता—सजज्ञािु पुन: पूछता िै सक
आत्मा में क्षायोपशसमक भाव का अभाव िै , अत: आत्मा को अरि मान सलया, परन्तु आत्मा सकिी प्रकार भी जानता िो,
आद्धखर जानता तो िै । अत: आत्मा रिवाला किलाया । उत्तर में आिायथ किते िैं सक निीों । यि आत्मा केवल रि को
तो निीों जानता िै अनेक ज्ञेयोों का िाधारर्ण िोंवेदन करता िै यि । अत: यि आत्मा रिवाला निीों िै ।
८५. स्वयं रसरूप से अपररणमन होने से आत्मा की अरसता—इि पर सजज्ञािु एक आद्धखरी सजज्ञािा प्रकट करता
िै सक यि आत्मा रि को जानता िै , इतने िे निीों िै तो न िोओ, सकन्तु यि तो रि के ज्ञान िे आत्मा रिवान पररर्णत िो

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

जाता िै , तन्मय िो जाता िै । अत: रिवाला किो । उिर—यि आत्मा रि के ज्ञान में पररर्णत तो िोता िै , परन्तु ज्ञेय ज्ञेय
िी रिता िै और ज्ञायक ज्ञायक िी रिता िै । ज्ञेय ज्ञायक निीों िो िकता िै तर्ा ज्ञायक ज्ञेय निीों िो िकता िै । जैिे आग
के जानने िे आत्मा गमथ निीों िोता िै । छु री के जानने िे आत्मा कट निीों जाता िै । जैिे समठाई का स्मरर्ण करने िे मुोंि
में पानी आ जाता िै , परन्तु उिका स्मरर्ण करने ये आत्‍मा में रि निीों पहुों ि जाता िै । जैिा आत्‍मा ख्‍याल बनाता िै , वैिा
िी अनुभव करता िै । समठाई को भी यसद जीभ पर रखो, तब भी अनुभव ज्ञान का िी िोता िै । रि का िम्बन्ध आत्मा िे
निीों िोता िै । इिको सनसमत्त पाकर आत्मा रि को जानता िै । रि को आत्मा जानता िै , अतएव रि का आत्मा िे
तादात्म्य िो जाता िो, ऐिा निीों िै । जैिे पुस्तक पर उजेला पड रिा िै , यि उजेला पुस्तक का िी िै , सबजली का निीों िै
। सबजली का प्रकाश उिकी लौ िे बािर निीों िै । पुस्तक पर जो प्रकाश पडा िै , वि पुस्तक का िी िै । क्योोंसक पुस्तक
का पररर्णमन पुस्तक में िी िै , सबजली का पररर्णमन सबजली में िी िो रिा िै । सफर सबजली का प्रकाश पु स्तक पर कैिे
पड िकता िै ? िाँ , सबजली को सनसमत्त पाकर यि पु स्तक स्वयों प्रकाशयुक्त िो गई । इिी प्रकार आत्मा अपने को िी
जानता िै । आत्मा सवश्‍व के आकाररूप पररर्णत स्वयों को िी जान रिा िै । आत्मा सवश्‍व को जान िी निीों िकता िै ।
िाँ , सवश्‍व के आकाररूप पररर्णत आत्मा को आत्मा स्वयों जान रिा िै । जैिे सबजली का सनसमत्त पाकर उिके पाि का
परमार्णु स्कोंध प्रकाशमान िै । सबजली का सनसमत्त पाकर सजि परमार्णु स्कन्ध के सजतने प्रकाश की योग्यता िै , उि िी
योग्यता के मुआसफक वि स्कन्ध अपनी योग्यता प्रकट करता िै । िूयथ को सनसमत्त पाकर पाि के परमार्णु स्कन्ध स्वयों
प्रकाशरूप पररर्णत िो जाते िैं । िूयथ के उन परमार्णु ओों के सकरर्णें निीों िैं , सकरर्णें आँ ख ने स्वयों दे खने की पद्धसत में
बनाई िैं । आँ ख के दे खने का जो मागथ िै , उि-उि रास्ते में आने वाले उिको स्कन्ध सदखाई दे ते िैं , जो सक स्वयों
प्रकाशमान िैं । वे स्कन्ध उिको िमकते सदखाई दे ने के कारर्ण सकरर्ण मालूम पडते िैं । दृसि दो तरि की िोती िै —१-
व्विार और २-सनश्‍िय । वस्तु की िीज उिी वस्तु में बताई जाये उिे सनश्‍ियदृसि किते िैं और वस्तु की िीज उि वस्तु
िे बािर बताई जाये, उिे व्विारदृसि किते िैं । एक द्रव् की िीजें यसद दू िरे द्रव् में पहुों ि जायें तो द्रव् का िी अभाव
िो जायेगा । अत: एक द्रव् की िीज दू िरे द्रव् में पहुँ ि िी निीों िकती िै । आत्मा रि के ज्ञान में पररर्णत िै । रि ज्ञेय
िै और आत्मा ज्ञायक िै । ज्ञेय ज्ञायक निीों िो िकता िै और कभी भी ज्ञायक ज्ञे य निीों िो िकता िै । अत: आत्मा
रिवाला निीों िो िकता िै । इि प्रकार आत्मा अरि िै , यि सिद्ध हुआ ।
८५. आत्मा में रूप गुणविा का अभाव—काला-पीला-नीला-लाल और िफेद ये रूप की पयाथ य भी आत्मा में निीों
िैं । इिका आधारभूत रूप भी आत्मा में निीों िै । आत्मा िम्पूर्णथ सवश्‍व का जानने दे खने वाला िै । सजि तरि आत्मा को
छ: प्रकार िे अरि सिद्ध सकया, उिी प्रकार छ: ढों ग िे िी आत्मा को अरूप बताते िैं । आत्मा में रूप निीों िै , क्योोंसक
वि पुद्गल द्रव् िे न्यारा िै । आत्मा पुद्गल द्रव् िे न्यारा िै , यि बात सविार करने में, सवकल्‍प छोडने में अपने आप
िमझ में आ जाती िै । िमझ में आता िै सक शरीर िे आत्मा पृर्क् िै । आत्‍मा पुद्गल द्रव् िे न्यारा िै , अत: इिमें रूप
निीों िै । क्योोंसक रूपासद पु द्गल के गुर्ण िैं । ये गुर्ण पु द्गल के बािर निीों पाये जाते िैं , पुद्गल में िी पाये जाते िैं ।
मूतथपना तो जीव का लक्षर्ण निीों िै । जीव का लक्षर्ण तो अमूतथपना भी निीों िै क्योोंसक उि लक्षर्ण में असतव्ाद्धप्त दोर् िै ।
जीव का लक्षर्ण तो िैतन्य गुर्ण िै । सकन्तु जिाँ पर जीव की अनेक सवशेर्ताएों बताई जा रिी िैं , उिमें यि बात भी बता
दी जाती िै सक जीव अमूतथ िै । लक्षर्ण तो िमस्त दोर्ोों िे रसित िोता िै । सनदोर् लक्षर्ण जीव का िैतन्य िै ।
८६. आत्मा के रूपगु णत्व का अभाव—किते िैं सक आत्मा में रूप गुर्ण निीों िै । इतना िी निीों, सक न्तु स्वयों रूप
निीों िै । आत्‍मा स्‍वयों रूप गुर्ण निीों िै और आत्‍मा रूप भी निीों िै । रूप गुर्ण सजिकी पयाथ य काला-पीला-नीला-लाल-
िफेद िोती िैं , उिे किते िैं । पाों िोों पयाथ योों में रिने वाले गुर्ण को रूपगुर्ण किते िैं । जैिे आम िै , आम में अने क रूप
िोते िैं । सजि िमय आम छोटा िोता िै , उि िमय काला िोता िै , उििे कुछ बडा िो जाने पर किते िैं सक आम नीला
िो गया िै , सफर िरा । बडा िोने पर पीला-लाल और िड जाने पर िफेद रों ग िो जाता िै । सजि िमय आम काला िे
नीला िोता िै , उि िमय किते िैं आम नीला िो गया िै । रूप गुर्ण िभी अवसर्ाओों में रिा, सजि िमय आम काला
नीला-पीला-लाल-िफेद र्ा, िभी अवसर्ाओों में आम में रूप गुर्ण सवद्यमान र्ा । जो रूप गुर्ण िमस्त रूप की पयाथ योों में
रिता िै , उिे रूप गुर्ण किते िैं । रूप गुर्ण की पयाथ य में काला पीला-नीला-िफेद-लाल िै । आत्मा स्वयों रूप गुर्ण निीों
िै , क्योोंसक वि पु द᳭गल द्रव् िे न्यारा िै । आत्मा पुद्गल द्रव् निीों िै , अत: आत्मा स्वयों रूप भी निीों िै । पु द्गल द्रव्

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

के गुर्ण पुद्गल द्रव् को छोडकर बािर निीों जा िकते िैं तो सफर आत्मा में रूप गुर्ण कैिे आ िकता िै ? पदार्थ अपने
प्रदे श, गुर्ण, पयाथ यरूप रिता िै । रूप गुर्ण पुद्गल द्रव् में िी पाया जाता िै , आत्मा में निीों पाया जाता, अत: न आत्मा
स्वयों रूप िै । आत्मा का रूप के िार् कोई िम्बन्ध निीों िै । अत: आत्मा अरूप िै । अरूप माने रूप वाला निीों; आत्मा
स्वयों , रूप निीों िै , रूप िे भी रसित िै ।
८७. परमाथात: द्रव्येच्छिय के द्वारा रूपण न होने से आत्मा की अरूपता—सजज्ञािु तीिरी बात पूछता िै सक तुम
किते िो सक रूप के िार् आत्मा का कोई िम्बोंध निीों िै । िम किते िैं सक बडा भारी िम्बन्ध िै । द्रव्ेद्धिय के द्वारा
यि िारी दु सनया दे खी जा रिी िै अत: आत्मा का रूप के िार् घसनष्ठ िम्बन्ध िै । उत्तर—आत्मा का पु द्गल द्रव् के
िार् कोई िम्बन्ध निीों िै , अत: आत्मा में रूप निीों िै , न आत्मा द्रव्ेद्धिय के द्वारा सवर्य करता िै । परपदार्ों के िार्
पुद्गल द्रव् का कोई िम्बन्ध निीों िै । जैिे इि आँ ख की कमजोरी में कुछ ऐिा सनसमत्तनै समसत्तक िम्बन्ध िै सक िम
िश्मे के द्वारा दे ख पाते िैं । वास्तव में िश्मे के द्वारा िम कोई िीज निीों दे खते िैं । दे खने का अर्थ िै रूप का ज्ञान ।
आत्मा िक्षु इद्धिय के द्वारा निीों दे खता िै , सकन्तु आत्मा आत्मा के द्वारा िी जानता सक इिमें यि रूप िै । िाँ , इि आत्मा
के जानने में िक्षु इद्धिय सनसमत्त िै । परन्तु दे खता िै आत्मा ज्ञान के द्वारा िी । जैिे िम लोक में किते िैं सक िमने िक्षु
इद्धिय िे रूप दे खा, कान िे आवाज िुनी, नाक िे फूल िूों घा, जीभ िे आम िखा आसद, परों तु िम इद्धियोों के सनसमत्त िे
जानते मात्र िैं । परमार्थ िे आत्मा इद्धियोों िे निीों जानता िै । परन्तु इद्धियाँ आत्मा के जानने में सनसमत्त कारर्ण िैं ।
व्विार में कोई सनसमत्त िोता िै सफर भी द्रव्स्वभाव पृर्क्-पृर्क् िै । व्विार की बात व्विार िे दे खो । योों तो भैया
! सनश्‍िय की बात भी सनश्‍िय िे दे ख पावोगे । यि िुसनश्‍सि त िै सक िब लोगोों का धमथ मूसतथ -मान्यता पर सटका हुआ िै
। मूसतथ के माने सबना सकिी का धमथ निीों रि िकता िै । प्रत्‍येक धमथ वाले मूसतथ को मानते िैं । कुछ लोग जो मूसतथ को निीों
मानते िैं , उनका धमथ भी मूसतथमान्‍यता पर आधाररत िै । कुछ लोग मूसतथ को निीों मानते िैं परन्तु जब तक मूसतथ वाले रिें गे
और वे जब तक मूसतथ का खण्डन करें गे, तभी तक उनका धमथ िो िकेगा । यसद कोई भी मूसतथ न मानें तो सफर वे सकिका
खण्डन करें गे । यसद िम लोग मूसतथ को मान्यता न दें , सफर वे सकिका खण्डन करें गे और खण्डन निीों करें गे तो सफर
उनका धमथ िी क्या रिा? कोई मूसतथ का मण्डन करके अपना धमथ िलाता िै , कोई मूसतथ का खण्डन करके अपना धमथ
प्रवतथन करता िै । अत: मूसतथ मान्यता के सबना धमथ निीों िलता िै । रिो यि व्विार, सफर भी िवथ के सवकल्प उनके
प्रत्येक में हँ । द्रव्ेद्धिय के द्वारा आत्मा दे खता निीों िै , ऐिा किकर भी आत्मा के िार् इद्धियोों का िम्बन्ध मत जोडो ।
द्रव्ेद्धिय के द्वारा आत्मा जानता निीों िै । अत: आत्मा िे इद्धियोों का कोई िम्बन्ध निीों िै । अत: आत्मा अरूप िै ।
८८. स्वभावत: भावेच्छिय के द्वारा दे खना न होने से आत्मा की अरूपता—िौर्ी बात सजज्ञािु पूछता िै सक आत्मा
भावेद्धिय के द्वारा तो जानता िै? जानने की योग्यता-शद्धक्त िै , उि योग्यता को जो काम में लाना िै उिे भावेद्धिय किते
िैं । िूोंसक आत्मा भावेद्धिय के द्वारा रूप जानता िै , इि दृसि िे तो आत्मा का और रूप का िम्बन्ध िै । उत्तर:—वि जो
क्षायोपशसमक भाव िै , उिे भावेद्धिय किते िैं । स्वभाव िे आत्मा क्षायोपशसमक भाव निीों िै । अत: आत्मा भावेद्धिय के
अवलम्बन िे स्वभाव िे यि रूपज्ञान निीों करता िै । आत्मा स्वभाव िे ऐिा जाने तो िम रूप और आत्मा का िम्बन्ध
मानें , इि पर सविार करें । अत: आत्मा अरूप िै । क्षायोपशसमक भाव स्वभाव िे उत्पन्न निीों िोता िै । क्षायोपशसमक
भाव कमों के क्षायोपशम िे उत्पन्न िोता िै । ज्ञान सजतना भी प्रकट िै , वि आत्मा के स्वभाव िे िी प्रकट िै । क्षासयक
भाव भी सनसमत्तता के कारर्ण स्वभाव भाव निीों िै । इि सनसमत्तदृसि को भी िटाकर दे खा, जो जानता िै वि स्वभावभाव
िै । पिले िमय में उत्पन्न िोने वाला केवलज्ञान नैसमसत्तक भाव िै और दू िरे आसद िमय में उत्पन्न िोने वाला केवलज्ञान
अनैसमसत्तक भाव िै । केवलज्ञान ज्ञान का पूर्णथ सवकाि िै । स्वभाव िे क्षायोपशसमक भाव निीों िोता िै , अत: आत्मा का
रूप के िार् कोई िम्बन्ध निीों िैं ।
८९. केवल रूपवेदनापररणामापन्‍न रूप से दे खना न होने से आत्मा की अरूपता—अब सजज्ञािु सफर किता िै
सक आत्मा रूप को जानता तो िै , अत: आत्मा का रूप के िार् सकिी प्रकार का िम्बन्ध अवश्य िै । किते िैं सक रूप
का जानना िाधारर्ण िोंवेदन िै । ज्ञान गुर्ण की िामान्य व्वसर्ा िै सक वि इतने जाने मात्र िे आत्मा का रूप के िार्
िम्बन्ध निीों हुआ ।
९०. स्वरूप रूप से अपररणत होने से आत्मा की अरूपता—सजज्ञािु अब छठवें ढों ग िे किता िै सक आत्मा रूप

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

को जानता िै इतनी िी बात निीों, इििे तो रूप का कुछ न्यारापन ज्ञात िोता िै , परन्तु रूपज्ञान में आत्मा उि रूप-
ज्ञेयाकार ग्रिर्ण में तन्मय िै । इि कारर्ण आत्मा अब तो रूप-ज्ञानवाला िै । रूप ग्रिर्ण में आत्मा रूपपररर्णत िै , अत:
आत्मा का रूप के िार् िम्बन्ध िै । उत्तर:—भाई, िमस्त ज्ञेय और ज्ञायक का तादात्म्य कभी निीों िोता िै । ज्ञेय ज्ञेय
रिता िै , ज्ञायक ज्ञायक । ज्ञे य ज्ञायक रूप निीों िो जाता और ज्ञायक ज्ञेय रूप निीों पररर्णम जाता िै । अत: रूप के ज्ञान
में पररर्णत िोने पर भी आत्मा रूप-रूप में पररर्णत निीों िो गया िै । ज्ञेय ज्ञायक के तादात्म्य िम्बन्ध का अत्यन्ताभाव िै
। अत: आत्मा अरूप िै । ज्ञेयभूत अर्थ का ज्ञायक में अत्यन्ताभाव िै , अत: उन िभी ज्ञेयभूतोों िे ज्ञायक जुदा िै , सफर
आत्मा अरूप कैिे न िोगा? जो कुछ यि बताया, यि िब अपने िोंवेदन िे ज्ञात िै , ऐिा ज्ञात िोने वाला आत्मा स्वयों
ज्ञायक िै । जब भी शाद्धन्त समलेगी, इि आत्मा की शरर्ण में िी समलेगी । अत: अपने आत्मा के उपादान के सलए स्वयों
आत्मा बडा िै । आपका बडा भाग्य िै जो वस्तुस्वरूप की स्वतन्‍त्रता जान रिे िैं । आपका कोई सकतना िी बडा सितैर्ी
क्योों न िो, वि आपका कुछ निीों करता िै । आपके पु ण्य का अिर िै , अत: वि आपकी िेवा में सनसमत्त िै । िम किीों
भी सकिी अवसर्ा में क्योों न िोों, िािे किीों क्योों न भटक आये िोों अन्त में यिी िमझ में आयेगा सक अपने सलये मैं आत्मा
स्वयों बडा हँ । इि प्रकार आत्मा अरूप सिद्ध िै ।
९१. धनधवाकल्प धचद्धन आत्मस्वरूप की उपासना का अनुरोि—सजि आत्मा के सवर्य में वर्णथन िल रिा िै सक
आत्मा अरूप िै , अरि िै आसद—वि आत्मा दे ि में बि रिा िै , दे ि के प्रत्येक प्रदे श में रि रिा िै सफर भी परमिमासध
के सबना, सनसवथकल्प द्धसर्सत के सबना छोटे क्या, बडे -बडे िर िरर आसदक भी उिे निीों जान पाते िैं । िरर नारायर्ण को
किते िैं । जो नारायर्ण हुए िैं , वे िब सजनेि-भक्त र्े , उन्होोंने प्रयत्‍न भर खूब उपाय सकया, सफर भी परमिमासध के सबना
वे इि आत्मरसत को न पा िके । परन्तु नारायर्ण को िम्यक्‍त्‍व िो िुका र्ा, वे इि रत्‍नत्रय उपाय द्वारा शीघ्र परमात्मस्वरूप
में िोोंगे । िर का मुख्य लक्ष्य लोगोों का मिादे व िे िै । मिादे वजी एक सदगम्बर मुसन र्े । उन्होोंने पिले खूब तपस्यायें की
। तप के प्रभाव िे वे ११ अोंग और ९ पूवथ सवद्याओों के पाठी भी िो गये । १० वें पूवथ के प्रगट िोने पर इन्हें िब सवद्याओों ने
आ घेरा । उन्होोंने किा सक मिाराज आप जो भी िमारे योग्य कायथ किें गे, िम उि कायथ को पूर्णथ कर दें गी । फलत:
मिादे वजी अपनी सनसवथकल्प उपािना िे सनवृत्त िो गये । वे भी इि आत्मरसत को परमिमासध के सबना न पा िके । सकन्तु
सनसवथकल्प अखण्ड स्वभाव की उपािना के बल िे शीघ्र परमात्मस्वरूप में प्रकट िोोंगे ।
िाधारर्ण लोग कि दे ते िैं सक जो दे ि िै विी मैं हँ । बहुत िे लोगोों की धारर्णा िै सक आत्मा में रूप-रि-गन्ध-स्पशथ भी
िै और आत्मा बोलता भी िै और वे इि प्रकार की दलीलें भी दे ते िैं । सकन्तु इि समली हुई अवसर्ा में भी जो शब्द िै , वि
शब्द पुद्गल का पररर्णमन िै । अत: आत्मा बोलता निीों िै , कुछ किता निीों िै ऐिा सववेक रखें । िाँ आत्मा के सबना
ऐिा शब्दपररर्णमन निीों िोता इिीसलए सनसमत्त किा जाता िै तर्ा उपादान की पररर्णसत उपादान में िी िोती िै । प्रत्येक
पदार्थ को स्वतन्‍त्र सनरखना िी सववेक िै । यि आत्मा दे ि में बि रिा िै तो क्या दे ि में बि रिा िै? निीों बि रिा िै । कोई
किे सक शरीर िे इिे जरा अलग तो कर दो, परन्तु तुम उिे अलग निीों कर िकते । अत: आत्मा दे ि में बि तो जरूर
रिा िै परन्तु अिद् भूत व्विारनय की अपेक्षा बि रिा िै , सनश्‍ियनय िे आत्मा दे ि में निीों बि रिा िै । आत्मा आत्मा
में रिता िै । कभी ऐिा निीों हुआ सक आत्मा आकाश में न रिे । सफर भी आत्मा आत्मा में रिता िै । सनश्‍ियनय िे आत्मा
आकाश द्रव् में भी निीों बिता िै , दे ि में तो बिेगा िी क्या? प्रत्येक द्रव् अपनी अखण्ड ित्ता वाला िै । अत: आत्मा
आत्मा में रि रिा िै । आत्मा का प्रिपथर्ण दे ि में िै । इि आत्मा को जैिा दे ि समला सक वि उिी शरीर में फैल गया ।
जब यि आत्मा िार्ी के शरीर में पहुों िता िै , तो िार्ी के आकाररूप पररर्णत िो जाता िै । और जब वि पेड में पहुों िता
िै , पेड के पत्ती-पत्ती में, फूल-फूल में, पराग में, डासलयोों में प्रस्तुत िो जाता िै । इतना िब कुछ िोते हुए भी यि दे ि में
बिता निीों िै । सनश्‍िय िे आत्मा आत्मस्‍वरूप में िै । सकिी द्रव् का प्रदे श, गुर्ण, पयाथ य दू िरे द्रव् में निीों पहुों िता िै ।
आत्मा यद्यसप दे ि में बि रिा िै , सफर भी परम िमासध के सबना आत्मा नजर निीों आता िै । दे खो तो, लोग दे ि में बिते
हुए भी आत्मा को निीों जान पाते िैं । उिी आत्मा की यि ििाथ िै सक आत्मा में रूप निीों िै , आत्मा में रि निीों िै ।
९२. आत्मा की गन्धरधहतता—अब किते िैं सक आत्मा में गन्ध भी निीों िै । आत्मा को इन्हीों छ: प्रकारोों िे अगन्‍ध
सिद्ध सकया जायेगा । आत्मा गन्ध गुर्ण निीों िै , क्योोंसक वि पुद्गल द्रव् िे जुदा िै । घ्रार्णेद्धिय को कोई निीों जानता िै
सक सकि जगि िे यि प्रार्णी गोंध ग्रिर्ण करता िै , कैिे करता िै —यि पता निीों िल पाता िै । क्योोंसक घ्रार्णेद्धिय अव्क्त

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

िै । आत्मा पुद्गल द्रव् िे जुदा िोने िे गन्ध गुर्ण वाला निीों िै , क्योोंसक पुद्गल द्रव् िे बािर पुद᳭गल का गुर्ण निीों
पहुों िता िै । अत: आत्मा गोंध भी निीों िै ।
९३. इच्छियधवषयों का प्रसं ग—जो मनुष्य पों िेद्धियोों में रत िै , वि उनके सवर्योों में तन्मय िो जाता िै । मनुष्य को
कुछ िूोंघते िमय अपना पता निीों रिता िै । उन्हें दु गथन्ध आसद की भी खबर निीों रिती िै । इद्धियाँ पाँ ि िैं । एक तो इन
पाँ िोों इद्धियोों को नामकमथ न मानो इतने अच्छे क्रम िे बनाई िैं सक उनकी पसििानने में दे र निीों लगती िै ? और एकेद्धिय
द्वीद्धिय त्रीद्धिय आसद की व्‍यवस्‍र्ा शीघ्र िमझ में आ जाती िै । एकेद्धिय जीव के एक स्‍पशथन इद्धिय िै यि िारे शरीर
में िै । 2 इद्धिय जीव के स्‍पशथन व रिना ये दो इद्धिय िैं , िो दे खो गले के ऊपर पसिले रिना (सजह्वा) इों सद्रय समलती िै ।
त्रीद्धिय जीव के स्पशथन रिना व घ्रार्ण ये तीन इों सद्रयाों िैं िो दे खो रिना के ऊपर घ्रार्ण (नाक) इों सद्रय समलती िै । ितुररद्धिय
जीव के स्‍पशथन, रिना, घ्रार्ण व िक्षु ये िार इद्धियाों िोती िैं िो दे खो घ्रार्ण (नाक) के ऊपर िक्षुररद्धिय (आ ख) समलती
िै । प िेद्धिय जीव के स्पशथन, रिना, घ्रार्ण, िक्षु व कर्णथ (कान) ये पाों िोों इद्धिय िोती िैं िो दे खो आ ख िे ऊपर कान
िोते िैं । अब जरा पश्‍िादानुपूवी िे दे खो तो प्राय: उत्तरोत्तर आिद्धक्त की असधकता समलेगी । जैिे—कान िे जो सवर्य
िोता िै , उिके जानने में तेज आिद्धक्त निीों िोती िै सजतनी िक्षुइद्धिय के सवर्य दे खने में आिद्धक्त िोती िै । कोई आ ख
का मनोरम सवर्य दे ख रिा िो, यसद कोई तुम्हें आवाज लगाये , तो जल्दी िुनाई निीों दे ता िै , दे खने िे जल्‍दी उपयोग निीों
िटता िै । दे खने की अपेक्षा िूोंघने का सवर्य असधक आिद्धक्तजनक िै । नाक के सवर्य की अपेक्षा रिनेद्धिय का सवर्य
असधक आिद्धक्त पैदा करता िै । स्वासदि पदार्ों के िखने में सवकल्प भी असधक िोते िैं । नाना प्रकार के अनािार और
झगडे इि जीभ के स्वाद के सलये िी िोते िैं । रिनेद्धिय की अपेक्षा स्पशथन इद्धिय के सवर्य में असधक आिद्धक्त िोती िै
। यद्यसप व्सभिार िुनने का, दे खने का, िूोंघने का, िखने का और छूने का िभी सवर्य-रसत का नाम िै , मैर्ुन को भी
व्सभिार किते िैं , िब इद्धियोों के सवर्योों का नाम व्सभिार िै , परन्तु मैर्ुन के अर्थ में व्सभिार शब्द रूढ िो गया िै
। क्योोंसक िब इद्धियोों के सवर्योों िे असधक आिद्धक्त स्पशथनेद्धिय की िै ।
९४. परमाथा त: द्रव्ये च्छिय के द्वारा गंिन न होने से आत्मा की अगंिता—इन इद्धियोों के बनने का क्रम सकतनी
बातोों को िासबत करता । ये िब इद्धियाँ सनसमत्तनैसमसत्तक भाव िे बन जाती िैं इन्हें कोई बनाता निीों िै । जो पदार्थ बना
पररर्णमा उिकी सवसध का नाम प्रकृसत िै । सनसमत्त पाकर स्‍वयों पररर्णम जाने का नाम प्रकृसत िै । ऐिा सनसमत्त पाकर ऐिा
िोता िी िै , इिी का नाम प्रकृसत िै । घ्रार्ण (नासिका) पुद्गल द्रव् िै । उनका स्वामी आत्मा निीों िै । अत: आत्मा
घ्रार्णेद्धिय के द्वारा जानता निीों िै । जीन को ि धन ज्ञान िी िै । सनसमत्त के द्वारा उपादान पररर्णमता निीों िै । जै िे आपने
एक वीर की फोटो दे खी, उि फोटो को दे खकर आप में कुछ बात िी आई । आत्मा के असभप्राय के कारर्ण वीरता का
भाव आया । वीरत्व का भाव उत्पन्न िोने में फोटो सनसमत्त िै सकन्तु भाव पुरुर् का िै । कमथ प्रकृसत के उदय िे आत्मा में
क्रोध िोता िै । क्रोध प्रकृसतनामक कमथ की प्रकृसत ने क्रोध उत्पन्न निीों सकया । यिाँ यि बात जरूर िै सक क्रोधप्रकृसत
के सबना आत्मा क्रोध निीों कर िकता िै । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव् गुर्ण पयाथ य में पररर्णमता िै । सनसमत्त न िो तो सवभाव
कायथ निीों बन िकता िै । परन्तु उपादान में कायथ उपादान के पररर्णमन िे िी िोता िै । यि घ्रार्णेद्धिय पुद्गल द्रव् के
सनसमत्त िे िी िै । यि इद्धिय रूप रि गोंध स्पशथ रूप िी पररर्णम रिी िै । और कुछ निीों कर रिी िैं ।
९५. परकतृात्‍विुच्छद्ध का दु ष्पररणाम—क्‍या सपता लडके को पालता िै ? निीों पालता िै । सपता को पु त्र का राग र्ा,
स्‍नेि र्ा, उिने राग और स्‍नेि भाव को खूब सकया; रागभाव के करने में जो कुछ िो गया, िो िो गया, परन्तु सपता ने उिे
पाला निीों िै । कोई द्रव् सकिी द्रव् का कुछ करता िी निीों िै । जैिे िम तुम्हें िमझा रिे िैं ऐिा कोई दे खे परन्तु तुम्हें
िम निीों िमझा रिे िैं , तुम स्वयों िमझ रिे िो । अपने िुनाने के राग को समटाने के सलये िम अपने दु ुःख को समटा रिे िैं
। यि मनुष्यभव कोई मामूली तपस्या िे िी निीों समल गया िै । इि मनुष्यभव को पाने के सलये इिका पूवथ जन्म िे सवशेर्
पुरुर्ार्थ हुआ िोगा । भैया ! इि िैतन्य पौरुर् के जाने सबना आत्मा कैिी-कैिी सवपसत्त में फोंिा? पेड में तो दे खो आत्मा
को सकतने प्रदे शोों में जाना पडा । जल की िी दे ख लो, सबना छना पानी खीोंिा और आग पर डाल सदया गया । विाँ क्या
आग पर कोई बिा िकता िै । क्या इि जल के जीव िम न र्े , और आज सकि द्धसर्सत में िैं , पाँ ि इद्धियाों समली िैं , िुन
िकते िैं , दे ख िकते िैं , बोल िकते िैं । बडे -बडे आिायों ने कसठन पररश्रम करके ग्रन्थ बनाए, वे िब तुम्हारे -िमारे सलए
िी तो िैं परन्तु इि पुण्य की कीमत िमारे िमझ में कुछ निीों िै । इतना िौभाग्य मनुष्य बनने में िै । तुम्हारे पुण्य का

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उदय िै । इि मनुष्यभव को पाकर वि काम करना िासिए, जो अगले भव में भी काम दे । अन्य वैभव तो यिीों रि
जायगा, मगर जो ज्ञान प्राप्त हुआ िै , वि एकदम खो जाने वाला निीों िै । ज्ञान मरने पर भी िार् जायेगा, जो िमारी
योग्यता िै वि बनी रिे गी । यसद ज्ञान प्राप्त करने में िब कुछ भी गोंवा सदया जाये , िमझो तुमने कुछ निीों खोया । िम
लाभ में िी रिें गे, िासन कुछ भी निीों हुई । इतने िुन्दर मनुष्यभव को पाकर ज्ञानवृ द्धद्ध में निीों लगाया तो मनुष्यभव में
जन्म लेना सनरर्थक िै । यिाँ परकतृथत्व का भाव न लावो । सजिके कम पुण्य का उदय िै , उिको असधक पुण्यशासलयोों
की नौकरी करनी पडती िै । दू िरोों के पुण्य का उदय िै , यसद िम काम न करें गे तो उनका पुण्य फलेगा कैिे? पर
कतृथत्वबुद्धद्ध का फल िै सक पर की नौकरी करो । आत्मा की भलाई सनसवथकल्प ज्ञान में िै । िमें अपनी सनसवथकल्प िमासध
बनानी िै , ऐिी बात मन में तो आनी िासिए । यि शरीर सजिे आत्मा मानकर िब कुछ कर रिे िो, वि अपने िे सबल्कुल
सभन्न िै । यि शरीर एक सदन जला सदया जाना िै । यि शरीर इतना अशुसि िै उिी शरीर को आत्मा मानकर बेिुध िो
रिे िो, उि शरीर का स्वामी आत्मा निीों िै । शरीर का िी अोंग इद्धियाों िैं । आत्मा घ्रार्णेद्धिय के द्वारा जानता निीों िै ,
घ्रार्ण इद्धिय तो गन्‍ध के ग्रिर्ण में सनसमत्त मात्र िै , अत: आत्‍मा गन्‍धरसित िै ।
९६. स्वभावत: भावेच्छिय के द्वारा गंिन न होने से आत्मा की अगन्धरूपता—आत्मा गन्धरसित िै । आत्मा द्रव्
घ्रार्णेद्धिय के द्वारा गोंध जानता िै , अत: आत्मा गोंधवाला िै , इिका खण्डन तो कर सदया, परन्तु आत्मा भावेद्धिय के द्वारा
तो गन्ध जानता िै । वतथमान जो ज्ञान िै , विी भावेद्धिय िै उि ज्ञान के द्वारा तो आत्मा गन्ध जानता िै अत: आत्मा गन्धवान
िै । इिका उत्तर यि िै सक भावेद्धिय िोती िै क्षायोपशसमकभाव, अत: स्वभावत: भावेद्धिय के द्वारा आत्मा गन्ध ग्रिर्ण
निीों करता िै ।
९७. केवलगन्धावेदन व ज्ञेयतादात्म्य होने से आत्मा की अगन्धरूपता—प्रश्‍न:—आत्मा गन्ध ग्रिर्ण तो करता िै ,
अत: इिका गन्ध िे िम्बन्ध िै , यि मानने में आपको क्या आपसत्त िै ? उत्तर:—यि आत्मा केवल गन्ध को िी तो निीों
जानता िै , िभी पदार्ों का ज्ञान करता िै । जब आत्मा का स्वभाव िम्पूर्णथ सवश्‍व को जानने का िै , तब सफर तो िम्पूर्णथ
सवश्‍व को आत्मा िमझ लेना िासिये । गन्ध का जो ज्ञान हुआ, आत्मा उिमें तो पररर्णत िै । सफर भी क्योोंसक ज्ञे य ज्ञायक
का तादात्म्य निीों िो िकता िै , अत: आत्मा को गन्धवाला निीों कि िकते िैं ।
९८. आत्मा में स्पशागुणविा व स्पशागुणरूपता का अभाव—अब सजि प्रकार गोंध के बारे में किा, उिी प्रकार
स्पशथ के बारे में किते िैं । आत्मा अव्क्त िै । स्पशथनेद्धिय के सवर्य में िी व्क्त की बात आती िै , क्योोंसक स्पशथनेद्धिय
िी व्क्त िै । जैिे इिी आँ ख को लो, जो सद खता िै िार् िे छूने में आता िै , वि स्पशथनेद्धिय िै । उिमें जो दे खने का
गुर्ण िै , वि िक्षुइद्धिय का सवर्य िै । यि जीभ जो सदखाई दे रिी िै , उिके छूने िे ठण्‍डे , गमथ, कडे , नमथ का ज्ञान िोता
िै । छूने का सवर्य स्पशथनेद्धिय का सवर्य िै । जीभ में सफर रिनेद्धियत्व किा रिा? जो जीभ सदखाई दे रिी िै , वि
स्पशथनेद्धिय िै । इिी में स्वाद लेने की जो पररर्णसत िै , विी रिना इद्धिय िै । स्पशथन इद्धिय को व्क्त इद्धिय माना िै ।
रिना आसद इद्धियाँ सदखाई निीों दे ती िैं , अत: वे िब इद्धियाँ अव्क्त िैं । िम कान िे किाँ िे िुनते िैं ? जो पदाथ िै ,
उिके छूने िे भी कुछ न कुछ ज्ञान िोता िै , अत: वि कान का पदाथ भी स्पशथनेद्धिय िै । सजििे ठण्डे , गमथ का ज्ञान िो,
वि स्पशथन इद्धिय िै । जो स्पशथ िे बोध हुआ वि तो स्पशथन इद्धिय िै । यि िमारी आों ख, जो सदखाई दे रिी िै , उिके
छूने िे ठण्डा, गमथ, नमथ का ज्ञान िोता िै , अत: यि आँ ख भी स्पशथन इों सद्रय िै । िवथत्र िारोों इद्धियोों में स्पशथन इद्धिय भी
िै , सफर भी उनिे सभन्न-सभन्न सवर्य का ज्ञान िो जाता िै । प्रसतसनयत सवर्य का ज्ञान मात्र करने वाली िारोों इद्धियाँ अव्क्त
िैं । ज्ञानीजन किते िैं सक आत्मा में स्पशथ गुर्ण निीों िै क्योोंसक आत्मा पुद्गलद्रव्‍य िे सभन्न िै । अत: आत्मा में स्पशथ गुर्ण
निीों िै । एक तो आत्मा स्पशथ गुर्णवाला निीों िै , दू िरे आत्मा स्वयों स्पशथ गुर्ण भी निीों िै , क्योोंसक आत्मा पुद्गल के गुर्णोों
िे न्यारा िै । पुद्गल के गुर्ण रूप, रि, गन्ध, स्‍पशथ िैं उनिे आत्मा अत्यन्त न्यारा िै , अत: आत्मा में स्पशथ निीों िै । एक
पदार्थ का दू िरे पदार्थ में अत्यन्ताभाव िै । सजिे आप सकरर्णें किते िैं , वे क्या िैं ? िूयथ िै? निीों । िूयथ तो इतना िी
प्रकाशमान िै सजतना िवथ प्रदे श िै । िूयथ को सनसमत्त पाकर वे पाि के स्कोंध प्रकाशरूप पररर्णत िो जाते िैं । वे
प्रकाशपररर्णत स्कन्ध िूक्ष्म और स्‍र्ूल िैं । जब उन स्कन्धोों को दे खते िैं , उन्हीों को सकरर्णें कि दे ते िैं । िूयथ के प्रकाश
की वे प्रकाशपररर्णत सकरर्णें गवाक्ष जाल िे सदखाई पडती िैं । प्रकाशपररर्णत जो स्कन्ध िैं उन्हीों का नाम लिर िै । उन्हीों
को सकरर्णें किते िैं । सकिी भी द्रव् का गुर्ण पयाथ य प्रदे श द्रव् िे बािर निीों पहुों िता िै । जिाँ जो आपको िीज सदखाई

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दे ती िै , वि विीों की िीज िै । एक वस्तु का क्या स्वरूप िै ? वस्तु का वस्तु त्‍व क्या िै? इिको यर्ार्थत: िमझो तो पदार्ों
की स्वतन्‍त्रता िमझ में आ जावेगी । यि िब सनसमत्त-नैसमसत्तक भाव का िी व्विार िल रिा िै ।
९९. द्रव्येच्छियता, भावेच्छियता, केवल स्पशावेदन व ज्ञेयतादात्म्य होने से आत्मा की अस्पशारूपता—आत्मा
स्पशथ गुर्ण वाला निीों िै क्योोंसक पुद्गलद्रव् िे वि सभन्न िै । इि पर किते िैं आत्मा स्वयों स्पशथ गुर्ण भी निीों िै । तो न
िोओ, सकन्तु आत्मा द्रव्ेद्धिय के द्वारा स्पशथन करता िै , अत: आत्मा स्पशथ गुर्णवाला मान लो । उिर—निीों, क्योोंसक
आत्मा द्रव्ेद्धिय का स्वामी िी निीों िै , अत: द्रव्ेद्धिय का और आत्मा का कोई िम्बन्ध निीों िै । जैिे दपथर्ण िै । दपथ र्ण
के िामने जो भी िीज आयेगी वि उिमें प्रसतसबद्धम्बत िो िी जायेगी । यसद सनसमत्त िट जाये तो उिका प्रसतसबम्ब भी दपथर्ण
में निीों पडे गा । ऐिा सनसमत्तनैसमसत्तक भाव िै । तर्ासप दपथर्ण में जो सबम्ब िै वि दपथर्ण की पररर्णसत िै , उिमें इिके सनसमत्त
का कोई अोंश निीों गया । अब सजज्ञािु पूछता िै सक द्रव्ेद्धिय के द्वारा आत्मा स्पशथ निीों करता िै । िलो यि मान सलया,
परन्तु भावेद्धिय के द्वारा तो आत्मा स्पशथ ग्रिर्ण करता िै ? उत्तर िै सक भावेद्धिय क्षायोपशसमक पदार्थ िै , अत: आत्मा
स्वभावत: भावेद्धिय के द्वारा स्पशथ गुर्ण को निीों जानता िै ।
शंका:—सकिी भी तरि जानो आत्मा स्पशथ गुर्णको जानता तो िै ? अत: आत्मा स्पशथ वाला िोना िासिये । समािान:—
किते िैं सक आत्मा तो सवश्‍व को जानता िै सवश्‍व को जानने िे आत्‍मा सवश्‍व वाला िो जाना िासिये? अत: आत्मा स्पशथज्ञान
तो करता िै , परन्तु स्पशथ गुर्णवाला निीों िै । पुन: सजज्ञािु पूछता िै सक आत्मा स्पशथज्ञान में पररर्णत िै , उििे आत्‍मा तन्मय
िै अत: स्पशथवाला आत्मा मान सलया जाना िासिए । उत्तर—स्‍पशथ ज्ञेय पदार्थ िै , ज्ञायक आत्मा िै तर्ा ज्ञेय ज्ञायक पदार्थ
कभी तन्मय निीों िो िकता िै । अत: आत्मा अस्पशथ िै , अव्क्त िै । इि प्रकार आत्मा को अरि, अरूप, अगन्ध, अस्‍पशथ
सिद्ध सकया गया िै । ज्ञेय और इद्धियोों के िम्बोंध में िवथत्र सनसमत्त-नैसमसत्तक भाव िै । सनसमत्त-नैसमसत्तक का इतना िम्‍बोंध
िोता िै सक पदार्थ में उिी के अनुिार पररर्णसत िो जाती िै , ऐिा िोने पर भी प्रत्येक पदार्थ स्वतन्‍त्र िी िै ; स्वतन्‍त्र िोकर
िी पररर्णमते िैं । आत्मा के लक्षर्ण में अभी यि बताया गया र्ा सक उिमें रूपासद पुद्गल के िार गुर्ण निीों िैं । सजि
आत्मा में ये िारोों गुर्ण और उनके पररर्णमन निीों िैं , उि िामान्य, दशथनज्ञानमय आत्मा को िमयिार में शुद्ध आत्मा किा
िै ।
१००. आत्मा की इच्छियरधहतता और इच्छियागोचरता—जीव रिरसित िै , रूपरसित िै , गोंधरसित िै , स्पशथ रसित िै ,
ऐिा किने में यि आया सक िार प्रकार के गुर्णोों िे रसित िै और इन गुर्णोों की पयाथ योों िे भी रसित िै । पुद्गलद्रव् में ये
िार गुर्ण पाये जाते िैं —रूप, रि, गोंध, स्पशथ । आत्मा रूप, रि, आसदक िे रसित िै , इिका अर्थ यि सनकला सक आत्मा
में न तो रूपासदक गुर्ण िैं और न रूपासदक पररर्णमन िैं । योों यि आत्मा रूप, रि, गोंध, स्पशथ िे रसित िै , यि शब्द िे
रसित िै । शब्द कोई गुर्ण निीों िोता, सकन्तु यि एक द्रव्पयाथ य िै । पु द्गल द्रव् की द्रव्व् जनपयाथ य िै । जैिे सक
बोंध िूक्ष्म सर्ूलतम छाया आसदक पुद्गल की द्रव्पयाथ य िै इिी प्रकार शब्द भी भार्ा वगथर्णा जासत के स्कोंधोों की
द्रव्पयाथ य िै । अर्ाथ त् शब्द का आधारभूत, स्रोतभूत कोई ऐिी शद्धक्त निीों जो शद्धक्त गुर्ण सनरों तर द्रव् में रिा करे , सकन्तु
भार्ावगथर्णा जासत के पुद्गल में जब िोंयोग अर्वा सवयोग िोता िै तदनुकूल उििे शब्‍द की उत्पसत्त िोती िै । आत्मा
शब्दरसित िै —इिका अर्थ यि हुआ सक शब्द पयाथ य िे रसित िै , यि अपने प िे द्धिय के सवर्योों की अपेक्षा िे वर्णथन
सकया । ५ इद्धियाों िैं —स्पशथन, रिना, घ्रार्ण, िक्षु और श्रोत, ये ५ सवर्य िै , स्पशथ, रि, गोंध, वर्णथ और शब्‍द । इन पाँ िोों िे
रसित यि आत्मा िै इििे यि भी सिद्ध हुआ सक आत्मा कभी भी स्‍पशथन इद्धिय िे निीों जान िकता । िािे सक िम
टटोलकर आत्मा को िमझ जायें सक आत्मा क्या िै तो आत्मा स्पशथनइद्धिय िे न जाना जाये गा, रिना इद्धिय िे भी न
जाना जायगा क्योोंसक रिरसित िे । कोई िािे सक मैं आत्‍मा को िखकर िमझ लूों सक इिका स्वाद क्या िै ? बहुत-बहुत
आिायथजन कि रिे िैं सक आत्मा में अनों त आनन्द िै , आत्मा में िमरि िै , िमता अमृत का रि भरा पडा हुआ िै तो उिे
जीभ िे िख ले, ऐिा कोई िमता अमृत का रि निीों िै , आत्मति निीों िै जो जीभ िे िखा जाये । यि िू घने िे भी
ज्ञात निीों िोता । कोई िू घ-िूँघकर िमझ ले । िू घने िे बहुत िू क्ष्‍म बात िमझी जाती िै । भला गोंध जो िूोंघने में आती
िै क्या उिका आकार आपने दे खा िै ? अर्वा सक िी अन्य इद्धि य िे पसििान लें ऐिी गोंध िोती िै क्या? सकतनी िूक्ष्म
वस्तु िै , िूक्ष्मभाव िै वि गोंध । कोई िोिे सक उि िूक्ष्म गोंध ति को िम घ्रार्ण इद्धिय िे िूोंघ िूोंघकर जान लेंगे तो घ्रार्ण
इद्धिय िे निीों जाना जाता िै । उिमें रूप निीों िै । तो िक्षु इोंसद्रय िे भी निीों जाना जाता िै । आत्मा नेत्रइों सद्रय िे भी

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

अगम्य िै और श्रोत्र इों सद्रय िे भी आत्मा निीों परखा जाता । योों आत्मा प िेद्धिय के सवर्योों िे रसित िै ।
१०१. आत्मा की चैतन्यगु णात्मकता—सफर िै क्‍या आत्मा के अन्दर? िेतना गुर्ण िै । यि िेतना इि जीव का असभन्न
प्रार्ण िै । अनात्‍मभू त लक्षर्ण िै । िेतना न िो आत्मा में सफर क्या िै ? दे खो मोि िे काम न िलेगा । सकिी िीज की सिोंता
रखने िे काम न िलेगा । जगत के ये सजतने बाह्य पररकर िैं ये िब अिार िैं , सभन्न िैं, इनकी प्रीसत करने में सित निीों िै
। इों सद्रय सवर्योों िे भी प्रेम करने में सित निीों िै । मोि छोडकर िी प्रभु के दशथन िो िकेंगे । यि िै तन्य गुर्ण िै िो िी तो
प्रभु िै । िम इि प्रभु के दशथन करना िािें और कर्ायोों को मोि को छोडे निीों तो यि कभी िम्भव निीों सक मुझमें
सवराजमान सवशुद्ध परमात्म ति का दशथन िो िकेगा । पु द᳭गलद्रव् का स्वामी पु द्गल िै । आत्मद्रव् का स्वामी आत्मा
िै । घर में रि रिे िैं , राग करना िोगा, व्वसर्ा रखनी िोगी वि िब तो ठीक िै , सकन्तु सित्त में यि ििी ज्ञान बनाये रिें
सक जब शरीर भी मेरा निीों िै तो और कुछ मेरा िोगा क्या? और िमझ लो सक यसद आज यिाँ पैदा न हुये िोते तो यिाँ
के सलए क्या र्े? तो आत्मा का जो अिाधारर्ण लक्षर्ण िेतनागुर्ण िै उि िेतनागुर्ण का सजन्होोंने अनुभव सकया िै वे पुरुर्
ज्ञानी िैं , मिापुरुर् िैं , धीर िैं , गम्भीर िैं । उनके मोि निीों रिता, कर्ायें भी निीों जगती । ऐिे िी उपयोग िे इि िैतन्यगुर्ण
का दशथन िोता, अनुभव िोता । आत्मा में िै एक िै तन्य नामक ति उि िैतन्य को िी आत्मा किते िैं ।
१०२. गुण गुणी का व्यवहारत: भेदकथन—गुर्ण गुर्णी सभन्न निीों हुआ करते । जै िे मटका में बेल रख सदया इि तरि
आत्मा में िेतना बन गई ऐिा निीों िै । जो दाशथसनक एक र्ोडा िा स्वरूप कर्न भेद पाकर स्वभाव और स्वभाववान को
अलग कर दे ते िैं और सफर स्वभाव का स्वभाववान में िमवाय िम्बोंध िे जोड करते िैं , भेद निीों, कभी तो स्वभाव अलग
िोने का निीों ऐिा वे िमाते जाते िैं और सफर भी स्वभाव िे पृर्क् ति िमझकर स्वभाववान में िम्वाय िम्बोंध िे स्वभाव
को जोडते िैं । जैिे आत्मा का ज्ञानस्वभाव िै , लेसकन इि कर्न भेद िे सक आत्मा तो िै गुर्णी और गुर्ण िै गुर्ण । गुर्ण का
स्वरूप एक जानन िै , आत्मा का स्वरूप । जैिे स्याद्वादी भी किते िैं सक अनन्त धमों का आधारभूत आत्मा िै , वि िै
धमी, ज्ञान िै धमथ । तो ज्ञान का स्वरूप कुछ सभन्न जोंिा ना सकिी रूप िे । इतनी-िी गुर्ण यु द्धक्त के भेद कर्न का आधार
पाकर एकदम यि कि सदया सक गुर्ण भी एक पदार्थ िै , आत्‍मा भी एक पदार्थ िै , और जो िमवाय िम्बन्ध आत्मा में ज्ञान
का िै तो आत्मा ज्ञानी िै । यि िमवाय कभी टू टे गा निीों । ज्ञान आत्मा िे कभी अलग र्ा और सफर लग गया िो ऐिा निीों
िै । अनासद िमवाय मात्र िै । भले िी सनवाथ र्ण को कुछ द्धसर्सत मानने पर आत्मा और ज्ञान का िम्बोंध ये मीमाों िक लोग न
माने , तर्ासप िमवाय तो उिका अनासद िे मानते िैं , लोग गुर्ण गुर्णी के कर्न का भेद मात्र पाकर किते िैं सक ज्ञान
अलग पदार्थ िै और आत्मा अलग पदार्थ िै । पर ऐिा निीों िै । ज्ञान िी का नाम आत्मा िै । कोई एक बात जो आँ खोों िे
सबल्कुल िाफ सदख रिी िै उिको िमझाने के सलए आप क्‍या करें गे? बातोों िे टु कडा करें गे । िीज का तो टु कडा न िोगा
। जैिे एक िौकी का िी स्वरूप जानना िै तो िौकी वि पूरी ज्ञान में आयी, विाँ कुछ कभी न रिी । अब ज्ञान में आयी
हुई उि िौकी को जब िम िमझाने बैठते िैं तो िम उिको अब तोडने लगते िैं , िौकी निीों टू टती, बातोों िे तोडने लगते
िैं , दे खो इिमें िौकोर आकार पडा हुआ िै , इिमें रूप पडा हुआ िै , इि प्रकार का रूप िै आसदक िम तोड-मरोड
करते िैं , पर यि िब एक व्विार कर्न िै । सनश्‍िय िे िौकी कुछ और िै , आकार कुछ और िै , रूपासदक कुछ और
िैं , ऐिी बात निीों िै । इिी प्रकार आत्मा में ज्ञान को िमझाने के सलए भेद कर्न िै , पर आत्मा में ज्ञान बिता िै , यि बात
निीों िै । आत्मा िी स्वयों पूरा ज्ञानस्‍वरूप िै । यि िैतन्य गुर्णात्मक िै । जब कभी पर की अपेक्षा करके सनसवथकल्प द्धसर्सत
िे अपने आपमें आपका पररज्ञान िोता िै , परम सवश्राम िोता िै तो उि द्धसर्सत में आत्मा िैतन्यमात्र िै , यि अनुभव में
आता िै ।
१०३. आत्मा की अधनधदा ष्ट संसथानरूपता—ज्ञानी जीव ने इि िै तन्यस्वरूप का अनुभव सकया िै । तो योों आत्मा
िैतन्यगुर्णस्वरूप िै , इिका कोई आकार निीों िै । जो आकार िमझ में आ रिा िै वि आकार िम्बोंधजसनत िै । िोंिार
अवसर्ा में सजि दे ि में यि जीव गया उि दे िरूप लगता िै अज्ञानी को और दे ि का जो आकार िै उि आकार यद्यसप
प्रदे श िो रिे लेसकन आत्मा का ऐिा आकार बनना, यि आत्मा के स्वभाव िे बनी हुई बात निीों िै । सजि पयाथ य में जाता
िै , सजि दे ि में रिता िै , सजि दे ि के आकार जीव िोता िै , पर जीव स्वयों अपने आपके िि िे अपनी ओर िे इि प्रकार
आकार बदलता रिे िो बात निीों िै । इिसलये इिका कोई िोंसर्ान निीों बताया जा िकता सक आत्मा का आकार क्या
िोता िै । जैिे परमार्णु का आकार बताया जाता, परमार्णु एक प्रदे शी िै , अब वि जैिा िो र्ट् कोर्ण गोल सजि प्रकार भी

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वर्णथन िै िब अर्णुवोों का िब परमार्णुवोों का एक िी प्रकार िै आकार में, इिी प्रकार जीवोों का िबका एक िी प्रकार का
आकार हुआ, िो बात निीों ध्यान में आती । यिाँ तक सक जो सिद्ध जीव हुए िैं , सिद्ध भगवोंत िैं , उन िबका भी आकार
एक िो, िो भी बात निीों । यद्यसप वे मनुष्यभव िे िी मुक्त हुए िैं , उनका आकार मनुष्यभव अनुरूप िी पाया जा रिा जो
पसिले र्ा दे ि न रिकर भी, लेसकन कोई ७ िार् की अवगािना वाला, कोई ५० िार् की, कोई ५०० धनुर् की और कोई
५२५ धनुर् की अवगािना वाला, तो विाँ भी एक आकार बन िकता । कारर्ण यि िै सक वि सजि भव िे मुक्त हुए िैं ,
आकार घटता बढता र्ा कमों के उदय िे िोंिार अवसर्ा में । जब अिकमों िे मुक्त िो गए तो तत्काल िी जै िा जो कुछ
आकार र्ा वि आकार रि जाता िै । वि कम बढ निीों िोता । तो जीव का िोंसर्ान कुछ सनसदथ ि निीों िै ।
१०४. आत्मा की अधलङ्गग्रहणता—यि आत्मा सकिी सलोंग िे पसििाना निीों जाता । सकिी सिह्न िे निीों जाना जाता
। िे तु िे सिह्न िे जैिे सक यिाँ मूसतथक पदार्ों िे एक पररिय िो जाता िै इि तरि परमार्थ जो ज्ञानस्वभाव जो जीवति
िै , ज्ञानमात्र िै उि ज्ञानस्वरूप जीव का क्या सलोंग िै प्रकट सजििे झट जान जायें । अगर इिका कोई सिह्न प्रकट िोता
तो िभी एक ढों ग िे एक ििीरूप िे जान जाते जीव को । कोई अज्ञानी िी न रिता । तो जीव इि प्रकार ऐिा गुप्त
स्वरसक्षत ज्ञासनयोों को व्क्त, अज्ञासनयोों को अव्क्त एक िैतन्य गुर्णस्‍वरूप िै । यसद कोई केवल ज्ञान, ज्ञान का स्वरूप
जो कुछ िोता िै , जो कुछ िमझा िै । केवल जानन को एक उपयोग में रखे रिे उि स्वरूप के तो उिका उपयोग बाह्य
पदार्ों के िम्पकथ िे और आकुलताओों िे दू र िोगा और वि अपने में ज्ञान का अनुभव करे गा क्योोंसक ज्ञान िी ज्ञान का
अनुभव करता िै और उि अनुभव की द्धसर्सत यि िोती िै सक ज्ञान िी ज्ञेय रिता, ज्ञान िी जाननिार रिता अर्ाथत् स्वयों
जानने वाला स्वयों के सवशुद्ध जाननस्वरूप को जानने लगे तो विाँ ज्ञानानुभूसत िोती िै । परमार्थभूत िेतन क्या िै ? यि
विाँ िमझ में आता िै ।
१०५. अध्यात्मज्ञान की उपयोधगता—यि अध्यात्म ज्ञान कलेवा (पार्ेय) के िमान िै सजिकी दृसि करने िे धमथ िोता
िै , वि िमझ में आ जाये तो जिाँ भी िोओ, तसनक दृसि दो और धमथ का फल प्राप्त कर लो । ऐिी शुद्ध आत्मा का इि
िमयिार में वर्णथन िै । वि शुद्ध आत्‍मति प्रत्येक जीव में िै । पयाथ य अशुद्ध िै । सजि काल में जो पयाथ य िै , विाँ भी दृसि
की मसिमा िे शुद्ध आत्‍मति को यि जीव दे ख िी लेता िै । दे खो भैया ! अशुद्ध की दृसि िे शुद्धद्ध प्राप्त िोती निीों और
पर-शुद्ध की दृसि िे भी शुद्धद्ध निीों िोती । इि सनज शुद्ध स्वभाव की दृसि िे शुद्धद्ध िोती िै ।
वि शुद्ध आत्मति कैिा िै , िो बतलाते िैं । यि अों गुली जैिे टे ढी, िीधी आसद रूप १० तरि िे पररर्णम गई, सकन्तु
वि एक अोंगुली िभी रूपोों में सवद्यमान िै । विी एक सजिे ज्ञान के द्वारा तुम जान रिे िो, वि जानी हुई अोंगुली शुद्ध
किलाती िै । दिोों तरि की अोंगुली बनी, उिमें जो एक रिे , उिे शुद्ध किते िैं , जो न टे ढी िै और न िीधी िी िै । शुद्ध
आत्‍मति का जब वर्णथन करें गे तो वि न नारकी िै , न मनुष्‍य िै , न दे व िै और न सतयथ ि िी िै आसद, सकन्तु िवथ परद्रव्
व परभावोों िे सवसवक्त सनज िेतनमय आत्मा िै । सजतनी भी पयाथ यें िैं वि शुद्ध आत्मा निीों िैं ऐिा शुद्ध आत्मति िै ।
जीव न मुक्त िै न िोंिारी िै । कि रिे िैं उिी िैतन्यति को जो न बसिरात्मा िै , न अन्तरात्मा िै और न िी परमात्मा िै
यद्यसप वि क्रमश: िभी पयाथ योों में रिता िै , सफर भी वि इन िभी पयाथ योों िे सभन्न िै अतएव शुद्ध िै । जो लोग पाप करने
में धमथ मानते िैं , उन की बात भी अपेक्षा िे ठीक िै । जैनशास्त्रोों में बतलाया गया िै सक समथ्यात्व के तीव्र उदय में जीव
को उलटी-उल्‍टी बात िू झा करती िै । समथ्यात्व उल्टा िी सदखाई दे ता िै ।
१०६. आत्मस्वरूप का अिदा शान—आत्मा न सशष्य िै , न गुरु िै , न उत्तम िै , न नीि िै , न मनुष्य िै , न दे व िै , न
नारकी िै और न सतयथ ि िी िै —ऐिे शुद्ध आत्मति को योगी जानता िै । पररर्णमन में शुद्ध आत्मति निीों िै । एक
शुद्ध आत्मति िैतन्यमात्र िै । आत्मा न पद्धण्डत िै , न मूखथ िै , आत्मा केवलज्ञानी निीों िै , मसतज्ञानी निीों िै । वि तो शुद्ध
िैतन्यति िै । शुद्ध अग्द्‍सन वि िै जो सकिी प्रकार या पयाथ य में बद्ध निीों िै । पयाथ य, अपेक्षा, भेद, अोंश इनका नाम िी
अशुद्धता को सलये हुए िै । शुद्ध अग्द्‍सन को कोई आकार निीों िै । शुद्ध अग्द्‍सन के ििी अर्थ में कोई अपेक्षा न लगाओ, विी
शुद्ध अग्द्‍सन िै । िीधी अोंगुली शुद्ध अोंगुली निीों िै । टे ढी, िीधी, सतरछी आसद िमस्त पयाथ योों में रिने वाली एक अोंगुली
शुद्ध अोंगुली िै । इिी प्रकार नरक, सतयथ ि, मनुष्य, दे व, सिद्ध पयाथ य आसद में जो आत्‍मा िै , वि तो जानने में आयेगा ।
परन्तु उन िब पयाथ योों में िे सकिी भी पयाथ य में न रिने वाला आत्‍मा न समलेगा । द्रव् का भी कोई सनज स्वरूप िै । द्रव्
के लक्षर्ण में पयाथ य निीों िै । जैिे मनुष्य वि िै जो बूढा भी िै , जवान भी िै , बालक भी िै —िभी अवसर्ाओों में जाकर भी

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उन पयाथ यरूप निीों िै । वि आ खोों िे सदखाई निीों दे ता िै , उिे किते िैं शुद्ध मनुष्य । उि शुद्ध ति पर उपयोग जाने
िे िोंिार के िमस्त सवकल्प सम ट जाते िैं । यसद वि अनुभव में आ जाये तो किना िी क्या ! वि शुद्ध आत्मति जो न
मनुष्‍य िै , न दे व िै , िब अवस्‍र्ाओों में जाकर भी सकिी एक अवसर्ारूप बनकर निीों रिता िै ।
१०७. पररणमन की श्रद्धानुसाररता—द्रव् की शद्धक्त अनासद अनों त िै । रूपासद का नाश निीों िो िकता िै । रूप
िदा रिता िै । परन्तु उिमें पररर्णमन िोता रिता िै । आप शद्धक्त का स्वरूप िोि रिे िैं तो सवकल्प में पयाथ य निीों रिना
िासिए । ध्रुव पर दृसि डालोगे तो ध्रुव बनोगे और यसद अध्रुव पर दृसि डालोगे तो अध्रुव बनोगे । यसद यि श्रद्धा करो सक
िम िामान्‍य आत्मा िैं तो आपके िमस्त सवकल्प छूट जायेंगे । सजनमें यि सवश्‍वाि बन गया िै सक मैं उिका सपता हों
उिको बच्‍िोों की रक्षा करनी िी पडे गी । सजन्हें यि सवश्‍वाि िै सक मैं अमुक हों , उिके अनुिार उिे अपना काम करना
पडता िै । त्यासगयोों को जल्दी गुस्सा इिसलये आता िै सक उन्हें सवश्‍वाि बना रिता िै सक मैं त्यागी हँ , इतनी पोजीशन
का हँ , सकन्तु िम्मान इतना समलता निीों । इि पयाथ यबुद्धद्ध के कारर्ण गुस्सा आता िै । पयाथ यबुद्धद्ध िोने के कारर्ण पयाथ य
के मुतासबक काम करना िी पडता िै । यसद काम उिके अनुिार न िो तो गुस्सा आ जाता िै । िुबि का िमय िै , िब
घूमने जा रिे िैं । एक िेठ जी भी घूमने के सलए सनकले । िामने िे एक सकिान िेठजी को सबना नमस्कार सकये सनकल
जाता िै । यि दे खकर िेठजी को गुस्सा आ जाता िै । कर्ाय उत्पन्न िोने का मूल कारर्ण पयाथ य में अिों कार बुद्धद्ध िै ।
िोंिार में िवथत्र बि पयाथ यबुद्धद्ध का आदर िो रिा िै । िोंिार के िमस्त झगडे , नटखट यि पयाथ यबुद्धद्ध िी कराती िै ।
िवथ पापोों में मिान पाप पयाथ यबुद्धद्ध िी िै , क्योोंसक पयाथ यबुद्धद्ध में प्रगसत का अविर िी निीों समल पाता ।
१०८. आत्मतत्त् के दशा न के यत्‍न की चचाा—सजि पयाथ य की दृसि करने पर इतने ऐब लगते िैं उि पयाथ य को भु लाने
पर शुद्ध आत्मति के दशथ न िोते िैं । दे खने वालोों की सवशेर्ता िै , दे ख िके तो दे ख लें, न दे ख िके तो न दे ख पावें ।
वास्तव में दे खा जाये तो शु द्ध िैतन्य स्वभाव िी धमथ िै । इिका उपयोग बने रिना िी धमथ िै , शील िै और तप िै । सजि
जीव को इतनी लगन िो गई सक मैं उि शुद्ध आत्मति की सनगाि िे कभी भी अलग न िोऊों, मेरा असधक िमय इिी
शुद्ध आत्मति की सनगाि में लगे तो िोंग्रि अपने आप छूटते जाते िैं । शुद्ध ति की सिद्धद्ध के सलए िाधु का वे श अपने
आप िो जायेगा । आप दे खते िैं सक सजनकी इतनी ऊोंिी वृ सत्त िै , ऐिा मिात्मा भोजन के सलए घर आये तो सकतने लोग
आिार न करायेंगे, सकतने लोग उनकी भद्धक्त वैयावृसत्त निीों करें गे । भद्धक्त करना माने प्रसतग्रि । मुसन आसद के प्रसतिमय
शुद्ध आत्मति की दृसि बनी रिती िै । मुसन आसद की ये तपस्यायें शुद्ध आत्मति की दृसि के सलए िैं । ये तपस्यायें
उद᳭दण्‍ड के सलए दण्ड दे ना िै ऐिा उनका सविार िै तासक िमारी शुद्ध आत्मति की दृि बनी रिे । धमथ का लक्षर्ण
शुद्ध आत्मति की दृसि िै । भगवान की भच्छक्त तो योगी का ध्येय ही नही ं है । योगी का ध्येय शुद्ध तत्त् पर दृधष्ट
करना मात्र है । शुद्ध तत्त् की दृधष्ट में जो-जो िािाएं होनी हैं वह उनसे छु टकारा पाने के धलए भगवान की भच्छक्त
करता है । शुद्ध ति की दृसि में जब बाधा आती िै उिको दू र करने का उपाय स्वाध्याय िै , अध्ययन िै , भद्धक्त िै , पू जा
िै , तपस्या िै । भगवान की भद्धक्त के सलए वि मुसन निीों बना िै , वि मुसन बना सनज राम की उपािना के सलए । रमन्ते
योसगनो यद्धस्मन् इसत राम: अर्ाथ त् आत्मा । कुछ ति न रोगी िै , न गरीब िै , न धनी िै न मनुष्य िै , न दे व िै , न नारकी िै ,
न सतयंि िै । िैतन्य मात्र में शुद्ध ति बिता िै । शुद्ध ति अनुभव की िीज िै । समश्री का अनुभव अनुभव िे िी िोता
। तुम सज तनी बात बोलोगे वि शुद्ध ति निीों िै । खासल ि आत्मा का नाम शुद्ध आत्मा । शुद्ध आत्मा का वर्णथन सक या
गया, इिमें न रूप िै , न स्पशथ िै , न गोंध िै , न रि िै और न शब्द िै ।
१०९. जीव का लक्षण चैतन्य—आत्म-प्रकरर्ण िल रिा िै सक जीव कैिा िै ? जीव वि किलाता िै सक सजिमें जानने-
दे खने की ताकत िो । आत्मा में िी जानने -दे खने की ताकत िै । शरीर में जानने दे खने की शद्धक्त निीों िै अत: आत्मा
शरीर िे अलग िै । जीव जो करता िै वि उिका कमथ िै । उिी के अनुिार यि फल भोगता िै । जीव का लक्षर्ण िैतन्य
िै । िैतन्य का काम िै जानना-दे खना । िैतन्य स्वभाव की अपेक्षा िब जीव िमान िैं । जीव के कमथ और कर्ाय का पदाथ
लगा िै । िब किते िैं सक सकिी तरि यि पदाथ िटे , परन्तु िटता निीों िै । जीव दो प्रकार के िोते िैं :—(१) कमथ िसित
(िोंिारी) और (२) सजनके कमथ छूट गये िैं (मुक्त) । कमथिसित जीव िोंिारी किलाते िैं और कमथ िे छूटे हुए जीव मुक्त
किलाते िैं । सजन्हें कमों िे छूटने की इच्छा िै , उन्हें प्रर्म, कमथ िे छूटे हुए सिद्ध भगवान् की और अरिों त भगवान की
भद्धक्त करनी िासिये । सजि तरि भगवान् सिद्ध ने पररग्रि छोडा, उिी प्रकार भगवान की भद्धक्त करने िे पररग्रि छोडने

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

का रास्ता समलता िै । मुक्त जीव सिद्ध िैं । मुक्त जीव िब एक सकस्म के िैं । जैिे खासलि दू ध िब एक तरि का िोता
िै , परन्तु सजिमें पानी समला िै , वि तो कई प्रकार का िो िकता िै —एक छटाों क पानी वाला, आधा पानी वाला आसद ।
दू ध में सजि दू ध के अलावा कोई िीज निीों िै , वि खासलि दू ध किलाता िै । वि तो एक िी तरि का िै । इिी प्रकार
जो जीव कमथ िे मुक्त िैं , वे िब एक प्रकार के िैं ।
११०. संसारी जीवों के भेद व सथावरों का वणान—जो जीव कमथिसित िैं वे दो प्रकार के िैं :—त्रि और सर्ावर ।
सजनके केवल एक स्पशथन इद्धिय िै , वे सर्ावर जीव िैं , ये जीव एकेद्धिय जीव किलाते िैं । सजनके रिना, घ्रार्ण, िक्षु और
श्रोत्र इद्धिय िोती िै वे िब त्रि जीव िैं । ये क्रमश: द्वीद्धिय, तीन इद्धिय, ितुररद्धिय और पोंिेद्धिय जीव िैं , सजनके केवल
एक िी इद्धिय िै , ऐिे सर्ावर जीवोों के भेद िैं —पृथ्वीकासयक, वायुकासयक, जलकासयक, अग्द्‍सनकासयक और
वनस्पसतकासयक जीव । इनमें िे वनस्पसतकासयक जीव दो तरि के िोते िैं :—िाधारर्ण वनस्पसतकासयक जीव और प्रत्येक
वनस्पसतकासयक जीव । िाधारर्ण वनस्पसतकासयक जीव सनगोसदया जीवोों को किते िैं । िरी वनस्पसत, फूल, फल, पत्ते
आसद को प्रत्येक वनस्पसत जीव किते िैं । प्रत्येक वनस्पसतकासयक जीवोों में एक शरीर का स्वामी एक िी िै । और
िाधारर्ण वनस्पसतकासयक जीवोों में एक शरीर के स्वामी अनन्तानन्त सनगोसदया जीव िैं । िाधारर्ण वनस्पसत आँ खोों िे
सदखाई निीों दे ती िै । प्रत्येकवनस्पसत आँ खोों िे सदखाई दे ती िै । बहुत िे लोग आलू-प्याज आसद को िाधारर्ण वनस्पसत
किते िैं । परन्तु िाधारर्ण वनस्पसत तो सदखाई निीों दे ती िै , प्रत्येक वनस्पसत सदखने में आती िै , अत: आलू आसद िाधारर्ण
वनस्पसतकाय निीों िै । प्रत्येक वनस्पसत के दो भेद िैं :—(१) िाधारर्ण िसित प्रत्येकवनस्पसत और िाधारर्णरसित
प्रत्येकवनस्पसत । िाधारर्णिसित प्रत्येक में अनन्‍त सनगोसदया जीव रिते िैं अत: इिे िप्रसतसष्ठत प्रत्येक किते िैं , पालक
की भाजी, आलू, रतालू, अरबी आसद ऐिी िी वनस्पसतयाों िैं । सजनके मोटे पत्ते िोते िैं उनमें अनन्त सनगोसदया जीव रिते
िैं । अप्रसतसष्ठत प्रत्येक में अनन्त सनगोसदया जीव निीों रिते िैं । सफर भी इिमें अिोंख्यात प्रत्येक वनस्पसतकासयक िैं ।
इन्हें अप्रसतसष्ठत प्रत्येक किते िैं । इिमें सभण्डी, लोकी, िैम, िेंगरे आसद िैं । अिोंख्यात प्रत्येक िोने के कारर्ण इन्हें लोग
अिमी, िौदि को निीों खाते िैं ।
१११. त्रसजीवों के प्रकार—अब त्रि जीवोों को किते िैं । सजिके दो इद्धिय, तीन इद्धिय, िार इद्धिय व पाँि इद्धिय
िोती िैं उन्हें त्रि किते िैं । सजन जीवोों के दो इद्धियाों िोती िैं , घ्रार्ण निीों िोती िै उन्हें द्वीद्धिय त्रि किते िैं । सजनके घ्रार्ण
इद्धिय तो िोती िै , परन्तु िक्षु निीों िोती, उन्हें त्रीद्धि य त्रि किते िैं । सजनके िक्षुइद्धिय िोती िै , कर्णथ निीों िोती उन्हें
ितुररद्धिय त्रि किते िैं और सजनके कर्णेद्धिय भी िोती िै , उन्हें पों िेद्धिय त्रि किते िैं । पोंिेद्धिय दो प्रकार के जीव
िोते िैं । एक मन वाले जो सितासित का सववेक रखते िोों, उन्हें िोंज्ञी पों िेद्धिय जीव किते िैं , और दू िरे सजनके मन निीों
िोता और सशक्षा उपदे श भी ग्रिर्ण न कर िकें, उन्हें अिोंज्ञी पोंिेद्धिय किते िैं । अिोंज्ञी जीव सतयंि गसत में िी िोते िैं ।
यसद जीव के िार् कमथ न लगा िो तो िब िी जीव एक िे िो जायेंगे । सकिी को क्रोध आता, खोटे भाव उत्पन्न िोते यि
िब कमथ के उदय के सनसमत्त कारर्ण िे िी िोता िै । अत: िवथप्रर्म कमों का क्षय करना िासिए सकन्तु कमों का क्षय
कमथदृसि िे निीों िोता । यि मनुष्यभव कमों का क्षय करने के सलए िी प्राप्त हुआ िै । स्वभावदृसि—िाधक भद्धक्त पूजा,
धमथ स्वाध्याय—ये िब कमथक्षय करने के सलये िी प्राप्त हुए िैं । िवथ कमों का क्षय िो जाये तो शुद्ध िैतन्य भाव प्रकट
िोता िै । िन से भी िड़ी चीज िमा है । धमथ का िम्बन्ध आत्मा िे िै , धन िे आत्मा का िम्बन्ध निीों िै । प्रत्येक दृसि िे
धमथ करना श्रेष्ठ िै । बाह्य िीजें , जो भी समलती िै , वे सितकर िीजें निीों िैं । परन्तु लोग बाह्य पदार्ों की िी इज्‍जत करते
िैं ।
११२. जगत के धवधवि जीवों को दे खकर धशक्षाग्रहण—ये जगत के नाना तरि के जीव िैं । इनको दे खकर अनुभव
करना िासिए सक धमथ न करने िे यि कीडा हुआ िै । मकोडा हुआ िै । धन िे भी बडी िीज धमथ िै । जीव के नाना भेद
दे खो तो तुम्हारे में ऐिी तकथर्णा उत्पन्न िोगी सक धमथ न करने िे िी ऐिी गसत िोती िै । कोढी को दे खकर यि सविारो सक
धमथ न करने िे ये कोढी हुए । इिी िे तु मन में उनके प्रसत दया आती िै । दया इिसलए आती िै सक कभी ऐिे िम न िो
जायें । अतएव िम लोगोों को दु द्धखयोों की रक्षा करनी पडती िै । धमथ न करने िे िी िोंिार की िारी बातें िोती िैं । जीव
की िभी अवसर्ाओों में िदा िैतन्यस्वभाव रिता िै । उि एक िैतन्यस्वभाव की दृसि िो जावे सक मैं एक िैतन्य िबिे
न्यारा हँ , ज्ञानमात्र हँ , मैं आत्मा में िी हँ , इि प्रकार सजतनी भी आत्मा की दृसि आवे उतना िी धमथ िै । धमथ यिी िै सक

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

िैतन्यस्वभाव की दृसि िोवे । दु द्धखयोों को दे खकर िैतन्यस्वभाव की दृसि लगा लेनी िासिए । धमथिेवन के सलए ज्ञान बढाना
िासिये । भगवान के स्वरूप सनिारने में भी धमथ िै । िामासयक में अपना स्वभाव सविारो । पूजा में भगवान की और
सनजस्वभाव की भद्धक्त की जाती िै । अत: पूजा और भद्धक्त िे भी धमथ िोता िै । भैया ! भगवान की भद्धक्त और आत्मा
का ध्यान करके असधक िे असधक सवशुद्ध लाभ लो ।
११३. धवभक्त धनज एकत्व को जाने धिना शाच्छि मागा का अलाभ—बहुत कुछ जानकर भी सजि एक के जाने
सबना आत्मा के क्‍लेश निीों समटते उि एक के स्वरूप का यिाँ वर्णथन िै । जगत में दु ुःख अनन्त िैं , जो पदार्थ अपने निीों
र्े, न िोोंगे, उनके िम्बोंध में धारर्णा बनाना सक ये मेरे िैं , िब दु :खोों की मूल यि धारर्णा िै । दु ुःख को दू र करने के सलए
इि धारर्णा को बहुत कोसशश करके समटाना िासिए । जगत के पदार्थ मेरे िे सभन्न िैं , मगर भीतर िे सवश्‍वाि निीों िोता
सक ये पदार्थ मेरे निीों िैं । अन्तर में यसद यि सवश्‍वाि जग जाये सक ये पदार्थ मेरे निीों िैं तो िम्यग्दज्ञान िो जाये । िम्‍यग्दज्ञान
यर्ार्थ ज्ञान को किते िैं । पदार्थ जैिा िै , उिमें वैिी श्रद्धा करना िो िम्यग्दज्ञान िै । पदार्थ जैिा िै यसद उिका वैिा ज्ञान
कर सलया जाये तो पदार्थ के शुद्ध स्वभाव के ज्ञान करने में बहुत िहसलयत समलती िै ।
११४. पदाथों का धवश्लेषणात्मक पररज्ञान—पदार्ों को िुगमतया जानने के सलए प्रर्म उनके भेद जानने पडें गे ।
िमस्त पदार्थ सकतने िैं ? िोंिार में एक दो सजतने िो िकते िैं , उतने िी पदार्थ िैं । एक उतना िोता िै सजिका दू िरा
कोई खण्ड न िो िके । पदार्थ एक वि िोता िै सजिका दू िरा सिस्‍िा सकिी भी िालत में निीों िो िकता िै । मैं भी एक
आत्मा हँ आप भी एक आत्मा िै , िमस्त िोंिार के प्रासर्णयोों का आत्मा एक लक्षर्ण िोकर भी अलग-अलग िै , अोंश निीों
िो िकता िै । तो क्या सदखाई दे ने वाले िौकी पुस्तक आसद पदार्थ एक िो िकते ? निीों, ये पदार्थ निीों िैं । ये अनेक
परमार्णुओों का पु ज िै । क्योोंसक सजि पदार्थ का दू िरा सिस्सा िो जाता िै , वि एक निीों िै । िौकी आसद पदार्ों के तो
अनेक सिस्से भी िो िकते िैं । िौकी पुस्तक का प्रत्येक िबिे छोटा सिस्सा एक-एक स्वतोंत्र द्रव् िै उिका नाम परमार्णु
िै । इि प्रकार अनोंत परमार्णुओों का ढे र स्कन्ध किलाता िै । एक-एक परमार्णु वस्तु िै । धमथद्रव् एक िै , आकाश द्रव्
एक िै , अधमथ द्रव् एक िै और एक-एक करके अिों ख्यात कालद्रव् िैं । एक-एक परमार्णु एक-एक अलग द्रव् िै ।
इिका कारर्ण यि िै सक ये एक-एक द्रव् अपने िी पररर्णमन िे पररर्णमते िैं । प्रत्येक द्रव् अपने िी द्रव् क्षेत्र काल में
रिता िै । अत: प्रत्येक द्रव् न्‍यारा-न्यारा स्वतन्‍त्र िै । मैं आत्मा अपने सनज के क्षेत्र में फैला हुआ हँ , मैं उतना िी हँ , उििे
बािर निीों हँ । आपके आत्‍मा में दु :ख-िुख का अनुभव सजतने प्रदे श में िोता िै , उििे बािर निीों िोता िै । प्रत्येक आत्मा
में िुख दु ुःख उिी के आत्मप्रदे शोों में िलता िै , अपने आत्मप्रदे शोों िे बािर निीों जा िकता िै । क्योोंसक प्रत्येक द्रव्
अपनी-अपनी िी पररर्णसत िे पररर्णमता िै ।
११५. ज्ञानी का स्वरूपधनणायन—यि मैं आत्मा अपने पररर्णमन िे पररर्णमता हँ । यद्यसप जैिा सविार मैं करता हँ ,
वैिा सविार आप भी कर िकते िैं । परन्तु आपका सविार स्वतोंत्र सविार िै । मेरा स्वतोंत्र िै । प्रत्येक पदार्थ अपनी िी
पररर्णसत िे पररर्णमते िैं । आपकी कर्ाय आपमें उत्पन्न िोती िै , मेरी कर्ाय मेरे में, प्रत्येक परमार्णु अपने में िी पररर्णमता
िै । मैं अपने में पररर्णमता हँ । यिी कारर्ण िै सक िब पदार्थ अलग-अलग िैं । यि द्रव् आत्मा प्रत्येक अन्य द्रव् िे
अत्यन्त जुदा िै । घर में रिते हुए भी तुम्हारे माता-सपता, स्‍त्री-पुत्र, भाई-बसिन तु म्हारे िे इतने जुदा िैं , सजतने कीडे -
मकोडे , पशु पक्षी आसद अन्य जीव । और आत्माओों की अपेक्षा घर में रिने वाले आत्मा का तुमिे तसनक िम्बन्ध िो गया
िो, यि िो निीों िकता । प्रत्येक आत्मा अपने द्रव् क्षेत्र काल भाव में रिता िै —यसद यि प्रतीसत िो जाये , सफर मोि, राग-
द्वे र्ासद ठिर जाये, यि िो निीों िकता । भेदसवज्ञानी अपने आपमें इि प्रकार सनर्णथय कर लेता िै सक मैं अपनी िी पयाथ योों
में वतथता िला जा रिा हँ , कभी क्रोधी हुआ, कभी मानी हुआ, कभी मायावी हुआ, नाना प्रकार के मुझमें उपद्रव िल रिे
िैं , पररर्णमन िल रिे िैं । ये पररर्णमन आत्मा में िलते तो िैं , परन्तु ये पररर्णमन सकिी िम्बन्ध िे िलते िोोंगे? क्योोंसक ये
तरों गें मुझमें नाना प्रकार की िोती िैं , अत: यि पररर्णमन सनसमत्त के िोने पर िोते िैं । अत: बारम्बार मेरे में जो राग
द्वे र्ासद क तरों गें उठती िैं , वे मैं निीों हँ ।
११६. आत्मा में अन्य व्‍यावृधि और स्वानुवृधि—ज्ञानी सविार करता िै सक जो पदार्ों का ज्ञान िोता रिता िै , क्या
वि मैं हों ? पदार्ों का ज्ञान भी मैं निीों हँ । मैं पदार्ों का स्वामी निीों हँ । क्योोंसक उनमें भी नानापन नजर आता िै । शरीर,
धन, मकान आसद मैं हँ , यि कल्पना भी निीों की जा िकती िै । मैं तो िेतन गुर्ण वाला अमूतथ आत्मा हँ , सजिकी पयाथ यें

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राग-द्वे र् मोि आसद िलती िैं । यसद इि िेतना को भी इिमें नाना गुर्ण िैं , इि तरि िे तकते िैं तो इि तरि का िैतन्य
आत्मा मैं निीों हँ । मैं तो सनसवथकल्प अद्वै त िैतन्य हँ । जब यि ज्ञान िोता िै तब ये िब आपसत्तयाँ दू र िो जाती िैं । मैं
िैतन्य गुर्ण हँ । आत्मा रूप, रि, गोंध, स्पशथ रसित िै । आत्मा को इनिे रसित िो जाना, मगर कुछ िसित भी िैं ? किते
िैं , आत्मा िैतन्य गुर्ण िसि त िै । यि वाक्य भी ठीक निीों िै , क्योोंसक ऐिा किने िे िेतना गुर्ण अलग और आत्मा अलग
प्रतीत िोता िै । आत्मा कैिा िै , यसद िम यि िमझना िािते िैं तो भेद की दृसि िे िी िम आत्मा को बता पायेंगे । भेद
सकये सबना आत्मा को निीों बताया जा िकता िै । दू िरे को आत्मा िमझाया जायेगा तो भेदपूवथक िी िमझाया जायेगा ।
अत: दू िरे को िमझाने के सलए िम किते िैं सक सजिमें िैतन्य गुर्ण िै वि आत्मा िै । जो अनुभव में आ रिा िै , वि
आत्मा िै । सजिे िम पुकारते िैं , वि परमात्मा िै ।

११७. शान मानने की असारता—इि झूठी शक्‍ल का व्विार ऐिा व्विार बन गया िै सक शरीर के िार् में रिकर
अपने आपमें रिने को सित्त निीों िािता िै । और जब इन शक्‍लोों में रिने की िी इिकी आदत िो गई तो इि आत्मा को
इतने द्वों द फोंद करने िी पडते िैं । यसद आत्मा यि िोिे सक यसद मैं मनुष्य न िोता तो मेरा इन लोगोों िे तो पररिय न िोता
। इतना िी िोिकर यसद इि िमागम िे िी अपना मुख मोड सलया जावे और धमथ, ज्ञान करने के सलए िमय सनकाल
सलया जाये तो भी अच्छा िै । यसद मैं बिपन में िी मर जाता तो मेरे सलये ये िब कुछ न िोता । यसद ऐिा िो गया िोता तो
मैं सकि पयाथ य में िोता, इि पयाथ य िे पररिय तो न िोता, अब मैं हँ तो ऐिा सनराला मैं हँ । मैं लोगोों के सलये निीों हों सकिी
आत्मसिद्धद्ध के सलये हँ , ऐिा िमझकर बािरी िाधनोों में रिकर भी धमथ सकये जाओ । ज्ञान ध्यान में सवशेर् उपयोग लगाया
जाये तो अच्छा िै । इि तरि के यत्‍न िे भी िमारा कल्यार्ण पर् प्राप्त िो जाये गा । इि सनसवथकल्प द्धसर्सत को पाये सबना
आत्मशाद्धन्त निीों समल िकती िै । आत्मा की शाद्धन्त का जो मागथ िै उिके सवपरीत पर् पर मत िलो । सवपरीत पर् पर
िलने िे आत्मशाद्धन्त निीों समल िकती िै । वि मागथ िै रत्‍नत्रय । िम्यग्दशथन, ज्ञान, िाररत्र िे आत्मशाद्धन्त समल िकती िै
। आज शुद्ध ति को मानो, आज िी फल समलेगा और कल मानो कल फल समलेगा ।
११८. सच्‍चा जीवन िमािारण में—एक मुसन आिार के सलये गए । आिारोपरान्त बह ने पूछा सक मिाराज आप इतने
िवेरे क्योों आये? मुसन ने किा िमय की खबर न र्ी । मुसन ने पूछा—तुम्हारी उम्र सकतने वर्थ की िै? बह ने किा मेरी उम्र
अभी पाँ ि वर्थ की िै । मुसन ने पूछा—तुम्हारी पसत की सकतने वर्थ की िै? बह ने किा—अभी मेरे पसत की उम्र पाँ ि माि
की िी िै । िेठजी को बह की मूखथता पर गुस्सा आ रिा र्ा । मुसन ने पूछा—तुम्हारे श्‍विुर की क्या उम्र िै ? बह ने किा—
ििु र तो अभी पैदा िी निीों हुए । मुसन ने पूछा—बािी खाया जा रिा िै या ताजा? बह ने किा—अभी बािी िी खाया जा
रिा िै । मुसन तो िले गये । िेठजी ने अब तो बह जी को आडे िार्ोों सलया । किने लगे सक पागल तो निीों िो गई र्ी? तू
कैिी-कैिी बातें कर रिी र्ी? बह ने किा—पागल मैं हँ या तु म, यि तो मुसन के पाि िलकर िी पता िल िकता िै ।
दोनोों के दोनोों विीों वन में पहुों िे और िेठ ने किा सक बह ने तुम्हारे िे जो यि पूछा सक इतने िवे रे क्योों आये , इिका क्या
मतलब र्ा? मुसन ने किा—इिका मतलब र्ा सक तुम छोटी िी अवसर्ा में क्योों मुसन िो गये िो? मैंने तब किा, िमय की
खबर न र्ी अर्ाथ त् जाने कब मर जायें । अच्छा तो बह ने अपनी आयु पाँ ि िाल की क्योों बताई, िेठजी ने पुन: मुसन िे
पूछा । मुसन ने किा—यि बहजी िे िी पूछो । बह ने किा, मेरी उम्र पाों ि िाल की इिसलए िै सक मेरी धमथ में श्रद्धा पाों ि
वर्थ िे िी हुई िै । पसत की पाँ ि माि िे हुई और आपको अभी तक धमथ में श्रद्धा िी निीों हुई िै , अत: आपको किा गया
सक आप पैदा िी निीों हुए । आयु तभी िे सगनी जाती िै जब िे धमथ में श्रद्धा िोती िै । ििुर ने किा, अच्छा यि बताओ
तुमने बािी कब खाया जो तु म मेरी बदनामी कराती िो सक अभी तो िम बािी िी खा रिे िैं । बह ने उत्तर सदया सक तुम
अपने पिले पुण्य के उदय िे प्राप्त धन िे िी िमारा पेट पाल रिे िो, अभी तो तुम नया धमथ कर िी निीों रिे िो िो यि
बािी िी तो हुआ । भैया ! सजन्दगी तभी िे मानो जब िे धमथ पर सवश्‍वाि िोता िै । सनसवथकल्प द्धसर्सत में िी आत्मा की
िच्‍िी सजन्दगी िै ।
११९. वास्तधवक िमापालन—धमथ माने स्वभाव की दृसि । स्वभाव की दृसि न िोकर पर की दृसि को अधमथ किते िैं
। मैं धनी निीों हँ , गरीब निीों हँ , मैं तो एक शुद्ध िैतन्य मात्र आत्मा हँ । परम शुद्ध सनश्‍ियनय िे स्वभाव िे पाये हुए
सवश्‍वाि के पश्‍िात् अनाकुलता रूप पररर्णमन में िी आनन्द िै । िब द्धसर्सतयोों में आनन्द के मागथ िे च्युत निीों िोना
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िासिए । मैं िब झगडोों में पड रिा हँ , परन्तु इनमें आनन्द निीों िै , इतना भी तो सवश्‍वाि रखो । िैतन्य की प्रतीसत िे तो
ति की प्रतीसत िो िकती िै । इिी के सलये में यिाँ तक सक योगी बनकर शिर छोडकर अपनी आत्मा में ज्ञानी रमर्ण
करते रिते िैं । आत्मरुसि िो तो ति की प्रतीसत िो िकती िै । िाधु का सिन्ह पीछी कमण्डलु निीों िै । अकेला िाधु िी
िै । िाँ , वि पीछी कमण्डलु आसद के सबना िल निीों िकता िै । मुसन को िलना आसद भी व्विार के काम करने पडते
िैं । तब पीछी कमण्डलु आसद की आवश्यकता पडती िै । िाधु का लक्षर्ण स्वरूप सविारना िै । िाधु तो अपनी भीतरी
दृसि िे िोता िै । सािु का धचन्ह स्वभावदृधष्ट की च्छसथरता है । श्रावक का धचन्ह स्वभावदृधष्ट का कभी-कभी होते
रहना है । जब वि िाधु बन जाता िै तो उिके स्वभाव में प्रवृसत्त द्धसर्रता करनी पडती िै । इि प्रकार स्वभाव-द्धसर्रता
में मुसन को मुद्धक्त का सनबाथ ध मागथ समल जाता िै । अब तक यि बात आई सक आत्मा िैतन्य गुर्णमय िै । जैिे—अग्द्‍सन में
गमी िै —ऐिा निीों किना िासिये । गमीमय िी अग्द्‍सन िै —ऐिा किना िासिये । इिी प्रकार आत्मा में िैतन्य िै , ऐिा निीों
किना िासिये । इिमें भेद जासिर िोता िै , आत्मा िै तन्यमय िै । इिके असत ररक्त यि भी बात आई र्ी सक आत्मा शब्द
पयाथ य निीों, न वि स्वयों शब्द िै , न वि द्रव् इद्धिय के द्वारा शब्द को जानता िै ँ और न भावेद्धिय के द्वारा शब्द को
जानता िै । शब्द के ज्ञान में तन्मय िोकर भी आत्मा शब्दरसित िै । आत्मा अशब्द, अरूप, अस्पशथ , अगोंध और अरि
िै ।
१२०. आत्मा की अधलङ्गग्रहणता—आत्मा सकिी सिन्ह के द्वारा िमझ में निीों आता िै और न इिका कोई िोंसर्ान
िै , न आकार िै , न प्रकार । आत्मा का कोई आकार स्वयों निीों िोता िै । सनसमत्त को पाकर आत्मा के िों सर्ान स्वयों बन
जाते िैं । सजि शरीर का यि प्राप्त करता िै , उिके आकार रूप यि स्वयों बन जाता िै । यि आत्मा का आकार निीों िै ,
आत्मा का आकार पुद᳭गल के सन समत्त िे बना िै । जै िे यि िार् िै । िार् के बीि में जो पोल िै , विाँ आत्मा निीों िै ।
नाक के बीि में जो पोल िै विाँ आत्मा निीों िै । सजि शरीर िे जीव मुक्त िोता िै , उि प्रमार्ण िे कम या असधक घटने
बढने के कोई कारर्ण न िोने िे यि आत्मा उिी प्रमार्ण मात्र िै ।
१२१. टङ्कोत्कीणा स्वभावमय आत्मा की चचाा—आत्‍मा को कोई बनाता निीों िै । आत्मा की उन्नसत भी िोती िै , परन्तु
तब भी कोई नई िीज बनती निीों िै । आत्मा का जो स्वभाव िै , उि स्वभाव का नाम आत्मा िै , उिी का नाम परमात्मा
िै । जैिे—एक पत्थर िै । उिमें कारीगर को बाहुबली स्वामी की मूसतथ सनकालनी िै । कारीगर उि पत्थर के बीि में उि
मूसतथ को अभी िे दे ख रिा िै , जो मूसतथ उिे उिमें िे सनकालनी िै । वि मूसतथ िमें आँ खोों िे निीों दे खने में आ रिी, परन्तु
वि मूसतथ उि पत्‍र्र में अभी िे सवद्यमान िैं । सजि जगि वि मूसतथ िै , कारीगर उि पत्थर में उिी मूसतथ को दे ख रिा िै ।
वि मूसतथ जो इि पत्थर में िे सनकलनी िै , उिे कारीगर निीों बनाता िै । उि पत्थर में वि मूसतथ िै , सजिे कुछ उपाय करके
वि दु सनया को सदखा दे गा । परन्तु उि मूसतथ के सवकाि का उपाय उि मूसतथ को ढकने वाले अगल-बगल के पत्‍र्र दू र
कर सदये जायें तभी वि मूसतथ प्रगट िो जायेगी । उि मूसतथ में नई िीज कोई डाली निीों गई । बि उि मूसतथ को टाों की िे
सनकाल डाला और िबके िामने प्रस्‍तुत कर दी । इिी प्रकार वि परमात्मा का स्‍वरूप िबके अन्‍दर िै , सजिका सवकाि
िोने पर आत्‍मा परमात्मा किलाने लगता िै । राग-द्वे र्, मोि, कर्ाय के पररर्णमन इि परमात्मा के स्वभाव को आच्छासदत
सकये हुए िैं , अत: वि स्वभाव सदखता निीों िै । ज्ञानी जीव उि सनमथल स्वभाव को कर्ाय रागासद के रिते हुए भी दे ख
रिा िै । ज्ञानी जीव राग-द्वे र् िे मसलन आत्‍मा में भी उि सनमथल स्वभाव के दशथन कर रिा िै । उि स्वभाव के सवकाि
का उपाय उि स्वभाव को ढकने वाले सवर्य कर्ाय आसद को दू र करना िै । जैिे उि पत्थर में िे मूसतथ को प्रकट करने
के सलए िर्ौडी, छै नी और कारीगर काम कर रिे िैं । उि उपाय िे उि मूसतथ को ढाों कने वाले पत्थरोों को िटा दे ते िैं ,
परन्तु इि आत्म-स्वभाव को ढकने वाले सवर्य कर्ायासद को ज्ञान के द्वारा यि आत्मा स्वयों प्रकट कर लेता िै । आत्मा
िे राग-द्वे र् को िटाने के सलए ज्ञान िी कारीगर िै , ज्ञान की छै नी िे तर्ा ज्ञान के प्रिार िे उि िैतन्य स्वभाव को सवकसित
कर सलया जाता िै । इि िैतन्य स्वभाव को दे खने में ज्ञान की िी सवशेर्ता िै ।
१२२. चैतन्यलक्षण की दृधष्ट के धिना आत्मा की अनुपलच्छि—यि ज्ञान िाधक कताथ िै और ज्ञान का िी विाँ प्रयोग
िोता िै । वि स्वभाव टों कोत्‍कीर्णथ की तरि आत्मा में अब भी मौजूद िै । सजिे िम्यग्ददृसि दे खता िै , ऐिा िैतन्यमात्र मैं हँ
। आत्मा का लक्षर्ण िैतन्य िै । सजिकी दृसि िे िैतन्य लक्षर्ण गया उिकी दृसि िे आत्मा भी ओझल िो जायेगा । एक
कर्ानक िै । एक बुसढ या र्ी । उिके रुसलया नाम का एक लडका र्ा । बुसढया ने एक सदन रुसलया को बाजार िे िाग

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

भाजी लाने के सलये भेजा । बेटा बोला, यसद माँ मैं रुल गया तो? माँ ने उिके िार् में एक धागा बाँ ध सदया और किा—
सजिके िार् में धागा बोंधा िोगा, उिे िी तू रुसलया िमझना । रुसलया िाग लेने बाजार में िला गया । भीड में उिका
धागा टू ट गया । वि रोने लगा सक माँ मैं रुल गया, रोता-रोता घर पहुों िा । माों ने बहुत िमझाया सक तू रुसलया िी तो िै ।
उिने किा, रुसलया के िार् में तो डोरा बोंधा िै , माँ िमझ गई । मा ने किा, बेटा तू िो जा, रुसलया समल जाये गा । बेटा
जब िो गया, माँ ने उिके िार् में डोरा बाँ ध सदया । रुसलया जब उठा, बडा प्रिन्न हुआ और माँ िे किने लगा, माँ , रुसलया
समल गया । सजनकी दृसि में वि िैतन्य स्वरूप निीों िै , उनकी दृसि में आत्मा रुल गया िै । सजनकी दृसि में िैतन्य स्वभाव
का ध्यान निीों िै , उनकी दृसि में आत्मा भी निीों िै । अत: आत्मा िैतन्य स्वभाव के द्वारा पसििाना जाता िै । एकान्त में
बैठकर मैं िैतन्य मात्र हँ , िैतन्य का क्या लक्षर्ण िै , यि भी रुसि में आते रिना िासिये । िम अनेक पदार्ों को जानते िैं
। जानकर मैं िैतन्यमात्र हँ , प्रसतभािमात्र हँ , अमूतथ हँ , िबिे परे , िबिे ओझल हँ । इि आत्मा को कोई निीों जानता िै
। “शुद्धसिदद्धस्म”—मैं शुद्ध िैतन्य हँ । इि भावना को बार-बार ले आओ तो उिे अनुभव िोगा सनराकुल द्धसर्सत का और
उि द्धसर्सत में अनुभव करे गा सक मैं िैतन्य मात्र हँ । यि श्रद्धा बढाओ सक मैं न त्यागी हँ , न गृिसर् हँ , न मुसन हों और न िी
पुरुर् हों । सकिी भी पररद्धसर्सत में आत्मत्व का सवश्‍वाि न करो तो धमथ िो जायेगा । धमथ पापोों िे बिने का मागथ िै । धजस
काल चैतन्य स्वभाव की दृधष्ट िन जायेगी, तभी िमा होता है । जब िैतन्य स्वभाव की दृसि निीों िै तो उपवाि, पूजासद
िे पुण्य बोंध तो िो जायेगा, परन्तु बोंधन िे निीों छूट िकते । उि िैतन्य स्वभाव के जानने में एक बडा उपयोग कर लो ।
एक के आगे सजतने सबनदु रखोगे, उिकी उतनी िी कीमत बढे गी । अत: पिले एक को जान लो, सफर पूजा, धमथ, व्रत
उपवािासद सक्रयाएों करो तो वे कल्यार्ण में िाधक िोोंगी । इि िैतन्य स्वभाव को असत पररश्रमपूवथक जानो । श्री
अमृतिन्दजी िूरर किते िैं सक एक उि िैतन्य शद्धक्त के सिवाय, बाकी जो कुछ िै , क्रोध मान माया लोभासद वे िब बाह्य
िैं , पौद् गसलक िैं । बाह्य िमागम को छोडकर िेतना शद्धक्त में अवगािन तो करो ।
१२३. कल्याणलाभ में जीवन की सफलता—जीवन का इतना लम्बा िमय िै । पर वास्तव में दे खा जाये तो िमय
कुछ भी निीों िै । वैिे िमय िै अनासद अनन्त । उि अपररसमत काल के िामने ४०-५० िाल क्या कीमत रखते िैं ? ४०-
५० वर्थ के जीवन का कुछ भी मूल्य निीों िै , सफर भी इि र्ोडे िे जीवन में अनेक वर्थ सवकल्पोों में सबताये, यसद एक घण्टा,
आधा घण्टा, १५ समनट, १ िैकण्ड भी सवकल्प जालोों को छोडकर इि सनज स्वभाव में लगाये तो इि जीव का बडा
कल्यार्ण िोगा । िमें उि आत्मिाधना को पाने के सलये पूजा व्रत आसद में काफी िमय लगाना पडता िै , तब िी उि
िैकण्ड को पाते िैं । धन्य िै वि िमय सजि क्षर्ण आत्मा में ित्य सवश्राम िोता िै । उि अनुभव के बाद जीव को यि
अनुभव िोता िै सक मेरा एक भी समनट सनसवथकल्प िैतन्य स्वभाव के अनुभव सबना न गुजरे । यि जो शरीर पाया िै , बडा
सघनावना िै । अनेक मलोों का सपण्ड यि शरीर िै । मोि के उदय में इतना गन्दा भी यि शरीर पाप के उदय िे जीव को
िुिाता िै । यसद यि शरीर न िोता, दे वोों आसद का सदव् शरीर िोता तब भी रमने के लायक यि शरीर निीों िै । यि
अशुसि शरीर मोि के उदय िे िुिावना लगता िै । स्वरूप िमझ में आये और इि शरीर िे मोि टले तो यि ज्ञान इि
जीव को पाप िे बिा दे ता िै । सवद्या पढना भी पापोों िे बिा दे ता िै । दान, पूजा, भद्धक्त, शील आसद को करने िे जीव
पाप िे बि जाता िै । परन्तु िोंिारिोंतसत के छे द के सलए ज्ञान को अपनाना िोगा । किा भी िै :—धन, कन, कोंिन,
राजिुख िब िी िुलभ कर जान । दु लथभ िै िोंिार में एक यर्ार्थज्ञान ।। धनी लोग िब कुछ न्यौछावर करके भी सववेक
के सबना ज्ञान को निीों पा िकते िैं । िािे कोई गरीब िो, िािे अमीर िो, सजिके पाि ज्ञान िै , उिी के पाि वैभव िै ।
जैिा काम करोगे, वैिी िी गसत समलेगी । अत: अनेक यत्‍न करके अपने आत्मा को जानो । बि सनसवथकल्प िोकर बैठ
जाओ, तभी उि िैतन्यमात्र आत्मा को जान िकते िो ।
१२४. अधहतकर धवषयों से हटकर धहतकर स्वभाव की उपासना का कताव्य—ऐिे परमात्मस्वरूप को सजिका
सक िैतन्य स्वरूप की मुख्यता िे वर्णथन सकया गया िै , िे भव् जीवो ! ऐिे परमात्मस्वरूप आत्मा को अपने आत्मा में
धारर्णा करो । िैतन्य स्वभाव की दृसि अपने में सनरन्‍तर बनाये रिो, जब तक िमस्त प्रकार दु ुःख दू र न िो जायें । पूजा
करते िमय भी किते िैं सक िे सजनेि ! तु म्‍िारे िरर्ण मेरे हृदय में रिे , तुम्हारे िरर्णोों में मेरा हृदय रिे । मैं तुम्हारी तब
तक भद्धक्त करू ों जब तक मोक्ष की प्राद्धप्त न िो जाये । यिाँ ज्ञान और भद्धक्त का मेल अर्वा सववेक सदखाया गया िै ।
उिने द्वै त भद्धक्त में कि सदया सक मेरे िरर्ण तु म्हारे हृदय में रिें , जब तक सनवाथ र्ण प्राद्धप्त न िो । इिी प्रकार ज्ञानी किता

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 49

िै सक कारर्णिमयिार की दृसि तब तक सनरन्‍तर बनी रिे , जब तक आत्मानुभव न िो । सिवाय इि आत्मा के मेरे कोई
शरर्ण निीों िै । यि मिान् धोखा िै सक कोई सकिी को प्यारा लगता िै । ऐिा जो मोि उठता िै , यि मिान् धोखा िै ।
आत्मा का शरर्ण केवल एक आत्मा िी िै । मैं श्रीमान हँ , मैं धनी ह , मैं सवद्वान् ह , मैं अमुक का सप ता हँ , मैं अमुक का
बन्धु हँ , ऐिा आत्‍मा शरर्ण निीों िै , परन्‍तु सकिी भी पयाथ यरूप निीों रिने वाला और िमस्त पयाथ योों में क्रमश: रिने वाला
शद्धक्तमात्र मैं शरर्ण ह । पयाथ यबुद्धद्ध िे िमझा गया मैं आत्मा शरर्ण निीों हँ । शरर्ण िै परम शुद्ध सनश्‍ियनय की दृसि िे
पसििाना गया आत्मा । सजि िैतन्य शद्धक्त में िी िवथस्व िार सनसित िै ऐिा मैं आत्‍मा शरर्ण हँ । यिी िैतन्यशद्धक्त जीव
िै , इिके असत रर क्त िब पौद᳭गसलक िैं । िैतन्यशद्धक्तरूप िे प्रतीत हुआ मैं जीव हँ इिके असतररक्त जीव निीों िै ।
सनसमत्त दृसि िे रागासद पौद् गसल क िैं । उपादान दृसि िे रागासद वैभासवक िैं । रागासद मैं निीों हँ , मैं िैतन्यमात्र आत्‍मा हँ
। जो तरों गें िोती िैं , वे समट जाती िैं , मैं समटने वाला निीों हँ, अत: मैं कोई तरों ग भी निीों हँ । पयाथ य िोती िै , और समट जाती
िै अत: मैं पयाथ य या पररर्णमन भी निीों हों । िैतन्य शद्धक्त के असतररक्त जो भी भाव िैं , िब पौद् गसलक िैं ।
गाथा 50
जीवस्स णच्छि वण्णो ण धव गंिो ण धव रसो ण धव य फासो ।
ण धव रूवं ण सरीरं , ण धव सं ठाणं ण संहणणं ।।५०।।
१२५. जीव के वणााधद के अभाव के प्रसंग में वणा का अभाव का धववरण—जीव के न तो वर्णथ िै , न गन्ध िै , न रि
िै , न स्पशथ िै , न रूप, िै , न शरीर िै , न िोंसर्ान िै और न िोंिनन िै । जीव के वर्णथ निीों िै । रूप किो, वर्णथ , रों ग, िाक्षुर्
किो, एक िी बात िै । ये सदखाई पडने वाले काले पीले नीले लाल िफेद रों ग—ये िब रूप की पयाथ य किलाते िैं । मगर
ये रूप गुर्ण निीों िै । रूप गुर्ण वि िै , सजिे िम इन शब्दोों में कि िकते िैं सक जो एक विी अनेक पयाथ योों रूप पररर्णमता
िै वि गुर्ण िै । जैिे आम ने िरा रों ग छोडकर पीला पाया जो रूप याने अभी िरा र्ा, वि अब पीला िो गया । सजि एक
ति के सलये ‘जो विी’ शब्‍द लगा िै उिे रूप गुर्ण किते िैं । जैिे सकिी मनुष्य के बारे में किा जाये , जो मनुष्य अभी
बालक र्ा वि अब जवान िो गया िै । मनुष्य िामान्य घटता बढता निीों िै परन्तु उिकी अवसर्ाओों में घटाबढी िोती िै
। मनुष्य का पररवतथन माने मनुष्य का अभाव िो तो हुआ निीों । मनुष्‍य िामान्‍य बदलता निीों िै , सकन्तु वि िब अवसर्ाओों
में रिता िै । मनु ष्य सकिी एक अवस्‍र्ारूप निीों रिता िै । जैिे आम जब छोटा िोता तो काला िोता िै । जरा बडा िोने
पर आम का रों ग नीला पड जाता िै । और बडा िोने पर आम का रों ग िरा िो जाता िै । र्ोडा पकने पर पीला और पूर्णथ
पकने पर आम लाल िो जाता िै । आम के िडने पर आम िफेद भी िो जाता िै , । इि प्रकार आम में िभी रों ग िोते िैं
। आम में ये रों ग इि ढों ग िे िोते िैं , सजि क्रम िे आिायों ने इन पयाथ योों का वर्णथन सकया िै । आम में रूप गुर्ण विी का
विी िै , परन्‍तु उिकी पयाथ यें ऐिी िोती जा रिी िैं ।
१२६. पयाायव्‍यामोह की धवधचत्रता—जो कुछ सदखता िै , वि िब पयाथ य िै । इनके आधारभूत शद्धक्त का नाम रूप
गुर्ण िै । आत्‍मा में न रूप गुर्ण िै , न रूप गुर्ण की पयाथ य िी िै । क्‍योोंसक ये रूपासद गुर्ण पुद᳭गल द्रव्‍य के पररर्णमन िैं ।
पुद᳭गल द्रव्‍य के पररर्णमन िोने के कारर्ण अनुभूसत िे सभन्‍न िैं । मैं आत्‍मा सनज की अनुभूसत रूप हों । इिसलये जीव में
रूप निीों िै । जीव का वर्णथ कुछ निीों िै । मेरे में जब रूप गुर्ण निीों िै , तो दु सनया मुझे जानती भी निीों िै । मेरा वि
स्‍वभाव िै , सजिे िम दे खते िैं सक उन िबमें घु लसमल जाते िैं । िामान्‍य में एक व्‍यद्धक्त पकडा निीों जा िकता । जैिा मैं
एक िैतन्‍य आत्‍मा हों । िैतन्‍य िी िवोच्‍ि िम्‍पसत्त िै । रुपया पैिा इनकी क्‍या कीमत िै ? रुपया पैिा के उपयोग में आकर
जीव को कुछ समलना निीों िै ।
मैं सकिी भी सदन दु सनया की तरफ िे मर जाऊों िब झगडा समट जाये । मैं मर निीों िकता, मैं अमर हों , असवनाशी हों
। दु सनया के सवकल्‍पोों को छोडकर सनसवथकल्‍प द्धसर्सत को प्राप्‍त िो जाऊों तो सफर िोंिार के झगडोों िे छु टकारा समल जाये
। सनसवथकल्‍प द्धसर्सत िवोत्‍कृष्‍ट द्धसर्सत िै । मेरे वर्णथ निीों िै । यि वर्णथ पुद᳭गल का गुर्ण और पुद᳭गल की पयाथ य िै । यि
वर्णथ सजि द्रव्‍य में िै उििे बािर निीों जा िकता िै । यि वर्णथ शरीर िे आत्‍मा में निीों पहुों ि िकता िै । मैं वर्णथ निीों हों ।
इतना मोि शरीर िे जीव को िै सजिका कोई सठकाना िी निीों । मोसियोों का कैिा सित्त िै सक ऐिे अशुसि शरीर पर
पाउडर, सलसपद्धस्टक आसद लगाकर क्‍या करना िािती िै । यसद वि स्‍वाों ग अपने िी पसत को सदखाना िै तो पसत तो दो िी
घण्‍टे घर पर रिता िै । यसद यि िुन्‍दरता दू िरोों को सदखाने के सलए िै तो सफर तुम्‍िारे हृदय में सकतनी शुद्धता रिी, यि
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 50

तो आप िी स्‍वयों जानती िोोंगी । यि काम पाउडर लगाना, सलसपद्धस्टक लगाना सकिी को निीों करना िासिए । यसद पुरुर्
य्‍ि शृङ्गार पिन्‍द करता िै , वि सवर्यलोलुपी िै । इि शरीर को िोंयम में लगाना िासिये । शरीर में उपयोग लगाना मोि
की बडी तीव्रता का द्योतक िै । यि वर्णथ िै तो शरीर का िै , आत्‍मा का निीों । शरीर मैं निीों हों । वर्णथ मेरे निीों पाया जाता

१२७. आत्मा की गंि-रधहतता का धवचार—लोग किा करते िैं , दू र बैठो । आपमें बडी दु गंध आती िै । अरे , आत्‍मा
में गन्‍ध िै किा , जो आपको दु गथन्ध आने लगी । गन्ध आती िै तो शरीर िे आती िै । गन्‍ध दो प्रकार की िोती िै िुगन्‍ध,
दु गथन्‍ध, ये दोनोों गन्‍ध गुर्ण की पयाथ य िै । गन्‍ध गुर्ण वि िै , जो दु गथन्‍ध व िुगन्‍ध में रिे । जैिे किा करते िैं सक यि फूल
अभी अच्‍छी गन्‍ध दे रिा र्ा, अब इििे खराब गन्‍ध आने लगी । जो अच्‍छा बुरा लगता वि गन्‍ध गुर्ण निीों िै , पयाथ य िै ।
मेरे में गन्ध निीों िै । गन्‍ध शरीर की वस्‍तु िै , वि आत्‍मा में निीों आ िकती िै । बद्धल्क एक परमार्णु का गन्‍ध गुर्ण दू िरे
परमार्णु में निीों जाता िै , सफर सवजातीय आत्‍मा में कैिे पहुों ि िकती िै ? िैण्‍ट तेल में डाल सदया, परन्‍तु िैण्‍ट की खूशबू
तेल में निीों पोंहुिती िै , िैन्‍ट की खुशबू िैन्‍ट में रिती िै । िैन्‍ट के जो स्‍कन्‍ध िैं वे तेल में निीों पहुों िते िैं । तेल अपनी गन्‍ध
िे गन्‍ध वाला िै , िैन्‍ट की गन्‍ध वाला निीों बन िकता िै । िैन्‍ट की खुशबू िे ते ल की खुशबू सतरोसित िो गई यि भी िो
िकता और िेन्‍ट को सनसमत्त पाकर तेल ने अपनी गोंध का पररवतथन कर सलया िो यि भी िो िकता । जैिे—जल में लाल
रों ग डालने िे जल लाल निीों हुआ । आपको पानी लाल सदखता िै । क्‍या लाल रों ग के सनसमत्त िे पानी ने अपना रों ग बदल
सदया ? यि प्राय: निीों िोता, पानी स्‍वच्‍छ िी िै । इिी प्रकार पुत्र की कौन-िी ऐिी िीज आत्‍मा में आई, सजििे आप
इतने आकृष्‍ट िो जाते िैं सक मेरा जो कुछ िै िो पुत्र िी िै । इि िैतन्‍य पररर्णमन में पर का उपयोग मत करो । वि घडी
धन्‍य िै , जब सक यि आत्‍मा अत्‍यन्‍त सनसवथकल्‍प रिता िै । उिी क्षर्ण की प्रसतक्षा करो सक सजि िमय िब सवकल्‍प छूटकर
आत्‍मा आत्‍मा का िी ध्‍यान करे । यि ध्‍यान ज्ञानमागथ को सदखाता िै । ज्ञान की द्धसर्रता इि अनुभव को उत्पन्न कर दे ती
िै । वि िैतन्य मात्र मेरे में रिो । मेरे में गन्ध निीों िै , गन्ध पुद्गल द्रव् का पररर्णमन िै । वि अनुभूसत िे सभन्न िै , मैं
अनु भूसतमात्र हँ ।
१२८. आत्मा की रसरधहतता का धवचार—रि पाँ ि प्रकार का िै खट्टा, मीठा, कडु आ, िरपरा, कर्ायला । मैं आत्मा
अमूतथ हँ । मैं इन पयाथ योों रूप निीों हँ , और इन पयाथ योों के स्रोतरूप रि गुर्ण मैं निीों हँ । पयाथ य प्रवाि किलाती िै । मैं
उि पयाथ यरूप निीों हँ । शु द्ध िैतन्य ज्ञान की भीतर की गोष्ठी में बैठा हुआ ज्ञानी जब ज्ञानमात्र स्वभाव में तन्मय िोता िै ,
उिे दु सनया निीों जानती िै , मगर वि परमानोंदमय िै । सजििे तीव्र राग िो, उि िीज का त्याग कर दे ना िबिे बडा
बसलदान िै । बसलदान के सबना कुछ निीों िोता िै । आत्मा की स्वतों त्रता के सलये जो कुछ िमें रुिता, उिका त्याग करना
िासिये । आपिे मुझे कुछ समलना िै निीों, मुझिे आपको कुछ समलना िै निीों, क्योोंसक एक द्रव् के प्रदे श दू िरे द्रव् में
निीों जाते िैं । आपको कुछ कुटु म्ब िे भी निीों समलता िै , सफर तुम क्योों मोि करते िो? सजिके घर में सनसध गढी िो, जब
तक उिे पता निीों िै तब तक वि गरीब िै । इिी प्रकार स्वभाव यिी िै , स्वभाव समटाने िे निीों समटता िै , परन्तु सजन्हें
स्वभाव की खबर निीों िै , स्वभाव उनिे अत्यन्त दू र िै । िे अरिन्त ! आपके दशथन मुझमें िी समलेंगे । िे सिद्धदे व ! तुम्हारे
दशथन भी मुझमें िी समलेंगे । मेरे िे बािर तुम्हारे दशथन निीों समल िकते िैं । जब मेरा भगवान और अरिों त सिद्ध भगवान
एक आिन पर सवराजे , लो दशथन िो गये । मैं िैतन्य हँ । ऐिा यि िैतन्य मात्र आत्मा मैं आत्मा हँ । मेरे में कोई रि निीों
िै , मैं रि िे रसित हँ । रि पुद᳭गल द्रव्‍य के पररर्णमन िैं । रि अनुभूसत िे सभन्न िैं , मैं अनुभूसत मात्र हँ । अत: मैं रि िे
सभन्न हों ।
१२९. जीव के रूप, रस, गन्ध, स्पशा का अभाव—जीव के स्पशथ भी निीों िै , स्पशथ जीव की कोई िीज निीों िै । स्पशथ
की आठ पयाथ य िैं —ठण्डा, गमथ, रूखा, सिकना, कडा, नमथ और िल्का, भारी । यिाँ पर प्रश्‍न िो िकता िै सक पदार्थ में
एक गुर्ण की एक पयाथ य रिती िै , सफर स्‍कोंध में स्पशथ गुर्ण की िार पयाथ यें (ठण्डा या गमथ, रूखा या सिकना, कडा या नमथ
और िल्‍का भारी) कैिे आ गई? उत्तर—नमथ-कठोर और िल्का-भारी ये खाि पयाथ यें निीों िैं , सकन्तु यि िमारी कल्पना
िै । अर्वा ये स्कन्ध में िोते िैं । यसद पुद्गल की पयाथ य िैं तो अर्णु में भी िोना िासिए । परन्तु परमार्णु में दो पयाथ य िोती
िैं —ठण्डा या गमथ और रूखा या सिकना । वास्तसवक बात यि िै सक परमार्णु में स्पशथ एक निीों िै और भेद करो तो
उिका कोई नाम निीों िै । उिे स्पशथ इिसलए किते िैं सक वि भी स्पशथन इद्धिय िे जाना जाता िै , यि भी स्पशथन इद्धिय

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 50

िे जाना जाता िै । पुद᳭गल में ऐिे ये दो गुर्ण िैं सजनमें एक का तो स्‍सन ग्ध या रूक्ष परर र्णमन में िे एक िमय एक
पररर्णमन िोता और दू िरे गुर्ण का शीत, उष्ण में िे शीत या उष्ण, इनमें िे एक िमय में कोई एक पररर्णमन िोता ।
परन्तु उन दोनोों गुर्णोों के उक्त सवकाि जाने जाते िैं स्पशथन इद्धिय के सनसमत्त िे , इििे स्पशथ की वे पयाथ यें किी गई िैं ।
जैिे आत्मा में दो गुर्ण िै —(१) ज्ञान, (२) दशथन, सकन्तु दोनोों िेतने का िी काम करते िैं , िेतना के सवकाि िैं । इििे एक
िेतना में दोनोों गसभथत िैं न, इिी तरि स्पशथ गुर्ण में वे दोनोों शद्धक्त गसभथत िैं । आत्मा में कोई प्रकार का स्पशथ निीों िै । योों
आत्मा में वर्णथ, रि, स्पशथ, गन्ध निीों िैं । अर्ाथ त् आत्मा में मूसतथकपना िी निीों िै । आत्मा का िबको ज्ञान िै । सजिमें दु ख
िोता िै , कल्पना िोती िै , विी आत्मा िै । आत्मा अत्यन्त िमीप िै , सफर भी निीों जाना जाता िै , इिमें मोि िी कारर्ण िै
। मोसियोों की तो यि िालत िै सक ‘सवद्यते बालक: कक्षे नगरे भवसत घोर्र्णा ।
१३०. धनमामत्व का एक दृष्टाि—सजन जीवोों ने ऐिा सवश्‍वाि कर सलया सक यि िैतन्य िद् भूत वस्तु मैं हँ , यि मैं िब
पदार्ों िे जुदा हँ । वे जीव सनमोि िो जाते िैं , सजन्हें स्वतोंत्र ित्ता का बोध िो जाता िै , जो जीव िम्यग्दज्ञानी िैं स्वतोंत्र ित्ता
का सजन्हें सवश्‍वाि िै उनके मन में तो सवर्ाद का रों ि भी निीों आ पाता । एक कर्ानक िै —एक सनमोि नाम का राजा
र्ा । उिका पुत्र जों गल में िला जा रिा र्ा । प्याि लगी, पानी पीने के सलये कुटी में गया । कुटी के अन्दर बैठे हुए िाधु
पूछते िैं :—तुम कौन िो, सकिके पुत्र िो? राजपुत्र ने किा:—मैं राजकुमार हँ , और मेरे सपता का नाम राजा सनमोि िै ।
िाधु ने ‘सनमोि’ िुनकर किा, क्या तुम्‍िारे सपता सनमोि िैं । राजपुत्र ने ‘िाँ ’ किा । िाधु बोला, अच्छा मैं परीक्षा लेकर
दे खता हँ सक तेरा राजा कैिा सनमोि िै ? जो सनमोि िै , वि राज्य िी क्या कर िकता िै ? मैं जब तक न लौटू ों कृपा करके
इिी कुटी में सवराजमान रसिये । राजगृि पर िाधु गया । िबिे पिले उिे द्वार पर दािी समली और किने लगा—तू िुन
िेरी स्वासम की बात िुनाऊों तोय, कुोंवर सवनाश्योों सिोंिने आिन पड् यौ िै मोसि । िे िेरी ! िुन, राजा के कुोंवर को शेर ने
मार सदया िै , वि खून िे लर्-पोंर् जोंगल में पडा िै । यि िुनकर सनमोि-िेरी किती िै सक—न मैं िेरी स्‍वाम की, न कोई
मेरा स्वाम, प्रारि की मेल यि, िुनो ऋसर् असभराम ।। मैं सकिी की िेरी निीों हों और मेरा कोई स्वामी भी निीों िै । यि
िब भाग्यवश िोता िै । िेरी का उत्तर िुनकर िाधु बडा प्रभासवत हुआ । अब िाधु पुत्रवधू के पाि जाकर किता िै
सकुः—तू िुन िातुर िुन्दरी अबला यौवनवान । दे वीवािन दल मत्‍यौ तुम्हरो श्री भगवान ।। िे िुन्दरी ! दे वीवािन (शेर) ने
तुम्हारे पसत को खा सलया । तब बह जवाब दे ती िै —तसपया पूरव जन्म की क्या जानत िैं लोग । समले कमथवश आन िम
अब सवसध कीन सवयोग ।। सक क्या जाने िमने पूवथ में क्या सकया? िम िब कमथ के उदय िे आकर समल गये र्े । अब
कमथ के उदय िे सवयोग िो गया िै । यि िुनकर िाधु और असधक आश्‍ियथ में पड गया । सजज्ञािापूवथक और राजमाता
िे किता िै सक—रानी तुमको सवपसत असत िुत खायो मृगराज । िमने भोजन न सकयो सतिी मृतक के काज ।। सक तेरे
लडके को सिोंि ने खा सलया िै और मैं सबना भोजन सकये िला आया हों , क्योोंसक तु म्हें यि िमािार िुनाना र्ा । अब
राजमाता किती िै सक—एक वृक्ष डली घनी पोंछी बैठे आय । यि पाटी पीरी भई िहु सदश उड उड जाय ।। जैिे एक
वृक्ष िै उिकी शाखाओों पर दू र-दू र िे पक्षी आकर बैठते िैं । पौ फटने पर िब अपने वाद्धि त सर्ान को उड जाते िैं
। इिी प्रकार एक कुटु म्ब में िब आकर समल जाते िैं , आयु पूर्णथ िोने पर िब अपने कमोदय के अनुिार गसत को प्राप्त
कर लेते िैं । यि उत्तर िुनकर िाधु में भी कुछ सनमोिता की िोंिार हुआ । सजज्ञािापूवथक वि आगे बढता िै और राजा
के पाि जाकर किता िै —राजा मुखते राम कहु पल पल जात घडी । िुत खायो मृगराज ने मेरे पाि खडी । िे राजन् !
अपने मुख िे ‘राम’ किो । ते रे पुत्र को सिोंि ने खा सलया िै । राजा बडे सनमथमत्‍वपूवथक उत्तर दे ता िै — ‘तसपया तप को
छाों सड योों इिा पलग निीों िोग । वािा जगत िराय का िभी मुिासफर लोग ।। िे तपद्धस्वन् ! तू अपनी तपस्‍या को
छोडकर यिाँ भागता सफरा, यिाँ तो रों ि भी शोक निीों िै । इि प्रकार परीक्षा लेने के सलये आया हुआ कुसटया का िाधु
स्‍वयों राजा के रों ग में रों गकर िला गया ।
१३१. धनमामत्व ज्ञान से धहतोपलच्छि—भैया ! यि िवथ िमागम ऐिा िी िै । यिाँ न तो यि िमागम िार् रिना िै
और न यि इच्‍छु क ऐिा रिेगा । एक िेठ ने एक बडा मकान बनवाया । जब उद᳭घाटन के िमय मकान दे खने के सलये
लोग आये तो उनिे उिने किा यसद इि मकान में कोई कमी िो तो किो । िभी ने बडी प्रशोंिा की । सकन्‍तु एक व्‍यद्धक्त
बोला—एक तो इिमें यि गलती िै सक यि मकान िदा निीों रिे गा । दू िरे इि मकान का बनवाने वाला भी िदा निीों
रिे गा । इिमें इ जीसनयर क्‍या िुधारे ? यि तो जगत का पररर्णमन िै , इन गलसतयोों को कोई िु धार निीों िकता िै । जैन

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सिद्धान्‍त का इि तरि का भेद सवज्ञान और पदार्थ का स्‍वरूप जो युद्धक्त िे भी ठीक उतरे , किीों निीों िै । भगवान् ने ऐिा
किा िै , अत: मान लो ऐिा निीों िै । यसद सकिी दे श में कोई पक्ष न िो और उि जगि पदार्थ के उि स्‍वरूप का वर्णथन
सकया जाये तो जो यि िािते िैं , “ग्रन्‍र् में सलखा िै अत: िम निीों मानते, आिायों ने ऐिा किा िै अत: िम ऐिा निीों
मानते ”—ऐिे सदमाग वाले व्‍यद्धक्त भी द्रव्‍य-स्‍वरूप को िमझकर मानने के सलये तै यार िो जायेंगे । ऐिा द्रव्‍य स्‍वरूप
ऐिा िै , युद्धक्त िे सिद्ध कर लो, तुम्‍िारे सदमाग में उतरे तो मानो । श्रीमत्‍कुन्‍दकुन्‍दािायथ ने यिी तो बात ग्रन्‍र् के प्रारम्‍भ में
किी िै । आत्‍मा वस्‍तु क्‍या िै ? तुम्‍िें इि िीज को युद्धक्त व वैभव के िार् बताऊोंगा, परन्‍तु िमारी जोरावरी िे मत मानना
। प्रत्येक वस्‍तु अपने िी पररर्णमन िे पररर्णमती िैं । यसद िम किें सक ऐिे लोग ऐिे बन जायें , इिी में मेरा भला िै यि
तो समथ्यात्व िै । दू िरे ििमुि में करना िै और—जीवोों पर दया, तो वि जीव किे गा, िमझायेगा और कोई सवर्ाद निीों
करे गा । तुम्हारी िमझ में आये मानना, न िमझ में आये न मानना । जो मैं कि रिा हों , िो ठीक िै यि मैं निीों किता ।
मगर जो बात ठीक िै , यसद वि बात तुम्हारे सित्त में बैठ जाये तो अच्‍छा िै । यसद मैं तुम्‍िें िमझाने में िूक जाऊों तो आगे
िमझने की कोसशश करना । उसित शब्दरिना न बन पाई िो तो इिमें सिद्धान्त का दोर् निीों िै । सजि ज्ञान िे सनमोसिता
बनती िै , इिी में िारा िुख िै । अत: प्रयत्‍न करके यिी कोसशश करना सक मोि न िो । जैिे—यि तुम्हारा लडका खडा
िै , यि तुम्हारे िे अत्यन्त जुदा िै , यि बात श्रद्धा में िी आ जाये , बहुत बडी बात िै ।
१३२. प्राकृधतक चयााधवभाग—दे खो भैया ! पुरुर्ार्थ िार िोते िैं —धमथ, अर्थ , काम और मोक्ष । इनमें िे भैया !
आजकल िाक्षात् मोक्ष तो िै निीों, इिसलये मोक्ष के एवज में एक नई बात बता दें , वि अनेकोों को बडी सप्रय लगेगी । वि
िै नीोंद । िो दे खो ये िार काम िै और २४ घन्‍टे के भाग ४ करो तो ६-६ घन्‍टे हुए । अब धमथ -अर्थ -काम और नीोंद—इन
िार पुरुर्ार्ों के सलये बराबर िमय दो । छि-छि घण्‍टा तक प्रत्‍ये क कायथ करो । पसिले छि घण्‍टा धमथ, दू िरे छि घण्‍टा
अर्थ , तीिरे छि घण्‍टा घर के, दे श के, िम्‍बद्धन्धयोों के काम तर्ा िौर्े छि घण्‍टा (रासत्र के १० बजे िे ४ बजे तक) नीोंद ।
यि तुम्‍िारी सदनियाथ उत्तम रिे गी । यि सजोंदगी रिे गी निीों समट जायेगी । यि शरीर सकराये का टट᳭टू िै , इिे िोंयम में
लगाओ ।
१३३. आत्‍मा का अरूधपत्‍व—रूप माने भौसतकता या मूसतथकता िै , यिाँ रूप का अर्थ रों ग निीों िै । आत्‍मा में
मूसतथकपना निीों िै । क्‍योोंसक जो मूसतथक िोता िै , वि पुद᳭गल िै । पुद᳭गल िे आत्‍मा सभन्‍न िै । आत्‍मा में रूप निीों िै ।
शरीर भी आत्‍मा के निीों िै । शीयथते इसत शरीरम्—जो बरबाद िो जाये उिे शरीर किते िैं । उदू थ में शरीर माने शरारती
िै । जब भीतर िे राग मोि उठता िै , तो लगता िै शरीर बहुत अच्‍छा िै । िारे शरीर में मुख िबिे अच्‍छा लगता िै ,
परन्‍तु शरीर के मुखभाग िे सजतना मैल बिता, उतना किीों िे निीों बिता । उि मैल को सनकालने के सलये दरवाजे भी
बने िैं । आस्‍य माने सजििे लार बिे । लपन जो लप-२ करे , यि पूरा का पूरा शरीर अशुसि िै । बसढ या िे बसढ या
भोजन करने के एक घन्‍टे बाद िी मलवायु सनकलने लगता िै । शरीर का िािे सजतना पोर्र्ण करो वि शरारत िी करता
िै । एक सदन वि आने िी वाला िै सक सजि सदन शरीर छोडकर िले जाना िै । यि शरीर यिीों पडा रिा जायेगा, और
आत्मा सनकलकर िला जायेगा । जैिे औरोों के शरीर जले, वैिे िी यि भी जलाया जायेगा । सबना जाने में िी इतनी आयु
तो बीत गई, शेर् सदन भी िार् पर िार् धरे हुए छोडकर सनकल जाते िैं । िे आत्मन् । अपना भी कुछ दे खना िै या पर
के सवकल्प में योों िी िमय गोंवाना िै । एक पर का अर्णु भी काम में निीों आता िै ।
१३४. दौलत की फजूल मुहब्‍ित—किते िैं सक दौलत के दो लात िोती िैं । सजि िमय वि आती िै , पिली लात
वि छाती में मारती िै , सजिके कारर्ण दौलत वाले को अिों कार िो जाता िै , छाती तन जाती िै । दू िरी लात जब वि जाती
िै तब कमर में जमाकर जाती िै । सजिके कारर्ण दू िरोों के िामने नम जाना पडता िै । इि दौलत की मु िब्‍बत का फल
कटु िोता िै । एक िेठजी र्े । उन्हें धन िे मुिब्‍बत र्ी, लडकोों पर वे तसनक भी सवश्‍वाि निीों करते र्े । उन्हें िाबी भी
न दे ते र्े , लडके बहुत िमझाते पर वि न मानता । जब यमराज छाती पर िढ आ बैठा, तब िेठ को िुध आई और
लडकोों को बुलाकर किता िैं —बच्‍िोों, लो िाबी । लडके किते िैं —सपताजी, िाबी अब िमें निीों िासिए, िार् लेते जाइये
। दु सनया में कुछ भी कर लो मरने के िमय सकिी की निीों िलती िै । मरने के बाद की बात काम में निीों आती िै ।
१३५—जीव से दे ह का पाथाक्य—जीव का शरीर निीों िै । यि शरीर, सजिके कारर्ण दु सनयाँ भर िे मोि करना पडता
िै यि शरीर मेरा निीों िै । इि शरीर िे आत्मा इतना अलग िै जैिे दू ध िे पानी । दू ध दू ध में िै , पानी पानी में िै । गमथ

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करने रख दो, दू ध अलग रि जायेगा । पानी जल जाये गा । शरीर में आत्मा का वाि िै , परन्तु शरीर शरीर में िै और
आत्मा आत्मा में िै । आयुक्षय िोने पर आत्मा शरीर का िार् छोडकर सनकल जाता िै । इिी शरीर के मोि के कारर्ण
धन िे मोि िोता िै और अन्य जीवोों िे मोि िोता िै । मोि िे िी अन्याय न्याय का ख्याल निीों रखी जाता िै । कब तक
िलेगी यि मायािाररता, पोल तो एक सदन खुल िी जानी िै । एक ग्वासलन र्ी । वि पाँ ि िेर दू ध घर िे लेकर िलती
और रास्ते में नदी का उिमें पाों ि िेर पानी समलाकर बाजार में दू ध-बन्‍धनी पर दू ध बेि आती । मिीने के अन्त में उिे
दू ध के पैिे समले । पैिे गठरी में बाँ धकर िली । रास्ते में विी नदी पडी, इच्छा हुई निा सलया जाये । गठरी सकनारे पर
रखी, कपडे उतारे और निाने लगी । उि गठरी को एक बन्दर लेकर पे ड पर िढ गया । उिके ऊपर उिने बहुत पत्थर
फेंके, सकन्तु बन्दर ने गठरी न छोडी । कुछ दे र बाद बन्दर ने पोटली खोली और डाल पर रख ली । उिमें िे एक रुपया
लेता नदी में फेंक दे ता और दू िरा िडक पर । इि प्रकार बन्दर खेल करने लगा । ग्वासलन यि दे खकर किती िै सक
िाय पानी का रुपया पानी में गया और दू ध का रुपया िडक पर पडा समल गया ।
१३६. सृधष्ट के धवषय में धभन्न अधभमत—ये बाह्य पदार्थ िै इनकी रखवाली करने वाला कौन िै ? जगत् में कोई ििाय्य
निीों िै , अपनी दृसि िी ििाय्य िै । कुछ तो जगत् के फोंद में फोंिकर मालूम भी पड गया, कुछ और मालूम पड जायेगा
। वस्तु स्वरूप का ज्ञान िी मेरे सलये ििाय्य िै । यि शरीर जीव का कुछ निीों िै । शरीर कैिे बना, सकिने बनाया? इि
िम्बन्ध में सनसमत्तनैसमसत्त क भाव का प्राकृसतक सनयम िै । लोग किते िैं सक यि िीज प्रकृसत िे उत्पन्न हुई परन्तु क्या
प्रकृसत सकिी को सद खती िै ? िाों ख्योों में तो प्रकृसत शब्द िी सनश्‍सि त िै । और वे प्रकृसत शब्द का कुछ अर्थ भी
असनश्‍सि तरूप में मानते िैं । पुरुर् (आत्मा) में िोने वाले मोि को बताया सक यि प्रकृसत िे िोता िै , प्रकृसत िे एक
मिान् उत्पन्न िोता िै , िीधे शब्दोों में वि ‘ज्ञान’ िै । ज्ञान को भी वे पुरुर् िे उत्पन्न निीों मानते । पुरुर् को िैतन्यस्वरूप
जरूर मानते िैं । जो मूल आिायथ हुए उन्होोंने कोई भी धमथ बेईमानी िे निीों िलाया िै । जानने के सलये अनेक दृसियाों
लगानी पडती िैं । बि यि िब दृसि लगाने में भूल िै । इिी कारर्ण सिद्धान्त में भी भूल िो गई िै । आत्मा में प्रकृसत िे
िमझ उत्‍पन्‍न हुई और िमझ िे अिों कार उत्पन्न हुआ और अिों कार िे पाँ ि इद्धिया —द्रव्‍येद्धियाों और कमेद्धियाँ , शरीर
के अवयव उत्पन्न हुए । इद्धियोों िे पाँ ि भूत उत्पन्न हुए । वे मानते िैं सक गोंध पृथ्वी की िीज िै । अग्द्‍सन नेत्र की िीज िै ।
शब्द का िम्बन्ध आकाश िे िै । जल का िम्बोंध रिना िे और स्पशथ का िम्बन्ध वायु िे िै । वे किते िैं , यि िब प्रकृसत
की िी दे न िै । स्वभाव िे जो िीजें उत्पन्न िोती िै , वि दु सनया को निीों सद खती िै ।
१३७. प्रकृधतस्‍वरूप-—जैिे एक दपथर्ण िै । उिके िामने कोई रों ग सबरों गी िीज रख दी । रों ग सबरों गी िीज िे उिकी
कोई िीज निीों सनकल रिी िै । रों गसबरों गे कागज की िीज िै । अब दपथर्ण को दे खो, दपथर्ण में रों गसबरों गे कागज में कागज
का पररर्णमन सद ख रिा िै । दपथर्ण में जो फोटो उत्पन्न हुआ, वि प्रकृसत िे उत्पन्न हुआ । वि प्रकृसत क्या कागज की
प्रकृसत िे उत्पन्न हुई? निीों । क्या वि दोनोों की प्रकृसत िे उत्पन्न हुई? निीों । यसद वि कागज और दपथर्ण की प्रकृसत िे
उत्पन्न हुआ िोता तो दोनोों में एक िी बात िोनी िासिए र्ी । इिी तरि न केवल दपथर्ण के स्वभाव िे वि उत्पन्न हुआ ।
वास्तव में सनसमत्त-नैसमसत्तक िम्बन्ध का नाम प्रकृसत िै । ऐिी योग्यता वाला दपथर्ण िो और रों गसबरों गे कागज की
असभमुखता का सनसमत्त समले, दपथर्ण इि रूप पररर्णम जाता िै —इिका कारर्ण सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध िै । दपथर्ण का
िी ऐिा स्वभाव िै सक दपथर्ण ऐिे पदार्थ को असभमुख पाये , इि रूप पररर्णम जाता िै , इिका नाम प्रकृसत िै । सनसमत्त-
नैसमसत्तक िम्बन्धपूवथक जो कायथ िोता िै , उिे िमझ लेना । अग्द्‍सन को सनसमत्त पाकर िार् जल जाता िै । क्योों जल जाता
िै , इिमें कोई क्योों िलती निीों िै । यसद कोई न िमझे , िार् पर आग रख दो, अपने आप िमझ जायेगा सक क्योों जल
जाता िै? िूयथ का सनसमत्त पाकर ये पदार्थ प्रकाशरूप पररर्णत िो जाते िैं , ऐिा िी सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध िै । शास्‍त्रोों
के शब्‍दोों का सनसमत्त पाकर आत्‍मा में पररर्णमन िो जाता िै । सनयम, प्रकृसत की बात और सनसम त्तनैसमसत्तक िम्‍बन्‍ध एक
िी बात िै । यि िौकी इिके िामने प्रकाशपररर्णत काष्‍ठ िै । अत: यि काठ को सनसमत्त पाकर प्रकाशरूप पररर्णत िो
रिी िै । दपथ र्ण को सनसमत्त पाकर इि कमरे के पदार्थ प्रकाशरूप पररर्णत िो जाते िैं । जो ये सकरर्णें सदख रिी िैं —ये भी
स्‍कन्‍ध िैं । िू यथ को सनसमत्त पाकर जो प्रकाशरूप पररर्णत िो रिे िैं , जगत् में जो भी सनमाथ र्ण िो रिा िै , वि िब सनसमत्त-
नैसमसत्तक िम्‍बोंध िे िो रिा िै । इिी का नाम प्रकृसत िै ।
१३८. शरीरप्रसंग—जीव के कोई कारर्ण पाकर कर्ाय भाव उत्‍पन्‍न हुए, उि उसदत कर्ाय को सनसमत्त पाकर

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कमथबन्‍धन िो जाता िै । और उि कमथबन्‍धन का नाम िै , कामाथ र्ण शरीर । उिी कामाथ र्ण शरीर के िार् तैजि शरीर भी
िै । उि तैजि कामाथ र्ण शरीर में रिने वाला आत्‍मा सजन परमार्णुओों को ग्रिर्ण करता िै , नाम कमथ के उदय को सनसमत्त
पाकर यि ढा िा बन जाता िै । यि शरीर सनसमत्तनैसमसत्तक िम्‍बोंध िे उत्‍पन्‍न हुआ । यिाँ प्रकृसत माने कमथ और
सनसमत्तनैसमसत्तक िम्‍बोंध । इि प्रकृसत िे िमारा शरीर उत्‍पन्‍न हुआ । यि शरीर औदाररक वगथर्णाओों का बना हुआ िै ।
पोंिेद्धियोों में नारकी और दे व का शरीर वैसक्रयक वगथर्णाओों िे बना िै । मेरे शरीर के सनमाथ र्ण में मा-बाप की कोई करतूत
निीों िै , सफर अपने में यि भ्रम क्‍योों लगाये िो सक मेरे उत्‍पन्‍न करने वाले मेरे माता-सपता िै । तुम्‍िारे शरीर के बनने में
सनसमत्त रजोवीयथ िै तर्ासप िारी सवसध का तो अध्‍ययन कर लो । प्रर्म तो भैया, शरीर न समले तो अच्‍छा िै । शरीर का
बन्‍धन टू ट जाये, यिी िबिे बडा काम िै । मगर मोि में इि काम के सलये उत्‍िाि िी निीों जगता िै । ऐिा प्रयत्‍न करो
सक इि शरीर का बन्‍धन छूट जाये । यि शरीर जीव का कुछ निीों िै । यि िोंस्‍र्ान तो जीव का कुछ िो िी निीों िकता
िै ।
१३९. जीव में वणााधद का अभाव—यि जीव िैतन्‍यशद्धक्त िे व्‍याप्‍त िै , िवथसविार ्‍ सजिका इतना िी िै । जैिे
व्‍यविारीजन राजा को ५ राज्‍योों में फैला हुआ सनरखते िैं , इिी प्रकार अज्ञानीजन जीव को रागद्वे र्ासदक सविार सवकल्‍प
सवतकथ अनेकोों में व्‍याप्‍त हुआ दे खते िैं , सकन्‍तु ज्ञानी पु रुर् इन िबिे िटकर केवल िैतन्‍यशद्धक्तमात्र जीव को सनरखता िै
। जीव का िवथस्‍व िार िैतन्‍यशद्धक्त में िी िमा गया िै । इििे बािर जीव का द्रव्, क्षेत्र, काल, भाव निीों िै । तब सफर
सजतने भी अध्‍यविान सवकार, अनुभाग उदय आसदक किे जाते िैं सजन्‍िें जीव माना जा रिा र्ा वे िब पौद᳭गसलक िैं ,
इिी कारर्ण यि सनर्णथय िमसझये सक जीव के वर्णथ निीों िै। वर्णथ िै तो यि शरीर के । शरीर पौद᳭गसलक िै । पुद᳭गल में
वर्णथ िोता, जीव में वर्णथ निीों िोता । लोग वर्णथ पर इि रूप पर असत मोसित िोते िैं , सकन्‍तु रूप िीज क्‍या िै ? सिवाय एक
रूप को दे ख लेने भर का कोई भाव िै । वि न छूने में आता, न िूोंघने में आता, न रिने में आता । अन्‍य सकिी उपयोग
में आता िी निीों िै । अनेक भोज्‍य पदार्थ खाये , िलो उििे भूख प्‍याि की बाधा समटी, मगर सकिी रूप के सनरखने का
जो एक व्‍यिन िै उििे आत्‍मा को कौनिी शाद्धन्त िोती िै ? सफर रूप िै क्‍या ? कैिा िी रूप िो, कुछ भी वर्णथ िो, वि
एक मात्र िै । उिमें िार ति कुछ निीों िै , सफर शरीर के रूप के िम्‍बन्‍ध की बात िुनो । वि तो स्‍पष्‍ट अिार िै । क्‍या
िै ? िाड माों ि िाम आसदक एक पौद᳭गसलक सपण्‍ड पडा िै उिमें उिका रूप िै सकिी भी प्रकार रिे । उिमें िार
क्‍या िै ? तो शरीर को सनरखकर लोगोों को िवथप्रर्म वर्णथ सदखता िै और उि वर्णथ को दे खकर सफर आिद्धक्त मोि व्‍यविार
आसदक बनाते िैं । वे िब व्‍यर्थ की िीजें िैं , और जीव इिमें व्‍याप निीों रिा । जीव तो अपनी िैतन्‍यशद्धक्त में व्‍याप रिा
िै । इिको इि ढों ग िे भी सनरख िकते िैं सक जैिे एक िी जगि में धमथद्रव्‍य, अधमथद्रव्‍य, आकाशद्रव्‍य रिते िैं , पर यि
तो बतलाओ सक धमथद्रव्‍य, अधमथ और आकाश में व्‍याप रिा क्‍या ? यि तो झट िमझ जायेंगे सक धमथद्रव्‍य अधमथ में निीों
व्‍याप रिा, मगर आकाश में तो व्‍याप रिा ? निीों । जैिे धमथद्रव्‍य अधमथ में निीों व्‍याप िकता इिी प्रकार धमथद्रव्‍य आकाश
में भी निीों व्‍याप िकता । अच्‍छा । तो जीव आकाश में व्‍याप रिा िोगा ? निीों । जीव आकाश में निीों व्ापता । तो जीव
रागासदक भावोों िे तो व्‍याप रिा िोगा ? निीों । जीव रागासदक भावोों िे भी निीों व्‍याप रिा । जीव तो अपने एक जीवत्‍व
स्‍वरूप िे व्‍याप रिा । तो सजिका िवथस्‍विार िैतन्‍यशद्धक्त िै ऐिा यि जीव उतना िी िै , यिाँ तक सजनको ज्ञान िो गया
वे िोंिार िे पार िो गए । िमझ लीसजये । कुछ काल रिें गे सनवाथ र्ण अवश्‍य पायेंगे । सजनको इतनी दृसि समली सक मैं तो
उतना मात्र हों सजिका िवथस्‍विार िैतन्‍य शद्धक्त में िी व्‍याप रिा, इििे बािर निीों । ऐिे इि जीव में वर्णथ की कर्ा करना
यि सवसित्र बात िै । विाँ वर्णथ का क्‍या प्रिोंग ? इिी प्रकार जीव में गोंध किा ? गोंध में जीव निीों व्‍याप रिा । जीव तो
जीव िे सभन्‍न िै , रागासदक उन तक में भी निीों व्‍याप रिा, अन्‍य की तो बात क्‍या किी जाये ! तो जीव में न वर्णथ िै , न रि
िै , न स्‍पशथ । ये िब पुद᳭गल में रिते िैं , पुद᳭गल के गुर्ण िैं , पुद᳭गल गुर्ण की पयाथ यें िैं । इिी प्रकार जीव के मूतथपना
भी निीों िै । िारोों के मेलसमलाप िे िमझा जा िकने वाला मूतथपना भी जीव के निीों िै । जीव एक भावमात्र ति िै ,
अन्‍यर्ा उिमें जानने दे खने की सक्रया िी निीों िो िकती । भावमात्र ति िी कोई जानन दे खन का कायथ कर िकता िै
। मूतथ पदार्थ में तो जानन दे खन का कायथ िो िी निीों िकता ।
१४०. आत्मधहत में दे हदृधष्ट की महती अटक—जीव के शरीर निीों । शरीर की अटक इतनी बडी भारी अटक िै ,
जैिे घर में सकवाड लगे िोों तो वि बडी अटक िै । घर में कैिे घुिा जाये? इिी प्रकार शरीर जीव िै , यि मैं हँ , इि प्रकार

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 50

की जो दृसि िै वि इतनी बडी भारी अटक िै सक जीव अपने घर में प्रवेश निीों कर िकता । शरीर को आत्मा मानना इि
प्रकार अटक िै जैिे घर के द्वार में सकवाड लगे िोों । इि आत्माराम के द्वार पर शरीर में आत्मबुद्धद्ध के सकवाड लगे िैं ,
सवकल्प के सकवाड लगे िैं , अब कैिे िम आत्मगृि में प्रवेश करें ? शरीर मैं हों —यि अटक िब अटकोों में प्रधान अटक
िै । शरीर का अनुराग रखना मोि रखना यि मिापाप िै । यद्यसप जीवन रखने के सलए र्ोडी शारीररक िेवा करनी िोती
िै लेसकन । यि तो िके का अपना-अपना भाव बता िकता िै सक धमथिाधन के सलए िम जीना िािते िैं या जीने के सलए
िम इि शरीर को द्धखलाते सपलाते िैं , यि िब कोई अपने भावोों िे िमझ िकता िै , और यि बात विी िमझ िकता िै
सजिे यि मालूम िै सक धमथिाधन किते सकिे िैं ? कैिा िै आत्मा का धमथ? िैतन्यस्वरूप, सित्स्वभावमात्र । उि
सित्स्वभावमात्र अन्तस्‍ति में उपयोग बिाने को धमथ किते िैं । धमथ यिी करना िै , इिके सलए िम इि पयाथ य में जी रिे
िैं , ऐिे जीने के सलए िम शरीर की िाधना बनाते िैं ऐिा जो भाव करे उिे तो किें गे सक िाँ वि ित्पर् पर िै , पर अन्य
में यि भाव िी निीों िै , खाना पीना, मस्त रिना, शरीर को तो पलोंग पर िी डाले रिना, इििे काम न लेना । किीों यि
शरीर घुल न जाये , इि शरीर की अनेक लोग िेवायें करें , ऐिा भाव रखने वाले तो पापी िैं । उनमें धमथ का अों श निीों िै ,
क्योोंसक शरीर की अटक आत्मदे व के दशथन में इतनी कसठन बाधक िै सक जै िे घर में प्रवेश करने को रोकने में सकवाड
बाधक िै । मजबूत सकवाडे लगे िो तो भीतर िी निीों जा िकते । इि तरि शरीर में अटक बन गयी िो, शरीर िी िब
कुछ िै , वि आत्माराम में प्रवेश निीों कर िकता । यसद कोई धसनक िै तो उिे यि िमझना िासिये सक असक िन बनने
पर, अपने को ज्ञानमात्र मानने पर अपना पूरा पडे गा । तब सफर उि घर में मोि क्योों करना? शरीर में भी मोि न करना
। यसद कोई गरीब िो तो उिे तो यि िमझना िासिये सक िमें तो एक ििज मौका िा भी समल गया । एक बडा भार जो
िमें िटाना पडता धन िोने पर, उि धन िे उपयोग िटाकर अपने को असक िन मानने की जो एक किरत करनी
पडती, मैं उि एक किरत िे बेि गया । एक िुगम वातावरर्ण समला हुआ िै । अब र्ोडा शरीर की अटक और छोड दें
। दे द्धखये —आपका अभी िब कुछ भला िो जायेगा । अरे जो शरीर जल जाने वाला िै , श्मशान में लोग जला डालेंगे
अर्वा किीों फेंक दें गे, पक्षी िोोंट जायेंगे उि शरीर का इतना तेज अनुराग सक सजिमें अपने व्रत का भी ध्यान न रिे ।
सकिी भी प्रकार िो शरीर मौज में रिे ऐिी बुद्धद्ध रखने िे िोंिार बढे गा । अगर िों िार िोंकटोों िे बिना िै तो इतना तो
सकया िी जाना िासिये । यि शरीर मैं निीों हँ ।
१४१. धनरपेक्षता में स्वावलम्बन का प्रकाश—यि िोंसर्ान मैं निीों हँ । जो शरीर का आकार बने , उि आकार को
सनरखकर िम िमझते िैं सक िम बडे बसलि िैं , िम बडे बलवान िैं , िाििी िैं , िम बहुत नामी िैं । अरे यि िोंसर्ान क्या
तेरा िै ? यि तो पौद् गसलक िोंसर्ान िै । तुम तो एक अमूतथ ज्ञानमात्र भाव िो । अपने उि ज्ञानमात्र को िम्हाल । जीव के
िोंिनन भी निीों, िों िनन िड्डी की मजबूती को किते िैं । अद्धसर्-रिना का नाम िों िनन िै । क्या मैं यि िसड्डयाँ हों ? अरे
इि िाड सपोंजर में जो ममत्व रखे हुये िैं वे क्या इि जीवत्तत्व को पा लेंगे? जै िे एक सभखारी पु रुर् सजिके पाि धन निीों
िै और वि सभखारी माने सक मैं तो धन की ममता िे जुदा हँ तो उिका यि मानना बेकार िै , क्योोंसक धन उिको समल
जाये और सफर उिे न अपनाये , उिे न रखे तो विाँ परीक्षा िो िकेगी सक यि ििमुि में असक िन र्ा । योों िी गरीबी
की िालत में नौकर-िाकर निीों समलते िैं शरीर िेवा के सलए और वि गरीब माने सक मैं स्वाधीन हँ तो उिका किना यि
झूठ हुआ । अरे उिे यसद कोई नौकर िाकर समल भी जाये और विाँ भी उििे िेवा न िािे , और जाने सक मैं तो विी हँ
जो पसिले र्ा, िेवा िे ममत्व न रखे तो िमसझये सक वि स्वावलम्बी िै । जब िब कुछ छोडकर अपने को असक िन
अनुभव करते िैं तो शरीर की इतनी ममता रखना सक यि शरीर भी िमारे ढोये निीों िल िकता सजिके ढोने के सलये भी
नौकर िासिये , तब िमसझये सक ऐिे आिक्त जीवन में धमथ की दृसि निीों बन िकती । यि बात एक आत्मा के भले के
नाते िे किी जा रिी िै । अनावश्यक परतोंत्रता िे भाव को सबगाड दे ने वाली िीज िै । आवश्यक िियोग वि तो एक
परस्पर का आदान प्रदान िै , पर शरीर की इतनी आिद्धक्त सक जो कुछ िै दे वता मेरा िो शरीर िै । भले िी िम प्रभु पूजा
कर लें, सकन्तु सित्त में यि बात बिी सक शरीर िी मेरा दे वता, न अरिों त, न सिद्ध, ऐिी तीव्र आिद्धक्त में सवशुद्ध ज्ञान का
अनुभवन आ िके ऐिी पात्रता आ िकती िै क्या? इि जीवाजीवासधकार में जीव के उि स्वरूप का वर्णथन सकया जा रिा
िै सक सजिकी सनगाि िोने पर यि कृतार्थ िो जाये , उि िैतन्यशद्धक्त का दशथन िो जो लोक में अब तक निीों सकया ।
बाह्य बातें तो अनेक बार समली िैं । मैं अनासद अनन्त अिे तुक अिाधारर्ण िैतन्यस्वभाव वाला एक अोंतस्ति हँ । इि

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 50

मुझ अोंतस्ति का सित् शद्धक्त िे िी िम्बोंध िै , तन्यमपना िै । उि िैतन्यशद्धक्त के सिवाय अन्य सकन्हीों भावोों में निीों व्ाप
रिा । आकाश आसदक में क्या व्ापेगा?
१४२. िोलना और दे खना राग िढ़ाने के खास कारण—िबिे असधक सवपसत्त इन्हीों दो खाि कारर्णोों िे समलती िै
। िे आत्मन् ! तू िै रान मत िो सक तुझे मालूम निीों सक आँ ख और मुँि पर सनयन्‍त्रर्ण के सलये दो ढक्‍कन लगे िै । तुम इन
दो ढक्‍कनोों िे आँ ख और मुोंि को बन्द कर डालो तो इन िब सवपसत्तयोों िे छूट जाओगे । बोलना और दे खना जब मदद
करते िैं तो और इद्धियोों के कारर्ण भी असधक नुक्सान पहुों िता िै । कान, नाक में और िारे शरीर में ढक्‍कन निीों िैं ।
िार िे आों ख और मुँि पर ढक्‍कन भी समल गये िैं । लगाओ या न लगाओ तुम्हारी इच्छा िै । यि शरीर मेरा कुछ निीों
लगता िै ।
गाथा 51
जीवस्‍स णच्छि रागो ण धव दोसो णे व धवज्‍जदे मोहो ।
णो पच्‍चया ण कम्मं णोकम्मं चाधव से णच्छि ।।५१।।
१४३. जीव के राग का अभाव—जीव के राग निीों िै , द्वे र् निीों िै और मोि भी निीों िै तर्ा जीव के न तो आस्रव
(भावकमथ) िै , न कमथ िै और न नोकमथ (शरीर) िै । जीव के राग निीों िै अर्वा राग जीव का कुछ निीों िै । राग क्या िीज
िै ? राग प्रकृसत के उदय को सनसमत्त पाकर जीव की िाररत्र शद्धक्त िे िोने वाले पररर्णमन को राग किते िैं । राग आत्मा
का पररर्णमन िै , वि कमोदय को सनसमत्त पाकर हुआ, अत: वि न तो जीव का िी किा जा िकता िै , न कमथ का िी ।
जो सजिका स्व िोता िै , वि उिके पाि तीन काल रिता िै । राग जीव का कुछ निीों िै । कमथ के उदय को सनसमत्तमात्र
पाकर हुआ राग सकिका िो जाये? जैिे दपथर्ण िै , दपथर्ण के िामने रों गसबरों गी िीजें रख दी, दपथर्ण रों ग सबरों गा िो गया । अब
िम रों गसबरों गापन सकिका बतावे ? यसद इि दपथर्ण का कि दे ते िैं तो रों ग-सबरों गापन दपथर्ण का िदा िोना िासिये और
कागज में वि सफर निीों रिना िासिये । यसद रों ग-सबरों गी िीज का रों ग-सबरों गापन बता दे वें तो वि उिके प्रदे श िे बािर
निीों जा िकता िै । वास्तव में रों ग-सब रों गी िीज को सनसमत्त पाकर दपथर्ण रों ग-सबरों गे रूप पररर्णम रिा िै । यिाँ पर जीव
का स्वरूप बताया जा रिा िै । जब जीव के स्वरूप को सनरखते िैं तो राग जीव का निीों िै । िम्यग्ददृसि जीव िरे क िीज
को अनेक दृसियोों िे जब जान लेता िै तो उनके उपयोग में शुद्ध स्वरूप के असतररक्त कुछ ठिर निीों पाता िै । राग
आत्मा में निीों िै , स्वभाव िे दे ख रिे िैं । राग जड पदार्ों में भी निीों िै अत: राग ठिरे गा किाँ ? िम्यग्ददृसि जीव पयाथ य के
अशुद्ध भावोों को आश्रय निीों दे ता िै । ये रागासदक भाव एक क्षर्ण को आते िैं और दू िरे क्षर्ण को िले जाते िैं । यि आत्‍मा
एक क्षर्ण को आने वाले राग आसद में राग करके क्या नफा पायेगा, केवल आकुलता िी पायेगा । इिी प्रकार िम्यग्ददृसि
को राग में राग निीों िोता िै । आये हुए राग पर उिे खेद रिता िै उिे अपनाता निीों िै और न आशा करता िै सक यि
राग बना रिे । वि राग को सवयोग बुद्धद्ध िे टालना िािता िै । जीव के राग कुछ निीों िै । राग आत्मा का पररर्णमन िै
तर्ासप स्वभाव दृसि की प्रधानता िे आत्मा के पाररर्णासमक भाव को दे खने वाला जीव िैतन्यशद्धक्त के असतररक्त सजतने
भाव िैं , उतने भावोों को िम्यग्ददृसि निीों मानता िै । जीव के राग निीों िै । जीव तो िैतन्यस्वरूप िै ।
१४४. दृष्टािपूवाक रागभाव की उपेक्ष्‍यता का वणान—जैिे कोई िेठ िो, आराम िे पलने पुिने वाला िोों । उिे
कैद िो जाये और उिे िक्‍की पीिना पडे तो वि िक्‍की तो पीिेगा, परन्‍तु उिके पीिने में वि आनन्‍द निीों मानता िै ।
उिका िक्‍की पीिने में राग निीों िै । यिी िालत िम्‍यग्ददृसि
्‍ की िै । उिे भोगना पडता िै , परन्‍तु उिकी भोगने में इच्‍छा
निीों िोती िै । सजिका भाव वैराग्द्‍य का िो गया िै , उिका मन तो राग के करने में लगता िी निीों िै । िम्‍यग्ददृसि ्‍ के राग
तो िोता िै , मगर राग में राग निीों िोता िै । जैिे कोई रईि आदमी िै । उिे िो जाये बुखार । वि द्धरोंग वाले पलोंग पर
पडा िो, विाँ िारोों ओर िे िजा हुआ कमरा िो, िारोों ओर िे पोंखे िल रिे िोों, द्वार पर िपरािी खडा िो, डाक्‍टर वैद्य
बुखार दे ख रिे िोों, अर्ाथ त् िब प्रकार का आराम िो, परन्तु क्या वि रईि ऐिे आराम को िािे गा? उिे और्सध दी जा
रिी िो, उिे पी भी रिा िो, परन्तु उिमें उिे राग निीों िै , उिकी यि इच्छा निीों िै सक मैं और्सध ऐिे िी िदा पीऊों । पी
रिा िै अत: और्सध िे राग िै , परन्तु और्सध के राग िे राग निीों िै । वि निीों िािता सक मुझे ऐिी और्सध सजन्दगीभर
समले । और्सध पीकर सकिी के मन में यि भाव निीों आता सक िमें यि और्सध सजन्दगी भर समलती रिे , िािे वि मीठी
िी क्योों न िो? इिी प्रकार िम्‍यग्ददृसि को कमोदय के कारर्ण नाना सवडम्बनाएों िोती िैं , उिे राग भी िोता िै मगर वि उिे
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

िािता निीों िै । िम्यग्ददृसि जीव िीज को िाि लेता िै , मगर वि िाि की िाि को निीों िािता िै , क्योोंसक वि जानता िै
सक यि आत्मा का वैभासवक पररर्णमन िै । क्षसर्णक िै , उिे आस्रव के प्रसत ऐिा सवश्‍वाि िै , मगर वि आस्रवमात्र को निीों
िािता िै । कोई आदमी सकिी दू िरे आदमी की सिों िा कर िी निीों िकता । सिों िा करे गा तो अपनी करे गा और दया भी
करे गा तो अपनी िी करे गा । विाँ सिों िा क्या हुई, दू िरे के िम्बन्ध में जो सविार हुए, इिका नाश िो जाये आसद, उन
सवकल्पोों िे सिों िा हुई और सिों िा भी हुई सवकल्प करने वाले की । जब सिों िा का सवकल्प िोता िै , जीव को मारने का
सवकल्प िोता िै । जीव िािे मरे गा बाद में, पिले सिों िा सवकल्प करने िे िो िी गई ।
१४५. पुण्योदय व पापोदय में समता का धनणाय—िम्यग्ददृसि जीव के सन र्णथय में पाप का उदय और पु ण्य का उदय
बराबर िै । पुण्य के उदय में भी सनसवथकल्‍प शाद्धन्त निीों और पाप के उदय में भी उिे शाद्धन्त निीों िै , ऐिी उिकी प्रतीसत
िै , जो पुण्य और पाप को बराबर दे ख रिा िै , क्या वि उनके कारर्णभूत उपयोग को बराबर निीों मानेगा? मानेगा । और
शु भोपयोग और अशुभोपयोग िे बने िैं पुण्य और पाप । पुण्य और पाप के उदय िे िुख और दु :ख िोता िै , िो वि िुख
दु :ख को भी बराबर मानता िै । िम्यग्ददृसि ने कुछ ऐिी िीज का अनुभव कर सलया िै सक उिकी दृसि में पुण्य भी किकर
िै और पाप भी उिे किप्रद प्रतीत िोता िै । एकेद्धिय जीवोों में गुलाब के पुण्य का उदय अन्य अनेक फूलोों िे असधक िै
। गुलाब के फूल के पुण्य का क्या फल हुआ—फूल का तोडा जाना । पुण्य का उदय िै ना िम्पा के? िो उनके पुण्य का
उदय िोने के कारर्ण वे तोड सलये जाते िैं । खराब फूलोों को कौन तोडता िै ? उनका आयु च्छेद तो लोगोों के सनसमत्त िे
निीों िोता िै । िदा पुण्य और पाप के उदय में कि समलता िै । एक को मानसिक कि और दू िरे को शारीररक कि
िोता िै । यि उपासध भी मानसिक दु ुःख, आसध-मानसिक दु ुःख उप—िमीप, जो मानसिक दु ुःख के पाि ले जाये, उिे
उपासध किते िैं । धनासद िब उपासध िैं । एक क्षर्ण भी जीवन का ऐिा गुजरे सक िमस्त सवकल्‍प छूटकर शुद्धोपयोग रिे
। आत्मा का ध्यान िर वक्त बना रिने के सलए तीन वक्त िामासयक करना बताया गया िै । दे खो ना छ: घण्टे अन्यत्र गये,
सफर िामासयक, शाम की िामासयक िे िुबि की िामासयक में १२ घण्टे का अन्तर रिता िै िो विाँ भी करीब जगने के
तो छि घण्टे गये । सदन की िामासयकोों का अन्तर छि-छि घण्टे का िै । िाधु की नीोंद एक अोंतमुथहतथ िे असधक निीों
िोती िै । यसद उनकी नीोंद अन्तमुथहतथकाल िे असधक िो जाये तो िातवें गुर्णसर्ान िे सगर जाता िै । छट्ठे गुर्णसर्ान का
अन्तमुथहतथ काल भी ४८ समनट का निीों िोता िै , बहुत िल्का मध्यम अन्तमुथहतथ िोता िै । तो िाधु तो अधथरासत्र में भी
िामासयक में बैठ जाते िैं ।
१४६. जीव की अन्य में राग करने की अशक्यता-—जीव के राग निीों िै । जै िे आप किते िैं सक िमारा बच्‍िे में
राग िै । तुम्हारा राग और बच्‍िे में पहुों ि जाये , ऐिा िो निीों िकता । तु म्हारा राग तु म्हारे में िी रिता िै , सकन्तु आप बच्‍िे
को सवर्य बनाकर अपने राग भाव का आसवभाथ व कर रिे िैं । िमारा कोई भी पररर्णमन सकिी अन्य में निीों पहुोंिता िै ।
यि िब एकाों गी नाटक िो रिा िै , दो समलकर कोई कुछ निीों कर रिे िैं , केवल एक िी करने वाला िै , विी उिे दे खने
वाला िै या भोगने वाला िै । भला करते िो तो अपना, बुरा करते िो िो अपना । सभखारी को दे खकर क्या आप उिके
सलये भीख दे ते िैं । आपने सभखारी के रोने को दे खकर अपने आपमें एक नया दु ुःख उत्पन्न कर सलया, उि दु ुःख िे आप
बेिैन िो जाते िैं । अपने दु ुःख को मेटने के सलये आप सभखारी को भीख दे ते िैं । आप बच्‍िे को दु ुःखी दे कर अपने राग
को पूर्णथ करते िैं । आप बच्‍िे को निीों पोर्ते िैं , आप अपने राग को पोर्ते िैं । जो करता िै , वि अपनी बात करता िै ,
दू िरे की कोई कुछ निीों करता िै । इि िोंिार में कोई सकिी की निीों िुनता िै , िब अपनी-अपनी िुनने में लगे िैं ।
कोई सक िी का सितैर्ी निीों िै । िरे क प्रकार िे आप अपने ज्ञान की वृद्धद्ध करके अपने को जान लो ।
१४७. राग की धभन्नता व असारता—जीव के राग निीों िै , यि बात बताई जा रिी िै । राग में ये कर्ाय आ जाती
िैं :—माया, लोभ, िास्य, रसत, स्‍त्रीवेद, पुरुर्वेद और नपुँिकवेद—ये प्रकृसतयाँ राग में आ जाती िैं । राग नाम की कोई
प्रकृसत अलग िे निीों िै । माया, लोभासद कर्ायोों का नाम िी राग िै । ये िब आत्मा में निीों िैं । सजि प्रकार राग आत्मा
का कुछ निीों िै , उिी प्रकार द्वे र् भी आत्मा का निीों िै । क्रोध, मान, अरसत और शोक, भय और जुगुप्सा—ये द्वे र् की
प्रकृसतयाँ िैं । मान द्वे र् में आता िै , इिका कारर्ण जो मान करता िै उिकी दृसि में अन्य लोग मेरे िे नीिे िैं , यि भरा
रिता िै । मान करना द्वे र् की िी सकस्म िै । सकिी िे सवसशि राग िो, उिमें अपने आपके बडप्पन का असभप्राय निीों
रि पाता िै । अपने आपके बडप्पन का ख्याल तभी िोता िै , जबसक सकिी िे द्वे र् िो । अरसत और शोक भी द्वे र् का िी

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

पररर्णमन िै , यि द्वे र् भी आत्मा के निीों िै । ये द्वे र् कमथज िैं , ििे तुक िैं , पौद᳭गसलक िैं , अत: आत्मा के निीों िो िकते
िैं । पुद्गल के सनसमत्त िे िोने वाले पौद् गसलक किलाते िैं । आत्मा में राग-द्वे र् पुद्गल के सनसमत्त के सबना निीों िो पाते
िैं । रागासद िैं आत्मा के िी पररर्णमन । यसद िब प्रकार िे वर्णथन न सकया जाये तो जीव को ठीक सदशा निीों समल पाती
िै । सजिको यिी पता निीों सक राग-द्वे र् मेरे िैं , मुझे दु ुःख दे ते िैं तो राग-द्वे र् मेटने का प्रयत्‍न िी क्या करे गा? राग-द्वे र्
मुझमें उत्पन्न िोते िैं , सजि काल ये उत्पन्न िोते िैं , उि काल ये मेरे में तन्मय िैं । यसद यिी जाने सक ये राग-द्वे र् मुझमें
उत्पन्न हुए िैं और यि पता न िो सक ये ििे तुक िैं , पुद्गल के सनसमत्त िे उत्पन्न हुए िैं तो उिे यि कैिे मालूम िोगा सक
राग-द्वे र् दू र सकये जा िकते िैं? इि कारर्ण उपादान दृसि िे आत्मा में उत्पन्न िोते िैं और सजि काल उत्पन्न िोते िैं ,
तन्मय िैं , तो भी आत्मा के स्वभाव भाव निीों िैं , सनसमत्त पाकर उत्पन्न िोते िैं । ये रागद्वे र्ासद यद्यसप पुद्गल को सनसमत्त
पाकर उत्पन्न िोते िैं मुझमें िी, तर्ासप ये दु ुःखरूप िै , अत: इन्हें दू र करना िासिए । यि भीतर का सविार िी अपने को
बरबाद करता िै । एक तो बािर का कोई शत्रु निीों िोता िै । यसद िोता भी िै तो दू र सकया जा िकता िै । परन्तु अपने
घर में सछपा शत्रु अपनी उन्नसत को रोक दे ता िै , उिकी द्धसर्सत िदा भयावनी िोती िै । ये राग आसद आत्मा के भीतरी
शत्रु िैं , आत्मा के वैभासवक पररर्णमन िैं । स्वभाव दृसि िे दे खने िे यि सनर्णथय िोता िै सक राग-द्वे र् मैं निीों हँ । आज
सकिी पुरुर् के सवर्य में ख्याल िो गया सक यि मेरा दु श्मन िै , तब वि आकुसलत िोता िै और जब यि मालूम िो जाता
िै सक यि मेरा भीतर िे सितै र्ी िै तो समत्रता िो जाती िै ।
१४८. रागवश इष्ट अधनष्ट की कल्पना—पदार्थ िै उत्‍पाद व्य ध्रौव्ात्मक । पदार्थ में इिपने का कोई सनजी ति
निीों िै । जैिे यि िमयिार सकिी को जबदथ स्ती पढाया जाये तो यि उन्हें असनि िै । और जो इिका जानने वाला िै ,
यिी पुस्तक उिे इि िो जाती िै । यि पुस्तक स्वयों न इि िै , और न स्वयों असनि िै । िमारी जैिी रुसि िोती िै उिी के
अनुिार िम सिस्से बना डालते िैं । वस्तु के तो िम सिस्से क्या बना िकते िैं , िमारे में जो अध्यविान अपने पररर्णमन िे
आप उठता िै , िम उिके दो भाग कर डालते िैं —इि और असनि । वास्‍तव में िम पदार्थ के टु कडे निीों कर िकते िैं
। पदार्थ तो स्वयों इि भी निीों िै , न िी पदार्थ असनि िै । राग के कारर्ण वस्तु इि प्रतीत िोती िै और द्वे र् के कारर्ण विी
वस्तु असनि जोंिने लगती िै । जो बच्‍िा आपको बिपन में प्यारा लग रिा र्ा, वि उि िमय आपके सलये इि र्ा, विी
बच्‍िा बडा िोने पर अनुकूल व्विार न िोने िे असनि प्रतीत िोने लगता िै । जो स्‍त्री जवानी में इि प्रतीत िो रिी र्ी,
वि बाल पक जाने के कारर्ण आज असनि प्रतीत िोने लगती िै । कोई परपुरुर् जो आज तुम्हारे सलये असनि िै , और विी
यसद तुम्हारे सवर्यकामनाओों में िाधक बन जाये तो विी इि प्रतीत िोने लगता िै । अपना बालक िपटी नाक का भी िो,
मुोंि िे लार बि रिी िो, तब भी वि आपको इि प्रतीत िोता िै । आपका अपना िेिरा िािे अिुन्दर भी िो, दपथर्ण में
दे खते िी िुन्दर किने लगते िो । दु सनया में जो आपको इि लगे विी आपको िु न्दर लगते लगता िै और जो आपको
असनि लगता िै , उिे आप अिुन्दर कि दे ते िैं । यि िब अपने -अपने मन की कल्पना िै । कोई वस्तु स्वयों न िुन्दर िै ,
न िी कोई वस्तु स्वयों अिु न्दर िै । सजनका आपिे राग िै , उिे आप िुन्दर कि दे ते िैं और जो आपके सलये असनि िैं ,
उनको आप अिुन्दर का सडप्‍लोमा दे दे ते िैं । दे खो भैया ! सजनिे आपका राग िै , उनमें आप िु न्दर अिुन्दर का ठीक
सनर्णथय निीों दे िकते िैं तो सजनके सवर्य में आपको राग निीों िै उनके सवर्य में दे खो । जै िे पशु , पक्षी वगैरि जानवरोों में
कुत्ता और कुसतया इन दोनोों में आपको कौन िुन्दर लगता िै । बैल और गाय—इन दोनोों में आपको सक िका शरीर
असधक िुन्दर लगता िै ? कुछ ऐिे प्रकरर्ण िैं सक उन प्रकरर्णोों िे स्‍त्रीवेदी जानवरोों की िुन्दरता नष्‍ट िो जाती िै और
पुरुर्वेदी जानवरोों की िुन्दरता नि निीों िो पाती िै । पु रुर्वेदी जानवर िुन्दर सद खते िैं ।
१४९. राग में इष्ट व अधनष्ट आशय—आप अपनी मनुष्य जासत में िी दे ख लो, सजिे आप इि मानते िैं , वि आपको
िुन्दर िै , सजिे आप असनि मानते िैं वि आपके सलये अिुन्दर िै । इि माने आपकी इच्छाओों का सप्रय । िु+उन्द+अर् ।
‘उन्दी’ क्‍लेदने धातु िै । जो भले प्रकार िे दु ुःख पहुों िावे उिे िुन्दर किते िैं । िु उपिगथ िै , अरि् प्रत्यय लगा िै । यि
िुन्दर का ििी अर्थ िै न क्योोंसक इि वस्तु के िोंयोग िे आपको दु ुःख िी पहुों िता िै । सजिे आप किते िैं सक यि िीज
िमें िुन्दर लगती िै , उिका मतलब हुआ सक यि िीज िमें दु ुःख दे ने वाली िै । वस्तु न स्वयों इि िै और न असनि िै ।
रागभाव इि बनाता िै और द्वे र्भाव असनि बनाता िै । सवभीर्र्ण को रावर्ण िे सकतना स्‍ने ि र्ा सक सजिकी रक्षा के सलये
उिने जनक और दशरर् के सिर काट डाले । सवभीर्र्ण इि खोज में र्ा सक यसद जनक और दशरर् न रिें गे तो िीता

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

और राम भी पै दा निीों िो िकते िैं , अत: िमारा भाई निीों मारा जा िकता । परन्‍तु जब रावर्ण ने परस्‍त्री िरर्ण सकया तो
सवभीर्र्ण रावर्ण के सकतना प्रसतकूल िो जाता िै सक रावर्ण के िार् युद्ध िोने में सकतनी िी िफलताओों में तो सवभीर्र्ण
का िी असधक िार् र्ा । वस्‍तु उत्‍पाद-व्‍यय ध्रौव्‍यात्‍मक िै । पदार्थ अपने गुर्णोों में तन्‍मय िै , अपना पररर्णमन स्‍वयों करने
वाला िै , सनज के क्षेत्र में रिता िै । इिके सिवाय जो कुछ अन्‍य बात पदार्थ के सवर्य में किोगे, यि िब तुम्‍िारी कल्‍पना
िै । पुस्‍तक ७ इन्‍ि लम्‍बी िै , ४ इन्‍ि िौडी िै —यि िब तुम्‍िारे सदमाग में भरा िै । पदार्थ तो उत्‍पाद व्‍यय ध्रौव्‍यात्‍मक िै ।
पदार्थ न लम्‍बा िै , न िौडा िै । इन स्‍कन्‍धोों में तो अिल में पदार्थ एक-एक अर्णु िै ।
१५०. मोह में अधिक अध्यवसाय का यत्‍न—अपन लोग भगवान िे ज्यादि जानने का प्रयत्‍न करना िािते िैं । क्योों
भैया ! यि मकान मेरा िै , इि प्रकार का जो आपका पररर्णमन हुआ, यि तो भगवान के ज्ञान में झलक रिा िै , परन्तु यि
भगवान के ज्ञान का सवर्य निीों िै सक यि मकान इनका िै । जो मनुष्य ‘यि मकान मेरा िै ’ — इि प्रकार अपने सवकल्प
िे कलुसर्त िो रिा िै यि भगवान को ज्ञात िै । सकन्तु भगवान यि निीों जानते सक यि मकान इिका िै और आप जानते
। िम्यग्दज्ञान उिे किते िैं , जो न तो कम जाने और न असधक जाने , अत: िमारा ऐिा ज्ञान समथ्या िै । मकान का ऐिा
स्वरूप निीों िै सक मकान मेरा िै । मकान का स्वरूप द्रव्-गुर्ण पयाथ यमय िै । अमुक पदार्थ मेरा िै —यि भी उिकी
प्रतीसत में िै और उिने उिके सवर्य में असधक जान रखा िै । ज्यादि जानना भी समथ्या ज्ञान िै । वि असधक जानना
यिी तो िै सक जो ति वस्तु स्वरूप में निीों िै , उिे भी कद्धल्पत कर लेना । असधक जानने का ररजल्ट यि हुआ सक िमारा
ज्ञान घट गया । इन जड पदार्ों का स्वरूप और कारर्ण न जान पाये , यि भी गल्ती िै और इिके सवर्य में असधक जान
लेना यि भी गल्ती िै । जो भगवान िे बढकर जानना िािता िै उिकी दु गथसत िोती िै । ये जगत के पदार्थ न तो स्वयों इि
िैं और न स्वयों असनि िैं । िमारा िी राग इन्हें इि बना दे ता िै , िमारा िी राग इन्हें असनि बना दे ता िै । जो िमारी कल्पना
िै , उिे िम इि मान लेते िैं और उिे असनि मान लेते िैं ।
१५१. जीव में धवकार प्रकृधत का अभाव—शुद्ध िेतन में राग निीों िै , द्वे र् निीों िै , इिी प्रकार आत्मा में मोि भी निीों
िै । यि आत्मा के श्रद्धा गुर्ण का पररर्णमन िै । मोि कमोदय के सनसमत्त िे िोता िै , मोि आत्मा का स्वभाव निीों िै । जब
सकिी के लडके की आदत सबगड जाती िै , तो उिे सद खता िै सक यि इिकी आदत निीों र्ी, इिे दू िरोों के बच्‍िोों की
आदत लग गई िै । मेरे आत्मा की आदत राग-द्वे र् करने की निीों िै । यसद आपको आत्मा िे रुसि िै तो आपको ऐिा िी
सदखेगा । जरा आत्मस्वरूप को दे खो, आत्मा की आदत राग द्वे र् मोि करना िै िी निीों । यि तो कमोदय के सनसमत्त िे
लग गई िै । केवल आत्मा आत्मा को दे खो तो आत्मा सनरपेक्ष शुद्ध िै । शुद्ध सवकाि िे दे खे गये आत्मा का यिाँ वर्णथन
निीों िै सकन्तु सनरपेक्ष स्वरूप िे दे खे गये आत्मा का यिाँ वर्णथन िै । इि प्रकार आत्मा में राग द्वे र् मोि निीों िैं । मुझ
आत्मा में अध्यविान निीों िै । इि प्रकार राग द्वे र् मोि ये तीनोों बातें आत्मा में निीों िैं , ऐिा वर्णथन सकया गया िै ।
१५२. जीव के आस्रव का अभाव—५ समथ्यात्व, १२ असवरसत, २५ कर्ाय और १५ योग । सवपरीत असभप्राय को
समथ्यात्व किते िैं । वस्तु स्वतन्‍त्र िै , परन्तु यि सकिी के द्वारा बनाई िै , यि श्रद्धा िोना सवपरीत असभप्राय िै । वस्तु अनेक
धमथवाली िै , सकन्तु िवथ दृसियोों िे वस्तु का सनर्णथय न करके एक दृसि को िी ित्य मानना समथ्यात्व िै । अपने आपको
फालतू मानकर प्रत्येक को ये भी दे व िैं , ये भी दे व िैं —इि प्रकार का असभप्राय आना सवपरीत असभप्राय िै । भगवान
िािे सकिी को भी मान सलया जाये , परन्तु भगवान का स्वरूप ठीक मानना िासिए । बुद्धों वा वद्धथ मानों , केशवों वा सशवों
वा—िािे सकिी को भी भगवान किलवा लो । छि काय के जीवोों की रक्षा का भाव न आना और उनकी सवराधना का
भाव आना, उिे किते िैं प्रार्णी-असवरसत । मन और इद्धिय के सवर्योों िे सवरद्धक्त न आना इद्धिय असवरसत िै । क्रोध मान
माया लोभ को कर्ाय किते िैं । मन, विन, काय का सिलना डु लना योग किलाता िै । ये िब आस्रव के कारर्ण िैं ,
आस्रव भी अपना निीों िै , जो िीज अपनी निीों िै , उि िीज पर िठ कर लेना अपमान का कारर्ण िै । इिी तरि जो
आत्मा की िीज निीों िै और उि सवर्य में िठ िो जाये , इिको ऐिी करके मानूँगा, मैं तो रिगुल्‍ला िी खाऊोंगा अभी िी
िोना िासिए, यि िब आस्रवोों की िठ िै । जो सवभाव पररर्णमन िोते िैं , वे अपनी वस्तु निीों िैं । उनके सवर्य में िठ करने
िे कोई लाभ निीों िै , उल्टे िासन िी िै । मेरा सकिी वस्तु िे राग हुआ िै , यि राग सितकर निीों िै । राग को करके उिकी
िठ मत करो । पररवार में यसद असधक लोग िैं िम्पसत्त अच्‍छी िै विाँ आराम की बुद्धद्ध मत करो । मोि में जीव को ऐिा
लगता सक मैं िी उत्तम हँ , बरबाद िोते िोोंगे तो और लोग िोते िोोंगे । भैया सकिी जगि सवश्‍वाि मत करो । आस्रव की

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

िठ करनी बुरी िै । बच्‍िे को िठ लगी िो वि िुखी निीों िो िकता िै । िमको तो िबके सिस्से िे दु गुने िी रिगुल्‍ले
समलने िासिए, मैं कम निीों ले िकता, इिका फल सपटाई िै । सकिी को सकिी गरीब िे भी िठ िो जाये यि भी बहुत
बुरी िीज िै ।
१५३. टे क का फल—एक स्‍त्री बहुत िठीली र्ी । मैं पसत की मूँछ मुँडाकर िी रहँ गी, ऐिी उिे टे क आ गई । वि पेट
के ददथ का बिाना लेकर पड गई । पेट का ददथ अच्छा िो तो कैिे िो, वि तो िठ का ददथ र्ा । बहुत लोग दे खने गये , वैद्य
डाक्टर आये, पेट का ददथ ऐिे निीों समटा । पसत ने किा सक ददथ कैिे समटे ? स्‍त्री ने किा जो भी िमारा सप्रय िो, वि मूोंछ
मुडा ले तो िमारा पेट में ददथ ठीक िो जायेगा । क्योोंसक एक बार पिले भी ऐिे िी ठीक हुआ र्ा । पसत ने िोिा सक िै
कौन बडी बात, उिने अपनी मूोंछें मुडा ली । स्‍त्री को और िासिए िी क्या र्ा? प्रसतसदन िबेरे उठकर िक्‍की पीिती हुई
गावे —अपनी टे क रखाई पसत की मूोंछ मुडाई । पसत ने िोिा यि तो इिने मुझे सिढाने के सलये सकया िै , अत: इिे भी
मजा िखाना िासिए । पसत को एक उपाय िूझा । उिने ििुराल एक पत्र सलखा सक तुम्हारी लडकी बहुत िख्त बीमार
िै , बडे -बडे डाक्टर वैद्य बुलाये गये , सकिी की भी और्सध कायथकर न हुई, दे वता भी बुलाये , िबने यिी िलाि दी सक
इिकी बीमारी तभी ठीक िो िकती िै , जबसक िब इिके पररवार वाले सिर और मूोंछें मुडाकर एक लाइन में इिे दे खने
आवे , अन्यर्ा यि मर जायेगी । यसद आपको अपनी सप्रय पुत्री के दशथन करने िो तो आप जैिा जानें िो करें । ििुराल
में सिट्ठी पहुों िी, िबने वैिा िी सकया और लाइन बनाकर वे िुबि िी िु बि आये जब सक उिका िक्‍की का टाइम र्ा ।
वि िक्‍की पीिती हुई प्रसतसदन की तरि गाती िै सक “अपनी टे क रखाई पसत की मूोंछ मुडाई ।” उिी िमय पसत किता
िै सक “पीछे दे ख लुगाई, मुण्डन की पलटन आई ।” स्‍त्री बडी लज्‍सज त हुई । अत: भइया, टे क करना अच्छी िीज निीों
िै । न बडोों िे िठ करो, न छोटोों िे । िमेशा अपने अपराधोों को मान लो । दु सनयाों इिजाल िै । यिाँ कोई न्यायाधीश
र्ोडे िी बैठा िै , बेधडक कि दो सक मेरे िे यि गलती िो गई । सकिी भी आस्रव का िठ मत करो । अपने आपमें आये
हुए राग पररर्णाम का भी िठ मत करो । यसद िठ करोगे तो धोखा खाओगे । प्राय: लोग खाने पीने की बडी िठ करते िैं
। सकिी िीज की इच्छा हुई, वि तुरन्त समलनी िासिये । ऐिा अभी िोना िासिए, ऐिी िठ करना कभी अच्छा निीों िै ।
सवनय िे रिोगे, िब कुछ समलेगा । उज्‍जड्डता िे रिोगे , िब कुछ रिा ििा भी उजाड बैठोगे । जो िीज सवनय िे समल
िकती िै , वि कभी िठ िे निीों समल िकती िै । आस्रवोों में आत्मबुद्धद्ध िोना िबिे पिली िठ िै । यि िठ पयाथ यबुद्धद्ध
िोने पर िोती िै । जो कुछ िोिा बि विी ििी, यि पयाथ य की िठ िै । अरे , तुमिे ज्यादा ितुर तो आठ-आठ वर्थ के
बच्‍िे भी िोते िैं । उनका भी ज्ञान असधक पाया जाता िै । भैया ! यिाँ समला िी क्या िै , सजि पर इतना इतराया जाये ।
१५४. धवद्यामद—एक बाबू िािब र्े । नाव में बैठकर िैर करने िले । वे मल्‍लाि िे पूछते िैं सक अबे, तू कुछ इों द्धिश
भी जानता िै । उत्तर समला—निीों बाबूजी ! बाबूजी किते िैं सक बि तूने अपनी आधी सजोंदगी खो दी और पूछा सक अच्छा
सिन्दी भी जानता िै या निीों । सफर विी उत्तर पाकर उपेक्षा की दृसि िे बाबूजी ने किा सक बि अब तो तूने पौनी सजोंदगी
खो दी । जब नौका मझधार में पहुों िी और डगमगाने लगी तब मल्‍लाि ने बाबू िे पू छा सक बाबू िािब ! आप तै रना भी
जानते िैं । बाबूजी ने किा, निीों । मल्‍लाि बोला—तो बाबूजी आपने तो अपनी पू री सजन्दगी खो दी । जब नाव डूबने
लगी, मल्‍लाि तो तैरकर बािर सनकल आया और बाबूजी विीों पानी में सवलीन िो गये । इि प्रकार िभी प्रकार की िठ
बुरी िै । यि मोिी जीव तो भगवान को भी बडा निीों मानता िै । िमारी बडी सि द्धद्ध िो रिी िै , इि प्रकार मोिी जीव
अपने िे बढकर सक िी को निीों िमझता िै । अपनी िी पयाथ य उिे रुिती िै ।
१५५. धवकारों की हठ में दु दाशा—राग-द्वे र् मोि कर्ाय ये आत्मा के कुछ निीों िैं । इन भावास्रवोों का कारर्ण कमथ
का उदय िै । कमथ जब बोंधे िोोंगे तभी तो उदय में आयें गे । कमों के बोंधने का कारर्ण जीव का कर्ाय भाव िै । जीव
अपने कर्ाय भावोों को बनाकर अपना नाश कर डालता िै । िों िार के प्रत्येक जीव अपने िी आप अपने िी कर्ाय िे
दु ुःख का कारर्ण बना लेते िैं । सकिी िे कुछ समलना निीों िै , परन्तु पर के सवर्य में सवकल्प बना बनाकर यि व्र्थ दु :खी
िोता िै । ये आस्रव मेरे स्‍वभाव भाव निीों िैं , ये जीव में प्रकृसत िे आये िैं । िाँ ख्य लोग िमझते िैं सक प्रकृसत िे अिों कार
हुआ, वास्तव में सनसमत्त-नैसमसत्तक भाव िे कर्ाय पररर्णमन िोता िै । अिों कार मुझ पुरुर् में निीों िै , प्रकृसत िे आया िै ।
आई हुई िीज का िठ निीों करना । आये िैं तो उन्हें उपेक्षाभाव िे आने दे ना और उिी प्रकार सनकल जाने दे ना । उनमें
आदर और आत्मबुद्धद्ध निीों करना । सकिी ने कुछ किा, उिकी उपेक्षा कर दे ना, उिे हृदय में सर्ान न दे ना, उनको

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

विीों खत्म कर दे ना िासिये । कोई कुछ भी प्रसतकूल किे , जो उन बातोों को पी जाये वि िु खी रिे गा, जो उि ओर उपयोग
लगायेगा—उिे क्‍लेश िी क्‍लेश िै । बार-बार बाह्य िे अपना उपयोग िटाकर उि िै तन्यस्वरूप की ओर ले जाओ । िठ
करना बुरी िीज िै । सकिी को छोटा मत िमझो । िूिे जैिे जानवर भी सिोंि के काम आ जाते िैं । मरने पर भी अनेक
पशुवोों का शरीर काम आता िै , परन्तु मनुष्य की कोई िीज सकिी अन्य के काम निीों आती िै । मुझिे छोटे -छोटे जीव
भी बहुत काम में आ जाते िैं । खोटे पररर्णाम बढते -बढते इतने बढ जाते िैं सक उनकी िद िो जाती िै । िमारे दु श्मन
िमारे खोटे भाव िैं अत: उन्हें नि करने की जल्दी िे जल्दी कोसशश करना िासिए । भद्धक्त करो, ित्सोंग करो, पुस्तक
लेकर पढो—ये िब खोटे भाव दू र करने और उपयोग बदलने के उपाय िैं । दु द्धखयोों के बीि जाकर खडे िो जाना, इििे
भी अपनी अक्‍ल सठकाने लगती िै । अने क उपाय करके खोटे पररर्णाम की िठ मत करो । खोटे पररर्णाम िोते िैं तो
तत्काल रोक दो ।
१५६. जीव के रागाधद परभाव का प्रधतषे ि—जीव के राग निीों, रागपररर्णाम में जीव व्ाप निीों रिा । िै यद्यसप
उिका िी पररर्णमन राग, पु द्गलकमथ के उदय के सनसमत्त िे हुआ सवभावपररर्णमन िै लेसकन व्ाप निीों रिा । जीवत्व
तो उि िी में व्ाप रिा जो अनासद अनन्त िम्पूर्णथतया सजतने में रि िकता िै । रागभाव तो नैसमसत्तकभाव िै , स्व के भाव
में क्या सबगाड? जीव के दोर् निीों, मोि निीों, ये िब अध्यविान भाव पुद्गल पररर्णाम िे सनष्पन्न िैं , मेरे स्वरूप निीों िैं ।
इनका भी लगाव छोडना िै और एक िैतन्य शद्धक्तमात्र में अपना स्वरूप जोडना िै । जीव के आस्रव निीों, कमथ नोकमथ
निीों । जीव िबिे सनराला केवल एक िैतन्यमात्र । और जो िैतन्यमात्र निीों िै वि जीव निीों िै , सफर क्‍या िै ? इिका
सनर्णथय करने की िमें फुरित निीों, न आवश्यकता िै । िम तो उतना सनरख रिे िैं इि काल में सक मैं यि हँ , और कुछ
निीों हँ । इिी दृसि को लेकर िैतन्यशद्धक्त को छोडकर अन्य जो-जो कुछ भी पररर्णाम िैं वे िब जीव निीों िैं , अजीव िैं ।
१५७. जीव की कमा से धवधवक्तता—जीव के कमथ निीों िै । कमथ जीव का कुछ निीों िै । यिाँ भेदसवज्ञान की बात िल
रिी िै यि पििानने के सलये सक मैं आत्मा शुद्ध कैिा हों ? लोग भी किते िैं , ग्रन्थ-पु रार्णोों में भी वर्णथन सकया गया िै सक
जीव के िार् कमथ लगे िैं । व्विार दृसि िे यि बात ििी भी िै सक जीव के िार् अनासदकाल िे कमथ लगा िै । यि कमथ
जीव को दु ुःख का कारर्ण बन रिा िै सकन्तु कमथ क्या िै इि बात पर प्राय: लोगोों ने कभी सविार निीों सकया िै और यि
किकर उपेक्षा कर दी सक आत्मा का भाग्य िै । कोई लोग असधक सविार में उतरे तो यि कि सदया सक सवसध ने यि
तकदीर सलखी िै , इिे िी कमथ किते िैं । सकिी ने किा सक जीव जो करता िै , वि कमथ िै और उिी के अनुिार जीव
फल पाता िै । जो लोग किते िैं सक जीव जो करता िै , उिी के अनुिार फल भोगता िै , यि बात उनकी ििी भी िै ।
यिाँ पर यि प्रश्‍न िो िकता िै सक जीव ऐिा क्योों करता िै ? कमथ नामक जैिे सकिी परद्रव् के माने सबना इिका उत्तर
निीों सदया जा िकता िै । सकतने िी लोग सकिी मृत प्रार्णी की खोपडी उठाकर कि दे ते िैं सक दे खो इिकी खोपडी में
क्या सलखा िै ? खोपडीयोों में प्राय: कुछ सिन्ह सवशेर् िोते िी िैं , िरे क जगि कुछ अस्पि सनशान तो िोते िी िैं , लोग उन्हीों
सिन्होों को सदखाकर कि दे ते िैं सक दे खो, यि सलखी िै इिकी तकदीर । तो वि िीज क्या िै , इि सवर्य को प्रािीन
ऋसर्योों की मूसतथयोों पर ध्यान दे ते हुए दे खो । जीव एक िैतन्यमात्र वस्तु िै ; इिमें रूप, रि, गन्ध, स्पशथ कुछ भी निीों िै ।
ज्ञान-दशथन मात्र यि अमूतथ आत्मा िै । जगत् में ऐिे स्कन्ध िवथत्र भरे िैं जो आँ ख िे सदखाई निीों दे िकते िैं , परन्तु िैं वे
सर्ू ल । वे स्कोंध जो कमथ रूप बन जाते िैं , उिका नाम िै कामाथ र्ण वगथर्णाएों । इि प्रकार दो सभन्न जासत के पदार्थ िैं । जब
यि जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वे र्ासद रूप कर्ाय करता िै तो यिाँ िी जीव के एक क्षे त्रावगाि में भरी हुई जो
कामाथ र्ण वगथर्णाएों िै , उन वगथर्णाओों में प्रकृसत िे जीव को फल दे ने की शद्धक्त पैदा िो जाती िै । जीव उन वगथर्णाओों के
उदय काल में क्रोधी, मानी, लोभी बन जाता िै । जीव के िार् कुछ कामाथ र्णवगथर्णाएों बन्धरूप में लगी िैं उन्हें कमथ किते
िैं , वि जीव िे सभन्न वस्तु िै । जीव की जो सक्रया िै , पररर्णाम िै , वि तो जीव िे उि काल में असभन्न िै , परन्तु जो कमथ
उिके िार् लग गये वे कमथ आत्मा िे अलग िैं । कुछ ऐिा सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध िै सक जीव के िार् वे कमथ जाते िैं
और फल दे ने तक उिके िार् रिते िी िैं । उन कमों की बात कि रिे िैं सक वे कमथ भी जीव िे सभन्न िैं ।
१५८. कषायों के दू र करने से ही प्रभुता का धमलन—िे आत्मन् ! सजि सकिी प्रकार भी िो, जगत के पदार्ों िे
न्यारे क्रोध-मान-माया, लोभ, राग-द्वे र् आसद जो जीव के स्वभाव भाव निीों िैं , ऐिे जानन-दे खनमात्र उि आत्मा का
अनुभव करो । िोंिार का झों झट समट जायेगा और उि िमासध की द्धसर्सत में परमात्मा के दशथन करोगे । मोि के रिते,

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

सवकल्प, सिन्ता शोक के रिते हुए परमात्मा का दशथन निीों िो िकता िै । िब सवकल्पोों को छोडकर अपने आत्मा के
अनुभव में लगो, विाँ परमात्मा के दशथन िैं । सजि परवस्तु के सनसमत्त िे यि जीव कमथ करता िला आया िै , वि कमथ
जीव का निीों िै , अत: उि कमथ िे व उिके समलाप िे ममता छोडो । यि िोंिार मायाजाल िै , जो भी िमागम समले, वे
प्यारे लगते िैं , इनका प्यार करोगे तो स्वाधीन आनन्द, आत्मीय आनन्द और परमात्मा के दशथन आसद िवथ िु ख इििे
वोंसित रिें गे । और समली हुई सवभूसत में शरीर का राग न रिा िो तो परमात्मा के दशथन, आत्मीय दशथन जैिे बडे वैभव
अन्तरों ग में समलेंगे । सफर भी मोसियोों को कमथ सकये सबना निीों रुिता िै । एक सभखारी भीख माँ गता सफरता िै , उिकी
तृष्णा कुछ ऐिी िै सक पाों ि सदन पिले की सभक्षा में समली हुई िूखी रोटी कुसटया में जोडे रखता िै । सभक्षा माों गते -2 एक
सदन एक िेठ ने किा भाई, तू इन बािी रोसटयोों को फेंक दे , तुझे ताजा भोजन करायेंगे । सफर भी उिे यकायक सवश्‍वाि
निीों िोता िै । वि िोिता िै सक शायद यि िेठ न दे और मैं इन रोसटयोों िे भी जाऊों । उिे यि सवश्‍वाि निीों िोता सक
मैं बािी फेंककर ताजा प्राप्त करू ों । ये जगत के मोिी भी सजन पदार्ों को अपना मानते आये िैं ज्ञानी गुरु के िमझाने
पर सक जो तुमने जोड रखा िै , उििे ममता छोडो, तुझे अपूवथ आनन्द, परमात्मदशथन कराया जायेगा । तू अपने आपमें
परमात्मदशथन करे गा, तू इन िब नश्‍वर पदार्ों की ममता को छोड दे , ये पदार्थ अनेकोों के द्वारा भोगे गये िैं , जो यि तुझे
वैभव समला िै , यि अनेक आत्माओों का जू ठन िै , तू इन बािी जू ठे भोगोों को छोड दे और अपने आत्मा में एक अलौसकक
आनन्द पायेगा, सफर भी इि अनासद काल के सभखारी को िििा सवश्‍वाि निीों िोता िै और वि बाह्य पदार्ों िे ममता
जोडे रिता िै । जो घर के खाते -पीते लोग िैं , उन्हें तो िेठानी की बात का सवश्‍वाि िै । इिी तरि तासकथक ज्ञानी को भी
सवश्‍वाि िै सक ये ज्ञानी गुरु भी ित्य कि रिे िैं सक तू इन जू ठे भोगोों को छोड और तू ताजा भोजन कर । इि प्रकार कोई
सभखारी भी धीरे -धीरे सिखाये में आ िकता िै । सनकट एक समथ्यादृसि भी आत्मसशक्षा में आ िकता िै ।
१५९. सत्य का अनुभव से प्रत्यय करने का अनुरोि—िे आत्मन् ! राग, द्वे र्, मोि और इनके आस्रव तर्ा कमथ भी
तेरा निीों िै । तू इन िब पदार्ों िे सभन्न िैतन्यमात्र वस्तु िै । आ खोों दे खी बात अित्य िो िकती िै , कानोों िुनी बात पर
तो कोई सवश्‍वाि िी निीों करता, परन्तु अपने अनुभव की बात कभी अित्य निीों िो िकती िै । आँ खोों दे खी बात में भी
दम निीों िोता िै । एक राजा का नौकर रात को प्रसतसदन राजा का पलोंग सबछाया करता र्ा । एक सदन नौकर के मन में
आया सक लेट करके तो दे खें सक क्या आनन्द आता िै ? वि िादर तानकर ज्योों िी िोया सक उिको नीोंद लग गई । रात
को रानी आई, उिने िमझा सक मिाराज िािब िो रिे िोोंगे, वि भी विीों बराबर में पलोंग पर िो गई । र्ोडी दे र बाद
राजा आया । रानी को एक परपुरुर् के िार् िोया दे खकर उिकी आँ खें क्रोध िे आग बबूला िो गईों । उिने िोिा सक
मामला क्या िै ? यि तो जाने । राजा ने रानी को जगाया रानी िकबकी िी िो गईों । वि न िमझ िकी मामला क्या िै?
राजा ने नौकर को जगाया, नौकर जगा तो काों पता-काों पता सगडसगडाता िै । नौकर ने िारी बात बताई सक मिाराज, मैंने
िोिा सक सबस्तर पर र्ोडा आराम करके दे ख लूँ सक मुझे नीोंद लग गई । राजा ने अनुभव िे जाना सक बात ऐिी िी िै ,
और ित्य भी िै । ये िब आ खोों दे खी बात तो िै , जो अनुभव सकये सबना अित्य सिद्ध िो जाती िै । धन, मकान, ररश्ता,
जायदाद ये िब अित्य िैं । जरा अनुभव करो, सनर्णथय में अपने आप अित्य प्रतीत िो जाये गा । यि िब िों िार के पदार्थ
माया िैं , पयाथ य िैं , असनत्य िैं । यि िब अित्य कैिे जानने में आये गा ? एतदर्थ पिले ित्य बात का पता लगाना िोगा ।
क्योोंसक जब ित्य बात का सनर्णथ य िो जायेगा, तभी तो इि िोंिार को अित्य िमझा जायेगा । ित्य बात के मालूम िलने
पर िी अित्य बात का सनर्णथ य सकया जा िकता िै । जैिे—एक आपका नौकर बाजार िे कोई ।।) की िीज लाया और
।।।) के पैिे बताता िै सक वस्तु ।।।) में आई िै । सकिी तरि िे आपको यि सवश्‍वाि िो सक यि िीज ।।) में िी आती िै ,
तो आप तभी जानेंगे सक यि झूठ बोल रिा िै । भै या ! एक िनातन अिे तुक अन्तस्ति आसद को भजनोों में बोलने िे तो
िमझ में निीों आता िै सक यि दु सनयाँ झूठी िै । झूठी िै यि तो तभी िमझ में आता िै , जबसक ित्य को आपने खोज
सनकाला िो । जो ित्य को िमझे सबना दु सनया को झूठी किते िैं वे स्वयों झूठे िैं , क्योोंसक मान तो रिा दु सनयाों को ित्य,
सकन्तु गा रिा सक दु सनयाँ झूठी िै इिसलए िम किते िैं सक वि स्वयों झूठा िै ।
१६०. क्‍लेशकारणक कमा से आत्मा का पाथाकय—सजिक ्‍ े बल पर सजिको सनसमत्त पाकर यि जीव नाना नाि कर
रिा िै , वि कमथ भी जीव िे सभन्न िैं । कमथ जीव का कुछ निीों िै । ये कमथ िोंिार में िवथ त्र भरे पडे िैं । जब जीव कर्ाय
करता तब उन्हें खीोंि लेता िै अर्ाथ त् (सनसमत्त रूप िे ) िै , कमथ का रूप कर, लेता िै और उन कमथ वगथर्णाओों को अपने

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

िुख दु ुःख का कारर्ण बना लेता िै । जब जीव को राग पैदा िोता िै , वि सकिी वस्तु को अपना लेता िै और अपने िुख
दु ुःख का कारर्ण बना लेता िै । जब जीव कर्ाय करता िै , तब वि कामाथ र्ण वगथर्णाओों को अपना लेता िै और कमों को
अपने िुख दु :ख का कारर्ण बना लेता िै । जब जीव राग करता िै तो वि अपनी इि अन्‍य वस्तुओों को अपना लेता िै और
उिे अपने िुख दु ुःख का कारर्ण मान लेता िै । यि भी आप जान रिे सक सजिे आप अपना लेते िैं , वि आनन्द का कारर्ण
तो बनता निीों िै , सकिी न सकिी रूप में आकुलता का कारर्ण बनता िै । यसद आनन्द िािते िो तो परवस्तु को अपना
मत मानो । यसद परवस्तु को अपनाया तो िब आपकी िेिाएों बदल जायेंगी । जैिे सकिी कुटु म्ब में केवल स्‍त्री पुरुर् िी
िैं । पुत्र का राग उठा, सकिी को गोद सलया, कुछ सदन आकुलता मििूि निीों हुई, परन्तु कुछ सदन बाद वि भी आकुलता
अनुभव करने लगता िै । उतनी तो आकुलता उिे िोगी िी सक सजतनी अन्य लडके वालोों को िोती िै । कोई बालक िो
तो उिे कोई सिन्ता निीों िोती िै । उिका जीवन सवद्यार्ी, पुरुर्ार्ी के रूप में आनन्द के िार् बीतता िै । आराम िे
पढने की धुन िै , पढ रिा िै , सवशुद्ध सवशुद्ध सवकल्पोों में सित्त िल रिा िै , आकुलता उििे कोिोों दू र िै । जब शादी िो
गई, वि उिी में खुशी मानता िै । कुछ सदनोों बाद दो िो जाने के कारर्ण आकुलताएों बढी । जब बच्‍िे र्े िब पर सवश्‍वाि
करते र्े, अब उनका सकिी पर सवश्‍वाि िोता िी निीों िै । उनका जीवन कलुसर्त बनने लग जाता िै । दे खो यि जीव
दु ुःख में पडा हुआ भी अपने को आराम में मानता िै ।
१६१. दु ुःखों का अिमाथन—कुछ अन्तरों ग दु ुःख तो ऐिे िैं सक जीव उनको प्रकट निीों कर िकता िै । कुछ दु ुःख
ऐिे िोते िैं , जो दू िरोों को सदखने में आ जाते िैं । बच्‍िे हुए, अनेक हुए, उनके पालन-पोर्र्ण रूप दु ुःख िामने मुोंि फैलाये
खडा िै । सकतना भी धन समला िो, उनका गुजारा निीों िो पाता िै । दे खो, बिपन में उिकी सजोंदगी सकतने आराम में
बीतती र्ी, अब उिे पग-पग पर दु ुःख, पद-पद पर आपसत्त िै । मागथ कण्टकाकीर्णथ िै , अपने जीवन का कोई लक्ष्य निीों
बाँ ध पाता िै । जो व्द्धक्त सजतने बडे पद पर पहुों ि जाता िै , उिके उतने िी दु ुःख बढ जाते िैं । जब दु बारा िुनाव िोता
िै , तब यि सिन्ता िवार िो जाती िै , किीों िार न जाये , नाक कट जायेगी, िारी इज्‍जत समट्टी में समल जायेगी । यिाँ तक
िोि बैठता िै सक यसद इि िुनाव में न जीत पाया तो मर जाऊोंगा, सकिी को अपना मुोंि सदखा न पाऊोंगा, पयाथ यबुद्धद्ध में
मरने के सिवाय अन्य िारा िी क्या िै ? सकतना घृ सर्णत सविार कर बैठता िै यि आत्मा? अन्तरों ग में इच्छा िै प्रधानमोंत्री,
रािरपसत या अन्य मोंत्री या राज्यपाल आसद बनने की, खडे भी िैं िुनाव में, परन्तु वि कि दे ता िै सक अब इि ओर जाने
की िमारी इच्छा निीों िै , मैं अब मोंत्री आसद निीों बनना िािता हँ । उनको लगा रिता िै सक कदासित् िार गये तो लोगोों
में रिकर लोग यि न मििू ि करें सक अमुक व्द्धक्त िार गया िै —वि ऐिा वातावरर्ण बनाना िािता िै । िुख िै किाँ?
लौसकक िुखोों की दृसि िे दे खो तो भूसम पर अपनी रात बडे आराम िे सबताने वाला कुम्हार भी िुखी िै । िुख किाँ इि
दु ुःखमयी दु सनया में ?
कमथ के उदय िे प्राप्‍त हुई िीज में िुख की खोज करना, यि िफल िोने का जरा भी उपाय निीों िै । यि श्रेसष्ठवर
कुन्दकुन्दािायथ िमझा रिे िैं , इन भोले भूले भटके जगत के सभखाररयोों को । िे सभखाररयोों ! इि बािे और झूठे रूखे
भोजन को छोडो, इििे तसनक तो मुोंि मोडो, िम तुम्‍िें स्‍वाधीन और आत्‍मीय आनन्‍द को दे ने वाला ताजा भोजन द्धखलायेंगे
। परन्तु यि अनासद का सभखारी उिी को अपू वथ मानता िै , उिे ज्ञासनयोों की बात पर िििा सवश्‍वाि निीों िोता िै । कोई
तकथ को जानने वाला (ज्ञान का सभखारी) आिायथ की शरर्ण में जाता िै और अनुकूल आिरर्ण करता िै , मोक्षमागथ के नाना
उपाय करता िै । तब वि जानता िै सक ओि ! मैंने पर में उपयोग रखकर अनासदकाल िे अपना जीवन योों िी सवर्य-
वािनाओों में सबता सदया । ये कमथरूपी सवर्वृक्ष के फल िैं । ये भोग मेरे अपनाये सबना िी सनकल जाओ । मैं तो केवल
िैतन्यमात्र ति का अनुभव करता हँ । मेरी िमय स्वानु भव में जावे । यि कमथ मेरे कुछ निीों िैं —इि प्रकार िम्यग्ददृसि
अनुभव करता िै ।
१६२. जीव की नोकमा से धवधवक्तता—जीव के नोकमथ निीों िै । ईर्त्कमथ को नोकमथ किते िैं । कमथ के बाद यसद
सकिी अन्य सनसमत्त पर नम्बर आता िै तो वि िै शरीर । जीव के दु ुःखी िोने में सनसमत्त िै कमथ, और वि कमथ फल दे वे,
इिमें कारर्ण बनता िै शरीर । कल्पना करो सक जीव के िार् कमथ लगे िैं , शरीर निीों िो तो फल कैिे समलेगा? शरीर
फल दे ने में कमथ का ििायक िै , अत: इिका नाम नोकमथ रखा । िभी के अपने -अपने न्यारे -न्यारे शरीर िैं और िभी को
अपने शरीर द्वारा दु ुःख-िुख का अनुभव िोता िै । अभी आपके शरीर में बुखार िो तो र्माथ मीटर लगाकर आपके बुखार

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 51

का अन्दाज लगाया जा िकता िै , परन्तु आप उनके बुखार का अनुभव निीों कर िकते िो । जो सजिके िार् सवपदा
लगी िै वि उिके द्वारा िुख दु :ख का अनुभव सकया करता िै । शरीरोों की जासत दे खो सकतनी िैं ? एक जासत ऐिी भी िै ,
सजिके आँ ख, नाक, कान, मुँि आसद कुछ भी निीों िै , उन्हें सर्ावर जीव किते िैं । उनमें पृथ्वी, अग्द्‍सन, जल, वायु और
वनस्पसत के शरीर िोते िैं । पन्‍ना, िीरा, मोती, जवािरात, िोना, िा दी आसद िब पृथ्वीकासयक जीव िैं । सदखने वाली
िीजें िभी जीवोों के शरीर िैं । यद्यसप बहुत-िी िीजें अब जीव निीों िै , लेसकन पिले र्ीों । जो भी पदार्थ तुम्हें सदखाई दे ते
िैं , वि िब जीव का शरीर िै , कोई मुदाथ िै , कोई सजोंदा । नोकमथ का ऐिा िाम्राज्य िै सक िवथत्र नोकमथ िी नोकमथ नजर
आ रिा िै । यि नोकमथ भी जीव निीों िै । शरीर को जीव छोड दे ता िै तब शरीर अलग रि जाता िै और जीव अन्य शरीर
को धारर्ण कर लेता िै । अरिों तदे व का शरीर अरिों त अवसर्ा के बाद यिाँ िी उड जाता िै , आत्मा उनका सिद्ध अवसर्ा
में पहुों ि जाता िै । शरीर जीव कभी निीों िो िकता, क्योोंसक शरीर प्रकट अिेतन िै , जीव प्रकट िेतन िै , इनका स्वरूप
परस्पर अत्यन्त सवरुद्ध िै ।
गाथा 52
जीवस्स णच्छि वग्गो ण वग्गणा णेव फड᳭ डया केई ।
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाधण ।।५२।।
१६३. वगा , वगाणा, स्‍पद्धा क आधद से जीव की धवधवक्तता—जीव के न तो वगथ िैं , न वगथर्णायें , न कोई स्पधथक िैं , न
अध्यात्म सर्ान िैं और न अनुभाग सर्ान िैं । जीव के वगथ निीों िैं । ये जो कमथ बताये गये िैं , ये अनेक कामाथ र्ण परमार्णु ओों
के िमूि िैं । अब उन परमार्णुओों में कुछ ऐिा सवभाग डाल सदया जाये जो बराबर-बराबर की शद्धक्त के परमार्णु िैं वे वगथ
िैं । सजतने कमथ बाँ धे, उनमें परमार्णु बहुत िैं । जो कमथ बाँ धे िैं , मानो उनमें १० नम्बर की शद्धक्त िे लेकर १०० सडग्री तक
के परमार्णु आ जाते िैं । उन िबमें वगथ, वगथर्णा आसद का सवभाग िै । वगथ के िमूि का नाम िै वगथर्णाएों । इिके बाद
स्पद्धथ क िो जाते िैं । ऐिे अनेक स्पद्धथ कोों के िमूि कमथ किलाते िैं । ये वगथ, वगथर्णाएों और स्पद्धथ क—इनमें िे कुछ भी
जीव के कुछ निीों िैं । अध्यात्मसर्ान भी जीव के निीों िैं । आत्मा में उत्‍पन्‍न िोने वाले सजतने भी सवभाव िैं , उनमें िे जीव
का कुछ भी निीों िै । जगत के पदार्ों में जो सवश्‍वाि रखता िै सक मैं र्ा, मैं हँ , मैं हों गा—इनका फल िै डण्डे । जैिे खाये
सबना िैन निीों पडती िै अत: खालो, मगर यि मेरी िै , इिके सबना तो गुजारा िो िकता िै ना? तो सफर मेरा िै , ऐिा क्योों
भूत लग गया । बि यिी तो िोंिार का कारर्ण िै ।
१६४. जीव के वगाणाधद का प्रधतषेि—जीव के वगथ निीों िै । कमों में जो वगथ िोते िैं , वगथर्णायें िोती िै , स्पधथक िोते
िैं ये िब कुछ मैं निीों हँ । कमों का जो सपण्ड िै उििे छोटी वगथर्णा उििे छोटा वगथ ये िब मुझ जीव के निीों िैं । यि
तो बात प्रकट सिद्ध योों िैं सक यि इिका उपादान भी सनराला िै । अध्यविान आसदक भाव तो जीव निीों िैं , ऐिा किने
में यि इिसलए आता िै सक िूोंसक ये कमों के उदय िे उत्पन्न हुये िैं , मेरे ििजस्वभाव िे निीों िल पडे िैं । िाँ उपादान
तो मैं हँ , लेसकन मेरे ििज स्वभाव िे निीों आये, इि कारर्ण मैं निीों हँ अध्यविान, पर ये वगथर्णा स्पधथक कमथ ये तो प्रकट
परपदार्थ िैं । पुद्गल इनका उपादान िै और उनकी ये िब द्धसर्सतयाों िैं । िालाों सक जैिे जीव के अध्यविान िोने में कमथ
सनसमत्त िोते िैं वैिे कमथ के कमथत्व िोने में जीव सवभाव सनसमत्त िै , पर सनसमत्तनैसमसत्तक भाव िोने पर भी िू सक िभी
पदार्थ अपनी पररर्णमन धारा में रिा करते िैं , दू िरे के पररर्णमन को लेकर अपनी अवसर्ा निीों बनाते िैं , इतनी स्वतोंत्रता
तो उनके सनसमत्तनैसमसत्तक भावोों के प्रिोंग में भी बनी हुई िै । ये वगथ वगथर्णा स्पधथक प्रकट पर िैं , सभन्‍न िैं , ये जीव के निीों
िैं , जीव के अध्यात्मसर्ान निीों और अनुभाग सर्ान निीों । अध्यात्म सर्ान वे किलाते िैं सक आत्मा में जो सवभाव उठे िैं ,
जो नाना सवकाि िल रिे िैं । अन्य मिान आसदक भेदोों को सलए हुए वे िब िाधन, वे िब सवकाि याने उतने िी रिना,
वे पररर्णमन िी रिना, यि जीव का ति निीों िै , हुये जीव के िी पररर्णमन, लेसकन जीव का स्वभाव जीव का स्वति,
जीव का शाश्‍वत भाव स्वरूप निीों िै अतएव ये अध्यात्मसर्ान भी जीव के निीों िैं और अनुभागसर्ान ये कमथ के िोते िैं
। कमथबोंध िोते िमय िी कमथ की द्धसर्सत, कमथ का अनुभाग बोंध जाता िै । द्धसर्सत तो सकतने िमय तक ये कमथ रिें गे इिका
नाम िै और अनुभाग ये कमथ फल शद्धक्त िे फल दे ने में कारर्ण िोोंगे, इिमें फलदान शद्धक्त सकतनी पडी िै , इि प्रकार
के जो शद्धक्तयोों के भेद िैं ये अनुभागसर्ान किलाते िैं । अनुभागसर्ान कमथ में िै । कमथ और जीव पृर्क्-पृर्क् पदार्थ िैं
। अनुभागसर्ान भी जीव के निीों िैं ।
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 52

१६५. ज्ञानी की प्रत्यगयोधत की झांकी—भरत को किते िैं सक घर में रिते हुए वैराग्य िो गया । घर में रिते हुए,
राज्य को भोगते हुए भी उनके मन में यि निीों र्ा सक यि मेरा िै । एक सजज्ञािु ने पूछा मिाराज आप इतने ठाटबाट िे
तो रिते िैं , सफर लोग आपको वैरागी क्योों किते िैं ? मन्‍सत्र योों ने किा िम िमझाते िैं । एक तेल भरा कटोरा सजज्ञािु
को सदया और किा सक तुम पिरे दारोों के िार् जाकर राजमिल का एक-एक सवभाग खूब अच्छी तरि घूम आवो और
तेल का कटोरा िार् में सलये रखना, ध्यान रिे सक कटोरे में िे ते ल की एक भी बूोंद जमीन पर न पडने पाये , निीों तो शू ट
कर सदये जाओगे । अब वि सजज्ञािु पूरे राजमिल को दे ख रिा िै , परन्तु दृसि िै उि तेल भरे कटोरे पर । जब वि पूरा
राजमिल घू म आया, मन्‍सत्र योों ने पूछा तु मने क्या दे खा ? सजज्ञािु ने किा, मिाराज, घूमा व दे खा तो िवथत्र, परन्तु दे खा
कुछ निीों, क्योोंसक दृसि इि पर र्ी सक कटोरे में िे किीों तेल की बूँद न सगर जाये । मन्‍त्री किते िैं —इिी प्रकार मिाराज
भरत करते तो िैं राज्य, परन्तु दृसि रिती िै आत्मस्वरूप पर । राज्य करते हुए भी वे इन िब बाह्य वैभवोों िे सवरक्त िैं ,
केवल अन्तवै भव पर दृसि िै । जैिे कोई कुटु म्ब में या दू िरे के घर में कोई मर गया िो, घर पर वि रोटी भी खाता िै ,
मगर उपयोग उि मृत प्रार्णी की ओर िी जाता िै । ऐिा तो कभी िोता निीों सक भोजन कर रिा िो, उपयोग अन्यत्र िोने
िे कान िे कौर दे ने लग जाये । इि भोजन करते हुए भी उिका सित्त भोजन करने में निीों िै । इि प्रकार िम्‍यग्द्‍दृसि की
भीतरी प्रतीसत शुद्ध स्‍वभाव पर रिती िै , बाह्य में वि िमस्‍त कायथ करता िै । जैिे मुनीम िै । वि दु कान की पूरी रक्षा
करता िै , मगर उिे मन में प्रतीसत यि िै सक मेरा कुछ निीों िै , परन्‍तु करता िै वैिा, जैिे उिी का िब कुछ िो । सफर
ज्ञानी के ज्ञान में िी क्‍योों िन्‍दे ि ? उिकी प्रतीसत आत्‍मा में िी िै । माता जैिे बच्‍िे को “नाशगया, मरन जोग्द्‍गा, िोते िी
क्‍योों न मर गया र्ा” आसद गाली दे ती िै , परन्‍तु उिके मन में उिके सित की इच्‍छा रिती िै । कुछ ऐिी िी प्रेरर्णा िोती
िै सक करना कुछ और पडता िै और सित्त में कुछ और िोता िै । सजि वक्त ज्ञानी जीव को यि श्रद्धा िो जाती िै सक मेरा
वैभव मेरा गुर्ण िै , मेरा स्‍वामी मेरा आत्‍मा िै , मेरा जनक मेरा आत्‍मा िै , मेरा पुत्र मेरा आत्‍मा िै , मेरा बन्‍धु मेरा ज्ञान िै , मेरी
स्‍त्री मेरी अनुभूसत िी िै , िवथ पररवार मेरा मेरे में िी िै , ऐिा सजिे प्रत्‍यय िो गया िै , वि पुरुर् ििज उदािीन िो जाता िै

१६६. ज्ञानानन्‍द प्रगट होने पर धवषयानन्‍द पररहार की अधनवायाता—जो िुकौशल मुसन अभी खेल कूद रिे र्े ।
र्ोडी दे र बाद जब सपता के दशथन हुए । मा ने सपता (मुसन) को सनकालने का आदे श सदया, यि दे ख धाय रोने लगी ।
िुकौशल ने िानुरोध धाय िे रोने का कारर्ण पूछा । धाय किती िै सक बेटा, जो मुसन आये र्े, ये तेरे सपता र्े । तेरी मा
ने घोर्र्णा कर रखी िै सक यिाँ पर कोई मुसन न आ पाये और जो आये उिे तत्‍काल भगा सदया जाये । यि िुनकर
िुकौशल का मन सवरक्त िो गया । लोगोों ने बहुत िमझाया सक तुम्‍िारी स्‍त्री के अभी गभथ िै , उिको सतलक करके सवरक्त
िो जाना । परन्‍तु िुकौशल कि दे ता िै सक गभथ में िी मैं उिका राज्‍यसतलक करता ह । और किकर िु कौशल कुमार
िे िुकौशल मुसन बन जाता िै । जैिे आपका कोई समत्र िै । यसद आपको मालूम िल जाये सक वि आपके प्रसतकूल
र्डयोंत्र रि रिा िै तो आपका उिके प्रसत मन खट्टा िो जाता िै । यिी िाल िम्‍यग्द्‍दृसि का िै , उिका मन िमस्‍त पदार्ों
िे सवरक्त िो जाता िै । िम्‍यग्द्‍दृसि किीों भी िला जावे , मगर वि आत्‍मकोठी को कभी निीों भूलता िै । उिको ऐिे आनन्द
का अनुभव िोता िै सक जो आनन्द किीों निीों िै , सजिका मन िोंिार िे सवरक्त िो गया, सफर उिका मन िोंिार के भोगोों
में क्या लगेगा? सजिने एक बार ऊोंिे आनन्द का अनुभव कर सलया िै वि कसनष्‍ठ आनन्द का अनुभव क्योों करना
िािे गा? राग-द्वे र् आसद मेरे कुछ निीों िै । मैं तो िैतन्यमात्र आत्मा हँ ।
१६७. अलौधकक वैभव धमलने पर लौधकक वैभव का धवलगाव—ऊोंिी िे ऊोंिी बात का सजि काल में अनुभव
सकया, उिका स्मरर्ण िदा आता िी िै । िम्‍यग्द्‍दृसि को ऐिा सवश्‍वाि प्रसतिमय बना रिता िै सक आनन्द इि िी द्धसर्सत
में िै , आत्मा न वैष्णव िै , न बसनया िै , न ब्राह्मर्ण िै , न ठाकुर िै , न जैन िी िै । वि तो जो िै िो िै । और जैिा वि िै वैिा
िमझ में आता िै । सजि सकिी के िमझ में यि आत्मा आ गया, िमझो इिका कल्यार्ण िो गया । मुझे इििे लाभ निीों
सक मैं दु सनया की दृसि में ब्राह्मर्ण किलाऊों या जैन किलाऊों । मेरा लाभ, जै िा स्वरूप िे मैं ह , उिे पििान जाऊों,
इिमें िै । इिके बाद मैं कुछ निीों िािता हों । अपने आत्मा को पििानने तक की दे र िै , जो िोना िोगा, विी िोकर
रिे गा । आत्‍मज्ञान तक का पुरुर्ार्थ सकये जाओ, वि आत्मज्ञान िब सवसधयाँ लगायेगा । “आत्‍मज्ञानात्परं काया न िुद्धौ
िारये च्‍धच रम् ।” बहुत काल तक आत्मज्ञान के सिवाय अन्य बात धारर्ण न करो । एक राजा र्ा । वि घूमने जा रिा र्ा

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 52

। तालाब के सकनारे पर जब निाने उतरा तो िोंयोगत: उिकी मुसद्रका तालाब में सगर गई । और िोंयोग िे वि कमल के
बीि में आ गई । िायोंकाल का िमय र्ा, कमल के बीि में वि भी मुँद गई । बहुत ढुों ढवाया, निीों समली । राजा के
मोंत्रीगर्ण एक अवसधज्ञानी मुसन के पाि गये । उन्होोंने बताया सक एक तालाब के कमल में बन्द िै । मोंसत्रयोों ने विाँ जाकर
ढूोंढा, समल गई । अब पुरोसित के मन में आया सक मैं इि सवद्या को िीख जाऊों तो बडा आनन्द रिे । मुसन के पाि आया,
िीखना प्रारम्भ सकया । जब उिे आत्मज्ञान िो गया, अब उिका मन उििे अलग निीों हुआ । उिने िोिा, मुझे तो
उििे भी अच्छी िीज समल गई िै ।
१६८ जैनी रीधत स्वरूप परीक्षा की स्वतन्‍त्रता—जैन शास्‍त्र किते िैं सक िािे जिाँ जाओ, ित्य का सनर्णथय स्वयों कर
लेना । अन्य लोग तो किते िैं सक ‘न गच्‍छे ज्‍जै न मद्धन्दरम्’ इिका कारर्ण यि िै सक लोगोों को यि भय िै सक यि जैन
मद्धन्दर में जायेगा तो यि भी जैन िो जायेगा । जैनदशथन में आिार, वस्तुस्वरूप, भगवानस्वरूप, आत्मस्वरूप िबका
वर्णथन िुगम िै और झट प्रतीसत में आने वाली वस्तु स्वरूप के अनुकूल वर्णथन िै । उिको िुनकर वि इिका प्रत्यय प्राय:
कर िी लेगा । अतएव उन्होोंने ऐिी िूद्धक्तयाों गढ डाली िैं । जैन न्याय में ऋसर्योों ने अन्यमतोों का भी वर्णथन इि खूबी िे
सकया सक आप किें गे, बि यिी ठीक िै । सकिी-सकिी बात में तो उन लोगोों िे भी असधक तकथ सदया िै । अन्य मतोों का
प्रसतपादन भी जैन न्यायोों में सकया गया िै । तुम्हारा अनुभव किे तो उन बातोों को मानो । जैन शास्‍त्र किते िैं सक अन्य
शास्‍त्रोों को भी खूब दे खो, जो ित्य प्रतीत िो, उिे स्वीकार करो । ित्य को ग्रिर्ण करो, धमथसवशेर् को निीों । वस्तु का जो
स्वरूप िै , उि पर िी दृसि दो, उि

स्वरूप में शुद्ध आत्मा नजर में आयेगा । आत्मा में जो भी भाव िमझते आ रिे िैं वे औपासधक िैं , पयाथ यें िैं , अत: वे
अध्यात्मसर्ान भी आत्मा के निीों िै । आत्मा ध्रुव िै ये िब अध्रुव िैं । वगथ, वगथर्णा, स्पद्धथ क तो प्रकट पु दगल द्रव् िैं िी ।
सकन्तु इनके उदयासद अवसर्ा को सनसमत्त पाकर जो अध्यात्मसर्ान िोते िैं वे भी आत्मा के निीों िैं अर्वा वे आत्मद्रव्
निीों िैं । आत्मा में जो िोंयोगी भाव िैं व जो िोंयुक्त पदार्थ िैं उनिे पृर्क् िैतन्यमात्र सनज ित्तामय अपने आपके पररिय
िे मोक्षमागथ प्रगट िोता िै । िवथ क्‍लेशोों िे मुद्धक्त पाने के सलये सनज परमात्मति जानना असनवायथ आवश्यक िै । सजिने
अपने आपको जाना उिको ईश्‍वर के गुर्णगान करना तर्ा सिर रगडना लाभदायक िै । अपने आपको जाने सबना, सिर
रगडने िे गूमटे िी िो जावेंगे । आत्मा को जानने िे िी ज्ञाता द्रिा बन िकता िै ।
१६९. स्ववृधि से मुच्छक्त लाभ—जै िे रोटी बनाने वाले को शों का निीों िोती सक यि बने गी अर्वा निीों, वैिे िी ज्ञासनयोों
को शोंका निीों िोती सक मुद्धक्त समलेगी या निीों । उन्हें तो यि िूझता रिता िै , भद्धक्त यिी िै , मुद्धक्त इिी रास्ते िे िै , मैं
पहुों िकर रहों गा, वि दू र निीों, मुझे जरूर समलेगी क्योोंसक मुद्धक्त किीों अन्यत्र निीों आत्मा में िै , इि िी का शु द्ध सवकाि
मुद्धक्त िै । इिी तरि आत्मति की बात िमझने वाले को िन्दे ि निीों िोता । उिे तो दृढ धारर्णा रिती िै सक िम्यग्दशथन
ज्ञान िाररत्र समलकर िी एक मोक्ष का मागथ िै । तीर्थकर मोक्ष निीों दे ते, न शास्‍त्र दे ते िैं और न मुसन िी सशवदाता िै ।
आत्मा के द्वारा आत्मा िी आत्मा को मुद्धक्त दे ता िै । एक घडे में लड् डू भरे रखे र्े । बन्दर ने आकर िार् में ३-४ लड् डू
भर सल ये । अब िार् निीों सनकलता, तो सनकाले कौन, जब वि उन्हें छोडे तब िार् सन कले । इिी तरि यि जीव अपने
िी कारर्णोों िे िोंिार में भटक रिा िै तर्ा उन कारर्णोों को छोडकर अपने िी द्वारा छूट िकता िै । प्राय: मनु ष्य समथ्या
का अर्थ झूठ करते िैं । सकन्तु ऐिा निीों, समथ्या शब्द समर् धातु िे बना िै । समर्् अर्ाथ त् दो का िम्बन्ध । तो जिाँ समथ्या
किा जाये विाँ दो का िम्बन्ध जानना िासिए । पर को अपना मानना यि हुआ समथ्या, यि दृसि खराब हुई, जिाँ एक को
िी माना जावे वि दृसि अच्छी । जैिे यि आत्मा अकेला िी िब कायथ करता िै । तो भी परस्पर के िम्बन्ध को लगाकर
जीव जाना करते िैं । आत्मति जो िै वि स्विोंवेदन िे जाना जाता िै । बाह्य िे दृसि सभन्न न रखो ।
१७०. ध्रुवदृधष्ट की कल्याणरूपता—िवथ पदार्थ सभन्न िैं , उनिे मेरा कोई सित निीों िोता । क्रोधरूप मैं निीों, मानरूप
मैं निीों, मायारूप मैं निीों और न लोभरूप मैं हँ । सनज का ध्रुव जो स्वभाव िै वि अखों ड, सि दानन्दमयी, ज्ञाता द्रिा मैं
हों । ज्ञानरूप आत्मा मेरी अन्त: दै दीप्यमान िो रिी िै , स्वभावत: स्वभाव जानने का उपाय दे खो । आम छोटा रिने पर
काला रिता िै , कुछ बढने पर िरा िो जाता िै , सफर पीला, लाल रों ग में पररर्णत िो जाता िै । इिमें आम का रूप बदला
िै , आम तो विी िै जो पिले र्ा और रूप िामान्य भी विीों िै । बदला कौन? रूप । िो जो रूप नामक गुर्ण प्रारम्भ िे
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िदा िै वि िै रूप-स्वभाव । यि तो आत्मस्वभाव जानने के सलये दृिान्त िै । अब आत्मा में दे खो िैतन्य स्वभाव अनासद
अनन्त िै सक न्तु प्रसतिमय ज्ञानोपयोग व दशथनोपयोग के पररर्णमन िो रिे िैं । यर्ािों भव छद्मसर्ोों के क्रमश: व केवसलयोों
के युगपत् । इिमें जो पररर्णम रिा वि तो िै िैतन्य स्वभाव और जो उिकी पररर्णसतयाों िैं वे िैं पयाथ य । िै तन्यस्वभाव ध्रुव
िै वि िै आत्मस्वभाव । किते िैं ना—आदमी बदल गया । यिी आदमी पिले र्ा, यिी अब िै । मनुष्य पररद्धसर्सतयोों में
पडकर अन्य रूप िो गया िै, न सक मनुष्य िी दू िरा िो गया िै । रूप गुर्ण ध्रुव िै । काला पीला, नीला अध्रुव िै । ज्ञान तो
ध्रुव िै , सकन्‍तु उिकी दशायें अध्रुव िैं । ध्रुव की दृसि कल्यार्णयुक्त िै , अध्रुव की अकल्यार्णयुक्त िै ।
१७१. ध्रुवस्वभाव के अपररचय में िमावीरता पर आश्‍चया —सज नके ध्रुव आत्मस्वभाव का पररिय निीों वे इि बात
पर अिरज करते िैं , िाधु जोंगल में अकेले कैिे रिते िोोंगे, उन्हें भय निीों िताता िोगा । इि तरि की कल्पनायें
आत्मस्वरूप-अनसभज्ञ मनुष्य सकया करते िैं । इि तरि के मनुष्योों को बुद्धद्धपूवथक यर्ार्थ बात िोिना िासिए सक िाधु
जोंगल में सनरपेक्ष भाव का ध्यान करते िैं । जब विाँ सकिी की अपेक्षा िी निीों तो भय सकि वस्तु का ? कपडा गीला र्ा,
धूल में सगरने िे धूल लग गई, िूख जाने पर धूल झर जाती िै वैिे िी कमथ कर्ाय िे बोंधे र्े , कर्ायें दू र हुई, कमों ने सवदा
ले ली । स्‍त्री मेरी िै , पुत्र मेरा िै , कुटु म्बीजन मेरे िैं , यि मेरे आसश्रत रिते िैं , मैं इनका भरर्ण पोर्र्ण करता हँ , ये मुझे िुख
दे ते िैं , इि तरि की कल्‍पना िे अशुभ कमथ बोंधेगा । भगवान ! आप सत्रलोकीनार् िैं , िोंिार के तारक िैं , मैं अज्ञानी हँ ,
परपदार्ों में रमर्ण कर रिा हों , इि स्तुसत िे भी शुभकमथ बोंधे लेसकन जिाँ एक सनसवथकल्प, सनरपेक्ष ध्यान िै विाँ कमथ निीों
आते , मागथ कमों का अवरुद्ध िो जाता िै । सवकार िसित पररर्णाम करके कर्ाय बढाकर सनज स्वभाव का प्रार्णी घात
करते िैं । सजतनी आत्‍मायें िैं , उनमें परमात्मा का वाि िै लेसकन ऐिा निीों सक परमात्मा छोटा या बडा सकिी रूप िो
और प्रत्येक में जुदा-जुदा ठिरा िोवे । तात्पयथ यि िै प्रत्येक आत्‍मा में परमात्मा िोने की शद्धक्त िै । परमात्मा तो आकर
तुम्हारी आत्मा में निीों िमाया; तुम्हारा िी स्वभाव परमात्मति िै ।
१७२. अपने पररणाम के अनुसार अपना अनुभवन—यि जीव सजि तरि के पररर्णाम करता िै , उि तरि के िुख
दु ुःख भोगता िै । एक लडका दू िरे लडके को २० िार् दू र िे सिढाता िै तो लडका सिढने लगता िै , गाली बकता िै ,
रोता िै , क्रोध करके मारने को झपटता िै । लेसकन क्या सिढाने वाले की उों गली विाँ गई, या जीभ, नाक, िार्, पै र, विाँ
पहुों ि गया । और दे खो िार् के अन्य लडके निीों सिढते िैं , तो इिमें अपने िी पररर्णामोों के अनुिार सिडाना और दु ुःख
उठाना मान रखा िै । दे खो, वे िभी बालक अपनी-अपनी योग्यतानुकूल अपना-अपना पररर्णमन कर रिे िैं । जगत के
जीव जो भी िुखी िोते िैं वे अपने िी भाव िे िुखी िोते िैं और अपने िी भाव िे दु :खी िोते िैं । एक घर में ६ आदमी िैं
। उनमें दो िुखी िैं तर्ा ४ दु :खी िैं , तो उन िार को सकिी ने दु :खी बनाया निीों सकन्‍तु उन्होोंने ऐिा मान रखा िै , इिसलए
उनके पररर्णाम िी उन्हें दु ुःख दे ते िैं । रामििजी ने क्या कम दु ुःख उठाये , कृष्‍र्णजी को आपसत्तयोों का िामना करना
पडा, भरत, बाहुबसल को दु ुःख उठाना पडा । ये िब पु ण्यवान जीव र्े । सफर दु ुःखी क्योों? यर्ार्थ में अिली परीक्षा की
किौटी आपसत्तयोों पर िे िी किी जाती िै , उनमें जो खरा उतर गया, सवर्ाद को पल्‍ले निीों पडने सदया, इि तरि के जीव
ने िी आत्मति को िमझने में िफलता पा ली ।
१७३. अपने भाव से अपनी पररणधत—मैं एक आत्मा हों —यि प्रसतभाि सजिे िो गया, उिके आत्मा का ध्यान करने
पर आत्मा में पूर्णथ िुख की झलक आ जाती िै । प्रत्येक आत्मा न्यारा-न्यारा िै । सकिी की पररर्णसत सकिी अन्य आत्मा में
निीों समलती । प्रत्येक प्रार्णी अन्य की िेवा करने में तभी उद्यत िोता िै , जबसक उिे िेवाभाव में अन्तरङ्ग िे िुख की
झलक िोती िै और िेवा सबना आपको दु :खी पाता िै । एक अध्यापक १० छात्रोों को पढाता िै । १ बुद्धद्धमान सनकलता िै
। क्या वि अध्यापक के पढाने िे ज्यादा िमझ लेता िै तर्ा बाकी मूखथ रिते िैं तो क्या बाकी छात्रोों के हृदय में पढाना
ठीक निीों बैठता मास्टर का? उनमें अध्यापक ने न तो एक को बुद्धद्धमान बना सदया िै और न ९ को िमझाने में कमी की
िै , सकन्तु बुद्धद्धमान छात्र की ज्ञान योग्यता आत्मा में पिले िे िी सवद्यमान र्ी, वि ज्ञान कारर्ण पाकर स्फुसटत िो गया ।
आत्मा स्वयों ज्ञानस्वभाव िै । ज्ञान पर पदाथ पडा हुआ िै , वि अपना िमय आने पर उि तरि की अवसर्ा में पा लेता िै
तर्ा ज्ञान सवकसित िो जाता िै । अोंतरङ्ग िे ज्ञान का प्रस्फुसटत िोना स्वभाव िै , वि बािर िे आकर न समला िै और न
समल िी िकता िै । अनुभव का सर्ान िवोपरर िै । िोंिारी प्रत्ये क आत्मा अपने भाव के अनुिार अपनी िृसि पाता िै ।
अपने -अपने भाव के अनुिार स्‍ने ि करता िै एवों अपने पररर्णामोों के अनु िार द्वे र् करता िै । सजििे िम राग करते िैं , िो

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 52

िकता िै वि िमारी कुछ भी परवाि निीों करता िो, भले िम उिके सलये प्रार्णपर्ण िे िरदम तैयार रिें । द्वे र् करने पर
भी, सजि पर िम द्वे र् कर रिे िैं , वि आनन्द िे झूम रिा िै , उिे द्वे र् करने वाले िे कोई िासन निीों िो रिी । पर द्वे र्
करने वाला अपने में िी जल रिा िै । पारलौसक क िासन तो िै िी तर्ा द्वे र्कताथ को लौसकक िासन भी उठानी पडती िै ,
पािन शद्धक्त मन्द पड जाती िै , िेिरा सववर्णथ िो जाता िै आसद । राग करने पर भी अन्य का सित निीों कर िकता । राग
करने िे यौवन को वृद्धावसर्ा िे निीों बिा िकते और न वृद्ध िे पुि िी कर िकता हँ । िम जो कर िकते िैं वि अपने
गुर्णोों का िी पररर्णमन कर िकते िैं । इिके असतररक्त अन्य पदार्थ का कताथ अपने को िमझना यिी िोंिारक्‍लेश की
खान िै । इि समथ्याबुद्धद्ध िे बिकर अपनी रक्षा करें ।
१७४. यथाथाता के पररचय से उन्नधत की ओर गधत—आत्मति का पररिय कर लेने वाले ज्ञानी आत्मावोों की वृसत्त
एकरूप िोती िै , सकन्तु यसद उपासधयोों का उदय सवसशि आवे तो अन्त: श्रद्धा ित्य िोने पर भी वृसत्त सवसित्र िो जाती िै ।
एक िेठ के एक ३ वर्थ का बालक र्ा । िेठ मरर्णािन्न र्ा । उिने पाँ ि प्रमुखोों को बुलाकर उन्हें जायदाद का टर स्टी बना
सदया और कि सदया सक जब बालक बासलग िो जाये तब जायदाद िौोंप दे ना । एक सदन ठग ने उिे िडक पर अकेला
खे लते हुए दे खा और ठग उिे घर ले गया और ठसगनी को दे सदया । ठसगनी के पाि बिपन िे िी वि लडका रिता िै ।
ठगनी के किने पर वि िब कायथ करता िै । खेत की रक्षा करता िै , पशुओों की दे खभाल करता िै । एक सदन वि लडका
अपने शिर पहुों िा । टर द्धस्टयोों ने िमझाया सक तु म अपनी जायदाद िोंभालो । वि आश्‍ियथ करता रि गया । आद्धखर बोला
सक िम ३ सदन बाद िोंभालेंगे । झौोंपडी में जाकर वि ठगनी िे पूछता िै सक िि-िि बता दो मेरे माता सपता कौन िैं ??
ठगनी ने िि-िि कि सदया । तुम एक िेठ के पु त्र िो जो सक गुजर िुके िैं । अब वि मानता िै सक मेरे माता सपता वि
र्े जो गुजर िुके तर्ा ठगनी िे भी माों किे तो उि पर पूर्णथ सवश्‍वाि निीों करता । परवश िोकर उिको ऐिा करना
पडता िै । इिी तरि कमों की पराधीनता िे पर को अपना मान रिा िै । कमों की पराधीनता भी जब जावे , जब परपदार्ों
िे मोि करना छोड दे । जब इि प्रार्णी को यि बोध िो जावे सक मैं अपने िी पररर्णमन िे जन्मता हँ तर्ा मरता हँ , तब
इिे सनश्‍िय िो जावे , मैं िी पुत्र हों , मैं िी अपना भाई हँ , मैं िी अपना सपता हँ , मैं िी अपना कुटु म्बी हँ तब वि यद्यसप अपने
धन की िोरोों िे रक्षा करता िै । उदरपोर्र्ण के सलए न्यायपूवथक धन कमाता िै , कुटु म्बी जनोों का सनवाथ ि करता िै , दान
दे ना, पूजन करना आसद सनत्य कायथ भी करता िै । यि िब िोने पर िी पदार्ों को अपने िे सभन्न अनुभव करता िै , तर्ा
इि सफराक में रिता िै , कब सनजात्मानन्द को पान कर उिमें सनमग्दन ्‍ िो जाऊों ।
१७५. परीधक्षत िमा के ग्रहण में लाभ—बालक, बासलकायें जिाँ पैदा िोते िैं उनमें वैिे िी िोंस्कार घर कर लेते िैं ।
तर्ा उनके माता सपता सजिको दे व मानते िैं उिी को वि पूजने लगते िैं । भगवान क्या िै ? कैिा िै , यि सजज्ञािा िे
प्रतीसत वे निीों करते िैं । उन्हें जैिी धारर्णा शुरू में जम गई उिी पर सवश्‍वाि करने लगते िैं , अनेकोों की दृसि में िब धमथ
एक िे मालूम पडते िैं । उन्हें नमक के ढे ले एवों रत्‍न में अन्‍तर िी मालूम निीों पडता । दू ध गाय का भी िोता िै , आक का
भी, बड का भी दू ध, पर अभी तक ऐिा कोई दे खने में निीों आया सक जो आक का दू ध पीता िो । गाय का दू ध िभी पीते
िैं । इिी तरि धमथ तो अने कोों का नाम िै सकन्तु उनकी अिली परीक्षा करनी िासिए । सकििे िमारा सित िो िकता िै ,
कौन-िा धमथ िमें िोंिाररूपी िमुद्र िे पार कर दे गा? धमथ ध्रुवस्वभाव का उपयोग िै । जैिे वस्तुतुः मनुष्य उिे किना
िासिए सजिका स्वरूप िदै व एक-िा रिें , िो तो आँ खोों िे दे खने में निीों आता । कोई कभी बालक िै , तो कभी युवा िै ,
कभी वृद्ध िै , यसद यि िब दशायें मनुष्य िैं तो दशा समटने पर मनुष्य समट जाना िासिए । िदै व एक-िा रिे वि मनुष्य
िै । िो िदै व अवसर्ायें एक-िी रिती निीों । इिसलए िब दशावोों में रिने वाला एक आधार मनुष्य िै । यसद मनु ष्य जीव
िै तो मनुष्य अवसर्ा समट जाने पर जीव समट जाना िासिए! आ खोों िे आत्‍म सनर्णथय निीों िोता । जब आत्मा का ज्ञान िोगा
वि ज्ञान िे िी िोगा । आत्मा भी अपनी िमस्त पयाथ योों का आधारभूत एक द्रव् िै । बच्‍िे समट्टी का भदू ना बनाते िैं , वि
र्ोडे िमय में सगर जाता िै या विी बच्‍िा सगरा दे ता िै , अर्वा दू िरे बच्‍िे उिे सगरा दे ते िैं , वि असधक िमय निीों ठिरता
। उिी तरि मनुष्य या अन्य प्रार्णी के द्वारा जो िृसि िलती िै , वि असधक िमय निीों ठिरती, कुछ िमय में वि नि िो
जाती िै । मनुष्य सनश्‍िय दृसि िे िामान्यतया एक रूप िी िै । मैं सवद्वान हँ , मैं िुखी हँ , मैं दु खी हँ , मैं मूखथ हँ , मैं मनुष्य
हँ , मैं राजा हों —इि तरि की कल्पनायें अज्ञानी जीवोों में उठा करती िैं ।
१७६. आत्मीय अिमामा के िोि से श्रमजालमुच्छक्त—एक आदमी एक िाधु के पाि पहुों िा और बोला िाधु जी मुझे

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 52

ऊोंिा ज्ञान दो । िाधु जी ने किा “एक ब्रह्माद्धस्त, सद्वतीयों नाद्धस्त” एक आत्मा दू िरा कुछ निीों िै । इतने पर उिे िोंतोर्
निीों हुआ तो किने लगा और असधक बताइये । तब िाधु जी ने किा—नगर में एक पोंसडत रिते िैं उनके पाि जाकर
असधक ज्ञान िीखो । उि आदमी को ममथ की बात पर सवश्‍वाि निीों हुआ और पोंसडतजी के पाि जाकर पढने लगा तर्ा
सवद्यादान के बदले में पोंसडतजी की गायोों का गोबर उठाने लगा । इि तरि १२ वर्थ सवद्या पढते िो गये , अन्त में बोला—
‘पोंसडतजी सवद्या पढने की ममथ की बात तो बता दो ।’ तब उन्होोंने किा “एक ब्रह्माद्धस्त सद्वतीयों नाद्धस्त ।” तब सफर उि
आदमी की िमझ में आया सक यि तो िबिे पिले िी िाधु जी ने पढा सदया र्ा, १२ वर्थ गोबर व्र्थ में ढोया । ज्ञान के
सबना आत्मा घर-घर दु :खी िै , कोई सकिी के प्रसतकूल िै तो दु :खी िै , कोई अनुकूल िोने पर भी दु :खी िै । यि आत्मा
अजर अमर िै , िैतन्ययुक्त िै , इि पर सवश्‍वाि निी बैठता । आत्मा अनेक प्रकार का निीों िै , न कोई उपासध उिमें िै ।
भ्रम बुद्धद्ध िे जीव का उपयोग पर में लग रिा िै । कभी पररर्णाम दु कान में, कभी घर में, कभी स्‍त्री पुत्रोों की रक्षा में, कभी
राजकर्ा में, कभी भोजन कर्ायें —इि तरि मन कुछ न कुछ िोिा िी करता िै । तर्ा मन जब वश में िो जाता िै तब
परमात्मा के दशथन िो जाते िैं । िोिने िे परमात्मा निीों सदखेगा, िोिना बन्द करने पर ईश्‍वर के दशथन िो िकेंगे ।
मुिलमान भाई किते िैं , दो फररश्ते कोंधे पर बैठे िैं यि फररश्ते राग और द्वे र् िी िैं तर्ा िार पिरे दार इि मनुष्य के
िार् लगे िैं । ये पिरे दार आिार, सनद्रा, भय और मैर्ुन िोंज्ञायें िी िैं । इिी तरि यि जीव भ्रम िे िोंिार में घू म रिा िै ।
१७७. सद् िोि से िेसुिी का धवनाश—एक आदमी जोंगल में जा रिा र्ा । रास्ते में दे खता िै , एक िार्ी ने बच्‍िे को
कुोंड िे पकडकर मरोड डाला । वि आदमी िार्ी द्वारा यि कृत्य दे खते िी सिल्‍लाता िै , अरे मेरा बच्‍िा मरा और बेिोश
िो जाता िै । वि बच्‍िा उिका निीों र्ा, अन्य मनुष्योों ने जब यि दे खा तो उिका खाि बच्‍िा बुलाया गया । उिे दे खते
िी वि िोश में आ जाता िै । यिाँ पर उि आदमी को िुख बच्‍िा दे खने का निीों हुआ, सकन्‍तु उिे िुख इिका हुआ सक
िार्ी के द्वारा मरोडा गया बच्‍िा मेरा निीों िै , यि ज्ञान हुआ । इिी तरि जब तक परपदार्ों में अपने की ममत्व बुद्धद्ध
रिे गी तब तक उिी मनुष्य के िमान बेिोशी का नशा जाल छाया रिे गा और जिाँ अपनेपने की बुद्धद्ध दू र हुई आनन्द
की ििजोत्पसत्त िमझो । ममता सपशासिनी ने सकतनोों को निीों डु बोया, तर्ा उिी ममत्व का गुटका खाते सफर रिे िैं ।
मोिी जीवोों ने इि तरि अनन्तानन्त भव सबता सदये, सफर भी ममत्व बुद्धद्ध निीों जाती ।
१७८. अनुभव से समस्या समािान की सुगमता—भद्धक्त में भाव लगे तो श्रे ष्ठ िै , सबना भाव के छु टकारा निीों ।
भद्धक्त की ओर अन्तसर्ल तक निीों पहुों िे तो आत्मीक लाभ निीों िोने का । जब इि प्रार्णी के द्वारा सनश्‍िय िो जाता िै
सक इन पदार्ों िे मेरा सनजी असित िो रिा िै , इनिे न आज तक कोई कायथ सिद्ध हुआ िै और न आगे जाकर िोयेगा,
तब वि उन्हें सतला जसल दे कर आत्मसित के पर् में अग्रिर िोता िै । सजनका उत्तर कसठन िै वि अनुभव िे िुगम िो
जाता िै । एक पुरुर् की दो स्‍सत्र याों र्ी । बडी स्‍त्री के कोई लडका निीों र्ा, छोटी स्‍त्री के लडका र्ा । यि दे खकर बडी
को डाि पैदा िो गयी । तब उिने अदालत में केि दायर कर सदया सक लडका मेरा िै । जब बडी स्‍त्री के बयान सलये गये
तो उिने किा सक जो पसत की जायदाद िोती िै , उिकी िकदार स्‍त्री हुआ करती िै इिसलए लडका मेरा िै । छोटी िे
पूछा गया तो उिने भी किा लडका मेरा िै । जब दोनोों अपना-अपना किें तो राजा ने एक उपाय िोि सनकाला । राज्य
के तलवार वाले सिपासियोों को बुलाया गया और किा, इि लडके को काटकर इन दोनोों स्‍सत्र योों को आधा-आधा दे दो
। इि पर बडी स्‍त्री प्रिन्न हुई तर्ा छोटी सिल्‍लाकर बोली, मिाराज पुत्र मेरा निीों िै , बडी का िै उिी को दे सदया जावे।
तब राजा यर्ार्थ बात िमझ गया सक पुत्र छोटी स्‍त्री का िी िै , वि सकिी भी िालत िे उिे जीसवत दे खने में िु खी िै ।
इिसलए लडका छोटी स्‍त्री को दे सदया गया ।
इिी तरि जो एक आत्मा िै , उिका िल अपने अनुभव िे सनकलेगा । खुद के अनुभव सबना, मात्र शास्‍त्रोों के िुनने िे
उिका िल निीों सनकलेगा, दू िरोों के उपदे श िे भी निीों सनकलेगा । पूरा तो पडना अपने िे । दु सनयाभर के पदार्ों को
इकट्ठा करने िे क्या समलेगा ? मनुष्य भोजन करते िैं , पशु भी खाते िैं । सकन्तु पशु ओों को कल के िोंग्रि की सिन्ता निीों,
उन्होोंने खाया और िल सदये । पशु का मरने पर प्रत्येक सिस्सा काम आता िै । पशु का िमडा, िड् डी, माँ ि, िीोंग, गोबर,
पेशाब, बाल आसद िभी कायथ में आते िैं । मनुष्य की जब तारीफ की जाती िै तो पशु पसक्षयोों िे उपमा दी जाती िै । जैिे
अमुक व्द्धक्त शेर के िमान बलवान िै । तो शेर श्रे ष्ठ ठिरा । उिकी नाक तोते के िमान िै , आँ ख सिरर्ण के िमान िैं ,
बाल िपथ के िमान िैं , िाल िार्ी के िमान िै , बोली कोयल के िमान िै आसद । इि तरि पशु पसक्षयोों का सर्ान श्रेष्ठ

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ठिरा । यसद मनुष्य में एक धमथ निीों िै तो उििे पशु िी श्रेष्ठ िैं । धमथ के िोने िे िी मनुष्य का सर्ान पशुओों िे ऊोंिा िो
िकता ।
१७९. व्यवहारशरण और परमाथाशरण—परात्मवादी सजन कुतिोों को आत्मा मानता िै वे कोई भी शरर्ण निीों िै ,
शरर्ण तो ििज सनरपेक्ष िनातन आत्मस्वभाव की दृसि िी िै । जब यि दृसि न िो तब इि दृसि के प्रिाद िे जो परमोत्‍कृि
िो िुके िैं उनकी भद्धक्त िै तर्ा जो इि मागथ में लग रिे िैं उनकी भद्धक्त िै एवों जो िद् विन इि मागथ के वािक िैं उनका
अध्ययन मनन सवनय िै । ित्ताररदों डक में जिाों शरर्ण बतलाया िै , विाँ पूवथ के तीन तो परपदार्थ िैं । धमथ सनज-ति िै ।
अरिों त, सिद्ध, िाधु की जो भद्धक्त िै , वि व्विार भद्धक्त िै । उिकी बात अपने में उतारे तो लाभ िै । अरिों त के जो गुर्ण
िैं मेरे गुर्ण िैं , उनको प्राप्त करने में मैं िमर्थ हँ । सिद्ध का जो द्रव् िै वैिा मेरा िै । सिद्ध के जो गुर्ण िैं वैिे मेरे िै तर्ा
सिद्ध की जो पयाथ य िै वैिी पयाथ य पाने में मैं िमर्थ हँ , इि तरि वि सिद्ध की शरर्ण बना लेता । िाधु का जो पररर्णमन िै
उिकी मैं भी शद्धक्त रखता हँ । धमथ भद्धक्त किो या उपािना वि सनश्‍िय भद्धक्त िै । मोि, राग, द्वे र् िे न्यारा जो पररर्णाम
िै वि धमथ िै , वि धमथ आत्मा का खजाना िै , उिे कोई िुराने में िमर्थ निीों, िुगलखोर बदनाम निीों कर िकते , मायािारी
उि आत्‍मति को मायाजाल में निीों फोंिा िकते । व्विारशरर्ण लेकर पीछे व्विारशरर्ण छोडे तब आत्मबुद्धद्ध पैदा
िोवे ।
१८०. िमा के लक्षणों का धवश्‍लेषण—धमथ पाँ ि तरि िे बताया िै । उत्तमक्षमासद दशलक्षर्ण का नाम धमथ िै । रत्‍नत्रय
का नाम धमथ िै । असिों िा, ित्य, अिौयथ , ब्रह्मियथ और अपररग्रि का नाम धमथ िै । वत्थु स्वभावो धम्मो अर्ाथ त् वस्तु का जो
स्वभाव िै उिका नाम धमथ िै तर्ा दया धारर्ण करना इिका नाम धमथ िै । दशलक्षर्ण धमथ में राग द्वे र् मोि का अभाव
किा िै । उत्तम क्षमा, मादथ व, आजथव, ित्य, शौि, िोंयम, तप, त्याग, आसकोंिन, ब्रह्मियथ प्रत्येक में यि अच्छी तरि ज्ञात
िोता िै । जब तक रागद्वे र् मोि का िद्भाव रिे गा तब तक दशधमथ निीों ठिर िकते । िम्यग्दशथन ज्ञान िाररत्र में राग,
द्वे र्, मोि रसित पररर्णाम हुए । असिों िा में यिी बात िै , सवर्य कर्ाय का अभाव िोगा तभी वि बन िकेगी । ित्य, अिौयथ ,
ब्रह्मियथ , अपररग्रि भी रागद्वे र् मोि िे रसित िोगा । वस्तु का स्वभाव िी धमथमय िै अर्ाथ त् आत्मा का स्वभाव रागद्वे र् मोि
िे रसित िै । जीवोों पर दया तभी की जायेगी जब न मोि समसश्रत राग िोगा और न द्वे र् । आत्मस्वरूप का पररिय निीों
िै , शरीर को िी आत्मा मानने में अनासद काल िे भूल की िै और अब भी करने िे निीों िूका तो कोई िार् पकड कर
मुद्धक्त के पन्थ में निीों लगा िकता । िोंयोग बुद्धद्ध अर्ाथ त् समथ्या बुद्धद्ध को लेकर जो पररर्णाम िोता िै वि अनन्तानुबन्धी
कर्ाय िै । मोिी जीव शरीर, स्‍त्री, पु त्र, पौत्र, िुवर्णथ , जमीन िभी को अपने मान रिा िै , र्ोडा इिका भी तो अनुभव कर
सक मैं ध्रुव ज्ञानस्वरूप हँ । मेरी बात अन्य ने निीों मानी, मेरे सविार निीों अपनाये , मेरा अपमान कर सदया, सनश्‍िय िे क्या
यि तेरे िैं सविार तो कर । सविार कर तर्ा आत्मति के मतलब की बात गा ठ में बाों ध ले तो िठ बुद्धद्ध छूटते दे र निीों
लगेगी । इि मनुष्यपयाथ य में ऐिा िोिते सक मेरी शान सगर गई, अविे लना कर दी और विाँ िे कूि करने पर मनुष्य िे
सतयंि िो गया तब शान रि जायेगी क्या? क्षसर्णक इज्‍जत के प्रलोभन को त्यागने िे अिली एवों सर्ायी शान बना िकता
िै , जो आज तक प्राप्त निीों हुई ।
रागद्वे र्रसि त परर र्णाम धमथ िै । मद्धन्द र आना धमथ तो तब जब विाँ रागद्वे र् का अभाव िोवे, विाँ वैिी िामग्री
उपद्धसर्त िै इिसलए धमथ का सर्ान िोने िे पररर्णामोों की सनमथलता कर िकता िै । पूजा भी इिसलए की जाती िै तर्ा राग
द्वे र् रसित अवसर्ा िोने िे उनकी ित्य सर्ायी कीसतथ बन जाती िै । गुरुओों की िेवा भी रागद्वे र् रसित उद्दे श्य को लेकर
की जानी िासिए । िोंयम भी पल िकता िै जब राग द्वे र् का अभाव िो । इच्छिय संयम में राग का अभाव होगा तभी
पल सकेगा तथा प्राणी संयम के होने के धलए द्वे ष का अभाव होना आवश्यक है । द्वे र् तभी पैदा िोता िै जब सकिी
सवर्य में राग िो । दान धमथ क्योों किलाता िै इिसलए सक धन िे राग घट गया । उत्सव धमथ के इिसलए िैं सक राग द्वे र्
रसित िोकर उपदे श िुनेंगे । शास्‍त्र िुनने इिसलए जाते िैं सक विाँ राग द्वे र् िे छूटने की कर्ा सम लेगी । रागद्वे र् का
िक्र अनासद िे िल रिा िै तभी अनन्त िों िार में भटकना पडा िै । िोंिार िे छूटने की यसद कोई और्सध िै तो राग, द्वे र्,
मोि का अभाव िोना । धमथ भी इतना िी िै सक रागद्वे र् मोि का अभाव िोना । राग, द्वे र्, मोि िे दू र रिने का उपाय
रागद्वे र् मोि रसित सिन्मात्र आत्मति की उपािना करना िै । सप्रय आत्मन् ! पयाथयबुद्धद्ध छोड । पयाथ य जब जो िोना
िोगा उि अध्रुवति का आलम्बन िोंिार िी बढाये गा, अत: पयाथ यमात्र अपने आपको न सविार कर िैतन्य प्रभु की

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उपािना करो । िोंिार का सजतना भी दु ुःख िै उिका मूल कारर्ण शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै । सनधथनता का दु ुःख क्योों िताता
िै सक शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै , आत्मा तो सनधथन निीों िै । िभी दु :खोों का मूल कारर्ण शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै । सकिी िभा
में अपमान हुआ, मेरी इज्‍जत सगर गई, इन िबका मूल कारर्ण शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै । भूख का दु ुःख क्योों हुआ शरीर
और आत्मा का िम्बन्ध िै , उिमें आत्मबुद्धद्ध िै । मेरा अमुक व्द्धक्त िला गया, मेरा इि सवयोग िो गया, इन िबका मूल
कारर्ण शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै । इि तरि के भोले प्रार्णी को र्ोडा आत्‍मा का भी भाव करके दे खना िासिए, मैं सिद्रूप,
िैतन्य पु ज का िमूि हँ ।
१८१. धनर्भ्ाािता का िल—अन्य व्द्धक्त आश्‍ियथ करते िैं , जैन िाधु एक बार खाकर कैिे रि जाते िैं ? इिसलए सक
उनकी शरीर में आत्मबुद्धद्ध निीों िै । शरीर में आत्मीयता का सविार निीों समलता तो शरीर का ििवाि भी निीों रिे गा
कभी । जब तक आत्मा में िे शरीर बुद्धद्ध का भ्रम न सनकल जावे तब तक शाद्धन्त निीों समलेगी । मैं िेठ हँ , व्ापारी हँ ,
बडा आसफिर हँ अध्यापक हँ आसद के सवकल्पजाल छोड सदये जावें तो कुछ िुखानुभव िोवे । रागद्वे र् आसद पर भाव
िैं , रागद्वे र्, मोिासद कमथ का सनसमत्त पाकर आते िैं । रागद्वे र् में मसत को लगाना अशाद्धन्त का कारर्ण िै । इनिे सनवृत्त रिे
तो शाद्धन्त में वृद्धद्ध िोगी । परवस्तुसवर्यक भाव में व परपदार्थ में शाद्धन्त निीों समल िकती । इद्धियोों का व्ापार बन्द सकया
जाये तो शरीर में आत्मबुद्धद्ध दू र िोवे । एक िुई दोनोों तरफ निीों िी िकती, उिी तरि उपयोग दोनोों कायथ निीों कर
िकता, िोंिार भी बि जावे और मोक्ष भी समल जावे । दासनयोों के दान पर कोंजूिोों को आश्‍ियथ िोता िै । ज्ञासनयोों की
कृसतयोों पर एवों सवरासगयोों के वैराग्य पर मोसियोों को आश्‍ियथ िोता िै । आलसियोों को िेवाभासवयोों में आश्‍ियथ िोता िै सक
इन्हें ऐिा क्या भूत िवार िो गया जो िदै व दू िरोों की िेवा िी करते सफरते िैं । ममता के छोडने िे और ज्ञान के बनाये
रिने िे दो लाभ िैं या तो मुद्धक्त समलेगी या करोड गुनी िोंपसत्त समलेगी । एक सभखारी ३-४ सदन की बािी िूखी रोटी सलये
जा रिा िै , उििे एक िेठ ने किा इन रोसटयोों को तू फेंक दे तर्ा ताजी पूडी िाग खा ले तो उिे सवश्‍वाि निीों िोगा ।
उिी तरि परद्रव् के सभखारी को सवश्‍वाि निीों िोता सक सनज में स्वयों आनन्द िै वि परद्रव् के ममत्व पररर्णाम को
छोडकर स्वद्रव् पर दृसि निीों जमाता । यि जीव पशु हुआ, तो विाँ दे खो पशुओों को पररग्रि जोडने की ममता निीों िोती
िै , उन्होोंने खाया सपया और िल सदये । पर मनुष्य िदै व पररग्रि इकट् ठा करने की सिन्ता में िन्तप्त रिता िै । सकन्तु
सजिकी दृसि में शरीर भी अपना निीों िै वि क्या मकान आसद को अपना मान िकता िै ? जब शरीर में आत्मबुद्धद्ध हुई
तो आत्मानुभव िे सगर गया । िब दु ुःखोों की जड शरीर में आत्मबुद्धद्ध िै ।
१८२. शरीर से आत्मिुच्छद्ध हटाने का उपाय—शरीर िे आत्मबुद्धद्ध िटाने का उपाय क्या िै ? मन, विन और काय—
ये ३ कारर्ण लगे िैं । ये तीनोों िोंिल िैं , शरीर िोंिल िै उििे ज्यादा िोंिल विन िै तर्ा विनोों िे ज्यादा िोंिल मन िै ।
िबिे प्रर्म शरीर के व्ापार को रोको, शरीर के व्ापार को रोकने के बाद मूलविन के व्ापार को रोको । विन दो
तरि के िोते िैं (१) बसिजथ ल्प और (२) अन्तजथल्प । बािरी वाताथ लाप को बन्द करना बसिजथल्प को रोकना हुआ ।
अन्त:शब्दरूप कल्पना को मेटना अन्तजथल्प का रोकना िो िकता िै । जब बाह्य पदार्ों को सभन्न मान उनिे रुसि िटावे
। मन का व्ापार रोकने के सलए परपदार्ों को असितकर मानना िोगा । जब मन का व्ापार रुक गया तो िोंकल्प
सवकल्प िल िी निीों िकता । ज्ञान तो पररर्णमन करता िै । वि आत्मा का पररर्णमन करता िै । मैं ज्योसतमात्र हँ , ज्ञानमात्र
हँ , शुद्धिैतन्य द्रव् स्वरूप हँ । यि अनुभव तभी िो िकता िै जब शरीर िे आत्मबुद्धद्ध छूटे । कोई सकिी की आत्मा में
सवघ्‍न कर िी निीों िकता, क्योोंसक बाह्य पदार्ों में मेरी आत्मा िी निीों िै इिसलए वि रुकावट के कारर्ण निीों िो िकते ।
आत्मा सत्रकाल अबासधत िै , अखोंड िै , आनन्दमय िै , िैतन्यमात्र िै , अतएव बािरी बाधा आ िी निीों िकती । मानता िै
मुझे उक्त व्द्धक्त ने सवघ्‍न डाल सदया, यि मात्र िोि रखा िै । यर्ार्थ में सवघ्‍नकताथ तु िी स्‍वयों िै ।
१८३. पर की दृधष्ट में जीवन का अपव्यय—पर को अपराधी मान रखने की बुद्धद्ध त्याग दे । कौन तेरा िार् पकडकर
किता िै सक आत्मद्रव् की रक्षा मत करो । स्वयों की िी भ्रम बुद्धद्ध िे िी आत्मा को भूलकर परपदार्ों िे प्रीसत कर रिा
हँ । ताला डालकर भी तुझे बन्द कर दे वें तो क्या सकिी की िामथ्यथ िै जो आत्मसित िे च्युत कर िके । अगर तुम स्वयों
न िले तो दू िरे की क्या िामथ्यथ िै जो आगे बढा िके । बुरा भी इिका कोई निीों करता अच्छा भी कोई निीों करता ।
जो शरीर में आत्मबुद्धद्ध करते िैं वे दु :खोों के पात्र िैं । जब शरीर में आत्मा की कल्पना हुई तब ररश्तेदारोों की प्रतीसत हुई
और उन्हें अपना मानने लगा । यि मेरी िम्पसत्त िै , मैं इिका िोंरक्षक हँ , इिके द्वारा मेरा कायथ िलता िै यि भ्रम बुद्धद्ध

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िै । सकिी ने प्रशोंिा निीों की, सनन्दा कर दी, सकिी ने किना निीों माना तो तेरा क्या नुक्सान कर सदया? सनन्दा शरीर की
िी तो की, तेरी आत्मा की तो निीों की क्योोंसक लोगोों को शरीर िी सदखता िै । यसद दु ुःख समटाना िै तो व्ापार में ज्यादा
ध्यान दे ने की अपेक्षा, समत्रोों िे ज्यादा पररिय बढाने की अपेक्षा, कुटु द्धम्बयोों िे असधक स्‍ने ि करने की अपेक्षा उतने असधक
िमय आत्मद्रव् को जाना जाये । उि आत्मा को जानने का एक िी उपाय िै , शरीर, विन, मन के व्ापार को रोका
जाये । यिाँ विाँ की बातोों पर ध्यान िी निीों सदया जावे । परपदार्ों में जब तक रमा जायेगा तब तक सनज कायथ का
सवस्‍मरर्ण िी रिे गा ।
१८४. आत्मज्ञान के अभाव में िेसुिी की दशा—यसद आत्मज्ञान निीों िै तो उिे िुप्त िमझो । जब तक बडे -बडे
रोग निीों आ पावें, इद्धियाँ स्वसर् िैं , जरा ने निीों घेरा िै तब तक आत्मकल्यार्ण कर लो । िच्‍िा ज्ञान तो अपने अन्दर
रिना िासिए । कुपथ्य िेवन िे बीमारी बढती िै , बीमारी में शरीर अशक्त िो जाता िै । तब कुपथ्यिेवन छोडने में सित
िै िच्‍िा ज्ञान िमेशा हृदय में रिना िासिए । केवल उपवाि आसद सक्रयाओों िे प्रार्णी िों िार िे पार निीों िोता िै । सजतना
छु टकारा िै वि िब भीतर के भाव िे िोता िै । ज्ञानी जीव को बार-बार खाने का प्रयोजन निीों िै । ज्ञान की कमाई िबिे
मूल्‍यवान िै । ज्ञान का ऐिा िी स्वभाव िै , ज्ञान का ऐिा प्राकृसतक पररर्णाम िै सक सजतने कमथ करोडोों जन्म में अज्ञानी के
तप तपने िे द्धखरें गे वि ज्ञानी के एक क्षर्ण में द्धखर जाते िैं । सजन लडके लडसकयोों की िेवा करते िो उनके पुण्‍य िे तुम्हें
कमाना पडता िै , वि आगे जाकर उनके कायथ आवेगा । कमाने वाला िोिता िै िमारी स्‍त्री एवों पुत्र को र्ोडा भी परे शान
न िोना पडे , अतएव अपनी परवाि न करके जी-जान िे धन कमाने में पररश्रम करता िै । आत्मज्ञान का अभाव िै तो
वि िोने को िी िुख मान रिा िै , िोने को िी बािरी िोर िुरा ले जाते िैं । सजिे आत्मा का ज्ञान िो उिे िम जाग्रत
अवसर्ा में किें गे । सकतना िी कोई सकिी िे प्रेम करे तो क्या प्रेम करने वाला उिका धमथ सनभा दे गा तर्ा उिका
फलप्राद्धप्तकताथ वि िो जाये गा? इि ‘मैं’ का भान जब तक शरीर में िै तब तक रागद्वे र् आये गा । इिका तो भान करो
मैं तो अमूतथ ज्ञानमात्र हों , मैं तो ज्ञानस्वरूप हों । आत्मा कैिी सवलक्षर्ण िै सक इिकी उपमा भी निीों दी जाती िै । जिाँ
रागद्वे र् की िामग्री मौजू द िोों उिकी उपमा दी जाती िै । शत्रु मानने में भी दु गथसत िै । जगत के इन जीवोों ने क्या मुझे
दे खा िै , जब मेरी आत्मा अमूसतथक िै तो दू िरे क्या दे खेंगे, मेरे तो कोई शत्रु समत्र निीों िै ।
१८५. आत्मत्रैधवध्य के अवगम में कताव्य का भान—जीव की तीन दशायें िोती िैं —(१) बसिरात्मा, (२) अन्तरात्मा,
और (३) परमात्मा । दे ि और जीव को एक मानने वाला बसिरात्मा िै । दे ि िे सभन्न जो अपनी आत्मा को जाने वि
अन्तरात्मा िै , तर्ा सजिमें राग निीों, द्वे र् निीों, मोि निीों वि परमात्मा िै । बसिरात्मापने को छोडने िे लाभ िै तर्ा
अन्तरात्मा िोकर परमात्मा का ध्यान करना िासिए । परमात्मा िोने का िी उपाय िै । एक राजमिल में िाधु रिता र्ा,
उिी में एक राजा रिता र्ा । एक सदन िाधु और राजा दोनोों की मौत िो जाती िै । तब जों गल में यि िमािार सकिी
ऋसर्राज के पाि भेजा गया । तो ऋसर्राज ने किा सक राजा स्वगथ में गया िै और िाधु नरक में गया, क्योोंसक िाधु को तो
राजा की िोंगसत समली और राजा को िाधु की िोंगसत समली । प्रश्‍न—िम्यग्द्‍दृसि यिाँ के मनुष्यभव िे मरकर किा उत्‍पन्न
िोोंगे ? उत्तर—िम्यक्‍त्‍विसित मरर्ण िोने पर कमथभूसम का मनुष्य दे वगसत में जायेगा या भोगभूसमया मनुष्य, सतयथ ि में ।
पर िम्यक्‍त्‍व रसित मरर्ण िोने पर सवदे ि क्षेत्र में जा िकता िै , यि शास्‍त्रोों का सनयम िै । विाों िे दीक्षा धर मोक्ष भी जा
िकता िै ।
जीव के कर्ाय भाव को सनसमत्त पाकर कमथ प्रकृसतयाों बोंधती िैं । वे कमथ प्रकृसतयाों आत्‍मा की निीों िैं । तब शरीर के
जो और अवयव िैं वे आत्‍मा के कैिे िो िकते िैं ? वगथ, वगथर्णायें और स्कन्ध भी आत्‍मा के निीों िैं । इनका उपादान पु द्गल
िै । उिी तरि आत्‍मा में आने वाली तरङ्गे भी आत्‍मा की निीों िैं । शुद्ध आत्मा परद्रव्‍योों िे रसित िोता िै । सजिने इि
आत्‍मति को िमझा उन्हीों के अनुभव में वि आता िै । अब आगे किते िैं सक योगस्‍र्ानासदक के भी आत्मा निीों िैं ।
गाथा 53
जीवस्स णच्छि केई जोयठ्ठाणा ण िं िठाणा वा ।
णे व य उदयट् ठाणा ण मग्गणट् ठाणया केई ।।५३।।
१८६. योगसथान में जीवस्वरूपत्‍व का प्रधतषेि—जीव के योगस्‍र्ान निीों िै । योग किते िैं आत्‍मप्रदे श पररस्‍पोंद को
। आत्‍मप्रदे श पररस्‍पों द िोता िै काय के पररस्पोंद के सनसमत्त िे । तो मन, विन, काय का सनसमत्त पाकर जो प्रदे श पररस्‍पोंद
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 53

िोते िैं जीव में उन पररस्पोंदोों के अने क स्‍र्ान िैं । िलन-िलन की सवसध ढों ग मों दता तीव्रता आसदक कारर्णोों िे योग के
अनेक सर्ान िोते िैं । जब प्रदे श पररस्पों द भी मैं निीों, मेरा स्वरूप निीों तो योगस्‍र्ान मेरा स्‍वरूप क्या िोगा? योगस्‍र्ान
इि जीव का स्वरूप निीों िै । जीव का स्वरूप तो ऐिी बुद्धद्ध बनाने में सवशदतया सवसदत िोता िै सक सजिका िवथ स्व िार
िै तन्यशद्धक्त में व्ाप्त िै उतना मैं जीव हों , इििे असतररक्त अन्‍य िब भाव पौद् गसलक िैं , कुछ तो पुद्गल उपादान वाले
िैं और कुछ पुद᳭गल के सनसमत्त िे आत्‍म–उपादान में प्रकट हुए भाव िैं , वे िभी के िभी पौद् गसलक िैं ।
१८७. िन्धस्‍थान में व उदयस्‍थान में जीव स्‍वरूपत्‍व का प्रधतषेि—जीव के बोंधसर्ान भी निीों िै । सवभावपररर्णामोों
का सनसमत्त पाकर जो कमथ बोंधते िैं उन बोंधोों में जो सर्ान िोते िैं अनेक प्रकृसतयोों के रूप िे जो बोंधस्‍र्ान िोते िैं वे
पु द᳭गल के िैं , कमथ के िैं , वे मेरे निीों िैं । ये प्रकट सभन्न पदार्थ िैं —जीव और कमथ । कमथ का कुछ भी पररर्णमन तो मेरा
िो िी निीों िकता और कमथ के उदय के सनसमत्त िे उत्पन्न हुआ मेरे गुर्णोों का प्रभाव, पररर्णमन; वि मेरा पररर्णमन तो िै
सकन्तु उत्कृि सवशुद्ध तैयारी के िार् सनरखा जा रिा िै सक मैं अनासद अनन्त शाश्‍वत सित्‍स्‍वभावमात्र हँ , ऐिा िी सनरखता
रहों अत: मैं यिी िैतन्यशद्धक्त हों , सित्‍स्‍वरूप हों , मैं यि सवभावपररर्णमन भी निीों । यि पौद् गसलक िै । सफर कमों के जो
सर्ान िैं बोंधस्‍र्ान िैं वे तो मेरे िोोंगे िी क्या? जीव के उदयसर्ान भी निीों । कमों के उदय के सर्ान ये तो कमथ में पडे हुए
िैं । वे मेरे में किाों ? उनके सवपाक का सनसमत्त पाकर मुझमें जो प्रभाव िोता, उदय िोता, उनमें जो सर्ान िैं वे तक भी मैं
निीों हों , जीव के उदयसर्ान निीों ।
१८८. मागाणासथानों में जीवस्‍वरूपत्‍व का प्रधतषेि—मागथर्णासर्ान भी कोई जीव के निीों िै । मागथर्णाओों का बहुत
बडा सवस्तार िै । िौदि प्रकार की मागथर्णायें िोती िैं —गसत, इद्धिय, काय, योग, वेद, कर्ाय, ज्ञान, िोंयम, दशथन, लेश्या,
भव्त्व, िम्यक्त्व, िोंज्ञी और आिार । इनके भी और भेद िैं , उन भेद प्रभेदोों के स्वरूप के पररज्ञान िे जीव के सवभाव
पररर्णमनोों का सवस्तार ठीक िे िमझ आ जाता िै । नरक गसत, सतयंि गसत, मनुष्यगसत और दे वगसत की बात तो स्पि िै ,
ये जीव के स्वरूप निीों िैं । सिद्ध द्धसर्सत के रूप में भी पररर्णमन सनरखा जा रिा िै , िै वि स्वाभासवक पररर्णमन, सकन्तु
कोई भेद ये जीव के स्वरूप निीों िैं । सिद्ध द्धसर्सत अर्वा ५वी ों गसत, द्धसर्सत जीव के स्वभाव सवकाि में आयी िै । लेसकन
जीव का स्वरूप किोगे तो वि स्वरूप न बने गा । स्वरूप िोता िै शाश्‍वत । सिद्ध दशा तो कमथक्षय के बाद प्राप्त हुई िै
। तो ये मागथर्णा सर्ान भी सजनके भेद सवभावरूप िैं और एक भेद इन मागथर्णाओों में स्वभावरूप भी आता िै वे िब भी
जीव के स्वरूप निीों िैं । मागथर्णा किते िैं खोज को । खोज करने में जिाँ सवभाव निीों समला उिे भी जाना जायेगा तो योों
मागथर्णासर्ान कोई भी जीव के निीों िै । एकेद्धिय िोना, दो इद्धिय िोना, तीन इद्धिय िोना, िार इद्धिय, प िे द्धिय िोना
ये जीव के स्वरूप निीों िैं , और कभी इद्धिय िे रसित िो जाये जीव उिे भी योों सनरखना सक यि इद्धियरसित िै , तो
इद्धियरसितपना भी जीव का स्वरूप निीों िै । जीव का स्वरूप तो जीव में तादात्म्यरूप िे रि रिा िै , वि िै िैतन्य
स्वरूप । इिी प्रकार अन्य िभी मागथर्णासर्ानोों की बात िमझना । कोई भी मागथर्णासर्ान जीव के निीों िैं ।
१८९. योगसथान िं िसथान व उदयसथानों से जीव की धवधवक्तता—जीव के योगसर्ान कुछ भी निीों िै । आत्मा में
योग िै , आत्मा में कमथ के आने की कारर्णभू त शद्धक्त िै उिका नाम योग िै । सजतनी शद्धक्त िै वि िब स्वाभासवक िै ।
उिके पररर्णामोों में कोई स्वाभासवक िोता िै , कोई वै भासवक िोता िै । वस्तुत: आत्मा में योगोों का भी भेद निीों िै ।
योगमात्र िे जो आस्रव िै उिे ईयाथ पर् आस्रव किते िैं । कर्ाय िसित योग िोने को िाों परासयक आस्रव किते िैं । आत्मा
इन िबिे शून्य िै । प्रकृसतबन्ध के सर्ान, द्धसर् सतबन्ध के सर्ान और प्रदे शबन्ध के सर्ान ये जीव में निीों िैं । एक शुद्ध
दपथर्ण िै उिमें लाल, पीला, नीला, िरा की उपासध निीों िै । इिी तरि इन बन्धोों के सर्ान जड स्वभाव िैं वि आत्मा में
निीों िैं तर्ा उदयसर्ान भी आत्मा में निीों िैं । यद्यसप जीव उपादान वाले सर्ान जीव में िैं सकन्तु औपासधक सर्ान स्वभाव
का सवस्तार निीों िै । र्ोडी प्रकृसतयोों का उदय हुआ, असधक प्रकृसत का उदय हुआ, इनका उत्पसत्त सर्ान न जीव िै और
न पुद्गल िै । मन्द फल, तीव्र फल ये उदयसर्ान भी जीव के निीों िैं । उन फलोों में जो उदय सर्ान िैं वे जीव के निीों िैं ,
वे तो िम्बन्ध पाकर हुए िैं ।
१९०. गधत, इच्छिय, काय मागाणा से जीव की धवधवक्तता—मागथर्णासर्ान जीव में निीों । खोजने के सर्ान जीव के
हुआ तो करते िैं सकन्तु उिका कायथ निीों । जीव की मनुष्य गसत, सत यंिगसत, नरकगसत, दे वगसत भी निीों िैं । िालाों सक
जीव इनमें जा रिा िै , सकन्तु शुद्ध दृसि िे तो जीव इनमें निीों िैं । कोई आदमी पिले बडा िदािारी िोवे , बाद में दु रािारी

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 53

िो जाये, तो अन्य मनुष्य उििे किते िैं तुम पिले के निीों रिे । लेसकन मनुष्य तो विी िै जो पूवथ में र्ा विी अब िै , ऐिे
िी द्रव्दृसि िे जीव शुद्ध िै । कोई व्द्धक्त िोना लाया, उिमें िौदि आने भर िोना िै तर्ा २ आना भर अन्य धातु िै ।
तो िोना खरीदने वाला किता िै , यि क्या पीतल ले आये । क्योोंसक उिकी शुद्ध दृसि अिली िोना खरीदने की िै ।
अतएव वि दो आना अस्वर्णथसमसश्रत िोने को भी पीतल कि दे ता िै । ििजति (िैतन्य) के असतररक्त िभी भाव या
पररर्णमन अनात्मा िै । शुद्ध जीव में इद्धियोों की भी कल्पना निीों िोती िै । एकेद्धिय, दो इद्धिय, तीन इद्धिय, िार इद्धिय
और पाों ि इद्धिय िोंिारी जीव को किते िैं । जीव तो शु द्ध िैतन्यमात्र िै । योगी जों गल में रिते िैं , लेसकन सकिके बल
पर, वे ध्यान के बल पर जोंगल में रिते िैं । उनका उत्तम उपयोग शुद्ध िैतन्य िे बात करता रिता िै । काय मागथर्णा भी
जीव में निीों िै । पृथ्वीकासयक, जलकासयक, अग्द्‍सनकासयक, वायुकासयक, वनस्पसतकासयक और त्रिकासयक जीव में निीों
िै । कायरसित अवसर्ा भी जीव की निीों िै , । कमथ का सनसमत्त पाकर ये शरीरिसित हुए िैं । जीव तो वस्तु त: शरीररसित
िै । इिका तात्पयथ िै सक जीव एक िैतन्य मात्र िै , सकन्तु अफिोि िै सक अपने िी अज्ञान अपराधवश यि जीव इतना
िक्‍कर में पडा िै सक वि इन सवकल्पजालोों िे सनकल िी निीों पाता िै । यसद िवथ सवकल्प छोडकर शुद्ध िेतना का
अनुभव करे तो क्‍लेशमुक्त िो िकता िै ।
१९१. योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दशान मागाणा से जीव की धवधवक्तता—योगमागथर्णा भी जीव की निीों िै ।
योग—मन, विन, काय के प्रवतथक िे िोने वाले आत्मप्रदे शपररस्पन्द को किते िैं । इनका िम्बन्ध पाकर आत्मप्रदे श
सिल जाते िैं । सजिके यिी अनुभव रिता िै सक मैं पुरुर् हँ , मैं स्‍त्री हँ , मैं बालक हँ वि आत्मति िे काफी दू र िै , िोंस्कार
के वशीभूत िोकर वि ऐिा िमझता िै । आत्मा न पुरुर् िै और न स्‍त्री िै , न नपुोंिक सलोंग िै , वि तो िैतन्य मात्र िै ।
पु सलंग, स्‍त्रीसलोंग, नपुँिक सलोंग भाव भी जीव के निीों िैं । उपासध को सनसमत्त पाकर भ्रम िे जीव अन्य को अपना मान रिा
िै । कर्ायमागथर्णा—क्रोध, मान, माया, लोभ भी मेरे निीों िैं । मेरे निीों िै तभी तो मैं इन्हें छोड िकता हँ । जब लोभ मेरा
निीों िै तो सजन पदार्ों को दे खकर लोभ िोता िै , वे मेरे कैिे िो िकते िैं ? छोटा मोटा ज्ञान भी मेरा निीों । वि तो पैदा
हुआ नि िो गया । ज्ञानमागथर्णा भी ८ प्रकार की िोती िै —मसतज्ञान, श्रुतज्ञान, अवसधज्ञान, मनुःपयथ यज्ञान, केवलज्ञान,
कुमसतज्ञान, कुश्रु तज्ञान, सवभङ्गावसधज्ञान । ये िब ज्ञान की पयाथ य िैं , अत: क्षसर्णक िैं । केवलज्ञान भी क्षर्णवती िै सकोंतु एक
केवलज्ञान पयाथ य के बाद केवलज्ञान पयाथ य िी िोती िै , अनन्तकाल तक केवलज्ञान पयाथ यें िोती िली जावेंगी, अत: सनत्य
का व्विार कर सदया जाता िै । सनश्‍ियत: जीव िनातन एक सिन्‍मात्र िै , अत: ये ज्ञानमागथर्णायें भी जीव निीों िैं ।
िोंयमसर्ान भी मेरा निीों । सिों िा दया आत्मा की निीों । इनिे रसित शुद्ध िैतन्यमात्र सनरपेक्ष ति मेरा िै सितकर तो
उिकी दृसि िै । सकिी को उच्‍ि पदासधकारी बना सदया जावे और वि िोसशयार निीों सनकला तो कोई किते िैं कैिे बुद्धु
को उच्‍ि पदासधकारी बना सदया? यसद ज्ञानभाव को तो िम्हाला निीों और बाह्यिोंयम धर सलया तो वास्तसवकता निीों आ
जायेगी । बाह्यिोंयम तो िै िी क्या, अन्त:िोंयमसर्ान भी जीव के निीों िै । दशथ नमागथर्णा भी जीव की निीों िै । दशथन ४
तरि का िोता िै —(१) िक्षु दशथन (२) अिक्षुदशथन (३) अवसधदशथन (४) केवलदशथ न । िक्षु इद्धिय के द्वारा जो ज्ञान िो
उििे पसिले िोने वाले प्रसतभाि को िक्षुदशथन किते िैं । बाकी िार इद्धियोों और मन िे जो ज्ञान िो उििे पिले िोने
वाले दशथन को अिक्षुदशथ न किते िैं । अवसधज्ञान िे पिले िोने वाले दशथ न को अवसधदशथन किते िैं । केवलज्ञान के िार्
िोने वाले दशथन को केवलदशथन किते िैं । दशथन की प्रवृसत्त जीव की निीों िै तो िक्षु दशथनासद कैिे जीव का िो िकता
िै ?
१९२. लेश्याधद मागा णा से जीव की धवधवक्तता—लेश्या ६ तरि की िोती िै । कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और
शु क्‍ल । यि भी जीव की निीों िै । इनके िमझने का एक दृिान्त िै । एक आम का वृक्ष काफी आमोों िे लदा र्ा । उिको
दे खकर कृष्‍र्णलेश्‍या वाला व्द्धक्त किता िै , इिे जड िे काटकर आम खा लें िब । नीललेश्‍या वाला किता िै इिका
तना काटकर आम तोड लेवें । कापोतलेश्या वाला किता िै , डालें काटकर फल तोड लेवें । पीतलेश्या वाला किता िै ,
टिनी तोडकर फल खा लें । पद्मलेश्या वाला किता िै , पके-पके आम तोड कर िी अपना काम सनकाल लेवें और
शु क्‍ललेश्या वाला किता िै , नीिे जो फल सगरे पडे िैं उन्हीों को खाकर िों तुि रिें गे । ये िब भाव कमथ की उपासध पाकर
हुए िैं । गसत, इद्धियाँ भी दू िरोों िे माों गकर सलए हुए िैं । अन्यत्र िे आये अन्यत्र िले जावेंगे । िों ज्ञी, अिों ज्ञीपना भी जीव
का स्वभाव निीों िै , और न यि जीव में भेद िैं । आिारक अनािारक भी जीव का भेद निीों । यि जीव आिार ग्रिर्ण

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 53

करता िी निीों, तब आिारक कैिे िो िकता िै तर्ा अनािारक किने का भी अवकाश किाँ ? स्पशथ आसदक भी तुम्हारी
आत्मा के निीों िैं । जो उपद्रव आत्मा में लग गया िै उिी की िम रक्षा करते िैं । वाि री बुद्धद्ध! दू िरे के पिरे दार बनकर
रक्षा करता हुआ भी यि शरीर प्रिन्न िोता िै । यि िब जीव के निीों, शुद्ध िैतन्यमात्र आत्मा िै । यि कायथ मैंने सकया,
बनवाया अर्वा इि तरि किना—आपके दाि ने यि मद्धन्दर बनवाया िै , यि िब जीव के स्वभाव निीों िैं । जब कमथ िी
जीव के निीों िैं तो अन्य पदार्थ जीव के सकि तरि िो िकतें िैं ? अब आगे किें गे सक द्धसर्सतबोंधस्‍र्ान आसद भी जीव के
निीों िैं :—
गाथा 54
णो धठधदिंिट्ठाणा जीवस्स ण सं धक लेसठाणा वा ।
णे व धवसोधहट्ठाणा णो संजमलच्छद्धट्ठाणा वा ।।५४।।
१९३. च्छसथधतिंिसथानाधद से जीव की धवधवक्तता—द्धसर्सतबोंधसर्ान जीव का निीों । कम, ज्यादा िमय तक कमथ रिें
आत्‍मा में, यि भी स्वभाव जीव का निीों । िों क्‍लेश सर्ान जीव का निीों क्योोंसक कमथ के तीव्रोदय को पाकर आत्‍मा में जो
िोंक्‍लेश भाव िोते िैं वि िोंक्‍लेश किलाता िै । यि िोंक्‍लेश उपासध पाकर हुआ िै । यद्यसप यि आत्मा िी का पररर्णमन
िै सकन्तु औपासधक िै । सवशु द्धद्धसर्ान भी जीव के निीों । पूजा करते हुए, धमथ करते हुए भी यि मेरा निीों ऐिी प्रतीसत करो
। सज न्‍िोोंने यि िोिा मैंने कुछ निीों सकया उनके कर्ाय भाव रिता निीों । जैिे िोंक्‍लेश और िोंक्‍लेशस्‍र्ान जीव के निीों
वैिे िी सवशुद्धद्ध पररर्णाम और सवशुद्धद्धस्‍र्ान भी जीव के निीों । िेवा भाव में सित्त लगने लगा, शुद्धभाव िोने लगे यि भी
जीव के निीों । जैिे कोई िला जा रिा िै और उिे िुगन्ध दु गथन्ध का कोई ज्ञान निीों िोता, िुगद्धन्ध भी िो तो उिे परवाि
निीों और दु गथद्धन्ध भी िो तो उिे परवाि निीों तो वि विाँ उिके ज्ञाता रिते । ज्ञानी जीव िोंक्‍लेश के भी ज्ञाता िो जाते िैं
और सवशुद्धद्ध के भी ज्ञाता िो जाते िैं । मद्धन्दर में आना, स्वाध्याय करना, पूजन करना, उपदे श िुनना आसद बातें खेत को
जोतना हुआ और सजन्हें मध्य में बीज बोने का ध्यान निीों तो वैिे िदै व जोतते रिने िे कोई लाभ निीों । कोई आदमी नाव
िलाता िोवे वि कभी इि तरफ ले जावे और कभी उि तरफ ले जाये , लेसकन सकनारे पर लगना सजिका उद्दे श्य िी निीों
वि क्या सकनारे पर लगेगा? धमथ तो मेरा उतना िै सजतने िमय आत्मस्वभाव पर दृसि िै ।
१९४. जीवों की स्वाथाधनरतता—मनुष्य क्या, िभी जीव वस्तुत: स्वार्ी िैं , िभी अपनी-अपनी कर्ाय का पोर्र्ण करते
िैं । कोई सकिी िे समत्रता रखता िै , कोई सकिी िे शत्रुता रखता िै , यि कर्ाय को बढाने वाला कायथ हुआ । मैं और िम
नाम की एक कर्ा िै दो समत्र िले जा रिे र्े । रास्ते में िलते -िलते समत्र को एक रुपये िे भरी र्ैली समल गई । तब वि
किता िै मुझे तो एक र्ैली समल गई । तब दू िरा समत्र किता िै ऐिा मत किो । यि किो “िमें र्ै ली समली” अर्ाथ त् दोनोों
को एक र्ैली समली । इतने में र्ैली वाले ने दे ख सलया और वि पकडा गया तो किता िै अब िम फोंि गये । तब दू िरा
बोला, यि न किो सक िम फोंि गये , पर यि किो “मैं फोंि गया ।” इिीसलए किा िै “खीर को िोज मिे री को न्यारे ।”
अपना सनज का कुछ उपकार करते निीों । दू िरे का भी उपकार करते निीों तर्ा गुर्णोों को दोर् बताने में बडे पटु िोते
िैं , इिी िे दे श में भाररूप किलाते िैं ।
१९५. संयमवृच्छद्धसथानों से जीव की धवधवक्तता—जीव के िोंयमलद्धि सर्ान भी व्विार िे िोते िैं , सनश्‍िय िे निीों
िोते िैं । मुसन को कोलह में पेरा जा रिा िै , वि ऐिा िोिता िै सक िे आत्मन् ! तू ने मिाव्रत धारर्ण सकये िैं मुसन िोकर
िमता धारर्ण करना िासिए, शत्रु को शत्रु मत मान, कोई सकिी का कुछ निीों सबगाडता िै । ऐिा िोिने वाला मुसन
द्रव्सलोंगी िै समथ्यात्वी िै , पर इि पयाथ य बुद्धद्ध के सवपरीत िोिकर सक मैं अमूतथ िैतन्यमात्र हँ , इि तरि िोिकर
सनसवथकल्प िमासध में लीन िो जाये तो वि अनुकूल कायथ करना िै । िैतन्यमात्र आत्मा के भाव िैं , इिके असतररक्त आत्मा
में कुछ सवकार निीों । मुसन िोकर र्ोडी-र्ोडी बात पर क्रोध आता िै , बाद में िोिता िै मैं मुसन हँ यि मुझे करने योग्य
निीों आसद सविारे तो िमझना िासिए उिकी दृसि केवल पयाथ य पर िै । मुख िे बोलना अन्य बात िै , प्रतीसत में आना
अन्य बात िै , क्या मुसन यि निीों किे गा—मेरा कमोंडल उठा लाना तर्ा सशष्‍योों को भी दों ड दे गा, उपदे श भी िोगा सकन्‍तु
उनमें ममत्व पररर्णाम निीों करे गा । शुभ भावरूप आत्मा की प्रतीसत निीों करता अतएव जीव में िोंयम वृद्धद्ध सर्ान निीों
िै ।
१९६. आगे पीछे के ध्यान का धववे क—बुन्देलखण्ड में कटे रा नाम का एक ग्राम िै । विाँ पर एक काफी धनवान
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 54

िेठ रिता र्ा । राजा भी उिका आदर करता र्ा । इतना िब िोने पर भी नमक, गुड, तमाखू आसद पीठ पर लादकर
दो घन्टा गाँ वोों में बेिने जाया करता र्ा, सजिे बोंजी किते िैं । उििे सकिी ने किा—आप इतने असधक धनवान िोते हुए
बजी क्योों करते िो? तब किता िै आज िम िेठ िैं कल न रिें तो िमें दु :खी तो निीों िोना पडे गा । सजनके सववेक निीों
ऐिे धसनयोों के पापोदय में बुरी िालत िोती िै । पिले शान में आकर िोने की परवाि निीों की, िोने का गिना रखने भी
नौकर जाये तर्ा िेठजी को तोलने की सफक्र निीों, तर्ा जब सदवाला सनकला, खपरे भी सगनकर अपने िार् िे सदये ।
खैर, ज्ञानी जीव िोिता िै , इद्धियोों का व्ापार बन्द करके शुद्धात्मानुभव को अपना सवर्य बनाऊों । ऐिा जीव िम्यग्दशथन
ज्ञान िररत्र वृसत्त को अपना निीों मानता, वि परपदार्ों को अपना कैिे मानेगा? ज्ञानी िैतन्य मात्र अपनी प्रतीसत करता िै

१९७. स्वाध्याय से लाभ—स्वाध्याय करते रिना परमकतथव् िै । दु कान िे सनवृत्त हुए स्वाध्याय में लग गये । व्ापारी
कायथ करते हुए जब भी ग्रािकोों िे पीछा छूटा तब स्वाध्यान में रत िो गये । ऐिी आदत बनाइये । तमाम िी केवलज्ञान
का कारर्ण िै । ज्ञान का यत्‍न अवश्य करो । एक िेठ और िेठानी र्े । िेठानी प्रसतसदन शास्‍त्र िुनने जाया करती, पर
िेठजी निीों जाते । एक सदन िेठानी बोली—शास्‍त्र िुनने िला करो । िेठजी शास्‍त्र िुनने गये शास्‍त्रिभा खू ब भरी र्ी
अतएव िबिे पीछे जाकर बैठ गये । िेठजी को नीोंद आ गई, इतने में कुत्ता आया और टाों ग उठाकर मुँि पर पेशाब कर
गया । मुोंि खुला र्ा । शास्‍त्रिभा िमाप्त हुई तब िेठजी भी जल्दी उठे , उनका मुोंि खारा िो रिा र्ा । घर आकर िेठजी
िेठानी िे बोले—आज की शास्‍त्रिभा तो खारी लगी । िेठानी बोली, सफर िे िुनने िलना । िेठानी जी ने एक सगलाि
में शक्‍कर का शबथत तैयार कर सलया और िार् में सलये गई । िेठ जी शास्‍त्र िुनने गये , उन्हें सफर िे नीोंद आ गई, तब
िेठानी जी ने मुोंि खुले में शबथत के सगलाि िे कुछ शरबत डाल सदया । िेठ जी उठे जीभ फेरते हुए । िोिने लगे आज
किें गे सक आज की शास्‍त्रिभा बडी मीठी लगी खुशी का पारावार न र्ा । घर िर्थ िे आकर उक्त िमािार कि सदया ।
अब तो रोज जाने की इच्छा हुई । एक सदन वर्णथन सनकला—दे वताओों की छाया निीों पडती । उिी सदन उनके घर िोर
डाकू घुि गये । िेठजी की नीोंद खुल गई और िोिने लगे शास्‍त्र में तो िुना र्ा दे वी की छाया निीों पडती, इनकी तो
छाया िै अतएव उन्हें भगा सदया । तो िोिा शास्‍त्र िुनने के प्रभाव िे िमारी िोरी निीों िो पाई । उिी तरि शास्‍त्र शुरू
में कसठन लगता िै , बाद में मीठा लगता िै , तर्ा उिके रसिक जन कमथरूपी िोरोों को भी भगा दे ते िैं । यि िै शास्‍त्र
िुनने का, स्वाध्याय करके का सनज पर प्रभाव ।
१९८. आत्मा की मौधलक धवशुद्धता—आत्मा का जन्म निीों हुआ िै , क्योोंसक वि अमूसतथक िै । सकिी भी आत्मा का
नाम निीों िै । कालार्णु में भी आत्मा का कोई निीों िै । जासत मात्र की अपेक्षा ब्रह्म िै या आत्मा िै । सनश्‍िय तप िे , जासत
में िभी एक िमान आ जाते िैं । सनश्‍िय िे उिका कोई नाम निीों । जन्म मरर्ण सजतने भी िोते िैं वि िब कमथकृत लीला
िै । प्रदे शोों में पररर्णमना आसद आत्मा का स्वभाव निीों, आत्मा का नाम निीों, सजनका नाम निीों उिमें सकिका ििारा
लेकर रागद्वे र् सकया जायेगा? सजिका नाम िोगा उिमें इिासन ष्‍ट की कल्पना िो जायेगी । बौद्ध नाम को कमथ का
कारर्ण मानते िैं । अगर उिका नाम किो िैतन्य िै , जीव िै , आत्मा िै तो उिका दे खकर नाम बताया । प्रार्णोों के द्वारा
जीता िै इिसलये इिका नाम रख सलया । जब नाम निीों तब यि बताओ सकिका आत्मा पुरुर् िै , सकिकी आत्मा स्‍त्री
िै ? आत्मा में न पुरुर्पना िै न स्‍त्रीपना िै और न नपुँिकपना िै । िोंस्कृत में अस्मद् शब्द िै तर्ा युष्मद् शब्द िै —इन
दोनोों के कोई सलोंग निीों । अस्मद् अर्ाथ त् िम और युष्मद् अर्ाथ त् तुम । अिम् मैं और त्‍वम् (तुम), यि मैं और तुम स्‍त्री व
पुरुर् अपने सलए व दू िरे के सलए िमान तौर िे प्रयोग करें गे । सिन्दी में पुरुर् एवों स्‍त्री िमान रूप िे अपने सलए मैं तर्ा
दू िरे को तुम किें गे तर्ा अों ग्रेजी में भी ‘आई’ और ‘यू ’ स्‍त्री एवों पुरुर् दोनोों में िमान तौर िे िलता िै । लेसकन स्‍त्री अपने
सलये यि निीों किती “मैं यिाँ आया”, वि िदै व ‘आई’ किती िै , तर्ा पुरुर् भी यि निीों किे गा “मैं यिाँ आयी” वि
अपने सलए ‘आ गया’ किता िै । दे खो तो कैिा पयाथ यगत िोंस्‍कार पडा । सिन्‍दी में मैं के िार् सक्रया में फरक आ जाता
िै सकन्‍तु मैं या तुमिे सलोंग निीों । जब शब्‍द में सलोंग निीों तो आत्‍मा में न पुरुर्त्व िै , न स्‍त्रीत्व िै , न नपुोंिकत्व िी िै , वि
तो िैतन्‍यमात्र िै । ऐिे सनरपे क्ष स्‍वभाव वाले आत्‍मा का जो ज्ञान िै विी नमस्‍कार करने योग्द्‍य िै , विी दशथन िै , विी ज्ञान
िै और विी िाररत्र िै , आिार भी विी िै । शुद्ध िामान्‍य िैतन्‍य की दृसि जो आत्‍मा का स्‍वभाव िै विी शुद्ध िै , उिमें
सक्रया कारक का सिन्‍ि निीों । विी एक परमज्ञान िै । शु द्ध आत्‍मति की दृसि िो गई विी िररत्र िै ।

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 54

मनुष्‍य िोंयोग को तडफते िैं , लेसकन दु :ख का कारर्ण िोंयोग िै । अपने आपको जानो, आत्‍मा में रसत करो । भ्रम िे
रस्‍िी को िपथ मान सलया तो दु :खी िो जाते िैं । उिी तरि अज्ञानी जन परपदार्ों को अपना मान रिे िैं व दु :खी िो रिे
िैं । आत्‍मा युद्धक्तयोों िे निीों जाना जा िकता िै । अनन्‍त दशथन, अनन्‍त ज्ञान, अनन्‍त िुख और अनन्‍त वीयथ आत्‍मा में िी
िै , उन्‍िें खोजने के सलए यिाँ विाँ भटकने की जरूरत निीों । शुद्ध िैतन्‍यमात्र आत्‍मा का स्‍वभाव िै ।
१९९. आत्‍मा ताच्छत्त्क नमन—िबिे उत्तम नमस्‍कार िै आत्‍मद्रव्‍य को नमस्‍कार करना । नमने का अर्थ िै झुकना।
भैया ! आत्‍मा की ओर झुको । आत्‍मा का जो स्‍वरूप िै, उि पर दृसि जाने िे राग निीों उठता, क्‍योोंसक रागद्वे र्रसित
उिका स्‍वरूप िी िै । आत्‍मा में स्‍वरूप की दृसि िे िमता िोती िै । भगवान का आश्रय लेने िे भी राग िो जाता िै और
पदार्ों की तो कर्ा छोडो । तो िबिे ऊँिा ति िै आत्‍मा और विी आत्‍मा का स्‍वरूप िै । अपने आपमें ठिरने का नाम
स्‍वास्‍थ्‍य िै । योग का अर्थ अपने आपमें जु ड जाना, उपयोग का अपने आपमें लगा दे ना, सित्त का रुकना और िमता एक
िी बात िै । शुद्धोपयोग का अर्थ राग द्वे र् िे रसित द्धसर्सत िै । शुद्ध िैतन्‍य सनगाि में िै तो विाँ िमता िै । जिा राग द्वे र्
मोि न िो विाँ धमथ िै । परमात्‍मा पर एक दृसि िै तो विाँ राग उठे गा । पूर्णथ सनसवथकल्‍प ज्ञान िो गया तो विाँ आत्‍म-
िाक्षात्‍कार िो गया । कमाई में कमी आवे तो आवे , पर िमता न छोडो । िमस्‍त शास्‍त्रोों का िार िमता िै । िमता िे
कमथ जल जाते िैं । िाम्‍यों शरर्णों । क्रोधासद के सवर्य उपद्धसर्त िोने पर िमता धारर्ण करना, कोई सकिी का सितै र्ी निीों
िै । अकेले िी िुख िै , दु :ख िै । “त्‍यजेदेकों कुलस्‍यार्ं ग्रामस्‍यार्ं कुलों त्‍यजेत् । ग्रामों जन्‍मदे शार्ं , आत्‍मार्ं पृथ्‍वीों त्‍यजेत्
।। कुल की रक्षा के सलए एक को छोडने की जरूरत पडे तो छोड दे वे । यसद गाों व की रक्षा िोती िो एक कुल के छोडने
िे तो उिे छोड दे वे । यसद एक गाों व के छोडने िे दे श की रक्षा िोती िो तो उिे छोड दे वे । और अपने आत्‍मरक्षा कल्‍यार्ण
के सलये पृथ्‍वी को भी छोड दे ना िासिए । सजनको यि आत्‍मति प्‍यारा िै या ज्ञात रिता िै उन्‍िें मृत्‍यु अमृत के िमान
रिती िै । सजन्‍िें परपदार्थ में आत्‍मबुद्धद्ध िै उन्‍िें िी िन्‍ताप िोगा । िारी मसिमा जो िै वि आत्‍मस्‍वभाव की िै । आत्‍मा
सजि ओर सनगाि दे ती िै उिी तरि की िृसि बनेगी । सनमथलता पर ध्‍यान दे ता िै तो शुद्ध स्‍वरूप बनेगा ।
२००. सत्‍य ज्ञान की मधहमा—एक बुसढ या र्ी । उिके दो लडके र्े । उन दोनोों में एक को कम सदखता र्ा तर्ा
दू िरे को पीला-पीला सदखता र्ा । दोनोों को िफेद मोती भस्‍म गाय के दू ध में िाँ दी के सगलाि में दे ना वैद्य जी ने बताया
। जब यि दवा दी, तो कम सदखने वाले ने तो पी ली, उिका रोग अच्‍छा िो गया । दू िरे को दी तो किे यि गाय का पीला
मूत्र िै , यि िडताल िै । यि किकर दवा निीों पी, इििे उिका पीलापन का रोग निीों गया । िािे ज्ञाता िो, िोना िासिए
यर्ार्थ । ित्‍यज्ञान की बडी मसिमा िै । क्रोधासद अिेतन भाव िैं , उनमें आत्‍मबुद्धद्ध क्‍या करना, ज्ञान और दशथ न िैतन्‍य
गुर्ण युक्त िैं बाकी गुर्ण तो िेतन का काम निीों करते । अभेद की दृसि िे आत्‍मा िैतन्‍य िै । मेरे सलए दू िरे का ज्ञान दशथन
अिेतन िै । िेतन अिेतन का ज्ञान िोना सववेक िै । मेरा िेतन तो िैतन्‍य िै और िैतन्‍य की दृसि जिा िै वि ज्ञान भी
सनश्‍िय िे िेतन िै ।
२०१. समयसारसजान की झांकी—इि ग्रोंर् का नाम िमयिार िै । िमय माने आत्‍मा उिका जो िार वि िमयिार
िै । िारति सत्रकालवती िैतन्‍यस्‍वरूप िै । कुछ काल रिे , कुछ काल न रिे उिे िार निीों किते । पररर्णाम अनासद
अनन्‍त निीों िैं , ये घटते बढते िैं । िैतन्‍य स्‍वभाव न घटता िै और न बढता िै । ऐिे शु द्धति का वर्णथन करने वाले भगवान
कुन्‍दकुन्‍दािायथ िैं । ये दसक्षर्ण दे श के रिने वाले र्े । इनका बडा मािात्‍म्‍य र्ा । ये जब पालने में झूलते र्े उि िमय
इनकी माों झुलाते िमय गीत गाती र्ी । शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि सनर जनोऽसि, िोंिारमायापररवसजथतोऽसि । िोंिारस्‍वप्‍नै
त्‍यज मोिसनद्राों श्री कुन्‍दकुन्‍दजननीदमूिे । श्री कुन्‍दकुन्‍द की माों किती िै सक िे कुन्‍दकुन्‍द ! तू शुद्ध िै , बुद्ध िै , सनर जन
िै , िोंिार की माया िे रसित िै । िोंिार का स्‍वप्‍न व इि मोि नीोंद को छोड । केवल शुद्ध िैतन्‍यति की दृसि में कोई
क्‍लेश निीों । शुद्ध िैतन्‍य तो मात्र सनत्‍य ज्‍योसत िै ।
गाथा 55
णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अच्छि जीवस्‍स।
जेण हु एदे सव्‍वे पुग्‍गलदव्वस्‍स पररणामा ।।५५।।
२०२. जीवसथानों से जीव की धवधवक्तता—यिाँ तो जीव के जीवस्‍र्ान भी निीों िैं । जीविमाि १४ िोते िैं —(१)
एकइद्धिय िूक्ष्‍म जीव, (२) एकेद्धिय बादर जीव, (३) दो इद्धिय जीव, (४) तीन इद्धिय जीव, (५) िार इद्धिय जीव, (६)
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 55

पाों ि इद्धिय िैनी, (७) पाँ ि इद्धिय अिैनी । बादर जीव वि किलाते िैं जो शरीर अन्य पदार्ों िे टकरा िके या रुक
िके अर्वा बादर के उदय िे जो िो वि बादर शरीर िै । एवों िू क्ष्म जीव जो शरीर अन्य के द्वारा निीों रुकते उिे िूक्ष्म
किते िैं । अर्वा िूक्ष्म नामकमथ के उदय िे जो शरीर िो वि िूक्ष्म शरीर िै । ये िातोों जीव पयाथ प्त और अपयाथ प्तक के
भेद िे दो तरि के िोते िैं । इि तरि १४ जीविमाि िोते िैं । जीव जब तक शरीर बनने के पूवथ तक रिता िै तब तक
अपयाथ प्त किलाता िै तर्ा जब शरीर बनने की शद्धक्त पूर्णथ िो जाती िै तो पयाथ प्त किलाता िै । मनुष्य गसत जीव के निीों
िै । जीव का स्वभाव अनासद िे अनन्त काल तक िदा रिने वाला िै । आत्मा में श्रद्धा और िाररत्र गुर्ण िोते िैं । उनके
सवकार की िीनासधकता में नाना सर्ान िोते िैं । भरत िक्रवती जब सदद्धग्वजय करके वृर्भािल पवथत पर गये तो विाँ नाम
खोदने को र्ोडी भी जगि निीों समली । तब वे िोिते िैं , इतने िक्रवती िो गये िैं मैं अकेला र्ोडा िी हुआ हँ । तब विीों
मान सशसर्ल िो जाता िै और वे अनुभव करते िैं —खुद का प्रभु खुद यि स्वयों आत्मा िै । गुर्णसर्ान भी जीव के निीों िैं ।
सकिी का एक बच्‍िा र्ा, वि ताि खेलकर आया । तब सकिी व्द्धक्त ने बच्‍िे की माँ िे सशकायत की—तेरा बच्‍िा ताि
खेलने गया र्ा । उि िमय उिकी माँ उत्तर दे ती िै —मेरा बच्‍िा ताि खेलना निीों जानता दू िरे लडके ने अपने िार् में
द्धखलाया िो वि खेला । यिाँ भी माँ अपने बच्‍िे को शुद्ध िी दे खना िािती िै । जीव में अन्य पदार्थ का िम्बन्ध निीों िै ।
२०३. गुणसथानों से जीव की धवधवक्तता—जीव के गुर्णसर्ान भी निीों िैं । गुर्णोों के सर्ान अपूर्णथ दृसि में बनते िैं ।
जीव सनश्‍ियत: पररपूर्णथ िै । जब मोिनीय कमथ को सवसशि प्रकृसत के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दृसि करके
दे खा जाता िै तो आत्मा में इन गुर्णसर्ानोों की प्रसतष्ठा िै । िो न तो उदयासद जीव के िैं और न गुर्णसर्ान िी जीव के िैं ।
दशथ न मोि के समथ्यात्व प्रकृसत के उदय िे समथ्यात्‍व गुर्णसर्ान िोता िै । दशथनमोि के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के
सबना िािादन-िम्यक्‍त्‍व नामक गुर्णसर्ान िोता िै । दशथन मोि की िम्यद्धिथ्यात्व प्रकृसत के उदय में (जो सक
क्षयोपशमवत् मन्दानुभागरूप िै ) िम्यद्धिथ्यात्व गुर्णसर्ान िोता िै । दशथन मोि व अनन्तानुबन्धी ४ इन िात प्रकृसतयोों
के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के िोने पर व िार् िी अप्रत्याख्यानावरर्ण के उदय िोने पर असवरतिम्यक्‍त्‍व गुर्णसर्ान
िोता िै । यसद अप्रत्याख्यानावरर्ण का अनुदय व प्रत्याख्यानावरर्ण का उदय िो तो दे शसवरत गुर्णसर्ान िोता िै । यसद
प्रत्याख्यानावरर्ण का अनुदय िो तो िोंज्वलन के उदय में िकलव्रत िोता िै । दे द्धखये ये िब सर्ान औपासधक िैं । िबिे
कसठन अनोंतानुबोंधी कर्ाय िै । उिके लक्षर्ण का सदग्दशथन कीसजये । दे खो धमथ कायथ आ पडे तो उिमें भी खिथ न सकया
जावे उिे अनन्तानुबन्धी लोभ किते िैं । मैं मिान धमाथ त्मा हँ , इि तरि का अिों कार आना अनन्तानुबन्धी मान िै । धमथ
कायथ करते हुए मायािारी आना अनन्तानुबन्धी माया िै । कोई धासमथक कायथ सकया और उिमें किना यि िब आपकी
बदौलत िै , या यि कायथ आपके दाि ने सकया िै इिमें भी कर्ाय छु पा हुआ िै ।
२०४. पर के भोगने के र्भ्म का क्‍लेश—एक माता सपता के िार लडके र्े , िारोों जवान र्े । उनके ऊपर गरीबी आ
गई । गरीबी काटने का उपाय िोिा, तो पाि िी गाँ व में उनकी मौिी रिती र्ी । उिके यिाँ जाने का िबने सनश्‍िय
सकया और िारोों मौिी के यिाँ िल सदये । मौिी के यिाँ जाकर बोले—मौिी मौिी िम आ गये । मौिी बोली अच्छे आये
। क्या खाओगे? जो बनाओगी मौिीजी िो खायेंगे । तब मौिी ने किा मद्धन्दर जाओ निाओ आसद । िारोों लडके कपडे
उतारकर मौिी के घर रख गये र्े । मौिी ने िोिा भोजन बनाने को िामग्री तो िै निीों । इिसलए उन भाइयोों के कपडा
लेकर गिने रखे तब भोज्य िामग्री लाई और भोजन में बसढया बसढ या माल बनाया । िारोों भाई आये , उन्हें भोजन करने
को बैठाया । िारोों भाई िोिे अच्छा माल समला खाने को । मौिी किे , खाते जाओ बेटा तुम्हारा िी तो माल िै । भोजन
करने के बाद उठे तो कपडे निीों िैं पिनने को । पूछा मौिी कपडे किाँ रखे िैं ? उत्तर समला तुम्हें भोजन िी तो रखकर
कराया िै । ५०) रु० कजथ में सलये तब भोजन बनाया र्ा । तो दे खो वे लडके खा तो रिे र्े अपना िी माल, सकन्तु भ्रम वि
कर रिे र्े सक िम मौिी का माल खा रिे िैं । इिी तरि िम ज्ञानानन्दरूपी माल स्वयों का भोग रिे िैं , सकन्तु मानते िैं
पर िे ज्ञान, आनन्द आया, बि इि िी का तो दु ुःख िै ।
२०५. आत्मधहत का सािन िना लेने में धववे क—आत्मा में उठने वाली तरङ्गें पुद्गल की िैं । रि गन्धासद पुद्गल
की तरफ िैं । शरीर यिीों पडा रिे गा, जीव िल दे गा । एक दे श में ऐिी प्रर्ा र्ी सकिी व्द्धक्त को राजा िुन सदया जाता
और ६ मिीने राज िलाना पडता र्ा । बाद को उिे जोंगल में छोड सदया जाता । एक बुद्धद्धमान राजा र्ा, उिने िोिा ६
मिीने बाद दु गथसत िोगी अतएव दु गथसत िे बिने का प्रबन्ध पिले िी क्योों न कर लूों । तो उिने राजा िोने की ताकत िे ६

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 55

मिीने के भीतर जोंगल में आलीशान मकान बनवा सलया, जोंगल में नौकर िाकर भेज सदये , खेती की योजना करा दी,
भोजन िामग्री, िोना, िाँ दी, कपडे , धनासद इद्धच्छत पदार्थ भेज सदये । अब बतावो इि राज्य के छोडने के बाद भी क्या
दु ुःख रिे गा? मनुष्य गसत इिी तरि समली िै तर्ा इिका यिी िाल िै । इिमें इतने िमय तक िम जो करना िािें िो कर
िकते िैं । बाद में िब ठाठ यिीों पडा रि जायेगा । सजन जीवोों ने पुद्गल िे सभन्न आत्‍मा को पििाना उन्होोंने सनज कायथ
सिद्ध कर सलया, अपना सर्ान उत्तम बना सलया । अन्यर्ा यि वैभव कब सकिको निीों समला, पर िच्‍िा आत्मलाभ निीों
समला ।
२०६. मोही पर पौद् गधलक प्रभाव—एक राजा र्ा । वि मुसन के पाि गया और पूछने लगा । “मैं मरकर अगले भव
में कौन िोऊोंगा?” मुसन मिाराज ने किा—तुम मरकर अपने िी िोंडाि में कीडे िोगे । तब वि राजा अपने पु त्रोों िे कि
गया सजि िमय मैं मरू ों तो िोंडाि में कीडा िोऊोंगा िो तुम अमुक िमय पर कीडे को मार डालना । राजा मरकर
िोंडाि में कीडा पैदा िो जाता िै । तब पुत्र मारने को गये । मारने के अविर पर कीडा शीघ्र टट्टी में घुि जाता िै प्रार्ण
बिाने के सलये । इि मोिी जीव का यि िाल िै । नरक गसत के जीव मरना िािते िैं पर बीि में मरते निीों । मनु ष्य आसद
जीव मरना निीों िािते िो वे बीि में भी मर जाते िैं । यि पुद᳭गल का ठाठ िै । आत्मा में जो क्रोधासदक भाव पैदा िोते
िैं वे जीव के निी िैं । जीव का तो एक शुद्ध िेतनास्वरूप िै । सकिी ने सकिी िे पूछा—आपका बडा लडका कौन िै ,
मझला कौन िै और छोटा लडका कौन िै ? विी एक िै बडा, मझला और छोटा । अर्ाथ त् िेतना के असतररक्त और कुछ
निीों िै । सजिमें समलना और गलना पाया जावे उिे पुद्गल किते िैं । ऐिे पुद्गल िे अमूतथ आत्‍मा का तादात्म्य कैिे िो
िकता िै ? पुद्गल में जीव एकमेक निीों िोता । आत्मा का शुद्ध ति िेतना िै । मैं एक िेतना मात्र हँ , यि भान िो जावे
तब शुद्ध पर दृसि जायेगी ।
गाथा 56
ववहारे ण हु एदे जीवस्स हवंधत वण्‍णमादीआ ।
गुणठाणंता भावा ण हु केई धणियणयस्स ।।५६।।
२०७. धचत्स्‍वरूपाधत ररक्त सकल भावों की पु द᳭गलपररणामरूपता—अपने आपके आत्मा का स्वरूप ऐिी
दृसि रखकर सविारना िासिये सक मैं स्‍वयों केवल अपने िी में अपने िी िि िे हँ , मुझमें अन्य बात क्या आ िकती िै ?
इि तरि सविार जो करता िै उिे जीव का स्वरूप सवसदत िोता िै और जीव के पररर्णमन को िी ध्‍यान में रखकर दे खें
तो ये िब इि िमय जीव के रूप बन िी रिे िैं । रागी, द्वे र्ी मोिी आसद अनेक रूपोों में यि जीव बन रिा िै , इनको
सनरखने िे कोई सिद्धद्ध निीों िै , िोंिार कटता निीों िै । िाँ ये भी ज्ञे य िैं , जान सलये जायेंगे । कैिे बना, क्योों बना, क्या
सनसमत्त िै ? जान सलया, पर सित्त में िम सकिे बिायें रिे सजििे सक िमारा सित बने ? तो जिा सित्त में बिाये रिने का
प्रश्‍न आता िै विाँ ऐिा िी शुद्ध जीवस्वरूप बिाये रिना योग्य िै जो ििज िै , मेरे िि मात्र िे िै , वि स्वरूप । वि
स्वरूप िै िैतन्यमात्र । उि िैतन्यमात्र जीव में ये रूप, रि, गोंध आसदक कोई बखेडा निीों िै । ज्ञासनयोों ने जब अपने
स्वरूप का अनुभव सकया तो जाना सक यि जीवस्वरूप निीों िै , यि आत्मा की शुद्ध अनुभूसत िे सभन्न िै । िािे वर्णथ
आसदक भाव िोों जो सक पुद्गलासश्रत िैं , सजनका सक पु द्गल उपादान िै और िािे रागासदक भाव िोों जो सक नै समसत्तक िैं ,
उपादान जीव िै , पर िैं वैभासवक । वे िारे के िारे भाव इि आत्‍मा िे सभन्‍न िी िैं , इि कारर्ण अोंतरङ्ग में तिदृसि िे जब
मैं दे खता हों तो भाव मेरे सव सदत निीों िोते । मेरे में तो एक ििज िैतन्यस्वरूप िी िै । प्रश्‍न िोता िै सक जब वर्णाथ सदक
भाव मेरे जीव निीों िैं तो अन्य ग्रन्थोों में क्‍योों बताया िै ? उिका उत्तर दे ते िैं ।
शास्‍त्रों में वणााधद क जीव के िताने का व्यवहारनय से कथन—सजतने भी ये वर्णाथ सदक भाव गुर्णस्‍र्ान पयथन्‍त ये
िब भाव जो जीव के िैं ऐिा बताया गया िै , वि िब व्‍यविारनय िे किा गया िै । सनश्‍ियनय के सिद्धान्त में तो ये कोई
भी भाव जीव के निीों िैं । व्‍यविारनय और सनश्‍ियनय का रूप दे द्धखये । व्विारनय तो पयाथ यासश्रत िै , पयाथ य को सनरखने
वाला, पयाथ यदृसि िे, भेददृसि िे, पर-िम्पकथदृसि िे जो बात सवसदत िो वि तो व्विारनय का काम िै और सनश्‍ियनय
द्रव्ासश्रत िोता िै केवल द्रव् की दृसि िे, प्रकरर्ण में केवल जीव के स्वाभासवक भावोों का आश्रय करके जो उत्पन्न िोता
िै वि सनश्‍ियनय िै । तो िूोंसक व्विारनय पयाथ यासश्रत िै िो जीव के जो औपासधक भाव उत्पन्न िो रिे िैं उनका आश्रय
करके ये भाव उठ रिे िैं । व्विारनय—यि सकिी के भाव सकिी में जोडता िै । यि व्विारनय का काम िै । योों यद्यसप
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 56

अटपट निीों जोड दे ता, सक न्तु कोई िम्बोंध िै , सनसमत्तनैसम सत्तक भाव िै , इतने मात्र भाव को लेकर यि पर के भावोों िे
जुडता िै , परन्‍तु सनश्‍ियनय एक द्रव्‍य के स्‍वभाव का आश्रय करके उठा तो पर के भाव इि जोड में निीों जुडे । अजीव
जीव निीों । तो यि कारर्ण िै सक वर्णाथ सदक भाव इि व्विारनय िे जीव के किे िैं , पर वि व्‍यविार भी युकत ्‍ निीों,
सनश्‍ियनय के अनुिार । वस्तु का यर्ार्थ स्‍वरूप सनश्‍ियनय िे बताया िै । जिा सनश्‍ियनय का प्रकरर्ण िै विाँ भगवोंत
द्वारा जीव का यि स्‍वरूप बताया िै सजिमें ये गुर्णसर्ान आसदक भाव निीों िैं । क्योों निीों िैं ये जीव के भाव ?
२०८. वणााधदकों की धनश्‍चय से प्रधतषेध्‍यता—वर्णथ को आसद लेकर गुर्णस्‍र्ान पयथन्त उन िब भावोों को जीव के
बताना व्विारनय िै । सनश्‍ियनय के आशय में तो वे िब कोई भी जीव के निीों िैं । सनश्‍िय िे जीव का वि स्वरूप िै
जो ििज सनरपेक्ष स्वतुःसिद्ध िो और पररर्णमन की अपे क्षा भी परमार्थत वि पररर्णमन िै सजिकी स्वभाव िे एकता िो ।
स्वभाव िे एकता वाला पररर्णमन विी िो िकता िै जो उपासध िम्बन्ध सबना मात्र स्वभाव िे िी पररर्णमन िो सकन्तु अभी
सजनका वर्णथन सकया गया िै उनमें िे कुछ तो ऐिे िैं सक वे प्रकट परद्रव् रूप िैं और कुछ ऐिे िैं जो जीव की शद्धक्त के
पररर्णमन तो िैं लेसकन िैं औपासधक । इन िबको जीव के योों किे गये िैं किीों-किीों सक एक क्षेत्रावगाि अर्वा
सनसमत्तनैसमसत्तक भाव आसद कोई िम्बन्ध दे खा जाता िै । ये िम्बन्ध सकिी के स्वरूप में तो िैं निीों सकन्तु द्रव् द्रव्ोों में
ऐिा नैकट् य अर्वा अन्वय-व्सतरे क दे खा जाता िै , अत: व्विार िे उन्‍िें किे गये िैं ।
२०९. पुद᳭गलोपादान व पु द्गलधन धम धिक सवाभावों से जीव की धवधवक्तता—अब इन उक्त िबमें जो जीव
िे सभन्न परद्रव् रूप िैं वे ये िैं वर्णथ , गन्ध, स्पशथ , रि, रूप, शरीर, िोंसर्ान, िोंिनन, कमथ, नोकमथ, वगथ, वगथर्णा, स्पद्धथ क व
द्धसर्सतबन्धसर्ान । ये िब दो सकस्म के िैं सजनमें िे भाव रूप तो जीव के पररर्णमन रूप पडते िैं और द्रव् रूप पुद्गल
के परर र्णमन रूप पडते िैं । वे कुछ ये िैं —प्रत्यय, अनुभागसर्ान, बन्धसर्ान, उदयसर्ान, मागथर्णासर्ान व जीवसर्ान ।
सवभाव उन्हें किते िैं जो सक िैं तो जीव के पररर्णमन, परन्तु िैं औपासधक । वे ये िैं राग, द्वे र्, मोि, अध्यात्मसर्ान,
योगसर्ान, िोंक्‍लेशसर्ान, सवशुद्धद्धसर्ान, िोंयमलद्धिसर्ान व गुर्णसर्ान । ये िब व्विारनय िे जीव के किे गये िैं ।
सनश्‍ियनय के आशय िे वर्णथ को आसद लेकर गुर्णसर्ान पयथन्त ये िभी भाव जीव के निीों िैं अर्ाथ त् इनिे िे कोई भी भाव
जीव का निीों िै ।
अब श्री कुन्दकुन्ददे व किते िैं जीव का वर्णाथ सदक के िार् िम्बन्ध परमार्थ िे निीों िै , सनश्‍िय िे वर्णाथ सदक जीव के
निीों िैं ।

गाथा 57
एएधहं य संिंिो जहेव खीरोदयं मुणेयव्‍वो ।
ण य हुं धत तस्स ताधण हु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।।५७।।
२१०. दृष्‍टान्‍तपूवाक दे ह और आत्मा की धभन्नता का वणान—जैिे पानी और दू ध ये समलकर एक तो निीों िो गये ,
केवल दोनोों एक जगि िैं , पर एक निीों िैं । इिी तरि आत्मा और शरीर दोनोों एक जगि िैं पर दोनोों एक निीों हुए िैं ।
शरीर िबका आत्मा िे सभन्न िै क्योोंसक िबमें अिाधारर्ण गुर्ण हुआ करते िैं । अिाधारर्ण गुर्ण उिे किते िैं सजििे मुख्य
पदार्थ जुदा सकया जावे । सजतने द्रव् िोते िैं वे अपना अिाधारर्ण गुर्ण जरूर रखते िैं । जैिे आत्मा में िैतन्य स्वभाव का
िोना तर्ा पुद्गल सपण्ड में एक गुर्ण ऐिा िै जो पुद्गल को छोडकर अन्यत्र पाया िी निीों जाता; वि गुर्ण स्‍पशथ , रूप,
रि, गन्धरूप मूतथपना िै । धमथद्रव् में अिाधारर्ण गुर्ण जीव पुद्गलोों को िलने में ििायक िोना िै । अधमथ द्रव् में
अिाधारर्ण गुर्ण जीव पुद्गलोों को ठिरने में मदद करना िै । आकाश का अिाधारर्ण गुर्ण िै —द्रव्ोों को अवकाश दे ना
। कालद्रव् का अिाधारर्ण गुर्ण पररर्णमन करना िै । जैिे िमय बीतने पर िोंिारी िे मुक्त िो जाना, समथ्यात्व िे िम्यक्‍त्‍व
िो जाना, काल व्तीत हुए सबना तो कुछ निीों । पूों जी पर ब्याज भी िमय बीतने पर समलता िै । यिाँ जीव और दे ि एक
सर्ान में िैं । जीव का गुर्ण िेतना िै और दे ि का अिाधारर्ण गुर्ण स्पशथ रूप रि गन्ध का िोना िै । दू ध और पानी इन
दोनोों के जुदे-जुदे लक्षर्ण िैं । दू ध की पूसतथ पानी निीों कर िकता और पानी की पूसतथ दू ध निीों कर िकता । दू ध और पानी
के गुर्ण इकट् ठे िो जायेंगे, पर एक न िोोंगे । आत्मा और शरीर के गुर्ण इकट् ठे िो जायेंगे पर एक न िोोंगे ।
२११. धनश्‍चय से वणाा धदक जीव के न होने का कारण—जैिे दू ध समला पानी, उिमें दू ध और पानी परस्पर
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 57

अवगािरूप िे िैं । एक सगलाि में बराबर-बराबर दू ध और पानी डाल सदया जाये तो विाँ यि भेद तो निीों पड पाता सक
सगलाि के इतने सिस्से में तो पानी िै और इतने सिस्से में दू ध िै । मगर जो पारखी लोग िैं वे दू ध के स्वरूप को जानते िैं
तो पानी के स्वरूप रूप में जो न िो उििे असधक कोई लक्षर्ण रखता िै उिे दू ध मानते िैं । तो विाँ वि तादात्‍म्‍य निीों
सन रखता । तादात्म्य िम्बन्ध तो अग्द्‍सन और उष्णता िै । तो जैिे सनश्‍िय िे पानी में दू ध निीों, पानी दू ध में निीों िै इिी
तरि दे ि में आत्मा में या रागासदक भावोों में परस्पर भेद सजन्होोंने जाना वे जानते िैं सक जीव के रागासदक भाव निीों िैं ।
भले िी उन रागासदक भावोों िे समला हुआ आत्मा िै । जै िे वतथमान में अपने को िी दे ख लें, क्या यि जु दा-जुदा रख िकते
िैं सक यि ज्ञानभाव िै , यि रागभाव िै ? एक िमय में एक पयाथ य िल रिी िै और वि समसश्रत िै । लेसकन ज्ञान का जब
िम उपयोग करते िैं , यर्ार्थ ज्ञान करते िैं तो विाँ प्रतीत िो जाता सक जिाँ उपयोग गुर्ण पाया जा रिा जो एक िैतन्य िे
िम्बन्ध रखता िो जीव िै और रागासदक भावोों में िेतना निीों िै िो वि अजीव िै । धन घर वैभव इनिे उपयोग िटावो
और अपने आत्मा में लगो—यि तो एक मोटा उपदे श िै , ऐिा तो करना, सकन्तु यि भी करना िोगा सक जो औदसयकभाव
रागद्वे र्ासदक पररर्णाम िैं उनिे सनराला एक ज्ञानमात्र जीव िै िो इििे िटकर एक जीव स्वभाव के उपयोग में लगना ।
जब इन सवभावोों में और आत्मा के स्वभाव में िमझ बनाते िैं तो यि िमझ स्पि िोती िै सक इनिे आत्मा का तादात्म्य
िम्बन्ध निीों िै । ये सनश्‍िय िे वर्णाथ सदक पु द्गल द्रव् िैं , वे जीव के िैं । किते िैं सक ये दो बातें न्यारी-न्यारी िैं । कोई
किे सक ये रागासदक जीव के निीों और कोई शास्‍त्र किते सक ये रागासदक जीव िैं तो यि तो सवरोध वाली बात िो गयी ।
उत्तर में किते सक सवरोध वाली बात निीों िै ।
२१२. स्वरूपत: एक का दू सरे रूप होने की गु जाईश का अभाव—िुख में और दु ुःख में मोिीजन िमता खो
दे ते िैं । बडे धमाथ त्मा बने िो िोिते िैं आत्मा पर बडी सवपसत्त िै , कमों िे बन्धा िै , पर यि निीों िोिते सक आत्मा आत्मा
की जगि िै और शरीर शरीर की जगि िै । आत्मा परपदार्थ के बारे में एक ख्याल बनाता िै , उन्हें अपने अधीन बनाये
रखने का िी सविार रूप प्रयत्‍न करता रिता िै , इििे आकुलता िै । यिाँ यि सनर्णथय कर लेना िासिए सक परपदार्थ कब
तक आत्मा के िार् रिकर िच्‍िा सित करे गा? परपदार्थ आत्मा का कुछ निीों िै । दोनोों की ित्ता जु दी-जु दी िै । ये अनेक
सवकल्प जो पर के बारे में िो रिे िैं वि आत्मा के िार्ी कब तक िैं ? क्या वि िुख दें गे या सनराकुलता पै दा करें गे ? राग-
द्वे र् क्या िैं ? आत्मा पर आपसत्त आ गई िै जो अनासद काल िे िल रिी िै । ज्ञान तो अपना स्वभाव िै । रास्ते में कोई िीज
समलती िै तो उिके बारे में जानकारी करते िैं , यि क्या वस्तु िै ? सकिकी िै ? सदख जाये तो अपने को उििे मतलब
क्या, परन्तु निीों, जानकारी की उत्सुकता बनी रिती िै । प्रत्येक की ित्ता सभन्न-सभन्न िै । कोई सकिी का पररर्णमन कर
दे ता िै क्या? यर्ार्थ ज्ञान करने का फल यि अवश्य िै सक अज्ञानसनवृसत्त के कारर्ण उपेक्षा भाव जागृत िो जाता िै सजििे
शाद्धन्त की धारा बि सनकलती िै । द्रव् क्या वस्तु िै , उिको जाना जावे । आत्मा द्रव् िै , आत्‍मा में अनन्त गुर्ण िैं । आत्मा
में जानने की सवशेर्ता िै , वि ज्ञान गुर्ण िै , रमर्ण करने की सवशे र्ता िै वि िाररत्र गुर्ण िै । आत्मा में िब गुर्णोों को िोंभालने
की सवशेर्ता िै तो वि वीयथ गुर्ण िो गया । अद्धस्तत्व गुर्ण िाधारर्ण िै । आत्मा में पुद्गल में भी अद्धस्तत्व गुर्ण िै । जो अन्य
में भी पाया जावे उिे िाधारर्ण गुर्ण किते िैं एवों जो अन्य में निीों पाया जावे उिे अिाधारर्ण गुर्ण किते िैं । जै िे िेतना
गुर्ण जीव को छोडकर अन्यत्र निीों समलता । पररर्णमनशीलता आसद िाधारर्ण गुर्ण हुए ये िब द्रव्ोों में समलेंगे । आत्मा
की िेतना कमथ आसद में निीों पहुों ि जाये गी । ज्ञान दशथन गुर्ण दू िरे में निीों पहुों िते । आत्मा का गुर्ण सकिी दू िरे द्रव् रूप
निीों बन जायेगा । पु द्गल का गुर्ण अन्य रूप निीों बन जायेगा । यि अगुरुलघुत्व, यि भी िाधारर्ण गुर्ण िै । सज तनी
जगि शरीर िै उतनी जगि आत्मा िै । आत्मा का प्रदे शत्व गुर्ण िाधारर्ण िै । आत्मा िमझ में आ िकता िै । इिका नाम
प्रमेयत्व गुर्ण िै । कुछ गुर्ण ऐिे िैं जो अन्य द्रव् में निीों पाये जाते व कुछ ऐिे िैं जो अन्य द्रव् में पाए जाते िैं । आत्मा
कभी अन्य वस्तु रूप निीों बनता िै ।
२१३. धमथ्या िोि में क्‍लेश की हेतुता—आत्मा में सजतना गुर्ण जो व्क्त सद खता िै , वि पयाथ य सद खता िै , अर्वा
वस्तुत: पयाथ य रूप िे द्रव् जाना जाता िै । सजि पु द्गल की पयाथ य िै क्या वि आ खोों िे सदख जायेगी? पयाथ योों का
झमेला िै । क्षसर्णक िीज में जीव की रुसि जा रिी िै वि रुसि आत्मा का असित करने वाली िै । यसद वि रूसि छूट जावे
और आत्मा की रुसि बन जावे तो िम्यक्‍त्‍व िो जाये । पर की िोंयोगबुद्धद्ध रखना इिे समथ्यात्वी किते िैं । िोंयोग में जो
िुख माना िै उिका बाद में सकतना दु ुःख िोता िै ? िोंयोग में िर्थ मानने वालोों को सवयोग में सनयम िे दु ुःख िोता िै । यि

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 57

क्षसर्णक मेल िो गया िै पर सनयम िे यि मेरे निीों िै । कोई लोग ऐिे िोते िैं जो स्‍त्री के गुजर जाने पर दु ुःख मानते िैं ।
इिका कारर्ण िोंयोग र्ा । सजििे दु ुःख हुआ उिी का िोंयोग मोिी मनुष्य सफर िोिता िै । अगर अवसर्ा अच्छी हुई तो
दू िरा सववाि करने की िोिता िै । लोग समिथ खाते िैं और िरपरी लगने िे आँ खोों में आँ िू आ जाते िैं सफर भी वि उिे
पुन: भक्षर्ण करता िै । अनासद काल के अज्ञान के िोंस्कार जो िले आ रिे िैं उन्हें वि त्यागने में कसठनाई मििूि करता
िै । यिाँ दू ध पानी की बात बतलाई िै , पर उन दोनोों में ऐिे तादात्म्य िम्बन्ध निीों िै जैिा अग्द्‍सन का उष्णता में िै । आत्मा
का उपयोग गुर्ण आत्मा में िै ऐिा असधक रूप िे मालूम पडता िै जैिा अग्द्‍सन में उष्णता । शरीर भी यि अपना निीों
रिे गा िो प्रत्यक्ष दे खेंगे यि तो ठीक सकन्तु वतथमान में भी अपना निीों िै ।
२१४. व्यवहार की सीमा में उपयोधगता—अभेद आत्मा को िमझने के सलये भेदरूप िे भी पसिले िमझना
आवश्यक िै । जीवसर्ान ििाथ को पढने में १५ सदन तो उिमें मन निीों लगता । उिके बाद ज्ञान की लगन लग जावे तो
जब भी िाधमी भाइयोों िे वे पडने वाले समलेंगे तो अन्य कर्ाओों को छोड इि जीवसर्ान की ििाथ करें गे, उिमें िी रि
लेंगे और अन्य पदार्थ की ििाथ नीरि मालूम पडने लगती िै । भेदरूप िे िमझकर सफर सनरपेक्ष ति िमझो । सनश्‍िय
िे वर्णाथ सदक पुद्गल में िैं । आत्मा में रूप रि गन्ध स्‍पशथ निीों िैं । जड व िेतन में प्रकट अन्तर िै । भेद सवज्ञान के बल
िे आत्मस्वरूप की दृसि को सजन्होोंने कर सलया िै उन्हें िी िच्‍िा आनन्द आता िै । लगन जब लग जाती िै तो आत्मा की
असमत शद्धक्त को िमझने में दे र निीों िोती । इन िबको िुनकर सशष्य प्रश्‍न करने लगे सक यि कैिे किते िोों सक जीव
में वर्णाथ सदक निीों िैं , सफ र अन्य ग्रन्थोों में जीव के औदाररक, वैसक्रसयक, आिारक, तैजि, कामाथ र्ण शरीर क्योों बताये िैं
तर्ा दे व, नारकी, मनुष्य, सतयंि के भी शरीर पाये जाते िैं ? यि िब भी तो वर्णथन जैन सिद्धान्त में िै , इिके उत्तर में यिी
बतावेंगे सक यि िब व्विार िे जीव के किे गये िैं ।

गाथा 58-60
पंथे मुस्संतं पच्छस्सदू ण लोगा भणं धत ववहारी ।
मुस्सधद एसो पं थो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।५८।।
तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पच्छस्सदुं वण्‍णं ।
जीवस्स एस वण्णो धजणेधहं ववहारदो उिो ।।५९।।
गंि रसफासरूवा दे हो संठाणमाइया जे य ।
सव्‍वे ववहारस्स य धणियदण्‍ह ववधदसंधत ।।६०।।
२१५. दृष्टािपूवाक व्यवहारोपदे शधवधि का धनदे श—जैिे सकिी रास्ते में लुटते हुए रास्तागीरोों को दे खकर व्विारी
लोकजन ऐिा किते िैं सक यि रास्ता लुटता िै , सकन्तु वास्तव में दे खो तो कोई रास्ता लूट िी निीों िकता । इिी तरि
जीव के सनवाि क्षेत्र में एक क्षेत्रावगाि द्धसर्त कमथ और नोकमों के वर्णथ को दे खकर व्विार िे यि वर्णथ जीव का िै , ऐिा
सजनेिदे व के द्वारा किा गया (प्रर्णीत हुआ िै ) । इिी प्रकार गन्ध, रि, स्पशथ, रूप, दे ि, िोंसर्ान आसदक सजतने भी भाव
िैं वे िब व्विारनय के आशय में जीव के िैं ऐिा सनश्‍ियतिज्ञ पुरुर् व्पदे श करते िैं ।
२१६. सद् िोि से ही सत्य सिोष का लाभ—अपना ज्ञान सनमथल हुए सबना आत्मा का भान निीों िो िकता और जीव
राग-द्वे र् करता िै , ऐिी समथ्या कल्पना िी आत्मा में न आवे तो भलाई िै । दु सनया किती िै , भगवान िबको दे खता िै ।
जब अपना ज्ञान सनमथल िोवे तो भगवान के ज्ञान की िमझा जाये । क्या सभखारी करोडपसत की िोंपसत्त को जान िकता
िै ? मसलनज्ञान में भगवान का स्वरूप निीों जाना जा िकता । ज्ञान िवथदा जान िकता िै ऐिी प्रतीसत िोने पर रत्‍नोों का
ढे र िमारी आत्मा की कौन-िी वृद्धद्ध कर िकता िै? रत्‍नोों का ढे र विाँ कुछ भी निीों कर िकता । उिके सलए एकान्त में
बैठकर िोिें—मैंने नरजन्म पाया िै वि सकिसलए पाया िै ? भैया ! प्राय: अपनी उमर सजतनी बीत गई क्या अब उतनी
बाकी रिी िै , जो िमय बीत िुका उिमें कुछ करा क्या? इतनी आपसत्त समली, दु ुःख समले, औरोों के तानें समले, घृर्णा समली
। इििे क्या लाभ िो रिा िै , तर्ा क्या लाभ िोने की उम्मीद िै ? अब तक मैंने जो सदया, उिमें पररवार िे, स्‍त्री िे , पुत्र
िे, िमाज िे, समत्रोों िे कुछ समला िै क्या? कुटु म्ब में अनेक झों झटें आई, सफर भी िम भूल जाते िैं । ऐिा कोई निीों िोगा
सजिे स्‍त्री िे दु ुःख न समला िो । बाह्य वस्तुओों िे मोि तब तक निीों छूट िकता जब तक अिली आत्मा में आनन्द का
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 58-60

सवश्‍वाि निीों करे गा । परपदार्ों में िुख निीों िै , यि सवश्‍वाि जब आत्मा में जम जाये तब किीों उनिे सनवृत्त िोवे ।
अन्तरङ्ग में आनन्द का आना और स्वात्मानुभूसत का िोना यि दोनोों एक िार् िोते िैं । सजि आनन्द के आने पर तीन
लोक की सवभूसत भी तुच्छ मालूम िोती िै । ज्ञान वस्तुस्वरूप का िोना िासिये । जैिे भौसतक पदार्ों के जानने में उपयोग
लगा िै , उिी तरि वस्तु के यर्ार्थस्वरूप को जानने का उपाय करें तो वस्तु स्वरूप का ज्ञान िो िकता िै । वस्तु स्वरूप
का ज्ञान िमझना कसठन निीों । पिले यि जानना वस्तु सकतनी िोती िै ? सज तना एक खोंड िै उतनी एक वस्तु िै ।
आपका और िमारा जीव सभन्न-सभन्न िै वि समलकर एक निीों िो िकता । वि अनासद िे सभन्न-सभन्न िै । उिी तरि दो
परमार्णु समलकर भी एकमेक निीों िो िकते । सपण्ड रूप िोने पर जुदा जुदा िै व प्रकट जुदा िो जावेगा । ित्ता न्यारी-
न्यारी िै ।
२१७. स्वयं का स्‍वयं में करति करने का सामथ्या—दे द्धखये सपता अपना पररर्णमन करता िै , पुत्र अपना पररर्णमन
करता िै । झोपडी में जो आ गया उिे अपना मानने लगा । पाप एक व्द्धक्त करता िै उिका बाँ टने वाला अन्य निीों िोता
। अन्याय सकया, उिका िमर्थन सकया, इििे उिने नया पाप और सकया । प्रत्येक जीव पाप पुण्यासद स्वयों भोगते िैं ।
अन्य को ििारा बनाकर िु खी व्र्थ मानते िैं । लौसकक िुख भी स्वयों िे िोता िै , पर िोिें तो वि िुख िदै व अपने
अनुकूल भी रिता िै या निीों । स्‍त्री प्रेम, पुत्र प्रेम, धन िे प्रेम, मकान िे प्रेम इत्यासद पदार्ों िे प्रेम करना िी कतथ व् मान
रखा िै । पर यसद इनका आनन्द निीों मानते, इनमें िी निीों पगे रिते तो िम करोडगुना आनन्द प्राप्त कर िकते िैं । जो
इतने ज्ञान की श्रेर्णी तक पहुोंिे हुए िैं उनके अलौसकक िुख की झलक मोि के नाश िे िोती िै । स्वतन्‍त्रित्ता वाले तो िैं
िी, अब सभन्न-सभन्न पदार्थ को िमझ जावें सक िैतन्यमात्र को छोडकर और िब जड पदार्थ िैं । जब ये सभन्न िैं तो मेरा
क्या िै इनमें? सभन्न-सभन्न जान जाने पर मोि छूटे गा िी । कोई व्द्धक्त किे त्यागी िे , िमारे इि बच्‍िे को क्रोध छु डाने का
सनयम सदला दो, तो वि निीों छोड िकता । क्रोध आने पर मन्‍त्र पढना, क्रोध के सर्ान िे दू र बैठ जाना, सकताब पढने
लगना, शीतल जल पी लेना, समि पदार्थ को मुोंि में डाल लेना, सगनती सगनने लगना इत्यासद तो जबदथ स्ती भी सकया जा
िकता िै । क्रोध का त्याग कैिे सदलाया जावे ? क्रोध िे मेरा िी नुक्सान िोता िै , इिे मैं अपने पाि क्योों आने दू ँ , क्रोध
मेरा स्वभाव निीों िै इत्यासद सविारोों एवों आत्मा कायों के द्वारा उििे छु टकारा पाया जा िकता िै ।
२१८. ज्ञान से मोहक्‍लेश का अभाव—मोि छूटे तो ज्ञान करें यि किकर ज्ञान में लग जावे तब मोि छूटे गा िी । ज्ञान
का आवरर्ण िट जाये , ज्ञान सवशुद्ध िो गया तभी वि अनुभव करे गा । भगवान का गुर्णगान करने िे पिले छोटे भगवान
बनें । सनमथल ज्ञान िो िो वि भगवान िै । लौसकक आनन्द के सलए जो कुछ समला िै उिे तो छोडें तर्ा िच्‍िे आनन्द के
सलए प्रयत्‍न सकया जाये । लाखोों रुपया लगाकर कम्पनी खोली, पूवथ में उनका नुक्सान सकया । आगे जाकर उनका लाभ
समलेगा ऐिी सिम्मत रखते िो या निीों । अिली जो िमारा स्वरूप िै उिके अनुभव िोने पर बाह्य पदार्थ का ममत्व िोगा
क्या? जैिा सवर्यिुख समला, इिी तरि सनबाथ ध यि िुख समल िकता िोता तो िलो विी धमथ र्ा । स्‍त्री वृद्ध निीों िोवे, वि
पिले जैिा िी भाव रखे रिे , बच्‍िा द्धखलाने योग्य िी बना रिे , जो इष्‍ट र्ा विी बना रिे िो िोता निीों, इिी कारर्ण ये
आकुलता के कारर्ण िैं , िदा स्वाधीन आनन्दमय द्धसर्सत िै वि सनज की िै । वतथमान द्धसर्सत जो कुछ भी िो उिी में सित
का सविार करें , उिके इि सववेक के अनुिार कायथ बन भी िकता िै अन्यर्ा निीों । रु. २००) माि की आमदनी और
बढ जावे, आगे और भाव बनेगा, बसढया िाज िमाज जु टाने की इच्छा िोगी । या जो दो वर्थ पश्‍िात् आत्मकल्यार्ण के
पर् पर िलने की इच्‍छा र्ी, कदासित् उतने िमय में मृत्‍यु िो गई या द्धसर्सत सगर गई तब कौन ििायक िोगा ? अपने-
अपने पुण्‍य के अनुिार कायथ िोगा । अपने कतथव् को सनभाकर स्वतन्‍त्र तो बना जावे । आपकी जो आज द्धसर्सत िै उिी
में सवभाग करके पुरुर्ार्थ करके पररर्णसत िोंभाली जावे तो िुखी न िो, यि िो निीों िकता । जीवन में अन्य कायथ तो िदै व
सकये और अद्धन्तम कायथ यि करके दे खें । इतना िब करके ज्ञान के सलये फकीर बन जावे , छात्र बन जावे , मुझे तो पढना
िै । जो कर लेवे िो वीर िै । िक्रवसतथयोों को वैभव छोडना पडा तब अपनी तो बात क्या?
२१९. शुद्ध तत्त् की दृधष्ट में धवकल्पों का अभाव—शुद्ध ति की दृसि बहुसवकल्पोों को उत्पन्न निीों करती, इिसलए
शुद्धति पर दृसि जमाना िासिए । वैदाद्धन्तक लोग ब्रह्म व माया को मानते िैं । बौद्ध लोग आत्मा को क्षसर्णक मानते िैं या
क्षसर्णक सित्त को मानते िैं । जबसक जैन सिद्धान्त ने यि माना “व्द्धक्तगत ित्ता में रिने वाला जो िामान्य स्वरूप िै वि
शुद्ध ति िै ” । जैिे आत्मा में, शुद्ध ति में रिने वाला ज्ञायक स्वरूप िेतनामात्र िै , परमार्णुओों में रिने वाला शुद्ध

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पु द्गल ति िै । ऐिे शुद्ध ति की दृसि में अन्य सवकल्प निीों िोते । उि जीव के स्वरूप में न क्षासयक भाव िै न केवलज्ञान
िै । जीव के सकन्हीों पयाथ योों का किना िामान्य दृसि में निीों आता, द्रव् दृसि में निीों आता । अध्यात्म शास्‍त्रोों में इिका
सजतना मिि िै वि िवथ वर्णथन में निीों आता यसद नयदृसि, द्रिा की शुद्धदृसि, िामान्य दृसि न लगाई जाये । सकन्तु पयाथ योों
पर दृसि न दे ना । मैं जो हँ वि िैं भगवान, जो मैं हँ वि िैं भगवान । द्रव् का द्रव्त्व उतरता निीों । पयाथ य क्षसर्णक िै वि
ऊपरी अन्तर िै । वे सवराग यिाँ रागसवतान । वे अत्यन्त सवराग िैं , यिाँ राग का फैलाव िला रिा िै । जीव में न िों यम िै ,
न तप िै , न व्रत िै । िोंयम, तप, व्रतोों को अपना मान बैठे तो वि अपने कुछ निीों । ज्ञानी जीव के िैतन्यस्वरूप अपने
आपको असवशेर्रूप िे अनुभव करने में सवकल्प निीों िोते िैं । प्रमार्ण िे अपने को िवथ प्रकार िमझ जावें । िमझाने
के सलये एक वैज्ञासनक पद्धसत व एक आध्याद्धत्मक पद्धसत िोती िै । वैज्ञासनक पद्धसत में तो िे य उपादे य की ििाथ निीों
िोती, केवल वस्तु का िर तरि िे ज्ञान करना मात्र लक्ष्य रिता िै । आध्याद्धत्मक पद्धसत वि िै सजिमें पर िे िटें , सनजात्म
पर लग जावें । इिमें िे योपादे य पर दृसि रिती िै ।
२२०. दे हाधद से आत्मा की धवधवक्तता—जैिे पानी दू ध समले हुए िैं । एक सगलाि में पानी और दू ध का अवगाि िो
गया, इतना िो जाने पर भी पानी का स्वरूप पानी में िै , दू ध का स्वरूप दू ध में िै । पानी और दू ध समल जाये तो सकिी
का यर्ार्थ स्वाद निीों, सफर भी वि एक में एक निीों हुए िैं , दोनोों की सभन्न-सभन्न दशा िै , स्वरूप एक निीों हुआ । क्षीर में
क्षीरत्व िै वि क्षीर में व्ाप्त िै । िसलल का गुर्ण िसललत्व में िै । पानी और दू ध का तादात्म्य निीों िो िकता । अग्द्‍सन और
उष्णता में जैिे तादात्म्य िै तैिे इिमें निीों िै । अग्द्‍सन िे गमी कब िटे गी जब अग्द्‍सनत्व िटे गा । एक क्षेत्रावगािी शरीर िे
आत्मति समल रिा िै । शरीर पर गुजरती िै उि सनसमत्तक िोने वाली वेदना का अनुभव आत्मा को भी करता पडता िै
। आत्मा िब द्रव्ोों िे जुदा नजर आता िै । अग्द्‍सन उष्णता के िमान शरीर और आत्मा का िम्बन्ध निीों िै । जब कोई मर
गया तब िम जानते िैं , इि शरीर में आत्मा निीों रिा, जीव निीों रिा, िैतन्य निीों रिा । जब शरीर जीव का निीों तो शरीर
के वर्णाथ सदक जीव के कैिे िो जावेंगे, यि निीों किते सक आत्मा िी शरीरमय र्ा । यि तो हुआ सजनका शरीर उपादान
निीों िै उनका कर्न, सकन्तु जो िुख दु ुःख आसद आत्‍मा में िोते , वि भी जीव के निी िैं । पुद्गल को सनसमत्त पाकर जीव
िुख दु ुःख भोगता िै । सनश्‍िय िे तो तरों ग िी जीव के निीों िै शुद्धदृसि जीव को दे खता िै केवल रागासदक सकिके िैं ? जब
एकदे श शुद्धदृसि िै तब किें गे पुद्गल के िैं । शुद्धति की दृसि तब जानी जावे जब िोिे मैं शुद्ध ति हँ ।
२२१. परर णधत जाधत का आिार अनुभूधत —मैं पुरुर् निीों, मैं स्‍त्री निीों, धन निीों, मैं गरीब निीों, मैं तो िेतना
मात्र वस्तु हँ । इि प्रतीसत िे पुण्य भी बढे गा, सनजथरा िोगी, पाप का क्षय िोगा । यि प्रतीसत छूट गई िो तब िमझो, मैंने
१२ वर्थ पूजन करके, स्वाध्याय करके भी कुछ निीों पाया । मैं उपयोग गुर्ण करके िेतना मात्र हँ । जो मेरे निीों िैं उनमें मैं
क्या रसत करू ों ? सजिके ज्ञान में ममता भरी िै िो बुद्धू िै । इि िेतना दृसि में न भाव कमथ का िम्बन्ध दे खा, न कमथभाव
का िम्बन्ध दे खा गया तब अपना ममथ पसििानने में आया । अगर पयाथ यरूप िी अनुभव सकया सक अन्य भी ऐिा करते
िैं तर्ा दादे परदादे करते आये िैं मैं भी ऐिा िी करू ों तो अनासदकाल िे जो पयाथ य समलती आ रिी िै उन्हें कौन आगे
टाल दे गा? यि िै नवीन क्राद्धन्त एवों धमथ का पालन । सकिी का नाम लेकर बुलाया तो जल्दी ख्याल उठता िै , क्या िै ।
क्योोंसक वि अपने नाम िे िजग रिता िै , वि िदै व उि रूप नाम वाला मानता िै । इिी तरि िेतना मात्र की प्रतीसत
िमायी रिे तो स्वात्मानुभव नजर में आवे सक मैं तो िेतना मात्र आत्मति हँ , ज्ञायकरूप हँ । यि धमथ िै । तो ऐिे धमथ की
दृसि रखकर सफर दे खो जगत में कोई ऐिी जगि बता िकते िो जिाँ िेतना न िो । िेतना के सविारने में िीमा निीों आई,
िे तना िे खाली कोई जगि निीों, इिी बात को दे खकर वेदान्त में एक ब्रह्म उल्‍सल द्धखत हुआ । िेतना मात्र िी प्रतीसत िो
तो वि िै अिली कमाई, ऐिा ज्ञानमात्र आत्मा का अनुभव करना िो धमथ िै । ज्ञान सजनका बढने को िोता िै वि बार-
बार खाने पीने में िमय व्तीत निीों करते । ज्ञानमात्र कायथक्रम बन गया विी हुआ व्रत, तप िोंयम । सफर भी उन सक्रयाओों
में अपन की दृसि गई तो वि शुद्ध दृसि निीों रिी । यिी शु द्ध दृसि िब िुखोों का बीज िै । सजिे शुद्ध दृसि हुई तो वि गिने
भी इतने असधक निीों पिनेगा, दू िरोों की िेवा करने में अपने भले बुरे की भावना लाये गा ।
२२२. व्यवहार की अधवरोिकता का उदाहरण—जैिे रास्ते में कोई जा रिा, सजि रास्ते में प्राय: िोर लूटते रिते िैं
तो लोग किते िैं सक िेठ जी किाों जा रिे िो? पता भी िै कुछ, यि रास्ता लुट जाया करता िै । तो भाई रास्ता सकतने का
नाम िै ? एक सनयत आकाश में जो प्रदे शपोंद्धक्त िै उिका नाम रास्ता िै । उि रास्ते को कोई लूटकर ले जा िकता िै

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क्या घर पर? सफर क्योों किते ऐिा सक यि रास्ता लुटता िै ? कुछ िम्बोंध िै , रास्ते में िलते हुए लोगोों को लुटा हुआ दे खा,
उनकी गठरी धन पैिा छु डाते दे खा तो िूँसक उि रास्ते में वे जा रिे र्े और लुटे तो उनके विाँ सनवाि रिने मात्र िे
उपिार करके किा जाता िै सक यि रास्ता लुट जाया करता िै । तो यि व्विार कर्न हुआ सक सनश्‍िय कर्न? क्या
वास्तव में उि सवसशि आकाश िे प्रदे शरूप कोई रास्ता लुटा? निीों । इिी तरि अनुभव में जब िम बोंध पयाथ य को
सनरखते िैं तो विाँ कमथ िै , नोकमथ िै , उनमें रि रिा जीव भी उनमें रिता हुआ, उनमें उपयोग दे ता हुआ जीव लुट रिा,
बरबाद िो रिा । जब उन दे िोों का सवभावोों का आश्रय करके वर्णथ आसदक दे खे गए तो उपिार िे वे वर्णाथ सदक जीव के
िी कि सदये जाते िैं , पर सनश्‍िय िे जीव तो अमूतथ-स्वभावी िै , उिमें उपयोग गुर्ण सवशेर् िै । िो उि जीव के कोई भी
वर्णथ निीों िै । वर्णथ निीों िै इिके मायने और रूप भी निीों िै , रि भी निीों, गोंध भी निीों, स्पशाथ सदक भी निीों । सजतने भी
ज्ञान के उपयोगी िोने िे जो-जो भी वर्णथन सकये जाते िैं वे िब जीव के निीों िैं , क्योोंसक उनके िार् जीव का तादात्म्य रूप
िम्बोंध िै । तो जीव वस्तु त: कैिा हुआ? एक शुद्ध ज्ञानमात्र, ििज ज्ञानस्वरूप । इि सवकािरूप भी निीों, जो जान रिे
इन पररर्णमनोोंरूप भी निीों, सकन्तु इनका आधारभूत जो शद्धक्तमय सित्स्वरूप िै तद्रूप जीव िै ।
२२३ जीव के कैवल्य-स्वरूप के दशान का प्रभाव—जीव के कैवल्यस्वरूप को जब दे खते िैं तो सवसदत िोता िै सक
इििे बािर ति कुछ निीों िै , वि तो िैतन्यस्वरूप िै । ऐिे उि जीव के दशथन करने का नाम िै िम्यग्दशथन । जैिा
स्वयों ििज स्वरूप िै उिका अनुभव कर लेना और अनुभव के प्रिाद िे सफर जो बात िमा जाती िै उिके िमाने का
नाम िै िम्यग्दशथन । जीव के धमथपालन में इि िम्यक्‍त्‍व ने िब कुछ िियोग सकया, इिी ने िबका िम्यक् रूप बना
सदया िै , इि कारर्ण िर िम्भव प्रयत्‍न िे जीव के स्वरूप को जानें , इििे िी िम आप िबकी भलाई का रास्ता समल
िकेगा । इि प्रकरर्ण में जीव का ऐिा सवशुद्ध स्वरूप बताया जा रिा िै सक सजि स्वरूप पर दृसि िोने िे सजिको ‘यि
मैं हों ’ ऐिो श्रद्धानपू वथक जान लेने िे िोंिार की िवथ बाधायें दू र िो िकती िैं । जीव को दु ुःख का कारर्ण तो केवल भ्रम िै
। अपने स्वरूप िे असतररक्त अन्य जो-जो कुछ भी भाव िैं उनको िार मानकर उनमें जो लगाव लग रिा िै उतना िी
मात्र दु ुःख का कारर्ण िै । यसद बाह्य भावोों में उपयोग न लगे और आत्मा का जो ििज स्वरूप िै उिकी ओर दृसि रिे तो
ये िारी बाधायें दू र िो िकती िैं , वि स्वरूप क्या िै ? तो पसिले बता सदया गया िै सक जीव का स्वरूप केवल िैतन्यमात्र
िै । न तो ये रागद्वे र्ासदक स्वरूप िैं जीव के और न जो छु टपुट सवकाि िलते िैं वे सवकाि जीव के स्वरूप िैं , सकन्तु
सजिका िवथस्विार एक िैतन्‍यशद्धक्त में व्ाप्त िो गया िै जीव तो उतना िी िै । इिके वर्णाथ सदक कुछ निीों िैं । रूप,
रि, गोंध आसदक ये जीव के निीों िैं , इि प्रिोंग में शङ्काकार कि रिा िै सक—
२२४. जीव के सहजस्वरूप की पररणमनों से धवधवक्तता—कमथ के उदय िे िोने वाले िों कले ्‍ श पररर्णाम औदासयक
िोते िैं और कमथ के क्षयोपशम िे िोने वाले क्षायोपशसमक पररर्णाम िोते िैं । ये दोनोों भी जीव के निीों िैं । िोंयम जो िोता
िै वि भी कर्ाय के अभाव िे िोता िै । सकिी कर्ाय के अभाव में जो िीज हुई िै उिे किने में दोर् तो पिले िी बता
सदया िै सक यि कर्ायवान र्ा । सनमथलता के तारतम्यता िे िोंयम के सर्ान बनते िैं । िोंयम के सर्ान भी जीव के निीों,
गुर्णसर्ानोों में जीव का िोना स्वभाव-िा िै । सकन्तु वि भी व्विार िे िै , सनश्‍िय िे गुर्णसर्ान भी जीव के निीों िैं क्योोंसक
गुर्णसर्ान भी कोई कमथ के उदय िे , कोई क्षयोपशम िे , कोई क्षय िे िोता िै । १४ जीविमाि भी जीव के निीों िैं ।
सनश्‍िय िे जीव तो प्रवृसत के िैं । उपयोग गुर्ण करके जीव असधक िै । उिमें िोंयम तक तो ऐिा निीों िै जो अनासद और
अनोंत तक िोवे । करर्णानु योग में भी किा गया िै सक सिद्ध भगवान िोंयम, अिोंयम, िोंयमािोंयम तीनोों िे रसित िैं ।
अनुभागसर्ान भी जीव के निीों िैं । इनमें जीव का कोई तादात्म्य निीों िै । इििे जीव के निीों िैं । केवलज्ञान केवलदशथन
भी जीव के स्वभाव निीों । िामासयकासद िोंयम के िोंकल्प जीव में आते िैं वि जीव के निीों क्योोंसक वि पैदा िोकर नि
िो जाते िैं । जो स्वभाव िोता िै वि जीव का िै , अन्य दशायें कोई जीव की निीों । सकिी ने प्रश्‍न सकया जीव का वर्णाथ सद
के िार् तादात्म्यपना क्योों निीों? उत्तर दे ते िैं ।
गाथा 61
तिभवे जीवाणं संसारिाण होंधत वण्णादी ।
संसारपमु क्‍काणं णच्छि हु वण्णादओ केई ।।६१।।
२२५. जीव के वणााधदमत्त् के सम्बन्ध में शंका व समािान—शोंकाकार किता िै सक जब तक भव लगा िै जीव
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 61

के िोंिार में शरीर धारर्ण कर रिा िै तब तक तो िोंिार अवसर्ा में भी जीव के िार् वर्णाथ सदक का तादात्म्य मान लेना
िासिये । िाँ जब िोंिार िे छूट जायेगा यि जीव, शरीररसित िो जायेगा तब ये वर्णाथ सदक कोई न रिें गे, सकन्तु जब तक
िोंिार अवसर्ा िै तब तक तो जीव के िार् वर्णाथ सदक का तादात्म्य िम्बोंध मान लेना िासिये । शोंका तो उिकी िै । पर
शोंका सनमूथल िै । तादात्म्य िम्बोंध विाँ हुआ करता िै जिाँ सजिकी िारी अवसर्ा में जो सजि रूप िे रि िकता िै । और
सजि सकिी अवसर्ा में सजि रूप िे निीों रि िकते उिका तो तादात्म्य िम्बोंध निीों माना जाता िै । यसद पुद्गल की
भाँ सत जैिे सक पुद्गल में वर्णथ का तादात्म्य िम्बोंध िदा िै , िािे इिकी कुछ भी पयाथ य िो, स्कोंध को छोडकर परमार्णु भी
बन जाये तो परमार्णु अवसर्ा में भी वर्णाथ सदक का िम्बोंध िै , तो किा जा िकता िै सक पुद्गल के िार् वर्णथ आसदक का
तादात्म्य िै , लेसकन यिाँ जीव में तो िोंिार अवसर्ा िे जब तक सक शरीर के िार् िम्बोंध िै , सकिी दृसि िे वर्णाथ सदक िे
िार् तादात्म्य िो रिा िै लेसकन मोक्ष अवसर्ा में तो वर्णाथ सदक के िार् सकिी भी प्रकार िम्बोंध निीों िै तो जीव का वर्णथ के
िार् तादात्म्य निीों माना जा िकता । िोंिार अवसर्ा में भी रिकर यि जीव इतना फोंिा हुआ, बोंधा हुआ रिकर भी जीव
कमथ के उदय में नाना रागासदक सवकार करता हुआ भी यि जीव जीव के स्वरूप पर जब दृसि दे ता िै तो वर्णाथ सदकरूप
निीों िै , रागासदक रूप निीों िै । जैिे खूब खौलते हुए पानी में भी जब पानी के स्वरूप पर दृसि दे ते िैं तो पानी गमथ निीों
िै उिका ठों डा स्वभाव िै । गमथ पानी में भी जब स्वरूप अर्वा स्वभाव पूछा जायेगा तो िर एक कोई ठों डा िी किे गा ।
तो िोंिार अवसर्ा में यद्यसप जीव के िार् पुद्गल उपासध का िम्बन्ध सन रन्तर लग रिा िै तो भी उिके िार् तादात्म्य
निीों िै । यसद ऐिा िी दु राग्रि करोगे सक िम तो िोंिार अवसर्ा में जीव के िार् वर्णाथ सदक का तादात्म्य िी मानेंगे तो सफर
जीव अजीव में भेद क्या रिा?
२२६. अन्य भाव से जीव के तादातम्‍य का अभाव—भगवान कुन्दकुन्दािायथ मिाराज बतला रिे िैं सक यसद जीव के
िार् वर्णाथ सदक का तादात्म्य मान लोगे तो यि दोर् िोगा सक जीव के वर्णाथ सदक िोते तो िोंिार िे मुक्त िोने पर वर्णाथ सदक
रिना िासिए, िो बात िै निीों । तब सफर लडके बच्‍िे कैिे जीव िो जायें गे ? परर वार के लोग कुछ भी निीों कि रिे सक
तुम िमारे पीछे मूढ बन जाओ । जो िब अवसर्ाओों में सजि रूप िे व्ापक िो और सजि रूप का कभी भी सत्र काल
में िम्बन्ध न छूटे वि जीव का िै । ऐिे िम्बन्ध को तादात्म्य किते िैं । िोंिार अवसर्ा में तो वर्णाथ सदक दे खे जाते िैं , वास्तव
में तो िाों िाररक अवसर्ा में भी वर्णाथ सदक जीव के निीों िैं । व्विारत: भी वर्णाथ द्यात्मकता िर िमय रिती िो िो बात निीों
िै । जीव के िार् कमथ के िों योग निीों िैं ऐिा कि िकते िो निीों । यिाँ सकिी भी िमय दे ख लो कमथ नोकमथ का िोंयोग
लगा िै , िो िों योग िे भी जीव में वर्णाथ सदक निीों िैं । वस्तु का स्वरूप जब िमझा जाये , तब ज्ञात िोगा सक प्रत्येक वस्तु
एक अपने अिाधारर्ण गुर्ण को सलए हुए िै , अिाधारर्ण गुर्ण अनासद िे अनन्त तक रिता िै । यि जीव अपने सलए शरीर
िे सभन्‍न िुख िे भी निीों किता । अग्द्‍सन के िार् शरीर भस्म िो जायेगा । अगर उिमें िारभूत बात िोवे तो प्रे म करो ।
घृर्णा पैदा करने वाला मल मूत्र कफ नाक का लुआब, आ खोों का कीिड एवों कर्णथ का मैल सनष्कासित िोता रिता िै ।
सफर ऐिे अपसवत्र शरीर में ममता क्योों? नाक, कान, आँ ख िेिरे को दे खकर अनुभव कर रिे —यिी मैं हँ । शरीर िे सभन्न
मैं आत्मा िेतना मात्र हँ ऐिा िोिें तो सफर ममता कैिे रिे ? जग में बडप्पन यिी िै सक स्वात्मानुभव की प्रतीसत िो जाये

२२७. पररग्रहव्यामोह में शाच्छि की असंभवता—जगत में इि क्षर्णभोंगुर शरीर की झूठी इज्‍जत बढा ली, ४
आदसमयोों िे वाि-२ करा सलया तो क्या वि सर्ायी रिे गा? योगी शुद्ध आत्मा का अनुभव करते िैं , आत्‍मज्‍योसत बढी तब
बडे किलाये । तीर्ंकर का पुण्य िै सक दे सवयाों गभथ में आने के ६ माि पूवथ िे माता की िेवा करती िैं । जन्म िमय दे व
भगवान का असभर्ेक करते िैं । गृिस्‍र्ावसर्ा में उतना बडप्पन र्ा । पररग्रि में रि रिकर सकिने िुगसत पाई? अपने-
अपने घर का खाकर सकिने मुद्धक्त पाई? अन्य का कि न ििना पडा और मुक्त िो गये ऐिे उदािरर्ण सवरले िैं । भरत
िक्रवती, बाहुबसल सब ना अन्य का आिार सलये मुक्त हुए । “फाों ि तनकिी तन में िाले, िािे लँगोटी की दु :ख भाले
।।” पैिे की र्ोडी भी िाि दु :ख दे ने वाली िै । जैनधमथ तो यिी किता िै जिा पू र्णथ सनष्कलोंक पररर्णाम िो विाँ आपा
पर का भाि िोता िै । अन्य उपाय निीों िै । दु लथभता िे मनुष्यजन्म पाया, वि धमथ िाधन के सलए िै , उिमें राग द्वे र् एवों
प्रीसत की बात क्या? ये िबके आत्मा में सनज शुद्धस्वभाव का घात कर रिे िैं । ये भाव िुिावने लगते िैं पर उनका
पररर्णाम कटु क िोता िै । जरा-िा सवकल्प भी धमथिाधन निीों िोने दे ता । सवकल्प िे न धमथ, न अर्थ और न िी पु रुर्ार्थ

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 61

की सिद्धद्ध िोती िै , न पालन पोर्र्ण िै , व्र्थ में अपना घात करता िै । बाहुबसल के मन में यि बात बैठी र्ी मैंने बडे भाई
का अपमान सकया, लगता िै बाहुबसल जी बहुत अच्छा िोि रिे र्े । पर दे खो, शुभ सवकल्प िो िािे अशुभ, वि मोक्ष को
रोकता िै । धमथ कमाने का उद्दे श्य तत्सम्बन्धी उपदे श िै । धमथ की ििाथ बडे पुरुर् िे करो यि भी तो सवकल्प िै । आत्मा
पर करुर्णा करो । सजि सव कल्प में पडे उि घेरे िे मुक्त िोने की कोसशश करो । ज्ञानी मोि को दे खकर पश्‍िाताप
करता िै तो कुछ ठीक िी िै , सकन्तु मोिी अन्य को दे खकर किे यि मोि में कैिे दु :खी िो रिे िो जोंगल में तो आग लगी
और स्वयों डाल पर बैठकर किे वि जल गया, अरे वि जल गया, पर अपनी निीों िोिता सक मैं भी जलूँगा—इिपर बुद्धद्ध
निीों दौडती । दू िरे के दु ुःख को तो किता िै सकन्तु अपनी मानो पूर्णथ िुध िी भूल िु का । कैिा प्रताप िै अज्ञान का, जो
मुझमें बुद्धद्ध िै वि श्रेष्ठ बुद्धद्ध िै इििे असधक निीों िोिता । डे ढ आ ख का सकस्सा िो रिा िै । एक आ ख अपनी दे कर
दु सनया की आधी आ ख िी मानता िै । अपनी वेदना मेटना िासिए तब दू िरोों की पीडा अनुभव सकया जाये ।
ज्ञानी वि िै जो अपने िमान िबको िमझे । िब प्रासर्णयोों को िैतन्‍यमात्र दे खे । िेतना में द्रव्दृसि िे कोई अन्तर निीों िै
। व्र्थ िी बािर क्योों दौडा? बािर मैं क्या करू ों गा, मैं अपनी सक्रया अन्तरङ्ग में िी तो करू
ों गा । जो मेरी िामथ्यथ में निीों
िै ऐिा कायथ क्योों करू ों ? जो सक भाव मन में बन जाये उिका खेद करना िासिए ।
२२८. अहङ्कार की दु ुःखमू लता—असभमान दु ुःख का मूल िै । जो मैंने सकया वि ठीक सकया, यि व्र्थ का व्ामोि
िै । जो कतथव् का असभमान िै विी दु ुःख की सनशानी िै । शरीर को वृद्ध मत िोने दो, शरीर को आत्मा िे अलग मत
िोने दो, यि क्या अपनी शद्धक्त िे कर िकता िै ? कुछ कर पाता निीों केवल सवकल्प का कताथ िो रिा िै । मनुष्य तीतर
को लडाकर खुश िोता िै , कुत्ते, मनुष्योों को, पशुओों को लडाकर प्रिन्नता का अनुभव करता िै । इिमें सवकल्प करके
पाप के कताथ हुए और कुछ कर िके निीों । मेरा बाकी इिमें कोई िम्बन्ध निीों िै । यि िैतन्य सपण्ड मिामोि राजा के
आधीन िोकर दु ुःख उठा रिा िै । मैं शुद्ध िेतना मात्र हँ , जानन मात्र हँ , ज्ञानमात्र हँ , प्रसतभाि मात्र हँ । सजतना जाननपन
िै वि तो मैं हँ इिके असतररक्त जो भी सवकल्प िै वि मैं निीों हँ । यद्यसप सवकल्प भी उपासधवश आत्मा में िो रिे िैं तर्ासप
मेरे स्वभाव का सवस्तार न लेने िे वे िब तरि मैं निीों हँ । पररजानन मात्र िी वृसत्त रखी जावे तो सनसवथकल्प आत्मा का
अनुभव िो लेवे । दे ि का भान भी न रिे , ऐिी भावना में आत्मा को शाद्धन्त समलेगी । परपदार्ों को अपना मानने में कमथ
िी बोंधेंगे । अब आगे श्रीमत्‍कुोंदकुोंददे व यि किते िैं सक यसद कोई ऐिी िी िठ करे सक जीव का वर्णाथ सदक के िार्
तादात्म्य िै िी तो इि दु रसभसनवेश िोने पर क्या असनिापसत्त आती िै —
गाथा 62
जीवो चेव धह एदे सव्‍वे भाव धि मण्णसे जधद धह ।
जीवस्साजीवस्‍स य णच्छि धवसेसो दु दे कोई ।।६२।।
२२९. जीव का वणााधदक के साथ तादात्म्य मानने पर अधनष्टापधि—वर्णाथ सदक ये िमस्त भाव जीव के िी िैं अर्वा
जीव िी िैं , यसद ऐिा मानते िो तो तुम्हारे मत िे अब जीव और अजीव में कोई भेद निीों रि गया िमझो । पिले किीों
किा गया िै सक िोंिार अवसर्ा में कर्ों सित् तादात्म्यता िै उिका भाव िोंयोग अपेक्षा मात्र िै । वास्तव में िोंिार अवसर्ा
में भी जीव का वर्णाथ सद िे कभी तादात्म्य निीों िो िकता । यसद स्वरूप में वर्णाथ सदक िो जाये तो सफर उिका नाम जीव
रखने का प्रयोजन िी क्या रिा? पुद्गल िी न कि सदया जाये िीधा । िाों िाररक अवसर्ा में भी वर्णाथ सदक सभन्न िैं , तर्ा
मेरा आत्मा सभन्न िै । अपने स्वरूप पर दृसि गई तो परपदार्थ िे मोि िटे गा । ज्ञानी व मोिी में सकतना अोंतर िै ? सबल्‍ली
एवों सछपकली जैिे जीवोों को मारकर भी भगाना िािो तो वि कीडा को अपने मुोंि िे निीों छोडें गे । सिरर्ण जरा िी आिट
में घाि को छोड दे ता िै । ज्ञानी एवों मोिी दोनोों शरीर की िेवा करते िैं , पर सजिने अन्तर िमझ सलया वि ज्ञानी िै ।
वर्णाथ सदक तो गुर्ण िैं वि नई दशा उत्पन्न करते िैं पुरानी दशा सवलीन करते िैं । आसवभाथ व सतरोभाव पयाथ य िे हुआ
वर्णाथ सदक पुद्गल का अनुिरर्ण करते िैं । वर्णाथ सदक का तादात्म्य पु द्गल िे रिा । अगर किा जाये वर्णाथ सदक जीव का
अनुिरर्ण करते िैं तो जीव में और पुद्गल में कोई अन्तर निीों रिे गा । अन्तर निीों रिने पर जीव भी नि िो जायेगा तर्ा
जीव के नि िोने पर ज्ञायकपना भी निीों रिे गा । ज्ञायकता नि िोने पर ज्ञेय भी नि िो जायेगा, लो िवथनाश िो गया ।
२३०. ज्ञानी की धनुःस्पृहता का िल—अज्ञानी अपने को गृिसर्ी में फोंिा हुआ पाकर सनवृत्त िोने की कोसशश निीों
करता, पर ज्ञानी ितकथ रिता िै । मैं तो िेतना मात्र हँ , इि तरि का आभाि ज्ञानी को िोता रिता िै । बडे अफिर के
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नीिे कायथ करने वाला नौकर उिके पाि जाकर जी िजूरी करता िै , काम भी पू र्णथ करता िै । पर यसद वि हृदय िे
आफीिर का कायथ निीों करना िािता तर्ा उििे उिे घृर्णा िै तो वि कायथ भी करते हुए निीों करने के बराबर िै ।
“भरते श वैभव में भरत िक्रवती का वर्णथन ठाटबाट का भी िल रिा िै , िार् में वैराग्य का भी िल रिा िै । ९६ िजार
रासनयोों द्वारा भरत का बडा िन्मान सकया जा रिा िै , भरत भी रासनयोों को प्रिन्न करने में निीों िूकते , सकन्तु टीि कुछ
और िी वैराग्य की लगी िै ।” िवथ भोग्य िामग्री मौजूद िै पर वि उिमें िनते निीों, यि िबिे बडी उनके जीवन की
सवशेर्ता रिी । सवनाशीक वस्तु िे प्रेम क्या? रात के बाद सदन िै सदन के बाद रात िै सकन्तु सदन भर की र्कावट िे ऊबने
पर रात के आराम का ख्याल रिता िै सकन्तु सित्त में यि बिा िै सक रात के बाद सदन तो आना िै , वि आराम में क्या
आिक्त िोगा? सजिे रात में अनेकोों ख्याल िे दु :ख रिता िै और सदन में कायथव्ाि िे दु :ख भूला रिता िै िुख में लग
जाता िै उिे यि ख्याल िै सक सदन के बाद रात तो आनी िै वि िुख में क्या आिक्त िोगा? ज्ञानी जीव जानता िै िुख
दु ुःख दोनोों सवनाशीक िैं , वि उनमें क्या लगेगा? लगे तो वि लगन भी ताद्धि क सविारोों के द्वारा रफूिक्‍कर िो जाती िै
। िुख और दु ुःख दोनोों का जोडा िै । दु ुःख िी सनरन्तर बना रिे यि भी निीों िो िकता, िुख भी सनरन्तर निीों सटकता ।
यि िाों िाररक जीवोों का उदािरर्ण िै । परपदार्थ िे िुख मानने वाले िोंयोग में तीव्र बुद्धद्ध रखते िैं । लेसकन जब सवयोग
िोता िै तब उन्हें असत दु ुःख उठाना पडता िै । आगे पीछे का ध्यान रखकर जो कायथ सकया जाता िै उिमें दु ुःख असधक
निीों उठाना पडता ।
२३१. धहतभावना—जो लोग आत्मा को निीों मानते वे भी मरर्ण िमय में अपने बारे में कुछ तो िोिते िैं । िावाथक
जैिी बुद्धद्ध रि जाये तो दु :ख निीों िोना िासिए । मरते िमय यि बुद्धद्ध िावाथ क में भी आ जाती िै सक िाय अब मैं मरा,
दे ख लो उिे दु ुःख ििन निीों िो पा रिा । बच्‍िा कपडा िुखाते िमय किते िैं —ताल का पानी ताल में जइयो कुआों का
पानी कुआों में जइयो मेरा कपडा िूख जइयो । इिी तरि िावाथ क लोग किें सक पृथ्‍वी का शरीर पृथ्वी में जावे, वायु का
वायु में, पानी का पानी में, आकाश का आकाश में और अग्द्‍सन का अग्द्‍सन में, तो माने तो ििी मरते िमय तो उनके आत्मा
निीों िै और दु ुःखोों िे निीों छटपटावें । क्रोध आने के ५ समनट पू वथ िोि सलया जावे इििे मेरी िासन िोती िै तो वि कारर्ण
िी उपद्धसर्त न िोवे । व्विार की दृसि प्रबल िोने िे पर में आपा भूले िैं , सनश्‍िय दृसि िे कोई भी पदार्थ अपना निीों िै
तब वि सित क्या करे गा? वस्तु का सवश्‍लेर्र्ण करते िमय व्विारनय भी सवशेर् उपयोगी िोता िै , पर आत्म िाधक के
सलए सनश्‍ियनय िी कल्यार्णप्रद िोता िै । या ज्ञान के सलए सनश्‍ियनय सवज्ञान के सलए व्विारनय िै । सनश्‍ियनय की
दृसि रखने वाले एवों सनश्‍िय का कर्न करने वाले ने व्विार का आलम्बन न सकया िो तो ऐिा कोई िोवे तो बतावे ।
पिला अपना मागथ तो व्विार के द्वारा िुगम कर सलया और दू िरोों को सनश्‍िय का उपदे श दे ने लगे । मैं ज्ञानमात्र हँ ,
िैतन्य मात्र हँ । अगर बािरी सवकल्प छूट जाए तो शाद्धन्त समलेगी । अगर पररग्रि का पररर्णाम कर सलया तो सवकल्प उिी
के अनुिार के बनें गे । पररग्रि का प्रमार्ण करने वाला प्रभाव में निीों जावेगा । पररग्रि का सवकल्प छूट जाए तर्ा ज्ञान
बढाकर अपना िमय ज्ञानवाताथ में सबतावे बाकी िमय में यि उपाय करे सक खाली िमय का उपयोग अच्छे में िोना
िासिए । ररटायडथ िो जाने पर धन लाने की तृष्णा छोडकर आत्मकल्यार्ण के लाभ की लगन िोना िासिए । पढने िे
सनमथलता आती िै ।
२३२. िुच्छद्ध का उपयोग करने का अनुरोि—प्रािीन ऋसर्योों की बात िमझने में िमय व्तीत िोना िासिए ।
ज्ञानावरर्ण का क्षयोपशम तो प्राय: िभी भाइयोों में सवशे र्-सवशेर् िै । सजि बुद्धद्ध का उपयोग बडी-बडी कम्पसनयोों की
व्वसर्ा में िो लेता िै जैिे उत्तर रे लवे , दसक्षर्ण रे ल, पूवथ, एवों पश्‍सि म रे लवे तर्ा िेन्टरल रे लवे का सटसकट सकिी भी तरफ
िे खरीद लो तर्ा वि पैिा सजि सर्ान का िफर िोता िै विाँ पूर्णथतया पहुों ि जाता िै उिी तरि सजि क्षयोपशम में इतनी
बडी सवशेर्ता िै तब क्या वि सनज का कायथ निीों कर िकेगा? सवशुद्ध, िैतन्य मात्र जीव िै सकिी भी प्रकार जीव िाक्षात्
सदखते िैं , सफर उनका लोप करना किाँ तक उसित िै ? जैिे पानी में तेल सम लकर एकमेक रूप निीों िो िकता उिी
तरि िेतन िे पुद्गल निीों सम लता, पु द्गल में जीव निीों समलता । दे ि का स्‍त्री पु त्रासद िे कोई प्राकृसतक िम्बों ध निीों िै
केवल ऐकाद्धन्तक मोि िै । िम तुम्हारे निीों िै , तुम िमारे निीों यि स्पि ज्ञात िोते हुए िम उनमें व्‍यर्थ में मोि कर रिे िैं
। बडी मेज, कुिी आसद अपने -अपने पररर्णमन के द्वारा कि रिी िैं सक िम तुम्हारे निीों िैं । मोिी जीव अपनी ममता िे
िी किते िैं तुम िमारे िो । मरते िमय तक भी किते िैं िमारे िैं िमारे िैं । इतने पर भी पदार्थ किते िैं , िम तुम्हारे

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 62

निीों िैं । इि तरि दे ि को और जीव को एक सगना तो अनेक आपसत्तयाँ आ जावेंगी । मैं िेतना मात्र हँ इतनी बुद्धद्ध रख
लौसकक कायथ भी आ जावें तो मोि न करे । इनका िरल उपाय भेदसवज्ञान िै , यिी बीज का कायथ करे गा । भे दसवज्ञान
की भावना तब तक भानी िासिए जब तक स्वतन्‍त्र तौर िे स्व का अनुभव िोने लगे ।
२३३. गृहस्‍थ और मुधनयों में अन्‍तर— गृिसर् और मुसनयोों में क्या शास्‍त्र िै ? गृिसर् की धारा टू ट-टू ट जाती िै । मुसन
की धारा िमान प्रवासित रिती िै वि िटती निीों, कायथ दोनोों का िालू िै , सकन्तु उनका अन्तर सनम्‍न उदािरर्ण िे स्पि
िो जायेगा । मेल व मालगाडी दोनोों एक रास्ते िे जा रिी िैं , लेसकन जब मेल गाडी की िूिना २ या ४ स्टे शन पीछे भी
समल जाये तो मालगाडी को पडा रिना पडता िै तर्ा अगली स्टे शन जब पार कर जाये मेल, तब माल को अविर समलता
िै । इिी तरि का अन्तर अश्रेसर्णगत मुसन और गृिसर् के कमों की सनजथरा में व मोक्षमागथ में रिता िै । मुसन को िों िार के
भोग िे य िैं पर गृिसर् उन्हें रुसि िे भोगता िै । मुसन रूखे अलोने भोजन िे भी पेट के गड᳭ढे को भरकर िन्तुि रिता
िै सकन्तु गृिसर् नई-नई िामग्री भोजन में जुटाने पर भी िन्तुि निीों िो पाता तर्ा ज्ञानी गृिसर् िोंतुि रिता । मुसन के
तृष्णाग्द्‍सन शान्त िो जाती िै सकन्तु गृिसर् की खाई निीों भर पाती । मुसन की कायथव्स्त प्रर्णाली प्रसतपल सनजथरा का कारर्ण
िो िकती िै । विाँ गृिस्‍र् सनजथरा के सवर्य में अिेत जडवत् रिता िै , जब कभी उिके भी सनजथरा िो जाती िै । गृिसर्
एवों मुसन दोनोों के सलए बारि भावनायें िदै व सितकारी िैं । यि बारि भावनायें मुद्धक्तमागथ का सवसित्र पार्ेय िैं ।
२३४. शास्‍त्रधनरूधपत धहताथा सार ध्यातव्य—शास्‍त्रोों का िार जीव और पुद्गल को सभन्न िमझ लेने में िै । इनिे मैं
सभन्न हँ अत: इन सकन्हीों भी पर का मैं कुछ निीों करता केवल इनका सवर्य करके मैं सवपरीत असभप्राय बना िकता,
मोिी केवल पुद्गल पयाथ योों को दे खकर सवपरीत मसत बनाता िै । उिे अन्य की तो खबर िी निीों, जीव जुदा िै पुद्गल
जुदा िै यि ति का सनिोड िै । धमथ अधमथ काल द्रव्‍य भी िैं उन्हें दे खकर सवपरीत मसत बनाता िै यि क्योों निीों किा?
जीव का जो अध्यविाय िो रिा िै वि पुद᳭गल को सवर्य बनाकर िल रिा िै । धमथ द्रव् को सवर्य करके कौन क्या
िोिता िै , उिी तरि अधमथ, आकाश और काल को सवर्य बनाकर भी कौन पुद्गल के िमान रसत करता िै ? धन वैभव
को दे खकर एवों सवर्योों में बाधक जो पदार्थ िैं उन्हें दे खकर अच्छे बुरे पररर्णाम करें गे । जीव और पु द᳭गल के इि भेद
को जुदा-जुदा बताने वाले प्रर्म तो रूसपत्व और अरूसपत्व दो मुख्य कारर्ण िैं । पु द᳭गल में रूप रि गों ध वर्णथ िै अत:
दे ि एवों पुद्गल रूपी िै , जीव में यि निीों पाये जाते अत: जीव अरूपी िै । या यि जीव का अिाधारर्ण गुर्ण निीों िै । धमथ
अधमथ आकाश काल में भी रूपीपना निीों पाया जाता िै । इि तरि यि रूपीपना पुद᳭गल में िै जीव में निीों, धमाथ सद
द्रव् में निीों । अत: रूसपत्व अरूसपत्व के बल पर वस्तु त: भेदसवज्ञान निीों िोता िै तब सवशेर्ता वि दे खी जावे जो पूर्णथ
अन्वय-व्सतरे क िसित िो, वि िै िैतन्य भाव । जीव में िैतन्य िै , पुद्गल में िैतन्य निीों िै । यिाँ आत्मद्रव् की जानकारी
दो प्रकार िे की गई । एक सवसध द्वारा एक सनर्ेध द्वारा । जीव में िैतन्य िै सकन्तु रूसपत्‍व निीों िै । अन्य सवर्योों की तुलना
में सभन्न-सभन्न बताकर सवसध एवों सनर्ेध रूप िे आत्मा का लक्षर्ण किा जाता िै , इिी पर पूर्णथ ति की आधारसशला सटकी
िै याने सवसध सनर्ेध द्वारा वस्तु की व्वसर्ा िोती िै ।
२३५. जीव की वणाा धद से धवधवक्तता—वर्णथ रूप आसदक का तो पु द्गल के िार् तादात्म्य योों िै सक पुद᳭गल की
िािे सकतनी िी अवसर्ायें िैं , वर्णथ पुद्गल में बराबर िम्बोंध रखता िै । इििे यसद उनके िार् वर्णथ का तादात्म्य मान लो
तो ठीक िै , जो पुद᳭गल का लक्षर्ण िै रूपासदक के िार् जैिे तादात्म्य िै वि पुद᳭गल िै । यसद इिी प्रकार तादात्म्य
मान सलया जीव के िार्, तो जीव और पुद्गल में अब भेद क्या रिा? अर्ाथ त् जीव का अभाव िो गया । िब पुद᳭गल िैं
जो यि जानन दे खनिार िै यि जीव िै , इिमें भी वर्णथ का तादात्म्य मान सलया, यि भी पुद्गल िो गया और पुद्गल तो
पुद्गल र्ा िी । सर्ू लदृसि िे भी यि बात िमझ में आती िै सक जीव यसद वर्णाथ त्मक िोता, रूप, रि, गोंध, स्पशाथ सदक िे
तन्मय िोता, तो यि जानने का काम निीों कर िकता र्ा । जो मूतथ पदार्थ िोता िै , सजिमें रूप, रि, गोंध आसदक िोते िैं
वे कभी भी जानने का काम निीों कर िकते । जानने वाला द्रव् तो अमूतथ और केवल िैतन्यात्मक िोता िै । अपने
आपको जब तक सित्स्वरूप न स्वीकार करें गे तब तक आकुलतायें न टल िकेंगी ।
२३६. ज्ञानमात्र अधक चन आत्मतत्त् की चचाा —िै तो यि जीव असक िन, अपने स्वरूप के सिवाय इिमें और
कुछ निीों िै । लेसकन मोि में यि जीव अपने स्वरूप की तो दृसि िी निीों रख रिा, और िब कुछ इन बाह्य को िी
िवथस्वरूप मान रिा िै । सकतनी व्ाकुलता, कैिी बे िैनी िोंिारी जीवोों को लगी िै , ऐिी बडी व्ाकुलता क्या इि जीव

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 62

का काम र्ा? क्या इि जीव का स्वभाव र्ा? जीव तो िैतन्य स्वरूप िै । उिमें आकुलता का क्या काम िै ? लेसकन जो
िमर्थ िोता िै उिकी यसद बुद्धद्ध सबगड जाये तो खोटे कामोों को भी बडी लगन और असध कता के िार् कर िकता िै ।
यि िैतन्य आत्मा प्रभु िै , िमर्थ िै , इिकी बुद्धद्ध सबगड गयी, अर्ाथ त् स्वयों का क्या स्वरूप िै —इि पर दृसि न रिकर,
बाह्य पदार्ों में दृसि सबगड गयी, विाँ िला गया िै उपयोग तो इिकी बुद्धद्ध भ्रान्त िो गयी । जो बात जैिी निीों िै उिे वैिा
मान रिा िै । भला बतलावो यि जीव सकिी कुटु म्ब का स्वामी िै क्या? वे जीव अलग िैं , यि अलग िै ? उनका िि
उनका स्वरूप ितुिय उनमें िै , इिका इिमें िै । कुटु म्ब का यि सकिी प्रकार स्वामी तो निीों िै , लेसकन कल्पना में बिा
िै सक मैं असधकारी हँ , इि कुटम्ब का स्वामी हँ , ऐिी जो समथ्या श्रद्धा बन गयी िै उिके कारर्ण यि दु ुःखी िो रिा िै ।
भीतर िी कोई अपने उपयोग का पुरुर्ार्थ िलाये और यि अपना सनर्णथय बनाये सक मैं आत्मा तो उतना िी हँ सजतना सक
िै तन्यस्वभाव व्ाप रिा िै , मैं और कुछ निीों हँ ऐिी दृढ प्रतीसत करके यिाँ िी कोई रम जाये तो उिे सफर बाधायें क्या?
कुछ भी बाधा निीों िै । बडे -बडे िक्रवसतथयोों ने , तीर्ंकर जैिे मिापुरुर्ोों ने बहुत बडी सवभूसत पाने के बाद भी िार उिमें
कुछ निीों िमझा । प्रकट अिार उन्हें सद खा । तब उन िब सवभूसतयोों का पररत्याग करके अपने आपको असक िन
अनुभव करने में लग गए र्े और उिका प्रताप यि हुआ सक वे अनन्त ज्ञान, अनन्त दशथन, अनन्त शद्धक्त, अनन्त आनन्द
के स्वामी िो गये ।
२३७. प्रभु की मधहमा का कारण—िम प्रभु को पूजते क्योों िै ? उनमें िम इन दो मसिमाओों को दे ख रिे िैं इिी
कारर्ण पूजते िैं । पसिली मसिमा तो वीतरागता की िै । यसद प्रभु रागी द्वे र्ी िोते और कदासित् िमर्थ िोते तो उनके
िामथ्यथ की वजि िे िािे लोग िार् जोडने लगते सकन्तु हृदय कबूल न करता क्योोंसक िमझ में आ रिा सक इिके राग िै
। जै िे यिाँ पर कोई िमर्थ पुरुर् िै , राजा िै , लोग जानते िैं सक इिके राग िै , द्वे र् िै तो लोग प्रभु की तरि राजा का
आदर तो निीों करते , सकन्तु उनकी िाँ िजूरी में पहुों िते िैं , तो लोग िमर्थ िोने िे अपने आपके कायथ िे भले िी उनके
दाि िोों, सकन्तु राजा के प्रसत उनका आकर्थ र्ण निीों िै । आकर्थर्ण तो वीतरागता का िै । प्रभु की पसिली मसिमा तो
वीतरागता की िै और दू िरी मसिमा पररपू र्णथ ज्ञानप्रकाश की िै । प्रभु का ज्ञान पररपूर्णथ िै , दशथन शद्धक्त आनन्द िे पररपूर्णथ
िै । सजिे एक शब्द में किा गया—िवथज्ञता । तो प्रभु की ओर जो भक्तजन द्धखोंिे िले आ रिे िैं उनकी मसिमा इन दो
बातोों िे िै —वीतरागता और िवथज्ञता । िो अपने आत्मा में भी दे द्धखये तो राग िोना मुझ आत्मा का स्वरूप निीों िै , स्वभाव
निीों िै । मेरा तो एक िैतन्यस्वरूप िै । स्वच्छता के कारर्ण ज्ञेयपदार्थ उिमें प्रसतसबद्धम्ब त िो जायें यि इिका स्वरूप िै
। राग सवकार इि जीव के स्वरूप निीों िैं । तो मैं सवकाररसित स्वभाववाला हँ ना । िो सवकार, लेसकन मेरे स्वभाव में
स्वरूप में सवकार निीों िै । प्रभु असवकार प्रकट िो गए । तो मुझ में असवकार स्वभाव िै । इि असवकार स्वभाव के
आलम्बन के प्रताप िे मुझमें भी असवकारता पूर्णथतया प्रकट िो जायेगी । असवकार रिने में िी आनन्द िै । सवकार तो
अोंधेरा िै , सवडम्बना िै , इिी िे िी जीव की मसलनता िै और आकुलता िै । अपने सवकार रसित स्वच्छ ज्ञानस्वरूप का
आदर सकया जावे तो यि असवकार भाव प्रकट िोगा । तो प्रभु में ये दो मसिमायें िैं —सनसवथकार रिना और पररपूर्णथ सवकाि
वाला िोना । सनसवथकारता जिाँ िोती िै विाँ पररपूर्णथ सवकाि िो जाता िै ।
२३८. िमााथा करणीय यत्‍न—दे द्धखये भैया ! िमको कैिा यत्‍न करना िै ? मेरा पररपूर्णथ सवकाि िो, ऐिी दृसि रखकर
यत्‍न निीों करना िै सकन्तु मेरे में सनसवथकारता िो, ये सवकारभाव आवरर्ण आसद िब दू र िो जायें , ऐिा लक्ष्य रखकर यत्‍न
करना िै , िो ये सवकार िट जायें ऐिा भी िम उद्यम क्या कर िकेंगे? सवकाररसित जो सवशुद्ध िै तन्यस्वरूप िै उिका
आलम्बन लेना िै । िम आपके करने के सलए केवल एक िी काम पडा िै , जो मौसलक िै , ित्य िै । वि काम यिी पडा
सक मैं सवकाररसित सवशुद्ध िैतन्यस्वरूप को जानता रहों , और उिमें िी मैं हँ ऐिी प्रतीसत बनाये रहों , यिी एक काम पडा
िै । इि िी मिान कायथ को करने के सलये िम वतथ मान कमजोरी की अवसर्ा में, गृिसर्ावसर्ा में प्रभु पूजा, स्वाध्याय, गुरु
ित्सोंग, तपश्‍िरर्ण आसदक प्रयोग सकया करते िैं । उनका प्रयोजन एक मात्र इतना िै सक मैं सवकाररसित सवशुद्ध
िैतन्यस्वरूप को जानता रहँ । यि मैं हँ , तो एक इि उपाय िे सक सवकाररसित शुद्ध िैतन्यस्वरूप का उपयोग बनाये
रखना सवभाव और मसलनतायें दू र िोती िैं ; आत्मा में जो पररपूर्णथ सवकाि िोने को िै वि िो जाता िै । कायथ केवल एक
सकया जाना िै । जै िे व्‍यविार में श्रद्धा केवल एक प्रभु की ओर रखना िै , १० प्रकार के प्रभुओों की ओर निीों । िभी मत
वाले दृढता िे अपने एक प्रभु पर श्रद्धा रखना िािते िैं । जो अनेक प्रभुवोों को बुलाते िैं उनके काम सिद्ध निीों िोते ।

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 62

प्रभु का लक्षर्ण एक िी िै —जो वीतराग िो िवथज्ञ िो । दू िरे प्रकार के दे वोों की श्रद्धा न करना । जैिे यि व्विार की
बात िै तो अध्‍यात्‍मयोग की बात यि िै सक सवकाररसित सवशुद्ध ज्ञानस्‍वरूप की श्रद्धा करना । अन्‍य-अन्‍य रूपोों में अपनी
श्रद्धा न करना । किीों रिना पडे , कुछ द्धसर्सत आ जाये , िभी पररद्धसर्सतयोों में यि सनरखना िै सक मैं रागासदक सवकाररसित
शुद्ध िैतन्य स्वरूपमात्र ह —ऐिी प्रतीसत िोगी तो इि ओर उपयोग रखने का भाव िोगा िी । यिाँ उपयोग रमेगा तो
सवकाि भी िोगा और रागासद क दोर् भी टलते जायें गे । केवल एक िी कायथ करना िै , कर लें यसद तो िमझो सक
मनुष्यभव पाना, श्रेष्ठ कुल पाना, ित्सोंग पाना आसद ये िमस्त दु लथभ िमागम िफल िो जायें गे । एक इतनी िी बात न
कर पाये तो िािे सकतना िी कुछ पाया वि िब ढे ला पत्‍र्र िै । उििे आत्मा को समलना कुछ निीों िै । सवर्योों की ओर
आकाों क्षायें िोने िे जीवन बेकार और बरबाद िी िो जायेगा । इििे एक सनर्णथय बनायें सक मुझे जीवन में सवकाररसि त
शुद्ध िैतन्‍यस्‍वरूप के दशथ न करते रिना िै , इििे िम इन िोंकटोों िे दू र रि िकते िैं ।
२३९. जीव का वणाा धदक के साथ तादात्म्य के अभाव का कथन—काला पीला नीला लाल िफेदपना, खट्टा मीठा
कडवा िरपरा कर्ायला रि तर्ा िुगन्ध, दु गथन्ध और िल्का भारीपन आसद आत्मा में निी िै । पुद्गल में िी वर्णाथ सद क
का योग िै । व्ाविाररक दृसि बन्ध िसि त िोने के कारर्ण जीव को मूसतथक किा िै । कारर्ण सक जीव िोंिार में दे ि िे
सभन्न निीों हुआ । औदाररक वैसक्रसयक शरीर स्‍र्ू ल िैं , यसद यि छूट गया तो और अन्य शरीर समलने में २-३ िमय का
अन्तर िै तो विाँ भी तैजि कामाथ र्ण तो रिते िी िैं । मतलब यि िै सक वर्णाथ सदमान शरीरोों के िार् जीव िों िार अवसर्ा में
सन रन्तर रिता िै अतएव व्विार िे वर्णाथ सदमान जीव को कि सदया जाये तो वि एक दृसि िै । यसद जीव के िार्
वर्णाथ सदक तादात्‍म्‍य िामने का िी सकया जावे तो यि दोर् आता िी िै सक सफर जीव और अजीव में भेद िी निीों रिा ।
इिका कारर्ण यि िै सक वर्णाथ सदक भाव क्रम िे अपने सवकाि को प्रकट करने व सवलीन करने की पद्धसत को रखकर
पुद᳭गल द्रव् के िार् िी अपनी वतथना रखते िैं , अत: वर्णाथ सद सजिके िार् तादात्म्यरूप िैं वि पुद्गल द्रव् िै । इिी
पद्धसत िे तादात्म्यपना िोता िै । परन्तु तुम मानते िो सक जीव के िार् वर्णाथ सदक तादात्म्य िैं तो पु दगल का िी लक्षर्ण
जीव में गया । लो अब पुद्गल िे सभन्न कोई जीव िी निीों रिा । सजज्ञािु को जीव के वर्णाथ सद क के बारे में शोंका हुई ।
तब उिका िमाधान सकया । जिा किीों बताया भी िै जीव के वर्णाथ सद वि सवरोध तो निीों िै सकन्तु दृसि भेद िै । केवल
जीव का स्वरूप सनिारने पर वर्णाथ सदक निीों िैं तर्ा िोंिार अवसर्ा में दे ि और जीव का िम्बन्ध िोने पर दृसि दे ने िे
उपिार िे वर्णाथ सदक िैं । व्विार इि तरि िे बन िुका सक रूप, रि, गन्ध, वर्णथ जीव का िार् निीों छोडते । तै जि एवों
कामाथ र्ण एक िमय मात्र को जीव का िार् निीों छोडते । अन्य मतानुयायी भी िूक्ष्म शरीर को िदै व जीव का िार्ी मानते
िैं । तै जि, कामाथ र्ण के द्वारा शरीर का सनमाथ र्ण िोता िै । यि दो शरीर तो िदै व रिते िी िैं , तर्ा औदाररक या वैसक्रयक
शरीर भी कुछ िमय का अन्तर िोने पर समलते रिते िैं । िोंिारावसर्ा में िी ििी, सकन्तु यि तो सनश्‍िय कर लो सक यि
जीव के िी िैं । यि एक सजज्ञािु का प्रश्‍न िै । इिके उत्तर में आिायथ किते िैं :—
गाथा 63-64
जधद संसारिाणं जीवाणं तुज्झ होंधत वण्णादी ।
तम्हा संसारत्‍था जीवा रूधविमावण्णा ।।६३।।
एवं पुग्गलदव्‍वं जीवो तहलक्खणेण मू ढमदी ।
धणव्वाणमुवगदो धव य जीविं पुग्‍गलो पिो ।।६४।।
िे मूढमते ! यसद तु म्हारे आशय में िोंिारी जीवोों के वर्णाथ सदक िोते िैं तो िोंिारी जीव रूपीपने को प्राप्त िो गये ।
रूपीपन को प्राप्त तो पुद्गल द्रव् िै । अब रूपीपन को प्राप्त उि लक्षर्ण िे जीव भी रूपी िो गया । अब तो आगे यि
किना पडे गा सक सनवाथ र्ण को प्राप्त िोता हुआ भी पुद्गल िी जीवपने को प्राप्त िो गया । दे खो यसद िोंिारावसर्ा में जीव
के वर्णाथ सदक िैं िी — यि माना जाये तो यि दोर् आये गा सक िोंिारी जीव रूपी िी िो गये और जो रूपी िै वि पुद्गल िै
तो मुक्त िोने पर भी जीव के वर्णाथ सदक किना पडे गा । अर्वा योों मानना िोगा सक पुद्गल िी मोक्ष को प्राप्त िो गया ।
िोंयोग में िवथस्व मानने वालोों के सलये जीव के वर्णाथ सदक िैं । िािे वे यि भी मानें सक मुक्तावसर्ा में जीव के वर्णाथ सदक निीों
िैं तो भी िठपूवथक अर्वा स्वरूप में िोंयोग मानने िे जीव रूपी किलाने लगा तर्ा जो-जो रूपी िोता िै वि पुद्गल द्रव्
िै । पुद्गल का जीव के िार् तादात्म्य मानने पर जीव के मुक्त िोने पर पुद्गल िी मुक्त िो गया—यि सिद्ध हुआ । मोिी
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 63-64

जीवोों ने शरीर, धन, पुत्र, कलत्र, कुटु म्ब, मकान, जायदाद को अपनी मान ली िै । मोिी जीव के अगर यि बात पैदा िो
जाये सक शरीर भी अपना निीों, मैंने व्र्थ में शरीर को आत्मा मान सलया िै । शरीर को अपना मानने िे रूपी मानते िी
र्े । कुछ ज्ञान िोने पर इि जीव को यि िमझ में आया सक िोंिारावसर्ा में िी जीव रूपी र्ा । जीव का स्वभाव रूप,
रि, गोंध एवों वर्णथ िे रसित िै । यि उिका रों िमात्र भी निीों िै । जीव में प्रधान ति सित्स्वरूप आत्मा िै ।
२४१. जैनशासन की धववेकी जगत को दे न—सिों िा, झूठ, िोरी, कुशील और पररग्रि का त्याग अन्य धमों में किा
िै , तर्ा जैन धमथ में भी किा िै तब इिमें ऐिी क्या सवशे र्ता जो जैन धमथ को प्रार्णपर्ण िे पालन करें तर्ा अन्य धमों िे
मन को िटा लेवें । अब अगर ऐिी बात िै सक अन्य कोई सवशेर्ता निीों तो सजिका जिाँ मन िािे गा उिे पालन करे गा ।
अन्य मनुष्य किने में भी निीों िूकते , वे तो िब धमों को िमान किते िैं , उन्हें परीक्षा करने की आवश्यकता निीों, सफर
भी भोले प्रार्णी तो िरल मागथ पर शीघ्र िल पडते िैं । कसठनाइयोों िे बिने वाला जीव िरलता िे जीवनयापन करने में
खुश िोकर िुख मानता िै । वि िोिता िै बन्धन सजतने िटे उतना अच्छा, पर विाँ इन िबकी मूल में िी भूल िै । ऐिे
भोले जीव धमथ के स्वरूप को निीों िमझे । यर्ार्थ में वस्तु स्वरूप को यर्ार्थ जानना धमथ िै । जैन धमथ में वस्तु का स्वरूप
यर्ार्थ दशाथ या िै यिी सवशे र्ता िै । तो सजतने ति िैं वि िब ित् िैं । प्रत्येक द्रव् स्वतुःसिद्ध िै और स्वयों ित् िै तर्ा
प्रत्येक द्रव् असवभाज्य िै । पिले कुछ निीों र्ा और नया द्रव् किीों िे पै दा िो जाये यि बात निीों िै , यि पूर्णथतया भूल
िे भरा रास्ता िै । अगर ईश्‍वर ने जगत को बनाया तो उिके बनाने के पिले क्या र्ा? कोई किे गा आकाश र्ा, वि भी
सकिने बनाया? वि किते िैं — ईश्‍वर ने इच्छा मात्र िे बनाया िै , ईश्‍वर ने िी अपने उपादान िे सवकसित िोकर जगत
का सनमाथ र्ण सकया या अन्य पदार्थ का उपादान बनकर जगत का सनमाथ र्ण सकया, तब तो िम्पूर्णथ जगत ईश्‍वरमय िो गया
। सफर िेतन अिेतन िभी वस्तुयें ईश्‍वर के स्वरूप के अनुरूप िोना िासिये । यसद इनका उपादान ईश्‍वर निीों तो सजन
तिोों िे िृसि की वे ति पसिले िे िी र्े , उनका सवशेर् रूप बना सदया िोगा । अगर ऐिा किोगे तो प्रत्येक वस्तु का
स्वतुःसिद्ध िोना असनवायथ िो गया, जबसक प्रत्येक द्रव् अलग-अलग िै , िब द्रव् स्वतुःसिद्ध िैं , पयाथ य को िी जो द्रव्
मानते िैं तब उिका पलटना निीों िोना िासिए र्ा, सकन्तु प्रत्येक द्रव् क्षर्ण-क्षर्ण में पररर्णमन कर रिे िैं । कोई द्रव्
सकिी अन्य को सनसमत्त पाकर भी पररर्णामी िो जाये तो वि भी स्वतुःसिद्ध हुआ । आत्मा स्वतुःसिद्ध िै , स्वत:पररर्णामी िै
उिमें अन्य की ििायता की जरूरत निीों िै । अतएव बनना, सबगडना और बना रिना तीनोों बातें सिद्ध िोती िैं ।
२४२. आत्मा की धचद्रू पता का प्रत्यय—आप िम िब एक-एक पदार्थ िैं , बनते , सबगडते और बने रिते िैं । मनुष्य
बन गये , पशु सबगड गये, आत्मा विी बनी िै । जो बनता िै वि पयाथ य बनती िै तर्ा पूवथ की पयाथ य सबगडती िै , जीव विी
रिता िै । आत्मा में वर्णाथ सदक का तादात्म्य निीों िोता िै । जीव िदै व अजर अमर िै । कमथ मूतथ िैं और आत्मा अमूतथ िै
। आत्मा को छोडकर कमथ अलग रिते निीों िैं । सकन्तु इि दृसि को छोड आत्मा को ति की दृसि िे दे खना िासिए ।
दोनोों का सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध िै । एक िमय को भी आत्मा रूपी निीों बनता िै । भूल िे भी मान बैठो तो स्वभाव
का किना िै , यि मैं कभी भी अन्य रूप निीों िोता । खे ल तो दे खो, स्वभाव तो अन्य रूप बनता निीों सकन्तु मोिी जीव
अपने को रूपी मानता रिता िै । यि तो वैिा िै जैिा िभी ज्ञानी जान िकें । जैिे पुरुर् कैिा िै , क्या वि सकिी का बाप
िै ? क्या वि सकिी का पु त्र िै ? वि तो जैिा िै वैिे िभी जानेंगे । एक सर्ान पर अने क दे श के आदमी इकट्ठे सकये जायें
वे जैिा इिे दे खें िो ििी, िब एक-िा दे खेंगे । और एक दू िरे का ररश्ता जानने या नाम जानने को कोई भी कुछ निीों
बता िकेगा जब तक उिको दू िरे व्द्धक्त के द्वारा पररिय न समल जावे । बात यि िै सक अन्य बात तो कद्धल्पत िै ।
नाटक में सकिी मध्य को राजा बना सदया जाये तो वि अपने को वैिा िी अनुभव करने लगती िै । जैन धमथ में स्याद्वाद
का वर्णथन िै विी वस्तु स्वरूप िै और विी अनेकान्त का सनदे शक िै । जीव उत्पाद, व्य, ध्रौव् युक्त िोकर िोंिार में
रिता हुआ स्वभाव में अन्तर निीों आता िै । माों अपने बच्‍िे को पीटती भी िै सकन्तु क्या उिके प्यार करने के स्वभाव में
अन्तर आता िै ? निीों, िद् गुर्णोों को लाने के सलये माँ बच्‍िे को तासडत करती िै । वैिे िी आत्मा अनेक पयाथ योों में भटककर
तर्ा अनेक रूप धारर्ण कर भी सनज स्वभाव निीों छोडता । स्वभाव िमारा िदा िे रक्षा करता आया िै , वि कभी भी
अन्यरूप निीों हुआ िमने पयाथ य िे िािे कुछ भी ऊधम सकया । यि मोिी परवस्तु रूप भी अपने को मान बैठा र्ा, वि
परवस्तु रूप िोंिारावसर्ा में भी निीों िै । पुद्गल को छोड अन्य द्रव्‍योों में न पाया जाये वि तो रूसपत्व िै । जो-जो रूपी िै
वि जानता निीों । आत्मा िदा जानता िै । वि िोंिारावसर्ा में स्व-सितैर्ी िै । िावाथ क अर्ाथ त् िुन्दर लगने वाला विन

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 63-64

सजिका िै या सजिकी वाताथ मन को मोसित कर लेवे उिके सिद्धान्त पर िलने को असधक मात्रा में तै यार िो जावे तर्ा
जब तक जीओ तब तक अन्याय करके भी मौज करो, क्योोंसक यिाँ आत्‍मा का अभाव मान सलया िै । तब तो उन्हें परलोक
िे कोई प्रयोजन निीों रिा सक जब िावाथ क भी मरते िैं तो वि पाँ ि तिोों िे यि निीों किते सक पृथ्वी पृ थ्वी में िमावे , वायु
वायु में, अग्द्‍सन अग्द्‍सन में, जल जल में िमावे । यि िब न िोकर प्रार्णोों को बिाने के लाले पडते िैं । िब इद्धियोों को
िोंयसमत करके जो-जो अनुभव में आता िै वि परमात्मा का ति िै । स्वानुभव ज्ञान और िाररत्र दोनोों के द्वारा वि िाध्य
िै । स्वानुभव का उपाय चाररत्र है । इि िाररत्र के द्वारा अन्तरङ्ग की बात िाध्य िै ।
२४३. दे ही को जीव मानने का ईषत् प्रयोजन—वर्णाथ सदक जीव में निीों िैं , कल्पना िे मान सलया िै । कल्पना िे कुछ
भी मान लो—एक लाख रुपये की िवेली बनवाकर किते िैं यि मेरी िै । िफाई करने वाला भोंगी भी उिे अपनी किता
िै । यर्ार्थ में दोनोों की निीों । कल्पना िे तीन लोक के राज्य को भी अपना किो वि अपना निीों, अपनी वि वस्तु िै जो
िदै व अपने पाि रिे । कल्पना की र्कान िोने पर गद्दे तसकये भी आराम निीों दे ते । ज्ञान का आराम पाने पर कोंकड-
पत्थर पर िोकर भी आराम समलेगा । यि वाताथ िल रिी िै सक जीव के वर्णाथ सदक निी िैं । मुक्तावसर्ा में भी निीों िैं ।
िोंिारावसर्ा में भी वर्णाथ सदक निीों िैं । वर्णाथ सदक तो पुदगल में पाये जाते िैं । क्योोंसक वि रूप रि गोंध वर्णथ िे िसित िोता
िै । प्रश्‍न िोता िै एक इद्धिय, दो इद्धिय, तीन इद्धिय, िार इद्धिय और पोंिेद्धिय तो जीव िैं तर्ा यि पयाथ प्त व अपयाथ प्‍त
भी िोते िैं । िोंिारी दो तरि के िोते िैं — (१) त्रि, (२) सर्ावर । यि जीव िै । मुख्य प्रश्‍न िै , प्रकरर्ण िल रिा िै अध्यात्म
का, िूँसक जीव तो एक िेतना मात्र िै । सजि स्वरूप जीव िै वि शुद्ध िै , शरीर िे रसित िै । शरीर उिका िार्ी निीों तो
उिको मारो काटो छे दो उिका अपराध क्या? इि पर उत्तर दे ते िैं — यि निीों किना िासिए, कारर्ण जब तक जीव
िोंिारावसर्ा में रिता िै तब तक शरीर सनयम िे िोगा, मुक्त िोने पर निीों रिे गा । व्विार िे ये िब एकेद्धियासदक जीव
िैं । इनके सवरोध, सवरोध की प्रवृसत्त िोने पर अपराध िोता िी िै । यिाँ शुद्ध स्वरूप का वर्णथन िै इिसलये ऐिा किा गया
िै सक सनश्‍ियनय िे िेतना मात्र जीव िै । मारना काटना छे दना की ििाथ उठने िे जीव की द्रव् सिों िा िोगी, जो मिान
अनर्थ िोने पर घोर पापबोंध अर्ाथ त् दु गथसत का कारर्ण िोगा ।
२४४. इच्छियरचना—भैया! एकेद्धियासदक तो जानते िी िोोंगे िब । एक त्यागी र्े जो शास्‍त्र िभा में प्रश्‍न कर रिे र्े
सक जानते िो एक इद्धिय िे लेकर पोंिेद्धिय जीव तक कौन-कौन िोते िैं ? प्राय: कई जगि शास्‍त्र िुनते जायेंगे और किें गे
धन्य िैं मिाराज स्वीकृसतरूप सिर सिलाते जायेंगे, कोई किे िमझ में आया सक निीों तो िाँ के असतररक्त अन्य उत्तर निीों
दें गे । त्‍यागीजी ने पूछा पोंि इद्धिय जीव सकिे किते िैं तो उत्तर समला िार्ी को क्‍योोंसक उिके िार पैर िोते िैं और पाों िवी
िूँड िोती िै । तर्ा िार इद्धिय? घोडे को क्योोंसक उिके िार पैर िोते िैं । िूोंड नदारद िै । तीन इद्धिय जीव? (सतपाई)
के सलए जो दाों य का अनाज उडाते िमय काम में आती या गाय भैि लगाते िमय काम आती िै । दो इद्धिय जीव िम
िैं । क्योों ? िम और िमारी स्‍त्री दोनोों िै लडके बच्‍िे निीों िैं , अत: दो इद्धिय िैं तर्ा एक इद्धिय जीव सकिे किते िैं ?
उत्तर समला मिाराज जी एक-इद्धिय जीव आप िैं क्योोंसक आप अकेले िी िैं । इि तरि कुछ श्रोता इिी धुन के िोते िैं ।
खोजने पर यिाँ विाँ समल जायेंगे । ििी तरीके िे एक इद्धिय जीव आसद इि तरि िैं —एकेद्धिय जीव; सजिके केवल
स्पशथन इद्धिय िो । जैिे पृथ्वी, जल, अग्द्‍सन, वायु, वनस्पसत (वृक्ष आसद) । दो इद्धिय सजिके स्पशथन और रिना ये दो
इद्धियाँ िोों । जैिे लट, केिुआ, कौडी, शोंख । तीन इद्धिय सजिके घ्रार्ण व पू वथ की दो इद्धियाँ िोों । जैिे सिोंऊटी, िीोंटा,
सबच्छू, सतरूला । िार इद्धियाँ सजिके पिले तीन इद्धिय के िार् िक्षु और िो जैिे भ्रमर, बरथ , मक्खी । पाँ ि इद्धिय पूवथ
की िार इद्धियोों के असतररक्त कर्णथ भी िो । जैिे मनुष्य, गाय, भैंि, बकरी, िपथ , आसद । इनकी बनावट क्रम िे िै । शरीर
में या िभी जगि स्पशथन इद्धिय, रिना उिके बाद तर्ा उिके ऊपर घ्रार्ण, बाद में िक्षु तर्ा उिके पश्‍िात् कर्णथ की
रिना िै । इन इद्धिय वालोों के सवर्य में सशष्य की शों का र्ी ना उि पर किा जा रिा िै । कमथ सिद्धान्त की प्रकृसतयोों में,
एकेद्धिय प्रकृसत, दो इद्धिय प्रकृसत, तीन इद्धिय प्रकृसत, िार इद्धिय प्रकृसत पयाथ प्त प्रकृसत और अपयाथ प्‍त प्रकृसतया यि
िब पौद᳭गसलक जड िे उत्‍पन्‍न हुई िैं सफर इन्‍िें जीव क्‍योों किते िो ? शरीर िै िो जीव निीों िै , अन्‍य पदार्थ क्‍या जीव
िैं ? जीव िैतन्‍यशद्धक्त मात्र िै ।
२४५. अनेक अनुभूधतयों धचत्‍स्‍वरूप की झलक—जब सवपसत्त आ पडे तो अपने को बिाओ अपना कायथ बनाओ
यि भी िै िैतन्य शद्धक्त की एक झलक, वस्तुत: मसलन जीव अपना सवर्य कर्ाय का िी भाव बना पाते अन्‍य को क्या

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 63-64

करें ? काम, क्रोध, लोभ सवकार सजिका प्रबल िो वि जीव क्या अन्य को मारे गा, पीटे गा? कर्ाय पैदा हुई और उिमें बि
गया इतना िी सकये, कोई उपाय िे सवर्य कर्ाय कम निीों िोती । बातूनी भेद सवज्ञान िे भी निीों घटती । सवर्य कर्ाय
ति के सनर्णथय िे पलायमान िोते िैं । िोरोों ने पशु िुरा सलये , िबेरा िोने पर पशु भाग गये , िोर वैिे िी रि जाते िैं । उि
तरि सवर्य कर्ायोों ने ति को िुरा सलया िै । िोर सकिी घर में घुिा और उि घर में अगर कोई बुसढया हुई तो उिके
खाँ िने िे जैिे िोर भाग जाते िैं , उिी तरि ति ज्ञान िे िजग रिने वाले मनुष्य के पाि िे सवर्य कर्ाय रूपी िोर
आिट पाते िी रफूिक्‍कर िो जाते िैं । िोरोों को प्रार्ण बिाने के सलए दरवाजा खोजना जरूरी िो जाता िै , उिी प्रकार
सवर्य कर्ायोों के सवकारोों के परमार्णु ओों को अपना सर्ान अन्यत्र खोजने की आपसत्त आती िै । अग्द्‍सन िार् पर रखने िे
अपना िी िार् जलता िै उिी तरि क्रोध िे अपना िवां ग नुक्सान िोता िै । मान करने वाले का अपमान िी िोता िै तर्ा
घमोंडी माना जाने िे अन्य मनुष्य व्विार तक भी निीों रखते । लोभी की दशा तो सकिी िे सछपी िी निीों, जो सक अपने
धन का स्वयों न भोग कर िकता िै और न दान दे िकता िै तर्ा दू िरे िी उि पर ऐश करते िैं एवों लोक में कोंजू ि, लोभी
आसद उपनामोों िे पु कारा जाता िै । मरते िमय सवर्योों के छोडने का दु :ख िोता िै । नेतासगरी, इज्‍जत, कीसतथ आसद यिीों
रिी जा रिी िै , स्‍त्री पुत्र आसद कोई िार् निीों दे पा रिा, इिका दु ुःख मात्र पल्‍ले पडकर रि जाता िै । स्वतन्‍त्रता का बोध
िो जाये तो िोिे यिाँ िे मरने के पश्‍िात् अन्य सर्ान पर अपना अनुभव करू ँ गा, पर-पदार्थ तो मेरे िैं निीों उन्हें अपना
मान कर मैं क्योों दु द्धखत िोऊों? जो अपने को मरने का अनुभव न करे िो अमर, वृ द्धावसर्ा का अनुभव न करो िो अजर
। जो अपने को मनुष्य अनु भव करे िो मनुष्य और मनुष्य अनुभव न करके सनजस्वरूप भावना करे िो शुद्ध िै तन्यमात्र
परमात्म ति िै ।
२४६. आिररक टटोल—यिाँ मुख्य बात यि िल रिी िै सक एकेद्धिय िे लेकर पोंिेद्धिय तक एवों पयाथ प्त प्रकृसत
तर्ा अपयाथ प्त प्रकृसत िे और जड िे जो रिा गया उिे िैतन्य कैिे किते िो? द्वनद्व अर्ाथ त् दो िे जकडा गया ऐिे द्वनद्व में
पडे हुओों के सलये आिायथ की परम करुर्णा हुई िै , अगर एक िी रिते तो िुखी रिते । दो का िी नाम िोंयोग िै तर्ा जिाँ
िोंयोग िै विाँ दु ुःख िै । जो भी आकुलता में िै उिे िमझना िासिए यि परपदार्थ ग्रस्त िै या उिे अपना िमझ सलया िै
। आिद्धक्त हुई तब इि में पड गये न दे खने में आय िै अकेले स्‍त्री िोने पर वि कभी-कभी िुख िे जीवन व्तीत करती
िै सकन्तु जब सकिी बालक को गोद ले लेती िै तो िारी जायदाद तक बबाथ द िो जाती िै और रोटी तक को तरिना पडता
िै । इि द्वनद्व में जो पडा िै वि द्वनद्व में िै और इिमें जो निीों िै वि द्वनद्व में निीों िै । अन्यत्र भी कल्पना सकतनी ऊोंिी िै?
रावर्ण को जीतने के सलए रामििजी जब गये तो िार् में वानरोों की िेना ले गये । उन्होोंने िमुद्र को लाँ घ सलया र्ा उििे
रिस्य सनकालो । बानरोों ने िमुद्र लाों घा िी र्ा सकन्तु यि तो निीों जाना र्ा सक इिकी ति में सकतने -सकतने श्रेष्ठ रत्‍न िैं ।
इिी तरि िम शास्‍त्रोों को पढ सलख गये पर यसद यि निीों िमझते सक इनमें सकतना तिरूपी रत्‍न भरा िै तो िम शास्‍त्रोों
को लाों घ मात्र गये, अिली रिस्य उन्हीों में भरा रिा । ति जानने वाले को सनन्दा एवों प्रसतकूलता िे घबडािट निीों िोती
। उन रत्‍नोों को अन्तश्‍िाररत्र िे टटोलें ।
२४७. संसारावसथा में जीव को वणाा धदमय मानने की शंका व समािान—शोंकाकार के असभप्राय िे यि बात
किी गयी र्ी सक जीव िोंिार अवसर्ा में तो वर्णाथ सदमय िो जायेगा, मुक्त अवसर्ा में वर्णाथ सदमय न रिे गा । यिाों जीव के
सवशुद्ध स्वरूप का वर्णथन करते िमय एक िी जीव स्वीकार सकया गया र्ा सजिका िवथस्व िार िैतन्यशद्धक्त िे व्ाप्त िै
अर्ाथ त् सित्स्वरूप मात्र । अनासद अनन्त ििज िैतन्यभाव इिको जीव किा िै । इिके असतररक्त जो भी परभाव िैं ,
परपदार्थ िैं वे िब अजीव िैं । िैतन्यभाव िे असतररक्त जो रागासदक भाव िैं वे भी अजीव िैं , अर्ाथ त् जीव निीों िैं । तब
जीव में वर्णाथ सदक तो क्या िम्भव िोोंगे? इि पर शोंकाकार ने यि िम्मसत दी सक जीव के वर्णाथ सदक िोंिार अवसर्ा में तो
मान लो मुक्त अवसर्ा में मत मानो । उिके उत्तर में कि रिे िैं सक यसद िोंिार अवसर्ा में रिने वाले जीवोों के तुम्हारे
असभप्राय िे वर्णाथ सदक मान सलये जायें तो इिका अर्थ कम िे कम इतना तो िो िी जायेगा सक िोंिारी जीव रूपी िोते िैं
। जब िोंिारी अवसर्ा में जीव का वर्णाथ सद के िार् तादात्म्य िम्बन्ध मान सलया तो िों िारी जीव तो रूपी बन गए और जो-
जो रूपी िोते िैं वे किलाते िैं पुद्गल । तो तुम्हारे लक्षर्ण के अनुिार ये जीव पुद्गल द्रव् किलाते िैं । िोंिार में तो रिा
पुद्गल और पु द्गल का मोक्ष िो गया िो बन गया जीव । कुछ ऐिी बात बन पडे गी । तब सफर पु द्गल का सनवाथ र्ण हुआ
और वि जीव बन गया तो अर्थ क्या सनकला सक अब यि पुद्गल जीवत्व को प्राप्त िो गया । जो-जो कुछ रूपी माने गए

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िैं वे पुदगल िी िैं । तो िोंिार अवसर्ा में जीव रूपी मान सलया जाये तो िोंिार में यि पुद्गल िै और सफर पु द्गल को
मोक्ष हुआ । िार् िी सजिका द्रव् िे तादात्म्य िम्बोंध िोता वि तो द्रव् िे कभी छूटता िी निीों । तो मोक्ष क्या हुआ?
जीव नामक कोई पदार्थ िी निीों रिा । तो जीव का मोक्ष िी क्या? इििे मानना िासिये सक वर्णाथ सदक भाव जीव के निीों
िैं । यद्यसप इि िोंिार अवसर्ा में सकतनी सवकट सवडम्बना िो रिी िै , शरीर में सवकट बोंधे िै तभी तो शरीर िे सनराला
ज्ञानमात्र स्वरूप उपयोग में रिे , सभन्न सनराला सदखे और शरीर िे इिका कोई प्रसतबोंध न रिे , यि िब िो किाँ पा रिा
इि िमय? शरीर का ऐिा सवकट बन्धन िै सक शरीर के िार् यि जीव िले, जीव के िार् शरीर िले । इतने सवकट बन्धन
में भी जीव में वर्णाथ सदक निीों लग िकते । यि िब सनसमत्त-नैसमसत्तक भावोों िे बन्धन पड गया, सफर भी जीव में पुद्गल
का गुर्ण निीों बिा ।
२४८. चैतन्यस्वरूप आत्मप्रतीधत करने की धशक्षा—इि प्रकरर्ण िे िमें क्या सशक्षा समलती सक िम अपने को
अिसलत िैतन्यस्वरूप मानें । इिके िठी बनें , इिके आग्रिी बनें । िािे सकतनी िी सवकट पररद्धसर्सत िो, मैं तो
िैतन्यस्वरूपमात्र हँ । आकुलताओों का सनमाथ र्ण कब िोता िै जब िम िैतन्यस्वरूप मात्र अपनी दृसि िे सि ग जाते िैं ।
हँ मैं असक िन । मेरे में मैं िी हँ , मेरे िे असतररक्त मेरे में अन्य कुछ निीों िै , पर इि असक िनता को छोडकर जब िम
दृसि में कुछ बनते िैं , बडी पोजीशन वाले, नाम वाले, जब िम बनते िैं बि विाँ िे क्‍लेश शुरू िो जाता िै । आद्धखर जब
भी सनवाथ र्ण िोगा, जब भी परम शाद्धन्त प्राप्त िोगी तो इि िी उपाय िे िोगी । पर को पर जानकर, सनज को स्व िमझकर
पर िे िटें और अपने में उपयुक्त िोवें । यिी उपाय जब भी बन पाये गा तो िमारा सनवाथ र्ण सनकट िोगा । तब इिी दृसि िे
िलें ना अपने में । एक दृढ सनर्णथय और िोंकल्प के िार् िलें तो िमें शाद्धन्त प्राप्त िोगी । शाद्धन्त का उपाय सकिी परपदार्थ
का िोंिय निीों िो िकता । प्रर्म तो परपदार्ों के िोंिय की बुद्धद्ध में अज्ञानता बिी िै और अज्ञानता िे िी क्‍लेश िोता िै
। सफर दू िरी बात यि िै सक परिोंिय इच्छानुकूल िोता कब िै ? ऐिा पुण्य सकिी में भी निीों बताया गया सक सजि काल
में इच्छा िो उिी काल में भोगोपभोग योग्य वस्तु की प्राद्धप्त िो । क्योोंसक यसद भोग उपभोग िै तो उिकी इच्छा क्या?
इच्छा सकिी बात की तब िी िोती िै जब वि वस्तु न िो । हुये की इच्छा क्या? तब इच्छा का स्वरूप िी यि कि रिा सक
ऐिा पुण्यवान जगत में कोई निीों िै सजिकी इच्छा की तुरन्त पूसतथ िो जाये । बडे -बडे िक्रवती पु ण्यवान तीर्ंकर जैिे
मिापुरुर्ोों के भी सजि काल में इच्‍छा िै उिी क्षर्ण में उिकी पूसतथ निीों िै । अगर इच्‍छा के सवर्यभूत पदार्थ उपलि िोों
तो तत्‍िोंबोंधी इच्‍छा बन निीों िकती । एक तो यि सिद्धान्‍त के अनुिार बात किी जा रिी िै और सफर इच्‍छा के बाद
सकतना िी िमय गुजर जाता तब उिकी पूसतथ िोती िै । तो दु :ख मात्र इच्‍छा िै । इच्‍छा का सवनाश कैिे िो ? इिका
उपाय सनकाला—िीजोों को छोडकर भागना, त्‍यागना, यद्यसप यि भी एक ििायक िै । इच्‍छा का नोकमथ न रिे तो इच्‍छा
के बनने में सदक्‍कत आती िै । क्‍योोंसक इच्‍छा के दू र करने का यि मौसलक उपाय निीों िै । मौसलक उपाय क्‍या िै ? यि
सवसदत िो जाये सक इच्‍छा तो मेरे स्‍वरूप में िै िी निीों । यि तो सवकार िै , औपासधक िै । इच्‍छा बनेगी पर इच्‍छा मेरे
स्‍वभाव में निीों िै । मैं तो अपने स्‍वरूप मात्र हों , अपने आपका िोना, िोते रिना इतना िी मात्र हों , इच्‍छारूप निीों हों ।
केवल एक िेतना िैतन्‍यप्रसतभाि इतना िी मात्र मैं हों । असवकार िैतन्‍यस्‍वभाव की प्रतीसत िोने पर और इिको िी
अपनाने पर जीव को इच्‍छा दू र करने का मागथ समलता िे । भीतर में उपयोगी की श्रद्धा में यि बात जब िी बैठ जायेगी
सक मैं तो सवकाररसित, इच्‍छारसित एक िैतन्‍य प्रसतभािमात्र हों , तो इिको न यि इच्‍छा िोगी सक लोग मुझे कुछ िमझें,
न इि जगत में बडा बनने की इच्‍छा िोगी सक लोग मुझे कुछ बडा जान जायें । इिका तो यि भाव रिे गा सक जैिा यि
मैं ििज हों वैिा िी मैं अपने उपयोग में रिा करू ों इिके असतररक्‍त उिके मौसलक कोई िाि निीों िै । योों तो ज्ञानी पुरुर्
भी जब तक शरीर में रि रिा िै , गृिस्‍र्ी में बि रिा िै , भूख प्‍याि की बाधाओों में िल रिा िै तब तक वि कुछ इिकी
ओर भी उपयोग दे गा लेसकन श्रद्धा में यिी बात िमायी रिती िै सक मैं सवकाररसित, क्षुधा आसदक दोर्ोों िे रसित, शरीर
िे रसित केवल िैतन्‍यमात्र हों ।
२४९. धनज की प्रतीधत का िल—सनज की प्रतीसत में इतना मिान बल पडा िै , उि ज्ञानी में ऐिा िािि िै सक मैं
अनासद िे रुलता िला आया तो क्‍या भव-भव में बोंधे हुए कमथ मेरे िार् लगे िैं ? जो ये िारे के िारे िोंकट एक ज्ञानमात्र
दशथन िे अनुभव िे कट जाते िैं । सनलेपता का स्‍वभाव ज्ञानी में आ जाता िै । जैिे स्‍वर्णथ कीि में भी पडा िो तो िुवर्णथ
का स्‍वभाव कीिड को अोंगेजता निीों िै अर्ाथ त् स्‍वर्णथ में जोंग निीों िढती और लोिे में कीिड को अोंगेजने का स्‍वभाव पडा

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िै । जरा िी शीतल िवा लगे, कुछ कारर्णकलाप जुटे सक जोंग लग जाती िै । तो अज्ञानी जीव में तो पर को अपनाने की
प्रकृसत पडी िै और ज्ञानी जीव में पर िे दू र िटे रिने का स्‍वभाव आ गया िै । उिे तो यि लोक अपररसित सवसदत िोता
िै । वे िी मनुष्‍य, वे िी समत्र, वे िी कुटु म्‍बी सजनमें ये जन्‍म िे रि-पि रिे र्े तब तो बडा पररिय मान रिे र्े , उिी पुरुर्
को जब तिज्ञान का उदय िोता िै तो उिे ये िब अपररसित िे लगने लगते िैं । किाों िै मेरा कोई, कौन जीव मेरा िै ?
क्‍या कर िकेगा कोई मेरा ? वस्‍तु स्वरूप जब िमझ में आया सक यि अभेद्य िै , सकिी वस्तु का गुर्ण दू िरे में निीों पहुों िता,
सकिी की पररर्णसत दू िरे में निीों पहुों िती, तब सफर क्या िै ? यि मैं कृतार्थ हँ । मुझे पर के करने में क्या रखा िै ? पर में
कुछ सकया िी निीों जा िकता । वैिे तो अनासदकाल िे लेकर अब तक भी मैंने पर में कुछ निीों सकया, सवकल्प मिाता
रिा, पर को करने का सवकल्प तो करता रिा, पर सकिी भी अन्य वस्तु को मैं कर निीों कर िका । कैिे कर लें?
वस्तु स्वरूप तो अनासद िे ज्योों का त्योों िबमें व्वद्धसर्त िै । तो जब भी ज्ञान का उदय िोता िै और इि ज्ञान के प्रयोग में ,
उपयोग में सवशुद्ध आनन्द का अनुभव करता िै तब उिे आत्मा िी सप्रय िो जाता िै , अनात्म-ति में प्रेम निीों जाता । तब
इच्छा कैिे िो! इच्छा न हुई तो बाधायें िब दू र िो गईों । तो ऐिे जीव का स्वरूप सजि ज्ञानी को अनुभूत हुआ िै उिका
यि सनर्णथय िै सक रागासदक अध्यविान भी मेरे निीों िैं , तब वर्णाथ सदक सजनका सक उपादान पुद्गल िैं वे मेरे कैिे िो िकते
िैं ?
२५०. मोह में इच्छिय अधनच्छिय के दु रुपयोग की प्रकृधत—कुछ भार्ासवद्वान लोग मानते िैं यि सवश्‍व प्रकृसत िे रिा
गया िै । प्रकृसत िे अिों कार, अिों कार िे गर्ण, गर्ण िे इद्धियाँ , इद्धियोों िे प िभूत । उनका प्रयोजन क्या िै सक यि
बताना सक दृश्यमान यि जीव निीों िै । पढ सलखकर असधक ज्ञान बढावें , िमझने के िार् मनन करें । अज्ञानी पढ सलख
कर भी दु ुःख ििकर भी उन्हीों में सफर िे पड जाता िै । स्‍त्री मर गई तो दू िरी शादी कर ली, सफर भी दोनो के रिने पर
कुछ िमय बाद दो में िे एक कोई पिले मरर्ण को प्राप्त िोगा, उनमें िे सकिी एक को पिले रोना पडे गा । िोंयोग
िमागम का फल रोना िी िै । ऐिे में अपना सित निीों िोिते तो सफर क्या सकया जायेगा (अन्तरङ्ग पीडा के िार् ििेत
करते हुए), शब्द बोलते तो वाक्य बना, वाक्योों के द्वारा एक दू िरे की भार्ा आपि में िमझने लगे । इि जीभ िे ित्य
विन बोल लेने या अित्य विनोों का प्रयोग कर लेवे । जीभ तो एक िी िै । िार्ोों िे दान दे लेवे, सजनेिदे व की अिथना
कर लेवे या इन्हीों िार्ोों िे दू िरे को बाों ध लेवे । नाक तो व्र्थ की वस्तु प्रतीत िोती िै । सकतनोों की तो नाक पर िी झगडा
िल जाते तर्ा जड मूल तक िे उिे िटाने को कोई मनुष्य तैयार िो जाते िैं । नाक के द्वारा िुगन्‍ध दु गथन्‍ध के सवकल्प
जाल में फोंिकर कुछ कायथ करने िे कतथव् सवमुख िो जाता िै । आ ख िे सिनेमा, स्‍त्री पु त्र दे ख िकता िै या सशमला
गया तो वायिराय की कोठी दे ख ली । और िािे तो मद्धन्दर जावे विाँ सजनसबम्ब आसद के दशथन कर ले । कानोों के द्वारा
या तो फडकते हुए गाने िुन िकता िै या तिवाताथ िुन िकता िै । सजिके दे खने िुनने , िखने , किने , स्वाद लेने या,
दे ने लेने में मोि राग द्वे र् िै उिे कुछ भी अच्छा प्रतीत हुआ यि िब उन् इद्धियोों का दु रुपयोग करना िै । दे व शास्‍त्र, गुरु
की िेवा करने, ति िमझमें में इन्हीों इद्धियोों को िोंलग्दन ्‍ सकया जाये तो िदु पयोग करना कि िकते िैं । और ताद्धत्वक
बात तो यि िै सक िवोत्तम तो इद्धियोों िे अतीत िै तन्यमात्र की दृसि िै ।
२५१. सुन्दरता की पोल—सजन्हें कोई िुन्दर किता िै वे िब क्या िैं ? िो िुन्दर शब्द स्वयों िी बता दे ता िै । िुन्दर
शब्द में िु+उन्द+अर=िु प्रत्यय िै , उन्दी क्‍लेदने धातु िै जो भले प्रकार िे तडफा-तडफा कर दु ुःख पहुों िावे यि िुन्दर
शब्द का अर्थ हुआ । इि िमागम समलने पर किता िै , बडी िुन्दर घडी िै , मेज िै , मकान िै अर्ाथ त् उन पदार्ों के द्वारा
खू ब तडफो । पदार्थ को इि असनि माने िुख दु ुःख िोता । यि सवकार स्वभाव का सवस्तार निीों िै । अपना जो िैतन्य िै
उिका अनुभव सकया जाये । िोगा विाँ स्वभाव सवस्तार सनरुपद्रव ति को सनश्‍सि न्त िोकर अन्तरङ्ग में सर्ान सदया
जावे , जब तक सित्त में सवकार व सवकल्प बहुलता निीों िोती तब तक तो िाता व िौम्यता रिती और जब कोई
सवर्यसवकृत कल्पना जागी सक िाता व िौम्यता सवदा माों ग लेती, सकिी िभा में अगर फलानेिन्द को िभापसत बनाने
का प्रस्ताव सकया जाये तो वि उि पद पर आिीन िोकर अनुशािन करने के सलए अकड कर बैठेंगे या असत नम्रता
सदखावेंगे, यि अन्तर अपने को िभापसत मानने िे आ । बच्‍िा छोटा िोने पर बडा िोता िै , शादी िोती िै , बाल बच्‍िोों
वाला िोता िै । यौवन में धनासद कमाने में दत्तसित्त रिता िै । एक व्द्धक्त शादी के पू वथ खेलते मा िे माों गकर खाते र्े ,
मा िे उसि त सवनय करते एवों सन भीक िो बात करते र्े सकन्‍तु शादी िोने पर लडकी वाली माँ के दामाद बन गये ,

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 63-64

तब खाते िमय निीों-निीों करें गे भोज्य िामग्री लेने में, ढों ग िे बैठेंगे, िीसमत बात करें गे । यि पररवतथन किाों िे आ गया,
पूवथ के रों ग ढों ग क्योों तबदील िो गये , यि िब सवकल्पोों का खेल िै । यि बात मन में आ गई मैं दामाद ह वे अपने को
कुछ िे कुछ अनुभव करने लगते िैं । लेसकन परपदार्थ के िुधार करने का मैं क्या िकदार हँ अपना स्‍व का सित सकया
जाये तो िोंिारिमुद्र िे सनकलने का मागथ समले । अन्यर्ा अनासदकाल िे भटकता हुआ मोक्षमागथ को भूल रिा िै । कसव
की पोंद्धक्त क्या िी रोिक िै । “भ्रमते अनासद काल, भू लो सशव गैलवा”—क्रोध, मान, माया, लोभ आसद सवकार में फोंि
कर मैं अपनी सनज स्वरूप की िोंपसत्त क्योों गमाऊों? अगर यि सविार पूर्णथ रीसत िे बैठ जाये तो कौन जीव अपने को
सवर्योों में फोंिाना अच्छा मानेगा?
प्रकरर्ण यि िल रिा िै , इद्धियाों जो िै उनका सनमाथ र्ण जीव िे निीों िै सकन्तु वे पुद्गल िे सनसमथत िैं । एकेद्धिय िे
पों िेद्धि य पयथन्त शरीर रिना अपने िी आधीन िै । िपथ कुोंडली बनाये जोंगल में पडा िै , विी िलने के सलए िीधा िो
जाता िै । तो यिाँ कताथ कमथ करर्ण विी िपथ हुआ । सनश्‍िय िे कमथ और करर्ण एक िोते िैं । िपथ की कुोंडली िपथ के
द्वारा िी बनी । पुद्गल िे जो बनेगा वि पुद्गल और जड िी रिे गा । सजिके द्वारा जो वस्तु बनेगी वि उिी रूप रिे गी ।
िुवर्णथ के द्वारा बने गिने िुवर्णथ िी रिें गे, उनमें िाों दी की कल्पना निीों की जा िकती । इिी तरि जीवसर्ान िैं ।
गाथा 65-66
एक्‍कं च दोच्छण्ण धतच्छण्ण य चिारर य पंच इं धदया जीवा ।
िादर पज्‍जधिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।।६५।।
एदे धहं य धणव्विा जीवट्ठाणा उ करणभूदाधहं ।
पयडीधहं पुग्‍गल मईधहं ताधह कहं भण्णदे जीवो ।।६६।।
२५२. पुद्गलप्रकृधत से हुई रचनाओं की पु द्गलमयता —िौदि के िौदि जीविमाि की भी सवसभन्न नाम कमथ की
प्रकृसतयाँ िैं — बादरनाम कमथ, िूक्ष्मनामकमथ, पयाथ द्धप्त नामकमथ, जासतनामकमथ । इनके द्वारा पुद्गल की रिना िोती िै ,
इनके द्वारा बना पुद्गल िी िै । दू िरा कमों का कायथ शरीर िै । इि पर यि जीव इतना मुग्ध िो रिा िै । पुरार्णोों तक में
उनके रूप रों ग, िावभाव आसद को लेकर शरीर का भी सकतना सवसित्र वर्णथन जगि-जगि पर सकया गया िै ? यर्ार्थ में
शरीर मैं निीों हँ । यि जड िै । शरीर िे पिीना आता िै , बदबू िे युक्त रिता िै तब भी इिे अनेक सवलेपनोों िे िजाया
जाता िै । क्या आत्मा में भी पिीना आता िै ? जीव में तो यि वस्तु निीों िै । अर्वा भैया! शरीर को क्या अपसवत्र किें ,
अपसवत्र तो ििमुि रागासद भाव िैं । जीव में राग द्वे र् मोि की अपसवत्रता निीों िोती तो औदाररक, वै सक्रसयक शरीर की
वगथर्णायें बडी अच्छी र्ी, राग द्वे र् िे युक्त जीव बना तो ग्रिर्ण की हुई वगथर्णायें शरीररूप बन गई, शरीर आसद तो कालकृत
िैं । माँ ि, िड् डी, िबी एवों शरीर की धातुएों क्या अपसवत्र िैं ? पुद्गल में इि असनि की कल्पना करके पसवत्र अपसवत्र मान
सलया िै । इिमें िब राग द्वे र् का नाता िै । इिने िी िब मसलयामेट कर सदया िै सति पर भी मोि निीों छोडा जाता ।
२५३. मोह संतप्त का भी मोह छोड़ने में अनुत्साह—एक वृद्ध पुरुर् र्ा, उिके नाती पोते बहुत िे र्े । वि िब
बुड᳭ढे को कोई मुकका ्‍ मारता, कोई मूोंछ पटाता, कोई मलमूत्र भी ऊपर कर दे ता, अपशब्द किते आसद । यि कृत्य
प्रसतसदन िालू र्ा । विाँ िे एक िाधु सनकला उिने ठिरकर वृद्ध िे किा क्योों रोते िो? वृद्ध बोला बच्‍िे मारते पीटते,
गाली बकते िैं । िाधु ने किा, यि दु :ख तो अभी िाल समट जायेगा । वृद्ध बडा खुश िोकर किने लगा इििे और असधक
क्या िासिए “िूर माँ गे दो आखें ।” तब िाधुजी ने किा इन िबको छोडकर िमारे िार् िल दो । इि पर वृद्ध उत्तर
दे ता—िाधुजी िमारे वि पोते िैं िम उनके बाबा िैं , मारते जरूर िैं दु ुःख िोता िै सकन्तु िम उनके मुँि िे बाबा किना
िुनकर खुश भी तो िोते िैं । वि िमारे पोते तो निीों समट जावेंगे । दू िरा उपाय बताओ । जीव को सकतनी आपसत्त लगी
िै ? जो पदार्थ राग-द्वे र् का कारर्ण बनता िै उिी के प्रसत यि अज्ञ प्रार्णी आकसर्थत िोता िै । धन इतना िो गया, इतना
और िासिए इि तरि के सवकल्पजाल िदै व बुनता रिता िै । इन परपदार्ों िे न सनजी सित िधता िै और न बात बनती
िै । सफर भी उिी कीिड में सलप्त िोना िािता िै । भगवान मिावीर स्वामी की स्तुसत करते िमय मिावीरािक में किा
िै :—“महामोहातङ᳭क-प्रशमनपराकच्छि कधभषग् । धनरापेक्षो िन्धुधवाधदतमधहमा मंगलकर: । शरण्य:
सािूनां , भवभय-भृतामुिमगुणो । महावीर-स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ।।” जो मिामोिरूपी आतोंक को नि
करने में आकद्धस्मक वैद्य िैं , भगवान् मिावीर स्वामी एक आकद्धस्मक वैद्य िैं , सनरपेक्ष बन्धु िैं , भवभयधारी िाधुवोों को
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 65-66

एक शरण्‍य िैं ऐिे मिावीर स्वामी नेत्रपर्गामी रिो । यिाँ प्रभु में मोि उजाडने की सवशेर्ता पसिले किी, वे र्े
बालब्रह्मिारी याने कुमार-वै रागी ।
२५४. कमा धवपाक का धवचय—कदासित ज्ञान भी िो जाये तो भी मोि की बात कि जाता िै । कोई मौसलक असवरक्त
मरते िमय किता िै , तुम िमारे कुल की लाज रखना । राग द्वे र् रूपी मोि झट िे सपण्ड निीों छु डाता, अपने आपको
अनुभव भी करते िैं सफर भी किते लाज रखना । परपदार्थ को दु ुःख का कारर्ण जानने पर तर्ा अपनी ित्ता स्वतन्‍त्र
अनुभव करने पर भी पर की पररर्णसत िे अपना दु ुःख पररर्णमन बनाते िैं । पिले के भ्रम िे सफर भी भ्रम को प्राप्‍त िोते
िैं । िाधु िोकर उपशम श्रे र्णी िढकर वीतराग बनकर भी ११वें गुर्णस्‍र्ान में पहुों िकर भी अधथ-पु द᳭गल परावतथन काल
तक समथ्यादृसि रिता िै । किाँ ११वें गुर्णसर्ानवती और किा अपन इन दोनोों की अिावधानी में अन्तर दे खो—वे िमिे
बहुत उच्‍ि िैं सफर भी िम और आप सकतने पयाथ योों िे ऊोंिे उठे हुए िैं । यिाँ कोई यि न िोिे सक िम तो धनी िैं , ज्ञानी
िै , व्रती िैं , िमें अपराध करने पर भी कुछ िहसलयत समल जावेगी । यिाँ धनवानोों को दों ड समलने में कुछ िहसलयत समल
जाती िै । सकन्तु क्या वि असधक पापमय प्रवृसत्त भी करते रिें और उन्हें कम बन्ध िोगा ? यि निीों िो िकता ।
सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध अनासदकालीन िै , इिकी बात िब पर एकिी गुजरती, असधक अपराध करने वाला भी लोक
में तो वि अपराधी माना जाने िे दोर्ी सिद्ध िो िुका । व्विार में लोक दों ड कुछ िोता रिे ।
२५५. करनी का फल—एक जोंगल में फकीर रिता र्ा । विाँ एक िेठ का लडका िोने िीरा आसद के आभूर्र्ण
पिने पहुों ि गया । उि फकीर िाधु की सनयत सबगड गई तो उिने लडके के िब गिने उतार सलए और गला घोोंटने लगा
। तब बच्‍िा बोला—िाधु जी इतना अन्याय मत करो । िाधु ने किा—यिाँ कौन दे खता िै ? तब लडके ने किा, ये बुलबुले
जो उठ रिे िैं पानी के वे तेरे पाप की बात को कि दें गे । िाधु िों िने लगा तर्ा उिकी जीवन की लीला िमाप्त कर दी
। बडे आदमी का लडका िोने िे खोजबीन की गई । किीों पता निीों िला । तब एक खुसफया पुसलि गुप्तिर सिपािी
िाधु के पाि भद्धक्त दशाथ ता हुआ रिने लगा । बडा सवश्‍वाि जमा सलया । १ वर्थ बाद पानी सगर रिा र्ा । पानी में बुलबुले
उठ रिे र्े । उन्हें दे खकर िाधु को िों िी आ गई तब गुप्तिर ने पू छा—आपको िों िी सकि कारर्ण िे आ गई िै ? िाधु ने
िोिा यि एक वर्थ िे िेवा कर रिा िै बडा भक्त िै अत: किने में क्या नुक्सान िै ? िाधु ने लडके को मारने का िवथ
वृतान्‍त कि िुनाया । गुप्तिर ने िूिना पुसलि में दे दी और िाधु पकडा गया । कोई िोिे प्रच्‍छन्‍न पाप िै कौन दे खता िै
? कौन क्या किे गा, यि िोिना सनरर्थक िै । क्योोंसक िवथप्रर्म तो, अपने पापोों को अपनी आत्मा िी दे खती िै । जो जैिा
कमथ करे गा उिे फल सनयम िे भोगना पडे गा । प्राय:कर प्रत्‍येक गाों व में अपररसित मनु ष्य आदमी किने लगते—यि
फलाना गाों व िै यिाँ फूोंक-फूोंक कर पाँ व रखना । मानोों यि कि कर डराते िैं । यि िोंिार िै इिमें सववेकपूर्णथ कायथ
करना । जैिी करनी की िै उिके अनुिार पररर्णसत बनेगी । आत्मा को सवकल्प का कारर्ण सनरर्थक में बनाया िै ।
बाह्यपदार्थ का िोंग करना अशाों सत का कारर्ण िै । यि तो िोंिार जुवाररयोों का सनवाि िै , पुण्य में िर्थ व पाप में दु ुःख की
जीत-िार िै । जुआ खेलने िे कोई जुआरी िटना िािे तो दू िरे िार् के जुआरी िटने निीों दे ते, किें गे ऐिे खु दगजथ िो
जीत कर िले । कोई िार जाये तो किें गे बि इतना िी दम िै िो खेलने में सफर जु टा दें गे । विाँ िे िारने व जीतने वाले
दोनोों निीों आ पाते जब तक िब तरि िे बबाथ द निीों िो जाते । प्रत्येक जीव जु वारी िै । पुण्य में जीतना मानता िै , पाप में
िारना मानता िै । पुण्‍य के फल में िर्थ और पाप के फल में सवर्ाद करता िै । िुख दु ुःख मानने वाला यि जीव िी िै ।
सकिी को मालूम िो जाये सक यिाँ िे सनकल भागना िासिए सफर भी अन्य िार्ी रोक लेते िैं और यि अपने सित िे वोंसित
रिता िै । िीोंटी िढते -िढते छत िे सगर गई तो िढना सनरर्थक रिा । धमथ करते -करते अन्त मरर्ण िमय में सबगड गये
तब िब प्रयाि प्रयोजनभूत निीों िो पायेगा ।
२५६. कषाय के शमन में िमा वृधि का जागरण—गुरुवयथ श्रीमद् गर्णेशप्रिादजी वर्णी कर्ा िुनाया करते र्े । दो
भाई र्े । उनमें छोटा भाई पूजन करे तर्ा बडा दु कान िोंभाले । छोटा भाई बडे भाई िे किता—तु म न पूजन करो, न
अन्य धासमथक कायथ । तब बडे भाई ने उत्तर सदया—मेरे भी तो कुछ अच्छे पररर्णाम िोोंगे तभी तो तुम्हें पूजन करने की
अनुमसत दी िै । छोटे भैया के मरने का िमय आया तो बडे भैया िे बोला ये नन्हें मुन्‍ने तुम्हारी गोद में िैं तब बडे भाई ने
किा— अरे बेवकूफ ! यिी धमथ सकया और बोला इि धन में िे सजतना दान धमथ करना िािे कर ले और िािे िारा धन
बच्‍िोों को सलख दे मैं तो एक कुटी में िी रि जाऊोंगा । इि पर छोटे भाई ने िोिा—घने दान के सवकल्प में क्योों पडूों ?

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 65-66

मेरा तो ििमुि आत्मा िी मात्र िै । उिने ज्ञान िोंभाला और बडे भाई िे िमासधमरर्ण के द्वारा मनुष्य जन्म िफल सकया
। मोि के शमन में यिी बात रिती िै । जो ज्ञानी िै उनकी िब क्षर्णोों धमथ में वृसत्त िी रिे गी । इन जड पदार्ों की रसत में
पाों डवोों कौरवोों को क्या समला? राम, रावर्ण के बारे में आज यि भी निीों मालूम सक कौन-िी लोंका र्ी, कौन-िा दों डक
वन आसद । संयुक्तानां धवयोगश्‍च भधवता धह धवयोगत: । धकमन्यैरंगतोप्यंगी धनुःसंगो धह धनवताते ।। सवयोग िोने
वाले के िोंयोग का सनश्‍िय निीों िै । िोंयोग का सवयोग सनयम िे िोता िै । सवयोग दु :ख का कारर्ण िै । िोंयोग में जो िुख
मानते उिी में दु ुःख िै । ८ कमों का िोंयोग िो गया क्या समला? भोगभूसम में पुरुर् स्‍त्री एक िार् पैदा िोते और आयु
पयथ न्त भोग-भोग कर मरते िैं । सकन्‍तु उन्‍िें तीिरा स्वगथ भी निीों समलता । दू िरे स्वगथ िे आगे भोगभूसमयाँ के जीव निीों
जा िकते । जिाँ सवयोग िै , क्‍लेश िै , उि भूसम के मनु ष्य भी दु ुःख पाते , भूख प्याि यि िब दे ि के िोंयोग िे िोते िैं ।
अगर यि कमथ आत्मा िे छूट जावें तो िुख िी िुख िै । िुख दु ुःख और आनन्द तीन परर र्णसतयाँ हुआ करती िैं । िुख
का अर्थ िै इद्धियोों को िु माने िुिावना लगे तर्ा दु ुःख का अर्थ िै यिाँ ख माने इद्धियोों को दु : याने बुरा, अिु िावना लगे
। ये दोनोों सवकार िैं , आकुलतारूप िैं । परन्तु आनन्द अनाकुलतारूप िै । इिका अर्थ िै आ िमन्तात् ननन्द: आनन्द:
। जो िब ओर िे िमृद्ध बना । वि आनन्द िै । मेरा आनन्‍द मेरी आत्‍मा में िै । वीतराग प्रभु की शरर्ण समल रिी यि बडा
अच्‍छा िौभाग्द्‍य िै पर इिकी रफ्तार बनाना िै । भेद सवज्ञान को बढा कर, रुसिपूवथक िाव िे एवों उत्तम वृसत्त िे धमथ करो

२५७. आत्मा का परमाथा और व्यवहारस्वरूप—पयाथ प्त, अपयाथ प्त बादर िू क्ष्म पुद्गल की पयाथ यें िैं । यि शास्‍त्रोों
में किा िै । सफर भी वि भी शास्‍त्र िै , यि भी शास्‍त्र िै । यिाँ सनरपेक्ष दृसि िे दे खो वस्तुस्वरूप में यिाँ विाँ की बात न
समलाकर ििी लक्षर्ण किो । एक का उपिार अन्य में न करके वास्तसवक बात बताओ । जीव आनन्दघन िै , आनन्द का
पु ज िै , अपनी शद्धक्तयोों में तन्मय बादर िूक्ष्मासद दे ि िैं , इनमें जीव की िोंज्ञा का किना उपिार िै । जीव की बात जीव
में िै । पु द्गल और जीव का सनसमत्त-नैसमसत्तक भाव िम्बन्ध िै । एक अच्छे कुल का लडका अच्छे आिार सविार िे रिता
हुआ कभी कोई खोटी िोंगसत में आ गया, तर्ा उिके बारे में अनेक ििाथ यें िलें तब भी उिके सनजीबन्धु किते िैं , इिमें
उिका दोर् निीों िै सकन्तु अमुक व्द्धक्त की आदतें इिमें आ गई िैं । इिमें न राग िै और न द्वे र्, िोंगसत िे जीव में यि
सवकार आ गया िै । मैं सकतना शद्धक्तशाली हँ , अलौसकक ज्ञान का पुोंज हँ , सिद्ध िमान हँ । जैिे सिद्ध का द्रव् िै , वैिा
मेरा भी द्रव् िै । सजन उपायोों के द्वारा वि सिद्ध बने उन्हीों िे मैं भी बन िकता हँ । पररर्णसतयाों सनमथल बनाऊों तो क्योों
निीों उि उत्‍कृष्‍ट पद को पा िकता हों ? मैं वि हँ जैिा प्रभु िैं । जो िम्यग्दशथन-ज्ञान-िाररत्र के पर् में िलेगा वि मुद्धक्त
के पर् में क्योों निीों पहुों िेगा? जरूर पहुों िेगा । समथ्यादशथन-ज्ञान-िाररत्र के फन्दे में पडकर िोंिार में रुकना िी पडे गा ।
शुद्ध स्वभाव की दृसि करके मोक्षपर् में िलना िी पडे गा । एक सर्ान पर सलखा िै , तुम्हारे िामने एक खल का टु कडा
रखा िै तर्ा एक रत्‍न रखा िै तुम इनमें जो माँ गो वि समल जायेगा । अगर वि खल का टु कडा िी माों गने लगे तो उिे क्‍या
किा जाये? विी रत्‍न पाने िे वोंसित रिे गा । एक ओर मोि राग द्वे र् िै और एक ओर मोक्षमागथ िै । आजादी िी िै तू सजिे
िािे गा वि समल जायेगा । यसद विाँ कोई राग-द्वे र् सवर्य कर्ाय लौसकक िुख िी माों गने लगे तो क्या सकया जाये ? विी
मोक्षमागथ माने शाद्धन्तपर् िे वसि त रिे गा ।
२५८. जीव में भाव का ही कतृात्‍व—भैया! पर की तो िाि िी िाि बनाई जाती िै । पर का कोई कुछ करता र्ोडे िी
िै । इिका कारर्ण यि िै सक प्रत्येक पदार्थ िब अन्य द्रव्ोों िे जुदा िै । जीव सिवाय अपने मतलब के करता क्या िै ।
कोई धमथकायथ भी करता िै , मोंसदर बनवाता िै , प्रसतष्ठा कराता िै आसद तो केवल अपना पर् या अन्य कुछ आगे िािता
िै , इिमें केवल उिने अपना भाव सकया । सवर्य कर्ाय के िाधन जुटाये तो अपना भाव सकया । बच्‍िे जब खेल खेलते
िमय पोंगत करते िैं तब पत्ते तोड लेते िैं । और बडे पत्ते को पातल बनाकर परोि लेते िैं तर्ा छोटे पत्तोों की पूडी व
पत्थर ईोंट के टु कडोों में लड् डू बफी आसद की कल्पना कर परोिते िैं तर्ा गरीबोों के बच्‍िे उन्हीों में रोटी की कल्पना करते
तर्ा गुड के टु कडे की कल्पना करके परोिते िैं । यर्ार्थ में सजिको जो भाव समलता आ रिा िै वि उिी रूप अन्य
पदार्ों को िमझता िै । यिी दशा िम िोंिारी प्रासर्णयोों की िो रिी िै , अनासद काल िे िोंिार में रिने िे उिकी बात िी
सप्रय लगती िै , उिी की ओर जल्दी दृसि दौड जाती िै । गरीब का लडका क्योों निीों बसढया िे बसढया लड् डू पुडी की
कल्पना कर लेता िै ? िोंस्कारबद्ध मूल िो िुके, जब उिे स्वासदि पदार्थ का रि समलने लगेगा तब वि उिी रूप बताथ व

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करने लगेगा । लोक में दे खा जाता िै —गरीब लडका पढकर ऊोंिे पद पर आिीन िोने िे पैिा वाला िोकर एवों िभ्‍य
तर्ा धनाढ् य िमाज में रिकर उन्हीों जैिा खाने पीने कपडे पिनने आसद में बताथ व करने लगता िै । प्रत्येक जगि िम
भाव िी तो करते िैं तब वि कायथरूप में पररर्णमते िैं । मान लो एक शत्रु िै , उिने बहुत अन्याय सकया तर्ा मारने पीटने
की धमकी दी । िम उि शत्रु का बदले में बुरा भला न किकर तर्ा न बदले की भावना रखकर प्रेमपूवथक बताथ व करें
और किें मैंने आपका किू र सकया र्ा इिीसलए आपको अपने पररर्णाम सबगाडना पडे , अब मेरे प्रसत िाम्य भाव रखें,
इि सप्रय विन िे उिे भी िन्तोर् िोगा तर्ा अपने सलए भी िर्थ रिे गा तर्ा परस्पर प्रेम बढे गा । मनुष्य की पििान बोली
िे िोती िै । मुख तो एक धनुर् िै । धनुर् िे जैिे बार्ण घाला जाता िै उिी तरि मुखरूपी धनुर् को फैलाकर विनरूपी
बार्ण सनकाला जाता िै । बार्ण िलने पर उििे कोई िार् जोडकर किे तुम लौट आओ, भूल िे दू िरे पर छोड सदया तो
यि िब किना सनरर्थक जायेगा । इिी तरि विन मुख िे सनकलने पर कोई किे िमारी बात िमें वासपि कर दो । तो
सजिको अपशब्द किा जाता िै वि किता िै “पिले तो जूता मार सलए । सफर किते माफी दे दो ।” बडे पन की किौटी
विन िी िै । सजििे खुद िुखी रिते तर्ा अन्य भी िुखी रिते िैं ।
२५९. कटु वचन के प्रयोग से अनथा —एक िमय लकडिारा लकडी बीनकर जों गल सवश्राम कर रिा र्ा । इतने में
एक शेर सजिके पैर में काों टा लगा र्ा आया, लकडिारा डरा सकन्तु शेर ने किा डरो मत और आकर पैर उिके िामने
रख सदया । लकडिारे ने ितुराई िे काों टा सनकाल सदया । इििे शेर बडा प्रिन्न हुआ और किने लगा, लकडी िमारी
पीठ पर रख दो । इि तरि लकडिारा सिर पर २०-२५ िेर लकडी लाता, २-२।। मन तक शेर के पीठ पर लाने लगा
सजििे वि खूब धनवान िो गया । एक सदन सकिी ने पू छा—आप इतने जल्दी धनवान कैिे िो गये ? लकडिारा बोला
एक नालायक गीदड (स्याल) उल्‍लू िार् लग गया, उि पर लकडी लाता हँ । सिोंि यि बात िुनकर अनमना िो गया ।
अब सफर िे उिने तीन मन लकडी इकट्ठी कर ली र्ी । सिोंि इि सदन भी विाँ आया और बोला—जो कुल्हाडी आप
अपने िार् में सलए िो वि मेरे सिर पर मार दो, निीों तो मैं तुम्हें मार दू ँ गा । अब तो लकडिारे ने अपने प्रार्ण िोंकट में
पडते दे ख कुल्हाडी मारने को तैयार िो गया सिोंि ने भी गदथ न टे क दी और लकडिारे ने कुल्हाडी का प्रिार कर सदया ।
तब अधथमृतावसर्ा में सिोंि बोला—इतना मुझे तेरे द्वारा इि कुल्हाडी मारने का दु ुःख निीों िै सजतना दु ुःख खोटे विन मेरे
प्रसत बोलने का िै । कुल्हाडी की धार तो िि ली सकन्तु विन बार्ण की धार निीों िि िका । धमथ की ओर आगे बढने वाले
को सप्रय विन तो बोलना आवश्यक िी िै क्योोंसक जो सकिी को कठोर विन किे गा उििे उिका सदल दु खेगा, सजििे
सिों िा पाप का भागी िोगा । मौन का लक्षर्ण िै , मौन मुनेभाथ वुः मौनम् । मुसन के जैिा भाव सजिका िो वि मौन िै । मुसन
के सलये असिों िा, ित्य, अिौयथ , ब्रह्मियथ और अपररग्रि मिाव्रत तर्ा गुद्धप्त इद्धिय-सवजय एवों पररर्ि जय आसद कई बातें
बताई िैं । सकन्तु मौन की उन िबमें िुपिाप रिने की प्रधानता िी िै । यद्यसप सजतने मुसन के काम िैं उन्हें मौन किते िैं
। तर्ासप कम बोलना सप्रय विन बोलना िुप रिना आत्मकल्यार्ण के असत सनकट िै । अत: मौन की प्रसिद्धद्ध यिाों हुई ।
जो बोली को िुधारकर उत्तम विन बोलता िै वि लौसकक कायों में भी िफलता पाता िै ।
२६०. वचन से भले िुरे की पधहचान—किीों राजा, मोंत्री और सिपािी जा रिे र्े । वे िब रास्ता भूल गये । रास्ते में
एक अोंधा बैठा र्ा । सिपािी अोंधे िे पूछता िै , क्योों रे अन्धे ! यिाँ िे कोई सनकला िै ? उि ने किा, सिपािी जी निीों ।
इिके बाद मोंत्री आया, उिने किा ए िूरदाि ! इि तरफ िे कोई सनकला िै ? किा — िाों , एक सिपािी सनकला । दोनो
के बाद राजा आया तो किता िै —िूरदाि जी ! यिाों िे कोई सनकला िै ? वि किता िै — िाँ राजा जी ! पिले सिपािी
सनकला र्ा, बाद में मोंत्री िािब । जब तीनोों समल गये तो किा, वि तो अोंधा र्ा उिने कैिे बता सदया सक सिपािी व मोंत्री
सनकले िैं । तीनोों ने किा अन्धे िे िलकर पूछना िासिए । तब उििे किा—िूरदाि जी ! आपने िम तीनोों को कैिे
पसििान सलया र्ा ? तो िूरदाि ने बताया—सजि व्द्धक्त ने क्योों रे अन्धे किा र्ा वि सिपािी र्ा? क्योोंसक सिपािी की
सजतनी योग्यता िोती िै वि उिी तरि बोलेगा । इिके बाद ऐ िूरदाि किने वाले मोंत्री र्े तर्ा िूरदाि जी किने वाला
राजा र्ा । तीनोों का अनुमान मैंने उनकी बोली बोलने िे लगाया िै । िफर में जब एक दू िरे िे बात िोती िै तो िज्‍जन,
दु जथन, सवद्वान, धनवान आसद का पता िल जाता िै । अध्याद्धत्मक सवकाि के सलए बोली बडी सप्रय व्वद्धसर्त बोलना
िासिए ।
२६१. भाषाव्यवहार—बोली जीव का गुर्ण निीों िै । मैं भार्ा का कताथ निीों, मैं केवल भाव िी कर िकता हँ । मैं तो

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 65-66

आत्मप्रदे श वाला हों , आत्मा और शरीर एक जगि इकट् ठे िो रिे िैं । भार्ा पुद्गल की वगथर्णायें िैं । मुोंि में वायु का
िोंिार िोते िी यर्ा सर्ान जीभ, ओोंठ, दाँ त, तालु िलाने िे अक्षर सनकलते िैं , जो भार्ारूप पररर्णम जाते िैं । यि मुँि
िारमोसनयम िे कम कायथ निीों करता । एक सवलायती बाजा आता िै सजिका बटन दबाने िे अपने अनुकूल भार्ा
सनकाली जा िकती िै । उिी तरि अपना जैिा भाव िोगा वैिी बात मुोंि िे सनकलेगी । भावोों का बोली में केवल सनसमत्त-
नैसमसत्तक िम्बन्ध िै । िबको मूल भाव का अच्छा बनाना िै । भाव अच्छा निीों बनाया तो बोली अच्छी कैिे सनकलेगी?
मन की कर्ाय िटाने पर सप्र य विन मुोंि िे सनकलेगा । व्‍यविार में भी अच्छा विन बोलने िे दू िरोों के द्वारा आदर पाता
िै । लोक में परीक्षा भी विनोों िे िोती िै । अध्यात्म में भाव अच्छा बनाया जावे सजििे आत्मोन्नसत के पर् पर िुलभता िे
पहुों ि जाओगे । सनमथल भाव बनाने के सलए सकिी िे कुछ ऋर्ण निीों लेना पडता, सकन्तु वि आत्मा की एक आवाज िोती
िै जो दू िरोों के सलए अपनी मुिर (िील) िोती िै । इि मुिर का प्रयोग करना, विन बोलने वाले पर सनभथर िै । वि िािे
श्रेष्ठ मुिर सर्ासपत कर लेवे अपनी या भद्दी सप्रय विन िब जनोों के सलए अमृत का कायथ दे ते, जब सक कटु विन जिर का
कायथ करते िैं । जिर तो एक िी िमय प्रार्ण िरता िै सकन्तु खोटा विन िमेशा खटकता रिता िै । भव-भव में वैर बाों ध
लेने का कारर्ण भी कटु विन िो जाता िै ।
२६२. दे हधवधवक्त अिस्तत्त् के आश्रय में कल्याणलाभ—जो यि दे ि नामकमथ की प्रकृसत िे सनसमथत हुआ िै वि
जीव निीों िै । उिी तरि शरीर, िोंसर्ान, िोंिनन इत्यासद भी पुद्गलमय नाम प्रकृसत िे रिे गये िैं । इििे ये भी जीव निीों
िैं । जब जीव एक इि शरीर िे मुक्त िोता िै तो जो तै जि कामाथ र्ण िूक्ष्म शरीर िै वि अन्य शरीर के ग्रिर्ण का कारर्ण
बनता िै । अपने िे असतररक्त अन्य भावोों का रिना दु ुःख व क्‍लेश िै । एक भ्रम िी क्‍लेश िै । जैिे किा करते िैं ‘सतल
की ओट में पिाड’ । एक सतल की ओट में पिाड न सदखे यि कैिे िोंभव िो िकता िै ? अगर िक्षु के गोलक में रिने
वाले रत्‍न के िामने सतल लगा सदया जाये तो पिाड निीों सदखेगा । अज्ञान िे भी यिी दशा िो रिी िै । यि मेरा, यि तेरा—
इि तरि नाना बातोों के जाल बनाता िै । सकन्तु एक जो अपने िे प्रयोजन िै उिे स्मरर्ण निीों करता । अपनी-अपनी
कर्ायोों के अनुिार जीव पररर्णम रिे िैं । मेरा कौन िुधार करे गा, इिे भूल िुका । इिका कोई िार्ी निीों िै । सफर क्योों
पर-पदार्ों की ओर आकसर्थत िोकर भूल रिा िै , मेरे सलए िोंिार िे िासिए क्या? सजििे मेरा उपयोग मुझमें रमे यि
जानकर उिी का आश्रय लेवे । सफर अन्य कोई मेरे बारे में कुछ भी धारर्णा बनावे तो मेरी क्या िासन िै ? अपने आपका
बल करके आत्मा का आश्रय समलेगा, कमों को झडना िी पडे गा, मैं कमों की सनजथरा करू ों गा, मुद्धक्त के िमीप पहुों िूोंगा
सजिका यि सनश्‍िय िो गया िै वि उि तरि ज्ञान के दृढ कायथ भी करे गा । जो िक्षुओों िे प्रतीत िो रिा िै वि मैं निीों हँ
इन इद्धियोों का ज्ञान इन्हीों इद्धियोों को निीों िो पाता । अपनीों िी आों ख अपनी आों ख को निीों दे ख पाती, यिी बात बाकी
की इद्धियोों में िै , अन्य को जानती रिें गी । मामूली बातोों में भी बसिमुथखता का पाठ खे ला जा रिा िै । अत: बािरी पदार्ों
में बुद्धद्ध शीघ्र दौड जाती िै । इि िमय अपन को िब ओर िे मुख मोडकर सित्त एकाग्र कर अपने पर दृसि जमाई जावे
तो भान िोगा—मैं क्या हों ?
२६३. ज्ञानी की ज्ञानदृधष्ट की आकांक्षा—मैं हँ जो परमात्मा िै , इि प्रतीसत िे शाों सत आवेगी । जब तक परपदार्ों िे
रुसि िै , लगन िै तब तक भगवान का उपदे श िै सक िोंिार िे निीों छूट िकोगे । आत्मभगवान का आलम्बन मुद्धक्त का
मागथ िै । इि तरि के भी मुसनराज हुए िैं जो तुर्मात्र सभन्न मानकर अपने भेदज्ञान के आलम्बन िे केवलज्ञानी बन गये ।
यि अमूल्य सनसध अपने आप समल गई सकन्तु अपनी ओर झुकाव िोना िासिए । धन वैभव आसद िे क्‍लेश िी समलेगा ।
कदासित् आयु पूर्णथ िोने पर दे व िो गये तो विाँ भी परपदार्ों में रुलना िोगा । दे वाों गना समली, अने क भोगोपभोग िामग्री
समली तर्ा अपने िे असधक वैभव युक्त दे वोों को दे खकर ईष्याथ की अग्द्‍सन में जलता रिा, विाँ िे भी कुिकर जाना िोगा
। लेसकन एक सनज ज्ञानस्वरूप को निीों भूले । एक सनज का आनन्द रिा तो िवथश्रेष्ठ िै । इिको छोड करोडोों की िोंपसत्त
भी समली तो उि वैभव िे शाद्धन्त तो आ निीों िकती । सकन्तु सनज स्वरूप पर दृसि रिे तो दररद्र िोते हुए भी श्रेष्ठ िै । िब
िोंिारी जीव शरीर िे बोंधे हुए िैं सकन्तु अनुभव शरीररूप निीों िोवे उिमें राग न रिे । ऐिा िे आत्मन् । भगवान सिद्ध
के िमान बडी प्रभुता वाला, बडा िाम्राज्य वाला अपने को अन्य-अन्य रूप अनुभव कर लेने िे बन्धन में पडा िै । भगवान
का नाम निीों छूटे । मरर्ण िमय में भी ‘सजन’ ऐिे दो अक्षरोों का स्मरर्ण रिे । भगवान की उपािना सज न के स्वरूप का
और सनज के स्वरूप का स्मरर्ण रिे , यि ज्ञानी जीव िािता िै । दे ि जीव निीों िै , दे ि पौद् गसलक िै । सजिके द्वारा यि

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रिा जाता िै वि उिी रूप िोता िै । िोने या लोिे िे बना पदार्थ उिी रूप िोता, नाम प्रकृसतयोों िे सनसमथत यि दे ि उिी
रूप जड िोता । िाों दी की तलवार को िोने रूप दे खते िैं क्या? यि िब नाम प्रकृसत िे रिा गया िै । यि िब वर्णों का
िमूि पु द्गलोों का एक मोंडन िै । यि पुद्गल िै िो पु द्गल िी रिे गा । शरीर रूप रि गोंध वर्णथ िे युक्त िै वि आत्मा
निीों िै । आत्मा पुद्गल िे निीों रिा िै । आत्मा आत्मा िै । शरीर माने बदमाश । यि अनेक कल्पना-जालोों को सबछा
दु ुःखी िोता िै । मोिी जीव अपने असधसष्ठत शरीर िे भारी मोि करता िै , सकन्तु सनकट िमय में छोडकर जाना िोगा और
शरीर यिीों जला सदया जाये गा । आत्मा को शरीर िे जुदा िमझते रिें यिी तो एक समत्र िै ।
२६४. पर में इष्‍टत्‍व अधनष्टत्व का अभाव—दु सनयावी समत्र तो ऐिे िैं सक सजिकी कर्ाय िे मेल खा गया िो समत्र िो
गये । एक लडके का सिनेमा दे खने का भाव हुआ, पडौिी के लडके को भी िार् लेकर दोनोों िार् समलाकर बातें करते
हुए पहुों िते िैं , यिाँ िमान कर्ाय भाव र्ा तो समत्र िो गये , सकिी की इच्छा के सवपरीत िले, तो शत्रु िी िोगा तो समत्रता
यि िै सजिकी कर्ाय िे कर्ाय समल जाये । धमथ में भी दू िरोों की दे खादे खी रिती िै मैं भी उिके िमान धमथ करू ों —
यिाँ भी कर्ाय िमान समलाई गई । मेरा तो कोई समत्र िै निीों, यिाँ तो पररर्णसतयोों ने समत्र शत्रु बना डाला । अपने िे
सवपरीत प्रतीत िोने या कल्‍पना में शत्रु बन गया । सशकार खेलने वाले जोंगल में जावें और विाँ िाधु समल जाये तो विाँ
सशकार न समलने िे िाधु को बुरी दृसि िे दे खते और शत्रु मानते िैं । लेसकन विाँ दु श्मन कोई निीों िै । मेरे भाव के
सवपरीत समला तो उिे शत्रु मान सलया, यर्ार्थ में शत्रु िै निीों, कर्ाय के सवकल्प ने मान सलया िै । इिी तरि बन्धु भी
वास्तव में कोई निीों । एक मनुष्य धनी आदमी के यिाँ पोंगत में गया । वि पुराने , मैले फटे कपडे पिने र्ा । विाँ उिे
भोजन करने को भी सकिी ने निीों किा । क्योोंसक विाँ तो अच्छे -अच्छे कपडे पिने िूट, कोट, टोप, घडी आसद िे
िुिज्‍सज त व्द्धक्त भोजन कर रिे र्े । यि दे ख वि घर वासपि िला गया तर्ा वि घर िे बसढया पें ट, कमीज, टोप
पिनकर आ गया । उिे दे खकर बोले—आइये भोजन कीसजए, पत्तल परोिकर भोजन परोिा । तब वि व्द्धक्त लड् डू
उठाकर टोप िे किे —ले टोप खा ले, िे कमीज ले तू यि बफी खा ले, पेन्ट ले तू भी खा ले । यि दे ख दू िरे मनुष्य ने
किा, भाई यि क्या कर रिे िो? वि व्द्धक्त किता िै आप लोगोों ने सजिको आदर ित्कार िे बुलाया उिे द्धखला रिा हँ
। आपने तो कपडोों का आदर सकया िै । मुझे तो आपने निीों पूछा र्ा, मैं तो कल भी यिाँ िे गुजरा र्ा आप लोगोों ने बात
भी निीों की । यिाों भी भैया ऐिा िाल िै । िैतन्य मात्र जीव की खबर कौन लेता िै ? िब पूों छपाों छ इन दे िोों की िो रिी िै
। िाँ बात िै सक जीव के रिते हुए दे िोों की िो रिी िोों विाँ भी तो मनुष्‍य के िोते हुये कपडोों की पूछ िो रिी र्ी । खाली
कपडोों को कौन ऐिा किता? मैं अपने पर क्योों प्रभाव रिने दू ों यि िब कमथकृत ठाठ िै । मैं अपने आपको न इिमें
फोंिाऊों यिी भाव सनश्‍िय िे समत्र िै । सजि जानकारी में िल रिा हँ वि भी मेरा समत्र निीों िै , न मैं हँ । मैं एक अनासद
अनन्त िेतना ति हँ । अपने को उपयोग में लगावे तो िब झगडे समट जावेंगे । यसद िोंग न भी छोड िके तो वास्तसवकता
तो जानता रिे । विाों भी अपने को खेद के िार् कोई बोले तो सवर्ाद िोता िै तो वि आगे भी बढता िै , मात्र शुष्क ज्ञान
िे कुछ निीों िोगा । अन्य मतावलद्धम्बयोों ने किा ईश्‍वर ने ऐिा सकया िै । अपने यिाँ किते , िाररत्रमोिनीय का फल िै ।
घर में रिना, मद्धन्दर में आना, कुटु द्धम्बयोों िे स्‍नेि करना, बोलना आसद आत्मा का गु र्ण निीों िै । भीतर के पररर्णामोों को
तो स्वयों िोंभाल निीों िकता दू िरोों का बािर में क्या सित करे गा?
२६५. जीवसमासों की पुद᳭गलमयता—जब जीव केवल सित् शद्धक्तमात्र िै तो क्योों सिद्धान्त व्वद्धसर्त हुआ सक
एकेद्धिय, दोइद्धिय, तीनइद्धि य, िारइद्धिय, प िेद्धिय जीव बादर, िूक्ष्म, पयाथ प्त अपयाथ प्त ये िबके िब पु द्गलमय
प्रकृसत िे रिे हुए िैं । नामकमथ की प्रकृसतयोों के भी ऐिे िी नाम िै । एकेद्धिय आसदक ५ जासत नामकमथ िैं । बादर िूक्ष्म
नाम के नामकमथ िैं । पयाथ प्त अपयाथ प्त नामक नामकमथ िै । इिका सवपाककाल आये , जब जीव इििे सनवृथ त्त रिा गया
तो ये िमस्‍त जीविमाि पु द्गलमय प्रकृसतयोों िे रिे गए िैं । ये जीव कैिे किे जा िकते िैं ? जो यि ढाों िा सदख रिा िै
पोंिेद्धिय जासत के रूप में, यद्यसप जीव का िम्बोंध िै तब इन कमथ प्रकृसतयोों के उदय में ऐिी रिना हुई । लेसकन जिाँ
जीव का स्वरूप िी िैतन्यशद्धक्तमात्र सनरखा गया । उिकी दृसि में तो यि िबका िब पुद्गलमय प्रकृसतयोों िे रिा गया
आना िासिये । सनर्णथय के िमय परस्पर का िम्बन्ध िियोग सनसमत्त नैसमसत्तक भाव िबका सववरर्ण िला िै , सकन्तु जिाँ
परमसित की दृसि की बडी तैयारी बन रिी िो तो वि ऐिे सनर्णथय के बाद तैयारी में आया िै । अब इि िमय िैतन्य
शद्धक्तमात्र जीवस्वरूप को सनरखकर िवथ उद्यमोों िे उि सित्स्वरूप में िमाये रिने की धुन बनाये हुए िै । उिकी दृसि

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में ये िब अजीव िैं । सजिे िम पसिले जीवरूप िे पसििानते आये िैं और उि प्रर्म अवसर्ा में उपाय भी यिी िै सक िम
जाने जायें सक यि एकेद्धिय जीव िै यि दोइद्धिय जीव िै , यि तीनइद्धिय, िारइद्धिय, प िेद्धिय आसद जीव िैं , यि िम
िमझ जायें, यि ठीक िै , सकन्तु जीवमात्र सवशुद्ध जीव अपने िी िि के कारर्ण ििज जैिा िै वैिा िी दृसि में ले करके
जब दे खते िैं तो ये िब मैं जीव निीों हँ ।
२६६. धवशुद्ध अिदृाधष्ट से अध्यात्मप्रवेश का उद्यम—यि ज्ञानी सवशुद्ध अन्तदृथ सि िे अध्यात्मस्वरूप में प्रवे श करना
िाि रिा िै । सन श्‍िय िे कमथ और करर्ण असभ न्न िोते िैं । जो सजिके द्वारा सकया गया वि विी िै । स्वर्णथ िे बनता
स्‍वर्णथत्‍व । तो यि जीवसर्ान बादर िूक्ष्म इद्धिय जासत पयाथ प्त अपयाथ प्त यि पुद᳭गलमय नामकमथ की प्रकृसतयोों के द्वारा
सकया गया िै । िो ये िब पुद᳭गल िैं , जीव निीों । कैिा सवशुद्ध उद्दे श्य िै ? यसद ऐिी अिाधारर्ण तैयारी निीों िै आत्‍म
स्वरूप में बिने की, व्विारी िै , विाँ यि बात किना सक ये िब अजीव िैं तो उििे वे ऐिी पररर्णसत करें गे सक मारो,
पीटो, कतरो छे दो, क्‍या िैं ? अजीव िैं िब । इनका क्या सबगाड? तो बडी िावधानी के िार् यि िमझना िै यिाँ सक सकि
आशय में ज्ञानी की कैिी दृसि बन रिी िै जिाँ सक जीव स्वरूप बताया जा रिा िै । अध्यात्म में सनसवथ कल्परूप िे ठिरने
की धुन िै और विाँ जीवस्वरूप सनरख रिा िै वि िै एक िैतन्यशद्धक्तमात्र । तब उििे असतररक्त सभन्‍न जो-जो कुछ िैं
वे िब जीव निीों िैं । तो वर्णथ जीव के निीों । तो िभी बातें लगा लीसजये , रि गोंध आसदक, शरीर आकार िों िनन आसदक
ये िब पुद᳭गलमय नाम प्रकृसत िे रिे गए िैं िो पौद् गसलक िैं । आत्मा तो इन िबिे सनराला सवज्ञानघन िै । सजिमें
केवलज्ञान जानन जानन िी स्वरूप पाया जाता िै । जीव तो वि िै , इि प्रकार यि ज्ञानी सव शुद्ध जीव स्‍वरूप की ओर
आना िाि रिा िै । उिके असतररक्त िबको अजीव कि कर उनिे िटकर आ रिा िै ।
२६७. ज्ञानमात्र अनुभवन का प्रथम उपाय—िम आप जीवोों के सलए स्‍वानुभव िी एक परम शरर्णभूत िै । स्वानुभव
का अर्थ िै जैिा ििज यि मैं स्व हँ स्वयों हँ उि प्रकार िे अपने को अनुभवना िो स्वानुभव िै । िम आप उपयोग स्वरूप
िैं । किीों न किीों उपयोग िलता िै । किीों न किीों उपयोग रम रिा िै । विाों यि सववे क करना िै सक यि उपयोग किाँ
रमायें सक सजििे अशाद्धन्त न िो । जब सववेकपूवथक इिका सनर्णथय करने िलेंगे तो एक मूल कु जी िे यि सनर्णथय बन
जायेगा सक मेरा उपयोग यसद सकिी अनुपयोग का सविार करे गा अर्ाथ त् जो ज्ञानस्वरूप निीों िै , मेरे िे सवपरीत िै , उिका
यसद मैं सिन्तन करू ों गा तो विाों मेल न बैठेगा । जानने वाला हँ मैं ज्ञानस्वरूप और जानने में लगा सदया इिको सकिी उन
अज्ञान पदार्ों में, अज्ञान भावोों में तो विाों इि जानने वाले का मेल निीों बैठा । सवपरीत जानने लगा तो विाँ सटकाव निीों
बन िकता और पद पर अनेक कल्पनायें उठती िैं , उििे अशाद्धन्त रिती िै । उद्यम यि करना िै सक यि मैं उपयोग
ज्ञानस्वरूप हँ , िो उि ज्ञान स्वरूप सनज के स्वरूप को जानने में लगें । यि बात कैिे बनेगी? इिका िीधा उपाय तो
यिी िै सक ज्ञानमात्र आत्मति का जो स्वरूप िै उिको िीधा जानने लग जायें । केवल जानन एक प्रसतभाि जो कुछ
भी िै उिको जानने में लग जायें तो ज्ञानमात्र अनुभवन का यि िीधा उपाय िै ।
२६८. ज्ञानमात्र अनुभवन का धनकटवती धद्वतीय उपाय—जो ज्ञानमात्र अनुभवन के िीधे उपाय को कसठन िमझें
उनके सलए एक िरल उपाय यि भी िै सक इतना तो अपना पररिय बना लें सक मुझमें रूप, रि, गोंध, स्पशथ निीों िै ।
भीतर रिने वाला जो यि मैं हँ उि जाननिार िैतन्य का क्या स्वरूप िै ? एक प्रसतभाि मात्र, सजिमें कोई तरों गें निीों
उठती, इि असनि की कल्पनायें , रागासद के कोई सवकार निीों िलते , ऐिा मैं केवल प्रसतभािमात्र हँ । विी ज्ञान का
स्वरूप िै । तो अब इि प्रसतभािमात्र ज्ञान के स्वरूप के जानने में लग जायें यि तो िीधा उपाय िै िी, लेसकन इिे जो
कसठन िमझें उनके सलए एक उिके सनकटवती िरल उपाय यि िै सक मैं अपने को सिन्तन करने लगूँ सक मैं अमूतथ हँ ,
मेरे में रूप, रि, गोंध, स्पशाथ सदक निीों । अमूतथ अन्य पदार्ों में एक आकाश का कुछ अोंदाजा रिता िै क्योोंसक यि पोल
जो कुछ यिाँ िमझ में आ रिा िै उतना स्पि और कोई द्रव् िमझ में निीों आता । यद्यसप वस्तु त: अमूतथ आकाश भी
इद्धियगम्य निीों िै सफर भी अन्य अमूतथ पदार्ों में िे आकाश के प्रसत लोगोों की ज्यादि िमझ बन रिी िै न, आकाश में
किा िैं रूप, रि, गोंध, स्पशथ ? तो आकाश की भाँ सत रूपासदक िे रसित, अमूतथ मैं आत्मा हँ । यि अमूतथ िै इिी कारर्ण
इिमें सकिी का लेप निीों, इिमें कोई सभडा निीों, केवल यि अमूतथ िै । ऐिा अमूतथ स्वरूप यसद लगन के िार् ध्यान में
आये तो एक अन्य सवकल्प निीों रिे , ऐिी द्धसर्सत में अमूतथ मात्र सनरखने के द्वार िे इि ज्ञानस्वरूप उपयोग को ज्ञानमात्र
स्व के दशथन करने का अविर समल जायेगा । और सनकटवती दू िरा उपाय यि िै सक अपने को िच्‍िाई के िार् अमूतथ

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सनलेप ध्यान के सनकट लाइयेगा ।


२६९. ज्ञानमात्र अनुभवन का धनकटवती तृतीय उपाय—सनज अमूतथत्वदशथन का उपाय यसद कसठन प्रतीत िो तो
तीिरा उपाय यि िो िकेगा सक िमझ लेना सक सवकल्प करते -करते अब तक परे शान िो गए, र्क गए, समला जुला
कुछ निीों । ये बाह्य पुद्गल बाह्य िी िैं , इनका कोई अोंश मेरे में आया निीों, इन परपदार्ों िे मेरा कुछ बना निीों, केवल
इनका सवकल्प करके अपने को क्‍लेश में डाला । र्े िब सनराले सभन्न । इन पर मेरा कुछ वश निीों । मैं इनके बीि रिकर
सवकल्प करके केवल आकुलता पाता हँ । इतनी िमझ बनने के बाद सफर भीतर में ऐिा िोंकल्प और उत्साि बनायें सक
सकिी भी परद्रव् िे कुछ निीों िोिना िै । पर पर िी िै , सभन्‍न िै , उिमें आत्मसित निीों िै । मुझे सकिी भी परति का
सिन्तन निीों करना िै । सनज को तो मैं जान निीों रिा, न िमीप जान रिा, पर ये िमस्त परपदार्थ मेरे सलए अनर्थ के िी
कारर्ण बन रिे िैं , ऐिी मोटी िमझ के बल पर ऐिा आग्रि करें सक मुझे सकिी भी वस्तु का सिन्तन निीों करना । यद्यसप
कुछ न कुछ सिन्तन सकये सबना रिा न जायेगा । कुछ न कुछ आयेगा िी, लेसकन ये सवकल्प बढाने वाले सवकल्प िे तुभूत
बाह्य अर्थ उपयोग में न रिे यि बात बन िकेगी । तो जब िब पर का सिन्तन छोड सदया, बुद्धद्धपूवथक कुछ भी सविार निीों
िल रिा तो ऐिी िालत में िूों सक यि उपयोग ज्ञानस्वरूप िै , यि आत्मति ज्ञानमय िै िो उपयोग इि ज्ञानमय का आश्रय
छोडकर तो रि िकेगा निीों । उि द्धसर्सत में जब सक िमस्त पर का सिन्तन बन्द कर सदया िै , ज्ञानमात्र स्व की झलक
विाँ आयेगी । ज्ञानमात्र अपने को अनुभवने का एक यि भी तरीका िै ।
२७०. ज्ञानमात्र अनुभवन का धनकटवती चतुथा उपाय—उक्त उपाय भी कसठन जोंिे तो अब एक िौर्े तरीके पर
िलकर दे खना । जो आत्मा िमस्त उपासधयोों िे रसित िै , िमस्त अवगुर्णोों िे तर्ा सवकल्पोों िे रसित िै , सजिका
िैतन्यस्वरूप पूर्णथ सवकसित िो गया िै ऐिे सिद्ध भगवान के स्वरूप का ध्यान करने लगें । अन्त: जो सिद्ध प्रभु का
स्वरूप िै आत्मा में, विी स्वरूप अरिों त का िै । अरिों त के अन्त:स्वरूप का ध्यान करने में भी विी फल िै जो सिद्ध
प्रभु के स्वरूप के ध्यान करने का फल िै । िाँ र्ोडा अरिों त स्वरूप के सविार के िमय बाह्य पररकर पर दृसि जायेगी
तो सिद्ध स्मरर्ण के िमान उत्कृिता न रि िकेगी, इिसलए बसिरङ्ग वैभव को ध्‍यान में न रखकर प्रभु के अन्तरङ्ग सवकाि
को ध्यान में लीसजये । अिो ! ज्ञानघन िैं प्रभु । ज्ञान िी ज्ञान जिाँ वतथ रिा िै , उिके बीि अज्ञान का रों ि अवकाश निीों िै
। कैिा अनन्त आनन्दमय प्रभु िै , सजनका उपयोग ज्ञानस्‍वरूप में िी बना रिता िै । सत्रकाल अनन्तकाल उि स्वरूप में
आकुलता का क्या काम िै ? जिाँ आकुलता निीों विाँ अनन्त आनन्द िै । ऐिा अनन्त आनन्दमय, सिद्ध प्रभु का स्वरूप
ध्यान में लाइये । ज्ञान और आनन्द दो स्वरूप ऐिे िैं सक सजनके स्मरर्ण के द्वार िे िम अपने ज्ञानानन्दस्वरूप तक पहुों ि
िकते िैं । तो जब िम सिद्धप्रभु के उि पररपूर्णथ सवकाि का ध्यान करें गे तो उि िमय ऐिी लगन िे ध्यान िोने पर सक
केवल सिद्धस्वरूप िी ध्यान में िो तो सनज स्वरूप के िार् िमता िोने लगेगी । यि ििज िोगी बात । उि िमय जब
अभेद उपािना बनने लगेगी तो विाँ ज्ञानमात्र सनज ति का दशथन िोगा । सजि सकिी भी उपाय िे िमें िासिये सक िम
अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने लग जायें ।
२७१. वस्तु की स्वतंत्रता और पररपूणाता के अवगम से अिस्तत्त् की उपलच्छि—अध्यात्म प्रयत्‍न सिवाय कोई
यत्‍न ऐिा निीों िै सक िम अपने को शान्त अनुभव कर िकें । इिी का िाधक िै आसक िन्यभाव । मेरे स्वरूप के सिवाय
जिाँ अन्य कुछ भी निीों िै यि बात सनरखने का नाम िै आसक िन्यभाव । लोक में इन िमस्त पदार्ों की ित्ता अब तक
बन रिी िै , यि इिी बल पर बन रिी िै सक सकिी भी एक वस्तु में दू िरी वस्तु का द्रव्, क्षेत्र, काल, भाव, इनके पररर्णमन
निीों िोते । सकतना भी सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बोंध िो, किीों जोंिता िै सक प्रेरर्णारूप सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बोंध िै । उि दशा
तक में तो कोई भी पदार्थ सकिी दू िरे पदार्थ का प्रदे श, गुर्ण और पररर्णमन ग्रिर्ण निीों कर पाता । मान लो दो पिलवानोों
की कुश्ती िो रिी िै । तो उिमें तो बडी प्रेरर्णा िल रिी िै । िार् पकडकर, कमर पकडकर एक दू िरे को घुमा दे ,
कैिी िी िलन िलन सक्रया करा दे , इििे और बढकर प्रेरर्णा का क्या उदािरर्ण िोगा? अर्वा कुम्हार जब घडा बनाता
िै तो समट्टी पर कैिा दबाव डालता िै , जिाँ िािे मरोड दे ता िै , उि िाक पर रखी हुई समट्टी में सजि-सजि प्रकार का
िार् का व्ापार करता उि-उि प्रकार का आकार बन जाता िै । प्रेरर्णा का इििे और बडा क्या उदािरर्ण िो, पर उि
प्रेरर्णा की दशा में भी कुम्हार के शरीर को यिाँ कुम्हार िमझकर, विाँ िी दृसि दें सक वि अपने िार् में क्या कर रिा िै?
वि अपने िार् में िार् का िी व्ापार कर रिा िै । उिके िार् िे समट्टी अलग िै , िार् में समट्टी निीों गई, समट्टी में िार्

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 65-66

निीों गया । आप किें गे सक गीली समट्टी में िार् तो धोंि जाता िै , धोंि जावे , तब भी समट्टी के कर्ण में िार् का प्रवे श निीों िै
। योों कुम्हार शरीर में कुम्हार की िेिा को सनरखने पर यि िमझ में आ जाता िै सक ऐिी िमझ वाली दशा में भी कुम्हार
ने अपने आपमें पररर्णमन सकया, और विाँ उि िोंयोग में प्राप्त हुई समट्टी ने ऐिे प्रेरक सनसमत्त का िसन्नधान पाकर अपने
में अपना आकार बनाया । तो वस्तु का स्‍वरूप िूक्ष्मदृसि िे सनरखने पर स्वतोंत्र सवसदत िोता िै । सजिको ऐिे वस्तु स्वरूप
का पररिय हुआ िै उि ज्ञानी पुरुर् को अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करने के सलए क्या करना िै? इन उपायोों की ििाथ
िल रिी िै । िम सजि सकिी भी प्रकार िमस्त पर िे सनराला रागासदक भावोों िे भी सनराला केवल ज्ञानमात्र अपने को
तक िकेंगे तो िम अपने को ज्ञानमात्र अनुभव कर िकेंगे ।
२७२. ज्ञानमात्र अनुभवन का अनुरोि—िमने बहुत अनुभव सकये , अनेक प्रकार के अनुभवन सकये , लेसकन यि तो
दे खो सक उन अनुभवनोों िे िमें शाद्धन्त समली अर्वा निीों । निीों समली । एक बार अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने का यत्‍न
तो कररये , ऐिा अनुभव िोने पर शाद्धन्त अवश्य समलेगी, इिमें तो कोई िोंदेि निीों रिा सक अपने को केवल ज्ञानस्वरूप
अनुभवें तो विाँ सवकल्प और अशाद्धन्त निीों िै । इन उपायोों में िी यि वस्तुस्वरूप की स्वतोंत्रता की बात िल रिी िै ।
सनर्णथय यद्यसप अनेक सदये िैं पर िमको इि िमय एक ज्ञानमात्र स्वरूप के अनुभवन की धुन लगी िै , िम सवसवध सनर्णथ योों
की ओर उपयोग न लगावें । एक िामान्य सनर्णथय िे इतना िी िमझकर सक मुझमें पर िे कुछ यिाँ आता निीों, मेरा पर
में कुछ जाता निीों, सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बोंध यद्यसप बराबर िै , इतने पर भी प्रत्येक पदार्थ के सनज-सनज स्वरूप को
सनरखकर पसििानेंगे सक सकिी भी पदार्थ का सकिी अन्य पदार्थ के िार् तादात्म्य निीों िै , िम्बोंध निीों िै , इिी कारर्ण
अब तक लोक में इन िब पदार्ों की बराबर ित्ता बनी हुई िै । जब यिाँ अध्यात्मसित के प्रकरर्ण में यि बात िल रिी िै
सक आत्मा एक सवज्ञान घन िै तो सफ र ये िारी बातें , ये पयाथ प्त जीव, अपयाथ प्त जीव, िूक्ष्म जीव, बादर जीव, ये जो नाना
प्रकार के जीव नजर आ रिे , यि क्या बात िै ? उिके उत्तर में यि गार्ा आयी िै ।
२७३. धवशुद्धानन्द के अनुभव से आत्माधभमुखता की परीक्षा—एकाकी आत्मा की ओर िम सकतने झुक रिे िैं
इिका सिह्न यिी िै , सजतने -सजतने आत्मति में आते जायेंगे उतने -उतने बािरी तिोों िे उपेक्षा करते जायें गे । सजिमें
सिन्ता निीों उिका एक बार अनुभव िो पावे तर्ा यि अमृत का स्वाद यर्ासवसध बैठ जावे तब क्योों िदै व परपदार्ों के
पररर्णमन की िोिा करू ों गा या उनिे मेरा सित िोता िै इिे अित्य मानकर पुन: क्योों फोंिूों गा एवों रुलूोंगा ? भैया कागजी
िीख पर िी तो कोई गुर्ण आ निीों जायेगा । अभी दे खो सिनदु स्तान, पासकस्तान बना । उि िमय बेिारे पासकस्तानी
सवदे सशयोों के सिखाये बोल रिे , पासकस्तासनयोों को िीख सिखाने पर भी वि कब तक अपनी बात सनभावेंगे । जब तक
सिखाने वालोों का पूरा कब्‍जा निीों िोता तब तक कुछ पू छ भी रिे िैं । उिी तरि िम सिखाये पूत बन रिे िैं । स्तुसत,
पूजन, भद्धक्त, दान, स्वाध्याय, िामासयक िब सिखाये पूत की बातें िैं । जो दू िरे करते आये उिे िी िम करते िैं । लेसकन
िमारे अनुभव की लाभ की बात िो तो उिे क्योों निीों िमझें गे? आत्मीय आनन्द अनुभव में आ जावे तो वि भूलेगा निीों,
वि तो अपने अनुकूल िी कायथ करे गा । यि उद्यम करता जीवन में उि आनन्द की झलक िै जो सिद्ध परमात्मा को
समलता िै । इि आनन्द के सलए उिे िबिे सित्त िटाना िोगा । वो आनन्द पूजन में भी निीों समलेगा जो ममथ की िीज
भीतर उपयोग में समलेगी । इिसलए बाह्य पदार्ों का िमागम रुसि में न बढावें । िब कुछ सकया और प्रवृसत्त सवपरीत
(उल्टी) िी रखी तो कैिे आत्मा का कायथ सिद्ध िोगा? २४ घोंटे में १५ समनट भी तो ऐिी िेिा करें जो िाों िाररक कायों िे
ऊब कर अपने मन की द्धसर्सत को एकाग्र करें । ऊबे हुए तो िभी िैं सकन्तु ऊब िुकने िे परपदार्थ को सित्त में निीों लावें ,
उनिे कोई िुख निीों िै और न आज तक समली िै यि दृढ प्रतीसत करें , भूखे सवकल्पजालोों िे उनमें फोंि रिा हँ यि
अनुभव पूर्णथतया िो जावे तो उि ज्योसत का अनुभव िोगा जो ज्योसत कभी निीों जगी । यि बात बन जावे तो िब कुछ
बन जावे, यिी िबका िार । जीवन का मधुर स्वाद जो कभी निीों समला, तृष्‍र्णा अग्दसन ्‍ कभी शाों त निीों हुई । वि तृष्‍र्णा
यिाँ आकर सवराम (शाद्धन्त) पावेगी । शम् ।
गाथा 67
पज्‍जतापज्‍जिा जे सुहुमा िादरा य जे चेव ।
दे हस्स जीवसण्णा सुिे ववहारदो उिो ।।६७।।
२७४. व्यवहृत दे हसम्बन्ध की उलझनों से आत्मव चना—पयाथ प्त, अपयाथ प्त, िूक्ष्म, बादर जीव इि प्रकार दे ि की
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 67

जीविोंज्ञा ग्रोंर्ोों में किी िै वि िब व्विार िे िै — ऐिा सजनेि दे व के शािन में किा गया िै । जो तु म्हें ये वर्णाथ सदक सदख
रिे िैं , वे जीव िे न्यारे िैं । िेतना युक्त जीव िै , वि तो शरीर िे प्रकट सभन्न िै सकन्तु अनासद िे िम्बन्ध लगा िोने िे पर
में आपा बुद्धद्ध शीघ्र रुक जाती िै । जब सकिी व्द्धक्त को सिर में ददथ या और कोई अिाध्य रोग िो जाये तो अनेक इलाजोों
िे तर्ा और िब भाई स्‍त्री पुत्रासद की ििानुभूसत िे भी अच्छा निीों िोता, तब यकायक सविार पैदा िोता िै “कोई भी
पदार्थ सकिी का ििायक निीों । मेरी प्रत्येक जन्म िोंतसत की भूल मुझे परे शान कर रिी िै ।” तब यि तथ्य सभदता िै सक
िोंिार अिार िै । आज तक अपने को आनन्दस्वरूप अनुभव निीों सकया । मुझे यिाँ करने को क्या बाकी रि गया
सजििे पुन: पुन: इन्हीों उलझनोों में फोंिता रिता हँ । ये उलझनें मुझे सनकालती तो िैं निीों । िोिता यि िै , इि कायथ को,
इि कायथ को करके अब अद्धन्तम िुख की िाों ि पाऊोंगा । सकन्तु वि िुख की िाों ि तो दू र रिी, पिले िे ज्यादा जाल और
तैयार िो जाते िैं , जिाँ यि धुन िवार िोती िै । अब सकि जाल में पिले जाऊों सकिमें पिले जाऊों, इिी की धुन में इि
सवनाशीक शरीर के नि िोने का िाज-िामान िी मौजूद िै । अब तो आद्धत्मक कल्यार्ण िे भी वोंसित िो गये । इिी तरि
प्रत्येक प्रार्णी का पदार्थ का पररर्णमन तो िो िोता िी रिे गा । मैं या तुम निीों र्े तब भी दु सनयाों के कायथ बाद र्े और आगे
निीों भी रिें गे तो भी बाद रिें गे । लेसकन िम यि िोिें मेरे द्वारा यि कायथ िो रिा िै , या िोगा िो भ्रम िै । कायथ तो अपनी
आत्मा का करना िै जो सक ज्ञानमय िै । पर में बुद्धद्ध तो व्विार िे िै ।
२७५. एकेच्छि याधदक भवों में जीव के व्यवहार का कारण—जै िे घडा समट्टी का िोता िै , घी का घडा निीों िोता
। जैिे समट्टी िे बडा बनता िै क्या उि प्रकार घी िे घडा बनता िै ? निीों बन िकता । जाडे के सदनोों में कोई आकार बना
भी दे तो उिका अर्थ क्या? कोई उिमें अर्थ सक्रया िो िकती िै क्या? तो जै िे समट्टी के घडे में घी रखा रिता िै तो लोग
उि घडे का पर की प्रसिद्धद्ध िे व्विार सकया करते िैं । घी का घडा उठा लावो, पानी का लोटा ले आवो । तो जैिे सकिी
िम्बोंध के कारर्ण परप्रसिद्धद्ध िे घी का घडा िै ऐिा व्विार िलता िै , इिी तरि बादर जीव, िूक्ष्मजीव, एकेद्धिय,
दोइद्धिय, तीनइद्धिय, िारइद्धिय, प िेद्धिय, पयाथ प्त अपयाथ प्त ये िब िैं शरीर की िोंज्ञायें , पर आगम में जो जीव िोंज्ञा
के रूप िे बताया गया िै उिमें र्ोडा-िा प्रयोजन िै , र्ोडा-िा िम्बोंध िै तब परप्रसिद्धद्ध िे अर्ाथ त् शरीर की प्रसिद्धद्ध िे
जीव की प्रसिद्धद्ध करायी जाती िै । और उि िमय तो खाि करके सजिको जीव का स्वरूप िमझाना िै , जीव का
स्वरूप जानता निीों िै तो उिको तो इि िी भार्ा का ििारा सलया जायेगा सक दे खो जो ये एकेद्धिय आसदक जीव िैं ना
उनमें वास्तव में जीव स्वरूप तो एक शुद्ध िैतन्य िै । जीवस्वरूप के परमार्थ स्वरूप की बात पीछे किी जा िकेगी, पर
पसिले व्विार वाली बात का प्रयोग करना पडे गा । जैिे सजि बच्‍िे को िमझ निीों िै सक यि समट्टी का घडा िै , वि शुरू
िे िी िुनता आया घी का घडा तो उिे जब िमझाने िलेंगे तो यिीों िे प्रारम्भ करें गे सक दे खो जी जो यि घी का घडा िै
िो वास्तव में घी का निीों िै , समट्टी का िै । इिमें घी भरा रिता िै इि कारर्ण किने लगे । तो परमार्थ उपदे श दे ने िे
पसिले व्विार का प्रयोग करना पडता िै । तो यि भी प्रयोजन रिा, उििे इन िब पयाथ योों में जीवपने का व्विार िै ।
दे द्धखये लक्ष्य िमझना िै , िमारे इि कर्न का लक्ष्य क्या िै ? मैं केवल शुद्ध िैतन्यस्‍वरूप जीव को जानूों, उिमें िी रहों
और उि िी में रमकर आत्मकल्यार्ण करू ों , ऐिी इच्छा रखने वाले पुरुर्ोों को जीव का सवशुद्ध स्वरूप जानना िोगा ।
इिी लक्ष्य िे यिाँ जीवस्वरूप बताया िै सक सजिका िवथ स्विार िैतन्य शद्धक्त िे व्ाप रिा िै उतना िी मात्र मैं जीव हँ ।
ऐिा जानने पर, यिाँ िी उपयोग सटकने पर उिे स्वानुभव िोगा और स्वानुभव िे िी इि जीव की रक्षा िै । यिी स्वानुभव
िवथिोंकटोों िे उद्धार करने वाला िै ।
२७६. परमाथा के सम्बन्ध में उपचररत व्यवहार की रे खा—एक बटलोई में पानी भरा िोने िे उिे अग्द्‍सन पर िढा
दे ते िैं , तो बटलोई गमथ हुई, उिी के िम्बन्ध िे पानी गरम िो जाता िै । यिाँ क्या आग बटलोई में िली गई या पानी में?
अज्ञानी यिी िमझेगा आग पहुँ ि गई या आग की पयाथ य पहुों ि गई? विाँ तो केवल सनसमत्त पाकर बटलोई गमथ हुई और
उिी अग्द्‍सन के सनसमत्त िे पानी गमथ िो गया । कुकर में भोजन पकाते िैं । पानी नीिे रिता िै , उिके सनसमत्त िे ऊपर के
िभी पात्र गमथ िोकर भोजन तैयार िो जाता िै । प्रत्येक पदार्थ सनसमत्त पाकर ऐिा िी करता िै । लाइट जलने िे सबजली
का उजाला िोता िै । यिाँ उजाला क्या यि सबजली का िै ? निीों । विाँ सबजली का सनसमत्त पाकर अन्य स्कन्ध भी
प्रकाशरूप िो गये । इि दे ि पर जो उजाला िै वि दे ि का िै , पुस्तक पर उजाला पुस्तक का िै तर्ा अन्य पदार्ों पर
का उजाला उन्हीों का िै । केवल सनसमत्तनैसमसत्तक िम्बन्ध िै । उिी तरि जीव, जीव िी िै । शरीर, शरीर िी िै । किते

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 67

िैं घी का घडा लाओ । सकन्तु घडा समट्टी का िै । घी के सनसमत्त िे ऐिा व्विार िोता िै ।
२७७. दोष की हठ का पररणाम—एक ग्राम प्रमुख र्ा । वि पोंिोों में बैठा गप्पें मार रिा र्ा । उििे सकिी ने िवाल
सकया, ३० और ३० सकतने िोते िैं ? वि बोला ५० िोते िैं । दू िरोों िे भी पूछा ६० बताये , सफर भी प्रमुख बोला निीों
३०+३०=५० िी िोते िैं । औरोों िे भी फैिला करा लो इि बात का, अगर ५० न िी िोोंगे तो मेरी ४ भैं िे लगती िैं , उिमें
िर एक भैंि िे ८ िेर, १० िेर तक दू ध सनकलता, वि पोंिोों को दे दें गे । घर स्‍त्री के पाि आया । तो स्‍त्री बोली ‘तुमने
अच्छा सकया जो िारोों भैंि पोंिोों को दे ने को कि सदया ।’ प्रमुख किता िै ‘अच्छी पगली िै , जब िम अपने मुोंि िे ५० िी
किें गे तो कोई िमारी भैंिे कैिे ले लेगा, ६० िम मुोंि िे किें गे िी निीों अन्यर्ा तो लठ रक्खा िै ।‘ इिी तरि िम िोंिारी
जीवोों की दशा िो रिी िै । भगवान कुन्दकुन्दािायथ , अमृतििािायथ , ने समििािायथ आसद किते िैं ‘शरीर जीव निीों िै ,
जीव िैतन्यमय िै आसद’ तो किते रिें , िमें तो दृसि में निीों सभदता । कासतथकेय आठ वर्थ की अवसर्ा में मुसन िो गये र्े ,
भगवान कुन्दकुन्दािायथ भी १०-११ वर्थ की अवसर्ा में मुसन िो गये र्े तो यि बात िु नकर मोसियोों को ऐिा लगता िै सक
इनका सदमाग सफर तो निीों गया र्ा । दानी लोग िजारोों लाखोों रुपये का दान करते िैं तो कोंजू िोों को िुन कर िी दु ुःख
िोता िै । अिल में जो खुद रों ज में िै उिे खुशसदल कोई निीों सदखता िै । अगर अपना सदल खुश िोवे तो भगवान की
मूसतथ दे खकर किते िैं , भगवान िों ि रिे िैं । कभी-कभी मनुष्य किते िैं भगवान का रूप बदलता रिता िै , जो जै िे भावोों
िे भगवान को दे खता िै उिको वैिे िी भगवान सदखते िैं । झूठ बोलने वालोों को दु सनया झूठी िी मालूम पडती िै ।
मायािारी के सलए दु सनया िी मायावी मालूम पडती िै । धमाथ त्‍मा पुरुर् िबको धमाथ त्मा िी मानता िै । वि प्रत्ये क को दया
दृसि िे दे खेगा । यि भी अपना उद्धार करें । यि बात उिके मन में िमायी रिती िै । इिके सवपरीत पापी लोग िबको
पापी मानते िैं । सजिकी जै िी वृसत्त िै वि िवथ को वैिा िी दे खता िै । गुर्ण दे खने की आदत जब तक निीों िै तब तक
उिकी दृसि में गुर्ण दु गुथर्ण िी रिें गे । दोर्ी न िो तो दोर् दे खने की आदत न रिे ।
२७८. भावानुसार आचरण—एक मनुष्य जों गल में जा रिा र्ा । विाँ पर उिे एक सिोंि समल गया, प्रार्ण बिाने के
सलए पाि के िी एक पेड पर िढने लगा । ऊपर गया तो दे खता िै वृक्ष पर रीछ बैठा िै । रीछ किता िै ‘तुम घबडाओ
मत, तुझे निीों खाऊोंगा, शरर्ण में आये हुए की रक्षा िी करू ों गा । सिोंि नीिे खडा र्ा । रीछ नीोंद में आकर िोने लगा ।
इि िमय सिोंि किता िै सक िे मनु ष्य ! इि िमय रीछ िो रिा िै उिे तु म धक्‍का दे कर सगरा दो । तु म्हें मालूम निीों, जब
िम िले जावेंगे तब क्या रीछ तुझे खाने िे छोड दे गा? तब मनुष्य िोिता िै नीिे जाता हँ तो सिों ि िै , ऊपर रीछ बैठा िै
जो मुझे खा जायेगा, सिोंि का किना ठीक िै इिसलए यि िोि रीछ में धक्‍का सदया, सजििे वि सगर जावे । इतने में रीछ
की नीोंद खुली । वि रीछ िोंभल जाता िै । कुछ िमय बाद मनुष्‍य को नीोंद आने लगती िै तो सिोंि किता िै — ओ रीछ !
इि मनुष्य को िीधा मत िमझो यि बडा धोखेबाज जानवर िै । यि तुझे अभी िाल ढकेल रिा र्ा । अब तू इिे धक्का
दे कर सगरा दे , इिे दोनोों खावेंगे । उत्तर में रीछ किता िै —मनुष्‍य मुझे भले िी सगरा दे ता सकन्‍तु इि शरर्ण में आये हुए
को मैं निीों सगराऊोंगा । सजिके मन में जैिा भाव र्ा वै िा िी दे खता िै । मनुष्‍य के मन में धोखा व िन्‍दे ि र्ा इिसलए
उिने वैिा आिरर्ण सकया, सकन्‍तु रीछ के मन में निीों र्ा इिसलए उिकी रक्षा की । दोर् दे खने वाला स्‍वयों दोर्ी िै । गुर्णी
दू िरोों को गुर्णयुक्त िी दे खता िै तर्ा िर्थ मनाता िै । जैिी योग्द्‍यता िोती िै वैिी पररर्णसत िोती िै । पर पर िी िै और
सनजात्‍मा सनज िी िै । मैं भाव बनाने के सिवाय अन्‍य कर क्‍या िकता हों ? इिसलए जो वस्‍तु जैिी िै , उिके बारे में उिी
तरि के भाव बनावें तो मनुष्‍यजन्‍म िफल िै ।
२७९. िमापालन से ही मानव का महत्त्—भोजन करना, नीोंद लेना, भय करना और मैर्ुन करना काम तो पशुओों
में भी िै , मनुष्य भी उन्ही के अधीन रिा तो उिने क्‍या सकया? सिफथ पूछ-िीोंग रसि त पशु िी रिा । अगर कुछ ममत्व
कम करके धमथ के प्रसत रुसि निीों जगती तो वि ममत्व घटाना क्या रिा? धमथ समल जाये तो िम िनार् िैं । निीों तो आगे
िमारी रक्षा कौन करे गा यि सनमथलता तब तक निीों आ िकती, जब तक भेदसवज्ञान की सकरर्णें न फैल जावे । भेदसवज्ञान
के द्वारा िी बािरी पदार्ों िे मोि िट जावेगा । धमथ तो एक समश्री की डली िै , इिे सकिी भी अवस्‍र्ा में सकिी ओर िे खा
लो िमेशा समठाि दे गा । शादी िोने पर युवक िुिराल वाला िो जाता िै , तो दू िरे मनु ष्य किते िैं —भैया तुम्हारी तो िनोों
की खेती िै । अर्ाथ त् िना पै दा िोते िी उिकी भाजी खाने योग्य िो जाती िै । पत्ते खाते , डालें खाते िैं । बाद में बूट नये
दाने व सफर िुगते िैं , िोरा खाते िैं और बाद में काटने पर िने की दाल बनती, बेिन बनता, अनेक पकवान बनते िैं ।

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 67

यि िब पौसिक भी िोता िै उिी तरि ििुराल िे िर जगि आमदनी आमदनी िै । शादी में समला, दु िरते (गौना या
िालना) की सवदा में समलेगा, लडकी को धन समलेगा बच्‍िा हुआ तो समलना, पवथ त्यौिार आवे तो समलना, बच्‍िे शादी
लायक िोोंगे तो मामा ििायता दे गा । िर तरि िे लाभ िै —उिी तरि धमथ तो ऐिी खेती िै सजिमें िुख िी िुख िै । धमी
को मनुष्य गसत समली उिमें िुख, दे वगसत समली तो िुख, भोगभूसम में जीव हुए तो िु ख, िरमशरीरी हुए तो िुख, अद्धन्तम
लक्ष्य मोक्ष िै िी । धनी, सनधथन िभी ज्ञान सबना दु :खी िैं । ज्ञान ठीक िै तो आनन्द िी आनन्द िै ।
बादर िूक्ष्‍म शरीर भी जीव निीों िैं । राग द्वे र् भी जीव निीों । राग द्वे र् िे क्रोध, मान, माया, लोभ पैदा िोते िैं जीव की
सवकृत पयाथ य पुद्गल और जीव के समलने िे बनती िै । तीनोों जगि (बादर, िूक्ष्म शरीर, और राग द्वे र् में) जीव निीों िै ।
उिके सलए ६८ वी ों गार्ा िै । जो ये गुर्णसर्ान मोिनीय कमथ के उदयस्वरूप िैं सजन्हें सक सनत्य अिेतन किा गया वे
जीवस्वरूप कैिे िो िकते िैं ? ये गुर्णसर्ान भी जीव के निीों िैं ।
गाथा 68
मोहणकम्मस्सुदया दु वच्छण्णया जे इमे गुणट्ठाणा ।
कह ते हवंधत जीवा जे धणच्‍चमचदे णा उिा ।।६८।।
२८०. गुणसथानों की अचेतनरूपता का कथन—जो ये -गुर्णसर्ान मोिनीय कमथ के उदयस्वरूप िैं सजन्हें सक सनत्य
अिेतन किा नया िै वे जीव पैिे िो िकते िैं ? जो मोिनीय कमथ के उदयस्वरूप िैं , मोिनीय कमथ के उदय िे िोने वाले
िैं वि जीव निीों िैं । इिमें राग द्वे र् िब आ गये । तो वि जीव के निीों िै । वे कमथ के उदय के सनसमत्त िे िोते िैं । क्योोंसक
कमथ अिेतन िैं तब वि भी जीव के निीों िैं । जानकारी उल्टी जगि लग रिी िो तो उिे अिेतन कि दे ते िैं । िाररत्रासद
गुर्ण तो अिेतक िी िैं । जो भाव िेतन को जानने में निीों लगते वे िब भाव अिेतन िैं । िराथ फ का भाव शुद्ध िोना
खरीदने का िै , अगर वि ९० या ९५ टों ि वाले को शुद्ध िोना मान ले तब तो खूब दु कान िल िुकी । अगर ९० टों िी को
लेगा तो सििाब िे दाम दे गा या दो आना मैलसमसश्रत १४ आना शुद्ध भी लेवे तो उिी भाव के दाम दे गा, क्योोंसक उिकी
रुसि शुद्ध िोना लेने की िै । इिी तरि सजि ज्ञानी जीव को शुद्ध िेतना में रुसि िै , वि दे खता िै सक राग द्वे र् मोि अिेतन
िैं , इिसलए यि मेरे द्वारा ग्राह्य निीों िै । इन्होोंने आज तक मेरा काफी असित सकया । अब इन्हें अपने पाि निीों फटकने
दू ों गा । तेरिवाों िोंयोग केवली गुर्णसर्ान िै , उिमें मात्र केवलज्ञान व शुद्धता की मात्र दृसि निीों िै तर्ा िौदिवाँ गुर्णसर्ान
भी मात्र केवली की दृसि िे निीों बना । अन्यर्ा सिद्धोों को अयोगी गुर्णसर्ान कि दो । शुद्ध ति में जो रम रिा िै व िार्
िी अघासतया कमथ का िोंयोग िै , उिे १४ वाँ गुर्णसर्ान किा िै , इिी तरि जो शुद्ध िो तो गयी सकन्तु योग व अघासतया
कमथ का िम्बन्ध िै वि १३ वाों िै । कमथ प्रकृसत का सवपाक िोने िे अिेतन माने गये र्े िब । उदय िार् में िल रिे िैं ।
इिी िे इन िबको अिेतन किा िै । अरिों तदे व की भद्धक्त जब करते िैं , उिमें इतना िी तो किते िैं िे अरिों त भगवान
! आप िमवशरर्ण लक्ष्मी िे शोभायमान िो, दे वासधदे व िो, िोंिारी जीवोों को भविमुद्र िे सनकालने के सलए जिाज के
िमान िो, आपका परमौदाररक शरीर िै । ऐिा भी किते सक आप नासभ राजा के पु त्र िो तर्ा भरत, बाहुबसल के सपता
िो आसद । यि िब अिेतन का गुर्णगान िै ।
२८१. गुणसथानों की अचेतनरूपता का धववरण—मोिनीय कमथ के उदय िे िोने वाले सजतने भी पररर्णाम िैं अर्वा
मोि कमथ के सनसमत्त िे हुए सजतने भी सर्ान िैं वे िब भी अिेतन किे जाते िैं । वे जीव निीों िो िकते । जीव के िार् जो
कमथ लगे िैं वे तो जीव िैं िी निीों । जो शरीर लगा िै वि भी जीव निीों । जो रागासदक भाव िैं उनमें भी िैतन्य निीों । वे
भी जीव निीों । अब यिाँ किते िैं सक सजतने भी गुर्णसर्ानासदक अन्य सर्ान िैं वे भी जीव निीों िै । समथ्यात्व आसदक
गुर्णसर्ान पौद् गसलक मोि कमथ प्रकृसत के सवधानपूवथक िोने िे सन त्य अिेतन किे गये िैं । यिाँ गुर्णसर्ान आत्मसव काि
भी सद ख रिा और रुकावट आत्मा की वि भी िल रिी िै । तो इि वर्णथन में रुकावट पर दृसि दे कर अजीवति की बात
िमझना िै । जो सवकाि िै वि भी उि रुकावट के िम्बन्ध िे यिाँ मुख्य किा गया । जैिे सक जौ बोने िे जौ पैदा िोता
िै , गेहों बोने िे गेहों पैदा िोता िै । उरि का वि कायथ िै । तो पुद्गल कमथ का जो कुछ भी प्रभाव िै वि प्रभाव भी अिेतन
िै । एक यि कु जी िै शुद्ध जीवस्वरूप िे सभन्न अन्य ति को िमझने की । जो पुद्गल उपादान वाले पदार्थ िैं वे प्रकट
सभन्न िैं यि तो िमझ में स्पि िै सकन्तु आत्मा में भी जो प्रभाव जो पररर्णमन पौद् गसलक कमथ के उदय के सनसमत्त िे हुआ
वि प्रभाव भी अिेतन िै और उिमें युद्धक्त यि दी जा रिी िै सक यव पूवथक यव िी िोता िै । इिी प्रकार पुद्गलकमथ के
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उदय पूवथक जो भी बात िोगी वि अिेतन िोगी । इि प्रकार िौदि गुर्णसर्ानोों में कमथ का प्रभाव पडा हुआ िै । अतएव
वे िब अिेतन किे गए िैं , और गुर्णसर्ान में रिकर भी जो िम्यक्‍त्‍व िसित गुर्णसर्ान िैं उनमें रिकर भी जो रागासदक
के गुर्णसर्ान िैं उनमें सजन ज्ञानी पुरुर्ोों ने आत्मा का ध्यान सकया, स्वरूप िोिा, भेदसवज्ञान सकया, ज्ञान में उपयोग बनाया,
उन्होोंने तो परख सलया सक जो िैतन्यस्वभाव िे व्ाप्त िै िो तो आत्मा िै और उरि िैतन्यस्वभाव में जो निीों व्ाप रिा,
ऐिा जो कुछ भी ति िै वि अिेतन िै । इि तरि रागद्वे र् मोि िभी इन परभावोों में यि बात िमझना िासिये सक ये
पुद्गलपूवथक िोते िैं , सनत्य अिेतन िैं । इतना अोंश सनरखकर एक सनयम िे अिेतन की बात किी जा रिी िै । इििे
यि सिद्ध िै सक रागासदक भाव जीव निीों िैं ।
२८२. जीवस्वरूप समझ लेने पर मोह का अनवकाश—तब सफर जीव कौन िै? इि प्रकरर्ण में जीवस्वरूप वि
किा जा रिा िै सक सजिका ध्यान करने िे अध्यात्मयोग बनता िै । ििमुि िी ज्ञान में उपयोग का िमा लेना बन िकता
िै । यि जीव स्वरूप का वर्णथ न सकया जा रिा िै । ज्ञान में ज्ञानस्वरूप िी रिे ऐिा उपयोग बनाने के सलए जो कुछ िमझना
िासिए उि जीवत्व की बात किी जा रिी िै । तब सफर जीव कौन िै? जीव वि िै जो अनासद िे िो, अपने स्वरूप िे
अिल िो, स्विम्वेद्य िो । यि िैतन्यभाव अनासद िै , स्वयोंसिद्ध िै , स्वतुःसिद्ध िै । िूँसक ित् िै अतएव अनासदसिद्ध िै ।
स्वभाव और स्वभाववान में अन्तर निीों अत: एक िी बात िै । उिे न स्वभाव कि िकते , न स्वभाववान क्योोंसक एक वस्तु
को िमझने के सलए जब भे दव्‍यविार करते िैं तो पसिला भेद यिाँ िे उठा—
स्‍वभाव और स्‍वभाववान । इििे आत्‍मा अनासदकाल िे िै । आत्‍मा में जो िैतन्‍यस्‍वभाव िै वि भी अनासदकाल िे िै और
अनन्‍तकाल तक रिे गा । दे खो—िम आप जीव अनासद िे िैं और अनन्‍तकाल तक रिें गे । िम आपका वि स्‍वरूप िै ।
जो अनासदकाल िे िै अनन्‍त काल तक रिे गा । ऐिे अनासद अनन्‍त िैतन्‍यस्‍वरूप का इि जगत् में कोई कुछ लगता िै
क्‍या ? बेटा, माता, सपता, समत्र, बन्‍धु आसद ये एक दू िरे जीव के कुछ लगते िैं क्‍या ? ऐिी बात तो निीों िै । मेरा मैं हों , मैं
ित् हों , सित् ित् हों , अपने आपमें पररपूर्णथ ित् हों ऐिा जानकर स्‍वयों अनुभव कर लेंगे सक इिको मोि करने का अवकाश
किा ?

२८३. मोह की व्‍यथाता का अवगम—िे आत्‍मन् ! क्‍योों व्‍यर्थ मोिभाव ला रिे , उििे तेरा कोई अर्थ कायथ निीों िोने
का, कोई अपना काम निीों सनकलने का । मोि सवकल्‍प करना ऐिे िी व्‍यर्थ िै जैिे सक िम सकिी भी दू िरोों को दे खें सक
लोकव्‍यविार में भी दू िरे किलाते िैं उन पर मोि करें । जैिे वि व्‍यर्थ िै , सकन्‍िीों िी धुन िोती िै , सकन्‍िीों िे स्‍नेि िोता िै
। दू िरे सबरादरी के बालक िे ऐिा स्‍नेि जग जाता िै सक जीवनभर उिे सफर अपना माने हुए रिता िै । उिे पढाया
सलखाया, बडा सकया, मेरा िी यि बालक िै ऐिा माना । तो उि पालन पोर्र्ण करने वाले को अन्‍य लोग िमझाते िैं सक
भाई तुम क्‍योों इििे इतना मोि कर रिे ? व्‍यर्थ का मोि िै । जैिे कोई पुरुर् कुत्ते िे बडा प्‍यार करते िैं । उिे िौबीिोों
घोंटा िार् रखते , उिे अपने िार् ले जाते , उिके िार्-िार् खुद िलते जाते , मोटर में बैठाकर ले जाते, बडा प्‍यार उििे
करते िैं तो इतनी बडी टिल करने वाले पुरुर् के प्रसत जैिे िम आप लोगोों के सित्त में यि बात बनती िै सक दे खो यि
कैिा व्‍यर्थ का मोि िै , इििे इिे समलेगा क्‍या ? न इि कुत्ते िे इिकी िोंतान िलती िै , न कुलपरम्‍परा िलती िै , न कोई
यि िलाि दे िके, न कोई सवपसत्त में यि धीर बोंधा िके । कुछ भी तो काम निीों िरता िै उि कुत्ते िे , लेसकन मोि उििे
सकतना बडा िै सक उिे िार् सलए सफरते िैं । तो उि कुत्ते के िम्‍बोंध में जैिे उिका व्‍यर्थ मोि िै योों िमझ में आता िै
इिी तरि लोकव्‍यविार में खुद के माने हुए बच्‍िे िे भी मोि करने की बात ऐिी िी व्‍यर्थ िै । इििे क्‍या इि आत्‍मा का
िोंतान िलेगा ? आत्‍मा का िोंतान िै िैतन्‍य, सित्‍स्‍वरूप । क्‍या उि सित्‍स्‍वरूप का कुछ बनता िै ? कुछ काम आयेगा क्‍या
? बद्धल्क बहुत-बहुत इिकी बरबादी का कारर्ण बनता िै । तो व्‍यर्थ िै ना । तो जैिे व्‍यर्थ अन्‍य का मोि सदखता िै वैिे िी
यिाँ माने हुए कुटु म्‍बीजनोों का मोि व्‍यर्थ का मोि िै ।

२८४. आत्‍मस्‍वरूप की अचधलतता—अपने स्‍वरूप को दे खो, वि अनासद अनन्‍त िै , अिल िै । जो मेरे में स्‍वरूप
िै वि स्‍वरूप कभी िसलत िोगा क्‍या ? िम उिको न जानें , उििे िम अपररसित रिें और अपररसित रिकर सवपरीत
सवकल्‍प सकया करें , यिाँ तक भी कर डालें कोई सवकल्‍प सक मैं आत्‍मा िी निीों हों । आत्‍मा का कुछ भान भी न रखें । दे ि
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को िी आत्‍मा िमझकर अिों कार में बना रिे , इतना भी कोई सवपरीत भटका हुआ िै सफर भी इि जीव का जो
िैतन्‍यस्‍वरूप िै वि क्‍या द्धखिक गया ? वि तो िसलत निीों िोता । तो मैं वि हों जो अिल िो । अपनी िमझ पड जायेगी
तो भला िो जायेगा । न िमझ पडे गी तो िोंिार में रुलेंगे । सकन्‍तु स्‍वरूप तो िबका विी िदा रिता िै , उि स्‍वरूप को
िम िमझना िािें तो इद्धियोों िे तो निीों िमझ िकते । आ खें गडाकर दे खें तो क्‍या आत्‍मा का सनज िैतन्‍यस्‍वरूप ध्‍यान
में आयेगा ? सकिी भी इद्धिय िे िमझना िािें तो वि िमझा निीों जा िकता । स्‍विम्‍वेद्य िै वि अर्ाथ त् स्‍व ज्ञान िे िी वि
जाना जाता िै । ज्ञान िे िी आत्‍मा िम्‍वेद्य िोता िै । ऐिा जो िैतन्‍यमात्र िै वि जीव िै , इिकी जब दृसि बनती िै तो बडी
उत्‍कृष्‍टता िे वि एकदम प्रकाशमान िोता िै , मैं वि हों । ये रागासदक भाव, ये िमस्‍त अन्‍य भाव ये मैं निीों हों ।

२८५. सहज स्‍वभाव की प्रतीधत धिना धवकारों को मूलत: नष्‍ट करने की अक्षमता—दे द्धखये —जब तक इि ििज
स्‍वभाव की प्रतीसत निीों िोती सक यि मैं हों तब तक यि सवर्य कर्ायोों को मूलत: दू र करने में िमर्थ निीों िो िकता ।
सजिको इि लोकव्‍यविार िे न अपना िम्मान अनुभूत िो, न अपमान अनुभूत िो और न सकिी परपदार्थ की पररर्णसत
िे यि अपने में क्षोभ मिा िके ऐिी सवसशष्‍टता उि आत्‍मा में जगती िै , सजि आत्‍मा ने अपना स्‍वरूप ििज ज्ञानमात्र
अोंगीकार सकया िै , मैं तो यि हों , मैं और कुछ हों िी निीों, इि मुझको लोग जानते िी निीों । जो लोग क्रुद्ध िो रिे िैं , मुझे
गासलया दे रिे िैं , कुछ सवपरीत िल रिे िैं उन लोगोों ने इि मुझ ज्ञानमात्र ति को जाना िी निीों । वे मेरे को क्‍या किें गे
? मैं अनासद अनन्‍त अिल हों , स्व-िम्‍वेद्य हों , इिे कोई जानता िी निीों । तो अज्ञानी जन कुछ भी िेष्‍टा करें उि िेष्‍टा िे
मेरे को क्‍या िोगा ? ज्ञानीजन भी िेष्‍टा करें तो उनकी िेष्‍टा िे मेरे में क्‍या िोता िै ? मैं पररपूर्णथ स्‍वयों ित् पदार्थ हों । मैं
स्‍वयों सजि रुसि में हों उिके अनुिार बाह्य वृसत्त दे खकर पररर्णसत सनरखकर मैं प्रभासवत िोता रिता हों , पर हुआ अपने िी
पररर्णमन िे । यि मैं िैतन्‍यमात्र जीव हों , इिमें रागासदक सवकार निीों िै । सजि दृसि में यि बात किी जा रिी िै उि दृसि
को लक्ष्‍य में सलए सबना, उिके अनुरूप अपनी बुद्धद्ध सकये सबना यि ममथ ज्ञात निीों िोता िै । योों तो इि दृसि के अपररसित
जन शोंसकत रिें गे । क्‍या किा जा रिा िै सक जीव में रागासदक निीों िोते । रागासदक अजीव िैं , ये पु द᳭गल पररर्णाम िे
उत्‍पन्‍न हुए िैं आसदक जो-जो भी कर्न अभी सनकले िैं , वे िब अटपट लगेंगे । जब दृसि और लक्ष्‍य ििी बन जायेगा सक
मैं इिे दे खकर िोि रिा हों और ऐिा जानकर मेरे को करने के सलए क्‍या काम रिता िै ? जब यि बात ध्‍यान में जोंिे तो
यि बात ििज ठीक मालूम िोने लगती िै ।

२८६. जीव का धनदोष स्‍वरूप—एक बात अत्‍यन्‍त स्‍पष्‍ट िै सक पदार्थ का स्‍वरूप वि किा जाता िै सजििे पदार्थ
रिा हुआ िै । पदार्थ का अिाधारर्ण स्‍वरूप वि हुआ करता िै सक जो स्‍वरूप उि िी पदार्थ में रिे , अन्‍यर्ा जो स्‍वरूप
सजतने में न रिे गा वि उतने का स्‍वरूप किलायेगा । जीव का स्‍वरूप क्‍या िै ? कोई किता िै सक रागासदक जीव के
स्‍वरूप िैं क्‍योोंसक रागासदक िे िी जीव का स्‍वरूप समलता िै । यि जीव िै , यि बात िमझ में बैठती िै सक जब उिकी
रागासदक िेष्‍टा िमझ में आती िै । दे द्धखये ना—जो प्रेम करता िै , द्वे र् करता िै , आकुलता, शाों सत, मौज आसदक मानता
िै विी तो जीव िै । तो सकन्‍िीों की दृसि में िै सक ये रागासदक सवकार जीव िैं । तो कोई पुरुर् इििे आगे बढते िैं तो यि
ध्‍यान में उनके आता सक जीव का स्‍वरूप अमूतथपना िै । जो अमूतथ िै िो जीव िै , सजिमें रूप, रि, गोंध, स्‍पशथ निीों िै ।
अन्‍यवासदयोों में भी यिी बात समलती िै सक आत्‍मा में रूप, रि, गोंध, स्‍पशथ निीों िै । तो जो अमूतथ िै िो आत्‍मा । सकन्‍िीों ने
जीव का लक्षर्ण अमूतथपना किा िै , सकन्‍तु ये दोनोों िी लक्षर्ण जीव के ििी निीों िैं । रागासदक सवकार जीव के स्‍वरूप
स्‍र्ूलरूप िे तो योों निीों िैं सक रागासदक सवकार न भी िोों तब भी जीव कोई िोता िै । जो मुक्त िो गए िैं , केवल िो गए
िैं , ऐिे सिद्ध परमात्‍मा के किा राग िै , पर जीवत्‍व तो िै । जीवस्‍वरूप तो निीों समटा, और िूक्ष्‍मदृसि िे दे खो तो ये
रागासदक जीव के स्‍वरूप निीों िैं । जीव के प्रार्ण निीों िैं । जीव के िि के सवकाि निीों िैं । स्‍वत: जो जीव में िि जिा
पाया जाता िै अर्वा जो अिाधारर्ण िैतन्‍यस्‍वभाव िै उिके वृसत्त निीों िै , इि कारर्ण रागासदक सवकार जीव निीों िै । तो
जीव वि िोगा जो अमूतथ िो, सजिमें रूप, रि, गोंध, स्‍पशथ निीों । किते िैं सक अमूतथपना भी जीव का लक्षर्ण निीों िै क्‍योोंसक

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अमूतथपना धमथ, अधमथ, आकाश, काल द्रव्‍योों में भी पाया जाता िै । जो अमूतथ िो िो जीव िै ऐिा किना तो युक्त निीों,
क्‍योोंसक आकाश आसदक भी अमूतथ िै , सफर जीव किा ? जीव का स्‍वरूप स्‍वभाव अभी निीों आया । तो अमूतथ किने में
तो असतव्‍याद्धप्त दोर् िै , रागासदक किने में अव्‍याद्धप्त दोर् िै । जीव का शुद्ध लक्षर्ण िै िैतन्‍यभाव ।

२८७. आत्‍मधहत की अधभलाषा होने पर सन्‍मागा पाने की सुगमता—कुछ आत्‍मसित की बुद्धद्ध जगे, अों त: कल्‍यार्ण
की प्रेरर्णा बने, इि िोंिार में भटककर मुझे क्‍या लेना िै ? मैं क्‍या पा िकूोंगा ? कुछ भी लाभ निीों िै । इि िोंिार िे इि
जन्‍ममरर्ण िे सनवृत्त िोने में िी मेरा भला िै । ऐिी भीतर में बुद्धद्ध जगे और इन िब अजीवोों िे परभावोों िे उपेक्षा िोकर
जीवत्‍व के प्रसत रुसि जगे तो यि आत्‍मा स्‍वयों अनुभव कर लेता िै सक यि मैं जीव हों क्‍योोंसक वि स्‍वरूप तो स्‍वयों उल्‍लसित
िोता िै । जैिे सकिी स्रोत में िे पानी एकदम प्रकट िोता िै इिी प्रकार स्‍वयों में िे यि ज्ञानस्‍वरूप िैतन्‍यस्‍वरूप स्‍वयों
प्रकट िोता िै , उि ज्ञान के उपयोग में । सजिने शुद्ध िोंकल्‍पपूवथक ऐिा अपना पररर्णमन सकया िै सक पर िे अलग िटना
और स्‍व में रुसि करना उिे स्‍वयों िी प्रकट िो जाता िै । तब यि पता पडता िै —ओि वि िारा व्‍यर्थ का नाि र्ा । ऐिा
दृसि में आकर जब ध्‍यान आता िै —ओि जो दु ष्‍कमथ सकये वे समथ्‍या र्े । जैिे प्रसतक्रमर्ण में पढते िैं सक मेरे दु ष्‍कृत समथ्‍या
िोओ । तो वि केवल पढने की िीज निीों िै और न योों सवनती करने िे दु ष्‍कृत समथ्‍या िोते िैं सकन्‍तु सजिे शुद्ध अोंतस्‍ति
की दृसि में यि भान िोता िै वि िब व्‍यर्थ र्ा, मेरे स्‍वरूप िे बाह्य र्ा, झूठ र्ा, सवपरीत र्ा तो मेरा उपयोग अब ऐिा िी
िमझता रिे , इिी के मायने िैं सक वि दु ष्‍कृत समथ्‍या िोवे । उन दु ष्‍कृतोों िे उन स्‍वभावसवरोधी पररर्णसतयोों िे न्‍यारे रिकर
मैं स्‍वयों के िैतन्‍यस्‍वरूप को पा लूों, इि प्रकार जो जीव जीव और अजीव की िोंसध पर ज्ञान की करोोंत िलाता िै , जैिे सक
समस्‍त्री लोग जानते िैं सक सकिी काठ को िीरने में यि िै िोंसध काठरूप, वि िोंसध किीों बािर िे निीों आयी, काठ में िी
काठ के रूप में बन गयी । िोता िै ऐिा—आप बहुत िे काठोों में यि पायें गे सक एक धारा ऐिी बनी जो सबना टू टी हुई
इि ओर िे िली और इि ओर िे गयी । आत्‍मा में िूक्ष्‍मदृसि िे सविारो तो िैतन्‍यभाव और सवकारभाव । सवकारभाव
सकिी बाह्य पदार्थ के पररर्णमन रूप निीों िैं , वे स्‍वयों के पररर्णमन रूप िैं , िैतन्‍यभाव स्‍वयों का स्‍वभाव भाव िै । अब यिाँ
पर एक िोंसध सनरखना िै । वि िोंसध क्‍या िै ? जिा िैतन्‍यरि िै वि जीव िै , जिा िैतन्‍यरि निीों, िेतना भाव निीों वि
अजीव । रागासदक भावोों में रज्‍यमानता तो रिती िै । वि राग रिने की जो वृसत्त िै , उि वृसत्त में ज्ञानभाव निीों िै । ज्ञानभाव
वाले के सबना राग िोता निीों, सति पर भी जो रागभाव िै वि ज्ञानभाव निीों िै ऐिे बीि िोंसध में ज्ञान की करोोंत िलायी
जाये , और जब दो भाग िो जाते िैं तो विाँ अपने को अपनाया जाये यि हों मैं ज्ञानस्‍वरूप, सित्‍स्‍वरूप । यि अन्‍य मैं निीों
हों ।

२८८. शुद्ध जीवस्‍वरूप के परख की प्रयोजकता—िैतन्‍यमात्र अपने आपके स्‍वरूप को जो मनुष्‍य परखता िै
उिकी दृसि में यि बात आती िै और तब यि ज्ञायकस्‍वभाव िैतन्‍यभाव उिके उपयोग में बडे वेग िे शोभायमान िोता
िै । इि प्रभुता को पाने के सलए िम आपका उद्यम यिाँ िे िी िले—मैं ज्ञानमात्र हों , तो ज्ञान ज्ञानभाव िै जाननस्‍वरूप
विी मैं हों ज्ञानमात्र । इि पर दृढ प्रतीसत िो । मैं अन्‍य निीों । लोग यसद सनन्‍दा करते िैं , गाली दे ते िैं , सवरुद्ध पररर्णमते िैं ,
इन िबके िोते हुए यसद यिाँ सवह्वल िो जाते िैं , क्षुब्‍ध िो जाते िैं तो िमझना िासिये सक ‘मैं ज्ञानमात्र हों ’ — ऐिी दृढ
प्रतीसत का बल छोडे हुए िैं तब इतना उपयोग भटक रिा िै । मैं सवशुद्ध ज्ञानमात्र हों—ऐिी दृढ प्रतीसत रिे तो सफर क्षोभ
आने का क्‍या कारर्ण ? िम आपमें इि प्रतीसत की दृढता बननी िासिये । मैं क्‍या हों ? ऐिा प्रश्‍न तो उठता िी िै । लोग
खुले रूप में पूछते भी िैं सक मैं क्या हों ? उिका उत्तर मात्र इतना िै सक मैं ज्ञानमात्र हों , केवल ज्ञानस्‍वरूप हों । जानन
भाव में उपयोग बनाया तन्‍मात्र अपने को माना तो इि ज्ञानमात्र स्‍वरूप के पररिय िे वे िब बातें ििज िो जाती िैं जो
आत्‍मकल्‍यार्ण के सलए जीव को करना िासिये । जो िैतन्‍यभाव िै िो मैं जीव हों और इन भावोों के असतररक्त रागासदक
सवकार शरीरासदक जो-जो कुछ भी पर िैं , परभाव िैं वे िब मैं जीव निीों हों । मैं जीव निीों हों , इिका अर्थ हुआ सक ये िब

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अजीव िैं । ये िब अजीव िैं इिका अर्थ िै सक ये िब मैं जीव निीों हों । इि तरि अजीव िे िटकर जीव में लगने का
प्रयोजन जीव के शुद्ध स्‍वरूप के जानने का हुआ ।

२८९. शुद्ध आत्‍मस्‍वरूप की भच्छक्त—प्रभुभद्धक्त आत्‍मस्‍वभाव की उपािनापूवथक िोती िै तो विाँ मुख भाव िै सक िे
भगवान ! आप शुद्ध िैतन्‍यस्‍वरूप िो । सजतना आदर आत्‍मस्‍वरूप में िोगा उतनी िी भगवान की उपािना यर्ार्थरूप
में करोगे । स्‍वयों अपने बारे में सकतनी-सकतनी बातें िोिते रिते िैं यि िब सवकाररूप िैं । उनिे सनज का कुछ भला
निीों िोता िै । दृसि शुद्ध िैतन्‍य पर आना िासिये । पर का भान िी न िोवे , इतना अपने को शुद्ध दे खें, सनसवथकार दे खें सक
मुझमें सकिी का प्रवेश िी निीों िै । इतना शुद्ध इतना न्‍यारा अनुभव करें । बाजार में सजि तरि सलखा रिता िै ʻयिाों शुद्ध
दू ध समलता िै ’ इिका मतलब यि न िमझें सक यिाँ त्‍यासगयोों के सलये शुद्ध दू ध निाकर सनकाला जाता िै या िाफ मोंजे
बतथनोों में कुलीन आदसमयोों द्वारा िी स्‍पशथ सकया जाता िै । िो बात निीों िै । भाव केवल इतना िै सक इि दू ध में पानी की
समलावट निीों िै और मक्‍खन भी निीों सनकाला गया िै । सजिे मखसनया िपरे टा किते िैं । इिी प्रकार शुद्ध आत्‍मा क्‍या
? जिा पर की समलावट निीों िै और शुद्ध िैतन्‍य सनकाला निीों िै । न यिाँ राग िै , न द्वे र् िै और न मोि िै , मैं यिाँ बन्‍धन
में क्‍योों पडा, अपने शुद्ध भावोों में पर की समलावट निीों िै । खुद का िार भी निीों सनकाला िै । जो ज्ञान का िम्‍बोंध िै उि
िार को भी निीों सनकाला िै । मुझे परपदार्थ िे िुख समलेगा यि सवश्‍वाि निीों िै । मैं ज्ञानानन्‍दकरर पररपूर्णथ हों । वि तो
मेरा स्‍वभाव िी िै । जैिे अग्द्‍सन की उष्‍र्णता, अग्द्‍सन में अन्‍यत्र िे निीों आती उिी तरि आत्‍मा में िुख भी अन्‍यत्र िे निीों
आता िै ।

२९०. औपाधिक सुखों की आशा के पररहार में समृच्छद्धलाभ—दू िरोों िे िुख की आशा मत रखो तब स्‍व में िुख
रूप पररर्णमोगे िी । जैिे करोडपसत िेठ के गुजर जाने िे लडका नाबासलग िोवे तो िरकार उिकी िब िोंपसत्त को
कोटथ कर लेती िै । और प्रसत माि उिके खिथ के सलए पा ि िौ रुपया भेज दे ती िै । तो वि िमझता िै िरकार मुझ
पर बडी अनुकम्‍पा कर रिी िै जो ५०० रु. मािवार भे ज दे ती िै । लेसकन उिे यि मालूम निीों सक िमारी करोडोों की
जायदाद िरकार अपने सवभागोों में लगाये हुए िै , मैं उिके लाभ िे वोंसित हों । यि िब नाबासलग िोने िे िोिता िै ।
सकन्‍तु जब बासलग िो जाता िै तो किता िै यि तो इतनी मेरी िोंपसत्त िै और कोटथ में प्रार्थनापत्र भेजकर वि अपनी
जायदाद वासपि ले लेता िै और उिका इच्‍छानुकूल उपयोग करता िै । कमों ने नाबासलग दे खकर समथ्‍यादृसि िोने िे
आनन्‍द को कोटथ कर सलया िै । एवज में पुण्‍य के फलरूप में िुख समलने लगा । कमथ िरकार ने िुख सदया तो बडा
अच्‍छा मानते िैं । किते िैं भाग्द्‍य जग गये —धन समल गया, नौकरी समल गई स्‍त्री बच्‍िोों के िोंयोग पर िी मोिी जीव खुश
िोने लगते िैं । यि नाबासलक इद्धिय-िुखोों के गुर्ण गाता रिता िै । जब बासलग िो जाये तो यि िम्‍यग्ददृसि
्‍ कमथ के सवरुद्ध
केि दायर करता िै और किता िै जो तेरे उदय िे समला िै वि मुझे निीों िासिए, उिे वासपि ले जाओ । अपनी पैरवी में
जीत जाता िै तब स्‍वात्‍मानन्‍द का धनी बन जाता िै । यिी उपाय तो सकये िैं ज्ञासनयोों ने , िो अरिन्‍त सिद्ध बन गये िैं ।
उतना िी धन अपने पाि िै । सफर कमों िे काटने में नाबासलग क्‍योों बन रिे िो ?

२९१. कमाधवपाक भावों की अचेतनता—यि प्रकरर्ण िल रिा िै कमों के उदय िे िोने वाले जो भाव िैं वे अिेतन
िैं क्‍योोंसक अिेतन कमथ के उदय िे िोते िैं । िेतन सितदृसि में एक ज्ञानोपयोग को माना िै , यि ज्ञान अिेतन में फोंिकर
अिेत िोता िै । िेतन में रिकर ििेत (जाग्रत) रिता िै । रागासद कमथपूवथक िैं । जो सजि पूवथक िो वि वि िी िो जाता
िै । इिी प्रकार िे पुद᳭गल के सवपाक िे पु द᳭गल िी िोगा । कमथ भी एकान्‍त दृसि िे शुद्ध सदखता िै । कमों ने िोंिारी
जीवोों को जकड रखा िै यि व्‍यविार िै और वे जकडने िे भी छूटना निीों िािते िैं । रागासद भाव सजि कमथ को सनसमत्त
पाकर हुए िैं वि उिके िैं । ऐिे जीव को शुद्ध स्‍वभाव में दे खने का एक यि भी उपाय िै सक सनसमत्त की ओर िे िोने
वाले को सनसमत्त का िी जानकर उििे अपने को पृर्क् दे खो । पौद᳭गसलक जो कमथ प्रकृसतयाों िैं वे अिेतन िैं , रागासदक
का कारर्ण िैं । गुर्णसर्ानोों को अिेतन कि सदया िै । िेतनास्‍वरूप की दृसि िे च्‍युत िोकर जो भी भाव िैं उन िबको
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अिेतन किा िै । क्‍योों किा िै ? िेतनस्‍वरूप िे जो सभन्‍न िै उिे आत्‍मद्रव्‍य माने वि अिेतन िैं । इििे अिेतन राग िी
निीों िैं , द्वे र्, मोि, कमथ, शरीर, वगथ, वगथर्णायें , स्‍पधथक यि िब अिेतन िैं । आत्‍मा में िोने वाले उदय के स्‍र्ान, मागथर्णारूप
िे जो दे खे जाते वे िोंयम के स्‍र्ान ये िब पुद᳭गलपूवथक िोते िैं इििे अिेतन िैं ।

२९२. सारभूत तत्त्ज्ञान—कोई भी सवकार मेरे निीों िैं , इन िबिे मैं सभन्‍न हों । यि िब गन्‍दगी िै , सवडम्‍बना िै ऐिा
जानना बडा िारभूत ति ज्ञान िै । यि मन में जम जाये सक रागासदक पुद᳭गलपूवथक िैं इिसलए यि िब उिके नाटक
िैं । मैं िेतनस्‍वरूप आत्‍मा हों यि अनुभव िो जाये तो इन बातोों िे सपण्‍ड छूट जाये सक मेरी बात सगर गई, मेरी सनन्‍दा िो
गई, मेरी पोजीशन सगर गई, िमारा अपमान एवों िम्‍मान िो गया । िमारी जानकारी जो िल रिी िै वि भी अिेतन िै ।
स्‍वभाव के असतररक्त िब अिेतन िैं । स्‍वभाव की जो दृसि करे िो िेतना िै । जीव सकतनी जगि में भ्रमर्ण कर रिा ।
जो-जो जानकारी अन्य सवद्याओों में लग रिी वि भी मेरी निीों, तब क्‍या रिा ? अन्‍य न मेरी कोई वस्‍तु िै , अन्‍य न मेरा ति
िै । धन वैभव कुटु म्‍ब मेरा निीों, पुद᳭गल िी िवथत्र नािता िै , यि दृसि कैिे आई? जब जीव को अत्‍यन्‍त शुद्ध दे खा ।
अन्‍य–अन्‍य सजतनी बातें पै दा हुई वि िब पौद᳭गसलक िै । अशुद्ध सनश्‍िय िे रागासदक रागासदमय आत्‍मा के िैं , शुद्ध
सनश्‍िय िे आत्‍मा के निीों िैं । शुद्ध जीव को शुद्ध िी सनिारना । दपथर्ण के िामने लाल द्धखलौना रख लेने िे दपथर्ण िी लाल
प्रसतभासित िोने लगता िै । किो वि प्रसतसबम्‍ब सकिका िै ? दपथर्ण का किने िे अन्‍य का निीों रिा तो सफर दपथर्ण में िदा
रिना िासिये । दपथ र्ण को शुद्ध िी दे खें तो किें गे, वि छाया द्धखलौना की िै । इिी तरि राग सवकार आसद पुद᳭गल के
िी िैं । रागासदक पर िैं जीव को पूर्णथ शुद्ध िी दे ख रिे िैं यिाँ । जो अनासद िै , अिल िै , अनन्‍त िै , ज्ञायकस्‍वरूप िै वि
मैं हों । पुद᳭गल और जीव समलते हुए भी एक स्‍वभावरूप िो जाये िो बात निीों िै । यि स्‍विोंवेद्य िै । जीव अपने द्वारा
िी जानने योग्दय्‍ िै । स्‍पशथन, रिना, घ्रार्ण, िक्षु और कर्णथ िे कोसशश करें तो विाँ व्‍यापार निीों िलता िै । वि स्‍वयों स्‍वभाव
िे जानता िै । जीभ जीभ का स्‍वाद निीों जानती । िार् स्‍वयों िार् की गमी को निीों जानता िै । जब बािर भी यिी व्‍यवस्‍र्ा
िै तो बताओ आत्‍मा इों सद्रयोों के द्वारा जानने में निीों आता, इिमें क्‍या िोंदेि िै ? िब वृसत्तयाों िमाप्‍त िो जावें तो कुछ भी
न रिे तो आत्‍मस्‍वभाव िमझ में आ जायेगा ।

२९३. रागचेषटा ्‍ का समाचार—जो वस्‍तु अच्‍छी लगी उिको समत्र मान सलया तर्ा जो अच्‍छी न लगी उिे शत्रु मान
सलया तो प्रतीत िोना िासिए सक सवर्य कर्ाय िमारे शत्रु िैं , तुम्‍िें जो अच्‍छा लगे उिकी बसल दे दो । लेसकन िो रिा िब
सवपरीत िै । जैिे सक कुम्‍िार कुम्‍िाररनी िे जीते िो गधी के कान मरोडे । कुम्‍िार र्ा वि स्‍त्री िे निीों जीत पाया तो गधी
बोंधी र्ी पाि में, िो उिको मार सदया । दे खा जाता िै बहुत-िी माताओों को गुस्‍िा आता िै तो कारर्ण तो कुछ और िोता
िै सकन्‍तु बच्‍िोों को पीट दे ती िैं । यर्ार्थ में राग को बसल करना िासिये सकन्‍तु सवर्य कर्ायोों को निीों छोड िके िो पशुओों
को बसल करने लग गये । सवर्य कर्ायोों को मारे तो बसल िै । सजििे आत्‍मस्‍वभाव िमझ में आ जावे । मिादे व सदगम्बर
जैन मुसन िी तो र्े । ११ अोंग ९ पूवथ के पाठी र्े । उि िमय उनका बडा प्रभाव र्ा । िभी आकर तिोपदे श िुनते र्े ,
आत्‍मज्ञान प्राप्‍त करते र्े । जब उन्‍िें दशवाों पूवथ सिद्ध िोने को आया तो अनेक दे वता आकर उनिे सवनय करके बोले,
आप जो किें िो करें उनके िरर्णोों में िभी कुछ िमपथर्ण करने को तत्‍पर िो गये । बि, विाँ वे स्‍व िे च्‍युत िो गये तो
इतने स्‍ने ि में आ गये सक पवथत राजा की पुत्री पावथती िे सववाि कर सलया । दे वता लोग एवों दे सवया उनकी िेवा में
उपद्धसर्त हुई र्ी, इििे राग िे द्रवीभूत िोकर राग में गये ।

२९४. सहज परमात्‍मतत्त् की अन्‍त:प्रकाशमानता—स्‍वभाव अिल िै । िुवर्णथ में कुछ भी पदार्थ समला िो तो भी
िुवर्णथ अपने स्‍वभाव को निीों छोडता । जमीन पर लोिे की कीलोों के िार् अन्‍य कुछ भी पडा रिा तो िुम्‍बक लोिे को िी
ग्रिर्ण करता िै । िेतना का किना िै िम स्‍वभाव की तरफ िे कभी निीों बदलेंगे तु म भले बदल जाओ । िेतन के पाि
आओ तो इिका िदै व उपयोग करो व लाभ लो, ऐिा जो िेतन िै वि अपने स्‍वरूप में प्रसतभािमान िो रिा िै । जीव
का काम ज्ञानमात्र िै । जीव िदा अपने आपमें प्रकाशमान िै । यि शरीर जीव निीों िै जो सक दपथर्ण में शरीर को दे खकर
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फूले निीों िमाते , बार-बार दे खते , शृोंगार करते , क्रीम, पाउडर, सलसपद्धस्टक लगाते िैं , क्‍या सवपरीत कायथ िै । दे ि तो यि
अिेतन िै । एक बार एक राजा जीव िमझ में निीों आने िे दु :खी र्े, क्‍योोंसक जीव उनकी आों खोों िे निीों सदखता र्ा । वि
घोडे पर िवार िोकर पुरोसित के पाि पहुों िे और बोले तुम िमें दो समनट में जीव सदखाओ । पुरोसित ने किा जो आज्ञा
िरकार । सकन्‍तु एक शतथ िै आपको िमारे िब किूर माफ करना िोोंगे । िाँ , कर दें गे । तब पुरोसित ने िों टर राजा िे
लेकर राजा में िी ३-४ िों टर जमा सदये । तब राजा दु :खी िोकर सिल्‍लाने लगा और ‘िे भगवन ! बडी वेदना िै ’ यि कि
उठा । तब पुरोसित ने बताया सजिे दु :ख अनुभव हुआ वि जीव िै तर्ा सजिे पु कारा िै वि परमात्‍मा िै । स्‍वभाव में एकाग्र
िोकर दे खो तो वि स्‍वयों िबको ज्ञात िो जाये गा । स्‍वभाव में रमर्ण करने वाले का नाम परमात्‍मा िै , वि भी अपने में
दे खता िै ।

२९५. आकांक्ष्‍य एक तत्त्—यसद सकिी िे कुछ माों गना िै तो वि िीज माों गोों जो बार-बार न माों गना पडे । अगर धन
माों गा तो इज्‍जत िासिए, कायों में सवजय िासिए और अनेक आवश्‍यकतायें बढती जाती िैं । सजि िीज के प्राप्‍त िोने पर
पुन: न माों गना पडे उिकी इच्‍छा तो िबको िोगी । पिले तो यि दे खो यि कैिे समल जाती िै एक सनज की रुसि िे ?
एक ने दे वता सिद्ध सकया तो दे वता ने किा, बोल तुझे जो माों गना िो िो माों ग ले । वि घर पहुों िा और सपता िे किा ‘मुझे
दे वता सिद्ध िो गया िो वरदान दे ने को किा िै ’ इिसलये क्‍या माों गा जाये ? सपता ने धन माों गने को किा । माों के पाि
पहुों िा तो बोली आों खें खुल जावे मेरी । इिके बाद स्‍त्री के पाि पहुों िा तो बोली पुत्र माों ग लेना । अब वि सिन्‍ता में पड
गया क्‍या माों गा जाये ? अोंसतम युद्धक्त िूझ सनकाली, िुबुद्धद्ध आ गई तो दे वता िे किता िै ‘िमारी मा पोते को िु वर्णथ र्ाल
में भोजन करते दे खे । इििे उिके तीनोों कायथ एक बात में सिद्ध िो गये । इिी तरि भगवान िे एक बात माों ग लो, िब
आ जावेंगे । िैतन्‍यस्‍वभाव का दशथन, आलम्‍बन लो । िब िीजें आ जायेंगी । िैतन्‍य स्‍वभाव की दृसि बनाई तो पाप कमथ
की सनजथरा िोगी तर्ा जब तक भव िै पुण्‍य कमथ आवेगा । अन्‍त में मुद्धक्त िोगी । जिाों पररर्णमन पर के आलम्‍बनरूप िै
विाँ सवकल्‍प बनेंगे । सकन्‍तु जिाों कोई सवकल्‍प निीों िै विाँ पूर्णथ स्‍वभाव की सिद्धद्ध िोती िै । जिाों सवकल्‍प निीों छूटे , विाँ
परपदार्थ िोने िे स्‍त्री, बच्‍िोों की गिने आभूर्र्णोों की सिन्‍ता रिती िै । लेसकन ठोि वस्‍तु दे र िे प्राप्‍त िोती िै , प्राप्‍त िो तो
यि स्‍र्ाई रिती िै । वि भी मेरा स्‍वभाव िै सवकल्‍प स्‍वयों अिेतन िै क्‍योोंसक सवपाकपूवथक िोता िै । मैं तो ज्ञानमात्र हों
िबिे सवसवक्त हों । बच्‍िे आपि में घोडे बनकर खेलने लगते िैं । उनकी िेष्‍टायें भी उिी तरि की िोने लगती िैं । सिर
िे सिर सभडा कर लडने की भी कोसशश करते िैं । उनकी मान्‍यता उि िमय घोडा जैिी िो जाती िै । इिी तरि जीवोों
की प्रतीसत िोने लगे सक मैं तो ज्ञानमात्र हों , कई बार मु ि िे उच्‍िारर्ण करे , सजतना बने तब किें —‘मैं ज्ञानमात्र हों , िबिे
न्‍यारा हों , यि अिली मोंत्र िै । इिको बार-बार असधक किने पर िुख िी समलेगा । परपदार्ों िे रुसि िटे गी । अपने को
ज्ञानमात्र अनुभवने लगेगा ।

२९६. जीव का धनदोष लक्षण—जीव का ििी लक्षर्ण क्‍या िै , इिका वर्णथन करते िैं । क्‍या जीव उिे किते िैं जो वर्णथ
िे िसित िो ? या जो वर्णथ िे रसित िो उिे किते िैं ? क्‍या जो मूसतथ िै उिे जीव किते िैं ? या जो अमूसतथक िै उिे जीव
किते िैं या जो राग िसित िो, आसद बातें िामने रखकर उत्तर दो । इन िबमें िी जीव निीों िै , जो वर्णाथ सदक िे िसित िै
उनमें तीन काल में भी जीवत्‍व निीों आ िकता । वर्णाथ सदक िे रसित जीव मानो तो इिमें असतव्‍याद्धप्त दोर् िै । इिसलए
यि लक्षर्ण भी ठीक निीों िै । क्‍योोंसक वर्णाथ सदक िे रसित धमथद्रव्‍य, अधमथ द्रव्‍य, आकाश और काल द्रव्‍य भी पाये जाते िैं
। मूसतथक द्रव्‍य भी जीव निीों िै क्‍योोंसक यिाँ अिोंभव दोर् आता िै । अमूसतथक द्रव्‍य भी जीव निीों िै क्‍योोंसक इिमें
असतव्‍याद्धप्त दोर् आता िै । धमथ, अधमथ, आकाश और काल द्रव्‍य भी अमूसतथक िैं । जीव का लक्षर्ण रागासदक किो, िो
यि इिसलए ठीक निीों िै सक कुछ जीवोों में रागासदक िैं और कुछ में निीों िैं । इिमें कोई जीव का लक्षर्ण निीों िै , विाँ
अव्‍याद्धप्त दोर् िै । तब जीव का लक्षर्ण क्‍या िै ? िेतना जीव का लक्षर्ण िै । िैतन्‍य िब जीवोों में िै । जीव का स्‍वभाव िी
िैतन्‍य िै । इिमें अव्‍याद्धप्त, असतव्‍याद्धप्त एवों अिोंभव दोर् निीों िै । जीवोों में प्रतीसत बैठी रिती िै सक मैं जैन, अजैन, िेठ,

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सनधथन, सवद्वान, मूखथ, त्‍यागी, ब्रह्मिारी हों । िेतना मात्र हों उिकी खबर निीों िै । मैं जै न हों और िैतन्‍य की खबर निीों िै तो
यि पयाथ यबुद्धद्ध िै , समथ्‍या बुद्धद्ध िै । सजिमें िेतना िो वि जीव िै । जीव के लक्षर्ण िे ऐिा ज्ञानी जीव अनुभव करते िैं ।
अनुभव, सिन्‍तवन, बोली, वार्णी, रागद्वे र्, ख्‍याल, सविार, मोि ये िब भी अजीव िैं । यि िब क्षसर्णक-क्षसर्णक िीजें बताई
िैं । जीव सनत्‍य िै और सविार असनत्‍य िै , ख्‍याल असनत्‍य िै । सफर वि िब जीव कैिे िो जावेगा तर्ा जो ग्रन्‍र्ोों की जानकारी
िो रिी िै , वि भी अजीव िै । शुद्ध िैतन्‍यमात्र जीव िै ।

२९७. मोह के अस्‍त होने पर संचेतन की संभवता—दू िरे का िैतन्‍य िमारे सलये जीव िै या अजीव ? अजीव िै ।
क्‍योोंसक िमारा जीवत्‍व िममें िै । सिद्धोों का जीवत्‍व सिद्धोों में िै । िि और िैतन्‍य िबका सभन्‍न-सभन्‍न िै । सनज को सनज
कब माना जाता िै , जब पर को पर माना जाता िै । यि बात जब िमझ में आती िै तब मन में उल्‍लाि िोता िै । छोटी-
छोटी बातोों में उल्‍लाि िोता िै । इिी तरि अपने स्‍वरूप का पररज्ञान िो तर्ा ििी रमर्ण िो जाये तो उिका तो किना
िी क्‍या िै ? अनासदकाल का जो मोि लग रिा िै िो जीव अनेक नाि निता िै । जीव िेतना मात्र िै —यि कब अनुभव
िोता िै , मोि में तो िोता निीों । दसतया ररयाित में एक घटना हुई । राजा िार्ी पर बैठा किीों जा रिा र्ा । विाँ एक
कोल्‍िी शराब सपये हुए र्ा तो किता ओ रे रजुआ तू िार्ी बेिेगा । राजा को यि बात खटकी सक इि िाधारर्ण आदमी
की इतनी ताकत । राजा उिे खत्‍म करने को तैयार िो गया । तब मोंत्री बोला, न्‍याय यिाँ न करके राज दरबार में करना
। राज दरबार में वि मनुष्‍य बुलाया गया । कोल्‍िी डरता-डरता राजा के िमीप आया । राजा बोले, क्‍योों तू मेरा िार्ी
खरीदे गा ? कोल्‍िी बोला आप कैिी उल्‍टी िीधी (सबना िैर पैर की) बात कर रिे िो ? सफर िे राजा ने किा ‘मेरा िार्ी
खरीदे गा’ । तब कोल्‍िी किता िै ‘राजा िािब आप नशा तो निीों सकये िैं ’ । मोंत्रीजी बोले, िार्ी यि निीों खरीद रिा र्ा,
इिका नशा खरीद रिा र्ा । तब किीों राजा िन्‍तुष्‍ट हुआ ।

२९८. अधभमान का कारण परसम्‍पका—यि मनुष्‍य असभमान निीों कर रिा िै , इिका पैिा असभमान कर रिा िै ।
सितोपदे श में एक कर्ा आती िै । एक िोंन्‍यािी र्ा । उनका ित्तू प्रसतसदन एक बडा मोटा िूिा खा जावे तो िोंन्‍यािी ने
ित्तू को खू टी पर टाँ ग सदया । वि कूद-कूदकर विाँ िे भी खा जावे । िूिा खूब मस्‍त िो िुका र्ा । यि बात िोंन्‍यािी
को सवसदत हुई । िोंन्‍यािी ने िोिा यि रिता किाों िै , दे खा भाला, सजि सबल में रिता र्ा उिे खोदा विाँ धन सनकला,
सनकाल सलया । कुछ सदनोों में विी िूिा सनकला तो शरीर िे काफी दु बला पतला िो िुका र्ा । तब िोंन्‍यािी िोिता िै
सक इिका अर्थ सनकल िुका िै इिी कारर्ण दु बथल िो गया िै । इिके अोंग मात्र रि गये िैं । इिी तरि यि जीव निीों नि
रिा िै , सवर्य कर्ायोों में मदोन्‍मत्त िोकर िी नृत्‍य कर रिा िै । आश्‍ियथ िै सक यि मोि सक्रया सकि प्रकार िे निा रिी िै
? इिकी श्रेष्‍ठ और्सध भेदसवज्ञान िै , शुद्ध दृसि जिाों िै विीों शुद्ध िैतन्‍य का अनुभव िै । मोिी के २४ घोंटा यि अनुभव
रिता िै मैं मनुष्‍य हों , मैं स्‍त्री हों । इिके सवपरीत िोिें सक मैं किाों इि तरि का हों , शुद्ध िैतन्‍य मात्र आत्‍मा हों । यिी बार-
बार अनुभव आ जावे । किाों मेरा मकान िै , किाों मेरा पररग्रि िै , किाों मेरे बोंधु जन का, समत्रोों का िमागम लगा िै ? मैं
केवल एक हों । ऐिा यि िैतन्‍य का स्‍वरूप सनराला िै । स्‍वरूप तो अिल िै । यि असववेक व पुद᳭गल निता तो निो
। मिान असववेक के नाट᳭य में भी यि निीों नि रिा िै सकन्‍तु नािते हुए जीव में मिामोि का जीवन नि रिा िै , सवकार
नि रिा िै , उिी की यिी मसिमा िै । सनरपेक्ष स्‍वभावभर दे खो तो यि बात दोनोों में आ जावे —वर्णाथ सदमान जो पु द᳭गल
िैं विी निते िैं । दे ि िलता िै उिके सवकार िोते िैं , मैं तो एक शुद्ध जीव हों । मैं कैिा अच्‍छा हों इत्‍यासद सवकल्‍प पुद᳭गल
के सवकार िै ।

२९९. आत्‍मा की शुद्ध चैतन्‍यिातुरूपता—मेरा तो स्‍वरूप शुद्ध िैतन्‍य धातु िै । एक िों स्‍कृत सक्रया में धातु िोती िै
। तर्ा दू िरी िोना, िाँ दी, पीतल, ताम्‍बा आसद को धातु किते िैं । िोना आसद के अनेक जेवरात रूपक बन जाते िैं ।
िोंस्‍कृत में धातुओों िे अनेक शब्‍द बन जाते िैं । प्रत्‍यय सवकार आसद धातु पर िी जमते िैं । उिी तरि जीव को पयाथ य के
स्रोत िोने िे िैतन्‍य धातु किते िैं । िाँ ममथ की बात इतनी िै सक स्रोत को दे खे तो सवकार न िो । अपने बारे में इतनी शुद्ध
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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 68

सनमथलता लावे तो कुछ भान िोता िै । जो असधक पढ लेते िैं किते िैं वे — अभी तो िम कुछ निीों जानते । तर्ा जो र्ोडा-
िा िी पढे िोते िैं वि अपने िामने सकिी को कुछ िमझते िी निीों । तर्ा जिाों आत्‍मकायथ में पििान सलया जाता िै विाँ
ज्ञानी िोिता िै मेरी िारी सजन्‍दगी अज्ञान में गई । पूजा, भद्धक्त, तीर्थ , यात्रा जो भी कायथ सकया वि आत्‍मबोध सबना सकये
तो िब अज्ञान में सकये । सकन्‍तु रूसढ पर िलने वाले अपने को बडा धमाथ त्‍मा किते िैं । ज्ञाता द्रष्‍टा रिने के असतररक्‍त
जो भी बातें िैं वे िब उन्‍मत िेष्‍टायें िैं । जाननमात्र हों —यि स्‍मरर्ण कल्‍यार्णकारी िै । रूडकी में शास्‍त्र प्रविन करने पर
५० आदमी जैन आवें तो १०० अजैन आवें । कुछ सदन प्रविन िुनती-िुनती एक पढी सलखी अजैन मसिला अविर पाकर
मद्धन्दर में िमारे पाि आई और बोली एक दु :ख मुझे ज्यादा बना रिता िै सक यि कैिे अनुभव में आवे सक मैं स्‍त्री निीों हों
। इििे उदाि बनी रिती हों । भैया ! जानते तो िभी लोग िैं आत्‍मा िैतन्‍यमात्र िै । िमने उिे िमझाया—तु म अपने सलये
स्‍त्रीपने के एवों पुरुर्पने िे सवकल्‍प िे रसित शुद्ध िैतन्‍यपने की सनराली िी रटन लगाओ तर्ा अभ्‍याि करो तो तु म्‍िें कोई
दु :ख निीों िोगा । मूल बात—शरीर िे िी अपने को सभन्‍न िमझो । शरीर की वजि िे भेदपना का सनयम निीों रिा और
स्‍त्री और पुरुर् का अनुभव करना कायथकारी निीों िै । दे खो स्‍त्री और पुरुर् दोनोों अपने सलए ‘मैं’ शब्‍द का प्रयोग करते
िैं कोई स्‍त्री अपने को गुरु गुरुरानी की तरि मैं म्‍यानी निीों किती । तुम शब्‍द का भी दोनोों का िमान प्रयोग िोता िै ।
इिमें भी कोई तुम तुमानी निीों किता । मैं मैं और तु म तु म इिमें क्‍या वेद आया ? मैं में किाों सलोंग िै , किाों सिह्न िै ? ज्ञान
िी शरीर िै , ढा िा िै , ऐिा ज्ञान िी आत्‍मा का स्‍वरूप िै । इि प्रकार ज्ञानरूपी करोोंती िे अज्ञान के टु कडे -टु कडे कर
दे ना िासिये । भेदसवज्ञानरूपी छे नी िी कमथभेद की िफलता का कारर्ण िै ।

३००. िाह्यधिया करके भी अन्‍त:धिया की श्रद्धा से अच्‍युधत—‘गले पडे बजाय िरे ’ दे िातोों में स्‍वाों ग करते िमय
सकिी के गले में ढोल डाल सदया जाये मगर वि बजावे निीों तो बुद्धू िमझा जाता िै । सकन्‍तु बजाना न जानने पर भी
ठोकने लग जाये तो आदमी खुश िो जाते िैं और मजाकपने का नाम िोकर सवनोद बन जाता िै । इिी तरि गृिस्‍र्ी,
दु कानदारी, नेतासगरी आसद गले पडी िै तो उिे सनरपेक्ष भाव िे करता हुआ भी निीों करने के िमान िै । क्‍योोंसक ‘गले
पडे बजाय िरे ’ । परमेष्‍ठी जैिा कायथ करना मेरा कतथव्‍य िै । जो परमेष्‍ठी दे वोों ने सकया वि मेरा करने का कायथ िै ।
ज्ञानरूपी छे नी के द्वारा जीव और अजीव के भेद िो गये तभी ज्ञाता बन गये । तब वि ज्‍योसत प्रकट िोती िै सक िारे सवश्‍व
में व्‍याप्‍त िोकर प्रकाशमान िो जाती िै । िम कम ज्ञानी िैं कुछ भी स्‍फूसतथ निीों िै । यि िब पयाथ यबुद्धद्ध ने कर सदया िै ।
यि जीव अपराध कर रिा िै यि पयाथ यबुद्धद्ध िी का िों स्‍कार िै । िीज कुछ िै , मोिी मानता कुछ िै । भेदसवज्ञान के द्वारा
आत्‍मा में अन्‍तमुथहतथ भी ठिर जाये तो ऐिी ज्‍योसत प्रकट िो सक िारे सवश्‍व में फैल जावे , परपदार्थ की आिद्धक्त
आत्‍मकल्‍यार्ण निीों िोने दे ती । मैं कुछ कर लूों, कुछ करू
ों गा या करता र्ा यि आशा िोंयम निीों िोने दे ती । िोंयम िुख
का बीज िै ।

३०१. समाधिभाव की शरण्‍यता—िमासधमरर्ण िबका िार िै । यसद मरर्ण निीों जैिा िािे वि वैिा प्रयत्‍न कर लेवे,
र्ोडा आरों भ िोंभला तो दु :ख िी िार् लगेगा । जो पररग्रि िे मनुष्‍यगसत समल िकती िै , असधक आरम्‍भ पररग्रि नरक
का कारर्ण िै , छल कपट सतयंि गसत में भ्रमायेगा । िरल पररर्णाम िोना दे वगसत का कारर्ण िै । उमास्‍वामी के िूत्र सित
के सलये अमृत दे ने को िमर्थ िैं । अपने स्‍वरूप की आराधना करो । सकतने िी को मरते िमय दे ख रिे िैं सक जो सजतना
भी धन कमाता िै उिके िार् कुछ भी निीों जाता । सजन्‍िें िोंयोग में बुद्धद्ध रिती िै उन्‍िें मरर्ण में अनेक दु :ख रिता िै ।
सकन्‍तु जो भेदसवज्ञान पूर्णथ जीवन सबताते िैं वे अच्‍छा िुख पाते िैं । यिाँ कुटु म्‍बरूपी वृ क्ष पर िोंिारी प्रासर्णयोों का िमागम
हुआ िै । प्रात: िोते िी अपना नीड छोडकर िल दें गे । यिी दशा िम िबकी िोगी । सफर भी न िेतें तो इििे असधक
कौन अज्ञानी िै ? जैिे िफर करते िमय रास्‍ते में २-४ मुिासफर समल जाते िैं तो समल-जुलकर अपने िुख दु :ख की बात
कर लेते िैं , उिी तरि यिाँ मुिासफर समल गये िैं , कुछ िमय िुख के स्‍वप्‍न दे खेंगे, सफर मुिासफर अपने गन्‍तव्‍य स्‍र्ान
पर िले जावेंगे । यिी दशा िमारी िै । िम स्‍वयों मुिासफर िैं । पूछने लगते िैं आपका भैया सकतने वर्थ का िो गया ? तो

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 68

विाँ िे उत्तर समलता िै ८ वर्थ का िो गया । किना तो िासिये ८ िाल मर िुका या ८ िाल बीत गए सकन्‍तु पररपाटी
सवपरीत िल रिी िै । इिी तरि अन्‍य में पूछने पर किता ४० िाल का िो गया । किना यि िासिए ४० िाल बीत गए,
मर गये , २० वर्थ का जीवन और बिा अन्‍दाजन । इन दृसियोों िे उम्र की बात सकया करें , इिमें यर्ार्थता ज्ञान में रिे गी तब
प्रतीसत व शाद्धन्त िच्‍िी िोगी ।

३०२. पयाायिुच्छद्ध में सकल अधहत—यि पयाथ य वि दशा िै सजिमें बिपन, यौवन एवों वृद्धावस्‍र्ा िम्‍बोंधी अनेक दु :ख
िैं । इिमें क्रोध, सवर्य, इच्‍छा, द्वे र्, मत्‍िर, ईष्‍थया आसद न जाने सकतने -सकतने सवकार िोते रिते िैं ? सफरों गी मन इच्‍छा
करते िी इनमें शीघ्र िला जाता िै और मोिी उनमें िोंलग्द्‍न िो जाते िैं । इनमें जो प्रार्णी आत्‍मदृसि की बुद्धद्ध रखता िै उिे
समथ्‍यादृसि िमझना िासिए । समथ्‍यादृसि शब्‍द में समर् धातु िै अर्ाथ त् िोंयोग िोना । समथ्‍या बुद्धद्ध वाले को समथ्‍यात्‍व किा
जाता िै । पदार्थ अलग-अलग िैं , उनमें िोंयोगपना िासबत करना तर्ा पयाथ य में आत्‍मबुद्धद्ध रखना यि समथ्‍यात्‍व िै । जो
स्‍व में द्धसर्त िै वि स्‍विमय िै तर्ा जो पर में लगे िैं उन्‍िें अपना िमझ रिे िैं वि परिमय िैं । आत्‍मा के स्‍वभाव को
प्राप्‍त िोवे िो स्‍विमय और पयाथ य को प्राप्‍त िोने वाला परिमय िै । आत्‍मा के िमय को प्राप्‍त िोना और उिी में रमर्ण
करने का अभ्‍याि करना, क्‍योोंसक जगत के िम्‍पूर्णथ पदार्थ आत्‍मा िे अत्‍यन्‍त सभन्‍न िैं । उिी स्‍वभाव की आराधना करो
यिी आत्‍मा का स्‍वकायथ िै । जब आत्‍मा के स्‍वभाव में िमर्थ हुए तब भी कभी-कभी भ्रमबुद्धद्ध िे पर में आिक्त िो जाता
िै तो उिे जब िेत आता िै यकायक िोंभलकर िोिता िै , मैं किाों अनर्थ में जा रिा हों । दो आदसमयोों ने धोबी के यिाँ
िादरें धुलने को डाली । उनमें िे धोबी के घर एक व्‍यद्धक्त जाता िै और िादर माों ग लाता िै , उिे यिी ज्ञात िै सक यिी
मेरी िादर िै । इिसलए वि िादर लाकर पैर पिारकर िादर ओढकर िो जाता िै । इतने में दू िरा व्‍यद्धक्त िादर लेने
धोबी के घर जाता िै तर्ा उिकी िादर निीों समलती िै और पता िलता िै पिला व्‍यद्धक्त ले गया िै , तो वि दौडा-दौडा
पिले व्‍यद्धक्त के पाि आकर और िादर का खू ट पकडकर खीोंिकर किता िै सक यि िादर मेरी िै । अब दोनोों किते
मेरी िै । तब दू िरे आदमी ने अपने पििान के सनशान बताकर उिे िमाधान कराया और िादर ले ली । इिी तरि
प्रत्‍येक प्रार्णी िोिे यि मेरी पयाथ य पर िै , इिे क्‍योों भ्रमबुद्धद्ध िे अपनी मानूों ? दू िरे के द्वारा ज्ञान के ििी सनशान बताने
पर पयाथ य िे ममत्‍व बुद्धद्ध िटाकर स्‍वात्‍मबुद्धद्ध पर दृसि लगाने की कोसशश करे तब इि िोंिाररूपी जाल िे सनकल िकता
िै अन्‍यर्ा भ्रमबुद्धद्ध िे िोता रिने िे दू िरा आकर परे शान करे गा, वि शाद्धन्त निीों लेने दे गा ।

३०३.सदु पदे श के लाभ का आभार—अनेक भव धारर्ण सकये िभी की गफलतें मैंने भोगी । अब जैनधमथरूपी अमूल्‍य
रत्‍न का उपदे श समला िै । इिे मैं क्‍योों न स्‍वयों का अों ग बनाऊ ? अनुभव करें मैं सनत्‍य हों , असवनाशी हों , िैतन्‍यमय हों ,
िच्‍िे िुख का भोक्ता हों । अपने स्‍वभाव में रुसि िोवे और पर में निीों जावे इिी के सलए स्‍वाध्‍याय िै तिज्ञान िै । पिले
िुन सलया र्ा सक कोई ब्रह्मा िी दु सनया में एक ति िै तब अपने को बािर करके बािर में उपयोग लगाता र्ा । अब जान
सलया ज्ञानमात्र ति िै , िोंपूर्णथ िमस्‍यायें िल िो गई । इिी तरि िब अन्‍य-अन्‍य िैं । सजिे अनेकान्‍त दृसि प्राप्‍त िो गई,
उिे जो पररग्रि भले लग रिे र्े वि जिर के तुल्‍य प्रतीत िोने लगे । पदार्थ के सवपरीत सिन्‍तवन िे आकुलता आकुलता
िी िोती िै । यि दे ि भी मेरी निीों तो बेकार ममकार क्‍योों करू ों ? मैं तो आत्‍मा मात्र हों । बडे -बडे त्‍यागी कसठन िे कसठन
परीर्ि ििन कर लेते िैं , उन्‍िें उनिे कष्‍ट का अनुभव निीों िोता । उन्‍िें इतनी सिन्‍ता निीों सक मैंने इतना धमथ निीों कर
पाया, इतना और कर लूों, यि भाव निीों रिता िै । उन्‍िें यि ज्ञात रिता िै , मैं आत्‍मस्‍वभाव मात्र हों । मैं २-४ वर्थ और जी
लूों तर्ा धमथ कर लूों यि भी दृसि निीों रिती, रिती िै केवल आत्‍मदृसि । मकान दू िरा बदलना िै । दे खो आत्‍मस्‍वभाव की
दृसि न छूटे , असधक सजन्‍दा रिे तो भी क्‍या और मरर्ण को भी प्राप्‍त िो गये तो क्‍या ? आत्‍मस्‍वभाव पर िे दृसि निीों िटे तो
िवथत्र अच्छा िै तर्ा आत्‍मस्‍वभाव पर दृसि निीों िै तो असधक सजन्‍दा रिने िे भी क्‍या और जल्‍दी मरने िे भी क्‍या लाभ ?
आत्‍मस्‍वभाव की दृसि िे रसित िोकर अनेक शरीररूपी कोठोों में भी रिकर मृत के िमान िै । अनेक कमरोों में िे प्रदीप्‍त
िोता हुआ भी एक रत्‍न विी एक स्‍वरूप िै । अनेक पदार्ों में असविसलत आत्‍मा द्रव्‍य िै उिे एक िी प्रकार िे दे खो ।

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 68

इि िौकी को शास्‍त्र प्रयोजन िे दे खो, नीली, पीली, िफेद िे क्या मतलब ? पुत्र अपने ढों ग िे सपता को दे खता िै , सपता
अपने ढों ग िे पुत्र को दे खता िै । इिी तर्‍ि आत्‍मा तो एक िी िै , पयाथ यें अनेक धारर्ण कर रिा िै । कल्‍यार्णार्ी आत्‍मस्‍वभाव
की दृसि रखता िै । पयाथ योों में मुख्‍यता न रखकर िैतन्‍यस्‍वभाव नजर में आवे ऐिी दृसि करो । अनेक स्‍र्ानोों में गया यि
जरूर सकन्‍तु आत्‍मा का एक असविसलत स्‍वभाव िै , उिके अनुरूप िलना यिी आत्‍मा का व्‍यविार िै । वि ज्ञाता द्रष्‍टा
िै प्रतीसत में सजिके िैतन्‍यमात्र िै । ज्ञेयाकार िो गया तब भी स्‍वरूप िेतना मात्र िै । जो जैिा िै विी बोध में आया, इिी
को स्‍वीकार सकया िै । अगर आपका मन सकिी काम में न लगे तर्ा केवल पूर्णथ सवश्राम िे बैठ जावे तो आप उत्‍कृष्‍ट
दानी िैं । सजि ज्ञानी जीव की आत्‍मस्‍वभाव में दृसि िो गई वि कायथ करते हुए न करने के िमान िै ।

३०४. धनमोहता की श्रेषठता—मोक्षमागथ


्‍ में द्धसर्त सनमोिी गृिस्‍र् श्रेष्‍ठ िै । सकन्‍तु मोि िसित मुसन श्रेष्‍ठ निीों िै ।
तुलना करने िे भी क्या लाभ िै ? अपनी पररर्णसत िे िी तो लाभ िोगा । ज्ञानी अपने कतथव्‍योों को सनभाता हुआ िलता िै
। िाधुओ,ों पद्धण्डतोों, मद्धन्दरोों, तीर्थयात्रा, व्‍यापार, गृिस्‍र्ोों िभी का ध्‍यान रखता िै , सफर भी अपने पररर्णामोों के अनुकूल
पररर्णमन कर रिा िै । प्रसतकूल बात िो गई, कोई गाली गलोज बक गया, कुछ भी कर गया तो उिे कोई बात लगती
निीों िै । कोई अन्‍य बातोों िे प्रयोजन निीों िै । अगर वि अपने को मनुष्‍य प्रतीत करे तो धन कमाने का मोि रखे गा, बोटें
लेगा, कीसतथ बढाने के कायथ करे गा आसद । पर ज्ञानी जीव इनिे व्‍यविार निीों करता । सकिी िाधु िे कोई किे िमें
सकताब िासिए तो किे गा । ‘लो यि िै ’ वि यि निीों िोिे गा, यि मुझे भेंट में समली, मेरा नाम पडा िै , तुम्‍िें निीों दे ता हों ।
सकताब दे कर पुन: आत्‍मस्‍वभाव दृसि में लग जायेगा । िाधुओों का परपदार्थ में लगाव मोि निीों रिता । शरीर िे नग्द्‍न
िोने का प्रयोजन िी यि िै तु म िब बातोों िे नग्द्‍न िो जाओ । वि अन्‍य बातोों िे प्रेम निीों करता । सजिे अपने आत्‍म स्‍वभाव
की खबर हुई िै वि अपने रागासद को भूल जाता िै , पर िे उदािीन िो जाता िै । उदािीन=उत् +आिीन=उत्‍कृष्‍ट पद
में, िमासध में रत िोने वाला सजिमें सनष्‍पक्षता, सनमथलता, सवरक्तता िै उि पद में द्धसर्र रिना । जो किते िैं यि घर में
उदािीन िै , उन्‍िें यि न किकर आत्‍मा में उदािीन िै , घर िे सवरक्‍त िै ऐिा किना िासिये अर्ाथ त् आत्‍मा में उत्‍कृष्‍टपद
िे बैठा िै यि उदािीन का अर्थ िै । सकन्‍तु रूसढ अर्थ िो जाने िे शब्‍द अन्‍य अर्थ में प्रिसलत िो जाते िैं ।

३०५. प्रधतिोि से ही सुव्‍यवस्‍था—परद्रव्‍य को अपना-अपना कर दु :ख की िोंतसत बढाते जा रिे िैं लोग । सजतने
परपदार्थ पर दृसियाों िैं उतनी िी व्‍याकुलतायें िैं । लेसकन सजिने िमस्‍त परद्रव्‍योों िे िोंगसत िटा दी उिे आत्‍मतुसि िी
प्रतीत िोती िै । सजि बच्‍िे को अपना बसढ या द्धखलौना समल जाये तो वि दू िरे के द्धखलौने को क्‍योों रोवेगा ? इिी तरि
सजिकी सनज में िोंगसत िो गई उिने िब कुछ पा सलया । कभी-कभी एक दू िरे की बुराई करते िमय किा जाता िै तुम
मद्धन्दर निीों जाते, शास्‍त्र निीों पढते , पूजन निीों करते । सकन्‍तु िमारे इि किने िे क्‍या लाभ सनकलता िै ? मद्धन्दर, शास्‍त्र
पूजन आसद उिके मन में निीों िमाये िैं , उिे मद्धन्दर आसद िे बसढ या अन्‍य कायथ जोंि रिे िैं तभी तो वि ऐिा कर रिा
िै । मद्धन्दर वगैरि की बात उिे जोंिे, गले उतरे , रूसि बढे तभी तो वि इच्‍छा करे गा । मेरे सविार में इन कायों में जबदथ स्‍ती
न करके धमथ के मुख्‍य सिद्धान्‍त िमझाये जावे, उि िम्‍बन्‍धी उपदे श सदया जावे , मिापुरुर्ोों के जीवन िाररत्र को जो धमथ
में लगने का कारर्ण िै बताया जावे तो िो िकता िै वि अपनी भूल स्‍वीकार कर लेवे और रास्‍ते पर आ जावे । निीों तो
जबदथ स्‍ती करने का फल यि भी िो िकता िै उिके मन में धमथकायों में घृर्णा की भावना घर कर लेवे तर्ा उनिे िदै व
को सनवृसत्त पा लेवे । मैं एक ऐिे पुरुर् को जानता हों सजििे छात्रावस्‍र्ा में किा गया तुम्‍िें मद्धन्दर जाना िोगा । उि
िुपररद्धन्टडे न्‍ट की ताडना िे वि सनयम िा िी ले िुके सक कभी भी मद्धन्दर निीों जाऊोंगा । जबदथ स्‍ती करके मद्धन्दर पहुों िाने
पर वि मद्धन्दर न जाकर िोटल आसद में िाय पीवेगा और आ जावेगा । इिसलए अच्‍छे उदािरर्णोों द्वारा िमझाकर कायथ
में प्रवृत्त करना श्रेयस्कर िै । इििे रासत्रभोजन, अभक्ष्‍य भक्षर्ण आसद न करने के सनयम तक जीवन में सनभा िकता िै ।
अजैन लोग रासत्रभोजन न करने अभक्ष्‍यभक्षर्ण न करने जैिे बडे -बडे सनयम ले लेते िैं । तो क्‍या वि डों डा के डर िे लेते
िैं ? निीों, उनके जीवन में यि भावना जागृत िो जाती िै ‘मैं सकि धरातल पर जा रिा हों व क्‍या करना कतथव्‍य िै ?

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समयसार प्रवचन भाग-3 गाथा 68

३०६. आत्‍मधवद्या का महत्त्—सजतने मद्धन्दर िैं उतनी पाठशालायें िोनी िासिए । जो मद्धन्दर बनावे उििे कि सदया
जावे सक िार् में पाठशाला भी बनवाओ तो मद्धन्दर बनाना असत श्रेष्‍ठ िै । मुिलमानोों में यि िोता िै सजतनी उनकी
मिसजदें िैं प्राय: उतने उनके स्‍कूल िलते िैं । सजि मुिल्‍ला में सजतने बालक िोवें वे उि पाठशाला में आकर पढें ,
ज्ञानाजथन करें । सजिको अपने स्‍वभाव का बोध िो जाता िै वि पर को छोड दे ता िै और परम उदािीनता को धर लेता
िै । मोिी सकिी न सकिी को ििारा मान रिे िैं , परद्रव्‍योों को अपनाने िे । बच्‍िोों को दे खो कोई मा के िों स्‍कार द्वारा
धमथकायों में प्रवृत्त िो जाता िै , कोई आत्‍मकल्‍यार्ण िम्‍बोंधी कायथ करने की प्रकृसत डाल लेता िै । िों गसत का प्रभाव िोता
िै । यसद कोई आत्‍मस्‍वभाव की िोंगसत करे तो उििे क्‍या समलेगा, जो समलेगा वि वर्णथनातीत िै । स्‍व की िोंगसत िी स्‍व-
िमय किलाती िै । स्‍वभाव बनने िे िी लाभ िै । िक्रवती, नारायर्ण, कामदे व आसद के श्रेष्‍ठपद समल गये, यि कमाने
िे निीों समल गये , उन्‍िोोंने पूवथभव में कमथ सकया र्ा उिका प्रताप रिा सक इद्धच्छत भोग िरर्णोों में आ पडते िैं । आत्‍मस्‍वभाव
की भावना करे तो क्‍या समलना दु लथभ रिे गा ? न सकोंसिदसप दु लथभों सवद्यते ।

३०७. िमामय अन्‍तस्‍तत्त् की उपासना का संदेश—धमथ का फल तो सनराकुलता, शाद्धन्त व मुद्धक्त िै । पुण्‍य का फल


ऐसिक िुख िै । पाप का फल दु :ख िै । इनमें िे ऐसिक िुख व दु :ख दोनोों आकुलता िे पररपूर्णथ िैं । इनका सनसमत्तभूत
पाप व पुण्‍यकमथ भी पौद᳭गसलक, अज्ञानमय परपदार्थ िै । पुण्‍य, पाप कमथ का सनसमत्तभूत पुण्‍यभाव व पापभाव दोनोों
पराश्रयज भाव िैं । केवल धमथभाव िी स्वाश्रयज िै । स्‍व के पडौि में, िमीप में रिने वाले कौन-कौन पर-भाव िैं , उनका
इि अजीवासधकार में िोंकेत करके उनका सनर्ेध सकया िै । उन पर-भावोों के आश्रय िे धमथभाव निीों िो िकता । धमथभाव
के सबना आत्‍मा की सिद्धद्ध, िमृद्धद्ध निीों िो िकती िै । अत: इन िब पर-भावोों की दृसि त्‍याग करके एक अखोंड, िनातन
शाश्‍वत ध्रुव परमपाररर्णासमक भावमय ध्रुव िैतन्‍यस्‍वभावी स्‍व का अनुभव करो ।

।। शुद्धं धचदच्छि ।।

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