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अिभ ान शाकु ल
अिभ ान शाकु ल ( सं ृ त के िस नाटक ' अिभ ान शाकु लम् ' का
िह ी पा र )
महाकिव कािलदास
राजपाल
पा रकार िवराज
सं रण : 2008 © राजपाल ए स ज़ ISBN : 978- 81 - 7028 - 773- 5
ABHIGYAN SHAKUNTALAM (Sanskrit Play) by Kalidas
राजपाल ए स ज़ , क ीरी गेट , िद ी - 110006 Website : www
.rajpalpublishing . com e -mail :mail @ rajpalpublishing .com
भूिमका
कािलदास सं ृ त- सािह के सबसे बड़े किव ह । उ ोंने तीन का और तीन
नाटक िलखे ह । उनके ये का ' रघुवंश', ' कुमार स व' और 'मेघदू त ' ह और
नाटक ' अिभ ान शाकु ल', 'मालिवकाि िम ' और 'िव मोवशीय ' ह । इनके
अित र 'ऋतुसंहार' भी कािलदास का ही िलखा आ माना जाता है । इतना ही नहीं,
लगभग पतीस अ पु क भी कािलदास - रिचत कही जाती ह । ये सब रचनाएँ
कािलदास - रिचत ह अथवा नहीं , यहाँ इस िववाद म न पड़कर हम केवल कािलदास
के का - सौ य पर एक ि पात - भर करने लगे ह । इन तीन नाटकों और तीन
का ों को तो असंिद प से कािलदास - रिचत ही माना जाता है ।
कािलदास का थान और काल
िव ानों म इस बात पर ही गहरा मतभेद है िक यह कािलदास कौन थे? कहाँ के
रहने वाले
थे ? और कािलदास नाम का एक ही किव था , अथवा इस नाम के कई किव हो
चुके ह ? कुछ िव ानों ने कािलदास को उ ियनी-िनवासी माना है , ोंिक उनकी
रचनाओं म उ ियनी, महाकाल, मालवदे श तथा ि ा आिद के वणन अनेक थानों
पर और िव ारपूवक ए ह । पर ु दू सरी ओर िहमालय, गंगा और िहमालय की
उप काओं का वणन भी कािलदास ने िव ार से और रसम होकर िकया है ।
इससे कुछ िव ानों का िवचार है िक ये महाकिव िहमालय के आसपास के रहने वाले
थे । बंगाल के िव ानों ने कािलदास को बंगाली िस करने का य िकया है और
कुछ लोगों ने उ क ीरी बतलाया है । इस िवषय म िन य के साथ कुछ भी कह
पाना किठन है िक कािलदास कहाँ के िनवासी थे। भारतीय किवयों की पर रा के
अनुसार उ ोंने अपने प रचय के िलए अपने इतने बड़े सािह म कहीं एक पं भी
नहीं िलखी। कािलदास ने िजन -िजन थानों का िवशेष प से वणन िकया है , उनके
आधार पर केवल इतना अनुमान लगाया जा सकता है िक कािलदास ने उन थानों को
भली भाँ ित दे खा था । इस कार के थान एक नहीं , अनेक ह ; और वे एक - दू सरे से
काफी दू र - दू र ह । िफर भी कािलदास का अनुराग दो थानों की ओर िवशेष प से
लि त होता है : एक उ ियनी और दू सरे िहमालय की उप का। इससे मोटे तौर पर
इतना अनुमान िकया जा सकता है िक कािलदास के जीवन का पया समय इन
दोनों थानों म तीत आ होगा।
और यिद हम इस जन ुित म स का कुछ भी अंश माने िक कािलदास
िव मािद की राजसभा के नवर ों म से एक थे, तो हमारे िलए यह अनुमान करना
और सुगम हो जाएगा िक उनका यौवनकाल उ ियनी के महाराज िव मािद की
राजसभा म तीत आ। िव मािद उ ियनी के नरे श कहे जाते ह । य िप
कािलदास की ही भाँ ित िव ानों म महाराज िव मािद के िवषय म भी उतना ही
गहरा मतभेद है ; िक ु इस स म अिव प से चली आ रही िव म संवत्
की अ खल भारतीय पर रा हमारा कुछ मागदशन कर सकती है । प े
ऐितहािसक िववाद माणों की ओर न जाकर इन जन ुितयों के आधार पर यह
माना जा सकता है िक कािलदास अब से लगभग 2, 000 वष पूव उ ियनी के
महाराज िव मािद की राजसभा के नवर ों म से एक थे ।
पर ु िव मािद की राजसभा म कािलदास का होना इस बात का माण नहीं
है िक उनका ज भी उ ियनी म ही आ था । उ कोिट के कलाकारों को
गुण ाहक राजाओं का आ य ा करने के िलए अपनी ज भूिम को ागकर दू र -
दू र जाना पड़ता ही है । कुछ िव ानों का अनुमान है िक मेघदू त के य कािलदास
यं ह और उ ोंने जो स े श मेघ को दू त बनाकर भेजा है , वह उनके अपने घर की
ओर ही भेजा गया है । मेघदू त का यह मेघ िव ाचल से चलकर आ कूट पवत पर
होता आ रे वा नदी पर प ं चा है । वहाँ से दशाण दे श , जहाँ की राजधानी िविदशा थी
, और वहाँ से उ ियनी । किव ने िलखा है िक उ ियनी य िप मेघ के माग म न
पड़े गी, िफर भी उ ियनी के ित किव का इतना आ ह है िक उसके िलए मेघ को
थोड़ा- सा माग ल ा करके भी जाना ही चािहए । उ ियनी का वणन मेघदू त म
िव ार से है । उ ियनी से चलकर मेघ का माग ग ीरा नदी , दे विग र पवत,
चम ती नदी , दशपुर , कु े और कनखल तक प ँ चा है , और वहाँ से आगे
अलकापुरी चला गया है । यह कनखल इसिलए भी िवशेष प से ान दे ने यो है ,
ोंिक ' अिभ ान शाकु ल' की सारी कथा इस कनखल से लगभग प ह -बीस
मील दू र मािलनी नदी के तीर पर क ा म म घिटत होती ह । कािलदास ने अपने
सभी का ों म गंगा और िहमालय का एकसाथ वणन िकया है । इससे तीत होता है
िक कािलदास का िहमालय के उन थानों के ित िवशेष मोह था , जहाँ िहमालय और
गंगा साथ- साथ ह । इस ि से यह कनखल का दे श ही एकमा ऐसा दे श है ,
जहाँ गंगा , िहमालय , मािलनी नदी पास ही पास आ जाती ह । यह ठीक िन य कर
पाना िक कािलदास िकस िविश नगर या गाँ व के िनवासी थे, शायद ब त किठन हो
। िक ु इस कनखल के आसपास के दे श के ित कािलदास का वैसा ही ेम
िदखाई पड़ता है , जैसा िक को उन दे शों के ित होता है , जहाँ उसने अपना
बा काल िबताया होता है । वहाँ की ेक व ु रमणीय और सु र तीत होती है ।
कािलदास को न केवल यहाँ के वन - पवत ही चे, ब यहाँ के िसंह , ा ,
शादू ल , वराह , ह रण आिद भी उनके का ों म अपना उिचत थान बनाए ए ह ।
यहाँ तक िक वहाँ की ओस से गीली झरबे रयों के बेर भी उनकी अमर रचना म थान
पा गए ह ।
कािलदास का गौरव
कािलदास एक थे या कई, इस िवषय म भी ल े िववाद म पड़ना हम अभी नहीं
है । जन ुितयों से िजस कार यह मालूम होता है िक कोई कािलदास िव मािद
की सभा म थे, उसी कार ' भोज ब ' म भोज की सभा म भी एक कािलदास का
उ ेख है । कुछ िव ानों ने तीन कािलदास माने ह । रखर ने भी िलखा है िक ' लिलत
ंगार की रचनाओं म एक ही कािलदास को कोई नहीं जीत सकता, िफर तीन
कािलदासों का तो कहना ही ा ! 1
कािलदास कौन थे और कब ए थे? इस िववाद को यहीं छोड़कर अब हम उनके
अमर नाटक ' अिभ ान शाकु ल' की ओर आते ह । कािलदास की रचनाओं की
शंसा उनके परवत किवयों ने मु कंठ से की है । एक किव ने कािलदास की
सू यों को मधुरस से भरी ई आ मंज रयों के समान बताया है 2 एक और किव ने
िलखा है िक ' किवयों की गणना करते समय कािलदास का नाम जब किनि का
अंगुली पर रखा गया, तो अनािमका के िलए उनके समान िकसी दू सरे किव का नाम
ही न सूझा ; और इस कार अनािमका अँगुली का अनािमका नाम साथक हो गया ।
आज तक भी कािलदास के समान और कोई किव नहीं आ ।'1 एक और आलोचक
ने िलखा है िक ' का ों म नाटक सु र माने जाते ह ; नाटकों म ' अिभ ान शाकु ल'
सबसे े है ; शाकु ल म भी चौथा अंक ; और उस अंक म भी चार ोक अनुपम ह
।
अिभ ान शाकु ल
' अिभ ान शाकु ल ' की शंसा केवल भारतीय आलोचकों ने ही की हो, यह
बात नहीं । िवदे शी आलोचकों ने भी शाकु ल का रसपान करके इसकी ुित के
गीत गाए ह । जमन किव गेटे ने ' अिभ ान शाकु ल ' का अनुवाद जमन भाषा म
पढ़ा था । शाकु ल का जो सौ य मूल सं ृ त म है , उसे अनुवाद म ों का ों ला
पाना अस व नहीं, तो दु ःसा अव है । हम मालूम नहीं िक जो जमन अनुवाद
गेटे ने पढ़ा था उसम शाकु ल का िकतना सौ य आ पाया था । िफर भी उसे
पढ़कर गेटे ने शाकु ल की जो आलोचना की , वह उसकी स दय भावुकता की
सूचक है । उसने िलखा, “ यिद तुम त ण वस के फूलों की सुग और ी ऋतु
के मधुर फलों का प रपाक एकसाथ दे खना चाहते हो; या उस व ु का दशन करना
चाहते हो िजससे अ ःकरण पुलिकत, स ोिहत , आन त और तृ हो जाता है ;
अथवा तुम भूिम और ग की झाँ की एक ही थान म दे खना चाहते हो , तो ' अिभ ान
शाकु ल ' का रसपान करो।'3 गेटे की आलोचना शाकु ल का सही मू ां कन
समझी जा सकती है । किव रवी ने भी शाकु ल की आलोचना करते ए िलखा है ,
" शाकु ल का आर सौ य से आ है और उस सौ य की प रणित मंगल म
जाकर ई है । इस कार किव ने म को अमृत से स कर िदया है ।'
' अिभ ान शाकु ल ' को िजस भी ि से दे खा जाए , यह िवल ण रचना तीत
होती है । इसकी कथाव ु , पा ों का च र -िच ण, नाटकीयता, सु र
कथोपकथन, इसकी का - सौ य से भरी उपमाएँ और थान - थान पर यु
ई समयोिचत सू याँ ; और सबसे बढ़कर िविवध संगों की ा कता इतनी
अद् भुत है िक इन ि यों से दे खने पर सं ृ त के भी अ नाटक ' अिभ ान
शाकु ल' से ट र नहीं ले सकते; िफर अ भाषाओं का तो कहना ही ा !
मौिलक न होने पर भी मौिलक
कािलदास ने ' अिभ ान शाकु ल' की कथाव ु मौिलक नहीं चुनी । यह कथा
महाभारत के आिदपव से ली गई है । यों प पुराण म भी शकु ला की कथा िमलती
है और वह महाभारत की अपे ा शकु ला की कथा के अिधक िनकट है । इस
कारण िव रिनट् ज़ ने यह माना है िक शकु ला की कथा प पुराण से ली गई है ।
पर ु िव ानों का कथन है िक प पुराण का यह भाग शकु ला की रचना के बाद
िलखा गया और बाद म ि तीत होता है । महाभारत की कथा म दु वासा के शाप
का उ ेख नहीं है । महाभारत का दु कािलदास के दु से यिद ठीक उलटा
नहीं, तो भी ब त अिधक िभ है । महाभारत की शकु ला भी कािलदास की
शकु ला की भाँ ित सल नहीं है । वह दु को िव ािम और मेनका के स
के फल प ए अपने ज की कथा अपने मुँह से ही सुनाती है । महाभारत म
दु शकु ला के प पर मु होकर शकु ला से गा व िववाह की ाथना
करता है ; िजस पर शकु ला कहती है िक म िववाह इस शत पर कर सकती ँ िक
राजिसंहासन मेरे पु को ही िमले । दु उस समय तो ीकार कर लेता है और
बाद म अपनी राजधानी म लौटकर जान -बूझकर ल ावश शकु ला को हण नहीं
करता । कािलदास ने इस कार अप र ृ त प म ा ई कथा को अपनी
क ना से अद् भुत प म िनखार िदया है । दु वासा के शाप की क ना करके
उ ोंने दु के च र को ऊँचा उठाया है । कािलदास की शकु ला भी
आिभजा , सौ य और क णा की मूित है । इसके अित र कािलदास ने सारी
कथा का िनवाह, भावों का िच ण इ ािद िजस ढं ग से िकया है , वह मौिलक और
अपूव है ।
ा क संकेत शकु ला म कािलदास का सबसे बड़ा चम ार उसके
ा क संकेतों म है । इसम किव को िवल ण सफलता यह िमली है िक उसने
कहीं भी कोई भी व ु िन योजन नहीं कही। कोई भी पा , कोई भी कथोपकथन ,
कोई भी घटना , कोई भी ाकृितक िन योजन नहीं है । सभी घटनाएँ या
आगे आने वाली घटनाओं का संकेत चम ा रक रीित से पहले ही दे दे ते ह । नाटक
के ार म ही ी -वणन करते ए वन - वायु के पाटल की
सुग से िमलकर सुग त हो उठने और छाया म लेटते ही नींद आने लगने और
िदवस का अ रमणीय होने के ारा नाटक की कथाव ु की मोटे तौर पर सूचना दे
दी गई है , जो मशः पहले शकु ला और दु के िमलन , उसके बाद नींद
- भाव से शकु ला को भूल जाने और नाटक का अ सुखद होने की सूचक है ।
इसी कार नाटक के ार क गीत म मरों ारा िशरीष के फूलों को ज़रा- ज़रा-
सा चूमने से यह संकेत िमलता है िक दु और शकु ला का िमलन अ थायी
होगा । जब राजा धनुष पर बाण चढ़ाए ह रण के पीछे दौड़े जा रहे ह , तभी कुछ
तप ी आकर रोकते ह । कहते ह : " महाराज, यह आ म का ह रण है , इस पर तीर
न चलाना ।' यहाँ ह रण से ह रण के अित र शकु ला की ओर भी संकेत है , जो
ह रण के समान ही भोली- भाली और असहाय है । ' कहाँ तो ह रणों का अ
चंचल जीवन और कहाँ तु ारे व के समान कठोर बाण!' इससे भी शकु ला की
असहायता
और सरलता तथा राजा की िन ठुरता का मम श संकेत िकया गया है । जब
दु और शकु ला का ेम कुछ और बढ़ने लगता है , तभी नेप से पुकार सुनाई
पड़ती है िक ' तप यो, आ म के ािणयों की र ा के िलए तैयार हो जाओ। िशकारी
राजा दु यहाँ
आया आ है ।' इसम भी दु के हाथों से शकु ला की र ा की ओर संकेत
िकया गया तीत होता है , पर ु यह संकेत िकसी के भी कान म सुनाई नहीं िदया;
शकु ला को िकसी ने नहीं बचाया । इससे थित की क णाजनकता और भी
अिधक बढ़ जाती है । चौथे अंक के ार क भाग म क के िश ने भात का
वणन करते ए सुख और दु ःख के िनर र साथ लगे रहने का तथा ि य के िवयोग म
यों के अस दु ःख का जो उ ेख िकया है , वह दु ारा शकु ला का
प र ाग िकए जाने के िलए पहले से ही पृ भूिम - सी बना दे ता है । पाँ चव अंक म
रानी हं सपिदका एक गीत गाती ह , िजसम राजा को उनकी मधुकर वृि के िलए
उलाहना िदया गया है । दु भी यह ीकार करते ह िक उ ोंने हं सपिदका से
एक ही बार ेम िकया है । इससे किव यह ग ीर संकेत दे ता है िक भले ही शकु ला
को दु ने दु वासा के शाप के कारण भूलकर छोड़ा , पर ु एक बार ार करने के
बाद रािनयों की उपे ा करना उसके िलए कोई नई बात नहीं थी । अ रािनयाँ भी
उसकी इस मधुकर- वृि का िशकार थीं । हं सपिदका के इस गीत की पृ भूिम म
शकु ला के प र ाग की घटना और भी ू र और कठोर जान पड़ती है । इसी कार
के ा क संकेतों से कािलदास ने सातव अंक म दु , शकु ला और उसके
पु के िमलने के िलए सुखद पृ भूिम तैयार कर दी है । इ राजा दु को अपूव
स ान दान करते ह । उसके बाद हे मकूट पवत पर जापित के आ म म प ँ चते
ही राजा को अनुभव होने लगता है िक जैसे वह अमृत के सरोवर म ान कर रहे हों ।
इस कार के संकेतों के बाद दु और शकु ला का िमलन और भी अिधक
मनोहर हो उठता है ।
का - सौ य
' अिभ ान शाकु ल ' म नाटकीयता के साथ - साथ का का अंश भी यथे
मा ा म है । इसम ंगार मु रस है ; और उसके संयोग तथा िवयोग दोनों ही प ों
का प रपाक सु र
प म आ है । इसके अित र हा , वीर तथा क ण रस की भी जहाँ - तहाँ
अ ी अिभ ई है । थान - थान पर सु र उपमाएँ और मनोहा रणी उ े ाएँ
न केवल पाठक को चम ृ त कर दे ती ह , िक ु अभी भाव की ती ता को बढ़ाने म
भी सहायक होती ह । सारे नाटक म कािलदास ने अपनी उपमाओं और उ े ाओं
का उपयोग कहीं भी केवल अलंकार- दशन के िलए नहीं िकया । ेक थान पर
उनकी उपमा या उ े ा अथ की अिभ को रसपूण बनाने म सहायक ई है ।
कािलदास अपनी उपमाओं के िलए सं ृ त - सािह म िस ह । शाकु ल म भी
उनकी उपयु उपमा चुनने की श भली भाँ ित कट ई । शकु ला के िवषय म
एक जगह राजा दु कहते ह िक ' वह ऐसा फूल है , िजसे िकसी ने सँघा नहीं है ।
ऐसा नवप व है , िजस पर िकसी के नखों की खरोंच नहीं लगी ; ऐसा र है , िजसम
छे द नहीं िकया गया और ऐसा मधु है , िजसका ाद िकसी ने चखा नहीं है ।' इन
उपमाओं के ारा शकु ला के सौ य की एक अनोखी झलक हमारी आँ खों के
सामने आ जाती है । इसी कार पाँ चव अंक म दु शकु ला का प र ाग करते
ए कहते ह िक 'हे तप नी, ा तुम वैसे ही अपने कुल को कलंिकत करना और
मुझे पितत करना चाहती हो , जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृ को तो
िगराती ही है , अपने जल को भी मिलन कर लेती है ।' यहाँ शकु ला की तट को
तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को करने म िवशेष
प से सहायक होती है । इसी कार जब क के िश शकु ला को साथ लेकर
दु के पास प ँ चते ह तो दु की ि उन तप यों के बीच म शकु ला के
ऊपर जाकर पड़ती है । वहाँ शकु ला के सौ य का िव ृत वणन न करके किव ने
उनके मुख से केवल इतना कहलवा िदया है िक ' इन तप यों के बीच म वह घूघट
वाली सु री कौन है , जो पीले प ों के बीच म नई कोंपल के समान िदखाई पड़ रही है
।' इस छोटी - सी उपमा ने पीले प े और कोंपल की सद ता के ारा शकु ला के
सौ य का पूरा ही िच ां कन कर िदया है । इसी कार सवदमन को दे खकर दु
कहते ह िक ' यह तापी बालक उस अि के ु िलंग की भाँ ित तीत होता है , जो
धधकती आग बनने के िलए ईंधन की राह दे खता है । ' इस उपमा से कािलदास ने न
केवल बालक की तेज ता कट कर दी , ब यह भी प से सूिचत कर
िदया है िक यह बालक बड़ा होकर महा तापी च वत स ाट् बनेगा । इस कार की
मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकु ल म से िदए जा सकते ह ोंिक
शाकु ल म 180 उपमाएँ यु ई ह और उनम से सभी एक से एक बढ़कर ह ।
यह ठीक है िक उपमा के चुनाव म कािलदास को िवशेष कुशलता ा थी और
यह भी ठीक है िक उनकी - सी सु र उपमाएँ अ किवयों की रचनाओं म दु लभ ह ,
िफर भी कािलदास की सबसे बड़ी िवशेषता उपमा - कौशल नहीं है । उपमा - कौशल
तो उनके का कौशल का एक सामा - सा अंग है । अपने मनोभाव को
करने अथवा िकसी रस का प रपाक करने अथवा िकसी भाव की ती अनुभूित को
जगाने की कािलदास अनेक िविधयाँ जानते ह । श ों का संगोिचत चयन, अभी
भाव के उपयु छ का चुनाव और ंजना श का योग करके कािलदास
शकु ला के सौ य- वणन पर उतरे ह , वहाँ उ ोंने केवल
उपमाओं और उ े ाओं ारा शकु ला का प िच ण करके ही स ोष नहीं
कर िलया है । पहले - पहल तो उ ोंने केवल इतना कहलवाया िक ' यिद तपोवन के
िनवािसयों म इतना प है , तो समझो िक वन - लताओं ने उ ान की लताओं को मात
कर िदया।' िफर दु के मुख से उ ोंने कहलवाया िक ' इतनी सु र क ा को
आ म के िनयम - पालन म लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का
पेड़ काटना ।' उसके बाद कािल / दा / स कहते ह िक ' शकु ला का प ऐसा
मनोहर है िक भले ही उसने मोटा व ल व पहना आ है , िफर भी उससे उसका
सौ य कुछ घटा नहीं, ब बढ़ा ही है । ोंिक सु र को जो भी कुछ
पहना िदया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है । उसके बाद राजा शकु ला की
सुकुमार दे ह की तुलना हरी- भरी, फूलों से लदी लता के साथ करते ह , िजससे उस
िवल ण सौ य का प पाठक की आँ खों के सामने िचि त - सा हो उठता है ।
इसके बाद उस सौ य की अनुभूित को चरम सीमा पर प ँ चाने के िलए कािलदास
एक मर को ले आए ह ; जो शकु ला के मुख को एक सु र खला आ फूल
समझकर उसका रसपान करने के िलए उसके ऊपर मंडराने लगता है । इस कार
कािलदास ने शकु ला के सौ य को िचि त करने के िलए अलंकारों का सहारा नहीं
िलया, िजतना िक ंजनाश का ; और यह ंजना- श ही का की जान मानी
जाती है ।
कािलदास की सौ य - धारणा
कािलदास ने केवल शारी रक सौ य को ही सब कुछ नहीं माना । शारी रक
सौ य थ और अनाकषक बन जाता है , यिद उसके साथ ही साथ मानिसक सौ य
भी न हो । यिद शकु ला शारी रक ि से तो सु र होती , पर ु भाव से कुिटल,
ई ालु या कटु भािषणी होती, तो वह कािलदास की नाियका न बन पाती । कािलदास
ने शरीर - सौ य को मानिसक सौ य के साथ िमलाकर अद् भुत लाव - सृि की
है । उनकी शकु ला तपोवन म रही है , इसिलए नगरों म होने वाले छल - पंचों से
वह अप रिचत है । ेह उसके मन म लबालब भरा है । आ म के पौधों और बेलों को
िबना सींचे वह यं पानी भी नहीं पीती । आ म के मृग उसके साथ खूब प रिचत ह
और उससे वह भाई- बिहन का - सा और यहाँ तक िक पु का - सा ेम करती है ।
उसकी ि यंवदा और अनसूया स खयाँ उसके समान ही सरल और मधुर भाव की
ह । दू सरों के क ों को कम करना ही जैसे इनके जीवन का एकमा काय है । दू सरे
को दु ःख दे ना या सताना आ म के िनयमों के ितकूल है । इस सरलता, मधुरता, सेवा
और ेह की वृि ने शकु ला को एक िवल ण आ रक सौ य दान िकया
है , जो उसके अनुपम बा सौ य से भी बढ़कर है ।
कािलदास संग के अनुसार कहीं तो िव ृत वणन ारा भाव को जा त करते ह
और कहीं ब त ही संि - सी टकोर दे कर उसे ंजना- श से ही कट कर
दे ते ह । जैसे शकु ला को दे खकर दु कहते ह , ' अहा ! आँ खों को चैन पड़ गया
है ।' इस एक वा से ही आँ खों को शीतल कर दे ने वाले शकु ला के मनोहारी प
का आभास पाठक को हो जाता है । इसी कार दु और शकु ला का
ेमालाप भी कािलदास ने संि ही
रखा है । िक ु भावािभ की ि से इसे संि नहीं कहा जा सकता । जब
दु तपोवन से िवदा लेकर अपनी राजधानी म लौट आए और उ ोंने शकु ला
की कोई खबर नहीं ली , तो उस संग म िवरह - था को कट करने के िलए ब त
कुछ िलखा जा सकता था या शकु ला के मुख से कहलवाया जा सकता था पर ु
कािलदास ने इसके िलए कुछ भी उ ोग नहीं िकया । केवल दु वासा के आगमन और
शकु ला के दु के ान म म होने के कारण उनकी अवहे लना ारा ही
शकु ला की क णाजनक मनोदशा की झाँ की दे दी । इसी कार पितगह को जाते
समय शकु ला की था तथा क और स खयों का ेह ब त ही संि
ंजनाओं म कट आ है । जब दु की राजसभा म राजा ने शकु ला को
िनरादरपूवक ाग िदया, उस समय शकु ला के िविभ मनोभाव भय , ल ा,
अिभमान , अनुनय, भ ना और िवलाप सभी कुछ किव ने िचि त िकए ह । पर ु
उनके िलए श ब त ही प रिमत य िकए गए ह । िजस शकु ला ने िव ास के
साथ सरल भाव से अपने - आपको दु को समिपत कर िदया था , वह ऐसे दा ण
अपमान के समय अपनी सल मयादा की र ा कैसे करे गी, यह एकाएक पाठक के
िलए क ना कर पाना स व नहीं होता । पर ु कािलदास ने इस प र थित का
िनवाह महाकिव की कुशलता के साथ िकया है । इस प र ाग के उपरा की
नीरवता और भी अिधक ापक, ग ीर और भावशािलनी है । इतनी बड़ी दु घटना
हो जाने पर भी क मूक रहते ह , ि यंवदा और अनसूया - सी ेहमयी स खयाँ ा
करती ह , कुछ पता नहीं चलता । क ा म की वन दे वलताएँ भी िन े हती ह और
यं शकु ला भी मानो नीरवता की मूित - सी बनकर रह जाती है । दय की
भावनाओं को जगाने के िलए ऐसी नीरव िन े ता का योग हम अ कहीं िदखाई
नहीं पड़ता । पा और च र -िच ण
कािलदास ने अपने पा ों के च र -िच ण म भी िनपुणता दिशत की है । यों
नाटक के मु पा शकु ला और दु ह , िक ु ि यंवदा, अनसूया और माध
भी नाटक म मह पूण भाग लेते ह । इनके अित र शा रव, गौतमी, धीवर और
सूचक तथा जानुक नाम के िसपािहयों के च र भी सं ेप म , िक ु ता के साथ
िचि त ए ह । शकु ला हमारे स ुख एक अभागी सु री के प म कट होती है
उसका ज महा तापी ऋिष िव ािम तथा अ रा मेनका से आ है । उसका प
िवल ण है । िक ु ज काल से ही उसे माता की गोद से अलग रहना पड़ा । अपना
बा काल तपोवन म िबताने के कारण उसम अनेक सदगुण आ गए ह । ेह, ममता
और सेवा की भावना उसके रोम - रोम म समा गई । दु से गा व िववाह कर लेने
के बाद भा उस पर िफर होता है । दु शापवश उसे भूल जाते ह और
उसका ाग कर दे ते ह । इस अवसर पर उसका एक और प भी िदखाई पड़ता है ,
िजसम वह राजा की िव ासघातकता के िलए उनकी उ प म भ ना करती है ।
िक ु भारतीय पर रा के अनुसार वह दु के िलए कोई अिहतकामना नहीं
करती और न इसका कुछ ितशोध ही चाहती है । नाटक के अ म हम उसकी
माशीलता का एक
और नया प िदखाई दे ता है । दु ारा िकए गए सारे िनरादर और ितर ार
को वह खुले दय से मा कर दे ती है ; और जीवन म यह मा ही सम मंगल की
मूल है । प रणाम प दु , शकु ला और सवदमन का मंगलमय िमलन होता
है ।
दु का च र कािलदास को महाभारत से अप र ृ त प म ा आ।
महाभारत के दु कािलदास के नायक बनने यो नहीं । जान - बूझकर
िव ासघात करने वाला ा का पा नहीं हो सकता । इसिलए कािलदास को
दु वासा के शाप की कथा आिव ृ त करनी पड़ी । इसके प ात् दु एक धीरोदा
नायक के प म हमारे सामने आते ह । वे तापी और परा मी ह । लिलत कलाओं
के मम ह , यं कुशल िच कार ह , ऋिष -मुिनयों के ित उनके मन म स ान है ।
वे धमपरायण ह । शकु ला की अिभलाषा करने से पहले वे यह जान लेना चाहते ह
िक वह अिववािहता है या नहीं; और साथ ही यह भी िक जाित की ि से उनके साथ
उसका िववाह हो पाना स व है या नहीं । इसके बाद भी दु के च र म कुछ
ऐसी दु बलताएँ भी ह , जो यिद मनु म न हों तो वह दे वता बन जाए । कािलदास के
दु मनु ह । वे मयादापु षो म राम की भाँ ित नहीं ह । सौ य पर वेिफसल
जाते ह । शकु ला को लता -कुंजों की आड़ म से दे खने म उ बुराई नहीं मालूम
होती । ि यंवदा और अनसूया के पूछने पर अपना गलत प रचय दे ना भी उ
अनुिचत नहीं लगता । शकु ला के ेम म फँसकर वे माता की आ ा को टाल जाते ह
और माध को राजधानी लौटाते समय उससे झूठ भी बोलते ह । शकु ला से
गां धव-िववाह करने के बाद भी उनम इतना साहस नहीं है िक वे क के आने तक
िटके रह । उससे पहले ही वे ह नापुर लौट जाते ह । यह सब दु की मानवीय
दु बलताओं का ही प है । राजधानी म आकर वे शकु ला को भूल जाते ह । यिद
इसम दु वासा का शाप कारण न होता, तो इसम दु की ऐसी नीचता सूिचत होती,
िजसके समथन म कुछ भी न कहा जा सकता। पर ु कािलदास ने उ उस कलंक
से बचाकर धीरे - धीरे उनके च र को इतना ऊँचा उठाया है िक वे भारतीय समाज
के अ िधक आदरणीय यों म िगने जा सकते ह । शकु ला को दे खकर वे
मु अव ए ह , िक ु हर ी की ओर घूरना उनके भाव म नहीं है । पाँ चव
अंक म किव ने उनके मुख से कहलवाया है , ' पराई- ी की ओर नहीं दे खना
चािहए।' और सातव अंक म कहलवाया है िक ' पराई ी के िवषय म पूछना-ताछना
ठीक नहीं ।' शकु ला को वह केवल इसिलए ाग दे ते ह , ोंिक उ स े ह है िक
वह िकसी अ की प ी है , यहाँ तक िक ितहारी को भी यह कहना पड़ता है िक '
हमारे महाराज िकतने धमपरायण है ! नहीं तो ऐसे सु र प को दे खकर और कौन
ऐसा है , जो पल - भर भी िवचार करे ? ' छठे अंक म राजा की कत परायणता िचि त
की गई है । शकु ला के िवरह म वे अ िधक ख ह । दु ःख के कारण उ ोंने
वसंतो व कवा िदया है , िफर भी वे अपने रा का सारा काय दे खते - भालते ह ।
उ ोंने ापारी धनिम की मृ ु के अवसर पर यह घोषणा करवा दी है िक ' जा म
से िजस िकसी का कोई इ ब ु मर जाए , पािपयों के अित र अ सब लोग
अपना वह ब ु दु को ही समझ ल ।' अपनी जा के दु ःख को अपने दु ःख म
िमला लेने का उनका यह काय उनकी िवशाल दयता का सूचक है ।
इन दो च र ों के अित र कािलदास ने ेहशील िपता क और ेहमयी,
दू रदिशनी, वहारकुशल और मधुरभािषणी अनसूया और ि यंवदा का भी िच ण
िकया है , िक ु ये दोनों स खयाँ चौथे अंक के बाद नाटक के रं गमंच पर एक बार भी
नहीं आतीं । िवदू षक माध नाटक की िढ़यों के अनुसार ही डरपोक , भोजनि य
और प रहासशील है । द र धीवर और िब ु ल आज के - से िसपािहयों का िच ण
भी सु र बन पड़ा है ।
इस नाटक म कािलदास ने सािह - शा के सब िनयमों का पूरा पालन िकया
है । ब कभी- कभी तो यह स े ह होने लगता है िक सािह - शा के नाटक -
स ी िनयम कहीं इस तथा ऐसे ही अ दो -एक नाटकों के आधार पर तो नहीं
बना िदए गए ।
उस काल की सामािजक और राजनीितक दशा
' अिभ ान शाकु ल ' से हम कािलदास के समय की प र थितयों का ब त कुछ
आभास िमल जाता है । इसम अपने समय की सामािजक, राजनीितक तथा धािमक
जीवन की िविभ दशाओं के स े िच उप थत िकए गए ह । उस समय राजा तथा
अ समृ अनेक यों से िववाह िकया करते थे। पु ष यों के साथ
स ानपूवक वहार करते थे । पु का न होना बुरा माना जाता था । पित का प ी
पर पूरा अिधकार होता था । उस समय क ाएँ िशि त होती थीं और उनका िववाह
बड़ी आयु म होता था । उ कुलों की याँ सामा लोगों के सामने िबना परदा
िकए नहीं िनकलती थीं । इसी कारण शकु ला भी दु की राजसभा म घूघट
िनकालकर ही िव ई थी । यों को सामा पढ़ाई -िलखाई के अित र अ
कलाओं की भी िश ा दी जाती थी । उस समय के लोग शकुन - अपशकुनों का
काफी िवचार करते थे। थान- थान पर तपोवन और आ म होते थे, िजनकी र ा
राजा को करनी पड़ती थी । इन तपोवनों का वातावरण शा और पिव था । इन
तपोवनों म इस बात पर िवशेष ान रखा जाता था िक िकसी भी ाणी को सताया न
जाए । इन तपोवनों के िनवासी नाग रक लोगों से िभ कार का जीवन तीत करते
थे । यह जीवन कठोर और तप ापूण होता था । नाग रक लोग रे शमी व तथा अ
आभूषण धारण करते थे, िक ु तपोवन म व ल व ही पहने जाते थे और
आभूषणों का योग नहीं होता था । मालूम होता है िक उस समय वणा म - व था
चिलत थी । वै लोग समु - या ाओं ारा धनसंचय करते थे; ि य राजा रा की
र ा और दु ों के दमन म त र रहते थे; ा ण लोग य इ ािद धािमक कृ ों म
लगे रहते थे । पर रागत वसाय चाहे बुरा ही ों न हो , िफर भी िन नीय नहीं
समझा जाता था । राजा अपनी जा का पालन स ान के समान करते थे। लोग
गृह था म पूरा करने के बाद वान थी हो जाते थे । राजा कर के प म अपनी जा
से आय का छठा भाग लेता था । यिद कोई िनःस ान मर जाए, तो उसकी
स ि राजकोष म चली जाती थी । राजा लोग भी वृ हो जाने पर पु को रा
सौंपकर वान थी हो जाते थे। उस समय के पुिलस अिधकारी भी आजकल के पुिलस
अिधका रयों के समान ही र तखोर थे और अपराधी या िनरपराध का िवचार िकए
िबना अिभयु ों को सताने म आन लेते थे ।
कािलदास मु तया सौ य ेमी किव ह । उ जहाँ कहीं भी सौ य िदखाई
पड़ा है , उसका िच ण उ ोंने िकया है । कृित तथा आकृित , इस कार के सौ य
के वणन म उनकी वृि खूब रमी है । कािलदास की सभी रचनाओं का मु िवषय
ंगार है । कहा जाता है िक शंगार के लिलत वणन म कािलदास से ट र कोई भी
किव नहीं ले सकता। शंगार रस का थायी भाव ेम या रित होता है । सौ य और
ेम का लगभग साहचय ही है । सौ य ेम को जगाता है और ेम असु र को भी
सु र बना दे ता है । कािलदास ने िजस सौ य का अपने किव - ने ों से सा ा ार
िकया था , वह सृि के अनेक पों म सव ा है । मानव- सौ य उसका केवल
एक अंग है । कािलदास ने न केवल शाकु ल म , ब ' कुमारस व ' और '
रघुवंश' म भी नारी - सौ य की उपमा लताओं और पु ों से दी है । है िक
कािलदास की ि से सौ य जड़, चेतन सभी म समान प से ा था ।
कृित - ेम कािलदास का कृित के ित बड़ा गहरा अनुराग है । कृित के साथ
ऐसी गहरी आ ीयता हम अ थोड़े ही किवयों म उपल होती है । शाकु ल म न
केवल ह रण और मोर शकु ला के सहचर ह , ब वहाँ की वन ो ा लता
उसकी बिहन है , िजसका िववाह एक आम के पेड़ से कराया गया है । वहाँ के पौधों से
उसे सगे भाइयों का - सा ेह है । कािलदास की इस ा दश ' किव - क ना ' के
पीछे कुछ गहरा स िछपा िदखाई पड़ता है । साथ रहते-रहते पशु-प ी मनु ों से
प रिचत हो जाते ह । वे उनसे ेह करने लगते ह ,
और ऐसे उदाहरण कम नहीं ह , जहाँ िक ये प रिचत पशु- प ी अपने साथ रहने
वाले मनु ों के सुख - दु ख म िह ा बँटाते दे खे जाते ह ।
पर ु अब यह असंिद प से मािणत हो चुका है िक वृ ों और लताओं म भी
वैसा ही जीवन है , जैसा पशु - पि यों और मनु ों म । ये व भी सुखी और दु ःखी होते
ह । तो ा यह स व नहीं है िक दे र तक साथ रहने के कारण ये जीिवत वृ और
लताएँ भी मानव - ािणयों के साथ उसी कार प रिचत हो जाएँ और सुख - दु ःख म
सहानुभूित जताएँ , जैसा पशु और प ी करते ह ?
कािलदास ने इस एका कता को भली - भाँ ित अनुभव िकया था । इसीिलए
उनके वणनों म मानव और कृित एक - दू सरे से इतने घिन प से गुंथे ए ह िक
दोनों का सौ य अलग - अलग कर पाना किठन है । सभी जगह कृित मानव-
सौ य की होड़ करने के िलए आ प ँ चती है । नारी- दे ह को फूलों से लदी चलती-
िफरती बेल की उपमा कािलदास को ब त ची थी । इसका उ ोंने कई थानों पर
योग िकया है । वन के फूल कहीं तो उनकी नाियकाओं के अंगों से होड़ लेने लगते ह
और िफर कहीं वे ही उनकी नाियकाओं के ंगार की साम ी बनकर उनकी शोभा -
वृ करने लगते ह ।
कािलदास की कृित मनु की भावनाओं के साथ पूरी सहानुभूित कट करती
है । जब शकु ला का दय क ा म से िवदा होते समय शोक से उ िसत हो उठा
, तब वहाँ के मोरों ने नाचना ब कर िदया ; ह रिणयों ने न केवल घास चरनी ही ब
कर दी , ब
शोर के मारे आधी चबाई घास को भी उगलकर खड़ी रह गईं । लताओं से पीले
प े झरने लगे । जब क ने आ म के वृ ों से शकु ला को पित के घर जाने की
अनुमित दे ने को कहा, तो उ र म कोयल ने पंचम र म कूककर उसे जाने की
अनुमित दी । उसके पाले ए ह रण ने पीछे से आकर उसका आँ चल पकड़ िलया ;
जैसे जाने ही न दे ना चाहता हो । सारे ' अिभ ान शाकु ल ' म माधवी लता, मर ,
चकवा - चकवी, ह रण, आम की मंज रयाँ और लताएँ उतना ही थान घेरकर खड़ी ह
, िजतना अ मानव - पा । व ुतः शाकु ल नाटक के पा ों की गणना करते समय
इनकी भी गणना करना उिचत है । जो थान ि यंवदा और अनसूया का है ,
वन ो ा का उससे कुछ कम नहीं । कृित के साथ मानव की यह एका कता
कािलदास के हाथ म आकर का का अ सरस और मम शी आधार बन गई
है ।
इसके अित र कािलदास ने मनु - भाव और बा कृित के ों म
िविच सामंज थािपत िकया है । एक ओर दु शकु ला से अ कालीन ेम
के बाद उसका प र ाग कर दे ते ह , दू सरी ओर मर िशरीष के कुसुमों को ण-
भर चूमने के बाद छोड़कर कहीं और उड़ जाते ह । इसी कार एक ओर दु के
िवरह म शकु ला ख और उदास हो गई है , तो दू सरी ओर च मा के िछप जाने
पर कुमुिदनी की का भी मिलन हो गई है । इस कार मानव - भावनाओं और
ाकृितक ों के पर र सा से भी कािलदास ने भावों की सु र ंजना की है
।
श -िच
कािलदास ने अनेक थानों पर बड़े सु र - से िच खींचे ह । उनके श -िच
उनकी शैली की एक और िवशेषता है । श -िच ुत करते ए कािलदास का
सारा ान इस बात पर रहता है िक उन बातों का िवशेष प से वणन कर िदया जाए
, जो सं ेप म अिधक से अिधक प म व ु का प आँ खों के सामने िचि त
कर सक । पहले अंक म िशकारी के तीर से डरकर भागते ए ह रण का वणन
दे खए । ' यह ह रण बार- बार गदन मोड़कर पीछे की ओर रथ को दे खने लगता है
और िफर चौकड़ी भरने लगता है । तीर लगने के भय से उसके शरीर का िपछला
आधा भाग मानो अगले आधे भाग म फँसा- सा जा रहा है । दौड़ने की थकान से
उसका मुँह खुल गया है और उसम से अधचबी घास के ितनके रा े म िगर रहे ह ।
उसकी चाल ऐसी तेज़ है िक वह मानो आकाश ही आकाश म उड़ा चला जा रहा है ।'
इस वणन के ारा कािलदास ने जान बचाकर चौकड़ी भरते ए ह रण का जीता-
जागता िच हमारे सामने खींच िदया है । इसी कार क ा म के पास प ँ चते ए
राजा िजन प र थितयों को दे खकर क ा म का अनुमान कर लेता है , वे भी तपोवन
के िच के समान ही ह । ' पेड़ों के खोखले कोटर म तोते िनवास करते ह । उनके
ारा लाए गए धान के दाने खोखलों म से िगरकर पेड़ों की जड़ों के पास िबखर गए ह
। कहीं ऋिषयों ने प रों से इं गुदी के फल तोड़े ह िजनसे प र िचकने हो गए ह ।
और ये िचकने प र जगह- जगह िबखरे पड़े ह । इस दे श के ह रण मनु की
अथवा रथ की आवाज़ को सुनकर भयभीत
होकर भागते नहीं ह , ोंिक वे मनु ों से प रिचत तीत होते ह । और नदी से
जल लाने के रा े पर व ल व ों के छोर से चूने वाले जल -िब दुओं की पं याँ
बनी िदखाई पड़ रही ह ।' इसी कार जब ि यंवदा ने शकु ला से कहा िक ' तुझ पर
मेरे दो जलिसंचन चढ़े ए ह , उ उतारकर जाना' तो दु कहने लगे िक ' यह तो
पहले से ही पेड़ों को सींचने के कारण थकी िदखाई पड़ रही है ।' अब वृ ों को सींचने
से थकी ई सु री का िच दे खए । ' क े ज़रा नीचे को झुक गए ह । घड़ा उठाने के
कारण हथेिलयाँ खूब लाल हो उठी ह । साँ स तेज़ी से चल रही है , िजसके कारण न
िहलते ए- से दीख रहे ह । कान पर शंगार के िलए जो िशरीष का फूल पहना गया था
, उसकी पंखु रयाँ मुँह पर आए ए पसीने की बूंदों के कारण गालों से िचपक गई ह ।
जूड़ा खुल गया है , इसीिलए उसने एक हाथ से अपने बालों को संभाला आ है ।' िकसी
भी िच कार के िलए इस प र ा ा शकु ला का िच खींचने के िलए यह वणन
पया है । इस कार का वणन केवल वही कलाकार कर सकता है । िजसने या तो
शकु ला का िच यं बनाया हो अथवा ब त ही प म अपने मानसच ुओं
से दे खा हो । कािलदास ने अपने नायक दु को िच कार के पम ुत िकया
है । उसकी िच कला की सु िच को दिशत करने के िलए छठे अंक म कािलदास ने
एक ोक िदया। दु ने शकु ला का एक िच बनाया है । िच ब त सु र बना
है । िच को दे खने पर उसके वा िवक होने का म होता है । दु ने उसम
अनेकानेक सुधार कए ह , िफर भी उ िकसी तरह यह स ोष नहीं हो रहा है िक
यह पूरा हो गया । अभी उसम ब त कुछ बनाने को शेष है । पूछने पर वह बताते ह
िक ' अभी इसम मािलनी नदी िचि त करनी है , िजसकी रे ती म हं सों के जोड़े बैठे ए
हों । उस मािलनी नदी के दोनों ओर िहमालय की तराई िचि त करनी है , िजसम
ह रणों का झु िव ाम कर रहा हो । एक पेड़ बनाना है , िजसके ऊपर व ल व
लटके ए हों और उस वृ के नीचे एक काले ह रण के सींग से अपनी बाईं आँ ख को
खुजाती ई एक ह रणी बैठी हो । इसके साथ ही शकु ला के कानों म गालों तक
झूलते ए िशरीष के फूल और छाती पर नों के बीच म शरद् ऋतु के च मा की
िकरणों के समान सुकुमार कमलनाल की माला भी िचि त करनी है ।' इन वणनों से
जहाँ पाठक के स ुख कािलदास अपने नायक की कुशल िच का रता कट करने
म सफल ए ह , वहाँ आलोचक की ि म यह बात भी हो जाती है िक
कािलदास यं भी िनपुण िच कार थे; अ था ऐसी सू िव ार की बातों का वणन
करना उनके िलए किठन हो जाता । इस कार के िच मय संग शाकु ल म अनेक
ह और कािलदास की अ रचनाओं म तो भरे ही पडे ह ।
सरल और सरस भाषा
सं ृ त म अ सरल , मधुर और ां जल शैली वैदभ या पां चाली रीित
कहलाती है । कािलदास अपनी वैदभ रीित के िलए िस ह । उनकी भाषा सव
सरल , ाथक और मधुर है । व ुतः जो िवपय उ ोंने अपने का के िलए चुने ह
, उनम माधुय होना ाभािवक ही था । पर ु जैसी प रमािजत और सादगुणयु
भाषा कािलदास की है , वैसी सं ृ त के
किवयों म एक की भी नहीं है । इस भाषा की िवशेषता यह है िक इसका अथ
पढ़ने के साथ ही हो जाता है । दू रा य, ाथता इ ािद दोष इसम नहीं ह ।
जगह - जगह उ ोंने संि , चुटीले और मुहावरे दार वा ों का भी योग िकया है ,
िजनसे भाषा म जान पड़ गई है ; जैसे ि यंवदा शकु ला से कहती है , " तुमने ठीक
जगह ेम िकया ! भला महानदी सागर के अित र और उतरे गी भी कहाँ ? आ
वृ के अित र प ों से लदी माधवी लता को संभाल भी कौन सकता है ? ' या एक
और जगह अनसूया ने शकु ला से कहा है : “ शरीर को शा दे ने वाली
शरद ो ा की चादर ओढ़कर कौन ढां पता है ? ' इस कार के योग शकु ला म
एक नहीं, अनेक ह । 'नवम का की बेल को उबलते पानी से कौन सींचता है ? ' '
सब लोग अपने सजाितयों का ही िव ास करते ह । तुम दोनों ही वनवासी हो न ! ' '
अनु ह इसी को कहते ह िक सूली से उतारा और हाथी पर चढ़ा िदया ।' इ ािद ।
इसके अित र कािलदास ने औिच की ि से इस बात का भी ान रखा है
िक अपने कथोपकथनों की भाषा उ ोंने पा ों के अनुकूल रखी है । ऋिष- मुिनयों के
मुख से उनके अनु प ही बात कहलवाई गई ह । शकु ला के गा विववाह की बात
म अनुमित दे ते ए महिष क कहते ह : ' यजमान की आँ ख तो धुएँ से परे शान थीं,
िफर भी सौभा से उसकी आ ित आग म जाकर िगरी ।' इसी कार एक और जगह
वे कहते ह : " बेटी , अ े िश को दी गई िव ा की भाँ ित तेरे िलए अब मुझे कोई
शोक नहीं है ' इसी कार राजा और िवदू षक के कथोपकथन भी उनकी अपनी कृित
तथा प र थितयों के अनुकूल ह । सातव अंक म महा ा क प के आ म म
प ँ चकर सारा वातावरण अध- अलौिकक - सा हो उठता है और क प तथा अिदित
के कथोपकथन भी उनके अनु प ही रखे गए ह ।
सु िचपूण हा ' अिभ ान शाकु ल' म सु िचपूण हा भी काफी मा ा म है ।
इसम केवल िवदू षक ही हा जनक बात नहीं करता, ब अवसर पाकर अ पा
भी िवनोद -प रहास करते ह , जैसे पहले ही अंक म शकु ला अनसूया से कहती है :
'ि यंवदा ने मेरी अंिगया ब त कसकर बाँ ध दी है ; इसिलए उसे थोड़ा ढीला कर दो ।'
इस पर ि यंवदा ताना दे ती है : ' उलाहना मुझे ा दे ती हो ? अपने यौवन को दो ,
िजसने तु ारे उरोजों को बड़ा कर िदया है ।' छठे अंक म धीवर, कोतवाल और
िसपािहयों का वातालाप भी िवनोदपूण है । पर ु हा का मु भार प रपाटी के
अनुसार िवदू षक माध के िसर ही पड़ा है । माध ारा ुत हा भी िश तथा
संयत है । माध का पेटपन कािलदास ने स वतः केवल िढ़ के पालन के िलए
रखा है । पर ु यह पेटूपन नाटक का कुछ रोचक अंग नहीं बन सका । ंगार और
ेम शाकु ल म ंगार रस धान है । ंगार का आधार ेम है । ेम के िवषय म
कािलदास की कुछ अपनी ही धारणाएँ ह । उनकी ये धारणाएँ हम ' कुमारस व ', '
मेघदू त ' तथा उनके अ
सभी ों म एक ही जैसी ा होती ह । कािलदास ने शारी रक सौ य को ही
ेम का सव नहीं माना । केवल सौ य के आधार पर िजस ेम का ज होता है ,
उसे वे काम या वासना समझते ह । उसके ित उनकी रचनाओं म कहीं भी आदर
दिशत नहीं िकया गया । सौ य की ल दीपिशखा को दे खकर पतंगे की भाँ ित
मु होकर जब पु ष काम के वशीभूत हो जाता है , उसका प रणाम कािलदास ने
सभी जगह हा ा द िदखाया है । इस कार का ेम ण थायी होता है । इसिलए
कािलदास की ि म ऐसा ेम मंगलकारी नहीं है । ऐसे काम को िशव के कोपानल म
जलकर राख हो जाना पड़ता है । पावती केवल अपने प से िशव को मु करने गई
थी , पर ु उसम ल ा और अपमान के िसवाय कुछ हाथ न आया । इसिलए बाद म
उसने तप ा ारा अपने प को सफल बनाने का य िकया और उसे सफलता भी
िमली । यही बात हम ' अिभ ान शाकु ल' म भी िदखाई पड़ती है । केवल सौ य के
वशीभूत होकर राजा के मन पर ेम का उ ाद ण थायी रहा । दे खते -दे खते
शरदऋतु के मेघ की भाँ ित न जाने िकस ओर िवलीन हो गया । उसके बाद जब अ
गहरे आधार पर ेम का ज आ तब उ ोंने शकु ला को दु बारा हण िकया ।
यह प रचयपूवक , जान - बूझकर एक - दू सरे के दोषों के समेत जो एक -दू सरे का
ेमपूवक अंगीकार है , वही कािलदास की ि म मंगलमय है । कािलदास ने ेम को
पूवज का सं ार माना है । इसिलए शाकु ल म एक थान पर उ ोंने कहा है िक
' सु र ों को दे खते ए और मधुर श ों को सुनते ए भी जो का मन
एकाएक उदास हो जाता है , उसका कारण यही है िक उसे पूवज के ेह - स
याद आ रहे होते ह ।'
'िजस ेम म कोई ब न नहीं, कोई िनयम नहीं , जो ेम नर-नारी को अक ात्
मोिहत करके संयमदु ग के भ ाचीर पर अपनी जयपताका फहराता है , उस ेम की
श को कािलदास ने ीकार िकया है । उ ोंने बताया है िक असंयत ेम- स ोग
ािमशाप से ख त , ऋिषशाप से ितहत और दे वरोष से भ हो जाता है ।
दु और शकु ला का ब नहीन रह िमलन िचरकाल तक शाप के अ कार म
लीन रहा । शकु ला को आित धम के पालन का िवचार नहीं रहा । वह केवल
दु के ही ान म म रही । उस समय शकु ला के ेम का मंगलभाव िमट गया
। दु वासा के शाप और शकु ला के ा ान ारा किव ने यह थापना की है िक
जो उ त ेम अपने ेमपा को छोड़कर अ िकसी की कुछ भी परवाह नहीं करता
, उसके िव सारा संसार हो जाता है । इसी से वह ेम थोड़े ही िदन म दू भर हो
उठता है ।'
( रवी ) ___ कािलदास के अनुसार ेम का उ म और अभी प वही है , जो
संसार के सम कत ों का पालन करते ए जीवन का एक अंग -मा बनकर रहे ,
जीवन का सव न बन जाए । जो अ कार म काश की भाँ ित राह तो िदखाता हो ,
िक ु ऐसा काश न हो, जो आँ खों पर ही पड़कर उ चुंिधया दे ता हो । उनके
मतानुसार ेम की साथकता िववाह म और िववाह की साथकता स ान - जननके
पावन ापार म है । स ूण ' कुमारस व' महाका इसी कुमारज की भूिमका
है । कामदे व के शर - हार से अधीर होकर जो ेम -िमलन होता है , उसम पु ज
के उपयु पिव ता नहीं है । उसम एक - दू सरे की कामना तो है , पर ु
तीसरे (पु ) की कामना नहीं है । इससे कािलदास ने कामदे व को भ करवाकर
पावती से तप ा कराई है । यही बात ' अिभ ान शाकु ल ' म भी कुछ बदले प म
िदखाई पड़ती है । कािलदास के आदश
कािलदास आदश ुख किव ह । य िप उनकी रचनाओं म हम ंगार का िवशद
और िव ृत िच ण िमलता है , िक ु वह इसिलए िक ेम और ंगार की भावना
मनु की ती तम और ग ीरतम भावनाओं म से एक है । पर ु िजस कार मानव -
जीवन ंगार- मा नहीं, उसी कार कािलदास के का की प रसमा ंगार पर
ही नहीं हो जाती । उनकी समा जाकर होती है वैरा पर । हमारी भारतीय
सं ृ ित म मानव - जीवन को चय, गृह थ , वान थ और सं ास, इन चार भागों
म बाँ टा गया है । बा काल भात के समान अ ण और मधुर होता है । यौवन नए
काश और उ ल आन तथा उमंगों से भरपूर होता है । अपरा का समय
उ ता की ि से कुछ प रपाक और कुछ िव ाम का समय होता है । अ म सं ा
की गै रक आभा सम पृ ी और आकाश को चरम वैरा के रं ग म रं ग दे ती है ।
कािलदास ने इसी आदश को जीवन - णाली का आदश माना है ।
वनों और पवतों से ेम
कािलदास म वनों और पवतों के ित एक िवल ण मोह िदखाई पड़ता है । नगरों
के वणन से यह कट होता है िक वे स और समृ नगरों म रहे थे । िक ु उनका
मन बार- बार वनों
और पवतों की ओर दौड़ उठने को अधीर रहता है । लगता है िक उनका
बा काल वनों और पवतों म ही तीत आ था , िजससे इनका सौ य उनके दय
पर गहरी छाप छोड़ गया । यही कारण है िक उनके सभी का ों म अभी की िस
िहमालय की तराई के वनों और िहमालय के पवतिशखरों पर जाकर होती है । '
मेघदू त ' का य अपनी ि यतमा के पास स े श िहमालय की अलकापुरी म ही
भेजता है । उसके सपनों की रानी िहमालय म ही िनवास करती है । ' कुमारस व'
की तो सारी कथा ही िहमालय की रं गभूिम पर घिटत होती है । दु को अनुपम
सु री शकु ला जैसा र ा करने के िलए िहमालय की तराई म जाना पड़ता है
और ' रघुवंश' के महाराज िदलीप को स ान - ा की इ ा से विश मुिन के
आ म म जाकर तप ा करनी पड़ती है ।
भौगोिलक ान
कािलदास के वणन भौगोिलक दि से स और ाभािवक होते ह । िजस थान
और िजस काल का यह वणन करते ह , उसम स ता और औिच रहता है । उ ोंने
पूव समु के तटवत दे शों म ताड़ के वनों, महे पवत पर नागव ी के प ों और
ना रयल के आसव व केरल म मुरला नदी के िनकट केतकी के फूलों का उ ेख
िकया है । भारत के उ र - पि मी
सीमा - ा म अंगूर के बागों के, का ीर दे श म केसर और िहमालय के
दे शों म भोजप , क ूरी, चीड़ और दे वदा के वणन िकए गए ह । लौिह नदी के
पार काम प दे श म अग के वृ ों का उ ेख है । ये सारे वणन भौगोिलक ि से
यथाथह ।
कािलदास िशव के उपासक थे । अपने सभी ों के ार म उ ोंने िशव की
ुित की है । िफर भी यह आ य की बात जान पड़ती है िक िजन िशव- पावती को
उ ोंने अपने ' रघुवंश' म जगत् का माता-िपता कहा है , उनका ही िव ृत संयोग -
ंगार का वणन उ ोंने ' कुमारस व ' म कैसे कर िदया ! 1. एकोऽिप जीयते ह ,
कािलदासो न केनिचत् ।
ंगारे लिलतो ारे , कािलदास यी िकमु ? (राजशेखर ) िनगतासु न वा क
कािलदास सू षु । ीितमधुर - सा ासु मंजरी व जायते ।। (बाणभ ) पुरा
कवीनां गणना संगे किनि कािधि त कािलदासः । ___ अ ािप त ु
कवेरभावादनािमका साथवती बभूव ।। का ेषु नाटकं र नाटकेषु शकु ला।
त ािप चतुथ ऽ ोक चतु यम् ।। Wouldst thou the Life's young
blossoms and fruits of its decline,
And by which the soul is pleased enraptured , feasted , fed Wouldst thou
the Earth and Heaven itself in one sweet name combine ? I name thee , O
Shakuntala , and
all at once is said. - Goethe ( गेटे ) वास ं कुसुमं फलं च युगपद् ी सव
च यद् य ा नसो रसायनमतः स पणं मोहनम् । एकीभूतमपूवर मथवा
ल कभूलोकयो रै य यिद वां छिस ि यसखे, शाकु लं से ताम् । ( उपयु
अं ेज़ी प का सं ृ त पा र )
कुछ प रभाषाएँ
ना ी : मंगलाचरण को कहते ह । यह इ दे वता आिद की ुित के प म की
जाती है , िजससे ार िकया आ नाटक िनिव पूरा हो सके ।
सू धार : स ूण नाटक का िनदशक सू धार कहलाता है ।
ावना : नाटक की मु कथाव ु के पहले सू धार आता है और नाटक के
िवषय म े कों को कुछ संकेत इ ािद दे ता है । इसे ावना कहते ह । ावना
के अ म सू धार रं गमंच से बाहर चला जाता है ।
िव क : पहले हो चुकी अथवा आगे होने वाली कथाव ु की जब िकसी गौण
पा के मुख से सूचना िदलवाई जाती है , तो उसे िव क कहा जाता है ।
वेशक : जहाँ दो अंकों के बीच म केवल नीच पा ों के ारा पहले हो चुकी
अथवा आगे होने वाली घटना की सूचना िदलवाई जाती है , तो वह वेशक कहलाता है
।
मन ही मन ( गत ) : जब कोई बात इस कार बोली जाए, िजससे यह कट हो
िक पा उसे मन ही मन सोच रहा है , तब उसे ( गत ) ' मन ही मन ' कहा जाता है ।
।
चुपके से ( जना कम् ) : जब कोई बात िकसी अ पा के कान म चुपके से
कहने का अिभनय िकया जाए ।
आड़ करके ( अपवाय ) : नट का वह वचन , जो नाटक के अ म मंगलकामना
के प म कहा जाता है ।
' शाकु ल ' के पा
पु ष -पा दु ह नापुर के राजा भ सेन सेनापित माध राजा का िम
िवदू षक सवदमन भरत , दु का पु सोमरात राजपुरोिहत
रै वतक ारपाल करभक राजा का अनुचर
पावतायन कंचुकी, बूढ़ा नौकर शारव, शार त हरीत, गौतम आिद क के िश
कोतवाल दु का साला ,
नगरा सूचक, जानुक िसपाही
धीवर अिभयु मिछयारा मातिल इ का सारिथ क प दे वताओं के िपता
जापित
ी - पा
शकु ला क की पािलता क ा अनसूया , ि यंवदा शकु ला की स खयाँ
गौतमी तप नी चतु रका, परभृितका और
मधुक रका राजा की सेिवकाएँ ितहारी और यविनकाएँ दािसयाँ
सानुमित अ रा अिदित दे वमाता
थम अंक
' सिलल', ' अि ', " समीर', ' वसुधा', ' गगन', ' भा र', ' च मा ', और ' होता',
आठ िजनकी ह कट ये मूितयाँ । वे यंभू िशव तु ारी सवदा र ा कर, ि क णा
की रख , दु ःख आपदा सारी हर ।
(' ना ी ' की समा पर) सू धार : बस , बस ब त आ (नेप की ओर
दे खकर) ि ये, यिद नेप की स ा का
काय पूरा हो चुका हो , तो ज़रा इधर तो आओ।
( नटी वेश करती है ।) नटी : लीिजए, यह म आ गई । आ ा दीिजए, आपके
िकस आदे श का पालन िकया
जाए ? सू धार : ि ये, रस और भावों के िवशेष महाराजा िव मािद की इस
सभा म आज
बड़े - बड़े िव ान एक ए ह । इस सभा म आज हम लोग कािलदास- रिचत
नवीन नाटक ' अिभ ान शाकु ल ' का अिभनय ुत करगे । जाकर उसके िलए
पा ों
को तैयार करो । नटी : आपने तो इतनी बार इतनी अ ी तरह अ ास करवा
रखा है िक अब उसम
िकसी कार की ुिट रहने की स ावना नहीं है । सू धार : (मु राते ए) ठीक
कहती हो, पर सच तो यह है िक जब तक अिभनय को
दे खकर िव ानों को स ोष न हो जाए, तब तक म अ ास को सफल नहीं मानता
। अिभनेताओं को चाहे िकतना ही ों न िसखा लो , िक ु उ अपने
ऊपर िव ास हो ही नहीं पाता । नटी : (िवनयपूवक ) आपकी बात िब ु ल ठीक
है । तो आ ा दीिजए िक अब ा िकया
जाए ? सू धार : इस समय इस सभा के स ुख एक मनोहर मधुर गीत से बढ़कर
और अ ा काय
ा हो सकता है ! नटी : गीत ! अ ा तो िफर यह किहए िक िकस ऋतु का गीत
गाया जाए ? सू धार : अभी - अभी तो यह ी ऋतु ार ई है । इन िदनों इस
गम का आन िलया
जा सकता है । आजकल जल म ान करने से आन आता है । वन की वायु
पाटल के सौरभ से सुग त हो उठी है । छाया म लेटते ही नींद आने लगती है और
िदवसा की सं ाएँ ब त ही रमणीय होती ह , तो ों न इसी ी ऋतु का गीत
गाओ! नटी : ठीक है ( गाना ार करती है ।)
िसरस के फूल बड़े सुकुमार! चाँ दनी की िकरणों से त ु , भरी है िजनम सुरिभ
अपार ! मर आते करने रसपान , जताते ज़रा चूमकर ार!
उ ीं से ललनाएँ अ सदय अपना करतीं ंगार! सू धार : ि ये, तु ारा गीत
ब त ही उ म रहा। दे खो न, सारी अिभनयशाला राग के रस म
डूबी ई िच िल खत - सी हो उठी है । तो अब यह बताओ िक इस सभा के
मनोरं जन के िलए िकस नाटक का अिभनय िकया जाए ? नटी : अभी तो आपने
कहा था िक ' अिभ ान शाकु ल' नामक नए नाटक का
अिभनय करना है । सू धार : यह तुमने खूब याद िदलाया। म तो तु ारे गीत की
िमठास के आकषण म सब
भूल ही गया था , वैसे ही ( ान से सुनने का अिभनय करके ) जैसे यह महाराज
दु वेगवान् ह रण के आकषण से खंचे चले आ रहे ह ।
( दोनों बाहर चले जाते ह ) ( उसके प ात् ह रण का पीछा करते ए धनुष -बाण
हाथ म िलए रथ
पर बैठे ए महाराज दु वेश करते ह । सारिथ रथ हाँ क रहा है ) सारिथ : (
एक बार राजा की ओर तथा एक बार ह रण की ओर दे खकर ) महाराज , इस
काले ह रण पर ि लगाए, धनुष-बाण ताने ए आप ऐसे तीत होते ह , मानो
सा ात् िशव ही ह रण का पीछा कर रहे हों । राजा : सूत , यह ह रण तो हम ब त
दू र खींच लाया । अब भी तो यह बार-बार गदन
मोड़कर पीछे की ओर रथ को दे खने लगता है , और िफर तेज़ दौड़ने लगता है ।
तीर लगने के भय से इसके शरीर का िपछला भाग अगले भाग म समाया - सा जा रहा
है । दौड़ने की थकान से इसका मुख खुल गया है और उसम से अधचबी घास के
ितनके रा े म िगरते जा रहे ह । दे खो, अपनी ती गित के कारण इसके पाँ व धरती
को तो ज़रा दे र को ही छूते ह , नहीं तो यह आकाश ही आकाश म उड़ा जा रहा है । (
आ य के साथ ) अरे , यह तो हमारे पीछा करते - करते भी आँ खों से ओझल आ जा
रहा
सारिथ : महाराज, अब तक भूिम ऊबड़- खाबड़ थी, इससे रास खींचकर मने
घोड़ों की चाल
धीमी कर दी थी , इससे यह ह रण इतना आगे िनकल गया । अब भूिम समतल
आ
गई है । अब यह सरलता से आपके हाथ आ जाएगा । राजा : तो अब ज़रा रास
ढीली छोड़ दो । सारिथ : लीिजए, ढीली छोड़ दीं । (रथ के वेग का अिभनय करते ए
) दे खए महाराज, रास
ढीली करते ही घोड़े िकस कार गदन ल ी कर- करके दौड़ने लगे ह । इनके
कान
ऊपर को उठे ए ह और गदन के बाल िन हो उठे ह । और तो और , इनके
अपने पैरों से उड़ी धूल भी इ नहीं छू पा रही है । इस समय इनकी चाल ह रण की
चाल से ा कम है ? | राजा : ( स होकर) इसम ा स े ह है ! इस समय तो
ये सूय और इ के घोड़ों को भी
मात दे रहे ह । दे खो न , जो व ु ण - भर पहले धुंधली - सी िदखाई पड़ती है ,
वही अगले ण खूब दीखने लगती है । बीच म से कटी ई व ु भी रथ के वेग
के कारण समूची जुड़ी ई- सी िदखाई पड़ती है । जो चीज व ुतः टे ढ़ी ह , वे भी
सीधी दीख रही ह । रथ के वेग के कारण कोई भी व ु इस समय न तो मेरी आँ खों से
दू र ही रह पाती है । और न ण - भर आँ खों के पास ही रह पाती है । दे खो सूत , अब
यह मरा। ( कहकर दु धनुष पर बाण चढ़ा लेते ह । )
( नेप म ) महाराज , महाराज , यह आ म का ह रण है । इसे मारना नहीं, इसे
मारना नहीं। सारिथ : ( ान से सुनकर और दे खकर ) महाराज , आपके और आपके
बाण के ल इस
काले ह रण के बीच तप ी लोग आकर खड़े हो गए ह ? राजा : ( हड़बड़ाकर) तो
घोड़ों को रोक लो । सारिथ : लीिजए । (रथ को रोक लेता है ।)
( दो सािथयों के साथ तप ी वेश करता है । ) तप ी : ( हाथ उठाकर )
महाराज, यह आ म का ह रण है । इसे मा रएगा नहीं । इस मृग के
कोमल शरीर पर यह बाण चलाना उिचत नहीं है । ई के ढे र म कहीं इस कार
आग लगाई जाती है ? कहाँ तो इन ह रणों का अ चंचल जीवन और कहाँ आपके
सनसनाते ए व के समान कठोर बाण ! इसिलए महाराज , आप इस धनुष पर
चढ़ाए ए बाण को उतार लीिजए । आपके श पीिड़तों की र ा करने
के िलए ह , िनरपराधों पर हार करने के िलए नहीं । राजा : लीिजए, यह उतार
िलया । (बाण धनुष से उतार लेता है ।) तप ी : आप पु वंश के भूषण ह । आपकी
इसी म शोभा है । िजस कार आपका पु वंश
म ऐसा उ म ज आ है , उसी कार भगवान् करे आपको भी ऐसे ही उ म
गुणों वाला च वत पु ा हो ! अ दोनों तप ी : ( हाथ उठाकर ) भगवान्
करे आपको अव ही च वत पु ा
हो !! राजा : (िवनय - सिहत णाम करके ) आपका आशीवाद िसर माथे ।
तप ी : महाराज, हम लोग सिमधाएँ लाने के िलए िनकले ह । यह पास ही मािलनी
नदी के
तीर पर कुलपित क का आ म िदखाई पड़ रहा है । यिद आपके िकसी अ
काय म बाधा न हो तो , वहाँ प ँ चकर आित ीकार कीिजए । वहाँ प ँ चकर
तप यों की िनिव हो रही सु र य -ि याओं को दे खकर आपको पता चल
जाएगा िक धनुष- चाप से अंिकत आपकी भुजा िकतनी दू र- दू र तक जा की
र ा
करती है । राजा : ा कुलपित क आ म म ह ? तप ी : वह तो अितिथयों के
स ार का काम अपनी क ा शकु ला को सौंपकर उसके
ितकूल हों की शा के िलए आज ही सोमतीथ गए ह । राजा : अ ा, म उसी
के दशन करने जाता ँ । वही महिष के लौटने पर उनको मेरा भ
भाव जता दे गी । तप ी : ठीक है ! तो अब हम चलते ह (िश ों- समेत चला जाता
है । ) राजा : सूत , घोड़ों को ज़रा तेज़ कर दो । चलकर पिव तपोवन के दशन से
अपने - आपको
पिव कर । सारिथ : अभी लीिजए महाराज ! ( रथ की चाल और तेज़ करता है ।
) राजा : ( चारों ओर दे खकर ) सूत , दे खो, यहाँ तो िबना बताए ही पता चल रहा है िक
यही
तपोवन का आ म - भाग है । सारिथ : वह कैसे महाराज ? राजा : ों , दे खते
नहीं िक वृ ों के नीचे तोतों के रहने के कोटरों के मुँह से नीचे िगरे ए
धान पड़े ह । कहीं इं गुदी फलों को तोड़ने से िचकने ए प र िबखरे पडे ह ।
यहाँ के ह रण मनु ों के पास रहने के अ ह , इसी से रथ के श को सुनकर
भी वे िबना चौंके पहले की ही भाँ ित िनःशंक िफर रहे ह । पानी लेकर आने के माग
पर व ल व ों के छोरों से चूने वाले जल - िब दुओं की रे खा बनी िदखाई पड़ रही है
। छोटी- छोटी नािलयों म पानी की धारा बह रही है , िजससे वृ ों की जड़ धुल गई ह ।
घी के धुएँ के कारण त ओं के नवप वों का रं ग ब त बदल गया है । उस ओर
उपवन की भूिम से दश के अंकुर िनकालकर साफ कर िदए गए ह । वहाँ ह रणों के
छोटे - छोटे ब े ब त ही िनि होकर धीरे - धीरे िफर रहे ह । सारिथ : आप
ठीक कह रहे ह । राजा : ( थोड़ी दू र और जाने पर ) तपोवन के िनवािसयों को मेरे
आने से कहीं असुिवधा न
हो ? रथ यहीं रोक लो । म नीचे उत ँ गा। सारिथ : मने रास खींच ली ह । अब
आप उतर जाइए । राजा : ( उतरकर ) सूत , तपोवन म िवनीत वेश से ही िव होना
चािहए । लो , इ तुम
संभालकर रख लो । ( आभूषण तथा धनुष सारिथ को सौंप दे ता है ।) सूत, जब
तक
म आ मवािसयों के दशन करके आता ँ , तब तक तुम घोड़े की पीठ ठं डी कर
लो । सारिथ : ठीक है । ( राजा बाहर िनकल जाता है । ) राजा : ( कुछ दू र चलकर
और दे खकर ) यह आ म का ार आ गया । अब इसके अ र चला जाए।
( आ म म वेश करके शुभ शकुन की सूचना दे ता आ ) यह आ म तो शा
थान है और मेरी दाईं भुजा फड़क रही है । इसका यहाँ ा
फल ा हो सकता है ? िफर होनहार के रा े तो सभी जगह होते ह ।
( नेप म ) इधर, स खयो इधर ! राजा : ( कान लगाकर ) अरे दि ण की ओर
वृ ों की वािटका म कुछ बातचीत- सी सुनाई
पड़ रही है । उसी ओर जाता ँ । ( कुछ दू र चलकर और दे खकर) अरे , ये
तप ी क ाएँ अपने अनु प घड़े िलए पौधों को पानी दे ने इधर ही आ रही ह ! (
ान से दे खकर ) अहा, इनका प तो ब त ही मनोहर है । यिद आ म म रहने वाले
लोगों का ऐसा प है , जो रिनवासों म भी दु लभ है , तो समझ लो िक वनलताओं ने
उ ान की लताओं को मात दे दी । कुछ दे र इस छाया म खड़े होकर इनकी ती ा
करता ँ । ( दे खता आ खड़ा रहता है ।)
__ ( पौधों को पानी दे ती ई स खयों के साथ शकु ला वेश करती है ।)
शकु ला : इधर, स खयो इधर ! अनसूया : री शकु ला, मुझे तो ऐसा लगता है िक
िपता क को आ म के वृ तुझसे
भी अिधक ारे ह । तभी तो उ ोंने नवम का के कुसुम के समान सुकुमार
तुझको भी इनके थाँ वले भरने म लगा िदया है । शकु ला : केवल िपताजी की
आ ा की ही बात नहीं है । मुझे भी तो इनसे सगे भाइयों
जैसा ार है ।
( व ों को सींचने का अिभनय करती है ।) राजा : ा यही क की पु ी है ?
महिष क ने यह ठीक नहीं िकया िक इसे भी
आ म के काय म लगा िदया है । इस िनसग सु र शरीर को महिष क
तप ा के यो बनाने की अिभलाषा करके मानो नीलकमल की पंखुरी से बबूल का
पेड काटने की कोिशश कर रहे ह । अ ा, पेड़ों की आड़ से ही कुछ दे र इसे जी भर
कर दे ख तो लूँ । (दे खने लगता है ।) शकु ला : अनसूया , इस ि यंवदा ने मेरा
यह व ल व ऐसा कसकर बाँ ध िदया है िक
िहलना- डु लना भी मु ल हो गया है । ज़रा इसे ढीला तो कर दे । अनसूया :
अ ा। ( ढीला कर दे ती है ।) ि यंवदा : (हँ सती ई ) इसके िलए व को उभारने
वाले अपने यौवन को उलाहना दे , मुझे
ा उलाहना दे ती है ! राजा : भले ही यह व ल व इसके शरीर के अनुकूल
नहीं है , िफर भी यह इसके
सौ य को न बढ़ाता हो , यह बात नहीं । ोंिक काई लगी होने पर भी कमल
सु र होता है । च मा का मिलन कलंक भी उसकी शोभा को बढ़ाता है । यह
छरहरी युवती व ल व ों से और अिधक सु र लग रही है । आकृित सु र हो
तो , जो कुछ पहना िदया जाए, वही आभूषण बन जाता है । शकु ला : ( सामने
की ओर दे खकर) यह आम का वृ वायु से िहलते ए, अंगुिलयों के
समान प ों से मुझे पास बुला - सा रहा है । चलूँ, इसे भी पानी दे आऊँ। ( उसकी
ओर चलती है ।) ि यंवदा : री शकु ला, ज़रा दो िमनट वहीं खड़ी रह । तेरे पास
खड़े होने से यह आम का
वृ ऐसा सु र लग रहा है , जैसे इस पर कोई बेल िलपटी ई हो । शकु ला :
इसीिलए तो तेरा नाम ि यंवदा है । राजा : ि यंवदा ने बात ारी होते ए भी कही सच
है । ोंिक इस शकु ला के होंठ
नवप वों के समान लाल ह । दोनों बाँ ह कोमल टहिनयों के समान ह और फूलों
की भाँ ित आकषक यौवन इसके अंग - अंग म समाया आ है । अनसूया : री
शकु ला, तूने इस छोटे - से आ वृ की इस यंवरा वधू नवम का की
लता का नाम वन ो ा रखा था ; इसे ा भूल ही गई ? शकु ला : तब तो
अपने - आपको भी भूल जाऊँगी। ( लता के पास जाकर और दे खकर )
सखी, इस लता और वृ के युगल का अ े समय म मेल हो गया । वन ो ा
पर नए फूलों का यौवन खला है और फल आ जाने के कारण आ वृ भी इसे
संभालने म समथ हो चुका है । ( उ दे खती ई खड़ी रहती है । ) ि यंवदा : (
मु राती ई ) अनसूया , जानती है , शकु ला वन ो ा को इतना अिधक
ों दे ख रही है ? अनसूया : मालूम नहीं, तू बता । ि यंवदा : जैसे वन ो ा
अपने अनु प वृ से जा िमली है , उसी कार म भी अपने
अनु प वर ा कर सकूँ, इसिलए । शकु ला : यह ज़ र तेरे मन की बात है
।
__ ( कहकर घड़े का पानी उं डेल दे ती है ।) राजा : स व है यह कुलपित क
की िकसी अ जाित की ी से उ क ा हो ;
या स े ह की आव कता ही ा है ? अव ही इसका िववाह ि य से हो
सकता है ोंिक मेरा िन लंक मन इस पर मु हो गया है । स नों को जहाँ िकसी
बात म स े ह हो , वहाँ उनकी अ ःकरण की बात ही अ म माण होती
है । िफर भी इसके िवषय म सही बात का पता करता ँ । शकु ला : (
हड़बड़ाकर ) अरे , पानी डालने से हड़बड़ाकर उड़ा आ यह भौंरा नवम का
को छोड़कर मेरे मुँह पर आ रहा है । ( भौरे से बचने का य करती है ।) राजा : (
अिभलाषा के साथ) हे मर, तुम कभी उसकी बार - बार कां पती चंचल िचतवन
वाली ि का श करते हो । और कभी उसके कान के पास िफरते ए धीरे -
धीरे कुछ रह ालाप - सा करते ए गुनगुनाते हो । उसके हाथ झटकने पर भी तुम
उसके सरस अधरों का पान करते हो । व ुतः तु ीं भा वान् हो, हम तो
वा िवकता की खोज म ही मारे गए। शकु ला : यह दु मानता ही नहीं ।
अ ा, म उधर जाती ँ । ( कुछ कदम जाकर दे खती
ई ) अरे यह तो इधर भी आ रहा है । स खयो, यह दु भौंरा मुझे तंग कर रहा है
, मुझे इससे बचाओ।
दोनों स खयां : ( मु ु राती ई ) हम बचाने वाली कौन ? दु को ही पुकार ।
तपोवन की
र ा करना राजा का काम है । राजा : ( गत ) अपने आपको कट करने का
यह अ ा अवसर है । ( कट प म ) डरो
मत, डरो मत ... ( बीच म ही ककर मन ही मन ) इससे तो ये पहचान जाएँ गी
िक म
राजा ँ । अ ा , इस तरह कहता ँ । शकु ला : ( कुछ कदम जाकर िफर
दे खती ई ) यह ा ! यहाँ भी मेरे पीछे -पीछे आ रहा
राजा : ( तेज़ी से पास जाकर ) आ;, दु ों का दमन करने वाले पौरव दु के
पृ ी पर शासन करते ए भोली - भाली मुिन - क ाओं को यह कौन छे ड़ रहा है ?
( सब राजा को दे खकर कुछ हड़बड़ा जाती ह ।) अनसूया : महोदय , कुछिवशेष
अिन नहीं आ । यह हमारी ारी सखी इस दु भौंरे से
परे शान होकर घबरा गई है ।
( शकु ला की ओर इशारा करती है ।) राजा : ( शकु ला की ओर अिभमुख
होकर ) किहए, तप तो ठीक चल रहा है न ?
( शकु ला मुँह नीचा िकए अवाक् खड़ी रह जाती है ।) अनसूया : इस समय तो
आप जैसे अितिथ के आगमन से सब ठीक ही है । री शकु ला,
कुिटया म जा और वहाँ से कुछ फल तथा जलपान तो ले आ । मुँह -हाथ धोने के
िलए पानी यहाँ है ही । राजा : आप लोगों की मधुरवाणी से ही काफी आित हो
गया । ि यंवदा : तो चिलए, आप इस घनी छाया वाली स पण की शीतल वेदी पर
कुछ दे र
बैठकर िव ाम कर लीिजए । राजा : आप भी तो इस काम से थक गई ह ।
अनसूया : री शकु ला, हमारा अितिथ के पास रहना ही उिचत है । तो आ , यहीं बैठे
। ( सब
बैठ जाती ह । ) शकु ला : ( मन ही मन ) यह ा आ ? इ दे खकर मेरे मन
म तपोवन के अयो कैसा
ेमभाव उ हो रहा है । राजा : ( सबको दे खकर ) आप सबकी आयु एक - सी
और प भी एक जैसा है । इससे
आप लोगों की िम ता मुझे ब त ही सु र लग रही है । ि यंवदा : ( चुपके से )
अनसूया , यह दे खने म चतुर और ग ीर है और इसकी बात ब त
ि य ह । अव ही यह कोई भावशाली है । अनसूया : ( चुपके से ) मुझे
भी यह जानने की उ ुकता है । अ ा, पूछती ँ । ( कट प
से ) महोदय , आपकी मधुर बातों से उ िव ास के कारण म यह पूछना चाहती
ँ िक आपने िकस राजिष के वंश को सुशोिभत िकया है , और िकस दे श के
िनवािसयों को आप अपने िवरह म अधीर कर आए ह ? इस सुकुमार शरीर को आपने
िकस कारण तपोवन आने का क िदया है ?
शकु ला : ( मन ही मन ) दय, अधीर मत हो । जो तू सोचता है , वह सब यह
अनसूया पूछ
रही है । शकु ला : ( मन ही मन ) इस समय अपना प रचय दे दं , अथवा अपने -
आपको िछपाए ही
रखू? अ ा, इ इस कार बताता ँ । ( कट प म ) भ े , महाराज दु
ने मुझे धम-िवभाग म अिधकारी िनयु िकया है । इससे म यह जानने के िलए िक
आ मवािसयों की धम-ि याओं म कोई िव - बाधा तो नहीं, यहाँ तपोवन म
आया था । अनसूया : तब तो आ मवािसयों को आपने सनाथ कर िदया है ।
( शकु ला ंगार ल ा का अनुभव करती है ।) दोनों स खयाँ : ( राजा और
शकु ला की भावभंिगमा को दे खकर चुपके से) री शकु ला,
___ अगर आज यहाँ िपता क होते ! शकु ला : तो ा होता ?
स खयाँ : अपना जीवन - सव दे कर भी वह इस अितिथ को कृताथ करते ।
शकु ला : हटो , तुम न जाने ा - ा सोचकर कह रही हो । अब म तु ारी बात
भी नहीं
सुनूँगी । राजा : हम भी आपकी सखी के िवषय म कुछ पूछना चाहते ह । स खयाँ
: महोदय , आपका यह अनुरोध कृपा के समान है । राजा : यह बात तो सभी जानते ह
िक महा ा क आज चारी ह । िफर आपकी
यह सखी उनकी पु ी कैसे हो सकती है ? । अनसूया : सुिनए ! कौिशक गो म
उ ए िव ािम अ तेज ी राजिषह ।
राजा : हाँ , मने सुना है । अनसूया : बस, उ ीं को हमारी ि य सखी का िपता
समिझए । छोड़ िदए जाने के बाद
पालन-पोषण करने के कारण िपता क भी इसके िपता ह । राजा : यह छोड़ने
की बात ा है ? म शु से सुनना चाहता ँ । अनसूया : अ ा, तो सुिनए । पहले
िकसी समय वह राजिष गौतमी नदी के तीर पर कठोर
तप ा कर रहे थे। उस समय दे वों के मन म कुछ डर बैठ गया । उ ोंने उनकी
तप ा को भंग करने के िलए मेनका नाम की अ रा भेजी । राजा : ठीक है ।
दे वताओं को दू सरों की समािध से डर लगता है । अनसूया : उसके बाद भरे वस के
समय उसके उ ादक प को दे खकर ... ( बीच म ही
ल ा से क जाती है । ) राजा : ठीक है । आगे सब समझ आ गया । तो यह
अ रा की क ा है ? अनसूया : और नहीं तो ा ? राजा : यह बात ठीक है । मनु -
क ाओं म ऐसा िवल ण प कैसे आ सकता है ? चमचमाती ई िवधु टा
वसुधातल से नहीं उठा करती ।
( शकु ला मुँह नीचा िकए खड़ी रहती है ।)
राजा : ( मन ही मन) लो , अब मेरी अिभलाषा के िलए कुछ तो राह बनी। िक ु
इसकी
सखी ने मज़ाक म जो इसकी वर पाने की इ ा की बात कही थी , उसे सुनकर
मेरा मन दु िवधा से बेचैन हो रहा है । ि यंवदा : ( मु राकर शकु ला को
दे खकर राजा की ओर अिभमुख होकर) आप िफर
कुछ कहना चाहते ह ?
( शकु ला अंगुली से ि यंवदा को धमकाती है ।) राजा : आपने ठीक पहचाना ।
स नों के च र - वण के लोभ से म कुछ और भी
पूछना चाहता ँ । ि यंवदा : तो ब त ा सोचना ? तप यों के यहाँ तो सब
कुछ िन ंकोच पूछा जा सकता
राजा : म आपकी सखी के िवषय म यह जानना चाहता ँ िक ये मुिन- क ाओं के
यो
इस काम -िवरोधी त का पालन केवल िववाह - पयत ही करगी अथवा सदा ही
सु र आँ खों वाली ह रिणयों के साथ यहीं िनवास करगी ? ि यंवदा : महोदय,
धम- काय म भी यह पराधीन ह । पर ु इनके िपता का संक यही है
िक इ िकसी अनु प वर के हाथ सौंप िदया जाए । राजा : ( मन ही मन ) तब
तो यह अिभलाषा पूण होनी ब त किठन नहीं है । दय, अब
तुम अिभलाषा कर सकते हो । अब स े ह का िनणय हो गया है । िजसे तुम आग
समझकर डर रहे थे, वह तो र िनकला िजसे सरलता से श िकया जा सकता
है । शकु ला : ( ु - सी होकर ) अनसूया , म जा रही ँ । अनसूया : ों ,
ा बात है ? शकु ला : जाकर आया गौतमी से इस अनाप- शनाप बोलने वाली
ि यंवदा की िशकायत
क ँ गी । अनसूया : सखी, िविश अितिथ का स ार िकए िबना उसे इस तरह
अकेला छोड़कर चले
जाना हमारे िलए उिचत नहीं है ।
( शकु ला िबना कहे ही चल पड़ती है ।) राजा : ( मन ही मन ) अरे , ा जा रही
है ? (पकड़ना चाहता है , पर अपने - आपको
बलपूवक रोककर) म इस मुिन - क ा के पीछे - पीछे चलने लगा था , पर िफर
अचानक िश ाचार के कारण गित क जाने से यहाँ से िबना चले भी अब मुझे
ऐसा अनुभव हो रहा है , जैसे जाकर िफर वापस लौट आया होऊँ । ि यंवदा : (
शकु ला को रोककर) री, तू यों नहीं जा सकती । शकु ला : ( भौंहे टे ढ़ी करके )
ों ? । ि यंवदा : तुम पर मेरे दो वृ -िसंचन चढ़े ह । तो यहाँ आ , पहले पौधों को
सींचकर उ
उतार दे , िफर जाना । ( ज़बरद ी उसे वापस लाती है । ) राजा : भ े , म तो
दे खता ँ िक ये वृ ों को सींचने से पहले ही ब त अिधक थक गई ह ;
ोंिक घड़े उठाने से इनकी बाँ ह क ों पर से ढीली होकर झूल रही ह और
हथेिलयाँ ब त लाल हो गई ह । मुँह पर पसीने की बूंद झलक आई ह , िजनसे कान म
लटकाया आ िशरीष का फूल गालों पर िचपक गया है ; और जूड़ा खुल जाने के
कारण एक हाथ से संभाले ए बाल इधर- उधर िबखर गए ह । लीिजए, म इनका
ऋण उतारे दे ता ँ । ( यह कहकर अंगूठी दे ना चाहता है । )
( दोनों स खयाँ अंगूठी पर िलखे नाम के अ रों को पढ़कर एक
दू सरी को दे खती ह ।) राजा : मुझे आप और कुछ न समझ। यह मुझे राजा ने
उपहार म दी है ! म राजकमचारी
ँ न । ि यंवदा : तब इस अंगठी को इस अंगुली से अलग करने की आव कता
नहीं । आपके कह
दे ने भर से ही यह ऋण से मु हो गई । सखी शकु ला , तुझे इन दयालु महोदय
ने अथवा महाराज ने ऋण से मु करवा िदया है । अब जा । शकु ला : ( मन
ही मन ) यिद अपने पर बस हो , तभी तो जाऊँगी। ( कट प से ) तू भेजने
वाली या रोकने वाली कौन होती है ? राजा : ( शकु ला को दे खकर मन ही मन )
जैसे म इस पर अनुर ँ , वैसे ही कहीं यह
भी तो मुझ पर अनुर नहीं है ? यह बात हो सकती है ; ोंिक यह भले ही मेरी
बात का उ र नहीं दे ती ; िफर भी जब म बोलता ँ तो यह खूब कान दे कर सुनती है
और भले ही यह मेरे सामने खड़ी नहीं होती , िफर भी इसकी ि घूम - घूमकर बार-
बार मुझ पर ही आकर पड़ती है ।
( नेप म ) अरे तप यो, तपोवन के ािणयों की र ा के िलए तैयार हो जाओ।
मृगयािवहारी राजा दु पास ही आया आ है । घोड़ों के खुरों से उड़ी ई धूल
स ा की लािलमा के समान आ म के उन वृ ों पर, िजनकी टहिनयों पर गीले
व ल व टॅ गे ए ह , िट ी- दल के समान आ - आकर पड़ रही है । और रथ की
आवाज़ से डरा आ एक हाथी तप ा के िव के समान तपोवन म घुसा आ रहा है ।
इसने ज़ोर की चोट से एक वृ को उखाड़ िलया है , और अब वह उसके एक दाँ त म
फँसा आ है । टू टी और उलझी ई अनेक लताओं का जाल उसके पैरों म फँसा आ
है और उसे दे खकर हमारे ह रणों का झु भय से िततर -िबतर हो गया है ।
( सब कान लगाकर सुनते ह और कुछ घबरा - से जाते ह ।) राजा : ( मन ही मन )
आह! लगता है , हम ढू ँ ढ़ने आए ए सैिनक तपोवन को रौंद रहे ह ।
अ ा, म उसी ओर चलता ँ । स खयाँ : महोदय, इस तप ी की बात सुनकर
हम घबराहट हो रही है । अब हम कुिटया म
जाने की अनुमित दीिजए। राजा : ( हड़बड़ाकर) हाँ - हाँ , आप लोग जाइए । हम
भी ऐसा य करते ह , िजससे
आ मवािसयों को क न हो ।
(सब उठ खड़े होते ह ) स खयाँ : महोदय , हमने आपका कुछ भी अितिथ -
स ार नहीं िकया, इसिलए आपसे िफर
दशन दे ने का अनुरोध करते हम ल ा अनुभव हो रही है । राजा : यह बात नहीं
है । आपके दशन से ही मेरा आित हो गया है । शकु ला : ( राजा को दे खती ई ,
बहाना करके िवल करती ई स खयों के साथ बाहर
िनकल जाती है ।) राजा : मुझे अब नगर जाने की उ ुकता नहीं रही। िफर भी
चलकर अपने अनुचरों को
तपोवन से कुछ दू र िटका दू ँ । इस शकु ला के का से म िकसी कार अपने
आपको वापस नहीं लौटा पा रहा । मेरा शरीर य िप आगे की ओर जा रहा है , जैसे
वायु के वाह के िव जाने वाले झ े का रे शमी व पीछे की ओर ही लौटता है !
( राजा का थान )
ि तीय अंक
( उदास भाव से साँ स छोड़कर िवदू षक का वेश ) िवदू षक : ( गहरा साँ स
छोड़कर मन ही मन ) बस, दे ख िलया । इस िशकारी राजा की िम ता
से तो अब परे शान हो गया ँ । भरी दु पहरी म भी ' यह रहा ह रण', ' वह िनकला
सूअर', ' वह भागा चीता' कहते ए वन - वन मारे - मारे िफरो, आसपास पेड़ नहीं ,
छाँ ह का कहीं नाम नहीं। पीने को है पहाड़ी निदयों का पानी; उसम इतने प े सड़े ह
िक ाद कसैला हो गया है । समय पर खाने को न िमले, और जब िमले तो वह
सलाखों पर भुने माँ स के िसवा कुछ नहीं । घोड़े पर चढ़कर िशकार का पीछा करते -
करते क ों की हि याँ तक दु खने लगीं, िजसके मारे रात को ढं ग की नींद भी नहीं
आती। और उस पर अभी सवेरा होता नहीं िक ये शैतान बहे िलए िचडीमार हाँ के का
शोर मचा- मचाकर िफर जगा दे ते ह । इतने के मारे ही चैन नहीं थी , अब िग ड़ के
ऊपर यह एक फोड़ा और िनकल आया । कल हमारे िपछड़ जाने पर महाराज ह रण
का पीछा करते - करते तपोवन म जा प ं चे
और मेरे दु भा से मुिन क ा शकु ला को दे ख आए। अब वह नगर की ओर
मुड़ने का नाम भी नहीं लेते । आज भी उ ोंने उसी की याद म जागते - जागते रात
िबता दी । पर क ँ भी तो ा ? अ ा, चलता ँ । यिद वह ान-उपासना आिद से
िनवृ हो गए हों , तो उनके ही दशन क ँ । यह लो , हमारे ि य िम महाराज तो
यं ही इधर आ रहे ह । धनुष हाथ म िलए , वनफूलों की मालाएँ पहने यवन क ाएँ
उ घेरे चल रही ह । ठीक है ऐसे खड़ा हो जाता ँ , जैसे मेरे हाथ-पाँ व टू ट गए हों ।
शायद इसी तरह कुछ िव ाम िमल जाए ।
( ड े का सहारा लेकर खड़ा हो जाता है । )
( ऊपर बताए ढं ग से यवन - क ाओं से िघरे राजा का वेश ) राजा : भले ही
ि यतमा सुलभ नहीं है , िफर भी उसके मनोभाव को दे खकर मन को कुछ
सहारा िमलता है । भले ही हम दोनों का िमलन पूण न हो , िफर भी दोनों ओर से
िमलन का आ ह होने पर ेम तो बढ़ता ही है । ( मु राकर) अपने ि य की
िच वृि को अपने मनोनुकूल समझने वाला ेमी इसी कार धोखा खाता है । दे खो
न, वह शकु ला जब अपनी ि मधुर िचतवन से दू सरी ओर भी दे खती थी , तो
मुझे यही लगता था िक वह मेरी ओर दे ख रही है । वह तो िनत ों के भारी
होने के कारण म गित से चल रही थी , और मुझे लगता था िक जैसे वह अपनी
गित का िवलास मुझे िदखा रही है । सखी ने जब उसे रोककर कहा िक 'मत जाओ' तो
वह झ ाकर बोली। मुझे लगता है िक वह भी मुझे िदखाने के िलए ही
था । अिभलाषी को सब जगह अपने मतलब की ही बात िदखाई पड़ती है
। िवदू षक : ( उसी कार खड़े - खड़े ) िम , मेरे हाथ- पाँ व तो िहलते नहीं; इसिलए
केवल वाणी
से ही तु ारा जयकार करता ँ । राजा : ों, तु ारे हाथ- पाँ व को ा हो गया ?
िवदू षक : यं तो आँ ख म उं गली डाली और अब पूछते हो िक आँ सू ों आए ह ?
राजा : म तु ारी बात समझा नहीं । िवदू षक : ों िम , बत का पौधा पानी म
खडा कुबडे - सा खेल जो िकया करता है , वह
अपने - आप करता है या नदी के तेज बहाव के कारण ? राजा : उसका तो कारण
नदी का वेग ही होता है । िवदू षक : तो मेरे क का कारण भी आप ही ह ।
राजा : वह कैसे ? िवदू षक : आप तो सारे राज - काज को छोड़कर ऐसे बीहड़
दे श म बनजारे बने िफर रहे ह
और यहाँ मेरी यह दशा है िक रोज़ वन -पशुओं का पीछा करते- करते मेरी
हि यों के जोड़ तक िहल गए ह , िजससे मेरे िलए िहलना- डु लना भी किठन हो गया
है । अब आप मुझे कम से कम एक िदन तो िव ाम करने के िलए छु ी दे ने की कृपा
कीिजए। राजा : ( मन ही मन ) इसने तो यह बात कही और इधर शकु ला का
रण करके मेरा
मन भी िशकार से उचट गया है । ोंिक अब उन ह रणों की ओर बाण साधकर
मुझसे यह धनुष झुकाया नहीं जाता, िज ोंने ि यतमा शकु ला के पास रहकर
उसे भोली िचतवनों से दे खना िसखलाया है । िवदू षक : ( राजा के मुख की ओर
दे खकर ) आप तो मन ही मन कुछ सोच रहे ह ; म ा
इतनी दे र से वन म रो रहा था ? राजा : ( मु राते ए) तु ारी ही बात सोच रहा
ँ । िम की बात टाली नहीं जा सकती,
इससे चुप रह गया था । िवदू षक : िजयो महाराज, िजयो ! ( कहकर जाना चाहता
है ।)
राजा : िम , ठहरो। अभी तुमसे कुछ और बात करनी है । िवदू षक : आ ा
कीिजए। राजा : िव ाम तो करोगे ही, पर तु एक काम म मेरी सहायता करनी होगी
।ब त म
का काम नहीं है । िवदू षक : ा लड् डू तोड़ने म ? यह तो ब त ही बिढ़या बात
है । राजा : िफर बताऊँगा। अरे , कोई यहाँ है ?
( वेश करके )
ारपाल : ( णाम करके ) आ ा कीिजए, महाराज !
राजा : रै वतक , ज़रा सेनापित को तो बुला लाओ। ारपाल : जो आ ा। ( बाहर
जाता है । सेनापित के साध िफर वेश करके ) कुछ आ ा दे ने
के िलए उ ुक महाराज इसी ओर मुँह िकए बैठे ह । उनके समीप पधा रए ।
सेनापित : ( राजा को दे खकर मन ही मन ) िशकार म हज़ार दोष हों िक ु महाराज
के िलए
तो यह गुणकारी ही िस आ है । तभी तो महाराज के शरीर म पहाड़ी हाथी -
सा च बल भरा आ है । इनके शरीर के सामने का भाग िनर र धनुष की डोरी
खींचते रहने के कारण कठोर हो गया है । शरीर म सूय की धूप को सहने की ऐसी
श आ गई है िक पसीना िदखाई नहीं पड़ता । ायामशील होने के कारण इनका
शरीर कृश होने पर भी कृश लगता नहीं है । ( पास प ँ चकर) महाराज की
जय हो ! वन म हाँ का शु हो चुका है । आप अब तक इस कार ों बैठे ह ?
राजा : इस मृगयािन क माध ने मेरे उ ाह पर पानी डाल िदया है । सेनापित : (
चुपके से ) िम , तुम भी खूब लगा लो ज़ोर। म भी ामी के मन को बदलकर ही
र ँ गा । ( कट ) आप इस मूख को बकने दीिजए । आप यं ही दे खए न िक
िशकार से शरीर की चब घट जाती है । पशु भयभीत और ु होने पर कैसा
वहार करते ह , यह भी पता चल जाता है । चलायमान ल पर भी यिद तीर जा
लगे तो वह धनुधा रयों की कुशलता का माण है । लोग िशकार को थ ही
सन कहते ह । ऐसा बिढ़या िवनोद का साधन तो िमलना किठन है । । िवदू षक
: चल रे चल , आया है बड़ा जोश िदलाने वाला । अब महाराज होश म आ गए ह ।
तू वन - वन म भटकता आ अव िकसी नर- नािसका भ क बु े रीछ के मुँह
म जाकर पड़े गा । राजा : सेनापित , इस समय हम आ म के पास ठहरे ए ह ।
इसिलए म तु ारी बातों का
समथन नहीं कर सकता । आज तो भसों को जोहड़ों के पानी म सींग मार-
मारकर आन से नहाने दो । मृगों के झु वृ ों की छाया म बैठे ए जुगाली करते
रह और बनैले सूअर दलदलों म िनि होकर नागरमोथे की जड़ों को खोदते रह ।
डोरी उतारा आ हमारा यह धनुष कुछ समय िव ाम ही करे । सेनापित : जैसी
आपकी इ ा । राजा : जो लोग वन म हाँ का करने चले गए ह , उ वापस बुला लो
और सैिनकों को कह
दो िक वे तपोवन म िकसी कार की गड़बड़ न कर । दे खो, इन शा तप ी
महा ाओं के अ र जला डालने वाला तेज िछपा आ है । ये उन सूयका मिणयों
की भाँ ित ह , जो श म तो शीतल होती ह , िक ु यिद िकसी अ का
तेज उनके ऊपर पड़ने लगे, तो वे आग उलगने लगती ह । सेनापित : जो महाराज
की आ ा । िवदू षक : हो गया तु ारा उ ाह समा ?
( सेनापित बाहर जाता है । )
राजा : ( प रचा रकाओं की ओर दे खकर ) आप लोग भी इस िशकार के वेश को
उतार द ।
रै वतक, तुम भी अपने काम पर जाओ। सेवक लोग : जो महाराज की आ ा (
बाहर जाते ह । ) िवदू षक : चिलए, सब म याँ साफ ईं । अब आप वृ ों की छाया
म बने ए उस सु र
लताकुंज आसन पर बैिठए । म भी ज़रा आराम से बैठू । राजा : ठीक है । आगे
चलो । िवदू षक : इधर आइए ।
( दोनों कुछ दू र चलकर बैठ जाते ह ।) राजा : माध , तु आँ ख िमलने का
कुछ लाभ नहीं आ; ोंिक तुमने दे खने यो
व ु दे खी ही नहीं । िवदू षक : ों , आप मेरे स ुख तो बैठे ह ! राजा : अपने -
आपको हर कोई सु र समझता है । पर ु म तो उस आ म की शोभा
शकु ला की बात कह रहा ँ । िवदू षक : ( मन ही मन) ठीक है , इ मौका ही
न दू ं गा । ( कट म ) िम , लगता है िक
तु ारा मन उस मुिन- क ा पर िफसल गया है । राजा : िम , पौरवों का मन
िनिष व ु पर नहीं िफसलता । वह मुिन- क ा अ रा की
स ान है और उसके छोड़ दे ने पर क को ा ई है । ठीक ऐसे ही , जैसे
नव
म का का फूल िगरकर आक के पौधे पर आ अटके । िवदू षक : (हँ सकर )
अ ी - र ों की ओर ान न दे कर आप जो इस मुिन - क ा पर
ल हो रहे ह , वह ऐसा ही है जैसे िपंडखजूर खा - खाकर जी भर जाने पर कोई
आदमी इमली खाना चाहे । राजा : तुमने उसे दे खा नहीं, इसी से यह कह सके ।
िवदू षक : िजसे दे खकर आपको भी आ य हो रहा है , वह अव ही सु र होगी ।
राजा : िम , और ा क ँ ? ऐसा तीत होता है जैसे िवधाता ने पहले उसका िच
बनाया और िफर उसम ाण डाल िदए । या िफर अपने मन म सारे संसार के
प की इक ी क ना करके उसे सजीव कर िदया । िवधाता के िनमाण - कौशल
को
और शकु ला के मनोहर शरीर को दे खते ए मुझे तो लगता है , जैसे उ ोंने यह
िनराला ी - र रचा है । िवदू षक : यिद यह बात है तो समझो िक उसने सब
पवितयों को मात दे दी । राजा : और मेरे मन म तो रह-रहकर यह बात आती है िक
वह ऐसा फूल है , िजसे िकसी
ने अभी तक सँघा नहीं है । ऐसा नवप व है , िजसे िकसी ने नाखून से कुतरा नहीं
है । ऐसा नया र है , िजसम अभी छे द भी नहीं िकया गया है । ऐसा नया मधु है ,
िजसका िकसी ने ाद तक नहीं चखा है । वह िनमल सौ य व अख पु ों के
फल के समान है । न जाने िवधाता उसके उपभोग के िलए िकस भा शाली को ला
खड़ा करगे ।
िवदू षक : तब तो आप ही अिवल उसकी र ा कर । ऐसा न हो िक वह िकसी
इं गुदी के
तेल से िचकनी, घुटी ई टाँ ट वाले तप ी के हाथ पड़ जाए । राजा : वह बेचारी
तो पराधीन है ; और उसके गु यहाँ ह नहीं । िवदू षक : आपके ित उसकी दि कैसी
थी ? राजा : िम , मुिन - क ाएँ भाव से हो संकोचशील होती ह । िफर भी मेरे
सामने होने
पर उसने आँ ख दू सरी ओर फेर लीं और कुछ दू सरा ही बहाना करके हँ सने लगी
। इस कार उसने िश ाचार के कारण न तो अपने ेम को कट ही होने िदया और
न गु ही रखा । िवदू षक : (हँ सकर) दे खते ही तु ारी गोदी म नहीं आ बैठी ?
राजा : िफर एका म चलते समय उसने शालीनता के साथ भी अपने मनोभाव को
ब त कुछ कट कर िदया । ोंिक वह सु री कुछ ही कदम जाकर िबना बात
ही पैर म काँ टा चुभने का बहाना करके खड़ी हो गई और मुँह फेरकर पेड़ों की
शाखाओं म से अपने ब ल व को छु ड़ाने लगी; य िप वह व उसम उलझा
भी नहीं था । िवदू षक : तब तो साहस बनाए र खए। दे खता ँ िक आपने तपोवन
को उपवन ही बना
डाला है । राजा : िम , कुछ तप ी मुझे पहचान गए ह । अब कोई ऐसा बहाना
सोचो, िजससे
िकसी कार एक बार आ म म जाकर रह सक । िवदू षक : आप राजा ह ।
आपको दू सरे बहाने की ा आव कता ? यही किहए िक
हमारा अनाज का ष ां श लाओ। राजा : मूख, इनसे हम दू सरा ही कर ा होता
है , िजसकी तुलना म ब मू र ों का
ढे र भी ा है । दे खो, चारों वग से राजा को जो कर ा होता है , वह
नाशवान है ; पर ु ये तप ी लोग हम अपने अ य तप का ष ां श दान करते
ह।
( नेप म ) तब तो काम बन गया ! राजा : ( ान से सुनकर ) इनके धीर और
शा र से तो यह तप ी मालूम होते ह ।
( वेश करके ) ारपाल : महाराज की जय हो ! दो ऋिषकुमार महाराज के
दशन के िलए ार पर आए ह ।
राजा : तो उ तुर यहीं ले आओ। ारपाल : अभी लाता ँ । ( बाहर जाता है ।
ऋिषकुमारों के साथ वेश करके ) इधर आइए , इधर ।
( दोनों राजा को दे खते ह ।) थम ऋिषकुमार अहा, इन महाराज का प तेज ी
होने पर भी कैसा िव ासो ादक है !
या ऋिषयों के समान ही जीवन िबताने वाले इन महाराज के िलए यह ठीक
ही है ; ोंिक ये भी मुिनयों की भाँ ित सविहतकारी आ म म िनवास कर रहे ह ।
ये भी लोगों की र ा करके ितिदन तप- संचय करते ह और इन िजते य महाराज
के चारणों ारा गाए गए यशगीत ग तक सुनाई पड़ते
ह । ह तो ये भी ऋिष ही ; अ र केवल इतना है िक ये राजिष ह । दू सरा
ऋिषकुमार गौतम , ा यही इ के परम िम दु ह ? । पहला ऋिषकुमार हाँ ,
यही ह । दू सरा ऋिषकुमार ठीक है , तब तो इसम ा आ य की बात है िक अकेले
ही आसमु
पृ ी का उपभोग करते ह । इनकी भुजाएँ दु ग के ार की अगला के समान
बिल ह । दै ों के साथ यु होने पर सुरां गनाएँ िवजय के िलए इनके डोरी
चढ़े धनुष तथा इ के व का ही तो भरोसा रखती ह । दोनों ऋिषकुमार ( पास
जाकर ) महाराज की जय हो !
राजा : ( आसन से उठकर ) आप दोनों को णाम ! दोनों ऋिषकुमार आपका
क ाण हो ! ( कहकर फल भट करते ह । )
राजा : ( णाम करते ए फल लेकर) कुछ आ ा कीिजए । दोनों ऋिषकुमार
आ मवािसयों को मालूम हो गया है िक आप यहाँ आए ए ह , इसिलए वे
आपसे ाथना करते ह | राजा : उनकी ा आ ा है ? दोनों ऋिषकुमार महिष
क के यहाँ न होने से रा स लोग हमारे य ों म िव डालते ह ।
इसिलए आप सारिथ के साथ कुछ िदन तक हमारे आ म को सनाथ
कीिजए । राजा : यह उनकी कृपा है । िवदू षक : ( आड़ करके ) इनका यह
अनुरोध तो तु ारे मनोनुकूल ही है । राजा : ( मु राकर ) रै वतक , मेरी ओर से
सारिथ से कहो िक धनुष - बाण और रथ लेकर
___ आए । ारपाल : जो महाराज की आ ा । ( बाहर जाता है । ) दोनों
ऋिषकुमार ( स होकर ) आपका यह काय आपके यो ही है । आपके पूवज भी
__ ऐसा ही करते रहे ह । िवपि म पड़े लोगों को अभयदान दे ना पौरवों का धम
रहा है । राजा : ( णाम करके ) अब आप लोग चल । म बस आपके पीछे ही आ
रहा ँ । दोनों ऋिषकुमार आपकी जय हो ! ( कहकर बाहर िनकल जाते ह । )
राजा : माध , शकु ला को दे खने की इ ा है ? िवदू षक : पहले तो ब त थी ,
पर ु अब यह रा सों वाली बात सुनकर र ी- भर भी शेष
नहीं रही । राजा : डरते ों हो, मेरे पास ही तो रहोगे । िवदू षक : हाँ , तब तो
रा सों से बच जाऊँगा ।
( वेश करके ) ारपाल : महाराज , आपकी िवजय - या ा के िलए रथ तैयार है
और नगर से मातु ी का
आदे श लेकर करभक आया है । राजा : ( आदर के साथ ) ा माताजी ने भेजा है
? ारपाल : जी हाँ ।
राजा : उसे बुलाओ। ारपाल : जो आ ा । ( बाहर जाता है और करभक के साथ
िफर आता है ।) महाराज वह
बैठे ह । पास जाओ। करभक : महाराज की जय हो ! माता ी ने आ ा दी है िक
आज से चौथे िदन उनका
उपवास समा होगा । वहाँ पर िचरं जीव आप अव उप थत हों । राजा : इधर
तप यों का काय है और उधर बड़ों की आ ा । दोनों म से िकसी को भी
टाला नहीं जा सकता । अब ा िकया जाए ? िवदू षक : ि शंकु की तरह बीच म
ही लटके रिहए । राजा : सचमुच ही म िच त हो उठा ँ । ये दोनों काय अलग -
अलग थान के ह ; इसी से
मेरा मन दु िवधा म पड़ गया है , जैसे सामने पवत आ जाने पर िवशाल नदी का
वाह दो भागों म बँट जाता है । ( कुछ दे र िवचार कर ) िम , तु भी तो माताजी पु
के समान ही मानती ह । इसिलए तुम यहाँ से लौटकर नगर चले जाओ। वहाँ जाकर
माताजी से िनवेदन कर दे ना िक म तप यों के काय म फँसा आ ँ और
मेरी ओर से तु ीं पु के सब काय पूरे कर दे ना । िवदू षक : पर तुम यह तो नहीं
समझोगे िक म रा सों से डरकर चला गया ?
राजा : ( मु राकर ) वाह, ऐसा कभी हो सकता है ? िवदू षक : राजा के छोटे
भाई को िजस शान से जाना चािहए, उसी शान से जाऊँगा । राजा : तपोवन के लोगों
को कोई क न हो, इसिलए सब अनुचरों को तु ारे साथ ही
__ वापस भेज दू ं गा । िवदू षक : ( गव के साथ ) वाह , तब तो अब म युवराज ही
हो गया । राजा : ( मन ही मन ) यह ा ण है तो मूख ही । कहीं ऐसा न हो िक यह मेरे
मन की बात
अ ःपुर म जाकर रािनयों से कह दे । अ ा, इसे समझाए दे ता ँ । (िवदू षक का
हाथ पकड़कर कट प से ) िम , ऋिषयों का आदर रखने के िलए म तपोवन म
जा रहा ँ । मुिन - क ा से मुझे िब ु ल भी ेम नहीं है । दे खो, कहाँ तो हम और
कहाँ मृगछौनों के साथ बड़ी ई, ेम का ' क - ख ' भी न जानने वाली वह
शकु ला! मेरी उस हँ सी म कही बात को कहीं तुम सच ही न समझ लेना !
िवदू षक : तुम ा मुझे इतना बुद्धू समझते हो !
( सब बाहर िनकल जाते ह । )
तृतीय अंक
( हाथ म कुशा िलए ए क के िश का वेश ) िश : वाह , महाराज दु
के ताप का ा कहना ! उनके आ म म िव होते ही
हमारे सब य - कम िनिव होने लगे ह । बाण चढ़ाने की तो आव कता ही
नहीं; उनका धनुष ं कार के समान अपनी डोरी के श से ही सब िव ों को दू र कर
दे ता है । चलूँ, वेदी पर िबछाने के िलए यह कुशा य करने वाले पुरोिहतों को दे आऊँ
। ( कुछ दू र चलकर और आकाश की ओर दे खकर) ि यंवदा, यह खस का लेप और
कमलनाल - समेत कमल के प े िकसके िलए ले जा रही हो ? ( सुनकर ) ा कहती
हो ? लू लग जाने के कारण शकु ला की दशा िबगड़ गई है ! उसके शरीर को शा
दे ने के िलए जा रही हो ! तब तो ज ी जाओ। स ख , वह शकु ला तो कुलपित क
का ाण है । म भी अभी जाकर य से बचा पिव जल गौतमी के हाथ िभजवाता ँ ।
( बाहर चला जाता है । ) ( िव क समा )
(िवरह से ाकुल राजा का वेश ) राजा : ( िच ा के साथ गहरी साँ स छोड़कर )
म ऋिषयों के तपोबल को भली- भाँ ित
पहचानता ँ ; और यह भी मुझे मालूम है िक वह सु री शकु ला िपता की आ ा
के िबना कुछ न करे गी । िफर भी म िकसी कार अपने दय को उससे वापस नहीं
लौटा पा रहा ँ । ( िवरह - था का अिभनय करते ए ) भगवान कामदे व , तुमने
और च मा ने िव सनीय होकर भी ेमी - जनों को ब त धोखा िदया है । ोंिक मेरे
जैसे लोगों के िलए न तो तु ारे बाण ही फूलों के रहते ह
और न ही च मा की िकरण शीतल रहती ह । च मा अपनी िहमशीतल िकरणों
से आग बरसाने लगता है और तुम अपने फूलों के बाण को व के समान कठोर कर
लेते हो । (उदास भाव से कुछ दू र चलकर) इस समय ऋिष लोग तो य कम म लगे
ए ह और उ ोंने मुझे कुछ दे र की छु ी भी दे दी है । अब कहाँ चलूँ , जहाँ कुछ दे र
बैठकर थकान िमटा सकूँ ? (गहरी साँ स छोड़कर) ि या के दशन के अित र मेरे
िलए और थान भी कहाँ ! तो चलूं, उसी की खोज क ँ । ( सूय की ओर दे खकर )
ायः इस तेज़ धूप की दु पहरी के समय शकु ला मािलनी के तीर
लताओं के कुंज म रहा करती है । चलो, िफर वहीं चलता ँ । ( कुछ दू र चलकर
ठ ी वायु के श का अनुभव करता आ ) अहा, इस जगह तो खूब ठ ी हवा चल
रही है । यहाँ की वायु म कमलों की सुग भरी है और वायु मािलनी नदी की तरं गों के
जल -कणों से शीतल हो उठी है । मेरे िवरह से तपे शरीर को वायु ब त ही सुखद लग
रही है । ( कुछ दू र चलकर और दे खकर ) शकु ला अव ही इस बत से िघरे ए
लताकुंज म है ; ( भूिम की ओर दे खकर ) ोंिक इस कुंज के ार पर सफेद रे त म
नए पदिच ों की पं िदखाई पड़ रही है । ज़रा पेड़ों की डािलयों से दे खू तो । ( थोड़ा
चलकर दे खता है , स होकर) अहा, आँ खों म चैन पड़ गई । यह मेरी अिभलाषाओं
की रानी प र की िशला पर िबछे फूलों के िबछौने पर लेटी ई है । दोनों स खयाँ
उसके पास बैठी ह । अ ा, सुनूँ तो ये एका म ा बात कर रही ह ( कुंज म अ र
की ओर झाँ कता आ खड़ा रहता है । )
( ऊपर विणत प म स खयों के साथ शकु ला का वेश ) स खयाँ : ( ेह के
साथ पंखा झलते ए ) ों शकु ला, कमल के प े की हवा अ ी तो
__ लग रही है न ? शकु ला : ा तुम मेरे ऊपर पंखा झल रही हो ?
( दोनों स खयाँ िवषाद का अिभनय करती ई एक - दू सरी की ओर
दे खती ह ।) राजा : शकु ला ब त ही अ थ िदखाई पड़ती है । ( सोचकर ) यह
इसे लू लगी है , या
िफर जैसी मेरे मन की दशा है वैसी ही दशा इसकी भी है ? ( ेम के साथ दे खकर
) ठीक है । अब इसम स े ह नहीं । इसकी कलाई म कमलनाल का एक ढीला-ढाला
कंगन पड़ा है । यह ठीक है िक लू लगने पर युवितयों म इस कार का सौ य शेष
नहीं रहता । ि यंवदा : ( चुपके से ) अनसूया , स ख , मेरे मन म भी यही आशंका
है । अ ा, इससे पूछती
ँ । ( कट प से ) स ख , तुझसे एक बात पूछती ँ । तुझे ब त क हो रहा है
! शकु ला : (िब र पर से आधी उठकर बैठ जाती है ।) ा पूछना चाहती हो ?
अनसूया : शकु ला, हम दोनों को यह मालूम नहीं िक ेम ा होता है , िक ु
पु कों म
ेिमयों की जैसी दशा पढ़ी है , इस समय तेरी दशा भी वैसी ही िदखाई पड़ रही है
। अब ठीक बता , तेरे क का कारण ा है ? जब तक िवकार का सही कारण
ात न हो , तब तक उसका कुछ भी ितकार नहीं िकया जा सकता । राजा :
अनसूया ने भी वही बात सोची, जो म सोच रहा था । तब तो मेरा यह िवचार
केवल ाथ े रत नहीं था । शकु ला : ( मन ही मन) मेरा ेम अ ती है ।
िफर भी म एकाएक इ बताऊँ कैसे ! ि यंवदा : शकु ला, अनसूया , ठीक कहती
है । अपने रोग की इस तरह उपे ा ों करती
हो ? िदनोंिदन तु ारी दे ह सूखती जाती है । अब बस सौ य की झलक ही तुम
पर शेष बची है ।
राजा : ि यंवदा की बात सच है , ोंिक इसके कपोल और मुख िब ु ल मुरझा
गए ह ।
किट और भी अिधक झीण हो गई है । क े ब त झुक गए ह । रं ग पीला पड़ गया
है । इस समय ेम से ाकुल इस शकु ला को दे खकर दु ःख भी होता है और दे खने
म यह ि य भी लगती है । इसकी दशा उस माधवी लता के समान है ,
िजसके प े पि मी वायु के श से सूख चले हों । शकु ला : स ख, यिद तुमसे
न क ँ गी तो और क ँ गी िकससे ! इस समय मेरे िलए तु
कुछ क उठाना पड़े गा । स खयाँ : इसीिलए तो हम इतना आ ह कर रही ह ।
इ - ब ुओं म बाँ ट लेने से दु ःख की
पीड़ा स हो जाती है । राजा : जब सुख- दु ःख म साथ रहने वाली स खयाँ पूछ
रही ह तो यह शकु ला अपनी
मानिसक ािध का कारण अब बताएगी ही । य िप इसने अपनी ललचाई आँ खों
से बार- बार मुझे दे खा था, िफर भी इस समय म इसकी था का कारण सुनने के
िलए अधीर हो उठा ँ । शकु ला : स खयो, जब से मने तपोवन के र क उन
राजिष के दशन िकए ह , तभी से
उनके ेम म मेरी यह दशा हो गई है । राजा : ( स होकर ) जो सुनना था , वह
सुन िलया । कामदे व ने ही वेदना जगाई थी और
अब उसी ने उसे शा भी िकया है ; जैसे अित च गम के िदन अपरा म
बादल आ जाने से ािणयों को शा िमल जाती है । शकु ला : यिद तुम दोनों
को ठीक लगे तो ऐसा करो, िजससे वह राजिष मुझ पर दया करे ।
अ था मेरे िलए ितल और जल की अंजिलयाँ तैयार कर लो । राजा : इस बात को
सुनकर तो कोई स े ह ही नहीं रहा । ि यंवदा : ( धीरे से ) अनसूया, इसका ेम ब त
दू र तक बढ़ चुका है । अब िवल इससे
सहन नहीं होगा । िजससे इसका अनुराग है , यह पु वंश का भूषण है । इसके इस
ेम की शंसा करना ही उिचत है । अनसूया : ठीक कहती हो । ि यंवदा :
( कट प से ) स ख, तु ारा यह अनुराग तु ारे अनु प ही है । महानदी सागर
के अित र और िमलेगी भी िकससे ! प ों से लदी ई माधवी लता को आ के
वृ के िसवाय और संभाल भी कौन सकता है ! राजा : यिद िवशाखा न
शिशकला का अनुगमन करे , तो इसम आ य ा है ! अनसूया : पर ऐसा ा उपाय
िकया जाए, िजससे हमारी सखी की कामना अिवल और
गुपचुप पूरी हो जाए ? ि यंवदा : गुपचुप हो , यही बात सोचने की है । ज ी करना
तो सरल है ।
अनसूया : वह कैसे? ि यंवदा : उन राजिष को भी इससे ेम है , यह बात उनकी
ेह भरी ि को दे खकर िछपी
नहीं रहती । आजकल राि - जागरण के कारण वे कुछ दु बल भी िदखाई पड़ते ह
।
राजा : सच है । मेरी दशा ऐसी ही हो गई है । रात म जब म बाँ ह पर िसर रखकर
लेटता ँ
तो दय के स ाप से गम - गम आँ सू आँ खों से बहने लगते ह । उन आँ सुओं के
कारण मेरे इस सोने के कंगन म जुड़े ए र का रं ग मैला पड़ गया है । बाँ ह पतली हो
जाने के कारण यह कंकण बार - बार डोरी के आघात -िच को छु ए िबना ही नीचे को
सरक जाता है , और मुझे बार- बार इसे ऊपर की ओर
सरकानापड़ता है । ि यंवदा : (सोचकर) स ख, इसकी ओर से ेमप िलखो।
उस प को म दे वता के साद
के बहाने फूलों म िछपाकर उनके हाथ मदे आऊँगी । अनसूया : यह उपाय ब त
अ ा है । ों शकु ला, ा कहती हो ? शकु ला : मुझे ा सोचना -िवचारना है !
ि यंवदा : तो अपनी मनोदशा का वणन करते ए एक सु र - सी किवता तो बना
डालो । शकु ला : अ ा, सोचती ँ । पर ु मेरा दय इस िवचार से काँ प उठता है
िक कहीं वे मेरा
ितर ार न कर द । राजा : ( स होकर ) अरी भी , िजससे तु ितर ृ त
होने की आशंका हो रही है , वह
तो तुमसे िमलने को अधीर खड़ा है । याचक को ल ी िमले या न िमले, पर ु
यं ल ी िजसे चाहे , वह कैसे दु लभ हो सकता है ? स खयाँ : तुम थ ही अपने
गुणों का अनादर करती हो । शरीर को शा दे ने वाली शरद
___ ऋतु की चाँ दनी को कौन कपड़ा ओढ़कर अपने से दू र रखता है ! शकु ला
: ( मु राकर ) अ ा, म ेमप िलखती ँ । ( बैठी - बैठी सोचने लगती है ।) राजा :
अपनी ि यतमा को अपलक दे खने का यह ब त ही अ ा अवसर है । यह इस
समय किवता रचने बैठी है । इसकी एक भौंह कुछ ऊँची हो गई है । और कपोलों
पर रोमां च हो आया है । मेरे ित इसका ेम िकतना झलक उठा है !
शकु ला : स ख, मने गीत तो सोच िलया है , पर ु यहाँ िलखने का कोई साधन तो है
ही
नहीं । ि यंवदा : यह कमल का प ा कैसा तोते के पेट के समान सुकुमार है , इसी
पर अपने
नाखूनों से िलख डालो न ! शकु ला : ( कमल के प े पर नाखुनों से िलखकर )
री, अब ज़रा सुन लो । ठीक बना है या
नहीं ? स खयाँ : सुनाओ। हम सुन रही ह । शकु ला : ( पढ़ती है ।)
तड़पूँ म िदन - रात न मुझको चैन एक पल आए रे ! लगी ेम की आग मुझे, जो
अंग - अंग झुलसाए रे !
तेरे जी का हाल न जानूँ मुझे चाह तड़पाए रे ! राजा : (एकाएक पास प ँ चकर)
सु री, कामदे व तु तो केवल तपाता है , पर ु मुझे
तो जलाए ही डालता है । िदन के कारण च मा की का िजतनी मिलन हो
जाती है ; उतनी कुमुिदनी की नहीं होती । स खयाँ : ( स होकर) वाह, हमने
सोचा और आप आ प ँ चे। आपका ागत है ।
( शकु ला उठना चाहती है ) राजा : लेटी रिहए, उठने का क न कीिजए । सेज
के फूल आपके शरीर पर िचपक गए
ह और टू टी ई कमलनालों की सुग उसम रम गई है । इससे है िक
आपका शरीर र से जल रहा है । आपको िश ाचार दिशत करने की आव कता
नहीं
अनसूया : आप भी इस प र की िशला के एक भाग को सुशोिभत कीिजए ।
( राजा बैठ जाता है । शकु ला लजाई बैठी रहती है । ) ि यंवदा : आप दोनों का
एक - दू सरे के ित ेम कट हो ही चुका है , िफर भी अपनी सखी
के ित ेम के कारण मुझे बात दु हरानी पड़ रही है । राजा : भ े , अव किहए
। सोची ई बात यिद न कही जाए ता उसका प ा ाप बना
रहता है । ि यंवदा : अपने रा म रहने वाले िवपि का दु ःख राजा
को दू र करना चािहए ।
यह आपका धम है न ? राजा : बस , इतनी- सी बात ? ि यंवदा : हमारी इस ि य
सखी की आपके कारण भगवान् कामदे व ने यह दशा कर दी है ।
__ अब आप ही कृपा करके इसे जीवन- दान दीिजए । राजा : भ े , यह ेम दोनों
ओर से है । आपने मुझ पर अनु ह िकया है । शकु ला : (ि यंवदा की ओर दे खकर)
सखी, अ ःपुर के िवरह से बेचैन राजिष से इस
कार ों आ ह कर रही हो ? राजा : सु री , तुम मेरे दय म आसन बना
चुकी हो । मेरा यह दय तु ारे ही वश म है ।
यिद तु इस पर िव ास नहीं, तो तुम मुझ पर एक और नई चोट कर रही हो ।
कामदे व के बाणों से म पहले ही घायल हो चुका ँ । अनसूया : िम , सुना है
राजाओं की ब त - सी रािनयाँ होती ह । आप ऐसा कीिजए, िजससे
हमारी इस ारी सखी के िलए इसके इ - ब ुओं को दु ःख न करना पड़े । राजा
: भ े , ब त कहने से ा लाभ? अनेक रािनयों के होते ए भी मेरे कुल की
ित ा केवल दो से ही होगी । एक तो समु - वसना पृ ी से और दू सरे तु ारी
इस
सखी से । स खयाँ : चिलए, हम स ोष आ । ि यंवदा : ( बाहर की ओर दे खकर
) अनसूया, यह ह रण का ब ा हमारी ओर उदास ि से
दे ख रहा है । बेचारा अपनी माँ को ढू ँ ढ़ता िफर रहा है । चलो, इसे इसकी माँ से
िमला द ।
( दोनों चल पड़ती ह ) शकु ला : स ख , तुम मुझे अरि त छोड़ चलीं। तुमम से
कोई एक तोआ जाओ।
स खयाँ : जो सारी पृ ी का र क है , वह तो तु ारे पास बैठा है । ( कहकर चली
जाती
शकु ला : यह ा ! चली ही गईं ! राजा : घबराओ नहीं, तु ारा यह पुजारी
तु ारे पास जो बैठा है । कहो, ा कमलप ों ___ के पंखे से तु ारे ऊपर ठ ी
हवा करके थकान िमटाऊँ या तु ारे इन कमल के
समान पैरों को अपनी गोद म रखकर धीरे - धीरे सहलाऊँ , िजससे तु सुखिमले
। शकु ला : आप आदरणीय ह । ऐसा करवाकर म अपराध की भािगनी नहीं बनना
चाहती ।
( उठकर जाना चाहती है । ) राजा : सु री, अभी िदन ढला नहीं है और तु ारा
शरीर भी थ नहीं है । इस समय
फूलों की सेज को छोड़कर और कमल - प ों की बनी इस अंिगया को छोड़कर
र से दु बल ए इस शरीर से तुम धूप म कैसे जाओगी ?
( कहकर उसे बलपूवक लौटा लेता है ।) शकु ला : पौरव , अिश ता मत करो।
ेम से ाकुल होने पर भी म ाधीन नहीं ह । राजा : भी , तुम गु जनों से थ
डरती हो । इस सबको जान - सुनकर धम के ाता
महिष क बुरा नहीं मानगे। दे खो, पहले भी अनेकों राजिषयों की क ाओं का
िववाह गा व िविध से हो चुका है और उनके िपताओं ने उन क ाओं का
अिभन न ही िकया , बुरा नहीं माना । शकु ला : मुझे छोड़ दो। िफर भी म
स खयों से तो पूछ लूँ ।
राजा : अ ा, छोड़ दू ं गा । शकु ला : कब? राजा : जब म तु ारे इस अ त्,
कोमल अधर का अपने ासे होंठों से उसी कार रसपान कर लूँगा जैसे मर
सदयता के साथ नए फूल का रस लेता है ।
( यह कहकर उसके मुख को ऊपर उठाना चाहता है । शकु ला मुँह बचाने का
अिभनय करती है ।)
( नेप म ) ओ च वाकवधू, सहचर को िवदा दो । राि आ प ँ चती है ।
शकु ला : ( हड़बड़ाकर ) पौरव , मेरा हाल- चाल पूछने के िलए अव गौतमी यहाँ
आ रही
है , तुम पेड़ों के पीछे िछप जाओ। राजा : अ ा । (िछपकर बैठ जाता है ।)
(उसके बाद पा हाथ म िलए गौतमी और स खयों का वेश ) स खयाँ : आय
गौतमी, इधर आइए , इधर । गौतमी : ( शकु ला के पास जाकर) बेटी , तु ारे शरीर
का ताप कुछ कम आ िक नहीं ? शकु ला : आय, अब तो काफी अ र है । गौतमी
: इस कुशा के जल से तेरा शरीर िब ु ल नीरोग हो जाएगा । ( शकु ला के िसर पर
पानी िछड़ककर ) बेटी, अब तो िदन ढल गया । चलो, कुिटया म ही चलते ह ।
( सब चल पड़ती ह ।) शकु ला : ( मन ही मन ) दय ! इतनी सरलता से इ ा
पूरी हो गई, पर तुम पहले -पहल
अपनी कातरता ाग न सके । अब िबछड़ जाने पर इतने पछता ों रहे हो ? हे
स ापहारक लताकुंज, तु आन -िवहार के िलए िफर िनम ण िदए जाती ँ ।
( शकु ला उदास होकर सबके साथ बाहर चली जाती है । ) राजा : ( पहले थान
पर आकर गहरी साँ स छोड़कर) आह, मनोकामनाओं की पूित म
हज़ार िव होते ह । जब वह सु र पलकों वाली शकु ला अंगिलयों से अपने
होंठों को ढककर बार- बार ' नहीं', ' नहीं ' कहती जा रही थी और इसीिलए और भी
अिधक सु र लग रही थी , उस समय मने उसके क े पर रखे ए मुख को जैसे तैसे
ऊपर की ओर तो िकया, िक ु चूम नहीं पाया । अब कहाँ जाऊँ ? या कुछ दे र इसी
लताकुंज म बैठता ँ , जहाँ मेरी ि या इतनी दे र िव ाम करके चली गई है । ( चारों
ओर दे खकर ) उधर िशला के ऊपर उसके शरीर से मसली ई यह फूलों की सेज
िबछी है । इधर यह कमल के प े पर नाखूनों से िलखा आ मुरझाया आ ेमप
पड़ा है । यह उसके हाथ से िगरा आ कमलनाल का कंगन पड़ा है । मेरी ि जैसे
इन व ुओं पर िचपकी- सी जा रही है । इस सूने बत के कुंज से भी एकाएक बाहर
िनकल पाना मेरे बस का नहीं है ।
( आकाश म ) महाराज, अभी सायंकाल का य ार होते ही य ाि की वेदी
के चारों ओर माँ स खाने वाले रा सों की दू र - दू र तक फैली ई सं ाकाल के मेघों
के समान
भूरी, डरावनी छायाएँ च र काटने लगी ह । राजा : घबराओ नहीं । यह म आ
प ं चा ।
( बाहर िनकल जाता है ।)
चतुथ अंक
( फूल चुनने का अिभनय करती ई दोनों स खयों का वेश ) अनसूया : ि यंवदा
, शकु ला को गा व िविध से िववाह करके अपने अनु प पित िमल
गया, इससे मेरे दय को बड़ा स ोष आ । िफर भी यह बात ज़रा सोचने की है
। ि यंवदा : ा बात ? अनसूया : यह िक आज वह राजिष य की समा पर
ऋिषयों से िवदा लेकर अपने नगर
को चले जाएं गे । वहाँ जाकर अ ःपुर म वेश करके उ यहाँ की बात याद भी
रहती ह या नहीं । ि यंवदा : िच ा मत कर, इस कार की सु र आकृित वाले
पु ष दोषी नहीं आ करते ।
पर यह मालूम नहीं िक इस सारे वृ ा को सुनकर िपता क ा कहगे!
अनसूया : मुझे तो ऐसा लगता है िक वह इसे ठीक ही मानगे । ि यंवदा : वह ों ?
अनसूया : सबसे बड़ी बात यही होती है िक क ा गुणवान को दी जाए । यिद
भा
ही इसे पूरा कर दे तो माता-िपता की अिभलाषा तो अनायास ही पूण हो गई
समझो। ि यंवदा : (फूलों की डिलया की ओर दे खकर) स ख, पूजा के िलए फूल
काफी हो गए ।
अनसूया : आज स ख शकु ला को सौभा दे वी की भी तो पूजा करनी है ।
ि यंवदा : ठीक है । (िफर चुनने लगती है । )
( नेप म ) अनसूया : ( ान से सुनकर ) स ख , अितिथयों की - सी आवाज़
मालूम होती है । ि यंवदा : कुिटया म शकु ला तो है । ( मन ही मन ) पर ु वहाँ होते
ए भी आज उसका
___ मन वहाँ नहीं है । अनसूया : अ ा, इतने फूल ब त ह । ( कहकर दोनों चल
पड़ती ह ।)
( नेप म ) अरी, अितिथ का ितर ार करने वाली, तू एका मन से िजसके
ान म म होकर मुझ घर आए ए तप ी ऋिष को भी नहीं पहचान रही है , वह
तुझे भूल जाएगा और याद िदलाने पर भी उसी तरह याद नहीं कर पाएगा, जैसे कोई
नशेबाज़ नशे की दशा म कही ई बातों को याद नहीं कर पाता ।
ि यंवदा : हाय- हाय ! यह बुरा आ । अ मन शकु ला िकसी पूजनीय
के ित
अपराध कर बैठी है । ( सामने की ओर दे खकर ) वह भी िकसी ऐसे- वैसे के ित
नहीं! यह चट ु हो उठने वाले महिष दु वासा शाप दे कर तेज़ी के साथ दनदनाते
ए वापस लौटे जा रहे ह । अि के िसवाय और जला कौन सकता है ! अनसूया :
जा , पैरों पड़कर इ वापस बुला ला । तब तक म जलपान तैयार करती ँ । ि यंवदा
: अ ा । ( बाहर िनकल जाती है ।) अनसूया : ( कुछ कदम चलकर ठोकर लगने का
अिभनय करती है । ) हाय , हड़बड़ाकर चली
तो यह ठोकर लगी और मेरे हाथ से फूलों की डिलया छूट गई । ( फूल चुनने का
अिभनय करती है ।)
( वेश करके ) ि यंवदा : सखी, वह तो भाव से ही टे ढ़े ह । वह िकसी की
अनुनय-िवनय कहाँ सुनते ह !
िफर भी मने जैसे - तैसे थोड़ा- ब त मना ही िलया । अनसूया : ( मु राकर)
उनके िलए तो इतना भी ब त है । अ ा, ा बात ई ? ि यंवदा : जब वह लौटने
को तैयार ही न ए तो मने कहा, भगवन् , शकु ला आपके तप
के भाव को नहीं जानती; िफर भी वह आपकी क ा के समान है , उसके इस
अपराध को पहला अपराध समझकर ही मा कर दीिजए । अनसूया : िफर ा
आ ? ि यंवदा : तब वह कहने लगे िक मेरी बात िम ा नहीं हो सकती । िक ु
पहचान का
आभूषण िदखा दे ने पर शाप समा हो जाएगा । यह कहते ए वह अ धान हो
गए । अनसूया : चलो, अब तो कुछ सहारा है । चलते समय वह राजिष एक
अंगूठी दे गए ह , िजस
पर उनका नाम िलखा है । उसे शकु ला को पहनाते ए उ ोंने कहा था िक यह
मेरी याद रहे गी । अब उस अंगूठी के ारा शकु ला शाप का ितकार कर
सकेगी। ि यंवदा : स ख, चलो, उसके िलए सौभा दे वी की पूजा तो कर आएँ । (
दोनों चलती ह ।) ि यंवदा : ( सामने की ओर दे खकर) अनसूया, वह दे ख तो; ारी
स ख शकु ला हाथ के
ऊपर मुँह रखे कैसी िच ां िकत- सी िदखाई पड़ रही है । पित के ान म म इस
बेचारी को तो अपना ही ान नहीं है , िफर आगु क का तो कहना ही ा!
अनसूया : ि यंवदा, यह बात बस हम दो तक ही रहे । शकु ला का भाव ब त
सुकुमार
है , उसे यह बात न बताना ही ठीक है । ि यंवदा : नवम का को कहीं उबलते
पानी से सींचा जाता है !
( दोनों बाहर िनकल जाती ह ।) (िव क)
( नींद से उठकर आए ए िश का वेश ) िश : या ा से वापस लौटकर आए
महिष क ने मुझे समय दे खने के िलए कहा है । तो
ज़रा बाहर चलकर काश को दे खू िक राि िकतनी शेष है । ( कुछ दू र चलकर
और दे खकर ) अरे , यह तो भात हो गया ! एक ओर च मा अ ाचल के िशखर पर
डूब रहा है । और अ िणमा को आगे िकए सूय उदयाचल पर आ रहा है । इन दो
काश-िप ों के एक ही समय म डूबने और उदय होने से लोगों को समझ लेना
चािहए िक सुख और दु ःख तो एक के पीछे लगे ही रहते ह । अब च मा के िछप जाने
पर वही कुमुिदनी, िजसकी शोभा भुलाए नहीं भूलती, वैसी सु र िदखाई नहीं पड़ती ।
ठीक है , ि य के वास म चले जाने पर अबलाओं को िवरह का दु ःख अस हो उठता
है ।
( िबना परदा िगराए वेश करके ) अनसूया : य िप म ेम की इन बातों को ब त
तो नहीं समझती, िफर भी उस राजा ने
शकु ला के साथ ब त बुरा िकया ! िश : चलकर गु जी को बतला दू ँ िक
हवन का समय हो गया है । ( बाहर िनकल जाता
अनसूया : जागकर भी ा क ँ गी ? अपने िन के काय को करने के िलए भी
मेरे हाथ
पैर नहीं िहल रहे ह । अब कामदे व खूब स हो ले, िजसने मेरी ारी सखी का
ेम ऐसे झूठे राजा से करा िदया ! या शायद यह दु वासा के कोप का ही प रणाम है ।
नहीं तो यह बात कहीं हो सकती थी िक वह राजिष ऐसी मधुर - मधुर बात कहने के
बाद इतने समय तक प तक न भेजे। अब यहाँ से उनके रण -िच के प म दी
गई उनकी अंगूठी को उसके पास भेज ? पर ु संयमशील तप यों से इस िवषय म
अनुरोध कैसे िकया जाए ? िपता क से सखी शकु ला के अपराध की बात तो कह
सकती ँ , पर ु उनसे यह िकसी कार नहीं कह सकती िक शकु ला का दु से
िववाह हो गया है और अब वह गभवती है । ऐसी दशा म ा क ँ ? कुछ सूझता नहीं
।
( वेश करके ) ि यंवदा : ( स होकर ) ज ी चल , अनसूया , ज ी चल ।
शकु ला की िवदाई का
__ आयोजन करना है । अनसूया : हाँ ! पर स ख , यह बात ई कैसे ? ि यंवदा :
सुन ! अभी म शकु ला के पास यह पूछने गई थी िक उसे रात को नींद तो ठीक
___ आई या नहीं ? अनसूया : िफर ा आ ? ि यंवदा : वहाँ शकु ला ल ा
से मुँह नीचा िकए खड़ी थी । िपता क ने उसे छाती से
लगाते ए कहा, ' यजमान की आँ ख धुएँ से बेचैन होने पर भी सौभा से आ ित
आग म ही पड़ी । बेटी , अ े िश को दी गई िव ा की भाँ ित अब तेरे िलए भी मुझे
कोई िच ा नहीं है । आज ही तुझे ऋिषयों के साथ िवदा करके तेरे पित के पास भेजे
दे ता ँ ।
अनसूया : पर िपता क को यह बात बताई िकसने ? ि यंवदा : जब वे य शाला
म िव ए तो वहाँ किवता म यहभिव वाणी ई
अनसूया : ( चिकत होकर ) वह ा ? ि यंवदा : ों शमी म अि रहती गु ,
मुिन , क ाणकारी ।
तेज को दु के धारण िकए क ा तु ारी ।। अनसूया : (ि यंवदा को छाती से
लगाकर ) स ख, सुनकर बड़ा आन आ । िक ु
शकु ला आज ही चली जाएगी, इसका दु ःख मुझे इस आन के समय भी हो
रहा है । ि यंवदा : स ख , हम तो जैसे- तैसे अपने दु ःख को बहला लगी । वह
बेचारी तो िकसी तरह
िकनारे लगे । अनसूया : ठीक है ! तो दे ख , उस आम की शाखा म लटके ए
ना रयल के कसोरे म मने
आज के िदन िलए ही मौलिसरी की माला रख छोड़ी है । तू ज़रा इसे उतार, म भी
तब तक शकु ला के िलए तीथ- मृि का, दू ब के प े तथा अ मंगल - साम ी
तैयार क ँ | ि यंवदा : ठीक है । ज ी कर ।
( अनसूया बाहर जाती है , ि यंवदा मौलिसरी की माला उतारने का
अिभनय करती है ।)
( नेप म ) गौतमी : शकु ला को ले जाने के िलए शा रव आिद को कह दो ।
ि यंवदा : ( ान से सुनकर) अनसूया , ज ी कर; ज ी । उधर ह नापुर जाने
वाले
ऋिषयों की पुकार हो रही है ।
( साम ी हाथ म िलए वेश करके ) अनसूया : आओ स ख, चल ।
( दोनों चलती ह ।) ि यंवदा : (दे खकर) वह दे खो, शकु ला सवेरे - सवेरे ही ान
करके बैठी ई है । उसके
पास खड़ी तप िनयाँ चावल के दाने िलए वाचन पढ़ती ई आशीवाद दे
रही ह । चलो, उसके पास ही चल । ( दोनों शकु ला के पास जाती ह । )
( ऊपर बताए अनुसार आसन पर बैठी शकु ला का वेश ) एक तप नी : (
शकु ला को ल करके ) बेटी , तु पित के ेम का सूचक महादे वी पद
ा हो ! दू सरी तपि नी : बेटी, तुम वीर माता बनो ! तीसरी तप नी : बेटी,
तु अपने पित से आदर ा हो !
( आशीवाद दे कर गौतमी के अित र अ तप िनयाँ बाहर
चली जाती ह ।) स खयाँ : (पास जाकर) स ख , तु ारा यह ान सौभा कारी हो
!
शकु ला : आओ स खयो! तु ारा ागत है । यहाँ , इधर बैठो । स खयाँ : (
मगंल पा लेकर पास बैठ जाती ह ।) री, तैयार हो जा । अब तेरा मंगल ंगार
करना है । शकु ला : यह भी बड़ी बात है । अब मुझे अपनी स खयों के हाथ का
ंगार भी दु लभ हो
जाएगा । ( रोने लगती है ।) स खयाँ : स ख , मंगल के अवसर पर रोना उिचत
नहीं ।
( आँ सू पोंछकर उसका ंगार करने का अिभनय करती ह ।) ि यंवदा : तु ारे
इस मनोहर प का ंगार तो आभूषणों से होना चािहए था । आ म म
जुटाई गई यह ंगार- साम ी तुम पर कुछ फबी नहीं ।
( उपहार िलए हए दो ऋिषकुमारों का वेश) ऋिषकुमार : ये आभूषण ह । इनसे
इनका ंगार कीिजए ।
( सब दे खकर चिकत रह जाती ह ।) गौतमी : बेटा नारद , यह सब कहाँ से िमला
? एक ऋिषकुमार यह सब गु जी का भाव है । गौतमी : ा उ ोंने अपने तपोबल
से इ मँगाया है ? दू सरा ऋिषकुमार जी नहीं ! सुिनए, गु जी ने हम आदे श िदया था
िक शकु ला के िलए
वन ितयों पर से फूल ले आओ। जब हम वहाँ गए तो िकसी वृ ने तो च मा के
समान ेत रे शमी मंगल व दान िकया और िकसी ने पैरों को रं गने के िलए उ म
ला ारस उगल िदया । अ वृ ों म से भी वन - दे वताओं ने नवप वों के समान
अपने हाथ हथेली तक बाहर िनकालकर ये
आभूषण दान िकए । ि यंवदा : ( शकु ला को दे खकर) री, वनदे वताओं के
इस अनु ह से तो यही लगता है िक
पित के घर जाकर तुम राजल ी का उपभोग करोगी ।
( शकु ला लजा जाती है ।) पगला ऋिषकुमार गौतम , आओ चल । गु जी ान
कर चुके होंगे। उ चलकर वन ितयों
की इस सेवा का वृ ा सुना द । दू सरा ऋिषकुमार चलो!
( दोनों बाहर जाते ह । ) स खयाँ हमने आभूषणों का योग कभी िकया नहीं ।
िच ों म जैसा दे खा है , उसी के
___ अनुसार तु आभूषण पहनाए दे ती ह । शकु ला : तु ारी िनपुणता को म
भली- भाँ ित जानती ँ ।
( दोनों आभूषण पहनाने का अिभनय करती ह । )
( ान करके आए हए महिष क का वेश ) क : आज शकु ला जाएगी,
इस कारण मेरा दय दु ःख से भारी हो रहा है ; आँ सू भर
आने के कारण गला ं ध रहा है । िच ा के कारण ि धुंधली पड़ गई है । जब
ेम के कारण मुझ जैसे वनवासी को इतनी िवकलता हो रही है , तो पु ी के
िवयोग म गृह थयों को तो न जाने िकतना क होता होगा ! (कुछ दू र चलते ह । )
स खयाँ : री, शकु ला ! ंगार पूरा हो गया । अब रे शमी जोड़ा पहन ले ।
( शकु ला उठकर रे शमी व पहनती है ।) गौतमी : बेटी, यह तु ारे िपता
क आए ह । आन बहाती ई ि से ही मानो ये तु
गले लगा रहे ह । इ णाम करो । शकु ला : ( ल ा के साथ ) िपताजी णाम
! क : बेटी, जैसी शिम ा ययाित की मनचाही रानी थी , वैसी ही तुम भी बनो और
उसी
__ की भाँ ित तु भी पु के समान स ाट पु ा हो । गौतमी : भगवान् यह तो
आशीवाद ा वरदान ही है । क : बेटी, इधर आओ। इस य ाि की दि णा कर
लो ।
( सब य ाि की दि णा करते ह । ) क : ( म पढ़ते ह । )
अमी वेिदं प रतः ृ िध ाः सिम ः ा सं ीणदभाः। अप ों दु रतं
ह ग ैदैताना ां प यः पावय ु ।। अब थान करो । ( बाहर की ओर दे खकर )
वे शा रव आिद कहाँ ह ?
( वेश करके ) िश : भगवन्, हम यह आ गए । क : अपनी बिहन को माग
िदखाओ! शा रव : इधर आइए, इधर ।
( सब चलते ह । ) क : हे वन दे वताओं से अिधि त तपोवन के वृ ो! जो
शकु ला तु पानी िदए िबना
यं कभी पानी नहीं पीती थी , शंगारि य होने पर भी जो ेम के कारण कभी
तु ारे प े नहीं तोड़ती थी , और जब तुम पर पहले- पहल फूल आते थे, तब जो
उ व मनाया करती थी , वह आज अपने पित के घर जा रही है । आप सब इसे जाने
की अनुमित द ।
( कोयल की आवाज़ सुनाई पड़ती है । उसकी ओर ान आकृ
करके ) वनवास के साथी वृ ों ने इस शकु ला को जाने की अनुमित दे दी है ।
तभी उ ोंने मधुर कोयल के ारा मेरी बात का उ र- सािदया है ।
( आकाश म ) तु ारे माग म जगह - जगह कमल की बेलों से हरे - भरे रमणीय
सरोवर हों , सूयिकरणों के ताप से बचाने वाले घने वृ ों की छाया हो ! तु ारे माग की
धूल कमल के पराग के समान कोमल हो जाए! पवन शा और अनुकूल हो ! तु ारा
माग इस या ा के िलए शुभ हो ।
( सब आ य के साथ सुनते ह ।) गौतमी : बेटी , सगे - स यों के समान ेम
करने वाली तपोवन की वन - दे िवयों ने तु
जाने की अनुमित दे दी है । इ नम ार कर लो । शकु ला : ( णाम करके
आगे चलती ई चुपके से ) री ि यंवदा, उनके दशन की उ ुकता
तो मुझे अव है , िफर भी इस आ म को छोड़कर पैर आगे बढ़ाते ए मुझे
िकतना दु खः हो रहा है , यह म ही जानती ँ । ि यंवदा : तपोवन से अलग होते ए
केवल तु ही दु ःख हो रहा हो , यह बात नहीं । तु ारे
इस भावी िवयोग के कारण तपोवन की भी तु ारी जैसी ही दशा हो रही है ।
ह रिणयाँ दू ब के चबाए ए ास को उगलकर खड़ी हो गई ह । मोरों ने नाचना
छोड िदया है और पीले प े िगराती हई बेल आँ सू - से बहा रही ह । शकु ला : (
याद करके ) िपताजी, म अपनी लता, बिहन वन - ो ा से िवदा ले लूँ । क :
जानता ँ , तेरा उससे सगी बिहन - सा ेम है । वह रही उधर, दि ण की ओर ।
शकु ला : ( पास जाकर बेल को छाती से लगाकर ) वन - ो ा, आम से िचपटे
-िचपटे ही
अपनी इधर- उधर फैली ई शाखा -बा ओं से तू मुझे भी आिलंगन कर ले । आज
म तुझसे दू र चली जाऊँगी। क : मने तेरे िलए जैसा सोच रखा था , तुझे अपने
पु ों से अपने अनु प वैसा ही पित
ा हो गया । यह नवम का भी इस आ वृ से िलपट गई है । अब मुझे न
तेरी
िच ा रही और न इसकी । आओ, इधर रा े पर चल । शकु ला : ( स खयों से
) स खयो, इसे तुम दोनों के हाथ सौंपे जाती ँ । स खयाँ : और हम िकसके हाथ सौंपे
जा रही हो ? ( रोने लगती ह ।) क : अनसूया , रोओ नहीं । तु तो उ ा शकु ला
को धैय बँधाना चािहए।
( सब आगे चलते ह ।) शकु ला : िपताजी , कुिटया के पास यह जो गभवती
िहरनी िफर रही है , जब यह सकुशल
ब ा जने तब इस सुसंवाद को सुनाने के िलए मेरे पास भी िकसी न िकसी को
अव भेजना । क : अ ा, यह बात भूलूँगा नहीं। शकु ला : ( चाल म बाधा
का अिभनय करके ) यह मेरे कपड़े को कौन खींच रहा है ?
( घूमकर दे खती है ।) क : बेटी, यह वही ह रण है , िजसे तुमने अपना पु बना
िलया था । कुशा के काँ टों से
इसके मुख म घाव हो जाने पर तुम उसे ठीक करने के िलए इं गुदी का तेल
टपकाया करती थीं । तुमने सामक धान की मुि याँ खला - खलाकर इसे बड़ा
िकया है । आज वही तु ारी राह रोककर खड़ा है । शकु ला : बेटा , म तेरा
साथ छोड़कर जाने लगी ँ । अब तू मेरा पीछा ों करता है ? माँ
ज दे ने के कुछ दे र बाद ही मर गई थी ; िफर भी तू बड़ा हो ही गया । अब भी
मेरे पीछे िपताजी तेरी दे ख -रे ख करते रहगे । जा, लौट जा । ( रोती ई आगे चल
पड़ती
है । )
क : बेटी धीरज धरो । आँ सुओं को पोंछ डालो । इनके कारण पलक खुली होने
पर भी
ि काम नहीं करती । यहाँ भूिम ऊबड़- खाबड़ है । तुम िबना दे खे चल रही हो,
इसी
से तु रह -रहकर ठोकर लग रही ह । शा रव : भगवन , पहले पानी तक ि य
के साथ जाना चािहए, ऐसी था है । यह
सरोवर का तट आ गया । यहाँ जो कुछ स े श दे ना हो , वह दे कर अब आप
वापस
लौट जाएँ । क : तो चलो, थोड़ी दे र इस पीपल की छाया म बैठकर िव ाम कर
ल।
( सब थोड़ी दू र चलकर बैठ जाते ह ।) शकु ला : ( चुपके से ) री , उस चकवी
का साथी चकवा कमल के प े के पीछे िछप गया है ।
उसे दे ख न पाने के कारण यह चकवी िकतनी अधीर होकर िच ा रही है । िजस
काम पर म चली ँ , वह भी पूरा होता िदखाई नहीं पड़ता । अनसूया : स ख, ऐसी
बात मुँह से मत िनकाल । यह बेचारी चकवी भी अपने ि य -िवरह म
िवषाद के कारण और भी ल ी जान पड़ने वाली रात को जैसे - तैसे िबता ही लेती
है । िवरह का दु ःख चाहे िकतना ही अिधक ों न हो , िक ु आशा उसे स बना
दे ती है । क : शा रव , मेरी ओर से तुम महाराज दु से शकु ला को
सामने करके यह
कहना : शा रव : किहए । क : कहना िक हम लोग तप ी ह और तु ारा
कुल ब त ऊँचा है । इस शकु ला के
ित तु ारे मन म यं ही ेम उ आ था । इ ब ुओं ने य पूवक स
नहीं कराया । इन सब बातों को ान म रखते ए तुम इसे कम से कम अपनी अ
रािनयों के समान आदर अव दे ना । इससे आगे जो भी हो , वह भा की बात है ।
उसके िवषय म वधू के स यों का कुछ भी कहना उिचत नहीं । शा रव :
ठीक है । मने स े श समझ िलया । क : बेटी, अब तु भी कुछ समझना है । भले
ही हम वन म रहते ह , िफर भी लोक
वहार को भली- भाँ ित जानते ह । शारव : ऐसी ा बात है , जो िव ान लोगों को
मालूम न हो । क : बेटी, तुम यहाँ से अपने पित के घर जाकर बड़े - बूढ़ों की सेवा ,
सौतों के साथ
ारी सहे िलयों का - सा बताव करना । यिद पित कुछ बुरा- भला भी कहे तो ोध
म आकर उससे लड़ मत पड़ना । सेवकों के साथ दया और उदारता का वहार
करना । अपने सौभा पर कभी ब त घम न करना । इस कार का िवनीत
आचरण करने वाली युवितयाँ पित के घर जाकर गृिहणी बनती ह और जो इससे उ ा
चलती ह , वे घर को उजाड़कर ही रहती ह । ों गौतमी , तुम ा कहती
हो ?
गौतमी : ब ओं को तो इतना ही उपदे श िदया जाता है । बेटी , इन वा ों को
भली - भाँ ित
___ गाँ ठ बाँ ध लो । क : आओ बेटी ,मुझसे और अपनी स खयों से गले िमल
लो । शकु ला : िपताजी, ा ि यंवदा और अनसूया यहीं से वापस लौट जाएँ गी ?
क : बेटी , इनका भी तो िववाह होना है । इनका वहाँ जाना उिचत नहीं है । तु ारे
साथ
गौतमी जाएगी । शकु ला : (िपता की छाती से लगकर ) हाय , अब म आपकी
गोदी से अलग होकर मलय
पवत से उखड़ी च न- लता की भाँ ित दे श म कैसे जीिवत र ँ गी ? क : बेटी,
इतनी अधीर ों होती हो ? जब तुम अपने पित के भरे - पूरे उ म घर म
जाकर गिहणी बनोगी ; ित ण स घर के काम - ध ों म फँसी रहोगी और
जैसे पूव िदशा सूय को ज दे ती है , उसी कार पिव पु को ज दोगी, तब तु
मेरे िवरह का यह शोक अनुभव भी न होगा ।
( शकु ला िपता के पैर छूती है ।) क : जो कुछ म तेरे िलए चाहता ँ , वही
तेरा हो ! शकु ला : ( स खयों के पास जाकर ) तुम दोनों मुझसे एकसाथ ही गले
िमल लो । स खयाँ : ( वैसा ही करती ह ) स ख, यिद वह राजा तु पहचानने म
िवल करे , तो
उसको उसके नाम वाली अंगूठी िदखा दे ना । शकु ला : तु ारे इस स े ह से तो
मेरा िदल बैठ- सा रहा है । . स खयाँ : डर मत , ेम के कारण मन म बुरी आशंकाएँ
उठा ही करती ह । शा रव : सूय चार हाथ बढ़ गया है । अब आप ज ी कीिजए ।
शकु ला : ( आ म की ओर मुँह करके ) िपताजी , अब म इस तपोवन के दशन
िफर कब
कर पाऊँगी? क : जब तुम िचरकाल तक पृ ी की सौत बनकर दु के
यहाँ रह लोगी और
उसके बाद अपने पु को एक छ िसंहासन पर िबठा चुकोगी , तब कुटु का
भार उसे सौंपकर अपने पित के साथ िफर इस शा तपोवन म िव होओगी ।
गौतमी : बेटी , चलने का समय बीता जा रहा है , िपताजी को लौटने दे । या इसकी तो
बात
कभी समा ही न होंगी; अब आप वापस लौट जाएँ । क : बेटी, अब तप के
काय म िवल हो रहा है । शकु ला : (िफर िपता के गले िमलकर) आपका शरीर
पहले ही तप ा के कारण कृश है ।
मेरी िच ा करके आप ब त दु ःखी न हों । क : ( गहरी ास छोड़कर ) बेटी ,
तुमने मेरी कुिटया के ार पर जो धान बोए थे, जब
तक वे आँ खों के सामने रहगे, तब तक मेरा शोक िकस कार शां त हो सकेगा!
जाओ, तु ारा माग शुभ हो !
( शकु ला और उसके साथ जाने वाले लोग बाहर जाते ह । ) स खयाँ : (
शकु ला को दे खकर ) हाय, शकु ला वन के पेड़ों की ओट म ओझल हो गई ।
क : ( गहरी साँ स छोड़कर) अनसूया, तु ारी सखी चली गई। अब रोओ मत ।
आओ,
मेरे साथ तपोवन चलो । स खयाँ : िपताजी, शकु ला के िबना तपोवन सुनसान-
सा मालूम हो रहा है । अब उसम
कैसे जाया जाएगा । क : ेम के कारण ऐसा ही अनुभव होता है । (िवचार म
म आगे चलते हए ) चलो
अब शकु ला को पित के घर िवदा करके कुछ तो िनि ता ई ! आ खर ,
क ा पराया धन है । आज उसे उसके पित के घर भेजकर मेरा मन ऐसा िनि हो
गया है , मानो िकसी की ब मू धरोहर वापस लौटा दी हो ।
( सब बाहर िनकल जाते ह ।)
पंचम अंक
( आसन पर बैठे ए राजा और िवदू षक का वेश ) िवदू षक : ( ान से सुनकर)
िम , ज़रा संगीतशाला की ओर तो ान दो कैसी मधुर,
सरस गीत की आवाज़ आ रही है । मुझे लगता है िक महारानी हं सपिदका तान
छे ड़ रही ह । राजा : ज़रा चुप रहो, सुनने दो ।
( आकाश म गीत सुनाई पड़ता है ।) तु िनत नई कली से ार! रे भौरे ! खली
आम की नई मंजरी सुरिभ अपार! इतने से बस तृ हआ मन उड़ गए पंख पसार!
खले कमल म िकया बसेरा बौर की सुध दी िबसार! रीझ गए , दो पल मंडराए चूम
गए इक बार !
छोड़ा उपवन , पहँ चे सरवर ,िजसम कमल हज़ार ! राजा : िकतना मधुर गीत है !
िवदू षक : अजी गीत को जाने दीिजए; कुछ बात का मतलब भी समझ म आया ? राजा
: ( मु राकर ) मने रानी हं सपिदका से एक ही बार ेम िकया है इस गीत म रानी
वसुमती से ेम करने के कारण मुझे उलाहना िदया गया है । िम माध , जाकर
मेरी ओर से रानी हं सपिदका से कहो िक उ ोंने मुझे अ ा उलाहना िदया है ।
िवदू षक : जो आपकी आ ा। ( उठकर) िम जब वह मुझे दािसयों से पकड़वाकर
िसर पर
चपत लगाने लगगी, तब अ रा के हाथ म पड़े ए तप ी की भाँ ित मेरा छूटना
भी किठन ही हो जाएगा । राजा : तुम जाओ तो , िनपुणता से यह बात उसे कह
दे ना । िवदू षक : और उपाय भी ा है ? ( बाहर जाता है ।) राजा : ( मन ही मन ) यह
आ ा ? इस समय म िकसी ि य के िवरह म दु ःखी
नहीं ँ ; िफर भी इस गीत को सुनकर न जाने ों मेरा मन उदास हो गया है । या
शायद जब कोई सुखी भी रमणीय ों को दे खकर और मधुर श ों को
सुनकर उदास हो उठता है , तो उसे अनजाने म अपने मन म जमे ए पूव ज के ेम
की याद आ रही होती है ।
( बेचैन - सा बैठा रहता है ।)
(कंचुकी का वेश ) कंचुकी : ओफ्ओह, अब मेरी यह दशा हो गई! मने राजा के
अ ःपुर म आकर जो बत
अकड़ के साथ शान जताने के िलए ली थी , अब ब त - सा समय बीत जाने के
बाद वही बत लड़खड़ाकर चलते समय मेरे िलए सहारे की व ु बन गई है । यह ठीक
है िक महाराज को रा का सब काय करना ही चािहए ; िफर भी अभी तो वे
ायासन से उठकर अ र महल म गए ह । अब क के िश ों के आगमन का
समाचार सुनाकर उनके िव ाम म िव डालने का मेरा मन नहीं हो रहा । या िफर
जा पर शासन का यह काम ही ऐसा है , िजसम िव ाम िमल ही नहीं सकता । सूय ने
जो एक बार रथ म अपने घोडे जोते ह तो वे जते ही ए ह । इसी कार वायु रात -िदन
चलता ही रहता है । शेषनाग सदा पृ ी के भार को उठाए ही रहता है । राजा का
काय भी इसी कार िव ामशू है । अ ा, चलता ँ । अपना कत तो पूरा कर दू ं ।
( कुछ दू र चलकर और आगे दे खकर) ये महाराज सब जा को अपने अपने काम म
लगाकर इस समय शा मन से एका म िव ाम कर रहे ह , जैसे धूप म घूमने
-िफरने से ाकुल हआ गजराज गजसमूह को वन म चरने के िलए छोड़कर िदन म
िकसी शीतल थान म िव ाम कर रहा हो । ( पास जाकर) महाराज की जय हो !
िहमालय की तराई के वनों म रहने वाले कुछ तप ी यों के साथ
महिष क का स े श लेकर आए ह । अब आप जो आ ा द , वह िकया जाए ।
राजा : ( आदर के साथ ) ा क के पास से आए ह ? कंचुकी : जी हाँ । राजा : तो
मेरी ओर से जाकर उपा ाय सोमरात से कहो िक इन आ मवािसयों का
शा ीय िविध से स ार करके यं ागत कर । म भी य शाला म जाकर
इनकी ती ा करता ँ । कंचुकी : जो महाराज की आ ा। ( बाहर जाता है । )
राजा : ( उठकर ) वे वती! य शाला चलो । ितहारी : आइए, इधर चिलए
महाराज! राजा : ( चलता है । रा ािधकार का क जताते ए) सब ाणी अपनी
अभी व ु को
पाकर सुखी हो जाते ह । पर ु राजाओं की इ ा पूरी होने पर भी दु ःख ही दे ती है
। राजा बनने की ित ा ा करने की मनु को उ ुकता तो ब त होती है , िक ु
ा ए रा का पालन करने म ेश ही होता है । रा तो अपने हाथ म उठाए
ए छ के समान है , िजसे उठाने म प र म तो अिधक होता है और धूप से बचाव
कम ।
( नेप म ) दो वैतािलक महाराज की जय हो ! पहला वैतािलक महाराज, आप
सुख का ान न रखते ए सदा क उठाते रहते ह । या
िफर आपका काम ही ऐसा है । य िप वृ अपने िसर पर तेज़ गम धूप को झेलते
ह , पर ु अपनी छाया के आ य म बैठे ए लोगों को शीतलता ही
दान करते ह । दू सरा वैतािलक महाराज, आप कुपथ पर चलने वालों को द
ारा िनयम म रखते ह ।
आप िववादों को शा कराते ह और जा की र ा करते ह । स ि शाली लोगों
के सगे - स ी ब त होते ह , पर ु सामा जा के तो एकमा
ब ु आप ही ह । राजा : इनकी बात सुनकर मेरा उदास मन िफर ताज़ा हो गया ।
( आगे चलता है । ) ितहारी : महाराज , यह य शाला है । अभी- अभी साफ की गई
है , इसिलए चमचमा - सी रही
है । उस ओर य की गौ बंधी ई है । ( सीिढ़यों की ओर संकेत करके ) इस पर
चिढ़ए महाराज ! राजा : ( चढ़कर सेवक के क े का सहारा लेकर खड़ा रहता है
) वे वती, मेरे पास इन
ऋिषयों को भेजने म महा ा क का ा उ े हो सकता है ? ा वहाँ दु
रा सों ने ती तप यों के तप म तो बाधा नहीं डाली ? या तपोवन म रहने वाले
ािणयों को िकसी ने सताना तो शु नहीं िकया ? या कहीं मेरे िकसी दु म के
कारण पेड़ - पौधों का फूलना -फलना तो नहीं क गया ? तरह - तरह के तक
-िवतक
और स े हों के कारण मेरा मन ब त ही बेचैन हो रहा है । ितहारी : मेरा तो यह
िवचार है िक ये ऋिष आपके स र की शंसा करके आपको
बधाई दे ने आए ह ।
( शकु ला समेत ऋिषयों का वेश । आगे - आगेकंचुकी और पुरोिहत ह । )
कंचुकी : इधर आइए, इधर। शा रव : शार त , यह ठीक है िक राजा दु बड़े ही
धमा ा और सदाचारी ह ; यह भी
ठीक है िक इनके रा म नीच वण के भी कुमागगामी नहीं ह । िफर भी
िनर र एका म रहने का अ ास होने के कारण मुझे तो भीड़ - भाड़ से भरा
आ यह नगर ऐसा लग रहा है , जैसे आग से जलता आ मकान हो । शार त :
नगर म आने पर आपको ऐसा लगता है तो ठीक ही लगता है । मुझे भी यहाँ के
सुख म म रहने वाले लोगों को दे खकर वैसा ही अनुभव हो रहा है जैसे कोई
नहाया आ िकसी तेल मले ए को दे खे; या कोई पिव िकसी
अपिव को ; या कोई जागा आ िकसी सोये ए को ; या कोई
घूमने -िफरने वाला िकसी बँधे ए को दे खे। शकु ला : (
अपशकुन जताकर ) यह ा ! मेरी दाईं आँ ख फड़क रही है । गौतमी : बेटी ,
भगवान् भला करे । तेरे पितकुल के दे वता तुझे सुखी कर । ( आगे चलती है । )
पुरोिहत : ( राजा की ओर संकेत करके ) तप ी महानुभावो, यह वणा मों के र क
महाराज दु पहले से ही आसन ागकर आपकी ती ा कर रहे ह । वह
दे खए।
शा रव : पुरोिहत जी , भले ही यह बात शंसनीय हो, िफर भी हम इसम कुछ
नवीनता
नहीं लगती । ोंिक फल आने पर वृ यं झुक जाते ह । जल से भर जाने पर
ऊँचे बादल नीचे झुक जाते ह । स ु ष ऐ य पाकर िवनयशील हो जाते ह । यह
तो परोपकारी लोगों का भाव ही होता है । ितहारी : महाराज, ऋिष लोग प
- रं ग से स िदखाई पड़ते ह । लगता है िक इनका काय
कुछ िच ाजनक नहीं । राजा : ( शकु ला को दे खकर ) वह इनके बीच म घूघट
िनकाले ए युवती कौन है ?
उसके सौ य की ज़रा - सी झलक- भर ही िदखाई पड़ रही है । वह इन
तप यों
के बीच म ऐसी लग रही है , मानो पीले प ों म कोई नई कोंपल हो । ितहारी :
महाराज, कुतूहल तो मुझे भी है , िक ु समझ कुछ भी नहीं आ रहा । पर ु
लगता ऐसा है िक इसका मुख अव ही ब त सु र होगा । राजा : चलो जाने दो
। पराई ी की ओर दे खना ठीक नहीं । शकु ला : ( छाती पर हाथ रखकर मन ही
मन ) दय, इस कार काँ पते ों हो ? उनके
मनोभाव को दे खकर कुछ तो धीरज धरो । पुरोिहत : ( आगे बढ़कर ) इन
तप यों का यथािविध स ार म कर चुका ँ । इनके
उपा ाय ने कुछ स े श भेजा है । उसे आप सुन लीिजए । राजा : म सुन रहा ँ ।
ऋिष लोग : महाराज , आपकी जय हो !
राजा : आप सबको णाम ! ऋिष लोग : आपकी मनोकामनाएं पूण हों !
राजा : मुिनयों का तप तो िनिव चल रहा है न ? ऋिष लोग : जब तक स नों की
र ा के िलए आप िव मान ह , तब तक धम -कम म
िव कैसे पड़ सकता है ! सूय आकाश म चमकता हो तो अँधेरा छाए कैसे ! राजा :
तब तो मेरा राजा होना साथक आ । अ ा, लोक -िहतकारी महा ा क तो
कुशल से ह ? ऋिष लोग : महा ा लोगों की कुशलता तो अपने ही बस म होती
है । उ ोंने आपका
कुशल -मंगल पूछा है और यह कहने को कहा है ... राजा : ा आदे श िदया है ?
शा रव : कहा है िक आपने जो पार रक सहमित से मेरी क ा से िववाह कर
िलया है ,
उसकी म आप दोनों को ेमपूवक अनुमित दे ता ँ । ोंिक एक ओर तो आप
हमारे े पु षों म अ ग ह और दू सरी ओर शकु ला भी धम - कम की अवतार
है । आपकी यह वर- वधू की जोड़ी प और गुण म एक जैसी है । ब त समय बाद
िवधाता ने ऐसी जोड़ी रची, िजसम कोई मीन -मेख िनकाली ही नहीं जा सकती । अब
आप अपनी गभवती धमप ी को गृह थ धम के पालन के िलए हण कीिजए।
गौतमी : आय, म भी कुछ कहना चाहती ँ । वैसे तो मेरे कहने का कुछ अवसर
नहीं है ,
ोंिक न तो इसने ही अपने गु जनों की कुछ परवाह की और न तुमने ही इ
ब ुओं से कुछ पूछा । जब तुम दोनों ने आपस म ही सब कुछ कर िलया है तब
तुमम से िकसी भी एक को ा क ँ , और ा न क ँ । शकु ला : ( मन ही मन
) अब वह ा कहते ह ?
राजा : ऐ, यह ा बखेड़ा है ? । शकु ला : ( मन ही मन ) इनके श ाह,
शोले ह ! शा रव : यह ा ? आप तो हम लोगों की अपे ा लोक - वहार म कहीं
अिधक कुशल
ह । िववािहता ी चाहे िकतनी ही सती ों न हो , पर यिद वह अपने िपता ही के
घर रहे तो लोग तरह - तरह की बात करते ह । इसिलए ी के सगे - स ी तो यही
चाहते ह िक वह चाहे अपने पित को अ ी लगे या बुरी िक ु वह रहे अपने
पित के घर ही । राजा : तो ा इनका मुझसे िववाह हो चुका है ? शकु ला :
(िवषाद के साथ मन ही मन ) दय ! िजसका तु भय था , वही होकर रहा ।
शा रव : आपको अपने िकए ए गा व िववाह पर प ाताप हो रहा है , आप अपने
कत - पालन से िवमुख हो जाना चाहते ह , या हम द र समझकर आप हमारा
ितर ार कर रहे ह ? राजा : इन सब बातों का मतलब ा है ? शा रव : ायः
धन के घम म चूर लोगों म ये बुराइयाँ आ ही जाती ह ।
राजा : यह तो आपने अ ा लां छन लगाया ! गौतमी : बेटी, ज़रा दे र को ल ा
ाग दो । म तु ारा यूँघट हटाती ँ , िजससे तु ारे ामी
तु पहचान ल । ( घूघट हटाती है ।) राजा : ( शकु ला को दे खकर मन ही मन
) यह इतना मनोहारी सौ य इस कार आ
उप थत आ है । पर ु म इस समय यह िन य नहीं कर पा रहा िक मने इससे
पहले िववाह िकया था या नहीं। इसीिलए जैसे भात म मर तुषार से ढके कु के
फूल का न तो रस ले पाता है और न उसे छोड़कर दू र ही जा पाता है , उसी कार म
भी न तो सु री का उपभोग ही कर सकता ँ और न इसे एकाएक ाग ही सकता ँ
।
(िवचार- म बैठा रहता है ।) ितहारी : ( मन ही मन ) अहा, हमारे महाराज
सचमुच ही बड़े धमा ा ह , नहीं तो इतनी
सरलता से ा ए ऐसे मनोहर प को दे खकर कौन इतना िवचार करता है !
शा रव : महाराज , इस तरह मुँह सीकर ों बैठ गए ? राजा : ऋिषयो, मने ब त
सोचा । पर मुझे याद नहीं आता िक मने कभी इनका
पािण हण िकया हो । ल णों से है िक यह गभवती ह । ऐसी दशा म म इ
प ी- प म कैसे हण कर लूँ?
शकु ला : ( आड़ करके ) इ तो िववाह के िवषय म ही स े ह है , और यहाँ मने
आशाओं
के कैसे- कैसे ऊँचे महल बनाए थे! शा रव : राजन्, तुमने तो महिष क की
क ा का बलपूवक श िकया और उ ोंने
इस पर भी स तापूवक तु उस क ा से िववाह की अनुमित दे दी । ऐसे
उदारचेता मुिन का अपमान न करो । तुमने तो चोर की तरह उनका धन चुराया
और उ ोंने पकड़ पाने पर भी तु स ा समझकर अपना धन तु ही सौंप
िदया । शार त : शा रव, अब तुम चुप हो जाओ। शकु ला, हमने जो कुछ
कहना था , कह िदया ।
यह राजा जो कुछ कहते ह , वह तुमने सुन िलया है । अब इ तु ीं िव ास
िदलाओ। शकु ला : ( आड़ करके ) जब थित यहाँ तक प ं च चुकी है , तो अब
उस ार की याद
िदलाने से भी ा लाभ? अब तो मुझे केवल अपने भा को रोना- भर ही शेष है ।
( कट प से ) आयपु ! ( बीच म ही ककर गत ) पर नहीं, जब इनके मन म
ही स े ह उ हो गया है , तब यह स ोधन उिचत नहीं । ( काश म ) पौरव ,
आपको यह शोभा नहीं दे ता िक पहले तो आपने आ म म भोली - भाली मुझको
शपथपूवक मधुर - मधुर बात कहकर फुसलाया और अब इस कार मेरा ितर ार
कर रहे ह । राजा : ( कानों को हाथों से ढकता आ) राम - राम ! यह ा कहती
हो ? तुम अपने कुल
को कलंिकत करने और मुझे धम से पितत करने पर उसी तरह से तुली ई हो
जैसे िकनारे को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृ को तो िगराती ही है , साथ ही
अपने िनमल जल को भी मैला कर दे ती है । शकु ला : अ ा, यिद तु सचमुच
ही मेरे िवषय म पराई ी होने का स े ह है और
इसिलए तुम इस कार की बात करने लगे हो , म तु ारा रण-िच िदखाकर
तु ारे स े ह को िमटाए दे ती ँ । राजा : यह बात हमने मानी । शकु ला : (
अंगुली म अंगूठी के थान को टटोलकर) हाय- हाय ! यह ा आ ! मेरी
अंगुली म से अंगूठी कहाँ गई ?
(िवषाद के साथ गौतमी की ओर दे खने लगती है । ) गौतमी : तू श ावतार म
शचीतीथ के जल को नम ार करने गई थी ; वह अंगूठी अव
वहीं िगरी है । राजा : इसीिलए तो कहते ह िक यों म तुर सूझ ब त होती है
। शकु ला : इसम तो भा ही िवपरीत हो गया । अ ा , आपको एक और बात
सुनाती ँ ।
राजा : अ ा, अब सुनाने की बात शु ई ! शकु ला : एक िदन नवम का
के कुंज म आपके हाथ म पानी से भरा आ कमल के
प े का दोना था ।
राजा : कहे चिलए; म सुन रहा ँ । शकु ला : उसी समय वह दीघापां ग नाम का
ह रण का ब ा आ प ँ चा, िजसे मने पु
बनाया आ था । आपने दया करते ए कहा िक ' अ ा, पहले यही पानी पी ले '
और आप उसे पास बुलाने लगे। पर ु अप रिचत होने के कारण वह आपके पास
नहीं आया। उसके बाद उसी पानी को जब मने हाथ म लेकर उसे िपलाया तो वह झट
पी गया । तब आपने हँ सकर कहा था , ' सब लोग अपने सजाितयों का ही
िव ास करते ह । तुम दोनों ही बनवासी हो न !' राजा : अपना उ ू सीधा करने
वाली यों की इस कार की झूठी मीठी -मीठी बातों
से कामी लोग ही आकृ आ करते ह । गौतमी : भगवन , ऐसी बात मुँह से न
िनकालो । यह बेचारी तपोवन म ही पलकर बड़ी ई
है । इस बेचारी को छल- छ का ा पता ! राजा : तप नी जी , याँ तो
िबना िसखाए ही भाव से धूत होती ह । पशु - पि यों
तक म यह बात िदखाई पड़ती है , िफर बु मती यों का तो कहना ही ा !
कोयलों के ब े जब तक आकाश म उड़ने यो नहीं हो जाते , तब तक वे उनका
पालन दू सरे पि यों से कराती ह । शकु ला : ( ु होकर) नीच, तुम सबको
अपने जैसा ही समझते हो ? धम का आवरण
ओढ़कर घास - फूस से ढके ए कुएं के समान औरों को पितत करने का काम
तु ारे िसवाय कौन कर सकता है । राजा : ( मन ही मन ) इसका ोध तो
बनावटी नहीं लगता । इससे मेरे मन म स े ह उ
होने लगा है । ोंिक एका म ए ेम के वृ ा को मेरे रण न कर पाने पर
ोध के कारण इसकी दोनों आँ ख खूब लाल हो उठी ह और दोनों भौंह इस कार
टे ढ़ी हो गई ह , मानो गु े म आकर कामदे व ने धनुष के दो टु कड़े कर िदए हों । (
कट प से ) भ े , दु के च र को संसार जानता है । िफर भी तुमसे मेरा
िववाह आ है , यह मुझे याद नहीं आता । शकु ला : इसने मुझे अ ी कुलटा
बना िदया ! हाय , म पु वंश का िव ास करके ऐसे के
हाथ ों पड़ गई, िजसके मुँह म मधु और दय म िवष भरा आ है ।
( व के छोर से मुँह ढककर रोने लगती है ।) । शा रव : गु जनों से िबना पूछे
इस कार की अिववेकपूण चंचलता के कारण ऐसा ही
क भुगतना पड़ता है । इसीिलए एका म ेम ब त सोच- समझकर करना
चािहए, ोंिक अप रिचत यों म ऐसा ेम अ म वैर ही बनकर रहता है ।
राजा : यह भी कोई बात है िक आप लोग इन पर िव ास करके सारा दोष मुझ पर ही
डाले दे रहे ह । शा रव : ( ु होकर ) सुनी आपने उलटी बात ? िजसने ज
से लेकर आज तक छल
करना सीखा नहीं, उसकी बात तो झूठी मानी जाए और जो लोग दू सरों को धोखा
दे ने को िव ा समझकर अ ास करते ह , उनकी बात िव सनीय मान ली जाए ।
राजा : अ ा स वादी , तु ारी ही बात मानी। पर यह तो बताओ िक इसे ठगने
से हम
ा िमल जाएगा ? शारव : पाप और ा ?
राजा : पौरव पाप करना चाहते ह , इसे कोई नहीं मान सकता । शार त :
शा रव , वाद-िववाद से ा लाभ ? हमने गु जी की आ ा का पालन कर िदया ।
अब चलो, वापस चल । ( राजा की ओर अिभमुख होकर ) यह आपकी प ी है ;
चाहे इसे ीकार कीिजए, चाहे ाग दीिजए । यों पर पित को सब कार का
अिधकार होता है । गौतमी, चिलए ।
( कहकर चल पड़ते ह ।) शकु ला : इस धूत ने तो मुझे ठगा ही है ; अब तुम भी
मुझे छोड़ जाते हो ! ( उनके पीछे
पीछे चलने लगती है ।) गौतमी : ( ककर) बेटा शा रव, यह सक ण िवलाप
करती ई शकु ला हमारे पीछे - पीछे
चली आ रही है । पित ने तो प र बनकर इसको ाग िदया । अब मेरी िबिटया
करे
भी ा ? शा रव : ( गु े म मुड़कर) दु े , अब ा तू ाधीन आ चाहती है ?
( शकु ला डरकर काँ पने लगती है ।) शा रव : शकु ला, यिद राजा जो कुछ
कहते ह , वह सच है तो तुझ कुलकलंिकनी का
िपता के यहाँ ा काम ? और यिद तू अपने - आपको पित ता समझती है तो
तेरा
पित के घर दासी बनकर रहना भी भला ! तू यहीं रह, हम जाते ह । राजा :
तप ी, इस बेचारी को ों धोखा दे ते हो ! च मा कुमुदों को ही खलाता है और
सूय केवल कमलों को । िजते य लोग पराई ी की ओर आँ ख उठाकर भी
नहीं
दे खते । शा रव : जब आप अपने अ ःपुर म आकर पुरानी बातों को भूल ही गए
तो आपको
___ अधम का ा डर? राजा : ( पुरोिहत से ) अ ा, म आपसे ही उिचत -
अनुिचत की बात पूछता ँ । या तो मेरी
रणश धोखा दे रही है या िफर यह झूठ बोल रही है । अब यह स े ह उ
होने पर मुझे ी - ाग का दोष िसर पर लेना उिचत है , अथवा पराई ी को
हण करने का पाप करना ? पुरोिहत : ( सोच-िवचारकर ) अ ा तो ऐसा कीिजए
।
राजा : आ ा दीिजए। पुरोिहत : पु का सव होने तक यह हमारे घर म रहे ।
आप पूछेगे, ों ? तो सुिनए,
आपको साधुओं ने बताया आ है िक आपका पहला पु ही च वती राजा होगा ।
यिद इस मुिन - क ा के पु म च वत के ल ण हों , तो आप इनका अिभन न
करके इ अपने अ ःपुर म रख ल और यिद ऐसा न हो तो िफर इ इनके िपता के
पास वापस भेज दीिजये ।
राजा : जो आप लोगों को ठीक लगे, मुझे ीकार है । पुरोिहत : बेटी , मेरे साथ
आओ। । शकु ला : माँ वसु रा , तुम फट जाओ और मुझे अपनी गोदी म थान दो
। ( रोती हई चल पड़ती है और पुरोिहत तथा तप यों के साथ बाहर िनकल जाती है
।)
( शाप के कारण राजा शकु ला को याद नहीं कर पाते , िफर भी उसी के बारे म
सोचते रहते ह । )
( नेप म ) गज़ब हो गया , गज़ब हो गया ! राजा : ( सुनकर) ऐसी ा बात ई ?
( वेश करके ) पुरोिहत : ( आ य के साथ ) महाराज, बड़ी िविच बात ई !
राजा : ा आ ? पुरोिहत : महाराज, जब क के िश वापस लौट गए, तब
वह युवती अपने भा को
कोसती ई बाँ ह पसारकर रोने लगी । राजा : िफर ा आ? पुरोिहत : तभी ी
का प धारण िकए एक ोित आकाश से उतरी और उसे लेकर
अ रा तीथ की ओर चली गई ।
( सब िव य िदखाते ह । ) राजा : भगवन, हमने तो पहले ही उसका प र ाग
कर िदया था । अब उसके िवषय म
थ ा सोच-िवचार करना ! अब आप जाइए और िव ाम कीिजए । पुरोिहत : (
राजा की ओर दे खकर ) आपकी जय हो ! ( कहकर बाहर चला जाता है । )
राजा : ितहारी, इस समय मन बेचैन है । शयनागार की ओर चलो । ितहारी :
इधर आइए महाराज ! ( कहकर चल पड़ता है । ) राजा : यह ठीक है िक मुझे मुिन-
क ा के साथ िववाह की याद नहीं आती और इसीिलए
मने ाग भी िदया है । पर ु मन म बड़ी बेचैनी हो रही है , िजससे मुझे ऐसा
िव ास- सा होता है िक शायद उससे मेरा िववाह आ ही था ।
( सब बाहर चले जाते ह । )
ष म अंक
( एक पु ष को बाँ धे ए कोतवाल तथा िसपािहयों का वेश ) िसपाही : ( पीटकर
) ों बे चोर , बता तुझे यह र जिटत राजकीय अंगूठी कहाँ से िमली ?
इस पर तो महाराज का नाम भी खुदा आ है । अिभयु : ( डरते ए ) दया
कीिजए महाराज ! मने ऐसा काम कभी नहीं िकया। पहला िसपाही : अ ा! तो तुझे
महाराज ने े ा ण समझकर यह उपहार म दी थी
ा ? अिभयु : म बताता ँ , आप सुिनए तो । म श ावतार का रहने वाला
धीवर ँ । दू सरा िसपाही : अबे चोर , हम ा तेरी जाित पूछ रहे ह । कोतवाल :
सूचक, इसे शु से सब सुनाने दो । बीच म टोको नहीं । िसपाही : जो आपकी आ ा
। अ ा रे , सुना । अिभयु : म जाल- कां टे आिद से मछिलयाँ पकड़कर अपने
प रवार का पालन-पोषण
करता ँ । कोतवाल : (हँ सकर ) जीिवका का साधन तो बड़ा पिव चुना है !
अिभयु : मािलक , ऐसा न किहए । िजस जाित को जो भी काम िमला हो, वह चाहे
िकतना
भी बुरा ों न हो, िफर भी छोड़ा नहीं जाता । वेदपाठी ा ण का िच िकतना
ही कोमल ों न हो, िफर भी य म बिल - पशु को मारते ए उसे िकतना िन ठुर
बनना ही पड़ता है । कोतवाल : अ ा, अ ा, िफर ा आ ? अिभयु : एक
िदन मने जब एक रो म के टु कड़े िकए तो उसके पेट म यह चमकीले
र वाली अंगूठी िदखाई पड़ी । इसे लेकर बेचने के िलए यहाँ आया और अभी
लोगों को िदखा ही रहा था िक आपने मुझे पकड़ िलया । अब आप मुझे मार, चाहे
छोड़े ; पर इस अंगूठी के मेरे पास आने का स ा िक ा यही है । कोतवाल :
जानुक , इसम कोई स े ह नहीं िक यह गोह खाने वाला मिछयारा ही है । इसके
शरीर की दु ग ही बताए दे रही है । इसने अंगूठी िमलने का जो वृ ा बताया
है ,
वह िवचारणीय है । अ ा चलो, महाराज के पास ही चलते ह । िसपाही : ठीक है
। चल बे जेबकतरे , चल ।
( सब चल पड़ते ह । )
कोतवाल : सूचक, तुम इस ोढ़ी के बाहर ही इसे लेकर बैठो और मेरी ती ा
करो ।
सावधान रहना, कहीं यह भाग न जाए । म इस अंगूठी को लेकर महाराज के पास
जाता ँ और इसका हाल सुनाकर वह जो भी आ ा द , सुनकर वापस आता ँ ।
िसपाही : आप जाइए और महाराज को स कीिजए ।
( कोतवाल भीतर जाता है ।) पहला िसपाही : जानुक, कोतवाल साहब को बड़ी
दे र लग गई! दू सरािसपाही : भाई, राजाओं के पास अवसर दे खकर ही जाया जाता है
। पहला िसपाही : जानुक , इसके गले म मृ ु की माला पहनाने के िलए मेरे हाथ
खुजला रहे
ह । ( अिभयु की ओर इशारा करता है ।) अिभयु : ों मुझ िनरपराध को
मारते ह महाराज ! दू सरा िसपाही : वह कोतवाल साहब कागज़ हाथ म िलए राजा की
आ ा लेकर इधर ही
चले आ रहे ह । अबे, या तो अब तुझे िग नोचगे या तू कु ों के पेट म जाएगा ।
( वेश करके ) कोतवाल : सूचक , इस मिछयारे को छोड़ दो । अंगूठी िमलने का
वृ ा सही है । सूचक : जो आपकी आ ा। दू सरा िसपाही : यह तो यमराज के घर
जाकर वापस लौट आया ! ( अिभयु के ब न
खोल दे ता है ।) अिभयु : ( कोतवाल को णाम करके ) मािलक, मेरा जीिवका
- साधन कैसा रहा ? कोतवाल : महाराज ने अंगूठी के मू िजतना यह धन तु
इनाम म िदया है । ( उसे धन दे ता
धीवर : ( णामपूवक धन लेकर ) मािलक, यह आपकी मेहरबानी है । सूचक :
कृपा इसी को कहते ह िक सूली से उतारकर हाथी की पीठ पर िबठा िदया है ।
जानुक : कृपा नहीं, पा रतोिषक कहो। लगता है िक वह अंगूठी महाराज को ब त
अ ी
लगी होगी। कोतवाल : मुझे लगता है िक उसम जड़े ब मू र से महाराज को
िवशेष ेम नहीं है ।
पर ु इस अंगूठी को दे खकर उ िकसी ि य की याद आ गई । वैसे वे
भाव से ग ीर ह , पर उस समय ण- भर तक उनकी आँ खों म उदासी छाई
रही । सूचक : तब तो आपने महाराज का बड़ा भारी काम बना िदया है ! जानुक :
यह कहो िक इस मिछयारे का काम बना िदया ।
( धीवर की ओर ई ा से दे खता है । ) धीवर : महाराज , इसम से आधा धन
आपके फल-फूल के िलए है । जानुक : यह तो इनका हक ही है । कोतवाल : आज से
तुम हमारे ि य िम बने । इस िम ता की स ता म आज मिदरा-पान
होना चािहए । चलो, मिदरालय म ही चलते ह ।
( सब बाहर जाते ह ।) ( वेशक )
(िवमान पर चढ़ी ई सानुमती नाम की अ रा का वेश ) सानुमती : आज
महा ाओं के ान के समय अ रा तीथ के िनकट रहने की मेरी बारी
थी । वह काम तो पूरा आ। अब चलकर ज़रा राजिष दु की दशा तो दे खू।
मेनका की सखी होने के नाते शकु ला मेरी भी क ा के समान है । मेनका ने भी
कुछ िदन पहले शकु ला के िलए कुछ न कुछ उपाय करने को मुझसे कहा था । पर
यह ा बात िक वस ो व का समय आ जाने पर भी यहाँ राजमहल म उ व
ार आ नहीं दीखता ? यों तो म अपनी िद ि से ही सब कुछ जान सकती ँ ,
पर अपनी सखी के अनुरोध को भी तो पूरा करना है । अ ा , त रणी िव ा से
अपने - आपको िछपाकर इन दो उ ानपािलकाओं के पास जाकर मालूम करती ँ ।
(िवमान से उतरकर खड़ी हो जाती है । )
( आम के नए बौर को दे खती ई दासी का वेश । एक दू सरी दासी
उसके पीछे खड़ी है ।) पहली दासी : हे अ ण, ह रत और पीत आम के नए बौर!
तुम वस के जीवन हो ! तुम
वस ऋतु म क ाण करने वाले हो ! तुम आज पहले - पहल िदखाई पड़े हो ।
म
तु ारी अनुक ा चाहती ँ । दू सरी दासी : परभृितका, अकेली खड़ी- खड़ी ा
बोल रही है ? पहली दासी : मधुक रका , आ मंजरी को दे खकर कोयल उ हो
उठती है । दू सरी दासी : ( ज ी से पास आकर ) ा मधुमास आ गया ? पहली
दासी : हाँ मधुक रका, तु ारे मद - भरे गीतों का यह समय आ गया । दू सरी दासी :
स ख , ज़रा मुझे सहारा तो दे । म उचककर आम का बौर तोड़ती ँ । उससे
कामदे व का पूजन क ं गी । पहली दासी : सहारा तो दू ँ गी, पर पूजा का आधा
फल मुझे भी तो िमले । दू सरी दासी : यह तो िबन कहे भी हो जाएगा, ोंिक हम दोनों
के शरीर चाहे दो हों , िक ु
ाण तो एक ही ह । ( सखी का सहारा लेकर आम का बौर तोड़ती है ।) अरी ,
भले ही आम का बौर अभी खला नहीं है , िफर भी इसके तोड़ते ही सुग चारों ओर
महक उठी । हे आम के बौर , म तु धनुष चढ़ाए कामदे व को समिपत करती ँ ।
तुम वासी जनों की त णी पि यों के िलए कामदे व के छठे बाण बन जाओ।
(कहकर आम के बौर को फक दे ती है । )
(िबना परदा िगराए कंचुकी का वेश ) । कंचुकी : यह ा ? अरी मूख, महाराज
ने तो वस ो व ब करवा िदया है और तू यह
आम के बौर तोड़ने लगी है । दोनों दािसयाँ : ( डरकर ) आय, न हों । हम यह
बात मालूम न थी ।
कंचुकी : ों ? ा तुमने यह नहीं सुना िक वस म िवकिसत होने वाले त ओं
ने और
उन पर रहने वाले पि यों ने भी महाराज के आदे श का पालन िकया है । दे खो,
य िप आम की मंज रयों को डालों पर आए इतने िदन हो गए िफर भी अभी तक
उनम पराग नहीं पड़ा । कुरबक के फूल ब त समय पहले खल चुकने चािहए थे, पर
वे अभी तक कली के ही प म पड़े ह । य िप िशिशर ऋतु बीत गई है , िफर भी
कोिकलों की कूक उनके क ों म ही अटकी ई है । मुझे तो ऐसा लगता है िक
कामदे व ने भी चौंककर अपने तूणीर म से आधेिनकले ए बाण को िफर वापस
तूणीर म ही रख िलया है । सानुमती : इसम ा स े ह ! राजिष दु अ
तापी जो ठहरे । पहली दासी : आय, हम नगरपाल िम ावसु ने कुछ ही िदन पहले तो
महारानी की सेवा म
__ भेजा है । यहाँ आते ही हम इस मदवन उ ान की सार - स ाल का काम
सौंप
िदया गया । ोंिक हम नई आई ह , इसिलए हम यह वृ ा मालूम न था ।
कंचुकी : अ ा । पर अब िफर ऐसा काम न करना । दािसयाँ : आय, हम यह जानने
की उ ुकता है िक महाराज ने वस ो व िकसिलए
कवा िदया है । यिद कुछ गोपनीय बात न हो तो हम भी बता दीिजए। सानुमती :
मनु तो भावतः उ वि य होते ह । इसे रोकने का अव कोई बड़ा ही
___ कारण रहा होगा । कंचुकी : यह बात तो सबको मालूम हो चुकी है । इसे
सुनाने म ा हािन है ! ा तुमने
शकु ला के प र ाग की बात नहीं सुनी ? दािसयाँ : नगरपाल िम ावसु के मुख
से अंगूठी िमलने तक का वृ ा तो हम सुन चुकी ह । कंचुकी : तब तो सुनाने को
ब त थोड़ी- सी बात ही शेष है । ोंही अपनी अंगूठी को
दे खकर महाराज को यह रण आया िक मने सचमुच ही एका म शकु ला से
िववाह िकया और उसके प ात् िववाह को रण न करके उसका प र ाग कर िदया
, तब से ही उनके प ाताप की सीमा नहीं है । अब उ सु र व ुएँ बुरी लगने लगी
ह । अब वे पहले की भाँ ित ितिदन म यों से भी नहीं िमलते । सारी रात उनींदे ही
पलंग पर करवट बदलते िबता दे ते ह । जब कभी ब त आ ह करने पर अ ःपुर की
रािनयों से बात करने भी लगते ह , तब भूल से शकु ला का नाम उनके मुख से
िनकल जाता है और उसके कारण वे बड़ी दे र तक ल त ए रहते
सानुमती : यह तो स ता की बात है । कंचुकी : इसी ती स ाप के कारण
उ ोंने उ व रोक िदया है । दािसयाँ : ठीक है । इधर आइए महाराज । कंचुकी : (
ान से सुनकर ) अरे , महाराज इधर ही आ रहे ह । जाओ अपने- अपने काम म
लगो। दािसयाँ : अ ा! ( कहकर बाहर िनकल जाती ह । )
( प ा ाप के उपयु वेश धारण िकए राजा , िवदू षक और
ितहारी का वेश ) कंचुकी : ( राजा को दे खकर) सु र सभी दशाओं म
सु र िदखाई पड़ते ह । इसी से
महाराज उदास होते ए भी िकतने अ े लग रहे ह ! य िप उ ोंने बाईं भुजा म
पहने ए एक ण कंकण के िसवाय और सभी आभूषण छोड़ िदए ह ; गम साँ सों के
कारण उनका नीचे का होंठ लाल हो उठा है ; िच ा और राि - जागरण के कारण
उनकी आँ ख अलसाई ई ह ; िफर भी अपने अद् भूत तेज के कारण कृश होते ए भी
वे कृश तीत नहीं होते; जैसे िक सान पर चढ़ाया आ ब मू र छोटा होने
पर भी अपनी आभा के कारण बड़ा ही िदखाई पड़ता है । सानुमती : ( राजा को
दे खकर ) शकु ला इस राजा से प र और अपमािनत होकर भी
जो इसी के िलए तड़पती है , उसका वह तड़पना उिचत ही है । । राजा :
(िवचारम धीरे - धीरे चलते ए ) यह मेरा दय ऐसा अभागा है िक जब वह
मृगनयनी ि यतमा इसे य पूवक जगा रही थी , तब तो सोता रहा और अब
__ प ाताप का क भुगतने के िलए जाग उठा है । सानुमती : उस बेचारी
शकु ला की िक त ही ऐसी थी । िवदू षक : ( आड़ करके ) इन पर िफर शकु ला
का भूत चढ़ा। कुछ समझ म नहीं आता
िक यह ठीक कैसे होंगे ? । कंचुकी : ( पास जाकर) महाराज की जय हो !
मदमन को मने घूम-िफरकर भली- भाँ ित
दे ख िलया है । अब आपकी जहाँ भी इ ा हो वहीं बैठकर िव ाम कर । राजा :
ितहारी, मेरी ओर से जाकर अमा आयिपशुन से कहो िक आज म दे र से उठा
ँ । इसिलए ायासन पर बैठना मेरे िलए स व न होगा । जा का जो कुछ
काम
वे दे ख , वह कागज़ पर िलखकर भेज द । ितहारी : जो महाराज की आ ा ! (
बाहर जाता है । )
राजा : पवतायन , तुम भी जाओ। अपना काम करो । कंचुकी : जो महाराज की
आ ा ! ( बाहर जाता है ।) िवदू षक : ठीक है आपने सब म याँ उड़ा दीं । अब
मदवन म उस ओर चलकर मन
बहलाइए , जहाँ वस ऋतु छा रही है ; िजसम न अिधक गरमी है और न ही
ठ । राजा : िम , यह जो कहा जाता है िक िवपि सदा मौके की ताक म रहती
है , वह ठीक
ही है । ोंिक इधर तो मेरे मन से मुिन- क ा के ेम की याद िछपाए रखने वाला
अ कार दू र आ और उधर कामदे व ने हार के िलए उ त होकर अपने धनुष
पर आ मंज रयों का बाण चढ़ा िलया । िवदू षक : अ ा, ज़रा ठह रए । म अभी
इस ड े से कामदे व के होशिठकाने िकए दे ता
ँ । ( ड ा उठाकर आम के बौर को तोड़ िगराना चाहता है ।) राजा : (
मु राकर) रहने दो , रहने - दो । तु ारा बल - तेज दे ख िलया । चलो, अब यह
बताओ िक िकस जगह बैठकर ि यतमा का कुछ- कुछ अनुकरण करने वाली
लताओं को दे ख-दे खकर आँ ख ठ ी की जाएँ । िवदू षक : आप ही ने तो दासी
चतु रका को कहा था िक म इस समय माधवी कुंज म
जाकर बैलूंगा । उस िच फलक को लेकर वहीं आ जाना , िजस पर िक मने अपने
हाथ से शकु ला का िच खींचा है । राजा : हाँ , मनोिवनोद के िलए वह थान
ठीक है । चलो, उधर ही चलो । िवदू षक : आइए , इधर आइए ।
( दोनों चलते ह । सानुमती उनके पीछे - पीछे जाती है ।) िवदू षक : यह माधवी
कुंज आ गया । इसके अ र एक र -िशला पड़ी है । अपनी अनेक
सु र सामि यों से यह हमारा ागत - सा कर रहा है । चिलए, इसम अ र
चलकर बैिठए ।
( दोनों कुंज के अ र जाकर बैठ जाते ह ।) सानुमती : म भी एक बेल पर चढ़कर
अपनी ' पु ी ' के िच को दे खती ँ । उसके बाद
जाकर उसे बताऊँगी िक उसके पित उसे िकतना ेम करते ह । (एक बेल पर
चढ़कर बैठ जाती है ।) राजा : िम , अब मुझे शकु ला का पहला सारा वृ ा
भली कार याद आ रहा है ।
यह वृ ा मने तु भी तो सुनाया था । पर ु जब मने शकु ला का अनादर
िकया, उस समय तुम मेरे पास नहीं थे। उससे पहले भी तुमने कभी उसका नाम
नहीं िलया । ा मेरी ही तरह तुम भी तो नहीं भूल गए थे ? िवदू षक : नहीं, भूला
तो नहीं था । पर ु आपने सब कुछ कहकर अ म यह कह िदया था
िक यह सब तो केवल प रहास की बात है ; इसम स कुछ नहीं है । मने भी िम ी
के माधो की तरह वैसा ही समझ िलया । सच तो यह है िक जो होना होता है , वह
होकर ही रहता है । सानुमती : यह बात सच है ।
राजा : ( सोचते ए ) िम ,िकसी तरह मुझे बचाओ। िवदू षक : अरे , आपको यह
ा आ ? ऐसा कहना आपको शोभा नहीं दे ता। स ु ष
कभी भी अपने क को औरों के स ुख इस कार कट नहीं करते , िजससे
औरों को कुछ कहने का अवसर िमले । पहाड़ तूफान म भी अिडग ही रहते ह ।
राजा : िम , प र ाग के समय ि य शकु ला कैसी शोक -िव ल हो उठी थी , उसे
याद
करके मुझसे धैय नहीं रखा जाता । वह बेचारी इधर से ितर ृ त होने पर अपने
इ - ब ुओं के पीछे चलने लगी । उसके बाद जब गु के समान गु -िश ने उसे
ज़ोर से धमकाकर कहा ' वहीं रह' तो वह खड़ी हो गई और िफर बहते ए आँ सुओं से
धुंधली ई अपनी ि से मुझ िन ठुर की ओर दे खने लगी। वह ि
आज भी मुझे िवषबुझे तीर की भाँ ित जला रही है । सानुमती : हाय रे मनु की
ाथपरता ! इनके दु ःख को दे ख -दे खकर मुझे आन हो रहा
िवदू षक : भई, मुझे तो ऐसा लगता है िक उसे कोई आकाश- चर दे वता उठा ले
गया है । राजा : उस पित ता को अ कोई छूने का साहस ही कैसे कर सकता है ?
मने सुना है
िक तु ारी सखी शकु ला की माता मेनका है । मेरा मन तो यही कहता है िक
हो
न हो मेनका की स खयाँ उसे उठा ले गई ह । सानुमती : आ य की बात यह नहीं
है िक वह इ याद आ रही है ; ब यह उसे भूल कैसे
गए थे ? िवदू षक : यिद यह बात है , तो समय आने पर आपका उनसे अव
िमलन होगा ।
राजा : वह कैसे ? िवदू षक : ोंिक माता-िपता ब त दे र तक अपनी क ा को
पित के िवयोग म दु ःखी नहीं
दे ख सकते । राजा : िम , वह वापस लौटकर न आने वाला सु र अतीत कोई
था , माया थी , मेरी
बु का ममा था , या मेरे पु ों का कोई ऐसा फल था , जो उतनी ही दे र म
समा हो गया ; यह म ठीक कार समझ नहीं पा रहा ँ । मेरी सारी आशाएँ
पहाड़ की चोटी से गहरी खाई म िगरकर चकनाचूर हो गई ह । िवदू षक : ऐसी
बात न कीिजए । यह अंगूठी िफर िमल गई, यही इस बात की सूचक है िक
आप दोनों का िमलन अव होगा और अचानक होगा । राजा : ( अंगूठी को
दे खकर) हाय! यह अंगूठी भी कैसी अभागी है , जो वैसे दु लभ थान
पर प ँ चकर भी वहाँ से िगर पड़ी । हे अंगूठी, प रणाम को दे खकर ऐसा लगता है
िक मेरी भाँ ित तेरे पु भी थोड़े - से ही थे। तभी तू उसकी अ ण नखों वाली
सु र अंगुिलयों म प ँ चकर भी वहाँ से िगर पड़ी । सानुमती : यिद िकसी अ के
हाथ पड़ जाती, तो सचमुच ही दु ःख की बात होती । िवदू षक : आपने यह अपने नाम
वाली अंगूठी िकस संग म उसकी अंगुली म पहनाई थी ? सानुमती : यह तो म भी
सुनना चाहती ँ । राजा : जब म अपने नगर को लौटने लगा , तो ि यतमा शकु ला
आँ खों म आँ सू भरकर
__ कहने लगी, ' आप िकतने िदन म अब िफर मेरी सुध लगे? ' िवदू षक : िफर ?
राजा : तब मने यह अंगूठी उसकी अंगुली म पहनाते ए कहा था िक 'ि य, तुम इस
अंगूठी पर िलखे एक - एक अ र को एक - एक िदन म िगनती जाना और जब
तुम इस नाम के अ तक प ँ चोगी, तभी मेरे अनुचर तु मेरे अ ःपुर म ले जाने के
िलए आ प ँ चगे ।' और म िन ठुर उस सबको भूल जाने के कारण इसकी व था
कर ही न सका । सानुमती : अविध तो बड़ी अ ी बताई थी , पर ु भा ने सब
उलट - पलट कर िदया । िवदू षक : तो िफर यह अंगूठी धीवर ारा पकड़े गए रो
म के पेट म कैसे प ँ च गई ?
राजा : शचीतीथ पर पूजा करते समय यह तु ारी सखी के हाथ से पानी म िगर
पड़ी
थी ।
िवदू षक : ठीक ! सानुमती : इसीिलए इस धमभी राजा दु को बेचारी
शकु ला के साथ ए अपने
िववाह म भी स े ह था । पर ु ा ऐसे बल ेम म भी रण -िच की
आव कता होती है ? अव इसका कुछ और कारण रहा होगा । राजा : अब
इस अंगूठी को उलाहना तो दू ँ ! िवदू षक : ( मन ही मन ) अब इ ोंने िफर पागलों की
- सी बात शु की । राजा : हे अंगूठी, तू उस सु र और कोमल अंगुिलयों वाले हाथ
को छोड़कर पानी म
ों जा डूबी थी ? या िफर अचेतन व ु तो गुणों को पहचान नहीं सकती, पर ु
मने ा सोच- समझकर ि यतमा का ितर ार िकया ? िवदू षक : ( मन ही मन )
आज तो लगता है िक भूखों ही मरना होगा । राजा : सु री, मने अकारण तु ाग
िदया था , इस प ाताप से मेरा दय जल रहा है । अब कृपा करो, मुझे िफर दशन दो
।
(िबना परदा िगराए िच -फलक िलए दासी का वेश ) चतु रका : यह ािमनी
िच म खड़ी ई ह ।
( िच - फलक िदखाती है ) िवदू षक : ध िम ! आपने शरीर के िविभ अंगों
का ऐसा सु र िच ण िकया है िक
उसम भाव तक झलक उठे ह । मेरी ि तो िच के उभरे ए और दबे ए थलों
पर िफसल - सी रही है । सानुमती : ध है राजिष की िच कला ! ऐसा लगता है
िक पु ी शकु ला ही मेरे सामने
खडी है । राजा : इस िच म जो - जो व ु ठीक न थी , वह मने बार- बार सुधार
कर ठीक की है ;
िफर भी अभी तक उसके सौ य की केवल ज़रा- सी झलक ही इस िच म आ
पाई है । सानुमती : इनका यह कथन इनके प ाताप से ि गुिणत ेम और इनकी
िनरिभमानता के
अनु प ही है । िवदू षक : ों जी , यहाँ तो वे तीन िदखाई पड़ रही ह और
सबकी सब सु र ह । इसम से
शकु ला कौन - सी है ? सानुमती : इसे ऐसे सु र प की ज़रा भी पहचान
नहीं। इसके िलए तो आँ खों का होना न
होना बराबर है । राजा : तुम िकसे समझते हो ? िवदू षक : मुझे तो ऐसा लगता है
िक ये जो िसंचाई के कारण िचकने प ों वाले आम के पेड़
के पास कुछ थकी ई- सी खड़ी है , िजसके अधखुले जूड़े से फूल िगर रहे ह और
मुँह पर पसीने की बूंद झलक रही ह ; क े नीचे की ओर झुके ए ह ; वही शकु ला
है । शेष दोनों स खयाँ ह ।
राजा : तुम समझदार हो । इस िच म मेरे ेम के िच भी बने ए ह । िच के
आसपास
अंगुिलयों म आए पसीने के मैले दाग पड़ गए ह और इस पर मेरे कपोलों से एक
आँ सू िगर पड़ा था , जो उड़े ए रं ग के कारण िदखाई पड़ता है । चतु रका, अभी
इस िच म िवनोद का वह थान अधूरा ही िचि त आ है ; जाकर रं गों की
बि यों तो ले आ । चतु रका : आय माध , ज़रा इस िच -फलक को तो
पकिड़ए, म अभी आती ह । राजा : लाओ, म ही थामे लेता ँ (िच - फलक को
संभालता है । )
( दासी बाहर जाती है ।) राजा : ( गहरी साँ स छोड़कर ) मेरी भी ा दशा है !
पहले मने सा ात आई हई ि या को
तो ाग िदया और अब उसके इस िच का इतना आदर कर रहा ँ । यह ठीक
ऐसा ही है , जैसे माग म बहती ई जल से भरी नदी को छोड़ आने के बाद
मरीिचका के पीछे भागने लगा होऊँ । िवदू षक : ( मन ही मन ) यह तो नदी को
छोडकर मरीिचका के पीछे दौडने लगे ह । ( कट
प से ) ों जी , इस िच म अब और ा िचि त करना शेष है ? सानुमती :
शायद ये उन दे शों का िच ण करना चाहते ह, जो मेरी सखी को ब त ि य थे। राजा
: सुनो, अभी इसम मािलनी नदी बनानी है , िजसकी रे ती म हं सों के जोडे बैठे हों ।
इसम िहमालय की पिव तराई िचि त करनी है , िजसम ह रणों का झु िव ाम
कर रहा है । एक पेड़ का िच भी इसम बनाना चाहता ँ , िजसकी शाखाओं पर
व ल व झूल रहे हों और उस वृ के नीचे एक ह रणी अपनी बाईं आँ ख को
काले ह रण के सींग से धीरे - धीरे खुजला रही हो । िवदू षक : ( मन ही मन ) मुझे
तो ऐसा लगता है िक ये सारे िच - फलक को ल ी- ल ी
दािढ़यों वाले तप यों के झु से भरे िबना न मानगे । राजा : िम , और भी एक
बात है । इस िच म शकु ला की उिचत ंगार- साम ी को तो
__ म भूल ही गया । िवदू षक : वह ा ? सानुमती : यह ंगार- साम ी अव ही
तपोवन और सुकुमारता दोनों के ही अनुकूल होगी । राजा : िम , अभी तो मने
इसका कानों म पहना आ वह िशरीष का फूल भी नहीं
बनाया , िजसकी पंखु रयाँ गालों तक झूल रही हों और न न- युगल के म म
शरद् ऋतु के च मा की िकरणों के समान कोमल कमलनाल की माला ही
पहनाई है । िवदू षक : ों जी , यह लाल कमल की पंखु रयों के समान सु र
हथेली से अपने मुँह को
ढाँ पकर चौंकी ई- सी ों खड़ी है ? ओह, यह फूलों के रस का चोर दु भौंरा
इनके मुँह पर मंडरा रहा है । राजा : इस ढीठ को ज़रा रोकना । । िवदू षक : आप
ही दु ों का दमन करने वाले ह । यह आपके रोके ही केगा ।
राजा : ठीक है । अरे भई, कुसुमलताओं के ि य अितिथ, यहाँ उड़ - उड़कर ों
थक
पा रहे हो ? वह दे खो, तु ारी ि य मरी फूल के ऊपर बैठी ई तु ारे िबना
ास से ाकुल होकर भी मधुपान नहीं कर रही ; तु ारी ती ा कर रही है ।
सानुमती : रोका भी िकतनी भ ता के साथ है ! िवदू षक : लात के भूत बात से कहीं
मानते ह ? राजा : ों रे मर, तू मेरी आ ा नहीं मानता ; तो अब सुन ले । यिद तू
मेरी ि या के
ताज़े नवप व के समान सु र अधर को , िजसका िक मने भी ेमो वों म बड़ी
सदयता के साथ ही पान िकया है , श करे गा; तो म तुझे कमलकोष के कारागृह
म डाल दू ं गा । िवदू षक : ऐसे भयंकर द से तो यह डर चुका ! (हँ सकर मन ही
मन ) यह तो जो पागल
ए, सो ए; इनके साथ म भी पागल हो गया । ( कट प से ) अरे भई, यह तो
िच है । राजा : ऐं , ा सचमुच िच है ? सानुमती : मुझे भी अब आकर यह पता
चला । िफर िच के अनुसार ही ानम रहने
वाले राजा का तो कहना ही ा ? राजा : िम , यह तुमने ा अनथ िकया ! म तो
त य होकर ि यतमा का सा ात्
दशन - सा कर रहा था और तुमने याद िदलाकर मेरी ि यतमा को िच बना िदया
।
( आँ सू बहाने लगता है ।) सानुमती : इनका यह िवरह पूवापर िवरोधी होने के
कारण िविच ही लगता है । राजा : िम , इस अिवराम दु ःख को कैसे स ँ ? रात म
नींद नहीं आती, इसीिलए उससे
म िमलना भी अस व हो गया है ; और आँ खों म आए ए आँ सू उसके इस
िच तक को दे खने नहीं दे ते । सानुमती : शकु ला के प र ाग से हम जो दु ःख
आ था, उसे तुमने िमटा िदया ।
( वेश करके ) चतु रका : महाराज की जय हो ! म रं गों की िपटारी लेकर आ रही
थी ।
राजा : तो ा आ ? । चतु रका : तभी तरिलका को साथ िलए महारानी वसुमित
आईं । उ ोंने वह िपटारी मुझसे
ज़बद ी छीन ली । कहने लगीं िक 'म यं इसे लेकर महाराज के पास जा रही
िवदू षक : तेरे भा अ े थे िक तू बच आई । चतु रका : महारानी का दु प ा एक
पौधे की डाली म उलझ गया था । उधर तरिलका उसे
छु ड़ाने लगी और इधर म जान बचाकर भाग आई । राजा : िम , रानी अब आती
ही होंगी । ब त िदन से आदर पाते रहने के कारण उनम गव
भी कम नहीं है । तुम िच को िकसी तरह बचाओ। िवदू षक : यह किहए िक
अपनी जान बचाओ। (िच - फलक को लेकर उठ खड़ा होता है ।)
जब आपको अ ःपुर के पचड़े से छु टकारा िमल जाए, तो मुझे मेघ ित द
ासाद से बुलवा लीिजएगा । ( तेज़ी से बाहर िनकल जाता है । ) सानुमती : दय
दू सरे को दे डालने पर भी महाराज पहले िकए ेम का आदर बनाए रखना
चाहते ह । पर ु अब वह पहला ेम एकदम ही ठ ा पड़ चुका है ।
( प हाथ म िलए वेश करके ) ितहारी : महाराज की जय हो !
राजा : ितहारी, तु रा े म कहीं रानी तो िदखाई नहीं पड़ी ? ितहारी : िदखाई
तो पड़ी थीं , िक ु कागज - प हाथ म िलए मुझे आते दे खकर वापस
लौट गईं । राजा : वे काय के मह को खूब समझती ह , इसी से काय के समय
बाधा नहीं डालना
चाहतीं । ितहारी : महाराज, अमा महोदय ने कहा है िक आज िहसाब
-िकताब का काम अिधक
था , इसिलए जा का केवल एक ही मामला म दे ख पाया ँ । वह इस पर िलख
िदया है । महाराज दे ख ल । राजा : लाओ, कागज़ इधर दो ( ितहारी कागज़ दे ता
है । ) राजा : ( पढ़कर ) यह ा ? सामुि क ापारी सेठ धनिम की जहाज़ डूब
जाने से मृ ु
हो गई ? और इस बेचारे के कोई स ान नहीं ? अमा ने िलखा है िक उसका
सारा धन राजकोष म आ जाना चािहए । हाय , पु हीन होना भी िकतने दु ःख की बात
है ।! ितहारी, जब उसके पास इतना धन था , तो अव ही उसकी पि याँ
भी कई होंगी । पता करो, शायद उनम से कोई प ी गभवती हो ! ितहारी :
महाराज , सुना है िक उनकी एक प ी साकेत के सेठ की लड़की है । उसका हाल
ही म पुंसवन - सं ार आ था । राजा : तब तो पैतृक धन पर उस गभ थ िशशु
का अिधकार है । जाओ, अमा को यही
बात कह दो । ितहारी : जो महाराज की आ ा । ( चलने लगता है । )
राजा : ज़रा यहाँ तो आना । ितहारी : जी , आ गया । राजा : स ान है या नहीं,
इससे ा ? यह घोषणा करवा दो िक जा म से िजस
िजसका, जो - जो भी कोई स ी न रहे , पािपयों को छोड़कर, आज से उनका
वह स ी दु है । ितहारी : यह घोषणा अभी ई जाती है । ( बाहर जाकर
िफर वेश करके ) महाराज की इस
घोषणा से जा को वैसा ही आन आ , है जैसा ठीक समय पर ई वषा से
होता
राजा : ( ल ी और गहरी साँ स छोड़कर ) हाय, स ान न होने पर िनराधार कुलों
की
स ि मूल पु ष की मृ ु के बाद औरों के पास चली जाती है । मेरे मरने पर
पु वंश की ल ी का भी यही हाल होगा । ितहारी : भगवान् ऐसा िदन न लाए ।
राजा : हाय , मने भी यह ा िकया , जो घर आए सौभा को ठु करा िदया ?
सानुमती : वह अव शकु ला को ही याद कर - करके अपने - आपको िध ार
रहे ह ? राजा : मने वंश- पर रा को चलाने वाली अपनी गभवती प ी का प र ाग
कर िदया ,
जो समय पर बीज बोई गई भूिम के समान भिव म सुमहान् फल दे ने वाली थी ।
सानुमती : अब भी वंश- पर रा अटू ट बनी रहे गी । चतु रका : ( चुपके से ितहारी से
) इस सेठ के वृ ा को सुन महाराज का दु ःख दु गुना हो
गया है । इ सा ना दे ने के िलए मेघ - ित द महल से आय माध को
ज ी
से बुला लाओ। ितहारी : यह ठीक है । ( बाहर जाता है ।) राजा : हाय, दु
का िदया आ िप पाने वाले िपतर लोग स े ह म पड़ गए ह ।
उ िच ा हो गई है िक इस दु के बाद हमारे वंश म कौन हमारा वैिदक
िविध से तपण करे गा ? इसीिलए मुझ पु हीन ारा िदए गए जल से वे पहले अपने
आँ सू धोते ह , और उससे शेष बचे जल को पीते ह ।
( मूिछत हो जाता है । ) चतु रका : ( हड़बड़ाहट के साथ दे खकर) महाराज,
धीरज र खए, धीरज र खए । सानुमती : हाय- हाय , दीपक जलता होने पर भी बीच म
परदा होने के कारण यह अ कार
सा अनुभव कर रहे ह । म अभी इ सब कुछ बताकर आन त िकए दे ती ँ ।
पर नहीं, ान आया िक शकु ला को आ ासन दे ती ई दे वमाता अिदित कह रही
थीं िक ' य भाग पाने के िलए उ क दे वता लोग ही कुछ ऐसा उपाय करगे, िजससे
तु ारे पित शी ही आदरपूवक तु हण कर ।' अब यहाँ दे र करना ठीक नहीं ।
चलकर यह सारा वृ ा सुनाकर अपनी ारी सखी शकु ला को धैय बँधाऊँ । (
झटके के साथ ऊपर उड़ जाती है । )
( नेप म ) दु हाई है , महाराज दु हाई है ! राजा : ( होश म आकर , ान से
सुनकर ) अरे माध की - सी पुकार तीत होती है । यहाँ कोई है ?
( वेश करके ) ितहारी : ( घबराहट के साथ ) महाराज, आपके िम माध
िवपि म फँस गए ह ; उनकी
र ा कीिजए। राजा : ों , उसे ा आ ? ितहारी : कोई अ ाणी उ
पकड़कर ले गया है और मेघ - ित द महल की मुंडेर
___ पर उ लटकाए ए है । राजा : ( उठकर ) अ ा, अब मेरे महलों म भी
भूत- ेत आने लगे ? ा िकया जाए;
ितिदन मनु यं ही कहाँ िकतनी भूल कर जाता है , इसी का पता नहीं चलता;
िफर जा म से कौन िकस कार का आचरण कर रहा है , यह पूरी तरह
मालूम कर पाना तो स व ही नहीं ।
( नेप म ) बचाओ िम , मुझे बचाओ! राजा : ( तेज़ी से चलता आ) िम , डरो
मत, डरो मत !
( नेप म ) बचाओ िम , मुझे बचाओ! हाय, ड ँ कैसे नहीं ! यह न जाने कौन
मेरी गदन
मरोड़कर ग े की भाँ ित मेरे तीन टु कड़े िकए डालता है । राजा : ( इधर- उधर
दे खकर) मेरा धनुष लाओ ।
( धनुष हाथ म िलए वेश करके । ) यवनी : ामी, यह धनुष है और यह
ह ाण ।
( राजा धनुष - बाण ले लेता है ।)
( नेप म ) जैसे गले का ताज़ा खून पीने के िलए चीता पशु को मार डालता है ,
उसी कार म िबलिबलाते ए तुझे अभी मारे डालता ँ । िवपि ों को अभय दे ने
के िलए
धनुष धारण करने वाला दु अब तुझे बचा सकता हो , तो बचा ले । राजा :
( ु होकर) यह ा ? मुझे ही नीचा िदखाना चाहता है । ठहर रे शवभोजी,
अभी तुझे समा करता ँ । ( धनुष पर डोरी चढ़ाकर ) ितहारी, सीिढ़यों की
ओर
चलो । ितहारी : ( चारों ओर दे खकर) यहाँ तो कोई भी नहीं है ।
(नेप म ) हाय - हाय , म तो आपको दे ख रहा ँ और आप मुझे नहीं दे ख पा रहे
। िब ी के
मुँह म फँसे चूहे की तरह अब म तो जीवन की आशा छोड़ बैठा ँ । राजा : अरे
त रणी िव ा के अिभमानी, मेरा अ अब तुझे ढू ँ ढ़ लेगा । यह म उस
बाण को धनुष पर चढ़ाता ँ , जो वध- यो तुझे तो मार डालेगा और र ा- यो
ा ण की र ा करे गा । ठीक वैसे ही , जैसे हं स दू ध को पी लेता है और उसम िमले
जल को छोड़ दे ता है ।
( धनुष पर बाण चढ़ाता है ।)
(िवदू षक को छोड़कर मातिल वेश करता है ।) मातिल : महाराज, इ ने
रा सों को मारने के िलए आपको बुलाया है । अब चलकर उन
पर ही इस धनुष का योग कीिजए । िम ों पर तो स ु षों की स ता से भरी
सौ ि ही पड़ा करती है , भयंकर बाण नहीं । राजा : ( हड़बड़ाकर बाण को
धनुष से उतारता आ) अरे , ा मातिल ह ? इ के
सारिथ , आपका ागत है !
( वेश करके ) िवदू षक : िजसने मुझे य के पशु की भाँ ित मारने का य िकया,
उसी का यह ागत
करके अिभन न कर रहे ह । मातिल : ( मु राते ए) महाराज, अब सुिनए िक
इ ने मुझे आपके पास िकसिलए भेजा
राजा : हाँ , वह तो सुनाइए । मातिल : कालनेिम के वंश म दु जय नाम के दानवों
का समूह उ आ है ।
राजा : हाँ है , मने भी एक बार नारदजी से सुना था । मातिल : आपके िम इ
उसे जीत नहीं पा रहे । इसिलए उ यु म मारने के िलए इ
ने आपको याद िकया है । राि के िजस अ कार को सूय हटाने म असमथ रहता
है , उसे च मा दू र कर दे ता है । इस समय आपने श तो धारण िकए ही ए ह ;
तो बस अभी इस इ के रथ पर चढ़कर िवजय के िलए थान कीिजए । राजा :
इ ने आदर दान करके मुझ पर अनु ह िकया है । पर ु आपने माध के
साथ ऐसा वहार ों िकया ? मातिल : वह भी बताए दे ता ँ । मने दे खा िक
आप िकसी कारणवश मानिसक स ाप से
िवकल ह । इसिलए आपको ोध िदलाने के िलए ऐसा िकया । ोंिक ईंधन को
िहला दे ने पर आग तेज़ी से जलने लगती है ; छे ड़ा जाने पर नाग फन उठा लेता है ।
ायः का असली तेज भी तभी कट होता है , जब कोई उसे उ ेिजत कर
राजा : (माध से चुपके से ) िम , इ की आ ा माननी होगी । इसिलए तुम यह
सब
बात बतलाकर मेरी ओर से अमा आयिपशुन से कह दे ना िक जब तक हमारा
यह धनुष दू सरे काम म लगा है , तब तक केवल , उनकी बु ही जा का पालन
करती रहे । िवदू षक : जो आपकी आ ा ( बाहर जाता है । ) मातिल : चिलए
आयु ान्, रथ पर चिढ़ए ।
( रथ पर चढ़ने का अिभनय करता है ।) ( सब बाहर िनकल जाते ह । )
स म अंक
( आकाश म दौड़ते ए रथ पर चढ़े राजा दु और मातिल का
वेश ) राजा : मातिल , यह ठीक है िक मने इ का काय पूरा कर िदया, िफर भी
उ ोंने जैसा
मेरा स ार िकया, उसकी तुलना म मेरा काय कुछ भी नहीं था । मातिल : (
मु राकर ) आयु ान , मुझे तो ऐसा लगता है िक आप दोनों को ही अपने
आपसे अस ोष रहा । आप इ के स ार की तुलना म अपने िकए ए
उपकार को कम समझते ह और इ आपके परा म से चिकत होकर अपने स ार
को
तु समझ रहे ह । राजा : मातिल , यह बात नहीं ! िवदाई के समय उ ोंने मेरा
जैसा स ार िकया, वह तो
क ना से भी परे की व ु है । उ ोंने मुझे सब दे वताओं के स ुख आधे
िसंहासन पर िबठाया । उ ोंने अपने गले म ह रच न लगी म ार की एक माला
पहनी ई थी , िजसकी ओर जय बड़ी ललचाई ि से दे ख रहा था । वह माला
उ ोंने उसे न दी और मु राते ए मेरे गले म पहना दी । मातिल : ऐसी ा
व ु है , जो दे वराज इ आपको न दे सक ? ोंिक दे खए, इ तो
सदा सुख म म रहने वाले ह । उनके िलए केवल दो ने ही ग को दानवों से
िन ं टक िकया है । एक तो आपके ती ण बाणों ने और एक बार पहले नृिसंह
भगवान् के पैने नाखूनों ने । राजा : यह सब भी इ का ही ताप है । ोंिक
अनुयायी लोग जो बड़े - बड़े कामों को
भी पूरा कर डालते ह , वह ािमयों के गौरव के कारण ही होता है । यिद सह
िकरण वाले सूय ने अ ण को अपना सारिथ न बनाया होता , तो ा वह कभी
अ कार का नाश कर सकता था । मातिल : आपको यह िवनय ही शोभा दे ती है
। ( कुछ दू र जाकर ) उधर दे खए , आपकी
यशोगाथा ग म कैसी फैल रही है ! अ राओं के ंगार से जो रं ग शेष रह गए
ह , उनसे दे वता लोग क वृ से ा ए व ों पर आपके च र को सु र गीत
बनाकरिलख रहे ह । राजा : मातिल , उस िदन ग की ओर जाते ए म रा सों
से यु के िलए अधीर था ,
इसिलए ग के माग को भली- भाँ ित न दे ख सका था । इस समय हम कौन - से
वायुपथ म चल रहे ह ? मातिल : यह ' प रवह' वायु का माग कहलाता है । इसी
माग म आकाश गंगा बहती है और
यहीं से न ों की िकरण िवभ होकर सब ओर फैलती ह । और िव ु भगवान्
ने वामनावतार के समय अपना दू सरा चरण इसी म रखकर इसे पिव िकया था ।
राजा : मातिल , इसी से यहाँ मेरा मन अ र- बाहर सब ओर से स हो उठा है ।
(रथ के
पिहयों को दे खकर ) अब हम वायु के उस माग म उतर आए ह िजसम मेघ चला
करते ह । मातिल : यह आपने कैसे जाना ? राजा : ोंिक यहाँ आपका रथ
सजल बादलों के ऊपर चल रहा है , इसीिलए रथ की
धुरी जलिब दुओं से सील गई है । पिहयों के अरों के बीच म से िनकल -िनकलकर
चातक जहाँ -तहाँ उड़ रहे ह और रथ के घोड़े रह-रहकर िबजली की चमक से रं ग
से उठते ह । मातिल : बस , अब कुछ ही दे र म आप अपने रा की भूिम पर
होंगे । राजा : (नीचे की ओर दे खकर ) तेज़ी से उतरने के कारण भूलोक ब त ही
आ यजनक
िदखाई पड़ता है । वह उधर पृ ी पवतों के ऊपर उठते ए िशखरों से नीचे की
ओर उतरती ई- सी दीख रही है । जो वृ पहले प ों म िछपे ए थे, अब धीरे
धीरे उनकी शाखाएँ भी अलग - अलग िदखाई पड़ने लगी ह । दू र से लकीर - सी
पतली िदखाई पड़ने वाली निदयाँ अब खूब बड़ी और चौड़ी दीखने लगी ह । ऐसा
तीत होता है जैसे पृ ी को िकसी ने नीचे से ऊपर की ओर उछाल िदया है और
यह तेज़ी से मेरे पास चली आ रही है ! मातिल : आपने िब ु ल ठीक दे खा । (
आदर के साथ दे खते ऐ ) अहा, पृ ी की
िवशालता और सु रता के ा कहने ! राजा : मातिल , यह पूव समु से लेकर
पि म समु तक फैला आ और सं ा - काल
की मेघमाला के समान िवशाल पवत कौन - सा है , िजस पर सुनहली धाराएँ बह
रही ह ? मातिल : आयु ान्, यह हे मकूट पवत है । यहाँ िक र लोग रहते ह और
यहाँ तप की िस
शी होती है । यंभू मरीिच के पु दे वताओं और असुरों के िपता जापित
क प प ी- समेत यहीं तप ा कर रहे ह । राजा : ऐसे सुअवसर को तो छोड़ना
उिचत नहीं । महा ा क प के दशन करके ही
आगे चलगे । मातिल : आपका िवचार उ म है ।
( उतरने का अिभनय करते ह ।) राजा : ( चिकत होकर) आपका रथ कब भूिम
पर उतरा इसका तो पता ही न चला। न तो
यह पता चला िक आपने कब रास खींचीं; न पिहयों और धुरी म कुछ घरघराहट
ई; और न कुछ धूल ही उड़ी । पता ही न चला िक इसने भूतल को श कब
िकया ! मातिल : इ के और आपके रथ म केवल इतना ही तो अ र है ।
राजा : मातिले , महा ा क प का आ म िकस ओर है ? मातिल : ( हाथ से
संकेत करते ए ) वह आ म उस ओर है , जहाँ वह महा ा क प पेड़
के ठूठ के समान थर रहकर सूय की ओर ि लगाए तप कर रहे है । उनके
शरीर का आधा भाग दीमक की बाँ िबयों से ढं क गया है ; उनकी छाती पर साँ पों की
कचुिलयाँ पड़ी ई ह ; उनके गले को पुरानी बेलों ने फैलकर खूब ज़ोर से जकड़
िलया । और उनकी जटाएँ क ों तक फैली ई ह , िजनम िचिड़यों ने
घोंसले बना िलए ह । राजा : ऐसा कठोर तप करने वाले महा ा को णाम !
मातिल : ( रास खींचकर रथ को धीमा करता है । ) महाराज, यह लीिजए, हम
जापित
क प के आ म म आ प ँ चे। यहाँ के म ार वृ ों को यं दे वमाता अिदित ने
सींच- सींचकर बडािकया है । राजा : यह थान तो ग से भी अिधक
आन दायक है । मुझे ऐसा लगता है , िक म
अमृत के सरोवर म नहा रहा होऊँ । मातिल : (रथ रोककर ) आयु ान् , उत रए
!
राजा : ( उतरकर ) और आप? मातिल : मने रथ को रोक िलया है । म भी उतरता
ँ । ( उतरकर) इधर आइए आयु ान !
___ ( कुछ दू र चलकर) महा ा -ऋिषयों की इस तपोभूिम के दशन कीिजए ।
राजा : इसे दे खकर तो बड़ा आ य होता है । यहाँ ऋिष लोग क - वृ ों के वन म
बैठकर ाणायाम करते ह और सुनहले कमलों के पराग से सुवािसत जल म
पु ान करते ह । र ों की िशलाओं पर बैठकर समािध लगाते ह और अ राओं के
िनकट रहकर अपने मन को वश म रखते ह । अ मुिन अपनी तप ा के ारा जो
कुछ ा करना चाहते ह , वह सब ा करके , उन दशाओं
म रहते ए भी ये मुिन तप ा करते ह । मातिल : बड़ों की इ ाएँ बड़ी होती ह ।
(कुछ दू र चलकर और आकाश की ओर दे खकर )
अरे वृ शाक जी, इस समय महा ा क प ा कर रहे ह ? ा कहा ? द
पु ी अिदित ने पाित धम के िवषय म कुछ िकया था , उसी के िवषय म
ऋिष- पि यों- समेत अिदित को उपदे श दे रहे ह । राजा : ( ान से सुनकर )
तब तो , कुछ दे र ती ा करनी पड़े गी । मातिल : ( राजा की ओर दे खकर ) आप इस
अशोक वृ के तले िव ाम कीिजए । तब तक
म अ र जाकर महा ा क प को आपके आगमन की सूचना दे ने का अवसर
दे खता ँ । राजा : जो आप उिचत समझ, कीिजए । ( बैठ जाता है । ) मातिल :
आयु ान्, तो म जाता ँ । ( बाहर िनकल जाता है । )
राजा : ( शुभ शकुन की सूचना दे ते ए) हे दि ण बा , तुम थ ों फड़कते हो
? यहाँ
कोई अिभलाषा पूरी होने की आशा नहीं है । एक बार क ाण को ठु करा दे ने पर
बाद म दु ःख ही भुगतना पड़ता है ।
( नेप म ) शरारत मत कर । िफर तू अपने भाव पर उतर आया न ! राजा : (
ान से सुनकर ) यह थान तो िकसी कार की शरारत करने का थान नहीं है ।
िफर यह िकसकी रोकथाम हो रही है ? (िजस ओर से श आया था उस ओर
दे खकर ) अरे , यह परा मी बालक कौन है , िजसके पीछे -पीछे दो तप िनयाँ बड़ी
किठनाई से आ रही ह और यह बालक िसंहनी के ब े को माँ का दू ध न पीने दे कर
गदन के बाल पकड़कर अपने साथ खेलने के िलए बलपूवक खींच रहा
( दो तप िनयों के साथ ऊपर के अनुसार बालक का वेश ) बालक : मुँह खोल
रे िसंह, तेरे दाँ त िगनूँगा । पहली तप नी : दु , हमारी अपनी ही स ान जैसे ि य
पशुओं को ों सताता है ?
ओह, तेरा तो साहस िदनों-िदन बढ़ता ही जाता है । ऋिषयों ने तेरा नाम
सवदमन ठीक ही रखा है । राजा : इस बालक को दे खकर मेरे मन म ऐसा ेह
ों उमड़ रहा है , जैसे यह
मेरा अपना ही पु हो ? शायद िन ान होने के कारण ही ब ों से मुझे
ऐसा ार है ! दू सरी तप नी : यिद तू इसके ब े को न छोड़े गा, तो यह शेरनी
तुझ पर टू ट पड़े गी। बालक : ( मु राकर ) अहा, बड़ा डरता ँ न म इससे ? (िसंहनी
की ओर मुँह
िबचकाता है ।) राजा : मुझे लगता है िक यह बालक बड़ा होकर महा तापी
बनेगा । अभी
यह उस िचनगारी के समान है , जो ईंधन िमलने पर धधककर च आग
बन जाती है । पहली तप नी : बेटा, इस शेर के ब े को छोड़ दे । तुझे दू सरा
खलौना दू ं गी ।
बालक : कहाँ है ? ला दे । ( हाथ फैलाता है ।) राजा : यह ा ? इसके हाथ म तो
च वत के ल ण भी ह । अभी खलौने के
लालच से पसारा आ यह हाथ जाल के समान गुंथी ई उं गिलयों से ऐसा सु र
लग रहा है , जैसे कोई खला आ अकेला कमल हो ,िजसकी लाली उषा के कारण
चौगुनी हो उठी हो और िजसकी पंखु रयाँ अलग - अलग
िदखाई न पड़ रही हों । दू सरी तप नी : सु ता, वह केवल बातों से मानने वाला
नहीं । तू जा ; मेरी कुिटया म
ऋिषकुमार माक े य का बनाया आ रं गीन िम ी का मोर रखा है । इसके िलए
उसे ले आ ।
पहली तप नी : अ ा ! ( बाहर जाती है । )
बालक : तब तक म इससे ही खेलूँगा । ( तप नी की ओर दे खकर हँ सता है । )
राजा : यह नटखट बालक मुझे ब त ारा लग रहा है । वे लोग ध ह , िजनकी
गोद , पु ों के शरीर की धूल से मिलन ई रहती है । वे बालक जब अकारण
हँ सते ए किलयों के समान अपने दाँ तों की ह ी - सी झलक िदखाते ह , अपनी
तोतली बोली म मीठी- मीठी बात करते ह और बार ार गोदी म
चढ़ना चाहते ह , तो वे िकतने ारे लगते ह ! तप नी : अ ा, मेरी तो बात ही
नहीं सुनता। ( इधर- उधर दे खती है ।) कोई ऋिषकुमार
यहाँ ह ? ( राजा को दे खकर) भ , आप ही यहाँ आइए । यह बालक खेल ही खेल
म इस िसंह के ब े को ब त ज़ोर से दबाकर घोंटे दे रहा है । ज़रा
इसको छु ड़ा दीिजए । राजा : ( पास आकर मु राते ए ) ों ऋिषकुमार, तुम
अपने ाभािवक संयम को
ागकर ऐसा आ म -िवरोधी आचरण ों कर रहे हो , िजससे इन सुख से रहने
वाले ािणयों को क होता है ? यह ऐसा ही है , जैसे च न के वृ पर काले नाग
का ब ा िलपटा आ हो । तप नी : भ , यह ऋिषकुमार नहीं है । राजा : यह
तो इसकी आकृित और चे ाएँ ही कह रही ह । पर ु तपोवन म दे खकर
मने इसे ऋिषकुमार समझा। (बालक से िसंह-िशशु को छु ड़ाते ए बालक का
श करके मन ही मन ) यह न जाने िकसके वंश का दीप है ? जब इसे श करके
मुझे इतना आन हो रहा है , तो िजसका यह अपना पु है , उसे
तो न जाने कैसा सुख िमलता होगा । तप नी : ( दोनों को दे खकर )िकतनी
िविच बात है !
राजा : ों , ा आ ? तप नी : इस बालक से तु ारी आकृित इतनी अिधक
िमलती है िक मुझे दे खकर आ य
हो रहा है । अप रिचत होते ए भी इसने तु ारा कहना भी मान िलया । राजा : (
बालक को ार करता आ) यिद यह ऋिषकुमार नहीं है , तो यह िकस वंश का
तप नी : पु वंश का । राजा : ( मन ही मन म ) यह ा ! यह मेरे ही वंश का है
! इस बात को मेरी और इसकी
िमलती - जुलती आकृित बता रही है । पर ु पु वंिशयों की तो कुल - पर रा यही
चली आई है िक पहले वे पृ ी की र ा के िलए आन के साथ िवलास भरे महलों म
रहते ह और वृ ाव था म अपनी प ी को साथ लेकर वन म िनवास करने लगते ह ।
( कट प म ) पर ु अपनी श से तो कोई मनु इस थान
पर आ नहीं सकता? तप नी : आप ठीक कहते ह । इस ब े की माँ अ रा
की क ा थी । उसने इसे यहीं
महा ा क प के आ म म ही ज िदया है । राजा : (मुँह फेरकर) यह एक
और आशा बँधी। ( कट प से ) वह िकस राजिष की
प ी है ? तप नी : अपनी धमप ी को ाग दे ने वाले उस राजा का नाम भी
लेना बुरा है ! राजा : ( मन ही मन ) यह सारी कथा तो मुझ पर ही घटती है । अ ा,
यिद इसकी माँ का नाम पूछ ? पर नहीं, परायी ी के बारे म पूछताछ करना ठीक
नहीं ।
(िम ी का मोर हाथ म िलए वेश करके ) तप नी : सवदमन , शकु लाव
को तो दे ख ।
बालक : ( इधर- उधर दे खकर ) कहाँ है मेरी माँ ? दोनों तप िनयाँ : माँ से इसे
बड़ा ार है । तभी नाम िमलता- जुलता होने से धोखा खा
गया । दू सरी तप नी : बेटा , इस िम ी के मोर के लाव को दे ख , मने यह
कहा था ।
राजा : ( मन ही मन ) अ ा तो ा इसकी माँ का नाम शकु ला है ! पर संसार
म
एक नाम के लोग कई होते ह । मरीिचका की भाँ ित यह नाम भी कहीं केवल
मेरे दु ःख को ही न बढ़ाए । बालक : माँ , यह मोर तो बड़ा अ ा है । (कहकर
खलौना ले लेता है । ) पहली तप नी : (घबराहट के साथ दे खकर ) अरे यह ा !
इसकी कलाई म र ाकवच
बँधा आ था , वह दीख नहीं रहा । राजा : घबराइए नहीं; यह र ाकवच िसंह के
ब े से खींचातानी करते समय
इसके हाथ से यहाँ िगर पड़ा है । ( कहकर उठाकर दे ना चाहता है ।) दोनों
तप िनयाँ : इसे छूना नहीं । यह ा ! इ ोंने तो उठा ही िलया । ( दोनों आ य से
छाती पर हाथ रखे एक - दू सरे को दे खती ह । )
राजा : आपने मुझे रोका िकसिलए था ? पहली तप नी : सुिनए महाराज ! यह
अपरािजता नाम की बूटी महा ा क प ने इसके
जातकम- सं ार के समय इसके हाथ म बां धी थी । यिद यह बूटी भूिम पर िगर
पड़े , तो इसे इसके माता-िपता और यं इसके िसवाय और कोई नहीं
उठा सकता।
राजा : अगर उठा ले तो ! पहली तप नी : तो यह बूटी साँ प बनकर उसे डस
लेती है ।
राजा : आपने कभी इस तरह इस बूटी को साँ प बनकर डसते दे खा है ? दोनों
तप िनयाँ : कई बार !
राजा : ( स ता के साथ मन ही मन ) अब तो मेरी कामना पूरी हो गई। अब
ों स न होऊँ ! ( ब े को छाती से लगा लेता है ।) दू सरी तप नी : सु ता ,
आओ चल । चलकर यह वृ ा तप नी शकु ला को
सुनाएँ ।
( दोनों बाहर जाती ह ।) बालक : मुझे छोड़ो, म माँ के पास जाऊँगा ।
राजा : बेटा, अब मेरे साथ ही माँ के पास चलना । बालक : मेरे िपता तो दु ह
; तुम थोड़े ही हो ! राजा : (मु राकर ) इसका यह िववाद ही मेरे िव ास को प ा
कर रहा है ।
(एक वेणी िकए शकु ला का वेश ) शकु ला : यह तो मने सुना िक सवदमन
के र ाकवच की बूटी िकसी अ के ारा उठाए
जाने पर भी सप न बनी, िफर भी मुझे अपने सौभा की आशा नहीं बँधती । या
िफर स व है , जो कुछ सानुमती ने सुनाया था , उसके अनुसार यह स ही हो ।
राजा : ( शकु ला को दे खकर ) अरे , यह तो शकु ला है ! यह बेचारी मैले कपड़े
पहने
ए है । िनयम -पालन करते रहने से इसका मुँह सूख- सा गया है । एक ही वेणी
िलए
यह सदाचा रणी मुझ िन ठुर के िवयोग म ल े िवरह त का पालन कर रही है ।
शकु ला : ( प ा ाप के कारण दु बल और िववण राजा को दे खकर ) ये तो वे नहीं ह
। िफर
कौन ह , जो मेरे र ाकवच पहने पु को अपनी गोदी म लेकर अपिव कर रहा
बालक : ( माँ के पास जाकर) माँ , ये न जाने कौन मुझे ' बेटा' कहकर अपनी
छाती से
__ लगा रहे ह ! राजा : ि ये, तु ारे साथ मने जो ू रता की थी, उसका इतना तो
अ ा ही प रणाम
आ िक अब तुम मुझे पहचान भी नहीं पा रही हो । शकु ला : ( मन ही मन )
दय धैय धरो । भा ने ोध छोड़कर आज तुझ पर दया की है ।
ये वही ह । राजा : ि ये, आज सौभा का िदन है िक मेरी ृित पर से अ कार
का परदा हट
चुका है । और तुम आज मेरे स ुख उसी कार खड़ी ई हो , जैसे च हण के
प ात् रोिहणी च मा के पास आ प ँ चे। शकु ला : आयपु की जय हो ...
(बोलते - बोलते गला भर आने से बीच म ही क जाती
है । ) राजा : सु री , भले ही गला भर आने के कारण तु ारा जयकार अधूरा रह
गया, िफर
भी मेरी िवजय तो होती ही गई, ोंिक मने आज पाटल के समान सहज अ ण
अधरों वाले तु ारे मुख का जो दशन कर िलया । बालक : माँ , यह कौन ह ?
शकु ला : बेटा , अपने भा से पूछ । राजा : ( शकु ला के पैरों पर िगरकर )
सु री, तुम अपने दय से प र ाग के कारण
ए ोभ को िनकाल दो । उस समय न जाने मेरे मन पर कैसा अ कार - सा छा
गया था । मन म तमोवृि बढ़ जाने पर शुभ व ुओं के ित लोग ऐसा ही कर बैठते ह
, जैसे अ े के िसर पर फूलमाला रखने पर वह उसे साँ प समझकर दू र
फक दे ता है । शकु ला : आप उिठए, उिठए। िपछले ज म मने कोई ऐसा पाप
िकया था , िजसका फल
मुझे उ ीं िदनों िमलना था । इसी से दयालु होते ए भी आप उस समय मेरे ित
इतने िवर हो गए थे ।
( राजा उठकर खड़ा हो जाता है । ) शकु ला : िफर आपको मुझ दु खया की
याद कैसे आई? राजा : मन से दु ःख का काँ टा तो िनकाल लूँ , तब क ँ गा । सु री ,
तु ारे होंठों पर आ
आकर िगरने वाले िजन अ ु -िब दुओं की मने उस िदन उपे ा कर दी थी , वे
आज भी तु ारी इन ितरछी पलकों म अटके ए ह । पहले उ पोंछ लूँ, तो मुझे कुछ
शा िमले ।
( शकु ला के आँ सू पोंछता है । ) शकु ला : ( नामवाली अंगूठी की ओर
दे खकर ) आपकी वह अंगूठी तो यह रही ।
राजा : इस अंगूठी के िमलने से ही तो मुझे तु ारी याद आई । शकु ला : इसने
बुरा तो यह िकया िक जब म आपको िव ास िदलाना चाहती थी, उस
समय यह िमली ही नहीं । राजा : तो अब वस से िमलन के रण -िच के प
म लता इस फूल को िफर धारण
कर ले । शकु ला : अब मुझे इसका भरोसा नहीं रहा । आप ही पहने रह ।
(मातिल का वेश ) मातिल : आपको धमप ी से िमलन तथा पु के मुखदशन
की बधाई हो ! राजा : मेरे मनोरथ अ मधुर प म पूरे ए ह । मातिल , स वतः
इ को यह
_ वृ ा मालूम न हो । मातिल : ( मु राकर ) भु लोगों से कुछ भी अगोचर
नहीं है । आइए, महा ा क प
आपको दशन दे ना चाहते ह । राजा : शकु ला , पु को संभाल लो । तु ारे साथ
ही चलकर उनके दशन क ँ गा। शकु ला : मुझे तो आपके साथ गु जी के िनकट
जाते ल ा आती है । राजा : पर ु शुभ अवसरों पर तो साथ जाना ही होता है ।
आओ, चल ।
( सब चलते ह । )
( अिदित के साथ आसन पर बैठे ए क प का वेश) क प : ( राजा को
दे खकर) अिदित , यह पृ ी के ामी दु ह जो यु म तु ारे पु
इ से भी आगे रहते ह । इनके धनुष के कारण व का काय समा हो गया है
और अब वह िनक ा होकर इ का आभूषण मा रह गया है । अिदित : इनका
परा म तो इनकी आकृित से ही झलक रहा है । मातिल : आयु ान्, ये दे वताओं के
माता-िपता आपको पु वत् ेम- भरी ि से दे ख रहे ह ।
चिलए, इनके पास चल ।
राजा : मातिल , ा ये ही ा के एक पीढ़ी उपरा द और मरीिच से उ
ए ी
पु ष ह, िज ऋिष लोग बारह सूय के माता-िपता बताते ह । ा इ ोंने ही
तीनों लोकों के ामी और य भाग के अिधकारी इ को ज िदया है और संसार
का
क ाण करने वाले यंभू ा ने भी ा इ ीं की गोद म ज िलया है ?
मातिल : जी हाँ ।
राजा : ( पास जाकर ) म इ का आ ाकारी दु आप दोनों को णाम करता
ँ । क प : बेटा, िचरायु हो । पृ ी का पालन करो ।
अिदित : श ुओं पर िवजय ा करो । शकु ला : पु - समेत म शकु ला
आपके चरणों म नम ार करती ँ । क प : बेटी , इ के समान तु ारा पित है ;
जय के समान तु ारा पु है । तु इसके
__ िसवाय और ा आशीवाद दू ँ िक तुम भी इ की प ी शची के समान होओ!
अिदित : बेटी, तु अपने पित का आदर ा हो ; तु ारा पु दीघायु और दोनों
कुलों की शोभा बढ़ाने वाला हो । आओ, बैठो ।
( सब जापित क प के चारों ओर बैठ जाते ह ।) क प : ( एक - एक की ओर
संकेत करते ए ) यह सौभा की बात है िक यह शकु ला
पित ता है , यह सवदमन स ु है और आप तो यं आप ही ह । ऐसा लगता
है जैसे ा, धन और धम तीनों एक हो गए हों । राजा : भगवन् , पहले इ
िस ई , उसके बाद आपके दशन िकए । आपकी यह कृपा
अद् भुत है । ोंिक संसार म पहले फूल खलता है और िफर फल लगता है ।
पहले बादल उठते ह , िफर जल बरसता है । िव का िनयम यही है िक पहले कारण
होता है , िफर काय । पर ु यहाँ आपकी कृपा होने से पहले ही स ि आ
प ँ ची। मातिल : िवधाताओं की कृपा ऐसी ही होती है । राजा : भगवन्, मुझे यह
बात ब त िविच लगती है िक मने पहले आपकी इस
आ ाका रणी शकु ला से गा व िववाह िकया था । िफर कुछ समय प ात् जब
इनके इ ब ु इ लेकर आए, तब ृित -दोष के कारण मने इनका प र ाग कर
िदया और आपके सगो महा ा क के ित अपराध िकया । पर ु बाद म अंगूठी
को दे खकर मुझे याद आया िक मने महा ा क की क ा से सचमुच िववाह िकया
था । यह तो ऐसा ही आ जैसे हाथी सामने से जा रहा हो , तो उसे दे खकर मन म यह
स े ह बना रहे िक यह हाथी है या नहीं ; और बाद म उसके गुज़र जाने पर उसके
पदिच ों को दे खकर यह िन य हो िक यह हाथी ही था । मेरे
मन की कुछ ऐसी ही दशा ई । क प : बेटा , यह मत समझो िक तुमने अपराध
िकया है । तु ारा भूल जाना ठीक ही
था । ों ? वह भी सुनो । राजा : किहए, म सुन रहा ँ ।
क प : ोंही रोती-िबलखती शकु ला को अ रा तीथ से लेकर मेनका
अिदित के
पास आई, ोंही मने ान से जान िलया िक तुमने अपनी इस बेचारी धमप ी को
दु वासा के शाप के कारण ागा है , अ िकसी कारण नहीं । और उस शाप
की समा अंगूठी के दे खने पर ही होगी । राजा : ( गहरी साँ स छोड़कर) चलो,
कलंक से तो छु टकारा आ। शकु ला : ( मन ही मन ) यह सौभा की बात है िक
इ ोंने मेरा प र ाग अकारण नहीं
िकया था । पर मुझे ान नहीं आता िक मुझे कभी शाप िमला हो । या स व है
िक जब शाप िमला उस समय िवरह से अनमनी होने के कारण म उसे जान न
सकी होऊँ । इसीिलए स खयों ने मुझे कहा था िक ामी को अंगूठी िदखा दे ना ।
क प : बेटी , अब तु सही बात मालूम हो गई । इसिलए अब इनके ित ोध न
करना ।
दे खो, शाप के कारण इनकी ृित न हो गई थी, इसिलए इ ोंने खेपन के
साथ तु ाग िदया था । पर ु अब इनका वह अ ान न हो गया है और अब इन
पर तु ारा ही भु रहे गा । दपण के ऊपर यिद मैल जमी हो तो उसम ितिब
िदखाई नहीं पड़ता, पर ु उसके हो जाने पर ितिब दीखने
लगता है । राजा : आपने िब ु ल ठीक कहा । क प : बेटा, तुमने अपने इस
शकु ला के बेटे का भी अिभन न िकया या नहीं ? इसका
िविधपूवक जातकम - सं ार हमने ही िकया है । राजा : भगवन्, इसी से तो मेरा
वंश चलेगा । ( बालक का हाथ पकड़ता है । ) क प : यह तुम िन य जान लो िक
यह च वत राजा बनेगा । यहाँ पर सब ािणयों का
बलपूवक दमन करने के कारण इसका नाम सवदमन है ; पर ु बाद म अपने
दु िनवार रथ पर चढ़कर समु ों को पार करके यह स ीपा वसु रा को जीत लेगा ।
कोई श ु इसके सामने िटक न सकेगा। तब संसार का भरण- पोषण करने
के कारण इसका नाम ' भरत' िस होगा । राजा : जब आपने इसका सं ार
िकया है , तो इस सबकी तो हम आशा ही है । अिदित : भगवन् , महा ा क को भी
यह संवाद िभजवा दीिजए िक उनकी क ा का
मनोरथ पूण हो गया । पु ी से ेम करने वाली मेनका तो आजकल आपकी सेवा
म
यहीं पर है । शकु ला : ( मन ही मन ) इ ोंने ठीक मेरे मन की बात कह दी ।
क प : तप के भाव से महा ा क को सब कुछ मालूम है । राजा : स वतः
इसी से वे मेरे ऊपर ब त ु नहीं ह । क प : िफर भी हम उनसे यह पूछना ही
चािहए िक आपको यह शुभ स ाद मालूम
आ या नहीं? अरे , कोई यहाँ है ?
( वेश करके ) िश : भगवन्, म ँ । आ ा कीिजए ।
क प : गालव , अभी आकाश-माग से जाकर मेरी ओर से महा ा क को यह
शुभ
स ाद दो िक शाप समा हो जाने पर ृित लौट आने से दु ने पु वती
शकु ला को हण कर िलया है । िश : जो आपकी आ ा। ( बाहर जाता है । )
क प : बेटा , तुम भी अपने िम इ के रथ पर चढ़कर पु - प ी समेत अपनी
राजधानी
की ओर थान करो। राजा : जो आपकी आ ा। क प : और दे खो; इ तु ारे
रा म यथे वषा करता रहे और तुम य ों के ारा इ
का स ार करते रहो । इस कार तुम दोनों सैकड़ों गणों के ऊपर रा करते
ए
एक - दू सरे के िहतकारी काय ारा दोनों लोकों के क ाण म त र रहो ! राजा
: भगवन् , यथाश क ाण का ही य क ँ गा। क प : बेटा, और तु ारा ा
ि य काय इस समय क ँ ? राजा : इससे अिधक और ि य ा हो सकता है ? िफर
भी यिद आप कृपा करना चाहते
ह , तो ऐसा कीिजए िक ( भरत वा ) राजा लोग जा के िहत म लगे रह । सब
जगह वेदों और किवयों की वाणी का आदर हो ; और पावती समेत यंभू िशव मुझे
भी ज - मरण ब न से मु दान कर ।
( सब बाहर िनकल जाते ह ।)