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कथावाचक– यह कथा है अवध की। यहााँ सरयू नदी के तट पर बहुत सुुंदर एक नगरी थी– नाम था अयोध्या। बहुत

भव्य, बहुत ववलक्षण, साधन–सुंपन्न। हो भी क्यों न, आखिर अयोध्या कोसल राज्य की राजधानी थी। महाराज
रघु के वुंशज, कुशल योद्धा और बेहद न्यायविय दशरथ, अयोध्या के राजा थे। इनकी तीन राननयाुं थीुं– कौशल्या,
सुनमत्रा और कैकेयी। पुत्रवे ि यज्ञ से महाराज दशरथ को चार पुत्रों की िानि हुई थी। कौशल्या के पुत्र राम, सुनमत्रा के
लक्ष्मण और शत्रुध्न एवुं कैकेयी के पुत्र भरत। पुत्रों के बडे होने पर राजा दशरथ ने स्वयुं कततव्यमुक्त हो पुत्रों को
राज्य का भार सौंपने का ववचार ककया। ज्येष्ठ होने के कारण राजा बनने का िथम अनधकार कुमार राम का था।
राजा दशरथ के इस ववचार का समथतन समस्त दरबार ने ककया था। ककन्तु ननयती को यह स्वीकार नहीुं था।

कथावाचक– रानी कैकेयी की दासी मुंथरा को राम के राज्यानभषेक का पता चला तो उससे रहा नहीुं गया। वह
कैकेयी पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाना चाहती थी। इसी कुमुंशा से िेररत मुंथरा ने कैकेयी से कहा– "मूित
रानी, आने वाली ववपदा को दे ि। राम के राजा बनने के बाद तुम कौशल्या की दासी भर रह जाओगी। यकद राम को
पुत्र सुंतान की िानि हुई तो राम के बाद किर राजगद्दी उसके पुत्र की हो जाएगी। तुम और तुम्हारे पुत्र सदा दासत्व
के अधीन रहें गे। कोई जतन करो कक तुम्हारा पुत्र भरत राजा बने और राम को वनवास नमल जाए।

कैकेयी ने कहा– ककन्तु मैं क्या कर सकती हूाँ। स्वामी ने ननणतय ले नलया है । राज्यानभषेक होने में कुछ ही समय
शेष है ।

मुंथरा– तुम उन्हें वषों पूवत रणभूनम में कदए सुंकल्प, दो वरदान दे ने का वचन, याद कदलाओ। राजा दशरथ अपना
वचन अवश्य पूणत करें गें। ककन्तु याद रहे , राम के नलए चौदह वषत का वनवास और भरत के नलए राजगद्दी, इससे
कम न माुंगना।"

राजा दशरथ– कैकेयी, क्या हुआ, तुम राम के राज्यानभषेक से िसन्न नहीुं हो? तुम मेरी सबसे विय रानी हो।
बताओ तुम्हें क्या कि है । तुम्हारी िसन्नता के नलए मैं कुछ भी कर सकता हूाँ।

कैकेयी– यकद ऐसा है तो आज मैं आपसे दो वरदान माुंगना चाहती हूाँ। रणभूनम में आपने दे ने का वचन कदया
था। राजन, अपना वचन पूणत करें गें न!

राजा दशरथ– अवश्य।

कैकेयी– तो किर ठीक है ,– "कल सुबह राज्यानभषेक राम का नहीुं भरत का होगा" और "राम को चौदह बरस
वनवास करना होगा"

कथावाचक– राजा दशरथ मूनछत त हो कर नगर पडे । कुछ समय पश्चात जब उनकी चेतना लौटी तो कातर हो कैकेयी
से बोले

दशरथ– कैकेयी यह तुम क्या कह रही हो? ऐसा अनथत न करो। मेरी बात मान लो, राम का राज्यानभषेक होने दो।
कुछ और माुंग लो। ककन्तु कैकेयी टस– से–मस न हुईं।

कैकेयी– अपने वचन को पूरा न करना रघुकुल का अनादर है । आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं ककन्तु यकद आपने
मुझे यह दोनों वरदान नहीुं कदए तो मैं ववष पीकर अपने िाण त्याग दुं ग
ू ी। यह कलुंक आपके माथे होगा।
राजा दशरथ– पुनः अचेत हो गए।

कथावाचक– राज्यानभषेक वाले कदन, सुबह– सुबह

रावत्र को कोपभवन में हुई घटना से अनजान पूरा नगर राम के राज्यानभषेक की तैयाररयों में जुटा था। मुनन वनशष्ठ
और महामुंत्री सुमुंत्र भी रावत्र में उनचत रूप से ववश्राम नहीुं कर सके थे। सुबह– सुबह महामुंत्री मुनन श्रेष्ठ के पास
गए, उनसे कहा कक महाराज को वपछली शाम से ककसी ने नहीुं दे िा। मुननवर ने तत्काल महामुंत्री को महाराज के
पास राजभवन भेजा।

महामुंत्री सुमुंत्र थोडे असहज थे। कैकेयी के महल की सीक़ियाुं च़िते अनजान भय से ग्रनसत थे। भवन में पहुाँच कर
अनका भय यथाथत बन गया। राजा दशरथ एक ही रावत्र में बहुत बीमार दीि पडते थे। महामुंत्री की मनःअवस्था
भाुंप कर रानी कैकेयी ने कहा– नचुंता की कोई बात नहीुं है मुंवत्रवर। महाराज रात भर राज्यानभषेक के उत्साह में
जागे हैं और बाहर जाने से पूवत कुमार राम से वातातलाप करना चाहते हैं ।

महामुंत्री– वातातलाप! कैसा वातातलाप?

कैकेयी– मुझे नहीुं पता। अपने मन की बात वे राम को ही बताएुंगे। कृ पया कुमार राम को बुलवाएुं।

राम के ननवास के बाहर का दृश्य

कथावाचक– ननवास के बाहर लोगों के आना शुरू कर कदया था। वे अपने होने वाले राजा की झलक दे िने को
आतुर थे। तभी कुमार राम के ननवास पर महामुंत्री सुमत्र
ुं का आगमन हुआ। उन्हें दे ि िजा का कोलाहल ब़ि गया।
उन्होंने समझा महामुंत्री राज्यानभषेक हे तु राम को नलवाने आए हैं ।

महामुंत्री सुमत्र
ुं – राजकुमार, महाराज आपसे नमलना चाहते हैं । कृ पया मेरे साथ चलें।

कथावाचक– कुछ ही समय में लक्ष्मण के साथ कुमार राम, महाराज दशरथ के समक्ष िडे थे। दोनों ही कुमारों ने
अपने वपता महाराज दशरथ को िणाम ककया। राम को दे िते ही महाराज दशरथ के बार किर बेसुध हो गए। कुछ
समय पश्चात जब वे चेतना में लौटे तो महाराज को अपनी बात कहने में असहजता हो रही थी।

राम– क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है ? आप सब मौन क्यों हैं ? कोई कुछ तो बताए! माते, कृ पया आप ही
बताईए।

कैकेयी– महाराज दशरथ ने एक बार मुझे दो वरदान कदए थे। कल रात मैंने वही दो वर माुंग,े खजसे दे ने को वह
सहमत नहीुं है । यह रघुकुल की नीनत के ववरुद्ध है । मेरी इच्छा है कक राज्यानभषेक मेरे पुत्र भरत का हो और
कौशल्या पुत्र– राम यानन तुम चौदह वषत के वनवास को िस्थान करो। महाराज तुम्हें यही बात नहीुं कह पा रहे ।

राम– वपताश्री का वचन अवश्य पूणत होगा। भरत ही अयोध्या के राजा होंगे और मैं आज ही वन को िस्थान
करूुंगा।

कैकेयी– िसन्नता का भाव


दशरथ– नधक्कार है । (कैकेयी को दे िते हुए कहते हैं )

कथावाचक– कैकेयी के महल से ननकल राजा अपनी माता कौशल्या के पास गए। कैकेयी भवन का वववरण और
अपना ननणतय माता को बताया।

कौशल्या– राजगद्दी छोड दो ककन्तु वनवास की राजाज्ञा अनुनचत है ।

राम– यह राजाज्ञा नहीुं माते, वपतृआज्ञा है । उनकी आज्ञा का उल्लुंघन मेरी शवक्त से परे है । आप मुझे आशीवातद दें ।
लक्ष्मण वन गमन की तैयारी करो।

कथावाचक– लक्ष्मण भी वपतृआज्ञा के ववरुद्ध थे।

लक्ष्मण– आप बाहुबल से आयोध्या का नसुंहासन िाि करें भ्राता। दे िता हूाँ आपका ववरोध करने का साहस ककस–
ककस में है ।

राम– अधमत का नसुंहासन मुझे नहीुं चाकहए। मैं वन अवश्य जाऊुंगा। मेरे नलए तो जैसा राजनसुंहासन वैसा ही वन।

कौशल्या– जाओ पुत्र। दसों कदशाएुं तुम्हारे नलए मुंगलकारी हो। मैं तुम्हारे वापस आने तक जीववत रहूुंगी।

कथावाचक– कौशल्या भवन से ननकल कर राम सीता भवन गए। सारा वृताुंत सुनाया। ववदा माुंगी। माता– वपता
की सेवा का आग्रह ककया।

राम– तुम ननराश न होना विय। चौदह वषत के पश्चात हम किर नमलेंगे।

सीता– मेरे वपता का आदे श है कक मैं सदा छाया की तरह आपके साथ रहूाँ। मैं आपके साथ ही वन आऊुंगी। कृ पया
मुझे अपने साथ आने की अनुमनत दें ।

कथावाचक– राम वन जा रहे हैं , यह समाचार पूरी अयोध्या नगरी में िैल चुकी थी। नगरवासी महाराज दशरथ
और रानी कैकेयी को नछक्कार रहे थे। कुछ समय पूवत जहाुं उत्सव का माहौल था वहीुं अब हर जगह उदासी ने डे रा
डाल नलया था। नगरवासी राम– सीता के वन जाने के पक्ष में नहीुं थे।

राम,सीता और लक्ष्मण वन के नलए िस्थान करने से पूवत वपता दशरथ से आज्ञा लेने गए।

महाराज दशरथ– पुत्र मेरी मनत मारी गई है । मैं वचनबद्ध हूाँ। ऐसा ननणतय करने को वववश हूाँ। तुम मुझे बुंदी बना
लो और राजा बन जाओ। यह नसुंहासन केवल तुम्हारा है । केवल तुम्हारा।

राम– आुंतररक पीडा आपको ऐसा कहने पर वववश कर रही है वपताश्री। मुझे राज्य का लोभ नहीुं। आप हमें
आशीवातद दें और ववदा करें । ववदाई का कि असहनीय है । कृ पया इसे और न ब़िाएुं। राम ने एक बार किर सबसे
अनुमनत माुंगी। आगे– आगे राम, उनके पीछे सीता और किर लक्ष्मण।

कथावाचक– मुंत्री सुमत्र


ुं रथ लेकर महल के बाहर िडे थे।

राम– महामुंत्री, रथ द्रत


ु गनत से ब़िाएुं।
कथावाचक– महाराज दशरथ, माता कौशल्या समेत सुंपण
ू त अयोध्या नगरी राम, सीता और लक्ष्मण के वन गमन
के दि
ु ी थी। सभी के नेत्र ने ननरुं तर अश्रु बह रहा था। गोमती नदी पार कर वनवासी राम, सीता और लक्ष्मण सई
नदी के तट पर पहुाँचे। राजा दशरथ के राज्य की सीमा यहीुं समाि होती थी। राम ने मुडकर अपनी जन्मभूनम को
दे िा। उसे िमाण ककया और कहा

राम– हे जननी। अब चौदह वषत के उपराुंत ही आपके दशतन कर सकूुंगा।

नशक्षा (मॉरल)– कमान से ननकला तीर और मुाँह से ननकली बात लौट कर नहीुं आती। अतः इस नाट्य िस्तुनत से
यह नशक्षा नमलती है कक हमें कोई भी बात वबना सोचे– समझे नहीुं कहनी चाकहए और अपनी अनुनचत बात मनाने
पर ककसी को वववश नहीुं करना चाकहए, जैसा कक इस िसुंग में रानी कैकेयी ने महाराज दशरश को ककया है ।

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