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चन्दाँमामा विविध कहानियाँ

1 महल के कुत्ते 2 रिश्वतखोर


3 छोटे सेठ का शिष्य 4 अनोखे सपने
5 अनोखा फौव्वारा 6 नरकवासी
7 महावत राजा बना 8 नवकोटिनारायण
9 धर्माचरण 10 विश्वासघात
11 गुरु की जिम्मेदारी 12 वाराणसी पर गीदड़ की चढ़ाई
13 विचित्र जन्म कंु डली 14 चुगलखोर
15 नीतिमान ् 16 पंचकल्याणी
17 घमण्ड का नतीजा 18 पाप का फल
19 अराजकता 20 चेतावनी
21 मनुष्य का जन्म 22 अमत
ृ की खोज में
23 दासीपुत्र 24 बौना सेनापति
25 बलि का बकरा हँस पड़ा 26 नमकहराम
27 उँ च-नीच 28 बूढ़े पिता और पत्नी
29 कुबेर का सरोवर 30 पट्ट हाथी
31 सूरज के साथ होड़ 32 मंत्र की महिमा
33 महानता की कसौटी 34 कपटी योगी
35 कर्म का फल 36 दिली दोस्त
37 वक्रबुद्धि 38 अपात्र-दान
39 धोखे की सज़ा 40 मर्ख
ू राजा
41 महान साध्वी 42 दानपात्र
43 टूटी गाड़ी-छाछ की झारी 44 पश्चात्ताप
45 आशा का अंत 46 याचना
47 कर्म का फल 48 स्वार्थ में परोपकार
49 नाग दे वता 50 शिल्प योद्धा
51 अगम्य का महाकाव्य 52 संजीवनी मंत्र
53 जयंत की चिकित्सा 54 अनंत की आकांक्षा
55 चार कार्यदक्ष 56 गुणगान की आकांक्षा
57 राजकुमारी के प्रश्न 58 नास्तिक की दे व प्रार्थना
59 पथ्
ृ वी लोक की नीलांजना 60 पहरे दार भत

61 स्वार्थ में निःस्वार्थ 62 निराश स्वर्णरे खा
63 शिवालय 64 पेशे का प्रेमी
65 कठिन कार्य 66 यथार्थ चित्र
67 शरनिधि का शतरं ज 68 खड्ग महिमा
69 अपराध योग्य न्याय 70 जीवन में उतार-चढ़ाव
71 यव
ु राज का निर्णय 72 गरुड़ का साहस
73 रत्नमाला 74 जन्म-विमुक्ति
75 दे वनाथ की दिव्य शक्तियाँ 76 योग्य राजा
77 दलपति की कहानी 78 अपस्वर ब्रह्म
79 रसराजा रसिक राजा 80 धर्मदास की शक्तियाँ
81 राजा-चोर 82 गुणशेखर की कहानी
83 अविश्वसनीय सत्य 84 समाधान
85 गंधर्व कन्या 86 सहिष्णत
ु ा
87 अपराध रहित नगर 88 दो सुंदरियाँ
89 दे वयानी का प्रेम 90 छोटापन
91 अहं कारी पंडित 92 सेनाधिपति का चुनाव
93 राजा की बहुएँ 94 मौन योगी
95 गर्माहट का स्रोत दरू ी 96 बेगम की सबसे कीमती वस्तु
97 स्वर्ण-मुहरें 98 जब मूर्ख प्रश्न पूछते हैं
99 भें ट में हिस्सा 100 राजमद्र
ु ा की शक्ति
101 बीरबल की कहानियॉ ं - 17 102 आँखें और बेआँखें - 16
103 बुद्धि का एक घड़ा 104 अपराध का अनावरण
105 मँह
ु तोड़ जवाब 106 कुएँ में हीरे की अंगूठी
107 न्यायपूर्ण फैसला 108 उल्लओ
ु ं की भाषा
109 सत्य की शिनाख़्त 110 उलटे , मँह
ु के बल गिरा
111 धूप-छाँव 112 बच्ची की रुलाई
113 उत्तम आयुध 114 बीरबल-राजा का पानवाला
115 आप ही ने तो कहा था
1. महल के कुत्ते

हजारों साल पहले की बात है । काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त शासन करते थे। उन दिनों बोधिसत्व
नगर के समीप के श्मशान में एक कुत्ते के रूप में पैदा हुए और वे सैकड़ों कुत्तों के सरदार थे।
एक दिन राजा अपने रथ पर सवार हो सैर करने निकले और सूर्यास्त तक अपने क़िले में लौट
आये। परिचारकों ने रथ में जुते घोड़ों को ले जाकर घुड़साल में बांध दिये और रथ को राजमहल
के अहाते में लाकर खड़ा कर दिया। उस दिन रात को खूब पानी बरसा, जिससे रथ भीग गया।
राजा के पालतू कुत्ते महल से उतर आयेऔर रथ के चमड़े के उपकरणों को काट कर चबा गये।

दस
ू रे दिन सवेरे परिचारकों ने राजा को यह समाचार सुनाया। राजा क्रोध में आ गये और
उन्होंने आदे श किया- “कुत्तों ने क्या मेरे रथ की ऐसी हानि कर डाली? तम
ु लोगों की नज़र में
जो भी कुत्ता पड़े, उसे मार डालो।”

राजा का आदे श होने के बाद राज्य के सभी कुत्ते मारे जाने लगे। कुछ कुत्ते बचकर बोधिसत्व
के निवास स्थान श्मशान पर गये और उनसे बिनती की- “महाशय, सन
ु ते हैं कि राजा के रथ में
बंधे चमड़े के उपकरणों को कुछ कुत्तों ने काट  डाले हैं, इसलिए राजा ने सभी कुत्तों को मार
डालने की आज्ञा दे रखी है ।”
उन कुत्तों के मँह
ु से ये बातें सुनकर बोधिसत्व बड़े दख
ु ी हुए। उन्होंने अपने मन में सोचा-”क़िले
के अन्दर जो रथ है , उसके पास क़िले के बाहर के कुत्ते पहुँच नहीं सकते। इसलिए रथ से बंधे
चमड़े के उपकरणों को क़िले के अन्दर रहनेवाले कुत्तों ने ही काट डाले होंगे। जिन कुत्तों ने यह
अपराध किया है , उन्हें राजा के हाथ पकड़वा कर अपनेे परिवार के कुत्तों को बचाना होगा।”

यों विचार कर उन्होंने कुत्तों को समझाया- “तुम लोगों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है । मैं
अभी राजा के दर्शन करके लौट आता हूँ, तब तक तम
ु लोग यहीं पर ठहर जाओ।”

 फिर वे अपने मन में ये बातें दहु राते हुए क़िले में पहुँचे कि “धर्म की विजय हो! राजा न्याय का
पालन करे ।” उस समय राजा दरबार में सिंहासन पर बैठे न्याय कर रहे थे। बोधिसत्व सिंहासन
के नीचे से घुस कर राजा के सामने खड़े हो गये। राजसेवक उन्हें पकड़ने लगे, लेकिन राजा ने
उन्हें रोका।
बोधिसत्व ने राजा को प्रणाम करके पूछा-”महाराज, मैं ने सुना है कि आप ने राज्य भर के
कुत्तों को मार डालने की आज्ञा दे दी है । मैं जानना चाहता हूँ कि आखिर इसका कारण क्या
है ?” राजा ने उत्तर दिया- “उन कुत्तों ने हमारे रथ में बंधे चमड़े के उपकरणों को काट डाला है ,
इसीलिए हमें ऐसी आज्ञा जारी करनी पड़ी।”
“क्या आप जानते हैं कि यह अपराध करनेवाले कुत्ते कौन हैं?” बोधिसत्व ने पछ
ू ा।

राजा ने सिर हिलाकर कहा- “नहीं, हम नहीं जानते!” इस पर बोधिसत्व ने पूछा - “महाराज,
जिन कुत्तों ने अपराध किया है , उनका पता लगाये बिना सभी कुत्तों को एक साथ मार डालने
का आदे श दे ना कहॉ ं का न्याय है ? मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप के सेवक सभी कुत्तों का
वध कर डालेंगे या कुछ कुत्तों को प्राणों के साथ छोड़ दें गे?”

राजा ने कहा- “राज्य भर के कुत्तों को मार डालने का मैंने आदे श दिया है , पर क़िले में रहनेवाले
पालतू कुत्तों की किसी प्रकार की हानि नहीं होनी चाहिए।”
इस पर बोधिसत्व ने समझाया - “राजन, आप खुद नहीं जानते कि किन कुत्तों ने यह अपराध
किया है , फिर भी आप ने क़िले के कुत्तों को छोड़ बाक़ी सब कुत्तों को मार डालने का आदे श
दिया है । आप पक्षपात, द्वेष, अविवेक और भय नामक चार दर्गु
ु णों से पीड़ित हैं। ये सभी
लक्षण एक राजा में नहीं होने चाहिए।”
राजा थोड़ी दे र तक सोचते रहे , तब पूछा– “तब तो तुम अपने बुद्धि-बल का उपयोग करके क्या
यह बता सकते हो कि हमारे रथ के चमड़े के उपकरणों को किन कुत्तों ने खा डाला है ?” “यह
अपराध तो क़िले के कुत्तों ने हीकिया है । मैं यह बात साबित कर सकता हूँ।” बोधिसत्व ने
जवाब दिया।

“अच्छी बात है , तम
ु साबित करो तो मैं अपने आदे श को वापस ले लँ ग
ू ा,” राजा ने बोधिसत्व को
वचन दिया। बोधिसत्व ने राजा से निवेदन किया कि वे थोड़ा छाछ और घास मंगवा दें ।
परिचारक तरु ं त ले आये। तब बोधिसत्व ने घास को पिसवा कर छाछ में मिलवा दिया और
क़िले के कुत्तों को पिलवाया।

एक-दो क्षणों के अन्दर क़िले के कुत्ते कै करने लगे। कुत्तों ने चमड़े के जो उपकरण खाये थे, वे
अभी तक पचे न थे, इसलिए बाहर आ गये। इस घटना को दे ख राजा अचरज में आ गये। तब
बोधिसत्व ने कहा- “महाराज, आप के परिचारकों ने कुत्तों को ठीक से खाना नहीं खिलाया,
इसीलिए भूख से परे शान हो उन कुत्तों ने आप के रथ के चमड़े के उपकरणों को काट कर खा
डाला।”
राजा परमानंदित हो दरबारियों को बताया - “ये तो कुत्ते के रूप में स्थित बोधिसत्व ही हैं।
अन्य कोई नहीं।” यों कहकर उनके हाथ श्वेतछत्र दे कर उसकी पज
ू ा की। बोधिसत्व ने राजा को
धर्म का उपदे श दिया, इसके बाद श्मशान में रहनेवाले अपने परिवार से मिलने चले गये।

इसके बाद राजा ने क़िले के कुत्तों की दे खभाल करनेवाले परिचारकों को बुलवा भेजा।
दरियाफ़्त करने पर उन्हें पता चला कि परिचारक धन का अपहरण करते हुए कुत्तों को भर पेट
खाना खिलाते न थे। इस पर राजा ने उन्हें दण्ड दिया और कुत्तों की दे खभाल करने के लिए नये
सेवकों को नियुक्त
़ किया। उस दिन से राजा ने क़िले के कुत्तों को ही नहीं, राज्य भर के सभी
कुत्तों को उचित खाना खिलाने का अच्छा इंतज़ाम किया। इसके बाद राजा ने बोधिसत्व के
उपदे श सुनते हुए अपने जीवन में कई अच्छे कार्य किये। बोधिसत्व कई वर्षों तक दनि
ु या के
लोगों को धर्मोपदे श दे ते रहे और उन्हें मक्ति
ु का मार्ग बताते रहे ।

 
2. रिश्वतखोर

ब्रह्मदत्त के शासन-काल में बोधिसत्व काशी राज्य का क्रयाधिकारी था। बोधिसत्व काशी
राज्य के लिए आवश्यक हाथियों, घोड़ों और चांदी के सिक्कों की परख करता था, उनका मूल्य
आंकता था और उन्हें बेचने आये मालिकों को रक़म चुकाता था।

चँ ूकि राजा ब्रह्मदत्त बड़ा ही लोभी था, इसलिए बोधिसत्व की ईमानदारी पर उसे शक था। 
लोग उससे कहा करते थे कि वह जो भी वस्तु खरीदता है , उसके लिए वह आवश्यकता से
अधिक रक़म चुकाता है । राजा को ये बातें सच लगने लगीं। उसे लगा कि इसपर रोक नहीं
लगायी तो खज़ाना खाली हो जायेगा।
एक दिन राजा ने खिडकियॉ ं खोलीं तो दे खा कि एक आदमी कड़ी धूप में उद्यानवन के पेड़ों को
पानी दे रहा है । उसकी मेहनत को दे खते हुए राजा ने सोचा, “वाह, यह आदमी बड़ा ही
विश्वासपात्र है , नहीं तो भला क्योंकर इस कड़ी धूप में इतनी मेहनत करे गा।”

दस
ू रे ही दिन राजा ने उस बागबान को बोधिसत्व के स्थान पर क्रयाधिकारी नियक्
ु त किया।
राजा को उम्मीद थी कि यह नया पदाधिकारी चतरु ता से पेश आयेगा और इससे उसे लाभ
होगा। परं तु वास्तव में यह नया क्रयाधिकारी बुरी नीयत का था, उसमें थोड़ा-सा भी विवेक नहीं
था। वह न तो वस्तु तत्व को जानता था, न ही उसके मूल्य को। इस वजह से जब वह हाथियों,
घोड़ों या वस्तुओं को खरीदता था, बिना सोचे-विचारे ही उनका दाम मुकर्रर करता था और
उनके मालिकों से कुछ भी सुनने से साफ़-साफ़ इनकार कर दे ता था।

 मालिक कुछ कहे बिना चुप रह जाते थे। नुक़सान उठाने के अलावा कोई और चारा नहीं था।
जो रक़म उन्हें दी जाती थी, वे चुपचाप ले लेते थे। उन्हें यह कहने से डर लगता था कि उनके
साथ अन्याय हुआ है और क्रयाधिकारी के अन्यायपर्ण
ू निर्णय के कारण उन्हें नक़
ु सान उठाना
पड़ा है ।

 एक दिन सुदरू उत्तर से एक अश्र्व व्यापारी अच्छी नस्ल के पॉचं सौ अश्व के साथ आया। वह
सीधे राजा से मिला, पर राजा ने अश्र्वों को खरीदने का काम क्रयाधिकारी को सौंपा।
क्रयाधिकारी ने घोड़ों को दे खा और कहा, “बहुत सोचने के बाद भी लगता है कि इनका दाम
मटके भर के चावल से अधिक नहीं होगा। उसने सैनिकों को हुक्म दिया कि इनके मालिक को
मटके भर का चावल दे दो और घोड़ों को अस्तबल में बांध दो।

घोड़ों का व्यापारी क्रयाधिकारी के निर्णय को सुनकर हक्का-बक्का रह गया। पर अन्य


व्यापारियों की तरह वह चुप नहीं रहा। वह सीधे पुराने क्रयाधिकारी बोधिसत्व के पास गया और
अपना दख
ु ड़ा सुनाया।

बोधिसत्व ने परू ा विवरण जानने के बाद उस व्यापारी से कहा, “आप एक काम कीजिये। इस
नये क्रयाधिकारी को संतुष्ट करने के लिए पहले उसे रिश्वत दीजिये। फिर उससे कहिये, ?
आपने मेरे घोड़ों का जो मूल्य निर्धारित किया, वह न्यायसंगत है । पर भरी सभा में क्या आप
राजा के समक्ष बता सकते हैं कि इस मटके भर के चावल का क्या दाम है ” अगर क्रयाधिकारी
यह बताने को तैयार हो तो उसे कल राजा के दरबार में ले आइये। उस समय मैं वहीं उपस्थित
रहूँगा और दे खग
ूँ ा कि आपके साथ न्याय हो।”

बोधिसत्व के कहे अनुसार वह अश्र्व व्यापारी क्रयाधिकारी के पास गया और रिश्वत के रूप में
धन दिया। वह दरबार में आने और मटके भर के चावल का दाम बताने को तैयार हो गया।
उसने बहुत खश
ु होते हुए व्यापारी से कहा, “ज़रूर आऊँगा। मटके भर के चावल का दाम बताना
थोड़े ही मश्कि
ु ल का काम है ।”
दस
ू रे दिन दरबार मंत्रियों, मख्
ु य कर्मचारियों, सेनाध्यक्षों से खचाखच भरा हुआ था। राजा की
अनमु ति पाकर बोधिसत्व भी वहॉ ं आया। दख ु ी अश्र्वव्यापारी ने राजा से कहा, “प्रभ,ु आपके
नये क्रयाधिकारी ने मेरे पांच सौ अश्र्वों का मल्
ू य निर्धारित किया है , मटके भर का चावल।

मैं जानना चाहूँगा कि मटके भर के इस चावल का दाम कितना है ?”

उस क्षण तक राजा को यह मालम


ू नहीं था कि आख़िर हुआ क्या? इसलिए आश्र्चर्य प्रकट करते
ू ा, “पॉचं सौ अश्र्वों का मल्
हुए उसने क्रयाधिकारी से पछ ू य कितना निर्धारित किया?”

“मटके भर का चावल प्रभु” क्रयाधिकारी ने निस्संकोच कह डाला।

“ठीक है , पॉचं सौ अश्र्वों का मूल्य अगर मटके भर का चावल हो तो उस मटके भर के चावल का


मूल्य कितना है ?” राजा ने पूछा। क्रयाधिकारी ने बिना सकपकाये कहा, “मटके भर के चावल
का मूल्य उतना ही है , जितना, काशी राज्य और पड़ोस के सामंत राज्यों को मिलाकर उनका
मूल्य होता है ।”
उसके इस अटपटे जवाब को सुनकर दरबार में उपस्थित सबके सब ठठाकर हँसने लगे व
तालियॉ ं बजाने लगे,वे यह भी भल
ू गये कि हम दरबार में हैं जहॉ ं ऐसी चेष्टायें कदापि उचित
नहीं।

दरबार में उपस्थित प्रमुखों में से एक प्रमुख ने नये क्रयाधिकारी से कहा, “इतने लंबे अर्से से हम
समझ रहे थे कि राज्य का मूल्य आंकना असंभव है । लेकिन अभी-अभी हमें मालूम हुआ कि
पूरे काशी राज्य का मूल्य केवल मटके भर के चावल के बराबर है । वाह, तुम्हारी अक्लमंदी की
दाद दे नी ही होगी। बहुत बड़े विवेकी हो।” यों उसने उसकी हँसी उड़ायी।

तब बोधिसत्व ने कहा, “इस क्रयाधिकारी के कथन में सत्य है ।  इसका मज़ाक मत उड़ाइये ।
उसने कहा कि पांच सौ अश्र्वों का दाम मटके भर के चावल के मूल्य के बराबर है । और मटके
भर के चावल का दाम काशी राज्य और सामंत राज्यों को मिलाकर उनका जितना मूल्य होता
है , उतना है । इसलिए क्रयाधिकारी ने अश्र्वों का जो दाम ठहराया, वह समुचित लगता है ।”

बोधिसत्व की बातों पर सबको आश्र्चर्य हुआ। तहक़ीकात करने पर राजा को पूरा विषय मालूम
पड़ गया। उसने अपनी ग़लती जान ली और रिश्वतखोर को उस पद से हटाकर फिर से
बोधिसत्व को उस पद पर नियुक्त किया।

 
 

3. छोटे सेठ का शिष्य

ब्रह्मदत्त जब काशी राज्य पर शासन कर रहे थे, उन दिनों एक वणिक परिवार में बोधिसत्व ने
जन्म लिया और वे “छोटे सेठ” कहलाये। वे बुद्धिमान और शकुन शास्त्र के ज्ञाता थे।

एक दिन छोटे सेठ राज-दरबार में जा रहे थे, तब रास्ते में एक मरे हुए चूहे को दे ख बोले-”एक
होशियार युवक इस मरे हुए चूहे से व्यापार करके बड़ा धनी बन सकता है और वह स्वयं अपनी
शादी कर सकता है ।”

उस रास्ते पर चलनेवाले एक यव
ु क के कानों में ये बातें पड़ीं। वह एक अच्छे वंश का था, मगर
गरीब था। छोटे सेठ की बात पर उसका अपार विश्वास था। इसलिए उस मरे हुए चह
ू े को ले
जाकर किसी दकू ान में बिल्ली के आहार के वास्ते एक पैसे में बेच दिया।

एक पैसे का गुड़ ख़रीद कर घड़ा भर पानी ले वह युवक जंगल के रास्ते में जा बैठा। जंगल से
फूल चुनकर लानेवाले मालियों को थोड़ा-थोड़ा गुड़ और पीने के लिए पानी दे कर बदले में उनसे
मुट्ठी भर फूल लिये। बाद में उन फूलों को बेचकर उसने कुछ पैसे कमाये। दस
ू रे दिन थोड़ा और
ज़्यादा गुड़ लेकर पानी के साथ वह युवक फिर उसी जगह जा बैठा। आज मालियों ने उसे फूलों
ं के आठ सिक्के कमाये।
के साथ फूलों के पौधे भी दिये। इस तरह उसने कुछ ही दिनों में चॉदी
एक दिन आँधी -वर्षा आई। राजा के बगीचे में सूखी डालियॉ ं और पत्ते ज़्यादा मात्रा में गिर
गये। बगीचे का माली सोच रहा था कि बगीचे को कैसे साफ़ किया जाये, तब उस युवक ने वहॉ ं
जाकर उसे समझाया कि सूखी डालियॉ ं और कंटीली टहनियॉ ं उसे दे दी जायें तो वह बगीचे को
साफ़ कर दे गा! इसे माली ने झट मान लिया।
इसके बाद वह युवक ऐसी जगह पहुँचा जहॉ ं बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे। उन्हें गुड़ दे कर बगीचे
में बल
ु ा ले गया, उनके द्वारा बगीचे में टूट कर गिरी हुई लकड़ियों तथा कंटीली टहनियों को
एक जगह इकट्ठा कराया और उन्हें बगीचे के फाटक के पास पहुँचवा दिया।

 उस व़क्त राजा का कुम्हार उधर से आ निकला। उसने बगीचे के पास लकड़ियों का ढे र दे ख
मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए सौदा किया। इस तरह उस युवक को चांदी के छब्बीस सिक्के
और घलुवे में मिट्टी के कुछ बर्तन भी मिले।
तब उसके दिमाग में एक विचार आया। वह नगर के फाटक के प्याऊ के समीप पहुँचा और पांच
सौ घसियारों को पानी पीने को दिया। उन लोगों ने उसकी मँह
ु मांगी मदद दे ने की बात कही।
यव
ु क ने बताया कि ज़रूरत पड़ने पर वह उन लोगों से मदद मांग लेगा।

एक बार उस युवक को एक व्यापारी के द्वारा मालूम हुआ कि दस


ू रे दिन उस नगर में घोड़ों का
एक सौदागर अपने पांच सौ घोड़ों के साथ आनेवाला है । उसी व़क्त वह युवक उन घसियारों से
मिला और बोला,”कल तुम लोगों को मुझे घास का एक-एक गट्ठर दे ना होगा। मेरे सारे गट्ठर
बिकने तक तुम लोगों को कहीं भी घास नहीं बेचना है ।” उन लोगों ने युवक की शर्त मान ली
और घास के गट्ठर लाकर उस युवक के घर डाल दिया।

ू रे दिन सौदागर अपने पांच सौ घोड़ों के साथ वहॉ ं पर आ पहुँचा। उस दिन उसे अपने घोड़ों के
दस
लिए कहीं भी घास न मिली थी, इसलिए उस युवक के यहॉ ं से घास के पांच सौ गट्ठर खरीद कर
उसे एक हज़ार सिक्के दिये।

थोड़े दिन बीत गये। अपने परिचित एक नौका व्यापारी के द्वारा उस युवक को यह खबर मिली
कि एक बहुत बड़ी नाव बंदरगाह में आ लगी है । इस पर, उसने एक बढ़िया उपाय किया। इस
उपाय के अनुसार आठ सिक्के दे कर एक गाड़ी को किराये पर ले लिया और बंदरगाह में पहुँचा।
तब एक अंगूठी को अग्रिम के रूप में दे कर नाव ख़रीदी।

 इसके बाद तीन दरबानों को नियुक्त


़ कर हुक्म दिया कि अगर कोई व्यापारी आये, तो उसे
उसके पास बलु ा ले आये। इस बीच नाव के बंदरगाह में लगने की ख़बर पाकर काशी के एक सौ
व्यापारी माल ख़रीदने आये। पर उन्हें मालूम हुआ कि इसके पहले ही सारा माल किसी युवक ने
ख़रीद लिया है । तब वे व्यापारी उस युवक के पास आये।

यव
ु क ने उनके हाथ नाव के सारे माल के साथ वह जगह भी दो-दो हजार में बेचकर दो लाख
कमाये। इसके बाद उस यव
ु क ने छोटे सेठ के पास जाकर उन्हें अपनी गाढ़ी कमाई के एक लाख
सिक्के दिखाये। छोटे सेठ ने प्रसन्न होकर उस यव
ु क से पछ
ू ा-”बेटा, तम्
ु हें इतना सारा धन कैसे
प्राप्त हुआ?”

“महानुभाव, आपका उपदे श पाकर चार महीनों के अंदर मैंने यह सारा धन कमाया है ।” इन
शब्दों के साथ उस युवक ने मरे हुए चूहे को एक पैसे में बेचने की घटना से लेकर  अंत तक सारा
वत
ृ ांत सुना दिया।

सारी बातें सुनकर छोटे सेठ ने सोचा-”ऐसे होशियार युवक को दस


ू रों के हाथ नहीं पड़ने दे ना
चाहिए।” उन्होंने विवाह योग्य अपनी कन्या के साथ उस युवक की शादी की और अपनी सारी
संपत्ति उसके हाथ सौंप दी। छोटे सेठ के मार्गदर्शन में युवक ने अपने व्यापार को खूब बढ़ाया
और दे श में ही नहीं, विदे शों में भी एक बड़े व्यापारी के रूप में बहुत नाम कमाया। छोटे सेठ के
मरने के बाद उस यव ु क को ?सेठ? की उपाधि प्राप्त हुई। वह भी छोटे सेठ के सिद्धान्तों पर चल
कर एक आदर्श व्यापारी बना।

 
 

4. अनोखे सपने

 
बहुत पहले बिम्बिसार कोशल का राजा था। एक रात राजा बिंबिसार ने विचित्र सपने दे खे। उन
सपनों का अर्थ उन्हें समझ में नहीं आया। उन्हें डर लगा कि कहीं इन सपनों का अर्थ अनर्थकारी
न हो। इसलिए प्रातःकाल होते ही उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर उनका रहस्य जानना
चाहा।
 
ब्राह्मण यह सुनकर बड़्रे प्रस हुए। उन्होंने सोचा कि यह राजा से अधिक से अधिक धन ऐंठने
का सुनहला मौक़ा है । यह सोचकर ब्राह्मणों ने निश्चय कर लिया कि राजा को इन सपनों का
ऐसा अर्थ बता दें जिस से उनका पूरा लाभ हो। इसलिए सब ने एक मत होकर राजा से निवेदन
किया, “महाराज, इन सपनों का अर्थ तुरन्त बताया नहीं जा सकता। हम सपनों से सम्बन्धित
ग्रन्थों को पढ़ कर इनका सही अर्थ निकालेंगे। इसलिए आप कृपया हमें दो-चार दिन का समय
दे दीजिए।”
 
राजा ने ब्राह्मणों को एक सप्ताह की मोहलत दी। उस अवधि के बाद ब्राह्मण राजा के पास
जाकर बोले, “हम सब ने आप के सपनों पर कई ग्रन्थों की सहायता से शोध किया। अन्त में
इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि ये सपने किसी विपत्ति के सूचक हैं। आप के परिवार और राज्य में
कोई अनर्थ होनेवाला है ।”
 
राजा यह सनु कर बैचैन हो उठे ! चिंतित होकर बोले, “इस अनर्थ को रोकने का कोई उपाय तो
होगा? आप लोग पन ु ः विचार करके हमारा उचित मार्गदर्शन कीजिए!”
 
“हाँ महाराज! इस विपत्ति को टालने का बस एक ही उपाय है ! आप को दे श के हर चौराहे पर
यज्ञ कराना होगा और यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोज और मँह
ु माँगा दक्षिणा दे नी
होगी। इस प्रकार करने से आनेवाली आपत्ति टल जायेगी और सारे दे श का कल्याण होगा।”
ब्राह्मणों ने राजा को सलाह दी।

राजा बिंबिसार ने ब्राह्मणों के अनुसार कोषाध्यक्ष को यज्ञ कराने का आदे श दे दिया।


 
महारानी बड़ी बुद्धिमती थीं। उन्होंने राजा से निवेदन किया, “आप जल्दी में इन सपनों के बारे
में कोई निर्णय नहीं लें। वास्तव में ये ब्राह्मण विद्वान नहीं लगते। समस्त विद्याओं के ज्ञाता
भगवान बुद्ध आजकल जेठवन में ठहरे हुए हैं। आप कृपया उनकी सेवा में पहुँचकर अपने सपनों
का हाल बताइए और वे जैसा आदे श दें , वैसा ही कीजिए।”
 
महाराजा ने महारानी की सलाह मान ली। वे स्वयंअधिकारियों के साथ जेठवन पहुँचे और
भगवान बुद्ध को भिक्षा के लिए अपने महल में निमंत्रित किया।
 
भगवान बद्ध
ु के पधारते ही राजा ने निवेदन किया, “भगवान! आप सर्वज्ञ हैं। मैंने कुछ
अनर्थकारी सपने दे खे हैं और इस कारण मैं बहुत चिंतित हूँ। कृपया इन सपनों का अर्थ बताकर
आने वाली विपत्ति से मेरी और प्रजा की रक्षा करें प्रभ!ु ”
 
“राजन, आप सपनों का वत्ृ तान्त बताइए। फिर मैं उनका रहस्य बताऊँगा।” भगवान बुद्ध ने
मुस्कुराते हुए कहा।
 
“सबसे पहले मैंने चार भैंसें दे खे। वे रं भाते और लड़ते हुए राजमहल में घस
ु आये। कई लोग उन
भैसों की लड़ाई दे खने के लिए वहाँ पर एकत्र हो गये। परन्तु उसके बाद भैंसें लड़ना छोड़कर
अपने-अपने रास्ते चले गये। इसका क्या अर्थ हुआ भगवान!” राजा ने अपना सपना सन ु ा कर
निवेदन किया।
 
“इस सपने का अर्थ यह है कि आप के वंश के बाद के राजा पापी हो जायेंगे। उनके राज्य काल में
आसमान के बादल बिना वर्षा किये लौट जायेंगे, जिससे जनता को निराशा होगी।” बुद्ध ने
सपने का अर्थ समझाया।
 
“भगवान! मैंने एक और विचित्र सपना दे खा। मैंने छोटे पौधों में पूरी ऊँचाई तक बढ़े बिना
मंजरी और फल भी लगे दे खे। क्या इसका भी कोई रहस्य है प्रभु?” राजा ने दस
ू रा सपना बुद्ध को
बताया।
 
“यह स्वप्न भी उसी युग से सम्बन्धित है । उस युग में लड़कियों के बाल विवाह होंगे और
वयस्क होने के पूर्व ही वे माता बन जायेंगी।” बुद्ध ने बड़े सहज भाव से बताया।

राजा ने एक और सपना बताया, “भगवान, मैंने बछड़ों से गायों को दधू पीते दे खा।”
 
“आने वाले युग में बूढ़े लोग अपना पेट भरने के लिए अपने छोटों पर निर्भर करें गे।” भगवान
बुद्ध ने स्पष्ट किया।
 
राजा ने अपना अगला सपना बताया, “मैंने दे खा कि किसान हलों में बैलों की जगह बछड़ों को
बाँध रहे हैं।”
 
“उस युग में राजा योग्य मंत्रियों को हटा कर अनुभवहीन और अयोग्य व्यक्तियों को उनके
स्थान पर नियक्
ु त करें गे।” भगवान बद्ध
ु ने स्पष्ट बताया।
 
“इसके बाद मैंने खुली जगह पर एक विचित्र घोड़ा को दे खा। उसके दोनों तरफ़ मँह
ु थे। वह दोनों
मँह
ु ों से दाना खा रहा था। इस विचित्र सपने का भी क्या कोई रहस्य है प्रभु! ज़रा मुझे बताइये”
राजा ने पूछा।
 
“यह स्वप्न भी बड़ा अर्थपर्ण
ू है राजन! इस सपने का मर्म यह है कि आनेवाले यग
ु में
न्यायाधीश निष्पक्ष न्याय नहीं करें गे और दोनों पक्षों से रिश्वत लेंगे। फिर भी वे किसी के प्रति
भी न्याय नहीं करें गे।” बद्ध
ु ने कहा।
 
“एक आदमी एक रस्सा बाँट रहा था। रस्सा बाँटने के बाद बँटे हुए हिस्से को नीचे गिराता जा
रहा था। उस आदमी की आँख बचा कर एक मादा सियार नीचे पड़्रे बँटे रस्से को चबाती जा रही
थी।” राजा ने इसका रहस्य पूछा।
 
“आनेवाले यगु में पाप बढ़ जाने से अधिक लोग दरिद्र हो जायेंगे। पति का कड़ी मेहनत का धन,
उनकी पत्नियाँ तरु न्त खर्च कर दें गी ।” महात्मा बद्ध
ु ने सपने का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा।
 
राजा ने सन्तुष्ट होकर एक अन्य सपने के बारे में बताते हुए कहा- “मैंने राजमहल के पास जल
से भरा हुआ एक घड़ा दे खा। उसके चारों तरफ़ कई खाली घड़्रे थे। वहाँ पर सभी जाति और वर्ण
के लोग पानी भर कर ला रहे थे और भरे हुए घड़े में ही डाल रहे थे, जब कि भरा हुआ घड़ा छलक
रहा था। खाली घड़े में कोई पानी नहीं डाल रहा था। आ़खिर ऐसा क्यों?”
 
भगवान बुद्ध ने इस स्वप्न का अर्थ बताते हुए कहा, “भविष्य में अन्याय और अधर्म बढ़
जायेगा। प्रजा कठिन परिश्रम से धन कमा कर राजा के भय से खज़ाने में डाल दे गी जहाँ पहले
ही धन भरा होगा। लेकिन प्रजा के घर खाली घड़ों की भाँति एक दम खाली रहें गे।”

“एक अन्य स्वप्न में मैंने एक पात्र में कुछ अनाज पकते दे खा। लेकिन अन्न समान रूप में नहीं
पक रहा था। पात्र के एक हिस्से में अन्न पक कर गल गया था, जब कि दस
ू रे हिस्से का अन्न
ठीक पका हुआ था । और एक और हिस्से में अ कच्चा ही था।” राजा ने एक और स्वप्न
सन ु ाया।
 
बुद्ध ने इसका मर्म बताते हुए कहा, “भविष्य में खेती-बाड़ी कुछ ऐसी ही होगी। कुछ लोग
भविष्य में अति वष्टि
ृ से पीड़ित रहें गे और कुछ हिस्से में सूखा पड़ेगा।”
 
एक और स्वप्न बताते हुए राजा ने उसका मर्म पछ ू ा, “कुछ लोगों को गली-गली घम
ू कर चन्दन
बेच कर धन लेते हुए मैं ने दे खा।”
 
“इसका अर्थ यह है कि आनेवाले युग में नीच व्यक्ति धर्मोपदे श दे कर तच्
ु छ भौतिक सुख प्राप्त
करें गे।” बुद्ध ने सपने का रहस्य बताया।
 
“मैंने एक सपना और दे खा। पानी पर पत्थर तैर रहे हैं और राजहं सों का एक झण्
ु ड कौओं के
पीछे रें गता जा रहा है । एक अन्य स्थान पर कुछ बकरियों को बाघ को मारकर खाते दे खा।”
 
बद्ध
ु ने उस सपने का अर्थ बताते हुए कहा, “भविष्य में बड़े-बड़े महात्मा भी समाज में अनादरित
होकर समय के प्रवाह में पत्थरों की तरह वह जायेंगे। नीच लोगों के हाथ में शासन होने के
कारण राजहं स जैसे सन्त कौओं के समान दष्ु ट लोगों के चरण-चिन्हों पर चलेंगे । दष्ु ट
व्यक्तियों के हाथों में अधिकार आ जाने से सात्विक गुण वाले निर्दोष व्यक्ति भी उनसे
भयभीत रहें गे। इतना ही नहीं, वे नीच व्यक्ति अवसर पाकर उत्तम व्यक्तियों का अन्त भी
कर डालेंगे।”
 
भगवान बद्ध ु के प्रवचनों से राजा बिंबिसार के सारे सन्दे ह दरू हो गये। साथ ही उनकी भय
चिन्ता भी दरू हो गई। वे समझ गये कि ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के कारण उन्हें ऐसा परामर्श
दिया था। इसलिए उन्होंने यज्ञ कराने का विचार छोड़ दिया तथा महात्मा बद्ध
ु को भिक्षा दे कर
उन्हें आदर-सत्कार के साथ विदा किया।
 
5. अनोखा फौव्वारा

प्राचीन काल में काशी राज्य पर जब राजा ब्रह्मदत्त राज्य करते थे, उस समय बोधिसत्व का
जन्म एक वणिक वंश में हुआ। बड़े होने पर बोधिसत्व पॉचं सौ गाड़ियों पर अपना माल लादकर
व्यापार किया करते थे।

एक बार बोधिसत्व का कारवॉ ं एक रे गिस्तान में पहुँचा। वह रे गिस्तान साठ योजन लंबा था।
उसकी रे त बड़ी महीन थी। मुट्ठी में भरने पर रे त उं गलियों के बीच से खिसक जाती थी। वह
प्रदे श रात के व़क्त ठण्डा होता था। मगर सूर्योदय के साथ धीरे -धीरे गरम होकर धक् -धक् करके
जलनेवाले चूल्हे के समान हो जाता था। दिन के व़क्त उस रे गिस्तान में पैदल चलना मुश्किल
था। इसलिए यात्री लोग रे गिस्तान को पार करने तक अपने लिए आवश्यक चावल, दाल, तेल,
लकड़ी, पानी वगैरह चीज़ें गाड़ियों प लादकर रात के वक्त ही यात्रा करते थे। समुद्री यात्री जैसे
रात के समय नक्षत्रों की मदद से अपनी दिशा का पता लगा लेते थे, वैसे ही रे गिस्तान के यात्री
भी करते थे। सवेरा होते-होते वे अपनी यात्रा बंद कर दे ते, गाड़ियों को वत्ृ ताकार में खड़ा करके
बीच में मण्डप जैसा बनाते, उस पर चांदनी जैसे पर्दे बांधकर धूप के तेज होने के पहले ही रसोई
बनाकर खा लेते और फिर संध्या तक छाया में आराम करते।

बोधिसत्व ने इसी तरह यात्रा करके लगभग रे गिस्तान को पार किया। अब सिर्फ़ एक योजन की
यात्रा बच रहीथी । उन्होंने सोचा कि उस रात को वे लोग रे गिस्तान को पार कर सकते हैं। यों
विचार कर शाम के व़क्त खाना होने के पहले अपने सेवकों के द्वारा जलावन तथा पानी फेंकवा
दिया। इस तरह बोझ कम करने पर यात्रा तेजी के साथ चल सकती थी।

 सब से आगे चलनेवाली गाड़ी में रास्ते का मार्ग दर्शक होता था । वह रात भर जागता रहता,
नक्षत्रों की गति का परिशीलन करते आगे की गाड़ी को कहॉ ं किस तरफ़ चलना है , चिल्ला-
चिल्लाकर मार्ग दर्शन किया करता। मगर इस बार उसे गहरी नींद आ रही थी, तिस पर थका-
मांदा था, इस कारण वह सो गया। कोचवान की असावधानी से बैल नियंत्रण खोकर उसी रास्ते
पर चल पड़े, जिस रास्ते से वे लोग चले आये थे।

सूर्योदय के समय वह नींद से जाग पड़ा, नक्षत्रों की गति दे ख गाड़ियों को उल्टे रास्ते पर चलते
भॉपं गया और उन्हें लौटाने को कहा।
गाड़ियॉ ं तो मुड़ गईं। मगर जिस ख़तरे से वे लोग बचना चाहते थे, उसी ख़तरे में वे लोग फंस
गये। सबेरा होते ही उन लोगों ने दे खा कि पिछले दिन की शाम को वे लोग जहॉ ं से निकले थे,
वहीं पर पहुँच गये हैं, मगर वहॉ ं पर पानी न था।

फिर से सबने गाड़ियों को वत्ृ ताकार में खड़ा किया और सारे आदमी निराश हो गाड़ियों के नीचे
लुढ़क पड़े।

सब लोगों की भांति अगर बोधिसत्व भी हिम्मत खो बैठते तो सब का मरना निश्चित था।


इसलिए बोधिसत्व उस ठण्डी वेला में इधर-उधर टहलने लगे और पानी के किसी सोते की बड़ी
सावधानी से खोज करने लगे। आखिर उन्होंने एक जगह दाभों का झुरमट
ु दे खा। अगर उसके
नीचे गहराई में ही सही, पानी न होता तो वहॉ ं पर दाभ न उगता। यों विचार कर उन्होंने कुदाल
मंगवाकर एक युवक के द्वारा उस प्रदे श को खुदवाया। साठ हाथ गहराई तक खोदने पर फावड़े
का पाल एक एक शिला से टकराया और खन ् की आवाज़ सुनाई दी। तब सब लोग हताश हो
गये।

पर बोधिसत्व का गहरा विश्वास था कि उस शिला के नीचे ज़रूर पानी होगा। वे उस गड्ढे में
उतर पड़े और शिला पर कान लगाकर सुनने लगे। शिला के नीचे पानी के प्रवाह की ध्वनि
सुनाई दी।

इसके बाद बोधिसत्व गड्ढे से बाहर आये और बोले- “भाइयो, अब हम लोग हताश हो चुप बैठे
रह जायेंगे तो हम सब का मर जाना निश्चित है । इसलिए एक को नीचे उतरकर उस शिला को
फोड़ना होगा। उसके नीचे पानी है । उसके बाहर निकलने पर हम सब बच जायेंगे।”

बोधिसत्व के मन में जो गहरा विश्वास था, वह और लोगों के मन में न था। फिर भी उनका
सझ
ु ाव पाकर एक यव
ु क गड्ढे में उतर पड़ा और कुदाल से सारी ताक़त लगाकर शिला पर दे
मारा।

आख़िर वह शिला टूट गई। उसके नीचे दबा हुआ जल एक ताड़ के पेड़ के समान ऊपर उठा। इस
पर सब की जान में जान आ गई। सब ने अपनी प्यास बुझाई, नहाया-धोया। जो पुरानी गाड़ियॉ ं
थीं, उनके पहियों को काटकर जलावन का काम लिया।

रसोई बनाकर खाना खाया। बैलों को घास-पानी दिया। शाम तक आराम किया। रात के होते ही
फिर से यात्रा चालू करने के पहले वहॉ ं पर एक ध्वज स्तम्भ गाड़ दिया, जिसका संकेत था कि
वहॉ ं पर पानी है । फिर वे लोग सवेरा होने के पहले ही रे गिस्तान को पार कर अपने निर्णीत प्रदे श
में पहुँचे।
वहॉ ं पर उनका माल तीन गुने ज़्यादा दर पर बिक गया। ख़र्च को काटकर न्यायपूर्ण लाभ बच
रहा।

थोड़े दिन बाद बोधिसत्व अपने पूरे कारवॉ ं के साथ अपने नगर को लौट आये । व्यापार के
द्वारा उन्होंने जो कुछ कमाया, उस धन से दान-धर्म करते वे सुख की जिन्दगी बिताने लगे।
 

6. नरकवासी

 
काशी राज्य पर राजा ब्रह्मदत्त शासन कर रहे थे। उसी समय वहाँ एक धनी व्यापारी रहता
था। उसके मित्रविंद नामक एक पत्र
ु था। मित्रविंद बड़ा पापी था। धनी व्यापारी का अल्प आयु
में ही दे हांत हो गया। इस पर उसकी पत्नी ने अपने पुत्र मित्रविंद को बुलाकर समझाया, “बेटा,
तुम दान-धर्म किया करो। नियमों का पालन करो। धर्म मार्ग का अनुसरण करो! अपने माँ-बाप
का नाम रोशन करो ।”
 
पर मित्रविंद ने अपनी माता की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस बीच कार्तिक पूर्णिमा का
पर्व आ पड़ा । मित्रविंद को उसकी माँ ने समझाया, “बेटा । आज पुण्य पर्व का दिन है । रात भर
ु वहॉ ं पर जाओ। सबके साथ मिलकर पूजा करो।
विहारों में धर्म का उपदे श करते हैं। तम
 
उपदे श सुनकर लौट आओ। तुम्हें मैं एक हज़ार मुद्राएँ दँ गू ी।” धन के लोभ में आकर मित्रविंद ने
माता की बात मान ली। उपदे श सुनने के लिए वह विहार में तो पहुँचा, पर एक कोने में लेट कर
सो गया। सवेरा होते ही हाथ-मँह
ु धोकर सीधे घर चला आया।
 
माता ने सोचा कि उसका पत्रु धर्म प्रचारक को साथ लेकर घर लौटे गा। इस विचार से उसने दोनों
के लिए रसोई बनाई। लेकिन अपने पत्र
ु को अकेले घर लौटे दे ख माता ने पछ
ू ा, “बेटा, तम
ु धर्म-
प्रचारक को अपने साथ क्यों नहीं ले आये?” “माँ, उनको यहाँ पर लाने की क्या आवश्यकता है ?
उनके साथ मेरा क्या काम है ?”
 
मित्रविंद ने उत्तर दिया। इसके बाद मित्रविंद खाना खाकर माता से एक हज़ार मुद्राएँ लेकर घर
से निकल गया। उस धन को अपनी पँज
ू ी बनाकर मित्रविंद ने कोई व्यापार प्रारं भ किया और
कुछ ही दिनों में उसने बीस लाख मुद्राएँ कमा लीं।

उस धन से मित्रविंद संतष्ु ट नहीं हुआ। तब उस ने अपने मन में सोचा, ?मैं इस धन को पँज


ू ी
बनाकर समद्र
ु ी व्यापार करूँगा। इससे कई गन ु ा अधिक धन कमाऊँगा!' इस विचार से उसने
एक नाव खरीद ली। माल खरीदकर नाव पर लदवा दिया, तब समुद्री व्यापार का समाचार
सुनाकर अपनी माता से अनुमति लेने के लिए घर पहुँचा।
 
अपने पुत्र के मँुह से सारा वत्ृ तांत सुनकर माता की आँखों में आँसू भर आये। वह बोली, “बेटा,
तुम मेरे इकलौते पुत्र हो। तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक धन है । और ज्यादा धन कमाकर
तुम क्या करोगे? समुद्री यात्रा खतरों से खाली नहीं है । मेरी बात मानकर अपनी यात्रा बंद करो।
घर पर ही रह जाओ! मैं तम ु से यही चाहती हूँ।” पर मित्रविंद ने अपनी माँ की बात नहीं मानी।
 
उसने समुद्री यात्रा पर जाने का हठ किया। इस पर माता ने उसका हाथ पकड़कर गिड़गिड़ाते
हुए उसे यात्रा पर जाने से रोकना चाहा, लेकिन उस दष्ु ट ने अपनी माता को पीटा और जबर्दस्ती
हाथ छुड़ाकर घर से निकल गया। उसी दिन मित्रविंद की नाव यात्रा पर चल पड़ी।
 
सात दिनों तक समद्र ु ी यात्रा बिना विघ्न के आराम से चली, पर आठवें दिन समद्र
ु के बीच नाव
आगे बढ़ने से रुक गई। नाव के नाविकों ने सोचा कि इस दर्घ
ु टना का कारण नाव के यात्रियों में
से कोई ज़रूर होगा। इस ख्याल से उन लोगों ने उसका पता लगाने के लिए चिट बाँटा। उस चिट
पर मित्रविंद का नाम निकला।
 
इसपर तीन बार चिट बाँटे गये, तीनों बार चिट पर मित्रविंद का नाम निकला। इसपर नाविकों
ने नाव से एक छोटी सी डोंगी निकाली, उसपर मित्रविंद को छोड़कर बाकी सब अपने रास्ते नाव
पर आगे बढ़ गये। कई दिन यातनाएँ झेल कर आखिर मित्रविंद एक टापू पर पहुँचा। उस टापू में
मित्रविंद को संगमरमर का एक महल दिखाई दिया। उस में चार पिशाचिनियाँ निवास करती
थीं।
 
वे पिशाचिनियाँ सात दिनों तक विलासमय जीवन बिताती थीं और फिर एक सप्ताह तक अपने
पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए कठोर नियमों का पालन करती थीं। यह उनका नियम था।

मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ सात दिन विलासपूर्ण जीवन बिताया, पर जब


पिशाचिनियों ने सात दिनों के लिए कठोर व्रत का पालन करना प्रारं भ किया तब उसका मन
उस व्रत का आचरण करने को तैयार न हुआ। इस पर वह अपनी डोंगी पर वहाँ से चल पड़ा।
 
कुछ दिन समुद्री यात्रा के बाद मित्रविंद दस
ू रे टापू पर पहुँचा। उस टापू में आठ पिशाचिनियाँ
निवास करती थीं। मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ एक हफ़्ता बिताया, इसके बाद उन
पिशाचिनियों ने ज्यों ही कठोर व्रत शुरू किया, त्यों ही वह अपनी डोंगी पर वहाँ से निकल पड़ा।
 
इस प्रकार उसने एक अन्य टापू में सोलह पिशाचिनियों के साथ और दस ू रे टापू में बत्तीस
पिशाचिनियों के साथ एक सप्ताह विलासपर्ण
ू जीवन बिताया। आखिर अपनी डोंगी पर वह एक
और टापू में पहुँचा। उस टापू में एक विशाल नगर था। उसके चारों तरफ़ ऊँची दीवार बनी थी।
 
उसके चार द्वार थे। वह उस्सद नरक था, लेकिन मित्रविंद को वह नरक जैसा प्रतीत न हुआ।
बल्कि वह एक सुंदर नगर जैसा लगा। उसने अपने मन में सोचा, ?मैं इस नगर में प्रवेश करके
इसका राजा बन जाऊँगा।' नगर के अन्दर एक स्थान पर मित्रविंद को एक व्यक्ति दिखाई
दिया। वह अपने सर पर असिधारा चक्र ढो रहा था।
 
उसकी धार पैनी थी । साथ ही वह चक्र बोझीला था। इस कारण वह चक्र उस आदमी के सर में
धँस गया था। सर से रक्त की धाराएँ बह रही थीं। उसका शरीर पाँच लड़ियोंवाली जंजीर से बंधा
हुआ था। वह पीड़ा के मारे कराह रहा था।
 

उस दृश्य को दे खने के बाद भी मित्रविंद इस भ्रम में आ गया कि वह व्यक्ति उस नगर का राजा
है । असिधारा चक्र मित्रविंद की आँखों को पद्म जैसा दिखाई दिया। उसकी दे ह पर बंधी जंजीर
उसे एक अलंकृत आभूषण जैसी प्रतीत हुई।
 
उसकी कराहट गंधर्वगान जैसा सुनाई दिया। मित्रविंद उस नरकवासी के समीप जाकर बोला,
“महाशय, आप बहुत समय से इस पद्म को अपने सर पर धारण किये हुए हैं। मुझे भी थोड़े
समय के लिए धारण करने दीजिए!” “महाशय, यह तो पद्म नहीं, बल्कि असिधारा चक्र है ।”
नरकवासी ने उत्तर दिया। “ओह, आप तो यह मुझे दे ना नहीं चाहते, इसीलिए आप यह बात
कह रहे हैं।” मित्रविंद ने कहा।
 
?आज से मेरे पापों का परिहार हो गया है । यह भी मेरे जैसे अपनी माँ को पीट कर आया होगा!
उस पाप का फल भोगने के लिए ही यहाँ पहुँच गया है ।' यों अपने मन में विचार करके
नरकवासी ने अपने सर पर के असिधारा चक्र को उतारकर मित्रविंद के सर पर रख दिया और
खश
ु ी के साथ अपने रास्ते चला गया। स्वर्ग में इन्द्र के पद पर रहने वाले बोधिसत्व दे वगणों को
साथ लेकर समस्त नरकों का निरीक्षण करते हुए मित्रविंद के पास पहुँचे।
 
बोधिसत्व को दे खते ही मित्रविंद रोते हुए बोला, “स्वामी, मुझ पर कृपा कीजिए! कृपया यह
बताइये कि इस चक्र से मेरा पिंड कब छूटे गा?” इस पर इन्द्र ने मित्रविंद को यों समझाया,
“तम
ु ने अपार संपत्ति के होते हुए भी धन की कामना की। पिशाचिनियों के साथ सुख भोगा,
मानव द्वारा अनुसरण योग्य उत्तम धर्म-मार्ग तुम्हें अच्छे नहीं लगे। दस
ू रों ने तुम्हारे हित के
लिए जो सलाह दी, उसका तुमने तिरस्कार किया और तुमने अपनी इच्छा से इस चक्र की माँग
की। इसलिए तुम्हारे जीवन पर्यंत यह असिधारा चक्र तुमको नहीं छोड़ेगा!” मित्रविंद अपनी इस
दर्दु शा का कारण समझ कर दख
ु में डूब गया।
 
7. महावत राजा बना

 
ब्रह्मदत्त के शासन काल में बोधिसत्व वाराणसी के समीप एक साधु के रूप में रहा करते थे। वे
एक दिन नगर में भिक्षाटन के लिए निकले और एक महावत के घर पहुँचे। महावत हाथियों को
फँसाने और उन्हें प्रशिक्षण दे ने में बड़ा ही कुशल था। वह राजदरबार में कर्मचारी था।
 
महावत ने बड़े ही आदर के साथ बोधिसत्व का स्वागत किया और उन्हें खाना खिलाया। इसके
बाद उसने निवेदन किया कि वे थोड़े दिनों तक और उसका आतिथ्य स्वीकार करें ।
 
बोधिसत्व महावत के घर पर एक सप्ताह तक रहे । वहाँ से चलते वक्त उसकी हित-कामना
करते हुए उसे आशीर्वाद दिया। इनके आशीर्वाद के कारण एक दिन वह महावत से राजा बन
गया।
 
एक दिन रात को नगर के एक मंदिर के बाहर एक लकड़हारा लेटा हुआ था। समीप के एक पेड़
की शाखाओं पर कुछ मुर्गे सो रहे थे। पेड़ के नीचे कोई आहट हुई। इस पर एक मुर्गा जाग उठा
और उसने अपने पंख फड़फड़ाये। इससे एक सख ू ी लकड़ी टूट गयी और नीचे की डाल पर
सोनेवाले एक मर्गे ु पर जा गिरी। वह मर्गा
ु जाग उठा।
 
मुर्गे ने क्रोध में आकर सर उठाकर ऊपर दे खते हुए कहा, “तुम्हारा यह घमण्ड ठीक नहीं है !
जानते हो मैं कौन हूँ? कोई अगर मेरा माँस खाये तो उसे बहुत बड़ा खज़ाना हाथ लगेगा” ! मेरे
महत्व को जाने बिना तम ु ने मेरे साथ खिलवाड़ किया। लोग दस ू रों के बड़प्पन को नहीं
समझते। आखिर वे लोग कुएँ के में ढक जो होते हैं।
 
ये बातें सन
ु कर ऊपर की डाल पर रहनेवाला मर्गा
ु कहकहे लगाकर बोला, “तम्
ु हें मेरे बड़प्पन का
क्या पता है ? अरे , तम्
ु हीं अपने को बहुत बड़ा समझकर इतराते हो। तम ु अपनी छोटी सी
है सियत पर घमण्ड करते हो ! पर मेरा माँस खानेवाला व्यक्ति राजा बनेगा, राजा।“ यों अपना
भेद खोल दिया।

यह वार्तालाप सुनकर लकड़हारा खुशी से नाच उठा। वह थोड़ी दे र तक इंतजार करता रहा। जब
उसे विश्वास हो गया कि मुर्गे सो रहे हैं तब वह चुपके से पेड़ पर चढ़ गया। उसे लगा कि जब वह
राजा बन सकता है तो उसे खज़ाने से क्या मतलब? यों विचार कर वह निचली डाल पर सोने
वाले मुर्गे को छोड़ ऊपरी डाल पर सोने वाले मुर्गे को पकड़कर घर की आरे चल पड़ा। उस के मन
में तरह-तरह की कल्पनाएँ उठने लगीं। वह एक बहुत बड़े राज्य का राजा बनेगा। उसके अधीन
मंत्री, सेनापति, और अनेक राज कर्मचारी होंगे। चतुरंगी सेना होगी। उसकी पत्नी रानी बनेगी !
रोज उन्हें खाने को तरह-तरह के मिष्टान्न मिलेंगे। इन्हीं कल्पनाओं से उसका दिल उछल पड़ा
और उसके मन का मयरू नाच उठा।
 
घर पहुँचने के बाद वह अपनी पत्नी से बोला, जानती हो, तम
ु जल्द रानी बनने वाली हो।
 
लकड़हारे की पत्नी गस्ु से में आकर बोली, तम
ु पागल तो नहीं हो गये? मैं तो लकड़हारे की पत्नी
हूँ। फिर भी मैं खश
ु हूँ।
 
लकड़हारा ज़ोर से हँस पड़ा और बोला, लकड़ी काटकर पेट भरनेवाला तुम्हारा पति गद्दी पर
बैठने वाला है । लो, इस मुर्गे को काटकर इसकी तरकारी बनाओ। उसने पत्नी के सामने मुर्गे के
माँस का रहस्य खोल दिया।
 
उसकी पत्नी खशु ी से फूली न समायी। उसने उसी वक्त मर्गे
ु का माँस पकाया।
 
लकड़हारा बोला, पहले हम नदी में नहायेंगे, फिर खाना खायेंगे।
 
इसके बाद उन दोनों ने मर्गे
ु के माँस को एक मटके में भर कर उस पर ढक्कन लगाया और उसे
साथ ले कर वे दोनों नदी की ओर चल पड़े।
 
वे मटके को किनारे रखकर नहाने के लिए नदी में उतर पड़े। दे खते-दे खते नदी में बाढ़ आ गयी।
मटका बाढ़ के पानी में बह गया।
 
लकड़हारा सर पीटते हुए बोला, हमारी क़िस्मत में राजा और रानी बनना नहीं बदा है । दोनों
चिंता में डूबे घर की ओर चल पड़े। उस वक्त बोधिसत्व को आतिथ्य दे ने वाला महावत नदी में
एक हाथी को नहला रहा था। पानी में बहनेवाले मटके पर उसकी नेज़र पड़ी।

उसने मटका उठाया और ढक्कन खोलकर दे खा। थोड़ी ही दे र पहले पकाया गया चावल और
माँस उसमें पड़ा था। वह नदी में ताजा भोजन बहता दे खकर चकित था। वह भूखा था, इसलिए
उसने तुरन्त उसे खाकर अपनी भूख मिटायी।
 
इस घटना के तीन दिन बाद दश्ु मन ने वाराणसी पर हमला बोल दिया। राजा ने शत्रु द्वारा मारे
जाने के डर से महावत का वेष धारण कर लिया और महावत को अपना वेष पहना दिया।
 
शत्रु राजा ने राजा को जीवित पकड़ने की योजना बनाई। इसलिये दश्ु मनों ने महाराजा को बंदी
बनाने के लिये महावत पर बाणों की वर्षा की। वे लोग नहीं जानते थे कि महावत के वेष में
रहनेवाला व्यक्ति ही उस दे श का राजा है ।
 
बाणों के आघात से महावत के वेष में राजा मर गया। पर महावत ने दश्ु मन के साथ बदला लेने
के ख्याल से डट कर उस का सामना किया।
 
इस पर वाराणसी के सैनिकों की हिम्मत बढ़ गयी। वे भूखे सिंह-शावकों की भाँति दश्ु मन पर
टूट पड़े। थोड़ी दी दे र में दश्ु मन के अधिकांश सैनिक मारे गये और बाकी भाग खड़े हुए। तब
उनका राजा महावत के भाले की चोट खाकर वहीं पर ठं डा हो गया।
 
लड़ाई समाप्त होने पर मंत्री और राज-कर्मचारियों को पता चल गया कि शत्रु पर विजय का
कारण उनका राजा नहीं बल्कि महावत है । महाराजा का दे हांत हो चक
ु ा था। पर उनकी जगह
उन्हें एक और राजा की ज़रूरत थी। वैसे मत
ृ राजा के कोई संतान भी न थी।
 
राज-पुरोहित ने सलाह दी कि वाराणसी के राजा ने स्वयं अपनी पोशाकें महावत को दी थीं,
इसलिए महावत ही राजा बनने योग्य है ।
 
प्रधानमंत्री ने उसका समर्थन करते हुए कहा, महावत की वीरता के कारण ही शत्रु पर हमें विजय
मिली। इसलिए वही राजा बनने योग्य है ।
 
इस पर, प्रधान-मंत्री, पुरोहित और राज्य के ऊँचे अधिकारियों ने भी यही सम्मति दी।
 
इस प्रकार महावत वाराणसी का राजा बन बैठा। उसकी प्रार्थना पर बोधिसत्व ने उसके प्रधान
सलाहकार बनने की स्वीकृति दे दी।
 
8. नवकोटिनारायण

 
किसी जमाने में ब्रह्मदत्त काशी पर राज्य करते थे। उनके शासन-काल में काशी में एक बड़ा
धनी व्यक्ति रहता था। उसने नौ करोड़ रुपये कमाये। इसलिए, इस बीच जब उसके एक पुत्र
पैदा हुआ तो अमीर ने उसका नामकरण नवकोटि नारायण किया।
 
अमीर आदमी अपने बेटे नारायण की हर इच्छा की पूर्ति करता था। इसका नतीजा यह हुआ कि
बालक नारायण नटखट और उद्दण्ड हो गया । नारायण जब जवान हुआ, तब अमीर ने एक
सुंदर कन्या के साथ उसकी शादी कर दी। लेकिन इसके थोड़े ही दिन बाद अमीर का दे हांत हो
गया।
 
बचपन से नारायण पानी की तरह धन ख़र्च करता गया। आख़िर उसके पिता की मौत के समय
तक सारी संपति स्वाहा हो गई। उल्टे क़र्ज का बोझ उसके सर पर आ पड़ा। कर्ज़दारों ने आकर
क़र्ज चुकाने के लिए उस पर दबाव डालना शुरू किया। उस हालत में नारायण को अपनी ज़िंदगी
के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उसने सोचा कि इस अपमान को सहने के बदले कहीं मर जाना
अच्छा है ! आख़िर उन से बचने के ख़्याल से बोला, “महाशयो, मैं गंगा के किनारे अमुक पीपल
के पेड़ के पास जा रहा हूँ। वहाँ पर मेरे पुरखों द्वारा गाड़ा हुआ ख़जाना है ! आप लोग ऋण-पत्र
लेकर कृपया वहाँ पर आ जाइयेगा।”
 
क़र्जदार नारायण की बातों पर यक़ीन करके गंगा के किनारे पहुँचे। नारायण ने ख़जाने को ढूँढ़ने
का अभिनय किया। क़रीब आधी रात तक इधर-उधर खोजता रहा। आख़िर कर्जदारों को बेखबर
पाकर नारायण, “जय परमेश्वर की” चिल्ला कर गंगा में कूद पड़ा। गंगा की धारा उसे दरू बहा
ले गई।

उस जमाने में बोधिसत्व एक हिरन का जन्म धारण कर अन्य हिरनों से दरू गंगा के किनारे
एक आम के बगीचे में रहने लगा था। उस हिरन की अपनी एक अनोखी विशेषता थी। उसकी
दे ह सोने की कांति से चमक रही थी। लाख जैसे लाल खुर, चाँदी के सींग, हीरों की कणियों के
समान चमकनेवाली आँखें, उसकी आकृति की विशेषताएँ थीं। आधी रात के व़क्त उस हिरन को
एक मनुष्य की करुण पुकार सुनाई दी। हिरन यह सोचते हुए कि यह कैसा आर्तनाद है , नदी में
कूदकर उस आवाज़ की दिशा में तैरते हुए नारायण के पास पहुँचा।
 
“बेटा, तम
ु डरो मत, मेरे साथ चलो।” यों उसे हिम्मत बँधा कर हिरन ने नारायण को अपनी
पीठ पर चढ़ाया और उसको अपने निवास तक ले गया। नारायण के होश संभालने तक हिरन
जंगल से फल ले आया और उसकी भखू मिटाई।
 
एक दिन हिरन ने नारायण को समझाया, “बेटा, मैं तुम्हें जंगल पार कराकर तुम्हारे राज्य का
रास्ता बता दे ता हूँ। तम
ु अपने गाँव चले जाओ। लेकिन मेरी एक शर्त है , राजा या कोई और
व्यक्ति भले ही तम
ु पर दबाब डाले, या लोभ दिखावे, तुम यह प्रकट न करना कि अमुक जगह
सोने का हिरन है ।”
 
नारायण ने हिरन की बात मान ली। उसकी बातों पर विश्वास करके हिरन ने नारायण को
अपनी पीठ पर बिठाया, और जंगल पार करा कर उसे काशी जानेवाले रास्ते पर छोड़ दिया।
 
नारायण जिस दिन काशी नगर में पहुँचा, उस दिन वहाँ पर एक अद्भत
ु घटना हुई। वह यह कि
रानी को सपने में एक सोने के हिरन ने दर्शन दे कर उसे धर्मोपदे श किया था।

रानी ने राजा को अपने सपने का समाचार सन


ु ाकर कहा, “अगर दनि
ु या में ऐसा हिरन न होता
तो मझ
ु े कैसे दिखाई दे ता? चाहे वह कहीं भी क्यों न हो, उसे पकड़ लाने पर मेरे प्राण बच सकते
हैं, वरना नहीं।”
 
रानी के वास्ते हिरन मँगवाने के लिए राजा ने एक उपाय किया। उन्होंने एक हाथी के हौदे पर
एक सोने का बक्स रखवा दिया और उसमें एक हज़ार सोने के सिक्के भरवा दिये। तब निश्चय
किया कि उसका जल
ु ूस निकाला जाये और जो आदमी सब से पहले सोने के हिरन का समाचार
दे गा, उसको बक्स के भीतर के सोने के सिक्के उपहार के रूप में दिये जायेंगे। इस आशय का
ढिंढोरा सब जगह पिटवाया गया। उसी व़क्त नारायण काशी नगर में पहुँचा।
 
उसने सेनापति के पास पहुँच कर निवेदन किया, “महाशय, मैं उस सोने के हिरन का सारा
समाचार जानता हूँ। आप मुझे राजा के पास ले जाइये।”
 
इसके बाद नारायण ने राजा और उनके परिवार को साथ ले हिरन का निवास दिखाया। वह
थोड़ी दरू जा खड़ा हुआ।
 
राजा के परिवार ने कोलाहल करना शुरू किया। हिरन के रूप में रहनेवाले बोधिसत्व ने उनकी
आवाज़ सुनी।
 
?शायद कोई महान अतिथि आया होगा। उनका स्वागत करना चाहिए।' यों सोचकर वह उठ
खड़ा हुआ और सब लोगों से बचकर वह सीधे राजा के पास पहुँचने के लिए दौड़ा।
 
हिरन की तेज गति को दे ख राजा आश्चर्य में आ गये। धनुष और बाण लेकर हिरन पर निशाना
लगाया। इस पर हिरन ने पछ
ू ा, “महाराज, रुक जाइये! आपको किसने मेरे निवास का पता
बताया है ?”

राजा के कानों में ये शब्द बड़े ही मधुर मालूम हुए। स्वतः ही उनके हाथों से धनुष और बाण
नीचे गिर गये।
 
बोधिसत्व ने मीठे स्वर में फिर राजा से पछू ा, “महाराज, आपको किसने मेरे निवास का पता
बताया है ?”
 
राजा ने नारायण की ओर उं गली का इशारा किया।
 
इस पर बोधिसत्व ने यों तत्वोपदे श किया, “शास्त्रों में वर्णित ये बातें बिलकुल सही हैं कि इस
दनि
ु या में मनष्ु य से बढ़कर कोई भी प्राणी कृतघ्न नहीं है । जानवर और चिड़ियों की भाषा भी
समझी जा सकती है , लेकिन मनष्ु य की बातों को समझना ब्रह्मा के लिए भी संभव नहीं है ।”
इन शब्दों के साथ बोधिसत्व ने वह सारा वत्ृ तांत राजा को सन
ु ाया कि उसने नारायण की रक्षा
करके कैसे उससे वचन लिया था। राजा ने क्रोध में आकर कहा, “ओह, यह बात है ! ऐसे कृतघ्न
दनि
ु या के लिए भी बोझीले हैं। यह महान पापी है । मैं अभी इसका वध करता हूँ।” यों कहकर
राजा ने अपने तरकस से तीर निकाला।
 
बोधिसत्व ने राजा को रोकते हुए कहा, “महाराज, इसके प्राण न लीजिये। अगर यह ज़िंदा रहे गा
तो कभी-न-कभी अपनी भूल समझकर यह अपनी ज़िंदगी को सुधार लेगा। आप कृपया अपने
वचन के मुताबिक़ उसे जो पुरस्कार मिलना चाहिए, उसको दे दीजिए। यही बात न्याय संगत
है ।”
 
राजा ने बोधिसत्व के उपदे श का पालन किया।
 
बोधिसत्व की उदारता, क्षमा आदि महान गण ु ों को राजा ने समझ लिया। उनको एक महात्मा
मानकर अपने राज्य के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया।
 
9. धर्माचरण

प्राचीन काल में काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त शासन करते थे। उसी काल में बोधिसत्व ने धनंजय
के नाम से कुरु राजा के रूप में इन्द्रप्रस्थ में जन्म लिया। उनके राज्य में अकाल कभी पड़ता न
था। प्रजा सुखी थी। सारे जंबू द्वीप में ख़बर फैल गयी कि धर्माचरण और दान करने में इंद्रप्रस्थ
के राजा धनंजय की बराबरी करने वाला कोई नहीं हैं।

उन्हीं दिनों दं तपुर को अपनी राजधानी बनाकर कलिंग दे श पर कालिंग नामक राजा राज्य
करते थे। उस राज्य में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। जनता भूखों मरने लगी। कई बच्चे अपनी
माताओं की गोद में ही मर गये। जनता में हाहाकार मच गया। दे श की उस बरु ी हालत दे ख
राजा कालिंग का दिल पसीज उठा। उन्होंने अपने मंत्रियों को बल
ु ाकर पछ
ू ा, “इस वर्ष हमारे दे श
में ऐसे भयंकर अकाल पड़ने का कारण क्या है ? इस बरु े हाल से बचने का उपाय क्या है ?”
मंत्रियों ने जवाब दिया, “महाराज, दे श में जब धर्म की हानि होती है , तभी ऐसी आपदाएं आती
हैं। इंद्रप्रस्थ के राजा धनंजय अपने धर्म का पालन करते हैं! इसीलिए उस दे श में कभी अकाल
नहीं पड़ता। जनता सख
ु ी है और दे श समद्ध
ृ है ।”

“तब तो तम
ु लोग एक काम करो। आज ही इन्द्रप्रस्थ जाकर राजा धनंजय के दर्शन करो। उनके
द्वारा सोने के पत्रों पर धर्म-सत्र
ू लिखवा कर ले आओ। हम भी उन सत्र
ू ों पर अमल करके अपने
दे श को सुखी और संपन्न बना लेंगे।” राजा कालिंग ने समझाया। कलिंग दे श के मंत्री स्वर्ण पत्र
लेकर इंद्रप्रस्थ पहुँचे। राजा धनंजय के दर्शन करके बोले, “महाराज, हम कलिंग दे श के निवासी
हैं। हमारे दे श की प्रजा भयंकर अकाल का शिकार हो गई है । आप तो धर्मात्मा हैं, धर्माचरण
करते हुए प्रजा पर शासन करते हैं। इसीलिए आपकी प्रजा सुखी और संपन्न है । हमारे राजा को
जिन धर्मसूत्रों का पालन करना चाहिए, उन्हें आप इन सोने के पत्रों पर लिख दीजिए। हमारे
राजा उन धर्म-सूत्रों का पालन करके अकाल से प्रजा को मुक्त करें गे।” इन शब्दों के साथ
कलिंग दे श के मंत्रियों ने सोने के पत्रों को धनंजय के सामने रखा।

 धनंजय ने प्रणाम करके कहा, “महामंत्रियो ! क्षमा कीजिए। इन पत्रों पर धर्म-सूत्र लिखने की
योग्यता मैं नहीं रखता, क्योंकि एक बार मेरे द्वारा धर्म का उल्लंघन हुआ है । हमारे दे श में तीन
सालों में एक बार कार्तिक उत्सव होता है । उस व़क्त राजा को एक तालाब के किनारे यज्ञ करके
चारों तरफ़ चार बाण छोड़ने पड़ते हैं। एक बार मैंने जो चार बाण छोड़ दिये, उन में से तीन तो
हाथ लगे, मगर चौथा बाण तालाब में गिर गया। उसके आघात से मछलियाँ और में ढक मर गये
होंगे।”

ये बातें सन ु मंत्री आश्चर्य में आ गये। इसके बाद वे राजमाता मायादे वी के पास पहुँचे। सारी
बातें उन्हें सनु ाकर बोले, “माताजी, आप कृपया हमारे वास्ते धर्म-सत्र
ू लिख दीजिए।” “बेटे, मैंने
भी धर्म का अतिक्रमण किया है । एक बार मेरे बड़े बेटे ने मझ
ु े सोने की एक माला भें ट की। मैंने
अपनी बड़ी बहू को संपन्न परिवार की समझ कर वह माला छोटी बहू को दे दी। लेकिन दस
ू रे ही
पल मेरे भीतर का पक्षपात मझ
ु े मालम ू हुआ और इस बात का मझ ु े बड़ा दख
ु हुआ। इसलिए
दस
ू रों को धर्म-सत्र
ू लिख कर दे ने की योग्यता मैं नहीं रखती। आप लोग कृपया किसी योग्य
व्यक्ति के पास जाइये।”

इसके बाद कलिंग दे श के मंत्री राजा के भाई नंद के पास पहुँचे। उन्होंने भी एक बार धर्म का
अतिक्रमण करने की बात बताई, “मैं रोज शाम को अपने रथ पर अंतःपुर में जाता हूँ। अगर मैं
अपना चाबुक रथ पर छोड़ जाता हूँ तो मैं रात को अंतःपुर में नहीं टिकता। ऐसी हालत में रथ
का सारथी मेरे इन्तज़ार में बैठा रहता है । यदि मैं चाबुक अपने साथ ले जाता हूँ तो सारथी रथ
हांक ले जाता है , और दस
ू रे दिन सवेरे रथ ले आता है । एक दिन मैं चाबुक को रथ पर छोड़ कर
अंतःपुर में चला गया। उस दिन अंतःपुर से लौटने का मेरा विचार था। लेकिन एक दिन जब रथ
में चाबुक छोड़ कर गया तो ज़ोर से पानी बरसा। राजा ने, जो मेरे बड़े भाई हैं, मुझे लौटने नहीं
दिया; इस कारण मैं रात को अंतःपुर में ही रह गया। पानी में भीगते मेरा सारथी रात भर रथ
पर बैठा ही रह गया। उसे इस प्रकार तक़लीफ़ पहुँचा कर मैंने धर्म का अतिक्रमण किया है ।”

इसके बाद कलिंग के मंत्री राजपरु ोहित के पास पहुँचे । लेकिन उन्होंने भी धर्म का अतिक्रमण
करने की घटना बताई, “एक दिन मैं राजमहल को जा रहा था। रास्ते में मझ ु े एक रथ दिखाई
दिया। उस पर सोने का मल
ु म्मा चढ़ाया गया था। उसे दे खते ही मेरे मन में लालच पैदा हो गया।
मैं जब राजा के पास पहुँचा, तब वे मझु े दे खकर बोले, “परु ोहितजी, यह रथ मैं आपको भें ट
करता हूँ।” उसी व़क्त मझ
ु े अपने लालच की याद हो आई और पछताते हुए मैंने उस रथ को लेने
से इनकार किया। इसलिए मैं आपको धर्म-सत्र
ू लिखकर नहीं दे सकता।”

कलिंग दे श के मंत्रियों की समझ में कुछ नहीं आया। आख़िर वे इंद्रप्रस्थ के महामंत्री के पास
पहुँचे। वे बोले, “मैं एक दिन एक किसान के खेत का माप लेने गया। माप के मुताबिक़ जहाँ
मुझे लकड़ी गाड़नी थी, वहाँ पर एक बिल था। मेरे मन में शंका पैदा हो गई कि उस बिल में
किसी प्राणी का निवास हो सकता है । लेकिन अगर थोड़ा हटकर लकड़ी गाड़ दँ ू तो किसान का
नक
ु सान होगा! उसके थोड़ा आगे गाड़ने पर राजा का नक
ु सान हो सकता है ! इसलिए मैंने उस
बिल में ही लकड़ी गाड़ने की आज्ञा दी। उसी व़क्त बिल में से एक केकड़ा बाहर निकलते हुए
लकड़ी के आघात से मर गया। इसलिए मैंने भी धर्म का अतिक्रमण किया है । ऐसी हालत में मैं
आप लोगों को धर्म-सत्र
ू लिखकर कैसे दे सकता हूँ?”

इस पर  के मंत्रियों के मन में एक उपाय सझ


ू ा। उन लोगों ने जो कहानियाँ सन
ु ी थीं उन्हें सोने के
पत्रों पर लिख कर राजा को सन
ु ाया। राजा कालिंग ने समझ लिया कि धर्म के प्रति ईमानदार
रहना ही सबसे उत्तम धर्म है । इस प्रकार आत्म विमर्श करके उन्होंने शासन करना शरू
ु किया।
कुछ ही दिनों में पानी बरसा और राज्य भर में अकाल दरू हो गया। कलिंग दे श की प्रजा सख

पूर्वक अपनी जिंदगी बिताने लगी।
 

10. विश्वासघात

ब्रह्मदत्त जिन दिनों काशी राज्य पर शासन कर रहे थे, उन दिनों  बोधिसत्व उनके  यहाँ 
पंडितामात्य के पद पर थे।

एक बार काशी के राजा ब्रह्मदत्त ने किसी कारण से अपने पत्र


ु पर नाराज़ होकर उसे अपने दे श
से निकाल दिया। राजकुमार अपनी पत्नी के साथ बहुत दिन इधर-उधर भटकता रहा और
काफी कष्ट झेला। उसकी साध्वी पत्नी ने  सहनशीलता के साथ सारी यातनाएँ झेलीं।

कुछ साल बाद ब्रह्मदत्त की मौत हो गई । अपने पिता की मौत का समाचार मिलते ही
राजकुमार बड़ा खश ु हुआ। काशी में पहुँचकर गद्दी पर बैठने के उतावले में वह तेज़ी के साथ
यात्रा करने लगा।

पर उस मूर्ख की समझ में यह बात न आई कि उसकी पत्नी उसके बराबर तेज़ी के साथ चल
नहीं सकती और उसके कष्टों में पत्नी ने भी समान रूप से भाग लिया है , इसलिए इस व़क्त
उसकी तक़लीफ़ों में भी राजकुमार को हिस्सा लेना है ! इस कारण राजकुमार ने दिन-रात खाना-
पीना व आराम करना इत्यादि का ख़्याल तक किये बिना अपनी पत्नी को भी तेज़ी के साथ
चलने को बाध्य किया।

चाहे कितनी भी तीव्र राज्याकांक्षा क्यों न हो, खाना व आराम के बिना आख़िर कोई कितनी दरू
चल सकता है ! इसलिए उसकी पत्नी के साथ उसे भी ज़ोर की भख
ू लगी। दोनों आखिर एक
गाँव में पहुँचे। वहाँ पर कुछ लोगों ने उनकी यह बरु ी हालत दे खकर कहा, “महाशय, लगता है
कि आप लोग बड़ी भख ू के साथ ही यात्रा कर रहे हैं। हमलोग थोड़ा खाना दे ते हैं, पोटली बनाकर
ले जाइए और कहीं रास्ते में खा लीजिएगा।”

राजकुमार ने अपनी पत्नी को एक जगह आराम करने को कहा और खाना लाने वह उनके पीछे
चल पड़ा। उन लोगों ने पति-पत्नी के भर पेट खाने लायक़ खाना पत्तलों में बांधकर राजकुमार
के हाथ दे दिया।
खाना लेकर लौटते व़क्त राजकुमार ने सोचा, “यह खाना दोनों मिलकर खा लेंगे तो दस
ू रे जून
ही फिर भूख लगेगी। काशी तक पहुँचना उसकी पत्नी के लिए नहीं, उसे अनिवार्य है ! इसलिए
कोई उपाय करके सारा खाना उसी को खा डालना है !”

उस नीच ने यों विचार करके पत्नी के पास पहुँचते ही समझाया, “तम


ु आगे चलती चलो, मैं
कालकृत्यों से निवत्ृ त होकर जल्दी आता हूँ!”

वह ज्यों ही आगे बढ़ी, राजकुमार ने सारा खाना खा डाला, पत्तों को ढीला बांधकर जल्दी-जल्दी
डग भरते पत्नी से आ मिला।

पत्नी ने आस भरी आँखों से ज्यों ही पोटली की ओर दे खा, त्यों ही उसने क्रोध का अभिनय करते
कहा, “दे खो, इस गाँव के लोग कैसे दगेबाज हैं। खाली पत्तल की पोटली बनाकर दिये हैं!”

राजकुमार की पत्नी सच्ची बात जान गई थी, फिर भी वह चप


ु रह गई। थोड़े दिन की यात्रा
करके वे लोग आख़िर काशी पहुँच गये। ब्रह्मदत्त के पत्र
ु ने अपना राज्याभिषेक सही ढं ग से
करवा लिया और वह काशी का राजा बन बैठा।

राजा बनने के बाद वह अपनी पत्नी के बारे में सोचने व समझने की आदत तक खो बैठा। कभी
उसने इस बात की पछ
ू -ताछ न की कि उसकी पत्नी सही ढं ग से खाना खाती है या नहीं और उसे
रानी के योग्य कपड़े मिल जाते हैं या नहीं! इसलिए रानी की तक़लीफ़ें दरू होने के बावजद
ू वह
हमेशा चिंतित रहने लगी।
राजा के यहाँ पंडितामात्य के पद पर रहनेवाले बोधिसत्व ने रानी की चिंता को भांप लिया और
एक बार उनसे मिलने गये। रानी ने उनका स्वागत करके आतिथ्य दिया।

बोधिसत्व ने कहा, “महारानीजी, अपने कष्टों से मुक्त हो राजा बनने के उपलक्ष्य में राजा ने
मुझे कई भें ट-उपहार दिये हैं, लेकिन आपने आज तक मुझे एक भी चीज़ नहीं दी।”

“महानुभाव, मैं नाम के वास्ते रानी हूँ, मगर सच पूछा जाये तो मेरे और अंतःपुर की दासियों के
बीच कोई फ़र्क नहीं है । राजा की तक़लीफ़ों को छोड़, सुख-भोगों में जो हिस्सा नहीं रखती, वह
आख़िर कैसी रानी कहलायेगी?” इन शब्दों के साथ रानी ने वह सारा किस्सा सुनाया, जब काशी
लौटने के रास्ते में उसके पति ने कैसे उसके  हिस्से का भी खाना खा डाला था!

बोधिसत्व ने रानी को समझाया, “मैं कल भरी सभा में आप से ये ही सवाल पूछूँगा, आप निर्भय
होकर ये ही जवाब दें तो मैं आपकी चिंता को दरू कर सकता हूँ।”

दस
ू रे दिन राज सभा में महारानी भी आ पहुँचीं, इस पर बोधिसत्व ने उनसे पूछा-”महारानीजी,
आप राज्य ग्रहण के बाद अपने सेवकों की बात सोचती तक नहीं!” इस पर रानी ने सभा में
सारी बातें बताईं। यह बात प्रकट होते ही कि राजा ने एक बार रानी के हिस्से का भी खाना खा
लिया था, राजा ने अपमान का अनुभव किया।

रानी की बातें समाप्त होते ही बोधिसत्व ने समझाया, “महारानीजी, जब महाराजा आपका


ख़्याल तक नहीं रखते, तब आप को भी उनके साथ रहने की कोई ज़रूरत नहीं है ।

कहा गया है , चजे चजंतं वन्थं न कइरा, आपेत चित्तेन न संभजेय्य; द्विजो दम
ु ं खीण फलंति
इत्वा; अंडं समेक्खेय्य, महाहे लोके।

पजिसने तुम्हें त्याग दिया, उसे त्याग दो, ऐसे आदमी के स्नेह की कामना न करो, जो तुम्हारे
प्रति आदर नहीं रखता। तुम्हें उसके प्रति आदर दिखाने की ज़रूरत नहीं है । पक्षी भी आख़िर
फल विहीन पेड़ को छोड़ दस
ू रे वक्ष
ृ ों में चला जाता है । यह जगत बड़ा ही विशाल है । ब इसलिए
आप राजमहल को छोड़ जहाँ आप को आदर मिलता है , वहीं पर आप सुख का जीवन
बिताइये।” ये शब्द सुनने की दे र थी कि राजा सिंहासन से उतर आये, बोधिसत्व के पैरों पर
गिरकर क्षमा मांगने लगे “पंडितामात्य, आप मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिएगा! मेरी इज्ज़त
बचाइये, जो बात हो गई, सो हो गई। आइंदा मैं अपनी पत्नी के प्रति धर्मपूर्ण व्यवहार करूँगा।”

उस दिन से राजा रानी के प्रति आदर दिखाते हुए सुख की ज़िंदगी जीने लगा।

 
 

11. गुरु की जिम्मेदारी

ब्रह्मदत्त जिन दिनों काशी राज्य पर शासन करते थे, बोधिसत्व ने तक्षशिला नगर में एक बड़े
शिल्पाचार्य के रूप में जन्म लिया। उनके यहॉ ं शिल्प विद्या का अध्ययन करने के लिए दे श के
कोने-कोने से कई राजकुमार  आया करते थे।

तक्षशिला नगर के शिल्पाचार्य का यश सुनकर काशी नरे श ने भी अपने पत्र


ु को विद्याभ्यास के
लिए उनके यहॉ ं भेजने का निर्णय किया। लेकिन सोलह वर्ष से कम उम्रवाले राजकुमार को
अकेले दरू स्थित तक्षशिला में   भेजना और वहॉ ं गुरु की सेवा-शुश्रूषा करते शिक्षा प्राप्त करना
मंत्री और सामंतों को कतई पसंद न था।

इस विचार से सब ने कहा, “महाराज, शिल्प विद्या के कई पंडित हमारे ही नगर में हैं; ऐसी
हालत में यव
ु राजा को तक्षशिला क्यों भेजते
हैं?”

पर राजा ने उनके सझ
ु ाव को न माना। उनका विचार था कि राजधानी में उनके पत्र
ु के लिए
यव
ु राजा के ओहदे पर रहते हुए शिल्प विद्या का अभ्यास करना मम
ु किन न होगा।

यों विचार कर राजा ने अपने पत्र


ु को एक जोड़ी खड़ाऊँ और ताड़-पत्रों वाला छाता मात्र दे कर
आदे श दिया, “तमु तक्षशिला जाकर वहॉ ं के शिल्पाचार्य के यहॉ ं शिक्षा प्राप्त करो। शिक्षा के
समाप्त होते ही लौट आओ! उन्हें   गरु
ु दक्षिणा के रूप में सौंपने के लिए एक हजार चांदी के
सिक्के अपने साथ लेते जाओ।”

राजकुमार अपने पिता के आदे शानस


ु ार अकेले चल पड़ा। बड़ी तक़लीफ़ें झेलकर आख़िर वह
तक्षशिला पहुँचा।
युवराजा ने शिल्पाचार्य के दर्शन करके अपने आने का उद्देश्य बताया। एक हज़ार चांदी के
सिक्के उन्हें सौंपकर उन्होंने विद्याभ्यास शुरू किया।

थोड़े दिन बीत गये। गुरु और शिष्य रोज सवेरे नगर के बाहर नदी में स्नान करने जाते थे। एक
दिन जब वे दोनों नहा रहे थे, तब एक बूढ़ी औरत थोड़े तिल पानी में धोकर नदी किनारे एक
वस्त्र पर सुखाने लगी।

राजकुमार तिल को दे खते ही झटपट स्नान पूरा करके किनारे पर पहुँचा। बूढ़ी को असावधान
दे ख मुट्ठी भर तिल मँुह में डाल लिया। बूढ़ी ने इसे भांप लिया, लेकिन वह चुप रह गई।

दस
ू रे दिन भी राजकुमार ने ऐसा ही किया। बढ़
ू ी दे खकर भी अनदे खी सी रह गई। तीसरे दिन भी
राजकुमार ने मट्ठ
ु ी भर तिल खा लिया। इस पर बढ़
ू ी को उस यव
ु क पर बड़ा गस्
ु सा आया।

जब शिल्पाचार्य स्नान समाप्त कर नदी के किनारे पहुँचे, तब बूढ़ी औरत ने आचार्य से


शिकायत की, “आचार्यजी, तीन दिन से बराबर आप का शिष्य मेरे तिल चुराकर खाता जा रहा
है । तिल के नष्ट होने का मुझे दख
ु नहीं  है , लेकिन उस युवक की चुराने की आदत मुझे अच्छी
नहीं लगती। यह आप के यश में कलंक लगने की बात होगी। कृपया उसे ऐसा दण्ड दीजिए
जिससे वह आइंदा ऐसी चोरी न करे ।”

घर लौटते ही शिल्पाचार्य ने राजकुमार की पीठ पर छड़ी से तीन बार मार कर कहा, “तम
ु ने जो
अनुचित कार्य किया है , उसके लिए यही सजा है ! आइंदा तम
ु ऐसा काम बिलकुल न करो।”

राजकुमार को गुरु पर बड़ा क्रोध आया। लेकिन काशी राज्य की सीमा के  बाहर वह एक
साधारण व्यक्ति था, उसने सोचा।

किन्तु उसने उसी व़क्त अपने मन में यह शपथ ली, “मेरे राजा बनने के बाद इस दष्ु ट को किसी
बहाने काशी राज्य में बुलवाकर जरूर इसकी जान ले लँ ग
ू ा।”

कालक्रम में राजकुमार की शिक्षा समाप्त हुई। काशी लौटते व़क्त राजकुमार ने अपने गुरु को
प्रणाम करके उनके आशीर्वाद लिये ।
इसके बाद राजकुमार ने अपने गुरु से कहा, “आचार्यजी, मेरे राजा बनने के बाद आप को एक
बार अवश्य काशी नगर में पधारना होगा। उस समय मैं उचित रीति से आपका सत्कार करना
चाहता हूँ।” अपने शिष्य के  निमंत्रण पर गुरु बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।

काशी नगर को लौटने के थोड़े साल बाद राजकुमार का राज्याभिषेक हुआ। एक दिन उसे अपने
गुरु की बात याद आई । उसी व़क्त उसने अपने एक नौकर को बुलाकर आज्ञा दी, “तुम
तक्षशिला जाकर शिल्पाचार्य के  दर्शन कर उन्हें मेरा यह निमंत्रण-पत्र सौंप दो।”

शिल्पाचार्य निमंत्रण पाकर भी तरु ं त काशी के लिए रवाना न हुए। उन्होंने सोचा कि राजा गद्दी
पाने के शौक में होगा। राज्य-भार का उसे अनभ ु व होने के बाद मिलना उचित होगा।

इसी निर्णय के अनस


ु ार शिल्पाचार्य थोड़े दिन बाद काशी नगर पहुँचे । राजा के गरु
ु के आने का
समाचार सन
ु कर सभासदों ने शिल्पाचार्य के प्रति बड़ा आदर भाव दिखाया और उन्हें एक ऊँचे
आसन पर बिठाया।

गरु
ु को दे खते ही राजा को अपना परु ाना क्रोध याद हो आया । उसने गरु
ु की ओर तीक्ष्ण दृष्टि
डालकर पछ
ू ा, “मट्ठ
ु ी भर तिल खाने पर दण्ड दे नेवाले को हाथ में आने पर कहीं प्राणों के साथ
छोड़ दिया जाता है ?”

राजा ने सोचा कि सभासदों की समझ में न आनेवाले ढं ग से शिल्पाचार्य के मन में मौत का डर


पैदा कर फिर सवि
ु धानुसार वह उसे मार डालेगा। लेकिन शिल्पाचार्य डरे नहीं। उल्टे उन्होंने
राजा का रहस्य इस रूप में   प्रकट किया, “हे राजन, जब तुम मेरी जिम्मेदारी के अधीन शिष्य
थे, तब तम
ु ने अपने ओहदे के विपरीत काम किया। शिष्य के दष्ु टतापूर्ण व्यवहार पर दण्ड दे कर
उसे अच्छे पथ पर लाना गुरु का कर्तव्य है । अगर उस  दिन मैंने तुम्हें दण्ड न दिया होता तो
तुम आज राजा नहीं डाकू बन गये होते। बुद्धिमान लोग जब कोई अपराध करते हैं, तब वे दण्ड
दे नेवालों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।”

इस पर असली बात सभासदों पर प्रकट हो गई। राजा का अपमान हुआ। वह गुरु के पैरों पर
गिरकर बोला, “महानुभाव, एक बार और आप ने मुझे गलत मार्ग से हटा कर सही रास्ते पर
लगाया। मैं आप के प्रति  हमेशा के लिए कृतज्ञ हूँ!” राजा के भीतर यह परिवर्तन दे ख सभासदों
के साथ गरु
ु भी बहुत ख़श
ु हुए।

इसके बाद राजा के अनरु ोध पर शिल्पाचार्य ने अपना निवास तक्षशिला से काशी बदल लिया
और दरबारी आचार्य के पद पर रहते हुए राजा को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे ते रहे ।

 
12. वाराणसी पर गीदड़ की चढ़ाई

 
एक बार बोधिसत्व ने काशी के एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। बोधिसत्व में
बचपन से ही ज्ञान के लिए अद्भत
ु लगन थी। अतः कम उम्र में ही इन्होंने समस्त शास्त्रों का
अध्ययन समाप्त कर लिया। नगर के बड़े-बड़े पंडित इनके ज्ञान का लोहा मानने लगे। इनकी
असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर काशी-नरे श ने इन्हें प्रधान पुरोहित बना दिया।
 
बोधिसत्व ने शास्त्रों का अध्ययन कर एक ऐसे मंत्र का पता लगाया जिसे कोई भी सुनता तो
वह मंत्र कहनेवाले के प्रभाव या अधिकार में आ जाता और बिना विरोध किये उसकी आज्ञा का
पालन करता। बोधिसत्व इस मंत्र का किसी पर प्रयोग करना तो नहीं चाहते थे पर इतना जरूर
चाहते थे कि इस मंत्र का अभ्यास बना रहे ताकि जरूरत पर जन-कल्याण के लिए इसका
उपयोग हो सके ।
 
इस विचार से, एकान्त में इस मंत्र का अभ्यास करने के लिए एक दिन बोधिसत्व निकट के
जंगल में गये। वहाँ वे एक ऊँची चट्टान पर बैठ गये। उन्होंने इधर-उधर ध्यान से दे खा, कोई
नहीं था। उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से बोलकर मंत्र का कई बार अभ्यास किया। सूर्यास्त होने पर वे
वापस आने के लिए उठ खड़े हुए।
 
तभी चट्टान के पीछे से एक गीदड़ आकर बोला, “पंडित जी महाराज! मैंने आपका मंत्र कण्ठस्थ
कर लिया है । आपको शत-शत प्रणाम!” इतना कहकर वह भाग गया। बोधिसत्व ने सोचा कि
गीदड़ जैसे अयोग्य के लिए यह मंत्र सीखना शभ
ु नहीं है , इसलिए उन्होंने उसका पीछा किया।
गीदड़ पास की झाड़ियों में छिप गया।
 
अन्धेरा बढ़ गया था, इसलिए बोधिसत्व उसे पकड़ न सके। गीदड़ पिछले जन्म में ब्राह्मण था।
चालाकी और मक्कारी के कारण उसे गीदड़ का नीच जन्म मिला था।

 
मनष्ु य जन्म की स्मरण शक्ति बनी थी, इसी कारण वह मंत्र तरु न्त सीख गया। गीदड़ को
रास्ते में एक दस
ू रा मोटा तगड़ा गीदड़ मिला। इसने तरु ं त मंत्र का उच्चारण किया। तगड़े गीदड़
ने उसे झक
ु कर प्रणाम किया और रास्ता दे दिया। गीदड़ बड़ा प्रसन्न हुआ। इसने कुछ ही दिनों
में सैकड़ों गीदड़ों और सियारों पर प्रभाव जमा लिया।
 
इसके बाद जंगली सूअरों, बाघों, शेरों और हाथियों को भी प्रभावित किया और एक दिन
समारोह के साथ वह जंगल का राजा घोषित कर दिया गया। अब क्या था। गीदड़ चैन से जंगल
पर राज्य करने लगा। वह मन ही मन अपने भाग्य पर इठलाता। सोचता, एक मंत्र की बदौलत
वह आज कहाँ से पहुँच गया है ।
 
एक मामूली गीदड़ से जंगल के राजा का भी राजा हो गया है । शेर तक उसकी गुलामी करते हैं।
हाथी, गैंडे सभी दे खते ही सलाम करते हैं। वह मंत्र से अधिक अपनी बुद्धि और चतुराई की
तारीफ़ करता। यदि अपनी चतुराई से मंत्र नहीं सीखता तो मंत्र का क्या कोई लाभ होता! दे खते-
दे खते उसके दिन बदल गये।
 
पहले जहाँ उसे बड़े जानवरों के जठ
ू न पर गज
ु ारा करना पड़ता, वहाँ अब रोज़ नये-नये ताज़े
चढ़ावे आने लगे। शाकाहारी पशु भें ट में तरह-तरह के फल लाते, मांसाहारी पशु ताज़ा मांस।
राजा के सन्तुष्ट होने पर ही शेर-चीते अपना भोजन शुरू करते। शरीर और अहं कार दोनों बैलून
की तरह फूलने लगे। इसका शरीर इतना मोटा हो गया कि भेड़िया और इसमें भेद करना
मुश्किल हो गया।

वह शान से जंगल का दौरा करने लगा और बड़े-बड़े जानवरों को डाँटने-फटकारने और हुक्म


सुनाने लगा। जंगल के कुछ जानवर तो यह समझते कि यह साधारण गीदड़ नहीं है , बल्कि
किसी दै वी शक्ति का अवतार है ।
 
लेकिन कुछ जानवर पीछे में इसकी शिकायत भी करते। फिर भी, मंत्र का कुछ ऐसा असर था
कि गीदड़ राजा के सामने आते ही उनकी बोलती बन्द हो जाती। सबको आश्चर्य होता कि
आखिर यह गीदड़ से जंगल का राजा कैसे बन बैठा।
 
मंत्र का राज़ किसी को मालूम न था। कुछ स्वार्थी गीदड़ों ने अपने लाभ के लिए राजा को सलाह
दी, “रानी के बिना राज्य सूना-सा लगता है महाराज! और जब तक राज्य की व्यवस्था दे खने
के लिए मंत्री और सेनापति नहीं रहें गे, तब तक दश्ु मनों का खतरा बराबर बना रहे गा।” यह बात
राजा को भा गयी।
 
गीदड़-राजा ने एक मादा गीदड़ से विवाह कर उसे रानी घोषित किया। कुछ बाघों और शेरों को
चुनकर उन्हें मंत्री और सेनापति बनाया। उसे यह जानकर बहुत गर्व होता कि सभी जानवर
बिना चूं-चपड़ उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।
 
दो हाथियों को पास-पास खड़ा किया जाता। उन दोनों की पीठ पर एक शेर खड़ा होता। शेर की
पीठ पर गीदड़-राजा विराजमान होता। खश
ु ामदी पशु कहते, “इतना बड़ा राजा आज तक नहीं
हुआ।” उसका गर्व बढ़ता गया।
 
एक दिन उसके मन में विचार आया, ?क्या हम सिर्फ़ जानवरों का राजा बनकर संतोष कर लें?
क्यों न वाराणसी को जीतें ?' उसने शेरों और अन्य मजबत
ू जानवरों की सेना बनायी और
वाराणसी पर चढ़ाई कर दी।
 

इस डरावनी सेना को जिन्होंने दे खा, उन सबने नगर भर में यह खबर फैला दी। नगरवासी डर
से थर-थर काँपने लगे। गीदड़-राजा नगर-द्वार पर रुका और भय-कंपित द्वार-रक्षकों से बोला,
“अपने राजा से कहो कि आत्म-समर्पण कर दे , नहीं तो मेरी सेना नगर पर धावा बोल दे गी।”
 
यह समाचार पाकर राजा घबरा गये। बोधिसत्व ने उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा, “इससे निबटने
की जिम्मेवारी मझ
ु पर छोड़ दीजिए।” तब बोधिसत्व ने नगर की दीवार पर खड़े होकर गीदड़-
राजा से पछ
ू ा, “तम
ु नगर को कैसे जीतना चाहते हो?” गीदड़-राजा अट्टहास करके बोला, “यह
तो बहुत आसान है । यदि हमारे शेर गरजना शरू
ु करें तो सारे नगरवासी जान लेकर भाग
जायेंगे।”
 
बोधिसत्व को गीदड़ की बात सही लगी। उन्होंने दीवार के नीचे खड़े अधिकारियों से कहा,
“जाकर नगरवासियों से कह दो कि वे अपने-अपने कान रूई से बन्द कर लें।” जैसे ही यह काम
पूरा हुआ, बोधिसत्व ने गीदड़ से कहा, “अब तम
ु जैसे भी नगर पर अधिकार करना चाहते हो,
करो।”
 
दो हाथियों पर खड़े सिंह पर विराजमान गीदड़-राजा ने सभी सिहों को एक साथ गरजने का
आदे श दिया। घोर गर्जन से आकाश फटने लगा लेकिन नगरवासियों को कुछ भी सुनाई नहीं
दिया। हाँ, इससे हाथी अवश्य भड़क उठे और उन पर खड़ा सिंह ?धम्म' से नीचे गिरा।
 
गीदड़-राजा हाथियों की भाग-दौड़ में उनके पाँव के नीचे आकर वैकुण्ठ सिधार गये। जानवरों में
भागदड़ मच गई। इसमें कुछ कुचल कर मर गये, जो बचे जंगल में भाग गये। ढिंढोरे पर
घोषणा सुनकर नगरवासियों ने अपने-अपने कानों से रूई निकाल ली।
 
जब उन्हें मालूम हुआ कि इतनी बड़ी बला बड़ी आसानी से टल गई है तो सारे नगरवासियों ने
खूब आनन्द मनाया। राजा और प्रजा सबने बोधिसत्व के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
 
13. विचित्र जन्म कंु डली

 
कलिंग राज्य में कई महानगर थे। उन में एक दांतिपुर था। दांतिपुर नगर के राजा कलिंगु थे।
उनके बड़ा कलिंगु और छोटा कलिंगु नामक दो पत्र
ु थे। उनकी जन्म कंु डलियों की जाँच करके
ज्योतिषियों ने यों बताया, “पिता के अनंतर ज्येष्ठ पत्र
ु ही राजा बनेगा, पर छोटे की जन्म
कंु डली विचित्र और अपर्व
ू है । वह ज़िंदगी भर संन्यासी जैसा समय काटे गा, मगर वह महाराजा
योगवाले एक पुत्र को जन्म दे गा।”
 
कुछ साल बाद राजा कलिंगु का स्वर्गवास हो गया। इस पर ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक हुआ।
छोटे को राज प्रतिनिधि का पद मिला। लेकिन उसके मन में ज्योतिषियों की यह बात अच्छी
तरह से घर कर गई कि उसका होनेवाला पुत्र महाराजा बनेगा। इसके बल पर वह अपने बड़े भाई
के आदे शों का पालन किये बिना स्वेच्छा पर्व
ू क व्यवहार करने लगा। इस कारण दोनों भाइयों के
बीच मनमट ु ाव पैदा हो गया। बड़े भाई ने छोटे को बन्दी बनाने का आदे श दिया।
 
उन्हीं दिनों में बोधिसत्व कलिंग राज्य के मंत्रियों में से एक थे। बड़े कलिंगु के शासन काल तक
वे काफी बूढ़े हो चले थे। राज परिवार का हित चाहनेवाले उस वद्ध
ृ मंत्री ने गुप्त रूप से छोटे
कलिंगु को राजा का आदे श सुनाया। छोटे को यह बात अपमानजनक मालूम हुई। उसने कहा,
“महानुभाव, आप सब प्रकार से मेरे हितैषी हैं। आपने ज्योतिषियों की बातें सुनी हैं। अगर वे
बातें सच साबित हो सकती हैं तो मेरी कामना की पूर्ति करने की जिम्मेदारी आप पर है ।
लीजिये- मेरी नामांकित अंगूठी, मेरी शाल और मेरी तलवार। ये तीनों जो व्यक्ति लाकर मेरी
निशानी के रूप में आप को दिखायेगा, समझ लीजिये, वही मेरा पुत्र है । आप जो भी उसकी
मदद कर सकते हैं, जरूर कीजियेगा।” यों निवेदन कर किसी को बताये बिना वह जंगलों में
भाग गया।

उन्हीं दिनों कई साल बाद मगध राजा के एक पत्र


ु ी हुई। उसकी जन्म कंु डली दे ख ज्योतिषियों ने
बताया, “इसकी जन्म कंु डली विचित्र है । यह संन्यासिनी जैसी ज़िंदगी बितायेगी, मगर इसके
महाराजा योगवाला पुत्र पैदा होगा।”
 
यह ख़बर मिलते ही सभी सामंत राजा राज कुमारी के साथ विवाह करने के लिए होड़ लगाने
लगे। यह राजा के लिए समस्या बन गई। उनमें से किसी एक के साथ राजकुमारी का विवाह
करें तो बाक़ी लोग शत्रु बन जायेंगे। इसलिए लाचार होकर एक दिन राजा अपनी पत्नी और पुत्री
को लेकर गप्ु त रूप से जंगलों में भाग गयेऔर गंगा नदी के किनारे कुटी बना कर उस में तीनों
सादा जीवन बिताने लगे। उस कुटी से थोड़ी दरू कलिंग राजकुमार की कुटी थी।
 
एक दिन अपनी पुत्री को कुटी में छोड़ मगध राज दं पति कंद-मूल और फल लाने चले गये। उस
समय राजकुमारी ने तरह-तरह के फूल तोड़ कर एक सुंदर माला बनाई।
 
कुटी के पास नदी के किनारे आम का एक बहुत बड़ा पेड़ था। मगध राजकुमारी उस पेड़ की
डालों में बैठ गई। वहॉ ं से फूलों की माला पानी में फेंक दी और तमाशा दे खने लगी।
 
वह फूल माला बहती हुई स्नान करने वाले छोटे कलिंगु के सर से जा लगी। माला हाथ में लेकर
छोटे कलिंगु अपने मन में सोचने लगा, ?ओह, यह कैसी सुंदर फूल माला है । इसमें कितने
प्रकार के फूल हैं। इसे कितनी सुंदर बनाई है किसी युवती ने। वह जरूर कोई अपूर्व सुंदरी होगी।
इस भयंकर जंगल में वह सुंदरी क्यों आई होगी?' यों अनेक प्रकार से सोच विचार कर आख़िर
वह छोटा कलिंगु उस सुंदरी की खोज करने के लिए उसी व़क्त चल पड़ा।
 
वह जंगल में चला जा रहा था। उसे एक दिशा में मधरु कंठ स्वर सन
ु ाई दिया। उसने रुक कर
इधर-उधर अपनी नज़र दौड़ाई। आम की डालों पर बैठे गीत गाने वाली वह संद
ु री राजकुमार
छोटे कलिंगु को दिखाई दी।
 
कलिंगु ने कुशल प्रश्नों के साथ उससे वार्तालाप करना शुरू किया। अंत में उसे अपनी पत्नी
बनाने की इच्छा प्रकट की। इस पर युवती ने कहा, “आप तो किसी मुनि परिवार के लगते हैं,
पर हम लोग क्षत्रिय हैं। ऐसी हालत में हमारा विवाह कैसे संभव हो सकता है ?”

इसके जवाब में कलिंगु ने अपनी सारी कहानी आदि से लेकर अंत तक सुनाई। इस पर
राजकुमारी ने अपने परिवार का सारा रहस्य खोल दिया। इसके बाद वे दोनों राजकुमारी के
पिता के पास पहुँचे। राजा ने सारा वत्ृ तांत जान कर अपने मन में सोचा ?राजकुमारी के योग्य
वर यही है ।' इसके बाद छोटे कलिंगु तथा मगध राजकुमारी का विवाह हुआ।
 
एक साल बाद उनके एक पुत्र पैदा हुआ। राज लक्षणों से सश ु ोभित उस शिशु का नामकरण
विजय कलिंगु किया गया। बड़े ही लाड़-प्यार से उसका पालन-पोषण होने लगा।
 
थोड़े समय बाद एक दिन कलिंगु ने जन्म कंु डलियाँ निकाल कर हिसाब किया। पता चला कि
बड़े कलिंगु की आयु अब तक समाप्त हो गई होगी।
 
इस पर छोटे कलिंगु ने अपने पत्र
ु विजय कलिंगु को बुलाकर समझाया, “बेटा, तुम्हें तो अपना
जीवन इन जंगलों में बिताना नहीं है । मेरे बड़े भाई बड़े कलिंगु दांतिपुर के राजा हैं। तुम उस
राज्य के वारिस हो। इसलिए तुम शीघ्र जाकर उनके उत्तराधिकारी के रूप में सिंहासन पर
विराजमान हो जाओ।” यों समझाकर उसने वद्ध
ृ मंत्री का वत्ृ तांत सन
ु ाया और निशान के रूप में
वे तीन चीजें सौंपकर आशीर्वाद दे कर भेज दिया।
 
अपने माता-पिता तथा नाना-नानी से अनुमति लेकर विजय कलिंगु दांतिपुर पहुँचा। वद्ध
ृ मंत्री
के दर्शन करके अपना परिचय दिया।
 
तब तक छोटे कलिंगु के अंदाज के अनुसार बड़े कलिंगु का दे हांत हो चुका था। दांतिपुर में
अराजकता फैल गई थी।
 
वद्ध
ृ मंत्री ने एक महा सभा की और छोटे विजय कलिंगु का जन्म वत्ृ तांत सब को सुनाया। सभा
सदों ने आश्चर्य में आकर जयकार किये और नये राजा का स्वागत किया।
 
इसके बाद राजसिंहासन पर बैठकर विजय कलिंगु ने वद्धृ मंत्री की सलाह से राज्य किया और
अपने पर्व
ू जों की प्रतिष्ठा क़ायम रखी।
 
14. चुगलखोर

 
काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त जिन दिनों में शासन करते थे, उसी समय बोधिसत्व ने मगध दे श के
एक गाँव में माघ नाम से एक क्षत्रिय परिवार में जन्म लिया। गाँव की समस्याओं पर चर्चा
करने के लिए पचास परिवारों के पुरुष चौपाल पर जमा हो जाते थे। उस गाँव के ज़्यादातर लोग
भले-बुरे का ख़्याल नहीं रखते थे, अ़क्सर चोरियॉ,ं डकैती और हत्याएँ करते थे और घूस दे कर
गाँव के अधिकारियों को खश
ु करके दण्ड पाने से बच जाते थे।
 
चौपाल की जगह बड़ी गंदी थी, वहाँ पर कूड़ा-करकट भरा होता था। इसे दे ख माघ ने अपने
बैठने के वास्ते थोड़ी जगह साफ़ कर दी, लेकिन उस जगह पर अन्य लोगों में से किसी ने क़ब्जा
कर लिया।
इस पर माघ ने एक और जगह साफ़ कर दी, उस पर भी किसी ने अपना अड्डा जमा लिया।
 
इस प्रकार धीरे -धीरे माघ ने बड़ी सहनशीलता के साथ चौपाल की सारी जगह साफ़ कर दी।
इसके बाद उस स्थान पर छाया के लिए उसने एक पंडाल बनाया, जिससे सारे गाँववालों को बड़ा
आराम पहुँचा।
 
थोड़े ही दिनों में माघ के इस व्यवहार ने पचास परिवारों के परु
ु षों को अपनी ओर आकृष्ट
किया। वे सब माघ के नेतत्ृ व को स्वीकार करके गाँव की सेवा में लग गये। इसके बाद सबने
मिलकर सभा-समारोहों के वास्ते एक विशाल मण्डप बनाया और पीने के वास्ते ठण्ढे पानी का
भी इंतजाम किया।
 
उसके बाद गाँव के लोगों ने माघ के मँह
ु से पँचशील सिद्धांत सीखे और अच्छा बर्ताव करने लगे।
वे प्रतिदिन ऊबड़-खाबड़ सड़कों को समतल बनाते थे। रास्ते पर आने-जाने वाले रथों क़ो रोकने
वाली डालों को काट दे ते थे। गड्ढे भर दे ते थे, तालाब खोदते थे, गीले प्रदे शों के बीच में से चलने
के लिए ऊँची में ड़ें बनाते थे। इस कार्य के लिए उनका पथप्रदर्शक और नेता माघ बना।

 
उस गाँव में एक अधिकारी था। गाँव के ज़्यादातर यव
ु क शराबी, जआ
ु ख़ोर, हत्यारे और
भ्रष्टाचारी थे, इसलिए उस गाँव के अधिकारी को जब भी मौक़ा मिलता, लोगों से रिश्वत ऐंठ
लेता। जो रिश्वत न दे ता, उसे जुर्माना लगाकर ख़ूब पैसे वसूल करता था । लेकिन जब से माघ
गाँव के युवकों का नेता बना, और उन्हें अच्छे रास्ते पर लाया, तब से गाँव के अधिकारी की
आमदनी घट गई।
 
इस बात को दृष्टि में रखकर अधिकारी ने राजा के पास जाकर शिकायत की “महाराज, हमारे
गाँव में अराजकता फैल गई है ! माघ नामक व्यक्ति के नेतत्ृ व में गाँव के सारे युवक हमेशा
लाठियाँ, कुल्हाड़ियाँ, भाले व बर्छे लेकर सब जगह चक्कर लगाते रहते हैं। हर रास्ते पर उन्हीं
लोगों का बोल-बाला है । उन लोगों की वजह से जनता के माल और प्राण ख़तरे में पड़ गये हैं।
आपको सूचित करना मेरा कर्तव्य है । इसके बाद जैसी आपकी इच्छा।”
 
गाँव की हालत का पता लगा कर अगर अधिकारी की बात सही हो तो अत्याचार करने वालों को
बन्दी बना कर लाने के लिए राजा ने अधिकारी के साथ कई सैनिकों को भेजा। सैनिक गाँव में
पहुँच भी न पाये थे कि उन्हें गाँव के मँह
ु ाने पर ही माघ अपने अनच
ु रों के साथ दिखाई दिया।
उन सबके हाथों में लाठी, भाले, कुल्हाड़ी, इसी तरह का कोई न कोई हथियार था। सैनिकों ने
जांच-पड़ताल तक किये बिना उन सबको बन्दी बनाया और राजा के सामने हाज़िर किया। राजा
ने उन सब के हाथों में हथियार दे खा, मगर वे यह बात समझ न पाये कि वे लोग उन हथियारों
का उपयोग गाँव की सेवा में कर रहे हैं । बस, उन्होंने यही सोचा कि गाँव के अधिकारी की
शिकायत सही है , इसलिए उनकी कैफ़ियत तलब किये बिना आदे श दे दिया, “इन लोगों को ले
जाकर हाथियों के पैरों के नीचे कुचलवा दो।”

माघ और उसके अनुचरों को हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाने के लिए पट्ट हाथी को लाया गया।
वह उन लोगों को कुचलने के बदले उनसे थोड़ी दरू पर ही रुक गया। इसके बाद एक और हाथी
को लाया गया, वह भी पट्ट हाथी जैसे उन लोगों को दे खते ही भाग गया।
 
यह ख़बर राजा को दी गई। मगर मूर्ख राजा ने सोचा कि उनके बदन पर मंत्र फँू के गये ताबीज
होंगे, इसीलिए हाथी उनके पास पहुँचने में भड़क गये हैं। इस पर राजा ने सिपाहियों को फिर
ु लोग उनकी जॉचं करो, उनके बदनों पर ताबीज हो तो खोलकर फेंक दो
आदे श दे दिया, “तम
और फिर हाथियों को उन्हें कुचलने के लिए भेज दो!”
 
सब की जाँच की गई, पर किसी के बदन पर कोई ताबीज न था। यह ख़बर मिलते ही राजा ने
उन्हें अपने पास भेजने की आज्ञा सन
ु ाई। उसी समय वे पचासों आदमी राजा के सामने हाज़िर
किये गये।
 
राजा ने उन लोगों से पूछा, “बताओ, हाथी तुम लोगों को कुचलने में डर क्यों गये? तम
ु लोग
शायद उस व़क्त मंत्र जापते होगे? क्या तम ु लोग मंत्र-तंत्र जानते हो?”
 
माघ ने आगे बढ़कर कहा, “महाराज, आप का कहना सच है । हम लोग एक बहुत बड़ा मंत्र
जानते हैं, उससे महान मंत्र दनि ु या में कहीं दिखाई नहीं दे ता।”
 
“वह मंत्र क्या है ?” राजा ने पूछा।
“हम लोगों में से एक भी आदमी प्राणियों की हिंसा नहीं करता। दस
ू रों से ज़बर्दस्ती कोई चीज़
नहीं लेता। बुरा व्यवहार नहीं करता। झूठ नहीं बोलता। हम प्राणियों से प्यार करते हैं। सब के
प्रति दया भाव रखते हैं। दान दे ते हैं, सड़कें बनाते हैं, तालाब खोदते हैं, सरायें बनाते हैं। यही हम
लोगों का मंत्र है । यही हमारी शक्ति है !” माघ ने जवाब दिया।
 
यह जवाब पाकर राजा अचरज में आ गया। उसने पछ ू ा, “हमने सन
ु ा है कि तम
ु लोग राहगीरों
को लट
ू ते हो! अपने हथियार दिखा कर जनता को डरा करके उनसे धन छीन लेतेहो । क्या यह
बात सच नहीं है ?”
 
“महाराज, आपने किसी की शिकायत पर यक़ीन कर लिया है , मगर इसकी सचाई की जांच
नहीं कराई है ।” माघ ने कहा।
 
“तम
ु लोग हथियारों के साथ पकड़े गये। इसलिए हमने जांच कराने की ज़रूरत नहीं समझी।”
राजा ने कहा।
 
“महाराज, उन हथियारों का उपयोग हम जनता के फ़ायदे के लिए करते हैं। कुल्हाड़ियों से रास्ते
में फैली डालों को काट दे ते हैं। तालाब खोदने, सड़कें बनाने और सरायों का निर्माण करने के
लिए आवश्यक साधन हमेशा अपने साथ रखते हैं!” माघ ने अपनी कैफ़ियत दी।
 
राजा ने उन लोगों के बारे में जाँच-पड़ताल करवाई और असली बात जान ली कि अधिकारी का
दोषारोप झूठा है । उस अधिकारी के रिश्वत का धन उन युवकों के हाथों में सौंप कर राजा ने उन्हें
समझाया, “आज से तुम्हीं लोग अपने गॉवं का शासन करो। मैं किसी अधिकारी को नियुक्त
नहीं करूँगा।” साथ ही राजा ने पट्ट हाथी को भी उन्हें उपहार में दे दिया।
 
15. नीतिमान ्

बोधिसत्व काशी के राजा ब्रह्मदत्त के पुत्र बनकर जन्मे। ब्रह्मदत्त ने उसका नाम रखा,
शीलवान ्।

शीलवान ् ने क्रमशः राजोचित विद्याएँ सीखीं, धर्मशास्त्रों का गहरा अध्ययन किया और बड़े हो
जाने पर काशी राज्य का राजा बना। वह प्रजा को अपनी संतान मानता था। उनसे वह बेहद
प्यार करता था, उनका बड़ा ही आदर करता था। विशेषतया अपराधियों के प्रति वह दया
दिखाता था और उनके जीवन को सुधारने की भरसक कोशिश करता था। दरिद्रता व अज्ञान के
कारण जो चोरी करते थे, उन्हें वह कठोर दं ड दे ना तो दरू उल्टे वह उन्हें अपने पास बल
ु ाता था,
ज़रूरत पड़ने पर धन दे कर उनकी सहायता करता था और हितबोध करके उन्हें भेज दे ता था।
इस वजह से उसके राज्य में अपराधों में कमी ही नहीं हुई बल्कि असीम भक्ति व एक-दस
ू रे के
प्रति आदर की भावना भी बढ़ी।

कोसल दे श काशी राज्य के निकट का दे श था। उस दे श के मंत्री को काशी राजा की अच्छाई


उसकी कमज़ोरी लगी। उसे लगा कि काशी राज्य को जीतना बायें हाथ का खेल है । उसने अपने
राजा से कहा, “काशी का राजा शीलवान ् बड़ा ही दर्ब
ु ल है । वह लट
ु े रों और हत्यारों तक को दं ड
नहीं दे ता। ऐसे कायर को हम आसानी से जीत सकते हैं।”

कोसल राजा को पहले मंत्री की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। सच जानने के लिए उसने अपने
चंद सैनिकों को बल
ु ाया और उनसे कहा, “सरहदें पार करके तम ु लोग काशी राज्य में प्रवेश
करो। गाँवों को लूट लो।”

जब कोसल के सैनिकों ने काशी राज्य के गाँवों पर हमला किया तब वहाँ की जनता ने उनका
सामना किया, उन्हें बंदी बनाया और राजा शीलवान ् के पास ले गये।

“तम
ु विदे शी लगते हो। हमारे गाँवों पर तुम लोगों ने हमला क्यों किया?” शीलवान ् ने उनसे
पूछा। “महाराज, भूख के मारे हमें ऐसा करना पड़ा,” कोसल सैनिकों ने कहा।
“इतने भूखे हो तो मुझसे माँग सकते थे,” कहते हुए शीलवान ् ने ख़ज़ाने से धन मँगाया और
उन्हें दे कर भेज दिया।

शीलवान ् की इस व्यवहार शैली को दे खकर कोसल राजा को आश्र्चर्य हुआ और साथ ही उसमें
धैर्य भी जगा। एक और बार परीक्षा करने के उद्देश्य से उसने अधिक संख्या में सैनिकों को लट
ू ने
के लिए काशी राज्य भेजा। जब वे सरहदें पार कर रहे थे तब काशी राज्य की जनता ने उन्हें
रोका और पकड़ लिया।

इस बार भी वे उन्हें काशी राजा के पास ले गये। परं तु राजा ने उन्हें सज़ा नहीं दी। थोड़ा-सा धन
दे कर भेज दिया। इससे कोसल राजा को पक्का विश्वास हो गया कि सचमच
ु ही काशी राजा
दर्ब
ु ल है और उसपर विजय पाना आसान है । वह अपनी विशाल सेना को लेकर काशी राज्य पर
हमला करने निकल पड़ा।

जैसे ही यह समाचार काशी राज्य के मंत्रियों और सेनाधिपतियों को गप्ु तचरों के द्वारा मालम

हुआ, वे राजा शीलवान ् के पास गये और कहा, “महाराज, लगता है कि कोसल के राजा हमारे
बल से अपरिचित हैं। बड़े गर्व से वे हमपर हमला करने निकल पड़े। उनका सामना करने की
आज्ञा दीजिये। हम उनके छक्के छुड़ा दें गे, पैर उखाड़ डालेंगे।”

शीलवान ् युद्ध करने के पक्ष में नहीं था। उसने थोड़ी दे र तक सोचने के बाद शांत स्वर में कहा,
“अनावश्यक रक्त बहाना नहीं चाहिये। उन्हें अगर काशी राज्य ही चाहिये, तो इसे अपने
अधीन कर लेने दीजिये। किले के द्वारों को खोल दीजिये।”

काशी राजा ने एक दत
ू के द्वारा कोसल राजा को संदेश भेजा। “शत्रु बनकर आने की कोई
आवश्यकता नहीं है । मित्र बन कर आइये ।”

कोसल राजा ने समझा कि यह शीलवान ् की दर्ब


ु लता है । विकट अट्टहास करते हुए अति उत्साह
के साथ वह काशी राज्य में पहुँचा।

राज मर्यादा का उल्लंघन करते हुए वह सेना सहित काशी राजा की सभा में आया। प्रवेश करते
ही उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे राजा व मंत्रियों को रस्सियों से बांध दें ।
“अतिथियों का ऐसा व्यवहार उचित नहीं लगता,” शीलवान ् ने कहा।

इन बातों पर कोसल राजा ठठाकर हँस पड़ा। दे खते-दे खते सैनिकों ने शीलवान ् और उनके
मंत्रियों को बाँध कर उनके राज-चिह्न खींच डाले।

शीलवान ् और उसके मंत्री शाम तक काशी नगर छोड़कर चले गये। वे अरण्य मार्ग से होते हुए
जाने लगे। अंधेरा छा जाने के बाद वे सब के सब पेड़ों के तले लेट गये। उस रात को उन्होंने
खाना भी नहीं खाया।

आधी रात को शोरगल


ु के कारण उनकी निद्रा भंग हो गई। उठकर दे खा कि कई लट
ु े रे मशाल
लिये वहाँ खड़े हैं। लट
ु े रों ने शीलवान ् से कहा, “महाराज, हम चोर हैं, लट
ु े रे हैं। आपकी दया के
कारण हम अब तक चोरी किये बिना शांत जीवन बिताते आ रहे हैं। पर, अब से हमारी तकलीफ़ें
शरू
ु हो गयीं। इसलिए हम इस रात को राजसौध में घस
ु गये और यह संपत्ति लट
ू ली। लीजिये,
आपकी ये पोशाकें, राज-चिह्न और तलवारें । आपके लिए हम स्वादिष्ट खाना भी ले आये।
पहले आप ये राजोचित वस्त्र पहन लीजिये, भोजन कीजिये और हमें आज्ञा दीजिये कि हम इस
संपत्ति का क्या करें ।”

शीलवान और मंत्रियों ने खाना खा लिया और अपनी पोशाकें पहन लीं। बाद में शीलवान ् ने
लुटेरों से कहा, “तुम लोगों की समस्याओं का परिष्कार कैसे हो, नये राजा को यह जानना
होगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि नये राजा तुम्हारे विषय में कोई अच्छा ही निर्णय लेंगे। इसके
पहले ही तम
ु ने यह संपत्ति लूटकर अच्छा नहीं किया। यह पूरा धन ले जाओ, राजा को दो और
उनसे पूछो कि तम
ु लोगों के विषय में वे क्या करनेवाले हैं।”

“वह राजा नहीं, लुटेरा है । आपको लूटा है । हम क़तई उसका विश्वास नहीं करते। महाराज, हम
किसी भी हालत में उस नीच के पास नहीं जायेंगे। आप ही हमारे महाराज हैं, हमेशा रहें गे ।”
लुटेरों ने कहा।

प्रातःकाल ही अपने मंत्रियों सहित काशी राजा राज सभा में पहुँचा। शीलवान ् को दे खते ही
कोसल राजा निश्चेष्ट रह गया।
शीलवान ् ने जो हुआ विस्तारपूर्वक बताया और कहा, “महाराज, आप चाहते हैं कि मुझ से भी
अधिक, सक्षमतापूर्वक शासन चलायें, प्रजा के साथ इतोधिक न्याय करें , इसीलिए आपने मुझे
राज्य से निकाल दिया, मेरे सिंहासन पर आसीन हो गये। बेचारे ये मासूम लुटेरे इस सत्य को
जान नहीं पाये और रात को आपका ख़जाना लूट लिया। उन्हें यह भय भी हो गया कि आपके
शासन में उनका कुशल संभव नहीं। मैंने उन्हें आश्वासन दिया है कि आप अवश्य ही उनकी
समस्याओं का न्याय सम्मत परिष्कार करें गे। उन्हें साथ लेकर आपकी संपत्ति आपके सुपुर्द
करने यहाँ आया हूँ। भला, इस राज्य में इससे बढ़कर मेरा और क्या काम हो सकता है !”

शीलवान ् की बातें सुनकर कोसल राजा के हृदय में परिवर्तन हुआ। वह सिंहासन से तुरंत नीचे
उतर आया और शीलवान ् के पैरों पर गिरकर कहा, “महात्मा, आप महान हैं। लुटेरे भी आपको
चाहते हैं। इससे बढ़कर क्या और सबूत चाहिये कि आप साधारण मानव नहीं, असाधारण
व्यक्ति-विशेष हैं। मुझसे पाप हो गया। क्षमा कीजिये। इस नीच मंत्री की सलाह ने मुझे गुमराह
कर दिया। आप अपना राज्य ले लीजिये। आप जैसे महान के शासन में ही प्रजा सुखी रहे गी,
न्याय होगा। मुझे बस, आपकी मैत्री चाहिये, राज्य नहीं।”

शीलवान ् पुनः काशी का शासक बना। उसने कोसल राजा का सम्मान किया और आदरपूर्वक
उसे उसके राज्य में भेज दिया।

 
16. पंचकल्याणी

 
जब ब्रह्मदत्त काशी पर राज्य करते थे, उन दिनों बोधिसत्व ने एक उत्तम नस्ल के घोड़े के
रूप में जन्म लिया। वह राजा के घोड़ों में उत्तम घोड़ा और पंच कल्याणी माना जाता था। इस
कारण उसका पोषण और अलंकार विशेष रूप से राज परिवार की गरिमा के अनुरूप किया
जाता था।
 
उस घोड़े के लिए तीन साल पूर्व के बढ़िया व पुराने धान के साथ बनाया गया खाना तैयार किया
जाता था। उसका खाना एक हज़ार स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य के थाल में परोसा जाता था। वह
जिस घुड़साल में बंधा रहता था, वह हमेशा सुगंधित द्रव्यों से महकता रहता। उस घुड़साल के
चारों तरफ़ सुन्दर परदे लटकते रहते थे। ऊपर की चांदनी सोने के फूलों से सजी रहती थी। चारों
तरफ की दीवारें खश
ु बद
ू ार फूलों से सश
ु ोभित रहतीं, दिन-रात वह घड़
ु साल अगरबत्तियों तथा
सगु ंधित द्रव्यों के परिमल से दे दीप्यमान दिखाई दे ता था।
 
ऐसे उत्तम अश्ववाले राजा के वैभव को दे ख अड़ोस-पड़ोस के सारे सामंत राजा ईर्ष्या करते थे।
वे सभी इस ताक में रहते थे कि कैसे उस राज्य को हड़प लें। लेकिन उनमें से किसी एक को
काशी पर आक्रमण करने का साहस नहीं होता था।
 
इसलिए उन सबने मिलकर काशी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। एक बार इकठ्ठे सात
सामंत राजाओं ने काशी राजा के पास एक दत
ू के द्वारा यों संदेशा भेजा, “आप बिना दे री किये
तरु ं त अपना राज्य हमें सौंप दीजिए, वरना हमारे साथ यद्ध
ु के लिए तैयार हो जाइये। हम सात
राजाओं की सम्मिलित सेना के साथ आप के राज्य की सीमा पर आप के उत्तर का इन्तजार
कर रहे हैं।”

 
इस पर काशी राजा ने अपने मंत्रियों को बुलवा कर सामंत राजाओं का संदेशा उन्हें सुनाया।
मंत्रियों ने सोच-समझकर राजा को समझाया, “महाराज, आपको युद्ध क्षेत्र में स्वयं जाने की
कोई ज़रूरत नहीं है । हमारे सेनापति वीरवर्मा को सेना के साथ भेज दीजिए, वे बहादरु और
कुशल योद्धा हैं। वही दश्ु मन को पराजित कर शीघ्र लौट आयेंगे। अगर वे दश्ु मन को हरा नहीं
सकेंगे तो फिर आगे की बात सोची जाएगी।”
 
इस पर राजा ने सेनापति को बुलवाकर कहा, “वीरवर्मा, हम पर एक भारी विपत्ति आ पड़ी है ।
एक साथ सात सामंत राजा हमारे दे श पर हमला करने जा रहे हैं। क्या आप उन सातों को
पराजित कर सकते हैं?”
 
इसके उत्तर में वीरवर्मा ने कहा, “महाराज, यदि आप अपने प्यारे घोड़े पंच कल्याणी को मेरे
हाथ सौंप दें तो उन सातों सामंतों को क्या, सारे दे शों को पराजित कर कुशलपूर्वक लौट सकता
हूँ।” सेनापति का जवाब सुनकर राजा खशु हुए और पंच कल्याणी को उनके हाथ सौंपकर शत्रु
पर विजय प्राप्त करने भेजा।
 
राजा से विदा लेकर पंच कल्याणी को साथ ले सेनापति वीरवर्मा बड़े उत्साह के साथ उसी व़क्त
यद्ध
ु भमि
ू की ओर चल पड़ा।
 
इसके बाद वीरवर्मा क़िले से बिजली की भांति निकल पड़ा। हिम्मत के साथ लड़कर प्रथम
सामंत को बुरी तरह से हराया और उसे बन्दी बनाया। फिर युद्ध क्षेत्र में जाकर दस
ू रे सामंत को
बन्दी बनाया। इस तरह उन्होंने एक-एक करके पाँच सामंतों को हरा कर क्रमशः उन्हें बन्दी
बनाया।
 
छठे सामंत के साथ युद्ध करके उसको भी हराया, लेकिन इस बीच घोड़ा बुरी तरह से घायल हो
गया और उसके घावों से खून बहने लगा।

वीरवर्मा ने सोचा कि पंच कल्याणी को एक द्वार के पास बांधकर दस


ू रे घोड़े को लेकर युद्ध क्षेत्र
में चला जाये। इस ख्याल से वीरवर्मा पंच कल्याणी के निकट पहुँचा और उसकी लगाम, जीन
वगैरह खोलने को हुआ।
 
उस व़क्त पंच कल्याणी के रूप में स्थित बोधिसत्व ने आँखें खोलकर दे खा। वह मन ही मन यह
सोचकर दख
ु ी होने लगा, ?हे वीर, तुम भी कैसे भोले हो? मुझे घायल दे ख एक और घोड़े को
दश्ु मन से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हो। सातवें व्यूह को भेदकर सातवें सामंत राजा को बन्दी
बनाना बेचारा वह क्या जाने? उस पर विश्वास करके लड़ाई के मैदान में ले जाओगे तो अब तक
मैंने जो विजय प्राप्त की, वह सब बेकार जाएगी। तम
ु अकारण ही दश्ु मन के हाथों मर जाओगे।
हमारे मालिक काशी के राजा बड़ी आसानी से सामंत राजाओं के हाथों में फँस जायेंगे। तुम यह
समझ न पाये कि सातवें सामंत राजा को हराना सिर्फ़ मेरे लिए ही संभव है , कोई दस
ू रा घोड़ा
उसको किसी भी हालत में जीत नहीं सकता!'
 
यों विचार कर वह चपु नहीं रहा। घायल होकर पड़ा हुआ वह पंच कल्याणी वीरवर्मा को अपने
निकट बल ु ाकर बोला, “हे वीर-शरू वीरवर्मा, यह अच्छी तरह से समझ लो कि सातवें व्यह
ू को
भेदकर सातवें शत्रु सांमत राजा को पकड़ सकनेवाला घोड़ा मझ
ु े छोड़कर दस
ू रा कोई नहीं है ।
अब तक मैंने जो श्रम किया है उसे व्यर्थ मत जाने दो। हर हालत में तुम्हें हिम्मत और पराक्रम
को नहीं खोना है । इसके साथ आत्म-विश्वास और सहनशीलता की ज़रूरत होती है । इसलिए
तम
ु मझ
ु पर पर्ण
ू रूप से विश्वास रखो। घायल होने मात्र से मझ
ु े कमजोर मत समझो; मेरी बात
सन
ु कर मत त्यागो। मेरे घाव पर तरु ं त मरहम पट्टी करके उसे चंगा कर दो। फिर से मझ
ु े लड़ाई
के मैदान में ले जाओ।” यों अनेक प्रकार से पंच कल्याणी ने वीरवर्मा को समझाया।
 

वीरवर्मा ने पल पर भी विलंब किये बिना पंच कल्याणी की मरहम पट्टी करवा दी। उसके चंगे
होने पर ज्यों ही वह उस पर सवार हुआ, त्यों ही वह बिजली की गति से निकल गया और सातवें
व्यह
ू को भेद डाला। इस पर वीरवर्मा ने सातवें सामंत को भी बन्दी बनाया।
 
इस तरह यद्धु में वीरवर्मा की विजय हुई। बन्दी बने सातों सामंत राजाओं को वीरवर्मा के
सैनिकों ने काशी राजा के सामने हाज़िर किया। उस समय पंच कल्याणी के रूप में स्थित
बोधिसत्व वहाँ आ पहुँचे।
 
वे राजा से बोले, “राजन, ये सातों सामंत राजा आपके ही समान राजा हैं। इनको सताना आपको
शोभा नहीं दे ता। इनका अपमान करना भी उचित नहीं है । आप अपनी इच्छा के मुताबिक़
किसी शर्त को उनसे पूरा करा कर छोड़ दे ना न्याय संगत होगा। आप अपने दश्ु मन के प्रति भी
उदार बने रहिए। इसी में आपका बड़प्पन है । काशी राज्य की महान परम्परा और गरिमा के
अनुकूल धर्म का पक्ष लेकर न्यायपूर्वक शासन कीजिए।” यों राजा को पंच कल्याणी ने उपदे श
दिया। उसी व़क्त सिपाहियों ने आकर घोड़े की सजावट वाली सारी चीज़ें हटा दीं। शीघ्र ही पंच
कल्याणी के रूप में स्थित बोधिसत्व पंच भूतों में मिल गये।
 
इस के बाद काशी राजा ब्रह्मदत्त के आदे शानुसार राज सम्मान के साथ पंच कल्याणी घोड़े की
अत्येष्टि क्रिया संपन्न की गई। इसके बाद सेनापति वीरवर्मा का बड़े पैमाने पर अभिनंदन
हुआ।
 
सातों सामंत राजाओं को उनके राज्यों में वापस भेज दिया गया। वे सभी अपनी ईर्ष्या और
शत्रत
ु ा की भावना पर बहुत लज्जित हुए। उन सबने राजा ब्रह्मदत्त से क्षमा माँगी। वे हमेशा के
लिए काशी राज्य के मित्र बन गये । उस दिन से बोधिसत्व के सझ
ु ाव के अनस
ु ार काशी राज्य
में न्यायपर्व
ू क शासन होने लगा।
 
17. घमण्ड का नतीजा

 
काशी के राजा ब्रह्मदत्त के शासन काल में बोधिसत्व ने गत्ति
ु ल नामक वैणिक के रूप में
जन्म लिया। सोलह साल की उम्र में गत्ति
ु ल ने ऐसी ख्याति प्राप्त की कि सारे जंबू द्वीप में
वीणा-वादन में उनकी तल
ु ना कर सकनेवाला कोई नहीं था । इसीलिए काशी के राजा ने उनको
अपना दरबारी वैणिक नियुक्त किया।
 
इसके कई साल बाद काशी से कुछ व्यापारी व्यापार करने के लिए उज्जयिनी नगर में पहुँचे।
गत्ति
ु ल के वीणा-वादन ने काशी राज्य के सभी लोगों में वीणा के प्रति रुचि पैदा कर दी थी ।
इसीलिए काशी के व्यापारियों का मन वीणा-वादन की ओर झुक गया था। उन लोगों ने
उज्जयिनी के व्यापारियों से कहा, “हमलोग वीणा का वादन सुनना चाहते हैं। नगर के श्रेष्ठ
कलाकारों को बल
ु ा कर वीणा-वादन का आयोजन कीजिए। जो भी खर्च होगा, हम लोग दें गे।”
 
उज्जयिनी के कलाकारों में मसि
ू ल सबसे मशहूर वैणिक थे। इसीलिए काशी के व्यापारियों का
मनोरं जन करने के लिए उनकी वाद्यगोष्ठी का इंतजाम किया गया। मसि
ू ल अपनी वीणा
लेकर व्यापारियों के डेरे पर आ पहुँचे। वीणा की तंत्रियों में श्रुति बिठा कर झंकृत करने लगे। दे र
तक मसि
ू ल वीणा बजाते रहे , लेकिन काशी के व्यापारियों के चेहरों पर पल भर के लिए भी
आनन्द के भाव दिखाई नहीं पड़े। इस पर मूसिल ने मध्यम श्रुति करके कुछ गीतों का आलाप
किया। इस पर भी व्यापारियों में उत्साह पैदा नहीं हुआ। उनके हृदय में संगीत के आनन्द की
अनुभूति नहीं हुई। उनका मन पुलकित नहीं हुआ।
 
आख़िर मसिू ल ने हताश होकर पछ ू ा, “महाशयो, मैं बड़ी दे र से वीणा बजा रहा हूँ, फिर भी आप
लोगों के चेहरों पर खुशी की रे खाएँ नहीं हैं । क्या मेरा वीणा-वादन पसन्द नहीं आया?”

काशी के व्यापारी अचरज से एक-दस


ू रे को ताकने लगे। उनमें से एक ने कहा, “ओह, आप अभी
तक वीणा बजाते रहे ? हम सोच रहे थे कि आप वीणा की तंत्रियों को ठीक कर रहे हैं।”
 
दसू रे ने कहा, “हम सोच रहे थे कि शायद वीणा बिगड़ गई है , तंत्रियाँ ठीक से झंकृत न होकर
आप को परे शान कर रही हैं? माफ़ कीजियेगा।”
 
ये बातें सुनने पर मसि
ू ल का चेहरा उतर गया, खिन्न होकर बोले, “आप लोगों ने मुझ से भी बड़े
कलाकार का वीणा-वादन सुना होगा। इसीलिए मेरा वादन आप लोगों को पसंद नहीं आया ।
कृपया उस कलाकार का नाम बताइये।”
 
“क्या आप ने हमारे काशी राज्य के दरबारी वैणिक गुत्तिल के वीणा-वादन के बारे में नहीं
सनु ा?” व्यापारियों ने पछ
ू ा।
 
“क्या वे बहुत बड़े विद्वान हैं?” मूसिल ने पूछा।
 
“उनकी कला के सामने आप किस खेत की मल ू ी हैं?” व्यापारियों ने कहा।
 
“तो मैं तब तक आराम नहीं लँ ूगा जब तक मैं उनके बराबर का कलाकार न कहलाऊँ? आप
लोगों को मेरे वादन के लिए मूल्य चुकाने की ज़रूरत नहीं है ।” यह उत्तर दे कर मसि
ू ल वहाँ से
चले गये। उसी दिन मूसिल घर से रवाना होकर काशी नगर गये और बोधिसत्व से मिले।
 
बोधिसत्व ने मसि
ू ल से पछ
ू ा, “बेटा, तम
ु कौन हो? किसलिए आये हो?”
 
“महानुभाव, मैं उज्जयिनी नगर का निवासी हूँ। मेरा नाम मसि
ू ल है । आप से वीणा-वादन
सीखने आया हूँ। आपका अनुग्रह हुआ, तो आप के बराबर का कलाकार बनना चाहता हूँ।”
मसि
ू ल ने जवाब दिया।
 
बोधिसत्व ने मसि
ू ल को वीणा-वादन सिखाने को मान लिया।
 
मसिू ल प्रतिदिन घर पर वीणा-वादन का अभ्यास करते और बोधिसत्व के साथ राज दरबार में
हो आया करते थे।
 
कई साल बीत गये। एक दिन बोधिसत्व ने मसि
ू ल से कहा, “बेटा, तम्
ु हारी विद्या परू ी हो गई
है । तम्
ु हें मैंने अपनी सारी विद्या सिखा दी है । अब तम
ु अपने दे श को लौट सकते हो।”

मगर मसि
ू ल के मन में उज्जयिनी लौटने का विचार न था, क्योंकि वे समझते थे कि वहाँ पर
उनकी विद्या का कोई आदर नहीं होगा। उनमें संगीत को समझने की न तो बुद्धि है और न
उसके भाव को ग्रहण करने योग्य हृदय की संवेदनशीलता। इसीलिए वीणा वादन में जब वे
कच्चे थे तभी उज्जयिनी के निवासियों ने उनको महान कलाकार मान लिया था। किसी भी
उपाय से सही, काशी राज्य के दरबारी कलाकार बनने पर ही उनकी ज़्यादा प्रतिष्ठा होगी। इस
व़क्त उन्हें बोधिसत्व के बराबर की विद्वत्ता प्राप्त है । अलावा इसके बोधिसत्व वद्ध
ृ हो चुके हैं !
इसीलिए काशी राज्य के दरबार में स्थान पाने की कोशिश करनी चाहिए। यों विचार कर मूसिल
ने बोधिसत्व से कहा, “मैं उज्जयिनी लौटना नहीं चाहता। आप मानते हैं कि मुझे भी आप के
बराबर पांडित्य प्राप्त है । इसीलिए यदि आप मेरे लिए भी राजदरबार में स्थान दिला दें तो आप
की बड़ी कृपा होगी।”
 
दस
ू रे दिन बोधिसत्व ने राजा से यह बात कही। राजा ने सोच-समझकर बताया, “मसि
ू ल आप
के यहाँ बहुत समय से शिष्य बनकर रहा, इसीलिए उसे दरबारी विद्वान बना लेंगे; लेकिन आप
के वेतन का आधा ही वेतन उसे दिया जाएगा। यदि वह मेरे इस निर्णय से सहमत है तो इस पद
को वह स्वीकार कर सकता है ।”
 
बोधिसत्व ने यह बात मसि ू ल को बताई।
 
बोधिसत्व के मँह
ु से ये बातें सन
ु ने पर मसि
ू ल मन ही मन ईर्ष्या से भर उठा।
 
वह सोचने लगा, “मैं बोधिसत्व से किस बात में कम हूँ? उनके वेतन के बराबर मुझे भी क्यों
नहीं दे ते?”
 
मसि
ू ल राजा के पास पहुँचा और बोला, “महाराज, सन
ु ा है कि आप मझ
ु े आधे वेतन पर दरबारी
विद्वान नियक्ु त कर रहे हैं। मैं अपने गरु
ु जी के बराबर का पांडित्य रखता हूँ। उनके बराबर
वेतन मझु े भी मिलना चाहिए।”
 

राजा क्रोध में आ गये और बोले, “मैं तम


ु को गत्ति
ु ल के शिष्य के रूप में जानता हूँ; लेकिन
उनके बराबर के वैणिक के रूप में नहीं; तुम्हें गुत्तिल ने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और
तुम्हारी नौकरी के लिए पैरवी की, इसीलिए तुम्हें दरबारी वैणिक बनने का मौका दिया जा रहा
है । गत्ति
ु ल सिर्फ हमारे राज्य के ही नहीं, बल्कि दे श भर में सर्वश्रेष्ठ वीणा वादक हैं। तुम अभी
उनका मुकाबला नहीं कर सकते। तम
ु जो उनकी बराबरी का दावा कर रहे हो, उसे प्रत्यक्ष दे खने
पर ही मान सकता हूँ।”
 
“आप चाहें तो मेरी परीक्षा ले लीजिए।” मसि
ू ल ने कहा।
 
“अच्छी बात है । मौक़ा दे ख मैं तमु दोनों के बीच प्रतियोगिता का प्रबंध करूँगा। यदि तुम्हारा
वादन तुम्हारे गुरुजी के वादन के बराबर साबित हुआ तो मैं तुम्हें भी उनके बराबर का वेतन
दँ ग
ू ा। वरना तुम्हें दरबार में प्रवेश करने न दँ ग
ू ा। तुम्हें मेरी ये शर्ते मंजूर हैं?” राजा ने पूछा।
मसिू ल ने उन शर्तों को मान लिया।
 
इसके बाद गुरु और शिष्य के बीच प्रतियोगिता का प्रबंध हुआ। वे दोनों अपनी-अपनी कला
प्रदर्शित करने लगे। इस बीच बोधिसत्व की वीणा का एक तार टूट गया, मगर वे शेष तारों पर
वीणा बजाते रहे । इसे दे ख मसि
ू ल ने भी अपनी वीणा का एक तार जान-बूझकर तोड़ डाला।
 
थोड़ी दे र बाद बोधिसत्व की वीणा की एक और तंत्रि टूट गई। मूसिल ने भी एक और तार तोड़
डाला। चंद मिनटों में बोधिसत्व की वीणा की सारी तंत्रियाँ टूट गईं। मसि
ू ल ने अपनी वीणा के
सारे तार तोड़ डाले। मगर बोधिसत्व टूटी तंत्रियों पर ही स्वरों का आलाप करने लगे। पर मूसिल
ऐसा कर न पाया। दरबारियों ने बोधिसत्व की प्रतिभा दे ख तालियाँ बजाईं और मसि
ू ल का
मजाक़ उड़ाया।
 
मसि
ू ल यह अपमान सह नहीं पाया। वह उसी व़क्त दरबार से बाहर चला गयाऔर उसी दिन
उज्जयिनी के लिए रवाना हो गया।
 
18. पाप का फल

 
ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर राज्य करते थे। उन दिनों बोधिसत्व ने सुतनु नाम से एक गरीब
किसान के रूप में जन्म लिया। बड़ा होने पर सुतनु अपनी कमाई से अपने माता-पिता का
पालन-पोषण करने लगा। थोड़े दिन बाद उसके पिता का दे हान्त हो गया। वह सारा दिन
मेहनत करके जो कुछ कमाता, वह उसके और उसकी माता के लिए पर्याप्त न होता था।
 
उस दे श के राजा को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। वह अक्सर जंगल में जाकर जंगली
जानवरों का शिकार किया करता था। एक दिन राजा ने एक हिरण का पीछा करते हुए उस पर
तीर चलाया। तीर की चोट खाकर हिरण मर गया। समीप में राजा का कोई भट न था। इसलिए
वह उस हिरन को अपने कन्धे पर डाल वापस लौटने लगा।
 
दपु हर का समय था। कड़ी धूप थी। शिकार खेलने तथा हिरण को ढोने से राजा थक गया था।
उस अवस्था में उस को एक विशाल वट वक्ष ृ की छाया बड़ी सुखद प्रतीत हुई । राजा हिरण को
वहाँ पर रखकर पेड़ की छाया में विश्राम करने लगा।
 
दसू रे ही क्षण राजा के सामने एक ब्रह्म राक्षस प्रत्यक्ष हुआ और उसकी ओर बढ़ते हुए चिल्ला
उठा, “मैं तम्
ु हें खा जाऊँगा।”
 
“तम
ु कौन हो? मुझे खाने का तुम्हें क्या अधिकार हैं?” राजा ने ब्रह्म राक्षस से पूछा।
 
“मैं एक ब्रह्म राक्षस हूँ। यह वक्ष
ृ मेरा है । इस की छाया में जो आ जाता है , इस पेड़ के नीचे की
ज़मीन पर जो पैर रखता है , उन सबको खाने का मझ
ु े अधिकार है ,” भत
ू ने कहा।

राजा ने गंभीरतापूर्वक विचार किया, कुछ युक्ति सोची और ब्रह्म राक्षस से पूछा, “तम
ु केवल
आज के लिए आहार चाहते हो या प्रतिदिन तुम्हें आहार चाहिए?”
 
“मझ
ु े तो प्रतिदिन आहार चाहिए,” ब्रह्म राक्षस ने झट उत्तर दिया।
 
“यदि तुम इस हिरण को खाकर मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हारे प्रतिदिन के आहार की समस्या को
हल कर दँ ग
ू ा। मैं इस दे श का राजा हूँ। इसलिए प्रतिदिन तुम्हारे पास अन्न के साथ एक आदमी
को भी भेज सकता हूँ,” राजा ने सुझाया।
 
ब्रह्म राक्षस बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, “तब तो तम्
ु हें छोड़ दे ता हूँ परन्तु एक शर्त पर! जिस
दिन मझ
ु े समय पर आहार न मिला, उस दिन मैं स्वयं आकर तम्
ु हें खा जाऊँगा।”
 
इस के बाद राजा हिरण को ब्रह्म राक्षस के हाथ सौंपकर अपनी राजधानी लौट गया और अपने
मंत्री को सारा वत्ृ तान्त सुनाया।
 
मंत्री ने राजा को समझाया, “महाराज, आप चिन्ता न कीजिए। हमारे कारागार में बहुत से क़ैदी
हैं। उनमें से प्रतिदिन एक को ब्रह्म राक्षस के आहार के रूप में भेज दँ ग
ू ा।”
 
उस दिन से मंत्री प्रतिदिन एक क़ैदी को अन्न के साथ भेजता रहा और ब्रह्म राक्षस उस क़ैदी
को खाता रहा।
 
थोड़े दिन बाद सब क़ैदी समाप्त हो गये। मंत्री घबरा गया। उसकी समझ में न आया कि क्या
किया जाये? उसने सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवाया, “जो आदमी खाना लेकर जंगल में रहनेवाले
भतू ों के बरगद के पास जाएगा, उसको राजा परु स्कार में एक हज़ार सोने के सिक्के दें गे।”
 

यह ढिंढ़ोरा सुनकर सुतनु ने सोचा, “वाह! यह कितने आश्र्चर्य की बात है ! मैं हड्डी तोड़ मेहनत
करूँ तो भी तांबे के चार सिक्के हाथ नहीं लगते। परन्तु ब्रह्म राक्षस का आहार बन जाने पर
मुझको इतने सारे सोने के सिक्के हाथ लग जायेंगे।”
 
यह विचार करके सत ु नु ने अपनी माँ से कहा, “माँ, मैं एक हज़ार सिक्के लेकर भत
ू ों वाले बरगद
के पास खाना ले जाऊँगा। उस धन से तम्
ु हारी सारी जिन्दगी आराम से कट जाएगी।”
 
“बेटा, इस समय मुझे किस बात की कमी है ? मैं तो सुखी हूँ। मुझे उस धन का क्या करना है
जिसे पाने के लिए अपना बेटा खोना पड़े? लगता है तुम्हारी मति मारी गई है । क्या तुम्हें यह
बात समझ में नहीं आई कि वहाँ जाने पर वह राक्षस तुम्हें खा जायेगा? नहीं, तुम्हें कहीं जाने
की कोई आवश्यकता नहीं है , “ सुतनु की माँ ने कहा।
 
“माँ, मझ
ु े कोई खतरा न होगा। मैं सकुशल लौट आऊँगा।” इस प्रकार सत
ु नु माँ को समझा कर
राजा के पास गया।
 
उसने राजा से कहा, “महाराज, यदि आप अपने जत
ू े, छतरी, तलवार और सोने का एक पात्र
मुझे दिलवाएँ तो मैं जंगल में रहनेवाले भूतों के बरगद के पास आहार ले जाऊँगा।”
 
“खाना ले जाने के लिए इन सारी चीज़ों की क्या आवश्यकता है ?” राजा ने पछ ू ा।
 
“ब्रह्म राक्षस को हराने के लिए!” सुतनु ने झट उत्तर दिया।
 
इसके बाद सुतनु ने तलवार धारण की, जत
ू े पहने, हाथ में छतरी ली और सोने के पात्र में अन्न
लेकर दप
ु हर तक भत
ू ों के बरगद के पास पहुँचा। पर वह पेड़ की छाया से थोड़ी दरू ी पर छतरी की
छाया में खड़ा रहा ।
 
ब्रह्म राक्षस उसकी प्रतीक्षा करता रहा। जब काफ़ी समय तक वह पेड़ के नीचे नहीं आया तो
राक्षस असमंजस में पड़ गया। आज तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। अन्त में उसने सुतनु से
कहा, “तम ु इस धूप में काफी दरू चल कर आये हो। छाया में आकर विश्राम कर लो।”
 
“नहीं, मझ
ु े तरु न्त वापस लौटना है । यह लो, तम्
ु हारे लिए खाना लाया हूँ।” यह कहकर सत
ु नु ने
सोने के पात्र को धप
ू में रख दिया और तलवार से उसे पेड़ की छाया में ढकेल दिया।

इस पर ब्रह्म राक्षस क्रोध में आकर हुँकार उठा, “मैं आहार के साथ आहार लानेवाले को भी
खाता हूँ। क्या तुम्हें यह नहीं पता है ?”
 
“लेकिन याद रखो, मैं तम् ु हारे पेड़ की छाया में नहीं आया हूँ। इसलिए तम
ु को मझ
ु े खाने का
क्या अधिकार है ?” सत ु नु ने पछ
ू ा।
 
“यह तो सरासर धोखा है ! मेरा तो राजा के साथ समझौता है कि प्रतिदिन आहार में मुझे एक
आदमी भी मिलेगा। आज तुम यह नियम तोड़ रहे हो। लगता है इसमें राजा की कोई चाल है या
वह अपने ही किये हुए समझौते को तोड़ना चाहता है ! मुझे राजा को दिखाना होगा कि वचन
तोड़ने से क्या हो सकता है । आज मैं सीधे जाकर उस राजा को ही खा डालँ ग
ू ा!” ब्रह्म राक्षस ने
झल्ला कर कहा।
 
“तम
ु ने किसी जन्म में महान पाप करके इस प्रकार राक्षस का जन्म धारण किया है । इसी के
परिणाम-स्वरूप भूत बनकर इस बरगद के आश्रय में रहते हो। ऐसा नीच जीवन बिताते रहने
पर भी तुम्हारी बुद्धि अभी तक ठिकाने नहीं लगी। अब भी सही, अपने मन को बदल डालो।”
इस प्रकार सुतनु ने ब्रह्म राक्षस को डाँट दिया।
 
इस पर ब्रह्म राक्षस सोच में पड़ गया। सुतनु की बात ने उसे बहुत प्रभावित किया परन्तु वह
अपने स्वभाव और परिस्थितियों के कारण असमर्थ था। अन्त में उस ने चिन्तित स्वर में पूछा,
“बताओ, मैं क्या करूँ? इससे अच्छा जीवन बिताने का क्या रास्ता है ?”
 
“तम
ु मेरे साथ चलकर हमारे नगर के द्वार पर निवास करो। वहाँ पर प्रतिदिन मैं तुम्हारे लिए
सात्विक आहार भिजवाने का प्रबन्ध करूँगा। तम
ु मानवों को नोच-नोच कर खाने की अपनी
बुरी आदत छोड़ दो,” सुतनु ने समझाया।
 
ब्रह्म राक्षस ने ऐसा ही किया।
 
सुतनु को जीवित आया दे खकर राजा को विस्मय हुआ। सुतनु ने सारा वत्ृ तान्त राजा को
सुनाया। राजा ने परमानन्दित होकर सुतनु को अपना सेनापति नियुक्त किया और उसकी
सलाह से सुखपूर्वक राज्य पर शासन किया।
 
19. अराजकता

 
ब्रह्मदत्त काशी राज्य के शासक थे। उन दिनों में उत्तर पांचाल दे श पर पांचाल नामक राजा
राज्य करते थे। उनकी राजधानी कांपिल्य नगरी थी। राजा पांचाल भोग-लालसी और चरित्रहीन
थे। साथ ही शासन के मामलों में रुचि नहीं लेते थे। ?यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत के
अनुसार राजा की दे खादे खी मंत्री भी अनैतिक व्यवहार करने लगे। जनता पर करों का बोझ
बढ़ता गया और दे श में अराजकता सर उठाने लगी।
 
जनता का जीवन डाँवाडोल हो गया। दिन में राजभटों के अत्याचार और रात को चोरों के आतंक
बढ़ने लगे। इसलिए नगरवासी अपने घरों पर ताले लगाकर दरवाजों पर कांटों के झाड़ रखे
अपनी पत्नी व बच्चों को लेकर जंगल में चले जाते और इस तरह अपने प्राणों की रक्षा करने
लगे। वे सारा दिन जंगल में बिताकर आधी रात के वक्त अपने घर लौट आते थे।
 
उन्हीं दिनों में बोधिसत्व ने नगर के बाहर तिंदक वक्ष
ृ के अधिष्ठाता दे वता के रूप में जन्म
लिया। राजा हर साल उस पेड़ की पूजा करते और एक हज़ार मुद्राएँ इसके पीछे खर्च करते थे।
 
तिंदक दे व सोचने लगे, ?ओह, ये राजा ऐसी श्रद्धा और भक्ति के साथ मेरी आराधना करते हैं। ये
राजा अपनी अदरू दर्शिता और अविवेक के कारण अपने दे श में नाहक अराजकता मोल रहे हैं।
इनको सही उपदे श मेरे सिवाय और को नहीं दे सकता।'
 
एक दिन सपने में राजा को दर्शन दे कर तिंदक दे व बोले, “राजन, मैं तिंदक दे व हूँ! मैं आप को
उपदे श दे ने आया हूँ।”
 
“कैसा उपदे श?” राजा ने विनयपर्व
ू क पछ
ू ा।
 
“राजन, आप शासन के कार्यों में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इस कारण आप का राज्य सर्वनाश
को प्राप्त होनेवाला है ! जो राजा शासन में दिलचस्पी नहीं लेते, वे इस लोक में अपने राज्य से
वंचित हो जाते हैं और परलोक में नरक भोगते हैं।”

 
“हे दे व! आप बताइये, मझ ु े क्या करना होगा?” राजा ने पछ ू ा।
 
“अभी दे री नहीं हुई है । आप राज्य के कार्यों में खुद दिलचस्पी लेकर अराजकता को दरू कीजिए
और अपने राज्य की रक्षा कीजिए।” यों समझाकर तिंदक दे व अदृश्य हो गये।
 
इस पर राजा के मन में ज्ञानोदय हुआ। उन्होंने अपने राज्य की हालत खुद दे खने का निश्चय
किया। दस
ू रे दिन सवेरे अपने मंत्रियों को बल
ु ाकर राजकाजों की दे खभाल करने की सलाह दी
और आप एक पुरोहित को साथ ले पूर्वी द्वार से छद्म वेष में निकल पड़े।
 
नगर के बाहर एक घर के सामने उन्हें एक वद्ध
ृ दिखाई दिया। उसने दरवाजे पर ताला लगाया,
घर के चारों तरफ़ कंटीले झाड़ फैला दिये। तब अपनी पत्नी व बच्चों के साथ जंगल में भाग
गये। अंधेरा फैलने पर वह अपने घर लौट आया, किवाड़ खोलने को हुआ, तब उसके पैर में एक
कांटा गड़ गया। उसी व़क्त वह जमीन पर लढ़
ु क पड़ा, पैर से कांटा निकालते हुए राजा की निंदा
करने लगा, “जैसे मेरे तलवे में कांटा गड़ गया है , इसी प्रकार यद्ध
ु के समय पांचाल राजा के
बदन में तीर चभ
ु जाये!”
 
राजपुरोहित ने उस वद्ध
ृ के समीप जाकर पूछा, “महाशय, आप तो वद्ध
ृ है ! आप की दृष्टि मंद है ।
इस कारण कांटों पर पैर रखा तो इसमें राजा का दोष क्या है ?”
 
“राजा के अत्याचारी होने के कारण ही अधिकारी दष्ु ट हो गये है ! जनता दिन में राजभटों के व
रात को चोरों के अत्याचारों से तंग आ गई और घर के चारों तरफ़ कंटीले झाड़ फैलाकर अपने
परिवार के साथ जंगल में भाग रही है । वरना मेरे पैर में कांटे के गड़ने की नौबत ही क्यों
आती?” वद्ध
ृ ने कहा।

इसके बाद राजा और पुरोहित किस दस ू रे गाँव में पहुँचे। वहाँ पर उन्हें एक औरत दिखाई दी।
उसके दो विवाह योग्य कन्याएँ थीं। उन्हें वह जंगल में ले जाना नहीं चाहती थी, इसलिए घर के
अंदर छिपाकर घर के लिए आवश्यक लकड़ियाँ वगैरह खुद लाया करती थी। उस व़क्त वह पत्ते
तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ गई, पैर फिसलने से नीचे गिरकर राजा को गालियाँ सुनाने लगी,
“इस दे श का राजा मर जाये! इसके ज़िंदा रहते कन्याओं की शादी भी नहीं हो सकती।”
 
ये बातें सुन पुरोहित उस औरत के समीप पहुँचा और पूछा, “अरी मूर्ख! क्या तुम समझती हो
कि राज्य भर की कन्याओं के लिए पतियों का प्रबंध करना राजा की जिम्मेदारी है ?”
 
“इस दे श में दिन में राजभटों का और रात को चोरों का डर बना रहता है ; ऐसी हालत में
कन्याओं के लिए पति कैसे मिलेंगे?” उस औरत ने जवाब दिया।
 
इसके बाद राजा और पुरोहित आगे बढ़े । एक जगह उन्हें खेत जोतते एक किसान दिखाई दिया।
उसके खेत जोतते व़क्त हल के फाल के चुभने पर एक बैल नीचे गिर गया। इस पर वह किसान
गुस्से में आकर बोला, “पांचाल दे श का राजा कलेजे में भाला चुभने से इसी तरह गिर जाये!
हमारी सारी तक़लीफ़ें दरू हो जायेंगी!”
 
पुरोहित ने किसान से पूछा, “भाई, तुम्हारी असावधानी से बैल नीचे गिर जाय तो इसमें राजा
का क्या दोष है ?”
 

“राजा का दोष नहीं है तो किसका दोष है ? राजा अगर अत्याचारी हो जाते हैं, तो हम जैसे
कमज़ोर लोग कैसे ज़िंदा रह सकते हैं? दिन में राजभटों का डर और रात को चोरों का आतंक
बना रहता है ! मेरी औरत मेरे वास्ते जो खाना लाई थी, उसे दष्ु ट लोग खा गये। मैं इस इंतज़ार
में था कि मेरी औरत दब
ु ारा खाना बनाकर कब ले आयेगी? इसलिए मेरे अंदर असावधानी आ
गई और मेरा बैल चोट खाकर नीचे गिर गया है ।” किसान ने जवाब दिया।
 
वहाँ से निकलकर राजा और परु ोहित राजधानी की ओर चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक दृश्य
दिखाई दिया। एक तालाब के जल में जीवित रहनेवाले में ढकों को कोए नोच-नोचकर खा रहे थे।
इस पर उन में ढ़कों में से एक कह रहा था, “ये कौए जैसे हमें ज़िंदा रहते नोच-नोचकर खा रहे हैं,
वैसे ही पांचाल राजा और उसकी संतान को दश्ु मन नोचकर खा जाये।”
 
“अरे मूर्ख में ढ़क! तम
ु लोगों को नोचकर खानेवाले कौओं की निंदा न करके राजा को शाप दे रहे
हो?” पुरोहित ने में ढ़क से पूछा।
 
“राजा को संतष्ु ट करने के लिए परु ोहित यही पछ
ू े गा! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है ।
लेकिन दे श में काकश्राद्ध तक न होने की वज़ह ही तो कौओं की ज़िंदा में ढ़कों को नोचकर खाने
की हालत हो गई है । ऐसे दे श के राजा के मरने पर दे श का कैसा हित हो सकता है ?” में ढ़क
बोला।
 
यह सुनकर राजा अपने पुरोहित से बोले, “आखिर में ढ़क भी मुझे शाप दे रहे हैं। अब राजधानी
लौटकर अराजकता को दरू भगा दें गे।”
 
इसके बाद राजा ने शासन के कार्यों में दिलचस्पी ली। राज्य की व्यवस्था की त्रटि
ु यों को दरू
किया। जनता को शांति और सुख दे ते हुए बहुत समय तक राज्य किया।
 
20. चेतावनी

 
एक बार काशी राज्य के एक गॉवं में एक ब्राह्मण रहता था। वह भिक्षाटन से अपनी जीविका
चलाता था।
 
एक बार किसी गॉवं में से भिक्षाटन करके वह लौट रहा था। मार्ग में उसे ये शब्द सुनाई पड़े, “हे
ब्राह्मण! यदि आज शाम तक अपने घर नहीं पहुँचे तो तुम्हारी मौत निश्र्चित है । और यदि
पहुँच गये तो तुम्हारी पत्नी की मौत निश्र्चित है ।”
 
ब्राह्मण ने डरते हुए इधर-उधर दे खा, परन्तु वहॉ ं कोई नहीं था। तब उसने सोचा कि या तो यह
दे व वाणी है या किसी यक्ष की चेतावनी है ।
 
यह सोचकर और भी डर गया कि घर जाने पर पत्नी के प्राण चले जायेंगे। वह इसी भय, शंका
और दवि ु धा की अवस्था में चलता-चलता नगर पहुँच गया।
 
उन्हीं दिनों बोधिसत्व अपने एक जन्म में सेनक नामक एक साधु थे । ये स्थान-स्थान पर
लोगों को एकत्र कर उपदे श दिया करते थे। एक दिन वे नगर के एक स्थान पर प्रवचन दे रहे थे।
 
ब्राह्मण उसी मार्ग से गुजर रहा था। वह भी साधु का उपदे श सुनने लगा। अपने प्राणों के भय
से, वह, परे शान होने के कारण, साधु का प्रवचन ध्यान से नहीं सुन सका। किन्तु वह बराबर
साधु की ओर एकटक दे खता रहा।
 
उपदे श खत्म होने पर श्रोताओं ने साधु को साधुवाद दिया और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करके
जाने लगे। किन्तु वह ब्राह्मण बुत की तरह वहीं खड़ा रहा।
 
जब बोधिसत्व की नज़र ब्राह्मण पर पड़ी तो उन्होंने संकेत से उसे अपने पास बलु ाया।
 
ब्राह्मण ने उन्हें सिर झकु ा कर प्रणाम किया। ब्राह्मण के चेहरे पर भय और शंका बिलकुल
साफ दिखाई रही थी। बोधिसत्व समझ गये कि इसे कोई भारी कष्ट है । उसके मदद करने के
लिडए उन्होंने करुणा भरे शब्दों में उससे पूछा, “वत्स! बताओ, तुम्हें क्या कष्ट है ?”

ब्राह्मण ने आँखों में आँसू भर के जंगल के मार्ग में जो घटना घटी थी, सब सन
ु ा दी।
 
पूरी घटना ध्यान से सुनने के बाद बोधिसत्व ने प्रश्न किया, “वह अशरीरी वाणी जब सुनाई पड़ी
तो उसके पूर्व तम
ु क्या कर रहे थे?”
 
“उसके पहले एक पेड़ के नीचे बैठकर अपनी थैली में से खाना निकाल कर खा रहा था।” “खाना
खाने के बाद तम
ु ने पानी कैसे पीया? तुम्हारे पास जल का कोई पात्र तो नहीं है ।” बोधिसत्व ने
फिर सवाल किया।
 
“उस जंगल में पास ही एक झरना था। खाना खाकर उसी झरने पर जाकर मैंने पानी पीया।”
ब्राह्मण ने उत्तर दिया।
 
“क्या थैली में जितना खाना था, तुमने सब खा लिया या उसमें कुछ खाना बचा रहा?”
बोधिसत्व ने पूरी जानकारी लेनी चाही। ब्राह्मण ने पूरी बात बताते हुए कहा, “थैली में रखे
भोजन का मैंने आधा हिस्सा ही खाया था। आधा भोजन तो अभी भी उसी में पड़ा है ।”
 
बोधिसत्व ने विस्तार से जानने के लिए पन ु ः पछ
ू ा, “तम
ु जब अपनी प्यास बझ ु ाने के लिए
झरने पर गये थे तो भोजन की थैली साथ ले गये या पेड़ के नीचे ही छोड़ कर गये थे?” “पेड़ के
नीचे ही छोड़ दिया था,” ब्राह्मण ने उत्तर दिया।
 
“क्या थैली का मँुह बन्द करके गये थे या खुला छोड़ कर? यदि खुला छोड़ कर गये तो कब बन्द
किया था उसे?” बोधिसत्व ने पूछा।
 
ब्राह्मण बहुत सोचने के बाद याद करता हुआ बोला, “हाँ हाँ याद आया। पानी पीकर आने के
बाद ही मैंने थैली का मँह
ु बन्द किया था।”
 
“अच्छा, अब यह बताओ कि जब तम ु ने थैली का मँह
ु बन्द किया, तब थैली के अन्दर झाँक कर
दे खा था?” ब्राह्मण फिर सोचने लगा। सोचकर बोला, “नहीं श्रीमान ्। ऐसा तो नहीं किया था।”
 
“थैली बाँधने के बाद पेड़ के नीचे कुछ दे र आराम किया या तरु ं त वहाँ से रवाना हो गये?” “नहीं
महात्मन ्! मैं थैली बाँध कर तुरंत वहाँ से चल पड़ा।” “और कितनी दरू चलने के बाद वह वाणी
सुनाई दी? उठकर चलते ही या कुछ दरू जाने के बाद?”

“उठकर चलते ही।”


 
बोधिसत्व चुप हो गये और आँखें बन्द कर लीं और बहुत दे र तक ध्यान में रहे । ध्यान में उन्होंने
सारी घटना पर फिर से विचार किया और यह जानने का प्रयास करते रहे कि किस समय क्या-
क्या सम्भावना हो सकती है और चेतावनी दे नेवाली वाणी से किस घटना का सम्बन्ध अधिक
निकट का हो सकता है ।
 
अपने ध्यान में पूरी घटना की बड़ी बारीकी के साथ जाँच करने के बाद बोधिसत्व ने समझाते
हुए ब्राह्मण से कहना शुरू किया, “पेड़ के नीचे से जब तम
ु चले, तभी कोई घटना घटी, जिसे
किसी ने दे खा। हो सकता है कि जब तम
ु थैली का मँह
ु खुला छोड़ कर पानी पीने गये थे, उस
समय तम्
ु हारी थैली में सर्प चला गया हो। वापस आने पर थैली में झाँके बिना थैली का मँह
ु बन्द
कर दिया। इससे सर्प थैली के अन्दर बन्द हो गया। जिसने भी इस घटना को दे खा, उसने यह
सोचा कि शाम तक यदि घर तम ु नहीं पहुँचे तो बचा हुआ भोजन खाने के लिए थैली में हाथ
डालोगे। इससे सर्प डँस लेगा और तम्
ु हारी मौत हो जायेगी। यदि तम
ु घर पहुँच गये तो तम्
ु हारी
पत्नी ही थैली को खोलेगी और सर्प उसे डँस लेगा। इस प्रकार हर हालत में किसी एक की, जो
भी थैली को खोलेगा, मत्ृ यु निश्चित होगी।”
 
इतना कहते हुए बोधिसत्व ने अपने आसन के पास ब्राह्मण को थैली रखने के लिए कहा। उसी
समय भीड़ में से एक संपेरा आया और उसने थैली का मँह
ु खोल दिया। थैली का मँह
ु खुलते ही
थैली के अन्दर से एक नाग फुत्कारता हुआ बाहर आ गया। संपेरे ने उसे पकड़ लिया।
 
ब्राह्मण यह सब दे खकर दं ग था। वह साधु की तेज़ बुद्धि पर चकित था। उसके चेहरे पर से डर
और शंका की छाया हट चुकी थी।
 
बोधिसत्व मुस्कुराते हुए ब्राह्मण से बोले, “अब आप निर्भय और निश्चिन्त होकर घर जाइए।”
 
ब्राह्मण बोधिसत्व के प्रति कृतज्ञता का भाव लिए अपने घर की ओर चल पड़ा।
 
21. मनुष्य का जन्म

 
ब्रह्मदत्त जिस समय काशी राज्य पर शासन करते थे, उसी समय बोधिसत्व मगध के राज-
परिवार में सेवक के रूप में काम करते थे।
 
कभी मगध और अंगदे श के बीच चंपा नदी बहती थी। उस नदी के गर्भ में नाग राज्य थाऔर
चंपेय उस राज्य के राजा थे।
 
मगध और अंग राज्य के बीच अक्सर युद्ध हुआ करते थे। एक बार अंग दे श के राजा से मगध के
राजा हार गये। वे अपने घोड़े पर युद्ध भमि
ू से भागते हुए चंपा नदी के समीप पहुँचे। उस समय
उनके मन में यह विचार आया कि अपने शत्रु के हाथों मरने की बजाय आत्महत्या कर लेना
कहीं उत्तम है । इसी विचार से वे अपने घोड़े के साथ नदी में कूद पड़े। पर आश्चर्य की बात कि
घोड़्रा मगध राजा के साथ नदी के गर्भ में स्थित नागराजा के दरबार में जा उतरा।
 
नागराजा ने अपने सिंहासन से उठकर आदरपूर्वक मगध राजा का स्वागत किया और उनके
इस तरह आने का कारण पछू ा। मगध राजा ने अपना सारा वत्ृ तान्त नागराजा को सन
ु ा दिया।
 
इसके बाद नागराजा ने अपने अतिथि को वचन दिया, “अब चिन्ता न कीजिए। मैं आप को
वचन दे ता हूँ कि अंगराजा के साथ अगले युद्ध में आपकी विजय दिलाने में मैं हर प्रकार से
सहायता करूँगा।”
 
अपने वचन के अनस ु ार नागराजा ने यद्ध
ु में मगध के राजा की मदद की। परिणाम स्वरूप
अंगराजा मगध राजा के हाथों मारे गये। इसके बाद मगध के राजा दोनों राज्यों के राजा बनकर
अत्यन्त वैभवपर्व
ू क राज्य करने लगे।

उस समय से मगध राजा और नागराजा के बीच अगाध मैत्री स्थापित हो गयी। मगध के राजा
प्रतिवर्ष एक बार सपरिवार चंपा नदी के तट पर जाया करते थे। उस दिन नाग राजा नदी में से
अपार वैभव के साथ बाहर निकल आते और मगध राजा को अमूल्य उपहार भें ट करते।
 
मगध राजा के परिवार में एक सेवक के रूप में रहने वाला बोधिसत्व प्रतिवर्ष नागराजा के वैभव
को दे खता था और उस वैभव के लिए कामना करता था। इसलिए उसकी मत्ृ यु के समय नाग
राजा का वैभव उसके दिल में बैठ गया। इस कारण नागराजा की मत्ृ यु के सातवें दिन बोधिसत्व
ने नागराजा के रूप में जन्म लिया।
 
लेकिन पिछले जन्म में वे पण्
ु यात्मा थे। इस कारण उन्हें अपने इस सर्प शरीर को दे खते ही
उससे घण
ृ ा पैदा हो गयी। नागराजा के वैभव की कामना करने के कारण उन्हें पश्चाताप भी
हुआ। इसलिए वे सोचने लगे कि क्यों नहीं वे आत्महत्या करके इस जन्म का अन्त कर लें।
उसी समय सम ु ना नामक एक नागकन्या ने अपनी सखियों के साथ आकर उन्हें प्रणाम किया।
 
सुमना को दे खते ही नागराजा उसकी ओर आकृष्ट हुए और उनके मन में जीने की इच्छा जागतृ
हुई और उन्होंने अपनी आत्महत्या का प्रयत्न छोड़ दिया और उसको अपनी पत्नी बनाकर
नागलोक पर शासन करने लगे।
 
कुछ दिन तक राज्य करने के बाद उनके मन में उपवास, जप आदि करके पण्ु य कमाने की
इच्छा हुई । इसलिए उन्होंने नागलोक को छोड़ कर मानवलोक में जाने का निश्चय किया।
 
उपवास के दिनों में वे अपने महल को छोड़ एक मार्ग के किनारे स्थित चींटियों की बाँबी पर
गें डुली मारकर लेट जाते और सोचते, “मुझे कोई चील उठा ले जाए, कोई संपेरा पकड़ ले।”
 
पर उनकी इच्छा के अनस ु ार नहीं हुआ। उस रास्ते से जानेवाले लोग बाँबी से लिपटे नाग को
दे वता मानकर फूल और चन्दन के साथ उनकी पज
ू ा करने लगे। धीरे -धीरे चतर्दि
ु क नाग दे वता
की महिमा का प्रचार हुआ। दरू -दरू के गाँवों से लोग आकर नाग दे वता की पूजा करने लगे।
आखिर नागदे वता के प्रति लोगों में ऐसी श्रद्धा और भक्ति पैदा हुई कि समीप के गाँव के लोगों
ने नागराजा की बाँबी के पास एक मन्दिर बना दिया। प्रतिदिन असंख्य लोग वहाँ आकर
मनौतियाँ करने लगे।

नागराजा अपने उपवास के दिन बाँबी पर बिताकर हर महीने कृष्ण पक्ष के प्रथमा के दिन अपने
घर लौट जाते थे।
 
एक दिन सुमना ने उनसे निवेदन किया, “स्वामि, आप अक्सर मानवलोक में जाया करते हैं।
इसका कारण मैं नहीं जानती, पर मैंने सुना है कि वह लोक अत्यन्त खतरों से भरा हुआ है ।
अगर आप किसी खतरे में फँस जायें तो मुझे इसका पता कैसे लग सकता है ?”
 
इस पर नागराजा सुमना को एक सरोवर के पास ले गये और समझाया- “इस जल को दे खो।
यदि मझ
ु े कोई चोट आ जाए तो यह जल गंदला हो जाएगा। अगर कोई गरुड़ मझ
ु को उठा ले
जाए तो यह जल सख
ू जाएगा। मांत्रिक मझु े पकड़ ले जाए तो यह रक्तवर्ण हो जाएगा।”
 
काशी नगर का एक ब्राह्मण युवक तक्षशिला में वशीकरण विद्या का अभ्यास करके उस रास्ते
से अपने दे श को लौट रहा था। अचानक बाँबी पर लिपटे नागराजा पर उसकी दृष्टि पड़्री। उस
युवक ने मंत्र फँू ककर साँप को पकड़ लिया और उसको एक टोकरी में रखकर एक गाँव में ले
गया और वहाँ नाग का खेल दिखाने लगा।
 
उस खेल को दे ख ग्रामवासी बहुत प्रस हुए और ब्राह्मण युवक को धन तथा क़ीमती उपहार
दिए। ब्राह्मण युवक अपने मन में सोचने लगा- “इस छोटे से दे हात में इतनी सारी सम्पत्ति
हाथ लगी तो किसी शहर में साँप का खेल दिखाने पर न मालूम और कितना धन मिलेगा!”
 
इसके बाद वह नाग को लेकर काशी नगर पहुँचा। परू े महीने तक नागराजा ने उपवास किया
और ब्राह्मण यव
ु क से प्राप्त में ढ़कों को उसने छुआ तक नहीं। नागराजा ने समझ लिया कि जब
तक मैं आहार लँ ग
ू ा, तब तक मझ
ु को इस टोकरी की क़ैद से मक्ति
ु नहीं मिलेगी।
 
ब्राह्मण युवक ने काशी नगर के समीप के अनेक गाँवों में नाग का खेल दिखाया और वहाँ की
जनता से अपार धन प्राप्त किया।
 
नाग के मनोरं जक खेलों का समाचार शीघ्र ही काशी के राजा के कानों में भी पड़ा। उन्होंने
ब्राह्मण यव
ु क को बल
ु वाकर अपने महल में नाग के खेलों का प्रबन्ध करवाया।

इस बीच नागलोक में सुमना एक महीने तक अपने पति को घर न लौटते दे ख डर गयी और


उसने सोचा कि उन पर कुछ विपत्ति आ गयी होगी। इसकी सचाई का पता लगाने के लिए वह
सरोवर के पास पहुँची। सरोवर का जल रक्तवर्ण हो गया था।
 
समु ना समझ गयी कि किसी संपेरे ने उसके पति को पकड़ लिया है । वह अपने पति की खोज
करते हुए शीघ्र ही काशी नगर पहुँची।
 
सुमना जब काशी पहुँची, उस वक्त वहाँ पर साँप का खेल चल रहा था। राजा और असंख्य प्रजा
वहाँ पर खेल को दे ख रहे थे। अपनी पत्नी को दे खते ही नागराजा लजा कर झट से टोकरी के
अन्दर चले गये।
 
सुमना मानव का रूप धरकर राजा के समीप गयी और उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया-
“महाराज, कृपया मुझे पति की भीख दीजिए।”
 
इतने में नागराजा टोकरी में से बाहर आये और एक सुन्दर युवक का रूप धर लिया।
 
काशी राजा उस नागदं पति पर बहुत प्रस हुए। उन्होंने उन्हें एक सप्ताह तक अपने यहाँ अतिथि
के रूप में रखा। इसके बाद नागराजा के निमंत्रण पर वे भी उनके साथ सपरिवार नागलोक में
गए।
 
नागलोक के ऐश्र्वर्य, सौन्दर्य एवं वैभव को दे ख काशीराजा के आश्चर्य की कोई सीमा न रही।
साथ ही उनके मन में इस ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए एक क्षण के लिए कामना भी जगी।
 
उन्होंने नागराजा से पूछा- “ऐसे वैभव और ऐश्वर्य से भरपूर नाग लोक को छोड़कर आप नाग
के रूप में चींटियों की बाँबी से लिपटकर क्यों लेटे रहते हैं? क्या मैं कारण जान सकता हूँ?”
 
“राजन! चाहे यहाँ पर कितना भी वैभव क्यों न हो, जन्म से मक्ति ु पाने की सवि
ु धा आपके
मानव जगत में ही है । मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है । इसीलिए मैं अक्सर
मानव लोक में आया करता हूँ। नागलोक के ये सारे वैभव मुझे क्षणिक प्रतीत होते हैं।”
नागराज ने उत्तर दिया।
 
काशी नरे श यह सनु कर बहुत आनन्दित हुए और अपने मनष्ु य जन्म पर उन्हें गर्व भी हुआ। वे
जब अपने नगर को लौट रहे थे, नागराजा ने उन्हें अनेक अमल्
ू य उपहार दिए।
 
22. अमत
ृ की खोज में

 
ब्रह्मदत्त जिस समय काशी राज्य पर शासन कर रहे थे, उस समय उनके सामंत राजा चिरायु
के यहाँ नागार्जुन नाम से बोधिसत्व मुख्य मंत्री का भार संभालते थे।
 
नागार्जुन दयालु और दानी के रूप में लोकप्रिय थे। साथ ही रसायन शास्त्र और औषध विज्ञान
के पारं गत विद्वान थे। उन्होंने एक रसायन-प्रयोग के द्वारा एक रहस्य-योग का आविष्कार
किया और उसके जरिये राजा तथा अपने को भी बुढ़ापे और मरण से दरू रखा।
 
एक बार अचानक नागार्जुन का सबसे प्यारा पुत्र सोमदे व स्वर्गवासी हुआ, इस पर नागार्जुन को
अपार दख
ु हुआ। नागार्जुन सहज ही दयालु थे। इसलिए वे सोचने लगे, ?आइंदा इस संसार में
किसी की मत्ृ यु न हो! कोई भी मानव दख
ु का शिकार न बने, इस वास्ते कोई न कोई उपाय
करना होगा।'
 
आख़िर नागार्जुन ने यह निश्चय किया, “रसायनों का प्रयोग अधिक खर्चीला है । इसलिए सर्व
साधारण जनता के लिए भी खरीदने लायक़ जड़ी-बटि
ू यों द्वारा अमत
ृ तैयार करना होगा। तभी
सभी लोग दख
ु -दर्द से दरू होकर सख
ु ी रह सकते हैं।”
 
अपने इस निर्णय के अनुसार कई तरह की औषधियों के संयोग से नागार्जुन अमत
ृ तैयार करने
में लग गये। अपने सारे शास्त्र विज्ञान का उपयोग करके उन्होंने अनेक अनुसंधान किये। बहुत
हद तक सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो गईं। उनका अनुसंधान अब अंतिम चरण में पहुँचा। अब केवल
अमतृ -कल्प नामक जड़ी-बूटी को मिलाने से उनका प्रयोग संपूर्ण होनेवाला था।
 
इस बीच यह समाचार इंद्र के कानों तक पहुँचा। उसी वक्त दे वराज इन्द्र ने अश्विनी दे वताओं
को बल
ु ाकर आदे श दिया, “तम
ु लोग तरु ं त पथ्
ृ वी लोक में चले जाओ और नागार्जुन के “अमत

योग” को पर्ण
ू होने से रोक दो। तम
ु लोग बिना संकोच उन पर साम, दाम, भेद और दण्डोपायों
का प्रयोग करो। बाकी काम मैं दे ख लँ ग
ू ा।”

अश्विनी दे वता वेष बदल कर भूलोक में पहुँचे। नागार्जुन से मिलकर कुशल प्रश्न पूछे। तदनंतर
बोले, “मंत्रीवर, राज्यों के उलट-फेर करने की युक्तियाँ जाननेवाले आप महानुभाव से कोई बात
छिपी नहीं है । लेकिन इस व़क्त आप ब्रह्मा के संकल्प को रोकने का साहस कर रहे हैं। मानव
जाति की ?धर्म गति' बनी मत्ृ यु को आप ?अमत
ृ सिद्धि' के द्वारा अवरुद्ध कर दें तो सष्टि
ृ का
शासन ही डगमगा जाएगा न? अगर मानव नहीं मरता है तो, उनके वास्ते कितने लोक चाहिए?
अलावा इसके जो कार्य दे वताओं के द्वारा संपन्न होना है , उसे मानव मात्र बने आप संपन्न
करने का प्रयत्न करें तो क्या दे वता और मानवों के बीच कोई अंतर रह जाएगा? आपका पुत्र
भलू ोक को भले ही त्याग चकु ा हो, पर वह स्वर्ग में सख
ु ी है !”
 
इन बातों से नागार्जुन का मन संतुष्ट नहीं हुआ। वे इस विचार में डूब गये कि वह जो कार्य कर
रहे हैं, वह उचित है या नहीं?
 
इसी बीच राजा चिरायु के पत्र ु जयसेन का यव
ु राजा के रूप में अभिषेक करने की तैयारियाँ परू ी
हो गईं। एक शभ ु मह ु ू र्त में सारा दरबार सभासदों से खचाखच भर गया।
 
इस बीच वद्ध
ृ ब्राह्मण के रूप में पथ् ृ वी पर पहुँचकर इन्द्र जयसेन के पास गये और गुप्त रूप से
यों बोले, “बेटा, क्या तम
ु यह बात नहीं जानते कि तुम्हारे पिता बुढ़ापे और मरण से परे हैं?
इसलिए तुम्हें सदा के लिए युवराजा बनकर ही रहना पड़ेगा, लेकिन तुम्हें कभी राज्य प्राप्त न
होगा!”
 
यह समाचार सन
ु कर जयसेन चिंता में डूब गया। इस पर वद्ध
ृ ब्राह्मण ने समझाया, “बेटा, इस
बात को लेकर तम
ु चिंता न करो। तम्
ु हारी मनोकामना की पर्ति
ू के लिए एक सरल उपाय है ।
नागार्जुन का यह नियम है कि भोजन के पर्व
ू उससे जो कोई कुछ माँगे, उसे दे ने की उसकी
परिपाटी है । कल तम
ु व़क्त पर पहुँचकर बिना झिझक के यह माँगो कि मुझे आपका सिर
चाहिए। फिर दे खा जाएगा कि क्या होता है ?”

राज्य के लोभ में फंसे जयसेन ने भोजन के समय से पहले ही नागार्जुन के पास पहुँचकर वद्ध
ृ के
कहे अनुसार उनका सिर माँगा। इस पर नागार्जुन ने थोड़ा भी संकोच किये बिना अपनी तलवार
जयसेन के हाथ दे कर कहा, “बेटा, डरो मत। मेरा सिर काट कर ले लो।”
 
पर रसायन के प्रभाव से नागार्जुन का सिर वज्र तुल्य हो गया था, इस कारण जयसेन के द्वारा
कई बार काटने पर भी नागार्जुन का सिर नहीं कटा।
 
यह समाचार पाकर राजा वहाँ पर दौड़े आये, अपने पुत्र के इस कार्य पर दख
ु ी हो उसे रोकना
चाहा। तब नागार्जुन बोले, “महाराज, युवराजा ने जो कामना व्यक्त की, उसके आगे-पीछे की
बातें मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। जयसेन सिर्फ़ निमित्त मात्र है । इसलिए मैंने उसको रोकना
नहीं चाहा। पिछले जन्म में मैंने निनानवें दफ़े इनकार किये बिना अपना सिर काट कर दिया
है । यह सौवीं दफ़ा है । इस बार पीछे हटने के अपयश से मझ
ु े बचाने की जिम्मेवारी आपकी है !”
इन शब्दों के साथ भक्तिपर्व
ू क आख़िरी बार नागार्जुन ने राजा के साथ आलिंगन किया।
 
इसके बाद अपनी जड़ी-बूटियों वाली थैली में से एक जड़ी-बूटी निकाली, उसका रस निचोड़ दिया
और उसे तलवार पर मलकर जयसेन से बोले, “बेटा, अब मेरा सिर काट डालो!”
 
जयसेन ने ज्यों ही तलवार चलाई, त्यों ही गाजर-मूली की तरह नागार्जुन का सिर कट कर नीचे
गिर पड़ा।
 
उस दृश्य को दे ख सहन न कर सकने के कारण राजा भी अपने प्राण त्याग करने को तैयार हो
गये।
 
इस पर नीचे गिरे नागार्जुन के सिर से ये बातें सन
ु ाई दीं, “राजन, आप कृपया चिंता न करें ! मैं
अपने सभी जन्मों में आपके साथ रहूँगा।”
 
इसके बाद राजा पूर्ण रूप से विरागी बन गये। तत्काल ही वे अपने पत्र
ु का राज्याभिषेक करके
तपस्या करने जंगलों में चले गये।
 
इस प्रकार जयसेन को राज्य प्राप्त हुआ और इन्द्र का व्यह
ू भी सफल हुआ।
 
23. दासीपुत्र

 
ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर जब शासन कर रहे थे, उन दिनों बोधिसत्व एक धनवान के रूप में
पैदा हुए। जवान होने पर शादी कर ली। थोड़े समय बाद बोधिसत्व के एक पुत्र हुआ। उसी दिन
उस घर की दासी के गर्भ से भी एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम कटाहक रखा गया।
 
धनवान का पत्रु और कटाहक भी धीरे -धीरे बढ़ने लगे। धनवान का पत्र ु जब पढ़ने जाता, तब
कटाहक उसका त़ख्ता व किताबें लेकर साथ चलता था। इसलिए धनवान के पुत्र ने जो सीखा,
वह दासी पत्रु ने भी सीख लिया।
 
धीरे - धीरे कटाहक शिक्षित और अ़क्लमंद हो गया। अब एक नौकर के स्तर पर रहना कटाहक
को अच्छा न लगा। उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उसकी शिक्षा और अ़क्लमंदी के
अनुकूल उचित स्थान प्राप्त कर लेना चाहिए। इस वास्ते उसने एक उपाय सोचा।
 
काशी से कई कोस की दरू ी पर प्रत्यंत दे श में बोधिसत्व का एक लखपति मित्र रहा करता था।
उसके नाम कटाहक ने ख़द ु अपने मालिक की ओर से एक जाली पत्र लिखाः
 
“मैं अपने पुत्र को आप के पास भेज रहा हूँ। हमारे बीच रिश्ता जोड़ लेना उचित होगा। इसलिए
आप अपनी पत्र
ु ी का विवाह मेरे पुत्र के साथ करके अपने ही घर इसे रखिये। मैं फ़ुरसत पाकर
ज़रूर आप से मिलने की कोशिश करूँगा!”
 
यह चिट्टी लिखकर कटाहक ने अपने मालिक की मह
ु र उस पर लगा दी, उनके खज़ाने से
आवश्यक धन लेकर प्रत्यंत दे श चला गया और लखपति के हाथ यह चिट्ठी दी।
 
लखपति वह चिट्टी पाकर खुशी के मारे उछल पड़ा। उसने एक शभ ु मुहूर्त में कटाहक के साथ
अपनी पत्र
ु ी का विवाह कर दिया।

फिर क्या था, कटाहक की सेवा में अब अनेक नौकर-चाकर हाज़िर रहने लगे। उसे स्वादिष्ट
भोजन मिलने लगा। वह सख
ु -भोगों में डूब गया, फिर भी वह प्रतिदिन नाहक़ ख़ीझकर कह
उठता था- “छीःछीः, इस प्रत्यंत दे श की जनता सभ्यता तक नहीं जानती। यह भी क्या कोई
भोजन है ? और दे खो, ये वस्त्र कैसे हैं? मैंने ऐसी असभ्यता और उजड्डपन कहीं नहीं दे खी है ।”
 
इस बीच बोधिसत्व के मन में संदेह हुआ कि आख़िर कटाहक का क्या हुआ? इसलिए उसकी
खोज करने के लिए बोधिसत्व ने चारों तरफ़ अपने सेवकों को भेजा। उनमें से एक ने प्रत्यंत दे श
जाकर इस बात का पता लगाया कि कटाहक ने एक लखपति की बेटी के साथ शादी करके
अपना नाम तक बदल डाला है और वह अपने को काशी के अमक
ु धनवान का पत्र
ु बतला रहा
है ।
 
यह ख़बर मिलते ही बोधिसत्व को बड़ा दख
ु हुआ। वे ख़ुद जाकर कटाहक को ले आने के ख़्याल
से प्रत्यंत दे श के लिए रवाना हुए। उनके आगमन का समाचार सुनकर कटाहक घबरा गया।
पहले उसने भाग जाना चाहा, फिर उसने सोचा कि ऐसा करने पर उसका ही नुक़सान होगा।
आख़िर उसने सोचा कि अपने मालिक को सच्चा हाल बतलाना ही उचित होगा। अपने मालिक
के द्वारा स्वयं सारा हाल जानने के पहले सच्ची हालत उन्हें बताकर उन्हे शांत करना और
उनसे अपनी करनी के लिए क्षमा मॉगं लेना अच्छा होगा।
 
पर अपने मालिक के पास नौकर जैसा व्यवहार करते दे ख लोग उस पर शंका कर सकते हैं । यों
विचार करके एक दिन कटाहक ने अपने नौकरों से कहा, “मैं सब पत्र
ु ों जैसा नहीं हूँ। मैं अपने
पिता के प्रति पूज्य भाव रखता हूँ। जब मेरे पिता भोजन करने बैठते हैं, तब मैं उनके पास खड़े
होकर पंखा झलता हूँ। पानी वगैरह सारी चीज़ें मैं उन्हें खुद पहुँचा दे ता हूँ।”
 
इसके बाद कटाहक अपने ससुर के पास जाकर बोला, “मेरे पिताजी आ रहे हैं, मैं अगवानी
करके उन्हें ले आऊँगा।” लखपति ने मान लिया। कटाहक अपने मालिक से नगर के बाहर ही
मिला, उनके पैरों पर गिरकर अपनी करनी का परिचय दिया, उनसे क्षमा माँगकर प्रार्थना की
कि उसे ख़तरे से बचा लें। बोधिसत्व ने उसे अभयदान दिया।

लखपति बोधिसत्व को दे ख प्रसन्न हुआ और बोला, “आपकी इच्छा के अनुसार अपनी बेटी का
विवाह मैंने आपके पुत्र के साथ कर दिया है ।”
 
बोधिसत्व ने प्रसन्नता दिखाने का अभिनय किया और कटाहक से भी पिता के समान
वार्तालाप किया। इसके बाद उन्होंने लखपति की बेटी को बल
ु ाकर पूछा, “बेटी, मेरा पुत्र तुम्हारे
साथ अच्छा व्यवहार कर रहा है न?”
 
“वैसे उनके अन्दर कोई कमी नहीं है , पर खाने की चीज़ों में उनको एक भी पसंद नहीं आती।
कितने भी प्रकार के व्यंजन अच्छी तरह से बनवा दँ ,ू फिर भी उनमें कोई न कोई दोष ढूँढ लेते
हैं! मेरी समझ में नहीं आता कि किस तरह से उनको खुश किया जा सकता है ।” कटाहक की
पत्नी ने बताया।
 
“हाँ, वह खाने के समय इसके पहले हमारे घर पर भी इसी तरह सब को तंग किया करता था।
इसलिए इस बार जब वह खाने की शिकायत करने लग जाएगा, तब तम
ु यह श्लोक पढ़ो। मैं
एक श्लोक तुम्हें लिखकर दे ता हूँ। उसे तम
ु कंठस्थ कर लो। फिर वह कभी खाते व़क्त
शिकायत न करे गा।” इन शब्दों के साथ बोधिसत्व ने उसे एक श्लोक लिखकर दिया।
 
इसके बाद बोधिसत्व थोड़े दिन वहाँ बिताकर काशी लौट गये। उनके जाने के बाद कटाहक की
हिम्मत और बढ़ गई। वह पहले से कहीं ज़्यादा शिकायत करने लगा।
 
एक दिन कटाहक के मँह ु से शिकायत सनु कर उसकी पत्नी ने यह श्लोक पढ़कर सन
ु ायाः
 
“बहूँपि सो विकत्थेच्य अं इं जनपदगतो,
अन्वागं त्वान धूसेच्य भुंज भोगे कटाहक।”
 
(कटाहक अनेक प्रकार से गालियाँ सन ु कर दस
ू री जगह जाकर अन्यों की निंदा करते समस्त
प्रकार के सख
ु भोगता है ।)
 
कटाहक की पत्नी इस श्लोक का भाव नहीं जानती थी। पर कटाहक ने समझ लिया कि उसके
मालिक ने उसके नाम के साथ सारा रहस्य उसकी पत्नी को बता दिया है ।
 
इसके बाद कटाहक ने फिर कभी खाना खाते व़क्त शिकायत नहीं की, बल्कि संतष्ु ट होकर खाते
हुए सख
ु पर्व
ू क दिन बिताने लगा।
 
24. बौना सेनापति

 
काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त का शासन था। उन दिनों में वहाँ बोधिसत्व ने एक ब्राह्मण के घर
जन्म लिया। वह नाटा था, इसलिए सब लोग उसे बौना कहकर पुकारते थे। वह बचपन में ही
तक्षशिला चला गया, वहाँ पर एक गुरु के यहाँ धनुर्विद्या सीखी और उसमें प्रवीण बन गया।
इसके बाद बौने के मन में धनुर्विद्या के द्वारा ही अपनी जीविका कमाने का विचार पैदा हुआ।
इसी विचार से वह अनेक राजाओं के दरबार में गया, लेकिन वह बौना था, इस कारण किसी
राजा ने भी उसको अपने दरबार में नौकरी नहीं दी।
 
आख़िर जब वह एक गाँव में जल ु ाहों की गली से गुज़र रहा था, तब एक करघे पर कपड़ा बुनते
हुए एक आजानुबाहु व्यक्ति दिखाई दिया। बौने ने उसके समीप जाकर पूछा, “भाई, तुम्हारा
नाम क्या है ?” “मेरा नाम भीमसेन है ।” जल
ु ाहे ने उत्तर दिया। बौने ने सोचा कि यह लम्बा-
चौड़ा आदमी यदि मेरे साथ आ जाये तो मेरा काम बन जायेगा।
 
“तम
ु दे खने में इतने लंबे-चौड़े हो, तुम्हारा नाम भी भीमसेन है , तुम्हें आख़िर कपड़ा बुनने की
क्या ज़रूरत है ?” बौने ने पूछा। कपड़ा बुनने के सिवा मैं कोई काम-वाम नहीं जानता!” भीमसेन
ने कहा। “तुम्हें दोनों हाथों से कमाने का मैं उपाय बताऊँगा, क्या तुम मेरे साथ चलोगे?” बौने ने
पूछा।
 
भीमसेन ने खश
ु ी से उसकी बात मान ली और बौने के साथ चल पड़ा। दोनों कुछ दिन की कठिन
यात्रा के बाद राजधानी काशी नगर में पहुँचे। “तम
ु राजदरबार में जाकर राजा से कह दो कि तम

धनर्वि
ु द्या में प्रवीण हो, और उनसे नौकरी के लिए प्रार्थना करो।

वे तुम्हारी कद और भारी दे ह को दे खकर तुम्हें नौकरी ज़रूर दे दें गे।” बौने ने समझाया। “भाई,
मैं तो धनुर्विद्या बिलकुल नहीं जानता, राजा से झूठ कैसे बतला दँ ?ू ” भीमसेन ने कहा!
 
“तम ु नहीं जानते तो कोई बात नहीं, मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। मैं धनर्वि
ु द्या में प्रवीण हूँ।
मैंने गुरुकुल में यह विद्या सीखी है । मुझको तमु अपना सेवक बना लो, समय पर मैं तुम्हारी
सहायता किया करूँगा ! इससे तुम्हें लाभ ही लाभ है । समाज में तुम्हें प्रतिष्ठा मिलेगी। अच्छा
वेतन मिलेगा। तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ेगा।” बौने ने भीमसेन को हिम्मत बंधाई।
 
इसपर भीमसेन ने काशी राजा के दरबार में जाकर अपने को धनुर्विद्या में प्रवीण बताया और
बड़ी आसानी से नौकरी प्राप्त की! उसका वेतन एक पखवारे के लिए एक हज़ार मुद्राएँ निश्चित
हुआ। बौना उसके अधीन एक सेवक के रूप में नियुक्त कर लिया गया। इस नई व्यवस्था से
भीमसेन बहुत प्रसन्न था। उसके दिन आराम से कट रहे थे।
 
इसी बीच काशी की प्रजा पर एक भारी विपदा आ गई। काशी नगर के समीप के जंगल में कहीं
से एक बाघ आ गया और उसने उस रास्ते से आने-जानेवाले लोगों को मारना शुरू कर दिया।
यह समाचार मिलते ही काशी नरे श ने भीमसेन को बल
ु वाकर आदे श दिया, “सुनो, अमुक
जंगल में एक बाघ है । तुम अभी जाकर उसका वध कर डालो।”
 
भीमसेन ने राजा का आदे श तो मान लिया। परन्तु डर से काँपने लगा। उसने सोचा, ?मैं न तो
धनर्वि
ु द्या जानता हूँ और न कृपाण विद्या। और आमने-सामने भी बाघ से लड़ना मझ ु से नहीं
होगा।' अन्त में बौने के पास आकर सब कुछ बताते हुए बोला, “सन
ु ो भाई, उस नरभक्षी को
मारने का उपाय बताकर इस विपदा से मेरी रक्षा करो।”
 
“मेरी बात सुन लो। तम
ु अकेले बाघ का वध नहीं कर सकते। नगर के बाहर जाते ही तम
ु गाँवों
के लगभग दो हज़ार लोगों को इकट्ठा करके बाघ के समीप जाओ। बाघ का गर्जन सुनते ही तुम
किसी झाड़ी में छिप जाना। तुम्हारे साथ जानेवाली जनता बाघ को मार डालेगी।

बाघ के मरने तक तम
ु झाड़ी में छिपे रहो, तब एक बेल को तोड़कर झाड़ी से बाहर निकलो।
इसके बाद बाघ को मरा हुआ दे ख तुम गुस्से में आ जाओ। लोगों को डांटने के स्वर में बोलो,
“बाघ का वध करने के लिए तो तुम सब लोगों की ज़रूरत ही क्या थी? मैं अकेला ही पर्याप्त था।
फिर चिल्ला-चिल्लाकर कहो, ?इस बाघ को मारनेवाले आगे आ जाओ, राजा से कहकर मैं
उसका सर कटवा डालँ ग
ू ा।' इस पर लोग डरकर यह कहने लग जायेंगे कि “हमने नहीं मारा,
हमने नहीं मारा।”
 
तब तमु राजा के पास लौटकर यह बतला दो कि तुमने ही बाघ का वध किया है ! लोगों में से
कोई भी व्यक्ति यह कहने का साहस न करे गा कि तुम्हारी बात झूठ है ।” यों बौने ने भीमसेन
को उपाय बताया। भीमसेन ने बौने के निर्देश का अक्षरशः पालन किया। गाँववाले जब बाघ को
मार चक
ु े तब भीमसेन हाथ में एक लता लेकर बाहर आया और यह कहते हुए उनपर नाराज हो
गया कि मैं बाघ को इस बेल से बांधने के लिए लता लाने झाड़ी में गया तो इस बीच तम
ु लोगों
ने उसे जान से क्यों मार डाला? बाघ का वध करनेवाले का सर उड़ा दिया जाएगा!”
 
गाँववाले भयभीत हो वहाँ से चुपके से खिसक गये। इसके बाद भीमसेन राजधानी में पहुँचा।
राजा के दर्शन करके बोला, “महाराज, आपके आदे शानुसार मैंने बाघ का वध कर डाला है ।
आइंदा उस रास्ते से गुजरनेवालों को किसी प्रकार का डर न होगा।” राजा भीमसेन के पराक्रम
पर बहुत प्रसन्न हुए। भीमसेन का यश चारों तरफ़ फैल गया। सब उसकी प्रशंसा करने लगे।
 
अपनी प्रशंसा सुनते- सुनते भीमसेन सोचने लगा कि वह सचमुच एक महान वीर हो गया है ।
इस ख़्याल से वह अपने सेवक के रूप में रहनेवाले बौने का अनादर करने लगा। इस बात को
बौने ने भाँप लिया, किंतु उसने इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।
 
उन्हीं दिनों अचानक एक शत्ररु ाजा ने काशी पर हमला कर दिया और उसके सैनिकों ने नगर को
चारों तरफ़ से घेर लिया। तब काशी नरे श के पास यह संदेशा भेजा, “आप हमारी अधीनता
स्वीकार करें गे या यद्ध
ु करें गे?” राजा ने भीमसेन को बल
ु वाकर आज्ञा दी, “तम
ु आवश्यक
सेनाओं को ले जाकर शत्रु को पराजित करके लौट आओ।” इसके बाद उसे कवच पहनाकर एक
हाथी पर चढ़ाया गया और उसके हाथ में धनष
ु -बाण दे कर यद्ध
ु भमि
ू में भेज दिया गया।
 
बौना जानता था कि भीमसेन को ख़तरे का सामना करना पड़ेगा। इसलिए वह भी धनष ु -बाण
धारण करके भीमसेन के पीछे हाथी पर सवार हो गया। हाथी के चारों तरफ़ घुड़सवार और पैदल
सेना थी। सब युद्ध क्षेत्र की ओर चल पड़े। युद्ध भमि
ू में शत्र-ु सेना को पंक्ति बद्ध खड़े दे ख
भीमसेन भय से कंपित हो उठा। उसकी दे ह से पसीना छूटने लगा, उसके हाथ-पैर ठण्ढे होने
लगे। उसने हाथी से कूदकर भागने की कोशिश की। अगर वक्त पर उसको संभालकर बौने ने
हाथी से बांध न दिया होता तो वह घोड़े के नीचे दबकर मर गया होता।
 
अब लाचार होकर बौने ने स्वयं सेना का नेतत्ृ व अपने हाथ में ले लिया। वह हाथी को हांककर
शत्र-ु सेना के बीच घुस पड़ा, और उन पर बाणों की वर्षा करते हुए सीधे शत्रु राजा के समीप पहुँच
गया। उसकी धाक् के सामने शत्रु सेना टिक न सकी और तितर-बितर हो गई। थोड़ी ही दे र में
शत्रु राजा पराजित होकर बौने के हाथ में बन्दी बन गया।
 
युद्धक्षेत्र से बौने के लौटते ही राजा को पता चला कि सच्चा धनुर्धारी कौन है ? राजा ने बौने को
सेनापति के पद पर नियुक्त किया। बौने ने भीमसेन को अनेक उपहार दे कर भेज दिया।
 
25. बलि का बकरा हँस पड़ा

 
प्राचीन काल में काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त नाम के एक राजा राज्य करते थे। उसी समय उनके
समय में एक बार पहाड़ी पर बोधिसत्व ने दे वदार वक्ष
ृ के रूप में जन्म लिया। ये आस-पास के
क्षेत्रों में रहनेवालों के आचार-विचार पर ध्यान रखते और उनकी परख करते। पहाड़ी की घाटी में
एक गुरुकुल था। एक विद्वान पंडित वहाँ के आचार्य थे, जो अपने कुछ शिष्यों के साथ गुरुकुल
में रहते थे।
 
एक बार अनजान में आचार्य से कोई पाप हो गया। उस पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने एक
व्रत रखने का निश्चय किया। उस व्रत के नियम के अनुसार उन्हें एक बकरे की बलि दे नी थी।
इसलिए आचार्य ने किसी धनी व्यक्ति से एक बकरा माँगा।
 
बकरा मिल जाने पर आचार्य ने अपने दो शिष्यों को बल
ु ा कर कहा, “जाओ, इसे नदी में नहला
कर और इसके गले में फूल-माला डाल कर ले आओ।” इनके शिष्य बकरे को नदी के पास ले
गये। उस समय आकाश में काले-काले बादल घुमड़ रहे थे। लगता था, जोरों से आँधी और वर्षा
आने वाली है । एक शिष्य ने बकरे को नदी में नहलाया और दस
ू रे शिष्य ने फूल चुनकर माला
तैयार की। फिर दोनों बकरे के गले में माला डालने लगे।
 
तभी अचानक बकरा हँस पड़ा। शिष्यों को लगा जैसे हँसी किसी मनष्ु य की हो। किन्तु इधर-
उधर दे खने पर भी वहाँ बकरे के अलावा और कोई नहीं नज़र आया। जब उन्हें विश्वास हो गया
कि हो न हो, अभी मनष्ु य की तरह बकरा ही हँसा है , तो वे दोनों बहुत डर गये।
 
वे दोनों शिष्य डरकर भागने ही वाले थे कि तभी उन दोनों ने दे खा कि बकरे की आँखों से आँसू
बह रहे हैं। शिष्यों को यह दे खकर बड़ा आश्चर्य हुआ, लेकिन साथ ही, उनकी हिम्मत भी बँधी।
वे तुरंत बकरे को अपने आचार्य के पास ले गये।

शिष्यों ने आचार्य के कान में कहा, “गरु


ु दे व! ऐसा लगता है कि इस बकरे के अन्दर भत
ू प्रवेश
कर गया है । नदी के पास यह मनुष्य की तरह हँसा और फिर रोने लगा। ऐसा पशु क्या बलि के
योग्य हो सकता है ? अच्छा हो यदि हमलोग बलि के लिए कोई और बकरा तलाश करें ।”
 
इस पर आचार्य कुछ कहने ही जा रहे थे कि तभी बकरा मनुष्य की आवाज़ में बोला, “मुझे बलि
का बकरा बनाने में तुम लोगों को क्या आपत्ति है ? तम
ु सब ऐसा करने से डर क्यों रहे हो?”
मनुष्य की आवाज़ में बकरे को बोलते दे ख कर आचार्य और शिष्य आश्चर्य और भय से मूर्छि त-
से होने लगे। बकरा इस पर उन्हें धीरज बंधाता हुआ बोला, “तुम सब डरो मत! हमसे तम
ु लोगों
की कोई हानि नहीं होगी।”
 
आचार्य अपने को संभालते हुए बोले, “एक बकरे का मनुष्य की तरह बातें करना कितने
आश्चर्य की बात है !” “इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मैं भी किसी जन्म में एक विद्वान
ब्राह्मण था। मनुष्य की बुद्धि बनी रहने के कारण मैं बकरा होकर भी मनुष्यों की तरह बोल
लेता हूँ। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है ।” बकरे ने समझाया।
 
“तो फिर बकरे का नीच जन्म तम् ु हें कैसे प्राप्त हुआ?” आचार्य ने उत्सक
ु ता प्रकट की। यह
सन
ु ते ही बकरा उदास हो गया। फिर बोला,”ब्राह्मण और पंडित होते हुए भी पिछले जन्म में
मझु से कोई पाप-कर्म हो गया। उन पापों के फल से बचने के लिए मैंने कई व्रतों और नियमों का
पालन किया। इतना ही नहीं, एक बकरे की बलि भी दी! लेकिन, फिर भी विधाता को धोखा न दे
सका। बकरे की एक बार बलि के बदले मुझे पाँच सौ बार बकरे के रूप में जन्म लेना पड़ा।”
“पाँच सौ बार बकरे का जन्म...?” आचार्य ने लम्बी साँस लेकर कहा।
 
“जी हाँ! पाँच सौ बार। चार सौ निन्यानवे बार मैं बलि का बकरा बन चुका हूँ। आज मेरी
आखिरी बलि पड़ने जा रही है । इसके बाद मैं बकरे के जन्म से मुक्त हो जाऊँगा। बलि के लिए
नदी में स्नान करते समय अचानक मुझे पूर्व जन्मों की याद हो आयी। इसीलिए मैं हँस पड़ा!”

आचार्य को बकरे की बात पर विश्वास हो रहा था, इसलिए वे उसकी बात को ध्यान से सुन रहे
थे। “लेकिन तम
ु रोये क्यों?” आचार्य को रोने का कारण अभी तक समझ में नहीं आया था,
इसलिए उन्होंने यह प्रश्न किया। बकरा थोड़ी दे र के लिए चुप हो गया।
 
फिर बोला, “जिस पाप के कारण मुझे पाँच सौ बार बकरे का जीवन जीना पड़ा, वही पाप तुम
करने जा रहे हो। जिस प्रकार मुझे इतने दिनों तक पशु-जीवन का दख
ु भोगना पड़ा, उसी प्रकार
तुम्हें भी वही दख
ु झेलना पड़ेगा। यह सब सोच कर मेरी आँखों में आँसू आ गये।”
 
आचार्य यह सब सुनकर सोच में पड़ गये। शिष्य आचार्य और बकरे के बीच हो रही ज्ञान-चर्चा
पर विस्मित हो रहे थे। साथ ही, बकरे की बलि दे ने पर उनके गुरु को जो पाप भोगना पड़ेगा,
इसकी कल्पना कर वे रोने-बिलखने लगे।
 
आचार्य सोच रहे थे, “शास्त्रों का ज्ञान होने पर भी मनष्ु य मर्ख
ू क्यों बना रहता है ? एक पाप को
मिटाने के लिए दस
ू रा पाप करता है और एक दख
ु से बचने की कोशिश में नये-नये असंख्य
दख
ु ों के जाल में उलझता जाता है । “मैं इस निर्दोष प्राणी के प्राण लेकर अब और पाप बढ़ाना
नहीं चाहता।”
 
आचार्य ने यह निश्चय कर लिया कि अब वह बकरे की बलि नहीं दें गे। उन्हें विश्वास हो गया
कि इससे पाप कटता नहीं, बढ़ता है । बकरे से बोले, “डरो नहीं। मैं अब तम्
ु हें बलि नहीं दँ ग
ू ा।”
 

“मैं मत्ृ यु से नहीं डरता, बल्कि मैं बड़ी आतुरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह जितनी जल्दी
आयेगी, उतनी ही जल्दी मैं इस पशु जीवन से मुक्त हो जाऊँगा।” बकरे ने कहा।
 
“यह तो ठीक है , लेकिन मैं क्यों तुम्हारी हत्या का पाप लँ ू? यह तो अभी तुमने ही कहा है कि
बलि दे ने से पाप कटता नहीं, बल्कि और बढ़ता है । अतः अब तम
ु चाहे कितना ही क्यों न
गिड़गिड़ाओ, मैं तम्
ु हारी बलि नहीं दे सकता!” आचार्य ने दृढ़तापर्व
ू क उत्तर दिया।
 
इस पर बकरे ने फिर कहा, “आज मेरी मत्ृ यु की घड़ी आ गयी है । यदि तुम्हारे हाथों नहीं हुई तो
किसी और के हाथों होगी। लेकिन आज होगी निश्चित!” “लेकिन ऐसा कदापि नहीं होना
चाहिए। मेरे द्वारा तुम्हारी बलि पड़ने पर मैं ही तुम्हारी मत्ृ यु का जिम्मेदार होता। इसीलिए
तुम्हारी रक्षा भी मेरी ही जिम्मेदारी होगी। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा । मेरे जीते-जी तुम्हारे प्राणों
को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता!”
 
ऐसा कहकर आचार्य ने बकरे को रक्षा का आश्र्वासन दिया। इसके बाद बकरे को मक्
ु त कर दिया
गया। आचार्य और उनके शिष्य बकरे की रक्षा के लिए उसके पीछे -पीछे चलने लगे।
 
कुछ दे र तक बकरा फलों के बाग में घूमता रहा। फिर इधर-उधर भटकता हुआ पहाड़ी की ओर
चल पड़ा। धीरे -धीरे वह पहाड़ी की चोटी पर चढ़ गया। तभी आसमान के काले बादल घोर गर्जन
करने लगे और बिजली चमकने लगी। अचानक भयंकर कड़क के साथ चोटी पर वज्रपात हुआ
और बकरा उसी बिजली में जल कर राख हो गया। आचार्य और उनके शिष्य दरू से यह सब
दे खते रहे ।
 
पहाड़ी पर स्थित दे वदार के रूप में बोधिसत्व को इस घटना से बड़ा सन्तोष मिला।
 
एक तो प्राकृतिक मत्ृ यु से बकरे का पशु-जीवन समाप्त हुआ। दसू रे , पापों से मुक्त होने के लिए
और पाप करते जाना कितनी बड़ी मूर्खता है , यह ज्ञान कुछ लोगों के हृदय में उदय हुआ। यही
बोधिसत्व के सन्तोष का कारण था।
 
26. नमकहराम

 
काशी नरे श ब्रह्मदत्त का पुत्र बचपन से ही दष्ु ट स्वभाव का था। वह बिना कारण ही मुसाफिरों
को सिपाहियों से पकड़वा कर सताता और राज्य के विद्वानों, पंडितों तथा बुजुर्गों को
अपमानित करता। वह ऐसा करके बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता। प्रजा के मन में इसलिए
यवु राज के प्रति आदर के स्थान पर घण
ृ ा और रोष का भाव था।
 
युवराज लगभग बीस वर्ष का हो चुका था। एक दिन कुछ मित्रों के साथ वह नदी में नहाने के
लिए गया। वह बहुत अच्छी तरह तैरना नहीं जानता था, इसलिए अपने साथ कुछ कुशल तैराक
सेवकों को भी ले गया। युवराज और उसके मित्र नदी में नहा रहे थे। तभी आसमान में काले-
काले बादल छा गये। बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ मूसलधार वर्षा भी शुरू
हो गई।
 
युवराज बड़े आनन्द और उल्लास से तालियाँ बजाता हुआ नौकरों से बोला, “अहा! क्या मौसम
है ! मुझे नदी की मंझधार में ले चलो। ऐसे मौसम में वहाँ नहाने में बड़ा मजा आयेगा!”
 
नौकरों की सहायता से यव ु राज नदी की बीच धारा में जाकर नहाने लगा। वहाँ पर यव ु राज के
गले तक पानी आ रहा था और डूबने का खतरा नहीं था। लेकिन वर्षा के कारण धीरे -धीरे पानी
बढ़ने लगा और धारा का बहाव तेज होने लगा। काले बादलों से आसमान ढक जाने के कारण
अन्धेरा छा गया और पास दिखना कठिन हो गया।
 
युवराज की दष्ु टता के कारण इनके सेवक भी उससे घण
ृ ा करते थे। इसलिए उसे बीच धारा में
छोड़ कर सभी सेवक वापस किनारे पर आ गये। युवराज के मित्रों ने जब युवराज के बारे में
सेवकों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे जबरदस्ती हमलोगों का हाथ छुड़ा कर अकेले ही तैरते हुए
आ गये। शायद राजमहल वापस चले गये हों।

मित्रों ने महल में यव


ु राज का पता लगवाया। लेकिन यव ु राज वहाँ पहुँचा नहीं था। बात राजा
तक पहुँच गयी। उन्होंने तुरंत सिपाहियों को नदी की धारा या किनारे -कहीं से भी युवराज का
पता लगाने का आदे श दिया। सिपाहियों ने नदी के प्रवाह में तथा किनारे दरू -दरू तक पता
लगाया लेकिन युवराज का कहीं पता न चला। आखिरकार निराश होकर वे वापस लौट आये।
 
इधर अचानक नदी में बाढ़ आ जाने और धारा के तेज होने के कारण युवराज पानी के साथ बह
गया। जब वह डूब रहा था तभी उसे एक लकड़ी दिखाई पड़ी। युवराज ने उस लकड़ी को पकड़
लिया और उसी के सहारे बहता रहा। आत्म रक्षा के लिए तीन अन्य प्राणियों ने भी उस लकड़ी
की शरण ले रखी थी- एक साँप, एक चूहा और एक तोता। युवराज ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था,
बचाओ! बचाओ! लेकिन तफ
ू ान की गरज में उसकी पक
ु ार नक्कारे में तत
ू ी की आवाज़ की तरह
खोकर रह गई। बाढ़ के साथ यव
ु राज बहता जा रहा था। थोड़ी दे र में तफ
ू ान थोड़ा कम हुआ और
बारिश थम गई। आकाश साफ होने लगा और पश्चिम में डूबता हुआ सरू ज चमक उठा। उस
समय नदी एक जंगल से होकर गज
ु र रही थी। नदी के किनारे , उस जंगल में ऋषि के रूप में
बोधिसत्व तपस्या कर रहे थे।
 
युवराज की करुण पुकार कानों में पड़ते ही बोधिसत्व का ध्यान टूट गया। वे झट नदी में कूद
पड़े और उस लकड़ी को किनारे खींच लाये जिसने युवराज और तीन अन्य प्राणियों की जान
बचायी थी। उन्होंने अग्नि जला कर सबको गरमी प्रदान की, फिर सबके लिए भोजन का
प्रबन्ध किया। सबसे पहले उन्होंने छोटे प्राणियों को भोजन दिया, तत्पश्चात युवराज को भी
भोजन खिलाकर उसके आराम का भी प्रबन्ध कर दिया।
 
इस प्रकार वे सब बोधिसत्व के यहाँ दो दिनों तक विश्राम करके पूर्ण स्वस्थ होने के बाद
कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने घर चले गये। तोते ने जाते समय बोधिसत्व से कहा,
“महानुभाव! आप मेरे प्राणदाता हैं। नदी के किनारे एक पेड़ का खोखला मेरा निवास था,
लेकिन अब वह बाढ़ में बह गया है । हिमालय में मेरे कई मित्र हैं।

यदि कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में खड़े होकर पुकारिये।
मैं मित्रों की सहायता से आप की सेवा में अन्न और फल का भण्डार लेकर उपस्थित हो
जाऊँगा।”
 
“मैं तुम्हारा वचन याद रखग
ूँ ा।” बोधिसत्व ने आश्वासन दिया।
 
साँप ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, “मैं पिछले जन्म में एक व्यापारी था। मैंने कई करोड़
रुपये की स्वर्ण मोहरें नदी के तट पर छिपा कर रख दी थीं। धन के इस लोभ के कारण इस
जन्म में सर्प योनि में पैदा हुआ हूँ। मेरा जीवन उस खज़ाने की रक्षा में ही नष्ट हुआ जा रहा है ।
ू ा। कभी मेरे यहॉ ं पधार कर इसका बदला चक
उसे मैं आप को अर्पित कर दँ ग ु ाने का मौका
अवश्य दीजिए।”
 
इसी प्रकार चूहे ने भी वक्त पड़ने पर अपनी सहायता दे ने का वचन दे ते हुए कहा, “नदी के पास
ही एक पहाड़ी के नीचे हमारा महल है जो तरह-तरह के अनाजों से भरा हुआ है । हमारे वंश के
हजारों चूहे इस महल में निवास करते हैं। जब भी आप को अन्न की कठिनाई हो, कृपया हमारे
निवास पर अवश्य पधारिए और सेवा का अवसर दीजिए। मैं फिर भी आप के उपकार का बदला
कभी न चुका पाऊँगा।”
 
सबसे अन्त में युवराज ने कहा, “मैं कभी-न-कभी अपने पिता के बाद राजा बनँग
ू ा। तब आप
मेरी राजधानी में आइए। मैं आप का अपर्व ू स्वागत करूँगा।”
 
कुछ दिनों के बाद ब्रह्मदत्त की मत्ृ यु हो गई और युवराज काशी का राजा बन गया। राजा बनते
ही प्रजा पर अत्याचार करने लगा। सच्चाई और न्याय का कहीं नाम न था। झूठ और अपराध
बढ़ने लगे। प्रजा दख
ु ी रहने लगी।
 
यह बात बोधिसत्व से छिपी न रही। उसे राजा का निमंत्रण याद हो आया। उसने सबसे पहले
राजा के यहाँ जाने का निश्चय किया। वे एक दिन राजा से मिलने के लिए काशी पहुँचे।
 
बोधिसत्व नगर में प्रवेश कर राजपथ पर पैदल चल रहे थे। तभी हाथी पर सवार होकर राजा सैर
के लिए जा रहा था। उसने बोधिसत्व को पहचान लिया और तुरत अपने अंगरक्षकों को आदे श
दिया, “इस साधु को पकड़कर खंभे से बाँध दो और सौ कोड़े लगाओ और इसके बाद इसको
फाँसी पर लटका दो। यह इतना घमण्डी है कि इसने जान बूझ कर मेरा अपमान किया था।

मझ
ु े  यव
ु राज जानते हुए भी मझ
ु से अधिक सम्मान साँप, चहू े और तोते को दिया था।” राजा
का आदे श पाकर उसके अंगरक्षक बोधिसत्व पर कोड़े बरसाने लगे। बिना अपराध एक साधु पर
कोड़े बरसते दे ख प्रजा की भीड़ एकत्र हो गई।
 
कुछ व्यक्तियों ने पूछा, “महात्मा ! क्या आपने इस दष्ु ट का कभी उपकार किया है ?”
बोधिसत्व ने राजा को नदी में डूबने से बचाने की कहानी सुना दी। प्रजा पहले से ही राजा की
क्रूरता और अत्याचार से ऊब चुकी थी। एक निर्दोष साधु को सताये जाते दे ख कर उनके धैर्य का
बाँध टूट गया। वे अंगरक्षकों पर टूट पड़े और उन्हें मार-मार कर खदे ड़ दिया।
 
प्रजा का रोष दे ख कर राजा भाग खड़ा हुआ। लेकिन प्रजा की क्रुध भीड़ ने उसका पीछा किया
और हाथी पर से नीचे घसीट कर मार डाला। अत्याचारी राजा की मौत पर राज्य भर में खुशी
मनाई गई। लेकिन अब सवाल यह पैदा हुआ कि राजा किसे बनाया जाये। राजा के कोई पुत्र न
था। राजघराने में भी कोई ऐसा योग्य व्यक्ति न था जिसे राज्य सौंपा जा सके। अन्त में , प्रजा
तथा राजा के दरबारियों ने भी बोधिसत्व से राज्य भार संभालने की प्रार्थना की। प्रजा के
अनुरोध पर बोधिसत्व काशी के राजा बनकर न्याय और धर्मपूर्वक राज्य करने लगे। वे साँप,
चूहे और तोते को भूले नहीं थे। वे एक-एक कर सबके पास गये और कृतज्ञतापूर्वक उनके
आतिथ्य और उपहार को स्वीकार किया। इतना ही नहीं, उनके अमूल्य उपहारों के साथ उन्हें
भी अपने साथ राजधानी में ले आये। उनके उपहारों का धन प्रजा के हित के लिए खर्च किया
गया और उन प्राणियों के निवास के लिए सुन्दर स्थान बना दिये गये।
 
साँप के लिए महल में ही सोने की एक सुरंग बनवा दी गई। चूहे के लिए मणि-माणिक्य से जड़ा
एक बिल बनव 4ा दिया गया। तोते के लिए सोने का एक पिंजड़ा तैयार किया गया। इस प्रकार
महात्मा बोधिसत्व के राज्य में प्रजा सब तरह से सख
ु पर्व
ू क जीवन बिताने लगी।
 
27. उँ च-नीच

 
ब्रह्मदत्त जब काशी राज्य का शासक था, तब बोधिसत्व ने सिंह के रूप में जन्म लिया। वह
सिंह अपनी पत्नी समेत एक पर्वत की गुफ़ा में रहा करता था। एक दिन सिंह को बड़ी भूख
लगी। वह पर्वत पर से नीचे कूदा। पर्वत के नीचे के एक सरोवर के पास हरी घास से भरे मैदान
में उसने हिरनों व खरगोशों को दे खा। सिंह गरजता हुआ उनकी तरफ़ दौड़ा। दौड़ते समय वह
सरोवर के पास एक दलदल में गिर गया। इतने में खरगोशों और हिरनों ने उसे दे ख लिया और
वे वहाँ से भाग गये।
 
दलदल से सिंह बाहर आने की कोशिश करने लगा। पर उससे संभव नहीं हो पा रहा था। इसलिए
वह वहीं रह गया और दे खने लगा कि उसकी रक्षा करनेवाला क्या कोई उधर से गुज़रे गा।
 
भूख के मारे तड़पते हुए सिंह को एक हफ्ते तक वहीं रहना पड़ा। एक हफ्ते के बाद बग़ल ही के
सरोवर में पानी पीने एक सियार वहाँ आया। पर सिंह को दे खते ही वह घबराकर रुक गया।
 
सिंह ने सियार से कहा, “भैय्या सियार, हफ्ते भर से इस दलदल में फंसा हूँ। ज़िन्दा रहने की
कोई उम्मीद नहीं है । किसी प्रकार से मझ
ु े बचा लो।”
 
“तम
ु बहुत भूखे हो। मुझे खा जाने में आनाकानी नहीं करोगे। कैसे तुम्हारा विश्वास करूँ?”
सियार ने अपना संदेह व्यक्त किया।
 
“जिसने मेरी जान बचायी, भला उसे मैं कैसे खा जाऊँगा। मझ
ु े इस दलदल से बाहर निकालोगे
तो जन्म भर तम्
ु हारा आभारी रहूँगा। मेरी बात का विश्वास करो।” सिंह ने कहा।
 
सियार ने सिंह की बातों का विश्वास किया। वह सूखी लकड़ियाँ समेटकर ले आया और उन्हें
दलदल में फेंका। उनपर सिंह ने अपने पैर जमाये और बड़ी मुश्किल से बाहर आया।

फिर दोनों मिलकर शिकार करने जंगल में गये। सिंह ने एक जंतु को मार डाला। दोनों ने
मिलकर उसे खा लिया।
 
“अब से हम दोनों भाई हैं। अब हमें अलग-अलग जगह पर रहने की क्या ज़रूरत है ? अपने
परिवार को भी मेरी गुफ़ा में ले आओ। सब मिलकर रहें गे।” सिंह ने कहा। सियार ने सिंह की
बात मान ली और पत्नी को भी गुफ़ा में ले आया।
 
सियार को लगा कि सिंह के साथ रहने से उसका गौरव बढ़ जायेगा। इसीलिए उसने सिंह के
प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। परं त,ु वह जानता था कि अपनी जाति से दरू रहने से उसे कैसे-
कैसे कष्टों का सामना करना पड़ेगा। सिंह ने भी सियार के त्याग को भली-भांति समझ लिया
और हर विषय में उसका साथ दे ने लगा। कभी भी उसका दिल नहीं दख
ु ाया। यों दिन गज़
ु रते
गये।
 
सिंह, सियार को बहुत चाहता था, पर सिंह की पत्नी सियार की पत्नी को नहीं चाहती थी।
उसका मानना था कि वह ऊँची जाति की है और सियार की पत्नी निम्न जाति की। सियार की
पत्नी ने शेरनी के इस दावे को स्वीकार कर लिया, इसलिए दोनों परिवारों में झगड़े नहीं होते थे।
जब दोनों पत्नियों ने बच्चों को जन्म दिया, तब वे बच्चे बड़े होकर एक साथ खेलने-कूदने लगे।
शेरनी से यह दे खा नहीं गया।
 
सिंह और सियार के बच्चों को यह मालूम नहीं था कि दोनों में एक बड़ा है और दस
ू रा छोटा। वे
खुलकर खेलने लगे। एक-दस ू रे को चाहने लगे। ऊँच-नीच की भावना उनमें कभी नहीं आई।
 
शेरनी से यह सहा नहीं गया। उसने एक दिन अपने बच्चों से कहा, “हम ऊँची जाति के हैं। तुम्हें
सियार के बच्चों से इस तरह मिलकर खेलना नहीं चाहिये। उनसे दरू ही रहना। उनकी और
हमारी बराबरी ही नहीं।”
 
सिंह के बच्चों पर माँ की बातों का असर होने लगा। वे सियार के बच्चों के साथ लापरवाही
बरतने लगे, खेलते समय उनके साथ अन्याय करने लगे और बारं बार यह कहने भी लगे, “हम
उच्च जाति के हैं। हम तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं। हम जो भी कहें , तुम्हें उसका विरोध
ु नीच जाति के हो, इसलिए हमारी गालियॉ ं भी तुम्हें सहनी होंगी।”
करना नहीं चाहिये। तम

सियार की पत्नी ने एक दिन पति से शेरनी की शिकायत की और उसके व्यवहार के बारे में
बताया।
 
दसू रे दिन जब सियार सिंह के साथ शिकार करने जा रहा था, तब उसने सिंह से कहा, “तुम्हारी
जाति उच्च जाति है । हम सामान्य जाति के हैं। इसलिए हमारा साथ-साथ रहना अच्छा नहीं।
हम अपनी जातिवालों के साथ रहें गे।”
 
अपने मित्र में इस आकस्मिक परिवर्तन पर उसे आश्चर्य हुआ और उसने इस परिवर्तन का
कारण पछू ा। सियार ने सब कुछ सविस्तार बताया।
 
रात को गुफ़ा में लौटते ही सिंह ने सिंहनी से कहा, “मालूम हुआ कि तम
ु सियार के बच्चों से
घणृ ा करते हो।”
 
“हाँ, हमारे बच्चों का उस निम्न जाति के बच्चों के साथ खेलना-कूदना मुझे बिलकुल अच्छा
नहीं लगता। पता नहीं, इस सियार ने आप पर क्या जाद ू कर डाला। जब दे खो, आप उसकी
तरफ़दारी करने लगते हैं। साफ़-साफ़ कह दे ती हूँ कि उनके बच्चों को हमारे बच्चों के साथ
खेलना नहीं चाहिये।” सिंहनी ने कहा।
 
“अब सब कुछ मेरी समझ में आ गया। जानना चाहती हो न कि सियार ने मुझपर क्या जाद ू
किया, तो सुनो। याद है , एक बार एक हफ्ते भर तक मैं घर नहीं आया? उस हफ्ते भर भूख से
तड़पता हुआ दलदल में फंसा रहा। जब मैं मरने ही जा रहा था, तब इस सियार ने मेरी जान
बचायी। उस दिन अगर यह सियार मेरी जान नहीं बचाता तो मैं कभी का मर गया होता। यह
संतान भी नहीं होती। प्राण की जो भिक्षा दे ते हैं, उनके प्रति ऊँच-नीच का भाव दिखाना, अपने
को बड़ा और दस
ू रे को छोटा समझना बड़ा पाप है । उनका अपमान करना अपने ही बंधुओं का
अपमान कराने के समान है ।” सिंह ने कहा।
 
सिंह की पत्नी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और उसने सियार की पत्नी से क्षमा माँगी।
 
इसके बाद पीढ़ियों
़ तक सिंह और सियार की संतान उसी गुफ़ा में मिल-जुलकर सुखी जीवन
बिताती रही।
 
28. बूढ़े पिता और पत्नी

 
बहुत पुराने समय की बात है । एक बार बोधिसत्व ने काशी राज्य में एक किसान के घर जन्म
लिया। उनके माता-पिता ने नाम रखा-कमल। कमल बड़े लाड़-प्यार में पलने लगा।
 
बचपन से ही उसकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। अपनी अवस्था के बालकों से वह अधिक ज्ञानी और
विचारवान था। माता-पिता का दल ु ारा था, लेकिन दादा का तो वह मानों प्राण था।
 
दादा बहुत ही बूढ़े थे। वे घर का कोई काम नहीं कर सकते थे। उलटे घर के लोगों को उनकी सेवा
में रहना पड़ता। यह बात कमल की माँ को बहुत अखरती थी।
 
एक दिन कमल की माँ ने अपने पति से कहा, “मैं तो तुम्हारे पिता की सेवा करते-करते खुद ही
स्वर्ग सिधार जाऊँगी। सारा दिन उसी की टहल करते रहो। लगता है घर में और काम ही नहीं
हैं। आखिर यह कब तक चलता रहे गा!”
 
“जब तक उनकी आयु है , तब तक उनकी सेवा करना हमारा धर्म बनता है । आखिर मौत के
पहले किसी का गला घोंट कर तो नहीं मार सकते।” किसान ने थोड़ी तेज आवाज़ में कहा।
 
“मार डालने में भी क्या बुराई है ? ज़िन्दा रहने में न उसे सुख है न हमें । तिल-तिल कर मरने से
तो अच्छा है एक बार मौत आ जाये।”
 
किसान से अधिक पत्नी की आवाज़ तेज़ थी। किसान को पहले पत्नी की बात बहुत बुरी लगती
थी। लेकिन धीरे -धीरे पत्नी के दबाव में आकर उसकी बातों से वह भी सहमत हो गया। वह भी
सोचने लगा कि पिता को मार दे ने में कोई पाप नहीं है , बल्कि वे बुढ़ापे की पीड़ा से मुक्त हो
जायेंग़े। उसने एक योजना भी बना ली।
 
एक दिन किसान ने अपने पिता से कहा, “बाबज
ू ी! खेत में एक कुआँ खोदवाने के लिए पड़ोसी
गाँव के महाजन से कर्ज़ ले रहा हूँ। महाजन कहता है कि दस्तावेज़ पर आप के हस्ताक्षर भी
आवश्यक हैं। इसलिए मेरे साथ गाड़ी पर कृपा करके चलिये।”

उसका पिता बेटे की बात सच मान कर उसके साथ चल पड़ा। कमल भी ज़िद करके अपने दादा
के पास बैठ गया।
 
रास्ते में एक छोटा-सा जंगल था। किसान ने जंगल के बीच गाड़ी रोक दी। वह एक फावड़ा
लेकर उतर पड़ा और बोला, “तम
ु दोनों गाड़ी में ठहरो। मैं अभी आता हूँ।”
 
पिता के जाने के बाद कमल भी एक फावड़ा लेकर उसी ओर चल पड़ा। थोड़ी दरू पर कमल का
पिता एक झाड़ी के पास गड्ढा खोद रहा था। उसी झाड़ी के दस
ू री ओर कमल भी एक गड्ढा
खोदने लग गया।
 
थोड़ी दे र में कुछ आहट पाकर किसान रुक गया। जिधर से आहट आ रही थी, उधर जाकर उसने
दे खा। “अरे कमल, तम
ु यहाँ गड्ढा क्यों खोद रहे हो?”
 
“जिस काम के लिए आप खोद रहे हैं, मैं भी उसी काम के लिए खोद रहा हूँ।” कमल के उत्तर ने
पिता को झकझोर दिया।
 
पिता ने साहस करके पछू ा, “क्या तम्
ु हें मालम
ू है कि मैं क्यों यह गड्ढा खोद रहा हूँ?”
 
“मुझे मालूम तो नहीं है लेकिन किसी कार्य के लिए ही ऐसा कर रहे होंगे। आप का अनुसरण
करने में क्या कोई दोष है ?” कमल के भोलेपन ने उसके हृदय को छू दिया।
 
वह अपने बेटे से कुछ छिपा न सका। उसने कहा, “मैं अपने पिता को दफ़नाने के लिए यह
गड्ढा खोद रहा हूँ। उनके मरने पर उनके अन्तिम संस्कार की जिम्मेदारी मझ
ु पर है , क्योंकि
मैं उनका पत्र
ु हूँ।”
 

“लेकिन दादा तो अभी जीवित हैं।” कमल ने जैसे पिता का षड्यंत्र ताड़ लिया हो।
 
“क्षणभंगरु जीवन का क्या भरोसा! वे किसी समय दम तोड़ सकते हैं। वे बहुत वद्ध ृ हो चक
ु े हैं।”
पिता ने पत्र
ु को समझाने की कोशिश की।
 
“जीवन तो किसी का शाश्र्वत नहीं है । इसलिए मैं भी अपने पिता के लिए क़ब्र खोद रहा हूँ। पुत्र
होने के नाते उन्हें दफ़नाने की जिम्मेदारी मेरी है ।” कमल उसी भोलेपन में कह गया।
 
उसके पिता को लगा जैसे वह आसमान से नीचे गिर गया हो। बेटे ने उसकी आँख की पट्टी खोल
दी। उसे अब समझ में आया कि वह नीच कर्म करने जा रहा था। लज्जा से वह गड़ गया।
 
किसान अपने पिता और पुत्र के साथ घर लौट आया। किसान की पत्नी उस दिन बहुत प्रस थी
और विशेष भोजन तथा मिष्टा बना कर अपने पति की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन गाड़ी में
ससुर को दे ख कर उसकी सारी प्रसता निराशा में बदल गई।
 
किसान ने, अपनी पत्नी को कमल के गाड़ी में साथ जाने तथा अपने पिता के लिए गड्ढा खोदने
का सारा समाचार सन
ु ा दिया।
 
उसकी पत्नी को काटो तो खून नहीं। वह सिर पीटती हुई बोली, “हाय भगवान? कैसा युग आ
गया! हम बेटे को कितना लाड़-प्यार से पालते हैं, लेकिन वह अपने जीवित पिता के लिए ही
क़ब्र खोदता है !”
 
“लेकिन मैं भी तो वही काम करने जा रहा था। क्या उन्होंने मझ
ु े बचपन में लाड़-प्यार से नहीं
पाला?” किसान ने पत्नी की ओर एक विशेष प्रयोजन से दे खा।
 
उसके बाद पत्नी ने अपने बूढ़े ससुर के प्रति कोई शिकायत नहीं की।
 
29. कुबेर का सरोवर

 
ब्रह्मदत्त जब काशी राज्य पर शासन करते थे, उन दिनों बोधिसत्व उनके पुत्र के रूप में पैदा
हुए। राजा ने उनका नामकरण महाशासन किया। थोड़े महीने बाद रानी ने एक और पत्र ु को
जन्म दिया जिसका नाम सोमदत्त रखा गया।
 
दोनों पत्र
ु ों की पैदाइश के दो साल बाद रानी का दे हांत हो गया। इस पर राजा ने दस
ू रा विवाह
किया। कुछ समय बाद नई रानी ने भी एक पत्र
ु को जन्म दिया। यह ख़बर सुनते ही राजा बहुत
प्रसन्न हुए और उन्होंने रानी से कहा, “रानी, इस शभ
ु अवसर पर तम ु कोई वर मांग लो।”
 
“यह वर मैं अपनी ज़रूरत के व़क्त मांग लँ ूगी।” रानी ने जवाब दिया।
 
छोटी रानी के पुत्र का नाम आदित्य था। उसने राजोचित सारी विद्याएँ सीख लीं। जब आदित्य
जवान हो गया, तब एक दिन रानी ने राजा से कहा, “महाराज, आपने आदित्य के जन्म के
समय वर मांगने को कहा था, उसे अब मैं मांगती हूँ। आप आदित्य को युवराजा के रूप में
अभिषेक कीजिए।”
 
यह सुनकर राजा निश्चेष्ट हो गये और थोड़ी दे र सोचकर बोले, “मेरी पहली पत्नी के दो पुत्रों के
होते हुए आदित्य को मैं युवराजा कैसे बना सकता हूँ? यह न्याय संगत नहीं है ।”
 
मगर रानी को जब भी मौक़ा मिलता वह अपने पत्र ु को यवु राजा बनाने की इच्छा प्रकट कर
राजा को सताने लगी। राजा ने भांप लिया कि रानी अपना हठ नहीं छोड़ेगी। उनके मन में यह
संदेह भी पैदा हुआ कि रानी के द्वारा बड़े राजकुमारों की कोई हानि भी हो सकती है । इसलिए वे
उन्हें बचाने का उपाय दिन-रात सोचने लगे।
 
राजा ने एक दिन अपने दोनों बड़े पत्र
ु ों को बल
ु वाकर सारी बातें समझाईं और बोले, “तम
ु दोनों
थोड़े समय के लिए नगर को छोड़कर कहीं और रह जाओ। मेरे बाद तुम्ही लोगों को यह राज्य
प्राप्त होगा, इसलिए उस व़क्त लौटकर राज्य का भार संभाल सकते हो। तब तक तम
ु दोनों
भूल से भी इस राज्य के अन्दर प्रवेश न करना।”

अपने पिता की इच्छा के अनस


ु ार महाशासन और सोमदत्त नगर को छोड़कर जब राज्य की
सीमा पर पहुँचे, तब उन लोगों ने दे खा कि छोटा राजकुमार आदित्य भी उनके पीछे चला आ
रहा है । तीनों मिलकर कुछ दिनों के बाद हिमालय के जंगलों में पहुँचे।
 
एक दिन वे तीनों अपनी यात्रा की थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उस व़क्त
महाशासन ने आदित्य से कहा, “मेरे छोटे भैया! उधर दे खो, एक सरोवर दिखाई दे रहा है ! तम

वहाँ जाकर अपनी प्यास बझ
ु ा लो और हमारे लिए कमल पत्रों वाले दोने में पानी ले आओ।”
 
आदित्य जाकर ज्यों ही सरोवर में उतरा, त्यों ही जल पिशाच उसे पकड़ कर जल के नीचे वाले
अपने घर में ले गया। बड़ी दे र तक आदित्य को न लौटते दे ख महाशासन चिंतित हुआ और इस
बार महाशासन ने सोमदत्त को भेजा। उसको भी जल पिशाच ने पकड़ लिया।
 
थोड़ी दे र तक इंतजार करने के बाद महाशासन अपने भाइयों को लौटते न दे ख खतरे की
आशंका करके तलवार लेकर ख़द
ु चल पड़ा। वह सरोवर में उतरे बिना किनारे पर खड़े हो पानी
की ओर परख कर दे ख रहा था । इसे भांपकर जल पिशाच ने अंदाजा लगाया कि ये अपने
भाइयों के जैसे जल्दबाजी में आकर जल में न उतरें गे।
 
इसके बाद जल पिशाच एक बहे लिये का वेष धरकर महाशासन के पास आया और बोला, “खड़े
खड़े दे खते क्या हो? प्यास लगी है तो सरोवर में उतर कर प्यास क्यों नहीं बुझाते?”
 
यह सलाह पाकर महाशासन ने सोचा कि दाल में कुछ काला है , तब बोला, “तम् ु हारा व्यवहार
दे खने पर मुझे शक होता है कि तुमने ही मेरे दोनों भाइयों को गायब कर डाला है ।”
 
“तम ु तो विवेकशील मालूम होते हो। मैं सच्ची बात बता दे ता हूँ, ज्ञानी लोगों को छोड़ बाक़ी
सभी लोगों को, जो इस सरोवर के पास आते हैं, पकड़ कर मैं बन्दी बनाता हूँ। यह तो कुबेर का
आदे श है !” जल पिशाच ने कहा।
 
“इसका मतलब है कि तम ु ज्ञानियों से उपदे श पाना चाहते हो! मैं तुम्हें ज्ञानोपदे श कर सकता
हूँ! लेकिन थका हुआ हूँ।” महाशासन ने कहा। झट जल पिशाच उसे पानी के तल में स्थित
अपने निवास में ले गया। अतिथि सत्कार करने के बाद उसे उचित आसन पर बिठाया। वह ख़ुद
उसके चरणों के पास बैठ गया।

महाशासन ने जो कुछ अपने गुरुओं से सीखा था, वह सारा परम ज्ञान जलपिशाच को सुनाया।
दस
ू रे ही क्षण जलपिशाच बहे लिये का रूप त्यागकर अपने निज रूप में आकर बोला, “महात्मा,
आप महान ज्ञानी हैं ! मैं आपके भाइयों में से एक को दे ना चाहता हूँ। दोनों में से आप किसको
चाहते हैं?”
 
“मैं आदित्य को चाहता हूँ।” महाशासन ने कहा।
 
“बड़े को छोड़ छोटे की मांग करना क्या धर्म संगत होगा।” जलपिशाच ने पछ ू ा।
 
“इसमें अधर्म की बात क्या है ? अपनी माँ की संतान में से मैं बचा हुआ हूँ, ऐसी हालत में मेरी
सौतेली माँ के भी एक पत्र
ु तो होना चाहिए न? अपने भ्रात-ृ प्रेम से प्रेरित होकर यह भोला
आदित्य हमारे पास चला आया है । अगर हम दोनों बड़े भाई नगर को लौट जायें, तब लोग
हमसे पछ
ू ें कि आदित्य कहाँ है ? तब हमारा यह कहना कहाँ तक न्याय संगत होगा कि
जलपिशाच ने उसे निगल डाला है ?” यों महाशासन ने जलपिशाच से उल्टा सवाल पछ
ू ा।
 
इस पर जलपिशाच ने महाशासन के चरणों में प्रणाम करके कहा, “आप ज़ैसे महान ज्ञानी को
मैंने आज तक नहीं दे खा है , मैं आपके दोनों छोटे भाइयों को मुक्त कर दे ता हूँ। आप लोग इस
जंगल में मेरे अतिथि बनकर रहिए!”
 
इस पर महाशासन और उसके छोटे भाई जलपिशाच के अतिथि बनकर रह गये। थोड़े समय
बाद उन्हें ख़बर मिली कि उनके पिता ब्रह्मदत्त का स्वर्गवास हो गया है । इस पर महाशासन
अपने दोनों छोटे भाइयों तथा जलपिशाच को साथ ले काशी चले गये।
 
महाशासन का राज्याभिषेक हुआ। तब उसने सोमदत्त को अपने प्रतिनिधि के रूप में तथा
आदित्य को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। अपना उपकार करने वाले जलपिशाच के
वास्ते एक सुंदर निवास का प्रबंध किया और उसकी सेवा के लिए नौकर नियुक्त किया।
 
30. पट्ट हाथी

 
सैकड़ों साल पहले की बात है । काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त शासन करते थे। उन दिनों काशी नगर
से थोड़ी दरू बढ़इयों का एक गाँव था। उसमें पाँच सौ बढ़ई थे। वे लोग नावों में नदी पार कर
जंगलों में चले जाते, पेड़ काट कर नावों में लाद कर लकड़ी ले आते थे।
 
जंगल में एक हथिनी रहा करती थी। एक दिन उसके पैर में एक चैला फंस गया जिस से उसका
पैर सूझकर दर्द करने लगा। बड़ी कोशिश करके भी वह उस चैले को पैर से निकाल न पाई। इस
बीच उसे पेड़ काटने की आवाज़ सुनाई दी। हथिनी लंगड़ाते उनके नज़दीक़ पहुँची।
 
हथिनी को दे खते ही बढ़इयों ने भांप लिया कि वह किसी पीड़ा से परे शान है । इस बीच हथिनी
आकर बढ़इयों के सामने लेट गई। बढ़इयों ने छे नी से हथिनी के पैर का चैला निकाला और
उसके घाव पर मरहम पट्टी की।
 
थोड़े ही दिनों में हथिनी चलने-फिरने लायक़ हो गई। इस उपकार के बदले में हथिनी बढ़इयों की
मदद करने लगी। वह गिरे हुए पेड़ों को उठाकर ला दे ती। काटी गई तख़्तियों और पाटियों को
नदी के पास नावों तक पहुँचा दे ती। इस वजह से बढ़इयों और हथिनी के बीच दोस्ती बढ़ती गई।
पाँच सौ बढ़ई अपने खाने का थोड़ा हिस्सा हथिनी को खिलाने लगे।
 
कई दिन बीत गये। हथिनी का एक बच्चा हुआ। वह ऐरावत जाति का था और उसका रं ग सफ़ेद
था। हथिनी जब बूढ़ी हो गई और उसमें चलने-फिरने की ताक़त न रही, तब वह अपने बच्चे को
बढ़इयों के हाथ सौंपकर जंगल में चली गई। इसके बाद सफ़ेद हाथी बढ़इयों की मदद करने
लगा। उनके हाथ का खाना खा लेता और उनके बच्चों को अपनी पीठ पर बिठाकर जंगल में
घुमा दे ता। नदी में उन्हें नहलाता और ख़श
ु ी के साथ अपने दिन गुजार दे ता था। बढ़ई लोग हाथी
को अपने बच्चे के बराबर प्यार करते थे। हाथी उनके परिवार के सदस्य की तरह उनके लिए
उपयोगी बनने की कोशिश करता था।

राजा ब्रह्मदत्त को जब यह ख़बर मिली कि जंगल में एक उत्तम नस्ल का सफ़ेद हाथी है , तब
वे उसे पकड़ ले जाने के लिए सदल-बल जंगल में चले आये।
 
बढ़इयों ने सोचा कि राजा मकान बनाने की लकड़ी के वास्ते जंगल में आये हुए हैं। उन लोगों ने
राजा को समझाया, “महाराजा, आप मेहनत उठाकर इस जंगल में क्यों आये? हमें ख़बर कर
दे ते तो ख़ुद हम लकड़ी आपके महल में पहुँचा दे ते?”
 
“मैं लकड़ी ले जाने के वास्ते नहीं आया हूँ; सफ़ेद हाथी को पकड़ ले जाने के वास्ते आया हूँ।”
राजा ने अपने दिल की बात बताई।
 
बढ़इयों को यह सुनकर बहुत दख ु हुआ। लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। आखिर यह राजा की
इच्छा थी और राजा अपने राज्य में कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र था। उन्होंने यह भी सोचा
कि राजा के पास हाथी अधिक सुख और शान के साथ रह सकेगा। इसीलिए हाथी के जाने का
दखु होते हुए भी वे राजी हो गये।
 
“तब तो आप हाथी को अपने साथ ले जाइये।” बढ़इयों ने उत्तर दिया।
 
मगर बड़ी कोशिश के बावजूद हाथी टस से मस न हुआ। इस पर राजा का एक कर्मचारी असली
बात ताड़ गया और बोला, “महाराज, यह एक विवेकशील जानवर है । आप अगर इस हाथी को
अपने साथ ले जायेंगे तो इन बढ़इयों का भारी नुक़सान होगा। इसका मुआवजा दे ने पर ही हाथी
यहाँ से निकल सकता है ।”
 
राजा ने हाथी के चारों पैर और संड
ू के पास एक एक लाख सोने के सिक्के रखकर बढ़इयों को
ं का आदे श दिया। तिस पर भी हाथी वहाँ से नहीं हिला।
बॉटने
 
इसके बाद राजा ने बढ़इयों की औरतों और बच्चों को कपड़े दिये, तब जाकर हाथी राजा के पीछे
चल पड़ा। इसके बाद राजा गाजे-बाजे के साथ हाथी को काशी नगर में ले गये। उसे राजसी
अलंकारों से सजाया संवारा गया। फिर सारी गलियों में उसका जल
ु ूस निकाला गया।
 
अंत में उसके वास्ते एक बढ़िया गज शाला बनाकर उसमें रखा गया। उसकी सेवा के लिए
सैकड़ों नौकर-चाकर रखे गये। उसके भोजन का विशेष प्रबन्ध किया गया। वह हाथी राजा का
पट्ट हाथी बना। उस पर सिवाय राजा के कोई सवार नहीं हो सकता था।

नगर में उस हाथी के आने के बाद काशी राज्य की सीमा और यश चारों तरफ़ फैलने लगा।
उसके प्रभाव से बड़े-बड़े राजा भी काशी राजा से बुरी तरह हार जाते थे। राज्य में सुख-शान्ति
और खुशहाली बढ़ने लगी। प्रजा में एक दस
ू रे के लिए प्रेम और सौहार्द बढ़ने लगा।
 
कुछ दिन बाद काशी की रानी गर्भवती हुई। उसके गर्भ में बोधिसत्व ने प्रवेश किया। रानी के
प्रसव में एक हफ़्ता ही रह गया था; इस बीच काशी राजा का स्वर्गवास हो गया । यह मौक़ा दे ख
कोसल दे श के राजा ने काशी राज्य पर अचानक एक दिन हमला कर दिया । मंत्रियों ने आपस
में सलाह-मशविरा किया और आख़िर कोसल राजा के पास यह संदेश भेजा, “आपने कायर की
तरह धोखे से हमारे राज्य पर आक्रमण कर दिया है , जब कि सारा राज्य अपने राजा की मत्ृ यु
पर शोक में डूबा हुआ है । यह नीचता है । एक अच्छे पड़ोसी राजा होने के नाते आप को हमारे
साथ सम्वेदना और सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिये था। खैर, जो भी हो, हमारी रानी का एक
हफ़्ते के अन्दर प्रसव होनेवाला है , अगर महारानी ने एक बच्ची को जन्म दिया तो आप काशी
राज्य पर बिना यद्ध
ु और रक्तपात के कब्जा कर लीजिये । यदि रानी ने एक लड़के को जन्म
दिया तो हम लोग आप के साथ यद्ध
ु करें गेऔर दे श के लिए मर मिटें गे और जीते जी शत्रओ
ु ं को
सीमा के अन्दर आने नहीं दें गे।”
 
कोसल राजा ने उन्हें एक हफ़्ते की मोहलत दी। एक हफ़्ते के पूरा होते ही महारानी ने बोधिसत्व
को जन्म दिया। काशी राजा की सेनाएँ कोसल सेना के साथ जझ
ू गईं। मगर उस युद्ध में कोसल
का हाथ ऊँचा मालूम होने लगा। उस हालत में मंत्रियों ने महारानी के पास जाकर निवेदन
किया, “महारानी जी, हमारे पट्ट हाथी का ल़ड़ाई के मैदान में प्रवेश करने पर ही हमारी विजय हो
सकती है , लेकिन महाराजा के स्वर्गवास के दिन से लेकर पट्ट हाथी खाना-पीना व नींद को भी
तज कर दख
ु में डूबा हुआ है । हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया
जाये।”
 

मंत्रियों के मँह
ु से ये बातें सन
ु ते ही महारानी प्रसत
ू ी के कमरे में उठ बैठी, अपने शिशु को
राजोचित पोशाक पहनाकर पट्ट हाथी के पास ले गई।
 
शिशु को उसके पैरों के सामने रखकर प्रणाम करके बोली, “गजराज, आप अपने मालिक के
स्वर्गवास पर चिंता न कीजिए। दे खिये, अब यही राजकुमार आपका मालिक है । लड़ाई के
मैदान में इसके दश्ु मनों का हाथ ऊँचा है । आप जाकर उन्हें हरा दीजिए। वरना इस राजकुमार
को अपने पैरों के नीचे कुचलकर मार डालिये।” रानी के मँह
ु से ये बातें निकलने की दे र थी कि
हाथी का दख
ु जाता रहा। उसने प्यार से राजकुमार को अपनी सूंड से ऊपर उठाया और अपने
मस्तक पर बिठा लिया। फिर राजकुमार को रानी के हाथ में सौंप कर लड़ाई के मैदान की ओर
चल पड़ा।
 
हाथी का रौद्र रूप और भयंकर गर्जन करते और अपनी ओर बढ़ते दे ख कोसल राज्य के सैनिकों
का कलेजा कांप उठा। वे तितर-बितर होकर भागने लगे। किसी सैनिक को उसके सामने आने
का साहस नहीं हुआ। जो भी उसके सामने आ जाता, उसे कुचलता-रौंदता, उछालता हुआ हाथी
तूफान की तरह आगे बढ़ता गया और सीधे कोसल राजा के पास पहुँचा। उनको अपनी सूंड में
लपेट कर ले आया और काशी के राजकुमार के पैरों के पास डाल दिया। कोसल राजा ने
राजकुमार के चरण छूकर माफ़ी माँग ली। काशी राज्य के मंत्रियों ने उनको क्षमा कर वापस
भेज दिया।
 
बोधिसत्व के सात साल की उम्र होने तक हाथी ने काशी राज्य की रक्षा की। इसके बाद
बोधिसत्व गद्दी पर बैठे और उस हाथी को अपना पट्ट हाथी बनाकर बड़ी दक्षता के साथ शासन
करने लगे।
 
31. सूरज के साथ होड़

 
प्राचीन काल में एक समय ब्रह्मदत्त काशी पर राज्य करते थे। उस समय चित्रकूट पर्वत पर
नब्बे हज़ार हं स निवास करते थे। उसी समय बोधिसत्व ने एक हं स के रूप में जन्म लिया।
उसके अन्दर अनेक उत्तम गुण थे। वह अत्यधिक सुन्दर था। साथ ही वह अत्यंत तेज गति से
उड़ सकता था। इसी कारण वह नब्बे हज़ार हं सों का प्रधान बन गया।
 
ऐसे असंख्य उत्तम गुणों व शक्तियों के कारण हं सों के प्रधान को लोग राजहं स कहने लगे।
 
एक दिन राजहं स अपने दल के साथ सरोवर में विहार करके अपने निवास को लौट रहा था।
मार्ग में वह काशी राज्य के ऊपर से होकर निकला। पक्षियों के उस विशाल दल को दे खने पर
ऐसा लगता था, मानो सारे काशी राज्य पर सोने का वितान बिछा दिया गया हो।
 
काशी के राजा ने बड़े आश्चर्य से उस दल की ओर दे खा। उन सभी पक्षियों में तारों के बीच
चन्द्रमा के समान शोभायमान राजहं स को दे खकर राजा जैसे उस पर मुग्ध हो गये।
 
काशी नरे श उस राजहं स के राजसी ठाट, तेज आदि राजोचित लक्षणों को दे ख बहुत प्रभावित
हुए और उन्होंने सुन्दर फूल मालाएँ और पुजापा मँगवा कर राजहं स का अभिनन्दन किया।
 
राजहं स ने राजा का यह अपर्वू आतिथ्य बड़े ही स्नेहपूर्वक स्वीकार किया और सपरिवार कुछ
दिन वहीं बिताकर अपने निवास को लौट गया।
 
उस दिन से राजहं स के प्रति काशी नरे श के मन में स्नेह बढ़ता गया। दिन रात वे उसी के बारे में
सोचने लगे। वे पलक पांवड़े बिछाये राजहं स की प्रतीक्षा करते रहते कि न मालूम वह कब किस
दिशा से उधर आ जाए।

एक दिन चित्रकूट पर्वत प्रदे श के हं सों में से दो बाल हं स राजहं स के पास आए और बोले,
“राजन! हम दोनों कई दिनों से सर्य
ू के साथ होड़ लगाने की इच्छा कर रहे हैं।”
 
इस पर राजहं स ने समझाया- “अरे बच्चो! सूरज के साथ तुम्हारी दौड़ कैसी! कहाँ सूरज और
कहाँ नन्हीं जान तम
ु ! शायद तुम लोग नहीं जानते कि सूर्य की गति क्या है ? तम
ु उन के साथ
दौड़ नहीं सकते, इस दौड़ में प्राणों का खतरा भी हो सकता है ! अज्ञानता वश तम
ु लोगों ने यह
निर्णय कर लिया होगा। इसलिए तुम दोनों अपना यह कुविचार छोड़ दो।”
 
पर उन बालहं सों को हित की ये बातें अच्छी न लगीं। कुछ दिनों के बाद फिर उन बालहं सों ने
राजहं स के पास आकर सर्य
ू के साथ उड़ने की अनम
ु ति माँगी। इस बार भी राजहं स ने उन्हें मना
कर दिया। फिर भी छोटे हं सों ने अपने विचार को नहीं त्यागा। कुछ दिनों के बाद तीसरी बार
अनम
ु ति माँगी। इस बार भी राजहं स ने स्वीकृति नहीं दी।
 
आखिर अपनी असमर्थता से अनजान हं स के वे दोनों बच्चे अपने नेता की स्वीकृति के बिना ही
सूरज के साथ दौड़ लगाने के लिए युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचे। यह चोटी इतनी ऊँची थी,
मानो आसमान से बातें कर रही हो।
 
इधर राजहं स ने अपने परिवार के सदस्यों की गिनती की तो पाया कि उन में दो हं सों की कमी
है ।
 
ं में राजहं स को दे र न लगी। वह उनके लिए चिन्तित हो उठा। फिर सोचा,
असली बात भॉपने
अब चिन्ता करने से क्या लाभ? किसी तरह से उन दो हं सों को पता लगाना है और उनकी रक्षा
करनी ही होगी।
 
राजहं स शीघ्र ही यग
ु न्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचा और बालहं सों से आँख बचा कर एक जगह
बैठ गया।
 
दसू रे दिन सूर्योदय होते ही बालहं स सूर्य के साथ उड़ने लगे।
 
राजहं स ने भी उन का अनुसरण किया।
 
उन बालहं सों में से छोटा हं स दोपहर तक उड़्रता रहा, फिर पंखों में जलन के कारण बेहोश हो
गया। गिरते समय उसे राजहं स दिखाई पड़ा। वह निराश हो बोला, “राजन, मैं हार गया।”

इस पर राजहं स ने उसे सान्त्वना दे ते हुए कहा, “कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी सहायता के लिए
हूँ।” इस प्रकार प्यार भरे शब्दों में समझाकर उसे अपने पंखों पर चढ़ा लिया और अपने निवास
में अन्य सदस्यों के बीच छोड़ दिया।
 
इस के थोड़ी दे र बात दस ू रे बालहं स के पंखों में भी पीड़ा होने लगी, मानों उसे सुइयों से चुभोया
जा रहा हो।
 
आ़खिर थककर वह भी बेहोश होने लगा।
 
उसने भी राजहं स को दे ख दीनतापूर्वक बचाने की प्रार्थना की। उसे भी राजहं स ने अपने पंखों पर
बिठा कर चित्रकूट पर पहुँचा दिया।
 
अपने परिवार के दो पक्षियों को सूर्य से परास्त होते दे ख राजहं स को बहुत दख ु हुआ। वह यह
अपमान सहन नहीं कर पाया। इसलिए वह स्वयं सरू ज के साथ होड़ लगाने चल पड़ा।
 
अपूर्व क्षिप्र गति रखने वाला राजहं स अपनी उड़ान प्रारं भ करने के कुछ ही दे र बाद सूर्य बिम्ब से
जा मिला और पलक मारते उसे भी पार करके और ऊपर उड़ता चला गया। उसने केवल सूर्य की
शक्ति का अनुमान लगाना चाहा था अन्यथा उसे सूर्य से होड़ लगाने की आवश्यकता ही क्या
थी।
 
राजहं स इसलिए थोड़ी दे र तक अपनी इच्छानस
ु ार चक्कर काट कर भल
ू ोक पर उतर आया और
काशीराज्य में पहुँचा।
 
राजहं स की प्रतीक्षा में व्याकुल काशी नरे श उसे दे खते ही आनन्द विभोर हो उठे ।
 
राजहं स को राजा ने अपने स्वर्ण-सिंहासन पर बिठाया तथा स्वर्ण थाल में खीर और स्वर्ण
कलश में शीतल शरबत से उसका आतिथ्य किया। राजहं स ने राजा का आतिथ्य स्वीकार कर
सर्य
ू के साथ उड़ने का सारा वत्ृ तांत विस्तार के साथ राजा को सनु ाया।
 
सारा वत्ृ तांत सुनकर राजा राजहं स की अलौकिक शक्ति पर बहुत प्रस हुए। फिर उन्होंने
राजहं स से अनुरोध किया, “हे पक्षी राज, सूर्य के साथ होड़्र लगाने से भी कहीं अधिक अपनी
महान शक्ति और प्रज्ञा दिखाइए। उस दृश्य को दे खने की कई दिनों से मेरी प्रबल इच्छा है ।”
 
राजहं स ने राजा को अपनी शक्ति का परिचय दे ने की स्वीकृति दे ते हुए कहा, “राजन, आप के
राज्य में बिद्युत से भी अधिक द्रत
ु गति के साथ बाण चलानेवाले धनुर्धारी हों तो ऐसे चार
व्यक्तियों को यहाँ बुलवाइए।” राजा ने ऐसे चार धनुर्धारियों को बल
ु वाया।

राजा के उद्यान में एक चौकोर स्तम्भ था। राजहं स ने उस के चतुर्दि क चारों धनुर्धारियों को
खड़ा कर दिया। इसके बाद वह अपने गले में एक घंटी बाँध कर स्तम्भ पर बैठ गया।
 
“मेरा संकेत पाते ही तुम चारों अपने बाण छोड़ दो। क्षण भर में मैं तम
ु चारों के बाण लाकर
तुम्हारे सामने रख दँ ग
ू ा। पर तम
ु लोग मेरे कंठ में बंधी घण्टी की ध्वनि से ही मेरी गति का
परिचय पा सकते हो। तुम लोग मुझ को उड़ते हुए दे ख न सकोगे।” राजहं स ने उन धनुर्धारियों
से कहा।
 
अपने वचन के अनुसार विद्युत की कौंध की अवधि के अन्दर राजहं स ने धनुर्धारियों के द्वारा
छोड़े गये बाण लाकर उन के सामने रख दिये।
 
राजा तथा उनका परिवार विस्मय में आकर दातों तले अंगल
ु ी दबाने लगे।
 
इस पर राजहं स बोला, “राजन, आपने जो मेरी गति दे खी है , यह मेरी निम्नतम गति है । इसके
आधार पर आप अनम
ु ान लगा सकते हैं कि मेरी वास्तविक गति क्या होगी?” राजा बड़्रे ही
आतरु होकर बोले- “हे पक्षीराज, तम्
ु हारे वेग का नमन
ू ा तो मैंने दे ख लिया लेकिन क्या इससे भी
अधिक वेग रखनेवाला कोई है ?” इस पर राजहं स ने कहा, “क्यों नहीं? मझ
ु से भी अनन्त गन
ु ा
अधिक वेग रखने वाली एक महाशक्ति है । वही काल नामक सर्प है । वह काल सर्प प्रति क्षण
विश्र्व के जीवों को अवर्णनीय वेग के साथ नष्ट कर रहा है ।”
 
ये बातें सुन कर राजा भय से कांप उठे ।
 
तब राजहं स के रूप में बोधिसत्व ने काशी राजा को इस प्रकार तत्वोपदे श दिया, “राजन, जो
लोग इस बात का स्मरण रखते हैं कि काल सर्प नामक कोई चीज़ है , उन्हें डरने की आवश्यकता
नहीं है । आप जब तक नीति व धर्म के साथ शासन करते रहें गे, तब तक आप को किसी का कोई
भय न होगा। इसलिए आप विधिपूर्वक अपने कर्तव्य करते जाइए।”
 
बोधिसत्व के उपदे शानुसार काशी राजा ने धर्म मार्ग पर शासन करके अपार यश प्राप्त किया।
 
32. मंत्र की महिमा

 
ब्रह्मदत्त जिस समय काशी राज्य पर शासन करते थे, उन दिनों बोधिसत्व ने एक गाँव में
चर्मकार के रूप में जन्म लिया। वे अपने पेशे को चलाते हुए एक सिद्ध के आश्रय में गये और
उनके द्वारा एक अपर्वू मंत्र सीख लिया।
 
उस मंत्र की महिमा के द्वारा बोधिसत्व किसी भी समय आम के पेड़ों में आम उगा सकते थे। वे
रोज सवेरे एक टे ढ़ी लाठी कंधे पर डाल जंगल में एक आम के पेड़ के पास पहुँच जाते। वहाँ पर
पेड़ से सात फुट की दरू ी पर खड़े हो मंत्र-पाठ करते थे। इसके बाद डालों पर मंत्र-जल छिड़क दे ते
थे। दस
ू रे ही क्षण आम की डालों में कोंपलें उग आतीं, पष्पि
ु त हो फल लग जाते।
 
एक दिन जब बोधिसत्व आम के पेड़ में फल उगा रहे थे, तब दाभों की खोज में जंगल में आये
हुए सुनंद नामक एक ब्राह्मण युवक ने दे खा। वह युवक जंगल के समीप के एक अग्रहार का
निवासी था। वह पढ़नेलिखने में कच्चा निकला, मगर वह हमेशा इस बात का सपना दे खा
करता था कि किसी दे वी की कृपा से पल भर में वह पंडित बन जाये और सोना व चांदी पाकर
वैभवपूर्ण जीवन बिताये।
 
बोधिसत्व जब जंगल से घर लौटे , तब सन
ु ंद ने बोधिसत्व के हाथ से टे ढ़ी लाठी और आम की
गठरी लेकर भीतर पहुँचा दिया। इसके बाद उसने अपना परिचय दिया और बड़ी लगन के साथ
उनके घर के काम-काज दे खने लगा।
 
थोड़े दिन बीत गये। एक दिन बोधिसत्व ने अपनी पत्नी से कहा, “जानती हो, यह लड़का हमारे
आश्रय में क्यों आया है ? उसके मन में सभी मौसमों में आम की सष्टि
ृ कर सकने वाले मंत्र
सीखने की इच्छा है । यह बड़ा ही लोभी है । अगर मैं इस पर कृपा करके मंत्र सिखला भी दँ ू तो भी
ज़्यादा दिन वह मंत्र उसके लिए काम न दे गा।”

सन
ु ंद के व्यवहार पर बोधिसत्व की पत्नी बड़ी ख़श
ु हुई और उस पर उसे दया भी आई। उसने
एक दिन अपने पति से कहा, “यह लड़का हमारे घर के सारे काम-काज करता है और हमारे बेटे
से भी ज़्यादा विनयशील बना रहता है । मंत्र उसके लिए काम क्यों न दे गा? अगर काम नहीं
दे गा, तो इसका दोष उसी का होगा। इसलिए आप इसको मंत्र का उपदे श ज़रूर दीजिए।”
 
बोधिसत्व थोड़ी दे र सोचते रहे , अपनी पत्नी की बातों का संकेत समझ गये और सुनंद को
मंत्रोपदे श करने को मान लिया।
 
दस
ू रे दिन बोधिसत्व ने सुनंद को बुलाकर कहा, “बेटा, यह एक अपूर्व मंत्र है , अगर तुम इस मंत्र
का उपयोग न्यायपर्व
ू क करोगे तो तम्
ु हें धन और यश दोनों मिल जायेंगे। लेकिन एक बात याद
रखो। अगर कोई तम
ु से यह पछ ु ने यह मंत्र किसके यहॉ ं सीखा है , तब तम
ू े कि तम ु इसका
रहस्य प्रकट न करो। तम
ु ने यदि मंत्र का रहस्य प्रकट किया तो उसी क्षण से मंत्र की महिमा
जाती रहे गी।” यों समझाकर बोधिसत्व ने सन ु ंद को मंत्रोपदे श दिया।
 
सुनंद मंत्र सीखकर घर पहुँचा, आम की सष्टि
ृ करके उन्हें बेचकर धन कमाने लगा।
 
इस तरह सन ु ंद ने बेमौसम के जो आम पैदा किये, उनमें से एक फल काशी राजा के हाथ लगा।
वे आश्चर्य में आ गये, उनकी सष्टि
ृ करने वाले का पता लगाकर सन
ु ंद को अपने यहाँ बल
ु ा
भेजा।
 
राजा ने सुनंद से पूछा, “तुम बेमौसम इन आमों की सष्टि
ृ कैसे करते हो? यह दे वताओं की
सष्टि
ृ है , या मानव की? सच बतला दो।”
 
सनु ंद ने प्रसन्न होकर राजा से निवेदन किया, “महाराज, मैं जो आम बेचता हूँ, इनकी सष्टि
ृ मैं
खद
ु करता हूँ। मैं एक महा मंत्र जानता हूँ। उस मंत्र की महिमा के द्वारा ही मैं बेमौसम आम के
पेड़ों में फल उगा दे ता हूँ।”
 
यह उत्तर पाकर राजा और आश्चर्य में आ गये और बोले, “ओह, ऐसी बात है ! मेरे मन में उस
मंत्र की महिमा को स्वयं दे खने की इच्छा है । क्या तुम मेरे उद्यान के पेड़ों में अपने मंत्र की
महिमा से आम पैदा कर सकते हो?”
 
सुनंद ने खश
ु ी के साथ मान लिया। दस
ू रे दिन राजा अपने परिवार को साथ लेकर उद्यान वन
में पहुँचे। सुनंद वहाँ पर एक पेड़ से सात फुट की दरू ी पर खड़ा हो गया। मंत्र-पठन करके
कमण्डलु से जल लेकर आम की डालों पर छिड़क दिया। तुरंत सैकड़ों आम के फल नीचे गिर
गये।

इस अद्भत
ु को दे ख राजा और उनका परिवार विस्मय में आ गये। सबने फल चखकर दे खा।
उसका स्वाद अनोखा था। इस पर राजा ने सुनंद की बड़ी प्रशंसा और उसका सत्कार भी किया।
फिर सनु ंद से पछ
ू ा, “ऐसी महिमा वाले मंत्र का उपदे श करने वाले महा ज्ञानी कौन हैं?”
 
सुनंद की समझ में न आया कि क्या जवाब दे ? उस व़क्त उसे अपने गुरुजी की बातें याद आयीं
कि मंत्र का रहस्य बताने पर मंत्र की शक्ति जाती रहे गी। फिर भी उसने सोचा कि जिस मंत्र को
कंठस्थ कर लिया है , उसकी शक्ति कैसे जायेगी! ये सब गुरुजी की आडंबरपूर्ण बातें हैं। यों
सोचकर उसने राजा को सच्ची बात बता दी कि उसने यह मंत्र कहाँ और किससे सीखा है ।
 
इस पर राजा सुनंद का मजाक़ उड़ाते हुए बोले, “ओह, ऐसी बड़ी महिमा वाले मंत्र को तुमने एक
चर्मकार से सीखा है ? ब्राह्मण के वंश में जन्म लेकर तम
ु इहलोक के सख
ु -भोगों के लोभ में
पड़कर अपने स्वधर्म को भल ू गये हो? यह बड़ा ही नीचतापर्ण
ू कार्य है ।”
 
राजा के मँुह से ये बातें सुन सुनंद लज्जित हो सर झुकाये चुपचाप अपने घर लौट गया।
 
थोड़ा समय गज ु र गया। एक दिन काशी राजा के मन में आम खाने की इच्छा जगी। उन्होंने
सनु ंद को बल
ु ा कर अपनी इच्छा बताई। इस पर सब लोग उद्यान वन में पहुँचे।
 
सुनंद पहले की भांति आम के पेड़ से सात फुट की दरू ी पर खड़े हो मंत्र-पाठ करने को हुआ,
लेकिन बड़ी दे र तक याद करने पर भी मंत्र याद न आया। तब जाकर सुनंद ने समझ लिया कि
गुरुजी के आदे श का अतिक्रमण करने की वजह से मंत्र की महिमा जाती रही है ।
 
राजा चकित हो पेड़ की ओर दे खते रहे , तब सन
ु ंद ने उन्हें बताया, “महाराज, मैंने अपने गरु
ु जी
के आदे श का उल्लंघन किया है ! इसीलिए मैं मंत्र की महिमा खो बैठा हूँ।” यों कहकर चिंतापर्ण

चेहरा लिए सन
ु ंद अपने घर लौट गया।
 
33. महानता की कसौटी

 
ब्रह्मदत्त, जब काशी राज्य पर राज्य करते थे, बोधिसत्व ने काशी नरे श के पत्र
ु के रूप में जन्म
लिया। उसने तक्षशिला में जाकर सोलह वर्ष की आयु के पूर्व ही समस्त शास्त्रों का अध्ययन
किया। इसके बाद अपने पिता की मत्ृ यु होने पर वह काशी का राजा बना और धर्माचरण करते
हुए राज-काज चलाने लगा।
 
बोधिसत्व के शासन काल में उनकी प्रजा किसी प्रकार के कष्ट, अनिष्ट, अन्याय और
अत्याचार के बिना सुखमय जीवन बिताने लगी। इस कारण से न्यायालय के लिए कोई काम न
रहा। अनेक वर्ष बीत गये पर न्याय की माँग करते हुए एक भी न्यायालय में नहीं पहुँचा। जनता
के बीच कोई आन्दोलन नहीं था, इस कारण से राजा को यह समझने में कठिनाई हुई कि जनता
उसके विषय में क्या सोचती है और उसके शासन में क्या त्रटि
ु याँ हैं। कम से कम किसी मक
ु दमे
को लेकर न्यायालय की शरण लेने वाले भी होते तो राजा को अपनी त्रटि
ु यों को समझने में
सहायता मिल जाती । परन्तु राजसभा की ओर झाँकने वाला तक कोई न था।
 
इसलिए राजा एक दिन अपने रथ पर सवार हो नगर घूमते हुए जो भी उनके सामने आया
उससे पूछने लगे कि मेरे शासन में तुम्हें क्या त्रटि
ु दिखाई दे ती है । पर सब यही उत्तर दे ते थे,
“महाराजा, हम लोग आपके शासन में बहुत ही सुखी हैं, हमें तो कोई त्रटि
ु दिखाई नहीं दे ती।”
 
उस पर भी राजा को सन्तोष न हुआ। उन्होंने अपने राजसी वस्त्राभष ू ण उतार दिए और एक
साधारण नागरिक के वेष में रथ पर नगर को पार किया। गाँवों का भ्रमण करते हुए यह जानने
का प्रयत्न किया कि जनता उनके विषय में क्या सोचती है । उन्होंने कई गाँवों के चक्कर लगाये
किन्तु कहीं भी उनके शासन की आलोचना नहीं सुनाई दी। वे यह सोचकर बहुत परे शान हुए कि
किस प्रकार अपने शासन के बारे में लोगों के विचार जानें।

अन्त में राजा रथ पर सवार होकर राज्य की सीमा पर पहुँचे और सीमा के पथ से होकर
राजधानी की ओर लौटने लगे। उस समय काशी नरे श के रथ के सामने से एक और रथ आ
निकला। दोनों रथों का एक दस
ू रे से हटकर बच निकलना सम्भव न था क्योंकि पथ संकीर्ण था
और उसके दोनों छोरों पर ऊँची मेड़ें थीं। दोनों रथ थोड़े अन्तराल के साथ आमने-सामने रुक
गये।
 
काशी नरे श के सारथी ने सामने वाले सारथी से कहा, “हमें आगे जाना है , तुम अपने रथ को
पीछे हटा लो।”
 
“मुझे पीछे हटने के लिए कहने वाले तम
ु कौन होते हो? तुम्हीं क्यों नहीं अपना रथ हटा लेते?”
दसू रे सारथी ने पछ
ू ा।
 
इस पर दोनों सारथी वाद-विवाद करने लगे। “जानते हो, इस रथ पर कौन सवार हैं? काशी के
राजा हैं!” काशी नरे श के सारथी ने कहा।
 
“इस रथ पर कोसल नरे श सवार हैं!” दस ू रे सारथी ने कहा।
 
काशी राज्य जितना बड़ा था, कोसल राज्य भी उतना ही बड़ा था। वय और विद्या में भी कोसल
नरे श काशी नरे श की बराबरी करते थे। वे भी काशी नरे श की भांति छद्म वेश में सारे गाँव
घूमकर अपने शासन के प्रति जनता के विचार जानने के लिए निकल पड़े थे। उन्हें यह सोचकर
बहुत आश्चर्य हुआ कि उनके रथ को मार्ग न दे ने वाला यह कौन है । परन्तु वे बिना कुछ कहे
स्वयं चुप रहे । “आपके राजा में ऐसा कौन सा बड़प्पन है ?” काशी नरे श के सारथी ने पूछा।
 

कोसल नरे श के सारथी ने यों उत्तर दिया:


 
“दलहं दलहस्य विवपति मल्लिको मुदन ु ा मुदल
ु साधुंपि साधुना जेति असाधुंपि असाधुना,
एतादिसो अयं राजा भग्गा उय्याहि सारथि।।”
 
(हमारे राजा मल्लिक दष्ु टों के लिए कठोर हैं और सज्जनों के साथ सज्जनतापर्ण
ू व्यवहार
करते हैं। सज्जनता के लिए सज्जनता के साथ परु स्कार दे ते हैं और दष्ु टों को दष्ु टता के साथ
दबा दे ते हैं।)
 
यह सुनकर काशी नरे श के सारथी ने यों कहा:
 
“अक्कोधेन जिने क्रोध असाधंु साधन ु ा जिने, जिने कदरियं दानेन सच्चेन अलिवादिनं
एतादिसो अयं राजा मग्गा उय्याहि सारथि।”
 
(हमारे महाराजा क्रोध को शांति के द्वारा और दष्ु टता को अपनी साधुता के द्वारा जीतते हैं।
पुरस्कारों द्वारा लोभी व्यक्तियों को पराजित करते हैं, झूठ के बदले सत्य प्रदान करते हैं।)
 
काशी नरे श के सारथी के मँह ु से ये शब्द सन
ु कर कोसल नरे श मल्लिक को कौतह ु ल हुआ। उन्हें
इस बात की प्रसन्नता भी हुई कि एक राजा ऐसा भी है जिसमें राजोचित गण
ु उनसे अधिक
विद्यमान हैं। वे बड़ी आतुरता के साथ रथ से उतर आये और काशी नरे श को प्रणाम करके
बोले, “महात्मा, अभी तक मैं सोचता था कि मुझे कुछ और नहीं करना है , परन्तु आज ज्ञात
हुआ कि अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है । और वह सब कुछ मुझे सीखना है आपसे! आज मुझे
अपनी त्रटि
ु का बोध हुआ। उसको दरू करके भविष्य में और अधिक न्यायपर्व
ू क राज्य करूँगा।”
 
इसके बाद काशी नरे श अपने नगर को लौट आये। वे पहले से कहीं अधिक धर्माचरण करते हुए
शासन कार्य संभालने लगे और साथ ही आत्म-चिन्तन में अपने आप को लगाया। समय के
साथ-साथ उनके राज-संचालन में अनेक सुधार आए और उनकी प्रजा पहले से भी अधिक सुखी
जीवन बिताने लगी।
 
34. कपटी योगी

 
प्राचीन काल में कुरु राज्य की राजधानी पांचाल नगरी पर राजा रे णुक राज्य करते थे। उन्हीं
दिनों हिमाचल में पांच सौ साधुओं के गुरु महारक्षित भी रहा करते थे।
 
एक बार महारक्षित अपने शिष्यों के साथ दे शाटन करते पांचाल नगर आ पहुँचे। साधुओं के
आगमन पर राजा बहुत खश ु हुए। महारक्षित का उचित रूप से स्वागत-सत्कार करके उद्यान
वन में उनके ठहरने का अच्छा इंतजाम किया।
 
वर्षा ऋतु के बीतने तक महारक्षित उद्यान वन में रहे , इसके बाद राजा से विदा लेकर हिमालय
की ओर चल पड़े। वापसी यात्रा में सभी लोग एक पेड़ की छाया में बैठ कर राजा के सत्कार की
चर्चा करने लगे। बातों के सिलसिले में यह प्रसंग आया कि राजा के कोई संतान है या नहीं! इस
पर महारक्षित के कुछ ज्योतिषी शिष्यों ने चर्चा शुरू की। उस संदर्भ में महारक्षित ने बताया कि
थोड़े दिन बाद राजा रे णुक के यहाँ दे वता अंशवाला एक पुत्र जन्म लेगा।
 
सब शिष्य यह जानते थे कि महारक्षित के मँह ु से जो बात निकलती है , वह सच होती है । ये बातें
सन
ु ने पर महारक्षित के एक शिष्य के मन में दर्बु
ु द्धि पैदा हो गई। उसने और शिष्यों से बताया
कि वह थोड़ा पीछे उनके साथ चलेगा। तब सबके चले जाने पर वह पांचाल नगर को लौट पड़ा।
 
राजधानी में पहुँच कर राजा के दर्शन करके उसने कहा, “महाराज, जब हम लोग हिमालय को
लौट रहे थे, तब अचानक हमें आपकी याद आई। हमारे सामने यह प्रश्न उठा कि राजा की वंश
लता आगे बढ़े गी या नहीं? हमने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया कि आप के यहॉ ं दे वता अंश
वाला एक पुत्र पैदा होगा ! यही बात मैं आप को बताने आया हूँ।” यों कहकर वह दष्ु ट साधु
लौटने को हुआ।

यह शभ ु समाचार सन ु कर राजा बहुत प्रसन्न हुए और साधु को रोक कर बोले, “महात्मा, आप


तो दिव्य चक्षु वाले हैं! आप कृपया यहीं पर रह जाइये।”
 
इस पर दष्ु ट बुद्धि वाले योगी ने राजा की बात मान ली। राजा ने उद्यान वन में उस योगी के
ठहरने के लिए सारी सवि
ु धाएँ कर दीं और उसकी सेवा करने लगे। वह धूर्त योगी उद्यान के एक
कोने में साग-सब्जी पैदा करके मालियों के द्वारा उसे बिकवाकर धन कमाने लगा।
 
उन्हीं दिनों बोधिसत्व रे णुक राजा के पत्र
ु के रूप में पैदा हुए। उनका नामकरण सुमनस किया
गया।
 
सुमनस जब सात साल के हुए, तब राजा रे णुक को अपने सामंत राजाओं के साथ युद्ध करना
पड़ा। राजा की गैर हाज़िरी में एक दिन सुमनस उद्यान वन को दे खने गये। वहाँ पर गेरुआ
वस्त्रधारी योगी पौधों के लिए थांवले बनाकर माली से भी कहीं ज़्यादा मेहनत करता दिखाई
पड़ा।
 
समु नस ने कपटी योगी को पहचान लिया और उसे उचित सबक़ सिखाने के ख़्याल से कहा,
“अरे माली, तम ु क्या करते हो?”
 
दिव्य चक्षु वाले के रूप में प्रसिद्ध वह धूर्त योगी सुमनस की यह पुकार सुनकर चौंक पड़ा। उसने
भांप लिया कि सुमनस ने उसके रहस्य को समझ लिया है ।
 
उसी व़क्त सम ु नस का अंत करने का निश्चय करके योगी ने एक उपाय सोचा।
 
युद्ध भूमि से राजा के लौटने का समाचार पाकर कपटी योगी ने अपने कमण्डलु और आसन के
टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
 
साथ ही आश्रम के चारों तरफ़ घास-फूस फेंक दी। इसके बाद सारे बदन में तेल मलकर कराहते
हुए एक कोने में लेट गया।
 
लड़ाई से लौटकर राजा अपने गुरु को दे खने गये। उन्हें आश्रम का परिसर गंदा दिखाई दिया।
आश्रम के भीतर योगी कराहते हुए लेटा था। इस पर राजा ने हाथ जोड़कर पूछा, “महात्मा,
कृपया बताइये, आख़िर क्या हो गया है ?”
 
“महाराज, यह सब आपके पत्र
ु की करनी है ।” इन शब्दों के साथ सम
ु नस पर कपटी योगी ने कई
झठ
ू -मठ
ू के इल्ज़ाम लगाये।

राजा क्रोध में अंधे हो गये और उसी व़क्त बधिकों को बुलाकर आदे श दिया, “तम
ु लोग सुमनस
का सर काटकर मेरे पास ले आओ।”
 
उस व़क्त सम
ु नस अपनी हाँ के पास बैठे थे। बधिकों ने जाकर सम
ु नस को यह ख़बर सन
ु ाई।
सुमनस ने अपने पिता के पास आकर बताया, “पिताजी, आप इस कपटी योगी को एक महात्मा
मान बैठे हैं और उनकी पूजा करते हैं। लेकिन वह क्या-क्या करते हैं, इसकी सचाई आप
द्वारपालों के द्वारा जानने की कृपा कीजिए।”
 
इस पर राजा ने चारों द्वारपालों को बलु ा भेजा। उन लोगों ने सच्ची बात बता दी। इस पर राजा
ने आश्रम की तलाशी करवाई । तब कपटी योगी ने जो धन छिपा रखा था,सारा मिल गया।
 
राजा अपनी भूल पर बहुत दख
ु ी हुए और अपने पुत्र से बोले, “बेटा, तम
ु मेरी जल्दबाज़ी को माफ़
कर दो और आज से तम् ु हीं इस राज्य पर शासन करो!”
 
पर सुमनस ने नहीं माना। वे बोले, “महाराज, जैसे शक्तिशाली जड़ीबूटी जो काम कर सकती है ,
वही काम मँह
ु से निकलने वाली बात भी कर जाती है ! आपके मँह
ु से दष्ु ट वाणी निकल पड़ी है !
आपके आदे शानुसार माता के पास बैठे हुए मुझे बधिक वधशिला के पास ले जाने को हुए। मैं
अभी आपके राज्य को छोड़ कर जा रहा हूँ।”
 
इस पर राजा ने सम
ु नस के निश्चय को बदलने के लिए रानी से अभ्यर्थना की, पर धर्म भावना
रखनेवाली रानी ने राजा की बात नहीं मानी, उल्टे अपने पत्र
ु को आशीर्वाद दे ते हुए कहा, “बेटा,
तमु धर्मात्मा हो! पवित्र जीवन बिताते हुए इहलोक से तर जाओ।”
 
इसके बाद सुमनस हिमालय में पहुँचकर और वहाँ पर विश्वकर्म द्वारा निर्मित कुटी में तपस्या
करते अपना समय बिताने लगे।
 
राजा ने कपटी योगी को मत्ृ यु दण्ड सन
ु ाया, साथ ही उन्होंने यह कानन
ू बनाया कि उनके राज्य
में कोई योगियों को आश्रय न दे ।
 
इस कारण दष्ु ट बुद्धि वाले एक कपटी योगी की करनी पर सारे राज्य में योगियों का अपमान
हुआ और कुरु राज्य में योगियों को जनता के द्वारा आदर मिलना बंद हो गया।
 
35. कर्म का फल

 
भगवान बुद्ध के समय में अनाथपिंडक नामक एक वैश्यश्रेष्ठ रहा करते थे। बुद्ध के प्रति उनके
मन में अपार भक्ति और श्रद्धा थी। उन्होंने जेतवन में बुद्ध के वास्ते 54 करोड़ रुपये खर्च करके
एक आराम गह
ृ बनवाया। वे प्रतिदिन तीन बार बुद्ध भगवान के दर्शन किया करते थे। कभी-
कभी बुद्ध अपने शिष्यों के साथ उनके घर भी जाया करते थे।
 
अनाथपिंडक का महल सात मंजिलवाला था और उस महल के सात प्राकार थे। उनमें मध्य
प्राकार के अन्दर एक क्षुद्र दे वी अपनी संतान के साथ निवास किया करती थी। वह बुद्ध भगवान
से मन ही मन जलती थी। उस महल के अन्दर जब-तब बुद्ध भगवान का आना उसे बिलकुल
पसंद न था। इसलिए वह एक मानवी का रूप धर कर अनाथपिंडक के खजांची के पास पहुँची
और बोली, "आप लोग बद्ध
ु को इस महल के अन्दर क्यों प्रवेश करने दे ते हैं? ऐसे व्यक्ति का
प्रवेश इस घर के लिए हानिकारक है ।” इस पर खजांची ने उसको खरी-खोटी सन
ु ाकर वापस कर
दिया। इसके बाद वह अनाथपिंडक के पत्र
ु के पास पहुँची, वहाँ पर भी बद्ध
ु के विरुद्ध शिकायत
करके अपमानित हो चली गई।
 
कालक्रम में अनाथपिंडक का ख़र्च बढ़ता गया और उनकी आमदनी घटती गई। वे व्यापार के
मामलों में भी बिलकुल दिलचस्पी नहीं लेते थे। इसके अलावा अन्य कार्यों में भी उनका
नुक़सान हुआ। व्यापारियों ने उनसे 15 करोड़ मुद्राएँ उधार ली थीं। पर वह धन उन लोगों ने न
लौटाया था और न अनाथपिंडक ने कभी उनसे माँगा ही था। इसके अलावा और 15 करोड़ मुद्राएँ
अचिरवती नदी के किनारे कलशों में भर कर गड़वा दी थीं जो नदी में बाढ़ आने की वजह से
बहकर समुद्र में जा मिलीं।

इन सब कारणों से अनाथपिंडक थोड़े समय में ही निर्धन हो गया। तिस पर भी वह बौद्ध भिक्षुओं
को भोजन कराते ही रहे , मगर पहले जैसे भारी भोज नहीं दे ते थे। एक दिन बुद्ध भगवान ने
अनाथपिंडक से पूछा, "वत्स, क्या तम
ु इस हालत में भी बराबर दान दे ते चले जा रहे हो?”
 
अनाथपिंडक व्याकुल होकर बोले, "भगवान, मैं दान तो कर रहा हूँ, पर वह मांड़ मात्र है ।”
 
उनकी व्याकुलता को भांपकर बुद्ध भगवान बोले, "वत्स, चिंता न करो। जब तक हृदय निर्मल
होगा, तब तक मांड़ दान करने पर भी उसका फल अच्छा होगा।”
 
अनाथपिंडक को निर्धन हुए दे ख क्षुद्र दे वी साहस करके उनके पास पहुँची और पूछी, "महाशय,
आप बुद्ध को अपने महल के अन्दर क्यों प्रवेश करने दे ते हैं? आप मन लगाकर अपना व्यापार
कीजिए। खोई हुई सारी संपत्ति फिर से कमाने का प्रयत्न कीजिए। मैं आप के महल के चौथे
प्राकार में रहने वाली दे वी हूँ। आप के हित की कामना से समझा रही हूँ।”
 
इस पर अनाथपिंडक क्रोध में आकर बोले, "तम ु इसी व़क्त मेरे महल को छोड़कर चली जाओ।”
 
"क्या आप समझते हैं कि मैं हमेशा के लिए इसी महल को अपना निवास बनाकर रहूँगी? मझ ु े
इससे अच्छे महल मिल जाएँगे।” यों कहकर क्षुद्र दे वी अपने बच्चों के साथ वहॉ ं से चली गई।
 
क्षुद्र दे वी ने सब जगह खोज की, मगर उसे ऐसा अच्छा महल कहीं दिखाई नहीं दिया। इसलिए
वह मन ही मन यह सोचकर पछताने लगी कि मैं आवेश में आकर अनाथपिंडक के सुंदर महल
को क्यों छोड़ आई? वह जिस घर को छोड़ आई थी, उसमें फिर से जाने में लज्जा का अनुभव
करने लगी। वह जब किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाई, तब ग्राम दे वी की सलाह लेने के लिए
उसके पास पहुँची।
 
ग्राम दे वी ने उसे समझाया, "तम
ु ने अनाथ पिंडक के महल को छोड़कर बड़ी भल
ू की। अगर तम

फिर से उस महल में जाना चाहती हो तो एक काम करो। व्यापारियों से अनाथपिंडक को 15
करोड़ मद्र
ु ाएँ मिलनी हैं। तम
ु उसके मंश
ु ी के रूप में जाकर उन व्यापारियों से 15 करोड़ मद्र
ु ाएँ
वसूल कर लाओ।

साथ ही अनाथपिंडक के 15 करोड़  मुद्राओं से भरे जो कलश समुद्र में मिल गये हैं उनको ले
आओ; इसके अलावा अमुक जगह अनाथपिंडक की 15 करोड़ मुद्रा मूल्य की संपत्ति है । यह
बात कोई नहीं जानता। तुम वह संपत्ति अनाथपिंडक को सौंप दो। इसके बाद तम
ु उनके पास
जाकर उनसे प्रार्थना करो कि वे तम ु को अपने महल में रहने की अनुमति दें ।”
 
क्षुद्र दे वी ने अनाथपिंडक की 15 करोड़ मुद्राएँ व्यापारियों से वसूल कीं। समुद्र के अन्दर से धन
से भरे कलश भी ले आई।
 
इसके साथ 15 करोड़ मुद्रा मूल्य की जायदाद अनाथपिंडक को सौंपकर क्षुद्र दे वी ने कहा,
"महानुभाव, मेरी अ़क्ल ठिकाने लग गई है । मुझे क्षमा करके अपने महल में रहने की अनुमति
दीजिए।”
 
"तुम बुद्ध भगवान के पास जाकर उनसे क्षमा माँग लो।” अनाथपिंडक ने कहा। क्षुद्र दे वी
अनाथपिंडक के साथ जेतवन पहुँची, बुद्ध भगवान के दर्शन करके सारी बातें उन्हें सुनाकर
अपनी करनी के लिए क्षमा मॉगं ली।
 
सारा वत्ृ तांत सन
ु कर बद्ध
ु भगवान बोले, "दष्ु कर्म करने वाला व्यक्ति अपने कर्म के फलीभत

होने तक यही सोचता है कि वह अच्छा कर्म कर रहा है । मगर जब उसका फल भोगने का व़क्त
आता है , तभी उसे सच्चाई का बोध होता है । इसी प्रकार सत्कर्म करने वाला व्यक्ति अपने कर्म
के परिपक्व होने तक यह सोचा करता है कि वह दष्ु कर्म कर रहा है । वह भी जब कर्म फल का
अनभ
ु व करने लगता है , तभी सच्चाई का पता पाता है । मेरे पर्व
ू कथन का उदाहरण यह क्षुद्र
दे वी है । इसने सोचा कि मैं अच्छा कर्म कर रही हूँ। दस
ू रे कथन का उदाहरण यह अनाथपिंडक
है , ये यह सोचकर मन ही मन पछताते रहे कि ये दष्ु कर्म कर रहे हैं। कर्म के परिपक्व होने के
बाद ही इस बात का पता चला कि किसका कर्म दष्ु कर्म है और किसका सत्कर्म।”
 
यह उपदे श सुनने पर क्षुद्र दे वी का मन बदल गया। बुद्ध दे व के प्रति अपनी ईर्ष्या त्याग दी, और
अपने बच्चों के साथ अनाथपिंडक के महल के चौथे प्राकार में फिर से निवास करने लगी।
 
36. दिली दोस्त

 
प्राचीन काल में जब ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर शासन करते थे, उन दिनों बोधिसत्व ने एक
ब्राह्मण गह
ृ स्थ के घर जन्म लिया। माता-पिता ने उसका नामकरण सत्यानंद किया। दो-चार
साल बाद उस ब्राह्मण के एक और पत्र ु हुआ जिसका नाम नित्यानंद रखा गया।
 
जब दोनों भाई युवावस्था को प्राप्त होने लगे, तब अचानक उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो
गया। इस पर अपनी ज़िंदगी से विरक्त होकर एक ने गंगाजी के उस पार अपनी कुटी बनाई तो
दसू रे ने इस पार अपनी झोंपड़ी बनाई। इस प्रकार वे दोनों सन्यासी का जीवन बिताने लगे।
 
एक दिन, पाताल लोक का सर्पराज मणिकांत मानव का रूप धरकर पथ्ृ वी पर आ पहुँचा और
गंगाजी के किनारे पैदल चलकर जाने लगा। उस व़क्त नित्यानंद की कुटी पर उसकी नज़र
पड़ी। छोटी-सी उम्र में ही सन्यासी का जीवन बितानेवाले नित्यानंद को दे ख मणिकांत अचरज
में आ गया। उसने उसे अपना परिचय दिया और दे र तक उसके साथ वार्तालाप किया।
 
इस प्रकार धीरे -धीरे नित्यानंद और मणिकांत के बीच दोस्ती हो गई । उस दिन से बराबर
मणिकांत नित्यानंद की कुटी में आने लगा। वे दोनों घंटों बातें करते अपना समय बिताने लगे।
मणिकांत जब-तब अपना वास्तविक रूप धरकर नित्यानंद के सर पर अपना फण फैला दे ता
और उसे ठण्डी छाया दे कर अपने लोक को चला जाता था।
 
इस प्रकार कई साल गुजर गये। एक दिन नित्यानन्द ने सोचा कि मणिकांत उसका मित्र
अवश्य है , लेकिन स्वभाव से सर्प दष्ु ट प्रकृति के होते हैं। किसी कारण से अगर मणिकांत उस
पर नाराज़ हो जाये तो वह उसे डंस सकता है ।

इसी विचार को लेकर नित्यानंद का मन एकदम अशांत हो गया। इस हालत में वह एक दिन
गंगाजी को पार करके अपने बड़े भाई सत्यानंद को दे खने गया। सत्यानंद अपने छोटे भाई को
दे ख व्याकुल हुआ और पछ
ू ा- “मेरे प्यारे छोटे भाई, तम
ु इस प्रकार क्यों कमज़ोर हो गये हो?
आख़िर इसकी वज़ह क्या है ?” इस पर नित्यानंद ने सारी बातें साफ़-साफ़ सत्यानंद को सुनाईं।
“भैया, तुम्हारी बातों से मुझे ऐसा मालूम होता है कि तुम सर्पराज मणिकांत को अपना दिली
दोस्त मान रहे हो! फिर भी तुम यह सोचकर डरते हो कि कहीं उसके द्वारा तुम्हें कोई हानि न
पहुँच!े लेकिन यह बताओ, तुम्हारे पास उसके न आने से क्या तम
ु खुश रह सकते हो?”
सत्यानंद ने पूछा।
 
नित्यानंद थोड़ी दे र तक सोचता रहा, तब बोला, “मुझे ऐसा मालूम होता है कि मणिकांत के मेरे
पास न आने पर मेरे मन को शांति मिलेगी। मगर आने से मैं उसे रोक नहीं सकता।”
 
यह जवाब सुनकर सत्यानंद हँस पड़ा और बोला, “अच्छा, यह बताओ, वह जब तुम्हारे पास
आता है , तब वह किस प्रकार के आभूषण धारण किये रहता है ?”
 
“उसके बदन पर आभष ू णों की कोई कमी नहीं होती, लेकिन सब से मल्
ू यवान एक मणि है जो
चमकते हुए उसके कण्ठ पर लटकता रहता है !” नित्यानंद ने जवाब दिया।
 
“भैया, तब तो तम
ु एक काम करो। इस बार जब सर्पराज तुम्हारे पास आयेंगे, तब तम
ु उनसे
वह क़ीमती रत्न मांग लो।” सत्यानंद ने नित्यानंद को सलाह दी। इस घटना के दो-तीन दिन
बाद मणिकांत नित्यानंद की कुटी में आया। नित्यानंद ने उससे वह मूल्यवान मणि मांगा।
इसपर मणिकांत नाख़ुश होकर नित्यानंद की कुटी में बैठे बिना उसी व़क्त वापस चला गया।
 
दसू रे दिन मणिकांत जब नित्यानंद की कुटी में आया, तब नित्यानंद दरवाजे पर खड़ा था।
उसने झट पछू ा, “कल मैंने आप से वह मल्ू यवान रत्न मांगा, आपने नहीं दिया, क्यों?”
 
इसपर मणिकांत कुटी में प्रवेश किये बिना ही द्वार पर से वापस लौट गया।
 
तीसरे दिन जब मणिकांत नित्यानंद की कुटी के समीप पहुँचा ही था कि नित्यानंद ने आगे
बढ़कर कड़कते स्वर में पछ
ू ा, “आपसे मैंने इसके पर्व
ू दो बार वह रत्न मांगा, पर आपने उसे मझ
ु े
नहीं दिया। आज दे ते हैं या नहीं?”

सर्पराज मणिकांत उदास चेहरा बनाकर बोला, “नित्यानंद, यह मणि असाधारण है ! यह मणि
वह कामधेनु है जिससे मैं जो भी चीज़ माँगू, दे दे ता है ! यह मेरे लिए कल्पतरु है । ऐसी चीज़ मैं
आपको कैसे दे सकता हूँ?  इसलिए आज से मैं फिर कभी आपकी कुटी में क़दम न रखग
ूँ ा।” यों
कहते सर्पराज वापस चला गया।
 
इसके बाद नित्यानंद ने एक हफ़्ते तक मणिकांत का इंतजार किया, पर वह न आया। इसपर
नित्यानंद इस चिंता के मारे दिन व दिन कमज़ोर होता गया कि मैंने एक रत्न मांगकर अपने
एक दिली दोस्त को खो दिया है !
 
उस हालत में सत्यानंद अपने छोटे भाई को दे खने एक दिन नित्यानंद की कुटी में पहुँचा। अपने
छोटे भाई को सूखकर कांटा बने दे ख सत्यानंद व्याकुल हो उठा और बोला, “नित्यानंद, तुम्हारी
तबीयत पहले से कहीं ज़्यादा बिगड़ गई है ! क्या तुमने मेरे कहे मुताबिक़ किया है ? क्या अभी
तक सर्पराज से पिंड छूटा नहीं?”
 
“भैया, आपकी सलाह के मुताबिक़ मैंने सर्पराज से वह मणि मांगा। उस दिन से उन्होंने मेरी
कुटी में आना बंद कर दिया है । वह इसके पहले मेरी कुटी में आ जाता, अपना फण फैलाकर
मझ
ु े छाया दे ता। उस व़क्त मझ
ु े जो आनंद मिलता था, मैं उसका वयान नहीं कर सकता। अब
मेरा मन एकदम अशांत हो गया है ! इसी चिंता से मैं बिलकुल कमज़ोर हो गया हूँ !” नित्यानंद
ने अपने दिल की बात बताई।
 
इसपर बोधिसत्व बने सत्यानंद ने शांत स्वर में समझाया, “मेरे छोटे भैया, तम
ु सर्पराज
मणिकांत को अपना दिली दोस्त मानकर फूले न समाये, लेकिन ऐसा दिली दोस्त रत्न के
मांगने पर अपना मँह
ु मोड़ कर चला गया है , अब वह तुम्हारा चेहरा तक नहीं दे खता। क्या
दिली दोस्त का व्यवहार कहीं ऐसा ही होता है ? वह तो स्वार्थी है , तुम्हारा सच्चा दोस्त नहीं है !
इसलिए ऐसे दोस्त के यहॉ ं न आने पर तुम बिलकुल चिंता न करो।”
 
नित्यानंद ने अपने बड़े भाई की कही हुई बातों की सच्चाई को समझ लिया। इसके बाद उसने
कभी सर्पराज की चिंता नहीं की। शीघ्र ही वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया।
 
37. वक्रबुद्धि

 
एक बार ब्रह्मदत्त जब काशी नगर पर राज्य कर रहे थे, तब एक गाँव में एक ब्राह्मण ने वेदभं
नामक महामंत्र की सिद्धि प्राप्त की थी।
 
सभी ग्रहों के कूट के समय आकाश की ओर दे खकर इस मंत्र का आवाहन करने पर आसमान से
सीधे सोना, चांदी, मोती, प्रवाल, रत्न, माणिक और नील-इन सात वस्तुओं की वर्षा होती थी।
 
उस ब्राह्मण के आश्रय में जाकर बोधिसत्व उसका शिष्य बन गया। एक दिन अपने शिष्य के
साथ गुरु जंगल की ओर चल पड़ा।
 
उस जंगल में पाँच सौ डाकू थे। उन डाकुओं ने गुरु और शिष्य को रोका। उन डाकुओं का एक
विचित्र नियम था। यदि दो यात्री एक साथ उस रास्ते से गुजरते तो उनमें से एक को यह मौक़ा
दिया जाता कि वह घर जाकर दण्ड-शुल्क ला करके अपने सह-यात्री को छुड़ा ले जाये।
 
अगर वे यात्री पिता और पुत्र हों तो पिता को मौक़ा दिया जाता कि वह दण्ड-शुल्क लाकर अपने
पुत्र को छुड़ा ले जाये। अगर माँ-बेटी हों तो माँ को, भाई-भाई हों तो उनमें से एक को और यदि
गुरु-शिष्य हों तो शिष्य को छोड़ने की उनकी परिपाटी थी।
 
उस दिन उन विचित्र डाकुओं ने ब्राह्मण को अपने यहाँ रोक कर शिष्य को घर से शुल्क लाने के
लिए भेज दिया। वहाँ से निकलते वक्त बोधिसत्व ने अपने गरु
ु से मिलकर उनको समझाया,
“गरु
ु जी! आप चिन्ता न कीजिये। मैं एक-दो दिन में लौट आऊँगा। पर आपसे निवेदन है , आज
सभी ग्रहों के कूट योग का दिन है । आप कृपया मंत्र जाप कर रत्नों की वर्षा भल
ू कर भी न
कराइएगा। इससे आपकी और डाकुओं की भी हानि होगी।”

इस प्रकार कई बार अपने गुरु को सचेत कर बोधिसत्व वहाँ से चल पड़ा।


 
सर्या
ू स्त हो गया था। पर्णि
ू मा का चाँद आसमान में दमक रहा था। ब्राह्मण ने आसमान की ओर
दे ख कर भाँप लिया कि ग्रहों के कूट का समय निकट आ गया है ।
 
वह सोचने लगा, “मैं डाकुओं के हाथों पड़ कर एक असमर्थ व्यक्ति की भांति क्यों यातनाएँ
झेलूं? स्वयं अपने मंत्र का पठन करके कनक-वर्षा करवाकर डाकुओं का शुल्क अदा कर मुक्त
हो सकता हूँ। आख़िर प्राण-संकट के समय अपनी विद्या का उपयोग न करूँ तो उस विद्या का
प्रयोजन ही क्या है ? क्या मालूम मेरे शिष्य को धन प्राप्त हो या न हो।”
 
यह सोचकर ब्राह्मण ने डाकुओं को अपने समीप बल
ु वायाऔर उनसे पूछा, “तम
ु लोगों ने मुझ
को क्यों बन्दी बनाया है ?”
 
“महानुभाव! और किसलिए? सिर्फ़ धन पाने के लिए ही!” डाकुओं ने एक स्वर में उत्तर दिया।
 
“बस! यही बात है न! तब तो मेरे कहे अनस
ु ार करो! तम
ु लोग जितना धन चाहते हो, मैं दे दँ ग
ू ा।
पहले मेरे बन्धन खोल दो। फिर मझ
ु को स्नान करा दो। नये वस्त्र धारण करवा दो। सभी प्रकार
के फूल लाकर यहॉ ं पर ढे र लगा दो। मेरे चारों तरफ़ सग
ु ंधित द्रव्य, धप
ू , दीप आदि रख दो। तब
तमाशा दे खो! क्या होने वाला है ?” ब्राह्मण ने डाकुओं को समझाते हुए बताया।
 
डाकुओं ने ब्राह्मण के आदे श का पालन किया। इसके बाद ब्राह्मण ने समय का अनुमान लगा
कर आसमान की ओर दृष्टि केन्द्रित की और वेदभं मंत्र का पाठ करना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही
दे र में मूल्यवान रत्न और सोने व चांदी आदि की वर्षा होने लगी। डाकुओं ने उन रत्नों को
इकठ्ठा करके गठरी बांध ली और अपने रास्ते चल दिये। उनके पीछे -पीछे ब्राह्मण भी चलने
लगा। बीच मार्ग में ही डाकुओं के एक दसू रे दल ने प्रथम दल पर हमला बोल दिया।
 
प्रथम दल के डाकुओं ने पछ ू ा, “तम
ु लोग हमें क्यों पकड़ना चाहते हो?” दस
ू रे दल ने कहा, “ और
किसलिए? धन के वास्ते ही!”
 
“बस! तब तो तम
ु लोग इस ब्राह्मण के आश्रय में जाओ! ये आसमान की तरफ़ दे ख लें, तो बस
क़ीमती मणि-मानिकों की वर्षा हो जाएगी। इसी  प्रकार से ही उन्होंने हमें यह सारा धन दिया
है !” यों कहकर वे लोग खिसक गये।

डाकुओं के दसू रे दल ने ब्राह्मण को पकड़ लिया और उसे सताते हुए पूछा, “हमें भी धन दे दो,
ब्राह्मण! वरना तुम्हारे प्राणों की खैर नहीं है ! तुम बचने के लिए बहाना करोगे, तो भी हम तम

को छोड़ने वाले नहीं हैं! इसीलिए तम
ु समय का दरु
ु पयोग न करके हम को मालामाल बनाकर
तुम भी जीवित बच जाओ।”
 
इस पर ब्राह्मण ने कहा, “भाइयो! इसके पहले मैंने उन डाकुओं को जो धन दिया था, वह मंत्र
की महिमा से प्राप्त धन था। वह मंत्र ठीक अब से एक साल बाद ही काम दे सकता है ! इसके
लिए कूट का योग परम आवश्यक है । एक वर्ष बाद फिर ग्रहों का कूट होगा। उसी समय मेरा
मंत्र काम दे गा। मैं अवश्य ही जाप करके उस समय तम
ु लोगों के वास्ते कनक-वर्षा करवा
दँ ग
ू ा!”
 
पर डाकुओं ने ब्राह्मण की बातों पर विश्र्वास नहीं किया। बल्कि वे धमकी दे ते हुए बोले, “तुमने
हमसे पहले आये हुए लोगों को धन कुबेर बनाकर भेज दिया है ! हमारे मांगने पर तम
ु हमको
एक साल तक इन्तज़ार करने को कहते हो?” यों कहकर उन लोगों ने तेज धारवाली छुरी लेकर
ब्राह्मण को दो टुकड़ों में चीर डाला और उसकी लाश को उलटा करके मार्ग-मध्य में लटका
दिया।
 
इसके बाद वे लोग दौड़ कर डाकुओं के प्रथम दल से मिले और उन सबको मार कर सारी
सम्पत्ति हड़प ली। पर सम्पत्ति के बंटवारे में उनके बीच मतभेद हो गया। उनके बीच दो दल
बन गयेऔर दोनों दल परस्पर झगड़ पड़े।
 
उस यद्ध
ु में सौ लोग आपस में लड़ मरे और अन्त में केवल दो ही आदमी बचे रहे । उन दोनों ने
सारी सम्पत्ति समीप के जंगल में छिपा दी।
 
उनमें से एक आदमी तलवार लेकर उस सम्पत्ति पर पहरा दे ने लगा और दस
ू रा खाने-पीने की
सामग्री के लिए पास के गाँव में गया।
 
अपार धन संपत्ति के अनायास ही हाथ लगते ही उन दोनों के दिल बदल गये। उनके भीतर जो
स्वार्थ छिपा हुआ था, वह उभर आया। धन को दे खते ही बड़े से बड़े लोग भी अपने विवेक को खो
बैठते हैं। डाकुओं की बात का क्या कहना है !

धन पर पहरा दे नेवाला डाकू अपने मन में सोचने लगा, ?मेरा साथी आ जाएगा तो व्यर्थ ही इस
सम्पत्ति में से आधा धन बाँटकर ले जाएगा!'
 
यह विचार कर वह मन ही मन दख ु ी हो गया।
 
उधर जो डाकू खाने की सामग्री लाने गया था, वह भी अपने मन में यों सोचने लगा, ?यदि मेरा
साथी मर जाए तो यह सारी सम्पत्ति मेरी हो जाएगी और मैं धन-कुबेर बन सकता हूँ!'
 
यों विचारकर उसके हिस्से के भोजन में उसने जहर मिला दिया।
 
वह डाकू अपने साथी के लिए भोजन सामग्री लेकर जैसे ही वहाँ पहुँचा, पहरा दे ने वाले डाकू ने
झट से तलवार खींचकर उसका सर काट डाला और उसके कलेवर को दरू फेंक दिया।
 
लेकिन थोड़ी दे र बाद जहर मिला हुआ खाना खाकर उसने भी अपना दम तोड़ दिया।
 
इस प्रकार ब्राह्मण और उसके धन को प्राप्त करने वाले सभी डाकू अपनी जान गंवा बैठे।
 
एक-दो दिन बाद बोधिसत्व डाकुओं के लिए दण्ड-शल् ु क लेकर आ पहुँचा।
 
उसने अपने गुरु की खोज की; पर उनका कहीं पता न चला। सब ओर धन और सड़ी हुई लाशें ही
इधर-उधर फैली हुई थीं। उन्हें दे खकर बोधिसत्व ने अपने मन में सोचा, ?इस ब्राह्मण ने मेरी
सलाह की उपेक्षा की और अपने मन की कर ही डाली। परसों इस ब्राह्मण ने मंत्र-जाप कर रत्नों
की वर्षा करवा दी होगी। उसी के फलस्वरूप ये लोग अपने प्राणों से हाथ धो बैठे होंगे!'
 
पर थोड़ी दरू उसे अपने गुरु का कलेवर दिखाई दिया। वह व्याकुल होकर मन ही मन कहने
लगा, “उफ़! मेरे गुरु जी! आपने मेरी बात नहीं मानी। आपकी यह कैसी दर्ग
ु ति हो गई है ।”
 
इसके बाद घास-फूस लाकर उसने अपने गरु ु का दाह-संस्कार सम्पन्न किया तथा जंगल से
फूल ला उस स्थान पर रखकर उनकी भस्मी को भक्तिपर्व ू क प्रणाम किया!
 
वहाँ से थोड़ी दरू और जाने पर उसे प्रथम दल के डाकुओं के शव दिखाई पड़े।
 
थोड़ी दरू और आगे बढ़ा तो दस ू रे दल के डाकुओं की लाशें भी बिखरी पड़ी थीं।
 
दो शवों को छोड़कर बोधिसत्व को शेष सारे लोगों के कलेवर दिखाई दिये। वह सोचने लगा, ?वे
दोनों बचकर कहाँ गये?'

धन लट
ू ने के बाद वे जिस रास्ते से निकल गये थे, उसका पता लगाकर बोधिसत्व उसी मार्ग पर
आगे बढ़ा! आख़िर वह एक घने जंगल के बीच पहुँचा। एक स्थान पर उसे धन की गठरियाँ
दिखाई दीं। उनके समीप ही, बचकर भागे एक डाकू का कलेवर पड़ा था।
 
उसके समीप ही भोजन-सामग्री वाला पात्र रखा हुआ था। इस आधार पर बोधिसत्व ने असली
बात भांप ली। चार क़दम आगे बढ़ने पर एक और डाकू की लाश दिखाई दी। इन निशानों के
आधार पर बोधिसत्व ने स्वतः ही सारा हाल जान लिया।
 
वह विचार करने लगा, “गरु
ु जी ने मेरी बात नहीं मानी। मैंने उनको अनेक प्रकार से समझाया।
फिर भी मेरी सलाह पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने अहं -बद्धि
ु को सख
ु कर माना! बड़ों को अपने से
छोटों की सलाह पर भी विचार कर लेना चाहिये। उन्होंने मुझे छोटा समझकर मेरी बात पर
ध्यान नहीं दिया। इसके परिणाम-स्वरूप वे तो मत्ृ यु को प्राप्त हुए ही, साथ ही अनेक लोगों की
मत्ृ यु के कारण भी बन गए। जो लोग अन्य लोगों की सलाह पर विचार किये बिना स्वयं गलत
निर्णय कर डालते हैं, उनकी ऐसी ही दर्ग
ु ति हो जाती है !
 
“मेरे गुरु जी ने अपने मंत्र की महिमा के द्वारा जिस सम्पत्ति को पथ्
ृ वी लोक में पहुँचा दिया,
वह मानव-कल्याण के काम न आ सकी, उल्टे भीषण-कांड एवं विनाश का कारण ही बन गई।
इसलिए जब बुद्धि वक्र गति से चलने लगती है ,तब उत्तम वस्तुओं के द्वारा भी हानि हो जाती
है । इसका दोष उन वस्तुओं में नहीं है , बल्कि मानव-स्वभाव के अन्दर है । सच्ची बात तो यह है
कि वक्र-बद्धि
ु अग्नि-ज्वाला जैसी है । वह एक का विनाश करके ही नहीं छोड़ती, अनेक लोगों का
सर्वनाश करके ही शीतल होती है !”
 
इस सत्य का प्रबोध बोधिसत्व ने उच्च स्वर में किया। उसकी ध्वनि सारे जंगल में गूंज उठी।
बोधिसत्व के प्रबोध को सुनकर वन-दे वियों ने प्रसन्न होकर उसका जय-जयकार किया!
 
इसके बाद बोधिसत्व उस सारी सम्पत्ति को अपने आश्रम में ले गया और उसे लोक
कल्याणकारी कार्यों में लगा दिया!
 
38. अपात्र-दान

 
मगध राज्य जब उच्च दशा में था, तब बोधिसत्व एक राजा के यहाँ कोशाध्यक्ष थे। उनके पास
अस्सी करोड़ मुद्राओं की निजी संपत्ति थी।
 
उन्हीं दिनों काशी राज्य में श्रीवत्स नामक एक और धनवान रहते थे। उनके यहाँ भी अस्सी
करोड़ मुद्राओं से ज्यादा संपत्ति थी। ये दो करोड़पति बोधिसत्व तथा श्रीवत्स दिली दोस्त थे।
 
दर्भा
ु ग्यवश व्यापार में श्रीवत्स की सारी संपत्ति नष्ट हो गई और वह एक गरीब बन बैठे। उन्हें
अपने मित्र बोधिसत्व की याद हो आई।
 
श्रीवत्स अपनी पत्नी को साथ लेकर पैदल चलकर मगध राज्य पहुँचे और बोधिसत्व से मिलने
गये। बोधिसत्व ने आगे बढ़कर श्रीवत्स से कुशल मंगल पूछे। इस पर वह रोते हुए बोले,
“बोधिसत्व, मेरे बुरे दिन आ गये हैं। मैं एक भिखारी बन गया हूँ। इस हालत में तुम्हें छोड़कर
मेरी मदद करनेवाला कोई नहीं है । इसी विश्वास को लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।”
 
“मेरे प्यारे श्रीवत्स, तम
ु बिलकुल चिंता न करो। विपत्ति के समय दर असल तुम्हें जिस जगह
पहुँचना था, ठीक उसी जगह पहुँच गये हो!” यों समझा कर बोधिसत्व ने अपनी सारी संपत्ति
में से आधा-याने चालीस करोड़ मुद्राएं अपने मित्र को दे दीं और साथ ही अपने परिचारकों में से
आधे लोगों को उसे सौंप दिया।
 
थोड़े दिन बीत गये। राज्य में अराजकता फैलने की वजह से बोधिसत्व अपने पद के साथ धन
भी खो बैठे। वे भी दरिद्र बन गये। उनके मन में यह विश्वास था कि इस दख
ु व दारिद्य्र के व़क्त
अपने मित्र श्रीवत्स के सिवाय कोई उनकी मदद करने वाला नहीं है । इसी विश्वास के बल पर
बोधिसत्व अपनी पत्नी के साथ काशी राज्य के लिए चल पड़े।

काशी नगर की सीमा पर पहुँचते ही बोधिसत्व अपनी पत्नी को एक पेड़ की छाया में बिठा कर
बोले, “तम
ु घबराओ मत, मैं अपने दिली दोस्त श्रीवत्स को सारा हाल सुनाकर तुम्हें लिवा लाने
के लिए गाड़ी के साथ परिचारकों को भी भेज दँ ग
ू ा।” यों कहकर वे श्रीवत्स ने मिलने चले गये।
 
श्रीवत्स ने बोधिसत्व को एड़ी से लेकर चोटी तक दे खा और पछ ू ा, “बताओ, तम ु किस काम से
आये हो?”
 
“मैं आपके दर्शन करने आया हूँ।” यह उत्तर दे कर बोधिसत्व ने अपना सिर झक ु ा लिया।
श्रीवत्स ने फिर पछ
ू ा, “तम
ु ठहरे कहाँ हो?”
 
“अभी तक कहीं नहीं ठहरा हूँ। मैं अपनी पत्नी को शहर की सीमा पर छोड़ आया हूँ।” बोधिसत्व
ने जवाब दिया।
 
“मेरे घर में तम्
ु हें ठहरने की इज़ाजत नहीं है ! मट्ठ
ु ी भर अनाज दें गे। उसे ले जाकर मांड़ बना कर
पी लो।” श्रीवत्स ने कठोर स्वर में कहा।
 
दसू रे ही क्षण एक सेवक अंजुली भर अनाज लाकर बोधिसत्व के झोले में डाल कर चला गया।
बोधिसत्व अपनी पत्नी के पास लौट आये।
 
बोधिसत्व की पत्नी ने पछ ू ा, “आपके दिली दोस्त ने क्या-क्या दिया है ?”
 
“मित्र श्रीवत्स ने अंजुली भर अनाज दे कर हमारा पिंड छुड़ा लिया है ।” बोधिसत्व ने शांत स्वर
में जवाब दिया।
 
“आप ने इसे क्यों स्वीकार कर लिया? हमने उन्हें जो चालीस करोड़ मद्र
ु ाएं दी हैं, उसका फल है
यह?” पत्नी ने क्रोध में आकर पछ
ू ा।
 
आँसू भरी अपनी पत्नी को सांत्वना दे ते हुए बोधिसत्व शांत स्वर में बोले, “चाहे जो हो, मित्रों के
बीच शत्रत
ु ा का भाव पैदा नहीं होना चाहिए। इसीलिए मैंने यह अनाज स्वीकार कर लिया है ।”
 

पति-पत्नी यों बातचीत कर रहे थे, तभी एक सेवक उस रास्ते से आ गज़


ु रा। इसके पहले
बोधिसत्व ने अपने जिन सेवकों को बांट कर दिया था, उन्हीं में से वह एक था ।
 
उसने अपने पुराने मालिक को पहचान लिया और उनके पैरों में गिर कर पूछा, “आप यहाँ पर
कैसे आये?”
 
बोधिसत्व ने उसे सारा वत्ृ तांत सन
ु ाया। इस पर वह सेवक बड़ा दख
ु ी हुआ। इसके बाद बोधिसत्व
और उनकी पत्नी को वह घर ले गया। उन्हें खाना खिलाकर उनके ठहरने के लिए एक कमरा दे
दिया। इसके बाद उसने अपने साथी सेवकों को यह ख़बर सन ु ाई।
 
धीरे -धीरे करोड़पति श्रीवत्स के मित्र-द्रोह का समाचार काशी राजा के कानों में पड़ा। काशी राजा
ने बोधिसत्व को बुलवाकर पूछा, “क्या यह बात सच है कि आप ने श्रीवत्स को चालीस करोड़
मुद्राएं दी हैं?”
 
बोधिसत्व ने राजा को आदि से अंत तक सारा समाचार सुनाया। इस पर राजा ने श्रीवत्स को
बल ु ा भेजा, उसे बोधिसत्व को दिखाते हुए पछ ू ा, “यह बात सच है कि तमु ने इस सज्जन के
द्वारा धन की सहायता पाई है ?”
 
“जी हाँ महाराज, सच है !” श्रीवत्स ने कांपते हुए जवाब दिया।
 
“तब तो तम ु ने उस सहायता के बदले इनके प्रति कैसा व्यवहार किया है ?” राजा ने पछू ा।
 
श्रीवत्स ने लज्जा के मारे अपना सिर झक ु ा लिया। इसके बाद राजा ने अपने मंत्रियों से सलाह-
मशविरा करके श्रीवत्स की सारी संपत्ति बोधिसत्व के हाथ सौंपने का फ़ैसला सुनाया।
 
“बोधिसत्व ने राजा से निवेदन किया “महाराज, मझ ु े दस
ू रों की संपत्ति एक कौड़ी भी नहीं
चाहिए। मेरी संपत्ति मझु े वापस कर दे तो मैं खश
ु हो जाऊँगा!”
 
इस पर राजा ने श्रीवत्स के द्वारा बोधिसत्व को चालीस करोड़ मुद्राएं दिला कर उन्हें समझाया,
“अपात्र-दान कभी नहीं करना चाहिए।”
 
बोधिसत्व फिर से धनवान बनकर दान-धर्म करते कई वर्षों तक सख
ु ी जीवन बिताते रहे ।
 
39. धोखे की सज़ा

 
प्राचीनकाल में काशी राज्य पर राजा ब्रह्मदत्त राज्य करते थे। उनके यहाँ पिंगल नामक एक
पुरोहित था। उसकी दे ह की छाया पिंगल वर्ण थी, उसका सिर गंजा था, उसका मँह
ु पोपला था।
उस समय बोधिसत्व नक्कारिय नाम से पिंगल के यहॉ ं विद्याभ्यास किया करता था।
 
राज पुरोहित पिंगल के एक साला था। उसका भी वर्ण पिंगल था, सिर गंजा था और मँह

पोपला। वह भी पिंगल के समान प्रतिभा रखता था। बहनोई और साला अपने को एक दस
ू रे से
बड़ा मानते थे, इस कारण दोनों के बीच गहरी दश्ु मनी थी । पिंगल ने अपने साले को नीचा
दिखाने की कई बार कोशिश की, लेकिन उसे सफलता न मिली।
 
आख़िर पिंगल ने अपने साले को मार डालने की योजना बनाई। उसने राजा के यहाँ जाकर
निवेदन किया, “महाराज, हमारा काशी नगर सारे भारत में श्रेष्ठ है । आप दे श के समस्त
राजाओं में महान हैं। ऐसी हालत में हमारे दर्ग
ु के निर्माण में दोष का होना चिंताजनक है । हमारे
क़िले के दक्षिणी द्वार के निर्माण में गलती रह गई है । यह हमारे लिए अमंगलकारी है । उसकी
वज़ह से दे श में हमारा अपयश भी हो सकता है ! इसलिए उस दोष को यथाशीघ्र दरू करना
चाहिए।”
 
“इसके वास्ते हमें क्या करना होगा?” राजा ने पिंगल से पछ
ू ा।
 
“उस द्वार को पहले गिराना होगा! इसके बाद शभ ु दायक लकड़ी लाकर एक और द्वार बनवाना
पड़ेगा। फिर नगर दे वियों को बलि चढ़ाकर एक शुभ मुहूर्त में नये द्वार को खड़ा करना होगा।”
पिंगल ने सुझाया।
 
राजा ने पिंगल के सझ
ु ाव को मान लिया। उनकी आज्ञा लेकर पिंगल ने दक्षिणी द्वार को तड़
ु वा
दिया। उसकी जगह बिठाने के लिए नया द्वार जल्द तैयार कराया गया।

 
इस पर पिंगल ने राजा के पास जाकर विनयपूर्वक कहा, “महाराज, नया द्वार तैयार हो गया है !
उसे स्थापित करने के लिए कल एक बढ़िया मुहूर्त है । उसके लिए आवश्यक बलि दे कर द्वार
को स्थापित करने की अनुमति दीजिए!”
 
“बलि चढ़ाने के लिए क्या-क्या इंतजाम करना होगा?” राजा ने पछ
ू ा।
 
“महाराज, पिंगल वर्ण, गँजा सिर और पोपले मँह
ु वाले एक ब्राह्मण की बलि चढ़ानी होगी। इस
द्वार की रक्षा करनेवाली महती शक्तियों को ऐसे ब्राह्मण के रक्त और माँस के द्वारा संतष्ु ट
करना होगा। इसके बाद उस ब्राह्मण को वहीं पर गाड़कर उसी जगह नये द्वार को खड़ा करना
होगा।” पिंगल ने समझाया।
 
“अच्छी बात है ! ऐसे ब्राह्मण की खोज करके मंगवा लो और द्वार खड़ा करवा दो।” राजा ने
अनुमति दी। पिंगल यह सोचकर फूला न समाया कि उसके प्रबल शत्रु साले को ख़त्म करने के
लिए राजा की अनुमति मिल गई है ।
 
फिर वह घर पहुँचकर अपनी पत्नी से बोला, “सन
ु ो, कल तक तम्
ु हारे भाई की आयु समाप्त होने
वाली है । दे खती रहो, कल मैं उसे नये द्वार की बलि चढ़ाने जा रहा हूँ।” यों उसने निडरता के
साथ डींग मारी।
 
“मेरे भाई की ही बलि क्यों चढ़ानी है ? इसे राजा ने कैसे मान लिया है ?” पिंगल की पत्नी ने
पूछा।
 
“मैंने राजा से यह थोड़े ही बताया है कि अमक
ु आदमी की बलि दँ ग
ू ा? मैंने सिर्फ़ यही बताया कि
पिंगल वर्ण और पोपले मँह
ु वाला ब्राह्मण चाहिए। राजा ने मान लिया। कल मैं राजा को तुम्हारे
भाई को दिखाकर सलाह दँ ग
ू ा कि यह आदमी बलि चढ़ाने के लिए उपयुक्त होगा। मेरी बात को
कौन इनकार करे गा?” पिंगल ने कहा।

इसके बाद पिंगल की पत्नी ने अपने पति के साथ कोई वाद-विवाद नहीं किया। गुप्त रूप से
अपने भाई के पास सारा समाचार पहुँचा कर उसे आगाह कर दिया कि वह यदि अपने प्राण
बचाना चाहता है तो सवेरे के अन्दर उस नगर को छोड़कर कहीं चला जाये।
 
जब पिंगल के साले को उसे मार डालने के षड्यंत्र का पता चला, तब उसने अपने ही जैसे वर्ण,
पोपले मँहु व गँजा सिरवाले दो और आदमियों को मिलाकर उसी रात को नगर छोड़ चला गया।
 
दसू रे दिन सवेरे पिंगल ने राजा के पास जाकर कहा, “महाराज, बलि के लिए आवश्यक आदमी
अमुक जगह होगा। आप कृपया उसको यहॉ ं पर बल ु वा दीजिए।”
 
राजा ने पिंगल के द्वारा सुझाये गये उस आदमी को लिवा लाने के लिए अपने नौकरों को भेजा।
नौकरों ने लौटकर बताया कि उस जगह रहने वाला आदमी कल रात को ही इस दे श को छोड़
कहीं चला गया है ।
 
नौकरों से यह समाचार पाकर राजा ने कहा, “अब क्या किया जाये? ऐसे लक्षण वाले ब्राह्मण
को किसी तरह से ढूँढ लाना पड़ेगा।”
 
इस पर मंत्रियों ने सालाह दी, “महाराज, यह कौन बड़ी भारी समस्या है ? हमारे पुरोहित के अंदर
ये सारे लक्षण हैं। उन्हीं की बलि चढ़वा दीजिए।”
 
“ऐसा भी किया जा सकता है । लेकिन इसके बाद मुझे पुरोहित चाहिए न? क्या इसके समान
योग्य कोई आदमी है ? यह बात भी परु ोहित की बलि चढ़ाने के पहले सोच लीजिए!” राजा ने
सझु ाया।
 

“हमारे पुरोहित के पास तक्कारिय नामक एक शिष्य है । वह अपने गुरु से भी कहीं ज़्यादा
अ़क्लमंद और बुद्धिमान है । उसको आप अपना पुरोहित नियुक्त कर सकते हैं।” मंत्रियों ने
सलाह दी।
 
दसू रे ही क्षण राजा ने तक्कारिय को बुलवा भेजा और कहा, “तम
ु को आज से राज पुरोहित
नियक्ु त करता हूँ। तम
ु इस पिंगल की शास्त्र-विधि से बलि चढ़ाकर उसे ग़ड़वा दो और उसकी
क़ब्र पर ही द्वार रखवा दो।”
 
इस पर तक्कारिय दक्षिणी द्वार के पास पहुँचा, पिंगल को यज्ञ - पशु के रूप में अलंकृत करके
उसके हाथ-पैर बंधवा दिये और नये द्वार के पास पहुँचवा दिया। जहाँ पर बलि चढ़ाने के लिए
द्वार स्थापित होना था, वहाँ पर एक गहरा गड्ढा खोदा गया था। उस गड्ढे में गुरु और शिष्य
दोनों पहुँचे। उस व़क्त पिंगल दहाड़ मारकर रोते हुए बोला, “अरे शिष्य! किसी दस ू रे के लिए
खोदे गये गड्ढे में मैं स्वयं ही पहुँच गया हूँ।”
 
“गरु
ु दे व! जो आदमी जान-बझ ू कर दस ू रों की हानि करने की सोचता है , उसे कभी न कभी अपने
हाथों खोदे गये गड्ढे में गिरना ही पड़ेगा। आप चिंता न कीजिए। मैं राजा के पास पहुँच कर बता
दँ ग
ू ा कि आधी रात तक कोई बढ़िया मुहूर्त नहीं है । इसके बाद फिर कोई न कोई उपाय करके
आपके प्राण बचा लँ ग
ू ा!” तक्कारिय ने समझाया।
 
उसने अपने कहे अनुसार बलि का मुहूर्त आधी रात के लिए बदलवा दिया। उस दिन रात को
अंधेरे में पिंगल को उस दे श को छोड़ भाग जाने की सलाह दी और उसकी जगह एक मत
ृ बकरी
को लाकर गड्ढे में गड़वा दिया और सवेरा होने के पहले ही वहॉ ं पर नये द्वार को प्रतिष्ठित
करवा दिया।
 
40. मूर्खराजा

 
प्राचीन काल में मगध पर राजा विरूप सेन राज्य करते थे। उन दिनों बोधिसत्व ने एक हाथी का
रूप धारण किया। वह हाथी सफ़ेद रं ग का था और दे खने में ऐरावत जैसा लगता था। इस वज़ह
से मगध राजा ने उसे अपना पट्ट हाथी बनाया।
 
एक पर्व के दिन सारा मगध राज्य इन्द्र लोक जैसा अलंकृत किया गया। सारे नगर में
वैभवपूर्वक जुलस
ू निकालने का इंतजाम किया गया, इस वास्ते पट्ट हाथी को भी ख़ूब सजाया
गया। सैनिक आगे पीछे चल रहे थे, बीच में राजा पट्ट हाथी के हौदे पर बैठकर जल
ु ूस के साथ
चल रहे थे।
 
राज पथ पर इकट्ठे हुए लोग उत्साह में आकर हाथी की तारीफ़ करने लगे, “ओह, यह ग़जराज
कैसे ठाटसे चल रहा है , इसकी सुंदरता दे खने पर ऐसा मालूम होता है कि यह किसी चक्रवर्ती
राजा का वाहन बनने योग्य है ।”
 
हाथी की यह तारीफ़ सनु कर राजा अपने मन में क्रोधित हुए और सोचने लगे, “जनता को राजा
के प्रति अधिक आदर दिखाना चाहिए, लेकिन ये सब इस हाथी के प्रति ज़्यादा आदर दिखा रहे
हैं। एक भी आदमी हौदे पर बैठे मेरी तरफ़ आँख उठाकर दे ख नहीं रहा है ! सबकी नज़र यह हाथी
अपनी ओर खींच रहा है । किसी तरह से इसका संहार करवाना चाहिए।”
 
यों विचार करके राजा ने दस
ू रे दिन महावत को बुलाकर पूछा, “सुनो, हमारा पट्ट हाथी अच्छी
तरह से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका है न?”
 
“महाराज, उसे प्रशिक्षण दे कर हौदे का हाथी मैंने ही बनाया है ।”
 
महावत ने बड़े ही आत्म-विश्वास तथा दर्प के साथ जवाब दिया।
 
“तम्
ु हारी बातों पर मझ ु े यक़ीन नहीं हो रहा है ! मेरा विश्वास है कि यह हाथी बड़ा ही उद्दण्ड है ।”
राजा ने कहा।
 
“महाराज, ऐसी कोई बात नहीं है !” महावत ने कहा।

“अच्छी बात है ! तम्


ु हारे कहे अनस
ु ार ऐसा अच्छा प्रशिक्षण अगर इस हाथी को मिला है तो उसे
सामने दिखाई दे नेवाली पहाड़ी की चोटी पर चढ़ा सकते हो?” राजा ने पछ
ू ा।
 
“क्यों नहीं महाराज? मैं चढ़ा सकता हूँ!” यों कहकर महावत ने कुछ ही क्षणों में हाथी को पहाड़ी
के शिखर पर चढ़ा दिया।
 
इसके बाद राजा अपने परिवार के साथ हाथी के पीछे पहाड़ पर चढ़ गये। पहाड़ी का शिखर थोड़ी
दरू तक समतल था और इसके बाद नुकीला था। राजा ने वहाँ पर हाथी को रोकने का आदे श
दिया। तब बोले, “मैं अब दे खना चाहता हूँ कि तम
ु ने हाथी को कैसा प्रशिक्षण दिया है ! क्या तुम
इस हाथी को उसके तीन पैरों पर खड़ा कर सकते हो?”
 
दसू रे ही क्षण महावत ने हाथी के सर पर अंकुश छुआकर इशारा करते हुए कहा, “बाबा, राजा का
आदे श है कि तम
ु अपने तीन पैरों पर खड़े हो जाओ।”
 
हाथी ने ऐसा ही किया। इस पर राजा ने कहा, “शाबाश, बहुत बढ़िया है !”
 
फिर बोले, “अब क्या तमु हाथी को उसके आगे के पैरों पर खड़ा कर सकते हो?”
 
महावत के इशारा करते ही हाथी अपने अगले पैरों पर खड़ा हो गया। इस पर राजा फिर बोले,
“दे खो, हाथी क्या अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो सकता है ? आज्ञा दे कर दिखाओ।” तत्काल
हाथी अपनी पिछली टांगों पर खड़ा हो गया।
 
“क्या यह हाथी एक ही पैर पर खड़ा हो सकता है ?” राजा ने पछ
ू ा।
 
हाथी बड़ी आसानी से एक ही पैर पर खड़ा हो गया। इतनी सारी यातनाएँ दे ने पर भी हाथी पहाड़
की चोटी पर से नीचे न गिरा, तब राजा मन ही मन दख ु ी हो बोले, “ऐसे काम तो थोड़ा बहुत
प्रशिक्षण प्राप्त कोई भी हाथी कर सकता है । मैं अब बस, एक परीक्षा और लेना चाहता हूँ।”
 
“महाराज, ऐसा ही कीजिए! बताइये, वह परीक्षा कैसी है ?” महावत ने पछ ू ा।
 
“हाथी जैसे अपने पैरों की मदद से पहाड़ पर चल सकता है , वैसे ही हवा में भी उसे चलाइये। यह
मेरी आज्ञा है ।” राजा ने कहा।

ये बातें सन
ु ने पर महावत को राजा का कुविचार मालम
ू हो गया। पर महावत थोड़ा भी घबराया
नहीं। उसने गुप्त रूप से हाथी के कान में यों कहा, “बाबा, राजा ने ऐसी एक योजना बनाई है
जिससे आप पहाड़ी की चोटी पर से नीचे गिरकर मर जायें ! राजा तो आपके महत्व को नहीं
जानते। यदि आप सचमुच शक्ति रखते हैं तो इस चोटी के छोर से आगे बढ़कर हवा में पैदल
चलिये।”
 
अनोखी महिमा और अद्भत
ु शक्तियों वाला वह हाथी पहाड़ी के शिखर पर आगे बढ़ा और हवा में
तैरता गया। इस पर महावत ने राजा से कहा, “हे राजन ्, यह हाथी साधारण नहीं है , दे वता-अंश
वाला है । इसका महत्व न जानने वाले आप जैसे व्यक्ति के लिए यह पट्ट हाथी बनने योग्य नहीं
है । सही मल्
ू यांकन न कर सकने वाले मर्ख
ू सिर्फ़ हाथी ही नहीं, बल्कि अन्य प्रकार की अमल्
ू य
वस्तओ
ु ं को भी खो बैठते हैं। मर्ख
ू व्यक्ति सबके सामने अपनी मर्ख
ू ता को स्वयं प्रकट करता
है ।”
 
इसके बाद हाथी हवा में उड़ते जाकर काशी राज्य में पहुँचा, और वहाँ के राजा के उद्यान वन पर
आसमान में खड़ा रहा। इसे दे ख नगर के नागरिक कोलाहल करते वहाँ पर आ पहुँचे।
 
यह ख़बर राजा को मिली। राजा ने उद्यान में पहुँच कर हाथ जोड़कर कहा, “हे गजराज, तम्
ु हारे
आगमन से मेरा राज्य पवित्र हो गया है । तम ु से प्रार्थना करता हूँ कि धरती पर उतर आओ।”
 
राजा के मँुह से ये बातें सुनकर हाथी के रूप में स्थित बोधिसत्व नीचे उतर आये। महावत ने
सारा वत्ृ तांत सुनाया। इस पर राजा और प्रजा सभी परमानंदित हुए।
 
इसके बाद राजा ने हाथी को खब ू सजवा कर एक संद ु र शाला में रखा। अपने राज्य के तीन भाग
करके एक भाग को हाथी के रूप में स्थित बोधिसत्व के पालन-पोषण के लिए, और दस
ू रा
हिस्सा महावत को दे दिया। शेष हिस्से को अपने अधीन में रख लिया।
 
जिस व़क्त बोधिसत्व काशी राज्य में पहुँचे, तब से लेकर काशी राज्य का वैभव बढ़ता गया।
प्रजा हर तरह से खश
ु हाल हो गई और राज्य में किसी प्रकार की समस्या न रही। इस प्रकार
उनका यश चारों तरफ़ फैल गया।
 
41. महान साध्वी

 
ब्रह्मदत्त जिन दिनों काशी राज्य पर शासन करते थे, उन दिनों बोधिसत्व काशी के समीप एक
गाँव में एक संपन्न परिवार में पैदा हुए।
 
बोधिसत्व ने बचपन में ही सारी विद्याएँ सीख लीं। युक्तवयस्क होने पर बोधिसत्व के माता-
पिता ने काशी नगर में एक अच्छा रिश्ता तैयार किया और सुजाता नामक एक सुंदरी के साथ
उनका विवाह कर दिया । सुजाता न केवल सौंदर्यवती थी, बल्कि गुणवती और विवेकशीला भी
थी। वह अपने सास-ससुर और पति की सेवा बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ करने लगी।
 
बोधिसत्व भी सुजाता के प्रति बड़ा ही अनुराग रखते थे। एक दिन सुजाता ने अपने पति से
पूछा, “मेरे माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं। उन्हें दे खने की मेरे मन में बड़ी लालसा हो रही है । अगर
आप भी मेरे साथ चलें तो हम दोनों उन्हें दे खकर लौट सकते हैं।”
 
सुजाता की यह इच्छा जानकर बोधिसत्व बड़े ही खुश हुए और बोले, “अच्छी बात है ,हम दोनों
ज़रूर उन्हें दे ख आयेंगे। मेरे मन में भी कई दिनों से सास और ससरु को दे खने की बड़ी इच्छा है ।
लेकिन घर पर ज्यादा काम-काज होने की वज़ह से मैं चप
ु रह गया, वर्ना मैं ही पहले काशी जाने
की तैयारी करता।”
 
इसके बाद दसू रे ही दिन यात्रा के लिए सारी तैयारियाँ कीं और ज़रूरी चीज़ें गाड़ी पर लादकर घर
से चल पड़े। सुजाता गाड़ी पर सवार हुई और बोधिसत्व गाड़ी हांकने लगे। जब वे काशी नगर
की सीमा पर पहुँचे, तब एक पेड़ के नीचे बैलों को खोल दिया। वहाँ के तालाब में हाथ-पैर धोकर
खाना खा लिया। थोड़ी दे र आराम करने के बाद फिर गाड़ी में बैल जोतकर चल पड़े।
 
बोधिसत्व की गाड़ी जब नगर में पहुँचने को थी, ठीक उसी व़क्त काशी के राजा हाथी के हौदे पर
सवार हो नगर में जल
ु स
ू के साथ निकले थे। उस जल
ु स
ू को दे खने के ख्याल से सज
ु ाता अपने
पति की अनम
ु ति से गाड़ी से उतरकर पैदल चलने लगी। बोधिसत्व गाड़ी में पीछे थे।

हौदे पर बैठे काशी राजा ने अत्यंत रूपवती सुजाता को दे खा। उनके मन में सुजाता के साथ
शादी करने की इच्छा जगी। राजा ने जब उस नारी के बारे में दर्याफ़्त किया, तब पता चला कि
वह अमुक गहृ स्थ की पुत्री है और गाड़ी पर सवार व्यक्ति ही उसका पति है ।
 
राजा ने अपने मन में यह विचार किया कि किसी उपाय से सुजाता के पति का वध कराकर उसे
अपनी रानी बना ले। इसके लिए राजा ने एक योजना बनाई।
 
इस निर्णय के बाद राजा ने अपने एक विश्वासपात्र सेवक को बल
ु ाकर उसके हाथ अपना मुकुट
दे दिया और आज्ञा दी- “तम
ु सब लोगों की आँखें बचाकर इस मुकुट को उस गाड़ी में डाल
आओ।”
 
सेवक ने बोधिसत्व की आँखें बचाकर मक
ु ु ट को गाड़ी में डाल दिया और यह समाचार राजा को
सन
ु ाया। एक घड़ी के अन्दर लोगों के बीच हलचल मच गई कि राजा के मक
ु ु ट को किसी ने
चरु ाया है ।
 
राजा ने अपने सेवकों को आदे श दिया कि मुकुट को चुराने वाले चोर को पकड़ लाये। आख़िर
ढूँढ़ने पर एक सेवक को बोधिसत्व की गाड़ी में मुकुट दिखाई दिया। सेवक बोधिसत्व को चोर
ठहरा कर खींच ले गया और उसको राजा के सामने हाज़िर किया।
 
राजा ने क्रुद्ध होकर आदे श दिया, “क्या इसीने मेरा मक
ु ु ट चरु ाया है ? इस दष्ु ट को ले जाकर
इसका सर काट डालो।”
 
यों अपनी योजना को सफल होते दे ख राजा खश
ु हुए। उधर राज सेवकों ने बोधिसत्व को कोड़ों
से पीटते राजपथों पर घुमाकर उनका अपमान किया और अंत में उनका सर काटने के लिए वध
स्थान पर ले गये।
 
यह ख़बर मालम ू होने पर रोती हुई सज
ु ाता अपने पति के पीछे चल पड़ी। वह विलाप करने
लगी, “मैंने ही आप को इस विपदा में डाल दिया है ।” इसके बाद वह भी वध स्थान पर पहुँची,
दख
ु के मारे आक्रोश करने लगी, “क्या भोले-भाले और निरपराधियों को बचाने वाले भगवान
नहीं हैं? दष्ु टों के अत्याचारों का क्या कोई अंत नहीं है ?” महान साध्वी सुजाता का विलाप
सुनकर स्वर्ग में इन्द्र का सिंहासन डोल उठा।

इन्द्र आश्चर्य में आ गये। वे सोचने लगे, “आख़िर इसकी वज़ह क्या है ?” इसके बाद उन्होंने
अपनी दिव्य दृष्टि से सारी बातें जान लीं।
 
इस पर इन्द्र ने एक विचित्र स्थिति पैदा की, उन्होंने अपनी महिमा के द्वारा राजा और
बोधिसत्व के स्थान इस प्रकार बदल दिये, जिससे राजा के स्थान पर बोधिसत्व और बोधिसत्व
की जगह पर राजा पहुँच जाये !
 
लोगों को यह अद्भत
ु मालूम न था। इसलिए उन्होंने सोचा कि हाथी के हौदे पर बैठा हुआ व्यक्ति
राजा है । मगर वास्तव में वहाँ पर राजा की पोशाकों में बोधिसत्व बैठे हुए थे। इसी तरह बधिकों
के अधीन में बलिवेदी पर बोधिसत्व के वस्त्रों में राजा खड़ा हुआ था।
 
इस रहस्य को बधिक जानते न थे! इसलिए राजा के आदे शानुसार अपने अधीन में रहने वाले
व्यक्ति का सर बधिकों ने काट डाला। मरने के बाद दष्ु ट काशी राजा को उनका निज रूप प्राप्त
हुआ। प्रजा को मालम
ू हो गया कि मारा गया व्यक्ति काशी का राजा है । दस
ू रे ही क्षण जनता में
कोलाहल मच गया, वे यह सोचकर आश्चर्य में आ गये कि इस अनोखी घटना के कारणभत ू
कौन हैं?
 
उस समय इन्द्र ने बोधिसत्व तथा जनता को दर्शन दे कर सारा वत्ृ तांत सुनाया और कहा,
“आज से बोधिसत्व ही तुम लोगों का राजा है और सुजाता पटरानी है ।” इसके बाद इन्द्र अदृश्य
हो गये।
 
राज्य की सारी जनता यह सोचकर खशु हुई कि दष्ु ट राजा के पापों का घड़ा भर गया था,
इसलिए वह बलिवेदी की आहुति बन गया है । उसके अत्याचारों से प्रजा दख
ु ी थी। इसलिए इन्द्र
के आदे शानुसार प्रजा ने बोधिसत्व को अपने राजा तथा सुजाता को अपनी रानी के रूप में सहर्ष
स्वीकार कर लिया।
 
उस दिन से काशी राज्य में धर्माचरण होने लगा,समय पर वर्षा होने लगी। इस कारण सारा दे श
संपन्न और सुखी बन गया। प्रजा सुख-शान्तिपूर्वक रहने लगी।
 
42. दानपात्र

 
किसी जमाने में बोधिसत्व ने काशी के राजा के रूप में जन्म लिया। उनके शासन-काल में प्रजा
सुखी थी। राज्य संप था। सर्वत्र शांति थी! लेकिन कुछ दिनों से पड़ोसी राज्य के लोग काशी
राज्य में घुस कर अशांति पैदा करने लगे थे। धीरे -धीरे राज्य की सीमा पर कुछ लोगों ने विद्रोह
शुरू किया। विद्रोहियों को दबाने के लिये राजा कुछ सैनिकों को साथ ले सीमा प्रांत पर पहुँचे।
वहाँ पर दोनों दलों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। उस युद्ध में राजा ने अपने असाधारण साहस और
पराक्रम का परिचय दिया। लेकिन लड़ाई में राजा घायल हो गये। उनका घोड़ा भड़क कर युद्ध
क्षेत्र से राजा को लेकर भाग गया।
 
थोड़ी दे र में राजा घोड़े के साथ सीमा प्रदे श के एक गाँव के चौपाल पर पहुँचे। उस समय उस
गाँव के तीस परिवारवाले इकठ्ठे हो ग्राम संबंधी बातों पर विचार कर रहे थे। तलवार, ढाल और
कवच के साथ एक योद्धा को दे खकर वे लोग तितर-बितर हो गये। पर एक आदमी वहाँ स्थिर
खड़ा रहा।
 
उसने राजा के समीप पहुँचकर पूछा, "तम ु विद्रोही हो या राजा के समर्थक हो?"
 
राजा ने कहा, "मैं राजा का समर्थक हूँ।" यह उत्तर पाकर ग्रामवासी बड़ा संतष्ु ट हुआ, और राजा
को अपने घर ले जाकर अपनी पत्नी के हाथों से उनके पैर धल
ु वाये तथा सारे अतिथि सत्कार
किये। राजा के घोड़े को उसने स्वयं चारा पानी दिया।
 
राजा उस ग्रामवासी के घर पर चार दिन रहे और इस बीच उन्होंने अपने घावों का इलाज
करवाया। इन चार दिनों के अन्दर राजा के सैनिकों ने विद्रोह को दबा दिया।

राजा ने काशी नगर को लौटते समय ग्रामवासी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और कहा,
“महाशय, मैं काशी नगर का निवासी हूँ। मेरा घर क़िले के अहाते में ही है । मेरे एक पत्नी और
दो पत्र
ु हैं। आप काशी में पहुँचकर दायें हाथ के द्वार के पहे रदार से पछ
ू लें कि ?महाश्वारोही का
मकान कहाँ है ?' तो वह सीधे आप को मेरे घर ले आयेगा। आप जितने दिन चाहें उतने दिन
हमारे अतिथि बनकर रह सकते हैं। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप जरूर एक बार मेरे घर आवें
और मुझे भी आप के सत्कार करने का मौक़ा दें । तभी जाकर मुझे आत्म-संतोष होगा। कभी न
कभी आप समय निकाल कर हमारे यहाँ अवश्य ही आवें , यही मैं बार-बार आप से कहना
चाहूँगा।”
 
राजा ने कई दिनों तक उस ग्रामवासी के आने की प्रतीक्षा की। राजा उस ग्रामवासी के उपकार के
बदले किसी न किसी रूप में उस की मदद करना चाहते थे। पर ग्रामवासी नहीं आया। राजा के
मन में उद्विग्नता बढ़ती गई। आख़िर राजा ने मंत्रियों से सलाह-मशविरा करके सीमा प्रदे श के
उस गाँव पर कई प्रकार के नये कर लगाये। राजा का विश्वास था कि वह उसके पास मदद
माँगने अवश्य आएगा।
 
फिर भी ग्रामवासी राजा के पास नहीं आया। थोड़े समय तक प्रतीक्षा कर के राजा ने इस गाँव
पर एक और कर लगाया। इस प्रकार दो-तीन बार नये कर लगाये गये। इस पर उस गाँव के
लोग इन नये करों से तंग आ गये। गाँव के कुछ प्रमुख लोगों ने उस व्यक्ति के घर जाकर कहा,
“तम
ु ने एक बार कहा था कि काशी नगर में तुम्हारे एक दोस्त हैं। तम
ु हमारी बुरी हालत
सुनाओ और इन करों को रद्द कराने की कोशिश करो। अगर हम कोशिश नहीं करें गे, तो नये
करों के भार से हम लोग दब जाएंगे। स्थिति डवाँडोल हो जाएगी और हमारा जीना मुश्किल हो
जाएगा। इसलिए तम ु दे री किये बिना कल ही शहर के लिए रवाना हो जाओ।”
 
“मेरे मित्र से मिलना कोई कठिन काम नहीं है । लेकिन मैं उनके पास खाली हाथ कैसे जा
सकता हूँ? सुना है कि उनके एक पत्नी और दो पत्र
ु हैं। क्या सब के वास्ते उपहार के रूप में गहने
नहीं ले जाना है ? तुम लोग इन सब का इंतज़ाम करो। मैं अवश्य उनसे मिलने के लिए चला
जाऊँगा।” ग्रामवासी ने कहा।

अन्य ग्रामवासियों ने कपड़्रे और गहनों का, इंतज़ाम किया, पर वे ग्रामवासियों के धारण करने
के लायक़ मोटे वस्त्र और गहने थे। ग्रामवासी ने अपनी पत्नी के हाथों से रोटियाँ और पकवान
तैयार करवाये। इसके बाद सारी चीज़ों की गठरी बनाकर काशी के लिए चल पड़ा।
 
कुछ दिन की यात्रा के बाद वह काशी नगर के दर्ग
ु के पास पहुँचा और पहरे दार से पूछा, "भाई,
मुझे महाश्वारोही के घर जाना है । मुझे रास्ता बतला दो।"
 
तरु ं त पहरे दार ग्रामवासी को राजा के अंतःपरु में ले गया। उसको दे खते ही राजा बहुत खश
ु हुए।
ग्रामवासी अपने साथ जो खाने की चीजें लेकर आया था उन को राजा ने अपनी पत्नी, बच्चे,
मंत्री और सामंतों को खिलाया और खद
ु भी खा लिया। उसके मोटे वस्त्रों को अपनी पत्नी और
बच्चों के द्वारा धारण करवा कर राजा ने भी खद
ु पहन लिये।
 
उसके बाद राजा ने अपने अतिथि को रे शमी वस्त्र पहनाये और अपनी पाकशाला की रसोई
खिलाई। राजा को जब मालूम हुआ कि वह नये कर रद्द कराने के लिए आया हुआ है तब राजा ने
वे नये कर उसी वक्त रद्द करवा दिये।
 
फिर राजा ने सभा में मंत्री और सांमतों के समक्ष उस ग्रामवासी को अपने आधे राज्य का राजा
घोषित किया।
 
ग्रामवासी के प्रति राजा का विशेष आदर मंत्री और सामंतों को अच्छा न लगा। मगर राजा को
समझाने की उनकी हिम्मत न हुई। इसलिए वे गुप्त रूप से राजकुमार से मिलकर बोले,
"युवराज, महाराजा आप के प्रति अन्याय कर रहे हैं। आप को उत्तराधिकार के रूप में जो राज्य
प्राप्त होना है उसमें से आधा हिस्सा अकारण राजा इस असभ्य युवक को सौंप रहे हैं। इस का
विरोध करने वाले आप अकले ही हैं। हम लोग उनके विरुद्ध कुछ बोल नहीं सकते। जैसी आप
की मर्जी हो, वैसा कीजिए।" यों उस युवक को उकसा कर राजा के पास भेज दिया।
 

राजकुमार ने मंत्री और सामंतों के सझ


ु ाव के अनस
ु ार राजा के निर्णय के प्रति अपनी असहमति
प्रकट की। राजा बोले, "बेटा, मैं समझता हूँ, यह विचार स्वयं तम्
ु हारे मन में पैदा नहीं हुआ है ।
यह सवाल तम ु मझु से भरी सभा में पछू लो। उस समय मैं तम् ु हें उचित उत्तर दँ ग
ू ा। मैं जानता
हूँ कि इस बात को लेकर हमारे राज्य के मंत्री और सामंतों के मन में भी गलत फहमी पैदा हो
गई है , इस बात का भी निराकरण हो जायेगा।"
 
राजकुमार ने भरे दरबार में राजा से पूछा, "महाराज, इस ग्रामवासी को आधा राज्य सौंपने का
कारण क्या है ?"
 
राजा ने कहा, "बेटा, किसी समय इस ग्रामवासी ने मुझे प्राण दान किया है ।" इन शब्दों के साथ
राजा ने सीमा प्रांत के विद्रोह में उनके घायल होने तथा ग्रामवासी की सेवा का सारा वत्ृ तांत बता
कर कहाः
 
"अपात्र व्यक्ति के लिए दान दे ना जैसा अनुचित है , वैसे ही योग्य व्यक्ति को दान न दे ना भी
अनुचित समझा जायेगा। यह ग्रामवासी यह नहीं जानता कि मैं राजा हूँ। फिर भी इसने मेरे
प्रति अत्यंत आदर दिखाकर मेरा सत्कार किया और मेरी सेवा कर मेरी जान बचाई। फिर भी
वह मेरे द्वारा प्रत्युपकार पाना नहीं चाहता था, इसलिए वह मुझ से मिलने नहीं आया। अंत में
वह गाँव का हित चाहनेवाली कामना से ही मेरे पास आया। मेरे आधे राज्य के लिए इससे
ज़्यादा योग्य व्यक्ति और कौन हो सकता है ?"
 
ये बातें सुनकर मंत्री और सामंत लज्जित हो गये। राजकुमार ने अपनी भूल समझ ली। पिता के
वचन उस के लिए खश
ु ी के कारण बने। उस दिन से लेकर जीवन पर्यन्त राजा उस ग्रामवासी के
प्रति अपना आदर दर्शाते रहे ।
 
43. टूटी गाड़ी-छाछ की झारी

 
एक समय काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त का शासन था। युक्तवयस्क होने पर वह बहुत अहं कारी
और कठोर हो गया। बूढ़े मनुष्यों और पशुओं तथा पुरानी चीज़ों से उसे घण
ृ ा थी। कोई भी बूढ़ा
पशु-हाथी, घोड़ा, कोई अन्य जानवर या पुरानी वस्तु पर उसकी नज़र पड़ जाती तो फौरन उसे
नष्ट करने की आज्ञा दे दे ता।
 
यदि कोई वद्ध
ृ व्यक्ति उसके सामने पड़ जाता तो वह उसकी सफेद दाढ़ी पकड़ कर खींच लेता।
ऐसे लोगों को नीचे लिटा कर बर्तनों की तरह लुढ़का दे ता। यहाँ तक कि बूढ़ी स्त्रियों को भी
अनेक प्रकार से सताया करता।
 
ब्रह्मदत्त की इन अर्थहीन करतूतों और अत्याचारों की कोई हद न थी। प्रजा बेहद दख
ु ी और
परे शान थी। वे लोग राजा के डर से अपने वद्ध
ृ माता-पिताओं को दरू दे शों में छोड़ आये थे और
उनसे दरू रह कर दख
ु ी रहते थे। इस प्रकार माता-पिता को अपने घरों से निकाल दे ने के कारण
वे पाप के भागीदार बन गये। ऐसे पापियों से नरक भरने लगे, किन्तु स्वर्ग लोक खाली रहने
लगा।
 
उस समय स्वर्ग के अधिपति इन्द्र का पद बोधिसत्व को प्राप्त था। स्वर्ग में किसी को न आते
दे ख इन्द्र बहुत चिन्तित हुए। अन्त में इस समस्या को हल करने के लिए उन्होंने एक उपाय
सोचा।
 
अपनी योजना के अनुसार बोधिसत्व ने एक निर्धन वद्ध ृ का रूप धारण किया। इसके बाद एक
टूटी-फूटी गाड़ी में दो झारियों में छाछ भर कर रख दिया। फिर दो दब
ु ले-पतले बूढ़े बैलों को उस
गाड़ी में जोत कर काशी के राजपथ पर चल पड़े।

बोधिसत्व इस प्रकार आगे बढ़े चले जा रहे थे। तभी दस


ू री ओर से अत्यन्त वैभव पर्ण
ू और भव्य
जल
ु स
ू के साथ हाथी पर सवार होकर राजा ब्रह्मदत्त सामने आते दिखाई पड़े। उस दिन राजा
के लिए सारा नगर विशेष रूप से सजाया गया था। नगर की शोभा दे खते ही बनती थी। लगता
था स्वर्ग की अलकापुरी पथ्ृ वी पर उतर आई है ।
 
टूटी-फूटी गाड़ी पर एक वद्ध ृ को अपने सामने आते दे ख राजा ब्रह्मदत्त क्रोध में गरजने लगे,
"अरे कम्बख्त! हट जाओ मेरी नज़र से! अरे दष्ु ट! तुमने मेरे सामने आने की कैसे हिम्मत
की?"
 
राजा को इस प्रकार अकारण पागलों की तरह चिल्लाते दे ख राजा के अधिकारियों और मार्ग के
दोनों ओर खड़े नागरिकों को बहुत आश्चर्य हुआ। वे मन ही मन सोच रहे थे, "राजा इस प्रकार
अकारण क्यों चिल्ला रहे हैं?"
 
बात यह थी कि वद्ध
ृ के रूप में बोधिसत्व केवल राजा को ही दिखाई दे रहे थे। वहाँ उपस्थित
लोगों में से कोई भी अन्य व्यक्ति उन्हें नहीं दे ख पा रहा था। बोधिसत्व ने जान-बूझ कर यह
माया फैलायी थी। इसीलिए सभी लोग उस समय अपने राजा को पागल समझ रहे थे।
 
जब राजा क्रोध से चिल्ला रहे थे तभी बोधिसत्व ने उसके पास आकर छाछ की एक झारी उसके
सिर पर पटक दी। इससे राजा डर गया और अपने हाथी को हाँक कर भागने लगा। उसी समय
बोधिसत्व ने छाछ की दस
ू री झारी भी उसके सिर पर दे मारी। छाछ से राजा का शरीर भीग
गया। राजा क्रोध और भय से काँपने लगा।
 
राजा अपने सामने दे वताओं के अधिपति साक्षात ् इन्द्र को वज्रायुध के साथ दे ख कर भयभीत
हो गया और उनके चरणों में गिर पड़ा।
 
तभी राजा की आँखों के सामने से गाड़ी अदृश्य हो गई और छाछ की झारियाँ भी दिखाई नहीं
पड़ीं। और सामने खड़े थे इन्द्र अपने दिव्य रूप में ।
 
तब इन्द्र के रूप में बोधिसत्व बोले, "बताओ राजा!" कौन घमण्डी है - तुम या मैं? आँखों के
सामने मद के छाने पर कौन अन्धा हो गया, तम
ु या मैं? क्या तुम सदा युवा बने रहोगे? क्या
तुम्हें वद्ध
ृ ावस्था नहीं आयेगी? वद्ध
ृ ों और पुरानी वस्तुओं से घण
ृ ा क्यों करते हो? क्या तुमने यह
जानने की कोशिश की कि तुम्हारे अत्याचारों से प्रजा कितनी पीड़ित है ! तुम्हारी यातनाओं से
डर कर लोगों ने अपने पूजनीय माता-पिता को घर से निर्वासित कर दिया है और इस कारण वे
पापी बन गये हैं। इस तरह तुम्हारे राज्य में पापियों की संख्या बढ़ गई है और उनसे नरक भरते
जा रहे हैं। क्या यह सब तुमने जानने-समझने की कोशिश की? तुम्हारे राज्य का कोई भी
व्यक्ति स्वर्ग का अधिकारी नहीं रहा।

वास्तव में राजा को चाहिए कि वह अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान माने और हर प्रकार
से उनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखे। पर तम
ु ने प्रजा के हित के कोई कार्य नहीं किए, उलटे
उन की संपत्ति बटोर कर ऐश आराम करते हो और तिसपर भी उन्हें सता रहे हो।
 
"यहाँ तक कि दष्ु ट लोग अत्याचार करने पर भी अपने वद्ध
ृ माता-पिताओं के साथ अच्छा
बरताव करते हैं।" तम
ु उन दष्ु ट लोगों से भी कहीं ज़्यादा गये बीते हो? तम
ु जैसे लोगों के
अत्याचारों से डर कर निरीह जनता विद्रोह भी नहीं कर पा रही है । लेकिन याद रखो कि तम्
ु हारे
व्यवहार में कोई परिवर्तन न आया तो एक न एक दिन तुम्हारी प्रजा तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह कर
बैठेगी!
 
"इसलिए अभी से इस मूर्खता को छोड़ कर सच्चे मार्ग का अनुसरण करो, अन्यथा मेरा यह
वज्रायुध तुम्हारे सिर को धड़ से अलग कर दे गा। सावधान।" इस तरह चेतावनी दे कर
बोधिसत्व अदृश्य हो गये।
 
उसी दिन से ब्रह्मदत्त के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ गया। वह वद्ध
ृ ों का आदर करने
लगा। बढे
ू ़ बीमार पशओ
ु ं को दे ख कर उसमें करुणा का भाव उमड़ने लगा और उनकी उचित
दे खभाल करने का उपाय करने लगा। लोगों ने राजा में यह परिवर्तन दे ख कर दरू दे शों से अपने
माता-पिता को बल
ु ा लिया और यथा शक्ति उनकी सेवा कर सख
ु पर्व
ू क जीवन यापन करने
लगे। प्रजा सख
ु और शान्ति से रहने लगी।
 
लेकिन किसी ने बोधिसत्व को नहीं दे खा था, इसलिए अधिकारियों और प्रजा में बराबर यह
रहस्य बना रहा कि राजा में यह अचानक परिवर्तन कैसे आया।
 
44. पश्चात्ताप

 
एक समय प्राचीन काल में बोधिसत्व ने कोसल के राजा के रूप में जन्म लिया। इनका पुत्र
सत्यसेन जब युक्त वयस्क हुआ तब राजा ने उन्हें युवराज घोषित किया। युवराज की पत्नी
शंबलु ा दे वी अपर्व
ू सुन्दरी, सुशीला और पतिपरायणा थी।
 
दर्भा
ु ग्य से युवराज सत्यसेन कुष्ठ से ग्रस्त हो गया। अनेक वैद्यों और राज वैद्यों से उसकी
चिकित्सा करायी गयी किन्तु रोग घटने की अपेक्षा बढ़ता ही गया। परिवार और समाज में
जीवन बिताना उसके लिए दभ
ू र हो गया। इसलिए किसी निर्जन वन में निवास करने के लिए
वह घर से निकल पड़ा। शंबुला दे वी भी पीछे -पीछे चल पड़ी। सत्यसेन ने उसे बहुत समझाया
कि वहाँ उसे बहुत कष्ट होगा, लेकिन वह पति की सेवा के लिए उसके साथ वन चली गई।
 
जंगल में फलदार वक्ष
ृ ों तथा निर्मल जल वाले एक स्थान पर युवराज एक पर्णशाला बनवाकर
रहने लगा।
 
शंबल
ु ा दे वी नित्य सवेरे उठ जाती और घर के काम-काज करके पति का मँह
ु धल
ु ाती, जंगल से
कन्द-मल
ू और फल लाती। सरोवर से जल लाकर नहलाती, और भोजन बनाकर उसे खिलाती।
 
एक दिन शंबल
ु ा दे वी फल की खोज में बहुत दरू निकल गई। वहाँ एक सुन्दर सरोवर था। उसका
जल शीतल, स्वच्छ और मधुर था। इसलिए उसे सरोवर में स्नान करने की इच्छा हुई। जब वह
सरोवर से नहाकर निकली तो उसका शरीर शुद्ध सोने के समान दमकने लगा।

लौटते समय उसकी सन्


ु दरता दे खकर उस मार्ग से गज
ु रनेवाला एक भील-सरदार ने शंबल
ु ा दे वी
से प्रार्थना की कि वह उससे विवाह करके भीलों की रानी बनकर रहे । लेकिन शंबल
ु ा दे वी ध्यान
दिये बिना आगे बढ़ गई। जब उसने उसका मार्ग रोक कर ज़िद किया तब शंबल
ु ा दे वी ने क्रोधित
होकर कहा, अरे पापी! तेरा सर्वनाश हो। यह कहकर उसने घड़े का जल उस पर छिड़क दिया।
जल के स्पर्श होते ही वह वहीं गिरकर ढे र हो गया।
 
शंबल
ु ा दे वी को पर्णशाला पहुँचने में काफी दे र हो गई थी। इसलिए सत्यसेन ने क्रोधित होकर
इसका कारण पूछा।
 
शंबल ु ा दे वी ने पति को सारी घटना सुना दी किन्तु उसे विश्वास नहीं हुआ। सत्यसेन ने घण
ृ ा
पूर्वक कहा, औरतें कल्पना गढ़ने में माहिर होती हैं। ठीक है ! जहाँ चाहो विचरण करो।
 
पति की बात सुनकर शंबुला को बहुत दख ु हुआ। उसने प्रभु का नाम लेकर कहा, स्वामि! यदि
मेरी बातें सत्य हैं तो आप व्याधि से मक्
ु त हो जायेंगे और यदि झठ ू है तो मझ
ु े भी यह व्याधि
लग जायेगी। यह कहकर उसने घड़े का जल अपने पति पर छिड़क दिया।
 
जल का स्पर्श होते ही जाद ू की तरह सत्यसेन का रोग ठीक हो गया । उसका शरीर भी सोने की
भाँति दमकने लगा।
 
उसे अपनी पत्नी की सचाई और पवित्रता पर उतनी प्रसन्नता नहीं हुई जितना उसे अपनी
व्याधि से मक्
ु त होने का सख
ु हुआ।
 
रोग से छुटकारा मिलते ही उसकी महत्वाकांक्षा जाग उठी और वह राजा बनने का सपना दे खने
लगा। वह अपने राज्य में पहुँचा और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरकर पिता को अपने
आगमन की सूचना भेज दी। राजा स्वयं छत्र और चंवर लेकर बेटे को लेने आये।

अपने बेटे को पर्ण


ू स्वस्थ दे खकर कोसल नरे श की खश
ु ी की सीमा न रही। शंबल
ु ा जैसी
पतिव्रता बहू को पाकर उन्होंने अपने भाग्य को सराहा। वे इसी दिन की प्रतीक्षा और प्रार्थना कर
रहे थे कि कब उनका बेटा स्वस्थ होकर लौट और राज-काज संभाले। इसलिए उन्होंने शीघ्र ही
शभ
ु मुहूर्त दे खकर अपने बेटे सत्यसेन का राज्याभिषेक कर दिया तथा शंबल
ु ा को पटरानी बना
दिया। इस प्रकार राज्य-भार बेटे-बहू पर सौंपकर राजा वानप्रस्थ जीवन बिताने लगे।
 
सत्यसेन न जाने क्यों पटरानी शंबल ु ा दे वी के प्रति उदासीन रहता था तथा अन्य पत्नियों के
साथ अधिक समय बिताता था। शम्बल ु ा दे वी इसलिए हर समय दख ु ी रहने लगी।
 
एक बार राजा शंबुला दे वी से मिलने आये। उन्होंने उसे दख
ु ी दे खकर पूछा, बहू! तुम दर्ब
ु ल क्यों
होती जा रही हो? तुम्हें किस बात का दख
ु है ? बताओ बेटी!
 
उसने आँखों में आँसू भर कर कहा, पति का प्रेम ही पत्नी का जीवन है । उससे बिना राज-पाट के
सभी भोग बेकार हैं। पति नहीं प्रसन्न हों तो मैं कैसे प्रसन्न रह सकती हूँ?
 
राजा ने सत्यसेन को समझाया, बेटा! कृतघ्नता से बढ़कर कोई पाप नहीं। जब तुम भयंकर
व्याधि से ग्रस्त थे तब भी परछाईं की तरह शंबुला रात दिन तुम्हारी सेवा में लगी रही। उसी की
पवित्रता की शक्ति ने तुम्हें इस शाप से मुक्त किया है । लेकिन अब वैभव और शक्ति सम्पन्न
होकर उस दे वी को भूल गये हो ! यह राज्य किसी को भी प्राप्त हो सकता है लेकिन पतिव्रता
पत्नी किसी भाग्यवान को ही प्राप्त होती है । ऐसी पत्नी को तुमसे कष्ट हो तो इसमें तुम्हारा ही
अहित है , इस बात को ठीक से समझ लो।
 
पिता की बात सुनकर सत्यसेन की आँखें खुल गईं और वह अपनी करनी पर पश्चाताप करने
लगा। उसने शंबल
ु ा से क्षमा माँगी और उसे पटरानी का आदर दे कर उसके साथ सख
ु पर्व
ू क
जीवन यापन करने लगा।
 
45. आशा का अंत

 
प्राचीन काल में काशी राज्य पर राजा ब्रह्मदत्त शासन करते थे। उनके दो पुत्र थे। राजा का
अंतिम समय जब निकट आया, तब उन्होंने बड़े राजकुमार को राज्य सौंपकर छोटे राजकुमार
को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ब्रह्मदत्त की मत्ृ यु के बाद बड़े राजकुमार के
राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं। उस व़क्त बड़े राजकुमार वैराग्य में आकर बोले, “मैं यह
राज्य नहीं चाहता। छोटे राजकुमार को आप लोग गद्दी पर बिठाइये।”
 
इसके बाद बड़े राजकुमार काशी राज्य के बाहर एक सामंत राज्य में पहुँचे। वहाँ एक धनवान के
घर में मेहनत करते हुए दिन बिताने लगे।
 
थोड़े दिन बाद काशी राज्य के कुछ अधिकारी जमीन की पैमाइश करके कर लगाने के काम पर
उस राज्य में आ पहुँचे। लोगों ने धनवान के घर में रहनेवाले राजकुमार को पहचाना और उनके
प्रति श्रद्धा और भक्ति प्रकट की। यह समाचार मिलते ही धनवान बड़े राजकुमार के पास पहुँच
कर बोला, “महानुभाव, आप अपने छोटे भाई को चिट्ठी लिखकर मेरे कर घटाने की कृपा करें ।”
राजकुमार ने छोटे राजकुमार के पास चिट्ठी भेजी। उन्होंने बड़े राजकुमार की बात मान ली।
 
यह ख़बर मिलते ही गाँव के कई लोग राजकुमार के पास पहुँचे और उनसे निवेदन करने लगे
कि उनके कर भी घटाने का इंतज़ाम करें । बड़े राजकुमार की सिफारिश पर सब लोगों के कर
घटा दिये गये।
 
उस दिन से गाँव के लोग अपनी जमीन के करों की रक़म लाकर बड़े राजकुमार के हाथ सौंपने
लगे। इस कारण बड़े राजकुमार के मन से वैराग्य जाता रहा और राज्य पाने की इच्छा बढ़ने
लगी।
 
इसके बाद वे धीरे -धीरे एक-एक सामंत राज्य पर अधिकार जमाते हुए इसकी सच ू ना अपने
छोटे भाई को दे ने लगे। फिर भी छोटे भाई बड़े भाई की हर बात को मानते गये। धीरे -धीरे बड़े
राजकुमार के मन में काशी राज्य पर भी क़ब्जा करने का लोभ पैदा हुआ। एक दिन उन्होंने
अपने छोटे भाई के पास यह संदेशा भेजा- “तम
ु सारा काशी राज्य मुझे सौंपने के लिए तैयार हो
या मेरे साथ युद्ध करने के लिए? जल्दी सूचित करो।”

छोटे भाई ने उत्तर भेजा, “यह राज्य तो आप ही का है । आप इसे जब चाहें तब ले सकते हैं।”
इसके बाद बड़े भाई काशी राज्य की गद्दी पर बैठे और छोटे राजकुमार उनके सेनापति बने।
 
बड़े राजकुमार इससे भी संतुष्ट नहीं हुए। वे एक-एक कर कई अनेक राज्यों पर अधिकार करते
गये।
 
एक बार स्वर्ग लोक के राजा इंद्र भूलोक के मामलों पर चर्चा कर रहे थे। उस व़क्त काशी राज्य
की चर्चा चल पड़ी। उन्हें लगा कि काशी राज्य के मामले में उपेक्षा करें तो कई राज्यों की हानि
हो सकती है । इसलिए इन्द्र ने बड़े राजकुमार को सबक़ सिखाने का निश्चय कर लिया। वे एक
युवक के रूप में काशी राजा के दर्शन करने आ पहुँचे। वे बोले, “महाराज, मैं आपको एक छोटा-
सा रहस्य बताने आया हूँ।”
 
राजा यवु क को अपने अंतःपरु में ले गये। यव
ु क ने राजा से कहा, “राजन, मेरी जानकारी में तीन
महानगर हैं। वे नगर न केवल बड़े ही संपन्न हैं, बल्कि उनके पास भारी चतरु ं गी सेना भी है । मैं
अपनी शक्ति के बल पर उन तीनों नगरों को जीतकर आप को दे ना चाहता हूँ।” यव
ु क के मँह
ु से
यह समाचार सुनते ही काशी राज्य के मन में राज्य-विस्तार का लोभ बढ़ गया। लेकिन इस
बीच युवक वेषधारी दे वराज इन्द्र अदृश्य हो गये।
 
राजा ने युवक की खोज की, लेकिन वह कहीं नहीं मिला । इस पर उन्होंने राज्य के प्रमुख
अधिकारियों को आदे श दिया, “अभी अभी जो युवक मेरे पास आया था, उसने मुझे तीन
महानगर जीतकर दे ने का वचन दिया है , तम
ु लोग शीघ्र उसे ढूँढ़कर मेरे सामने हाज़िर करो।”
 
राजा के परिचारक और सैनिकों ने युवक की खोज की, मगर कहीं उसका पता न चला। इस पर
राजा को लगा कि वे पागल होते जा रहे हैं।
 
इसी मानसिक चिंता से वे बीमार पड़ गये। वैद्यों ने इलाज किया, पर कोई फ़ायदा न हुआ।
 
उन्हीं दिनों में समस्त शास्त्रों में प्रवीण बने बोधिसत्व तक्षशिला से काशी लौट आये। राजा के
बीमार हो जाने की ख़बर मिलते ही उन्होंने राजमहल में यह संदेशा भेजा, “मैं राजा की बीमारी
दरू कर सकता हूँ। मुझे मौक़ा दें ।”

राजा ने बोधिसत्व को महल के अंदर बुला भेजा। बोधिसत्व ने राजा से पूछा, “राजन, आप की
बीमारी की वजह क्या है ?”
 
इसके जवाब में आवेश में आकर राजा ने उस युवक के द्वारा तीन महानगर जीतकर दे ने का
सारा वत्ृ तांत सुनाया और बोले, “उसी समय से यह मानसिक व्याधि मुझे सता रही है । यदि
आप इसे दरू कर सकते हैं तो कोशिश कीजिए।”
 
बोधिसत्व ने राजा से पछ
ू ा, “राजन, अगर आप इस तरह मानसिक व्याधि के शिकार हो जायेंगे
तो क्या आप उन तीनों महानगरों को जीत सकते हैं?”
 
“कभी नहीं।” राजा ने झट कहा।
 
“इसलिए आपके द्वारा चिंता करते रहने से कोई फ़ायदा नहीं है । इस दनि
ु या की हर चीज़ थोड़े
दिन बाद हमारी आँखों के सामने ही अदृश्य होती जा रही है न?” बोधिसत्व ने पूछा।
 
“हाँ, सच है ।” राजा ने कहा।
 
“यह भी सत्य है न कि प्रत्येक जीव को अपने प्राणों के निकलते ही इस दनिु या को छोड़ कर
जाना पड़ता है । इसलिए हे राजन! तीन क्या, तीस महानगरों को जीतने पर भी आप सुखी नहीं
हो सकते। संसार में कोई भी चीज़ शाश्वत नहीं है ।
 
आशा का कोई अंत नहीं है । जब कोई भी मानव आशा के वशीभत
ू हो जाता है तब उसे मानसिक
व्याधि सताने लगती है , इससे पिंड छुड़ाना चाहे तो मन को कामनाओं पर क़ाबू रखना होगा।
जैसे चर्मकार जूते के बराबर चमड़े को काटता है , वैसे ही कामनाओं को भी हमें वहीं तक बढ़ने
दे ना है , जहॉ ं तक वे हमारे लिए उपयोगी हों ।” बोधिसत्व ने समझाया।
 
बोधिसत्व का यह उपदे श सन ु ने पर राजा के मन को शांति मिली और उनकी मानसिक व्याधि
गायब हो गई। इसके बाद राजा के अनरु ोध पर बोधिसत्व ने उन्हें धर्मोपदे श दिया। वे अपने
जीवन-पर्यंत राजा का मार्ग-दर्शन करते रहे ।
 
46. याचना

 
प्राचीन काल में राजा ब्रह्मदत्त काशीनगर पर राज्य करते थे। उन दिनों बोधिसत्व ने एक गाँव
के ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। उसका नाम सोमदत्त था। सोमदत्त का बाप बड़ा ही गरीब
था। वह अपने एक बीघे की जमीन में खेती-बाड़ी करके जैसे-तैसे अपने परिवार का भरण-
पोषण कर लेता था।
 
सोमदत्त जब बड़ा हुआ, तब अपने पिता की कड़ी मेहनत को दे ख वह दख
ु ी हो उठा। उसने
अपने माता-पिता को सुखी रखना चाहा, इस वास्ते उसे एक उपाय सूझा। वह यह कि किसी
तरह से विद्या सीखकर राज दरबार में नौकरी प्राप्त कर ले। वैसे इस हालत में भी वह अपने
पिता को खेती बाड़ी में मदद दे सकता है , मगर एक बीघे जमीन में क्या पैदावार हो सकती है ?
ये ही सारी बातें सोचकर सोमदत्त अपने पिता से बोला, “बाबज
ू ी, मैं तक्षशिला नगर में जाकर
कोई विद्या सीखना चाहता हूँ ।”
 
सोमदत्त के बाप ने उसे अनुमति दे दी।
 
सोमदत्त तक्षशिला गया। वहाँ पर एक गरुु की सेवा-शश्र
ु षू ा करके विद्या सीख ली, तब अपने
गाँव को लौट आया। पर उसका पिता अपने दो बैलों के साथ सब
ु ह से लेकर शाम तक खेत में
कड़ी मेहनत कर रहा है , इसे दे ख सोमदत्त ने सोचा कि अब पल पर भी दे री नहीं करनी चाहिए।
वह दस
ू रे दिन ही काशी के लिए रवाना हुआ और राजा के दरबार में नौकरी प्राप्त कर ली।
 
इसके थोड़े दिन बाद सोमदत्त के पिता के दो बैलों में से एक मर गया। कई सालों से वह बैल
उस परिवार का पोषण करता आ रहा था। अब उसे मरने पर सोमदत्त के बाप को लगा कि
उसका एक हाथ कट गया है ।
 
उस हालत में उसने सोचा कि उसका बेटा राज दरबार में नौकरी करता है , राजा से सिफ़ारिश
करके उसे एक बैल दिला दे गा। इसी ख़्याल से वह काशी जाकर अपने बेटे सोमदत्त से मिला।

सारी बातें सुनकर सोमदत्त अपने पिता से बोला, “बाबूजी, आप और माँ, दोनों बूढ़े हो चुके हैं।
अब उस थोड़ी-सी भमि
ू को लेकर क्यों मेहनत करते हैं? आप दोनों मेरे पास आकर आराम से
अपने दिन बिताइये।”
 
पर सोमदत्त की बातें उसके पिता ने नहीं मानीं। वह हठ करते हुए बोला, “मैं अपनी जन्मभूमि
को छोड़कर नहीं आना चाहता। मेरी मौत वहीं पर होगी। तम
ु एक बैल दिला सकोगे तो मैं खेती-
बाड़ी करते हुए मजे से अपने दिन काट सकता हूँ। वहाँ पर मुझे जो शांति मिलती है , वह यहाँ
पर न मिलेगी!”
 
सोमदत्त कुछ ही दिन पहले राज दरबार की नौकरी में लगा था, इसलिए उसके पास एक बैल
ख़रीदने लायक़ धन न था। साथ ही राजा से याचना करना भी उसे उचित न लगा। राजा अपने
मन में यों सोच सकते हैं कि यह तो हाल ही में नौकरी में लगा, अभी से हाथ फैला रहा है । यों
विचार कर सोमदत्त अपने बाप से बोला, “बाबूजी, अगर मैं राजा से एक बैल की याचना करूँगा
तो वे तुरंत पूछ बैठेंगे कि तुम्हें बैल से क्या मतलब? अलावा इसके नौकरी करने वालों के लिए
याचना करना उचित नहीं है । आपसे तो ये सवाल नहीं कर सकते। इसलिए आप राजा के पास
जाकर असली हालत बताइये और उनसे बिनती कीजिए कि वे आप को बैल दें । मैं समझता हूँ
कि जरूर वे आप को एक बैल दे दें गे।”
 
मगर सोमदत्त के पिता को ये बातें अच्छी न लगीं। उसने अपने बेटे पर जोर दे ते हुए कहा,
“बेटे, मैं एक दे हाती हूँ। हल चलाना छोड़कर मैं कुछ नहीं जानता। कहाँ राजा? कहाँ दरबार? और
कहाँ मैं? दरबार में क़दम रखने पर शायद मेरे मँह
ु से बोल न फूटे ! राजा के साथ कैसे बात
करनी है , उनके साथ कैसा बर्ताव करना है ? ये सारी बातें मैं क्या जानँू? नहीं; नहीं; किसी तरह
तुम्हीं मेरा काम करवा दो।”
 
“तब तो मैं एक उपाय करता हूँ। मैं एक श्लोक लिखकर दे ता हूँ। दो-तीन दिनों में उसे अच्छी
तरह से याद करके राज दरबार में जाकर सुनाइये। आपका काम बन जाएगा!” यों सोमदत्त ने
अपने बाप को हिम्मत बंधाई। इसके बाद उसने एक श्लोक लिखकर अपने पिता के द्वारा
कंठस्थ करवाया।

“द्वे में गोणा, महाराज,


ये हि खेत्तं कसाम से
 तेसु एको मतोदे व,
दति
ु यं दे हि खत्तिय।।
 
इसका मतलब है , “महाराज, मेरे पास दो बैल थे। मैं उनसे खेती-बाड़ी चलाता था। प्रभ,ु उनमें से
एक मर गया, इसलिए मझ ु े दस
ू रा बैल दिलाइये।”
 
बूढ़े ने बड़ी मेहनत के साथ इस श्लोक को कंठस्थ कर लिया।
 
एक दिन सोमदत्त अपने पिता को दरबार में ले गया। अपने बेटे के समझाने के मत
ु ाबिक़ बढ़
ू ा
राजा और मंत्रियों को प्रणाम करके, हाथ बांध कर विनयपर्व
ू क खड़ा हो गया।
 
“तमु कौन हो? क्या चाहते हो?” राजा ने पूछा। बूढ़े ने झट कंठस्थ किया हुआ श्लोक सुनाया।
मगर उस घबड़ाहट में श्लोक थोड़ा बदल कर इस रूप में बढ़ ू े के मँह
ु से निकला-
 
द्वे में गोणा, महाराज,
येहि खेत्तं कसामसे;
तेसु एको मतोदे व,
दति
ु यं गण्ह खत्तिय।”
 
यह श्लोक सन ु कर सारे दरबारी हँस पड़े। सोमदत्त ने लज्जा के मारे अपना सर झक
ु ा लिया,
क्योंकि उसके बाप ने घबराकर, “मझ
ु े दस
ू रा बैल दिलाइये” कहने के बदले यों कह दिया, “मेरे
दसू रे बैल को ले लीजिए!”
 
राजा ने मुस्कुराते हुए पूछा, “तुम अपने बैल को दे ने के लिए इतनी दरू आये हो?”
 
“महाराज, चाहे तो आप उसे ले लीजिए, क्योंकि उसी की वजह से यह सारा बखेड़ा खड़ा हो गया
है ।” इन शब्दों के साथ बढ़
ू े ने राजा को सारा वत्ृ तांत सन
ु ाया।
 
सोमदत्त के नीतिपूर्ण व्यवहार पर राजा बहुत खुश हुए, क्योंकि उनके दरबार के लोग छोटी-
मोटी बात पर याचना करते रहते थे । मगर सोमदत्त ने ऐसा नहीं किया । इस पर राजा ने आठ
जोड़े बैलों को सजवा कर उसके पिता को दान किया।
 
47. कर्म का फल

 
ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर शासन करते थे। उन दिनों बोधिसत्व ने एक वानर के रूप में जन्म
लिया। उस का नाम नन्दीय था। नन्दीय का एक छोटा भाई था। वे दोनों हिमालय में अस्सी
हज़ार वानरों के नेता थे। नन्दीय की अंधी मॉ ं की दे खभाल की जिम्मेदारी उसी पर थी।
 
नन्दीय और उसका छोटा भाई प्रतिदिन फलों के बागों से मीठे और रसीले फल तोड़कर लाते
और उन्हें दल के सेवकों के द्वारा अपनी माँ के पास भेजा करते थे।
 
एक दिन नन्दीय अपनी माँ को दे खने आ पहुँचा। उसे दे खकर नन्दीय अचरज में आ गया और
पूछा, “माँ, तम
ु कितनी कमज़ोर हो गई हो? हम रोज तुम्हारे पास अच्छे -अच्छे फल भेजते हैं।
क्या तम
ु उन्हें नहीं खातीं? तुम्हारी सेहत का ध्यान रखना हमारे लिए सब से बढ़कर है ।”
 
“नहीं बेटा, मेरे पास एक भी फल नहीं पहुँचा। अगर फल मिल जाते तो मैं यों सूखकर कांटा
क्यों बन जाती? मैं जानती हूँ कि तम
ु अपनी माँ के लिए जान भी दे सकते हो फिर यह तो फलों
की बात है ।” माँ ने कहा।
 
नन्दीय ने सोचा-विचारा। सच्ची बात उसकी समझ में आ गई। उसी वक्त वह हिमालय पहुँचा।
अपने छोटे भाई को सारा हाल सुनाकर कहा, “भैया, मैं घर पर रहकर माँ की दे खभाल करूँगा।
तुम यहीं पर रहकर इस दल का नेतत्ृ व करो।”
 
“भैया, मैं भी तम्
ु हारे साथ घर पर रहकर माँ की दे खभाल करूँगा।” छोटे भाई ने कहा।
 
इस प्रकार दोनों एकमत होकर घर पर पहुँचे। अपनी माँ के वास्ते एक पीपल पर अच्छा निवास
बनाकर आँख की पुतली की भांति उसकी दे खभाल करने लगे।

उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण तक्षशिला नगर में एक प्रसिद्ध गरु


ु के यहाँ विद्याभ्यास कर रहा था।
विद्या के समाप्त होने के बाद उसने अपने आचार्य से घर लौटने की अनम
ु ति माँगी। उन्होंने
शिष्य को समझाया, “बेटा, तम
ु ने अपनी शिक्षा परू ी कर ली है । यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात
है । तम
ु उद्दण्ड प्रकृति के हो। जल्दबाजी में आकर कभी कोई अनचि
ु त काम न करना। बाद में
पछताने पर भी कोई लाभ न होगा। यह मेरा उपदे श है ।” यह कहकर उसको आशीर्वाद दिया।
 
ब्राह्मण युवक अपने आचार्य से अनुमति लेकर काशी नगर पहुँचा। विवाह करके गह ृ स्थ बन
गया। पेट भरने का कोई उपाय नहीं सूझा। इसलिए धनुष-बाण लेकर बहे लिये का पेशा अपना
लिया। वह जानवरों और पक्षियों का शिकार बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करने
लगा। ब्राह्मण के लिए शिकार पाप के समान है , यह जानते हुए भी उसने यह पेशा अपनाया।
गहृ स्थी चलाने की मज़बरू ी ने उसे लाचार कर दिया।
 
एक दिन सारे जंगल में उसे कोई जानवर हाथ न लगा। निराश होकर घर लौटते हुए उसने एक
पेड़ की ओर दे खा। उस समय नंदीय और उसका छोटा भाई अपनी माँ को फल खिलाकर बैठे हुए
थे। उन लोगों ने बहे लिये को दे खा।
 
बहे लिये ने सोचा कि खाली हाथ घर कैसे लौटे ! यों विचार कर उसने बढ़
ू ी वानर की ओर तीर का
निशाना लगाया। इसे नन्दीय ने दे ख लिया। तरु न्त उसने अपने छोटे भाई से कहा, “लो दे खो,
बहे लिये ने हमारी माँ की ओर तीर का निशाना लगाया है । मैं उसके प्राण बचाने के लिए तीर के
सामने आ जाऊँगा। मेरे मरने के बाद तम्
ु हें माँ का पालन-पोषण करना होगा।” यह कहकर वह
जल्दी-जल्दी पेड़ से उतरकर नीचे आ गया।
 

उसने बहे लिये से कहा, “भाई, तम


ु मेरी माँ को मत करो। वह बूढ़ी है । उस की जगह तम
ु मुझे
मार डालो।”
 
इसपर कठोर हृदयवाले बहे लिये ने “अच्छी बात है ” कहकर नन्दीय पर बाण चलाया।
 
पर वह अपने वचन पर टिका नहीं।
 
नन्दीय के मरते ही उसने वद्ध
ृ वानर पर अपने बाण का निशाना लगाया। उसे दे खकर छोटा
वानर पेड़ से उतर आया और उसने भी वही बात दोहराई जो नन्दीय ने कही थी। बहे लिये ने
उसकी बात मान ली और छोटे भाई को भी मार डाला।
 
बहे लिये ने सोचा, ?मेरे और मेरे परिवार के लिए ये दोनों बन्दर पर्याप्त हैं।' लेकिन दस
ू रे ही पल
उस का दिल बदल गया। उसने निर्दय होकर वद्धृ वानर को भी मार डाला।
 
इस के बाद वह उन तीनों बन्दरों की लाशों को अपने कन्धे पर लटका कर घर की ओर चल
दिया। गाँव की सीमा पर पहुँचते ही उसे यह ख़बर मिली कि उस का घर जल गया है और उसकी
पत्नी और बच्चे घर के अन्दर फंस गये हैं।
 
यह ख़बर पाकर वह छाती पीटता हुआ घर की ओर दौड़ पड़ा। वहाँ पहुँचकर वह घर के अन्दर
घुसा, पर वह जहाँ पर खड़ा था, वहाँ की ज़मीन अचानक फट गई और वह अन्दर धंसने लगा।
इसपर पाताल में जाते हुए उसने अपने आचार्य के उपदे श का स्मरण किया, ?मेरे आचार्य ने
उसी दिन बताया था कि क्रूर कर्म नहीं करना चाहिए। इसके बाद पछताने पर भी कोई फायदा
नहीं है । मैंने जो पाप किये, उनका प्रायश्चित कर रहा हूँ। मैंने व्यर्थ में ही निरपराध वानरों को
सताया। यदि मैं उन्हें न मारता तो मेरी तो कोई हानि नहीं होती पर उन बेचारों की जानें बच
जातीं।' यों सोचते हुए वह नरकलोक में चला गया, जहाँ उसने बहुत कष्ट सहे । उसके बरु े कर्मों
का फल उसके परिवार को भी मिला। बरु े कर्म करनेवाले का अन्त ऐसा ही होता है ।
 
48. स्वार्थ में परोपकार

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पड़े के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत ् श्मशान
की ओर बढ़ता गया। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन, इस भयंकर वातावरण की
परवाह किये बिना अपने प्रयासों में मग्न हो। क्या कभी तम
ु ने सोचा कि अब तक तम
ु से किये
गये सारे के सारे प्रयत्न क्यों निष्फल हुए? आश्र्चर्य तो इस बात का है कि एक बुद्धिमान व
विवेकी राजा होते हुए भी अपनी असफलता के कारणों की जड़ में नहीं जा रहे हो।

मैं तुम्हारे हठ की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता, पर तुम्हारी मूर्खता पर भी मुझे दया आती
है । कभी-कभी मुझे संदेह होने लगता है कि जो लगन तुम दिखा रहे हो, वह अपन स्वार्थ की
पूर्ति के लिए है या परोपकार के उद्देश्य से।

 हम दे खते रहते हैं कि कुछ संदर्भों में स्वार्थ और परोपकार के बीच के अंतर को जानना बहुत ही
मुश्किल का काम है , क्योंकि इनके बीच का अंतर इतना महीन होता है कि हम उन्हें अलग नहीं
कर पाते। उदाहरणस्वरूप मैं तुम्हें कमल की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनो।” फिर
वेताल कमल की कहानी यों सुनाने लगाः

कोंडापरु नामक एक बड़े गॉवं में परु


ु षोत्तम नामक एक गह
ृ स्थ रहता था। उसके दो बेटे थे। बड़े
बेटे का नाम शेखर था। वह अपने पिता की ही तरह दस
ू रों की भलाई करता था। पर परु
ु षोत्तम
का दस
ू रा बेटा कमल स्वार्थी था। किसी की मदद करने से वह कतराता था। परु
ु षोत्तम ने अपने
दस
ू रे बेटे कमल को अच्छा बनाने का भरसक प्रयत्न किया, पर उसके प्रयत्न सफल नहीं हुए।
मरने के पहले कमल को अपने पास बुलाकर पुरुषोत्तम ने उससे कहा, “बेटे, इस गांव के लोग
अच्छे हैं। यहॉ ं तुम रह नहीं सकते। अगर तम
ु सुखी जीवन बिताना चाहते हो तो मेरी एक सलाह
है । पास ही के जंगल के  बीच एक पर्वत है । उस पर्वत पर चढ़ोगे तो बीच में एक पाताल गुफ़ा है
। उस गुफ़ा में अनन्त नामक एक साधु रहते हैं। तुम उनसे मिलोगे तो तुम्हारा भला होगा।” यों
कह चुकने के बाद वह मर गया।
कमल ने मन ही मन सोचा कि अपने बड़े भाई शेखर को पूरी संपत्ति सौंपने के उद्देश्य से ही
पिता ने यह कहानी गढ़ी है । पर जब तक पिता का निधन नहीं हुआ तब तक उसे मालम
ू नहीं
था कि अच्छाई ही उसकी एकमात्र संपत्ति है ।

शेखर ने कमल से कहा, “मेरे ही साथ रहो। मैं तुम्हारी अच्छी तरह से दे खभाल करूँगा।” कमल
को लगा कि अब चिंता की कोई बात नहीं है , क्योंकि भाई ने उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी
अपने ऊपर ले ली। कुछ ही दिनों में गांव के लोग कहने लगे कि भाई हो तो ऐसा, जो अपने छोटे
भाई का इतना ख्याल रखता है । वे शेखर की तारीफ़ करने लगे और कमल की निंदा।

“तुम्हारे कहने पर ही मैं यहॉ ं रह रहा हूँ। पर इसके लिए लोग मुझे दोषी ठहरा रहे हैं, मेरा
अपमान कर रहे हैं।” कमल ने क्रोध-भरे स्वर में स्पष्ट कह डाला । इसपर शेखर ने हँसते हुए
कहा, “तम
ु किसी की मदद नहीं करते। अगर चाहते हो कि लोग तुम्हारी प्रशंसा करें तो मेरी
तरह तुम भी परोपकार करो, अच्छे मार्ग पर चलो।”

 ”दस
ू रों की भलाई करके पिताजी ने और तम
ु ने क्या साध लिया? उस भलाई से मेरा क्या काम,
जिससे एक कौड़ी भी जमा नहीं कर पाता। जीवन में बड़ा बनने की मेरी तीव्र इच्छा है । ऐसा
कोई उपाय हो तो सुझाना,” कमल ने कहा। “संपत्ति जुटानी हो तो व्यापार करने की दक्षता
चाहिये। कृषि अथवा ललित कलाओं में भी प्रवीणता चाहिये। मैं भी स्वयं ये सब नहीं जानता।
तम
ु स्वयं धन कमाने के उपाय सोचो,” शेखर ने सलाह दी।

धन कमाने की इच्छा तो भरी पड़ी है , पर उसे कमाने का कोई भी मार्ग कमल नहीं जानता।
इसलिए पिता के कहे अनुसार वह पर्वत की पाताल गुफ़ा में गया और साधु अनन्त से मिला।
आनंद की बड़ी दाढ़ी थी और घनी मूंछें थीं। मुख मंडल पर तेजस्विता टपक रही थी। कमल ने
अनायास ही उसे प्रणाम किया और कहा, “स्वामी, मेरे पिताजी ने आपसे मिलने को कहा था।
मैं समझता हूँ कि आप ही स्वामी अनन्त हैं।”

अनंत ने, उसके बारे में विवरण जानने के बाद कहा, “हॉ,ं मैं ही अनंत हूँ। शीघ्र ही संपन्न बनने
के लिए मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ। पर, इस सहायता से, तुम्हें और मुझे कुछ
परे शानियों का सामना करना पड़ेगा।” फिर अनंत ने अपने बारे में पूरे विवरण दिये। अनंत और
कमल के पिता पुरुषोत्तम एक ही गांव में जन्मे और बड़े हुए। परोपकार ही पुरुषोत्तम का
एकमात्र लक्ष्य था। पर अनंत में स्वार्थ आवश्यकता से अधिक ही था।

एक बार दोनों जब पास ही के गांव की ओर जा रहे थे तब उन्होंने एक साधु को दे खा, जो सड़क


के किनारे गिरा पड़ा था। उसके पॉवं पर एक छोटा-सा घाव भी था। पुरुषोतम ने उसकी सहायता
करनी चाही, पर अनंत ने मना किया। फिर भी उसकी बात पर ध्यान न दे ते हुए उसने पास ही
के पौधों से कुछ पत्ते तोड़े और उसका रस साधु के घाव पर निचोड़ा।

साधु उठ बैठा और पुरुषोत्तम के कंधे को थपथपाते हुए कहा, “बेटे, मेरे पास एक महिमावान
तावीज़ है । जिसके पास यह हो, वह जो भी चाहता है , उसे मिल जाता है । मैं तो साधु हूँ। इस
तावीज़ से भला मेरा क्या काम? मैं इसे किसी योग्य व्यक्ति को सौंपना चाहता हूँ, इसलिए
जान-बूझकर मैंने सांप के डंसने का नाटक किया। इस तावीज़ को लो और सुखी जीवन बिता।”
यह कहते हुए साधु ने उसे तावीज़ दे दिया।

 पुरुषोत्तम ने हाथ जोड़कर कहा,”स्वामी, मैं साधु तो नहीं हूँ, पर मुझे इस तावीज़ की ज़रूरत
नहीं है । आवश्यकता से अधिक धन दख ु लाता है । आप इसे किसी और को दे दीजिये।”

साधु ने “न” के भाव में सिर हिलाते हुए कहा,”इस पल से तावीज़ तम् ु हारा है । किसी योग्य
व्यक्ति को चन
ु कर तम
ु ही उसे दे दे ना। अयोग्य को दोगे तो अनर्थ हो जायेगा।”

बग़ल में ही खड़ा अनंत चाहता था कि तावीज़ को अपना बना लँ ।ू इसलिए उसने कहा, “स्वामी,
अनर्थ क्या है और अयोग्य कौन होता है ?”

साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “कुछ बातें ऐसी होती हैंै, जिनकी समझ अनुभव के बाद ही होती
है । मैंने कहा था न कि किसी अयोग्य के हाथ यह तावीज़ आ जाए तो अनर्थ होगा। इसलिए
कोई भी दीर्घकाल तक इस तावीज़ को अपने पास नहीं रख सकता। किसी को भी दो, यह उसी
प्रथम अयोग्य के पास पहुँच जाता है । तब उस प्रथम अयोग्य में जीवन-तेजस्विता कम हो
जाती है और वह साधु बन जाता है , पर मोक्ष नहीं मिलता ।”

साधु को सन
ु ने के बाद परु
ु षोत्तम ने अनंत से कहा, “लगता है कि तम
ु यह तावीज़ अपनाना
चाहते हो। तम्
ु हें इसे मैं सहर्ष दे ने को सन्नद्ध हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि तम
ु अयोग्य नहीं
हो।” यह कहते हुए उसने तावीज़ अनंत को दे दिया।

तावीज को अपना बना लेने के बाद अनंत जो भी मांगता था, उसे वह मिल जाता था। उसका हर
काम सफल होता था। परं तु इससे जो आनंद मिलता था, उसे किसी के साथ बांटने के लिए  वह
बिलकुल ही तैयार नहीं होता था। इसीलिए लोग उसे ईर्ष्यालु कहते थे। एक साल के ख़त्म होने
के पहले ही उसने वह तावीज़ किसी और को दिया। पर एक साल के अंदर ही वह तावीज़ उसे
वापस मिल गया। जब चार बार ऐसा हुआ तो जीवन से वह विरक्त हो गया। क्रमशः उसका
स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। रोशनी को दे खने से भी वह डरने लगा। इन परिस्थितियों में उसने
संन्यास ले लिया और इस पाताल गफ़
ु ा में पहुँच गया।

 अपने मित्र अनंत की इस दस्थि


ु ति को दे खकर पुरुषोत्तम को दखु हुआ। उसे लगने लगा कि
उसके इस दख ु का कारण मैं ही हूँ। वह एक बार पाताल गुफ़ा में जाकर उससे मिला और कहा,
“मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि वह तावीज़ तुम्हारी ऐसी दशा कर दे गा। जब तक तुम्हें मोक्ष
नहीं मिलेगा, तब तक मुझे भी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। इसलिए, उस तावीज़ से तम
ु मुक्त हो
जाओ, इस दिशा में मैं भी प्रयत्न करूँगा।” उसने वादा तो कर दिया, पर इतने ही में वह मर
गया।

अनंत ने, ताबीज़ से संबंधित सभी बातें कमल को बतायीं और कहा, “पत्र
ु , जब तक मझ
ु े मक्ति

नहीं मिलेगी, तब तक मेरे जिगरी दोस्त और तुम्हारे पिता को भी मक्ति
ु नहीं मिलेगी। मेरी
और अपनी मुक्ति के लिए तुम्हारे पिता ने तुम्हें यहॉ ं भेजा, पर तावीज़ का राज़ तम
ु से छिपा
रखा। अपने स्वार्थ के लिए मैं तुम्हें यह तावीज़ नहीं दे सकता इसलिए मैंने तुम्हें सच बता
दिया। किसी भी हालत में इस तावीज़ को एक साल से अधिक समय तक अपने पास रख नहीं
सकते। मैं नहीं चाहता कि यह तावीज तुम्हें दँ ू और तुम परे शानियों से घिर जाओ। फिर इसे
लौटाकर मुझे फिर से परे शान कर दोगे।”

तब कमल ने विनयपर्व
ू क कहा, “मेरे पिताजी परोपकारी थे। उन्हें यह भी मालम
ू था कि मैं बड़ा
स्वार्थी हूँ। वे चाहते थे कि मेरे स्वार्थ में भी परोपकार का मिश्रण हो। यह उनका बड़प्पन है । मेरे
पिताजी की आत्मा को और आपको मक्ति
ु मिल जाए, इसके लिए मेरा स्वार्थ उपयोग में आये
तो इससे बढ़कर आनंद क्या हो सकता है । आप तावीज़ मझ
ु े दे दीजिये। मैं वादा करता हूँ कि
तावीज़ को शाश्वत रूप से अपने ही पास रखग
ूँ ा।”

अनंत ने कमल को आशीर्वाद दे ते हुए उसे तावीज़ दे दिया। तावीज़ के मिल जाने के बाद कमल
ने जो भी काम किया, वह कामयाब हुआ। पर अब कमल की व्यवहार-शैली में परिवर्तन हुआ।
जो संपदा इस तावीज़ के कारण उसे मिली, उसका वह भोग करता रहा, पर साथ ही उनकी
मदद भी करने लगा, जो कष्टों में फंसे हुए थे।

यों एक साल गुज़र गया। इस एक ही साल के अंदर कमल ने पर्याप्त संपत्ति जुटा ली। वे
संक्रांति के दिन थे। प्रातःकाल ही अनंत गुफ़ा से बाहर आया और सीधे कमल के पास गया।
उसने कहा, “कमल, वह तावीज़ एक बार ज़रा मुझे दे ना।”

 
गले में लटकते हुए उस तावीज़ को कमल ने अनंत के हाथ में रख दिया। अनंत ने उसे उलट-
पलट कर दे खा और कमल से कहा, “एक ज़रूरी बात तम ु से कहने आया हूँ। तुम्हारे कारण
तम्
ु हारे पिता की आत्मा को मक्ति
ु मिल गयी है । मझ
ु े भी मक्ति
ु प्राप्त होनेवाली है । अब तम्
ु हें
इस तावीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है । दर्भा
ु ग्यवश यह किसी अयोग्य के हाथ लग जायेगा तो
ु आत फिर से होगी।” यह कहते हुए उसने तावीज़ को आग में फेंक दिया और वहॉ ं
कहानी की शरु
से चलता बना।

वेताल ने यह कहानी कह चुकने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, “राजन, कमल के स्वार्थ ने
परोपकार के लिए मार्ग प्रशस्त किया। तो क्या स्वार्थ प्रशंसनीय है ? अनंत के आशीर्वाद से
तावीज़ के दष्ु ट प्रभावों का अंत हो गया न? मेरे संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे
तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
विक्रमार्क ने कहा, “स्वार्थ प्रशंसनीय तो नहीं है । पर, उससे किसी को हानि नहीं पहुँचती हो तो
स्वार्थ को ग़लत नहीं कह सकते। कमल स्वार्थी है , पर बुरा नहीं है । जो काम किया जाता है
उसके प्रतिफल की वह आशा करता है । अब रही तावीज़ की बात। अनंत के आशीर्वाद से तावीज़
का दष्ु ट प्रभाव नहींमिटा । कमल के पिता की अच्छाई के कारण कमल में अच्छा परिवर्तन
आया और इस परिवर्तन के कारण ही तावीज़ का दष्ु ट प्रभाव मिट गया। उसने ताबीज़ के दष्ु ट
प्रभाव को भी, अच्छा आदमी बनकर मिटा दिया। उसके द्वारा उसने संपत्ति जट
ु ा ली और
अपना जीवन-स्तर बढ़ा लिया। साथ ही उसने ज़रूरतमंद लोगों की मदद की और अच्छा नाम
भी कमाया। उसने अपने स्वार्थ के लिए किसी को हानि नहीं पहुँचाई, बल्कि उससे परोपकार ही
हुआ। यों कमल तावीज़ पाने के योग्य साबित हुआ।”

राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार कमलेश की रचना)

 
 

49. नाग दे वता

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल यथावत ् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्, तुम्हारी
दीक्षा प्रशंसनीय है । शायद संसार में तुम एकमात्र व्यक्ति हो, जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के
लिए मर-मिटने में भी नहीं झिझकता। परं तु मुझे लगता है कि तुम्हारी यह दीक्षा फलीभूत नहीं
होगी। धर्मांगद को ही उदाहरण के रूप में ले लो। जब फल उसके हाथ आया, उसने उसे अपने
हाथों से फिसल जाने दिया। कहीं तम
ु भी ऐसी मर्ख
ू ता करोगे तो कहीं के नहीं रहोगे। तम्
ु हारी
यह तपस्या व्यर्थ ही रह जायेगी। तम्
ु हें सावधान करने के लिए उसकी कहानी तम्
ु हें बताने जा
रहा हूँ। ध्यान से सन
ु ो।” फिर वेताल धर्मांगद की कहानी यों सन
ु ाने लगाः

 धर्मांगद और विश्वनाथ दीर्घकाल से घने दोस्त थे। पर उनकी मैत्री की परीक्षा भूषण के रूप में
हुई।
भूषण धोखेबाज़ था। धोखे से भरे पत्रों की सष्टि
ृ करने में वह पटु था। उसने ऐसे एक पत्र की
सष्टि
ृ की, जिसमें लिखा गया कि धर्मांगद ने अपने खेत उसके पास गिरवी रखकर उससे तीन
हज़ार अशर्फि यॉ ं कर्ज में लीं। फिर उसने धर्मांगद को ख़बर भिजवायी कि तुरंत उसका कर्ज़
चुकाया न जाए तो उसका खेत वह अपने अधीन कर लेगा।

धर्मांगद तुरंत न्यायाधिकारी से मिलाऔर उसने भूषण के धोखे से उसे बचाने की विनती की।
न्यायाधिकारी ने इसपर खूब सोचने के बाद कहा, “किसी भी अपराध की जांच-पड़ताल किये
बिना निर्णय लेना उचित नहीं है । मैं भली-भांति जानता हूँ कि तम
ु अच्छे स्वभाव के हो और
भूषण धोखेबाज़ है । पर जांच-पड़ताल तक भूषण को रोकना हो तो तुम्हें एक हज़ार अशर्फि यॉ ं
जमानत के रूप में रखनी होंगी । साथ ही किसी को तुम्हारी जमानत दे नी होगी।”

तब धर्मांगद के पास धन नहीं था। फिर भी वह नहीं घबराया। गॉवं भर में उसका अच्छा नाम
था, इसलिए उसे लगा कि अवश्य ही कोई न कोई कर्ज़ दे गा। पर लोगों को जब मालम
ू हुआ कि
उसका खेत उसके हाथों से शायद छूटनेवाला है तो कोई भी कर्ज़ दे ने आगे नहीं आया।
धर्मांगद को विश्वास था कि ऐसी परिस्थिति में विश्वनाथ अवश्य ही उसकी सहायता करे गा।
पर, उसी वक्त विश्वनाथ का पिता बहुत बड़ी बीमारी का शिकार हो गया। इसी बीच उसकी
बहन की शादी भी तय हो गई। विश्वनाथ ने अंदाजा लगाया कि आवश्यक खर्च के लिए कम से
कम ं
पॉच-छे हज़ार अशर्फ़ि यों की ज़रूरत पड़ेगी।
वह इन्हीं कोशिशों में लगा हुआ था। ऐसे समय पर भष ू ण उससे मिला और बोला, “मैं तम्
ु हारी
मदद करने को तैयार हूँ। पर तम् ु हें भी मेरी मदद करनी होगी।”
विश्वनाथ को लगा कि अब दोस्ती से बढ़कर है , ज़रूरत। उसने धर्मांगद के विषय में ज़मानत
दे ने से साफ़-साफ़ इनकार कर दिया। धर्मांगद को कहीं भी कर्ज़ नहीं मिला। फलस्वरूप खेत
भूषण का अपना हो गया।

 तब धर्मांगद, भूषण से भी अधिक विश्वनाथ पर क्रोधित हुआ। पहले उसने सोचा कि
विश्वासघाती विश्वनाथ को मार डालें। परन्तु सोचने पर उसे लगा कि भला इससे क्या फ़ायदा
होगा। उसे हत्यारा ठहराकर फांसी की सज़ा सुना दी जायेगी। यदि वह अपना प्रतिकार लेने के
लिए उसे जी भर पीटे गा, उसके हाथ-पॉवं तोड़ेगा तब भी तो लोग यह कहकर उससे घण ृ ा करें गे
कि वह दष्ु ट है , नीच है ।

धर्मांगद की समझ में नहीं आया कि विश्वनाथ से कैसे बदला लिया जाए। इसलिए गॉवं के
बाहर की एक गुफ़ा में रहनेवाले एक बैरागी से वह मिला और अपना दख़
ु ड़ा सुनाया। सब लोग
कहते थे कि वह चमत्कार करने की शक्ति रखता है । बैरागी ने, धर्मांगद का दख
ु ड़ा सुना और
फिर कहा, “स्वार्थ के वश में आकर विश्वनाथ ने समय पर तुम्हारी मदद नहीं की, इसलिए वह
तुम्हारा सच्चा दोस्त नहीं है । चँ ूकि उसने तुम्हारी मदद नहीं की, इसलिए तुम उसे हानि
पहुँचाना चाहते हो। इसलिए तुम भी अच्छे दोस्त नहीं हो।”

“स्वामी, अपकार किया है विश्वनाथ ने, मैं उसे हानि पहुँचाना नहीं चाहता। बस, बदला लेना
चाहता हूँ। इसके लिए मझ ु े आपकी सहायता चाहिये,” धर्मांगद ने कहा।
“अब तुम्हारे मन में प्रतिकार की भावना भरी हुई है । सॉपं के विष की ही तरह प्रतिकार भी
मनुष्य के लिए विषैला है । मैं विषैले प्राणियों की मदद नहीं करता। तम
ु प्रतिकार की भावना
छोड़कर आओगे तो फिर बातें करें गे।” बैरागी ने स्पष्ट कह दिया।

“स्वामी, मेरे मन से प्रतिकार की यह भावना हट जाए, इसके लिए भी आप ही कोई मार्ग


सुझाइये। इस प्रतिकार का उद्वेग मुझसे सहा नहीं जा रहा है ।” धर्मांगद ने कहा। बैरागी ने
कहा, “तो सुनो! मैं तुम्हें सर्प के रूप में बदल सकता हूँ। तब तुम्हारा प्रतिकार विष के रूप में
परिवर्तित हो जायेगा और तुम्हारे मस्तिष्क में प्रवेश करे गा। जब तम ु उस विष के प्रभाव से
बाहर आ जाओगे, तब फिर से मानव बन सकोगे। जब तक तम
ु सांप बने रहोगे तब तक तम
ु में
पूर्व ज्ञान रहे गा,पर बुद्धि तो सांप ही की होगी। परं तु हॉ,ं जब तुम्हें उस रूप में रहते समय कोई
मार डालेगा तो उसी रूप में मर जाओगे।” धर्मांगद ने अपनी सहमति दे दी। बैरागी ने उसे सांप
बना दिया।

 सांप के रूप में परिवर्तित धर्मांगद, वहॉ ं से रें गता हुआ खेतों की ओर बढ़ता गया। उस समय
एक किसान खेत में खड़ा होकर लाठी से मिट्टी हटा रहा था । वह लाठी सांप की पँछ ू से जा लगी।

सॉपं नाराज़ हो उठा और फन फैलाकर फुफकारने लगा। तब तक किसान वहॉ ं से जा चक


ु ा था।
फुफकार सन
ु कर बगल की झाड़ियों में से एक सांप बाहर आया और धर्मांगद से कहने लगा,
“मझ
ु े इस बात का डर हुआ कि तम ु उस आदमी का पीछा करोगे और डँस दोगे । याद रखना,
आदमी हमें दे खेगा तो हम ख़तरे में पड़ जायेंगे।” सांप - धर्मांगद ने उस सांप से अनेक विशेष
बातें जानीं। उसकी बातों से उसे मालूम हुआ कि सिर में जो विष भरा हुआ होता है , उसका
उपयोग सांप आत्म-रक्षा मात्र के लिए करते हैं। मानव के द्वारा जो भी हानि पहुँचायी जाती है ,
उससे अगर प्राण ख़तरे में नहीं पड़ता हो तो वे उस मानव को कोई हानि नहीं पहुँचाते। सांपों में
प्रतिकार की भावना नहीं होती।

धर्मांगद को भी यही सच व सही लगा। फिर भी वह सोचता रहा कि विश्वनाथ उसका दश्ु मन है
और उसे डँसना चाहिये। तब वह मर जायेगा और मुझे इसके लिए कोई दं ड नहीं दिया जायेगा।

धर्मांगद यों सोचकर, सबकी नज़रों से बचते हुए विश्वनाथ के घर पहुँचा। घर के एक कमरे में
छे साल की उम्र का विश्वनाथ का बेटा गुड़ियों से खेल रहा था। उसने सांप-धर्मांगद को दे ख
लिया और डर के मारे “सांप सांप” कहकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा।

धर्मांगद के मन में विचार आया कि उस बालक को डँस लँ ू और विश्वनाथ को पत्र ु शोक का


ू बच्चे को डँसना पाप है । वह वहॉ ं से तेजी से रें गता
शिकार बना दँ ू । पर उसे लगा कि उस मासम
हुआ पज
ू ा मंदिर में गया।

इतने में घर के सब लोग विश्वनाथ के बेटे के पास पहुँच गये। उसकी बात सुनकर सबके सब
पूजा मंदिर में आये। उन्होंने दे खा कि सांप- धर्मांगद फन फैलाकर वहॉ ं खड़ा है । “नाग दे वता है ।

 आंखें बंद करके नमस्कार करो। किसी को भी वह हानि नहीं पहुँचायेगा। आज से हमारी सब
तक़लीफें दरू हो जायेंगी, प्रार्थना करो कि दष्ु टों की वजह से तुम्हारे मित्र धर्मांगद पर जो विपदा
आयी, वह भी बर्फ़ की तरह गल जाए। नागदे वता हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे।” विश्वनाथ की
मॉ ं कहने लगी।  इन बातों को सुनकर सांप-धर्मांगद चौंक उठा। उसने बहुत कोशिश की, पर
उसमें प्रतिशोध की भावना पैदा नहीं हुई।

“छी, इस विष से मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा, व्यर्थ है ,” यों सोचते हुए उसने अपने दांतों से पूजा
मंदिर को जोर से काटा। इससे जैसे ही विष बाहर आ गया, सांप का रूप मिट गया और वह फिर
से धर्मांगद बन गया। वे सब आंखें खोलें, इसके पहले ही धर्मांगद उनके बीच में आकर खड़ा हो
गया।

विश्वनाथ ने थोड़ी दे र बाद आंखें खोलीं और बग़ल में ही खड़े धर्मांगद को दे खकर चकित रह
गया। तब धर्मांगद ने कहा, “दोस्त, तुम्हारी ज़रूरत ने जो काम तम
ु से करवाया, उसके कारण
मेरा खेत छिन गया। इतनी सी बात के लिए मैं तुम्हारी दोस्ती खोने को तैयार नहीं हूँ।”

यह सुनकर विश्वनाथ और उसके परिवार के सब सदस्यों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह


जानकर गांव के लोगों ने भी धर्मांगद को बहुत सराहा। इससे दष्ु ट भूषण में भी परिवर्तन आया
और उसका खेत उसे वापस कर दिया।

वेताल ने विक्रमार्क को कहानी सुनाने के बाद कहा, “राजन ्, विश्र्वनाथ, धर्मांगद का जिगरी
दोस्त था, पर जब वह तक़लीफों में फंस गया, उसने उसकी सहायता करने से इनकार कर
दिया। ऐसे मित्रद्रोही से बदला लेने के लिए धर्मांगद ने बैरागी का आश्र ्रय लिया और सांप बना।
है न? पूजा मंदिर में , जिस दोस्ती के बारे में उसने बढ़ा-चढ़ाकर कहा और सांप बनकर उसने जो
व्यवहार किया, वे मेल नहीं खाते। मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे, तो
तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।”

विक्रमार्क ने कहा, “मनष्ु यों की तरह ही पश-ु पक्षियों में भी प्रकृति के प्रभाव के कारण एक
सहज स्वभाव होता है । मनष्ु यों में साधारणतया जो अनम
ु ान होते हैंै, उनके अनस
ु ार उसने भी
सोचा कि सांप दष्ु ट स्वभाव के होते हैं, इसीलिए वह भी बदला लेने पर आमादा हो गया। बैरागी
भी उसे बता चक
ु ा था कि वह सांप होकर भी  पर्व
ू ज्ञान नहीं खोयेगा, पर उसकी बद्धि
ु सांप की
होगी। धर्मांगद की मुलाक़ात संयोगवश एक और सांप से हुई। उस सांप ने उसे बताया कि सांप
के सिर में जो विष होता है , उसका उपयोग वह केवल आत्म-रक्षा के लिए ही करता है , वह
प्रतिकार लेना नहीं जानता। उस समय, बुद्धि के विषय में , सांप बने धर्मांगद को लगा कि यह
आचरणीय है । इसमें संदेह नहीं कि विश्वनाथ और धर्मांगद जिगरी दोस्त हैं।

अकस्मात ् कष्टों में फंसे धर्मांगद ने विश्वनाथ से सहायता मांगी और यह सहज है । पर उस


समय पिता के अनारोग्य और बहन की शादी के कारण विश्वनाथ दोस्त की सहायता कर नहीं
पाया। पर धर्मांगद उसकी मजबूरी को समझने में बिफल हुआ और बदला लेने का निश्र्चय
किया। पूजा मंदिर में सांप को दे खते ही विश्वनाथ की मॉ ं ने जो बातें कहीं, उनसे उसकी आँखें
खल
ु गयीं। वह जान गया कि सच्चाई क्या है । वह अपनी ग़लती जान गया, इसीलिए उसने
विश्वनाथ को नहीं डँसा।”
राजा के मौन-भंग में सफल, वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पेड़ पर जा बैठा।

 
50. शिल्प योद्धा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया और शव को पेड़ से उतारकर अपने कंधे
पर ड़ाल लिया । फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा । तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, क्या तम
ु भूल गये कि तुम एक महान सम्राट हो । तुम्हारी कितनी ही
जिम्मेदारियॉ ं हैं, जिन्हें निभाना तुम्हारा परम कर्तव्य है ।

जनता तम
ु से कितनी ही आशाएँ रखती है । अपने कर्तव्यों को भुलाकर क्यों नाहक श्मशान में
इतनी तकलीफ़ झेलते जा रहे हो । तुम्हारी इस दशा को दे खकर मुझे आश्र्चर्य हो रहा है ।
लगता है , तुम्हारा कोई बड़ा लक्ष्य है , जिसकी पूर्ति के लिए इतने कष्ट झेल रहे हो ।

 परं तु मुझे डर है कि सफलता मिल जाने पर कहीं उससे हाथ न धो बैठो । बहुत पहले मयूर
नामक एक महा शिल्पी ने भी ऐसी ही ग़लती की थी । उसकी कहानी मझ ु से सनु ो और सावधान
हो जाओ ।” फिर वेताल कहानी सन
ु ाने लगा ।”

बहुत पहले की बात है । कनकगिरि साम्राज्य के सम्राट के अधीन कितने ही सामंत राज्य थे ।
कई सामंत राज्यों में से एक था, शोणपरु ी । उस राज्य का शासक था, वीरवर्धन । वह
चेन्नकेशव- स्वामी का परम भक्त था।

एक बार वह जंगल में शिकार करने गया । वहॉ ं के प्राकृतिक सौंदर्य पर वह रीझ गया ।
हरियाली के बीचों बीच, ऊँचा पहाड तथा उससे लग कर प्रवाहित होती सव
ु र्ण नदी ने उसे
मंत्रमग्ु ध कर दिया ।

दोपहर तक आखेट करने के बाद राजा एक वक्ष


ृ के नीचे विश्र ्राम लेने लगा और धीरे -धीरे निद्रा
की गोद में चला गया । सपने में उसने राजवंशजों के कुलदै व चेन्नकेशवस्वामी को दे खा । दे व
ने राजा से कहा, “पर्वत पर मेरा एक मंदिर हुआ करता था । कालक्रम में वह विलीन हो गया ।
ृ है । वहॉ ं खोदने पर एक मर्ति
पर्वत की पश्र्चिमी दिशा में एक अश्र्वथ वक्ष ू दिखायी दे गी । वहॉ ं
तम
ु एक मंदिर का निर्माण करो और उसमें उस मर्ति
ू को प्रतिष्ठित करो । इससे तम्
ु हारा और
तम्
ु हारे राज्य का कल्याण होगा । इस मंदिर के निर्माण का भार नगर के समीप के ग्रमवासी
मयरू नामक शिल्पी को सौंपो ।” दै व ने यों आदे श दिया।

वीरवर्धन जैसे ही नींद से जागा, उसे सपने की याद आयी । वह बेहद खश


ु हुआ । नगर में लौटते
ही उसने शिल्पी मयरू को ख़बर भिजवायी। उससे पर्वत पर मंदिर के निर्माण की बात बतायी
और उससे यह भी कहा कि मंदिर के निर्माण के बाद अश्र्वथ वक्ष
ृ के नीचे की मर्ति
ू का
प्रतिष्ठापन उसमें हो ।
राजा की आज्ञा के अनस
ु ार मयरू ने मंदिर के निर्माण का कार्य शरू
ु किया । उस अश्र्वथ वक्ष
ृ के
नीचे वह मूर्ति भी प्राप्त हुई । मंदिर के निर्माण के लिए व्यय का जो अंदाज़ा लगाया गया,
उससे बहुत अधिक धन निर्माण - कार्य में खर्च हुआ । खर्च इतना बढ़ गया कि खज़ाना भी
खाली हो गया । राजा, सम्राट को कर चुकाने की स्थिति में भी नहीं था ।

 वद्ध
ृ सम्राट की आकस्मिक मत्ृ यु के बाद उसका पुत्र धीरसेन सम्राट बना । वह अव्वल दर्जे का
लोभी था । सामंतों से अधिकाधिक कर वसूल करता था । उसने राजा वीरवर्धन पर तुरंत कर
चुकाने के लिए दबाव ड़ाला। वीरवर्धन ने अपनी विवशता धीरसेन से बतायी ।

यह जानकर धीरसेन आग-बबल


ू ा हो गया और अपनी सेना को शोणपुरी पर आक्रमण करने के
लिए भेजा । सेना शोणपुरी की सरहदों पर पहुँची और निर्मित नये मंदिर के पास रुकी । क्रूर
सेनापति ने पर्वत पर के मंदिर को दे खते हुए अपने सैनिकों को आज्ञा दी, “इसके मूल में है , यह
मंदिर । जाओ और उसे गिरा दो ।”

सैनिक पर्वत पर गये और राजगोपरु से होते हुए मंदिर के अंदर गये । शिल्प सौंदर्य से भरपरू
द्वारपालकों की मर्ति
ू यों को उन्होंने दे खा तो वे दे खते रह गये । सैनिक उन शिल्पों का ध्वंस
करने ही वाले थे कि एक चमत्कार हो गया । द्वारपालों की आँखों से अश्रध
ु ाराएँ बहने लगीं ।
सैनिक भयभीत हो गये । वे पर्वत से उतरकर नीचे आ गये । यह बात सेनापति के द्वारा,
सम्राट को भी मालम
ू हुई । सम्राट को लगा कि कोई अशभ
ु होने जा रहा है , इसलिए उसने सेना
वापस बल
ु ा ली ।

यह जानते ही शोणपरु ी की जनता बहुत हर्षित हुई । राजा ने शिल्पी मयरू को बल ु वाया और
क्रोध-भरे स्वर में उससे कहा, “तम
ु भी कैसे शिल्पी हो । तम्
ु हें तो ऐसे शिल्पों का निर्माण करना
चाहिये था, जो शत्रओ
ु ं का सामना तलवार से करें , न कि आंसू बहानेवाले शिल्पों का निर्माण ।
यद्ध
ु में शत्रओ
ु ं के छक्के छुडानेवाली मर्ति
ू यों का निर्माण करते तो हमें ये दिन दे खने न पड़ते !”

मयरू चप
ु ही रहा । इसके दस
ू रे ही दिन पर्वत के नीचे दस हज़ार पांवों के मंडप के निर्माण का
काम उसने शरू
ु कर दिया । हर स्तंभ पर अश्र्वारूढ़ होकर तलवार हाथ में लिये यद्ध
ु क्षेत्र में कूदने
को तैयार योद्धा के शिल्प छीले गये । उस मंडप के निर्माण के लिए उसने राजा से प्राप्त अपना
पारितोषिक खर्च कर दिया । जब और धन-राशि की ज़रूरत पड़ी, दाताओं से वसल
ू किया । यों
दस हज़ार पांवोंवाला मंडप परू ा हो गया । फिर शिल्पी मयरू , राजा से मिला और कहा, “राजन,
भविष्य में हम किसी के दास होकर नहीं रहें गे।”

 राजा ने शोणपुरी को स्वतंत्र राज्य घोषित किया । सम्राट को यह बात मालूम हुई । उसने
फ़ौरन बहुत बडी सेना शोणपुरी पर हमला कर दे ने के लिए भेजी।
मयूर बेंत जैसी वस्तु हाथ में लिये दस हज़ार पैरवाले मंडप के पास चला आया । एक स्तंभ के
शिल्प योद्धा को बेंत से छूकर उसने कहा, “योद्धा, निकल पड़ो, तलवार चमकाओ, युद्धक्षेत्र में
कूद पड़ो । राजा को विजय प्रदान करो ।”

बस, शिल्प योद्धा सजीव होकर एक के पीछे एक युद्धक्षेत्र में कूद पड़े और साधारण सेना में
हिलमिल गयें । उनके पराक्रम के सामने शत्रु सेना टिक नहीं पायी। राजा वीरवर्धन विजयी हुए
। वीरवर्धन की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने शिल्पी मयूर के सम्मान हे तु सभा का प्रबंध
किया, पर वह ग़ायब था । उसे बहुत ढूँढ़ा गया, पर उसका कहीं भी पता नहीं चला ।

वेताल ने इस कहानी को सुनाने के बाद कहा, “राजन ्,  मुझे मयूर का व्यवहार बड़ा ही विचित्र
लगता है । वह या तो मूर्ख होगा या अंहकारी । अपनी कला से उसने राजा को विजय दिलायी
और चप
ु चाप ग़ायब हो गया । हो सकता है , राजा की व्यवहार - शैली उसे अच्छी न लगी हो, तो
फिर उसने मंडप के निर्माण में अपना पारितोषिक खर्च क्यों किया? उसने राजा की इतनी
भलाई की, पर प्रतिफल की आशा किये बिना क्यों ग़ायब हो गया? मेरे संदेहों के समाधान
जानते हुए भी चप ु रह जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।” इसके उत्तर में
विक्रमार्क ने कहा, “महाशिल्पी मयरू मर्ख
ू नहीं हैं, अहं कारी भी नहीं । निस्संदेह ही वह प्रज्ञावान
है ।
आस्थान में शिल्पी का पद बिना चाहे ही, उसे मिल गया । आंसू बहानेवाले शिल्पों ने उसे
प्रसिद्ध किया, पर उसने जान-बझ
ू कर ऐसा नहीं किया । उसकी शिल्प कला व नैपण्
ु य पर व
उसकी समर्पित भावना पर मग्ु ध होकर कला की दे वी ने उसे यह वर प्रसादा । और यह सच्चाई
मयरू को भी भली-भांति मालम
ू थी ।

पर, राजा ने उसके कला-कौशल की भरसक प्रशंसा नहीं की, उसका अभिनंदन नहीं किया ।
उल्टे उसने इसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग में लाना चाहा । कोई भी कलाकार मन ही मन
चाहे गा कि उसकी प्रतिभा की पहचान हो। पर मयरू को ये प्राप्त नहीं हुए । इससे मयरू के
कोमल हृदय को धक्का लगा । परं तु उसने अपनी यह पीडा व्यक्त नहीं होने दी और राज्य की
प्रजा का उसने कल्याण चाहा । उसने शिल्प योद्धाओं की सष्टि
ृ की और राजा को विजयी
बनाया । प्रजा को स्वतंत्र किया । अब रहा, ग़ायब हो जाने का कारण । राजा ने चाहा कि राज्य
को स्वतंत्र करने के लिए योद्धाओं की सष्टि
ृ हो, जो कुछ हद तक ठीक भी है ।

इसमें न्याय भी है , इसीलिए मयूर ने शिल्प योद्धाओं की सष्टि


ृ की । आज जो राजा शिल्प
योद्धाओं की सष्टि
ृ चाहता है , हो सकता है , वह कल आकांक्षाओं के बहकावे में आकर कल्पवक्ष

चाहे या कामधेनु की मॉगं पेश करे । एक शिल्पी होने के नाते विलक्षण शिल्पों को पत्थरों पर
छीलना ही उसका एकमात्र काम है । मंदिर का निर्माण करके उसने यह काम पूरा कर दिया ।
सजीव शिल्पों को निरं तर छीलते रहने का काम उस सष्टि
ृ कर्ता का है । जो काम अपने से नहीं
हो सकता, उस काम को अपने ऊपर लेनेवाले किसी न किसी से हार कर रहें गा । इस कारण
मयरू सम्मान के लोभ में नहीं फंसा और काम परू ा होते ही, किसी से बताये बिना कहीं चला
गया ।” राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा
बैठा । (आधारः सचि
ु त्रा की रचना)

 
51. अगम्य का महाकाव्य

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ से शव को उतारा और अपने कंधे पर डाल
लिया। फिर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्,
तुम्हें समझाते-समझाते थक गया हूँ। एक महान राजा होते हुए भी क्यों इतने कष्ट व्यर्थ 
झेलते जा रहे हो। राजधानी लौटो और अपने कर्तव्य निभाओ। यह मत भूलना कि प्रजा का
हित ही तुम्हारा ध्येय है ।

अपना ध्येय भुलाकर नाहक क्यों इस प्रकार भटक रहे हो? कहीं किसी अयोग्य को अपनी
कृतज्ञता जताने के लिए इतने कष्ट तो झेल नहीं रहे हो? इसी प्रकार यातनाएँ सहते रहोगे तो
आख़िर गिरिपुर के युवराज की तरह तुम भी अपनी ईमानदारी खो बैठोगे। उस युवराज और
अगम्य की कहानी मुझसे सुनो।” फिर वेताल उस अगम्य व युवराज की कहानी सुनाने लगाः

 अगम्य नरं परु में रहता था। अपने को बड़ा कहलवाने की उसकी तीव्र इच्छा थी। बहुत पहले
वह बहुत ही ग़रीब था। धन कमाने के लिए उसने बड़ी मेहनत की। अब रहने के लिए उसका
ू ण और रे शमी साड़ियॉ ं हैं। बच्चे भी आराम
एक अच्छा घर है । पत्नी के पास आवश्यक आभष
से  हैं।
अब अगम्य को मेहनत करने की ज़रूरत नहीं रही। सोचने के लिए उसके पास कितना ही खाली
समय है । फुरसत के समय उसे लगता है कि उसने कितने ही महान कार्य कर डाले। किन्तु 
लोग उसकी महानता को पहचानने से क्यों इनकार कर रहे हैं।

अपनी महानता जताने के उद्देश्य से वह बहुतों को अपने जीवन की विशेषताएँ बताता रहता है ।
दरिद्रता से मुक्त होने के लिए उसने कितनी यातनाएँ सहीं, ब्योरे वार वह उन्हें बताता रहता है ।
कुछ लोग यह सब सुनकर चुप रह जाते थे। कुछ लोग अपने जीवन से संबंधित ऐसी ही घटनाएँ
बताते रहते थे। कुछ और लोग कह दे ते थे, “दे श भर में कष्ट झेलनेवालों की भरमार है ।”

उसी दौरान पुरंदर नामक एक पंडित उस गांव में आया। उसने लगातार तीन दिनों तक
रामायण गाथा सुनायी। पुरंदर के पांडित्य की प्रशंसा मुक्तकंठ से ग्रमीणों ने की। हर रोज़ उसे
किसी न किसी के घर में अतिथि-सत्कार मिलता था। परु ं दर एक दिन अगम्य के घर भोजन
करने गया। अगम्य ने उसे स्वादिष्ठ भोजन खिलाने के बाद कहा, “महोदय, श्रीराम ने नाना
प्रकार के कष्ट सहे । परं त,ु उन्होंने सभी कष्ट अपने परिवार के लिए ही झेले।

अपने पिताश्री को दिये वचन के अनुसार जंगल गये। अपनी पत्नी को पाने के लिए रावण का
वध किया। आख़िर कोसल दे श का राजा बनकर राज्य-भार संभाला। ऐसे श्रीराम भगवान
कहलाये। कितने ही ऐसे लोग हैं, जो अपने-अपने परिवारों की वद्धि ृ में लगे हुए हैं। परं तु श्रीराम
ने  जो ख्याति पायी, वह उन्हें क्यों नहीं मिल रही है ?” पुरंदर ने कहा, “तुम्हारा पक्ष बड़ा ही
महत्वपूर्ण है । किसी भी दे श के किसी भी परिवार में हर दिन रामायण चलता ही रहता है । बड़ों
की जल्दबाजी, सौतनों के ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थ के प्रलोभन आदि सहज विषय हैं, जिनके कारण
बहुत से परिवारों में नरों, वानरों और राक्षसों की सष्टि
ृ होती है और ये दिलचस्प कहानियॉ ं
बनती हैं। राम अवतार पुरुष हैं।

 दष्ु टों को दं ड दे ने और शिष्टों की रक्षा के लिए ही भगवान ने मानव का अवतार लिया और


सामान्य मानव बनकर सब प्रकार के कष्टों को झेला। तम
ु जिन लोगों की बात कर रहे हो,
उनकी कहानियों को अगर वाल्मीकि रचें गे तो उनमें से हर कोई श्रीराम की तरह भगवान
बनेगा।”  पुरंदर की बातों ने अगम्य पर पर्याप्त प्रभाव डाला। उसका यह विश्वास पक्का हो
गया कि श्रीराम की ही तरह मैं भी महान हूँ। इसलिए उसने कहा, “महोदय, मैं आपको अपनी
कहानी सुनाउँ गा। उसे आप रामायण जैसे महाकाव्य की तरह रचिये। मेरी भी प्रसिद्धि होगी
और आपकी भी”।

पुरंदर ने अविलंब कहा, “काव्य रचने की बात छोड़िये। पहले मैं आपके जीवन की विशेषताएँ
सुनने के लिए बहुत ही उत्सुक हूँ।” फिर उन्होंने अगम्य की बतायी सारी बातें ध्यानपूर्वक
सुनीं। इसके बाद पुरंदर को मालूम हो गया कि अगम्य नादान है । पर सच बताकर वह उसके
मन को ठे स पहुँचाना नहीं चाहता था, इसलिए कहा, “अच्छा यही होगा कि तम ु अपनी गाथा
स्वयं काव्य के रूप में रचो। तब तम
ु श्रीराम से भी अधिक महान बन सकते हो, क्योंकि श्रीराम
अपनी गाथा स्वयं लिख नहीं पाये”।

अगम्य को, पुरंदर की ये बातें अच्छी लगीं। उसने सोचा, जब अशिक्षित वाल्मीकि महाकाव्य
रच सकते हैं तो शिक्षित होकर मैं क्यों नहीं रच सकता? यों सोचते हुए उसने अपनी कथा को
काव्य रूप दे ने का निश्र्चय किया। फिर उसने अपनी जीवन गाथा रची। जो लिखा, उसे दो-तीन
बार पढ़ लिया। अपनी रचना-शक्ति पर उसे आश्र्चर्य होने लगा। पहले वह काव्य उसने अपनी
धर्मपत्नी को सन
ु ाया। अगम्य की पत्नी ने परू ा सन
ु ने के बाद कहा, “मझ
ु े क्यों सन
ु ाने लगे?
इसमें ऐसी कौन-सी बात है , जो मैं नहीं जानती।”

“रामायण में भी ऐसी कोई नयी बात नहीं है , जो तम


ु नहीं जानती। फिर भी बारं बार उसे क्यों
सन
ु ती रहती हो?” अगम्य ने पछ
ू ा। “राम की गाथा सन
ु ने योग्य है । जो वह गाथा नहीं जानते,
उन्हें अपनी यह गाथा सन
ु ाइये ।” अगम्य की पत्नी ने रूखे स्वर में कहा।

 आख़िर उसने अपने पोते-पोतियों को बुलाया और उनसे कहा, “लव-कुश ने रामायण का प्रचार
किया। तुम लोग भी मेरे काव्य को गाते हुए प्रचार करो। यों अपने दादा का ऋण चुकाना।”
सबने “न” के भाव में अपना सिर हिलाते हुए कहा, “हमें तम्
ु हारी कहानी अच्छी नहीं लगी।
चाहो तो हम रामायण का प्रचार करें गे।”

कोई भी उसकी कहानी सुनने के लिए जब तैयार नहीं था तब अगम्य का भाग्य चमका। एक
दिन वह किसी काम पर पास ही का गांव जाने निकला। उसने दे खा कि एक पेड़ के नीचे एक
युवक बेहोश है । उधर से गुज़रती बैल गाड़ी में उसे वह नंदनपुर ले गया। वैद्य ने युवक की जांच
की और कहा, “इस युवक ने किसी पेड़ का कडुवा फल खाया। वह फल दोष परि
ू त है । मैं जो दवा
दे नेवाला हूँ, उसे तुम्हें चार दिनों तक खिलाना होगा और उसकी अच्छी दे खभाल करनी होगी।”
यों कहकर उसने अगम्य को दवा दी।

चार दिनों के बाद वह युवक होश में आया और पूरा विवरण जान कर उसने अगम्य से कहा,
“आप मेरी रक्षा नहीं करते तो मैं मर गया होता। आपका यह ऋण कैसे चुका सकँू गा?”
“सचमच
ु ही मेरा ऋण चक
ु ाना चाहते हो तो मझ
ु से रचित काव्य सन
ु ो और उसकी प्रशंसा करो,”
अगम्य ने कहा। उस कृतज्ञ यव
ु क ने परू ा काव्य श्रद्धापर्व
ू क सन
ु ा। सन
ु ते सन
ु ते वह बीच-बीच में
ऊब गया। पर उसे प्रकट किये बिना काव्य की तारीफ़ के पल ं
ु बॉधता गया। तब अगम्य ने लंबी
सांस खींचते हुए कहा, “आज मेरी पहली इच्छा परू ी हुई। पता नहीं, मेरी दस
ू री इच्छा कब परू ी
होगी!”

उस यव
ु क ने उत्सक
ु ता -भरे स्वर में पछ
ू ा, “आपकी एक इच्छा परू ी कर दी। दस
ू री इच्छा भी 
परू ी करूँगा। निस्संकोच, अपनी दस
ू री इच्छा बताइये ।” “उसकी पर्ति
ू तम ु से संभव नहीं है । इस
दे श का राजा ही वह इच्छा परू ी कर सकेगा,” निरुत्साह-भरे स्वर में अगम्य ने कहा। “मैं इस
दे श का राजा तो नहीं हूँ, पर मैं युवराज हूँ। महाराज मेरी बात को नहीं टालेंगे,” यों युवराज ने
अगम्य को प्रोत्साहन दिया।

 जैसे ही अगम्य को मालूम हुआ कि जिस युवक की उसने रक्षा की, वह स्वयं युवराज है , तो
उसने हर्षित होते हुए कहा, “इस प्रकार से आपसे मिल पाना मेरा भाग्य है । रामायण को जितना
प्रचार मिला है , उतना ही प्रचार मेरे काव्य को भी मिले, यही मेरी दस
ू री इच्छा है ।” यह सुनकर
युवराज का चेहरा फीका पड़ गया । कहॉ ं वे राम, कहॉ ं यह अगम्य? युवराज सोच में पड़ गया।

वह समझ नहीं सका कि क्या किया जाए। पर  सोचने के बाद उसे एक उपाय सूझा। उसने
अगम्य से कहा, “अब तक तुमने अपना काव्य कितने लोगों को सुनाया?” “लगभग बारह
लोगों ने मेरा काव्य सुना होगा,” अगम्य ने कहा। “ठीक है । इस दे श में दस लाख लोग हैं। अब
बारह लोगों को छोड़कर बाकी लोग सुनें और उसकी प्रशंसा करें , इसका प्रबंध करता हूँ । तुम्हें
एक वचन दे ना होगा। वाल्मीकि ने अपने जीवन में एक ही काव्य रचा। वह भी एक ही बार।
तुम्हें भी वाल्मीकि की तरह दस
ू रा काव्य रचना नहीं चाहिये ।”

अगम्य ने इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी। युवराज, अगम्य को अपने साथ राजधानी ले गया
और महाराज से उसका परिचय कराया । “इसका नाम अगम्य है । यह मेरा प्राणदाता है । इसने
एक महाकाव्य की रचना की। वह काव्य वाल्मीकि के रामायण के बराबर का है । इसे हमारे
आस्थान में आदरणीय स्थान दिलाया जाना चाहिये। इसके काव्य का प्रचार दे श भर में कराना
चाहिये। यही मेरी इच्छा है ।” महाराज ने युवराज के प्रस्ताव को स्वीकार किया और आस्थान
में उसे आदरणीय स्थान प्रदान किया।

इसके बाद अगम्य के काव्य को लेकर दे श भर में बड़े पैमाने पर प्रचार हुआ। वह प्रचार इतने
बड़े पैमाने पर हुआ कि बड़े-बड़े पंडित भी उसे पढ़ने के लिए आगे आये। पंरत,ु किसी को भी वह
काव्य प्राप्त नहीं हो पाया। क्योंकि उसकी एक ही प्रति थी और वह यव
ु राज के पास ही थी। जो
काव्य के लिए आते, उनसे यव ु राज कहता, “दर्भा
ु ग्यवश वह एक प्रति भी आग में जल गयी।
ृ यॉ ं मात्र रह गयीं
फिर से लिखने से अगम्य ने इनकार कर दिया। बस, उस महाकाव्य की स्मति
।”

एक महाकाव्य के इस प्रकार नष्ट हो जाने पर कवियों और पंडितों को बहुत दख


ु हुआ। महाराज
को यह विषय मालूम हुआ। उन्हें लगा कि दाल में कुछ काला है , तो उन्होंने युवराज से इसके
बारे में गंभीरतापूर्वक पूछा। युवराज ने अपने पिता को सच बता दिया और कहा, “अगम्य
चाहता था कि उसके काव्य का विपल
ु प्रचार हो। उसकी अदम्य इच्छा थी कि एक महाकवि के
रूप में उसकी पहचान हो। वह उसे प्राप्त हो गया। जब तक लोग इस काव्य को नहीं पढ़ें गे, तब
तक वे इसके प्रचार को और पहचान को मानेंगे, उसका आदर करें गे। इसीलिए में ने यह काव्य
जला ड़ाला। अगम्य कोई दस
ू रा काव्य न रचे, इसके लिए मैंने पहले से ही जागरुकता बरती।
उससे वचन ले चक
ु ा हूँ कि वह दस
ू रा काव्य नहीं रचेगा। मैं ईमानदार हूँ, सत्य हूँ। अगम्य को
दिया वचन मैंने निभाया ।”
“मुझे लगता है कि तुम्हारी ईमानदारी में , सत्यनिष्ठा में कोई लोप है ।” महाराज ने असंतुष्ट
स्वर में कहा।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, “राजन ्, अगम्य के काव्य की प्रशंसा लोगों से प्राप्त
करने में युवराज सफल अवश्य हुआ, पर उसने क्यों कहा कि उन बारह लोगों को छोड़कर सबों
की प्रशंसा मिलेगी। क्या ऐसे काव्य की प्रशंसा करना युवराज को शोभा दे ता है ? इसे उसकी
ईमानदारी और सत्यनिष्ठा कह सकते हैं? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह
जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”

विक्रमार्क ने कहा, “अगम्य का काव्य सुना है , बारह लोगों ने। उन सबों ने उसकी प्रशंसा नहीं
की। इसीलिए युवराज ने ऐसा कहकर अपनी ईमानदारी साबित की। अपने प्राणदाता को संतुष्ट
करने के लिए उसकी झूठी प्रशंसा करना झूठ नहीं कहलाता। अलावा इसके, उस झूठ से किसी
को हानि नहीं पहुँचती। साथ ही इसमें युवराज का कोई स्वार्थ भी नहीं है ।” राजा के मौन-भंगद
में सफल, वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।

                                                                                                                                           
                                                                   (आधार श्रीनिवास की रचना)

 
52. संजीवनी मंत्र

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया, पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे
पर डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल
ने कहा, “राजन ्, मैं यह नहीं जानता कि किस प्रकार के लोक कल्याण की आकांक्षा लेकर इतना
घोर परिश्रम किये जा रहे हो। आधी रात को इतने कष्ट सह रहे हो। परं तु, ऐसे कई लोगों को
मैंने दे खा है , जो प्रजाक्षेम, लोक कल्याण आदि सिद्धांतों को रटते रहते हैं, पर जैसे ही उन्हें
व्यावहारिक रूप दे ने का अवसर उनके हाथ आता है , वे स्वार्थी बन जाते हैं। पिता के स्वास्थ्य
के लिए एक युवक ने अद्भत ु शक्ति पाने की ठानी और सफल भी हुआ। किन्तु उसने
स्वप्रयोजन के लिए एक कपटी साधु को यह अद्भत
ु शक्ति समर्पित कर दी। उस युवक का नाम
है माधव। उसी की कहानी मैं तुम्हें सुनाने जा रहा हूँ। आशा करता हूँ कि उस युवक की कहानी
सुनकर तुम सुधर जाओगे।” फिर वेताल माधव की कहानी यों सुनाने लगाः

रं गापरु का निवासी केशव बहुत बड़ा भस्


ू वामी था। अपने बेटे राघव को उसने बड़े लाड़-प्यार से
पाला-पोसा। बालिग़ होने तक वह कितनी ही बरु ी आदतों का शिकार हो गया। केशव को लगा
कि उसका विवाह कर दिया जाए तो वह ठीक हो जायेगा । उसने जानकी नामक कन्या से
उसका विवाह कर दिया।
 
पति को उसकी परवाह नहीं थी, पर जानकी पति को प्रत्यक्ष दै व मानकर उसकी सेवाएँ करने
लगी। इतनी सुशील पत्नी को पाने के बाद भी माधव की बुरी आदतों में परिवर्तन नहीं आया।
 
केशव दं पति अब आशा करने लगे कि संतान जन्मे तो शायद उसकी आदतें बदलें। विवाह के
दस सालों के बाद भी जानकी गर्भवती नहीं हुई। ऐसे समय पर दर्शन नामक एक साधु उस गाँव
में आये। केशव ने उन्हें अपना दख
ु ड़ा सुनाया। साधु ने हँसते हुए कहा, “तुम्हारा बेटा बुरी
आदतों का शिकार है । इन आदतों के कारण उसे बहुत पहले ही रोगग्रस्त होना था। किन्तु ऐसा
नहीं हुआ, क्योंकि तुम्हारी बहू जानकी पतिव्रता है । वह निरं तर उसकी सेवा में लगी रहती है ।
उनकी संतान हो जाए तो वह संतान की दे खभाल में तल्लीन हो जायेगी और पति के प्रति
उसकी भक्ति छूट जायेगी। इसी कारण भगवान ने उन्हें संतान प्रदान नहीं की। भगवान संतान
प्रदान करके उस पतिव्रता को दख
ु ी दे खना नहीं चाहते।”
 
“तो क्या मेरा वंश राघव के साथ ही समाप्त हो जायेगा?” केशव ने दख
ु -भरे स्वर में पूछा।
“जानकी अगर पत्र
ु को जन्म दे तो राघव भले ही रोगग्रस्त क्यों न हो जाए, पर तम्
ु हारा पोता
बड़ा होकर तुम्हारे वंश की प्रतिष्ठा को बढ़ायेगा। तुम ?हाँ' कह दोगे तो मैं एक उपाय सुझा
सकता हूँ,” दर्शन ने कहा।
 
केशव थोड़ी दे र तक सोच में पड़ गया। फिर बोला, “मेरे बेटे की वजह से हमारा वंश बदनाम हो
रहा है । इससे अच्छा यही है कि हमारा एक पोता हो और हमारे वंश का नाम रोशन करे ।”

तब साधु ने उसे एक अमरूद दिया और कहा, “यह दै व प्रसाद है । अपनी बहू को इसे खाने के
लिए कहना। तम्ु हारी इच्छा परू ी होगी।”
 
यों माधव का जन्म हुआ। राघव अपने बेटे को बहुत चाहता था। अपने पिता को दे खते ही माधव
के मुख पर हँसी छा जाती थी। यह दे खकर जानकी भी प्रसन्न होती थी।
 
एक बार माधव जब पाँच साल का था, तब उसी उम्र में वह पिता की बरु ी आदत का अनस
ु रण
करने लगा। केशव ने यह दे खा और पोते से कहा, “तम्
ु हारा पिता अच्छा आदमी है , पर उसकी
आदतें अच्छी नहीं हैं। जिनकी आदतें बरु ी होती हैं, उन्हें भगवान रोग दे कर सजा दे ते हैं। अपने
पिता को प्यार करो, पर उनकी आदतों से दरू रहना।” यों कहकर उसे सलाह दी और सावधान
भी किया। “मेरी बात छोड़िये। पिताजी की आदतें बरु ी हैं पर भगवान उन्हें दं ड न दें , इसके लिए
क्या करना होगा?” माधव ने पूछा।
 
“अपने पिता की रक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहो। भगवान सदा अच्छे बालकों की
इच्छाएँ पूरी करते हैं।” केशव ने समझाया।
 
चँ ूकि माधव पिता को बहुत चाहता था, इसलिए वह दादा के कहे अनुसार प्रार्थनाएँ करता रहा।
माधव जब दस साल का हो गया तब राघव का स्वास्थ्य बिगड़ गया। जब वह पंद्रह साल का हो
गया, तब उसकी तबीयत बिलकुल बिगड़ गयी। वह हमेशा खाट पर ही पड़ा रहता था। माधव
दखु ी हो उठा।
 
उसी समय दर्शन की भी अन्तिम घड़ी आ गई। मत्ृ यु के पहले वह चाहता था कि अपनी ज्ञान
संपदा किसी योग्य व्यक्ति को समर्पित कर दे । उसकी दिव्य दृष्टि में माधव दिखायी पड़ा। वह
फौरन रं गापुर चला आया और माधव से बोला, “कितने ही वर्षों से तकलीफ़ें उठाकर जो ज्ञान
संपदा कमायी, वह तम् ु हारे पास आ जायेगी। इस ज्ञान से तम्
ु हारी प्रसिद्धि भी होगी।”
 
“मुझे ज्ञान संपदा नहीं चाहिये। अगर आपमें शक्ति हो तो मेरे पिता के स्वास्थ्य को सुधारिये,”
माधव ने कहा। इसपर दर्शन ने हँसते हुए कहा, “मेरा ज्ञान केवल तुम्हारे पिता मात्र के लिए ही
नहीं बल्कि लोक कल्याण के लिए है ।”
 
“जब तक मेरे पिता के स्वास्थ्य में सुधार नहीं होगा तब तक मेरा मन अशांत रहे गा। मन अगर
अशांत हो तो भला विद्याएँ कैसे सीख पाऊँगा,” माधव ने कहा।

“ठीक है । बदरिकारण्य में वैद्य निधि महाभिष नामक एक महान मुनि हैं। तम
ु वहाँ जाकर
उनकी सेवा करके अपने पिता की बीमारी को दरू करनेवाला संजीवनी मंत्र पा सकते हो,” दर्शन
ने उपाय सुझाया।
 
माधव तरु ं त बदरिकारण्य गया। महाभिष से मिला और अपना परिचय दिया। मनि
ु ने उसकी
बातें बहुत ही ध्यान से सन ु ा और उसके बाद उससे कहा, “तम्
ु हारी पित ृ भक्ति की प्रशंसा करता
हूँ। किन्तु संजीवनी मंत्र के लिए जो कठोर दीक्षा और साहस चाहिये, उसका पालन करना क्या
तम्
ु हारे लिए संभव है ?” दर्शन ने संदेह व्यक्त किया।
 
“निःसंकोच आप मेरी परीक्षा लीजिये मुनिवर,” राघव ने विश्वास-भरे स्वर में कहा। मुनि के
कहे अनुसार माधव प्रातःकाल ही सर्दी में ठं डे पानी से नहाता था। कुल्हाडी लेकर जंगल में से
दिन भर के लिए आवश्यक लकड़ी तोड़ कर लाता था। छे घंटों तक विद्याभ्यास करता था।
अपक्वाहार ही खाता था। सोने के पहले पिता के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करता था। एक
महीने के बाद महाभिष ने उसे बुलाया और कहा, “मैं तम ु से बहुत प्रसन्न हूँ। आगे तुम्हें अपने
धैर्य और साहस का परिचय दे ना होगा। यहाँ से पूरब की दिशा में एक पहाड़ी गुफ़ा है , उसमें एक
अजगर है । गुफ़ा की दीवार के आले में एक जड़ी बूटी है । उसे तुम्हें ले आना होगा।”
 
महाभिष के कहे अनुसार माधव गुफ़ा के अंदर गया। अजगर उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार
बैठा था, फिर भी निर्भय होकर उसने गुफ़ा के आले में से जड़ी बूटी निकाली और ले आया। मुनि
ने उसके साहस की प्रशंसा की और उस जड़ी बूटी को कमंडल में डाल दिया।
 
एक महीने के बाद मुनि ने कहा, “जंगल के बीच पिशाचिनियों से भरा बरगद का एक वक्ष
ृ है ।
उस के कोटर में जड़ी बूटी है । आधी रात को वहाँ जाकर उसे ले आना होगा। डरोगे तो
पिशाचिनियाँ तम्
ु हें खा जाएँगी।”
 
माधव उसी रात को उस वक्ष ृ के पास गया। उसने पिशाचिनियों की परवाह नहीं की और पेड़ के
कोटर से जड़ी बूटी निकालकर मुनि के सुपुर्द कर दी। उन्होंने उसे भी कमंडल में डाल दिया।
अगले महीने माधव, महाभिष के आदे श पर हजारों मगर वाले सरोवर में कूद पड़ा, और उसके
बीच स्थित कमल पर से जड़ी बूटी को निकाल उसे भी मुनि के सुपुर्द किया। मुनि ने उस जड़ी
बूटी को कमंडल में डाल दिया।
दस
ू रे दिन मुनि ने उसे संजीवनी मंत्र का उपदे श दिया और उस कमंडल को दे ते हुए कहा, “इस
मंत्र को पढ़ते हुए इस कमंडल के पानी को जिसे पिलाओगे, उसके सारे रोग दरू हो जायेंगे।
जीवन पर्यंत वह स्वस्थ रहे गा।”
 
माधव को आशीर्वाद दे कर मुनि ने कहा, “पत्र
ु , इस संजीवनी मंत्र का उपयोग एक ही बार कर
सकते हो। तुम्हारे पिता ने जान बूझकर अपराध किये। इसी से वह अस्वस्थ हो गया। इस मंत्र
का उपयोग उन्हें स्वस्थ बनाने के बदले अपने लिए करोगे तो इससे लोक कल्याण होगा। मेरी
यह सलाह मात्र है । फिर तुम्हारी इच्छा।”
 
“स्वामी, अपने लिए इसका उपयोग करना स्वार्थ है । मेरे पिता को इसकी आवश्यकता है ।
उनकी आवश्यकता की पर्ति ू मेरा धर्म है ।” माधव ने विनयपर्व
ू क कहा।
 
महाभिष ने मुस्कुराते हुए कहा, “मनोभीष्ट सिद्धिरस्तु” कहते हुए उसे बिदा किया।
 
मार्गमध्य में माधव, दर्शन से मिला। जो हुआ, वह सब सन ु कर दर्शन ने उससे कहा, “तम

असाधारण यव ु क हो। इसी वजह से संजीवनी मंत्र तम्
ु हारे वश हुए। किन्त,ु कल सर्यो ू दय तक
मेरा अंत हो जायेगा। इसलिए, इसके पहले ही जितना हो सके मझ ु से ज्ञान प्राप्त कर लेना।”
 
माधव ने ?हाँ' कहा। दोनों पास ही के सरोवर के तट पर बैठ गये। दर्शन ज्ञानोपदे श करने लगा।
माधव ध्यान से सुनने लगा। आधी रात हो गयी। माधव ने अकस्मात ् पूछा, “गुरुवर, आपसे
मुझे पूरा ज्ञान प्राप्त करना है । आपकी आयु बढ़ाने के लिए कोई मार्ग हो तो सुझाइये।”
 
दर्शन ने लंबी सांस लेकर कहा, “अपने संजीवनी मंत्र से मेरी आयु को और दस सालों तक बढ़ा
सकते हो। पर तम
ु तो इस का उपयोग अपने पिता के लिए करना चाहते हो।”
 
माधव ने बिना सोचे-विचारे उस मंत्र का उपयोग दर्शन के लिए किया। वे बहुत प्रसन्न हुए और
एक हफ्ते तक उसे ज्ञानोपदे श करके वहाँ से चले गये। माधव जब घर पहुँचा तब राघव ने बड़े
प्यार से उसे गले लगाया। अब वह बिलकुल ही स्वस्थ था। माधव ने मन ही मन मुनि के प्रति
कृतज्ञता प्रकट की।

कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने कहा, “राजन ्, महाभिष ने जब माधव को सलाह दी कि इस


मंत्र का उपयोग अपने लिए ही करोगे तो लोक कल्याण होगा, तब उसने ऐसा करने से इनकार
किया। परं तु बाद उसने उसका प्रयोग अपने ज्ञानार्जन के लिए दर्शन पर किया। क्या यह स्वार्थ
नहीं है ? जो दर्शन लोक कल्याण के लिए ही जीने का दावा करते थे, अपनी आयु को और बढ़ाने
के लिए उसने बड़ी ही चालाकी से काम लिया। संजीवनी मंत्र के उपयोग के बिना ही राघव कैसे
स्वस्थ हो गया? मेरे संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो, तुम्हारे सिर के टुकड़े-
टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “यह सच है कि माधव ने वचन दिया कि संजीवनी मंत्र का उपयोग वह
स्वप्रयोजन के लिए नहीं करे गा। परं तु दर्शन के ज्ञानोपदे श के उपरांत वह समझ गया कि
संजीवनी मंत्रका उद्देश्य लोक कल्याण है , न कि स्वार्थ। उसने यह भी जान लिया कि पिता के
अच्छा होने के बदले दर्शन जैसे साधु और दस सालों तक जीवित रहें तो इससे लोक कल्याण
होगा। इसीलिए उसने इस मंत्र का प्रयोग दर्शन के लिए किया। यह सर्वथा स्वार्थ नहीं। दर्शन
पर यह आरोप लगाना ग़लत है कि उन्होंने चालाकी से माधव को मंत्रमुग्ध करके अपने वश में
कर लिया। और यों अपनी जीवन अवधि बढ़ा ली। उनकी मत्ृ यु के बाद भी यह ज्ञान लोक के
उपयोग में आयेगा, जिससे लोक कल्याण होगा। राघव का स्वास्थ्य एकदम सुधर गया, इसका
मुख्य कारण है , उसकी पत्नी के पतिव्रत्य की महिमा। साथ ही तपोसंपन्न महाभिष ने माधव
को आशीर्वाद दिया, “मनोभीष्ट सिद्धिरस्तु ।” राघव के स्वस्थ होने का यह भी एक कारण है ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार “वसुंधरा” की रचना)
 
53. जयंत की चिकित्सा

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर
डालकर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्, मैं
यह नहीं जानता कि किस न्याय की रक्षा के लिए इतना अथक परिश्रम किये जा रहे हो। शांति
तथा सुरक्षा के परिरक्षण में न्यायाधिकारों की भमि
ू का बहुत ही महत्वपूर्ण है । दे खा गया है कि
परोपकारी, निस्वार्थी, निष्पक्ष न्यायाधिकारी भी कभी-कभी निरपराधियों को दं ड दे ते हैं।
 
ऐसे न्यायाधिकारियों के विषय में शासकों को चाहिये कि वे जागरुकता बरतें । तुम्हें सावधान
करने के लिए एक ऐसे ही न्यायाधिकारी की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। दोषी ने अपना अपराध
स्वीकार कर लिया, पर सत्यदीप नामक इस न्यायाधिकारी ने उसे छोड़ दिया और निर्दोष को
जेल में डाल दिया। अपनी थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सन
ु ो।” वेताल फिर यों कहने
लगा:़

रमाकांत चक्रपुरी का निवासी था। जयंत उसका इकलौता पुत्र था। माता-पिता ने बड़े ही लाड़-
प्यार से उसे पाला-पोसा। आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार करने से वह विलासी बन गया।
बड़ों ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पच्चीसवें साल में ही
उसकी त्वचा में झर्रि
ु याँ पड़ने लगीं और बाल सफ़ेद होने लगे।
 
इससे माँ-बाप घबरा गये और उन्होंने उसे वैद्य को दिखाया। वैद्यों ने परीक्षा के बाद कहा,
“हमारी समझ में नहीं आता कि असल में यह बीमारी है क्या? इसलिए हम इसकी चिकित्सा
करने में असमर्थ हैं।” ऐसे समय पर गरु
ु पाद नामक एक मनि
ु उस गाँव में आये। गाँव के बहुत-
से लोग अपनी समस्याएँ मुनि से बताते थे।
 
वे उनके हल का मार्ग सुझाते थे। रमाकांत भी जयंत को उस मुनि के पास ले गया। उस समय
जयंत की हालत बहुत ही दयनीय थी। किसी की सहायता के बिना वह चलने की स्थिति में भी
नहीं था। मुनि ने उसकी स्थिति पर दया दिखायी और कहा, “मैं एक मंत्र का उपदे श करूँगा।
 
अकेले ही तुम्हें समीप के किसी जंगल में जाना होगा और उस मंत्र को जपते हुए तपस्या करनी
होगी। तब अश्विनी दे वताएँ प्रत्यक्ष होंगे और वे तुम्हें वैद्य शास्त्र के रहस्य बताएँगे। उनकी
सहायता पाकर अपने रोग की चिकित्सा करो। इसके बाद वैद्य वत्ति
ृ को अपनाओ और
परोपकार करो।” फिर उन्होंने मंत्रोपदे श दिया। मुनि के कहे अनुसार जयन्त पास ही के जंगल
में गया।
 
अपने साथ वह समीर नामक एक नौकर को भी ले गया। वह मालिक की ज़रूरतें पूरी और
उसकी सेवाएँ करने लगा। जयंत मनि
ु से उपदे शित मंत्र का जप करने लगा और श्रद्धापर्व
ू क
तपस्या करने लगा। यों छे महीने गज़
ु र गये। एक दिन अश्विनी दे वता प्रत्यक्ष हुए और उसे एक
तालपत्र ग्रंथ को दे ते हुए कहा, “हम तम्
ु हारी तपस्या पर संतष्ु ट हुए, इसीलिए यह वैद्य ग्रंथ
तम्
ु हें दे रहे हैं।

इसे पढ़ने पर अपने ही रोगों के बारे में नहीं, बल्कि अनेक रोगों की चिकित्सा पद्धति के बारे में
भी ज्ञान प्राप्त करोगे। परं तु याद रखना, यह दवा उन्हीं के काम आयेगी, जो सच बताएँगे और
जिन्हें अपनी ग़लतियों पर पछतावा होगा। चिकित्सा शुरू करने के तीन महीनों के अंदर ही
तुम्हारा रोग दरू हो जायेगा।
 
परं त,ु तब तक तम्ु हें अपने परिवार से मिलना नहीं चाहिये।” यों कहकर वे दे वता अदृश्य हो गये
। जयंत ने अपनी चिकित्सा के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया। समीर से वह जड़ी-बटि
ू याँ
जंगल से मँगाता था और अपने लिए आवश्यक गोलियाँ बनाता था। बिना चूके वह उनका
उपयोग करता था।
 
एक दिन समीर जब जड़ी-बूटियाँ बटोर रहा था, तब एक हट्टे -कट्टे आदमी ने उसे दे खा और कहा,
“मुझे सक्षेम चक्रपुरी पहुँचा दोगे तो तुम्हें सौ अशर्फि याँ दँ ग
ू ा।” आगंतक
ु के कंधे में थैली लटक
रही थी।
 
समीर ने उससे कहा, “इतनी दरू चले आये हो और चक्रपुरी पास ही तो है । क्यों नहीं चले जाते?
जंगल पार करने के लिए तुम्हें किसी आदमी की ज़रूरत ही क्या है ?” “अकस्मात मेरी दृष्टि में
खराबी हो गयी है । मैं ठीक से दे ख नहीं पाता।” उसने कहा। “तो ठीक है , मेरे साथ आना। मेरे
मालिक किसी भी रोग की चिकित्सा कर सकते हैं”, समीर ने कहा।
 
उसे वह अपने आश्रम में ले गया। जयंत ने उस आदमी की बीमारी के बारे में जानकारी पायी।
फिर कहा, “एक गोली खाओगे तो तम्
ु हारी बीमारी दरू हो जायेगी। पर, इसके पहले तम्
ु हें अपने
बारे में सच बताना होगा। अब तक तम
ु ने जो अपराध किये, उसपर तम्
ु हें पश्चात्ताप करना
होगा।”
 
उसने अपने बारे में सब कुछ बताया। उसका नाम प्रतीक था। वह सत्यपुर नगर का रहनेवाला
एक चोर था। वह पकड़ा नहीं गया और नगर का एक बड़ा आदमी भी माना जाने लगा, इसलिए
एक गरीब किसान ने अपनी बेटी गौरी की शादी उससे करायी।
 
शादी के बाद गौरी को जब मालूम हुआ कि उसका पति एक बड़ा चोर है , तो उसने उसे कोसा।
प्रतीक भी समझ गया कि अगर किसी दिन पकड़ा जाऊँ तो उसका पारिवारिक जीवन तहस-
नहस हो जायेगा ।

उसने इसलिए चोरी छोड़ दी और व्यापार करने लगा। आमदनी ऐसे तो कम थी, पर ज़िन्दगी
बिना किसी कमी के गुज़र रही थी। एक दिन अचानक ही उसकी दृष्टि मंद हो गई, उसे स्पष्ट
दिखायी नहीं दे रहा था। वह एक वैद्य से मिलने गया। उसने परीक्षा के बाद कुछ गोलियाँ दीं
और कहा, “इनका उपयोग करो।
 
थोड़े दिनों तक ये काम आयेंगीं। पर, कुछ दिनों के बाद तम्
ु हारे अंधे हो जाने का ख़तरा है । अब
जो कमाते हो, सरु क्षित रखना। उन दिनों यह कमाई तम्
ु हारे काम आयेगी।” प्रतीक ने यह बात
पत्नी से बतायी तो उसने कहा, “अब तक हम सम्मान के साथ ज़िन्दगी गज़
ु ारते रहे । हमें धन
इकठ्ठा करना हो तो तुम्हें चोरियाँ करनी होंगी, जिससे आगे हम ज़िन्दगी काट सकें । और यह
सब कुछ हो, तुम्हारे अंधे हो जाने के पहले ही।”
 
भविष्य को लेकर प्रतीक में भय उत्पन्न हो गया। लाचार होकर प्रतीक फिर से चोरियाँ करने
गया। हफ़्ते भर में उसने काफी गहने और धन प्राप्त किया। न्यायाधिकारी सत्यदीप को
शिकायत मिली कि सत्यपुर नगर में चोरियाँ अधिकाधिक हो रही हैं। सत्यदीप को संदेह हुआ
कि बड़ा माना जानेवाला कोई व्यक्ति ही ये चोरियाँ कर रहा है ।
 
उसने घोषणा करवायी कि नगर के सब बड़े आदमियों के घरों की तलाशी ली जाए। नगर भर में
सत्यदीप परोपकारी, सत्यवान और निष्पक्ष न्यायाधिकारी माना जाता था। प्रतीक यह घोषणा
सुनकर डर गया। उसे लगा कि किसी भी दिन वह पकड़ा जा सकता है । इसलिए पत्नी की
सलाह के अनुसार वह गहनों को बेचने के लिए जंगल से होते हुए चक्रपुरी जाने निकला।
 
बीच जंगल में उसकी दृष्टि धुध
ँ ली होने लगी। तभी उसने समीर को दे खा। प्रतीक ने पूरा
विवरण दिया और कहा, “मेरी दृष्टि फिर से सध
ु र जायेगी तो मैं चोरी कभी नहीं करूँगा।”
जयंत ने उसे एक गोली दी, जिसे खाते ही उसकी दृष्टि बिलकुल ठीक हो गयी।
 
उसने जयंत को प्रणाम किया और कहा, “स्वामी, आप भगवान समान हैं, शक्तिमान हैं। मैं
सत्यपुर वापस जाऊँगा और अपनी ग़लती स्वीकार करके जिनके-जिनके गहने हैं, उन्हें लौटा
दँ ग
ू ा।

इसके पहले मझ
ु े चक्रपरु जाना होगा और अपने चाचा को दे ख आना होगा, जो बहुत बीमार हैं।
वे मझ
ु से मिलना भी चाहते हैं । जब तक मैं नहीं लौटूँ तब तक ये गहने और रक़म अपने पास
सुरक्षित रखिये। लौटकर इन्हें ले लँ ग
ू ा।” कहकर उसने गहने व रक़म जयंत के सुपुर्द किया और
चक्रपरु ी जाने निकल पड़ा।
 
इतने में , सत्यपुर के बड़े आदमियों ने अफ़वाह फैलायी कि असली चोर जंगल में घूम रहे हैं,
क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके घरों पर छापा हो। इसे सच मानकर सत्यदीप ने नगर में
तलाशी छोड़ दी और कुछ सैनिकों को लेकर जंगल में प्रवेश किया। वहाँ उसे जयंत के आश्रम में
गहने मिले।
 
जयंत ने सत्यदीप को बताया कि ये गहने उसके पास कैसे आये और साथ ही उसे यह भी
बताया कि अश्विनी दे वताओं के अनग्र
ु ह से उसे वैद्य ग्रंथ कैसे प्राप्त हुआ। परं तु पछ
ू ताछ के
बाद भी उसने न ही प्रतीक का नाम बताया और न ही उसकी बीमारी के बारे में ।
 
सत्यदीप ने उसकी बातों का विश्वास नहीं किया। उसे और समीर को बंदी बनाकर जेल में डाल
दिया। उनकी रखवाली के लिए आवश्यक प्रबंध भी किया। इसके बाद उसने जयंत की कहानी
की घोषणा करवायी कि जो लोग लंबे समय से बीमार हैं, वे जेल में आकर चिकित्सा करवा
सकते हैं।
 
जिन्होंने यह घोषणा सुनी, वे जेल गये, अपनी ग़लतियाँ स्वीकार कीं और जयन्त की चिकित्सा
से स्वस्थ भी हो गये। किन्तु विशेष बात यह है कि उसने रोगियों के अपराधों को जाहिर नहीं
किया। अब रोगियों की क़तार लग गयी। थोड़े दिनों के बाद प्रतीक चक्रपुरी से लौटा और
सत्यदीप से मिला।
 
अपना अपराध स्वीकार किया और उससे विनती कि उसे कैद किया जाए और जयंत को छोड़
दिया जाए। सत्यदीप ने कहा, “तम ु ने अपना अपराध स्वीकार किया, इसका यह मतलब हुआ
कि तमु में परिवर्तन हुआ है , इसलिए तुम्हें जेल में नहीं डालँ ूगा। पर, कुछ समय तक जयंत को
जेल में ही बंदी बनाकर रखग
ूँ ा।”
 
वेताल ने यह कहानी बतायी और कहा, “राजन ्, यह जानते हुए भी कि प्रतीक दोषी है , उसे क़ैद
नहीं कियागया । यह जानते हुए भी कि जयंत निर्दोष है , उसे जेल में ही रखने का निर्णय
लियागया ।

क्या यह निर्णय न्यायाधिकारी का अन्याय नहीं है ? क्या यह निर्णय यह नहीं बताता कि


सत्यदीप न्याय करना नहीं चाहता, वह क्रूर स्वभाव का है , अन्याय का समर्थक है ? “ऐसे
सत्यदीप को लोग परोपकारी मानते हैं, उसे सच्चा न्यायाधिकारी मानते हैं, यह लोगों का
अज्ञान नहीं है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चप
ु रह जाओगे तो तम्
ु हारे सिर के
टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
तब विक्रमार्क ने कहा, “दोषियों को जेल में बंद करते हैं, उन्हें सुधारने के लिए, उनमें परिवर्तन
लाने के लिए। तब तक प्रतीक में अच्छा परिवर्तन हुआ। ऐसी स्थिति में उसे जेल में डालने से
क्या फ़ायदा? इसी वजह से न्यायाधिकारी ने उसे छोड़ दिया।
 
अब रही जयंत की बात। न्यायाधिकारी ने उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया उल्टे उपकार ही
किया। इसकी इज्जत की। नाम मात्र के लिए उसे जेल में बंद रखा, परं तु साथ ही उसके लिए
सभी सुविधाओं का प्रबंध किया। जयंत की अद्भत
ु चिकित्सा पद्धति के बारे में घोषणा करवायी।
 
जयंत के हाथों इलाज चाहिए तो अपराधियों को अपने अपराध मानने होंगे, जिनके बारे में
केवल उसी को जानकारी है । ऐसे अपराधी फिर से अपराध नहीं करें गे। ऐसे अपराधियों को सज़ा
भी नहीं होगी, क्योंकि उनमें अब परिवर्तन हो गया ।
 
न्यायाधिकारी चाहता था कि कुछ दिनों तक ही सही, जयंत जेल में रहे और सत्यपुर के
अपराधियों को वह सुधारे , उनमें परिवर्तन ले आये । इसीलिए उसने जयंत को बंदी बनाये रखा।
साथ ही एक और विशेष रहस्य भी है । न्यायाधिकारी चाहता था कि नियम भंग जब तक न हो,
तब तक जयंत सत्यपुर में रहे , जिससे वह अपने माँ-बाप व सगे संबंधियों से नहीं मिल पायेगा।
तद्वारा उसने दो महत्वपूर्ण कार्य साधे।
 
इन कारणों से लोगों का यह कहना कि सत्यदीप परोपकारी है , निर्दोष है , निष्पक्ष है , सरासर
सही और समर्थनीय है ।” राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और
फिर से पेड़ पर जा बैठा। -आधार “वसुंधरा” की रचना
 
54. अनंत की आकांक्षा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर अग्रसर होने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा
“राजन ्, तम
ु विद्यावान हो, अनुभवी हो, फिर भी इस श्मशान में अनावश्यक ही कष्ट झेल रहे
हो। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हें ऐसा क्यों करना पड़ रहा है । कहीं ऐसा तो नहीं कि
कोई कपटी, स्वार्थी अपना  उल्लू सीधा करने के लिए तम
ु से यह सब कुछ करा रहा हो। तुम्हारी
अच्छाई का फ़ायदा उठा रहा हो। ऐसे छलियों के चंगल
ु में फँसकर अनंत ने भी बहुत बड़ी भल

की। अपने कार्य की सिद्धि के बाद भी अविवेक का शिकार होकर अपना ही परोपकार के बाद भी
भल
ू बैठा। अपनी थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी ध्यानपर्व
ू क सन
ु ो।” फिर वेताल अनंत
की कहानी यों सन
ु ाने लगाः

बहुत पहले की बात है । सत्कीर नामक राजा मंदारक दे श का शासक था। विरज उसका
इकलौता बेटा था। सत्कीर ने अपने बेटे विरज को बचपन में ही शिक्षा प्राप्त करने के लिए
गोविल नामक गुरु के गुरुकुल में भेजा।

 गरु
ु कुल में कुल दस विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनमें से अनंत के सिवा शेष सभी
विद्यार्थी विरज के प्रति आवश्यकता से अधिक आदर दिखाते थे, क्योंकि उन्हें डर था कि
राजकुमार कहीं उनसे नाराज़ न हो जाएँ और कोई दण्ड दे न बैठें। इसी डर के मारे वे उनसे थोड़ा
दरू ही रहते थे। पर अनंत ने पहले ही दिन उससे दोस्ती कर ली। शांत और नम्र स्वभाव का
अनंत, विरज को अच्छा लगा। इसलिए उनकी मैत्री दिन व दिन बढ़ती गयी।

पर विरज में राजकुमार होने का गर्व भरा हुआ था। साथ ही वह मूर्ख भी था। इस तैश में आकर
वह कभी-कभी अनंत पर हुक्म चलाने की कोशिश भी करता था। फिर भी अनंत नाराज़ नहीं
होता था और उससे मैत्रीपूर्वक व्यवहार करता रहता था। गुरु से सिखाये जानेवाले पाठ विरज
की समझ में नहीं आते थे। पर वह गुरु के सामने यह प्रकट होने नहीं दे ता था। फुरसत के समय
वह ये पाठ अनंत से सीख लेता था। अनंत काफ़ी दिलचस्पी लेकर उसे पाठ  पढ़ाता था। अगर
ज़रूरत पड़े और उसे लगता कि विरज ने ठीक तरह से समझा नहीं हैं तो दो-तीन बार दोहराता
भी था।

यों विरज पढ़ाई में दिलचस्पी दिखाने लगा। जब गरु


ु गोविल ने दे खा कि शिक्षा के प्रति विरज
की अभिरुचि बढ़ती जा रही है तो उसे प्रोत्साहन दे ने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा के पल
ु भी
बांधने लगे। पहली-पहली बार जब गरु
ु   ने उसकी प्रशंसा की तब उसने अनंत से कहा, “अनंत,
गरु
ु ने आज मेरी प्रशंसा की और इसका परू ा श्रेय तम्
ु हीं को जाता है । तम्
ु हारी भलाई कभी नहीं
भल
ू ँग
ू ा। जैसे ही मैं इस दे श का राजा बनँग
ू ा, तम्
ु हें मैं अपना प्रधानमंत्री नियक्
ु त करूँगा।”

विरज की बातों पर अनंत बेहद खश ु हुआ। गरु ु गोविल ने यह विषय जानकर विरज की
अत्यधिक प्रशंसा करते हुए कहा, “पत्र
ु , मनष्ु य को पशओ
ु ं से अलग करनेवाले उत्तम गण
ु ों में से
एक है , कृतज्ञता। तम्
ु हारी उदारता प्रशंसनीय है । अनंत के प्रति तम्
ु हारी उदारता तम्
ु हारी
महानता का चिह्न है , तुम्हारे विशाल हृदय का दर्पण है । तुमने अनंत को जो वचन दिया, उसे
हर हालत में निभाना।”

 विरज ने “हॉ”ं के भाव में सिर हिलाया। पर इसके बाद जो हुआ, वह बिलकुल विपरीत ही हुआ।
शिक्षा के क्षेत्र में विरज  आगे बढ़ता गया, पर साथ ही साथ उसका अहं कार भी बढ़ता गया। जब
उसका विद्याभ्यास पूरा होने जा रहा था, तब तक सबको मालूम हो गया कि उसने अपना
वचन भुला दिया।

गुरुकुल में शिक्षा की समाप्ति होते ही गुरु गोविल से अनंत ने कहा, “गुरुवर, अब भी मेरी
विद्या तष्ृ णा जैसी की तैसी है । आप अगर अनुमति दें तो अरावली पर्वत के पास के कृष्णचंद्र
जी के गुरुकुल में और कुछ समय तक विद्याभ्यास करूँगा। उसके बाद ज़रूरत पड़े तो विरज
को उसके वचन की याद दिलाऊँगा।”
गोविल ने खश ु होते हुए कहा, “उस महान गरु का शिष्य बनोगे तो तम्
ु हें संपर्ण
ू योग्यता प्राप्त
होगी। तम्
ु हारा जीवन सार्थक होगा।

जाओ, तुम्हें मेरा आशीर्वाद।” विरज ने भी गुरु दक्षिणा चुकायी और राजधानी लौटा। यों छः
साल गुज़र गये। विरज का राज्याभिषेक संपन्न हुआ। जैसे ही वह राजा बना, उसने सुप्रतीक
को प्रधान सलाहकार के पद पर नियुक्त किया, जो उसकी चापलूसी  करता था, हॉ ं में हॉ ं
मिलाता था। अब शासन के व्यवहारों में उस प्रधान सलाहकार की ही बात चलने लगी, वही वेद
वाक्य बन गया।

सप्र
ु तीक और राजा ने मिलकर नवीन शासन प्रणाली के नाम पर शासन-पद्धति में अनेक
परिवर्तन किये, सध
ु ार ले आये। नता इन्हें समझ नहीं पायी, वे असमंजस स्थिति में पड़ गये।
उनके इस काम से जनता असंतष्ु ट हुई और  खल
ु कर राजा का विरोध करने लगी। इस स्थिति
का फ़ायदा उठाने के लिए शत्र ु राजा तैयार बैठा था। विरज को गप्ु तचरों से मालम
ू हुआ कि शत्रु
राजा किसी भी क्षण उसके राज्य पर हमला करने  के लिए सन्नद्ध बैठा है । विरज घबरा गया।
उसने सप्र
ु तीक से सलाह मांगी।

सप्र
ु तीक इसे कोई बड़ी समस्या मानने के लिए तैयार नहीं था। इस समस्या की गहराई में गये
बिना ही वह कहने लगा, “डर किस बात की महाराज? ज्यादा से ज्यादा वेतन दें गे और जवानों
को सेना में भर्ती कर लेंगे। शत्रु के हमले के पहले ही हम उस पर हमला कर दें गे। वह राज्य भी
हमारा हो जाए तो आपकी कीर्ति चारों दिशाओं में फैल जायेगी।”

 ”तम
ु तो ऐसा बोल रहे हो, मानो यह बायें हाथ का खेल है ! क्या तम
ु जानते नहीं, हमारे खज़ाने
में इतनी धन-राशि नहीं हैं!”  राजा ने कहा। इस पर सुप्रतीक ने ठठाकर हँसते हुए कहा “खज़ाने
को भरने के लिए एक उपायं है । दक्षिणी पर्वत के बारे में आप तो जानते हैं।” विरज को दक्षिणी
पर्वत के बारे में मालूम था। मंदारक दे श के उत्तरी भाग में जो बहुत बड़ा पर्वत है , उसे दक्षिणी
पर्वत कहते हैं। उस पर्वत के ऊपर एक प्राचीन मंदिर है , जिसके  मुख मंडप के पास दे वनागरी
लिपि में लिखा गया एक शिला लेख है । मंदिर के सामने के सरोवर के बीचों बीच तेज़ी से
घम
ू नेवाला एक भंवर है ।

मंत्र-तंत्र का शारत्रज्ञ, साहसी या कोई निस्वार्थ युवक उस भंवर में प्रवेश करके वहॉ ं के रक्षक
यक्षमाया को जीत पायेगा तो उसे नवनिधियॉ ं प्राप्त होंगी । उसे पराजित होने पर वह नरक
कूप में ढकेल दिया जायेगा। उस शिला लेख पर ये विवरण उत्कीर्ण हैं। सुप्रतीक की बातों से
विरज को ये बातें याद आ गईं, पर उसने नीरस स्वर में कहा, “दक्षिणी पर्वत के बारे में जानने
मात्र से क्या फ़ायदा होगा ! जान पर खेलकर उस सरोवर में कूदना मेरे बस की बात नहीं है ।”

सुप्रतीक ने हँसते हुए कहा, “प्रभु, मैं थोड़े ही आपको वहॉ ं जाने के लिए कह रहा हूँ। अनन्त
नामक एक युवक हमारे राज्य में नया-नया आया हुआ है । सुनने में आया है कि अरावली पर्वत
प्रांत के कृष्णचंद्र गुरु से उसने मंत्र शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया। वह उस शास्त्र में पारं गत
है । अन्य विद्याओं में भी वह निष्णात है । वह हमारे श्रेष्ठ व्यापारी कस्तरू ी के यहॉ ं अतिथि
बनकर ठहरा हुआ है ।

यह भी सुनने में आया है कि वह बड़ा ही साहसी  और निस्वार्थ है । राज्य के कल्याण के लिए


उससे दक्षिणी पर्वत जाने को कहें गे। निधियों सहित वह अगर लौटकर आयेगा तो उससे कहें गें
कि उसे ढे र भर का सोना दे गें। कहिये, आपकी क्या राय है ?” अनंत का नाम सुनते ही विरज
चौक प़ड़ा। क्षणभर सोचता रहा और फिर सुप्रतीक के प्रस्ताव को उसने स्वीकार कर लिया।
दस
ू रे ही क्षण अनंत को संदेश भेजा गया।

 अनंत के आते ही विरज ने बड़े ही प्रेम से उसे गले लगाया। फिर उसने दक्षिणी पर्वत के बारे में , 
बताया और परू ा विवरण दिया। अनंत ने ध्यान से उसकी बातें सन
ु ने के बाद कहा, “राजन, हम
एक-दस
ू रे के बारे में भली-भांति जानते हैं। आपकी इच्छा के अनुसार दक्षिणी पर्वत अवश्य
जाऊँगा।” अपने बचन के अनुसार शुभमह
ु ू र्त पर अनंत दक्षिणी पर्वत गया और मंत्रों का जप
करके सरोवर में उतरा।

विरज भी अनंत के साथ-साथ आया था। वह सरोवर के किनारे बैठकर उसका इंतज़ार करने
लगा। थोड़े समय के बाद उसने दे खा कि अनंत सरोवर से बाहर आ रहा है और उसका मुख
प्रकाशमान है , कांति से चमक रहा है । विरज तुरंत अनंत के पास गया और उत्कटतापूर्वक
पूछने लगा, “अनंत, निधि मिल गयी? कहॉ ं है ?”

अनंत ने मंद मुस्कान भरते हुए कहा, “चलिये, आपको दिखाता हूँ। कोई ख़तरा नहीं है । डरने
की कोई बात नहीं ।” कहते हुए उसने विरज का हाथ पकड़ लिया और पुनः सरोवर में उतरा।
उस सरोवर के बिलकुल तले सूर्य किरणों की तरह चमकते हुए नवरत्नों का ढ़े र उन्हें दिखायी
पड़ा। विरज मंत्रमुग्ध होकर दे खता रह गया।

तब अनंत ने शांतस्वर में कहा, “प्रभु, मैंने ये जो अमूल्य निधियॉ ं पायी हैं, उन्हें   आपके चाहे
अनुसार दे श के कल्याण के लिए इसी क्षण आपके सुपुदर्र् करूँगा। पर प्रतिफल स्वरूप में मैं
सोना नहीं चाहता।” विरज ने चकित होकर पूछा, “तो फिर क्या चाहिये?”
“आपने गुरुकुल में वर्षों पूर्व एक वचन दिया था। उसके अनुसार मुझे अपना प्रधान मंत्री
नियक्
ु त कीजिये”। अनंत ने गंभीर स्वर में कहा। यह सन
ु कर विरज अवाक् रह गया। उसने
अनंत के पैरों का स्पर्श करते हुए गदगद स्वर में कहा, “महानभ
ु ाव, आप  साधारण मानव नहीं
हैं। इस क्षण से आप ही मेरे प्रधान मंत्री हैं। आपकी अनम
ु ति के बिना मैं सांस भी नहीं लँ ग
ू ा।”

वेताल ने कहानी बताने के बाद कहा, “राजन ्, निधि पाने के पीछे विरज का स्वार्थ सस्
ु पष्ट है ।
लेकिन विद्यावान व साहसी अनंत का व्यवहार कुछ अटपटा लगता है , अविवेकपर्ण
ू भी। अगर
वह सचमच
ु ही निस्वार्थ है तो उसे चाहिये था कि निधियों को विरज को चप
ु चाप सौंप दे और
बिना प्रतिफल मांगे चला जाए। अन्यथा निधियों में से अपना हिस्सा मांगे। वह बखब
ू ी जानता
था कि विरज कपटी है और उसके वचनों का कोई मल्
ू य नहीं हैं तो उसने प्रधान मंत्री बनने की
ख्वाहिश क्यों जाहिर की। मेेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे
सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।”

विक्रमार्क ने कहा, “पहले ही दे श की भलाई चाहनेवाला अनंत अवश्य ही निस्वार्थ है । इसी वजह
से उसने गुरुकुल में भावी महाराज की सहायता की। विरज कपटी, स्वार्थी हो सकता है । परं तु
उस समय की दे श की परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए अनंत ने प्रधान मंत्री का पद मांगा।
एक तो  खज़ाना खाली था, जिसपर शत्रु राजा उसके दे श पर आक्रामण करने के लिए तैयार
बैठा था, तब क्या उसका यह कर्तव्य नहीं बनता कि दे श की वह रक्षा करे ? उसकी इस मांग में
उसकी दे शभक्ति और राजनैतिक सूझ-बूझ  निहित हैं। इसमें विवेक और अविवेक का कोई
सवाल ही नहीं उठता।” राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर
से पेड़ पर जा  बैठा।  (आधार : कृष्ण प्रसाद की रचना)

 
55. चार कार्यदक्ष

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़्र पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, इस श्मशान में भूत-प्रेत घूमते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अद्भत
ु शक्तियों को
प्राप्त करने के लिए इनकी भी परवाह किये बिना बेरोकटोक परिश्रम करते जा रहे हो। किसी भी
प्रकार के खतरे को मोल लेने के लिए सद्ध हो। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि ऐसी अद्भत

शक्तियों को प्राप्त करने के बाद भी सही समय पर वे काम नहीं आतीं और उल्टे वे तुम्हारे
दश्ु मन बनकर तुम्हारे विरुद्ध काम करने लगती हैं और तुम्हें विपत्ति में डाल सकती हैं।
उदाहरण स्वरूप तुम्हें उन चार कार्यदक्षों की कहानी सुनाऊँगा, जिनके साथ ऐसा हुआ है ।” फिर
वेताल उन चार कार्यदक्षों की कहानी यों सुनाने लगाः

माणिक्यपरु के वज्रों के व्यापारी पद्मनाभ की इकलौती पत्र


ु ी थी प्रत्यष
ू ा। उसके बालिग़ हो जाने
पर पद्मनाभ चाहता था कि अपने बाल्य मित्र के बेटे के साथ उसका विवाह किया जाये। किन्तु
विवाह के कुछ दिनों के पहले प्रत्यष
ू ा एक विचित्र रोग का शिकार हो गयी। वह बोल नहीं पाती
और सदा अचेत स्थिति में पड़ी रहती थी। दख
ु ी और परे शान पद्मनाभ ने कितने ही वैद्यों को
बल
ु वाया और उसका इलाज करवाया। पर, कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अंत में कृपाल नामक
सुप्रसिद्ध वैद्य ने प्रत्यूषा की परीक्षा करने के बाद कह दिया, “यह नब्ज संबंधी रोग है । इसकी
चिकित्सा के लिए दशमूल नामक जड़ी-बूटी की आवश्यकता है , जो दिरसवंचपुर में उपलब्ध
होती है । परं तु इस जड़ी-बूटी को ले आना असाध्य कार्य है ।” उसने लंबी सांस खींचते हुए कहा।
 
“यह दिरसवंचपुर है कहाँ?” वहीं उपस्थित हे मानंद ने पूछा।
 
“पूर्वी समुद्र में सौ कोसों की दरू ी पर मसूरद्वीप के मध्य यह उपलब्ध होगा। मुझे इसकी
जानकारी ताल पत्रों को पढ़ने पर प्राप्त हुई है । इसके बारे में और विवरण मैं नहीं जानता।”
वैद्य ने कहा।
 
“अपने प्राण की परवाह किये बिना मैं वहाँ जाऊँगा और उस जड़ी-बूटी को ले आऊँगा।” हे मानंद
ने दृढ़ स्वर में कहा।
 
“उस जड़ी-बूटी को ले आने पर केवल प्रत्यूषा को ही हम बचा नहीं सकते, बल्कि ऐसे रोगों से
पीडित होनेवालों की भी रक्षा की जा सकती है । तम् ु हें मैं आशीर्वाद दे ता हूँ और भगवान से
प्रार्थना करता हूँ कि वे इस काम में तम्
ु हें सफल बनावें ।” वैद्य ने कहा।
 
हे मानंद के साथ उसका मित्र शिवनाथ और वैद्य का शिष्य संजीवराय निकल पड़्रे। यह विषय
जानकर साहसप्रिय कपर्दि नामक एक और युवक ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की
और उनकी अनुमति लेकर वह भी उनके साथ निकल पड़ा।
 
चारों समद्र
ु के तट पर पहुँचे और नाव में बैठकर समद्र
ु में यात्रा शरू
ु कर दी। पाँच दिनों तक
उनकी यात्रा में कोई रुकावट नहीं आयी। छठवें दिन दप
ु हर को दस हाथियों के वज़न का एक
तिमिंगल सामने आया और नाव को अपनी पंछ
ू से मारा, जिससे नाव हवा में उड़ी और दरू
जाकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी। हे मानंद डूबने ही वाला था, शिवनाथ ने नाव के एक टुकड़े को
उसकी ओर बढ़ाया और कहा, “इसकी सहायता से किनारे पर पहुँच जाना।”

किनारे पर पहुँचे हे मानंद, संजीव राय और कपर्दि शिवनाथ का बड़ी ही बेचैनी से इंतज़ार करने
लगे, पर उसका कोई पता नहीं चला। दःु खी हो वे आगे बढ़ने लगे और तीन दिनों तक चलते
रहे । तब जाकर उन्होंने पर्वत श्रेणियों को दे खा और वे एक चट्टान पर बैठ गये।
 
थोड़ी दे र बाद उन्होंने आकाश में एक विचित्र गाड़ी दे खी। वे उसे दे खते ही रहे । थोड़ी ही दे र में वह
उनके सामने आकर रुक गयी। उसमें बहुत ही वद्ध ृ एक व्यक्ति उन्हें दिखायी पड़ा। उन तीनों ने
उस वद्ध
ृ से पूछा, “दादाजी, आप जानते हैं, दिरसवंचपुर पहुँचने के लिए किस तरफ़ जाना है ।”
 
“वह पर्वतों के बीच में है पर वहाँ पैदल नहीं जा सकते। इस वायु शकट में यात्रा करने पर ही
आप वहाँ पहुँच सकते हैं। इसके बिना कोई दस
ू रा मार्ग नहीं है । बचपन से ही आकाश में विचरने
की मेरी प्रबल इच्छा थी। मैंने इसके लिए बहुत ही प्रयोग किये। दरू दे शों से यंत्र सामग्री
मँगवायी। आखिर आकाश में उड़नेवाले इस वायु शकट का निर्माण कर सका। मेरी उम्र सौ
सालों से अधिक है । जीवन में किसी भी प्रकार के सख
ु का मैंने अनभ
ु व नहीं किया। अभी-अभी
मझ
ु में आशा जाग रही है । तम
ु में से यदि कोई अपना यौवन मझ
ु े दे ने को तैयार हो, तो मैं यह
वायु शकट दे ने को तैयार हूँ। इसमें बैठकर आप लोग दिरसवंचपरु जा सकते हैं।” बढ़
ू े ने कहा।
 
संजीवराय अपना यौवन दे ने को आगे आया। हे मानंद ने उसे रोका तो उसने कहा, “अद्भत ु
औषधि को बनानेवाले इस यज्ञ में मैं समिधा बन जाऊँ, इससे बढ़कर भाग्य क्या और हो
सकता है ? मुझे रोकने की कोशिश मत करना।”
 
इसके बाद वद्ध
ृ के कहे अनस ु ार संजीवराय ने मंत्र का पठन किया, जिससे वह वद्ध
ृ बन गया और
वह वद्ध
ृ यवु क । किन्तु वद्ध
ृ होते ही संजीवराय बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया। अब उस
युवक वद्ध
ृ ने उन्हें वायु शकट को चलाने का उपाय बताया और कहा, “अपने मित्र के बारे मे तम

दोनों निश्चिंत रहो। उसकी दे खभाल का भार मझ
ु पर छोड़ दो।”

दोनों दोस्त संजीवराय की स्थिति को दे खकर चिंतित हो उठे । पर वे कर भी क्या सकते थे।
हे मानंद और कपर्दि वायु शकट से यात्रा करके दिरसवंचपुर पहुँचे। उन्होंने वहाँ दे खा कि नगर
की गलियों में जंतुओं के सिरों और मानव शरीरधारी विचित्र प्राणी विचार रहे हैं। उन्होंने वायु
शकट को झाड़ियों में छिपा दिया और दोनों एक झोंपड़ी में घुस गये। वहाँ एक बूढ़्री ने उन्हें दे खा,
पर वह जान नहीं पायी कि ये कौन हैं।
 
“दादी, हम परदे शी हैं। दशमल
ू नामक जड़ी-बट
ू ी के लिए आये हैं। यहाँ जो रहते हैं, वे मानव हैं
या जंत?ु ” हे मानन्द ने पछ
ू ा। “जिस जड़ी-बट
ू ी की बात तम
ु कर रहे हो, वह क़िले के उद्यानवन
में है । जिन्हें आपने दे खा, वे सब मानव ही हैं। सविस्तार कहूँ भी, तो भी मेरी पीड़ाओं को थोड़े ही
तुम दरू कर सकते हो?” उस बुढ़िया ने कहा।
 
“दादी, बताना तो सही, इनकी ऐसी दस्थि
ु ति कैसे हो गयी? हम कई विद्याएँ जानते हैं। जितनी
सहायता हमसे हो सकेगी, हम अवश्य करें गे।” कपर्दि ने कहा।
 
“हमारे दे श की रानी ब्रह्मनंदिनी अद्भत
ु सुंदरी है । महादं भ नामक मांत्रिक उसके सौंदर्य पर
मुग्ध-हो गया और राजकुमार के वेष में आकर उससे विवाह करने के लिए कहा। हमारे दे श के
संप्रदाय के अनुसार महारानी को जीवन पर्यंत कन्या बनकर ही रहना है । अंतिम दशा में एक
और कन्या को महारानी के लिए चुनेगी। इस संप्रदाय का उल्लंघन करने पर दे श की प्रजा का
अहित होगा। इसलिए उसने मांत्रिक के प्रस्ताव का तिरस्कार किया। मांत्रिक क्रोधित हो उठा
और अपने असली रूप में प्रकट हुआ और इस दे श के सिपाहियों व वद्ध ृ ों को छोड़कर सबको
उसने विचित्र रूपों में बदल दिया। अब भी उन्हें सता रहा है । वह समझता है कि ऐसा करने पर
रानी उससे विवाह करने के लिए मान जायेगी। वह इसी की प्रतीक्षा में है ।” बुढ़िया ने कहा।
 
“मांत्रिक को निर्वीर्य बनाने का क्या कोई उपाय है ?” कपर्दि ने पछू ा।
 
“अद्भतु शक्तियों से भरा एक मंत्रदं ड उसके हाथ में है । सुना है कि यही उसका बल है ।” जब बूढ़ी
उनसे यह बता रही थी तब मांत्रिक उनके सामने प्रत्यक्ष हो गया और पूछा, “तम
ु लोग कौन हो?
यहाँ कैसे आये?”

“तम्
ु हारे अत्याचारों का अंत करने आये वीर हैं?” कपर्दि ने कहा।
 
“जानते हो, मैं मांत्रिक हूँ”, कहते हुए महादं भ जब मंत्रदं ड को ऊपर उठाने वाला ही था तब
कपर्दि ने अपनी ध्वनि को बदलते हुए कहा, “जानते हो, मैं महा मांत्रिक हूँ।” उसकी कंठ ध्वनि
सुनकर महादं भ डर गया और उसका मंत्रदं ड ज़मीन पर गिर गया। कपर्दि ने छलांग मारकर
उस मंत्रदं ड को अपने हाथ में ले लिया। यह दे खकर मांत्रिक अवाक् रह गया।
 
तभी वहाँ आयी महारानी ने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे मांत्रिक को गिरफ्तार कर लें और अपने
वश में ले लें। मांत्रिक के पकड़े जाने पर महारानी बहुत प्रस हुई और उन दोनों के प्रति कृतज्ञता
जतायी। उन्हें दशमूल औषधि के पौधे दिये। मंत्रदं ड का नाश करने पर वहाँ की प्रजा को असली
रूप मिल जाएँगे, पर कपर्दि ने कहा कि नगर की सरहद पार करने पर मंत्रदं ड का नाश करूँगा।
 
फिर दोनों यव
ु क उस स्थल पर गये, जहाँ उन्होंने वायु शकट को छिपाया था। नगर की सरहद
पार करने के बाद हे मानंद ने उस मंत्रदं ड का नाश करने के लिए कहा तो कपर्दि ने बताया, “मैंने
जो जाद ू सीखा था, उससे महादं भ का गर्व चरू -चरू कर दिया। पर मंत्रदं ड भविष्य में हमारे काम
आयेगा। उसे अपने ही पास रखेंगे।” फिर भी, सरहद पार करते ही नगर की प्रजा को उनके
असली रूप मिल गये। वायु शकट से यह दृश्य दे खकर हे मानंद बहुत ही खुश हुआ। उसके बाद
पर्वत श्रेणियों को पार करने के बाद संजीवराय को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हे मानंद ने
शकट को नीचे उतारा। वहाँ संजीवराय और शिवनाथ को दे खकर वे बेहद खुश हुए ।
 
“वह वद्ध
ृ दयालु है । अपना मन बदलकर उसने मेरा यौवन मुझे लौटा दिया।” संजीवराय ने
कहा। “समुद्र से हम किसी और तट पर पहुँच गये, इसलिए यहाँ आने में दे री हुई”, शिवनाथ ने
कहा। बाद चारों वायु शकट में बैठकर माणिक्यपुरी पहुँचे। दशमूलारिष्ट तैयार करके प्रत्यूषा
को दिया गया। अब वह बिलकुल ठीक हो गयी। प्रत्यूषा का विवाह हे मानंद के साथ संप हुआ।

उस दिन की शाम को कपर्दि ने जाद ू की प्रदर्शिनी का आयोजन किया। कपर्दि को आशा थी कि


उसकी सफलता पर लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करें गे और मूल्यवान भें टें प्रदान करें गे। वह मांत्रिक
के मंत्रदं ड का उपयोग करनेवाला था। पर उल्टे उस मंत्रदं ड ने कपर्दि को खूब मारा पीटा।
अपमानित कपर्दि ने मंत्रदं ड को तोड़ डाला और शर्म के मारे वहाँ से चला गया।
 
वेताल ने यह कहानी कह चक ु ने के बाद अपने संदेह प्रकट करते हुए राजा विक्रमार्क से पछ
ू ा,
“हे मानंद के साथ गये कपर्दि ने मांत्रिक को हराया और जड़ी-बट
ू ी को पाने में उसे बड़ी सहायता
पहुँचायी। मांत्रिक के मंत्रदं ड का नाश किये बिना उसे अपने पास ही रखा। पर वह मंत्रदं ड बाद
उसके उपयोग में क्यों नहीं आया? क्या यह इस बात का पष्ु टीकरण नहीं करता कि अद्भत ु
शक्तियों का विश्वास करने पर वे किसी दिन, कभी न कभी उल्टे उसे ही दं ड दें गे। मेरे संदेहों के
समाधान जानते हुए भी चप ु रह जाओगेतो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे?”
 
राजा विक्रमार्क ने कहा, “जड़ी-बटि ू यों के लिए निकले हे मानंद को तीनों ने सहायता पहुँचायी।
यों वे चारों के चारों कार्यदक्ष थे। हे मानंद जब पानी में डूब रहा था तब शिवनाथ ने काठ का
टुकड़ा दे कर उसकी जान बचायी और मैत्री धर्म निभाया।
 
नयी औषधि से मानव जाति की भलाई होगी, इसीलिए संजीवराय ने अपना यौवन त्याग
दिया। मांत्रिक को निर्वीर्य करने के लिए चातुर्य व सामर्थ्य दिखाने में सफल हुआ कपर्दि। पर,
मंत्रदं ड के हाथ आ जाने पर उसमें स्वार्थ बढ़ गया और मंत्रदं ड के बल पर उसने लाभ पाना
चाहा। मंत्रदं ड में हालांकि अद्भत
ु शक्तियाँ थीं, पर वह महादं भ के कंठस्वर के प्रकंपन पर ही
काम करती थीं। जो उसे पाते हैं, उसी की सहायता वह करता है । जो उसका तिरस्कार करते हैं,
वह उनकी सहायता नहीं करता। इसीलिए उसने कपर्दि के स्वार्थपूरित कार्यों में साथ नहीं
दिया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और पन
ु ः पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः काशीराम शास्त्री की रचना)
 
56. गुणगान की आकांक्षा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर
डाल लिया। फिर यथावत ्‌श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, "राजन,्‌ मेरी समझ में नहीं आया कि किन अद्‌भुत शक्तियों को पाने के लिए आधी रात
को यों कठोर परिश्रम किये जा रहे हो। परं तु हाँ, कुछ ऐसे व्यक्ति विशेष हैं, जो साहस से भरे
अद्‌भुत कार्य करते हैं और अद्‌भुत शक्तियॉ ं प्राप्त करते हैं। पर सही समय पर वे अपनी
शक्तियाँ खो बैठते हैं। प्राण भीति के वश में आकर अस्तव्यस्त विचारों के कारण भी कुछ लोगों
में ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं। वितंग नामक एक साहसी युवक भी ऐसे अस्तव्यस्त विचारों के
वशीभत
ू हो गया और अकस्मात ्‌उसमें परिवर्तन आ गया। उसकी कहानी थकावट दरू करते हुए
मुझसे सुनो।” फिर वेताल यों कहने लगाः

विक्रम, विलोप दे श का राजा था। उसके शासन काल में एक बार राक्षस उसके राज्य पर टूट
पड़े। राक्षस पाताल से अकस्मात ्‌भमि
ू पर आकर मानवों को खाने लगे। विक्रम की समझ में
नहीं आ रहा था कि राक्षसों से प्रजा को कैसे बचाया जाए। तब उस समय उससे मिलने विरुपाक्ष
नामक एक मुनि आये। राजा ने उनका आदर-सत्कार किया और अपनी समस्या बतायी।
 
तपोसंप विरुपाक्ष के पास एक महिमावान दर्पण था। वे पाताल लोक के राक्षस राजा महाबलि
को उसमें ले आये और विक्रम की समस्या उससे बतायी।
 
महाबलि ने सविनय कहा, "मुनिवर, बाघ का आहार हिरण है तो राक्षस का आहार है , मानव।
इसे दै व निर्णय न मानिये और आप ही इस समस्या का न्यायपूर्ण परिष्कार मार्ग सुझाइये।”
 
विरुपाक्ष ने कहा, "आगे से राक्षस पापी मनुष्यों को ही खाएँ और पुण्यवानों को छोड़ दें । जो
राक्षस इस नियम का भंग करें गे, वे दांतों के असहनीय दर्द के शिकार होंगे। यही उनका दं ड
होगा। साहसी मानव उस राक्षस के मँह
ु में प्रवेश करे गा और अभायरण्य की जड़ी-बूटियों से दं त
धावन करे गा, तभी दांतों का दर्द कम होगा।”
 
महाबलि ने इस शर्त को मान लिया और दर्पण से ग़ायब हो गया। फिर मुनि ने वह महिमावान
दर्पण राजा विक्रम को दे दिया और कहा, "तुम्हें किसी तक़लीफ़ का सामना करना पड़े तो मुझे
याद करो। मैं इस दर्पण में तुम्हें दिखायी दँ ग
ू ा और परिष्कार का मार्ग सुझाऊँगा।” यों कहकर वे
चले गये।
 
इसके बाद राक्षसों द्वारा खाये जानेवाले मानवों की संख्या में कमी होती गयी। विक्रम और
महाबलि के बीच में जो समझौता हुआ, उसका प्रचार दे श भर में हुआ, जिस वजह से सब
विश्वास करने लगे कि जो मानव राक्षसों से मारे जा रहे हैं, वे सब पापी हैं। यों दे श के नागरिकों
में पाप भीति भी बढ़ती गयी।

उस काल में अभयारण्य के निकट ही स्थित विकासपुर नामक गवाँ में श्री तंग नामक एक
भूस्वामी रहा करता था। वह हर किसी की सहायता करता था। लोग उसे बहुत मानते भी थे।
वितंग उस भूस्वामी का एकलौता बेटा था। बड़े ही लाड़-प्यार से उसकी परवरिश हुई। शायद
इसी वजह से वह बड़ा ही स्वार्थी बन गया। घर में सबके सब उसकी तारीफ़ करते थे। वह चाहता
था कि बाहर के सबके सब बालक भी उसकी तारीफ़ करते रहें । जो उसकी तारीफ़ नहीं करते थे,
उन्हें वह गालियाँ दे ता था । इस वजह से बच्चे उससे दरू रहते थे। इस विषय को लेकर उसने
दादा से शिकायत की तो उन्होंने कहा, "यदि तुम चाहते हो कि सब तुम्हारी प्रशंसा करें तो उनके
साथ तुम्हारा व्यवहार अच्छा होना चाहिये। इसके सिवा कोई दस ू रा मार्ग नहीं है ।”
 
"जो काम मुझे पसंद हैं, वे ही करूँगा। उन्हें जो पसंद हैं, वे काम मैं किसी भी हालत में नहीं
करूँगा। जो भी हो, उन्हें मेरी तारीफ़ करनी ही होगी।” वितंग ने दृढ़ स्वर में कहा।
 
दादा समझ गये कि अब भी वितंग की बुद्धि का विकास नहीं हुआ। उन्होंने उसे उस गाँव के
महापंडित विद्यानाथ के पास विद्याभ्यास के लिए भेजा। सबकी प्रशंसा पाने के उद्देश्य से
वितंग ने बड़ी मेहनत करके पढ़ाई की। एक ही साल के अंदर उसने अपने को सबसे श्रेष्ठ
साबित कर दिया। पर, उन विद्यार्थियों से इस बात पर हमेशा झगड़ा करता रहता था, जो
उसकी प्रशंसा नहीं करते थे। वे तंग आ गये और उन्होंने गरु
ु से इसकी शिकायत की। गरु
ु ने
उससे कैफ़ियत माँगी।
 
"मैं आपके सब शिष्यों में से श्रेष्ठ शिष्य हूँ। आपको तो मेरी अक्लमंदी की तारीफ़ करनी
चाहिये, परं तु आप तो उनकी तरफ़दारी करते हुए मुझसे कैफ़ियत माँग रहे हैं। यह तो बड़ी
अजीब बात है ,” वितंग ने कहा। "मानता हूँ कि तम
ु सबसे अधिक अ़क्लमंद हो। पर साथी
शिष्य तुम्हें पसंद नहीं करते, इसलिए तुम्हारी अक्लमंदी तुम्हारे ही उपयोग में नहीं आ रही है ।
धन हो या अक्लमंदी, उपयोग में आने पर ही उसका मूल्य है । अगर वह उनके काम नहीं आया
तो बड़ों की भी कोई तारीफ़ नहीं करता। तुम चाहते हो कि सब, तुम्हारी प्रशंसा करें तो ऐसे काम
भी करो, जो सबके लिए लाभदायक हों,” विद्यानाथ ने उसे समझाया।

वितंग को आचार्य की बात पसंद नहीं आयी और अपने को उसने नहीं बदला। यों कुछ साल
गुज़र गये। विद्यानाथ ने एक दिन सवेरे अपने शिष्यों को अभयारण्य जाकर जड़ी-बूटियाँ ले
आने को कहा। सबके सब गये, पर वितंग विद्यालय में ही रह गया।
 
विद्यानाथ के शिष्यों ने जब अभयारण्य में प्रवेश किया तब महासुर नामक राक्षस ने भी वहाँ
क़दम रखा। कुछ दिन पहले उसने एक पण्
ु यवान को खा लिया था। इस वजह से वह दांतों के
असहनीय दर्द से पीड़ित रहने लगा। वह एक साहसी मानव की खोज में अभयारण्य आया।
विद्यानाथ के शिष्यों को दे खकर उसने उनसे कहा, "मेरे मंह
ु में प्रवेश करो और इन जड़ी-
बटि
ू यों से मेरा दं त धावन करो।” उसे दे खते ही शिष्य भयभीत हो गये और उसकी बातें सन
ु कर
बेहोश हो गये।
 
जब शिष्य बहुत समय तक नहीं लौटे तब विद्यानाथ ने उन्हें ढूँढ़ने के लिए वितंग को भेजा।
उसने जंगल में महासुर को दे खा। महासुर ने तुरंत उसे अपनी हथेली में लिया और अपनी इच्छा
प्रकट की। वितंग ने बिना भय के कहा, "तुम्हारे मुंह में प्रवेश करके जड़ी-बूटियों से तुम्हारा दं त
धावन करूँगा तो तुम्हारा दर्द कम हो जायेगा, पर इससे मुझे क्या लाभ होगा?”
 
"तुम अगर मेरे दर्द को दरू करोगे तो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा।” महासुर ने कहा।
 
"जो काम मुझे पसंद हैं, वे ही काम मैं करता हूँ। फिर भी, सबको मेरी प्रशंसा करनी होगी। यही
मेरी इच्छा है । क्या यह काम तुम कर सकते हो?” वितंग ने पूछा।
 
"मेरे पास स्तुतींद्र नामक अद्‌भुत शक्ति है । मेरे दांत का दर्द दरू करोगे तो मैं तुम्हें वह दे दँ ग
ू ा।
तब सभी तुम्हारी प्रशंसा करें गे।” कहते हुए महासुर ने उसे अपनी गोद में डाला।
 
राक्षस की गोद में बेहोश पड़े साथी शिष्यों से उसने जड़ी-बटि ू याँ लीं। महासुर ने उसे अपने मँह

में डाल लिया तो उसने निधड़क उसके सब दांतों का धावन किया, जिससे उसका दर्द दरू हो
गया। महासुर ने उसे मुंह से बाहर निकाला और कहा, "अब स्तुतींद्र तुम्हारे वश में हो गया।
जब तक तम
ु चाहोगे, वह शक्ति तुम्हारे पास रहे गी।

तुम बुरा करो या अच्छा, सब तुम्हारी प्रशंसा करें गे और तुम नाम कमाओगे।” यों कहकर
महासुर वहाँ से चला गया। तब से सब शिष्य उसकी तारीफ़ के पल
ु बांधने लगे। उसके धैर्य की
तारीफ़ करने लगे। गुरु ने भी कह दिया, "अब तम
ु सब विद्याओं में पारं गत हो गये।” एक दिन
ग्रामाधिकारी ने उससे मिलकर कहा, "मैं अब से तुम्हारा अनुचर बनकर रहूँगा और तुम्हारी हर
बात को मानँगू ा।”
 
विकासपरु में वितंग की बात का विरोध करनेवाला कोई नहीं रहा। स्तत
ु ींद्र की महिमा के कारण
सब उसकी भरपरू प्रशंसा करने लगे। इसलिए वह खल्
ु लमखल्
ु ला अन्याय करने लगा। गाँव में
कोई अच्छा काम हुआ तो लोग कहने लगे कि यह सब वितंग के कारण ही हो रहा है । कष्ट
झेलने पड़े तो वे समझने लगे कि यह सब विधि लीला है । स्तत
ु ींद्र की महिमा के कारण वितंग
की ख्याति दे श भर में फैल गयी। सब ग्रामाधिकारी वितंग के अनय
ु ायी और दरु ाचारी बन गये।
क्रमशः राजा को भी उसके बारे में मालूम हुआ। राजा विक्रम ने गुप्तचरों को भेजकर विषय की
जानकारी पायी। अब राजा को लगने लगा कि वितंग का प्रभाव जारी रहा तो सर्वनाश होकर
रहे गा। वह घबरा गया और उसने महिमामयी दर्पण का आश्रय लिया।
 
विरुपाक्ष उस दर्पण में प्रत्यक्ष हुए और संपूर्ण विषय की जानकारी पाने के बाद उन्होंने कहा, "मैं
शीघ्र ही महाबलि से मिलँ ग
ू ा और एक साल के बाद तुम्हारे दे श में जो-जो दरु ाचारी और
अनैतिक लोग हैं, उन्हें एकसाथ निगल डालने के लिए राक्षसों को भेजने का प्रबंध करूँगा। जब
लोगों को यह मालूम हो जायेगा, तब एक ही साल के अंदर तुम्हारे दे श के सभी अनैतिक लोगों
में परिवर्तन आ जायेगा। जिनमें परिवर्तन नहीं आयेगा, वे राक्षसों का आहार बनेंगे।”
 
"आपका बताया उपाय सही है , परं तु समस्या तो वितंग से जड़ ु ी है । वह लोगों को सता रहा है ,
उनके साथ अन्याय कर रहा है , पर स्तत
ु ींद्र की शक्ति के प्रभाव से सब उसकी प्रशंसा में लगे
हुए हैं। समस्या तो यह है कि उसे कैसे नियंत्रण में रखें,” विक्रम ने दख
ु -भरे स्वर में कहा।

"दख
ु ी मत होना। वितंग की प्रशंसा करते हुए शिला-लेख लिखवाना। साथ ही घोषणा करवा दे ना
कि दरु ाचारी व अनैतिक मानवों का किस-किस प्रकार की यातनाएँ सहनी होंगी। तुम्हारी
समस्या का हल हो जायेगा।” विरुपाक्ष यों कहकर ग़ायब हो गये।
 
विरुपाक्ष के कहे अनुसार, विक्रम ने किया। साल ही के अंदर बहुत लोगों के साथ-साथ वितंग में
भी परिवर्तन हुआ। अब उसने स्तुतींद्र का उपयोग छोड़ दिया और अच्छे काम करने लगा।
विलोम दे श धर्मात्माओं के स्थल में बदल गया।
 
वेताल ने यह कहानी सुनायी और फिर विक्रम से कहा, "राजन,्‌ वितंग बुरे काम करता रहा, पर
चाहता रहा कि लोग उसकी प्रशंसा करें । पर अकस्मात ही उसमें परिवर्तन आया। इसका क्या
कारण है ? प्राण भीति के कारण मनुष्यों के विचारों में आमूल परिवर्तन होते हैं। वितंग में आये
परिवर्तन की वजह क्या यह नहीं है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रहोगे तो
तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने उसके संदेहों को दरू करते हुए कहा, "मानता हूँ कि निस्संदेह भीतियों में से सबसे
भयंकर भीति है , प्राण भीति।
 
"परं त,ु वितंग में जो परिवर्तन हुआ, इसका यह कारण नहीं है । कुछ लोगों में प्राण भीति से
बढ़कर गण ु गान की इच्छा प्रबल होती है । वितंग में यह स्वभाव था कि लोग उसकी प्रशंसा करें ।
 
"अंत तक उसका यह स्वभाव बना रहा। परं तु तदनंतर वह समझ गया कि प्रजा यह विश्वास
करे गी कि राक्षस का आहार जो बनेंगे वे बुरे लोग हैं। अगर ऐसा नहीं होना हो तो एक ही मार्ग है ,
अच्छा बनकर रहना। गुणगान की आकांक्षा रखनेवाले अच्छे काम ही नहीं करते, बल्कि बुरे
काम करना भी छोड़ दे ते हैं। वितंग ने यही काम किया। स्तत
ु ींद्र की वजह से जो प्रशंसाएँ प्राप्त
हुईं, उनसे बढ़कर राजा के शिला लेखों से उसे संतप्ति
ृ प्राप्त हुई, इसीलिए उसने स्तत
ु ींद्र को
त्याग दिया। यह स्पष्ट है कि वितंग में जो परिवर्तन हुआ उसका कारण था प्राण भीति नहीं,
बल्कि उसके गण
ु गान की आकांक्षा।” राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो
गया और पेड़ पर पनु ः चढ़ बैठा।
 
(आधार "वसुंधरा” की रचना)
 
57. राजकुमारी के प्रश्न

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर ड़ाल
लिया। फिर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ् , हम दे खते रहते हैं कि कुछ विद्यावानों में विवेक, विनम्रता भरे हुए होते हैं। वे
अपने ज्ञान को दस
ू रों के साथ बांटते भी हैं। पर, कुछ ऐसे विद्यावान भी हैं, जो इससे बिल्कुल
भिन्न हैं। अपने विद्यावान होने का दर्प उनमें भरा हुआ होता है । अपने शब्दों के मायाजाल से,
वे दस
ू रों की अवहे लना करते हैं, उन्हें अपमानित करते हैं। मझ
ु े शंका हो रही है कि कहीं ऐसे
व्यक्तियों ने तम्
ु हें इस असाध्य कार्य को परू ा करने के लिए प्रेरित तो नहीं किया? मैं तहे दिल से
चाहता हूँ कि तम
ु उनके स्वभाव-स्वरूप को जानो। मैं ऐसी ही दरु हं कारी राजकुमारी विलासिता
की कहानी तम्
ु हें बताऊँगा, जिसमें अपने विद्यावान होने का गर्व कूटकूट कर भरा हुआ था ।
थकावट दरू करते हुए ध्यानपर्व
ू क सनु ना।” फिर वेताल कहानी यों सनु ाने लगाः

भप
ू तिसेन माल्य दे श का राजा था। विलासिता उसकी इकलौती पत्र
ु ी थी। राजा ने, एक
महापंडित को उसे समस्त विद्याएँ सिखाने के लिए नियक्
ु त किया। विवाह के योग्य होने तक
ु ने भॉपं लिया कि विद्या के साथ-साथ उसमें अहं भाव की
उसने सभी विद्याएँ सीख लीं। गरु
मात्रा भी बढ़ी है । इसलिए राजा और रानी को उसने सलाह दी कि वर को चुनने का अधिकार
उसे ही दिया जाए और इस विषय में उसे पूरी आज़ादी दी जाए।

विद्या में ही नहीं, बल्कि सौंदर्य में भी विद्युत लता की तरह चमकनेवाली विलासिता से विवाह
रचाने कई राजकुमार आगे आये। वर के चयन में उसकी विचारधारा बहुत हद तक विलक्षण
थी। वह चाहती थी कि उससे विवाह करनेवाला सब क्षेत्रों में उसके समान हो। यह उसका
निश्चित अभिप्राय था।

भूपतिसेन ने, पत्र


ु ी विलासिता के स्वयंवर की घोषणा की। पूरा एक साल बीत गया, परं तु
स्वयंवर पर आया कोई भी राजकुमार उसके प्रश्नों का उत्तर दे नहीं पाया।

 
एक दिन सबेरे रुद्रपुर का राजकुमार अभिलाषवर्मा स्वयंवर पर आया। जैसे ही उसने राजभवन
के सामने अपने अश्व को रोका, एक राजसेवक दौड़ता हुआ आया और अभिलाषवर्मा को
राजभवन में ले गया। और उसके रहने की व्यवस्था की।

एक घंटे के अंदर, रे शमी साड़ी में सजी, वनदे वी-सी लगनेवाली राजकुमारी विलासिता, अपने
माता-पिता के साथ वहॉ ं आयी और अभिलाषवर्मा के सम्मख ु आसीन हो गयी। वर्मा उसके
अति सौंदर्य पर मग्ु ध हो गया। फिर उसने अपना परिचय दिया।

विलासिता मंदहास करती हुई बोली, “मैं आपसे कुछ प्रश्न पछ


ू ू ँ गी। अगर आप उनके सही उत्तर
यानी जिन उत्तरों की मैंने कल्पना की उन्हें दे पायेंगे तभी हमारा विवाह होगा।”

अभिलाषवर्मा ने इस अर्थ में सिर हिलाया कि मैं उत्तर दे ने को सन्नद्ध हूँ।

विलासिता ने अपना गला साफ़ करते हुए पछ


ू ा, “आपके राज्य में प्रजा कौवे हैं या कुत्ते?”

अभिलाष ने एक क्षण भर के लिए सोचने के बाद कहा, “हमारे राज्य में परू ी प्रजा कौवे हैं। कुत्तों
जैसा एक भी नहीं है ।”

उसके इस उत्तर पर मंदहास करती हुई विलासिता ने दस ू रा प्रश्न पछ


ू ा, “आप जन्म से चंद्र
वंशज हैं। स्वभाव के अनस
ु ार भी चंद्र ही के अंश हैं। या....” कहती हुई रुक गयी।

इस प्रश्न का उत्तर फ़ौरन दे ते हुए अभिलाष वर्मा ने कहा, “मैं स्वभाव के अनस
ु ार सर्य
ू वंशज
हूँ।”

“शाबाश, राजकुमार! मेरा अंतिम प्रश्नः पिता वन चले जायें तो सब क्यों दख


ु ी होते हैं? लौटकर
तो आयेंगे ही न?”

अभिलाष वर्मा ने कहा, “अज्ञान के  कारण।”

“जो पिता बन गये, वे क्या लौटें गे?” विलासिता ने अपना संदेह व्यक्त करते हुए कहा।
“अवश्य लौटें गे। परं तु हॉ,ं शायद अपने घर न आयें,” अभिलाष वर्मा ने गंभीर स्वर में कहा।

इन उत्तरों को सुनते ही, विलासिता ने माता-पिता की ओर मुड़कर कहा, “इस राजकुमार ने


मेरी कल्पना के ही अनुरूप उत्तर दिये, स्वयंवर में विजयी
हुए।”
पुत्री की बातें सुनकर राजा, रानी बहुत ही प्रसन्न हुए। भूपतिसेन ने अपने आसन से उठकर,
होनेवाले दामाद अभिलाषवर्मा को प्यार से अपने आलिंगन में ले लिया।

वेताल ने यह कहानी राजा विक्रमार्क को सुनायी और कहा, “राजकुमारी व राजकुमारी के


प्रश्नोत्तर क्या बधिर व गूंगों के गपशप जैसे नहीं लगते? सारे के सारे प्रश्न अस्तव्यस्त और
उत्तर भी असंगत नहीं लगते? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो
तुम्हारा सिर टुकड़ों में फट जायेगा।”

विक्रमार्क ने कहा, राजकुमारी विलासिता ने राजकुमार अभिलाषवर्मा से जो प्रश्न पूछे, उनके


उत्तर उसने उसे संतप्ृ त करनेवाली पद्धति में दिये। “तुम्हारे राज्य की प्रजा कौवे हैं या कुत्ते”
इस प्रश्न का उत्तर उसने दियाः “हमारे राज्य की पूरी प्रजा कौवे ही हैं” जिसका यह अर्थ है ; जो
भी आहार उपलब्ध होता है , उसे सब कौवे मिलकर खाते हैं, न कि कुत्तों की तरह एक-दस
ू रे के
शत्रु बनकर भरे पत्तल को फाड़ दे ते हैं।

यही वर्मा के कहने का मतलब है । “आप चंद्रवंशज हैं, स्वभाव के अनरू


ु प भी क्या आप चंद्र के
अंश ही हैं?” इस प्रश्न का उत्तर वर्मा ने जो दिया, उसका यह अर्थ हुआ कि वह, वह चंद्र नहीं,
जिसका अपना प्रकाश नहीं, वह, सर्य ू है , जिसका अपना प्रकाश है और मैं उस सर्य
ू के वंश का हूँ।

अब तीसरा प्रश्न है ः “पिता अगर वन चले जायें (पितव


ृ न का दस
ू रा अर्थ है , श्मशान) तो सबको
अपार दख
ु होता है । वे तो लौटकर आयेंगे। क्या जो पिता वन गये, वे लौटकर आयेंगे?” इस
उत्तर का अर्थ है जो पिता श्मशान ले जाये गये, उनको लेकर हर कोई दख
ु ी होता है ।

परं तु उनका लौटना और न लौटना उन-उन व्यक्तियों के विश्र्वास पर निर्भर होता है । अगले
जन्म में पिता भले ही अपने ही घर में न जन्में , किसी दस
ू रे घर में भी जन्म ले सकते हैं। यह
वर्मा के कहने का अर्थ हुआ। जब हम इन प्रश्नों और उत्तरों की गहराई में जायें तो स्पष्ट होता
है कि अवश्य ही ये प्रश्नोत्तर बधिरों व गँग
ू ों के गपशप नहीं हैं।

यों राजा के मौन-भंग में सफल वेताल, शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा
बैठा।         

(आधारः वसिष्ठ की रचना)

 
58. नास्तिक की दे व प्रार्थना

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर ड़ाल
लिया। फिर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, इस भयंकर श्मशान में आधी रात को इतने कष्ट झेलते हुए तुम्हें दे खकर
आश्चर्य होता है । दे खा गया है कि कुछ आस्तिक धन का उपयोग दान धर्मों के लिए करते हैं।
ऐसे दानी, क्रमशः दरिद्र हो जाते हैं। ऐसे ही वे नास्तिक भी हैं, जो दान धर्म के बारे में किंचित
भी नहीं सोचते। वे धन इकठ्ठा करते जाते हैं और दे खते-दे खते करोड़पति बन जाते हैं। वे सब
प्रकार के सुखों का अनुभव करने लगते हैं। मैं तुम्हें ऐसे दो आस्तिक व नास्तिक बाप-बेटे की
कहानी सुनाऊँगा। थकावट दरू करते हुए उनकी कहानी ध्यान से सुनना।” फिर वेताल उनकी
कहानी यों सुनाने लगाः

भाग्यपुर के निवासी धनपाल को विरासत में भारी संपत्ति मिली। साथ ही उसमें दया,
दे वभक्ति भी भारी मात्रा में थे। कोई भी ज़रूरतमंद खाली हाथ लौटता नहीं था। उसकी पत्नी
सुरुचि को यद्यपि भगवान में विश्वास था पर पति का इस प्रकार से दे व भक्ति के नाम पर धन
लुटाना कतई पसंद न था। वह हमेशा उससे कहा करती थी कि पुरखों की दी हुई संपत्ति को
संतान को सौंपना कर्तव्य है । परं तु धनपाल उसकी बातों पर कोई ध्यान दे ता नहीं था।
 
श्रीपाल, गोपाल, गुणपाल उसके तीन पुत्र थे। दस ू रा और तीसरा बेटा पिता की ही बातों को
मानते थे। बडा बेटा श्रीपाल माँ की बातें ही सही मानता था। वह समझता था कि आस्तिक होने
से दान-धर्म में बहुत धन लुटाना पड़ता है । इसीलिए संपत्ति की रक्षा के वास्ते वह बचपन से ही
नास्तिक हो गया । और था अव्वल दर्जे का कंजूस भी।
 
धनपाल ने एक दिन पत्नी से कहा, “धन शाश्वत नहीं है , वह संतोष नहीं दे ता। मनुष्य को
संतोष दे ती है तो संतप्ति
ृ मात्र ही। जिनमें दे व भक्ति व दया गुण नहीं होते, उनमें कदापि
संतप्ति
ृ नहीं होती।”
 
पत्नी सुरुचि ने पति की बातों का खंडन करते हुए कहा, “जब धन होता है , तब उसके मूल्य को
जानने से हम इनकार करते हैं। जब धन नहीं होता तब हमारी अच्छाई हमारे काम नहीं आती,
मांड का पानी भी पीने को नहीं दे ती।”
 
बेटों के बालिग होने तक धनपाल के पास जो भी धन था, खर्च हो गया। बीस एकड़ों की भूमि
मात्र बच गयी। उसके खर्च के लिए खेत से आनेवाली आमदनी काफी नहीं पड़ती थी, इसलिए
उसने खेत का एक भाग बेचना चाहा। तब सरु
ु चि ने पति से कहा, “बच्चे जवान हो गये हैं।
संपत्ति में से उनका हिस्सा उन्हें दे दीजिये और अपना जो हिस्सा है , आप जैसा चाहें , कर
लीजिये।” कटुता-भरे स्वर में उसने कहा।
 
धनपाल ने पत्नी ने कहे अनुसार ही किया। उसने संपत्ति को चार हिस्सों में बाँट दिया और
बेटों से कहा, “हममें से हर कोई पाँच एकड़ का स्वामी है । धन के खर्च के विषय में जो मेरी
पद्धति को मानते हैं, वे मेरे साथ रह सकते हैं, जो मेरी पद्धति को स्वीकार नहीं करते, वे अलग
रह सकते हैं।”

दस
ू रे और तीसरे बेटे ने पिता के ही साथ रहने का निश्चय किया। परं तु बड़ा बेटा श्रीपाल अलग
हो गया। उसे खेती पर भरोसा नहीं था इसलिए गाँव में ही उसने एक छोटा व्यापार शुरू किया।
दो सालों के अंदर ही वह लखपति बन गया। कुछ दोस्तों ने उससे धन की सहायता माँगी। पर
उसने किसी की भी सहायता नहीं की, इसलिए वे उसे कंजूस कहने लगे।
 
थोड़े ही समय के अंदर धनपाल ने जो भी ज़मीन थी, बेच डाली। खाने के लिए भी जब कुछ नहीं
रह गया तब उसने दस
ू रों से मदद माँगी। परं तु किसी ने भी मदद नहीं की। तब धनपाल की
समझ में आया कि अपनी शक्ति से बढ़कर दान दे ना अच्छा नहीं। जब कोई दस
ू रा चारा नहीं
रह गया तो वह सपरिवार बडे बेटे के पास गया और बोला, “तम
ु में जो दरू दर्शिता थी, वह मुझमें
नहीं थी। थोड़ा-सा धन कर्ज़ के रूप में मुझे दे ना। मैं और तुम्हारे भाई कोई व्यापार शुरू करें गे
और अपना पेट भरते हुए थोडे ही समय के अंदर तम्
ु हारी रक़म तम्
ु हें लौटा दें गे।”
 
श्रीपाल ने कहा, “अभी आपके हाथ में धन नहीं रहा, इसलिए आप ऐसी बातें कर रहे हैं। धन
हाथ में आ जाए तो अपनी पुरानी पद्धति को ही अमल में लायेंगे। इसलिए आप सब मेरे ही साथ
रहिये, किसी प्रकार की कमी आने नहीं दँ ग
ू ा। परं तु हाँ, एक शर्त अवश्य है । जब तक आप यहाँ
रहें गे तब तक आपमें से कोई भी भगवान की पूजा और दान-धर्म नहीं करें गे।”
 
बेटे की इन बातों पर धनपाल ने नाराज़ हुए बिना, शांत होकर कहा, “जब तक जीवित हूँ, भक्ति
बिना मझ
ु से रहा नहीं जायेगा।” यह कहते हुए वह दसू रों के साथ वहाँ से निकल पड़ा।
 
नास्तिक होते हुए भी बडे बेटे ने उसकी इज्जत की, अच्छी आवभगत की, इसकी धनपाल को
खुशी थी। पर उसे यह ग़म खाये जा रहा था कि श्रीपाल ने धन दे कर सहायता करने से इनकार
कर दिया। उससे यह धक्का सहा नहीं गया और बीमार पड़ गया। सही इलाज न होने के कारण
धनपाल की शारीरिक स्थिति दिन व दिन बिगड़ने लगी। ऐसी परिस्थितियों में अंगद नामक
एक रामभक्त उस गाँव में आया। वह राम की महानता का प्रचार करने लगा। गाँव के सबके
सब मानने लगे कि जिस घर में उसका पदार्पण होता है , वहाँ शभ
ु ही शभ
ु होता है ।

गोपाल और गुणपाल को जब यह समाचार मालूम हुआ तब उन्होंने अंगद को अपने घर


बुलाया। वहाँ खाट पर लेटे पडे धनपाल को दे खकर अंगद ने कहा, “राम को तुमने ठे स
पहुँचायी। इसी कारण तुम्हारी यह दर्दु शा हुई।”
 
धनपाल ने दीनता के साथ उसे दे खते हुए कहा, “मेरा बड़ा बेटा नास्तिक है । पिता होने के नाते
उसकी इस भलू का मैं ही जिम्मेदार हूँ। आप ही बताइये कि इस भल ू का परिहार कैसे करूँ?”
 
“तम
ु ने अपने बेटों की संपत्ति उन्हें नहीं दे कर खर्च कर दिया। तुम्हारे इस काम पर क्या
भगवान को कष्ट नहीं होगा? तुम संपत्ति को बरबाद कर रहे हो, इसीलिए तुम्हारा बड़ा बेटा
नास्तिक हो गया, कंजूस हो गया। समझने की कोशिश करो।”
 
गणु पाल ने कहा, “महोदय, मेरे पिताश्री पण्
ु य कार्यों पर ही खर्च करते थे। फिर भी हम कष्ट
सहते जा रहे हैं। मेरा बड़ा भाई नास्तिक है , पर करोडपति बनकर सख
ु ों का अनभ
ु व कर रहा है ।
क्या यही भगवान का न्याय है ?”
 
अंगद ने गुणपाल के कंधे को थपथपाते हुए कहा, “तुम्हारे बडे भाई ने भगवान का विश्वास नहीं
किया, पर उसने भगवान का दष
ू ण भी नहीं किया । कंजूस है , अतः अपात्र दान भी नहीं किया।
इसी कारण तुम सबों का पण्ु य उसे प्राप्त हुआ है ।”
 
सुरुचि ने अंगद से कहा, “आप जैसा कहें गे, भविष्य में ऐसा ही करें गे। पहले आप मेरे पति के
स्वस्थ होने का उपाय बताइये।”
 
“तुम्हारे पति को वज्र भस्म का सेवन करना होगा। उसे तैयार करने के लिए एक लाख रुपये के
मूल्य का वज्र चाहिये।” अंगद ने कहा।
 
सुरुचि, गोपाल, गुणपाल यह सुनकर स्तंभित रह गये। भला इस स्थिति में एक लाख रुपये
लाना कैसे संभव हो सकता है । तब अंगद ने उनसे कहा, “धन जुटा नहीं सकते तो एक दस
ू रा
उपाय भी है । तुममें से कोई एक हृदयपूर्वक भगवान का विश्वास करके धनपाल के स्वास्थ्य के
लिए एक पूरी रात राम के मंदिर में प्रार्थना करो। वे तुरंत चंगे हो जायेंगे। प्रार्थना करनेवाले तम

में से कोई एक हो सकता है या गाँववालों में से कोई एक।”

गोपाल, गुणपाल ने अलग-अलग उसी रात को राम के मंदिर में जाकर पिता के स्वास्थ्य के
लिए प्रार्थनाएँ कीं। दस
ू रे दिन सरु
ु चि ने जाकर प्रार्थना की। फिर भी कोई फल नहीं निकला।
गाँव के बहुत लोगों ने भी प्रार्थना की। पर धनपाल के स्वास्थ्य में थोड़ा भी सध
ु ार नहीं हुआ।
 
ऐसी स्थिति में श्रीपाल अंगद से मिला और कहा, “मैं अपने पिताश्री की बहुत इज्जत करता हूँ।
आपको लाख रुपये दँ गू ा। वज्र भस्म तैयार करके उन्हें स्वस्थ कीजिये।”
 
अंगद ने हँसते हुए कहा, “तमु कंजूस हो। हृदयपूर्वक धन राशि दे ने पर ही मेरा वज्र भस्म काम
करे गा। इसके लिए तम्
ु हें इस रात को राम के मंदिर में रहना होगा और भगवान पर संपर्ण

विश्वास रखकर प्रार्थना करनी होगी। तम्
ु हारे पिता के स्वस्थ होने की संभावना है ।”
 
श्रीपाल ने अपनी सहमति दी। पर गाँववालों ने यह कहकर उसे मंदिर में आने से मना किया कि
एक नास्तिक को वे मंदिर में प्रवेश करने नहीं दें गे। रात होते ही उन्होंने मंदिर के दरवाज़े भी
बंद कर दिये।
 
श्रीपाल मंदिर के सामने खड़ा हो गया और प्रार्थना करने लगा, “हे राम, कहते हैं कि आप पिता
की आज्ञा का पालन करने के लिए राज्य को त्यज कर अरण्य चले गये। अगर यह सच हो तो,
पिता के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएँ करने के लिए मझ
ु े, मंदिर में प्रवेश होने दीजिये।”
 
दसू रे ही क्षण मंदिर के दरवाज़े आप ही आप खुल गये। श्रीपाल मंदिर के अंदर गया और श्रीराम
की मर्ति
ू के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने लगा।
 
इससे बहुत पहले ही धनपाल की बीमारी दरू हो गयी। बेहद खश
ु होकर वह सपरिवार मंदिर
आया और श्रीपाल को बडे ही प्यार से गले लगाया।
 

वेताल ने कहानी बता कर राजा विक्रमार्क से कहा, “राजन ्, परम भक्त धनपाल ने अपनी पूरी
संपत्ति खो दी, और नास्तिक श्रीपाल करोड़पति बन गया। क्या यह विचित्र नहीं लगता?
धनपाल की पत्नी और उसके दोनों बेटों ने दे व प्रार्थना की, फिर भी वह स्वस्थ नहीं हो पाया।
परं तु एक नास्तिक की प्रार्थना सफल हुई। क्या यह आपको विचित्र, अस्वाभाविक नहीं लगता?
मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो
जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दरू करने के उद्देश्य से कहा, “दे वभक्ति और आर्थिक स्थिति में
कोई संबंध नहीं होता। पूर्व जन्म कर्म इसके कारण हैं। धनपाल की पत्नी और उसके दो बेटे जो
कष्ट झेल रहे हैं, उनके कारण भगवान पर उनका विश्वास उठ गया। इसी वजह से उनकी
प्रार्थनाओं का कोई फल नहीं हुआ। गाँववालों ने भी तकलीफ़ों में उसकी सहायता नहीं की, इसी
कारण उनकी प्रार्थनाएँ भी व्यर्थ हुईं। अब रही श्रीपाल की बात। पिता की पद्धति को दे खते हुए
उसे इस बात का भय हो गया कि दे वभक्ति से अपार धन खर्च होता है । इसीलिए वह नास्तिक
हो गया। वह अपने पिता को चाहता था, उसका आदर करता था, इसीलिए वज्र भस्म के लिए
एक लाख रुपये दे ने को तैयार हो गया। चित्त शद्ध
ु हो और सत्कार्य करने को आगे आयें तो
भगवान ऐसों की प्रार्थनाएँ सन
ु ते हैं। श्रीपाल के विषय में भी यही हुआ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः “वसंधु रा” की रचना)
 
59. पथ्
ृ वी लोक की नीलांजना

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया; पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे
पर डालकर श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा,
“राजन ्, लगता है कि तुम बहुत बड़े जिद्दी हो। किसी भी हालत में अपनी हार मानने को तैयार
नहीं हो। मुझे संदेह होता है कि उस जिद्द को कार्यरूप दे ने के लिए तुम डटे हुए हो। किन्तु हो
सकता है , ऐन मौक़े पर नीलांजना की तरह अपनी विजय प्रत्यर्थी को सौंप दोगे और अपना पूरा
परिश्रम व्यर्थ कर डालोगे। मैं तुम्हें उस गंधर्व राजकुमारी की कहानी सुनाऊँगा, जिसने
अनायास ही मानव जीवन तो पाया, पर उसे ठुकरा दिया और खो ड़ाला। अपनी थकावट दरू
करते हुए, उसकी कहानी सुनना,” फिर वेताल उसकी कहानी यों सुनाने लगाः प्रियंवद वैशाली
राज्य का शासक था। उस राज्य की दक्षिणी सरहद के त्रिशँग
ृ नामक प्रांत में कलाधर नामक
एक असाधारण शिल्पी रहता था। उसके शिल्पों की प्रशंसा हर कोई करता था।

एक दिन चांदनी रात में जब वह घर के बाहर सोया हुआ था, तब उसने सपने में एक अति सुंदर
कन्या को दे खा। उस कन्या ने उससे कहा, “मेरी तीव्र इच्छा है कि तम
ु मेरी प्रतिमा बनाओ। मैं
अपने को उस प्रतिमा में दे खना चाहती हूँ। क्या मेरी यह इच्छा पूरी करोगे?”

“तम
ु जैसी संद
ु री की प्रतिमा नहीं नक्काशग
ँू ा तो मेरी शिल्प कला निरर्थक है , उसका कोई
मतलब ही नहीं। पर मैं जानना चाहूँगा कि आख़िर तम
ु हो कौन?” वह पूछ ही रहा था कि, वह
आँखों से ओझल हो गयी। कलाधर का सपना टूट गया। किन्तु उसका रूप उसके मन में बैठ
गया। दस
ू रे ही दिन पास ही के प्रपात के समीप बैठकर वह उस सुंदरी के शिल्प को नक्काशने
लगा।

कलाधर को सपने में जो सुंदर कन्या दिखायी पड़ी उसका नाम था, नीलांजना। वह गंधर्व राजा
की इकलौती पत्र
ु ी थी। अगली पर्णि
ू मा की रात को वह अपनी सहे लियों के साथ वन विहार करने
निकली। सहे लियों को उसने बताया कि मैं तुम्हें पथ्ृ वी पर एक विशेष दृश्य दिखाऊँगी।

प्रपात के समीप नीलांजना की प्रतिमा दे खकर वे चकित रह गयीं। उन्होंने उससे पूछा,” तुम्हारी
प्रतिमा यहाँ कैसे आ गयी?”

“कलाधर नामक शिल्पी ने मझ


ु े केवल सपने में ही दे खा, वह भी एक ही बार, बस, मेरी प्रतिमा
को उसने नक्काश डाला,” नीलांजना ने कहा।
“अद्भत
ु ! यदि इस प्रतिमा में प्राण फँू क दें तो कितना अच्छा हो!” एक सहे ली बोली ।

“केवल प्राण ही नहीं, इसमें तुम्हारी कुशाग्र बुद्धि भी जोड़ दी जाए तो और अच्छा होगा। विनोद
भरी एक क्रीड़ा भी खेल सकेंगी।” दस
ू री सहे ली ने कहा।

“कौन-सी क्रीड़ा?” नीलांजना ने पछ


ू ा।

“जब दे खो, कहती रहती हो कि मैं बड़ी अ़क्लमंद हूँ। तुम्हें भूलोक में रहकर उसे साबित करना
होगा। तम
ु इस शिल्प में प्राण डाल दोगी तो मानव कन्या हो जाओगी। तुम्हें अपने मन को,
अपनी अ़क्लमंदी को उसके साथ बांटना होगा। इसका यह मतलब हुआ कि तुम भूलोक में और
गंधर्व लोक में भी रहोगी। एक नहीं, दो नीलांजनाएँ होंगी। भूलोक में रहने के कारण तम
ु अद्भत

शक्तियाँ खो बैठोगी। इससे कष्टों से भरे मानव समाज में तुम्हें अपना जीवन संभालना होगा।
क्या यह तुम्हें स्वीकार है ?” तीसरी सहे ली ने पूछा।

“हाँ, मुझे स्वीकार है ,” नीलांजना ने कहा।


 
“एक और मुख्य विषय। भूलोक में जो नीलांजना रहे गी, उसे केवल यही ज्ञात है कि वह एक
गंधर्व कन्या है । उसके सिवा उसे और कुछ भी याद नहीं होगा। मानती हो?” चौथी सहे ली ने
पूछा।
 
नीलांजना ने सब शर्तें मान लीं। फिर उसने प्रतिमा में प्राण फँू क दिया और सहे लियाँ सहित
गंधर्व लोक चली गयी।
 
प्राण फँू कने के बाद भूलोक की नीलांजना ऐसी जगी, मानों वह अभी-अभी नींद से जागी हो।
अपने आप को दे खकर वह चकित रह गयी। गंधर्व लोक जाने के उसने प्रयत्न किये, पर वह
विफल हो गयी। इससे उसे यह जानने में दे र नहीं लगी कि उसने सारी शक्तियाँ खो दीं। वहाँ से
वह पैदल चलती गयी और सुबह तक एक जंगल में पहुँची। वहाँ की झाड़ियों में से एक बाघ
उसपर आक्रमण करने वाला ही था कि इतने में एक बाण तेज़ी से आया और उस बाघ को
जख्मी कर डाला। वह बाघ गुर्राता हुआ वहाँ से भाग गया।
 
थोड़ी ही दे र बाद घोड़े पर सवार होकर एक हट्टा-कट्टा और संद
ु र यव
ु क वहाँ आया और घोड़े पर से
उतरा। उसी ने नीलांजना को बाघ से बचाया था। उसका नाम था, विभाकर। नीलांजना के
अद्भतु सौंदर्य पर मग्ु ध होते हुए विभारक ने पछ
ू ा, “तम
ु कौन हो? खतरों से भरे इस प्रदे श में
क्यों आयी हो?”
 
“अब इस लोक में मेरा अपना कोई नहीं है । गौरवप्रद जीविका की खोज में हूँ।” नीलांजना ने
कहा। पर उसने यह व्यक्त होने नहीं दिया कि वह उसे चाहने लगी है ।
 
“तम
ु खड्ग युद्ध कर सकोगी तो तुम्हें नौकरी आसानी से मिल जायेगी। अवंती दे श का राजा
हमारे दे श पर आक्रमण करने के लिए तैयार बैठा है । वह हमारे दे श को भी अपने दे श का अंग
बनाना चाहता है । उसकी सेना हमारे दे श की सेना से अधिक बलवान है । उसका सामना करने
के लिए हमारे दे श के राजा ने ऐलान किया है कि हर एक घर से एक पुरुष हमारी सेना में भर्ती
हो जाए। तुम पुरुष के वेष में आ जाना और अपनी शक्ति के द्वारा यह साबित कर दे ना कि
स्त्रियाँ अबलाएँ नहीं हैं। फिर बाद में सच बताना।”

“तम्
ु हारी बातें मझ
ु े सही लग रही हैं।” फिर नीलांजना ने परु
ु ष वेष धारण किया और उसके साथ
जाकर सेना में भर्ती हो गयी।
 
दसू रे दिन राजा मंत्रियों को बुलाकर इस गंभीर चर्चा में लगे हुए थे कि कैसे बलवान शत्रु का
सामना किया जाए। जब वे इस चर्चा में लगे हुए थे, तब पुरुष वेषधारी नीलांजना वहाँ आयी
और बोली, “महाराज, मैंने एक व्यूह रचा है । अगर वह आपको सही लगे तो उसे आचरण में
लाइये। अगर वह सफल नहीं हुआ तो मेरे सिर को काट डालिये।”
 
राजा ने पूछा, “कहो, तुम्हारा वह व्यूह क्या है ?” “जब शत्रु हमसे अधिक बलवान हो तो उसके
साथ सीधे युद्ध नहीं करना चाहिये। युक्तिपूर्वक उसे तंग करना चाहिये। शत्रस
ु ेना में खलबली
पैदा करनी चाहिये और उसके धैर्य पर चोट पहुँचानी चाहिये। फिर उससे युद्ध करना चाहिये।”
फिर नीलांजना ने अपनी व्यूह रचना का सविस्तार विवरण दिया।
 
राजा को उसका व्यूह सही लगा। वे उसे तुरंत अमल में ले आये। पहले, वैशाली सेना के धनुर्धारी
गुप्त रूप से पूर्वी पर्वतों के पास पहुँचे। वहाँ से वे शत्रओ
ु ं पर अकस्मात ् बाणों के द्वारा सांपों
और बिच्छुओं की वर्षा बरसाने लगे। फिर शत्रओ ु ं की सेना के बीचों बीच बाणों द्वारा अग्नि
बरसायी। इससे शत्रस
ु ेना में खलबली मच गयी। इसके बाद वैशाली की सेना ने शत्रओ
ु ं पर
शिकारी कुत्तों को छोड़ा। जब शत्रु सेना अशांत हो गयी तब वैशाली की सेना ने उन्हें चारों ओर
से घेर लिया। अवंती का राजा हार गया और क़ैद कर लिया गया। वैशाली की जनता ने अपनी
विजय पर हर्ष ध्वनि की।
 
राजा ने पुरुष वेषधारी नीलांजना की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तब नीलांजना ने पुरुष वेष हटाते हुए
कहा, “महाराज, मैंने यह रहस्य आपसे छिपाया कि मैं एक स्त्री हूँ। इसके लिए मैं क्षमा माँगती
हूँ। इस लोक में मेरा अपना कोई नहीं है ।”
 
जब महारानी को मालूम हुआ कि वह एक वीरांगना है , तब बहुत ही खश ु होते हुए उसने कहा,
“महाराज, हमारा कोई वारिस नहीं है । इसे गोद लेंगे।” राजा भी रानी के मत से सहमत हुए।
यही नहीं, उसे अपना वारिस बनाकर उसे गद्दी पर भी बिठाया। जब उन्हें यह मालम ू हुआ कि
नीलांजना और विभाकर एक दस ू रे को चाहते हैं तो उन्होंने उनका विवाह भी कर दिया।

इस प्रकार नीलांजना ने साबित कर दिया कि वह कुशाग्र बुद्धि की है । सहे लियों को उसने जो


चुनौती दी, उसे सफल करके दिखाया। चूंकि भूलोक की नीलांजना व गंधर्व लोक की नीलांजना
का मन एक ही था, इसलिए कोमल संदर्भों में भूलोक की नीलांजना के हृदय में जो भावोद्रे क
जगते थे, वे ही भावोद्रे क गंधर्व लोक की नीलांजना में भी जगते थे। विभाकर के प्रति उसके मन
में जो प्रेम उत्पन्न हुआ, उसका अंत करने के लिए गंधर्व लोक की नीलांजना एक दिन रात को
उसके अंतःपुर में आयी। तब भूलोक की नीलांजना ने पूछा, “तम
ु एकदम मेरा प्रतिबिंब लगती
हो। कौन हो तम ु ?”
 
“मैं नहीं, तम
ु मेरे प्रतिबिंब हो। तम
ु मेरे रूप के एक शिल्प हो। मैंने ही तम
ु में प्राण फँू का था।
तुममें जो मन है , वह भी मेरा ही है । सहे लियों के साथ मैंने ही तुम्हें भेजा था। अब तेरी भूमिका
समाप्त होनेवाली है । इसीलिए आयी हूँ।” गंधर्व लोक की नीलांजना ने कहा। “क्या जीवन में
तुम कभी हारी हो?” भूलोक की नीलांजना ने पूछा।
 
“नहीं”, गंधर्व लोक की नीलांजना ने कहा।
 
“जब तुम्हारा मन मेरे मन में हो, तब उतना ही मनोबल तम
ु में भी होगा न, जितना मुझमें है ?
इसलिए तुम्हारे हाथों मैं कैसे हारूँगी। मेरी भमि
ू का का अंत करना तुम्हारे लिए असंभव है ।”
गंभीर स्वर में भूलोक की नीलांजना ने कहा।
 
“तमु में जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे मेरे मन में भी उत्पन्न होते हैं। यह मेरे लिए बहुत ही कठिन
लग रहा है । हम दोनों में से किसी एक का जीवन समाप्त हो जाना चाहिये। मानव कन्या होने
के नाते तम
ु कष्ट झेल रही हो, इसलिए तम्
ु हारी समाप्ति ही न्यायसंगत है ।” गंधर्व लोक की
नीलांजना ने कहा।
 
“मैं कष्टों का अनभ
ु व नहीं कर रही हूँ। तुम्हारे लिए मानवों का कोई मूल्य नहीं है क्योंकि वे
तुम्हारी दृष्टि में नगण्य हैं। स्वशक्ति के आधार पर मानवों ने बहुत कुछ साधा है । उन्होंने
असंभव को भी संभव कर दिखाया। यहाँ का प्रेम, अनुराग, संतप्ति ृ विशिष्ट हैं। शांत होकर
सोचो, फिर निर्णय लेना”, तब भूलोक की नीलांजना ने कहा। गंधर्व लोक की नीलांजना सोच में
पड़ गयी। उसके हृदय से एक अग्नि निकली, उसी में उसने अपना अंत कर डाला और दे खते-
दे खते भस्म हो गयी।
वेताल ने कहानी बताने के बाद पूछा, “राजन ्, जिस प्रतिमा में उसने प्राण फँू का, चाहती तो वह
उसे समाप्त कर सकती थी, पर नीलांजना ने ऐसा नहीं किया। आत्म आहुति दे दी! उसने ऐसा
क्यों किया? भल
ू ोक की नीलांजना के साथ उसने अपना मन बांटा, इसलिए शायद वह विवेक
खो बैठी। क्या यह अविवेक ही इस आत्म आहुति का कारण है ? मेरे इन संदेहों के समाधान
जानते हुए भी चप ु रह जाओगे तो तम्ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “गंधर्व लोक की नीलांजना ने अपने शिल्प में प्राण फँू का, उसके तदनंतर
भूलोक की नीलांजना ने जो-जो सफलताएँ पाईं उनसे उसे मालूम हुआ कि भूलोकवासी कितना
सामर्थ्य रखते हैं। उन्हें जानने का उसे एक अच्छा मौक़ा मिला।
 
भलू ोक की नीलांजना की बातों के द्वारा उसे मालम ू हो गया कि मानव कितने महोन्नत हैं।
इस स्थिति में भला उसके लिए यह कैसे न्यायसंगत होगाकि वह उस भल
ू ोक की नीलांजना के
जीवन को छीन ले, जिसने स्वयं अपने जीवन को संजोया-संवारा। तिस पर दोनों का मन एक
ही तो है ।
 
“यद्यपि दोनों के मनों में विभाकर ही है , पर उसने तो भूलोक की नीलांजना से ही प्रेम किया,
गंधर्व लोक की नीलांजना से नहीं। अगर गंधर्व-लोक की नीलांजना, विभाकर से अपने प्रेम के
बारे में बताये तो हो सकता है , वह साफ़-साफ़ इनकार कर दे । उस स्थिति में उसके
आत्माभिमान को ठे स पहुँचेगी और उसका जीना दभ ु र हो जायेगा। यह सब सोचने के बाद ही
उसने अपने को मिटा लिया। यह सब हुआ, सहे लियों के क्रीड़ा-विनोद का फल।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः सूर्यप्रकाश की रचना)
 
60. पहरे दार भूत

 
धनु का पक्का विक्रमार्क फिर से पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने
कंधे पर डाल लिया। फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता गया। तब शव के अंदर के वेताल
ने कहा, “राजन ्, तुम्हारा हठ बहुत प्रशंसनीय है । अपने लक्ष्य में अब तक तुम्हें सफलता नहीं
मिली, फिर भी डटे हुए हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि साधु-संन्यासियों को दिये गये अपने बचन को
निभाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हो। उनके बोलने की पद्धति बड़ी ही निगूढ़ और
मर्मगर्भित होती है । उदाहरणस्वरूप मैं तुम्हें विदय की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जो पहरे दार
भूत के रूप में परिवर्तित हो गया। थकावट दरू करते हुए ध्यान से उसकी कहानी सुनो।” फिर
वेताल विदय की कहानी यों सुनाने लगाः

बहुत पहले की बात है । सध


ु न एक व्यापारी था और दे श-विदे श में घम
ू कर उसने अपार धन
कमाया था। उसका अपना एक छोटा-सा धनागार था। उसकी पत्नी के रिश्तेदार विदय को
उसके पहरे की जिम्मेदारी सौंपी गयी।
 
सुधन, विदय की गतिविधियों को जानने के लिए उसके काम-काजों पर नज़र रखता था। पर
विदय को इसकी बिल्कुल जानकारी नहीं थी, इसलिए वह हर दिन कुछ सोना और अशर्फि याँ
घर ले जाया करता था।
 
सधु न ने यह बात पत्नी सम
ु ति से बतायी। उसने तरु ं त विदय को बल
ु ाना चाहा और खरी-खोटी
सन
ु ाना चाहा। पर, ऐसा करने से रोकते हुए सध
ु न ने पत्नी से कहा, “मझ
ु े तो इस बात का दख
ु है
कि जिसका हमने विश्वास किया, उसी ने हमें धोखा दिया। उसकी चोरी से हमें कोई फर्क नहीं
पड़ता। सही समय पर मैं उसे पकड़ कर पाठ सिखाऊँगा।”
 
सुमति ने इसपर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “पहरे दार पर पहरा दे ने से अच्छा यह होगा कि
हम खुद अपने धनागार पर पहरा दें ।”
 
सुधन ने हँसते हुए कहा, “पूरे धनागार पर पहरा दे ना बहुत बड़ा काम है । वह काम विदय संभाल
रहा है । पर एक विदय पर ही पहरा दे ना छोटा काम है । वह काम मैं कर रहा हूँ। हमें नुक़सान
बहुत ही कम मात्रा में पहुँच रहा है , पर वह जो काम कर रहा है , वह अवश्य ही ग़लत है । विदय
को यह समझने में थोड़ा समय लगेगा।”
 
दे खते-दे खते विदय ने जो संपत्ति लूटी, वह दो गागर भर की हो गयी। उसने उन गागरों को
पिछवाडे में जमीन के अंदर गाड़ दिया। कुछ दिनों के बाद सुधन ने, विदय को बुलवाया और
उससे कहा, “मैं तम
ु पर नज़र रखता आ रहा हूँ। धनागार पर पहरा दे ने के लिए मैंने तुम्हें
नियक्
ु त किया। पर तम ु ने विश्वासधात किया और तम
ु ने खद
ु चोरी की। मेरी संपदा को गागरों
में भरकर उन्हें अपने घर के पिछवाड़े में ज़मीन के अंदर छिपाया। कहो, तम्
ु हारी क्या क़ैफियत
है ?”
 
विदय घबरा गया। वह सुधन के पैरों पर गिर कर गिड़गिडाते हुए कहने लगा, “हाँ, मुझसे बड़ी
भूल हो गयी। आगे से ऐसी ग़लती नहीं करूँगा। मुझे माफ़ कर दीजिये।” उसने कसम खाते हुए
कहा।

सधु न ने कहा, “तम ु मेरी पत्नी के रिश्तेदार हो, इसलिए तम्


ु हें माफ़ कर दे ता हूँ। साथ ही, वह
संपत्ति तम्
ु हें दे भी दे ता हूँ। बशर्ते कि तम
ु अपनी क़ाबिलियत साबित करो। अन्यथा मैं तम् ु हें
पलि
ु स के सप
ु र्द
ु कर दँ ग
ू ा।”
 
विदय ने हाथ जोड़कर कहा, “आप महान हैं। बताइये कि अपनी काबिलियत साबित करने के
लिए मुझे क्या करना होगा।”
 
सधु न ने फ़ौरन कहा, “तम ु ने मेरी जिस संपदा की चोरी की, एक हफ़्ते के अंदर तम्
ु हारी
जानकारी के बिना उस संपदा की चोरी मैं स्वयं करूँगा। पहरे दार होने के नाते मुझे रोको और
अपनी काबिलियत साबित करो।”
 
विदय ने अपनी पत्नी से यह विषय सविस्तार बताया। वह खश ु होती हुई बोली, “इसके लिए
हमें भगवान की सहायता चाहिये। हमारे गाँव की सरहदों पर जो पहाड़ी गुफ़ाएँ हैं, उनमें से
आख़िरी गुफा में एक महिमावान साधु रहते हैं। आप उनसे मिलिये और सहायता मांगिये।”
 
विदय साधु से मिला और पूरा विषय बताया। साधु ने कहा, “मैं तुम्हें अभिमंत्रित भस्म दे ता हूँ।
इस भस्म को जहाँ छिड़कोगे, वहाँ छिपाकर रखी गयी संपदा को एक सप्ताह तक कोई छू भी
नहीं सकता। सुधन से भी यह काम नहीं हो सकता। लेकिन, वह संपदा सुधन की अपनी है ,
जिसे लेने से तम
ु उसे रोक रहे हो। यह पाप है । इस से तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है । फिर भी
क्या यह काम करना चाहते हो?”
 
विदय पाप का भार अपने ऊपर लेने को तैयार हो गया और वैसा ही किया, जैसा साधु ने कहा
था। भस्म के प्रभाव के कारण सध
ु न उस संपदा को अपना नहीं पाया। एक सप्ताह के बाद
अपने दिये वचन के अनस
ु ार उसे मानना ही पड़ा कि यह संपदा विदय की है । इसपर विदय को
बेहद खश
ु ी हुई। पर दस
ू रे ही क्षण उसका बदन जलने लगा। भयभीत होकर वह दौड़ा-दौड़ा साधु
के पास गया।
साधु ने कहा, “सुधन अच्छा आदमी है । उसे धोखा दे कर तम
ु ने उसकी संपत्ति की चोरी की ।
अपनी संपत्ति को लेने से उसे रोकने के लिए मेरा दिया भस्म छिडका। यह पाप है और वही
पाप तम्
ु हारे शरीर को जला रहा है । इस पीडा को जीवन भर तम्
ु हें सहना ही पड़ेगा। अथवा, तम्
ु हें
भत
ू बनना पडेगा और उस संपत्ति पर पहरा दे ना होगा, जिससे वह किसी दस
ू रे के हाथ न लगे।
किसी भी हालत में यह राज़ अपनी पत्नी से भी छिपाकर रखना होगा।”
 
शारीरिक पीडा को सह न सकने के कारण विदय साधु की सहायता से भूत में बदल गया। अपने
विकृत रूप से दख
ु ी होकर उसने साधु से पूछा, “स्वामी, कब तक मुझे इसी रूप में रहना होगा?”
 
“सध
ु न ने जो संपदा तम्
ु हें दी, उसे तम
ु वेतन मानते हो तो जितने साल तम्
ु हें काम करना होगा,
उतने सालों तक तम
ु भत
ू बनकर ही रहोगे।” साधु ने कहा।
 
विदय ने हाथ जोड़कर कहा, “इसका मतलब यह हुआ कि सौ सालों तक मुझे काम करना होगा।
इसके पहले ही मुक्त होने का क्या कोई उपाय नहीं?”
 
“अगर तम् ु हारा भाग्य चमका और कोई एक और पहरे दार भत ू तम्
ु हें ढूँढ़ता हुआ आये तो तम्
ु हें
मक्ति
ु मिलेगी।” यह कहकर साधु ने विदय को वहाँ से भेज दिया।
 
यों, विदय सुधन की दी हुई सम्पत्ति का पहरे दार बना। उसकी पत्नी और संतान को मालूम
नहीं हो पाया कि विदय पर क्या गुज़रा । जब उन्होंने जमीन के अंदर गाड़ी गगरियों को बाहर
निकालने की कोशिश की, तब भूत प्रकट हुआ और उन्हें डराया-धमकाया। उन्हें मालूम नहीं था
कि यह भूत, स्वयं विदय ही है । डर के मारे उन्होंने गाँव छोड़ दिया और कहीं चले गये। सुधन
ने सोचा कि विदय पत्नी समेत संपत्ति लेकर कहीं चला गया।
 
यों कुछ साल बीत गये। अब विदय के घर में दे वनाथ नामक एक व्यक्ति परिवार सहित रहने
लगा। वह अव्वल दर्जे का कंजूस था। उसकी एक बेटी और एक बेटा थे। वह बेटी की शादी के
पक्ष में नहीं था, क्योंकि उसका धन खर्च हो जायेगा। उसकी बेटी की शादी उसके मामाओं ने
करवायी। पिता के स्वभाव से नाराज़ होकर उसका बेटा घर छोड़कर चला गया। बेटे के दख
ु में
और उसकी बीमारी का इलाज न कराने के कारण उसकी पत्नी भी मर गयी।

पर, दे वनाथ को इसका कोई दख


ु नहीं था। एक दिन पडोसियों ने सत्यनारायण पज
ू ा कराने के
बाद दे वनाथ को भी आम के दो फल दिये। आम के वे फल बड़े ही स्वादिष्ट थे। उसमें आशा
जगी कि इन फलों की गठ
ु लियों को ज़मीन में गाड़ दँ ू तो वे दे खते-दे खते बड़े पेड़ हो जायेंगे और
उनके मीठे फल मैं खा सकँू गा। पिछवाडे में जाकर कुदाल से ज़मीन को वह खोदने लगा तो
खन ्-खन ् की आवाज़ हुई। उसने और गहरा खोदा तो वहाँ दो गगरियाँ मिलीं । वह उन गगरियों
को बाहर निकालने ही वाला था कि उस गड्ढे से धआ
ु ँ निकला जो एक बड़े भत
ू के रूप में
परिवर्तित होकर कहने लगा, “अरे नीच, इन गगरियों में जो भी संपदा है , उसका मैं पहरे दार हूँ।
एक क्षण भी यहाँ रुके तो तम्
ु हें मार डालँ ग
ू ा।”
 
दे वनाथ भूत को दे खकर पहले तो डर गया, पर जब उसने सुना कि उन गगरियों में संपदा है तो
धीरज बाँध कर उसने कहा, “यह घर मेरा है । यह पिछवाडा मेरा है । यहाँ जो भी निधियाँ हैं, मेरी
हैं। मुझे रोकनेवाले तुम कौन होते हो?”
 
भत ू ठठाकर हँस पड़ा और मौन रह गया। दे वनाथ ने कुदाल अपने हाथ में लेकर ऊपर उठाया तो
वह उसके हाथों से फिसल गया। इतने में दे खते-दे खते वह गढ्ढा भी भर गया। दे वनाथ को
अपनी असहायता का एहसास हुआ और उसने हाथ जोड़कर कहा, “ऐ भत
ू नाथ, मेरी तीव्र इच्छा
इन गगरियों का मालिक बनने की है । इसके लिए मझ
ु े क्या करना होगा?”
 
भूत ने, दे वनाथ से अपनी कहानी बतायी और कहा, “यहाँ की संपत्ति किसी और पहरे दार भूत
को ही मिल सकती है ।” फिर उसने गुफ़ा में रहनेवाले साधु के बारे में बताया। दे वनाथ दौड़ा-
दौड़ा साधु के पास गया और अपनी इच्छा जाहिर की। उसकी ओर आश्चर्य-भरे नेत्रों से दे खते
हुए साधु ने शांत स्वर में कहा, “बेटे, अब तक मुझमें यह संदेह बना हुआ था कि तम
ु जैसे
कंजूसों से दनि
ु या को क्या कोई लाभ है ? पर अब उस संदेह की निवत्ति ृ हो गयी। ग़लती
करनेवाले विदय जैसों को मक्ति
ु दिलानेवाले मानव रूप में आये तुम अवतार हो। तुम्हारी
इच्छा अवश्य पूरी होगी।”

साधु की बातों से बहुत ही संतुष्ट दे वनाथ ने उन्हें साष्टांग नमस्कार किया। फिर लौटकर पूरा
विषय भूत बने विदय से बताया। विदय मौन था, इसलिए इस मौक़े का फायदा उठाने के लिए
बडे ही उत्साह से उसने कुदाल से खोदना शुरू किया। दोनों गगरियों को उसने बाहर निकाला।
उनमें भरे रत्नों और अशर्फि याँ को दे खकर वह पागल हो उठा और कहने लगा “ये सब मेरे हैं,
मेरे ही हैं।” वह कूदने लगा, नाचने लगा। दे खते-दे खते उसके प्राण-पखेरु उड़ गये।
 
दसू रे ही क्षण विदय को उसका रूप मिल गया और वह सामान्य मनष्ु य बन गया। भत ू बनकर
गड्ढे के चारों ओर घम
ू ते हुए दे वनाथ को उसने एक बार दे खा और वहाँ से चलता बना।
 
वेताल ने इस कहानी को सुनाने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, “राजन ्, साधु की बातें क्या
परस्पर विरोधी नहीं लगतीं? उन्होंने दे वनाथ से कहा था कि तुम मानव रूप में जन्मे “अवतार”
हो। यह भी कहा था कि तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। तो फिर दे वनाथ क्यों मर गया? क्या
साधु की बातों में कोई गूढ़ार्थ है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी तम
ु चुप रहोगे तो
तुम्हारे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने उसके संदेहों को दरू करने के उद्देश्य से कहा, “दे वनाथ ने अपनी पत्र
ु ी के विवाह के
विषय में और पत्नी के विषय में जो व्यवहार किया, वह बड़ा ही निकृष्ट था। उससे उसकी
कंजस
ू ी स्पष्ट गोचर होती है । संपत्ति से भरी गगरियों को दे खते ही उन्हें अपना बना लेने की
तीव्र इच्छा उसमें जगी। स्वार्थ ने उसे अंधा बना डाला। वह समझ नहीं पाया कि पराये का धन
विष के समान है । ऐसा लोभी व स्वार्थी भत
ू के समान है । उसके लोभ ने ही उसके प्राण हर
लिये। उसकी कंजस
ू ी तथा अमित स्वार्थ ने ही उसे पहरे दार भत
ू बनाया। चँ कि
ू साधु की दृष्टि में
लोभी मानव मरे आदमी के बराबर है , इसलिए पिछवाडे में छिपायी गयी संपत्ति का वही योग्य
रक्षक है । इसी कारण उन्होंने कहा भी था कि तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। साधु की बातों में
कोई वैविध्य है ही नहीं।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित अदृश्य हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः सुभद्रा दे वी की रचना)
 
61. स्वार्थ में निःस्वार्थ

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
ड़ाल लिया और श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा,
“राजन ्, इस भयंकर श्मशान में निधड़क घूम-फिर रहे हो पर मैं यह नहीं जानता कि तुम अपने
स्वार्थ की पर्ति
ू के लिए ऐसा कर रहे हो या निस्वार्थ लक्ष्य को साधने के लिए इतना परिश्रम कर
रहे हो। पर, लोक व्यवहार शैली को ध्यान से दे खने पर यह स्पष्ट होता है कि स्वार्थ को केंद्र
बिंद ु बनाकर प्रायः मानव व्यवहार करते हैं, उसी की पूर्ति के लिए अपना पूरा बल लगाते हैं।
निस्वार्थता, परमार्थता, परोपकार आदि केवल बहाने मात्र हैं। वे मासूम मनुष्यों को जाल में
फंसाने के लिए ही हैं। धोखेबाज़ अपने स्वार्थ के लिए इन्हें उपयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए
सजीव नामक वैद्य की कहानी सुनाऊँगा। ध्यान से सुनो और अपने लक्ष्य का निर्णय कर लो।
फिर वेताल सजीव की कहानी यों सुनाने लगाः

रसपरु विरूपदे श का एक छोटा शहर था। वहाँ के व्यापारी रत्नाकर के तीन बेटे थे। बड़े दोनों
बेटों की शादी हो गयी और वे व्यापार में पिता को सहायता पहुँचाने लगे । यद्यपि तीसरा बेटा
बीस साल की उम्र का हो गया, पर व्यापार में उसे कोई रुचि नहींथी । उल्टे जो भी उससे धन की
सहायता मांगते थे, आगे-पीछे सोचे बिना दे दे ता था। बड़े और छोटे भी मीठी-मीठी बातें कहते
हुए उसे बहकाते थे और उससे धन ऐंठते थे। घर के लोगों को यह पसंद नहीं था। रत्नाकर बेटे
की इस आदत से बहुत परे शान था। पत्नी ने उसे सुझाया कि उसका विवाह कर दिया जाए तो
हो सकता है , उसमें सुधार आये। रत्नाकर के एक दोस्त ने उससे कहा, “सजीव का हृदय बड़ा ही
कोमल है । उसमें दया, परोपकार आदि सद्गुण भरे हुए हैं। परं तु दख ु की बात तो यह है कि
उसमें लोकज्ञान रत्ती भर भी नहीं। मेरी बेटी मनोरमा दयालु है , पर उसमें लोकज्ञान भी है । वह
अ़क्लमंद है । उससे शादी करवाओगे तो वह उसमें सुधार ले आयेगी।”
 
रत्नाकर ने उसकी सलाह मान ली और जल्दी ही मनोरमा, सजीव की पत्नी बनी। पिता की
बातों को सच साबित करते हुए उसने थोड़े ही समय में सजीव को अपना बना लिया। वह जो भी
कहती, उसे सजीव मान लेता था। उसने एक दिन पति से कहा, “तम ु दयालु हो। जो भी

सहायता मॉगता है , उसे धन दे कर सहायता पहुँचाते हो। घर के सब लोगों का यही कहना है कि
जिस किसी को भी दान दे ते हो, उससे उनमें से कोई भी सख
ु ी नहीं है । तम्
ु हें साबित करना होगा
कि उनकी बातों में सच्चाई नहीं है अथवा अपनी पद्धति में परिवर्तन करो और घर के लोगों को
संतष्ु ट करो।” सजीव ने इसे चन
ु ौती के रूप में स्वीकार किया और वह पहले संजय के घर गया,
जिसे उसने धन दे कर सहायता पहुँचायी। तब संजय अपने घर के चबूतरे पर निराश बैठा हुआ
था।
 
सजीव को दे खते ही उसने कहा, “तुमने जो रक़म दी, उससे कल ही मेरे घर में पकवान बने। हम
सबके सब सकुशल हैं, पर मेरे पिता व मेरे छोटे बेटे को अजीर्ण हुआ, बदहज़मी हुई।

वैद्य ने दवा दी। उससे मेरे छोटे बेटे की तबीयत तो ठीक हो गयी पर मेरे पिता अब भी बीमार
हैं। वैद्य ने तीन दिनों तक उन्हें उपवास रखने के लिए कहा। पिताजी नाराज़ होकर रक़म
दे नेवाले तम्
ु हें और पकवान बनानेवाले मझ
ु े लगातार गालियाँ दे रहे हैं।”
 
घरवालों की बात सही निकली, फिर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। उसे विश्वास था कि
सबके विषय में ऐसा नहीं हुआ होगा। वहाँ से निकलकर वह सुग्रीव के घर की तरफ़ बढ़ा। उसके
दरवाज़े पर ही उसे गालियाँ सुनायी पड़ीं। कल ही सुग्रीव बेटी की मंगनी के लिए उससे धन
लेकर गया था। आज उसकी बेटी बुखार से पीड़ित है । उसे दे खने जो आये थे, उसे रोगी ठहराकर
वापस चले गये। उनकी शिकायत थी कि सजीव का दिया हुआ धन रास नहीं आया, इसलिए
यह रिश्ता टूट गया। वे सजीव को गालियाँ दे ने लगे।
 
सजीव लौटा, पर निराश नहीं हुआ। बड़ी आशा लेकर वह चार-पाँच लोगों के घर गया, किन्तु हर
जगह उसने यही स्थिति पायी। सजीव को मालूम हो गया कि जिस-जिस को उसने धन दे कर
सहायता पहुँचायी, वे संतुष्ट नहीं हैं। सब कुछ उसने सविस्तार पत्नी को बताया। फिर उसने
पत्नी से कहा, “दोस्तों को खुश रखने के लिए मैंने जो पद्धति अपनायी, भले ही वह ठीक न हो,
पर मेरी वजह से उनकी ज़रूरतें तो पूरी हुई हैं न? इससे बढ़कर कोई अच्छी पद्धति हो तो
बताना। अवश्य उसे अमल में लाऊँगा।”
 
मनोरमा ने फ़ौरन कहा, “मनुष्य को सच्ची तप्ति
ृ दे ता है , आरोग्य। जिसका आरोग्य ठीक नहीं
होता, चाहे वह कितना ही संपन्न हो, सुखी नहीं रह सकता। तम
ु अगर चाहते हो कि तुम्हारे
दोस्त और परिचित लोग सख
ु ी रहें तो तम
ु वैद्य विद्या सीखना। धनी लोगों से धन लेना और
गरीबों की चिकित्सा मफ़्
ु त में करना।”
 
“वैद्य विद्या सीखने में बहुत साल लग जायेंगे न?” सजीव ने संदेह प्रकट किया।
 
“बहृ दारण्य में असव नामक तपस्वी हैं। वे योग्य शिष्य को एक ही साल में वैद्य शास्त्र सिखा
सकने की क्षमता रखते हैं। तम
ु वहाँ जाओगे तो शीघ्र ही योग्य वैद्य बन सकते हो”, मनोरमा ने
कहा।

सजीव उसी दिन बहृ दारण्य गया और असव से मिला। उन्होंने उसे अपना शिष्य बनाया और
एक ही साल में वैद्य शास्त्र में उसे पारं गत बना दिया। विद्याभ्यास की पर्ति
ू के बाद असव ने
सजीव से कहा, “मैंने चिकित्सा की ऐसी-ऐसी पद्धतियाँ तुम्हें सिखायीं, जो दनि
ु या के किसी भी
वैद्य को नहीं मालम
ू हैं। पर चंद ऐसे भी रोग हैं, जिनकी चिकित्सा दवाओं से नहीं हो सकती।
मेरे पास एक ऐसा भी ग्रंथ है , जिसमें ऐसे रोगों की चिकित्सा के मंत्र हैं। सेवा भाव से निस्वार्थ
होकर जो चिकित्सा करते हैं, वे ही इस ग्रंथ को पाने के योग्य हैं । जब यह साबित होगा, तब
कोई न कोई मेरी पक
ु ार तम ु तक पहुँचायेगा। जब तम ु आओगे तो यह ग्रंथ तम्ु हारे सप
ु र्द

करूँगा।”
 
सजीव गुरु का आशीर्वाद पाकर रसपुर लौटा और पत्नी मनोरमा को पूरा विषय बताया। पत्नी
के कहे अनुसार वह गरीबों से बिना शुल्क लिये और धनी लोगों से अधिक रक़म लेकर उनकी
चिकित्सा करने लगा। सजीव की दवा अचूक थी, इसलिए लोग दरू -दरू से आने लगे।
 
एक दिन एक साधु जीवन के घर के सामने खड़े होकर “भिक्षांदेहि” कहने ही वाला था कि इतने
में उसने दे खा कि सजीव एक गरीब रोगी की चिकित्सा ध्यान मग्न होकर कर रहा है । इतने में
बग्गी से एक अमीर आया, और बोला, “वैद्योत्तम, आप जितनी रक़म चाहते हैं, दँ ग
ू ा। पहले
मेरे रोग की चिकित्सा कीजिये।” उसके स्वर में गर्व था ।
 
सजीव ने उसे नख से शिख तक ग़ौर से दे खा और कहा, “आप जो धन दें गे, उसे अवश्य लँ ग
ू ा,
लेकिन चिकित्सा के पहले रोग का निदान करना आवश्यक है । जब आपकी बारी आयेगी, खुद
मैं आपको बल
ु ाऊँगा। तब तक क़तार में बैठ जाइये।”
 
तब सजीव की दृष्टि उस साधु पर पड़ी। उसने साधु को प्रणाम किया और कहा, “आज आप मेरे
साथ भोजन करके हमें कृतार्थ कीजिये।”
 
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “काम पूरा कर लेने के बाद अंदर आना। दोनों मिलकर भोजन
करें गे।” कहते हुए वह घर के अंदर गया।

सजीव ने सब रोगियों की परीक्षा की, उन्हें आवश्यक दवाएँ दीं और दे री से अंदर आया। उसने
साधु से दे री से आने के लिए क्षमा माँगी तो साधु ने कहा, “रोगियों के प्रति तुम्हारी श्रद्धा, धन के
लिए न झक
ु नेवाला तुम्हारा निस्वार्थ सेवा भाव व साधुजनों के प्रति तुम्हारा आदर भाव अद्भत

है । ऐसे वैद्य बिरले ही होते हैं। असव के वैद्य मंत्र ग्रंथों को पाने की योग्यता तम
ु में है । तुरंत
बहृ दारण्य जाने के लिए निकलो।”
 
सजीव ताड़ गया कि यह व्यक्ति असव का भेजा हुआ व्यक्ति ही है । उसने पत्नी मनोरमा से
यह बात बतायी। उसने पति से कहा, “बहृ दारण्य आने-जाने में कम से कम एक हफ्ता लगेगा।
जाइये अवश्य, लेकिन तब जाइये, जब रोगी न हों।” सजीव ने यही बातें साधु से कहीं। उसने
इसे ठीक माना और भोजन करके चला गया।
 
इसी बीच उस दे श के राजा भीमसेन की माँ सख्त बीमार पड़ी। राजवैद्य की कोई भी दवा काम
नहीं आयी। राजा ने सजीव को खबर भेजी। पत्नी की सलाह लेकर सजीव ने दत
ू से कहा, “मैं
यहाँ से जाऊँगा तो कितने ही रोगियों को कष्ट पहुँचेगा। प्रजा हित चाहनेवाले हमारे राजा भी
इससे संतष्ु ट नहीं होंगे। अच्छा यही होगा कि चिकित्सा के लिए राजमाता को ही यहाँ ले आयें।”
 
दसू रे दिन साधु सजीव से मिला और साहस, निस्वार्थता की भरपूर प्रशंसा की। उसने सलाह दी
कि वह तुरंत बहृ दारण्य जाए और मंत्र ग्रंथ को ले आये। पर सजीव ने पहले की ही तरह जवाब
दिया।
 
इसके कुछ दिनों के बाद रसपरु के धनाढ्य महें द्र सख्त बीमार पड़ गया। सजीव को उसके रोग
की गहराइयों का पता नहीं चला और पशोपेश में पड़ गया कि क्या किया जाए। तब साधु
मनोरमा से मिला और कहा, “महें द्र के रोग की चिकित्सा मंत्रों से हो सकती है । अब ही सही,
अपने पति को बहृ दारण्य भेजो।”
 
मनोरमा ने भी इसे आवश्यक माना और पति से बहृ दारण्य जाने को कहा। पर, सजीव ने नहीं
माना। तब मनोरमा ने साधु की सलाह पर नाटक किया, मानों वह बहुत ही बीमार हो। सजीव
ने दवा दी, पर मनोरमा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कोई और चारा न पाकर जब वह साधु
से मिला, तब उसने सलाह दी कि वह तुरंत बहृ दारण्य जाए और वह वैद्य-ग्रंथ ले आये। नहीं तो
उसकी पत्नी ख़तरे में पड़ जायेगी।

मनोरमा ने भी जाने पर ज़ोर दिया तो वह बह


ृ दारण्य गया और असव से वह ग्रंथ लेकर लौटा।
महें द्र के साथ-साथ कितने ही रोगियों की चिकित्सा उसने इस ग्रंथ में बतायी चिकित्सा पद्धति
के द्वारा की और उनका रोग दरू किया।
 
वेताल ने यह कहानी बतायी और पूछा, “राजन ्, साधु ने बहुत बार सजीव से बह
ृ दारण्य जाने को
कहा, पर वह नहीं गया। किन्तु जब उसकी पत्नी बीमार पड़ी तो वह बह
ृ दारण्य गया। क्या यह
स्वार्थ नहीं? अगर वैद्यमंत्र ग्रंथ अपने पास होता तो महें द्र जैसे धनाढ्य़ों की चिकित्सा करके
बहुत बड़ी मात्रा में धन कमाया जा सकता था, इसीलिए मनोरमा ने अपने पति को बह ृ दारण्य
जाने के लिए बाध्य किया। क्या यह मनोरमा का स्वार्थ नहीं? यों दो प्रकार के स्वार्थों के वश में
आकर आये सजीव को असव का मंत्र ग्रंथ दे ना क्या नियम भंग नहीं है , क्योंकि उसने कहा था
कि यह ग्रंथ निस्वार्थियों को ही दिया जायेगा। मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चप

रह जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
राजा विक्रमार्क ने कहा, “अग्नि को साक्षी बनाकर सजीव ने मनोरमा से विवाह किया। पति
होने के नाते उसे बचाना उसका कर्तव्य है । उसकी चिकित्सा के लिए उसका बह
ृ दारण्य जाना
स्वार्थ नहीं कहलाता। मनोरमा के कारण ही सजीव ने ग़रीबों की चिकित्सा की। उस पर
धनार्जन का आरोप लगाना समुचित नहीं। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी पत्नी रोग ग्रस्त है
तब उसने दस
ू रे रोगियों की चिकित्सा करने में भी अपने को असमर्थ पाया। यदि मनोरमा
सख्त बीमार पड़ जाती तो हो सकता है , वह वैद्य वत्ति
ृ को ही सदा के लिए छोड़ दे ता। ऐसा
होने पर कितने ही रोगियों को हानि पहुँचती ! जो वैद्य मंत्र ग्रंथ ले आया, उससे उसने कितने
ही रोगियों की चिकित्सा की और उन्हें रोग मक्
ु त किया। इसलिए सजीव ने बह
ृ दारण्य जाकर
और असव ने वैद्य ग्रंथ दे कर कोई नियम भंग नहीं किया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः सचिु त्रा की रचना)
 
62. निराश स्वर्णरे खा

धुन  का पक्का विक्रमार्क पुनः उस पुराने पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और
यथावत ् उसे अपने कंधे पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, रुकावटों की परवाह किये बिना अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए तुम जो
अथक परिश्रम कर रहे हो, वह बहुत ही प्रशंसनीय है । जब एक लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न
किये जाते हैं, तब रुकावटों का सामना करना सहज है ।

परं तु ऐसे भी प्रबुद्ध मौजद


ू हैं, जो लक्ष्य की सिद्धि के समय उसे अपने हाथ से फिसल जाने दे ते
हैं। कितने ही कष्ट झेलकर मयूरध्वज की प्रेयसी उसके पास पहुँच पायी, पर उसने बडी ही
अनुदारता से उसका तिरस्कार किया। अपनी थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सुनो ।” फिर
वेताल मयूरध्वज की कहानी यों सुनाने लगाः मयूरध्वज अवंती राज्य का राजा था। मनोविनोद
के लिए एक बार वह आखेट करने जंगल गया।

 साथियों को छोड़कर वह अकेले ही जंगल में बहुत दरू चला गया। दप


ु हर तक वह बहुत थक
गया और आराम करने एक वक्षृ के नीचे बैठ गया। अकस्मात ् झाडियों में से एक बाघ उसपर
कूद पड़ा। बग़ल में ही रखे गये धनष
ु -बाणों तक पहुँचने के लिए भी उसके पास समय नहीं था।
फिर भी रिक्त हाथों से उसने बाघ का सामना किया और अपनी परू ी शक्ति लगाकर उसे मार
डाला। इस दौरान वह बरु ी तरह से घायल हो गया, और फलस्वरूप बेहोश हो गया।

उस समय स्वर्णरे खा नामक एक गंधर्व कन्या अपनी सहे लियों के साथ वहॉ ं आयी। मयरू ध्वज
का साहस दे खकर वह मंत्रमग्ु ध रह गयी। उसकी वीरता व भज
ु बल ने उसे आश्र्चर्य में डाल
दिया। वह बेहोश राजा के पास आयी और बडी ही मद
ृ त
ु ा के साथ उसका स्पर्श किया। दे खते-
दे खते राजा के सारे घाव भर गये और वह उठकर बैठ गया। स्वर्णरे खा उसके नवमन्मथ रूप को
दे खकर उसपर रीझ गयी और उसे एकटक दे खने लगी। तब उसने दे खा कि राजा भी पलक मारे
बिना उसे ही दे खता जा रहा है ।

 
लज्जा के मारे उसने सिर झुका लिया। राजा भी उसके अद्भत
ु सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। दोनों ने
आपस में बातें कीं, एक-दस
ू रे के बारे में विवरण जाने। “राजन ्, मैं हृदयपर्व
ू क आपसे प्रेम करती
हूँ। अगर आप सहमत हों तो गांधर्व विवाह करने के लिए मैं सन्नद्ध हूँ।” मस्
ु कुराते हुए स्वर्ण
रे खा ने मधरु वाणी में कहा। राजा ने उसके प्रस्ताव पर खश
ु होते हुए कहा, “मैं भी तम्
ु हें बेहद
चाहता हूँ।

परं तु मुझे लगता है कि तम


ु इस विषय में गंभीरता के साथ सोचे बिना कह रही हो । भूलोक में
जीवन बिताना कोई आसान काम नहीं है । तुम गंधर्व लोक की सुकुमारी हो। भूलोक में तम

सुखी नहीं रह सकती हो।” “पति का साहचर्य ही पत्नी के लिए स्वर्ग धाम है । क्या आप जानते
नहीं कि स्वर्ग धाम दिव्य लोकों से भी उत्तम है ?” स्वर्णरे खा ने पूछा।

 ”मैं समझता हूँ कि क्षणिक आकर्षणों में आकर तम ु ऐसी बातें कर रही हो।” राजा ने कहा।
“नहीं, मेरा प्रेम सत्य है , शाश्वत है ,” स्वर्ण रे खा ने बल दे ते हुए कहा। “तम्
ु हारा प्रेम कितना
सच्चा है , इसे जानने के लिए एक छोटी-सी परीक्षा...” राजा अपनी बात पूरी करे , इसके पहले ही
स्वर्ण रे खा ने पूछा, “कहिये, वह परीक्षा क्या है ?”

“अब तुम अपना लोक लौट जाओ। छे महीनों तक इसपर गंभीरता के साथ सोचो-विचारो। तब
भी मुझसे विवाह रचाने की तुम्हारी इच्छा प्रबल रही तो अगले भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन
यहाँ आना। दे खो, उस शांभवि वक्ष
ृ के तले तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। तभी हमारा विवाह संपन्न
होगा। क्या यह तुम्हें स्वीकार है ?” “हाँ, हाँ, अवश्य स्वीकार है । हर हालत में आऊँगी।” कहती
हुई वह सहे लियों के साथ वहाँ से चली गयी।

अपने लोक में   पहुँचने के बाद भी, स्वर्ण रे खा, राजा मयूरध्वज को ही लेकर सोचती रही और यों
छे महीने बीत गये। अपने निर्णय पर दृढ़ वह भाद्रपद बहुल द्वादशी के दिन अकेले ही भूलोक
पहुँचने निकल पड़ी। मयूरध्वज के बताये शांभवि वक्षृ के समीप उसने एक मनोहर सरोवर
दे खा। उसमें स्नान करने के उद्देश्य से उसने अपने कंठ के महिमावान हार को निकाला और उसे
पास ही की फूलों की झाड़ी में लटका दिया। फिर वह सरोवर में उतर पड़ी। वह शीतल पानी का
आनंद लेती हुई अपने आप को भूल गयी। अचानक उसे लगा कि उसका शरीर रं गहीन हो गया।
वह चौंक उठी और अशभ
ु की शंका करती हुई तुरंत सरोवर के बाहर आ गयी।
उसने सरोवर के बाहर आकर दे खा कि उसके महिमावान हार को एक युवती पहनी हुई है । उसने
क्रोध-भरे स्वर में उस युवती से पूछा, “तुम कौन हो? मेरे हार की क्यों चोरी की? इसे मुझे वापस
दे दो।” “मेरा नाम कादं बरी है । शशांकपुर गॉवं की हूँ। मैंने तुम्हारे हार की चोरी नहीं की। मुझे
यह दिखायी पड़ा तो मैंने ले लिया और पहन लिया। यह तो मुझे बेहद सुंदर लगा।” उस नादान
युवती ने कहा। “कादं बरी, ऐसे आभूषणों का स्पर्श करने तक की भी तुम्हारी योग्यता नहीं है ।
यह गन्धर्व कन्याओं का अद्भत
ु शक्तियों से भरा हार है ।” स्वर्णरे खा ने गुस्से में आकर कहा।

 ”मझ
ु े किसी प्रकार की अद्भत
ु शक्तियों की आवश्यकता नहीं है । यह आभष
ू ण मेरे गले में
शोभायमान हो तो राजा मयरू ध्वज मझ
ु से विवाह करने से इनकार नहीं करें गे।” कादं बरी ने
कहा। उसकी इस बात पर स्वर्णरे खा ठठाकर हँस पड़ी और कहा, “क्या कहा तम
ु ने? राजा
मयरू ध्वज तम
ु से विवाह करें गे?”
“क्यों नहीं करें गे? इसी काम पर तो मैं राजधानी जा रही हूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया कि
विवाह करूँगी तो महाराज से ही करूँगी। पर मेरे माँ-बाप और गाँव के लोग भी मेरी बात का
विश्वास नहीं करते । मैं तो यह प्रतिज्ञा करके आयी हूँ कि महाराज से विवाह करके रानी
बनँूगी। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी।”

“तुम्हारी प्रतिज्ञा कभी भी पूर्ण नहीं होगी। राजा और मैंने एक-दस


ू रे से प्रेम किया। उन्होंने
मुझसे विवाह करने का वचन भी दिया। उस शांभवि वक्ष
ृ के तले थोड़ी ही दे र में हमारा विवाह
संपन्न होनेवाला है ।” स्वर्णरे खा ने कहा। यह सुनते ही कादं बरी के मन में तरह-तरह के विचार
उभर आये। उसने ठान लिया कि स्वर्णरे खा उसके मार्ग में एक रुकावट है और उसका अंत ही
समस्या का एकमात्र हल है । उसने कहा, “जिस हार को मैंने पहन रखा है , अगर सचमुच ही वह
महिमावान हो तो इसी क्षण तुम तोती के रूप में बदल जाओगी।” हार का स्पर्श करते हुए उसने
कहा।

बस, दे खते-दे खते स्वर्णरे खा तोती में बदल गयी। तदप


ु रांत कादं बरी ने स्वर्णरे खा का रूप धारण
कर लिया और शांभवि वक्ष
ृ के पास गयी। उसे ही सच्ची स्वर्णरे खा मानकर मयूरध्वज बहुत
आनंदित हुआ और उससे विवाह रचाने उसे राजधानी ले गया। कादं बरी का विवाह मयूरध्वज
से बड़े ही वैभव के साथ संपन्न हुआ। वह अवंती राज्य की रानी बनी और यों असाधारण
परिस्थितियों में उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई।
तोती में बदली स्वर्णरे खा अपनी दस्थि
ु ति पर विलाप करने लगी। एक भील ने उसे पकड़ लिया।
और उसे एक कलाबाज़ को बेच दिया। कलाबाज़ ने उसे क्रीड़ाओं में प्रशिक्षित दिया। बातें
सखायीं। तोती ने अपनी दख
ु भरी कहानी एक दिन कलाबाज़ को सुनाई। कलाबाज़ के उसे
ढाढ़स दिया।

 एक राजकर्मचारी की सहायता लेकर कलाबाज़ ने राजा के दर्शन किये। उसने अपने खेल दे खने
के लिए राजा से अभ्यर्थना की। राजा ने इसकी अनम
ु ति दी। कलाबाज़ के खेल दे खने राजदं पति
सहित, राजा के रिश्तेदार, राजकर्मचारी और नगर प्रमख
ु इकठ्ठे हुए।

कलाबाज़ के खेलों ने उन सबको बहुत ही आकर्षित किया। विशेषकर तोती के खेल-जिस गें द
पर वह खडी थी, उसे ठकेलना, आग के चक्रों से होते हुए दस
ू री ओर जाना, कलाबाज़ के बाणों से
बचकर निकलना आदिबहुत प्रभावशाली थे। तोती ने साथ ही बड़ी ही मीठी-मीठी बातें सुनायीं,
चुटकुले सुनाये। राजा ने उसकी मीठी बातों पर मुग्ध होते हुए कहा, “ओ तोती, तुम्हारा प्रदर्शन
अद्भत
ु है । माँगो, तुम्हें क्या चाहिये?”

“जो चाहूँगी, महाराज अवश्य दें गे? अपने वचन से पलट नहीं जायेंगे न?” तोती ने कहा।
“अपना वचन अवश्य निभाऊँगा। निस्संकोच माँगो,” राजा ने आश्वासन दिया । “रानीजी का
कंठहार चंद क्षणों तक पहनने का भाग्य मुझे प्रसादिये।” तोती ने कहा। राजा ने संकेत द्वारा
रानी से बताया कि वह अपना कंठहार तोती को दे । परं तु स्वर्णरे खा बनी कादं बरी के दिल में भय
पैदा हो गया। उसने कंठहार निकालकर तोती के गले में डाल दिया। दस
ू रे ही क्षण तोती
स्वर्णरे खा के रूप में बदल गयी और कादं बरी अपने असली रूप में प्रकट हुई। आश्र्चर्य में डूबे
राजा को स्वर्णरे खा ने पूरा वत्ृ तांत सविस्तार बताया। इतने में कादं बरी दौडती हुई राजभवन के
ऊपर गयी और वहॉ ं से नीचे कूद कर मर गयी।

“उस धोखेबाज को सही दं ड मिला महाराज। अब मुझे अपनी रानी के रूप में स्वीकार कीजिये।”
स्वर्णरे खा ने कहा। राजा थोड़ी दे र तक सोच में पड़ गया और फिर लंबी सांस खींचते हुए कहा,
“मझु े माफ़ करना। मैं तम्ु हारी इच्छा परू ी नहीं कर सकता। कादं बरी के धोखे का शिकार मैं ही
नहीं, तम
ु भी बनी। हम दोनों इसके ज़िम्मेदार हैं। भल
ू ोक में आकर तम
ु ने बहुत कष्ट सहे । जो
हुआ, भूल जाआ और अपने लोक में चली जाओ, जहाँ तुम आराम से जिन्दगी गुज़ार सकती
हो।”

राजा की बातों पर स्वर्णरे खा घबरा गयी, पर अपने को संभालती हुई उसने कहा, “जैसा आप
चाहते हैं, वैसा ही करूँगी।” यह कहती हुई वह गायब हो गयी और गंधर्व लोक लौट आई। वेताल
ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, “राजन ्, राजा ने सुंदरी स्वर्णरे खा का तिरस्कार क्यों किया?
राजा स्वर्णरे खा से प्रेम करते हैं या नहीं? वे उससे प्रेम नहीं करते, क्या इसीलिए उससे छुटकारा

पाने के लिए ही उन्होंने छे महीनों की अवधि मॉगी? पहले ही वह उसका तिरस्कार करते तो
बेचारी स्वर्णरे खा को इतने कष्ट सहने नहीं पड़ते।

मेरे इन संदेहों के समाधान को जानते हुए भी मौन रह जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े
हो जायेंगे।” विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दरू करने के उद्देश्य से कहा, “इसमें कोई संदेह
नहीं कि राजा मयरू ध्वज ने, स्वर्णरे खा से गाढ़ा प्रेम किया। छे महीनों की जो अवधि तय की,
वह केवल स्वर्णरे खा के प्रेम की परीक्षा मात्र के लिए ही नहीं बल्कि अपने लिये भी थी।

इस अवधि में वे स्वयं अपने प्रेम की भी परीक्षा करना चाहते थे। इसपर निर्णय लेने के बाद ही
वे स्वर्णरे खा से विवाह रचाने शांभवि वक्ष
ृ के पास गये। परं तु, उसके बाद कादं बरी के रूप में
दर्भा
ु ग्य ने उनका पीछा किया। असली स्वर्णरे खा को दे खने के बाद, उन्हें मालूम हुआ कि उनके
साथ धोखा हुआ है । राजा को यह भी मालूम हो गया कि बाह्य सौंदर्य से आकर्षित होने के
कारण ही  उनकी यह दर्ग
ु ति हुई है ।

यह तो विवाह बंधन का उपहास करना हुआ। वे नहीं चाहते थे कि ऐसी ग़लती फिर से दहु रायी
जाए। इसी वजह से उन्होंने स्वर्णरे खा की विनती को अस्वीकार किया। यह उनकी बौद्धिक
परिपक्वता व अच्छे संस्कारों का परिचायक है । इस विषय में राजा निष्कपट हैं। स्वर्णरे खा ने
राजा के इन मनोभावों को जाना और गंधर्वलोक लौट गई।” राजा के मौन भंग में सफल वेताल
शव सहित गायब हो गया और पन
ु ः पेड़ पर जा बैठा।

(आधारः मनोहर शास्त्री की रचना)


 

 
63. शिवालय

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर डाल
लिया। फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, इस घोर अंधकार में कहॉ ं जाने का तुम्हारा इरादा है ? तुम्हें क्या अपने गम्य
स्थल की जानकारी है ? यह क्यों भूल जाते हो कि वहाँ अब तक तुम पहुँच ही नहीं पाये? तुम्हें
दे खकर मुझे संदेह होता है कि तम
ु शाप ग्रस्त हो, इसीलिए लक्ष्यहीन होकर घूम-फिर रहे हो।
अब ही सही, संभल जाओ, सही मार्ग चुनो, अथवा तुम्हारी भी वही दस्थि
ु ति होगी, जो शिव
नामक एक युवक की हुई।
 
वह सद्गुण संपन्न था, असाधारण साहसी था, भय उससे भागता था। इन गुणों से लैस उसने
एक महान कार्य भी किया। परं तु बद्धि
ु हीन होकर, अहं कार के नशें में चरू होकर उसने उसका
फल खो दिया। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तम
ु इतना अथक परिश्रम कर रहे हो, उसके
फलस्वरूप अगर वह तम्
ु हारे हाथ आ जाए तो उसे कहीं जाने न दो, इसलिए मैं तम्
ु हें सावधान
करने हे तु उस यव
ु क शिव की कहानी सन
ु ाने जा रहा हूँ। ध्यान से सन
ु ना।” फिर वेताल शिव की
कहानी यों सन
ु ाने लगाः

सुगंधिपुर नामक गाँव के निकट एक ऊँचे पर्वत पर एक सुविशाल मंदिर था। परं तु गाँववालों को
यह ज्ञात नहीं कि उस मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान कौन हैं। इसका एक कारण भी है । उस पर्वत
के शिखर तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं था। वह प्रदे श विषैले सर्पों तथा कांटों की झाड़ियों से
भरा पड़ा था।
 
उस गाँव में शिव नामक बीस साल की उम्र का एक युवक रहा करता था। जब से उसने होश
संभाला, भक्तों की कहानियाँ सुना करता था। फिर इसके बाद, पढ़ने-लिखने में भी उसने
पर्याप्त अभिरुचि दिखायी। वह अक्लमंद तो था ही, इससे भी बढ़कर वह असाधारण साहसी
था। बचपन से ही पर्वत पर के मंदिर और उसमें प्रतिष्ठित भगवान को दे खने की उसकी अदम्य
इच्छा थी। एक दिन उसने अपनी माँ से अपने मन की इच्छा बतायी। वह एकदम घबराती हुई
बोली, “बेटे, यह दस्
ु साहस मत करना। हमारे गाँव के शिवालय के बैरागी ने भी वहाँ जाने का
दस्
ु साहस किया। उसी प्रयत्न में उन्होंने अपनी एक आँख खो दी।”
 
दस ू रे ही दिन शिव, बैरागी से मिला। उससे मंदिर जाने की अपनी इच्छा भी प्रकट की। तब
बैरागी ने शिव की भज
ु ा को थपथपाते हुए कहा, “उस पर्वत शिखर पर पहुँचना कोई असाध्य
कार्य नहीं है । मैं भी वहाँ तक जा पाया, किन्तु एक क्रोधी यक्ष के शाप के कारण एक आँख खो
दी। परं तु वहाँ तक जाने का उपाय तम्
ु हें बता सकता हूँ। फिर तम्
ु हारा भाग्य तम्
ु हारा साथ दे गा
तो परिणाम अच्छा होगा।”
 
शिव ने माँ से यह बात छिपा रखी कि वह बैरागी से मिला। एक हफ्ते के बाद एक दिन सबेरे वह
मंदिर जाने के लिए निकल पड़ा। महाशिव के प्रिय बेल के पत्तों को साथ लेकर वह
निकला।  बैरागी के कहे अनुसार ही एक चट्टान पर महाशिव का रूप नक्काशा हुआ था। शिव के
रूप को उसने प्रणाम किया और बेल के पत्तों को भगवान के चरणों पर थोड़ी दे र तक रखने के
बाद उन्हें अपने सिर पर रख लिया। इन पत्तों की महिमा के कारण न ही कांटे चुभते हैं और न
ही विषैले सर्प पास आते हैं। यह रहस्य बैरागी ने बड़ी ही साधना के बाद जाना और शिव को
बताया।

दप
ु हर तक शिव आधे पर्वत तक चढ़ गया। इतने में उसने पत्थर पर छे नी से शिल्प नक्काशने
की आवाज़ सुनी। शिव ने उस ओर मुड़कर दे खा कि कोई दे वता पुरुष छे नी से शिवलिंग को
नक्काश रहा है । वह मूल्यवान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित था। परं तु बीच-बीच में उस पत्थर में
दरारें पड रही थीं। शिव जान गया कि यह वही यक्ष है , जिसका जिक्र बैरागी ने किया था। वह
धीरे -धीरे यक्ष के पास गया और विनयपूर्वक नमस्कार किया।
 
दे वता पुरुष ने सिर उठाकर शिव को क्रोध-भरे नेत्रों से दे खा और कहा, “तुमने एक साधारण
मानव होकरमेरे पास आने की हिम्मत कैसे की? जानते नहीं, मैं यक्ष दे वता हूँ। तुम्हारी ही तरह
एक बैरागी भी मेरे पास आया और मेरे हाथों शाप-ग्रस्त हुआ। तम ु जैसे मानव यहाँ न पहुँचें,
हमारी पज
ू ाओं में खलल न डालें, इसीलिए हमने पर्वत मार्ग को दर्ग
ु म कर दिया। फिर भी, तम ु
यहाँ कैसे पहुँच पाये? जानते नहीं, इसी वजह से उस बैरागी ने एक आँख खो दी।”
 
शिव ने निडर होकर कहा, “यक्षोत्तम, जिस बैरागी को आपने शाप दिया, उन्होंने ही मुझे यह
भी बताया कि यक्ष शिव का कितना अनादर कर रहे हैं, कितना बड़ा अपचार उनसे हो रहा है ।
बहुत पहले एक आदिवासी पर्वत पर शिकार करने आया था और लिंग के आकार के एक बड़े
पत्थर को दे खकर उसने उसे प्रणाम किया और फूलों से पूजाएँ कर शिव, महाशिव कहते हुए
नतमस्तक होकर प्रार्थनाएँ करने लगा। आप यक्षों ने यह दे खा और उससे कहा, “अरे ओ मूर्ख,
पत्थर की पूजा कर रहे हो और जप रहे हो शिव का नाम। यह बड़ा ही अपचार है ।” कहते हुए
उन्होंने पत्थर को फोड़ डाला और उसे वहाँ से भगा दिया। शिव कुछ और कहने ही जा रहा था
कि यक्ष ने उसे रोकते हुए कहा, “जिन यक्षों के बारे में तम
ु बता रहे हो, मैं भी उनमें से एक था।"

मेरा नाम यशोधन है । इससे भी अधिक मुख्य विषय एक और है । जिस आदिवासी को हमने
यहाँ से भगाया, उसके दस
ू रे ही क्षण गंभीर स्वर में महाशिव ने कहा, “तुम लोगों ने मेरे मासूम
भक्त को सताया, यहाँ से भगाया और ऐसा करके बड़ा अपराध किया। यही नहीं, मेरे जिस रूप
की वह पूजा कर रहा था, उसे फोड़ ड़ाला। अतः तम
ु लोगों का यह धर्म बनता है कि पर्वत पर मेरे
एक मंदिर का निर्माण करो और उस मंदिर के गर्भगह
ृ में एक ऐसे शिव लिंग को प्रतिष्ठित करो
जिसमें कोई लोप न हो। मेरे किसी निःस्वार्थ भक्त से ही यह संभव हो सकता है । तब तक तम

लोग इस पर्वत को छोड़कर अपना लोक नहीं जा सकते।”
 
शिव ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा, “यक्षोत्तम, क्या ऐसे लिंग को बनाना कठिन काम है ,
जिसमें कोई लोप न हो?”
 
अपनी असहायता जताते हुए यक्ष ने कहा, “हाँ, हमने दे वालय का निर्माण तो कर दिया, पर
लगता है , लोपहीन शिवलिंग को बनाना असाध्य कार्य है । दे ख रहे हो न, इस शिव लिंग के बीच
में दरारें पड़ रही हैं।”
 
शिव थोड़ी दे र तक भगवान शिव के उस शिव लिंग को दे खता रहा, जिसे यक्ष तराश रहा था।
फिर उसने हाथ जोड़कर भगवान शिव से कहा, “हे महाशिव, भक्तिपूर्वक पूजा करनेवाले
साधारण मानव हैं हम। हमारे गाँव के ही नहीं, बल्कि कितने ही भक्त आपकी पूजा करने,
आपकी सेवा करने के लिए तड़प रहे हैं। किसी के हस्तक्षेप के बिना आप स्वयं मंदिर में
प्रतिष्ठित हो जाइये।”
 
दस ू रे ही क्षण दरारों से भरा वह शिवलिंग कांति से जगमगा उठा और दे खते-दे खते वह वहाँ से
अदृश्य होकर गर्भगह
ृ में प्रतिष्ठित हो गया।
 
शिव और यक्ष तुरंत मंदिर की ओर दौड़े। पर्वत पर जितने भी यक्ष थे, वहाँ आ पहुँचे और सबने
मिलकर शिवलिंग का अभिषेक किया।
 
बाद यक्ष यशोधन ने अन्य यक्षों को शिव के बारे में बताया। फिर उसने शिव से कहा, “महाशिव
के प्रति तुम्हारी भक्ति अपार है । हम यक्षों का यहाँ रह जाना समुचित नहीं है , शास्त्र सम्मत भी
नहीं है । तम
ु महाशिव की प्रीति के पात्र हो। अब से शिवालय की दे खभाल की जिम्मेदारियाँ
तुम्हें ही संभालनी होगी।”

शिव ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “आप के इस आदर के लिए आपका मैं कृतज्ञ हूँ। आपने जिस
मंदिर का निर्माण किया, उसमें प्रतिष्ठित भगवान शिव के दर्शन का भाग्य सब मानवों को
प्राप्त हो। जिस बैरागी ने आपके शाप की वजह से एक आँख खोयी, उन्हें फिर से दृष्टि प्रदान
कीजिये। परं तु मैं मंदिर की जिम्मेदारियाँ संभाल नहीं सकता। जाने की अनम
ु ति दीजिये।”
कहता हुआ वह निकल पड़ा।
 
वेताल ने कहानी बता चुकने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, “राजन ्, यक्ष मंदिर में शिव लिंग
को प्रतिष्ठित नहीं कर सके, पर वह काम शिव ने कर दिखाया। मंदिर की जिम्मेदारियों को
संभालने के लिए उससे कहा गया, पर उसने उनकी इस इच्छा का तिरस्कार किया। मंदिर में
शिवलिंग के प्रतिष्ठित होते ही क्या वह अपने को बहुत बड़ा मानने लगा? या उस अवसर पर
उसकी बद्धि
ु शिथिल पड़ गयी? कहीं उसमें स्वार्थ ने घर तो नहीं कर लिया? मेरे इन संदेहों के
समाधान जानते हुए भी चप ु रह जाओगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “शिव बचपन से ही भक्तों की कहानियाँ सुनता था, शिक्षा में रुचि थी, इसी
कारण वह पर्वत पर चढ़ पाया, जहाँ जाने में अन्य लोग डरते थे। वहाँ उसकी निस्वार्थ भक्ति के
कारण ही शिवलिंग का प्रतिष्ठापन हुआ। उसकी आँखों के सामने ही घटी इस अद्भत
ु घटना से
उसमें भक्ति भावना और बढ़ गयी। आध्यात्मिक विषयों को और गहराई से जानने की उसमें
प्रबल इच्छा जगी। मंदिर की दे खभाल की जिम्मेदारी से अधिक यह उसके लिए मुख्य बन
गया। ऐसी भक्ति की प्रवत्ति
ृ से पूर्ण मानवों में बुद्धि की शिथिलता या स्वार्थ होते ही नहीं।
महाशिव को दे खने की इच्छा एक महोन्नत तड़प है , आवेश है । मंदिर में शिव के दर्शन के बाद
वहाँ से उसका चला जाना आध्यात्मिक शिखरों का अधिरोहण है । मानव कल्याण के साथ जड
ु ा
हुआ उत्तम प्रयास है ।”
 
राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार सुभद्रा दे वी की रचना)
 
64. पेशे का प्रेमी

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर
डाल लिया। फिर वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, तुमसे हर बार कहता आ रहा हूँ कि जो काम तुम कर रहे हो, वह तुम्हें शोभा नहीं
दे ता। यह क्यों भूल जाते हो कि तम
ु एक राजा हो और राजा का काम श्मशान में नहीं, राज्य में
होना चाहिये। आम जनता के दख
ु दर्द को जानना चाहिये और उनकी यथासंभव सहायता
करनी चाहिये। मेरी समझ में नहीं आता कि अपने कर्तव्य को भुलाकर तुम यह कठोर परिश्रम
क्यों कर रहे हो। परं तु, कभी-कभी कार्य को साधने के बाद, जिस फल की आशा की जाती है ,
उसके विपरीत होता है । उदाहरणस्वरूप तुम्हें चक्रि नामक एक युवक की कहानी सुनाऊँगा।
थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सुनना।” फिर वेताल चक्रि की कहानी सुनाने लगाः

भोगपरु में श्रीकांत नामक रत्नों का एक व्यापारी रहा करता था। उसके तीन बेटे थे। दोनों बड़े
बेटे पिता के व्यापार में सहायता पहुँचाते रहते थे । तीसरा बेटा चक्रि साहित्य में विशेष
अभिरुचि रखता था। व्यापार में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
 
उस शहर के प्रमुख पंडित ब्रह्मवर्मा के घर में हर दिन शाम को काव्य गोष्ठी का आयोजन होता
था। उसमें पुरुष और स्त्रियाँ भाग लेते थे और कितने ही विषयों पर विशद रूप से चर्चाएँ करते
रहते थे। चक्रि भी अ़क्सर उन चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लेता था। काव्यों का वह भली-
भांति अध्ययन करता था और समझ भी लेता था। सब लोग उसकी विद्वता की प्रशंसा भी
करते थे। एक दिन, विमला नामक एक युवती ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। उस दिन से चक्रि
विमला से प्रेम करने लगा।
 
विमला उस शहर की नहीं थी। उसका पिता वीरांग मोहपुर में प्रमुख व्यापारी था। जब वह
बीमार हुआ तब वैद्यों ने उसे सलाह दी कि भोगपुर में रहने से उसकी तबीयत सुधर सकती है ।
अपनी बेटी के साथ वह वहाँ आया और अपने एक रिश्तेदार के घर में रहने लगा। विमला, हर
दिन चक्रि के साथ ब्रह्मवर्मा के घर में काव्यों को लेकर चर्चाएँ करती रहती थी। दोनों कभी-
कभी वैयक्तिक बातें भी करते रहते थे।
 
विमला ने, एक दिन चक्रि से कहा, “मेरे पिताजी का स्वास्थ्य अब बिलकुल ठीक है । कल ही
हम मोहपुर लौटनेवाले हैं।” यह सुनते ही वह चिंतित हो उठा और कहने लगा, “तुम्हारे बिना मैं
जी नहीं सकता। तम्
ु हारी स्वीकृति हो तो हम दोनों शादी कर लेंगे।”
 
विमला शरमाती हुई बोली, “तुम एक प्रमुख रत्न व्यापारी के पुत्र हो। मेरे पिता इस विवाह को
अवश्य स्वीकार करें गे। विवाह का प्रस्ताव लेकर तम
ु अपने बड़ों के साथ मोहपरु आओ। वहीं
इसका निर्णय होगा।”

चक्रि यह बात पिता से बताना चाहता था, परं तु जब उसके दोनों भाइयों की शादी नहीं हुई, तब
भला यह कैसे कहे । वह संकोच में पड़ गया।
 
चक्रि का पिता अचानक किसी काम पर ध्रव ु परु गया, जो बहुत दरू था। वहाँ जयगप्ु त नामक
एक बाल्य मित्र से उसकी मल
ु ाक़ात हुई। वह चक्रि के पिता को अपने घर ले गया।
 
जयगुप्त करोड़पति था। उसकी तीन बेटियाँ थीं। तीनों ने बहुत ही अच्छी तरह से श्री कान्त का
आदर-सत्कार किया। श्रीकांत उनकी सुंदरता, विनय व व्यवहार शैली को दे खकर बहुत ही
प्रसन्न हुआ। उसने जयगुप्त से यह कहा भी।
 
जयगप्ु त ने मस्
ु कुराते हुए कहा, “मैंने तम्
ु हारे तीनों बेटों को दे खा नहीं। परं तु तम्
ु हें दे खकर
अंदाजा लगा सकता हूँ कि वे भी अवश्य ही तम् ु हारी ही तरह योग्य व दक्ष होंगे। उन तीनों को
अपना दामाद बनाने की मेरी इच्छा है । तम
ु ने तो मेरी बेटियों को दे ख लिया और उनकी प्रशंसा
भी की। क्या उन्हें अपनी बहुएँ बनाने को तैयार हो?”
 
श्रीकांत ने सकपकाते हुए कहा, “मेरी पत्नी कहा करती है कि बहनें दे वरानियॉ ं हों तो मिल-
जुलकर रहें गी। तुम्हारी बेटियाँ मेरी बहुएँ होंगी तो यह मेरा भाग्य होगा। परं तु, उन्हें पहले एक
-दस
ू रे को दे खना होगा और पसंद भी करना होगा न?”
 
जयगुप्त ने फ़ौरन कहा, “तुम्हारा शहर मेरे शहर से बहुत दरू है । उनका एक-दस
ू रे को दे खना
और फिर कभी विवाह इसमें बहुत समय लगेगा। जहाँ तक मेरी बेटियों की बात है , वे वही
करें गी, जो मैं कहूँगा। समझता हूँ कि तुम्हारे बेटों के विषय में भी यही सच है । उनकी
अस्वीकृति की स्थिति में ही उन्हें एक-दस
ू रे को दे खना होगा।”
 
श्रीकांत के लिए यह चुनौती थी। घर लौटते ही उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया और जो हुआ,
उसका सविस्तार विवरण दिया। फिर कहा, “जयगुप्त मेरा बाल्य मित्र है । उसकी बेटियाँ सुंदर
और विनम्र हैं। बहुत ही विनयी हैं। उन्हें दे खे बिना ही तम
ु इस विवाह के लिए मान जाओगे तो
मैं जयगप्ु त के सामने सिर उठाकर खड़ा हो सकता हूँ।”
 
 
बड़े दोनों बेटों ने पिता के इस प्रस्ताव को मान लिया। पर चक्रि ने जैसे ही विमला के बारे में
बताया तो क्रोध से पिता का चेहरा तमतमा उठा। उसने कहा, “वह वीरांग हमारा कट्टर शत्रु है ।
तम
ु विमला को भल
ू जाओ।”
चक्रि ने नहीं माना। तब श्रीकांत ने क्रोध-भरे स्वर में कहा, “मेरे मित्र की पुत्री से विवाह करने से
इनकार कर रहे हो और मेरे शत्रु की पुत्री से विवाह पर तुले हुए हो। अगर तुम्हारा यही निर्णय है
तो इसी क्षण घर से निकल जाओ। तुम्हारे लिए मेरे घर के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हैं।”
 
चक्रि उसी क्षण घर से चला गया और मोहपरु जाकर विमला से सारी बातें बतायीं।
 
विमला डरती हुई बोली, “अब तक मुझे मालूम ही नहीं था कि तुम्हारे पिता और मेरे पिता कट्टर
शत्रु हैं। तब तो मेरे पिता भी इस विवाह के लिए अपनी स्वीकृति नहीं दें गे।”
 
“तम्
ु हारे लिए मैं घर छोड़कर आया हूँ। तम ु भी घर छोड़कर चली आओ। विवाह करके सख
ु ी
जीवन बिताएँगे,” चक्रि ने कहा।
 
“तुम्हें तुम्हारे पिता ने घर से निकाल दिया। अब तुम्हारे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है । शादी कर
लेंगे तो कैसे सुखी रह सकते हैं। जब तक अपने को योग्य व धनी साबित नहीं करोगे तब तक
तुमसे शादी करने का सवाल ही नहीं उठता।” उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया।
 
चक्रि को लगा कि विमला की बातों में औचित्य है । उस दिन से वह धन कमाने के प्रयत्नों में
जी-जान से लग गया। लेकिन तत्काल पेट भरना भी उसके लिए मश्कि ु ल था।
 
ऐसी परिस्थितियों में , वज्रपुर के एक निवासी ने चक्रि से कहा, “इस गाँव में कपड़े धोनेवाले
नहीं हैं। तम
ु अगर मेरे घर के कपड़े धोओगे तो दोनों व़क्त खाने का बंदोबस्त करूँगा। और हर
महीने पाँच अशर्फि याँ दँ ग
ू ा।”
 
कोई और चारा नहीं था। चक्रि ने उसका कहा मान लिया और नौकरी पर लग गया। अड़ोस-
पड़ोस के लोग भी उसे धोने के लिए कपड़े दे ने लगे। क्रमशः उसकी मासिक आय बढ़ने लगी।
 
एक दिन उसके मालिक के घर एक साधु आया। चक्रि को उसके काषाय वस्त्र धोने पड़े। साधु ने
चक्रि को बुलाकर कहा, “तम
ु ने मेरे कपड़े धोये, पर गंदगी जैसी की तैसी है । अगर यही
सिलसिला जारी रहा तो तुम अपने पेशे में कैसे आगे बढ़ सकते हो?”
 
चक्रि की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने साधु को अपनी प्रेम-कहानी सुनायी और कहा,
“लाचार होकर मैं यह काम कर रहा हूँ। कपड़े धोना मेरा पेशा नहीं है ।”

साधु को उसपर दया आ गयी। उसने कहा, “जिस पेशे में तुम आगे बढ़ना चाहते हो, उस पेशे से
प्रेम करना चाहिये। अन्यथा जीवन में तुम्हारी प्रगति कदापि नहीं होगी।”
 
“पेशे से प्रेम। यह कैसे?” आश्चर्य-भरे स्वर में उसने पूछा। “पेशा अगर तुम्हें इज्ज़त बख्शे तो
वह पेशे का बडप्पन है । पेशे की इज़्जत अगर तम
ु करोगे तो वह तम्
ु हारा बडप्पन है । पेशे की
बारीकियाँ सीखो और नयी पद्धतियाँ अपनाओ।” साधु ने कहा।
 
साधु की इन बातों ने चक्रि पर मंत्र की तरह काम किया। साधु के चले जाने के बाद, वह एक
दरू स्थ गाँव में गया और वहाँ अपने पेशे से संबंधित बारीकियाँ सीखीं। फिर वज्रपुर लौट कर
कपड़ा धोने के क्षेत्र में नयी पद्धतियों को अमल में लाने लगा। इस वजह से जो कपड़े वह धोता
था, वे एकदम सफ़ेद होते थे। रं ग भरे कपड़े नये दिखते थे। पुराने कपड़े अगर रं गहीन हो जाते
तो वह उनपर रं ग चढ़ाता था। नये कपडों का रं ग अगर पसंद न आता हो तो वह उस रं ग को
बदल भी दे ता था। वज्रपुर के निवासियों ने पहचाना कि यह एक बड़ी कला है और वे उसका
आदर भी करने लगे। चक्रि को अब इस पेशे से पर्याप्त आमदनी भी मिलने लगी। साल ही के
अंदर उसने नाम कमाया, साथ ही बहुत धन भी।
 
इस बीच, चक्रि का बाप ध्रुवपुर गया और जयगुप्त से चक्रि के विषय में सविस्तार बताया।
इसपर जयगुप्त ने कहा, “मुझे इस बात का दख
ु है कि मेरे कारण बाप-बेटे को अलग होना पड़ा।
विमला के पिता वीरांग को मुझसे कितने ही लाभ पहुँचे। वह मेरी बात को इनकार ही नहीं कर
सकता। इस विवाह से तुम दोनों परिवारों के बीच का मन-मुटाव भी दरू हो जायेगा।”
 
यों, जयगुप्त के प्रयासों से श्रीकांत और वीरांग दोस्त बने। तीनों सपरिवार वज्रपुर गये और
चक्रि से मिले। चक्रि ने अपनी पूरी कहानी उन्हें सुनायी। तब उसकी माँ ने उससे कहा, “कड़ी
मेहनत करके तम
ु इतने बड़े हो पाये, पर हम तुम्हारे इस पेशे से क़तई खश
ु नहीं हैं। यह भूलना
मत कि तम
ु रत्नों के व्यापारी के बेटे हो।” पास ही खड़ी विमला चक्रि से कहने लगी, “मेहनत
करके जीवन निर्वाह करने का यह पेशा मझ
ु े भी पसंद नहीं। अगर यह पेशा नहीं छोड़ा तो मैं
तम
ु से शादी नहीं करूँगी। निर्णय कर लो कि तम
ु मझ
ु े चाहते हो या अपने पेशे को।”

चक्रि नाराज़ी से बोला, “तो मेरा भी निर्णय सुन लो। उसी कन्या से मैं विवाह करूँगा, जो मेरे
साथ मेरे पेशे का भी आदर करे गी।”
 
तब जयगप्ु त ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा, मेरी तीसरी बेटी तम्
ु हारे साथ कपड़े
धोने के लिए तैयार है । क्या उससे शादी करोगे?”
 
चक्रि ने तुरंत जयगुप्त के पाँव छूते हुए कहा, “आपकी पुत्री से विवाह करना अपना भाग्य
समझता हूँ।”
 
वेताल ने कहानी परू ी की और राजा विक्रमार्क से पछ
ू ा, “राजन ्, चक्रि ने अपनी प्रेयसी विमला के
लिए, प्रमख
ु रत्न व्यापारी पिता व परिवार को छोड़कर नाना कष्ट सहे । साधु के हितबोध के
कारण उसने कपड़ों को धोने का पेशा अपनाया और उस पेशे से पर्याप्त धन भी कमाया। परं तु
विमला को उसका पेशा हे य लगा। विमला की इच्छा के अनस
ु ार ही वह पेशा छोड़ पिता के साथ
रत्नों का व्यापारी बनकर आराम से ज़िन्दगी गज़
ु ार सकता था। उसका निर्णय तो विवेकहीन
लगता है । मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चप ु रहोगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े
हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “कुछ ऐसे पेशे होते हैं, जो आदरणीय नहीं लगते, पर जो व्यक्ति उन पेशों को
अपनाते हैं और अपनी प्रतिभा से उन्हें आदरणीय बनाते हैं, वे विशिष्ट व्यक्ति कहलाते हैं।
साधु के हितबोध से चक्रि ने यह जाना और वह उस पेशे का प्रेमी बना। उसने साबित कर
दिखाया कि कपड़ों को धोना कोई हे य पेशा नहीं है । परं तु, विमला इस तथ्य को जान नहीं सकी
और उसके पेशे को हे य मान बैठी। इसी वजह से चक्रि ने उससे शादी करने से इनकार कर
दिया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार-मनोज गुप्ता की रचना।)
 
65. कठिन कार्य

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारकर अपने कंधे पर डाल
लिया और श्मशान की ओर बढ़ता हुआ चला गया। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्,
अपने लक्ष्य को साधने के लिए तुम कठोर परिश्रम कर रहे हो। तुम्हारा यह हठ प्रशंसनीय है ।
किन्तु जिस लक्ष्य को साधने के लिए तुम इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो, वह तुम्हारे लिए है
या और किसी के लिए? कहीं कोई कपटी तुम्हारे द्वारा यह काम तुमसे कराता तो नहीं है ?
बुद्धिमान व्यक्ति भी कभी-कभी कपटी की बातों में आ जाते हैं और अनावश्यक अपने को कष्ट
में डाल लेते हैं। मैं अब तुम्हें सावधान करने के लिए उस जनबंध नामक तपस्वी की कहानी
सुनाने जा रहा हूँ, जिसने दो प्रतिभावान युवकों को, मीठी-मीठें बातों से लुभाया और उन्हें धोखा
दिया। फिर वेताल उनकी कहानी यों बताने लगाः

राम पंडित था, भीम मल्ल यद्ध


ु में निष्णात था तो सोम जल क्रीड़ाओं में असमान था। ये तीनों
यव
ु क अपनी-अपनी विद्याओं को प्रदर्शित करने के लिए वज्रपरु गये तो वे वहाँ तीनों मित्र बन
गये। उस गाँव के लोगों ने उनकी प्रतिभा की प्रशंसा की और उनके रहने और खाने की व्यवस्था
की।
 
परं तु, कुछ समय के बाद वज्रपुर में अकाल पड़ा। तीनों मित्र शारीरिक परिश्रम करना चाहते
नहीं थे, इसलिए वे तीनों श्रीनगर पहुँचे। ठहरने के लिए वे नगर के धनी बसवेश्वर के घर गये।
 
उस समय बसवेश्वर के घर में जनबंध नामक तपस्वी थे। बसवेश्वर के आतिथ्य से प्रस होकर
जनबंध ने कहा, “अगले साल तम्
ु हारी बहू एक सप
ु त्र
ु को जन्म दे गी।”
 
यह सुनकर बसवेश्वर का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी पत्नी विमला ने कहा, “स्वामी, हमारी
कोई संतान नहीं है । आपके आशीर्वाद के बल पर अगर पुत्र का जन्म भी हुआ तो भी उसका
विवाह बीस सालों के बाद ही होगा न।” यों उसने अपना दख
ु व्यक्त किया।
 
जनबंध ने थोड़ी दे र तक अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर आंखें खोलकर कहा, “मेरा आशीर्वाद
दै व संकल्प है । किसी योग्य युवक को दत्तक पत्र
ु के रूप में स्वीकार कीजिये और उसका विवाह
करवाइये। साल ही के अंदर आपकी बहू पत्र
ु को जन्म दे गी।”
 
बसवेश्वर ने कहा, “हमने भी यही सोचा। किन्तु हम यह कैसे जानें कि दत्तक पत्र
ु के योग्य
कौन है ?”
 
ठीक उसी समय राम, भीम, सोम ने दरवाज़ा खटखटाया। वे अपने बारे में कुछ कहें , उसके
पहले ही जनबंध ने हर एक का नाम लेकर उन्हें बल
ु ाया और कहा, “जिस गाँव में आप रहते थे,
वहाँ अकाल पड़ गया। मेहनत करने की आप लोगों की इच्छा नहीं थी इसलिए अपनी-अपनी
प्रतिभा के योग्य काम को ढूँढ़ते हुए इस नगर में आये। मेरा अनम
ु ान सही है न?”
 
तीनों मित्र हक्का-बक्का रह गये और कहा, “आप महान हैं। आपकी दृष्टि दिव्य है । आप हमारे
बारे में सब कुछ जान गये। आप ही को अब उपाय सुझाना होगा कि हम क्या करें ।” कहते हुए
उन्होंने उस तपस्वी को प्रणाम किया।

जनबंध ने कहा, “भाग्यवान, इस बसवेश्वर की कोई संतान नहीं है । दशरथ पर्वत पर वशिष्ठ
वक्ष
ृ है । उसका पका फल खाने पर इसकी पत्नी माँ बनेगी। किन्तु वह पर्वत पश्चिमी दिशा में
नहीं है । शेष तीनों दिशाओं में भी यह वक्ष
ृ नहीं है । तम
ु तीनों, तीन दिशाओं में जाओ और उस
फल का अन्वेषण करो। जो वह फल लायेगा, उसे बसवेश्वर अपनी आधी जायदाद दे गा। दो
महीनों वे अंदर अगर तम
ु में से कोई भी वह फल लाने में सफल नहीं होगा तो फल के अन्वेषण
में जो दस
ू रों की तल
ु ना में अधिकाधिक परिश्रम करे गा, उसे वे दत्तक पुत्र बनायेंगे और फल के
अन्वेषण के लिए कोशिश के बदले तम
ु तीनों को काम मिलेगा।” तीनों मित्र फल के अन्वेषण
में अलग-अलग दिशा में गये।
 
राम उत्तरी दिशा में गया। उसने दशरथ पर्वत के बारे में जानकारी पाने की कोशिश की। वह
वंचक नामक एक भूस्वामी से मिला। उसने राम से संबंधित जानकारी पाने के बाद कहा,
“नियमानुसार उन्हीं को दशरथ पर्वत के बारे में विवरण दिया जायेगा, जो ईमानदार और
अ़क्लमंद हो। तम
ु छे ह़फ़्तों तक मेरे यहाँ काम करो। अगर मझ
ु े विश्वास हो जाए कि तम

अ़क्लमंद हो तो उस पर्वत से संबंधित विवरण बताऊँगा।”
 
राम ने वंचक की बातों का विश्वास किया। वह उसका काम करने में लग गया। वंचक हर रोज़
उससे घर का काम करवाता था। घर की सफाई कराता था, पशुओं को पानी से धुलवाता था,
लकड़ियाँ तड़
ु वाता था और कुएँ से पानी खिंचवाता था। राम को इन कामों को करने की इच्छा
तो नहीं थी, पर छे हफ्तों तक उसे ये काम करने पड़े। छे महीनों के बाद जब उसने वंचक से
दशरथ पर्वत के बारे में बताने को कहा तो उसने कहा, “इन छे ह़फ़्तों में तुमने अपने को
विश्वासपात्र साबित किया। किन्तु अगर मैं उस पर्वत के बारे में बताऊँगा तो यहाँ से फ़ौरन चले
जाओगे। इतना विश्वासपात्र नौकर मुझे कहाँ से मिलेगा ! इतनी छोटी-सी बात भी तम
ु समझ
नहीं पाये। स्पष्ट है कि तम
ु अ़क्लमंद नहीं हो, तम
ु दशरथ पर्वत के बारे में जानने योग्य नहीं
हो।”

अब राम समझ गया कि वंचक को दशरथ पर्वत के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है और वह
धोखेबाज़ है । बेचारा राम श्री नगर लौटने के लिए निकल पड़ा।
 
भीम दक्षिण दिशा में गया। वह विचित्रपुर नामक गाँव में पहुँचा। उसने उस गाँव में अपनी
मल्ल विद्या को प्रदर्शित किया। गाँववाले इससे संतुष्ट हुए और उसे उसी गाँव में रह जाने की
सलाह दी। भीम ने उन्हें वहाँ आने का कारण बताया । इसे सुनकर शिलाद्र नामक एक व्यक्ति
ने उससे कहा, “हमारे गाँव से थोड़्री दरू ी पर दर्ग
ु म पर्वत श्रेणी है । मैं एक पर्वतारोही हूँ। इन
पर्वतों की विशेषताओं को जानने के लिए तम
ु जैसे एक बलवान की तलाश में हूँ। तम
ु ?हाँ' कह
दोगे तो तुम्हारे साथ चलने के लिए मैं तैयार हूँ। हो सकता है , उन पर्वतों के बीच मे दशरथ पर्वत
भी हो।”
 
भीम ने उसके प्रस्ताव को मान लिया। दस
ू रे ही दिन वे निकल पड़े। वह मार्ग सचमच
ु ही दर्ग
ु म
व जोखिम भरा था। उतार-चढ़ाँवों से भरा था। तिसपर क्रूर जंतओ
ु ं का भय भी था। विष धर सर्प
भरे पड़े थे। खाने की कोई चीज़ भी नहीं थी। छे हफ्तों के बाद वे निराश होकर लौट पड़े।
विचित्रपुर के ग्रामीणों ने इस कठोर यात्रा के लिए उनका सम्मान किया। दशरथ पर्वत का पता
तो नहीं लगा, पर भीम को इस बात की खुशी थी कि उसने कठोर परिश्रम किया और अनेक
कष्ट झेले। उत्साह से भरा वह श्रीनगर पहुँचने निकल पड़ा।
 
अब रही सोम की बात। वह पूर्वी दिशा में जाकर मकरावलि नामक नदी के किनारे स्थित
जलपुर नामक गाँव में गया। उसने वहाँ के ग्रामीणों को अपनी जल क्रीड़ाओं से संतुष्ट किया।
गाँववालों ने उससे वहीं रह जाने ने लिए कहा, पर उसने उन्हें अपना ध्येय बताते हुए उनके
प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसकी कहानी सुनने के बाद मकर नामक एक व्यक्ति ने कहा, “इस
नदी में दो हफ्तों तक यात्रा करें गे तो मगरमच्छों के द्वीप में पहुँच सकते हैं। हो सकता है , उस
द्वीप में दशरथ पर्वत हो। किन्तु नदी के बीच में मगरमच्छ अधिकाधिक हैं। इसी भय के
कारण आज तक किसी ने भी उस द्वीप में जाने का साहस नहीं किया। मैं एक नाविक हूँ। इस
द्वीप की विशेषताओं को जानने के लिए मैं तम
ु जैसे एक जलनिपण
ु की खोज में हूँ। तम
ु ?हाँ'
कह दोगे तो हम दोनों निकल पड़ेंगे।”

सोम ने अपनी सहमति दी। दोनों मकरद्वीप की ओर नाव में चल पड़े। दो दिनों के बाद जहाँ
दे खो, वहाँ मगरमच्छ थे। सोम ने अपने जल-नैपुण्य से मगरमच्छों को डराकर भगा दिया। यों
दो ह़फ़्तों तक यात्रा करने के बाद वे मगरमच्छों के द्वीप में पहुँचे।
 
वहाँ पहुँचते ही कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनको अपने राजा के पास ले गये। राजा ने
उनकी परू ी कहानी सन
ु ने के बाद कहा, “हमारी दे वी मगरमच्छ है । मगरमच्छों की नदी के बीच
में उसकी मर्ति
ू है । जब वह नर बलि चाहती है , तब वह परदे शियों को प्रेरित करती है और उन्हें
यहाँ बुला लेती है । तम
ु दोनों ऐसे ही परदे शी हो। तुम्हें मगरमच्छों के बीच में डाल दें गे। हमारी
दे वी मगर के रूप में आकर तुम्हें निगल जायेगी।”
 
सोम ने कहा, “मेरी एक विनती है । मुझे उस जगह पर उतारिये। दे वी मेरी प्रार्थनाओं से प्रस
होगी तो साष्टांग नमस्कार करूँगा और सरु क्षित लौट आऊँगा। अगर मैं उस दे वी का आहार बन
जाऊँगा तो फिर मेरे मित्र को भी वहाँ फेंकिये।”
 
उसकी बातों पर राजा हँस पड़ा और सोम को उस नदी के बीच में फेंक दिया। फ़ौरन एक बहुत
बड़ा घड़ियाल मँुह खोले उसपर टूट पड़ा। सोम ने विविध प्रकार के जल विन्यासों से उस
घडियाल को भगाया, फिर वहाँ स्थित दे वी की मूर्ति को सविनय प्रणाम किया। राजा ने सोम
की प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम्हें हमारी दे वी का आशीर्वाद प्राप्त है ।” तुम्हारा आतिथ्य करना
हमारा धर्म है । जितने दिन यहाँ रहना चाहते हो, रहो और दशरथ पर्वत को ढूँढ़ों।”
 
दो ह़फ़्तों तक अन्वेषण करने के बाद उन्हें मालम ू हो गया कि उस द्वीप में दशरथ पर्वत नहीं
है । सोम को लगा कि मैंने कड़ी मेहनत की, हर प्रकार से दशरथ पर्वत को ढूँढ़ने का प्रयत्न
किया। इसी से सन्तुष्ट होकर वह लौट गया।
 
दो महीनों की अवधि पूरी होते-होते वे तीनों श्रीनगर पहुँचे और बसवेश्वर के घर गये। तब वहाँ
जनबंध भी उपस्थित थे। उन्होंने उनके अनुभवों को सुनने के बाद कहा, “मेरे कहे अनुसार फल
के अन्वेषण के कारण तुम तीनों को ऐसे प्रदे श मिल गये, जहाँ तुम्हें काम मिल सकते हैं। भीम
विचित्रपुर जाए और सोम जलपुर। वहाँ जाकर आराम से रहिये। राम ने तम
ु दोनों से अधिक
कष्ट भरे काम किये, पर उसे कहीं भी काम नहीं मिलेगा इसलिए बसवेश्वर, राम को अपना
दत्तक पत्र
ु बनायेंगे।”

उनका निर्णय सुनते ही सोम और भीम एक क्षण के लिए अवाक् रह गये। फिर संभल गये और
जनबंध को प्रणाम करके कहाँ से चले गये।
 
कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने कहा, “राजन ्, बसवेश्वर किसी एक को दत्तक पत्र
ु बनाये,
इसी उद्देश्य को लेकर सोम और भीम ने दशरथ पर्वत ढूँढ़ने के लिए यथासाध्य प्रयत्न किये,
तकलीफें सहीं, खतरों का सामना किया, क्योंकि जनबंध की शर्त थी कि जो ज्यादा से ज़्यादा
परिश्रम करे गा, उसे ही बसवेश्वर अपना दत्रक पत्र
ु बनायेगा। वे दोनों फल के अन्वेषण में
अपनी जान भी दे ने को सद्ध हो गये। जनबंध ने उन दोनों में से एक को चन
ु ने के बदले वंचक के
धोखे में आये राम को इसका हक़दार चन
ु ा। उस घटना से यह भी साबित हो गया कि वह महा
मर्ख
ू है । जनबंध ने राम को चन
ु कर क्या ग़लती नहीं की? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए
चपु रह जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दरू करते हुए कहा, “राम, वंचक के चंगुल में फंस गया। इसके
लिए उसने वे सब काम किये, जो उसे बिलकुल पसंद नहीं थे। शेष दोनों ने संदेहपूर्ण लक्ष्य के
बावजूद कष्ट भरे कामों को प्रधानता दी क्योंकि वे काम उन्हें पसंद थे, उनके सामर्थ्य को
साबित करनेवाले काम थे। पसंदीदा काम करना आसान है , भले ही वे कष्टों से भरे क्यों न हों।
पसन्द का काम न हो तो आसान काम करना भी मश्कि
ु ल है । राम ने यह काम कर दिया,
इसीलिए जनबंध ने उसे चन
ु ा। इसमें किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं है । अलावा इसके दोनों
की मेहनत भी बेकार नहीं गयी। उन्हें जीने का रास्ता मिल गया। वे दोनों इस सत्य को जान
गये, इसीलिए दोनों तपस्वी को सविनय प्रणाम करके चले गये।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार “वसंधु रा” की रचना)
 
66. यथार्थ चित्र

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “तुम्हारा वह
कौन-सा संकल्प है , जिसे कार्यान्वित करने के लिए इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो? कुछ ऐसे
राजा हैं, जो अपने अधिकार- दर्प के नशे में चूर होकर अकस्मात ् ही कोई न कोई निर्णय ले लेते
हैं। उनके इस निर्णय के पीछे उनका क्या आशय है , यह किसी की समझ में नहीं आता। अपने
नौकर-चाकरों के विषय में ही नहीं बल्कि स्वतंत्र विचारों के कलाकारों के प्रति भी इसी प्रकार
का दर्व्य
ु वहार करते हैं। यह मालूम ही नहीं होता कि वे कब किसे दं ड दें गे और किसका सत्कार
करें गे। राजा उग्रसिंह भी एक ऐसा ही राजा था, जिसने अमित अधिकार-दर्प के नशे में चूर
होकर विवेक रहित पारस्परिक विरोधी निर्णय लिये। तुम्हें सावधान करने के लिए उसकी
कहानी सुनाने जा रहा हूँ। ध्यान से सुनो।” फिर वेताल यों कहने लगाः

उग्रसिंह जयंतपरु का राजा था। निस्संदेह वह एक दक्ष शासक था, परं तु जब दे खो, क्रोधित ही
रहता था, चाहे वह अंतःपरु में हो या दरबार में । छोटी-छोटी ग़लतियों पर भी वह लोगों को कड़ी
से कड़ी सज़ा दे ता था।
 
राजकर्मचारियों को सदा इस बात का डर लगा रहता था कि पता नहीं, कब, किस कारण से उन्हें
दं ड मिलेगा।
 
एक बार उग्रसिंह में अपना चित्र बनवाने की इच्छा जगी। यह समाचार जानते ही कई चित्रकार
राजधानी आने लगे। परं तु राजा ने इतने में घोषणा करवायी कि जो उसका अच्छा चित्र
बनायेगा, उसे हज़ार अशर्फि याँ दी जायेंगी, पर राजा को यह चित्र पसंद न आये तो चित्रकार को
दस कोड़े मारे जायेंगे। चित्रकार जानते थे कि राजा हमेशा क्रोधांध रहता है , इसीलिए समर्थ
चित्रकार भी पीछे हट गये।
 
नागवर्मा ही एक ऐसा चित्रकार था, जो राजा का चित्र बनाने के लिए तैयार हुआ। राजभवन के
निकट ही उसके रहने का इंतज़ाम किया गया। राजा हर दिन चित्र बनाने के लिए उसे कुछ
समय दे ता था। नागवर्मा ने एकाग्रता के साथ कुछ समय तक काम किया और पूरा हो जाने के
बाद चित्र दरबार में ले आया।
 
परदा हटाने के बाद जैसे ही राजा ने चित्र को दे खा, नाराज़ हो उठा और चिल्ला पड़ा, “छी, यह
भी कोई चित्र है ? क्या सचमुच में तुम चित्रकार हो? यह तो मेरा चित्र ही नहीं लगता।”
 
सभासदों ने भी यही राय प्रकट की। उनको आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े चित्रकार ने ऐसा चित्र
कैसे बनाया।
 
नागवर्मा को पुरस्कार पाने की उम्मीद थी, पर उल्टे वह कोड़े से मारा गया। अपमानित होकर
वह सभा से निकल गया।
 
कुछ दिनों के बाद विजय नामक चित्रकार राजा से मिला और बोला, “आपका चित्र बनाने की
इच्छा लेकर आया हूँ। कृपया मझ
ु े इसकी अनम
ु ति दीजिये।”

“निकम्मों के सामने खड़े होकर चित्र बनवाने से मुझे बेहद चिढ़ है । अगर ठीक तरह से चित्र
नहीं बनाया तो दग
ु ुना दं ड दँ ग
ू ा? याने कोड़े की मार दस नहीं, बीस बार । शर्त स्वीकार है ?” राजा
ने गरजते हुए पूछा।
 
“हाँ, स्वीकार है महाराज,” विजय ने कहा। वह उसी दिन काम पर लग गया। हफ्ते भर में उसने
चित्र बना दिया, और दरबार में सिंहासन पर आसीन राजा के पास ले आया।
 
उस चित्र को दे खकर राजा क्रोधित हो गया और कहने लगा, “क्या मैं इतना क्रूर हूँ, तुम्हारा यह
साहस?”
 
“क्षमा कीजिये महाराज, आपका यथार्थ चित्र बनाना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है । एक हिरन
पानी पीते समय भी घबराता रहता है और भय के मारे परिवेशों को दे खता रहता है । बाघ प्रशांत
होकर जब बैठा रहता है , तब भी उसकी आँखों में लालिमा भरी रहती है और वह भयंकर लगता
है । ये उनके सहज लक्षण हैं। चित्रकार को किसी भी हालत में उस सहजता को भुलाना नहीं
चाहिये।” विजय ने सविनय कहा।
 
“इसका यह मतलब नहीं कि मझ ु े इतना क्रूर दिखाओ। अगर मैं चाहूँ तो तुम्हारा सिर धड से
अलग कर सकता हूँ।” राजा ने हुंकार भरते हुए कहा।
 
“जानता हूँ, महाराज। परं तु सच्चा कलाकार सदा सत्य ही कहता है । जो सत्य में विश्वास
रखता है , उसे भय छू भी नहीं सकता। फिर भी, मेरी एक छोटी-सी विनती है । आप किसी
निर्णय पर आयें, उसके पहले इस चित्र को सभासदों को दिखाने की अनुमति दीजिये। कृपया
उनकी भी राय लीजिये।”
 
राजा ने सभासदों को संबोधित करते हुए कहा, “क्या यह चित्र मुझ जैसा है ?”
 
चित्र, चँ ूकि बिलकुल ही क्रोध में खड़े राजा जैसा ही था, इसीलिए सभासद इनकार न कर सके।
परं तु वे मौन रह गये, क्योंकि ?हाँ' कहने से वे डरते थे।
 
तब वद्ध
ृ मंत्री ने गंभीर स्वर में कहा, “महाराज, इस चित्र को इस प्रकार से चित्रित करने के
औचित्य के बारे में तो कह नहीं सकता, पर यह चित्र हू ब हू आप का ही लगता है । आपके रूप के
साथ- साथ, आपके हाव-भाव, आपके सहज लक्षण, आपका व्यक्तित्व इसमें स्पष्ट गोचर होते
हैं।” मंत्री के कथन का समर्थन करते हुए सभासदों ने तालियाँ बजायीं।

एक क्षण भर के लिए राजा चौंक उठा। उसने तुरंत विजय को हज़ार अशर्फि याँ दीं और उस चित्र
को अपने कमरे में रखवाया।
 
राजा हर दिन नींद से उठते ही उस चित्र को एक बार ध्यान से दे खता था। उस चित्र में उसे जैसा
क्रोधी व विकृत दिखाया गया है , ऐसा न दिख,ूँ इसकी कोशिश करने लगा। शांत रहने व दिखने
के प्रयत्नों में लग गया। कभी नाराज़ हो उठा भी तो वह उस चित्र की याद करने लगा, जिससे
वह विनम्र और सौम्य होने लगा। यों उसका उबलता क्रोध एकदम ठं डा पड़ गया। उसने विजय
को एक बार और बलु ाया और अपने चित्र को चित्रित करने का आदे श किया।
 
विजय ने कहा, “महाराज, अब आपके चित्र को बनाना है , नागवर्मा को, मझ
ु े नहीं। आप अगर
अनुमति दें गे तो वह आपका चित्र अद्भत
ु रूप से बनायेगा। उसके पहले के चित्र को ही लीजिये,
उसे एक और बार दे खेंगे तो उसमें आप अपना प्रशांत गंभीर्य व चित्रकार का अद्भत
ु कला-नैपुण्य
स्वयं दे ख सकेंगे।”
 
साथी कलाकार के प्रति विजय ने जो प्रेम व आदर दर्शाया, उसके लिए राजा ने विजय का
अभिनंदन किया और नागवर्मा के चित्र को मंगाकर दे खा। नागवर्मा के अद्भत
ु कलानैपुण्य की
प्रशंसा करते हुए उसे बल
ु वाया और उसे आस्थान चित्रकार के पद पर नियुक्त किया। उसका
सत्कार भी किया।
 
वेताल ने कहानी सुना चुकने के बाद कहा, “राजा उग्रसिंह पहले नागवर्मा पर बहुत ही क्रोधित
हुआ, क्योंकि उसकी दृष्टि में उसका बनाया चित्र बहुत ही भद्दा और उसका अपमान करनेवाला
था । पर उसने फिर से अपना चित्र बनाने के लिए नागवर्मा को बल ु ाया। यहाँ हमें यह नहीं
भल
ू ना चाहिए कि उसने इस अपराध के लिए उसे कड़ी सज़ा भी दीथी । ऐसे नागवर्मा को अपने
आस्थान का चित्रकार बनाया और यहाँ तक कि उसका सत्कार भी किया। क्या तम्
ु हें यह
विचित्र नहीं लगता? ये उसमें भरे निरं कुश स्वभाव, व विवेकहीनोता के परिचायक नहीं? इससे
क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि दोनों कलाकारों के चित्रों में कौन-सा बेहतर है , इसका वह निर्णय
नहीं कर पाया, इसीलिए उसने दोनों चित्रकारों का सत्कार किया? मेरे इन संदेहों के उत्तर
जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारा सिर टुकड़ों में फट जायेगा।”

विक्रमार्क ने कहा, “राजा उग्रसिंह पहले क्रोधी स्वभाव का अवश्य था, पर, बाद में जो घटनाएँ
घटीं, वे उसमें परिवर्तन ले आयीं। उसने विजय को भी कठोर दं ड दे ना चाहा। किन्तु वद्ध
ृ मंत्री
तथा सभासदों के अभिप्रायों को वह टाल नहीं सका। उसे विजय को भें ट दे नी ही पड़ी। जब उसमें
धीरे -धीरे सोचने की प्रक्रिया शरू
ु हो गयी, तब जान गया कि ग़लती चित्र में नहीं, उसके स्वभाव
व उसके रूप में ही है । इसी कारण से उसने एक और बार चित्र बनवाना चाहा। जब उसने
नागवर्मा का चित्र मंगवाकर दे खा तो उसने पाया कि उसमें नाम मात्र के लिए भी दर्प, दं भ नहीं
है । सभासदों ने भी कभी अपने राजा को शांत स्वभाव का नहीं दे खाथा । इसीलिए उन्होंने भी
चित्र की प्रशंसा नहीं की। राजा जब शांत स्वभाव का हो गया, तब उसमें निहित गांभीर्य व शांति
को दे खकर स्वयं मग्ु ध हो गया। इसीलिए उसने नागवर्मा का सत्कार किया। अच्छाई और
महानता को पहचानना हो तो दे खनेवालों में उनके कुछ अंश हों तभी यह संभव है । जब राजा
क्रोधी स्वभाव का था तब चित्र में अपने गंभीर और शान्त रूप को पहचान नहीं सका। अब रही,
चित्रकारों की बात। दोनों महान हैं। वास्तविकता को चित्रित करने में विजय माहिर है तो
नागवर्मा में ऋटियों को सुधारते हुए, उनकी कल्पना करते हुए, चित्र बनाने की प्रतिभा है । इसी
वजह से उसने आदर्श शासक के स्थान पर कल्पना करके राजा का चित्रांकन किया। दोनों
चित्रकारों का सत्कार करके राजा ने अपनी बौद्धिक परिपक्वता और विवेक शक्ति का परिचय
दिया। इसमें किसी प्रकार के अनौचित्य की कोई गुंजाइश नहीं।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः काशी भट्ट शशिकांत की रचना)
 
67. शरनिधि का शतरं ज

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा; अपने कंधे पर डाल
लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा,
“राजन ्, आधी रात का समय है , भयंकर सन्नाटा है , फिर भी मुझे ढोते हुए निधडक चले जा रहे
हो। थकावट का नाम ही नहीं ले रहे हो। भला अपना मूल्यवान समय क्यों यों व्यर्थ किये जा रहे
हो। मुझे शक होता है कि तुम्हारा परिश्रम आख़िर व्यर्थ होकर रहे गा। कुछ व्यक्ति कुछ
क्रीडाओं को विशेष रूप से चाहते हैं। उनके प्रति उनका बड़ा लगाव होता है । शरनिधि शतरं ज
प्रिय राजा था। एक बार उसने इस क्रीडा में एक गंधर्व पर विजय भी पायी। शर्त के अनुसार
जीतने पर उसे फिर से यौवन पाना था। परं तु जीतकर भी उसने यह सुअवसर हाथ से फिसल
जाने दिया। उसकी कहानी सुनाऊँगा। ध्यान से सुनो,” फिर वेताल शरनिधि की कहानी यों
सुनाने लगाः

शरनिधि मधव
ु न का शासक था। शतरं ज उसे जान से भी ज़्यादा प्यारा था। राजधानी में हर
साल इनकी प्रतियोगिताएँ चलाया करता था। शरनिधि की धर्मपत्नी प्रभावती दे वी, उनकी
दोनों पत्रि
ु याँ वैजयंती और मेघना भी शतरं ज के प्रति विशेष रुचि दिखाती थीं।
 
एक पर्णि
ू मा की रात को वैजयंती और मेघना उद्यानवन में बैठकर शतरं ज खेलने में तल्लीन
थीं। उस समय आकाश में विचरते हुए समीर नामक गंधर्व ने यह दृश्य दे खा। आतुरतावश
उसने अपना रथ वहाँ उतारा। जैसे ही वैजयंती जीती, वह प्रत्यक्ष हुआ और कहा, “बहुत ही
अद्भत
ु खेल खेला है तुमने वैजयंती।”
 
अकस्मात ् ही सामने खडे गंधर्व को दे खकर दोनों बहनें घबरा गयीं।
 
अपने को संभालते हुए पहले वैजयंती ने कहा, “इस उद्यानवन में किसी पराये का आना मना
है । यहाँ ख़ास पहरा भी है । फिर यहाँ आपका आना कैसे संभव हो पाया?”
 
“मेरा नाम समीर है , मैं गंधर्व हूँ; शतरं ज प्रिय हूँ। चांदनी में गगन बिहार करते हुए आप लोगों
को दे खा और भूमि पर उतरे बिना मुझसे रहा नहीं गया। आप दोनों को आपत्ति न हो तो आपमें
से किसी एक के साथ शतरं ज खेलना चाहूँगा।”
 
सिर हिलाते हुए वैजयंती ने अपनी सहमति दे दी। तुरंत खेल शुरू हो गया। दे खते-दे खते गंधर्व
ने वैजयंती को हरा दिया और मेघना से कहा, “क्या तुम भी खेलना चाहोगी?”
 
मेघना जानती थी कि उसकी हार निश्चित है , फिर भी उसने गंधर्व से खेलने की इच्छा प्रकट
की, क्योंकि वह समझती थी कि यह एक सव ु र्ण मौक़ा है और जो अविस्मरणीय होगा।
 
खेल शुरू हुआ। मेघना बड़ी ही सावधानी से चाल चलती रही। परं तु, दस ही चालों में गंधर्व ने
मेघना को हरा दिया और ठठाकर हँसने लगा, मानों वह यह बताना चाहता हो कि मेरे सामने
तुम जैसे नौसिखियों की क्या गिनती।

“अगली पर्णि
ू मा को ठीक इसी समय पर फिर से आऊँगा। एक और बार खेल खेलेंगे,” कहकर
वह रथ की ओर बढ़ा।
 
दोनों युवरानियों को अंतःपुर में दे री से आते हुए दे खकर महारानी ने पूछा, “लौटने में इतनी दे री
क्यों हुई? मतलब यह हुआ कि अब तक उद्यानवन में क्या शतरं ज खेलती रहीं?”
 
मेघना ने कहा, “हाँ, एक गंधर्व ने हम दोनों के साथ शतरं ज खेला।” आश्चर्य प्रकट करती हुई
रानी प्रभावती ने वैजयंती से पछ
ू ा, “क्या यह सच है ?”
 
“हाँ माँ, मेघना ने सच ही बताया। वह यह कहकर गया कि अगली पूर्णिमा के दिन फिर आऊँगा
और शतरं ज खेलँ ग ू ा।” वैजयंती ने माँ के संदेह को दरू करते हुए कहा।
 
इतने में , राजा शरनिधि वहाँ आया। रानी ने परू ा किस्सा उसे सन ु ाया। शरनिधि ने भी आश्र्चर्य
प्रकट करते हुए कहा, “इसका यह मतलब हुआ कि फिर से गंधर्व का आगमन होनेवाला है ।” यों
कहकर वह सोच में पड़ गया।
 
अगली पूर्णिमा के दिन प्रथम पहर के दौरान वैजयंती, मेघना यथावत ् चंद्रशिला पर आसीन
थीं। राज दं पति पास ही की चमेली के कंु ज के पीछे खड़े थे और बैचैनी से गंधर्व की प्रतीक्षा कर
रहे थे।
 
थोड़ी ही दे र में गंधर्व उद्यानवन में रथ से उतरा और लताकंु ज की ओर दृष्टि फेरते हुए कहा,
“शरनिधि, महारानी समेत लताकंु ज के पीछे छिपने की क्या आवश्यकता है ? तुम्हें आपत्ति न
हो तो तुम्हारे साथ भी शतरं ज खेलना चाहता हूँ। खेलोगे?”
 
गंधर्व ने स्वयं आमंत्रित किया, इसपर खशु होता हुआ शरनिधि आगे आया। राजा और समीर
शिला पर आमने-सामने आसीन थे। प्रभावती दे वी, वैजयंती, मेघना बगल ही में बैठी थीं।
 
“स्पर्धा जो भी हो, बाजी लगाने पर ही उसमें मज़ा आता है । आपका क्या कहना है ?” गोटियों को
ठीक करते हुए गंधर्व ने कहा।
 
शरनिधि ने प्रश्र्न को गंभीरता से न लेते हुए पूछा, “तो हारना क्या होगा?”
 
तब गंधर्व ने कहा, “अगर होड़ में मैं हार गया तो, अपनी गंधर्व महिमा से अधेड़ उम्र के तुम्हें
फिर से युवक बना दँ ग
ू ा। तुम अगर हारे तो, अपनी पुत्रियों में से एक पुत्री के साथ मेरा विवाह
करोगे। क्या तुम्हें यह शर्त मंजूर है ?”

राजा सोच में पड़ गया। अगर वह हार जाए तो सय


ु ोग्य गंधर्व उसका दामाद बनेगा। वह गंधर्व
को हराये तो वद्धृ ावस्था में क़दम रखनेवाले उसे पन
ु ः यौवन प्राप्त होगा।
 
हारूँ या जीतँू, दोनों ओर से मुझे ही लाभ पहुँचनेवाला है । यह सोचते हुए वह मन ही मन खश

हुआ।
 
उस समय दोनों राजकुमारियाँ भी यही सोचने लगीं कि उनके पिता को गंधर्व के हराने पर वह
किससे पाणिग्रहण करे गा। रानी तो कुछ और ही गंभीरतापर्व
ू क सोच रही थी। उसका पति
वद्ध
ृ ावस्था में क़दम रखनेवाला है , अगर गंधर्व को हराकर वह यौवन प्राप्त करे तो वह उसका
तिरस्कार करे गा और हो सकता है , किसी दस
ू री स्त्री से विवाह कर ले। वह चिंतित होने लगी।
 
इतने में एक विचित्र घटना घटी। एक और रथ आकाश से उद्यानवन में उतरा। निश्र्चेष्ट होकर
जब सब लोग उस रथ की ओर दे ख रहे थे तब एक अति सुंदर गंधर्व कन्या उनके पास आयी।
 
राजा शरनिधि ने नख से शिख तक उसे ग़ौर से दे खा और आश्चर्य-भरे स्वर में उससे पछ
ू ा,
“जान सकता हूँ, आप कौन हैं?”
 
“मैं इस गंधर्व की पत्नी हूँ। यह दे खने आयी हूँ कि जिस सुंदरी से विवाह रचाने के लिए ये तत्पर
हैं, वह आखिर है कौन?” व्यंग्य-भरे स्वर में उसने कहा।
 
राजा एक निर्णय पर आया और गंधर्व को संबोधित करते हुए कहा, “ठीक है , खेल शरू ु करें गे।
परं तु एक शर्त है । शतरं ज के इस खेल में हार-जीत किसी की भी हो, उससे मुझे या मेरे परिवार
के किसी भी सदस्य को हानि पहुँचनी नहीं चाहिये। क्या आपको यह स्वीकार है ?”
 
गंधर्व ने एक बार अपनी पत्नी को दे खा और शरनिधि से कहा, “मैं समझ गया हूँ कि आप क्या
सोच रहे हैं। वचन दे ता हूँ, आपको कोई हानि नहीं पहुँचाऊँगा।”
 
जैसे ही खेल शुरू हुआ, गंधर्व बीच-बीच में अपनी पत्नी को तिरछी नज़र से दे खता रहा। गंधर्व
की पत्नी ने परोक्ष रूप से खेल में शरनिधि की सहायता की। गंधर्व की हार हुई।

खिन्न गंधर्व जब शरनिधि को यौवन प्रदान करने के उद्देश्य से मंत्रोच्चारण करने ही जा रहा
था, तब राजा ने कहा, “मुझे किसी भी प्रकार का यौवन नहीं चाहिये।”
 
वेताल ने कहानी सुनायी और कहा, “राजन ् शरनिधि के व्यवहार में कोई अनजानी संदिग्धता,
चपलता दिखायी दे ती है । राजा शतरं ज में हारे या जीते, उसे ही लाभ पहुँचे, ऐसा आश्वासन
गंधर्व ने उसे दिया और यह शरनिधि का भाग्य ही कहा जा सकता है । परं तु जब बाजी जीत
गया, उसने यौवन अपनाने से इनकार कर दिया। क्या यह उसकी मर्ख
ू ता नहीं? अगर राजा
खेल में हार जाता तो उसे अपनी पत्रि
ु यों में से किसी एक से गंधर्व का विवाह करना पड़ता। मेरे
इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चप ु रह जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े को जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दरू करने के उद्देश्य से कहा, “यह सच है कि राजा शरनिधि
मानव सहज दर्ब
ु लता का शिकार था। उसे इस बात की खश
ु ी थी कि हारने पर या जीतने पर
उसी का लाभ होगा। परं तु, खेल को शुरू करने के पहले ही गंधर्व समीर की पत्नी ने अपने पति
की मनोकामना के रहस्य को खोल दिया। अब शरनिधि ताड़ गया कि अगर वह बाजी हार
जाता और अपनी पुत्रियों में से किसी एक से गंधर्व का विवाह करना पड़ता तो कितना बड़ा
अनर्थ हो जाता। उसी प्रकार वह यह भी जान गया कि गंधर्व के वरदान के बल पर उसे यौवन
प्राप्त हो जाता तो भविष्य में कितनी बड़ी-बड़ी समस्याओं का सामना उसे करना पड़ता। वह
कुशाग्र बुद्धि का था, इसलिए आनेवाले संकट को वह भांप पाया। अगर वह अपनी पुत्रियों की
उम्र का हो जाए तो वे भला उसे अपना पिता कैसे मानेंगीं? उसी प्रकार उसकी महारानी अधेड
उम्र की हो और वह यव
ु ा तो क्या जगहँसाई नहीं होगी? अतः शरनिधि ने जो निर्णय लिया,
उसमें न कोई संदिग्धता है , न ही कोई मर्ख
ू ता। इसमें तो उसकी बद्धि
ु मानी ही दृष्टिगोचर होती
है ।
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(शांतकुमार की रचना के आधार पर)
 
68. खड्ग महिमा

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत ् श्मशान
की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “विषैले सर्पों, भूत-प्रेतों से
भरे श्मशान में तम
ु निर्भय बढ़े जा रहे हो। मुझे तो लगता है कि भय भी तम
ु से डरता है । किसी
महान कार्य को साधने के लिए डटे हुए हो। तुम्हें अपने प्राण पर रत्ती भर भी मोह नहीं रहा।
स्पष्ट है कि तम
ु में अटल आत्मविश्वास भरा हुआ है । तम ु अपने लक्ष्य की पर्ति
ू के लिए, चाहे
कोई भी मूल्य चुकाना क्यों न पड़े, चुकाने के लिए तैयार हो। आज तक मैं यह समझ नहीं पाया
कि आख़िर वह लक्ष्य तुम्हारा है क्या? मुझे तुम्हारे श्रम को दे खते हुए शशिकांत नामक एक
ग्रामीण युवक की याद आती है , जिसने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अनेक कष्ट सहे , कठोर
परिश्रम किया। उसकी कहानी थकावट दरू करते हुए मुझसे सुनो।” फिर वेताल यों कहने लगाः

बहुत पहले की बात है । कनकवर नामक गाँव में शशिकांत नामक एक यव ु क रहा करता था।
वह कितनी ही विद्याओं में प्रवीण था। विशेषकर खड्ग विद्या में उसकी बराबरी का कोई था
ही नहीं। उसका पिता प्रसिद्ध व्यापारी था। दर्भा
ु ग्यवश वह और उसकी पत्नी जहाज की एक
दर्घ
ु टना में मर गये। पिता ने जो धन छोड़ा, उससे उसने अन्य व्यापारियों के साथ व्यापार
किया। परं तु अनभ
ु वहीन उस यव
ु क को व्यापारियों ने धोखा दिया। अब उसके पास कुछ नहीं
रहा।
 
इस दस्थि
ु ति में जयानंद नामक पड़ोस के गाँव का एक मित्र उससे मिलने आया। दख
ु ी
शशिकांत को सांत्वना दे ते हुए उसने कहा, “शशिकांत, खड्ग विद्या में तुम्हारी दक्षता अद्भत
ु है
। तुम्हारी शक्ति अपार है । अगर इसी गाँव तक अपने को सीमित रखोगे तो यह विद्या तुम्हारे
काम नहीं आयेगी। हमारी राजधानी करिवीरपुर जाना । वहाँ अभी विजयदशमी के अवसर पर
स्पर्धाएँ होने जा रही हैं। उनमें भाग लेना और अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना। तुम्हें अवश्य ही
राजा के आस्थान में काम मिलेगा। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल होगा।”
 
मित्र जयानंद की सलाह शशिकांत को सही और उचित लगी। दस ू रे ही दिन वह राजधानी
पहुँचने निकल पड़ा। मार्गमध्य में जब वह एक घने जंगल से गुज़र रहा था, तब थकावट दरू
करने के लिए एक पेड़ के तले बैठते समय किसी की चिल्लाहट सुनायी पड़ी। कोई “बाघ, बाघ,
बचाओ, बचाओ” कहकर चिल्ला रहा था।
 
शशिकांत फौरन म्यान से तलवार निकाल कर उस तरफ गया, जहाँ से आवाज़ आयी। बाघ,
एक मनि
ु पर टूट पड़ने ही वाला था, तभी शशिकांत ने मनि
ु और बाघ के बीच में कूद कर
तलवार से बाघ पर वार किया। उस वार से बाघ घायल होकर गिर गया, पर उस समय तलवार
शशिकांत के हाथ से फिसल गयी।

इतने में बाघ गुर्राता हुआ उठा। शशिकांत ने मौक़ा दे खकर बाघ के पेट में ज़ोर से लात मारी।
बाघ अपने को संभाल कर फिर से शशिकांत पर आक्रमण करने के लिए उठा । शशिकांत ने
बाघ के पिछले पैरों को पकड़ कर उसे दरू फेंक दिया। बाघ ज़मीन पर गिरकर छटपटाने लगा।
 
मनि
ु यह सब कुछ ध्यान से दे ख रहा था। उसने शशिकांत से कहा, “वीर यवु क, तम
ु बड़े साहसी
हो। तम्
ु हारे जैसे निस्वार्थ वीर विरले ही होते हैं। अपनी जान पर खेलकर तम
ु ने मेरी रक्षा की। मैं
इस प्रदे श को छोड़कर हिमालय जाना चाहता हूँ।” कहते हुए उसने पास ही की एक झाड़ी से
तलवार निकाली और कहा, “यह बहुत ही महिमावान खड्ग है । परं त,ु इसका यह मतलब नहीं
कि कोई दस्
ु साहस करने पर उतारू हो जाओ। तम
ु में जब धैर्य-साहस भरा हुआ हो, खड्ग चलाने
में नैपुण्य हो, तभी यह तुम्हारी सहायता करे गा।” कहकर मुनि ने उसे खड्ग सौंप दिया।
 
शशिकांत ने मुनि के चरण छुए और अपनी यात्रा फिर शुरू कर दी। राजधानी पहुँचते-पहुँचते
अंधेरा छा चुका था। उसने एक सराय में रहने के लिए व्यवस्था कर ली। उस सराय की
मालकिन एक बूढ़ी औरत थी। दस ू रे ही दिन विजयदशमी उत्सव शुरू हुए। राजा के निकट के
एक रिश्तेदार ने खड्ग युद्ध में सबको हरा दिया। उसका नाम था चक्रधर। उसके शौर्य से राजा
बहुत ही प्रसन्न हुए। वे उसे खड्गवीर की उपाधि दे ने ही वाले थे कि शशिकांत ने प्रवेश करते
हुए कहा, “महाराज, क्षमा चाहता हूँ। मेरे आने में थोड़ी दे री हो गयी।” कहते हुए उसने म्यान से
खड्ग निकाला।
 
यह दे खते ही चक्रधर क्रोधित होकर बोला, “कौन है यह? दे खने में ग्रमीण लगता है । खड्ग युद्ध
में मुझ जैसे शूर से लड़ने का साहस! अगर मैं हार जाऊँगा तो राज्य छोड़कर चला जाऊँगा,”
कहते हुए उसने म्यान से खड्ग निकाला। उपस्थित लोग आँखें फाड़-फाड़कर दे खने लगे। राजा
के पास बैठी उनकी इकलौती पुत्री मणिकर्णिका मुस्कुराने लगी।
 
खड्ग यद्ध
ु शरूु हो गया। शशिकांत ने आसानी से चक्रधर के वारों का मक़
ु ाबला किया। पंद्रह
मिनटों के अंदर ही उसने उसे हरा दिया। फिर उसने खड्ग को अपनी आँखों से लगाया।

किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि चक्रधर की यों हार होगी। दर्शकों सहित महाराज और
राजकुमारी आश्चर्य में डूब गये। वचन के अनुसार चक्रधर उसी समय वहाँ से चला गया।
 
चक्रधर अद्वितीय खड्गवीर माना जाता था। उसकी हार ने सबको आश्चर्य में डाल दिया, साथ
ही सबने बड़े ही उत्साह के साथ शशिकांत का तालियाँ बजाते हुए स्वागत किया।
 
राजा ने, तुरन्त खड्ग वीर की उपाधि शशिकांत को प्रदान किया और शाम को उद्यानवन में
उससे मिलने के लिए उसे निमंत्रित किया।
 
राजा, युवरानी मणिकर्णिका, प्रधान मंत्री व आस्थान पंडित जब राजभवन पहुँचे तब राजा ने
उन सबसे कहा, “दे खने में बड़ा ही सुंदर और सुशील लगता है । हट्टा-कट्टा है । कहता है कि किसी
गाँव से आया हूँ। पर, मुझे लगता है कि यह शिक्षित नहीं है ।”
 
मंत्री ने कहा, “महाराज, यह यव
ु क एक सराय में रहता है । हमारे गप्ु तचरों ने इसके बारे में परू ी
जानकारी प्राप्त की। यह शशिकांत कभी संपन्न परिवार का था, पर परिस्थितियों ने उसे
अनाथ बना दिया। अपना खड्ग कौशल प्रदर्शित करके हमारे आस्थान में नौकरी पाने के उद्देश्य
से यहाँ आया है । जानकारी मिली है कि अन्य विद्याओं में भी यह प्रवीण है ।”
 
राजकुमारी यह सब कुछ ध्यान से सुन रही थी। मुस्कुराती हुई उसने मंत्री को दे खा।
 
प्रतियोगिताओं को शरूु करने के पहले ही राजा ने घोषणा की थी कि जो सबको हरायेगा, उसका
विवाह राजकुमारी से होगा। उनका परू ा-परू ा विश्वास था कि चक्रधर ही जीतेगा। परं तु जो हुआ,
उसकी कल्पना उसने की ही नहीं थी।
 
शाम को, जब राजा, युवरानी, मंत्री, शशिकांत और आस्थान पंडित उद्यानवन में उपस्थित थे,
तब गुप्तचरों का सरदार वहाँ आया और बोला, “महाराज, चक्रधर अभी राज्य की सरहदों पर
विद्रोह करने के लिए लोगों को इकठ्ठा कर रहा है । उसका कहना है कि मांत्रिक के दिये
महिमावान खड्ग के कारण ही उसकी हार हुई है । यह कहते हुए वह लोगों को इकठ्ठा कर रहा है
कि मैं राजा के विरुद्ध विद्रोह करूँगा, खुद राजा बनँग
ू ा और मणिकर्णिका से विवाह करके ही
रहूँगा।”
 
यह सुनकर राजा चकित रह गया। आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने कहा, “मेरे ही सगे आदमी ने
मेरे विरुद्ध विद्रोह करने की ठान ली!”

आस्थान पंडित ने मुस्कुराते हुए कहा, “महाराज, आप बिल्कुल निश्र्चिंत रहिये। हमारे विरुद्ध
वह जो दष्ु प्रचार कर रहा है , उससे हमें कोई हानि नहीं पहुँचेगी, उल्टे हमें लाभ होगा। जब
अड़ोस-पड़ोस के शत्रु राजाओं को मालम
ू हो जायेगा कि होनेवाली महारानी के पति के पास एक
महिमावान खड्ग है , तब वे हमारी ओर आँख उठाकर दे खने की भी जर्रु त नहीं करें गे।” फिर
राजकुमारी और शशिकांत को दे खते हुए कहा, “मैंने जो कहा, समझ गये न?”
 
दोनों ने खश
ु होते हुए सिर हिलाया।
 
वेताल ने कहानी बता चुकने के बाद विक्रमार्क से कहा, “आस्थान पंडित ने जो कहा, उसमें
यक्ति
ु व वाक् चातर्य
ु मात्र दिखते हैं। वास्तविकता नहीं। चक्रधर को कैसे मालम
ू पड़ा कि
शशिकान्त का खड्ग महिमावान है । मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चप
ु रह जाओगे तो
तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “आस्थान पंडित की बातों में युक्ति और चमत्कार से बढ़कर वास्तविकता
है । चक्रधर ने घोषणा की थी कि हारने पर राज्य छोड़कर चला जाऊँगा पर वह हार सह नहीं
सका। इसीलिए वह प्रचार करने लगा कि शशिकांत की जीत का कारण उसकी वीरता नहीं,
उसका महिमावान खड्ग है । यह एक सच्चे वीर के लक्षण नहीं हैं। उल्टे वह, स्वार्थवश राजा के
विरुद्ध विद्रोह करने के लिए लोगों को इकठ्ठा करने लगा। इससे स्पष्ट होता है कि उसकी बुद्धि
कुटिल है । आस्थान पंडित ने ठीक ही कहा कि उसके प्रचार से राज्य को हानि नहीं पहुँचेगी,
उल्टे लाभ ही होगा। मुनि ने स्पष्ट रूप से शशिकांत से बताया था कि यह महिमावान खड्ग
तभी तुम्हारी सहायता करे गा, जब तम
ु में स्वयं धैर्य और साहस हों और खड्ग चलाने में
प्रावीण्य हो। शशिकांत में ये गुण कूटकूटकर भरे हुए हैं। उसके हारने का सवाल ही नहीं उठता।
राज्य पर कोई भी आपदा नहीं आयेगी।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और पुनः पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार : सुचित्रा की रचना)
 
69. अपराध योग्य न्याय

बादशाह अकबर एक दिन सवेरे-सवेरे राजभवन के ऊपरी भाग में टहल रहे थे। उद्यानवन की
ठं डी हवाओं के साथ पुष्पों की सुगंध उन्हें बहुत आनंदित कर रही थी। उद्यानवन में जाकर
पुष्पों को दे खने की उनकी इच्छा हुई । सीढ़ियों से उतरते हुए वे उद्यानवन की ओर जाने लगे।

 
सुगंध युक्त ठं डी हवाएँ जब उनके शरीर को छू रही थीं और पेड़ों पर बैठे पक्षियों के मधुर संगीत
उनके कानों में गँूज रहे थे तब उन्हें लगा कि यह भूमि ही स्वर्ग है । तन्मय होकर वे उद्यानवन
में विचरने लगे।
 
तेजी से जाते हुए बादशाह का बायां पैर किसी चीज़ से अचानक टकरा गया। वे गिरने ही वाले
थे, पर उन्होंने अपने को संभाल लिया। पैर में दर्द होने लगा तो पास ही की चट्टान पर बैठकर
अपने पैर को दे खा। बायें पैर का उनका अंगूठा रक्त सिक्त हो गया। पलटकर उन्होंने दे खा कि
वहाँ एक नुकीला पत्थर पड़ा हुआ है , जिसकी वजह से यह दर्घ
ु टना घटी। पत्थर को दे खकर दर्द
से उनमें अधिक क्रोध आ रहा था। वे चिल्ला पड़े, “बागवान कहाँ है ? क्या उद्यानवन की
दे खभाल का यही तरीक़ा है ?” पर, आसपास कोई नहीं था। उस समय बागवान कैं ची और कुदाल
लाने अपनी झोंपड़ी गया था। वहाँ किसी को न पाकर क्रोध में दाँत पीसते हुए वे राजभवन लौटे ।
 
भवन द्वार पर पहुँचते ही उन्होंने ताली बजायी, पहरे दार दौड़ते हुए आये और बादशाह को
सलाम किया। “तुरंत जाओ, माली को पकड़कर ले आओ, जेल में डाल दो आरै कल सूर्योदय
होते ही उसे फांसी पर चढ़ा दो।” बादशाह अकबर ने हुक्म दिया।
 
“जी मालिक”, कहते हुए जब पहरे दारों का अधिकारी पीछे हटने लगा तो बादशाह ने क्रोध-में
कहा, “उस बदमाश की असावधानी की ही वजह से मेरा पाँव घायल हो गया। उस बेवकूफ़ को
इतना भी नहीं मालूम कि उद्यानवन की पगडंड़ियों को साफ़ रखना चाहिये। फांसी ही उसके
लिए उचित दं ड है ।” अधिकारी को लगा कि बादशाह अनावश्यक ही माली को कठोर दं ड दे रहे
हैं। पर वह कर भी क्या सकता था? वह चुपचाप दो सैनिकों को साथ लेकर माली को पकड़ने
गया।

सैनिकों को दे खते ही माली ने उन्हें सलाम किया और पूछा, “आप और यहाँ? कैसे आना हुआ?
बात क्या है ?”
 
“बादशाह के हुक्म को अमल में ले आने हम यहाँ आये हैं। अब तुम्हें ले जाकर जेल में डालेंगे ।
कल सर्यो
ू दय होते ही तम्
ु हें फांसी पर चढ़ाया जायेगा।” अधिकारी ने कहा।
 
“मैंने ऐसा क्या अपराध किया?” स्तंभित होकर माली ने धीमे स्वर में पूछा।
 
अधिकारी ने कारण बताया। यह सुनते ही माली का चेहरा फीका पड़ गया। सैनिकों ने माली के
हाथों में हथकड़ियाँ लगा दीं।
 
माली की पत्नी अधिकारी के पैरों पर गिड़गिड़ाने लगी, “साहब, मेरे पति ने कोई ग़लती नहीं
की। दया करके उन्हें छोड़ दीजिये।”
 
“हम कुछ करने की हालत में नहीं हैं। बादशाह के हुक्म को टालेंगे तो हमें भी फांसी होगी।”
थोड़ी दे र तक रुककर अधिकारी ने कहा, “फांसी पर चढ़ाने के लिए कल सर्योू दय तक समय है ।
तमु एक काम करना।”
 
“कहिये, साहब, मुझे क्या करना होगा”, माली की पत्नी ने पूछा ।
 
“तम्
ु हारे पति को केवल बीरबल ही बचा सकते हैं। उनके पास जाना और अपनी समस्या
बताना। वे अवश्य तम्
ु हारे पति को बचा सकेंगे।” अधिकारी ने कहा और माली को जेल की ओर
ले गया।
 
माली की पत्नी बीरबल के घर गयी। उनके पैर पकड़े और सविस्तार पूरा किस्सा बताया।
 
सब कुछ सन ु ने के बाद बीरबल ने कहा, “तम्
ु हारा पति अगर निरपराधी है तो अवश्य बच
जायेगा। तम्
ु हारे साथ न्याय होगा। दख
ु ी मत हो।” यों उसे सांत्वना दे कर भेज दिया।
 
इसके बाद उसने पहरे दारों के अधिकारी से कहा, “मुझे जेल में जहाँ माली बंदी है वहाँ ले जाना
।”
 
अधिकारी उसे जेल के पास ले गया। जेल के अधिकारी ने बीरबल को दे खते ही नमस्कार
किया। सिर झक
ु ाकर बैठे माली को बीरबल ने अपने पास बल
ु ाया और उसके कान में कुछ कहा।
फिर बताया, “जैसे मैं कहता हूँ, वैसे ही करना।” यह सन
ु कर माली कांपने लगा। सोचने लगा
कि, ?यह कैसे संभव हो सकता है ।'

“तम ु जिन्दा रहना चाहते होतो मेरे कहे मुताबित करना”, कहते हुए बीरबल वहाँ से निकल
पड़ा।
 
दसू रे दिन दरबार में जब बादशाह बीरबल की किसी हास्योक्ति पर ठठाकर हँस रहे थे, तब
पहरे दारों का अधिकारी वहाँ आया और बादशाह को सलाम किया। “कहो”, बादशाह ने हुक्म
दिया। “मत्ृ यु दं ड के पहले माली आपके दर्शन करना चाहता है ।” अधिकारी ने कहा।
 
“ठीक है , उसे हाजिर करो”, बादशाह ने कहा। हथकड़ियों के साथ माली दरबार में आया और
घटु ने टे ककर बादशाह को सलाम किया। उसके बाद उठकर उसने थूक दिया।
 
“इतना घमंड!” नाराज़ बादशाह ने कहा।
 
“सरकार, मुझसे बहुत ही छोटी-सी ग़लती हो गयी, इसके लिए आपने मुझे मत्ृ यु दं ड दिया।
शायद लोग यह भी कहें गे कि मेरे साथ बड़ा अन्याय हुआ है । इसलिए मैं बहुत बड़ा अपराध
करना चाहता हूँ और उसके योग्य न्याय चाहता हूँ। प्रभु के दरबार में , उन्हीं के समक्ष जो
थकू े गा, वह मत्ृ यु दं ड के योग्य ही है न?” बिना किसी संकोच के माली ने बादशाह से कहा।
 
बादशाह ने उसकी बातों में छिपे मर्म को भांप लिया और सिर हिलाते हुए पछ ू ा, “भरे दरबार में
थकू ने के लिए किसने तम्
ु हें सलाह दी?”
 
माली ने बीरबल की ओर दे खा। बादशाह पूरी बात समझ गये और कहा, “बीरबल, जल्दबाजी में
मैंने माली को मत्ृ यु दं ड दिया। इस उदाहरण से तम
ु ने मुझे समझा दिया कि मुझसे क्या ग़लती
हुई। एक निरपराधी को बचाने पर तुम्हें बधाइयाँ।”
 
माली ने झक
ु कर बादशाह को सलाम किया और अपनी कृतज्ञता जतायी।
 
“तमु कृतज्ञ रहो, बीरबल के, क्योंकि उसी के कारण तम
ु आज बच गये।” बादशाह अकबर ने
हँसते हुए कहा।
70. जीवन में उतार-चढ़ाव

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल
लिया और यथावत ् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, "राजन ्, मैं
तो यह नहीं जानता कि तुम किस की सहायता करने के लिए, किस की बातों का विश्वास करके
इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो। परं तु, मेरा अनुभव कहता है कि जिन्हें हम विज्ञ मानते हैं, वे
अपनी ही बातों में बारं बार हे र-फेर कहते रहते हैं और उन्हीं बातों के विरुद्ध सलाह दे ते रहते हैं
और मेधावियों को भी भ्रम में डाल दे ते हैं। इस प्रकार वे उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाते हैं। मैं
तुम्हें एक ऐसे गुरु की कहानी सुनाऊँगा, जिन्होंने पारस्परिक विरोधी सलाहें दे ते हुए अपने एक
विवेकी शिष्य को गुमराह किया। थकावट दरू करते हुए उस गुरु की कहानी सुनो।" फिर वेताल
उस गरु
ु की कहानी यों सन
ु ाने लगाः

अरावली पर्वत श्रेणी के पाद तल में गुरु ज्ञान भास्कर एक गुरुकुल चला रहे थे। पाँच सालों में
एक बार वे दे श में पर्यटन करते थे और अपने पुराने शिष्यों से मिला करते थे। उनके कुशल-
मंगल के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे और साथ ही दे श की स्थिति को प्रत्यक्ष दे खते थे। यह
उनकी आदत थी। एक बार जब वे लौट रहे थे, तब मार्गमध्य में उन्होंने बारह साल की उम्र के
एक गड़रिये को दे खा, जो अकेले बैठे ताल पत्रों को ध्यान से पढ़ रहा था। पशु हरे -भरे मैदान में
चर रहे थे। उस बालक को दे खकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे वहीं रुककर यह दृश्य दे ख रहे
थे।
 
इतने में एक आवाज़ आयी, "अरे काली चरण, आ जाना। तेरी माँ का भेजा मांड पी लेना," यह
सुनते ही वह बालक ताल को पत्थर के नीचे रख उस दिशा की ओर भागता हुआ गया, जहाँ से
यह आवाज़ आयी थी। गुरु भी उसके पीछे -पीछे गये।
 
कुएँ के बग़ल में बैठकर बाप-बेटे ने मांड पी लिया। इतने में पिता की दृष्टि गुरु पर पड़ी तो
उसने कहा, "हमने तो पूरा मांड पी लिया। थोड़ा बचा लेते तो अच्छा होता। अब भी कुछ नहीं
बिगड़ा।" कहते हुए वह ताल के पेड़ पर चढ़ गया और फल तोड़कर ले आया। फिर फलों से गूदा
निकाला और खड़े गुरु को दिया।
 
गुरु ने गूदा खाते हुए कहा, "तुम्हारे बेटे पर सरस्वती की कृपा है । पर तम
ु ने तो उसे गड़रिये का
काम सौंप दिया। ऐसा क्यों किया?"
"उसे पढ़ाने की मेरी तीव्र इच्छा है स्वामी। किंतु हमारे कुल में लोग तो भेड़-बकरियाँ चराने का
काम करते हैं; कोई गरु
ु इसे अपना शिष्य बनाकर ले जाए तो कितना अच्छा होता। ऐसे गरु

थोड़े ही मिलेंगे।" पिता ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।
 
गुरु ने अपने गुरुकुल के बारे में उसे बताया और कहा, "अपने बेटे को मेरे साथ भेजो। निःशुल्क
उसे पढ़ाऊँगा।"

"इससे बढ़कर मझु े और क्या चाहिये गरु


ु जी। अवश्य भेजँग ू ा।" कहते हुए उसने अपने बेटे की
ओर दे खा।
 
कालीचरण के मुख पर आनंद ही आनंद था। दस ू रे दिन प्रातःकाल ही उसने अपने बेटे को गुरु के
साथ भेज दिया।
 
गरु
ु कुल पहुँचने के बाद कालीचरण ने जी लगाकर शिक्षा प्राप्त की और यव
ु ा होते-होते उसने
सभी विद्याएँ सीख लीं। उसने गणित शास्त्र और व्यापार संबंधी विषयों में विशेष रुचि
दिखायी।
 
विद्याभ्यास पूरा करके वहाँ से जाने के पहले गुरु ने कालीचरण से कहा, "दे खो कालीचरण,
तुम्हारा जन्म किसी कुग्रम में हुआ और आज विद्वान बनकर जा रहे हो। इसका मूल कारण है ,
तुम्हारी बौद्धिक शक्ति । कभी भी यह नहीं भूलना कि निरं तर श्रम के कारण ही यह संभव हो
पाया है । हर मनुष्य की प्रगति और पतन के कारण होते हैं, उसके विचार और उसके काम।
दनि
ु या में जो भी जन्म लेते हैं, उनके पंचभूत और परिसर एक ही समान होते हैं। उनका
सदप
ु योग करना चाहिये और प्रगति के शिखरों पर आरोहण करना चाहिए। जानते हो, यह कैसे
संभव होता है ? उनका परिश्रम, और संकल्प। इस सत्य को पहचानो और स्वयं परिश्रम करो,
शोध करो और प्रकाश पथ पर जाते हुए दस
ू रों को भी राह दिखाओ। कभी-कभी आते रहना और
परिणाम मुझे बताते रहना।" फिर उन्होंने आशीर्वाद दे कर उसे विदा किया।

स्वग्रम पहुँचने के बाद कालीचरण ने जान लिया कि उसकी विद्या के उपयोग की गुंजाइश यहाँ
नहीं है । पिता को समझाकर खेत का एक हिस्सा बेच दिया और वह रक़म लेकर शहर पहुँचा।
उसे वहाँ मालूम हुआ कि वहाँ कपड़ों की बड़ी माँग है । उसने कपड़ों की एक दक
ु ान खोली। तीन
साल गुज़र गये। व्यापार ऐसे तो चल रहा है , पर लाभ नहीं के बराबर है ।
 
गरु
ु से मिलकर उसने उनसे यह बात बतायी तो उन्होंने कहा, "धनार्जन के लिए व्यापार
राजमार्ग है । उसके लिए आवश्यक पंज
ू ी और काम करनेवालों की बड़ी ज़रूरत पड़ती है न। यह
किसी एक आदमी से संभव नहीं है । एक-दो विश्वसनीय मित्रों को भागीदार बनाओ तो तम्
ु हारा
व्यापार फलेगा- फूलेगा।"
 
शहर लौटने के बाद कालीचरण ने गुरु की सलाह को लेकर खूब सोचा-विचारा। दो मित्रों से बातें
कीं और उन्हें अपने व्यापार में भागीदार भी बनाया। शहर में दो और नयी दक
ु ानें खल
ु गयीं।
उसके व्यापार ने खब
ू जोर पकड़ा। शहर के सप्र
ु सिद्ध जौहरी ने अपनी बेटी का विवाह उससे
रचाया। विवाह के अवसर पर पधारे गरु
ु ज्ञान भास्कर ने नत
ू न दं पति को आशीर्वाद दिया।
 
दिन बीतने लगे। कालीचरण की एक पुत्री जन्मी। शिशु का नाम रखा, अन्नपूर्णा और उसे बड़े
ही लाड़-प्यार से पालने-पोसने लगा।
 
व्यापार की और वद्धि
ृ के लिए कालीचरण ने भागीदारों से गहरी चर्चा की। खब
ू सोचने-विचारने
के बाद उसने निर्णय किया कि अपने दे श के श्रेष्ठ वस्त्रों को विदे शों में बेचने भेजा जाए तो
अधिकाधिक लाभ कमाया जा सकता है । दस
ू रे महीने से ही उसने विदे शों में वस्त्रों को भेजने का
काम शरूु कर दिया।
 
तीन महीनों के बाद, उसे मालूम हुआ कि सुवर्णद्वीप में इन कपड़ों की बड़ी माँग है तो उसने
मूल्यवान वस्त्र एक जहाज में भेजा। साथ ही एक विश्वासपात्र गुमास्ते को भी भेजा। जब
जहाज सुवर्णद्वीप के निकट पहुँच रहा था तब बहुत बड़ा भूकंप आया। भूकंप के कारण सुनामी
आया और जहाज उलट गया। मालूम भी नहीं हो पाया कि आख़िर जहाज है कहाँ।

इस समाचार ने कालीचरण को हिला डाला। जिन भागीदारों ने उस समय तक उसके साथ घनी
मैत्री निभायी, इस घटना के बाद वे उससे शत्रु की तरह व्यवहार करने लगे। इस दःु स्थिति
कारण उसने मन की शांति भी खो दी। और वह हमेशा उदास रहने लगा।
 
उस समय गुरु ज्ञान भास्कर दे शाटन पर थे। उस दौरान वे कालीचरण को दे खने आये। उसकी
दःु स्थिति पर उन्होंने दया दिखायी। उसे तसल्ली दे ते हुए उन्होंने कहा, "कालीचरण, ऐसे समय
में धैर्य रखना चाहिये। जीवन में जीत-हार स्वाभाविक हैं। एक बार एक भील युवक बरगद की
शाखा पर बैठकर कबत
ू रों की जोड़ी को अपने बाण का निशाना बनाने के लिए तैयार बैठा था।
मादा कबत
ू र ने यह दे ख लिया और उड़ जाने के लिए नर कबत
ू र को संकेत किया । पर, नर
कबत
ू र ने उसे उस बाज़ को दिखाया, जो उन्हें उड़ा ले जाने के लिए आकाश में घम
ू रहा था।
उसने मादा कबत
ू र से कहा, "घबराओ मत। इस विपत्ति से बचने के लिए केवल भगवान से
प्रार्थना कर सकते हैं। सिवा इसके कोई दस
ू रा मार्ग नहीं है । इतने में भील यव
ु क ने बाण छोड़ते
हुए एक सांप पर अनजाने में पैर रखा, जिसने उसे डस लिया। वह ज़मीन पर गिर गया। वह
बाण कबतू रों के ऊपर से होते हुए सीधे बाज़ को लगा, जिसके कारण वह मरकर ज़मीन पर गिर
गया। यों कबूतर बच गये। दे ख लिया न, मरण की विपत्ति में फंस जाने के बाद भी नर कबत
ू र
के धैर्य ने उसे बचाया। इसलिए तुम भी धैर्य रखो, सहनशील बने रहो। समय करवट लेगा। ऐसी
कोई काली रात नहीं जिसके अन्त में भोर की किरण नई आशा लेकर नहीं आती। हर बदली के
बाद चाँदनी छिटकती है । तुम्हारी स्थिति में भी अवश्य सुधार आयेगा। प्रतिकूल हवा जब
चलती है तब मोथे की तरह सर झुकाना ही पड़ता है । सब कुछ काल के अधीन है । हम केवल
निमित्त मात्र हैं।"
 

कहानी कह चुकने के बाद वेताल ने विक्रमार्क से पूछा  "राजन ्, गुरु ज्ञान भास्कर ने कालीचरण
को उपदे श दिया था," जीवन में सफलता के लिए चाहिये परिश्रम और संकल्प। परन्तु अंत में
एक चिड़िये की कहानी सुनाकर बताया कि सब कुछ समय के अधीन है । विधि बलवान है , यह
कहते हुए उन्होंने शुष्क वेदांत का सहारा लिया। क्या यह विचित्र और एक-दस
ू रे के विरोधी नहीं
लगते? क्या अनुभव ने उन्हें यही पाठ सिखाया? अथवा वद्ध
ृ होने कारण उनमें उत्पन्न निराशा
या उदासीनता इसके कारण हैं? उनके दो अभिप्रायों में से कौन-सा अभिप्राय सच्चा है । कौन-सा
असत्य है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-
टुकड़े हो जाएँगे।"
 
विक्रमार्क ने कहा, "गरु
ु ज्ञान भास्कर की बातों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है , उन्होंने
कालीचरण को पहले और अंत में जो बताया, वे दोनों ही संपर्ण
ू सत्य हैं। मनष्ु य के प्रयत्न व
परिश्रम के बिना, किसी भी प्रकार की प्रगति साध्य नहीं। विधि लिखित मानकर चप
ु बैठ
जायेंगे तो कुछ भी नहीं होगा। ऐसा करने पर दरिद्रता और बढ़े गी। उन्होंने अपने प्रथम उपदे श
में कहा था कि युवा हृदयों के लिए प्रयत्न और परिश्रम प्राण शक्ति समान हैं। उसी प्रकार
जीवन की यात्रा में ऐसी बाधाएँ उपस्थित होंगी, जिनका सामना साहस के साथ करना चाहिये।
पहले इनकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते।"
 
"परिस्थितियाँ हमेशा मनुष्य के अधीन नहीं होतीं । ऐसी स्थिति में , हमें सहनशील होना
चाहिए और भगवान पर विश्वास रखना चाहिये। यही विषय उन्होंने अंत में बताया। दोनों ही
परामर्श सत्य हैं, परं तु कब किस प्रकार से इनका उपयोग करना चाहिये, यह मनुष्य की विज्ञता
और विवेक पर निर्भर करता है ।"
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार-मंजु भारती की रचना)
 
71. युवराज का निर्णय

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और यथावत ् श्मशान
की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्, अपने इशारे पर
सबको नचा सकते हो। सब पर शासन चला सकते हो। आँखें थोड़ी लाल कीं, तो भय के मारे
लोग तुम्हारे क़दमों पर गिरें गे। परं तु अब तुम्हारी दयनीय स्थिति को दे खकर तुमपर मुझे दया
आती है । सेवक की तरह मुझे ढोये जा रहे हो। आख़िर कब तक ऐसा करते रहोगे? क्यों इतने
कष्ट झेल रहे हो? यह मत भूलना कि तुम एक पराक्रमी राजा हो। परं तु तुम में राज-दर्प नाम
मात्र भी नहीं है । परं तु कितने ही ऐसे राजा हैं, जो मोह में फंसकर, उचित अनुचित को भूलकर
उन्मादियों की तरह व्यवहार करते हैं। कहीं तुम भी इसी प्रकार की प्रवत्ति
ृ के तो नहीं हो? तुम्हें
सावधान करने के लिए दिनकर वर्मा नामक एक युवराज की कहानी सुनाऊँगा, जो शासक
कमल भद्र का इकलौता बेटा था। एक राजकुमारी की सुंदरता पर वह मुग्ध हुआ। अपनी जान
को जोखिम में डालकर उसके साथ विवाह करने को सन्नद्ध हो गया। उसकी कहानी मुझसे
सुनो।” फिर वह यों कहने लगाः

संजीवनी राज्य का राजा था कमल भद्र। दिनकर वर्मा उसका इकलौता बेटा था। क्षत्रियोचित
यद्ध
ु -विद्याओं के साथ-साथ अन्य शास्त्रों का भी उसने गहरा अध्ययन किया। लोग यह कहते
हुए थकते नहीं थे कि ऐसे योग्य युवक को आज तक हमने न ही दे खा, न ही सुना। राजा चाहते
थे कि उसका राज्याभिषेक कर दँ ू और शासन का भार उसे सौंपकर विश्राम लँ ू।
 
एक दिन उषापुरी राज्य से रं जितशर्मा नामक एक दत
ू राजा के दर्शन करने आया। सिंहासन के
बग़ल में ही शान से बैठे युवराज को दे खकर वह बहुत खुश हुआ और उसने महाराज से कहा,
“महाराज, उषापुरी के महाराज अपनी पत्र ु ी मधलि
ू का का विवाह आपके पुत्र दिनकर वर्मा से
करने की अभिलाषा रखते हैं। यही बात आपसे निवेदन करने आया हूँ। हमारी राजकुमारी का
चित्र दे खिये।” यह कहते हुए उसने थैली में से चित्र और जन्म-कंु डली निकाल कर महाराज को
दी।
 
चित्र में मधलि
ू का के अद्भत
ु सौंदर्य को दे खकर महाराज स्तब्ध रह गये। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें,
चंपा जैसी नासिका, मुख पर फैली उसकी मंद मुस्कान दे खते ही बनती थी। सोने की जीवित
प्रतिमा सी लग रही थी। महाराज ने थोड़ी दे र तक चित्र को ग़ौर से दे खा और उसे अपने पत्र
ु को
दिया। फिर जन्म कंु डली आस्थान के ज्योतिषी के सुपुर्द किया। बिना पलक मारे एकटक उस
चित्र को दे खने में मग्न अपने पत्र
ु को दे खकर वे मुस्कुराये।
 
आस्थान ज्योतिषी ने जन्म-कंु डली को पूरी तरह से दे खने के बाद लंबी सांस खींचते हुए कहा,
“क्षमा कीजिए, महाराज। हमारे यवु राज मधलिू का से विवाह करें गे तो विवाह के एक महीने के
अंदर ही सर्प उन्हें डसेगा और वे अवश्य ही मर जायेंगे।” यह सन
ु कर यव
ु राज कुछ क्षणों के लिए
स्तब्ध रह गया। पर तंरु त ही अपने को संभालते हुए कहा, “मत्ृ यु अनिवार्य हो तो वह किसी भी
रूप में आ सकती है । विधाता का लिखा कभी नहीं टल सकता, यह सत्य है । मत्ृ यु आज नहीं तो
कल निश्चित है । लेकिन मत्ृ यु के भय से और जन्म-कंु डली के कारण ऐसी अद्भत
ु संद
ु री को हाथ
से जाने दे ना विवेक नहीं कहलाता।”

महाराज भांप गये कि मधलि


ू का के सौंदर्य ने युवराज को अपने वश में कर लियाहै । दत
ू रं जित
शर्मा किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया। यह कहता हुआ चला गया कि कृपया अपना निर्णय यथाशीघ्र
सुनायें।
 
कुछ दिन गुज़र गये। एक दिन दिनकर वर्मा शिकार करने जंगल गया। मध्याह्न तक शिकार
में लगा युवराज थक गया और सरोवर के तट पर सबके साथ भोजन करने बैठ गया। भोजन
कर चुकने के बाद पास ही के बरगद के तले विश्राम करने लगा। वह निद्रा की गोद में जाने ही
वाला था कि इतने में उस बरगद की टहनी पर आहार की खोज में मग्न बड़ा अजगर अकस्मात ्
युवराज पर गिर गया और दे खते-दे खते उसने युवराज के शरीर को लपेट लिया। इस भयंकर
दृश्य को दे खकर भय के मारे सिपाही हाहाकर करने लगे। उनकी समझ में नहीं आया कि
युवराज को अजगर से कैसे बचाया जाए। अगर निशाना लगाकर भाला फेंका जाए या तलवार
से बार किया जाए तो ग़लती से वह युवराज को लग जायेगा। वे कुछ करने का साहस नहीं कर
पा रहे थे।
 
इतने में कहीं से लगातार बाणों की बौछार हुई और उनसे अजगर के टुकड़े-टुकड़े हो गये।
अजगर ने यव ु राज को छोड़ दिया और छटपटाता हुआ मर गया। यवु राज बाल-बाल बच गया,
इस पर सैनिक हर्ष विभोर हो गये।
 
थोड़ी दे र बाद एक सुंदर रथ वहाँ पहुँचा। हाथ में बाण लिये वीर नारी की तरह एक सुंदरी रथ से
नीचे उतरी। कुछ युवतियाँ भी उसके साथ वहाँ आयीं।
 
यवु राज समझ गया कि उस यव ु ती के कारण ही वह बच गया, उसकी धनर्वि
ु द्या के कौशल ने
ही उसे बचाया। उसने कृतज्ञता-भरी दृष्टि से उस संद
ु री को दे खा। चित्र में जिस मधलि
ू का को
उसने दे खा था। इस यव
ु ती में उसने एक रूपता दे खी।

“मैं उषापुरी की युवरानी मधूलिका हूँ। सहे लियों के साथ विहार करने यहाँ आयी। अचानक
आपको सर्प से बचाने का अवसर मिला। क्या मैं जान सकती हूँ कि आप कौन हैं?”
 
“मैं संजीवनीपुर का युवराज दिनकर वर्मा हूँ। अजगर से मुझे बचाने के लिए हृदयपूर्वक
धन्यवाद,” यवु राज ने मस्
ु कुराते हुए कहा।
 
मधूलिका ने तुरंत लज्जा के मारे सिर झकु ा लिया । फिर बाद दोनों एक-दस
ू रे को दे खते रहे और
अपने-अपने राज्य की ओर निकल गये।
 
भाग्यवश यव
ु राज सर्प के वार से बच गया, पर आस्थान ज्योतिषी की बात महाराज के कानों में
गंज
ू रही थी कि मधलि
ू का से विवाह रचाने से यव
ु राज सर्प से डसे जायेंगे और उनकी मत्ृ यु तथ्य
है । इसकी याद आते ही महाराज चिंतित हो उठे ।
 
एक हफ्ते के बाद, एक दिन युवराज विदष ू क के साथ उद्यानवन में टहल रहा था। सूर्यास्त के
सौंदर्य का आनंद लेते हुए वह आगे बढ़ा। उस समय अशोक वक्ष
ृ के सूखे पत्तों के बीच में छिपे
सर्प की पूंछ पर अनजाने में उसका पांव पड़ गया। सर्प ने फन फैलाते हुए युवराज को डस लिया
और तीव्र गति से वहाँ से जाने लगा। युवराज ने तलवार से उसका सिर काट डाला।
 
विदष
ू क की चिल्लाहट सन ु कर सैनिक भागे-भागे आये। आस्थान वैद्य को जैसे ही ख़बर मिली,
वह आया और विष हरनेवाली औषधियाँ दे कर उसने यव ु राज की जान बचायी।
 
इस घटना ने महाराज को फिर से ज्योतिष की बातें याद दिलायीं। उन्हें यह भय खाये जाने
लगा कि अगर मधूलिका से युवराज का विवाह हो जाए तो युवराज अवश्य ही मर जायेंगे।
 
पंद्रह दिनों के बाद, एक दिन रात को जब युवराज भोजन कर चुकने के बाद सोने की तैयारी कर
रहा था, तब परिचारिका पीने के लिए दध
ू ले आयी और पलंग के बग़ल की एक मेज़ पर रखकर
चली गयी। जब युवराज ने उस गिलास को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह गिलास फिसलकर
नीचे गिर गया और दध
ू ज़मीन पर फैल गया। बगल में ही लेटे पालतू बिल्ली ने तुरंत उस दध

को पी लिया और छटपटाता हुआ मर गया। आस्थान वैद्य ने दध ू की परीक्षा की तो मालूम
हुआ कि उसमें बहुत ही विषैले सांप का विष मिलाया गया है ।

दध
ू का बरतन जो परिचारिका लेकर आयी थी, उससे पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि वह
शत्रओ
ु ं का गुप्तचर है और युवराज का अंत करने के लिए हाल ही में नौकरी पर आयी है । वह
जेल में बंद कर दी गयी।
 
इस घटना के घटने के कुछ दिनों के बाद उषापुरी से दत
ू रं जित शर्मा पुनः आया। उसने महाराज
के दर्शन किये और युवराज-मधूलिका के विवाह की बात उठायी।
 
यह सन ु ते ही महाराज क्रोधित हो उठे और कहा, “यव
ु राज-मधलि
ू का के विवाह का कोई प्रश्र्न ही
नहीं उठता। जिस दिन आपने उनके विवाह का प्रस्ताव रखा, उस दिन से यव
ु राज तीन बार सर्प
के काटने से बाल-बाल बचा। भगवान की कृपा से वह बच गया। इसके बाद भी विवाह कर दिया
जाए और जब वह औरत किले में क़दम रखेगी तो क्या होगा, यह मेरी सोच के भी बाहर है ।
कृपा करके आगे से विवाह का प्रस्ताव मत लाइये।”
 
बग़ल में बैठे ज्योतिषी ने तुरंत कहा, “हाँ, प्रभु, आपने ठीक कहा। विवाह के पूर्व ही वधू की
जन्म-कंु डली इतनी तीव्र हो तो मधूलिका से युवराज का विवाह संपन्न होने पर युवराज अवश्य
ही परलोक सिधारें गे।” उसने गंभीर स्वर में कहा। दत
ू रं जित शर्मा ने दीर्घ श्र्वास लिया और
यवु राज की तरफ़ यह जानने के लिए दे खा कि क्या उसका भी यही अभिप्राय है ।
 
यव ु राज सोच में पड़ गया। थोड़ी दे र बाद सिर हिलाते हुए कहा, “मैंने मधलि
ू का से विवाह रचाने
का निर्णय ले लिया है ।” उसके स्वर में दृढ़ता थी।
 
कहानी सुनाने के बाद वेताल ने कहा, “राजन ्, युवराज दिनकर वर्मा तीन बार सर्प के घात से
बच गया, फिर भी ज्योतिषी पर उसका विश्वास नहीं रहा। इसका क्या कारण है ? अनुभवी पिता
व सवि
ु ज्ञ ज्योतिषी ने विवाह करने से मना किया, पर मधलि
ू का से विवाह करने पर वह डटा
रहा। राजकुमारी के सौन्दर्य के प्रति उसका यह मोह नहीं तो क्या है ? उन्माद के सिवा यह क्या
हो सकता है ? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े
टुकड़े हो जायेंगे।”

विक्रमार्क ने कहा, “युवराज, मधलि


ू का का चित्र दे खते ही उसकी सुंदरता पर मुग्ध हो गया। जब
प्रत्यक्ष दे खा तो उसने उससे प्रेम किया। उसे मालूम है कि ईर्ष्यालु शत्रु किसी न किसी प्रकार से
उसका अंत करने पर तल
ु े हुए हैं और वे मौक़े की ताक़ में हैं। इसी कारण जब ज्योतिषी ने सर्प से
डसे जाने की बात कही, तब वह भयभीत नहीं हुआ। इसका यह मतलब नहीं कि उसने
ज्योतिषी का अपमान किया । वास्तविकता को जानकर व्यवहार करना ही सदा समुचित है ।
चँ ूकि भविष्य में जाकर वह राजा बननेवाला है , इसीलिए उसने उस समय यह उचित नहीं
समझा कि बड़ों की बातों का विरोध किया जाए, उनके प्रति अनादर दिखाया जाए। इसीलिए
उसने पहले ज्योतिषी की बातों का विरोध नहीं किया, कोई जल्दबाजी नहीं दिखायी। ज्योतिषी
ने पहले कहा था कि मधलि
ू का से विवाह होने के एक महीने के पश्र्चात युवराज को सर्प डसेगा।
किन्तु विवाह में पूर्व ही सर्प से तीन बार उसे खतरे का सामना करना पड़ा। इससे उसने समझ
लिया कि यह उसके शत्रओ
ु ं का षड्यन्त्र हो सकता है , कुण्डली का प्रभाव नहीं। क्योंकि कुण्डली
का प्रभाव तो विवाह के पश्चात ही दे खा जाना चाहिये। लेकिन ज्योतिषी ने उन्हें भी मधूलिका
की जन्म-कंु डली का प्रभाव बताया। उसने अपनी बात को सच साबित करने के लिए यह
निरर्थक प्रयत्न किया। युवराज तो हर बात को तर्क की कसौटी पर कसता था और निर्णय लेता
था। इसीलिए उसे ज्योतिषी की भविष्यवाणी व्यर्थ और झूठी लगी। युवराज जान गया कि
जिस युवती ने उसे अजगर से बचाया भला वह जन्म-कंु डली के अनुसार उसके प्राण क्यों लेगी?
उसे यह बात निराधार लगी। दिनकर वर्मा के निर्णय में हे तुबद्ध सोच थी, धैर्य था और
परिपक्वता थी। इसमें मोह या उन्माद के लिए कोई जगह ही नहीं है ।”
 
 राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(-राघव की रचना के आधार पर)
 
72. गरुड़ का साहस

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “मैं
यह नहीं जानता कि किस धर्म कार्य की पूर्ति के लिए इतने कष्ट झेल रहे हो। यद्यपि शास्त्र
घोषित करते हैं कि जीत धर्म की ही होती है , पर जीवन में घटती हुई कुछ घटनाओं को दे खते
हुए लगता है कि जीत धर्म की नहीं, अधर्म की होती है और धर्मशील कष्टों में फँस जाते हैं।
उदाहरण के लिए मैं उस गरुड़ की कहानी तुम्हें सुनाऊँगा जिसने अधर्म की राह पर चलकर
सफलता प्राप्त की। थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सुनो।” फिर वेताल यों गरुड़ की
कहानी सुनाने लगाः

कदं बवन नामक गाँव में गरुड़ और चमन नामक दो चरवाहे रहा करते थे। एक दिन चमन की
गायों में से एक काली गाय झुंड में से कहीं चली गयी। उसने गायों के झुंड की दे खभाल की
जिम्मेदारी गरुड़ को सौंपी और वह काली गाय को ढूँढ़ने निकल पड़ा। जब जंगल में गया, तब
उसने अचानक एक बाघ को दे खा और वह भयभीत होकर एक पेड़ पर जा बैठा।
 
थोड़ी ही दे र में अंधेरा छा गया। गाय का पता नहीं चला। वह सोच में पड़ गया कि क्या करूँ।
तभी उसकी दृष्टि एक विचित्र दृश्य पर पड़ी। उसने एक सर्प को दे खा, जिसके सिर पर मणि
था। वह पास ही के बिल से बाहर आया और वह सर्प दे खते-दे खते मानव के आकार में बदल
गया। उस सर्पमानव ने मणि को एक पेड़ के कोटर में छिपाया और ध्यानमग्न होकर बैठ गया।
यह दृश्य दे खकर चमन घबरा गया और पेड़ से उतरकर घर की ओर निकल पड़ा।
 
दसू रे दिन जब वह पशुओं को चराने गया, तब उसने इस विचित्र दृश्य के बारे में गरुड़ से
बताया। यह सुनते ही उसने कहा, “तुम भी कितने बेवकूफ हो! तम
ु उस नागमणि को ले आ
सकते थे। वह अगर हमारे पास हो तो हम उन लोगों को बचा सकते हैं, जो साँप के डसने से मर
जाते हैं। इससे हम धन भी कमा सकते हैं। जीवन में ऐसे सुअवसर कभी-कभी अनायास आ
जाते हैं। बुद्धिमान उस अवसर से लाभ उठाते हैं और अपना भाग्य बदल लेते हैं। लेकिन
बद्धि
ु हीन अवसर को हाथ से निकल जाने दे ते हैं। वे कायर होते हैं। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है ।
हो सकता है , वह सर्पमानव कल भी उसी जगह पर आये। हम दोनों वहाँ जायेंगे और उस मणि
को चरु ा कर ले आयेंगे।” बड़े ही उत्साह के साथ गरुड़ ने कहा।
 
“नागमणि की चोरी करना आसान काम है । किन्तु, जिस सर्प ने उसे खोया, वह थोड़े ही चुप
रहे गा? कहते हैं कि सर्प का बदला बारह सालों तक बना रहता है । किसी दिन वह हमें मारकर ही
छोड़ेगा।” डरते हुए चमन ने कहा।
 
“मैं तुम्हारी तरह कायर नहीं हूँ। तम
ु नहीं आओगे तो मैं अकेले जाऊँगा और वह मणि ले
आऊँगा। जिनमें धैर्य, साहस होते हैं, उन्हीं को संपत्ति मिलती है ।” कहते हुए गरुड़ ने अपने
पशुओं की दे खभाल का भार चमन को सौंपा। फिर वह चमन के बताये हुए मार्ग से उस जगह
पर गया, जहाँ सर्पमानव तपस्या में लीन था।

गरुड़ को जब विश्वास हो गया कि सर्पमानव ध्यान मग्न है तो उसने मणि चरु ाया और कपड़ों
में छिपाकर वहाँ से निकल पड़ा। किसी से बताये बिना वह तड़के ही गाँव से निकल पड़ा और दरू
प्रदे श में चला गया। मार्गमध्य में उसने एक धनवान के इकलौते बैटे की जान मणि के द्वारा
बचायी, जिसे साँप ने डस लिया था। धनवान खुश हुआ और उसने उसे बहुत धन भें ट में दिया।
उससे उसने वहीं एक कुटीर का निर्माण किया और ऐसे कितने ही लोगों की जानें बचायीं, जो
साँप की काट के शिकार हुए। क्रमशः वह धन भी कमाने लगा और बहुत ही कम समय में
धनवान बन गया।
 
वहाँ जंगल में सर्पमानव को सवेरे-सवेरे मालूम हो गया कि उसके मणि की चोरी हो गयी। वह
बहुत ही चिंतित हो उठा। उसका नाम सुधेंद्र था। इंदक
ु लिका को उसने जो वचन दिया, उसकी
याद आते ही वह बहुत ही दखु ी हो उठा।
 
इंदक
ु लिका एक किसान की बेटी थी। बड़ी ही सहज सुंदरी थी। एक दिन जब वह खेत में मचान
पर खड़े होकर गुलेल से चिड़ियों को भगा रही थी तब युद्ध से लौटते हुए एक सैनिक ने उसे
दे खा। उस सैनिक को वह लड़की बहुत पसंद आयी। युवक ने साहस बटोरकर पूछा, “क्या तम ु
मुझसे शादी करोगी?” फिर वह अभद्र व्यवहार पर तुल गया। वह लड़की ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने
लगी। आस-पास कोई नहीं था, इसलिए उसकी रक्षा करने कोई नहीं आया।
 
हठात ् सध
ु ेंद्र बहुत ही क्रोधित होकर फुफकारते हुए उस सैनिक के सामने आ गया। वह सैनिक
भय के मारे भाग गया। इंद्रकलिका कृतज्ञता भरी आँखों से उसे निहारने लगी। उसके सौंदर्य पर
मग्ु ध होकर सध
ु ेंद्र ने उस कन्या से कहा, “मेरा नाम सध ु ेंद्र है , मैं नागलोक का हूँ। नागमणि के
कारण मेरे पास कई अद्भत ु शक्तियाँ हैं। उन्हीं के बल पर मैंने मानव रूप धारण किया। पर,
अधिक समय तक इस रूप में नहीं रह सकता। तम
ु मान जाओगी तो मैं भरसक प्रयत्न करके
मानव का रूप पाऊँगा और तुमसे शादी करूँगा।”

इंदक
ु लिका ने अपने बारे में बताया और कहा, “जब तक तुम नहीं आओगे तब तक मैं तुम्हारी
प्रतीक्षा करूँगी।”
 
दसू रे ही क्षण सुधेंद्र अदृश्य हो गया और सुकृतानंद मुनि के आश्रम में पहुँचा। वे दयावान थे।
जो भी उनसे मदद माँगते थे, वे उनकी सहायता करते थे। सुधेंद्र ने मानव रूप में बदल कर मुनि
को प्रणाम किया और अपनी समस्या के बारे में विशद रूप से बताया। शाश्वत रूप से मानव
रूप में रहने के लिए अभ्यर्थना की। मुनि ने कहा, “सुधेंद्र, सष्टि
ृ में हर जीव की एक विशिष्टता
है । एक जीव को दस
ू रे जीव के रूप में कोई परिवर्तन करना चाहता हो तो यह भगवान की सष्टि

को ही चुनौती दे ने के समान है । भगवान की सष्टि
ृ प्रकृति के कठोर नियमों के अनुसार
संचालित हो रही है । उन नियमों के अनुसार इस प्रकार का परिवर्तन अस्वाभाविक है ,
अप्राकृतिक है । भगवान जब तक स्वयं ही ऐसा न चाहें तब तक यह असम्भव है । भगवान की
जिस पर कृपा हो जाये तो वे उसके लिए अपना विधान बदल सकते हैं। मानव शक्ति के लिए
यह असम्भव है ।”
 
“मैं इंदक
ु लिका को बहुत चाहता हूँ। उससे विवाह करने का वचन भी दे चुका हूँ। शाश्वत रूप से
मानव रूप धारण किये बिना यह संभव नहीं है । किसी भी जीव को तभी आनंद प्राप्त होता है ,
जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होता है । कृपया जैसे भी हो, आप मेरी सहायता कीजिये”,
सुधींद्र ने विनती की।
 
“मैं जान गया कि तुम्हारा प्रेम बहुत ही गहरा है । उसे सफल बनाने के लिए मैं यथासाध्य
तुम्हारी सहायता करूँगा। परं तु, तुम्हारे पाप का फल प्रतिबंधक बना हुआ है ।” मुनि ने कहा।
 
“मैंने ऐसा क्या पाप किया मुनिवर?” सुधेंद्र ने पूछा। “जब तुम हरियाली में लेटे हुए थे, तब एक
युवक ने ग़लती से अपने पैर तम
ु पर रखे और तम
ु ने तुरंत उसे डसकर मार डाला। उस युवक के
वद्ध
ृ माता-पिता का शोक तुम्हारे लिए शाप बन गया। अपनी तपोशक्ति से हर दिन आधे समय
तक मानव के रूप में रहने का वरदान दे सकता हूँ। इसके बाद, अपनी तपस्या के द्वारा या
प्रजा की भलाई करके पण्
ु य-कमाओगे तो शाश्वत रूप से तुम्हें मानव रूप मिलेगा”, मुनि ने यों
कहकर उसे आशीर्वाद दिया।

मनि
ु के आशीर्वाद के प्रभाव से सध
ु ेंद्र रातों में मानव रूप में तपस्या करने लगा। ऐसी तपस्या
की अवधि में ही गरुड़ ने उसके मणि को चरु ा लिया।
 
नागमणि के खो जाने से वह सारी शक्तियाँ भी खो बैठा और मामूली सर्प बन गया। नागलोक
में प्रवेश करना भी उसके लिए असंभव हो गया। ऐसे समय पर ही एक नेवले ने सर्परूप के सुधेंद्र
पर आक्रमण किया। जब नेवला सर्प को मारने ही वाला था तब आहार के लिए ढूँढ़ता हुआ एक
बाज साँप को उठाकर ले गया। इसके बाद सर्प सौभाग्यवश उसकी पकड़ से छूट कर एक सरोवर
में गिर पड़ा। यों मरते-मरते वह बच गया।
 
अब सुधींद्र उस आदमी की तलाश करने लगा, जिसकी वजह से उसकी यह दस्थि ु ति हुई। उसे
बाद में पता चला कि उसके मणि को चरु ानेवाले का नाम गरुड़ है और वह अब कदं बवन लौटकर
आया हुआ है ।
 
तब तक गरुड़ मणि की मदद से बहुत धनवान बन चुका था और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर
रहा था।
 
उस समय गरुड़ अपने परु ाने मित्र चमन से मिलने आया था। उसने चमन से मिलकर कहा,
“दोस्त, तम्
ु हारे ही कारण मैं अब बहुत बड़ा धनवान बन गया हूँ। तम्
ु हारी सहायता कभी नहीं
भल
ु ा सकता। मेरे साथ आओगे तो अपनी कमाई का आधा हिस्सा तम् ु हें दँ ग
ू ा। मेहनत किये
बिना आराम से जी सकते हो।”
 
“मैं तुम्हारे साथ आऊँगा, तो मेरा स्थान कौन भरे गा? यह काम कौन करे गा?” चमन ने पूछा।
 
“अवश्य ही कोई न कोई आयेगा” गरुड़ ने कहा। “उसके लिए भी यह काम तकलीफ़ों से भरा
काम होगा न? संसार में ऐसे भी बहुत लोग होंगे, जो मेहनत किये बिना ज़िन्दगी में आराम से
रहना चाहते हैं। किन्तु मैं यह पसंद नहीं करता। मेहनत के बिना तम
ु जिस प्रकार से आनंद का
अनुभव कर रहे हो उसी प्रकार मेहनत से मुझे आनंद मिलता है । मैं तुम्हारे साथ नहीं आ
सकता”, चमन ने दृढ़ता के साथ कहा। गरुड़ मन ही मन दोस्त की प्रशंसा करते हुए वापस लौट
गया। उसके सामने सर्परूप में सुधींद्र क्रोध से फुफकारते हुए डसने को सन्नद्ध हो गया। परन्तु
भयभीत गरुड़ को छूते ही सुधेंद्र शाश्वत रूप से मानव के रूप में परिवर्तित हो गया।

वेताल ने कहानी बतायी और कहा, ?राजन ्, स्वार्थी गरुड़ सर्प के डसने से कैसे बच गया? पहले
ही से लेकर जिस सुधींद्र ने थोड़ा-सा भी संयम का पालन नहीं किया, वह मानव कैसे बन गया?
क्या तुम्हें यह विचित्र नहीं लगता? चमन ने कर्तव्य का पालन करना ही अपना धर्म माना और
जैसे के तैसे ही रह गया। क्या यह इस बात का उदाहरण नहीं है कि धर्म के रास्ते पर चलनेवालों
की यही दस्थि
ु ति होती है ? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चपु रह जाओगे तो तम् ु हारा
सर फट जायेगा।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “मनुष्य जो-जो काम करते हैं, वे केवल उनके उद्देश्यों के अनुसार ही नहीं, वे
उन कार्यों को करनेवालों को प्रोत्साहित करनेवाली परिस्थितियों, तथा उनके पाप-पण्
ु य पर
आधारित होते हैं। चमन ने मेहनत भरे जीवन को चुना। उसे पाप करने से डर लगता है । धर्म के
रास्ते पर चलना वह पसंद करता है । इसीलिए वह संतुष्ट जीवन बिता पा रहा है । वह किसी
प्रकार के अभाव या दख
ु का अनुभव नहीं करता। उसे अपनी जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं है ।
इसीलिए उसने गरुड़ के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया, हालांकि गरुड़ चमन को अपने
धन का आधा हिस्सा दे ने को तैयार था। गरुड़ का साहस यद्यपि स्वार्थ से भरा हुआ है , पर
उससे कितने ही लोगों की भलाई हुई है । उसने कितने ही लोगों की जानें बचायीं और उनके
अपने लोगों को शोक सागर में डूबने से बचाया। यों वह भी एक प्रकार का पण्
ु यात्मा ही है । इसी
वजह से वह साँप की काट से बच गया? पर, यह सब हुआ सध
ु ेंद्र के मणि के कारण । इसलिए,
उस पण्
ु य फल में उसका भी हिस्सा है । सध
ु ेंद्र के मणि के कारण अनेक लोगों की भलाई हुई है ।
इसी कारण गरुड़ को छूते ही सध ु ेंद्र को शाश्वत रूप से मानव रूप प्राप्त हुआ। उसने संयम खो
दिया, इसका कारण है , उसके प्रति हुआ अन्याय। वह लगभग मत्ृ यु की गफ़ ु ा में ढ़केला गया।
अतः गरुड़ पर उसका जो क्रोध है , वह सहज है ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः मेखला की रचना)
 
73. रत्नमाला

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर
डाल लिया। फिर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, लगता है कि तम
ु ने किसी मांत्रिक का अपमान किया और उसने क्रोधित होकर
तुम्हें शाप दिया, जिसके कारण यों आधी रात को श्मशान में नाना प्रकार के कष्ट झेल रहे हो।
संन्यासी और बैरागी गह
ृ स्थों के घर अतिथि बनकर आते हैं। उनमें से कुछ मंत्र-तंत्रों में माहिर
होते हैं। गौरव नामक एक युवक यह जानने में असफल हुआ, जिसकी वजह से वह शाप-ग्रस्त
हुआ। बैरागी के दिये शाप के कारण उसे बहुत-से कष्टों से होते हुए गुज़रना पड़ा। थकावट दरू
करते हुए उसकी कहानी सुनो।” फिर वेताल ने उसकी कहानी यों सुनायीः

श्रीनिवास सिरिपरु में प्रमख


ु व्यापारी था। उसकी पत्नी सज
ु ाता, सश
ु ील व सग
ु ण
ु संपन्न थी। दो
बेटों में से बड़ा बेटा भैरव शांत स्वभाव का था और दस
ू रा बेटा गौरव अशिष्ट था।
 
एक दिन एक बैरागी उनके घर आया और भोजन परोसने कहा। सुजाता ने उसे स्वादिष्ट
भोजन खिलाया। भैरव ने विनयपूर्वक उसकी सेवा की। परं तु गौरव ने उसकी कोई परवाह नहीं
की। उल्टे यह भी कहा कि एक भिखारी की इतनी इज्ज़त क्यों की जाए।
 
बैरागी नाराज़ हो उठा। कहा, “अन्न माँगनेवाले पर इतना क्रोध मत उतारो। हो सकता है ,
भविष्य में तम्
ु हें भी भीख माँगनी पड़े।”
 
“हमारे घर में खाना खाकर मुझी को शाप दे रहे हो। तम
ु जैसे दष्ु टों की मैं परवाह नहीं करता।”
कहकर गौरव वहाँ से चला गया।
 
श्रीनिवास, सज
ु ाता, भैरव बैरागी की बातों से डर गये और गौरव की तरफ़ से क्षमा-भिक्षा माँगी।
बैरागी हँसता हुआ बोला, “कहो, तमु लोगों को क्या चाहिये?”
 
“हमारी कोई इच्छा नहीं है । गौरव का शरारतीपन कम हो जाए, इसका कोई उपाय बताइये।”
सुजाता ने कहा।
 
बैरागी ने उनसे कहा, “आश्चर्य की बात है कि गौरव जैसा दष्ु ट आपके घर में जन्मा। उसे अपने
रास्ते पर जाने दीजिये। उसकी चिंता मत कीजिये। कहिये, आप लोगों को क्या चाहिये?”
 
“हमारी एकमात्र इच्छा यही है कि गौरव का भविष्य अच्छा हो।” तीनों ने कहा।
 
बैरागी ने कहा, “उसकी वक्र बुद्धि को परिवर्तित करने की शक्ति मुझमें नहीं है ।” फिर, लंबी
सांस खींचते हुए उसने चमकती हुई एक रत्नमाला कुरते से निकाली और उसे श्रीनिवास को दे ते
हुए कहा, “यह माला महिमान्वित है । इसे पज ू ा मंदिर में सरु क्षित रखिये और इसकी पज
ू ा करते
रहिये। यह आपकी रक्षा करे गी। परं तु इसे अयोग्य धारण करें गे अथवा किसी को दान में दें गे तो
इसका कोई प्रयोजन नहीं होगा।” गौरव के सध
ु र जाने की उम्मीद लेकर श्रीनिवास ने उस माला
को बैरागी के समक्ष ही पज
ू ा मंदिर में रखा।

कुछ समय बीत गया। एक दिन श्रीनिवास ने दोनों बेटों को बल


ु ाकर कहा, “मैं बूढ़ा होता जा रहा
हूँ। मेरा तन, मन विश्राम चाहता है । आगे से भैरव व्यापार संभालेगा। गौरव, भाई को आवश्यक
सहायता पहुँचाता रहे गा।”
 
पिता का यह फैसला गौरव को बिलकुल पसंद नहीं आया। उसे लगा कि पिता ने उसके साथ
अन्याय किया और बड़े भाई के साथ पक्षपात। उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि घर में नहीं
रहूँगा। थोड़ा धन दे ने पर स्वयं व्यापार करूँगा। कोई दस
ू रा चारा नहीं था। इसीलिए श्रीनिवास ने
उसे थोडी धन राशि दी। धन लेकर गौरव घर से चला गया। उसने अनेक व्यापार किये, पर
किसी भी व्यापार से उसे फ़ायदा नहीं हुआ।
 
गौरव घर लौटा। पिता से कहा, “व्यापार में नुक़सान हो गया। अब एक फूटी कौडी भी नहीं
बची। बड़ा भाई व्यापार में खरा उतरा है तो यह उसका बड़प्पन नहीं है । मैं व्यापार में
नाकामयाब हुआ हूँ, यह मेरी अक्षमता भी नहीं है । यह पूजा मंदिर की रत्नमाला की महिमा है ।
वह रत्नमाला मुझे दे दीजिये। जब तक ठीक नहीं हो जाऊँगा, उसे अपने पास रखग
ूँ ा।”
 
“रत्नमाला को पूजा मंदिर से निकालने पर अनिष्ट होगा। हमने तम ु से बताया भी था कि
बैरागी ने क्या कहा था, फिर भी उस माला के लिए तुम जिद्द कर रहे हो। अब साफ हो गया कि
तुम्हारी बुद्धि टे ढ़ी है ,” श्रीनिवास ने कहा।
 
पिता की बातों पर गौरव क्रोधित हो उठा। उस रात को जब सब सो गये, उसने थोड़ी-सी रक़म
और रत्नमाला निकाली। फिर सबेरे तक दस ू रा गाँव पहुँचा। वह बड़ा गाँव था। आसपास के
चार-पाँच गाँवों के लिए वह केंद्र स्थल था।
 
गौरव को लगा कि यह गाँव वस्त्र व्यापार के लिए अनुकूल होगा। उसने एक घर किराये पर
लिया। पास के नगर में जाकर भारी मात्रा में कपड़े खरीदे । एक बैलगाड़ी में लादकर जब वह
गाँव लौट रहा था, तब अकस्मात बिजली कड़कने लगी और ज़ोर की बारिश होने लगी।
 
मार्ग मध्य में तीन लट
ु े रों ने गाड़ी रोकी, गाड़ीवालों और गौरव को तलवारें दिखाकर डराया-
धमकाया। फिर गाड़ी को दस
ू रे रास्ते में ले गये। वहाँ परू ा माल लट
ू लिया। अपने दर्भा
ु ग्य पर
दख
ु ी होता हुआ जब गौरव घर के पास आया, तब उसने दे खा कि उसके घर पर बिजली गिरी
और दे खते-दे खते घर जल गया।

ये जो दो दर्घ
ु टनाएँ घटीं, इनसे गौरव को लगा कि उसके पास जो रत्नमाला है , वह विषैले नाग
से भी भयंकर है । उससे छुटकारा पाने के उपाय सोचने लगा तो जलते हुए घर के सामने वह
बैरागी दिखायी पड़ा। बैरागी ने कहा, “अरे पापी, तुम्हारा दर्व्य
ु वहार ही तुम्हारे लिए शाप बन
गया है । आज से गाँवों में घूमते रहो और भीख माँगकर अपना पेट भरते रहो। जो कन्या बिना
स्वार्थ के हृदयपूर्वक तुमसे शादी करने का वचन दे गी, उसे यह रत्नमाला दे ने पर तुम्हें इससे
मक्ति
ु मिलेगी।”
 
तब से लेकर गौरव गाँवों में भिक्षाटन करता रहा। कोई संद
ु र लड़की दिखायी पड़े तो उसे अपनी
कहानी सन
ु ाता और उससे शादी करने पर रत्नमाला दे ने का वचन दे ता। रत्नमाला पाने की
इच्छा से दो-तीन लड़कियों ने भिखारी होते हुए भी उससे शादी करने की इच्छा प्रकट की। उसने
वह रत्नमाला उन्हें दी भी, पर वह माला तुरंत उसी के पास लौट आयी।
 

यों घूमता-फिरता हुआ वह मार्कापुर पहुँचा। वहाँ दे व नामक एक व्यक्ति था। उसके मॉ-बाप
उसके बचपन में ही मर चुके थे। मेहनत करके उसने बहन शिवानी को पाल-पोसकर बड़ा
किया। वे एक-दस ू रे को बहुत चाहते थे।
 
दे व को उसी गाँव की दे वकी नामक सुंदर लड़की से प्रेम था। दे वकी चार-पाँच घरों में नौकरानी
का काम करती थी । उसका अपना कोई नहीं था। किसी धनी से शादी करूँ, सुखी जीवन
बिताऊँ, यह उसकी इच्छा थी। दे व को जब मालूम हुआ तब उसे उससे अपने प्रेम के बारे में
बताने में संकोच हुआ। शिवानी भाई की इच्छा जानती थी। वह दे वकी से मिली और कहा, “मेरा
भाई तम ु से प्रेम करता है । मैं तुम्हें भाभी मानती हूँ। मेरे भाई से शादी कर लो।”
 
“दे वियाँ रत्नमाला पहनती हैं। मुझे एक रत्नमाला लाकर दे ना। तब तुम्हारे भाई से शादी
करूँगी।” दे वकी ने फ़ौरन कहा।
 
“रत्नमाला पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ। परं तु उसे खरीदने के लिए धन की ज़रूरत है
न,” दर्द भरे स्वर में शिवानी ने कहा।
 
ठीक उसी समय पर भिक्षा माँगने गौरव वहाँ आया। उसने उन दोनों की बातें सन
ु लीं। शिवानी
को ध्यान से दे खते हुए उसने कहा, “बिना धन माँगे तम्
ु हें रत्नमाला दँ ग
ू ातो क्या मझ
ु से शादी
करोगी?” कहते हुए उसने रत्नमाला निकाली।
रत्नमाला को दे खते ही शिवानी की आँखें चमक उठीं। सोचे-विचारे बिना उसने ?हाँ' कह दिया।
गौरव ने वह रत्नमाला शिवानी के हाथ में रख दी तो वह वहीं रह गयी। शिवानी ने उसे दे वकी के
गले में पहना दी।
 
गौरव ने बहुत ही खुश होते हुए कहा, “अच्छा हुआ, मैं बैरागी के शाप से मुक्त हो गया। उनके
कहे अनुसार वह लड़की मुझे मिल गयी है , जो हृदयपूर्वक मुझसे शादी करे गी।”
 
दे व उस समय अपनी बहन को ढूँढ़ता हुआ वहाँ आया तब उसे गौरव के द्वारा मालम ू हुआ कि
वह अच्छे घर का है । उसकी जो यह दस्थि
ु ति हुई है , उसका कारण बैरागी का शाप मात्र है । फिर
इसके दस
ू रे ही दिन गौरव-शिवानी और दे व-दे वकी के विवाह संपन्न हुए।
 
वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा विक्रमार्क से कहा, “राजन ्, बैरागी ने श्रीनिवास से
कहा था कि इस रत्नमाला से तुम्हारे परिवार का भला होगा। पर हुआ इसके विरुद्ध। उसी
परिवार का गौरव शापग्रस्त होकर भिखारी बना और दर-दर भटकता रहा। यह तो भलाई नहीं
कही जा सकती है न? उस माला से सचमुच लाभ पहुँचा दे व को। मेरे इन संदेहों के समाधान
जानते हुए चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “बैरागी ने गौरव को जो शाप दिया, उसमें विचित्रता यह है कि उस रत्नमाला
से गौरव को ही लाभ नहीं हुआ बल्कि दस
ू रों को भी लाभ हुआ। गौरव के नाना प्रकार के कष्टों से
गुज़रने के बाद, श्रीनिवास के परिवार की प्रत्याशा के अनुसार वह सही मार्ग पर आया। शिवानी
का पति बना, यह शिवानी के लिए अच्छा हुआ। दे व को मिली वह लड़की, जिससे उसने प्रेम
किया था। इसीलिए कह सकते हैं कि बैरागी के शाप से सबका भला हुआ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल, वेताल शव समेत ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार “वसुंधरा” की रचना।)
 
74. जन्म-विमुक्ति

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़्र के पास गया; पेड़्र पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़्रता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, दै वज्ञ व महा ज्योतिषी होने का दं भ भरनेवाले कुछ लोग अपने को इस शास्त्र में
निष्णात, पटु व दक्ष घोषित करते हैं और असंगत कारण दिखाते हुए उन मासूम लोगों को
कष्टों में डालते हैं, जो उनका विश्वास करते हैं। तुम्हें इन भयंकर रातों में कष्ट झेलते हुए
दे खकर मुझे लगता है कि इस प्रकार के किसी व्यक्ति ने तुम्हें यों करने के लिए प्रोत्साहित
किया, गुमराह किया। तुम्हें सावधान करने और इस दःु स्थिति से बचाने की मेरी तीव्र इच्छा है ।
इसीलिए ऐसे ही एक ज्योतिषी की कहानी तुम्हें सुनाने जा रहा हूँ। अपनी थकावट दरू करते हुए
उसकी कहानी ध्यानपूर्वक सुनना।” फिर वेताल यों कहने लगाः

दिवाकर महापरु का निवासी था। वह धनाढ्य़ था। अपनी इकलौती पत्र


ु ी कलावती के विवाह
योग्य होने पर वह उसकी शादी की तैयारियों में लग गया। एक नहीं, दो नहीं, कितने ही यव
ु कों
ने कलावती से विवाह करने से इनकार किया और उसमें निराधार कोई न कोई कमी निकाली।
यह सब सन
ु कर दिवाकर घबरा गया और परे शान हो उठा। उसकी पत्नी प्रभावती ने अपने बड़्रे
भाई सक
ु ोप को तत्संबंधी परू ा समाचार भेजा और साथ ही कलावती की जन्म कंु डली भी।
 
सुकोप व्यवहार दक्ष था। वह ज्योतिषी चलाक का जिगरी दोस्त था। उसने कलावती की जन्म
कंु डली उन्हें दिखायी और उनकी राय जाननी चाही। चलाक ने जन्म कंु डली को ध्यान से दे खा
और कहा, "यह जन्म कंु डली जगन्माता सीता दे वी की जन्म कंु डली जैसी है । इसी वजह से चंद
रुकावटें खड़्री हो रही हैं। जगतपुर जाओ, सीताराम के दर्शन करो और उस गाँव में जो पण्
ु यवान
हैं, उन्हें प्राप्त प्रसाद में से एक अंश कलावती से दिलवाना। कलावती का कल्याण होगा।"
 
"तुम्हारे कहने का यह मतलब हुआ कि जगतपुर में ही कलावती के लिए योग्य वर है । अगर
बात यह है तो हम भी, अपनी बहन के परिवार के साथ जगतपुर जायेंगे। उस गाँव में पण्
ु यवान
कौन हैं, यह तुम्हें ही बताना होगा। इसलिए तुम्हें भी हमारे साथ आना होगा।"
 
चलाक ने मान लिया। फिर वे दोनों महापुर गये। वहाँ दिवाकर ने दो बग्घियों का इंतज़ाम
किया। एक में स्त्रियाँ बैठीं तो दस
ू री में पुरुष। जगतपुर जाकर उन्होंने भगवान के दर्शन किये
और पुजारी से प्रसाद प्राप्त किया। उस समय चलाक ने पास ही रहकर कलावती से दे वी स्तोत्र
पढ़्रवाया।
 
लौटते समय, एक घर के पास आने के बाद, चलाक ने गाड़्री रोक कर कलावती से कहा, "पुत्री
कलावती, इस घर को दे खने पर लगता है , इस घर में पण्
ु यवान हैं। तम्
ु हारे पास जो प्रसाद है ,
उसमें से एक भाग उन्हें दे आना।"

उसके आदे शानुसार कलावती गाड़्री से उतरी और जैसे ही उसने घर के अंदर पैर रखा, उसने
अंदर से आते हुए एक युवक को दे खा। कलावती को दे खकर वह भी रुक गया और उसे बिना
पलक मारे एकटक दे खने लगा। शरमाती हुए कलावती ने उस युवक से कहा, "सीताराम के
दर्शन करने हम महापुर से यहाँ आये। बड़्रों ने कहा कि यह पुण्यात्माओं का गह
ृ है और उन्हें
भगवान का प्रसाद दे ने से मेरा शभ ु होगा। लीजिये यह प्रसाद", कहती हुई वह उसे प्रसाद दे ने
लगी।
 
"इस गह
ृ में पण्
ु यात्माएँ हैं, मेरे पिताश्री और माँ जी। यह प्रसाद उन्हीं को दे ना", कहता हुआ वह
युवक अंदर गया और अपने माँ-बाप से कहा, "आपको भगवान का प्रसाद दे ने एक युवती आयी
है । अगर वह युवती आपको भी अच्छी लगे तो मैं उसे दै वप्रसाद मानकर उससे विवाह करूँगा।"
 
उस युवक का नाम वीरभद्र था। पिता का नाम शिवराम और माँ का नाम शिवकामिनी था। वे
अब तक अनेक बार अपने बेटे से विवाह करने के लिए कह-कहकर थक गयेथे। पत्र
ु के मँह
ु से
यह प्रस्ताव सुनकर वे आश्चर्य में पड़्र गये और साथ ही प्रस भी हुए। उन्हें कलावती अच्छी
लगी। चलाक ने वधू-वर की जन्म कंु डली का परिशीलन किया और उसे बेहद पसंद आया। जब
उसने अपनी राय सुनायी तो कलावती और वीरभद्र के विवाह का निश्चय हो गया।
 
उसी रात को दिवाकर परिवार सहित लौटने लगा तो सूर्यास्त हो जाने के कारण वे मार्ग मध्य
की एक सराय में ठहर गये।
 
दसू रे दिन, प्रातःकाल ही चलाक जब संध्या वंदन करने सराय के पास ही प्रवाहित होनेवाली
नदी पर गया तब पूजा पूर्ति के बाद बरगद के एक पेड़्र के नीचे बैठ गया। तब एक राक्षस पेड़्र पर
से उसके सामने कूद पड़्रा और कहने लगा, "जो भी मैं पछ
ू ू ँ गा, तम्
ु हें उसका जवाब दे ना होगा,
अन्यथा तम्
ु हें खा जाऊँगा और अपनी भख ू मिटाऊँगा।"
 
चलाक ज्योतिषी मात्र ही नहीं था, वह व्यवहार दक्ष और साहसी भी था। राक्षस के पूछने की
पद्धति से वह भाँप गया कि वह क्या चाहता है । उसने राक्षस से कहा, "तुम्हें राक्षस के रूप से
विमुक्ति चाहिये। यही चाहते हो न?"

वह सच था, इसलिए राक्षस को लगा कि यह मनष्ु य सचमच


ु ही प्रतिभावान और महिमावान
है । उसने सविनय प्रणाम किया और इसका उपाय बताने की विनती की। चलाक ने उसके दायें
हाथ की रे खाएँ दे खीं और कहा, "तुम्हारे पास अद्भत
ु शक्ति है । उस शक्ति से पण्
ु यात्माओं का
उपकार करोगे तो दसू रे ही क्षण तम्
ु हें इस जन्म से विमक्ति
ु प्राप्त होगी।"
 
"मेरे पास एक ही शक्ति है और वह है मंत्र शक्ति। किसी फल को इस मंत्र से भर दँ ू तो उससे
संतान प्राप्ति होगी। परं तु, इस मंत्र का उपयोग एक ही बार हो सकता है । मैं तो वह अभागा हूँ,
जिसे पण्
ु यवानों व पापियों के बीच का फर्क मालूम नहीं। आप ही यथाशीघ्र किसी पुण्यात्मा को
यह दीजिये और इस जन्म से मुझे विमक्ति
ु दिलवाइये," राक्षस ने गिड़्रगिड़्राते हुए कहा।
 
"किसी भी कार्य की पर्ति
ू में समय लगता है । जन्म विमक्ति
ु के लिए कुछ और समय तक तम् ु हें
प्रतीक्षा करनी होगी। जैसे ही मंत्र परि
ू त इस फल को स्वीकार करने योग्य पण्
ु यात्मा दीखेगी,
खद
ु चला आऊँगा और इसे स्वीकार करूँगा। "यों कहकर वह सराय लौट आये और उनके साथ
स्वग्राम पहुँचने निकल पड़्रे।"
 
इसके बाद, निश्चित मुहूर्त्त पर कलावती व वीरभद्र का विवाह संप हुआ। ससुराल आयी
कलावती पति को अपना दै व मानकर उसकी सेवा करने लगी, सास-ससुर की दे खभाल पुत्री से
भी अधिक करने लगी और घर के अंदर और बाहर नाम कमाया।
 
बाद, पोते को पाने के लिए सास-ससुर ने कलावती से कितने ही व्रत करवाये। परं तु, विवाह के
तीन सालों के बाद भी कलावती माँ नहीं बन पायी।
 
इसी को सही मौक़ा समझकर रामनाथ नामक दरू के उनके एक रिश्तेदार ने अपनी बेटी सुभद्रा
की शादी वीरभद्र से करवाने की साजिश की। वह सीताराम नामक एक साधारण ज्योतिषी से
मिला और उससे कहा, "तुम शिवराम के घर जाना और उससे कहना कि कलावती मॉ ं नहीं बन
सकती, अतः वीरभद्र की दस
ू री शादी कराने में ही भलाई है । उनसे यह भी कहना कि सुभद्रा से
उसकी शादी करा दी जाए तो संतान होगी। अगर तम
ु इस काम में सफल हो जाओगे तो तुम्हें
अच्छी भें ट दँ ग
ू ा।"

सीताराम को भी लगा कि अपनी दरिद्रता से मुक्त होने के लिए यह एक अच्छा मौक़ा है ।


शिवराम उसकी बातों में आ गया और बेटे की दस
ू री शादी करवाने के लिए तैयार हो गया।
वीरभद्र ने भी इसके लिए अपनी सहमति दे दी।
 
चलाक को यह विषय मालम ू हुआ तो वे फौरन शिवराम से मिले, कलावती की जन्म कंु डली की
परीक्षा की और कहा, "कलावती की संतान होगी। किन्त,ु तम
ु से और तम्
ु हारी पत्नी से हुए कुछ
पापों के कारण वह माँ नहीं बन पा रही है । ये रुकावटें माँ बनने से उसे वंचित कर रही हैं। अपने
पापों का प्रायश्चित्त करो, ग़रीबों को, अदान करो। कलावती पत्र
ु को जन्म दे गी।"
 
शिवराम ने कहा, "आपने जो कहा, वैसा करने के लिए मैं तैयार हूँ। हमारे गाँव के सीताराम
ज्योतिषी ने साफ़ कह दिया कि कलावती के भाग्य में संतान प्राप्ति है ही नहीं। आपको उससे
चर्चा करके सच्चाई साबित करनी होगी।"
 
सीताराम बुलवाया गया तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि कलावती माँ बन ही नहीं सकती।
तब चलाक ने कहा, "तुम्हारी बातें मेरे ज्योतिष पांडित्य के लिए एक चुनौती है । अतः इस
विषय को लेकर हम दोनों के बीच में एक बाजी हो जाए। जो ज्योतिषी हार जायेगा, उसे सिर का
मुंडन करवाना होगा, चप्पलों की माला गले में डाल लेनी होगी और गधे पर बैठकर गाँव भर में
घमू ना होगा। क्या तुम इसके लिए सद्ध हो?"
 
चलाक के आत्म-विश्वास को दे खकर सीताराम घबरा गया और कहा, "ज्योतिष में जो भी
बताया जायेगा, वे अवश्य होकर रहें गे, यह कहना निरी मर्ख
ू ता है ।" कहता हुआ वह वहाँ से
चलता बना। चलाक निडर होकर अपनी बात पर डटे रहे । इसलिए शिवराम, उसकी पत्नी और
उसका बेटा, जो भी वे कहें , उसके अनुसार करने को तैयार हो गये। पूजाएँ, अदान आदि का
उन्होंने प्रबंध किया।
 
जब सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा था, तब चलाक बरगद पेड़्र के राक्षस से जाकर मिले और उससे
कहा, "तुम्हारे जन्म की विमुक्ति का समय आ गया।" फिर उन्होंने जैसे ही मंत्र परि
ू त संतान
फल उससे लिया, राक्षस ज़ोर से चिल्लाकर ज़मीन पर गिर गया।

चलाक ने वह संतान फल कलावती को दिया और कहा, "अब इस फल को खा लेना। तुम्हारी


इच्छा पूरी होगी और तुम एक सुपुत्र की माँ बनोगी।" यों कहकर आशीर्वाद दिया। उनके कहे
अनुसार एक साल के अंदर ही कलावती ने पत्र
ु को जन्म दिया। शिवराम ने चलाक को जगतपुर
बुलवाकर उनका आदर-सत्कार किया।
 
वेताल ने यह कहानी बतायी और कहा, "राजन ्, कलावती का जैसे ही विवाह हुआ, तभी यह
संतान फल दिया जाता तो उसे इतने कष्ट सहने नहीं पड़्रते। सास-ससरु के ताने सन
ु ने नहीं
पड़्रते। पति दस
ू री शादी के लिए तैयार नहीं होता। राक्षस को भी तीन सालों के पहले ही इस
जन्म से विमक्ति
ु मिल जाती। चलाक ने ऐसा क्यों नहीं किया? चलाक ने इस काम में विलंब
करके क्या उनके साथ अन्याय नहीं किया? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चप ु रह
जाओगे तो तम् ु हारे सिर के टुकड़्रे-टुकड़्रे हो जायेंगे।"
 
विक्रमार्क ने कहा, "चलाक पहले ही राक्षस से बता चुका था कि समय आने पर ही कोई भी कार्य
पूरा होता है । अगर वह जल्दबाजी करता तो कार्य भंग हो जाता। उसने भॉपं लिया होगा कि
कलावती के मॉ ं बनने में और राक्षस की जन्म विमुक्ति में और तीन सालों की अवधि की
आवश्यकता है । इसी वजह से कलावती के विवाह के उपरांत तीन सालों के बाद उसे संतान
प्रदान करने का निर्णय लिया। इसी अवधि में उसके सास-ससुर ने कलावती के माँ न बनने पर
उसमें खोट निकाली। उसके साथ अन्याय करने लगे। चलाक ने समय पर उन्हें इसके लिए
अपराधी ठहराया और उन्हें समझाया कि इसके मल ू में उन्हीं की भल
ू है , उन्हीं के पाप हैं।
कलावती जैसी स्त्री मॉ ं नहीं बन सकी, इसके लिए अपनी बहू को दोषी ठहराना ग़लत है , यही
साबित करने के लिए उन्होंने ऐसा किया। यही उनका आशय भी था। इसमें उन्हें दोषी ठहराना
मर्ख
ू ता है । सही समय पर संतान फल को दो प्रकारों से उपयोग में ले आये और अपने लक्ष्य में
सफल हुए। चलाक केवल ज्योतिषी ही नहीं था, वह समाज की भलाई चाहनेवालों में से एक था।
निस्संदेह वह बुद्धिमान व उत्तम कोटि का मानव था।"
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
75. दे वनाथ की दिव्य शक्तियाँ

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ से शव को उतारा और अपने कंधे पर डाल
लिया। फिर यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्,
इस घने अंधकार में तुम निरातंक बढ़े चले जा रहे हो। तुम्हारी इस मेहनत को दे खते हुए किसी
का भी दिल दया से पसीज उठे गा। इतने कष्ट झेलते जा रहे हो तो अवश्य ही इसके पीछे कोई
महान लक्ष्य होगा। इस लक्ष्य की पर्ति
ू के लिए तम
ु से किये जानेवाले ये प्रयास कितने ही
सराहनीय हैं। पर इस लक्ष्य -सिद्धि के लिए तम
ु ने जो मार्ग चुना, उसका भी महान होना, उत्तम
स्तर का होना नितांत आवश्यक है । तभी तुम्हारी लक्ष्य सिद्धि सार्थक कहलायेगी। इस धर्म सूत्र
को व सक्षमता को पहचानने के बाद, योगी दे वनाथ ने जल्दबाजी में जो निर्णय लिया, वह
पूर्णतया असंगत था। इस कारण से उसका परिणाम भी बुरा व अशुभ ही निकला। तुम्हें
सावधान करने के लिए उस योगी की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। थकावट दरू करते हुए उसकी
कहानी सुनो।” फिर वेताल योगी दे वनाथ की कहानी यों सुनाने लगाः

एक समद्र
ु के तट पर सिंगवर नामक एक गाँव था। उस गाँव के निकट के जंगल में योगी
दे वनाथ ने आश्रम की स्थापना की और ज़रूरत पड़ने पर लोगों की सहायता करने लगा। बहुत-
से लोगों का विश्वास था कि उनके पास कितनी ही दिव्य शक्तियाँ हैं।
 
सिंगवर गाँव में और उसके आसपास के प्रदे श में समय पर वर्षा होती थी और अच्छी फसलें भी
होती थीं। ग्रामीणों को इस बात पर आनंद होता था कि उनके परिश्रम का फल उन्हें मिल रहा
है । बलराज नामक एक स्वार्थी हाल ही में उस गाँव का ग्रामाधिकारी बना। धनार्जन के लिए
उसने शराब की दक
ु ानें व जूए के अड्डे खोले। इस वजह से गाँव के युवक बुरी आदतों के शिकार
हो गये।
 
गाँववालों ने बलराज को इसपर आपत्ति जताते हुए चेतावनी दी। परं तु बलराज ने उनसे कहा,
“समय बदलता जा रहा है । उसके साथ -साथ हमें भी बदलना चाहिये। अधिकाधिक संख्या में
ग्रामीणों ने इसकी मांग की, इसीलिए मैंने यह प्रबंध किया।”
 
बलराज के इस काम से खुश लोगों में से गिरिराज नामक एक किसान भी था। मालती उसकी
पत्नी थी। सहदे व और रमानाथ उसके बेटे थे। बड़ा बेटा सहदे व अच्छे स्वभाव का था। गाँव के
सब सुशील युवक उससे दोस्ती करते थे। दस
ू रा बेटा रमानाथ अल्हड था, ग़ैरज़िम्मेदार था। ऐसे
यवु कों का वह नेता था।
 
उनके माता-पिता रमानाथ को लेकर बहुत चिंतित रहते थे । सहदे व उन्हें शांत करने के उद्देश्य
से कहा करता था, “भाई अभी छोटा है । उसकी दे खभाल की ज़िम्मेदारी मझ
ु पर छोड़ दीजिये।”
सहदे व, अपने दोस्तों की सहायता से हरि कथाओं व नाटकों का प्रबंध करता था। उनके द्वारा
वह लोगों को समझाने की कोशिश करता था कि मदिरा स्वास्थ्य पर कितना बरु ा असर डालती
है , जए
ु से क्या-क्या हानियाँ होती हैं। पौराणिक कथाओं के रूप में वह यह प्रयास करता था।

बडे भाई सहदे व के ये काम छोटे भाई रमानाथ को कतई पसंद नहीं थे। इसके बारे में उसने
अपने दोस्तों से चर्चा की। उन्होंने कहा, “तुम्हारा भाई अच्छा नाम कमा रहा है । अगर हम
लोगों से तुम्हारे भाई के विरुद्ध कुछ कहें तो वे हमपर नाराज़ हो उठें गे। इस विषय में
ग्रामाधिकारी बलराज ही हमारी मदद कर सकते हैं।”
 
उधर बलराज भी सहदे व के प्रचार रोकने के लिए उपाय सोच रहा था। रमानाथ जैसे ही अपने
दोस्तों को लेकर उसके घर आया, उसने कहा “वज्र को वज्र से ही काटना चाहिये। कांटे को कांटे
से ही निकालना चाहिये। हम सहदे व की अच्छाई को ही उपयोग में लायेंगे और उससे ऐसा काम
करवायेंगे, जिससे गाँव के सभी लोग उससे घण
ृ ा करें ।” यों कहते हुए उसने विस्तारपूर्वक एक
योजना भी बतायी।
 
उसके कहे मुताबिक रमानाथ का एक दोस्त साधु के वेष में सहदे व से मिला और कहा। “मैंने
सुना कि तुम्हारे परिवार के सब सदस्य रमानाथ को बहुत चाहते हैं। मुझे यह भी मालूम हुआ
कि वह एकदम नटखट और ग़ैरज़िम्मेदार है । उसे सुधारना हो तो बड़ी हिम्मत का काम करना
होगा। करोगे?”
 
सहदे व ने तुरंत अपनी सहमति दी।
 
“ठीक है , आज ही आधी रात को अकेले राम के मंदिर में चले जाना। गर्भगह
ृ में मुकुटधारी श्री
रामचंद्र की मूर्ति है । उस मुकुट को घर ले आना और सोते हुए अपने भाई के सिर पर थोड़ी दे र
तक रखना। फिर मक ु ु ट को ले आना और भगवान के सिर पर यथावत ् रख दे ना। पर यह सारा
काम रहस्यपर्व
ू क हो। ऐसा करने पर, तम्
ु हारा छोटा भाई श्री रामचंद्र से भी अधिक महान व
गणु वान होगा।”
 
सहदे व ने कपटी साधु की बातों का विश्वास किया। उसी रात को वह राम के मंदिर में गया।
बलराज की योजना के अनुसार मंदिर के दरवाज़ खुले थे। इससे सहदे व को लगा कि भगवान
राम इस काम में उसकी सहायता कर रहे हैं। उसने मूर्ति को प्रणाम किया और मुकुट निकाला।
बस, दे खते-दे खते रमानाथ के दोस्त और ग्रामाधिकारी बलराज वहाँ पहुँच गये। मुकुट को हाथ
में लिये हुए सहदे व को उन्होंने पकड़ लिया।
बलराज ने प्रश्नों की बौछार कर दी तो सहदे व यही कहता हुआ चुप रह गया कि यह सब मेरा
दर्भा
ु ग्य है ।
 
दस ू रे ही दिन राम के मंदिर में सभी ग्रामीणों को बल
ु ाया गया। बलराज ने सहदे व को सबके
सामने दोषी ठहराया और श्री राम के मुकुट को चुराने के अपराध में उसे पचास कोड़े मारने की
सज़ा सुनायी।
 
सहदे व की माँ को जैसे ही यह बात मालम
ू हुई, वह कांपती हुई बेटे के पास आयी और बोली,
“बेटे, तम
ु अच्छे हो। तम
ु कभी भी ग़लत काम नहीं करते। तम ु ने भगवान का मक ु ु ट लिया। तो
अवश्य ही इसके पीछे कोई सबल कारण होगा। मैं यह दृश्य नहीं दे ख सकती। ऐसा तम
ु ने क्यों
किया, बताना।” अपने दख ु को रोकते हुए उसने पछ
ू ा।
 
सहदे व पर माँ की बातों का कोई असर नहीं पडा। उसने शांत स्वर में कहा, “माँ, मेरा विश्वास
करो। भगवान का मुकुट मैंने क्यों लिया, अगर यह बता दँ ू तो इससे गाँव का अमंगल होगा।”
 
उसकी बातों पर बलराज ने ठठाकर हँसते हुए कहा, “यह अपनी मायावी बातों से हमें विश्वास
दिलाने की कोशिश कर रहा है । अच्छाई का मख
ु ौटा पहना हुआ दष्ु ट है यह। तरु ं त इसकी सज़ा
अमल में लायी जाए,” कहते हुए उसने एक बलवान के हाथों में कोड़ा थमा दिया।
 
मालती, सहदे व के सामने खड़ी हो गयी और बोली, “मेरे बेटे ने जिस गाँव के लिए अमंगल
रोकना चाहा, वही गाँव उसे सज़ा दे रहा है । गाँव का अमंगल होकर ही रहे गा, यह मेरा शाप है ,”
ज़मीन को अपने पैरों से रौंदती हुई बोल उठी।
 
दसू रे ही क्षण वहाँ की भमि
ू कांप उठी। गाँव के सबके सब घर गिर गये। पास का समुद्र उमड़ा
और गाँव को डुबो दिया।
 
थोड़ी दे र बाद जब उपद्रव शान्त हो गया, बचे-खुचे लोग एक जगह पर इकट्ठे हो गये। उनमें
सहदे व के पिता के परिवार के सदस्य भी थे।

“पूरी भूमि नमकीन हो गयी। कुछ सालों तक यहॉ ं की भूमि खेती के लायक़ नहीं होगी। सहदे व
के विषय में हमसे भारी भूल हो गयी। हम सबके सब समुद्र में डूबकर मर जाएँ, यही हमारे लिए
एकमात्र मार्ग है ।” एक ग्रमीण ने पश्चाताप-भरे स्वर में कहा।
 
तब मालती ने कहा, “इस विपत्ति में कितने ही लोग मर गये। सिर्फ हमलोग बच गये।
दिव्याराम के योगी दे वनाथ के पास जाएँगे। वे ही कोई उपाय सुझायेंगे।”
 
सबने अपनी सहमति जतायी। अपने पास आये ग्रामीणों का दख
ु ड़ा सुनने के बाद योगी दे वनाथ
ने कहा, “तम्
ु हारे गाँव को निवास योग्य बनाने की शक्तियाँ मेरे पास हैं। परं तु उन्हें पाने के
लिए कुछ योग्यताओं की आवश्यकता है । वे शक्तियाँ उसी व्यक्ति-विशेष को प्राप्त होंगीं,
जिसने कभी कोई बरु ा काम नहीं किया हो। ऐसे उत्तम व्यक्तियों में से सहदे व ही एकमात्र
व्यक्ति है । वही तम्
ु हारे गाँव को फिर से सभि
ु क्ष बना सकता है ।”
 
यह सुनते ही सहदे व का छोटा भाई रमानाथ आगे आया और कहने लगा, “योगिवर, मेरे बड़े
भाई ने हमारे गाँव के राम मंदिर से भगवान के मुकुट की चोरी की। इस चोरी के पीछे उसका
स्वार्थ है । यह जानते हुए भी आप उसे उत्तम और योग्य व्यक्ति ठहरा रहे हैं। क्या आपका यह
निर्णय समुचित और न्यायसंगत है ?”
 
दे वनाथ ने रमानाथ को ध्यान से दे खते हुए कहा, “सब कुछ भली-भांति जानता हूँ। सहदे व में
दिव्य शक्तियाँ पाने की पूरी योग्यताएँ हैं।” यों कहकर दे वनाथ ने सहदे व को अपने पास
बुलाया और अपनी दिव्य शक्तियाँ उसे सौंपीं।

वेताल ने यह कहानी सुनायी और फिर कहा, “राजन ्, क्या आपको लगता नहीं कि दिव्य
शक्तियाँ पानेवाले के विषय में दे वनाथ से भूल हो गयी? अपने सगे भाई को सन्मार्ग पर ले
आने के लिए उसने भगवान के मुकुट को अपने घर ले जाना चाहा। यह स्वार्थ, दस्
ु साहस और
अपचार नहीं तो और क्या है ? भला यह एक उत्तम मनुष्य का लक्षण कैसे हो सकता है ? एक
अच्छे कार्य को साधने के लिए बुरा मार्ग अपनाना सही है ? दिव्य शक्तियाँ उसे सौंपकर दे वनाथ
ने क्या पक्षपात नहीं दिखाया? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे
सिर के टुकड़े -टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “सहदे व के भाई रमानाथ को बलराज अपने स्वार्थ के लिए उपयोग में ले
आया। रमानाथ को सन्मार्ग पर ले आया जाए तो उसके और उसके दष्ु ट दोस्तों के खेल को
खत्म किया जा सकता है । अपने भाई को सन्मार्ग पर ले आना उत्तम कार्य है । उसने मुकुट की
चोरी नहीं की। उसे अपने भाई के सिर पर रखकर, फिर से यथावत ् उसी स्थान पर रखने का
उसका आशय था। इसी उद्देश्य से वह मंदिर में गया और बलराज के षडयंत्र का शिकार बना।
फिर भी उसे इस बात पर विश्वास था कि रहस्य खोलने पर गाँव का अमंगल होगा। दोषी न
होते हुए भी वह दं ड भुगतने के लिए सन्नद्ध हो गया। यह उसके निस्वार्थ तथा त्याग गुण का
परिचायक है । अच्छे -बुरे कार्य का निर्णायक होता है , मन का उद्देश्य, न कि वह काम, जो उसे
करता है । इसलिए सहदे व की चर्या में दै व अपचार है ही नहीं। योगी दे वनाथ यह संपूर्ण रूप से
जानते हैं, इसीलिए उन्होंने अपनी शक्तियाँ उसके सुपुर्द कीं। इसमें न ही कोई पक्षपात है , न ही
त्रटि
ु ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल ग़ायब हो गया और शव सहित पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः “वसुंधरा” की रचना)
 
76. योग्य राजा

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पेड़ के पास पुनः गया; पेड़ पर से शव को उतारकर अपने कंधे पर डाल
लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा,
“राजन ्,, अनेक रुकावटों का सामना साहसपर्वू क करते हुए तम ु अथक परिश्रम कर रहे हो।
अपने हठ पर डटे हुए हो। तुम्हारी कितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है । विशेष रूप से तम्
ु हें यह
बताने की आवश्यकता नहीं है कि शासक में आग्रह के साथ-साथ शौर्य-पराक्रम का होना भी
बहुत ही जरूरी है । परं त,ु कुछ लोगों के पक्षपातपर्ण
ू दृष्टिकोण तथा योग्यता को सही ढं ग से
आंक सकने की असमर्थता के कारण वे बड़ी से बड़ी त्रटि ु याँ कर बैठते हैं और असली पराक्रमियों
को वे पहचान नहीं पाते, जिसकी वजह से उन्हें हानि पहुँचती है । तम्
ु हें सावधान करने के लिए
मैं एक ऐसे गरु
ु की कहानी सन ु ाने जा रहा हूँ, जिसका व्यवहार पक्षपातपर्ण
ू था, इसलिए सही
पराक्रमी को पहचानने में असफल साबित हुआ।” फिर वेताल उस गरु ु की कहानी यों सन
ु ाने
लगाः

राजा सुदक्षण सुसंपन्न सुप्रतीक राज्य का शासक था। उसके शासन काल में प्रजा सुखी थी।
उनका जीवन प्रशांत था। परं तु, दख
ु की बात तो यह थी कि पचास साल की उम्र के बाद भी
उनकी कोई संतान नहीं हुई। इसी को लेकर वे सदा चिंताग्रस्त रहते थे।
 
राजा ने एक दिन मंत्री गंगाधर को बुलवाया और कहा, “मंत्रिवर, राज्य तो वीरभोज्य है । मेरे
बाद शासन की बागडोर को संभालनेवाला योग्य वारिस न हो तो अड़ोस-पड़ोस के राज्यों के
राजा मेरे राज्य पर अवश्य ही आक्रमण कर बैठेंगे। मेरे राज्य को अपने अधीन करने का हर
प्रकार का प्रयत्न करें गे। मेरी असमर्थता का वे फ़ायदा उठायेंगे। यह सवाल हमेशा मुझे अशांत
करता रहता है कि मेरे बाद कौन मेरी प्रजा को सुख-शांति से रख पायेगा? महारानी ने सलाह दी
है कि अपने बंधु बांधवों में से किसी को दत्तक पुत्र बना लँ ू और राज्य का भार उसे सौंप दँ ।ू
किन्तु यह सलाह मुझे समुचित नहीं लग रही है । मेरी समझ में नहीं आता कि योग्य वारिस को
कैसे चुनँू ?” गहरी सांस लेते हुए राजा ने कहा।
 
मंत्री ने थोड़ी दे र तक सोचने के बाद कहा, “महाराज, आपका दख
ु , आपकी वेदना सहे तक
ु है ।
अवश्य ही इसपर गंभीरता के साथ सोचना चाहिये। मझ
ु े एक उपाय सझ
ू ता है ।”
 
राजा ने पूछा कि वह उपाय क्या है ?
 
“हरित वन के गुरु विद्यासागर के गुरुकुल के बारे में आप बखूबी जानते ही हैं। वहाँ कितने ही
पराक्रमी क्षत्रिय यव
ु क विद्याभ्यास करते रहते हैं। अच्छा यही होगा कि हम उस गरु
ु कुल में
जाएँ और गरुु विद्यासागर की सहायता माँगें।” मंत्री गंगाधर ने कहा।
 
दसू रे दिन मंत्री को लेकर राजा विद्यासागर के गुरुकुल में गये और उन्हें सविस्तार विषय
बताया।
 
गरु
ु ने उनका आदर-सत्कार करने के बाद कहा, “राजन ्, अच्छा हुआ, आप सही समय पर
आये। विजयदशमी त्योहार के दौरान गरु
ु कुल में आज से लेकर तीन दिनों तक प्रतिभा की
प्रतियोगिताएँ होंगी। आप स्वयं इन प्रतियोगिताओं को दे खकर निर्णय ले सकेंगे।”

तीन दिनों तक जो प्रतियोगिताएँ चलीं, उनमें धनुर्विद्या में प्रताप, खड्ग युद्ध में प्रचंड, मल्ल
यद्ध
ु में प्रशांत प्रथम आये। वे तीनों शेष विद्याओं में भी समान साबित हुए।
 
राजा सोच में पड़ गये कि इन तीनों में से किसे अपना वारिस बनाऊँ। तब गरु ु ने कहा, “इन
तीनों के लिए एक और परीक्षा लेने का मेरा विचार है । अब आप राजधानी लौटिये। जैसे ही
समाचार दँ गू ा, यहाँ आ जाइये। आशा है , आपकी इच्छा परू ी होगी।”
 
राजा मंत्री सहित राजधानी लौटे । उसी दिन तीनों शिष्यों को बल ु ाकर गुरु ने उनसे कहा,
“दे शाटन करके प्रत्यक्ष रूप से लोकज्ञान की प्राप्ति के बाद ही तुम तीनों का विद्याभ्यास
समाप्त होगा। तम
ु तीनों अलग-अलग तीन दिशाओं में , दे शाटन करना और चालीसवें दिन
गुरुकुल में पहुँच जाना। फिर अपने-अपने अनुभवों का विवरण दे ना।”
 
तीनों युवक दस ू रे दिन प्रातःकाल ही गुरु का आशीर्वाद लेकर निकल पड़े। राज्य के विविध
प्रदे शों में पर्यटन किया और गुरु की आज्ञा के अनुसार चालीसवें दिन गुरुकुल पहुँचे। उस समय
राजा और मंत्री भी वहीं मौजूद थे।
 
“तमु तीनों दे शाटन करके सही समय पर सकुशल पहुँचे, इसे दे खकर मुझे बहुत ही खश ु ी हुई।
तुमने जो विशिष्टताएँ दे खीं, जिन अनुभवों से गुज़रे , उनका ब्योरा एक-एक करके दे ना”, गुरु ने
कहा।
 
पहले धनुर्विद्या प्रवीण प्रताप ने कहा, “मैं उत्तर दिशा में गया और मेरी यात्रा बिना किसी
कठिनाई के पूरी हुई। राज्य में सब जगह अमन चैन है । प्रजा सुखी और सन्तुष्ट है । किन्तु, मैंने
राज्य की सरहद के जंगल में दे खा कि वहाँ कुछ युवक मारण आयुधों का प्रयोग, छिपकर
प्रत्यर्थी पर हमला करना जैसी विद्याओं में प्रशिक्षण पा रहे हैं। मैंने यह भी जाना कि वे पड़ोसी
राज्य पुष्कलपुर के वासी हैं। चँ कि
ू उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली, ग़रीबी में पल रहे हैं, इसलिए वे
बहुत ही निराश हैं। उनकी एकमात्र इच्छा है , हमारे राज्य की सरहदों में वहाँ की प्रजा की संपदा
को लूटना। मैंने छिपकर अधेड़ उम्र के उस व्यक्ति को बाण चलाकर मार डाला, जो इन युवकों
को प्रशिक्षित कर रहा था। मझ
ु े लगा कि अवश्य ही राजा का ध्यान इस ओर खींचँ ।ू अब मैंने
आपसे यह विषय बताकर अपना कर्तव्य परू ा किया।”

“दक्षिण दिशा में मैं गया और राज्य की सरहद पर के कुग्रामों से होते हुए मैंने यात्रा की। जानने
में आया कि वहाँ चोर-लुटेरे लोगों को सता रहे हैं, उनकी संपदा को बेरोकटोक लूट रहे हैं। वहॉ ं
की प्रजा भयभीत है । लोग हमेशा डरते रहते हैं। अन्धेरा होते ही वे दरवाजे लगाकर घरों में बन्द
हो जाते हैं। युवकों में उनका सामना करने का साहस नहीं है । इसका कारण है , रक्षा व्यवस्था में
कमियाँ। एक गाँव से होते हुए जब मैं जा रहा था तो एक लुटेरे का मैंने सामना किया और
तलवार चलाकर उसे भगाया। इसके बाद, मैंने वहाँ के युवकों को इकठ्ठा किया और उन्हें खड्ग
युद्ध सिखाया। अब वे लुटेरों का सामना करने के लिए सन्नद्ध हैं। मार्ग में मैंने एक चीते को भी
मार डाला, जो मुझपर टूट पड़ा था। उसका चर्म भी आपको भें ट में दे ने के लिए ले आया हूँ।
स्वीकार कीजिये।” प्रचंड ने कहा।
 
“मैं पूर्वी दिशा में गया और मेरी यात्रा लगभग शान्तिपूर्ण रही। क्षत्रिय विद्याओं को प्रदर्शित
करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। पंद्रह दिनों की यात्रा के बाद मैं सुप्रसिद्ध सिंधुभैरवी नगर
पहुँचा। वहाँ के प्राचीन करिबरद मंदिर में मैंने एक विचित्र दृश्य दे खा। अद्भत
ु शिल्पों से भरे उस
मंदिर के एक स्तंभ में नक्काशी की गयी एक नर्तकी के शिल्प के पीछे एक छिपकली फंस
गयी। बाहर न आ पाने के कारण बेचारी छटपटा रही थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि
क्या करूँ । थोड़ी दे र बाद दो छिपकलियाँ अपने मँह
ु ों में आहार भरकर ले आयीं और उस
छिपकली को खिलाया। इस दृश्य ने मुझे विस्मय में डाल दिया। बाद, मैंने मंदिर के निर्वाहकों
को यह विषय बताया। उन्होंने शिल्पकारों को बुलवाकर छिपकली की जान बचायी।

“लौटते समय, जब मैं विश्रांति अरण्य से होते हुए गज़


ु र रहा था तो मैंने दे खा कि एक कुएँ में
हाथी का एक बच्चा गिर गया है । उसे बचाने का कोई उपाय न जानने की वजह से बाकी हाथी
उस कुएँ के चारों ओर घम
ू ने लगे और रोदन करने लगे। मैंने पास ही के भीलों के गाँववालों को
यह समाचार बताया। उनकी सहायता से हाथी के बच्चे को कुएँ से बाहर निकाला। छिपकलियों
और हाथियों के बीच जो प्रेम व एकता है , वे मनष्ु यों में पाये नहीं जाते, मैंने भीलों को यह
समझाया और ज़ोर दे कर कहा कि आपस में लड़ना-झगड़ना अच्छा नहीं है । क्योंकि मैं जानता
था कि अ़क्सर छोटी सी बात को भी लेकर उनके वर्गों के बीच झगड़े होते रहते हैं। उनके बीच
स्नेह-पूरित संबंधों की स्थापना भी की।” प्रशांत ने अपने अनुभव बताये।
 
राजा और मंत्री ने आपस में चर्चा की और इस नतीजे पर पहुँचे कि प्रताप और प्रचंड में राजा का
वारिस बनने की योग्यता है क्योंकि वे दोनों साहसी और पराक्रमी हैं। उन्होंने गुरु की राय
जानने के लिए उनकी ओर दे खा।
 
“राजा, मेरी दृष्टि में आपका वारिस बनने की पूरी योग्यता प्रशांत में है । वह एक वीर योद्धा होने
के साथ शान्त, गम्भीर, विवकेशील और सहृदय भी है । ठीक मौके पर अपनी वीरता का प्रदर्शन
करना भी वह जानता है । उसके शासन-काल में सप्र
ु तीक की प्रजा सख
ु ी और शान्तिपर्ण
ू जीवन
बिता सकती है ”, गरु
ु विद्यासागर ने अपना अभिप्राय बताया।
 
यह सुनते ही राजा चौंक पड़े। पर तुरंत अपने को संभालते हुए कहा, “आपके अभिप्राय को
आज्ञा मानकर हम स्वीकार करते हैं।”
 
वेताल ने कहानी कह चक
ु ने के बाद कहा, “राजन ्, राजा के लिए प्रधान है , शौर्य। अपने अनभ
ु व
के आधार पर राजा सद
ु क्षण इस सत्य को जानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले ही कहा, ?राज्य
वीर भोज्य' है । ऐसे राजा ने यह कैसे मान लिया कि दष्ु ट लोगों को मार डालने में पराक्रम
प्रदर्शित करनेवाले प्रताप और प्रचंड जैसे योद्धा राजा के वारिस बनने के योग्य नहीं हैं बल्कि वह
प्रशांत वारिस बनने के लायक है , जिसने केवल जंतुओं के प्रति प्रेम दिखाया। गुरु विद्यासागर
के अभिप्राय को स्वीकार करके क्या उन्होंने राज्य के भविष्य को ख़तरे में नहीं डाल दिया? क्या
यह उचित है ? गुरु ने ऐसी सलाह दे कर क्या पक्षपात भरी बुद्धि नहीं दर्शायी? मेरे इन संदेहों के
समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।”
 

विक्रमार्क ने कहा, “मानता हूँ कि राजा के लिए शौर्य, पराक्रम आवश्यक है , इसमें रत्ती भर भी
संदेह नहीं। परं तु, उनके साथ-साथ मानवता व प्रेम उसी मात्रा में आवश्यक है । प्रशांत में
विपत्ति में फंसे प्राणियों की सहायता पहुँचाने की तड़प है । ऐसी सहायता पहुँचाने के लिए लोगों
को इकठ्ठा करने की उसमें प्रवीणता भी है । हर प्राणी को प्रेम से दे ख सकने की प्रवत्ति
ृ भरी पड़ी
है , प्रशांत में । अगर वह राजा बने तो प्रजा को सगी संतान की तरह समझेगा और शासन
चलायेगा। गुरु विद्यासागर से उसने शस्त्र विद्याएँ सीखीं और मल्लयुद्ध में प्रथम आया।
इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि प्रशांत में पराक्रम नहीं है । ऐसे शक्तिवान में मानवता व
जनता को एक करने की क्षमता है । अतः बाकी दोनों का शौर्य - पराक्रम प्रजा के सख
ु -संतोष के
लिए, उनके क्षेम के लिए किसी शांत-चित्त और स्थिर बद्धि
ु वाले राजा के निर्देशन में उपयोग में
लाया जा सकता है । एक योग्य राजा में शौर्य के साथ सहृदयता का होना आवश्यक है । इन सभी
बातों पर खब
ू सोच-विचारने के बाद ही गरु
ु ने प्रशांत को राजा का वारिस चन
ु ा और शासक
बनने के योग्य माना। इसमें रत्ती भर भी पक्षपात बद्धि
ु नहीं है । राजा ने इस सत्य को जाना,
इसीलिए उन्होंने इसके लिए अपनी सहमति दी।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः पद्मलता गार्गी की रचना)
 
77. दलपति की कहानी

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे पर
डाल लिया। फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, इतने लंबे अर्से के बाद भी मैं तुम्हारे लक्ष्य को समझ नहीं पाया। कड़ी
मेहनत कर रहे हो, जान जोखिम में डाल रहे हो, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अपने हित के लिए
अगर तुम यह सब कुछ कर रहे हो तो इसे न्यायसंगत मानँग
ू ा। परं तु स्पष्ट मालूम हो रहा है
ु इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो। परं तु हॉ,ं अपने प्रयासों में
कि किसी और के हित के लिए तम
तुम सफलता पाना चाहते हो तो तम
ु आँख मूंदकर दलपति नामक एक युवक का अनुसरण
करो। वह अव्वल दर्जे का कपटी, धोखेबाज और वाक् चतुर है । पर तुममें इन गुणों का अभाव
है । इन गुणों के होने पर ही तुम सफल हो पाओगे। उसकी कहानी मुझसे सुनो।” फिर वेताल
दलपति की कहानी यों सुनाने लगाः

लक्ष्मीपरु नामक गॉवं के समीप ही एक छोटा सा जंगल था। लोगों का कहना था कि उसमें भत
ू -
प्रेत रहते हैं। जंगल की हर भत
ू नी हरे रं ग की साड़ी पहनती थी और दो जटाओं से सस
ु ज्जित
होकर यव ु ती के रूप में घम
ू ती-फिरती रहती थी।
 
लक्ष्मीपुर से थोड़ी दरू ी पर कामापुर नामक एक गाँव था। वहाँ गजपति नामक एक व्यसनी था।
जूए में उसने सब कुछ खो दिया। कितने ही लोगों को उसे कर्ज चुकाना था। तंग आकर आखिर
उन सब ने गजपति को चेतावनी दी कि निश्चित तारीख़ के अन्दर अगर उनकी रक़म लौटायी
नहीं गयी तो वे न्यायाधिकारी से कड़ी सजा दिलवायेंगे। भय के मारे गजपति लक्ष्मीपुर आ
गया। वहाँ किसी ने उससे कहा कि जंगल में सोना है और वहाँ जाकर अपना भाग्य आजमाओ।
वह उस छोटे से जंगल में गया और घूमते-घूमते थक कर एक पेड़ के नीचे आराम करने लगा।
 
थोड़ी दे र बाद किसी की ज़ोर की चिल्लाहट सुनकर उस तरफ़ वह गया तो वहाँ उसे एक घर
दिखायी पड़ा। दरवाज़ा खुला था। वहाँ एक युवक ज़मीन पर पड़ा हुआ था। उसके पास हरे रं ग
की साड़ी में एक युवती बैठी थी।
 
गजपति को यह मालूम नहीं था कि इस जंगल में भूत हैं। वहाँ ऐसी सुंदर युवती को दे खकर
आश्र्चर्य-भरे स्वर में उसने पूछा, “क्या हुआ?” “घर के बाहर खड़े होकर इसने पानी मांगा। मैंने
उसे अंदर बल
ु ाया। अंदर आते ही मुझे दे खकर बेहोश हो गया।” युवती ने कहा।
 
उस युवती की कंठ ध्वनि बड़ी ही कर्क श थी। उसकी बातें सुनकर गजपति एकदम घबरा गया
और बोला, “तम् ु हारी कर्क श कंठ ध्वनि सन
ु कर कौन नहीं घबरायेगा?”
 
“हाँ, तुमने ठीक ही कहा। तुम एकमात्र वह युवक हो, जिसने साहस के साथ मुझसे बातें कीं।
इसे होश में ले आओ और इससे बातें करते रहो। इतने में मैं तम
ु दोनों के लिए भोजन ले
आऊँगी।” कहती हुई वह बग़ल के कमरे में गयी।

गजपति उस यव
ु क के पास बैठ गया और उसके मँह
ु पर पानी छिड़का। वह उसे ढ़ाढ़स बंधाते
हुए कहने लगा, “अब आँखें खोलो। मैं हूँ ना, तम
ु डरो मत।”
 
युवक ने आँखें खोलीं और कमज़ोर स्वर में पीने के लिए पानी माँगा।
 
गजपति ने उसे पीने का पानी दिया और कहा, “एक लड़की को दे खकर डर गये और बेहोश हो
गये। इतना डरपोक हो तो जंगल में आने की क्या ज़रूरत थी?”
 
युवक ने बताया कि उसका नाम चलपति है । फिर कहा, “यह कोई साधारण लड़की नहीं है ।
भूतनी है , इसीलिए मैं डर गया। मैं लक्ष्मीपुर का निवासी हूँ। मुझे मालूम है कि इस जंगल में
भूत-प्रेत हैं।”
 
चलपति ने कारण बताते हुए कहा, “मेरी माँ अचानक सख्त बीमार पड़ गयी। वैद्य ने कहा कि
इसका इलाज काले आम से ही हो सकता है , जिसे खाने पर सब रोग दरू हो जाते हैं। मझ
ु े मालम

था कि यह काला आम सिरिपुर में ही उपलब्ध है । मुझे यह भी मालूम था कि वहाँ पहुँचने के
लिए इस जंगल से गुज़रना पड़ता है और यहाँ भूत-प्रेत हैं। मैं भूत-प्रेतों से बेहद डरता हूँ। डर था,
फिर भी इस घर के पास आयाऔर पानी मांगा। अंदर से आवाज़ आयी, ?यहाँ पानी की कोई
कमी नहीं। अंदर आओ और जितना पानी चाहते हो, पी जाओ।' वह बूढ़े की आवाज़ सी लग रही
थी। अंदर आया तो हरे रं ग की साड़ी में दो जटाओं वाली एक युवती दिखायी पड़ी। मैं समझ
गया कि वह भूतनी है । बस, डर के मारे बेहोश हो गया। मुझे बचाओ और यहाँ से ले चलो।”
चलपति गिडगिडाया।
 
जैसे ही गजपति को मालूम हुआ कि जिस युवती से उसने बातें कीं, वह भूतनी है , तो डर के मारे
वह भी थरथर कांपने लगा। तब हरे रं ग की साड़ी पहनी वह यव
ु ती आयी। उसके हाथ में एक
थाली थी और उसमें पकवान थे। वह मस्
ु कुराती हुई बोली, “तो आप दोनों का मानना है कि मैं
भत
ू नी हूँ और आपके लिए मैं अब नरमांस ले आयी हूँ।” गजपति और चलपति ज़ोर से
चिल्लाते हुए बेहोश हो गये।

पास ही के मार्ग से गुज़रते हुए दलपति नामक युवक ने उनकी यह चिल्लाहट सुनी। वह
सिरिपुर गांव का निवासी था। उषा नामक एक लड़की से उसका प्रेम था। उषा के माँ-बाप इस
बात पर अड़े हुए थे कि हज़ार अशर्फि याँ दे ने पर ही उसकी शादी उनकी बेटी से होगी। दलपति के
पास इतना धन नहीं था। वह ज्योतिष में विश्वास रखता था, इसलिए यह जानने के लिए कि
उसकी शादी उषा से होगी या नहीं, वह ज्योतिषी से मिला।
 
ज्योतिषी ने, दलपति की जन्म-कंु डली दे खकर कहा, “जिस लड़की से तम
ु प्रेम करते हो, उससे
तुम्हारे विवाह के होने की संभावना है । आज ही जंगल के मार्ग से होते हुए लक्ष्मीपुर जाओ। वहाँ
के राम के मंदिर में पूजा करो। सफ़र के दौरान किसी बीमारी से पीडित हो जाओगे तो सब रोगों
को दरू करनेवाला एक काला आम खा लेना। अपने साथ कुछ काले आम भी ले जाना। लोगों का
कहना है कि उस जंगल में भूल-प्रेत हैं। क्या तमु वहाँ जाने का साहस कर सकते हो?”
 
“मैं जन्म-कंु डली पर विश्वास रखता हूँ। भत ू -प्रेत पर विश्वास नहीं रखता,” दलपति ने उत्साह
के साथ कहा।
 
इसके बाद, दलपति ने अपने घर के पिछवाडे के आम के पेड़ से कुछ काले आम तोड़े और थैली
में डाल लिये। लक्ष्मीपुर जाने केलिए निकलकर जंगल में प्रवेश किया। तभी उसे गजपति और
चलपति की चिल्लाहटें सुनायी पडीं।
 
चकित दलपति उस घर की ओर गया, जहाँ से ये चिल्लाहटें आयीं। अंदर जाने के बाद उसने
दे खा कि दो युवक वहाँ बेहोश गिरे पड़े हैं और उनके बगल में हरे रं ग की साड़ी पहनी एक युवती
बैठी है । उसकी सुंदरता को दे खकर वह सन्न रह गया और उससे पूछा, “कौन हो तम ु ?”
 
“मैं खुद नहीं जानती कि मैं कौन हूँ। इन दोनों युवकों ने मुझे भूतनी समझ रखा है । हो सकता
है , यह सच हो।” उस युवती ने कहा।
 
दलपति ने उसे संदेह-भरी दृष्टि से दे खा और कहा, “भूत-प्रेत होते ही नहीं। तुम मानव हो, पर
तुम किसी रोग के शिकार हो। इसी कारण तम
ु अपना भूत भूल गयी। तुम्हारा कंठ स्वर भी
कर्क श स्वर में बदल गया। मेरे पास काला आम है । उसे खाने से सब रोग दरू हो जाते हैं। वह
अचूक दवा है । इसे खाओगी तो तुम्हें गुज़रे दिन याद आ जाएँगे।”

वह घबराती हुई बोली, “मैं बीमार नहीं हूँ। काला आम खाना मेरे लिए निषिद्ध है । इन दोनों को
लेकर तम
ु यहाँ से फौरन चले जाओ।” “मैं यह विश्वास नहीं करता कि तम ु भत ू नी हो। तमु से
यह काला आम खिलवाकर ही मैं यहाँ से जाऊँगा।” कहते हुए उसने थैली में से एक आम
निकाला।
 
उसे दे खते ही वह घबराती हुई बोली, “अंदर के कमरे में सोने की अशर्फि याँ थैलियों में भरी पड़ी
हैं। जितना सोना चाहते हो, ले जाना।”
 
दलपति ने थैली में से आम का फल जैसे ही निकाला, वह चिल्लाती हुई बग़ल के कमरे की ओर
भाग गयी। दलपति उसके पीछे -पीछे कमरे में गया, पर वह वहाँ नहीं थी, परं तु उसके कहे
अनसु ार वहाँ अशर्फि यों से भरी कई थैलियॉ ं थीं।
 
दलपति कमरे से बाहर आया और गजपति, चलपति के चेहरों पर पानी छिड़का। थोड़ी ही दे र में
वे होश में आये और बैठ गये। उसने उनसे अपने बारे में विशद रूप से बताया और उनके बारे में
भी जानकारी प्राप्त की।
 
जैसे ही चलपति को मालम ू हुआ कि दलपति के पास आम हैं तो वह बहुत खश
ु हुआ। उसने एक
फल दलपति से लिया और कहा, “तमु बड़े साहसी हो। भत
ू नी को भी भगा दिया।”
 
दलपति ने जब विश्वास के साथ कहा कि वह भूतनी नहीं है तो गजपति ने सवाल किया, “तो
हरे रं ग की साड़ी पहनी वह युवती यहाँ क्यों है ? वह कैसे ग़ायब हो गयी?”
 
“सन ु ने में आया कि अवंती के राजा जब यद्ध
ु में हार गये, तबसे उनके वारिस इस जंगल में रहते
रहे हैं। वे नहीं चाहते कि किसी को यह राज़ मालम
ू हो। हो सकता है , वह कन्या अवंती राजा की
पत्र
ु ी हो। लोगों को दरू रखने के लिए अपने को भत
ू नी कहकर शायद प्रचार कर रही हो।”
दलपति ने कहा।
 
“हमारे विश्वास तुम्हारे विश्र्वासों से भिन्न हैं। तुम्हीं बताओ कि अब हम क्या करें ?” गजपति
और चलपति ने पूछा।
 
दलपति के कहे अनस
ु ार तीनों ने सोने की अशर्फि यों की एक-एक थैली ले ली। उन्होंने निर्णय
भी कर लिया कि यह रहस्य किसी और को मालूम न हो। वहां से निकलने के बाद गजपति सीधे
कामापुर चला गया।

जब चलपति और दलपति लक्ष्मीपुर पहुँचे तब गाँव के लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनसे
जंगल के भूत-प्रेतों के बारे में अनेक सवाल किये। दलपति ने उनसे कहा, “वे भूत-प्रेत बड़े
ख़तरनाक हैं। मैं इसके बाद उस जंगल से होते हुए नहीं, दस
ू रे रास्ते से सिरिपुर चला जाऊँगा।”

वेताल ने कहानी सुना चुकने के बाद विक्रमार्क से पूछा, “राजन ्, जब से दलपति, जंगल में
गजपति और चलपति से मिला, तब से लेकर उसके व्यवहार में कपट ही कपट दीखता है ।
लगता है कि वह दस
ू रों को धोखा दे ने में माहिर है । उसने उन दोनों से कहा कि भत
ू -प्रेत हैं ही
नहीं। पर ग्रामीणों से उसने कहा कि वहाँ बहुत खतरनाक भत
ू -प्रेत हैं। क्या यह कपट, दग़ाबाजी
नहीं है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चप
ु रह जाओगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-
टुकड़े हो जायेंगे।”
विक्रमार्क ने कहा, “किसी भी व्यक्ति में जन्म से ही अलौकिक शक्तियाँ होती हैं, ऐसा कोई
नहीं सोचता। ये सारे के सारे विश्वास उनके माता-पिताओं, पडोसियों की बातों से पैदा होते हैं।
लगता है कि दलपति पर ऐसी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह ऐसे विश्वासों से परे है ।
चलपति को विश्वास था कि जंगल में भत
ू -प्रेत हैं, इसीलिए हरे रं ग की साडी में यव
ु ती को दे खते
ही वह बेहोश हो गया। पर गजपति से जब यव
ु ती ने कहा कि मैं भत
ू नी हूँ, तो वह होश खो बैठा।
परं तु दलपति ऐसे विश्वासों के दरू था, इसलिए उसने उसे साधारण यव
ु ती ही समझा। उसी
अनरू
ु प उसका व्यवहार भी रहा। गांववालों से उसने कहा अवश्य कि उस जंगल के भत
ू -प्रेत
बहुत ख़तरनाक हैं। इसके पीछे एक कारण था । उसको इस बात पर विश्वास था कि अवंती राज
परिवार के सदस्य वहाँ रहकर अज्ञात जीवन बिता रहे हैं। वह नहीं चाहता था कि यह राज़ खुले
और वे कहीं ख़तरे में फंस जाएँ । उसकी इस सोच के पीछे एक अच्छा उद्देश्य है । अतः यह
समझना ग़लत है कि दलपति कपटी व धोखेबाज है । यह समझना भी ग़लत है कि वह वाक्
चतुर है ।”

राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।

(तुलसी की रचना)
78. अपस्वर ब्रह्म

 
धनु का पक्का विक्रमार्क फिर से पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे
पर डाल लिया। फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, तुम्हारा हठ दे खते हुए अत्यंत आश्र्चर्य होता है । किसी दिन तुम जान
जाओगे कि जिस लक्ष्य से प्रेरित होकर तुमने यह कार्य-भार अपने ऊपर लिया है , उसकी पूर्ति
असंभव है और तुम्हें कदापि सफलता नहीं मिलेगी । शिव शास्त्री के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह
उच्च कोटि का संगीत विद्वान था। शिष्यों के चयन के विषय में वह किसी भी स्थिति में
स्थापित अपने नियमों का उल्लंघन करता नहीं था। पर अंत में उसे अपनी हार माननी पड़ी
और एक अयोग्य को अपना शिष्य बनाया। उसकी कहानी सुनो।” फिर वह शिवशास्त्री की
कहानी यों सुनाने लगाः

शिवशास्त्री उच्च कोटि का संगीत विद्वान था। वह स्वरब्रह्म की उपाधि से विभषि


ू त था। लोगों
का यह मानना था कि संगीत जितना भी सीखो, उनके शिष्य हुए बिना संगीत में परिपर्ण ू ता
साधी नहीं जा सकती। परं तु शिवशास्त्री हर किसी को संगीत सिखाता नहीं था। जो संगीत प्रेमी
उसके पास आते थे, वह गणेश चतर्थी
ु के दिन उनकी परीक्षा लेता था और उनमें से किसी एक
ही को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करता था।
 
एक बार गणेश चतुर्थी के दिन मुकंु द और गोविंद नामक दो शिष्य चुने गये। उन दोनों में से
किसी एक को चुनना शिवशास्त्री के लिए गंभीर समस्या बन गयी, क्योंकि दोनों का ज्ञान और
क्षमता एक समान थे। इसलिए शिवशास्त्री ने कहा, “दो दिनों के बाद एक और परीक्षा लँ ग
ू ा
और निर्णय करूँगा कि किसे शिष्य बनाऊँ।”
 
तब से गोविंद गुरु की प्रशंसा पाने के लिए दिन-रात साधना करने लगा। पर मुकंु द गुरु की
पत्नी से मिला और कहा, “माँ जी, संगीत सीखने के साथ-साथ पार्वती-परमेश्वर जैसे आप
दं पति की सेवा करने की मेरी तीव्र इच्छा है । परीक्षा में गुरु मुझे अपना शिष्य बनायें, इसके
लिए कोई उपाय सुझाइये।”
 
गुरु पत्नी को उस पर दया आ गई। उसने कहा, “तुम्हारे गुरु योग्यता को ऊँचा स्थान दे ते हैं।
किसी और प्रकार से वे उसे अपना शिष्य नहीं बनाते। संगीत के लिए मुख्य है , मधुर कंठ स्वर।
इस गाँव में सहदे व नामक एक वैद्य है , जिसके पास इसके लिए महत्वपूर्ण दवा है । उस दवा का
सेवन करने पर कंठ स्वर बहुत बड़ी मात्रा में मधरु बन जायेगा।” गरु
ु पत्नी ने उपाय सझ
ु ाया।
 
मुकंु द, सहदे व से मिला। थोड़ी दे र सोचने के बाद सहदे व ने कहा, “मेरे पास जो दवा है , वह द्राव
के रूप में है । इसका आवश्यकता से अधिक सेवन करने से स्वर बेसुरा हो जाता है ।” कहते हुए
सहदे व ने मुकंु द को सावधान किया।
 
“स्वर को सरु ीला बनाने का काम बहुत आसान है । बताइये, इस दवा की क्या क़ीमत है ?” मक
ु ंु द
ने पछ
ू ा।

सहदे व हँस पड़ा और बोला, “कितने ही ऐसे लोग हैं, जिन्होंने मेरी दवा का सेवन किया, पर वे
अपने अपस्वरों को ठीक नहीं कर सके । तुम अपने कंठ स्वर को दवाओं से नहीं, बल्कि साधना
के द्वारा श्रव्य बनाओगे तो उत्तम होगा।”
 
मकु ंु द ने उसकी सलाह को मानने से इनकार कर दिया और मांगी रक़म दे कर दवा ले गया।
उसने वह थोड़ा-सा ही पिया कि नहीं, पहले से उसका कंठ स्वर अच्छा हो गया। इसपर खश

होकर उसने और द्राव पी लिया जिससे उसका कंठ स्वर इतोधिक श्रव्य हो गया।
 
परीक्षा का दिन आ ही गया। पहले गोविंद ने गाकर गुरु की प्रशंसा पायी। इसके बाद मुकंु द ने
गाना शुरू किया। उसके स्वर की मधुरता पर शिवशास्त्री बेहद खश
ु हुआ और बोला, “शाबाश,
आज तुम्हारा गाना सुनकर धन्य हो गया।”
 
मकु ंु द उत्साह परि
ू त होकर आलापन के बाद जब चरण गाने लगा, तब उसमें से अपस्वर
निकलने लगे। शिवशास्त्री ने उससे गाना रोकने को कहा और कहा, “अपने कंठ को श्रव्य में
बदलने के लिए तुमने सहदे व की दवा का सेवन किया। तुम्हारा कंठ श्रव्य तो हुआ अवश्य, पर
यह आवश्यकता से अधिक हो गया। आलापन तक तुम्हारा गाना सुनने योग्य है , पर चरणों को
गाते हुए तुम्हारे स्वर में जो अपस्वर निकल रहे हैं, उन्हें सुना नहीं जा सकता। अच्छा इसी में है
कि तम ु संगीत भुला दो और घर लौट जाओ।”
 
“गुरुवर, माफ़ कर दीजिये। संगीत विद्वान बनने का कोई उपाय आप ही सुझाइये।” मुकंु द,
शिवशास्त्री के पैरों पर गिर पड़ा।
 
शिवशास्त्री ने उसे उठाते हुए कहा, “कहते हैं कि गाते रहने से राग में निखार आता है । तम
ु ऊँचे
सुर में गाते रहो, तो हो सकता है इसका कोई फल हो।”
 
मुकंु द निराश होकर गाँव लौटा। वहाँ वह ऊँचे सुर में गाने लगा तो गाँव के लोगों ने आपत्ति
जतायी। मुकंु द वह गाँव छोड़कर दस
ू रे गाँव में गया। वहाँ के लोग भी उससे तंग आ गये ।
 
तब मुकंु द ने एक जंगल में एक पेड़ के तले बैठ संगीत साधना शुरू कर दी। पर थोड़ी ही दे र में
अपने अपस्वरों को स्वयं सह नहीं पाया। उसने गाना बन्द कर दिया।

दस
ू रे ही क्षण उसे सुनायी पड़ा, “गाना क्यों बंद किया? और गाओ।” मुकंु द उस आवाज़ को
सुनकर चौंक पड़ा । उसने पूछा, “यह कौन बोल रहा है ? सामने आ जाना।”
 
दे खते-दे खते एक पिशाच पेड़ से कूद पड़ा और उसके सामने आया। उसे दे खकर वह थर-थर
कांपने लगा पर पिशाच ने बड़े ही प्यार से उससे कहा, “डरो मत। इस पेड़ पर मेरे साथ और तीन
पिशाच रहते हैं। इनमें से मैं ही बड़ा हूँ। हम अद्भत
ु शक्तियाँ रखते हैं। तम
ु बिना रुके गाते रहोगे
तो हम ध्यान से सन ु ते रहें गे।”
 
मुकंु द में अब साहस आ गया। उसने कहा, “आश्चर्य की बात तो यह है कि जब तक मैंने नहीं
गाया था, तब तक तुम्हें गाने के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी।”
 
“संगीत के बारे में हमें बहुत कुछ मालम ू है । एक जमाने में हम मनष्ु य बनकर नगरों में घम
ू ा
करते थे। संगीत सभाओं में अपस्वरों को सन
ु ना हमारे लिए साधारण बात थी । पर शिवशास्त्री
नामक एक मनष्ु य संगीत का नाश कर रहा है । तम्
ु हारा गाना सन
ु ना हमारे लिए सौभाग्य की
बात है ।” बड़े पिशाच ने कहा।
 
तब से लेकर मुकंु द निरं तर संगीत साधना उन चार पिशाचों के सम्मुख करता रहा। क्रमशः
उसके स्वर में जो अपस्वर फूट पड़ते थे, वे उसे बहुत अच्छे लगने लगे। उसने ठान लिया कि मैं
मनष्ु यों के बीच जाकर शिवशास्त्री के मुकाबले में अपने संगीत का प्रचार करूँगा।
 
उसके इस विचार से पिशाच भी सहमत हुए। मनुष्यों के रूप में उसके साथ जाने के लिए वे भी
तैयार हो गये। निकलने के पहले मुकंु द ने पिशाचों से कहा, “मनुष्यों की अभिरुचियों में
परिवर्तन लाना हो तो हमें उन्हें कुछ समय तक ज़बरदस्ती अपना संगीत सुनाना होगा।
विचित्रताएँ दिखानी होंगी। इसके लिए बड़ी रकम की ज़रूरत पड़ेगी।”
 
बड़े पिशाच ने उत्साह-भरे स्वर में कहा, “धन की तुम चिंता मत करो। बस, बता दो कि कितनी
रक़म और कैसी विचित्रताओं की तुम्हें ज़रूरत है ?”
 
उनकी इन बातों से मुकंु द बेहद खुश हुआ। मनुष्य-रूपधारी पिशाचों को लेकर उसने एक नगर
में प्रवेश किया। वह नगरपालक प्रमोद से मिला। प्रमोद ने उनके ठाठ-बाट को दे खकर उनका
स्वागत-सत्कार किया।
मुकंु द ने प्रमोद से कहा, “इस सष्टि
ृ में कुछ भी व्यर्थ नहीं है । ब्रह्म से लेकर समस्त जीवों के
विषय में भी यह सत्य है । उसी प्रकार सभी स्वरों के विषय में भी यह सत्य है । अब तक लोग
स्वरब्रह्म शिवशास्त्री की संगीत परं परा के अनस
ु ार समझते हैं कि संगीत सस्
ु वर मात्र है ।
 
“अपस्वर मिश्रित अद्भत ु संगीत सुनाने की मेरी क्षमता है । मैं आपको धन दँ ग
ू ा। आप मेरे बारे
में बड़े पैमाने पर प्रचार कीजिये।”
 
धन लेकर प्रमोद ने अपस्वरब्रह्म के बारे में विस्तत
ृ रूप से प्रचार किया। उसके प्रथम प्रदर्शन
पर बड़ी संख्या में लोग आये। मक
ु ंु द के अपस्वरों से भरे कंठस्वर को सन
ु कर उनका मनोरं जन
हुआ। पिशाचों ने भी इस संगीत सभा में उसका साथ दिया। लोगों की भीड़ को आकर्षित करने
के लिए पिशाचों ने विचित्रताओं की भी सष्टि
ृ की।
 
यह प्रदर्शन बहुत लोगों को बड़ा अच्छा लगा। जिन्हें अच्छा नहीं लगा, उन्होंने भी कहा कि यह
परिवर्तन आवश्यक है और अच्छा भी है । वे एक के बाद एक ये प्रदर्शन चलाते रहे और क्रमशः
जनता को भी इसकी आदत पड़ गयी। वे अपस्वर ब्रह्म के संगीत को चाहने लगे और स्वरब्रह्म
की संगीत परं परा से चिढ़ने लगे। दे श के राजा ने मुकंु द का सम्मान बड़े वैभव के साथ किया
और उसे अपस्वरब्रह्म की उपाधि प्रदान की।
 
कुछ संदर्भों में लोगों ने मुकंु द से पूछा भी, “अपस्वरों से लोगों को आकर्षित करनेवाले संगीत
की सष्टि
ृ हो सकती है , यह विचार आपके दिमाग़ में कैसे उभर आया?”
 
मुकंु द जानता था कि उन्हें पूरी सच्चाई बतायी जाए तो वे उसकी हँसी उड़ायेंगे, इसलिए उसने
कहा, “मैं आज इतना बड़ा संगीतकार हूँ, इसका श्रेय स्वरब्रह्म शिवशास्त्री व सहदे व वैद्य को
जाता है । इससे ज्यादा बता नहीं सकता।”
 
इन परिस्थितियों में , शिवशास्त्री का शिष्य गोविंद मुकंु द को ढूँढ़ता आया। उसने कहा, “मुकंु द,
इतने दीर्घ काल के बाद तुम्हारा भाग्य चमक उठा है । गुरुजी तुम्हें संगीत सिखाना चाहते हैं।
तुम्हें लाने के लिए उन्होंने मुझे भेजाहै ।”
 
यह सुनते ही मुकंु द आश्चर्य में डूब गया और कहा, “सचमुच ही यह मेरा सौभाग्य है । आखिर
दे वताओं ने मझ
ु पर करुणा दिखायी। चलो, चलते हैं।” फिर दोनों तरु ं त निकल पड़े।

मानव रूपधारी पिशाचों ने उन्हें रोकते हुए कहा, “मुकंु द, सावधान। तुम्हारा कंठस्वर बदल
दें गे। तुम्हारे यश को मटियामेट कर दें गे। तुम्हें बदनाम कर दें गे।”
 
गोविंद उनकी चेतावनी पर चकित हो ही रहा था कि इतने में मक ु ंु द ने कहा, “छोडो गोविंद, यह
सब कुछ एक विचित्र कथा है ।” यह कह कर वह उसे खींचते हुए आगे बढ़ा।
 
वेताल ने कहानी सुनाने के बाद पूछा, “राजन ्, मुकंु द अपने अपस्वर संगीत के बल पर प्रख्यात
हुआ। पिशाचों ने उसे चेतावनी दी, फिर भी उनकी परवाह किये बिना वह शिवशास्त्री के पास
क्यों गया? अब रही शिवशास्त्री की बात। मुकंु द को अपना शिष्य बनाने से उसने पहले इनकार
कर दिया और उसे घर लौटने की सलाह दी। मुकंु द की ख्याति को दे खकर कहीं उसमें ईर्ष्या तो
पैदा नहीं हो गयी? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के
टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “मक ु ंु द संगीत सीखने की अभिलाषा रखता था । पहले वह इस प्रयत्न में
विफल हुआ। पर संयोगवश पिशाचों के चंगल
ु में फंस गया और अपस्वर ब्रह्म बना। जनता को
आकर्षित करने के लिए उसने सिर्फ संगीत को ही अपना साधन नहीं बनाया, बल्कि पिशाचों
द्वारा दिखायी जा रही विचित्रताएँ भी इस सफलता के कारण थे । ऐसे व्यक्ति को जब अच्छा
संगीत सीखने का अवसर मिलता है , वह उसे हाथ से जाने नहीं दे ता। इसी कारण वह स्वरब्रह्म
शिवशास्त्री के पास सहर्ष गया। उसने पिशाचों की चेतावनी की परवाह नहीं की, क्योंकि वह
जानता था कि अब ये अपस्वर निकल जायेंगे और सुस्वर आ जायेंगे। शिवशास्त्री ने उसे
संगीत सिखाने के लिए बल
ु ाया, इसका भी एक प्रबल कारण है । मुकंु द अपने अपस्वर से
शास्त्रीय-संगीत को भ्रष्ट कर रहा था । वह इससे संगीत को बचाना चाहता था। यह समझना
ग़लत है कि शिवशास्त्री ने ईर्ष्यावश यह काम किया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
-”वसुंधरा” की रचना
 
79. रसराजा रसिक राजा

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया। पेड़ पर से शव को उतारा और अपने कंधे
पर डाल लिया। फिर यथावत ् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, इस भयंकर श्मशान में अपने लक्ष्य को साधने के लिए कठोर परिश्रम
कर रहे हो। क्या कभी तुममें यह संदेह उत्पन्न नहीं हुआ कि यह लक्ष्य पूरा होगा या नहीं? जो
परिश्रम तम
ु कर रहे हो, वह अंततः निरर्थक तो नहीं हो जायेगा? रसराजा नामक कवि के विषय
में वीरांग नामक राजा ने जो व्यवहार किया, वह अर्थहीन लगता है । अपनी थकावट दरू करते
हुए उनकी कहानी मुझसे सुनो।” फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने लगाः

वीरांग सिंधु दे श का शासक था। कविता में उसकी विशेष अभिरुचि थी। अच्छी से अच्छी
कविताएँ सन
ु ने के लिए विजयदशमी के दिन दे श भर के बड़े-बड़े कवियों को अपने यहाँ
निमंत्रित करता था और उनका सम्मान भी करता था। चँ कि
ू अच्छी और बरु ी कविता के फ़र्क
को वह जानता नहीं था इसलिए वह महामंत्री को आदे श दे ता था कि आस्थान के कवियों से
परामर्श करे और निर्णय ले। सम्मानित कवियों की कविताओं को सन
ु ते हुए राजा को लगता था
कि इन कविताओं में कोई ऐसी विशिष्टता नहीं, जिसके लिए उन कवियों की प्रशंसा की जाए।
आस्थान कवि भी उन कविताओं को नीरस, अपरिष्कृत व दिशाहीन ठहराते थे। इसका एक
प्रबल कारण भी था। उनका समझना था कि अगर वे उत्तम कवि घोषित किये जायें तो उन्हें
अपने पद से हाथ धोना पड़ेगा। इसलिए जिन कवियों को वे चुनते थे, उनकी प्रतिभा भी
साधारण होती थी।
 
दो साल के बाद वीरांग ने महामंत्री को बुलाकर कहा, “दिन व दिन हमारे दे श में कविता का
स्तर गिरता जा रहा है । इसका कारण क्या हो सकता है ?”
 
“प्रभु, आपने कितने ही महान काव्यों का अध्ययन किया। हमारे आस्थान कवियों से बढ़कर
कवि आज हमारे दे श में नहीं रहे । आपसे किये जानेवाले सम्मान नयों को ही प्रोत्साहन दे ते हैं,
जो महान कविता को जन्म नहीं दे सकते,” महामंत्री ने कहा।
 
राजा वीरांग सोच में पड़ गया। अंतःपुर में जाने के बाद इसी विषय पर अपनी चिंता व्यक्त
करते हुए राजा ने रानी से कहा, “सारहीन कविताओं को प्रोत्साहन दे ना और उन कवियों का
सम्मान करना व्यर्थ है न?”
 
महारानी ने “न” के भाव में सिर हिलाते हुए कहा, “हज़ार सालों में सूर्य की कांति क्या क्षीण हो
जाती है ? अगर क्षीण भी हो जाए तो क्या हम यह जान पायेंगे? मेरा तो विचार है कि महान
कवि सभी कालों में होते हैं। परं तु उन्हें पहचान सकनेवाले प्रभु कुछ कालों में ही होते हैं।”
 
रानी की बातों पर आश्र्चर्य प्रकट करते हुए राजा ने कहा, “तुम्हारी उपमा स्वयं एक महान
कविता लगती है । मैं अब तक जानता ही नहीं था कि मेरी रानी इतना अच्छा बोल सकती है ,
इतने अच्छे विचार रखती है । अगर मैंने दे श के महान कवियों को नहीं पहचाना तो, ग़लती मेरी
है । पहले मुझे तुम्हारा ही सम्मान करना होगा।”

रानी ने तरु ं त कहा, “प्रभ,ु मेरी बातें अगर आपको महान लग रही हों तो आपको मेरा नहीं, मेरी
परिचारिका नीला का सम्मान करना चाहिये, क्योंकि ये वाक्य उसीके हैं।”
 
वीरांग ने और चकित होते हुए कहा, “मेरे दे श की एक परिचारिका इतने उत्तम भाव प्रकट कर
सकती है , इसकी मुझे बेहद खुशी है । कहो तो सही, किस सिलसिले में उसने ये बातें कहीं।”
 
“दो दिन पहले मैं नीला से बात कर रही थी। उससे कह रही थी कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती जा
रही है , वैसे-वैसे मेरी संद
ु रता क्षीण होती जा रही है । उसने यह मानने से इनकार कर दिया और
कहा कि हज़ार सालों के बाद भी सूर्य का तेज क्षीण नहीं होता, अगर क्षीण भी हो जाए तो हम
जैसे साधारण जनों को यह मालूम नहीं पड़ता।” रानी ने कहा।
 
वीरांग ने परिचारिका नीला को बुलवाया और उसकी खूब प्रशंसा की। वह घबराती हुई बोली,
“प्रभु, कमल जन्म लेता हो तो इसका श्रेय कीचड़ को नहीं जाता। कमल यद्यपि ब्रह्मा का
आसन है , पर वह सष्टि
ृ कर्ता नहीं बन सकता। ब्रह्मा ने वेदांतों की रचना की, पर वे पूजा की
योग्यता नहीं रखते। उसी प्रकार मैंने जो सक्ति
ू यॉ ं बतायीं, वे मेरी नहीं हैं। एक महीने पहले
रसराजा नामक एक महाकवि हमारे नगर में आये और हमारे घर में रह रहे हैं। जो-जो सूक्तियॉ ं
मैंने बतायीं, उन्हीं के मँह
ु से मैंने सुनीं।”
 
इन विवरणों पर आश्चर्य प्रकट करते हुए राजा ने कहा, “वे रसराजा केवल एक महाकवि ही नहीं
हैं, महान पंडित भी लग रहे हैं। उनसे कहना कि मैं तुरंत उनसे मिलना चाहता हूँ।”
 
नीला ने, रसराजा को राजा का संदेश सन ु ाया। उन्होंने हँसकर कहा, ?राजा से बताना कि मझ
ु े
उनका संदेश मिल गया। मेरे कानों को जब चलना आयेगा, तब अवश्य उनसे मिलँ ग
ू ा।”
 
नीला जब यह बात महाराज को बता रही थी, तब महारानी भी वहाँ थी। उसकी समझ में नहीं
आया कि रसराजा कहना क्या चाहते हैं। तब राजा वीरांग ने रानी से कहा, “ऐसा कहने का
उनका मतलब है कि मैं स्वयं उनके पास आऊँ और उन्हें बुलाऊँ।” फिर उसने नीला से कहा,
“उनसे पूछकर बताना कि मैं उनसे कब मिल सकता हूँ।”
नीला ने जब रसराजा से यह बात कही तो उन्होंने कहा, “मैं दिन भर लिखता रहता हूँ। रात में
मेरे पास समय है लेकिन तब मैं लोगों को अपनी कविताएँ सुनाता हूँ । राजा से बताना कि उनसे
मिलने के लिए मेरे पास समय नहीं है ।”
 
नीला की इन बातों को सनु ने के बाद राजा एकदम नाराज़ हो उठा। उसने कटु स्वर में नीला से
कहा, “उनसे बता दो कि कल ही रसराजा को मझ
ु से मिलना होगा।” नीला ने यह भी रसराजा
को बता दिया। थोड़ा भी विचलित हुए बिना उन्होंने कहा, “जिन्हें मैं चाहता हूँ, उनसे मैं मिलता
हूँ। इस विषय में मझ
ु े परू ी स्वतंत्रता है । इसके लिए मझ
ु े सज़ा दी जाए तो यह दष्ु टता है ।”
 
राजा स्तंभित रह गया। नीला कुछ कहते-कहते रुक गयी। वीरांग ने यह भांप लिया और उससे
पूछा, “हम दोनों के बीच में तुम दत
ू का काम कर रही हो। कहीं तुम असुविधा तो महसूस नहीं
कर रही हो?”
 
नीला ने फ़ौरन कहा, “प्रभ,ु ऐसी कोई बात नहीं है । आप रसिक राजा हैं। रात में रसराजा अपनी
कविता सबको सन
ु ाते हैं। उस समय बहुरूपिया बनकर वहाँ आइये और उनकी कविता सनि
ु ये,
बशर्ते आपको सही लगे?”
 
राजा वीरांग को नीला का यह सुझाव सही लगा। वह रात को महारानी से बताये बिना साधारण
नागरिक के वेष में नीला के घर गया।
 
रसराजा के काव्य पठन को दे खते और सुनते हुए वह मंत्रमुग्ध रह गया। उसे लगा कि वे
निस्संदेह ही महाकवि हैं। श्रोता एक-एक करके अपने संदेहों को व्यक्त करते थे और रसराजा
बड़ी ही दक्षता के साथ उनके संदेहों की निवत्ति
ृ करते थे। राजा ने जान लिया कि यह व्यक्ति
असाधारण पंडित भी है । अपने संदेहों को दरू करने के उद्देश्य से राजा खड़ा हो गया, पर उसकी
समझ में नहीं आया कि पहले क्या पूछा जाए।
 
तब रसराजा ने उसकी तरफ़ दे खते हुए कहा, “सत्यान्वेषण के लिए संकोच करना नहीं चाहिये।
अपना संदेह निस्संकोच व्यक्त करो।”
 
“हमारे राजा वीरांग ने उत्तम कवियों के सम्मान की प्रथा शुरू की। आपकी कविता व पांडित्य
असामान्य हैं। फिर भी, आपको राजा का सम्मान उपलब्ध नहीं हुआ। क्या आप इसका कारण
बता सकते हैं?” राजा ने पूछा ।

“राजा ने सोचा होगा कि मेरी कविता और पांडित्य राज सम्मान पाने के योग्य नहीं हैं,”
रसराजा ने कहा।
 
“हमारे राजा ने आपकी कविता सुनी नहीं होगी। आप एक बार राजा से मिलेंगे तो अच्छा
होगा।” वीरांग ने कहा।
 
रसराजा ने हँसते हुए कहा, “सम्मान पाने की इच्छा मुझमें पैदा होती तो अवश्य राजा के पास
जाता और उनसे कहता, “महाराज, मेरा सम्मान कीजिये, पर अब तो राजा ही मेरा सम्मान
करने के लिए उतावले हैं। इसलिए, अच्छा यही होगा कि खुद आयें और अपनी इच्छा प्रकट
करें ।”
 
रसराजा की बातें सन
ु कर वहाँ उपस्थित सब लोग हँस पड़े। वीरांग का चेहरा विवर्ण हो गया।
उसने धीमे स्वर में कहा, “शासक कितने ही कामों में फंसे हुए होते हैं। आप ही का उनके पास
जाना न्यायसंगत और उचित होगा।”
 
“ऐसे व्यस्त राजा कैसे जान पायेंगे कि कौन उत्तम कवि है ?” रसराजा ने पूछा।
 
“यह जिम्मेदारी संभालने के लिए महामंत्री और आस्थान कवि मौजद ू हैं। आप उनसे मिलिये।”
वीरांग ने सलाह दी।
 
रसराजा ने पुनः हँसते हुए कहा, “आपके कहने का यह मतलब हुआ कि मैं खुद जाकर उनसे
मिलँ ू और कहूँ कि महोदय, मैं उत्तम कवि हूँ, मेरा सम्मान कीजिये। ऐसी स्थिति में मैं कवि
नाम मात्र के लिए हूँ, उत्तम कवि नहीं हूँ। किसी से मांगकर लेना दान कहलाता है । हमारे राजा
सम्मान को दान के रूप में दे रहे हैं।”
 
वीरांग कुछ कहे बिना वहाँ से चुपचाप चला गया। दस
ू रे दिन उसने महामंत्री से कहा, “सुना है
कि महारानी की परिचारिका नीला के घर में रसराजा नामक एक महाकवि अतिथि बनकर रह
रहे हैं। आप और आस्थान कवि जाकर उनसे मिलिये और उनकी प्रतिभा के बारे में आवश्यक
जानकारी प्राप्त करके आइये।”
 
महामंत्री और आस्थान कवियों ने राजा की आज्ञा का पालन किया। लौटने के बाद महामंत्री ने
राजा से मिलकर कहा, “प्रभु, हमारे आस्थान कवियों का मानना है कि रसराजा की कविता में
कोई शक्ति नहीं है , वह सारहीन है । वह सर्वथा राज सम्मान के लिए अयोग्य है ।”

महामंत्री की बातों ने वीरांग को क्रोधित कर दिया, पर अपने क्रोध को प्रकट न करते हुए कहा,
“रसराजा की कविता मैंने स्वयं सुनी और मैं मंत्रमुग्ध हो गया।” फिर जो हुआ, उसने सविस्तार
बताया। शर्म के मारे सब आस्थान कवियों ने सिर झुका लिया और क्षमा मांगी।
 
राजा ने मंत्री को इस प्रकार दे खा, मानों वह जानता चाहता हो कि ऐसा क्यों हुआ। तब मंत्री ने
विनयपर्व
ू क कहा, “प्रभ,ु मैंने सदा आस्थान कवियों के अभिप्रायों पर विश्वास किया। मैं ताड़
नहीं पाया कि वे इतने स्वार्थी हैं।”
 
मंत्री की बातों से शांत राजा जब अंतःपुर में प्रवेश कर रहा था तब परिचारिका नीला महारानी से
कह रही थी, “महारानी, रसराजा कवि, महाराज के दर्शन करना चाहते हैं। वे मेरे द्वारा इसके
लिए महाराज की अनुमति मांग रहे हैं।” राजा ने नीला की ये बातें सुनीं और उससे कहा, “मैं
स्वयं आकर उनसे मिलँ ग
ू ा और उन्हें आमंत्रित करूँगा।”
 
वेताल ने यह कहानी सन
ु ाने के बाद कहा, “राजन ्, यह स्पष्ट है कि कवि रसराजा आवश्यकता
से अधिक अहं भावी है । मानता हूँ कि वह सर्वथा सम्मान के योग्य है , पर इसके लिए उसका
चयन नहीं हुआ, यह ग़लती हो सकती है । पर स्वयं जाकर उसे आमंत्रित करने के पीछे राजा का
उद्देश्य क्या है ? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-
टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “रसराजा स्वाभिमानी है न कि दरु हं कारी। उसकी इच्छा यही थी कि
आस्थान कवियों के कुतंत्रों का पर्दाफाश हो और राजा उनकी असलियत को जानें। रसराजा ने
ठीक ही कहा, सम्मान का अर्थ दान नहीं है , वह एक गौरव है । इस वास्तविकता को राजा
अंतिम क्षणों में ही समझ पाये, इसीलिए राजा ने स्वयं उन्हें आमंत्रित करने का निर्णय लिया।
वीरांग केवल राजा ही नहीं बल्कि रसिकराजा हैं।”
 
राजा को मौन भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार “वसुंधरा” की रचना)
 
80. धर्मदास की शक्तियाँ

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड के पास गया, पेड़ से शव को उतारा और यथावत ् उसे अपने
कंधे पर डालकर स्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, “राजन, कार्य
को साधने में तुम जो आग्रह दिखा रहे हो, वह बड़ा ही प्रशंसनीय है । परं तु तम
ु ने इस तथ्य पर
कभी ग़ौर किया कि क्या तुम इसमें कभी सफल हुए? मेरी दृष्टि में तो नहीं। फिर क्योंकर इतना
कठोर परिश्रम करते जा रहे हो? तुम्हें सावधान करने के लिए मैं धर्मदास की कहानी सुनाने जा
रहा हूँ, जो शक्ति संपन्न होते हुए भी अपने भाई को अपने समान शक्तिशाली बना नहीं सका,
माँ की इच्छा भी पूरी कर नहीं पाया। मुझे इस बात का डर है कि तम
ु भी उसकी तरह कहीं
विफल न हो जाओ। थकावट दरू करते हुए धर्मदास की कहानी सुनो।” फिर वेताल यों सुनाने
लगाः

फिर वेताल यों सन


ु ाने लगाः वीरदास शैलवर गाँव का निवासी था। वह चार एकड़ जमीन का
मालिक था। उसके तीन बेटे थे। दस
ू रा बेटा रामदास और तीसरा बेटा कृष्णदास नादान थे। बड़ा
बेटा धर्मदास खेती करना नहीं चाहता था। उसने पिता से कह दिया कि मैं गरु
ु कुल में शिक्षा
प्राप्त करना चाहता हूँ। पर वीरदास ने अपने बेटे की इच्छा को मानने से इनकार कर दिया।
धर्मदास घर छोड़कर चला गया। वीरदास ने उसका पता लगाने की कोशिश की पर कोई फ़ायदा
नहीं हुआ।
 
कुछ सालों के बाद वीरदास सख्त बीमार पड़ गया और उसकी वाक् शक्ति जाती रही। बड़े-बड़े
वैद्यों ने जांच करने के बाद कह दिया कि इस रोग की कोई दवा है ही नहीं। इसके बाद रामदास
और कृष्णदास को उनके हाथों धोखा खाना पड़ा, जिनका उन्होंने विश्वास किया था। कर्ज
बढ़ता गया और आखिर खेत और घर भी बेचने की नौबत आ गयी।
 
इस बीच धर्मदास, सर्वश्रेय नामक गुरु के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगा। उन्होंने धर्मदास
को कितनी ही विद्याएँ सिखायीं, कितनी शक्तियाँ प्रदान कीं। उन शक्तियों के बल पर वह
अपने परिवार की दस्थि ु ति को जान गया। उसने गुरु से इसका जिक्र किया।
 
गुरु सर्वश्रेय ने उससे कहा, “तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी है । जो भी तुम्हें सिखाना था, मैंने सिखा
दिया। मैं तुम्हें आदे श दे ता हूँ कि अपनी शक्तियों से दस
ू रों की भलाई करना। पर, माँ गुरु से भी
महान होती है । मेरे आदे श का पालन तभी संभव होगा, जब तुम्हारी माँ तुम्हें इसकी अनुमति
दे गी। इसलिए तरु ं त शैलवर जाना, अपना घर संभालना और अपनी जिम्मेदारी निभाना। माँ
की अनुमति लेने के बाद ही तुम गाँव छोड़कर जा सकते हो। अपने परिवार में से किसी एक को
जब तक अपनी शक्तियाँ नहीं सौंपोगे, तब तक तम
ु उन्हें छोड़ नहीं सकते।”

गुरु के कहे अनुसार धर्मदास शैलवर गया, पूरे परिवार को उसने धैर्य बंधाया और यों सबके
दिलों में आशा भर दी। उसने खेती के बारे में रामदास को यथोचित सलाहें दीं। कृष्णदास से
अनाज की एक दक ु ान खुलवायी। फलस्वरूप फसल भी अच्छी हुई और अनाज के व्यापार में
अच्छा लाभ भी हुआ। यह दे खते हुए, गाँव के लोग कहने लगे कि धर्मदास के पास अमोघ
शक्तियाँ हैं। क्रमशः धर्मदास की माँ को भी गांवों के लोगों की बातों में विश्वास होने लगा। एक
दिन उसने अपने बेटे से कहा, “बेटे, घर छोड़कर गये और शक्तिपूरित होकर लौट आये। अब
अपने पिता की बीमारी का इलाज तुम्हें करना होगा। फिर से उन्हें वाक् शक्ति दे नी होगी। यह
तुमसे ही संभव है , क्योंकि तुम्हारे पास अचूक शक्तियाँ हैं।”
 
“माँ, पिताजी को अगर स्वस्थ होना हो तो इसके लिए विद्युत द्वीप के तल
ु सी पौधे की जड़
चाहिये। गुरु की आज्ञा है कि एक बार अगर मैं गाँव छोड़कर निकल जाता हूँ तो किसी भी हालत
में गांव लौटना नहीं चाहिये। इसलिए भाई कृष्णदास को अपने साथ ले जाऊँगा। मार्ग मध्य में
उसे अपने समान शक्तिवान बनाऊँगा। उसके द्वारा तुलसी पौधे की जड़ भेजँग
ू ा। तुम्हारी
अनमु ति हो तो निकलता हूँ।” धर्मदास ने कहा।
 
तब उसकी माँ ने कहा, “ठीक है , विद्युत द्वीप जाने के लिए निकलो। गुरु की कोई भी आज्ञा
माँ के प्रेम से महान नहीं है , उसे जीत नहीं सकती।”
 
धर्मदास, कृष्णदास को अपने साथ लेकर निकल पड़ा। गांव के बाहर आते ही कृष्णदास ने
अपने बड़े भाई से कहा, “भैय्या, तुममें अद्भत
ु शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। ऐसा कुछ करना, जिससे वे
शक्तियाँ मुझे भी प्राप्त हों।”
 
“विद्युत द्वीप पहुँचते -पहुँचते अगर तुम्हें विश्वास हो जाए कि मुझमें अद्भत
ु शक्तियाँ हैं, तो
तमु उन्हें पा सकते हो।”
 
इतने में एक बैलगाडी वहाँ आयी। गाडीवाले जनक ने गाड़ी रोकी। धर्मदास ने अपने भाई से
कहा, “विद्युत द्वीप पहुँचने तक तुम्हें गाड़ी में यात्रा करनी नहीं चाहिये। तुम पैदल चलकर
आना।” कहता हुआ वह गाड़ी में बैठ गया।

कृष्णदास आधे दिन तक चलता रहा। अपने भाई को दे खकर रुक गया, जो एक पेड के नीचे
बैठा हुआ था। वह बहुत ही थक गया था। उसे भख
ू लग रही थी। इतने में शैलबर लौट रहा बापट
वहाँ आया और कहने लगा “मैं बहुत भख
ू ा हूँ। पर किसी के साथ मिलकर खाने की मेरी आदत
है और मेरा नियम भी।” कहते हुए उसने गठरी खोली जिसमें स्वादिष्ट आहार-पदार्थ थे।
 
धर्मदास ने तुरंत कहा, “भाई को एक महान और पण्
ु य कार्य पर अपने साथ ले जा रहा हूँ। जब
तक वह कार्य परू ा नहीं होता तब तक उसे उपवास रखना होगा।” यों कहकर उसने बापट के
साथ खाना खा लिया।
 
थोडी दे र बाद जब बापट चला गया तब धर्मदास ने कृष्णदास से कहा, “अंधेरा छाने जा रहा है ।
भरपेट खाने के कारण मुझे नींद आ रही है । नियम के अनुसार तुम्हें सोना नहीं चाहिये। तुम
जागे रहो और अच्छी तरह से रखवाली करना। इसमें दोनों की भलाई है ।” कहते हुए वह निद्रा
की गोद में चला गया।
 
कृष्णदास रात भर जागा रहा और प्रातःकाल दोनों भाई फिर से निकल पड़े। वे एक नदी तट के
पास पहुँचे। नदी में नाव तो थी, पर मल्लाह नहीं था। नदी के बीच में अचानक एक टीले पर
बिजली कौंधी।
 
उस टीले को दिखाते हुए धर्मदास ने कृष्णदास से बताया, “वही विद्युत द्वीप है । हर दिन वह
चमकता रहता है , इसीलिए उसका नाम विद्युत द्वीप पड़ा। इतने में मल्लाह वहाँ आया। और
कहने लगा,” मैं विद्युत द्वीप जा रहा हूँ। चाहो तो तम
ु दोनों भी आ सकते हो।”
 
धर्मदास ने भाई से कहा, “पिता के नाम का स्मरण करते हुए नदी में कूद पड़ो। तैरते हुए वहाँ
पहुँच जाना। वहाँ मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा।”
 
कुछ और सोचे बिना बड़े भाई के कहे मुताबिक कृष्णदास नदी में कूद पड़ा। वह बिल्कुल थक
गया। वह कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। तब तक धर्मदास वहाँ पहुँच चुका था।
 
जब कृष्णदास थोड़ा-बहुत ठीक हो गया, दोनों तुलसी पौधे की जड की खोज में निकल पड़े। एक
जगह पर, उन्होंने अपने ही गांव के गोपी को दे खा, जो किसी पौधे के लिए कुदाल से ज़मीन
खोद रहा था। वहाँ उनके आने की वजह जानकर उसने कुदाल उन्हें दे नी चाही।
 
कृष्णदास उससे कुदाल लेने ही जा रहा था तब धर्मदास ने उसे रोकते हुए कहा, “तुलसी के पौधे
की जड़ हाथों से ही उखाड़नी चाहिये। यह नियम है और उसका उल्लंघन मत करना।”

थोड़ी दे र और आगे जाने के बाद उन्हें तुलसी के बड़े-बड़े पौधे दिखायी पड़े। हाथों में दर्द हो रहा
था, फिर भी कृष्णदास ने अपने ही हाथों से जड़ उखाड़ी।
 
बड़े भाई ने छोटे भाई की प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम्हारी पित ृ भक्ति प्रशंसा योग्य है । मुझमें
अगर शक्तियाँ हों तो अब से उनमें से आधी शक्तियाँ तुम्हारी हो गयीं। अब तम
ु हवा में उड़कर
घर पहुँच सकते हो।”
 
परं तु, ऐसा नहीं हुआ। कृष्णदास ने उड़ने की बहुत कोशिश की, पर उड़ नहीं पाया। धर्मदास ने
लंबी सांस खींचते हुए कहा, “लगता है कि तम्
ु हें मेरी शक्तियों पर विश्वास नहीं है । कर भी क्या
सकते हैं? पिताजी को स्वस्थ करने के लिए तम
ु ने तल
ु सी की जड़ पा ली, यही गर्व की बात है ।
घर लौटो और इस जड़ के बल पर पिताजी को फिर से बोलने की शक्ति प्रदान करो। मैं गरु
ु की
आज्ञा का पालन करने जा रहा हूँ।”
 
नदी तट पर पहुँच चुकने के बाद दोनों भाई अलग-अलग रास्तों पर चले गये। उत्साह भरा
कृष्णदास घर पहुँचा। तुलसी की जड़ का सेवन करते ही उसका पिता बोलने लगा।
 
कृष्णदास ने सोचा कि तल ु सी की जड को पाने के लिए उसने जो-जो कष्ट उठाये, जो-जो
मस
ु ीबतें झेलीं, अगर इसका ब्योरा जनक, बापट और गोपी खद
ु दें गे तो अच्छा होगा। उसने
दस
ू रे दिन उन तीनों को बल
ु वाया। जनक ने पहले वीरदास से कहा, “तम्
ु हारा बड़ा बेटा धर्मदास
कोई साधारण मनुष्य नहीं है । मैंने अपनी आँखों से दे खा कि वह हवा में उड़ रहा है । और हमारे
पहुँचने के पहले ही पहुँच चुका है ।”
 
कृष्णदास यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । बापट ने आकर कहा, “गॉवं लौटते हुए पेड़ के
नीचे बैठे धर्मदास को दे खा। गठरी खोलता हूँ तो दे खता हूँ कि उसमें स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हैं।
 
इतने में गोपी भी कहने लगा,” भाई कृष्णदास की नाव के पीछे -पीछे पानी पर चलते हुए
धर्मदास चले आ रहे थे। मैंने यह दृश्य अपनी आँखों दे खा।”
 
यह सब सुनते हुए कृष्णदास का सिर चकरा गया। बडे भाई ने उसकी इतनी भलाई की, पर
उसकी समझ में नहीं आया कि उसे वह क्यों पहचान नहीं पाया। उसे लगा कि यह सब हुआ,
उसके स्वार्थ व अहं कार के कारण ही। उसमें पश्चाताप की भावना घर करने लगी। इसके दस
ू रे
ही क्षण उसमें कुछ नवीन शक्तियाँ प्रवेश करने लगीं।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा विक्रमार्क से पूछा, “राजन ्, कृष्णदास अपने बडे भाई
की अपर्व
ू शक्तियों को प्रारं भ में पहचान नहीं पाया, इसका कारण उसमें भरा स्वार्थ और
अहं कार ही है या कोई और कारण है ? विद्युत द्वीप जाने के पहले उसकी माँ ने उससे कहा था
कि वहाँ से लौटने के बाद यहीं मिल-जल
ु कर रहें गे और यह भी कहा था कि किसी भी गुरु की
आज्ञा माँ के प्यार को जीत नहीं सकती। परं तु धर्मदास घर नहीं लौटा। क्या यह माँ के आदे श
का अतिक्रमण नहीं है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे
सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “धर्मदास ने, अपने छोटे भाई कृष्णदास को अपनी शक्तियाँ सौंपनी चाहीं।
पर कृष्णदास को अपने बड़े भाई की शक्तियों में विश्वास नहीं था । तल
ु सी के पौधे की जड़ को
ले आने के लिए जिस क्षण धर्मदास ने कृष्णदास को चुना, उसी क्षण से उसमें अहं कार भर
गया। और वह समझने लगा कि मैं महान हूँ। इसी वजह से वह बड़े भाई की शक्तियों को
पहचान नहीं पाया।
 
कोई भी शक्तिमान अपनी शक्तियाँ अयोग्य को चाहे भी तो सौंप नहीं सकता। अब रही माँ की
बात। कोई भी माँ यह नहीं चाहती कि उसका बेटा कर छोड़कर जाए, कहीं और रहे । यही तो
मातप्र
ृ ेम है ।
 
किन्तु धर्मदास लोक क्षेम के लिए घर छोड़कर चला गया। वह भी, अपने पारिवारिक
जिम्मेदारियों को परू ा करने के बाद। यद्यपि धर्मदास ने माँ की इच्छी परू ी नहीं की, फिर भी
यह उसका अपराध माना नहीं जा सकता, क्योंकि उसका लक्ष्य महान था।
 
राजा का मौन-भंग करने में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा
बैठा।
 
आधार “वसंध
ु रा” की रचना।
 
81. राजा-चोर

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः उस प्राचीन वक्ष
ृ के पास गया। वक्ष
ृ पर से शव को उतारा। उसे
अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर अग्रसर होने लगा। तब शव के अंदर के
वेताल ने कहा, “राजन ्, तुम्हारा कठोर परिश्रम दे खते हुए अत्यंत आश्चर्य होता है । मुझे लगता
है कि किसी के हाथों तुम्हारा अप्रत्याशित अपमान हुआ है और उस अपमान से अपने को
बचाने या उसे छिपाने की कोशिश में लगे हुए हो। हम दे खते आ रहे हैं कि मनुष्य अच्छा करने
के उद्देश्य से कोई काम हाथ में लेता है । पर परिस्थितियाँ उसे साथ नहीं दे तीं। उल्टे उस काम से
उसे हानि पहुँचती है । वह यह नहीं चाहता कि किसी दस
ू रों का यह मालूम हो, क्योंकि वह
जगहँसाई से बहुत डरता है । इसके लिए वह आवश्यकता से अधिक सावधानी बरतता है ।
सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा यह प्रवत्ति
ृ समाज में बड़े माने जानेवाले लोगों में अधिकाधिक
पायी जाती है । उदाहरणस्वरूप राजा सुनील की कहानी तुम्हें सुनाने जा रहा हूँ, जो एक चोर से
ठगा गया। वह यह नहीं चाहता था कि यह विषय किसी और को मालूम हो। इसलिए जब चोर
पकड़ा गया तब उसने उसे दं ड नहीं दिया, उल्टे उसे माफ़ कर दिया। राजा होकर उसे ऐसा करना
नहीं चाहिये था। उस राजा सुनील की कहानी अपनी थकावट दरू करते हुए  ध्यानपूर्वक सुनो।”
फिर वेताल राजा सुनील की कहानी यों सुनाने लगाः

राजा सुधीरवर्मा का पत्र


ु सुनील, दयानंद मुनि के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहा था। उसने
बहुत ही जल्दी सभी विद्याओं में भरपूर ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन सुनील को बुलवाकर
दयानंद मुनि ने उससे कहा, “तम
ु ने विद्यार्जन के प्रति पर्याप्त आसक्ति दर्शायी और निरं तर
परिश्रम किया। इसके कारण कम समय में ही सब विद्याओं में पारं गत हो पाये। अब तुम्हें
गुरुकुल में रहकर और शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है । हर मानव के लिए विद्या
नयनद्वय की तरह है । शासनकाल में यह तुम्हारे लिए इतोधिक उपयोगी सिद्ध होगी।
अधिकारीगण विवेकपूर्ण निर्णय लेते हैं, जिनसे लोग बहुत बड़ी संख्या में लाभ उठाते हैं। अतः
शासकों के लिए विद्या बहुत आवश्यक व उपयोगी है । समस्त विद्याओं का ही परमार्थ नहीं
बल्कि मानव जन्म का भी परमार्थ है , परोपकार। इस परम सत्य को सपने में भी न भुलाना।
वही मेरे लिए सच्ची गुरुदक्षिणा होगी।” कहते हुए मुनि ने सुनील को आशीर्वाद दिया।
 
सनु ील ने भक्तिपर्व
ू क गरुु को प्रणाम किया। गरुु कुल की समग्र वद्धि
ृ के लिए पिता ने जो भें ट
भेजी उसे गरु
ु समर्पित किया और राजधानी निकल पड़ा।
 
विद्या शोभा से सुशोभित पूर्णचंद्र की तरह लौटे अपने पत्र
ु को दे खकर राजा सुधीर वर्मा बहुत
आनंदित हुए। मंत्रियों व राजगरु
ु से परामर्श करने के बाद उन्होंने अपने पत्र
ु का राज्याभिषेक
वैभवपर्व
ू क किया।
 
पिता के सुयोग्य पुत्र की तरह सुनील ने बड़ी ही दक्षता के साथ शासन चलाया। गुरुकुल से
निकलते समय गुरु ने जो बातें कहीं, वे सदा उसके कानों में गँज
ू ती रहीं। इसलिए वह अक्सर
बहुरूपिया बनकर दे श में घूमता रहता था और प्रजा की समस्याओं से स्वयं परिचित होता था।
वह इन समस्याओं के समाधान भी ढूँढ़ निकालता था। विपत्तियों में फंसे लोगों की सहायता
करने में उसे अपार आनंद मिलता था।

एक दिन वह वस्त्र व्यापारी के वेष में दे श में घम


ू ने निकला। राजधानी से थोड़ी ही दरू ी पर
प्रवाहित हो रही नदी के उस पार के अरण्य प्रदे श में जब वह एक गाँव के निकट पहुँच रहा था
तब उसे अकस्मात ् एक आर्तनाद सुनायी पड़ा, “मेरे बच्चे को बचाइये, मेरे बच्चे को बचाइये”।
उस आर्तनाद को सुनकर वह मुड़ा।
 
मुड़ने पर उसने दे खा कि एक आदमी एक उजड़े कुएँ के बाहर खड़ा है और गिडगिडा रहा है ,
“महाशय, मेरा बेटा कुएँ में गिर गया। मैं अपाहिज हूँ। कुएँ में उतर नहीं सकता। मेरे बेटे को
बचाइये। कृपया बचा लीजिये।” दीन स्वर में गिडगिडाने लगा।
 
बहुरूपये सुनील ने कपडों की गठरी ज़मीन पर रख दी और कुएँ के अंदर झांकते हुए उसमें कूद
पड़ा। उसने पूरा कुआँ ढूँढ़ डाला, बहुत दे र तक। पर बच्चा दिखायी नहीं पड़ा। जब वह कुएँ से
बाहर आया तो वहाँ न ही वह अपाहिज था और न ही उसके कपड़ों की गठरी थी। राजा को अब
यह समझने में दे र नहीं लगी कि उसके साथ धोखा हुआ है । वह उदास होकर राजधानी लौटा।
 
दस दिन बीत गये। ग्यारहवें दिन जब राजा सुनील दरबार में सिंहासन पर आसीन था तब
सैनिक एक चोर को वहाँ ले आये, जिसके हाथों में हथकड़ियॉ ं लगी थीं।
 
राजा ने उसे ग़ौर से दे खा। सैनिकों से उसने पूछा कि इसने क्या अपराध किया?
 
“प्रभु, आभूषणों के व्यापारी पण्
ु यगुप्त के घर में सेंघ लगाते समय यह पकड़ा गया।” सैनिकों ने
कहा।
 
थोड़ी दे र तक सोचने के बाद राजा ने कहा, “ठीक है , आज रात तक उसे जेल में ही रखना। कल
सज़ा सुनाऊँगा।”
 
सैनिक उसे खींचते हुए ले गये और जेल में बंद कर दिया।  
 
उस दिन आधी रात को राजा वस्त्र व्यापारी के वेष में जेल के अंदर गये। और सोते हुए चोर को
जगाया।
 
चोर घबराता हुआ जागा और व्यापारी को दे खकर आश्र्चर्य भरे स्वर में पूछा, “तम
ु यहाँ कैसे
आये? क्या तुम भी चोर हो?”

राजा ने अपनी दाढ़ी निकाली, पगड़ी उतारी तो चोर उसे दे खकर हक्का-बक्का रह गया। वह भय
के मारे थरथर कांपते हुए कहने लगा, “क्षमा कीजिये, प्रभ!ु आपको चकमा दे कर आपके कपड़ों
की गठरी चरु ा ली। भविष्य में कभी भी ऐसा काम नहीं करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये।” कहता हुआ
वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा।
 
“अपराधी को दं ड भुगतना ही पड़ेगा। व्यापारी के घर में सेंघ लगाकर तम
ु ने अपराध किया और
इस अपराध के लिए तुम्हें दं ड भुगतना ही होगा। मुझे धोखा दिया है , इस अपराध के लिए मैं
तुम्हें कोई सजा नहीं दँ ग
ू ा। परं तु हाँ, वादा करो कि कुएँ के बाहर जो घटना घटी, उसके बारे में
तुम किसी से कुछ नहीं कहोगे। मेरी शर्त तुम्हें मंजूर है ?” राजा ने पूछा।
 
“हाँ, ऐसा ही करूँगा प्रभ।ु ” कहते हुए चोर ने राजा के पैरों का स्पर्श किया। राजा जेल के बाहर
आया।
 
दसू रे दिन, सैनिक चोर को राजा के सामने ले आये। सभासद् राजा का फैसला सुनने के लिए
उत्कंठित थे।
 
राजा ने चोर से पूछा, “आभूषणों के व्यापारी पण् ु यगुप्त के घर में तुमने सेंघ लगायी?”
 
“हाँ प्रभु”, चोर ने सिर झक
ु ाकर कहा।
 
“क्या यह तुम्हारी पहली चोरी है या चोरी करना ही तुम्हारा पेशा है ? राजा ने पूछा।
 
“चोरी करना मेरा पेशा नहीं है प्रभु। जैसे ही पढ़ाई पूरी हुई, दर्भा
ु ग्यवश मुझपर चोरी का इलजाम
मढा गया। जिसे मैंने नहीं कीथी । मुझे सज़ा भी दी गयी। मुझपर चोर की छाप लग गयी।
जीविका के लिए बहुत घूमा-फिरा। मुझे चोर समझकर कोई भी मुझे काम दे ने के लिए तैयार
नहीं था। मैं जीना नहीं चाहता था। जीवन से मुझे विरक्ति हो गयी। मरने के लिए जंगल गया।
पर मरने का साहस मुझमें नहीं था। भूख से तडपता हुआ एक कुएँ के किनारे बैठा रहा। तभी
वहाँ आये एक पुण्यात्मा के कपडों की और आहार पदार्थों से भरी गठरी की चोरी चालाकी से
की। उन आहार पदार्थों को खाकर पेट भर लिया। तब से मुझे लगने लगा कि चोरी करके आराम
से जिन्दगी काट सकँू गा। मझ
ु े लगा कि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि ज़िन्दगी गज
ु ारने के लिए
काम किया जाए। उस दिन ले लेकर मैं छोटी-मोटी चोरियाँ करने लगा। कल व्यापारी के घर में
सेंघ लगाते हुए पकड़ा गया।” आंसू बहाते हुए चोर ने बताया।

“अगर तुम्हें जीने का कोई रास्ता मिल जाए तो क्या चोरियाँ करना छोड़ दोगे?” राजा ने पूछा।
 
“जन्म भर चोरियाँ करूँगा ही नहीं प्रभ”ु , आंसू पोंछते हुए चोर ने कहा। “इन दस दिनों में तम
ु ने
जिन-जिन लोगों की भी जो चोरी की, उन्हें उनको लौटा दो और उनसे माफ़ी मांगो। तब तक
सैनिक तम्
ु हारे ही साथ रहें गे। इसके बाद किसी रोज़गार का इंतज़ाम मैं कर दँ ग
ू ा।” राजा ने
आश्वासन दिया।
 
उस फैसले को सुनकर सभी सभासदों ने तालियाँ बजायीं।
 
“आपकी आज्ञा शिरोधार्य है प्रभ,ु ” कहता हुआ चोर सैनिकों के पीछे -पीछे गया।
 
राजा सुनील ने गुरु की बातों का स्मरण करते हुए तप्ति
ृ के साथ सिर हिलाया।
 
वेताल ने कहानी समाप्त की और राजा से पछ ू ा, “राजन ्, एक तरफ़ राजा कहते रहे कि अपराधी
को अवश्य दं ड मिलना चाहिये और दस
ू री तरफ़ चोर के अपराध को माफ़ कर दिया। यह क्या
आपको अस्वाभाविक व विचित्र नहीं लगता? क्या इससे यह साफ़ नहीं हो जाता कि अगर चोर
असली राज़ खोल दे तो अपमानित होने के भय से राजा ने उस धोखेबाज़ चोर को माफ़ कर
दिया और उसे रोज़गार दिलाने का आश्वासन भी दिया।
 
“जिस चोर के हाथों राजा खुद ठगा गया, उसे माफ़ करना क्या न्यायसंगत है ? क्या यह न्याय
व धर्म कहलायेगा? इससे क्या दे श में अपराधों की संख्या में तीव्र वद्धि
ृ नहीं होगी? मेरे इन
संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े -टुकड़े हो जायेंगे।”

राजा विक्रमार्क ने कहा, “जो अपराधी है , उसे निस्संदेह दं ड भुगतना ही पड़ेगा। परं तु हमें इस
तथ्य को भुलाना नहीं चाहिये कि दं ड का उद्देश्य अपराधी में परिवर्तन ले आना है । हमें मालूम
हो जाता है कि जेल में चोर ने राजा को पहचाना, उसमें परिवर्तन का क्रम शुरू हो गया। चोर
होते हुए भी उसने जो भी कहा, राजा ने उसका विश्वास किया, क्योंकि चोर को अपनी ग़लतियों
पर पछतावा होने लगा। उसमें अपने को सुधारने की तीव्र इच्छा जगने लगी। राजा का यह
कर्तव्य बनता है कि चोरी के मूल कारणों को वह जाने और उन कारणों को मिटा दे ,जिससे चोर
को चोरी करने का अवसर ही नहीं मिले। इसी सत्य को दृष्टि में रखते हुए आदर्श शासक सुनील
ने चोर को सुधरने का मौक़ा दिया। अब रही, राजा के चोर से ठगे जाने की बात को राज़ ही
रखने की बात। उन्होंने इस डर से चोर से यह नहीं कहा कि इससे उसकी जगहँसाई होगी या
उसका अपमान होगा, निरादर होगा। वे चाहते थे कि परोपकार के बारे में गुरु ने जो कहा,
उसका पूरा-पूरा पालन वे केवल स्वयं ही न करें बल्कि उनके दे श के नागरिक भी करें । इसके
पीछे उनका आशय यही था। ऐसी स्थिति में राजा का स्वयं परोपकार करते हुए ठगे जाने की
बात लोगों को मालम
ू हो जाए तो जनता में परोपकार के प्रति विश्वास नहीं रह जायेगा। ऐसी
स्थिति उत्पन्न न हो, इसी उदात्त आशय से प्रेरित होकर राजा ने चोर के सामने शर्त रखी कि
वह उस विषय को गप्ु त ही रखे।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब होकर फिर से पेड़ पर जा बैठा ।
 
(आधार ?मंजु भारती' की रचना)
 
82. गुणशेखर की कहानी

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा,
“राजन ्, क्या साधने की तीव्र इच्छा को लेकर इस भयंकर आधी रात को इतना कठोर परिश्रम
कर रहे हो? किन्तु मैंने कुछ ऐसे लापरवाह व्यक्तियों को भी दे खा, जिनकी अपनी कोई इच्छा
नहीं होती, जिनका कोई लक्ष्य नहीं होता, जो निरुद्देश्य ही कुछ काम करते रहते हैं। परं तु ऐसे
व्यक्ति कभी-कभी अपना मन बदल लेते हैं और अद्भत
ु विजय प्राप्त करते हैं। उन व्यक्तियों के
हाथों से ये विजय वे छीन लेते हैं, जो इसके लिए प्रयत्नशील हैं, तत्पर हैं, जिनका जीवन-लक्ष्य
ही इस विजय को प्राप्त करना है । मझ
ु े डर है कि कोई तम
ु से भी तम्
ु हारा लक्ष्य छीन न ले और
तम्
ु हारी आशा निराशा में परिवर्तित न हो जाए। तम्
ु हें सावधान करने के लिए दो भाइयों की
कहानी सन
ु ाने जा रहा हूँ, जिसे ध्यानपर्व
ू क सन
ु ो और निर्णय लो।” फिर वेताल उन दो भाइयों
की कहानी यों सन
ु ाने लगा:

विरागदे श के शासक चंद्रशेखर के दो जड़


ु वाँ पत्र
ु थे। बड़े का नाम कुलशेखर और छोटे का नाम
गण
ु शेखर था। उन दोनों की परवरिश बड़े ही लाड़-प्यार से होने लगी। यद्यपि वे दोनों समान
उम्र के थे, परं तु उनकी व्यवहार शैलियाँ भि-भि थीं। बड़ा कुलशेखर बचपन से ही ऐसा व्यवहार
करता था, मानों वही राजा हो। छोटा गुणशेखर दास-दासियों और उनकी संतान को भी समान
मानता था और उनसे ऐसा ही व्यवहार करता था। दादा राजशेखर दोनों को राजवंश संबंधी
वीरोचित गाथाएँ सुनाते थे तो गुणशेखर उन गाथाओं को सुनकर संतुष्ट होता था। पर
कुलशेखर उन कहानियों को सुनकर डींगें हाँकने लगता था कि बड़ा होने के बाद इससे भी
अधिक साहस-भरे काम करके दिखाऊँगा।
 
चंद्रशेखर हर साल पत्र
ु ों का जन्म-दिनोत्सव बड़े पैमाने पर मनाता था। उनके दसवें साल के
जन्म-दिनोत्सव के अवसर पर सुप्रसिद्ध उनके कुलगुरु शंभुनाथ ने पक्षिराज गरुड़ की एक
गडि
ु या अपने शिष्यों के द्वारा भें ट स्वरूप भेजी। वह गडि
ु या बिल्कुल ही सजीव लगती थी।
उसकी पीठ पर इतनी जगह भी थी, जिसपर एक आदमी बैठ सके । बैठकर गले के पास की
चाभी घम
ु ाने पर यंत्र की वह गडि
ु या थोड़ी दरू ी तक आगे जाती थी और उसके बाद दस फुट तक
की ऊँचाई तक उड़कर ज़मीन पर लौट आती थी।
 
उस गडि
ु या को लेकर दोनों भाई उद्यानवन में गये। यंत्र की गुडिये के करतबों को दे खने
अंतःपरु की स्त्रियाँ भी अपने बच्चों सहित उस उद्यानवन में आयीं। पहले कुलशेखर उस
गडि
ु ये पर वैठा और कुछ समय तक हवा में घम
ू ता रहा। एक दासी का बेटा शरभ भी उस गडि
ु ये
पर बैठने के लिए माँ से बार-बार पछ
ू रहा था। उसकी माँ ने यह कहकर उसे समझाया कि एक
दासी के बेटे को ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिये। गण
ु शेखर ने शरभ की ये बातें सन
ु ीं और उसने
शरभ से कहा, “तम
ु भी मेरी ही उम्र के हो। तम्
ु हारी इच्छा अस्वाभाविक नहीं है । भाई जब
गडि
ु या मझ
ु े सौंपें गे तब तम
ु ही उसपर पहले बैठना और उड़ना।”

थोड़ी दे र बाद कुलशेखर ने यंत्र की वह गुडिया भाई को दी। तब गुणशेखर ने शरभ को उसपर
बिठाया। कुलशेखर ने तुरंत इसपर आपत्ति जताते हुए कहा कि राजकुमारों की गुडिया पर
सेवकों को बैठना नहीं चाहिये। माता-पिता और दादा ने भी बड़े भाई का समर्थन किया तो
गुणशेखर ने कहा, “शरभ को इसपर बैठना नहीं चाहिये तो इसपर बैठने का मेरा भी कोई
अधिकार नहीं है । मैं इसपर नहीं बैठूँगा। इसे बनानेवाले शंभुनाथ का शिष्य बनँूगा और ऐसी
गडि
ु या का निर्माण करूँगा।” यों कहकर वह वहाँ से तुरंत चला गया।
 
शंभुनाथ का नाम सुनते ही चंद्रशेखर को लगा कि वे उनके पुत्रों को राजोचित विद्याओं को
सिखाने के लिए बिल्कुल सही व्यक्ति हैं। उसने अपने दोनों पत्र
ु ों को शंभुनाथ के गुरुकुलाश्रम
भेजा। शंभुनाथ उन्हें सभी विद्याएँ सिखाने लगे। गुणशेखर ने राजोचित विद्याओं के साथ-
साथ यंत्र की गडि
ु या की निर्माण-कला भी सीखी। एक साल के अंदर ही उसने स्वयं एक
पक्षिराज गरुड की गुडिया बनायी। शरभ को वहाँ बुलाया और गरुड पक्षी पर बैठकर हवा में
उड़्रने की उसकी इच्छा पूरी की। बड़े भाई ने इसपर आपत्ति उठायी तो उसने कहा, “यह
राजकुमारों के लिए किसी की बनायी गडि
ु या नहीं है । शरभ के लिए मैंने स्वयं इसका निर्माण
किया।” गुणशेखर की बातों को सुनकर शंभुनाथ ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम कोई
साधारण मानव नहीं हो। भविष्य में तम ु महान बनोगे।”
 
गरु
ु कुल में जो-जो हो रहा है , तत्संबंधी विवरण चंद्रशेखर को लगातार मालम
ू हो रहे थे। दस
सालों के विद्याभ्यास की पर्ति
ू के बाद वह गरु
ु कुल गया और गरु
ु से मिलकर कहा, “कुलशेखर
में जो राजलक्षण हैं, वे गण
ु शेखर में नहीं हैं। क्या आपने कभी इसपर ध्यान दिया?”
 
शंभुनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा, “कुलशेखर भविष्य में दे श का होनेवाला राजा है । चँ ूकि
गुणशेखर के राजा होने की गुंजाइश नहीं है , इसलिए शायद वह ऐसा व्यवहार कर रहा है ।”
 
राजधानी लौटने के बाद चंद्रशेखर ने पिता से कहा, “चँ ूकि गुणशेखर को राजा बनने का
अधिकार नहीं है , इसलिए शायद वह अपने का इसके योग्य समझ नहीं रहा है । यह मेरे लिए
असहनीय है । राज्य को दो भागों में विभाजित किया जाए तो दोनों को राजा बनने का अवसर
मिलेगा।”
“हमें यह राज्य विरासत में मिला है । इसपर शासन चलाने का ही हमें हक़ है । इसे विभाजित
करने का हमें हक़ नहीं है । अगर चाहो तो तुम किसी अन्य राज्य पर आक्रमण करो और
गुणशेखर को उसका राजा बनाओ।” पिता ने सलाह दी।
 
चंद्रशेखर को पिता की सलाह सही लगी। पड़ोसी दे श विरूप पर आक्रमण करने की वह
तैयारियाँ करने लगा। गणु शेखर को जब यह मालम ू हुआ, तब पिता से मिलकर उसने कहा,
“विरूप दे श के राजा हमारे शत्रु नहीं हैं। यद्ध
ु में दोनों दे शों को हानि होगी। राजा बनने की मेरी
कोई आकांक्षा नहीं है । मेरे लिए आप यह अन्याय मत कीजिये।” चंद्रशेखर ने बेटे की बात मान
ली और यद्ध
ु के प्रयत्नों को रोक दिया।
 
उस दौरान विशाल दे श के राजा वीरगुप्त ने अपनी इकलौती पुत्री चंद्रकला के स्वयंवर की
घोषणा की। कुलशेखर उस स्वयंवर में भाग लेना चाहा। पर माँ ने उसे जाने से रोका और
गुणशेखर को वहाँ जाने के लिए कहा। उसकी आशा थी कि चंद्रकला के साथ गुणशेखर का
विवाह संप हो तो वह उस दे श का राजा बनेगा। पर गुणशेखर ने माँ से कहा, “स्वयंवर में जीत
मेरे सामर्थ्य पर नहीं बल्कि चंद्रकला की इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर है । ऐसी होड़ मुझे पसंद
नहीं”। यों कहकर उसने स्वयंवर में भाग लेने से इनकार कर दिया। पर कुलशेखर यह कहते हुए
स्वयंवर में भाग लेने निकल पड़ा कि “स्वयंवर राजोचित प्रथा है ।”
 
उस स्वयंवर में भाग लेने के लिए विविध दे शों से राजकुमार आये। चंद्रकला जैसे ही वरमाला
लिये स्वयंवर मंडप में पहुँची, तभी अकस्मात एक युवक आगे आया और कहने लगा, “मेरा
नाम मित्रबिंद है । मैं अब, चंद्रकला को अपने साथ महापर्वत ले जा रहा हूँ। आप में से जो चाहें
वहाँ आयें और मुझे हराकर चंद्रकला को ले जा सकें तो ले जाएँ”। कहता हुआ वह चंद्रकला को
लेकर ग़ायब हो गया।

राजा वीरगुप्त अवाक् रह गया। उसने उसी क्षण घोषणा की कि जो उसकी पुत्री की रक्षा करके
लायेगा, उसके साथ उसका विवाह रचाऊँगा और परू ा राज्य उसे समर्पित करूँगा। यह घोषणा
सन
ु ते ही वहाँ उपस्थित सभी राजकुमार महापर्वत जाने निकल पड़े। कुछ दिनों के बाद बिराग
दे श को समाचार मिला कि वहाँ जितने भी राजकुमार गये, वे सबके सब मारे गये, जिनमें
कुलशेखर भी एक था। माता-पिता व दादा के मना करने के बावजद
ू गण
ु शेखर वहाँ जाने निकल
पड़्रा। वह पहले गरु
ु कुल गया, गरु ु से मिला और उनसे मित्रबिंद के बारे में जानकारी पायी।
 
मित्रबिंद विशाल दे श के मंत्री का बेटा था। चंद्रकला से विवाह कर महाराज बनने के लिए अपने
पंद्रहवें साल में ही उसने कुछ मंत्र शक्तियाँ पायीं। महापर्वत पर रहकर वह रूधिरभैरवी की
उपासना कर रहा था। उसकी इच्छा की पूर्ति के लिए रुधिरभैरवी ने एक शर्त रखी। उस शर्त के
अनुसार सौ राजकुमारों की बलि दे नी होगी। इसके लिए उसने उसे कुछ विशिष्ट शक्तियाँ भी
प्रदान कीं। भूमि पर का कोई भी मामूली आयुध या प्राणी मित्रबिंद को मार नहीं सकताथा ।
मनष्ु य न होते हुए भी जो मनष्ु य है , वही रुधिरभैरवी के शल
ू से उसका अंत कर सकता था। गरु

से यह रहस्य जानकर उनका आशीर्वाद पाकर गण ु शेखर महापर्वत पहुँचा।
 
वहाँ मित्रबिंद और चंद्रकला दिखाई पड़े। गुणशेखर ने रुधिरभैरवी की मर्ति
ू को प्रणाम किया,
उसके हाथ से शूल निकाला और एक ही वार में मित्रबिंद का सिर काट दिया। रुधिरभैरवी के पैरों
को उसकी बलि चढ़ायी। तब तक सौ पूरा होने में एक ही वीर शेष था। मित्रबिंद के मारे जाने से
सौ पूरा हो गया। तत्क्षण ही रुधिरभैरवी प्रत्यक्ष हुई और कहा, “तुम्हारे इस अद्भत
ु साहस की
प्रशंसा करती हूँ। कोई वरदान माँगो।”
 
गण ु शेखर ने हाथ जोड़कर रुधिरभैरवी से विनती की कि वे सौ के सौ यव ु क जीवित हो जायें,
जिनकी बलि चढ़ायी जा चक
ु ी है । भैरवी ने उन सबको प्राण-दान दिया और कहा, “गण
ु शेखर
आम मनुष्यों में से नहीं है , पर है मनुष्य। इसी की वजह से तम
ु सबको पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है ।
चंद्रकला से इसका विवाह होगा और यह विशाल दे श का राजा बनेगा। तम
ु सबके सब इसके
सामंत राजा बनकर इसे चक्रवर्ती मानकर इसकी सेवा करो।”

वेताल ने कहानी कह चुकने के बाद राजा विक्रमार्क से पूछा, “राजन ्, पहले ही से गुणशेखर में न
ही राजा बनने के लक्षण थे और न उसमें राजा बनने की आकांक्षा थी। फिर भी चंद्रकला से
उसका विवाह करना और उसे सम्राट बनाना क्या न्यायसंगत है ? उसने इनके लिए अपनी
स्वीकृति क्यों दी? तिसपर रुधिरभैरवी ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि वह मनुष्य न होते
हुए भी महान मनुष्य है । इसका अंतरार्थ क्या है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप
रहोगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “यह कहना सही नहीं है कि गुणशेखर में राज लक्षण नहीं हैं। उसका बड़ा
भाई कुलशेखर पहले ही स्वयंवर में भाग लेने निकल चुका था। ऐसी स्थिति में भाई से ही होड़
लेना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था। वह वीरगुप्त की इस घोषणा के बारे में भी सुन चुका था कि
जो उसकी पत्र
ु ी की रक्षा करे गा, उसका विवाह उससे किया जायेगा। यह जानकर भी चंद्रकला से
विवाह न करना अनुचित होता। अब राजलक्षणों की बात ही लो । जिनमें ये लक्षण हैं, वे ही
केवल नायक बन सकते हैं। मनुष्यों को समभाव से दे खनेवाले चक्रवर्ती बनते हैं। दासी के बेटे
की इच्छा पूरी करने के लिए ही गुणशेखर ने यंत्र विद्या सीखी। न ही केवल युवरानी के लिए
बल्कि सौ वीरों को पुनः जीवन प्रदान करने के लिए, एक दष्ु ट के अत्याचारों को रोकने के लिए,
अपनी जान की भी परवाह किये बिना अपर्व
ू साहस का प्रदर्शन किया, गुणशेखर ने। इसीलिए
रुधिरभैरवी ने कहा कि मनुष्य होते हुए भी उसमें साधारण मनुष्यों के स्वार्थ, लोभ उसमें नाम
मात्र के लिए भी नहीं हैं। उसने यह साबित भी कर दिखाया कि आशय जब महान हो तब बेकार
आयुध भी काम करने लगते हैं । गुणशेखर वह शूर, वीर, धीर है , जिसने यह भी साबित किया
कि विशाल क्षेम चाहनेवाले निस्वार्थ के सम्मुख संकुचित स्वार्थ की शक्तियाँ निर्वीर्य हो जाती
हैं । इसी कारण वह चक्रवर्ती बनने के सर्वथा योग्य है ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल बेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः ?वसुंधरा' की रचना)
 
83. अविश्वसनीय सत्य

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे
पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “आधी रात के समय निडर होकर जाते हुए तुम्हें दे खकर लगता है कि तुम किसी
साधारण लक्ष्य को साधने के लिए यह कठोर परिश्रम नहीं कर रहे हो बल्कि एक अति अद्भत

रहस्य का पता लगाकर किसी लोकोत्तर रहस्य को जानने के लिए कटिबद्ध हो और यह
तुम्हारा संकल्प है । कुछ लोग, कभी-कभी असाधारण अद्भत
ु ों के प्रति उदासीन रहते हैं और
साधारण विषयों को महोत सत्य मानकर उनकी प्रशंसा में लगे रहते हैं। विदर्भ-राजा यशोधर
वर्मा ने ऐसी ही भूल की। उसकी कहानी तुम्हारे लिए उपयोग में आ सकती है , इसलिए ध्यान से
सुनो। फिर वेताल यों वह कहानी सुनाने लगा:

विदर्भ राजा यशोधर वर्मा आदर्श शासक माने जाते थे। बचपन से ही वे विनोद प्रेमी थे। चँ कि

राज्य शत्रओ
ु ं के आक्रमण तथा अकाल व दर्भि
ु क्ष के भय से मक्
ु त था, इसलिए राजा की दृष्टि
विनोद के प्रति केंद्रीभत
ू हुई। इस वजह से उन्होंने शासन का भार समर्थ मंत्रियों को सौंपा और
वे विनोद भरे कार्यक्रमों में समय बिताने लगे। मंत्रीगण समय-समय पर उनसे मिला करते थे
और भरोसा दिलाते रहते थे कि राज्य की परिस्थिति बिल्कुल ही ठीक-ठाक है और उन्हें
चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं। राजा उनकी बातों का विश्वास करके उनका अभिनंदन
करके उन्हें भेज दे ते थे।
 
राजा यशोधर वर्मा एक दिन महाभारत के राजसूय याग की विचित्रताओं से भरे मयसभा के बारे
में सुन रहे थे। दर्यो
ु धन का मयसभा में प्रवेश करना और वहाँ तरह-तरह की दिक्कतों में फंस
जाना उन्हें बड़ा ही रुचिकर लगा। इन घटनाओं के बारे में जानने के बाद उनमें एक विचित्र
विचार जगा। उन्होंने तुरंत मंत्रियों को बल
ु वाया और उनसे कहा कि अगली पूर्णिमा को वे सब
दरबार में हाज़िर हों। उन्होंने यह भी ऐलान किया कि प्रजा भी इस समय उपस्थित हो सकती है
और सबूत सहित अविश्वसनीय सच्चाइयाँ बता सकती है । जो भी इस कार्य में सफल होगा,
उसे मल्
ू यवान भें टें दी जायेंगी और उनका परू ी तरह आदर-सत्कार किया जायेगा।
 
राजा की अनुमति लेकर पूरे राज्य में तत्संबंधी घोषणा की गयी। पर्णि ू मा के दिन राजा
सिंहासन पर आसीन हुए। अविश्वसनीय सच्चाइयों को सुनने नगर के कितने ही प्रमुख लोग
भी पधारे । तब यशोधर वर्मा ने कहा, “आपमें से जो अविश्वसनीय सच्चाइयों को सबूत सहित
साबित करें गे, उन्हें मूल्यवान भें टें दी जायेंगी।”
 
गोपी नामक एक किसान ने राजा को नमस्कार किया और काठ की एक पेटी को दिखाते हुए
कहा, “महाराज, कुछ साल पहले जब मैं खेत जोत रहा था तब यह छोटी-सी संदक
ू ची मझ
ु े
मिली। बड़ी आशा लेकर मैंने इसे खोला। इसमें छोटा-सा एक काला पत्थर था। जैसे ही मैंने
संदक
ू ची खोली, दिन में ही अंधेरा छा गया।

दिन रात लगने लगा। इसे दे खते ही मैं बहुत घबरा गया और संदक
ू ची बंद कर दी। बस, अंधेरा
गायब हो गया और प्रकाश छा गया। तब मुझे लगा कि इस संदक
ू ची में जो पत्थर है , वह अंधेरा
का पत्थर है और वह हमेशा अंधेरे को ही फैलाता है । यह वही संदक ू ची है ।”
 
गोपी से वह संदक
ू ची लेकर राजा ने उसे खोला। दस ू रे ही क्षण परू ी सभा अंधेरे में डूब गयी।
सैनिकों को मशालों को जलाना पड़ा। राजा ने संदक
ू ची बंद की तो अंधेरा गायब हो गया और
रोशनी फैल गयी। “वाह, यह अंधेरे का पत्थर अविश्वसनीय सत्य है ।” बाद यशोधर वर्मा ने
गोपी को मूल्यवान भें टें दीं।
 
इसके बाद रत्नाकर नामक एक व्यापारी उठ खड़ा हो गया और राजा को झक
ु कर प्रणाम करते
हुए बोला, “प्रभु, एक चांदनी रात को, जब मैं अपने घर के पिछवाड़े में घूम रहा था, तब मैंने एक
अद्भत
ु दृश्य दे खा। दे खा कि पंखवाले एक घोड़े पर एक दिव्य पुरुष और स्त्री सवार हैं। वे बड़ी ही
तेज़ी से जा रहे थे, तब एक पुष्प फिसलकर मेरे बग़ीचे में गिरा। दस
ू रे ही क्षण एक प्रकार का
दिव्य परिमल बग़ीचे भर में फैल गया। आनंद और आश्चर्य से मैंने उसे अपने पूजा मंदिर में
सुरक्षित रखा। बाद मुझे मालूम हो गया कि यह पुष्प कभी भी नहीं मुरझाता और उसका
परिमल भी कभी नहीं घटता।” कहते हुए उसने दं त की भरनी राजा को दी।
 
राजा ने भरनी खोलकर दे खी। उसमें एक पुष्प था, जो अभी-अभी विकसित पुष्प लग रहा था।
उसका दिव्य परिमल सभा भर में व्याप्त हो गया।
 
“ऐसे दिव्य पुष्पों के बारे में मैंने कहानियों में ही पढ़ा, कभी दे खा नहीं। यह भी एक
अविश्वसनीय सत्य है ”, कहते हुए राजा ने रत्नाकर को मोती का हार भें ट में दिया।
 
इसके बाद महायज्ञ नामक एक पंडित खड़ा हो गया और कहा, “प्रभु, मेरे पास एक प्राचीन
सिक्का है । उसका स्पर्श करने मात्र से पुरानी बातें याद आ जाती है ”, कहते हुए उसने वह
सिक्का राजा को दिया।
 
राजा ने जैसे ही उस प्राचीन सिक्के का स्पर्श किया, सारी परु ानी बातें एकसाथ याद आ गयीं।
राजा ने प्रस होकर पंडित महायज्ञ को सोने की अनेक अशर्फि याँ दीं।
थोड़ी दे र तक सभा में चुप्पी छा गयी। तब शिवदत्त नामक एक युवक ने उठकर कहा,
“महाराज, मैंने सभा में सिंहद्वार से होते हुए प्रवेश नहीं किया। क्या आप बता सकते हैं, मैंने
यहाँ कैसे प्रवेश किया?”
 
“कैसे आये? कुतूहल भरे स्वर में राजा ने पूछा।
 
“रिश्वत द्वार से आया हूँ”, शिवदत्त ने मस् ु कुराते हुए कहा। “रिश्वत द्वार से? वह कहाँ है ?”
राजा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पछ
ू ा।
 
“महाराज, अविश्वसनीय सत्य बताकर आपसे भें टें प्राप्त करने कुछ लोग इस सभा में आये।
उन सबसे आपके पहरे दारों ने दस अशर्फि यों के हिसाब से हर एक से रिश्वत ली और अंदर जाने
दिया। मैं भी ऐसे ही आया। इसलिए मैंने समझा कि वह सिंहद्वार नहीं, रिश्वत द्वार है ,”
शिवदत्त ने कहा।
 
“पहरे दार रिश्वत लेते हैं? मैं विश्वास नहीं करता”, राजा ने दृढ़्र स्वर में कहा।
 
“आप विश्वास नहीं करते, इसलिए वह अविश्वसनीय सच हो गया महाराज। यही एक द्वार
नहीं, हमारे राज्य में कितने ही और रिश्वत द्वार भी हैं। विश्वास करके जिन्हें आपने शासन की
जिम्मेदारियाँ सौंपीं, वे स्वार्थ पूरित होकर करों के रूप में प्रजा को लूट रहे हैं। राजकर्मचारी
घूसखोर बन गये हैं। इन अविश्वसनीय सच्चाइयों को आपको बताने के लिए ही रिश्वत दे कर
अंदर आया हूँ, भें टें प्राप्त करने नहीं।” शिवदत्त ने गंभीर स्वर में कहा।
 
यह सुनकर राजा चौंक उठे । क्षण भर में उन्होंने अपने को संभाल लिया और उन तीनों
आदमियों की ओर दे खा, जिन्होंने भें टें प्राप्त कीं। उन सबने इस अर्थ में सिर हिलाया कि
शिवदत्त ने सच ही बताया। राजा ने मंत्रियों और राज कर्मचारियों की ओर दे खा। उन सबने
शर्म के मारे सिर झक
ु ा लिया। मौन रहकर ही उन्होंने अपने अपराधों को स्वीकार किया।
 
सिंहासन से उतरकर राजा सीधे शिवदत्त के पास आये और कहा, “तम ु ने जो बताया, वह सब
से बड़्रा अविश्वसनीय सत्य है । तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें अपने सलाहकार के पद पर
नियुक्त करता हूँ”, कहते हुए उन्होंने अपने कंठ से मणिहार निकालकर उसे दिया।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा से कहा, “राजा ने घोषणा की कि अविश्वसनीय


सच्चाइयाँ सबूत सहित जो बतायेंगे, उन्हें भें टें प्रदान करूँगा और उनका सत्कार करूँगा। अद्भत

अंधेरे के पत्थर को, दिव्य पुष्प को, स्मति
ृ सिक्के को जो-जो लाया, उसे राजा ने भें टें दीं पर उन
सबको महत्व न दे ते हुए वास्तविकता को उनकी दृष्टि में लानेवाले शिवदत्त की उन्होंने प्रशंसा
की। इसका क्या अर्थ है ? उसने जो वास्तविकताएँ बतायीं, वे अविश्वसनीय कैसे हो सकती हैं?
उनमें अविश्वसनीयता है ही क्या? मेरे संदेहों के उत्तर जानते हुए भी मौन ही रहोगे तो तुम्हारे
सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “उन तीनों ने जो वस्तुएँ दिखायीं, वे सचमुच ही अद्भत
ु हैं। परं तु शिवदत्त की
बतायी वास्तविकता ही सच्चे अर्थ में बड़ा अविश्वसनीय सच है , क्योंकि राजा ने जिन मंत्रियों
को विश्वासपात्र माना, वे स्वार्थी और घूसखोर निकले। राजा ने सोचा कि सब कुछ ठीक-ठाक
चल रहा है , पर यह असत्य निकला। यह सत्य जानकर राजा चकित रह गये। उनके हृदय को
बड़ा धक्का लगा। राजा के लिए वे बातें उतनी ही अविश्वसनीय थीं जितनी अन्य अनोखी
वस्तुएं, क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों की सच्चाई पर पूरा विश्वास था। जिनका विश्वास नहीं
करना चाहिये, उनका विश्वास करने से कितने ही अनर्थ घटते हैं। शासक इस प्रकार से आँखें
मूंदकर विश्वास करें गे तो जनता का अहित होगा। अविश्वसनीय समाचारों के नाम पर जिस
शिवदत्त ने वास्तविक परिस्थितियों को विशदपूर्वक बताया, वह ईमानदार है , साहसी है । इन
सबसे भी बढ़कर वह प्रजा क्षेम को चाहनेवाला उत्तम नागरिक है । इसी वजह से उसने राज्य में
हो रहे अन्यायों को बड़ी ही अ़क्लमंदी से राजा को बताकर उनकी आँखें खोल दीं। इसीलिए राजा
ने उसे अपने कंठहार ही पुरस्कार के रूप में नहीं दिया बल्कि उसे अपना सलाहकार भी
बनाया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल फिर से शव सहित गायब हो गया और पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधारः एस. शिवनागेश्वर की रचना)
 
84. समाधान

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल
लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, "राजन ्, मैं
यह नहीं जानता कि किस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए इतना परिश्रम कर रहे हो। हो
सकता है कि तुम अपने राज्य की किसी समस्या के समाधान के लिए इतनी कठोर साधना कर
रहे हो। विज्ञ माने जानेवाले कुछ व्यक्तिगण सरल काम को भी जटिल बना दे ते हैं। उस
महाराज शूरसेन और उस गुरु की कहानी तुम्हें सुनाऊँगा, जिन्होंने दष्ु ट अग्रज को हटाकर
अनुज को राज्याधिकार सौंपने की समस्या को अनावश्यक ही जटिल बना दिया। हो सकता है
तुम्हारी भी समस्या कुछ वैसी ही हो। ध्यान से सुनो।" फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने
लगा:

अवंति के राजा शरू सेन सय ु ोग्य शासक थे। जनता उन्हें बहुत चाहती थी। वज्रसेन, विक्रमसेन
उनके दो पत्र
ु थे। वद्ध
ृ ावस्था में राज्य की जिम्मेदारियाँ उनसे संभाली नहीं जा सकीं, अतः बड़े
बेटे वज्रसेन को राज्याधिकार सौंपा और वानप्रस्थ स्वीकार करके पत्नी समेत पास ही के
अरण्य में चले गये।
 
वज्रसेन पिता की ही तरह सुचारु रूप से राज्य-भार संभालने लगा। उसके सश
ु ासन में प्रजा
सुखी थी। गुरुकुल में जब वह शिक्षा प्राप्त कर रहा था, तब सहपाठी मणिधर को वह बहुत
चाहता था। वे दोनों घने दोस्त थे। इसलिए वज्रसेन ने मणिधर की बहन से विवाह किया।
मणिधर भी बहन के साथ अवंति राज्य में आया और स्थायी रूप से वहीं बस गया। धीरे -धीरे
उस राज्य को हस्तगत करने की इच्छा उसमें तीव्रतर होती गयी। इसलिए उसने वज्रसेन की
अच्छाई का फायदा उठाया। उसमें विलास के प्रति उसकी आसक्ति जगा दी और शासन की
ओर से उसका मन हटा दिया। फिर उसकी जिम्मेदरियाँ स्वयं संभालने लगा। राज्य के प्रमुख
और अधिकारी उसी के द्वारा राजा को अपना सन्दे श भेजने लगे। राजा के स्थान पर वही
निर्णय दे ने लगा। क्रमशः वज्रसेन का शासन पर वश नहीं रहा। मणिधर ने एक-एक करके सभी
अधिकारों को अपने हाथ में ले लिया।
 
चँ ूकि राजा का अधिकार मणिधर के हाथ में आ गया, इसलिए स्वार्थी अधिकारी उसके तलवे
चाटने लगे। उसकी प्रशंसा करने लगे और मासूम प्रजा को लूटने लगे। राज्य में अनीति बढ़ती
गयी। राज्याधिकारी धनवान बनते गये। व्यापारी और साधारण प्रजा नाना प्रकार के कष्ट
सहने लगे।
 
नगर के प्रमुख इस दःु स्थिति को सह नहीं पाये। वे राजा से इसकी शिकायत करने आये, पर
मणिधर ने उन्हें रोका। उन्हें राजा तक नहीं जाने दिया। नगर के प्रमख
ु ों ने मणिधर को राजा
का अन्तरं ग मित्र समझकर उसकी बात मान ली। उनके प्रयत्न असफल हो गये। वे सब
विक्रमसेन से मिले और अपने कष्टों को दरू करने की याचना की। अग्रज को सिंहासन से
हटाकर स्वयं राजा बनने के लिए उन्होंने उसे प्रोत्साहित किया। पर विक्रमसेन ने ऐसा करने से
इनकार कर दिया।

कोई और चारा न पाकर वे वद्ध


ृ राजा शूरसेन से मिले और अपना दख
ु ड़ा सुनाया। उन्होंने उससे
कहा भी कि वे विक्रमसेन को राजा बनायें और उन्हें इन पीड़ाओं से उबारें ।
 
उनकी दःु स्थिति को जानने के बाद राजा शरू सेन ने अपनी अशक्तता बताते हुए उनसे बताया,
"ऐहिक बंधनों से दरू मैं वानप्रस्थ का जीवन बिता रहा हूँ। ऐसी अवस्था में मैं इस विषय में कुछ
नहीं कर सकता। आप लोग कुछ और समय तक प्रतीक्षा कीजिये। आपकी समस्या का
समाधान होगा।"
 
यद्यपि उन्होंने नगर के प्रमुखों को सन्तुष्ट करके भेज दिया था फिर भी अपने राज्य की
समस्या सुनकर चिन्तित हो उठे । शूरसेन ने इस विषय पर खूब सोचा-विचारा। पुरप्रमुखों की
इच्छा के अनुकूल करना धर्म विरुद्ध है । हो सकता है , इससे और नयी समस्याएँ उत्पन्न हो
जायें। इसलिए दस
ू रे ही दिन वे गुरु के आश्रम में गये, जिनसे उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी।
समस्या पर प्रकाश डाला और सही मार्ग दर्शाने की विनती की।
 
गुरु ने कहा, "अवंति की प्रजा के कष्टों के बारे में मैंने भी सुनाहै । तुम्हारे दोनों पत्र
ु सद्गुण
संपन्न हैं। परं तु वज्रसेन का सहपाठी मणिधर दष्ु ट है । इन अनर्थों के मूल में वही है । पंद्रह दिनों
के अंदर इस समस्या का समाधान ढूँढ़ेंगे। तुम निश्चिंत होकर जाओ," यह कहकर उन्हें भेज
दिया।
 
दसू रे दिन गरु
ु वज्रसेन से मिलने स्वयं गये। अपने गरु
ु के आने का समाचार पाते ही वज्रसेन ने
अपने सभी कार्यक्रमों को रद्द किया और उनका स्वागत किया। उन्हें सिंहासन पर बिठाते हुए
उसने कहा, "आपके आगमन से हम धन्य हो गये। आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ ।"
 
गुरु ने कहा, "विद्याभ्यास के पूर्ण होते ही शिष्यों से गुरु दक्षिणा स्वीकार करना चली आती हुई
परं परा है । परं तु उस दिन मैंने तुमसे कहा था कि ज़रूरत पड़ने पर मैं अवश्य ही तम
ु से गुरु
दक्षिणा स्वीकार करूँगा। तुम्हें याद है न?"
 
"कैसे भलू सकता हूँ, गरु
ु वर। बताइये, आप क्या चाहते हैं? इसी क्षण मैं उसका प्रबंध करूँगा।"
वज्रसेन ने विनयपर्व
ू क कहा।
 
"वादा करने के बाद कहीं मुकर तो नहीं जाओगे," गुरु ने कहा।
 
"मैं जानता हूँ कि वादा करने के बाद उससे मुकर जाना मत्ृ यु समान है । निस्संकोच माँगिये,"
वज्रसेन ने दृढ़ स्वर में कहा।

"अपना अवंति राज्य गरु


ु दक्षिणा के रूप में मेरे सप
ु र्द
ु कर दो," गरु
ु ने माँगा।
 
उनकी इच्छा को जानकर क्षण भर के लिए वज्रसेन अवाक् रह गया। पर दस ू रे ही क्षण अपने को
संभालते हुए उसने कहा, "ऐसा ही होगा, गुरुवर। आपकी इच्छा के अनुसार ही यह राज्य..."
कुछ और कहने ही वाला था कि मणिधर ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "ठहरिये महाराज। यह
आपके वंश की संपत्ति है । उसे गुरु दक्षिणा के रूप में दे ना सर्वथा अनुचित है । आपके गुरु को
चाहिये तो वे माँगे, धन, मणियाँ, मोती, पशु, खेत या कुछ और माँगे।"
 
"नहीं, ऐसा करूँगा तो अपने वचन से मक ु रनेवाला कहलाऊँगा। इससे मेरे वंश की अप्रतिष्ठा
होगी।" फिर गरु ु की ओर मड़ ु ते हुए उसने कहा, "आपकी इच्छा के अनस
ु ार मेरे राज्य को गरु

दक्षिणा के रूप में स्वीकार कीजिये।"
 
"तुम्हारी गुरु भक्ति असमान व असाधारण है , वज्रसेन। शासन के पालन में तुम्हारी थोड़ी भी
श्रद्धा होती तो यह परिस्थिति नहीं आती। इस दष्ु ट मणिधर ने तुम्हें गुमराह किया। प्रजा को
इसने अनेक कष्ट दिये। प्रजा का कुशल-मंगल ही प्रभुओं के लिए अलंकार है ।" फिर उन्होंने
अपने दो शिष्यों को बुलाकर उनके कानों में कुछ कहा।
 
शिष्य जंगल गये और शूरसेन महाराज को राजधानी ले आये। उनके आते ही गुरु ने कहा,
"राजन ्, वज्रसेन ने अवंति राज्य को गुरु दक्षिणा के रूप में मेरे सुपुर्द कर दिया। अब मैं तुम्हें
समर्पित कर रहा हूँ। इसमें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है । अब तुम्हें राज्य को दो भागों में
विभाजित करना है , जिनके राजा होंगे, तुम्हारे दोनों पत्र
ु । इससे प्रजा के कष्ट दरू हो जायेंगे।
आशा करता हूँ कि इससे दोनों राज्यों में शांति स्थापित होगी और अब सब का कल्याण होगा।"
 
दोनों भाइयों ने सहर्ष गुरु के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। शूरसेन ने गुरु की आज्ञा के
अनुसार राज्य को दो भागों में विभक्त किया और आश्रम लौटे ।

वेताल ने इस कहानी को सुनाने के बाद कहा, "राजन ्, जब प्रजा ने विक्रमसेन से विनती की कि


वह अपने बड़े भाई के विरुद्ध विद्रोह करे और सिंहासन पर स्वयं आसीन हो, तब उसने इनकार
किया। फिर इसके बाद पिता की आज्ञा के अनुसार आधे राज्य को स्वीकार किया। उसने ऐसा
क्यों किया? यह साबित हो चुका था कि वज्रसेन असमर्थ व व्यसनी है , फिर भी उसे आधा राज्य
दे ना विज्ञता कहलायेगी? जिस शूरसेन ने कहा था कि मैं ऐहिक बंधनों से छुटकारा पाकर
वानप्रस्थ में जीवन बिता रहा हूँ। ऐसी स्थिति में मेरा हस्तक्षेप करना अनुचित होगा और होगा,
धर्म विरुद्ध। ऐसी स्थिति में उसका गुरु के आश्रम में जाना कहाँ तक उचित है ? राज्य को दो
भागों में विभाजित करके दोनों भाइयों को सौंपना कहाँ तक न्याय संगत है ? क्या यह उनके
पक्षपात का ज्वलंत उदाहरण नहीं? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चप
ु रह जाओगे तो
तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।"
 
विक्रमार्क ने कहा, "राज्याधिकार वंशानुगत विरासत है । बग़ावत करके उसे अपने वश में करने
से हो सकता है , अराजकता फैल जाए और वह बुरी प्रथा बन जाए। इसीलिए विक्रमसेन ने
पुरप्रमुखों की विनती को स्वीकार नहीं किया। पर बाद में गुरु, भाई और पिता की इच्छा का
पालन करते हुए आधे राज्य को स्वीकार कर लिया। यह उसने किया, प्रजा के क्षेम के लिए।
स्वभाव से वज्रसेन भी अच्छा व्यक्ति था, इसीलिए उसने पिता की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार
कर लिया। उसने यह भी सोचा कि साले को दरू रखने से वह भी सन्मार्ग पर चल पायेगा और
भाई की ही तरह सुशासन चला पायेगा। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वानप्रस्थ आश्रम से लौटे
राजा ने फिर से राज्य को स्वीकार किया और जिस राज्य को गुरु ने उससे स्वीकार करने के
लिए कहा, उसे दो भागों में विभाजित करके दोनों भाइयों में समान रूप से बांटा। उसने प्रजा के
क्षेम को ही सर्वोत्तम माना, इसीलिए उसने ऐसा किया। इसमें उसके स्वार्थ का सवाल ही नहीं
उठता। प्रजा क्षेम को सर्वोपरि मानकर राजा और गुरु ने सबकी सम्मति पाकर समस्या का
समाधान किया और वे दोनों धन्यवाद के पात्र हैं।"
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार प्रभाकर की रचना)
 
85. गंधर्व कन्या

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और श्मशान की ओर चलता बना। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ् बहुत-
से ऐसे लोग होते हैं, जिनमें विवेक और लोक का अनुभव भरसक होता है परं तु इनमें से कुछ
लोग क्षणिक भावोद्वेग के शिकार हो जाते हैं। किसी की सहायता करने के उद्देश्य से शायद इस
जंगल में आधी रात को भटक रहे हो। तुमने जिनकी भलाई की, वे अगर कृतज्ञतापूर्वक तुम्हारी
कोई इच्छा पूरी करना चाहते हों तो उस स्थिति में युवराज वसंतसेन की तरह व्यवहार मत
करना। आगे और सावधान रह सको, इसके लिए मैं तुम्हें उसकी कहानी बताऊँगा। थकावट दरू
करते हुए उसकी कहानी सुनना।” फिर वेताल वसंतसेन की कहानी यों सुनाने लगाः

गंधर्व लोक में चित्रवर्णिका नामक एक गंधर्व कन्या थी। वह अद्भत


ु सौंदर्य - राशि थी। सब लोग
उसकी संद ु रता की प्रशंसा किया करते थे।
 
स्वर्णमंजरी, गंधर्व राजा शक्तितेज की इकलौती बेटी थी। चित्रवर्णिका की सुंदरता के बारे में
सुनते-सुनते उसके कान पक गये। उसमें उसके प्रति द्वेष की भावना उत्पन्न हो गई।
 
बेटी की इच्छा पर शक्तितेज, स्वर्णमंजरी को एक बार भल ू ोक ले गया। वहाँ की विचित्रताएँ,
विशेषताएँ और दर्शनीय स्थल उसने उसे दिखाये। लौटने के बाद स्वर्णमंजरी सबको भल
ू ोक के
बारे में बढ़ा-चढ़ाकर कहती रहती। इसलिए चित्रवर्णिका में भी भल
ू ोक को दे खने की इच्छा
जगी।
 
शक्तितेज ने जब यह ख़बर पुत्री के द्वारा सुनी, तो उसने चित्रवर्णिका को सभा में बल
ु वाया
और कहा, “चित्रा, मेरी अनुमति के बिना भूलोक जाना अपराध है । अगर तम
ु ने फिर भी भूलोक
जाने का निश्चय किया तो फ़ौरन गंधर्व कन्या की समस्त शक्तियाँ खो दोगी। परं तु हाँ, भूलोक
के किसी महत्तर दर्शनीय स्थल को पंद्रह दिनों के अंदर दे ख पाओगी तो वे शक्तियाँ तुम्हें पुनः
प्राप्त हो सकती हैं। तभी तम
ु फिर से गंधर्व लोक में क़दम रख सकती हो।”
 
गंधर्व राजा की बातें सुनकर उसमें आग्रह और बढ़ गया, उसके शाप के लिए भी वह सन्नद्ध हो
गयी और तुरंत भूलोक निकल पड़ी। गगन मार्ग से यात्रा करते समय उसने भूलोक के अरण्य
प्रांत में प्रवाहित होते हुए एक सुंदर प्रपात को दे खा। चित्रवर्णिका ने उस प्रपात के तले जी भर के
नहाया और जब गगन मार्ग की ओर उड़ी तो उसे मालूम हो गया कि उसने समस्त शक्तियाँ खो
दीं। उससे उड़ा नहीं जा रहा था। उसके मन की कोई इच्छा पूरी नहीं हो रही थी।
 
उस समय एक घुड़सवार युवक उधर से गुज़र रहा था। चित्रवर्णिका को दे खकर उसने कहा,
“संद
ु री, तम्
ु हारे इन अद्भत
ु रूप लावण्यों को दे खते हुए लगता है कि तम
ु भल
ू ोक की कांता नहीं
हो। मझु े दे खने के बाद तमु अदृश्य नहीं हुई। इसका यह मतलब हुआ कि तम ु किसी संकट में
हो। मैंने ठीक ही कहा न?”

“ऐ भूलोकवासी, तुम बहुत ही सूक्ष्मग्रही हो। मेरा नाम चित्रवर्णिका है , गंधर्व कन्या हूँ। तुम्हारा
लोक दे खने आयी, फलस्वरूप अपनी शक्तियाँ खो बैठी।” चित्रवर्णिका ने कहा।
 
उस यवु क ने अपना परिचय दे ते हुए कहा, “मेरा नाम वसंतसेन है । कीर्तिचंद्रिका राज्य का
यव
ु राजा हूँ। राज्याभिषेक के पर्व
ू दे श में घम
ू ने निकला हूँ। मैं तम्ु हें भल
ू ोक के मख्
ु य और
महत्वपर्ण
ू स्थल दिखाऊँगा। इसके बदले में तम् ु हें मझ
ु े गंधर्व लोक दिखाना होगा। मैं वहाँ के
शासन की श्रेष्ठ पद्धतियों को अपने राज्य में अमल में लाना चाहता हूँ।”
 
“युवराज, तुम्हारे विचार प्रशंसनीय हैं। परं तु, गंधर्व लोक पहुँचने के लिए मुझे आवश्यक
शक्तियाँ पानी होंगी।” फिर उसने गंधर्व लोक से निकलने के पहले, जो हुआ, वह सारा वत्ृ तांत
वसंतसेन को सुनाया।
 
फिर कहा, “शक्तितेज हमारे राजा हैं। पुनः मैं गंधर्व शक्तियाँ प्राप्त कर सकंू , इसके लिए
उन्होंने एक मार्ग सुझाया। पंद्रह दिनों के अंदर यदि मैं भूलोक के सबसे महत्तम पुण्यस्थल के
दर्शन करूँ तो इस शाप से मुक्त हो सकूँगी। क्या तुम बता सकते हो कि वह महत्तम पुण्यस्थल
कहाँ है और कौन-सा है ?”
 
इसपर वसंतसेन ने कहा, “हमारे दे श के पंडित जानते हैं कि वह पुण्यस्थल कौन-सा है । इस
पवित्र स्थल पर महाशिव और पार्वतीदे वी विहार करते हैं और इस का नाम है , कैलासगिरि।
मानसरोवर उसके निकट ही है । वहाँ से हम कैलास गिरि के दर्शन कर सकते हैं।”
 
यह सुनते ही चित्रवर्णिका ने बड़े ही उत्साह के साथ कहा, “परं तु, क्या पंद्रह दिनों के अंदर हम
वहाँ पहुँच सकेंगे?”
 
“हाँ, पंद्रह दिनों के अंदर हमारा वहाँ जाना संभव है । मार्ग मध्य में भूलोक की विशेषताएँ
दिखाता जाऊँगा।” फिर दोनों निकल पड़े। वसंतसेनचित्रवर्णिका को मार्ग मध्य में स्थित संद
ु र
मंदिरों, तथा अन्य रमणीय प्राकृतिक दृश्यों को दिखाता गया। दस दिनों के अंदर वसंतसेन,
चित्रवर्णिका सहित मानसरोवर पहुँचा।

पूर्णिमा की रात थी। चांदनी में कैलासगिरि चमक रहा था। कैलासगिरि को दे खते ही दोनों ने
सिर झक
ु ाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया।
 
दस
ू रे ही क्षण चित्रवर्णिका का शरीर दिव्यकांति से जगमगा उठा। वह समझ गयी कि उसे पुनः
गंधर्व शक्तियाँ प्राप्त हो गयीं। उसने वसंतसेन से खश ु होती हुई कहा, “यवु राजा, तम्
ु हारी
सहायता कभी नहीं भल ू ँग
ू ी।”
 
जैसे ही पत्र
ु ी स्वर्णमंजरी के द्वारा गंधर्व राजा ने चित्रवर्णिका और वसंतसेन के बारे में
जानकारी प्राप्त की, वहाँ वह अकस्मात ् आ धमका। स्वर्णमंजरी अदृश्य रूप में पहले से ही
चित्रवर्णिका का पीछा कर रही थी।
 
चित्रवर्णिका ने, बड़े ही विनय से शक्तितेज से कहा, “ये कीर्तिचंद्रिका राज्य के यव
ु राज
वसंतसेन हैं। इनसे मझ ु े बहुत सहायता प्राप्त हुई है । मैंने इन्हें गंधर्व लोक दिखाने का वचन
दिया। हम इन्हें अपना अतिथि बनाकर ले जायेंगे।” इसपर शक्तितेज ने क्रोधित हुए कहा,
“मानवों के लिए हमारा लोक निषिद्ध है । क्या यह सत्य भल ू गयी?” कहकर वह गायब हो गया।
 
“हमारे गंधर्व राजा की बातें तम
ु ने सुन लीं । हो सकता है , तुम्हें गंधर्व लोक ले जाने से मैं कष्टों
में फंस जाऊँ। फिर भी तम
ु चाहो तो मैं तुम्हें गंधर्व लोक ले जाऊँगी।” चित्रवर्णिका ने कहा।
 
वसंतसेन ने हिचकिचाये बिना कहा, “जब तम ु ने यह कह दिया तो भला मैं तम् ु हारा लोक दे खना
क्यों चाहूँगा।
 
“अपना मन बदलकर साक्षात ् तुम्हारे गंधर्व राजा ही आ जाएँ और गंधर्व लोक आने का
निमंत्रण दें , तो भी मैं तुम्हारे लोक में क़दम नहीं रखग
ूँ ा।” चित्रवर्णिका, वसंतसेन की इस बात
पर बेहद खश
ु होती हुई ग़ायब हो गयी।

वेताल ने कहानी सुनायी और कहा, “राजन ्, युवराज वसंतसेन ने कष्ट सहकर चित्रवर्णिका की
सहायता की। उसी की वजह से उसे गंधर्व शक्ति प्राप्त हुई । अलावा इसके, उसमें यह प्रबल
इच्छा थी कि गंधर्व लोक जाऊँ और वहाँ की शासन-पद्धतियों से परिचय प्राप्त करूँ और उनमें
जो अच्छाइयॉ ं हैं, उन्हें अपने राज्य में अमल में लाऊँ । जब चित्रवर्णिका उसे गंधर्व लोक ले
जाने का हठ कर रही थी तो वसंतसेन ने गंधर्व लोक जाने से क्यों इनकार किया? क्या वह
किन्हीं तात्कालिक भावोद्वेगों का शिकार हुआ? अथवा उसे गंधर्व राजा से भय था? मेरे इन
संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जाएँगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “वसंतसेन का मानना था कि गंधर्व उत्तम होते हैं, इसलिए गंधर्व लोक की
अच्छी शासन-पद्धतियों को भल
ू ोक में अमल में लाने की उसकी इच्छा थी। परं तु वह जान गया
कि स्वर्णमंजरी ईर्ष्या से जली जा रही है और गंधर्व राजा अकारण ही क्रोधित हो रहे हैं। उसने
चित्रवर्णिका से शाप आदि के बारे में भी सन
ु रखा था। वह जान गया कि गंधर्व लोक में ऐसी
कोई अच्छाई नहीं है , जो भू लोक में अमल में लायी जा सकती हो । इसी कारण उसने वहाँ न
जाने का निर्णय लिया।
 
यही नहीं, जब चित्रवर्णिका ने यह कहा कि तुम्हें गंधर्व लोक ले जाने में मुझे अनेक कष्ट सहने
होंगे, फिर भी इनकी परवाह किये बिना मेरे साथ चलना ही चाहते हो तो मुझे लाचार होकर ले
जाना पड़ेगा, तो इससे वसंतसेन को आश्चर्य भी हुआ और साथ ही घण
ृ ा भी । इन्हीं कारणों से
उसे अपना निर्णय बदलना पड़ा। किन्हीं तात्कालिक भावोद्वेगों में आकर उसने यह निर्णय
नहीं लिया।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(तुलसी की रचना के आधार पर)
 
86. सहिष्णुता

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे
पर डाल लिया। यथावत ् जब वह श्मशान की ओर बढ़ने लगा, तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “वाह राजन ्, वाह! तुम्हारी सहिष्णुता असाधारण व अतुलनीय है । तुम्हारी कितनी भी
प्रशंसा की जाए, कम है । तुम्हारी सहिष्णुता अवश्य ही प्रशंसनीय है , पर मुझे इस बात का भय
है कि जब इसका फल तुम्हारे हाथ लगनेवाला हो तो तुम कहीं चंचलतावश इसे स्वीकार करने
से इनकार कर दो। इससे किया-कराया सब व्यर्थ हो जायेगा। इसीलिए तुम्हें सावधान करने के
लिए चपलचित्त भील जाति के युवक-युवती की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दरू करते हुए इस
कहानी को ध्यानपूर्वक सुनना।” फिर वेताल यों कहने लगा:

दं डकारण्य की पर्वी
ू दिशा में मार्तांड नामक भील जाति का एक गाँव था। साहसप्रिय भील जाति
के कुछ यव
ु क-यव
ु तियाँ एक सरोवर के तट पर जमा हो गये। वे आपस में इधर-उधर की बातें
करते हुए समय बिताने लगे। उस सरोवर में मछलियाँ जल में से ऊपर उड़ने और फिर डूबने
लगीं। वे सबके सब मछलियों के इस खेल का मज़ा लेने लगे।
 
उन युवकों में से एक युवक ने चुनौती दे ते हुए पूछा, “हवा में उड़नेवाली इन मछलियों को क्या
कोई अपने बाण से बेध सकता है ?”
 
“ये मछलियाँ क्षण भर के लिए ऊपर आती हैं और तरु ं त डूब जाती हैं। इस क्षण भर में निशाना
बांधना कठिनतम काम है । उनपर बाण चलाना असंभव है ”, एक और यवु क ने कहा।
 
एक और युवक ने उसकी राय से अपनी सहमति जतायी।
 
प्रथम यव
ु क ने कहा, “ध्यान लगाकर कोशिश की जाए तो यह कोई असाध्य कार्य नहीं है ।”
 
इसके बाद तीनों युवकों ने मछलियों पर बाण बेधने की भरसक कोशिश की। पर, कोई भी
सफल नहीं हो पाया। उस समूह में नीलिमा नामक एक युवती थी। उस गाँव के सब युवक
उसकी सुंदरता पर मुग्ध थे। वह प्रताप नामक युवक को बहुत चाहती थी। वह बाघ की तरह
तेज़ था। सुडौल व सुंदर था। नीलिमा उसकी धनुर्विद्या की परीक्षा लेना चाहती थी। इसलिए
उसने उससे कहा, “उड़ती मछली को अपने बाण का निशाना बनाओगे तो मैं तम
ु से विवाह
करूँगी।”
 
प्रताप में उत्साह भर आया और एकाग्रचित्त हो उसने मछली पर बाण चलाया। पर वह मछली
बच गयी। प्रताप बड़ा ही निराश हुआ।
 
उनसे थोड़ी ही दरू ी पर वीरबाहु नामक युवक अपने मित्रों सहित बैठा हुआ था और वह यह सब
दे ख रहा था। उसमें जोश भर आया। वह नीलिमा को बहुत चाहता था। उसने सोचा कि नीलिमा
से विवाह करने के लिए यह एक सुअवसर है । उसने निशाना साधा, अपनी पूरी शक्ति लगायी
और बड़े ही वेग से बाण चलाया। वह बाण मछली को जा लगा। सबने तालियाँ बजायीं और
उसकी वाहवाही की। वीरबाहु ने गर्व भरे स्वर में कहा, “ऐ सुंदरी, तुम्हारी परीक्षा में मैं उत्तीर्ण
हो गया। अपने वचन के अनुसार तुम्हें मुझसे विवाह करना होगा। बोलो, कब विवाह करोगी?”

उसकी इन बातों पर नीलिमा चौंक उठी और बोली, “तम


ु से विवाह? कभी नहीं। सपने में भी यह
संभव नहीं। मैंने तो कहा था कि मेरी चन
ु ौती को स्वीकार करके यदि प्रताप जीत जायेगा तो
उससे विवाह करूँगी। मैंने तो यह नहीं कहा था कि इस प्रतियोगिता में जो जीत जायेगा, उससे
विवाह करूँगी। वास्तव में यह प्रतियोगिता नहीं थी। यह व्यक्तिगत चुनौती सिर्फ प्रताप के
लिए थी, किसी और के लिए नहीं।”
 
“क्या तम
ु ने ऐसा कहा था? तुमने तो प्रताप का नाम ही नहीं लिया। तुमने तो कहा था कि इसमें
जो सफल होगा, उससे विवाह करूँगी? अब मैं जीत गया हूँ। मुझसे विवाह करने से क्यों इनकार
कर रही हो? न्याय सबके लिए समान होना चाहिये। तुम मुझसे विवाह करने से इनकार करके
मेरे साथ अन्याय कर रही हो।” वीरबाहु जो मँह
ु में आया, बकने लगा।
 
“हाँ, गाँव में न्याय सबके लिए समान होना चाहिये। नीलिमा को वीरबाहु से शादी करनी ही
चाहिये।” गंबीर नामक एक युवक ने वीरबाहु का समर्थन किया।
 
“विवाह के विषय में न्याय सबके साथ एक समान नहीं होता। क्या कोई होशियार लड़की किसी
दष्ु ट से विवाह करे गी? यह मेरे विवाह की बात है । जिसे मैं चाहती हूँ, उसी से विवाह करूँगी।
बकवास बंद करो और चप ु हो जा।” क्रोध-भरे स्वर में नीलिमा ने कहा।
 
“बातें मत बनाओ। तुम मुझसे विवाह करोगी, इसी आशा से मैंने तुम्हारी चुनौती स्वीकार की।
अब नहीं तो किसी न किसी दिन तुमसे विवाह करके ही रहूँगा।” वीरबाहु ने प्रतिज्ञा की।
 
ऐसे झगड़े भील जाति में कभी-कभी होते ही रहते हैं परं त,ु उनमें एकता काफी दृढ़ होती है ।
अगर किसी की जान खतरे में हो तो वे इसपर विचार ही नहीं करते कि वह अच्छा आदमी है या
बरु ा, बलवान है या कमज़ोर। किसी की जान ख़तरे में हो तो अपने प्राण की बाजी लगाकर भी वे
उसकी रक्षा करते हैं। यह उस जाति में चला आता हुआ एक परं परागत रिवाज़ है । एक बार
वीरबाहु शहद निकालते हुए मधमु क्खियों के झण्
ु ड के बीच घिर गया ।
उससे नीचे उतरा नहीं जा रहा था। ज़मीन पर गिरकर मरने की संभावना थी, पर उस रास्ते से
गज़
ु रते हुए प्रताप ने वीरबाहु की यह असहायता दे खी और उसे बचाया। प्रताप ने परु ानी उस
घटना को याद करते हुए वीरबाहु से कहा, “नीलिमा तम ु से शादी करने के लिए तैयार है तो
इसमें मझ
ु े कोई आपत्ति नहीं। परं तु याद रखना, उसके साथ अच्छाई से बरतना और शादी के
लिए उसकी स्वीकृति ले लेना।”
 
“मुझे सब कुछ मालूम है । मुझे तुम्हारी सलाह की कोई ज़रूरत नहीं।” कहता हुआ वीरबाहु तेज़ी
से वहाँ से चला गया।
 
कुछ दिन बीत गये। एक दिन भील यव
ु क-यव
ु तियाँ शिकार करके भोजन कर चक
ु ने के बाद
आराम से बैठकर बातें कर रहे थे। तब अचानक चार बाघ उनपर टूट पड़े। घबराकर वे सब
तितर-बितर हो गये। वीरबाहु ने बड़ी ही चतरु ाई से बाघ के आक्रमण से नीलिमा को बचाया। वे
दोनों एक तंग घाटी में गिर गये। नीलिमा की दायीं कोहनी से लहू बहने लगा। ऊँचाई से नीचे
गिरने के कारण वह बेहोश हो गयी। उसके मुख पर पानी छिड़कने के लिए वीरबाहु पास ही के
सरोवर की तरफ़ दौड़ा।
 
ऊपर से उसके दोस्त गंबीर ने यह दृश्य दे खा और उससे कहा, “दोस्त, बड़े ही भाग्यवान हो।
तुरंत अपने दायें हाथ को जख्मी कर लो और उस लहू से मिला दो, जो नीलिमा की कुहनी से बह
रहा है । इससे, समझ लो, तम
ु दोनों का विवाह हो ही गया। जल्दी करो। मैं तुरंत गाँव में चला
जाऊँगा और सबसे कह दँ ग ू ा कि तुम दोनों की शादी हो गयी।” कहकर वह वहाँ से चला गया।
 
गंबीर का प्रचार सुनकर प्रताप और उसके दोस्त चकित रह गये। उन्होंने भील जाति के प्रधान
से शिकायत की कि वीरबाहु ने जबरदस्ती नीलिमा से शादी कर ली। प्रधान ने पंचों के बैठने के
स्थल पर सभा बुलायी और नीलिमा से पूछा, “बेटी नीलिमा, हमारे रिवाज़ के अनुसार अगर
पहले वधू चाकू से वर के बायें हाथ को घायल करे और वर वधू के बायें हाथ को रक्तसिक्त करे
तो दोनों को एक-दस
ू रे को आलिंगन में लेना चाहिये। तुम दोनों के हाथों में रक्त तो दीख रहा
है । क्या तम
ु ने विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी? वीरबाहु ने जबरदस्ती अगर तम
ु से शादी की
हो तो बता दे ना । अभी उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दँ ग
ू ा। शुद्धि कार्यक्रम के बाद जिसे तुम
चाहती हो, उसी से शादी कराऊँगा।”

नीलिमा ने सोचकर कहा, “वीरबाहु से मेरा जो विवाह हुआ, उसे हृदयपर्व


ू क स्वीकार करती हूँ।
मेरे विवाह की वजह से गाँव की एकता भंग नहीं होनी चाहिए।”
 
वीरबाहु यह सुनकर आगे आया और बोला, “नहीं प्रधानजी, मेरा विवाह ही नहीं हुआ। अपने
दोस्त की सलाह के अनुसार मैंने अपने हाथ को अवश्य घायल किया और इसे अच्छा मौक़ा
समझकर उसके साथ विवाह करना चाहा, क्योंकि मैं नीलिमा को बेहद चाहता हूँ। पर, जब मैं
पानी लेकर नीलिमा के पास पहुँचा, तब निर्मल चंदामामा जैसे उसके मुख को दे खते हुए वह
काम मैं नहीं कर सका। मैं यह भी जानता हूँ वह प्रताप को चाहती है , मझ
ु े नहीं। मैंने उसकी
चन
ु ौती को परू ा करके भी दिखाया फिर भी वह प्रताप को ही चाहती रही। आज उसकी बाघ से
रक्षा करके अपनी जाति की परम्परा के अनस
ु ार सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है । इसके लिए मैं
कोई मल्
ू य नहीं माँगना चाहता। बल्कि जो मझ ु से अपराध हुआ है उसके लिए मैं अपने मित्र
सहित इस गाँव को छोड़कर जा रहा हूँ।” यों कहकर वह वहाँ से चला गया। गाँव के प्रमख
ु ों ने बड़े
ही प्रेम के साथ उसे दे खा।
 
वेताल ने यह कहानी बतायी और कहा, “राजन ्, वीरबाहु और नीलिमा ने क्यों ऐसा असंबद्ध
व्यवहार किया? अगर प्रधान को नीलिमा कह दे ती कि उसकी इच्छा के विरुद्ध यह विवाह हुआ
है तो उसका विवाह प्रताप से हो जाता, जिसे ह चाहती है । उसने यह अवसर खो डाला और झूठ
कह दिया कि वीरबाहु के साथ हमारा विवाह हृदयपूर्वक हुआ है , जिससे वह पहले से ही घण
ृ ा
करती है । यह झूठ कहने की क्या आवश्यकता थी? वीरबाहु ने पहले प्रतिज्ञा भी की थी कि
किसी न किसी दिन तमु से विवाह करके ही रहूँगा, आख़िर नीलिमा ने मान भी लिया, पर यह
कहकर गाँव से खुद चला गया कि हमारी शादी ही नहीं हुई। उनकी ये बातें मेरी समझ के बाहर
हैं। मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी मौन रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो
जायेंगे।”

विक्रमार्क ने कहा, “सब समझते हैं कि उसकी शादी वीरबाहु से हो गयी, पर नीलिमा खुद नहीं
जानती कि उसकी बेहोशी की हालत में क्या हुआ। उसका यह कहना कि वीरबाहु से मेरा
हृदयपूर्वक विवाह हुआ है , उसकी जाति के महान गुण के प्रति कृतज्ञता का प्रमाण है जिसके
अनुसार वे ऐसे आदमी की बिना किसी भेद भाव के सदा रक्षा करते हैं, जिसकी जान ख़तरे में
हो। अगर वह कहती कि यह विवाह मेरी इच्छा के विरुद्ध हुआ है या असली बात कह दे ती तो
वीरबाहु को मार डाल दिया जाता। वह नहीं चाहती कि उस वीरबाहु को यह दं ड मिले, जिसने
उसे बाघ के आक्रमण से बचाया था। इसी वजह से उसने झूठ कहा कि हमारा विवाह हो गया।
 
“वीरबाहु ने तो सच-सच बताया। हाँ, वह नीलिमा को जान से ज़्यादा चाहता है , पर जाति के
रिवाज़ के विरुद्ध जबरदस्ती उससे विवाह रचाना नहीं चाहताथा । वह बिलकुल इसके विरुद्ध था
। इतना सब कुछ हो जाने के बाद अगर वह गाँव में ही रहने का निश्चय कर लेता तो हो सकता
है , इससे गाँव की एकता छिन्न-भिन्न हो जाती। इसी वजह से वह वहाँ से चला गया। दोनों ने
इस विषय में सहनशीलता के साथ काम लिया और गाँव की एकता को बनाये रखा। इसमें
असंबद्धता है ही नहीं। उनके इस त्याग की प्रशंसा गाँव के प्रमुखों ने भी मन ही मन की।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार-रघुवंश सहाय की रचना)
 
87. अपराध रहित नगर

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, मैं नहीं जानता कि तुम किस संकल्प को पूरा करने के लिए आधी रात को इस
प्रकार कष्ट झेलते जा रहे हो। एक विषय अच्छी तरह से याद रखना, जब समय साथ नहीं दे ता
तब बड़े संयम के साथ लिये जानेवाले निर्णय भी निरर्थक साबित होते हैं। उस दौरान विवेक
संपन्न व्यक्ति भी जो निर्णय लेते हैं, वे अपने साथ-साथ अपनों को भी कष्ट में डाल दे ते हैं। मैं
नहीं चाहता कि तुम ऐसी ग़लती कर बैठो। इसीलिए तुम्हें सावधान करने के लिए मनोहरी
नामक एक युवती की कहानी सुनाऊँगा। ध्यानपूर्वक सुनना।” फिर वेताल मनोहरी की कहानी
यों सुनाने लगा:

मातंग दे श के जयपरु नामक एक छोटे से नगर में शमनक नामक एक ईमानदार व्यापारी
रहता था। सश
ु ीला उसकी पत्नी थी, मनोहरी उसकी पत्र
ु ी और कौशिक व चैतन्य उसके पत्र
ु थे।
 
मणिपुर नामक एक बड़ा नगर इस नगर से थोड़ी दरू ी पर ही था। उस नगर का पालक था,
सुमत
ं । वह संतानहीन था, इसलिए दरू के रिश्तेदार शमनक के बेटे चैतन्य को गोद लेना
चाहताथा । शमनक और सश
ु ीला अपनी संतान को बेहद चाहते थे । इसलिए उन्होंने सुमंत के
प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सुमंत उनके इस निर्णय पर नाराज़ तो हुआ, पर अपनी
नाराज़ी को प्रकट होने नहीं दिया।
 
एक बार मणिपरु के मंदिर में श्रीरामनवमी के उत्सव बहुत बड़े पैमाने पर संपन्न हुए। शमनक
पत्नी और संतान सहित उन्हें दे खने वहाँ आये। सुमत
ं ने उनका आदर सत्कार किया और उन्हें
अपने ही घर में ठहराकर सभी सवि
ु धाओं का प्रबंध किया। इसे सही मौक़ा समझकर सुमंत ने
फिर से चैतन्य को गोद लेने की बात उठायी। पर शमनक ने फिर इनकार कर दिया। इस पर
सुमत
ं नाराज़ हो उठा और उनपर चोरी का अपराध थोपकर उन्हें राज्य-बहिष्कार की सज़ा दी।
 
शमनक पत्नी और संतान सहित बदरिकारण्य पहुँचा और वहीं एक आश्रम का निर्माण करके
रहने लगा। कंद, मूल, फल खाते हुए वे अपना जीवन यापन करने लगे। वे उसके आदी भी हो
गये। बच्चों को यह जीवन बिलकुल अच्छा नहीं लगा और कभी-कभी शिकायत भी करने लगे।
तब शमनक ने उन्हें समझाते हुए कहा, “शकुनि ने पांडवों को द्यूत में हराया। पांडव जानते थे
कि उनके साथ अन्याय हुआ फिर भी शर्त्त के मत
ु ाबिक वे जंगल गये और अज्ञातवास का भी
पालन किया। इसके बाद उन्होंने यद्ध
ु में कौरवों को हराया और राज्य हस्तगत किया। किसी भी
विषय में समय का प्रमुख स्थान है । जब तक हमारे लिए अच्छे दिन नहीं आते, तब तक हम
लोगों को यहीं रहना होगा।”
 
नौ साल बीत गये। शमनक के बच्चे बड़े हुए। बालिग मनोहरी के सौंदर्य को दे ख उसके माता-
पिता उसके विवाह की चिन्ता करने लगे।

ऐसी स्थिति में मातंग दे श का नया राजा माणिक्यवर्मा शिकार करने जंगल आया। वह एक
हिरण का पीछा करते हुए भटक गया। प्यास के मारे वह एक सरोवर ढूँढ़ रहा था तो उसने
अचानक मनोहरी को दे खा। उसके अद्भत
ु सौंदर्य को वह दे खता ही रह गया। अपनी प्यास को
भी भल
ु ाकर उसने मनोहरी से कहा, “संद
ु री, मैं मातंग का राजा माणिक्यवर्मा हूँ। शिकार करने
आया और भटक गया। तम्
ु हारे अद्भत
ु सौंदर्य को दे खकर मैं मंत्रमग्ु ध हो गया हूँ। तम्
ु हें स्वीकार
हो तो मैं तम
ु से विवाह करने को तैयार हूँ।”
 
मनोहरी ने लज्जा के मारे सिर झक ु ाते हुए कहा, “राजन ्, मेरे पिता ही मेरे लिए सब कुछ हैं।
उनकी अनुमति के बिना मैं कोई निर्णय नहीं लेती। मेरा नाम मनोहरी है । पास ही हमारा
आश्रम है । वहाँ आकर मेरे पिता से बात कीजिये।” वह राजा को अपने आश्रम में ले आयी।
 
माणिक्यवर्मा ने, शमनक से अपने मन की बात बताई और उन सबको अपने राज्य में आने का
निमंत्रण दिया।
 
शमनक घर के अंदर गया और यह विषय पत्नी और अपनी संतान से बताया। उसने उनसे
कहा, “अगर उन्हें मालूम हो जाए कि हम राज्य बहिष्कार की सज़ा भुगत रहे हैं तो पता नहीं, ये
उस नगरपालक के अन्याय का विरोध करें गे या नहीं। उस स्थिति में हो सकता है , ये मनोहरी
से विवाह नहीं करें । मनोहरी से विवाह हो जाए तो यह हमारा भाग्य होगा। मनोहरी राजा से
विवाह करे और महारानी बने, यह मेरी तीव्र इच्छा है । इसलिए अभी बहिष्कार की बात उनसे
छिपायेंगे। समय आने पर सुमत
ं की पोल खोलेंगे और इस अरण्यवास से बाहर निकलेंगे।”
 
मनोहरी ने इसपर आपत्ति उठायी और कहा, “यहाँ आप सब कष्ट सहते रहें और वहाँ मैं रानी
बनकर सुख भोगँ,ू यह नहीं हो सकता।”
 
माँ सश
ु ीला ने उसे समझाते हुए कहा, “तम
ु अपनी जिद पर डटी रहोगी तो हम जंगल में ही रह
जायेंगे और कष्ट झेलते रहें गे। जहाँ तक अरण्यवास की बात है , केवल तम्
ु हारे भाई ही असंतष्ु ट
हैं, हमें यहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं। अतः तम
ु अपने भाइयों को भी अपने साथ ले जाना
और मौक़ा मिलने पर इस समस्या का परिष्कार करना।”

मनोहरी को माँ की बात सही लगी।


 
शमनक घर से बाहर आया और माणिक्यवर्मा से कहा, “राजन ्, इस विवाह के लिए हम अपनी
सहमति दे ते हैं। पर, अभी मैं और मेरी पत्नी आपके साथ नहीं आ सकते । हम इस अरण्य को
छोड़ नहीं सकते। कुछ समय तक हम यहीं रहें गे। मेरे पत्र
ु कौशिक, चैतन्य मेरी पत्र
ु ी मनोहरी के
साथ जायेंगे।”
 
राजा ने अपनी सहमति दी। कौशिक, चैतन्य तुरंत फूल तोड़कर ले आये और सुशीला ने उनसे
मालाएँ बनायीं। वर-वधू ने एक-दस
ू रे को मालाएँ पहनाईं । पत्नी और सालों को लेकर राजा
राजधानी के लिए निकल पड़े।
 
अंतःपरु पहुँचने के बाद माणिक्यवर्मा ने मनोहरी से कहा, “अब से तम्
ु हारी बात मेरे लिए
शिलासन के समान है । जो भी तम
ु माँगोगी, तम्
ु हें दँ ग
ू ा। असाध्य को भी साध्य बनाकर अपने
प्रेम को प्रमाणित करूँगा ।” ?न' के भाव में सिर हिलाते हुए मनोहरी ने कहा, “मैं गरीब हूँ। पढ़ा
भी बहुत ही कम है । शिलासन जैसी इच्छा प्रकट करने की योग्यता मैं नहीं रखती।”
 
माणिक्यवर्मा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम्हारे माता-पिता ने राज सुखों का त्याग
किया। तुमने मेरे वरदान का त्याग किया। तम
ु सबके व्यक्तित्व महान हैं, इसलिए तम
ु लोग
दरिद्र हो ही नहीं सकते। अब रही पढ़ाई की बात। वह कभी भी सीखी जा सकती है ।” उसने तुरंत
सालों को राजोचित विद्याएँ सिखाने के लिए समर्थ गुरुओं को नियुक्त किया। मनोहरी को
राजनीति तथा राज मर्यादाएँ सिखाने के लिए श्रीवाणी नामक विदष ु ी की नियुक्ति की।
 
बहन और भाई गुरुओं के प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाते हुए और शिक्षा के प्रति रुचि दर्शाते हुए छे ही
महीनों में कितने ही विषयों में निष्णात बने। यह सुनकर माणिक्यवर्मा ने हर्ष विभोर हो
मनोहरी से कहा, “अब ही सही, अपनी इच्छा बताना। मेरे प्रेम को साबित करने के लिए एक
मौक़ा दो।”
 
“मेरे भाई नगरपालक बनें , यह मेरी इच्छा है । परं तु, इसके पहले वे किसी उत्तम नगरपालक से
आवश्यक शिक्षा पायें और तभी उन्हें वे पद मिलें।” मनोहरी ने यों अपनी इच्छा प्रकट की।

माणिक्यवर्मा ने खूब सोच-विचार कर कहा,  “नगरपालक समर्थ हो तो नगर में अपराध कम


होंगे। इसका यह मतलब हुआ कि जिस नगर में अपराधों की संख्या कम होती है , उसका नगर
पालक उत्तम है ।”
 
मनोहरी ने फ़ौरन कहा, “यह बात सच है , परं तु किसी नगर में छोटे -मोटे अपराध ज़्यादा हो
सकते हैं। किसी और नगर में बहुत ही खतरनाक एक ही हत्या हो सकती है । अतः अपराधी की
संख्या की तलु ना में , उनका स्तर प्रधान है । इसकी जानकारी पाने के लिए दं ड ही सच
ू क हैं।
जिस नगर में आजीवन कारावास, राज्य बहिष्कार, मौत की सज़ा कम अमल में लाये जाते हैं,
उसी नगर का नगरपालक उत्तम माना जा सकता है । इसके लिए, पिछले दस सालों से जो दं ड
अमल में लाये गये, उनकी जानकारी पानी होगी।”
 
माणिक्यवर्मा को मनोहरी का सुझाया उपाय सही लगा। उसने सब नगरों को समाचार
भिजवाया कि पिछले दस सालों में जिस-जिस नगर में जो-जो दं ड अमल में लाये गये हैं, उनका
विवरण उसे भेजा जाए। यह जानकर हर नगर पालक में यह आशा जगी कि माणिक्यवर्मा इन
विवरणों पर पूरा ध्यान दें गे और उसे उत्तम पालक घोषित करें गे। इसके लिए उन्होंने कारावास
जैसे कई दं ड रद्द किये। अपराधों से संबंधित पुराने चिट्टों में परिवर्तन किये और नये चिट्टे
लिखवाये।
 
मणिपरु के नगरपालक सम
ु त
ं ने तो गप्ु तचरों के द्वारा अन्य नगरों के विवरण मँगवाये। अपने
चिट्टे में दर्ज करवाया कि अन्य नगरों की तल
ु ना में उसके नगर में कम अपराध हुए हैं। दर्ज हुए
विवरणों के अनुसार पिछले दस सालों में आजीवन कारावास, राज्य बहिष्कार, मत्ृ यु दं ड एक
भी बार हुए नहीं।
 
सभी नगरों से माणिक्यवर्मा को चिट्टे मिले। उनके परिशीलन के बाद उसने कहा, “इन्हें पढ़ने
के बाद मालूम हुआ कि सब नगरपालकों में से नरें द्र अधम है और सुमत ं उत्तम है । तुम्हारे
भाइयों को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें सुमत ं के पास भेजँग ू ा।”
 
“ऐसा मत कीजिये प्रभु। मेरे भाइयों को नरें द्र के पास भेजिये। मेरे माता-पिता जो अब जंगल में
हैं उन्हें सादर राजधानी ले आने का गौरव सुमत
ं को दीजिये।” मनोहरी की विनती
माणिक्यवर्मा ने मान ली।

वेताल ने मनोहरी की कहानी सुनायी और अपने संदेह व्यक्त करते हुए कहा, “राजन, जब कि
सभी नगरपालकों में से नरें द्र अधम नगरपालक है , तो अपने भाइयों को प्रशिक्षण प्राप्त करने
उसी के पास भेजने का मनोहरी का निर्णय कहाँ तक समुचित है ? उसके माँ-बाप को राज्य
बहिष्कार का दं ड दिया है सम
ु ंत ने। ऐसी स्थिति में इससे क्या रहस्य खल
ु नहीं जायेगा? इससे
मनोहरी के परिवार को हानि नहीं होगी? जान-बझ
ू कर विपत्ति मोल लेनी नहीं होगी? मेरे इन
संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चप
ु रह जाओगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “अपने नगर में जो अपराध हो रहे हैं, या हुए हैं, उनका पूरा व सही विवरण
प्रस्तुत किया है नरें द्र ने। वही एकमात्र ईमानदार नगरपालक है । शेष सभी धोखेबाज हैं। सुमंत
के चिट्टे को पढ़ते ही अक्लमंद मनोहरी को सच मालूम हो गया। नगरपालन के लिए ईमानदार
नगरपालकों से शिक्षा प्राप्त करने में ही अच्छाई होगी। इसीलिए उसने अपने भाइयों को नरें द्र
के पास भेजने के लिए ही इच्छा प्रकट की। सुमत
ं ने जो चिट्टा भेजा, उसमें उसके माता-पिता के
राज्य बहिष्कार का दण्ड दर्ज नहीं हुआ था । इसका यह मतलब हुआ कि उसने उसके माता-
पिता के साथ अन्याय किया। या यह साबित हो जाता है कि उसने चिट्टा बदल दिया। यह रहस्य
खल
ु जाए तो उसका अपराध भी आप ही आप साबित हो जायेगा। बदनामी होगी तो सम
ु त
ं की।
तद्वारा उसने माता-पिता को जंगल से सादर ले आने का भार सम
ु ंत पर ड़ाला। एक अहं कारी
अधिकारी को इससे बड़ा दं ड व अपमान क्या हो सकता है ? साथ ही यह निस्संदेह अन्य
अधिकारियों के लिए चेतावनी भी होगी। ऐसा निर्णय लेकर उसने अपने अधिकार का दरु
ु पयोग
नहीं किया पर साथ ही प्रतिकार भी लिया। तद्वारा उसने माँ-बाप को मक्ति
ु दिलायी और दे श
का कल्याण भी किया। मनोहरी सच्चे अर्थों में विवेकवती है ।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड पर जा बैठा।
 
(आधार सभ ु द्रा की रचना)
 
88. दो सुंदरियाँ

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे
पर डाल लिया। फिर यथावत ् वह निधड़क श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के
अंदर के वेताल ने कहा, “आधी रात का समय है । बादल गरज रहे हैं। बिजली कड़क रही है ।
भूत-प्रेत अट्टहास कर रहे हैं। फिर भी बिना डरे आगे बढ़े जा रहे हो। लक्ष्यहीन होकर तुम्हारा यह
जाना मेरी दृष्टि में अनुचित है । तुम्हें मैं सदा सावधान करता आ रहा हूँ। तुमसे कहता आ रहा
हूँ कि तम
ु एक महान राजा हो। राजा के कुछ निश्चित कर्तव्य भी होते हैं। पर इन कर्तव्यों को
भुलाकर तम
ु भटक रहे हो। यह कदापि तुम्हें शोभा नहीं दे ता। समझ लो, तम
ु ने कार्य साध भी
लिया हो तो इसका क्या भरोसा कि इसका फल तुम चखोगे। मेरी आशंका है कि वह फल तुम
किसी के सुपुर्द कर दोगे और फिर से खाली हाथ लौटोगे। तुम्हें सावधान करने के लिए मैं तुम्हें
युवराज जयंत की कहानी सुनाऊँगा, जिसने फल तो पाया, पर उसे मानसिक चंचलता के वश
होकर खो दिया, हाथ से फिसल जाने दिया। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ भी ऐसा हो।” फिर
वेताल जयंत की कहानी यों सुनाने लगाः

चंद्रगिरि का महाराज बालिग़ हो गया। उसके विवाह की उम्र हो गयी। उसकी तीव्र इच्छा थी कि
वह ऐसी कन्या से शादी करे , जिसे वह चाहता है । उसके माता-पिता ने कितने ही रिश्ते सझ
ु ाये,
पर उसने सबसे इनकार कर किया। जयंत एक दिन शाम को टहलने के बाद जब घर लौटा, तब
उसकी माँ ने उसे एक सुंदर कन्या का चित्र दिखाते हुए कहा, “यह प्रतापगढ़ की राजकुमारी है ।
वह राजा की इकलौती पत्रु ी है । मेरी भाभी के मायके के लोगों को यह कन्या बहुत अच्छी लगी
है । उनका मानना है कि यह सब प्रकार से तुम्हारे लिए योग्य पत्नी है ।”
 
जयंत ने उस चित्र को ठीक तरह से बिना दे खे ही कह दिया, “यह कन्या मुझे बिलकुल अच्छी
नहीं लगी।” यों कहकर वह वहाँ से चलता बना।
 
उस रात को जयंत बहुत दे र तक सो नहीं पाया। उसे लगा कि राजभवन में ही रहूँ तो मनपसंद
कन्या को चुनना असंभव है । अच्छा यही होगा कि राज्य भर में घूमँू और सुंदर व योग्य कन्या
को चुनँ।ू यह सोचकर बनकर वह उसी समय घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ा।
 
सूर्योदय होते-होते, वह एक घने जंगल के पहाड़ी क्षेत्र में पहुँचा। वहाँ पर्वत पर से एक मनोहर
प्रपात नीचे के पत्थरों पर गिर रहा था। उस प्रपात से थोड़ी दरू ी पर एक सुंदर कुटीर था। घोड़े से
उतरकर वह उसी कुटीर की ओर गया।
 
उस कुटीर के आगे तरह-तरह के रं गबिरं गे पुष्पों के बीच में दो सुंदर कन्याएँ घूम रही थीं और
पष्ु प तोड़ रही थीं । जयंत ने आज तक ऐसी अपर्व
ू संद
ु रियों को दे खा नहींथा । उसने सोचा भी
नहीं था कि ऐसी संद
ु र कन्याएँ धरती पर हो भी सकती हैं।

जयंत उनके पास गया और बोला, “आप दोनों अपूर्व सुंदरियाँ हैं। परं तु, मैं क्या जान सकता हूँ,
आप इस जंगल में क्यों रहती हैं?”
 
जयंत को दे खकर पहले वे दोनों थोड़ी घबरायीं, पर अपने को संभालते हुए उन्होंने कहा, “कोई
यह बता नहीं सकता कि सौंदर्य का क्या अर्थ होता है । सौंदर्य दे खनेवालों के नयनों में होता है ।
हमारे पिताश्री महान ज्योतिषी हैं। उनका मानना है और उनका विश्वास भी है कि ऐसे संद
ु र
कुटीर में , ऐसे मनोहर वातावरण में , एक साल भर के लिए रह जाएँ तो हमारा भविष्य उज्ज्वल
और सन
ु हरा होगा। इसीलिए उन्होंने हमारे निवास के लिए यह स्थान चन
ु ा। एक सामंत राजा
के निमंत्रण पर वे कल उनके राज्य में गयेहैं ।”
 
वे सुंदरियाँ पूछें कि आप कौन हैं, इसके पहले ही जयंत ने कहा, “अपनी मनपसंद कन्या से
विवाह रचने के लिए राजप्रासाद से चुपचाप चला आया हूँ। मैं नहीं चाहता कि इस विषय में मेरे
माता-पिता हस्तक्षेप करें । तम
ु दोनों में से किसी से भी विवाह करने के लिए मैं तैयार हूँ। आपके
पिताश्री के लौटते ही मैं उनसे बात करूँगा।”
 
जयंत को जो कहना था, उसने साफ़-साफ़ कह दिया। इसपर वे दोनों युवतियाँ चकित रह गयीं।
उन दोनों ने आपस में बातें कर लीं और कहा, “हम दोनों जड़
ु वीं बहनें हैं। हमारे पिताश्री ने बहुत
पहले ही कहा था कि हमारा विवाह किसी एक ही पुरुष से होगा।”
 
“बिना किसी संकोच के मैं तम
ु दोनों से विवाह करने को तैयार हूँ। समझता हूँ कि यद्यपि तुम
दोनों का रूप एक जैसा है , पर तुम्हारे गुण भिन्न-भिन्न होंगे। आप अब तक जान गयी होंगी
कि मैं कौन हूँ। अपनी मनोदशाओं पर कृपया थोड़ा प्रकाश डालिये।” बग़ल के पत्थर पर आसीन
होते हुए जयंत ने कहा।
 
उसके इस प्रश्न पर दोनों युवतियों ने हँसते हुए कहा, “हम दोनों जिद्दी हैं, हठी हैं। हम दोनों
अपने को एक-दस ू रे से अधिक मानती हैं। यही नहीं, जो साधना चाहती हैं, साधकर ही शांत
होती हैं। इसके लिए हम कुछ भी करने के लिए सन्नद्ध रहती हैं। कोई भी त्याग करने को तैयार
हो जाती हैं।”

“अच्छा, यह बात है !” फिर जयंत ने एक क्षण के बाद पछ


ू ा, “साफ़-साफ़ बता दीजिये कि मेरे
बारे में आप दोनों की क्या राय है ?”
 
दोनों युवतियों ने आपस में बातें कर लीं और कहा, “पिताश्री बहुत पहले ही हमसे कह चुके हैं कि
बड़ा ही बद्धि
ु शाली और विवेकी ही तम
ु दोनों का पति बनेगा। हमारे नाम हैं, मंदार और चंपा।
क्या आप बता सकते हैं कि हममें से कौन मंदार है और कौन चंपा?”
 
थोड़ी दे र तक सोचने के बाद जयंत बता सका कि उनमें से कौन मंदार है और कौन चम्पा। दोनों
यवु तियाँ यह सुनकर आश्चर्य में डूब गयीं और पूछा, “आप यह कैसे बता सके?”
 
जयंत ने कहा, “आप दोनों जड़ ु वी हैं। एक ही प्रकार की रूपरे खाएँ हैं। एक के शरीर का रं ग
गल
ु ाबी है और दस
ू रे का हरा। मैं समझता हूँ कि शरीर के रं ग के आधार पर आसानी से
पहचानने के लिए एक का नाम मंदार और दस ू रे का नाम चंपा रखा गया है । यह मेरी कल्पना
मात्र भीहो सकती है ।”
 
“हमारी उम्र में भी कुछ क्षणों का फर्क है । क्या आप बता सकते हैं, हममें से कौन बड़ी और कौन
छोटी है ?” सुंदरियों ने पूछा।
 
जयंत ने एक क्षण रुक कर कहा, “इसके लिए मझ
ु े शाम तक समय दीजिये।” दोनों ने स्वीकृति
दे दी।
 
शाम को मंदार और चंपा ने केले के पत्तों में दो सब्जियाँ, दो चटनियाँ और खीर सहित जयंत
को स्वादिष्ट खाना खिलाया। भोजन कर चुकने के बाद जयंत ने उनसे बताया, “तम
ु में से मंदार
बड़ी है और चंपा छोटी।”
 
“वाह, आपने बिलकुल ठीक कहा। इस निर्णय पर कैसे आ पाये?” मंदार ने पूछा।
 
“साधारणतया उम्र में बड़ी ही रसोई व घर का काम संभालती हैं। छोटी घर के इधर-उधर का
काम संभालती हैं। मंदार ने रसोई बनायी, चंपा ने पत्ता डालकर भोजन परोसा। मैंने इसपर
ध्यान दिया और आसानी से जान गया कि तुममें कौन बड़ी हो और कौन छोटी।” जयंत ने
कहा।
 
मंदार और चंपा थोड़ी दरू हटकर आपस में बातें कीं और पास आकर जयंत से कहा, “हम
मानती हैं कि तुम बुद्धिमान हो और तम
ु में तार्कि क विश्लेषण की अद्भत
ु शक्ति है । क्या तुममें
हम दोनों के पालन-पोषण की आर्थिक शक्ति है ?”

जयंत इसपर ठठाकर हँस पड़ा और बताया कि वह कौन है । फिर पूछा, “कोई और शंका हो तो
पूछ लीजिये।”
 
इसपर मंदार ने फ़ौरन कहा, “जन्म-पत्री के अनुसार हमारा विवाह एक ही व्यक्ति से होगा और
हम दोनों एक ही दिन पत्र
ु को जन्म दें गी। परं तु छोटी चंपा के बेटे का जन्म कुछ क्षणों के पहले
होगा और मेरा बेटा कुछ क्षणों के बाद। ऐसी स्थिति में , हममें से किसके पत्र
ु को आप राजा
घोषित करें गे?”
 
जयंत ने कहा, “इस प्रश्न का उत्तर दे ने के लिए मुझे थोड़ा सा समय चाहिये।” “ठीक है । रात
को सोच लीजियेगा और सवेरे अपना निर्णय सुनाइयेगा।” दोनों बहनों ने एक साथ कहा।
 
उस रात को जयंत के सोने के लिए एक कमरे का प्रबंध किया गया। दसू रे दिन प्रातःकाल मंदार
और चंपा के पिता लौट आये। मंदार ने, पिता को सविस्तार परू ा विषय बताया तो चंपा ने जयंत
के कमरे में झांककर दे खा। वहाँ जयंत नहीं था।
 
वह लौटी और उनसे कहा, “कमरे में वे नहीं हैं। होनेवाले राजा को हमने एक दिन का आतिथ्य
दिया, यही संतप्ति
ृ हमारे लिए बच गयी।”
 
इस घटना के कुछ दिनों के बाद जयंत का विवाह उसके माता-पिता द्वारा चयनित कन्या से
संपन्न हुआ।
 
वेताल ने यह कहानी सुनायी और कहा, “राजन ्, सुंदरियाँ मंदार और चंपा के साथ जयंत की
व्यवहार शैली अमर्यादित और अशोभनीय लगती है । वह भावी पत्नी को चुनने के लिए दृढ़
निश्चय के साथ निकला। उससे विवाह करने के लिए दो सुंदरियाँ सन्नद्ध भी हुईं। फिर भी,
उसने उनका तिरस्कार किया और माता-पिता से चयनित कन्या से विवाह रचाया। उसका यह
निर्णय क्या अनुचित नहीं था? उसकी आशा फलीभूत हुई, पर मानसिक चंचलता के वश में
आकर उसने कुछ और ही किया। उसकी यह भूल और मानसिक चंचलता नहीं तो और क्या
है ?"

“मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो
जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “मंदार और चंपा ने, जयंत के सामर्थ्य तथा उसके तार्कि क ज्ञान को जानने
के लिए ही कुछ जटिल सवाल पछ
ू े । उन दोनों ने जो प्रश्न पछ
ू े और अपने बारे में उन्होंने जो-जो
बढ़ा-चढ़ाकर कहा, उनसे जयंत जान गया कि उनमें अहं भाव, हठ, जिद, आवश्यकता से अधिक
हैं। साथ ही उनकी बातों से उसे यह भी मालम
ू हो गया कि वे अपनी इच्छा को किसी भी हालत
में परू ी करनेवालियों में से हैं।
 
“उनका वह स्वभाव स्त्रियों के लिए कदापि उचित नहीं। इस सत्य को जयंत जान गया। अगर
ऐसी स्त्रियाँ उसकी रानियाँ बनेंगी तो अवश्य ही अपने पत्र
ु को ही राजा बनाने के लिए जिद
करें गी और गंभीर समस्या खड़ी कर दें गी। इससे न ही अंतःपुर में शांति होगी और न ही राज्य
सरु क्षित रहे गा। राजा के लिए अपनी इच्छाओं की पर्ति
ू से भी अधिक आवश्यक व महत्वपर्ण
ू हैं,
दे श की सरु क्षा, प्रजा का सख
ु -संतोष। इनपर बखब
ू ी सोचने के बाद माता-पिता से चयनित
कन्या से विवाह करना ही उसने उचित और न्याय- संगत समझा।
 
“इससे उसकी विवेचन शक्ति व परिशीलन ज्ञान स्पष्ट गोचर होते हैं। इसमें मानसिक
चंचलता का कोई सवाल ही नहीं उठता।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
- के. सुचित्रा दे वी की रचना के आधार पर
89. दे वयानी का प्रेम

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर
डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, जिस उदात्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, जिस प्रजा के क्षेम के लिए घोर अंधकार
की परवाह किये बिना तम
ु इतना कठोर परिश्रम कर रहे हो, इसका कारण मैं नहीं जानता। परं तु
मैंने दे खा है कि सामान्य प्रजा के कुशल -मंगल को जिन राजाओं ने अपने जीवन का लक्ष्य
माना है , वे भी कभी-कभार स्थायी रूप से शासक बने रहने की आकांक्षा के वशीभत
ू होकर ऐसे
लक्ष्यों को त्यज दे ते हैं। वज्रपाणि एक ऐसा ही युवक राजा था, जिसने ऐसे प्रलोभन में आकर
अपने आदर्शों को तिलांजलि दे दी। उसकी कहानी मुझसे सुनो।” फिर वेताल यों कहने लगा:

वज्रपाणि गिरिव्रजपरु के शासक उग्रसेन का पत्र


ु था। बचपन से ही शासन संबंधी विषयों में
उसकी विशेष आसक्ति थी। बालिग़ होते-होते उसने सभी क्षत्रियोचित विद्याएँ सीखीं। शासन
संबंधी विषयों में वह कभी-कभी अपने पिता को भी मल्
ू यवान सलाहें दिया करता था। उसके
सक्ष्
ू म परिशीलन, दरू दृष्टि व उम्र से भी बढ़कर उसके ज्ञान-विवेक को दे खते हुए उसके पिता भी
चकित रह जाते थे। बहुत ही कम समय में उसने ताड़ लिया कि उसका पत्र
ु असाधारण मेधावी
और सर्वसमर्थ है । उसे विश्वास हो गया कि उसके शासन काल में प्रजा सख
ु ी और शासन-
व्यवस्था सुचारु रहे गी। इसलिए उसे सिंहासन पर आसीन करके वह विश्राम करने लगा।
 
राजा बनने के बाद वज्रपाणि ने विश्राम ही नहीं लिया। मंत्री, सेनाधिपति, सेना तथा अन्य उच्च
अधिकारियों को राज्य को प्रगति पथ पर ले जाने के लिए उसने प्रोत्साहित किया। किसानों की
सवि
ु धाओं के लिए जल का विशेष प्रबंध किया और नये-नये साधनों को मंगवाकर कुटीर
उद्योगों की अभिवद्धि
ृ की। सुस्ती को दरू भगाने के लिए हर एक को काम करने का नियम
बनाया। यहाँ तक कि उसने कैदियों को भी प्रशिक्षण दिलवाया, जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें
। इसके लिए उन्हें सीमित आज़ादी भी दी। अकंु ठित दीक्षा से काम करके उसने तीन सालों के
अंदर ही दे श को सुसंपन्न बना दिया। इस निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के बाद वह अपने विवाह के
बारे में सोचने लगा। चँ कि
ू उसका जीवन लक्ष्य प्रजा क्षेम ही था, इसलिए उसने एक सामान्य
स्त्री से विवाह करने का निश्चय किया। उसका समझना था कि इससे वह प्रजा के साथ
हिलमिल कर रह सकेगा।
 
रानी विद्या-विवेक संपन्न हो, इसलिए उसने चाहा कि उसका विवाह एक शिक्षित कन्या से
हो। वह चाहता था कि राज्य की युवतियों के लिए एक प्रतिस्पर्धा चलायी जाए और उसमें जो
युवती विजेता हो, मेधासंपन्न हो, उससे विवाह करूँ ।
रानी बनने की इच्छा लेकर दे श की कई युवतियों ने इन स्पर्धाओं में भाग लिया। स्मरण
शक्ति, गणित तथा क्रीड़ाओं में स्पर्धाएँ चलायी गयीं। स्पर्धाओं में अंततः दे वयानी, शिवदर्शिनी
नामक दो युवतियाँ समान रूप से योग्य घोषित हुईं। इसके बाद इन दोनों के लिए कई परीक्षाएँ
चलायी गयीं, पर दोनों समान साबित हुईं। दे वयानी अपूर्व सुंदरी थी तो शिवदर्शिनी साधारण
रूप-रं ग की थी।
 
इन दोनों में से किसी एक को चन
ु ने की जिम्मेदारी वज्रपाणि ने स्वयं अपने ऊपर ली और उनसे
कहा, “मैं जानना चाहता हूँ कि तमु दोनों में से कौन पराक्रमी है । सात घोड़ों के वीर को पकड़
कर ले आना। दे खता हूँ, इसमें कौन सफल होती है ।”
 
दोनों युवतियाँ क्षण भर सोचती रहीं। फिर वे वहाँ रखी थालियों में पानी भरकर ले आयीं, जिनमें
सूर्य का प्रतिबिंब झलकता था। सूर्य सात घोड़ों का वीर है । उसे पकड़कर ले आने का अर्थ होता
है , सूर्य के प्रतिबिंब को ले आना।
 
वज्रपाणि दोनों को कुछ क्षणों तक ध्यान से दे खता रहा, तब अचानक उसमें एक संशय जगा।
उसने उनसे कहा, “मझ
ु े पहले जानना है कि तम
ु दोनों के परिवारों की पष्ृ ठभमि
ू क्या है ? आप
दोनों के माता-पिता कौन हैं? इसके बाद अंतिम स्पर्धा का आयोजन करूँगा और उसमें जो
जीतेगी, उससे विवाह रचाऊँगा।”
 
यह सुनते ही दे वयानी चौंक उठी और कहा, “माता-पिता कोई भी हो सकते हैं। इससे क्या फर्क
पड़ता है ? पहले उस अंतिम स्पर्धा को चलाइये।” राजा ने शिवदर्शिनी को दे खा।
 
“राजधानी की पूरबी दिशा में स्थित रामवर गाँव के किसान परिवार की हूँ। पिता का नाम
भूषण और माँ का नाम नागमणि है ।” शिवदर्शिनी ने कहा। राजा ने दे वयानी की ओर मुड़कर
कहा, “तम
ु अपने माता-पिता का नाम बताने से हिचकिचा रही हो। इसका यह मतलब हुआ कि
तुम कोई रहस्य छिपा रही हो।”
 
“हाँ, इसमें रहस्य अवश्य है । मैं कोशल राज्य की युवरानी दे वयानी हूँ। आपको मैं बेहद चाहती
हूँ, इसीलिए मैं आपसे विवाह करने यहाँ आयी हूँ। एक राजा होकर एक सामान्य कन्या से
आपका ववाह करना मझ
ु े क़तई पसंद नहीं। मेरे प्रेम की जीत हो, इसीलिए मैं बहुरूपिया बनकर
आयी हूँ। क्या यह अपराध है ?” दे वयानी ने पछ
ू ा।

“तुम्हें मालूम ही होगा कि यह स्पर्धा राज्य की केवल सामान्य युवतियों के लिए है । इसमें
पड़ोसी राज्य की युवरानी का भाग लेना अनुचित है न?” राजा ने धीमे स्वर में पूछा।
 
“आपको मैंने चाहा, आपसे विवाह करने आयी हूँ और सब प्रकार से योग्य भी हूँ। ऐसी
राजकुमारी से विवाह करने से इनकार करना क्या उचित है ? आपने मेरा तिरस्कार किया, इस
अपराध के लिए आपको किसी न किसी दिन मल्
ू य चक
ु ाना ही पड़ेगा।” कहती हुई दे वयानी वहाँ
से तेज़ी से चली गयी। वज्रपाणि उसे दे खता रहा। शिवदर्शिनी की भी समझ में नहीं आया कि
क्या करूँ, इसलिए वह भी वहाँ से चली गयी।
 
वज्रपाणि ने इसके पहले दे वयानी को कभी नहीं दे खा। परं तु उसके बारे में बहुत कुछ सुना था।
वह कोसल राज्य के राजा अमरें द्र की इकलौती बेटी थी। उसके पिता उसे बेहद चाहते थे।
अमरें द्र केवल नाम मात्र के लिए राजा था। जब दे खो, तब शतरं ज खेलने में ही लगा रहता था।
इसलिए शासन का पूरा भार उसकी पत्र
ु ी दे वयानी ही संभालती थी। वह प्रजा के क्षेम के बारे में
बिलकुल ही लापरवाह रहती थी। मंत्रियों की सलाहों पर भी वह ध्यान नहीं दे ती थी। राज्य में
अपराधियों की संख्या बढ़ने लगी और प्रजा दखु ी रहने लगी। पर वे लाचार थे।
 
ऐसी दे वयानी ने पड़ोसी राजा वज्रपाणि के शौर्य-पराक्रम, विद्या-विवेक तथा उसके सौंदर्य के
बारे में बहुत सुन रखा था। इसलिए वह उससे प्रेम करने लगी। उसने किसी भी हालत में उससे
विवाह करने का निर्णय लिया था, इसीलिए वह बहुरूपिया बनकर उस स्पर्धा में भाग लेने
आयी। पर, वह पकड़ी गयीऔर अपमानित हुई । लौटने के बाद उसने अपने पिता से रोती हुई
पूरा वत्ृ तांत बताया।
 
पिता अमरें द्र, पुत्री के दख
ु को दे ख नहीं पाया। कोशल राज्य वज्रपुर से विशाल था। सेना बल में
वह कहीं अधिक था। वज्रपाणि पर आक्रमण करना आसान काम था, पर अमरें द्र यह काम
करना नहीं चाहता था। कुछ भी हो, वह अपनी प्यारी बेटी की इच्छा परू ी करना चाहता था। वद्ध

व अनभ
ु वी मंत्री को बल
ु ाकर उसने इस विषय में गंभीर चर्चा की। इसके बाद, उस मंत्री के द्वारा
ही वज्रपाणि को उसने एक ख़त भेजा।  

वद्ध
ृ मंत्री दत
ू बनकर दस
ू रे ही दिन उस ख़त को लेकर गिरिव्रजपुर गया और वज्रपाणि से मिला।
वज्रपाणि ने उस ख़त को पढ़ा, जिसमें लिखा था: “चिरं जीवी वज्रगिरि राज्य के वज्रपाणि को
मेरे शभ
ु आशीर्वाद। आपसे निदे शित नियमों के विरुद्ध चलकर मेरी पत्र
ु ी ने अच्छा नहीं किया।
इसके लिए मैं क्षमा माँग रहा हूँ। उसके दर्व्य
ु वहार के लिए भी क्षमा चाहता हूँ। वह आपको बेहद
चाहती है , उसके दिल में सदा आप ही रहते हैं, इसीलिए उसने यह साहस किया। पिता होने के
नाते मैं चाहता हूँ कि वह सदा सुखी रहे । भला इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिये। उसके प्रेम
को स्वीकार करके अगर आप उससे विवाह करें गे तो हमारा कोशल राज्य आपका अपना हो
जायेगा। दोनों राज्यों के आप ही राजा होंगे। यह जानी हुई बात है कि आप विवेक संपन्न हैं,
मेधावी हैं। मेरी पत्र
ु ी से आप अगर विवाह करें गे तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह सही मार्ग पर
चलेगी और उसका जीवन सुखमय होगा, धन्य होगा। मैं शतरं ज खेलते हुए, आपके पिता की
तरह शेष जीवन शांति से बिताऊँगा।”
 
वज्रपाणि पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गया। दत
ू द्वारा उसने पत्र भेजा कि दे वयानी से विवाह
रचाने में उसे कोई आपत्ति नहीं है । शीघ्र ही वज्रपाणि और दे वयानी का विवाह संपन्न हुआ।
सवि
ु शाल कोशल राज्य को गिरिवज्रपुर से मिलाकर वज्रपाणि दोनों राज्यों का राजा बना।
 
वेताल ने यह कहानी सनु ायी और अपने संदेहों को व्यक्त करते हुए पछ ू ा, “राजन ्, गिरिवज्रपरु
के राजा वज्रपाणि ने घोषित किया था कि वह अपना विवाह एक सामान्य कन्या से करे गा। पर,
वह अपने वचन से मक
ु र गया। उसने सामान्य कन्या विजेता शिवदर्शिनी से विवाह नहीं किया,
बल्कि उस राजकुमारी दे वयानी से किया, जो घमंडी और उद्दंड थी। उसके दर्व्य
ु वहार को जानते
हुए भी उससे विवाह रचाना क्या अनचि ु त नहीं था? मेरा विचार है कि उसमें राज्य को और
विस्तत
ृ करने की आकांक्षा सोयी हुई थी और उसी ने उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया।

अथवा हो सकता है , वह कोशल राज्य के सेना-बल से भयभीत हो गया हो और इस विवाह के


लिए अपनी सम्मति दी हो। इनको छोड़कर उसके निर्णय के पीछे क्या कोई दस
ू रा सबल कारण
है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो
जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने वेताल को समझाने के उद्देश्य से कहा, “वज्रपाणि उन आदर्श शासकों में से एक था,
जो विश्वास करते हैं कि प्रजा के क्षेम का परिरक्षण करना ही शासक का प्रधान कर्तव्य है ।
बाल्य काल से ही लेकर उसमें यह भाव बल पकड़ता गया। इसी वजह से उसने रात-दिन एक
करके परिश्रम किया। बाकी उसकी दृष्टि में मुख्य नहीं थे। कोशल राज्य के राजा का पत्र पढ़ते
ही उस राज्य की प्रजा के कष्ट, उनकी यातनाएँ उसकी आँखों के सामने स्पष्ट दिखने लगे। उसे
लगा कि वहाँ की प्रजा के दख
ु -दर्द को दरू करने के लिए दे वयानी से विवाह करना एक अच्छा
मौका है । इसी कारण उसने इसके लिए अपनी सम्मति दी। यह कहना ग़लत है कि राज्य को
बढ़ाने के उद्देश्य से उसने ऐसा किया। सैन्य बल से भयभीत होनेवालों में से वह नहीं था।
दे वयानी को उसके पिता ने बड़े लाड़-प्यार से पाला पोसा, इसीलिए उसमें अहं कार घर कर गया।
पर यह सच है कि वह वज्रपाणि के लिए उसके दिल में सच्चा प्यार था। अतः इसमें कोई संदेह
नहीं कि वह भविष्य में पति का हर प्रकार से साथ दे गी, उसे अपना आराध्य दे वता मानेगी। अब
रही, सामान्य कन्या से विवाह करने की बात। किसी ने भी उसपर ज़ोर नहीं डाला कि वह एक
सामान्य कन्या से ही विवाह करता। उसने स्वयं यह निर्णय लिया था। अगर वह शिवदर्शिनी से
विवाह करता तो इससे केवल उसका ही भला होता। दे वयानी से विवाह करने से पूरे कोशल
राज्य की प्रजा का भला होगा। प्रजा क्षेम ही उसका एकमात्र उद्देश्य था और इसी उद्देश्य की पर्ति

के लिए उसने यह प्रस्ताव स्वीकार लिया। यह कदापि वचन से मुकरना नहीं है ।”
 
राजा के मौनभंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधार सध
ु ीर पांडे की रचना)
 
90. छोटापन

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा; उसे कंधे पर डाल
लिया और यथावत ् श्मशान की ओर जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “मेरी
समझ में नहीं आता कि किससे बदला लेने के लिए आधी रात को इस भयानक श्मशान में घूम-
फिर रहे हो और यों परिश्रम कर रहे हो। परं तु दे खा गया है कि कुछ लोग आवेश में आकर बदला
लेने पर तुल जाते हैं और जब आवेश ठं डा पड़ जाता है , तब वे उसे भुला दे ते हैं। मैं जानता हूँ कि
तुम उस व्यक्ति की तरह नहीं हो लोगों ने जिसका मज़ाक उड़ाया, जिसकी अवहे लना की, उनके
बीच रहना जिसे पसंद नहीं, इसलिए उसने गाँव छोड़ दिया, पर फिर कुछ समय के बाद उन्हीं के
बीच रहने का उसने निर्णय किया। एक ऐसे ही व्यक्ति अकाल की कहानी सुनाने जा रहा हूँ।
थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सुनो।” फिर वेताल उसकी कहानी यों सुनाने लगाः

सभ्य समाज से दरू अन्नवर नामक एक सद


ु रू गाँव में अकाल रहता था। कृषि ही उस गाँव के
निवासियों का जीवनाधार था। वे अलग ही प्रकार की विचित्र फसलें उगाते थे। सवेरे से लेकर
शाम तक वे कड़ी मेहनत करते थे। पास ही के पहाड़ों से वे कंद मल
ू फल इकठ्ठा करते थे और
खाते थे।
 
उनका मानना था कि उनके स्वस्थ होने का यही कारण है । उनका यह दावा भी था कि इन्हीं
फसलों के कारण उनकी शारीरिक स्थिति इतनी अच्छी है । इस गाँव भर में अकाल ही एक ऐसा
व्यक्ति था, जिसे ये फसलें और ये खाद्य पदार्थ बिलकुल पसंद नहींथे ।
 
अकाल को बचपन से ही पढ़ना-लिखना बहुत पसंद था। इनमें उसकी पर्याप्त अभिरुचि थी।
मंदिर के पुजारी से श्लोक आदि सीखता था। मंदिर में सुरक्षित ताल पत्रों को पढ़ते हुए समय
बिताता था। अकाल ऐसा तो नाटा नहीं था, पर अन्य ग्रमीणों के सामने वह बिलकुल छोटा
दिखता था।
 
हमेशा किसी सोच में पड़ा रहता था और उसके संदेह बड़े ही विचित्र होते थे। कोई अगर पूछे कि
क्यों यों बेकार बैठे रहते हो तो वह कहता रहता था कि अगर आदमी खाने के लिए ही ज़िन्दा रहे
तो मनुष्य में और पशु में फर्क ही क्या है ।
 
ऐसी कई विद्याएँ हैं, जिन्हें मनुष्य को सीखना चाहिये। कुछ लोग उसे दे खते ही हँस पड़ते थे।
कुछ और लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे। अकाल कुछ समय तक चुपचाप यह सहता रहा, पर
जब वह अठारह साल का हो गया, तब उसने पिता से साफ़-साफ़ कह दिया कि मुझे इस गाँव में
नहीं रहना है ।
 
तब पिता ने हँसते हुए कहा, “गाँव बदलकर कहीं और जाने से कोई फायदा नहीं, बदलना है
तुम्हें अपने आपको ।”
 
“यहाँ के सब लोग साधारण जीवन बिता रहे हैं। अगर मैं इनके समान बन जाऊँ तो मैं सामान्य
मनष्ु य में बदल जाऊँगा, जो मझ
ु े पसंद नहीं। मैं दं डकारण्य के गरु
ु भज
ु ंग के गरु
ु कुल में
विद्याभ्यास करूँगा और लौटकर गाँव को ही बदल डालँ ग
ू ा। तब जाकर ग्रमीणों की प्रशंसा
पाऊँगा।”

यों कहकर अकाल गाँव छोड़कर चला गया। चार दिनों के बाद जब वह दं डकारण्य के समीप
पहुँचा, तब उसे एक रथ पीछे से आता दिखाई पड़ा ।
 
रथसारथी ने अकाल से बातें कीं और विषय जानकर कहा, “महाराज ने गरु
ु वर भज
ु ग
ं को तरु ं त
ले आने का हुक्म दिया है । उन्हीं के यहाँ जा रहा हूँ, रथ में चढ़ जाओ, मैं तम्
ु हें वहाँ पहुँचा दँ ग
ू ा।”
 
गुरुकुल पहुँचने के बाद अकाल भुजग ं से मिला और उसने अपना आशय बताया। उन्होंने कहा,
“तम
ु जंबकारण्य जाओ और विनय के गुरुकुल में विद्याभ्यास करो। मेरा शिष्य बनना हो तो
कम से कम दो सालों तक वहाँ तुम्हें शिक्षा पानी होगी।”
 
“गुरुवर, लगता है कि मेरी योग्यता पर आपको शक है । आप किसी भी प्रकार की परीक्षा ले
लीजिये, मैं अपनी योग्यता साबित करने के लिए सन्नद्ध हूँ। बिना परीक्षा लिये मुझे
जंबकारण्य जाने की आज्ञा मत दीजिये।” अकाल ने विनती की।
 
भुजग
ं ने कहा, “मुझे अभी राजधानी जाने के लिए निकलना है । लौटने में एक सप्ताह लग
जायेगा। इतने में इन दोनों ग्रंथों को अच्छी तरह से पढ़ना, उनके सार को बखूबी समझना और
मेरे लौटने के बाद मुझे बताना। तुमसे अगर यह नहीं हो सकता तो विनय के पास चले जाना।”
कहते हुए उन्होंने उसे वे दोनों ग्रंथ दिये और राजधानी जाने के लिए निकल पड़े।
 
भुजग
ं के जाते ही गुरुकुल के शिष्य उसके पास आ गये और कहने लगे, “दो सालों से हम इन
ग्रंथों का पठन करते आ रहे हैं। पूछने पर गुरुजी हमारे संदेहों को दरू करते आ रहे हैं, पर अब
तक हम इनका सार समझ नहीं पाये। एक हफ्ते भर में इनका सार जान लेना तुम्हारे लिए
असंभव है ।”
 
“ठीक है । मैं इसे एक चुनौती मानकर स्वीकार करता हूँ और अपनी योग्यता साबित करके
दिखाऊँगा,” अकाल ने कहा। इसके बाद अकाल ने उन ग्रंथों को ध्यान से पढ़ा और चार ही दिनों
के अंदर उनके सार को लिख लिया।
 
फिर शिष्यों को उसे दिखाया। पर, बिना पढ़े ही उन्होंने उसके आत्मविश्वास को अहं भाव
समझा और उसकी खिल्ली उड़ायी। अकाल ने उनकी बातों की परवाह नहीं की और दृढ़ स्वर में
कहा, अपना मज़ाक उड़ाया जाना और उसे सह लेना मेरे लिए कोई नयी बात नहीं है ।

मझ
ु े समझने में तम
ु लोग और मेरे गाँव के लोग एक समान लगते हैं। परं तु हाँ, तम
ु दोनों में
फर्क इतना ही है कि वे अनपढ़ हैं और तम
ु महापंडित भज
ु ंग के शिष्य हो।” भज
ु ंग राजधानी से
लौट आये और अकाल को अपने ही गरु ु कुल में पाकर चकित हुए।
 
ग्रंथों के उससे लिखित सार को पढ़ा और कहा, “पत्रु , तुम सचमुच ही महान हो। महापंडित भी
जिन ग्रंथों के सार को समझने में असमर्थ साबित हुए, तुमने उन ग्रंथों के सार को बड़ी ही
आसानी से समझ लिया। तुम्हें अपना शिष्य कहते हुए मुझे गर्व हो रहा है । यह मेरे पूर्व जन्म
का पुण्य फल है ।” बहुत ही प्रसन्न होते हुए भुजंग ने कहा।
 
अकाल ने पूछा, “गुरुवर, क्या आप सच कह रहे हैं या मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं।” संदेह-भरे स्वर
में उसने पूछा। “सच ही कह रहा हूँ। सही समय पर तम
ु मेरे पास आये।” कहते हुए उन्होंने वह
सब बताया, जो राजधानी में हुआ। राजमाता अचानक बीमार पड़ गयीं।
 
रोग के लक्षण राजवैद्यों की भी समझ में नहीं आये। तब राजस्थान के एक कवि ने अपने पास
सुरक्षित एक प्राचीन काव्य का जिक्र किया। उसकी नायिका भी उसी रोग से पीड़ित थी, जिस
रोग से राजमाता पीड़ित हैं। वैद्यों ने उस रोग की दवा बतायी, जिसे तीन महीनों के अंदर ले
आना था ।
 
धीरोदत्त नायक अथक परिश्रम के बाद उस दवा को ले आने में सफल हुआ और नायिका की
रक्षा की। कवि, पंडित व वैद्यों ने उस ग्रंथ को खूब पढ़ा, पर वे उस काव्य में निर्दिष्ट दवा से
संबंधित विवरणों को समझ नहीं पाये। राजा ने गुरु को ख़बर भेजी।
 
तत्संबंधी विवरण उनकी समझ में नहीं आये। यह कहकर वे गरु ु कुल लौट आये कि वहाँ जाकर
इस ग्रंथ का अध्ययन करूँगा और फिर इस विषय में प्रयत्न करूँगा। वे अपने साथ उस ग्रंथ को
भी ले आये। अब अकाल की प्रतिभा को दे खने के बाद उनमें विश्वास जगा।
 
अकाल ने उस काव्य को पढ़ा और कहा, “गुरुवर, इसमें हर पद का संबंध संगीत, साहित्य, नत्ृ य
व वैद्य शास्त्र से है । और इनके अर्थ अलग-अलग हैं। इसी कारण आप शायद घबरा गये होंगे।
दवा से संबंधित पद में बताये गये जिंसों से कषाय को तैयार करना है और राजमाता को
पिलाना है ।

साथ ही, पद में बताये गये राग तालों से गाते हुए उसके यथायोग्य नत्ृ य का प्रदर्शन राजमाता
को दे खना है ,” उत्साह-भरे स्वर में अकाल ने कहा। भुजग
ं ने भी एक और बार उस पद को पढ़ा
और समझ लिया कि उसका कहा सच है ।
 
उसने उसकी भरि
ू -भरि
ू प्रशंसा की। अकाल ने एक और बार उस पद को पढ़ने के बाद कहा, “ये
सारे जिंस हमारे गाँववाले उपजाते हैं।” आश्चर्य-भरे स्वर में अकाल ने कहा। दस
ू रे ही दिन
भज
ु ग
ं और अकाल राजधानी गये। राजा ने सिपाहियों को भेजकर अन्नवर गाँव से दवा के लिए
आवश्यक जिंस मंगाया।
 
अकाल के कहे अनुसार इलाज किया गया। अब राजमाता बिलकुल स्वस्थ हो गयीं। राजा ने
अकाल का सत्कार किया। इसके बाद अकाल ने भुजग
ं के गुरुकुल में और दो सालों तक रहकर
सभी शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया। फिर दे श भर में घूमते हुए उसने संगीत, साहित्य में
प्रदर्शिनियाँ चलायीं, जिनका बड़े पैमाने पर जनता ने स्वागत किया।
 
इसके दो साल बाद वह स्वस्थल अन्नवर पहुँचा। वहाँ की प्रदर्शिनियों के बाद जब गाँववालों को
मालूम हुआ कि अकाल अपने ही गाँव का है तो वे उससे मिले और बोले, “जैसे थे, वैसे ही हो।
तुममें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इतना नाम कमाया, यह तुम्हारा भाग्य है ।” अकाल ने कहा,
“आपका कहना है कि मुझमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसका यह मतलब हुआ कि आप अब
भी बदले नहीं। आप लोगों को बदलने के लिए ही मैं यहाँ रह जाऊँगा।”
 

 अकाल ने फिर से वही पुराना जीवन शुरू किया। उसके कामों, चेष्टाओं पर ग्रमीण अब भी
पहले की ही तरह मज़ाक उड़ाते रहते हैं। पर वह उनकी परवाह नहीं करता। उनकी टिप्पणियों
पर ध्यान नहीं दे ता। रोचक बातों व सुंदर कहानियों से वह बच्चों को आकर्षित करने लगा और
उन्हें सशि
ु क्षित करने लगा।
 
उसने जो सीखा, जाना, उन्हें पढ़ाने लगा। वेताल ने अकाल की कहानी बतायी और फिर राजा
विक्रमार्क से कहा, “राजन ्, अकाल गाँववालों की अवहे लना और भर्त्सना सह नहीं पाया,
इसलिए पिता के मना करने पर भी गाँव छोड़कर चला गया।
 
फिर उसी गाँव में लौटकर अवहे लनाओं के बीच रहने का निश्चय उसने क्यों किया? उसके मन
की कोमलता दे श भ्रमण के कारण क्या कठोर बन गयी? गाँववालों में परिवर्तन लाने के लिए
वह गाँव से चला गया तो फिर खद
ु क्यों बदल गया?
 
मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी नहीं बताओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो
जायेंगे।” विक्रमार्क ने कहा, “अपने सामर्थ्य पर जब किसी को विश्वास नहीं होता तब वे दस
ू रों
की प्रशंसा पाने के लिए लालायित होते हैं। अवहे लना और भर्त्सनाओं से डरते हैं।
 
दसू रे जब उनका मज़ाक उड़ाते हैं तब वे अपने को छोटा समझते हैं। जब उसकी प्रतिभा
पहचानी जाती है तब वे दस
ू रों के अभिप्रायों की परवाह नहीं करते। जब अकाल की प्रतिभा
पहचानी नहीं गयी तब वह मज़ाक उड़ानेवालों के सामने अपने को छोटा समझने लगा।
 
जब बड़ों ने उसकी प्रतिभा पहचानी तब वह उस स्थिति के पार हो गया। अब मज़ाक उड़ानेवालों
पर उसे दया आने लगी, नाराज़ी नहीं। ग्रमीणों में परिवर्तन ले आने का लक्ष्य जैसा का तैसा
बना रहा। उसे लगा कि बड़ों को परिवर्तित करने के बदले छोटों को उत्तम नागरिक बनाना
सुलभ है ।
 
इसीलिए उसने बच्चों को पढ़ाना शरू
ु किया और यों उसने अपने को योग्य और समर्थ साबित
किया।” राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा
बैठा।
 
(आधारः “वसुंधरा” की रचना)
 
91. अहं कारी पंडित

 
धनु का पक्का विक्रमार्क ने पुनः पेड़ पर से शव को उतारा; उसे अपने कंधे पर डाल लिया और
वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, “राजन ्, आधी
रात का समय है , आँखें फाड़-फाड़कर दे खोगे तब भी कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा, फिर भी तुम बढ़े
जा रहे हो। तुम्हारे इस अंकुठित आग्रह को दे खते हुए लगता है कि तम ु किसी जटिल कार्य को
साधने में लगे हुए हो। कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो अहं कार के नशे में अपने को महान और
असाधारण मान बैठते हैं। अपनी शक्ति और सामर्थ्य से भी बढ़कर कार्य साधने का निश्चय
कर लेते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं कि उनका अहं कार उन्हें गुमराह कर रहा है । तुम्हें सावधान
करने के लिए एक ऐसे ही अहं कारी पंडित की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दरू करते हुए उसकी
कहानी सुनो।” फिर वेताल उस पंडित की कहानी यों सुनाने लगा:

मोटे राम ब्रह्मपरु का एक सामान्य किसान था। श्रीचरण उसका इकलौता पत्र
ु था। बचपन से ही
वह आशु कविताएँ सन
ु ाता रहता था। उसकी इस प्रतिभा को दे खकर परिमित नामक आचार्य ने
उसे अपना शिष्य बनाया।
 
जिसे सीखने और पढ़ने में विद्यार्थियों को दस साल लगते थे, उसे श्रीचरण ने तीन ही सालों में
सीख लिया। परिमित ने अपने शिष्य के कौशल की सराहना की और कहा, “जो मुझे सिखाना
था, सिखा दिया। अब तम
ु दं डकारण्य जाकर गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करोगे तो और उन्नति कर
सकोगे।”
 
परं तु श्रीचरण गरु
ु की सलाह को अमल में नहीं ला पाया। क्योंकि वह चाहता था कि मेहनती
पिता के साथ रहूँ और उसकी सहायता करूँ। एक बार एक राजस्थानी कवि उस गाँव में आया।
गुरु परिमित ने श्रीचरण के बारे में बताया और कहा, “मैं शास्त्र का ज्ञान रखता हूँ, पर कविता
के मूल्य को आंकने में असमर्थ हूँ। आप उसकी कविता सुनिये और बताइये कि क्या वह राज
सम्मान पाने के योग्य है ?”
 
राजस्थानी कवि ने, श्रीचरण की कविता सुनी और कहा, “तुम्हारी कविता में व्याकरण व
अलंकार शास्त्र से संबंधित दोष हैं। शंखपुर में महानंद नामक एक महापंडित हैं। अगर वे तुम्हें
योग्यता-पत्र प्रदान करें गे तो समझ लो, तम
ु राज सम्मान के योग्य बन गये।”
 
श्रीचरण ने, महानंद के बारे में जानकारी प्राप्त की। मालूम हुआ कि वे अपने ही गाँव के संचारी
नामक भूस्वामी के दरू के रिश्तेदार हैं। वह उससे मिला ।
संचारी ने कहा, “महानंद एक निराले स्वभाव का है । अगर मैं तुम्हारी सिफ़ारिश करूँ तो वह
कहे गा कि तम
ु कविता के बारे में क्या जानो। एक काम करना। एक अच्छा काव्य रचो और उसे
सन
ु ाओ। उसकी प्रशंसा पाओगे तो यह काम बन जायेगा। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि
वह बड़ा ही अहं कारी है और दस
ू रों की गलतियाँ निकालने में उसे आनंद आता है । अन्यों की
प्रशंसा वह कभी करता ही नहीं।”
 
श्रीचरण ने ठान लिया कि काव्य रचँ ूगा और महानंद की प्रशंसा पाऊँगा। उसने “श्रीकृष्ण
लीलामत
ृ ” नामक काव्य एक हफ्ते भर में लिखा। महानंद की स्वीकृति और प्रशंसा पाने का
विश्वास लेकर वह शंखपुर गया और महानंद से मिला।
 
उस समय महानंद, अपने घर के चबत ू रे पर बैठकर, आरं भ नामक एक यव
ु कवि की कविता सन

रहा था। उसमें व्याकरण के जो दोष थे, उनपर वह टिप्पणियाँ सन
ु ा रहा था। उन टिप्पणियों को
सुनते हुए श्रीचरण हँस पड़ा। महानंद ने, श्रीचरण को ध्यान से दे खा और उसकी हँसी का कारण
पूछा।
 
“महोदय, कमल कीचड में जन्म लेता है , वह कितना भी सुंदर क्यों न हो, वह कीचड़ का
अलंकार नहीं हो सकता। कीचड़ से अलग करने पर ही कमल अलंकार बनता है । ऐसी स्थिति में
दोषों को ठीक करने मात्र से क्या फ़ायदा है ? आप सर्वज्ञ हैं। आप जैसे महान पंडित इस प्रकार
समय व्यर्थ करते रहें गे तो क्या फल निकलेगा? इसी को लेकर मैं हँस पड़ा। क्षमा कीजिये, मैं
हँसी रोक नहीं पाया।”
 
महानंद ने, श्रीचरण को नख से शिख तक दे खा और कहा, “जो भी कविता सुनाना चाहता है ,
उसे चाहिये कि वह व्याकरण के दोषों के बारे में बखूबी जाने। तुम्हारा ज्ञान तो अधूरा है , फिर
भी तुमने मेरी हँसी उड़ाने की चेष्टा की, तद्वारा तुमने भी मेरा समय व्यर्थ किया। जानँू तो
सही, आखिर तुम हो कौन?”

श्रीचरण ने अपना, अपने गाँव का नाम बताया और अपनी अभिलाषा व्यक्त की। इसे सन
ु कर
महानंद एकदम नाराज़ हो उठा और बोला, “मेरी सेवा-शश्र
ु षू ा करने आये हो। मझ
ु े दे खते ही
तम्
ु हें मेरे पैरों पर गिरकर प्रणाम करना था, आशीर्वाद पाना था। पहले किसी और गरु
ु के पास
जाओ और उनसे गरु
ु का आदर करना सीखो। उसके बाद तम्
ु हें शिष्य बनाने के विषय में निर्णय
लँ ग
ू ा।” बड़े ही कर्क श स्वर में महानंद ने कहा।
 
श्रीचरण निराश होकर गाँव लौटा। संचारी ने परिणाम जानना चाहा तो उसने कहा, “महाशय,
आपने जो कहा, वह सच निकला। महानंद महा अहं कारी हैं। उनसे प्रशंसा पाना मेरे बस की बात
नहीं है । उन्हें कविता सुनाने का इरादा ही अब मुझमें नहीं रहा।”
 
इस घटना के कुछ दिनों के बाद संचारी को महानंद ने एक पत्र भेजा, “अपने गाँव के श्रीचरण से
रचित “श्रीकृष्ण लीलामत
ृ ” काव्य से कुछ कविताएँ मझ
ु े भेजना जो तम्
ु हें पसंद हैं। परं त,ु इसके
बारे में उससे कुछ न बताना।” यही उस पत्र का सारांश था।
 
संचारी खुद महानंद से मिलने शंखपुर गया। महानंद ने उसे स्वादिष्ट भोजन खिलाया । भोजन
के बाद संचारी ने उसके आतिथ्य की प्रशंसा करते हुए कहा, “तुम्हारी धर्मपत्नी यशोदा की
बनायी मिठाई हरी कांति को फैलानेवाले पूर्ण चंद्र की तरह है । उसमें निहित अमत
ृ को पाने के
लिए आतुर राहु की तरह निगलने के लिए तैयार बैठे मेरे गले में वह अटक गया। मैंने जब मँह

खोला, तब तुम्हारी यशोदा ने मिट्टी खानेवाले बालकृष्ण को मुझमें दे खा होगा। तुम्हारी यशोदा
उस यशोदा माँ की याद दिलाती है ।” इस अर्थ की एक कविता सुनायी।
 
महानंद ने चकित होकर कहा, “तम ु ने जो भी कहा, ऐसा यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। किन्तु मेरी
पत्नी ने जब अन्न खिलाया, तब उसमें माँ को दे खते हुए तुमने भाव-चमत्कारपूर्ण जो कविता
सुनायी, वह अद्भत
ु है । यह कहीं श्रीचरण के काव्य से तो नहीं है ?”

संचारी ने “हाँ” के भाव में सिर हिलाते हुए कहा, “श्रीचरण जब तुम्हारे पास आया था, तभी
उसकी कविता सुनकर तुम्हें यह बात बतायी थी।”
 
इसपर महानंद ने मुस्कुराते हुए कहा, “एक महाकवि ने कहा है कि कविता कभी भी न
बुझनेवाली एक प्यास है । श्रीचरण राजाश्रय में जाता तो अवश्य ही उसका सम्मान होता।”
 
संचारी ब्रह्मपुर लौटा। उसने श्रीचरण से जब यह बात बतायी तब वह बेहद खश ु हुआ। उसके
मँह
ु से बात ही नहीं निकली। कुछ दे र बाद अपने को संभालते हुए उसने कहा, “मैं शंखपुर जाकर
उस महाकवि को अपना काव्य न सुनाऊँ तो अहं कारी कहलाऊँगा।” वह उसी दिन शंखपुर जाने
निकल पड़ा।
 
उस समय महानंद अपने घर के चबूतरे पर बैठकर एक दस
ू रे कवि की कविता सुन रहा था।
श्रीचरण को दे खते ही वह तुरंत उठ खड़ा हो गया। श्रीचरण उसके पैरों पर गिरा और बोला,
“गरु
ु वर, आपको अपना काव्य सुनाने आया हूँ। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कीजिये।”
 
महानंद ने उसे आशीर्वाद दे ते हुए कहा, “आयष्ु मान भव, कीर्तिमान भव।” उसे उठाया और
कहा, “मेरी बात को मानकर तम
ु ने शिष्य परम्परा का पालन किया। मझ
ु े बहुत खश
ु ी हो रही है ।
परसों पंचमी है । तम्
ु हारा काव्य पठन उसी दिन से प्रारं भ होगा।”
 
महानंद ने, अपने ही घर में श्रीचरण के रहने का इंतज़ाम किया।
 
पंचमी के दिन महानंद ने एक बह
ृ त सभा का आयोजन किया और श्रीचरण को आश्चर्य में डाल
दिया। उस सभा में भाग लेने दरू -दरू प्रदे शों से महाविद्वान, कवि और पंडित आये। उन सबको
उपस्थित दे खकर इतोधिक उत्साह से श्रीचरण ने काव्य पठन किया।

इसके उपरांत जब महानंद ने उस काव्य की विशिष्टताओं के बारे में विवरण दिया, तब हर्ष
ध्वनियों के साथ सभा गँजू उठी।
 
कहानी बता चक ु ने के बाद वेताल ने कहा, “राजन ्, निस्संदेह दिखता है कि महानंद अहं कारी
पंडित है । यह भी स्पष्ट दिखता है कि सभी साहित्यिक उसे महा पंडित मानते हैं। यही बात
उसके रिश्तेदार संचारी ने भी श्रीचरण से बतायी थी। बहुतों का यह भी मानना है कि वह हमेशा
दस
ू रों की ग़लतियाँ निकालता रहता है और अन्यों की कभी भी तारीफ़ नहीं करता। आश्चर्य की
बात तो यह है कि ऐसे अहं कारी ने, श्रीचरण की कविता की प्रशंसा की। महानंद में जो
आकस्मिक परिवर्तन आया, उसका क्या कारण हो सकता है ? कवियों और पंडितों में उसकी जो
बदनामी हुई, क्या उससे बाहर निकलने के लिए यह प्रयत्न था? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते
हुए भी चुप रहोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “स्पष्ट है कि कितने ही कवि अपनी कविताओं को सुनाने अ़क्सर महानंद के
पास आते रहते हैं। श्रीचरण जब उन्हें दे खने गया, तब आरं भ नामक कवि अपनी कविता सुना
रहा था। ऐसे कवियों की कविताओं में जो व्याकरण व अलंकार दोष हैं, उन्हें निस्संकोच बताते
थे, महानंद। इसी वजह से प्रचार हुआ कि वे अहं भावी हैं। श्रीचरण की कविता की महानंद ने
भरपूर प्रशंसा की । यह कहना ठीक नहीं कि उनमें कोई आकस्मिक परिवर्तन हुआ । साहित्य
के प्रयोजन के लिए कविताओं के दोषों को निकालना, अहं कार नहींहै । सच कहा जाए तो वे
लोग अहं कारी हैं, जो महानंद को अहं कारी के रूप में प्रचार करते हैं।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
[आधार-”वसंध ु रा” की रचना]
 
92. सेनाधिपति का चुनाव

 
वेताल कथाएँ धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा, उसे
अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत ् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल
ने कहा, “राजन ्, मेरी समझ में नहीं आता कि किस महत्वपूर्ण लक्ष्य को साधने के लिए अथवा
किस मंत्री की सलाह के आधार पर आधी रात को इस घने अंधकार में इतनी तकलीफें झेल रहे
हो? शासक जब किसी समस्या का सामना करते हैं तब सहज ही वे मंत्रियों की सलाह लेते हैं
और यह परं परागत परिपाटी है । किन्तु, दे खा गया है कि महा मेधावी माने जानेवाले मंत्री भी
कभी-कभी महत्वपूर्ण निर्णय लेने में गलतियाँ करते हैं। ऐसे मंत्रियों के अनुचित निर्णयों के
कारण, शासकों को हानि पहुँचती है और वे आपत्ति में फँस जाते हैं। तुम्हें सावधान करने के
लिए उस धर्मशील की कहानी सुनाऊँगा, जिसने सेनाधिपति के पद पर नियक्ति
ु के विषय में
निर्णय लेने में ग़लती की। थकावट दरू करते हुए उसकी कहानी सुनो।” फिर वेताल यों उसकी
कहानी सुनाने लगाः

क्षेत्रपाल शिल्प क्षेत्र का शासक था। उसके शासनकाल में प्रजा सख


ु ी थी। सक्ष्
ू मग्रही व
महामेधावी उसका मंत्री धर्मशील राजा को शासन से संबंधित विषयों में सलाह दिया करता था।
उस राज्य के सेनाधिपति की आकस्मिक मत्ृ यु हो गयी। अतः राजा ने नये सेनाधिपति को
चनु ने की जिम्मेदारी धर्मशील को सौंपी।
 
उस समय सेना का कोई भी दलपति सेनाधिपति पद के योग्य नहीं था। इस वजह से मंत्री
सुयोग्य वीर की खोज में लग गया। उसने राज्य के कोने-कोने में मुनादी कि कार्तिक पूर्णिमा के
दिन राजधानी में युद्ध कौशल सम्बन्धी प्रतियोगिता का आयोजन किया जायेगा।
 
इसमें वीरता, शारीरिक बनावट और क्षमता, खड्ग विद्या, धनुर्विद्या आदि कलाओं का
प्रदर्शन किया जायेगा। इस आयोजन में राज्य का कोई भी युवक भाग ले सकता है । इन
प्रतियोगिताओं में जो विजेता होगा, उस वीर को सेनाधिपति के पद पर नियुक्त किया जायेगा।
 
प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कितने ही युवक आये। उस दिन प्रतियोगिताएँ चलायी गयीं।
सूक्ष्मधर और रूपसेन नामक दो युवक समान रूप से वीर पाये गये। उन दोनों में से एक का
चनु ाव करना मंत्री के लिए कठिन हो गया।
 
इसे लेकर मंत्री ने खूब सोचा-विचारा और उन दोनों युवकों को बल
ु ाकर उनसे कहा, “तम
ु दोनों
यद्ध
ु विद्याओं में असाधारण प्रतिभाशाली हो। इस आधार पर तम
ु में से यदि एक को चन
ु ा
जायेगा तो दस
ू रे के साथ अन्याय करना होगा।
 
सेनाधिपति का पद जिम्मेदारियों से भरा पद है । इसके लिए साहस व वीरता के साथ-साथ मेधा
शक्ति की भी नितांत आवश्यकता है । मैं तुम्हारी मेधा शक्ति की परीक्षा लेना चाहता हूँ। क्या
तुम दोनों इसके लिए तैयार हो?”

“यद्ध
ु विद्याओं में जब निर्णय लिया नहीं जा सका, तब मेधा शक्ति की परीक्षा लेना
स्वाभाविक है और उचित भी। हम इसके लिए सन्नद्ध हैं,” सक्ष्
ू मधर ने तरु ं त कहा। “इस विषय
में मझ
ु े भी कोई आपत्ति नहीं है । मैं भी सहमत हूँ।” रूपसेन ने कहा। “ठीक है , राजा और
सभासदों के समक्ष मैं तम
ु से तीन प्रश्न पछ
ू ू ँ गा।
 
तुम दोनों में से जिसके उत्तर स्वीकार योग्य व समुचित होंगे उसे सेनाधिपति के पद पर
नियुक्त किया जायेगा” मंत्री ने कहा। दोनों युवकों ने यह शर्त स्वीकार कर ली। दस
ू रे दिन राजा
के समक्ष सभा का आयोजन हुआ। दोनों युवक अपने-अपने आसन पर आसीन हुए। मंत्री
धर्मशील ने उठकर उन युवकों को संबोधित करते हुए कहा, “तुम दोनों नगर के प्रधान राजमार्ग
पर जा रहे हो।
 
तुम दोनों ने दे खा कि उस राजमार्ग पर दो युवक लड़-झगड़ रहे हैं। इस स्थिति में तुम क्या
करोगे?” “मंत्रिवर, रूपसेन मुझसे छोटा है । पहले उसे मौक़ा दीजिये।” सूक्ष्मधर ने कहा। मंत्री
ने रूपसेन से इसका उत्तर दे ने के लिए कहा। “मंत्रिवर, प्रधान राजमार्ग पर लड़ना अपराध है ।
 
इसलिए उन दोनों को गिरफ़्तार करूँगा और जेल में डाल दँ ग ू ा। फिर उनसे झगड़े का कारण
जानकर उन्हें महाराज के सामने निर्णय के लिए पेश करूँगा। “ रूपसेन ने कहा। “तुम क्या
करोगे?” मंत्री ने सूक्ष्मधर से पूछा। “राजमार्ग पर दो युवक लड़ रहे हैं, इसके पीछे अवश्य ही
कोई कारण होगा।
 
मैं उनके पास जाऊँगा और इसका कारण जानँूगा। यह भी जानँग
ू ा कि गलती किसकी है और
उनकी समस्या का परिष्कार करूँगा।” सूक्ष्मधर ने कहा। धर्मशील ने उसके उत्तर को सही
मानते हुए सिर हिलाया और कहा, “अब मेरा यह दस
ू रा प्रश्न है । कुछ क्रांतिकारी राजा के विरुद्ध
बग़ावत करने के लिए प्रजा को उकसा रहे हैं, प्रोत्साहन दे रहे हैं।

तब तम
ु दोनों क्या करोगे?” “गप्ु तचरों के द्वारा क्रांतिकारियों की गतिविधियों की जानकारी
पाऊँगा और इसकी भी जानकारी पाऊँगा कि वे कितने शक्तिशाली हैं, उनका नेता कौन है , क्या
जनता का सहयोग और सहानुभति
ू उन्हें प्राप्त है , क्या पड़ोसी दे श से उन्हें सहायता और शरण
मिल रही है और उनके पास क्या-क्या हथियार हैं।
 
फिर सेना की सहायता लेकर उनका दमन करूँगा।” आवेश-भरे स्वर में रूपसेन ने कहा। बाद में
सूक्ष्मधर ने कहा, “राजा के विरुद्ध अगर क्रांतिकारी बग़ावत करने को तैयार हो गये तो अवश्य
ही शासन की व्यवस्था के पालन में कुछ त्रटि
ु याँ होंगी। प्रजा की समस्याओं के परिष्कार के
विषय में असावधानी रही होगी या बहुत विलंब होता होगा। इसलिए पहले उन क्रांतिकारियों को
बुलाऊँगा और उनकी समस्याएँ जानँग ू ा।
 
सचमच ु ही अगर शासन में त्रटि
ु याँ हों तो उन्हें सध
ु ारूँगा। परं तु क्रांतिकारी बिना किसी कारण के
ही बग़ावत करने पर तल
ु गये हों तो मैं उसे दे खकर चप
ु नहीं रहूँगा बल्कि सेना को लेकर उनका
समल
ू नाश करूँगा।” मंत्री ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “बिलकुल ठीक कहा। अब रहा, मेरा
तीसरा प्रश्न। समझ लो, राजा के साथ तुम दोनों शिकार करने गये।
 
अकस्मात ् एक शेर राजा पर टूट पड़ा। इस हालत में तमु दोनों क्या करोगे?” “इसमें सोचने की
क्या बात है ? तुरंत राजा को वहाँ से हटाऊँगा और उस शेर से भिड़ जाऊँगा। अपने भुजबल से
उसे मार डालँ ग
ू ा। राजा की रक्षा करूँगा।” रूपसेन ने कहा। “तम
ु क्या करोगे?” मंत्री ने सूक्ष्मधर
से पूछा। “अगर मैं राजा के बग़ल में हूँगा तो राजा पर शेर के टूट पड़ने का सवाल ही नहीं उठता,
क्योंकि मैं सदा सावधान रहूँगा,” सूक्ष्मधर ने कहा।
 

उसके उत्तर पर राजा और सभासद प्रसश्न हुए। सभा तालियों से गूंज उठी। इसके बार मंत्री
थोड़ी दे र तक सोच में पड़ गया।
 
फिर मुस्कुराते हुए उसने कहा, “वीर युवको, मैंने पहले तो सोचा था कि तुमसे तीन प्रश्न ही
पूछूँ। परं तु अब एक और प्रश्न पूछना चाहता हूँ। समझ लो, हमारा राज्य तीन और राज्यों से
सटकर है । उनमें से एक राज्य सोने की निधियों से भरपूर है । दस
ू रे राज्य भर में अपार हथियार
हैं। तीसरा राज्य धान्य संपदाओं से भरा पड़ा है । अगर इन तीनों राज्यों पर आक्रमण करना हो
तो तुम इनमें से किस राज्य पर पहले आक्रमण करोगे?”
 
“मेरी समझ में नहीं आया कि इन प्रश्नों का चुनाव से क्या संबंध है ? ऐसी परिस्थिति में राजा
की आज्ञा का पालन करना ही सेनाधिपति का कर्तव्य है । राजा और मंत्री जो निर्णय लेंगे, उसके
अनुसार निर्णीत राज्य पर आक्रमण करूँगा और विजय प्राप्त करूँगा।” रूपसेन ने कहा। मंत्री
ने सूक्ष्मधर से उसका अभिप्राय जानना चाहा।
 
“सेना को बलशाली बनाना ही सेनाधिपति का प्रथम कर्तव्य है । सेना को अजेय बनना हो तो
हथियारों की बड़ी जरूरत है । हथियार हमारे पास हों तो साहस बढ़े गा और हम आसानी से शेष
दोनों राज्यों को भी अपने वश में कर सकते हैं। आप तो जानते ही हैं कि जहाँ शौर्य लक्ष्मी
निवास करती है , वहीं शेष सातों लक्ष्मियाँ भी निवास करती हैं। अतः मैं पहले उसी राज्य पर
आक्रमण करूँगा, जहाँ हथियार भरे पड़े हैं।”
 
बड़े ही गंभीर स्वर में सूक्ष्मधर ने कहा। उसके विचारों ने सबको मुग्ध कर दिया। पहले से ही
लेकर उसके उत्तर अद्भत
ु रहे । सबकी यही राय थी कि सूक्ष्मधर ही सेनाधिपति के पद पर
नियक्ु त किया जाए और उन्होंने सोचा कि मंत्री भी यही निर्णय लेंगे और उसे ही चुनेंगे।
 
परं तु मंत्री ने सबको अपना निर्णय सन ु ाकर आश्चर्य में डाल दिया। उसने रूपसेन को
सेनाधिपति के पद के लिए चन
ु ा। राजा ने भी सहर्ष अपनी सम्मति दे दी। वेताल ने कहानी कह
चुकने के बाद कहा, “राजन ्, सूक्ष्मधर और रूपसेन युद्ध विद्याओं में समान रूप से प्रतिभाशाली
साबित हुए।

फलस्वरूप मंत्री ने निर्णय लिया कि उनकी मेधा शक्ति की भी परीक्षा ली जाए। परं तु, जो-जो
प्रश्न पूछे गये, उनके सही उत्तर दिये, सूक्ष्मधर ने और मंत्री धर्मशील ने उसकी प्रशंसा भी की।
किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि उसने रूपसेन को सेनाधिपति पद के लिए चुना।
 
मंत्री का यह निर्णय क्या अंसगत और अस्वाभाविक नहीं लगता? उससे भी अधिक आश्चर्य की
बात यह है कि राजा ने भी इसके लिए अपनी सम्मति दे दी। धर्मशील के निर्णय के पीछे क्या
कोई सबल कारण है ? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारा सर
फट जायेगा।”
 
विक्रमार्क ने कहा, “मानता हूँ कि जहाँ तक मेधा शक्ति की बात है , सूक्ष्मधर, रूपसेन से बढ़कर
है , उत्तम है । इसी वजह से मंत्री धर्मशील ने उसके उत्तर सुनकर उसका अभिनंदन किया।
परं त,ु ऐसे सक्ष्
ू म बद्धि
ु वाले के अधीन राज्य की सेना का होना राज्य के लिए कदापि श्रेयस्कर
नहीं।
 
“भविष्य में शासन संबंधी विषयों में राजा और सूक्ष्मधर के बीच में मतभेद उत्पन्न हो जाएँ तो
राजा के लिए यह खतरा बन सकता है । अधिक कुशाग्र बुद्धि का व्यक्ति अपने को दस
ू रों से
अधिक ज्ञानी समझ बैठता है और यदि उसका अहं कार जाग जाए तो अपने राजा की परवाह
किए बिना उसकी अवज्ञा कर सकता है ।
 
सेनाधिपति के पद के लिए स्वामी भक्ति अधिक ज़रूरी है । समस्या के मूल में जाने का काम
उसका नहीं, मंत्री का होता है । इस दृष्टि से रूपसेन सेनाधिपति पद के लिए अधिक उपयक्
ु त है ।
राजा और मंत्री के आदे शों का पालन करना ही सेनाधिपति का कर्तव्य है ।
 
इसके लिए साधारण मेधा शक्ति का होना पर्याप्त है । जहाँ तक यद्ध ु विद्याओं की बात है ,
सूक्ष्मधर से रूपसेन कुछ कम नहीं है और यह साबित भी हुआ है । “सेनाधिपति के चुनाव में
मंत्री ने जो निर्णय लिया, उसमें दरू दर्शिता और विवेक हैं।
 
इसीलिए राजा भी उसके निर्णय से सहमत हुआ।” राजा के मौन भंग में सफल वेताल शव
सहित गायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
(आधार : टि.राजेंद्र की रचना)
 
93. राजा की बहुएँ

 
धनु का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे अपने कंधे
पर डाल लिया। फिर श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने
कहा, “राजन ्, अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए परिश्रम किये जा रहे हो। तुम्हारे ये प्रयास अवश्य
ही प्रशंसनीय हैं। परं तु यह मत भूलना कि कार्य की सिद्धि केवल सहनशक्ति व परिश्रम से ही
संभव नहीं होती है । इसके लिए आवश्यक है , विवेक और लोकज्ञान। इनके साथ-साथ
वाक्चातुर्य की भी ज़रूरत पड़ती है । ये गुण तम
ु में मौजद
ू हैं या नहीं, इसका निर्णय तुम्हें ही
करना होगा। इसके लिए मैं तुम्हें एक राजा की तीन बहुओं की कहानी सुनाऊँगा। उनकी कहानी
तुम्हारे निर्णय में सहायक बन सकती है । थकावट दरू करते हुए आराम से उनकी कहानी
सुनो।” फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने लगा :

महें द्रपरु ी के राजा का विवाह संपन्न हुए कई साल गज़


ु र गये। परं तु उनके संतान नहीं हुई। राजा
और रानी ने संतान की प्राप्ति के लिए कितने ही व्रत रखे, कोई ऐसा पण्
ु य क्षेत्र नहीं, जहाँ वे नहीं
गये हों। आख़िर निराश होकर वे इस निर्णय पर आ गये कि अब उनके कोई संतान नहीं होगी।
 
एक दिन रात को रानी ने सपने में पाँच मुखवाले नागराज के दर्शन किये। उन्होंने रानी से कहा,
“मेरे मंदिर के प्रांगण में काले पत्थर के नाग की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करो। अगर तम
ु चालीस
दिनों तक उस प्रतिमा का अभिषेक दध ू से करोगी तो तुम्हें संतान होगी।”
 
सबेरे जागते ही रानी ने राजा से सपने के बारे में बताया और कहा, “हमारे इष्टदे व नागें द्र ने
जैसे कहा, वैसे ही करें गे।”
 
एक सप्ताह के अंदर ही, राज दं पति ने पर्वत पर नागें द्र के मंदिर के प्रांगण में नाग प्रतिमा का
प्रतिष्ठापन किया। राजा और रानी दोनों बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति के साथ उस नाग प्रतिमा का
अभिषेक दध
ू से करने लगे। चालीसवें दिन एक विचित्र व्यक्ति रानी के पास आया, जिसे उसने
इसके पहले कभी नहीं दे खा था। वह पतला, लंबा और बिल्कुल ही काला था।
 
अपने कंधे में लटकती हुई थैली में से उसने तीन आम निकाले और उन्हें रानी को दे ते हुए कहा,
“मंदिर के अंदर जाओ और इन्हें खाओ। तुम्हारे तीन सुंदर पत्र ु होंगे।”
 
रानी ने श्रद्धापूर्वक आँखों से उन फलों का स्पर्श किया। मंदिर में जाकर उस विचित्र व्यक्ति के
दिये फल खाये। नौ महीनों के बाद रानी तीन सुंदर पत्र
ु ों की माँ बनी। राज दं पति ने उनके नाम
रखे, जय, विजय, अजय। बड़े ही प्रेम के साथ वे उनका पालन-पोषण करने लगे।
 
तीनों राजकुमार सुंदरता में , अ़क्लमंदी में , पराक्रम में किसी से भी कम नहीं थे। बीसवें साल की
उम्र में पहुँचते-पहुँचते उन्होंने समस्त विद्याएँ सीख लीं। राजा ने, तीनों बेटों की शादियाँ एक
ही मुहूर्त पर करवायीं। तीनों बहुएँ, सामंत राजाओं की बेटियाँ थीं। समय बीतते-बीतते राजा का
स्वास्थ्य गिरता गया।

बढ़
ु ापे ने उन्हें और कमज़ोर कर दिया। राजवैद्यों ने स्पष्ट कह दिया कि उनके स्वास्थ्य में
सध
ु ार की कोई गंज
ु ाइश नहीं है । अब राजा के सामने कठोर समस्या खड़ी हो गयी। वे निर्णय
नहीं कर पा रहे थे कि तीन यव
ु राजों में से किसे राजा घोषित करें , क्योंकि तीनों समान रूप से
समर्थ, बद्धि
ु मान ् व पराक्रमी थे।
 
राजा ने खूब सोचा-विचारा और राजा को चुनने की जिम्मेदारी अपने प्रधान मंत्री चंद्रशेखर को
सौंपी।
 
दसू रे ही दिन, प्रधान मंत्री ने यव
ु राजों की तरह-तरह से परीक्षाएँ लीं। मख्
ु यतया, राजनीति से
संबंधित प्रश्र्न उसने उनसे पछ
ू े । हर प्रश्न में तीनों ने समान प्रतिभा दर्शायी।
 
प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने जो हुआ, राजा को बताया और कहा, “महाराज, तीनों राजकुमार
सिंहासन पर आसीन होने के योग्य हैं। उनकी योग्यता समान है । इनमें से किसी एक को राजा
घोषित करें तो शेष दो के साथ अन्याय होगा।”
 
राजा चिंतित हो उठे और कहा, “प्रधान मंत्री, लगता है , समस्या और जटिल होती जा रही है ।
अब हम करें भी क्या?”
 
मंत्री ने लंबी सांस खींचते हुए कहा, “महाराज, एक उपाय है । अगर आप अनुमति दें गे तो
आपकी तीनों बहुओं से अलग-अलग मिलना चाहता हूँ और उनसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ।
उनके दिये जवाबों से यह फैसला आसान हो जायेगा कि इन तीनों राजकुमारों में से किसे राजा
चनु ें।”
 
राजा ने कहा, “जो भी करना है , शीघ्र कीजिये। मेरे सिर पर से यह बोझ उतार दीजिये।” कहते
हुए उन्होंने अपना मुकुट दिखाया।
 
इसके बाद राजा के आदे शानुसार, पहले जय की पत्नी कमरे में आयी, जहाँ राजा और मंत्री दोनों
बैठे हुए थे। मंत्री ने उससे पूछा, “दे वी, तुम्हारे पति को अगर राजा घोषित न किया जाए तो तुम
क्या करोगी?”
 
जय की पत्नी के मुख पर निराशा स्पष्टगोचर हो रही थी। उसने दबे स्वर में कहा, “किसी दे श
का राजा बनना भाग्य की बात है । अगर मेरे पतिदे व के भाग्य में यह बदा न हो तो चप
ु रहूँगी।”

 
उसके जाने के बाद विजय की पत्नी आयी । मंत्री ने वही सवाल उससे भी पूछा।
 
इसपर विजय की पत्नी ने उदास स्वर में कहा, “क्या करूँगी? मन ही मन इस बात को लेकर
कुढ़ती रहूँगी कि भगवान ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी। हो सकता है , मेरी श्रद्धा-भक्ति में कोई
कसर रह गयी हो।”
 
अंत में अजय की पत्नी आयी। जैसे ही मंत्री ने सवाल किया उसने कडुवे स्वर में कहा, “प्रधान
मंत्री के दिमाग़ में ऐसे विचार उत्पन्न हुए कैसे? मेरे पति का राजा न होने का सवाल ही नहीं
उठता। मैं अपने पति के शक्ति-सामर्थ्य, महिमा, कौशल बखब ू ी जानती हूँ। जीवन में उनकी
हार कभी होगी ही नहीं।”
 
उसके जाते ही, मंत्री ने राजा से कहा, “महाराज, अजय को राजा घोषित कीजिये।”
 
वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद कहा, “राजन ्, मंत्री चंद्रशेखर ने राजा को जो सलाह दी, वह
विवेकहीन और राजनैतिक चातुर्य से खाली लगता है । बहुओं की परीक्षा लेकर, पुत्रों की
योग्यताओं का पता लगाना क्या विचित्र नहीं लगता? दोनों बड़ी बहुओं ने अपने उत्तरों में
सौम्यता दर्शायी । भगवान के प्रति उनका विश्वास उनके उत्तरों में स्पष्ट है । पर अजय की
पत्नी ने, कडुवे स्वर में उत्तर दिया। लगता है कि उसमें अहं कार कूट-कूटकर भरा हुआ है ।
अपने वाक्चातुर्य से उसने यह कह डाला कि उसके पति के समान कोई दस ू रा है ही नहीं। क्या
मंत्री के मन में यह भय उत्पन्न हो गया कि अगर उसके पति को राजा घोषित न किया जाए तो
वह पति को विद्रोह करने के लिए सन्नद्ध करे गी और दे श भर में अशांति फैलायेगी। क्या इसी
भय के मारे मंत्री ने महाराज को ऐसी निरर्थक सलाह दी? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए
भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।”

विक्रमार्क ने कहा, “पहले ही यह स्पष्ट हो गया कि तीनों राजकुमार सिंहासन पर आसीन होने
के लिए एक समान योग्यताएँ रखते हैं। तीनों में से कोई भी यह आग्रह नहीं करता कि वही
सिंहासन पर आसीन हो। किन्तु पुरुष की व्यवहार-शैली पर पत्नी का प्रभाव थोड़ा-बहुत अवश्य
होता है । बड़े से बड़े राजा भी इससे परे नहीं हैं। इसीलिए मंत्री जानना चाहते थे कि राजा की
बहुओं की मानसिक स्थिति के अनुसार राजकुमारों की अतिरिक्त योग्यताएँ क्या हैं। इसी को
दृष्टि में रखते हुए मंत्री ने यह निर्णय लिया । यह कोई निराला निर्णय नहीं है । इसमें कोई संदेह
भी नहीं है कि राजा की तीनों बहुएँ मर्यादा का पालन करती हैं। दसू रों का आदर करना भी वे
भली-भांति जानती हैं। परं तु जय की पत्नी सहनशील स्त्री है । परिस्थितियों से वह समझौता
करनेवाली स्त्री है । विजय की पत्नी को भगवान पर पूरा-पूरा भरोसा है । परं तु अजय की पत्नी
का स्वभाव इन दोनों से भिन्न है । पति के आत्मविश्वास और धैर्य-साहस को बढ़ानेवाले
स्वभाव की है वह। राजा में अनिवार्य रूप से होना चाहिये, अटूट आत्मविश्वास। अजय की
पत्नी जैसी स्त्रियॉ ं इस प्रकार के विश्वास को प्रोत्साहन दे ती हैं। यद्यपि तीनों राजकुमार एक
समान योग्यताएँ रखते हैं, परं तु धर्मपत्नी का सहयोग और प्रोत्साहन उसकी अतिरिक्त
योग्यता है । इसीलिए मंत्री ने अजय को राजा घोषित करने की सलाह दी। इस भय के मारे यह
घोषणा करने के लिए नहीं कहा कि ऐसा न करने पर वह अपने पति से विद्रोह करायेगी या
शांति में भंग डालेगी।”
 
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
 
- कामेश पांडे की रचना के आधार पर।
 
94. मौन योगी

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ से शव को उतारा और यथावत ् श्मशान की
ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, "राजन ्, यह रात का समय है । चारों ओर
घोर अंधकार छाया हुआ है । जहाँ दे खो, वहाँ भूत-प्रेत हैं, विषैले सर्प हैं, खूंखार जानवर हैं।
निश्चित रूप से तुम्हारी जान ख़तरे में है । फिर भी इनकी कोई परवाह किये बिना आगे बढ़े चले
जा रहे हो। तुम्हारा ऐसा करना क्या उचित है ? मैं तो नहीं जानता कि कौनसा ऐसा काम आ
पड़ा, जिसे रात के ही समय में तुम्हें पूरा करना चाहिए। साहस की, परिश्रम की, धुन की भी एक
हद होती है । और तम
ु इन हदों को पार कर रहे हो। अगर किसी महात्मा या महायोगी की
सहायता हे तु इतने कष्ट झेल रहे हो तो मैं साफ़ साफ़ कहना चाहता हूँ कि तम
ु बड़ी भूल कर रहे
हो। मैं तुम्हें सावधान भी करना चाहूँगा। क्योंकि ऐसे लोग राजा के आश्रय में रहकर सुख
भोगना चाहते हैं। इस मौक़े का वे पूरा-पूरा फ़ायदा उठाना चाहते हैं। वे स्वार्थी होते हैं। उदाहरण
के रूप में मैं तुम्हें आज मौन योगी व राजा कनकसेन की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। थकावट दरू
करते हुए उनकी कहानी सुनो और अपने को सुधारो।" फिर बेताल उन दोनों की कहानी यों
सुनाने लगाः

ममतापरु ी नगर की सीमा पर करुणा नदी बहती थी। वहाँ बरगद का एक बड़ा वक्ष
ृ था। उस वक्ष

के नीचे एक योगी रहा करता था।

वह सदा मौन रहता था। किसी के भी सवाल का कोई जवाब नहीं दे ता था। कोई फल ले आता
तो वह खा लेता था। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते थे कि वह बहरा व गँग
ू ा है ।

एक दिन एक सांड उस प्रदे श में घुस आया। वह लोगों को अपनी सींगों से चोट पहुँचाने लगा।
इस वजह से लोग उससे तंग आ गये। उसे पकड़ने के लिए लोग जमा हो गये और उसका पीछा
करने लगे। सांड दौड़ता हुआ उस बरगद के वक्ष
ृ के पास गया, जिसकी छाया में योगी बैठा हुआ
था। लोग घबरा गये। वे चिल्लाने लगे, "योगी महाराज, भाग जाइये। नहीं तो सांड आप पर
आक्रमण कर दे गा।"

पर योगी बिना हिले-डुले वहीं बैठा रहा। सांड थक गया था। वह योगी के पास आया, दो क्षणों
तक खड़ा रहा और फिर जमीन पर लेट गया। लगता था, मानों वह अपनी थकावट दरू कर रहा
हो।

इस दृश्य को दे खकर लोगों ने तरह-तरह के अर्थ निकाले।


एक ने कहा, "यह योगी बहरा और गँूगा ही नहीं है , अंधा भी है । नहीं तो सांड को आता हुआ
दे खकर चपु क्यों रह जाता?"

दस
ू रे ने कहा, "ऐसी मूर्खता-भरी बातें मत करो। ऐसा कहना तो घोर अपराध है । ये एक
महायोगी हैं इसी वजह से यह घमंडी सांड भी उनके सामने शांत होकर बैठ गया। इनके पास
अदबुत व अमोघ शक्तियाँ हैं। इस महायोगी का यहाँ रहना हमारे नगर के लिए बहुत श्रेयस्कर
है ।" फिर उस योगी की महानता को लेकर नगर भर में प्रचार भी होने लगा।

उस दिन से योगी को दे खने बड़ी संख्या में लोग आने लगे। जो आते थे, कोई न कोई भें ट उसे दे
जाते थे। पर योगी उन भें टों को अपने लिए नहीं रखता था। उसे दे खने आनेवाले अन्य भक्तों
को वह दे दे ता था। योगी के त्याग गण
ु पर लोग उसकी प्रशंसा के पल
ु बांधने लगे।

कुछ लोग योगी से अपनी समस्याएँ बताते थे। पर वह कोई उत्तर नहीं दे ता था। समस्या
बतानेवाले अपनी ही तरफ़ से कोई हल ढूँढ़ निकाल लेते थे और कहते थे, "ऐसा करना ही ठीक
होगा न स्वामी। ऐसा करने से हमारी भलाई होगी न?"

योगी की व्यवहार-शैली बड़ी ही विचित्र होती थी। लगता था, सन


ु रहा है और नहीं भी सन
ु रहा
है । बीच-बीच में 'हाँ' के भाव में सिर्फ सिर हिला दे ता था। कभी-कभी 'न' के भाव में भी सिर
हिला दे ता था। अब लोग योगी को संकेत योगी कहकर पुकारने लगे।

क्रमशः ममतापुरी और आसपास के गाँवों में भी योगी का खूब प्रचार होने लगा। भक्तों की भीड़
लग जाती थी और वे क़ीमती भें ट भी दे कर जाने लगे। कुछ धोखेबाजों ने अपना उल्लू सीधा
करने के लिए एक उपाय किया। बरगद के वक्ष
ृ के चारों ओर उन्होंने एक टट्टी बांध दी। योगी के
दर्शन करने जो लोग आते थे, उनसे धन वसूल करने लगे। कहा करते थे कि योगी बाबा की
अनुमति लेकर हम एक आश्रम का निर्माण करने जा रहे हैं। इसके लिए वे चंदा भी वसूल करने
लगे। पर वह धन वे आपस में बांट लेते थे। आख़िर यहाँ तक कि योगी के आहार के विषय में भी
कोई न कोई बहाना बनाकर रक़म ऐंठने लगे। रात को योगी को वे केवल दो-तीन रोटियाँ ही
खाने को दे ते थे। फिर भी योगी मौन ही रहता था। किसी से भी कुछ कहता नहीं था। यों दिन
यथावत ् बीतने लगे।

अब राजा कनकसेन को योगी के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। राजा में योगी को दे खने की इच्छा
जगी। एक दिन रात को सभी भक्तों के चले जाने के बाद राजा बहुरूपिया बनकर योगी के पास
गया।

योगी के सामने जो पत्ता था, उसमें सिर्फ़ दो रोटीयाँ थीं। थोडी दरू ी पर एक मशाल जल रही थी।
योगी के आँखों में आँसू थे। यह दे खकर राजा को लगा कि योगी के जीवन के पीछे कोई दख
ु भरी
कहाने छिपी होगी।

"स्वामी, मैं इस दे श का राजा हूँ। हो सकता है ,आप लोगों की दृष्टि में गँग
ू े, बहरे और अंधे हों।
आपको समझ न सकने के कारण आप पर वे यह दोष मढ़ रहे हैं। मेरी दृष्टि में आप नहीं बल्कि
वे ही विकलांग हैं। अब आपके बोलने का अवसर आ गया। कृपया अपने बारे में बताइये," राजा
कनकसेन ने योगी से विनती की।

"महाराज, आपकी बातों को सन


ू ने के बाद मैंने मौन-व्रत तोड़ने का निश्चय किया। अपने बारे में
बताने के पहले ही मैं भांप गया कि आप कोई महान व्यक्ति-विशेष हैं। सच तो सदा सच होता
है । उसकी शक्ति अनप
ु म होती है । उसके सम्मख
ु किसी भी प्रकार के मौन या असत्य का
अस्तित्व नहीं होता। सच छिपाया नहीं जा सकता," योगी ने गंभीर स्वर में कहा।

योगी की बातों से महाराज जान गया कि योगी का व्यक्तित्व महान है , वह असाधारण


व्यक्ति-विशेष है । महाराज में उसके प्रति आदर की भावना बढ़ गयी।

योगी बाद में यों कहने लगा, "महाराज, असली आँखें तो हमारे मन की आँखें होती हैं। ये ब्रह्म
नेत्र जो दे ख रहे हैं, वे सबके सब सच तो नहीं हो सकते। सच्चाइयों का विश्वास दिलाने के लिए
झूठ को हम सच बनाते हैं। पर इन मनोनेत्रों के द्वारा ही हम यह समझ पाते हैं कि ये सच नहीं
बल्कि झूठ हैं। इसीलिए मैंने निश्चय किया कि ये जो आँखें सच नहीं दे ख सकतीं, वे किस काम
की। तब से लेकर मैंने इन आँखों से दे खना बंद कर दिया। उस दिन से इन आँखों से मैं जो भी
दे खता हूँ, वह मेरे मन को स्पर्श नहीं करता। स्पर्श कर भी ले, पर मेरा मन उसे स्वीकार नहीं
करता। इसीलिए दे ख सकनेवाली आँखों के होते हुए भी मैं अंधा हूँ।"

"महात्मा, जनता आपको केवल अंधा ही नहीं बल्कि बहरा व गँग


ू ा भी समझती है । आपके ऐसे
बर्ताव के पीछे क्या कोई सबल कारण है ?" राजा ने पूछा।

"है महाराज। सुनिये। मेरी पत्नी का एक ही भाई था। उसे वह बहुत चाहती थी, उसका वह बड़ा
आदर करती थी। उसने व्यापार किया और सब कुछ खो दिया। ऋण-भार से वह दबा जा रहा
था। मेरी पत्नी से उसकी दस्थि
ु ति दे खी नहीं गयी। उसके गिड़गिड़ाने पर मैंने अपनी पाँच एकड़
में से तीन एकड़ भमि
ू गाँव के सूदखोर के पास गिरवी रख दी और वह रक़म उसे दे दी। मेरे साले
ने मुझे वचन दिया था कि शहर में जाकर व्यापार करूँगा और लाभ कमाकर एक साल के अंदर
भमि
ू को गिरवी से छुड़ा दँ ग
ू ा। पर पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी न ही उससे रक़म मिली
और न ही वह दिखायी पड़ा। इस बीच सूदखोर रक़म लौटाने के लिए मुझे तंग करने लगा। कोई
और उपाय न पाकर पास ही के अपने रिश्तेदार के यहाँ धन ले आने गया।
पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। रिश्तेदार ने धन दे ने से इनकार कर दिया। एक सप्ताह के बाद जब
मैं स्वग्राम लौटने लगा तब मैंने दे खा कि वह सद
ू खोर गाँव के चबत
ू रे पर बैटा हुआ है । वहाँ गाँव
के कुछ प्रमख
ु लोग व ग्रामाधिकारी भी बैठे हुए हैं। मझ
ु े दे खते ही उन सबने मिलकर मझ
ु े
चेतावनी दी कि पंद्रह दिनों के अंदर रक़म सद
ू खोर को लौटा न दी जाए तो खेत के साथ-साथ
घर-बार भी खोना पड़ेगा।

"महाराज, आपसे यह बात छिपी नहीं है कि गौरव प्रतिष्ठा साधारण गह


ृ स्थ के लिए और दे श
के राजा के लिए एक समान है । जैसे ही मैंने घर में क़दम रखा, मेरी पत्नी मुस्कुराती हुई सामने
आयी। लगता था कि वह कुछ कहना चाहती है । पर मैं उस समय अपने आप में नहीं था।
चबूतरे पर मेरा जो अपमान हुआ, वह मुझसे जीर्ण नहीं हो पा रहा था। मैं उसके भाई को और
उसके पूरे परिवार को गालियाँ दे ने लगा। वह रोती-बिलखती घर के पिछवाड़े में दौड़ती हुई चली
गयी। मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं चुपचाप अंदर चला गया तो वहाँ मैंने एक ख़त
दे खा, जिसमें उसके भाई ने लिखा था कि एक हफ़्ते के बाद धन लेकर लौट रहा हूँ।" कहता हुआ
योगी आँसू पोंछने लगा।

"आपकी पत्नी पिछवाड़े में जाकर कुएँ में कूद पड़ी और मर गयी। उसने आत्महत्या कर ली।
यही हुआ न स्वामी?" राजा ने पूछा।

"हाँ, यही हुआ। यह जानते ही घर के दरवाजे भी बंद किये बिना घर से निकल पड़ा। भटकता
रहा। आख़िर नदी के किनारे के इस बरगद के वक्ष
ृ के नीचे मौन धारण किये बैठ गया। उस क्षण
से लेकर सबकी दृष्टि में मैं गँूगा हूँ, बहरा हूँ।"

"महात्मा, लोगों का कहना है कि आप महिमावान है , आपके पास अदभुत शक्तियाँ हैं। क्या
यह सच है महात्मा?" राजा ने उत्सुकता भरे स्वर में पूछा।
 

"कुछ बदमाश, धोखेबाज़ व खुदगर्ज़ लोग हैं, जो ऐसा झूठा प्रचार कर रहे हैं। वे मेरे मौन-व्रत का
फ़ायदा उठाकर अपनी जेबें भर रहे हैं। दिन-रात इसी समस्या को लेकर मैं चिंतित हूँ। इस
समस्या का कोई समाधान ढूँढ़ नहीं पाया। मैं निस्सहाय हूँ।" योगी ने दख
ु -भरे स्वर में कहा।

दस
ू रे दिन मौन योगी के दर्शन करने जो भक्त जन आये, उन्हें निराश होना पड़ा। वहाँ वह नहीं
था। इसके बाद भी वह योगी किसी को दिखायी नहीं पड़ा। केवल महाराज ही जानता था कि
उसका अब का निजी सलाहकार कोई और नहीं वही मौन योगी है ।

बेताल ने यह कहानी सन
ु ाने के बाद कहा, "राजन, लंबे अर्से तक वह योगी अंधा,गँग
ू ा और बहरा
बना रहा। पर राजा को दे खते ही उसकी आँखों में आँसू क्यों भर आये? योगी बनकर वह जनता
की निस्वार्थ सेवा कर रहा था। पर बाद में वह राजा का निजी सलाहकार बन गया। यह तो
स्वार्थ है , जनता की सेवा कहलायी नहीं जा सकती। योगी के जीवन से उसका मन उचट गया
था। राजा के यहाँ रहकर सख
ु भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर वह राजा का सलाहकार बन
गया। मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी तम
ु चप
ु रह जाओगे तो तम्
ु हारे सिर के टुकड़े-
टुकड़े हो जायेंगे।"

विक्रमार्क ने कहा, "राजा कनकसेन ने जो उससे प्रश्न पूछे, उनसे तुरंत योगी ताड़ गया कि वह
ज्ञानी, विवेकी एवं जिज्ञासु है । उसने अपने आपको स्वयं अंधा, गँग
ू ा और बहरा बना लिया था।
वह नहीं चाहता था कि वह किसी बुराई का कारण बने। खुदगर्जों व धोखेबाजों की धूर्तता उससे
सही नहीं गयी। इसी कारण उसकी आँखों में आँसू भर आये। यह दे खते हुए राजा ने महसूस
किया कि योगी का मन अशांत है और उसे शांति चाहिए। इसीलिए राजा चाहता था कि वह यहाँ
न रहे और उसके यहाँ सलाहकार बनकर शांत जीवन बिताये। यह तो स्पष्ट है कि राजा के
आश्रय में रहकर सुख भोगने की इच्छा उसमें क़तई नहीं थी।"

राजा का मौन-भंग होते ही बेताल शवसहित गायब हो ग़ायब और पेड़ पर जा बैठा।

-आधारः महे श राठी की रचना


95. गर्माहट का स्रोत दरू ी

 सर्दियों की दोपहर थी। बादशाह अकबर नदी के किनारे टहल रहे थे। उनके साथ उनके कुछ
दरबारी तथा बीरबल भी थे । बादशाह नदी के बहते हुए पानी की ओर दे खते रहे ।

“यह हवा पानी को ठं डा किए जा रही है । पर्वतों की ठं डक लाती है और पानी में मिला दे ती है ।”
बादशाह ने कहा।

“कौन इस कड़कती ठं ड में नदी में उतरे गा?” एक दरबारी ने कहा।

“यदि सही इनाम दिया जाए तो हम एक ऐसे आदमी को ढूँढेंगे जो सारी रात नदी में , छाती तक
गहरे पानी में खड़ा रहे ।” बीरबल ने कहा।

“असंभव, जो भी ऐसा करे गा वह ठं ड से जकड़ कर मर जाएगा।” बादशाह ने कहा।

“शहं शाह, असंभव क्या होता है जिसका प्रयास न किया गया हो।” बीरबल अपनी बात पर अड़ा
रहा। “तुम कैसे दृढ़ता से कह सकते हो?” बादशाह ने चुनौती दे ते हुए कहा।

“प्रस्ताव रखकर दे खें कि मैं सही हूँ या गलत।” बीरबल ने धीमे स्वर में कहा।

दस
ू रे दिन नगाड़े बजाने वाले नगाड़े बजाते हुए चारों तरफ गए और राजा के आदे श की घोषणा
की। “जो ठं ड में सारी रात यमुना नदी में छाती तक गहरे पानी में खड़ा होकर दिखाएगा उसे सौ
मोहरें इनाम में दी जाएंगी।”

एक धोबी ने यह घोषणा सन ु ी। उसे पैसों की बहुत जरूरत थी। “एक सौ मह


ु रें ! उनसे मैं अपने
सारे कर्ज उतार लँ ग
ू ा और मेरे पास भी थोड़ा बच जाएगा।” उसने अपनी पत्नी से कहा।

“तम
ु ठं ड में जकड़ मत्ृ यु को भी प्राप्त हो सकते हो।” पत्नी ने सावधान करते हुए कहा।
“नहीं, मैं नहीं मरूँगा। मैं बचपन में सर्दियों में रात को नदी में तैरा करता था।”

उसने अपनी पत्नी की हथेली को बड़े प्यार से दबाकर आश्वासन दिया। “सोचो एक सौ मोहरें ।”
वह हँसा। दस
ू रे दिन वह राजदरबार में उपस्थित हुआ। और दरबार के कर्मचारी से कहा कि वह
घोषणा सुनकर उपस्थित हुआ है । कर्मचारी उसे बादशाह के समक्ष ले गया।

 धोबी ने झक
ु कर धरती को छूकर अदब से सलाम किया, और बादशाह को कहा, “शहं शाह, मैंने
राज दरबार की घोषणा सन
ु ी है । मैं परू ी रात नदी में छाती तक गहरे पानी में खड़ा रहने के लिए
तयार हूँ।” उसने स्पष्ट स्वर में कहा।

“बहुत खब
ू ”, बादशाह ने दरबारी कर्मचारी से कहा, “आवश्यकता अनस ु ार सारी तैयारी कर दी
जाए। दो पहरे दारों की नियक्ति
ु कर दी जाए जो नदी तट पर रहें गे और उस पर परू ी नज़र
रखेंगे।” पहरे दारों को यह तैनाती अच्छी नहीं लगी क्योंकि वे ठं ड के इस मौसम में बाहर रहना
नहीं चाहते थे। परं तु उनके पास कोई चारा न था। आदे श तो आदे श होता है ।

अंधेरा होते ही पहरे दारों ने धोबी को पानी में उतरने का संकेत दिया। उन्होंने स्वयं कई स्वेटर
एक के ऊपर एक पहन रखे थे। उन्होंने अपनी तैनाती छप्पर के नीचे ले ली। धोबी ने अपने
कपड़े उतारे । उसका शरीर ऐसे कांपा जैसे तफ
ू ान में पत्ता कांपता है । थोड़ी दे र के लिए उसने
सोचा कि वह अपनी जान को जोखिम में डाल रहा है । लेकिन अब बहुत दे र हो चुकी थी। “सौ
मोहरें !” उसने अपने आप से कहा।

“एक रात का दख
ु और सौ मोहरें !” यह विचार आते ही उसे बल मिला। वह पानी में चलता रहा
जब तक उसे छाती की गहराई तक पानी नहीं मिला।

चौकसी प्रारं भ हुई। यह चॉदनी रात थी। करोड़ों तारे आकाश में चमक रहे थे। तारों के बीच
हं सिए-सा चॉदं चमक रहा था। कड़कती ठं ड दे ह को चीर रही थी। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती गई त्यों-
त्यों असहनीय ठं ड होती गई। धोबी को ऐसा लगा कि रात का अंत ही नहीं हो रहा है ।

“ओह! बस सुबह हो जाए!” वह बार-बार यही इच्छा करता रहा।

उसने महसूस किया कि यह इच्छा उसे कहीं का नहीं रहने दे गी। इस अग्नि परीक्षा का सामना
करने के लिए उसे कोई न कोई रास्ता निकालना होगा जो उसे शक्ति दे सके ।उसे अपने
मस्तिष्क को कहीं न कहीं लगाना होगा। उसकी नज़र दरू रखी लैंप की लौ पर पड़ी। यह लैंप
महल के ऊपर छत पर लगी थी। “आह!” इतनी दरू से भी मानो सचमच
ु उसे थोड़ी गर्माहट
महसस
ू हुई। लैंप और गर्माहट ने उसके डर को दरू किया और प्रेरणा दी।

 वह भूल गया कि पानी कितना ठं डा है । उसे कड़कती ठं ड का एहसास तब तक नहीं हुआ जब
तक मुर्गे ने बॉगं दे कर सुबह होने की सूचना नहीं दी। धोबी ने यह महसूस किया कि अंधकार
खत्म हो गया है । उसकी अग्नि परीक्षा खत्म हुई। नदी के किनारे खड़े पहरे दारों ने जोर से
चिल्ला कर कहा, “बाहर आ जाओ, तमु एक सौ मोहरों से धनी हो गए हो।” धोबी किनारे पर आ
गया, तौलिये से अपना गीला शरीर पोंछा, शीघ्र गर्म कपड़े पहने और पहरे दारों के साथ शाही
दरबार में गया।

बादशाह अपने दरबारियों तथा बीरबल के साथ दरबार में आए। “शहं शाह, यह आदमी सारी रात
नदी में छाती तक गहरे पानी में खड़ा रहा।” उन्होंने घोषणा की। बादशाह को विश्वास न हुआ।
उन्होंने सोचा जरूर इसने कोई चाल चली होगी जिससे ठं ड को दरू रखा जा सके। वे आगे की
ओर झुके और अपनी गरजती आवाज में बोले, “मुझे बताओ कि तुमने ठं ड को कैसे दरू रखा?”

“शहं शाह, महल की छत पर लगी लैंप की लौ ने मुझे गर्मी दी।” धोबी ने भोले-भाले अंदाज में
कहा। “आह ! लैंप ने तुम्हें गर्माहट दी, दे खा जाए तो, तम
ु ने बाहर से मदद ली। यह व्यवहार
तुम्हें इनाम लेने का हकदार नहीं बनाता।” धोबी का चेहरा मुरझा गया। और बीरबल का भी
लेकिन बीरबल ने कुछ नहीं कहा। वह बड़े दख
ु के साथ दे खता रहा। धोबी सर नीचा कर  शाही
महल से बाहर आ गया। बीरबल ने दे खा उस आदमी का चेहरा निराशा में डूब गया। उसे ठं ड
सहनी पड़ी इस आशा से कि उसे इनाम मिलेगा। क्रूर विधि ने उसकी आशाओं पर पानी फेर
दिया।

बीरबल ने महसस
ू किया कि धोबी के साथ अन्याय हुआ है । उसने उसी समय प्रतिज्ञा की, वह
उसे उसका हक दिलाकर रहे गा। दस
ू रे दिन, बीरबल ने शाही दरबार को संदेश भेजा, यह कहकर
कि घर में कोई जरूरी काम है , इसलिए आज वह दरबार में उपस्थित नहीं हो पाएगा। “जरूरी
काम! बादशाह की सेवा से बढ़कर जरूरी काम क्या हो सकता है ?” बादशाह अकबर बड़बड़ाया।

कुछे क दरबारी, जो बीरबल से ईर्ष्या करते थे, बड़े खश


ु हुए।
“उसी समय, बादशाह ने बीरबल को बल
ु ाने के लिए पहरे दार भेजा। पहरे दार दौड़ता हुआ बीरबल
के घर आया और उसने बादशाह का संदेश दिया।
“आह!” बीरबल ने कहा। “जाओ और बादशाह से कहो कि मैं खिचड़ी बनाने में व्यस्त हूँ। जैसे
ही यह बन जाती है , मैं उनकी सेवा में हाजिर हो जाऊँगा।” पहरे दार ने खबर बादशाह अकबर को
पहुँचा दी।

“बड़ा मर्ख
ू है !” बादशाह ने गस्
ु से में जोर से कहा। फिर उन्हें मन-ही-मन थोड़ी बेचैनी हुई।

“वह आदमी जरूर कोई शरारत कर रहा है । चलो, उसे पकड़ा जाए,” बादशाह ने भौंहें सिकोड़
कर कहा।

बादशाह शाही घोड़े पर सवार हुए। उनके पीछे उनके दरबारी भी घोड़ों पर सवार हो चल पड़े।
शाही कारवॉ ं जल्दी ही बीरबल के घर पहुँच गया। बीरबल अपने घर के आँगन में ही था। वह
ू ी लकड़ियों से आग जला रहा था। उसने काफी ऊँचाई पर लकड़ियॉ ं बॉधं कर उस पर मिट्टी
सख
की हांडी रखी थी। आग तीन फीट परे जल रही थी।

बीरबल ने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी फेंक दी और बादशाह की ओर दौड़ा। उसने अपने स्वामी
का आदर बादशाह के सामने झक
ु कर तथा धरती को छूकर प्रकट किया? फिर बादशाह के
आदे श का इंतजार करने लगा।

  ”बीरबल, तम
ु क्या कर रहे हो?”

“शहं शाह, मैं खिचड़ी बना रहा हूँ। दाल और चावल ऊपर रखी हांडी में है ।”

“लेकिन”, बादशाह ने ऊँची आवाज में कहा,  “बर्तन के नीचे कोई आग नहीं है ?”

“आग वहॉ ं है ”, बीरबल ने इशारे से थोड़ी-सी जलती आग को दिखाया, जो तीन फीट दरू थी।
“दाल-चावल कैसे पकेंगे जब तक बर्तन के नीचे आग की गर्मी न हो?” बादशाह ने पूछा।
बीरबल थोड़ा मुस्कुराया।

“मुस्कुराना कोई उत्तर नहीं है ।” बादशाह उत्तेजित हो पूछने लगे, “बताओ खिचड़ी कैसे पकेगी
जब आग बर्तन से दरू हो?”

“शहं शाह, आपने मुझे बताया है कि दरू से भी गर्मी पहुँच सकती है ।” बीरबल ने अपनी दाढ़ी को
खुजलाते हुए कहा। “तम
ु ने मुझसे सीखा है ?” बादशाह ने भौचक्के होकर दे खा।

“आपने ही मुझे दिखाया है , शहं शाह! आपने कहा कि ठं डे पानी में खड़े धोबी को महल की छत
पर जलते हुए लैंप की लौ से गर्मी प्राप्त हुई है ।” बीरबल ने साफ किंतु धीमी आवाज में कहा।

“अहा”, बादशाह को अब ख्याल आया कि बीरबल के मन में क्या चल रहा था। बादशाह
पहरे दार की ओर मुड़े और कहा, “जाओ और उस धोबी को पकड़ लाओ। उसे घोषणा के अनुसार
इनाम मिलना चाहिए।”

“शहं शाह, अब न्याय पूरी तरह हो गया है ।” फिर उसने हांडी के साथ वह सब उस ओर सरका
दिया जहॉ ं आग थी। बीरबल हँसने लगा, बादशाह हँसने लगे, और समस्त दरबारी हँसने लगे।
वे भी हँसने लगे जिन्हें बीरबल से ईर्ष्या थी, यह सोचकर कहीं बादशाह उन्हें सजा न दे दें ।
96. बेगम की सबसे कीमती वस्तु

 बादशाह अकबर की तुनकमिजाजी प्रसिद्ध है । कोई नहीं जानता कि वे कब किस चुटकले पर


हँसग
ें े या कब आगबबूला हो उठें गे। कभी कभी तो वे तीखे व्यंगबाण भी हँस कर लेते, भले वे
उन पर ही क्यों ना किए गए हों, मगर कभी-कभी ऐसा भी होता कि किसी मामूली सा मजाक
या छोटी सी बात उन्हें उत्तेजित कर दे ती। उस समय उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठता,
उनकी मँछ
ू ों का तीखापन और उनकी आवाज का रोबीलापन झलक उठता।

शाही दरबार का हर सदस्य उनके स्वभाव से परिचित था, यहॉ ं तक कि बेगम भी। लेकिन सब
यह भी जानते थे कि शहनशाह का क्रोध ठं डा भी शीघ्र ही होता है ।

एक दिन बादशाह बेगम के साथ बैठे थे। खिड़की से ठण्डी हवा के झोंके आ रहे थे, बादशाह के
चेहरे पर आनन्द की चमक थी। बेगम मानो इस प्रतीक्षा में थीं कि बादशाह को छे ड़ें। उन्होंने
मँह
ु बनाया जैसे उन्हें बादशाह की खश
ु ी अच्छी नहीं लगी, और कहा, “ऐसा लगता है कि आप
चमेली के फूलों की खश
ु बू को मझ
ु से ज़्यादा प्यार करते हैं।”

“तो क्या हुआ? आप क्या कभी भी चमेली जैसी खश


ु बू दे सकती हैं। फूल ही मझ
ु े सच्चा आनन्द
दे सकते हैं।” बादशाह ने चोट की।

“मझ
ु े लगता था कि मेरे साथ आप को सच्ची खश
ु ी मिलती है ।” बेगम बद
ु बद
ु ाईं।

“आप मझ
ु े बाध्य नहीं कर सकतीं कि आपका साथ मझ
ु े खश
ु नम
ु ा लगे।”

“क्या आपकी बेगम का आप पर अधिकार नहीं है ?” उन्होंने अपने होंठ चबाए, जब कि उनकी
आँखों में शरारत भरी थी।

“मेरे ऊपर किसी का अधिकार नहीं है । मैं अपना मालिक स्वयं हूँ। मैं शहनशाह हूँ।” उन्होंने
अपने निकट आने की कोशिश करती बेगम को परे धकेल दिया।
“और मैं शहनशाह की बेगम साहिबा हूँ,” उन्होंने धीमे स्वर में कहा, उनकी आँखें छलछला उठी
थीं।

 ”हो सकता है , पर आप अधिक दिन उस स्थान पर नहीं रह सकतीं।” बादशाह के शब्द पिघलते
लावा के समान बेगम के कानों में पहुँचे। बेगम सुबकने लगीं। शायद बादशाह ने उनके आँसुओं
पर ध्यान नहीं दिया, “आपके केवल वे ही अधिकार हैं जो मैं दे ता हूँ।” वे क्रोध से उन्मत्त स्वर
में बोले।

इसके बाद बादशाह उठ खड़े हुए, और रूखे स्वर में कहा, “बहुत हो गया, आपकी भावुकता का

नाटक ।आज से हमारे संबंध खत्म होते हैं, अपना सामान बॉधिए और अपने पिता के घर चली
जाइए। आपको जो भी वस्तु प्रिय है , आप जो चाहती हैं, आप अपने साथ ले कर जा सकती हैं।”
कह वे तेजी से निकल गए।

बेगम उनके पीछे जाना चाहती थीं किन्तु साहस नहीं कर सकीं। उन्होंने प्रतीक्षा करने का
निश्चय किया। उन्हें आशा थी कि जल्दी ही उनका गुस्सा शांत हो जाएगा तो वे उन्हें बुला
भेजेंगे।

किन्तु उस रात बादशाह हरम में नहीं लौटे । तो क्या बादशाह सचमुच उन्हें पिता के घर भेजना
चाहते हैं? उन्होंने दासी के हाथ एक संदेश भेजा, “मैं तो केवल मजाक कर रही थी, आप मेरे
शब्दों को दिल से न लगाएँ। प्रेम करनेवालों के बीच इस तरह की तू-तू मैं-मैं आम बात है ।”
दासी संदेश लेकर बादशाह के पास गई। बादशाह ने उसे यह कह कर भगा दिया, बेगम से कहो
कि वे आज शाम तक चली जाएँ। उनसे कहना वे अपनी सभी मनचाही वस्तुएँ ले जाएँ। दासी ने
बेगम को संदेश कह सुनाया।

“अब मैं क्या करूँ? मैंने कभी सोचा भी न था कि एक साधारण सा मजाक ऐसा तूफान लाएगा।
कौन है जो मुझे इस मुसीबत से बाहर निकाल सकता है ? सोच में डूबी बेगम महल के कालीन
पर बेचैनी से टहल रही थीं।

तभी बेगम को बीरबल की याद आई। वो शायद उन्हें कोई रास्ता दिखा सके ।बेगम ने एक दासी
को भेजा कि वह बीरबल को बल
ु ा कर लाए। बीरबल आए, झक
ु े , माथा जमीन से छुआते हुए
सलाम बजाया और सीधे हो कर बोले, “बेगम साहिबा! सलाम वालेकुम।” “वालेकुम सलाम
बीरबल जी”, बेगम साहिबा ने अधीर होकर चिलमन के पीछे से कहा।

“मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, मेरी सहायता कीजिए, मेरी विवाहित जिंदगी को बचाइए।” इसके
बाद उन्होंने जो कुछ
हुआ था, वह सब बीरबल से बताया।
“बेगम साहिबा, आप एकदम चिन्ता न करें ,” बीरबल मुस्कराए। मैं जैसा कहता हूँ, आप वैसा
करें , सब ठीक हो जाएगा।” बीरबल ने उन्हें विश्वास दिलाया। उन्होंने बेगम को समझाया कि
किस प्रकार वे समस्या को हल कर सकती हैं।

“क्या ऐसा हो सकता है ?” बेगम ने पूछा। “बेगम साहिबा! क्या मैंने आपको कभी निराश किया
है ?” बीरबल ने उन्हें फिर विश्वास दिलाया कि सब ठीक हो जाएगा।

“मैं जानती थी, कि यदि कोई मुझे इस मुश्किल से बाहर निकाल सकता है , तो वो केवल आप
हैं।” बेगम ने स्वीकार किया।

“मुझ पर विश्वास रखें और अपने आप पर भी, यह समस्या दरू हो जाएगी।” बीरबल ने आज्ञा

मॉगी।

बेगम ने एक दिन के लिए अपनी और बादशाह की आवश्यकता की कुछ चीजें एकत्र कीं। इसके
बाद उन्होंने एक दासी से बादशाह के पास संदेश भेजा, “मैं जाने को तैयार हूँ, जाने के पहले
आप से मिलना चाहती हूँ, शहनशाह! केवल एक बार, ताकि यदि मैंने कभी जाने अनजाने
ु पहुँचाया हो तो आपसे माफी मॉगं सकूँ ।आने की कृपा करें ।”
आपको दख

बादशाह को संदेश मिला, उन्होंने उत्तर में कहलाया कि,”मैं एक घण्टे में बेगम साहिबा के पास
आऊँगा।”

 एक घण्टे के बाद बादशाह ने हरम में प्रवेश किया। बेगम हरम के दरवाजे पर ही खड़ी थीं।
उन्होंने मुस्कराकर बादशाह का स्वागत किया। बेगम बादशाह को रास्ता दे ते हुए एक तरफ हो
गईं ताकि वे आगे जा सकें, वे स्वयं उनके पीछे हो लीं। बेगम ने बादशाह से बैठने का आग्रह
किया किन्तु बादशाह ने बैठने के स्थान पर बेगम को घूरते हुए उनसे पूछा, “कहिए, बेगम
साहिबा, आप कब प्रस्थान कर रही हैं?”


“बस अभी, शहनशाह! मैं केवल आपसे माफी मॉगना चाहती थी, यदि मैंने कभी, किसी भी
प्रकार आपका दिल दख
ु ाया हो तो कृपया मझ
ु े माफ कर दें । कहिए कि आपने मझ
ु े माफ किया।
बस फिर मैं अपने पिता के घर चली जाऊँगी।” बेगम ने धीमे स्वर में अनन
ु य की।

“ठीक है , बस यह आखिरी चीज है जो मैं आप की खातिर करता हूँ, अब आप तशरीफ ले जा


सकती हैं।” बादशाह ने कठोर स्वर में कहा।

“एक मिनट”, बेगम मड़


ु ीं और शर्बत का जग उठाया, एक ग्लास में शर्बत उड़ेला, और उसे
बादशाह की तरफ बढ़ाते हुए पीने का आग्रह किया। “यह शायद आखिरी बार है जब मैं आपको
शर्बत पिला रही हूँ, कृपया स्वीकार करें , हमारे परु ाने दिनों को याद कर के ले लीजिए।” उनकी
आवाज बेहद कोमल और मधरु थी।

बादशाह ने बेगम को ऊपर से नीचे तक दे खा, फिर उनके हाथ से ग्लास लेकर परू ा शर्बत
गटागट पी गए और चलने को मड़
ु े और कहा, “आप जाते समय जो भी चाहें अपने साथ ले जा
सकती हैं। आपको जो कुछ भी कीमती लगे।”

“मैं आपकी इस उदारता का शक्रि ु या कैसे अदा करूँ शहनशाह!” कहते हुए बेगम दौड़ कर
बादशाह के पास जा पहुँचीं। उन्होंने दे खा, बादशाह की आँखें बोझिल हो रही थीं।

“मुझे बहुत नींद आ रही है ।” बादशाह ने दरवाजे का पल्ला पकड़ते हुए खुद को संभाला।
शहनशाह! बेगम ने उन्हें बाहों से संभाल कर बिस्तर पर लिटा दिया। कुछ ही क्षणों में बादशाह
गहरी नींद में सो गए। बेगम जानती थीं, उनके पास ज़्यादा वक्त नहीं हैं । नींद की दवाई ने
अपना असर दिखा दिया था। उन्होंने ताली बजाई, सेवकों को आदे श दिया कि बादशाह को
उनके पलंग सहित उठा कर बाहर तैयार खड़ी पालकी में पहुँचा दें ।

 उन्होंने पूरा ध्यान रखा कि बादशाह को कोई तकलीफ न पहुँचे। बेगम स्वयं दसू री पालकी में
जा बैठीं। कहारों ने शीघ्रता से पालकी उठाई और बेगम के पिता के घर की तरफ चल पड़े।
बेगम के पिता उन्हें दे ख सुखद आश्चर्य से भर उठे । “मेरे साथ शहनशाह भी हैं।” कहते हुए
बेगम ने अपने सेवकों से कहा कि वे सावधानी से बादशाह को शयन-कक्ष में पहुँचा दें ।

“बादशाह को क्या हुआ?” बेगम के पिता ने चिन्तित स्वर में पूछा। “कुछ नहीं, कार्य की
अधिकता और थकान के कारण वे रास्ते में सो गए थे, ताकि थोड़ा आराम मिल सके ।” बेगम
ने समझाया और बादशाह के पीछे चलीं।

बादशाह को पलंग पर लिटाने के बाद बेगम उनके पास बैठ गईं और उनके उठने की प्रतीक्षा
करने लगीं। एक घण्टे के बाद शहनशाह ने आँखें खोलीं, “मैं कहॉ ं हूँ?” आँखें मलते हुए बादशाह
ने विस्मय से पूछा। तभी उनकी नजर बेगम पर पड़ी।

“मैं कहॉ ं हूँ?” उन्होंने पूछा।

“मेरे पिता के घर में ।?

?
ु े यहॉ ं लेकर आईं?” बादशाह गस्
“किसकी आज्ञा से आप मझ ु से में उठ कर बैठ गए।

“आपकी, शहनशाह!” बेगम ने निडर होकर कहा। “मेरी? यह झठ


ू है !” वे बड़बड़ाए।

“नहीं, शहनशाह! आपने ही तो कहा था कि मैं अपनी हर कीमती वस्तु लेकर आ सकती हूँ।
आपसे बढ़ कर मल्ू यवान मेरे लिए क्या है ? इसलिए मैं आपको अपने साथ ले आई।” बेगम की
आँखों में स्नेह झलक रहा था।

“आप बेहद चतरु हैं, बेगम साहिबा। मझ


ु े क्षमा करें , मैं अपने आपे में नहीं था। अपने व्यवहार
पर मझ
ु े बेहद दखु है ,” बादशाह रुके, फिर पछ
ू ा, वह कौन है जिसने आपको यह उपाय सझ ु ाया
कि आप मझ ु े अपनी सबसे कीमती चीज़ ने रूप में मॉगें ? वह जो भी हो, अच्छी तरह से जानता
है कि मेरे शब्दों से आपको कैसे लाभ पहुँचाया जा सकता है ।”

“आप सोचिए?” बेगम ने उन्हें छे ड़ा।


“अवश्य ही वह बीरबल है ।” अकबर ने दे खा, बेगम ने सहमति में सिर हिलाया।
97. स्वर्ण-मुहरें

 एक बूढ़ी औरत थी, जब उसने सुना कि कल बादशाह जनता से बात करें गे तो उसने सोचा कि
वह भी कब गुलशाह की शिकायत लेकर बादशाह के पास जाएगी। गुलशाह नगर के सबसे
प्रतिष्ठित नागरिकों में से एक था। शायद बादशाह उसे आज्ञा दें कि वह बूढ़ी को उसकी स्वर्ण
मोहरें लौटा दे जो बूढ़ी ने उसके पास सुरक्षित रखवाई थीं।

फाटक के पहरे दार ने बूढ़ी से कहा कि वह वहॉ ं क्यों आई है ? बूढ़ी ने अपनी सांसे ठीक कीं और
फिर धीमी आवाज में कहा, “बेटा, मैं बादशाह से मिलना चाहती हूँ।”

“मेरे साथ आओ,” पहरे दार ने यत्नपर्व


ू क उसे हाथ पकड़ कर खड़ा किया। दरबार में पहुँच कर,
उसने झक ु कर सलाम करने की कोशिश की, लेकिन बादशाह ने उसकी उम्र दे खी तो वे
सिंहासन से उठे , और उसे रोका कि वह इस औपचारिकता की चिन्ता नहीं करे ।

“अम्मा, हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?” बादशाह ने कोमल स्वर में पछ
ू ा।

“आलमपनाह, मैं एक गरीब वद्ध


ृ ा हूँ, मेरा नाम सन्
ु दरी बाई है ,” बढ़
ू ी ने कहना शरु
ु किया।

“मैं समझ सकता हूँ”, बादशाह ने मस्


ु कराते हुए कहा। “हमारे दरबार में सबके साथ एक समान
व्यवहार किया जाता है , चाहे वो अमीर हो या गरीब, जवान हो या वद्ध
ृ । तम्
ु हे कोई भय नहीं
होना चाहिए। क्या हम तम्
ु हारी कोई मदद कर सकते हैं?”

“आपके सिवाय मेरी मदद और कोई नहीं कर सकता, आलमपनाह,” बढ़


ू ी की आवाज मश्कि
ु ल
से सन
ु ी जा रही थी।

“अम्मा, क्या तम
ु थोड़ा जोर से बोल सकती हो?” बादशाह ने उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा।

बढ़
ू ी ने अपनी बात दोहराई। “हमें बताओ, तम्
ु हें क्या परे शानी है ?”
“आलमपनाह! एक वर्ष पहले, तब मेरा स्वास्थ्य अच्छा था, लेकिन मेरी उमर हो रही थी, और
मेरी इच्छा थी एक मैं मरने के पहले बद्रीनाथ हो आऊँ, इसलिए मैंने अपना सब कुछ बेच कर
उसे स्वर्ण मुहरों में बदल लिया और उन्हें एक थैली में भर कर एक धागे से अच्छी तरह बॉधं
दिया और उसका मँह
ु मोम से अच्छी तरह बन्द कर दिया।

 अभी मोम अच्छी तरह से जमा नहीं था, मैंने उस पर अपनी अँगठ
ू ी को दबा कर मोम के जमने
का इंतजार किया। फिर दे खा कि सील पर अँगठ
ू ी का निशान आ गया था, इस प्रकार मैंने थैली
को सील बंद कर दिया। “तम
ु अच्छी कहानी बन
ु ती हो,” बादशाह ने मज़ाक किया, “आगे कहो
अम्मा!” वे कोमल स्वर में बोले।

“मैं वह थैली लेकर अपने मोहल्ले के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति गल


ु शाह के पास गई। मैंने उनसे
वह बैग सरु क्षित रखने की प्रार्थना की। वे मान गए। मैंने बैग बाहर निकाला, तो उन्होंने उसे
लेने से इनकार कर दिया, इसके बदले वे मझु े अपने घर के पिछवाड़े के एक कोने में ले गए।
वहॉ ं और कोई नहीं था। गुलशाह ने मुझसे वहॉ ं एक गढ्ढा खोद कर उसमें वह बैग गाड़ कर,
फिर गड्ढा भर दे ने को कहा। मैंने वही किया। उन्होंने मुझसे निश्चिंत रहने को कहा। उन्होंने
मुझसे कहा कि लौटने के बाद मैं स्वयं ही गड्ढे को खोद कर बैग निकाल सकती हूँ। मैंने उन्हें
धन्यवाद किया और चली गई। एक सप्ताह पहले मैं लौटी तो गुलशाह के पास गई, उन्होंने
मुस्कराकर मेरा स्वागत किया और मुझे गड्ढे के पास ले गए और बैग निकाल लेने को कहा।
मैंने ऐसा ही किया। बैग खनक उठा, मैंने सील की जॉचं की, वह सही सलामत की। मैंने बैग की
सुरक्षा करने के लिए एक बार फिर गुलशाह का धन्यवाद किया और लौट आई।

घर पहुँच कर मैंने सील को तोड़ा और मुझे जीवन का सबसे बड़ा धक्का लगा। स्वर्ण मोहरें
गायब थीं और उनके स्थान पर स्वर्ण मुहरों के ही आकार के, उतने ही मोटे , गोल और चपटे
ताम्बे के टुकड़े थे।” बूढ़ी सुबकने लगी।

“इस मामले को किस प्रकार सुलझाया जाए?” अब बादशाह अपने सभासदों की ओर मुड़।े

बूढ़ी औरत ने हर तरफ नजरें दौड़ाईं, बड़ी दे र तक उनमें से किसी ने मँह


ु नहीं खोला। अन्त में
बीरबल ने चुप्पी को भंग किया, “शहनशाह, मुझे लगता है मैं इस रहस्य की तह तक जा सकता
हूँ।” “मैं जानता था, मुझे तुम पर विश्वास है ।” बादशाह ने निश्चिन्तता की सांस ली।
“शहनशाह! क्या मैं मोहरों वाले थैले को एक बार दे ख सकता हूँ?” बीरबल ने पूछा। “यह रहा
थैली” बूढ़ी औरत बीरबल के निकट गई। बीरबल ने उससे थैली ले लिया और उसे घम ु ा कर
दे खा। उसने उसकी निकटता और सक्ष् ू मता से जॉचं की। उसने अपने होठ सिकोड़े। कुछ तो
गड़बड़ था, मगर अभी वह उसे खोज नहीं सका था।

“अम्मा, यह बैग मेरे पास ही रहने दो, अब तम


ु परसों आना। यदि तम
ु सच कह रही हो तो तम्
ु हें
तम्
ु हारी मह
ु रें वापस मिल जाएँगी।” बीरबल ने उससे कहा।
“यदि मैंने कुछ भी झठ
ू कहा हो तो मझ
ु पर बिजली गिरे ” बढ़
ू ी ने अपने दोनों हाथ ऊपर को
उठाते हुए कहा।

“हम सच जान लेंगे, अम्मा, परसों आना।” बादशाह ने हाथ हिलाए।

ू ी औरत ने सलाम बजाया और चली गई। बादशाह उठे , वहॉ ं उपस्थित अन्य लोग भी खड़े हो
बढ़
ु कर उन्हें सलाम किया। बीरबल भी वहॉ ं से बैग सहित
गए, बादशाह के जाते समय सबने झक
खिसक लिए।

सभा में कुछ लोग जो बीरबल से जलते थे, आश्चर्य चकित थे कि बीरबल ने कैसे इतने
विश्वासपर्व
ू क कह दिया कि बढ़
ू ी को उसके पैसे मिल जाएँगे। इसमें उन्हें कोई संदेह नहीं था कि
यदि वह बूढ़ी औरत सच भी कह रही थी तो इस बार बीरबल को असफलता ही मिलेगी और उस
बादशाह की नजरों में नीचा गिरना पड़ेगा, हो सकता है उसे दरबार में अपना स्थान भी खोना
पड़े। वे सब मन ही मन यह प्रार्थना कर रहे थे कि बीरबल को इस बार असफलता का मँह
ु दे खना
पड़े।

 बीरबल जल्दी से घर गया और गहरे सोच में डूब गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि
इस मामले को कैसे सुलझाए। वह इसी सोच में डूबा था अतः उसने मुस्करा कर उसका स्वागत
करती पत्नी से भी कुछ कहे बिना केवल सिर भर हिला दिया। पत्नी समझ गई कि उसका पति
किसी चिन्ता में है अतः उसने चुप रहना ही ठीक समझा, और रसोई में चली गई। बीरबल ने
कपड़े बदले और हाथ मँह
ु धो कर भोजन करने बैठा।

सामान्य रूप से भोजन के बाद बीरबल थोड़ी दे र सोता था किन्तु उस दिन वह बरामदे में बैठा
सोचता रहा कि इस मामले को कैसे हल करे । काफी दे र बाद अचानक उसे एक उपाय सूझा।
उसने जल्दी से एक महँगी चादर उठाई, कैं ची ली और बड़ी सावधानी से चादर को काटा तभी
उसकी पत्नी अन्दर आई, “तम
ु ने इतनी अच्छी चादर खराब कर दी, वह दख
ु ी स्वर में बोली।”

बीरबल ने पत्नी की बात को अनसन


ु ा कर के चादर उठाई और शीघ्रता से निकल गया। वह
अपने एक बहुत विश्वसनीय सेवक के पास गया और उससे कहा, “जाओ इस चादर को किसी
कुशल दर्जी से रफु करवा कर ले आओ।

“मैं जानता हूँ, एक आदमी को, जो इस काम में बेहद कुशल है ,” सेवक ने चादर हाथ में लेकर
कहा, “उसका नाम मंजरू अली है ।” उसने फिर पछ ू ा, “आपको यह कितने समय में चाहिए?
“कल दोपहर तक,” बीरबल ने जवाब दिया।

दस
ू रे दिन शाम को सेवक चादर ले कर आया। बीरबल ने उसे घम
ु ा घम
ु ा कर दे खा, उसने चादर
को हर तरफ से दे खा, उस पर हाथ भी फिराया किन्तु उसे जोड़ कहीं दिखाई न पड़ा। कमाल की
सफाई थी काम में ।

“वाह! बहुत अच्छा काम है , मैं मंजरू अली से मिलना चाहता हूँ। चलो हम उसकी दक ु ान पर
चलते हैं।” बीरबल ने सेवक से कहा कि वह उसे उसकी दक ु ान तक ले चले। शीघ्र ही वे दक
ु ान
पर जा पहुँचे।

बीरबल को दे खते ही मंजूर अली उठ खड़ा हुआ और उन्हें झुक कर सलाम करते हुए आदर
पूर्वक बोला, “हुजूर मुझे बल
ु वा लिया होता।” बीरबल ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हारे कार्य-कौशल
की सराहना करना चाहता था।”

 दर्जी ने विनम्र स्वर में कहा, “हुजूर, यह सुन कर मैं शब्दों में अपनी प्रसन्नता नहीं बयान कर
सकता।”

“यह लो।” बीरबल ने उसे एक सोने की मुहर दे ते हुए कहा।

“यह तो मेरे काम की कीमत से दग


ु ना है ।” दर्जी ने बाकी पैसे लौटाने के लिए जेब में हाथ डाला।
अब बीरबल ने बढ़ि
ु या का बैग निकाला और दर्जी को दे ते हुए कहा, “इसे ध्यान से दे ख कर
बताओ कि क्या तमु ने इस पर कभी रफू किया है ?” मंजूर अली की अनुभवी आँखों ने तुरन्त वह
जोड़ खोज लिया जहॉ ं उसने रफू किया था।

“हुजूर! करीब एक महीने पहले गुलशाह यह बैग लेकर मेरे पास आए थे, और उन्होंने मुझसे
कहा कि इसकी मरम्मत कर दो।”

“धन्यवाद।” कहकर बीरबल ने उससे विदा ली। अगले दिन सभासदों के बैठने के थोड़ी ही दे र
बाद बादशाह ने दरबार में प्रवेश किया। सबने खड़े हो कर उनको सम्मान प्रदान किया। बादशाह
ने सिंहासन ग्रहण किया। सभासद भी बैठ गए। पहरे दार गुलशाह और बूढ़ी औरत को अन्दर ले
आया। बादशाह ने बीरबल की ओर मुड़ कर पूछा, “क्या तुमने पता लगाया कि इस बूढ़ी औरत
की शिकायत में कितनी सच्चाई है ?”

“इसने सब कुछ सच कहा था, शहनशाह!” कहकर बीरबल ने सारा वत्ृ तान्त समझाया कि किस
प्रकार उसने सच का पता लगाया। गुलशाह का चेहरा पीला पड़ गया, उसे अपने कानों पर
विश्वास नहीं हो रहा था। उसने घुटनों के बल बैठ, सर को झुका कर दोनों हाथ जोड़े और अपना
माथा जमीन पर रगड़ा। बादशाह गरजे, “सच बताओ, अभी तुरंत!”

“आलमपनाह! मुझे क्षमा करें ! मैं लालच में अंधा हो गया था,” उसने स्वीकार किया। बूढ़ी
औरत को उसकी स्वर्ण मुहरें वापस मिल गईं और गुलशाह ने अपने जीवन के अगले दस वर्ष
जेल में बिताए।    
     

98. जब मूर्ख प्रश्न पूछते हैं

 सफल व्यक्ति को उसकी सफलता खश


ु ी दे ती है । उसकी सफलता उसके साथियों और
सहकर्मियों को भी प्रभावित करती है । उनमें से कुछ तो उसकी खशि ं हैं
ु यों को सचमुच बॉटते
और कुछ ईर्ष्या की आग में जलते हैं। ठीक ऐसा ही कुछ बीरबल के साथ भी था। हर बार उसे
बादशाह से सम्मान प्राप्त होता था जिससे कुछ सभासद जलकर राख हो जाते। वे हमेशा यही
सोचते कि किस प्रकार बीरबल को बादशाह की नजरों में नीचा दिखाएँ।

वे सब इकट्ठे हुए। बीरबल को नीचा दिखाने की कई योजनाएँ बनने लगीं। अन्त में एक शानदार
योजना बनी। वे खश ु थे कि बीरबल को नीचा दिखाकर वे शानदार उत्सव मनाएँगे। अगले दिन
शैतान खां जो इस दल का नेता था, अपने साथियों के साथ शाही दरबार में पहुँचा। उन्होंने दे खा,
बीरबल वहॉ ं पहले से ही उपस्थित था। उस दिन के राजकीय कार्य समाप्त होने पर बादशाह ने
सिंहासन पर टे क लगाई। वे सभासदों से मिलनेवाले सझ
ु ाव, खबरों एवं विचारों को सन
ु ने हे तु
तैयार थे।

शैतानं खॉ ं ने झक
ु कर सलाम किया, और आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। “कहो, क्या कहना है ?”
बादशाह ने कहा। “शहनशाह! हम सभी जानते हैं कि बीरबल कितना बद्धि
ु मान है , उसके पास
कुशाग्र बुद्धि है ।” शैतान खां ने कहा। “मुझे लगता है , मैं बुद्धिमान लोगों की संगत में हूँ,
शहनशाह!” बीरबल ने कहा।

“ये तो सही है , शहनशाह! लेकिन फिर भी बुद्धि में मैं उसकी बराबरी कैसे कर सकता हूँ?” शैतान
खां बोला, हम जानते हैं कि हममें से कोई भी बीरबल की बराबरी नहीं कर सकता। जिस प्रकार
को जटिल समस्याओं का समाधान कर दे ता है ।” यह कहकर शैतान खॉ ं ने बीरबल को प्रशंसा
की नज़र से दे खा। इसके बाद शहनशाह से शैतान खां धीमे स्वर में बोला, “हुजूर, यदि बीरबल
इतना चतुर है तो उसके पिता कितने बुद्धिमान होंगे?”

 बादशाह ने पहलू बदला। उन्हें लगा, उन्होंने इस बारे क्यों नहीं सोचा? दे र से ही सही, तभी
शैतान खां ने कहा, “शहनशाह! हम सब बीरबल के पिता से मिलना चाहते हैं, लेकिन यह तभी
संभव है जब उन्हें दरबार में लाया जाए।” बीरबल सजग हुआ। उसे खतरे का आभास हुआ। उसे
शैतान खां की नीयत ठीक न लगी। वह कुशाग्र था, किन्तु वह कभी अपनी बुद्धि का सदप
ु योग
नहीं करता था। उसकी सदा दष्ु प्रकृति ही रहती। बीरबल सोचने लगा कि शैतान खां की मन्शा
क्या हो सकती है ! अचानक उसे विचार आया कि शैतान खॉ ं जानता है कि मेरे पिता बहुत
शिक्षित नहीं हैं, वे ईमानदार, स्पष्ट बोलने वाले तथा शाही दरबार के तथाकथित विशिष्ट जनों
के षडयंत्रकारी विचारों से सर्वथा अनजान हैं। शैतान खां उन्हें बादशाह के सामने उपस्थित कर,
उनकी अयोग्यता साबित कर मझ
ु े नीचा दिखाना चाहता है । मर्ख
ू ! वह नहीं जानता कि मैं
उसका ही पासा पलट सकता हूँ।

“बीरबल!” बादशाह की आवाज ने बीरबल की विचार तंद्रा तोड़ी। “मैं तम्


ु हारे पिता से मिलना
ु शाही सवारी से अपने गॉवं जाओ
चाहता हूँ।” “जी शहनशाह!” बीरबल ने उत्तर दिया। “तम
और परसों अपने पिता के साथ आओ।” बादशाह बोले। “जैसी आपकी आज्ञा। क्या मैं अभी जा
सकता हूँ?”  “हॉ,ं वक्त क्यों जाया किया जाए।” बादशाह बोले। गॉवं पहुँचकर गाड़ीवान ने
बीरबल के पैतकृ घर के सामने गाड़ी रोकी। बीरबल अपने पिता से मिला, उसने पिता के पैर
छुए। “ओह! तुम्हें दे ख कर मैं बहुत खश
ु हूँ, तुम कैसे हो, मेरे बेटे? सब ठीक तो है ?” वद्ध
ृ ने
बीरबल को गले लगाते हुए पूछा।

दोनों ने बहुत सी बातें कीं। रात को भोजन कर चुकने के बाद बीरबल ने पिता से कहा कि वह
उन्हें शाही दरबार में ले जाने के लिए आया है । “मुझे! मुझे तो शाही दरबार का सलीका भी नहीं
आता।” पिता ने कहा। “वह मैं सिखा दँ ग
ू ा, पिताजी। आप दरबार में घुसते हुए नीचे तक झुक
कर सलाम कीजिएगा।

उसके बाद अपना सर ऊँचा रखिएगा। दरबार में यदि कोई पछ ू े कि आपका नाम क्या है ? या
आप कहॉ ं रहते हैं, और क्या काम करते हैं? तो संक्षिप्त सा उत्तर दीजिएगा। अन्य किसी प्रश्न
का कोई उत्तर मत दीजिएगा। केवल मस्
ु करा कर सिर हिला दीजिएगा, एक भी शब्द नहीं
बोलिएगा।” “मौनम सर्वार्थ साधकम,” वद्ध
ृ ने श्लोक का उच्चारण किया, जिसका अर्थ था-
मौन से सब कुछ साध्य है ।

“जी पिताजी। एक और बात, जब सब कुछ हो जाए और वे पछ


ू ें कि आप उत्तर क्यों नहीं दे ते तो
बस इतना कहिएगा...।” बीरबल ने उनके कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहा। वद्ध
ृ पिता से रुका
नहीं गया और वे जोर से हँस पड़े। दस
ू रे दिन बीरबल पिता को साथ लेकर शाही दरबार पहुँचे।
उन्होंने झुककर मस्तक से धरती को छूते हुए सलाम किया और खड़े हो कर अपना आसन
ग्रहण किया। वद्ध
ृ पिता ने भी उनका अनुकरण किया।
“आइए महाशय, कृपया अपना स्थान ग्रहण करें ।” बादशाह मुस्कुराए।

“शहनशाह!” वद्ध
ृ ने झुककर पुनः सलाम किया और बीरबल के पास जा कर बैठ गए।

“महाशय! आपको दे ख कर हम लोग बहुत खश ु हैं, आपका पुत्र सचमुच हीरा है । बहुत ही
बुद्धिमान है बीरबल, जो किसी भी समस्या का हल झट से ढूँढ लेता है , आप सचमुच उस पर गर्व
कर सकते हैं।” बादशाह ने कहा।

 वद्ध
ृ केवल विनम्रता से मुस्कराते रहे , उन्होंने सिर हिलाया किन्तु बोले कुछ भी नहीं।
“शहनशाह! माननीय महाशय को दे खकर हम सब भी बेहद खश
ु हैं। वे हम सबके लिए भी पिता
समान हैं,” शैतान खां ने वद्ध
ृ से बात करने के लिए शाही अनम
ु ति हे तु रुक कर बादशाह की ओर
दे खा। बादशाह ने अनम
ु ति स्वरूप हाथ हिलाया।

शैतान खॉ ं के चेहरे पर कुटिल मस्


ु कान थी, जब उसने बीरबल के लिए इधर-उधर दे खा, फिर
उसने अपने भाव छिपा लिए और बड़ी ही विनम्रता पर्व
ू क वद्ध
ृ के पास गया, झक
ु कर उनके
चरण छुए। “दीर्घायु हो, मेरे बेटे!” वद्ध
ृ ने उसके सर पर अपना हाथ रख आशीर्वाद दिया। “बाबा
जी, आपका पत्र
ु हममें सबसे बद्धि
ु मान है । आप उसके पिता हैं, तो जाने आप कितने बद्धि
ु मान
होंगे!” शैतान खां रुका।

वद्ध
ृ ने मस्
ु कराते हुए अपना सिर हिलाया। “क्या वह (बीरबल) एक योग्य पत्र ु था?” शैतान खां
ने पूछा। उत्तर में वद्ध
ृ ने फिर मुस्कराते हुए सिर हिलाया। “अच्छा, बाबा जी! आप हमारे
बादशाह के संबंध में क्या सोचते हैं?” शैतान खां वद्ध
ृ को मुश्किल में डालना चाहता था। वद्ध

केवल मुस्करा भर दिए, उन्होंने चुप रहने में ही भलाई दे खी।

शैतान खॉ ं ने अपना प्रश्न दोहराया, मगर उत्तर में उसे फिर वही मौन मुस्कान मिली। वद्ध
ृ ने
अपना मँुह नहीं खोला। अब बीरबल बादशाह की ओर मुड़े और कहा। “शहनशाह! मेरे पिता के
हृदय में आपका बहुत ऊँचा स्थान है , वे आपकी महानता से भलीभांति परिचित हैं किन्तु कुछ
बोलना नहीं चाहते। वे विनम्र और वफादार नागरिक हैं। आप जैसे महान मुगल सम्राट के बारे
में राय दे ना उन्हें शोभा नहीं दे ता। मेरे पिता ईश्वर से डरते हैं, वे ऐसा दस्
ु साहस नहीं कर सकते।

 
हम लोग प्रतिदिन आपके अन्दर अपने भगवान के दर्शन करते हैं, इसी लिए उन्होंने मँह
ु से
कुछ नहीं कहा।” “मैं आपकी भावना की कद्र करता हूँ।” बादशाह ने खश
ु हो कर वद्ध
ृ से कहा।
शैतान खां समझ चक ु ा था कि वह वद्ध
ृ को अपढ़-गँवार साबित करने की अपनी मंशा म
असफल हो गयाहै । शायद, दस
ू रे सभासद वद्ध
ृ की सच्चाई सामने ला सकें, ऐसा सोचकर उसने
उनकी तरफ दे खा। उन लोगों ने भी कोशिश की किन्तु वे भी सफल न रहे , वद्ध
ृ मस्
ु कार कर
केवल सिर हिला दे ते, किन्तु बोलने के लिए उन्होंने मँह
ु नहीं खोला।

 ”शहनशाह!” शैतान खॉ ं खड़ा हो गया। “कहो, शैतान खॉ!”


ं बादशाह ने उसे अपनी बात कहने
का मौका दिया। “शहनशाह! मुझे लगता है कि यह वद्ध
ृ महाशय कुछ भी नहीं जानते। अपने
मौन में ये अपनी मूर्खता को छुपाना चाहते हैं।”

पूरी सभा को झटका सा लगा। सभा सकते में आ गई। बादशाह गरज उठे , “शैतान खॉ,ं एक वद्ध

व्यक्ति का तुम इस प्रकार अनादर कैसे कर सकते हो?” तभी बादशाह को लगा जैसे वद्ध
ृ कुछ
कहने की आज्ञा चाहते हैं। वे बोले, “कहिये महाशय!” “शहनशाह! मैं सिर्फ इतना कहना चाहता
हूँ कि मूर्खों के प्रश्न का उत्तर मौन से बेहतर कुछ नहीं हो सकता।” वद्ध
ृ के शब्दों में गंभीर
कटाक्ष था।

“केवल बुद्धिमान ही मौन की शक्ति को पहचानता है , महाशय।” कहते हुए बादशाह ने बीरबल
की ओर मुड़ कर कहा, “योग्य पिता का योग्य पुत्र।” शैतान खॉ ं जान चुका था कि बाजी उसके
हाथ से निकल चुकी है । उसके साथियों को पैरों तले जमीन खिसकती महसूस हुई। उसकी ईर्ष्या
की आग और भी भड़क उठी जब उसने दे खा कि बादशाह ने अपनी कलाई से सोने का कड़ा
निकाल कर वद्ध
ृ को भें ट में दिया। वद्ध
ृ ने झक
ु कर सलाम किया और उठ खड़े हुए।

बीरबल ने कहा, “शहनशाह! मेरे पिता वद्ध


ृ हैं, अब उन्हें आराम की आवश्यकता है , यदि आपकी
आज्ञा हो तो मैं उन्हें ले जाऊँ? “हॉ ं बीरबल! उनका ध्यान रखना। निस्संदेह वे बद्धि
ु मान व्यक्ति
हैं। वे मौन की शक्ति पहचानते हैं। उन्होंने ठीक ही कहा था कि मर्खों
ू के प्रश्न का उत्तर मौन से
बेहतर नहीं हो सकता।” कथन को दोहराते हुए बादशाह ने इधर-उधर दे खा और दे र तक ठहाका
लगाते रहे । शैतान खां और उसके साथियों की हालत दे खने लायक थी।
99. भें ट में हिस्सा

अकबर के दरबार के बीरबल अपने चातुर्य, समझदारी, हास्य व हाज़िरजवाबी के लिए सुप्रसिद्ध
थे। इनका नाम लेते ही उन्हीं गुणों की याद आती है । किसी भी समस्या का अपने चातुर्य से
समाधान करनेवाले बीरबल की हास्य भरी कहानियाँ इस अंक से लेकर एक-एक करके पढ़ते
जाइये।

सम्राट अकबर अपने दरबार में सिंहासन पर आसीन थे। उस समय एक यव


ु क ने धीरे से दरबार
में प्रवेश किया। अकबर ने जब उसे दे खा, तब उसने झक
ु कर सलाम किया।

 
“तम ु कौन हो? क्यों आये हो?” सम्राट अकबर ने पछ ू ा।
 
“प्रभु, मेरा नाम महे शदास है । आगरा से चार कोस की दरू ी पर स्थित एक कुग्रम का वासी हूँ।
पढ़ाई पूरी होने पर नौकरी ढूँढ़ते हुए यहाँ आया हूँ।”
 
“तम ु से किसने कहा कि तम्
ु हें यहाँ नौकरी मिलेगी?” अकबर ने पछ
ू ा।
 
“हमारे अध्यापक ने मेरी होशियारी की तारीफ़ करते हुए कहा, तुम सम्राट के पास जाना। तुम्हें
वहैँ अवश्य नौकरी मिलेगी। उनकी बातों का विश्वास करके इतनी दरू ी से पैदल चला आया हूँ।
बड़ी मुश्किल से आपके दर्शन कर सका।” महे श ने कहा।
 
“हर अध्यापक, अपने शिष्य को होशियार और समझदार समझता है । हम यहाँ उन्हीं को
नौकरी दे ते हैं, जिनकी योग्यता श्रेष्ठ और उत्तम हो।” अकबर ने कहा।
 
“प्रभु, मैं साबित कर सकता हूँ कि सब उत्तमों में से अधिक उत्तम हूँ,” महे श ने कहा।
 
“ठीक है , ऐसी बात है तो यह साबित करके दिखाना।” अकबर ने कहा।

“इसके लिए मुझे प्रभु के हाथों से एक भें ट चाहिए”, महे श ने कहा।


 
“पहले अपनी प्रतिभा को साबित करो, फिर भें ट लेना।” अकबर ने कहा।
 
“मैं जो भें ट माँग रहा हूँ, उसके लिए एक दमड़ी भी खर्च नहीं होगी।”
 
“ठीक है , बताओ, यह भें ट आख़िर है क्या?” अकबर ने पछ ू ा।
 
“बस, चाबुक की तीस चोटें , प्रभु,” महे श ने कहा।
 
उसकी इच्छा जानकर सम्राट सहित सभी लोग चकित रह गये।
 
“तम
ु कहीं पागल तो नहीं हो गये?” अकबर ने नाराज़ होकर कहा।
 
“यह बात बाद में मालूम होगी। पहले मैंने जो माँगा, कृपया उसे दिलवाइये”, महे श ने
विनयपूर्वक कहा।
 
अकबर ने तुरंत चाबुक मँगाया और चाबुक लानेवाले के कान में कहा, “चाबुक से उसे सचमुच
ही मत मारना। मारने का सिर्फ नाटक करते रहो।”
 
सैनिक चाबुक लेकर जब गया तब महे श ने सिर झुकाकर कहा, “मारो”। जैसे ही दस बार
सिपाही ने चाबुक से मारा, तब महे श चिल्ला उठा, “रुक जाओ”। फिर सिर ऊपर उठाकर उसने
कहा, “प्रभ,ु भें ट में मझ
ु े जो हिस्सा मिलना था, उसे मैंने ले लिया। बाकी आपके पहरे दारों में से
दो पहरे दार समान रूप से बाँट लेंगे।” महे श ने कहा।
 
अकबर क्रोधित हो उठा और चिल्ला पड़ा, “क्या बक रहे हो?” अकबर की समझ में नहीं आया
कि वह आख़िर चाहता क्या है ?
 
“हाँ प्रभ,ु दरवाज़े पर खड़े दो पहरे दारों ने मझ
ु से साफ़ कह दिया कि उन्हें रिश्वत मिलने पर ही
मझ
ु े अंदर जाने की अनम
ु ति मिलेगी। मैंने उनसे सविनय कहा, “दे खो, मेरे पास एक दमड़ी भी
नहीं है । बादशाह जो भें ट दें गे, उसे समान रूप से बाँट लेंगे। उन्हें मैंने यह वचन दिया, तभी मैं
अंदर आ सका”, महे श ने बताया।
 
“ऐसी बात है !” अकबर ने गंभीर स्वर में कहा। “उन्हें बल
ु ाने पर आपको सब कुछ मालूम हो
जायेगा।” महे श ने कहा। अकबर ने सिर हिलाया।

थोड़ी दे र बाद वे दोनों पहरे दार जब दरबार में आये, तब महे श ने उनसे कहा, “दोस्तो! आपने
मेरी बड़ी मदद की। मैंने प्रभु से भी यह बात बता दी। तम
ु लोगों की दया नहीं होती तो प्रभु के
दर्शन का सवाल ही नहीं उठता। उनसे मैंने यह भी बता दिया। शर्त के अनुसार उन्होंने मुझपर
कृपा करके जो भें ट दी, उसमें से आधा आपको भी मिलना है न? प्रभु दें गे, तम
ु दोनों ले लो”,
महे श ने कहा।
 
दोनों पहरे दारों ने खुशी से सिर हिलाया।
 
पहले एक पहरे दार को बुलाया गया और चाबुक जिस आदमी के हाथ में था, उसने चाबुक से उसे
दस बार मारा। बाद दसू रे पहरे दार को भी चाबक
ु से मारा गया। वे दोनों रोने-बिलखने लगे।
 
“साबित हो चुका है कि तुम दोनों घुसखोर हो। तुम दोनों को नौकरी से निकाल दे ता हूँ।” अकबर
ने कहा और फिर महे श की ओर मुड़कर कहा, “तम
ु बड़े होशियार निकले। तुम्हारे अध्यापक ने
जो कहा था, वह सच है । तम
ु ने अपनी योग्यता को साबित कर दिया । अभी इसी क्षण से तुम्हें
बीरबल के नाम से अपने दरबार में उच्च स्थान पर नियुक्त करता हूँ।” मुस्कुराते हुए अकबर ने
कहा।
100. राजमुद्रा की शक्ति

 बादशाह अकबर के दरबारियों में बीरबल को विशेष सम्मान प्राप्त था। उसने इसे अपनी
हाजिर जवाबी और बद्धि
ु मानी से अर्जित किया था। वह हँसानेवाले मज़ाकों से बादशाह का
मनोरं जन किया करता था। उस दिन भी उसने ऐसा ही किया। बीरबल ने चट
ु कुलों और कथा-
कहानियें से बादशाह का मनोरं जन किया।
“बीरबल, तुम्हारी ताकत तुम्हारी हाजिरजवाबी और बुद्धिमानी में है ,” बादशाह ने बीरबल के
एक चुटकुले पर ठठा कर हँसते हुए कहा।

“हमलोगों के बीच यही तो फर्क है , शहनशाह, आप बादशाह की औलाद हैं। अपने अब्बाजान की
मौत के बाद आप बादशाह बन गये। आपने अपनी कोशिश से ताकत नहीं पाई। मेरी ताकत मेरे
अन्दर ही है । आप की ताकत बाहर से आती है ,” बीरबल ने बिना झिझक कह दिया। “बाहर
से?” अकबर ने कड़क कर कहा। “मेरे दिमाग को कोई नहीं ले सकता। लेकिन यही बात
राजमुकुट, राजमुद्रा और राजचिह्नों के बारे में नहीं कही जा सकती जिनके कारण दनि
ु या आप
को बादशाह समझती है ।”

“साबित करो कि तम
ु ठीक कह कहे हो, अन्यथा तुम्हें मौत की सजा दी जायेगी।” बादशाह ने
लम्बी सांस लेते हुए कहा। बीरबल ने झुक कर अदब के साथ सलाम किया और एक नटखट
मुस्कुराहट के साथ घोड़े पर सवार हो वह चला गया। उसे आत्म विश्वास था कि उसका आधार
सही है । उस रात बीरबल बहुत दे र तक बिस्तर पर लेटा विविध विकल्पों पर विचार करता रहा।
“इससे काम चल जायेगा,” वह अपने आप से बोला।

दस
ू रे दिन, बीरबल आम दिनों की तरह दरबार में आया। बादशाह बीरबल से बातें करते समय
या उसकी राय सुनते समय काफी चैन महसूस करते हुए लग रहे थे। फिर भी बीरबल को वे
बेवकूफ नहीं बना सके ।वह जानता था कि बादशाह शान्त बने रहने का नाटक कर रहे हैं।
बीरबल भी इस कला में होशियार था। उसने मजाक किया, हँसी-दिल्लगी की, कितनों पर
उपहास का निशाना लगाया और दरबार में हरे क को हँसाया। बादशाह भी हँसे, परन्तु उनकी
प्रतिक्रिया में गरमाहट नहीं थी। दोनों ऊपर से एक दस
ू रे के प्रति सौहार्दपर्ण
ू थे, फिर भी! हरे क
दस
ू रे पर गिद्ध दृष्टि डाले हुए था। एक पखवारा बीत गया। बीरबल अकबर की नित्यचर्या
जानता था।

 सप्ताह में एक बार बादशाह रात में वेष बदल कर राजधानी में यह दे खने के लिए घूमते थे कि
सुरक्षा प्रबन्ध ठीक-ठाक है कि नहीं, और चोर-उचक्के तथा दोहरे जासस
ू तो नगर में सक्रिय
नहीं हैं। बादशाह का भेस बदलने में इनका एक विश्वासी नौकर अशरफ माहिर था जो विग और
नकली मूछें लगा कर तथा रं ग और कूची के इस्तेमाल से बादशाह को पूर्ण रूप से एक नया
चेहरा दे दिया करता था। लेकिन उसकी इस उस्तादी का राज यह था कि बीरबल उसे ठीक
समय पर सुझाव दिया करता था।

जब भी उसे बादशाह का नया चेहरा बनाना  पड़ता, बीरबल से सलाह ले लिया करता। इस
प्रकार बीरबल को हमेशा यह मालूम रहता था कि बादशाह अगली बार रात में किस तरह के
भेस बना कर बाहर निकलेंगे। अशरफ भी उसे बादशाह के रात्रि-कार्यक्रम की गुप्त सूचना दे
दिया करता था। एक बार शनिवार की सुबह अशरफ बीरबल के घर पहुँचा। “मैं अनुमान लगा
सकता हूँ कि तुम सवेरे-सवेरे क्यों आये हो,” बीरबल ने मुस्कुराते हुए उसका स्वागत किया।

“हे महानुभाव, बादशाह आज रात को बाहर निकलने वाले हैं। मैंने आज उन्हें भिखारी की
वेशभष
ू ा में सजाने का इरादा किया है ,” अशरफ बोला। “केवल तम्
ु हीं एक बादशाह को चट
ु की में
भिखारी बना सकते हो!” बीरबल ने मज़ाक किया। अशरफ हँसता-हँसता लोटपोट हो गया।
“उन्हें फटे -परु ाने गन्दे कपड़ों में सजाना जिनमें फटे स्थानों पर पेबन्द लगे हों। घिसी एड़ियों
वाले परु ाने चप्पल पहना दे ना। लम्बे परु ाने चीथड़ों की पगड़ी से उनका चेहरा परू े भिखारी जैसा
लगेगा। कन्धे पर एक थैला भी लटका दे ना जिसमें टिन का एक मग्गा, एक गिलास और एक
जोड़ा फालतू कपड़े डाल दे ना।” बीरबल ने धीरे -धीरे अशरफ को समझाया। जिससे वह ठीक से
समझ ले।

“कोई और सझ
ु ाव यदि आप दे सकते हों?” पहले बताये गये नस् ु खों को ठीक से समझ लेने के
बाद अशरफ ने फिर पूछा। “और हॉ,ं शहनशाह के चेहरे तथा हाथों पर इस तरह रँ गना जिससे वे
फटे -फटे दिखाई पड़ें। नहीं तो छद्म वेश विफल हो जायेगा।” बीरबल ने इतना और कहा।
अशरफ ने सिर हिलाया और झुक कर सलाम करके बीरबल से विदा लेकर चला गया। “मेरा
समय आ गया है ,” बीरबल मस्
ु कुराया। जब संध्या तेजी से उतर रही थी, बीरबल ने अपनी
पत्नी को पक
ु ारा और अपने को भिखारी की तरह बनाने में मदद करने के लिए कहा।

“भिखारी!” वह हँसती हुई बोली। “हॉ,ं मैं आज रात भर राजधानी में घूमना चाहता हूँ और यह
पता लगाना चाहता हूँ कि भिखारी की जिन्दगी कितनी मुश्किल है । तब फिर मैं शहनशाह को
कहूँगा कि वे भिखारियों की जिन्दगी को आसान बनाने के लिए कुछ करें ,” उसने पत्नी को
समझाया। “आप को हमेशा अनोखे विचार आते हैं,” वह उस भूमिका के लिए पति को तैयार
करने हे तु मान गई। उसने एक फटा-पुराना कपड़ा जिसका रं ग उड़ा हुआ था, ढूँढ़ कर निकाला।
उसने फटे हुए हिस्सों की सिलाई कर दी। बीरबल ने उस पोशाक को पहन लिया।

ु यॉ ं बना दो और गालों पर
“मेरे चेहरे और हाथों को रँ गो और दरकन बनाओ। मेरे ललाट पर झर्रि
कुछ रे खाएँ।” उसने निर्देश दिये। उसने सर्वोत्तम प्रभाव डालने के लिए रं ग और कूची का प्रयोग
किया। उसने फटे पुराने जूते पहने जिसे कई साल पहले पहनना छोड़ दिया था। उसने पत्नी को
कहा कि वह प्रतीक्षा न करे , क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि वह कब लौटे गा। फिर वह घर से
बाहर निकल गया। वह महल की दिशा में बढ़ा। और महल के मुख्य फटक से करीब एक सौ
गज पहले रुक गया। और एक घनी छाया वाले स्थान पर खड़ा होकर प्रतीक्षा करने लगा।

उसे दे र तक इन्तजार नहीं करना पड़ा। महल का फाटक खुला और एक भिखारी बाहर आया।
फाटक के संतरी ने भिखारी को सलाम किया। जब बादशाह उसके सामने से गुजर रहा था,
बीरबल ने उसे पुकारा, “आह, मेरे दोस्त, क्या मैं आप के साथ आ सकता हूँ?” “तुम कौन हो?”
बादशाह ने अधिकारपर्व
ू क पछ
ू ा।

 ”तम
ु तो शहनशाह की तरह बात करते हो! पर हो केवल भिखारी। भिखारी की तरह बात करना
सीखो। नहीं तो एक पैसा नहीं मिलेगा।” बीरबल आवाज बदल कर बोला।

“तम
ु कौन हो?” बादशाह ने आवाज धीमी कर दी।

“तम्
ु हारी तरह एक भिखारी।”

“किन्तु मैं भिखारी नहीं हूँ,” बादशाह गर्रा


ु कर बोले।
“तब तम
ु कौन हो? शहनशाह?” बीरबल की आवाज में सिर्फ नफरत थी।

“तम
ु ने ठीक ही कहा। मैं रात में लोगों का हाल जानने के लिए बाहर निकलता हूँ।” बादशाह ने
सिर ऊँचा करते हुए कहा।

“तम
ु समझते हो कि तम
ु मुझे उल्लू बना दोगे?”

“मैं साबित कर सकता हूँ, मैं कौन हूँ?” बादशाह ने एलान किया।

“करके दिखाओ, अभी, इसी वक्त ! नहीं तो, मैं तुम्हें अधिकारियों के हवाले कर दँ ग
ू ा।”

बादशाह का दम घुटने लगा। उसे लगा कि यह भिखारी उसे नीचा दिखा रहा है । “मैं क्यों
भिखारी  के सामने अपनी पहचान सिद्ध करूँ?” “क्यों कि चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं।” बीरबल
ने उत्तर दिया।

“कैसी बेवकूफी की बातें हैं?” बादशाह ने गुस्से में अपनी राजमद्रि


ु का निकाली और बीरबल को
दिखाया। “जरा मैं दे खूँ तो, क्या यह सचमुच असली है ?” बीरबल ने आग्रह किया।

ु का उसे दे दी। बीरबल ने उसे उलट-पलट कर दे खा, उसकी जॉचं की और


बादशाह ने मद्रि
सवालिया आवाज में पूछा, “तुम्हें किसने यह मद्रि
ु का दी?”
“यह मेरी है । मैं शहनशाह हूँ।”

“तम
ु चाहते हो कि मैं इस पर विश्वास कर लँ ?ू ” बीरबल नफरत से हँसा।

“अपनी हँसी बन्द करो, बेवकूफ, यदि तुम अपने शरीर पर अपना सिर दे खना चाहते हो,”
बादशाह ने चेतावनी दी।

 दोनों जब वाद-विवाद कर ही रहे थे कि एक अधिकारी के साथ एक गश्ती दल ने उन्हें दे खा


और बात क्या है , यह जानने के लिए तरु त उनके पास पहुँच गया।
“इस आदमी को पकड़ लो। यह चोर है ।” बीरबल ने बादशाह की ओर इशारा किया।

“मैं शहनशाह हूँ,” भिखारी के वेश में बादशाह ने कहा। “वह झूठ बोल रहा है । मैं शहनशाह हूँ।
दे खो, यह मेरी राजमुद्रा है ,” बीरबल ने अधिकारी को मद्रि
ु का दिखाते हुए कहा। अधिकारी ने
झुक कर सलाम किया और क्रोधित होकर भिखारी को पकड़ने के लिए वह आगे बढ़ा । अकबर
ने खतरे को भॉपं लिया और वे तेजी से वहॉ ं से चम्पत हो गये।

“जाने दो, सनकी है ,” बीरबल ने अधिकारी और उसके आदमियों को रोक लिया जो पकड़ने के
लिए उसका पीछा करने जा रहे थे।
दस
ू रे दिन सुबह बीरबल दरबार में हाजिर हुआ। उसने बादशाह से अकेले मिलने की इजाजत
ं संतरी पहले बादशाह से पूछ कर, बीरबल को उनके पास ले गया।
मॉगी।

“शहनशाह” बीरबल ने घुटने टे क कर कहा।

“हॉ,ं बीरबल।”

“क्या आपने पिछली रात अपनी मद्रि


ु का खोई है ?”

“तुम्हें कैसे पता चला?”

बीरबल ने रात की घटना के बारे में बताया। तुरन्त बादशाह का चेहरा गंभीर और तनावपूर्ण हो
ं लगे। “शहनशाह! मैं माफी चाहता हूँ। कुछ दिनों पूर्व आपने चुनौती दी
गया। वे क्रोध से कॉपने
थी कि मैं यह प्रमाणित करूँ कि आप को ताकत आप की राजमुद्रिका से मिलती है । जब पिछली
रात राज मुद्रा मेरे हाथ में थी तब अधिकारी ने मेरी आज्ञा का पालन किया।” बीरबल ने
बादशाह को राजमद्रि
ु का लौटा दी।

“बीरबल!” बादशाह अकबर को अपने क्रोध पर काबू पाने के लिए काफी कोशिश करनी पड़ी।
फिर वे ठठा कर हँस पड़े। “बदमाश! तुम्हें मालूम है कि अपनी बात को कैसे साबित करना है ।
अब मैं जान गया कि मेरी ताकत शासक के मुकुट और राजमुद्रिका में है । तुम्हारी ताकत
तुम्हारी हाजिर जवाबी और बुद्धिमानी में है और इसे कोई कभी नहीं चुरा सकता।” बादशाह ने
उसे एक रे शमी थैली दी जिससे सोने की मोहरों की खनक सन
ु ाई पड़ रही थी।
101. बीरबल की कहानियॉ ं - 17

 बादशाह अकबर के दरबारियों में बीरबल को विशेष सम्मान प्राप्त था। उसने इसे अपनी
हाजिर जवाबी और बुद्धिमानी से अर्जित किया था। वह हँसानेवाले मज़ाकों से बादशाह का
मनोरं जन किया करता था। उस दिन भी उसने ऐसा ही किया। बीरबल ने चुटकुलों और कथा-
कहानियें से बादशाह का मनोरं जन किया।
“बीरबल, तम्
ु हारी ताकत तम्
ु हारी हाजिरजवाबी और बद्धि
ु मानी में है ,” बादशाह ने बीरबल के
एक चट
ु कुले पर ठठा कर हँसते हुए कहा।

“हमलोगों के बीच यही तो फर्क है , शहनशाह, आप बादशाह की औलाद हैं। अपने अब्बाजान की
मौत के बाद आप बादशाह बन गये। आपने अपनी कोशिश से ताकत नहीं पाई। मेरी ताकत मेरे
अन्दर ही है । आप की ताकत बाहर से आती है ,” बीरबल ने बिना झिझक कह दिया। “बाहर
से?” अकबर ने कड़क कर कहा।

“मेरे दिमाग को कोई नहीं ले सकता। लेकिन यही बात राजमक


ु ु ट, राजमद्र
ु ा और राजचिह्नों के
बारे में नहीं कही जा सकती जिनके कारण दनि
ु या आप को बादशाह समझती है ।” “साबित करो
कि तम
ु ठीक कह कहे हो, अन्यथा तम्
ु हें मौत की सजा दी जायेगी।” बादशाह ने लम्बी सांस
लेते हुए कहा। बीरबल ने झुक कर अदब के साथ सलाम किया और एक नटखट मुस्कुराहट के
साथ घोड़े पर सवार हो वह चला गया। उसे आत्म विश्वास था कि उसका आधार सही है ।

उस रात बीरबल बहुत दे र तक बिस्तर पर लेटा विविध विकल्पों पर विचार करता रहा। “इससे
काम चल जायेगा,” वह अपने आप से बोला। दस
ू रे दिन, बीरबल आम दिनों की तरह दरबार में
आया। बादशाह बीरबल से बातें करते समय या उसकी राय सुनते समय काफी चैन महसूस
करते हुए लग रहे थे। फिर भी बीरबल को वे बेवकूफ नहीं बना सके ।वह जानता था कि बादशाह
शान्त बने रहने का नाटक कर रहे हैं।

बीरबल भी इस कला में होशियार था। उसने मजाक किया, हँसी-दिल्लगी की, कितनों पर
उपहास का निशाना लगाया और दरबार में हरे क को हँसाया। बादशाह भी हँसे, परन्तु उनकी
प्रतिक्रिया में गरमाहट नहीं थी। दोनों ऊपर से एक दस
ू रे के प्रति सौहार्दपर्ण
ू थे, फिर भी! हरे क
दस
ू रे पर गिद्ध दृष्टि डाले हुए था। एक पखवारा बीत गया। बीरबल अकबर की नित्यचर्या
जानता था।

 सप्ताह में एक बार बादशाह रात में वेष बदल कर राजधानी में यह दे खने के लिए घूमते थे कि
सुरक्षा प्रबन्ध ठीक-ठाक है कि नहीं, और चोर-उचक्के तथा दोहरे जासस
ू तो नगर में सक्रिय
नहीं हैं। बादशाह का भेस बदलने में इनका एक विश्वासी नौकर अशरफ माहिर था जो विग और
नकली मूछें लगा कर तथा रं ग और कूची के इस्तेमाल से बादशाह को पूर्ण रूप से एक नया
चेहरा दे दिया करता था। लेकिन उसकी इस उस्तादी का राज यह था कि बीरबल उसे ठीक
समय पर सुझाव दिया करता था।

जब भी उसे बादशाह का नया चेहरा बनाना पड़ता, बीरबल से सलाह ले लिया करता। इस प्रकार
बीरबल को हमेशा यह मालूम रहता था कि बादशाह अगली बार रात में किस तरह के भेस बना
कर बाहर निकलेंगे। अशरफ भी उसे बादशाह के रात्रि-कार्यक्रम की गुप्त सूचना दे दिया करता
था। एक बार शनिवार की सुबह अशरफ बीरबल के घर पहुँचा। “मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि
तुम सवेरे-सवेरे क्यों आये हो,” बीरबल ने मुस्कुराते हुए उसका स्वागत किया।

“हे महानुभाव, बादशाह आज रात को बाहर निकलने वाले हैं। मैंने आज उन्हें भिखारी की
वेशभूषा में सजाने का इरादा किया है ,” अशरफ बोला। “केवल तुम्हीं एक बादशाह को चुटकी में
भिखारी बना सकते हो!” बीरबल ने मज़ाक किया। अशरफ हँसता-हँसता लोटपोट हो गया।
“उन्हें फटे -पुराने गन्दे कपड़ों में सजाना जिनमें फटे स्थानों पर पेबन्द लगे हों। घिसी एड़ियों
वाले पुराने चप्पल पहना दे ना। लम्बे पुराने चीथड़ों की पगड़ी से उनका चेहरा पूरे भिखारी जैसा
लगेगा। कन्धे पर एक थैला भी लटका दे ना जिसमें टिन का एक मग्गा, एक गिलास और एक
जोड़ा फालतू कपड़े डाल दे ना।” बीरबल ने धीरे -धीरे अशरफ को समझाया। जिससे वह ठीक से
समझ ले।

“कोई और सझ
ु ाव यदि आप दे सकते हों?” पहले बताये गये नस् ु खों को ठीक से समझ लेने के
ू ा। “और हॉ,ं शहनशाह के चेहरे तथा हाथों पर इस तरह रँ गना जिससे वे
बाद अशरफ ने फिर पछ
फटे -फटे दिखाई पड़ें। नहीं तो छद्म वेश विफल हो जायेगा।” बीरबल ने इतना और कहा।
अशरफ ने सिर हिलाया और झक
ु कर सलाम करके बीरबल से विदा लेकर चला गया। “मेरा
समय आ गया है ,” बीरबल मस्
ु कुराया। जब संध्या तेजी से उतर रही थी, बीरबल ने अपनी
पत्नी को पुकारा और अपने को भिखारी की तरह बनाने में मदद करने के लिए कहा।
 ”भिखारी!” वह हँसती हुई बोली।

“हॉ,ं मैं आज रात भर राजधानी में घूमना चाहता हूँ और यह पता लगाना चाहता हूँ कि भिखारी
की जिन्दगी कितनी मश्कि
ु ल है । तब फिर मैं शहनशाह को कहूँगा कि वे भिखारियों की
जिन्दगी को आसान बनाने के लिए कुछ करें ,” उसने पत्नी को समझाया। “आप को हमेशा
अनोखे विचार आते हैं,” वह उस भमि
ू का के लिए पति को तैयार करने हे तु मान गई। उसने एक
फटा-परु ाना कपड़ा जिसका रं ग उड़ा हुआ था, ढूँढ़ कर निकाला। उसने फटे हुए हिस्सों की
सिलाई कर दी। बीरबल ने उस पोशाक को पहन लिया।

ु यॉ ं बना दो और गालों पर
“मेरे चेहरे और हाथों को रँ गो और दरकन बनाओ। मेरे ललाट पर झर्रि
कुछ रे खाएँ।” उसने निर्देश दिये। उसने सर्वोत्तम प्रभाव डालने के लिए रं ग और कूची का प्रयोग
किया। उसने फटे परु ाने जत
ू े पहने जिसे कई साल पहले पहनना छोड़ दिया था। उसने पत्नी को
कहा कि वह प्रतीक्षा न करे , क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि वह कब लौटे गा। फिर वह घर से
बाहर निकल गया। वह महल की दिशा में बढ़ा। और महल के मुख्य फटक से करीब एक सौ
गज पहले रुक गया। और एक घनी छाया वाले स्थान पर खड़ा होकर प्रतीक्षा करने लगा।

उसे दे र तक इन्तजार नहीं करना पड़ा। महल का फाटक खुला और एक भिखारी बाहर आया।
फाटक के संतरी ने भिखारी को सलाम किया।
जब बादशाह उसके सामने से गुजर रहा था, बीरबल ने उसे पुकारा, “आह, मेरे दोस्त, क्या मैं
आप के साथ आ सकता हूँ?”

“तम
ु कौन हो?” बादशाह ने अधिकारपूर्वक पूछा।

“तम
ु तो शहनशाह की तरह बात करते हो! पर हो केवल भिखारी। भिखारी की तरह बात करना
सीखो। नहीं तो एक पैसा नहीं मिलेगा।” बीरबल आवाज बदल कर बोला।

“तम
ु कौन हो?” बादशाह ने आवाज धीमी कर दी। “तुम्हारी तरह एक भिखारी।” “किन्तु मैं
भिखारी नहीं हूँ,” बादशाह गुर्रा कर बोले। “तब तुम कौन हो? शहनशाह?” बीरबल की आवाज में
सिर्फ नफरत थी।”तुमने ठीक ही कहा। मैं रात में लोगों का हाल जानने के लिए बाहर निकलता
हूँ।” बादशाह ने सिर ऊँचा करते हुए कहा।
“तम
ु समझते हो कि तम
ु मुझे उल्लू बना दोगे?”

“मैं साबित कर सकता हूँ, मैं कौन हूँ?” बादशाह ने एलान किया।

“करके दिखाओ, अभी, इसी वक्त ! नहीं तो, मैं तुम्हें अधिकारियों के हवाले कर दँ ग
ू ा।” 

बादशाह का दम घुटने लगा। उसे लगा कि यह भिखारी उसे नीचा दिखा रहा है । “मैं क्यों
भिखारी  के सामने अपनी पहचान सिद्ध करूँ?”

“क्यों कि चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं।” बीरबल ने उत्तर दिया। “कैसी बेवकूफी की बातें हैं?”

बादशाह ने गुस्से में अपनी राजमद्रि


ु का निकाली और बीरबल को दिखाया।

“जरा मैं दे खूँ तो, क्या यह सचमुच असली है ?” बीरबल ने आग्रह किया। बादशाह ने मुद्रिका उसे
दे दी। बीरबल ने उसे उलट-पलट कर दे खा, उसकी जॉचं की और सवालिया आवाज में पूछा,
“तुम्हें किसने यह मुद्रिका दी?” “यह मेरी है । मैं शहनशाह हूँ।”

“तम
ु चाहते हो कि मैं इस पर विश्वास कर लँ ?ू ” बीरबल नफरत से हँसा।

“अपनी हँसी बन्द करो, बेवकूफ, यदि तुम अपने शरीर पर अपना सिर दे खना चाहते हो,”
बादशाह ने चेतावनी दी।

 दोनों जब वाद-विवाद कर ही रहे थे कि एक अधिकारी के साथ एक गश्ती दल ने उन्हें दे खा


और बात क्या है , यह जानने के लिए तरु त उनके पास पहुँच गया।

“इस आदमी को पकड़ लो। यह चोर है ।” बीरबल ने बादशाह की ओर इशारा किया।


“मैं शहनशाह हूँ,” भिखारी के वेश में बादशाह ने कहा। “वह झूठ बोल रहा है । मैं शहनशाह हूँ।
दे खो, यह मेरी राजमुद्रा है ,” बीरबल ने अधिकारी को मद्रि
ु का दिखाते हुए कहा। अधिकारी ने
झुक कर सलाम किया और क्रोधित होकर भिखारी को पकड़ने के लिए वह आगे बढ़ा । अकबर
ने खतरे को भॉपं लिया और वे तेजी से वहॉ ं से चम्पत हो गये।

“जाने दो, सनकी है ,” बीरबल ने अधिकारी और उसके आदमियों को रोक लिया जो पकड़ने के
लिए उसका पीछा करने जा रहे थे। दस
ू रे दिन सुबह बीरबल दरबार में हाजिर हुआ। उसने
बादशाह से अकेले मिलने की इजाजत मॉगी।ं संतरी पहले बादशाह से पूछ कर, बीरबल को
उनके पास ले गया।

“शहनशाह” बीरबल ने घुटने टे क कर कहा।

“हॉ,ं बीरबल।”

“क्या आपने पिछली रात अपनी मद्रि


ु का खोई है ?”

“तुम्हें कैसे पता चला?”

बीरबल ने रात की घटना के बारे में बताया। तुरन्त बादशाह का चेहरा गंभीर और तनावपूर्ण हो
ं लगे।
गया। वे क्रोध से कॉपने

“शहनशाह! मैं माफी चाहता हूँ। कुछ दिनों पर्व


ू आपने चन ु ौती दी थी कि मैं यह प्रमाणित करूँ
कि आप को ताकत आप की राजमद्रि ु का से मिलती है । जब पिछली रात राज मद्र ु ा मेरे हाथ में
थी तब अधिकारी ने मेरी आज्ञा का पालन किया।” बीरबल ने बादशाह को राजमद्रि
ु का लौटा दी।

“बीरबल!” बादशाह अकबर को अपने क्रोध पर काबू पाने के लिए काफी कोशिश करनी पड़ी।
फिर वे ठठा कर हँस पड़े। “बदमाश! तुम्हें मालूम है कि अपनी बात को कैसे साबित करना है ।
अब मैं जान गया कि मेरी ताकत शासक के मुकुट और राजमुद्रिका में है । तुम्हारी ताकत
तुम्हारी हाजिर जवाबी और बुद्धिमानी में है और इसे कोई कभी नहीं चुरा सकता।”

बादशाह ने उसे एक रे शमी थैली दी जिससे सोने की मोहरों की खनक सुनाई पड़ रही थी।
102. आँखें और बेआँखें - 16

 बादशाह अकबर को नदी और इसके बदलते रूपों को दे खना बहुत अच्छा लगता था। अपने
दरबारियों के संग नदी किनारे सैर करना भी उन्हें बेहद पसन्द था। एक दिन आकाश
मेघाच्छन्न था। अचानक बारिश आ जाने पर शाही दल को ले जाने के लिए तैयार उनके पीछे -
पीछे कुछ दरू ी पर कुछ घोड़ागाड़ियॉ ं चल रही थीं।

“नदी बड़ी बदमिजाज है ,” बादशाह अकबर ने बहती नदी की लहरों के तेज उतार-चढ़ाव और
उसकी गड़गड़ाहट को दे ख कर अपना विचार दिया। “बिल्कुल शहनशाह की तरह,” बीरबल ने
चट
ु की ली। “मैं जैसा हूँ हमेशा वैसा ही रहता हूँ,” बादशाह ने विरोध प्रकट किया। “फिर भी
मनमौजी, सनकी,” बीरबल ने हार नहीं मानी, “शहनशाह! ज्यादातर आप मेहरबान और
रहमदिल रहते हैं, परन्तु हमेशा नहीं! जब आप को गस्
ु सा आता है , तब आप धधकती
ज्वालामख
ु ी बन जाते हैं। आप नदी के समान हैं। आप भी कभी-कभी सनकी और तरं गी हो
जाते हैं, शहनशाह!” बीरबल ने आगे कहा।

“मैंने पहले इसे क्यों नहीं दे खा?” बादशाह की आवाज थोड़ी-सी कॉपं गई। “शहनशाह! यह आप
का दोष नहीं है । हमलोग प्रत्यक्ष या सामने दीखनेवाली चीज को हमेशा नहीं दे ख पाते। यहॉ ं
तक कि आँखवाले भी अक्सर अन्धे बन जाते हैं।” “आपने उसकी बात सुनी, शहनशाह? उसने
कहा कि हम सब कभी-कभी अन्धे हो जाते हैं।” एक दरबारी जो बीरबल और बादशाह के बीच
दरार पैदा करने की ताक में था, मौके का फायदा उठाते हुए बोला। “बीरबल!” बादशाह छटपटा
गये मानो उनके मर्मस्थल में डंक मार दिया गया हो। “तुम कमबख्त! तुम कहते हो कि मैं
कभी अन्धा बन जाता हूँ। तुम्हें यह साबित करना होगा या मरने के लिए तैयार हो जाओ!”
बादशाह ने धमकाया।

 ”शहनशाह! मुझे एक ह़फ़्ते की मोहलत दीजिये और मैं यह सिद्ध कर दँ ग


ू ा कि धरती के सबसे
शक्तिशाली व्यक्ति भी कभी-कभी अन्धे के समान आचरण करते हैं।” बीरबल ने हर शब्द को
नाप-तौल कर स्पष्ट रूप से कहा पर फिर भी वह सावधान था। “तम्
ु हारे पास अपनी बात को
साबित करने के लिए सिर्फ एक सप्ताह है । कर दोगे तो बच जाओगे। यदि नहीं...” बादशाह
अचानक मड़
ु कर चले गये।
बीरबल ने कोशिश की कि दल के साथ रहे , परन्तु बादशाह ने उसकी तरफ उं गली का इशा रा
करते हुए कहा, “नहीं, मैं एक क्षण के लिए भी तुम्हारा चेहरा दे खना नहीं चाहता।” बीरबल भॉपं
गया कि बादशाह क्रोध से अन्धे हो रहे हैं। “क्रोध शान्त होने में समय लगेगा और यह तब तक
नहीं होगा, जब तक मैं अपने कथन को सिद्ध न कर दँ ।ू मेरे पास एक सप्ताह का समय है ।”

क्रोध कभी भी अधिक दे र तक नहीं रहता। बादशाह दो-तीन घण्टों में शान्त हो गये। उन्होंने तब
बीरबल को वापस बुलाने का निश्‍चय किया। उन्हें उम्मीद थी कि बीरबल शीघ्र ही लौट आयेगा।
परन्तु वह छः दिनों तक दरबार से दरू रहा। अकबर को उसकी कमी काफी खलती रही। सातवें
दिन प्रातःकाल एक दरबारी घोड़े पर सवार हो नदी में स्नान करने के लिए गया। वह घोड़े से
उतरा और एक तरफ पत्थर के खम्भे से घोड़े को बॉधं कर घाट की ओर बढ़ा। उसने तभी दे खा
कि एक नीम के पेड़ की छाया में कोई सुतली से एक चारपाई बुनने में काफी व्यस्त है । इससे
पूर्व उसने नदी किनारे किसी को ऐसा काम करते हुए कभी नहीं दे खा था। इससे उसकी
उत्सुकता बढ़ गई। वह उसके पास गया। उस आदमी को पहचान कर दरबारी भौचक रह गया।
चारपाई बुनने वाला और कोई नहीं, स्वयं बीरबल था।

“बीरबल!” दरबारी चिल्ला पड़ा। बीरबल सिर उठा कर मुस्कुराने लगा। “क्या कर रहे हैं आप?”
बीरबल एक शब्द भी नहीं बोला। बल्कि उसने बगल में रखा एक पैड उठाया और उस पर कुछ
लिखा। फिर अपने काम में मशगूल हो गया। “बताओ तो सही बीरबल, तम
ु क्या कर रहे हो?”
दरबारी ने इस बार ऊँची आवाज में पूछा। फिर भी उसे कोई उत्तर नहीं मिला। बीरबल अपने
काम में काफी डूबा हुआ जान पड़ा।

“समझ नहीं पा रहा हूँ यह क्या कर रहा है ?” दरबारी अपने आप बुदबुदाया। एक घण्टे के बाद
वह शाही दरबार में पहुँचा। कुछ दरबारी पहले से मौजद
ू थे।
“शहनशाह! मैंने बीरबल को नदी के किनारे पर दे खा।” “स्नान करने गया होगा,” इसमें
बादशाह को कुछ बेतक
ु ा नहीं लगा। “शहनशाह! वह एक नीम पेड़ की छाया में चारपाई बुन रहा
था।” “पागल हो गये क्या? बेवकूफ!” बादशाह को विश्‍वास नहीं हुआ।

“शहनशाह! मैं सच और केवल सच कह रहा हूँ,” दरबारी बोला। बादशाह ने स्वयं अपनी आँखों
से इसे दे खने का निश्‍चय किया। वे नदी के सामने पहुँचे। इनके साथ कुछ दरबारी भी गये। नदी
के सामने सब ने बीरबल को नीम पेड़ की छाया में चारपाई बन
ु ते दे खा। “जाओ, पता करो, वह
क्या कर रहा है ?” बादशाह ने दरबारियों से कहा।
सबसे पुराने दरबारी ने बीरबल के पास जाकर उसका अभिवादन किया। बीरबल उसे दे ख कर
मुस्कुराया। “बीरबल, क्या कर रहे हो?” दरबारी ने पूछा। बीरबल सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया।
उसके होठों से एक लब्ज तक न निकला। बल्कि उसने अपना पैड उठाया और उस पर जल्दी से
कुछ लिख लिया। फिर पैड रख कर चारपाई बुनने में लग गया।

 ”लगता है वह पागल हो गया है ,” दरबारी ने बादशाह के पास वापस जाकर कहा। बादशाह और
दरबारियों का इन्तजार करते रहे जो एक-एक कर बीरबल के पास गये और उससे पछ
ू ा कि वह
क्या कर रहा है । जब भी कोई प्रश्‍न पछ
ू ता तो बीरबल पैड पर कुछ लिख लेता, पर कुछ बोलता
नहीं था। “क्या वह गंग
ू ा हो गया?” बादशाह को सन्दे ह हुआ।

“हो सकता है वह बहरा भी हो गया हो,” एक दरबारी ने कहा। बादशाह स्वयं इसकी जॉचं करना
चाहते थे। वे बीरबल के निकट गये और उसे नाम से पक
ु ारा। बीरबल ने जल्दी से हाथ की रस्सी
छोड़ दी और बादशाह को सलाम किया। “बीरबल! क्या कर रहे हो?” बीरबल मस्
ु कुरा पड़ा।
उसने फिर अपना पैड उठा कर उस पर कुछ लिख लिया। “तुमने पैड पर क्या लिखा?” बादशाह
यह जानने के लिए उत्सुक थे।

“शहनशाह! मैंने उन लोगों की सूची में आप का नाम लिख लिया है जिनकी आँखें तो हैं, पर
व्यवहार ऐसा करते हैं मानों उनकी आँखें नहीं हैं।” बीरबल ने पैड बादशाह की तरफ बढ़ा दिया।
“बीरबल!” बादशाह की आवाज में तेज चाकू की धार थी। “फिहरिस्त में मेरा नाम भी तम
ु ने
शामिल कर लिया?”
“हॉ ं शहनशाह, क्योंकि आपने भी मुझसे सवाल कियाः क्या कर रहे हो? क्या आपने दे खा नहीं
कि मैं चारपाई बुन रहा था? अतः मुझसे यह पूछने की जरूरत क्या थी कि मैं क्या कर रहा था
जब तक कि...।” बीरबल ने “आप अन्धे न हों”– ये शब्द अनकहे छोड़ दिये।

बादशाह को अपना गुस्सा काबू करने में थोड़ा वक्त लगा। “शहनशाह! मैंने पिछले ह़फ़्ते आप
से कहा था कि हमलोगों में से बुद्धिमान भी कभी-कभी अन्धे बन जाते हैं। आप आग बबल
ू ा हो
गये और मुझसे यह साबित करने के लिए कहा कि मैं ठीक कह रहा हूँ। उम्मीद है , आप मुझे
माफ कर दें गे, पर, मैं अपने इस विश्‍वास पर कायम हूँ कि हम सब, यद्यपि अन्धे नहीं हैं,
कभी-कभी ऐसा व्यवहार करते हैं मानों हमारी आँखें नहीं हैं,” बीरबल धीमे से बुदबद
ु ाया।
“बीरबल, तम
ु ठीक कहते हो,” बादशाह ने ठठा कर हँसते हुए कहा।
103. बुद्धि का एक घड़ा

 राजा वीर सिंह एक जागीर का मालिक था। उसने तुरन्त मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।
वह मुगलों के अधीन सन्तुष्ट था, क्योंकि इससे उसकी जागीर में शान्ति बनी रही। आम
आदमी सब समय शान्ति, सुरक्षा और रोजी-रोटी कमाने का साधन चाहता है । परन्तु कुछ ऐसे
नौजवान थे जिन्हें यह पसन्द नहीं था। दनि
ु यादारी के मामलों में राजा बुद्धिमान था, इसलिए
उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की।

बल्कि जब भी उन्होंने पूरी स्वाधीनता की समस्या उठाई, राजा ने उन्हें समझाया। उन्होंने
कहा, “मुझे भी स्वाधीनता उतनी ही पसन्द है , जितनी सब को। परन्तु मुगलों के साथ उलझने
के लिए हमलोगों के पास साधन नहीं है । हम परास्त हो जायेंगे। हम में से अधिकतर लोगों को
ं दे दी जायेगी। हमारे राज्य के कोने-कोने में स्कूल,
कैद कर लिया जायेगा। कुछ लोगों को फॉसी
अस्पताल तथा सड़कें हैं। और हमें क्या चाहिये?” वे नौजवान इन बातों को सुनकर प्रायः शान्त
हो जाते थे।

एक अवसर पर कुछ युवक कुछ अधिक जिद्दी जान पड़े। एक ने कहा, “बुद्धिमान असम्भव को
सम्भव कर दे ते हैं।” “काश! हमारे पास काफी बुद्धिमान लोग होते!” राजा ने अफसोस जाहिर
की। “हमलोगों के पास हैं,” युवक ने कहा। “मैं जानता हूँ। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि
अकबर के दरबार में दनि
ु या में किसी स्थान की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान लोग हैं।” राजा ने तर्क
दिया, “मैं यह जानने के लिए कि क्या हम मुगल दरबार के लोगों की बुद्धि का मुकाबला कर
सकते हैं, तुम्हारे मन के मुताबिक कोई भी परीक्षा करने को तैयार हूँ।” राजा शान्त और
स्थिरचित्त बने रहे ।

युवकों ने कहा कि वे मुगलों की बुद्धि की जॉचं करने की एक योजना के साथ जल्दी ही लौट कर
आयेंगे। राजा ने सिर हिलाया। युवक अभिवादन करके लौट गये। एक सप्ताह के बाद एक
युवक राजा से मिला। उसने सलाह दी कि राजा मुगल दरबार से बुद्धि का एक घड़ा भेजने का
अनरु ोध करें ।
 ”बुद्धि का एक घड़ा? क्या बुद्धि घड़े में रखी जा सकती है ?” राजा ने ऊँची आवाज में कहा। “क्या
आप समझते हैं कि यह असम्भव है , महाराज?” “निस्सन्दे ह, यह असम्भव है ।” “क्या सच्चा
बद्धि
ु मान वही नहीं है जो असम्भव को सम्भव कर दे ?” यवु क ने पिछली मल
ु ाकात का सन्दे श
ु ल दरबार ने सही उत्तर दिया तो हम अपनी मॉगं छोड़ दें गे।”
दहु राया और फिर कहा, “यदि मग

“इसमें मझ
ु े कोई परे शानी नहीं है । किन्तु मझ
ु े यह डर है कि मग
ु ल दरबार के बद्धि
ु मान लोगों को
हमारी योजना के पीछे सन्दे ह हो सकता है । वे हमें करारा जवाब दे सकते हैं। दरबार मग
ु ल
ु की जॉचं करने के लिए माफीनामा मांग सकता है और अर्थ दण्ड भी दे
दरबारियों की बद्धि
सकता है ।” राजा जल्दबाजी में कोई काम नहीं करता था।

“सफलता उनके चरण चम


ू ती है जो हिम्मत करते हैं और कर गज
ु रते हैं...,” यव
ु क ने तीखे स्वर
में कहा। “यदि वह जानता है कि सफलता की काफी सम्भावना है तो,” राजा ने हस्तक्षेप किया।
“महाराज, इसे जॉचं करके दे खें, मेरी प्रार्थना है । खोने के भय से हमें कायर नहीं बनना चाहिये,”
युवक ने नम्र भाव से पूछा। “ऐसा नहीं होगा,” राजा ने युवक को आश्वासन के साथ भेज दिया।

राजा ने बादशाह के लिए कुछ उपहार के साथ मुगल दरबार में एक दत


ू भेजा। दत
ू ने दरबार में
प्रवेश किया। दरबारी भी मौजद
ू थे। दत
ू ने बादशाह को झक
ु कर सलाम किया, सिंहासन की
सीढ़ियों के सबसे निचले सोपान पर तोहफों को रख दिया और खड़ा होकर बादशाह की नजर का
इन्तजार करने लगा।
“राजा वीर सिंह सकुशल तो हैं!”

“आलमपनाह, हमारे राजा आप के संरक्षण में सुखी हैं, इसलिए उनके लिए चिन्ता का कोई
कारण नहीं है ।” दत
ू कूटनीतिक कला और नीति में कुशल था।
“उपहार के लिए राजा वीरसिंह को मेरी शक्रि
ु या कहना,” बादशाह सिंहासन पर पीठ टिका कर
आराम से बैठ गये, फिर बोले, “क्या राजा को हमलोगों से और कुछ काम है ?” “आलमपनाह,
बुद्धिमानों की विशिष्ट मंडली आप के दरबार की शोभा बढ़ाती है । इसलिए यदि आप की कृपा हो
तो राजा को बुद्धि के एक घड़े की जरूरत है ।” दत
ू ने इस अनुरोध को इस प्रकार प्रस्तुत किया
मानों यह सामान्य बात है और इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है ।

 घड़ों में अनेक वस्तए


ु ँ रखी जाती हैं। परन्तु बद्धि
ु ! किसी ने घड़े में बद्धि
ु के बारे में नहीं सन
ु ा।
बद्धि
ु मान इसे अपने सिरों में रखते हैं, घड़ों में नहीं। बादशाह इससे परे शान नहीं हुए। उन्हें परू ा
विश्वास था कि उनके दरबार के बद्धि
ु मान लोग बता दें गे कि बद्धिु का घड़ा कैसे ला सकते हैं।
इसलिए उसने दत
ू को कह दिया कि वे राजा के पास एक महीने के अन्दर एक बुद्धि का घड़ा
भेज दें गे।

“आप कितने उदार हैं, आलमपनाह! मेरे राजा आप के सेवक और जागीरदार के रूप में बहुत
खश
ु हैं। वे कहते हैं कि आप जैसे महाराजा को पाकर वे धन्य हैं। दत
ू ने झक
ु कर अपने सिर से
जमीन को स्पर्श किया और बादशाह से विदा ली। “राजा के अनरु ोध के बारे में सन
ु ा?” बादशाह
दरबारियों की तरफ मड़ु ।े “वह असम्भव की मॉगं कर रहा है ,” सबसे परु ाने दरबारी ने कहा।
“तब इसे सम्भव बनाओ,” बादशाह ने उसे एक तीखी झिड़की से चप
ु कर दिया। दरबारियों ने
अपने सिर झक
ु ा लिये। वे जान गये कि बादशाह गस्
ु से में हैं और गस्
ु सा उतरने में समय
लगेगा।

“शहनशाह!” बीरबल की धीमी आवाज सन


ु कर सब की नजरें उसकी ओर उठ गईं। “मझ
ु े 15
दिनों का मोहलत दीजिये। मैं घड़ा भर बुद्धि तैयार रखग
ूँ ा।”
“ठीक है ।” “शहनशाह! क्या मैंने कभी आप को निराश किया है ?” “अल्लाह को शक्रि
ु या! कम
से कम एक सच्चा बुद्धिमान मेरे दरबार में है ।” बादशाह ने अन्य दरबारियों पर नफरत से एक
निगाह डाली, “उल्लू के पट्ठे हैं सब!” एक दरबारी भी कुछ न बोला। पर सब के सब ने
अपमानित महसूस किया। सबने चाहा कि बीरबल को बुद्धि का घड़ा न मिले तो कितना अच्छा
हो!

बीरबल हर रोज की अपेक्षा जल्दी घर चला गया। उसकी पत्नी दरवाजे पर थी। उसने मुस्कान
के साथ उसका स्वागत किया। बीरबल उसके पास कुछ दे र बैठा और उससे कुछ मामूली चीजों
के बारे में बातें करता रहा। पत्नी ने कुछ खाने को नाश्ता और पीने के लिए गर्म दध
ू दिया। फिर
वह अपने पिछवाड़े में गया जहॉ ं उसने कुछ सब्जियॉ ं उगाई थीं। उसकी नजर एक लता पर पड़ी
जिसमें मोटे -मोटे काशी फल लगे थे।

अचानक उसकी आँखों में एक चमक आ गई और होठों पर एक अद्भतु खशु ी की मस्


ु कान फैल
गई जब उसने मटर के दाने के बराबर एक भतिया काशीफल दे खा। यह भी 15-20 दिनों में
उतना ही बड़ा और मोटा हो जायेगा। उसने सोचा। वह अपने भाग्य पर इतराता घर के अन्दर
गया और एक बड़े घड़े के साथ लौटा। उसने सावधानी से भतिया काशीफल के साथ लता को
उठाया और घड़े में डाल दिया। ऐसा दिखाई पड़ता था जैसे लता घड़े के मँह
ु के एक किनारे से
भतिया के साथ अन्दर गई और दस
ू रे किनारे से बाहर आ गई।
“इससे काम बन जायेगा,” बीरबल ने मुस्कुराते हुए अपने आप से कहा। उसने पत्नी को
सावधान करते हुए कहा कि वह किसी भी हालत में घड़े को न छे ड़।े माली को भी कड़ी हिदायत
दे दी गई। बीरबल हर रोज घड़े पर नजर रखने लगा। दस दिनों के बाद काशीफल घड़े के अन्दर
काफी बड़ा हो चुका था। यदि वैसे ही बढ़ने दिया जाता तो घड़ा टूट जाता। इसलिए उसने
रसोईघर से चाकू लाकर लता को दोनों ओर से काट दिया। उसने घड़े पर ढक्कन रख कर उसे
सीलबन्द कर दिया और फिर राज दरबार में ले गया। “शहनशाह! बुद्धि का घड़ा यह रहा। इसे
राजा वीर सिंह के पास एक घुड़सवार द्वारा भेज दीजिये, जिससे कल तक वहॉ ं पहुँच जाये।?”?
क्या तुम्हें निश्चित रूप से विश्वास है कि इसमें बुद्धि है ?”

 ”हॉ,ं आलमपनाह! राजा को यह सन्दे श भेज दीजिये कि वह घड़े के अन्दर की वस्तु को उसी
हालत में सही सलामत घड़े को नष्ट किये बिना बाहर निकाले और घड़े को उसी मौलिक
अवस्था में लौटा दे । यदि वह ऐसा न कर सके तो उसे घड़े की कीमत दे नी पड़ेगी...दस हजार
मोहरें ।” “मिट्टी के एक घड़े के लिए?” “क्योंकि यह अमूल्य है और इसके अन्दर बुद्धि है ,”
बीरबल मुस्कुराया।

बादशाह जान गये कि इसमें कुछ और राज छिपा है जिसे बीरबल ने पूरी तरह नहीं खोला है ।
खैर, राजा के पास बुद्धि का घड़ा भेजने के बाद वह इसे मालूम कर लेगा, उसने सोचा। “अब
बताओ बीरबल, तुम्हारी योजना क्या है ?” बीरबल ने पहले समझाया कि उसने घड़े में क्या
किया है । “राजा काशीफल को बिना कुचले या काटे या बिना घड़े को तोड़े बाहर नहीं निकाल
सकता। उसे इन दो चीजों से बचने के लिए कहा गया है ।” बीरबल दॉतं निपोरता हुआ बोला।
“तम
ु बड़े चतुर बदमाश हो।” बादशाह अकबर ने शाबाशी दी।

राजा को घड़ा मिला। उसने दोनों शर्त्तें सुनीं। उसने घड़े के अन्दर एक काशीफल दे खा। वह इसे
बिना चीर फाड़ किये बाहर नहीं निकाल सका। घड़े को तोड़ नहीं सकता था। उसमें अब ज्ञान का
नेत्र खुला। उसने हजम करने से अधिक खा लिया था। उसने युवकों को बल
ु ा कर विस्तार से
समझाया और घड़े को दिखाया तथा बादशाह की शर्त्तें सुनाईं। “मैंने तुम्हारी बात मान ली।
अब और कठिन परिश्रम के लिए तैयार हो जाओ तथा बादशाह द्वारा मांगे गये दस हजार
मोहरों की क्षति को पूरा करो।” राजा ने यह कह कर उन्हें भेज दिया। राजा के प्रतिनिधि ने
मुगल दरबार में दस हजार मोहरों से भरे दस थैले पेश किये। “शाही खजाने में दस हजार मोहरों
की बढ़त हुई है ”, बीरबल ने स्मरण दिलाया। “तम ु आधा ले लो,” बादशाह ने अट्टहास
किया।                                 - आर.के. मति

104. अपराध का अनावरण

 बादशाह अकबर बीरबल के साथ बाग में सैर कर रहे थे । बीरबल हँसानेवाले मजाक सुना कर
बादशाह का दिल बहलाया करता था। वे बादशाह को एक और हाजिरजवाबी की कहानी सुनाने
ही वाला था कि उन्होंने बादशाह की एक दबी कराह सुनी। अकबर अपने दायें हाथ पर की थोड़ी
सी सूजन पर जोर से उं गलियॉ ं रगड़ रहे थे। उन्हें काफी दर्द हो रहा था, फिर भी उन्होंने धैर्य
बनाये रखा। बीरबल ने सज
ू न को ध्यान से दे खा। फिर वह जोर से हँस पड़ा। “मैं जब इतनी
पीड़ा झेल रहा हूँ, तब तम
ु हँसने की जर्रु त कैसे कर सकते हो?” बादशाह अनम
ु ानतः क्रोध में थे।

“मुझे खेद है , शहनशाह !” वह जल्दी से पास के पेड़ से एक पका पीला नीम्बू ले आया। फिर
उसने उसे अपने चाकू से काटा और उसका रस सूजन पर डाल कर धीरे से रगड़ दिया। इससे
बादशाह को थोड़ा आराम किया। “तो नीम्बू का रस ततैये के डंक के दर्द को दरू कर सकता है ?”
बादशाह ने मुस्कुराते हुए कहा।

“आपने यह सच्चाई सीख ली शहनशाह। मैंने एक दस


ू री सच्चाई सीखी, जिससे मैं हँस पड़ा।”
बीरबल ने चैन की सांस ली। “वह क्या?” अकबर ने पूछा।
“हमलोग कहते हैं कि मनुष्य परमात्मा की सष्टि
ृ का सरताज है । पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ।”
बीरबल बोला। “परन्तु क्यों?” बादशाह ने पूछा। “शहनशाह! आप पूरी दनि
ु या में सबसे अधिक
शक्तिशाली हैं। फिर भी, एक छोटा सा कीट आप की आज्ञा के बिना न केवल आपके सामने
उड़ता है , बल्कि आप को डंक मारने की गुस्ताखी करता है !” बीरबल ने कहा।

“बीरबल, यह सच है । मेरी शक्ति से ज्यादातर प्राणियों को डर नहीं लगता। ततैये को नहीं,


सॉपं को नहीं, न बाघ को। यह इसलिए कि वे जान-बूझकर किसी को हानि नहीं पहुँचाते। वे तब
चोट करते हैं जब वे खतरे का संकेत पाते हैं। मनुष्य ऐसा नहीं है ।

 मनुष्य सुनियोजित रूप से अपराध करता है । उन्हें दण्ड दे ना मेरा कर्त्तव्य है ।” अकबर ने बाग
और महल के बीच छोटे से प्रवेशद्वार की ओर बढ़ते हुए कहा। बीरबल ने जल्दी से प्रवेशद्वार
खोल दिया।  प्रवेशद्वार के बाहर एक वद्ध
ृ व्यक्ति प्रतीक्षा कर रहा था। वह साफ सुथरी धोती
और लम्बा ओवरकोट धारण किये हुए था। उसका सिर गें द की तरह गंजा था। उसकी
कनपटियों के बाल सफेद हो रहे थे। उसके कानों में हीरे के कर्णफूल थे। उसने झक
ु कर सलाम
किया।
“तम
ु कौन हो?”

“मैं बज्रीदास सोनार हूँ।”

“तम
ु मझ
ु से क्या चाहते हो?”

“शहनशाह, मैं अपने काम के लिए जरूरत का सोना अपने घर के एक भण्डार गह ृ में रखता हूँ।
इस भण्डार गह
ृ में इस्पात का किवाड़ है , उस पर बहुत बड़ा ताला लगा हुआ है । केवल मैं उस
भण्डार गह
ृ में आता-जाता हूँ। जब मैं व्यस्त रहता हूँ, मैं अपने चार विश्‍वास पात्र सहायकों में से
किसी एक को भण्डार से सोना लाने के लिए भेजता हूँ। वे सब के सब विश्‍वास के योग्य हैं।”

“क्या तमु यह कह रहे हो कि किसी ने भण्डार से सोना चरु ा लिया है ?” बादशाह ने प्रश्‍न पछू ा।
“हॉ ं शहनशाह, मैं निश्‍चित रूप से कहता हूँ कि यह मेरे किसी सहायक का ही काम है ,” बज्रीदास
को जैसे चक्कर आ रहा था। “कितना सोना चोरी गया?” “शहनशाह, सभी दस सिल्लियॉ ं चली
गईं।” वह निराश होकर हाथ मलने लगा।

“घबराओ नहीं। तीन दिनों में तुम्हारे सोने का पता लगाकर तुम्हें वापस कर दिया जायेगा।”
बादशाह ने आश्‍वासन दिया। उस आदमी ने जाने से पहले बादशाह को झुककर सलाम किया।
“अब हमारे पास एक अपराध आ गया है ,” बादशाह ने कहा। “आप कैसे अपराधी का पता
लगायेंगे?” बीरबल ने पूछा।
“मैं इस मुकदमे को मुख्य पलि
ु स अधिकारी को सौंप दँ ग
ू ा,” बादशाह बोले। दो दिनों तक पलि
ु स
के मुख्य अधिकारी ने रातदिन काम किया।

 उसने बज्रीदास के चारों सहायकों से तहकिकात की। उसने उन्हें थाने में अलग-अलग कमरे में
रखा। उन्हें डराया कि सच नहीं बताओगे तो उलटा लटका कर खूब पिटाई की जायेगी। परन्तु
उसके डराने-धमकाने का कोई असर नहीं हुआ। पलि
ु स अधिकारी को पता नहीं चला कि क्या
किया जाये।
ू रे दिन की शाम तक वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। वह बादशाह के पास जाकर यह नहीं कह
दस
सकता था कि चोर का पता लगाने में वह विफल रहा। बादशाह उसपर क्रोधित हो जायेंगे। वह
अपनी आफिस के आस पास पिंजड़े में बन्द बाघ की तरह घूमने लगा। “चोर का पता कैसे
किया जाये। कोई उपाय जरूर होगा। परन्तु मेरे जैसे मूर्ख को नहीं मालूम क्या करना चाहिये।
कौन मेरी मदद कर सकता है ?

उसने अपने मन में कुशाग्र बद्धि


ु वालों की जिन्हें वह जानता था एक सच
ू ी बनाई। तब उसे
अचानक ख्याल आया, “बीरबल! यही व्यक्ति है , केवल यही जो मझ
ु े बचा सकता है ”, उसने
अपने आप से कहा। उस अधिकारी ने समय नष्ट नहीं किया। वह सीधा बीरबल के घर पहुँचा।
बीरबल ने प्रेम से उसका स्वागत कियोऔर पछ
ू ा, “मैं तम्
ु हारे लिए क्या कर सकता हूँ?”

अधिकारी ने अपनी दख
ु द कथा सन
ु ाई। उसने आगे बताया कि उसने चारों आरोपियों को थाने
में अलग-अलग कमरे में बन्द कर रखा है । “उनमें चोर कौन है , मैं कैसे मालम
ू कर सकता हूँ?”
उसने बीरबल से मार्ग दर्शन के लिए प्रार्थना की। बीरबल निश्‍चल शान्ति में डूब गया।
अधिकारी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता रहा। करीब दस मिनट तक किसी ने एक शब्द नहीं कहा।
“यह काम करे गा,” बीरबल ने मौन तोड़ा। “क्या मैं जान सकता हूँ कि आप के पास इस काम
को करने के लिए क्या योजना है ?” अधिकारी को आशा की किरण दिखाई पड़ी।

“मुझे चार छड़ियॉ ं लाकर दो जो प्रत्येक एक गज लम्बी हो। घण्टे भर में इन्हें तैयार रखो। तब
तक मैं थाने पर आ जाऊँगा। मैं चारों आदमियों से मिलँ ग
ू ा और उनसे बातचीत करूँगा।”
बीरबल घर के फाटक तक अधिकारी को छोड़ने गया।

एक घण्टे के पश्‍चात बीरबल थाने पर गया। अधिकारी अभिवादन कर उन्हें अन्दर ले गया।
“चार छड़ियॉ ं तैयार हैं।” वह बोला।

“आदमियों को बुलाओ। मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।” बीरबल ने अधिकारी से कहा।

अधिकारी ने अपने एक आदमी को इशारा किया। वह दौड़ कर गया और चारों आरोपियों को



हॉकता हुआ ले आया। बीरबल ने दे खा कि वे क्लान्त और अशक्त हैं। अधिकारी ने उन्हें दो
दिनों तक विश्राम और नींद से वंचित कर दिया था। उन्हें डरा कर पागल करने की कोशिश की।
बीरबल को उनमें से तीन निर्दोष व्यक्तियों के लिए दख
ु हुआ। एक व्यक्ति के दष्ु कर्म से अन्य
तीन व्यक्तियों को भी कष्ट झेलना पड़ा। सब ने मिल कर चोरी की हो तो और बात है ।
वह उन्हें दे ख कर मस्
ु कुराया, अपने बगल में बिठाया और उनसे कहा, “तम् ु हारे मालिक
बज्रीदास ने शिकायत की है कि किसी ने उसके भण्डार से सोने की दस सिल्लियॉ ं चरु ा ली है ।
ु चारों के अतिरिक्त वहॉ ं कोई नहीं जा सकता। क्या यह
वह कहता है कि केवल वह और तम
सच है ?” बीरबल ने पछ
ू ा।

“हॉ ं महानभ
ु ाव!” सब एक साथ बोले।

“वह तम
ु पर सन्दे ह करता है ।” बीरबल उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।

“मैं नमक हराम नहीं हूँ”, एक ने अपने मालिक के प्रति स्वामी भक्ति का विश्‍वास दिलाते हुए
बीरबल से कहा।

“मैं ईमानदार आदमी हूँ।” दस


ू रे ने कहा।

 ”मैं अपने मालिक के साथ बीस वर्षों से काम कर रहा हूँ। मैं विश्‍वासघात कैसे कर सकता हूँ?”
तीसरे ने कहा।

“मुझसे अधिक स्वामी भक्त कुत्ता भी नहीं हो सकता।” चौथे ने कहा।

“मैं समझता हूँ कि तुम सब ईमानदार हो। तम


ु पर झूठा आरोप लगाया गया है ।” बीरबल ने
छड़ियॉ ं उठाईं और उन चारों को एक-एक छड़ी दे ते हुए कहा, “ये जाद ू की छड़ियॉ ं हैं। अपराध
करनेवाले के हाथ में ये रात में तीन इंच बढ़ जाती हैं। आज रात इन छड़ियों को अपने पास
रखो। कल आठ बजे यहॉ ं वापस ले आना। मैं इन्तजार करूँगा।” बीरबल ने उन्हें भेज दिया।

दस
ू रे दिन सुबह चारों आदमी छड़ियों के साथ आये। बीरबल थोड़ी दे र से आया। उसने उनका
अभिवादन किया। उसने पहले आदमी से छड़ी वापस ली और उसकी लम्बाई की जॉचं करके
एक तरफ रख दी। उसने अन्य तीनों से भी छड़ियॉ ं लेकर एक-एक कर नापा। उसकी आँखों में
चमक आ गई।
उसने उनमें से तीसरे आदमी की ओर संकेत करके कहा, “तुम चोर हो।” उसने विरोध किया।
परन्तु बहुत दे र तक नहीं। बीरबल ने उसे उसकी छड़ी दिखाई। यह अन्य छड़ियों से तीन इंच
छोटी थी। “मैं जानता हूँ तुमने क्या किया। तम
ु डर गये कि सुबह तक छड़ी तीन इंच लम्बी हो
जायेगी, क्योंकि तम
ु अपराधी हो। यह पता न लगे, इसलिए तम
ु ने इसे एक किनारे से तीन इंच
काट दिया। अब यह छोटा है ।”

पुलिस ने उस आदमी के घर से सोने की तीन सिल्लियॉ ं बरामद कीं और उन्हें बज्रीदास को


लौटा दीं। चोर कारागार में डाल दिया गया।
पुलिस अधिकारी दरबार में आया। दरबारियों में बीरबल मौजूद था। अधिकारी ने बादशाह से
कहा कि सोने की चोरी का मामला निबट गया, बाद में यह जोड़ दिया, “बीरबल को धन्यवाद।”

“बीरबल?” बादशाह बीरबल की ओर मुड़।े

“हॉ ं बादशाह!” पलि


ु स अधिकारी ने तब विस्तार से बताया कि बीरबल ने कैसे अपराध का
अनावरण किया। “बीरबल, तुम्हें जासस
ू बनना चाहिये था।” बादशाह ने अपने हाथ में से कंगन
निकाला और उसे बीरबल को भें ट कर दिया।
105. मँह
ु तोड़ जवाब

बीरबल बादशाह अकबर ने दरबार के दरबारियों में सबसे चतुर था। वह अक्लमन्द,
हाजिरजवाब और तेज था। इसलिए वह बादशाह का प्रिय पात्र बन गया।

कुछ दरबारी बीरबल से जलते थे जिनमें शाही हकीम जालिम खान भी शामिल था। वे ऐसे
हालात पैदा करने की ताक में थे जो बीरबल को शाही दरबार से निकलने के लिए मजबूर कर दे ।
यह मौका उन्हें तुरन्त ही  मिल गया।

बादशाह बीमार पड़ गये। हक़ीम जालिम खान को बल


ु ाया गया। वह महल में जाने को तैयार हो
ही रहा था कि कुछ दरबारी उसके घर पर आ गये।

“मैं जल्दी में हूँ”, हकीम बोला, “बादशाह सलामत बीमार हैं।”

“हम जानते हैं, इसीलिए हम आप से मिलने जल्दी चले आये।” एक दरबारी बोला।

“हमलोगों का समय आ गया है । हम जो कहते हैं, वैसा कीजिये। फिर दे खिये, बीरबल कैसे जान
बचाता फिरे गा!” दस
ू रा दरबारी बोला।

“मैं बीरबल को गड्ढे में गिराने के लिए दनि


ु या के आखिरी छोर तक जा सकता हूँ।” हकीम
खीसें निकालता बोला।

सबसे बढ़
ू ा दरबारी हकीम के पास आकर उसके कान में कुछ बोला। हकीम की आँखें खश
ु ी से
चमक उठीं।

दरबारी विदा लेकर चले गये। हकीम महल की ओर दौड़ा। बादशाह पलंग पर लेटे हुए थे। एक
मोटी कसीदाकारी की हुई रज़ाई से एड़ी से ठुड्डी तक शरीर ठका हुआ था। उनके चेहरे पर बेचैनी
साफ दिखाई पड़ रही थी।
हकीम ने शहनशाह की नाड़ी की जाचँ -परख की और मन में यह निष्कर्ष निकाला कि शहनशाह
की तबीयत कोई खास खराब नहीं है । काफी दे र तक काम करने से थकान भर है और केवल
कुछ दिनों के लिए विश्राम  की जरूरत है । पर उसने बादशाह को यह सब नहीं बताया।

उसने बादशाह से कुछ और कहा, “यह गम्भीर रोग है , आलमपनाह। मेरे पास इसकी सही दवा
है । फिर भी....” यह कह कर हकीम रुक गया। फिर बोला, “इस दवा का असर बहुत जल्दी होगा
यदि इसे सॉढ़ं के दध
ू के  साथ मिला कर लिया जाये।”

“सॉढ़ं का दध
ू ?” बादशाह को यकीन नहीं हुआ।

“हॉ,ं आलमपनाह! कुछ सॉढ़ं दध


ू दे ते हैं, हालांकि इन्हें खोज पाना कठिन है ।” हकीम ने बताया।

ू दे नेवाले सॉढ़ं का पता कौन लगायेगा?” बादशाह ने पछ


“लेकिन दध ू ा।

“मैं समझता हूँ, आलमपनाह, कि इस कार्य के लिए सही व्यक्ति बीरबल है । वह अक्लमन्द है ,
चतरु है और बादशाह को उसने कभी निराश नहीं किया है ।” हकीम ने सलाह दी।

“बीरबल? क्या वह यह काम कर सकता है ?” बादशाह ने नाराज होते हुए पछ


ू ा।

ू दे ने वाले सॉढ़ं का पता लगा सकता है तो वह केवल बीरबल है , आलमपनाह!”


“यदि कोई दध
हकीम ने जोर दे कर कहा। उसने बादशाह को एक सप्ताह तक परू ी तरह विश्राम करने की
ू को सॉढ़ं के दध
सलाह दी। “यदि सम्भव हो सके  तो इस चर्ण ू के साथ दिन में चार बार लेते
रहिये। अन्यथा गाय के दध
ू के साथ ले सकते हैं हालांकि रोग दे र से जायेगा।” हकीम ने एक
नौकर को चर्ण
ू का डिब्बा दिया और बादशाह को सलाम करके  बाहर आ गया।

बीरबल को बल
ु ाया गया। तरु न्त बीरबल बादशाह के कमरे में हाज़िर होकर, “अब आपकी
तबीयत कैसी है , शहनशाह?” बीरबल ने बादशाह को सलाम करके पछ
ू ा।
“मैं ठीक नहीं हूँ बीरबल! हकीम कहता है कि मैं तभी जल्दी चंगा हो सकता हूँ यदि उसकी दवा
को मैं सॉढ़ं के दध
ू के साथ खाऊँ।”

“सॉढ़ं का दध ू दे नेवाले सॉढ़ं के बारे में कभी नहीं सुना!” बीरबल भौचक रह गया।
ू ? मैंने दध

ू दे ने वाले सॉढ़ं दर्ल


“हकीम कहता है कि दध ु भ होते हैं। उसे विश्‍वास है कि ऐसे कुछ सॉढ़ं अवश्य
हैं पर वे कहॉ ं मिल सकते हैं, उसे नहीं मालूम है । वह समझता है कि तुम इस काम को कर
सकते हो और उसका पता  लगा कर सॉढ़ं का दध
ू ला सकते हो।” बादशाह ने बीरबल की ओर
दे खते हुए कहा।

“क्या हकीम ऐसा समझता है कि मैं सॉढ़ं का दध


ू ला सकता हूँ?” बीरबल को उसके विरुद्ध
साजिश का सन्दे ह हुआ। वह अपने सन्दे ह की पुष्टि कर लेना चाहता था।

“निस्सन्दे ह! क्या तम
ु मेरे लिए इतना नहीं कर सकते बीरबल?”

“हुजरू , मैं आप के लिए कुछ भी कर सकता हूँ।” बीरबल ने तरु न्त अपनी अक्ल का घोड़ा
दौड़ाया और कहा, “मैं वही करने जा रहा हूँ इसलिए समय नष्ट करना नहीं चाहता।” इतना कह
कर बीरबल ने झक
ु कर सलाम  किया और बाहर निकल गया।

अब उसे परू ा विश्‍वास हो गया कि हकीम ने उसे फँसाने के लिए फन्दा डाला है । वह घर पहुँचने
तक मार्ग में इसी पर विचार करता रहा और इससे बचने की एक योजना भी बना ली। घर
पहुँचते ही उसने बेटी को  बल
ु ाया जो बहुत अक्लमन्द लड़की थी और उसे अपनी समस्या के
बारे में बताया।

“क्या किसीने सॉढ़ं के दध


ू के बारे में सन
ु ा है ?” उसे आश्‍चर्य हुआ।

“हकीम ने इसके बारे में सन


ु ा है । लेकिन वह इसे नहीं ला सकता;  वह चाहता है कि मैं जल्दी से
इसे ले आऊँ ।” बीरबल बिल्कुल ठण्ढे और स्थिर मन से बोला।
“क्या हकीम आप से नफरत करता है ? क्या वह आप का दश्ु मन है ?” बेटी ने पूछा।

बीरबल ने सिर हिलाया। “मैं तुम्हें बताता हूँ क्या करना है ।” उसने उसके कान में अपनी
योजना समझा दी।

“ओह अप्पाजी, काश! मैं आप के समान बुद्धिमती होती?” वह मुस्कुरा कर बोली।

“तम
ु एक तेज लड़की हो। आज रात में इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए तैयार हो
जाओ।” बीरबल ने अपनी बेटी को प्यार से थपथपाया।

आधी रात जैसे ही होनेवाली थी कि बीरबल की बेटी एक विश्‍वासी सेविका को लेकर नदी की
ओर चल पड़ी। उन दोनों ने कपड़ों की एक गठरी और कपड़ों से, पीट-पीट कर, गन्दगी
निकालने के लिए एक मोटा-सा  डण्डा ले लिया। वे एक ऐसे घाट पर गये जो महल के पास था।
उन्होंने गठरी को पत्थर की सीढ़ियों पर रख दिया। फिर लड़की ने एक-एक कर कपड़े को पानी
में डुबोया, उसे पत्थर पर फैलाया और उसे डण्डे से  पीटना शुरू किया। इससे जोर-जोर से धब-
धब की आवाज आने लगी। साथ ही, लड़की अपनी सेविका से ऊँची आवाज में बातचीत भी
करती रही।

धब-धब और दोनों की बातचीत की आवाज से बादशाह की नींद में खलल पड़ गई। बादशाह का
शयन कक्ष नदी के घाट से लगा हुआ था।

उन्होंने नाराज होकर नौकर को बल


ु ाया। एक रक्षक तरु न्त अन्दर आया। “दे खो, यह कैसी जोर-
जोर से आवाज आ रही है ?” बादशाह ने गस्
ु से में कहा।

रक्षक ने धब-धब की और जोर-जोर से हँसने की आवाज सन


ु ी। उसने सिर हिलाया।

“जाओ, पता करो कौन इस समय कपड़े धो रहा है ? वे क्यों इतना शोर मचा रहे हैं? मैं एक
झपकी भी न ले सका। उन्हें जल्दी भगाओ।” बादशाह ने आग बबल
ू ा होकर हुक्म दिया।
रक्षक बादशाह को सलाम कर घाट पर गया। एक युवती कपड़े धो रही थी। पास में घुटने भर
जल में खड़ी उसकी सेविका कपड़ों को खंगाल रही थी।

“अरी लड़कियो! क्या यह कपड़े धोने का समय है ? दिन में क्यों नहीं धोती?” रक्षक ने भाले को

हवा में उछालते हुए उन्हें डॉटा।

“क्या नदी केवल दिन में बहती है ?” लड़की उस पर हँसती हुई बोली।

“बहस नहीं करो। परे शानी में पड़ जाओगी।” रक्षक ने चेतावनी दी।

“परे शानी? कपड़ों को धोने में मैं कभी परे शानी में नहीं पडूँगी, शहनशाह के राज्य में तो कभी
नहीं। वे इतने निष्पक्ष और इन्साफ पसन्द हैं!” उसने दलील दी।
“तम
ु इतना हल्ला कर रही हो कि बादशाह की नींद में खलल पड़ गई।” रक्षक ऊँची आवाज में
बोला।

“क्या तुम बिना शोर किये कपड़े धो सकते हो?” लड़की मुस्कुराई।

“तम
ु कौन हो?” रक्षक ने क्रोध में आकर पूछा। “एक लड़की।”

“मुझे तुम्हारे बाप को यहॉ ं बुला कर लाना पड़ेगा ताके तुम्हारी खोपड़ी में कुछ अक्ल डाल सके ।
बताओ किस की बेटी हो?”

“अपने बाप की।” पट जवाब आया।

“चुप रहो। मेरे साथ आओ। बादशाह ही तुम्हें ठीक करें गे। जेल के तहखाने में सड़ने के लिए
तैयार रहना।” उसने उसे साथ चलने का संकेत दिया।

लड़की के चेहरे पर भय का कोई चिह्न नहीं था। वह रक्षक के साथ चल पड़ी। शीघ्र ही वे
बादशाह के शयन कक्ष में थे। लड़की बादशाह को झुक कर सलाम करने के बाद मुस्कुराती हुई
खड़ी हो गई।
रक्षक ने बादशाह से कहा कि यह लड़की अपनी सेविका के साथ कपड़े धोती हुई पाई गई।

“रात में कपड़े क्यों धो रही हो?” बादशाह ने तीखी आवाज में पूछा।

“शहनशाह, आज शाम को मेरे पिता ने एक शिशु को जन्म दिया।” उसने कहा।


“बकवास!” बादशाह ने डॉटा।

“शहनशाह, मैं शिशु की सफाई में लगी हुई थी और अपने पिता की सेवा...”

वह बादशाह का गर्जन सुन कर रुक गई। “अपने पिता की सेवा में लगी थी जिसने बच्चे को
जन्म दिया! ठीक है न?” बादशाह कड़क कर बोले।

“जी हॉ ं शहनशाह!”

“और तुम चाहते हो कि मैं विश्‍वास कर लँ ू कि तुम्हारे पिता ने एक बच्चे को जन्म दिया या...”
ं लगी, “तम
उनकी आवाज कॉपने ु बोलने में भूल कर गई? तुम्हारी मॉ ं ने शिशु को जन्म दिया?”

“नहीं शहनशाह, मेरे पिता ने ही शिशु को जन्म दिया।” लड़की के होठों पर मुस्कुराहट आ गई।

“नहीं शहनशाह, मैं आपसे सचाई बयान कर रही हूँ, मैं आपसे सचाई के सिवा और कुछ नहींकह
रही हूँ ।” वह अपनी बात पर अडिग रही।

“क्या हमलोग एक विचित्र समय में नहीं जी रहे हैं?” वह फिर बोली, “मैंने सुना है कि इस दे श
में सॉढ़ं के दध
ू से कुछ रोग जल्दी ठीक हो जाते हैं।” लड़की ने बादशाह की तरफ दे खा।

बादशाह ने संकेत समझ लिया। उन्होंने पूछा, “क्या तुम बीरबल की बेटी हो?” उनकी आवाज
धीमी और शान्त थी।
“हॉ,ं शहनशाह, मुझे खेद है , मैंने आप की नींद में खलल डाल दी। परन्तु, जब सॉढ़ं दध
ू दे ने
लगते हैं और मर्द बच्चे पैदा करने लगते हैं तब रातों को दिन में परिवर्तित करना पड़ता है ,” वह
झुक कर बोली।

“तमु बहुत अक्लमन्द, तेज और होशियार लड़की हो। अपने पिता को बोल दो कि तम ु ने पहले
ही मुझे सॉढ़ं का दध
ू दे दिया है ।” बादशाह ने सोने के मोहरों का एक थैला निकाला और उसके
हाथ में पकड़ा दिया।

वह झुक कर सलाम करके बाहर आ गई। बादशाह अपने आप से बड़बड़ाने लगे, “सॉढ़ं का दध
ू ,
बकवास! जालिम खॉ ं को यह बात कहॉ ं से सूझी? अथवा क्या वह बीरबल को परे शानी में डालने
की कोशिश कर रहा था? कल मैं इसका पता लगाऊँगा।”

अगला दिन हकीम के लिए बड़ा अशभ


ु दिन बन गया।
106. कुएँ में हीरे की अंगूठी

गर्मी के दिन थे। सूर्योदय हो चुका था। सूरज की किरणें आग बरसा रही थीं। कहीं-कहीं पानी के
सोते मात्र दिखायी दे रहे थे। नदियाँ रे त से भरी पड़ी दीख रही थीं। कुएँ सूख गये थे। धूप को सह
न सकने के कारण दिन में गलियॉ ं खाली-खाली दीख रही थीं, क्योंकि लोग बाहर आने से डर रहे
थे।

 
एक दिन सवेरे-सवेरे बादशाह अकबर टहलने निकले। उनके साथ बीरबल सहित कुछ प्रमुख
व्यक्ति भी थे। थोड़ी दे र तक टहलने के बाद बादशाह ने कहा, “इतने सवेरे ही सरू ज आग उगल
रहा है । सबके सब कुएँ सख
ू गये हैं।” यह कहते समय उनकी नज़र पगडंडी के पास ही के एक
कुएँ पर पड़ी। “दे खें तो सही-इसमें पानी है या नहीं”, कहते हुए उन्होंने झक
ु कर कुएँ में दे खा।
बाकी व्यक्तियों ने भी झकु कर दे खा।
 
“पानी की एक भी बँूद नहीं हैं”, लंबी सांस खींचते हुए बादशाह ने कहा।
 
“जब तक बारिश नहीं होगी, तब तक यही स्थिति बनी रहे गी आलमपनाह। कुएँ में कोई चीज़
गिराएँगे और दे खेंगे कि वह चीज़ ज़मीन को छूती है या नहीं। जब पानी हो तो यह जान पाना
संभव नहीं”, कहते हुए बीरबल ने एक छोटा-सा पत्थर उठाया और कुएँ में फेंका। पत्थर की
आवाज़ से लगा कि वह ज़मीन को छू गया।
 
“एक पत्थर के साथ-साथ दस ू रा पत्थर भी फेंकना चाहिए न”, कहते हुए अकबर ने अपनी
उँ गली में से हीरे की अंगूठी निकाली और कुएँ में फेंकी। बीरबल को इसपर बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने कहा, “मानता हूँ कि एक पत्थर को फेंकने के बाद दस ू रा पत्थर भी फेंकना चाहिये। पर
साधारण पत्थर मूल्यवान हीरे के बराबर थोड़े ही हो सकता है ।” बीरबल ने कहा।

बादशाह को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उन्होंने जान लिया कि जल्दबाजी में उनसे यह
गलती हो गयी। वे सोच में पड़ गये। उन्हें लगा कि किसी आदमी को कुएँ में उतरवाकर यह
अंगूठी निकाली जा सकती है । पर अचानक उनके दिमाग में एक विचित्र विचार कौंध उठा।
“बीरबल, किसी आदमी को कुएँ में उतरवाकर अंगूठी को बाहर ले आ सकते हैं, परं तु...” कहते
हुए अकबर रुक गये।
 
“कहिए, जहाँपनाह”, बीरबल सहित सबने पूछा।
 
“कुएँ में उतरे बिना ही क्या कोई अंगूठी को बाहर निकाल सकता है ?” बादशाह ने पूछा।
 
“असंभव”, एक वद्ध ृ प्रमुख ने कहा।
 
“इसका मतलब यह हुआ कि कुएँ में उतरे बिना अंगूठी बाहर निकाली नहीं जा सकती। यही
आप लोग कहना चाहते हैं न?” बादशाह ने पछ ू ा।
 
“हाँ, जहाँपनाह। बेशक निकाली नहीं जा सकतीहै ।” एक और प्रमुख ने कहा।
 
“बीरबल, तुम्हारा क्या विचार है ?” बीरबल की ओर मुड़ते हुए उन्होंने उससे पूछा।
 
“इसी को लेकर मैं सोच रहा हूँ, प्रभु”, कहते हुए बीरबल पगड़ी उतारकर खोपड़ी खुजलाने लगा।
 
“खोपड़ी को खुजलाने मात्र से क्या समस्या सुलझ जायेगी बीरबल”, एक प्रमुख ने व्यंग्य-भरे
स्वर में पूछा।
 
“हाँ, मेरे विषय में ऐसा होता रहता है , शायद आपके विषय में ऐसा होता नहीं होगा”, बीरबल ने
गंभीर स्वर में कहा।
 
“केवल तम्ु हारे ही विषय में ऐसा क्यों होता है ?” उसी प्रमख
ु ने पछ
ू ा।
 
“क्योंकि दिमाग़ है , जो तम
ु में नहीं है । कोई उपाय सूझ नहीं रहा है , इसीलिए मैं खुजला रहा हूँ।
समझे न?” इसपर सबके सब हँस पड़े।
 
“बताया था न, खोपड़ी को खज ु लाने से अवश्य ही उपाय सझ ू ेगा। अब मैं जान गया हूँ कि उस
अंगठ
ू ी को कैसे बाहर निकालँ ”ू , बीरबल ने उत्साह-भरे स्वर में कहा।
 
बादशाह ने उत्कंठा-भरे स्वर में पूछा, “कहो तो सही, कैसे निकालोगे?”

“उसके लिए थोड़ा-सा व़क्त चाहिये जहाँपनाह। मझ


ु े उम्मीद है कि शाम तक यह काम हो
जायेगा। तब तक उचित यही होगा कि अपनी योजना छिपाकर रख।ूँ किसी को नहीं बताऊँ ।”
 
“कहीं धोखे से भरे काम करने पर तल
ु तो नहीं गये?” उसी प्रमुख ने यह कहा, जो पहले बीरबल
के हाथों हँसी का पात्र बना था।
 
“यह तो मेरे स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध है प्रभ।ु जब अंगठ
ू ी को बाहर निकालने के लिए मेरे पास
अच्छा और सही उपाय है , तब भला टे ढ़ा मार्ग क्यों अपनाऊँ”, बीरबल ने विश्वास-भरे स्वर में
कहा।
 
“ठीक है , पर बादशाह से मेरी विनती है कि वे दो सैनिकों को यहाँ तैनात करें तो बेहतर होगा।
क्योंकि किसी पर परू ा विश्वास करना उचित नहीं है ”, उसी प्रमख
ु ने ज़ोर दे ते हुए कहा।
 
“बीरबल पर मुझे पूरा-पूरा विश्वास है । फिर भी, आपकी सलाह को अमल में लाऊँगा।” बादशाह
ने कहा। जाते हुए उन्होंने दो सैनिकों को वहाँ तैनात किया और उनसे यह भी कहकर गये कि वे
दे खते रहें कि कोई भी आदमी कुएँ में न उतरे ।
 
सब लोग चले गये। बीरबल अब अकेला ही रह गया। उसने चारों ओर सरसरी नज़र फैलायी।
दे खा कि थोड़ी ही दरू ी पर एक झोंपड़ी है और उसके बग़ल में ही एक गाय पेड़ के साथ रस्सी से
बंधी हुई है । बीरबल तरु ं त उस झोंपड़ी के पास गया और चिल्लाता हुआ पछ
ू ने लगा, “क्या कोई
अंदर है ?”
 
झुकी कमरवाली एक बूढ़ी औरत बाहर आयी और बाहर खड़े बीरबल को गौर से दे खकर पूछा,
“बेटे, क्या चाहिये? तुम कौन हो?”
 
“माँ जी, मझ ु े एक मठ्ठ
ु ी भर गोबर चाहिये। आप चाहें तो पैसे भी दँ ग
ू ा।” कहते हुए बीरबल ने जेब
से छुट्टे सिक्के निकाले।
 
“इतने छोटे से काम के लिए सिक्कों की क्या ज़रूरत है बेटे। जाकर ले लो। गर्मी बहुत तेज़ है ”,
कहती हुई अंदर चली गयी।
 
बीरबल ने अपने बायें हाथ में मुठ्ठी भर कर गोबर लिया। उसे लेकर कुएँ के पास गया और कुएँ

के अंदर झॉककर दे खा। हीरे की अंगूठी जगमगा रही थी। अंगूठी को निशाना बनाकर उसपर
गोबर फेंका। वह अंगूठी पर जाकर गिरा। अब अंगूठी दिखायी नहीं दे रही थी।

इसके बाद बीरबल ने एक छोटे -से पत्थर को और एक लंबा धागा अपने हाथ में लिया। उसके
बाद उसे पत्थर को धागे से बांध दिया। फिर उसने पत्थर को कुएँ के अंदर के गोबर को निशाना
बनाकर फेंका। अपने इस काम पर बहुत ही खशु होते हुए उसने धागे को कुएँ के बग़ल के एक
पौधे से बाँध दिया।
 
फिर उसने उन सिपाहियों से कहा, “तम
ु इसकी रखवाली करना। शाम को लौटूँगा।” कहकर वह
वहाँ से निकल गया। धूप बड़ी ही कड़ी थी। फिर भी बीरबल को लगा कि यह कड़ी धूप मेरी
योजना के लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगी।
 
सूर्यास्त होने में एक और घंटा बाकी था। बीरबल उस समय कुएँ के पास लौटकर आया। जिस
धागे को उसने पौधे से बांध रखा था, उसे अपने हाथ से बांध लिया और बड़ी ही सावधानी से उस
धागे को कुएँ से बाहर खींचता गया। धागे में बंधा पत्थर और उसके साथ ही धप
ू में उपले की
तरह सूखा गोबर और गोबर के अंदर चिपकी बादशाह की अंगूठी ऊपर आने लगी। बीरबल ने
गोबर के उपले को तोड़कर दे खा। उसमें हीरे की अंगठ
ू ी सरु क्षित थी। उसने अंगठ
ू ी को खब
ू धोया
और उसे अपने कपड़ों में छिपाकर बादशाह के पास गया। जब वह राजभवन पहुँचा तब उस
समय अकबर के साथ कुछ प्रमख ु व्यक्ति भी मौजद ू थे।
 
“शाहं शाह”, कहते हुए उसने झुककर सलाम किया।
 
“अंगठ ू ी ले आये?” अकबर ने पछू ा।
 
“हाँ, ले आया हूँ, लीजिये” कहते हुए उसने हीरे की अंगूठी बादशाह को दी।
 
“इसे कैसे बाहर निकाला?” बादशाह ने पछ ू ा।
 
बीरबल ने सविस्तार विवरण दिया।
 
बीरबल ने सविस्तार विवरण दिया।
 
“वाह, वाह! निस्संदेह ही तम ु सबसे अधिक अ़क्लमंद और दानिशमंद हो।” कहते हुए बादशाह
ने अशर्फि यों से भरी थैली उसे दी।
 
“आप जैसे दयालु और उदात्त गण ु वाले बादशाह ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे।” उसने फिर
बादशाह को एक और बार विनयपर्व
ू क सलाम किया।
107. न्यायपूर्ण फैसला

बादशाह अकबर ने सभा को संबोधित करते हुए पूछा, “हमारी न्याय व्यवस्था ठीक तरह से
काम कर रही है न?”

 
“बहुत ही अच्छी तरह से काम कर रही है शाहं शाह। हमारे न्यायाधीश न्याय शास्त्र में निपुण
हैं। वे ईमानदार हैं, किसी की तरफ़दारी नहीं करते। मुकद्दमों का फ़ैसला वहीं का वहीं करते हैं”,
एक दरबारी ने कहा।
 
“हमारे कानून न्यायपूर्ण हैं। कानून की दृष्टि में सब समान हैं”, एक और दरबारी ने कहा।
 
बाक़ी दरबारियों ने भी इसी अभिप्राय को व्यक्त किया। किन्तु केवल बीरबल चुप रहा। अकबर
ने यह दे खकर उससे पूछा, “क्या तम
ु समझते हो कि हमारे शासन में न्याय व्यवस्था
सन्तोषजनक नहीं है ?” भौंहें चढ़ाते हुए अकबर ने पछ ू ा।
 
“ऐसा समझनेवालों में से नहीं हूँ। परं तु अच्छे कानून और अच्छे न्यायाधीशों के होने मात्र से
हम यह नहीं कह सकते कि न्याय व्यवस्था ठीक तरह से चल रही है ”, बीरबल ने विनयपूर्वक
कहा।
 
इतने में एक सैनिक दरबार में आया। झक ु कर बादशाह को सलाम करते हुए कहा, “एक वद्ध

और एक यव ु क न्याय माँगने के लिए आपके दर्शन करना चाहते हैं।”
 
“ठीक है , उन्हें दरबार में पेश करो”, अकबर ने हुक्म दिया।
 
थोड़ी दे र बाद वह सैनिक एक वद्ध ृ और एक यव ु क को अपने साथ दरबार में ले आया। उस वद्ध

के बाल पक गये थे और उसका चमड़ा झर्रि ु यों से भरा हुआथा । किन्तु उस वद्धृ की आँखें ज्ञान
से प्रज्वलित हो रही थीं। यव
ु क में आत्मविश्वास स्पष्ट दीख रहा था। दोनों ने झकु कर बादशाह
को सलाम किया।
 
“तम
ु दोनों कौन हो? किस काम पर यहाँ आये हो?”, बादशाह अकबर ने पूछा।
 
“शाहं शाह, मेरा नाम अब्दल
ु रहमान है । यव
ु कों को कानन
ू की शिक्षा दे ना मेरा पेशा है । इसके
लिए वे जो रक़म दे ते हैं, उससे अपना जीवन चला रहा हूँ।” वद्ध
ृ ने कहा।

“तो फिर तुम्हें किस बात की तकलीफ़ है ?” अकबर ने पूछा।


 
“प्रमोद बिहारी नामक इस युवक को मैंने कानून की शिक्षा दी। यह जब कानून सीखने मेरे पास
आया तो मैंने उससे साफ़-साफ़ कह दिया कि इसके लिए उसे कितनी रक़म दे नी होगी। हर
महीने के हिसाब से तीन अशर्फ़ि याँ लेता हूँ। एक साल तक यह शिक्षा चालू रहे गी। इसने उस
समय कहा था कि मैं ग़रीब हूँ और यह रक़म दे नहीं पाऊँगा। इसपर दया करके मैंने उससे कहा
कि मैं तुम्हें कानून की शिक्षा दँ ग
ू ा, पर विद्या पूरी करने के बाद जब पहला मुकद्दमा जीतोगे
तब मुझे छत्तीस अशर्फि याँ दोगे। इसने मेरी शर्त मान ली। मैंने उसे कानून पढ़ाया। यह बहुत
ही अ़क्लमंद है , इसलिए इसने कानून की बारीकियों को आसानी से सीख लिया। मुझे पूरा
विश्वास हो गया कि यह युवक भविष्य में उत्तम वकील बनेगा। इसे दे खकर मुझे बहुत गर्व भी
हुआ। मैंने उम्मीद की, पहला मुकद्दमा जीत जाने के बाद यह युवक मेरी रक़म चुकायेगा।”
कहते हुए वद्ध
ृ रुक गया।
 
“अब रक़म दे ने से इनकार कर रहा है । यही न?” बादशाह ने कहा।
 
“नहीं शाहं शाह, यह रक़म चुकाने से इनकार नहीं कर रहा है । कहता है कि पहला मुकद्दमा
जीतने के बाद रक़म चुकाऊँगा। मुझे भय है कि यह कभी भी संभव नहीं होगा”, वद्ध
ृ ने कहा।
 
“क्यों?” बादशाह अकबर ने पूछा।
 
“अब यह वकील का पेशा अपनाना नहीं चाहता।” यह पेशा अपनाने पर ही यह मुकद्दमा लड़
सकता है और जीत सकता है । जीतने पर ही मुझे यह रक़म मिलेगी”, चिंता भरे स्वर में वद्ध
ृ ने
कहा।
 
बादशाह ने युवक की ओर मुड़कर कहा, “क्या इन्होंने तुम्हें कानून की शिक्षा दी?”
 
“हाँ, बादशाह”, युवक ने कहा। “कानून की शिक्षा जब दी जा रही थी तब तुमने कोई रक़म इन्हें
नहीं दी। है न?” अकबर ने पूछा। “हाँ, शाहं शाह”, युवक ने कहा। “अब प्रथम मुकद्दमा जीतकर
इनकी रक़म चुका सकते हो न!” अकबर ने कहा।

“हाँ, रक़म चुका सकता हूँ। पर वकील का पेशा अपनाने का मेरा कोई इरादा नहीं है शाहं शाह”,
युवक ने कहा।
 
“क्यों?” अकबर ने पूछा।
 
“हाल ही में मेरे संपन्न चाचा की मत्ृ यु हो गयी। वे धनाढ्य़ हैं। उनके अनेकों खेत व फलों के
बग़ीचे हैं। उनकी कोई संतान नहीं। उन्होंने अपनी पूरी जायदाद मेरे नाम कर दी। अब मैं बहुत
बड़ा धनवान हूँ। वकील का काम करने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं। मैं अपने चाचा की जायदाद
संभालना चाहता हूँ”, यव
ु क ने स्पष्ट रूप से कारण बताया।
 
“इसका यह मतलब हुआ कि प्रथम मुकद्दमा जीतने पर ही तुम अपने गुरु को रक़म चुकाओगे”,
अकबर ने कहा।
 
“हमारे बीच में हुआ निर्णय यही है प्रभ,ु ” यव
ु क ने कहा। “क्या यह सच है ?” पछ
ू ते हुए बादशाह
वद्ध
ृ की ओर मड ु ।े
 
“हाँ, बादशाह”, वद्धृ ने धीरे -धीरे कहा।
 
“तब इस यव ु क पर हम कैसे कार्रवाई कर सकते हैं? कैसे आपकी मदद कर सकते हैं?” अकबर
के प्रश्नों में उनकी असहायता स्पष्ट दीख रही थी।
 
“शाहं शाह” उस युवक ने कहा।
 
बादशाह ने कहा, “कहो, तम् ु हें क्या कुछ कहना है ?”
 
“मैं जब वकील का पेशा अपनाकर प्रथम मुकद्दमा लडूँगा और जीतँग
ू ा, तब अवश्य ही दस
ू रे ही
क्षण मेरे गुरु को जो रक़म दे नी है , दे दँ ग
ू ा। ये बहुत ही अच्छे व्यक्ति हैं। कानून में निपुण हैं।
इन्हीं की वजह से मैंने कानून संबंधी ज्ञान पाया। मुझे भली भांति मालूम है कि कानून कैसे
काम करता है ?” युवक ने कहा।
 
बादशाह के मन में वद्ध
ृ के प्रति परू ी सहानभ
ु ति
ू थी पर वे वद्ध
ृ की सहायता करने की स्थिति में
नहीं थे। किन्तु वद्ध
ृ को उनकी सहानभ
ू ति
ू नहीं, पैसे चाहिये, सिखायी गयी विद्या का प्रतिफल।
उन्होंने दरबारियों की ओर दे खा।
 
“इस वद्ध ृ को प्रतीक्षा तब तक करनी होगी, जब तक यह युवक मुकद्दमा जीतकर रक़म नहीं
चुकायेगा।” दरबारियों में से सबसे अधिक उम्र के एक वद्ध
ृ ने कहा। “यही न्याय सम्मत है ”,
शेष दरबारियों ने भी उसका समर्थन करते हुए यही कहा।

“युवक ने जो कहा, सच है , अवश्य ही न्याय संगत है । जब तक वह पहला मुकद्दमा नहीं


जीतता, तब तक रक़म चुकाने की ज़रूरत नहीं।” बीरबल ने युवक की ओर हँसते हुए दे खकर
कहा।
 
युवक भी हँस पड़ा। वद्ध
ृ पूरी उम्मीद लेकर आया था कि उसके साथ न्याय होगा। उसे बादशाह
अवश्य ही उसकी रक़म दिलवायेंगे। पर उसकी आशा निराशा में बदल गयी।
 
“तुम्हें अवश्य रक़म मिलनी है । परं तु तुम्हारे और युवक के बीच में जो समझौता हुआ है , उसके
अनस
ु ार तब तक तम्
ु हें इंतज़ार करना होगा, जब तक यह पहला मक
ु द्दमा नहीं जीतता।”
बादशाह ने वद्ध
ृ से कहा।
 
बादशाह का निर्णय सुनकर वद्ध
ृ की आँखों में आँसू भर आये। वह कुछ करने या कहने की
स्थिति में नहीं था, इसलिए चुप रह गया।
 
यवु क ने वद्ध
ृ को व्यंग्य भरी दृष्टि से दे खा और फिर बादशाह की ओर मड़
ु कर कहा, “मैं आपका
बहुत कृतज्ञ हूँ प्रभ।ु मझ
ु े पहले ही मालमू था कि प्रभु अवश्य ही न्यायपर्णू फैसला सन
ु ायेंगे।”
 
इसके बाद दोनों ने झुककर बादशाह को सलाम किया और दरबार से बाहर जाने लगे।
 
“एक क्षण”, बीरबल के कंठस्वर को सन ु कर यवु क ने मड़ु कर दे खा। वद्ध
ृ भी खड़ा रह गया।
 
“तमु ने गुरु को वचन दिया था न कि प्रथम मुकद्दमा जीत जाने पर गुरु को जो रक़म चुकानी है ,
चकु ाऊँगा।” बीरबल ने पूछा।
 
“हाँ, अवश्य दँ ग
ू ा। अपना वचन निभाऊँगा”, यव
ु क ने जवाब दिया।
 
“बहुत अच्छा। अभी दरबार में तुम अपने पहले मुकद्दमे में जीत गये। इसीलिए...,” कहता हुआ
बीरबल अचानक रुक गया।
 
यवु क चौंक उठा और ताड़ गया कि गरु
ु को रक़म चक
ु ानी ही होगी। इसके सिवा कोई दस
ू रा
रास्ता ही नहीं। वद्ध
ृ ने बीरबल और बादशाह को कृतज्ञता जतायी।
 
“तमु ने अद्भत
ु फैसला सुनाया बीरबल”, कहते हुए बादशाह ने बीरबल को प्यार से गले लगाया।
108. उल्लओ
ु ं की भाषा

अकबर को दे खते ही बीरबल ताड़ गया कि वे क्या सोच रहे हैं। घुड़सवारी के लिए आवश्यक
पोशाक उन्होंने पहन रखी थी और कालीन पर फैलाये गये तलवारों व भालों को ध्यान मग्न
होकर दे ख रहे थे। बीरबल ने झुककर सलाम किया। चँ कि
ू अकबर की दृष्टि हथियारों पर केंद्रित
थी, इसलिए थोड़ी दे र बाद उन्होंने मन ही मन गुनगुनाते हुए कहा, ?वाह, कितने उम्दे हथियार
हैं !'

 
अकबर को शिकार करना बेहद पसंद था। हिरनों के सिरों से परू े भवन को सजाना उन्हें कितना
ही अच्छा लगता था। किन्तु बीरबल को जंगल में आजादी के साथ विचरते हुए वन्य मग ृ ों का
शिकार करना बिल्कुल ही पसंद नहीं था। वे स्वयं शिकार करने की क्रिया में भाग नहीं लेते थे।
वे इसी बात को लेकर सोचा करते थे कि बादशाह की शिकार करने की आसक्ति को कैसे कम
करूँ। इसके लिए वे कोई मार्ग ढूँढ़ने में लगे हुए थे।
 
“बीरबल, जानते हो, मैं क्या करने जा रहा हूँ”? अकबर ने पूछा। “दस
ू रों के मन को पढ़्रने की
विद्या से मैं अनभिज्ञ हूँ महाराज”, बीरबल ने मुस्कुराते हुए कहा।
 
“मैं जानता हूँ तम
ु यह विद्या बखब ू ी जानते हो। दे खो, कड़ी धप
ू है , ठं डी हवा चल रही है । शिकार
करने के लिए आज का दिन बहुत ही अनक ु ू ल है । कहो, तम्
ु हारा क्या अभिप्राय है ?” अकबर ने
पूछा।
 
“हाँ, प्रभु”, बीरबल ने कहा।
 
“इसका यह मतलब हुआ कि तम ु भी हमारे साथ आ रहे हो।” अकबर ने कहा।
 
“प्रभु की खुशी ही हमारी खुशी है ”, बीरबल ने विनयपूर्वक कहा।

“मझु े मालम
ू है कि तम्
ु हें शिकार से चिढ़्र है , बिल्कुल पसंद नहीं करते। तम ु बहुत ही होशियार
हो। सही मौक़े पर चमत्कार भरी बातें करने में तम ु माहिर हो। किन्तु मैं यह नहीं जानता कि
तुम शारीरिक रूप से बलवान हो या नहीं। तुम हमारे साथ शिकार करने आ जाओगे तो यह भी
मालूम हो जायेगा।” अकबर ने मुस्कुराते हुए कहा।
 
झुककर सलाम करते हुए बीरबल ने कहा, “जैसा आपका हुक्म बादशाह।”
 
बीरबल के साथ अकबर परिवार व सेना सहित शिकार करने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ा ।
नगर पार करने के एक घंटे के बाद वे जंगल में पहुँचे।
 
जंगल में उनके सैनिकों ने तरह-तरह की आवाज़ों से जंगल को प्रतिध्वनित किया और डफले
बजाये, जिससे वन्य मग
ृ भय के बारे अपनी जगह से भागें । पूरा जंगल गँूज उठा। पक्षी उड़े,
झाड़ियों में छिपे खरगोश, हिरण जैसे साधु प्राणी भय के मारे जंगल की ओर भागने लगे। राज
परिवार उनका पीछा करने लगा।
 
ऊँचे पेड़ों से भरे समतल भमि
ू पर बादशाह पहुँचे। दे खा गया कि एक बाघ उनकी ओर बढ़ता
हुआ आ रहा है । उसकी आँखें एकदम लाल हैं। डफलियों की ध्वनियों ने उसे नाराज़ कर दिया
था। हथियारों से लोगों ने जब उसे अचानक घेर लिया तब क्षण भर के लिए वह रुक गया। पीछे
मड़ु कर जाने का मार्ग भी नहीं था। दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए उसने गर्जना की। पंजा
फैलाते हुए, पैने दांतों से भरे मँुह खोले वह अकबर पर टूट पड़नेवाला ही था।
 
अकबर ने भाले को ऊपर उठाया और उसके मँुह को निशाना बनाकर उसे ज़ोर से फेंका। बस,
बाघ के मँह
ु के अंदर भाले के घुस जाने से बाघ ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके मँह
ु से खून लगातार
बहने लगा। बादशाह घोड़े पर से उतरे और म्यान से तलवार निकालकर बाघ की ओर गये। पर
तलवार चलाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़्री, वह बाघ छटपटाता हुआ वहीं मर गया। राजा ने
विजय के उत्साह से पूरित होकर अपना हाथ उठाया। पूरा परिवार आनंद विभोर होकर
चिल्लाया, “अल्लाहो अकबर।”

शाम तक बादशाह ने एक और बाघ को मार डाला। सब लोग आराम करने एक सरोवर के पास
गये। खाना खा चुकने के बाद अकबर ने कहा, “यहाँ की प्रकृति का सौंदर्य मुझे बहुत अच्छा
लगा। यहीं थोड़ी और दे र तक ठहरूँगा।” फिर उन्होंने परिवार को वहाँ से जाने का हुक्म दिया।
उन्होंने बीरबल से पूछा, “क्या तुम मेरे साथ यहीं रह सकते हो?” बीरबल ने झुककर सलाम
करते हुए कहा, “हाँ, अवश्य रहूँगा।”
 
दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये। सर्या
ू स्त होने जा रहा था और अंधेरा भी धीरे -धीरे फैल रहा था।
बीच-बीच में पक्षियों का कलरव भी सन
ु ायी दे रहा था। अब वहाँ का वातावरण प्रशांत और
गंभीर था। थोड़ी़ दे र और बाद उल्लू एक के बाद एक चिल्लाने लगे। अकबर ने इस पर ग़ौर
किया और कहा, “हमें उल्लओ
ु ं की जबान नहीं मालम
ू है । हम नहीं जानते कि वे आपस में क्या
बातें कर रहे हैं। कहीं हमारी हँसी तो उड़ा नहीं रहे हैं।”
 
“मैं उनकी भाषा जानता हूँ प्रभु। क्या मैं बताऊँ कि वे आपस में क्या बातें कर रहे हैं?” बीरबल ने
पूछा।
 
“तो फिर दे री क्यों? उनकी भाषा जानते हो तो बताओ न।” अकबर ने कहा।
 
“प्रभु, वे आपस में दहे ज के बारे में चर्चा कर रहे हैं। वर का बाप ऐसे चालीस जंगलों की माँग कर
रहा है , जहाँ जंतु ही न हों। वधू का बाप उल्लू बता रहा है कि मैं बीस जंगलों को ही दे पाऊँगा”,
बीरबल ने कहा।
 
तब एक उल्लू चिल्ला पड़ा। “तब वधू के पिता ने कहा कि वर का परिवार छे और महीनों तक
प्रतीक्षा कर सके तो और बीस जंगलों को दे पाऊँगा, जहाँ जंतु ही न हों ।” बीरबल ने पन
ु ः कहा।
 
“यह कैसे मुमकिन है ? बीस जंगलों से एक उल्लू मात्र जंतुओं को कैसे भगा दे सकता है ?”
अकबर ने पूछा।
 
“इस आशा को लेकर वह वचन दे पा रहा है कि आप उसकी सहायता करें गे”, बीरबल ने कहा।
 
“तम
ु क्या कह रहे हो?” गरजते हुए कहा अकबर ने।

“प्रभ,ु जब आप एक बार शिकार करने जंगल आते हैं, तब दो-तीन जंगल खाली हो जाते हैं। यह
उनका कहना है । अगले छे महीनों में आप कम से कम बीस बार शिकार करने यहाँ पधारें गे।
इसी आशा को लेकर बधू का बाप वचन दे रहा है ”, बीरबल ने कहा।
 
इस बात पर अकबर थोड़ी दे र तक मौन रह गया और फिर कहा, “तुमने बहुत ही खूब बताया
बीरबल। तुमने मेरी आँखें खोल दीं। जंतु, पेड़-पौधे न हों तो जंगल ही नहीं रहें गे। वन्य मग
ृ ों का
शिकार करके मैं कितनी बड़ी ग़लती कर रहा हूँ। समझ गया। तुम्हें वचन दे ता हूँ कि आगे से
शिकार करने जंगल नहीं आऊँगा।” अकबर ने सोचते हुए कहा।
 
बीरबल को विश्वास ही नहीं हुआ। उसने सोचा तक नहीं था कि इतनी जल्दी अकबर बादशाह में
इतना बड़ा परिवर्तन आयेगा। परं तु वह कुछ कहे बिना चुप रहा।
 
“उल्लू अब क्या बता रहा है ?” अकबर ने हँसते हुए पूछा।
 
“वधू का बाप कह रहा है , चँ कि
ू बादशाह आगे से शिकार नहीं करें गे, इसलिए तम
ु जो जंगल
माँग रहे हो, वह नहीं दे सकता”, बीरबल ने कहा। “बहुत खूब”! कहते हुए बादशाह जोर से हँस
पड़े।
109. सत्य की शिनाख़्त

बादशाह अकबर के पास फैसले के लिए अनेक विवाद लाये जाते थे। एक दिन, जब वे दरबार
कर हे थे, एक व्यापारी ने दरबार में आकर बादशाह को झक
ु कर सलाम किया और उनकी
इजाज़त का इन्तजार करने लगा।

जब बादशाह ने उसकी तरफ दे खा, तब व्यापारी बोला, “शहनशाह! मैं मधुसूदन पाण्डे हूँ और
घी का व्यापार करता हूँ। एक महीना पहले, मेरा दोस्त असलम खान, जो मेरे समान ही घी का
व्यापार करता है , मेरे पास आया और उसने मझ ं उसने 15 दिनों के
ु से 20 मोहरों का कर्ज मॉगा।
अन्दर इसे वापस करने का वादा किया। किन्तु उसने यह कर्ज अभी तक वापस नहीं किया।”

“क्या तम ं
ु ने यह रकम उससे वापस मॉगी?” बादशाह ने पछ
ू ा।

ं है । उसने ऋृण चक
“आलमपनाह! मैंने अनेक बार मॉगा ु ाने के लिए अधिक दिनों की मॉगं की।
आज उसने ऋण दे ने से इनकार करते हुए कहा कि उसने मझ
ु से कभी कर्ज लिया ही नहीं। उसने
बल्कि यह दलील दी कि उसे कभी भी किसी से कर्ज लेने की जरूरत नहीं पड़ी।” व्यापारी ने
अपनी बात स्पष्ट की।

“क्या तम
ु ने, जो रकम दी, उसकी रसीद ली?” बादशाह ने पछ
ू ा।

“नहीं आलमपनाह! मैंने उस पर विश्वास किया।

“तो यह उसके खिलाफ तम्


ु हारा बयान है ?” बादशाह की आवाज तेज और तीखी थी।

“शहनशाह! मैं सच बयान कर रहा हूँ।” व्यापारी ने झुक कर कहा।

“यदि तम
ु सच बोलते हो तो तुम्हारा पैसा वापस मिल जायेगा।” बादशाह ने व्यापारी को जाने
का संकेत किया।
बादशाह बीरबल की तरफ मुड़ा। “क्या आप इस मामले की तहकिकात करें गे?”

शाम को बीरबल ने मधुसूदन पाण्डे को बल


ु ाया और अपनी शिकायत को दहु राने के लिए कहा।

“पैसे-कौड़ी के मामले में लिखित सबूत लेना बुद्धिमानी कहलाती है ।” बीरबल ने कहा।

“मैं असलम खान को 20 वर्षों से जानता था। इसलिए मैंने उस पर विश्वास किया।” मधुसूदन
पाण्डे ने कहा, “कृपया कर्ज वापस दिला दें ।”

बीरबल ने उसे यह आश्वासन दे कर भेज दिया कि उसके साथ न्याय किया जायेगा।

बीरबल ने असलम खान को बल


ु ाया। अच्छी पोशाक पहने एक ऊँचे कद का व्यक्ति अन्दर
आया। “मैं असलम खान हूँ। मैं आप की क्या खिदमत कर सकता हूँ, हुजूर?”

“आप को बल
ु ाया, इस असुविधा के लिए खेद है ।” बीरबल ने विनम्रता और शिष्टता के साथ
कहा, “मुझे आप के खिलाफ एक शिकायत मिली है ।”

“मेरे खिलाफ? बीरबल जी! मैंने कभी किसी को शिकायत का कोई मौका नहीं दिया। मैं एक
ईमानदार इनसान हूँ। एक बार भी मैंने कोई अपराध नहीं किया है ।” असलम खान ने इस
प्रकार व्यवहार किया मानो उसे आश्चर्य हो रहा हो।

बीरबल ने मधस
ु द
ू न पाण्डे की शिकायत के कागजात निकाले और असलम खान की ओर बढ़ा
दिये।

“मैं पाण्डे जी से कर्ज क्यों लँ ग


ू ा? मेरे पास काफी जमीन जायदाद है । मेरा अपना घर है । मैं
व्यापार से अच्छा खासा कमा लेता हूँ। इसलिए मैं कर्ज क्यों लँ ग
ू ा? पाण्डे जी झठ
ू बोल रहे हैं।”
असलम खान बीरबल की आरे मड़ ु ा।
“हो सकता है ।” बीरबल ने अपनी ठुड्डी खुजलायी। बीरबल ने असलम को ध्यान से दे खा जैसे
उसके मन को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। “तो उसके खिलाफ तुम्हारा यह बयान है !”

“अल्लाह ने मुझे काफी दिया है । मुझे किसी से कर्ज लेने की जरूरत नहीं है ।” असलम खान ने
अपना बयान दहु राया।

“ठीक है !” बीरबल ने तुरन्त विषय को इस प्रकार बदल दिया मानो उसे कोई जरूरी काम की
याद आ गई हो । उसने असलम खान से कहा, “क्या तुम मेरी एक मदद करोगे?”

“आप हुक्म दीजिये, बीरबल जी,” असलम खान मुस्कुरा कर बोला।

“एक महीना पहले, मैंने अपने गॉवं के एक दोस्त से शुद्ध घी का एक टिन मँगवाया था। उसने
दो भेज दिये। मैं दस
ू रे टिन का क्या करूँ? मैं उसे रखना नहीं चाहता, क्योंकि घी ताजा रहने पर
ही स्वादिष्ट लगता है ।” बीरबल असलम खान के जवाब का इन्तजार करने लगा।

“मैं उसे आप की खातिर बेच सकता हूँ और नकद भेज सकता हूँ,” असलम बोला।

“शुक्रिया! मैं कल तुम्हारे पास टिन भेज दँ ग


ू ा।” बीरबल ने कह कर वापस भेज दिया।

दस
ू रे दिन बीरबल मधस ु द
ू न पाण्डे से मिला। “पाण्डे जी, मैं आप से एक मदद, चाहता हूँ। एक
ू मैंने अपने गॉवं के एक दोस्त से शद्ध
महीना पर्व ु घी का एक टिन मंगवाया था। उसने दो भेज
दिये। मैं दस
ू रे टिन का क्या करूँ? मैं उसे रखना नहीं चाहता, क्योंकि घी ताजा हो तभी स्वादिष्ट
रहता है ।

क्या आप इसे मेरी तरफ से बेच सकते हैं?” बीरबल ने पूछा।

“क्यों नहीं? क्या मैं आकर टिन ले लँ ?ू ”


“नहीं, दोपहर के बाद मेरा आदमी छोड़ जायेगा।” बीरबल ने धन्यवाद दे कर मधुसूदन पाण्डे से
विदा ली।

उसी दिन दोपहर को दोनों व्यापारियों के पास घी का एक-एक टिन पहुँचा दिया गया।


बीरबल पौधों में जब पानी डाल रहा था, तभी मधुसूदन पाण्डे हॉफता हुआ अन्दर आयाऔर
बीरबल को अभिवादन करके कहा, “मुझे टिन के अन्दर एक स्वर्ण मुद्रा मिली। और घी के पैसे
ये रहे ।”

“आह! घी में सोने का मोहर! आज मेरे लिए शभ


ु दिन लगता है !” बीरबल दिल खोल कर हँसा।

“बीरबल जी, मेरी शिकायत का क्या हुआ?” व्यापारी सकुचाता हुआ धीरे से बोला।


“मैं जॉच-पड़ताल कर रहा हूँ। मुझे कल तक समय दीजिये।”

दस
ू रे दिन सुबह असलम खान बीरबल के पास आया। “हुजूर! ये रहे घी के पैसे!” असलम ने
बीरबल को पैसे सौंपते हुए कहा।

“धन्यवाद”, बीरबल खीस निकालता हुआ बोला, “अरे , मैं तो भूल ही गया! मैं अभी आया!”
बीरबल यह कहकर दौड़ कर सीढ़ियों से उतर कर अन्दर गया। असलम खान बरामदे में
इन्तजार करता रहा और काफी खुश और सन्तुष्ट दिखाई पड़ा। बीरबल अन्दर अपने नौकर से
कुछ कह रहा था, जो वह सुन नहीं सका। यदि वह सुन पाता तो वह इतना आत्म सन्तुष्ट और
आत्मविश्वास से भरा खश
ु दिखाई नहीं पड़ता।

“असलम के घर पर जाओ और उसके बेटे को कहो कि तुम्हारा पिता सोने का वह मोहर मॉगं
रहा है जो घी के टिन में मिला है ।” बीरबल अपने नौकर से कह रहा था।

नौकर दौड़ता हुआ असलम के घर चला गया। बीरबल असलम से आ मिला और उसे बातचीत
में लगाये रखा। शीघ्र ही नौकर असलम के दस साल के बेटे को लेकर आ गया। बेटा हाथ में
सोने का मोहर लिये असलम के पास जाकर बोला, “ये लो अब्बा जी। घी के टिन में जो सोने की
अशर्फी मिली है ।”


“बेवकूफ! घी के टिन में सोने की अशर्फी किसी ने सुना है ?” असलम ने धीमे से बेटे को डॉटा।

“अब्बा जी, जब घी को गर्म किया और दस


ू रे बर्तन में पलटा...”

“मैं झुका और मेरे कपड़ों के तह में से सोने का एक मोहर गिरा।” असलम ने आँखें दिखा कर
बेटे को चुप कर दिया और बीरबल की ओर मुड़ कर यह दलील दी।

“असलम खान, तुम्हारे बेटे ने सच कहा, क्योंकि मैंने ही टिन में सोने की मोहर डाल दी थी।”
बीरबल ने धीमी आवाज में कहा।

असलम खान पीला पड़ गया। लेकिन अपने भय को छिपाता हुआ बीरबल का हाथ अपने हाथ
में लेकर बोला, “ओह! मैंने सोचा कि मोहर मेरे कपड़ों के तह से गिरी। शायद मैंने गलती से यह
समझ लिया। यह रहा सिक्का। ले लीजिये।”

“लेकिन मेरे दोस्त! उन 20 मोहरों का क्या हुआ जो तुमने मधुसूदन पाण्डे से उधार लिये थे।”

“मैंने कोई ऋण उससे नहीं लिया।” असलम ने कहा। “यह झूठ है । अभी सच उगल दो या जेल
की हवा खाओ।” बीरबल आग बबूला होकर बोला।

असलम समझ गया कि खेल खत्म हो चुका है । “मुझे खेद है , हुजूर। मैं मधुसूदन पाण्डे को
ू ा।” वह बीरबल के पॉवं पकड़ कर माफी मॉगने
मोहरें लौटा दँ ग ं लगा।
110. उलटे , मँह
ु के बल गिरा

अकबर के दरबार के कुछ कर्मचारी बीरबल से जलते थे। सबको मालूम था कि बीरबल बहुत ही
अ़क्लमंद है । अकबर जब भी कठिन समस्याओं का सामना करते थेतब वही उनके परिष्कार
का सरल मार्ग सुझाता था। बादशाह के प्रीति-पात्र होने से उसे मूल्यवान भें टें दी जाती थीं।

 
यह सब दे खते हुए कई दरबारी ईर्ष्या से जल उठते थे। एक दिन वे सब एक जगह पर इकट्ठे हो
गये और आपस में चर्चा करने लगे कि बीरबल को कैसे नीचा दिखायें। इस विषय को लेकर
कुछ दरबारियों ने उपाय सझ
ु ाये। अंत में दाऊद नामक एक बड़े अधिकारी ने कहा कि इसके
लिए उसके पास एक बहुत अच्छा उपाय है । बाकी दरबारियों ने इस उपाय के बारे में पछ ू ा।
दाऊद ने उनसे कहा कि बादशाह के मन में उसके विरुद्ध संदेह उत्प करना चाहिये।
 
एक ने पूछा, “क्या बादशाह तुम्हारी बातों का विश्वास करें गे?”
 
“विश्वास अवश्य करें गे। दे खते जाइये।” दाऊद ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
 
दरबारी बहुत ही खश ु हो उठे । वे उससे कहने लगे, “अ़क्लमंदी में तुम बीरबल से कुछ कम नहीं
हो। इस योजना को कार्यान्वित कर सकोगे तो बादशाह मान जायेंगे कि तुम बीरबल से अधिक
अ़क्लमंद हो। हम तुम्हारी इ़ज़्जत करें गे और तम
ु बादशाह के प्रीतिपात्र अवश्य बनोगे।” उस
दरबारी की बातों का सबने समर्थन किया ।
 
दाऊद ने कुछ सोचकर कहा, “तब तम ु लोगों को एक काम करना होगा।”
 
कर्मचारियों ने उत्साह-भरे स्वर में पूछा, “वह क्या है ?” “कल तम
ु लोग हमेशा की तरह दरबार
में आओ और अपने-अपने आसनों पर आसीन हो जाना। बादशाह जब आयेंगे तब दे खेंगे कि मैं
अपनी जगह पर नहीं हूँ।

तब वे मेरे बारे में तम


ु लोगों से पछ
ू ें गे। तब उनसे कहो, ?दाऊद ने एक अनचि
ु त अपराध दे खा,
जिसे दे खकर उसका मन घायल हो गया। इसी वजह से दे री से आने की उसने अनम
ु ति माँगी।'
इसके बाद मैं दरबार में आऊँगा और उस घोर अपराध के बारे में विशद रूप से बताऊँगा। फिर
दे खते जाना बीरबल पर क्या बीतता है ।” दाऊद ने कहा।
 
सबने “हाँ, हाँ” कहते हुए सिर हिलाया। वे दे र तक बातें करते रहे , फिर अपने-अपने घर चले
गये।
 
दसू रे दिन बीरबल सहित सभी दरबारी और कर्मचारी दरबार में उपस्थित हुए। केवल दाऊद
नहीं आया।
 
बादशाह के आते ही सबके सब उठकर खड़्रे हो गये। बादशाह मस्
ु कुराते हुए सिंहासन पर आसीन
हुए। दो यव
ु तियाँ सिंहासन के दोनों ओर खड़्रे होकर चंवर डुलाने लगीं।
 
बादशाह ने पूरे दरबार पर सरसरी नज़र डाली। दरबार में बैठा अधेड़ उम्र का एक दरबारी उठकर
खड़ा हो गया। बादशाह ने उससे पूछा, “क्या तुम्हें कुछ कहना है ?”
 
दरबारी ने झक
ु कर सलाम करते हुए कहा, “दाऊदजी ने कहला भेजा है कि उनके आने में दे री
होगी।”
 
“इसकी वजह?” अपनी आवाज़ ऊँची करते हुए बादशाह ने पूछा। “उन्होंने कोई घोर अपराध
होते हुए दे खा। बादशाह के दरबार के एक प्रमुख व्यक्ति ने यह अपराध किया।
 
उन्होंने खद ु यह दे खा और वे निश्चेष्ट रह गये। उस स्थिति से बाहर आकर दरबार में दे री से
आने की अनम ु ति माँगी है उन्होंने प्रभ।ु ” उस दरबारी ने कहा।
 
जैसे ही बादशाह ने सुना कि दरबार के एक प्रमुख व्यक्ति ने घोर अपराध किया, वे अशांत हो
उठे । दरबार में चुप्पी छा गयी। थोड़ी ही दे र बाद दाऊद के आने की आहट सुनायी पड़ी। बादशाह
ने उसे ग़ौर से दे खा। दाऊद ने सलाम किया।
 
“मैंने सन
ु ा कि तमु ने कोई घोर अपराध होते हुए दे खा,” बादशाह ने पछ
ू ा।
 
“हाँ, शाहं शाह”, दाऊद ने कहा।
 
“यह भी सन ु ा कि दरबार के किसी प्रमख
ु व्यक्ति ने ही यह घोर अपराध किया। क्या यह सच
है ?” बादशाह ने पछ
ू ा।

“हाँ, प्रभु, मैं वह दे खकर स्तंभित रह गया”, दाऊद ने कहा।


 
“बोलो, वह अपराधी कौन है ?” बादशाह ने क्रोध भरे स्वर में सिंहासन पर से उठते हुए पछ
ू ा।
 
“शाहं शाह, उस घटना को भुलाना ही अच्छा होगा। अपने सहकर्मचारी के बारे में बुरा कहा नहीं
जा रहा है ।” दाऊद ने दःु ख का नाटक करते हुए कहा।
 
“कोई भी कानून के परे नहीं है । बोलो, वह अपराधी कौन है ?” बादशाह ने पूछा।
 
“कोई और नहीं शाहं शाह। स्वयं बीरबल हैं”, दाऊद ने कहा। दरबार में उपस्थित सबकी आँखें
बीरबल की ओर मुड़ीं ।
 
सब यह जानने के लिए आतरु थे कि इस आरोप को दाऊद कैसे साबित करें गे।
 
“बीरबल!” बादशाह ने आश्चर्य-भरे स्वर में पूछा। उस स्वर से स्पष्ट लग रहा था कि बादशाह
को इसपर विश्वास नहीं हो रहा है ।
 
“हाँ, शाहं शाह, मैं कल शाम को घर लौट रहा था तब मैंने अपनी आँखों से दे खा कि सड़क के
किनारे पड़े सोने के एक हार को बीरबल ने उठाया। उन्होंने उसे अपने कपड़ों में छिपा लिया और
तेज़ी से वहाँ से चले गये। थोड़ी दे र बाद एक यव
ु क वहाँ आया और पछ
ू ने लगा, ?क्या किसी ने
मेरा हार दे खा? वह सोने का हार है । रास्ते में यहीं कहीं गिर गया।' मैं उस यव
ु क के बारे में और
विवरण पछ ू ने ही वाला था, पर वह वहाँ से चला गया।” दाऊद बोला।
 
“बीरबल”, बादशाह ने कठोर स्वर में बुलाया।
 
“हाँ, प्रभ”ु , बीरबल खड़ा हो गया।
 
“क्या यह सच है ?” बादशाह ने पूछा।
 
“नहीं प्रभ”ु , बीरबल ने कहा।
 
“शाहं शाह, शायद उस आदमी को पहचानने में मुझी से ग़लती हुई होगी”, दाऊद ने दया का
अभिनय करते हुए कहा।
 
“तो यह कैसे साबित कर सकते हो कि बीरबल निरपराधी है ।” बादशाह ने सफ़ाई माँगी।
 
“शाहं शाह, आप माफ़ करें गे तो यह साबित करने के लिए कि बीरबल निरपराधी है या नहीं, एक
परीक्षा है ।”
 
“वह परीक्षा क्या है ?”, बादशाह ने पछ
ू ा।
 
“मैं जलती हुई एक लाल सलाख लेकर आऊँगा। बीरबल उसे अपने हाथों में ले लें। अगर उनके
हाथ नहीं जलेंतो यह साबित हो जायेगा कि वे निरपराधी हैं।” दाऊद ने कहा।

“हाँ, तम
ु ने सच कहा,” फिर बीरबल की ओर मड़
ु ते हुए बादशाह ने कहा, “तम
ु पर यह आरोप है ।
तम्
ु हें साबित करना होगा कि यह आरोप झठ
ू ा है । कानन
ू के सामने सब समान हैं न?”
 
“हाँ, प्रभु”। बीरबल को लगा कि वह बहुत बड़ी आफ़त में फंस गया। फिर भी, उसने फ़ौरन कहा,
“मेरे आदरणीय सहकर्मचारी जो भी परीक्षा लेंगे, उसके लिए मैं सद्ध हूँ। किन्तु...” बीरबल
कहता हुआ रुक गया।
 
“कहो, क्या कहना है ?” अकबर ने पछ
ू ा।
 
“दाऊद का कहना है कि वे सच कह रहे हैं। मैं उनका विश्वास करता हूँ। पर मैं समझता हूँ कि, वे
अपनी सच्चाई का सबूत दें तो बेहतर होगा। उन्हें सिर्फ इतना ही करना होगा। वे जलती हुई
सलाख को अपने खाली हाथों में लें और मेरे हाथों में रख दें ।” इतना कहकर बीरबल रुक गया।
 
दाऊद घायल कुत्ते की तरह चिल्ला पड़ा, “यह मम ु किन नहीं, मम ु किन नहीं।” वह ताड़ गया
कि उसने बीरबल पर जो प्रहार किया, वह उलटे उसी पर प्रयोग कर रहा है ।
 
डर के मारे दाऊद कांपने लगा और कहने लगा, “शाहं शाह, मुझे माफ़ कर दीजिये। मैंने जिस
आदमी को दे खा, वह बीरबल नहीं था। वह आदमी इनसे थोड़े ऊँचे क़द का था। पहचानने में
मुझसे भूल हो गयी। बीरबल भला ऐसे ओछे काम करने पर कैसे तल
ु जायेंगे।” कहते हुए उसने
बादशाह के सामने घुटने टे के।
 
“इस अधम और झठ ू े आदमी को ले जाकर जेल में बंद कर दो। मैं फिर सोचँ ग
ू ा कि इसे कैसी
सज़ा दे नी है ”, अकबर ने हुक्म दिया और बीरबल की ओर मड़ ु कर कहा, “क्षण भर के लिए
उसकी बातों में आकर मेरी मति भ्रष्ट हो गयी, मुझे माफ़ कर दो बीरबल।”
 
“प्रभु, मैं सदा आपका ईमानदार और विश्वासपात्र हूँ और यह मेरा सौभाग्य है ।” बीरबल ने
झुककर सलाम करते हुए कहा।
111. धूप-छाँव

उस दिन अकबर बादशाह चिंताग्रस्त थे। वे बहुत ही नाराज़ दिखायी दे रहे थे। बीरबल ने उनकी
चिंता को दरू करने के उद्देश्य से कहा, “आपका इस प्रकार से असंतुष्ट व क्रोधित दीखना अच्छा
नहीं लगता, आपको शोभा नहीं दे ता।” धीमे स्वर में बीरबल ने कहा।
 
“कब स्वाभाविक रहना है और कब अस्वाभाविक। कब हँसना है और कब नहीं, यह हमें भली-
भांति मालूम है । यह मत भूलना कि हम बादशाह हैं। हम जो चाहते हैं, करके रहें गे। तुम्हें सलाह
दे ने की कोई ज़रूरत नहीं है ”, अकबर ने क्रोध भरे स्वर में कहा।
 
“क्रोध के कारण आपका मुख विकृत लगता है , भद्दा लगता है । बिल्कुल ही अस्वाभाविक लगता
है जहाँपनाह”, बीरबल ने कहा।
 
“क्या कहा? मेरा मखु विकृत लगता है , भद्दा लगता है ? मेरे ही सामने मेरी अवहे लना करने का
तम्
ु हारा यह साहस!” और नाराज़ होते हुए अकबर ने कहा।
 
“मेरे कहने का यह मतलब नहीं है प्रभु!” बीरबल कुछ और कहने ही वाला था, अकबर ने कहा,
“तुम्हें और कहने की कोई ज़रूरत नहीं है । मेरे सामने से निकल जाओ। आगे से कभी भी अपनी
सूरत मुझे मत दिखाना”, अकबर ने हुक्म दिया।
 
बीरबल कुछ कहे बिना वहाँ से चला गया। “थोड़ा सा मँह
ु क्या लगाया, सिर पर चढ़कर बैठ जाते
हैं”, अकबर अंदर ही अंदर बड़बड़ाने लगे और दिन भर चप
ु ही रहे । उनके मख
ु पर नाराज़ी ही
नाराज़ी थी।
 
दसू रे दिन जब अकबर दरबार में आये, तब बीरबल के सिवा सब सभिक उपस्थित थे। उसके
आसन को खाली दे खकर उन्होंने पूछा, “बीरबल कहाँ है ?”
 
“प्रभ,ु वे कह रहे थे कि आप उनसे बहुत नाराज़ हैं, यहाँ से चले जाने की आपने आज्ञा दी और
“उनके आज्ञानस
ु ार शहर छोड़कर जा रहा हूँ।” एक अधिकारी ने कहा।

तब अकबर को कल के वाद-विवाद की याद आयी। वे सोच में पड़ गये। यह सच है कि वे कल


बहुत ही नाराज़ थे। यह भी सच है कि बीरबल को वहाँ से चले जाने की आज्ञा दी। उन्हें उस क्षण
लगा कि बीरबल का अपमान करके उन्होंने गलती की। इतनी कठोरता से उनसे पेश आना नहीं
चाहिये था। इससे बीरबल के मन को ठे स लगी होगी, इसीलिए वे चले गये होंगे। उनके हृदय में
बीरबल के प्रति सहानुभूति और दया उभर आयी।
 
कभी-कभी ऐसी घटनाएँ अनायास ही घट जाती हैं। कल ऐसी ही घटना घटी। बीरबल किसी से
कुछ कहे बिना कहीं चला गया। दिन गज़
ु रते गये, पर उसका पता नहीं लगा। उसके बिना
दरबार बहुत ही खाली-खाली लगा रहा था। अकबर से रहा नहीं गया। उन्होंने सैनिकों को
भेजकर बहुत ढुँढवाया। पर मालम
ू नहीं हो पाया कि बीरबल कहाँ है । अकबर चाहते थे कि कुछ
भी हो, बीरबल का पता लगायें और उसे ले आयें।
 
एक दिन उन्होंने मंत्रियों से कहा, “राज्य भर में मुनादी पिटवाइये कि कड़ी धूप में जो आदमी
बिना छतरी के राजमार्ग पर चलता हुआ आये, उसे सौ अशर्फि याँ भें ट स्वरूप दी जायेंगी।”
 
“यह तो असंभव है प्रभ।ु बिना छतरी के कड़ी धप
ू में चले आना किससे संभव हो सकता है ?”
एक वद्ध
ृ प्रमख
ु ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
 
“ऐसी बात है ! फिर भी घोषणा करवाइये। ऐसा करने से नुक़सान थोड़े ही होनेवाला है ” बादशाह
ने उलटे सवाल किया।
 
मंत्री और कुछ बोल नहीं सके। उन्होंने बादशाह के हुक्म का पालन किया।
 
यह घोषणा सुनकर लोग इसपर तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने लगे। वे एक-दस ू रे से कहने
लगे, “शासकों की चाहें विचित्र होती हैं।”
 
कुग्राम का एक ग़रीब आदमी इस घोषणा को सन ु कर कहने लगा, “कड़ी धप
ू में बिना छतरी के
चलने से सौ अशर्फि याँ मिलेंगी”, वह मन ही मन इसी बात को दोहराता हुआ घर पहुँचा। उसने
अब तक एक अशर्फी भी नहीं दे खी। राजा का कहा अगर वह कर पाये तो उसकी ग़रीबी दरू हो
जायेगी और उसकी सभी ज़रूरतें पूरी हो जायेंगी। उसने पत्नी से यह बात बतायी।

“हाल ही में आये हमारे पड़ोसी वीरें द्र से सलाह क्यों नहीं लेते? बहुत ही अ़क्लमंद लगते हैं”,
पत्नी ने उपाय सुझाया।
 
“अगर उसे यह मालूम हो तो वे खुद चलकर जा सकते हैं और इस भें ट को पा सकते हैं। फिर भी
तुम्हारी सलाह को अमल में लाऊँगा”, कहकर वह ग़रीब पड़ोसी वीरें द्र से मिला।
 
वीरें द्र ने यह सुनकर मुस्कुराते हुए कहा, “यह मुश्किल काम नहीं है ।”
 
“क्या तुम जानते हो? यह भला कैसे संभव हो सकता है ? जानते हो तो बताना”, गरीब ने
गिड़गिड़ाते हुए कहा।
 
“सिर पर पलंग रख लो और चलते हुए जाना। धूप में , बिना छतरी के जाओगे तो तम ु धूप से
बच सकते हो, क्योंकि तुम हमेशा पलंग की छाँव में ही रहोगे,” वीरें द्र ने उपाय बताया।
 
“वाह, तुमने कितना अच्छा उपाय बताया। यह उपाय मैं सोच भी नहीं पाया। अभी आगरा जाने
के लिए निकल पडूँगा और बादशाह के दर्शन करूँगा। सौ अशर्फि याँ अब मुझे ही मिलेंगीं।”
ग़रीब ने खश ु होते हुए कहा।
 
ग़रीब तरु ं त निकल पड़्रा और आगरा पहुँच गया। वह बादशाह अकबर से मिला और कहा, “प्रभ,ु
धपू में ही चलकर राजभवन पहुँचा हूँ। छतरी का सहारा लिये बिना यहाँ पहुँच गया हूँ। छांव में
ही चलकर धप ू से एकदम बचकर आया हूँ।”
 
“सबने कहा, यह असंभव काम है । तम ु से यह कैसे संभव हो पाया?” बादशाह ने पूछा।
 
“सिर पर पलंग रख लिया और पैदल चलकर आया हूँ”, ग़रीब ने कहा।
 
“शाबाश, तुम्हें सौ अशर्फि याँ ज़रूर मिलेंगी। यह उपाय तुमने खुद सोचा था या किसी ने
सुझाया?” अकबर ने पूछा।

“वीरें द्र नामक कोई व्यक्ति आगरे से हमारे यहाँ आया और वह हमारा पड़ोसी है । वह बड़ा ही
अ़क्लमंद है । उसी ने मझ
ु े यह उपाय बताया”, ग़रीब ने कहा।
 
अकबर ताड़ गये कि वह आदमी अवश्य बीरबल ही होगा। उन्होंने तुरंत सौ अशर्फि यों की भें ट
गरीब को दीं और कहा, “तुम्हें सुरक्षित घर पहुँचना है , इसलिए दो सैनिकों को तुम्हारे साथ भेज
रहा हूँ। सैनिक जब लौटें गे तब उस पड़ोसी को भी इन सैनिकों के साथ भेजना।”
 
ग़रीब बेहद खश ु होता हुआ सैनिकों के साथ गाँव लौटा।
 
एक हफ्ते के बाद वीरें द्र को लेकर सैनिक राजा के पास आये। उस समय वीरें द्र ने एक तौलिये से
अपना मुख ढक रखा था।
 
“अपने मख
ु को छिपाने के लिए तमु ने तौलिया क्यों बांध रखा?” अकबर ने वीरें द्र से पछ
ू ा।
 
“आपने आज्ञा दी थी कि मैं अपना मुख आपको न दिखाऊँ । राजा की आज्ञा का पालन करना
मेरा कर्तव्य है ”, वीरें द्र ने विनयपूर्वक कहा।
 
“बीरबल, अब मैं तम् ु हारा चेहरा दे खना चाहता हूँ।” कहते हुए अकबर ने उसके मख
ु से तौलिया
निकाला और हँसते हुए उसे प्यार से गले लगाया।
 
112. बच्ची की रुलाई

अकबर बादशाह की प्रशंसा पाने के लिए आस्थान के कुछ कर्मचारी और प्रमुख अक्सर उनकी
तारीफ़ के पल
ु बांधा करते थे। उनका यह बर्ताव बीरबल को विचित्र लगने लगा और सोचने
लगा, ?ये राजकर्मचारी हैं या उनके पालतू कुत्ते?' उससे उनका यह व्यवहार दे खा नहीं गया
और उसने एक दिन उनसे यह कह डाला। राजकर्मचारी और प्रमुख भड़क उठे । उन्होंने नाराज़
होकर कहा, “बीरबल, तम
ु ने हमारा घोर अपमान किया। इसके लिए तुम्हें हमसे माफ़ी माँगनी
होगी। अथवा अपनी बात लौटा लो।”
 
“क्यों?” बीरबल ने पछ
ू ा।
 
“क्योंकि हम कुत्ते नहीं हैं”, राजकर्मचारियों ने कहा। “हाँ, हाँ, मैं यह जानता हूँ”, बीरबल ने
कहा।
 
“तो फिर हमारी तल ु ना कुत्तों से क्यों करते हो?” राजकर्मचारियों ने क्रोध-भरे स्वर में पछ
ू ा।
 
“कुत्तों की पँूछ होती है । वह आपको नहीं है । यजमान को दे खते ही कुत्ते पँूछ हिलाते हैं। राजा
को दे खते ही आप उनकी तारीफ़ करते हुए जीभ हिलाते रहते हैं। बस, यही एकमात्र फर्क है । वे
कोई असंबद्ध बात भी कह दें तो आप लोग, वाह-वाह कहने लगते हैं। उन्हें सातवें आसमान पर
बिठा दे ते हैं।” बीरबल ने कहा।
 
“हम जो चाहें , करें गे। उसपर उं गली उठानेवाले तम
ु कौन होते हो? मानवों को कुत्ते कहना क्या
कहीं उचित है ?” और क्रोधित होते हुए राजकर्मचारियों ने कहा।
 
“मानता हूँ, तुम सब लोग मानव हो, पर तुम्हारी रीढ़ की हड्डी नहीं है ”। बीरबल ने कहा।

“अपनी जीभ काबू में रखो बीरबल”, राजकर्मचारियों ने उसे चेतावनी दी।
 
“आख़िर मैंने क्या कह दिया, जिसपर तुम लोग इतना नाराज़ हो रहे हो। मेरा कहना यही है कि
तुममें हिम्मत नहीं है । यह वास्तविकता है , इसलिए मेरी बात कडुवी लग रही है ”, बीरबल ने
मुस्कुराते हुए कहा।
 
“अच्छा, हमारी बात रहने दो। क्या तम
ु हमसे अधिक साहसी हो?” राजकर्मचारियों ने पछ
ू ा।
 
“निस्संदेह। बताओ, इसे साबित करने के लिए मैं क्या करूँ?” बीरबल ने पूछा।
 
“पहले से ही अनुमति लिये बिना क्या तम
ु बादशाह के बाद दे री से दरबार में आ सकते हो?”
एक कर्मचारी ने पछ
ू ा।
 
बादशाह दरबार में आयें, इसके पहले ही दरबारियों को दरबार में अवश्य उपस्थित रहना
चाहिये, यह कानून अमल में था। दे री से आयें, बिना अनुमति लिये न आयें तो बादशाह उन्हें
कड़ी सज़ा सुनाते थे । यह विषय बीरबल बखूबी जानता था। क्षण भर के लिए उसे डर भी लगा
कि इस अपराध के लिए उसे पता नहीं, क्या सज़ा भुगतनी होगी। किन्तु उसे मालूम था कि
डरनेवाला कुछ नहीं कर सकता। इसलिए वह सोच में पड़ गया कि इस दं ड से कैसे बच निकलँ ।ू
उसने साहस बटोरकर राजकर्मचारियों से कहा, “ठीक है , कल बादशाह जब दरबार में आयेंगे,
तब मैं दरबार में नहीं रहूँगा। पहले से ही अनुमति लिये बिना अनुपस्थित रहूँगा।”
 
दरबारी मन ही मन इस बात पर खश ु होने लगे कि इस बार अवश्य ही बीरबल हार जायेगा और
उसे कड़्री सज़ा मिलेगी। आगे से बादशाह उसकी इज्ज़त भी नहीं करें गे।
 
दसू रे दिन बादशाह जब दरबार में आये तब बीरबल के सिवा बाकी सभी दरबारी मौजूद थे। वे
अपने-अपने आसनों पर बैठे हुए थे। बादशाह के आते ही वे सब उठ खड़े हुए और झुककर उन
सबने उन्हें सलाम किया।
 
बादशाह ने पूरी सभा को सरसरी नज़र से दे खा और कहा, “बीरबल कहाँ है ? क्या किसी के
द्वारा ख़बर भेजी कि वह आ नहीं सकता?”

एक अधिकारी ने कहा, “नहीं प्रभु।” “बिना इज़ाज़त के घर पर ही रह जाने की उसकी यह


हिम्मत ! सिपाही को भेजिये और तुरंत उसे बुलवाइये”, बादशाह ने हुक्म दिया।
 
बीरबल के यहाँ गया हुआ सिपाही एक घंटे के बाद लौट आया और कहा, “प्रभु, बीरबल ने कहला
भेजा है कि बच्ची की रुलाई बन्द हो जाने पर वे अवश्य आयेंगे।”
 
“मेरी ही आज्ञा की उपेक्षा! बच्ची की रुलाई को रोकना क्या इतना कठिन काम है ? मैंने तो
समझ रखा था कि बीरबल अ़क्लमंद है और हर समस्या के परिष्कार को ढूढने ़ में सक्षम है ”,
अकबर ने आवेश-भरे स्वर में कहा।
 
क्षण भर के लिए दरबार में चुप्पी छा गयी। “बीरबल को तुरन्त यहाँ हाज़िर किया जाये। आने
से इनकार कर दें तो उनके हाथ-पैर बांधकर ले आना”, बादशाह ने हुक्म दिया।
 
थोड़ी दे र बाद वहाँ आये बीरबल को बादशाह ने नख से शिख तक गौर से दे खा।
 
“बादशाह माफ़ करें । हमारी तीन साल की बेटी सबेरे से लेकर रो रही है । चुप होने का नाम ही
नहीं ले रही है । इसी वजह से मैं नहीं आ पाया। अब भी वह रो रही है ।” बीरबलने कहा।
 
“तम
ु जैसे अ़क्लमंद आदमी को बच्ची को चुप करना, उसे रोने से रोकना क्या कोई बड़ी बात
है ?” व्यंग्य-भरे स्वर में बादशाह ने पूछा। सभी सभिकों को लगा कि बीरबल फंदे में फंस गया
और इससे बाहर निकल नहीं पायेगा। वे एक-दस ू रे को दे खने लगे और मुस्कुराने लगे।
 
“वहाँ की हालत का बयान करूँगा तो मेरी स्थिति का आप अंदाजा लगा सकेंगे।” धीमे स्वर में
बीरबल ने कहा। अकबर ने आतरु ता भरे स्वर में कहा, “बताओ।”
 
“बच्ची गाश्ना माँगने लगी और रोने लगी। मैंने लाकर दिया, फिर भी वह रोती रही। मैंने पूछा,
“कहो, तुम्हें और क्या चाहिये?” उसने गे का रस माँगा। गे का रस निचोड़कर मैंने उसे एक
गिलास में दिया। उसने गिलास ज़मीन पर पटक दिया और कहा, “उस रस को गिलास में
भरकर दो।” “जो रस ज़मीन पर था, उसे भला फिर से कैसे गिलास में भर सकता हूँ? इसीलिए
दरबार में समय पर नहीं आ सका”, बीरबल ने कहा।

“बच्ची की रुलाई न रोक सकनेवाले तम


ु मेरे सलाहकार कैसे बने रह सकते हो बीरबल”, अकबर
ने आश्चर्य-भरे स्वर में पूछा।
 
“बच्चों का नटखटपन ऐसा ही होता है प्रभु। क्या आपने कभी रोते हुए बच्चों की रुलाई को
रोकने का प्रयत्न किया प्रभु?”, बीरबल ने पूछा।
 
“नहीं”, बादशाह ने कहा।
 
“आप कोशिश करके दे खिये। समझिये, आप बड़े हैं और मैं बच्चा हूँ। आप मुझे हँसाकर दे खिये
तो सही।” बीरबल ने कहा।
 
“क्षण भर में हँसा सकता हूँ”, अकबर ने विश्वास के साथ कहा। बीरबल छोटे बच्चे की तरह
ज़मीन पर लेट गया और हाथ-पाँव हिलाते हुए रोने लगा।
 
बादशाह उसके पास आये और कहने लगे, “रोना मत मेरे बच्चे। कहो, तुम्हें क्या चाहिये?”,
प्यार से उन्होंने पूछा।
 
“मुझे सोने की अंगूठी चाहिये”, बच्चे के कंठ स्वर में बीरबल ने कहा।
 
अकबर ने अपनी उं गली में से अंगूठी निकाली और बीरबल को दिया। उसे लेने के बाद बीरबल
फिर से रोने लगा।
 
“अंगूठी दी, फिर भी क्यों हो रहे हो”, बादशाह ने पूछा।
 
“मुझे एक हाथी चाहिये”, बीरबल ने रोते हुए कहा। अकबर ने एक छोटा हाथी मँगवाया। फिर
भी बीरबल हाथ-पाँव मारते हुए रोने लगा।
 
“और क्या चाहिये”, बादशाह ने पछ ू ा।
 
“वह हाथी अंगूठी में से निकले”, कहते हुए बीरबल रोने लगा।
 
अकबर ने नाराज़ होते हुए कहा, “यह नामुमकिन है ।” “गे का रस जो ज़मीन पर गिर गया, उसे
गिलास में कैसे भर सकता हूँ प्रभ”ु , मस्
ु कुराते हुए बीरबल उठकर खड़ा हो गया।
 
अकबर भी अपनी हँसी को रोक नहीं पाये। उन्होंने कहा, “हाँ बीरबल, मानता हूँ कि बच्ची की
रुलाई को रोकना मुश्किल काम है । अब जान गया हूँ कि तम
ु दे री से क्यों आये।” कहते हुए वे
सिंहासन पर बैठ गये।
 
जिन राजकर्मचारियों ने बीरबल को चनु ौती दी, उनकी ओर बीरबल ने दे खा। जो उसे मसु ीबत में
फंसाना चाहते थे, शर्म के मारे उन्होंने सिर झक
ु ा लिया और यों उन्होंने अपनी हार मान ली।
113. उत्तम आयुध

बादशाह अकबर कुछ प्रमुखों के साथ उद्यानवन में टहल रहे थे। गुलाबों के बग़ीचे के सौंदर्य पर
मुग्ध होकर उन्होंने कहा, “वाह! भूमि पर अगर स्वर्ग होता तो ऐसा ही होता, ऐसा ही होता।”
 
“हाँ प्रभु, आपका कहा अक्षरशः सच है ,” पीछे -पीछे चलते हुए प्रमुखों में से एक ने कहा, पर
बीरबल चुप रहा।
 
अकबर ने मुड़्रकर बीरबल की ओर दे खा। वह ध्यान लगाकर किसी को ढूँढ़ने में लगा हुआ था।
 
“बीरबल, मैंने कहा था कि भमि
ू पर स्वर्ग होता तो ऐसा ही होता। तम
ु ने तो उसके बारे में अपनी
राय व्यक्त नहीं की”, अकबर ने पूछा।
 
“उद्यानवन निस्संदेह बड़ा ही सुंदर है । फिर भी।” बीरबल ने कहा।
 
“इसका यह मतलब हुआ कि तम ु मेरे अभिप्राय से सहमत नहीं हो। कहो न, यह ?फिर
भी' का क्या मतलब है ”, अकबर ने गंभीर स्वर में पूछा।
 
“सुंदरता जहाँ हो, वहाँ आफ़त भी होती है न”, बीरबल ने कहा।
 
“आफ़त! क्या तम ु गुलाब पुष्पों से जड़
ु े कांटों का ज़िक्र कर रहे हो?”
 
“कांटे गुलाब पुष्पों के सहज कवच हैं। मैं उनके बारे में बता नहीं रहा हूँ”, बीरबल ने कहा।
 
“तो क्या झाड़ियों के पीछे छिपे सांपों के बारे में बता रहे हो?” अकबर ने पूछा।
 
“मनुष्यों के पाँवों की आहट सुनते हैंतो वे भाग जाते हैं। अपनी जान को बचाने के लिए ही वे
डसते हैं”, बीरबल ने कहा।
 
“साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताते कि आफ़त का कारण है क्या?” अकबर ने कहा।

“प्रभु शक्तिमान हैं, पर आपके शत्रु भी कितने ही हैं। मौक़ा पाकर आप पर आक्रमण करने को
तैयार बैठे हैं। मुख्यतया अड़ोस-पड़ोस के राजा भय के कारण अथवा ईर्ष्यावश आपको पद-
च्युत करने की ताक़ में हैं। ऐसे राजाओं के विषय में आपको निरं तर जागरुक रहना चाहिये।
अन्यथा अनर्थ होने की संभावना है ।”

बीरबल की इस चेतावनी ने बादशाह को सोच में डाल दिया। वे चप


ु रह गये।
 
दसू रे दिन भरी सभा में अकबर ने सभासदों से पूछा, "अकस्मात ् किसी आफ़त में फंस जाएँ तो
उससे बचने के लिए कौन-सा हथियार उत्तम हथियार है ?"
 
"पैना खड्ग" एक सभिक ने कहा।
 
"खड्गधारी अगर वीर हो तभी उस खड्ग का सही उपयोग हो सकता है ", बीरबल ने कहा।
 
"दरू ी से शत्रु पर भाले से प्रहार किया जा सकता है । इसलिए भाला उत्तम आयुध है ", एक और
प्रमुख सभिक ने कहा।
 
"भाले से आप पर प्रहार हो, इसके बीच में ही उसे गिराया जा सकता है न?" बीरबल ने कहा।
 
"तोप", एक और सभिक ने कहा।
 
"अगर हमला अचानक हो, तो तोप को ढूँढ़ना और उसे उपयोग में लाना थोड़े ही कोई आसान
काम है , बीरबल ने प्रत्युत्तर दिया।
 
"खड्ग भी नहीं, भाला भी नहीं, तोप भी नहीं, तो तुम्हारी दृष्टि में उत्तम आयुध है क्या
बीरबल?" बादशाह अकबर ने पछ ू ा।
 
"परिस्थिति के अनुकूल उपयोग में आनेवाला आयुध ही उत्तम आयुध है ", बीरबल ने कहा।
 
"यह नहीं कह सकते कि फलाना आयुध उत्तम आयुध है । यही न?" अकबर ने कटु स्वर में
पछू ा।
 
"जो व्यक्ति अच्छी तरह से सोच सकता है , समय पर जिसका मस्तिष्क तेज़ी से काम करता
है , उसके लिए आयुध कोई समस्या नहीं बनती। वह उसे आसानी से पा लेता है ", बीरबल ने
शांत स्वर में कहा।
 
"असंबद्ध", बादशाह ने क्रोध-भरे स्वर में कहा। सभिक भीतर ही भीतर हँस पड़े।
 
"समय आने पर मेरी बातों में छिपी सच्चाई आप खुद जान जायेंगे महाराज", बीरबल ने
विनयपूर्वक कहा।
 
दसू रे दिन अकबर और बीरबल कुछ प्रमख ु ों के साथ घम
ू ने निकले। जब वे नदी के किनारे पहुँच
रहे थे, तब उन्होंने दे खा कि हाहाकार करते हुए कुछ लोग उन्हीं की तरफ़ भागे आ रहे हैं।
आख़िर एक को रोककर उन्होंने भागने का कारण पूछा तो उसने कहा, "राजभवन के एक
मदमस्त हाथी ने जंजीरें तोड़ डालीं और लोगों को मार डालने पर तल ु ा हुआ है । इस भयानक
दृश्य को दे खकर डर के मारे हम भागे जा रहे हैं। वह इसी तरफ़ बढ़ा चला आ रहा है । आप भी
यहाँ से भागिये।" कहता हुआ वह चला गया।
 
उसके जाते ही उन्होंने हाथी की घंटियों का नाद तथा उसकी चिंघाड़ सुनी। कमर में लटकती
तलवार के मूठ पर अकबर का हाथ अनायास ही चला गया। बाकी प्रमुख व्यक्ति भी तलवारें
निकालकर हाथी से भिड़ने को तैयार हो गये। फिर भी, सबको मालूम था कि तलवारों से हाथी
का सामना करना संभव नहीं है । वहाँ से भाग जाना ही एकमात्र उपाय है । पर वे बादशाह को
अकेले छोड़कर जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। बादशाह का अकेले लौटना भी असंभव था।
वे सबके सब असहाय होकर बीरबल की ओर दे खने लगे।
 
किन्तु, बीरबल हाथी के आने की दिशा में दे ख नहीं रहा था। उसकी दृष्टि हल्की धूप में दीवार
पर आखें बंद करके सोयी हुई बिल्ली पर केंद्रित थी। बीरबल चुपचाप गया और बिल्ली को पकड़्र
लिया। बिल्ली ने छुटकारा पाने की भरसक कोशिश की। इतने में हाथी नज़दीक आया तो
बीरबल ने फ़ौरन उस बिल्ली को हाथी की पीठ पर फेंक दिया। वह बिल्ली हाथी की पीठ पर जा
गिरी। भय के मारे बिल्ली हाथी की पीठ को नाखूनों से खरोचने लगी।
 
हाथी वहीं खड़ा रहा और नाराज़ होकर बिल्ली को पकड़ने के लिए अपनी सूंड बढ़ायी। बिल्ली ने
यह भांप लिया और नीचे कूदकर भाग गयी। हाथी भी उसका पीछा करते हुए भागने लगा।
बिल्ली उसकी पकड़ में नहीं आयी और झाड़ियों में जाकर छिप गयी।
 
सबके प्राण बच गये, उन्होंने गहरी सांस ली।
 
"बीरबल, शाबाश, तुम्हारी पैनी बुद्धि के कारण हम बाल-बाल बच गये। मदमस्त हाथी को
भगाने के लिए तुमने एक बिल्ली को साधन बनाया और हमें बचाया। तुम्हारी अ़क्लमंदी
असाधारण है । तम्
ु हारा अभिप्राय था कि उत्तम आयध
ु का चन
ु ाव परिस्थिति पर निर्भर होता
है । तम्
ु हारे इस अभिप्राय से हम बिलकुल सहमत हैं।" बादशाह ने मस्
ु कुराते हुए उसका
अभिनंदन किया।
114. बीरबल-राजा का पानवाला

बादशाह अकबर से हर दिन तांबूल खाये बिना रहा नहीं जाता था। विशेषतया शौकत अली से
बनाया तांबल
ू उन्हें बेहद पसंद आता था। वे अ़क्सर शौकत अली की इस प्रतिभा की प्रशंसा
करते रहते थे। तब मोटा शौकत अली झक
ु -झुककर सलाम किया करता था। वह कहता था,
"इस कला में माहिर हूँ। अपने पिता से मैंने यह विद्या सीखी। आठवें साल की उम्र से ही मैं
तांबल
ू बनाता आ रहा हूँ। आप को यह अच्छा लगता है , यह मेरा महाभाग्य है । मेरे नस-नस में
यह विद्या मौजद
ू है । आपकी प्रशंसा सन
ु कर मैं धन्य हो गया हूँ।"

 
बादशाह अकबर जहाँ-कहीं भी जाते थे, शौकत अली को भी अपने साथ ले जाया करते थे।
भोजन करने के बाद वे अवश्य पान खाते थे। यों तीन साल गज़
ु र गये।
 
एक दिन शौकत अली ने पान में थोड़ा-सा चूना अधिक डाल दिया। बादशाह ने उस पान को क्या
खाया, उनकी जीभ जल गयी। उन्होंने उस पान को थूकते हुए कहा, "तुम्हारे पान को खाने की
वजह से जीभ जल गयी। कहते रहते हो कि पान बनाने में मझ
ु जैसा कोई है ही नहीं। ऐसा कहते
हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?"
 
शौकत अली डर के मारे कांप उठा।
 
बादशाह ने अपनी जली जीभ को बारं बार दे खते हुए कहा, "शौकत अली, अभी जाओ और अपनी
थैली में चूना भर कर ले आओ। समझे न?"
 
शौकत को लगा कि इस अपराध के लिए बादशाह जेल की सज़ा दें गे या उसका सिर कटवा दें गे,
यों सोचते हुए वह दकु ान गया।
 
थैली में चूना भरने के बाद दक
ु ानदार ने पूछा, "इतना चूना क्यों ले जा रहे हो?"
 
"मैं भी नहीं जानता। बादशाह ने मँगवाया है ।" उसी समय महे श दास वहाँ आ गया। महे शदास
ने पछ
ू ा, "महाराज ने भला इतना चन
ू ा क्यों मँगवाया है ?"

"मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि बादशाह ने ऐसी आज्ञा क्यों दी?" शौकत अली ने दीन
स्वर में कहा।
 
"क्या कभी इसके पहले बादशाह ने ऐसी आज्ञा दी?" महे श दास ने पूछा।
 
शौकत अली ने कहा, "कभी नहीं।"
 
"तो एक काम करो। पेट भर घी पीकर जाना", महे श ने उपाय बताया।
 
"मैं मोटा हूँ, उस पर पेट भरा हुआ है । घी पीकर जाने के लिए कहकर क्या मेरी खिल्ली उड़ा रहे
हो?" शौकत ने पछ ू ा।
 
"मैं तुम्हारी खिल्ली उड़ा नहीं रहा हूँ। तुम्हारी भलाई के लिए मैं बता रहा हूँ। बादशाह के समक्ष
जाने के पहले पेट भर घी अवश्य पी लेना । ऐसा करने पर ही तुम्हारी जान बचेगी। मुझे जल्दी
कहीं जाना है ," कहते हुए महे श दास चला गया।
 
शौकत अली सोच में पड़ गया। चन ू े की थैली लिये घर लौटा और बीवी से घी मँगवाया और पेट
भर पी लिया। पत्नी पछ
ू ही रही थी कि यह क्या कर रहे हो कि, जवाब दिये बिना ही जल्दी-
जल्दी शौकत निकल पड़ा और वह बादशाह के सामने खड़ा हो गया।
 
"आ गये" कहते हुए बादशाह ने उसका चेहरा भी दे खे बिना एक दरबारी से कहा, "इसे बाहर ले
जाना और इससे चूना खिलवाना।"
 
"परू ा चन
ू ा खा लँ ग
ू ा तो मर जाऊँगा महाप्रभ।ु चन
ू ा पेट को जला दे ता है ," कहते हुए शौकत रोने
लगा।
 
"यही तुम्हारी सज़ा है ", अकबर बादशाह ने गंभीर स्वर में कहा।
 
दरबारी उसे बाहर ले आया और चन ू ा खाने की आज्ञा दी।
 
राजा की आज्ञा का वह उल्लंघन नहीं कर सका, इसलिए दो मुठ्ठी भर चूना उसने खा लिया। बस,
चूना खाते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ा। इतने में बादशाह वहाँ आये और शौकत को दे खते ही
पूछा, "अभी ज़िन्दा हो?"
 
बड़ी कोशिश के बाद अली उठ पाया और कहा, "घी पी जाने की वजह से बच गया महाप्रभ,ु "
शौकत ने कहा।

"घी क्यों पी ली?" बादशाह ने पूछा।


 
"जब चन ू ा खरीद रहा था, तब महे श दास नामक एक यव
ु क वहाँ आये और मझ
ु े सलाह दी कि
घी पीकर बादशाह के सामने जाना। अच्छा हुआ, मैंने उसकी सलाह मान ली," शौकत ने कहा।
 
"वह महे श दास कहाँ है ? जल्दी जाओ और उसे मेरे पास ले आओ", अकबर ने हुक्म दिया।
 
थोड़ी ही दे र में शौकत अली, महे शदास को अपने साथ ले आया। उसे दे खते ही बादशाह ने कहा,
"अच्छा बीरबल, यह सब तेरा काम है ? शौकत अली से क्यों घी पिलवाया?"
 
"आपने आज्ञा तो नहीं दी कि शौकत अली घी पीकर नहीं आये। प्रभु, माफ़ करें , आपने थैली भर
चूना ले आने के लिए अली को आज्ञा दी। तभी मैं ताड़ गया कि अली को सज़ा दे ने के उद्देश्य से
ही आपने यह आज्ञा दी है । इसीलिए मैंने घी पीकर आने की सलाह दी। अन्यथा वह उसी क्षण
मर जाता।" बीरबल ने कहा।
 
"मर जाने से तम्
ु हारा क्या जाता है ? चन
ू ा ज़्यादा डालकर इसने मेरी जीभ जला डाली। इसे सज़ा
मिलनी ही चाहिये।" अकबर ने कहा।
 
"शौकत अली के मर जाने से मेरा कुछ भी नहीं बिगड़ता। इससे आप ही को नुक़सान पहुँचेगा।
वह तीन सालों से आपकी सेवा में लगा हुआ है । आप ही ने मुझसे कई बार कहा था कि इससे
बनाया पान उम्दा होता है । ऐसा आदमी मर जायेगा तो श्रेष्ठ पान बनानेवाला कहाँ मिलेगा?
यह आप पर निर्भर है । ग़लती करना मानव का सहज लक्षण है । अनजाने में की गयी गलती को
माफ करना आप जैसे बादशाह को शोभा दे ता है ।" बीरबल ने कहा। शौकत अली ने झक
ु कर
फिर से सलाम किया।
 
बादशाह ने यह दे खते हुए कहा, "झक
ु कर ज़मीन को माथे से लगाने के लिए कहता तो ठीक
होता। वही तुम्हारे लिए सही सज़ा होती।" फिर एक क्षण के बाद बादशाह ने अली से कहा,
"अच्छा, जो हो गया, सो हो गया। तुरंत हम दोनों के लिए अच्छा तांबल
ू बनाना", अकबर ने
हँसते हुए कहा।
115. आप ही ने तो कहा था

बादशाह अकबर जब दरबार में सिंहासन पर आसीन थे, तब एक सेवक पिंजड़े में बंद एक तोते
को ले आया और उनके सामने रखा। बादशाह को सलाम करके वह वहॉ ं से हट गया। तोते को
दे खते ही बादशाह ने कहा, “मेरे एक अजीज दोस्त ने इस तोते को मुझे भें ट स्वरूप दिया है । इस
तोते को मैं बेहद चाहता हूँ। खुद दे ख लीजिये, कितना सुंदर दीखता है ।”

 
“हाँ, शाहं शाह, मैंने जितने भी तोतों को आज तक दे खा, उनमें से यह सर्वश्रेष्ठ है ”, फयिज़खान
नामक एक कर्मचारी ने कहा।
 
“क्या तुमने तोतों के संबंध में विशेष अध्ययन किया है ?” आश्चर्य-भरे स्वर में बादशाह अकबर
ने पूछा।
 

“कुछ हद तक ही जहॉपनाह। अब तक मैंने करीबन पंद्रह तोतों को दे खा होगा। उनमें से यह
श्रेष्ठ है । इसका हरा रं ग, मजबत
ू लाल नाक, वाह रे वाह ! कितनी भी तारीफ़ करूँ, कम है । सिर
हिलाने का इसका ढं ग अनोखा है । बेशक सब तोतों में से यह उत्तम तोता है ।” बादशाह का
प्रीति पात्र बनने के लिए उसने इसे अच्छा मौक़ा मानकर कहा।
 
“मैं इस सोच में पड़ गया हूँ कि कौन अच्छी तरह से इसकी दे खभाल करने के लायक़ है ।
तुम्हारी बातें सुनते हुए लगता है कि तुम्हीं इसके लायक़ हो। दे खो, तुम इसे अपने घर में
रखना। पर, एक बात अच्छी तरह से याद रखना। तोते को थोड़ी सी भी हानि न पहुँचे। कोई
अगर कहे कि यह मर गया है तो उसे मत्ृ यु दं ड दँ ग
ू ा। सावधान।” चेतावनी दे ते हुए बादशाह ने
गंभीर स्वर में कहा।
 
बादशाह की चेतावनी सुनकर फयिज़खान हक्का-बक्का रह गया। अन्य दरबारियों की तरह वह
भी चुप रह जाता तो यह संकट की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती। मन ही मन अपने को
धिक्कारने लगा। वह उठकर खड़ा हो गया और बोला, “आपने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी है ,
इसके लिए तहे दिल से आपको धन्यवाद दे ता हूँ।” कहते हुए उसने झक
ु कर सलाम किया।

“तोता तुम्हारे संरक्षण में होगा, इसकी मुझे बड़ी खुशी है ”, कहते हुए बादशाह ने तोते को उसके
सुपुर्द किया।
 
पिंजड़े को लेकर घर आये शौहर को दे खकर फयिजखान की बीवी ने पूछा, “यह क्या है ?” “क्या
तम्
ु हें दिखायी नहीं दे ता बेग़म साहिबा? यह पिंजड़ा है और इसमें तोता है ”, फयिज़खान ने
मस्
ु कुराते हुए कहा।
 
“इस तोते की दे खभाल कौन करे गा?” बीवी ने नाराज़ी भरे स्वर में पूछा।
 
“तम ु !” फयिज़खान ने कहा।
 
“नहीं, यह मुमकिन नहीं है । पहले ही से मैं तुमसे कहती आ रही हूँ कि ज़्यादा बकवास मत
करना। मैं कितनी अभागिन हूँ कि मुझे तुम जैसे बुद्धू शौहर के साथ ज़िन्दगी गुजारनी पड़ती
है ।” कहते हुए वह अचानक एकदम रुक गयी और फिर बोली, “बादशाह का प्रीति पात्र बनने के
लिए कहीं तुमने इस तोते को उनसे भें ट के रूप में तो नहीं पाया?” बीवी ने कड़े स्वर में पूछा।
 
“हाँ, तम
ु ने सही बताया। हर्फ -ब-हर्फ यही हुआ”, फयिज़खान ने कहा।
 
“इसे तुरंत किसी के सुपुर्द कर दे ना”, कहते हुए उसने तुतलाते हुए तोते की ओर दे खा।
 
“यह काम मैं नहीं कर सकता बेग़म साहिबा। इसकी हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी बादशाह ने मझ ु े
सौंपीहै । अगर यह मर जाए तो मझ
ु े भी मरना होगा।” फयिज़खान ने कहा। फिर उसने
सविस्तार वह सब बताया, जो दरबार में हुआ।
 
“बाप रे ! तुमने कितनी बड़ी आफ़त मोल ले ली।” बेगम साहिबा ने कहा। उस समय उसकी
आँखों में आँसू भरे हुए थे। पर, वह कर भी क्या सकती थी। कुछ लोगों से उस तोते के पालन-
पोषण से संबंधित पूरी जानकारी प्राप्त की और बड़ी ही सावधानी से तोते की दे खभाल करने
लगी।
 
अकबर अ़क्सर फयिज़खान से पूछा करते थे, “तोता कैसा है ?” वह कहता था, “बिलकुल ठीक
है । एकदम तंदरु
ु स्त है जहाँपनाह।”

पर, दिन सदा एक समान नहीं होते। कभी बुरे तो कभी अच्छे । फयिज़खान एक दिन सवेरे
उठते ही तोते को दे खने गया। वह पिंजड़े में उलटा पड़ा हुआ था। पास जाकर धीरे से सीटी
बजायी। तोता जैसे के तैसे पड़ा रहा। उसकी इस हालत को दे खकर पत्थर से मारे गये कुत्ते की
तरह वह ज़ोर से चिल्ला उठा। उसकी चिल्लाहट को सुनते ही बेगम साहिबा दौड़ी-दौड़ी आयी।
उसने तर्जनी से तोते को दिखाया। बेग़म ने गौर से तोते को दे खा और कह डाला, “तोता मर
गया।”
 
“हाँ, तोता मर गया। यह ख़बर बादशाह को कैसे सुनाऊँ? जो यह खबर दे गा, उसे अवश्य ही
फाँसी की सज़ा होगी।” कहते हुए वह ज़मीन पर बैठ गया और दोनों हाथों से अपने सिर को
पकड़ते हुए बिलख-बिलखकर रोने लगा।
 
बीवी उसे ढाढ़स दे ने लगी तो वह कहने लगा, “मुझे मौत से कौन बचा सकता है ?” बड़े ही दीन
स्वर में वह कहने लगा।
 
“बीरबल से कहो। परू ा विषय उन्हें बताना। वही हमारी मदद कर सकते हैं”, बेग़म ने उन्हें
सलाह दी।
 
फयिज़खान पिंजड़े को लेकर दौड़ता हुआ गया और बीरबल के घर का दरवाज़ा खटखटाया।
बाहर आये बीरबल ने पूछा, “आओ दोस्त, सवेरे-सवेरे कैसे आना हुआ?” फिर पिंजड़े को
दे खकर कहा, “हाँ, यह वही तोता है न, जिसे बादशाह ने तुम्हारे सुपुर्द किया था?”
 
“हाँ, मैंने और मेरे परिवारवालों ने बड़ी ही सावधानी से इसकी परवरिश की। पर आज सवेरे
उठकर दे खा तो, यह मरा पड़ा हुआ था ।” फयिज़खान ने बड़े ही दीन स्वर में कहा।
 
“तम
ु तो बड़ी मुसीबत में फँस गये हो। बादशाह ने चेतावनी भी दी थी कि जो इस तोते के मरने
की ख़बर ले आयेगा, उसे मत्ृ यु दं ड मिलेगा।” फिर थोड़ी दे र तक बीरबल सोच में पड़ गया। फिर
कहा, “डरो मत। इसका एक उपाय भी है । मेरे पीछे -पीछे आना, दरबार जाएँगे।” कहकर
फयिज़खान को लेकर वह निकल पड़ा।
 
बादशाह के आने के पहले ही बीरबल दरबार में पहुँच गया। उनके आते ही वह उठकर खड़ा हो
गया। बादशाह ने इस अर्थ में बीरबल को दे खा कि बात क्या है ।

बीरबल पिंजड़ा ले गया और बादशाह के सामने रखते हुए कहा, “शाहं शाह, यह तोता बहुत बड़ा
योगी लगता है । नहीं तो भला बिना हिले-डुले कैसे इस परिपूर्ण समाधि स्थिति में पहुँच सकता
है ?”
 
बादशाह ने तोते को ग़ौर से दे खा और कहा, “यह तो मर गया। फयिज़खान कहाँ है ? मैंने उसे
चेतावनी दी थी कि इसकी दे खभाल अच्छी तरह से करना। वह मत्ृ यु दं ड से बच नहीं सकता।”
 
फयिजखान डर के मारे थरथर काँपता हुआ खड़ा हो गया।
 
“बादशाह, मुझे माफ़ करें । उस दिन इस तोते को फयिज़खान को सौंपते हुए आप ही ने तो कहा
था, “जो इस तोते की मौत की खबर लायेगा, उसे मत्ृ यु दं ड मिलेगा।” आपने यों कहकर उसे
सावधान भी किया था। बादशाह यह भूले नहीं होंगे”, विनय-भरे स्वर में बीरबल ने कहा।
 
“हाँ, पर तोता मर गया”, उद्वेग भरे स्वर में बादशाह अकबर ने कहा।
 
“आप ही ने तो पहले कहा था कि यह तोता मर गया। फयिज़खान ने नहीं। तो फिर आपकी
आज्ञा के अनुसार मत्ृ यु दं ड किसको मिलना चाहिये?” बीरबल ने पूछा।
 
बीरबल के इस सवाल पर बादशाह दवि ु धा में पड़ गये और फिर हँसते हुए कहने लगे, “तम
ु ने
सच कहा। इस एक तोते के लिए एक अच्छे कर्मचारी को मत्ृ यु दं ड दे ना उचित नहीं होगा।”
फयिज़खान की जान में जान आयी।

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