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सोशल मीडिया गांधी के खिलाफ तमाम गोडसे तैयार करने की फैक्ट्री है .

70 साल पहले मारे जा चुके गांधी के


खिलाफ अब भी रोज अफवाहों की गोलियां चल रही हैं. ये गोलियां चलाने वाले टे क्नो गोडसे कौन लोग हैं?

हमारी पोस्ट पर एक सज्जन ने कमें ट किया, 'अगर आजादी चरखे से आई थी तो पाकिस्तान सीमा पर चरखा रख
दिया जाए, समस्या हल हो जाएगी.'

दख
ु के साथ कहता हूं कि चरखे पर टिप्पणी करने वाला यह भाई अज्ञान और मूर्खता से भरा है . क्या गांधी या
उनके किसी अनुयायी ने ऐसा लिखा है कि आजादी सिर्फ चरखे से आएगी या आई? किसी इतिहासकार ने ऐसा
लिखा है कि आजादी सिर्फ चरखे से आई?

चंपारण में नील की खेती करने के लिए अंग्रेज किसानों पर अत्याचार करते थे. गांधी यहां आए तो लोगों ने उन्हें
अंग्रेजी अत्याचार की अनंत गाथाएं सन
ु ाईं. जब गांधी को बताया गया कि नील फैक्ट्रियों के मालिक कथित निचली
जाति के औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने दे ते तो उसी दिन से गांधी ने जूते पहनने बंद कर दिए.

8 नवंबर 1917 को सत्याग्रह का दस


ू रा चरण शुरू हुआ. उनके साथ गए लोगों में कस्तूरबा समेत छह महिलाएं भी थीं.
यहां पर लड़कियों के लिए तीन स्कूल शुरू हुए. लोगों को बुनाई का काम सिखाया गया. कंु ओं और नालियों को साफ-
सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षण दिया गया.

गांधी ने कस्तरू बा से कहा कि वे औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सथ


ु रा रहने के बारे में समझाएं. कस्तरू बा जब
औरतों को समझाने लगीं तो एक औरत ने कहा, "बा, आप मेरे घर की हालत दे खिए. आपको कोई बक्सा या अलमारी
दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है . आप ही बताओ,
मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दसू री साड़ी
दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकंू ."

यह बात सुनकर गांधी ने अपना चोगा बा को दिया कि उस औरत को दे आओ. इसके बाद से ही उन्होंने चोगा
ओढ़ना बंद कर दिया.

1918 में गांधी अहमदाबाद में करखाना मज़दरू ों की लड़ाई में शामिल हुए. वहां उन्होंने महसूस किया कि उनकी पगड़ी
में जितने कपड़े लगते हैं, उसमें 'कम से कम चार लोगों का तन ढं का जा सकता है .' इसके बाद उन्होंने पगड़ी पहनना
छोड़ दिया.

31 अगस्त, 1920 को खेड़ा सत्याग्रह के दौरान गांधी ने प्रण किया था कि "आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से
बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा."

1921 में गांधी मद्रास से मदरु ई जाती हुई ट्रे न में भीड़ से मुखातिब होते हुए. गांधी के शब्दों में ही, "उस भीड़ में बिना
किसी अपवाद के हर कोई विदे शी कपड़ों में मौजूद था. मैंने उनसे खादी पहनने का आग्रह किया. उन्होंने सिर हिलाते
हुए कहा कि हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे."

गांधी ने लिखा है , "मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती
थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे. चार इंच की लंगोट
के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थीं. मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता
था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो. मदरु ई में हुई सभा के बाद अगली सुबह
से कपड़े छोड़कर मैंने ख़ुद को उनके साथ खड़ा किया."

चंपारण सत्याग्रह से अपने वस्त्रों पर खर्च कम करने का यह प्रयोग करीब चार साल तक चला और अंतत: गांधी
गांव के उस अंतिम आदमी की तरह रहने लगे जिसके तन पर सिर्फ एक धोती रहती थी.

गांधी गरीब जनता का नेता था. गांधी का निर्वस्त्र शरीर विदे शी कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का
प्रतीक बन गया, क्योंकि दे श का शरीर भी निर्वस्त्र था.

खादी इन गरीबों का निर्वस्त्र शरीर ढं कने के लिए थी, जिसे जनता खुद बना सकती थी. चरखा लोगों के लिए अपना
कपड़ा और अपनी रोटी का इंतजाम करने के लिए रोजगार का साधन था. चरखा गरीबी से लड़ने का एक हथियार
थी. चरखा और खादी स्वावलंबन का हथियार था, यह बात समझना क्या कठिन है ? फिर अफवाह कौन फैला रहा है ?

जिस गांधी को उनके जीते जी पुरी दनि


ु या जान गई, आइंस्टीन जैसे दिग्गज दिमाग जिनके मुरीद थे, उनके प्रति नई
पीढ़ी के मन में नफरत कौन भर रहा है ?

जब आप दस लाख का सूट पहनने वाले नेता को विष्णु का अवतार बताने लगते हैं तब धोती पहने लाठी लिए एक
अधनंगा फकीर आपको मजाक का विषय लगेगा ही.

ऐसा तब होता है जब आपको अपनी जड़ों से उखाड़ दिया जाए. मेरी उम्र करीब तीन दशक की है और मैंने इसी सदी
में अपने गांव के बुजुर्गों को गांधी की तरह एक धोती में दे खा है . मुझे तो गांधी अपने बाबाओं और दादाओं की तरह
लगते हैं. गांधी पर हं सने वाले अहमक किस ग्रह से आन कर लाए गए हैं?

गांधी के निर्वस्त्र रहने, चरखा चलाने और खादी पहनने का मजाक उड़ाने का अर्थ है आजादी के लिए संघर्ष कर रही
करोड़ों भख
ू े और अधनंगे लोगों का अपमान करना. क्या हमारी यव
ु ा पीढ़ी अपने परु खों को अपमानित करने की
नीचता में फंस गई है ?

जय हिंद!
Krishna Kant
इस दे श के "सिकलुर" और "बौद्धिक आतंकवादियों" के हमेशा राष्ट्रवादी विचारधारा पर हमला करने के लिए मौका
चाहिए होता है ... आज इन्होने फायदा उठाया 2 अक्टूबर यानि गांधी जयंति का... सुबह से सोशल मीडिया पर दे ख रहा
हूं कि बापू और उनकी विचारधारा के नाम पर ये सिकलरु गैंग दे श में उत्साह का माहौल बनाने के बजाय
मनहूसियत फैलाने का काम कर रहा है ... ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि ये परू ा दे श बापू और उनके
विचारों का कातिल बन चुका है ... इतना ही नहीं इन लोगों ने राष्ट्रवादी विचारधारा के हर व्यक्ति को गोडसे से
जोड़ने की कोशिश की...
मैंने ये पहले भी लिखा था आज फिर लिख रहा हूं... दरअसल गांधी के नाम पर इस तरह की वैचारिक, शारीरिक,
नस्लीय हिंसा की शरुु आत तो इन कथित गांधीवादियों ने बापू की मौत के 5 घंटे बाद ही शरु
ु कर दी थी... आज
गोडसे के नाम पर हिंद ू धर्म को बदनाम किया जा रहा है लेकिन 1948 में तो गोडसे के गन
ु ाह के बदले 8 हज़ार
मासूम लोगों की जान तक ले ली गई थी... इस दे श में मेरठ, भागलपुर, गुजरात दं गों का रिकॉर्ड तो मौजूद हैं लेकिन
1948 में कथित गांधीवादियों के पाप के निशान तो इतिहास के पन्नों से ही मिटा दिये गए हैं... दरअसल गांधीवाद
के नाम पर दस
ू रों से बदला लेने वालों की हमेशा से यही मानसिकता रही है कि गोडसे जैसे हत्यारे के गुनाह का
बदला कभी उसके पूरे समाज से ले डालो तो कभी राष्ट्रवाद की बात करने वालों से ले लो... कभी ये बदला विचारो
से लिया जाता है तो कभी खून खराबे से...
आखिर 30 जनवरी 1948 को हुआ क्या था??? गांधीवादियो ने उस रात कौन सा पाप किया था??? ये तो सबको पता
है इसी दिन शाम 5 बजकर 17 मिनट पर गोडसे ने बापू की जान ले ली थी... लेकिन उसके बाद क्या हुआ था... ये
किसी को नहीं पता... ये पता होना चाहिए... दे र रात तक परू े भारत में ये ख़बर फैल गई थी कि गांधी का हत्यारे का
नाम नाथूराम गोडसे है और उसकी जाति "चितपावन ब्राह्मण" है ... दे खते ही दे खते ही बापू को मानने वाले “अहिंसा
के पुजारियों” ने पूरे महाराष्ट्र में कत्लेआम शुरु कर दिया... 1984 की तरह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और कथित
गांधीवादियों के निशाने पर थे महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण... सबसे पहले दं गा मुंबई में शुरु हुआ उसी रात 15
लोग मारे गए और पुणे में 50 लोगों का कत्ल हुआ... भारत में ख़बर छपी या नहीं पता नहीं लेकिन अमेरिकी
अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने इस कत्लेआम को अपनी हे डलाइन बनाया...
लेकिन सबसे दख
ु द अंजाम हुआ स्वतंत्रता सेनानी डॉ. नारायण सावरकर का... नारायण सावरकर वीर दामोदर
सावरकर के सबसे छोटे भाई थे... गांधी की हत्या के एक दिन बाद पहले तो भीड़ ने रात में वीर सावरकर के घर
पर हमला किया लेकिन जब वहां बहुत सफलता नहीं मिली तो शिवाजी पार्क में ही रहने वाले उनके छोटे भाई डॉ.
नारायण सावरकर के घर पर हमला बोल दिया... डॉ. नारायण सावरकर को बाहर खींचकर निकाला गया और भीड़
उन्हे तब तक पत्थरों से लहूलह
ु ान करती रही जब तक कि वो मौत के महु ाने तक नहीं पहुंच गए... इसके कुछ
महीनों बाद ही डॉ. नारायण सावरकर की उस रात के घावों की वजह से मौत हो गई... मुझे पता है लोग बोलेंगे वीर
सावरकर ने तो अंग्रेज़ों से माफी मांगी थी, गांधी हत्याकांड में उनका नाम आया था... ठीक है ... लेकिन कोई ये नहीं
बोलेगा कि इसमें उनके छोटे भाई और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. नारायण सावरकर का ऐसा क्या गुनाह था, जिसके लिए
उन्हे पत्थर मार-मार कर मौत की सज़ा दे दी गई ??? आप ही बताइए कि आज़ादी का ये सिपाही, क्या ऐसी दर्दनाक
मौत का हकदार था ???
पहले निशाने पर सिर्फ चितपावन थे... लेकिन बापू के “अहिंसा के पुजारियों” ने सभी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों को
निशाना बनाना शुरु कर दिया... मुंबई, पुणे, सांगली, नागपुर, नासिक, सतारा, कोल्हापुर, बेलगाम (वर्तमान में कर्नाटक) मे
जबरदस्त कत्लेआम मचाया गया... सतारा में 1000 से ज्यादा महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के घरों को जला दिया गया...
एक परिवार के तीन पुरुषों को सिर्फ इसलिए जला दिया गया क्योंकि उनका सरनेम गोडसे था... उस कत्लेआम के
दौर में जिसके भी नाम के आगे आप्टे , गोखले, जोशी, रानाडे, कुलकर्णी, दे शपांडे जैसे सरनेम लगे थे भीड़ उनकी जान
की प्यासी हो गई...
मराठी साहित्यकार और तरुण भारत के संपादक गजानंद त्र्यंबक माडखोलकर की किताब “एका निर्वासिताची कहाणी”
(एक शरणार्थी की कहानी) के मुताबिक गांधीवादियों की इस हिंसा में करीब 8 हज़ार महाराष्ट्रीयन ब्राहमण मारे गए...
खुद 31 जनवरी को माडखोलकर के घर पर भी हमला हुआ था और उन्होने महाराष्ट्र के बाहर शरण लेनी पड़ी थी
और अपने इसी अनभ ु व पर उन्होने ये किताब “एका निर्वासिताची कहाणी” (एक शरणार्थी की कहानी) लिखी थी...
#Prakhar_Shrivastava
लेकिन जब आप 1948 के इस नरसंहार का रिकॉर्ड ढूंढने की कोशिश करें गें तो आपको हर जगह निराशा हाथ
लगेगी... भारत में आज तक जितने भी दं गे हुए हैं उसकी लिस्ट में आपको Anti-Brahmin riots of 1948 का जिक्र तो
मिलेगा लेकिन जब उसके सामने लिखे मारे गए लोगों का कॉलम दे खेंगे तो इसमें लिखा होगा Unknown…!!!! यानि
दं गे तो हुए लेकिन कितने ब्राह्मण मारे गए इसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं है ... क्यों जिक्र नहीं है ?... क्यों इतिहास के
इस काले पन्ने को मिटा दिया गया ?... वजह सिर्फ एक है आने वाली पीढ़ी को ये कभी पता नहीं चलना चाहिए कि
गांधी टोपी पहनने वाले “अहिंसा के पुजारियों” ने कैसा खूनी खेल खेला था... क्यों नेहरू और पटे ल इस हिंसा को
रोकने में ठीक उसी तरह नाकाम रहे जिस तरह वो गांधी के हत्यारे को रोकने में नाकाम रहे थे। 20 जनवरी को
गांधी पर पर पहला हमला होने के बाद ही पता चल जाना चाहिए था कि गांधी की जान को किससे खतरा है ... 20
जनवरी के बाद अगले 10 दिन तक नेहरू और पटे ल की पुलिस गोडसे तक नहीं पहुंच पाई, उसकी पहचान पता नहीं
कर पाई... लेकिन जैसे ही 30 जनवरी को गोडसे ने बापू की जान ले ली, तो महज 5 घंटे के अंदर उसकी पहचान,
उसका धर्म, उसकी जात, और जात में भी वो कौन सा ब्राह्मण है ये सब जानकारी महाराष्ट्र की उन्मादी कांग्रेसी
गांधीवादियों को मिल गई... वो भी उस दौर में जब सोशल मीडिया तो छोड़िये फोन भी नहीं होते थे... क्या तब भी
“बड़ा बरगद गिरता है तो धरती तो हिलती ही है ” ये वाली सोच काम कर रही थी ???

#प्रखर_श्रीवास्तव से साभार

नोट - गोडसे ने जो जघन्य पाप किया था उसका कोई भी बचाव नहीं कर सकता... और करना भी नहीं चाहिए...
लेकिन उसके बाद जो कथित गांधीवादियों या उस वक्त के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने किया उसका क्या ???? दरअसल
ये सोच आज 2 अक्टूबर 2019 को भी जिंदा है ... गांधीवाद के नाम पर दस
ू रों को निशाना बनाओ...
इसके बाद भारत भर में संघ के स्वयंसेवकों की गिरफ़्तारियाँ हुई और महीनों सबको बिना गुनाह के बन्द रखा
गया। जहाँ वो नौकरियाँ करते थे उनके मालिकों पर दबाव बना कर और धमका कर उनकी नौकरियाँ छुड़वाई गयीं।
नेहरू की हिन्द ू विरोधी मानसिकता का यह सब परिचायक है ।

गांधी को मारने वाले गोडसे की चाहे जितनी मूर्तियां बना लें , वे गोडसे में प्राण नहीं फूंक सकते. गांधी को वे चाहे
जितनी गोलियां मारें , गांधी आज भी सांस लेते हैं।

गांधी की हत्या इसलिए हुई कि धर्म का नाम लेने वाली सांप्रदायिकता उनसे डरती थी. भारत-माता की जड़ मूर्ति
बनाने वाली, राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली विचारधारा उनसे परे शान रहती थी. गांधी
धर्म के कर्मकांड की अवहे लना करते हुए उसका मर्म खोज लाते थे और कुछ इस तरह कि धर्म भी सध जाता था,
मर्म भी सध जाता था और वह राजनीति भी सध जाती थी जो एक नया दे श और नया समाज बना सकती थी.

गांधी अपनी धार्मिकता को लेकर हमेशा निष्कंप, अपने हिंदत्ु व को लेकर हमेशा असंदिग्ध रहे . राम और गीता जैसे
प्रतीकों को उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों की जकड़ से बचाए रखा, उन्हें नए और मानवीय अर्थ दिए. उनका भगवान
छुआछूत में भरोसा नहीं करता था, बल्कि इस पर भरोसा करने वालों को भूकंप की शक्ल में दं ड दे ता था. इस
धार्मिकता के आगे धर्म के नाम पर पलने वाली और राष्ट्र के नाम पर दं गे करने वाली सांप्रदायिकता खद
ु को
कंु ठित पाती थी. गोडसे इस कंु ठा का प्रतीक पुरुष था जिसने धर्मनिरपेक्ष नेहरू या सांप्रदायिक जिन्ना को नहीं,
धार्मिक गांधी को गोली मारी.

लेकिन मरने के बाद भी गांधी मरे नहीं. आम तौर पर यह एक जड़ वाक्य है जो हर विचार के समर्थन में बोला
जाता है . लेकिन ध्यान से दे खें तो आज की दनि
ु या सबसे ज़्यादा तत्व गांधी से ग्रहण कर रही है . वे जितने पारं परिक
थे, उससे ज़्यादा उत्तर आधनि
ु क साबित हो रहे हैं. वे हमारी सदी के तर्क वाद के विरुद्ध आस्था का स्वर रचते हैं.
हमारे समय के सबसे बड़े मुद्दे जैसे उनकी विचारधारा की कोख में पल कर निकले हैं. मानवाधिकार का मुद्दा हो,
सांस्कृतिक बहुलता का प्रश्न हो या फिर पर्यावरण का- यह सब जैसे गांधी के चरखे से, उनके बनाए सूत से बंधे हुए
हैं.
अनंत उपभोग के ख़िलाफ़ गांधी एक आदर्श वाक्य रचते हैं- यह धरती सबकी ज़रूरत पूरी कर सकती है , लेकिन एक
आदमी के लालच के आगे छोटी है . भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ ग्राम स्वराज्य की उनकी अवधारणा अपनी सीमाओं के
बावजूद इकलौता राजनीतिक-आर्थिक विकल्प लगती है . बाज़ार की चौंधिया दे ने वाली रोशनी के सामने वे मनुष्यता
की जलती लौ हैं जिनमें हम अपनी सादगी का मूल्य पहचान सकते हैं.

गांधी ने अपनी सम्पर्ण


ू ता में भारत को आत्मसात किया और भारत के वह बापू हो गए। जब जब दे श के विभिन्न
क्षेत्रों की समस्याएं हमारे सामने मँह
ु बाये खड़ी रहें गी, हमें तब तब गांधी याद आएंगे। गांधी वैसे किसी वाद में
विश्वास नहीं रखते थे, पर उनका जीवन दर्शन भारतीयता का ही पर्याय है , जिसमें कोई व्यक्ति छूटा नहीं है। आने
वाली पीढियां गांधी की खोज करती रहें गी, जब भी यह खोज पूरी हो

जितने भी आज आपको शास्त्री जी की फ़ोटो डीपी पर लगाए मिलेंगे या टोकरा भर भर के शास्त्री जी के ऊपर
पोस्ट लिखते मिलेंगे, वो दरअसल शास्त्री के चाहने वाले लोग नहीं हैं.. वो गोडसे प्रेमी हैं.. वो सीधे गांधी को गाली दे
नहीं पा रहे हैं तो शास्त्री जी के पीछे छिप रहे हैं बस

2004 से ट्रें ड शुरू किया गया है कि गांधी जयंती पर शास्त्री जी की ज़्यादा तारीफ़ की जाय.. ये आज के सत्ताधारियों
के संगठन का नैरेटिव है जो सेट किया जा रहा है .. इनकी ये ख़ास बात होती है ये बड़ी लाइन के समानांतर एक
दस
ू री बड़ी लाइन खींचते हैं ताकि अगर बड़ी लाइन मिटे न तो कम से कम उसकी उपयोगिता ही कम हो जाय

हम बचपन मे जब घरौंदा बनाते थे तो जो दोस्त सबसे नाकारा होता था और जिसका सबसे ख़राब घरौंदा बनता था
वो अंत मे खीझ कर दस
ू रों के अच्छे बने घरौंदे छल या बल से तोड़ दे ता था.. इनका यही काम है .. इनसे अपना कुछ
कभी न बन पाया तो ये बस दस
ू रों का घरौंदा तोड़ने में ही जुटे हैं अब

जानिए ये कितनी बड़ी पीड़ा से गुज़र रहे हैं.. ये इनकी खीझ और पीड़ा है क्यूंकि इनके पास अपना कोई हीरो है
नहीं.. और जिसे ये हीरो मानते हैं वो इस क़ाबिल नहीं है जिसकी विश्व पटल पर ये तारीफ़ कर सकें या उसका नाम
ही ले सकें.. तो ले दे कर इन्हें मजबूरी में बुद्ध और गांधी का नाम लेना पड़ता है .. सोचिये कितनी पीड़ा होती होगी
कि जब आप सारी उम्र अपने दड़बे में गांधी के हत्यारे के आगे झुकें और जब अपने दड़बे से बाहर निकलें तो
आपको गांधी के आगे सर झुकाना पड़े? क्या गुज़रती होगी मन पर सोच के दे खिये?

इसलिये मझ
ु े इन पर तरस आती है .. क्यंकि
ू ऐसे आदर्श स्थापित किये इन्होंने जिसके लिए इन्हें सारी उम्र मह
ु ं
छिपाना पड़ेगा

मगर हम और आप विश्व मे कहीं भी गर्व से बोल सकते हैं कि हम गांधी के अनय


ु ायी हैं.. हमें और आपको मुहं
छिपाने की ज़रूरत नहीं है .. और इसीलिए गांधी के हत्यारों को पूजने वाले स्वयं में इतनी आत्मग्लानि और कंु ठा से
भर जाते हैं कि ये हिंसा और ज़ोर ज़बरदस्ती पर उतर आते हैं.. ये हमारे और आपके बनाये घरौंदों को तोड़ने के
लिए है तरह के छल का इस्तेमाल करते हैं

मौजूदा सत्तादारी पार्टी के संगठन को मैं "कोयलों" का संगठन बोलता हूँ.. वो इसलिए क्यूंकि कोयल की भाषा बड़ी
मधुर होती है .. भाषण और बात ले लीजिए कोयल से.. मगर उसके पास अपना कुछ नहीं होता है ना घर और न कोई
आदर्श.. सारी उम्र गाती फिरती है और जब अंडे दे ने का समय आता है तो कोयल जल्दबाज़ी में कव्वे से लेकर अन्य
पक्षियों के घोंसले में अपना अंडा दे दे ती है .. और वो इतनी चालाक होती है कि जब दस
ू रे पक्षियों के घोंसलों में अंडे
दे ती है तो जितने अंडे दे गी उतने उस पक्षी के अपने अंडे तोड़ के घोंसले से बाहर फेंक दे ती है ताकि वो पक्षी कोयल
के अंडों को अपना ही अंडा समझे और उसे सेने लगे

ऐसे ही इस संगठन और उसके मानने वालों के लिए शास्त्री जी हैं.. शास्त्री जी बस दस


ू रा घोसला हैं जहां इन्हें अपने
अंडे सेने हैं.. बुद्ध घोसला हैं बस.. शास्त्री जी और बुद्ध के घोसलें में इनके अपने बच्चे पलेंगे बस.. बाद में जब काम
निकल जायेगा तो कहां के शास्त्री जी और कहां गांधी कहाँ बद्ध

इसलिए आपसे कहता हूँ कि गोडसे को मानेंगे तो सारी उम्र ऐसे ही दाएं और बाएं से जाकर दस
ू रों के घोसलों में
अंडे दोगे.. कभी शास्त्री को टिकानी बनाओगे कभी बुद्ध को.. तो क्यूं न आदर्श ऐसे चुनो जिसका नाम सारी दनि
ु या मे
सीना ठोक के ले सको?

बापू तस्
ु सी ग्रेट हो.. शास्त्री जी को छोटा दिखाने के लिए हम तम्
ु हारी तारीफ़ नहीं करते हैं.. तम्
ु हारे चाहने वालों को
किसी धूर्तता की ज़रूरत नहीं पड़ती है .. तुम्हीं हमारे असल आदर्श हो और रहोगे.. लव यू बापू.. नमन है तुम्हारी
अहिंसा को

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