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ा कारी स वाणी

‘मानव सेवा संघ' के वतक’

लीन पू पाद ामी ीशरणान जी महाराज

के चुने ए अनमोल वचन

संकलनकता

राजे कुमार धवन

करनाल मानव सेवा संघ, काशन


करनाल, ह रयाणा – 132001
काशक:

करनाल मानव सेवा संघ

िपन : 132001

• मू :
ा थन

लीन पू पाद ामी ी शरणान जी महाराज एक अभूतपूव


दाशिनक स ए ह। अ ा – े म वे िजतनी गहराई तक प ँ चे थे, उतनी
गहराई तक शायद ही कोई दाशिनक प ँ चा हो ! िव म उनके समान महान्
िवचारक िमलना दु लभ है ! अ ा –जगत् म उ ोंने अनेक नये–नये
आिव ार िकए। उनके िवचार िकसी धम, मत, स दाय, दे श आिद म
सीिमत न होकर मानव मा के िलये िहतकारक ह। हम ढ़ता से कह सकते
ह िक िजस समय संसार उनकी िवचारधारा को जान लेगा, उस समय
अ ा –जगत् म एक ा आ जायगी, इसम िकंिच ा भी स े ह नहीं
है।

ी महाराज की पु कों की शैली जिटल होने से हर िकसी को


उनकी बात सहज समझ म नहीं आतीं। ऐसी थित म उनके सािह का
चार कैसे हो, उनकी अमू बात जन साधारण तक कैसे प ँच, उनके
अनूठे भावों से लोग कैसे प रिचत एवं लाभा त हों–इस उ े से ुत
पु क' ा कारी स वाणी' की रचना की गई है । इसम िवषयानुसार ढाई
हजार से अिधक अमू वचनों का सं ह िकया गया है । इससे पाठकों को
िवषयानुसार ी jमहाराज जी के िवचारों को जानने म सु िवधा होगी।

ी महाराज जी की पु कों म आयी साम ी इतनी ठोस एवं मािमक


है िक उसम से कौन–सी ली जाय और कौन–सी बात छोड़ दी जाय इसका
िनणय करना बड़ा ही किठन काय है ! अत: अपनी सीिमत बु से िजतना
स व हो सका, वचनों का सं कलन कर िदया है। यिद पाठकों को यह
संकलन उपयोगी लगा हो तो यह ी महाराज जी की ही कृपा का प रणाम
है।
पाठकों से ाथना है िक यिद उ इस पु क म आयी िकसी बात
को िवशेष प से समझना हो तो वे मूल पु क का अवलोकन कर।

िज ासु पाठकों से िनवेदन है िक वे इस पु क म ही स ोष न कर


ल, ुत 'मानव सेवा संघ' से कािशत ी महाराज जी के सािह का भी
अव अ यन कर। कारण िक उनके सािह –सागर म न जाने िकतने
ब मू र िछपे पड़े ह, िज कोई भी िज ासु खोजकर िनकाल सकता है
और िवशेष लाभ ा कर सकता है ।

इस पु क म जो भी िलखा गया है , वह केवल पढ़ने के िलये नहीं है ,


ुत पढ़कर उस पर ग ीरतापूवक मनन–िवचार करने के िलये है। आशा
है, स की खोज म रत िज ासु साधक इस पु क का अ यन–मनन करके
लाभ उठायगे।

िनवेदक िव.सं. 2067

राजे कुमार धवन


ाथन

मेरे नाथ ! मेरे नाथ !


आप अपनी आप अपनी
सुधामयी, सुधामयी,
सव समथ, सव समथ,
पितत पावनी, पितत पावनी,
अहै तुकी कृपा से अहैतुकी कृपा से
दु :खी ािणयों के दय म मानवमा को
ाग का बल िववेक का आदर
एवं तथा
सुखी ािणयों के दय म । बल का सदु पयोग
सेवा का बल करने की साम
दान कर, . दान कर,
िजससे वे एवं हे. क णासागर !
सुख–दु :ख के अपनी अपार क णा से
ब न से शी ही राग– े ष का
मु हो, नाश कर।
आपके पिव ेम का सभी का जीवन
आ ादन कर सेवा, ाग, ेम से
कृतकृ हो जाय! प रपूण हो जाय।

ॐ आन ! ॐ आन !! ॐ आन !!!
उपोद् घात
“ ा कारी स वाणी” के प म यह सं कलन संघ सािह के
अ ेता–साधकों के सम ुत है । इसम आज के युग के महान ा ा;
मानवता के पुजारी, अन के िन सखा, हम सबके अपने, योगिवत्,
जीव ु और भगव महापु ष की अमरवाणी का िवषयानुसार चयन
एवं संकलन है । संकलनकता ी राजे धवन से अिधकांश पाठक एवं
अ ेता प रिचत ह। प रिचत कराना समीचीन होगा िक आपने लीन पू
ामी रामसुखदास जी महाराज की ाय: सभी पु कों को िलिपब एवं
स ािदत कर कािशत कराया है ।
पू ामी रामसुखदास जी महाराज मानव सेवा संघ के णेता स
की अमर वाणी के अन ेमी थे। ामी शरणान जी महाराज के दशन
को वे 'सातवाँ दशन' (मानव दशन) कहकर अिभिहत करते थे। अपने
प रपा म रहने वाले प रकर समु दाय को वे ाय: ामी शरणान जी
महाराज की पु क पढ़ने की ेरणा िदया करते थे। वे शरणान जी
महाराज की वाणी को 'अका ' मानते थे।
. ी राजे धवन पू०पा० ामी शरणान जी महाराज की िद
वाणी के भी अ े अ ेता ह। ु त पु क म आपने मानव सेवा संघ के
णेता स के अमृ त–वचनों को उनकी िविवध पु कों से चुनकर
िवषयानुसार पाठकों के लाभाथ एक थान पर एकि त कर िदया है । आशा है
िक पु क िज ासु साधकों के िलए उपयोगी िस होगी।
इसी स ावना के साथ ! शुभे ु
बस पंचमी
ामी अ ै त चैत
िदनाँक 20–01–2010
मानव सेवा संघ
वृ ावन
िवषय–सूची

अ य (कुछ न करना)................. 1 ाय ........................................... 94

असाधन ........................................ 8 परदोषदशन................................ 96

अहम् .......................................... 10 परमा ा .................................. 101

आ था......................................... 16 परमा ा .......................... 108


आ कता–ना कता ............... 19 प र थित (अनुकूलता– ितकूलता) . 116

उ ित ......................................... 23 वृि –िनवृि ........................... 121

उपदे श ....................................... 24 ाथना ...................................... 123

एकता ......................................... 26 ेम .......................................... 127

कत ........................................ 27 बुराई (परदोषदशन) ................. 146

काम ........................................... 35 भ ........................................ 149


कामना ....................................... 37 भय .......................................... 152

कृपा ........................................... 48 भोजन ...................................... 155

गुण–दोष..................................... 52 मन .......................................... 156

गु ............................................. 62 ममता ...................................... 163

िच न ........................................ 68 मानव ....................................... 170

जीवन ......................................... 72 मानव–से वा–संघ ...................... 178

ान ............................................ 75 मु (क ाण) ....................... 184

ाग ........................................... 82 मूक स ंग............................... 187

धन ............................................. 87 मृ ु ......................................... 195

धम ............................................. 90 योग ......................................... 198

ान ........................................... 93 राग– े ष ................................... 200


:: 2 ::
राजनीित .................................. 204 स ंग (दे .मूक स ंग) .............. 262

रोग .......................................... 207 सदु पयोग ................................. 267

ल (उ े ) .......................... 212 समाज ...................................... 270

व ु ......................................... 214 साधक ..................................... 275

िववेक ...................................... 220 साधन ...................................... 282

िव शा ................................ 224 साम (बल)............................ 301

िव ास ..................................... 226 सुख और दु ःख ......................... 304

िव ाम ..................................... 229 सुखभोग................................... 317

वैरा ...................................... 233 सेवा ......................................... 322

शरणागित ................................ 234 प ..................................... 332

शरीर ....................................... 238 ाधीनता................................. 335

िश ा ....................................... 247 'है ' ........................................... 337

संक ..................................... 249 कीण ........................................ 340

संघष ....................................... 254 दय–उ ार ............................. 363

संसार (सृ ि , िव ) .................... 256 मानव सेवा संघ के काशन ..... 365
अ य (कुछ न करना)

1. कुछ न करने से जीवन अपने िलए उपयोगी हो जाता है और सही करने

से जीवन जगत् के िलए उपयोगी हो जाता है । –संतवाणी 6

2. यह िनयम है िक 'करने से जो कुछ िमलता है, वह सदै व नहीं रहता


अथात् िन नहीं है । िक ु 'कुछ न करने से जो कुछ िमलता है, वह
सदै व रहता है अथात् िन है । –मानव की माँ ग

3. सही करने से गलत करना भी िमट जाता है और 'न करना' भी त:


ा होता है । –मानव की माँ ग

4. 'न करने' की थित म जो जीवन है , वह मेरा अपना जीवन है। और


काम करने म जो जीवन है , वह सामािजक जीवन है। –साधन–ि वेणी

5. एक गहरी बात है िक वतमान म िजसका अनुभव होगा, उसके िलए


कोई भी य अपेि त नहीं होगा।...... य तो उदय होता है अहम्–

भाव से, और अनुभव होता है अहम् िमटने से.....अनुभव के िलए


अ य ही य है । –मानव की माँ ग

6. जो जीवन उ ि –िवनाश–रिह त है और िजससे दे श–काल की भी –


दू री नहीं है , उसे तो वतमान म ही अ य पी य से ा कर

सकते ह। –मानव की माँ ग

7. 'करने' का ज िकसी–न–िकसी चाह से ही होता है। 'न करना' उ ीं


को ा होगा, जो चाह से रिहत ह। –मानव की माँ ग
:: 1 ::
अ य (कुछ न करना)

8. जब हम 'कुछ नहीं करते', तब वे हम सब कुछ दे ते ह। जब हम सही


करते ह, तब भी हमारी उ रो र उ ित होती है और जब हम गलत

करते ह, तब भी वे दु ःख के प म कट होकर सचेत करते ह।


–मानव की माँ ग

9. ममता रखते ए, चाह रखते ए ाअ य हो सकते हो ? कदािप


नहीं हो सकते । –संतवाणी 7

10. म के ारा उसी को जाना जाता है , िजससे दे श, काल आिद की . दू री


हो। जो दे श, काल आिद की दू री से रिहत है, उसका प रचय म–

रिहत होने पर ही स व है । –मानव–दशन

11. करने का राग रहते ए अ य होना स व नहीं है । –मानव–दशन

12. ाकृितक िनयमानुसार सब कुछ करने पर िजसकी ा होती है,


कुछ न करने पर भी उसी की उपल होती है । पर कुछ न करने के

िलए साम तथा िववेक के अनु प फलास से रिहत कत –


पालन अिनवाय है । –मानव–दशन

13. िकया आ साधन साधक के अहं भाव को ों–का– ों सुरि त रखता


है। –मूक स ंग

14. करने से जो कुछ िमलता है , वह सदै व नहीं रहता। जो सदै व नहीं रहता,
वह मानव–जीवन का चरम ल नहीं हो सकता। –मूक स ंग
:: 2 ::
ांितकारी संतवाणी

15. वा िवक माँ ग की जागृित म–रिहत होने पर ही होती है। कामनाओं


की पूित के िलए म अपेि त है और म के िलए शरीरािद व ुओं की

आव कता होती है । –मूक स ंग

16. म का स ादन शरीरािद के िबना स व नहीं है। िक ु सत् का संग


करने के िलए तो शरीर के सहयोग की भी आव कता नहीं होती ।
वह तो म–रिहत होने पर अपने–आप हो जाता है । –मूक स ंग

17. स ंग म–रिहत होने पर तः हो जाता है । म–रिहत होने के िलए


िमले ए का सदु पयोग, जाने ए का भाव और सुने ए म अिवचल

आ था, ा, िव ास अिनवाय है । –मूक स ंग

18. अपने िलए कुछ करना है –यह असत् का सं ग है। – मूक स ंग

19. 'अकम ' तो वह होता है , जो दू सरे के कत पर ि रखता है; और


'अ य ' वह होता है , जो िन ामता को अपनाता है । अ य ब त

बड़ा साधन है । अकम ता ब त बड़ा असाधन है । –संतवाणी 5

20. कुछ न करने का संक भी म है । –मूक स ंग

21. िजसे अपने िलए कुछ भी करना शेष नहीं है , वही िव – ेम, आ –रित
तथा भु– ेम से प रपूण होता है , जो वा िवक जीवन है ।–मूक स ं ग

22. करने की वासना का ाग करने से साधक को वह ा होता है , जो


करने से नहीं होता। –संत–सौरभ
अ य (कुछ न करना)

23. 'न करने से अिवनाशी का संग त: होता है । –मूक स ंग

24. 'करने के आधार से िकसी कार उनको नहीं पाया जा सकता; ोंिक
करने वाले मजदू र होते ह। – संत प ावली 1

25. करने का स परिहत म भले ही हो, पर उससे अपने ल की


ा नहीं होती। –मानव–दशन

26. िजसे कुछ नहीं चािहए, उसे अपने िलए कुछ नहीं करना है। िजसे –
कुछ नहीं करना है , उसका दे हािद व ुओं से तादा नहीं रहता।
– मूक स ंग

27. म रिहत ए िबना असंगता उिदत नहीं होती और असंगता के िबना


जड़ता, पराधीनता आिद िवकारों का नाश नहीं होता। –मूक स ंग

28. िकसी भी मानव को अपने िलए कुछ नहीं करना है । दे हािभमान के


कारण करने की िच उ होती है , जो अिववेक–िस है ।

–मूक स ंग

29. योग, बोध तथा ेम वतमान की व ु है । इसी कारण उसकी साधना


म–रिहत है । म का आर अहं भाव से होता है , जो कामना–पूित के

िलए अपेि त है । –पाथेय

30. जब िव ासी आ क साधक को अपने िलए कभी भी कुछ करना नहीं


है, तब भला कोई भी वृि उसे कब छू सकती है ? –पाथेय
:: 4 ::
ांितकारी संतवाणी

31. िकसी भी साधक को अपने िलए तो कुछ भी करना है नहीं, कारण िक


िनममता, िन ामता, असं गता िवचार–िस है, म–सा नहीं और

शरणागित ा–िस है । –पाथेय

32. करना यही है िक करना कुछ नहीं है। केवल ेमा द के अ


और मह को अपनाना है । –पाथेय

33. 'करने' का अ ि य है , 'करना' ि य नहीं है। 'करने' की आस


रहते ए साधक यह रह जान नहीं पाता। –स ंग और साधन

34. कुछ न करने का अथ आल तथा अकम ता नहीं है, अिपतु जो है


उससे संग करने का उपाय 'कुछ न करना' है। िजससे िवभाजन हो ही

नहीं सकता, दू री हो ही नहीं सकती, उससे अिभ होने म 'कुछ न


करना ही हे तु है । बस यही 'मूक स ं ग' है । –स ंग और साधन

35. िजसे अपने िलए कुछ भी करना शेष नहीं है, वही वा व म कत िन
हो सकता है । जब तक साधक को अपने िलए कुछ करना है , तब तक

सवाश म कत परायणता नहीं आती। –स ंग और साधन

36. 'कुछ न करने की थित, जो करना चािहए, उसके करने पर अथात्


ा प र थित के सदु पयोग से, अथवा िन ामता से उिदत िचर–

िव ाम ा होने पर, अथवा असंगतापूवक ाधीनता से अिभ होने


पर, अथवा अिवचल आ था, ा एवं िव ास–पूवक शरणागत होने पर

ही आती है । उससे पूव 'न करने' के गीत गाना अकम ता, आल ,


अ य (कुछ न करना)

माद, असावधानी आिद को ही पोिषत करना है, जो सवथा ा है।


–दु ःख का भाव

37. दे हािभमान से रिहत होने के िलए िकसी म–सा उपाय की अपे ा


नहीं है, अिपतु इस त को अपना लेना है िक अपने िलए कुछ नहीं

करना है । कुछ न करने की थित से दे ह का तादा अपने–आप


िमट जाता है । –सफलता की कुंजी

38. अ य होने के िलए िमली ई व ु, यो ता, साम आिद का


सदु पयोग करना है ; िक ु उसके बदले म कुछ नहीं चािहए –इस

वा िवकता म ढ़ रहना है । –सफलता की कुंजी

39. यह मान लेना िक हम जब कुछ करगे, तभी कुछ िमलेगा, िबना िकए
कुछ नहीं िमलता है –इस धारणा म आ था करना मानव को अिवनाशी

जीवन से िवमुख करना है । –सफलता की कुंजी

40. िजसका कुछ नहीं है और िजसे कुछ नहीं चािहए, उसे अपने िलए कुछ

भी करना शेष नहीं रहता अथात् वह अ य हो जाता है ।


–सफलता की कुंजी

41. िवषयी बेचारा तो िवषय– वृि के अ मश हीनता िमटाने के िलए


आराम करता है । आराम ि या नहीं होती, यह सभी जानते ह। अत:
इस कार वह 'न करने' की शरण ले ता है; पर ु उसकी िच म

िवषय– वृि िव मान रहती है ; अत: आराम से श पाकर वह िफर


:: 6 ::
ांितकारी संतवाणी

िवषय– वृि करता है । िक ु भ अपने को समपण कर 'न करने'


की अव था को ा होता है । भ की िच म ेम–पा का िमलन

िव मान है ; अत: समपण होने पर िमलन का अनुभव होता है । िज ासु


असंगता के भाव से ‘न करने' का अनुभव करता है । उसकी िच म

त –सा ा ार िव मान है ; अत: 'न करने से वह त ान का


अनुभव करता है । –स –समागम 1

42. िजस कार फाँ सी का कैदी सभी सजाओं से छूट जाता है, उसी कार
स ावपूवक समपण करने वाला ‘करने' से छूट जाता है । ेम पा ऐसे

ेमी का ान करते ह, आते ह अथवा उससे ेम करते ह। ‘करना' तब


तक है , जब तक करने की श हो। ेम की पूणता होने पर करने की

श शेष नहीं रहती अथात् िमट जाती है । –स –समागम 1

43. ेक करना न करने के िलए होता है , इसिलए करना तभी साथक है

िक 'करना' न रहे । –स –समागम 1

44. ऐसी कोई कमी नहीं है , िजसकी पूित ‘न करने' से न हो।


–स –समागम 1

45. िकसी कार की कामनाओं का शेष न रहना ही अि यता है; ोंिक


आ काम अि य होता है । –स –समागम 1

46. ारे , करने की श का अ होने पर तो िस अव था ा होती


है; ोंिक जो ‘कुछ नहीं करता', वह सबसे बड़ा है , यहाँ तक िक वह
असाधन

ई र का भी ई र तथा गु ओं का गु , ेिमयों का ेम, ािनयों का


ान अथात् सबका सब कुछ है । कुछ न करने के िलए ही सब कुछ

िकया जाता है । –स –समागम 1

47. अिभलाषा होते ए म कुछ नहीं करता' ऐसा कहना अपने–आपको


धोखा दे ने के िसवाय कुछ अथ नहीं रखता। –स –समागम 1

48. ि या का अ करने के िलए िन यता साधन है , जीवन का ल

नहीं। –स –समागम 1

49. करने से जो कुछ िमलता है , वह अपने काम नहीं आता। –स वाणी 8

िनज–िववेक का काश मानव का अपना िवधान है। उस िवधान के


अधीन बु ,मन, इ य, शरीर आिद को कम म लगाना है, अथवा यों
कहो िक कत िन शरीर, इ य, मन आिद का उपयोग
वतमान क –कम म िववेक के काश म ही करता है। िनज–िववेक
का काश अिववेक का नाशक है। अिववेक के न होते ही अक
शेष नहीं रहता, िजसके न रहने पर क –पालन म ाभािवकता आ
जाती है। इस ि से िववेकयु मानव ही क िन हो सकते ह।
अतः िववेक–िवरोधी कम का मानव–जीवन म कोई थान ही नहीं है।

असाधन

1. असाधन और कुछ नहीं, िववेक–िवरोधी 'कम' ही असाधन है, िववेक–


िवरोधी 'िव ास' ही असाधन है और िववेक–िवरोधी 'स ' ही
असाधन है । –सफलता की कुंजी
:: 8 ::
ांितकारी संतवाणी

2. साधक का पु षाथ असाधन के ाग म है । िववेक–िवरोधी ीकृित,


कम, स और िच न असाधन ह। –संत–उ ोधन

3. असाधन के रहते ए बलपू वक िकया आ साधन िम ा अिभमान ही


उ करता है , जो सभी दोषों का मू ल है । –संत–उ ोधन

4. जो हो चुका है उसका िच न करना और उसके अथ को न अपनाना


असाधन ही है । –संत–उ ोधन

5. सुख–दु :ख का भोग असाधन और सदु पयोग साधन है ।–संत–उदबोधन

6. असाधन के रहते ए बलपूवक िकया आ साधन सत् की चचा तथा


सत् का िच न है , स ं ग नहीं। –मूक स ंग

7. साधन का अिभमान ही असाधन का मू ल है और असाधन के ान म ही


असाधन का नाश है । –संत प ावली 1

8. सम असाधनों की उ ि का मूल जाने ए असत् का संग है ।


. –संत पं ावली 2

9. असाधन के साथ–साथ िकया आ साधन काला र म भले ही


फलदायक हो, िक ु वतमान म िस दायक नहीं है । –संत प ावली 2

10. बलपूवक िकया आ साधन असाधन को दबा दे ता है , उसे िमटा नहीं


पाता। इतना ही नहीं, साधक साधन करने का िम ा अिभमान और
कर बैठता है , जो बड़ा ही भयंकर असाधन है । –स ंग और साधन

11. सम असाधन अिभमान म और सम साधन िनरिभमानता म


िनिहत ह। –स ंग और साधन

12. असत् के संग से असाधन की उ ि और सत् के सं ग से साधन को


अिभ त: होती है । –स ंग और साधन
अहम्

13. जो वृि अपने िलए स ता दे ने वाली न हो और दू सरों के िलए


िहतकर न हो, वह असाधन है । –सफलता की कुंजी

14. असावधानी की भूिम म ही असाधन की उ ि होती है । जो जानते . ह,


उसको न मानना और जो कर सकते ह, उसको न करना ही
असावधानी है । –िच शु

15. असाधन का ाग सभी मत, स दाय, िवचारधारा के साधकों के िलए


समान है। –साधन–त

16. अपने सुख–दु ःख का कारण िकसी और को मानना असाधन के


अित र और कुछ नहीं है । –साधन–त

17. सुख के लोभन का ही दू सरा नाम असाधन है । –संतवाणी 6

ेक कम कता का ही िच है। अतः कता की सु रता तथा असु रता का


प रचय उसके िकए ए कम से ही होता है । सु र कता के िबना
सु र काय स व नहीं ह कता वही सु र हो सकता है िजसका कम 'पर' के
िलए िहतकर िस हो तथा िकसी के िलए अिहतकर न हो। अतः कायार से
पूव यह िवक –रिहत िनणय कर लेना चािहए िक उस काय का मानव–
जीवन म थान ही नहीं है, जो िकसी के िलए भी अिहतकर है । अिहतकर
काय का अथ है िक जो िकसी के िवकास म बाधक हो।

अहम्

1. ‘मेरा कुछ नहीं है’ तो यह भी आ जाएगा िक ‘मुझे कुछ नहीं चािहए’।


जब मुझे कुछ नहीं चािहए तो ‘म’ जैसी कोई चीज नहीं रह गयी।
–संतवाणी 3
:: 10 ::
ांितकारी संतवाणी

2. न अहम् रहे , न दु ःखी होने का भय रहे , न पराधीन होने का भय रहे ।


–संतवाणी 5

3. यह संसार जो है, वह 'म' के भीतर है और 'म' जो है, वह परमा ा के


भीतर है। –संतवाणी 7

4. जो िदन–रात अपने अहम् के ही मह को बढ़ाता रहता है , दु िनया


उसका मुँह दे खना पस नहीं करती ईमानदारी से। –संतवाणी 7

5. यह अहं पी अणु है , िजसका मूल है –लेने और दे ने का रस।


– संतवाणी 7

6. सम जगत् का बीज अहम् म ही िव मान है । –मूक स ंग

7. कामना और िज ासा का पुं ज प 'म' है । 'म' के इस पार जगत् और


उस पार जो कोई हो, सो। –संतवाणी 7

8. अभेद भाव के स से सीिमत अहम् की और भेद–भाव के स


से सीिमत ार की उ ि हो गई है । –िच शु

9. िजतने भेद उ होते ह, वे सब सीिमत अहं भाव से और िजतने संघष


उ होते ह, वे सब सीिमत ार से। –मानव की माँग

10. शरणागित के िबना सीिमत अहं भाव का सवाश म नाश नहीं होता।
–मानव–दशन

11. 'अहम्' की पुि स म स ता दान करती है और 'मम' की पुि


स तव ुओं और यों म ि यता दान करती है अथात् िजसे
हम अपने को मान ले ते ह, वह हम 'स ' भासता है और िजसे हम
अपना मान लेते ह, वह 'ि य' मालू म होता है । –मानव की माँ ग
अहम्

12. अ ाई और बुराई जब दोनों होती ह, तब तो बनता है अहम्, बनती है


पर ता; और जब बुराई िब ु ल नहीं रहती, अ ा–ही–अ ा रह
जाता है , तब अहम् का नाश हो जाता है । म अहम् बनता है,
ातीत म अहम् नहीं बनता। –संत–उ ोधन

13. 'यह' से िवमुख होते ही 'म' 'वह' से, जो से अतीत है, अिभ हो
जाता है । –मानव की माँग

14. 'यह' की ममता तथा कामना ने ही 'म' को जीिवत रखा है।

–मानव–दशन

15. जब जड़–चेतन का िमलन ही नहीं है , तब उसके िमलने से जो उ


आ वह 'म' है , यह भी भूल ही है । –मानव–दशन

16. सृि का मूल बीज अहम् है । –मानव–दशन

17. शा और ाधीनता के आि त अहम्– पी अणु रह सकता है ,


िक ु ि यता म तो अहम् की ग भी नहीं रहती । –मानव–दशन

18. ि यता की जागृित के िबना अहम्–भाव पी अणु का नाश नहीं होता,


और उसके ए िबना सवाश म दू री, भेद, िभ ता का नाश नहीं होता।
–साधन–िनिध

19. सभी सं ार अहं ता म अंिकत रहते ह; पर ु अहंता प रवितत होने पर


पूव सं ार भुने ए बीज के समान िनज व हो जाते ह अथात् उनम
उपजने की श नहीं रहती। पूव सं ारों को िनज व करने के िलए
अहंता–प रवतन परम अिनवाय है । –संत प ावली (1)

20. 'सबिहं नचावत राम गोसाईं,—यह उस भ के दय की पुकार है


िक िजसका अहं भाव िमट गया हो। –संत प ावली (1)
:: 12 ::
ांितकारी संतवाणी

21. अहंकृित–रिहत वृि िकसी भी िनवृि से कम नहीं है , और


संक यु िनवृि िकसी भी वृि से कम नहीं है । –पाथेय

22. िकसी–न–िकसी कार का सुख ही अहं भाव को जीिवत रखता है।


–पाथेय

23. ाकृितक िवधान के अनुसार अहम् पी अणु म असाधन का बीज भी


है और साधन की माँ ग भी। 'पराधीनता म जीवन–बु '–यही असाधन
का बीज है और ' ाधीनता म ाभािवक ि यता' –यही साधन की
माँग है । –स ंग और साधन

24. 'यह' की आस और िज ासा तथा ि यता िजसम है , वही 'म' है ।


–मानव–दशन

25. अिन और अिन जीवन के म म अहं भाव पी अणु ही एक ऐसा


आवरण है , जो िद जीवन की िद ता को इस भौितक जीवन म
अवत रत नहीं होने दे ता। –जीवन–दशन

26. सुख–भोग की िच का सवाश म नाश होते ही अहं पी अणु न हो


जाता है । –सफलता की कुंजी

27. अहं पी अणु म सम िव और अन म अहम् िव मान है ।


–सफलता की कुंजी

28. ममता का अ होते ही सब कार की चाह का अ होगा और


चाहरिहत होते ही अहं पी अणु त: टू ट जाएगा –उसके िलए कोई
अ य अपेि त नहीं होता। –जीवन–दशन

29. हम अपने म से म सविहतै षी ँ ', 'म अचाह ँ ' अथवा —'मुझे अपने
िलए संसार से कुछ नहीं चािहए'–यह अहं भाव भी गला दे ना चािहए।
यह तभी स व होगा, जब सविहतकारी वृि होने पर भी अपने म
अहम्

करने का अिभमान न हो और चाहरिहत होने पर भी 'म चाहरिहत ँ '


ऐसा भास न हो। कारण िक अहं भाव के रहते . ए वा व म कोई
अचाह हो नहीं सकता; ोंिक सेवा तथा ाग का अिभमान भी िकसी
राग से कम नहीं है । –जीवन–दशन

30. राग–िनवृि होने पर उन सभी दु ःखों का अ हो जाता है, जो सुख की


दासता से उ ए थे; पर ु 'म वीतराग ँ ', 'म शा ँ ', 'मुझे कुछ
नहीं चािहए–यह िजस अहं की िन ह, वह शेष रहता है। उसका नाश
िकसी की ृित से ही होता है । –जीवन–दशन

31. ि का उ म अहम् है और अहम् भी ही है; ोंिक िजसकी


तीित होती है और जो भािसत होता है , वह ही है। इस ि से
अपने को अहम् पी से भी असंग होना है , जो एकमा अ य
से ही सा है । –सफलता की कुंजी

32. शरीर पी व ु म अहम्–बु हो जाने पर व ुओं की कामना त:


उ होती है ; ोंिक शरीर और सृि म गुणों की िभ ता और प
की एकता है । –िच शु

33. जब तक अहं भाव पी अणु न तोड़ िदया जाय, तब तक न तोिच ही


शु हो सकता है और न िद िच य जीवन से ही अिभ ता हो
सकती है । –िच शु

34. िजसे अपने म संयम, सदाचार तथा सेवा तीत होती है, वह वा वम
संयमी, सदाचारी तथा सेवक है ही नहीं। सवाश म असंयम का अ
संयम के अिभमान को खा लेता है और िफर सदाचार तथा सेवा तो
रहती है , पर सदाचारी तथा सेवक नहीं रहता। 'सेवक' से रिहत जो
:: 14 ::
ांितकारी संतवाणी

सेवा और 'सदाचारी' से रिहत जो सदाचार है, वही वा व म संयम,


सदाचार तथा सेवा है । –िच शु

35. सब इ ाओं के िमटते ही अहं भाव िमट जाता है । –स –समागम 1

36. जो अपने को िमटा दे ता है , उसे िफर िकसी भी की


गुलामी की आव कता नहीं होती; ोंिक को ही की
आव कता होती है । –स –समागम 1

37. अ ाभािवक अहं भाव समािध तक जीिवत रहता है। –स –समागम 1

38. अहंभाव का प रवतन होने पर ि या तथा भाव का प रवतन यं हो


जाता है और अहं भाव के िमटने पर सब कुछ िमल जाता है ।
–स –समागम 1

39. व ुओं के सदु पयोग से व ुओं का आ य और यों कीसेवा से


यों का स शेष नहीं रहता, िजसके न रहने पर अहम् अपने–
आप िमट जाता है । –साधन–त

40. अहम् के नाश म ही ाधीनता, िच यता एवं अमर की उपल


िनिहत है और अहम् के नाश म ही परम ेम की अिभ हो
सकती है । –साधन–त

41. बड़े –बड़े वै ािनक यह तो कह सकते ह िक शरीर की उ ि ई,


लेिकन कोई वै ािनक यह नहीं कह सकता िक 'म' की उ ि ई।
........ 'म' की खोज की तो 'है ' िमल गया और 'म' िमट गया।
–संतवाणी 8

42. यिद आप शा म रमण करगे अथवा अपने म िद गुणों का आरोप


करके अपने म स ु होंगे, तो अहं पी अणु ों–का– ों सुरि त
आ था

रहेगा। जब तक वह सुरि त रहे गा, तब तक िकसी–न–िकसी पम


सत् से दू री रहे गी। –संतवाणी 6

43. जब हम और आप िन भाव से िवचार करगे तो भाई, उस अहम् का


प िनकलेगा –परा य। –संतवाणी 4

44. अहंभाव के िमटते ही िनगु ण का बोध और ेम का उदय त:िस है।


–मानव की माँ ग
कोई भी कम कम–िव ान के िव करने से सांगोपांग िस न
होगा। अतः ेक कम उस कम की िविध से ही करना चािहए, जो िव ान–
िस है। कम–िव ान के िव िकया आ कम फलदायक नहीं होता। कम
के बा प म कम स ी ान की अपे ा है। अतः ेक कता को
कायार से पूव उस काय–स ी ान का स ादन अिनवाय है।

आ था

1. स े ह रहते ए आ था सजीव नहीं होती। –मानव–दशन

2. यह आव क नहीं है िक आ था िववेक से समिथत हो, पर यह


आव क है िक आ था म िववेक का िवरोध न हो। –मानव–दशन

3. स े ह दे खे ए म होता है , बोध जाने ए का होता है और आ था सुने


ए म होती है । –मानव–दशन

4. जब िमला आ और दे खा आ अपने को संतु नहीं कर पाता, तब


भाव से ही िबना जाने ए म आ था होती है । –मानव–दशन

5. अधूरे ान से िज ासा जा त होती है , आ था नहीं। आ था एकमा


उसी म हो सकती है , िजसे कभी भी इ य तथा बु – ि से अनुभव
नहीं िकया। –मानव–दशन
:: 16 ::
ांितकारी संतवाणी

6. 'नहीं' की िनवृि म िवचार और 'है ' की ा म आ था ही समथ है ।


–मानव–दशन

7. आ था ' ' के ारा होती है । उसके िलए कोई कारण अपेि त नहीं है ।
–मानव–दशन

8. िजसने आ था ीकार की है , वह कोई करण नहीं है, अिपतु कता है ।


–मानव–दशन

9. आ था का उपयोग कामना की पूित तथा िनवृि म करना आ था का


दु पयोग है । आ था का सदु पयोग एकमा आ ीयतापूवक ि यता
की जागृित म ही है । –मानव–दशन

10. आ था दे खे ए तथा िमले ए म हो ही नहीं सकती, अिपतु उसी म हो


सकती है , िजसे दे खा नहीं है । –मानव–दशन

11. िमले ए का उपयोग िकया जा सकता है , उसम आ था नहीं की जा


सकती। दे खे ए पर िवचार िकया जा सकता है , आ था नहीं की जा
सकती। सुने ए म आ था की जा सकती है , उस पर िवचार नहीं िकया
जा सकता। –साधन–िनिध

12. सुने ए भु की आ था ीकार करने पर िमले ए शरीर और दे खे


ए जगत् की आ था िनज व हो जाती है । कारण िक दो आ थाएँ एक
काल म जीिवत नहीं रह सकतीं। –साधन–िनिध

13. िवचारशील माँ ग के आधार पर और िव ासी भ ों, स ों तथा ों के


आधार पर उसम आ था करते ह, जो अगोचर है । –साधन–िनिध

14. िव के रचियता का वणन उसकी रचना नहीं कर सकती; िक ु


साधक उसम अिवचल आ था कर सकता है । –साधन–िनिध
आ था

15. दे खा आ िमला नहीं, िकये ए का प रणाम भाता नहीं, तब मानव


िववश होकर सुने ए म आ था करता है । –मूक स ंग

16. िमले ए तथा दे खे ए म आ था नहीं रह सकती। हाँ, िमले ए का


सदु पयोग और दे खे ए के ित िज ासा हो सकती है । –मूक स ंग

17. दाशिनकों के ि कोण को अपनाना आ था है , दशन नहीं।


–मानव–दशन

18. िज ासा की जागृित स े ह की वेदना म िनिहत है । स े ह काल म


आ था का भार िज ासु पर लाद दे ना िज ासा को िनज व बनाना है ।
–मानव–दशन

19. 'है' म आ था 'है ' की ा का अचूक उपाय है । –पाथेय

20. 'यह' को जानो और 'वह' म आ था करो। –दु ःख का भाव

21. आ था उसी म की जाती है , जो इ य, मन, बु आिद से अगोचर है,


िजसे भ ों से सुना है और िजसकी माँ ग अपने म है।
–सफलता की कुंजी

22. साधनिन होने के िलए ेक साधक की अपने सा म अिवचल


आ था होनी अिनवाय है । –सफलता की कुंजी

23. की आ था ने सा की आ था को िशिथल िकया है । य िप सा


की माँग साधक म िव मान है , पर ु की आ था ने माँ ग को
िशिथल और िच को बलवती कर िदया है । –सफलता की कुंजी

24. सा की आ था शरीर, इ य, मन, बु आिद के ारा स व नहीं


है, अिपतु अपने ही ारा अपने सा म आ था करना स व है अथात्
:: 18 ::
ांितकारी संतवाणी

ेक साधक यं अपने सा म आ था कर सकता है।


–सफलता की कुंजी

25. आ था तभी सजीव होती है , जब साधक सा के मह को अपना कर


सा म अपन ीकार करे । –सफलता की कुंजी

26. िवचार उस पर िकया जा सकता है , जो बु की सीमा म हो, सीिमत


हो, प रवतनशील हो। पर जो सदै व है , अन है और असीम है , उस
पर िवचार नहीं िकया जा सकता। वह तो आ था का िवषय है।
–स –उ ोधन

27. आ था का अथ है ' भु ह। कैसे ह, कहाँ ह, हम नहीं जानते।यह जानना


िबलकुल ज री नहीं है । इतना जानना पया है िक ' भु ह।
–जीवन–पथ
कम–िव ान के अनुसार स ािदत काय यिद पिव भाव से न िकया
गया, तो उसम सरसता नहीं आएगी। सरसता के िबना काय य वत् होगा।
मानव की माँ ग जहाँ कम–िव ान रिहत काय करने की है, वहीं काय की
मधुरता भी उसे अभी है। अतः मानव को ेक काय पिव भाव से भािवत
होकर करना अिनवाय है ।

आ कता–ना कता

1. िजसकी अ हर काल म है , उसकी ीकृित 'आ कता' है ।


िजसकी अ हर काल म नहीं है , उसकी ीकृित 'ना कता' है ।
–स –समागम 1

2. ब त–से लोग ह जो भु को मानते ह। ब त–से लोग ह जो संसार की


वा िवकता को जानते ह। मह की बात यह है िक उस जाने ए का
आ कता–ना कता

भाव िकतना है जीवन म; उस माने ए का भाव िकतना है जीवन


म। –सफलता की कुंजी

3. िच ा ना क को होती है , आ क को नहीं; ोंिक िजस कार


काश और अ कार एक थान म नहीं रह पाते, उसी कार
आ कता और िच ा एक थान म नहीं रहने पाते । –स –समागम 1

4. भगवान् का रण करने से जीव का क ाण होता है –यह बात भी


हम अ ी तरह जानते ह, िफर भी मन भगवान् म नहीं लगता, तो
इससे बढ़कर और ना कता ा होगी? आ य इस बात का है िक
हम महामूख व ना क होकर भी यं को आ क व बु मान
मानते ह। –स वाणी ( ो र)

5. ई र म िव ास करो और उसे अपना मानो –इसका नाम ई र–वाद है ।


–संतवाणी 8

6. 'ई र है ' यही समझकर स ोष मत करो, ब उसका अनुभव करने


के िलए अख य करो। –संत प ावली 1

7. स ा ई रवादी अनी रवादी म भी ई र का दशन करता है ।


–संत–सौरभ

8. व ु िवशेष म भगवबु होना कोई किठन बात नहीं है । पर यह अधूरी


आ कता है । पूरी आ कता का तो अथ यह है िक भगवान् से िभ
कुछ है ही नहीं। अभी भी नहीं है , पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं
होगा। –संतवाणी 7

9. जब तक कुछ भी चाहते हो, तब तक यह नहीं कह सकते िक ई र


कुछ नहीं; ोंिक माँ गना ही अपने से बड़ी स ा को ीकार कर लेना
है। –स –समागम 1
:: 20 ::
ांितकारी संतवाणी

10. भगवान् अनी रवािदयों के भी ितकूल नहीं ह। भौितकवादी भी यिद


उ ित करे गा तो भौितकता के प म वे उसे िमलगे।–स –समागम 2

11. िकसी आव कता का होना ही अन की स ा ीकार करने म


त:िस है । –मानवता के मूल िस ा

12. परमा ा को मानना कहलाता है िक हम परमा ा चािहए, परमा ा से


हम कुछ नहीं चािहए। –संतवाणी 8

13. ई र को मानना एक चीज है और उसके अनुसार अपना जीवन बना


लेना दू सरी चीज है । केवल ई र को मान ल, पर उसके साथ अपन .
और ेम न हो तो जीवन नहीं बदलता। –संत सौरभ

14. पूण आ कता तो यह है िक जगत् और परमा ा का िवभाजन कभी


आ ही नहीं। –संतवाणी 7

15. परमा ा के मानने की ज रत ों पड़ती है ? केवल इसिलए पड़ती


है िक सदा–सदा के िलए रहने वाला कोई साथी िमलता नहीं संसार म।
–संतवाणी 3

16. अगर आप भगवान् को मानते ह, तो उस मा ता का प रचय हमारे


आपके जीवन से हो, केवल िवचारों से नहीं। हमारा जीवन बता दे िक
हम भगवान् को मानते ह। –स –समागम 2

17. गहराई से दे खए, िकसी का होना कुछ अथ नहीं रखता, जब तक िक


उससे अपना स न हो, और िकसी से भी स उस समय तक
नहीं होता, जब तक िक उसकी आव कता न हो। –स –समागम 2

18. जो कुछ भी जानना चाहता है , उसने 'गु ' मान िलया, और जो


कुछ भी करना चाहता है , उसने 'धम' मान िलया, और िजसे
आ कता–ना कता

अपने से कोई भी बड़ा िदखता है , उसने 'ई र' मान िलया।


–संत–उ ोधन 17

19. िबना दे खे 'म' को मानते हो तो िबना दे खे 'है ' को ों नहीं मानते?


–संतवाणी 5

20. ई र तो कहते ही उसको ह िक िजसका होना आपके मानने, न मानने


पर िनभर नहीं। – ेरणा पथ

21. ई रवाद का असली अथ है िक वह उसका भी उतना ही है , जो उसे


मानता है ; और जो उसे नहीं मानता, उसका भी वह उतना ही है।
– ेरणा पथ

22. ई र उनका भी है , जो उनम िव ास नहीं करते। ई र की सूची म से


तु ारा नाम नहीं कटे गा। तु म मानो तो और न मानो तो। –संतवाणी 3

23. भगवान् के खलाफ जो आवाज उठती है न, वह तक से नहीं उठती है ।


वह आवाज उठती है भगवान् को मानने वालों के दु र से, और कोई
बात नहीं है । भगवान् को मानने वाले अगर ठीक आदमी हों तो भगवान्
के खलाफ कोई बोल ही नहीं सकता। –संतवाणी 3

24. लोग ई र को मानने चलते ह, िकसिलए? िक हमारी जो कामनाएँ ह, वे


पूरी हो जाएँ । यह ई रवाद नहीं है । –संत–उ ोधन

25. परमा ा कहाँ है , कैसा है , ा है –इसके पीछे न पड़ते ए 'परमा ा


है' यह मान लेना चािहए। –संत–उ ोधन

26. कोई भी िम यत बेमािलक की और कोई भी उ ि िबना आधार के


नहीं होती। तो िफर िव का कोई मािलक नहीं है तथा उ ि का कोई
आधार नहीं है , यह कैसे हो सकता है ? हाँ , यह अव है िक जो
सबका मािलक तथा आधार है , वह इतना उदार है िक उसम यिद कोई
:: 22 ::
ांितकारी संतवाणी

आ था न करे अथवा उसे कोई न माने, तब भी वह सभी का अपना है ।


–मानव–दशन

27. अगर आपको उनके िबना अनुकूलता ि य है , तो वह उसी कार की है


िक एक सु र कमरा सजा है और आप दो के िबना ह; एक सु र
ी ंगार करे और पित से वंिचत रहे , या शरीर आ ा–रिहत हो।
आ कवाद का न होना जीवन म अकेले पड़े रहने के समान है ।
–स –समागम 2

उ ित
1. शारी रक उ ित के िलए 'सदाचार' परमाव क है, मानिसक उ ित
के िलए 'सेवा' परमाव क है , आ क उ ित के िलए ' ाग'
परमाव क है । –स –समागम 1

2. आ क उ ित होने पर और िकसी उ ित की आव कता नहीं रहती


है। –स समागम 1

3. अगर आप भौितक उ ित करते ह, तो उसम संयम, सदाचार, सेवा,


ाग और म होना चािहए। आ कवाद की उ ित ढ़ता, सरल
िव ास और शरणागित से होती है और अ ा वाद की उ ित िवचार,
ाग और िनज ान के आदर से होती है । –स –समागम 2

4. ेक उलझन उ ित का साधन है , डरो मत। उलझन–रिहत जीवन


बेकार है। संसार म उ ीं ािणयों की उ ित ई है , िजनके जीवन म
पग–पग पर उलझन आयी है । –स –समागम 2

5. िवकास के िलए ज , सं ार तथा कम तीनों ही आव क होते ह।


'ज ' केवल िछपी ई श है , 'सं ार' उस िछपी ई श को
उपदे श

जा त करता है , 'कम' सं ार के अनु प फल दे ता है । अत: िजस


वण म ज हो, उसके अनु प सं ार तथा सं ार के अनु प कम
करना उ ित के िलए परम अिनवाय हो जाता है । –स –समागम 2

6. संसार हमारी आव कता अनुभव करे –यह भौितक उ ित है, और


हम संसार की आव कता न रहे –यह आ ा क उ ित है ।
–स वाणी ( ो र)

7. अगर तुम दू सरों के िलए बोलते हो, दू सरों के िलए सुनते हो, दू सरों के
िलए सोचते हो, दू सरों के िलए काम करते हो तो तु ारी भौितक उ ित
होती चली जाएगी। कोई बाधा नहीं डाल सकता। अगर तुम केवल
अपने िलए सोचते हो तो द र ता कभी नहीं जाएगी। –संतवाणी 8

8. म तो इस नतीजे पर प ँ चा ँ िक हम सबका वतमान हम सबके


िवकास म हे तु है ; चाहे दु :खमय है वतमान, चाहे सुखमय है ।
–संतवाणी 4

9. मनु के िवकास म जो े म का िवकास है , वह अ म िवकास है ।


ाधीनता दू सरे न र का िवकास है और उदारता तीसरे न र का
िवकास है । –साधन–ि वेणी
कम वही साथक िस होता है, िजससे सु र समाज का िनमाण तथा
करने के राग की िनवृि हो, अथात् कता राग–रिहत हो जाए और उसके
ारा िकया आ कम सु र समाज के िनमाण के िलए िवधान बन जाए। अतः
ेक कम मानव को सु र समाज के िनमाण तथा राग–रिहत होने के
उ े ही से करना अिनवाय है।

उपदे श
1. उपदे श करने की जो सेवा है , वह सबसे नीचे दज की है। –संतवाणी 4
:: 24 ::
ांितकारी संतवाणी

2. आप िकसी को वह उपदे श नहीं दे सकते, जो वह नहीं जानता है। जब


वह अपना ही जाना आ नहीं मानता है , तो आपका बताया आ मान
लेगा? –संतवाणी 4

3. सही बताने का फल यह नहीं था िक लोग हमारे पीछे ऐसे िचपकजाएँ


िक पीछा न छोड़। सही बात बताने का फल यह था िक इ हमारी
ज रत न रहे और जो काम हमने उनके साथ िकया, वह दू सरों के
साथ करने लग जाएँ । एक ाधीनता का सा ा बन जाए।.
–संतवाणी 4

4. यह जो उपदे श करने वाली सेवा है , इसको कम–से–कम िकयाजाए।


इस सेवा से मैने ब त किठनाई सही है । आज भी सहनी पड़ती है।
–संतवाणी 4

5. जरा सोचो, िजनके िनणय म तुमको अिवचल ा नहीं है ,


उनकेउपदे श से तु ारा ाक ाण होगा ? –संतवाणी 4

6. सबसे बड़ा उपदे शक कौन है ? जो जीवन से उपदे श करता है ।वह


सबसे बड़ा व ा है , सबसे बड़ा प त है , सबसे बड़ा सुधारवादी है ।
और सबसे घिटया कौन है ? जो परचचा करके उपदे श करता है। कभी
यों की चचा, कभी प र थितयों की चचा। –संतवाणी 3

7. क िन होने से ही क परायणता फैलती है , समझाने से नहीं,


उपदे श करने से नहीं, शासन करने से नहीं, भय दे ने से नहीं, लोभन
दे ने से नहीं। –संतवाणी 5

8. जो मनु नेता या चारक बन जाता है या उपदे ा बन जाता है ,


उसका िच शु होना किठन है । –संत–सौरभ
एकता

एकता

1. आज हम प से एकता करने की जो क ना करते ह, वह िववेक


की ि से अपने को धोखा दे ना है अथवा भोली–भाली जनता को
बहकाना है । –मानव की माँग

2. बा िभ ता के आधार पर कम म िभ ता अिनवाय है , पर आ रक
एकता होने के कारण ीित की एकता भी अ आव क है । ने से
जब दे खते ह, तब पैर से चलते ह। दोनों की ि या म िभ ता है, पर वह
िभ ता ने और पैर की एकता म हे तु है । उसी कार दो यों म,
दो वग म, दो दे शों . म एक–दू सरे की उपयोिगता के िलए ही िभ ता
है। –मानव–दशन

3. ेक , वग, दे श यिद दू सरों की उपयोिगता म ा व ु,


साम एवं यो ता य कर तो एक–दू सरे के पूरक हो सकते ह और
िफर पर र ेह की एकता बड़ी ही सुगमतापूवक सुरि त रह सकती
है, जो िवकास का मू ल है । –मानव–दशन

4. आ रक एकता के िबना बा एकता कुछ अथ नहीं रखती। ...........


संघष का मूल आ रक िभ ता है , बा नहीं। अब यह िवचार करना
होगा िक आ रक िभ ता ा है ? तो कहना होगा िक बा िभ ता
के आधार पर ीित का भेद ीकार करना। –दशन और नीित

5. ाकृितक िनयम के अनुसार दो भी सवाश म समान िच,


यो ता, साम के नहीं होते और न प र थित ही समान होती है ।
दे श–काल के भेद से भी रहन–सहन आिद म भेद होता है; िक ु मानव
मा के वा िवक उ े म कोई भेद नहीं होता। इस उ े की
:: 26 ::
ांितकारी संतवाणी

एकता के आधार पर ही मानव–समाज ने मानव मा के साथ एकता


ीकार की है । –दशन और नीित

6. शरीर का िमलन वा व म िमलन नहीं है । ल तथा ेह की एकता


ही स ा िमलन है । –स –समागम 2

7. दो यों की भी िच, साम तथा यो ता एक नहीं है ; िक ु ल


सभी का एक है । यिद इस वैधािनक त का आदर िकया जाये तो
भोजन तथा साधन की िभ ता रहने पर भी पर र एकता रह सकती
है। –मंगलमय िवधान

8. अपने गुण और पराये दोष दे खने से पार रक एकता सुरि त नहीं


रहती। –दशन और नीित

ा प र थित के अनुसार क –पालन का दािय तब तक रहता


ही है, जब तक कता के जीवन से अशु तथा अनाव क संक न
न हो जाएँ , आव क तथा शु संक पूरे होकर िमट न जाएँ , सहज
भाव से िनिवक ता न आ जाए, अपने–आप आयी ई िनिवक ता से
असंगता न हो जाए तथा असंगतापूवक ा ाधीनता को समिपत
कर जीवन ेम से प रपूण न हो जाए। क –पालन से अपने को
बचाना भूल है। अतः ा प र थित के अनु प मानव का कत िन
होना अिनवाय है।

कत

1. िजसे लोग कत परायणता कहते ह, वह 'भूिम' है । िजसे लोग योग


कहते ह, वह 'वृ ' है । िजसे लोग त – ान कहते ह, वह 'फल' है ।
और िजसे लोग रस कहते ह, वह ' ेम' है । –जीवन–पथ
कत

2. अकत के ाग म तु ारा पु षाथ है । कत –पालन तो त: होता


है, उसका अिभमान करने से तो कत अकत के प म बदल
जाता है । –जीवन–पथ

3. वैरा होने पर तो सब कार के धम और कत की समा हो जाती


है। ऐसे ही आ –रित और ेम की ा होने पर भी कोई कत शेष
नहीं रहता। –संत–उ ोधन

4. दु :खी का कत है ाग और सुखी का कत है सेवा।


–मानवता के मूल िस ा

5. कत परायणता आ जाने पर अिधकार िबना माँगे ही आ जाएगा।


–मानव की माँ ग

6. चाह–रिहत होने से कत परायणता की श त: आ जाती है ।


–मानव की माँ ग

7. ेक मानव बल, यो ता और प र थित म समान नहीं है । यह


असमानता ही कत की जननी है । समानता म वृि स व नहीं है ।
एक सबल दू सरे सबल के ा काम आ सकता है ? सबल ही िकसी
िनबल के ही काम आ सकता है । –संत–उ ोधन

8. कत पूरा करने पर कता का कोई अ ही शेष नहीं रहता।


.......... कत पूरा होने पर कता की जो आव कता थी, उसकी पूित
हो जाती है और उसकी पूित हो जाने पर कता का अ अपने ल
से अिभ हो जाता है । –मानव की माँ ग

9. दू सरे के अिधकार की र ा से कत परायणता त: आ जाती है , और


अपने अिधकार के ाग से माने ए सभी स टू ट जाते है।
–मानव की माँ ग
:: 28 ::
ांितकारी संतवाणी

10. दू सरों के अिधकार की र ा और अपने अिधकार का ाग ही वा व


म कत है । –मानव–दशन

11. वा िवक कत वही है , िजससे िकसी का अिहत न हो और


कत पालन करने पर कता अपने ल से अिभ हो जाए।
–मानव की माँग

12. कत िन होने पर जीवन तथा मृ ु दोनों ही सरस हो जाते ह और


कत ुत होने पर जीवन नीरस तथा मृ ु दु ःखद एवं भयंकर होती
है। –मानव की माँग

13. जो नहीं कर सकते उसके, और जो नहीं करना चािहए उसके न करने


से जो करना चािहए, वह तः होने लगता है। इस ि से कत –
परायणता सहज तथा ाभािवक है । –मानव–दशन

14. कत का 'पर' के ित है , ' ' के ित नहीं। कत का स ादन


जो 'पर' से ा है , उसके ारा होता है , ' ' के ारा नहीं। इस ि से
कत परधम है । –मानव–दशन

15. जो वृि परिहत म हे तु नहीं है , वह कत नहीं है । –मानव–दशन

16. कत –पालन उतना आव क नहीं है , िजतना अकत का ाग।


कारण िक अकत का ाग िबना िकए कत की अिभ ही
नहीं होती। –मानव–दशन

17. िकये ए की फलास अपने िलए अभी नहीं है , इसका कत –


पालन म कोई थान नहीं है । –मानव–दशन

18. कत परायणता वह िव ान है , िजससे मानव जगत् के िलए उपयोगी


होता है और यं योग–िव ान का अिधकारी हो जाता है।
–मानव–दशन
कत

19. सृि की व ु को सृि के िहत म य करना अिनवाय है , जो वा वम


कत का प है । –मानव–दशन

20. दू सरों के कत की ृित अपने कत की िव ृित म हेतु है और


कत की िव ृित ही अकत की जननी है । इस ि से दू सरों के
कत पर ि रखना ही अपने कत से ुत होना है , जो िवनाश का
मूल है । –मानव–दशन

21. राग तथा ोध के रहते ए न तो कत –पालन की साम ही ा


होती है और न कत की ृित ही जा त होती है, तो िफर कत –
पालन कैसे स व हो सकता है ? –मानव–दशन

22. कत का अिभमान अकत से भी अिधक िन नीय है। कारण िक


अकत से पीिड़त ाणी कभी–न–कभी कत की राह चल सकता
है, िक ु कत का अिभमानी तो अकत को ही ज दे ता है ।
–मानव–दशन

23. कत िन मानव की माँ ग जगत् को रहती है ।....... जो कत िन नहीं


है, उसकी जगत् को कभी आव कता नहीं होती। –मानव–दशन

24. िकसी लोभन से े रत होकर बलपूवक कत –पालन करना


वा िवक कत परायणता नहीं है । –मानव–दशन

25. कत –पालन म असमथता तथा परत ता नहीं है, यह िनिववाद िस


है। –मानव–दशन

26. जो िकसी को भी बुरा समझता है तथा िकसी का भी बुरा चाहता है एवं


जानी ई बुराई कर सकता है , वह कभी भी कत की वा िवकता से
प रिचत नहीं हो सकता। कत –पालन से पूव कत का ान
:: 30 ::
ांितकारी संतवाणी

अिनवाय है । वह तभी स व होगा, जब मानव यह ीकार करे िक म


िकसी को बुरा नहीं समझूंगा। –मानव–दशन

27. िन ाम कता से ही कत –पालन होता है । –साधन–िनिध

28. ाणों का मू कत से कम है । कत पालन के िलए स तापूवक


ाणों का ाग कर दे ना साधन–िनिध–स साधक का सहज भाव
है। –साधन–िनिध

29. कत का स ा प र थित से है । अ ा प र थित का


आ ान वे ही लोग करते रहते ह, जो कत के नाम पर गत
सुखभोग की िच म आब ह। –मूक स ंग

30. भौितक िवकास कत –परायणता का बा प है और िन योग


कत –परायणता का आ रक फल है । –मूक स ंग

31. कत –परायणता भाविस है , म–सा नहीं है । कारण िक अपने


िलए कुछ भी नहीं करना है और वही करना है, जो कर सकते ह,
िजससे िकसी का अिहत नहीं है । –मूक स ंग

32. दू सरों के कत को वही दे खता है , जो अपने कत का पालन नहीं


करता। उ ोंने कृपा नहीं की, यह कैसे जाना ? आपको जो करना है ,
वह कर डालो। उनको जो करना है , वह यं करगे । –संत प ावली 1

33. अिधकार तो कत का दास है । जो अपने कत का पालन करता है ,


उसको िबना अिभलाषा के भी अिधकार यं ा हो जाता है।
–संत प ावली 1

34. कत का अ योग म, योग का अ बोध म तथा बोध का अ ेम


म प रिणत हो जाता है । इस ि से कत –परायणता योग की भूिम है,
कत

जो एकमा , जो नहीं करना चािहए, उसके न करने से ही सा है ।


–संत प ावली 2

35. मानव कत –पालन म ाधीन है ; पर ु लोभ, मोह आिद िवकारों के


कारण कत –परायणता म अनेक बाधाएँ तीत होती ह। ऐसा मेरा
अनुभव है । –संत प ावली 2

36. जब तक हम केवल अपने ही मन की बात पूरी करते रहगे, तब तक


कत िन नहीं हो सकगे । कत िन होने के िलए हम दू सरों के
अिधकारों की र ा करते ए अपने अिधकार का ाग करना होगा।
–जीवन–दशन

37. अिधकार की ृित कत की िव ृित म हे तु है। कत की िव ृ ित


ही अकत को ज दे ती है । –दशन और नीित

38. ऐसा कोई कत हो ही नहीं सकता, िजसका स अ ा


प र थित से हो। िजस िकसी को जो कुछ करना है , वह ा
प र थित म ही हो सकता है । –दशन और नीित

39. मानव अपने ित दू सरों से िजस भलाई की आशा करता है , वह भलाई


उसे िबना िकसी लोभन तथा भय के दू सरों के ित करनी है । इससे
सु र कोई भी कत –िव ान नहीं हो सकता। –दशन और नीित

40. िजतनी मा ताएँ ह, वे कत और अकत की तीक मा ह। िजन


मा ताओं से अकत की उ ि होती है , वे सभी के िलए ा ह
और जो मा ताएँ कत को ज दे ती ह, वे सभी के िलए मा ह।
–दशन और नीित
:: 32 ::
ांितकारी संतवाणी

41. िकसी के िवकास के िलए िकसी का ास करना िववेक–िवरोधी काय


है। कत –िव ान की ि से िजस िवकास के मू ल म िकसी का
िवनाश है , उसका प रणाम िवनाश है , िवकास नहीं। –दशन और नीित

42. कत –पालन म असमथता की बात मन म तभी आती है , जब हम


ा साम का य सुख–भोग म करने लगते ह। –िच शु

43. जो कता के अधीन नहीं है , उस पर ि रखना कता का दोष है। जैसे


खेत म दाना बोने का कृषक का अिधकार है, पर वह दाना ाकृितक
िनयमों के अनु प ही उगेगा और फल दे गा। –िच शु

44. कत का वा िवक ान तथा साम उसे ही ा होता है , जो राग–


े ष–रिहत हो। –िच शु

45. अपने ित वैरभाव, अपना अनादर, अपनी हािन और अपने ित ेह


का अभाव िकसी ाणी को अभी नहीं है । जो अपने को अभी नहीं
है, वही दू सरों के ित कर डालना ा अकत नहीं है ? अथात्
अकत है । –िच शु

46. ा साम , यो ता और व ु के अनु प ही कत पालन हो


सकता है । इस ि से कत पालन म ाणी सवदा ाधीन है ।
–िच शु

47. कत परायणता सम साधनों की भूिम है । –िच शु

48. अपना अिधकार दू सरे का कत है और दू सरे का अिधकार अपना


कत है । –िच शु

49. िजस वृि के मू ल म वा िवक उ े नहीं है, केवल वृि –जिनत


सुख ही िजसका उ े है , वह वृि कभी भी कत प नहीं हो
सकती। –िच शु
कत

50. कत िन ाणी से जन–समाज म िबना य ाभािवक ही –


कत परायणता फैलती है । –स –समागम 2

51. कत का वा िवक ान राग– े ष–रिहत होने पर ही हो सकता है।


–स –समागम 2

52. ऐसा कोई है ही नहीं, जो अपने ित दू सरों से कत की आशा


न रखता हो। इससे यह िविदत होता है िक कत की माँग
कत –पालन का आदे श दे ती है । –साधन–त

53. जगत् की स ा ीकार करने पर कत –परायणता को अपना लेना


अिनवाय है । –साधन–त

54. वतमान कत –कम आ क की पूजा, अ ा वादी का साधन और


भौितकवादी का धम है । –मानवता के मूल िस ा

55. ेक काय के पीछे कता का 'भाव' और भाव के पीछे ' ान' और ान


के पीछे 'ल ' होता है । जब कता यह मान लेता है िक मुझे जो कुछ
िमला है, वह मेरा है और मे रे िलए है , तब उसकी भावनाओं म अशु
आ जाती है , जो अकत , असाधन और आस की जननी है,
िजसका मानव–जीवन म कोई थान नहीं –पाथेय

आव क तथा शु संक ों की पूित के सुख की दासता से तथा


संक –िनवृि की शा म रमण से एवं असंगता ारा स ािदत ाधीनता
से स ु न रहने पर, जब तक ेम से प रपूण न हो जाएँ , तब तक
सावधानीपूवक उपयु मानुसार दािय पूरा करना अिनवाय है।
:: 34 ::
ांितकारी संतवाणी

काम

1. काम माने उसका आकषण िजसकी त थित नहीं है।


–संतवाणी 3

2. जहाँ तक संसार की स ता और सु रता का भास है, वहाँ तक –


काम–ही–काम है । –संतवाणी 3

3. िजसको अपने शरीर म स ता और सु रता िदखाई दे ती है , उसी – म


काम पै दा होता है । –संतवाणी 3

4. ार से भी काम–नाश होता है और िवचार से भी काम–नाश होता है ।


– संतवाणी 3

5. िजसका कोई ि य होता है , उसके मन म कभी नीरसता नहीं आती।


नीरसता नहीं आती तो काम की उ ि नहीं होती। काम की उ ि
नहीं होती तो िवकारों का ज ही नहीं होता। –संतवाणी 3

6. दे ह की त ू पता ही काम की जननी है और त –िज ासा ही काम की


मृ ु है। –मानव की माँग

7. दे ह की मिलनता का ान काम को खा लेता है । –मानव की माँ ग

8. काम का ज अपने को दे ह मानने से होता है, जो वा व म अिववेक


है। –मानव की माँग

9. शरीर की स ता तथा सु रता िमट जाने पर काम का अ हो जाता


है। काम का अ होते ही राम अपने–आप आ जाते ह।
–स प ावली 1
काम

10. जो सभी का है , वही अपना है । अपना अपने को भाव से ि य होता


है। िजसका कोई ि य है , उसके जीवन म नीरसता नहीं रहती। नीरसता
का नाश होते ही काम त: न हो जाता है । –सफलता की कुंजी

11. ख ता की भूिम म ही काम की उ ि होती है और काम की उ ि


ही अ ाभािवक इ ाओं को ज दे ती है । –िच शु

12. सम आस यों का अ होने पर भी ाणी काम–रिहत हो जाता है


और ेम की ा से भी काम–रिहत हो जाता है । –िच शु

13. बु और िववेक के म म जो अहं भाव है , उसी म काम का िनवास


है। इसी कारण कामना और िज ासा दोनों ही अहंभाव म िनवास
करती ह। –िच शु

14. प रवतनशील, सीिमत सौ य ही काम का प है अथवा यों कहो


िक उ ि –िवनाशयु व ुओं म स ता, सु रता एवं ि यता का
भास ही 'काम' है । –िच शु

15. दे हािभमान से काम की उ ि होती है और दे हािभमान गल जाने पर


काम का अ होता है । –स –समागम 2

16. इस वैरी काम पर िवजय पाने के िलए साधक को बड़ी ही सावधानी


तथा िववेकपूवक कड़ी साधना करनी होगी, िजसका थम पाठ अकेले
रहना, अपने िनकट अथ न रखना और सेवा के अित र सारा समय
साथक िच न म तीत करना है । –स –समागम 2

17. व ु, , प र थित एवं अव था के ित आकषण को 'काम' कहते


ह अथात् 'नहीं' के आकषण का नाम ही 'काम' है । 'नहीं' के आकषण
को अ ीकार करने से और 'है ' ( भु) के अ को ीकार करने
:: 36 ::
ांितकारी संतवाणी

से 'काम' का नाश हो जाता है और राम िमल जाते ह।


–स वाणी ( ो र)

18. शरीर की स ता तथा सु रता एवं इ यज ान का स ाव जब


तक है , तब तक काम का अ नहीं हो पाता।
–मानवता के मूल िस ा

19. जब साधक ा िववेक के ारा शरीर के वा िवक प का दशन


कर लेता है , तब शरीर की स ता और सु रता िमट जाती है । उसके
िमटते ही काम का अ हो जाता है । –संत–सौरभ

कामना
1. जो कुछ नहीं चाहता, वही े म कर सकता है और जो कुछ नहीं चाहता,
वही मु हो सकता है । –मानव की माँग

2. कामना के रहते ए िज ासा पूरी नहीं होती । –संतवाणी 4

3. िजस काल म सम कामनाएँ नाश होती ह, उसी काल म िज ासा की


पूित होती है । –संतवाणी 4

4. ा आपने कभी यह भी सोचा िक आपका आपके मन पर इतना


अिधकार है िक आपके मन म गलत बात नहीं आए? हमारे म तो है
नहीं, इसिलए हम हमे शा कहते ह िक हे भो ! तु ारे मन की बात पूरी
हो। ों कहते ह ? यह इसिलए कहते ह िक हम नहीं भरोसा है िक
कब मन म बुरी बात आ जाए। –संतवाणी 4

5. मेरा अपना अब तक का अनुभव है िक जो हम चाहते ह, वह न हो,


इसी म हमारा िहत है । हमने तो जब तक अपने मन की मानी है , अपने
मन की बात की है , तो िसवाय पतन के, िसवाय अवनित के हम तो
कामना

कुछ प रणाम म िमला नहीं। .........म आपके सामने अपनी अनुभूित


िनवेदन कर रहा ँ , और इससे लाभ उठाना चाहते ह तो अपनी चाही
मत करो। भु की चाही होने दो। भु वही चाहते ह, जो अपने–आप हो
रहा है । –संतवाणी 4

6. अचाह होना जीते–जी मरना है । –संतवाणी 3

7. िनमम ए िबना कोई िन ाम नहीं हो सकता। –संतवाणी 5

8. जो तुम चाहते हो, वह नहीं होता, इसिलए आप अभागे नहीं ह। आप


चाहते ह, इसिलए अभागे ह और यह जानते ए िक जो चाहते ह सो
नहीं होता, िफर भी चाहते ह। –संतवाणी 5

9. जब हम कुछ नहीं लेना चाहते ह, तब शरीर से स नहीं रहता।


और जब शरीर से स नहीं रहता, तब योग हो जाता –संतवाणी 5

10. अगर हम अचाह हो जाएँ और मरने से न डर तो अमर जीवन िमलता


है। –संतवाणी 3

11. कामना यिद पूरी होती है तो िवधान से, कामना से नहीं। व ु यिद
रहती है तो िवधान से, ममता से नहीं। –संतवाणी 6

12. जो परमा ा से कुछ भी चाहता है , वह परमा ा को कभी पस . नहीं


करता। परमा ा को वही पस करता है , जो परमा ा से कुछ नहीं
चाहता। –संतवाणी 7

13. जो कुछ नहीं चाहता, वही अभय होता है और दू सरों को अभय बनाता
है। –संतवाणी 7
:: 38 ::
ांितकारी संतवाणी

14. हे ारे , तुम अपने हो। तुम से और कुछ नहीं चािहए। ों नहीं चािहए
? ोंिक अपनेपन से बढ़कर भी कोई और चीज होती तो हम ज र
माँगते। –जीवन–पथ

15. यिद सभी के मन की बात पूरी नहीं ई और हमारे भी मन की – बात


पूरी नहीं ई, तो हम अपने िलए एक नया िवधान ों चाहते है ?
– ेरणा पथ

16. अपना मू संसार से अिधक बढ़ाओ, आप अचाह हो जाएँ गे।


–संत–उ ोधन

17. संसार से स है सेवा करने के िलए और परम ा से स है े म


करने के िलए। न संसार से कुछ चािहए, न परमा ा से कुछ चािहए।
–संत–उ ोधन

18. अपने को दे ह से अतीत अनुभव करने पर िकसी को भी संसार की चाह


नहीं रहती। –मानव की माँग

19. अचाह होने से कोई ित नहीं होती; ोंिक चाह–पूित के प ात् भी


ाणी उसी दशा म आ जाता है , जो चाह की उ ि से पूव थी। तो िफर
चाह–पूित करने का य भी िनरथक िस आ। –मानव की मां ग

20. यिद हम इ ा–पूित का सु ख लेते रहगे तो पुन: इ ाएँ उ होती


रहगी और यह च चलता ही रहे गा। –मानव की माँग

21. अचाह होते ही 'करना' 'होने' म िवलीन हो जाता है और िफर या िकसी


कार का अिभमान शेष नहीं रहता। –मानव की माँग

22. आ क यह भली–भाँ ित जानता है िक जो बात मेरे मन की नहीं . जी


है, वह मेरे ारे के मन की है । –मानव की माँग
कामना

23. चाह से रिहत वे ही हो सकते ह, िज ोंने अपने को सब कार से उस


अन के समपण कर िदया है । –मानव की माँग

24. कामनाओं का अ होते ही असत् से असंगता ा होती है , जो असत्


के ान म हे तु है । –मानव–दशन

25. सतत प रवतन म थित ीकार करना भूल है। इस भूल से ही


कामनाओं की उ ि होती है । –साधन–िनिध

26. माँग उसी की होती है , िजसे दे खा नहीं है और कामना उसी की होती


है, िजसे दे खा है । –मानव–दशन

27. िमले ए म अहम्–बु और मम–बु ीकार करने से ही –


कामनाओं की उ ि होती है । –साधन–िनिध

28. िकसी अ ास से कामनाओं का नाश नहीं होता। –साधन–िनिध

29. कामना पूित म पराधीनता है , ाग म नहीं। –साधन–िनिध

30. िन ामता एक वा िवकता है । इस ि से स ंग से िन ामता और


िन ामता से स ंग त:िस होता है । कामना असत् का संग उ
करती है । असत् के सं ग से ही सम िवकारों तथा अभावों का ज
होता है । –साधन–िनिध

31. पराधीन ाणी के जीवन म न तो उदारता ही आती है और न ेम ही


की अिभ होती है । इस कारण पराधीनता का नाश करना
अिनवाय है , जो एकमा िन ामता से ही सा है। –साधन–िनिध

32. कामना–रिहत होते ही मानव का मू सम िव से अिधक हो जाता


है और वह िव के आ य तथा काशक के ेम का अिधकारी बन
जाता है । –साधन–िनिध
:: 40 ::
ांितकारी संतवाणी

33. कामना मानव को सभी के िलए अनुपयोगी कर दे ती है । –साधन–िनिध

34. योग, बोध और े म से िवमु ख करने म कामना ही हेतु है ।–साधन–िनिध

35. अचाह होते ही सेवा और े म सहज हो जाते ह। –साधन–िनिध

36. ि यता और उदारता तभी सुरि त रहती है , जब साधक को िकसी ... से


कुछ नहीं चािहए। –साधन–िनिध

37. कामना–पूित की आशा म जो सुखद क ना है , वह कामना पूित–काल


म नहीं है । –मूक स ंग

38. शा िकसी के आ य से अिभ नहीं होती, अिपतु िनममता से


सा िन ामता ही शा म हे तु है । –मूक स ंग

39. िन ाम साधक के िलए आव कव ु, यो ता, साम दान करने


को कृित लालाियत रहती है । –मूक स ंग

40. योिगयों का योग, िवचारशीलों का बोध एवं ेिमयों का ेम िन ामता


की भूिम म ही पोिषत होता है । –मूक स ंग

41. िजसे कुछ भी चािहए, वह िकसी को अपना नहीं कह सकता और न


सुने ए भु म अिवचल आ था ही सुरि त रख पाता है और न दू सरों
से सुख की आशा का ही ाग कर पाता है । –मूक स ंग

42. यिद कोई यह कहे िक िन ाम होने से तो भौितक िवकास ही न होगा;


कारण िक कामना से े रत होकर ही मानव भौितक उ ित म वृ
होता है , पर वा िवकता यह नहीं है । भौितक िवकास ा प र थित
के सदु पयोग अथात् वतमान कत –कम से होता – है। ........ भौितक
उ ित कामनायु ािणयों की होती है, इसम लेशमा भी
वा िवकता नहीं है । –मूक स ंग
कामना

43. अ ा की कामना िस करती है िक हमारे जीवन म द र ता है।


–संतवाणी 5

44. कामना कत –परायणता म बाधक है , सहायक नही।ं कामनायु


ाणी सदै व अपने अिधकार और दू सरों के कत पर ही ि रखता
है। –मूक स ंग

45. िकसी भी कार की कामना न रखने वाला 'राजाओं का राजा'; जो


श ा है उससे कुछ कम कामना रखने वाला 'धनी'; श के
समान कामना रखने वाला 'मजदू र'; श से अिधक कामना रखने
वाला 'कंगाल' है । –संतप ावली 1

46. कामना ही ोध म हे तु है , चाहे वह शुभ कामना हो अथवा अशुभ


य िप अशुभ से शुभ े है , पर ु शुभ कामना भी दु :ख का कारण है ।
–संतप ावली 1

47. इ ाओं की उ ि दु ःख का मू ल है । इ ाओं की पूित सुख का मूल


है। इ ाओं का िमट जाना आन का मूल है । –संतप ावली 1

48. यिद जीवन और मृ ु के झंझटों से बचना चाहते हो तो सब कार की


इ ाओं का अ कर डालो; ोंिक इ ाओं की पूित के िलए जीवन
िमलता है और जीवन की उ ि के िलए मृ ु होती है
–संतप ावली 1

49. कामनाओं का अ होने पर दै व के आ य शरीर छोड़ दे ना सं ासी


का धम है , ि य का नहीं। –संतप ावली 2

50. आव कतानुसार सभी बात अपने–आप होती रहती ह; िक ु


कामनापूित का लोभन ाणी को शा नहीं रहने दे ता। –पाथेय
:: 42 ::
ांितकारी संतवाणी

51. चाह–रिहत होने म ही सम िवकास िनिहत है–यह महाम अपना


लेने पर जो करना चािहए, वह तः होने लगता है। –पाथेय

52. िन ामता आ जाने पर सभी कार की अनुकूलताएँ आशा से अिधक


आ जाती ह और ितकूलताएँ भयभीत नहीं कर पातीं। पर ु अन
की अहैतुकी कृपा का आ य िलए िबना िन ामता के सा ा म
वेश नहीं होता। –पाथेय

53. मादवश मानव अभावजिनत वेदना को कामनापूित के सुख से िमटाने


का िम ा यास करने लगता है ; जबिक ेक कामना–पूित का सुख
नवीन कामना को ज दे ता है । –पाथेय

54. िजसे कभी भी कुछ नहीं चािहए, वही आ काम है। आ काम होते ही
भोग, मोह और आस का नाश और योग, बोध तथा ेम की ा
तः होती है । –पाथेय

55. िन ामता मानव–जीवन का ऐ य है । िन ाम होने पर मानव


िव िवजयी त: हो जाता है । –पाथेय

56. अचाह होते ही न तो पराधीनता रहती है और न अशा रहती है ।


–संतवाणी 3

57. कामनाओं की िनवृि म िज ासा की पूित और िज ासा की पूित म े म


की ा िनिहत है । –जीवन–दशन

58. आदर की कामना ाणी म तभी तक रहती है, जब तक वह आदर के


यो नहीं है । –िच शु

59. हमने अपने म जो चाह पैदा कर ली है , यही हमारे और भु के बीच म


मोटा परदा कहो, चाहे गहरी खाई कहो, बन गयी है। –संत–उ ोधन
कामना

60. िन ामता पी सूय के स ुख होते ही छाया पी व ुएँ हमारे पीछे


दौड़ती ह और िवमुख होते ही हम छाया पी व ुओं के पीछे दौड़ते
ह, पर उ ा नहीं कर पाते। –जीवन–दशन

61. अपने को दे ह मान लेने पर कामनाओं का उदय होता है; ोंिक ऐसी
कोई कामना नहीं है , िजसका स दे ह से न हो। –जीवन–दशन

62. िजसे कुछ भी चािहए, वह उदार तथा ेमी नहीं हो सकता।


–सफलता की कुंजी

63. चाह–रिहत होने पर साधक के जीवन म आल तथा अकम ता की


ग भी नहीं रहती; ोंिक अचाह होते ही ा साम का सदु पयोग
भी होने लगता है और आव क साम की अिभ भी त:
होती है । –सफलता की कुंजी

64. चाह–रिहत होने पर साधक म कत परायणता, असंगता एवं अिभ ता


की अिभ होती है । –सफलता की कुंजी

65. िन ामता आ जाने पर साधक समता के सा ा म वेश पाता है, जो


सवतोमुखी िवकास की भूिम है । इस ि से िन ामता अिनवाय है।
–सफलता की कुंजी

66. ेक ाणी कामना–पूित के प ात् उसी थित म आता है , िजस


थित म वह कामना–पूित से पूव था। इस ि से कामना–पूित का
कोई िवशेष मह नहीं है । –िच शु

67. कामना–पूित म िजतना सु ख भासता है , उससे कहीं अिधक उसके


प रणाम म दु :ख अपने–आप आता है । –िच शु
:: 44 ::
ांितकारी संतवाणी

68. य िप इ ाओं की उ ि से पूव भी जीवन है और उसम िकसी


कार का अभाव नहीं है ; पर ु उस जीवन की ओर ाणी ान नहीं
दे ता। –िच शु

69. ऐसा कोई दोष है ही नहीं, िजसके मूल म कोई कामना–उ ि न हो,
और ऐसा कोई दु ःख है ही नहीं, िजसके मूल म कामना–अपूित न हो।
–िच शु

70. ेक म के मूल म कोई–न–कोई कामना रहती है । उसकी पूित के


िलए ही म की अपे ा है । कामनाएँ िजस भूिम से उपजती ह, वह भूिम
अिववेकिस है अथात् िनज िववेक के अनादर म ही काम की उ ि
होती है , और काम से ही कामनाएँ ज पाती ह। –िच शु

71. भगवान् इ ा पूरी नहीं करते, वे तो भ को इ ा–रिहत करते है।


–स –जीवन–दपण

72. इ ाओं के रहते ए ाण चले जायँ तो 'मृ ु हो गयी और ाण रहते


एइ ाएँ चली जायँ तो 'मु ' हो गयी। –स –जीवन–दपण

73. यिद िकसी कार की अिभलाषा बाकी है तो समझना चािहय िक –


अभी अन अिभलाषाएँ बाकी ह; ोंिक ाग कुल का होता है , जुज़
(अंश) का नहीं। –स –समागम 1

74. इ ाओं का कम हो जाना कुछ भी अथ नहीं रखता; ोंिक िजस


कार एक बीज म अन वृ िछपे रहते ह, उसी कार एक इ ाम
अन इ ाएँ िछपी रहती ह। –स –समागम 1

75. स ी चाह अिधक काल तक ठहर नहीं पाती, पूण हो जाती है और


बनावटी चाह अिधक काल तक ठहरती है । –स –समागम 1
कामना

76. यिद हमारे मन की बात होती है तो समझना चािहए िक भगवान् हम


दू र रखना चाहते ह, और हमारे मन की बात नहीं ई तो भगवान् हम
अपनाना चाहते ह । –स –समागम 2

77. सब कार की चाह का अ होते ही िनिवक थित त: हो जाती


है; ोंिक िकसी–न–िकसी कार की चाह होने पर ही संक ों की
उ ि होती है अथात् िनिवक ता भंग हो जाती है , जो वा व म
माद है । –स –समागम 2

78. जो कुछ भी चाहता है , वह होने म स और करने म सावधान नहीं रह


सकता। –स –समागम 2

79. असत् की कामना ही असत् को जीिवत रखती है । –साधन–त

80. यिद भगवान् के पास कामना लेकर जाएँ गे तो भगवान् संसार बन


जाएँ गे और यिद संसार के पास िन ाम होकर जाएँ गे तो संसार भी
भगवान् बन जाएगा। अत: भगवान् के पास उनसे े म करने के िलए
जाएँ और संसार के पास सेवा करने के िलए, और बदले म भगवान्
और संसार दोनों से कुछ न चाह तो दोनों से ही े म िमलेगा।
–स वाणी ( ो र)

81. कामनाओं की उ ि का मूल कारण शरीर से एकता ीकार करना


है, जो वा व म भू ल है । –मानवता के मूल िस ा

82. िजसका कुछ नहीं है , सचमुच उसको कुछ नहीं चािहए। ममता से ही
कामना का ज होता है । –संतवाणी 8

83. जब अपने मन की इ ा के िवपरीत हो, तब साधक को समझना


चािहए िक अब भु अपने मन की बात पूरी कर रहे ह। –संत–सौरभ
:: 46 ::
ांितकारी संतवाणी

84. जो हम चािहए, वह िबना माँ गे ही हम िमलता है और जो िबना माँ गे नहीं


िमलता है , वह माँ गने से भी नहीं िमलता। तो िफर माँ गने का अथ ा
आ? –संतवाणी 8

85. जब तक हम वह चािहए , जो अपने म नहीं है, जो अभी नहीं है , उससे


िभ यिद चािहए तो गरीबी िमट सकती है ा ? हाँ, 'गरीबी का प
बदल जाएगा। प ा बदल जाएगा? जैसे ¾ िलखते ह, उसे कोई
75/100 िलख दे । –संतवाणी 8

86. अपने को जो चािहए, वह अपने म है । –संतवाणी 8

87. परमा ा से यिद कुछ भी माँ गगे तो आपका स परमा ा से तो


रहेगा नहीं, जो हम माँ गगे, उससे हो जाएगा। –संतवाणी 8

88. सही काम करने से सारा सं सार आपसे स हो जाएगा, और कुछ न


चाहने से आपकी कीमत सं सार से अिधक हो जाएगी। –संतवाणी 8

89. जब तक मनु अपने मन की बात पूरी करना चाहता है , तब तक


उसम िछपा आ िहं सा–भाव िव मान रहता है । कता का भाव ही
िहंसा और अिहं सा म कारण है , ि या नहीं। भाव से ही िच अशु
होता है और भाव से ही शु होता है । –संत–सौरभ

90. हम सब यह िनणय कर ल िक आज से सुनने वालों की खुशी के िलए


बोलगे, खलाने वाले की खु शी के िलए खाएँ गे, िमलने वाले की स ता
के िलए िमलगे, तो बताओ, आपने इसम कौन–सा तप िकया ? जो स
सामने आया, उसे अपनाया। इस स के अपनाने से आप अचाह हो
जाएँ गे और जगत् के काम आएं गे। –संतवाणी 7
कृपा

91. कामना–पूित के अ म हम उसी थित म आ जाते ह, िजस थित म


कामना–उ ि से पूव ह। पर ु पुन: कामना–पूित के लोभन से
नवीन कामना को उ करते ह। –संतवाणी 6

92. आप सोिचए तो सही, िजससे आप सुख की आशा करते ह, ा वह


यं दु :खी नहीं है ? िकसी िनधन से कोई धन की आशा करे , िकसी
िनबल से कोई बल की आशा करे , तो यह आशा मा क नहीं है ?
–संतवाणी 5

93. अगर आप यह मानते ह िक स की िज ासा के साथ–साथ असत् की


कामना भी है , तो कहना पड़े गा िक स की िज ासा के नाम पर िकसी
असत् का ही भोग करना चाहते ह। –संतवाणी 4

94. यह पराधीनता जो जीवन म आ गयी है िक संसार और परमा ा


िमलकर हमारे मन की बात पूरी कर द अथात् दू सरे लोग हमारे काम
आ जाएँ , तो जीवन म पराधीनता, जड़ता और अभाव रहे गा ही।
–संत–उ ोधन

कृपा

1. यह िनिववाद स है िक जो कुछ त: हो रहा है , उसम उनकी


अहैतुकी कृपा सभी का क ाण कर रही है । इतना ही नहीं, जो कुछ
हो रहा है , उसम उनकी कृपा का िनत–नव–दशन है , िनत–नव–रस
है । पर इसका अनुभव उ ीं को होता है , जो होनहार म सदै व स
रहते ह। –मानव की माँग

2. यिद पूवज की ृित रहे तो उ ित करने म िव होगा। अत: िव ित


भगव ृ पा. है : ोंिक आव क है । –स –समागम 1
:: 48 ::
ांितकारी संतवाणी

3. कृपा य िप सभी पर होती है, पर ु उस कृपा का अनुभव तब होता है,


जब हम सब कार से उनके हो जाते ह। े मपा के िसवा िकसी स ा
को ीकार न करना –यही उनका हो जाना है । –स –समागम 1

4. अपने दोष दे खने की ि का उ होना भगवान् की िवशेष कृपा है ।


–स –समागम 2

5. उनकी अहैतुकी कृपा आव क व ु िबना माँ गे ही दे दे ती है और


अनाव क माँ गने पर भी नहीं दे ती। इस ि से कुछ भी माँ गना
अपनी बेसमझी का प रचय दे ना है और उनके मंगलमय िवधान का
अनादर करना है । – संतप ावली 2

6. ा वह भी भगवान् हो सकता है , जो कृपा न करे ? यिद भगवान् कृपा


न करते तो ा हम मानव–जीवन िमलता? मानव–जीवन िमलना ही
उसकी हम पर अहै तुकी कृपा है । –मानव की माँ ग

7. महाघोर मोह पी समु से ा कोई भी ाणी अपने बल से पार हो


सकता है ? कदािप नहीं। उनका होकर ही उ पा सकता है और
उनकी कृपा मा से ही अन संसार से पार हो सकता है ।
–स –समागम 2

8. जो अपने को समिपत कर दे ता है, वही कृपा का अिधकारी है ।


कामनायु ाणी समपण कर नहीं पाता। –स –समागम 1

9. श भगवान् का भाव है , इसी से वह भ ों को उनकी कृपा से ही


ा होती है । सीिमत ीकृितयों का ाग होते ही पितत–से–पितत भी
कृपा–पा हो जाता है । ेमपा कृपा करने के िलए ती ा कर रहे ह।
अतः हमको शी ाितशी मानी ई ीकृितयों से असंग हो जाना
चािहए। –स –समागम 2
कृपा

10. ेमपा की अहै तुकी कृपा का बल सभी बलों से े है ; ोंिक ेमपा


की कृपा ेमपा को मोिहत करने म समथ है। अत: िजन ािणयों ने
उनकी कृपा का सहारा िलया, वे सभी मु हो गए, यह िस ा
िनिववाद स है । –स –समागम 2

11. लोग कहते ह िक 'भगवान् ायकारी ह'; पर ु साधक को तो यही


समझना चािहए िक वे तो सदै व दया करने वाले ह। यही कारण है िक
वे दी ई श यों का दु पयोग करने वालों को द नहीं दे ते।
–संत–सौरभ

12. स ु षों का संग िमलने म ार को हेतु नहीं मानना चािहए।


स ु षों का संग भगवान् की अहै तुकी कृपा से िमलता है ।
–संत–सौरभ

13. हरे क प र थित म भु की कृपा का दशन करने से और उसका आदर


करने से भगवान् की कृपा फलीभूत होती है । –संत–सौरभ

14. िजस पर भगवान् की कृपा होती है , उसको दु िनया से ऐसा थपेड़ा


िमलता है िक िफर वह उसकी ओर मुँ ह नहीं करता। –संत–सौरभ

15. भगव ृ पा का अनुभव उस साधक को होता है , िजसको उनकी कृपा


पर पूण िव ास है । जो हर समय हरे क प र थित म उनकी कृपा की
ही बाट जोहता रहता है । –संत–सौरभ

16. िकसी भी साधक को यह नहीं समझना चािहए िक 'मुझे अमुक कार


की यो ता ा नहीं है , इसिलए मुझे भगवान् नहीं िमल सकते'। यह
मानना भगवान् की मिहमा को न जानकर उनकी कृपा का अनादर
करना है; ोंिक भगवान् अपनी कृपा से े रत होकर ही साधक को
िमलते ह। –संत–सौरभ
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ांितकारी संतवाणी

17. अ म साधन जीव का पु षाथ नहीं है । वह तो भगवान् की कृपा है,


उसी पर साधक को िनभर रहना चािहए। –संत–सौरभ

18. 'दया' तो हरे क दु ःखी पर हो सकती है ; पर ु िजस दया के साथ


अपन और ेम का भाव अिधक हो, उसे ‘कृपा' कहा जा सकता है ।
–संत–सौरभ

19. अपने बल का अिभमान छोड़कर साधक जब यह िवक –रिहत ढ़


िव ास कर लेता है िक मु झ पर भगवान् की कृपा अव होगी, म
उनका कृपापा ँ उसी समय उस पर भगवान् की कृपा अव हो
जाती है । इसम कोई स े ह नहीं है । –संत–सौरभ

20. भगवान् की कृपा पर िनभर रहे । भगवान् की कृपा से ही मनु


भगवान् को पा सकता है । –संत–सौरभ

21. अन की अहै तुकी कृपा का आ य िलए िबना िन ामता के सा ा


म वेश नहीं होता। –पाथेय

22. भु अन ह, उनकी कृपा भी अन है ; अत: उनकी कृपा से जो कुछ


िमलता है , वह भी अन िमलता है । भु की ा का साधन भी भु
की कृपा से ही िमलता है । –संत–सौरभ

23. आप सच मािनये, उस अन की अहै तुकी कृपा िनर र योग की, ान


की, ेम की वषा कर रही है । पर ु दु ःख की बात तो यह है िक हम
उस कृपा के ारा जो वषा हो रही है , उसका उपयोग नहीं कर पाते ।
आप कह, कैसे उपयोग नहीं कर पाते ? ा हम थोड़ी–थोड़ी दे र के
िलए शा होते ह ? यिद शा ए होते तो आपको यं अनुभव होता
िक भु की कृपाश योग दे रही है , े म दे रही है , ान दे रही है
और हम उससे त ू प होकर कृतकृ हो रहे ह। –संतवाणी
गुण–दोष

गु ण–दोष

1. ममता–रिहत होते ही िनिवकार जीवन रहता है। –संतवाणी 4

2. आप सोिचए िक िकसी भी व ु को जहाँ आप अपना नहीं मानते ह तो


बताओ, ा िवकार आपके जीवन म रहता है ? –संतवाणी 4

3. तुम भूतकाल के आधार पर वतमान की िनद षता को ों दू िषत करते


हो? –संतवाणी 4

4. अपना अिधकार छोड़ने से ोध की िनवृि हो जाती है अथात् तब हम


राग और ोध से रिहत हो जाते ह। –संतवाणी 3

5. जो लोग सही अथ म िनल भ हो गए, उनकी द र ता िमट गयी। िनम ह


हो गए, उनका भय िमट गया। िन ाम हो गए, उनकी अशा िमट
गयी। असं ग हो गए, उनकी पराधीनता िमट गयी।। –संतवाणी 3

6. सभी दोष दे हािभमान से होते ह। –मानव की माँग

7. ाय अपने ित तथा ेम एवं मा दू सरों के ित करना है। यिद हम


ऐसा न करगे तो न िनद ष हो सकगे और न िनवर। –मानव की माँ ग

8. भूतकाल के दोष को वतमान म मत दे खो। –मानव की माँ ग

9. जब दोषी िनज िववेक के काश म अपना दोष दे ख लेता है, तब


बेचारा दोष स ाहीन हो जाता है । यिद उसको न दु हराया जाए तो वह
सदा के िलए िमट जाता है । –मानव की माँग

10. जैसा हम जानते ह, वैसा ही माने और जैसा मानते ह, वैसा ही हमारा


जीवन हो। ऐसा होते ही हम ब त ही सु गमतापूवक िनद ष हो सकते
ह। –मानव की माँग
:: 52 ::
ांितकारी संतवाणी

11. अगर इ याँ संसार की ओर जाती ह तो अपराध ा है उनका ?


संसार की जाित की ही ह। लेिकन आप ों संसार को पस करते हो
जी, यह बताओ? आप तो भगवान् की जाित के ह। –संतवाणी 5

12. यिद दोष की त स ा है तो उसका नाम दोष ही नहीं। िजसकी


त स ा होती है , उसम कोई दोष नहीं होता। –संतवाणी 6

13. दोष–जिनत सुख का जो लोभन है , उस लोभन की भूिम म पुन: दोष


की उ ि होती है । –संतवाणी 6

14. यिद मनु अपने दोषों का प र ाग कर दे तो गुण कहीं से लाने नहीं


पडगे. वरन दोषों के िमटते ही तः चमक उठगे। –संत–उ ोधन

15. ाकृितक िनयमानुसार मनु मा को अपने दोष दे खने का िववेक


त: ा है । –मानव की माँ ग

16. दोषों की िनवृि का भास न हो, गुणों की अिभ का भास न हो,


तब समझना चािहए िक िनद षता से एकता हो गयी। –जीवन–पथ

17. गुणों का अिभमान तब होता है , जब ाणी ाभािवक गुणों को ाग


कर दोषों को अपनाने के प ात् पुन: बलपूवक दोषों को दबाता है और
जीवन म गुणों की थापना करता है । –मानव की माँग

18. 'िनल भता' के िबना द र ता का, 'िनम हता' के िबना भय का,


'िन ामता' के िबना अशा का, और 'असंगता' के िबना पराधीनता
का नाश नहीं होता। यह दै वी िवधान है । –संत–उ ोधन

19. दे हािभमान रहते ए कभी भी, कोई भी पराधीनता आिद िवकारों से


रिहत नहीं हो सकता। –संत–उ ोधन

20. राग की भूिम म ही सम दोष उ होते ह। –मानव–दशन


गुण–दोष

21. राग और कामनाओं के कारण अनेक कार के दोष हमारे जीवन म


आ जाते ह। –संत–उ ोधन

22. यिद तुम म कोई दोष हो तो सभी कहगे िक 'तुम दोषी ों हो ? पर ु


यिद कोई दोष न हो तो कोई न कहे गा िक 'तु म िनद ष ों हो ?'
कारण िक ' ों उसी म लगता है , जो अ ाभािवक हो। जो ाभािवक
है, उसम ों नहीं लगता। –मानव की माँग

23. अिववेक के कारण जब हम अपने को दे ह मान लेते ह, तब काम की


उ ि होती है । काम की पूित होने से लोभ और मोह तथा काम की
पूित म बाधा उ होने से ोध और े ष आिद दोष उ हो जाते
ह। –मानव की माँ ग

24. गुणों के अिभमान ने ही दोषों को नाश नहीं होने िदया। –संतप ावली 1

25. जब हम मादवश उ अपना मान लेते ह, जो हमारे नहीं ह, अथवा


जब हम उ अपना नहीं मानते, जो हमारे ह, तभी सभी दोष उ
होते ह। –मानव की माँग

26. तीित के आकषण ने ही पराधीनता, प र ता आिद िवकारों म


आब िकया है । –मानव–दशन

27. दोष उसे नहीं कहते, िजसे दोषी यं नहीं जानता। दोष और िनद षता
का िववेचन िनज ान के काश म ही स व है। िकसी मा ता तथा
था के आधार पर िनद षता तथा दोष का िनणय करना वा िवक
िनणय नहीं है । –मानव की माँग

28. सम दोषों का अ उनके न दु हराने म है । िकसी गुण के ारा दोषों


का नाश नहीं होता, अिपतु िनद षता म ही सम गुणों की अिभ
त: होती है । दोष–रिहत होने के िलए गु णों के स ादन की अपे ा
:: 54 ::
ांितकारी संतवाणी

नहीं है, अिपतु वतमान िनद षता को सुरि त रखना है , जो एकमा


ाधीनता की उ ट लालसा से ही सा है ; कारण िक सभी दोष
पराधीनता से ही पोिषत होते ह। –मूक स ंग

29. आं िशक िनद षता का अिभमान सम दोषों का मूल है । –मूक स ं ग

30. जो िकसी का बुरा नहीं चाहता, उसके सभी दोष त: िमट जाते
–िच शु

31. ाकृितक िनयमानुसार ेक दोष म सम दोष िनिहत ह।


–मूक स ंग

32. िकसी–न–िकसी गुण के अिभमान से ही दोषों की उ ि होती है।


कारण िक गुण–रिहत दोष कभी जीिवत नहीं रह सकता।
–संतप ावली (2)

33. यह िनयम है िक साधन प जीवन से साधन का और असाधन प


जीवन से असाधन का चार तः होता है। य िप असाधन– प
मा ताओं को कोई भी अपनी ओर से घोिषत नहीं करता िक 'म चोर
ँ , धोखा दे ना जानता ँ , िम ावादी ँ इ ािद; पर ु जीवन के ारा
उन दोषों का चार तः होने लगता है । –जीवन–दशन

34. ाकृितक िनयम के अनुसार ऐसी कोई अशु है ही नहीं, जो त: न


िमट जाए, पर अशु –जिनत जो सुख है , उसका ाग हम नहीं करते,
इस कारण अशु की पुनरावृि होती रहती है । –िच शु

35. गुणों का अिभमान सभी दोषों की भूिम है । –जीवन–दशन

36. गुणों की पूणता म अिभमान का उदय नहीं होता। –जीवन–दशन


गुण–दोष

37. यह िनयम है िक वही दोष सुरि त रहता है , िजसे हम सहन करते रहते
ह। –जीवन–दशन

38. यिद दोषों को न दु हराया जाय तो सभी दोष त: िमट जाते ह।


–जीवन–दशन

39. सभी को सुख दे ने के यास को गुण कहते ह; िक ु केवल एक ही


शरीर को सुखी रखने का यास िकया जाए तो वह दोष हो जाता है।
इससे यह िविदत होता है िक गुण को सीिमत कर दे ना दोष हो
जाता है। िजस कार काश की ूनता ही अ कार है , अ कार का
कोई त अ नहीं है , उसी कार गुण की ू नता ही दोष है ,
दोष का कोई त अ नहीं है । –जीवन–दशन

40. 'यह' को 'म' न मानने पर सभी दोष िमट जाते ह। –जीवन–दशन

41. िजस गुण के साथ अहम् िमल जाता है , वह गुण भी दोष हो जाता ह।
–जीवन–दशन

42. अपने दोष का ान िजस ान म है , वही ान िवधान का तीक है।


ान दोष का काशक है , नाशक नहीं। िनद षता की माँग दोष की
नाशक है । –दशन और नीित

43. भूतकाल के दोषों के आधार पर वतमान की िनद षता म दोष का


आरोप करना अपने ित अ ाय है । इसका अथ यह नहीं है िक
भूतकाल की भूल का प रणाम प र थित के प म अपने सामने नहीं
आएगा, अव आएगा; िक ु भूतकाल के दोष के आधार पर वतमान
की िनद षता म दोष का आरोप करना दोषयु वृ ि को ज दे ना
है। –दशन और नीित
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ांितकारी संतवाणी

44. सम दोषों की उ ि का कारण िववेक–िवरोधी कम, स तथा


िव ास को अपनाना है , जो वा व म जाने ए असत् का संग है।
–दशन और नीित

45. 'गुण' िकसी िवशेष की व ु नहीं है , अिपतु अन का भाव


है। ‘दोष' का त अ नहीं है , अिपतु माद का प रणाम है।
–दशन और नीित

46. जब तक मानव अपने जाने ए दोष को ागकर िनद षता की थापना


नहीं करे गा, तब तक रा , मत तथा स दाय मानव–समाज को सवाश
म िनद ष नहीं बना सकते। –दशन और नीित

47. यह िनयम है िक जो अपनी ि म दोषी है , वही दू सरों से िनद ष


कहलाने की आशा करता है । –िच शु

48. गुणों का अिभमान रखते ए कोई भी उ ित के पथ पर अ सर नहीं हो


सकता। दबे ए दोष का कट होना दोष नहीं, अिपतु िनद षता का
साधन है । वा िवक दोष तो अिभमानयु गुण ही ह, िज हम
मादवश मह दे ते रहते ह। –िच शु

49. वा िवक गुणों का ादु भाव होने पर उनका भास नहीं होता। अत: जब
तक गु णों का भास हो, तब तक समझना चािहए िक गु णों के पम
कोई दोष है । –िच शु

50. िजन वृि यों से िकसी की ित हो, िकसी का अनादर हो, िकसी .. का
अिहत हो, वे सभी ‘दोष' ह और िजन वृि यों से दू सरों का िहत, लाभ
एवं स ता हो, वे सभी 'गु ण' ह। –िच शु
गुण–दोष

51. सवाश म िकसी भी दोष के िमट जाने पर सभी दोष िमट जाते ह और
सवाश म िकसी भी गु ण के अपना लेने पर सभी गुण त: आ जाते ह।
–िच शु

52. जब अपने म दोष का दशन हो, तब उस था को दबाने के िलए


अपना गुण अथवा पराया दोष नहीं दे खना चािहए। –िच शु

53. यह सभी जानते ह िक अ कार काश की ही ूनता है , पर अ कार


काश नहीं है । उसी कार दोष गुण की ही ूनता है , पर दोष गुण
नहीं है। हाँ , यह अव है िक दोष का कोई अपना त अ
नहीं है। –िच शु

54. अपने को दोषी मानना दोष को िनम ण दे ना है । अत: ‘दोषी था, पर


अब नहीं ँ ' ऐसा मानते ही िनद षता की अिभ तः हो जाएगी।
सभी दोष, सभी ब न दोषयु मा ता पर ही जीिवत ह। अपने म
िनद षता की थापना करते ही सम दोष तथा ब न यं िमट
जाएँ गे। –िच शु

55. व ुओं की ममता, िव ास म िवक , िववेक का अनादर –इन तीन


कारणों से ही सम दोषों की उ ि होती है । –िच शु

56. भय और लोभन दोनों ही दोष ह। िकसी दोष की िनवृि के िलए


िकसी दोष का आ य लेना िनद षता नहीं है , अिपतु िनद षता के वेष म
महान् दोष है । –िच शु

57. लोभन भी एक बड़ा दोष है । उसका आ य लेकर िकसी भी भलाई


का करना भलाई नहीं है , अिपतु भलाई के वेष म बुराई है ; ोंिक
लोभन की िस न होने पर भलाई थायी नहीं रह पाती। –िच शु
:: 58 ::
ांितकारी संतवाणी

58. यह िनयम है िक जाने ए दोष को अपना लेने पर अपनी ि


म भी अपने को आदर के यो नहीं पाता। जो अपनी ि म आदर के
यो नहीं रह जाता, वही दू सरों से आदर पाने की िम ा आशा करता
है और उसके िलए अपने दोष को िछपाता है । –िच शु

59. िनद ष कहलाने की कामना तो एक दोष ही है। उससे तो सदै व सजग


रहना चािहए; ोंिक िनद ष कहलाने की िच सीिमत अहंभाव को पु
करती है , जो सम दोषों का मूल है । –िच शु

60. जो गुण दे हािभमान को पु करता है , वह गुणों के वेष म वा व म दोष


है; ोंिक दे हािभमान के रहते ए सवाश म िनद षता स व नहीं है ।
–िच शु

61. यिद जीवन म िनद षता न होती तो दोष का ान ही न होता; ोंिक


सवाश म ाणी कभी भी दोषी नहीं होता और यिद कोई सवाश म दोषी
है तो उसे दोष का ान भी नहीं है । –िच शु

62. पूणत का िबना अनुभव िकए िवकारों का अ नहीं हो सकता।


–स –समागम 1

63. िजन दोषों को िमटाना है , उनका स ाव िमटा दो। –स –समागम 1

64. अपने म िनद षता का भाव थािपत करने पर सभी दोष यं िमट जाते
ह। दोषों का स ाव दोषों को िनम ण दे कर बुलाने के िसवाय और
कुछ अथ नहीं रखता। –स –समागम 1

65. अिभमानयु बड़े –से–बड़ा गुण भी दोष के समान होता है ।


–स –समागम 2

66. जब ाणी अनायास िमले ए आदर को िम ा ही अपना आदर मान


लेता है अथात् दू सरों की स नता को अपना गुण समझने लगता है. तो
गुण–दोष

ऐसी अव था म उसकी अपनी ि से अपने दोष दे खने की श


िमटने लगती है । –स –समागम 2

67. सभी दोषों का मू ल एकमा यही है िक संसार मेरे काम आ जाए।


उसको िमटाने का सुगम साधन यही है िक म संसार के काम आ
जाऊँ। जब ाणी संसार म संसार के िलए रहने लगता है , तब
अ :करण त: शु होने लगता है । –स –समागम 2

68. सभी दोष दोषी की स ा के िबना िनज व होते ह। कोई भी दोष दोषी
की कृपा के िबना जीिवत नहीं रह सकता। अत: िजस काल म दोषी
अपनी ि से दोष को दे खकर, अपने को दोष से असं ग कर लेता है ,
बस उसी काल म दोष सदा के िलए िमट जाता है। पर ु जो दोषी दोष
को दे खकर ऐसा स ाव करता है िक म दोषी ँ , उसकी स ा पाकर
दोष दोषी पर शासन करने लगता है । –स –समागम 2

69. यह िनयम है िक िजस भाव का स अहंभाव से हो जाता है, उस


भाव म स ता तथा ि यता त: उ हो जाती है। अत: िनद षता की
ा के िलए अहं भाव म िनद षता का थािपत होना परम अिनवाय
है। –स –समागम 2

70. ऐसा कोई दोष नहीं है , िजसको ाणी ने यं नहीं बनाया है। शरीर
आिद व ुओं के आधार पर स ता खरीदने की भावना सभी दोषों
का मूल है । –स –समागम 2

71. अपने सुख–दु ःख का कारण दू सरे को न मानकर अपने अिधकार का


ाग करने से ोध का नाश हो जाता है । –स वाणी ( ो र)

72. अपने बनाए ए दोष को ही तो िमटाना है । कोई भी दोष ाकृितक


नहीं है। –संतवाणी 7
:: 60 ::
ांितकारी संतवाणी

73. ेक दोष दोष–जिनत सु ख–लोलुपता के आधार पर जीिवत रहता है,


अथवा यों कहो िक उसकी पुनरावृि होती रहती है। दोष–जिनत
वेदना म ही सुख–लोलुपता का नाश िनिहत है ।
–मानवता के मूल िस ा

74. दे हािभमान से ही ाणी अपने म गुणों का आरोप कर लेता ह वा व म


तो सम िद गुण तःिस ह, िकसी की उपािजत व ु नहीं ह।
–मानवता के मूल िस ा

75. जो मनु यह समझता है िक म स वादी ँ , उसम कहीं–न–कहीं झूठ


िछपा आ है । यिद वह सचमुच स वादी हो तो उसे यह भास ही नहीं
होना चािहए िक म स वादी ँ , अिपतु स बोलना उसका जीवन बन
जाना चािहए। जो गु ण साधक का जीवन बन जाता है, उसम साधक का
अिभमान नहीं होता। वह उसके कारण अपने म िकसी कार की
िवशेषता का अनुभव नहीं करता। –संत–सौरभ

76. सच बात तो यह है िक जब िवकार का नाश होता है . तब सम


िवकारों का नाश होता है । और जब सम िवकारों का नाश न िदखाई
दे , तब तक सोचना चािहए िक िवकार की कमी ई है । –संतवाणी 5

77. सबसे बड़ा तो अपना यही िवकार है िक िच के ऊपर, शरीर के


ऊपर, ाणों के ऊपर, बु के ऊपर आपने जो ममता का प र लाद
िदया है , यह बड़ा भारी अपराध है ाणी का। –संतवाणी 4

78. आप अभी मान लीिजए िक कोई व ु हमारी नहीं है । िफर दे ख,


आपके िच म िवकार िकस तरह पैदा हो जाए ! कभी िवकार पैदा
नहीं हो सकता। –संतवाणी 4
गु

79. िजसे अपनी पूित के िलए समाज के पीछे दौड़ना पड़ रहा है , उसे
समझना चािहए िक अभी मे रे जीवन म गुणों का िवकास नहीं आ।
–मानव की माँ ग

80. जब ाणी अपनी स ता िकसी और पर िनभर कर लेता है, तब


उसका िच अशु हो जाता है , िजसके होते ही अनेक दोषों की
उ ि अपने–आप होने लगती है । –िच शु

ाकृितक िनयमानुसार िकसी भी काय का स ादन करने के िलए


काय–स ी एक समूह िनमाण करना पड़ता है। िजस समूह म पर र
िव ास नहीं होता, वह समूह अपने काय म सफल नहीं होता। पर र
िव ास सुरि त रखने के िलए दै िनक, सा ािहक, पाि क, मािसक और
वािषक िवचार–िविनमय करना अिनवाय है। िविनमय करने की िविध म
अपनी–अपनी भूल सामने रखना है और अपने ही कत का िनणय
करना है।

गु
1. जो िकसी का भी गु बनेगा, वह अपना गु नहीं बन सकता और जो
अपना गु नहीं बन सकता, वह जगत् का गु नहीं बन सकता।
– संतवाणी 4

2. वा व म यह स है िक हम अपने गु आप बन जाते तो िस
ज र हो जाती । तो अपना गु बनने के िलए ा करना पड़ता है ?
अपने जाने ए असत् का ाग करना पड़ता है, अपने िव ास म
अिवचल ा करनी पड़ती है और िमले ए का सदु पयोग करना
पड़ता है। –संतवाणी 4

3. गु के िमलने का मालूम है , फल ा है ? गु हो जाना। –संतवाणी 4


:: 62 ::
ांितकारी संतवाणी

4. आज उपदे ा गु की लेशमा भी आव कता नहीं है। आव कता


इस बात की है िक कोई ऐसा वीर पु ष या वीर मिहला हो, जो िकसी
उपदे श को ीकार कर सके। –संतवाणी 4

5. दु िनया का बड़े –से–बड़ा गु , बड़े –से–बड़ा नेता, बड़े –से–बड़ा रा जो


काम नहीं कर सकता आपके साथ, अगर आप चाह तो अपने साथ कर
सकते ह। –संतवाणी 3

6. िववेक ही वा व म गु –त है । कोई िकसी का गु है–इसके


समान कोई भूल ही नहीं है । कोई भी िकसी का सुधारक है –
इसके समान कोई भूल नहीं है । मानव का अपना िववेक ही उसका
अपना सुधारक है , वही उसका गु है , वही उसका नेता है, वही उसका
शासक है । –संतवाणी 5

7. गु की सबसे बड़ी भ यह है िक गु िमलना चाहे और िश कहे


िक ज रत नहीं है ; ोंिक िजसने गु की बात को अपनाया, उसम
गु का अवतरण हो जाता है । –संतवाणी 7

8. आज आ कवाद के चारक को गु बनने का िजतना शौक है , ा


उतना यं भ होने का है ? यिद है तो उसके जीवन से यं
अ कता िवभु हो जाएगी। –जीवन–पथ

9. िकतने उपदे ा गु अपने िश ों के मन की चंचलता तथा िवकार से


दु :खी ह ? कभी एका म उन लोगों के दु ःख से दु :खी होकर ाकुल
ए ? अथवा जीवन भर उपदे श ही करते रहे ? –जीवन–पथ

10. स ा गु वही है , िजसके जीवन से साधकों को काश िमलता है ।


िस ा ों की चचा करने मा से वा व म गु –पद नहीं िमल जाता।
–जीवन–पथ
गु

11. गु तो वह होता है , जो गु बनकर नहीं आता है , दो बनकर आता


है, सु द् बनकर आता है , अपना होकर आता है। वह वा व म गु
होता है । –जीवन–पथ

12. ये जो बाहर के गु की हम ज रत अनुभव करते ह या रा की


ज रत अनुभव करते ह या नेता की ज रत अनुभव करते ह, यह
कब करते ह? जब िववेक का अनादर करते ह। –साधन–ि वेणी

13. िववेक को ही ान कहते ह। ान पी जो गु है , उसकी बात मान


लोगे तो शरीर पी गु की ज रत नहीं पड़े गी। –साधन–ि वेणी

14. स े गु की पहचान ा है ? जो यं अपना गु , नेता और शासक


है और िजसके पीछे चलकर समाज गित करता है । ऐसे गु को
अपने िलए संसार की आव कता नहीं होती, संसार को उसकी
आव कता रहती है । –संत–उ ोधन

15. गु जनों का आदे श–पालन ही वा िवक गु –भ है । िज गु –


भ ा ई, वे यं गु हो गए, ऐसा मेरा अनुभव है।
–संतप ावली 2

16. साधन–त ही गु –त है , जो साधक म ज िस है, तथािप इस


ा गु –त का अनादर करने के कारण िकसी अ ा गु की
अपे ा हो जाती है । –जीवन–दशन

17. िजस कार ने को कोई श नहीं सुना सकता और ो को कोई


प नहीं िदखा सकता, उसी कार िजस साधन की साम साधक म
नहीं है , उसको कोई बा गु नहीं करा सकता। िजस बीज म उपजने
की साम होती है , उसी को पृ ी, जल, वायु आिद उपजा सकते ह।
:: 64 ::
ांितकारी संतवाणी

अत: साधक म िव मान साधना को ही बा गु भी िवकिसत करने म


सहयोग दे सकते ह। –जीवन–दशन

18. कोई भी गु और हम ऐसी बात बता ही नहीं सकते, जो िक हमारे


िववेक म िनिहत नहीं है । –मानव की माँग

19. गु का बहाना ढू ँ ढ़ना भी िनज िववेक का अनादर ही है ।


–मानव की माँ ग

20. कत – ान के िलए िववेक के प म िजसने गु दान िकया है,


वही स ंग एवं स के प म भी गु दान कर सकता है ।
–जीवन–दशन

21. अपने दोषों का ान िजतना अपने को होता है , उतना अ को हो ही


नहीं सकता। ............ अत: दोष दे खने और िनवारण करने के िलए
साधक को अपने ही ान को अपना गु बना लेना चािहए।
–जीवन–दशन

22. ‘नेता’ उसे कहते ह, जो दोष को दे खकर दु ःखी हो, 'गु ' उसे कहते ह,
जो दोष को िमटाने का उपाय जानता हो और 'शासक' उसे कहते ह,
जो जाने ए उपाय पर अमल कराने म समथ हो। –मानव की माँ ग

23. मानवता तो एक अनूठी े रणा दे ती है , और वह यह िक अगर हम


'नेता' होना है तो अपने ही नेता बन, यिद हम 'शासन' करना है तो
अपने पर ही शासन कर, और यिद 'गु ' बनने की कामना है तो अपने
ही गु बन। –मानव की माँग

24. अपना नेता, अपना गु तथा अपना शासक वही हो सकता है, जो
अपने ित ाय तथा दू सरों के ित मा तथा ेम करने म समथ है ।
–मानव की माँ ग
गु

25. गु , नेता और शासक बनकर दू सरों के सुधार की बात वे ही लोग


करते ह, जो सु धार के नाम पर सुख–भोग म वृ होते ह।
–दशन और नीित

26. सेवकों के गु ह ी हनुम लाल जी, िवचारकों के गु ह, भगवान्


शंकर और ेिमयों की गु ह ी राधारानी। –स –जीवन–दपण

27. गु मानने का अिधकार सभी को है और िश बनाने का िकसी को


अिधकार नहीं। –स –जीवन–दपण

28. ान का िज ासु ही िश है । िश गु होने के िलए गु की शरण म


जाता है । गु वही है जो िश को गु बना सके; ोंिक गु के िमलते
ही िश गु हो जाता है । गु की आव कता गु होने के िलए होती
है, िश होने के िलए नहीं। िश तो उसी समय तक है , जब तक गु
नहीं िमला। –स –समागम 1

29. गु के 'गुर' को जीवन का प बना लेना ही गु –भ है, अथवा


गु से िभ हो जाना ही गु –भ है , या गु की आ ा–पालन ही
गु –भ है । गु का 'गुर' ही ेमपा से िमलाने म समथ है, शरीर
नहीं। उपासना 'गुर' की होती है, शरीर की नहीं। उसका स ाव करना
गु –भ है । गु का 'गुर' ही वा व म गु का प है।
–स –समागम 1

30. जो िनज– प का आदर करता है , वह गु , ई र तथा संसार आिद


को अपने ही म पाता है । –स –समागम

31. अगर कहीं गु बन जाओ तो भगवान् ने कहा िक मेरे ेम से वंिचत


रहो, चेले–चेली म रमण करो। –स –समागम 2
:: 66 ::
ांितकारी संतवाणी

32. पूजा– ाथना सब परमा ा के साथ करने वाली बात है । गु परमा ा


का बाप हो सकता है , परमा ा नहीं। हाँ , गु वा वा हो
सकता है । गु ा द हो सकता है , े मा द नहीं। को
अगर परमा ा मानना है तो सब को मानो। गु साधन प हो सकता
है, सा प नहीं। –स वाणी ( ो र)

33. शा ों म नेता या गु बनने को पतन का हेतु माना है। इससे िस


होता है िक यह काम महापु षों के ही उपयु है । साधक को इस
बखेड़े म कभी नहीं पड़ना चािहए। –संत–सौरभ

34. ा गु म करनी चािहए और ेम भगवान् म करना चािहए। गु भी


यही िसखाता है । –संत–सौरभ

35. म आपसे पूछता ँ िक अगर ामसु र अजुन को गीता सुना सकते


ह, तो ा वे अ यामी प से हमको–आपको गीता नहीं सुना सकते?
–संतवाणी 7

36. गु , और सत्–चचा साधक म िव मान िववेक–श को ही


िवकिसत कर सकते ह, कोई नयी श दान नहीं कर सकते।
–संत–सौरभ

37. अगर बा गु के िबना त –सा ा ार नहीं होता, तो आप यह


बताइए िक सबसे पहले त –सा ा ार कैसे आ होगा? आ खर
गु –पर रा चली होगी िक नहीं? तो जो सबका गु होगा, मानना
पड़े गा िक उसका कोई गु नहीं होगा। यिद एक को भी िबना
गु के त –सा ा ार हो सकता है , तो यह िवधान तो नहीं आ िक
िबना गु के त –सा ा ार नहीं हो सकता। –संतवाणी 6
िच न

38. संच पूिछए, हमारे यहाँ जो गु की मिहमा का वणन िकया जाता है, वह
गु िववेक ही है । –संतवाणी 4

39. गु –िश का स होता है अनास के िलए। यह नहीं िक दस


कार की आस याँ तो थी ही, ारहवीं कार की और नई पैदा कर
ली। –संतवाणी 7
ेक क कम अपने–अपने थान पर महान् है। पर ु कब ? जब
कम के पीछे जो भाव है वह पिव हो, भाव के पीछे जो ान है वह
उ े –पूित म हेतु हो और उ े वह हो िजसके आगे और कोई
उ े न हो। अतः ेक क –कम ारा अपने वा िवक उ े
की पूित अिनवाय है।

िच न

1. तुम होने वाले िच न को िमटाना चाहते हो करने वाले िच न से !


उससे डरते ों हो? दे खते रहो, िब ु ल दे खते रहो। अगर तुम 'हाँ '
नहीं करोगे तो वह नाश हो जाएगा। और उससे लड़ोगे नहीं, तब भी
नाश हो जाएगा। और उससे अपने को िमलाओगे नहीं, तब भी नाश हो
जाएगा। –संतवाणी 5

2. मोहजिनत स तथा ममता का ाग करते ही िवषय–िच न


िमटकर भगवत्–िच न त: उ होता है। जब तक साधक को
िच न करना पड़ता है , तब तक उसे समझना चािहए िक अभी
े मा द से सरल िव ासपू वक िन स की ीकृित नहीं ई।
–मानव की माँ ग

3. अशु भोजन से शरीर अशु हो जाता है तथा अशु िच न से सू


शरीर आिद अशु हो जाते ह; ोंिक िजस कार अ आिद थूल
:: 68 ::
ांितकारी संतवाणी

शरीर का भोजन है , उसी कार रण, िच न, ान आिद सू


शरीर का भोजन है । –संतप ावली 1

4. यह अख िनयम है िक िच न के अनुसार कता का प बन


जाता है ; ोंिक सभी ाणी िच न पी क त के नीचे िनवास
करते ह। –संतप ावली 1

5. यिद मानव अपने–आप होने वाले िच न से सहयोग न करे , अिपतु


असहयोग कर िनि हो जाए तो बड़ी ही सुगमतापूवक थ िच न
का नाश होता है । –मूक स ंग

6. थ िच न का समथन तथा िवरोध न करना उसके िमटाने का अचूक


उपाय है । –सफलता की कुंजी

7. होने वाले िच न से भयभीत होना और उसे िवकार मानना अपने म


हीन भाव को ज दे ना है । िच न को दे खना और उससे असहयोग
करना चािहए, वह अपने–आप िमट जाएगा। –सफलता की कुंजी

8. िच न का दे खो, िक ु उसका समथन मत करो और उसकी


स ता ीकार मत करो। िच न पी की यिद थित ीकार न
की जाए तो िच न िनज व होकर िमट जाएगा। –सफलता की कुंजी

9. िच न से िच न दबता है , िमटता नहीं, इतना ही नहीं, काला र म


िकए ए िच न का भी िच न होने लगता है । –सफलता की कुंजी

10. िजन व ुओं की ा कम–सापे है , उनका िच न ' थ िच न' है


और िजसकी ा िज ासा अथवा लालसा–सा है , उसका िच न
‘साथक िच न' है । –िच शु
िच न

11. ि या–जिनत सुख से अ िच होते ही साथक िच न त: जा त होता


है। ......... ि या–जिनत सुखलोलुपता से ही िनरथक िच न उ होता
है। –िच शु

12. भूलकर भी िकसी की बुराई का िच न नहीं करना चािहए, ोंिक


उसकी बुराई कता म आती है , और उसका भी अनिहत होता है िक
िजसकी बुराई की जाती है । –स –समागम 1

13. िजसको अ ा बनाना चाहते हो, उसम अपने मन से उ ीं अ े गुणों


को थािपत कर दो अथात् जैसा बनाना चाहते हो, उ ीं भावनाओं को
उसम दे खो। बार–बार ऐसा िच न करो िक वह अ ा है। इससे
काला र म वह उसी कार हो जाएगा, जैसा िक िच न िकया गया
है। –स –समागम 1

14. ेक िच न कता की तद् पता से ही जीिवत रहता है । यिद िच न म


तादा न िकया जाए तो बड़ी ही सुगमतापूवक िच न अपने–आप
िमट जाता है । –साधन–त

15. नीरसता का नाश होने पर थ िच न का नाश हो जाता है । नीरसता


का नाश असंगता, उदारता एवं ि यता से हो जाता है ।
–स वाणी ( ो र)

16. मानव िजसकी आव कता अनुभव करता है , उसका और िजसको


अपना मानता है , उसका िच न त: होने लगता है ।
–मानवता के मूल िस ा

17. ऊपर से अकम रहने पर भी (मनु ) थ िच न ारा मानिसक


श का ास करता है , जो अनथ का मू ल है ।
–मानवता के मूल िस ा
:: 70 ::
ांितकारी संतवाणी

18. न चाहने पर जो िच न उ आ है , उसका नाश तभी होगा, जब


उससे असहयोग कर िलया जाए तथा उससे तादा तोड़ िदया जाए।
असहयोग करते ही उ आ थ िच न िनज व हो जाता है और
तादा िमटते ही उसका समूल नाश हो जाता है।
–मानवता के मूल िस ा

19. बलपूवक िकये ए साथक िच न से थ िच न न नहीं होता,


अिपतु थ िच न के ाग से साथक िच न त: जा त होता है।
–मानवता के मूल िस ा

20. िच न उसी का होगा, िजसकी हम आव कता अनुभव करगे और


िजसको हम अपना मानगे । –संतवाणी 8

21. दोष करने की अपे ा दोषों का िच न अिधक पतन करने वाला है ।


–संत–सौरभ

22. आगे–पीछे का िच न उन ािणयों को करना चािहए, िजनको उस का


व ु की आव कता हो, जो वतमान म नहीं है । –स –समागम 2

23. िजसके िच न से अपने को मु होना है , उसके अ को ही


ीकार मत करो। –संत–उ ोधन

24. थ िच न का अ एकमा स ंग से ही होता है । –मूक स ंग

25. थ–िच न के नाश के िलए एकमा मूक–स ं ग ही अचूक उपाय है


अथात् मरिहत होना है । –मूक स ंग

26. 'नहीं' के िच न से बचने का उपाय ा होगा ? 'है ' म आ था।


–जीवन–पथ
जीवन

27. िच न केवल उसका करना चािहए, िजसे ा करना हो। इस ि से


सवसमथ भगवान् के अित र अ कोई व ु िच न करने यो
नहीं है। –संतप ावली 1

जीवन

1. आज िजसे हम जीवन कहते ह, वह तो जीवन की साधन–साम ी है ,


जीवन नहीं है । –मानव की माँग

2. वा िवक जीवन हमारा अपना जीवन है। उस जीवन म िकसी कार


की िवषमता, अभाव एवं जड़ता आिद िवकार नहीं ह। –िच शु

3. यह सभी जानते ह िक गहरी नींद म ाणी ि य–से–ि य व ु और


का ाग भाव से ही अपना लेता है और उस अव था म
िकसी कार के दु :ख का अनुभव नहीं करता, अिपतु जा त–अव था म
यही कहता है िक बड़े सुख से सोया। ाकृितक िनयम के अनुसार कोई
भी ृित अनुभूित के िबना नहीं हो सकती। गहरी नींद म कोई दु :ख
नहीं था, यह अनुभूित ा साधक को व ु, आिद से अतीत के
जीवन की ेरणा नहीं दे ती ? अथात् अव दे ती है । ............ गहरी नींद
के समान थित यिद जा त म ा कर ली जाए तो यह स े ह िनमू ल
हो जाएगा और यह बोध हो जाएगा िक व ु, आिद के
िबना भी जीवन है और उस जीवन म िकसी कार का अभाव नहीं है ।
–िच शु

4. 'कत –परायणता' के िबना जीवन जगत् के िलए, 'असंगता' के िबना


जीवन अपने िलए एवं 'आ ीयता' के िबना जीवन अपने िनमाता के
िलए उपयोगी नहीं होता। –मूक स ंग
:: 72 ::
ांितकारी संतवाणी

5. जीवन यं र ा करता है । िवचारशील केवल अपने कत की ओर


दे खते ह, प रणाम पर ि नहीं रखते ह। –संतप ावली 1

6. साधक को िव ास रखना चािहए िक जीवन यं अपनी र ा करता है ।


यिद जीवन शेष है तो जीवन के साधन यं ा हो जाएँ गे।
–संत–सौरभ

7. िजसका जीवन जगत् के िलए उपयोगी िस होता है , उसका जीवन


अपने िलए तथा अन के िलए भी उपयोगी िस होता है ।
–दशन और नीित

8. जो बात के जीवन म आ जाती है , वह िवभु हो जाती है और


उसका भाव अपने–आप बृहत् समाज पर पड़ता है।
–स वाणी ( ो र)

9. संसार की सहायता से जब तक जीवन मालूम होता है, तब तक तो मृ ु


के ही े म रहते ह। शरीर के रहने का नाम जीवन नहीं है। .......
शरीर से स टू टने के बाद जीवन की ा होती है । –संतवाणी 7

10. अगर शरीर नहीं रहता है , अगर व ु नहीं रहती है , तो इसका अथ यह


है िक शरीर और व ु से परे जो जीवन है , उसम आपका वेश होता
है। –संतवाणी 5

11. शरीर–रिहत जीवन ही सच पूिछए जो जीवन है। शरीर–सिहत जीवन


तो जीवन की लालसा है । ...... वतमान प रवतनशील जीवन िन जीवन
का साधन है , जीवन नहीं। –संतवाणी 6

12. चाह–रिहत होकर हम सब वतमान म ही वा िवक जीवन को ा


कर सकते ह। –संतवाणी 6

13. जो 'है', वही जीवन है । जीवन 'है ' म है , 'नहीं' म नहीं है । –संतवाणी 5
जीवन

14. म–रिहत होने से और िवकार–रिहत होने से िजस जीवन म वेश


होता है अथवा िजस जीवन के साथ अिभ ता होती है , वही वा िवक
जीवन है। –संतवाणी 5

15. िजसको लोग जीवन कहते ह, वह जीवन नहीं है । वह तो मृ ु का ही


दू सरा नाम है । एक अव था की मृ ु को ही दू सरी अव था का ज
कहते ह। ....... हरे क ण म प रवतन होता है । प रवतन का ही नाम
मृ ु है । अत: वह जीवन नहीं है । असली जीवन तो वह है, िजसम मरने
का डर नहीं है । –संत–सौरभ

16. 'जीवन' श का अथ भी परमा ा ही है । जीवन माने ा ? िजसका


नाश न हो, िजसम चेतना हो, जो रस प हो। परमा ा िकसे कहते ह ?
जो सत् हो, िचत् हो, आन हो। तो जो ‘परमा ा' श का अथ है ,
वही 'जीवन' श का अथ है । –संतवाणी 3

17. दशन अनेक यानी ि कोण अनेक, पर जीवन एक। जीवन अनेक नहीं
है, जीवन एक है और वही जीवन हम सबको िमल सकता है, और उसी
के िलए यह मानव–जीवन िमला है । –संतवाणी 3

18. 'ि या' का जीवन ही पशु–जीवन है, 'भाव' का जीवन ही मानव–जीवन


है और ' ान' का जीवन ही ऋिष–जीवन है । –स –समागम 2

19. जब तक प रवतनशील जीवन िन जीवन से अिभ न हो जाए, तब


तक वणा म के अनुसार सं ार तथा िच को धारण करना परम
अिनवाय है । –स –समागम 2

अपिव उपाय से पिव उ े –पूित की आशा करना भूल है, ोंिक की ई


अपिव ता िमटाई नहीं जा सकती और उसके प रणाम से भी बचा नहीं जा
सकता। अिपतु अपिव उपाय का प रणाम पिव उ े को मलीन बना
:: 74 ::
ांितकारी संतवाणी

दे गा। अतः पिव उ े की पूित के िलए पिव उपाय का अनुसरण


अिनवाय है।

ान

1. ान का सव म साधन केवल िवचार है । –संतप ावली 1

2. ठहरी ई बु म ुित अथात् वेद के ान का अवतरण होता है। उस


ान के िलए िकसी भाषा–िवशेष की अपे ा नहीं है। –जीवन–पथ

3. ‘पर’ के ारा ' ' का बोध न िकसी को आ है और न होगा।


–मानव–दशन

4. ान असत् का होता है । ा सत् की होती है । –मानव–दशन

5. यह िनयम है िक असत् का ान असत् से असंग होने पर और सत् का


ान सत् से अिभ होने पर ही होता है । –जीवन–दशन

6. िजसको आप जानना और समझना कहते ह, वह तो सीखना है । आपने


सीखा है, सुना है । न आपने जाना है , न समझा है । ....... जानने का अथ
है िक जब आप ठीक–ठीक जान ल िक सचमुच इतने बड़े संसार म
मेरा कुछ है ही नहीं और मु झे कुछ नहीं चािहए। –संतवाणी 7

7. बु का जो ान है , उसका ' भाव' हो जाए जीवन म और इ य के


ान का 'उपयोग' हो जाए। –संतवाणी 4

8. िच–भेद से, यो ता–भेद से, साम –भेद से बा ान का भाव


एक–सा नहीं रहता; और जब तक भाव एक–सा नहीं रहता, तब तक
उसको िन:स े हता नहीं कह सकते। ता य ा िनकला? िक बा
ान के आधार पर हम सब िनःस े ह नहीं हो सकते। –संतवाणी 4
ान

9. चाहे यहाँ बैठकर ान का आदर करो, गं गा िकनारे बै ठकर ान का


आदर करो और चाहे उ राख म बैठकर करो। अगर आप अपने
ान का आदर नहीं करगे तो आपको स नहीं िमल सकता।
–संतवाणी 3

10. आजकल शा ीय ान को, जो िक िव ास है , लोग ' ान' कहते ह।


–जीवन–पथ

11. हम सबसे बड़ी भूल यह होती है िक हम अपने जाने ए से दू सरों को


समझाने का यास करते ह। यह रोग जब तक रहेगा, बेसमझी
उ रो र बढ़े गी। जब हम अपने जाने ए से अपने ही को समझाएँ गे,
तो मेरा ऐसा िव ास है िक अपने म से ही नहीं, िव म से भी बेसमझी
चली जाएगी। –जीवन–पथ

12. अ ान का दू सरा नाम अ ान है । अ ान का अथ ' ान का अभाव'


नहीं है। –मानव की माँग

13. साधन प ान की पराविध ेम म है और साधन प भ की


पराविध सा ा ार म है । कारण िक िजसे जानते ह, उससे ेम हो
जाता है और िजसे मानते ह, उसे जान लेते ह। –मानव की माँ ग

14. बोध रहता है , बोधवान् नहीं। जब तक यह भािसत होता है िक मै


बोधवान् ँ , तब तक िकसी–न–िकसी अंश म बोध से िभ ता है । िभ ता
भेद को पु कर प र ता म आब करती है । –मानव–दशन

15. िजसकी उपल िनज– ान से िस होती है , उसके िलए कोई


अ ास अपेि त नहीं होता। –साधन–िनिध

16. अपने जाने ए का आदर करने पर सभी के ान का आदर हो जाता


है। कारण िक ान म एकता है , िभ ता नहीं। –मूक स ा
:: 76 ::
ांितकारी संतवाणी

17. अनुभव से पूव मान लेना आ था है , ान नहीं। िवक रिहत आ था


ान के समान तीत होती है । –मूक स ंग

18. असत् के ान म ही असत् के ाग की साम िनिहत है। असत् का


ाग तथा सत् का संग यु गपद है । ान असत् का ही होता है और सं ग
सत् का होता है । सत् असत् का काशक है , और असत का ान
असत् का नाशक है । अत: असत् के ान से ही असत् की िनवृि होती
है। –पाथेय

19. ान म े म और ेम म ान ओत– ोत ह। यिद ान और ेम का


िवभाजन हो जाए तो ान–रिहत े म 'काम' और ेम–रिहत ान
'शू ता' म आब करता है , जो अभाव प है । वा वम ान और
ेम का िवभाजन स व ही नहीं है । –मूक स ंग

20. ाकृितक िनयम के अनुसार इ य– ान सेवा के िलए िमला है ,


सुखभोग के िलए नहीं और बु का ान ाग के िलए िमला है , िववाद
के िलए नहीं । –जीवन–दशन

21. जो साधक अपने ान का आदर नहीं करता, वह गु और के ान


का भी आदर नहीं कर सकता। जैसे, जो ने के काश का उपयोग
नहीं करता, वह सूय के काश का भी उपयोग नहीं कर पाता।
–जीवन–दशन

22. अपने ित होने वाली बुराइयों का ान िजस ान म है , वही ान मानव


का वा व म पथ– दशक है । –दशन और नीित

23. ान उसे नहीं कहते, जो जानने म आता है, अिपतु उसे कहते ह,
िजससे जाना जाता है । िजससे जाना जाता है , वह िकसी म की
ान

उपज नहीं है अथात् ान कोई भौितक त नहीं है , अिपतु अनु


अिवनाशी त है । –सफलता की कुंजी

24. िव ान से ा साम का उपयोग यिद ानपूवक नहीं िकया जाएगा


तो िव ान अिहतकर िस होगा, जो िकसी को अभी नहीं है ।
–सफलता की कुंजी

25. ान िकसी कम का फल नहीं है । कारण िक िबना ान के कमानु ान


िस नहीं होता। जो कम की िस म हे तु है, वह कम का काय नहीं
हो सकता। –दशन और नीित

26. िजस काल म बु ज ान इ यज ान के भाव को खा लेता है,


उसी काल म सम कामनाएँ िमट जाती ह, िजनके िमटते ही
िन े हता अपने–आप आ जाती है । –िच शु

27. ों– ों इ यज ान का भाव बढ़ता है , ों– ों व ुओं म


स ता, सु रता एवं सुख पता तीत होने लगती है, जो कामनाओं
को उ करने म समथ है । –िच शु

28. इ यों के ान से जो व ु जैसी तीत होती है , वही व ु बु के ान


से उसी काल म वैसी नहीं तीत होती। इ याँ व ु म स ता एवं
सु रता का भास कराती ह, पर बु का ान उन व ुओं म सतत
प रवतन का दशन कराता है । –िच शु

29. िच की अशु की तीित िजस ान से होती है , उसी ान म िच


की शु का उपाय भी िव मान है और उस उपाय को च रताथ करने
का साम भी उसी ान म है । –िच शु

30. अ ा ान तथा साम के िलए वे ही ाणी िच त रहते ह, जो ा


ान तथा साम का सदु पयोग नहीं करते। –िच शु
:: 78 ::
ांितकारी संतवाणी

31. इ यों के ान का उपयोग िनबलों की सेवा म और बु के ान का


उपयोग रागरिहत होने म अथात् व ुओं की स ता और सु रता के
अपहरण म िनिहत है । –िच शु

32. िजस व ु को इ य ारा जानते हो, उसी व ु को बु के ारा भी


जानो। –िच शु

33. इ य– ान का भाव िमटते ही बु का ान उसी कार िमट जाता


है, िजस कार औषध रोग को खाकर त: िमट जाती है। ...... बु के
ान की आव कता उसी समय तक रहती है , िजस समय तक
इ यों के ान का भाव अंिकत है । –िच शु

34. इ य– ान के आधार पर की ई वृि दु राचारयु और बु – ान


के आधार पर की ई वृि सदाचारयु होती है। –िच शु

35. जो नहीं है , उससे त ू प होकर उसको जान नहीं सकता और जो है,


उससे िभ होकर उसको जान नहीं सकता अथात् 'है' से अिभ होकर
'है' को ा करता है और जो नहीं है , उससे असंग होकर उसकी
वा िवकता को जान सकता है । –िच शु

36. य िप बु और इ य का ान भी ान–जैसा ही तीत होता है;


पर ु इ य या बु का ान स े हरिहत नहीं होता अथात् बु या
इ य– ान के आधार पर ाणी िन:स े ह नहीं हो सकता। …… िववेक
बु और इ य की अपे ा अलौिकक त है अथवा यों कहो िक
उस अन का िवधान है । –िच शु

37. जब आप ान के िलए और िकसी को पस न करगे, तब आपको


ान अपने म िमल जाएगा। दे खो, िजस कार आप दपण म अपने मुख
ान

को दे खते ह, उसी कार महा ाओं तथा िकताबों म आप अपने शु


ान को दे खते ह। –स –समागम

38. बोध का धान हे तु राग–रिहत होना है ; ोंिक राग ही अबोध का


कारण है। –स –समागम 1

39. कम ान का साधन नहीं होता, ब भोग का दाता होता है ।


–स –समागम 1

40. ान के तीन थल ह –इ यों का ान, बु का ान और बु से परे


का ान। बु से परे के ान म सृि नहीं है। ि पुटी उसम नहीं है ।
ि पुटी वहाँ है , जहाँ इ यों और बु का ान है । जहाँ बु का ान
है, वहाँ आ था है , िच न नहीं है , और जहाँ इ यों का ान है , वहाँ
भोग है, योग नहीं है । –स –समागम 2

41. इ यों के ान से ‘भोग' उ होता है । बु के ान से 'योग' आ


और यं के ान से 'त ान' आ, और यं ान वाला 'त वे ा'
आ। –स –समागम 2

42. माना आ 'म' तथा माना आ 'मेरा' िमटने पर ही त ान हो सकता


है। भ तथा िज ासु दोनों म ही माना आ 'म' तथा माना आ 'मेरा'
शेष नहीं रहता। –स –समागम 2

43. अस ारा स को जानने का य मत करो, ुत् अस को


ाग कर स से अिभ हो जाओ। –स –समागम 2

44. आव कता से अिधक जानने तथा सुनने पर समझ को अजीण हो


जाता है। अत: िजतना जाना हो, उतना कर डालो। जानकारी के
अनु प जीवन होने पर जानकारी यं बढ़ जाती है ।
–स –समागम 2
:: 80 ::
ांितकारी संतवाणी

45. यह िनयम है िक जब तक अपना ान अपने काम नहीं आता, तब तक


अ के ारा सुना आ ान भी जीवन नहीं हो पाता। –साधन–त

46. िजस ान के ारा आप मु ा करने की साधना कर रहे ह, उस


ान का दाता तो मेरा भु है । यिद आप ान प ह तो आपने पहले
भूल ों की, जो िक आपको िज ासु बनना पड़ा?
–स वाणी ( ो र)

47. जो शरीर की असिलयत को दे ख लेगा, वह संसार की असिलयत को


भी समझ लेगा। जो अपने को दे ख लेता है अथात् म कौन ँ , इसको
जान लेता है , वह उस परमे र को भी जान ले ता है । –संत–सौरभ

48. इ य ि से िजन व ुओं म स ता और सु रता तीत होती है,


बु ि से उ ीं व ुओं म मिलनता और णभंगुरता का दशन होता
है, और िववेक ि से िकसी ने उन तीत होने वाली व ुओं के
अ का ही दशन नहीं िकया; ोंिक िववेक ि जड़ता से िवमुख
कर िच यता से अिभ कर दे ती है । िच य–सा ा म िकसी ने न
तो काम को पाया और न म को। –िच शु

49. ान अना ा का होगा, आ ा का नहीं होगा। हाँ , आ ा की ा


होगी, आ ा म ि यता होगी। –संतवाणी 5

50. स ों का ान, आप का ान, वेदों का ान–इनम एकता है।


–संतवाणी 4

51. साइ सच पूिछये कम है , और आपने अनुवाद कर िदया –िव ान।


िजसम ानं की ग भी नहीं है , उसका नाम –िव ान ! ....... िजसे आप
‘साइ ' कहते ह, िजसका अनुवाद िह ी म 'िव ान' करते ह, उसम
ाग

ान की ग भी नहीं है । ...... तो िव ान है ा ? बल है बल। बल जो


होता है , वह हमेशा चेतना–शू होता है । –संतवाणी 4

52. इ य– ान से अनेक व ु एँ स तीत होती ह, और बु – ान से


अनेक व ुओं म एकता और प रवतन तीत होता है , और बु से
अतीत के ान म सम व ुएँ अभाव प ह। –संत–उ ोधन

53. जो िज ासु चैन से रहता है , वह िज ासु नहीं है। िज ासु के जीवन म


सुख लेशमा नहीं रहता। सुखी ाणी िकसी कार भी िज ासु नहीं हो
सकता। –स –समागम 1

54. भूल न जानने म नहीं है , ुत् जाने ए को न मानने म है । –िच शु

55. अनुभव से िभ कथन करना ही बोध म अबोध और अबोध म बोध का


िमलाना है । ....... अनुभव होने पर अपने से िभ कुछ शेष नहीं रहता,
िफर कौन िकसका कथन करे ? –स –समागम 1

काम का नाश िबना ए न तो राम से अिभ ता हो सकती है, न राम से


योग ही हो सकता है और न राम का ेम ही िमल सकता है । अब
िवचार यह करना है िक यिद कोई राम की स ा ही ीकार न करे , तो
भी यह तो मानना ही होग िक काम की अपूणता िकसी को अभी नहीं
है।

ाग

1. एक शरीर को लेकर कुिटया के अ र ब कर िदया और हम ागी


हो गए। तो म क ँ गा िक ऐसे तो तु ारे बाप भी ागी नहीं हो सकते।
यिद पूछो, ों ागी नहीं हो सकते ? तो कहना होगा िक आपने
अपना (अहम् का) तो ाग िकया नहीं। भाई मेरे, अगर ाग करना हो
:: 82 ::
ांितकारी संतवाणी

तो अपना ाग करो। और ेम करना हो तो सभी को ेम करो। और


यिद अपने–आपका ाग नहीं कर सकते तो आप संसार का कभी
ाग नहीं कर सकते। – ेरणा पथ

2. ाग ा है ? म शरीर और संसार से अलग ँ । इसका फल ा है ?


अचाह होना, िनमम होना और िन ाम होना। –संत–उ ोधन

3. ाग का अथ है िक िकसी व ु को अपना मत मानो। थूल, सू और


कारण शरीर से स मत रखो। कम, िच न एवं थित िकसी भी
अव था म जीवन–बु मत रखो। िकसी का आ य मत लो। िकसी से
सुख की आशा मत करो। –संत–उ ोधन

4. ममता, कामना और तादा के ाग का नाम ही 'सं ास' है ।


–संत–उ ोधन

5. केवल गृह– ाग करने एवं व रं गने मा से िकसी कोयोग–बोध– े म


की ा नहीं हो सकती। यह ाग नहीं वरन् ाग के भेष म अपने
कत से पलायन करना है । –संत–उ ोधन

6. मानव का अपना िहत तो ाग म है । –मानव–दशन

7. जब अपना करके अपने म कुछ है ही नहीं, तो ाग कैसा ! और जो


व ु िजसकी है , उसे िमल गयी, तो सेवा कैसी ! –साधन–िनिध

8. अनेक ि य व ुएँ प से छूट चुकी ह; िक ु उनकी सु रता और


चाह बाकी है । इसिलए व ुओं के ाग का फल कुछ नहीं िमलता।
वा व म तो चाह का ाग ही ाग है । –संतप ावली 1

9. जो िबना िकए हो, वही स ा ाग है ; ोंिक स ा ाग करना नहीं


पड़ता, हो जाता है । –संतप ावली 1
ाग

10. िकसी भी व ु को अपना मत समझो। बस, यही ाग है । िकसी व ु


तथा से अलग होने मा से ाग नहीं हो जाता। अपना न मानने
से ाग होता है । –संतप ावली 2

11. िववेकपूवक ममता, कामना तथा तादा का ाग ही वा िवक, जाने


ए असत् का ाग है । –पाथेय

12. यह कैसी िवड ना है िक िजसका ाग त: हो रहा है , उसके ाग


म भी असमथता तीत होती है । इस असमथता के मूल म िछपी ई
सुख–लोलुपता है , जो एकमा दु ःख के भाव से ही िमटती है ।
–दु :ख का भाव

13. ि य–से–ि य व ु तथा का ाग गहरी नींद के िलए भला


िकसने नहीं िकया ? –दु ःख का भाव

14. जो हमारे िबना रह सकता है , जो बराबर हमारा ाग कर रहा है ,


उससे स बनाये रखना किठन है या उसका ाग ?
–सफलता की कुंजी

15. अकत को अकत जानकर ही उसका ाग करना चािहए। िकसी


भय से भयभीत होकर अकत का ाग कुछ अथ नहीं रखता, ुत्
िम ा अिभमान ही उ करता है , जो अनथ का मूल है। –िच शु

16. मृ ु और ाग का प एक है , और प रणाम म ही भेद है । मृ ु


का प रणाम ज है , और ाग का प रणाम अमर है। मृ ु तो व ु
का नाश करती है , और ाग व ु के स का नाश करता है ।
–िच शु
:: 84 ::
ांितकारी संतवाणी

17. यिद कोई साधक अपने को सेवा करने म असमथ मानता है तो उसे
ाग को अपना लेना चािहए। ाग के अपना लेने पर सेवा, पूजा तथा
ेम का साम तः आ जाता है । –िच शु

18. शरीर आिद िकसी भी व ु को अपना न मानना और िकसी से भी


िकसी कार भी सुख की आशा न करना अथात् चाह–रिहत होना
अथवा यों कहो िक 'अहम् ' और 'मम' का अ करना ही ाग का
वा िवक प है । –िच शु

19. ई र, धम और समाज िकसी के ऋणी नहीं रहते। जो इनके िलए ाग


करते ह, उनका ये अव िनवाह करते ह। –स –जीवन–दपण

20. सभी स की खोज करने वालो ने ाग िकया है । –स –समागम 1

21. ाग ि या नहीं है , ब असंगता है । –स –समागम 1

22. ाग वतमान म और कम भिव म फल दे ता है । –स –समागम 1

23. जो िन आन केवल ाग से ा होता है, उसके िलए भिव की


आशा करना एकमा माद के अित र और कुछ अथ नहीं रखता।
–स –समागम 2

24. ाग त: उ होने वाली व ु है । –स –समागम 2

25. ाग कुल का होता है , जुज़ का नहीं। –स –समागम 2

26. िजसकी ि िबना के थर है , िजसका िच िबना आधार के


शा है एवं िजसका ाण िबना िनरोध के सम है, उसी को गृह– ाग
का अिधकार है । –स –समागम 2
ाग

27. स ावपूवक मोह–जिनत स –िव े द हो जाने पर 'म भगवान् का


ँ ' –इस भाव म स ता आ जाती है ; ोंिक िकसी का ाग िकसी की
एकता हो जाती है । –स –समागम 2

28. मोहयु मा और ोधयु ाग िनरथक है। –स –समागम 2

29. ाग हो जाने पर ाग का भास नहीं रहता; ोंिक ाग की ृ ित


अथवा उसका अ तभी तक तीत होता है , जब तक ाग होता
नहीं। –साधन–त

30. स –िव े द से िकसी व ु, आिद की ित नहीं होती और न


ा व ुओं के सदु पयोग और यों की सेवा म ही बाधा होती है ।
–साधन–त

31. ाग संसार के चढ़ाव की ओर ले जाता है और कम संसार के बहाव


की ओर ले जाता है । –स वाणी ( ो र)

32. शरीर और संसार के छोड़ने का नहीं है , है िक शरीर और


संसार से हमारा स न रहे । –संतवाणी 8

33. यह िनयम है िक िजसको जो दे ना है , वह दे ने पर और िजससे लेना है ,


उससे न लेने पर अपने–आप स –िव े द हो जाता है। –िच शु

34. ाग से बढ़कर सु लभ और कोई साधन है ा दु िनया म ? ाग


िकसका करना है ? जो आपके िबना भी रहता है और जो आपका ाग
करता है । ....... ाग करने वाले का राग किठन है िक ाग करने वाले
का ाग किठन है ? –संतवाणी 7

िजस काय का स वतमान से हो, िजसके िबना िकए िकसी कार रह न


सक, िजसके स ादन के साधन उपल हों, िजससे िकसी का अिहत न हो,
ऐसे सभी काय आव क काय ह। आव क काय को पूरा न करने से और
:: 86 ::
ांितकारी संतवाणी

अनाव क काय का ाग न करने से, कता उ े –पूित म सफल नहीं


होता। अतः मानवमा को अनाव क काय का ाग और आव क काय
का स ादन करना अिनवाय है।

धन

1. धन के सं ह से कोई िनधनता िमट जाए –यह बात नहीं है।


–संतवाणी 5

2. जब तक भौितक मन म 'अथ' का मह है , तब तक उसका अप य


मन म खटकता है और उसकी ा सुखद तीत होती –पाथेय

3. ा कज बाँ टने वाला गरीब नहीं है ? कज लेने वाला ही गरीब है ा?


सोचो जरा ईमानदारी से। –संतवाणी 8

4. कुछ लोग तो यही घम करते ह िक हमारे पास स ि सबसे


अिधक है । उ ोंने यह कभी नहीं सोचा िक हम म बेसमझी सबसे
अिधक है । िवचार कर, स ि के आधार पर जो तु ारा मह है ,
शायद उससे अिधक बेसमझी और कहीं नहीं िमल सकती।
–संतवाणी 7

5. कम–से–कम एक स ाह के िलए मानव को नौकरों की दासता से


मु रहना चािहए। ..... कुछ लोग अथ के अधीन म का अनादर कर
रहे ह। उसका प रणाम यह आ है िक आज कायकुशलता िदन–पर–
िदन घटती जा रही है । लोग काम करने को अ ा नहीं मानते। उसका
बड़ा ही भयंकर प रणाम यह आ है िक अथ का मह बढ़ गया है ,
िजसने मानव–समाज म सं ह की िच उ कर दी है। सं ह
अिभमान तथा िवलास को ज दे ता है , जो िवनाश का मूल है । –पाथेय
धन

6. समाज का वह वग जो उपाजन करने म असमथ है, उसी के िनिम


प र ह करना आव क है , चाहे उस पर अिधकार गत हो
अथवा रा गत। –मानव–दशन

7. सं ह का अिधकार उ ीं लोगों को है, जो अपने िलए सं ह नहीं करते।


–मानव–दशन

8. गत सुखभोग के िलए ही प र ह के ाग की बात है।


–मानव–दशन

9. िस ा तः स ि न रा गत है , न गत। सं हीत स ि उ ीं
का भाग है , जो रोगी, बालक तथा सेवा–परायण ह एवं स की खोज म
रत ह। –मानव–दशन

10. आिथक कमी होने पर भी आव क काय तः हो जाते ह। – बु –


ज िवधान के न रहने पर वह अपने–आप हो जाएगा, जो होना
चािहए। –पाथेय

11. रोगी, वृ एवं बालक तथा िवर सं हीत स ि के अिधकारी है।


–पाथेय

12. िस े से व ु, व ु से , से िववेक एवं िववेक से स को


अिधक मह दे ना अिनवाय है । –मानव की माँग

13. आव क व ुओं का उ ादन शारी रक और बौ क म तथा


ाकृितक मू ल पदाथ के ारा ही होता है । िकसी िस े से िकसी भी
व ु का स ादन नहीं होता। –दशन और नीित

14. यिद िस े का मह न रहे तो मानव–समाज म से आल , िवलास


एवं अकम ता तो ब त ही कम हो जाए। –दशन और नीित
:: 88 ::
ांितकारी संतवाणी

15. म को िस े म बदलने से म का मह नहीं बढ़ता।


–दशन और नीित

16. यिद िस े का मह मानव के जीवन से िमट जाए तो बड़ी ही .


सुगमतापूवक पर र एकता थािपत हो सकती है। –दशन और नीित

17. िस े की उपयोिगता एकमा सुिवधापूवक व ुओं के आदान दान


म है । वा व म तो जीवन म िस े की कोई आव कता ही नहीं है ।
जीवन म आव कता व ु की है । –दशन और नीित

18. िनधन वह है , िजसे दू सरे का धन अिधक िदखाई दे ता है और अपना


धन कम िदखाई दे ता है । –स –समागम 2

19. आल , अकम ता तथा अिभमान के पोषण म िस े का ब त बड़ा


हाथ है। –मानवता के मूल िस ा

20. िजसके पास धन न हो, उसे दान करने का संक नहीं उठने दे ना
चािहए। ......... दान तो सं ह करने का टै है । –स –सौरभ

21. स े के ापार म जुए की भाँ ित िकसी एक का नुकसान ही दू सरे का


लाभ होता है । इस बात को सभी जानते ह िक स े म धन बाहर से नहीं
आता। स ा करने वालों म ही एक का नुकसान और दू सरे का लाभ
होता है। स ा करने वाले सभी लाभ की आशा से करते ह; पर ु
सबको लाभ नहीं हो सकता। इस ापार म िकसी का दु ःख ही दू सरे
का सुख है । अत: यह ापार उिचत नहीं है । –संत–सौरभ

22. िस े से व ुओं का, व ु से यों का, यों से िववेक का


और िववेक से उस िन जीवन का, जो प रवतन से अतीत है, अिधक
मह है। –स –समागम 2
धम

23. बाहर से िजतना इक ा करोगे, उतने ही भीतर से गरीब होते चले


जाओगे। –संतवाणी 8

24. धन का सं ह करने की साम िजसम होती है, उसम धन का


सदु पयोग करने की यो ता नहीं होती। ऐसा िनयम ही है। यिद
सदु पयोग करना आ जाए तो वह सं ह कर ही नहीं सकता।
–संतवाणी 7

िववेक–िवरोधी कम िकसी भी प र थित म नहीं करना है। िक ु यिद कोई


ऐसा काय है, जो िकसी –िवशेष के िलए आव क है, पर िजस समूह
म रहता है, उस समूह के ावहा रक िनयम के ितकूल है, तो ऐसी
प र थित म समूह के ब मत ारा –िवशेष अिधकार की र ा करना
आव क है।

धम

1. िजस वृि म ाग तथा े म भरपूर है , वही वा व म धम है ।


–स –समागम 2

2. जो वृि धमानुसार की जाती है , उसम भाव का मू होता है, ि या


का नहीं। भाव को िमटाकर केवल ि या को थान दे ना पशुता है।
–स –समागम 2

3. धम का मतलब यह है िक जो नहीं करना चािहए, उसको छोड़ दो तो


जो करना चािहए, वह होने लगेगा। –संतवाणी 5

4. आप जानते ह, मजहब की आव कता ों होती है ? अपने जाने ए


असत् का ाग करने के िलए। –जीवन–पथ
:: 90 ::
ांितकारी संतवाणी

5. धम एक है, अनेक नहीं। िजस कार रे लवे े शन पर मुसलमान के


हाथ म होने से 'मुसलमान पानी' और िह दू के हाथ म होने से 'िह दू
पानी' कहलाता है , य िप बेचारा पानी न तो िह दू होता है , न
मुसलमान, उसी कार जब लोग धमा ा को िकसी क ना म बाँ ध
लेते ह, तब उसके नाम से उस धम को कहने लगते ह।
–स –समागम 1

6. वा व म तो धम वह है, जो करने म आए, कहने म नहीं।


–स –समागम 1

7. धम का मूलम केवल दो बात िसखाता है –िकसी के ऋणी बन कर


मत रहो, और ेक काय िव के नाते अथवा भगवान् के नाते करते
रहो। –स –समागम 2

8. िजस कार िलिप अथ को कािशत करती है, उसी कार ेक


धािमक िच मूक भाषा म धमिन होने के िलए े रत करता है।
–स –समागम 2

9. सभी ब न ाणी म उप थत ह, प र थित म नहीं। ितकूल


प र थित का भय ना क अथात् धमरिहत ािणयों को होता है।
स वाणी धमा ा ितकूल प र थित से डरता नहीं, ुत् उसका
सदु पयोग करता है । –स –समागम 2

10. धम ाणी के िछपे ए ब नों को कािशत कर िनकालने का य


करता है , िकसी नवीन ब न को उ नहीं करता।
–स –समागम 2

11. धम थोड़ा लेकर ब त दे ना िसखाता है । िजसम ऐसा बल नहीं है , उसम


धम नहीं रहता। –स –समागम 2
धम

12. धमानुसार की ई वृि ाभािवक िनवृि उ कर दे ती है।


–स –समागम 2

13. आप को उपहार– प ीरामायण इसिलए दी जाती है िक आपकी


ेक वृि धमानुसार सरस तथा मधुर हो। –स –समागम 2

14. धम की पूणता तब िस होती है , जब अपनी स ता के िलए संसार


की ओर नही दे खता, ु त् संसार की स ता का साधन बन, अपने
ही म अपने ीतम को पाकर, िन जीवन एवं िन रस पाता है ।
–स –समागम 2

15. िजसे पूरा करने की ाधीनता हो, िजसका वतमान से स हो,


िजससे िकसी का अिहत न हो, उसको आव क काय कहते ह,
उसको कत कहते ह, उसको धम कहते ह। –संतवाणी 8

16. धम माने संसार के काम आ जाओ। और संसार के काम कैसे आओगे


? इस स को ीकार करो िक मन से, वाणी से और कम से कभी
िकसी को हािन नहीं प ँ चाऊँगा। –संतवाणी 8

17. धम तो उसे कहते ह, जो िनषेधा क हो। जो िव ा क वृि याँ ह, वे


मत, मजहब और स दाय कहलाते ह। ....... जैसे, म िकसी को हािन
नहीं प ँचाऊँगा –यह धम हो गया और िकस–िकस कार से दू सरों को
लाभ प ँ चाऊँगा–यह मजहब हो गया। –संतवाणी 8

18. िजसम सब एकमत हों, वह 'धम' कहलाता है और िजसम भेद हो, वह


'मजहब' कहलाता है । मजहब गत स होता है और धम
सावभौम स होता है । –संतवाणी 8

19. मानव मा का धम िभ नहीं हो सकता। मानव मा का धम एक ही


है। –संतवाणी 8
:: 92 ::
ांितकारी संतवाणी

ान
1. ान से मन इसिलए ऊबता है िक तुम ‘करते हो', 'होता' नहीं ान।
–संतवाणी 3

2. जगत् की ृित को स ा दे कर आप भु का ान करना चाहते ह, जो


सवथा अस व है । दया कर अपने पर और ान का य छोड़ द,
तब ान अपने–आप ही हो जाएगा। इसका अथ उ ा मत लगा लेना।
ान करना छोड़ उसका, िजसम ममता है । –जीवन–पथ

3. ान ा है ? िजसकी ज रत होती है , उसका ान अपने–आप


होता है । –संत–उ ोधन

4. ान िकसका होगा ? िजसकी आव कता आप अनुभव करोगे।


िजसकी ृित जगेगी, उसका ान होगा। ृित उसकी जगेगी,
िजसको आप अपना मानोगे। तो एकदम ान कैसे कर लोगे ? पहले
तो यह दे खो िक िजसका आप ान करना चाहते ह, वह आपका
अपना है या नहीं, वह अभी है या नहीं? –संत–उ ोधन

5. ान िकसी का नहीं करना है । िकसी का ान नहीं करोगे तो


परमा ा का ान हो जाएगा। और िकसी का ान करोगे तो वह िफर
िकसी और का ही ान मा रह जाएगा। –संत–उ ोधन

6. ा वह ान भी कोई ान है , िजससे उ ान हो जाए ? यिद ान म


अन का दशन होता है तो ान के उ ान म िकसका दशन होता है
? ा अन से िभ िकसी और की स ा है ? कदािप नहीं। िजसे हम
ान म दे खते ह, उसी को हम ान से उ ान होने पर भी दे खना है।
तभी ानी का ान अख होगा और उसे सव अपने ीतम का ही
अनुभव होगा। –जीवन–दशन
ाय

7. ान िकया नहीं जाता, ब हो जाता है । –स –समागम 1

8. िजस मन से शरीर आिद व ुओं का ान िनकल जाता है , उस मन म


भगव ान तः होने लगता है । –स –समागम 2

9. आव कता और अपनापन ान का मूल है । आँ ख ब करके बैठना


अथवा अकड़कर बैठना ान का मू ल नहीं है । –स वाणी ( ो र)

भूतकाल की घटनाओं के अथ को अपनाकर वतमान काय को पिव भाव


से, ल पर ि रखते ए कर डालो। आगे–पीछे का थ–िच न करने
से वतमान काय म सफलता न होगी और उसके ए िबना भिव भी
उ ल नहीं रहे गा। अतः वतमान क –कम पूरा करना मानव–मा के
िलए अिनवाय है।

ाय

1. अ ाय का वा िवक ितकार अपने ित ाय और दू सरों के ित


ेम से ही होगा। –साधन–िनिध

2. कभी भी िकसी से ाय तथा ेम की आशा नहीं करनी चािहए, अिपतु


यं अपने ित ाय और दू सरों के ित उदारता तथा ि यता का
वहार करना चािहए। –संतप ावली 2

3. अपने पर िकसी अ ायाधीश की आव कता अपने ित ाय न


करने से होती है । कोई भी ायाधीश अ के ित यथे ाय नहीं
कर सकता अथात् दोष के अनु प ाय नहीं कर पाता। यही कारण
है िक शासन– णाली के ारा समाज म िनद षता की अिभ नहीं
हो पाती । –दशन और नीित
:: 94 ::
ांितकारी संतवाणी

4. यह सभी को मा होगा िक दो यों की भी बनावट सवाश म


एक–सी नहीं है । इस कारण िकसको िकतने द से िकतना दु :ख
होता है , इसका िनणय कोई भी ायाधीश कर नहीं सकता।
–दशन और नीित

5. ेक मानव को अपने ित यं ाय करना होगा। ाय का अथ


िकसी का िवनाश करना नहीं है , अिपतु िकये ए अपराध की पुन:
उ ि ही न हो, यही ाय की सफलता है । –दशन और नीित

6. वह ाय ' ाय' नहीं है , जो अपराधी को िनरपराध बनाने म समथ न


हो। –दशन और नीित

7. माँ–बाप की गोद म ब ों का वा िवक िवकास स व नहीं है; ोंिक


माँ–बाप से ार तो िमलता है ; िक ु ाय नहीं, और नौकरों के ारा
ाय िमलता है , ार नहीं। बालक का यथे िवकास तभी स व है ,
जब उसका पालन ार तथा ायपूवक िकया जाय।
–स –समागम 2

8. संसार से ाय तथा ेम की आशा मत करो; पर ु अपनी ओर से ाय


तथा ेम–यु वहार करते रहो। –स –समागम 2

9. वा िवक ाय िकसी अ के ारा कभी भी स व नहीं है अत:


ेक भाई–बहन को अपने ित अपने ारा ाय करना अिनवाय है ।
–मानवता के मूल िस ा

10. ाय का अथ िकसी को द त करना नहीं है , अिपतु अपराधी यं


अपने अपराध को जान िनरपराधी होने के िलए त र हो जाए। यही
वा िवक ाय है । –मानवता के मूल िस ा
परदोषदशन

11. िजस कार रा का तीक ाय है , उसी कार मत स दाय का


तीक ेम है । िकसी प ित का रा हो उससे ' ाय' की ही आशा की
जाती है जैसे कोई भी स दाय हो, उससे ेम की ही आशा की जाती
है।
ेक काय पिव भाव से भािवत तथा िनज–िववेक के काश से
कािशत हो, तभी काय म सरसता आएगी और क ा करने के राग से
रिहत होगा। अतः ेक काय सावधानीपूवक, पिव भाव से करना
अिनवाय है।

परदोषदशन
1. हम न िबगड़ते तो दु िनया न िबगड़ती यानी दु िनया म बुराई नहीं
दीखती। हमारी ही बुराई दु िनया म िदखाई दे ती है , ऐसा म मानता ँ।
–संतवाणी 3

2. अगर आप यह चाहते ह िक कोई बुरा न रहे तो उसका सुगम उपाय है


िक आप िकसी को बुरा न समझ। –संतवाणी 5

3. सबसे बड़ी सेवा, अपनी और दू सरों की, इसी म है िक हम िकसी को


बुरा न समझ। –संतवाणी 6

4. दु िनया का सबसे बड़ा आदमी वही हो सकता है , जो िकसी को बुरा


नहीं समझता। दु िनया का सबसे बड़ा आदमी वह भी हो सकता है , जो
िकसी से सुख की आशा नहीं करता और अपने दु ःख का कारण िकसी
और को नहीं मानता। –संतवाणी 6

5. िजसको आप जैसा समझगे, जैसा सोचगे, जैसा मानेगे, वैसा वह हो


जाएगा। इससे ा िस आ ? हम िकसी को बुरा न समझ।
–संतवाणी 5
:: 96 ::
ांितकारी संतवाणी

6. जो िकसी को बुरा समझता है , वह उससे ादा बुरा है , जो बुराई


करता है । – ेरणा पथ

7. मेरा यह िव ास है और अनुभव है िक आँ खों दे खी बुराई के िवषय म


भी कोई सही अथ म िनणय नहीं कर सकता िक उसम बुराई
का अंश िकतना है । – ेरणा पथ

8. कभी–कभी तो जैसा हम िदखाई दे ता है , वा िवकता उसके िवपरीत


होती है। अत: यह हो जाता है िक दे खने तथा सुनने मा से ही
िकसी को दोषी मान लेना ायसंगत नहीं है । –मानव की माँग

9. बुराई करना छोटी बुराई है , दू सरों का बुरा चाहना उससे बड़ी बुराई है
और िकसी को बुरा समझना सबसे बड़ी बुराई है । –साधन–ि वेणी

10. दू सरों को बुरा समझने से अपने म बुराई उ हो जाती है ।


–साधन–िनिध

11. अिधकतर तो सुनकर अथवा अनुमान मा से ही दू सरों को बुरा समझ


िलया जाता है । इतना ही नहीं, इ य– ि से िकसी की वा िवकता
का बोध ही नहीं होता। –साधन–िनिध

12. बुरे–से–बुरे ाणी को भी बुरा मत समझो। –संतप ावली 1

13. िजस समय अपने दोष का दशन हो जाए, समझ लो िक तुम जैसा
िवचारशील कोई नहीं। और िजस समय परदोष–दशन हो जाए, उस
समय समझ लो िक हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं। – ेरणा–पथ

14. िजस ान से हम दू सरों के दोष दे खते ह, उसी ान से हम अपने दोष


दे ख और उनका ाग कर द। बस, यही ान का मतलब है ।
–संतप ावली 2
परदोषदशन

15. अपने म गुणों का भास होना तो अपने िलए अनुपयोगी होना है। कारण
िक गुणों का आ य लेकर अहं भाव– पी अणु पोिषत होता है और
गुणों का भास परदोष–दशन को ज दे ता है , जो िवनाश का मूल है।
–साधन–िनिध

16. भूतकाल के दोषों के आधार पर िकसी को दोषी मानना उसके ित


घोर अ ाय है । इतना ही नहीं, यिद वह यं अपने को दोषी माने, तब
भी उसे यही ेरणा दे ना है िक यिद तुम भूतकाल के दोषों को इस
समय नहीं दोहरा रहे हो, तो िनद ष हो। –पाथेय

17. अपना गुण और पराया दोष दे खने के समान और कोई दोष नहीं है।
–दु ःख का भाव

18. पराये दोष दे ख ाणी अपने दोषों को सहन करता रहता है। इस कारण
परदोष–दशन का बड़ा ही भयंकर प रणाम यह होता है िक दोषदश
िनज दोषों से िथत नहीं होता। –दु ःख का भाव

19. परदोष–दशन करते ए गुणों का अिभमान गल नहीं सकता।


–जीवन–दशन

20. मानव कोिट का कोई भी ऐसा नहीं है , जो ज िस िनद ष हो।


सभी दोषों का मूल एकमा राग है और ज का हेतु भी राग है। इससे
यह िस हो जाता है िक िकसी को ज िस िनद ष मानना
स व नहीं है । िनद षता तो साधनयु जीवन का फल है।
–जीवन–दशन

21. बड़े –से–बड़ा दोषी िनद ष हो सकता है; पर ु परदोषदश का िनद ष


होना अस व नहीं तो किठन अव है । –जीवन–दशन
:: 98 ::
ांितकारी संतवाणी

22. अपने दोष का ान उ ीं को होता है, जो परदोषदशन नहीं


करते। इतना ही नहीं, यिद कोई यं अपना दोष ीकार करे , तब भी
वे यही कहते ह िक तु म वतमान म तो िनद ष ही हो। यिद भूतकाल म
कोई भूल ई है तो उसे अब मत करना। –दशन और नीित

23. दू सरे को बुरा समझना अपने को बुरा बनाने म मु हे तु है।


–दशन और नीित

24. वैरभाव के समान और कोई अपना वैरी नहीं है, िजसकी उ ि दू सरों
को बुरा समझने से होती है । अत: िकसी को बुरा समझना अपना बुरा
करना है। –दशन और नीित

25. महापु षों के दोष नहीं दे खने चािहएँ । पहाड़ का ग ा भी जमीन से


ऊँचा होता है । –स –जीवन–दपण

26. जो िकसी को भी दोषी मानता है , वह यं िनद ष नहीं हो सकता।


अपनी िनद षता सुरि त रखने के िलए सभी म िनद षता का दशन
करना होगा। –दशन और नीित

27. अपने तथा पराए दोष दे खने म एक बड़ा अ र यह है िक पराए दोष


दे खते समय हम दोषों से स जोड़ लेते ह, िजससे काला र म
यं दोषी बन जाते ह। पर अपना दोष दे खते समय हम अपने को
दोषों से असंग कर लेते ह, िजससे त: िनद षता आ जाती है।
–मानवता के मूल िस ा

28. परदोषदशन का ाग िकये िबना िनद षता के सा ा म वेश ही


नहीं हो सकता। –दशन और नीित
परदोषदशन

29. अपने गुण और पराए दोष न दे खने पर ही सेवा तथा ीित की


अिभ होती है । अतः अपने गुण तथा दू सरों के दोष दे खना संघष
का मूल है । –दशन और नीित

30. िकसी को बुरा समझना िकसी भी बुराई से कम बुराई नहीं है , अिपतु


सभी बुराइयों से बड़ी भयं कर बुराई है । िकसी को बुरा न समझने का
अथ यह नहीं है िक आप उसे ा द बना ल। उसका अथ केवल
इतना है िक उसे सवाश म दोषी न माने और उसकी वतमान िनद षता
पर अपनी ि रख। उससे ऐसा वहार कर िक वह यं अपने दोष
को भली भाँ ित जान ले और उसे न दु हराने के िलए वह यं
ढ़तापूवक त र हो जाए। –दशन और नीित

31. जब हम परदोष–दशन न करके अपने ही दोष को दे ख और उसके


िमटाने का उपाय जानकर उसे अपने जीवन म च रताथ कर, तभी हम
अपने नेता, गु तथा शासक हो सकते ह। –मानव की माँ ग

32. िकसी भी की ई, सुनी ई, दे खी ई बुराई के आधार पर अपने को


अथवा दू सरे को सदा के िलए बुरा मान लेने से िच अशु हो जाता
है। बुराई–काल म कता भले ही बुरा हो, पर उससे पूव और उसके
प ात् बुरा नहीं है । िफर भी उसे बुरा मानते रहना उसके ित घोर
अ ाय है । ाकृितक िनयम के अनुसार िकसी म बु राई की थापना
करना उसे बुरा बनाना है और अपने ित बुराई के आने का बीज बोना
है। –िच शु

33. अपने दोष का दशन अपने को िनद ष बनाने म समथ है और परदोष–


दशन अपने को दोषी बनाने म हे तु है । –िच शु
:: 100 ::
ांितकारी संतवाणी

34. सम दोषों की भूिम गुण का अिभमान है । परदोषदशन से उसम िनत


नव वृ होती है और गत दोष के दशन से गुण का अिभमान
गल जाता है । –िच शु

35. मानव म दोष–दशन की ि त: िव मान है, पर मादवश ाणी


उसका उपयोग अपने जीवन पर न करके अ पर करने लगता है ,
िजसका प रणाम बड़ा ही भयंकर एवं दु ःखद िस होता है । पराए दोष
दे खने से सबसे बड़ी हािन यह होती है िक ाणी अपने दोष दे खने से
वंिचत हो जाता है और िम ािभमान म आब हो कर दय म घृणा
उ कर लेता है । –मानवता के मूल िस ा

परमा ा

1. अगर परमा ा के मानने वालों को परमा ा की याद नहीं आती, और


करनी पड़ती है –यह कोई कम दु ःख की बात है ? यह कम आ य की
बात है ? अरे , मरे ए बुजुग की याद आती है आपको, गए ए धन की
याद आती है आपको ! तो परमा ा इतना घिटया हो गया िक उसकी
याद आपको करनी पड़े ? ........ याद नहीं आती है इसिलए िक आप
उसे अपना नहीं मानते। –संतवाणी 5

2. हम परमा ा से कभी अलग ए नहीं, हो सकते नहीं और शरीर से


हमारा िमलन आ नहीं, हो सकता नहीं। –संतवाणी 7

3. जो बलपूवक शासन करे , उसे ई र नहीं कहते । ई र बलपूवक


शासन नहीं करता िकसी पर। – ेरणा–पथ

4. आप ऐसा मत सोिचए िक ई र ऐसा ई र है िक जो उसको मानता है,


उसका तो दु :ख नाश करता है और जो उसको नहीं मानता, उसका
दु ःख नाश नहीं करता है । –जीवन–पथ
परमा ा

5. उनके दे ने का ढं ग िकतना अलौिकक है िक िजसे जो दे ते ह, उसे वह


अपना ही मालूम होता है । ा उनकी उदारता का यह उपयोग िकया
जाए िक हम सुने ए भु म आ था नहीं करगे ? जाना आ तु ारे
काम आया नहीं, सु ने ए म आ था की नहीं और अकेले अपने म ही
स ु रह पाते नहीं। तो ऐसी दशा म जो दु गित होती है , ा िकसी से
िछपी है ? –जीवन–पथ

6. परमा ा को 'अभी' न मानना बड़ी भारी भूल होगी, 'अपना' न मानना


उससे बड़ी भू ल होगी, और 'अपने म न मानना सबसे बड़ी भूल होगी।
–साधन–ि वेणी

7. अगर अपनी चाह को मानते ह तो भु को नहीं मानते, और भु को


मानते ह तो चाह–रिहत होना ही पड़े गा। –जीवन–पथ

8. परमा ा ‘माना' जाता है , 'जाना' नहीं जाता। माना आ वह परमा ा


माना आ नहीं रहता, ा हो जाता है । –संत–उ ोधन

9. यिद आपके पास अपना करके कुछ है तो आप भगवान् को अपना


नहीं कह सकते। –संत–उ ोधन

10. याद रहे, और कुछ भी अपना है और परमा ा भी अपना है –ये दोनों


बात एक साथ नहीं होती। जब तक हम और कुछ भी अपना मानते ह,
तब तक तो मुख से कहते ए भी हमने स े दय से भगवान् को
अपना नहीं माना। यही इसकी पहचान है । –संत–उ ोधन

11. सुने ए म आ ीयता हो सकती है । उस पर िवचार नहीं िकया जा


सकता। –मानव–दशन

12. िज ोंने सगुण कहा, उ ोंने ाकृितक गु ण नहीं वरन् अलौिकक िद


गुणों की बात कही, और िज ोंने िनगुण कहा, उ ोंने भी कृित के
:: 102 ::
ांितकारी संतवाणी

गुणों से अतीत कहा। अपनी–अपनी ि से तो दोनों ने ठीक ही कहा


है। पर ु जो गुणों से अतीत है , उसी म अन गुण हो सकते ह और
िजसम अन गुण हो सकते ह, वही गुणों से अतीत हो सकता है ।
–मानव की माँग

13. तु ारे े मा द सदै व तु ीं म ह, तु दे ख रहे ह। वे कभी भी तु


अपनी आँ ख से ओझल नहीं करते। तुम भी अपनी ि म िकसी और
को ीकार न करो। बस, और कुछ करना शेष नहीं है। –पाथेय

14. सम सृि िजससे िनिमत है , वह सभी का अपना है । उसे अपनी सृि


अ ि य है , कारण िक अपना िनमाण अपने को भाव से ही ि य
होता है । इतना ही नहीं, उसने तो अपना िनमाण अपने म से ही िकया
है। अतः सभी साधक उसे अ ि य ह। –पाथेय

15. सवसमथ साधक का भूतकाल नहीं दे खते। उसकी वतमान वेदना से ही


क िणत हो अपना लेते ह। –साधन–िनिध

16. जब से हमने प रवतनशील संगठन को अपना बनाया है , तब से हम


अप रवतनशील आन घन ेम–पा से दू र हो गए ह। जब हम उनकी
ओर दे खगे, तब दू री का अ हो जाएगा। हम को बस यही करना है
िक एक बार उनकी ओर दे ख। उनकी ओर तब दे ख सकते ह, जब
उनके हो जाएँ । उनके तब हो सकते ह, जब िकसी और के न रह।
–संतप ावली 1

17. भु की मिहमा का कोई पारावार नहीं है । उनके िसखाने के अनेक ढं ग


ह। िजसने िकसी भी कार एक बार भी उ ीकार िकया, उसका
बेड़ा पार आ, ऐसा मेरा िव ास तथा अनुभव है । –संतप ावली 2
परमा ा

18. भु से िभ और कोई न दे खने वाला है और न सुनने वाला। वे ही सभी


को दे ख रहे ह और सभी की सुन रहे ह। यह उनका सहज भाव है ।
–संतप ावली 2

19. परमा ा उसे नहीं कहते, जो िकसी व ु–िवशेष के ारा ा हो


अथवा िकसी यो ता–िवशे ष के ारा ा हो अथवा िकसी साम –
िवशेष के ारा ा हो। परमा ा उसे कहते ह िक िजसकी ा
िव ास से होती है । –संतवाणी 3

20. जो अपने ह ही, भला वे कभी अपने को भूल पाते ह ! उनम भूल की
ग भी नहीं है । िक ु उनके िदये ए सीिमत सौ य को पाकर
साधक ही उ भूलता है । –पाथेय

21. िजसने एक बार भी ारे भु को अपना कहा है , उसका सवतोमुखी


िवकास अिनवाय है । –पाथेय

22. वे अपनी व ु को सदै व दे खते रहते ह। उ ोंने कभी भी तु अपनी


आँ ख से ओझल नहीं िकया। ......... साधक भले ही उ भूल जाए, पर
वे नहीं भूलते। ........ िजसकी जो व ुएँ ह, उसे वह दे खता ही है ,
सँभालता ही है । ........अपनी रचना से ा रचियता अप रिचत होता है ?
कदािप नहीं। –पाथेय

23. सा के स म िजस िकसी ने जो कुछ कहा है, वह अधूरा है;


अथवा यों कहो िक उतना तो है ही, उससे िवल ण भी है । –पाथेय

24. अिवनाशी म आ था तथा उसका बोध न होने पर भी िवनाशी का


आ य ाग कर ेक साधक अिवनाशी से अिभ हो सकता है।
–दु :ख का भाव
:: 104 ::
ांितकारी संतवाणी

25. िजनकी स ा से ही सभी को स ा िमली हो, उ िकसी अ की तो


अपे ा है ही नहीं। तो िफर हम उ ा दे सकते ह ? केवल यही दे
सकते ह िक 'हम सदै व ते रे ह और तुम सदै व मेरे हो' अथात् उनसे
िन स ीकार करना ही उनके अिधकार की र ा है ।
–जीवन–दशन

26. उनकी कृपा का आ य ले कर जो एक बार यह कह दे ता है िक म


तु ारा ँ और तुम मेरे हो', बस, वे सदा के िलए उसके हो जाते ह।
–जीवन–दशन

27. िजसने अपना िनमाण िकया है , वह अपने ही म है और अपना है।


इतना ही नहीं, िनमाता ने अपने म से ही िनमाण िकया है। उसे ीकार
न कर दु :ख–िनवृि मा से स ु हो जाना अपने को अन रस से
वंिचत रखना है । अपने म स ु होना साधन है, सा नहीं ।
–सफलता की कुंजी

28. उपा म भाव ीकार करना परम भू ल है। उपा के नाम,


प की क ना तो केवल शाटहै के िच के समान है । िवचारशील
उपासक नाम– प म भी भाव नहीं दे खते। –स –समागम 1

29. स के िवषय म कथन करना अपने माने ए भाव का प रचय दे ने


के िसवाय कुछ अथ नहीं रखता; ोंिक कथन करने की स ा सीिमत
है और स असीम है । 'असीम' श स का कथन नहीं है, ब
संकेत कर सकता है । –स –समागम ।

30. स के प का कथन नहीं िकया जा सकता, ब उसका यं


अनुभव िकया जा सकता है ; ोिक कथन करने वाले सभी साधन
परमा ा

अपूण ह। अपूण कभी पूण का कथन नहीं कर सकता।


–स –समागम 1

31. िन जीवन अिन जीवन पर शासन नहीं करता, ुत् े म करता है।
शासन वह करता है , जो सीिमत होता है । िन जीवन असीम है।
अथवा यों कहो िक शासन वह करता है , िजसकी स ा िकसी संगठन
से उ होती है । –स –समागम 2

32. ाकृितक िनयम के अनुसार अन श िनर र ेक ाणी को


भावत: अपनी ओर आकृ करती रहती है ; पर ु त ता नहीं
छीनती और न शासन करती है । –स –समागम 2

33. ाकृितक िवधान े म तथा ाय का भ ार है ; अत: वह द नहीं


दे ता; पर ु उसके िसखाने के अनेक ढं ग ह। –स –समागम 2

34. भगवान् का कोई एक िठकाना नहीं है । ऐसा नहीं है िक संसार अलग


हो, त ान अलग हो, भ अलग हो और भगवान् अलग हो। सब
िमलकर जो चीज है , उसी का नाम भगवान् है । –स –समागम 2

35. जो िकसी का नहीं तथा िजसका कोई नहीं, उसके भगवान् : अपने –
आप हो जाते ह; ोंिक वे अनाथ के नाथ ह। –स –समागम 2

36. भगवान् ा ह ? यह सवाल तभी हल हो सकता है, जब भगवान् िमल


जाएँ । वैसे तो भगवान् के िवषय म यह कहना काफी है िक उसके िबना
हम अपूण ह। अपू ण को पू ण की अिभलाषा होती है । इससे यह भली
कार िस हो जाता है िक हमारी जो ाभािवक इ ा है , वही
भगवान् का प है और हमारी जो अ ाभािवक इ ा है , वही
संसार का प है । –स –समागम 2
:: 106 ::
ांितकारी संतवाणी

37. भगवान् के होकर 'भगवान् का प ा है ?' यह ा अथ


रखता है ? गहराई से दे खए, ास ने कभी नहीं पूछा, 'पानी ा है ?'
भूख ने िकसी से नहीं पूछा, 'भोजन ा है ?' पानी पाकर ास तृ हो
गई, भोजन पाकर भूख तृ हो गई। तृ होने पर पानी और ास की
िभ ता तथा भूख और भोजन की िभ ता शेष नहीं रहती।
–स –समागम 2

38. मनु भ होकर ही भगवान् को जान सकता है और एकमा


भगवान् का होकर ही भ हो सकता है । –स –समागम 2

39. ेमपा की आव कता ेमपा से भी अिधक मह की व ु है ;


ोंिक वह सभी इ ाओं को िमटाने, सभी स ों का िव े द करने
एवं सभी प र थितयों से असंग करने म समथ है। –स –समागम 2

40. भगवान् अन ह; सिवशेष भी ह, िनिवशेष भी ह और दोनों से परे भी


ह। यह अलौिककता केवल भगव म ही है िक िजसके िवषय म
कोई सीिमत धारणा िनधा रत नहीं की जा सकती। –स –समागम 2

41. जब हम अपने म शरीर भाव का अिभनय ीकार करते ह, तब हमारे


ारे िव प होकर लीला करते ह। शरीर होकर िकसी भी खलाड़ी
( ाणी) ने िव से िभ कुछ नहीं जाना........ हम शरीर बनकर तो
केवल उनको िव प म ही दे ख सकते ह। –स –समागम 2

42. हम अपने को सीिमत कर अपने ारे को सीिमत भाव म दे खने का


य करते ह। –स –समागम 2

43. ई र मानव की ाधीनता छीनना नहीं चाहता, इसिलए मानव जब तक


यं अपनी ओर से ई र के स ुख नहीं होता, तब तक ई र उसके
पीछे ही रहता है । –स वाणी ( ो र)
परमा ा

44. जीव और ई र. दोनों ही े मी ह। इनम से कोई भी भोगी नहीं है । ....


जीव म जो भोगबु जा त होती है , वह केवल दे ह के स से होती
है, ाभािवक नहीं है । –संत–सौरभ

45. भगवान् का अवतार अपनी रसमयी लीला के ारा भ ों को रस ...


दान करने के िलए और यं उनके ेम का रस लेने के िलए ही होता
है। –संत–सौरभ

46. िजसने हमारा िनमाण िकया है , हम उसम आ था न कर, हम उसे


अपना न मान, तो ा यह बात उस िनमाणकता को पस होगी?
िजसने हमारा िनमाण िकया है , जो सवसमथ है , उसको भी स ता
होती है । कब ? जब हम उसे अपना मानते ह। –संतवाणी 5

परमा ा

1. हम उसको ा करना है िक िजसका हम ाग कर ही नहीं सकते।


–संतवाणी 4

2. संसार परमा ा की ा म बाधक नहीं है , ब सहायक है । उसका


जो हम स ीकार करते ह, वही बाधक है। –संत–उ ोधन

3. जगत् की स ा ीकार करके भगवान् को ा करना चाहते ह ? नहीं


कर सकते। होगा ा ? भगवान् आएँ गे, लेिकन आप कहगे िक मेरी
ी बीमार है , अ ी हो जाए। भगवान् को ा करना चाहते थे िक
थ ी को दे खना चाहते थे ? जरा सोिचए। –संतवाणी 4

4. परमा ा की ा के िलए शरीर की सहायता नहीं चािहए, व ु की


सहायता नहीं चािहए, साम की सहायता नहीं चािहए, यो ता की
सहायता नहीं चािहए। यानी परमा ा को पाने के िलए आपको कोई
:: 108 ::
ांितकारी संतवाणी

साम ी नहीं चािहए तो शरीर का ा अचार डालोगे ? यह परमा ा


की ा म तो काम आएगा नहीं। शरीर के ारा परमा ा के संसार
की सेवा कर दो। –साधन–ि वेणी

5. अगर आप कभी भी यह अनुभव कर, कभी भी मान िक शरीर अलग


हो जाएगा, तो अभी मान लीिजए िक अभी अलग है । और इस बात म
िव ास कर िक कभी भी परमा ा िमल जाएगा, तो अभी मान लीिजए
िक अभी पास है , अभी भी िमला आ है । –संतवाणी 5

6. परमा ा ही ा होता है । और कुछ चीज ा होती नहीं। और चीज


की तो तीित होती है । –संतवाणी 5

7. को की ा होती है , जीव को की ा नहीं होती।


–संतवाणी 3

8. परमा ा से आप तो िमल सकते ह, लेिकन शरीर ारा नहीं िमल


सकते। आप अपने ारा िमल सकते ह। हाँ , शरीर ारा परमा ा की
सृि का काय कर सकते ह। –संतवाणी 7

9. बु का सहारा छोड़ो, शरीर का सहारा छोड़ो, संसार का सहारा छोड़ो


परमा ा से िमलने के िलए। –संतवाणी 7

10. जो परमा ा शरीर के ारा िमलेगा, मन के ारा िमलेगा, बु के .


ारा िमलेगा, वह य के ारा भी िमलेगा; ोंिक शरीर के ारा जो
काम करते हो, वह य के ारा भी होता है सरकार ! पर ु परमा ा
आपको अपने ारा िमलेगा। –संतवाणी 7

11. िमलन की तीन सीिढ़याँ ह –पहली सीढ़ी है समीपता, दू सरी है एकता


और तीसरी है अिभ ता। इसिलए पहली सीढ़ी को 'योग' कहते ह,
दू सरी को ‘बोध' और तीसरी को ' े म' कहते ह। –संतवाणी 7
परमा ा

12. भगवान् ा कोई खेती है िक आज बोएँ गे तो कल उपजेगा और परसों


िमलेगा ? ा भगवान् कोई वृ है , िजसे आज लगाएँ गे तो बारह वष म
फल लगेगा ? भगवान् ऐसी चीज नहीं है । भगवान् तो वतमान म भी
ों–का– ों मौजूद है । –संतवाणी 7

13. रोटी िमलना दु लभ है , पानी पीना दु लभ है , साँस लेना दु लभ है ; लेिकन


भगवान् का िमलना सुलभ है । म दलील और यु के साथ यह कहता
ँ। –संतवाणी 7

14. जो लोग यह सोचते ह िक हम स नहीं िमल सकता, उ यह सोचना


ही उनको स से िवमुख कर दे ता है । – ेरणा पथ

15. चाह–रिहत होने मा से आपको–हमको वही स िमल सकता है , जो


िकसी को भी कभी िमला होगा और िकसी को भी िमले गा। – ेरणा पथ

16. अगर िकसी को परमा ा को पाना हो और संसार से मु होना हो तो


उसे ऐसी बात बताओ िक एक बात म बेड़ा पार हो जाए। कुछ मत
चाहो, कुछ मत करो, अपना करके कुछ मत रखो –इन तीन बातों से
ा होगा िक परमा ा की तो ा हो जाएगी और संसार की िनवृि
हो जाएगी। –साधन–ि वेणी

17. भु अपने म ह, अभी ह और अपने ह – इससे परमा ा िमल जाएगा।


–साधन–ि वेणी

18. यिद भगवान् का दशन नहीं होता है , तो इसम भी एक रह है। यिद


दशन हो जाए, तो हम लोगों की भु के ित ि यता िशिथल हो जाएगी।
–संतप ावली 1

19. अपन के बल पर ही उनको खरीद सकते हो, और िकसी कार


नहीं। –संतप ावली 1
:: 110 ::
ांितकारी संतवाणी

20. राम अपने म, अथवा रामायण म, अथवा राम की अिभलािषणी सीता


म, अथवा अपने भ ों म, अथवा पूण दु ः खयों म िमलते ह। 'पूण दु ःखी'
वह है, िजसे संसार स ता नहीं दे पाता। 'भ ' वह है, जो राम से
िवभ नहीं होता। 'सीता' वही है , जो राम के िबना िकसी कार रह
नहीं सकती। –संतप ावली 1

21. अपन का बल गुणों के बल से िवशेष बल है। भला िजसम अन


गुण हों, उसे सीिमत गुणों से कैसे पा सकते ह ! कदािप नहीं।
–संतप ावली 1

22. िजस ाणी को अपने कत का बल होता है , वह कत की श


समा कर दे ने पर भगव ा कर पाता है । और िजस ाणी को
अपने कत का बल नहीं होता, वह भगव ृ पा से भगव ा कर
लेता है। –संतप ावली 1

23. उनके िमलने का तरीका अपने खो जाने म है । –पाथेय

24. े मा द अपने ह, अपने म ह और अभी ह –यह सद् गु –वा है,


वेदवाणी है । इसम अिवचल आ था अिनवाय है। अपने होने से अपने
को भाव से ि य ह और अपने म होने से उ कहीं बाहर नहीं
खोजना है । अभी होने से भिव के िलए ती ा नहीं करनी है।
–पाथेय

25. और सब कुछ दे खना छोड़ दो, भगवान् दीख जाएँ गे......... सब कुछ
दे खना छोड़ने का अथ आँ ख ब कर लेना नहीं है । इसका अथ है
दे खने म िच न लेना, संसार से पूण असं गता। –स –जीवन–दपण

26. ा तो केवल परमा ा की होती है । जगत् तो िमलकर िबछु ड़ ही


जाता है । –स –जीवन–दपण
परमा ा

27. स का माग इतना तं ग है िक उस पर आप अकेले ही जा सकते ह।


इसिलए इ य, मन, बु आिद के साथ रहने का मोह छोड़ द। इनके
साथ रहकर आप उस तंग रा े पर नहीं चल सकते। अकेले होने पर
माग अपने–आप िदखाई दे गा। –स –समागम 1

28. िजस समय आप अकेले हो जाएं गे, वे िबना बुलाए आएँ गे। यिद उनसे
िमलना चाहते हो तो अकेले हो जाओ। –स –समागम 1

29. जब आप अकेले हो जाएँ गे, तब भगवान् की कृपा से ही भगवान् को


जान लगे। ारे , कोई भी ेमी अपने ेमपा से िकसी के सामने नहीं
िमलता, तो िफर जब तक आप शरीर आिद अनेक स यों को साथ
िलए ए ह, आपका ेमपा आप से कैसे िमल सकता है ? भगवान्
कैसे ह ? यिद यह जानना चाहते हो तो अकेले हो जाओ।
–स –समागम 1

30. सभी से िनराश होने पर ई र का अनुभव होगा; ोंिक ई र से िभ


व ुओं की आशा िसफ िवषयों के िलए की जाती है । यहाँ तक िक
बु आिद भी िवषय– ा ही म समथ होते ह। –स –वाणी 1

31. चेतन का अनुभव होने पर चेतन से िभ िकसी भी स ा की तीित शेष


नहीं रहती। –स –समागम 1

32. कृपया कम यों, ाने यों एवं मन–बु आिद सभी स यों से
कह दो िक अब हम अपने ेम–पा से िमलगे। आप लोगों की कृपा से
िवषयों का यथाथ अनुभव हो गया। अब हम िवषयों से तृ हो चुके ह।
कृपया आप भी आराम कीिजए। –स –समागम 1

33. “करना' भोगों की ा के िलए होता है , ेमपा से िमलने के िलए


नहीं। िजस काल म हम सभी को छु ी दे दगे अथात् अकेले हो जाएँ गे,
:: 112 ::
ांितकारी संतवाणी

उसी काल म हमारे ेमपा हम अव अपना लगे, इसम लेशमा भी


स े ह नहीं है । –स –समागम 1

34. िजसको स ता दे ने के िलए संसार असमथ है अथात् िजसको भोग म


रोग, हष म शोक, संयोग म िवयोग, सुख म दु :ख, घर म वन, जीवन म
मृ ु का अनुभव होता है , वही स का अिधकारी है ।
–स –समागम 1

35. भोग के िलए भिव की आशा आव क है ; ोंिक वह 'कम' से ा


होता है । ेम–पा के िलए भिव की आशा आव क नहीं; ोंिक
वह ' ाग' से ा होता है । –स –समागम 1

36. िकसी को बुलाओ मत; ोंिक जो आपका है, वह आपके िबना रह


नहीं सकता अथात् अपने ेम–पा को िनर र अपने म ही अनुभव
करो......... अपने िसवाय अपने िलए अपने से िभ की आव कता
नहीं है। –स –समागम 1

37. िजस कार नींद की अिधक आव कता बढ़ जाने पर नींद का


अिभलाषी िबना िकसी और की सहायता के यं सो जाता है और यह
नहीं समझ पाता िक िकस काल म सो गया, उसी कार अ
ाकुलता बढ़ जाने पर स का अिभलाषी िबना िकसी और की
सहायता के यं स का अनुभव कर लेता है और यह नहीं जान पाता
िक िकस काल म स का अनुभव हो गया। –स –समागम 2

38. ाकुलता के िबना िकसी कार भी आप अपने अभी को नहीं पा


सकते। –स –समागम 2

39. उनकी तथा संसार की चाह िमटने पर संसार हट जाएगा और 'वे' . आ


जाएँ गे। –स –समागम 2
परमा ा

40. सत् की खोज असत् के ाग म है , असत् के ारा नहीं।


–जीवन–दशन

41. दशन का उतना मह नहीं है , िजतना ेम का मह है। यिद े म न


हो और दशन हो जाए तो दशन का कोई लाभ नहीं होता। हमारे और
परमा ा के बीच जो दू री िमटाने वाली चीज है, वह े म है।
–संतवाणी 8

42. जो सब ओर से िवमुख होकर अपने म ही 'अपने' को पा लेता है , _ उसे


कुछ भी करना शेष नहीं रहता। –संतवाणी 8

43. समािध तक कारणशरीर का तादा रहता है । बोध म जाकर


कारणशरीर की िनवृि होती है , और ेम म जाकर परमा ा की ा
होती है । –संतवाणी 8

44. िजसके मन म शरीर को बनाए रखने की िच है , जो शरीर को ही


अपना प मानता है , वह ई र को ा नहीं कर सकता।
–संत–सौरभ

45. ई र– ा के िलए वन म जाने की ज रत नहीं है । जो घर म आराम


से रहकर भजन नहीं कर सकता, वह वन म क सहकर कैसे कर
सकता है ? वन म रहना तो तप के िलए आव क होता है।
–संत–सौरभ

46. तप और सेवा संसार के िलए करे एवं िव ास, िच न और ेम ई र के


िलए करे । भगवान् की कृपा पर िनभर रहे । भगवान् की कृपा से ही
मनु भगवान् को पा सकता है । –संत–सौरभ

47. परमा ा है तो, पर न जाने कब िमलेगा ? अरे भले आदमी, जब तुम


कहते हो िक वह सदै व है , सव है , सभी का है; तो कब िमले गा िक
:: 114 ::
ांितकारी संतवाणी

अब िमला आ है ? िकतने आ य की बात है ! . इससे बड़ा और कोई


पागलपन हो सकता है ा, यह सोचना िक न जाने परमा ा कब
िमलेगा ? जबिक परमा ा से आप कभी अलग हो सकते नहीं, ह नहीं।
–संतवाणी 7

48. िजसको तुम ा करना चाहते हो, उसकी आव कता अनुभव करो।
उसको बलपूवक पकड़ने की कोिशश मत करो, केवल आव कता
अनुभव करो। –संतवाणी 6

49. पस करते ह कुछ और, और चचा करते ह परमा ा की, इसीिलए


परमा ा िमलता नहीं। इसम कुसूर परमा ा का नहीं है िक ों नहीं
िमलता। यह अपनी ही भूल है ; ोंिक हम उसे पस नहीं करते।
–संतवाणी 5

50. आप सव मािनए, िस वतमान म ही होती है। भिव म कभी िस


नहीं होती। भिव म तो उसकी ा होती है , जो वतमान म नहीं है
अथात् िजसकी उ ि हो। ....... जरा सोिचए, सा तो हो वतमान म,
और साधक यह माने िक हम भिव म िमलेगा ! जरा ान दीिजए,
सा तो है वतमान म, और िमले गा भिव म। –संतवाणी 4

51. न कम खच करने से स िमलता है , और न अिधक खच करने से स


िमलता है । स िमलता है –व ु को अपना न मानने से। –संतवाणी 4

52. आपके और परमा ा के बीच संसार पदा नहीं है, उससे स पदा
है। – संत–उ ोधन

53. अ –से–अ आयु, व ु, यो ता, साम होने पर भी मानव को


वा िवक जीवन से िनराश नहीं होना चािहए। कारण िक वा िवक
प र थित (अनुकूलता– ितकूलता)

जीवन से मानव मा की जातीय तथा प की एकता है।


–मंगलमय िवधान

अ ाभािवक दशा म िकया आ काय उपयोगी िस नहीं होता।


कारण, िक अ ाभािवकता कता को अ – कर दे ती है, िजसके
होने से काय का उ े , काय करने का ढं ग और पिव भाव की
िव ृित हो जाती है। अतः ेक काय का स ादन ाभािवकता म
ही करना अिनवाय है।

प र थित (अनुकूलता– ितकूलता)

1. बु मान् से सबसे बड़ी भूल यह होती है िक वह सोचता है िक इस


समय जो प र थित हमारे सामने है , यिद म यह बदल दू ं गा तो मे रे
उ े की पूित हो जायगी। –संतवाणी 4

2. मानव को भु द नहीं दे ता, िवधान मानव को द नहीं दे ता, तो


िफर ा. दे ता है ? िजस प र थित से आपका िवकास होता है , वही
प र थित आपको दे ता है । – ेरणा पथ

3. यह िदमागी कौतूहल है िक िकसी प र थित–िवशेष की ा से हम


वह हो जाएँ गे, जो हम आज नहीं ह। सरकार, यहीं रहगे, यहीं। अ र
यही होगा िक आप तीन बटा चार न िलखकर पचह र बटा सौ
िल खएगा। –जीवन–पथ

4. प र थित एक कार का ाकृितक ाय है , और ाकृितक ाय


अपने िवकास के िलए होता है, िवनाश के िलए नहीं। –संतवाणी 3

5. साधक के िलए ा उपयोगी है ? ा प र थित का सदु पयोग। ा


बाधक है ? अ ा प र थित का िच न। –संतवाणी 3
:: 116 ::
ांितकारी संतवाणी

6. ा प र थित के सदु पयोग म मानव ाधीन है , पर ु प र थित के


प रवतन म सभी पराधीन ह। –संत–उ ोधन

7. ेक प र थित साधन–साम ी है , जीवन नहीं। –संत–उ ोधन

8. आयी ई प र थित का िवरोध अपनी गत िच का पोषण ह।


–पाथेय

9. ाकृितक िनयमानुसार ेक प र थित मंगलमय है, इसी ुव स के


कारण जो हो रहा है , वही ठीक है । –पाथेय

10. ेक प र थित भाव से ही अपूण तथा अभावयु है। –िच शु

11. ेक प र थित ाकृितक ाय है । ाकृितक ाय म िकसी का


अिहत नहीं है ; ोंिक ाकृितक ाय ोभ तथा ोध से रिहत है ।
–िच शु

12. जो कुछ त: हो रहा है , उसम ाणी का कभी अिहत नहीं है । –


अिहत होता है ा प र थितयों का सदु पयोग न करने से।
–िच शु

13. ितकूल प र थित भोग म भले ही बाधक हो, पर योग म नहीं।


–िच शु

14. िकसी प र थित के कारण कोई वा व म ऊँचा–नीचा नहीं है, ुत्


जो साधक प र थित का सदु पयोग करता है, वही ऊँचा है , और जो
दु पयोग करता है , वही नीचा है । –िच शु

15. ऐसी कोई अनुकूलता है ही नहीं, िजसने ितकूलता को ज न िदया


हो और न ऐसी कोई ितकूलता ही है , िजसम ाणी का िहत न हो।
–िच शु
प र थित (अनुकूलता– ितकूलता)

16. ाकृितक िनयम के अनुसार िजन इ ाओं म वृ होना अिनवाय है,


उनकी वृि के िलए प र थित तः ा होती है , और िजन
इ ाओं की वृि अनाव क है , उनके िलए प र थित ा नहीं
होती। इस रह को न जानने के कारण बेचारा ाणी अ ा
प र थित का िच न करने लगता है । –िच शु

17. अन की अिभ अन से िभ नहीं है । इस ि से भी


प र थित का कोई अपना त अ नहीं िस होता, ुत् वह
िजसकी अिभ है , उसम उसी की स ा है अथवा वही है ।
–िच शु

18. िच की शु भौितक ि से प र थित के सदु पयोग म, अ ा –


ि से प र थितयों के अभाव म और आ क ि से प र थितयों के
ारा ेमा द की पूजा म िनिहत है । –िच शु

19. ाकृितक िनयम के अनु सार अनुकूलता और ितकूलता दोनों ही


कत िन होने के िलए आव क अंग ह ; ोंिक ितकूलता के
िबना व ुओं के प का वा िवक ान नहीं होता और अनुकूलता
के िबना ा व ुओं का उदारतापूवक सदु पयोग नहीं होता।
– िच शु

20. ा प र थित म िहत है , इस बात को वही जान सकता है , जो अन


के मंगलमय िवधान पर िव ास करता है । –िच शु

21. केवल प र थित का दु पयोग करना ही ितकूलता है। प र थित


वा व म ितकूल नहीं होती। –स –समागम 2

22. िजतने आ क होते ह, वे ेक ितकूलता म अपने परम ेमा द


की अनुकूलता का अनुभव करते ह िक अब हमारे ारे ने अपने मन
:: 118 ::
ांितकारी संतवाणी

की बात करना आर कर िदया। अब वे हम ज र अपनाएँ गे।


–स –समागम 2

23. जो प र थित से हार ीकार करता तथा ल से िनराश हो जाता है ,


वह न तो आ क हो सकता है और न शरणागत। –स –समागम 2

24. जब ितकूलताओं म पूण अनुकूलताओं का अनुभव हो और एकरसता


की उ ि हो तो समझना चािहए िक आज से हमारा नाता भगवान् के
साथ प ा हो गया। अगर भगवान् का नाम िलया और नौकरी िमल
गयी तो समझो भगवान् का नाता टू ट गया और नाम लेने की मजदू री
िमल गयी। –स –समागम 2

25. जो मन की अनुकूलता म रमण करता है , वह भगवान् के ेम से वंिचत


हो जाता है , इसम कम–से–कम मुझे स े ह नहीं है। अनुकूलता ने मुझे
भगवान् से िवमुख िकया है और िकसी ने नहीं........... जो ितकूलता को
दय से लगा सकते ह, वे भगवान् के स ुख होते ह, यह भी मेरे दय
की बात है । –स –समागम 2

26. प र थित–प रवतन की अपे ा प र थित का सदु पयोग अिधक मू


की व ु है ; ोंिक प र थित–प रवतन से ाग का अिभमान आता है
और प र थित के सदु पयोग से प र थित से स –िव े द होता है।
ाग का अिभमान राग का मूल है , इसे िवचार शील जानते ह।
–स –समागम 2

27. ेक प र थित प से ितकूल है । हम ितकूलता को


अनुकूलता मान लेते ह। –स –समागम 2

28. य िप ाकृितक िवधान के अनुसार ेक संयोग िबना ही य


िवयोग म िवलीन होता है ; िक ु संयोग की दासता के कारण िवयोग
प र थित (अनुकूलता– ितकूलता)

होने पर भी सं योग ही बना रहता है , जो ाकृितक िवधान का िनरादर


है। –स –समागम 2

29. गहराई से दे खए, ऐसी कोई प र थित नहीं होती, िजससे उ तथा
िन अ प र थित न हो अथात् ेक व ु तथा प र थित म
आब ाणी अपने से उ तथा िन का तः अनुभव करता है । इसी
कारण उ को दे ख दीनता म और िन को दे ख अिभमान म आब
हो जाता है । दीनता का ब न ' ाग' से और अिभमान ब न 'सेवा' से
िमट जाता है अथात् ऐसी कोई िनबलता नहीं जो ाग से, और ऐसा
कोई अिभमान नहीं जो सेवा से िमट न जाता हो। –स –समागम 2

30. ितकूलता ही मनु के जीवन को उ त करने वाली है । िजसके जीवन


म ितकूलता का अनुभव नहीं होता, उसकी उ ित की ओर गित
नहीं होती। यिद ितकूल प र थित पैदा न होती तो शरीर और संसार
से अहं ता–ममता का दू र होना ायः स व ही नहीं था। –संत–सौरभ

31. अनुकूल प र थित म जो सरसता 'उदारता' से आती है , वही सरसता


ितकूल प र थित म ' ाग' से ा होती है । इस ि से अनुकूल या
ितकूल प र थित वतमान को सरस बनाने म हेतु नहीं है, अिपतु
उनका सदु पयोग ही नीरसता िमटाने म समथ है। –िच शु

32. ितकूल प र थित िवकास का ही साधन है, िवनाश का नहीं।


–संत–उ ोधन

33. िन ामता को अपनाते ही ा प र थित का सदु पयोग करने की


तथा अ ा प र थितयों के िच न से रिहत होने की साम त: आ
जाती है । –साधन–िनिध
:: 120 ::
ांितकारी संतवाणी

वृि –िनवृि

1. वृि का सौ य यही है िक िकसी के काम आ जाएँ ; और िनवृि का


सौ य यही है िक अपने म ही अपने ेमपा का अनुभव हो जाए। जो
वृि िकसी के िहत का साधन नहीं होती, वह ाग करने यो है;
और जो िनवृि ेमपा से अभेद नहीं करती, वह िनज व है ।
–संतप ावली 1

2. िजस वृि का प रणाम िनवृि नहीं है , वह वृि दू िषत है, ा है ।


गत सुख की आशा को ले कर जो वृि आर होती है, उसका
प रणाम िनवृि नहीं होता, ुत् वृि के अन म भी वृि की ही
िच शेष रहती है । –दु ःख का भाव

3. वृि वही साथक है , जो िकसी के िलए अिहतकर न हो, अिपतु


सविहतकारी हो। –दु ःख का भाव

4. संक पूवक िजस िनवृि का स ादन िकया जाता है , वह िनवृि होने


पर भी घोर वृि ही है । –दु :ख का भाव

5. सविहतकारी वृि ही वा िवक िनवृि की जननी है ।


–जीवन–दशन

6. सविहतकारी वृि वा व म िकये ए सं ह का ायि है, कोई


िवशेष मह की बात नहीं है ; और िनवृि ाकृितक िवधान है । उसे
अपनी मिहमा मान लेना िम ा अिभमान को ही ज दे ना है , और
कुछ नहीं । –जीवन–दशन

7. वृि के ारा िजस िकसी को जो कुछ िमलता है, वह काला र म


तः िमट जाता है । –िच शु
वृि –िनवृि

8. सविहतकारी वृि अथवा दे हािभमान का ाग वा िवक िनवृि का


साधन है। –िच शु

9. जीवन म दु ःख की मा ा बढ़ जाने पर िनवृि सुगम है और सुख की


मा ा बढ़ जाने पर वृि सु गम है । –स –समागम 2

10. ेक वृि महान् रोग है ; ोंिक वृि के अ म िनबलता ा


होती है । –स –समागम 2

11. जब तक हम अपने िलए अपने से िभ की आव कता का अनुभव


करते ह, तब तक िकसी–न–िकसी कार की वृि बनी ही रहती है
अथात् संयोग की आव कता ही वृि है । –स –समागम 2

12. उस वृि का िनता अ कर दे ना चािहए, जो िकसी अ के – िहत


तथा स ता का साधन न हो। –स –समागम 2

13. यह भली कार समझ लो िक हठपूवक की ई िनवृि वृि का मूल


है, और ेम–पा के नाते अिभनय के प म की ई वृि िनवृि
का मूल है । –स –समागम 2

14. ेक वृि िनवृि के िलए ीकार की जाती है , वृि के िलए नहीं;


ोंिक ेक संयोग का िवयोग परम आव क है ।
–स –समागम 2

15. वही वृि और िनवृि साधन प हो सकती है, जो सुख की आशा से


रिहत है। –साधन–त

16. सवि य वृि संसार का सौ य है; सव वृि यों की िनवृि संसार का


अ है; िनवृि की िनवृि ई रवाद का आर है। –स –समागम 2
:: 122 ::
ांितकारी संतवाणी

ा व ुओं की ममता हम हािन से तथा ा यों की ममता हम


िवयोग के भय से मु नहीं होने दे ती और अ ा व ुओं और यों
की इ ा हम थ–िच न से रिहत नहीं होने दे ती। िवयोग तथा हािन का
भय लोभ तथा मोह म आब करता है और थ–िच न हम अिच नहीं
होने दे ता एवं न साथक–िच न ही उ होने दे ता है ।

ाथना

1. ाथना इसिलए नहीं की जाती िक आप कहगे, तब परमा ा सुनगे।


ाथना का असली प है –अपनी आव कता का ठीक–ठीक
अनुभव करना। –संतवाणी 7

2. ाथना श ों ारा नहीं की जाती। ाथना का मतलब है –अपनी


ज रत की िव ृित न हो। –संतवाणी 7

3. भु की मिहमा ीकार करो, ' ुित' हो गयी। भु से स ीकार


करो, 'उपासना' हो गयी। भु के ेम की आव कता अनुभव करो,
' ाथना' हो गयी। –संत–उ ोधन

4. िजस कार ास का लगना ही पानी का माँ गना है , उसी कार अभाव


की वेदना ही ाथना है । –मानव की माँग

5. ाथना का अथ दीनता तथा पराधीनता नहीं है, ुत् अपनी वा िवक


आव कता की जागृित है । –मानव की माँग

6. ाथना ही िनबल का बल है । ाथ को अव ल की ा होती है ।


–संतप ावली 2

7. यिद मानव–समाज िथत दय से क णासागर को पुकारे तो कृित


का ोभ िमट सकता है और दु ाल सु काल म बदल सकता है। पर
ाथना

इस ओर तो आज ि ही नहीं जाती। जग की सहायता से जग की


सम ाओं का सवाश म समाधान नहीं होता। क णासागर जगदाधार
को पुकारो और उनके ारा िदये ए बल से ि या क सेवा करो।
–संतप ावली 2

8. कृित ोिभत ों होती है ? इस स म मेरा िवचार है िक जब


जन–समाज न करने वाली बात भी करता रहता है , तब दै वी आपि याँ
आती ह। उसकी शा के िलए ाथना और ायि दोनों ही होने
चािहएँ , तभी ापक संकट की सम ा हल हो सकती है । ायि तो
यह है िक सं हीत व ु दु ः खयों के काम आ जाए और िथत दय से
परम कृपालु को पुकारा जाए। –संतप ावली–2

9. ा अपने से अपनी कोई बात िछपी है , जो उनसे कही जाए? –पाथेय

10. जब साधक ल से िनराश नहीं होता और अपने ारा उसे पूरा नहीं
कर पाता, तब त: एक वेदना जा त होती है, जो वा िवक ाथना
का प धारण कर लेती है । वैधािनक ाथना अव पूरी हो जाती है,
यह सवसमथ सवाधार की मिहमा है । –पाथेय

11. 'मेरे नाथ' से सु र श अपनी भाषा म नहीं ह। – ेरणा पथ

12. ाथना करने का अिधकार तब होता है , जब कता अपनी सारी श


समा कर दे ; ोंिक श रहते ए स ी ाथना नहीं होती। ाथना
वा व म दु ःखी दय की आवाज है । ..... जो . ाथ अपनी सारी श
समा कर सवसमथ इ दे व से ाथना करता है , उसकी ाथना
अव सफल होती है । ाथना की नहीं जाती, ब होती है ; ोंिक
जब अिभलाषा िमटा पाते नहीं और उसके पूण करने की श नहीं
:: 124 ::
ांितकारी संतवाणी

होती, तब जो आवाज दय से उ होती है , वही ाथना होती है ।


–स –समागम 1

13. िजस कार माँ को िशशु की सभी आव कताओं का ान है एवं िशशु


के िबना कहे ही माँ वह करती है , जो उसे करना चािहए, उसी कार
आन घन भगवान् हमारे िबना कहे ही वह अव करते ह, जो उ
करना चािहए। पर ु हम उनकी दी ई श का सदु पयोग नहीं
करते और िनबलता िमटाने के िलए बनावटी ाथना करते रहते ह।
–स –समागम 2

14. यह िनयम है िक असमथता की वेदना म सवसमथ की पुकार तः


रहती ही है ।....... िजस असमथता म वेदना नहीं है, वह असमथता
िनज व है अथात् आं िशक साम का सुखभोग है । –साधन–त

15. यिद अपनी ओर से पूरा यास करने पर भी हम सुख के भोग और


उसके आकषण को छोड़ने म अपने–आपको असमथ पाते ह तो सरल
िव ासपूवक दु ःखी दय से सवसमथ भु से ाथना करनी चािहए।
दु :ख अव िमट जाएगा। –स वाणी ( ो र)

16. दाशिनक ि तथा मा ताओं का भेद होने पर भी ाथना सभी की


एक है । कारण िक ाभािवक आव कता सबकी एक और
अ ाभािवक इ ाएँ अनेक ह। –मानवता के मूल िस ा

17. ाथना िथत दय की पु कार तथा िनबल का बल एवं आ क का


जीवन है। –मानवता के मूल िस ा

18. ा श का स य करने पर ही ाथना करने का अिधकार िमलता


है। –मानवता के मूल िस ा
ाथना

19. ाथना असमथ का अ म यास, सफलता का अचूक अ और


आव क साम दान करने वाला महाम है । अथवा यों कहो िक
यह दु ः खयों की वा िवक साधना है । –मानवता के मूल िस ा

20. ाथना के स म जो कुछ कहा जाए, कम है ; ोंिक यह िनराशा


को आशा म, िनबलता को बल म और असफलता को . सफलता म
प रवितत कर ाणी को उसका अभी ा कराने म समथ है।
–मानवता के मूल िस ा

21. भावा क सेवा एकमा ाथना से ही हो सकती है ।


–मानवता के मूल िस ा

22. जो तु ारे स म तुम से भी अिधक जानते ह, ा उनसे भी कुछ


कहना है ? –पाथेय

23. ाथना के ारा मानव े क प र थित म सव ृ सेवा कर सकता


है और ाग तथा ेम को ा कर कृतकृ हो सकता है ।
–मानवता के मूल िस ा

24. मानव ाथ है , यह अनुभविस स है , य िप ा ाथ म भी


मौजूद है और ाथना का पुं ज ही मानव का अ है ।
–मानवता के मूल िस ा

25. ाथना मसा उपाय नहीं है , अिपतु िथत दय की मूक आवाज


है। मूक आवाज िवभु होती है , यह वै ािनक त है ।
–मानवता के मूल िस ा

26. ाथना के अनु प यथाश काय भी करना चािहए। कत िन


ाणी ही वा िवक ाथ हो सकते ह। –मानवता के मूल िस ा
:: 126 ::
ांितकारी संतवाणी

27. 'मेरे नाथ' –इस वा का उ ारण करते ही ऐसा दय म भास होता है


िक हम अनाथ नहीं ह, कोई हमारा अपना है । और जो हमारा अपना
है, वह कैसा है ? वह समथ है और र क है । अब आप सोिचए िक
समथ और र क के होते ए हमारे और आपके जीवन म िच ा और
भय का कोई थान ही नहीं रहता। –संतवाणी 8

मानव मा म ि या, भाव तथा िववेक िव मान है। इस कारण िववेक के


काश से कािशत भाव और पिव भाव से भािवत कम िस दायक है ।
वतमान क –कम को िकए िबना ि या–श का सदु पयोग स व
नहीं है। यह िनयम है िक िमली ई व ु व ु का सदु पयोग न करने से
उसकी आस का नाश नहीं होता। अतः मानव मा को करने के राग
से मु होने के िलए पिव भाव से वतमान काय करना अिनवाय है।

ेम

1. जब तक िमलन म िवयोग न भासे तो ेम कैसा ? और िवयोग म िमलन


न भासे तो ेम कैसा ? –संतवाणी 5

2. पर र म (शरीर के अंगों म) ीित की िकतनी गहरी एकता है िक पैर


म काँ टा लगता है तो आँ ख म आँ सू िनकलते ह। आँ ख म जब चोट
लगती है तो पैर लड़खड़ाता है । इसी कार सम िव के साथ हमारी
ेह की एकता हो। –संतवाणी 6

3. जहाँ हमारा अपनापन हो जाता है , वहाँ ि यता उदय होती है ।


–संतवाणी 7

4. िभ –िभ साधन जब एक म िवलीन हो जाते ह, उसको कहते ह –


साधन–त । तो सम साधन िकस म िवलीन होते ह ? तो मानना
ेम

पड़ता है िक ेम की ा म, ेम की जागृित म। तो ेम आ साधन–


त । –संतवाणी 5

5. जो लोग यह कहते ह िक ' ा बताएँ , उ ोंने तो इतना ार िकया िक


हम मजबूर हो गए', उनसे िनवेदन है िक कोई आदमी आपको मजबूर
करे , ा वह भी कोई ार है ? 'नहीं महाराज, आज तो खा ही लो।
अरे महाराज, खा ही ल', तो यह ार है या शासन है ? ार है या
आस है ? – ेरणा पथ

6. ेम म एक िवल णता है , और वह िवल णता यह है िक उसका


आर कहीं से हो, पर वह िवभु हो जाता है । –जीवन–पथ

7. जो परमा ा को ेम नहीं करता, स ों को ेम नहीं करता, अपने को


ेम नहीं करता; सच पूछो तो वह िकसी को े म नहीं करता।
–संतवाणी 7

8. यह िनिववाद स है िक े म की ा म ही जीवन की पूणता है ।


–संतवाणी 5

9. यिद अपने को अपना ि य नहीं हो सकता, तो ि यता की ा का


और कोई उपाय हो ही नहीं सकता। –संत–उ ोधन

10. ेिमयों की सूची म नाम िलखाने चल और कामना साथ लेकर चल, तो


ा ेम होगा ? अपना मन रखकर ा ेम होता है ? कदािप नहीं।
–संत–उ ोधन

11. कामना–पूित और मो चाहने वाला ाणी ई र– ेमी नहीं हो सकता,


ई र से ेम नहीं कर सकता। –संत–उ ोधन

12. जहाँ अपने ही लाभ का ान है , वहाँ ईमानदारी रह नहीं सकती।


ईमानदारी के िबना ेम का ादु भाव होता ही नहीं। –संत–उ ोधन
:: 128 ::
ांितकारी संतवाणी

13. ेम का उदय होने पर एक ही दो मालू म होते ह। यह नहीं है िक दो


होने पर ेम होगा। –संत–उ ोधन

14. कोई भी िवचारक यह िस नहीं कर सकता िक दो होने पर ेम हो


सकता है । दो म तो ाय हो सकता है , ेम नहीं; ोंिक ेम का उदय
वहाँ होता है , जहाँ एक ही दो मालूम होते हों। –मानव की माँग

15. जीव ु होने के बाद मनु ेम– ा का अिधकारी होता है ।


–संत–उ ोधन

16. िजसके दय म भोग–सु खों का लालच और काम– ोधािद िवकार


मौजूद ह, वह े म की ा तो ा, े म की चचा करने तथा सुनने का
भी अिधकारी नहीं है । वा व म तो िजसके दय म ममता, आस ,
कामना और ाथ की ग भी न हो, वही ेमी हो सकता है।
–संत–उ ोधन

17. अहम् का नाश ए िबना भेद का नाश नहीं होता और उसके ए िबना
अन के ेम की ा नहीं होती। –संत–उ ोधन

18. चाह–रिहत ाणी ही ेम कर सकता है । –मानव की माँग

19. चाह–रिहत ए िबना मानव ि यता का अिधकारी नहीं होता।


–मानव–दशन

20. भु की मिहमा सुनकर जो ई रवादी होते ह, वे कामी ह, ेमी नहीं।


–जीवन–पथ

21. ेमी वह नहीं होते िक भगवान् तो ारे लग और संसार खारा लगे।


उसे ेमी नहीं कहते। –संतवाणी 5
ेम

22. ेमी हम कब होंगे? जब हम यह ीकार कर िक भु अपने ह।


–संतवाणी 7

23. यह ेम का भाव है िक ेम ेमी का सव हर लेता है। इसका अथ


यह नहीं है िक े मी का िवनाश हो जाता है । ेम और ेमी के बीच म
जो दू री थी, वह िमट जाती है अथात् ेमी भी गलकर ेम ही हो जाता
है। –मानव की माँग

24. िजस कार नदी का िनमल जल िकसी ग े म आब होने से िवषैले


कीटाणुओं का घर बन जाता है , उसी कार े म– पी त िकसी व ु
एवं आिद म आब होकर लोभ, मोह आिद का प धारण कर
अनेक िवकार उ करता है । –मानव की माँग

25. आस का अ अभाव ए िबना अनुर के सा ा म वेश


ही नहीं होता। –मानव–दशन

26. िजसके जीवन म े म का ादु भाव हो जाता है, उसके जीवन म भोग,
मो आिद कोई भी कामना शेष नहीं रहती। –मानव की माँ ग

27. बोध म ेम और े म म बोध ओत– ोत ह। –मानव–दशन

28. ीित के समान और कोई अलौिकक महान् त नहीं है।


–मानव–दशन

29. उसकी ा उसकी ि यता म ही िनिहत है , िज ासा म नहीं।


–मानव–दशन

30. ेम ही भगवान् को अ ि य है । वही उनका मानव पर अिधकार


है। –मानव की माँग
:: 130 ::
ांितकारी संतवाणी

31. ि यता ा करने के िलए सेवा और ाग तथा आ थापूवक


आ ीयता अिनवाय है । –मानव–दशन

32. ेम का आर िकसी भी तीक म ों न हो, िक ु ेम भाव से ही


िवभु हो जाता है । अत: िव ेम भी िव से अतीत आ रित एवं भु–
ेम के प म प रणत होता है । कारण िक े म–त को िकसी सीमा
म आब नहीं िकया जा सकता। –मानव–दशन

33. ेम की अ म भट है 'अहम्' और 'मम' को अिपत करना।


–मानव–दशन

34. िजसे भोग और मो भी नहीं भाते, उसी को क णामय अपनी ीित


दान करते ह। –साधन–िनिध

35. जो ि यता सदै व नहीं रहती, वह वा व म ि यता नहीं है, अिपतु –


आस है । –मूक स ंग

36. शरणागत िबना ए शर की अगाध ि यता कैसे िमल सकती है ?


कदािप नहीं। –मूक स ंग

37. जब तक जीिवत शरीर मृतक के समान न मालू म हो, तब तक ेम पैदा


नहीं हो सकता –ऐसा मेरा िव ास है । –संतप ावली 1

38. ेमी के दय म कामना तथा ोध उ नहीं होता, ऐसा मेरा अनुभव


है। –संतप ावली 1

39. िजस कार गंगा का पिव जल, जो आन का हे तु है, ग े म बँ ध जाने


से अनेक िवषैले कीड़ों को उ कर दु :ख का कारण होता है , इसी
कार पिव ेम मलमू –पू ण शरीर म बँ ध जाने से अनेक वासना पी
कीड़ों को उ कर महान् दु ःख का कारण होता है । –संतप ावली 1
ेम

40. जब तक िकसी कार की वासना शेष है , तब तक समझना चािहए िक


ेम उ नहीं आ; ोिक ेम उ होने पर दय आन तथा
समता से भर जाता है और सब ओर अपना आपा ही नजर आता है ।
–संतप ावली 1

41. पिव ेम को शरीर म कैद करने से मोह की उ ि होती है।


–संतप ावली 1

42. बढ़ा आ रोग आरो ता म और बढ़ा आ ेम े मपा म िवलीन . हो


जाता है । –संतप ावली 1

43. ेमी का ान ा है ? –रोना। ेमी का ान ा है ? –अपने–आपको


िमटा दे ना। ेमी की पूजा ा है ? –स ी ाकुलता। ेमी का भोजन
ा है ? –हष और शोक। ेमी िनवास कहाँ करता है ? –जहाँ और
कोई न हो। ेमी का पाठ ा है ? –मौन। –संतप ावली 1

44. अपने ि यतम को अपने से िभ िकसी और म अनुभव मत करो।


–संतप ावली 1

45. ेम प धन अिधक–से–अिधक िछपाकर रखना चािहए। यहाँ तक िक


मन, इ यों आिद को भी पता न चले। नहीं तो ये िनमल ेम को ग ा
कर दगे। –संतप ावली 1

46. े मा द से िभ की अ ीकृित के िलए िववेक अपेि त है और –


े मा द से िन –स ीकार करने के िलए िव ास हेतु है ।
–पाथेय

47. ीित प से िद , िच य तथा अन है । यह िनयम है िक जो


िच य है , वह िवभु है । जो िवभु है , उससे दे श–काल की दू री तथा भेद
रह नहीं सकता। हाँ , एक बात अव है िक ीित ऐसा अलौिकक त
:: 132 ::
ांितकारी संतवाणी

है, जो िवयोग म िमलन और िमलन म िवयोग का भास कराता है। पर


इस रह को वे ही ेमी जानते ह, जो भु और मु की दासता से
मु ह अथात् िज ोंने भोग और मो को ठु करा िदया है और ेम ही
को अपना सव ीकार िकया है । –संतप ावली 2

48. ीित का ि या क प ही सेवा है और ीित का िववेका क प ही


बोध है और ीित का भावा क प ही ीतम को रस दे ना है।
–संतप ावली 2

49. िजसका कुछ नहीं है और िजसे कुछ नहीं चािहए, वही ारे भु को
अपना मान सकता है , और उसी को ेम की ा होती है।
–संतप ावली 2

50. े मा द से िभ की स ा ीकार करने पर ीित म िशिथलता आती


है। ीित को सुरि त रखने के िलए ेमा द से िभ अ का अ
ही ीकार नहीं करना चािहए। तभी ीित सबल तथा थायी हो सकती
है। –पाथेय

51. ीित का उदय तभी होता है , जब अनेक िव ास एक िव ास म, अनेक


स एक स म एवं अनेक िच न एक िच न म िवलीन हो
जाते ह। –पाथेय

52. ीित िकसी कम और अ ास से ा नहीं होती, अिपतु आ ीयता से


ा होती है , जो िव ास से िस है । िजसने एक बार 'मेरे नाथ' कह
िदया, बस, ीित ा हो गयी। –पाथेय

53. ा ीित को शरीर की आव कता है ? कदािप नहीं। –पाथेय


ेम

54. िजसे कुछ नहीं चािहए, उसी को े मा द अपना ेम–त दान


करते ह। िजसे कुछ और चािहए, उसे े म की ा नहीं होती ।
–पाथेय

55. अ ास का मह काय–कुशलता म भले ही हो, पर ु ेम के


सा ा म तो अ ास का वेश ही स व नहीं है ।
–स ंग और साधन

56. िजनके स मा म ही दे हािभमान गल जाता है , उनके ेम की


ा म भला दे हािद की ा अपे ा होगी ? –स ंग और साधन

57. ' ेम' म तो अपने–आपको िमटाना होता है और 'सेवा' के िलए अपना


सब कुछ दे ना होता है । जो अपने–आपको िमटा नहीं सकता, वह े म
नहीं कर सकता और जो अपना सव दे नहीं सकता, वह सेवा नहीं
कर सकता। –जीवन–दशन

58. कम करने की साम और िववेक तो अन की अहैतुकी कृपा से


त: ा ह; पर ु ेम– ा के िलए तो हम उस अन के समिपत
होना पड़े गा। –जीवन–दशन

59. जीवन का मु उ े े म– ा है । वह तभी ा होगा, जब हम


उनकी कृपा का आ य ले कर अपने को उ ीं के समिपत कर द। इस
बात के िलए िच त न हों िक हम कैसे ह ? जैसे भी ह, उनके ह। वे
जैसे भी ह, अपने ह। उनकी कृपा यं हम उनसे ेम करने के यो
बना लेगी। –जीवन–दशन

60. ेम के सा ा म े मा द से िभ कुछ आ ही नहीं।


–जीवन–दशन
:: 134 ::
ांितकारी संतवाणी

61. ाग पी भूिम म ही ेम पी वृ उ होता है अथात् ाग का


फल ही ेम है । –जीवन–दशन

62. 'अहं ' और 'मम' का नाश िबना ए े म के सा ा म वेश नहीं हो


सकता। –जीवन–दशन

63. ेम– ा े मा द की अहै तुकी कृपा पर िनभर है और िज ासा की


पूित िज ासा की पूण जागृित पर िनभर है । –जीवन–दशन

64. ेम को थायी तथा सबल बनाने के िलए चाहरिहत होना अिनवाय है ;


ोंिक चाह की उ ि े म को दू िषत करती है। यहाँ तक िक ेम
तभी सुरि त रह सकता है , जब स ित की भी चाह न हो। इतना ही
नहीं, अचाह होने की भी चाह न हो; ोंिक चाह की उ ि िभ ता
उ करती है , जो े म म बाधक है । –जीवन–दशन

65. ेम तभी सुरि त रह सकता है , जब े मी म इस भाव का उदय भी न


हो िक म े मी ँ ; ोंिक े म ेमी को खाकर ही पु होता है।
–जीवन–दशन

66. यह नहीं है िक आपका सा ा है । यह है िक आपकी अपने


सा म ि यता है या नहीं। जीवन म मू ि यता का है ।
–सफलता की कुंजी

67. िजसे अपने िलए िकसी भी व ु, आिद की अपे ा है , उसका


ेम के सा ा म वेश ही नहीं हो पाता। –दशन और नीित

68. ेम वही कर सकता है , जो काम से रिहत हो। िजसकी स ता दू सरों


पर िनभर है , वह ेम नहीं कर सकता। –िच शु

69. िजसे िकसी भी व ु, अव था आिद की आव कता है , उसे ीित ा


नहीं होती। –िच शु
ेम

70. ेम एक ऐसा अलौिकक त है , िजसकी िनवृि , ित या पूित स व


नहीं। िनवृि कामनाओं की और पूित िज ासा की होती है । ेम की तो
ा ही होती है , पूित या िनवृि नहीं। इस ि से े म ेमा द की
ही अिभ है, और कुछ नहीं। –िच शु

71. ेम म िनद षता और िनद षता म ेम ओत ोत है अथात् ेम और


िनद षता म िवभाजन नहीं हो सकता। –िच शु

72. अपने को ेमी मानकर े मा द को रस दान करना साधन और


े मा द से कुछ भी माँ गना असाधन है । –िच शु 2

73. ेम ित, पूित तथा िनवृि से रिहत है । िनवृि 'काम' की होती है , ेम


की नहीं। पूित 'िज ासा' की होती है , ेम की नहीं। ित 'सुखभोग' की
होती है , े म की नहीं। े म की तो उ रो र वृ ही होती है ।
–िच शु

74. कामनाओं की िनवृि और िज ासा की पूित होने पर ही ेम की ा


होती है । –िच शु

75. चाहरिहत ए िबना ीित का उदय होता ही नहीं। इस ि से ीित की


भूिम ब न से रिहत है अथवा यों कहो िक मु ही ीित का उ म–
थान है। –िच शु

76. ीित म ही सम साधनों की समा है । ीित के िबना कभी िकसी


को रस की उपल हो ही नहीं सकती। उसके िबना . ख ता, ोभ,
ोध, राग आिद िवकारों का अ हो ही नहीं सकता। –िच शु

77. ीित एक म दो और दो म एक का दशन कराती है अथवा यों कहो िक


एक और दो की गणना से िवल ण है । उसम भेद और िभ ता की तो
ग ही नहीं है । –िच शु
:: 136 ::
ांितकारी संतवाणी

78. ीित ऐसी िनमल धारा है िक वह िकसी म आब नहीं रहती, अिपतु


सभी को पार करती ई अन म ही समािहत हो जाती है ।
–िच शु

79. (1) यह (संसार) जो कुछ है , वह उनका है अथात् े म पा का है–यह


ेम की थम अव था है । (2) यह जो कुछ है , वह उनका ही प है
–यह े म की ि तीय अव था है । इस अव था म सृि िमटकर ेमपा
का प तीत होता है अथात् संसार का भाव िमट जाता है। (3) ेम
की जो तीसरी अ म अव था है , वह िकसी कार कही नहीं जा
सकती। िसफ यह सं केत िकया जा सकता है िक ेमपा के िसवाय
और कुछ कभी आ ही नहीं। –स –समागम 1

80. जो अपने ेम–पा को अपने म अनुभव करते ह, उनको िवयोग का


दु :ख उठाना नहीं पड़ता। अपने से िभ िकतना ही समीप ों न
दे खए, िफर भी िवयोग अव होगा। अत: े म–पा को अपने म
अनुभव करने से उनसे थायी संग हो जाता है । ेमपा को अपने से
िभ म वही दे खते ह, जो िवषयों की स ा का ाग नहीं कर सकते ।
इसी कारण िवषयी ेम–पा की खोज करने के िलए संसार म भटकता
है। –स –समागम 1

81. यह भली कार समझ लो िक ेम िकसी से नहीं होता।


यों से तो राग– े ष ही हो सकता है , और ाग भी िकसी –
िवशेष का नहीं होता। ' ाग' कुल संसार का और ' े म' जो संसारातीत
है, उससे होता है , अथवा ' ाग' शरीर का और ' ेम' जो शरीर से परे
है, उससे होता है । –स –समागम।

82. एक काल म, एक दय म दो त स ाएँ नहीं ठहर सकतीं। ेम–


पा के आते ही ेमी की स ा का अ हो जाता है । े मी के रहते ए
ेम

ेमपा आ नहीं पाता। िसफ माने ए नाते के आधार पर दय कभी–


कभी भावावेश से भर जाता है , जो वा व म ेम नहीं कहा जा सकता।
–स –समागम 1

83. अिभलाषी यं अिभलाषा को अपने प म अनुभव करता है, िजस


कार एम०ए० का अिभलाषी एम०ए० होने पर “म एम०ए० हो गया'
ऐसा अनुभव करता है , अथात् ेमी ीतम को अपने म िभ नहीं पाता।
ारे , ीतम जब िच के प म होता है, तब े मी कहलाता है।
िच के पूण होने पर े मी ' ीतम' हो जाता है । ेमी और ीतम के
समान ही 'अपूण' तथा 'पूण' को समझो।. पूण की अिभलाषा ही
अपूणता है । –स –समागम 1

84. गहराई से दे खो, अपने समान और कोई ि य नहीं। उस अ ि य


अपने म ही अपने ेम–पा का अनुभव करना स ा स है । ि या
तथा भाव ारा िकया आ स केवल ापार है, अथवा यों कहो
िक मानी ई अहं ता के जीिवत रखने का उपाय है। –स –समागम 1

85. जो ाणी अपने से िभ म अपने ेम–पा को दे खते ह, उनका ेम–पा


से योग नहीं होता, ब सं योग होता है । –संत–समागम 1

86. ेम–पा आने के िलए ती ा कर रहे ह; ोंिक वे केवल थान न


िमलने के कारण नहीं आ पाते। ारे , ेमी से अिधक ेम–पा को ेमी
की आव कता है ; ोंिक ेमी के िसवाय और कहीं संसार म ेम–
पा को थान नहीं िमलता। –स –समागम 1

87. य िप ेक ाणी म ार उप थत है , पर ु ीकृित मा को स ा


मान लेने से ार–जैसा अलौिकक त भी सीिमत हो जाता है। सीिमत
ार संहार का काम करता है , जो ार के िनता िवपरीत ह; जैसे
:: 138 ::
ांितकारी संतवाणी

दे श के ार ने दे शों पर, स दाय के ार ने अ स दायों पर, जाित


के ार ने अ जाितयों पर अ ाचार िकया है । –स –समागम 2

88. यिद ेम पा के े म को चाहते हो तो सब कार से उनके हो जाओ।


ऐसा करने पर िभ –िभ कार के साधनों की खोज नहीं करनी
पड़े गी। –स –समागम 2

89. ेमी तथा ेम पा के िमलने के िलए िकसी तीसरे की सहायता की


आव कता नहीं होती अथात् ेमी त तापूवक ेम–पा से िमल
सकता है । –स –समागम 2

90. अपन साधन है और े म सा है । े मी अपन के बल से ेम–पा


को पाता है । –स –समागम 2

91. ाग तथा ेम –ये दोनों ही एक व ु ह..... बेचारा कामनायु ाणी


ाग तथा ेम का आ ादन नहीं कर पाता। –स –समागम 2

92. ेम अपने से होता है , िभ से नहीं। गहराई से दे खो, िजसका िकसी


कार भी ाग हो सकता है , उससे े म नहीं हो सकता। ीित उसी से
होती है , िजसका ाग नहीं हो सकता। –स –समागम 2

93. मोह ारा माने ए सभी स ों का िव े द होने पर सवसमथ ेम


पा से अपन त: हो जाता है । अपन होते ही ीित की गंगा
लहराने लगती है । –स –समागम 2

94. कामनायु ािणयों से े म की आशा परम भूल है । –स –समागम 2

95. ेमी तथा े मपा के बीच म केवल िच न ही कावट है , जो दोनों को


िमलने नहीं दे ता। –स –समागम 2
ेम

96. िजस कार नदी का शु जल िकसी ग े म आब होकर अने क


िवकार उ करता है , उसी कार ेह िकसी शरीर, व ु या अव था
म आब होकर मोहयु अनेक िवकार उ करता है ।
–स –समागम 2

97. भगवत्– ेम का मह है , भगवत्–दशन का कोई मह नहीं। भगवान्


रोज िदख और ारे न लग तो तु ारा िवकास नहीं होगा। भगवत्–
िव ास, भगवत्–स और भगवत्– ेम का मह है ।
–स वाणी ( ो र)

98. कामी कािमनी को ेम नहीं करता। वे एक–दू सरे को न करते ह, खा


जाते ह। –स वाणी ( ो र)

99. एकमा भु को अपना मानना और कुछ नहीं चाहना –यही े म ा


करने का उ म साधन है । –स वाणी ( ो र)

100. ेम म ेम का ही आदान– दान है ; कारण िक े म के बदले म ेम ही


हो सकता है , कुछ और नहीं। –मानवता के मूल िस ा

101. ेम की ा म जीवन की पूणता िनिहत है , जो आ कवाद की


पराका ा है । –मानवता के मूल िस ा

102. ि यता िन ामता के िबना िवभु नहीं होती। सीिमत ि यता आस यों
की जननी है और असीम ि यता म ही े म का ादु भाव होता है , जो
वा िवक जीवन है । –मानवता के मूल िस ा

103. ेम जो होता है , इस बात पर नहीं होता है िक वह कैसा है , ुत् इस


बात पर होता है िक वह अपना है । वह कैसा है –इस बात की ज रत
तब होती है , तब उससे हम कुछ लेना हो। यानी, अपने सुख के िलए
:: 140 ::
ांितकारी संतवाणी

आदमी सोचता है िक अमु क व ु कैसी है , अमुक कैसा है।


–संतवाणी 8

104. िजसे कुछ नहीं चािहए और िजसके पास अपना करके कुछ नहीं है,
वही ेम दे सकता है । और िजसके पास सब कुछ है , वही केवल ेम
से स हो सकता है । इस ि से दे खा जाए तो आपके ेम का पा
कौन होगा ? िजसके पास सब कुछ हो और िजसे कुछ नहीं चािहए।
और ेम दे कौन सकता है ? िजसके पास कुछ न हो और िजसे कुछ
नहीं चािहए। ....... तो ेम दे ने के िलए दो बात ज री हो गयीं –मेरे
पास मेरा करके कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चािहए। और तीसरी
बात –िजसको ेम दे ना है , वही मेरा अपना है, और कोई मेरा अपना
नहीं है। –संतवाणी 8

105. जो सचमुच िन वतमान है , वह परमा ा अपने को और जो सदा–


सवदा नहीं है , उस (संसार) को भी कािशत करता है । पर परमा ा
की ीित, जो वा व म नहीं है , उस (संसार) की िनवृि म और जो है ,
उस (परमा ा) की ा म समथ है । इसिलए भगवत्– ीित का
मह भगवान् से अिधक है । –संत–सौरभ

106. भोगी मनु ेम का अिधकारी नहीं होता। वह तो से वा का अिधकारी


है। –संत–सौरभ

107. ेमी का. मन, इ याँ आिद कुछ भी भौितक नहीं रहते; ोंिक
भगवान् यं िजस िच य ेम की धातु से बने ह, उसी से उनका ेमी,
उनका िद धाम और सब कुछ बने ह। –संत–सौरभ

108. बोध के बाद े म होना असंगत नहीं है । इसी म तो स दान घन


पूण लीलामय परमे र के सगुण–साकार प की साथकता है । ेम
ेम

के अित र सगु ण के होने म कोई कारण ही नहीं है ।


–संत–सौरभ

109. ेम िकसी भी कम के अधीन नहीं होता। वह िकसी कार की ि या म


बँधता नहीं िक अमुक कार की ि या या वहार का नाम ही ेम है।
–संत–सौरभ

110. जहाँ ेम कट हो जाता है , वहाँ इ यों के दरवाजे ब हो जाते है।


–संत–सौरभ

111. ेम की कभी पूणता नहीं होती। इस कारण ेमी को हरे क अव था म


ेम की कमी का बोध होता है । –संत–सौरभ

112. िजस पर िव ास होता है , उससे स हो जाता है। िजससे स


होता है , उसी का िच न होता है । और िजसका िच न होता है, उसी
म ेम होता है । भगवान् पर िव ास और ेम ाभािवक होना चािहए,
िकसी कार का जोर डालकर नहीं; ोंिक य सा व ु थायी
नहीं होती। –संत–सौरभ

113. िजस तन से, धन से, बु से आप संसार म भले आदमी कहलाए, उसी


तन–बु आिद से आप परमा ा के ेमी हो जाएँ , यह स व नहीं है ।
–संत–सौरभ

114. जब तक ाणी का शरीर और संसार से स नहीं छूटता, जब तक


वह शरीर को 'म' और संसार को अपना मानता है, तब तक गोपी– े म
की बात समझ म नहीं आती। –संत–सौरभ

115. जब तक थूल, सू या कारण िकसी भी शरीर म अहं भाव है, तब तक


मनु को गोपी–भाव ा नहीं होता; अतः वह गोपी– ेम का
अिधकारी नहीं है । –संत–सौरभ
:: 142 ::
ांितकारी संतवाणी

116. गोपी–भाव ा करने के िलए व ु के संयोग और ि याज सुख की


तो कौन कहे , िच न तक के सुख का भी ाग करना पड़ता है।
–संत–सौरभ

117. जब तक दे हभाव रहता है , म पु ष ँ , म ी ँ –ऐसा भाव होता है,


तब तक गोपी–च र सुनने और समझने का अिधकार ा नहीं
होता। िफर गोपी– े म ा है –यह तो कोई समझ ही कैसे सकता है ?
–संत–सौरभ

118. ज म वेश हो जाने के बाद भी गोपी–भाव की ा ब त दू र की


बात है । दा भाव, स भाव और वा भाव के बाद कहीं गोपीभाव
की उपल होती है । िफर साधारण मनु उस गोपी– ेम की बात
कैसे समझ सकते ह और कैसे कह सकते ह ? –संत–सौरभ

119. िजसम िजतनी चतुराई–चालाकी होती है , उतना ही वह ेम के रा से


दू र रहता है और िजसम िजतना भोलापन होता है , उतना ही वह ेम के
सा ा म वेश पाता है । –संतवाणी 6

120. आप अपने िनकटवत ि यजनों से पूिछए िक आप हमको ब त ारे


लगते ह, लेिकन हमारे पास जो व ु है , वह हम आपको नहीं दे सकते,
तो आपको तुर उ र िमलेगा िक आप का ार भाड़ म जाए.......
केवल ि यता मा से रीझने म भु ही समथ ह....संसार भर की आप
खोज कीिजए, एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं िमलेगा जो आपको
यह कहे िक हम आपको अपना मानते ह, इतने मा से आप स हो
जाइए। –जीवन–पथ

121. ेम के सा ा म कोई भी ेमी अपने पास अपनी करके कोई व ु


नहीं रख सकता। –संतवाणी 5
ेम

122. ेम कोई अ ास नहीं है , कोई अनु ान नहीं है , कोई म–सा योग


नहीं है , अिपतु मानव मा म भाव से मौजूद है । पर ु उसका बोध
कब होता है ? जब मानव आ था– ािव ासपूवक सुने ए भु को
अपना मान लेता है । –संतवाणी 5

123. आप अपने सुख के िलए कुछ आशा रखते ह, तब सोचते ह िक वे ( भु)


कैसे ह। यिद आप े मी ह, तो कहाँ यह आता है िक वे कैसे ह !
और कहाँ यह आता है िक वे कहाँ ह ! कहाँ यह आता है िक वे
ा करते ह ! चाहे जैसे हों, चाहे जहाँ हों, चाहे कुछ कर, अपने ह और
ि य ह। यह है े म की दी ा। –संतवाणी 5

124. अगर िकसी के ित भी तु ारे दय म े म की कमी होती है या ेम


तुम नहीं दे सकते हो, तो तु म भु से तो े म नहीं कर सकते।
–संतवाणी 4

125. ेमी के दय म जब ीित की वृ होती है तो उसकी ेक वृि म


ीित आ जाती है । ीित कोई ऐसी चीज नहीं है िक आप जब सब
काम–ध ा छोड़ दगे, तब े म करगे । –संतवाणी 3

126. यिद िकसी को अपने ि य की भूख है िक हमारा कोई ि य हो, तो


इसका अथ है िक उसको िसवाय परमा ा के और कोई नहीं िमलेगा।
जो सभी का ि य हो, ऐसा परमा ा ही हो सकता है । –संतवाणी 3

127. जो मनु भगवान् को छोड़कर कुछ भी चाहता है तथा भगवान् का


भजन करके भगवान् से कुछ भी माँ गता है , वह भगवान् के ेम का
पा नहीं होता, यानी उसको भगवान् का ेम नहीं िमलता है। उसका
क ाण भी नहीं होता। –संत–उ ोधन
:: 144 ::
ांितकारी संतवाणी

128. आ ीयता वही कर सकता है , जो भोग और मो को फुटबाल .


बनाकर ठु करा दे । महँ गी है तो इतनी और स ी है तो इतनी िक धोखे
से, िबना सोचे, िबना समझे एक बार यह कह के चुप हो जाए िक ' भु,
िन े ह तुम सदै व मेरे हो', 'तुम सदै व मेरे हो। –जीवन–पथ

129. अपने म अपने से िभ े मा द की ीकृित ा आव क है ?


अव है । कारण िक मानव ने अपने ही म पराधीनता, जड़ता, अभाव
आिद को ीकार िकया है , जो वा व म भूलजिनत है । भूल अपने म
है, त म नहीं। भूल का अ अभाव तभी हो सकता है, जब अपने
ही म अपने े मा द को अपनाया जाए। अपने म अपने ेमा द की
ीकृित भेद की जननी नहीं है , अिपतु िभ ता की नाशक है।
–मूक स ंग

130. िजस कार दे हािभमान रहते ए भोग की िच ाभािवक है, उसी


कार दे हािभमान गल जाने पर ीित की लालसा ाभािवक है।
–िच शु

131. ेम–पा का संग करके अिच हो जाओ और सवदा अभय रहो।


रण, िच न, ान तथा स नता के आधार पर जीिवत रहना ेम
का अधूरापन है , जो िकसी भी ेमी को शोभा नहीं दे ता। िच न, ान
आिद अथवा 'संग' म बड़ा भेद है । ान आिद से माना आ अहंभाव
दब जाता है और ‘संग' से िमट जाता है ; ोंिक िच न, ान आिद से
कुछ–न–कुछ दू री अव रहती है और 'संग' से िकसी कार की दू री
तथा भेद नहीं रहता। –स –समागम 1

िमली ई साम , यो ता तथा व ु का दु पयोग करना भूल है। अतः मानव


मा को िमले ए का सदु पयोग करना अिनवाय है।
बुराई (परदोषदशन)

बुराई (परदोषदशन)

1. मेरा यह अनुभव है िक यिद हम अपने साथ बुराई न करते, तो सं सार


की साम नहीं िक वह हमारे साथ बुराई कर सके। – ेरणा पथ

2. जब–जब म सोचता ँ , तब–तब म इसी िन ष पर प ँचता ँ िक हे


मानव ! तूने अपने साथ िजतनी बुराई की है , कोई दू सरा तेरे साथ
उतनी बुराई कभी कर ही नहीं सकता। – ेरणा पथ

3. बुराई–रिहत होते ही भलाई अपने–आप होने लगती है ; िक ु उसका


अिभमान नहीं होता। भलाई का अिभमान तो बुराई को ज दे ता है ।
– ेरणा पथ

4. जब तक मानव भूल से अपने को बुरा नहीं बना लेता, तब तक उससे


बुराई नहीं होती। –साधन–िनिध

5. बुराई–रिहत होना स ंग से सा है और भला हो जाना दै वी िवधान


है। भलाई सीखी नहीं जाती, िसखाई नहीं जाती। बुराई–रिहत होने से
भलाई त: अिभ होती है । –संत–उ ोधन

6. अपनी भलाई का भास हो जाने पर भी भलाई ‘भलाई' नहीं रह जाती।


तब सू प से बुराई का ज हो जाता है । –संत–उ ोधन

7. हम िकसी दू सरे के ित कोई भलाई तथा बुराई कर ही नहीं . सकते,


जब तक िक अपने को भला या बुरा न बना ल। –मानव की माँ ग

8. हम िकसी और को कोई हािन प ँ चा ही नहीं सकते, जब तक िक यं


का सवनाश नहीं कर लेते। –मानव की माँग
:: 146 ::
ांितकारी संतवाणी

9. यिद हम अपना क ाण तथा सु र समाज का िनमाण चाहते ह तो


यह अिनवाय हो जाता है िक हम दू सरों म तथा अपने म बुराई की
थापना न कर। –मानव की माँग

10. जो कभी िकसी को िकसी कार की हािन नहीं प ँ चाता, वह


कृित के िवधान से अजातश ु हो जाता है । –संतवाणी 6

11. जब उसके साथ कोई बुराई करता है , तब अपने को िनद ष मानकर


बुराई के बदले म बुराई करने के िलए अपने को बुरा बनाता है। पर
उसे इस बात का यं पता नहीं रहता िक बुराई का ितकार करने के
िलए म यं बुरा हो गया। –साधन–िनिध

12. बुराई का िच न बुराई से अिधक बुरा है ; ोंिक िच न के अनुसार


कता का प बन जाता है । –संतप ावली 1

13. ेक बुराई का उ र भलाई से दो अथवा सहन करो और मौन हो


जाओ; ोंिक बुराई का उ र बुराई से दे ना पशुता है। –संतप ावली 1

14. बुराई को बुराई जानकर न करना और भलाई को भलाई जानकर


करना साधन है । पर ु िकसी भी लोभन से े रत होकर की ई
भलाई और िकसी भय से भयभीत होकर ागी ई बुराई वा व म
साधन के प म असाधन है । –स ंग और साधन

15. जो िकसी के साथ बुराई नहीं करता, उसका भला अपने–आप हो जाता
है। –दशन और नीित

16. ाकृितक िनयमानुसार िकसी को भला बनाने का उपाय है –उसके


ित भलाई करना, उसे बु रा न समझना, उसका बुरा न चाहना और
उसके ित िकसी कार की भी बुराई न करना।
–मानवता के मूल िस ा
बुराई (परदोषदशन)

17. यह िनयम है िक जो अपने को धोखा नहीं दे ता, वह दू सरों को धोखा दे


ही नहीं सकता अथात् जो बुराई ाणी अपने ित करता है , वही दू सरों
के ित भी करता है । इतना ही नहीं, हम अपने ित कोई बुराई न कर
तो दू सरों की की ई बुराई का भाव हम पर हो ही नहीं सकता।
–िच शु

18. ाकृितक िनयम के अनुसार कोई िकसी के साथ भलाई तथा बुराई करे
तो उसका भाव सारे िव के साथ हो जाता है । इतना ही नहीं, ेक
वृि का भाव अ खल लोक–लोका र तक प ँ चता है ; ोंिक सब
कुछ िकसी एक से ही स ा पाकर एक म ही थत है अथात् सब का
काशक एक ही है , जो अन है । ाणी जो कछ करता है . वह उसी
के ित होता है और उसकी िति या भी उसी से होती है।
–िच शु

19. अपने ित होने वाली बुराई का ान यह िस करता है िक


बुराई को बुराई जानता है । –िच शु

20. बुराई का ाग होने पर अ ाई उ होती है । अ ाई िकसी से


सीखी नहीं जाती। –स –समागम 1

21. बड़ी–से–बड़ी अ ाई अिभमान आने पर बुराई म बदल जाती है ।


–स –समागम 2

22. जानी ई बुराई छोड़ दो तो तु सब कुछ िमलेगा –शा , मु ,


भ । –स वाणी ( ो र)

23. बुराई करने के िलए हम अपने को यं बुरा बनाना पड़े गा। िकसी के
ारा की ई बुराई से हमारी उतनी ित नहीं हो सकती, िजतनी यं
को बुरा बनाने से होती है । –मानवता के मूल िस ा
:: 148 ::
ांितकारी संतवाणी

24. अ ाई जो है , वह दै वी है , वह मनु कृत नहीं है , बुराई मनु की भूल


से होती है । –संतवाणी 8

25. बुरा कहलाने का भय और स न कहलाने का लोभन जब तक


रहेगा, तब तक िच शु नहीं हो सकता। यिद बुराई हो तो उसका
ाग करना है । हम कोई बु रा न समझे –इससे हम भले हो नहीं जाते।
भले तो बुराई के ाग से ही हो सकते ह। –िच शु

26. सबसे बड़ा आदमी, िजसको सुपरमैन, अितमानव कह, कौन है ?


िजसके जीवन म िकसी कार की बुराई नहीं है, वह सबसे बड़ा
आदमी है । िकसके जीवन म बुराई नहीं होती? जो सचमुच कभी िकसी
से कुछ नहीं चाहता। –संतवाणी 7

1. भ वह है , जो केवल भगवान् को ही अपना मानता है। भगवान् िमल


न िमल, उनकी इ ा। उनसे कुछ लेना नहीं है । केवल भगवान् को
अपना मान लेना ही भगवान् को ि य है । शा , मु से भी बढ़ कर
भ है। –संत–उ ोधन

2. भ वह बनता है , जो जीव ु को ठु करा दे ता है । –संतवाणी 4

3. भ त इसिलए है िक जगत् का आ य उसे नहीं चािहए।


भगवान् से भी उसे कुछ नहीं चािहए। –संत–उ ोधन

4. आ ीयता वही कर सकता है , जो भोग और मो को फुटबाल बनाकर


ठु करा दे । –जीवन–पथ

5. ेम भी िभ से नहीं होता और मु म िभ का अ ही नहीं


रहता। इससे यह हो जाता है िक जहाँ वा िवक मु है, वहीं
पूण भ है । –मानव की माँग

6. िजसम अन सौ य हो, अन ऐ य हो, अन माधुय हो, उसको


रस दे ने के िलए िकसी गुण–िवशेष की अपे ा नहीं होती। केवल इस
बात की अपे ा होती है िक वे हम को ारे लग। और िकसी के ारा
लगने के िलए इसके अित र कोई उपाय नहीं है िक हम उसे अपना
मान। –जीवन–पथ

7. भ और मु का िवभाजन नहीं हो सकता। कारण िक जो मु है,


वही भ हो पाता है और जो भ है , वही संसार से मु है । शरीर
और संसार से मु ए िबना ा कोई केवल भु को अपना मान
सकता है और ा भु का होकर रह सकता है ? कदािप नहीं।
–संत–उ ोधन

8. िस ा तो यह है िक चाहे मु होकर भ हो अथवा भ होकर


मु हो, वा िवक ेमी न तो भोग चाहता है और न मो ।
–मानव की माँ ग

9. भ की ि म भगवान् के िसवा और िकसी की स ा नहीं रहती। वह


सोचता है िक आज हमारे मन की बात नहीं ई तो इसका अथ है िक
वह भगवान् के मन की ई। –स –समागम 2

10. िजसको भगवान् का होकर रहना है, उसके िलए भ होना अिनवाय
है। यह िनयम है िक जो िजसका भ हो जाता है, उसको उसके िबना
कल नहीं पड़ती। उसम ाभािवक ाकुलता उ हो जाती है।
–स –समागम 2
:: 150 ::
ांितकारी संतवाणी

11. भ तथा िज ासु वण–आ म म होते ए भी वा व म . वण–आ म


से अतीत ही होते ह। –स –समागम 2

12. जब ाणी संसार से िवभ हो जाता है , तब वह भ अपने–आप हो


जाता है । –स –समागम 2

13. भ के दय म जैसी िच िव मान है , उसके अनु प भगवान् का


ाक अपने–आप होगा। भ का केवल यही परम धम है िक वह
स ावपूवक उनका हो जाए। –स –समागम 2

14. अपन का बल सभी बलों से े है । अपन हो जाने पर कुछ भी


करना शेष नहीं रहता। अपन का हो जाना ही भ की ि से परम
पु षाथ है । –स –समागम 2

15. स ा भ वही है , जो केवल अपने े म पा के अित र अ िकसी


की ओर नहीं दे खता; ोंिक भ की ि म सृि नहीं रहती, अथात्
भ के दय म से संसार के सभी स िमट जाते ह।
–स –समागम 2

16. जो साधक सुने ए भु को अथात् िजसे इ य– ि से, बु – ि से


नहीं दे खा है , केवल अिवचल आ था, ा, िव ास के आधार पर
अपना मान िलया है , उसम जो आ ीयता ीकार कर ली है , यह मान
िलया है िक वे अपने ह –इसी का नाम 'भ ' है। –संतवाणी 5

17. िजसको लोग मु कहते ह, वह भ का सहयोगी साधन है ।


–संतवाणी 5

18. भ का अथ यह नहीं है िक भ को भगवान् से कुछ लेना है । िजसे


भगवान् से कुछ लेना है , वह तो भ है ही नहीं। –संतवाणी 5
भय

19. भु को अपना वह मानता है , िजसको भोग और मो नहीं चािहए।


–संतवाणी 5

20. भ होने पर भ आएगी; ोंिक अहं ता के अनु प वृि होती


है। –स –समागम 2

21. भ के जीवन म भय तथा िच ा के िलए कोई थान नहीं है।


–स –समागम 2
ाकृितक िनयमानुसार आव क व ुओं की ा िमली ई व ुओं
के सदु पयोग म िनिहत है । इस ि से कत – परायणता म ही
द र ता का नाश है। िमली ई व ुओं को गत मान लेना अपने
को व ुओं की दासता अथात् लोभ म आब करना है। लोभ की
उ ि होते ही द र ता अपने–आप आ जाती है। पर इस रह को वे
ही िव ानवे ा जानते ह, िज ोंने उस िवधान की खोज की है, िजससे
व ुएँ ा होती ह। अतः यह िनिववाद िस है िक िनल भता के िबना
आिथक त ता स व नहीं है।

भय
1. ाकृितक िनयमानुसार भयभीत उ ीं को होना पड़ता है, जो अपने से
िनबलों को भय दे ते ह। –संत–उ ोधन

2. भयभीत ाणी ही दू सरों को भयभीत करता है । जो अभय हो जाता है,


वह िकसी को भयभीत नहीं करता। –सफलता की कुंजी

3. अनादर का भय जीवन म तभी तक बना रहता है , जब तक हम अपनी


ि म आदर के यो नहीं होते। –मानव की माँग

4. भय तथा िच ा म आब ाणी का िवकास नहीं होता, यह ाकृितक


िवधान है। –मूक स ंग
:: 152 ::
ांितकारी संतवाणी

5. िच त तथा भयभीत होने से साधक की बड़ी ही ित होती है; कारण


िक िच ा और भय से ा साम का ास होता है । –पाथेय

6. मानव भाव से ही अभय होने की आव कता का अनुभव करता है;


िक ु पराधीनता को पस करने से िनभय हो नहीं पाता।
–सफलता की कुंजी

7. िकसी भय से दोष का ऊपर से ाग भले ही हो जाए, दोष–जिनत सुख


का राग नाश नहीं होता। उसी का प रणाम यह होता है िक िकसी को
भय दे कर िनद ष नहीं बनाया जा सकता। कारण िक भय यं ही एक
बड़ा दोष है । –दशन और नीित

8. यह ाकृितक िनयम है िक जो िकसी को भी भय दे ता है अथवा दबाता


है, उसे यं भी भयभीत होना पड़ता है और उसकी िवरोधी श उसे
अव दबाती है ! –िच शु

9. लोभन के रहते ए भय–रिहत होना अस व है ; ोंिक लोभन उस


प र थित से स जोड़ दे ता है , िजसका त अ नहीं है ।
–िच शु

10. सुख की आशा म दु ःख का भय िनिहत है । –िच शु

11. जब यह ीकार कर लेता है िक जो कुछ हो रहा है , वह


मंगलमय िवधान से हो रहा है , तब ेक प र थित म वह िनि
तथा िनभय रहता है । –िच शु

12. संसार का भय उसी समय तक जीिवत रहता है, जब तक अपनी पूित


के िलए संसार की आव कता होती है । –स –समागम 2
भय

13. जो अपने से िनबल को भयभीत नहीं करता, उसे अपने से सबल का


भय कभी नहीं होता; ोंिक ाकृितक िवधान के अनुसार जो
दे ता है , वही पाता है । –स –समागम 2

14. संयोग का रस िवयोग का भय उ करता है । –स –समागम 2

15. दु ःख डरने से दू ना और न डरने से आधा रह जाता है।


–स –समागम 2

16. दे हािभमान म ही सम भय िनिहत ह। –साधन–त

17. ममता छोड़ने से भय का और कामना छोड़ने से द र ता का नाश हो


जाता है । –स वाणी ( ो र)

18. भय तो उसको होता है, जो शरीर और संसार पर िव ास करता – है


एवं िजसके पास कुछ होता है । िजसके पास अपना कुछ भी नहीं होता,
जो सव भगवान् को सौंप चुका है, उसको भय ों होगा ?
–संत–सौरभ

19. जो यह अनुभव करता है िक संसार म मेरा कुछ है, वह कभी भी अभय


नहीं होगा; उसे तो भय लगा ही रहे गा। िजसने यह ीकार कर िलया
िक भु मुझ म ह, मेरे ह, अभी ह, उसको भय नहीं होगा। िजसके पास
कुछ भी नहीं है , उसको भी भय नहीं होगा; ोंिक उसके पास कुछ भी
नहीं है और उसको कुछ चािहए भी नहीं। िजसे कुछ नहीं चािहए, उसे
कहाँ से भय होगा ? –संतवाणी 7

20. अ ायकता िकतना ही सबल हो, उससे भयभीत नहीं होना है। उसके
ाव को ीकार नहीं करना है । यहाँ तक िक स ता और
धीरजपूवक अपने ाणों तक की आ ित दे कर अ ाय की अ ीकृित
का प रचय दे ना है । –दशन और नीित
:: 154 ::
ांितकारी संतवाणी

21. जब जीवन म सुख का लोभन नहीं रहता, तब दु :ख का भय भी नहीं


रहता। –संतवाणी 6

भोजन

1. कुछ महानुभाव िजनसे भोजन बनवाते ह, उनको (नौकर आिद को)


अपने–जैसा भोजन नहीं खला पाते। भोजन बनाने वाले के मन म
भोजन–पान आिद करने का रस ायः बना रहता है ; िक ु उसे िमलता
है नहीं। अत: उस भोजन म मानिसक दोष आ जाता है। ऐसा भोजन
करने से मानिसक अवनित होती है । नौकर से भोजन उनको बनवाना
चािहए, जो अपने समान उसे भी खला सक, नहीं तो अपने घर के ही
लोगों से बनवाना चािहए, िजससे भोजन म मानिसक अपिव ता न आने
पाए। भोजन बनाने के िलए वही उिचत होता है, िजसका दय माता के
समान िवशाल हो। –स –समागम 1

2. जो भोजन का संयम नहीं कर सकता, वह वीय–र ा नहीं कर सकता।


–स –समागम 1

3. चय पालने के िलए अ ाद– त परम अिनवाय है। रसना–इ य


पर िवजय ा करने से वीय–र ा म सुिवधा होती है। वा व म सव
इ यों का चय ही ' चय' है । अनाव क चे ाओं का िनरोध
करने से चय त ाभािवक हो जाता है । –संतप ावली 1

4. िचकर और सुखकर भोजन म केवल इतना अ र है िक िच षटसों


म से िकसी रस–िवशेष की होती है और सुखकर भोजन म व ु–िवशेष
का आ ह होता है । िचकर आहार शरीर की माँ ग है और सुखकर
आहार ाद की आस है । –मानवता के मूल िस ा
मन

5. भोजन वा व म य है , उपभोग नहीं। –मानवता के मूल िस ा

6. भोजन उ ीं लोगों का बनाया आ ा कर होता है, िजनसे कम,


िवचार तथा ेह की एकता हो। –मानवता के मूल िस ा

7. भोजन की उ ि तथा उसके पचाने का स सू य से है । इसी


कारण िदन के दू सरे पहर के भीतर और राि के थम पहर म भोजन
करना िहतकर होता है । –मानवता के मूल िस ा

8. खा पदाथ म कुछ व ुएँ ऐसी हो सकती ह, जो थू लशरीर के िलए


तो उपयोगी हों, िक ु सू शरीर के िलए हािनकर हो...... अत: आहार
का स केवल शरीर के अंगों को –पु करना ही नहीं है , अिपतु
इ य, मन, बु आिद को भी थ रखना है । वह तभी स व होगा,
जब उस आहार का, जो सू शरीर के िलए िहतकर नहीं है , ाग कर
िदया जाए। ोभ, असहनशीलता आिद दोषों का स सू शरीर के
अ थ होने से ही है । –मानवता के मूल िस ा

अपने से व ुओं को अिधक मह दे ना द र ता का आ ान करना है।


यं– काश जीवन पर– का व ुओं के अधीन हो जाए, इससे
बढ़कर असावधानी और कुछ नहीं है। व ुओं की दासता ने ही
आव क व ुओं के अभाव को ज िदया है । अतः व ुओं की
दासता के नाश म ही आव क व ुओं की ा िनिहत है । पर यह
रह वे ही त वे ा जानते ह, िज ोंने व ुओं से अतीत के जीवन म
वेश पाया है।

मन
1. जगत् म जो भु का दशन नहीं कर सकता, उसका मन संसार से कभी
नहीं हट सकता। –संतवाणी 7
:: 156 ::
ांितकारी संतवाणी

2. जब तक हम जगत् म भु का दशन नहीं कर सकते अथवा यों कहो


िक ेक व ु म भु का दशन नहीं कर सकते, तब तक सदा के
िलए मन भगवान् म लग जाए, यह बात कभी भी िस नहीं होती।
–संतवाणी 7

3. मन म कोई खराबी होती ही नहीं है । अपनी खराबी ठीक करो, मन


ठीक हो जाएगा। –संत–उ ोधन

4. अपने को दे ह मानकर कभी भी िकसी का मन संसार से अलग नहीं हो


सकता। –संत–उ ोधन

5. यह तो हमारे म सुख–भोग की जो िच है , उसी का नाम 'मन' रख


िदया है । –संत–उ ोधन

6. जो व ु हमको िचकर होगी, िजसको हम पस करगे, चाहगे, मन


उसी का िच न करे गा। यानी जहाँ हमारी आव कता होगी, मन वहीं
जाएगा। –संत–उ ोधन

7. मन कता नहीं, करण है । गु ण–दोष जो होते ह, वे सब कता म होते ह,


करण तो केवल उनको िदखा दे ता है ।......मन भी एक दपण अथवा
थमामीटर के समान है । वह तो हमारी असिलयत को बताता है।
–संत–उ ोधन

8. यिद मन को भगवान् म लगाना चाहते हो, तो भगवान् के होकर रहो।


भगवान् के िसवाय और कुछ भी पस मत करो, और कुछ भी मत
चाहो। दे खो, िफर मन भगवान् म लगता है या नहीं। –संत–उ ोधन

9. यिद हम सब कुछ को नापस करके केवल भगवान को ही पस


कर ल, और कुछ न चाहकर केवल भगवान् को ही चाहने लग जाएँ , तो
मन

िफर हमारा मन त: भगवान् म लग जाएगा, हटाने से भी नहीं हटे गा।


–संत–उ ोधन

10. यिद िववेकपूवक अपने को दे ह न ीकार िकया जाए, तो मन भाव


से ही िच न–रिहत होकर उस चेतन म िवलीन हो जाता है, िजससे
हमारी जातीय तथा प की एकता है । –संत–उ ोधन

11. ेमी और त दोनों ही बेमन के हो जाते ह; कारण, उनके पास


अपना मन नहीं रहता। –मानव की माँग

12. जब तक लेश मा भी सं सार सुख प, स प और सु र मालूम


होता है , तब तक समझना चािहए िक अभी इस अभागे मन म स की
तलाश नहीं ई। –संतप ावली 1

13. जब तक कोई भी अपने से कम मालू म पड़े , तब तक समझना चािहए


िक मन शु नहीं आ। मन शु होने पर गुणहीन पु ष के ित भी
आदर के भाव होते ह, िजस कार सूय मल–मू को भी अपना काश
दे ता है । –संतप ावली 1

14. अब तु ारा मन तु ारा नहीं है । अत: उसकी ओर कभी न दे खो। न


उसके पीछे दौड़ो और न उसको दबाओ। न उसके संक ों को दे खो।
जब तुम उसकी ओर न दे खोगी, तब वह िववश होकर खुद तु ारे ारे
की ीित बन जाएगा, जो वा व म तु ारी वा िवक स ा है– ीित।
–पाथेय

15. काय की अिधकता से ा पर भाव हो सकता है, पर मानिसक


थित म कोई िवकृित नहीं होनी चािहए। मानिसक िवकृित का मू ल
कारण पराधीनता है अथात् िजसकी स ता िकसी और पर िनभर हो
जाती है , उसी के मन की थित म ोभ उ हो जाते ह, िजससे
:: 158 ::
ांितकारी संतवाणी

मानिसक संतुलन नहीं रहता और िफर म म अनगल ाल


उठते रहते ह। –पाथेय

16. जब तक हम अपना मन अपने ही पास रखना चाहते ह, तब तक राग


तथा ोध आिद दोषों से नहीं बच सकते। कारण िक िजनके ारा
हमारे मन की बात पूरी होगी, उनसे राग हो जाएगा और जो मन की
बात पूरी होने म बाधक होंगे, उन पर ोध आ जाएगा। –जीवन–दशन

17. जब तक हम केवल अपने ही मन की बात पूरी करते रहगे, तब तक


कत िन नहीं हो सकगे। –जीवन–दशन

18. िच की चंचलता तथा मिलनता का बोध िच की एका ता तथा


िनमलता का साधन है ; ोंिक िजस ान से िच के िवकारों का बोध
होता है , उसी ान म िच को िनिवकार बनाने का साम िव मान है ;
ोंिक वह ान िजसकी दे न है , वह सवसमथ है । –िच शु

19. िच म अशु साम के दु पयोग से आती है और शु ाभािवक


है। –िच शु

20. िच प से अशु नहीं है , अिपतु अपनी बनाई ई अशु


को िच की अशु मान लेता है और िफर िच के अधीन नहीं
रहता। उस थित म िच की िन ा करने लगता है और इस
बात को भूल जाता है िक मे रा ही दोष िच म ितिब त हो रहा है ।
–िच शु

21. िच प से अशु नहीं है । कारण िक िच यं कता नहीं है ।


–िच शु
मन

22. जब तक ाणी को िच –जैसी कोई व ु भािसत होती है , तब तक िच


म कोई–न–कोई अशु है । जब िच सवाश म शु हो जाता है , तब
उसका भास नहीं होता। –िच शु

23. साधक असावधानी के कारण यं तो माने ए स ों का ाग नहीं


करता, िजस अन से िन स है , उसको ीकार नहीं करता
और िच से यह आशा और करता है िक वह कहीं न भटके, एक ही म
लगा रहे ! भला इसम िच का ा दोष है ? –िच शु

24. कम य ि याश का भाग है और ाने यइ ाश का भाग


है। मन म ये दोनों भाग एकि त रहते ह। ि याश ाण का भाग है
और इ ाश ान का भाग है । मन इ ाश और ि याश
का समूह है । इसी कारण ाण के िनरोध से मन म थरता और मन के
िनरोध से ाण का िनरोध हो जाता है । ाण और मन म बड़ी ही घिन
एकता है । बु केवल ान का तीक है , इसी कारण बु का िनणय
मन को मा होता है । –िच शु

25. कम याँ और ाने याँ दोनों मन म एक हो जाती ह, इसीिलए मन म


ि या और ान दोनों ही मालूम होते ह। मन म जो ानश है, वह
बु का अंग है और जो ि याश है , वह ाण का अंग है।
–स –समागम 1

26. िजनसे े ष है, उनसे ेम करो। िजनसे राग है, उनका ाग करो। ऐसा
करने से मन शा हो जाएगा। –स –समागम 1

27. भाव तथा िवचार की बलता से मन का िनरोध सुगमतापूवक होता है।


ाणायाम आिद की आव कता भाव की कमी होने पर होती है ।
–स –समागम 1
:: 160 ::
ांितकारी संतवाणी

28. जप से मन का िनरोध नहीं होता, ब मन की सफाई होती है ।


–स –समागम 1

29. ि याज िनरोध िकसी कार की श दे ने वाला अव है, पर


शा दे ने म असमथ है । असंगतापूवक ाभािवक िनरोध श तथा
शा दोनों के िलए समथ है । –स –समागम 1

30. हठयोग तथा राजयोग म केवल यही अ र है िक हठयोग थम ाण


का िनरोध करने का य करता है , तथा राजयोग थम मन का। मन
के िनरोध से ाण का िनरोध अपने–आप हो जाता है और ाण के
िनरोध से मन दब जाता है ।....... मन का िनरोध होने पर िछपी ई
श यों का िवकास होने लगता है । –स –समागम 2

31. जब तक ाणी अपनी स ता के िलए अपने से िभ की खोज करता


है, तब तक मन म थायी थरता नहीं आती। –स –समागम 2

32. अकेला मन वा व म कभी होता नहीं; ोंिक मन का ज ही तब


होता है , जब िकसी–न–िकसी कार की वासना उ हो जाती है।
–स –समागम 2

33. मन म िनमलता आ जाने पर थरता आ जाती है। –स –समागम 2

34. मन दपण की भाँ ित अपनी दशा का यथाथ ान कराता है। अत: उसे
बुरा समझना या उसकी िन ा करना उिचत नहीं है ।
–स वाणी ( ो र)

35. संसार से हटा लेने पर भगवान् म मन अपने–आप लग जायगा।


–स वाणी ( ो र)

36. मनु यं अलग रहकर अपने मन, बु और इ यों को भगवान् म


लगाना चाहता है , भूल यहीं से होती है । –स वाणी ( ो र)
मन

37. भगवान् म आ था, ा, िव ासपूवक आ ीयता करने पर उनम ीित


होगी, तब भु की ृित जगेगी और सहज ही भु म मन लग जाएगा।
–स वाणी ( ो र)

38. जब तक हम संसार की ममता, आस और कामनाओं का ाग नहीं


करगे, तब तक संसार हमारी छाती पर चढ़ा ही रहे गा। हम चाहगे
िच न करना भगवान् का, होगा सं सार का। हाथ म माला व मुख से
नाम लेते रहने पर भी मन संसार म भटकता रहे गा।
–स वाणी ( ो र)

39. मन को जहाँ लगाना चाहते ह, उसे पस कर ल और जहाँ से हटाना


चाहते ह, उसे नापस कर द। मन की चंचलता का भास तभी िमलता
है, जब हम पस तो संसार को करते ह और मन भगवान् म लगाना
चाहते ह। –स वाणी ( ो र)

40. म मन का जैसा प है , वैसा सामने आ जाता है।


–संत–सौरभ

41. संसार के स का जो भाव है , सच पूछो तो उसी का नाम मन है।


मन कोई त पदाथ नहीं है । –संतवाणी

42. वा व म तो भलाई और बुराई क ा म होती है, करण म नहीं होती।


जब करण म नहीं होती, तब मन कता है ही नहीं, वह तो करण है। जब
मन कता है ही नहीं, तब हम और आप िकस ाय से, िकस ईमानदारी
से अपने मन को भला और बुरा बतलाते ह? हम भले होते ह, मन भला
होता है । हम बुरे होते ह, मन बुरा होता है । –संतवाणी

43. यिद परमा ा को तु म अपना मान लो, उनसे स जोड़ लो तो


तु ारा मन त: परमा ा म लग जाएगा। –स –जीवन–दपण
:: 162 ::
ांितकारी संतवाणी

44. ीकृ म यही तो चम ार है िक वे सब के मन को यं खीच


ं ते ह,
यह नहीं िक मन को लगाना पड़े । वे अपने–आप खीच
ं लेते ह; िक ु
कब ? जब उ कोई अपना मान ले, तब। –संतवाणी 3

ममता

1. ममता के नाश से समता की अिभ तः होती है । –जीवन–पथ

2. सेवा करना और अपना न मानना –इससे ममता नाश हो जाती है ।


–साधन–ि वेणी

3. िजस व ु को हम अपना मान ले ते ह, वह दू र हो या समीप, उससे


संयोग िस हो जाता है । –मानव की माँग

4. िकसी को अपना न मानना अथवा सभी को अपना मानना एक ही बात


है। इसी कारण िवचारशील सुखभोग के िलए िकसी को अपना
नहीं मानते, और सेवा करने के िलए सभी को अपना मानते है ।
–मानव की माँ ग

5. शरीर सृि पी सागर की एक बूंद के तु है । जब सागर –गत


नहीं है तो भला उसकी बूंद अपनी कैसे हो सकती है ? अतः शरीर की
ममता भी भूल ही है । –मानव–दशन

6. असत् की ममता के समान और कोई जड़ता नहीं है , और सत् की


िज ासा के तु और कोई सजगता नहीं है । –मानव–दशन

7. जो कभी है , कभी नहीं है , उसका सदु पयोग कर सकते ह, उसकी सेवा


कर सकते ह; िक ु उसको अपना नहीं मान सकते। –मानव–दशन

8. िमली ई व ुओं म ममता करना और दाता को अपना न मानना, यह


कहाँ तक ाययु है ? –मानव–दशन
ममता

9. ममता िमले ए ान के अनादर से उ होती है , ाकृितक दोष नहीं


है। –साधन–िनिध

10. ममता तो साधक को सेवा से िवमुख ही करती है । शरीर की ममता


प रवार के िहत से, प रवार की ममता समाज के िहत से, समाज की
ममता दे श के िहत से, और दे श की ममता िवदे श के िहत से िवमुख
कर दे ती है । –साधन–िनिध

11. ममता िजसम उ होती है और िजसके ित होती है, दोनों ही के


िलए अिहतकर है । –साधन–िनिध

12. यह ाकृितक िनयम है िक जो अपनी नहीं है, वह अपने िलए भी नहीं


है। अपना ही अपने िलए होता है । –साधन–िनिध

13. मेरा कुछ नहीं है , मुझे कुछ नहीं चािहए, यह िनणय मानव को अपने ही
ारा करना है । –मूक स ंग

14. ा व ु आिद की ममता ही अ ा की कामना को ज दे ती है


और कामनायु मानव ही अहं कृित म आब होता है ।
–मूक स ंग

15. सवाश म ममता का नाश होने पर कामना का नाश और कामनाओं के


नाश म ही तादा का नाश िनिहत है । –मूक स ंग

16. िकसी भी व ु को िबगाड़ने का तथा उसको अपना समझने का िकसी


को लेशमा भी अिधकार नहीं है । –संतप ावली 1

17. जब तुम अपने म अपना कुछ न पाओगी, तब सब कुछ त: हो


जाएगा। –पाथेय
:: 164 ::
ांितकारी संतवाणी

18. िजस व ु से अपनी ममता हट जाती है , वह व ु अपने –आप ेमा द


की सेवा के यो बन जाती है ; ोंिक सभी िनबलताएँ तथा
अपिव ताएँ ममता की मिलनता से उ होती ह। –पाथेय

19. शरीर, इ य, मन, बु आिद समि श याँ ह। उनम ममता कर 5


लेना ही उ दू िषत करना है , और उनकी ममता से रिहत हो जाना ही
उनको शु करने का सु गम, सहज तथा अ म उपाय है ।
–संतप ावली 2

20. शा तथा मौन होकर एका म अपने ही ारा यं िनज ान के


काश म अनुभव करो िक िकसी भी काल म मेरा कुछ नहीं ह। सवाश
म ममता का नाश होते ही िन ाम तथा असंग होने की साम त:
आ जाती है । –संतप ावली 2

21. 'मेरा कुछ नहीं है ' –यह ान ‘पर' और ' ' म िवभाजन कर दे ता है ,
िजसके होते ही िच य अिवनाशी जीवन से त: एकता होती है ।
–संतप ावली 2

22. िजस व ु के ित अपनी ममता रहती है , उसम अने क दोष आ जाते


ह। ममता करने यो तो केवल वे ही ह। –पाथेय

23. ाणी अपने को दे ह मान कर ही िकसी शरीर के ित ममता कर बैठता


है, जो वा व म माद है , अन म दे ह और दे ही का िवभाजन नहीं
है। िजसम दे ह–दे ही का िवभाजन नहीं है , उसी म अपनी ममता करनी
है अथात् उसी को अपना मानना है और सवदा उसी की ीित होकर
रहना है। –पाथेय

24. िजनसे हमारी ममता होती है , ा उनका िवकास हो सकता है?


कदािप नहीं। –जीवन–दशन
ममता

25. ममता–रिहत उदारता ही ाग को पोिषत करती है । पर ु ममतायु


उदारता दे ने वाले म अिभमान और लेने वाले म लोभ तथा अिधकार–
लालसा को ज दे ती है । –पाथेय

26. ममता के नाश के िलए ही 'सेवा' की जाती है , और 'अहं' तथा 'मम' का


अ करने के िलए ही ' ाग' अपनाया जाता है । –पाथेय

27. ममता करने मा से शरीर का कोई िहत नहीं होता और ममता के


ाग से कोई अिहत नहीं होता। इतना ही नहीं, ममता िकसी व ु को
सुरि त भी नहीं रख सकती। –जीवन–दशन

28. यिद हमने 'शरीर' को अपना न माना होता तो कभी काम की उ ि न


होती; 'मन' को अपना न माना होता तो कभी अशु संक उ न
होते और 'बु ' को अपना न माना होता तो कभी िववेक का अनादर
न होता। –जीवन–दशन

29. जब तक हम िकसी से ममता नहीं करते, तब तक कामनाओं का ज


ही नहीं होता। दे ह को अपना मानने पर ही कामनाएँ उ होती ह।
–जीवन–दशन

30. िजनसे ममता है , उनके अिधकार की र ा करने से ही उनके ित राग


की िनवृि हो सकती है और अपने अिधकार के ाग से ही उनसे
असंगता हो सकती है । –जीवन–दशन

31. यह िनयम है िक िजससे अपनी ममता न हो और िजसका उपयोग सभी


के िहत म हो, उसको सभी अपना मान लेते ह। अत: जब हमारी दे ह म
ममता न रहे गी और दे ह का उपयोग सभी के िहत म होगा, तब सभी
उस दे ह को अपने दे ह के समान सुरि त रखने का य करगे। उस
:: 166 ::
ांितकारी संतवाणी

समय लेना भी दे ना बन जाएगा। दे ह आिद व ुओं से ममता करके


दे ना भी लेना हो जाता है । –जीवन–दशन

32. व ुओं की ममता अपने को सं ही बनाती है और समाज म द र ता


उ करती है , जो िव व का हे तु है । यों की ममता अपने को
मोही बनाकर आस कर दे ती है और िजनसे ममता की जाती है ,
उनम अिधकार–लालसा जा त करती है । –जीवन–दशन

33. िकसी को भला और बुरा मानकर उसकी ममता िमटाना स व नहीं


है। ममता उसी की िमट सकती है , िजसको भला अथवा बुरा न मान।
िकसी को भला–बुरा समझना उससे स जोड़ना है ।
–दशन और नीित

34. जब तक ाणी अपने को , कुटु , वग, जाित और दे श की


ममता म आब रखता है , तब तक उसका जीवन िव के िलए
उपयोगी िस नहीं होता। –दशन और नीित

35. शरीर की ममता ने िव की आ ीयता का हनन िकया है । उसका बड़ा


ही भयंकर प रणाम यह आ है िक ीित की एकता पर ि नहीं रही।
–दशन और नीित

36. िजस व ु से ममता नहीं रहती, वह अन को समिपत हो जाती है ।


यह िनयम है िक जो व ु अन को समिपत हो जाती है, वह अन
की कृपा–श से त: शु हो जाती है । –िच शु

37. जो अपने ही ह अथवा जो अपने से िभ नहीं ह, उनसे ' ेम' हो सकता


है; और िजनसे मानी ई एकता है अथवा जो अपने से िभ ह, उनकी
'सेवा' की जा सकती है , उनसे ममता नहीं की जा सकती। –िच शु

38. अहंताशू ममता नहीं होती। –स –समागम 2


ममता

39. िजन–िजन व ुओं को आप अपना न समझगी, वे यं पिव होकर


भगवान् की सेवा के यो बन जाएँ गी, यह परम स है ।
–स –समागम 2

40. जब तक तुम लेशमा भी उन सभी स यों को अपना समझोगी,


तब तक उनका सुधार कदािप नहीं हो सकता। –स –समागम 2

41. ममता सुख लेने का एक उपाय भर है । िजससे िजतना अिधक सुख


लोगे, उससे ममता तोड़ना उतना ही किठन होगा।
–स वाणी ( ो र)

42. ममता का ाग करना होगा, िज ासा की पूित िवधान से होगी और


ि यता भु–कृपा से िमले गी। कत न आ ा का है , न ई र का। वह
तो आपका है और उसका मूल म है –ममता का ाग। ममता का
नाश करने पर ही हम दू सरा काय आर करगे। तभी साधन है और
तभी स ंग है । –स वाणी ( ो र)

43. संसार म मेरा कुछ नहीं है –ऐसे िनमम होने से तु ारे ऊपर संसार का
कोई टै नहीं रहे गा। िजसके पास कुछ नहीं, उस पर कोई टै
होता है ा? –संतवाणी 8

44. िजससे जातीय एकता नहीं है , उसकी सेवा की जा सकती, उससे


ममता नहीं की जा सकती। –संतवाणी 7

45. आजकल लोग ा कहते ह ? ममता कैसे छूटे गी, कामना कैसे िमटे गी
? अजी, ममता अगर अपने–आप छूटती, तो होती ही नहीं। ों ? जो
चीज आपने बनायी है , उसको कोई और नहीं िमटा सकता।
–संतवाणी 6
:: 168 ::
ांितकारी संतवाणी

46. सोचने लगते ह िक िकसी पोथी को पढ़गे, तब हमारे जीवन म िनममता


आएगी। िकसी गु के पास जाएँ गे, तब हम िन ाम हो जाएँ गे।........
दू सरे लोग परामश दे सकते ह, इस बात का समथन कर सकते ह। पर
आपकी ममता आपको छोड़नी है , न अपने–आप िमटे गी और न उसे
कोई छु ड़ा पाएगा। –संतवाणी 6

47. वह व ु तो अपने–आप िमटे गी, िजसम ममता है। पर, ममता अपने–
आप नहीं िमटे गी।..... अपनी ीकृित का नाश अपने ही ारा होगा।
–संतवाणी 5

48. िनममता से िन ामता और िन ामता से असं गता तः ा होगी।


–संतवाणी 5

49. अगर िकसी की गाड़ी फँस गयी हो, तो फँस रही है गाड़ी और दु :खी है
वह यं। ों ? यह ममता का भाव है । –संतवाणी 5

50. िजसम हमारी ममता हो जाती है , वह दू िषत हो जाता है । िजसम हमारी


ममता नहीं रहती, वह शु हो जाता है । –संतवाणी 4

51. कोई भी िवचारक, कोई भी समाज–िव ानी इस बात को िस कर ही


नहीं सकता िक कोई भी व ु और िकसी एक का ही है । तो
भाई, पंचायती व ु पर पूरा अिधकार जमाना ा ईमानदारी है ?
–जीवन–पथ

52. िजनसे ममता नहीं है , उनका सुधार दु लार तथा ारपूवक ही स व है,
उपे ा ारा नहीं। िजनसे ममता है, उनका सुधार मोहरिहत होने से
स व है , ुिभत होने से नहीं। अपने िच का सु धार अपने ित घोर
ाय तथा असहयोग से ही स व है , दु लार तथा ार से नहीं।
–िच शु
मानव

53. जो संसार म िकसी भी व ु को अपनी मानता है, वह सबसे


बड़ा बेईमान और जो भगवान् को अपना नहीं मानता वह
महामूख। –स –जीवन–दपण

ाकृितक िनयम के अनुसार िकसी भी मनु के पास गत कोई


व ु नहीं है। कारण, िक जो शरीर ा है, वह भी समि भौितक
पदाथ से िनिमत है । उस िमले ए शरीर के सदु पयोग ारा आव क
व ुओं का उ ादन होता है। कारण, िक शारी रक तथा बौ क म
के सहयोग से ही व ुएँ उ होती ह। यिद उनका सं ह तथा उनसे
ममता न की जाए और उनका दु पयोग भी न िकया जाए, तो मंगलमय
िवधान के अनुसार आव क व ुएँ िमलती ह। अतः द र ता का अ
करने के िलए िमली ई व ुओं का सदु पयोग अिनवाय है।

मानव

1. मानव–जीवन म सबसे बड़ा कलंक यही है िक मानव होकर अपने िलए


िकसी की आव कता अनु भव करे । –संतवाणी 7

2. यिद िन भाव से हम और आप िवचार कर तो मालूम होगा िक


पहले मनु बना और पीछे वेद अवत रत ए।....... वेदों के ादु भाव से
पूव आपके मानव–जीवन का िनमाण आ है । –संतवाणी 7

3. मानव का िनमाण िवधाता ने अपने म से अपनी अहैतुकी कृपा से े रत


होकर िकया है । इस ि से मानव की उससे जातीय एकता, िन
स एवं आ ीयता है । – ेरणा पथ

4. यह मानव–जीवन का कलं क है िक उसकी कोई आव कता हो। यह


मानव–जीवन का भूषण है िक आप िकसी की आव कता हों।
–जीवन–पथ
:: 170 ::
ांितकारी संतवाणी

5. मानव–जीवन साधक का जीवन है । मानव कहो अथवा साधक कहो,


एक ही बात है । –जीवन–पथ

6. मानव ज जात साधक है । –साधन–ि वेणी

7. चाह का ज अिववेक से होता है । इसी का नाम अमानवता है। अत:


अिववेक और अमानवता एक ही बात है । चाह की िनवृि िववेक से
होती है , और उसी का नाम मानवता है । –मानव की माँग

8. आप सच मािनए, यह मानव–जीवन भोगयोिन नहीं है। यह जीवन


ेमयोिन है । इस जीवन म ही मनु को े म की ा होती है ।
–संतवाणी 6

9. आ ा और परमा ा की 'िज ासा' और अना ा की 'कामना' िजसम


है, वही मानव है । –संत–उ ोधन

10. अपनी भूल को िमटाने का दािय मानव के रचियता ने मानव पर ही


रखा है। –संत–उ ोधन

11. अपनी कामना से ही मानव आप पराधीन हो गया है । –संत–उ ोधन

12. मानव–जीवन िमलना ही उसकी हम पर अहै तुकी कृपा है ।


–मानव की माँग

13. अपने को मानव मानकर िजसे हम मानवता कहते ह, िज ासु मानकर


उसी को त –िज ासा कहते ह, भ मानकर उसी को ि य की
लालसा कहते ह, और िवषयी मानकर उसी को आस कहते ह।
–मानव की माँ ग

14. मानव–जीवन म एक बड़ी अलौिकक बात है । वह यह है िक यह ऐसी


बात की आशा नहीं िदलाता, िजसे आप वतमान म ा नहीं कर
मानव

सकते, और न िकसी ऐसी आशा की ओर ही ले जाता है , िजसकी पूित


दू सरों पर िनभर हो। –मानव की माँग

15. वा व म आकृित मानव नहीं है । मानव है –साधनयु जीवन।


–मानव की माँ ग

16. कोई अपने को मनु कहता है तो उसे िवचार करना होगा िक मनु
मानने से िजस कत की ेरणा िमलती है , उस कत के समूह का
नाम ही मनु आ, िकसी आकृित का नहीं। –मानव की माँग

17. राग– े ष से रिहत होने पर ही मानव वा िवक मानव हो सकता ह।


–मानव की माँ ग

18. जीवन म दो बात सभी को अनुभव होती ह –एक तो 'म कर रहा ँ '
और दू सरा ‘ त: हो रहा है । इन दोनों का समूह ही मानव–जीवन है ।
–मानव की माँ ग

19. कत िन जीवन ही मानव–जीवन है । –मानव की माँग

20. ेम के ादु भाव म ही मानव–जीवन की पूणता िनिहत है ।


–मानव–दशन

21. ाकृितक िनयमानुसार ऐसी कोई उ ईव ु, अव था, प र थित


आिद है ही नहीं, िजसके िबना मानव न रह सके और जो मानव के
िबना न रह सके। –मानव–दशन

22. संसार भी आपके सामने अिधकार की र ा के िलए आता है और


भगवान् भी आपसे कहते ह िक तू मेरी शरण म आ जा। ता य ा है
? तु ारी माँ ग संसार को भी है और भगवान् को भी।
–मानव की माँग
:: 172 ::
ांितकारी संतवाणी

23. िकसी से शािसत रहने के समान मानव–जीवन का और कोई अपमान


नहीं है । अपने पर अपना शासन करने पर ही मानव ‘पर' के शासन से
मु होता है , यह िनिववाद िस है । –मानव–दशन

24. मानव म मानवता तभी से आर होती है , जब यह सुख–दु ःख से


अतीत जीवन की खोज करता है । इस मौिलक माँ ग की जागृित से पूव
मानव ाणी है , मानव नहीं। –मानव–दशन

25. आ था और िज ासा मानव म ही होती है । –मानव–दशन

26. दु ःख ा है और ों है ? यह मानव का है , ाणी का नहीं।


बेचारे मानवेतर ाणी तो सु ख–दु ःख भोगते ह। –मानव–दशन

27. िमले ए शरीर का नाम मानव रखना भूल है ; कारण िक शरीर कम–
साम ी है , और कुछ नहीं। –साधन–िनिध

28. मानव मा अपने को साधक ीकार करे , यह अिनवाय है ।


–साधन–िनिध

29. मानव की ाधीनता दू सरों के अिधकार की र ा ही म है; अपने


अिधकार को पाने म मानव ाधीन नहीं है । –साधन–िनिध

30. स ंग मानव से िभ िकसी अ ाणी के िलए स व ही नहीं है


अथात् मानव–जीवन म ही स ंग की उपल होती है । –मूक स ं ग

31. मानव के िनमाता को मानव अ ि य है । –मूक स ंग

32. असत् की आस और सत् की ि यता असत् और सत् म नहीं हो


सकती, अिपतु उसी म होती है , जो जाने ए का आदर अथवा अनादर,
तथा िमले ए का सदु पयोग अथवा दु पयोग, एवं सुने ए म ा
मानव

अथवा अ ा करता है । उसका यिद नामकरण आव क है तो उसे


'मानव' कह सकते ह। –मूक स ंग

33. मानव का अपना मू िकसी उ ईव ु, अव था, प र थित पर


िनभर नहीं है । –मूक स ंग

34. बोल–चाल, रहन–सहन, आने–जाने की सुिवधा–असुिवधा के नाम पर


हम एक साथ नहीं रह सकते, यह बड़ी ही अमानवता है। इस
अमानवता का अ तभी होगा, जब मानव म मानवता का संचार हो।
–पाथेय

35. अिधकार–लालसा और भेदभाव की भावना ने मानव म मानवता नहीं


रहने दी। –पाथेय

36. ेक मानव मानवता के िवकिसत होने पर इतना सु र हो सकता है


िक उसकी सभी को आव कता हो जाती है और उसे िकसी की
आव कता नहीं होती। –पाथेय

37. ेक मानव 'मानव' होने के नाते बड़े ही मह का है। पर कब? जब


िकसी व ु, यो ता, साम , पद आिद के आधार पर अपना मू ां कन
न करे । –पाथेय

38. व ु तथा यों के स ने ही मानव को मानव नहीं रहने िदया।


–पाथेय

39. मानव उ ीं के समान अि तीय है । –पाथेय

40. िनमाता को मानव अ ि य है । यह उसका िनज खलौना है ।


इसका िनमाण उसने अपनी मौज के िलए ही िकया है। पर यह
दीनतावश उससे िवमुख हो उसकी वािटका म खेलने लगा है।
–पाथेय
:: 174 ::
ांितकारी संतवाणी

41. मानव–जीवन स ंग के िलए ही िमला है , जो एकमा िनममता,


िन ामता एवं आ ीयता से सा है । –पाथेय

42. सृि का िनमाण भले ही मानव के िलए हो; िक ु मानव का िनमाण तो


उ ोंने अपने ही िलए िकया है । –पाथेय

43. ेक प र थित म मानव उतना ही बड़ा मानव है , िजतना कोई कभी


आ है। –पाथेय

44. मानव–जीवन म ही धम की चचा है ; कारण िक मानव ही धमा ा होता


है। –पाथेय

45. शरीर मानव का प नहीं है । कत –परायणता, िववेक का काश


और िव ास का त िजसम है , वही मानव है । –पाथेय

46. ाणी और मानव म एक भेद है –वह यह िक मानव को मानव के


रचियता ने बल, िववेक तथा िव ास का त िदया है ; अ ािणयों म
िववेक और िव ास का त नहीं है । –पाथेय

47. मानव अपने ही माद से बल का दु पयोग, िववेक का अनादर और


िव ास म िवक करने से सव े होने पर भी आज पशु, प ी तथा
िहंसक ज ुओं से भी िन कोिट म चला गया है । –पाथेय

48. ऐसा मानना िक हमारा कोई सा नहीं है , हम पर कोई दािय नहीं


है, मानव–जीवन की घोर िन ा है । –दु ःख का भाव

49. िजस िकसी मानव को जो कुछ िमला है , वह िकसी का िदया आ है।


–सफलता की कुंजी

50. अहम् को मानव मानना यु यु है ; कारण िक िजसम कोई माँग है


और िजस पर कोई दािय है , वही मानव है । –सफलता की कुंजी
मानव

51. मानव–जीवन बड़े ही मह का जीवन है । इसी जीवन म ाणी अपने


वा िवक ल को ा कर सकता है । –सफलता की कुंजी

52. िजसे आप मानव कहते ह, वह वा िवक मानव तभी हो सकेगा, जब


उसम दे हािभमान न रहे । –सफलता की कुंजी

53. मानव का िनमाण भी मानव के रचियता ने अपने सहज भाव से ही


िकया है । इस कारण साधक म बीज प से उदारता, समता तथा
ि यता िव मान ह। जो िव मान है , उसी की अिभ होती है ।
–सफलता की कुंजी

54. िववेक का िवरोध करने पर मानव म अमानवता की उ ि हो जाती


है। –दशन और नीित

55. मानव का िनमाण मानव के अपने यास का फल नहीं है ; ोंिक


यास का दािय मानव होने के प ात् ही आता है।
–सफलता की कुंजी

56. उ े –रिहत जीवन मानव–जीवन नहीं है । –दशन और नीित

57. मानव की माँ ग सभी को है ; ोंिक उसके ारा सभी के अिधकार


सुरि त होते ह। इस ि से मानव सवि य है । –सफलता की कुंजी

58. अिववेकी मानव मानव के भेष म अमानव है । अमानव को पशु कहना


पशु की िन ा है । कारण िक पशु म िववेक जा त नहीं है, इससे उस
पर िववेकी होने का दािय नहीं है । िक ु मानव मा म िववेक जा त
है, इस कारण उस पर दािय है िक वह िववेक का अनादर न करे ।
अत: ेक वग, समाज तथा दे श का वही मानव आदरणीय है, जो
िववेकी है । –दशन और नीित
:: 176 ::
ांितकारी संतवाणी

59. अन की अहै तुकी कृपा से मानव–जीवन का िनमाण आ है; ोंिक


िववेकयु जीवन ही मानव–जीवन है । इस जीवन म अपने िलए कुछ
भी करने की बात नहीं है , यह इसकी मिहमा है । –दशन और नीित

60. मानव–जीवन म जो कुछ पराधीनता है , वह अपनी ही भूल है ।


–दशन और नीित

61. अपनी कमी का अनुभव करना और उसको िमटाने का य करना,


यही मानव–जीवन का आर है । –स –समागम 1

62. मानवता नहीं है , ब जीवन की एक अव था है, जो उ ित के


िलए एकमा सव म अव था है । जीिवत वही अव था रहती है , जो
पूण नहीं होती। पूण मानवता होने पर मानवता का अंत हो जाता है
अथात् मानवता ‘पूण’ से अिभ हो जाती है । –स –समागम 1

63. अपनी ूनता का अनुभव करना तथा उसे िमटाने का य करना


मानवता है । –स –समागम 2

64. केवल व ुओं के आधार पर जीवन तीत करना मनु के पम


पशुता है। –स –समागम 2

65. ेक मानव साधक है ; ोंिक उसम बीज प से साधन–त


िव मान है । –साधन–त 3

66. शा , मु और भ म तो मनु का ज जात अिधकार है ।


–संतवाणी 8

67. मानवता ा है ? मानवता है साधन। िकस प म ? भाई, जो हमारे


पास है, वह हमारा नहीं है । और जो दू सरों के पास है, उसकी हम माँग
नहीं है । उस मानवता का फल हो जाता है – ाधीनता, उदारता और
मानव–सेवा–संघ

ेम। इन तीनों को इक ा कर द तो यही मानवतायु मानव का िच


है। –संतवाणी 7

68. आपका मानव–जीवन बड़ा ही अनुपम जीवन है , अद् भुत जीवन है।
ों? इसी जीवन म स ित होती है । इसी जीवन म दु :ख–िनवृि होती
है। इसी जीवन म परमान की ा होती है। –संतवाणी 5

69. मानव–जीवन के िवकास की चरम सीमा योग, बोध और ेम की ा


म है और भोग, मोह, आस की िनवृि म है । –संतवाणी 7

70. िजसका जीवन सभी के िलए उपयोगी है , उसी का नाम है –मानव–


जीवन। –संतवाणी 4

व ुओं को िस े म बदलने से सं ह की भावना उ होती है ।


सं ह होते ही िम ा अिभमान, आल , अकम ता और िवलािसता
का ज होता है, जो के सवनाश का हे तु है । उस सं ह के
कारण समाज म भी िव व उ हो जाता है। अतः िस े म अथ–
बु ीकार करना माद के अित र और कुछ नहीं है। म का
मह बढ़ाए िबना आल , सं ह तथा अकम ता न न होगी और
उसके ए िबना शारी रक तथा बौ क म का सदु पयोग न होगा एवं
िम ा अिभमान भी न न होगा, जो द र ता का मूल है।

मानव–सेवा–संघ

1. एक से अिधक िमलकर जब अपनी–अपनी िनबलताओं का


अ करने के िलए पार रक सहयोग अिपत करते ह और
िनबलताओं से रिहत होते ह, तब 'सं घ' का ज होता है ।
–मानव–दशन
:: 178 ::
ांितकारी संतवाणी

2. आप अनी रवािदयों की सू ची म अपना नाम िलखाना चाहते ह तो भी


कोई आपि नहीं। चाहे म भले ही क र ई रवादी ँ , पर म आपको
सलाह दे ता ँ िक मानव–सेवा–संघ म तु ारा उतना ही थान है ,
िजतना िकसी ई रवादी का। –संतवाणी 3

3. मानव–सेवा–संघ की नीित म आदे श और उपदे श अपने को िदया


जाता है । –संतवाणी 5

4. मानव–सेवा–संघ की नीित के अनुसार सा दाियक भेद बुरा नहीं है।


लेिकन सा दाियक भेद म ीित का भेद आ, यह बुरा है। इसिलए
ेक साधक का अलग–अलग साधन होने पर भी यिद ेक साधक
म ेक साधक के ित ीित की एकता नहीं है , तो वह साधक नहीं
हो सकता। –संतवाणी 5

5. मानव–सेवा–संघ की नीित म अपना िवचार िकसी पर लादने का िनयम


नहीं है। –संतवाणी 6

6. हमने िस बनकर सं था का िनमाण नहीं िकया है । हमने तो अपने


को, अपने सािथयों को साधक माना है । – ेरणा पथ

7. मानव–सेवा–संघ कोई ऐसा संघ नहीं है , जो आपका अपना नहीं है ।


– ेरणा पथ

8. मानव–सेवा–संघ का अथ ा है ? मानव का अपना संघ। मानव–सेवा–


संघ की बात ा है ? मानव की अपनी बात। म तो लोगों से कहता ँ
िक जो लोग मानव–सेवा–सं घ की बात को नहीं मानते, वे मानो अपनी
बात नहीं मानते। –जीवन–पथ

9. मानव–सेवा–संघ िकसी की ाधीनता का अपहरण नहीं करता।


–जीवन–पथ
मानव–सेवा–संघ

10. साधक माने मानव–सेवा–संघ का मािलक; ोंिक यह साधकों का सं घ


है, िकसी का तो है नहीं। –साधन–ि वेणी

11. मानव–सेवा–संघ उसी िवचारधारा का तीक है , िजसका शरणान ।


इस ि से संघ की सेवा ही शरणान की सेवा है । –संत–उ ोधन

12. संघ ने मानव मा को 'अपनी आँ खों दे खो और अपने पैरों चलो' की


ेरणा दी है । –संत–उ ोधन

13. आपका जीवन तो यह है िक दू सरे लोगों को हमारा ही स मानना


चािहए। जब आपका यह जीवन है तो आप माफ कीिजए, आपके ारा
मानव–सेवा –संघ कलंिकत हो सकता है , कािशत नहीं हो सकता।
और आप मानव–सेवा–संघ के ारा अपना िवकास नहीं कर सकते।
–संतवाणी 4

14. अब रही मानव–सेवा–संघ के चार तथा सार की बात। इस स


म मेरा िनि त मत है िक जो बात हमारे जीवन म आ जाएगी, उसका
चार तथा सार त: होगा। इस ि से ा साम के सदु पयोग म
ही संघ का चार िनिहत है । –संतप ावली 2

15. मानव–सेवा–संघ िकसी –िवशेष का तथा िकसी दे श–िवशेष का


तथा िकसी दल तथा वग–िवशेष का संघ नहीं है। मानव–सेवा–संघ
मानवमा का है । अत: उसकी आव कता मानव · मा की
आव कता है । तो िफर इसका चार ों न होगा?। –संतप ावली 2

16. इस समय आव कता ऐसे कायकताओं की है , जो अपने जीवन से


संघ की िवचारधारा का प रचय दे सक। –संतप ावली 2
:: 180 ::
ांितकारी संतवाणी

17. मानव–सेवा–संघ का काय म ै कल है , केवले ो रिटकल नहीं;


ोंिक ेक वृि के ारा संघ की िवचारधारा का चार करना है।
–संतप ावली 2

18. ेक काय म सं घ की िवचारधारा का भाव दिशत होने लग . जाए,


तब समझना चािहए िक हम मानव–सेवा–संघ के सद ह।
–संतप ावली 2

19. मानव–सेवा–संघ की िवचारधारा मानवमा की माँ ग है । उस


िवचारधारा का चार सनातन स का चार है । सं घ की साधन–
णाली आधुिनक है , पर उ े सनातन है । –संतप ावली 2

20. कायकताओं के अभाव म ही संघ का काय िशिथल है । सही


कायकताओं का िनमाण होने पर संघ की िवचारधारा बड़ी ही
सुगमतापूवक ापक हो सकती है । ोंिक मानवमा को उसकी
माँग है । –संतप ावली 2

21. मानव–सेवा–संघ का चार मानव का गत जीवन है । जो मानव


िजस अंश म अपने को सु र बनाता है , उसी अंश म वह संघ का
चार कर सकता है । –संतप ावली 2

22. मानव–सेवा–संघ का ादु भाव केवल इस उ े की पूित के िलए आ


है िक मानव मा उस जीवन को पा सकता है, जो िकसी भी महामानव
को िमला है । –संतप ावली 2

23. मानव–सेवा–संघ कोई मत, दल तथा सं था नहीं है । वह तो मानव मा


की माँ ग है । –संतप ावली 2

24. मानव–सेवा–संघ का काश अपना लेने पर मानव सभी के िलए


उपयोगी हो जाता है । –संतप ावली 2
मानव–सेवा–संघ

25. अपने ान का आदर करने का भाव बनाना ही मानव–सेवा की


स ंग– णाली है । –पाथेय

26. मानव–सेवा–संघ का स ं ग वतमान जीवन की ेक सम ा को


ाग तथा ेम के ारा हल करता है । –पाथेय

27. मानव–सेवा–संघ के सािह का चार अपने–अपने ढं ग से, िजसको


जैसा ढं ग ि य हो, करे । वा व म तो मानव मा की अनुभूित ही
मानव–सेवा–संघ का सािह है । –पाथेय

28. संघ का दशन मानव का अपना दशन है । जो अपनी ओर दे खता है ,


वही संघ के दशन से प रिचत हो जाता है । संघ िकसी को कोई ऐसी
बात नहीं बताता, जो उसकी अपनी बात नहीं है। –पाथेय

29. अहं पी अणु का अ करने पर ही संघ का स े श िवभु हो सकता


है।...... अहं का नाश िकये िबना संघ का स े श िवभु नहीं हो सकता।
–पाथेय

30. मानव–सेवा–संघ भी भु का ही है । इस कारण संघ की सेवा भु की


िनज सेवा है । –पाथेय

31. साधक को जगत् के ित उदार, भु के ित े मी और अपने ित


अचाह होना है । यही मानव–दशन पर आधा रत मानव–सेवा–संघ की
दी ा है। –पाथेय

32. मानव–सेवा–संघ साधकों का संघ है । साधकों की सेवा संघ की


सव ृ सेवा है । –पाथेय

33. संघ की मू ल नीित है िक संघ की व ुओं पर िकसी का गत


अिधकार कभी भी न हो। –पाथेय
:: 182 ::
ांितकारी संतवाणी

34. अपने–अपने अिधकार– ाग की भावना िजन–िजन साधकों म हो, वे


ही संघ की यथे सेवा कर सकते ह। सं घ की सेवा का अथ मानव–
जाित की सेवा है , िकसी वग–िवशेष की नहीं। –पाथेय

35. मानव–सेवा–संघ का उ े मानव का अपना क ाण और सु र


समाज का िनमाण है । –स वाणी ( ो र)

36. स ा मानव–सेवा–संघी कभी घर नहीं छोड़ता, ब ममता और


अपना अिधकार छोड़ दे ता है । –स वाणी ( ो र)

37. मानव मा का जो स है , उसी का नाम मानव–सेवा–संघ का िस ा


है। –संतवाणी 8

38. संघ की साधन– णाली म िकसी मत, स दाय की ग नहीं है और न


िकसी का िवरोध है । ों ? भूिम, भला बताओ तो सही, िकस पौधे का
िवरोध करती है और िकस का प करती है ? भूिम न िकसी पौधे का
िवरोध करती है और न िकसी का प पात .. करती है , अिपतु ेक
पौधे को िवकिसत करती है । उसी कार की साधन– णाली मानव–
सेवा–संघ की साधन– णाली है । –संतवाणी 4

39. संघ की नीित म गु एक त है और वह गु –त िववेक के पम


आपको ा है । –संतवाणी 4

40. मानव–सेवा–संघ की नीित म वचन को भी सत्–चचा कहा है, स ंग


नहीं.... मानव–सेवा–संघ म 'मूक स ं ग' को मु स ंग माना है ।
–संत–उ ोधन

41. संघ की सव ृ सेवा यही है िक अचाह होकर ा बल का


सदु पयोग िकया जाए। –संत–उ ोधन
मु (क ाण)

मु (क ाण)

1. आपका क ाण िकसी बा सहायता से नहीं होगा, िकसी और के


ारा नहीं होगा। आपका क ाण होगा –आपके िनज ान के भाव
से। –संतवाणी 7

2. सही काम करने से समाज म शा होती है , यानी िव म शा होती


है, और न करने से अपना क ाण होता है । –साधन–ि वेणी

3. जो होती है , उसे मु थोड़े ही कहते ह। जो है, उसे मु कहते है ।


–संत–उ ोधन

4. हम शरीर और संसार दोनों से मु होना है । वह तभी स व है


जबिक हमारी कोई कामना न रहे , यानी हम अचाह हो जाएँ ।
–संत–उ ोधन

5. अपने क ाण का अथ ा है ? अपनी स ता के िलए अपने से िभ


की आव कता न रहे । –संत–उ ोधन

6. जो व ु िजस काम के िलए होती है , उसके िलए वह काम किठन नहीं


होता। यह मनु ज केवल जीव के क ाण के िलए ही िमलता है ।
इसिलए इसको पाकर क ाण की ा को किठन मानना भारी भूल
है। – संत–उ ोधन

7. जब तक हम कुछ ा करना शेष है , जब तक हम िकसी भी अभाव


का अनुभव करते ह, तब तक हम मानना होगा िक हमारा क ाण
नहीं आ। –मानव की माँग

8. भगव ेम के िबना क ाण नहीं हो सकता। –मानव की माँ ग


:: 184 ::
ांितकारी संतवाणी

9. यिद क ाण चाहने वाले भाई–बहन यह सोचते ह िक हमारा क ाण


िकसी और पर िनभर है तो मानना पड़े गा िक वे अपना क ाण नहीं
चाहते। आपका क ाण तो आप पर ही िनभर है अथात् आपके साधन
पर िनभर है । –मानव की माँग

10. कोई मु के प ात् भ मानता है और कोई मु के प ात् मौन


हो जाता है ; िक ु मु तक तो सभी साथ ह। –मानव की माँ ग

11. अहम् तथा मम प जो स है , उससे मु होना ही वा िवक


मु है। मु के िलए इसके अित र और कोई य अपेि त
नहीं है। िजसकी ा स िव े द करने मा से होती है , उसके
िलए भिव की आशा करना माद के अित र और कुछ नहीं है।
कारण िक भिव की आशा उसके िलए की जाती है, िजसके िलए
कोई कम अपेि त हो। यह िनयम है िक कम उसी के िलए अपेि त
होता है , िजससे दे श–काल की दू री हो अथवा जो उ ि –िवनाशयु
हो। –मानव की माँ ग

12. िवजातीय से मु होना ही वा व म मु है; ोंिक िभ ता उसी से


हो सकती है , िजससे जातीय तथा प की िभ ता है । इससे यह
िस आ िक अपने म से िवजातीयता का िनकल जाना ही मु हो
जाना है। –मानव की माँग

13. अगर हम और आप जाने ए असत् का ाग कर सकते ह तो िस


वतमान की व ु है । –संतवाणी 4

14. मु मभ और भ म मु ओत ोत ह। कारण िक ान और
ेम म िवभाजन नहीं होता। –संतप ावली 2
मु (क ाण)

15. इ ाएँ रहते ए ाण चले जाएँ तो, ‘मृ ु हो गयी, िफर ज लेना
पड़े गा। और ाण रहते इ ाएँ चली जाएँ , 'मु ' हो गयी। जैसे बाजार
गए, पर पैसे समा हो गए और ज रत बनी रही तो िफर बाजार
जाना पड़े गा। और यिद पै से रहते ज रत समा हो जाए तो बाजार
काहे को जाना पड़े गा ? –स वाणी ( ो र)

16. कत परायणता म सु र समाज का िनमाण तथा असंगता म अपना


क ाण िनिहत है । –मानवता के मूल िस ा

17. जो जीवन म मु नहीं होता, वह मरने के बाद भी मु नहीं होता।


और जो ऐसा मानता है िक मु अभी नहीं िमली, मरने के बाद
िमलेगी, वह अपने को धोखा दे ता है । –संतवाणी 8

18. ममता और कामना का नाश करने के बाद जो गृह थ बनता है , वह


गृह थ जीव ु होता है । –संतवाणी 4

19. कता–भाव और भो ा–भाव का िमट जाना ही जीव ु है।


–संत–उ ोधन

20. जीव ु वह होता है , जो िनज िववेक का आदर करता है ।


–संतवाणी 4

21. मु कोई ब त बड़ी चीज नहीं है । अगर ईमानदारी से दे खा जाए तो


जैसे वैरा 'योग' का साधन है , ऐसे ही योग ‘बोध' का साधन है और
बोध ' ेम' का साधन है । –संतवाणी 8

22. आप कहगे िक शु –बु –मु म भी कहीं माँग होती है? बात तो


ठीक है। पर वह काम–रिहत है िक माँ ग–रिहत है? िवचार
करो।............ मु िकसे कहते ह ? जो काम–रिहत है । ा अन रस
की माँग म म नहीं है ? यिद वह मु म न होती. तो उसे मु
:: 186 ::
ांितकारी संतवाणी

खारी नहीं लगती। मु को मु भी खारी लगती ह। कब ? जब


अख रस की भूख को अन रस की भूख म बदला आ पाता है ।
–संतवाणी 6

23. अगर तु यह अनुभव हो जाए िक मेरा कुछ नहीं है , मुझे कुछ नहीं
चािहए, बस, मु हो गए। –संत–उ ोधन

24. मेरे जीवन की अ म अनुभूित है िक म के िबना, व ु के िबना,


साथी के िबना हम सबको िस िमल सकती है । –संतवाणी 4

ाकृितक िवधान के अनुसार िजसकी वा व म उपयोिगता अपेि त है,


उसकी र ा के साधन अपने–आप ा होते ह। इस ि से जीवन की
उपयोिगता म ही सम िवकास िनिहत है। म, संयम, सदाचार और सेवा
ारा जीवन जगत् के िलए एवं ाग ारा अपने िलए और पिव ेम के ारा
अन के िलए उपयोगी िस होता है। अतः जीवन को उपयोगी बनाने म ही
अभावों का अभाव िनिहत है ।

मूक स ंग

1. िजस कार ेक पौधे के िलए भूिम अिनवाय है , उसी कार ेक


साधक के िलए मूक स ंग अिनवाय है । –मूक स ंग

2. िजस कार सम पौधे भू िम से उ होकर उसी म थत रहते ह


और उसी म िवलीन भी होते ह, उसी कार मूक स ं ग सम साधनों
की अिभ से पूव भी अपेि त है और सम साधनों की पूणता
भी मूक स ं ग म ही िनिहत है । –मूक स ंग

3. मूक स ं ग म सभी साधनों का समावेश है । –पाथेय


मूक स ंग

4. मूक स ंग वा व म आिद साधन है अथवा यों कहो िक अ म


साधन है। कारण िक जो कुछ िकया जाता है , उसके मू ल म 'न करना'
ही होता है और करने के अ म भी 'न करना' ही होता है। इस ि से
आिद और अ म मूक होने पर ही सभी को सब कुछ िमलता है ।
–पाथेय

5. मूक स ं ग का आर शा रस से और अ अन रस म होता है।


–साधन–त

6. यह जो शा रहना है , यह ब त बड़ा साधन है । पर इस रह को


कोई िबरले ही जानते ह। –संत–उ ोधन

7. हम बड़े –बड़े काय कर सकते ह, बड़े –बड़े अ ासी हो सकते ह, बड़े –


बड़े पु षाथ हो सकते ह, लेिकन दो–तीन िमनट भी शा नहीं हो
सकते ! –संतवाणी 4

8. ेक साधक के िलए यह अ अिनवाय है िक वह ेक काय के


आिद और अ म भाव से ही शा होकर मूक स ंग करने का
भाव बना ले........ जब हम मूक स ं ग करने का भाव बना लगे,
तो आप सच सािनये िक जो स िकसी को भी िमला है , वह हम और
आपको िमलेगा। – ेरणा पथ

9. मौन का अथ खाली चुप होना नहीं है , ब न सोचना भी है, न दे खना


भी है अपनी ओर से। मुझे जो चािहए, सो तो मुझ म है, िफर इ यों
की ा अपे ा ? मौन के पीछे एक दशन है िक हम को जो चािहए,
वह अपने म है , अपना है और अभी है । –संत–उ ोधन

10. ेक संक की उ ि से पूव और ेक संक की पूित के


प ात् भाव से िनिवक ता रहती है । इस िनिवक ता का नाम ही
:: 188 ::
ांितकारी संतवाणी

'मूक स ं ग' है , िजससे आव कश का िवकास होता है।


–संत–उ ोधन

11. िकसी काय के करते ए िकसी ऐसी बात की ृित आना, िजसका
स उस काय से नहीं है , यही 'जा त् का ' है। और वतमान
काय से स न रहे तथा अ काय की भी ृित न आए, यह
भीतर–बाहर का मौन ही 'जा त् की सुषु ' है । –मानव की माँ ग

12. मूक स ंग वा िवक स ंग है । िवचार–िविनमय आिद का यास


वा िवक स ं ग का सहयोगी अंग है अथात् िवचार–िविनमय से मूक
स ंग की साम आती है । –मूक स ंग

13. मूक स ंग कोई अ ास नहीं है , अिपतु सम साधनों की भूिम है।


मूक स ंग िकया नहीं जाता, आव क काय के अ म त: होता
है। –मूक स ंग

14. जो यं करना है , वही स ंग है । िनमम तथा िन ाम होते ही मूक


स ंग तः िस हो जाता है । –मूक स ंग

15. मूक स ं ग से ही सवतोमुखी िवकास होता है । –मूक स ंग

16. मूक स ं ग से िव ृित नाश होती है । –मूक स ंग

17. मूक स ंग क त के समान है अथात् आव क साम , िवचार का


उदय, ीित की जागृित मूक स ंग म ही िनिहत है । –मूक स ंग

18. मूक स ंग कोई उपाय नहीं है , अिपतु वा िवक जीवन का एक पहलू


है। –मूक स ंग

19. दे हािभमान का अ करने के िलए सहज िनवृि पूवक मूक स ं ग


अिनवाय है । –मूक स ंग
मूक स ंग

20. मूक स ं ग के िबना दे हािभमान का नाश स व नहीं है ।


–मूक स ंग

21. मूक स ंग िव ास तथा िवचार दोनों ही पथों के िलए समान है । कारण


िक िवचार का उदय तथा ीित की जागृित मूक स ंग से तः होती
है। –मूक स ंग

22. मूक स ंग मानव को िकसी थित म आब नहीं करता, अिपतु सभी


से असंग करता है । –मूक स ंग

23. मूक स ंग अकम ता, जड़ता एवं अभाव म आब नहीं होने दे ता,
अिपतु कत –परायणता, िच यता एवं पूणता से अिभ करता है ।
–मूक स ंग

24. मूक स ंग से िनमम, िन ाम एवं असंग होने की साम त: आ


जाती है । –मूक स ंग

25. सत्–चचा तथा सत्–िच न करते ए आं िशक असत् का आ य रहता


है; िक ु मूक स ं ग से सवाश म स ंग होता है अथवा यों कहो िक
मूक स ं ग ही स ंग है । –मूक स ंग

26. मूक स ंग तथा िन योग एक ही िस े के दो पहलू ह। इन दोनों म


प से िवभाजन नहीं है , अिपतु मूक स ंग म ही िन योग और
िन योग म ही मूक स ंग ओत ोत है । –मूक स ंग

27. यह िनयम है िक जब मानव व ु, अव था, प र थित के आ य से


रिहत होता है , तब सवाधार का आधार तः ा हो जाता है । इस
ि से आ था म सजीवता मूक स ं ग से ही सा है। –मूक स ंग
:: 190 ::
ांितकारी संतवाणी

28. मूक स ं ग कोई अ ास, अनु ान एवं मसा योग नहीं है , अिपतु
सहज तथा ाभािवक त: िस त है । िन ा की ा और
परा य की िनवृि मूक स ंग म ही िनिहत है। –मूक स ंग

29. अगर हम थोड़ी–थोड़ी दे र के िलए िव ाम करने का भाव बना __ल,


अकेले होने का भाव बना ल, तो हम अपने म ही, कहीं बाहर नहीं,
ीतम की ा हो जाएगी। –संतवाणी 6

30. अकेला होना बड़ा ही उ म है ; पर ु शरीर से अकेला होना 'अकेला


होना' नहीं है । जब ाणी माने ए स ों से तथा ीकृितज स ा
से अपने को अतीत कर ले ता है , तब अकेला हो पाता है ।
–संतप ावली 1

31. अचाह पी भूिम म ही मू क स ंग पी वृ उ होता है और


स –िव े द पी जल से उसे सींचा जाता है। वतमान प र थित का
सदु पयोग ही उस वृ की र ा करने वाली बाड़ है। उनकी मधुर ृ ित
उस वृ का बौर है और अमर ही उस वृ का फल है, िजसम ेम
पी रस भरपूर है । –पाथेय

32. मूक स ं ग म आल तथा म दोनों का अभाव है। मूक स ंग म


इ यों, मन, बु आिद की चे ाओं से पूण असंगता तथा असहयोग
है। –पाथेय

33. बल का सदु पयोग होने पर जो ाभािवक िव ाम है, वह भी मूक


स ंग है और अपने–आपको अन की अहै तुकी कृपा पर िनभर कर
दे ना भी मूक स ंग है और सब ओर से िवमुख होकर अपने म ही
स ु हो जाना भी मू क स ंग है । –पाथेय
मूक स ंग

34. अब रही वै ािनक ि , िजससे िनि त समय पर मूक स ंग करने की


योजना है – ात: 3.30 बजे से लेकर 5 बजे तक का समय ब त ही
उपयु है ।........ वा व म तो ेक वृि का उदय और अ मूक
स ंग म ही होना चािहए। मूक स ंग अख साधन है , यह कोई
अ ास नहीं है , अिपतु सब कार से उस अन का हो जाना है, जो
सभी म है , सभी से अतीत है , िजससे दे श, काल आिद की दू री ही नहीं
है। –पाथेय

35. असत् के संग का भाव कट ए िबना नाश नहीं होता। म–सा


साधन उस भाव को दबाता है , कट नहीं होने दे ता। मूक स ं ग उस
भाव को कट करता है । –स ंग और साधन

36. 'है' का संग म–सा नहीं है । अत: मूक स ंग से ही 'है' का संग


सा है। मू क स ंग वतमान दशा का बोध कराने म अचूक मं है ।
–स ंग और साधन

37. मूक स ं ग के िबना सत् का संग स व नहीं है । –स ंग और साधन

38. जो साधक असमथता का अनुभव करता है, वह मू क स ंग ारा


कत िन होता है और जो साधक िमली ई साम का पिव भाव से
स य करता है , वह कत िन होकर मूक स ंग ा करता है ।
–स ंग और साधन

39. भौितकवाद की ि से कत परायणता, अ ा वाद की ि से


असंगता और आ कवाद की ि से शरणागित ही अ म यास
है। इन तीनों यासों की पू णता मूक स ंग म िनिहत है।
–स ंग और साधन
:: 192 ::
ांितकारी संतवाणी

40. मूक स ंग िस होते ही ‘करना' ‘होने' म और 'होना' 'है ' म िवलीन हो


जाता है , िजसके होते ही अमर से अिभ ता होती है ।
–स ंग और साधन

41. अहम् का नाश म–सा नहीं है । म के मूल म बीज प से अपना


सुख िछपा रहता है । मूक स ंग साधक को सुख की दासता और दु ःख
के भय से रिहत कर दे ता है , िजसके होते ही अहम् अपने–आप गल
जाता है । –स ंग और साधन

42. जीवन की पूणता जो िव ाम, ाधीनता तथा ेम म िनिहत है . मूक


स ंग से ही िस है । –स ंग और साधन

43. मूक स ं ग के िलए तो िकसी प र थित–िवशेष की अपे ा ही नहीं है ।


अत: साधक चाहे िजस प र थित म हो, मूक स ंग ाधीनतापूवक
हो सकता है । –स ंग और साधन

44. यो ता, िच तथा साम का भेद होने पर भी मूक स ंग सभी के


िलए समान है । मूक स ं ग के ारा सम असाधनों का नाश हो
सकता है और यो ता, िच तथा साम के अनु प गत साधन
की अिभ भी हो सकती है । –स ंग और साधन

45. मूक स ंग अ ास नहीं है , अिपतु जीवन का सहज, ाभािवक एवं


अिवभा अंग है । उसका कोई भी साधक ाग नहीं कर सकता;
िक ु उसे स ं ग का प कोई िवरले ही दे पाते ह।
–स ंग और साधन

46. भीतर–बाहर से अकेले रहने का भाव बनाओ। ऐसा करने से


आपको वह (आन ) िमल जाएगा, जो आपके िबना नहीं रह सकता
अथवा यों कहो ‘जो आपकी आव कता है । –स –समागम 2
मूक स ंग

47. मूक स ंग अ ास नहीं है , अिपतु िचर–िव ाम है, िजसकी माँ ग


भाव से ही ेक साधक को है । –साधन–त

48. भौितकवाद की ि से कत परायणता' का, अ ा वाद की ि से


िववेकपूवक 'असंगता' का और अ कवाद की ि से 'समपण' का
प रणाम मूक स ं ग है । कत परायणता, असंगता और समपण से
मूक स ं ग त: हो जाता है । –साधन–त

49. मूक स ं ग के िबना अहम् भाव का अ हो ही नहीं सकता। अतः


ेक साधक को सब कुछ करने पर भी मूक स ंग को अपना लेना
अिनवाय है ; ोंिक िबना उसके अपनाए अचाह, अ य एवं अिभ ता
स व नहीं है । –साधन–त

50. जब आपकी सुषु जागृित म बदले तो उसी समय िब र म उसी


दशा म, जैसे आपको सुख िमले, थोड़ी दे र के िलए जा त् अव था म ही
सुषु वत् िव ाम कीिजये। उसका प रणाम यह होगा िक अगर
आपको दो–तीन िमनट की आदत िव ाम करने की आ जाएगी, तो
आपका ान तः हो जाएगा, अपने–आप हो जाएगा। दस–बारह
िमनट म धारणा हो जाएगी; आधे घ े म समािध हो जाएगी।
–संतवाणी 4

51. हम थोड़ी दे र के िलए, दो, चार या दस िमनट, इससे ादा नहीं, िबना
कोई काम करे अकेले रहने का भाव बनाऐं। यह कोिशश कर िक
दस िमनट तक हम कोई काम नहीं करगे, अकेले रहगे, िबना मान
और िबना साथी के रहगे, शरीर को लेकर नहीं। हम जो अपने ब त–से
साथी मालू म होते ह, ब त–सा सामान मालूम होता है, उसके िबना
रहगे। इसका अथ यह नहीं है िक हम सािथयों को नाराज कर द या
सामान को बरबाद कर द। ऐसा मेरा मतलब नहीं है। लेिकन थोड़ी दे र
:: 194 ::
ांितकारी संतवाणी

के िलए ऐसा अनुभव कर िक मान लो, हमारे पास हमारा शरीर भी नहीं
रहेगा, तब हम होंगे िक नहीं ? ऐसा अपने सामने रख।
–स वाणी 6

मृ ु

1. जब तक जीने की आशा है , तब तक मरने का भय नहीं िमट सकता;


और करने लायक काम बाकी बना रहने से जीने की आशा नहीं
िमटती। –संत–उ ोधन

2. मृ ु के समान और कोई िहतकर व ु नहीं है। उसके आने पर ही


आ क ाणी अपने इ लोक अथवा िवदे ह–मु को पाता है, जो
मानव का परम ल है । –संतप ावली 2

3. मोहवश मृतक मनु का रण कर दु :खी होने से मृतक के


सू शरीर को दु :ख अिधक होता है ; ोंिक जब तक स शेष
रहता है , तब तक उसे दू सरी योिन धारण करने म िवल होता है।
यिद स ाव से, स तापू वक मृतक मनु से स –िव े द कर
िदया जाए तो िफर वह अपने कम के अनुसार शी , सुगमता से दू सरी
योिन धारण कर लेता है ......... जब–जब मोह के आवेश के कारण
उनका रण हो, तब–तब दय म यह भावना करो िक आपका हमसे
कुछ स नहीं है । –संतप ावली 1

4. संयोग म ही िवयोग का, जीवन म ही मृ ु का दशन करने से उस िद


जीवन से अिभ ता होती है , जो जीवन िकसी के िलए भी दु :खकर नहीं
होता, अिपतु सभी के िलए िहतकर ही होता है । –संतप ावली 2

5. ाणों के रहते ए कामनाओं का अ हो जाने पर जब मृ ु होती है ,


तब उसे ‘काल मृ ु' समझना चािहए। कामनाओं के रहते ए ाणों
मृ ु

का अ होना ‘अकाल मृ ु' है । वह चाहे िजस कार से हो, चाहे


िजतनी आयु म हो। –संतप ावली 2

6. मृतक ाणी की सव ृ सेवा यही है िक उनसे िवचारपूवक स –


िव े द कर िलया जाए और जब–जब उनकी ृित आए तब–तब
ाथना की जाए। उनके िनिम यथाश अपने िव ास के अनुसार
पु कम आिद भी िकया जा सकता है ; िक ु उनको अपना मानना,
उनका िच न करना अपने और उनके िलए अिहतकर ही िस होता
है। –संतप ावली 2

7. वतमान जीवन ा है ? जीवनश , ाण और इ ाओं का समू ह है।


मृ ु ा है ? ाणश का य हो जाना और इ ाओं का शेष रह
जाना।..... जीवन म ही मृ ु का अनुभव करने के िलए साधक को ाणों
के रहते ए ही इ ाओं का अ करना होगा। जीवन म ही मृ ु का
अनुभव िकए िबना कोई भी योगी, िववेकी और े मी नहीं हो सकता।
–जीवन–दशन

8. सबसे बड़ी िनवलता जीवन म कब आती है ? जब मानव स तापूवक


मृ ु को नहीं अपनाता, अिपतु सबल के अ ाचार को ीकार कर
जीना चाहता है । इस िनबलता ने ही सबल की बल के दु पयोग करने
की वृि को पोिषत िकया है । –साधन–िनिध

9. मृतक के साथ सबसे बड़ा कत यही है िक उससे हमको अपना


स तोड़ दे ना चािहए और दय से स ावपूवक मूक ाथना करनी
चािहए िक उस ाणी का क ाण हो......... यिद आप उसके साथ
स रखगे तो उसको योिन धारण करने म दे र अव होगी।
–स –समागम 1
:: 196 ::
ांितकारी संतवाणी

10. जो कामनाएँ शेष रह जाती ह, उनकी पूित के िलए मृ ु एक अव था है


और कोई व ु नहीं। –स –समागम 1

11. िजस कार थके ए ाणी को थकावट दू र करने के िलए नींद


आव क है , उसी कार इ ाओं के शेष रहने पर ाणी को जीवन के
िलए मृ ु आव क है । –स –समागम 1

12. गहराई से दे खो, िजसको आप मृ ु कहते ह, वह तो नवीन जीवन को


उ करने के िलए एक िवशेष अव था है । –स –समागम 1

13. मरने से डरो नहीं और कुछ चाहो नहीं तो मरने से पहले अमर जीवन
िमलेगा, इसम स े ह नहीं है । –स वाणी ( ो र)

14. यिद ज के साथ मृ ु, सं योग के साथ िवयोग, उ ि के साथ िवनाश


और वृि के साथ असमथता न होती तो न जाने िकतनी भयंकर
दु दशा मानव–समाज की हो जाती। –मंगलमय िवधान

15. एक मृ ु ही दू सरे नवीन जीवन का कारण बनती है । यिद संसार म


कोई न मरे तो जनसं ा इतनी बढ़ जाए िक रहने के िलए पृ ी पर
कोई जगह ही न िमले और इतना दु :ख बढ़ जाए िक कोई जीना पस
न करे । अत: मृ ु की भी आव कता है और वह ब त मह की
चीज है । एक शरीर का नाश होकर दू सरा नया शरीर िमलता है । अत:
मृ ु ही नवीन जीवन दान करती है । यह समझने वाला बु मान्
मनु कभी मृ ु से नहीं डरता, वरन् उसका ागत करता है।
–संत–सौरभ

16. जहाँ तक हमारे िव ास की बात है , वह यह है िक मरने म कोई क


नहीं होता। क जो होता है , वह इस बात का होता है िक हम जीना
योग

चाहते ह और मरना पड़ रहा है ।.......... अगर हम जीना न चाह तो मरने


म कोई क नहीं है । –संतवाणी 3

जब तक म का उपयोग शरीर के पोषण और सजाने म तथा िस ों


के सं ह म ही िकया जाएगा, तब तक द र ता न न होगी। म का
उपयोग समाज के िलए उपयोगी व ुओं के उ ादन म ही है।

योग

1. योग कब होता है ? िक जब आपका शरीर से स नहीं रहता।


–संतवाणी 5

2. रागरिहत होते ही सबको योग िमल जाएगा। –संतवाणी 4

3. योग की इस प रभाषा पर गौर कीिजए िक सृि का अपने िलए उपयोग


करना भोग, सृि की सेवा म शरीर को लगा दे ना योग। परमा ा को
अपना मानना योग, परमा ा से कुछ माँ गना भोग। –संतवाणी 7

4. योग अपने िलए और कत ‘पर' के िलए िनिमत है। योग की ा के


िलए िकसी कम–साम ी की अपे ा नहीं है , केवल करने की राग–
िनवृि मा से ही योग के सा ा म वेश होता है अथात् योग– ा
म म अपेि त नहीं है । इस कारण योग अपने िलए और कत ‘पर'
के िलए िवकास का मू ल है । –मानव–दशन

5. योग की अिभ के िलए िकसी कार की वृि अपेि त नहीं है ,


अिपतु मूक स ं ग ही अपेि त है । –मूक स ंग

6. राग–रिहत भूिम म ही 'योग' पी वृ का ादु भाव होता है , जो


क त के समान है अथात् उसम सम िवकास होते ह। इतना ही
:: 198 ::
ांितकारी संतवाणी

नहीं, 'योग' पी वृ पर ही 'त ान' पी फल लगता है , जो ' ेम'


रस से प रपूण है । –दु ःख का भाव

7. भोग की िच रहते ए योग की उपल स व नहीं है । –िच शु

8. भोग का अ अभाव हो जाना ही वा व म योग है ।


–स –समागम 1

9. योग से श संचय होती है , त –सा ा ार नहीं ।


–स –समागम 1

10. जो संयोग म ही िवयोग का अनुभव कर लेता है, उसका िन योग होना


परम अिनवाय है । –स –समागम 1

11. भोग की ओर जाने म स ाव ि या म िवलीन हो जाता है, और योग की


ओर जाने म ि या भाव म िवलीन हो परमत से अिभ हो जाती है ।
–स –समागम 2

12. योग से श संिचत होती है , पर शा नहीं। ाभािवक पूण असंगता


होने पर िनज– प का यं बोध हो जाता है । बोध होने पर परम
शा िबना बुलाए आ जाती है ...... योग के िबना श हीनता नहीं
िमटती और यथाय बोध के िबना शा नहीं आती। –स –समागम 2

13. भोग–बु का अ होते ही योग िबना ही य हो जाता है ।


–स –समागम 2

14. िन ामता की अिभ होते ही भोग त: 'योग' म िवलीन हो जाता


है। –मानवता के मूल िस ा
राग– े ष

15. परा य और प र म से रिहत तथा ह र–आ य और िव ाम के ारा जो


जीवन है, वह जीवन िजसे पस है , वह योगी है। योग का उपाय ा
है ? ह र–आ य और िव ाम। –संतवाणी 3

16. योग तो शरीर–िव ान और मनोिव ान –इन दोनों से परे है ।


–संतवाणी 2

संयम तथा सदाचार के िबना म उपयोगी िस नहीं होता। इस ि से


म के आिद और अ म संयम की अ आव कता है। सदाचार
संयम का ही ि या क प है और सदाचारयु वृि ही समाज
की सेवा है। समाजसेवा की भावना ों– ों सबल तथा थायी होती
जाती है, ों– ों सुख–भोग की िच न होती जाती है। सवाश म
सुख–भोग की िच का नाश होते ही दु ःख का भय तथा सुख का
लोभन िमट जाता है, िजसके िमटते ही सुखी और दु ःखी म एकता हो
जाती है और िफर द र ता की ग भी नहीं रहती।

राग– े ष

1. आपका एक अपना बड़ न है । आपका एक अपना मह है । आपकी


एक अपनी सु रता है । और वह सु रता राग– े ष रिहत ए िबना
ा नहीं होती। –स वाणी 4

2. संसार की बड़ी–से–बड़ी वासना हम उसी समय तक अपनी ओर


आकिषत करती है , जब तक िक हमारे मन म िकसी कार का राग है ।
–मानव की माँग

3. राग के िबना े ष उ ही नहीं होता। अत: यह हो जाता है िक


े ष िमटाने के िलए राग का िमटाना अिनवाय है । –मानव की माँ ग
:: 200 ::
ांितकारी संतवाणी

4. सीिमत 'म' और सीिमत ‘मेरा' ही राग– े ष का मूल है, जो वा व म


अिववेक है । –मानव की माँग

5. िकसी की वा िवकता का बोध तभी स व होगा, जब उसके ित राग


तथा े ष लेशमा भी न हों। –मानव–दशन

6. राग और े ष दोनों ही स पु करते ह। स के रहते ए बोध


स व नहीं है । –मानव–दशन

7. िजस अंश म िभ ता तीत होती है , उस अंश म ाग को अपनाना है,


े ष को नहीं और िजस अंश म एकता तीत होती है , उस अंश म सेवा
को अपनाना है , राग को नहीं। –मानव–दशन

8. े ष के नाश म ेम की अिभ और राग के नाश म बोध की


अिभ तःिस है । –मानव–दशन

9. राग तथा े ष जब तक बाकी ह, तब तक िकसी व ु को यथाथ


समझना तथा जान पाना किठन है । –संतप ावली 1

10. राग और े ष िमटाने के िलए शरीर–भाव का अ अभाव करना


होगा। जब तक यह ाभािवक न हो जाए िक म शरीर िकसी भी काल
म नहीं ँ , तब तक राग और े ष कदािप नहीं िमट सकते।
–संतप ावली 1

11. राग एक ऐसा मधुर िवष है , जो सदै व मृ ु की ओर ही गितशील करता


है अथात् राग के रहते ए हम अमर नहीं हो सकते और न ब नरिहत
ही हो सकते ह; ोंिक राग ाग की साम का अपहरण कर लेता है
और ाग के िबना कत –पालन स व ही नहीं है। –जीवन–दशन

12. यह े ष की मिहमा है िक गुण का दशन नहीं होने दे ता। यह िनयम है


िक िकसी का े ष िकसी का राग बन जाता है । िजस कार े ष गुण का
राग– े ष

दशन नहीं होने दे ता, उसी कार राग दोष का दशन नहीं होने दे ता।
–दशन और नीित

13. राग ' ाग' से और े ष ' े म' से न होता है । ाग िववेक म और ेम


आ ीयता म िनिहत है । –दशन और नीित

14. की घटना काल म तो जा त् के ही समान स है और


जा त् म भूतकाल की घटनाएँ वतमान म के समान ही िम ा ह।
इस ि से और जा त् की घटनाएँ समान ही अथ रखती ह; पर ु
ाणी जा त् की घटना को स मान कर उनके राग– े ष म आब हो
िच को अशु कर लेता है । –िच शु

15. रागरिहत होने म ही योगी म योग, िज ासु म त ान और ेमी म ेम


की अिभ िनिहत है , अथवा यों कहो िक सम िवकास रागरिहत
होने म ही िनिहत है ; ोंिक रागरिहत ए िबना न तो िच का िनरोध
ही हो सकता है , न दे हािभमान ही गल सकता है और न समिपत होने
की साम ही आती है । –िच शु

16. यिद राग व े ष न िकया होता तो ाग व ेम न करना पड़ता।


–स –समागम 1

17. राग ाग से और े ष ेम से िमट जाता है । –स –समागम 1

18. यिद जगत् के वा िवक प को जानना चाहते हो तो राग का अ


कर दो; ोंिक राग होने से यथाथ ि उ नहीं होती।
–स –समागम 1

19. दे खने वाला जब तक दे खने की अिभलाषा करता है, तब तक दे खने का


राग है; दीखने वाली स ा सत् हो अथवा असत् । असत् िसनेमा की
आस भी ब न है । –स –समागम 1
:: 202 ::
ांितकारी संतवाणी

20. केवल असत् समझना रागरिहत होना नहीं है, ब अपने से िभ


िकसी की भी आव कता न हो, यही िन ा रागरिहत होना है। िकसी
और की आव कता का होना ही राग है । –स –समागम 1

21. राग– पी भूिम म ही भोग– पी वृ उ होता है, िजस पर सुख–


दु ःख पी अनेक फल लगते ह।...... राग–रिहत भूिम म ही योग– पी
वृ की अिभ होती है , िजस पर त ान– पी फल लगता है ,
जो ेमरस से पूण है । –साधन–त

22. दोष मालूम होते ए भी ाग न करना 'राग' है । गुण मालूम होते ए


भी हण न करना ' े ष' है । राग ाग नहीं होने दे ता व े ष ेम नहीं
होने दे ता। ाग व ेम से राग– े ष िमट जाते ह। –स वाणी ( ो र)

23. राग की भूिम म ही सम िवकारों की उ ि होती है ।


–मानवता के मूल िस ा

24. राग– े ष रिहत होने का उपाय ा िनकला ? अपने सुख–दु ःख का


कारण िकसी और को न मानना। –संतवाणी 4

25. जो मा ता तथा जो िस ा मनु को ेह से दू र करके राग– े ष म


आब करते ह, वे चाहे िकतने ही सु र ों न हों, उनसे िच शु
नहीं होता। –संत–सौरभ

26. सुख की आशा की नहीं िक 'राग' उ हो जाएगा। अपने दु :खों का


कारण दू सरों को माना नहीं िक ' े ष' उ हो जाएगा।............ े ष ने
ही िभ ता को पोिषत िकया है , राग ने ही हम पराधीन बनाया है ।
–संतवाणी
राजनीित

राजनीित

27. िवधान–िनमाताओं को रा का संचालक कभी नहीं होना चािहए। वे


रा को िवधान के प म काश दे ते रह। रा के बनाए ए िवधान से
और िवधान–िनमाताओं ारा रा का संचालन होने से कभी भी दे श म
वा िवक एकता सुरि त नहीं रह सकती। अत: रा के संचालक और
िवधान–िनमाता –इन दोनों का अलग–अलग होना अिनवाय है।
–दशन और नीित

28. िवधान–िनमाण का अिधकार िकसी रा को नहीं है , अिपतु वीतराग


पु षों को है । रा िवधान का पालन कराने म य शील हो सकता है ;
िक ु िवधान वही बना सकता है , िजसका जीवन िवधान हो।
–दशन और नीित

29. रा का िनमाण समाज के उन यों ारा होना चािहए, िज ोंने


ि या क प से जन–समाज की सेवा की है अथात् सेवा करने वालों
के ारा ही रा का िनमाण ठीक–ठीक हो सकता है, पर उ यं
रा –संचालक नहीं होना चािहए। –दशन और नीित

30. स ा सेवक वही हो सकता है , िजसके जीवन म रा का संचालक होने


का लोभन न रहे । स ान की दासता ने अिभमान को ज दे कर
सेवाभाव को न िकया है । इस कारण सेवक रा का िनमाता हो
सकता है , िक ु रा का सं चालक नहीं। –दशन और नीित

31. सेवा करने वाला जनता का ितिनिध तो ाभािवक ही बन


जाता है। उसम न तो पद का लालच होता है , न प पात, न ाथ; अत:
वह उसी को चुनेगा, जो वा व म स ा सेवक और ईमानदार
होगा। –स –समागम 2
:: 204 ::
ांितकारी संतवाणी

32. यिद पूँजीपित धमशू राजनीितक नेताओं के अ ाचारों से बचना


चाहते ह तो उनको सं ह की ई स ि े ापूवक बाल–म र
और शु ूषा–आ म के बनाने म लगा दे नी चािहए अथात् अपनी
स ि स े सेवकों के हाथ म दे दे नी चािहए, नहीं तो समाज–सुधार
के गीत गाकर सा वादी और समाजतं वादी डाकुओं की भाँ ित छीन
लगे, अथवा िवधान बदलकर पूँजीवाद िमटा दगे। जैसे काँ ेस
गवनमै ज़मीदारी था को िमटा रही है । –स –समागम 2

33. पाट का ितिनिध बनकर जो काय िकया जाएगा, उससे केवल पाट
सु ढ़ होगी, का िनमाण नहीं होगा। यों के िनमाण के
िबना स ाई, ईमानदारी और िन ता का ादु भाव नहीं होता और न
ाथ–भावना िमटती है । –स –समागम 2

34. िजस दे श के पूँजीपित तथा िव ान् िवषयास हो जाते ह, उस दे श का


शासन दिषत हो जाता है : ोंिक शासन करने वाली सं था का ज
िव ानों तथा पूँजीपितयों के आधार पर ही िनभर है।.......... अत:
पूँजीपितयों तथा िव ानों का सुधार होने पर ही रा का यथे िनमाण हो
सकता है । –स –समागम 2

35. बाल–म र तथा शु ूषा–आ मों की सेवा करने वाले िव ानों के ारा
ही गवनमट का िनवाचन होना चािहए। जो उन िव ानों म से वीतराग
पु ष हों अथात् िजनका मोह न हो गया हो, उनको िवधान बनाने का
अिधकार होना चािहए।...... रा का कत तो केवल वीतराग पु षों के
बनाए ए िवधान का पालन करना है । –स –समागम 2

36. इने–िगने चार के ारा जनता को अपने प म लेकर जनता


के बहाने अपने मन की बात करते ह। इस चुनाव म स ाई नहीं होती।
राजनीित

चुने ए सद कहने के िलए ही जनता के ितिनिध होते ह. वा वम


जनता के नहीं होते। –स –समागम 2

37. सेवा करने वालों का चुना आ रा हो और वीतराग पु षों का बनाया


आ िवधान हो, तभी समाज म ाय तथा शा की थापना हो सकती
है। –स –समागम 2

38. िहत अपराध के नाश म है , अपराधी के नाश म नहीं। अपराधी


िनरपराध हो जाए, यह स ावना भाव से अपने ही म अपने
स वाणी ित होती है अथवा उन वीतराग त िवद् महापु षों म होती
है, िजनके जीवन म सवा भाव की अिभ हो गयी है। इसी
कारण िवधान बनाने का वा िवक अिधकार वीतराग त वे ाओं को
है, अ को नहीं। –मानवता के मूल िस ा

39. रानी के पेट से िनकला आ राजा नापस है तो जनता के पेट से


िनकला आ िमिन र गरीबी िमटाएगा, िबलकुल मा क धारणा है ।
–संतवाणी 8

40. आजकल यही तो स मान िलया है िक ब त–से लोग िजस बात को


कह द, वह बात मान ली जाए, चाहे झूठ हो। ऐसा मान लो िक सौ
बेवकूफ हों और िन ानवे बु मान हों तो सौ बेवकूफ िन ावे
बु मानों को हरा द। यह नीित गलत है िक नहीं ? –संतवाणी 8

41. यिद जनता यं स ाई को जानने म समथ होती तो शासकों के


िनवाचन की आव कता ही ा थी ? जनता तो अबोध बालक के
समान होती है । जनता के ारा िनवाचन होने पर तो सौ मूख िन ानवे
भले आदिमयों को हरा सकते ह। ऐसी गवनमे कभी स की खोज
करने वाली नहीं हो सकती। –स –समागम 2
:: 206 ::
ांितकारी संतवाणी

42. िजस कार पागल का थ शरीर भी कुछ काम नहीं आता, वही दशा
धमशू सा वाद की होगी। –स –समागम 2

43. सेवक शासक नहीं हो सकता और शासक सेवा नहीं कर पाता।


–साधन–िनिध

िजसने गत सुख के िलए ही शारी रक तथा बौ क म का


उपयोग िकया है, उसी ने और समाज की एकता भंग की है,
िजसके होने से सवा –भाव सुरि त नहीं रहा और अिभमान
तथा दीनता म आब हो गया। इस कारण आिथक िवषमता सु ढ़ हो
गयी। अतः शारी रक तथा बौ क म का उपयोग समाज के िहत म
ही करना अिनवाय है। तभी आिथक त ता सुरि त रह सकती है।

रोग

1. रोग शरीर की वा िवकता समझाने के िलए आता है ।


–संतप ावली 1

2. रोग पर वही िवजय ा कर सकता है , जो शरीर से असंगता का


अनुभव कर लेता है । –संतप ावली 1

3. जब ाणी तप नहीं करता, तब उसको रोग के प म तप करना


पड़ता है। –संतप ावली 1

4. ा का अनादर और अ ा का िच न, अ ा की िच और ा
से अ िच –यही मानिसक रोग है । –साधन–ि वेणी

5. वा व म तो जीवन की आशा ही परम रोग और िनराशा ही आरो ता


है। दे हभाव का ाग ही स ी औषिध है । –संतप ावली 2
रोग

6. राग का अ करने के िलए ही रोग उ हआ है । राग का अ कर


रोग त: नाश हो जाएगा, और िफर बु लाने पर भी न आएगा।
–संतप ावली 2

7. रोग ाकृितक तप है । उससे डरो मत। रोग भोग की िच का नाश


तथा दे हािभमान गलाने के िलए आता है । इस ि से रोग बड़ी
आव कव ु है । –संतप ावली 2

8. रोग भी ाकृितक तप है , और कुछ नहीं। रोग का वा िवक मूल तो


िकसी–न–िकसी कार का राग ही है ; ोंिक राग–रिहत करने के िलए
ही रोग के प म अपने ारे भु ीतम का ही िमलन होता है । हम
मादवश उ पहचान नहीं पाते और रोग से भयभीत होकर उससे
छु टकारा पाने के िलए आतुर तथा ाकुल हो जाते ह, जो वा वम
दे हािभमान का प रचय है , और कुछ नहीं। –पाथेय

9. सभी रोगों का मूल एकमा राग है । –पाथेय

10. स वाणी भोजन की िच ने सभी को रोगी बनाया है । य िप भोजन


प रवतनशील जीवन का मु अंग है ; पर ु उसकी. िच अनेक रोग
भी उ करती है । असं गता सुरि त बनी रहे और भूख तथा भोजन
का िमलन सहजभाव से होता रहे तो बड़ी ही सुगमतापूवक ब त से
रोग िमट जाते ह। रोग राग का प रणाम है , और कुछ नहीं –चाहे
वतमान राग हो या पूवकृत। –पाथेय

11. दे हजिनत सुख की दासता का अ करने के िलए रोग के पम


तु ारे ही ीतम आए ह। उनसे डरो मत, अिपतु उनका आदरपूवक
ागत करो और िविधवत् उनकी पूजा करो। रोग भोग के राग का
अ कर अपने–आप चला जाएगा। –पाथेय
:: 208 ::
ांितकारी संतवाणी

12. प से तुम िकसी भी काल म रोगी नहीं हो केवल दे ह की त ू पता


से ही तु अपने म रोग तीत होता है । –पाथेय

13. दे हािभमान गलाने के िलए ही रोग भगवान् आए ह। –पाथेय

14. रोग ाकृितक तप है । रोगाव था म शा तथा स रहना अिनवाय


है। ाणश सबल होने पर ेक रोग त: न हो जाता है। िच
म स ता तथा दय म िनभयता रहने से ाणश सबल हो जाती
है। –पाथेय

15. मेरे िव ास के अनुसार कुछ रोग अिभमान बढ़ जाने पर भी होते ह।


िकसी साधक को ऐसा िछपा आ अिभमान होता है िक िजसकी
िनवृि कराने के िलए भी रोग आता है । एक साधक ने िकसी के ित
घृणा की भावना की और वह तुर रोगी हो गया। उनके िसखाने के
अनेक ढं ग ह। भय से भी रोग हो जाते ह। भय और अिभमान का अ
होने पर कुछ रोग त: नाश हो जाते ह। –पाथेय

16. जो साधन–साम ी है , उसके ारा साधक िकसी कार का सुख–


स ादन न कर सके, इसी कारण वे रोग के प म कट होते ह।
पर साधक यह रह जान नहीं पाता िक मेरे ही ारे रोग के वेष म
आए ह। –पाथेय

17. शारी रक बल का आ य तोड़ने के िलए रोग आया है । उससे डरो मत,


अिपतु उसका सदु पयोग करो। रोग का सदु पयोग दे ह की वा िवकता
का अनुभव कर उससे असं ग हो जाना है । –पाथेय

18. िच म स ता, मन म िनिवक ता ों– ों सबल तथा थायी होती


जाएगी, ों– ों त: आरो ता आती जाएगी, इसम लेशमा भी
स े ह नहीं है । –पाथेय
रोग

19. िनि ता तथा िनभयता आने से ाणश सबल होती है, जो रोग
िमटाने म समथ है । उसके िलए ह र–आ य तथा िव ाम ही अचूक
उपाय है । –पाथेय

20. दु :ख के भय से ा श का ास और शारी रक तथा मानिसक


रोगों की उ ि होती है । –दु ःख का भाव

21. शरीर का पूण थ होना शरीर के भाव से िवपरीत है; ोंिक िजस
कार िदन और रात दोनों से ही काल की सु रता होती है, उसी
कार रोग और आरो दोनों से ही शरीर की वा िवकता कािशत
होती है । –स –समागम 1

22. जो रोग औषिध से ठीक नहीं होता, उसका कारण अ की मिलनता


होती है । अ की मिलनता शुभ कम आिद से दू र होती है , औषिध से
नहीं। –स –समागम 1

23. रोग–िनवृि का एक सव म उपाय यह भी है िक यिद रोगी रोगी–भाव


का स ाव अपने म से िनकाल दे तो िफर बेचारा िनज व हो जाता है ;
ोंिक 'म' की स ा से सभी स ाएँ कािशत होती ह। स ाव से
तीित म स ता आ जाती है , जो दु :ख का मू ल है । –स –समागम 1

24. रोग यही है िक ""म रोगी ँ । औषिध यही है िक 'म सवदा आरो ँ ';
ोंिक आरो ता से जातीय एकता है ।.......... यिद एक बार भी अपनी
पूरी श से यह आवाज लगा दो िक 'म आरो ँ ' तो रोग भाग
जाएगा। –स –समागम 1

25. रोग का भय परम रोग है , और यिद दय म रोग का भय न रहे तो


बेचारा रोग िनज व हो जाता है । –स –समागम 2
:: 210 ::
ांितकारी संतवाणी

26. कभी–कभी जब ाणी मादवश िव नाथ की व ु को अपनी समझने


लगता है , तब उसकी आस िमटाने के िलए 'रोग भगवान्' आते ह।
शरीर िव की व ु है और िव िव नाथ का है, उसको अपना मत
समझो। –स –समागम 2

27. मन म थरता, िच म स ता और दय म िनभयता ों– ों बढ़ती


जाएगी, ों– ों आरो ता तः आती जाएगी; ोंिक मन तथा ाण
का घिन स है । अत: मन के थ होने से शरीर भी थ हो
जाता है । –स –समागम 2

28. वा व म तो शरीर की आस ही परम रोग है । िवचारशील अपने


को शरीर से असंग कर सभी रोगों से मु कर लेते ह।
–स –समागम 2

29. रोग भोग का ाग कराने के िलए आता है । इस ि से रोग भोग की


अपे ा अिधक मह की व ु है । –स –समागम 2

30. जब ाणी तप नहीं करता, तब उसको रोग के प म तप करना


पड़ता है। –स –समागम 2

31. रोग से शरीर की वा िवकता का ान हो जाता है , िजससे भोग–


वासनाओं का ाग करने की श आ जाती है । –स :–समागम 2

32. जब तक तु ारा मन थर तथा स नहीं होगा, तब तक रोग िमटाने


की श जा त नहीं हो सकती; ोंिक मन के ठीक होने पर ही
ाणश सबल होती है और ाणश के सबल होने पर ही रोग
िमटाने की श आ सकती है । –स –समागम 2

33. रोग शरीर का अिभमान िमटाने के िलए आता है । िजस िदन शरीर का
अिभमान गल जाएगा, उस िदन रोग बुलाने पर भी नहीं आएगा; ोंिक
ल (उ े )

शरीर तु ारा होकर थ नहीं हो सकता। अत: रोग िमटाने का सबसे


सुगम उपाय यही है िक तु म शरीर को अपना मत समझो और मूक
होकर दय से ेम–पा को पुकारती रहो। –स –समागम 2

34. रोग से 'अशुभ कम के फल' का अ होता है और तप से 'अशुभ कम'


का अ होता है । िजस कार तप ी को तप के अ म शा
िमलती है , उसी कार रोगी को रोग के अ म भी िमलती है।
–स –समागम 2

35. जो भोगी होता है , वह रोगी अव होता है –यह िनयम है।


–संतवाणी 5

ल (उ े )
1. ल वह नहीं हो सकता, िजसका िवयोग हो और ल वह भी नहीं हो
सकता, िजसकी ा न हो सके। इस ि से कोई भी प र थित ल
नहीं हो सकती; पर ु ेक प र थित ल – ा का साधन हो
सकती है । –मानव की माँग

2. दशन तो अनेक ह, पर जीवन एक है अथात् एक ही ल की ा के


िलए अनेकों ि कोण ह। ल की एकता से सभी दाशिनक एक ह;
िक ु ल की ा के िलए साधन प दशन िभ –िभ ह।
–मानव–दशन

3. अपने ल का िनणय होने पर ही अपने पथ का िनमाण होता है ।


–मानव–दशन

4. अपना ल वही हो सकता है , िजसकी उपल अपने ही ारा अपने


को हो सके। –साधन–िनिध
:: 212 ::
ांितकारी संतवाणी

5. दे हािद व ुओं के आ य से ही ल की ा होगी, यही मूल भूल है ।


–मूक स ंग

6. अपने ल से िनराश होने के समान और कोई भारी भूल नहीं है ।


–मूक स ंग

7. जीवन की सारी ि याएँ एक ही ल के िलए होनी चािहएँ ; ोंिक यही


स ाई है । –संतप ावली 1

8. ल एक ही स ा होता है । ि याओं म अनेकता होती है , ल म


नहीं। –संतप ावली 1

9. जब साधक अपने ल को िमली ई व ु, यो ता, साम के ारा


ा करना चाहता है , जो उसे िव –सेवा के िलए िमली ह, तब ल से
दू री, भेद, िभ ता तीत होती है । –साधन–िनिध

10. सतत प रवतन से अन िन की ओर, उ ि –िवनाश से अमर की


ओर तथा दु ःख से आन की ओर गितशील होना ही हमारा ल है ।
अत: उस ल तक प ँ चने के िलए जो कुछ कर सकते ह, करना है ।
–मानव की माँ ग

11. भोग– ा िववेकयु जीवन का उ े नहीं है । िववेकयु जीवन


का उ े तो केवल कामनाओं की िनवृि , िज ासा की पूित और े म
की ा ही हो सकता है । –जीवन–दशन

12. उ े वही हो सकता है , िजसका स वतमान जीवन से हो,


िजसकी पूित अिनवाय हो, िजसकी पूित म िकसी का अिहत न हो, और
सम वृि याँ उसी के िलए हों अथात् सम जीवन उस एक
लालसा की पूित म ही लग जाए। –जीवन–दशन
व ु

13. आव कता के ान म ही उ े का ान िव मान है ।


–जीवन–दशन

14. उ े वही हो सकता है , जो अिवनाशी हो; ोंिक िजसको पाकर


कुछ और पाना शेष रहता है , वह उ े नहीं होता। –दशन और नीित

15. दशन, स दाय, मत एवं वाद िभ –िभ कार के होने पर भी मानव


मा का उ े एक है । –दशन और नीित

16. कोई–कोई साधक साथक िच न तथा िनिवक थित को ही जीवन


का ल मान बैठते ह। य िप 'िनिवक थित' बड़े ही मह की
व ु है; पर ु उसम रमण करना ‘िनिवक बोध' म बाधक है ।
–सफलता की कुंजी

17. ाकृितक िनयम के अनु सार का ल वही हो सकता है,


िजसकी ा अिनवाय है , िजसका स वतमान जीवन से है और
िजसम िकसी भी कार से प रवतन स व नहीं है अथात् ल सदै व
िन होता है और प र थित चाहे जैसी ों न हो, उसम सतत
प रवतन होता रहता है । इस ि से कोई भी प र थित िकसी का भी
ल नहीं हो सकती। –िच शु

18. िजसका जो ल है , उसे वह िसखाया नहीं जा सकता; ोंिक जो बात


यं. जानने की है , उसको सीखना–िसखाना उससे िवमुख होना तथा
करना है। –िच शु

व ु

1. व ु सं ही से बड़ा घबराती है , बड़ी दु :खी होती है ......... उसका


दु पयोग करने वाले से बड़ा घबराती है , बड़ी भयभीत होती है ..........
:: 214 ::
ांितकारी संतवाणी

जो व ु पर अपनी ममता का प र रख दे ता है. उससे तो व ु


परे शान हो जाती है । –संतवाणी 7

2. यिद आप व ुओं का सदु पयोग करते ह, यिद आप व ुओं म ममता


नहीं रखते, यिद आप व ुओं का सं ह नहीं करते, तो आप सच
मािनए, आपके जीवन म से द र ता सदा के िलए िमट जाएगी।
–संतवाणी 7

3. यिद आपके जीवन म से व ु–िव ास िनकल जाए, व ु स


िनकल जाए और व ु का दु पयोग िनकल जाए तो व ु तरसेगी
आपकी सेवा म आने के िलए। –संतवाणी 7

4. हम व ु को अपना मानकर अपने को पराधीन और व ु का िवनाश,


व ु के िवकास की कावट उ कर दे ते ह। –जीवन–पथ

5. कोई भी व ु गत नहीं है ......... सारी श याँ, जो हमारे पास ह,


वे समि श यों का ही एक िह ा आ; और समि श िकसी
की है नहीं। –साधन–ि वेणी

6. सम सृि को व ु के अथ म ही लेना चािहए; ोंिक इ य– ान से


भले ही व ुएँ िभ –िभ तीत होती हों, पर बु के ान से सम
व ुएँ एक ह, और बु से अतीत के ान म व ुओं का अभाव है।
–संत–उ ोधन

7. यिद व ुओं का अपना त सौ य होता तो उनम प रवतन न


होता। सतत प रवतन यह िस करता है िक उ ईव ुओं को
िकसी से सौ य िमला है । –मानव–दशन

8. अपने िलए िकसी भी व ु, यो ता, साम की अपे ा नहीं है ।


–सफलता की कुंजी
व ु

9. व ुएँ तो हमारा ाग कर ही रही ह, यिद हमने भी उनका ाग कर


िदया तो वे हमारी सराहना करगी। वे घबड़ाती ह, ब त दु ःखी होती ह
सं ह से, दु पयोग करने वाले से और उससे, जो उन पर ममता का
प र रख दे ता है । वे स होती ह उससे, जो न उनसे ममता करता है,
न उनका सं ह करता है और न दु पयोग। उनकी स ता की
पहचान यह है िक िफर आपके िलए आव क व ुएँ अपने–आप
आने लगती ह, जीवन से द र ता सदा के िलए िमट जाती है।
–सफलता की कुंजी

10. ाकृितक िनयम तो ऐसा है िक जो व ु िजतनी ही अिधक उपयोगी


होती है , उतनी ही सु गमता से ा होती है ।
–दशन और नीित

11. जब जीवन म व ु से का मह अिधक हो जाता है , तब


िनल भता की अिभ होती है । –दशन और नीित

12. व ु–यु होने से का मह नहीं है । का मह


िववेकिवत् होने म िनिहत है । –दशन और नीित

13. उ ई ेक व ु िव की ही स ि है ।
–दशन और नीित

14. िमली ई व ुओं को गत मान लेना अपने को व ुओं की


दासता अथात् लोभ म आब करना है । लोभ की उ ि होते ही
द र ता अपने–आप आ जाती है । –दशन और नीित

15. अपने से व ुओं को अिधक मह दे ना द र ता का आवाहन करना


है। –दशन और नीित
:: 216 ::
ांितकारी संतवाणी

16. िमली ई व ुओं की ममता का ाग, अ ा व ुओं की कामना का


ाग तथा िमली ई व ु ओं का सदु पयोग करने पर ाकृितक िवधान
के अनुसार आव कव ु एँ तः ा होने लगती ह।
–दशन और नीित

17. शरीर, इ य, ाण, मन, बु आिद सभी ‘व ुओं के अथ म आ जाते


ह। इतना ही नहीं, िजसे हम सृि कहते ह, वह भी एक 'व ु' ही है ;
ोंिक सृि अपने को अपने–आप कािशत नहीं करती। –िच शु

18. ेक व ु सम सृि से अिभ है । इस ि से सम सृि भी एक


व ु ही है । तो िफर िकसे अपना और िकसे पराया मानोगे ? या तो
सभी अपने ह, या कोई भी व ु अपनी नहीं है । –िच शु

19. ाकृितक िवधान म व ु ओं की ूनता नहीं है । कारण िक ेक व ु


अन है । ऐसा कोई बीज नहीं, िजसम अनेक वृ न िव मान हों
अथात् कोई गणना ही नहीं कर सकता िक ेक दाने म से िकतने
दाने िनकल सकते ह। इतना ही नहीं, 'कुछ नहीं' से ही 'सब कुछ'
उ होता है । –िच शु

20. व ुओं के मह ने ाणी को व ुओं से भी वंिचत िकया और िच य


जीवन से भी िवमुख कर िदया। –िच शु

21. िच न मा से िकसी व ु की उपल नहीं होती, अिपतु उनकी


आस ही ढ़ होती है ; ोंिक व ुओं की उ ि कम–सापे है ,
िच न–ज नहीं। जो कम–सापे है , उसका िच न करना िच को
अशु करना है और कुछ नहीं। –िच शु

22. व ुओं के स ने योग को भोग म, ान को अिववेक म और ेम


को अनेक आस यों म बदल िदया है । –िच शु
व ु

23. व ुओं की िवमुखता म ही अन की स ुखता िनिहत है । –िच शु

24. व ुओं म अपनी थापना व ु से 'अभेद–भाव' का और अपने म व ु


की थापना उनसे 'भेद–भाव' का स थािपत करती है। अभेद–
भाव का स स ता और भेद–भाव का स ि यता उ
करता है।..... व ुओं के भे द–अभेद–स से ही अहम् ' और 'मम'
उ हो जाता है , जो िच को अश कर दे ता है। –िच शु

25. न तो अन को ही स अपेि त है और न व ुएँ ही स जोड़ने


म समथ ह। तो िफर वह कौन है िक िजसने व ुओं से स ीकार
िकया है ? इस स म यही कहना यु यु होगा िक िजसम स
की िज ासा है और व ुओं की कामना है , उसी ने व ुओं से स
ीकार िकया है । –िच शु

26. य िप व ु की अपे ा अिधक मह की व ु है, पर ु


वा िवक ि से तो भी व ु ही है । इतना ही नहीं, अपनी दे ह
भी एक व ु ही है और सम सृि भी एक व ु ही है । ऐसी कोई
व ु है ही नहीं, जो उ ि –िवनाशयु तथा पर– का न हो।
–िच शु

27. जो उ ि –िवनाशयु है , िजसम सतत प रवतन है और जो


पर का है , उसे 'व ु' कहते ह। –िच शु

28. व ुओं के स ने ही ाणी म जड़ता उ कर दी और उनके


ारा सुख की आशा ने ही पराधीन बना िदया। –िच शु

29. यह सभी की अनुभूित है िक गहरी नींद के िलए ाणी ि य–से–ि य


व ु और का ाग कर दे ता है । ाणी का इतना घिन स
िकसी भी व ु तथा से नहीं, िजसके िलए वह िन ा का ाग
:: 218 ::
ांितकारी संतवाणी

कर सके। पर ु िन ा के िलए सभी व ुओं एवं यों का ाग


करता ही है । इस ि से सम व ुओं का स जा त और –
अव था तक ही सीिमत है अथात् िकसी भी व ु और से िन
स नहीं है । –िच शु

30. व ुओं की ममता लोभ को और उनका दु पयोग मोह को उ


करता है । –िच शु

31. संसार की सभी व ुओं से बु दे वी े ह, इसम कुछ भी स े ह नहीं


है; िक ु स तक जाने म असमथ ह, यह परम स है ।
–स –समागम 1

32. िजसकी उ ि हो, िजसम प रवतन हो, िजसका िवनाश हो, उसको
व ु कहते ह। इस ि से यह सारा संसार एक व ु है । –संतवाणी 8

33. ेक व ु भु की है अथवा गत प से िकसी की नहीं . है ।


यह एक िव ान है । –पाथेय

34. जो व ुएँ हमारे िबना रह सकती ह अथवा हम अ ा ह, उनकी


अ ा म ही हमारा िवकास िनिहत है । –जीवन–दशन

35. िमला आ अपने िलए उपयोगी नहीं होता, अिपतु दू सरों के िलए होता
है। –मानव–दशन

36. िजस िकसी को जो कुछ िमला है , वह िकसी की दे न है। –मूक स ं ग

37. िकसी व ु को िमटाने की बात सोचना भी उसके अ को –


ीकार करना है और उस व ु से े ष करना है , जो वा व म एक
कार का स है । –मानव की माँग
िववेक

38. गत प से िजसे जो ा है , उसकी उपयोिगता दू सरों के ित


है और दू सरों को जो ा है , उसकी उपयोिगता अपने ित है ।
–मानव–दशन

39. दो वग के बीच, दो यों के बीच, दो दे शों के बीच आप पाएँ गे िक


जो िजसके पास है , वह उसके काम नहीं आता। वह दू सरे के काम
आता है। और दू सरे के पास जो कुछ है , वह अपने काम आता है।
–संतवाणी 5
बालक, रोगी, वृ और पशु–इनकी सेवा का दािय मानव–मा पर
है। इनकी यथे सेवा िकए िबना न तो द र ता ही नाश होगी और न
समाज आव क व ु से ही प रपूण होगा। अतः सं िहत स ि
रोगी, बालक, वृ तथा पशुओं की ही है।

िववे क

1. बु तो एक ाकृितक य के समान है और िववेक कृित से अतीत


अथात् अलौिकक त है । –मानव की माँग

2. बु कृित का काय है और िववेक कृित से परे की अलौिकक


िवभूित है । –मानव की माँग

3. िववेक का आदर करने म किठनाई ा है ? किठनाई यह है िक हम


मन, इ य आिद के ापार को ही जीवन मान लेते ह।
–मानव की माँ ग

4. िववेक के काश को ही जब िकसी भाषा–िवशेष या िलिप–िवशेष म


आब कर दे ते ह, तो वह ‘ ' कहलाता है और जब उस िववेक के
काश को िकसी के जीवन म दे खते ह, तो उसे 'स ' कहने लगते ह।
–मानव की माँग
:: 220 ::
ांितकारी संतवाणी

5. िववेक–िवरोधी िव ास ा है , पर िव ास के िलए यह आव क
नहीं है िक िववेक का समथन हो। उ ईव ु, अव था आिद का
िव ास िववेक–िवरोधी है । –मानव–दशन

6. िकसिलए कर रहे ह ? िकस भाव से कर रहे ह ? और कैसे कर रहे ह ?


–यिद ये तीनों बात िववेक के काश से कािशत ह तो समझना चािहए
िक हम करने म सावधान ह। यह िनयम है िक जो करने म सावधान है ,
उसका कभी ास न होगा, अिपतु उसका उ रो र िवकास ही होगा।
–मानव की माँग

7. िववेक मानवकी सजगतापू वक अिधकार– ाग की ेरणा दे ता है ।


िववेक के जीवन म अिधकार–लोलुपता की ग भी नहीं रहती। दू सरों
के अिधकार की र ा करना धम है और अिधकार– ाग का नाम
िववेक है। –पाथेय

8. िववेक िकसी कम का फल नहीं है ; ोंिक कमानु ान के िलए थम


िववेक, साम और ाकृितक व ुओं की आव कता होती है । इस
ि से कम िववेक का काय है , कारण नहीं। अत: िववेक अलौिकक
त है,जो अन की अहै तुकी कृपा से िमला है । –जीवन–दशन

9. हम िसखाया जाता है िक िववेक–िवरोधी कम मत करो। पर, यिद


िववेक–िवरोधी िव ास या स रहे गा तो िववेक–िवरोधी कम अव
बनेगा। इसिलए सबसे पहले िववेक–िवरोधी स और िव ास का
नाश आव क है । –सफलता की कुंजी

10. आज हम िववेक–िवरोधी स नहीं ागते और गीता चाट जाते ह,


पर ा उससे मोह का नाश होता है ? ....... इससे िस नहीं िमलेगी।
वह तो िमले गी िववेक–िवरोधी स तोड़ने से, जो उसी ण मोह का
िववेक

नाश कर दे गा, और िजसके िबना साधन का आर ही नहीं हो सकता,


चाहे गीता पढ़, चाहे समािध लगाव। –सफलता की कुंजी

11. यह भी नहीं हो सकता िक िववेक–िवरोधी स का ाग धीरे –धीरे


हो। स के टु कड़े नहीं होते। स जब टू टता है तो एक साथ
टू टता है । –सफलता की कुंजी

12. राग पी भूिम म ही िववेक–िवरोधी कम का ज होता है । यह िनयम


है िक िजसका ज होता है , उसकी मृ ु तः होती है; िक ु ज का
कारण रहते ए नाश होने पर भी उ ि होती रहती है।
–दशन और नीित

13. जो कुछ हो रहा है , वह मं गलमय िवधान से हो रहा है और जो कुछ


करना है, वह िववेकपूवक करना है । मंगलमय िवधान और िववेक –इन
दोनों म जातीय एकता है । िनज–िववेक गत िवधान और
ाकृितक िवधान समि िवधान है । ि और समि म जातीय तथा
प की एकता है । इस ि से िनज–िववेक के काश म िकया
आ कम अन के मं गलमय िवधान के अनु प ही होता है ।
–दशन और नीित

14. िववेक वह काश है , िजसम बु – ि ारा मानव इ य– ि पर


िवजय ा करता है । –दशन और नीित

15. िववेक का मह स की ओर अ सर होने म है , िववाद म नहीं।


िववेक साधन है . सा नहीं। साधन का अनसरण िस दाता है ; िक ु
साधन की ममता साधन के प म असाधन है । –दशन और नीित
:: 222 ::
ांितकारी संतवाणी

16. िववेक–िवरोधी कम से ही अकत का, िववेक–िवरोधी स से ही


दे हािभमान का एवं िववेक–िवरोधी िव ास से ही व ु, आिद के
िव ास का ज आ है । –दशन और नीित

17. िनज िववेक का अनादर और इ यों के ान का आदर ही साधक को


दे ह से असंग नहीं होने दे ता। इ यों के ान का उपयोग भले ही हो,
पर आदर िनज–िववेक का होना चािहए। –िच शु

18. काय कता का ही एक िच है, और कुछ नहीं। कता म शु काय के


आर से पूव होनी चािहए अथात् शु कता से ही शु काय की
िस हो सकती है । कता म शु ता भाव की शु से आती है और
भाव म शु िनज िववेक के आदर म है । –िच शु

19. अिववेक िववेक का अभाव नहीं, अिपतु िववेक का अनादर है ।


–िच शु

20. िववेक के अनादर से ही काम, कामना और अकत का ज होता


है। –िच शु

21. िववेक पी िवधान म कत िव ान, योगिव ान और अ ा िव ान


िव मान है । यिद ाणी ा िववेक का अनादर न करे तो अकत ,
भोग और िम ा अहं भाव की उ ि ही नहीं हो सकती....... िववेक का
अनादर ही शरीर, इ य, मन, बु आिद म अहं भाव उ करता है,
िजससे कतृ और भो ृ की उ ि होती है अथात् ाणी अपने को
कता और भो ा मान लेता –िच शु

22. िववेक का सूय उदय होते ही यह जो कुछ िदखायी दे ता है, उससे


स िव े द हो जाता है और िफर भोग 'योग' म तथा अिववेक
‘बोध' म प रवितत हो जाता है । –संतवाणी 8
िव शा

23. िववेक–िवरोधी स धीरे –धीरे नहीं तोड़ा जाता। स के टु कड़े


नहीं आ करते । स जब टू टता है , तब एक साथ टू टता है ।
–संतवाणी 7

िव शा

1. अपने से सुखी को दे खकर स हो जाए एकदम, और दु खयों को


दे खकर क िणत हो जाए। यह िव शा का महाम है।
–संतवाणी 4

2. साम का सदु पयोग िव शा का मू ल म है । – ेरणा पथ

3. िव शा कब होगी ? जब ेक भाई म, ेक बहन म यह चेतना


आ जाए िक म मानव पहले ँ , िह दू , ईसाई, मुसलमान, पारसी,
क ुिन , सोशिल और जाने ा– ा पीछे ँ। म बल का
दु पयोग नहीं क ं गा; ोंिक म मानव ँ , इ ान ँ । –साधन–ि वेणी

4. अगर आप यह चाहते ह िक िव शा का हल हो जाए; क ना न


रहे, न रहे ; तो हम सबको इस बात का त लेना होगा िक हम
िकसी को बुरा नहीं समझगे । –साधन–ि वेणी

5. जब तक आप इतनी महानता से नहीं सोचगे िक 'यह एक संसार है


और 'वह' एक परमा ा है , तब तक िव शा का हल नहीं हो
सकता। –साधन–ि वेणी

6. अगर आप समझते ह िक मजहब बदलने से, इ म बदलने से,


प र थित बदलने से िव शा हो जाएगी तो यह िब ु ल म है ;
ोंिक प र थित कैसी भी हो, सब अभावयु ह। कोई प र थित
:: 224 ::
ांितकारी संतवाणी

शा दायक नहीं होती। प र थित का सदु पयोग ही शा दायक होता


है। –साधन–ि वेणी

7. कत –परायणता से िव शा की सम ा हल हो जाती है।


–सफलता की कुंजी

8. एक शरीर म भी ेक अवयव की आकृित तथा कम अलग–अलग ह;


िक ु िफर भी शरीर के ेक अवयव म ीित की एकता है। कम म
िभ ता होने से ीित का भे द नहीं होता। इसके मूल म कारण यही है
िक सम शरीर एक है । इस बात म िकसी का िवरोध नहीं है । उसी
कार यिद िव की एकता म आ था कर ली जाए तो भाषा, मत, कम,
िवचारधारा, प ित, आकृित, रहन–सहन आिद म िभ –िभ कार का
भेद होने पर भी ीित की एकता सुरि त रह सकती है।
–दशन और नीित

9. त वे ाओं से अथवा परम भ ों से िव क ाण यं होता है ।


अ र िसफ यही होता है िक िव उनको नहीं जान पाता िक ये हमारा
क ाण कर रहे ह अथात् वे भौितक ि से 'लीडर' के प म नहीं
िदखायी दे ते...... थूल शरीर के अिभमान के कारण साधारण ाणी
सू सेवा को दे ख नहीं पाते, यह उनकी ि की कमी है।
–स –समागम 1

10. शरीर िव की व ु है ; अत: उसे स तापूवक िव को दे दे ना


चािहए। हम जब िव की व ु को िकसी का िनक समाज, रा एवं
स दाय को दे दे ते ह, तब िव म घोर अशा उ हो जाती है ।
इस अशा का मूल कारण यही है िक जो िव की व ु है, उसे हम
िव को नहीं दे ते। –स –समागम 2
िव ास

िमली ई व ुओं की ममता का ाग, अ ा व ुओं की कामना का


ाग तथा िमली ई व ुओं का सदु पयोग करने पर ाकृितक िवधान के
अनुसार आव क व ुएँ तः ा होने लगती ह। कारण, िक
िनल भतायु उदारता द र ता को खा लेती है।

िव ास

1. 'यह' का जो िव ास है , वह िववेक–िवरोधी िव ास है। लेिकन 'है' का


जो िव ास है , वह िववेक–िवरोधी नहीं है । –संतवाणी 4

2. भु–िव ास िकसी और ज रत से रखोगे, तो वह सा न रहकर


साधन बन जाएगा। जब परमा ा सा न रहकर साधन बन जाएगा,
तब परमा ा दू र हो जाएगा। –स वाणी 7

3. िव ास करने यो एकमा सवसमथ भु ह। –मानव की माँ ग

4. दे खे ए म िव ास और िबना दे खे ए पर िवचार करना िव ास और


िवचार का दु पयोग है । –मानव–दशन

5. आपको जो िमला है , वह िव ास करने के िलए नहीं, सेवा करने


के िलए िमला है । आपको जो व ुएँ िमली ह, वे सं ह करने के िलए
अथवा िव ास करने के िलए नहीं, सदु पयोग करने के िलए िमली ह। –
मानव की माँ ग

6. आप दे खे ए म िव ास करगे तो धोखा खाएँ गे। –संतवाणी 5

7. जानने का ज स े ह से होता है और िव ास की उ ि िन:स े हता


से होती है अथात् स े ह िज ासा जा त करता है और िनःस े हता
िव ास उ करती है । –मानव की माँ ग
:: 226 ::
ांितकारी संतवाणी

8. ान से िव की िनवृि और िव ास से िव नाथ की ा होती है ।


–पाथेय

9. िव ास उसी म हो सकता है , िजसको साधक ने इ य– ि तथा


बु – ि से दे खा नहीं। –स ंग और साधन

10. दे खे ए म िव ास करने से तो साधक के जीवन म अनेक िवकार


उ ए ह। –स ंग और साधन

11. िजसकी उपल कम तथा िववेक से िस है , उसम िव ास करना


भूल है। साधक को िव ास एकमा उ ीं म करना है, . िज वह
िव ास के अित र िकसी अ कार से ा नहीं कर सकता।
–स ंग और साधन

12. िमले ए को अपना मान ले ना िववेक–िवरोधी िव ास है । इस िव ास से


ही िवकारों की उ ि होती है । –दु :ख का भाव

13. दे ह–िव ास होने पर ही दे श, काल, व ु, आिद अनेक कार


के िव ास तः उ होने लगते ह और दे ह–िव ास का अ होते ही
ये सब अपने–आप िमट जाते ह। –जीवन–दशन

14. यह िनयम है िक िजस पर िव ास हो जाता है , उससे िन स तथा


आ ीयता तः होने लगती है । –िच शु

15. व ुओं से अतीत जो अन है , उसका िव ास ाणी को व ुओं की


दासता से मु ही नहीं कर दे ता, अिपतु उस अन से स जोड़ने
म भी समथ होता है । –िच शु

16. िवक रिहत िव ास िकसी व ु आिद पर नहीं हो सकता; ोंिक


िजसके स म अधूरी जानकारी होती है , उसके स म स ेह
होता है , िव ास नहीं। –िच शु
िव ास

17. िव ास म स जोड़ने का साम त:िस है । िजस पर िव ास


होता है, उसम ममता हो ही जाती है । यह िनयम है िक ममता ि यता
को जा त करती है । –िच शु

18. िव ास उस पर नहीं करना चािहए, िजसे इ य, मन, बु ारा जानते


हों। िव ास उस पर होना चािहए, िजसे कभी िकसी इ य ारा िवषय
नहीं िकया। –िच शु

19. िवक –रिहत िव ास य िप ान नहीं है , पर ु जीवन म उसका


भाव ान के समान ही होता है । उस िव ास को ही उसका िव ास
कहते ह, िजसके स म कोई कुछ नहीं जानता; िक ु उसकी माँ ग
जीवन म है । –साधन–त

20. िजसके स म कुछ नहीं जानते ह, उससे स जोड़ने म भी


िव ास ही हे तु है अथात् आ कता का मू ल िव ास ही है।
–साधन–त

21. धम और िववेक भी ई र–िव ास से ही पु होते ह और सुरि त रह


सकते ह। हरे क प र थित म ई र–िव ास ही काम करता है। उसी के
बल पर मनु अपने ल तक प ँ च सकता है । –संत–सौरभ

22. सां सा रक यों का िव ास बड़ा भयानक िस आ है । इन पर


िव ास करके मनु ब त धोखे म आ जाता है। अिधक ा, साधक
को तो अपने शरीर, मन और बु पर भी िव ास नहीं करना चािहए।
िव ास के यो एकमा ई र ही है । –संत–सौरभ

23. जब तक मनु संसार पर िव ास करता है , उसको अपना मानता


रहता है, तब तक वह खतरे से खाली नहीं है। संसार की सब चीज
धोखा दे ती ह। –संत–सौरभ
:: 228 ::
ांितकारी संतवाणी

लोभ से ही द र ता का ज होता है। अ से ही सब कुछ उ


होता है। 'उसम' अभाव नहीं है। तो िफर आव क व ुओं का अभाव
कैसा? इस कारण यह ीकार करना ही पड़ता है िक यिद मानव
उदारता को अपनाए और आल तथा अकम ता का ाग कर
डाले, तो आव क व ुएँ अपने–आप ाकृितक िवधान से िमलने
लगगी। पर यह रह वे ही जान पाते ह, िज ोंने अन के मंगलमय
िवधान का अ यन िकया है ।

िव ाम

1. िव ाम िमलता है तीन कार से –या तो जाने ए के आदर से, या तो


िमले ए के सदु पयोग से, या अन की शरणागित से। –संतवाणी 4

2. उस िव ाम म भ का भगवान् मौजूद है , िज ासु का त ान मौजूद


है और योगी का योग मौजू द है ।........ जो चीज सभी को िमल सकती है ,
वह िव ाम म है , म म नहीं। –संतवाणी 6

3. िनिवक ता, समता, असंगता और शरणागित –ये चार हम लोगों


को िव ाम के मालूम होते ह। ये चारों िव ाम के सा ा म वेश
करने के दरवाजे ह। –जीवन–पथ

4. हम अपने िलए यह करगे, इससे हम कुछ िमलेगा, हम जगत् से कुछ


िमलेगा, हम भु से कुछ िमलेगा। तो जब तक ये बात जीवन म रहती
ह, तब तक िव ाम नहीं िमलता। –जीवन–पथ

5. आव क काय पूरा कर दो और अनाव क काय छोड़ दो और


उसके बदले म कुछ न चाहो तो िव ाम िमलता है । –साधन–ि वेणी

6. िव ाम अकम ता या आल नहीं है , इसिलए आव क काय के


स ादन तथा अनाव क काय के ाग से सा है । –संत–उ ोधन
िव ाम

7. मनु के जीवन म करना और पाना ही म है। अतएव इसका अ


होने पर ही स ा िव ाम है । –संत–उ ोधन

8. शरीर से काम न करने का नाम म–रिहत होना नहीं है । म–रिहत


होने का अथ है –संक –रिहत होना। –संत–उ ोधन

9. सत् का सं ग तो एकमा अहं कृित–रिहत िव ाम म ही िनिहत है।


–मूक स ंग

10. िव ाम कोई अ ास तथा अनु ान नहीं है । वह िकसी के सहयोग से


िस नहीं होता, अिपतु अपने ही ारा अपने को सा है ।
–मूक स ंग

11. िव ाम ही म के आिद और अ म है । जो आिद और अ म है ,


उसी म जीवन है , वही अिवनाशी है । उससे अिभ होना ही सत् का
संग है। –मूक स ंग

12. अहंकृित–रिहत ए िबना िव ाम नहीं िमलता। –मूक स ंग

13. राग–रिहत भूिम म ही िचरिव ाम िनिहत है । –पाथेय

14. म शरीर से तादा जोड़ता है और िव ाम शरीर से असंग कर दे ता


है। –पाथेय

15. िव ाम उ ीं को ा होता है , जो अपने को सभी व ु , अव था आिद


से असंग कर लेते ह। –जीवन–दशन

16. शारी रक िव ाम आव क म से, मानिसक िव ाम अनाव क


संक ों के ाग से और बौ क िव ाम संक पूित के सुख का ाग
करने से ा होता है । –जीवन–दशन
:: 230 ::
ांितकारी संतवाणी

17. िव ाम उसी को ा होता है , जो अपने म अपना कुछ नहीं पाता एवं


जो न तो ा का दु पयोग करता है और न अ ा व ुओं की इ ा
ही। –जीवन–दशन

18. िव ाम के िलए यह महाम अपनाना अिनवाय है िक अपने िलए कभी


कुछ नहीं करना है और न आज तक िकया आ अपने काम आया है।
कम का प रणाम जो कुछ होता है , उसकी प ँ च शरीर तक ही रहती
है। –सफलता की कुंजी

19. अपने को जो चािहए, वह अपने म है । जो अपने म है, वह िकसी म से


सा नहीं है , अिपतु िव ाम से ही सा है । िव ाम के िलए िकसी भी
िमली ई व ु, यो ता और साम की अपे ा नहीं है ।
–सफलता की कुंजी

20. सभी प र थितयाँ भाव से ही प रवतनशील ह और िव ाम अपने ही


म मौजूद है । जो अपने म है , उससे िवमुख होना और िजन प र थितयों
म सतत प रवतन है , उनको मह दे ना और उनके पीछे दौड़ना ही
साधक को िव ाम से वंिचत रखता है । –िच शु

21. जब जीवन म िव ाम आ जाता है , तब िन े हता भी आ जाती है, एवं


जब िन े हता आती है , तब ेम का भी ादु भाव तः हो जाता है ।
–िच शु

22. यिद काय के अ म िव ाम नहीं िमलता तो समझना चािहए िक काय


करने म कोई असावधानी अव ई है , नहीं तो िव ाम का ा होना
ाभािवक है । –िच शु

23. ऐसा कोई साम है ही नहीं, िजसका उ म– थान िव ाम न हो।


–िच शु
िव ाम

24. िव ाम तीन कार से उपल होता है –वतमान काय को पिव भाव


से, पूरी श लगाकर एवं ल पर ि रखकर करने से,
िववेकपूवक चाहरिहत होने से, और िव ासपूवक अन की अहै तुकी
कृपा के आि त होने से। –िच शु

25. आल और िव ाम म एक बड़ा भेद है । आलसी ाणी सदै व व ुओं


के िच न म आब रहता है और िजसे िचर िव ाम ा है, वह
व ुओं के िच न से रिहत हो जाता है । –िच शु

26. ऐसी कोई ‘गित' नहीं, िजसका उ म िव ाम न हो; ऐसी कोई ' थित'
नहीं, जो िव ाम से िस न हो; और ऐसा कोई 'िवचार' नहीं, िजसका
उदय िव ाम म िनिहत न हो।...... योग, ान तथा े म की ा िचर
िव ाम म ही िनिहत है । –िच शु

27. करने की िच का नाश ए िबना िकसी को भी िव ाम नहीं िमलता,


िजसके िबना आव क िवकास नहीं होता। –िच शु

28. कोई . कोई दे श. कोई काल ऐसा नहीं है िक िजससे आदमी


ऊबकर अलग होकर िव ाम नहीं चाहता। ेक वृि के अ म
मनु िव ाम चाहता है –न करना चाहता है , न करने की सोचता है।
–संत–समागम 2

29. म है संसार के िलए और िव ाम है अपने िलए। जब कोई काम करने


चलो, तो यह मानकर मत चलो िक मुझे ा लाभ होगा ? ब यह
सोचकर चलो िक इससे प रवार को ा लाभ होगा, संसार को ा
लाभ होगा ? –संत–उ ोधन

30. ' म ही जीवन है '–यह तभी तक तीत होता है, जब तक वा िवक


िव ाम अ ा है । –मूक स ंग
:: 232 ::
ांितकारी संतवाणी

वै रा

31. िवर का वा िवक अथ है –इ यों के िवषयों से अ िच अथात्


भोग की अपे ा भो ा का मू बढ़ा लेना। –मानव की माँ ग

32. वैरा की ा का अचू क साधन तो अपने िववेक का आदर करना


है। –संत–उ ोधन

33. वीतराग होने म ही च र –िनमाण की पराका ा है और वीतराग होने म


ही पूण मानवता का िवकास है । –मानव की माँग

34. अिन जीवन की िनराशा के समान न तो कोई िववेक है, न कोई ाग


है, न कोई ायि है और न कोई तप है । कारण िक अिन जीवन से
िनराश होते ही थूल, सू और कारण तीनों शरीरों से त: स
िव े द हो जाता है , िजसके होते ही जीवन ही म मृ ु का अनुभव और
अमर की ा हो जाती है । –जीवन–दशन

35. मनु को जब वैरा होता है , तब स की खोज के अलावा मेरा और


भी कोई कत है –यह बात उसे नहीं सूझती। वह तो सब . कुछ ाग
करके त रता के साथ स की खोज म लग जाता है ।
–स वाणी ( ो र)

36. कत –िव ान का नाम ही धम है और धम–आचरण का फल वैरा


है। –संत–सौरभ

37. िजसको वैरा हो गया अथवा आ रित की ा हो गई, उसके िलए


कोई काय शेष नहीं रहता। धम का पालन तो वैरा होने तक ही
करना पड़ता है । कारण, धम के पालन से वैरा जगता है । वैरा होने
पर तो सब कार के धम और कत की समा हो जाती है ।
–संत–उ ोधन
शरणागित

शरणागित

1. जैसे कोई कहे 'हमने भु की शरणागित ीकार कर ली', अरे भैया,


तुमने ीकार की तो उससे अहम् को पोिषत ों करते हो?
शरणागित तो अहम् को गलाने के िलए है । –जीवन–पथ

2. आ था, ा, िव ास से यु शरणागत 'शरणान ' से अिभ होता


है। –संत–उ ोधन

3. ि यता का ि या क प सेवा ही है । इस ि से शरणागित म भी


कत परायणता आ जाती है । –मानव–दशन

4. शरणागित की साधना से अहं भाव पी अणु का नाश हो जाता है ,


िजसके होते ही सभी को सब कुछ िमल जाता है , और िफर िकसी
कार का अभाव, पराधीनता एवं नीरसता शेष नहीं रहती, जो जीवन
का ल है । –संत–उ ोधन

5. शरणागत साधक अपने म अपना करके कुछ नहीं पाता।


–साधन–िनिध

6. शरणागित दीनता नहीं है , अिपतु िन –स की ृ ित है ।


–साधन–िनिध

7. अहंकृित रहते ए शरणागित िस नहीं होती। आ था, ा,


िव ासपूवक अपने को समपण करने ही म शरणागित िनिहत है। इस
ि से मूक स ंग से ही शरणागित सजीव होती है। अहम् के समपण
म ही अहम् का नाश है । अहम् और मम का नाश ही वा िवक
शरणागित है । –मूक स ंग
:: 234 ::
ांितकारी संतवाणी

8. कृित का आ य रखकर शरणागत नहीं हो सकता, यह ुव स है ।


िजसे अपने िलए कुछ भी करना है , भला वह अपने को कैसे समिपत
कर सकता है ? और जो अपने को समिपत नहीं कर सकता, वह भला
शरणागत कैसे हो सकता है ? –मूक स ंग

9. िजस कार अन काल का अ कार वतमान म नाश हो जाता है,


उसी कार ज –ज ा र के िवकार शरणागत होते ही त: िमट
जाते ह। –संतप ावली 1

10. िववेकपूवक असंगता अथवा िव ासपूवक समपण –इन दोनों का फल


एक है। –पाथेय

11. शरणागत की ि म िकसी और का अ ही नहीं रहता। वह


अनेक पों म अपने शर को ही पाता है और ेक घटना म उ ीं
का दशन करता है । –संतप ावली 2

12. अपने रचियता के सं क म अपने सभी संक िवलीन करना


वा िवक शरणागित है । –संतप ावली 2

13. शरणागत होने म ही साधक के पु षाथ की पराविध है । –पाथेय

14. िकसी भी काल म कोई और है ही नहीं। सव प म अपने ही ेमा द


ह। िकसी और का भास होना ही अपनी भूल है। इस भूल का अ
शरणागत होते ही त: हो जाता है । –पाथेय

15. शरणागित सफलता की कुंजी है और साधक के पु षाथ की पराविध


है। शरणागत के जीवन म भय, िच ा तथा िनराशा के िलए कोई थान
ही नहीं है । शरणागत शर को अ ि य है ; कारण िक शरणागत
का कोई और नहीं है । –पाथेय
शरणागित

16. ीित और ि यतम के िन िवहार म ही मानव–जीवन की पूणता है, जो


एकमा शरणागित से ही सा है । –पाथेय

17. िज ोंने उनकी अहै तुकी कृपा का आ य लेकर शरणागित ीकार


की, वे सभी उनके ेम–धन को पा गए। –पाथेय

18. शरणागत को सदा के िलए बेमन का हो जाना चािहए। –पाथेय

19. जब साधक अपने म भलीभाँ ित असमथता का अनुभव कर लेता है ,


तभी शरणागत होने का अिधकारी होता है । –स ंग और साधन

20. समपण और पु षाथ म िवरोध नहीं है ....... पु षाथ से शरणागित और


शरणागित से पु षाथ त: होने लगता है । –िच शु

21. िवक रिहत िव ास के आधार पर जब साधक 'अहम्' और 'मम' को


उस अन के समपण कर दे ता है , तब भी वही िद जीवन ा
होता है , जो पु षाथ–सा है । –िच शु

22. कुछ न माँ गना अथवा कुछ न करना समपण है। केवल शा के
पुजारी ागपूवक त ान से शा पाते ह। केवल श के पुजारी
तप, योग, संयम आिद से श पाते ह। पर ु समिपत होने पर ाग
तथा तप ाभािवक हो जाते ह। अतः समिपत होने वाला श और
शा दोनों पाता है । –स –समागम 1

23. शरणागत होने पर िफर कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता। यह


भ योग का अ म साधन है । शरणागित जीवन म केवल एक बार
होती है । िजस ाणी को अपने का कुछ भी अिभमान नहीं
रहता, वही शरणागित के रस को चख सकता है। –स –समागम 1

24. स ा समपण जीवन म एक बार होता है और िफर कुछ भी करना शेष


नहीं रहता। –स –समागम 1
:: 236 ::
ांितकारी संतवाणी

25. शरणागित–भाव भ योग का अ म साधन है , जो िसफ जीवन म


एक बार आता है । –स –समागम 1

26. कोई भी व ु एवं अव था ऐसी नहीं है , जो िनर र प रवतन न कर रही


हो, मानो हम िसखा रही हो िक हमको िकसी भी सीिमत भाव म
आब नहीं रहना चािहए, ुत् अपने परम त के की ओर
गितशील होना चािहए, जो शरणागत होने पर सुगमता पूवक हो
सकता है । –स –समागम 2

27. जो–जो उससे ायानुसार जो–जो आशा करता है, उसके ित


शरणागत वही अिभनय करता है । अपने िलए वह शर से िभ और
िकसी की आशा नहीं करता, अथवा यों कहो िक शरणागत सबके िलए
सब कुछ होते ए भी अपने िलए शर से िभ िकसी अ की ओर
नहीं दे खता। –स –समागम 2

28. पूण साधन तो वही है , जो साधक को सा से िवभ न होने दे । इस


ि से शरणागित–भाव सव ृ साधन है । –स –समागम 2

29. पितत–से–पितत ाणी भी शरणागत होते ही पिव हो जाता है ।


–स –समागम 2

30. यह िनयम है िक जो िजसके काम आता है , वह उसका ेम–पा हो


जाता है। अत: इसी िनयमानुसार शरणागत शर का शर हो जाता
है। –स –समागम 2

31. शरणागत हो जाने पर करने के भाव का अ हो जाता है और यह ात


होता है िक अब कुछ भी करना शेष नहीं है । करने का भाव अहं कार
को िमटने नहीं दे ता। –स –समागम 2
शरीर

32. जो स ाईपूवक भु के शरणागत हो जाते ह, उनको आव कव ुएँ


िबना माँगे ही िमल जाती ह, और अनाव क माँ गने पर भी नहीं
िमलती। –स –समागम 2

33. हम अपने शरीर को अपना मानते ह और ब त मह दे ते ह, इसिलए


संसार इसे मह नहीं दे ता। एक स ि के दो मािलक नहीं हो
सकते। जो व ु भु की हो जाती है , उसकी व था आप–से–आप हो
जाती है । –स वाणी ( ो र)

34. संसार और शरीर से िवमुख होकर अपने–आपको भु के समपण


करके उन पर िनभर रहने म, उनकी अहै तुकी कृपा के आि त हो
जाने म िकसी कार की भी किठनाई नहीं है । अत: यह साधन अ
सुगम और अमोघ है । –संत–सौरभ

35. जब तक साधक की ई र म सव ृ बु नहीं होती, तब तक वह


ई र के शरणागत नहीं हो सकता। –संत–सौरभ

36. शरणागित कोई अ ास नहीं है । शरणागित भाव है । शरणागित का


अथ केवल इतना है िक उस सुने ए भु के समिपत अपने को कर
दे ना। –स वाणी 4

शरीर

1. प रवार की सेवा करके शरीर के िलए अिधकार मत जमाओ। अपने


शरीर की ज रतों को प रवार की मरजी पर छोड़ दो। तब दे खो, तु
िकतनी शा िमलती है ! –साधन–ि वेणी

2. परमा ा को पाने के िलए आपको कोई साम ी नहीं चािहए। जब कोई


साम ी नहीं चािहए तो शरीर का ा अचार डालोगे? यह परमा ा की
:: 238 ::
ांितकारी संतवाणी

ा म तो काम आएगा नहीं। शरीर के ारा परमा ा के संसार की


सेवा कर दो। –साधन–ि वेणी

3. शारी रक आव कता सामािजक सेवा से त: पूरी होती है ।


–साधन–ि वेणी

4. शरीर को बनाए रखने का जो संक है , वह समाज–सेवा के िलए है ।


शरीर के ारा परमा ा की ा होती नहीं, शरीर के ारा जीव ु
िमलती नहीं, शरीर के ारा िचरशा होती नहीं। –साधन–ि वेणी

5. शरीर का मािलक वही है , जो सृि का मािलक है। म इस शरीर का


मािलक नहीं ँ । यह बात िजसने ीकार की, उसका दे हािभमान नाश
होगा। –साधन–ि वेणी

6. शरीर के सहयोग के िबना हम ा कर सकते ह ? हम अचाह हो


सकते ह, अ य हो सकते ह और ा–िव ास–पूवक शरणागत हो
सकते ह। – संत–उ ोधन

7. बेचारा शरीर और संसार हमारी माँ ग की पूित म ले शमा भी बाधक


अथवा सहायक नहीं है । –संत्–उ ोधन

8. साधकों को वा व म अपने िलए िकसी भी काल म शरीर की


आव कता नहीं है । –संत–उ ोधन

9. िववेकपूवक शरीर से अपने को अलग ीकार करने पर जगत् की


आव कता नहीं रहती। –संत–उ ोधन

10. शरीर हमारा अ नहीं है । हमारी जो साधना है , हमारा जो आचरण


है, वही हमारा अ है । –मानव की माँग
शरीर

11. िकसी से कोई पू छे िक तु म खून म, हि यों म, मांस म, म ा म, मू म


रहना चाहते हो ? तो सभी िवचारशील यही कहगे िक नहीं रहना
चाहते। कारण िक मिलनता िकसी को ि य नहीं। अब हम यं सोच
िक दे ह म मिलनता के अित र ा है , तो मानना होगा िक कुछ
नहीं। –मानव की माँग

12. जहाँ दे ह है , वहीं मृ ु है । –मानव की माँग

13. व ुओं का स ाण तक है , इससे आगे नहीं। ाण का स


शरीर तक है , इससे आगे नहीं और शरीर का स मृ ु से पूव तक
है, इससे आगे नहीं। –मानव की माँग

14. यिद िकसी से कहा जाए िक सुवण के कलश म मल–मू ािद भरकर
और रे शम से ढककर ा उसे अपने पास रखना पस करोगे? तो
सभी भाई–बहन कह दगे, नहीं। िफर हम शरीर को सु र–सु र
अलंकारों एवं व ों से सु शोिभत ों रखते ह ? तो कहना होगा –
बु ज ान के िनरादर से। –मानव की माँ ग

15. कोई भी दे ह से तादा कर अपनी त स ा िस नहीं कर


सकता, और अपने को दे ह से अलग मानकर िकसी को भी अपने िलए
संसार से कुछ ा नहीं आ। तो िफर मानना ही होगा िक तीित म
वृि तो होती है , पर ा कुछ नहीं होती। –मानव की माँ ग

16. आप कोई ऐसी व ु बताएँ जो दे ह से अपने को अलग मानने पर


आपको िमलती है । –मानव की माँग

17. दे ह की ममता का ाग करना है , उससे घृणा नहीं करना है ।


–मानव की माँ ग
:: 240 ::
ांितकारी संतवाणी

18. दे हािद व ुओं के िव ास ने ही हम भु–िव ास से और दे ह म


अहंबु ने ही हम अमर जीवन से िवमुख कर िदया है।
–मानव की माँ ग

19. शरीर के न रहने पर भी जीवन है , तो िफर शरीर को बनाए रखने की


कामना ा अथ रखती है ? कुछ नहीं। –साधन–िनिध

20. दे हािद व ुओं के सदु पयोग का दािय है , पर उनके आ य से अपना


िहत होगा, यह धारणा ममू लक है । –मूक स ंग

21. धमिन होने पर शरीरधम का पालन ाकृितक िनयमानुसार तः


होने लगता है । –मूक स ंग

22. जो लोग शरीर के िलए सं सार को समझते ह, वे िवषयों के दास हो


वासना पी जाल म फंसकर दु :ख उठाते ह और जो शरीर को संसार
के िलए समझते ह, वे संसार से पार हो िन आन ा करते ह।
–संतप ावली 1

23. जैसे संसार मुझसे अलग है , िजतना दू र है , यह शरीर भी मुझसे उतना


ही दू र है। जैसे संसार पर मेरा त अिधकार नहीं है , वैसे ही अपने
शरीर पर भी मेरा त अिधकार नहीं है ।........ ईमानदारी की बात
तो यह है िक शरीर और सं सार का आप से कभी िमलन आ ही नहीं।
–संतवाणी 7

24. शरीर िमलने पर भी दू र ही रहता है । भाव की एकता एवं िवचारों की


एकता तथा प की एकता वा व म िमलन है। –संतप ावली 1

25. सब कार के दु ःख शरीर को अपना आप समझने पर ही होते ह।


–संतप ावली 1
शरीर

26. शरीर िव की व ु है । उसे जब तक रहना है, उ जो काय कराना है ,


कराएं गे। –पाथेय

27. िजस कार िलखते समय लेखनी को हण कर िलया और िलखना


समा होते ही उसे यथा थान रख िदया जाता है , उसी कार काय
करते समय शरीर को हण कर िलया करो और काय का अ होते
ही जहाँ–का–तहाँ , ों–का– ों सुरि त रख िदया करो। ऐसा करने से
ेक वृि के अ म सहजयोग तः हो जाएगा, जो आव क
साम दान करने म समथ है । –पाथेय

28. शरीर की यथावत् दे खभाल तथा उसका सदु पयोग करती रहो। उससे
ममता तो है ही नहीं, पर उसकी सेवा अव करनी है । –पाथेय

29. ा दे ह आिद व ुओं को िव भगवान् की पूजा–साम ी समझो, उसे


अपना मत मानो –यह महाम है दे हािभमान से मु होने के िलए।
–पाथेय

30. शरीर सेवा–िनिध है । उसकी र ा करना पूजा है, पर उसकी ममता


भूल है । –पाथेय

31. िजस काय म कता को रस िमलता है , उसका भाव शरीर के िलए


उपयोगी होता है । –पाथेय

32. शारी रक ा का भी यथाश ान र खए। शरीर की सेवा से भी


शरीर का राग नाश होता है । –पाथेय

33. शरीर के रहने न रहने से िव ासी साधक के जीवन म कोई लाभ–हािन


की बात ही नहीं है । –पाथेय
:: 242 ::
ांितकारी संतवाणी

34. शरीर िव की सेवा–साम ी है , उससे अपने को कुछ भी नहीं लेना है ।


यह वा िवकता जीवन म आ जाने से शरीर को बनाए रखने का भी
संक नहीं रहता। –पाथेय

35. वा व म तो शरीर–रिहत जीवन ही जीवन है। उसम ही साधक की


अिवचल आ था रहनी चािहए। उस जीवन के बोध म ही मोह का नाश
है। –पाथेय

36. शरीर के िबना साधक अचाह हो सकता है । भु से आ ीय स


जोड़ सकता है ; की ई तथा जानी ई बुराई से रिहत होने का त ले
सकता है ; भु–िव ास के आधार पर अभय हो सकता है । भु– े म से
साधक भु के िलए उपयोगी हो सकता है । –पाथेय

37. तुम िकसी भी काल म शरीर नहीं हो, और न शरीर तु ारा है । शरीर
तो केवल संसार पी वािटका की खाद है , और कुछ नहीं। –पाथेय

38. शरीर चाहे जहाँ रहे , चाहे जैसा रहे , अथवा न रहे, उससे अपनी कोई
ित नहीं होती। –पाथेय

39. जब अपने म शरीरभाव नहीं रहता, तब िकसी भी शरीर म आस


नहीं रहती अथात् िनम हता त: िस हो जाती है । –पाथेय

40. शरीर कैसा है , इस ओर ान जाना ही भारी भूल है । सेवा परायण होते


ही शरीर की सुर ा का समथ से पर हो जाता है , सेवक पर नहीं
रहता। –पाथेय

41. जो लोग यह सोचते ह िक शरीर हमारी िच–पूित का साधन है , वे


कभी भी शा नहीं पाते । उनको कहीं भी, कभी भी शा नहीं
िमलती। शरीर है सेवा–साम ी। –संतवाणी 3
शरीर

42. शरीर के उपयोग की ाधीनता मानव को िमली है । उसको बनाए


रखने की ाधीनता िकसी भी मानव को कभी भी ा नहीं है।
–सफलता की कुंजी

43. शरीररिहत जीवन म म की गंध भी नहीं है । अब यिद कोई यह कहे


िक ा शरीर–रिहत भी कोई जीवन है ? शरीरयु ही यिद जीवन है
तो िफर मृ ु ा है ? अत: यह िनिववाद स है िक शरीर से अतीत
ही जीवन है । शरीर म जीवन नहीं है , अिपतु शरीर मे जीवन का
िम ाभास है । –िच शु

44. जो ाणी शरीर को काम–वासनाओं की पूित का साधन मानते ह, वे न


तो मनु ता पाते ह, न स ा सुख। –स वाणी ( ो र)

45. हम शरीर म बैठे ह, यह महापागलपन है । शरीर नहीं रहे गा तो मेरी


ित हो जाएगी –यह मानना बड़ा भारी पागलपन है । –संतवाणी 7

46. भौितकवादी को भी ीकार करना पड़े गा िक शरीर मेरा नहीं है।


ई रवादी को भी ीकार करना पड़े गा िक शरीर मेरा नहीं है।
अ ा वादी को भी ीकार करना पड़े गा िक म शरीर नहीं ँ।
–सफलता की कुंजी

47. अपने को दे ह मानकर कोई भी ाधीन नहीं हो सकता।


–िच शु

48. सम काय की उ ि अपने को दे ह मान लेने पर ही होती है अथात्


दे ह की त ू पता ही वृि की जननी है । –िच शु

49. िजस आहार से शरीर का िनमाण होता है , वह आहार िव की उन


श यों से िमलता है , जो गत नहीं ह। इससे यह तो ही है
िक शरीर और िव म प की एकता है । –दशन और नीित
:: 244 ::
ांितकारी संतवाणी

50. यिद हमारा शरीर आिद व ुओं से स –िव े द नहीं आ तो


समझना चािहए िक जो व ुएँ हम कत –पालन के िलए िमली थीं,
उनके ारा कत –पालन नहीं िकया। –िच शु

51. अपने को दे ह मानकर कोई भी संक –अपूित के दु ःख और पूित के


सुख से मु नहीं हो सकता, और अपने को दे ह से अलग जानकर
बड़ी ही सुगमतापूवक िचरशा म िनवास कर सकता है। –िचतशु

52. अपने को दे ह न मानने पर सभी कामनाएँ िनवृ हो जाती ह, िजनके


िनवृ होते ही सुख–दु :ख का ब न टू ट जाता है और िचरशा तः
ा हो जाती है । –िच शु

53. दे ह से तादा भाव न रहने पर अपना अ ा है , इस स म


कुछ भी कहना बनता नहीं; ोंिक जो कुछ कहा जाएगा, वह दे ह के
ारा ही कहा जाएगा। दे ह के ारा जो कुछ कहा जाएगा, उसम
िकसी–न–िकसी अंश म दे ह का भाव आ जाएगा। पर ु इसका अथ
यह नहीं है िक िजसका वणन नहीं हो सकता, उसका अ नहीं है।
वणन भले ही न हो, पर उसकी ा हो सकती है । –िच शु

54. शरीर का यथाथ ान होने पर सारे िव का ान हो जाता है । कारण


िक शरीर िव पी सागर की ही एक लहर है। –िच शु

55. िजस साधक को अपने शरीर म स ता तथा सु रता का दशन नहीं


होता, उसे िकसी भी व ु तथा म स ता तथा सु रता का
दशन नहीं होता। –िच शु

56. दे ह भाव की ीकृित है , उससे एकता नहीं है । पर ु ीकृित म ही


अहम्–बु होने से िभ ता होने पर भी एकता तीत होने लगती
है........ ीकृित केवल अ ीकृित से ही िमट सकती है , वह िकसी और
शरीर

कार से नहीं िमटायी जा सकती। अत: ‘दे ह म नहीं ँ ' इतने मा से ही


दे ह से स –िव े द हो सकता है , िजसके होते ही काम का अ हो
जाएगा और िन ा का ेम त: जा त होगा। –िच शु

57. दे ह की ा की ीकृितमा से ही जो दे ह से अतीत है , उसकी


अ ा तीत होती है अथवा यों कहो िक िव की ा की
ीकृितमा से ही जो िव का आधार है एवं िजससे सम िव
कािशत है , उसकी अ ा तीत होती है । –िच शु

58. दो आस ाणी अपने को दे ह से अलग अनुभव कर ा एक–दू सरे


म आस हो सकते ह ? कदािप नहीं....... दे ह की आस के आधार
पर ही सम व ुओं म आस होती है ; ोंिक दे ह के िलए ही
व ुओं की अपे ा है ।........ यिद दे ह म आस न रहे तो िकसी भी
व ु, आिद म आस नहीं हो सकती। सू दे ह की आस
ही िवचारधाराओं, स दायों तथा मतों म आस उ करती है ।
–िच शु

59. अपने म शरीरभाव धारण करने पर आन घन भगवान् संसार के


प म तीत होते ह। –स –समागम 1

60. शुभाशुभ कम ाणी को ‘ थूलशरीर' म, साथक–िनरथक िच न


'सू शरीर' म और सिवक –िनिवक थित ‘कारणशरीर' म
आब करती है । –िच शु

61. शरीर तो संसार से अिभ है , उसम आपका ा ? िवचार ि से दे खो


िक िजस शरीर को आप अपना समझते ह, वह वा व म सारे संसार
से एक है ; ोंिक शरीर तथा संसार अंग तथा अंगी के समान ह।
–स –समागम 1
:: 246 ::
ांितकारी संतवाणी

62. धारा– वाह शरीर काल–अि म जल रहा है, िकसी आिव ार से


बचाओ। यिद आिव ार से नहीं बचा सकते तो कृित के समपण कर
प ा छु ड़ा लो। –स –समागम 1

63. मनु अपने शरीर से स नहीं तोड़ सकता, वह संसार से भी नहीं


तोड़ सकता। स रखते ए यिद वह िहमालय पर चला जाए तो भी
उसका िच शा और शु नहीं हो सकता। –संत–सौरभ

64. जो दे ह से स रखता है , वह चाहे िकतना ही तप ी हो, िकतना ही


दानी हो, उसकी िकतनी ही अ ी प र थित ों न हो, उसका संसार
से स नहीं टू ट सकता। –संतवाणी 7

65. बुराई–रिहत होने से थूलशरीर शु होता है , अचाह होने से सू शरीर


शु हो जाता है , और अ य होने से कारणशरीर शु हो जाता है।
–संतवाणी 2

िश ा

1. नौकर वा िवक िश क नहीं हो सकता। –मानव की माँ ग

2. यिद कोई आज के यु ग म अथ के बल पर िशि त हो भी जाए तो वह


उस िश ा का सदु पयोग नहीं कर सकेगा, केवल अथ–स ादन म ही
लग जाएगा। –मानव की माँग

3. सेवा–भाव से ा िश ा सेवक बनाती है और अथ के ारा ा


िश ा लोभी बनाती है । –मानव की माँग

4. म ऐसा मानता ँ िक ेक िव ालय भावी समाज के िनमाण का


म र है । इस कारण अ ापन–काय के समान और कोई े काय
िश ा

नहीं है, और िव ाथ –जीवन ही मानव के िवकास की भू िम है।


–संतप ावली 2

5. िजनके दय म सु र मानव के िनमाण की पीड़ा है , िजनका म


थ है और जो अपने–अपने िवषय म वीण ह, वे ही महानुभाव
अ ापन काय के अिधकारी ह। –संतप ावली 2

6. िव ान और कलाओं की िश ा रा दे सकता है; िक ु भारतीय


सं ृ ित की िश ा धमा ा सेवक के ारा ही हो सकती है ।
–संतप ावली 2

7. पढ़ा–िलखा म म तभी पड़ता है , जब अपनी बात नहीं मानता। पढ़ाई–


िलखाई तो एक कार की यो ता है । यो ता जब ान के अधीन नहीं
रहती, तो बड़े –बड़े अनथ कर डालती है । समाज म िजतने दोष पढ़े –
िलखों ने फैलाए, उतने िकसी ने नहीं फैलाए। –स वाणी ( ो र)

8. िशि त होने की कसौटी ा है ? तो कहना होगा िक ान–िव ान,


कला आिद के ारा हम अपने को इतना सु र बना ल िक समाज को
हमारी आव कता अनुभव होने लगे। –मानव की माँग

9. समाज की उपयोिगता की िस िजस यो ता से सफल हो, उस


यो ता का नाम 'िश ा' है । िकसी उपािध (िड ी) िवशेष से ही िश ा
नहीं मान लेना चािहए। –मानव की माँग

10. उपािध का मह यिद अिभमान की वृ म है तो सवथा ा है।


–पाथेय

11. यह िनयम है िक बालक दे खकर बदलते ह। जब उ स ाई,


स र ता एवं उदारता आिद िद –गुण–स जीवन दे खने को
िमलेगा तो वे यं वैसे ही बन जाएँ गे। –मानव की माँ ग
:: 248 ::
ांितकारी संतवाणी

यह सभी को िविदत होगा िक जो पशु िजस दे शकाल म उ होते ह,


उनकी र ा कृित की गोद म तः होती है। इससे यह ही
िविदत हो जाता है िक र ा का दािय िकसी िवधान म िनिहत है।
पर ु बु मान मानव कृित के िवधान का आदर न करके कृित का
भोग करता है । उसी का प रणाम यह आ है िक व ुओं का अभाव है
और व ुओं म उ रो र श की कमी होती जाती है। यह व ु–
िव ान से िस है।

संक

1. हर संक की पूित होने पर मनु उसी थित म आता है , िजस .


थित म संक की उ ि के पूव था। इस स को आप ों नहीं
पकड़ते बाबा ? उसके पूरे होने से आपकी कोई वृ नहीं हो गयी।
उसके पूरे न होने से आपकी कोई ित नहीं हो गयी। आप तो उसी
थित म थे ही। –संतवाणी 5

2. संक की पूित िवधान से होती है , न िक संक करने से।


–संत–उ ोधन

3. अपना संक ही अपनी दु गित का मूल कारण है । –संत–उ ोधन

4. वा व म तो काय म िनि त ही है । पर उसका अनु भव उ ीं साधकों


को होता है , िजनका अपना कोई संक नहीं रहता। अत: अपना
संक न रखकर जो हो, वही ठीक है । –पाथेय

5. वा िवक ाधीनता का पु जारी तो संक –पूित म भी पराधीनता का


ही दशन करता है । कारण िक संक –पूित दे श, काल, व ु,
आिद के अधीन है । –स ंग और साधन
संक

6. संक ों की पूित और अपू ित िवधान के अधीन है । उनका सदु पयोग


करने म साधक ाधीन है । –स ंग और साधन

7. जब साधक का अपना कोई संक नहीं रहता, तब दू सरों के सं क


से आव क काय त: होते रहते ह। सं क –रिहत होने से साधक
की िकसी कार की ित नहीं होती, अिपतु सवतोमुखी िवकास ही
होता है । –सफलता की कुंजी

8. जगत् के संक ों को पूरा करना कत अथात् 'सेवा' है और भु के


संक ों को पूरा करना ‘पूजा' है । जब अपना कोई संक नहीं रहता,
तब िकसी िवकार की उ ि नहीं होती अथात् िनिवकारता की
अिभ होती है , जो वा व म साधन है । –सफलता की कुंजी

9. व ुओं की स ता, सु रता एवं सुख पता का आकषण ही संक


का प है , अथवा यों कहो िक अपने से व ुओं का अिधक मह
ीकार करना संक ों म आब होना है । –िच शु

10. िववेकपूवक शरीर से त ू पता िमट जाने पर संक की उ ि ही नहीं


होती। संक ों की िनवृि होते ही सुख–दु ःख से अतीत 'शा ' के
सा ा म वेश हो जाता है , िजसके होते ही भो ा, भोग की िच
और भो व ुएँ –इन तीनों का भेद िमट जाता है। –िच शु

11. िजन संक ों से िकसी अ ा व ु, अव था आिद का आ ान होने


लगता है , वे संक अशु ह और ा ह; ोंिक वे जड़ता तथा
पराधीनता की ओर ले जाते ह, और जो सं क सभी अव थाओं से
अतीत के जीवन की िज ासा जा त करते ह, वे शु संक ह। यह
िनयम है िक अशु संक िमट जाने पर शु संक त: पूरे हो
जाते ह। –िच शु
:: 250 ::
ांितकारी संतवाणी

12. संक –पूित से िजतना सु ख िमलता है , उससे कहीं अिधक शा


संक –िनवृि से ा होती है । –िच शु

13. जब तक व ुओं से स –िव े द न होगा, तब तक संक ों की


उ ि , पूित और िनवृि होती ही रहे गी। –िच शु

14. सम संक ों का उ म– थान भी व ु से तादा है और संक –


पूित म भी व ुओं की ही मह ा है ; अथवा यों कहो िक व ु ही जीवन
है, यह ढ़ता ही वा व म संक का प है । व ुओं के अ
की अ ीकृित म सं क ों की उ ि ही नहीं है। इस ि से व ुओं
के सू प का नाम 'सं क ' और संक के थू ल प का नाम
'व ु' है।...... संक और व ु –ये दोनों एक ही िस े के दो पहलू ह;
उसे व ु कहो अथवा सं क । –िच शु

15. जब–जब जीवन म संक –अपूित का िच सामने आए, तब–तब


साधक को यही समझना चािहए िक मेरे सं क की अपूित म ेमा द
के संक की पूित िनिहत है । –िच शु

16. अनाव क और अशु संक ों के ाग की साथकता तभी िस


होती है, जब साधक शु संक ों की पूित के सुख म आब न हो;
ोंिक सं क –पूित का सु ख नवीन संक ों का ज दाता है। इतना
ही नहीं, सुखभोग की िच से ही अशु सं क उ होते ह। कारण
िक सुख का भोग दे हािभमान को पु करता है। –िच शु

17. ेक संक –पूित के सुख की दासता नवीन संक की जननी है ।


–िच शु

18. जब तक ाणी व ु, आिद के अ को ीकार नहीं कर


लेता, तब तक संक की उ ि ही नहीं होती । इस ि से व ु,
संक

आिद की स ता की ीकृित और उनका स ही संक


का प है । –िच शु

19. अशुभ संक की अपे ा शुभ संक अिधक आदरणीय है ; िक ु


िन:संक ता के सामने शुभ संक कुछ भी मू नहीं रखता।
–स –समागम 2

20. मन म उन. सं क ों को मत उठने दो, जो धमानुसार न हों, एवं िजनके


कािशत करने म सं कोच हो। –स –समागम 2

21. जो व ु, , प र थित व अव था से स जोड़ दे , उसे सं क


कहते ह। –स वाणी ( ो र)

22. िन:संक ता आ जाने पर 'है ' (सत्) म ित ा और 'नहीं' (असत्) से


स िव े द त: हो जाता है ; ोंिक जो 'नहीं' है, उसका सं क
करते ही उससे ीकृितज स होता है और जो 'है' उसका
संक करते ही उससे दू री होती है । –स –समागम 2

23. जब कभी साधक को ऐसा तीत हो िक मेरे आव क और शुभ


संक ों की भी पूित नहीं हो रही है , तो उस समय मन म िकसी कार
की ख ता या िनराशा को थान नहीं दे ना चािहए; िक ु ऐसा समझना
चािहए िक ' भु अब मुझे अपनाने के िलए, मुझे अपना ेम दान करने
के िलए मेरे मन की बात पू री न करके अपने मन की बात पूरी कर रहे
ह। –संत–सौरभ

24. जब िकसी–न–िकसी कार का राग िव मान है , तब उसी से संक


होते ह। –संत–सौरभ साधक को चािहए िक संक के िनवृि काल म
जो उसे रस िमलता है , उसका अनुभव करे । सं क उ होकर पूरा
हो जाए और दू सरा सं क उ न हो, उसके बीच म ानपूवक
:: 252 ::
ांितकारी संतवाणी

अ यन करने पर सं क –िनवृि के रस का अनुभव हो सकता है।


–संत–सौरभ

25. दे ह से जो तादा भाव ीकार कर लेते ह, यही संक ों की उ ि


का मूल कारण है । –संतवाणी 4

26. सभी िवचारकों को यह बात अव माननी पड़े गी िक ेक भाई,


ेक बहन संक –पूित के अ म उसी थित म आता है, िजस
थित म संक –उ ि के पूव था। तो िमला ा भाई? िमला तो वही
जो दाद को खुजलाने वाले को िमलता है –खुजलाने म रस और
प रणाम म ज । इसके अित र िकसी भी संक –पूित के बदले
म िकसी भी भाई को कुछ नहीं िमल सकता। –संतवाणी 4

27. अपने पास अपना संक रखते ए पराधीनता से रिहत नहीं हो सकते,
जड़ता से रिहत नहीं हो सकते, अभाव से रिहत नहीं हो सकते।
–संतवाणी 4

28. संक –पूित के सुख का भोग हम पराधीन बनाता है । संक –अपूित


के दु ःख का भय हम चैन से नहीं रहने दे ता। –संतवाणी 4

29. अपना संक सम असाधनों का मूल है । वह असत् है । ों असत्


है ? भाई, एक तो पूरा नहीं होता, इसिलए असत् है । और ों असत् है
? पूरा होने से पराधीनता बढ़ती है , इसिलए असत् है । तो अपना संक
रखना अपने जाने ए असत् का सं ग है । –जीवन–पथ

30. यह िनयम है िक जो िकसी का बुरा नहीं चाहता, उसके मन म अशु


संक ों की उ ि ही नहीं होती और उनके िबना अशु कम का
ज ही नहीं होता। –िच शु
संघष

संघष

1. जो हो रहा है , उसका आदर न करने से अ सघष और ा –


प र थित का िववेकपूवक सदु पयोग न करने से बा संघष उ
होता है । –दशन और नीित

2. मानव जब अनेक भेद होने पर भी एक कार से सभी को उ े –पूित


का आ हपूवक पाठ पढ़ाता है और अपनी णाली से िभ का िवरोध
करता है, तब मानव िवकास के नाम पर एक नवीन संघष को ज
दे ता है । –दशन और नीित

3. बा ि से सं घष का कारण आिथक अभाव तथा राजनीितक


पराधीनता तीत होती है , पर अ ि से संघष का मूल नीरसता
अथात् ीित का अभाव ही है । –दशन और नीित

4. िस े से व ु, व ु से , से िववेक और िववेक से सा
को अिधक मह दे ना है । उ े –पूित तथा संघष का अ एवं शा
की थापना करने के िलए उपयु म ीकार करना ेक मत,
स दाय, वग, समाज तथा दे श के यों के िलए अिनवाय है।
–दशन और नीित

5. िहंसा क यु िकसी कार िवजय ा नहीं कर सकता; ोंिक


शरीर पी े के तोड़ दे ने से िवचारों का समुदाय िमटाया नहीं जा
सकता। अत: िहं सा क यु से जो रा आज िछ –िभ िदखायी दे ता
है, वही काला र म घोर बलतापूवक पुनः यु करने के िलए समथ
होता है; ोंिक उसकी यु की भावना न नहीं ई थी। मरने वाला
ाणी पुन: मारने के िलए कृित माता से श लेकर उ होता है।
–स –समागम 1
:: 254 ::
ांितकारी संतवाणी

6. दु खयों के शरीर आिद व ुओं को िछ –िभ कर दे ने से उनका अ


नहीं हो जाता; ोंिक सू तथा कारणशरीर शेष रहते ह। यिद हम
िकसी के थूलशरीर को न भी कर द तो भी वह ाणी िजस भाव को
लेकर थूलशरीर का ाग करता है , उसी भावना के अनु प कृित
माता से अथवा यों कहो िक जगत्–कारण–से श संचय कर, हम से
अिधक श शाली हो, हमारा िवरोध करने के िलए हमारे सामने आ
जाता है । –स –समागम 2

7. जीवन म, प रवार म, समाज म यह जो संघष होता है , वह एकदम नहीं


हो जाता। हमारे –आपके मन म ही वह लड़ाई पैदा होती है।
–संतवाणी 7

8. लड़ाई ो होती है ? इस पर गौर िकया जाए तो साफ मालूम होता है


िक जब समाज म सु खयों की सं ा कम हो जाती है और दु खयों की
सं ा बढ़ जाती है ; सु खयों म उदारता नहीं रहती और दु खयों म
ाग नहीं रहता, तब लड़ाई होती है । –संतवाणी 7

9. सामािजक संघष िमटाने का सबसे सु र उपाय ा है ? यह उपाय


नहीं है िक हम जो मानते ह, वह सब मानने लग जाएँ ; हम जो करते ह,
वह सब करने लग जाएँ । उपाय यह है िक हम अपने और दू सरों के
बीच म अनेकों कार के भेद ों न पाएँ , पर सभी के साथ ीित की
एकता रखगे। –संतवाणी 7

10. जहाँ ममता और सं ह नहीं है , वहाँ संघष हो ही नहीं सकता। िजतने


संघष होते ह सरकार ! वे होते ह सं ह म, ममता म। –संतवाणी 5
संसार (सृि , िव )

11. सम सं घष का मूल एकमा यह है िक , वग, समाज, दे श


अपने दोष को भू लकर दू सरे के दोष पर ि रखते ह।
–दशन और नीित

संसार (सृ ि , िव )

1. संसार की ज रत आपको न रहे और संसार आपकी ज रत अनुभव


करे –यह है जीवन का शु भौितकवाद। इसको कहते ह दु िनया म
रहने का सही ढं ग।। –साधन–ि वेणी

2. बा िभ ता और आ रक एकता के अित र सम िव कुछ


नहीं है । –मानव–दशन

3. यह िनयम है िक जो जगत् की आव कता अनुभव नहीं करता, वही


जगत् के िलए उपयोगी िस होता है । –मानव–दशन

4. सृि यं अपने को आप कािशत नहीं करती । अतः यह ीकार


करना अिनवाय हो जाता है िक सृि िकसी का काश है ।
–मूक स ंग

5. जगत् के िबना रह सकता है और जगत् के िबना नहीं रह


सकता; ोंिक जगत् और म केवल का िनक भेद है , प से
नहीं। इसिलए स और जगत् िम ा है । –संतप ावली 1

6. 'यह' (संसार) और 'वह' (परमा ा) और 'म' –इन तीनों को एक समझो;


ोंिक जो िजसम उ होकर िजसम थत रहता है और अ म
उसम ही लय हो जाता है , वह वा व म वही होता है । –संतप ावली 1
:: 256 ::
ांितकारी संतवाणी

7. िकसी की भूल दे खने के िलए भी दे खने वाले को यं को भूलना पड़ता


है; ोंिक जब तक वह अपने म शरीरभाव नहीं धारण करता, तब तक
संसार नहीं िदखाई दे ता, ऐसा मेरा अनुभव है। –संतप ावली 1

8. सृि िकसी की बनाई ई नहीं है । सृि कता ने अपने ही म से


सृि का िनमाण िकया है । –पाथेय

9. वा व म तो सम िव एक है , और िव तथा िव नाथ से मानव का


अिवभा स है । –पाथेय

10. िव की सेवा अपेि त है, िव ास नहीं। –स ंग और साधन

11. जगत् को िम ा कहना मा ही अ ा वाद नहीं है ुत् भेद और


िभ ता का अ अभाव ही अ ा वाद है । –दु :ख का भाव

12. ा की ि म सृि –जैसी कोई व ु ही नहीं है ; ोंिक सम सृि


तो बु के सम होते ही िवलीन हो जाती है । –जीवन–दशन

13. ेक सम संसार का ऋणी है । –मानव की माँ ग

14. सम िव एक व ु है । उसम जो हम अपने का भास होता


है, वह 'अहं ' और 'मम' का प रणाम है , और कुछ नहीं। उस
को िमटाने के िलए ही जो कुछ भी यो ता, साम तथा व ु पम
ा है , उसे िव की भट कर दे ना है ; ोंिक वा व म वह उसी का
है। –जीवन–दशन

15. भौितक ि से सम िव एक जीवन है । अ ा ि से सबअपना


ही प है । आ क ि से े मा द से िभ कुछ है ही नहीं।
–दशन और नीित
संसार (सृि , िव )

16. सम िव दपण के तु है । उसम मानव अपने ही िच को दे खता


है। यिद ऐसा न होता तो एक ही िव के स म अनेक मत न होते।
–दशन और नीित

17. जो िकसी से भी घृणा करता है , वह उस अन से घृणा करता है ;


ोंिक सम िव उसी की अिभ है । –िच शु

18. सृि तो केवल अपने म िवषयािदक भाव को धारण करने से तीत


होती है। िवषयास बेचारा मानी ई स ा को ीकार करता है ।
अत: यही सृि के तीत होने का कारण है । कारण का नाश होने पर
काय का नाश अपने–आप हो जाता है । अतः िवषयज भाव का
अ होने पर सृि का अ हो जाता है । –स –समागम 1

19. . यिद संसार पर शासन करना चाहते हो तो संसार की ओर मत दे खो।


–स –समागम 1

20. भोग की चाह ही वा व म संसार है ; ोंिक भोग की चाह न रहने पर


इ य, मन, बु आिद तथा संसार सभी बेकार हो जाते है ।
–स –समागम 1

21. जगत् ा है ? यह तो तब कहा जा सकता है, जब हम जग े अलग


हों। जगत् से अलग होकर जगत् एक व ु है , अनेक नहीं; ोंिक
जगत् का नाना जगत् होकर तीत करते हो। जगत् होकर जगत् को
जान नहीं पाते। अत: जगत् म नाना है , यह बात िकसी कार िस
नहीं होती। –स –समागम 1

22. िजस कार जल का ान होने पर लहर जल से िभ नहीं है , उसी


कार जगत् का यथाथ ान होने पर जगत् िनज– प से िभ नहीं
:: 258 ::
ांितकारी संतवाणी

है। जल– ि होने पर लहर–दि शेष नहीं रहती. िफर लहर म नाना
है, यह कैसे कहा जा सकता है ? –स –समागम 1

23. एक जीवन से िभ और कुछ िवचार– ि से दे खने म नहीं आता।


आपको जो कुछ तीत होता है , वह केवल आपका राग है ।
–स –समागम 1

24. अन सं ाएँ एक ही इकाई से उ होती ह; ोंिक इकाई की


स ा िनकलने पर सं ा कुछ नहीं रहती। अत: एक इकाई की सं ा
ही सं ा प से तीत होती है , और सं ा का ान होने पर इकाई
ही शेष रहती है अथात् जगत् का नाना एक म िवलीन होता है।
गहराई से दे खो, “एक' से 'नौ' तक गणना होने पर अ म िफर एक ही
शेष रहता है । –स –समागम 1

25. िव केवल हमारी एक अव था के िसवाय और कुछ अथ नहीं रखता।


–स –समागम 2

26. सृि केवल िवषयी ािणयों के िलए है । िवषयी ाणी िज ासु और भ


नहीं हो सकता। वह तप कर सकता है, पु कर सकता है।
अनी रवादी दान भी कर सकता है , पर वह ेम नहीं कर सकता,
संसार से िवमुख नहीं हो सकता। –स –समागम 2

27. केवल अस को अस समझने मा से आस नहीं छूटती। स


की आव कता होने पर अस अपने–आप छूट जाता है।
–स –समागम 2

28. ारे ! मन, इ य आिद के ारा जो कुछ तीत होता है , वह केवल


है। उसी को साधारण ाणी ‘संसार' के नाम से कथन करते ह!
–स –समागम 2
संसार (सृि , िव )

29. कम, शरीर व संसार –इन तीनों का प एक ही है ।


–स वाणी ( ो र)

30. संसार मोह का े नहीं, से वा का े है । –स वाणी ( ो र)

31. ेक िव पी सागर की एक बूंद है । िस ु और िब दु म गुणों


की िभ ता होने पर भी जातीय तथा प की एकता है । गुणों की
िभ ता होने से 'कम' की िभ ता और जातीय तथा प की एकता
होने से 'ल ' की एकता ाभािवक है । –मानवता के मूल िस ा

32. माँग की पूित संसार की सहायता से नहीं हो सकती। –संतवाणी 8

33. हमारा और संसार का स 'सेवा' का स है...... और कोई


स नहीं है । –संतवाणी 8

34. संसार म कोई चीज हम िमली है, यह ब त बड़ा म है । –संतवाणी 8

35. संसार म स दो ही तरह से रहता है –दे ना है, तब भी स रहेगा;


लेना है, तब भी स रहे गा। दे ना दे िदया और लेना छोड़ िदया तो
संसार से स टू ट जाता है । –संतवाणी 8

36. संसार केवल े म से स नहीं होता, उसको सेवा भी चािहए।


–संतवाणी 8

37. संसार जो कुछ दे सकता है , वह शरीर के आगे प ँचता है ा ? नहीं


प ँचता। –संतवाणी 8

38. संसार दु ःखद नहीं है , संसार का स दु ःखद है । –संतवाणी 8

39. संसार जब यह दे खता है िक जो कोई आदमी संसार म अपनी ममता


करता है, संसार की कामना करता है , उससे संसार अ स हो जाता
:: 260 ::
ांितकारी संतवाणी

है, उससे खुश नहीं होता, उसके पीछे नहीं दौड़ता। जो अिकंचन और
अचाह है , उसे संसार पस करता है । –संतवाणी 8

40. की तीित इ य– ान तथा बु – ान से त ू प होने पर होती है ।


ये दोनों भी ही ह। इसिलए यह िस आ िक से त ू प होने
पर ही की तीित होती है । –जीवन–दशन

41. जब आप कोई कामना पूरी करना चाहते ह, तब आपको संसार का


भास होता है । आप कुछ न चाह, संसार आपको मुँ ह नहीं िदखाएगा।
–संतवाणी 5

42. यिद आप िवचार करके दे ख तो सबल और िनबल दोनों के सहयोग से


ही संसार का काम चलता है। केवल सबलों से ही नहीं चलता। जहाँ
एक यो िचिक क चािहए, वहाँ रोगी भी तो चािहए। मान लीिजये,
यो िचिक क हो और रोगी कोई न हो तो िचिक क का काम
चलेगा ? –संतवाणी 3

43. कम का स 'पर' के ित है , ' ' के ित नहीं। अपने से िभ जो


कुछ है, वही 'पर' है । िजसे 'यह' करके स ोधन करते ह, वह अपने से
िभ है। इस कारण शरीर तथा सम सृि 'पर' के अथ म ही आती
है। –मूक स ंग
उ ि , र ा और िवनाश के अधीन ह। कोई भी व ु िकसी भी
को अमर नहीं बनाती। यिद ऐसा होता, तो कुछ ाणी अव
अिवनाशी हो जाते। यिद िवनाश को नवीन उ ि का साधन मानकर िवनाश
का भय न कर िदया जाए और व ुओं का उपयोग र ा म हो, िवलास म
नहीं, जीवन का उपयोग क म हो, अक म नहीं, तो कृित का
मंगलमय िवधान र ाथ आव क व ु श एवं यो ता तः दान करता
है। अतः क –परायणता आव क व ुओं की जननी है।"
स ं ग (दे .मूक स ं ग)

स ंग (दे .मूक स ं ग)

1. हम स ंग के नाम पर तो सत् की चचा करते ह और संग करते ह


असत् का। –संतवाणी 4

2. असत् के बनाये रखने से हमारी िन ा नहीं होती, लेिकन असत् के


कट करने म हमारी िन ा होती है ! यह दु बलता जब तक रहेगी, हम
स ंग नहीं कर सकते। –संतवाणी 4

3. शरीर ारा परमा ा की सृि का काय कर सकते ह। लेिकन आप


अपना काय करते ह, जबिक आपका कोई काय है नहीं। जो आपका
काय है आपका िनजी, आपका जो पसनल काय है, वह है स ंग।
–संतवाणी 7

4. जा त्–सुषु का नाम ही 'मूक स ं ग' है और यिद म यह कह दू ँ िक


इसी का नाम 'स ंग' है तो कोई अ ु की बात नहीं होगी।
– ेरणा पथ

5. स ंग का अथ ही है िक 'है ' का संग। – ेरणा पथ

6. स ंग म–रिहत जीवन म तः िस है । – ेरणा पथ

7. स ंग की प रभाषा ा है ? बल का दु पयोग नहीं क ँ गा –यह


स ंग है, ान का अनादर नहीं क ँ गा –यह स ं ग है, िव ास म
िवक नहीं क ँ गा –यह स ंग है । –साधन–ि वेणी

8. मानव–सेवा–संघ की नीित म वचन को भी स चचा कहा है , स ं ग


नहीं..... मानव–सेवा–संघ म मूक स ं ग को मु स ं ग माना है ।
–संत–उ ोधन

9. स को ीकार करना ही स ंग है । –संत–उ ोधन


:: 262 ::
ांितकारी संतवाणी

10. स ंग धम है , शरीरधम नहीं। –संत–उ ोधन

11. स ंग का अथ अ ास नहीं है , असत् का ाग ही स ंग है।


–संत–उ ोधन

12. स ंग कोई अ ास अथवा तप नहीं है , अिपतु साधक का धम है ,


अथात् परा य के िबना अपने ही ारा िजसकी िस होती है , वही
स ंग है । –साधन–िनिध

13. 'मूक स ंग से िभ भी स ंग है ', यह ीकार करना सत् की चचा को


ही सत् का सं ग मानना है । य िप सत् की चचा सत् के संग का
सहयोगी यास है , पर ु सत् का सं ग नहीं है । –मूक स ंग

14. य िप स ंग के सहयोगी उपायों को भी स ंग कहते ह; पर ु


वा िवक स ंग तो अहं कृित–रिहत होने से ही िस होता है अथात्
मूक स ं ग ही 'स ंग' है , जो ेक मानव को ा हो सकता है ।
–मूक स ंग

15. स ंग कोई अ ास नहीं है , अिपतु धम है । अ ास के िलए शरीर


आिद की अपे ा होती है । िक ु स ंग अपने ही ारा उपल होता
है। –मूक स ंग

16. स ंग ही मानव मा का परम पु षाथ है । –मूक स ंग

17. सत्–चचा, सत्–िच न तथा सत्–कम के िलए िकसी–न–िकसी


प र थित की अपे ा होती है । ेक प र थित भाव से ही
प रवतनशील तथा पर का है । अतएव प र थित का आ य मानव
को स ंग से िवमुख कर दे ता है । –मूक स ंग

18. अपना कुछ नहीं है , अपने को कुछ नहीं चािहए, अपने िलए कुछ नहीं
करना है –यह स ंग है । –मूक स ंग
स ं ग (दे .मूक स ं ग)

19. शरीर, इ य, मन, ब आिद के ारा स ंग नहीं होता। अपने ही


ारा स ंग करना है ; कारण िक अपने ही म स ंग की माँग है। शरीर
के स से तो ममता, कामना आिद िवकारों की उ ि होती है ।
–मूक स ंग

20. स ंग का अथ है – है ' का स ं ग अथात् जो मौजूद है , िव मान है ,


ा है, उसका संग। –संतवाणी 5

21. स ंग से िजसकी ा होती है , उसकी ा िकसी अ कार से


नहीं होती। –मूक स ंग

22. अ ा वाद की ि से सम सृि से असंग होना स ंग है और


आ कवाद की ि से ा–िव ासपूवक भु म आ ीयता ीकार
करना स ंग है । –मूक स ंग

23. सत् का संग मसा नहीं है । इस कारण मूक स ंग ही वा िवक


स ंग है । –मूक स ंग

24. स ंग के िबना कोई ऐसा उपाय है ही नहीं िक मानव सवाश म


असाधनरिहत होकर साधनिन हो जाय। –मूक स ंग

25. सब ओर से िवमुख होना ही वा िवक स ंग है और स ंग से ही े मी


े मा द से, िज ासु त ान से, अशा परमशा से और असमथ
साम से अिभ होता है । –मूक स ंग

26. िजसका स ादन ' ' के ारा होता है , वही स ंग है।


–संतप ावली 2

27. सत्–काय, सत्–चचा एवं सत्–िच न आिद स ंग नहीं है । स ं ग


मानव का धम है और चचा, िच न आिद परा य और प र म से
:: 264 ::
ांितकारी संतवाणी

सा ह। जो परा य एवं प र म से सा है , उसका िवनाश अिनवाय


है। –संतप ावली 2

28. स ंग के ारा सभी साधकों को ल की ा हो सकती है , यह


अनुभव–िस स है । –संतप ावली 2

29. वा व म तो स ंग जीवन म एक ही बार होता है , सत् की चचा अनेक


बार होती है । –पाथेय

30. सोई ई मानवता जगाने के िलए एकमा स ंग ही अचूक उपाय है ।


–पाथेय

31. असत् का ाग और सत् का संग एक ही त के दो प ह। अ र


केवल इतना है िक असत् का ाग पु षाथ है और सत् का संग त:
िस है । असत् के ाग के अित र स ंग के िलए कोई अ यास
अपेि त नहीं है । केवल असत् के ागमा से ही स ंग हो जाता है।
–स ंग और साधन

32. स ंग कहने म नहीं आता, िकया जाता है । असत् का ाग होने पर


सत् का सं ग अपने–आप होता है । –स –समागम 1

33. स ंग के िबना कोई भी मानव नहीं हो सकता। कारण िक िववेक–


यु ाण िजसम है , वही मानव है । िववेक–रिहत ाण तो पशु, प ी
तथा वृ ों म भी है । मानव–जीवन की मह पूण व ु तो िववेक ही है।
उसी के िवकास के िलए स ंग की परम आव कता है । उस स ंग
को ा करने के तीन उपाय ह–1. स 2. स ु ष और 3.
सवा यामी प से जो स प परमा ा ा है , उसका सं ग।
उसका सं ग असत् के ाग से ा हो सकता है। िजसे यह तीसरे
कार का स ंग ा है , उसे स तथा स ु षों की आव कता
स ं ग (दे .मूक स ं ग)

नहीं होती।............ इस स ंग के िलए िकसी उ व तथा सं गठन की


आव कता नहीं है । एका म मौन होकर इस स ं ग को ा िकया
जा सकता है । –स –समागम 2

34. स ा स ं गी वह होता है , जो स को ीकार करता है , जो स का


ेमी होता है । वह न तो सं सार से कुछ चाहता है , न भगवान से कुछ
चाहता है । –संतवाणी 8

35. स ंग का अथ यह ा ान सुनना नहीं है । यह तो स चा है ।


सोचना–समझना –यह स न है । स ंग है –स को ीकार कर
लेना। 'मेरा कुछ नहीं है' –यह स है । 'मुझे कुछ नहीं चािहए' –यह
स है। –संतवाणी 8

36. स ंग का अथ यह नहीं है िक कोई –िवशेष आ गया, उसने एक


ा ान दे िदया और हम सब लोगों ने वण कर िलया। यह तो
स ंग का सहयोगी साधन है । वा व म यह स ंग नहीं है । स ंग का
वा िवक प है –अपने जाने ए असत् का ाग। –संतवाणी 6

कृित साधक को जो कुछ दे ती है , उससे अतीत के जीवन की ओर


अ सर करने के िलए वह िदए ए को अपने म िवलीन कर लेती है।
यह अन का मंगलमय िवधान है। िक ु मानव िमले ए की
आस यों के कारण उ सुरि त रखने की सोचता है , ममता–रिहत
होकर उसका सदु पयोग नहीं करता। उसका प रणाम यह होता है िक
लोभ, मोह आिद िवकार उ हो जाते ह, िजनके होने से ाणी न तो
िमले ए का सदु पयोग ही कर पाता है और न व ुओं से अतीत के
जीवन म वेश ही। अतः व ुओं के िवनाश से भयभीत होना व ुओं
की दासता को सुरि त रखना है और कुछ नहीं। व ुओं की दासता
द र ता की जननी है।
:: 266 ::
ांितकारी संतवाणी

सदु पयोग

1. िजस ण से आप िमले ए का सदु पयोग आर करगे, आप सच


मािनए, आव क व ुएँ आप के पास आने के िलए लालाियत हो
जाएँ गी। –संतवाणी 4

2. यों की सेवा म ही व ुओं का सदु पयोग िनिहत है।


–साधन–त

3. वतमान का सदु पयोग ही भिव को उ ल बनाता है ।


–संत–उ ोधन

4. केवल ा प र थित का सदपयोग करना है। इस सदु पयोग का नाम


ही िकसी ने पु षाथ रख िदया, िकसी ने कत रख िदया और िकसी ने
साधना रख िदया। –मानव की माँग

5. यिद मन म शु सं क उ होते ह तो िमले ए 'मन' का सदु पयोग


हो गया।............ यिद हमारी बु हमारे कत तथा दू सरों के
अिधकार को जानती है , और ेक व ु म सतत प रवतन का दशन
कराती है तो समझना चािहए िक 'बु ' का सदु पयोग हो गया।.............
यिद ा वाणी स , िहतकारी, मधुर तथा ि य वचन बोलती है एवं
आव कता से अिधक नहीं बोलती तो समझना चिहये िक 'वाणी' का
सदु पयोग हो गया।........... यिद शरीर आव क काय करने म आल
नहीं करता और अनाव क काय म वृ नहीं होता तो समझना
चािहए िक 'शरीर' का सदु पयोग हो गया।.......... यिद ा व ुएँ
यों की र ा म य होती ह तो समझना चािहए िक 'व ुओं का
सदु पयोग हो गया। –मानव की माँग

6. सुख–दु ःख का सदु पयोग साधन का मूल है । –मानव की माँ ग


सदु पयोग

7. जो आता–जाता है , उसका सदु पयोग करना है और जो रहता है , उसम


ि यता। –मानव–दशन

8. िमले ए का दु पयोग मानव की अपनी भूल है और उसका सदु पयोग


वैधािनक है । इस ि से अकत अपना दोष है और कत –
परायणता भाविस है । –मूक स ंग

9. िमले ए के सदु पयोग से आव क व ु, यो ता, साम मंगलमय


िवधान से तः ा होती है । –मूक स ंग

10. सुख का सदु पयोग 'सेवा' और दु :ख का सदु पयोग ' ाग' है।
–संतप ावली 1

11. यह ाकृितक िनयम है िक बल के दु पयोग से काला र म सबल


यं िनबल हो जाता है । इतना ही नहीं, उसकी िवरोधी स ा की
उ ि भी हो जाती है और वही दु िदन उसे यं दे खने पड़ते ह, जो
उसने बल के दु पयोग के ारा िनबलों को िदखाए थे। बल के
सदु पयोग से पर र एकता होती है और िफर सबल तथा िनबल का
भेद शेष नहीं रहता। –दु :ख का भाव

12. ा यों की सेवा से मोह का और ा व ुओं के सदु पयोग से


लोभ का अ हो जाता है । –जीवन–दशन

13. यह िनयम है िक शरीर आिद व ुओं का सदु पयोग कर डालने पर


उनसे स –िव े द हो जाता है ; ोंिक िजसका सही उपयोग कर
लेते ह, उसकी आव कता शेष नहीं रहती। –जीवन–दशन

14. व ुओं के सदु पयोग से आव क व ुएँ और अिन जीवन के


सदु पयोग से िन जीवन ा हो जाता है । –जीवन–दशन
:: 268 ::
ांितकारी संतवाणी

15. सभी व ुओं म अिधक मह पूण व ु वतमान समय है। समय के


सदु पयोग म ही सम जीवन का सदु पयोग िनिहत है । –जीवन–दशन

16. जो दू सरों से सुख की आशा करता हो और पराए दु ःख से .


अपने को बचाता हो और ा सुख को दु खयों की धरोहर न मानता
हो, वह िकतना ही साम शाली ों न हो, प र थित का सदु पयोग
नहीं कर सकता। –िच शु

17. वतमान प र थित का सदु पयोग करने पर छु ी अपने–आप िमल जाती


है। बा छु ी छु ी नहीं होती, अिपतु काय का प रवतन होता है ।
साधारण ाणी काय के प रवतन को छु ी मानते ह; पर ु िवचारशील
काम का अ करने पर छु ी जानते ह........ ा प र थित का
सदु पयोग छु ी का सव ृ साधन है । –स –समागम 2

18. हमको जो कुछ िमला है , वही हमारे िलए िहत का साधन है ; ोंिक
ाकृितक िवधान ायपूण है । हमको जो िमला है , उसका सदु पयोग
करने पर ही हमारा े मपा हम अव अपना ले गा।
–स –समागम 2

19. प र थित–भेद से कत म भेद होने पर भी फल म एकता ही है


अथात् ेक प र थित के सदु पयोग का प रणाम एक ही है।
–साधन–त

20. िजस व ु और बल का मनु सदु पयोग नहीं करता, वह व ु और


श उससे िछन जाती है , यह ाकृितक िनयम है। –संत–सौरभ

ा की ममता और अ ा की कामना ने लोभ को ज िदया। लोभ


ने अथ का मू बढ़ा िदया और उसने स र ता का अपहरण कर
िलया, िजसके होते ही प र थित–प रवतन म अिभ िच जा त हो गई।
समाज

कृित से िमली ई प र थित के सदु पयोग पर ि न रही। उसका


प रणाम यह आ िक व ुओं म ही जीवन–बु हो गई िजसने मानव
को 'मानव– नहीं रहने िदया। कारण, िक व ुओं के आधार पर ही
समाज म का मू ांकन होने लगा। इस कारण बौ क तथा
शारी रक म अथ के अधीन हो गये, िजसके होते ही पर र म अनेक
कार के उ हो गए। आव क व ु– ा के िवधान को
भूलकर िवधान–िवरोधी उपायों ारा अथ का सं ह करने लगे।
सं ह नाश का हेतु है , अथात् सं ही ाणी अपनी मृ ु का आप आ ान
करता है । अतः मानव–जीवन म अथ की दासता का कोई थान ही
नहीं है। अथ समाज की धरोहर है और कुछ नहीं।

समाज

1. आ म बनता है समाज की उदारता से और समाज की उदारता कैसे


ा होती है िक भाई तुम समाज के िलए उपयोगी हो जाओ।
–संतवाणी 3

2. बु , ईसा, िजन्, महावीर आिद–आिद अनेक महापु ष आए। िफर भी


समाज की दशा उ रो र िबगड़ती ही चली गयी। इसके मूल म कारण
ा है ? इस पर िवचार करने से ऐसा लगता है िक मानव जब तक
अपने करने वाली बात को नहीं मानेगा, तब तक उसकी जो माँग है,
उसकी पूित नहीं होगी। – ेरणा पथ

3. जो स हमारे अपने जीवन म आ जाएगा, वह समाज म िवभु हो


जाएगा। –साधन–ि वेणी

4. समाज म िव ोह की उ ि तभी होती है , जब कत परायण


नहीं रहता। –संत–उ ोधन
:: 270 ::
ांितकारी संतवाणी

5. सु र समाज के िनमाण का अथ ा है ? िजस समाज म सभी ािणयों


के अिधकार सुरि त हों। कोई िकसी के अिधकार का अपहरण न
करता हो। गुण, प र थित, कम आिद की िभ ता होने पर भी आपस
म ीित की एकता हो। जहाँ बल ारा बात मनवाने की आव कता न
हो। –संत–उ ोधन

6. बल का सदु पयोग और िववेक का आदर करना ही हर मानव का


पु षाथ है । इसी पु षाथ से अपना क ाण और सु र समाज का
िनमाण होता है । –संत–उ ोधन

7. सु र समाज उसे कहगे, िजसका ेक वग अपने–अपने थान पर


सही हो, ठीक हो। –मानव की माँग

8. की कत िन ा ही समाज म ीित का सार करती है ।


–मानव की माँ ग

9. हमारा समाज तभी सु र होगा, जब हम क –परायण होंगे।


–मानव की माँ ग

10. जब तक हम अपना सुधार न करगे, तब तक सु र समाज का िनमाण


न हो सकेगा। –मानव की माँग

11. के िनद ष होने से समाज म िनद षता आ जाती है और


के दोषी होने से समाज म दोष आ जाता है । –मानव की माँग

12. समाज म कोई भी सवाश म समाज से स –िव े द करके


जीिवत नहीं रह सकता। –मानव की माँग

13. ों– ों समाज म सेवा–भाव की वृ होती है, ों– ों सु र समाज


का िनमाण होता है और ों– ों समाज म लोभ की वृ होती है ,
ों– ों समाज म द र ता तथा संघष उ होता है । –मानव की माँ ग
समाज

14. समाज का िनमाण एक–दू सरे की आव कता–पूित म सहयोग दे ने के


िलए है । –मानव–दशन

15. अनेक कार की िभ ता म एकता थािपत करने का जो प रणाम है ,


वही समाज है । –मानव–दशन

16. सामािजक भावना को िकसी वग, दे श, मत, स दाय, मजहब, इ


की सीमा म बाँ ध दे ना दलब ी है , समाज नहीं। दलब याँ संघष की
जननी ह। सामािजक भावना एकता तथा शा की जननी है।
–मानव–दशन

17. माली है और समाज वािटका। वािटका का माली वािटका की


सेवा म रत भी रहता है और उसी पर िनभर भी। इस ि से
और समाज दोनों ही पार रक िवकास म हे तु ह। –मानव–दशन

18. समाज सेवा का े है और सेवक है । सेवा िजसकी की जाती


है, उसकी अपे ा उसका अिधक िवकास होता है , जो सेवा करता है।
–मानव–दशन

19. ा वाद का अ िबना िकये ए कभी भी पर रम ेह की एकता


स व नहीं है । ेह की एकता के िबना समाज म शा की थापना
स व न होगी। –पाथेय

20. िजते यता तथा स की खोज एवं साथक िच न से यु सेवा म रत


मानव की गोद म ही बालक–बािलकाओं का पोषण तथा िश ण हो,
तभी भावी समाज सु र हो सकता है । –मानव–दशन

21. ाधीन यों के ादु भाव से ही समाज म ाधीनता सुरि त रहती


है। ाधीन समाज न तो िकसी से भयभीत होता है और न िकसी को
:: 272 ::
ांितकारी संतवाणी

भय दे ता है । भयभीत समाज ही यु –साम ी का सं ह करता है ।


–दशन और नीित

22. अ ा वाद को समाज से असं ग नहीं करता, अिपतु गत


सुखास से असंग करता है । –मानव–दशन

23. सं ह ों– ों बढ़ता जाता है , ों– ों सं ही की चेतना जड़ता से


आ ािदत होती जाती है । सं ही. की अपे ा मी म चेतना अिधक
रहती है । ाकितक िनयमानसार सधार का आर उसी से होता है,
िजसम चेतना अिधक है । अत: मी–वग के सुधार म ही समाज का
सुधार िनिहत है । आज तक िकसी भी सं ही के ारा समाज का
उ ान नहीं आ। –दशन और नीित

24. िजस के ारा समाज के अिधकार अप त नहीं होते और जो


यं अिधकार–लालसा से रिहत है , वही सु र है।
–दशन और नीित

25. सु र यों के िनमाण म ही सु र समाज का िनमाण िनिहत है।


–दशन और नीित

26. जब कत से ुत हो जाता है , तभी समाज म िभ –िभ


कार के िव व मचते ह। –दशन और नीित

27. िजस के ारा िकसी का अनादर तथा ितर ार नहीं होता एवं
जो दु खयों को दे ख क िणत तथा सु खयों को दे ख स होता है ,
उसकी माँ ग समाज को सदै व रहती है । –दशन और नीित

28. समाज के सभी बड़े –बड़े सु धारक वे ही ए ह, िजनके जीवन म िनवृि


धान थी। –स –समागम 1
समाज

29. िववेक के अनादर से ही ाणी के मन म संघष उ आ है। अतएव


जब तक िववेकपूवक मन का संघष न िमटे गा, तब तक समाज म होने
वाले संघष कभी िमट नहीं सकते, चाहे वे वैय क हों या कौटु क
अथवा सामािजक। –मानवता के मूल िस ा

30. सु र समाज का िनमाण एकमा सेवा म ही िनिहत है ।


–मानवता के मूल िस ा

31. ाकृितक िनयमानुसार जो जीवन म है वही िवभु होता है। अतः


कत –परायणता से ही समाज म पार रक कत –परायणता आती
है और अिधकार–लालसा से ही दू सरों म अिधकार की माँ ग उ
होती है। इस कारण अपने अिधकार का ाग और दू सरों के अिधकार
की र ा करना ही िवकास का मूल है । –मानवता के मूल िस ा

32. सु र समाज का अथ है –जहाँ दो यों म, दो वग म, दो दे शों म


पर र एकता हो, ेह हो, िव ास हो। अनेकों भेद होने पर भी, जैसे;
कम का भेद हो, भाषा का भेद हो, रहन–सहन का भेद हो; पर ीित
की एकता हो, िव ास की एकता हो, ल की एकता हो। –संतवाणी 6

33. अगर समाज म कत परायणता फैलती है तो कत –पालन से


फैलती है , उपदे श, आदे श और स े श से नहीं फैलती। –संतवाणी 5

34. स को ीकार करने से समाज म ा आती है , आ ोलन से


नहीं। –संतवाणी 7

जब मानव–समाज बालकों और रोिगयों की यथे सेवा नहीं करता, तब


भावी समाज के मन म एक िव ोह उ होता है , जो उस वृि को
ज दे ता है , िजससे सुखी और दु ःखी म संघष होने लगता है। सुखी
उदारता एवं दु ःखी ाग के बल को अपना नहीं पाता। दु ःखी म तृ ा
:: 274 ::
ांितकारी संतवाणी

और सुखी म लोभ की वृ होती रहती है , जो अनथ का मूल है। यिद


मानव–समाज ेक बालक को अपना बालक मान ले और रोिगयों
की सेवा का दािय पर न रहकर सामूिहक हो जाए, तो बड़ी
ही सुगमतापूवक िव ोह की भावना िमट सकती है।

साधक

1. ेक साधक साधन सुनने म ादा समय न लगाए, साधन करने म


ादा समय लगाए। –संतवाणी 4

2. भु–िव ासी का ेक काय ‘पूजा' है , और अ ा वादी का ेक


काय 'साधना' है , तथा भौितकवादी का ेक काय 'कत ' है ।
–संत–उ ोधन

3. साधक न शरीर है , न आ ा, न । तो िफर कौन है ? िजसने शरीर


म ममता ीकार कर ली है ; िक ु िफर भी िजसम त की िज ासा है
और अन की ि यता है । –जीवन–पथ

4. साधक को अपने सा से िभ जो भी िदखाई दे , उसे न तो अपना


माने, न अपने िलए माने और न ही उसके पाने तथा बने रहने की
कामना ही करे । –संत–उ ोधन

5. जो स को ीकार करता है , वही साधक कहलाता है, वही मानव


कहलाता है । –साधन–ि वेणी

6. जो दे ता है और लेता नहीं –यह भु का भाव। जो दे ता है और लेता


है –यह असाधक का भाव। जो दे ने के लये त र है और लेना
छोड़ता है –यह साधक का भाव। और जो केवल लेता है –यह
जड़ता। –संतवाणी 5
साधक

7. साधक की जो पहली माँ ग है , वह शा की है और जो अ म माँ ग है ,


वह अन –रस की अिभ की है । –संत–उ ोधन

8. साधक को साधन से अिभ होना है , न िक उसके साथ मोह करना है ।


साधन के ित मोह करना तो असाधन है । –मानव की माँग

9. अपने साधन का अनुसरण और दू सरे के साधनों का आदर मानवता


है। अपने साधन के ित मोह और दू सरों के साधन की िन ा
अमानवता है । –मानव की माँग

10. सम िव िमलकर भी साधक की वा िवक माँ ग को पूरा नहीं कर


सकता। इस ि से साधक का मू सृि से अिधक है।
–साधन–िनिध

11. जो िकसी के िलए भी अनुपयोगी होता है, वह साधक नहीं है।


–साधन–िनिध

12. साधक वही है , िजसके जीवन म िस के िलए िनत नव आशा


उ रो र बढ़ती रहे । –संतप ावली 2

13. थ चे ाओं का िनरोध साधकों के िलए अ आव क है। यिद


सेवा काय नहीं है तो दीवार को मत ताकते रहो। सेवा के अ म
इ यों का दरवाजा त: ब हो जाना चािहए। –संतप ावली 2

14. सभी साधकों को साधन–त से अिभ होना है । यह तभी स व


होगा, जब साधक केवल स ंग को ही अपना परम पु षाथ ीकार
कर। साधन को ऊपर से न भरा जाए, साधक म ही उसकी अिभ
हो। –संतप ावली 2

15. साधक महानुभाव गत साधना को सामूिहक साधना बनाने का


यास न कर, न उसका दशन कर। –संतप ावली 2
:: 276 ::
ांितकारी संतवाणी

16. परा य और प र म का सदु पयोग एकमा पर–सेवा म ही है । कभी


भी िकसी भी साधक को अपने िलए परा य और प र म अपेि त नहीं
है। –संतप ावली 2

17. अनुकूलता की दासता और ितकूलता के भय का साधक के जीवन म


कोई थान नहीं है । –पाथेय

18. जाने ए असत् के ाग के अित र िकसी भी साधक को कुछ भी


करना शेष नहीं है । –पाथेय

19. जब साधक अनेक पों म अपने ही सा को पाता है , तब उसके िलए


वृि और िनवृि अथात् कट और गोपनीय, दोनों का प समान
हो जाता है । –पाथेय

20. साधक को शु संक बदलना नहीं चािहए। हाँ , िनिवक होने के


िलए सभी संक ों का ाग िकया जा सकता है। िकसी संक के
िलए संक को बदलना साधक की ढ़ता म बाधक होता है। –पाथेय

21. शरीर की असंगता म ही े मा द की आ ीयतापूवक अिभ ता


िनिहत है । इस ि से असं ग होना ेक साधक के िलए अिनवाय है ।
–पाथेय

22. ेक मानव साधक है , पर आ ा और शरीर साधक नहीं है।


–संत–उ ोधन

23. सजग साधक को शरीर के रहते ए ही शरीर की आव कता से मु


होना अिनवाय है , जो एकमा अिकंचन, अचाह एवं अ य से ही
सा है। –पाथेय

24. जो िकसी से कुछ भी पाने की आशा करता है, वह साधक नहीं है,
अिपतु भोगी है । –िच शु
साधक

25. साधकों की सेवा से सा को स ता होती है , ऐसा मेरा िव ास है।


पर ु सेवा कराने वाले साधक को इस बात का ान रहे िक वह सेवा
करने से, अ साधकों की अपे ा अपने को िवशेष न मान ले और
सा के थान पर यं अपने की पूजा न कराने लगे।
–पाथेय

26. स ंग के ारा साधनिन साधक को कभी िकसी से िकसी कार की


िशकायत नहीं रहती –यह जीवन का सु र िच है। इतना ही नहीं,
उससे भी िकसी को िकसी कार की िशकायत नहीं रहती है । कारण
िक वह सभी का अपना होने से सवि य हो ही जाता है । ेिमयों को
े मा द से, उदार को जगत् से और ाधीन को अपने से कोई
िशकायत नहीं रहती। इस ि से साधनिन साधक को िकसी से
िशकायत नहीं रहती। –पाथेय

27. शरीर िव के काम आ जाए, दय ेम से भर जाए और अहं


अिभमानशू हो जाए–इस वा िवक माँ ग का अनुभव करना ही
साधक का परम पु षाथ है । माँ ग ही माँ ग की पूित म समथ है , यह
अन का अनुपम िवधान है । –पाथेय

28. शरीर आिद की ृितमा भी साधक के िलए अस है , तो िफर उनम


िवशेषता की अिभ िच रखना आस के अित र और ा है ?
–स ंग और साधन

29. साधक को उसी साधन से िस हो सकती है , जो उसे िचकर हो,


िजसके ित अिवचल िव ास हो एवं िजसके करने की यो ता हो।
–जीवन–दशन
:: 278 ::
ांितकारी संतवाणी

30. सभी साधकों का उ े एक हो सकता है , पर साधन एक नहीं हो


सकता। सभी साधकों म ीित की एकता हो सकती है , पर कम की
नहीं। –जीवन–दशन

31. कोई भी साधक िकसी भी प र थित म यह नहीं कह सकता िक हम


साधन नहीं कर सकते; ोंिक प र थित के अनु प ही साधन का
िनमाण होता है । –जीवन–दशन

32. िजस िकसी म जो कुछ है, वह जगत् और जग ित का ही है । यिद


साधक के शरीर का स जगत् से है , तो उसका स जग ित से
है। –साधन–िनिध

33. ेक साधक को शरीर, दय और म ा है । शरीर ारा


मपूवक प र थित का सदु पयोग, दय ारा सरल िव ासपूवक
समपण और म ारा िववेकपूवक िनम हता ा करना परम
आव क है । –जीवन–दशन

34. ि याशीलता, िच न और थित से असहयोग करने पर साधक अपने


म स ु होता है । –सफलता की कुंजी

35. साधक की अपनी बनावट के अनुसार यं को कुछ–न–कुछ मान


अव लेना चािहए। चाहे अपने को भ मान लो, चाहे सेवक मान
लो, चाहे िज ासु मान लो। मा ता के अनु प साधना फिलत होने
लगेगी। –स –जीवन–दपण

36. सरल िव ास के ऊपर, िबना िकसी शत के अगर आप अपने को


भगवान् को दे सकते ह, ितकूलताओं म उनकी कृपा का अनुभव कर
सकते ह, तो आप 'आ क' हो जाइए। अगर आप मा से असंग
हो सकते ह, तो 'अ ा वादी' हो जाइए और यिद अपना सुख बाँट
साधक

सकते ह, तो 'भौितकवादी' हो जाइए। िजसम आपकी मरजी हो, उसी


म िव हो जाइए। –स –समागम 2

37. िनवृि माग का अनुसरण करने वाले साधकों को शु अथात् पिव


संक ों की भी पूित नहीं करनी चािहए; ोंिक संक ों की पूित के
िलए िकसी–न–िकसी कार के सं ह की आव कता होती है , जो
वा व म अनथ का मूल है । इतना ही नहीं, संक –पूित का रस
साधक को सा से अिभ नहीं होने दे ता, ुत् ों– ों संक ों की
पूित होती जाती है , ों– ों नवीन संक ों की उ ि भी होती जाती
है। यह िनयम है िक संक उ होते ही सीिमत अहंभाव ढ़ होता
है। –स –समागम 2

38. िन:स े ह सभी साधकों का सा एक ही है ; ोंिक सभी की


वा िवक माँ ग एक है । –साधन–त

39. ेक साधक का अपना जाना आ असाधन अलग–अलग है । इसी


कारण सवाश म दो साधकों की साधना भी एक नहीं हो सकती;
ोंिक साधन का आर साधक म से ही होता है । –साधन–त

40. िकसी भी साधक को वह नहीं करना है, िजसे वह नहीं कर सकता और


िकसी भी साधक का सा वह नहीं हो सकता, िजसकी उसे ा
नहीं हो सकती। –साधन–त

41. यह िनयम है िक जब साधक अपने जाने ए असाधन का ाग कर


दे ता है, तब उसम जो िव मान साधन है , उसका ादु भाव अपने–आप
हो जाता है । –साधन–त

42. जो साधक भगवान् का भजन– रण िकसी कामना की पूित के िलए


करता है , वह कामना यिद उसके पतन म हेतु नहीं हो तो भगवान्
:: 280 ::
ांितकारी संतवाणी

अव पूरी करते ह; पर ु उससे साधक को भगवान् का ेम नहीं


िमलता। –संत–सौरभ

43. जो अपने सुख के िलए तप करता है , जो अपने सुख के िलए जप करता


है, उसकी गणना, माफ कीिजयेगा, िहर क प की सूची म की जाती
है........ अपने सुख के िलए िकया गया भजन, अपने सु ख के िलए िकया
गया तप, अपने सुख के िलए िकया आ दान, यह रा सी भाव है ।
यह मानवी भाव नहीं है । –संतवाणी 7

44. यह हो नहीं सकता िक आप स ाई की तरफ आगे बढ़ना चाह और


जगत् आपकी सहायता न करे और भु की कृपालु ता आपके साथ न
रहे। –संतवाणी 7

45. आजकल लोग साधन तो करते नहीं और साधन का फल लेना चाहते


ह, तब उनको सफलता कैसे िमले ? हरे क मनु सोचता है िक साधन
करके यो ता तो दू सरा ा कर ले और हम आशीवाद दे दे , तािक
हम उसका सुख िमल जाए...... साधन की सफलता के िलए साधक को
यं करना पड़े गा। –संत–सौरभ

46. कारण का नाश होने पर भी काय की तीित होती है। िजस कार वृ
का मूल कट जाने पर भी उसकी ह रयाली कुछ काल तीत होती है ,
उसी कार असत् का ाग करने पर भी असत् के संग के भाव को
कुछ काल साधक अपने शरीर, इ य, मन, बु आिद म दे खता है
और भयभीत हो जाता है । इतना ही नहीं, अपने िकए ए असत् के
ाग म भी िवक कर बै ठता है । असत् का ाग वतमान की व ु है ;
पर ु उसके भाव के नाश म काल अपेि त है । अपने िनणय म
िवक करना भी तो असत् का ही सं ग है । जब साधक सावधानीपूवक
साधन

अपने िनणय म िवक नहीं करता, तब अपने–आप असत् के संग का


भाव न हो जाता है । –स ंग और साधन

47. िजस कार वृ कट जाने पर भी कुछ काल तक हरा–हरा दीखता है,


उसी कार कतापन शेष न रहने पर भी ि याएँ तीत होती रहती ह।
–स –समागम 1

48. यह ीकार करना िक कोई और नहीं है , कोई गैर नहीं है ' –यही
साधक का जीवन है । –संतवाणी 6

49. अगर आज का साधक ह र–आ य और िव ाम अपना ले तो बड़ी


सुगमतापूवक जीवन की सम ाओं को हल कर सकता है।
–संतवाणी 3

50. रोना उसी ाणी को आता है , जो अपना मू संसार से अिधक कर


लेता है; ोंिक िबना असहाय ए रोना नहीं आता। –स –समागम 1

51. िजस काल म साधक ाधीन होना पस करता है , उसी काल म दै वी


श याँ उसकी सेवा करने के िलए लालाियत होने लगती ह।
–संत–उ ोधन

52. साधक की पहचान यह है िक िजसके रोम–रोम म अपने सा की ही


स ा हो, िभ का अ ही न हो। ा वह भी साधक है , िजसके
पास अपना मन हो, िजसके पास अपनी बु हो ? कदािप नहीं।
–संत–उ ोधन

साधन

1. असाधन के ाग के िबना साधन की अिभ भी नहीं होती।


–संतवाणी 4
:: 282 ::
ांितकारी संतवाणी

2. जब तक आप जगत् की स ा ीकार करते ह तब तक आप साधन


आर कर सकते ह –भौितक दशन के ि कोण से। और जब आप
जगत् की स ा अ ीकार करते ह, तब आप साधन कर सकते ह –
अ ा दशन के ि कोण से। जब आप भु की स ा ीकार करते
ह, तब आप साधन कर सकते ह –आ क दशन के ि कोण से।
आज दशा ा है ? िक स ा ीकार करते ह जगत् की और ा
करना चाहते ह भगवान् को। –संतवाणी 4

3. साधन म िस पाने के िलए उस म की अपे ा ही नहीं है , िजसे आप


नहीं कर सकते। उस व ु की अपे ा ही नहीं है , जो आपको ा नहीं
है। उस की अपे ा ही नहीं है , जो आपके पास नहीं है।
–संतवाणी 4

4. साधन म किठनाई है कहाँ ? किठनाई जहाँ आपको मालूम हो तो


समझ ल िक हम अपने मन की कोई बात पूरी करना चाहते ह, इसिलए
किठनाई है । –संतवाणी 4

5. साधन का आर होने के बाद असाधन के िलए तो अवसर ही नहीं


िमलता। जब असाधन के िलए अवसर ही नहीं िमलता, तब सम
जीवन साधन हो जाता है । –संतवाणी 4

6. सीिमत श को साधन की चचा म ही य कर िदया, तो िफर साधन


करने के िलए साम कहाँ से लाएँ गे ? –संतवाणी 4

7. सम साधनों का आर होता है –सुख की आशा से रिहत की ई


सेवा से; ोंिक यह कत –िव ान है । और सम साधनों का अ
होता है – ीित की अिभ से। –संत–उ ोधन
साधन

8. रोटी खाने म आप पूरी श लगा सकते ह और स ाई की खोज म


आप सोचते ह –कोई सहज साधन बताइए, कोई सुलभ साधन बताइए।
म आपसे पूछता ँ –रोटी खाने के िलए िजतना म कर सकते ह, स
की खोज के िलए उतना ों नहीं कर सकते ? –संतवाणी 5

9. आजकल हम लोग साधन करते समय इस बात को भूल जाते ह िक


हम मानव ह। और करते ा ह ? िक साधन सीखने को साधन मानते
ह, साधन िसखाने को साधन मानते ह, पर असाधन का ाग करके
साधन की अिभ नहीं होने दे ते। –संतवाणी 5

10. कुछ न करना भी साधन है । उदाहरण के िलए, एक का शरीर


ब त दु बल हो गया है । वह गंगा– ान नहीं कर सकता, तो उसके िलए
गंगा– ान न करना साधन है । –संतवाणी 6

11. कोई भी एक साधन ऐसा हो नहीं सकता, जो सभी के िलए समान प


से िहतकर हो। – ेरणा पथ

12. जो स िकसी आचाय, पीर, पैग र को िमला, वह स तो आपको


िमल सकता है ; लेिकन िजस कार से उनको िमला, उसी कार से
आपको भी िमल जाएगा –यह बात गलत है । – ेरणा पथ

13. जो नहीं करना चािहए, उसका ाग पहले ही करना पड़े गा। उसके
प ात् जो करना चािहए, उसकी अिभ आपके जीवन म तः
होगी और वही साधन आपका साधन होगा और उसी से आपको िस
िमलेगी। – ेरणा पथ

14. अगर रोटी खाना भगवान् की पूजा का अथ नहीं है तो माफ कीिजये,


माला जपना भी पूजा नहीं है और यिद माला फेरना पूजा है तो शौच
जाना भी पूजा है । –जीवन पथ
:: 284 ::
ांितकारी संतवाणी

15. यिद साधन है तो ेक वृि साधन है ; नहीं तो भैया, जब तक िकसी


वृि –िवशेष का नाम साधन है और िकसी वृि –िवशेष का नाम
असाधन है , तब तक सब असाधन है । –जीवन–पथ

16. िजसके दय म भगवान् को पाने की स ी लालसा उ हो गयी,


समझो उसके सब साधन हो गए। –संत–उ ोधन

17. दु :ख की बात तो यह है िक जो हम अपने ारा कर सकते ह, उसको


नहीं करते और जो शरीर के ारा कर सकते ह, उसी को करने की
कोिशश करते ह। –संत–उ ोधन

18. आप ीकार कीिजए िक ' भु मेरे ह, इससे जीवन भु के िलए


उपयोगी िस हो जाएगा। सेवा का त ले लीिजए, तो जीवन जगत् के
िलए उपयोगी हो जाएगा। अिकंचन और अचाह होने से जीवन अपने
िलए उपयोगी हो जाएगा। यिद आप इन तीनों म से िकसी को भी
ीकार नहीं करते, तो अन ज ों तक आपसे कोई साधन नहीं करा
सकता। –संत–उ ोधन

19. साधना एक अलौिकक त है । मानव ने उसकी खोज की है । साधना


मानव की उपज नहीं है, अिपतु ई रीय श है । –संत–उ ोधन

20. यिद भजन करके भगवान् से हम धन, स ान आिद कुछ माँ गते ह, तो
हमारा सा तो वह इ त पदाथ ही आ, भगवान् तो उसकी ा
के साधन ए। –संत–उ ोधन

21. साधन सभी अव थाओं म िकया जा सकता है। जो प र थित–िवशेष


की अपे ा रखता है , उसको तो साधन ही नहीं कह सकते।
–संत–उ ोधन
साधन

22. ाकृितक िनयम के अनुसार सभी प र थितयों म साधन का िनमाण हो


सकता है । –मानव की माँग

23. साधक भयं कर–से–भयंकर प र थित म भी साधन का िनमाण कर


सकता है और सा से अिभ हो सकता है । –मानव की माँ ग

24. सा की एकता होने पर भी साधन म िभ ता होना अिनवाय है ; पर ु


साधन को ही सा मान ले ना माद अथात् अमानवता है।
–मानव की माँ ग

25. साधन की ममता भी साधन म आस उ करती है । गत


साधन की आस अ साधन की िवरोधी है । इस ि से साधन
जीवन हो, िक ु साधन की आस न हो। –मानव–दशन

26. बलपूवक िकया आ साधन साधक म िम ा अिभमान ही उ


करता है । –साधन–िनिध

27. सम साधनों की पराविध योग, बोध और े म की अिभ म है।


–मूक स ंग

28. रोना सव म साधन है ; पर ु िवचारपूवक होना चािहए। रोने से जो


अव था ा होती है , यिद उस अव था म स ोष कर िलया जाए तो
साधन खुराक बन जाता है । इसिलए जो सबसे अ म अव था होती है
अथात् जो रस मालूम होता है , उसको भी स मत समझो अथात्
उससे भी ऊपर उठ जाओ। –संतप ावली 1

29. जब तक िकसी भी ि या से, भाव से तथा अव था से रसा ादन होता


रहता है, तब तक पिथक चलता ही रहता है। यिद चलने का अ
करना है तो िकसी भी ि या, भाव तथा अव था से रस न लो।
:: 286 ::
ांितकारी संतवाणी

अव थाओं से परे माग भी शेष नहीं रहता अथात् ठहरने का थान आ


जाता है , वही आपका िनज प है । –संतप ावली 1

30. साधन उसे नहीं कहते, िजसे साधक कर न सके और साधन उसे भी
नहीं कहते, िजसम साधक को िकसी कार का स े ह हो और साधन
उसे भी नहीं कहते, जो साधक को िचकर न हो। –पाथेय

31. मानिसक जप िबना ान िकये ेक अव था म िकया जा सकता है।


वाणी से जप उसी अव था म करना अिधक िहतकर होता है , जब बा
पिव ता हो। –पाथेय

32. आन ाकुलता से ही िमल सकता है और िकसी कार नहीं। िजस


कार सभी िमठाइयों म मीठापन चीनी का होता है , उसी कार सभी
अ ाइयों म अ ापन ाकुलता का होता है। ाग, ेम, ान –ये
सभी ाकुलता के ब े ह। –स –समागम 1

33. वा व म दे ना ही मानवता और लेना पशुता है । दी ई व ु बढ़ जाया


करती है, इसे सभी िवचारशील जानते ह। अत: लेने के िलए भी दे ना
आव क है और ऋण से मु होने के िलए भी दे ना अिनवाय है । अत:
यह िनिववाद िस हो जाता है िक दे ना ही स ी साधना है ।
–संतप ावली 2

34. भु का नाम, भु का काम, भु का ान समान अथ रखते ह।


–पाथेय

35. सम साधन िव ाम, ाधीनता और ेम म ही िवलीन होते ह।


–स ंग और साधन

36. सभी साधनों की पराविध ' ाग' म और ाग की पराविध ' ेम' म


िनिहत है। –जीवन–दशन
साधन

37. सभी के िहत म ही अपना िहत है , इस वा िवकता को अपना कर ही


ेक कत –कम तथा जप, तप आिद करना चािहए। अपने िहत के
िलए िकया आ ान भी ब न ही है । –पाथेय

38. साधन का स साधक की िच, यो ता तथा साम से है। िजस


साधन म इन सबका समथन हो, वही साधन िस दायक है ।
–स ंग और साधन

39. गत स वा िवक स की ा म साधन प है । इस कारण


गत प से आदरणीय तथा अनुसरणीय है , पर सबको
गत पथ पर ही चलाने का यास आ ही बना दे ता है। आ ह से
स अस से ढक जाता है . और िफर गत स , जो अपने िलए
साधन प था, साधन प नहीं रहता, अिपतु उससे अहंभाव ही पोिषत
होने लगता है । अहं भाव पर र एकता सुरि त नहीं रहने दे ता, अिपतु
भेद को ज दे ता है , जो सं घष का मू ल है । –दु ःख का भाव

40. गत साधन को बल तथा आ हपूवक ापक बनाने का – यास


अपने गत स से िवमुख होना है और पर र िभ ता को
पोिषत करना है । –दु :ख का भाव

41. अपने गत साधन को िसखाने का आ ह साधन का भोग है , सेवा


नहीं। सेवा दु खयों को दे ख क िणत और सु खयों को दे ख स होने
का पाठ पढ़ाती है , शासक नहीं बनाती। –दु :ख का भाव

42. साधन के आर म जो सेवक है , वही ागी है और अ म ेमी है।


–जीवन–दशन
:: 288 ::
ांितकारी संतवाणी

43. जो 'िज ासु' अपने जाने ए दोष का ाग नहीं कर सकता और जो


'भ ' अपने को समिपत नहीं कर सकता, वे दोनों ही साधन म सफल
नहीं हो पाते । –जीवन–दशन

44. साधन करने के िलए िकसी अ ा बल, व ु, आिद की अपे ा


नहीं है और न उस ान की आव कता है , जो अपने म नहीं है , अिपतु
जो है उसी से साधन करना है । यह िनयम है िक साम की ूनता
तथा अिधकता साधन म कोई अथ नहीं रखती। –जीवन–दशन

45. साधन करने म असमथता नहीं है , अिपतु असावधानी है, जो साधन की


िच जा त होने पर िमट सकती है । –जीवन–दशन

46. सभी साधकों का सा एक है और ेक साधन म सभी साधनों का


समावेश है । –जीवन–दशन

47. ब त–से लोग िवनोद म कह दे ते ह िक अभी कौन–सी ज रत है


साधन करने की, कुछ वष के बाद दे खा जाएगा, अभी तो भाई आन
करने दो। सोचने की बात है िक िबना साधन के आपको आन कैसे
िमलेगा ? भाई, जीवन का कोई काय असाधन– प से िकया आ
सुखद भी नहीं होता, शा दे ने वाला भी नहीं होता और स ित दे ने
वाला भी नहीं होता। –सफलता की कुंजी

48. साधन बोझा नहीं है । आज साधक को यह मालूम होता है िक जैसे कोई


आदमी रोटी खाकर िनि होकर उठता है , वैसे ही जब वह ान से
उठता है तो उसे िव ाम िमलता है अथात् जब वह ान म था, तब उसे
िव ाम नहीं था ! तो ा यह भी साधन है िक ानकाल म िव ाम न
िमले ? –सफलता की कुंजी
साधन

49. िकसी का िव ा क साधन ा है ? उसका िनणय िकसी अ


की तो कौन कहे , वह बेचारा यं भी उस समय तक नहीं कर सकता,
जब तक िववेक–िवरोधी कम, स तथा िव ास का ाग न करे ।
असत के ाग ारा सत का संग ही साधन–िनमाण म हेतु है।
–दशन और नीित

50. साधन–भेद होने पर सा म भेद ीकार करना साधन को ही सा


मान लेना है । –दशन और नीित

51. य िप ेक प ित िकसी–न–िकसी साधक के िलए िहतकर अव


है; पर ु ऐसी कोई प ित हो ही नहीं सकती, जो सवाश म सभी के
िलए िहतकर िस हो; ोंिक प ित की उ ि की यो ता,
िच एवं प र थित आिद से होती है । सवाश म समान यो ता, िच
तथा प र थित दो यों की भी नहीं होती, तो िफर िकसी प ित
को इतना मह दे ना िक उसे सभी मान ल, यह उस प ित के
समथक के अहम्–भाव का िवकार है । –िच शु

52. साधन म िकसी कार की पराधीनता, असमथता एवं असफलता नहीं


है, ुत ेक साधक ेक दशा म साधन करने म सवदा ाधीन
तथा समथ है । –िच शु

53. यह िनयम है िक िनषेधा क साधन की पूित म सभी साधक ाधीन ह;


ोंिक उसके िलए िकसी अ ा व ु आिद की अपे ा नहीं होती
और उसम कभी अिस भी नहीं होती। जैसे, 'हम िकसी का बुरा नहीं
चाहगे' –इस साधन म िकसी भी साधक को कोई भी किठनाई नहीं है
और उसकी िस भी वतमान म ही हो सकती है। –िच शु
:: 290 ::
ांितकारी संतवाणी

54. िनषेधा क साधन ही वा िवक साधन है । िव ा क साधन तो केवल


उसका ृंगार मा है । िव ा क साधन से तो साधक का काशन
होता है , पर साधक की साधना से अिभ ता तो िनषेधा क साधन से
ही होती है । –िच शु

55. 'साधन' वही है , िजसके करने म साधक समथ तथा ाधीन है और


'सा ' वही है , िजसकी ा अव ावी है । –िच शु

56. सम साधन िववेकश , भावश और ि याश के सदु पयोग


से िस होते ह। –िच शु

57. ममता और कामना का ाग िकये िबना साधना के माग म बढ़ा ही


नहीं जा सकता। –स –जीवन–दपण

58. िजस कार िबना ाण का शरीर िकतना ही सु र ों न हो, बेकार


होता है, उसी कार ाकुलतारिहत साधन िकतना ही उ म ों न
हो, बेकार हो जाता है । –स –समागम 1

59. िजस कार सभी िमठाइयों म िमठास चीनी की होती है , उसी कार
सभी साधनों म धानता ाकुलता की होती है। –स –समागम 1

60. उपासना का वा िवक त यह है िक उपा दे व से िभ जो कुछ


तीत होता है , उसका अभाव हो जाए अथवा उपा दे व से िभ और
िकसी की स ा शेष न रहे । –स –समागम 1

61. उपासना करने से पहले उपासक को यह भली कार जान लेना चािहए
िक वह अपने को िनराकार मानता है अथवा साकार; ोिक साकार
मानकर िनराकार की उपासना नहीं कर सकता और िनराकार
मानकर साकार की उपासना नहीं कर सकता। उपासना तो वा वम
साधन

साकार तथा सगुण की ही होती है । ोंिक िजसको इ यों की अपे ा


िनराकार कहते हो, वह बु की अपे ा साकार है। –स –समागम 1

62. जो साधन साधक के अहं भाव से उ नहीं होता, वह साधक के िलए


ंगार–मा है, जीवन नहीं। –स –समागम 2

63. भगवान् की ओर मन लगाकर काम करना उतना अ ा नहीं है ,


िजतना अ ा काम भगवान् का समझकर करना है । –स –समागम 2

64. िकसी से कुछ न चाह और िकसी का अिहत न कर, तो भ को


भगवान्, अशा को िचर शा और दु :खी को दु :ख–िनवृि िमल
जाएगी। –संत–उ ोधन

65. यह भली कार समझ लो िक जो ाणी स ावपूवक एक बार भगवान्


का हो जाता है , उसका पतन नहीं होता। अत: 'म भगवान् का ँ '. यह
महाम जीवन म घटा लो। ऐसा करने पर सभी उलझन अपने–आप
सुलझ जाएँ गी। –स –समागम 2

66. साधन वही साथक है, जो साधक को सा से अिभ कर सके। वह


तभी हो सकता है िक जब जीवन ही साधन बन जाए, साधन जीवन का
अंगमा न रहे । –स –समागम 2

67. भ होने पर भ त: आ जाती है , िज ासु होने पर िवचार त:


उ होता है , सेवक होने पर सेवा भावत: आ जाती है ; ोंिक मन,
इ य आिद की चे ा अहं भाव के िवपरीत नहीं होती।
–स –समागम 2

68. िज ासु ए िबना िकया आ िवचार बु का ायाम है, सेवक ए


िबना की ई सेवा पु –कम है और भ ए िबना िकया आ
भगव न भोग ा का साधन मा है , भ नहीं।....... अत:
:: 292 ::
ांितकारी संतवाणी

ेक साधन का ज अहं भाव से होना चािहए अथात् िजस ल को


ा करना है , उसके अनु प अहं ता बना लो। –स –समागम 2

69. िव ास–माग तथा िवचार–माग –ये दोनों िभ –िभ त माग ह।


िव ास म िवचार के िलए और िवचार म िव ास के िलए कोई थान
नहीं है । –स –समागम 2

70. जप केवल ीकृितमा से हो सकता है ; पर ु रण तब तक नहीं हो


सकता है , जब तक ाणी स ावपूवक उनका न हो जाए; ोंिक
रण स के िबना िकसी भी कार नहीं हो सकता। जब तक
रण उ न हो, तब तक जप करना परम अिनवाय है।......... जप
करने से समरण करने की श आ जायगी। –स –समागम 2

71. ाकुलता के िबना न तो सगुण का सा ा ार होता है , न


त ान। ाकुलतारिहत िनजिव य की भाित साधन करना ि या–
प रवतन से िभ कुछ अथ नहीं रखता। –स –समागम 2

72. िजस कार जीवन की पूणता मृ ु म बदलती है , उसी कार ेक


साधन आगामी साधन म अपने–आप बदल जाता है।
–स –समागम 2

73. संसार से स ी िनराशा एवं अपने को सब ओर से हटा लेना अ ा –


उ ित का सव ृ सु गम साधन है । –स –समागम 2

74. साधन म किठनता का भाव केवल साधक का माद है, अथवा


किठनता का कारण साधक की यो ता के ितकूल साधन है , अथवा
साधक आव कता होने से पूव आवेश म आकर साधन म वृ आ
है, अथवा िव ास की िशिथलता है तथा अनुभूित का िनरादर करता है ,
अथात् ऐसा साधक िनज ान के अनु प जीवन नहीं जीता। इन सभी
साधन

कारणों से साधक को साधन म किठनता तीत होती है ।


–स –समागम 2

75. तुम को सब लोगों के साथ रहते ए भी अकेले के समान रहना चािहए


अथात् िकसी भी से इतनी घिन ता न हो िक वह तुम से
बेकार बात करे , अथात् तु म िकसी को भी अपने मन बहलाने का
साधन मत बनाओ। –स –समागम 2

76. गत साधन का आ ह यह िस करता है िक िजस साधन का


वह आ ह कर रहा है , वह वा व म उसका जीवन नहीं है । जैसे, कोई
भूखा ाणी भोजन की शं सा तो करता हो, पर यं भूखा रहता हो।
–मंगलमय िवधान

77. बाहरी साधनों म अपने को अिधक मत फँसाओ। जहाँ तक हो सके,


दय से ेमपा को पु कारो। –स –समागम 2

78. जो ाणी बाहरी साधनों म अपने को अिधक बाँ ध लेता है , उसम साधन
का िम ा अिभमान आ जाता है । बाहरी साधन िनबलताओं को ढक
दे ता है, िमटा नहीं पाता।........ िछपा आ साधन बाहरी साधनों से कहीं
अिधक सबल होता है । िछपा आ ाग तथा ेम बढ़ जाता है , िछपी
ई ीित स ी ाकुलता उ करती है , जो वा व म स ा भजन
है। िकसी ने भी ब मू व ुओं को बाहर िनकालकर नहीं रखा, सब
िछपाकर ही रखते ह। अत: ीित जैसी अमू व ुओं को दय म
िछपाकर रखना चािहए। –स –समागम 2

79. अपने सा म अगाध, अन , िनत नव ि यता ही साधन–त है।


–साधन–त
:: 294 ::
ांितकारी संतवाणी

80. िनषेधा क साधन सभी साधकों के िलए समान है ; ोंिक असाधन का


ाग ही िनषेधा क साधना है । असाधन के ाग के िबना िव ा क
साधना, जो ेक साधक की अलग–अलग होती है, िस हो ही नहीं
सकती। –साधन–त

81. िनषेधा क साधना ही सभी साधकों म ेह की एकता सुरि त रखती


है अथात् िव ा क साधना अलग–अलग होने पर भी साधक होने के
नाते पर र म एकता बनी रहती है । –साधन–त

82. साधन वतमान की व ु है, भूत और भिव की नहीं। –साधन–त

83. साधन वही है , जो साधक का जीवन हो जाए। –साधन त

84. िजस साधन म ाभािवक ि यता नहीं होती, वह साधन साधक का


जीवन नहीं हो सकता। जो साधन जीवन नहीं हो सकता, वह अख
नहीं हो सकता। जो अख नहीं हो सकता, वह वा व म साधन नहीं
है। –साधन–त

85. सा सभी का एक होने पर भी साधन–साम ी दो साधकों की भी


सवाश म समान नहीं है । साधन–साम ी के सदु पयोग का ही नाम
साधन है । अत: साधन–साम ी म भेद होने से साधन म भेद अिनवाय
है। –साधन–त

86. ाभािवकता उसी साधन म हो सकती है , िजसम साधक को लेशमा


भी स े ह न हो अथात् साधन िनज िववेक के अनु प हो; ोंिक
िववेक–िवरोधी साधन म िन े हता स व नहीं है । इतना ही नहीं,
अ साधन ारा िस का लोभन भी साधक को अपने साधन से
िवचिलत न कर सके, अिपतु उसम यही भाव ढ़ रहे िक मुझे अपने ही
साधन ारा िस ा करना है । –साधन–त
साधन

87. यह िनयम है िक सि य साधन के िबना ‘करने के राग' का नाश स व


नहीं है । –साधन–त

88. िजस साधन म िन े हता होती है , उसम 'बु ' और जो साधन


िचकर होता है , उसम 'मन' अपने–आप लग जाता है। मन–बु के
लगने से साधन म ाभािवकता आ जाती है ; ोंिक मन–बु आिद
को लगाने–हटाने म जो अ ाभािवकता है , वह नाश हो जाती है।
कारण िक हटाना और लगाना मसा है । म कभी भी अख नहीं
हो सकता। –साधन–त

89. सत् असत् का काशक है , नाशक नहीं; िक ु सत् की लालसा, जो


साधन प है , असत् को खाकर साधक को सत् से अिभ कर दे ती है ।
इस ि से यह िनिववाद िस हो जाता है िक सा की अपे ा साधन
का कहीं अिधक मह है । हाँ , यह अव है िक साधन म स ा सा
की ही होती है । –साधन–त

90. साधन कोई ऐसा काय नहीं है, िजसम कभी न करने की बात आए।
साधन वही है जो भाव से ही िनर र होता रहे । यिद साधन म
वधान पड़ता है तो यह समझना चािहए िक साधन के भेष म िकसी
असाधन को अपना िलया है । –साधन–त

91. जो साधन जीवन के िकसी एक अंश म तीत होता है , वह वा वम


साधन के भेष म असाधन ही है ; ोंिक साधक का सम जीवन
साधन है। –साधन–त

92. साधन और जीवन म एकता ा करने के िलए िकसी अ ा


प र थित की अपे ा नहीं है ; ोंिक साधन– ि से सभी प र थितयाँ
:: 296 ::
ांितकारी संतवाणी

समान अथ रखती ह। प र थित–प रवतन की कामना उ ीं ािणयों म


रहती है, जो प र थित को ही जीवन मान लेते है। –साधन–त

93. अपने सुख–दु ःख का कारण दू सरों को मानना साधन का सबसे बड़ा


िव है। –स वाणी ( ो र)

94. यिद हम दू सरों के अिधकारों की र ा करते ए अपने अिधकार का


ाग कर द तो पूरा गृह थ–जीवन साधनयु हो जाएगा और िकसी
कार की किठनाई मालूम नहीं पड़े गी। –स वाणी ( ो र)

95. कामना को लेकर जो ई र का भजन–िच न िकया जाता है , वह


कामना की पूित होने पर या न होने पर ई र से िवमुखता दान करता
है। –संत–सौरभ

96. आप सुनना और सीखना ब कर, और जानना और मानना ार


कर, तो काम बन जाएगा। जानने के थान पर 'मेरा कुछ नहीं है ' –
इसके िसवाय और कुछ नहीं जानना है, और मानने के थान पर
िसवाय परमा ा के और कोई मानने म आता नहीं है । –संत–उ ोधन

97. ानपूवक अनुभव करो िक म िकसी भी काल म दे ह नहीं ँ और न दे ह


मेरा है। आ था– ा–िव ासपूवक ीकार करो िक अपने म अपने
े मा द सदै व मौजूद ह। बस, यही सफलता की कुंजी है ।
–संतप ावली 2

98. परमा ा के स का जो भाव जीवन म आ जाता है , उसी को


साधना कहते ह। –संतवाणी 7

99. साधन का अथ यह कभी नहीं है िक हम वह साधन कर िक जो हमारे


जीवन से कभी भी अलग हो सके। –संतवाणी 7
साधन

100. सच मािनये, साधन उसका नाम नहीं है, िजसको आपने बाहर से भरा
है। साधन का असली अथ ही यह है िक िजसकी अिभ साधक म
से हो। –संतवाणी 4

101. जो साधन अपने ारा होता है , उसी साधन से िस होती है। जो साधन
अपने ारा नहीं होता, परा य से होता है , उस साधन से बा िवकास
तो िदखाई दे ता है , लेिकन अपने को कुछ नहीं िमलता। –संतवाणी 4

102. अगर आप यह मानते ह िक िस (वतमान म) नहीं हो सकती, तो


साधन करने की ों सोचते ह ? आप कहगे िक साधन करने की तो
इसिलए सोचते ह िक काला र म, ज –ज ा र म हम को िस
िमलेगी। इसका अथ यह आ िक अभी हम असाधन–जिनत सुख का
भोग करना चाहते ह। –संतवाणी 4

103. अपने िलए तप करना भी भोग है , पर भु के िलए झाड़ू लगाना भी


पूजा है । –संत–उ ोधन

104. आप दशा से प रिचत होते नहीं, ज रत से प रिचत होते नहीं, साधन


से प रिचत होना चाहते ह। जो साधन आप की ज रत के अनुसार
नहीं होगा, जो ज रत आपकी मौजूद दशा म से नहीं िनकले गी, यह
कैसे ठहरे गी आपके जीवन म ! ासे आदमी को पानी की बात सुनने
को िमले तो वह फौरन पकड़ लेता है ; ोंिक ास लगी है , उसे
ज रत है । पहले आप अपनी मौजूदा हालत दे खए, ा है ? िफर
अपनी ज रत दे खए, ा है ? िफर उपाय पूिछए अपनी ज रत को
सामने रखकर, तो ज रत का अनुभव होना ही एक ब त बड़ा उपाय
हो जाएगा। –संत–उ ोधन
:: 298 ::
ांितकारी संतवाणी

105. िथत दय से इतना ही कह दीिजए िक हे ारे , हम आपको अपना


मानना चाहते ह, पर मान नहीं पाते; हम ममता तोड़ना चाहते ह, पर
तोड़ नहीं पाते। िथत दय से इतना कहकर मौन हो जाइए। आपको
पता भी न चले गा िक ममता कैसे टू ट गयी और आ ीयता कैसे आ
गयी। ों ? जो करना चाहते ह आप, चाहते ह और नहीं कर पाते, तो
जो चाहना है , वही करना है और कुछ नहीं करना है। –जीवन–पथ

106. िववेकपूवक दे ह आिद की असंगता वा िवक साधना है। कारण िक


िकसी की असं गता ही िकसी की अिभ ता हो जाती है । –पाथेय

107. असंगता िकसी भी अ ास से सा नहीं है । कारण िक अ ास उन


व ुओं से तादा करा दे ता है , िजनसे साधक को असंग होना है ।
–दु ःख का भाव

108. िन ाम ए िबना असंगता िकसी भी अ ास से सा नहीं है ।


–दु ःख का भाव

109. आ ीयता ही वा िवक भजन है और ममता का अ ही वा िवक


साधन है। –संतप ावली 2

110. िजसको साधन कहते ह, िजसको भजन कहते ह, वह शरीर–धम नहीं


है। –संतवाणी 3

111. भजन के दो भाग ह –एक भाग है 'सेवा' और दू सरा 'ि यता'। सेवा
वृि काल म और ि यता िनवृि काल म। इसका नाम है –भजन।
– ेरणा पथ

112. सेवा, ाग और ेम तीनों इक े हो गए, भजन हो गया। भजन म सेवा


भी है, ाग भी है और ेम भी है । –संत–उ ोधन
साधन

113. याद आना, ारा लगना, अिभलाषा पैदा होना –यही तो भजन है ।
िवचारकों ने इसे 'साधन' कह िदया और ालुओं ने 'भजन' कह
िदया। –संत–उ ोधन

114. अ ास का नाम भजन नहीं है , ि यता ही स ा भजन है ।


–स –जीवन–दपण

115. भु के नाते िकया आ काम भजन हो जाता है । –संतवाणी 8

116. जो सबसे स तोड़कर एकमा भगवान् को ही अपना मान लेता है ,


उससे भजन अपने–आप होता है, उसे करना नहीं पड़ता।
–संत–सौरभ

117. भगवान् को अपना मानगे, तब भजन होगा िक िकसी ि या–िवशेष से


भजन होगा ? अपना मानगे तब भजन होगा। –संतवाणी 7

118. यह जो परमा ा को अपना मानना है , यही स ा भजन है । ों?


अपना मानने से वह ारा लगता है । –संतवाणी 3

119. िबना कुछ भी चाहे , जो भगवान् को अपना मानता है, वही भजन कर
सकता है । –संत–उ ोधन

120. सब कामों के अ म सोते समय और सोकर उठते समय एवं जो कोई


काम करो, उसके अ म भजन ज र करना चिहए। जो मनु हरे क
काम के अ म कम–से–कम एक बार भी िनि त प से भगवान् को
याद कर लेता है , उसको मरते समय भगवान् ज र याद आ जाएँ गे ।
–संत–सौरभ

121. हमारे िवचार से भजन की ा तीन कार से होती है – ुित,


उपासना और ाथना से। ' ित' का ता य है –परमा ा के अ
और मह को ीकार करना। 'उपासना' का अथ है –परमा ा से
:: 300 ::
ांितकारी संतवाणी

स ीकार करना। और ' ाथना' का बोधाथ है –परमा ा के े म


की आव कता अनुभव करना। –संतवाणी 3

साम (बल)

1. िजतनी आपके जीवन म िनि ता रहे गी, उतना आप म साम का


िवकास होगा। –संतवाणी 4

2. िनमम होने से ही िन ाम होने की साम आती है , और िन ाम होने


से ही असंग होने की साम आती है । ऐसा िनयम ही है ।
–साधन–ि वेणी

3. वै ािनक ि से िनि ता आव क साम की जननी है और


िनभयता ा साम का सदु पयोग कराने म हे तु है। –संतप ावली 2

4. मानिसक अशा से ा साम का ास ही होता है , कोई लाभ


नहीं होता, यह ुव स है । इस कारण िवचारशील ेक दशा म
मानिसक शा सुरि त रखते ह। उसका प रणाम यह होता है िक
उ ा प र थित के सदु पयोग की साम मंगलमय िवधान से िमल
जाती है । –संतप ावली 2

5. म–रिहत ए िबना साम की अिभ नहीं होती। –पाथेय

6. श हीनता की अनुभूित यह िस करती है िक साम िकसी


की अपनी नहीं है । यह उसी की दे न है, िजसके काश से सम िव
कािशत है । –जीवन–दशन

7. असमथता साम के दु पयोग से उ होती है । साम का


सदु पयोग करने से उ रो र उसकी वृ ही होती रहती है।
–सफलता की कुंजी
साम (बल)

8. ाकृितक िनयमानुसार बल का उपयोग एकमा शरीर, प रवार,


समाज, संसार आिद की से वा म ही िकया जा सकता है । उसके ारा
अिवनाशी जीवन की उपल नहीं हो सकती। –सफलता की कुंजी

9. ल का दु पयोग करते ही िवरोधी श का ादु भाव हो जाता है।


उसका प रणाम यह होता है िक जो अपने को सबल मानता था, वही
िनबल हो जाता है और िफर उसके ित वही होने लगता है , जो उसने
अ के ित िकया था। –दशन और नीित

10. साम शाली वही है , जो बल का दु पयोग तथा िववेक का अनादर


नहीं करता, और िजसकी स ता िकसी और पर िनभर नहीं रहती, एवं
जो सभी के िलए उपयोगी तथा िहतकर िस होता है । िजससे कभी
िकसी का अिहत नहीं होता, वही साम वान् है । –दशन और नीित

11. ाकृितक िनयम के अनुसार ा साम िकसी असमथ की धरोहर


है। वह उसी के काम आनी चािहए अथात् सविहतकारी वृि म ही
साम का स य है । –िच शु

12. साम शाली दे श, समाज, वग, जाित, आिद वे ही माने जा


सकते ह िक िजनके ारा िकसी का अिहत न हो और िजनकी स ता
िकसी और पर िनभर न हो। –िच शु

13. वा िवक बल वही है , जो सबल और िनबल म एकता उ कर दे ।


–िच शु

14. िजस बल से िनबलों की से वा नहीं होती, अिपतु ास होता है , वह बल


त: िमट जाता है । –िच शु
:: 302 ::
ांितकारी संतवाणी

15. वा िवक साम शाली वही है , िजसे व ुओं की खोज नहीं है , अिपतु
व ुएँ िजसकी खोज म रहती ह। कारण िक आव कता की पूित
अन के िवधान से त: होती है । –िच शु

16. दु ःखी की पुकार म वही साम है, जो िवचारशील के िवचार म है ।


–िच शु

17. शरीरािद संसार की सभी व ुओं पर भरोसा करना ही िनबलता है ।


यिद संसार की सहायता का ाग कर िदया जाए तो साधक अ
सबल हो जाता है और िफर संसार उसके अनुकूल होने के िलए मजबूर
हो जाता है । –स –समागम 1

18. उनका (भगवान् का) हो जाने पर िनबलता भी महान् बल है और


उनका िबना ए महान् बल भी परम िनबलता है।.िनबल–से–िनबल भी
उनका होकर, बड़ी–से–बड़ी सम ाओं से पार होकर, उनसे अिभ
हो जाता है । –स –समागम 2

19. िमली ई श का सदु पयोग करने पर आव कश अपने–आप


आ जाती है । –स –समागम 2

20. अस िकतना ही सबल हो, िक ु िनबल ही होता है। स बा ि


से िकतना ही िनबल हो, िक ु सबल ही होता है। –स –समागम 2

21. ाकृितक िनयमानुसार ा बल का सदु पयोग िनबलों की सेवा म ही


हो सकता है । ाणी िनबलों की अपे ा ही अपने को सबल मान लेता
है। इतना ही नहीं, िनबलों के िबना अपनी सबलता का भास ही नहीं
होता। इस ि से सबलता िनबलों की दे न है ।
–मानवता के मूल िस ा
सुख और दु ःख

22. िव ाम की भूिम म ही आव क साम की अिभ होती है।


–मानवता के मूल िस ा

23. ाकृितक िनयमानुसार बल के दु पयोग म ही िनबलता िनिहत है


अथात् बल के दु पयोग से सबल िनबल हो जाता है । इसी कारण
काला र म िवजयी परािजत और परािजत िवजयी होता है ।
–मानवता के मूल िस ा

24. ों– ों ाथभाव गलता जाता है , ों– ों कृित उसे साम शाली
बनाती है । जैसे, िजन वृ ों से दू सरे वृ ों को पोषण िमलता है, उनकी
आयु भी अपे ाकृत अिधक होती है और वे दू सरे वृ ों से पोिषत भी
होने लगते ह। –िच शु

25. बल का उपयोग एकमा से वा म है । –संतवाणी 5

26. िव ाम के िबना साम की अिभ नहीं हो सकती। और िव ाम


कब िमलता है ? जब असत् की कामना न रहे । –संतवाणी 4

27. बड़े –से–बड़ा, सबल–से–सबल , वग तथा समाज उस समय तक


हम असमथ नहीं बना सकता, जब तक हम िमले ए बल का
दु पयोग तथा िववेक का अनादर नहीं करते । –दशन और नीित

सुख और दु ःख

1. सुख का सदु पयोग उदारता और दु ःख का सदु पयोग िवर है।


–मानव की माँ ग

2. यह जो हम आज दु :खी होते ह और हमारा िवकास नहीं होता है ,


उसका कारण एकमा यही है िक हम दु :ख का कारण दसरों को
मानते ह। –मानव की माँग
:: 304 ::
ांितकारी संतवाणी

3. यह िनयम है िक िजस किठनाई को शा पूवक सहन कर िलया जाता


है, वह किठनाई यं हल हो जाती है । शा पूवक सहन करने का
अथ है , अपने दु :ख का कारण िकसी और को न मानकर दु :ख को
सहन कर लेना। –मानव की माँग

4. दु ःखों की िनवृि तो भगवान् को िबना माने भी हो सकती है । आप


िन ाम हो जाएँ , आपके दु ःखों की िनवृि हो जाएगी। –संतवाणी 7

5. जो वृि याँ अपने िलए सु खद हों और दू सरों के िलए दु ःखद हों, वे


कभी साधनयु नहीं हो सकतीं। जो सुख िकसी का दु ःख बनकर
आता है, वह काला र म घोर दु :ख बन जाता है और जो दु ःख िकसी
के िहत के िलए आता है , वह हम आन से अिभ कर दे ता है ।
–सफलता की कुंजी

6. तु ारे दु :ख का कारण दू सरा नहीं हो सकता। यिद हमारे दु :ख का


दू सरा कोई कारण हो, तो दु ःख िमटाने का ही जीवन म नहीं रहता।
– ेरणा पथ

7. अपने दु ःख का कारण िकसी दू सरे को न मानकर अपने को ही मान


लेते तो हमारा दु :ख िमट जाता। – ेरणा पथ

8. दु ःख दे ने वाली सृि तो ने अपने–आप म से ही उ की है ,


जाने ए असत् का संग करके। –जीवन–पथ

9. िजस समय सुख का लोभन नहीं होगा, सुख का भोग नहीं होगा, उसी
समय वह दु ःख, िजसे आप दु ःख मानते ह या अनुभव करते ह, नहीं
रहेगा, अिपतु वहाँ दु ःखहारी होगा। –जीवन–पथ

10. दु :ख का मूल ‘भूल' है । अगर हमारी भूल नहीं है तो हमारे जीवन म


दु :ख हो ही नहीं सकता। –साधन–ि वेणी
सुख और दु ःख

11. दु :ख आने पर अचाह हो जाओ, सुख आने पर उदार हो जाओ। अगर


तुम उदार हो जाओ तो सुख के ब न से छूट जाओगे। अगर तुम
अचाह हो जाओ तो दु :ख के भय से छूट जाओगे। –साधन–ि वेणी

12. सुख से अ िच उ ीं को नहीं होती, जो सुख की वा िवकता को नहीं


जानते अथवा पराए दु :ख से दु :खी नहीं होते। –मानव की माँ ग

13. दु :ख के भाव की पहचान ा है ? िकसी भी व ु, , अव था


और प र थित से स न रहे ; न िकसी से कुछ आशा . रहे। दु ःख के
भाव और दु ःख के भोग म बड़ा अ र है । दु :ख का भाव साधन है
और दु ःख का भोग असाधन है । –संत–उ ोधन

14. ऐसा कोई सुख नहीं है, िजसका ज िकसी दु :ख से न हो और ऐसा भी


कोई सुख नहीं है , िजसका दु :ख म अ न हो। –मानव की माँ ग

15. सुख से दु ःख दबता है, िमटता नहीं और यह िनयम है िक दबा आ


दु ःख बढ़ता है , घटता नहीं। इस ि से दु :ख िमटाने के िलए सुख
अपेि त नहीं है , दु :ख बढ़ाने के िलए सुख भले ही अपेि त हो।
–मानव की माँ ग

16. मानव–जीवन सुख–दु ःख भोगने के िलए नहीं िमला, अिपतु सुख–दु ःख


का सदु पयोग करने को िमला है । –मानव की माँग

17. यिद जीवन म से दु ःख का भाग िनकाल िदया जाए तो न तो सुख का


स ादन ही हो सकता है और न मानव सुख की दासता से रिहत हो
सकता है । –मानव–दशन

18. अहंता तथा ममता से ही दु :ख–सख का ज होता है। अहम् और मम


अिववेकिस ह। िनज–िववेक का आदर करने पर अहम् और हो।
स वाणी मम शेष नहीं रहते, और िफर दु ःख का भय तथा सुख की
:: 306 ::
ांितकारी संतवाणी

दासता भी नहीं रहती। सु ख की दासता का सवाश म अ होते ही


दु ःख त: नाश हो जाता है । –मानव–दशन

19. दु ःख िन नीय नहीं है , अिपतु सुख की दासता िन नीय है ।


–मानव–दशन

20. ाकृितक िनयमानुसार सु ख दे कर जो दु :ख िलया जाता है , वह मानव


को आन से अिभ करता है और दु ःख दे कर जो सख–स ादन
िकया जाता है . वह मानव को घोर दु :ख म आब करता है।
–मानव–दशन

21. जो सुख चाहते ए भी चला गया, उसकी दासता बनाए रखना और


िजस दु ःख से सवतोमुखी िवकास आ, उससे भयभीत होना, उसके
भाव को न अपनाना माद के अित र और कुछ नहीं है।
–मानव–दशन

22. सुख की अपे ा दु ःख कहीं अिधक जीवन का आव क अंग है।


–संतवाणी 8

23. सुख जाता ही है और दु ःख आता ही है । इस िवधान म मानव का


अमंगल नहीं है , अिपतु मंगल ही है। –साधन–िनिध

24. कोई भी मनु जब तक अपने को दु ःखी नहीं बनाता, तब तक दू सरे


को दु :खी नहीं कर सकता। –संतप ावली 1

25. यह िनयम ही है िक जो आता है , वह चला जाता है, तो इस ि से सुख


और दु ःख दोनों ही सदै व नहीं रह सकते। जो नहीं रह सकता, उसका
सदु पयोग कर सकते ह, उसम जीवन–बु नहीं कर सकते । कारण
िक उससे िन –स नहीं हो सकता। –मानव–दशन
सुख और दु ःख

26. दु :ख िमटाने के पहले सुख का ाग करो, िफर बेचारा दु ःख यं दु :खी


होकर भाग जाएगा। –संतप ावली 1

27. सुख जीवन की सबसे बुरी अव था है ; ोंिक आन की अिभलाषा


जा त् नहीं हो पाती। आन य िप अपनी जातीय व ु है , पर इस
अभागे सुख ने उस जातीय व ु से हटाकर अपनी ओर आकिषत कर
दीन बना िदया है । परमि य दु :ख की शरण लेकर सुख को हटाओ।
–संतप ावली 1

28. दु :खी ' ाग' से और सुखी 'सेवा' से उ ित करता है । –संतप ावली 1

29. दु :ख ाणी को ाग का पाठ पढ़ाने के िलए आता है । ों– ों ाग


बढ़ता जाता है , ों– ों दु ःख अपने–आप िमटता जाता है।
–संतप ावली 1

30. स की आवाज को िकसी की आवाज, स के ान को िकसी


का ान, स के ेम को िकसी का ेम, स के
आन को िकसी का आन और स के सौ य को िकसी
का सौ य समझना परम भूल है । इस भूल के होने से ही
यों से राग हो जाता है , जो दु ःख का मूल है । राग से दु :ख तथा
ाग से आन अव िमलता है । –संतप ावली 1

31. यह सभी भाई–बहनों का अनुभव है िक गहरी नींद म िजतना सुख


िमलता है , उतना िकसी व ु या के संग से नहीं िमलता। तभी
तो हम गहरी नींद के िलए सभी व ुओं का संग छोड़ते ह।....... सभी से
अलग होने की जो हमारी अनुभूित है , वह हम व ुओं से अतीत के
जीवन का संकेत करती है । –मानव की माँ ग
:: 308 ::
ांितकारी संतवाणी

32. िजस मंगलमय िवधान से दु ःख आया है , उसने द नहीं िदया है ,


अिपतु मानव के िहत के िलए दु :ख का ादु भाव िकया है।
–दु :ख का भाव

33. जब आया आ सुख भी अपने–आप चला गया तो अ ा सुख की


आशा से ा लाभ होगा ? सुख माँ गने से नहीं िमलता। िवधान से
अपने–आप आता–जाता है । उसके िलए यास ा साम का
दु य ही है , और कुछ नहीं। –दु :ख का भाव

34. ा –सुख के स य से ही मानव समाज के ऋण से मु होता है।


अ ा –सुख की कामना के ाग से साधक िव ाम पाता है । इस ि
से ा –सुख के स य म परिहत और उसकी कामना के नाश म
अपना िहत है । –दु :ख का भाव

35. ाकृितक िनयमानुसार ेक सुख के आिद और अ म दु ःख का


ादु भाव त: होता है । –दु ःख का भाव

36. सवाश म सुख की आशा का अ करते ही ेक दु :खी त: दु :ख से


रिहत हो जाता है । –दु :ख का भाव

37. बेचारा दु :ख साधकों को दु :ख से रिहत करने के िलए ही आता है।


–दु ःख का भाव

38. िव के इितहास और गत अनुभूितयों से यह िस नहीं आ िक


कोई ऐसी प र थित भी है , िजसम केवल सुख हो, दु :ख न हो और न
कोई ऐसा ाणी है , िजसे सुख भोगते ए िववश हो कर दु :ख न भोगना
पड़ा हो। –दु :ख का भाव

39. मंगलमय िवधान से दु ःख का ादु भाव एकमा सुख की दासता से


मु करने के िलए ही होता है । –दु :ख का भाव
सुख और दु ःख

40. ग ीरता पूवक िवचार करने से यह िविदत होता है िक दु :ख–


दाता ही दु ःखहारी है । इतना ही नहीं, साधक को सुख की दासता से
मु करने के िलए दु ःखहारी ही दु :ख के वे श म अवत रत होते ह।
–दु :ख का भाव

41. सुखद अनुभूित उसी ण म होती है , िजस ण म िन ामता उिदत


होती है । कामना–िनवृि से िन ामता की अिभ थायी– प से
होती है और कामनापूित–काल म िन ामता अ काल के िलए त:
आती है। ाणी मादवश उस सरस अनुभूित को व ु, ,
प र थित आिद के आि त मान बैठता है । –दु ःख का भाव

42. सुख की आशा से िमलना, अलग होने की तैयारी के अित र और


कुछ नहीं है । –जीवन–दशन

43. दु :खी का दु :ख तभी िमट सकता है , जब वह अपने दु ःख का कारण


िकसी और को न माने। –दशन और नीित

44. जा त और म सुख–दु ःख की अनुभूित होती है, पर सुषु म


िकसी को भी दु :ख की अनुभूित नहीं होती। इससे यह िस होता
है िक जब से स नहीं रहता, तब दु ःख नहीं होता। इस
अनुभूित के आधार पर यिद जा त् म ही सुषु ा कर ली जाए तो
बड़ी ही सुगमतापूवक दु :ख का अ हो सकता –जीवन–दशन

45. 'सुख' सेवा के िलए है, उपभोग के िलए नहीं और 'दु ःख' िववेक का
आदर करने के िलए है, भयभीत होने के िलए नहीं। –जीवन–दशन

46. सा से िभ जो कुछ भी होगा, वह आपके साथ रह नहीं सकता।


इसिलए आया आ सुख भी नहीं रहे गा और आया आ दु :ख भी नहीं
रहेगा। –सफलता की कुंजी
:: 310 ::
ांितकारी संतवाणी

47. दु ःख का होना कोई दोष नहीं है, पर उसके भय से भयभीत होकर सुख
का िच न करना वा िवक दोष है । –िच शु

48. यह कैसा अनुपम िवधान है िक सुख–लोलुपता के नाश के िलए सुख–


लोलुप के जीवन म दु :ख अपने–आप आता है । दु :ख का भाव सुख के
लोभन का नाश कर दु :खी को सदा के िलए दु ःख से रिहत कर दे ता
है। –सफलता की कुंजी

49. व ुओं और यों के िव ास और स को अ –से–अ


काल के िलए भी यिद तोड़कर अनुभव िकया जाए तो उस जीवन म
िकतना रस है –इसकी तुलना उस सुख से नहीं की जा सकती, जो
अन काल से व ुओं और यों के स से िमलता रहा है ।
–िच शु

50. दु ःख िजतना गहरा होता है , उतनी ही जागृित आती है ; ोंिक


दु ःख ही एक ऐसा मूल म है , िजससे व ु, आिद के प
का बोध होता है । व ु आिद का यथाथ ान व ुओं से असंगता दान
करने म समथ है । –िच शु

51. ऐसा कोई सुख है ही नहीं, िजसके आिद और अ म दु ःख न हो।


आिद और अ के दु ःख को ही म के सुख म दे खना चािहए।
–िच शु

52. आए ए दु ःख को सुख तथा सुख की आशा से दबाने तथा िमटाने का


यास सवदा िनरथक एवं अिहतकर ही िस होता है ; ोंिक सुख
नवीन दु ःख को ज दे ता है , और ेक सुख के आर म भी िकसी–
न–िकसी कार के दु :ख को अपनाना ही पड़ता है । –िच शु
सुख और दु ःख

53. अपने–आप आए ए दु :ख को सुख के ारा दबाने की िच ों होती


है, और जाने ए दोष को बनाए रखने का भाव ों बन गया है ?
सुख–भोग की आस के कारण ही ाणी आए ए द:ख को सख से
दबाने का यास करता है . और सुख को सुरि त बनाए रखने के िलए
ही जाने ए दोष को अपनाता है । –िच शु

54. िजन व ुओं से सुख की आशा करते ह, ा उनसे ाणी का िन –


स है ? अथवा िजन यों से सुख की आशा करते ह, ा वे
यं दु ःखी नहीं ह ? अथवा िजस प र थित को सुखद मानते ह, ा
उसम िकसी कार का अभाव नहीं है ? अथवा िजस अव था म सुख
का भास होता है , ा उसम प रवतन नहीं है ? िकसी भी व ु से
िन –स स व नहीं है । कोई भी दु ःख से रिहत नहीं है ।
ेक प र थित अभावयु है और ेक अव था म प रवतन है । तो
िफर उनसे सुख की आशा करना माद के अित र और हो ही ा
सकता है । –िच शु

55. ाणी का गत दु ःख उसे सामूिहक दु ःख का बोध कराने म साधन


मा है । –िच शु

56. प र थितज दु ःख से कोई भी ाणी बच नहीं सकता। िजससे बच


नहीं सकते, उससे भयभीत होना कुछ अथ नहीं रखता। –िच शु

57. ाकृितक िनयमानुसार ा सुख दु खयों की व ु है । उसे अपना


मानना और उसका भोग करना परायी व ु को अपना मानना है।
–िच शु
:: 312 ::
ांितकारी संतवाणी

58. दु ःख कोई दे ता नहीं, ब दु ःखी से यं दू सरों को दु ःख होता है ,


िजस कार अि यं जल कर दू सरों को जलाती है।
–स –समागम 1

59. दु :खी का दु ःख उसी समय तक जीिवत है , जब तक अभागा दु ःखी दु ःख


को संसार की सहायता से िमटाना चाहता है । संसार से िनराश होते ही
दु ःखहारी ह र दु ःख को यं हर लेते ह। –स –समागम 1

60. बेचारा जड़ संसार दु ःख दे नहीं सकता और आन घन भगवान् के यहाँ


दु ःख है नहीं, इसिलए दु :ख दु :खी की भूल से होता है।
–स –समागम 1

61. दु ःख उसको होता है , जो न तो जड़ है और न चेतन है ; पर ु जो जड़


से िमलकर जड़–सा और चेतन से िमलकर चेतन–सा हो जाता है
अथात् वह 'अहम्' जो अपनी त स ा नहीं रखता, ब अपने म
िकसी कार के माने ए भाव को ीकार कर लेता है । उस भाव
की अनुकूलता म 'सुख' और ितकूलता म 'दु ःख' का अनुभव करता
है। –स –समागम 1

62. ऐसी कोई अ ाई नहीं िक िजसका ज दु :ख से न हो।


–स –समागम 1

63. आप के िनज प म अपार आन िछपा है , जो दु ःख की कृपा से


िमलेगा, सुख की कृपा से नहीं। –स –समागम 1

64. सुख से दु ःख दब जाता है और आन से िमट जाता है । 'आन '


इ ाओं की िनवृि होने पर और 'सुख' इ ाओं की पूित होने पर
होता है । –स –समागम 1
सुख और दु ःख

65. दु ःख तो सुख से िमला है , और सुख संसार की स ा ीकार करने से


िमला है । –स –समागम 1

66. िजसने सुख िदया है , उसने सुख दे ना िसखाया है । सुख दाता को तो


सुख दे नहीं सकते; अत: दु खयों को सुख दे ना ही सुखदाता के ऋण से
छूट जाना है । –स –समागम 1

67. दु ःख का भो ा होता है , ाता नहीं। भो ा कभी ाता नहीं होता और


ाता कभी भो ा नहीं होता। –स –समागम 1

68. दु ःख का होना तो आन घन भगवान् की परम कृपा है ; ोंिक यिद


दु ख न हो तो िवषय–सुख से अ िच िकसी कार नहीं हो सकती।
– स –समागम 1

69. भला िजस सुख का ज िकसी के दु ःख से होगा, वह अ म हम को


दु :ख के अित र और ा दे सकता है ? –स –समागम 2

70. िवचारशील उस सुख का उपभोग नहीं करते, जो िकसी का दु ःख हो,


ुत् उस दु ःख को स तापूवक अपना लेते ह, जो िकसी का सुख
हो। –स –समागम 2

71. हमारे दु :खी होने से केवल हमीं को दु :ख नहीं होता, ब हम िव म


भी दु ःख उ करते रहते ह। यिद हम दु ःखी नहीं रहगे तो हमारे
जीवन से िकसी को भी दु :ख न होगा। –स –समागम 2

72. जब हम अपने को अपने े म–पा को और शरीर िव को दे डालगे,


तो बस, दु :ख का अ हो जाएगा। िव को शरीर की आव कता है;
ोंिक शरीर िव की व ु है । ेम–पा हमारी ती ा करते ह;
ोंिक हम े म–पा के ह। –स –समागम 2
:: 314 ::
ांितकारी संतवाणी

73. हम संसार की ओर दौड़ते ह, पर ु पकड़ नहीं पाते। संसार का


मीठापन यही है िक दौड़ते–दौड़ते जब थक जाते ह, तब आराम पाते ह
अथात् थकावट ही संसार का सुख है । ारे , ेक वृि के अ म
िकसी को भी श हीनता के अित र कुछ नहीं िमलता।
–स –समागम 2

74. सुख बाँ टने की व ु है , रखने की नहीं। जो ाणी सुख को रखने का


य करता है , उससे सुख िछन जाता है, िमलता कुछ नहीं। और जो
ाणी सुख बाँ ट दे ता है , उसको आन िमल जाता है।
–स –समागम 2

75. दु ःख जीवन म परम आव कव ु है । दु :ख के िबना जीवन की पूणता


िस नहीं होती। दु :ख सब कार के िवकारों को िमटाकर अ म
अपने–आप िमट जाता है । –स –समागम 2

76. िनर र अख स रहने का भाव बनाओं। ों– ों स ता


बढ़ती जाएगी, ितकूलता ल त होकर हटती जाएगी। ारे , स
की ओर सभी दे खते ह; अत: सारा िव आपकी ओर दे खेगा। दु ःखी की
ओर दु ःखहारी के अित र और कोई नहीं दे खता। –स –समागम 2

77. दु ःखी ाणी अभागे नहीं होते। सच तो यह है िक अभागे वही ह, जो


सुखी ह; ोिक दु ःखी को आन घन भगवान् िमलते ह, सुखी को
भोगा............ हाँ , दु :खी उसी समय तक अभागा है , जब तक संसार की
ओर दे खता है । संसार से स ी िनराशा होते ही दु ःखहारी ह र दु :ख
अव हर लेते ह। – स –समागम 2

78. जो दु :खी ाग नहीं करता और जो सुखी सेवा नहीं करता, उसकी


उ ित नहीं होती। –स –समागम 2
सुख और दु ःख

79. सवतोमुखी िवकास के िलए सुख का जाना और दु ःख का आना


अिनवाय है । –मंगलमय िवधान

80. ाकृितक िवधान की ि से िजस सुख की उ ि िकसी के दु ःख तथा


अिहत से होती है , वह सुख अ म घोर दु ःख म बदल जाता है और
सुखभोगी का अिहत ही होता है । –साधन–त

81. अभाव, अशा , नीरसता एवं पराधीनता–यह चार भयंकर दु :ख ह, जो


संसार को पस करने से िमलते ह। –स वाणी ( ो र)

82. अपराध की वृि के मूल म गत सुख का लोभन है । िकसी के


ास, िवनाश तथा दु ःख से अपने सुख का स ादन करना ही मू ल
अपराध है । इस कारण िनरपराधता की अिभ जीवन म तभी हो
सकती है , जब मानव गत सुख–लोलु पता से रिहत हो जाए।
–मानवता के मूल िस ा

83. िजस जीवन का आर ही दु ःख से आ है , उस जीवन म िकसी कार


का दु ःख न हो, यह सोचना ही बेकार है । –संतवाणी 8

84. नीरसता केवल ितकूलता से ही नहीं आती और सरसता केवल


अनुकूलता की ही दे न नहीं है।......... यह िनयम है िक सुख से दु :ख दब
जाता है, िमटता नहीं। दबा आ दु :ख बढ़ता ही है घटता नहीं। अत:
अनुकूलता ही से नीरसता िमटे गी, यह मान लेना भूल है । –िच शु

85. कृित से िजतना सुख लोगे , उतना दु ःख भी भोगना पड़े गा। वै ािनक
उ ित ा है ? 3/4 को 75/100 करना। –स –जीवन–दपण

86. दू सरों से सुख की आशा करने का प रणाम यह आ है िक आज हम


दु :खी ह। अपने दु ःख का कारण दू सरों को मानने का प रणाम यह
आ है िक हम अपने दु ःख को िमटा नहीं पाते। –संतवाणी 5
:: 316 ::
ांितकारी संतवाणी

87. यह जो सुख और दु ःख हमको–आपको तीत होता है , इसके मूल म


कोई प र थित हे तु नहीं है , कोई अव था हेतु नहीं है , कोई व ु हे तु
नहीं है । इसके मूल म हे तु है –अपने दे ह का अिभमान। –संतवाणी 4

88. जगत् और जग ित से अपने सुख की माँ ग न की जाए, अिपतु जगत्


के ित उदारता और जग ित के ित ेम को अपनाया जाए तो तः
शा , समता और ाधीनता की ा हो जाती है ।
–सफलता की कुंजी

सुखभोग

1. दयहीन ए िबना, बेईमान ए िबना, अपना मू घटाए िबना और


पराधीन ए िबना कोई आदमी सुख नहीं भोग सकता। –संतवाणी 6

2. अगर आपके जीवन म से दु ःख का भाग िनकाल िदया तो ा आप


सुख का भोग कर सकते ह ?........ दु :ख के िबना सुखभोग हो ही नहीं
सकता। –संतवाणी 6

3. जब हम भोग का आ य लेते ह, तब सुख भोगते ह िच से, लेिकन


दु ःख भोगना पड़ता है िववशता से। –संतवाणी 4

4. सुख के भोगी को दु ःख भोगना ही पड़ता है । –साधन–ि वेणी

5. अभागे सुख ने ही हम अपने अभी त ान, भगव े म एवं स ित से


िवमुख िकया है । इसी कारण मानव–जीवन म सुख के सदु पयोग का
थान है, उसके भोग का नहीं। –मानव की माँ ग

6. यह िनयम है िक िजस दय म क णा िनवास करती है , उस दय म


सुखभोग की आस नहीं रहती। –मानव की माँ ग
सुखभोग

7. सुख का जो भोग ा होता है , उसके भोगने के िलए िकसी–न–िकसी


दोष को अपना लेना अिनवाय हो जाता है । –मानव की माँ ग

8. यिद वा व म रस होता तो सुखभोग का अ नीरसता म न होता।


–मानव की माँ ग

9. कोई भी भो ा भो व ु के काम नहीं आता, अिपतु भो ा के ारा


भो व ु का िवनाश ही होता है । –मानव–दशन

10. सुख–लोलुपता के रहते ए ा िकसी भी कार दु ःख का अ स व


है ? कदािप नहीं। –मानव–दशन

11. भोग की िच का सवाश म नाश वा िवक माँग की जागृित के


अित र अ िकसी कार से नहीं होता। तप आिद से िच दब
जाती है , िमटती नहीं है । माँ ग की जागृित से भोग की िच सवाश म
सदा के िलये नाश हो जाती है । –पाथेय

12. सुख–भोग से अिववेक पोिषत होता है । –दु ःख का भाव

13. कोई भी ाणी अपने को केवल दे ह मानकर कभी भी भोग की


वासनाओं से रिहत नहीं हो सकता। –जीवन–दशन

14. िवषयों के उपभोग काल म िवषयों को दे ख नहीं पाते और जब िवषयों


को दे खते ह, तब उनका उपभोग नहीं कर सकते। अत: दे खना तभी
स व हो सकता है . जब उपभोग काल न हो। भोग वृि भोग का
दे खना नहीं है , अिपतु भोग के आर का सुख और प रणाम का दु :ख
भोगना है । –जीवन–दशन

15. भोग का प रणाम रोग तथा शोक है । –जीवन–दशन


:: 318 ::
ांितकारी संतवाणी

16. जो साधक भोग के प रणाम पर ि रखता है , उसे भोग से अ िच हो


जाती है । –िच शु

17. भो व ुओं का िवनाश और भोगने की श का ास होने पर भी


यिद भोग की िच का नाश नहीं होता तो इससे बढ़कर कोई और
असावधानी नहीं हो सकती। –दशन और नीित

18. सुख–भोग की आशा सुख–भोग से भी अिधक भयंकर दोष है; ोंिक


सुखभोग से अ िच ाभािवक होती है , पर सुख की आशा उ रो र
बढ़ती ही रहती है ..... सुख की आशा रहते ए न कोई सेवा कर सकता
है और न े म। –जीवन–दशन

19. भोग म वृि होने पर भोगने की श का ास और भो व ु का


िवनाश अपने–आप हो जाता है । –दशन और नीित

20. भोग की वा िवकता जानने के िलए ही मयािदत भोग अपेि त है ।


–दशन और नीित

21. सुख–भोग से माद, िहं सा आिद िवकार त: उ हो जाते ह,


िजससे अपना अक ाण और समाज का अिहत होने लगता है ।
–िच शु

22. भोग की िच म िजतनी मधुरता है , उतनी तो भोग– वृि म भी नहीं


है। भोग– वृि के आर काल म िजतना सुख है , उतना म म नहीं
है, और अ म तो सुख की ग भी नहीं रहती, अिपतु उसके प रणाम
म तो अनेक कार के रोग ही उ होते है । –िच शु

23. िजसकी स ता िकसी और पर िनभर है , वही भोगी है अथवा यों कहो


िक जो दे हजिनत ापार म ही जीवन–बु रखता है , वही भोगी है ।
–िच शु
सुखभोग

24. सुख दे ने की िच सुख–भोग की आस को खा लेती है।


–जीवन–दशन

25. माद तथा िहं सा के िबना भोग की िस नहीं हो सकती; ोंिक अपने
को भो ा ीकार करना ‘ माद' है और भो व ुओं के िवनाश म
'िहंसा' है। –िच शु

26. चाहे कैसा ही सु र भोग ों न हो तथा समाज के भी िनयम के


अनुकूल हो और भोगने की श भी हो, िफर भी श हीनता होनी
अिनवाय है । –स –समागम 1

27. ऐसा कोई भोगी नहीं है, जो इन तीन िवकारों से बचा हो –पराधीनता से,
जड़ता से और श हीनता से। –स –समागम 2

28. िसनेमा भाव से िवषयों का उपभोग करना िवषयी की चतुरता है। ारे ,
िवचारशील को तो िवषयों का अ करना है । िसनेमा की ि से तो
िवषयों की र ा होती है । –स –समागम 1

29. भोग से अ िच ेक भोगी को होती है ; िक ु जो भोगी उस अ िच


को थायी नहीं कर पाता, उसकी ही वृि भोगों म बार–बार होती है ।
–स –समागम 1

30. य िप भोग म जो रस है, वह भी िनवृि का ही है , पर ु साधारण


उसे भोग का रस मान लेते ह। –स –समागम 1

31. िवषयों की इ ा की तो पूित होती ही नहीं; ोंिक िवषय तथा िवषय


की इ ा प से कुछ नहीं ह, केवल तीित मा ह। िवषयों की
वृि म जो िणक पूित–सी तीत होती है , वह तो केवल वृि न
होने की श हीनता के अित र कुछ नहीं है । ........िवषयों की वृि
मश हीनता होती है , पूित नहीं। –स –समागम 1
:: 320 ::
ांितकारी संतवाणी

32. सुख का उपभोग करने पर ाणी के जीवन म माद, बेईमानी, दय–


हीनता एवं परत ता आ जाती है । –स –समागम 2

33. मानव–जीवन म सुखोपभोग के िलए कोई थान नहीं है ।....... सुख का


उपभोग पशु–जीवन है । –स –समागम 2

34. मानव–जीवन म उपभोग का थान केवल भोग के यथाथ ान के िलए


है; ोंिक भोग का यथाथ ान होने पर भोग से अ िच अपने–आप हो
जाती है । –स –समागम 2

35. सुख के भोगी से ािणमा भयभीत हो जाता है ; ोिक िहंसा तथा


माद के िबना सुख–भोग की िस ही नहीं होती। –साधन–त

36. सुख–भोग की िच का नाश ए िबना िन योग की ा स व नहीं


है। िकसी अ ास िवशेष से अ काल के िलए शा हो जाना एक
अव था है , िन योग नहीं। –मानवता के मूल िस ा

37. सुख का भोग हम करते ह अपनी मरजी से और दु :ख का भोग करना


पड़ता है बे बसी से। –संतवाणी 8

38. जब हम अपने ारा अपने िलए परमा ा की आव कता अनुभव


करगे, तब सुख–भोग की िच नाश हो जाएगी।......... सुख–भोग की
िच का नाश होने से शरीर और संसार का स टू ट जाता है।
–संतवाणी 8

39. जो सुख–भोग चाहता है , उसी को मह दे ता है , वह च र की र ा


नहीं कर सकता। –संत–सौरभ

40. जो िकसी का भोगी नहीं है, उससे िकसी को भय नहीं है। आप माने या
न माने, भो ा से सभी को भय होता है ।...... भो ा सभी को भय दे ता
है और यं पराधीन रहता है । –संतवाणी 6
सेवा

41. योग ा होने पर जब तक 'हम योगी ह यह भाव है , तब तक योग के


भोगी ह। और ान ा होने पर जब तक 'हम ानी ह, तब तक ान
के भोगी ह। और ेम ा होने पर जब तक 'हम ेमी ह', तब तक
हम ेम के भोगी ह। और भाई, जो ेम का भोगी है , वह कभी–कभी
'काम' का भोगी हो सकता है । और जो ान का भोगी है , वह कभी–
कभी 'अ ान' का भोगी हो सकता है । और जो योग का भोगी है , वह
कभी–कभी ‘भोग' का भोगी हो सकता है । –संतवाणी 5

42. भोग से ा होता है िक मनु असमथता की ओर और पराधीनता की


ओर उ रो र बढ़ता जाता है । –संतवाणी 2

सेवा

1. यिद आपको व ु नहीं िमलती है तो इसका अथ यह है िक आपने बल


दू सरों की सेवा म लगाया नहीं। –संतवाणी 3

2. मोहयु सेवा वा व म से वा नहीं है । उस सेवा से तो िजसकी सेवा की


जाती है , उसम भी मोह की ही वृ होती है । –पाथेय

3. आप यं सभी स तोड़कर 'उससे' स जोड़ सकते ह। और


जब उससे स जोड़गे, तो सभी की सेवा का दािय आप पर आ
जाएगा; ोंिक सभी उसके ह।......... िक ु िकसी और को अपना न
मानने से िकसी से सुख की आशा नहीं कर सकते। –संतवाणी 5

4. सेवक हम कब होंगे ? जब यह अनुभव कर िक मेरा कुछ नहीं है , मुझे


कुछ नहीं चािहए। –संतवाणी 7

5. सेवा करने से मोह का नाश होता है और ार पु होता है ।


–संतवाणी 7
:: 322 ::
ांितकारी संतवाणी

6. सबसे बड़ी सेवा धन से नहीं हो सकती, यो ता से नहीं हो सकती, बल


से नहीं हो सकती, कानून से नहीं हो सकती। सबसे बड़ी सेवा हो
सकती है –िकसी का बुरा न चाहने से, िकसी को बुरा न समझने से और
िकसी के साथ िकसी भी कारण से बुराई न करने से। –संतवाणी 7

7. िजसे अपने िलए कुछ नहीं करना होता है, वही सेवा कर पाता है।
–संतवाणी 7

8. आप चाहे िजसकी सेवा कर, लेिकन सेवा का अ ाग म होना


चािहए। जब सेवा का अ ाग म होगा, तब ाग का अ बोध म
होगा और बोध का अ े म म होगा। –संतवाणी 7

9. अगर आपकी कोई शारी रक सेवा करे गा तो आप उसका उपकार


इसिलए नहीं मानते िक उसने सेवा की है, आप इसिलए मानते ह िक
शरीर को आपने अपना माना है । ऐसे ही सेवा करने वाला आप पर
एहसान करता है तो समिझए िक वह सेवा नहीं करता। वह परमा ा
की दी ई व ु को अपनी मानकर, बेईमान बनकर संसार म िम ा
अिभमान करता है । – ेरणा पथ

10. सेवा वह त है, िजसका ह े –से–ह ा बोझ भी से पर न जाए।


–जीवन–पथ

11. भलाई का फल मत चाहो और बुराई–रिहत हो जाओ, यही तो सेवा का


प है । –साधन–ि वेणी

12. अगर आप अिकंचन और अचाह नहीं होते तो ा अपनी सेवा कर


सकते ह ? अगर आप उदार नहीं बनते तो ा आप िव की सेवा कर
सकते ह? अगर आप भु को अपना नहीं मानते तो भु की सेवा कर
सकते ह ा? –साधन–ि वेणी
सेवा

13. मन, वाणी, कम से अगर हम बुराई–रिहत हो जाएँ तो यह सारे 'िव


की सेवा' कहलाती है । ान और साम के अनुसार दू सरों के काम
आ जाएँ तो यह ‘समाज–से वा' कहलाती है । यिद अचाह हो जाएँ तो यह
'अपनी सेवा' कहलाती है । यिद हम भु की ि यता ा कर ल तो यह
' भु की सेवा' कहलाती है । –साधन–ि वेणी

14. सेवा करने की साम उ ीं साधकों को ा होती है , जो दु खयों को


दे ख क िणत और सु खयों को दे ख स होते ह। –संत–उ ोधन

15. वा व म जब तक संसार से हमारा स रहता है और उससे हम


कुछ लेना चाहते ह, तभी तक उसकी सेवा का हमारा कत रहता है ।
–संत–उ ोधन

16. शरीर से काम कर दे ने तथा व ु दे दे ने का नाम ही से वा नहीं है। सेवा


तो दय का भाव है , जो हर प र थित म मानव भली कार कर
सकता है । –संत–उ ोधन

17. सेवा का मूल म यह है िक जो हमको िमला है , वह मेरा नहीं है और


मेरे िलए भी नहीं है । यहाँ से सेवा का आर होता है । –संत–उ ोधन

18. अपना सुधार कर लेना ही स ी सेवा है । िजसने अपना सुधार कर


िलया, उसको सारे िव की पूरी सेवा से उ होने वाले फल की
ा होती है । –संत–उ ोधन

19. संसार की सेवा का अथ है –संसार से िमली ई व ुओं को संसार को


भट कर दे ना, अथवा यों कहो िक ईमानदार हो जाना, जो वा व म
मानवता है । –मानव की माँग

20. मुझे जो कुछ िमला है , वह गत नहीं है , अिपतु िकसी की सेवा–


साम ी है । –मूक स ंग
:: 324 ::
ांितकारी संतवाणी

21. मान और भोग की िच रखते ए कभी भी सेवक होना स व नहीं है ।


–मानव–दशन

22. संसार की तो केवल सेवा करनी है । उसको अपना मानने से न तो


अपना कोई लाभ होता है और न संसार का। –मानव की माँ ग

23. भोगी के ारा सेवा की बात सेवा का उपहास है , और कुछ नहीं।


–मानव–दशन

24. यिद कोई कहे िक राग के िबना हम अपने ि यजनों की सेवा कैसे
करगे ? तो कहना होगा िक सेवा करने के िलए राग अपेि त नहीं है ,
अिपतु उदारता की अपे ा है । –मानव की माँग

25. यिद हमारी की ई सेवा हमारे जीवन म पद–लोलुपता तथा िजनकी


सेवा की है , उनसे िकसी कार की आशा उ कर दे ती है तो
समझना चािहए िक हमने सेवा के नाम पर िकसी अपने ाथ की ही
िस की है । ऐसी सेवा तो वह बुराई है , जो भलाई का प धारण
करके आती है । –मानव की माँग

26. अ ा वाद का आर ाग से होता है और अ सेवा म, और


भौितकवाद का आर सेवा से होता है और अ ाग म।
–मानव–दशन

27. यिद अपने को जग ित को अिपत करना है , तो शरीर को जगत् की


सेवा म लगाना है । वा व म तो जगत् जग ित का ही काश है ।
शरीर ारा जगत् की सेवा करने म भी जग ित की ही सेवा है ।
जग ित ने जगत् का िनमाण अपने ही म से िकया है। इस ि से
जगत् का कोई त अ नहीं है । अत: जगत् की सेवा जग ित
की पूजा है । –साधन–िनिध
सेवा

28. ज दे ने वाले माता–िपता से अिधक सास–ससुर की सेवा ेहपूवक


करनी चािहए, और बिहन–भाई से अिधक ननद तथा दे वर–जेठ आिद
ि यजनों को स ान तथा ेह दे ना चािहए; ोिक ज की अपे ा
भाव का स उ ृ होता है । –संतप ावली 2

29. दु खयों को दे खकर क िणत और सु खयों को दे खकर स होने का


भाव बनाओ, जो वा िवक सेवा है । –संतप ावली 2

30. सेवा का अवसर भु–कृपा से ही िमलता है। उसे कभी नहीं खोना
चािहए। –संतप ावली 2

31. सेवक के जीवन म अपने दु ःख के िलए कोई थान ही नहीं है ; ोंिक


उसका दय तो सवदा पराए दु ःख से क िणत रहता है अथवा सु खयों
को दे खकर स रहता है । –पाथेय

32. सम िव अपने अिधकार की पूित म स होता है । सभी के


अिधकारों की र ा ही वा िवक सेवा है । –स ंग और साधन

33. पराए दु ःख से दु :खी होने के समान और कोई उ ृ सेवा नहीं है। पर


यह सेवा वे ही साधक कर सकते ह, जो वतमान िनद षता के आधार
पर िकसी को बुरा नहीं समझते, िकसी का बुरा नहीं चाहते और न
िकसी के ित बुराई करते ह। –दु ःख का भाव

34. यों की सेवा हम मोहरिहत बनाने म समथ है। –जीवन–दशन

35. 'सेवा' माने ए स को तोड़ने म और ' ेम' िजससे जातीय एकता


है, उससे अिभ करने म समथ है । –जीवन–दशन

36. सेवा ाग म और ाग उस ेम म िवलीन हो जाता है , जो अन से


अिभ करने म समथ है । –जीवन–दशन
:: 326 ::
ांितकारी संतवाणी

37. शरीर की सेवा म ही िव की सेवा िनिहत है ; ोंिक शरीर की सेवा


करने पर शरीर िव के काम आने लगता है । अब िवचार यह करना है
िक शरीर की सेवा का प ा है ? तो कहना होगा िक
िजते यता, िनिवक ता और समता के ारा ही शरीर की पूण सेवा
हो सकती है । िजते यता के ारा शरीर म 'शु ' आती है, मन की
िनिवक ता के ारा ‘साम ' आती है और बु की समता के ारा
‘शा ' आती है । शु , साम और शा आ जाने पर सविहतकारी
वृि याँ त: होने लगती ह, जो िव की सेवा है । –जीवन–दशन

38. सेवा ाग की भूिम तथा े म की जननी है । –जीवन–दशन

39. िजन साधनों से सेवा की जाए, उनम भी ममता न हो और िजनकी सेवा


की जाए, उनम भी ममता न हो, तभी वा िवक सेवा हो सकती है ।
–जीवन–दशन

40. लोभ और मोह म आब ाणी सेवा नहीं कर सकता। –जीवन–दशन

41. संसार की दी ई व ु के ारा यिद हम संसार की सेवा नहीं कर


सकते तो इससे बढ़कर और कोई बेईमानी तो हो नहीं सकती और
इससे बढ़कर और कोई सुगम साधन भी नहीं हो सकता िक िकसी की
दी ई व ु से हम उसकी पूजा कर द। –सफलता की कुंजी

42. सेवक को सेवा के फल की तो कौन कहे , सेवक कहलाने की लालसा


का भी ाग करना अिनवाय है । –दशन और नीित

43. स ा सेवक वही हो सकता है , िजसने अपनी सेवा की हो। अपनी सेवा
करने के िलए अपने को अपने स म ही िवचार करना होगा अथात्
अपने जाने ए असत् का ाग करने पर ही मानव अपनी सेवा कर
सकता है । –दशन और नीित
सेवा

44. िजसकी त स ा नहीं है , उसकी सेवा की जा सकती है; उससे


ममता करना अथवा उससे सुख की आशा करना भूल है। –िच शु

45. सेवा की पूणता म 'पूजा' का उदय अपने–आप होता है....... पूजा की


पूणता म ' ेम' का उदय है । –िच शु

46. सुख–लोलुपता म आब ाणी कभी भी सेवा करने म समथ नहीं


होता। –िच शु

47. सेवा का मू भु दे ता है , संसार नहीं दे सकता। –स –जीवन–दपण

48. सेवा भाव है , कम नहीं। इस ि से छोटी या बड़ी सेवा समान अथ


रखती है। सेवा का प है ा सुख िकसी दु :खी की भट कर दे ना
और उसके बदले म सेवक कहलाने तक की भी आशा न करना।
–िच शु

49. िजसका दय पराए दु ःख से भरा रहे , वह सेवा कर सकता है; ोंिक


सेवा सुख दे कर दु :ख लेने का पाठ पढ़ाती है । पराया दु :ख अपना हो
जाने पर ाणी दु ःखी नहीं रहता; ोंिक पर–दु ःख से दु :खी होने म
िजस रस की िन ि होती है , उसकी समानता िकसी भी सुख–भोग म
नहीं है । –िच शु

50. यिद कोई यह कहे िक यों की सेवा से तो मोह की वृ होगी, पर


बात ऐसी नहीं है । कारण िक मोह की वृ तो यों के ारा सुख
की आशा करने पर होती है , सेवा से नहीं। यों की सेवा यों
के मोह से रिहत कर दे ती है ; ोंिक सेवा वही कर सकता है, जो सुख
की आशा से रिहत है । –िच शु

51. भु का एक िवधान है िक अशरीरी जीवन से सेवा होती है , शरीर–ब


जीवन से नहीं। –स –जीवन–दपण
:: 328 ::
ांितकारी संतवाणी

52. दु खयों की सेवा वह कर सकता है , िजसको अपने िलए संसार की


आव कता नहीं होती। –स –समागम 1

53. जो यं दु ःखी है, वह 'से वा' नहीं कर सकता, िक ु 'िवचार' कर


सकता है । बेचारे सुखी ाणी म सुखास के कारण िवचार का उदय
नहीं होता, ुत् वह 'सेवा' कर सकता है । –स –समागम

54. िजस कार काश सूय का और ग पु का भाव है, उसी कार


सेवा सेवक का भाव है । सेवा की नहीं जाती, होने लगती है ।
–स –समागम 2

55. सेवक म सेवा करने से कभी थकावट नहीं आती, त् ों– ों सेवा
बढ़ती है, ों– ों उसकी श भी बढ़ती जाती है । –स –समागम 2

56. सेवक दो कार के होते ह –एक तो गं गा की भाँित जन–समाज


के सामने लहराते ह और दू सरे िहमालय की भाँित अचल होकर मूक
सेवा करते ह। –स –समागम 2

57. सेवा करने के िलए बा व ुओं की आव कता नहीं होती। बा


व ुओं के सं गठन से तो पु कम होता है । –स –समागम 2

58. व ुओं का सं ह करना िव का ऋणी होना है । अत: व ुओं को िव


के काय म लगा दे ना ऋण से मु होना है, सेवा करना नहीं।
–स –समागम 2

59. सेवक होना उ ित का साधन है ; पर ु सेवक कहलाना अवनित का


कारण है। –स –समागम 2

60. नौकर के ारा सेवा नहीं हो सकती। जो बेचारा यं उपभोग से िसत


है, वह सेवा नहीं कर सकता। सेवा वही कर सकता है, िजसका जीवन
सेवा

िभ ा के आधार पर िनभर हो, और जो अथ और काम की वासनाओं


से मु हो। –स –समागम 2

61. सेवा वही कर सकता है , िजसको अपनी स ता के िलए अपने से िभ


की आव कता नहीं होती। –स –समागम 2

62. आजकल ाणी शुभ–कम को सेवा मान लेते ह, इसी कारण उसम बँध
जाते ह। स ी सेवा व ु ओं तथा इ यों ारा नहीं होती.......... स ी
सेवा का अिधकार तब ा होता है , जब ाणी को अपने िलए कुछ भी
करना शेष नहीं रहता। –स –समागम 2

63. सेवा सुखी ािणयों का साधन है , दु खयों का नहीं। दु खयों का साधन


एकमा ाग है । अत: तुमको ाग अपना लेना चािहए अथात् शरीर,
मन आिद िकसी भी व ु तथा स ी को अपना मत समझो।
–स –समागम 2

64. िजनसे माना आ स है , उनकी सेवा करना अिनवाय है। स


बनाये रखना और सेवा से अपने को बचाना साधन–िनमाण म िव
है......... िजसे िकसी भी कारण से सेवा न करना हो, उसके िलए माने
ए सभी स ों का िववेकपूवक अ करना अिनवाय है ।
–साधन–त

65. कम का मह केवल करने का राग िमटाने के िलए और सु र समाज


के िनमाण म ही है । पर वह तभी हो सकता है , जब कम सेवा–भाव से
स ािदत िकया जाए, उसम ाथ की ग भी न रहे। –साधन–त

66. संसार से कुछ न लेना –यही सेवा है । –स वाणी ( ो र)

67. ू ल, अ ताल खोलना से वा नहीं, यह तो सं ह का ायि है।


–स वाणी ( ो र)
:: 330 ::
ांितकारी संतवाणी

68. मानव िजसम अिवचल आ था ीकार करता है , वही उसका से है


और उसी के नाते सेवा की जाती है । –मानवता के मूल िस ा

69. बालक, रोगी, वृ और पशु –इनकी सेवा का दािय मानव मा पर


है। इनकी यथे सेवा िकए िबना न तो द र ता ही नाश होगी और न
समाज आव कव ुओं से ही प रपूण होगा। अत: सं हीत स ि
रोगी, बालक, वृ तथा पशु ओं की ही है । –दशन और नीित

70. ाकृितक िनयम के अनुसार सं हीत स ि समाज के उसी वग की


है, जो वग उपाजन म असमथ है अथवा िज अवकाश नहीं है । जो
वग उपाजन म समथ है , उसका अिधकार सं हीत स ि पर नहीं है ।
अत: रोिगयों, बालकों और स की खोज म रत यों की सेवा
सं हीत स ि ारा करना अिनवाय है । –दशन और नीित

71. सेवा का ि या क प भले ही ससीम हो, पर भाव असीम होना


चािहए। ससीम भाव से की ई सेवा पर र यों, वग और दे शों
म संघष उ करती है । सेवा की पूणता ेम के ादभाव म है , संघष
म नहीं। –मानवता के मूल िस ा

72. बुराई–रिहत होकर भलाई का फल न माँ ग, न चाह –यह संसार की


सबसे बड़ी सेवा है ।....... यह तो संसार की सेवा ई। िफर हमारी सेवा
कैसे होगी ? हमारी सेवा होगी अचाह होने से। 'मुझे कुछ नहीं चािहए' –
इसके ारा हम अपनी सेवा कर सकगे। –संतवाणी 8

73. “परमा ा' के नाते जगत् की सेवा कर तो ेक वृि ‘पूजा' हो गयी,


'आ ा' के नाते जगत् की सेवा कर तो 'साधना' हो गयी और 'जगत्' के
नाते जगत् की सेवा कर तो 'कत हो गया। –संतवाणी 8

74. जैसे गंगाजल से गं गा की पू जा कर द तो बताइए िक पू जा करने म ा


कोई खच होगा? वैसे ही सं सार की व ु से संसार की सेवा कर दे नी है।
–संतवाणी 7

75. पु –कम म और सेवा म अ र ा है ? अपनी व ु मानकर आप


िकसी की सहायता करते ह तो वह पु –कम है, सेवा नहीं है ।
–संतवाणी 5

76. सेवा का अथ यह कभी नहीं होता िक हम िजसकी सेवा करते ह, उसे


कुछ दे ते ह। सेवा का अथ ही इतना है िक उसकी धरोहर जो अपने
पास है, वह उसे भट करते ह। यानी िजसकी जो व ु है , उसी को उसे
दे दे ना –इसका नाम 'सेवा' है । –संतवाणी 5

ाकृितक िनयम के अनुसार सं हीत स ि समाज के उसी वग की


है, जो वग उपाजन म समथ है, अथवा िज अवकाश नहीं है। जो वग
उपाजन म समथ है , उसका अिधकार सं हीत स ि पर नहीं है ।
अतः रोिगयों, बालकों और स की खोज म रत यों की सेवा
सं हीत स ि ारा करना अिनवाय है।"

1. शरीर नहीं रहे गा तो मेरी ित हो जाएगी –यह मानना बड़ा भारी


पागलपन है । –संतवाणी 7

2. ईमानदारी की बात तो यह है िक शरीर और संसार का आप से कभी


िमलन आ ही नहीं। –संतवाणी 7

3. तुम िच य लोक की िनवािसनी हो, भौितक दे ह से तु ारी जातीय


िभ ता है अथात् तुम िकसी भी काल म दे ह नहीं हो। दे ह तो िव की
िवभूित है । उसे िव की भट करना है । जब तुम अपने को दे ह के वेश
:: 332 ::
ांितकारी संतवाणी

म िछपा ले ती हो, तब तु ारे ि यतम िव का वेश धारण कर तु


अनेक कार से लाड़ लड़ाते ह। –पाथेय

4. यह जान लेने पर िक 'म दे ह नहीं ँ ', दे ह की ममता का भी ाग करना


होगा अथात् यह भली–भाँ ित जानना होगा िक 'दे ह मेरा नहीं है। –पाथेय

5. शरीर के बनने तथा िबगड़ने से तु ारा कुछ भी बनता–िबगड़ता नहीं।


–पाथेय

6. प का िन य नहीं होता, ब प का बोध होता है। यह


िन य वाली बात अ ान–काल म ान को बढ़ाने के िलए कहते ह।
ारे , शा साधन है , िस ा नहीं। –स –समागम 1

7. आप अपने िनज प से अलग होकर शरीर तथा सं सार पी जं गल


म खेलने आयी ह। यह थान आपके खेलने का नहीं है.......... िजनको
आप माता, िपता तथा ब ु कहती ह, वे इस जंगल के कटीले वृ ह।
–स –समागम 1

8. तुम अपनी दशा मत दे खो, अिपतु अपने प को दे खो। भला तुम


तक कभी भी सृि प ँ च सकती है ? कदािप नहीं। –पाथेय

9. अपने िलए अपने से िभ की आव कता कदािप नहीं हो सकती;


ोंिक िभ ता से एकता होनी सवथा अस व है । –स –समागम 2

10. जा त, , सुषु आिद सभी अव थाओं के िबना हम सवदा


त तापूवक रह सकते ह। –स –समागम 2

11. 'म ा ँ ' यह जानने के िलए भी दू सरे की आव कता हो गई, ा


ही िविच बात है ! –स –समागम 2

12. माना आ 'म' चोर के समान है । 'म िन ँ ' यह भाव आते ही माना
आ 'म' भाग जाएगा। इस भाव को भी बु का िवषय न बनाओ;
ोंिक ान का िच न ही अ ान है । –स –समागम 2

13. हम को शरीर म दे श, जाित, स दाय आिद का भाव आरोिपत नहीं


करना चािहए, न प रवतनशील शरीर को अपना जीवन समझना
चािहए, और न उसकी आव कता सदा के िलए समझनी चािहए।
–स –समागम 2

14. 'म ँ ' –यह आप जानते नहीं, मानते ह।.......... जानने के आधार पर
कोई भाई, कोई बहन यह कह ही नहीं सकते ह िक 'म ा ँ ? बस,
यही कह सकते ह िक 'यह म नहीं ँ । िनषेधा क ान है आपको
अपने स म। –संतवाणी 5

15. से स –िव े द होने पर ही अपने ारा अपना प रचय होता


है। बस, यही 'म ा ँ ?' इस को हल करने का उपाय है ।
–मानव–दशन

16. 'ओम्' का जप करने का अथ यही है िक 'म शरीर नहीं, ब


आन घन आ ा ँ । –संतप ावली 1

17. जड़ म अव था–भेद होता है , चेतन म नहीं। –स –समागम 1

समाज का जो वग उ ादन म समथ है, वह यिद वतमान उपयोिगता से


अिधक सं हीत स ि का अिधकारी अपने को मान लेता है , तब
उसके जीवन म िम ा अिभमान, आल तथा िवलास की उ ि हो
जाती है, जो उसके सवनाश म हे तु है।"

:: 334 ::
ांितकारी संतवाणी

ाधीनता

1. ाधीनता का अथ ही यह है िक आप जब ाधीनता पस करगे तो


शरीर की भी आप आव कता अनुभव नहीं करगे। –संतवाणी 5

2. यिद हम और आपको यह मालूम हो जाए, यह अनुभव हो जाए िक


कुछ न करने म भी जीवन है , कुछ न करने पर भी हम ह और हमारा
जीवन है, तो अभी–अभी ाधीन हो जाएँ । –संतवाणी 6

3. ाधीन िकसे कहते ह ? िजसे अपने िलए कुछ नहीं चािहए, िजसके
पास अपना करके कुछ न हो। – ेरणा पथ

4. िजसने ानपूवक अनुभव िकया िक इतने बड़े संसार म मेरा करके


कुछ भी नहीं है , उसी ने ाधीनता पाई। –संत–उ ोधन

5. ाधीनता के पुजारी को मू क स ंग से िभ और कुछ नहीं करना है।


–मूक स ंग

6. ाधीनता एकमा सहज िनवृि तथा शरणागित म ही है । वृि मा


पराधीनता का तीक है । –संतप ावली 2

7. बे–मन के जीवन म ही जीवन है । सामान–रिहत होने म ही ाधीनता


िनिहत है। –पाथेय

8. पराधीन ाणी से ही पर–पीड़ा होती है । ाधीन जीवन से िकसी को


पीड़ा नहीं होती और ाधीनता ाधीनतापूवक ा की जा सकती
है। –सफलता की कुंजी

9. मानव दू सरों के मन की बात पूरी करने म िजतना ाधीन है , उतना


अपने मन की बात दू सरों ारा पूरी कराने म ाधीन नहीं है।
–दशन और नीित
ाधीनता

10. अपने को दे ह मानकर कोई भी ाधीन नहीं हो सकता।


–िच शु

11. त ता ा करने का साधन कभी परत ता नहीं हो सकती अथात्


त ता ा करने का साधन भी त है ; ोंिक त ता ाणी
की िनज की व ु है ........... पूण त होने के िलए ाणी े ापूवक
सवदा त है । –स –समागम 2

12. यिद हमारे म िकसी कार का दास न होता, तो हम िकसी को भी


परत करने का य न करते। जो यं त है , वह िकसी को
परत नहीं करता। –स –समागम 2

13. य िप ाधीनता सभी को ाभािवक ि य है , पर ु कामनापूित के


लोभन के कारण साधक पराधीनता को ाधीनता के समान ही
मह दे ने लगता है । –साधन–त

14. िजस को अपनी स ता के िलए दू सरों की ओर दे खना नहीं


पड़ता, उसी का जीवन ाधीन जीवन है । –स वाणी ( ो र)

15. हम शरीर की ज रत को अपनी ज रत मानकर अपने को पराधीन


बना लेते ह। –संतवाणी 8

16. अचाह होने पर ही ाधीन होता है ; उसे िकसी की आव कता


नहीं रहती। –संतवाणी 7

17. जब सुख का लोभन और दु ःख का भय नहीं रहता, तब अपने–आप


ाधीनता के सा ा म वेश पाते ह। –संतवाणी 6

18. ाधीनता आपको ाधीनतापूवक ा होती है । िकसी 'पर' के


आ य से ाधीनता िमलती हो, ऐसा है नहीं। –संतवाणी 6
:: 336 ::
ांितकारी संतवाणी

उपाजन करने वाले वग को अपने दै िनक म का कुछ भाग उस वग


के िलए अव ही समिपत करना चािहए, जो वग उपाजन म असमथ
है।"

'है '
1. 'है' ा है ? जो उ ि –िवनाश से रिहत है अथवा उ ि –िवनाश से
पूव है ? िजससे उ ि और िवनाश कािशत ह, उसी को 'है' के अथ
म लेना चािहए। –मानव की माँग

2. 'है' उसे कह सकते ह, िजसका कभी नाश न हो और िजससे कभी


िवभाजन न हो। –संतवाणी 5

3. ेम 'है' से ही आ करता है । योग 'है ' का ही आ करता है । बोध 'है'


का ही आ करता है । तो भाई, जो 'है ', उससे योग – करना है। जो 'है',
उसका बोध है । जो 'है ', उसम ेम करना है । तो योग, बोध, ेम की
ा वतमान की व ु है । –संतवाणी 4

4. 'म' अनेक मा ताओं के पम ीकार िकया गया है और 'म' का


अथ सीिमत प म अनेक बार िकया गया है। इस कारण 'है' को 'म'
कहने म माद हो सकता है । –जीवन–दशन

5. 'है' का वणन संकेत भाषा से ही स व है । कारण िक िजन साधनों से


हम 'है' का वणन कर सकते ह, वे सब 'है ' से ही कािशत ह और 'है '
की स ा से ही स ा पाते ह। जो साधन िजससे स ा पाते ह, वे उसका
वणन कैसे कर सकते ह? केवल संकेत ही कर सकते ह।
–मानव की माँ ग

6. 'नहीं' म 'है '–बु ीकार करने से ही 'है ' से िवमुखता होती है।
–मानव–दशन
'है'

7. तीित से िवमुख ए िबना की यथाथता नहीं होती और 'है '


से अिभ ए िबना 'है' का बोध नहीं होता। –मानव–दशन

8. 'नहीं' की तीित है , पर ा नहीं और जो 'है ', उसकी ा होती है ,


तीित नहीं। –मानव–दशन

9. 'नहीं' को 'नहीं' अनुभव करते ही 'है ' की ा त: होती है ।


–मानव–दशन

10. ेक व ु भाव से ही गितशील है । गितशीलता म िकसी का


आकषण है । सभी का आकषण उसी के ित हो सकता है , जो है।
–मानव–दशन

11. 'है' को ीकार करो अथवा न करो; िक ु ा तो 'है ' की ही होती


है। –साधन–िनिध

12. 'नहीं' की िनवृि िबना ही म के त: होती है और 'है' की ा म


भी म हेतु नहीं है । –मूक स ंग

13. खोज उसी की होती है , जो 'है ' और आ था भी उसी म की जाती है, जो


'है'। 'है ' का सं ग सत् का सं ग है । –मूक स ंग

14. 'है' एक है , अने क नहीं। अत: वह कैसा है, यह िववेचन उतना अपेि त
नहीं है , िजतना उसका संग। –मूक स ं ग

15. 'है' की 'म' के प म तथा िनिवकारता, परमशा , ाधीनता,


अमर आिद िवभूितयों के प म 'है ' की ही ा होती है । िक ु 'है '
की 'है' के पम ा का मूल म 'है ' की अगाधि यता ही है।
–मूक स ंग
:: 338 ::
ांितकारी संतवाणी

16. 'म' और 'है ' का भेद 'है ' म नहीं है , यह 'है ' की ही महानता है ; िक ु
'म' 'है ' को अ ीकार कर 'म' को ही ीकार करे , ा – यह 'म' की
भूल नहीं है ? –मूक स ंग

17. 'यह' की आस 'म' का 'यह' से स जोड़ती है , जो वा व म


भूलजिनत है । 'है ' की ीित 'यह' की आस को खाकर 'म' को 'है ' से
अिभ करती है । –मूक स ंग

18. 'है ' 'नहीं' को िमटाता नहीं, ुत् कािशत करता है । 'है ' की
आव कता 'नहीं' को खाकर 'है ' से अिभ करती है । ाणी 'है' से
अिभ होकर ही 'है ' को जानता है । अत: 'है ' को जानने के िलए मन,
बु आिद बा सहायता की आव कता नहीं है । –स –समागम 2

19. 'नहीं' की िनवृि के िबना 'है ' की ा हो सकती है ा? कभी नहीं


हो सकती। –संतवाणी 5

20. 'है' म यिद हमारी ि यता नहीं है , तो भजन कैसा! और 'है ' का यिद
बोध नहीं है , तो त –सा ा ार कैसा ! और 'है' से यिद योग नहीं है,
तो परमशा कैसी ! –संतवाणी 5

21. िनमम और िन ाम होने के बाद 'म' का त अ कुछ नहीं


रहता। हाँ , िफर 'है ' रहता है । –संतवाणी 3

अपने म का पूरा मू अपने पर य करना, अथवा मनमाने ढं ग से


िववेक–िवरोधी काय म लगाना अनथ है। कारण, िक ेक
समाज के सहयोग से ही पोिषत होता है। उस काल का ऋण उपाजन–
काल म चुकाना अिनवाय है ।
कीण

कीण
एका

1. एका का पूरा लाभ तब होता है , जब हमारा स एक ही से रह


जाए। अनेक स लेकर एका म जाते ह तो उतना लाभ नहीं
होता, िजतना होना चािहए। –संत–उ ोधन

2. बा साधन न होने पर भी दु खयों के दु ःख से दु :खी होने वाला


एका म बैठा आ दु खयों के दु ःख का अ कर रहा है ; ोंिक
इ ाश लीलामय भगवान् की योगमाया है, जो सब कुछ कर
सकती है । –स –समागम 1

3. ेमी और ेमपा के िसवा िकसी तीसरे को थान न दे ना ही स ा


एका है, जो बाजार म भी हो सकता है । –स –समागम 1

'करना' और 'होना'

1. जो हो रहा है , वह सभी के िलए िहतकर है , पर जो कर रहे ह, उसी


पर िवचार करना है । –मंगलमय िवधान

2. जो हो रहा है , उसम सभी का िहत िव मान है। अत: ‘होने म स


तथा करने म सावधान' रहने के िलए सतत य शील रहना है ।
–जीवन–दशन

3. जो कर रहे ह, वही पूजा और जो हो रहा है , वही लीला है ।


–संतप ावली 2

4. जो कुछ हो रहा है , उसम िकसी का अमंगल नहीं है तो िफर होने म


स न रहना भू ल के अित र हो ही ा सकता है ? –िच शु
:: 340 ::
ांितकारी संतवाणी

5. अशा की ग िकसम नहीं होती ? जो ‘होने म तो स 'रहता है,


िक ु ‘करने म सावधान' रहता है । –संत–उ ोधन

6. करने म सावधान रहने म ही अकत का नाश है। होने म स


रहने म ही असंगता िनिहत है । –साधन–त

7. ाकृितक िनयम के अनुसार जो करने म सावधान है , वही होने म


स रह सकता है और जो होने म स रहता है , वही करने म
सावधान हो सकता है । –िच शु

8. त अ िकसका नहीं है ? जो 'हो–होकर िमट रहा है। यही


हो रहा है ' का अथ है । –दशन और नीित

9. होनहार का स ा अथ है िवनाश; ोंिक वा व म होना ा है ?


उ ि का िवनाश। –संतप ावली 2

10. होनहार म तो सभी का िहत िनिहत है , िकसी का ास नहीं। ास का


एकमा कारण करने म असावधानी ही है , होनहार नहीं।
– मानव की माँग

11. जो हो रहा है , उस पर यिद िवचार िकया जाए तो यह ात होता


है िक िजसे हम उ ि कहते ह, वह िकसी का िवनाश है और िजसे
हम िवनाश कहते ह, वह िकसी की उ ि है । –िच शु

मा

1. िजनसे ममता नहीं है , उ ीं के ित माशीलता का योग िहतकर


िस होता है । मोहयु मा से िकसी का भी िहत नहीं होता–न
अपना और न उसका, िजसम मोह है । –िच शु
कीण

2. मायाचना करने पर यिद कोई मा न करे तो लेशमा भी िच त


नहीं होना चािहए; ोंिक मा करने की मता उस अन म ही है ।
के प म उसी से मायाचना की जाती है । –िच शु

3. 'सेवा' वही कर सकता है , िजसकी सभी के िहत म रित है । ' ाग'


वही कर सकता है , जो सं सार के प को भलीभाँित जानता है।
और ' माशील' वही हो सकता है , जो अपने दु ःख का कारण िकसी
और को नहीं मानता। –साधन–त

4. िकसी ने हम दु ःख िदया है, यिद ऐसा तीत हो तो समझना चािहए


िक दु ःख दे ने वाला यं दु :खी है , इसिलए उसने दु :ख िदया है; अत:
वह मा का पा है । –संत–उ ोधन

तीथया ा

1. या ा करने से रजोगुणी ािणयों को लाभ होता है। –संतप ावली 1

2. जो ाणी अपने को केवल थूल शरीर मानते ह अथात् शरीर कोही


अपना–आप जानते ह, उनके िलए 'तीथ' सबसे थम साधन है ;
ोंिक वहाँ जाने पर दान– ान आिद का करना अिनवाय हो जाता
है । तीथ म लोका र का भाव रखना चािहए, ऐसा करने से लाभ
अव होगा –स –समागम 1

3. िनबल, िनधन और ाहीन मनु को तीथया ा नहीं करनी चािहए।


–संत–सौरभ

4. तीथ–सेवन का अिधकारी वह होता है , जो तीथ थानों म िद


लोका रों का अनुभव करता है अथात् िजसकी तीथ म भौितक–
बु नहीं है । –संत–सौरभ
:: 342 ::
ांितकारी संतवाणी

पाप–पु
1. अपनी स ता अपने से िभ िकसी अ के आि त जीिवत रहे , यही
'पाप' है । –स –समागम 1

2. पापी को िमटाने के िलए उसका पाप ही काफी है अथात् पाप यं


पापी को िमटा दे गा। –स –समागम 2

3. जो पितत सू य का काश पाता है , जल िजसकी ास बुझाता है , वायु


िजसे ास लेने दे ती है, आकाश िजसे अवकाश दे ता है , पृ ी िजसे
आ य दे ती है, आप उसे ार नहीं दे सकते ? –जीवन–पथ
ार
1. ' ार ' माने ाकृितक ाय अथात् साधन–साम ी; और 'पु षाथ'
माने उस साम ी का सदु पयोग। ये दो अलग–अलग चीज नहीं ह।
एक ही चीज के दो पहलू ह। –संतवाणी 7

2. ार िकसी के पतन का कारण नहीं होता। –संत–सौरभ

3. ार को बुरा मत समझो, भला मत समझो। ार से कोई


भा शील या अभागा नहीं होता। जो बुराई–रिहत हो जाता है, वही
भा शील होता है । –संतवाणी 7
भूत–भिव –वतमान
1. भूतकाल को भूलकर, भिव की आशा को छोड़कर और वतमान
की आव क िनयमानुसार ि याओं से असंग हो जाने पर –
आ ानुभव अव होगा। –संतप ावली 1

2. वतमान समय को सबसे उ म–समझो; ोंिक वतमान के सँभल


जाने से िबगड़ा आ भूत और आने वाला भिव अपने–आप सँभल
जाता है । –संतप ावली 1
कीण

3. भूतकाल की घटनाओं के अथ को अपनाकर घटनाओं को भूलना


अिनवाय है । ेक घटना का अथ पथ– दशन कर सकता है ;
ोंिक घटना का अथ िववे कयु होता है । –दशन और नीित

4. भूतकाल की अशु का ाग वतमान म हो सकता है , पर ु


वतमान की शु भिव म िमट नहीं सकती। –िच शु

5. यह िनयम है िक वतमान काय ठीक होने पर ही िबगड़े ए भूत का


प रणाम िमट सकता है और भिव उ ल हो सकता है। इस ि
से वतमान काय ही सव ृ काय है । –िच शु

6. वतमान काय को भिव पर छोड़ना और भिव के काय का


वतमान म िच न करना, जो यं कर सकते ह, उसके िलए दू सरों
की ओर दे खना और जो अपने करने का नहीं है, उसके िलए यं
िच न करना –यही असफलता का कारण है । –जीवन–दशन

7. जो दशा प िलखते समय होती है , वह दशा प प ँ चते समय तक


रहे गी – ा यह बात स े ह–रिहत है ? कदािप नहीं। प का िमलना
भूतकाल की चचा है, और कुछ नहीं। –पाथेय

मत–स दाय

1. ेक मत तथा वाद साधन– ि से आदरणीय तथा माननीय है ;


िक ु उनकी ममता यों को पागल बना दे ती है। औषिध का
सेवन आरो ता के िलए अपेि त है , ममता के िलए नहीं। उसी
कार मत, स दाय आिद की अपे ा प र थित के अनु प अपने
को सु र बनाने म है , पर र संघष के िलए नहीं। –दशन और नीित
:: 344 ::
ांितकारी संतवाणी

2. जब तक मानव अपने मत, स दाय एवं वाद के अनुसार अपने को


सु र बनाकर इनकी सीमा से अतीत नहीं हो जाएगा, तब तक
उसके जीवन म पूणता की अिभ नहीं होगी। –दशन और नीित

3. जीवन का जो स होता है , वह िकसी मजहब की बात नहीं होती,


िकसी स दाय की बात नहीं होती, वह सभी की अपनी बात होती
है । –संतवाणी 8

4. दू सरों को हमारी णाली अभी नहीं है , अिपतु सहयोग एवं ेह


अभी है । –मंगलमय िवधान

5. िकसी भी संघ, सं था, रा , मजहब, इ म म यिद जीवन है तो


मानवता का। मानवता–रिहत संघ, सं था आिद केवल संघष को ही
ज दे ती ह, जो िवनाश का मूल है । –मानव–दशन

सत्–असत्

1. यह िनयम है िक स अस को िमटाने म समथ नहीं है । कारण िक


स तो अस को स ा दे कर कािशत करता है ; िक ु स की
लालसा अस को िमटाने म तथा स से अिभ करने म समथ है।
–मानव की माँग

2. असत् का आकषण िजतना मधुर तीत होता है , उतनी मधुरता


असत् की ओर गितशील होने म नहीं है । वृि की िच िजतनी
आकषक है , उतनी वृि नहीं। –मानव–दशन

3. सत् असत् का काशक है, नाशक नहीं। सत् की ि यता ही एकमा


असत् की नाशक है , जो सत् की आ ीयता से ही सा है।
–मानव–दशन
कीण

4. असत् के अ की ीकृित ही असत् को जीिवत रखती है ।


–मानव–दशन

5. असत् से िबना हटे असत् का कथन नहीं कर सकते और सत् से िबना


िमले सत् का अनुभव नहीं कर सकते। –स –समागम 1

स –महा ा

1. साधारण मनु ों म और स म यही अ र होता है िक स जैसा


जानता है , वैसा मानता है और जैसा मानता है , वैसा ही करता है ।
–संत–उ ोधन

2. स ु षों ने अपनी साधना के आधार पर कोई दल अथवा मत नहीं


बनाया है । दलों और मतों को उनके पीछे चलने वालों ने अपने
दे हािभमान के वशीभूत होकर ज िदया है । –मानव की माँग

3. िजस कार समु का पानी भाप बनकर अनेक थानों पर फैल जाता
है , उसी कार त वे ा त िन होकर सव फैल जाता है ।
त िन वही हो सकता है , जो तीनों थूल–सू –कारण शरीरों से
अपने को असं ग कर लेता है । –संतप ावली 1

4. दु िनया म आज तक िजतने स ए, महा ा ए, बड़े आदमी ए,


पीर ए, पैग र ए, उन सबके जीवन म आप तीनों ही बात दे खगे –
आपको 'सेवा' िदखायी दे गी, आपको ' ाग' िदखायी दे गा, आपको
' ेम' िदखायी दे गा। –संतवाणी 8

5. जब तक उदार नहीं ह, ाधीन नहीं ह, ेमी नहीं ह, तब तक आप


महा ा नहीं ह, चाहे िकतना ही बिढ़या ा ान हम दे ल।
ा ान दे ने से महा ा नहीं हो जाते। –संतवाणी 2
:: 346 ::
ांितकारी संतवाणी

योग–बोध– ेम (कमयोग– ानयोग– भ योग)


1. योग, बोध और ेम ‘ ा ' म और भोग, मोह और आस 'अ ा '
म वृ कराते ह। –िच शु

2. 'योग' की पूणता म बोध तथा ेम, और ‘बोध' की पूणता म योग तथा


ेम, और ' ेम' के ाक म योग तथा बोध त: िस है।
–िच शु

3. 'योग' म श और शा है , 'बोध' म मु है , और ' ेम' म भ


है । –संतवाणी 6

4. यिद कुछ ‘करना चाहते हो तो सेवा करो, यिद 'जानना चाहते हो तो


अपने को जानो, और यिद ‘मानना' चाहते हो तो भु को मानो अथात्
अपने को जानना है , भु को मानना है और सेवा करना है।
–मानव की माँ ग

5. उदारता, ाग तथा ेम म रस–भेद भले हो, प–भेद नहीं है ।


–मूक स ंग

6. सेवा करते जाओ, ाग को अपनाते जाओ और ेम की भूख बढ़ाते


जाओ। –संतवाणी 7

7. िज ासा की ि से जो ' ान' ह, वैरा की ि से वही 'योग'है, और


समपण की ि से वही ' े म' है । –पाथेय

8. दू री के नाश म ही 'योग' और भेद के नाशं म ही 'बोध' तथा िभ ता


के नाश म ही ' ेम' का ादु भाव होता है । –मानव–दशन

9. िमले ए का दु पयोग न करने पर 'कत परायणता' त: आतीहै ,


और जाने ए का आदर करने पर 'असंगता' ा होती है , एवं िबना
कीण

जाने म आ था होने पर त: 'शरणागित' उिदत होती है ।


–मानव–दशन

10. जो िबना सीखे हो, वही स ा ' ान' है अथात् भावतः आ जाए। जो
िबना हे तु के हो, वही स ा ' ेम' है । और जो िबना िकए हो, वही
स ा ' ाग' है ; ोंिक स ा ाग करना नहीं पड़ता, हो जाता है।
–संतप ावली 1

11. 'कत ' की िव ृित म ही अकत और ‘ प' की िव ृित म ही


दे हािभमान एवं ' ेमा द' की िव ृित म ही अनेक आस यों की
उ ि हो जाती है , जो िवनाश का मूल है । –दु :ख का भाव

12. योग, ान और े म का िवभाजन नहीं हो सकता। –जीवन–दशन

13. 'सेवा' सु र समाज के िनमाण म, ' ाग' अपने क ाण म तथा


आ ीयता से उ ई 'ि यता' अन को रस दान करने म हे तु
है । –दशन और नीित

14. अपना मू कम न होने पाए, यही 'पु षाथ' है। शरीर से लेशमा भी
स न रहे, यही ' ाग' है । अपने से िभ िकसी कार की स ा
ीकार न हो, यही ' ेम' है । –स –समागम 2

15. कुछ लोग संसार को मानते ह, उ बुराई–रिहत होना पड़े गा। कुछ
लोग अपने को मानते ह, उ अचाह होना पड़े गा। कुछ लोग भु को
मानते ह, उ ेमी होना पड़े गा। –संतवाणी 8

16. मेरे जानते, बुराई–रिहत होना ब त बड़ा पु षाथ है । अचाह होना


ब त बड़ा पु षाथ है । भगवान् को अपना मानना ब त बड़ा पु षाथ
है । –संतवाणी 7
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ांितकारी संतवाणी

17. इन तीन बातों से सारे जीवन की सम ाएँ हल हो जाती ह (1) मुझे


कुछ नहीं चािहए, (2) भु अपने ह, (3) सब कुछ भु का है। यही
जीवन का स है । इसको ीकार करने से उदारता, ाधीनता और
ेम ा होगा। –संतवाणी 7

18. योग की ा म, बोध की ा म, े म की ा म कुछ न चाहना


ही मूल म है । –संतवाणी 6

19. 'सेवा' का जो त है , वह तो बुराई–रिहत होना है। ' ाग' का जो


त है , वह तो अचाह होना है , िनमम होना है , तादा –रिहत होना
है । 'आ था' का जो त है , वह तो भगवान् से िभ िकसी और के
अ को अ ीकार करना है और केवल भगवान् के अ को
ीकार करना है । –संतवाणी 7

20. 'कत परायणता' आते ही, आप चाहो तो, न चाहो तो, आपका जीवन
जगत् के िलए उपयोगी हो जाएगा। ‘असंगता' ा होते ही आपके न
चाहने पर भी आपका जीवन अपने िलए उपयोगी हो जाएगा और
‘आ ीयता' ा होते ही आपका जीवन भु के िलए उपयोगी हो
जाएगा। –संतवाणी 5

21. बोध म से, ान म से ' ेम' को िनकाल दीिजए तो शू आ जाएगा।


ेम म से ' ान' िनकाल दीिजये तो काम आ जायगा। और ान और
ेम म से 'योग' िनकाल दीिजये, असमथता आ जायगी। –संतवाणी 4

22. आ क दशन का अथ है – भु–िव ास। अ ा दशन का अथ है–


िववेक–िवरोधी स का ाग। और भौितक दशन का अथ है –
िववेक–िवरोधी कम का ाग। –संतवाणी 4
कीण

23. भौितक िवकास की चरम सीमा 'योग' है , आ ा क िवकास की


चरम सीमा ‘बोध' है , और आ क िवकास की चरम सीमा ' ेम' है ।
–संतवाणी 3

24. भु–िव ासी का ेक काय ‘पूजा' है , और अ ा वादी का ेक


काय · 'साधना' है , तथा भौितकवादी का ेक काय 'कत ' है ।
–संत–उ ोधन

25. अगर आप परमा ा का अ मानते ह तो शरणागत हो जाइए।


अपना अ मानते ह तो अचाह और अिकंचन हो जाइए, और
जगत् का अ मानते ह तो सेवा कीिजए। –संतवाणी 2

िविवध .

1. सीधे–सादे जो बात आप चाहते ह दू सरों से, उन से किहए –दे खए,


हम चाहते ह िक आप ऐसा कर दीिजए। बस इतना ही ाग र खए
िक यिद इ ार कर द तो बुरा मत मािनए। –संतवाणी 4

2. अकेले रहने म बुरा लगता है तो िन साथी की याद करो।


–संतवाणी 4

3. 'साधु' माने यही िक जो संसार का स तोड़ दे , चाहे घर म रहकर,


चाहे वन म जाकर।........ भेष साधु सब नहीं हो सकते , ले िकन िबना
भेष के साधु हर भाई, हर बिहन हो सकती –स वाणी ( ो र)

4. कम सामान रखोगे तो तुम को आराम ादा िमलेगा। िजसको परायी


कमाई खाना है , िजसको समाज के आि त रहना है , उसकी –
ज रत कम–से–कम हों तो अ ी बात है यह। –संतवाणी 3
:: 350 ::
ांितकारी संतवाणी

5. अपना सुधार जो नहीं कर सकता, वह िकसी का सुधार नहीं कर


सकता, सुधार के नाम पर अपनी कामनाओं की पूित कर सकता है।
–संतवाणी 5

6. लकड़ी यं जलकर दू सरों को जलाती है , िकसी को जलाना िसखाती


नहीं। दू सरों के सुधार एवं िसखाने की बात सीिमत गुणों का अिभमान
एवं अपनी यो ता का प रचय दे ना है । –स –समागम 2

7. यह िनिववाद िस है िक जो दे खने म आता है , उसकी ा नहीं


और िजसकी ा होती है , वह दे खने म नहीं आता। –संत–उ ोधन

8. म मू ल प से क ँ गा िक तीन भूल हमसे ई ह। एक भूल तो यह ई


है िक हम िमले ए बल का दु पयोग कर बैठते ह। दू सरी भूल यह
ई है िक हम जाने ए का अनादर कर बैठते ह। तीसरी भूल यह ई
है िक िजसको सुना है केवल, जाना नहीं है, उसम अ ा कर बैठते
ह। –जीवन–पथ

9. जो िमला है , वह दू सरों के िलए है और मौजूद है, वह अपने िलए है ।


– ेरणा पथ

10. िस ा प से कोई भी 'गैर' नहीं है , कोई 'और' नहीं है। िकसी–न–


िकसी नाते सभी अपने ह और सभी म अपने ेमा द है ।
–संत–उ ोधन

11. जब कोई 'और' है ही नहीं, तो भय कैसा ? जब कोई 'गैर' नहीं, तो


ीित ों नहीं ? –संतवाणी 6

12. जैसा हम अपने को मान ले ते ह, वैसे ही हमसे कम होते ह और कम


के अ म हम वैसे ही बन जाते ह। –मानव की माँग
कीण

13. की ई भूल पर प ाताप करने के समान कोई ‘ ायि ' नहीं।


भिव म भूल न करने के िन य के समान कोई दू सरा ' त' नहीं।
–संत–उ ोधन

14. की ई बुराई को पुन: न करना ही सबसे बड़ा ायि है ।


–स –समागम 2

15. जैसे िकसी प के िवरोधी को म सजग नहीं मानता, वैसे िकसी प


के समथक को भी म सजग नहीं मानता। म उसी का – सजग
रहता है , जो ईमानदारी से न िवरोधी है , न समथक है। –जीवन–पथ

16. िजसे कोई भी अपना साथी चािहए, वह ईमानदारी पूवक चारी


नहीं रह सकता। –स –समागम 2

17. हमारे जीवन म िजतनी भी दु बलताएँ ह, उनका मूल कारण एकमा


ा बल का दु पयोग है , और िजतनी बेसमझी है, उसका मूल
कारण एकमा िववेक का अनादर है । –मानव की माँग

18. सद् गु –वा है िक आव क व ु िबना माँ गे ही िमलती है और


आव क काय त: होते रहते ह। –पाथेय

19. ेक काय सम िव के िहत के भाव से िकया जाए, तो िफर काय


म िकसी कार की बाधा नहीं आती; कारण िक ारे भु की
योगमाया उसके अनुकूल हो जाती है । –पाथेय

20. शरीर मी, मन संयमी, बु िववेकवती, दय अनुरागी और अहं


अिभमानशू करना यं को सु र बनाने के िलए अ अिनवाय
है । –मानव की माँग

21. ि याशीलता, जड़ता, िनरथक िच न, साथक िच न आिद


अव थाओं से िनिवक अव था े है । –मानव–दशन
:: 352 ::
ांितकारी संतवाणी

22. िजसका नाश अभी हो, उसको आ य न दो, उसका समथन तथा
िवरोध मत करो। उसे अ हीन जानो। –मूक स ंग

23. सभी को अपना ीकार करना अथवा 'अपने म अपना करके कुछ
नहीं है ' यह अनुभव समान अथ रखता है । –मूक स ंग

24. उ म पु षों का प रवतन ' ान' से, म म पु षों का ‘लालच' से तथा


िनकृ पु षों का ‘भय' से होता है । –संतप ावली 1

25. कोई भी िनयम ोध तथा आवेश म आकर नहीं बनाना चािहए और


न िकसी िनयम को जीवन भर के िलए करना चािहए।
–संतप ावली 1

26. जब कुछ नहीं चाहता, तब सब कुछ ा होता है । जब कुछ चाहता


है, तब कुछ नहीं हाथ आता। कुछ न करने से सब कुछ होता है, कुछ
करने से कुछ नहीं होता। जब कुछ नहीं जानता, तब सब कुछ जानता
है। जब कुछ जानता है, तब कुछ नहीं जानता –ऐसा मेरा अनुभव है।
–संतप ावली 1

27. प सुनने पर जो भाव उ होता है , वही उसका स ा उ र है ।


भाव श की अपे ा ापक है । इतना ही नहीं, स ाव से दय
बदलता है , और सु र–सु र श ों का केवल म पर ही
भाव होता है । –संतप ावली 1

28. तु ारी आ –कथा का सपना बड़ा ही सु र तथा सरस है , पर यह


जानती हो िक का सा ी सवदा से अतीत है और
सवदा स ा–शू है । –पाथेय

29. बािलकाओं के रं ग– प के स म जो सामािजक भावना बन रही


है, वह बड़ी शोचनीय है। जब बािलकाएँ रोटी के िलए िववाह नहीं
कीण

करगी, तभी यह भावना न होगी। वा व म िववाह एक िनि त


काय म है । जो होना होगा, होगा ही। उसके िलए िच ा करना भूल
है । िदल की सफाई व च र का सौ य तथा यो ता का आभूषण
बािलकाओं की र ा करे गा, ऐसा मेरा िव ास है । –संतप ावली 2

30. दु खयों के वेश म ेमा द को दे खकर तु म ोिभत होती हो अथवा


क िणत ? यिद ोिभत होती हो तो भूल है और यिद क िणत होती
हो तो ाभािवकता है । ोिभत होने से सुख का मह बढ़ता है और
उसकी दासता अंिकत होती है । क िणत होने से सुख का राग िमटता
है और उदारता उिदत होती है , जो भोगास को खाकर मन को
िनमल बना दे ती है । –पाथेय

31. सब कुछ करने पर वही ा होता है , जो करने के आर से पूव


था। –स ंग और साधन

32. िमले ए के सदु पयोग के िलए ही 'िववेक'– पी िवधान िमला है , और


भोग की िच का नाश करने के िलए ही ‘दु ःख' का ादु भाव आ है।
–दु :ख का भाव

33. यह सभी का दै िनक अनुभव है िक ि य–से–ि य व ुओं एवं


यों से ितिदन िवयोग अपनाए िबना कोई भी भाई तथा बहन
नहीं रह सकते । गहरी नींद तथा समािध की आव कता सभी
अनुभव करते ह। –दु :ख का भाव

34. कोई बात पूरी नहीं होती तो समझो िक वह ज री नहीं है ।


–स –जीवन–दपण

35. उ ि , र ा और िवनाश िवधान के अधीन ह। –दशन और नीित


:: 354 ::
ांितकारी संतवाणी

36. अनेक कार का िनणय ही 'अिववेक' है , अनेक िव ासों का होना ही


‘अिव ास' है , और िजसके करने पर कता म करने का राग शेष रहे ,
वही 'अकत ' है । –जीवन–दशन

37. जब तक स े ह की वेदना अ ती नहीं हो जाती, तब तक स े ह


िमटाने की यो ता नहीं आती। यहाँ तक िक यिद िकसी को ास
लगी हो और उससे कहा जाए िक तुम पहले पानी पीना चाहते हो
अथवा िन े ह होना चाहते हो ? इस पर यिद वह यह कहे िक मुझे
िन े ह होना है , पानी नहीं पीना है , तो समझना चािहए िक स े ह
की वेदना जा त हो गयी। अस वेदना होते ही उसकी िनवृि त:
हो जाती है । –जीवन–दशन

38. हम जो कुछ करते ह, उसका प रणाम हमीं तक सीिमत नहीं रहता,


अिपतु सम िव म फैलता है । –जीवन–दशन

39. ाकृितक िवधान यह है िक दू सरों के साथ हम जो कुछ भी करगे, वह


काला र म अनेक गुणा होकर अपने साथ होगा। – ेरणा पथ

40. दू सरों के ित जो कुछ िकया जाता है , वह कई गुना अिधक होकर ·


हमारे ित तः होने लगता है । –जीवन–दशन

41. िकसी की अवनित के ारा ा की ई उ ित अवनित ही है।


आर म भले ही ऐसा तीत हो िक िकसी की हािन म िकसी का
लाभ है , पर प रणाम म तो यही िस होगा िक िकसी हािन से उ
आ लाभ एक बड़ी हािन की तैयारी है । –दशन और नीित

42. उपिनषदों और वेदा पर टीकाएँ कर डाली और िफर भी दशा यह


है िक ममता नाश नहीं ई, कामना नाश नहीं ई ! और बु मानी
कीण

यह िक बात समझ म तो आती है , ठीक भी है , पर जीवन म नहीं


उतरती। – ेरणा पथ

43. सभी को अपना मान लेने म, िकसी एक को ही अपना मान लेने म


अथवा िकसी को भी अपना न मानने म जीवन की साथकता िनिहत
है । –जीवन–दशन

44. ' म' का थान आल िमटाने म है , ि य के पाने म नहीं। 'अ िच'


का थान सुख–भोग के ाग म है , ीित के उदय म नहीं।
–जीवन–दशन

45. ाकृितक िवधान के अनुसार िजसकी वा व म उपयोिगता अपेि त


है , उसकी र ा के साधन अपने–आप ा होते ह।
–दशन और नीित

46. जो अ ा है , उसकी चाह से रिहत होना है ; जो जानते ह, उसी का


आदर करना है ; और जो कर सकते ह, उसी को कर डालना है ।
अ ा की चाह से रिहत होते ही 'योग' त: िस होगा। जो जानते
ह, उसका आदर करते ही तः ‘बोध' होगा। जो कर सकते ह,
उसके करते ही तः सु र प र थित ा होगी। –िच शु

47. अपने से अपनी दशा को िछपाना नहीं चािहए। व ु थित का


वा िवक प रचय होते ही या तो ाकुलता की अि िलत होगी
अथवा आन की गंगा लहराएगी। –िच शु

48. यह िनयम है िक भोग, मोह और आस की उ ि तभी होती है ,


जब तीित म ा –बु ीकार कर ली जाए। –िच शु

49. यह िनयम है िक िजसका होना अस होता है , वह िमट जाता है और


िजसका न होना अस होता है , वह ा हो जाता है । –िच शु
:: 356 ::
ांितकारी संतवाणी

50. ान, साम और व ुएँ असीम ह, उनकी गणना तथा सीमा नहीं हो
सकती। उनकी खोज भले ही कर सके, पर उ उ नहीं
कर सकता। यह िनयम है िक खोज उसी की होती है , जो है । इस ि
से िव ान िव ानवे ा की, दशन दशनकार की और कला कलाकार
की खोज है , उपज नहीं। –िच शु

51. यह िनयम है िक ाणी िजसकी स ा ीकार कर लेता है , उसका


अ भासने लगता है । िजसका अ भासने लगता है , उस पर
िव ास होने लगता है । िजस पर िव ास हो जाता है , उससे स हो
जाता है । िजससे स हो जाता है , उसम ि यता त: उ होती
है । िजसम ि यता उ हो जाती है , उसकी ृ ित तः होने लगती
है । िजसकी ृित होने लगती है , उसम आस हो जाती है । और
िजसम आस हो जाती है , उसम स ता, सुख पता, सु रता
तीत होने लगती है , और िफर ाणी उसके अधीन हो जाता है।
–िच शु

52. दे ने की िच का अ तभी हो सकता है , जब ाणी दे ने के अिभमान


से और लेने की आशा से रिहत हो जाए अथात् दी ई व ु को उसी
की जाने, िजसको दी है । अपनी मानकर दे ने से लेने की आशा
अव उ होती है । लेने की आशा रहते ए दे ने की बात कहना
ईमानदारी नहीं है अथवा यों कहो िक दे ने के प म लेना ही है , दे ना
नहीं। इतना ही नहीं, उस ाणी का लेना भी दे ना हो जाता है , जो
अपने म अपना कुछ नहीं पाता। िजसे अपने म अपना कुछ भी तीत
होता है , उसका दे ना भी ले ना है अथात् उसका ाग भी राग है और
ेम भी मोह है । उसके ारा की ई सेवा भी ाथ है। –िच शु
कीण

53. स नता बढ़ा लेने पर ही दु जनता का अ कर सकते हो। दु जनता


से दु जनता िकसी कार भी िमटायी नहीं जा सकती।
–स –समागम 1

54. कम और संसार दोनों का प एक है, इसिलए कम से संसार की


ा होती है । –स –समागम 1

55. ारे , भाषा तथा भाव दोनों से परे रहो। भाषा तथा भाव िकसी की
स ा कािशत नहीं करते, िक ु संकेत करते ह। –स –समागम 1

56. ारे , जब स ाई भाव तथा भाषा से परे है , तो िफर उसकी ा ा


ही ा हो सकती है ? –स –समागम 1

57. कोई भी श अपना अथ आप तो कािशत करते नहीं, इसिलए जो


बात िजस भाव से कही हो, उसको उसी भाव से दे खो। श ों पर मत
जाओ। –स –समागम 1

58. अनुभव बु ारा कथन नहीं िकया जा सकता, केवल संकेत िकया
जा सकता है । गीता आिद भी संकेत ही करती है । –स –समागम 1

59. िवषयी का कथन िवषयों के िवषय म माननीय नहीं हो सकता; ोंिक


उस बेचारे को िवषयों का ान तो है नहीं। –स –समागम 1

60. कृित ाभािवक ि याएँ अिहतकारी िकसी कार नहीं हो सकतीं;


ोंिक कोई भी अपने साथ अिहत नहीं करता। शरीर आिद कृित
के ह; अत: उनके सुधार म कृित भूल नहीं कर सकती। कृित की
भूल िसफ राग– े ष के कारण िदखाई दे ती है । –स –समागम 1

61. बु आिद ारा कृित की भूल पकड़ना यही अथ रखता है िक


'कुल' भू ल करता है और 'जुज़' भूल पकड़ता है, य िप 'जुज़' हर
काल म 'कुल' के आि त है अथात् परत है। 'जुज़' को जो कुछ
:: 358 ::
ांितकारी संतवाणी

हािन िदखायी दे ती है , वह 'जुज़' का दोष है, 'कुल' का नहीं। गहराई


से दे खो, ा आँ ख सूरज का दोष पकड़ सकती है ? ......... आँ ख म
आस बु सूय की थ आलोचना करती है । –स –समागम 1

62. 'कुल' से 'जुज़' की हािन नहीं होती। यिद यह ीकार करते हो िक


कुल जुज़ की हािन करता है तो जुज़ कुल से अलग ों नहीं हो
जाता? जब तक जुज़ कुल से अलग नहीं हो पाता, तब तक कुल पर
'जुज़' का आ ेप करना शोभा नहीं दे ता। –स –समागम 1

63. यिद िभखारी बनना पस है तो ऐसे िभखारी बनो िक दाता को ही


िभ ा म ले लो, िजससे बार–बार माँ गना शेष न रहे ।
–स –समागम 1

64. 'मानना' वही साथक होता है, िजसम अटल िव ास हो और _ 'जानना'


वही साथक होता है , िजसका आदर हो। –स –समागम 2

65. आज वेिजटे िबल िमल के िलए तो स ि है ; िक ु डे यरी फाम के


िलए नहीं। पूँजीपितयों की इस भूल ने मानव के ा को खा िलया
है । वे ऊपर से तो अिहं सा के गीत गाते ह; िक ु पशु ओं को न खाकर
मनु ों को खा जाते ह ! –स –समागम 2

66. जीवन की ेक घटना कुछ–न–कुछ अथ रखती है। िवचारशील


अथ को अपनाते ह, घटना को भूल जाते ह। –स –समागम 2

67. गुण के आ य ही दोष, भलाई के आि त ही बुराई, कत के सहारे


ही अकत और स के आ य ही अस कािशत होता
–साधन–त

68. िकसी भी को बुरा तथा भला मत समझो; ोंिक दू सरों को


बुरा समझने से मन म बुराई आ जाती है , और ेमपा के अित र
कीण

दू सरों को भला समझने से ेमपा का िव ास िमट जाता है और मन


संसार का दास बन जाता है , जो दु :ख का मूल है । –स –समागम 2

69. िजस स म उसकी (साधक की) ा है , उसम अपनी सम ा


हल करने के उपाय की ही खोज करे , सारा समझने का यास
न करे ; ोंिक जाने ए असत् का ाग िकए िबना कोई भी साधक
िकसी भी स को सवाश म नहीं जान सकता। स भले ही सूय
के समान हो, िक ु सूय का काश ने िवहीन के काम नहीं आता।
–साधन–त

70. गत िभ ता एक–दू सरे की पूरक है । –मंगलमय िवधान

71. जो िकसी की दासता म बँ धा है , वही िकसी को दास बनाने के यास


म लगा है । –जीवन–पथ

72. यह कैसी िवड ना है िक कोई भी मानव व ु, , अव था आिद


की दासता को सुरि त नहीं रख पाता अथात् िजसकी दासता
ीकार करता है , वह नहीं रहता, केवल दासता ही रह जाती है।
–मानव–दशन

73. अशा नाश होती है िन ामता से, भय नाश होता है िनम हता से
और द र ता नाश होती है िनल भता से। –संतवाणी 8

74. अपना स ान तथा शा सुरि त रखने म दू सरों से आशा करना


माद ही है । शा िन ामता म और स ान असंगता म है।
–संतप ावली 2

75. जो मनु अपने दोष की ओर ान न दे कर दू सरों को दोषी मानता


है और इस ाल से िक 'यहाँ मेरा आदर नहीं है, मेरे साथ लोग
वहार ठीक नहीं करते ' एक जगह छोडकर दसरी जगह जाता है ,
:: 360 ::
ांितकारी संतवाणी

उसको वहाँ भी आदर नहीं िमलता; ोंिक दू सरों से सुख चाहने वाले
मनु का कोई भी आदर नहीं करता। –संत–सौरभ

76. आदर तथा ार की भूख ािणमा को है और उसके . आदान–


दान की साम मानव मा म है । पर ु िकसी गुण–िवशेष के
दशन िबना आदर तथा ार दे ने की अिभ िच नहीं होती। मानव यह
भूल जाता है िक गुणों के आधार पर िदया हआ आदर तथा ार
अपनी िनबलता का प रचय है, आदर तथा ार नहीं।
–दशन और नीित

77. ाय: दे खा जाता है िक िजसके पास धन नहीं है, वह बाहर से अपने


शरीर को िजतना सजाता है , धनी आदमी उतना नहीं सजाता; ोंिक
जो यो ता िजसम सचमुच होती है , उसे उसका दशन करने का
शौक नहीं होता। वह तो उसका भाव बन जाता है । –संत–सौरभ

78. अगर हम शरीर को जगत् की मरजी पर छोड़ द और अपने को भु


की मरजी पर छोड़ द तो जीवन की िजतनी सम ाएँ ह, वे सब हल
हो सकती ह। –संतवाणी 2

79. जो ‘ि याश ' उपभोग म य नहीं होती, वही सेवा म य होती


है । जो ' ीित' िकसी व ु म आब नहीं होती, वही ेमपा
(सवसमथ भगवान्) तक प ँ चती है । जो ' ान' पदाथ के उपाजन म
य नहीं होता, वही परमत से अिभ होता है। –स –समागम 2

80. ाकृितक िनयम के अनुसार ा ' िकसी अ की नहीं होती, ुत्


उसी की होती है , जो िन ा है । 'कामना' उसी की होती है,
िजसका भास हो, पर अ िन न हो, और 'आव कता' उसी
की होती है , िजसका त अ है, पर भास नहीं। –िच शु
कीण

81. संसार की दासता मन से िनकाल दो, यही ' ाग' है । सं सार से अपना
मू बढ़ा लो, यही ‘तप' है । सब कार से ेमपा के हो जाओ, यही
'भ ' है । अपनी स ता के िलए िकसी अ की ओर मत दे खो,
यही 'मु ' है । –स –समागम 2

82. भगवान् ारे लग, उनकी याद बनी रहे , मन लग जाए –इसी का नाम
'भजन' है । यही तो 'भ ' है । परिहत का भाव हो. सबके साथ
स ावना हो –यही तो 'सेवा' है । कुछ नहीं चाहना ही तो ' ाग' है।
भगवान् के समपण हो जाना ही तो ' ेम' ह इसी का नाम स ा भजन
है । अपने थान पर ठीक बने रह तो सभी 'धमा ा' ह। काम छोटा–
बड़ा कोई नहीं है । अपने वणा म के अनुसार सही बना रहे –यही
'धम' है । िवचारपूवक सबसे असंग रहना ही स ा 'वेदा ' है । ा–
िव ासपूवक भगवान् की शरण हण करना ही 'वै वता' है ।
–संत–उ ोधन

83. संसार से सुख की आशा के रहते ' ाग' नहीं होता। ममता के रहते
'िवकार' नहीं िमटते। कामनाओं के रहते 'शा ' नहीं िमलती। चाह–
रिहत ए िबना 'योग' की िस नहीं िमलती। असंगता के िबना ‘बोध'
नहीं हो सकता। आ ीयता के िबना ' ेम' की ा नहीं हो सकती।
ये सब बात ुव स ह। या कहो िक भु का ऐसा कुछ िवधान ही है ।
–संत–उ ोधन

84. जीवनोपयोगी महावा (1) मेरा कुछ नहीं है , (2) मुझे कुछ नहीं
चािहए, (3) भु ही अपने ह, और (4) सब कुछ भु का ही है।

गत स ि के समान सामूिहक स ि की सुर ा अिनवाय है


और उसका सदु पयोग सावधानीपूवक करना है। िक ु सुख–भोग
की ि से िकसी भी स ि का य नहीं करना है , िहत की ि से
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ांितकारी संतवाणी

करना है। िकसी को हािन प ँचाकर िकसी की सेवा करना, सेवा नहीं
है, अिपतु भोग है। भोग के राग का नाश करने के िलए मयािदत भोग
करना है। यिद िवचारपूवक भोग–वासना न हो जाए, तो भोग– वृि
अपेि त नहीं है। भोग की वा िवकता जानने के िलए ही मयािदत
भोग अपेि त है। अतः व ुओं का स ादन यों की सेवा म है,
अपने सुख–भोग म नहीं। ाथ–भाव का अ ए िबना िनल भता
की अिभ नहीं होती और उसके िबना द र ता का नाश नहीं हो
सकता, यह िनिववाद िस है।

दय–उ ार

 शरीर सदै व मृ ु म रहता है और म सदै व अमर म रहता ँ , यह मेरा


प रचय है । – बोधनी
 'अरे दु िनया के दु खयो! अब दे र मत करो। ाकुल दय से आन घन
भगवान् को बुलाओ। वे अव आएँ गे, आएँ गे, आएँ गे।' –संतप ावली 1
 'हे पिततपावन सवसमथ भगवान्! आप अपनी ओर दे ख अपने इस पितत
ाणी को अपनाइए, िजससे इसका उ ार तथा आपका नाम साथक हो।'
–संतप ावली ।
 'तुम यह बात अपने मन से सदा के िलए िनकाल दो िक मेरे समीप आने
पर ही मेरी सेवा होगी। तुम िजतना अपने को सु र बना लोगे, उतनी ही
मुझे स ता होगी, और वही मेरी स ी सेवा होगी।' –संतप ावली 2
 'वा व म तो मानवमा की अनुभूित ही मानव–सेवा–संघ का सािह
है।' –पाथेय
 िजसने जाने ए असत् के ाग ारा असाधन का अ कर साधन–
परायणता ा की, उसने तो मेरी बड़ी ही सेवा की है । जो अपने िलए
तथा जगत् के िलए एवं ारे भु के िलए उपयोगी है , वही मुझे परम ि य
है। –पाथेय
दय–उ ार

 'तुम कभी अपने प को मत भूलो। यही मेरी सव ृ सेवा है ।


–पाथेय
 'गीता के रचियता से मेरा बड़ा भारी स है । वे मेरे बड़े िम ह। म
गीता का बड़ा आदर करता ँ ; ोंिक वह मेरे दो की बातचीत है ।'
–संतवाणी 7
 'लोग अभी से कहने लगे िक शरणान का एक दशन है। शरणान का
वही दशन है , जो सबका दशन है । अपने दशन म ा कर लो,
शरणान का दशन आपने जान िलया। आप शरणान के दशन पर
ा करना चाह और अपने दशन म अ ा कर तो आपने शरणान
के दशन को नहीं समझा। शरणान का दशन केवल इतना ही है िक हर
भाई, हर बहन अपने दशन पर अिवचल आ था करे ।' –संतवाणी 4
 'मेरा बचा आ काम है –सोई ई मानवता को जगाना।' –संतवाणी 3
 'म अमर ँ यार। मेरा यह शरीर न रहे , पर मेरे अनेक शरीर ह, उनम
िमलता र ँ गा।' –स –जीवन–दपण
 'अगर आपने हमारी बात सुनी है तो सच मािनए िक आपको अपने िलए
िकसी िभ गु की आव कता नहीं होगी।' –संतवाणी 4
 'जो ाणी सब कार से भु के होकर रहते ह, वे मेरे और म उनके
सवदा संग ँ । –संतप ावली 2
 'म सबके साथ हमेशा र ँ गा। िजतने भी शरणागत ह, उन सबसे म
अिभ ँ । िजतने भी ममता–रिहत ह, उन सबके साथ ँ। यह मत
समझना िक म नहीं ँ । म सव सबके साथ मौजूद ँ।'
–स –जीवन–दपण

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ांितकारी संतवाणी

मानव सेवा सं घ के काशन

1. स समागम भाग–1 19. स प ावली भाग–3 (साधन


सू रािश)
2. स समागम भाग–2
20. जीवन दशन भाग–1
3. स समागम भाग–3
21. जीवन दशन भाग–2
4. स वाणी भाग–1
22. िच शु भाग–1
5. स वाणी भाग–2
23. िच शु भाग–2
6. स वाणी भाग–3
24. जीवन पथ
7. स वाणी भाग–4
25. मानव की माँ ग
8. स वाणी भाग–5 (क)
26. मानव दशन
9. स वाणी भाग–5 (ख)
27. मूक स ंग और िन योग
10. स वाणी भाग–6
28. मानवता के मू ल िस ा "
11. स वाणी भाग–7
29. स ंग और साधन
12. स वाणी भाग–8
30. साधन त
13. ो री (स वाणी)
31. साधन ि वेणी
14. स सौरभ (स वाणी)
32. दशन और नीित
15. स उ ोधन
33. दु :ख का भाव
16. ेरणा पथ
34. मंगलमय िवधान
17. स प ावली भाग–1
35. जीवन िववेचन भाग–1(क)
18. स प ावली भाग–2
36. जीवन िववेचन भाग–1(ख)
मानव सेवा संघ के काशन

37. जीवन िववेचन भाग–2 48. पथ दीप

38. जीवन िववेचन भाग–3 49. ाथना तथा पद

39. जीवन िववेचन भाग–4 50. म की खोज

40. जीवन िववेचन भाग–5 51. जीवन िववेचन भाग–6 (क)

41. A Saint's Call to Mankind 52. जीवन िववेचन भाग–6 (ख)

42. Sadhna Spotlight by a Saint 53. जीवन िववेचन भाग–7 (क)

43. संत जीवन दपण 54. जीवन िववेचन भाग–7 (ख)

44. मानव सेवा संघ का प रचय– 55. ा कारी स वाणी


आचार संिहता सिहत
56. Revelation of the
45. साधन िनिध Spiritual Path

46. पाथे य भाग––1 57. Ascent Triconfluent

47. पाथे य भाग–2

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