You are on page 1of 95

अिभ ान शाकु ल - िहं दी - कािलदास

1. अिभ ान शाकु ल - िहं दी - कािलदास


अिभ ान शाकु ल - िहं दी - कािलदास
कािलदास

This book was produced in EPUB format by the Internet Archive.


The book pages were scanned and converted to EPUB format
automatically. This process relies on optical character recognition, and
is somewhat susceptible to errors. The book may not offer the correct
reading sequence, and there may be weird characters, non-words, and
incorrect guesses at structure. Some page numbers and headers or
footers may remain from the scanned page. The process which
identifies images might have found stray marks on the page which are
not actually images from the book. The hidden page numbering which
may be available to your ereader corresponds to the numbered pages in
the print edition, but is not an exact match; page numbers will
increment at the same rate as the corresponding print edition, but we
may have started numbering before the print book's visible page
numbers. The Internet Archive is working to improve the scanning
process and resulting books, but in the meantime, we hope that this
book will be useful to you.
The Internet Archive was founded in 1996 to build an Internet
library and to promote universal access to all knowledge. The Archive's
purposes include offering permanent access for researchers, historians,
scholars, people with disabilities, and the general public to historical
collections that exist in digital format. The Internet Archive includes
texts, audio, moving images, and software as well as archived web
pages, and provides specialized services for information access for the
blind and other persons with disabilities.
Created with abbyy2epub (v.1.7.6)

अिभ ान शाकु ल
अिभ ान शाकु ल ( सं ृ त के िस नाटक ' अिभ ान शाकु लम् ' का
िह ी पा र )
महाकिव कािलदास
राजपाल
पा रकार िवराज
सं रण : 2008 © राजपाल ए स ज़ ISBN : 978- 81 - 7028 - 773- 5
ABHIGYAN SHAKUNTALAM (Sanskrit Play) by Kalidas
राजपाल ए स ज़ , क ीरी गेट , िद ी - 110006 Website : www
.rajpalpublishing . com e -mail :mail @ rajpalpublishing .com
भूिमका
कािलदास सं ृ त- सािह के सबसे बड़े किव ह । उ ोंने तीन का और तीन
नाटक िलखे ह । उनके ये का ' रघुवंश', ' कुमार स व' और 'मेघदू त ' ह और
नाटक ' अिभ ान शाकु ल', 'मालिवकाि िम ' और 'िव मोवशीय ' ह । इनके
अित र 'ऋतुसंहार' भी कािलदास का ही िलखा आ माना जाता है । इतना ही नहीं,
लगभग पतीस अ पु क भी कािलदास - रिचत कही जाती ह । ये सब रचनाएँ
कािलदास - रिचत ह अथवा नहीं , यहाँ इस िववाद म न पड़कर हम केवल कािलदास
के का - सौ य पर एक ि पात - भर करने लगे ह । इन तीन नाटकों और तीन
का ों को तो असंिद प से कािलदास - रिचत ही माना जाता है ।
कािलदास का थान और काल
िव ानों म इस बात पर ही गहरा मतभेद है िक यह कािलदास कौन थे? कहाँ के
रहने वाले
थे ? और कािलदास नाम का एक ही किव था , अथवा इस नाम के कई किव हो
चुके ह ? कुछ िव ानों ने कािलदास को उ ियनी-िनवासी माना है , ोंिक उनकी
रचनाओं म उ ियनी, महाकाल, मालवदे श तथा ि ा आिद के वणन अनेक थानों
पर और िव ारपूवक ए ह । पर ु दू सरी ओर िहमालय, गंगा और िहमालय की
उप काओं का वणन भी कािलदास ने िव ार से और रसम होकर िकया है ।
इससे कुछ िव ानों का िवचार है िक ये महाकिव िहमालय के आसपास के रहने वाले
थे । बंगाल के िव ानों ने कािलदास को बंगाली िस करने का य िकया है और
कुछ लोगों ने उ क ीरी बतलाया है । इस िवषय म िन य के साथ कुछ भी कह
पाना किठन है िक कािलदास कहाँ के िनवासी थे। भारतीय किवयों की पर रा के
अनुसार उ ोंने अपने प रचय के िलए अपने इतने बड़े सािह म कहीं एक पं भी
नहीं िलखी। कािलदास ने िजन -िजन थानों का िवशेष प से वणन िकया है , उनके
आधार पर केवल इतना अनुमान लगाया जा सकता है िक कािलदास ने उन थानों को
भली भाँ ित दे खा था । इस कार के थान एक नहीं , अनेक ह ; और वे एक - दू सरे से
काफी दू र - दू र ह । िफर भी कािलदास का अनुराग दो थानों की ओर िवशेष प से
लि त होता है : एक उ ियनी और दू सरे िहमालय की उप का। इससे मोटे तौर पर
इतना अनुमान िकया जा सकता है िक कािलदास के जीवन का पया समय इन
दोनों थानों म तीत आ होगा।
और यिद हम इस जन ुित म स का कुछ भी अंश माने िक कािलदास
िव मािद की राजसभा के नवर ों म से एक थे, तो हमारे िलए यह अनुमान करना
और सुगम हो जाएगा िक उनका यौवनकाल उ ियनी के महाराज िव मािद की
राजसभा म तीत आ। िव मािद उ ियनी के नरे श कहे जाते ह । य िप
कािलदास की ही भाँ ित िव ानों म महाराज िव मािद के िवषय म भी उतना ही
गहरा मतभेद है ; िक ु इस स म अिव प से चली आ रही िव म संवत्
की अ खल भारतीय पर रा हमारा कुछ मागदशन कर सकती है । प े
ऐितहािसक िववाद माणों की ओर न जाकर इन जन ुितयों के आधार पर यह
माना जा सकता है िक कािलदास अब से लगभग 2, 000 वष पूव उ ियनी के
महाराज िव मािद की राजसभा के नवर ों म से एक थे ।
पर ु िव मािद की राजसभा म कािलदास का होना इस बात का माण नहीं
है िक उनका ज भी उ ियनी म ही आ था । उ कोिट के कलाकारों को
गुण ाहक राजाओं का आ य ा करने के िलए अपनी ज भूिम को ागकर दू र -
दू र जाना पड़ता ही है । कुछ िव ानों का अनुमान है िक मेघदू त के य कािलदास
यं ह और उ ोंने जो स े श मेघ को दू त बनाकर भेजा है , वह उनके अपने घर की
ओर ही भेजा गया है । मेघदू त का यह मेघ िव ाचल से चलकर आ कूट पवत पर
होता आ रे वा नदी पर प ं चा है । वहाँ से दशाण दे श , जहाँ की राजधानी िविदशा थी
, और वहाँ से उ ियनी । किव ने िलखा है िक उ ियनी य िप मेघ के माग म न
पड़े गी, िफर भी उ ियनी के ित किव का इतना आ ह है िक उसके िलए मेघ को
थोड़ा- सा माग ल ा करके भी जाना ही चािहए । उ ियनी का वणन मेघदू त म
िव ार से है । उ ियनी से चलकर मेघ का माग ग ीरा नदी , दे विग र पवत,
चम ती नदी , दशपुर , कु े और कनखल तक प ँ चा है , और वहाँ से आगे
अलकापुरी चला गया है । यह कनखल इसिलए भी िवशेष प से ान दे ने यो है ,
ोंिक ' अिभ ान शाकु ल' की सारी कथा इस कनखल से लगभग प ह -बीस
मील दू र मािलनी नदी के तीर पर क ा म म घिटत होती ह । कािलदास ने अपने
सभी का ों म गंगा और िहमालय का एकसाथ वणन िकया है । इससे तीत होता है
िक कािलदास का िहमालय के उन थानों के ित िवशेष मोह था , जहाँ िहमालय और
गंगा साथ- साथ ह । इस ि से यह कनखल का दे श ही एकमा ऐसा दे श है ,
जहाँ गंगा , िहमालय , मािलनी नदी पास ही पास आ जाती ह । यह ठीक िन य कर
पाना िक कािलदास िकस िविश नगर या गाँ व के िनवासी थे, शायद ब त किठन हो
। िक ु इस कनखल के आसपास के दे श के ित कािलदास का वैसा ही ेम
िदखाई पड़ता है , जैसा िक को उन दे शों के ित होता है , जहाँ उसने अपना
बा काल िबताया होता है । वहाँ की ेक व ु रमणीय और सु र तीत होती है ।
कािलदास को न केवल यहाँ के वन - पवत ही चे, ब यहाँ के िसंह , ा ,
शादू ल , वराह , ह रण आिद भी उनके का ों म अपना उिचत थान बनाए ए ह ।
यहाँ तक िक वहाँ की ओस से गीली झरबे रयों के बेर भी उनकी अमर रचना म थान
पा गए ह ।
कािलदास का गौरव
कािलदास एक थे या कई, इस िवषय म भी ल े िववाद म पड़ना हम अभी नहीं
है । जन ुितयों से िजस कार यह मालूम होता है िक कोई कािलदास िव मािद
की सभा म थे, उसी कार ' भोज ब ' म भोज की सभा म भी एक कािलदास का
उ ेख है । कुछ िव ानों ने तीन कािलदास माने ह । रखर ने भी िलखा है िक ' लिलत
ंगार की रचनाओं म एक ही कािलदास को कोई नहीं जीत सकता, िफर तीन
कािलदासों का तो कहना ही ा ! 1
कािलदास कौन थे और कब ए थे? इस िववाद को यहीं छोड़कर अब हम उनके
अमर नाटक ' अिभ ान शाकु ल' की ओर आते ह । कािलदास की रचनाओं की
शंसा उनके परवत किवयों ने मु कंठ से की है । एक किव ने कािलदास की
सू यों को मधुरस से भरी ई आ मंज रयों के समान बताया है 2 एक और किव ने
िलखा है िक ' किवयों की गणना करते समय कािलदास का नाम जब किनि का
अंगुली पर रखा गया, तो अनािमका के िलए उनके समान िकसी दू सरे किव का नाम
ही न सूझा ; और इस कार अनािमका अँगुली का अनािमका नाम साथक हो गया ।
आज तक भी कािलदास के समान और कोई किव नहीं आ ।'1 एक और आलोचक
ने िलखा है िक ' का ों म नाटक सु र माने जाते ह ; नाटकों म ' अिभ ान शाकु ल'
सबसे े है ; शाकु ल म भी चौथा अंक ; और उस अंक म भी चार ोक अनुपम ह

अिभ ान शाकु ल
' अिभ ान शाकु ल ' की शंसा केवल भारतीय आलोचकों ने ही की हो, यह
बात नहीं । िवदे शी आलोचकों ने भी शाकु ल का रसपान करके इसकी ुित के
गीत गाए ह । जमन किव गेटे ने ' अिभ ान शाकु ल ' का अनुवाद जमन भाषा म
पढ़ा था । शाकु ल का जो सौ य मूल सं ृ त म है , उसे अनुवाद म ों का ों ला
पाना अस व नहीं, तो दु ःसा अव है । हम मालूम नहीं िक जो जमन अनुवाद
गेटे ने पढ़ा था उसम शाकु ल का िकतना सौ य आ पाया था । िफर भी उसे
पढ़कर गेटे ने शाकु ल की जो आलोचना की , वह उसकी स दय भावुकता की
सूचक है । उसने िलखा, “ यिद तुम त ण वस के फूलों की सुग और ी ऋतु
के मधुर फलों का प रपाक एकसाथ दे खना चाहते हो; या उस व ु का दशन करना
चाहते हो िजससे अ ःकरण पुलिकत, स ोिहत , आन त और तृ हो जाता है ;
अथवा तुम भूिम और ग की झाँ की एक ही थान म दे खना चाहते हो , तो ' अिभ ान
शाकु ल ' का रसपान करो।'3 गेटे की आलोचना शाकु ल का सही मू ां कन
समझी जा सकती है । किव रवी ने भी शाकु ल की आलोचना करते ए िलखा है ,
" शाकु ल का आर सौ य से आ है और उस सौ य की प रणित मंगल म
जाकर ई है । इस कार किव ने म को अमृत से स कर िदया है ।'
' अिभ ान शाकु ल ' को िजस भी ि से दे खा जाए , यह िवल ण रचना तीत
होती है । इसकी कथाव ु , पा ों का च र -िच ण, नाटकीयता, सु र
कथोपकथन, इसकी का - सौ य से भरी उपमाएँ और थान - थान पर यु
ई समयोिचत सू याँ ; और सबसे बढ़कर िविवध संगों की ा कता इतनी
अद् भुत है िक इन ि यों से दे खने पर सं ृ त के भी अ नाटक ' अिभ ान
शाकु ल' से ट र नहीं ले सकते; िफर अ भाषाओं का तो कहना ही ा !
मौिलक न होने पर भी मौिलक
कािलदास ने ' अिभ ान शाकु ल' की कथाव ु मौिलक नहीं चुनी । यह कथा
महाभारत के आिदपव से ली गई है । यों प पुराण म भी शकु ला की कथा िमलती
है और वह महाभारत की अपे ा शकु ला की कथा के अिधक िनकट है । इस
कारण िव रिनट् ज़ ने यह माना है िक शकु ला की कथा प पुराण से ली गई है ।
पर ु िव ानों का कथन है िक प पुराण का यह भाग शकु ला की रचना के बाद
िलखा गया और बाद म ि तीत होता है । महाभारत की कथा म दु वासा के शाप
का उ ेख नहीं है । महाभारत का दु कािलदास के दु से यिद ठीक उलटा
नहीं, तो भी ब त अिधक िभ है । महाभारत की शकु ला भी कािलदास की
शकु ला की भाँ ित सल नहीं है । वह दु को िव ािम और मेनका के स
के फल प ए अपने ज की कथा अपने मुँह से ही सुनाती है । महाभारत म
दु शकु ला के प पर मु होकर शकु ला से गा व िववाह की ाथना
करता है ; िजस पर शकु ला कहती है िक म िववाह इस शत पर कर सकती ँ िक
राजिसंहासन मेरे पु को ही िमले । दु उस समय तो ीकार कर लेता है और
बाद म अपनी राजधानी म लौटकर जान -बूझकर ल ावश शकु ला को हण नहीं
करता । कािलदास ने इस कार अप र ृ त प म ा ई कथा को अपनी
क ना से अद् भुत प म िनखार िदया है । दु वासा के शाप की क ना करके
उ ोंने दु के च र को ऊँचा उठाया है । कािलदास की शकु ला भी
आिभजा , सौ य और क णा की मूित है । इसके अित र कािलदास ने सारी
कथा का िनवाह, भावों का िच ण इ ािद िजस ढं ग से िकया है , वह मौिलक और
अपूव है ।
ा क संकेत शकु ला म कािलदास का सबसे बड़ा चम ार उसके
ा क संकेतों म है । इसम किव को िवल ण सफलता यह िमली है िक उसने
कहीं भी कोई भी व ु िन योजन नहीं कही। कोई भी पा , कोई भी कथोपकथन ,
कोई भी घटना , कोई भी ाकृितक िन योजन नहीं है । सभी घटनाएँ या
आगे आने वाली घटनाओं का संकेत चम ा रक रीित से पहले ही दे दे ते ह । नाटक
के ार म ही ी -वणन करते ए वन - वायु के पाटल की
सुग से िमलकर सुग त हो उठने और छाया म लेटते ही नींद आने लगने और
िदवस का अ रमणीय होने के ारा नाटक की कथाव ु की मोटे तौर पर सूचना दे
दी गई है , जो मशः पहले शकु ला और दु के िमलन , उसके बाद नींद
- भाव से शकु ला को भूल जाने और नाटक का अ सुखद होने की सूचक है ।
इसी कार नाटक के ार क गीत म मरों ारा िशरीष के फूलों को ज़रा- ज़रा-
सा चूमने से यह संकेत िमलता है िक दु और शकु ला का िमलन अ थायी
होगा । जब राजा धनुष पर बाण चढ़ाए ह रण के पीछे दौड़े जा रहे ह , तभी कुछ
तप ी आकर रोकते ह । कहते ह : " महाराज, यह आ म का ह रण है , इस पर तीर
न चलाना ।' यहाँ ह रण से ह रण के अित र शकु ला की ओर भी संकेत है , जो
ह रण के समान ही भोली- भाली और असहाय है । ' कहाँ तो ह रणों का अ
चंचल जीवन और कहाँ तु ारे व के समान कठोर बाण!' इससे भी शकु ला की
असहायता
और सरलता तथा राजा की िन ठुरता का मम श संकेत िकया गया है । जब
दु और शकु ला का ेम कुछ और बढ़ने लगता है , तभी नेप से पुकार सुनाई
पड़ती है िक ' तप यो, आ म के ािणयों की र ा के िलए तैयार हो जाओ। िशकारी
राजा दु यहाँ
आया आ है ।' इसम भी दु के हाथों से शकु ला की र ा की ओर संकेत
िकया गया तीत होता है , पर ु यह संकेत िकसी के भी कान म सुनाई नहीं िदया;
शकु ला को िकसी ने नहीं बचाया । इससे थित की क णाजनकता और भी
अिधक बढ़ जाती है । चौथे अंक के ार क भाग म क के िश ने भात का
वणन करते ए सुख और दु ःख के िनर र साथ लगे रहने का तथा ि य के िवयोग म
यों के अस दु ःख का जो उ ेख िकया है , वह दु ारा शकु ला का
प र ाग िकए जाने के िलए पहले से ही पृ भूिम - सी बना दे ता है । पाँ चव अंक म
रानी हं सपिदका एक गीत गाती ह , िजसम राजा को उनकी मधुकर वृि के िलए
उलाहना िदया गया है । दु भी यह ीकार करते ह िक उ ोंने हं सपिदका से
एक ही बार ेम िकया है । इससे किव यह ग ीर संकेत दे ता है िक भले ही शकु ला
को दु ने दु वासा के शाप के कारण भूलकर छोड़ा , पर ु एक बार ार करने के
बाद रािनयों की उपे ा करना उसके िलए कोई नई बात नहीं थी । अ रािनयाँ भी
उसकी इस मधुकर- वृि का िशकार थीं । हं सपिदका के इस गीत की पृ भूिम म
शकु ला के प र ाग की घटना और भी ू र और कठोर जान पड़ती है । इसी कार
के ा क संकेतों से कािलदास ने सातव अंक म दु , शकु ला और उसके
पु के िमलने के िलए सुखद पृ भूिम तैयार कर दी है । इ राजा दु को अपूव
स ान दान करते ह । उसके बाद हे मकूट पवत पर जापित के आ म म प ँ चते
ही राजा को अनुभव होने लगता है िक जैसे वह अमृत के सरोवर म ान कर रहे हों ।
इस कार के संकेतों के बाद दु और शकु ला का िमलन और भी अिधक
मनोहर हो उठता है ।
का - सौ य
' अिभ ान शाकु ल ' म नाटकीयता के साथ - साथ का का अंश भी यथे
मा ा म है । इसम ंगार मु रस है ; और उसके संयोग तथा िवयोग दोनों ही प ों
का प रपाक सु र
प म आ है । इसके अित र हा , वीर तथा क ण रस की भी जहाँ - तहाँ
अ ी अिभ ई है । थान - थान पर सु र उपमाएँ और मनोहा रणी उ े ाएँ
न केवल पाठक को चम ृ त कर दे ती ह , िक ु अभी भाव की ती ता को बढ़ाने म
भी सहायक होती ह । सारे नाटक म कािलदास ने अपनी उपमाओं और उ े ाओं
का उपयोग कहीं भी केवल अलंकार- दशन के िलए नहीं िकया । ेक थान पर
उनकी उपमा या उ े ा अथ की अिभ को रसपूण बनाने म सहायक ई है ।
कािलदास अपनी उपमाओं के िलए सं ृ त - सािह म िस ह । शाकु ल म भी
उनकी उपयु उपमा चुनने की श भली भाँ ित कट ई । शकु ला के िवषय म
एक जगह राजा दु कहते ह िक ' वह ऐसा फूल है , िजसे िकसी ने सँघा नहीं है ।
ऐसा नवप व है , िजस पर िकसी के नखों की खरोंच नहीं लगी ; ऐसा र है , िजसम
छे द नहीं िकया गया और ऐसा मधु है , िजसका ाद िकसी ने चखा नहीं है ।' इन
उपमाओं के ारा शकु ला के सौ य की एक अनोखी झलक हमारी आँ खों के
सामने आ जाती है । इसी कार पाँ चव अंक म दु शकु ला का प र ाग करते
ए कहते ह िक 'हे तप नी, ा तुम वैसे ही अपने कुल को कलंिकत करना और
मुझे पितत करना चाहती हो , जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृ को तो
िगराती ही है , अपने जल को भी मिलन कर लेती है ।' यहाँ शकु ला की तट को
तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को करने म िवशेष
प से सहायक होती है । इसी कार जब क के िश शकु ला को साथ लेकर
दु के पास प ँ चते ह तो दु की ि उन तप यों के बीच म शकु ला के
ऊपर जाकर पड़ती है । वहाँ शकु ला के सौ य का िव ृत वणन न करके किव ने
उनके मुख से केवल इतना कहलवा िदया है िक ' इन तप यों के बीच म वह घूघट
वाली सु री कौन है , जो पीले प ों के बीच म नई कोंपल के समान िदखाई पड़ रही है
।' इस छोटी - सी उपमा ने पीले प े और कोंपल की सद ता के ारा शकु ला के
सौ य का पूरा ही िच ां कन कर िदया है । इसी कार सवदमन को दे खकर दु
कहते ह िक ' यह तापी बालक उस अि के ु िलंग की भाँ ित तीत होता है , जो
धधकती आग बनने के िलए ईंधन की राह दे खता है । ' इस उपमा से कािलदास ने न
केवल बालक की तेज ता कट कर दी , ब यह भी प से सूिचत कर
िदया है िक यह बालक बड़ा होकर महा तापी च वत स ाट् बनेगा । इस कार की
मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकु ल म से िदए जा सकते ह ोंिक
शाकु ल म 180 उपमाएँ यु ई ह और उनम से सभी एक से एक बढ़कर ह ।
यह ठीक है िक उपमा के चुनाव म कािलदास को िवशेष कुशलता ा थी और
यह भी ठीक है िक उनकी - सी सु र उपमाएँ अ किवयों की रचनाओं म दु लभ ह ,
िफर भी कािलदास की सबसे बड़ी िवशेषता उपमा - कौशल नहीं है । उपमा - कौशल
तो उनके का कौशल का एक सामा - सा अंग है । अपने मनोभाव को
करने अथवा िकसी रस का प रपाक करने अथवा िकसी भाव की ती अनुभूित को
जगाने की कािलदास अनेक िविधयाँ जानते ह । श ों का संगोिचत चयन, अभी
भाव के उपयु छ का चुनाव और ंजना श का योग करके कािलदास
शकु ला के सौ य- वणन पर उतरे ह , वहाँ उ ोंने केवल
उपमाओं और उ े ाओं ारा शकु ला का प िच ण करके ही स ोष नहीं
कर िलया है । पहले - पहल तो उ ोंने केवल इतना कहलवाया िक ' यिद तपोवन के
िनवािसयों म इतना प है , तो समझो िक वन - लताओं ने उ ान की लताओं को मात
कर िदया।' िफर दु के मुख से उ ोंने कहलवाया िक ' इतनी सु र क ा को
आ म के िनयम - पालन म लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का
पेड़ काटना ।' उसके बाद कािल / दा / स कहते ह िक ' शकु ला का प ऐसा
मनोहर है िक भले ही उसने मोटा व ल व पहना आ है , िफर भी उससे उसका
सौ य कुछ घटा नहीं, ब बढ़ा ही है । ोंिक सु र को जो भी कुछ
पहना िदया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है । उसके बाद राजा शकु ला की
सुकुमार दे ह की तुलना हरी- भरी, फूलों से लदी लता के साथ करते ह , िजससे उस
िवल ण सौ य का प पाठक की आँ खों के सामने िचि त - सा हो उठता है ।
इसके बाद उस सौ य की अनुभूित को चरम सीमा पर प ँ चाने के िलए कािलदास
एक मर को ले आए ह ; जो शकु ला के मुख को एक सु र खला आ फूल
समझकर उसका रसपान करने के िलए उसके ऊपर मंडराने लगता है । इस कार
कािलदास ने शकु ला के सौ य को िचि त करने के िलए अलंकारों का सहारा नहीं
िलया, िजतना िक ंजनाश का ; और यह ंजना- श ही का की जान मानी
जाती है ।
कािलदास की सौ य - धारणा
कािलदास ने केवल शारी रक सौ य को ही सब कुछ नहीं माना । शारी रक
सौ य थ और अनाकषक बन जाता है , यिद उसके साथ ही साथ मानिसक सौ य
भी न हो । यिद शकु ला शारी रक ि से तो सु र होती , पर ु भाव से कुिटल,
ई ालु या कटु भािषणी होती, तो वह कािलदास की नाियका न बन पाती । कािलदास
ने शरीर - सौ य को मानिसक सौ य के साथ िमलाकर अद् भुत लाव - सृि की
है । उनकी शकु ला तपोवन म रही है , इसिलए नगरों म होने वाले छल - पंचों से
वह अप रिचत है । ेह उसके मन म लबालब भरा है । आ म के पौधों और बेलों को
िबना सींचे वह यं पानी भी नहीं पीती । आ म के मृग उसके साथ खूब प रिचत ह
और उससे वह भाई- बिहन का - सा और यहाँ तक िक पु का - सा ेम करती है ।
उसकी ि यंवदा और अनसूया स खयाँ उसके समान ही सरल और मधुर भाव की
ह । दू सरों के क ों को कम करना ही जैसे इनके जीवन का एकमा काय है । दू सरे
को दु ःख दे ना या सताना आ म के िनयमों के ितकूल है । इस सरलता, मधुरता, सेवा
और ेह की वृि ने शकु ला को एक िवल ण आ रक सौ य दान िकया
है , जो उसके अनुपम बा सौ य से भी बढ़कर है ।
कािलदास संग के अनुसार कहीं तो िव ृत वणन ारा भाव को जा त करते ह
और कहीं ब त ही संि - सी टकोर दे कर उसे ंजना- श से ही कट कर
दे ते ह । जैसे शकु ला को दे खकर दु कहते ह , ' अहा ! आँ खों को चैन पड़ गया
है ।' इस एक वा से ही आँ खों को शीतल कर दे ने वाले शकु ला के मनोहारी प
का आभास पाठक को हो जाता है । इसी कार दु और शकु ला का
ेमालाप भी कािलदास ने संि ही
रखा है । िक ु भावािभ की ि से इसे संि नहीं कहा जा सकता । जब
दु तपोवन से िवदा लेकर अपनी राजधानी म लौट आए और उ ोंने शकु ला
की कोई खबर नहीं ली , तो उस संग म िवरह - था को कट करने के िलए ब त
कुछ िलखा जा सकता था या शकु ला के मुख से कहलवाया जा सकता था पर ु
कािलदास ने इसके िलए कुछ भी उ ोग नहीं िकया । केवल दु वासा के आगमन और
शकु ला के दु के ान म म होने के कारण उनकी अवहे लना ारा ही
शकु ला की क णाजनक मनोदशा की झाँ की दे दी । इसी कार पितगह को जाते
समय शकु ला की था तथा क और स खयों का ेह ब त ही संि
ंजनाओं म कट आ है । जब दु की राजसभा म राजा ने शकु ला को
िनरादरपूवक ाग िदया, उस समय शकु ला के िविभ मनोभाव भय , ल ा,
अिभमान , अनुनय, भ ना और िवलाप सभी कुछ किव ने िचि त िकए ह । पर ु
उनके िलए श ब त ही प रिमत य िकए गए ह । िजस शकु ला ने िव ास के
साथ सरल भाव से अपने - आपको दु को समिपत कर िदया था , वह ऐसे दा ण
अपमान के समय अपनी सल मयादा की र ा कैसे करे गी, यह एकाएक पाठक के
िलए क ना कर पाना स व नहीं होता । पर ु कािलदास ने इस प र थित का
िनवाह महाकिव की कुशलता के साथ िकया है । इस प र ाग के उपरा की
नीरवता और भी अिधक ापक, ग ीर और भावशािलनी है । इतनी बड़ी दु घटना
हो जाने पर भी क मूक रहते ह , ि यंवदा और अनसूया - सी ेहमयी स खयाँ ा
करती ह , कुछ पता नहीं चलता । क ा म की वन दे वलताएँ भी िन े हती ह और
यं शकु ला भी मानो नीरवता की मूित - सी बनकर रह जाती है । दय की
भावनाओं को जगाने के िलए ऐसी नीरव िन े ता का योग हम अ कहीं िदखाई
नहीं पड़ता । पा और च र -िच ण
कािलदास ने अपने पा ों के च र -िच ण म भी िनपुणता दिशत की है । यों
नाटक के मु पा शकु ला और दु ह , िक ु ि यंवदा, अनसूया और माध
भी नाटक म मह पूण भाग लेते ह । इनके अित र शा रव, गौतमी, धीवर और
सूचक तथा जानुक नाम के िसपािहयों के च र भी सं ेप म , िक ु ता के साथ
िचि त ए ह । शकु ला हमारे स ुख एक अभागी सु री के प म कट होती है
उसका ज महा तापी ऋिष िव ािम तथा अ रा मेनका से आ है । उसका प
िवल ण है । िक ु ज काल से ही उसे माता की गोद से अलग रहना पड़ा । अपना
बा काल तपोवन म िबताने के कारण उसम अनेक सदगुण आ गए ह । ेह, ममता
और सेवा की भावना उसके रोम - रोम म समा गई । दु से गा व िववाह कर लेने
के बाद भा उस पर िफर होता है । दु शापवश उसे भूल जाते ह और
उसका ाग कर दे ते ह । इस अवसर पर उसका एक और प भी िदखाई पड़ता है ,
िजसम वह राजा की िव ासघातकता के िलए उनकी उ प म भ ना करती है ।
िक ु भारतीय पर रा के अनुसार वह दु के िलए कोई अिहतकामना नहीं
करती और न इसका कुछ ितशोध ही चाहती है । नाटक के अ म हम उसकी
माशीलता का एक
और नया प िदखाई दे ता है । दु ारा िकए गए सारे िनरादर और ितर ार
को वह खुले दय से मा कर दे ती है ; और जीवन म यह मा ही सम मंगल की
मूल है । प रणाम प दु , शकु ला और सवदमन का मंगलमय िमलन होता
है ।
दु का च र कािलदास को महाभारत से अप र ृ त प म ा आ।
महाभारत के दु कािलदास के नायक बनने यो नहीं । जान - बूझकर
िव ासघात करने वाला ा का पा नहीं हो सकता । इसिलए कािलदास को
दु वासा के शाप की कथा आिव ृ त करनी पड़ी । इसके प ात् दु एक धीरोदा
नायक के प म हमारे सामने आते ह । वे तापी और परा मी ह । लिलत कलाओं
के मम ह , यं कुशल िच कार ह , ऋिष -मुिनयों के ित उनके मन म स ान है ।
वे धमपरायण ह । शकु ला की अिभलाषा करने से पहले वे यह जान लेना चाहते ह
िक वह अिववािहता है या नहीं; और साथ ही यह भी िक जाित की ि से उनके साथ
उसका िववाह हो पाना स व है या नहीं । इसके बाद भी दु के च र म कुछ
ऐसी दु बलताएँ भी ह , जो यिद मनु म न हों तो वह दे वता बन जाए । कािलदास के
दु मनु ह । वे मयादापु षो म राम की भाँ ित नहीं ह । सौ य पर वेिफसल
जाते ह । शकु ला को लता -कुंजों की आड़ म से दे खने म उ बुराई नहीं मालूम
होती । ि यंवदा और अनसूया के पूछने पर अपना गलत प रचय दे ना भी उ
अनुिचत नहीं लगता । शकु ला के ेम म फँसकर वे माता की आ ा को टाल जाते ह
और माध को राजधानी लौटाते समय उससे झूठ भी बोलते ह । शकु ला से
गां धव-िववाह करने के बाद भी उनम इतना साहस नहीं है िक वे क के आने तक
िटके रह । उससे पहले ही वे ह नापुर लौट जाते ह । यह सब दु की मानवीय
दु बलताओं का ही प है । राजधानी म आकर वे शकु ला को भूल जाते ह । यिद
इसम दु वासा का शाप कारण न होता, तो इसम दु की ऐसी नीचता सूिचत होती,
िजसके समथन म कुछ भी न कहा जा सकता। पर ु कािलदास ने उ उस कलंक
से बचाकर धीरे - धीरे उनके च र को इतना ऊँचा उठाया है िक वे भारतीय समाज
के अ िधक आदरणीय यों म िगने जा सकते ह । शकु ला को दे खकर वे
मु अव ए ह , िक ु हर ी की ओर घूरना उनके भाव म नहीं है । पाँ चव
अंक म किव ने उनके मुख से कहलवाया है , ' पराई- ी की ओर नहीं दे खना
चािहए।' और सातव अंक म कहलवाया है िक ' पराई ी के िवषय म पूछना-ताछना
ठीक नहीं ।' शकु ला को वह केवल इसिलए ाग दे ते ह , ोंिक उ स े ह है िक
वह िकसी अ की प ी है , यहाँ तक िक ितहारी को भी यह कहना पड़ता है िक '
हमारे महाराज िकतने धमपरायण है ! नहीं तो ऐसे सु र प को दे खकर और कौन
ऐसा है , जो पल - भर भी िवचार करे ? ' छठे अंक म राजा की कत परायणता िचि त
की गई है । शकु ला के िवरह म वे अ िधक ख ह । दु ःख के कारण उ ोंने
वसंतो व कवा िदया है , िफर भी वे अपने रा का सारा काय दे खते - भालते ह ।
उ ोंने ापारी धनिम की मृ ु के अवसर पर यह घोषणा करवा दी है िक ' जा म
से िजस िकसी का कोई इ ब ु मर जाए , पािपयों के अित र अ सब लोग
अपना वह ब ु दु को ही समझ ल ।' अपनी जा के दु ःख को अपने दु ःख म
िमला लेने का उनका यह काय उनकी िवशाल दयता का सूचक है ।
इन दो च र ों के अित र कािलदास ने ेहशील िपता क और ेहमयी,
दू रदिशनी, वहारकुशल और मधुरभािषणी अनसूया और ि यंवदा का भी िच ण
िकया है , िक ु ये दोनों स खयाँ चौथे अंक के बाद नाटक के रं गमंच पर एक बार भी
नहीं आतीं । िवदू षक माध नाटक की िढ़यों के अनुसार ही डरपोक , भोजनि य
और प रहासशील है । द र धीवर और िब ु ल आज के - से िसपािहयों का िच ण
भी सु र बन पड़ा है ।
इस नाटक म कािलदास ने सािह - शा के सब िनयमों का पूरा पालन िकया
है । ब कभी- कभी तो यह स े ह होने लगता है िक सािह - शा के नाटक -
स ी िनयम कहीं इस तथा ऐसे ही अ दो -एक नाटकों के आधार पर तो नहीं
बना िदए गए ।
उस काल की सामािजक और राजनीितक दशा
' अिभ ान शाकु ल ' से हम कािलदास के समय की प र थितयों का ब त कुछ
आभास िमल जाता है । इसम अपने समय की सामािजक, राजनीितक तथा धािमक
जीवन की िविभ दशाओं के स े िच उप थत िकए गए ह । उस समय राजा तथा
अ समृ अनेक यों से िववाह िकया करते थे। पु ष यों के साथ
स ानपूवक वहार करते थे । पु का न होना बुरा माना जाता था । पित का प ी
पर पूरा अिधकार होता था । उस समय क ाएँ िशि त होती थीं और उनका िववाह
बड़ी आयु म होता था । उ कुलों की याँ सामा लोगों के सामने िबना परदा
िकए नहीं िनकलती थीं । इसी कारण शकु ला भी दु की राजसभा म घूघट
िनकालकर ही िव ई थी । यों को सामा पढ़ाई -िलखाई के अित र अ
कलाओं की भी िश ा दी जाती थी । उस समय के लोग शकुन - अपशकुनों का
काफी िवचार करते थे। थान- थान पर तपोवन और आ म होते थे, िजनकी र ा
राजा को करनी पड़ती थी । इन तपोवनों का वातावरण शा और पिव था । इन
तपोवनों म इस बात पर िवशेष ान रखा जाता था िक िकसी भी ाणी को सताया न
जाए । इन तपोवनों के िनवासी नाग रक लोगों से िभ कार का जीवन तीत करते
थे । यह जीवन कठोर और तप ापूण होता था । नाग रक लोग रे शमी व तथा अ
आभूषण धारण करते थे, िक ु तपोवन म व ल व ही पहने जाते थे और
आभूषणों का योग नहीं होता था । मालूम होता है िक उस समय वणा म - व था
चिलत थी । वै लोग समु - या ाओं ारा धनसंचय करते थे; ि य राजा रा की
र ा और दु ों के दमन म त र रहते थे; ा ण लोग य इ ािद धािमक कृ ों म
लगे रहते थे । पर रागत वसाय चाहे बुरा ही ों न हो , िफर भी िन नीय नहीं
समझा जाता था । राजा अपनी जा का पालन स ान के समान करते थे। लोग
गृह था म पूरा करने के बाद वान थी हो जाते थे । राजा कर के प म अपनी जा
से आय का छठा भाग लेता था । यिद कोई िनःस ान मर जाए, तो उसकी
स ि राजकोष म चली जाती थी । राजा लोग भी वृ हो जाने पर पु को रा
सौंपकर वान थी हो जाते थे। उस समय के पुिलस अिधकारी भी आजकल के पुिलस
अिधका रयों के समान ही र तखोर थे और अपराधी या िनरपराध का िवचार िकए
िबना अिभयु ों को सताने म आन लेते थे ।
कािलदास मु तया सौ य ेमी किव ह । उ जहाँ कहीं भी सौ य िदखाई
पड़ा है , उसका िच ण उ ोंने िकया है । कृित तथा आकृित , इस कार के सौ य
के वणन म उनकी वृि खूब रमी है । कािलदास की सभी रचनाओं का मु िवषय
ंगार है । कहा जाता है िक शंगार के लिलत वणन म कािलदास से ट र कोई भी
किव नहीं ले सकता। शंगार रस का थायी भाव ेम या रित होता है । सौ य और
ेम का लगभग साहचय ही है । सौ य ेम को जगाता है और ेम असु र को भी
सु र बना दे ता है । कािलदास ने िजस सौ य का अपने किव - ने ों से सा ा ार
िकया था , वह सृि के अनेक पों म सव ा है । मानव- सौ य उसका केवल
एक अंग है । कािलदास ने न केवल शाकु ल म , ब ' कुमारस व ' और '
रघुवंश' म भी नारी - सौ य की उपमा लताओं और पु ों से दी है । है िक
कािलदास की ि से सौ य जड़, चेतन सभी म समान प से ा था ।
कृित - ेम कािलदास का कृित के ित बड़ा गहरा अनुराग है । कृित के साथ
ऐसी गहरी आ ीयता हम अ थोड़े ही किवयों म उपल होती है । शाकु ल म न
केवल ह रण और मोर शकु ला के सहचर ह , ब वहाँ की वन ो ा लता
उसकी बिहन है , िजसका िववाह एक आम के पेड़ से कराया गया है । वहाँ के पौधों से
उसे सगे भाइयों का - सा ेह है । कािलदास की इस ा दश ' किव - क ना ' के
पीछे कुछ गहरा स िछपा िदखाई पड़ता है । साथ रहते-रहते पशु-प ी मनु ों से
प रिचत हो जाते ह । वे उनसे ेह करने लगते ह ,
और ऐसे उदाहरण कम नहीं ह , जहाँ िक ये प रिचत पशु- प ी अपने साथ रहने
वाले मनु ों के सुख - दु ख म िह ा बँटाते दे खे जाते ह ।
पर ु अब यह असंिद प से मािणत हो चुका है िक वृ ों और लताओं म भी
वैसा ही जीवन है , जैसा पशु - पि यों और मनु ों म । ये व भी सुखी और दु ःखी होते
ह । तो ा यह स व नहीं है िक दे र तक साथ रहने के कारण ये जीिवत वृ और
लताएँ भी मानव - ािणयों के साथ उसी कार प रिचत हो जाएँ और सुख - दु ःख म
सहानुभूित जताएँ , जैसा पशु और प ी करते ह ?
कािलदास ने इस एका कता को भली - भाँ ित अनुभव िकया था । इसीिलए
उनके वणनों म मानव और कृित एक - दू सरे से इतने घिन प से गुंथे ए ह िक
दोनों का सौ य अलग - अलग कर पाना किठन है । सभी जगह कृित मानव-
सौ य की होड़ करने के िलए आ प ँ चती है । नारी- दे ह को फूलों से लदी चलती-
िफरती बेल की उपमा कािलदास को ब त ची थी । इसका उ ोंने कई थानों पर
योग िकया है । वन के फूल कहीं तो उनकी नाियकाओं के अंगों से होड़ लेने लगते ह
और िफर कहीं वे ही उनकी नाियकाओं के ंगार की साम ी बनकर उनकी शोभा -
वृ करने लगते ह ।
कािलदास की कृित मनु की भावनाओं के साथ पूरी सहानुभूित कट करती
है । जब शकु ला का दय क ा म से िवदा होते समय शोक से उ िसत हो उठा
, तब वहाँ के मोरों ने नाचना ब कर िदया ; ह रिणयों ने न केवल घास चरनी ही ब
कर दी , ब
शोर के मारे आधी चबाई घास को भी उगलकर खड़ी रह गईं । लताओं से पीले
प े झरने लगे । जब क ने आ म के वृ ों से शकु ला को पित के घर जाने की
अनुमित दे ने को कहा, तो उ र म कोयल ने पंचम र म कूककर उसे जाने की
अनुमित दी । उसके पाले ए ह रण ने पीछे से आकर उसका आँ चल पकड़ िलया ;
जैसे जाने ही न दे ना चाहता हो । सारे ' अिभ ान शाकु ल ' म माधवी लता, मर ,
चकवा - चकवी, ह रण, आम की मंज रयाँ और लताएँ उतना ही थान घेरकर खड़ी ह
, िजतना अ मानव - पा । व ुतः शाकु ल नाटक के पा ों की गणना करते समय
इनकी भी गणना करना उिचत है । जो थान ि यंवदा और अनसूया का है ,
वन ो ा का उससे कुछ कम नहीं । कृित के साथ मानव की यह एका कता
कािलदास के हाथ म आकर का का अ सरस और मम शी आधार बन गई
है ।
इसके अित र कािलदास ने मनु - भाव और बा कृित के ों म
िविच सामंज थािपत िकया है । एक ओर दु शकु ला से अ कालीन ेम
के बाद उसका प र ाग कर दे ते ह , दू सरी ओर मर िशरीष के कुसुमों को ण-
भर चूमने के बाद छोड़कर कहीं और उड़ जाते ह । इसी कार एक ओर दु के
िवरह म शकु ला ख और उदास हो गई है , तो दू सरी ओर च मा के िछप जाने
पर कुमुिदनी की का भी मिलन हो गई है । इस कार मानव - भावनाओं और
ाकृितक ों के पर र सा से भी कािलदास ने भावों की सु र ंजना की है

श -िच
कािलदास ने अनेक थानों पर बड़े सु र - से िच खींचे ह । उनके श -िच
उनकी शैली की एक और िवशेषता है । श -िच ुत करते ए कािलदास का
सारा ान इस बात पर रहता है िक उन बातों का िवशेष प से वणन कर िदया जाए
, जो सं ेप म अिधक से अिधक प म व ु का प आँ खों के सामने िचि त
कर सक । पहले अंक म िशकारी के तीर से डरकर भागते ए ह रण का वणन
दे खए । ' यह ह रण बार- बार गदन मोड़कर पीछे की ओर रथ को दे खने लगता है
और िफर चौकड़ी भरने लगता है । तीर लगने के भय से उसके शरीर का िपछला
आधा भाग मानो अगले आधे भाग म फँसा- सा जा रहा है । दौड़ने की थकान से
उसका मुँह खुल गया है और उसम से अधचबी घास के ितनके रा े म िगर रहे ह ।
उसकी चाल ऐसी तेज़ है िक वह मानो आकाश ही आकाश म उड़ा चला जा रहा है ।'
इस वणन के ारा कािलदास ने जान बचाकर चौकड़ी भरते ए ह रण का जीता-
जागता िच हमारे सामने खींच िदया है । इसी कार क ा म के पास प ँ चते ए
राजा िजन प र थितयों को दे खकर क ा म का अनुमान कर लेता है , वे भी तपोवन
के िच के समान ही ह । ' पेड़ों के खोखले कोटर म तोते िनवास करते ह । उनके
ारा लाए गए धान के दाने खोखलों म से िगरकर पेड़ों की जड़ों के पास िबखर गए ह
। कहीं ऋिषयों ने प रों से इं गुदी के फल तोड़े ह िजनसे प र िचकने हो गए ह ।
और ये िचकने प र जगह- जगह िबखरे पड़े ह । इस दे श के ह रण मनु की
अथवा रथ की आवाज़ को सुनकर भयभीत
होकर भागते नहीं ह , ोंिक वे मनु ों से प रिचत तीत होते ह । और नदी से
जल लाने के रा े पर व ल व ों के छोर से चूने वाले जल -िब दुओं की पं याँ
बनी िदखाई पड़ रही ह ।' इसी कार जब ि यंवदा ने शकु ला से कहा िक ' तुझ पर
मेरे दो जलिसंचन चढ़े ए ह , उ उतारकर जाना' तो दु कहने लगे िक ' यह तो
पहले से ही पेड़ों को सींचने के कारण थकी िदखाई पड़ रही है ।' अब वृ ों को सींचने
से थकी ई सु री का िच दे खए । ' क े ज़रा नीचे को झुक गए ह । घड़ा उठाने के
कारण हथेिलयाँ खूब लाल हो उठी ह । साँ स तेज़ी से चल रही है , िजसके कारण न
िहलते ए- से दीख रहे ह । कान पर शंगार के िलए जो िशरीष का फूल पहना गया था
, उसकी पंखु रयाँ मुँह पर आए ए पसीने की बूंदों के कारण गालों से िचपक गई ह ।
जूड़ा खुल गया है , इसीिलए उसने एक हाथ से अपने बालों को संभाला आ है ।' िकसी
भी िच कार के िलए इस प र ा ा शकु ला का िच खींचने के िलए यह वणन
पया है । इस कार का वणन केवल वही कलाकार कर सकता है । िजसने या तो
शकु ला का िच यं बनाया हो अथवा ब त ही प म अपने मानसच ुओं
से दे खा हो । कािलदास ने अपने नायक दु को िच कार के पम ुत िकया
है । उसकी िच कला की सु िच को दिशत करने के िलए छठे अंक म कािलदास ने
एक ोक िदया। दु ने शकु ला का एक िच बनाया है । िच ब त सु र बना
है । िच को दे खने पर उसके वा िवक होने का म होता है । दु ने उसम
अनेकानेक सुधार कए ह , िफर भी उ िकसी तरह यह स ोष नहीं हो रहा है िक
यह पूरा हो गया । अभी उसम ब त कुछ बनाने को शेष है । पूछने पर वह बताते ह
िक ' अभी इसम मािलनी नदी िचि त करनी है , िजसकी रे ती म हं सों के जोड़े बैठे ए
हों । उस मािलनी नदी के दोनों ओर िहमालय की तराई िचि त करनी है , िजसम
ह रणों का झु िव ाम कर रहा हो । एक पेड़ बनाना है , िजसके ऊपर व ल व
लटके ए हों और उस वृ के नीचे एक काले ह रण के सींग से अपनी बाईं आँ ख को
खुजाती ई एक ह रणी बैठी हो । इसके साथ ही शकु ला के कानों म गालों तक
झूलते ए िशरीष के फूल और छाती पर नों के बीच म शरद् ऋतु के च मा की
िकरणों के समान सुकुमार कमलनाल की माला भी िचि त करनी है ।' इन वणनों से
जहाँ पाठक के स ुख कािलदास अपने नायक की कुशल िच का रता कट करने
म सफल ए ह , वहाँ आलोचक की ि म यह बात भी हो जाती है िक
कािलदास यं भी िनपुण िच कार थे; अ था ऐसी सू िव ार की बातों का वणन
करना उनके िलए किठन हो जाता । इस कार के िच मय संग शाकु ल म अनेक
ह और कािलदास की अ रचनाओं म तो भरे ही पडे ह ।
सरल और सरस भाषा
सं ृ त म अ सरल , मधुर और ां जल शैली वैदभ या पां चाली रीित
कहलाती है । कािलदास अपनी वैदभ रीित के िलए िस ह । उनकी भाषा सव
सरल , ाथक और मधुर है । व ुतः जो िवपय उ ोंने अपने का के िलए चुने ह
, उनम माधुय होना ाभािवक ही था । पर ु जैसी प रमािजत और सादगुणयु
भाषा कािलदास की है , वैसी सं ृ त के
किवयों म एक की भी नहीं है । इस भाषा की िवशेषता यह है िक इसका अथ
पढ़ने के साथ ही हो जाता है । दू रा य, ाथता इ ािद दोष इसम नहीं ह ।
जगह - जगह उ ोंने संि , चुटीले और मुहावरे दार वा ों का भी योग िकया है ,
िजनसे भाषा म जान पड़ गई है ; जैसे ि यंवदा शकु ला से कहती है , " तुमने ठीक
जगह ेम िकया ! भला महानदी सागर के अित र और उतरे गी भी कहाँ ? आ
वृ के अित र प ों से लदी माधवी लता को संभाल भी कौन सकता है ? ' या एक
और जगह अनसूया ने शकु ला से कहा है : “ शरीर को शा दे ने वाली
शरद ो ा की चादर ओढ़कर कौन ढां पता है ? ' इस कार के योग शकु ला म
एक नहीं, अनेक ह । 'नवम का की बेल को उबलते पानी से कौन सींचता है ? ' '
सब लोग अपने सजाितयों का ही िव ास करते ह । तुम दोनों ही वनवासी हो न ! ' '
अनु ह इसी को कहते ह िक सूली से उतारा और हाथी पर चढ़ा िदया ।' इ ािद ।
इसके अित र कािलदास ने औिच की ि से इस बात का भी ान रखा है
िक अपने कथोपकथनों की भाषा उ ोंने पा ों के अनुकूल रखी है । ऋिष- मुिनयों के
मुख से उनके अनु प ही बात कहलवाई गई ह । शकु ला के गा विववाह की बात
म अनुमित दे ते ए महिष क कहते ह : ' यजमान की आँ ख तो धुएँ से परे शान थीं,
िफर भी सौभा से उसकी आ ित आग म जाकर िगरी ।' इसी कार एक और जगह
वे कहते ह : " बेटी , अ े िश को दी गई िव ा की भाँ ित तेरे िलए अब मुझे कोई
शोक नहीं है ' इसी कार राजा और िवदू षक के कथोपकथन भी उनकी अपनी कृित
तथा प र थितयों के अनुकूल ह । सातव अंक म महा ा क प के आ म म
प ँ चकर सारा वातावरण अध- अलौिकक - सा हो उठता है और क प तथा अिदित
के कथोपकथन भी उनके अनु प ही रखे गए ह ।
सु िचपूण हा ' अिभ ान शाकु ल' म सु िचपूण हा भी काफी मा ा म है ।
इसम केवल िवदू षक ही हा जनक बात नहीं करता, ब अवसर पाकर अ पा
भी िवनोद -प रहास करते ह , जैसे पहले ही अंक म शकु ला अनसूया से कहती है :
'ि यंवदा ने मेरी अंिगया ब त कसकर बाँ ध दी है ; इसिलए उसे थोड़ा ढीला कर दो ।'
इस पर ि यंवदा ताना दे ती है : ' उलाहना मुझे ा दे ती हो ? अपने यौवन को दो ,
िजसने तु ारे उरोजों को बड़ा कर िदया है ।' छठे अंक म धीवर, कोतवाल और
िसपािहयों का वातालाप भी िवनोदपूण है । पर ु हा का मु भार प रपाटी के
अनुसार िवदू षक माध के िसर ही पड़ा है । माध ारा ुत हा भी िश तथा
संयत है । माध का पेटपन कािलदास ने स वतः केवल िढ़ के पालन के िलए
रखा है । पर ु यह पेटूपन नाटक का कुछ रोचक अंग नहीं बन सका । ंगार और
ेम शाकु ल म ंगार रस धान है । ंगार का आधार ेम है । ेम के िवषय म
कािलदास की कुछ अपनी ही धारणाएँ ह । उनकी ये धारणाएँ हम ' कुमारस व ', '
मेघदू त ' तथा उनके अ
सभी ों म एक ही जैसी ा होती ह । कािलदास ने शारी रक सौ य को ही
ेम का सव नहीं माना । केवल सौ य के आधार पर िजस ेम का ज होता है ,
उसे वे काम या वासना समझते ह । उसके ित उनकी रचनाओं म कहीं भी आदर
दिशत नहीं िकया गया । सौ य की ल दीपिशखा को दे खकर पतंगे की भाँ ित
मु होकर जब पु ष काम के वशीभूत हो जाता है , उसका प रणाम कािलदास ने
सभी जगह हा ा द िदखाया है । इस कार का ेम ण थायी होता है । इसिलए
कािलदास की ि म ऐसा ेम मंगलकारी नहीं है । ऐसे काम को िशव के कोपानल म
जलकर राख हो जाना पड़ता है । पावती केवल अपने प से िशव को मु करने गई
थी , पर ु उसम ल ा और अपमान के िसवाय कुछ हाथ न आया । इसिलए बाद म
उसने तप ा ारा अपने प को सफल बनाने का य िकया और उसे सफलता भी
िमली । यही बात हम ' अिभ ान शाकु ल' म भी िदखाई पड़ती है । केवल सौ य के
वशीभूत होकर राजा के मन पर ेम का उ ाद ण थायी रहा । दे खते -दे खते
शरदऋतु के मेघ की भाँ ित न जाने िकस ओर िवलीन हो गया । उसके बाद जब अ
गहरे आधार पर ेम का ज आ तब उ ोंने शकु ला को दु बारा हण िकया ।
यह प रचयपूवक , जान - बूझकर एक - दू सरे के दोषों के समेत जो एक -दू सरे का
ेमपूवक अंगीकार है , वही कािलदास की ि म मंगलमय है । कािलदास ने ेम को
पूवज का सं ार माना है । इसिलए शाकु ल म एक थान पर उ ोंने कहा है िक
' सु र ों को दे खते ए और मधुर श ों को सुनते ए भी जो का मन
एकाएक उदास हो जाता है , उसका कारण यही है िक उसे पूवज के ेह - स
याद आ रहे होते ह ।'
'िजस ेम म कोई ब न नहीं, कोई िनयम नहीं , जो ेम नर-नारी को अक ात्
मोिहत करके संयमदु ग के भ ाचीर पर अपनी जयपताका फहराता है , उस ेम की
श को कािलदास ने ीकार िकया है । उ ोंने बताया है िक असंयत ेम- स ोग
ािमशाप से ख त , ऋिषशाप से ितहत और दे वरोष से भ हो जाता है ।
दु और शकु ला का ब नहीन रह िमलन िचरकाल तक शाप के अ कार म
लीन रहा । शकु ला को आित धम के पालन का िवचार नहीं रहा । वह केवल
दु के ही ान म म रही । उस समय शकु ला के ेम का मंगलभाव िमट गया
। दु वासा के शाप और शकु ला के ा ान ारा किव ने यह थापना की है िक
जो उ त ेम अपने ेमपा को छोड़कर अ िकसी की कुछ भी परवाह नहीं करता
, उसके िव सारा संसार हो जाता है । इसी से वह ेम थोड़े ही िदन म दू भर हो
उठता है ।'
( रवी ) ___ कािलदास के अनुसार ेम का उ म और अभी प वही है , जो
संसार के सम कत ों का पालन करते ए जीवन का एक अंग -मा बनकर रहे ,
जीवन का सव न बन जाए । जो अ कार म काश की भाँ ित राह तो िदखाता हो ,
िक ु ऐसा काश न हो, जो आँ खों पर ही पड़कर उ चुंिधया दे ता हो । उनके
मतानुसार ेम की साथकता िववाह म और िववाह की साथकता स ान - जननके
पावन ापार म है । स ूण ' कुमारस व' महाका इसी कुमारज की भूिमका
है । कामदे व के शर - हार से अधीर होकर जो ेम -िमलन होता है , उसम पु ज
के उपयु पिव ता नहीं है । उसम एक - दू सरे की कामना तो है , पर ु
तीसरे (पु ) की कामना नहीं है । इससे कािलदास ने कामदे व को भ करवाकर
पावती से तप ा कराई है । यही बात ' अिभ ान शाकु ल ' म भी कुछ बदले प म
िदखाई पड़ती है । कािलदास के आदश
कािलदास आदश ुख किव ह । य िप उनकी रचनाओं म हम ंगार का िवशद
और िव ृत िच ण िमलता है , िक ु वह इसिलए िक ेम और ंगार की भावना
मनु की ती तम और ग ीरतम भावनाओं म से एक है । पर ु िजस कार मानव -
जीवन ंगार- मा नहीं, उसी कार कािलदास के का की प रसमा ंगार पर
ही नहीं हो जाती । उनकी समा जाकर होती है वैरा पर । हमारी भारतीय
सं ृ ित म मानव - जीवन को चय, गृह थ , वान थ और सं ास, इन चार भागों
म बाँ टा गया है । बा काल भात के समान अ ण और मधुर होता है । यौवन नए
काश और उ ल आन तथा उमंगों से भरपूर होता है । अपरा का समय
उ ता की ि से कुछ प रपाक और कुछ िव ाम का समय होता है । अ म सं ा
की गै रक आभा सम पृ ी और आकाश को चरम वैरा के रं ग म रं ग दे ती है ।
कािलदास ने इसी आदश को जीवन - णाली का आदश माना है ।
वनों और पवतों से ेम
कािलदास म वनों और पवतों के ित एक िवल ण मोह िदखाई पड़ता है । नगरों
के वणन से यह कट होता है िक वे स और समृ नगरों म रहे थे । िक ु उनका
मन बार- बार वनों
और पवतों की ओर दौड़ उठने को अधीर रहता है । लगता है िक उनका
बा काल वनों और पवतों म ही तीत आ था , िजससे इनका सौ य उनके दय
पर गहरी छाप छोड़ गया । यही कारण है िक उनके सभी का ों म अभी की िस
िहमालय की तराई के वनों और िहमालय के पवतिशखरों पर जाकर होती है । '
मेघदू त ' का य अपनी ि यतमा के पास स े श िहमालय की अलकापुरी म ही
भेजता है । उसके सपनों की रानी िहमालय म ही िनवास करती है । ' कुमारस व'
की तो सारी कथा ही िहमालय की रं गभूिम पर घिटत होती है । दु को अनुपम
सु री शकु ला जैसा र ा करने के िलए िहमालय की तराई म जाना पड़ता है
और ' रघुवंश' के महाराज िदलीप को स ान - ा की इ ा से विश मुिन के
आ म म जाकर तप ा करनी पड़ती है ।
भौगोिलक ान
कािलदास के वणन भौगोिलक दि से स और ाभािवक होते ह । िजस थान
और िजस काल का यह वणन करते ह , उसम स ता और औिच रहता है । उ ोंने
पूव समु के तटवत दे शों म ताड़ के वनों, महे पवत पर नागव ी के प ों और
ना रयल के आसव व केरल म मुरला नदी के िनकट केतकी के फूलों का उ ेख
िकया है । भारत के उ र - पि मी
सीमा - ा म अंगूर के बागों के, का ीर दे श म केसर और िहमालय के
दे शों म भोजप , क ूरी, चीड़ और दे वदा के वणन िकए गए ह । लौिह नदी के
पार काम प दे श म अग के वृ ों का उ ेख है । ये सारे वणन भौगोिलक ि से
यथाथह ।
कािलदास िशव के उपासक थे । अपने सभी ों के ार म उ ोंने िशव की
ुित की है । िफर भी यह आ य की बात जान पड़ती है िक िजन िशव- पावती को
उ ोंने अपने ' रघुवंश' म जगत् का माता-िपता कहा है , उनका ही िव ृत संयोग -
ंगार का वणन उ ोंने ' कुमारस व ' म कैसे कर िदया ! 1. एकोऽिप जीयते ह ,
कािलदासो न केनिचत् ।
ंगारे लिलतो ारे , कािलदास यी िकमु ? (राजशेखर ) िनगतासु न वा क
कािलदास सू षु । ीितमधुर - सा ासु मंजरी व जायते ।। (बाणभ ) पुरा
कवीनां गणना संगे किनि कािधि त कािलदासः । ___ अ ािप त ु
कवेरभावादनािमका साथवती बभूव ।। का ेषु नाटकं र नाटकेषु शकु ला।
त ािप चतुथ ऽ ोक चतु यम् ।। Wouldst thou the Life's young
blossoms and fruits of its decline,
And by which the soul is pleased enraptured , feasted , fed Wouldst thou
the Earth and Heaven itself in one sweet name combine ? I name thee , O
Shakuntala , and
all at once is said. - Goethe ( गेटे ) वास ं कुसुमं फलं च युगपद् ी सव
च यद् य ा नसो रसायनमतः स पणं मोहनम् । एकीभूतमपूवर मथवा
ल कभूलोकयो रै य यिद वां छिस ि यसखे, शाकु लं से ताम् । ( उपयु
अं ेज़ी प का सं ृ त पा र )
कुछ प रभाषाएँ
ना ी : मंगलाचरण को कहते ह । यह इ दे वता आिद की ुित के प म की
जाती है , िजससे ार िकया आ नाटक िनिव पूरा हो सके ।
सू धार : स ूण नाटक का िनदशक सू धार कहलाता है ।
ावना : नाटक की मु कथाव ु के पहले सू धार आता है और नाटक के
िवषय म े कों को कुछ संकेत इ ािद दे ता है । इसे ावना कहते ह । ावना
के अ म सू धार रं गमंच से बाहर चला जाता है ।
िव क : पहले हो चुकी अथवा आगे होने वाली कथाव ु की जब िकसी गौण
पा के मुख से सूचना िदलवाई जाती है , तो उसे िव क कहा जाता है ।
वेशक : जहाँ दो अंकों के बीच म केवल नीच पा ों के ारा पहले हो चुकी
अथवा आगे होने वाली घटना की सूचना िदलवाई जाती है , तो वह वेशक कहलाता है

मन ही मन ( गत ) : जब कोई बात इस कार बोली जाए, िजससे यह कट हो
िक पा उसे मन ही मन सोच रहा है , तब उसे ( गत ) ' मन ही मन ' कहा जाता है ।

चुपके से ( जना कम् ) : जब कोई बात िकसी अ पा के कान म चुपके से
कहने का अिभनय िकया जाए ।
आड़ करके ( अपवाय ) : नट का वह वचन , जो नाटक के अ म मंगलकामना
के प म कहा जाता है ।
' शाकु ल ' के पा
पु ष -पा दु ह नापुर के राजा भ सेन सेनापित माध राजा का िम
िवदू षक सवदमन भरत , दु का पु सोमरात राजपुरोिहत
रै वतक ारपाल करभक राजा का अनुचर
पावतायन कंचुकी, बूढ़ा नौकर शारव, शार त हरीत, गौतम आिद क के िश
कोतवाल दु का साला ,
नगरा सूचक, जानुक िसपाही
धीवर अिभयु मिछयारा मातिल इ का सारिथ क प दे वताओं के िपता
जापित
ी - पा
शकु ला क की पािलता क ा अनसूया , ि यंवदा शकु ला की स खयाँ
गौतमी तप नी चतु रका, परभृितका और
मधुक रका राजा की सेिवकाएँ ितहारी और यविनकाएँ दािसयाँ
सानुमित अ रा अिदित दे वमाता
थम अंक
' सिलल', ' अि ', " समीर', ' वसुधा', ' गगन', ' भा र', ' च मा ', और ' होता',
आठ िजनकी ह कट ये मूितयाँ । वे यंभू िशव तु ारी सवदा र ा कर, ि क णा
की रख , दु ःख आपदा सारी हर ।
(' ना ी ' की समा पर) सू धार : बस , बस ब त आ (नेप की ओर
दे खकर) ि ये, यिद नेप की स ा का
काय पूरा हो चुका हो , तो ज़रा इधर तो आओ।
( नटी वेश करती है ।) नटी : लीिजए, यह म आ गई । आ ा दीिजए, आपके
िकस आदे श का पालन िकया
जाए ? सू धार : ि ये, रस और भावों के िवशेष महाराजा िव मािद की इस
सभा म आज
बड़े - बड़े िव ान एक ए ह । इस सभा म आज हम लोग कािलदास- रिचत
नवीन नाटक ' अिभ ान शाकु ल ' का अिभनय ुत करगे । जाकर उसके िलए
पा ों
को तैयार करो । नटी : आपने तो इतनी बार इतनी अ ी तरह अ ास करवा
रखा है िक अब उसम
िकसी कार की ुिट रहने की स ावना नहीं है । सू धार : (मु राते ए) ठीक
कहती हो, पर सच तो यह है िक जब तक अिभनय को
दे खकर िव ानों को स ोष न हो जाए, तब तक म अ ास को सफल नहीं मानता
। अिभनेताओं को चाहे िकतना ही ों न िसखा लो , िक ु उ अपने
ऊपर िव ास हो ही नहीं पाता । नटी : (िवनयपूवक ) आपकी बात िब ु ल ठीक
है । तो आ ा दीिजए िक अब ा िकया
जाए ? सू धार : इस समय इस सभा के स ुख एक मनोहर मधुर गीत से बढ़कर
और अ ा काय
ा हो सकता है ! नटी : गीत ! अ ा तो िफर यह किहए िक िकस ऋतु का गीत
गाया जाए ? सू धार : अभी - अभी तो यह ी ऋतु ार ई है । इन िदनों इस
गम का आन िलया
जा सकता है । आजकल जल म ान करने से आन आता है । वन की वायु
पाटल के सौरभ से सुग त हो उठी है । छाया म लेटते ही नींद आने लगती है और
िदवसा की सं ाएँ ब त ही रमणीय होती ह , तो ों न इसी ी ऋतु का गीत
गाओ! नटी : ठीक है ( गाना ार करती है ।)
िसरस के फूल बड़े सुकुमार! चाँ दनी की िकरणों से त ु , भरी है िजनम सुरिभ
अपार ! मर आते करने रसपान , जताते ज़रा चूमकर ार!
उ ीं से ललनाएँ अ सदय अपना करतीं ंगार! सू धार : ि ये, तु ारा गीत
ब त ही उ म रहा। दे खो न, सारी अिभनयशाला राग के रस म
डूबी ई िच िल खत - सी हो उठी है । तो अब यह बताओ िक इस सभा के
मनोरं जन के िलए िकस नाटक का अिभनय िकया जाए ? नटी : अभी तो आपने
कहा था िक ' अिभ ान शाकु ल' नामक नए नाटक का
अिभनय करना है । सू धार : यह तुमने खूब याद िदलाया। म तो तु ारे गीत की
िमठास के आकषण म सब
भूल ही गया था , वैसे ही ( ान से सुनने का अिभनय करके ) जैसे यह महाराज
दु वेगवान् ह रण के आकषण से खंचे चले आ रहे ह ।
( दोनों बाहर चले जाते ह ) ( उसके प ात् ह रण का पीछा करते ए धनुष -बाण
हाथ म िलए रथ
पर बैठे ए महाराज दु वेश करते ह । सारिथ रथ हाँ क रहा है ) सारिथ : (
एक बार राजा की ओर तथा एक बार ह रण की ओर दे खकर ) महाराज , इस
काले ह रण पर ि लगाए, धनुष-बाण ताने ए आप ऐसे तीत होते ह , मानो
सा ात् िशव ही ह रण का पीछा कर रहे हों । राजा : सूत , यह ह रण तो हम ब त
दू र खींच लाया । अब भी तो यह बार-बार गदन
मोड़कर पीछे की ओर रथ को दे खने लगता है , और िफर तेज़ दौड़ने लगता है ।
तीर लगने के भय से इसके शरीर का िपछला भाग अगले भाग म समाया - सा जा रहा
है । दौड़ने की थकान से इसका मुख खुल गया है और उसम से अधचबी घास के
ितनके रा े म िगरते जा रहे ह । दे खो, अपनी ती गित के कारण इसके पाँ व धरती
को तो ज़रा दे र को ही छूते ह , नहीं तो यह आकाश ही आकाश म उड़ा जा रहा है । (
आ य के साथ ) अरे , यह तो हमारे पीछा करते - करते भी आँ खों से ओझल आ जा
रहा
सारिथ : महाराज, अब तक भूिम ऊबड़- खाबड़ थी, इससे रास खींचकर मने
घोड़ों की चाल
धीमी कर दी थी , इससे यह ह रण इतना आगे िनकल गया । अब भूिम समतल

गई है । अब यह सरलता से आपके हाथ आ जाएगा । राजा : तो अब ज़रा रास
ढीली छोड़ दो । सारिथ : लीिजए, ढीली छोड़ दीं । (रथ के वेग का अिभनय करते ए
) दे खए महाराज, रास
ढीली करते ही घोड़े िकस कार गदन ल ी कर- करके दौड़ने लगे ह । इनके
कान
ऊपर को उठे ए ह और गदन के बाल िन हो उठे ह । और तो और , इनके
अपने पैरों से उड़ी धूल भी इ नहीं छू पा रही है । इस समय इनकी चाल ह रण की
चाल से ा कम है ? | राजा : ( स होकर) इसम ा स े ह है ! इस समय तो
ये सूय और इ के घोड़ों को भी
मात दे रहे ह । दे खो न , जो व ु ण - भर पहले धुंधली - सी िदखाई पड़ती है ,
वही अगले ण खूब दीखने लगती है । बीच म से कटी ई व ु भी रथ के वेग
के कारण समूची जुड़ी ई- सी िदखाई पड़ती है । जो चीज व ुतः टे ढ़ी ह , वे भी
सीधी दीख रही ह । रथ के वेग के कारण कोई भी व ु इस समय न तो मेरी आँ खों से
दू र ही रह पाती है । और न ण - भर आँ खों के पास ही रह पाती है । दे खो सूत , अब
यह मरा। ( कहकर दु धनुष पर बाण चढ़ा लेते ह । )
( नेप म ) महाराज , महाराज , यह आ म का ह रण है । इसे मारना नहीं, इसे
मारना नहीं। सारिथ : ( ान से सुनकर और दे खकर ) महाराज , आपके और आपके
बाण के ल इस
काले ह रण के बीच तप ी लोग आकर खड़े हो गए ह ? राजा : ( हड़बड़ाकर) तो
घोड़ों को रोक लो । सारिथ : लीिजए । (रथ को रोक लेता है ।)
( दो सािथयों के साथ तप ी वेश करता है । ) तप ी : ( हाथ उठाकर )
महाराज, यह आ म का ह रण है । इसे मा रएगा नहीं । इस मृग के
कोमल शरीर पर यह बाण चलाना उिचत नहीं है । ई के ढे र म कहीं इस कार
आग लगाई जाती है ? कहाँ तो इन ह रणों का अ चंचल जीवन और कहाँ आपके
सनसनाते ए व के समान कठोर बाण ! इसिलए महाराज , आप इस धनुष पर
चढ़ाए ए बाण को उतार लीिजए । आपके श पीिड़तों की र ा करने
के िलए ह , िनरपराधों पर हार करने के िलए नहीं । राजा : लीिजए, यह उतार
िलया । (बाण धनुष से उतार लेता है ।) तप ी : आप पु वंश के भूषण ह । आपकी
इसी म शोभा है । िजस कार आपका पु वंश
म ऐसा उ म ज आ है , उसी कार भगवान् करे आपको भी ऐसे ही उ म
गुणों वाला च वत पु ा हो ! अ दोनों तप ी : ( हाथ उठाकर ) भगवान्
करे आपको अव ही च वत पु ा
हो !! राजा : (िवनय - सिहत णाम करके ) आपका आशीवाद िसर माथे ।
तप ी : महाराज, हम लोग सिमधाएँ लाने के िलए िनकले ह । यह पास ही मािलनी
नदी के
तीर पर कुलपित क का आ म िदखाई पड़ रहा है । यिद आपके िकसी अ
काय म बाधा न हो तो , वहाँ प ँ चकर आित ीकार कीिजए । वहाँ प ँ चकर
तप यों की िनिव हो रही सु र य -ि याओं को दे खकर आपको पता चल
जाएगा िक धनुष- चाप से अंिकत आपकी भुजा िकतनी दू र- दू र तक जा की
र ा
करती है । राजा : ा कुलपित क आ म म ह ? तप ी : वह तो अितिथयों के
स ार का काम अपनी क ा शकु ला को सौंपकर उसके
ितकूल हों की शा के िलए आज ही सोमतीथ गए ह । राजा : अ ा, म उसी
के दशन करने जाता ँ । वही महिष के लौटने पर उनको मेरा भ
भाव जता दे गी । तप ी : ठीक है ! तो अब हम चलते ह (िश ों- समेत चला जाता
है । ) राजा : सूत , घोड़ों को ज़रा तेज़ कर दो । चलकर पिव तपोवन के दशन से
अपने - आपको
पिव कर । सारिथ : अभी लीिजए महाराज ! ( रथ की चाल और तेज़ करता है ।
) राजा : ( चारों ओर दे खकर ) सूत , दे खो, यहाँ तो िबना बताए ही पता चल रहा है िक
यही
तपोवन का आ म - भाग है । सारिथ : वह कैसे महाराज ? राजा : ों , दे खते
नहीं िक वृ ों के नीचे तोतों के रहने के कोटरों के मुँह से नीचे िगरे ए
धान पड़े ह । कहीं इं गुदी फलों को तोड़ने से िचकने ए प र िबखरे पडे ह ।
यहाँ के ह रण मनु ों के पास रहने के अ ह , इसी से रथ के श को सुनकर
भी वे िबना चौंके पहले की ही भाँ ित िनःशंक िफर रहे ह । पानी लेकर आने के माग
पर व ल व ों के छोरों से चूने वाले जल - िब दुओं की रे खा बनी िदखाई पड़ रही है
। छोटी- छोटी नािलयों म पानी की धारा बह रही है , िजससे वृ ों की जड़ धुल गई ह ।
घी के धुएँ के कारण त ओं के नवप वों का रं ग ब त बदल गया है । उस ओर
उपवन की भूिम से दश के अंकुर िनकालकर साफ कर िदए गए ह । वहाँ ह रणों के
छोटे - छोटे ब े ब त ही िनि होकर धीरे - धीरे िफर रहे ह । सारिथ : आप
ठीक कह रहे ह । राजा : ( थोड़ी दू र और जाने पर ) तपोवन के िनवािसयों को मेरे
आने से कहीं असुिवधा न
हो ? रथ यहीं रोक लो । म नीचे उत ँ गा। सारिथ : मने रास खींच ली ह । अब
आप उतर जाइए । राजा : ( उतरकर ) सूत , तपोवन म िवनीत वेश से ही िव होना
चािहए । लो , इ तुम
संभालकर रख लो । ( आभूषण तथा धनुष सारिथ को सौंप दे ता है ।) सूत, जब
तक
म आ मवािसयों के दशन करके आता ँ , तब तक तुम घोड़े की पीठ ठं डी कर
लो । सारिथ : ठीक है । ( राजा बाहर िनकल जाता है । ) राजा : ( कुछ दू र चलकर
और दे खकर ) यह आ म का ार आ गया । अब इसके अ र चला जाए।
( आ म म वेश करके शुभ शकुन की सूचना दे ता आ ) यह आ म तो शा
थान है और मेरी दाईं भुजा फड़क रही है । इसका यहाँ ा
फल ा हो सकता है ? िफर होनहार के रा े तो सभी जगह होते ह ।
( नेप म ) इधर, स खयो इधर ! राजा : ( कान लगाकर ) अरे दि ण की ओर
वृ ों की वािटका म कुछ बातचीत- सी सुनाई
पड़ रही है । उसी ओर जाता ँ । ( कुछ दू र चलकर और दे खकर) अरे , ये
तप ी क ाएँ अपने अनु प घड़े िलए पौधों को पानी दे ने इधर ही आ रही ह ! (
ान से दे खकर ) अहा, इनका प तो ब त ही मनोहर है । यिद आ म म रहने वाले
लोगों का ऐसा प है , जो रिनवासों म भी दु लभ है , तो समझ लो िक वनलताओं ने
उ ान की लताओं को मात दे दी । कुछ दे र इस छाया म खड़े होकर इनकी ती ा
करता ँ । ( दे खता आ खड़ा रहता है ।)
__ ( पौधों को पानी दे ती ई स खयों के साथ शकु ला वेश करती है ।)
शकु ला : इधर, स खयो इधर ! अनसूया : री शकु ला, मुझे तो ऐसा लगता है िक
िपता क को आ म के वृ तुझसे
भी अिधक ारे ह । तभी तो उ ोंने नवम का के कुसुम के समान सुकुमार
तुझको भी इनके थाँ वले भरने म लगा िदया है । शकु ला : केवल िपताजी की
आ ा की ही बात नहीं है । मुझे भी तो इनसे सगे भाइयों
जैसा ार है ।
( व ों को सींचने का अिभनय करती है ।) राजा : ा यही क की पु ी है ?
महिष क ने यह ठीक नहीं िकया िक इसे भी
आ म के काय म लगा िदया है । इस िनसग सु र शरीर को महिष क
तप ा के यो बनाने की अिभलाषा करके मानो नीलकमल की पंखुरी से बबूल का
पेड काटने की कोिशश कर रहे ह । अ ा, पेड़ों की आड़ से ही कुछ दे र इसे जी भर
कर दे ख तो लूँ । (दे खने लगता है ।) शकु ला : अनसूया , इस ि यंवदा ने मेरा
यह व ल व ऐसा कसकर बाँ ध िदया है िक
िहलना- डु लना भी मु ल हो गया है । ज़रा इसे ढीला तो कर दे । अनसूया :
अ ा। ( ढीला कर दे ती है ।) ि यंवदा : (हँ सती ई ) इसके िलए व को उभारने
वाले अपने यौवन को उलाहना दे , मुझे
ा उलाहना दे ती है ! राजा : भले ही यह व ल व इसके शरीर के अनुकूल
नहीं है , िफर भी यह इसके
सौ य को न बढ़ाता हो , यह बात नहीं । ोंिक काई लगी होने पर भी कमल
सु र होता है । च मा का मिलन कलंक भी उसकी शोभा को बढ़ाता है । यह
छरहरी युवती व ल व ों से और अिधक सु र लग रही है । आकृित सु र हो
तो , जो कुछ पहना िदया जाए, वही आभूषण बन जाता है । शकु ला : ( सामने
की ओर दे खकर) यह आम का वृ वायु से िहलते ए, अंगुिलयों के
समान प ों से मुझे पास बुला - सा रहा है । चलूँ, इसे भी पानी दे आऊँ। ( उसकी
ओर चलती है ।) ि यंवदा : री शकु ला, ज़रा दो िमनट वहीं खड़ी रह । तेरे पास
खड़े होने से यह आम का
वृ ऐसा सु र लग रहा है , जैसे इस पर कोई बेल िलपटी ई हो । शकु ला :
इसीिलए तो तेरा नाम ि यंवदा है । राजा : ि यंवदा ने बात ारी होते ए भी कही सच
है । ोंिक इस शकु ला के होंठ
नवप वों के समान लाल ह । दोनों बाँ ह कोमल टहिनयों के समान ह और फूलों
की भाँ ित आकषक यौवन इसके अंग - अंग म समाया आ है । अनसूया : री
शकु ला, तूने इस छोटे - से आ वृ की इस यंवरा वधू नवम का की
लता का नाम वन ो ा रखा था ; इसे ा भूल ही गई ? शकु ला : तब तो
अपने - आपको भी भूल जाऊँगी। ( लता के पास जाकर और दे खकर )
सखी, इस लता और वृ के युगल का अ े समय म मेल हो गया । वन ो ा
पर नए फूलों का यौवन खला है और फल आ जाने के कारण आ वृ भी इसे
संभालने म समथ हो चुका है । ( उ दे खती ई खड़ी रहती है । ) ि यंवदा : (
मु राती ई ) अनसूया , जानती है , शकु ला वन ो ा को इतना अिधक
ों दे ख रही है ? अनसूया : मालूम नहीं, तू बता । ि यंवदा : जैसे वन ो ा
अपने अनु प वृ से जा िमली है , उसी कार म भी अपने
अनु प वर ा कर सकूँ, इसिलए । शकु ला : यह ज़ र तेरे मन की बात है

__ ( कहकर घड़े का पानी उं डेल दे ती है ।) राजा : स व है यह कुलपित क
की िकसी अ जाित की ी से उ क ा हो ;
या स े ह की आव कता ही ा है ? अव ही इसका िववाह ि य से हो
सकता है ोंिक मेरा िन लंक मन इस पर मु हो गया है । स नों को जहाँ िकसी
बात म स े ह हो , वहाँ उनकी अ ःकरण की बात ही अ म माण होती
है । िफर भी इसके िवषय म सही बात का पता करता ँ । शकु ला : (
हड़बड़ाकर ) अरे , पानी डालने से हड़बड़ाकर उड़ा आ यह भौंरा नवम का
को छोड़कर मेरे मुँह पर आ रहा है । ( भौरे से बचने का य करती है ।) राजा : (
अिभलाषा के साथ) हे मर, तुम कभी उसकी बार - बार कां पती चंचल िचतवन
वाली ि का श करते हो । और कभी उसके कान के पास िफरते ए धीरे -
धीरे कुछ रह ालाप - सा करते ए गुनगुनाते हो । उसके हाथ झटकने पर भी तुम
उसके सरस अधरों का पान करते हो । व ुतः तु ीं भा वान् हो, हम तो
वा िवकता की खोज म ही मारे गए। शकु ला : यह दु मानता ही नहीं ।
अ ा, म उधर जाती ँ । ( कुछ कदम जाकर दे खती
ई ) अरे यह तो इधर भी आ रहा है । स खयो, यह दु भौंरा मुझे तंग कर रहा है
, मुझे इससे बचाओ।
दोनों स खयां : ( मु ु राती ई ) हम बचाने वाली कौन ? दु को ही पुकार ।
तपोवन की
र ा करना राजा का काम है । राजा : ( गत ) अपने आपको कट करने का
यह अ ा अवसर है । ( कट प म ) डरो
मत, डरो मत ... ( बीच म ही ककर मन ही मन ) इससे तो ये पहचान जाएँ गी
िक म
राजा ँ । अ ा , इस तरह कहता ँ । शकु ला : ( कुछ कदम जाकर िफर
दे खती ई ) यह ा ! यहाँ भी मेरे पीछे -पीछे आ रहा
राजा : ( तेज़ी से पास जाकर ) आ;, दु ों का दमन करने वाले पौरव दु के
पृ ी पर शासन करते ए भोली - भाली मुिन - क ाओं को यह कौन छे ड़ रहा है ?
( सब राजा को दे खकर कुछ हड़बड़ा जाती ह ।) अनसूया : महोदय , कुछिवशेष
अिन नहीं आ । यह हमारी ारी सखी इस दु भौंरे से
परे शान होकर घबरा गई है ।
( शकु ला की ओर इशारा करती है ।) राजा : ( शकु ला की ओर अिभमुख
होकर ) किहए, तप तो ठीक चल रहा है न ?
( शकु ला मुँह नीचा िकए अवाक् खड़ी रह जाती है ।) अनसूया : इस समय तो
आप जैसे अितिथ के आगमन से सब ठीक ही है । री शकु ला,
कुिटया म जा और वहाँ से कुछ फल तथा जलपान तो ले आ । मुँह -हाथ धोने के
िलए पानी यहाँ है ही । राजा : आप लोगों की मधुरवाणी से ही काफी आित हो
गया । ि यंवदा : तो चिलए, आप इस घनी छाया वाली स पण की शीतल वेदी पर
कुछ दे र
बैठकर िव ाम कर लीिजए । राजा : आप भी तो इस काम से थक गई ह ।
अनसूया : री शकु ला, हमारा अितिथ के पास रहना ही उिचत है । तो आ , यहीं बैठे
। ( सब
बैठ जाती ह । ) शकु ला : ( मन ही मन ) यह ा आ ? इ दे खकर मेरे मन
म तपोवन के अयो कैसा
ेमभाव उ हो रहा है । राजा : ( सबको दे खकर ) आप सबकी आयु एक - सी
और प भी एक जैसा है । इससे
आप लोगों की िम ता मुझे ब त ही सु र लग रही है । ि यंवदा : ( चुपके से )
अनसूया , यह दे खने म चतुर और ग ीर है और इसकी बात ब त
ि य ह । अव ही यह कोई भावशाली है । अनसूया : ( चुपके से ) मुझे
भी यह जानने की उ ुकता है । अ ा, पूछती ँ । ( कट प
से ) महोदय , आपकी मधुर बातों से उ िव ास के कारण म यह पूछना चाहती
ँ िक आपने िकस राजिष के वंश को सुशोिभत िकया है , और िकस दे श के
िनवािसयों को आप अपने िवरह म अधीर कर आए ह ? इस सुकुमार शरीर को आपने
िकस कारण तपोवन आने का क िदया है ?
शकु ला : ( मन ही मन ) दय, अधीर मत हो । जो तू सोचता है , वह सब यह
अनसूया पूछ
रही है । शकु ला : ( मन ही मन ) इस समय अपना प रचय दे दं , अथवा अपने -
आपको िछपाए ही
रखू? अ ा, इ इस कार बताता ँ । ( कट प म ) भ े , महाराज दु
ने मुझे धम-िवभाग म अिधकारी िनयु िकया है । इससे म यह जानने के िलए िक
आ मवािसयों की धम-ि याओं म कोई िव - बाधा तो नहीं, यहाँ तपोवन म
आया था । अनसूया : तब तो आ मवािसयों को आपने सनाथ कर िदया है ।
( शकु ला ंगार ल ा का अनुभव करती है ।) दोनों स खयाँ : ( राजा और
शकु ला की भावभंिगमा को दे खकर चुपके से) री शकु ला,
___ अगर आज यहाँ िपता क होते ! शकु ला : तो ा होता ?
स खयाँ : अपना जीवन - सव दे कर भी वह इस अितिथ को कृताथ करते ।
शकु ला : हटो , तुम न जाने ा - ा सोचकर कह रही हो । अब म तु ारी बात
भी नहीं
सुनूँगी । राजा : हम भी आपकी सखी के िवषय म कुछ पूछना चाहते ह । स खयाँ
: महोदय , आपका यह अनुरोध कृपा के समान है । राजा : यह बात तो सभी जानते ह
िक महा ा क आज चारी ह । िफर आपकी
यह सखी उनकी पु ी कैसे हो सकती है ? । अनसूया : सुिनए ! कौिशक गो म
उ ए िव ािम अ तेज ी राजिषह ।
राजा : हाँ , मने सुना है । अनसूया : बस, उ ीं को हमारी ि य सखी का िपता
समिझए । छोड़ िदए जाने के बाद
पालन-पोषण करने के कारण िपता क भी इसके िपता ह । राजा : यह छोड़ने
की बात ा है ? म शु से सुनना चाहता ँ । अनसूया : अ ा, तो सुिनए । पहले
िकसी समय वह राजिष गौतमी नदी के तीर पर कठोर
तप ा कर रहे थे। उस समय दे वों के मन म कुछ डर बैठ गया । उ ोंने उनकी
तप ा को भंग करने के िलए मेनका नाम की अ रा भेजी । राजा : ठीक है ।
दे वताओं को दू सरों की समािध से डर लगता है । अनसूया : उसके बाद भरे वस के
समय उसके उ ादक प को दे खकर ... ( बीच म ही
ल ा से क जाती है । ) राजा : ठीक है । आगे सब समझ आ गया । तो यह
अ रा की क ा है ? अनसूया : और नहीं तो ा ? राजा : यह बात ठीक है । मनु -
क ाओं म ऐसा िवल ण प कैसे आ सकता है ? चमचमाती ई िवधु टा
वसुधातल से नहीं उठा करती ।
( शकु ला मुँह नीचा िकए खड़ी रहती है ।)
राजा : ( मन ही मन) लो , अब मेरी अिभलाषा के िलए कुछ तो राह बनी। िक ु
इसकी
सखी ने मज़ाक म जो इसकी वर पाने की इ ा की बात कही थी , उसे सुनकर
मेरा मन दु िवधा से बेचैन हो रहा है । ि यंवदा : ( मु राकर शकु ला को
दे खकर राजा की ओर अिभमुख होकर) आप िफर
कुछ कहना चाहते ह ?
( शकु ला अंगुली से ि यंवदा को धमकाती है ।) राजा : आपने ठीक पहचाना ।
स नों के च र - वण के लोभ से म कुछ और भी
पूछना चाहता ँ । ि यंवदा : तो ब त ा सोचना ? तप यों के यहाँ तो सब
कुछ िन ंकोच पूछा जा सकता
राजा : म आपकी सखी के िवषय म यह जानना चाहता ँ िक ये मुिन- क ाओं के
यो
इस काम -िवरोधी त का पालन केवल िववाह - पयत ही करगी अथवा सदा ही
सु र आँ खों वाली ह रिणयों के साथ यहीं िनवास करगी ? ि यंवदा : महोदय,
धम- काय म भी यह पराधीन ह । पर ु इनके िपता का संक यही है
िक इ िकसी अनु प वर के हाथ सौंप िदया जाए । राजा : ( मन ही मन ) तब
तो यह अिभलाषा पूण होनी ब त किठन नहीं है । दय, अब
तुम अिभलाषा कर सकते हो । अब स े ह का िनणय हो गया है । िजसे तुम आग
समझकर डर रहे थे, वह तो र िनकला िजसे सरलता से श िकया जा सकता
है । शकु ला : ( ु - सी होकर ) अनसूया , म जा रही ँ । अनसूया : ों ,
ा बात है ? शकु ला : जाकर आया गौतमी से इस अनाप- शनाप बोलने वाली
ि यंवदा की िशकायत
क ँ गी । अनसूया : सखी, िविश अितिथ का स ार िकए िबना उसे इस तरह
अकेला छोड़कर चले
जाना हमारे िलए उिचत नहीं है ।
( शकु ला िबना कहे ही चल पड़ती है ।) राजा : ( मन ही मन ) अरे , ा जा रही
है ? (पकड़ना चाहता है , पर अपने - आपको
बलपूवक रोककर) म इस मुिन - क ा के पीछे - पीछे चलने लगा था , पर िफर
अचानक िश ाचार के कारण गित क जाने से यहाँ से िबना चले भी अब मुझे
ऐसा अनुभव हो रहा है , जैसे जाकर िफर वापस लौट आया होऊँ । ि यंवदा : (
शकु ला को रोककर) री, तू यों नहीं जा सकती । शकु ला : ( भौंहे टे ढ़ी करके )
ों ? । ि यंवदा : तुम पर मेरे दो वृ -िसंचन चढ़े ह । तो यहाँ आ , पहले पौधों को
सींचकर उ
उतार दे , िफर जाना । ( ज़बरद ी उसे वापस लाती है । ) राजा : भ े , म तो
दे खता ँ िक ये वृ ों को सींचने से पहले ही ब त अिधक थक गई ह ;
ोंिक घड़े उठाने से इनकी बाँ ह क ों पर से ढीली होकर झूल रही ह और
हथेिलयाँ ब त लाल हो गई ह । मुँह पर पसीने की बूंद झलक आई ह , िजनसे कान म
लटकाया आ िशरीष का फूल गालों पर िचपक गया है ; और जूड़ा खुल जाने के
कारण एक हाथ से संभाले ए बाल इधर- उधर िबखर गए ह । लीिजए, म इनका
ऋण उतारे दे ता ँ । ( यह कहकर अंगूठी दे ना चाहता है । )
( दोनों स खयाँ अंगूठी पर िलखे नाम के अ रों को पढ़कर एक
दू सरी को दे खती ह ।) राजा : मुझे आप और कुछ न समझ। यह मुझे राजा ने
उपहार म दी है ! म राजकमचारी
ँ न । ि यंवदा : तब इस अंगठी को इस अंगुली से अलग करने की आव कता
नहीं । आपके कह
दे ने भर से ही यह ऋण से मु हो गई । सखी शकु ला , तुझे इन दयालु महोदय
ने अथवा महाराज ने ऋण से मु करवा िदया है । अब जा । शकु ला : ( मन
ही मन ) यिद अपने पर बस हो , तभी तो जाऊँगी। ( कट प से ) तू भेजने
वाली या रोकने वाली कौन होती है ? राजा : ( शकु ला को दे खकर मन ही मन )
जैसे म इस पर अनुर ँ , वैसे ही कहीं यह
भी तो मुझ पर अनुर नहीं है ? यह बात हो सकती है ; ोंिक यह भले ही मेरी
बात का उ र नहीं दे ती ; िफर भी जब म बोलता ँ तो यह खूब कान दे कर सुनती है
और भले ही यह मेरे सामने खड़ी नहीं होती , िफर भी इसकी ि घूम - घूमकर बार-
बार मुझ पर ही आकर पड़ती है ।
( नेप म ) अरे तप यो, तपोवन के ािणयों की र ा के िलए तैयार हो जाओ।
मृगयािवहारी राजा दु पास ही आया आ है । घोड़ों के खुरों से उड़ी ई धूल
स ा की लािलमा के समान आ म के उन वृ ों पर, िजनकी टहिनयों पर गीले
व ल व टॅ गे ए ह , िट ी- दल के समान आ - आकर पड़ रही है । और रथ की
आवाज़ से डरा आ एक हाथी तप ा के िव के समान तपोवन म घुसा आ रहा है ।
इसने ज़ोर की चोट से एक वृ को उखाड़ िलया है , और अब वह उसके एक दाँ त म
फँसा आ है । टू टी और उलझी ई अनेक लताओं का जाल उसके पैरों म फँसा आ
है और उसे दे खकर हमारे ह रणों का झु भय से िततर -िबतर हो गया है ।
( सब कान लगाकर सुनते ह और कुछ घबरा - से जाते ह ।) राजा : ( मन ही मन )
आह! लगता है , हम ढू ँ ढ़ने आए ए सैिनक तपोवन को रौंद रहे ह ।
अ ा, म उसी ओर चलता ँ । स खयाँ : महोदय, इस तप ी की बात सुनकर
हम घबराहट हो रही है । अब हम कुिटया म
जाने की अनुमित दीिजए। राजा : ( हड़बड़ाकर) हाँ - हाँ , आप लोग जाइए । हम
भी ऐसा य करते ह , िजससे
आ मवािसयों को क न हो ।
(सब उठ खड़े होते ह ) स खयाँ : महोदय , हमने आपका कुछ भी अितिथ -
स ार नहीं िकया, इसिलए आपसे िफर
दशन दे ने का अनुरोध करते हम ल ा अनुभव हो रही है । राजा : यह बात नहीं
है । आपके दशन से ही मेरा आित हो गया है । शकु ला : ( राजा को दे खती ई ,
बहाना करके िवल करती ई स खयों के साथ बाहर
िनकल जाती है ।) राजा : मुझे अब नगर जाने की उ ुकता नहीं रही। िफर भी
चलकर अपने अनुचरों को
तपोवन से कुछ दू र िटका दू ँ । इस शकु ला के का से म िकसी कार अपने
आपको वापस नहीं लौटा पा रहा । मेरा शरीर य िप आगे की ओर जा रहा है , जैसे
वायु के वाह के िव जाने वाले झ े का रे शमी व पीछे की ओर ही लौटता है !
( राजा का थान )
ि तीय अंक
( उदास भाव से साँ स छोड़कर िवदू षक का वेश ) िवदू षक : ( गहरा साँ स
छोड़कर मन ही मन ) बस, दे ख िलया । इस िशकारी राजा की िम ता
से तो अब परे शान हो गया ँ । भरी दु पहरी म भी ' यह रहा ह रण', ' वह िनकला
सूअर', ' वह भागा चीता' कहते ए वन - वन मारे - मारे िफरो, आसपास पेड़ नहीं ,
छाँ ह का कहीं नाम नहीं। पीने को है पहाड़ी निदयों का पानी; उसम इतने प े सड़े ह
िक ाद कसैला हो गया है । समय पर खाने को न िमले, और जब िमले तो वह
सलाखों पर भुने माँ स के िसवा कुछ नहीं । घोड़े पर चढ़कर िशकार का पीछा करते -
करते क ों की हि याँ तक दु खने लगीं, िजसके मारे रात को ढं ग की नींद भी नहीं
आती। और उस पर अभी सवेरा होता नहीं िक ये शैतान बहे िलए िचडीमार हाँ के का
शोर मचा- मचाकर िफर जगा दे ते ह । इतने के मारे ही चैन नहीं थी , अब िग ड़ के
ऊपर यह एक फोड़ा और िनकल आया । कल हमारे िपछड़ जाने पर महाराज ह रण
का पीछा करते - करते तपोवन म जा प ं चे
और मेरे दु भा से मुिन क ा शकु ला को दे ख आए। अब वह नगर की ओर
मुड़ने का नाम भी नहीं लेते । आज भी उ ोंने उसी की याद म जागते - जागते रात
िबता दी । पर क ँ भी तो ा ? अ ा, चलता ँ । यिद वह ान-उपासना आिद से
िनवृ हो गए हों , तो उनके ही दशन क ँ । यह लो , हमारे ि य िम महाराज तो
यं ही इधर आ रहे ह । धनुष हाथ म िलए , वनफूलों की मालाएँ पहने यवन क ाएँ
उ घेरे चल रही ह । ठीक है ऐसे खड़ा हो जाता ँ , जैसे मेरे हाथ-पाँ व टू ट गए हों ।
शायद इसी तरह कुछ िव ाम िमल जाए ।
( ड े का सहारा लेकर खड़ा हो जाता है । )
( ऊपर बताए ढं ग से यवन - क ाओं से िघरे राजा का वेश ) राजा : भले ही
ि यतमा सुलभ नहीं है , िफर भी उसके मनोभाव को दे खकर मन को कुछ
सहारा िमलता है । भले ही हम दोनों का िमलन पूण न हो , िफर भी दोनों ओर से
िमलन का आ ह होने पर ेम तो बढ़ता ही है । ( मु राकर) अपने ि य की
िच वृि को अपने मनोनुकूल समझने वाला ेमी इसी कार धोखा खाता है । दे खो
न, वह शकु ला जब अपनी ि मधुर िचतवन से दू सरी ओर भी दे खती थी , तो
मुझे यही लगता था िक वह मेरी ओर दे ख रही है । वह तो िनत ों के भारी
होने के कारण म गित से चल रही थी , और मुझे लगता था िक जैसे वह अपनी
गित का िवलास मुझे िदखा रही है । सखी ने जब उसे रोककर कहा िक 'मत जाओ' तो
वह झ ाकर बोली। मुझे लगता है िक वह भी मुझे िदखाने के िलए ही
था । अिभलाषी को सब जगह अपने मतलब की ही बात िदखाई पड़ती है
। िवदू षक : ( उसी कार खड़े - खड़े ) िम , मेरे हाथ- पाँ व तो िहलते नहीं; इसिलए
केवल वाणी
से ही तु ारा जयकार करता ँ । राजा : ों, तु ारे हाथ- पाँ व को ा हो गया ?
िवदू षक : यं तो आँ ख म उं गली डाली और अब पूछते हो िक आँ सू ों आए ह ?
राजा : म तु ारी बात समझा नहीं । िवदू षक : ों िम , बत का पौधा पानी म
खडा कुबडे - सा खेल जो िकया करता है , वह
अपने - आप करता है या नदी के तेज बहाव के कारण ? राजा : उसका तो कारण
नदी का वेग ही होता है । िवदू षक : तो मेरे क का कारण भी आप ही ह ।
राजा : वह कैसे ? िवदू षक : आप तो सारे राज - काज को छोड़कर ऐसे बीहड़
दे श म बनजारे बने िफर रहे ह
और यहाँ मेरी यह दशा है िक रोज़ वन -पशुओं का पीछा करते- करते मेरी
हि यों के जोड़ तक िहल गए ह , िजससे मेरे िलए िहलना- डु लना भी किठन हो गया
है । अब आप मुझे कम से कम एक िदन तो िव ाम करने के िलए छु ी दे ने की कृपा
कीिजए। राजा : ( मन ही मन ) इसने तो यह बात कही और इधर शकु ला का
रण करके मेरा
मन भी िशकार से उचट गया है । ोंिक अब उन ह रणों की ओर बाण साधकर
मुझसे यह धनुष झुकाया नहीं जाता, िज ोंने ि यतमा शकु ला के पास रहकर
उसे भोली िचतवनों से दे खना िसखलाया है । िवदू षक : ( राजा के मुख की ओर
दे खकर ) आप तो मन ही मन कुछ सोच रहे ह ; म ा
इतनी दे र से वन म रो रहा था ? राजा : ( मु राते ए) तु ारी ही बात सोच रहा
ँ । िम की बात टाली नहीं जा सकती,
इससे चुप रह गया था । िवदू षक : िजयो महाराज, िजयो ! ( कहकर जाना चाहता
है ।)
राजा : िम , ठहरो। अभी तुमसे कुछ और बात करनी है । िवदू षक : आ ा
कीिजए। राजा : िव ाम तो करोगे ही, पर तु एक काम म मेरी सहायता करनी होगी
।ब त म
का काम नहीं है । िवदू षक : ा लड् डू तोड़ने म ? यह तो ब त ही बिढ़या बात
है । राजा : िफर बताऊँगा। अरे , कोई यहाँ है ?
( वेश करके )
ारपाल : ( णाम करके ) आ ा कीिजए, महाराज !
राजा : रै वतक , ज़रा सेनापित को तो बुला लाओ। ारपाल : जो आ ा। ( बाहर
जाता है । सेनापित के साध िफर वेश करके ) कुछ आ ा दे ने
के िलए उ ुक महाराज इसी ओर मुँह िकए बैठे ह । उनके समीप पधा रए ।
सेनापित : ( राजा को दे खकर मन ही मन ) िशकार म हज़ार दोष हों िक ु महाराज
के िलए
तो यह गुणकारी ही िस आ है । तभी तो महाराज के शरीर म पहाड़ी हाथी -
सा च बल भरा आ है । इनके शरीर के सामने का भाग िनर र धनुष की डोरी
खींचते रहने के कारण कठोर हो गया है । शरीर म सूय की धूप को सहने की ऐसी
श आ गई है िक पसीना िदखाई नहीं पड़ता । ायामशील होने के कारण इनका
शरीर कृश होने पर भी कृश लगता नहीं है । ( पास प ँ चकर) महाराज की
जय हो ! वन म हाँ का शु हो चुका है । आप अब तक इस कार ों बैठे ह ?
राजा : इस मृगयािन क माध ने मेरे उ ाह पर पानी डाल िदया है । सेनापित : (
चुपके से ) िम , तुम भी खूब लगा लो ज़ोर। म भी ामी के मन को बदलकर ही
र ँ गा । ( कट ) आप इस मूख को बकने दीिजए । आप यं ही दे खए न िक
िशकार से शरीर की चब घट जाती है । पशु भयभीत और ु होने पर कैसा
वहार करते ह , यह भी पता चल जाता है । चलायमान ल पर भी यिद तीर जा
लगे तो वह धनुधा रयों की कुशलता का माण है । लोग िशकार को थ ही
सन कहते ह । ऐसा बिढ़या िवनोद का साधन तो िमलना किठन है । । िवदू षक
: चल रे चल , आया है बड़ा जोश िदलाने वाला । अब महाराज होश म आ गए ह ।
तू वन - वन म भटकता आ अव िकसी नर- नािसका भ क बु े रीछ के मुँह
म जाकर पड़े गा । राजा : सेनापित , इस समय हम आ म के पास ठहरे ए ह ।
इसिलए म तु ारी बातों का
समथन नहीं कर सकता । आज तो भसों को जोहड़ों के पानी म सींग मार-
मारकर आन से नहाने दो । मृगों के झु वृ ों की छाया म बैठे ए जुगाली करते
रह और बनैले सूअर दलदलों म िनि होकर नागरमोथे की जड़ों को खोदते रह ।
डोरी उतारा आ हमारा यह धनुष कुछ समय िव ाम ही करे । सेनापित : जैसी
आपकी इ ा । राजा : जो लोग वन म हाँ का करने चले गए ह , उ वापस बुला लो
और सैिनकों को कह
दो िक वे तपोवन म िकसी कार की गड़बड़ न कर । दे खो, इन शा तप ी
महा ाओं के अ र जला डालने वाला तेज िछपा आ है । ये उन सूयका मिणयों
की भाँ ित ह , जो श म तो शीतल होती ह , िक ु यिद िकसी अ का
तेज उनके ऊपर पड़ने लगे, तो वे आग उलगने लगती ह । सेनापित : जो महाराज
की आ ा । िवदू षक : हो गया तु ारा उ ाह समा ?
( सेनापित बाहर जाता है । )
राजा : ( प रचा रकाओं की ओर दे खकर ) आप लोग भी इस िशकार के वेश को
उतार द ।
रै वतक, तुम भी अपने काम पर जाओ। सेवक लोग : जो महाराज की आ ा (
बाहर जाते ह । ) िवदू षक : चिलए, सब म याँ साफ ईं । अब आप वृ ों की छाया
म बने ए उस सु र
लताकुंज आसन पर बैिठए । म भी ज़रा आराम से बैठू । राजा : ठीक है । आगे
चलो । िवदू षक : इधर आइए ।
( दोनों कुछ दू र चलकर बैठ जाते ह ।) राजा : माध , तु आँ ख िमलने का
कुछ लाभ नहीं आ; ोंिक तुमने दे खने यो
व ु दे खी ही नहीं । िवदू षक : ों , आप मेरे स ुख तो बैठे ह ! राजा : अपने -
आपको हर कोई सु र समझता है । पर ु म तो उस आ म की शोभा
शकु ला की बात कह रहा ँ । िवदू षक : ( मन ही मन) ठीक है , इ मौका ही
न दू ं गा । ( कट म ) िम , लगता है िक
तु ारा मन उस मुिन- क ा पर िफसल गया है । राजा : िम , पौरवों का मन
िनिष व ु पर नहीं िफसलता । वह मुिन- क ा अ रा की
स ान है और उसके छोड़ दे ने पर क को ा ई है । ठीक ऐसे ही , जैसे
नव
म का का फूल िगरकर आक के पौधे पर आ अटके । िवदू षक : (हँ सकर )
अ ी - र ों की ओर ान न दे कर आप जो इस मुिन - क ा पर
ल हो रहे ह , वह ऐसा ही है जैसे िपंडखजूर खा - खाकर जी भर जाने पर कोई
आदमी इमली खाना चाहे । राजा : तुमने उसे दे खा नहीं, इसी से यह कह सके ।
िवदू षक : िजसे दे खकर आपको भी आ य हो रहा है , वह अव ही सु र होगी ।
राजा : िम , और ा क ँ ? ऐसा तीत होता है जैसे िवधाता ने पहले उसका िच
बनाया और िफर उसम ाण डाल िदए । या िफर अपने मन म सारे संसार के
प की इक ी क ना करके उसे सजीव कर िदया । िवधाता के िनमाण - कौशल
को
और शकु ला के मनोहर शरीर को दे खते ए मुझे तो लगता है , जैसे उ ोंने यह
िनराला ी - र रचा है । िवदू षक : यिद यह बात है तो समझो िक उसने सब
पवितयों को मात दे दी । राजा : और मेरे मन म तो रह-रहकर यह बात आती है िक
वह ऐसा फूल है , िजसे िकसी
ने अभी तक सँघा नहीं है । ऐसा नवप व है , िजसे िकसी ने नाखून से कुतरा नहीं
है । ऐसा नया र है , िजसम अभी छे द भी नहीं िकया गया है । ऐसा नया मधु है ,
िजसका िकसी ने ाद तक नहीं चखा है । वह िनमल सौ य व अख पु ों के
फल के समान है । न जाने िवधाता उसके उपभोग के िलए िकस भा शाली को ला
खड़ा करगे ।
िवदू षक : तब तो आप ही अिवल उसकी र ा कर । ऐसा न हो िक वह िकसी
इं गुदी के
तेल से िचकनी, घुटी ई टाँ ट वाले तप ी के हाथ पड़ जाए । राजा : वह बेचारी
तो पराधीन है ; और उसके गु यहाँ ह नहीं । िवदू षक : आपके ित उसकी दि कैसी
थी ? राजा : िम , मुिन - क ाएँ भाव से हो संकोचशील होती ह । िफर भी मेरे
सामने होने
पर उसने आँ ख दू सरी ओर फेर लीं और कुछ दू सरा ही बहाना करके हँ सने लगी
। इस कार उसने िश ाचार के कारण न तो अपने ेम को कट ही होने िदया और
न गु ही रखा । िवदू षक : (हँ सकर) दे खते ही तु ारी गोदी म नहीं आ बैठी ?
राजा : िफर एका म चलते समय उसने शालीनता के साथ भी अपने मनोभाव को
ब त कुछ कट कर िदया । ोंिक वह सु री कुछ ही कदम जाकर िबना बात
ही पैर म काँ टा चुभने का बहाना करके खड़ी हो गई और मुँह फेरकर पेड़ों की
शाखाओं म से अपने ब ल व को छु ड़ाने लगी; य िप वह व उसम उलझा
भी नहीं था । िवदू षक : तब तो साहस बनाए र खए। दे खता ँ िक आपने तपोवन
को उपवन ही बना
डाला है । राजा : िम , कुछ तप ी मुझे पहचान गए ह । अब कोई ऐसा बहाना
सोचो, िजससे
िकसी कार एक बार आ म म जाकर रह सक । िवदू षक : आप राजा ह ।
आपको दू सरे बहाने की ा आव कता ? यही किहए िक
हमारा अनाज का ष ां श लाओ। राजा : मूख, इनसे हम दू सरा ही कर ा होता
है , िजसकी तुलना म ब मू र ों का
ढे र भी ा है । दे खो, चारों वग से राजा को जो कर ा होता है , वह
नाशवान है ; पर ु ये तप ी लोग हम अपने अ य तप का ष ां श दान करते
ह।
( नेप म ) तब तो काम बन गया ! राजा : ( ान से सुनकर ) इनके धीर और
शा र से तो यह तप ी मालूम होते ह ।
( वेश करके ) ारपाल : महाराज की जय हो ! दो ऋिषकुमार महाराज के
दशन के िलए ार पर आए ह ।
राजा : तो उ तुर यहीं ले आओ। ारपाल : अभी लाता ँ । ( बाहर जाता है ।
ऋिषकुमारों के साथ वेश करके ) इधर आइए , इधर ।
( दोनों राजा को दे खते ह ।) थम ऋिषकुमार अहा, इन महाराज का प तेज ी
होने पर भी कैसा िव ासो ादक है !
या ऋिषयों के समान ही जीवन िबताने वाले इन महाराज के िलए यह ठीक
ही है ; ोंिक ये भी मुिनयों की भाँ ित सविहतकारी आ म म िनवास कर रहे ह ।
ये भी लोगों की र ा करके ितिदन तप- संचय करते ह और इन िजते य महाराज
के चारणों ारा गाए गए यशगीत ग तक सुनाई पड़ते
ह । ह तो ये भी ऋिष ही ; अ र केवल इतना है िक ये राजिष ह । दू सरा
ऋिषकुमार गौतम , ा यही इ के परम िम दु ह ? । पहला ऋिषकुमार हाँ ,
यही ह । दू सरा ऋिषकुमार ठीक है , तब तो इसम ा आ य की बात है िक अकेले
ही आसमु
पृ ी का उपभोग करते ह । इनकी भुजाएँ दु ग के ार की अगला के समान
बिल ह । दै ों के साथ यु होने पर सुरां गनाएँ िवजय के िलए इनके डोरी
चढ़े धनुष तथा इ के व का ही तो भरोसा रखती ह । दोनों ऋिषकुमार ( पास
जाकर ) महाराज की जय हो !
राजा : ( आसन से उठकर ) आप दोनों को णाम ! दोनों ऋिषकुमार आपका
क ाण हो ! ( कहकर फल भट करते ह । )
राजा : ( णाम करते ए फल लेकर) कुछ आ ा कीिजए । दोनों ऋिषकुमार
आ मवािसयों को मालूम हो गया है िक आप यहाँ आए ए ह , इसिलए वे
आपसे ाथना करते ह | राजा : उनकी ा आ ा है ? दोनों ऋिषकुमार महिष
क के यहाँ न होने से रा स लोग हमारे य ों म िव डालते ह ।
इसिलए आप सारिथ के साथ कुछ िदन तक हमारे आ म को सनाथ
कीिजए । राजा : यह उनकी कृपा है । िवदू षक : ( आड़ करके ) इनका यह
अनुरोध तो तु ारे मनोनुकूल ही है । राजा : ( मु राकर ) रै वतक , मेरी ओर से
सारिथ से कहो िक धनुष - बाण और रथ लेकर
___ आए । ारपाल : जो महाराज की आ ा । ( बाहर जाता है । ) दोनों
ऋिषकुमार ( स होकर ) आपका यह काय आपके यो ही है । आपके पूवज भी
__ ऐसा ही करते रहे ह । िवपि म पड़े लोगों को अभयदान दे ना पौरवों का धम
रहा है । राजा : ( णाम करके ) अब आप लोग चल । म बस आपके पीछे ही आ
रहा ँ । दोनों ऋिषकुमार आपकी जय हो ! ( कहकर बाहर िनकल जाते ह । )
राजा : माध , शकु ला को दे खने की इ ा है ? िवदू षक : पहले तो ब त थी ,
पर ु अब यह रा सों वाली बात सुनकर र ी- भर भी शेष
नहीं रही । राजा : डरते ों हो, मेरे पास ही तो रहोगे । िवदू षक : हाँ , तब तो
रा सों से बच जाऊँगा ।
( वेश करके ) ारपाल : महाराज , आपकी िवजय - या ा के िलए रथ तैयार है
और नगर से मातु ी का
आदे श लेकर करभक आया है । राजा : ( आदर के साथ ) ा माताजी ने भेजा है
? ारपाल : जी हाँ ।
राजा : उसे बुलाओ। ारपाल : जो आ ा । ( बाहर जाता है और करभक के साथ
िफर आता है ।) महाराज वह
बैठे ह । पास जाओ। करभक : महाराज की जय हो ! माता ी ने आ ा दी है िक
आज से चौथे िदन उनका
उपवास समा होगा । वहाँ पर िचरं जीव आप अव उप थत हों । राजा : इधर
तप यों का काय है और उधर बड़ों की आ ा । दोनों म से िकसी को भी
टाला नहीं जा सकता । अब ा िकया जाए ? िवदू षक : ि शंकु की तरह बीच म
ही लटके रिहए । राजा : सचमुच ही म िच त हो उठा ँ । ये दोनों काय अलग -
अलग थान के ह ; इसी से
मेरा मन दु िवधा म पड़ गया है , जैसे सामने पवत आ जाने पर िवशाल नदी का
वाह दो भागों म बँट जाता है । ( कुछ दे र िवचार कर ) िम , तु भी तो माताजी पु
के समान ही मानती ह । इसिलए तुम यहाँ से लौटकर नगर चले जाओ। वहाँ जाकर
माताजी से िनवेदन कर दे ना िक म तप यों के काय म फँसा आ ँ और
मेरी ओर से तु ीं पु के सब काय पूरे कर दे ना । िवदू षक : पर तुम यह तो नहीं
समझोगे िक म रा सों से डरकर चला गया ?
राजा : ( मु राकर ) वाह, ऐसा कभी हो सकता है ? िवदू षक : राजा के छोटे
भाई को िजस शान से जाना चािहए, उसी शान से जाऊँगा । राजा : तपोवन के लोगों
को कोई क न हो, इसिलए सब अनुचरों को तु ारे साथ ही
__ वापस भेज दू ं गा । िवदू षक : ( गव के साथ ) वाह , तब तो अब म युवराज ही
हो गया । राजा : ( मन ही मन ) यह ा ण है तो मूख ही । कहीं ऐसा न हो िक यह मेरे
मन की बात
अ ःपुर म जाकर रािनयों से कह दे । अ ा, इसे समझाए दे ता ँ । (िवदू षक का
हाथ पकड़कर कट प से ) िम , ऋिषयों का आदर रखने के िलए म तपोवन म
जा रहा ँ । मुिन - क ा से मुझे िब ु ल भी ेम नहीं है । दे खो, कहाँ तो हम और
कहाँ मृगछौनों के साथ बड़ी ई, ेम का ' क - ख ' भी न जानने वाली वह
शकु ला! मेरी उस हँ सी म कही बात को कहीं तुम सच ही न समझ लेना !
िवदू षक : तुम ा मुझे इतना बुद्धू समझते हो !
( सब बाहर िनकल जाते ह । )
तृतीय अंक
( हाथ म कुशा िलए ए क के िश का वेश ) िश : वाह , महाराज दु
के ताप का ा कहना ! उनके आ म म िव होते ही
हमारे सब य - कम िनिव होने लगे ह । बाण चढ़ाने की तो आव कता ही
नहीं; उनका धनुष ं कार के समान अपनी डोरी के श से ही सब िव ों को दू र कर
दे ता है । चलूँ, वेदी पर िबछाने के िलए यह कुशा य करने वाले पुरोिहतों को दे आऊँ
। ( कुछ दू र चलकर और आकाश की ओर दे खकर) ि यंवदा, यह खस का लेप और
कमलनाल - समेत कमल के प े िकसके िलए ले जा रही हो ? ( सुनकर ) ा कहती
हो ? लू लग जाने के कारण शकु ला की दशा िबगड़ गई है ! उसके शरीर को शा
दे ने के िलए जा रही हो ! तब तो ज ी जाओ। स ख , वह शकु ला तो कुलपित क
का ाण है । म भी अभी जाकर य से बचा पिव जल गौतमी के हाथ िभजवाता ँ ।
( बाहर चला जाता है । ) ( िव क समा )
(िवरह से ाकुल राजा का वेश ) राजा : ( िच ा के साथ गहरी साँ स छोड़कर )
म ऋिषयों के तपोबल को भली- भाँ ित
पहचानता ँ ; और यह भी मुझे मालूम है िक वह सु री शकु ला िपता की आ ा
के िबना कुछ न करे गी । िफर भी म िकसी कार अपने दय को उससे वापस नहीं
लौटा पा रहा ँ । ( िवरह - था का अिभनय करते ए ) भगवान कामदे व , तुमने
और च मा ने िव सनीय होकर भी ेमी - जनों को ब त धोखा िदया है । ोंिक मेरे
जैसे लोगों के िलए न तो तु ारे बाण ही फूलों के रहते ह
और न ही च मा की िकरण शीतल रहती ह । च मा अपनी िहमशीतल िकरणों
से आग बरसाने लगता है और तुम अपने फूलों के बाण को व के समान कठोर कर
लेते हो । (उदास भाव से कुछ दू र चलकर) इस समय ऋिष लोग तो य कम म लगे
ए ह और उ ोंने मुझे कुछ दे र की छु ी भी दे दी है । अब कहाँ चलूँ , जहाँ कुछ दे र
बैठकर थकान िमटा सकूँ ? (गहरी साँ स छोड़कर) ि या के दशन के अित र मेरे
िलए और थान भी कहाँ ! तो चलूं, उसी की खोज क ँ । ( सूय की ओर दे खकर )
ायः इस तेज़ धूप की दु पहरी के समय शकु ला मािलनी के तीर
लताओं के कुंज म रहा करती है । चलो, िफर वहीं चलता ँ । ( कुछ दू र चलकर
ठ ी वायु के श का अनुभव करता आ ) अहा, इस जगह तो खूब ठ ी हवा चल
रही है । यहाँ की वायु म कमलों की सुग भरी है और वायु मािलनी नदी की तरं गों के
जल -कणों से शीतल हो उठी है । मेरे िवरह से तपे शरीर को वायु ब त ही सुखद लग
रही है । ( कुछ दू र चलकर और दे खकर ) शकु ला अव ही इस बत से िघरे ए
लताकुंज म है ; ( भूिम की ओर दे खकर ) ोंिक इस कुंज के ार पर सफेद रे त म
नए पदिच ों की पं िदखाई पड़ रही है । ज़रा पेड़ों की डािलयों से दे खू तो । ( थोड़ा
चलकर दे खता है , स होकर) अहा, आँ खों म चैन पड़ गई । यह मेरी अिभलाषाओं
की रानी प र की िशला पर िबछे फूलों के िबछौने पर लेटी ई है । दोनों स खयाँ
उसके पास बैठी ह । अ ा, सुनूँ तो ये एका म ा बात कर रही ह ( कुंज म अ र
की ओर झाँ कता आ खड़ा रहता है । )
( ऊपर विणत प म स खयों के साथ शकु ला का वेश ) स खयाँ : ( ेह के
साथ पंखा झलते ए ) ों शकु ला, कमल के प े की हवा अ ी तो
__ लग रही है न ? शकु ला : ा तुम मेरे ऊपर पंखा झल रही हो ?
( दोनों स खयाँ िवषाद का अिभनय करती ई एक - दू सरी की ओर
दे खती ह ।) राजा : शकु ला ब त ही अ थ िदखाई पड़ती है । ( सोचकर ) यह
इसे लू लगी है , या
िफर जैसी मेरे मन की दशा है वैसी ही दशा इसकी भी है ? ( ेम के साथ दे खकर
) ठीक है । अब इसम स े ह नहीं । इसकी कलाई म कमलनाल का एक ढीला-ढाला
कंगन पड़ा है । यह ठीक है िक लू लगने पर युवितयों म इस कार का सौ य शेष
नहीं रहता । ि यंवदा : ( चुपके से ) अनसूया , स ख , मेरे मन म भी यही आशंका
है । अ ा, इससे पूछती
ँ । ( कट प से ) स ख , तुझसे एक बात पूछती ँ । तुझे ब त क हो रहा है
! शकु ला : (िब र पर से आधी उठकर बैठ जाती है ।) ा पूछना चाहती हो ?
अनसूया : शकु ला, हम दोनों को यह मालूम नहीं िक ेम ा होता है , िक ु
पु कों म
ेिमयों की जैसी दशा पढ़ी है , इस समय तेरी दशा भी वैसी ही िदखाई पड़ रही है
। अब ठीक बता , तेरे क का कारण ा है ? जब तक िवकार का सही कारण
ात न हो , तब तक उसका कुछ भी ितकार नहीं िकया जा सकता । राजा :
अनसूया ने भी वही बात सोची, जो म सोच रहा था । तब तो मेरा यह िवचार
केवल ाथ े रत नहीं था । शकु ला : ( मन ही मन) मेरा ेम अ ती है ।
िफर भी म एकाएक इ बताऊँ कैसे ! ि यंवदा : शकु ला, अनसूया , ठीक कहती
है । अपने रोग की इस तरह उपे ा ों करती
हो ? िदनोंिदन तु ारी दे ह सूखती जाती है । अब बस सौ य की झलक ही तुम
पर शेष बची है ।
राजा : ि यंवदा की बात सच है , ोंिक इसके कपोल और मुख िब ु ल मुरझा
गए ह ।
किट और भी अिधक झीण हो गई है । क े ब त झुक गए ह । रं ग पीला पड़ गया
है । इस समय ेम से ाकुल इस शकु ला को दे खकर दु ःख भी होता है और दे खने
म यह ि य भी लगती है । इसकी दशा उस माधवी लता के समान है ,
िजसके प े पि मी वायु के श से सूख चले हों । शकु ला : स ख, यिद तुमसे
न क ँ गी तो और क ँ गी िकससे ! इस समय मेरे िलए तु
कुछ क उठाना पड़े गा । स खयाँ : इसीिलए तो हम इतना आ ह कर रही ह ।
इ - ब ुओं म बाँ ट लेने से दु ःख की
पीड़ा स हो जाती है । राजा : जब सुख- दु ःख म साथ रहने वाली स खयाँ पूछ
रही ह तो यह शकु ला अपनी
मानिसक ािध का कारण अब बताएगी ही । य िप इसने अपनी ललचाई आँ खों
से बार- बार मुझे दे खा था, िफर भी इस समय म इसकी था का कारण सुनने के
िलए अधीर हो उठा ँ । शकु ला : स खयो, जब से मने तपोवन के र क उन
राजिष के दशन िकए ह , तभी से
उनके ेम म मेरी यह दशा हो गई है । राजा : ( स होकर ) जो सुनना था , वह
सुन िलया । कामदे व ने ही वेदना जगाई थी और
अब उसी ने उसे शा भी िकया है ; जैसे अित च गम के िदन अपरा म
बादल आ जाने से ािणयों को शा िमल जाती है । शकु ला : यिद तुम दोनों
को ठीक लगे तो ऐसा करो, िजससे वह राजिष मुझ पर दया करे ।
अ था मेरे िलए ितल और जल की अंजिलयाँ तैयार कर लो । राजा : इस बात को
सुनकर तो कोई स े ह ही नहीं रहा । ि यंवदा : ( धीरे से ) अनसूया, इसका ेम ब त
दू र तक बढ़ चुका है । अब िवल इससे
सहन नहीं होगा । िजससे इसका अनुराग है , यह पु वंश का भूषण है । इसके इस
ेम की शंसा करना ही उिचत है । अनसूया : ठीक कहती हो । ि यंवदा :
( कट प से ) स ख, तु ारा यह अनुराग तु ारे अनु प ही है । महानदी सागर
के अित र और िमलेगी भी िकससे ! प ों से लदी ई माधवी लता को आ के
वृ के िसवाय और संभाल भी कौन सकता है ! राजा : यिद िवशाखा न
शिशकला का अनुगमन करे , तो इसम आ य ा है ! अनसूया : पर ऐसा ा उपाय
िकया जाए, िजससे हमारी सखी की कामना अिवल और
गुपचुप पूरी हो जाए ? ि यंवदा : गुपचुप हो , यही बात सोचने की है । ज ी करना
तो सरल है ।
अनसूया : वह कैसे? ि यंवदा : उन राजिष को भी इससे ेम है , यह बात उनकी
ेह भरी ि को दे खकर िछपी
नहीं रहती । आजकल राि - जागरण के कारण वे कुछ दु बल भी िदखाई पड़ते ह

राजा : सच है । मेरी दशा ऐसी ही हो गई है । रात म जब म बाँ ह पर िसर रखकर
लेटता ँ
तो दय के स ाप से गम - गम आँ सू आँ खों से बहने लगते ह । उन आँ सुओं के
कारण मेरे इस सोने के कंगन म जुड़े ए र का रं ग मैला पड़ गया है । बाँ ह पतली हो
जाने के कारण यह कंकण बार - बार डोरी के आघात -िच को छु ए िबना ही नीचे को
सरक जाता है , और मुझे बार- बार इसे ऊपर की ओर
सरकानापड़ता है । ि यंवदा : (सोचकर) स ख, इसकी ओर से ेमप िलखो।
उस प को म दे वता के साद
के बहाने फूलों म िछपाकर उनके हाथ मदे आऊँगी । अनसूया : यह उपाय ब त
अ ा है । ों शकु ला, ा कहती हो ? शकु ला : मुझे ा सोचना -िवचारना है !
ि यंवदा : तो अपनी मनोदशा का वणन करते ए एक सु र - सी किवता तो बना
डालो । शकु ला : अ ा, सोचती ँ । पर ु मेरा दय इस िवचार से काँ प उठता है
िक कहीं वे मेरा
ितर ार न कर द । राजा : ( स होकर ) अरी भी , िजससे तु ितर ृ त
होने की आशंका हो रही है , वह
तो तुमसे िमलने को अधीर खड़ा है । याचक को ल ी िमले या न िमले, पर ु
यं ल ी िजसे चाहे , वह कैसे दु लभ हो सकता है ? स खयाँ : तुम थ ही अपने
गुणों का अनादर करती हो । शरीर को शा दे ने वाली शरद
___ ऋतु की चाँ दनी को कौन कपड़ा ओढ़कर अपने से दू र रखता है ! शकु ला
: ( मु राकर ) अ ा, म ेमप िलखती ँ । ( बैठी - बैठी सोचने लगती है ।) राजा :
अपनी ि यतमा को अपलक दे खने का यह ब त ही अ ा अवसर है । यह इस
समय किवता रचने बैठी है । इसकी एक भौंह कुछ ऊँची हो गई है । और कपोलों
पर रोमां च हो आया है । मेरे ित इसका ेम िकतना झलक उठा है !
शकु ला : स ख, मने गीत तो सोच िलया है , पर ु यहाँ िलखने का कोई साधन तो है
ही
नहीं । ि यंवदा : यह कमल का प ा कैसा तोते के पेट के समान सुकुमार है , इसी
पर अपने
नाखूनों से िलख डालो न ! शकु ला : ( कमल के प े पर नाखुनों से िलखकर )
री, अब ज़रा सुन लो । ठीक बना है या
नहीं ? स खयाँ : सुनाओ। हम सुन रही ह । शकु ला : ( पढ़ती है ।)
तड़पूँ म िदन - रात न मुझको चैन एक पल आए रे ! लगी ेम की आग मुझे, जो
अंग - अंग झुलसाए रे !
तेरे जी का हाल न जानूँ मुझे चाह तड़पाए रे ! राजा : (एकाएक पास प ँ चकर)
सु री, कामदे व तु तो केवल तपाता है , पर ु मुझे
तो जलाए ही डालता है । िदन के कारण च मा की का िजतनी मिलन हो
जाती है ; उतनी कुमुिदनी की नहीं होती । स खयाँ : ( स होकर) वाह, हमने
सोचा और आप आ प ँ चे। आपका ागत है ।
( शकु ला उठना चाहती है ) राजा : लेटी रिहए, उठने का क न कीिजए । सेज
के फूल आपके शरीर पर िचपक गए
ह और टू टी ई कमलनालों की सुग उसम रम गई है । इससे है िक
आपका शरीर र से जल रहा है । आपको िश ाचार दिशत करने की आव कता
नहीं
अनसूया : आप भी इस प र की िशला के एक भाग को सुशोिभत कीिजए ।
( राजा बैठ जाता है । शकु ला लजाई बैठी रहती है । ) ि यंवदा : आप दोनों का
एक - दू सरे के ित ेम कट हो ही चुका है , िफर भी अपनी सखी
के ित ेम के कारण मुझे बात दु हरानी पड़ रही है । राजा : भ े , अव किहए
। सोची ई बात यिद न कही जाए ता उसका प ा ाप बना
रहता है । ि यंवदा : अपने रा म रहने वाले िवपि का दु ःख राजा
को दू र करना चािहए ।
यह आपका धम है न ? राजा : बस , इतनी- सी बात ? ि यंवदा : हमारी इस ि य
सखी की आपके कारण भगवान् कामदे व ने यह दशा कर दी है ।
__ अब आप ही कृपा करके इसे जीवन- दान दीिजए । राजा : भ े , यह ेम दोनों
ओर से है । आपने मुझ पर अनु ह िकया है । शकु ला : (ि यंवदा की ओर दे खकर)
सखी, अ ःपुर के िवरह से बेचैन राजिष से इस
कार ों आ ह कर रही हो ? राजा : सु री , तुम मेरे दय म आसन बना
चुकी हो । मेरा यह दय तु ारे ही वश म है ।
यिद तु इस पर िव ास नहीं, तो तुम मुझ पर एक और नई चोट कर रही हो ।
कामदे व के बाणों से म पहले ही घायल हो चुका ँ । अनसूया : िम , सुना है
राजाओं की ब त - सी रािनयाँ होती ह । आप ऐसा कीिजए, िजससे
हमारी इस ारी सखी के िलए इसके इ - ब ुओं को दु ःख न करना पड़े । राजा
: भ े , ब त कहने से ा लाभ? अनेक रािनयों के होते ए भी मेरे कुल की
ित ा केवल दो से ही होगी । एक तो समु - वसना पृ ी से और दू सरे तु ारी
इस
सखी से । स खयाँ : चिलए, हम स ोष आ । ि यंवदा : ( बाहर की ओर दे खकर
) अनसूया, यह ह रण का ब ा हमारी ओर उदास ि से
दे ख रहा है । बेचारा अपनी माँ को ढू ँ ढ़ता िफर रहा है । चलो, इसे इसकी माँ से
िमला द ।
( दोनों चल पड़ती ह ) शकु ला : स ख , तुम मुझे अरि त छोड़ चलीं। तुमम से
कोई एक तोआ जाओ।
स खयाँ : जो सारी पृ ी का र क है , वह तो तु ारे पास बैठा है । ( कहकर चली
जाती
शकु ला : यह ा ! चली ही गईं ! राजा : घबराओ नहीं, तु ारा यह पुजारी
तु ारे पास जो बैठा है । कहो, ा कमलप ों ___ के पंखे से तु ारे ऊपर ठ ी
हवा करके थकान िमटाऊँ या तु ारे इन कमल के
समान पैरों को अपनी गोद म रखकर धीरे - धीरे सहलाऊँ , िजससे तु सुखिमले
। शकु ला : आप आदरणीय ह । ऐसा करवाकर म अपराध की भािगनी नहीं बनना
चाहती ।
( उठकर जाना चाहती है । ) राजा : सु री, अभी िदन ढला नहीं है और तु ारा
शरीर भी थ नहीं है । इस समय
फूलों की सेज को छोड़कर और कमल - प ों की बनी इस अंिगया को छोड़कर
र से दु बल ए इस शरीर से तुम धूप म कैसे जाओगी ?
( कहकर उसे बलपूवक लौटा लेता है ।) शकु ला : पौरव , अिश ता मत करो।
ेम से ाकुल होने पर भी म ाधीन नहीं ह । राजा : भी , तुम गु जनों से थ
डरती हो । इस सबको जान - सुनकर धम के ाता
महिष क बुरा नहीं मानगे। दे खो, पहले भी अनेकों राजिषयों की क ाओं का
िववाह गा व िविध से हो चुका है और उनके िपताओं ने उन क ाओं का
अिभन न ही िकया , बुरा नहीं माना । शकु ला : मुझे छोड़ दो। िफर भी म
स खयों से तो पूछ लूँ ।
राजा : अ ा, छोड़ दू ं गा । शकु ला : कब? राजा : जब म तु ारे इस अ त्,
कोमल अधर का अपने ासे होंठों से उसी कार रसपान कर लूँगा जैसे मर
सदयता के साथ नए फूल का रस लेता है ।
( यह कहकर उसके मुख को ऊपर उठाना चाहता है । शकु ला मुँह बचाने का
अिभनय करती है ।)
( नेप म ) ओ च वाकवधू, सहचर को िवदा दो । राि आ प ँ चती है ।
शकु ला : ( हड़बड़ाकर ) पौरव , मेरा हाल- चाल पूछने के िलए अव गौतमी यहाँ
आ रही
है , तुम पेड़ों के पीछे िछप जाओ। राजा : अ ा । (िछपकर बैठ जाता है ।)
(उसके बाद पा हाथ म िलए गौतमी और स खयों का वेश ) स खयाँ : आय
गौतमी, इधर आइए , इधर । गौतमी : ( शकु ला के पास जाकर) बेटी , तु ारे शरीर
का ताप कुछ कम आ िक नहीं ? शकु ला : आय, अब तो काफी अ र है । गौतमी
: इस कुशा के जल से तेरा शरीर िब ु ल नीरोग हो जाएगा । ( शकु ला के िसर पर
पानी िछड़ककर ) बेटी, अब तो िदन ढल गया । चलो, कुिटया म ही चलते ह ।
( सब चल पड़ती ह ।) शकु ला : ( मन ही मन ) दय ! इतनी सरलता से इ ा
पूरी हो गई, पर तुम पहले -पहल
अपनी कातरता ाग न सके । अब िबछड़ जाने पर इतने पछता ों रहे हो ? हे
स ापहारक लताकुंज, तु आन -िवहार के िलए िफर िनम ण िदए जाती ँ ।
( शकु ला उदास होकर सबके साथ बाहर चली जाती है । ) राजा : ( पहले थान
पर आकर गहरी साँ स छोड़कर) आह, मनोकामनाओं की पूित म
हज़ार िव होते ह । जब वह सु र पलकों वाली शकु ला अंगिलयों से अपने
होंठों को ढककर बार- बार ' नहीं', ' नहीं ' कहती जा रही थी और इसीिलए और भी
अिधक सु र लग रही थी , उस समय मने उसके क े पर रखे ए मुख को जैसे तैसे
ऊपर की ओर तो िकया, िक ु चूम नहीं पाया । अब कहाँ जाऊँ ? या कुछ दे र इसी
लताकुंज म बैठता ँ , जहाँ मेरी ि या इतनी दे र िव ाम करके चली गई है । ( चारों
ओर दे खकर ) उधर िशला के ऊपर उसके शरीर से मसली ई यह फूलों की सेज
िबछी है । इधर यह कमल के प े पर नाखूनों से िलखा आ मुरझाया आ ेमप
पड़ा है । यह उसके हाथ से िगरा आ कमलनाल का कंगन पड़ा है । मेरी ि जैसे
इन व ुओं पर िचपकी- सी जा रही है । इस सूने बत के कुंज से भी एकाएक बाहर
िनकल पाना मेरे बस का नहीं है ।
( आकाश म ) महाराज, अभी सायंकाल का य ार होते ही य ाि की वेदी
के चारों ओर माँ स खाने वाले रा सों की दू र - दू र तक फैली ई सं ाकाल के मेघों
के समान
भूरी, डरावनी छायाएँ च र काटने लगी ह । राजा : घबराओ नहीं । यह म आ
प ं चा ।
( बाहर िनकल जाता है ।)
चतुथ अंक
( फूल चुनने का अिभनय करती ई दोनों स खयों का वेश ) अनसूया : ि यंवदा
, शकु ला को गा व िविध से िववाह करके अपने अनु प पित िमल
गया, इससे मेरे दय को बड़ा स ोष आ । िफर भी यह बात ज़रा सोचने की है
। ि यंवदा : ा बात ? अनसूया : यह िक आज वह राजिष य की समा पर
ऋिषयों से िवदा लेकर अपने नगर
को चले जाएं गे । वहाँ जाकर अ ःपुर म वेश करके उ यहाँ की बात याद भी
रहती ह या नहीं । ि यंवदा : िच ा मत कर, इस कार की सु र आकृित वाले
पु ष दोषी नहीं आ करते ।
पर यह मालूम नहीं िक इस सारे वृ ा को सुनकर िपता क ा कहगे!
अनसूया : मुझे तो ऐसा लगता है िक वह इसे ठीक ही मानगे । ि यंवदा : वह ों ?
अनसूया : सबसे बड़ी बात यही होती है िक क ा गुणवान को दी जाए । यिद
भा
ही इसे पूरा कर दे तो माता-िपता की अिभलाषा तो अनायास ही पूण हो गई
समझो। ि यंवदा : (फूलों की डिलया की ओर दे खकर) स ख, पूजा के िलए फूल
काफी हो गए ।
अनसूया : आज स ख शकु ला को सौभा दे वी की भी तो पूजा करनी है ।
ि यंवदा : ठीक है । (िफर चुनने लगती है । )
( नेप म ) अनसूया : ( ान से सुनकर ) स ख , अितिथयों की - सी आवाज़
मालूम होती है । ि यंवदा : कुिटया म शकु ला तो है । ( मन ही मन ) पर ु वहाँ होते
ए भी आज उसका
___ मन वहाँ नहीं है । अनसूया : अ ा, इतने फूल ब त ह । ( कहकर दोनों चल
पड़ती ह ।)
( नेप म ) अरी, अितिथ का ितर ार करने वाली, तू एका मन से िजसके
ान म म होकर मुझ घर आए ए तप ी ऋिष को भी नहीं पहचान रही है , वह
तुझे भूल जाएगा और याद िदलाने पर भी उसी तरह याद नहीं कर पाएगा, जैसे कोई
नशेबाज़ नशे की दशा म कही ई बातों को याद नहीं कर पाता ।
ि यंवदा : हाय- हाय ! यह बुरा आ । अ मन शकु ला िकसी पूजनीय
के ित
अपराध कर बैठी है । ( सामने की ओर दे खकर ) वह भी िकसी ऐसे- वैसे के ित
नहीं! यह चट ु हो उठने वाले महिष दु वासा शाप दे कर तेज़ी के साथ दनदनाते
ए वापस लौटे जा रहे ह । अि के िसवाय और जला कौन सकता है ! अनसूया :
जा , पैरों पड़कर इ वापस बुला ला । तब तक म जलपान तैयार करती ँ । ि यंवदा
: अ ा । ( बाहर िनकल जाती है ।) अनसूया : ( कुछ कदम चलकर ठोकर लगने का
अिभनय करती है । ) हाय , हड़बड़ाकर चली
तो यह ठोकर लगी और मेरे हाथ से फूलों की डिलया छूट गई । ( फूल चुनने का
अिभनय करती है ।)
( वेश करके ) ि यंवदा : सखी, वह तो भाव से ही टे ढ़े ह । वह िकसी की
अनुनय-िवनय कहाँ सुनते ह !
िफर भी मने जैसे - तैसे थोड़ा- ब त मना ही िलया । अनसूया : ( मु राकर)
उनके िलए तो इतना भी ब त है । अ ा, ा बात ई ? ि यंवदा : जब वह लौटने
को तैयार ही न ए तो मने कहा, भगवन् , शकु ला आपके तप
के भाव को नहीं जानती; िफर भी वह आपकी क ा के समान है , उसके इस
अपराध को पहला अपराध समझकर ही मा कर दीिजए । अनसूया : िफर ा
आ ? ि यंवदा : तब वह कहने लगे िक मेरी बात िम ा नहीं हो सकती । िक ु
पहचान का
आभूषण िदखा दे ने पर शाप समा हो जाएगा । यह कहते ए वह अ धान हो
गए । अनसूया : चलो, अब तो कुछ सहारा है । चलते समय वह राजिष एक
अंगूठी दे गए ह , िजस
पर उनका नाम िलखा है । उसे शकु ला को पहनाते ए उ ोंने कहा था िक यह
मेरी याद रहे गी । अब उस अंगूठी के ारा शकु ला शाप का ितकार कर
सकेगी। ि यंवदा : स ख, चलो, उसके िलए सौभा दे वी की पूजा तो कर आएँ । (
दोनों चलती ह ।) ि यंवदा : ( सामने की ओर दे खकर) अनसूया, वह दे ख तो; ारी
स ख शकु ला हाथ के
ऊपर मुँह रखे कैसी िच ां िकत- सी िदखाई पड़ रही है । पित के ान म म इस
बेचारी को तो अपना ही ान नहीं है , िफर आगु क का तो कहना ही ा!
अनसूया : ि यंवदा, यह बात बस हम दो तक ही रहे । शकु ला का भाव ब त
सुकुमार
है , उसे यह बात न बताना ही ठीक है । ि यंवदा : नवम का को कहीं उबलते
पानी से सींचा जाता है !
( दोनों बाहर िनकल जाती ह ।) (िव क)
( नींद से उठकर आए ए िश का वेश ) िश : या ा से वापस लौटकर आए
महिष क ने मुझे समय दे खने के िलए कहा है । तो
ज़रा बाहर चलकर काश को दे खू िक राि िकतनी शेष है । ( कुछ दू र चलकर
और दे खकर ) अरे , यह तो भात हो गया ! एक ओर च मा अ ाचल के िशखर पर
डूब रहा है । और अ िणमा को आगे िकए सूय उदयाचल पर आ रहा है । इन दो
काश-िप ों के एक ही समय म डूबने और उदय होने से लोगों को समझ लेना
चािहए िक सुख और दु ःख तो एक के पीछे लगे ही रहते ह । अब च मा के िछप जाने
पर वही कुमुिदनी, िजसकी शोभा भुलाए नहीं भूलती, वैसी सु र िदखाई नहीं पड़ती ।
ठीक है , ि य के वास म चले जाने पर अबलाओं को िवरह का दु ःख अस हो उठता
है ।
( िबना परदा िगराए वेश करके ) अनसूया : य िप म ेम की इन बातों को ब त
तो नहीं समझती, िफर भी उस राजा ने
शकु ला के साथ ब त बुरा िकया ! िश : चलकर गु जी को बतला दू ँ िक
हवन का समय हो गया है । ( बाहर िनकल जाता
अनसूया : जागकर भी ा क ँ गी ? अपने िन के काय को करने के िलए भी
मेरे हाथ
पैर नहीं िहल रहे ह । अब कामदे व खूब स हो ले, िजसने मेरी ारी सखी का
ेम ऐसे झूठे राजा से करा िदया ! या शायद यह दु वासा के कोप का ही प रणाम है ।
नहीं तो यह बात कहीं हो सकती थी िक वह राजिष ऐसी मधुर - मधुर बात कहने के
बाद इतने समय तक प तक न भेजे। अब यहाँ से उनके रण -िच के प म दी
गई उनकी अंगूठी को उसके पास भेज ? पर ु संयमशील तप यों से इस िवषय म
अनुरोध कैसे िकया जाए ? िपता क से सखी शकु ला के अपराध की बात तो कह
सकती ँ , पर ु उनसे यह िकसी कार नहीं कह सकती िक शकु ला का दु से
िववाह हो गया है और अब वह गभवती है । ऐसी दशा म ा क ँ ? कुछ सूझता नहीं

( वेश करके ) ि यंवदा : ( स होकर ) ज ी चल , अनसूया , ज ी चल ।
शकु ला की िवदाई का
__ आयोजन करना है । अनसूया : हाँ ! पर स ख , यह बात ई कैसे ? ि यंवदा :
सुन ! अभी म शकु ला के पास यह पूछने गई थी िक उसे रात को नींद तो ठीक
___ आई या नहीं ? अनसूया : िफर ा आ ? ि यंवदा : वहाँ शकु ला ल ा
से मुँह नीचा िकए खड़ी थी । िपता क ने उसे छाती से
लगाते ए कहा, ' यजमान की आँ ख धुएँ से बेचैन होने पर भी सौभा से आ ित
आग म ही पड़ी । बेटी , अ े िश को दी गई िव ा की भाँ ित अब तेरे िलए भी मुझे
कोई िच ा नहीं है । आज ही तुझे ऋिषयों के साथ िवदा करके तेरे पित के पास भेजे
दे ता ँ ।
अनसूया : पर िपता क को यह बात बताई िकसने ? ि यंवदा : जब वे य शाला
म िव ए तो वहाँ किवता म यहभिव वाणी ई
अनसूया : ( चिकत होकर ) वह ा ? ि यंवदा : ों शमी म अि रहती गु ,
मुिन , क ाणकारी ।
तेज को दु के धारण िकए क ा तु ारी ।। अनसूया : (ि यंवदा को छाती से
लगाकर ) स ख, सुनकर बड़ा आन आ । िक ु
शकु ला आज ही चली जाएगी, इसका दु ःख मुझे इस आन के समय भी हो
रहा है । ि यंवदा : स ख , हम तो जैसे- तैसे अपने दु ःख को बहला लगी । वह
बेचारी तो िकसी तरह
िकनारे लगे । अनसूया : ठीक है ! तो दे ख , उस आम की शाखा म लटके ए
ना रयल के कसोरे म मने
आज के िदन िलए ही मौलिसरी की माला रख छोड़ी है । तू ज़रा इसे उतार, म भी
तब तक शकु ला के िलए तीथ- मृि का, दू ब के प े तथा अ मंगल - साम ी
तैयार क ँ | ि यंवदा : ठीक है । ज ी कर ।
( अनसूया बाहर जाती है , ि यंवदा मौलिसरी की माला उतारने का
अिभनय करती है ।)
( नेप म ) गौतमी : शकु ला को ले जाने के िलए शा रव आिद को कह दो ।
ि यंवदा : ( ान से सुनकर) अनसूया , ज ी कर; ज ी । उधर ह नापुर जाने
वाले
ऋिषयों की पुकार हो रही है ।
( साम ी हाथ म िलए वेश करके ) अनसूया : आओ स ख, चल ।
( दोनों चलती ह ।) ि यंवदा : (दे खकर) वह दे खो, शकु ला सवेरे - सवेरे ही ान
करके बैठी ई है । उसके
पास खड़ी तप िनयाँ चावल के दाने िलए वाचन पढ़ती ई आशीवाद दे
रही ह । चलो, उसके पास ही चल । ( दोनों शकु ला के पास जाती ह । )
( ऊपर बताए अनुसार आसन पर बैठी शकु ला का वेश ) एक तप नी : (
शकु ला को ल करके ) बेटी , तु पित के ेम का सूचक महादे वी पद
ा हो ! दू सरी तपि नी : बेटी, तुम वीर माता बनो ! तीसरी तप नी : बेटी,
तु अपने पित से आदर ा हो !
( आशीवाद दे कर गौतमी के अित र अ तप िनयाँ बाहर
चली जाती ह ।) स खयाँ : (पास जाकर) स ख , तु ारा यह ान सौभा कारी हो
!
शकु ला : आओ स खयो! तु ारा ागत है । यहाँ , इधर बैठो । स खयाँ : (
मगंल पा लेकर पास बैठ जाती ह ।) री, तैयार हो जा । अब तेरा मंगल ंगार
करना है । शकु ला : यह भी बड़ी बात है । अब मुझे अपनी स खयों के हाथ का
ंगार भी दु लभ हो
जाएगा । ( रोने लगती है ।) स खयाँ : स ख , मंगल के अवसर पर रोना उिचत
नहीं ।
( आँ सू पोंछकर उसका ंगार करने का अिभनय करती ह ।) ि यंवदा : तु ारे
इस मनोहर प का ंगार तो आभूषणों से होना चािहए था । आ म म
जुटाई गई यह ंगार- साम ी तुम पर कुछ फबी नहीं ।
( उपहार िलए हए दो ऋिषकुमारों का वेश) ऋिषकुमार : ये आभूषण ह । इनसे
इनका ंगार कीिजए ।
( सब दे खकर चिकत रह जाती ह ।) गौतमी : बेटा नारद , यह सब कहाँ से िमला
? एक ऋिषकुमार यह सब गु जी का भाव है । गौतमी : ा उ ोंने अपने तपोबल
से इ मँगाया है ? दू सरा ऋिषकुमार जी नहीं ! सुिनए, गु जी ने हम आदे श िदया था
िक शकु ला के िलए
वन ितयों पर से फूल ले आओ। जब हम वहाँ गए तो िकसी वृ ने तो च मा के
समान ेत रे शमी मंगल व दान िकया और िकसी ने पैरों को रं गने के िलए उ म
ला ारस उगल िदया । अ वृ ों म से भी वन - दे वताओं ने नवप वों के समान
अपने हाथ हथेली तक बाहर िनकालकर ये
आभूषण दान िकए । ि यंवदा : ( शकु ला को दे खकर) री, वनदे वताओं के
इस अनु ह से तो यही लगता है िक
पित के घर जाकर तुम राजल ी का उपभोग करोगी ।
( शकु ला लजा जाती है ।) पगला ऋिषकुमार गौतम , आओ चल । गु जी ान
कर चुके होंगे। उ चलकर वन ितयों
की इस सेवा का वृ ा सुना द । दू सरा ऋिषकुमार चलो!
( दोनों बाहर जाते ह । ) स खयाँ हमने आभूषणों का योग कभी िकया नहीं ।
िच ों म जैसा दे खा है , उसी के
___ अनुसार तु आभूषण पहनाए दे ती ह । शकु ला : तु ारी िनपुणता को म
भली- भाँ ित जानती ँ ।
( दोनों आभूषण पहनाने का अिभनय करती ह । )
( ान करके आए हए महिष क का वेश ) क : आज शकु ला जाएगी,
इस कारण मेरा दय दु ःख से भारी हो रहा है ; आँ सू भर
आने के कारण गला ं ध रहा है । िच ा के कारण ि धुंधली पड़ गई है । जब
ेम के कारण मुझ जैसे वनवासी को इतनी िवकलता हो रही है , तो पु ी के
िवयोग म गृह थयों को तो न जाने िकतना क होता होगा ! (कुछ दू र चलते ह । )
स खयाँ : री, शकु ला ! ंगार पूरा हो गया । अब रे शमी जोड़ा पहन ले ।
( शकु ला उठकर रे शमी व पहनती है ।) गौतमी : बेटी, यह तु ारे िपता
क आए ह । आन बहाती ई ि से ही मानो ये तु
गले लगा रहे ह । इ णाम करो । शकु ला : ( ल ा के साथ ) िपताजी णाम
! क : बेटी, जैसी शिम ा ययाित की मनचाही रानी थी , वैसी ही तुम भी बनो और
उसी
__ की भाँ ित तु भी पु के समान स ाट पु ा हो । गौतमी : भगवान् यह तो
आशीवाद ा वरदान ही है । क : बेटी, इधर आओ। इस य ाि की दि णा कर
लो ।
( सब य ाि की दि णा करते ह । ) क : ( म पढ़ते ह । )
अमी वेिदं प रतः ृ िध ाः सिम ः ा सं ीणदभाः। अप ों दु रतं
ह ग ैदैताना ां प यः पावय ु ।। अब थान करो । ( बाहर की ओर दे खकर )
वे शा रव आिद कहाँ ह ?
( वेश करके ) िश : भगवन्, हम यह आ गए । क : अपनी बिहन को माग
िदखाओ! शा रव : इधर आइए, इधर ।
( सब चलते ह । ) क : हे वन दे वताओं से अिधि त तपोवन के वृ ो! जो
शकु ला तु पानी िदए िबना
यं कभी पानी नहीं पीती थी , शंगारि य होने पर भी जो ेम के कारण कभी
तु ारे प े नहीं तोड़ती थी , और जब तुम पर पहले- पहल फूल आते थे, तब जो
उ व मनाया करती थी , वह आज अपने पित के घर जा रही है । आप सब इसे जाने
की अनुमित द ।
( कोयल की आवाज़ सुनाई पड़ती है । उसकी ओर ान आकृ
करके ) वनवास के साथी वृ ों ने इस शकु ला को जाने की अनुमित दे दी है ।
तभी उ ोंने मधुर कोयल के ारा मेरी बात का उ र- सािदया है ।
( आकाश म ) तु ारे माग म जगह - जगह कमल की बेलों से हरे - भरे रमणीय
सरोवर हों , सूयिकरणों के ताप से बचाने वाले घने वृ ों की छाया हो ! तु ारे माग की
धूल कमल के पराग के समान कोमल हो जाए! पवन शा और अनुकूल हो ! तु ारा
माग इस या ा के िलए शुभ हो ।
( सब आ य के साथ सुनते ह ।) गौतमी : बेटी , सगे - स यों के समान ेम
करने वाली तपोवन की वन - दे िवयों ने तु
जाने की अनुमित दे दी है । इ नम ार कर लो । शकु ला : ( णाम करके
आगे चलती ई चुपके से ) री ि यंवदा, उनके दशन की उ ुकता
तो मुझे अव है , िफर भी इस आ म को छोड़कर पैर आगे बढ़ाते ए मुझे
िकतना दु खः हो रहा है , यह म ही जानती ँ । ि यंवदा : तपोवन से अलग होते ए
केवल तु ही दु ःख हो रहा हो , यह बात नहीं । तु ारे
इस भावी िवयोग के कारण तपोवन की भी तु ारी जैसी ही दशा हो रही है ।
ह रिणयाँ दू ब के चबाए ए ास को उगलकर खड़ी हो गई ह । मोरों ने नाचना
छोड िदया है और पीले प े िगराती हई बेल आँ सू - से बहा रही ह । शकु ला : (
याद करके ) िपताजी, म अपनी लता, बिहन वन - ो ा से िवदा ले लूँ । क :
जानता ँ , तेरा उससे सगी बिहन - सा ेम है । वह रही उधर, दि ण की ओर ।
शकु ला : ( पास जाकर बेल को छाती से लगाकर ) वन - ो ा, आम से िचपटे
-िचपटे ही
अपनी इधर- उधर फैली ई शाखा -बा ओं से तू मुझे भी आिलंगन कर ले । आज
म तुझसे दू र चली जाऊँगी। क : मने तेरे िलए जैसा सोच रखा था , तुझे अपने
पु ों से अपने अनु प वैसा ही पित
ा हो गया । यह नवम का भी इस आ वृ से िलपट गई है । अब मुझे न
तेरी
िच ा रही और न इसकी । आओ, इधर रा े पर चल । शकु ला : ( स खयों से
) स खयो, इसे तुम दोनों के हाथ सौंपे जाती ँ । स खयाँ : और हम िकसके हाथ सौंपे
जा रही हो ? ( रोने लगती ह ।) क : अनसूया , रोओ नहीं । तु तो उ ा शकु ला
को धैय बँधाना चािहए।
( सब आगे चलते ह ।) शकु ला : िपताजी , कुिटया के पास यह जो गभवती
िहरनी िफर रही है , जब यह सकुशल
ब ा जने तब इस सुसंवाद को सुनाने के िलए मेरे पास भी िकसी न िकसी को
अव भेजना । क : अ ा, यह बात भूलूँगा नहीं। शकु ला : ( चाल म बाधा
का अिभनय करके ) यह मेरे कपड़े को कौन खींच रहा है ?
( घूमकर दे खती है ।) क : बेटी, यह वही ह रण है , िजसे तुमने अपना पु बना
िलया था । कुशा के काँ टों से
इसके मुख म घाव हो जाने पर तुम उसे ठीक करने के िलए इं गुदी का तेल
टपकाया करती थीं । तुमने सामक धान की मुि याँ खला - खलाकर इसे बड़ा
िकया है । आज वही तु ारी राह रोककर खड़ा है । शकु ला : बेटा , म तेरा
साथ छोड़कर जाने लगी ँ । अब तू मेरा पीछा ों करता है ? माँ
ज दे ने के कुछ दे र बाद ही मर गई थी ; िफर भी तू बड़ा हो ही गया । अब भी
मेरे पीछे िपताजी तेरी दे ख -रे ख करते रहगे । जा, लौट जा । ( रोती ई आगे चल
पड़ती
है । )
क : बेटी धीरज धरो । आँ सुओं को पोंछ डालो । इनके कारण पलक खुली होने
पर भी
ि काम नहीं करती । यहाँ भूिम ऊबड़- खाबड़ है । तुम िबना दे खे चल रही हो,
इसी
से तु रह -रहकर ठोकर लग रही ह । शा रव : भगवन , पहले पानी तक ि य
के साथ जाना चािहए, ऐसी था है । यह
सरोवर का तट आ गया । यहाँ जो कुछ स े श दे ना हो , वह दे कर अब आप
वापस
लौट जाएँ । क : तो चलो, थोड़ी दे र इस पीपल की छाया म बैठकर िव ाम कर
ल।
( सब थोड़ी दू र चलकर बैठ जाते ह ।) शकु ला : ( चुपके से ) री , उस चकवी
का साथी चकवा कमल के प े के पीछे िछप गया है ।
उसे दे ख न पाने के कारण यह चकवी िकतनी अधीर होकर िच ा रही है । िजस
काम पर म चली ँ , वह भी पूरा होता िदखाई नहीं पड़ता । अनसूया : स ख, ऐसी
बात मुँह से मत िनकाल । यह बेचारी चकवी भी अपने ि य -िवरह म
िवषाद के कारण और भी ल ी जान पड़ने वाली रात को जैसे - तैसे िबता ही लेती
है । िवरह का दु ःख चाहे िकतना ही अिधक ों न हो , िक ु आशा उसे स बना
दे ती है । क : शा रव , मेरी ओर से तुम महाराज दु से शकु ला को
सामने करके यह
कहना : शा रव : किहए । क : कहना िक हम लोग तप ी ह और तु ारा
कुल ब त ऊँचा है । इस शकु ला के
ित तु ारे मन म यं ही ेम उ आ था । इ ब ुओं ने य पूवक स
नहीं कराया । इन सब बातों को ान म रखते ए तुम इसे कम से कम अपनी अ
रािनयों के समान आदर अव दे ना । इससे आगे जो भी हो , वह भा की बात है ।
उसके िवषय म वधू के स यों का कुछ भी कहना उिचत नहीं । शा रव :
ठीक है । मने स े श समझ िलया । क : बेटी, अब तु भी कुछ समझना है । भले
ही हम वन म रहते ह , िफर भी लोक
वहार को भली- भाँ ित जानते ह । शारव : ऐसी ा बात है , जो िव ान लोगों को
मालूम न हो । क : बेटी, तुम यहाँ से अपने पित के घर जाकर बड़े - बूढ़ों की सेवा ,
सौतों के साथ
ारी सहे िलयों का - सा बताव करना । यिद पित कुछ बुरा- भला भी कहे तो ोध
म आकर उससे लड़ मत पड़ना । सेवकों के साथ दया और उदारता का वहार
करना । अपने सौभा पर कभी ब त घम न करना । इस कार का िवनीत
आचरण करने वाली युवितयाँ पित के घर जाकर गृिहणी बनती ह और जो इससे उ ा
चलती ह , वे घर को उजाड़कर ही रहती ह । ों गौतमी , तुम ा कहती
हो ?
गौतमी : ब ओं को तो इतना ही उपदे श िदया जाता है । बेटी , इन वा ों को
भली - भाँ ित
___ गाँ ठ बाँ ध लो । क : आओ बेटी ,मुझसे और अपनी स खयों से गले िमल
लो । शकु ला : िपताजी, ा ि यंवदा और अनसूया यहीं से वापस लौट जाएँ गी ?
क : बेटी , इनका भी तो िववाह होना है । इनका वहाँ जाना उिचत नहीं है । तु ारे
साथ
गौतमी जाएगी । शकु ला : (िपता की छाती से लगकर ) हाय , अब म आपकी
गोदी से अलग होकर मलय
पवत से उखड़ी च न- लता की भाँ ित दे श म कैसे जीिवत र ँ गी ? क : बेटी,
इतनी अधीर ों होती हो ? जब तुम अपने पित के भरे - पूरे उ म घर म
जाकर गिहणी बनोगी ; ित ण स घर के काम - ध ों म फँसी रहोगी और
जैसे पूव िदशा सूय को ज दे ती है , उसी कार पिव पु को ज दोगी, तब तु
मेरे िवरह का यह शोक अनुभव भी न होगा ।
( शकु ला िपता के पैर छूती है ।) क : जो कुछ म तेरे िलए चाहता ँ , वही
तेरा हो ! शकु ला : ( स खयों के पास जाकर ) तुम दोनों मुझसे एकसाथ ही गले
िमल लो । स खयाँ : ( वैसा ही करती ह ) स ख, यिद वह राजा तु पहचानने म
िवल करे , तो
उसको उसके नाम वाली अंगूठी िदखा दे ना । शकु ला : तु ारे इस स े ह से तो
मेरा िदल बैठ- सा रहा है । . स खयाँ : डर मत , ेम के कारण मन म बुरी आशंकाएँ
उठा ही करती ह । शा रव : सूय चार हाथ बढ़ गया है । अब आप ज ी कीिजए ।
शकु ला : ( आ म की ओर मुँह करके ) िपताजी , अब म इस तपोवन के दशन
िफर कब
कर पाऊँगी? क : जब तुम िचरकाल तक पृ ी की सौत बनकर दु के
यहाँ रह लोगी और
उसके बाद अपने पु को एक छ िसंहासन पर िबठा चुकोगी , तब कुटु का
भार उसे सौंपकर अपने पित के साथ िफर इस शा तपोवन म िव होओगी ।
गौतमी : बेटी , चलने का समय बीता जा रहा है , िपताजी को लौटने दे । या इसकी तो
बात
कभी समा ही न होंगी; अब आप वापस लौट जाएँ । क : बेटी, अब तप के
काय म िवल हो रहा है । शकु ला : (िफर िपता के गले िमलकर) आपका शरीर
पहले ही तप ा के कारण कृश है ।
मेरी िच ा करके आप ब त दु ःखी न हों । क : ( गहरी ास छोड़कर ) बेटी ,
तुमने मेरी कुिटया के ार पर जो धान बोए थे, जब
तक वे आँ खों के सामने रहगे, तब तक मेरा शोक िकस कार शां त हो सकेगा!
जाओ, तु ारा माग शुभ हो !
( शकु ला और उसके साथ जाने वाले लोग बाहर जाते ह । ) स खयाँ : (
शकु ला को दे खकर ) हाय, शकु ला वन के पेड़ों की ओट म ओझल हो गई ।
क : ( गहरी साँ स छोड़कर) अनसूया, तु ारी सखी चली गई। अब रोओ मत ।
आओ,
मेरे साथ तपोवन चलो । स खयाँ : िपताजी, शकु ला के िबना तपोवन सुनसान-
सा मालूम हो रहा है । अब उसम
कैसे जाया जाएगा । क : ेम के कारण ऐसा ही अनुभव होता है । (िवचार म
म आगे चलते हए ) चलो
अब शकु ला को पित के घर िवदा करके कुछ तो िनि ता ई ! आ खर ,
क ा पराया धन है । आज उसे उसके पित के घर भेजकर मेरा मन ऐसा िनि हो
गया है , मानो िकसी की ब मू धरोहर वापस लौटा दी हो ।
( सब बाहर िनकल जाते ह ।)
पंचम अंक
( आसन पर बैठे ए राजा और िवदू षक का वेश ) िवदू षक : ( ान से सुनकर)
िम , ज़रा संगीतशाला की ओर तो ान दो कैसी मधुर,
सरस गीत की आवाज़ आ रही है । मुझे लगता है िक महारानी हं सपिदका तान
छे ड़ रही ह । राजा : ज़रा चुप रहो, सुनने दो ।
( आकाश म गीत सुनाई पड़ता है ।) तु िनत नई कली से ार! रे भौरे ! खली
आम की नई मंजरी सुरिभ अपार! इतने से बस तृ हआ मन उड़ गए पंख पसार!
खले कमल म िकया बसेरा बौर की सुध दी िबसार! रीझ गए , दो पल मंडराए चूम
गए इक बार !
छोड़ा उपवन , पहँ चे सरवर ,िजसम कमल हज़ार ! राजा : िकतना मधुर गीत है !
िवदू षक : अजी गीत को जाने दीिजए; कुछ बात का मतलब भी समझ म आया ? राजा
: ( मु राकर ) मने रानी हं सपिदका से एक ही बार ेम िकया है इस गीत म रानी
वसुमती से ेम करने के कारण मुझे उलाहना िदया गया है । िम माध , जाकर
मेरी ओर से रानी हं सपिदका से कहो िक उ ोंने मुझे अ ा उलाहना िदया है ।
िवदू षक : जो आपकी आ ा। ( उठकर) िम जब वह मुझे दािसयों से पकड़वाकर
िसर पर
चपत लगाने लगगी, तब अ रा के हाथ म पड़े ए तप ी की भाँ ित मेरा छूटना
भी किठन ही हो जाएगा । राजा : तुम जाओ तो , िनपुणता से यह बात उसे कह
दे ना । िवदू षक : और उपाय भी ा है ? ( बाहर जाता है ।) राजा : ( मन ही मन ) यह
आ ा ? इस समय म िकसी ि य के िवरह म दु ःखी
नहीं ँ ; िफर भी इस गीत को सुनकर न जाने ों मेरा मन उदास हो गया है । या
शायद जब कोई सुखी भी रमणीय ों को दे खकर और मधुर श ों को
सुनकर उदास हो उठता है , तो उसे अनजाने म अपने मन म जमे ए पूव ज के ेम
की याद आ रही होती है ।
( बेचैन - सा बैठा रहता है ।)
(कंचुकी का वेश ) कंचुकी : ओफ्ओह, अब मेरी यह दशा हो गई! मने राजा के
अ ःपुर म आकर जो बत
अकड़ के साथ शान जताने के िलए ली थी , अब ब त - सा समय बीत जाने के
बाद वही बत लड़खड़ाकर चलते समय मेरे िलए सहारे की व ु बन गई है । यह ठीक
है िक महाराज को रा का सब काय करना ही चािहए ; िफर भी अभी तो वे
ायासन से उठकर अ र महल म गए ह । अब क के िश ों के आगमन का
समाचार सुनाकर उनके िव ाम म िव डालने का मेरा मन नहीं हो रहा । या िफर
जा पर शासन का यह काम ही ऐसा है , िजसम िव ाम िमल ही नहीं सकता । सूय ने
जो एक बार रथ म अपने घोडे जोते ह तो वे जते ही ए ह । इसी कार वायु रात -िदन
चलता ही रहता है । शेषनाग सदा पृ ी के भार को उठाए ही रहता है । राजा का
काय भी इसी कार िव ामशू है । अ ा, चलता ँ । अपना कत तो पूरा कर दू ं ।
( कुछ दू र चलकर और आगे दे खकर) ये महाराज सब जा को अपने अपने काम म
लगाकर इस समय शा मन से एका म िव ाम कर रहे ह , जैसे धूप म घूमने
-िफरने से ाकुल हआ गजराज गजसमूह को वन म चरने के िलए छोड़कर िदन म
िकसी शीतल थान म िव ाम कर रहा हो । ( पास जाकर) महाराज की जय हो !
िहमालय की तराई के वनों म रहने वाले कुछ तप ी यों के साथ
महिष क का स े श लेकर आए ह । अब आप जो आ ा द , वह िकया जाए ।
राजा : ( आदर के साथ ) ा क के पास से आए ह ? कंचुकी : जी हाँ । राजा : तो
मेरी ओर से जाकर उपा ाय सोमरात से कहो िक इन आ मवािसयों का
शा ीय िविध से स ार करके यं ागत कर । म भी य शाला म जाकर
इनकी ती ा करता ँ । कंचुकी : जो महाराज की आ ा। ( बाहर जाता है । )
राजा : ( उठकर ) वे वती! य शाला चलो । ितहारी : आइए, इधर चिलए
महाराज! राजा : ( चलता है । रा ािधकार का क जताते ए) सब ाणी अपनी
अभी व ु को
पाकर सुखी हो जाते ह । पर ु राजाओं की इ ा पूरी होने पर भी दु ःख ही दे ती है
। राजा बनने की ित ा ा करने की मनु को उ ुकता तो ब त होती है , िक ु
ा ए रा का पालन करने म ेश ही होता है । रा तो अपने हाथ म उठाए
ए छ के समान है , िजसे उठाने म प र म तो अिधक होता है और धूप से बचाव
कम ।
( नेप म ) दो वैतािलक महाराज की जय हो ! पहला वैतािलक महाराज, आप
सुख का ान न रखते ए सदा क उठाते रहते ह । या
िफर आपका काम ही ऐसा है । य िप वृ अपने िसर पर तेज़ गम धूप को झेलते
ह , पर ु अपनी छाया के आ य म बैठे ए लोगों को शीतलता ही
दान करते ह । दू सरा वैतािलक महाराज, आप कुपथ पर चलने वालों को द
ारा िनयम म रखते ह ।
आप िववादों को शा कराते ह और जा की र ा करते ह । स ि शाली लोगों
के सगे - स ी ब त होते ह , पर ु सामा जा के तो एकमा
ब ु आप ही ह । राजा : इनकी बात सुनकर मेरा उदास मन िफर ताज़ा हो गया ।
( आगे चलता है । ) ितहारी : महाराज , यह य शाला है । अभी- अभी साफ की गई
है , इसिलए चमचमा - सी रही
है । उस ओर य की गौ बंधी ई है । ( सीिढ़यों की ओर संकेत करके ) इस पर
चिढ़ए महाराज ! राजा : ( चढ़कर सेवक के क े का सहारा लेकर खड़ा रहता है
) वे वती, मेरे पास इन
ऋिषयों को भेजने म महा ा क का ा उ े हो सकता है ? ा वहाँ दु
रा सों ने ती तप यों के तप म तो बाधा नहीं डाली ? या तपोवन म रहने वाले
ािणयों को िकसी ने सताना तो शु नहीं िकया ? या कहीं मेरे िकसी दु म के
कारण पेड़ - पौधों का फूलना -फलना तो नहीं क गया ? तरह - तरह के तक
-िवतक
और स े हों के कारण मेरा मन ब त ही बेचैन हो रहा है । ितहारी : मेरा तो यह
िवचार है िक ये ऋिष आपके स र की शंसा करके आपको
बधाई दे ने आए ह ।
( शकु ला समेत ऋिषयों का वेश । आगे - आगेकंचुकी और पुरोिहत ह । )
कंचुकी : इधर आइए, इधर। शा रव : शार त , यह ठीक है िक राजा दु बड़े ही
धमा ा और सदाचारी ह ; यह भी
ठीक है िक इनके रा म नीच वण के भी कुमागगामी नहीं ह । िफर भी
िनर र एका म रहने का अ ास होने के कारण मुझे तो भीड़ - भाड़ से भरा
आ यह नगर ऐसा लग रहा है , जैसे आग से जलता आ मकान हो । शार त :
नगर म आने पर आपको ऐसा लगता है तो ठीक ही लगता है । मुझे भी यहाँ के
सुख म म रहने वाले लोगों को दे खकर वैसा ही अनुभव हो रहा है जैसे कोई
नहाया आ िकसी तेल मले ए को दे खे; या कोई पिव िकसी
अपिव को ; या कोई जागा आ िकसी सोये ए को ; या कोई
घूमने -िफरने वाला िकसी बँधे ए को दे खे। शकु ला : (
अपशकुन जताकर ) यह ा ! मेरी दाईं आँ ख फड़क रही है । गौतमी : बेटी ,
भगवान् भला करे । तेरे पितकुल के दे वता तुझे सुखी कर । ( आगे चलती है । )
पुरोिहत : ( राजा की ओर संकेत करके ) तप ी महानुभावो, यह वणा मों के र क
महाराज दु पहले से ही आसन ागकर आपकी ती ा कर रहे ह । वह
दे खए।
शा रव : पुरोिहत जी , भले ही यह बात शंसनीय हो, िफर भी हम इसम कुछ
नवीनता
नहीं लगती । ोंिक फल आने पर वृ यं झुक जाते ह । जल से भर जाने पर
ऊँचे बादल नीचे झुक जाते ह । स ु ष ऐ य पाकर िवनयशील हो जाते ह । यह
तो परोपकारी लोगों का भाव ही होता है । ितहारी : महाराज, ऋिष लोग प
- रं ग से स िदखाई पड़ते ह । लगता है िक इनका काय
कुछ िच ाजनक नहीं । राजा : ( शकु ला को दे खकर ) वह इनके बीच म घूघट
िनकाले ए युवती कौन है ?
उसके सौ य की ज़रा - सी झलक- भर ही िदखाई पड़ रही है । वह इन
तप यों
के बीच म ऐसी लग रही है , मानो पीले प ों म कोई नई कोंपल हो । ितहारी :
महाराज, कुतूहल तो मुझे भी है , िक ु समझ कुछ भी नहीं आ रहा । पर ु
लगता ऐसा है िक इसका मुख अव ही ब त सु र होगा । राजा : चलो जाने दो
। पराई ी की ओर दे खना ठीक नहीं । शकु ला : ( छाती पर हाथ रखकर मन ही
मन ) दय, इस कार काँ पते ों हो ? उनके
मनोभाव को दे खकर कुछ तो धीरज धरो । पुरोिहत : ( आगे बढ़कर ) इन
तप यों का यथािविध स ार म कर चुका ँ । इनके
उपा ाय ने कुछ स े श भेजा है । उसे आप सुन लीिजए । राजा : म सुन रहा ँ ।
ऋिष लोग : महाराज , आपकी जय हो !
राजा : आप सबको णाम ! ऋिष लोग : आपकी मनोकामनाएं पूण हों !
राजा : मुिनयों का तप तो िनिव चल रहा है न ? ऋिष लोग : जब तक स नों की
र ा के िलए आप िव मान ह , तब तक धम -कम म
िव कैसे पड़ सकता है ! सूय आकाश म चमकता हो तो अँधेरा छाए कैसे ! राजा :
तब तो मेरा राजा होना साथक आ । अ ा, लोक -िहतकारी महा ा क तो
कुशल से ह ? ऋिष लोग : महा ा लोगों की कुशलता तो अपने ही बस म होती
है । उ ोंने आपका
कुशल -मंगल पूछा है और यह कहने को कहा है ... राजा : ा आदे श िदया है ?
शा रव : कहा है िक आपने जो पार रक सहमित से मेरी क ा से िववाह कर
िलया है ,
उसकी म आप दोनों को ेमपूवक अनुमित दे ता ँ । ोंिक एक ओर तो आप
हमारे े पु षों म अ ग ह और दू सरी ओर शकु ला भी धम - कम की अवतार
है । आपकी यह वर- वधू की जोड़ी प और गुण म एक जैसी है । ब त समय बाद
िवधाता ने ऐसी जोड़ी रची, िजसम कोई मीन -मेख िनकाली ही नहीं जा सकती । अब
आप अपनी गभवती धमप ी को गृह थ धम के पालन के िलए हण कीिजए।
गौतमी : आय, म भी कुछ कहना चाहती ँ । वैसे तो मेरे कहने का कुछ अवसर
नहीं है ,
ोंिक न तो इसने ही अपने गु जनों की कुछ परवाह की और न तुमने ही इ
ब ुओं से कुछ पूछा । जब तुम दोनों ने आपस म ही सब कुछ कर िलया है तब
तुमम से िकसी भी एक को ा क ँ , और ा न क ँ । शकु ला : ( मन ही मन
) अब वह ा कहते ह ?
राजा : ऐ, यह ा बखेड़ा है ? । शकु ला : ( मन ही मन ) इनके श ाह,
शोले ह ! शा रव : यह ा ? आप तो हम लोगों की अपे ा लोक - वहार म कहीं
अिधक कुशल
ह । िववािहता ी चाहे िकतनी ही सती ों न हो , पर यिद वह अपने िपता ही के
घर रहे तो लोग तरह - तरह की बात करते ह । इसिलए ी के सगे - स ी तो यही
चाहते ह िक वह चाहे अपने पित को अ ी लगे या बुरी िक ु वह रहे अपने
पित के घर ही । राजा : तो ा इनका मुझसे िववाह हो चुका है ? शकु ला :
(िवषाद के साथ मन ही मन ) दय ! िजसका तु भय था , वही होकर रहा ।
शा रव : आपको अपने िकए ए गा व िववाह पर प ाताप हो रहा है , आप अपने
कत - पालन से िवमुख हो जाना चाहते ह , या हम द र समझकर आप हमारा
ितर ार कर रहे ह ? राजा : इन सब बातों का मतलब ा है ? शा रव : ायः
धन के घम म चूर लोगों म ये बुराइयाँ आ ही जाती ह ।
राजा : यह तो आपने अ ा लां छन लगाया ! गौतमी : बेटी, ज़रा दे र को ल ा
ाग दो । म तु ारा यूँघट हटाती ँ , िजससे तु ारे ामी
तु पहचान ल । ( घूघट हटाती है ।) राजा : ( शकु ला को दे खकर मन ही मन
) यह इतना मनोहारी सौ य इस कार आ
उप थत आ है । पर ु म इस समय यह िन य नहीं कर पा रहा िक मने इससे
पहले िववाह िकया था या नहीं। इसीिलए जैसे भात म मर तुषार से ढके कु के
फूल का न तो रस ले पाता है और न उसे छोड़कर दू र ही जा पाता है , उसी कार म
भी न तो सु री का उपभोग ही कर सकता ँ और न इसे एकाएक ाग ही सकता ँ

(िवचार- म बैठा रहता है ।) ितहारी : ( मन ही मन ) अहा, हमारे महाराज
सचमुच ही बड़े धमा ा ह , नहीं तो इतनी
सरलता से ा ए ऐसे मनोहर प को दे खकर कौन इतना िवचार करता है !
शा रव : महाराज , इस तरह मुँह सीकर ों बैठ गए ? राजा : ऋिषयो, मने ब त
सोचा । पर मुझे याद नहीं आता िक मने कभी इनका
पािण हण िकया हो । ल णों से है िक यह गभवती ह । ऐसी दशा म म इ
प ी- प म कैसे हण कर लूँ?
शकु ला : ( आड़ करके ) इ तो िववाह के िवषय म ही स े ह है , और यहाँ मने
आशाओं
के कैसे- कैसे ऊँचे महल बनाए थे! शा रव : राजन्, तुमने तो महिष क की
क ा का बलपूवक श िकया और उ ोंने
इस पर भी स तापूवक तु उस क ा से िववाह की अनुमित दे दी । ऐसे
उदारचेता मुिन का अपमान न करो । तुमने तो चोर की तरह उनका धन चुराया
और उ ोंने पकड़ पाने पर भी तु स ा समझकर अपना धन तु ही सौंप
िदया । शार त : शा रव, अब तुम चुप हो जाओ। शकु ला, हमने जो कुछ
कहना था , कह िदया ।
यह राजा जो कुछ कहते ह , वह तुमने सुन िलया है । अब इ तु ीं िव ास
िदलाओ। शकु ला : ( आड़ करके ) जब थित यहाँ तक प ं च चुकी है , तो अब
उस ार की याद
िदलाने से भी ा लाभ? अब तो मुझे केवल अपने भा को रोना- भर ही शेष है ।
( कट प से ) आयपु ! ( बीच म ही ककर गत ) पर नहीं, जब इनके मन म
ही स े ह उ हो गया है , तब यह स ोधन उिचत नहीं । ( काश म ) पौरव ,
आपको यह शोभा नहीं दे ता िक पहले तो आपने आ म म भोली - भाली मुझको
शपथपूवक मधुर - मधुर बात कहकर फुसलाया और अब इस कार मेरा ितर ार
कर रहे ह । राजा : ( कानों को हाथों से ढकता आ) राम - राम ! यह ा कहती
हो ? तुम अपने कुल
को कलंिकत करने और मुझे धम से पितत करने पर उसी तरह से तुली ई हो
जैसे िकनारे को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृ को तो िगराती ही है , साथ ही
अपने िनमल जल को भी मैला कर दे ती है । शकु ला : अ ा, यिद तु सचमुच
ही मेरे िवषय म पराई ी होने का स े ह है और
इसिलए तुम इस कार की बात करने लगे हो , म तु ारा रण-िच िदखाकर
तु ारे स े ह को िमटाए दे ती ँ । राजा : यह बात हमने मानी । शकु ला : (
अंगुली म अंगूठी के थान को टटोलकर) हाय- हाय ! यह ा आ ! मेरी
अंगुली म से अंगूठी कहाँ गई ?
(िवषाद के साथ गौतमी की ओर दे खने लगती है । ) गौतमी : तू श ावतार म
शचीतीथ के जल को नम ार करने गई थी ; वह अंगूठी अव
वहीं िगरी है । राजा : इसीिलए तो कहते ह िक यों म तुर सूझ ब त होती है
। शकु ला : इसम तो भा ही िवपरीत हो गया । अ ा , आपको एक और बात
सुनाती ँ ।
राजा : अ ा, अब सुनाने की बात शु ई ! शकु ला : एक िदन नवम का
के कुंज म आपके हाथ म पानी से भरा आ कमल के
प े का दोना था ।
राजा : कहे चिलए; म सुन रहा ँ । शकु ला : उसी समय वह दीघापां ग नाम का
ह रण का ब ा आ प ँ चा, िजसे मने पु
बनाया आ था । आपने दया करते ए कहा िक ' अ ा, पहले यही पानी पी ले '
और आप उसे पास बुलाने लगे। पर ु अप रिचत होने के कारण वह आपके पास
नहीं आया। उसके बाद उसी पानी को जब मने हाथ म लेकर उसे िपलाया तो वह झट
पी गया । तब आपने हँ सकर कहा था , ' सब लोग अपने सजाितयों का ही
िव ास करते ह । तुम दोनों ही बनवासी हो न !' राजा : अपना उ ू सीधा करने
वाली यों की इस कार की झूठी मीठी -मीठी बातों
से कामी लोग ही आकृ आ करते ह । गौतमी : भगवन , ऐसी बात मुँह से न
िनकालो । यह बेचारी तपोवन म ही पलकर बड़ी ई
है । इस बेचारी को छल- छ का ा पता ! राजा : तप नी जी , याँ तो
िबना िसखाए ही भाव से धूत होती ह । पशु - पि यों
तक म यह बात िदखाई पड़ती है , िफर बु मती यों का तो कहना ही ा !
कोयलों के ब े जब तक आकाश म उड़ने यो नहीं हो जाते , तब तक वे उनका
पालन दू सरे पि यों से कराती ह । शकु ला : ( ु होकर) नीच, तुम सबको
अपने जैसा ही समझते हो ? धम का आवरण
ओढ़कर घास - फूस से ढके ए कुएं के समान औरों को पितत करने का काम
तु ारे िसवाय कौन कर सकता है । राजा : ( मन ही मन ) इसका ोध तो
बनावटी नहीं लगता । इससे मेरे मन म स े ह उ
होने लगा है । ोंिक एका म ए ेम के वृ ा को मेरे रण न कर पाने पर
ोध के कारण इसकी दोनों आँ ख खूब लाल हो उठी ह और दोनों भौंह इस कार
टे ढ़ी हो गई ह , मानो गु े म आकर कामदे व ने धनुष के दो टु कड़े कर िदए हों । (
कट प से ) भ े , दु के च र को संसार जानता है । िफर भी तुमसे मेरा
िववाह आ है , यह मुझे याद नहीं आता । शकु ला : इसने मुझे अ ी कुलटा
बना िदया ! हाय , म पु वंश का िव ास करके ऐसे के
हाथ ों पड़ गई, िजसके मुँह म मधु और दय म िवष भरा आ है ।
( व के छोर से मुँह ढककर रोने लगती है ।) । शा रव : गु जनों से िबना पूछे
इस कार की अिववेकपूण चंचलता के कारण ऐसा ही
क भुगतना पड़ता है । इसीिलए एका म ेम ब त सोच- समझकर करना
चािहए, ोंिक अप रिचत यों म ऐसा ेम अ म वैर ही बनकर रहता है ।
राजा : यह भी कोई बात है िक आप लोग इन पर िव ास करके सारा दोष मुझ पर ही
डाले दे रहे ह । शा रव : ( ु होकर ) सुनी आपने उलटी बात ? िजसने ज
से लेकर आज तक छल
करना सीखा नहीं, उसकी बात तो झूठी मानी जाए और जो लोग दू सरों को धोखा
दे ने को िव ा समझकर अ ास करते ह , उनकी बात िव सनीय मान ली जाए ।
राजा : अ ा स वादी , तु ारी ही बात मानी। पर यह तो बताओ िक इसे ठगने
से हम
ा िमल जाएगा ? शारव : पाप और ा ?
राजा : पौरव पाप करना चाहते ह , इसे कोई नहीं मान सकता । शार त :
शा रव , वाद-िववाद से ा लाभ ? हमने गु जी की आ ा का पालन कर िदया ।
अब चलो, वापस चल । ( राजा की ओर अिभमुख होकर ) यह आपकी प ी है ;
चाहे इसे ीकार कीिजए, चाहे ाग दीिजए । यों पर पित को सब कार का
अिधकार होता है । गौतमी, चिलए ।
( कहकर चल पड़ते ह ।) शकु ला : इस धूत ने तो मुझे ठगा ही है ; अब तुम भी
मुझे छोड़ जाते हो ! ( उनके पीछे
पीछे चलने लगती है ।) गौतमी : ( ककर) बेटा शा रव, यह सक ण िवलाप
करती ई शकु ला हमारे पीछे - पीछे
चली आ रही है । पित ने तो प र बनकर इसको ाग िदया । अब मेरी िबिटया
करे
भी ा ? शा रव : ( गु े म मुड़कर) दु े , अब ा तू ाधीन आ चाहती है ?
( शकु ला डरकर काँ पने लगती है ।) शा रव : शकु ला, यिद राजा जो कुछ
कहते ह , वह सच है तो तुझ कुलकलंिकनी का
िपता के यहाँ ा काम ? और यिद तू अपने - आपको पित ता समझती है तो
तेरा
पित के घर दासी बनकर रहना भी भला ! तू यहीं रह, हम जाते ह । राजा :
तप ी, इस बेचारी को ों धोखा दे ते हो ! च मा कुमुदों को ही खलाता है और
सूय केवल कमलों को । िजते य लोग पराई ी की ओर आँ ख उठाकर भी
नहीं
दे खते । शा रव : जब आप अपने अ ःपुर म आकर पुरानी बातों को भूल ही गए
तो आपको
___ अधम का ा डर? राजा : ( पुरोिहत से ) अ ा, म आपसे ही उिचत -
अनुिचत की बात पूछता ँ । या तो मेरी
रणश धोखा दे रही है या िफर यह झूठ बोल रही है । अब यह स े ह उ
होने पर मुझे ी - ाग का दोष िसर पर लेना उिचत है , अथवा पराई ी को
हण करने का पाप करना ? पुरोिहत : ( सोच-िवचारकर ) अ ा तो ऐसा कीिजए

राजा : आ ा दीिजए। पुरोिहत : पु का सव होने तक यह हमारे घर म रहे ।
आप पूछेगे, ों ? तो सुिनए,
आपको साधुओं ने बताया आ है िक आपका पहला पु ही च वती राजा होगा ।
यिद इस मुिन - क ा के पु म च वत के ल ण हों , तो आप इनका अिभन न
करके इ अपने अ ःपुर म रख ल और यिद ऐसा न हो तो िफर इ इनके िपता के
पास वापस भेज दीिजये ।
राजा : जो आप लोगों को ठीक लगे, मुझे ीकार है । पुरोिहत : बेटी , मेरे साथ
आओ। । शकु ला : माँ वसु रा , तुम फट जाओ और मुझे अपनी गोदी म थान दो
। ( रोती हई चल पड़ती है और पुरोिहत तथा तप यों के साथ बाहर िनकल जाती है
।)
( शाप के कारण राजा शकु ला को याद नहीं कर पाते , िफर भी उसी के बारे म
सोचते रहते ह । )
( नेप म ) गज़ब हो गया , गज़ब हो गया ! राजा : ( सुनकर) ऐसी ा बात ई ?
( वेश करके ) पुरोिहत : ( आ य के साथ ) महाराज, बड़ी िविच बात ई !
राजा : ा आ ? पुरोिहत : महाराज, जब क के िश वापस लौट गए, तब
वह युवती अपने भा को
कोसती ई बाँ ह पसारकर रोने लगी । राजा : िफर ा आ? पुरोिहत : तभी ी
का प धारण िकए एक ोित आकाश से उतरी और उसे लेकर
अ रा तीथ की ओर चली गई ।
( सब िव य िदखाते ह । ) राजा : भगवन, हमने तो पहले ही उसका प र ाग
कर िदया था । अब उसके िवषय म
थ ा सोच-िवचार करना ! अब आप जाइए और िव ाम कीिजए । पुरोिहत : (
राजा की ओर दे खकर ) आपकी जय हो ! ( कहकर बाहर चला जाता है । )
राजा : ितहारी, इस समय मन बेचैन है । शयनागार की ओर चलो । ितहारी :
इधर आइए महाराज ! ( कहकर चल पड़ता है । ) राजा : यह ठीक है िक मुझे मुिन-
क ा के साथ िववाह की याद नहीं आती और इसीिलए
मने ाग भी िदया है । पर ु मन म बड़ी बेचैनी हो रही है , िजससे मुझे ऐसा
िव ास- सा होता है िक शायद उससे मेरा िववाह आ ही था ।
( सब बाहर चले जाते ह । )
ष म अंक
( एक पु ष को बाँ धे ए कोतवाल तथा िसपािहयों का वेश ) िसपाही : ( पीटकर
) ों बे चोर , बता तुझे यह र जिटत राजकीय अंगूठी कहाँ से िमली ?
इस पर तो महाराज का नाम भी खुदा आ है । अिभयु : ( डरते ए ) दया
कीिजए महाराज ! मने ऐसा काम कभी नहीं िकया। पहला िसपाही : अ ा! तो तुझे
महाराज ने े ा ण समझकर यह उपहार म दी थी
ा ? अिभयु : म बताता ँ , आप सुिनए तो । म श ावतार का रहने वाला
धीवर ँ । दू सरा िसपाही : अबे चोर , हम ा तेरी जाित पूछ रहे ह । कोतवाल :
सूचक, इसे शु से सब सुनाने दो । बीच म टोको नहीं । िसपाही : जो आपकी आ ा
। अ ा रे , सुना । अिभयु : म जाल- कां टे आिद से मछिलयाँ पकड़कर अपने
प रवार का पालन-पोषण
करता ँ । कोतवाल : (हँ सकर ) जीिवका का साधन तो बड़ा पिव चुना है !
अिभयु : मािलक , ऐसा न किहए । िजस जाित को जो भी काम िमला हो, वह चाहे
िकतना
भी बुरा ों न हो, िफर भी छोड़ा नहीं जाता । वेदपाठी ा ण का िच िकतना
ही कोमल ों न हो, िफर भी य म बिल - पशु को मारते ए उसे िकतना िन ठुर
बनना ही पड़ता है । कोतवाल : अ ा, अ ा, िफर ा आ ? अिभयु : एक
िदन मने जब एक रो म के टु कड़े िकए तो उसके पेट म यह चमकीले
र वाली अंगूठी िदखाई पड़ी । इसे लेकर बेचने के िलए यहाँ आया और अभी
लोगों को िदखा ही रहा था िक आपने मुझे पकड़ िलया । अब आप मुझे मार, चाहे
छोड़े ; पर इस अंगूठी के मेरे पास आने का स ा िक ा यही है । कोतवाल :
जानुक , इसम कोई स े ह नहीं िक यह गोह खाने वाला मिछयारा ही है । इसके
शरीर की दु ग ही बताए दे रही है । इसने अंगूठी िमलने का जो वृ ा बताया
है ,
वह िवचारणीय है । अ ा चलो, महाराज के पास ही चलते ह । िसपाही : ठीक है
। चल बे जेबकतरे , चल ।
( सब चल पड़ते ह । )
कोतवाल : सूचक, तुम इस ोढ़ी के बाहर ही इसे लेकर बैठो और मेरी ती ा
करो ।
सावधान रहना, कहीं यह भाग न जाए । म इस अंगूठी को लेकर महाराज के पास
जाता ँ और इसका हाल सुनाकर वह जो भी आ ा द , सुनकर वापस आता ँ ।
िसपाही : आप जाइए और महाराज को स कीिजए ।
( कोतवाल भीतर जाता है ।) पहला िसपाही : जानुक, कोतवाल साहब को बड़ी
दे र लग गई! दू सरािसपाही : भाई, राजाओं के पास अवसर दे खकर ही जाया जाता है
। पहला िसपाही : जानुक , इसके गले म मृ ु की माला पहनाने के िलए मेरे हाथ
खुजला रहे
ह । ( अिभयु की ओर इशारा करता है ।) अिभयु : ों मुझ िनरपराध को
मारते ह महाराज ! दू सरा िसपाही : वह कोतवाल साहब कागज़ हाथ म िलए राजा की
आ ा लेकर इधर ही
चले आ रहे ह । अबे, या तो अब तुझे िग नोचगे या तू कु ों के पेट म जाएगा ।
( वेश करके ) कोतवाल : सूचक , इस मिछयारे को छोड़ दो । अंगूठी िमलने का
वृ ा सही है । सूचक : जो आपकी आ ा। दू सरा िसपाही : यह तो यमराज के घर
जाकर वापस लौट आया ! ( अिभयु के ब न
खोल दे ता है ।) अिभयु : ( कोतवाल को णाम करके ) मािलक, मेरा जीिवका
- साधन कैसा रहा ? कोतवाल : महाराज ने अंगूठी के मू िजतना यह धन तु
इनाम म िदया है । ( उसे धन दे ता
धीवर : ( णामपूवक धन लेकर ) मािलक, यह आपकी मेहरबानी है । सूचक :
कृपा इसी को कहते ह िक सूली से उतारकर हाथी की पीठ पर िबठा िदया है ।
जानुक : कृपा नहीं, पा रतोिषक कहो। लगता है िक वह अंगूठी महाराज को ब त
अ ी
लगी होगी। कोतवाल : मुझे लगता है िक उसम जड़े ब मू र से महाराज को
िवशेष ेम नहीं है ।
पर ु इस अंगूठी को दे खकर उ िकसी ि य की याद आ गई । वैसे वे
भाव से ग ीर ह , पर उस समय ण- भर तक उनकी आँ खों म उदासी छाई
रही । सूचक : तब तो आपने महाराज का बड़ा भारी काम बना िदया है ! जानुक :
यह कहो िक इस मिछयारे का काम बना िदया ।
( धीवर की ओर ई ा से दे खता है । ) धीवर : महाराज , इसम से आधा धन
आपके फल-फूल के िलए है । जानुक : यह तो इनका हक ही है । कोतवाल : आज से
तुम हमारे ि य िम बने । इस िम ता की स ता म आज मिदरा-पान
होना चािहए । चलो, मिदरालय म ही चलते ह ।
( सब बाहर जाते ह ।) ( वेशक )
(िवमान पर चढ़ी ई सानुमती नाम की अ रा का वेश ) सानुमती : आज
महा ाओं के ान के समय अ रा तीथ के िनकट रहने की मेरी बारी
थी । वह काम तो पूरा आ। अब चलकर ज़रा राजिष दु की दशा तो दे खू।
मेनका की सखी होने के नाते शकु ला मेरी भी क ा के समान है । मेनका ने भी
कुछ िदन पहले शकु ला के िलए कुछ न कुछ उपाय करने को मुझसे कहा था । पर
यह ा बात िक वस ो व का समय आ जाने पर भी यहाँ राजमहल म उ व
ार आ नहीं दीखता ? यों तो म अपनी िद ि से ही सब कुछ जान सकती ँ ,
पर अपनी सखी के अनुरोध को भी तो पूरा करना है । अ ा , त रणी िव ा से
अपने - आपको िछपाकर इन दो उ ानपािलकाओं के पास जाकर मालूम करती ँ ।
(िवमान से उतरकर खड़ी हो जाती है । )
( आम के नए बौर को दे खती ई दासी का वेश । एक दू सरी दासी
उसके पीछे खड़ी है ।) पहली दासी : हे अ ण, ह रत और पीत आम के नए बौर!
तुम वस के जीवन हो ! तुम
वस ऋतु म क ाण करने वाले हो ! तुम आज पहले - पहल िदखाई पड़े हो ।

तु ारी अनुक ा चाहती ँ । दू सरी दासी : परभृितका, अकेली खड़ी- खड़ी ा
बोल रही है ? पहली दासी : मधुक रका , आ मंजरी को दे खकर कोयल उ हो
उठती है । दू सरी दासी : ( ज ी से पास आकर ) ा मधुमास आ गया ? पहली
दासी : हाँ मधुक रका, तु ारे मद - भरे गीतों का यह समय आ गया । दू सरी दासी :
स ख , ज़रा मुझे सहारा तो दे । म उचककर आम का बौर तोड़ती ँ । उससे
कामदे व का पूजन क ं गी । पहली दासी : सहारा तो दू ँ गी, पर पूजा का आधा
फल मुझे भी तो िमले । दू सरी दासी : यह तो िबन कहे भी हो जाएगा, ोंिक हम दोनों
के शरीर चाहे दो हों , िक ु
ाण तो एक ही ह । ( सखी का सहारा लेकर आम का बौर तोड़ती है ।) अरी ,
भले ही आम का बौर अभी खला नहीं है , िफर भी इसके तोड़ते ही सुग चारों ओर
महक उठी । हे आम के बौर , म तु धनुष चढ़ाए कामदे व को समिपत करती ँ ।
तुम वासी जनों की त णी पि यों के िलए कामदे व के छठे बाण बन जाओ।
(कहकर आम के बौर को फक दे ती है । )
(िबना परदा िगराए कंचुकी का वेश ) । कंचुकी : यह ा ? अरी मूख, महाराज
ने तो वस ो व ब करवा िदया है और तू यह
आम के बौर तोड़ने लगी है । दोनों दािसयाँ : ( डरकर ) आय, न हों । हम यह
बात मालूम न थी ।
कंचुकी : ों ? ा तुमने यह नहीं सुना िक वस म िवकिसत होने वाले त ओं
ने और
उन पर रहने वाले पि यों ने भी महाराज के आदे श का पालन िकया है । दे खो,
य िप आम की मंज रयों को डालों पर आए इतने िदन हो गए िफर भी अभी तक
उनम पराग नहीं पड़ा । कुरबक के फूल ब त समय पहले खल चुकने चािहए थे, पर
वे अभी तक कली के ही प म पड़े ह । य िप िशिशर ऋतु बीत गई है , िफर भी
कोिकलों की कूक उनके क ों म ही अटकी ई है । मुझे तो ऐसा लगता है िक
कामदे व ने भी चौंककर अपने तूणीर म से आधेिनकले ए बाण को िफर वापस
तूणीर म ही रख िलया है । सानुमती : इसम ा स े ह ! राजिष दु अ
तापी जो ठहरे । पहली दासी : आय, हम नगरपाल िम ावसु ने कुछ ही िदन पहले तो
महारानी की सेवा म
__ भेजा है । यहाँ आते ही हम इस मदवन उ ान की सार - स ाल का काम
सौंप
िदया गया । ोंिक हम नई आई ह , इसिलए हम यह वृ ा मालूम न था ।
कंचुकी : अ ा । पर अब िफर ऐसा काम न करना । दािसयाँ : आय, हम यह जानने
की उ ुकता है िक महाराज ने वस ो व िकसिलए
कवा िदया है । यिद कुछ गोपनीय बात न हो तो हम भी बता दीिजए। सानुमती :
मनु तो भावतः उ वि य होते ह । इसे रोकने का अव कोई बड़ा ही
___ कारण रहा होगा । कंचुकी : यह बात तो सबको मालूम हो चुकी है । इसे
सुनाने म ा हािन है ! ा तुमने
शकु ला के प र ाग की बात नहीं सुनी ? दािसयाँ : नगरपाल िम ावसु के मुख
से अंगूठी िमलने तक का वृ ा तो हम सुन चुकी ह । कंचुकी : तब तो सुनाने को
ब त थोड़ी- सी बात ही शेष है । ोंही अपनी अंगूठी को
दे खकर महाराज को यह रण आया िक मने सचमुच ही एका म शकु ला से
िववाह िकया और उसके प ात् िववाह को रण न करके उसका प र ाग कर िदया
, तब से ही उनके प ाताप की सीमा नहीं है । अब उ सु र व ुएँ बुरी लगने लगी
ह । अब वे पहले की भाँ ित ितिदन म यों से भी नहीं िमलते । सारी रात उनींदे ही
पलंग पर करवट बदलते िबता दे ते ह । जब कभी ब त आ ह करने पर अ ःपुर की
रािनयों से बात करने भी लगते ह , तब भूल से शकु ला का नाम उनके मुख से
िनकल जाता है और उसके कारण वे बड़ी दे र तक ल त ए रहते
सानुमती : यह तो स ता की बात है । कंचुकी : इसी ती स ाप के कारण
उ ोंने उ व रोक िदया है । दािसयाँ : ठीक है । इधर आइए महाराज । कंचुकी : (
ान से सुनकर ) अरे , महाराज इधर ही आ रहे ह । जाओ अपने- अपने काम म
लगो। दािसयाँ : अ ा! ( कहकर बाहर िनकल जाती ह । )
( प ा ाप के उपयु वेश धारण िकए राजा , िवदू षक और
ितहारी का वेश ) कंचुकी : ( राजा को दे खकर) सु र सभी दशाओं म
सु र िदखाई पड़ते ह । इसी से
महाराज उदास होते ए भी िकतने अ े लग रहे ह ! य िप उ ोंने बाईं भुजा म
पहने ए एक ण कंकण के िसवाय और सभी आभूषण छोड़ िदए ह ; गम साँ सों के
कारण उनका नीचे का होंठ लाल हो उठा है ; िच ा और राि - जागरण के कारण
उनकी आँ ख अलसाई ई ह ; िफर भी अपने अद् भूत तेज के कारण कृश होते ए भी
वे कृश तीत नहीं होते; जैसे िक सान पर चढ़ाया आ ब मू र छोटा होने
पर भी अपनी आभा के कारण बड़ा ही िदखाई पड़ता है । सानुमती : ( राजा को
दे खकर ) शकु ला इस राजा से प र और अपमािनत होकर भी
जो इसी के िलए तड़पती है , उसका वह तड़पना उिचत ही है । । राजा :
(िवचारम धीरे - धीरे चलते ए ) यह मेरा दय ऐसा अभागा है िक जब वह
मृगनयनी ि यतमा इसे य पूवक जगा रही थी , तब तो सोता रहा और अब
__ प ाताप का क भुगतने के िलए जाग उठा है । सानुमती : उस बेचारी
शकु ला की िक त ही ऐसी थी । िवदू षक : ( आड़ करके ) इन पर िफर शकु ला
का भूत चढ़ा। कुछ समझ म नहीं आता
िक यह ठीक कैसे होंगे ? । कंचुकी : ( पास जाकर) महाराज की जय हो !
मदमन को मने घूम-िफरकर भली- भाँ ित
दे ख िलया है । अब आपकी जहाँ भी इ ा हो वहीं बैठकर िव ाम कर । राजा :
ितहारी, मेरी ओर से जाकर अमा आयिपशुन से कहो िक आज म दे र से उठा
ँ । इसिलए ायासन पर बैठना मेरे िलए स व न होगा । जा का जो कुछ
काम
वे दे ख , वह कागज़ पर िलखकर भेज द । ितहारी : जो महाराज की आ ा ! (
बाहर जाता है । )
राजा : पवतायन , तुम भी जाओ। अपना काम करो । कंचुकी : जो महाराज की
आ ा ! ( बाहर जाता है ।) िवदू षक : ठीक है आपने सब म याँ उड़ा दीं । अब
मदवन म उस ओर चलकर मन
बहलाइए , जहाँ वस ऋतु छा रही है ; िजसम न अिधक गरमी है और न ही
ठ । राजा : िम , यह जो कहा जाता है िक िवपि सदा मौके की ताक म रहती
है , वह ठीक
ही है । ोंिक इधर तो मेरे मन से मुिन- क ा के ेम की याद िछपाए रखने वाला
अ कार दू र आ और उधर कामदे व ने हार के िलए उ त होकर अपने धनुष
पर आ मंज रयों का बाण चढ़ा िलया । िवदू षक : अ ा, ज़रा ठह रए । म अभी
इस ड े से कामदे व के होशिठकाने िकए दे ता
ँ । ( ड ा उठाकर आम के बौर को तोड़ िगराना चाहता है ।) राजा : (
मु राकर) रहने दो , रहने - दो । तु ारा बल - तेज दे ख िलया । चलो, अब यह
बताओ िक िकस जगह बैठकर ि यतमा का कुछ- कुछ अनुकरण करने वाली
लताओं को दे ख-दे खकर आँ ख ठ ी की जाएँ । िवदू षक : आप ही ने तो दासी
चतु रका को कहा था िक म इस समय माधवी कुंज म
जाकर बैलूंगा । उस िच फलक को लेकर वहीं आ जाना , िजस पर िक मने अपने
हाथ से शकु ला का िच खींचा है । राजा : हाँ , मनोिवनोद के िलए वह थान
ठीक है । चलो, उधर ही चलो । िवदू षक : आइए , इधर आइए ।
( दोनों चलते ह । सानुमती उनके पीछे - पीछे जाती है ।) िवदू षक : यह माधवी
कुंज आ गया । इसके अ र एक र -िशला पड़ी है । अपनी अनेक
सु र सामि यों से यह हमारा ागत - सा कर रहा है । चिलए, इसम अ र
चलकर बैिठए ।
( दोनों कुंज के अ र जाकर बैठ जाते ह ।) सानुमती : म भी एक बेल पर चढ़कर
अपनी ' पु ी ' के िच को दे खती ँ । उसके बाद
जाकर उसे बताऊँगी िक उसके पित उसे िकतना ेम करते ह । (एक बेल पर
चढ़कर बैठ जाती है ।) राजा : िम , अब मुझे शकु ला का पहला सारा वृ ा
भली कार याद आ रहा है ।
यह वृ ा मने तु भी तो सुनाया था । पर ु जब मने शकु ला का अनादर
िकया, उस समय तुम मेरे पास नहीं थे। उससे पहले भी तुमने कभी उसका नाम
नहीं िलया । ा मेरी ही तरह तुम भी तो नहीं भूल गए थे ? िवदू षक : नहीं, भूला
तो नहीं था । पर ु आपने सब कुछ कहकर अ म यह कह िदया था
िक यह सब तो केवल प रहास की बात है ; इसम स कुछ नहीं है । मने भी िम ी
के माधो की तरह वैसा ही समझ िलया । सच तो यह है िक जो होना होता है , वह
होकर ही रहता है । सानुमती : यह बात सच है ।
राजा : ( सोचते ए ) िम ,िकसी तरह मुझे बचाओ। िवदू षक : अरे , आपको यह
ा आ ? ऐसा कहना आपको शोभा नहीं दे ता। स ु ष
कभी भी अपने क को औरों के स ुख इस कार कट नहीं करते , िजससे
औरों को कुछ कहने का अवसर िमले । पहाड़ तूफान म भी अिडग ही रहते ह ।
राजा : िम , प र ाग के समय ि य शकु ला कैसी शोक -िव ल हो उठी थी , उसे
याद
करके मुझसे धैय नहीं रखा जाता । वह बेचारी इधर से ितर ृ त होने पर अपने
इ - ब ुओं के पीछे चलने लगी । उसके बाद जब गु के समान गु -िश ने उसे
ज़ोर से धमकाकर कहा ' वहीं रह' तो वह खड़ी हो गई और िफर बहते ए आँ सुओं से
धुंधली ई अपनी ि से मुझ िन ठुर की ओर दे खने लगी। वह ि
आज भी मुझे िवषबुझे तीर की भाँ ित जला रही है । सानुमती : हाय रे मनु की
ाथपरता ! इनके दु ःख को दे ख -दे खकर मुझे आन हो रहा
िवदू षक : भई, मुझे तो ऐसा लगता है िक उसे कोई आकाश- चर दे वता उठा ले
गया है । राजा : उस पित ता को अ कोई छूने का साहस ही कैसे कर सकता है ?
मने सुना है
िक तु ारी सखी शकु ला की माता मेनका है । मेरा मन तो यही कहता है िक
हो
न हो मेनका की स खयाँ उसे उठा ले गई ह । सानुमती : आ य की बात यह नहीं
है िक वह इ याद आ रही है ; ब यह उसे भूल कैसे
गए थे ? िवदू षक : यिद यह बात है , तो समय आने पर आपका उनसे अव
िमलन होगा ।
राजा : वह कैसे ? िवदू षक : ोंिक माता-िपता ब त दे र तक अपनी क ा को
पित के िवयोग म दु ःखी नहीं
दे ख सकते । राजा : िम , वह वापस लौटकर न आने वाला सु र अतीत कोई
था , माया थी , मेरी
बु का ममा था , या मेरे पु ों का कोई ऐसा फल था , जो उतनी ही दे र म
समा हो गया ; यह म ठीक कार समझ नहीं पा रहा ँ । मेरी सारी आशाएँ
पहाड़ की चोटी से गहरी खाई म िगरकर चकनाचूर हो गई ह । िवदू षक : ऐसी
बात न कीिजए । यह अंगूठी िफर िमल गई, यही इस बात की सूचक है िक
आप दोनों का िमलन अव होगा और अचानक होगा । राजा : ( अंगूठी को
दे खकर) हाय! यह अंगूठी भी कैसी अभागी है , जो वैसे दु लभ थान
पर प ँ चकर भी वहाँ से िगर पड़ी । हे अंगूठी, प रणाम को दे खकर ऐसा लगता है
िक मेरी भाँ ित तेरे पु भी थोड़े - से ही थे। तभी तू उसकी अ ण नखों वाली
सु र अंगुिलयों म प ँ चकर भी वहाँ से िगर पड़ी । सानुमती : यिद िकसी अ के
हाथ पड़ जाती, तो सचमुच ही दु ःख की बात होती । िवदू षक : आपने यह अपने नाम
वाली अंगूठी िकस संग म उसकी अंगुली म पहनाई थी ? सानुमती : यह तो म भी
सुनना चाहती ँ । राजा : जब म अपने नगर को लौटने लगा , तो ि यतमा शकु ला
आँ खों म आँ सू भरकर
__ कहने लगी, ' आप िकतने िदन म अब िफर मेरी सुध लगे? ' िवदू षक : िफर ?
राजा : तब मने यह अंगूठी उसकी अंगुली म पहनाते ए कहा था िक 'ि य, तुम इस
अंगूठी पर िलखे एक - एक अ र को एक - एक िदन म िगनती जाना और जब
तुम इस नाम के अ तक प ँ चोगी, तभी मेरे अनुचर तु मेरे अ ःपुर म ले जाने के
िलए आ प ँ चगे ।' और म िन ठुर उस सबको भूल जाने के कारण इसकी व था
कर ही न सका । सानुमती : अविध तो बड़ी अ ी बताई थी , पर ु भा ने सब
उलट - पलट कर िदया । िवदू षक : तो िफर यह अंगूठी धीवर ारा पकड़े गए रो
म के पेट म कैसे प ँ च गई ?
राजा : शचीतीथ पर पूजा करते समय यह तु ारी सखी के हाथ से पानी म िगर
पड़ी
थी ।
िवदू षक : ठीक ! सानुमती : इसीिलए इस धमभी राजा दु को बेचारी
शकु ला के साथ ए अपने
िववाह म भी स े ह था । पर ु ा ऐसे बल ेम म भी रण -िच की
आव कता होती है ? अव इसका कुछ और कारण रहा होगा । राजा : अब
इस अंगूठी को उलाहना तो दू ँ ! िवदू षक : ( मन ही मन ) अब इ ोंने िफर पागलों की
- सी बात शु की । राजा : हे अंगूठी, तू उस सु र और कोमल अंगुिलयों वाले हाथ
को छोड़कर पानी म
ों जा डूबी थी ? या िफर अचेतन व ु तो गुणों को पहचान नहीं सकती, पर ु
मने ा सोच- समझकर ि यतमा का ितर ार िकया ? िवदू षक : ( मन ही मन )
आज तो लगता है िक भूखों ही मरना होगा । राजा : सु री, मने अकारण तु ाग
िदया था , इस प ाताप से मेरा दय जल रहा है । अब कृपा करो, मुझे िफर दशन दो

(िबना परदा िगराए िच -फलक िलए दासी का वेश ) चतु रका : यह ािमनी
िच म खड़ी ई ह ।
( िच - फलक िदखाती है ) िवदू षक : ध िम ! आपने शरीर के िविभ अंगों
का ऐसा सु र िच ण िकया है िक
उसम भाव तक झलक उठे ह । मेरी ि तो िच के उभरे ए और दबे ए थलों
पर िफसल - सी रही है । सानुमती : ध है राजिष की िच कला ! ऐसा लगता है
िक पु ी शकु ला ही मेरे सामने
खडी है । राजा : इस िच म जो - जो व ु ठीक न थी , वह मने बार- बार सुधार
कर ठीक की है ;
िफर भी अभी तक उसके सौ य की केवल ज़रा- सी झलक ही इस िच म आ
पाई है । सानुमती : इनका यह कथन इनके प ाताप से ि गुिणत ेम और इनकी
िनरिभमानता के
अनु प ही है । िवदू षक : ों जी , यहाँ तो वे तीन िदखाई पड़ रही ह और
सबकी सब सु र ह । इसम से
शकु ला कौन - सी है ? सानुमती : इसे ऐसे सु र प की ज़रा भी पहचान
नहीं। इसके िलए तो आँ खों का होना न
होना बराबर है । राजा : तुम िकसे समझते हो ? िवदू षक : मुझे तो ऐसा लगता है
िक ये जो िसंचाई के कारण िचकने प ों वाले आम के पेड़
के पास कुछ थकी ई- सी खड़ी है , िजसके अधखुले जूड़े से फूल िगर रहे ह और
मुँह पर पसीने की बूंद झलक रही ह ; क े नीचे की ओर झुके ए ह ; वही शकु ला
है । शेष दोनों स खयाँ ह ।
राजा : तुम समझदार हो । इस िच म मेरे ेम के िच भी बने ए ह । िच के
आसपास
अंगुिलयों म आए पसीने के मैले दाग पड़ गए ह और इस पर मेरे कपोलों से एक
आँ सू िगर पड़ा था , जो उड़े ए रं ग के कारण िदखाई पड़ता है । चतु रका, अभी
इस िच म िवनोद का वह थान अधूरा ही िचि त आ है ; जाकर रं गों की
बि यों तो ले आ । चतु रका : आय माध , ज़रा इस िच -फलक को तो
पकिड़ए, म अभी आती ह । राजा : लाओ, म ही थामे लेता ँ (िच - फलक को
संभालता है । )
( दासी बाहर जाती है ।) राजा : ( गहरी साँ स छोड़कर ) मेरी भी ा दशा है !
पहले मने सा ात आई हई ि या को
तो ाग िदया और अब उसके इस िच का इतना आदर कर रहा ँ । यह ठीक
ऐसा ही है , जैसे माग म बहती ई जल से भरी नदी को छोड़ आने के बाद
मरीिचका के पीछे भागने लगा होऊँ । िवदू षक : ( मन ही मन ) यह तो नदी को
छोडकर मरीिचका के पीछे दौडने लगे ह । ( कट
प से ) ों जी , इस िच म अब और ा िचि त करना शेष है ? सानुमती :
शायद ये उन दे शों का िच ण करना चाहते ह, जो मेरी सखी को ब त ि य थे। राजा
: सुनो, अभी इसम मािलनी नदी बनानी है , िजसकी रे ती म हं सों के जोडे बैठे हों ।
इसम िहमालय की पिव तराई िचि त करनी है , िजसम ह रणों का झु िव ाम
कर रहा है । एक पेड़ का िच भी इसम बनाना चाहता ँ , िजसकी शाखाओं पर
व ल व झूल रहे हों और उस वृ के नीचे एक ह रणी अपनी बाईं आँ ख को
काले ह रण के सींग से धीरे - धीरे खुजला रही हो । िवदू षक : ( मन ही मन ) मुझे
तो ऐसा लगता है िक ये सारे िच - फलक को ल ी- ल ी
दािढ़यों वाले तप यों के झु से भरे िबना न मानगे । राजा : िम , और भी एक
बात है । इस िच म शकु ला की उिचत ंगार- साम ी को तो
__ म भूल ही गया । िवदू षक : वह ा ? सानुमती : यह ंगार- साम ी अव ही
तपोवन और सुकुमारता दोनों के ही अनुकूल होगी । राजा : िम , अभी तो मने
इसका कानों म पहना आ वह िशरीष का फूल भी नहीं
बनाया , िजसकी पंखु रयाँ गालों तक झूल रही हों और न न- युगल के म म
शरद् ऋतु के च मा की िकरणों के समान कोमल कमलनाल की माला ही
पहनाई है । िवदू षक : ों जी , यह लाल कमल की पंखु रयों के समान सु र
हथेली से अपने मुँह को
ढाँ पकर चौंकी ई- सी ों खड़ी है ? ओह, यह फूलों के रस का चोर दु भौंरा
इनके मुँह पर मंडरा रहा है । राजा : इस ढीठ को ज़रा रोकना । । िवदू षक : आप
ही दु ों का दमन करने वाले ह । यह आपके रोके ही केगा ।
राजा : ठीक है । अरे भई, कुसुमलताओं के ि य अितिथ, यहाँ उड़ - उड़कर ों
थक
पा रहे हो ? वह दे खो, तु ारी ि य मरी फूल के ऊपर बैठी ई तु ारे िबना
ास से ाकुल होकर भी मधुपान नहीं कर रही ; तु ारी ती ा कर रही है ।
सानुमती : रोका भी िकतनी भ ता के साथ है ! िवदू षक : लात के भूत बात से कहीं
मानते ह ? राजा : ों रे मर, तू मेरी आ ा नहीं मानता ; तो अब सुन ले । यिद तू
मेरी ि या के
ताज़े नवप व के समान सु र अधर को , िजसका िक मने भी ेमो वों म बड़ी
सदयता के साथ ही पान िकया है , श करे गा; तो म तुझे कमलकोष के कारागृह
म डाल दू ं गा । िवदू षक : ऐसे भयंकर द से तो यह डर चुका ! (हँ सकर मन ही
मन ) यह तो जो पागल
ए, सो ए; इनके साथ म भी पागल हो गया । ( कट प से ) अरे भई, यह तो
िच है । राजा : ऐं , ा सचमुच िच है ? सानुमती : मुझे भी अब आकर यह पता
चला । िफर िच के अनुसार ही ानम रहने
वाले राजा का तो कहना ही ा ? राजा : िम , यह तुमने ा अनथ िकया ! म तो
त य होकर ि यतमा का सा ात्
दशन - सा कर रहा था और तुमने याद िदलाकर मेरी ि यतमा को िच बना िदया

( आँ सू बहाने लगता है ।) सानुमती : इनका यह िवरह पूवापर िवरोधी होने के
कारण िविच ही लगता है । राजा : िम , इस अिवराम दु ःख को कैसे स ँ ? रात म
नींद नहीं आती, इसीिलए उससे
म िमलना भी अस व हो गया है ; और आँ खों म आए ए आँ सू उसके इस
िच तक को दे खने नहीं दे ते । सानुमती : शकु ला के प र ाग से हम जो दु ःख
आ था, उसे तुमने िमटा िदया ।
( वेश करके ) चतु रका : महाराज की जय हो ! म रं गों की िपटारी लेकर आ रही
थी ।
राजा : तो ा आ ? । चतु रका : तभी तरिलका को साथ िलए महारानी वसुमित
आईं । उ ोंने वह िपटारी मुझसे
ज़बद ी छीन ली । कहने लगीं िक 'म यं इसे लेकर महाराज के पास जा रही
िवदू षक : तेरे भा अ े थे िक तू बच आई । चतु रका : महारानी का दु प ा एक
पौधे की डाली म उलझ गया था । उधर तरिलका उसे
छु ड़ाने लगी और इधर म जान बचाकर भाग आई । राजा : िम , रानी अब आती
ही होंगी । ब त िदन से आदर पाते रहने के कारण उनम गव
भी कम नहीं है । तुम िच को िकसी तरह बचाओ। िवदू षक : यह किहए िक
अपनी जान बचाओ। (िच - फलक को लेकर उठ खड़ा होता है ।)
जब आपको अ ःपुर के पचड़े से छु टकारा िमल जाए, तो मुझे मेघ ित द
ासाद से बुलवा लीिजएगा । ( तेज़ी से बाहर िनकल जाता है । ) सानुमती : दय
दू सरे को दे डालने पर भी महाराज पहले िकए ेम का आदर बनाए रखना
चाहते ह । पर ु अब वह पहला ेम एकदम ही ठ ा पड़ चुका है ।
( प हाथ म िलए वेश करके ) ितहारी : महाराज की जय हो !
राजा : ितहारी, तु रा े म कहीं रानी तो िदखाई नहीं पड़ी ? ितहारी : िदखाई
तो पड़ी थीं , िक ु कागज - प हाथ म िलए मुझे आते दे खकर वापस
लौट गईं । राजा : वे काय के मह को खूब समझती ह , इसी से काय के समय
बाधा नहीं डालना
चाहतीं । ितहारी : महाराज, अमा महोदय ने कहा है िक आज िहसाब
-िकताब का काम अिधक
था , इसिलए जा का केवल एक ही मामला म दे ख पाया ँ । वह इस पर िलख
िदया है । महाराज दे ख ल । राजा : लाओ, कागज़ इधर दो ( ितहारी कागज़ दे ता
है । ) राजा : ( पढ़कर ) यह ा ? सामुि क ापारी सेठ धनिम की जहाज़ डूब
जाने से मृ ु
हो गई ? और इस बेचारे के कोई स ान नहीं ? अमा ने िलखा है िक उसका
सारा धन राजकोष म आ जाना चािहए । हाय , पु हीन होना भी िकतने दु ःख की बात
है ।! ितहारी, जब उसके पास इतना धन था , तो अव ही उसकी पि याँ
भी कई होंगी । पता करो, शायद उनम से कोई प ी गभवती हो ! ितहारी :
महाराज , सुना है िक उनकी एक प ी साकेत के सेठ की लड़की है । उसका हाल
ही म पुंसवन - सं ार आ था । राजा : तब तो पैतृक धन पर उस गभ थ िशशु
का अिधकार है । जाओ, अमा को यही
बात कह दो । ितहारी : जो महाराज की आ ा । ( चलने लगता है । )
राजा : ज़रा यहाँ तो आना । ितहारी : जी , आ गया । राजा : स ान है या नहीं,
इससे ा ? यह घोषणा करवा दो िक जा म से िजस
िजसका, जो - जो भी कोई स ी न रहे , पािपयों को छोड़कर, आज से उनका
वह स ी दु है । ितहारी : यह घोषणा अभी ई जाती है । ( बाहर जाकर
िफर वेश करके ) महाराज की इस
घोषणा से जा को वैसा ही आन आ , है जैसा ठीक समय पर ई वषा से
होता
राजा : ( ल ी और गहरी साँ स छोड़कर ) हाय, स ान न होने पर िनराधार कुलों
की
स ि मूल पु ष की मृ ु के बाद औरों के पास चली जाती है । मेरे मरने पर
पु वंश की ल ी का भी यही हाल होगा । ितहारी : भगवान् ऐसा िदन न लाए ।
राजा : हाय , मने भी यह ा िकया , जो घर आए सौभा को ठु करा िदया ?
सानुमती : वह अव शकु ला को ही याद कर - करके अपने - आपको िध ार
रहे ह ? राजा : मने वंश- पर रा को चलाने वाली अपनी गभवती प ी का प र ाग
कर िदया ,
जो समय पर बीज बोई गई भूिम के समान भिव म सुमहान् फल दे ने वाली थी ।
सानुमती : अब भी वंश- पर रा अटू ट बनी रहे गी । चतु रका : ( चुपके से ितहारी से
) इस सेठ के वृ ा को सुन महाराज का दु ःख दु गुना हो
गया है । इ सा ना दे ने के िलए मेघ - ित द महल से आय माध को
ज ी
से बुला लाओ। ितहारी : यह ठीक है । ( बाहर जाता है ।) राजा : हाय, दु
का िदया आ िप पाने वाले िपतर लोग स े ह म पड़ गए ह ।
उ िच ा हो गई है िक इस दु के बाद हमारे वंश म कौन हमारा वैिदक
िविध से तपण करे गा ? इसीिलए मुझ पु हीन ारा िदए गए जल से वे पहले अपने
आँ सू धोते ह , और उससे शेष बचे जल को पीते ह ।
( मूिछत हो जाता है । ) चतु रका : ( हड़बड़ाहट के साथ दे खकर) महाराज,
धीरज र खए, धीरज र खए । सानुमती : हाय- हाय , दीपक जलता होने पर भी बीच म
परदा होने के कारण यह अ कार
सा अनुभव कर रहे ह । म अभी इ सब कुछ बताकर आन त िकए दे ती ँ ।
पर नहीं, ान आया िक शकु ला को आ ासन दे ती ई दे वमाता अिदित कह रही
थीं िक ' य भाग पाने के िलए उ क दे वता लोग ही कुछ ऐसा उपाय करगे, िजससे
तु ारे पित शी ही आदरपूवक तु हण कर ।' अब यहाँ दे र करना ठीक नहीं ।
चलकर यह सारा वृ ा सुनाकर अपनी ारी सखी शकु ला को धैय बँधाऊँ । (
झटके के साथ ऊपर उड़ जाती है । )
( नेप म ) दु हाई है , महाराज दु हाई है ! राजा : ( होश म आकर , ान से
सुनकर ) अरे माध की - सी पुकार तीत होती है । यहाँ कोई है ?
( वेश करके ) ितहारी : ( घबराहट के साथ ) महाराज, आपके िम माध
िवपि म फँस गए ह ; उनकी
र ा कीिजए। राजा : ों , उसे ा आ ? ितहारी : कोई अ ाणी उ
पकड़कर ले गया है और मेघ - ित द महल की मुंडेर
___ पर उ लटकाए ए है । राजा : ( उठकर ) अ ा, अब मेरे महलों म भी
भूत- ेत आने लगे ? ा िकया जाए;
ितिदन मनु यं ही कहाँ िकतनी भूल कर जाता है , इसी का पता नहीं चलता;
िफर जा म से कौन िकस कार का आचरण कर रहा है , यह पूरी तरह
मालूम कर पाना तो स व ही नहीं ।
( नेप म ) बचाओ िम , मुझे बचाओ! राजा : ( तेज़ी से चलता आ) िम , डरो
मत, डरो मत !
( नेप म ) बचाओ िम , मुझे बचाओ! हाय, ड ँ कैसे नहीं ! यह न जाने कौन
मेरी गदन
मरोड़कर ग े की भाँ ित मेरे तीन टु कड़े िकए डालता है । राजा : ( इधर- उधर
दे खकर) मेरा धनुष लाओ ।
( धनुष हाथ म िलए वेश करके । ) यवनी : ामी, यह धनुष है और यह
ह ाण ।
( राजा धनुष - बाण ले लेता है ।)
( नेप म ) जैसे गले का ताज़ा खून पीने के िलए चीता पशु को मार डालता है ,
उसी कार म िबलिबलाते ए तुझे अभी मारे डालता ँ । िवपि ों को अभय दे ने
के िलए
धनुष धारण करने वाला दु अब तुझे बचा सकता हो , तो बचा ले । राजा :
( ु होकर) यह ा ? मुझे ही नीचा िदखाना चाहता है । ठहर रे शवभोजी,
अभी तुझे समा करता ँ । ( धनुष पर डोरी चढ़ाकर ) ितहारी, सीिढ़यों की
ओर
चलो । ितहारी : ( चारों ओर दे खकर) यहाँ तो कोई भी नहीं है ।
(नेप म ) हाय - हाय , म तो आपको दे ख रहा ँ और आप मुझे नहीं दे ख पा रहे
। िब ी के
मुँह म फँसे चूहे की तरह अब म तो जीवन की आशा छोड़ बैठा ँ । राजा : अरे
त रणी िव ा के अिभमानी, मेरा अ अब तुझे ढू ँ ढ़ लेगा । यह म उस
बाण को धनुष पर चढ़ाता ँ , जो वध- यो तुझे तो मार डालेगा और र ा- यो
ा ण की र ा करे गा । ठीक वैसे ही , जैसे हं स दू ध को पी लेता है और उसम िमले
जल को छोड़ दे ता है ।
( धनुष पर बाण चढ़ाता है ।)
(िवदू षक को छोड़कर मातिल वेश करता है ।) मातिल : महाराज, इ ने
रा सों को मारने के िलए आपको बुलाया है । अब चलकर उन
पर ही इस धनुष का योग कीिजए । िम ों पर तो स ु षों की स ता से भरी
सौ ि ही पड़ा करती है , भयंकर बाण नहीं । राजा : ( हड़बड़ाकर बाण को
धनुष से उतारता आ) अरे , ा मातिल ह ? इ के
सारिथ , आपका ागत है !
( वेश करके ) िवदू षक : िजसने मुझे य के पशु की भाँ ित मारने का य िकया,
उसी का यह ागत
करके अिभन न कर रहे ह । मातिल : ( मु राते ए) महाराज, अब सुिनए िक
इ ने मुझे आपके पास िकसिलए भेजा
राजा : हाँ , वह तो सुनाइए । मातिल : कालनेिम के वंश म दु जय नाम के दानवों
का समूह उ आ है ।
राजा : हाँ है , मने भी एक बार नारदजी से सुना था । मातिल : आपके िम इ
उसे जीत नहीं पा रहे । इसिलए उ यु म मारने के िलए इ
ने आपको याद िकया है । राि के िजस अ कार को सूय हटाने म असमथ रहता
है , उसे च मा दू र कर दे ता है । इस समय आपने श तो धारण िकए ही ए ह ;
तो बस अभी इस इ के रथ पर चढ़कर िवजय के िलए थान कीिजए । राजा :
इ ने आदर दान करके मुझ पर अनु ह िकया है । पर ु आपने माध के
साथ ऐसा वहार ों िकया ? मातिल : वह भी बताए दे ता ँ । मने दे खा िक
आप िकसी कारणवश मानिसक स ाप से
िवकल ह । इसिलए आपको ोध िदलाने के िलए ऐसा िकया । ोंिक ईंधन को
िहला दे ने पर आग तेज़ी से जलने लगती है ; छे ड़ा जाने पर नाग फन उठा लेता है ।
ायः का असली तेज भी तभी कट होता है , जब कोई उसे उ ेिजत कर
राजा : (माध से चुपके से ) िम , इ की आ ा माननी होगी । इसिलए तुम यह
सब
बात बतलाकर मेरी ओर से अमा आयिपशुन से कह दे ना िक जब तक हमारा
यह धनुष दू सरे काम म लगा है , तब तक केवल , उनकी बु ही जा का पालन
करती रहे । िवदू षक : जो आपकी आ ा ( बाहर जाता है । ) मातिल : चिलए
आयु ान्, रथ पर चिढ़ए ।
( रथ पर चढ़ने का अिभनय करता है ।) ( सब बाहर िनकल जाते ह । )
स म अंक
( आकाश म दौड़ते ए रथ पर चढ़े राजा दु और मातिल का
वेश ) राजा : मातिल , यह ठीक है िक मने इ का काय पूरा कर िदया, िफर भी
उ ोंने जैसा
मेरा स ार िकया, उसकी तुलना म मेरा काय कुछ भी नहीं था । मातिल : (
मु राकर ) आयु ान , मुझे तो ऐसा लगता है िक आप दोनों को ही अपने
आपसे अस ोष रहा । आप इ के स ार की तुलना म अपने िकए ए
उपकार को कम समझते ह और इ आपके परा म से चिकत होकर अपने स ार
को
तु समझ रहे ह । राजा : मातिल , यह बात नहीं ! िवदाई के समय उ ोंने मेरा
जैसा स ार िकया, वह तो
क ना से भी परे की व ु है । उ ोंने मुझे सब दे वताओं के स ुख आधे
िसंहासन पर िबठाया । उ ोंने अपने गले म ह रच न लगी म ार की एक माला
पहनी ई थी , िजसकी ओर जय बड़ी ललचाई ि से दे ख रहा था । वह माला
उ ोंने उसे न दी और मु राते ए मेरे गले म पहना दी । मातिल : ऐसी ा
व ु है , जो दे वराज इ आपको न दे सक ? ोंिक दे खए, इ तो
सदा सुख म म रहने वाले ह । उनके िलए केवल दो ने ही ग को दानवों से
िन ं टक िकया है । एक तो आपके ती ण बाणों ने और एक बार पहले नृिसंह
भगवान् के पैने नाखूनों ने । राजा : यह सब भी इ का ही ताप है । ोंिक
अनुयायी लोग जो बड़े - बड़े कामों को
भी पूरा कर डालते ह , वह ािमयों के गौरव के कारण ही होता है । यिद सह
िकरण वाले सूय ने अ ण को अपना सारिथ न बनाया होता , तो ा वह कभी
अ कार का नाश कर सकता था । मातिल : आपको यह िवनय ही शोभा दे ती है
। ( कुछ दू र जाकर ) उधर दे खए , आपकी
यशोगाथा ग म कैसी फैल रही है ! अ राओं के ंगार से जो रं ग शेष रह गए
ह , उनसे दे वता लोग क वृ से ा ए व ों पर आपके च र को सु र गीत
बनाकरिलख रहे ह । राजा : मातिल , उस िदन ग की ओर जाते ए म रा सों
से यु के िलए अधीर था ,
इसिलए ग के माग को भली- भाँ ित न दे ख सका था । इस समय हम कौन - से
वायुपथ म चल रहे ह ? मातिल : यह ' प रवह' वायु का माग कहलाता है । इसी
माग म आकाश गंगा बहती है और
यहीं से न ों की िकरण िवभ होकर सब ओर फैलती ह । और िव ु भगवान्
ने वामनावतार के समय अपना दू सरा चरण इसी म रखकर इसे पिव िकया था ।
राजा : मातिल , इसी से यहाँ मेरा मन अ र- बाहर सब ओर से स हो उठा है ।
(रथ के
पिहयों को दे खकर ) अब हम वायु के उस माग म उतर आए ह िजसम मेघ चला
करते ह । मातिल : यह आपने कैसे जाना ? राजा : ोंिक यहाँ आपका रथ
सजल बादलों के ऊपर चल रहा है , इसीिलए रथ की
धुरी जलिब दुओं से सील गई है । पिहयों के अरों के बीच म से िनकल -िनकलकर
चातक जहाँ -तहाँ उड़ रहे ह और रथ के घोड़े रह-रहकर िबजली की चमक से रं ग
से उठते ह । मातिल : बस , अब कुछ ही दे र म आप अपने रा की भूिम पर
होंगे । राजा : (नीचे की ओर दे खकर ) तेज़ी से उतरने के कारण भूलोक ब त ही
आ यजनक
िदखाई पड़ता है । वह उधर पृ ी पवतों के ऊपर उठते ए िशखरों से नीचे की
ओर उतरती ई- सी दीख रही है । जो वृ पहले प ों म िछपे ए थे, अब धीरे
धीरे उनकी शाखाएँ भी अलग - अलग िदखाई पड़ने लगी ह । दू र से लकीर - सी
पतली िदखाई पड़ने वाली निदयाँ अब खूब बड़ी और चौड़ी दीखने लगी ह । ऐसा
तीत होता है जैसे पृ ी को िकसी ने नीचे से ऊपर की ओर उछाल िदया है और
यह तेज़ी से मेरे पास चली आ रही है ! मातिल : आपने िब ु ल ठीक दे खा । (
आदर के साथ दे खते ऐ ) अहा, पृ ी की
िवशालता और सु रता के ा कहने ! राजा : मातिल , यह पूव समु से लेकर
पि म समु तक फैला आ और सं ा - काल
की मेघमाला के समान िवशाल पवत कौन - सा है , िजस पर सुनहली धाराएँ बह
रही ह ? मातिल : आयु ान्, यह हे मकूट पवत है । यहाँ िक र लोग रहते ह और
यहाँ तप की िस
शी होती है । यंभू मरीिच के पु दे वताओं और असुरों के िपता जापित
क प प ी- समेत यहीं तप ा कर रहे ह । राजा : ऐसे सुअवसर को तो छोड़ना
उिचत नहीं । महा ा क प के दशन करके ही
आगे चलगे । मातिल : आपका िवचार उ म है ।
( उतरने का अिभनय करते ह ।) राजा : ( चिकत होकर) आपका रथ कब भूिम
पर उतरा इसका तो पता ही न चला। न तो
यह पता चला िक आपने कब रास खींचीं; न पिहयों और धुरी म कुछ घरघराहट
ई; और न कुछ धूल ही उड़ी । पता ही न चला िक इसने भूतल को श कब
िकया ! मातिल : इ के और आपके रथ म केवल इतना ही तो अ र है ।
राजा : मातिले , महा ा क प का आ म िकस ओर है ? मातिल : ( हाथ से
संकेत करते ए ) वह आ म उस ओर है , जहाँ वह महा ा क प पेड़
के ठूठ के समान थर रहकर सूय की ओर ि लगाए तप कर रहे है । उनके
शरीर का आधा भाग दीमक की बाँ िबयों से ढं क गया है ; उनकी छाती पर साँ पों की
कचुिलयाँ पड़ी ई ह ; उनके गले को पुरानी बेलों ने फैलकर खूब ज़ोर से जकड़
िलया । और उनकी जटाएँ क ों तक फैली ई ह , िजनम िचिड़यों ने
घोंसले बना िलए ह । राजा : ऐसा कठोर तप करने वाले महा ा को णाम !
मातिल : ( रास खींचकर रथ को धीमा करता है । ) महाराज, यह लीिजए, हम
जापित
क प के आ म म आ प ँ चे। यहाँ के म ार वृ ों को यं दे वमाता अिदित ने
सींच- सींचकर बडािकया है । राजा : यह थान तो ग से भी अिधक
आन दायक है । मुझे ऐसा लगता है , िक म
अमृत के सरोवर म नहा रहा होऊँ । मातिल : (रथ रोककर ) आयु ान् , उत रए
!
राजा : ( उतरकर ) और आप? मातिल : मने रथ को रोक िलया है । म भी उतरता
ँ । ( उतरकर) इधर आइए आयु ान !
___ ( कुछ दू र चलकर) महा ा -ऋिषयों की इस तपोभूिम के दशन कीिजए ।
राजा : इसे दे खकर तो बड़ा आ य होता है । यहाँ ऋिष लोग क - वृ ों के वन म
बैठकर ाणायाम करते ह और सुनहले कमलों के पराग से सुवािसत जल म
पु ान करते ह । र ों की िशलाओं पर बैठकर समािध लगाते ह और अ राओं के
िनकट रहकर अपने मन को वश म रखते ह । अ मुिन अपनी तप ा के ारा जो
कुछ ा करना चाहते ह , वह सब ा करके , उन दशाओं
म रहते ए भी ये मुिन तप ा करते ह । मातिल : बड़ों की इ ाएँ बड़ी होती ह ।
(कुछ दू र चलकर और आकाश की ओर दे खकर )
अरे वृ शाक जी, इस समय महा ा क प ा कर रहे ह ? ा कहा ? द
पु ी अिदित ने पाित धम के िवषय म कुछ िकया था , उसी के िवषय म
ऋिष- पि यों- समेत अिदित को उपदे श दे रहे ह । राजा : ( ान से सुनकर )
तब तो , कुछ दे र ती ा करनी पड़े गी । मातिल : ( राजा की ओर दे खकर ) आप इस
अशोक वृ के तले िव ाम कीिजए । तब तक
म अ र जाकर महा ा क प को आपके आगमन की सूचना दे ने का अवसर
दे खता ँ । राजा : जो आप उिचत समझ, कीिजए । ( बैठ जाता है । ) मातिल :
आयु ान्, तो म जाता ँ । ( बाहर िनकल जाता है । )
राजा : ( शुभ शकुन की सूचना दे ते ए) हे दि ण बा , तुम थ ों फड़कते हो
? यहाँ
कोई अिभलाषा पूरी होने की आशा नहीं है । एक बार क ाण को ठु करा दे ने पर
बाद म दु ःख ही भुगतना पड़ता है ।
( नेप म ) शरारत मत कर । िफर तू अपने भाव पर उतर आया न ! राजा : (
ान से सुनकर ) यह थान तो िकसी कार की शरारत करने का थान नहीं है ।
िफर यह िकसकी रोकथाम हो रही है ? (िजस ओर से श आया था उस ओर
दे खकर ) अरे , यह परा मी बालक कौन है , िजसके पीछे -पीछे दो तप िनयाँ बड़ी
किठनाई से आ रही ह और यह बालक िसंहनी के ब े को माँ का दू ध न पीने दे कर
गदन के बाल पकड़कर अपने साथ खेलने के िलए बलपूवक खींच रहा
( दो तप िनयों के साथ ऊपर के अनुसार बालक का वेश ) बालक : मुँह खोल
रे िसंह, तेरे दाँ त िगनूँगा । पहली तप नी : दु , हमारी अपनी ही स ान जैसे ि य
पशुओं को ों सताता है ?
ओह, तेरा तो साहस िदनों-िदन बढ़ता ही जाता है । ऋिषयों ने तेरा नाम
सवदमन ठीक ही रखा है । राजा : इस बालक को दे खकर मेरे मन म ऐसा ेह
ों उमड़ रहा है , जैसे यह
मेरा अपना ही पु हो ? शायद िन ान होने के कारण ही ब ों से मुझे
ऐसा ार है ! दू सरी तप नी : यिद तू इसके ब े को न छोड़े गा, तो यह शेरनी
तुझ पर टू ट पड़े गी। बालक : ( मु राकर ) अहा, बड़ा डरता ँ न म इससे ? (िसंहनी
की ओर मुँह
िबचकाता है ।) राजा : मुझे लगता है िक यह बालक बड़ा होकर महा तापी
बनेगा । अभी
यह उस िचनगारी के समान है , जो ईंधन िमलने पर धधककर च आग
बन जाती है । पहली तप नी : बेटा, इस शेर के ब े को छोड़ दे । तुझे दू सरा
खलौना दू ं गी ।
बालक : कहाँ है ? ला दे । ( हाथ फैलाता है ।) राजा : यह ा ? इसके हाथ म तो
च वत के ल ण भी ह । अभी खलौने के
लालच से पसारा आ यह हाथ जाल के समान गुंथी ई उं गिलयों से ऐसा सु र
लग रहा है , जैसे कोई खला आ अकेला कमल हो ,िजसकी लाली उषा के कारण
चौगुनी हो उठी हो और िजसकी पंखु रयाँ अलग - अलग
िदखाई न पड़ रही हों । दू सरी तप नी : सु ता, वह केवल बातों से मानने वाला
नहीं । तू जा ; मेरी कुिटया म
ऋिषकुमार माक े य का बनाया आ रं गीन िम ी का मोर रखा है । इसके िलए
उसे ले आ ।
पहली तप नी : अ ा ! ( बाहर जाती है । )
बालक : तब तक म इससे ही खेलूँगा । ( तप नी की ओर दे खकर हँ सता है । )
राजा : यह नटखट बालक मुझे ब त ारा लग रहा है । वे लोग ध ह , िजनकी
गोद , पु ों के शरीर की धूल से मिलन ई रहती है । वे बालक जब अकारण
हँ सते ए किलयों के समान अपने दाँ तों की ह ी - सी झलक िदखाते ह , अपनी
तोतली बोली म मीठी- मीठी बात करते ह और बार ार गोदी म
चढ़ना चाहते ह , तो वे िकतने ारे लगते ह ! तप नी : अ ा, मेरी तो बात ही
नहीं सुनता। ( इधर- उधर दे खती है ।) कोई ऋिषकुमार
यहाँ ह ? ( राजा को दे खकर) भ , आप ही यहाँ आइए । यह बालक खेल ही खेल
म इस िसंह के ब े को ब त ज़ोर से दबाकर घोंटे दे रहा है । ज़रा
इसको छु ड़ा दीिजए । राजा : ( पास आकर मु राते ए ) ों ऋिषकुमार, तुम
अपने ाभािवक संयम को
ागकर ऐसा आ म -िवरोधी आचरण ों कर रहे हो , िजससे इन सुख से रहने
वाले ािणयों को क होता है ? यह ऐसा ही है , जैसे च न के वृ पर काले नाग
का ब ा िलपटा आ हो । तप नी : भ , यह ऋिषकुमार नहीं है । राजा : यह
तो इसकी आकृित और चे ाएँ ही कह रही ह । पर ु तपोवन म दे खकर
मने इसे ऋिषकुमार समझा। (बालक से िसंह-िशशु को छु ड़ाते ए बालक का
श करके मन ही मन ) यह न जाने िकसके वंश का दीप है ? जब इसे श करके
मुझे इतना आन हो रहा है , तो िजसका यह अपना पु है , उसे
तो न जाने कैसा सुख िमलता होगा । तप नी : ( दोनों को दे खकर )िकतनी
िविच बात है !
राजा : ों , ा आ ? तप नी : इस बालक से तु ारी आकृित इतनी अिधक
िमलती है िक मुझे दे खकर आ य
हो रहा है । अप रिचत होते ए भी इसने तु ारा कहना भी मान िलया । राजा : (
बालक को ार करता आ) यिद यह ऋिषकुमार नहीं है , तो यह िकस वंश का
तप नी : पु वंश का । राजा : ( मन ही मन म ) यह ा ! यह मेरे ही वंश का है
! इस बात को मेरी और इसकी
िमलती - जुलती आकृित बता रही है । पर ु पु वंिशयों की तो कुल - पर रा यही
चली आई है िक पहले वे पृ ी की र ा के िलए आन के साथ िवलास भरे महलों म
रहते ह और वृ ाव था म अपनी प ी को साथ लेकर वन म िनवास करने लगते ह ।
( कट प म ) पर ु अपनी श से तो कोई मनु इस थान
पर आ नहीं सकता? तप नी : आप ठीक कहते ह । इस ब े की माँ अ रा
की क ा थी । उसने इसे यहीं
महा ा क प के आ म म ही ज िदया है । राजा : (मुँह फेरकर) यह एक
और आशा बँधी। ( कट प से ) वह िकस राजिष की
प ी है ? तप नी : अपनी धमप ी को ाग दे ने वाले उस राजा का नाम भी
लेना बुरा है ! राजा : ( मन ही मन ) यह सारी कथा तो मुझ पर ही घटती है । अ ा,
यिद इसकी माँ का नाम पूछ ? पर नहीं, परायी ी के बारे म पूछताछ करना ठीक
नहीं ।
(िम ी का मोर हाथ म िलए वेश करके ) तप नी : सवदमन , शकु लाव
को तो दे ख ।
बालक : ( इधर- उधर दे खकर ) कहाँ है मेरी माँ ? दोनों तप िनयाँ : माँ से इसे
बड़ा ार है । तभी नाम िमलता- जुलता होने से धोखा खा
गया । दू सरी तप नी : बेटा , इस िम ी के मोर के लाव को दे ख , मने यह
कहा था ।
राजा : ( मन ही मन ) अ ा तो ा इसकी माँ का नाम शकु ला है ! पर संसार

एक नाम के लोग कई होते ह । मरीिचका की भाँ ित यह नाम भी कहीं केवल
मेरे दु ःख को ही न बढ़ाए । बालक : माँ , यह मोर तो बड़ा अ ा है । (कहकर
खलौना ले लेता है । ) पहली तप नी : (घबराहट के साथ दे खकर ) अरे यह ा !
इसकी कलाई म र ाकवच
बँधा आ था , वह दीख नहीं रहा । राजा : घबराइए नहीं; यह र ाकवच िसंह के
ब े से खींचातानी करते समय
इसके हाथ से यहाँ िगर पड़ा है । ( कहकर उठाकर दे ना चाहता है ।) दोनों
तप िनयाँ : इसे छूना नहीं । यह ा ! इ ोंने तो उठा ही िलया । ( दोनों आ य से
छाती पर हाथ रखे एक - दू सरे को दे खती ह । )
राजा : आपने मुझे रोका िकसिलए था ? पहली तप नी : सुिनए महाराज ! यह
अपरािजता नाम की बूटी महा ा क प ने इसके
जातकम- सं ार के समय इसके हाथ म बां धी थी । यिद यह बूटी भूिम पर िगर
पड़े , तो इसे इसके माता-िपता और यं इसके िसवाय और कोई नहीं
उठा सकता।
राजा : अगर उठा ले तो ! पहली तप नी : तो यह बूटी साँ प बनकर उसे डस
लेती है ।
राजा : आपने कभी इस तरह इस बूटी को साँ प बनकर डसते दे खा है ? दोनों
तप िनयाँ : कई बार !
राजा : ( स ता के साथ मन ही मन ) अब तो मेरी कामना पूरी हो गई। अब
ों स न होऊँ ! ( ब े को छाती से लगा लेता है ।) दू सरी तप नी : सु ता ,
आओ चल । चलकर यह वृ ा तप नी शकु ला को
सुनाएँ ।
( दोनों बाहर जाती ह ।) बालक : मुझे छोड़ो, म माँ के पास जाऊँगा ।
राजा : बेटा, अब मेरे साथ ही माँ के पास चलना । बालक : मेरे िपता तो दु ह
; तुम थोड़े ही हो ! राजा : (मु राकर ) इसका यह िववाद ही मेरे िव ास को प ा
कर रहा है ।
(एक वेणी िकए शकु ला का वेश ) शकु ला : यह तो मने सुना िक सवदमन
के र ाकवच की बूटी िकसी अ के ारा उठाए
जाने पर भी सप न बनी, िफर भी मुझे अपने सौभा की आशा नहीं बँधती । या
िफर स व है , जो कुछ सानुमती ने सुनाया था , उसके अनुसार यह स ही हो ।
राजा : ( शकु ला को दे खकर ) अरे , यह तो शकु ला है ! यह बेचारी मैले कपड़े
पहने
ए है । िनयम -पालन करते रहने से इसका मुँह सूख- सा गया है । एक ही वेणी
िलए
यह सदाचा रणी मुझ िन ठुर के िवयोग म ल े िवरह त का पालन कर रही है ।
शकु ला : ( प ा ाप के कारण दु बल और िववण राजा को दे खकर ) ये तो वे नहीं ह
। िफर
कौन ह , जो मेरे र ाकवच पहने पु को अपनी गोदी म लेकर अपिव कर रहा
बालक : ( माँ के पास जाकर) माँ , ये न जाने कौन मुझे ' बेटा' कहकर अपनी
छाती से
__ लगा रहे ह ! राजा : ि ये, तु ारे साथ मने जो ू रता की थी, उसका इतना तो
अ ा ही प रणाम
आ िक अब तुम मुझे पहचान भी नहीं पा रही हो । शकु ला : ( मन ही मन )
दय धैय धरो । भा ने ोध छोड़कर आज तुझ पर दया की है ।
ये वही ह । राजा : ि ये, आज सौभा का िदन है िक मेरी ृित पर से अ कार
का परदा हट
चुका है । और तुम आज मेरे स ुख उसी कार खड़ी ई हो , जैसे च हण के
प ात् रोिहणी च मा के पास आ प ँ चे। शकु ला : आयपु की जय हो ...
(बोलते - बोलते गला भर आने से बीच म ही क जाती
है । ) राजा : सु री , भले ही गला भर आने के कारण तु ारा जयकार अधूरा रह
गया, िफर
भी मेरी िवजय तो होती ही गई, ोंिक मने आज पाटल के समान सहज अ ण
अधरों वाले तु ारे मुख का जो दशन कर िलया । बालक : माँ , यह कौन ह ?
शकु ला : बेटा , अपने भा से पूछ । राजा : ( शकु ला के पैरों पर िगरकर )
सु री, तुम अपने दय से प र ाग के कारण
ए ोभ को िनकाल दो । उस समय न जाने मेरे मन पर कैसा अ कार - सा छा
गया था । मन म तमोवृि बढ़ जाने पर शुभ व ुओं के ित लोग ऐसा ही कर बैठते ह
, जैसे अ े के िसर पर फूलमाला रखने पर वह उसे साँ प समझकर दू र
फक दे ता है । शकु ला : आप उिठए, उिठए। िपछले ज म मने कोई ऐसा पाप
िकया था , िजसका फल
मुझे उ ीं िदनों िमलना था । इसी से दयालु होते ए भी आप उस समय मेरे ित
इतने िवर हो गए थे ।
( राजा उठकर खड़ा हो जाता है । ) शकु ला : िफर आपको मुझ दु खया की
याद कैसे आई? राजा : मन से दु ःख का काँ टा तो िनकाल लूँ , तब क ँ गा । सु री ,
तु ारे होंठों पर आ
आकर िगरने वाले िजन अ ु -िब दुओं की मने उस िदन उपे ा कर दी थी , वे
आज भी तु ारी इन ितरछी पलकों म अटके ए ह । पहले उ पोंछ लूँ, तो मुझे कुछ
शा िमले ।
( शकु ला के आँ सू पोंछता है । ) शकु ला : ( नामवाली अंगूठी की ओर
दे खकर ) आपकी वह अंगूठी तो यह रही ।
राजा : इस अंगूठी के िमलने से ही तो मुझे तु ारी याद आई । शकु ला : इसने
बुरा तो यह िकया िक जब म आपको िव ास िदलाना चाहती थी, उस
समय यह िमली ही नहीं । राजा : तो अब वस से िमलन के रण -िच के प
म लता इस फूल को िफर धारण
कर ले । शकु ला : अब मुझे इसका भरोसा नहीं रहा । आप ही पहने रह ।
(मातिल का वेश ) मातिल : आपको धमप ी से िमलन तथा पु के मुखदशन
की बधाई हो ! राजा : मेरे मनोरथ अ मधुर प म पूरे ए ह । मातिल , स वतः
इ को यह
_ वृ ा मालूम न हो । मातिल : ( मु राकर ) भु लोगों से कुछ भी अगोचर
नहीं है । आइए, महा ा क प
आपको दशन दे ना चाहते ह । राजा : शकु ला , पु को संभाल लो । तु ारे साथ
ही चलकर उनके दशन क ँ गा। शकु ला : मुझे तो आपके साथ गु जी के िनकट
जाते ल ा आती है । राजा : पर ु शुभ अवसरों पर तो साथ जाना ही होता है ।
आओ, चल ।
( सब चलते ह । )
( अिदित के साथ आसन पर बैठे ए क प का वेश) क प : ( राजा को
दे खकर) अिदित , यह पृ ी के ामी दु ह जो यु म तु ारे पु
इ से भी आगे रहते ह । इनके धनुष के कारण व का काय समा हो गया है
और अब वह िनक ा होकर इ का आभूषण मा रह गया है । अिदित : इनका
परा म तो इनकी आकृित से ही झलक रहा है । मातिल : आयु ान्, ये दे वताओं के
माता-िपता आपको पु वत् ेम- भरी ि से दे ख रहे ह ।
चिलए, इनके पास चल ।
राजा : मातिल , ा ये ही ा के एक पीढ़ी उपरा द और मरीिच से उ
ए ी
पु ष ह, िज ऋिष लोग बारह सूय के माता-िपता बताते ह । ा इ ोंने ही
तीनों लोकों के ामी और य भाग के अिधकारी इ को ज िदया है और संसार
का
क ाण करने वाले यंभू ा ने भी ा इ ीं की गोद म ज िलया है ?
मातिल : जी हाँ ।
राजा : ( पास जाकर ) म इ का आ ाकारी दु आप दोनों को णाम करता
ँ । क प : बेटा, िचरायु हो । पृ ी का पालन करो ।
अिदित : श ुओं पर िवजय ा करो । शकु ला : पु - समेत म शकु ला
आपके चरणों म नम ार करती ँ । क प : बेटी , इ के समान तु ारा पित है ;
जय के समान तु ारा पु है । तु इसके
__ िसवाय और ा आशीवाद दू ँ िक तुम भी इ की प ी शची के समान होओ!
अिदित : बेटी, तु अपने पित का आदर ा हो ; तु ारा पु दीघायु और दोनों
कुलों की शोभा बढ़ाने वाला हो । आओ, बैठो ।
( सब जापित क प के चारों ओर बैठ जाते ह ।) क प : ( एक - एक की ओर
संकेत करते ए ) यह सौभा की बात है िक यह शकु ला
पित ता है , यह सवदमन स ु है और आप तो यं आप ही ह । ऐसा लगता
है जैसे ा, धन और धम तीनों एक हो गए हों । राजा : भगवन् , पहले इ
िस ई , उसके बाद आपके दशन िकए । आपकी यह कृपा
अद् भुत है । ोंिक संसार म पहले फूल खलता है और िफर फल लगता है ।
पहले बादल उठते ह , िफर जल बरसता है । िव का िनयम यही है िक पहले कारण
होता है , िफर काय । पर ु यहाँ आपकी कृपा होने से पहले ही स ि आ
प ँ ची। मातिल : िवधाताओं की कृपा ऐसी ही होती है । राजा : भगवन्, मुझे यह
बात ब त िविच लगती है िक मने पहले आपकी इस
आ ाका रणी शकु ला से गा व िववाह िकया था । िफर कुछ समय प ात् जब
इनके इ ब ु इ लेकर आए, तब ृित -दोष के कारण मने इनका प र ाग कर
िदया और आपके सगो महा ा क के ित अपराध िकया । पर ु बाद म अंगूठी
को दे खकर मुझे याद आया िक मने महा ा क की क ा से सचमुच िववाह िकया
था । यह तो ऐसा ही आ जैसे हाथी सामने से जा रहा हो , तो उसे दे खकर मन म यह
स े ह बना रहे िक यह हाथी है या नहीं ; और बाद म उसके गुज़र जाने पर उसके
पदिच ों को दे खकर यह िन य हो िक यह हाथी ही था । मेरे
मन की कुछ ऐसी ही दशा ई । क प : बेटा , यह मत समझो िक तुमने अपराध
िकया है । तु ारा भूल जाना ठीक ही
था । ों ? वह भी सुनो । राजा : किहए, म सुन रहा ँ ।
क प : ोंही रोती-िबलखती शकु ला को अ रा तीथ से लेकर मेनका
अिदित के
पास आई, ोंही मने ान से जान िलया िक तुमने अपनी इस बेचारी धमप ी को
दु वासा के शाप के कारण ागा है , अ िकसी कारण नहीं । और उस शाप
की समा अंगूठी के दे खने पर ही होगी । राजा : ( गहरी साँ स छोड़कर) चलो,
कलंक से तो छु टकारा आ। शकु ला : ( मन ही मन ) यह सौभा की बात है िक
इ ोंने मेरा प र ाग अकारण नहीं
िकया था । पर मुझे ान नहीं आता िक मुझे कभी शाप िमला हो । या स व है
िक जब शाप िमला उस समय िवरह से अनमनी होने के कारण म उसे जान न
सकी होऊँ । इसीिलए स खयों ने मुझे कहा था िक ामी को अंगूठी िदखा दे ना ।
क प : बेटी , अब तु सही बात मालूम हो गई । इसिलए अब इनके ित ोध न
करना ।
दे खो, शाप के कारण इनकी ृित न हो गई थी, इसिलए इ ोंने खेपन के
साथ तु ाग िदया था । पर ु अब इनका वह अ ान न हो गया है और अब इन
पर तु ारा ही भु रहे गा । दपण के ऊपर यिद मैल जमी हो तो उसम ितिब
िदखाई नहीं पड़ता, पर ु उसके हो जाने पर ितिब दीखने
लगता है । राजा : आपने िब ु ल ठीक कहा । क प : बेटा, तुमने अपने इस
शकु ला के बेटे का भी अिभन न िकया या नहीं ? इसका
िविधपूवक जातकम - सं ार हमने ही िकया है । राजा : भगवन्, इसी से तो मेरा
वंश चलेगा । ( बालक का हाथ पकड़ता है । ) क प : यह तुम िन य जान लो िक
यह च वत राजा बनेगा । यहाँ पर सब ािणयों का
बलपूवक दमन करने के कारण इसका नाम सवदमन है ; पर ु बाद म अपने
दु िनवार रथ पर चढ़कर समु ों को पार करके यह स ीपा वसु रा को जीत लेगा ।
कोई श ु इसके सामने िटक न सकेगा। तब संसार का भरण- पोषण करने
के कारण इसका नाम ' भरत' िस होगा । राजा : जब आपने इसका सं ार
िकया है , तो इस सबकी तो हम आशा ही है । अिदित : भगवन् , महा ा क को भी
यह संवाद िभजवा दीिजए िक उनकी क ा का
मनोरथ पूण हो गया । पु ी से ेम करने वाली मेनका तो आजकल आपकी सेवा

यहीं पर है । शकु ला : ( मन ही मन ) इ ोंने ठीक मेरे मन की बात कह दी ।
क प : तप के भाव से महा ा क को सब कुछ मालूम है । राजा : स वतः
इसी से वे मेरे ऊपर ब त ु नहीं ह । क प : िफर भी हम उनसे यह पूछना ही
चािहए िक आपको यह शुभ स ाद मालूम
आ या नहीं? अरे , कोई यहाँ है ?
( वेश करके ) िश : भगवन्, म ँ । आ ा कीिजए ।
क प : गालव , अभी आकाश-माग से जाकर मेरी ओर से महा ा क को यह
शुभ
स ाद दो िक शाप समा हो जाने पर ृित लौट आने से दु ने पु वती
शकु ला को हण कर िलया है । िश : जो आपकी आ ा। ( बाहर जाता है । )
क प : बेटा , तुम भी अपने िम इ के रथ पर चढ़कर पु - प ी समेत अपनी
राजधानी
की ओर थान करो। राजा : जो आपकी आ ा। क प : और दे खो; इ तु ारे
रा म यथे वषा करता रहे और तुम य ों के ारा इ
का स ार करते रहो । इस कार तुम दोनों सैकड़ों गणों के ऊपर रा करते

एक - दू सरे के िहतकारी काय ारा दोनों लोकों के क ाण म त र रहो ! राजा
: भगवन् , यथाश क ाण का ही य क ँ गा। क प : बेटा, और तु ारा ा
ि य काय इस समय क ँ ? राजा : इससे अिधक और ि य ा हो सकता है ? िफर
भी यिद आप कृपा करना चाहते
ह , तो ऐसा कीिजए िक ( भरत वा ) राजा लोग जा के िहत म लगे रह । सब
जगह वेदों और किवयों की वाणी का आदर हो ; और पावती समेत यंभू िशव मुझे
भी ज - मरण ब न से मु दान कर ।
( सब बाहर िनकल जाते ह ।)

You might also like