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जानिए सुप्रीम कोर्ट को अपनी अवमानना (Contempt) के लिए दंड देने की शक्ति कहां से प्राप्त होती है?

जानिए सुप्रीम कोर्ट को अपनी अवमानना (Contempt) के लिए दंड देने की शक्ति कहां से प्राप्त होती है?
बीते 27 अप्रैल 2020 (सोमवार) को सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो कं टेम्प्ट पिटीशन (क्रिमिनल) नंबर 2 ऑफ 2019 RE. विजय कु र्ले एवं अन्य के
मामले में तीन व्यक्तियों को जजों के खिलाफ 'अपमानजनक और निंदनीय' आरोपों के लिए अवमानना का दोषी ठहराया।

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने विजय कु रले (राज्य अध्यक्ष, महाराष्ट्र और गोवा, इंडियन बार एसोसिएशन), राशिद खान
पठान (राष्ट्रीय सचिव, मानवाधिकार सुरक्षा परिषद) और नीलेश ओझा (राष्ट्रीय अध्यक्ष, इंडियन बार एसोसिएशन) को अवमानना का दोषी ठहराया।

दरअसल, मार्च 2019 में वकील मैथ्यूज नेदुम्परा को अवमानना का दोषी ठहराने के आदेश पर जस्टिस आर. एफ. नरीमन और जस्टिस विनीत सरन के
खिलाफ 'घिनौने और निंदनीय 'आरोपों के लिए उन्हें दोषी ठहराया है। दायर शिकायतों की सामग्री पर विस्तार से चर्चा करने के बाद, पीठ ने उन्हें
अवमानना पाया।

मौजूदा लेख में हम सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के प्रकाश में संक्षेप में जानेंगे कि आखिर उच्चतम न्यायालय को अपने अवमान (Contempt) के लिए
दंड देने की शक्ति कहाँ से प्राप्त होती है? तो चलिए इस लेख की शुरुआत करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट की अपने अवमान (Contempt) के लिए दंड देने की शक्ति

यदि हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 पर नजर डालें तो यह साफ़-साफ़ यह कहता है कि उच्चतम न्यायालय कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड होगा, और
इसलिए ऐसा कोर्ट होने के नाते इसमें कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड की सभी शक्तियाँ निहित होंगी, जिसमें स्वयं के अवमान के लिए दंडित करने की शक्ति भी शामिल
होगी।

अनुच्छेद 129 यह कहता है कि,

[उच्चतम न्यायालय का अभिलेख न्यायालय होना] - उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित
ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी।

गौरतलब है कि यह एक संवैधानिक शक्ति है, जिसे किसी भी तरह से या किसी क़ानून द्वारा निरस्त नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा, संविधान का अनुच्छेद 142 (2) यह प्रदान करता है कि उच्चतम न्यायालय, किसी भी व्यक्ति को स्वयं की अवमानना के लिए दंडित
और उस अवमान के लिए इन्वेस्टीगेशन तो कर सकता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की यह शक्ति, संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के
अधीन होगी।

गौरतलब है कि अनुच्छेद 129 के प्रावधानों और अनुच्छेद 142 के खंड (2) की तुलना करने पर हमे यह मालूम होता है कि जहाँ अनुच्छेद 129
के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की शक्ति पर कोई सीमा नहीं लगायी गयी है, वहीँ अनुच्छेद 142 (2) के अनुसार - उच्चतम न्यायालय की शक्ति (अवमान के
लिए दण्डित और इन्वेस्टीगेशन करने की), संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन होगी।

इस दुविधा का जवाब हमे सुओ मोटो कं टेम्प्ट पिटीशन (क्रिमिनल) नंबर 2 ऑफ 2019 RE. विजय कु र्ले एवं अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा
स्वयं दिया गया है। इस मामले में यह माना गया है कि उच्चतम न्यायालय को कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड होने की प्राइमरी शक्ति संविधान के अनुच्छेद 142 के
खंड (2) से नहीं मिलती है, बल्कि यह शक्ति तो सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 129 से प्राप्त होती है।

हालाँकि, सुखदेव सिंह बनाम ऑनरेबल सी. जे. एस. तेजा सिंह एवं अन्य AIR 1954 SCR 454 के मामले में यह साफ़ किया गया था कि
संविधान के अनुच्छेद 129 से यह पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट के पास कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड की सभी शक्तियां हैं, जिसमें खुद की अवमानना के लिए
दंडित करने की शक्ति भी शामिल है। वहीँ, अनुच्छेद 142 (2) एक कदम आगे बढ़कर उच्चतम न्यायालय को किसी भी अवमानना की जांच
(Investigation) करने में सक्षम बनाता है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1954 में तय किये गए इस मामले से इन दोनों अनुच्छेदों के बीच की दुविधा को दूर करने में पाठकों को मदद मिल सकती
है।

सुप्रीम कोर्ट की शक्ति क्या संसद के कानून के अधीन होगी?

ध्यान रहे कि संसद द्वारा 'न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971' (Contempt of Court Act, 1971) बनाया गया है, जिसके
अनुसार, न्यायालय की अवमानना का अर्थ, किसी न्यायालय की गरिमा तथा उसके अधिकारों के प्रति अनादर प्रदर्शित करना है। हालाँकि, उच्चतम न्यायालय
की शक्ति इस कानून के अधीन नहीं है।

हाँ, यह जरुर है कि इस कानून की धारा 15 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक अवमानना का संज्ञान लेने के लिए प्रक्रियात्मक मोड को अवश्य
निर्धारित किया गया है। लेकिन उसके बावजूद भी, धारा 15 को अवमानना के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा नोटिस जारी करने की शक्ति का स्रोत नहीं
कहा जा सकता है।
यह धारा, के वल उस प्रक्रिया को प्रदान करती है, जिसमें ऐसी अवमानना शुरू की जानी है और यह धारा यह बताती है कि अवमानना शुरू करने के 3
तरीके हैं। इसके पहले हमने इस लेख में यह साफ़ तौर पर जाना ही है कि अनुच्छेद 129 में इस तरह का कोई प्रतिबंध मौजूद नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट
की यह शक्ति संसद द्वारा बनाये गए कानून के अधीन होगी।

और चूँकि, उच्चतम न्यायालय को कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड होने की प्राइमरी शक्ति संविधान के अनुच्छेद 142 के खंड (2) से नहीं मिलती है, बल्कि यह
शक्ति तो सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 129 से प्राप्त होती है तो यह जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट की अपने अवमान (Contempt) के लिए दंड देने की
शक्ति संसद के कानून के अधीन नहीं है।

यह बात अपने आप में तार्कि क भी है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा स्वयं की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति, एक संवैधानिक शक्ति है, और इस
तरह की शक्ति को एक विधायी अधिनियम द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है या शक्ति को सीमित नहीं किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ एवं अन्य (1998) 4 SCC 409 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने यह साफ़ किया था कि संसद
और राज्य विधानमंडल की विधायी शक्ति का इस्तेमाल, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना से जुड़े मामलों के संबंध में कानून बनाने के
लिए किया जा सकता है।

हालांकि, इस तरह के कानून का इस्तेमाल, अनुच्छेद 129 के तहत अवमानना के लिए दंडित करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को निरस्त करने,
छीनने या अभिनिषेध करने के लिए नहीं किया जा सकता है, या किसी अन्य अदालत को यह शक्ति नहीं सौंपी जा सकती है।

रिकॉर्ड की अदालत में अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति का निहित होना, यह जाहिर करता है कि संसद का कोई भी अधिनियम, अवमानना के
लिए दंडित करने की कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड की अंतर्निहित शक्ति को छीन नहीं सकता है।

हालांकि इस तरह का कानून, सजा की प्रकृ ति के निर्धारण के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य अवश्य कर सकता है। हालाँकि, संसद ने अपनी सर्वोच्च
न्यायालय की स्वयं के अवमानना की जांच और सजा के संबंध में शक्तियों से निपटने वाला कोई कानून अभी तक नहीं बनाया है - सुप्रीम कोर्ट बार
एसोसिएशन बनाम भारत संघ एवं अन्य (1998) 4 SCC 409।

अंत में, यह जानना हमारे लिए अहम् है कि सुओ मोटो कं टेम्प्ट पिटीशन (क्रिमिनल) नंबर 2 ऑफ 2019 RE. विजय कु र्ले एवं अन्य के मामले में
सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ़ तौर पर देखा है कि - उच्चतम न्यायालय की स्वयं की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति, संसद द्वारा बनाये गए
1971 के अधिनियम के प्रावधानों के अधीन नहीं है।

इसलिए, अदालत के लिए के वल एक आवश्यकता यह है कि उसके द्वारा ऐसी प्रक्रिया का पालन किया जाए, जो न्यायसंगत है, न्यायपूर्ण है और इस
न्यायालय द्वारा तय किए गए नियमों के अनुसार है।

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