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मन
ु ीन्दवन्ृ दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी,
प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभवि
ू लासिनी।
व्रजेन्दभानन
ु न्दिनी व्रजेन्द सन
ू स
ु ग
ं ते,
अशोकवक्ष
ृ वल्लरी वितानमण्डपस्थिते,
प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभत
ू सम्पदालये,
सवि
ु भ्रमं ससम्भ्रमं दृगन्तबाणपातनैः।
तड़ित्सव
ु र्ण चम्पक प्रदीप्तगौरविग्रहे ,
मख
ु प्रभा परास्त-कोटि शारदे न्दम
ु ण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशाव लोचने,
प्रभत
ू शातकुम्भकुम्भ कुमि ्भकुम्भसस्
ु तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचर्ण
ू पर्ण
ू सौख्यसागरे ,
मण
ृ ाल वालवल्लरी तरं ग रं ग दोर्लते ,
लताग्रलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लल
ु मि ्लन्मनोज्ञ मग्ु ध मोहनाश्रिते
सव
ु र्ण्मालिकांचिते त्रिरे ख कम्बक
ु ण्ठगे,
त्रिसत्र
ु मंगलीगण
ु त्रिरत्नदीप्ति दीधिते।
प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजल
ु े।
करीन्द्रशण्
ु डदण्डिका वरोहसोभगोरुके,
अनेकमन्त्रनादमंजु नप
ू रु ारवस्खलत ्,
अनन्तकोटिविष्णल
ु ोक नम्र पदम जार्चिते,
हिमद्रिजा पल
ु ोमजा-विरं चिजावरप्रदे ।
अपार सिद्धिऋद्धि दिग्ध -सत्पदांगल
ु ीनखे,
त्रिवेदभारतीश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
इतीदमतभत
ु स्तवं निशम्य भानन
ु नि ्दनी,
भवेत्तादै व संचित-त्रिरूपकर्मनाशनं,
लभेत्तादब्रजेन्द्रसन
ू ु मण्डल प्रवेशनम ्॥ (१३)