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संकलनकता
िपन : 132001
• मू :
ा थन
ॐ आन ! ॐ आन !! ॐ आन !!!
उपोद् घात
“ ा कारी स वाणी” के प म यह सं कलन संघ सािह के
अ ेता–साधकों के सम ुत है । इसम आज के युग के महान ा ा;
मानवता के पुजारी, अन के िन सखा, हम सबके अपने, योगिवत्,
जीव ु और भगव महापु ष की अमरवाणी का िवषयानुसार चयन
एवं संकलन है । संकलनकता ी राजे धवन से अिधकांश पाठक एवं
अ ेता प रिचत ह। प रिचत कराना समीचीन होगा िक आपने लीन पू
ामी रामसुखदास जी महाराज की ाय: सभी पु कों को िलिपब एवं
स ािदत कर कािशत कराया है ।
पू ामी रामसुखदास जी महाराज मानव सेवा संघ के णेता स
की अमर वाणी के अन ेमी थे। ामी शरणान जी महाराज के दशन
को वे 'सातवाँ दशन' (मानव दशन) कहकर अिभिहत करते थे। अपने
प रपा म रहने वाले प रकर समु दाय को वे ाय: ामी शरणान जी
महाराज की पु क पढ़ने की ेरणा िदया करते थे। वे शरणान जी
महाराज की वाणी को 'अका ' मानते थे।
. ी राजे धवन पू०पा० ामी शरणान जी महाराज की िद
वाणी के भी अ े अ ेता ह। ु त पु क म आपने मानव सेवा संघ के
णेता स के अमृ त–वचनों को उनकी िविवध पु कों से चुनकर
िवषयानुसार पाठकों के लाभाथ एक थान पर एकि त कर िदया है । आशा है
िक पु क िज ासु साधकों के िलए उपयोगी िस होगी।
इसी स ावना के साथ ! शुभे ु
बस पंचमी
ामी अ ै त चैत
िदनाँक 20–01–2010
मानव सेवा संघ
वृ ावन
िवषय–सूची
संसार (सृ ि , िव ) .................... 256 मानव सेवा संघ के काशन ..... 365
अ य (कुछ न करना)
14. करने से जो कुछ िमलता है , वह सदै व नहीं रहता। जो सदै व नहीं रहता,
वह मानव–जीवन का चरम ल नहीं हो सकता। –मूक स ंग
:: 2 ::
ांितकारी संतवाणी
21. िजसे अपने िलए कुछ भी करना शेष नहीं है , वही िव – ेम, आ –रित
तथा भु– ेम से प रपूण होता है , जो वा िवक जीवन है ।–मूक स ं ग
24. 'करने के आधार से िकसी कार उनको नहीं पाया जा सकता; ोंिक
करने वाले मजदू र होते ह। – संत प ावली 1
26. िजसे कुछ नहीं चािहए, उसे अपने िलए कुछ नहीं करना है। िजसे –
कुछ नहीं करना है , उसका दे हािद व ुओं से तादा नहीं रहता।
– मूक स ंग
–मूक स ंग
35. िजसे अपने िलए कुछ भी करना शेष नहीं है, वही वा व म कत िन
हो सकता है । जब तक साधक को अपने िलए कुछ करना है , तब तक
39. यह मान लेना िक हम जब कुछ करगे, तभी कुछ िमलेगा, िबना िकए
कुछ नहीं िमलता है –इस धारणा म आ था करना मानव को अिवनाशी
40. िजसका कुछ नहीं है और िजसे कुछ नहीं चािहए, उसे अपने िलए कुछ
42. िजस कार फाँ सी का कैदी सभी सजाओं से छूट जाता है, उसी कार
स ावपूवक समपण करने वाला ‘करने' से छूट जाता है । ेम पा ऐसे
नहीं। –स –समागम 1
असाधन
अहम्
10. शरणागित के िबना सीिमत अहं भाव का सवाश म नाश नहीं होता।
–मानव–दशन
13. 'यह' से िवमुख होते ही 'म' 'वह' से, जो से अतीत है, अिभ हो
जाता है । –मानव की माँग
–मानव–दशन
29. हम अपने म से म सविहतै षी ँ ', 'म अचाह ँ ' अथवा —'मुझे अपने
िलए संसार से कुछ नहीं चािहए'–यह अहं भाव भी गला दे ना चािहए।
यह तभी स व होगा, जब सविहतकारी वृि होने पर भी अपने म
अहम्
34. िजसे अपने म संयम, सदाचार तथा सेवा तीत होती है, वह वा वम
संयमी, सदाचारी तथा सेवक है ही नहीं। सवाश म असंयम का अ
संयम के अिभमान को खा लेता है और िफर सदाचार तथा सेवा तो
रहती है , पर सदाचारी तथा सेवक नहीं रहता। 'सेवक' से रिहत जो
:: 14 ::
ांितकारी संतवाणी
आ था
7. आ था ' ' के ारा होती है । उसके िलए कोई कारण अपेि त नहीं है ।
–मानव–दशन
आ कता–ना कता
उ ित
1. शारी रक उ ित के िलए 'सदाचार' परमाव क है, मानिसक उ ित
के िलए 'सेवा' परमाव क है , आ क उ ित के िलए ' ाग'
परमाव क है । –स –समागम 1
7. अगर तुम दू सरों के िलए बोलते हो, दू सरों के िलए सुनते हो, दू सरों के
िलए सोचते हो, दू सरों के िलए काम करते हो तो तु ारी भौितक उ ित
होती चली जाएगी। कोई बाधा नहीं डाल सकता। अगर तुम केवल
अपने िलए सोचते हो तो द र ता कभी नहीं जाएगी। –संतवाणी 8
उपदे श
1. उपदे श करने की जो सेवा है , वह सबसे नीचे दज की है। –संतवाणी 4
:: 24 ::
ांितकारी संतवाणी
एकता
2. बा िभ ता के आधार पर कम म िभ ता अिनवाय है , पर आ रक
एकता होने के कारण ीित की एकता भी अ आव क है । ने से
जब दे खते ह, तब पैर से चलते ह। दोनों की ि या म िभ ता है, पर वह
िभ ता ने और पैर की एकता म हे तु है । उसी कार दो यों म,
दो वग म, दो दे शों . म एक–दू सरे की उपयोिगता के िलए ही िभ ता
है। –मानव–दशन
कत
काम
कामना
1. जो कुछ नहीं चाहता, वही े म कर सकता है और जो कुछ नहीं चाहता,
वही मु हो सकता है । –मानव की माँग
11. कामना यिद पूरी होती है तो िवधान से, कामना से नहीं। व ु यिद
रहती है तो िवधान से, ममता से नहीं। –संतवाणी 6
13. जो कुछ नहीं चाहता, वही अभय होता है और दू सरों को अभय बनाता
है। –संतवाणी 7
:: 38 ::
ांितकारी संतवाणी
14. हे ारे , तुम अपने हो। तुम से और कुछ नहीं चािहए। ों नहीं चािहए
? ोंिक अपनेपन से बढ़कर भी कोई और चीज होती तो हम ज र
माँगते। –जीवन–पथ
54. िजसे कभी भी कुछ नहीं चािहए, वही आ काम है। आ काम होते ही
भोग, मोह और आस का नाश और योग, बोध तथा ेम की ा
तः होती है । –पाथेय
61. अपने को दे ह मान लेने पर कामनाओं का उदय होता है; ोंिक ऐसी
कोई कामना नहीं है , िजसका स दे ह से न हो। –जीवन–दशन
69. ऐसा कोई दोष है ही नहीं, िजसके मूल म कोई कामना–उ ि न हो,
और ऐसा कोई दु ःख है ही नहीं, िजसके मूल म कामना–अपूित न हो।
–िच शु
82. िजसका कुछ नहीं है , सचमुच उसको कुछ नहीं चािहए। ममता से ही
कामना का ज होता है । –संतवाणी 8
कृपा
गु ण–दोष
24. गुणों के अिभमान ने ही दोषों को नाश नहीं होने िदया। –संतप ावली 1
27. दोष उसे नहीं कहते, िजसे दोषी यं नहीं जानता। दोष और िनद षता
का िववेचन िनज ान के काश म ही स व है। िकसी मा ता तथा
था के आधार पर िनद षता तथा दोष का िनणय करना वा िवक
िनणय नहीं है । –मानव की माँग
30. जो िकसी का बुरा नहीं चाहता, उसके सभी दोष त: िमट जाते
–िच शु
37. यह िनयम है िक वही दोष सुरि त रहता है , िजसे हम सहन करते रहते
ह। –जीवन–दशन
41. िजस गुण के साथ अहम् िमल जाता है , वह गुण भी दोष हो जाता ह।
–जीवन–दशन
49. वा िवक गुणों का ादु भाव होने पर उनका भास नहीं होता। अत: जब
तक गु णों का भास हो, तब तक समझना चािहए िक गु णों के पम
कोई दोष है । –िच शु
50. िजन वृि यों से िकसी की ित हो, िकसी का अनादर हो, िकसी .. का
अिहत हो, वे सभी ‘दोष' ह और िजन वृि यों से दू सरों का िहत, लाभ
एवं स ता हो, वे सभी 'गु ण' ह। –िच शु
गुण–दोष
51. सवाश म िकसी भी दोष के िमट जाने पर सभी दोष िमट जाते ह और
सवाश म िकसी भी गु ण के अपना लेने पर सभी गुण त: आ जाते ह।
–िच शु
64. अपने म िनद षता का भाव थािपत करने पर सभी दोष यं िमट जाते
ह। दोषों का स ाव दोषों को िनम ण दे कर बुलाने के िसवाय और
कुछ अथ नहीं रखता। –स –समागम 1
68. सभी दोष दोषी की स ा के िबना िनज व होते ह। कोई भी दोष दोषी
की कृपा के िबना जीिवत नहीं रह सकता। अत: िजस काल म दोषी
अपनी ि से दोष को दे खकर, अपने को दोष से असं ग कर लेता है ,
बस उसी काल म दोष सदा के िलए िमट जाता है। पर ु जो दोषी दोष
को दे खकर ऐसा स ाव करता है िक म दोषी ँ , उसकी स ा पाकर
दोष दोषी पर शासन करने लगता है । –स –समागम 2
70. ऐसा कोई दोष नहीं है , िजसको ाणी ने यं नहीं बनाया है। शरीर
आिद व ुओं के आधार पर स ता खरीदने की भावना सभी दोषों
का मूल है । –स –समागम 2
79. िजसे अपनी पूित के िलए समाज के पीछे दौड़ना पड़ रहा है , उसे
समझना चािहए िक अभी मे रे जीवन म गुणों का िवकास नहीं आ।
–मानव की माँ ग
गु
1. जो िकसी का भी गु बनेगा, वह अपना गु नहीं बन सकता और जो
अपना गु नहीं बन सकता, वह जगत् का गु नहीं बन सकता।
– संतवाणी 4
2. वा व म यह स है िक हम अपने गु आप बन जाते तो िस
ज र हो जाती । तो अपना गु बनने के िलए ा करना पड़ता है ?
अपने जाने ए असत् का ाग करना पड़ता है, अपने िव ास म
अिवचल ा करनी पड़ती है और िमले ए का सदु पयोग करना
पड़ता है। –संतवाणी 4
22. ‘नेता’ उसे कहते ह, जो दोष को दे खकर दु ःखी हो, 'गु ' उसे कहते ह,
जो दोष को िमटाने का उपाय जानता हो और 'शासक' उसे कहते ह,
जो जाने ए उपाय पर अमल कराने म समथ हो। –मानव की माँ ग
24. अपना नेता, अपना गु तथा अपना शासक वही हो सकता है, जो
अपने ित ाय तथा दू सरों के ित मा तथा ेम करने म समथ है ।
–मानव की माँ ग
गु
38. संच पूिछए, हमारे यहाँ जो गु की मिहमा का वणन िकया जाता है, वह
गु िववेक ही है । –संतवाणी 4
िच न
जीवन
13. जो 'है', वही जीवन है । जीवन 'है ' म है , 'नहीं' म नहीं है । –संतवाणी 5
जीवन
17. दशन अनेक यानी ि कोण अनेक, पर जीवन एक। जीवन अनेक नहीं
है, जीवन एक है और वही जीवन हम सबको िमल सकता है, और उसी
के िलए यह मानव–जीवन िमला है । –संतवाणी 3
ान
23. ान उसे नहीं कहते, जो जानने म आता है, अिपतु उसे कहते ह,
िजससे जाना जाता है । िजससे जाना जाता है , वह िकसी म की
ान
ाग
17. यिद कोई साधक अपने को सेवा करने म असमथ मानता है तो उसे
ाग को अपना लेना चािहए। ाग के अपना लेने पर सेवा, पूजा तथा
ेम का साम तः आ जाता है । –िच शु
धन
9. िस ा तः स ि न रा गत है , न गत। सं हीत स ि उ ीं
का भाग है , जो रोगी, बालक तथा सेवा–परायण ह एवं स की खोज म
रत ह। –मानव–दशन
20. िजसके पास धन न हो, उसे दान करने का संक नहीं उठने दे ना
चािहए। ......... दान तो सं ह करने का टै है । –स –सौरभ
धम
ान
1. ान से मन इसिलए ऊबता है िक तुम ‘करते हो', 'होता' नहीं ान।
–संतवाणी 3
ाय
परदोषदशन
1. हम न िबगड़ते तो दु िनया न िबगड़ती यानी दु िनया म बुराई नहीं
दीखती। हमारी ही बुराई दु िनया म िदखाई दे ती है , ऐसा म मानता ँ।
–संतवाणी 3
9. बुराई करना छोटी बुराई है , दू सरों का बुरा चाहना उससे बड़ी बुराई है
और िकसी को बुरा समझना सबसे बड़ी बुराई है । –साधन–ि वेणी
13. िजस समय अपने दोष का दशन हो जाए, समझ लो िक तुम जैसा
िवचारशील कोई नहीं। और िजस समय परदोष–दशन हो जाए, उस
समय समझ लो िक हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं। – ेरणा–पथ
15. अपने म गुणों का भास होना तो अपने िलए अनुपयोगी होना है। कारण
िक गुणों का आ य लेकर अहं भाव– पी अणु पोिषत होता है और
गुणों का भास परदोष–दशन को ज दे ता है , जो िवनाश का मूल है।
–साधन–िनिध
17. अपना गुण और पराया दोष दे खने के समान और कोई दोष नहीं है।
–दु ःख का भाव
18. पराये दोष दे ख ाणी अपने दोषों को सहन करता रहता है। इस कारण
परदोष–दशन का बड़ा ही भयंकर प रणाम यह होता है िक दोषदश
िनज दोषों से िथत नहीं होता। –दु ःख का भाव
24. वैरभाव के समान और कोई अपना वैरी नहीं है, िजसकी उ ि दू सरों
को बुरा समझने से होती है । अत: िकसी को बुरा समझना अपना बुरा
करना है। –दशन और नीित
परमा ा
20. जो अपने ह ही, भला वे कभी अपने को भूल पाते ह ! उनम भूल की
ग भी नहीं है । िक ु उनके िदये ए सीिमत सौ य को पाकर
साधक ही उ भूलता है । –पाथेय
31. िन जीवन अिन जीवन पर शासन नहीं करता, ुत् े म करता है।
शासन वह करता है , जो सीिमत होता है । िन जीवन असीम है।
अथवा यों कहो िक शासन वह करता है , िजसकी स ा िकसी संगठन
से उ होती है । –स –समागम 2
35. जो िकसी का नहीं तथा िजसका कोई नहीं, उसके भगवान् : अपने –
आप हो जाते ह; ोंिक वे अनाथ के नाथ ह। –स –समागम 2
परमा ा
25. और सब कुछ दे खना छोड़ दो, भगवान् दीख जाएँ गे......... सब कुछ
दे खना छोड़ने का अथ आँ ख ब कर लेना नहीं है । इसका अथ है
दे खने म िच न लेना, संसार से पूण असं गता। –स –जीवन–दपण
28. िजस समय आप अकेले हो जाएं गे, वे िबना बुलाए आएँ गे। यिद उनसे
िमलना चाहते हो तो अकेले हो जाओ। –स –समागम 1
32. कृपया कम यों, ाने यों एवं मन–बु आिद सभी स यों से
कह दो िक अब हम अपने ेम–पा से िमलगे। आप लोगों की कृपा से
िवषयों का यथाथ अनुभव हो गया। अब हम िवषयों से तृ हो चुके ह।
कृपया आप भी आराम कीिजए। –स –समागम 1
48. िजसको तुम ा करना चाहते हो, उसकी आव कता अनुभव करो।
उसको बलपूवक पकड़ने की कोिशश मत करो, केवल आव कता
अनुभव करो। –संतवाणी 6
52. आपके और परमा ा के बीच संसार पदा नहीं है, उससे स पदा
है। – संत–उ ोधन
29. गहराई से दे खए, ऐसी कोई प र थित नहीं होती, िजससे उ तथा
िन अ प र थित न हो अथात् ेक व ु तथा प र थित म
आब ाणी अपने से उ तथा िन का तः अनुभव करता है । इसी
कारण उ को दे ख दीनता म और िन को दे ख अिभमान म आब
हो जाता है । दीनता का ब न ' ाग' से और अिभमान ब न 'सेवा' से
िमट जाता है अथात् ऐसी कोई िनबलता नहीं जो ाग से, और ऐसा
कोई अिभमान नहीं जो सेवा से िमट न जाता हो। –स –समागम 2
वृि –िनवृि
ाथना
10. जब साधक ल से िनराश नहीं होता और अपने ारा उसे पूरा नहीं
कर पाता, तब त: एक वेदना जा त होती है, जो वा िवक ाथना
का प धारण कर लेती है । वैधािनक ाथना अव पूरी हो जाती है,
यह सवसमथ सवाधार की मिहमा है । –पाथेय
ेम
17. अहम् का नाश ए िबना भेद का नाश नहीं होता और उसके ए िबना
अन के ेम की ा नहीं होती। –संत–उ ोधन
26. िजसके जीवन म े म का ादु भाव हो जाता है, उसके जीवन म भोग,
मो आिद कोई भी कामना शेष नहीं रहती। –मानव की माँ ग
49. िजसका कुछ नहीं है और िजसे कुछ नहीं चािहए, वही ारे भु को
अपना मान सकता है , और उसी को ेम की ा होती है।
–संतप ावली 2
102. ि यता िन ामता के िबना िवभु नहीं होती। सीिमत ि यता आस यों
की जननी है और असीम ि यता म ही े म का ादु भाव होता है , जो
वा िवक जीवन है । –मानवता के मूल िस ा
104. िजसे कुछ नहीं चािहए और िजसके पास अपना करके कुछ नहीं है,
वही ेम दे सकता है । और िजसके पास सब कुछ है , वही केवल ेम
से स हो सकता है । इस ि से दे खा जाए तो आपके ेम का पा
कौन होगा ? िजसके पास सब कुछ हो और िजसे कुछ नहीं चािहए।
और ेम दे कौन सकता है ? िजसके पास कुछ न हो और िजसे कुछ
नहीं चािहए। ....... तो ेम दे ने के िलए दो बात ज री हो गयीं –मेरे
पास मेरा करके कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चािहए। और तीसरी
बात –िजसको ेम दे ना है , वही मेरा अपना है, और कोई मेरा अपना
नहीं है। –संतवाणी 8
107. ेमी का. मन, इ याँ आिद कुछ भी भौितक नहीं रहते; ोंिक
भगवान् यं िजस िच य ेम की धातु से बने ह, उसी से उनका ेमी,
उनका िद धाम और सब कुछ बने ह। –संत–सौरभ
बुराई (परदोषदशन)
15. जो िकसी के साथ बुराई नहीं करता, उसका भला अपने–आप हो जाता
है। –दशन और नीित
18. ाकृितक िनयम के अनुसार कोई िकसी के साथ भलाई तथा बुराई करे
तो उसका भाव सारे िव के साथ हो जाता है । इतना ही नहीं, ेक
वृि का भाव अ खल लोक–लोका र तक प ँ चता है ; ोंिक सब
कुछ िकसी एक से ही स ा पाकर एक म ही थत है अथात् सब का
काशक एक ही है , जो अन है । ाणी जो कछ करता है . वह उसी
के ित होता है और उसकी िति या भी उसी से होती है।
–िच शु
23. बुराई करने के िलए हम अपने को यं बुरा बनाना पड़े गा। िकसी के
ारा की ई बुराई से हमारी उतनी ित नहीं हो सकती, िजतनी यं
को बुरा बनाने से होती है । –मानवता के मूल िस ा
:: 148 ::
ांितकारी संतवाणी
10. िजसको भगवान् का होकर रहना है, उसके िलए भ होना अिनवाय
है। यह िनयम है िक जो िजसका भ हो जाता है, उसको उसके िबना
कल नहीं पड़ती। उसम ाभािवक ाकुलता उ हो जाती है।
–स –समागम 2
:: 150 ::
ांितकारी संतवाणी
भय
1. ाकृितक िनयमानुसार भयभीत उ ीं को होना पड़ता है, जो अपने से
िनबलों को भय दे ते ह। –संत–उ ोधन
20. अ ायकता िकतना ही सबल हो, उससे भयभीत नहीं होना है। उसके
ाव को ीकार नहीं करना है । यहाँ तक िक स ता और
धीरजपूवक अपने ाणों तक की आ ित दे कर अ ाय की अ ीकृित
का प रचय दे ना है । –दशन और नीित
:: 154 ::
ांितकारी संतवाणी
भोजन
मन
1. जगत् म जो भु का दशन नहीं कर सकता, उसका मन संसार से कभी
नहीं हट सकता। –संतवाणी 7
:: 156 ::
ांितकारी संतवाणी
26. िजनसे े ष है, उनसे ेम करो। िजनसे राग है, उनका ाग करो। ऐसा
करने से मन शा हो जाएगा। –स –समागम 1
34. मन दपण की भाँ ित अपनी दशा का यथाथ ान कराता है। अत: उसे
बुरा समझना या उसकी िन ा करना उिचत नहीं है ।
–स वाणी ( ो र)
ममता
13. मेरा कुछ नहीं है , मुझे कुछ नहीं चािहए, यह िनणय मानव को अपने ही
ारा करना है । –मूक स ंग
21. 'मेरा कुछ नहीं है ' –यह ान ‘पर' और ' ' म िवभाजन कर दे ता है ,
िजसके होते ही िच य अिवनाशी जीवन से त: एकता होती है ।
–संतप ावली 2
43. संसार म मेरा कुछ नहीं है –ऐसे िनमम होने से तु ारे ऊपर संसार का
कोई टै नहीं रहे गा। िजसके पास कुछ नहीं, उस पर कोई टै
होता है ा? –संतवाणी 8
45. आजकल लोग ा कहते ह ? ममता कैसे छूटे गी, कामना कैसे िमटे गी
? अजी, ममता अगर अपने–आप छूटती, तो होती ही नहीं। ों ? जो
चीज आपने बनायी है , उसको कोई और नहीं िमटा सकता।
–संतवाणी 6
:: 168 ::
ांितकारी संतवाणी
47. वह व ु तो अपने–आप िमटे गी, िजसम ममता है। पर, ममता अपने–
आप नहीं िमटे गी।..... अपनी ीकृित का नाश अपने ही ारा होगा।
–संतवाणी 5
49. अगर िकसी की गाड़ी फँस गयी हो, तो फँस रही है गाड़ी और दु :खी है
वह यं। ों ? यह ममता का भाव है । –संतवाणी 5
52. िजनसे ममता नहीं है , उनका सुधार दु लार तथा ारपूवक ही स व है,
उपे ा ारा नहीं। िजनसे ममता है, उनका सुधार मोहरिहत होने से
स व है , ुिभत होने से नहीं। अपने िच का सु धार अपने ित घोर
ाय तथा असहयोग से ही स व है , दु लार तथा ार से नहीं।
–िच शु
मानव
मानव
16. कोई अपने को मनु कहता है तो उसे िवचार करना होगा िक मनु
मानने से िजस कत की ेरणा िमलती है , उस कत के समूह का
नाम ही मनु आ, िकसी आकृित का नहीं। –मानव की माँग
18. जीवन म दो बात सभी को अनुभव होती ह –एक तो 'म कर रहा ँ '
और दू सरा ‘ त: हो रहा है । इन दोनों का समूह ही मानव–जीवन है ।
–मानव की माँ ग
27. िमले ए शरीर का नाम मानव रखना भूल है ; कारण िक शरीर कम–
साम ी है , और कुछ नहीं। –साधन–िनिध
68. आपका मानव–जीवन बड़ा ही अनुपम जीवन है , अद् भुत जीवन है।
ों? इसी जीवन म स ित होती है । इसी जीवन म दु :ख–िनवृि होती
है। इसी जीवन म परमान की ा होती है। –संतवाणी 5
मानव–सेवा–संघ
मु (क ाण)
14. मु मभ और भ म मु ओत ोत ह। कारण िक ान और
ेम म िवभाजन नहीं होता। –संतप ावली 2
मु (क ाण)
15. इ ाएँ रहते ए ाण चले जाएँ तो, ‘मृ ु हो गयी, िफर ज लेना
पड़े गा। और ाण रहते इ ाएँ चली जाएँ , 'मु ' हो गयी। जैसे बाजार
गए, पर पैसे समा हो गए और ज रत बनी रही तो िफर बाजार
जाना पड़े गा। और यिद पै से रहते ज रत समा हो जाए तो बाजार
काहे को जाना पड़े गा ? –स वाणी ( ो र)
23. अगर तु यह अनुभव हो जाए िक मेरा कुछ नहीं है , मुझे कुछ नहीं
चािहए, बस, मु हो गए। –संत–उ ोधन
मूक स ंग
11. िकसी काय के करते ए िकसी ऐसी बात की ृित आना, िजसका
स उस काय से नहीं है , यही 'जा त् का ' है। और वतमान
काय से स न रहे तथा अ काय की भी ृित न आए, यह
भीतर–बाहर का मौन ही 'जा त् की सुषु ' है । –मानव की माँ ग
23. मूक स ंग अकम ता, जड़ता एवं अभाव म आब नहीं होने दे ता,
अिपतु कत –परायणता, िच यता एवं पूणता से अिभ करता है ।
–मूक स ंग
28. मूक स ं ग कोई अ ास, अनु ान एवं मसा योग नहीं है , अिपतु
सहज तथा ाभािवक त: िस त है । िन ा की ा और
परा य की िनवृि मूक स ंग म ही िनिहत है। –मूक स ंग
51. हम थोड़ी दे र के िलए, दो, चार या दस िमनट, इससे ादा नहीं, िबना
कोई काम करे अकेले रहने का भाव बनाऐं। यह कोिशश कर िक
दस िमनट तक हम कोई काम नहीं करगे, अकेले रहगे, िबना मान
और िबना साथी के रहगे, शरीर को लेकर नहीं। हम जो अपने ब त–से
साथी मालू म होते ह, ब त–सा सामान मालूम होता है, उसके िबना
रहगे। इसका अथ यह नहीं है िक हम सािथयों को नाराज कर द या
सामान को बरबाद कर द। ऐसा मेरा मतलब नहीं है। लेिकन थोड़ी दे र
:: 194 ::
ांितकारी संतवाणी
के िलए ऐसा अनुभव कर िक मान लो, हमारे पास हमारा शरीर भी नहीं
रहेगा, तब हम होंगे िक नहीं ? ऐसा अपने सामने रख।
–स वाणी 6
मृ ु
13. मरने से डरो नहीं और कुछ चाहो नहीं तो मरने से पहले अमर जीवन
िमलेगा, इसम स े ह नहीं है । –स वाणी ( ो र)
योग
राग– े ष
दशन नहीं होने दे ता, उसी कार राग दोष का दशन नहीं होने दे ता।
–दशन और नीित
राजनीित
33. पाट का ितिनिध बनकर जो काय िकया जाएगा, उससे केवल पाट
सु ढ़ होगी, का िनमाण नहीं होगा। यों के िनमाण के
िबना स ाई, ईमानदारी और िन ता का ादु भाव नहीं होता और न
ाथ–भावना िमटती है । –स –समागम 2
35. बाल–म र तथा शु ूषा–आ मों की सेवा करने वाले िव ानों के ारा
ही गवनमट का िनवाचन होना चािहए। जो उन िव ानों म से वीतराग
पु ष हों अथात् िजनका मोह न हो गया हो, उनको िवधान बनाने का
अिधकार होना चािहए।...... रा का कत तो केवल वीतराग पु षों के
बनाए ए िवधान का पालन करना है । –स –समागम 2
42. िजस कार पागल का थ शरीर भी कुछ काम नहीं आता, वही दशा
धमशू सा वाद की होगी। –स –समागम 2
रोग
4. ा का अनादर और अ ा का िच न, अ ा की िच और ा
से अ िच –यही मानिसक रोग है । –साधन–ि वेणी
19. िनि ता तथा िनभयता आने से ाणश सबल होती है, जो रोग
िमटाने म समथ है । उसके िलए ह र–आ य तथा िव ाम ही अचूक
उपाय है । –पाथेय
21. शरीर का पूण थ होना शरीर के भाव से िवपरीत है; ोंिक िजस
कार िदन और रात दोनों से ही काल की सु रता होती है, उसी
कार रोग और आरो दोनों से ही शरीर की वा िवकता कािशत
होती है । –स –समागम 1
24. रोग यही है िक ""म रोगी ँ । औषिध यही है िक 'म सवदा आरो ँ ';
ोंिक आरो ता से जातीय एकता है ।.......... यिद एक बार भी अपनी
पूरी श से यह आवाज लगा दो िक 'म आरो ँ ' तो रोग भाग
जाएगा। –स –समागम 1
33. रोग शरीर का अिभमान िमटाने के िलए आता है । िजस िदन शरीर का
अिभमान गल जाएगा, उस िदन रोग बुलाने पर भी नहीं आएगा; ोंिक
ल (उ े )
ल (उ े )
1. ल वह नहीं हो सकता, िजसका िवयोग हो और ल वह भी नहीं हो
सकता, िजसकी ा न हो सके। इस ि से कोई भी प र थित ल
नहीं हो सकती; पर ु ेक प र थित ल – ा का साधन हो
सकती है । –मानव की माँग
व ु
13. उ ई ेक व ु िव की ही स ि है ।
–दशन और नीित
32. िजसकी उ ि हो, िजसम प रवतन हो, िजसका िवनाश हो, उसको
व ु कहते ह। इस ि से यह सारा संसार एक व ु है । –संतवाणी 8
35. िमला आ अपने िलए उपयोगी नहीं होता, अिपतु दू सरों के िलए होता
है। –मानव–दशन
िववे क
5. िववेक–िवरोधी िव ास ा है , पर िव ास के िलए यह आव क
नहीं है िक िववेक का समथन हो। उ ईव ु, अव था आिद का
िव ास िववेक–िवरोधी है । –मानव–दशन
िव शा
िव ास
िव ाम
26. ऐसी कोई ‘गित' नहीं, िजसका उ म िव ाम न हो; ऐसी कोई ' थित'
नहीं, जो िव ाम से िस न हो; और ऐसा कोई 'िवचार' नहीं, िजसका
उदय िव ाम म िनिहत न हो।...... योग, ान तथा े म की ा िचर
िव ाम म ही िनिहत है । –िच शु
वै रा
शरणागित
22. कुछ न माँ गना अथवा कुछ न करना समपण है। केवल शा के
पुजारी ागपूवक त ान से शा पाते ह। केवल श के पुजारी
तप, योग, संयम आिद से श पाते ह। पर ु समिपत होने पर ाग
तथा तप ाभािवक हो जाते ह। अतः समिपत होने वाला श और
शा दोनों पाता है । –स –समागम 1
शरीर
14. यिद िकसी से कहा जाए िक सुवण के कलश म मल–मू ािद भरकर
और रे शम से ढककर ा उसे अपने पास रखना पस करोगे? तो
सभी भाई–बहन कह दगे, नहीं। िफर हम शरीर को सु र–सु र
अलंकारों एवं व ों से सु शोिभत ों रखते ह ? तो कहना होगा –
बु ज ान के िनरादर से। –मानव की माँ ग
28. शरीर की यथावत् दे खभाल तथा उसका सदु पयोग करती रहो। उससे
ममता तो है ही नहीं, पर उसकी सेवा अव करनी है । –पाथेय
37. तुम िकसी भी काल म शरीर नहीं हो, और न शरीर तु ारा है । शरीर
तो केवल संसार पी वािटका की खाद है , और कुछ नहीं। –पाथेय
38. शरीर चाहे जहाँ रहे , चाहे जैसा रहे , अथवा न रहे, उससे अपनी कोई
ित नहीं होती। –पाथेय
िश ा
संक
27. अपने पास अपना संक रखते ए पराधीनता से रिहत नहीं हो सकते,
जड़ता से रिहत नहीं हो सकते, अभाव से रिहत नहीं हो सकते।
–संतवाणी 4
संघष
4. िस े से व ु, व ु से , से िववेक और िववेक से सा
को अिधक मह दे ना है । उ े –पूित तथा संघष का अ एवं शा
की थापना करने के िलए उपयु म ीकार करना ेक मत,
स दाय, वग, समाज तथा दे श के यों के िलए अिनवाय है।
–दशन और नीित
संसार (सृ ि , िव )
है। जल– ि होने पर लहर–दि शेष नहीं रहती. िफर लहर म नाना
है, यह कैसे कहा जा सकता है ? –स –समागम 1
है, उससे खुश नहीं होता, उसके पीछे नहीं दौड़ता। जो अिकंचन और
अचाह है , उसे संसार पस करता है । –संतवाणी 8
स ंग (दे .मूक स ं ग)
18. अपना कुछ नहीं है , अपने को कुछ नहीं चािहए, अपने िलए कुछ नहीं
करना है –यह स ंग है । –मूक स ंग
स ं ग (दे .मूक स ं ग)
सदु पयोग
10. सुख का सदु पयोग 'सेवा' और दु :ख का सदु पयोग ' ाग' है।
–संतप ावली 1
18. हमको जो कुछ िमला है , वही हमारे िलए िहत का साधन है ; ोंिक
ाकृितक िवधान ायपूण है । हमको जो िमला है , उसका सदु पयोग
करने पर ही हमारा े मपा हम अव अपना ले गा।
–स –समागम 2
समाज
27. िजस के ारा िकसी का अनादर तथा ितर ार नहीं होता एवं
जो दु खयों को दे ख क िणत तथा सु खयों को दे ख स होता है ,
उसकी माँ ग समाज को सदै व रहती है । –दशन और नीित
साधक
24. जो िकसी से कुछ भी पाने की आशा करता है, वह साधक नहीं है,
अिपतु भोगी है । –िच शु
साधक
46. कारण का नाश होने पर भी काय की तीित होती है। िजस कार वृ
का मूल कट जाने पर भी उसकी ह रयाली कुछ काल तीत होती है ,
उसी कार असत् का ाग करने पर भी असत् के संग के भाव को
कुछ काल साधक अपने शरीर, इ य, मन, बु आिद म दे खता है
और भयभीत हो जाता है । इतना ही नहीं, अपने िकए ए असत् के
ाग म भी िवक कर बै ठता है । असत् का ाग वतमान की व ु है ;
पर ु उसके भाव के नाश म काल अपेि त है । अपने िनणय म
िवक करना भी तो असत् का ही सं ग है । जब साधक सावधानीपूवक
साधन
48. यह ीकार करना िक कोई और नहीं है , कोई गैर नहीं है ' –यही
साधक का जीवन है । –संतवाणी 6
साधन
13. जो नहीं करना चािहए, उसका ाग पहले ही करना पड़े गा। उसके
प ात् जो करना चािहए, उसकी अिभ आपके जीवन म तः
होगी और वही साधन आपका साधन होगा और उसी से आपको िस
िमलेगी। – ेरणा पथ
20. यिद भजन करके भगवान् से हम धन, स ान आिद कुछ माँ गते ह, तो
हमारा सा तो वह इ त पदाथ ही आ, भगवान् तो उसकी ा
के साधन ए। –संत–उ ोधन
30. साधन उसे नहीं कहते, िजसे साधक कर न सके और साधन उसे भी
नहीं कहते, िजसम साधक को िकसी कार का स े ह हो और साधन
उसे भी नहीं कहते, जो साधक को िचकर न हो। –पाथेय
59. िजस कार सभी िमठाइयों म िमठास चीनी की होती है , उसी कार
सभी साधनों म धानता ाकुलता की होती है। –स –समागम 1
61. उपासना करने से पहले उपासक को यह भली कार जान लेना चािहए
िक वह अपने को िनराकार मानता है अथवा साकार; ोिक साकार
मानकर िनराकार की उपासना नहीं कर सकता और िनराकार
मानकर साकार की उपासना नहीं कर सकता। उपासना तो वा वम
साधन
78. जो ाणी बाहरी साधनों म अपने को अिधक बाँ ध लेता है , उसम साधन
का िम ा अिभमान आ जाता है । बाहरी साधन िनबलताओं को ढक
दे ता है, िमटा नहीं पाता।........ िछपा आ साधन बाहरी साधनों से कहीं
अिधक सबल होता है । िछपा आ ाग तथा ेम बढ़ जाता है , िछपी
ई ीित स ी ाकुलता उ करती है , जो वा व म स ा भजन
है। िकसी ने भी ब मू व ुओं को बाहर िनकालकर नहीं रखा, सब
िछपाकर ही रखते ह। अत: ीित जैसी अमू व ुओं को दय म
िछपाकर रखना चािहए। –स –समागम 2
90. साधन कोई ऐसा काय नहीं है, िजसम कभी न करने की बात आए।
साधन वही है जो भाव से ही िनर र होता रहे । यिद साधन म
वधान पड़ता है तो यह समझना चािहए िक साधन के भेष म िकसी
असाधन को अपना िलया है । –साधन–त
100. सच मािनये, साधन उसका नाम नहीं है, िजसको आपने बाहर से भरा
है। साधन का असली अथ ही यह है िक िजसकी अिभ साधक म
से हो। –संतवाणी 4
101. जो साधन अपने ारा होता है , उसी साधन से िस होती है। जो साधन
अपने ारा नहीं होता, परा य से होता है , उस साधन से बा िवकास
तो िदखाई दे ता है , लेिकन अपने को कुछ नहीं िमलता। –संतवाणी 4
111. भजन के दो भाग ह –एक भाग है 'सेवा' और दू सरा 'ि यता'। सेवा
वृि काल म और ि यता िनवृि काल म। इसका नाम है –भजन।
– ेरणा पथ
113. याद आना, ारा लगना, अिभलाषा पैदा होना –यही तो भजन है ।
िवचारकों ने इसे 'साधन' कह िदया और ालुओं ने 'भजन' कह
िदया। –संत–उ ोधन
119. िबना कुछ भी चाहे , जो भगवान् को अपना मानता है, वही भजन कर
सकता है । –संत–उ ोधन
साम (बल)
15. वा िवक साम शाली वही है , िजसे व ुओं की खोज नहीं है , अिपतु
व ुएँ िजसकी खोज म रहती ह। कारण िक आव कता की पूित
अन के िवधान से त: होती है । –िच शु
24. ों– ों ाथभाव गलता जाता है , ों– ों कृित उसे साम शाली
बनाती है । जैसे, िजन वृ ों से दू सरे वृ ों को पोषण िमलता है, उनकी
आयु भी अपे ाकृत अिधक होती है और वे दू सरे वृ ों से पोिषत भी
होने लगते ह। –िच शु
सुख और दु ःख
9. िजस समय सुख का लोभन नहीं होगा, सुख का भोग नहीं होगा, उसी
समय वह दु ःख, िजसे आप दु ःख मानते ह या अनुभव करते ह, नहीं
रहेगा, अिपतु वहाँ दु ःखहारी होगा। –जीवन–पथ
45. 'सुख' सेवा के िलए है, उपभोग के िलए नहीं और 'दु ःख' िववेक का
आदर करने के िलए है, भयभीत होने के िलए नहीं। –जीवन–दशन
47. दु ःख का होना कोई दोष नहीं है, पर उसके भय से भयभीत होकर सुख
का िच न करना वा िवक दोष है । –िच शु
85. कृित से िजतना सुख लोगे , उतना दु ःख भी भोगना पड़े गा। वै ािनक
उ ित ा है ? 3/4 को 75/100 करना। –स –जीवन–दपण
सुखभोग
25. माद तथा िहं सा के िबना भोग की िस नहीं हो सकती; ोंिक अपने
को भो ा ीकार करना ‘ माद' है और भो व ुओं के िवनाश म
'िहंसा' है। –िच शु
27. ऐसा कोई भोगी नहीं है, जो इन तीन िवकारों से बचा हो –पराधीनता से,
जड़ता से और श हीनता से। –स –समागम 2
28. िसनेमा भाव से िवषयों का उपभोग करना िवषयी की चतुरता है। ारे ,
िवचारशील को तो िवषयों का अ करना है । िसनेमा की ि से तो
िवषयों की र ा होती है । –स –समागम 1
40. जो िकसी का भोगी नहीं है, उससे िकसी को भय नहीं है। आप माने या
न माने, भो ा से सभी को भय होता है ।...... भो ा सभी को भय दे ता
है और यं पराधीन रहता है । –संतवाणी 6
सेवा
सेवा
7. िजसे अपने िलए कुछ नहीं करना होता है, वही सेवा कर पाता है।
–संतवाणी 7
24. यिद कोई कहे िक राग के िबना हम अपने ि यजनों की सेवा कैसे
करगे ? तो कहना होगा िक सेवा करने के िलए राग अपेि त नहीं है ,
अिपतु उदारता की अपे ा है । –मानव की माँग
30. सेवा का अवसर भु–कृपा से ही िमलता है। उसे कभी नहीं खोना
चािहए। –संतप ावली 2
43. स ा सेवक वही हो सकता है , िजसने अपनी सेवा की हो। अपनी सेवा
करने के िलए अपने को अपने स म ही िवचार करना होगा अथात्
अपने जाने ए असत् का ाग करने पर ही मानव अपनी सेवा कर
सकता है । –दशन और नीित
सेवा
55. सेवक म सेवा करने से कभी थकावट नहीं आती, त् ों– ों सेवा
बढ़ती है, ों– ों उसकी श भी बढ़ती जाती है । –स –समागम 2
62. आजकल ाणी शुभ–कम को सेवा मान लेते ह, इसी कारण उसम बँध
जाते ह। स ी सेवा व ु ओं तथा इ यों ारा नहीं होती.......... स ी
सेवा का अिधकार तब ा होता है , जब ाणी को अपने िलए कुछ भी
करना शेष नहीं रहता। –स –समागम 2
12. माना आ 'म' चोर के समान है । 'म िन ँ ' यह भाव आते ही माना
आ 'म' भाग जाएगा। इस भाव को भी बु का िवषय न बनाओ;
ोंिक ान का िच न ही अ ान है । –स –समागम 2
14. 'म ँ ' –यह आप जानते नहीं, मानते ह।.......... जानने के आधार पर
कोई भाई, कोई बहन यह कह ही नहीं सकते ह िक 'म ा ँ ? बस,
यही कह सकते ह िक 'यह म नहीं ँ । िनषेधा क ान है आपको
अपने स म। –संतवाणी 5
:: 334 ::
ांितकारी संतवाणी
ाधीनता
3. ाधीन िकसे कहते ह ? िजसे अपने िलए कुछ नहीं चािहए, िजसके
पास अपना करके कुछ न हो। – ेरणा पथ
'है '
1. 'है' ा है ? जो उ ि –िवनाश से रिहत है अथवा उ ि –िवनाश से
पूव है ? िजससे उ ि और िवनाश कािशत ह, उसी को 'है' के अथ
म लेना चािहए। –मानव की माँग
6. 'नहीं' म 'है '–बु ीकार करने से ही 'है ' से िवमुखता होती है।
–मानव–दशन
'है'
14. 'है' एक है , अने क नहीं। अत: वह कैसा है, यह िववेचन उतना अपेि त
नहीं है , िजतना उसका संग। –मूक स ं ग
16. 'म' और 'है ' का भेद 'है ' म नहीं है , यह 'है ' की ही महानता है ; िक ु
'म' 'है ' को अ ीकार कर 'म' को ही ीकार करे , ा – यह 'म' की
भूल नहीं है ? –मूक स ंग
18. 'है ' 'नहीं' को िमटाता नहीं, ुत् कािशत करता है । 'है ' की
आव कता 'नहीं' को खाकर 'है ' से अिभ करती है । ाणी 'है' से
अिभ होकर ही 'है ' को जानता है । अत: 'है ' को जानने के िलए मन,
बु आिद बा सहायता की आव कता नहीं है । –स –समागम 2
20. 'है' म यिद हमारी ि यता नहीं है , तो भजन कैसा! और 'है ' का यिद
बोध नहीं है , तो त –सा ा ार कैसा ! और 'है' से यिद योग नहीं है,
तो परमशा कैसी ! –संतवाणी 5
कीण
एका
'करना' और 'होना'
मा
तीथया ा
पाप–पु
1. अपनी स ता अपने से िभ िकसी अ के आि त जीिवत रहे , यही
'पाप' है । –स –समागम 1
मत–स दाय
सत्–असत्
स –महा ा
3. िजस कार समु का पानी भाप बनकर अनेक थानों पर फैल जाता
है , उसी कार त वे ा त िन होकर सव फैल जाता है ।
त िन वही हो सकता है , जो तीनों थूल–सू –कारण शरीरों से
अपने को असं ग कर लेता है । –संतप ावली 1
10. जो िबना सीखे हो, वही स ा ' ान' है अथात् भावतः आ जाए। जो
िबना हे तु के हो, वही स ा ' ेम' है । और जो िबना िकए हो, वही
स ा ' ाग' है ; ोंिक स ा ाग करना नहीं पड़ता, हो जाता है।
–संतप ावली 1
14. अपना मू कम न होने पाए, यही 'पु षाथ' है। शरीर से लेशमा भी
स न रहे, यही ' ाग' है । अपने से िभ िकसी कार की स ा
ीकार न हो, यही ' ेम' है । –स –समागम 2
15. कुछ लोग संसार को मानते ह, उ बुराई–रिहत होना पड़े गा। कुछ
लोग अपने को मानते ह, उ अचाह होना पड़े गा। कुछ लोग भु को
मानते ह, उ ेमी होना पड़े गा। –संतवाणी 8
20. 'कत परायणता' आते ही, आप चाहो तो, न चाहो तो, आपका जीवन
जगत् के िलए उपयोगी हो जाएगा। ‘असंगता' ा होते ही आपके न
चाहने पर भी आपका जीवन अपने िलए उपयोगी हो जाएगा और
‘आ ीयता' ा होते ही आपका जीवन भु के िलए उपयोगी हो
जाएगा। –संतवाणी 5
िविवध .
22. िजसका नाश अभी हो, उसको आ य न दो, उसका समथन तथा
िवरोध मत करो। उसे अ हीन जानो। –मूक स ंग
23. सभी को अपना ीकार करना अथवा 'अपने म अपना करके कुछ
नहीं है ' यह अनुभव समान अथ रखता है । –मूक स ंग
50. ान, साम और व ुएँ असीम ह, उनकी गणना तथा सीमा नहीं हो
सकती। उनकी खोज भले ही कर सके, पर उ उ नहीं
कर सकता। यह िनयम है िक खोज उसी की होती है , जो है । इस ि
से िव ान िव ानवे ा की, दशन दशनकार की और कला कलाकार
की खोज है , उपज नहीं। –िच शु
55. ारे , भाषा तथा भाव दोनों से परे रहो। भाषा तथा भाव िकसी की
स ा कािशत नहीं करते, िक ु संकेत करते ह। –स –समागम 1
58. अनुभव बु ारा कथन नहीं िकया जा सकता, केवल संकेत िकया
जा सकता है । गीता आिद भी संकेत ही करती है । –स –समागम 1
73. अशा नाश होती है िन ामता से, भय नाश होता है िनम हता से
और द र ता नाश होती है िनल भता से। –संतवाणी 8
उसको वहाँ भी आदर नहीं िमलता; ोंिक दू सरों से सुख चाहने वाले
मनु का कोई भी आदर नहीं करता। –संत–सौरभ
81. संसार की दासता मन से िनकाल दो, यही ' ाग' है । सं सार से अपना
मू बढ़ा लो, यही ‘तप' है । सब कार से ेमपा के हो जाओ, यही
'भ ' है । अपनी स ता के िलए िकसी अ की ओर मत दे खो,
यही 'मु ' है । –स –समागम 2
82. भगवान् ारे लग, उनकी याद बनी रहे , मन लग जाए –इसी का नाम
'भजन' है । यही तो 'भ ' है । परिहत का भाव हो. सबके साथ
स ावना हो –यही तो 'सेवा' है । कुछ नहीं चाहना ही तो ' ाग' है।
भगवान् के समपण हो जाना ही तो ' ेम' ह इसी का नाम स ा भजन
है । अपने थान पर ठीक बने रह तो सभी 'धमा ा' ह। काम छोटा–
बड़ा कोई नहीं है । अपने वणा म के अनुसार सही बना रहे –यही
'धम' है । िवचारपूवक सबसे असंग रहना ही स ा 'वेदा ' है । ा–
िव ासपूवक भगवान् की शरण हण करना ही 'वै वता' है ।
–संत–उ ोधन
83. संसार से सुख की आशा के रहते ' ाग' नहीं होता। ममता के रहते
'िवकार' नहीं िमटते। कामनाओं के रहते 'शा ' नहीं िमलती। चाह–
रिहत ए िबना 'योग' की िस नहीं िमलती। असंगता के िबना ‘बोध'
नहीं हो सकता। आ ीयता के िबना ' ेम' की ा नहीं हो सकती।
ये सब बात ुव स ह। या कहो िक भु का ऐसा कुछ िवधान ही है ।
–संत–उ ोधन
84. जीवनोपयोगी महावा (1) मेरा कुछ नहीं है , (2) मुझे कुछ नहीं
चािहए, (3) भु ही अपने ह, और (4) सब कुछ भु का ही है।
करना है। िकसी को हािन प ँचाकर िकसी की सेवा करना, सेवा नहीं
है, अिपतु भोग है। भोग के राग का नाश करने के िलए मयािदत भोग
करना है। यिद िवचारपूवक भोग–वासना न हो जाए, तो भोग– वृि
अपेि त नहीं है। भोग की वा िवकता जानने के िलए ही मयािदत
भोग अपेि त है। अतः व ुओं का स ादन यों की सेवा म है,
अपने सुख–भोग म नहीं। ाथ–भाव का अ ए िबना िनल भता
की अिभ नहीं होती और उसके िबना द र ता का नाश नहीं हो
सकता, यह िनिववाद िस है।
दय–उ ार
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ांितकारी संतवाणी
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