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Manasarovar5 by Premchand
Manasarovar5 by Premchand
मानसरोवर
भाग 5
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Manasarovar – Part 5
By Premchand
This work is in the public domain in India because its term of copyright
has expired.
Sanjayacharya
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Contents
मन्ददर ......................................................................................................... 4
ननमिंत्रण ..................................................................................................... 13
रामलीला .................................................................................................... 42
मिंत्र (1) ...................................................................................................... 51
कामना तरु ................................................................................................ 69
सती .......................................................................................................... 82
ह स
िं ा परमोिमम ........................................................................................... 96
बह ष्कार .................................................................................................. 108
चोरी ........................................................................................................ 126
लािंछन...................................................................................................... 135
कजाकी .................................................................................................... 151
आँसओ
ु की ोली ...................................................................................... 167
अन्नन-समाधि ........................................................................................... 177
सुजान भगत ............................................................................................ 191
सो ाग का शव ......................................................................................... 206
आत्म-सिंगीत ............................................................................................. 235
ऐक्रे स ..................................................................................................... 240
ईश्वरीय दयाय .......................................................................................... 254
ममता ...................................................................................................... 277
मिंत्र (2) .................................................................................................... 293
प्रायन्श्चत ................................................................................................. 309
कप्तान सा ब ........................................................................................... 325
मन्दिर
मात-ृ प्रेम, तुझे िदय ैं! सिंसार में और जो कुछ ैं, ममथ्या ैं , ननस्सार ैं। मात-ृ
प्रेम ी सत्य ैं , अक्षय ैं, अनश्वर ैं। तीन हदन से सुिखया के मँु में न अदन
का एक दाना गया था, न पानी की एक बँद
ू , सामने पुआल पर माता का नद ा-
सा लाल पडा करा र ा था। आज तीन हदन से उसने आँखें न खोली थीिं। कभी
उसे गोद में उठा लेती, कभी पआ
ु ल पर सल
ु ा दे ती, ँसते-खलते बालक को
अचानक क्या ो गया, य कोई न ीिं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और
प्यास क ाँ? एक बार पानी का एक घूट
ँ मँु में मलया था, पर किंठ के नीचे न ले
जा सकी, इस दिु खया की ववपन्त्त का पारवार न था। साल-भर भीतर ी दो
बालक गिंगाजी की गोद में सौंप चुकी थी, पनतदे व प ले ी मसिार चुके थे, अब
उस अभाधगनी के जीवन का आिार, अवलम्ब जो कुछ था, य ी बालक था। ाय!
क्या ईश्वर इसे भी इसकी गोद से छनन लेना चा ता ैं ?
तीन प र बीत चुकी थी, सुिखया का धचिंता-व्यधथत चिंचल मन कोठे -कोठे दौड र ा
था। ककस दे वी की शरण जाए, ककस दे वता की मनौती करें , इसी सोच में पडे-पडे
उसे एक झपकी आ गई, क्या दे खती ैं कक उसकी स्वामी आकर बालक के
मसर ाने खडा ो जाता ैं औऱ बालक के मसर पर ाथ फेरकर क ता ैं - रो
मत, सिु खया! तेरा बालक अच्छा ो जाएगा। कल ठाकुरजी की पज
ू ा कर दे , व ी
तेरे स ायक ोंगे। य क कर व चला गया। सिु खया की आँख खल
ु गई, अवश्य
ी उसके पनतदे व आए थे, इसमें सुिखया को जरा भी सददे न ु आ। उद ें अब
भी मेरी सुधि ैं, य सोचकर उसका हृदय आशा से पररप्लाववत ो उठा, पनत के
प्रनत श्रद्धा और प्रेम से उसकी आँखें सजग ो गई। उसने बालक को गोद में उठा
मलया और आकाश की और ताकती ु ई बोली - भगवान, मेरा बालक अच्छा ो
जाए, तो मैं तम्
ु ारी पज
ू ा करँगी। अनाथ वविवा पर दया करो।
उसी समय न्जलावन की आँखें खुल गई। उसने पानी माँगा, माता ने दौडकर
कटोरे में पानी मलया और बालक को वपला हदया।
सुिखया - 'तुम् ारे मँु में घी-शक्कर, बेटा, भगवान करे तुम जल्द अच्छे ो
जाओ, कुछ खाने को जी चा ता ैं?'
न्जयावन - 'न ीिं मेरी अम्माँ, जरा-सा गुड दे दो, तेरे पैरों पडूँ।'
पज
ू ा का सामान तैयार ो गया तो उसने बालक को गोद में उठाया और दस
ू रे
ाथ में पूजा की थाली मलए मिंहदर की ओर चली.
मन्ददर में आरती का घदटा बज र ा था। दस-पाँच भक्तजन खडे स्तनु त कर र े
थे। इतने में सिु खया जाकर मन्ददर के सामने खडी ो गई।
पुजारीजी बोला - 'तो क्या भीतर आएँगी? ो तो चुकी पूजा, य ाँ आकर भरभ्रष्ट
करे गी।'
पज
ु ारी - 'कैसी बेसमझी की बात करती ै रे , कुछ पगली तो न ीिं ो गई ै!
भला तू ठाकुरजी को कैसे छुएगी।'
सिु खया को अब तक कभी ठाकुरद्वारे में आने का अवसर न ममला था। आश्चयम
से बोली - 'सरकार, व तो सिंसार के मामलक ै । उनके दरसन से तो पापी भी
तर जाता ै , मेरे छूने से उद ें छूत लग जाएगी!'
पज
ु ारी - 'अरे , तू चमाररन ै कक न ीिं रे ?'
दस
ू रे भक्त म ाशय बोले - 'अब बेचारे ठाकुरजी को भी चमारों के ाथ का
भोजन करना पडेगा। अब परलय ोने में कुछ कसर न ीिं ै ।'
सुिखया - 'ठाकुरजी के चरणों पर धगरने न दोगे म ाराजजी? बडी दिु खया ू ँ , उिार
लेकर पज
ू ा की सामग्री जट
ु ाई ै । मैंने कल सपना दे खा था, म ाराजजी कक
ठाकुरजी की पूजा कर, तेरा बालक अच्छा ो जाएगा। तभी दौडी आई ू ँ। मेरे
पास एक रुपया ै। व मुझसे ले लो, पर मुझे एक छन-भर ठाकुरजी के चरणों
पर धगर लेने दो।'
पज
ु ारी - 'तेरे मलए इतनी ी प ू जा ब ु त ै । जो बात कभी न ीिं ु ई, व आज मैं
कर दँ ू और गाँव पर कोई आफत-ववपत आ पडे तो क्या ो, इसे भी तो सोचो! तू
य जदतर ले जा, भगवान चा ें गे तो रात ी भर में बच्चे का क्लेश कट
जाएगा। ककसी का डीठ पड गई ै। ै भी तो चोंचला। मालम
ू ोता ै , छत्तरी
बिंस ै ।'
पज
ु ारी - 'बडा ोन ार बालक ै । भगवान इसे न्जला दें तो तेरे सारे सिंकट र
लेगा। य ाँ तो ब ु त खेलने आया करता था। इिर दो-तीन हदन से न ीिं दे खा
था।'
पुजारी - 'कपडे में बाँिकर दे ता ू ँ। बस, गले में प ना दे ना। अब तू इस बेला में
नवीन वस्तर क ाँ खोजने जाएगी।'
पज
ु ारी - 'मन्ददर का द्वार खल
ु ा पडा ै । मैने खट-खट की आवाज सन
ु ी।'
इतनी दे र में सारा गाँव जमा ो गया। सुिखया ने एक बार कफर बालक के मँु
की ओर दे खा। मँु से ननकला- ाय मेरे लाला! कफर व मून्च्छत ोकर धगर
पडी। प्राण ननकल गए। बच्चें के मलए प्राण दे हदए।
माता, तू िदय ै । तुम जैसी ननष्ठा, तुझ जैसी श्रद्धा, तुझ जैसा ववश्वास दे वताओिं
को भी दल
ु भ
म ै।
***
निमंत्रण
पिंडडत मोटे राम शास्त्री ने अददर जाकर अपने ववशाल उदर पर ाथ फेरते ु ए
य पद पिंचम स्वर में गाया -
सोना - 'व तो करँगी ी। क्या इतना भी न ीिं जानती? जदम-भर घास थोडे ी
खोदती र ी ू ँ , मगर ै घर-भर का न?'
मोटे राम - 'अब और कैसे क ू ँ, पूरे घर-भर का ै । इसका अथम समझ में न आया
ो तो मझ
ु से पछ
ू ो। ववद्वानों की बात समझना सबका काम न ीिं। अगर उनकी
बात सभी समझ ले, तो उनकी ववद्वता का म त्त्व ी क्या र े , बताओ, समझी?
मैं इस समय ब ु त ी सरल भाषा में बोल र ा ू ँ, मगर तुम न ीिं समझ सकी।
बताओ, ववद्वता ककसे क ते ै ? म त्त्व ी का अथम बताओ। घर-भर का
ननमदत्रण दे ना क्या हदल्लगी ै ? ाँ, ऐसे अवसर पर ववद्वान लोग राजनीनत से
काम लेते ै और उसका व ी आशय ननकालते ै , जो अपने अनुकूल ो।
मरु ादापरु की रानी साह बा सात ब्राह्मणों को इच्छापण
ू म भोजन करना चा ती ै।
कौन-कौन म ाशय मेरे साथ जाएँगे, य ननणमय करना मेरा काम ै । अलगू
शास्त्री, बेनीशास्त्री, छे दीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री आहद जब
इतने आदमी अपने घर ी में ै , तब बा र कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।'
सोना ने मन- ी-मन आने वाले पदाथों का आनदद लेकर क ा - 'बडा मजा
ोगा!'
मोटे राम - 'य मैं न ीिं जानता। बस, य ी आदशम सामने रखो कक अधिक-से-
अधिक लाभ ो।'
'दमडी नतवारी।'
मोटे राम ने मँु लटकाकर क ा - 'कैसी बातें करते ो, ममत्र! ऐसा तो कभी न ीिं
मोटे राम - 'तुम् ारी इद ीिं बातों पर मुझे क्रोि आता ैं। लडकों की परीक्षा ले र ा
फेकूराम इतना बडा अपराि अपने नद े -से मसर पर क्यों लेता। बाल-सल
ु भ गवम
से बोला - ' मको याद ै , पिंडडत सेतूराम पाठक। य याद भी कर लें, इस पर भी
क ते ै , रदम खेलता ै !'
मोटे राम ने बबगडकर क ा - 'तुम भी लडकों की बातों में आते ो। सुन मलया
ोगा ककसी का नाम, (फेंकू से) जा, बा र ज खेल।'
सोना ने क ा - 'मना लो, मना लो, रठे जाते ै । कफर परीक्षा लेना।'
सोनादे वी तो लडकों को कपडे प नाने लगीिं। उिर फेकू आनदद की उमिंग में
घर से बा र ननकला। पिंडडत धचिंतामिण रठकर तो चले गए थे , पर कुतू लवश
अभी द्वार पर दब
ु के खडे थे। न्जन बातों की भनक इतनी दे र में पडी, उससे य
तो ज्ञात ो गया कक क ीिं ननमिंत्रण ै , पर क ाँ ै , कौन-कौन-से लोग ननमिंबत्रत ै,
य ज्ञात न ु आ। इतने में फेकू बा र ननकला तो उद ोंने उसे गोद में उठा
मलया और बोले - 'क ाँ नेवता ै , बेटा?'
अपनी जान में तो उद ोंने ब ु त िीरे से पूछा था, पर न-जाने कैसे पिंडडत मोटे राम
के कान में भनक पड गई। तुरदत बा र ननकल आए। दे खा तो धचिंतामिण जी
फेकू को गोद में मलए कुछ पछ
ू र े ै । लपककर लडके का ाथ पकड मलया और
चा ा कक उसे अपने ममत्र की गोद से छनन लें , मगर धचिंतामिणजी को अभी तक
प्रश्न का उत्तर न ममला था। अतएव ने लडके का ाथ छुटाकर उसे मलए ु ए
अपने घर की ओर भागे। मोटे राम भी य क ते ु ए उनके पीछे दौडे -'उसें क्यों
मलए जाते ो? िूतम क ीिं का, दष्ु ट! धचिंतामिण, मैं क े दे ता ू ँ, इसका नतीजा अच्छा
न ोगा, कफर कभी ककसी ननमिंत्रण में न ले जाऊँगा। भला चा ते ो, तो उसे
उतार दो।'
मगर धचिंतामिण ने एक न सुनी, भागते ी चले गए। उनकी दे अभी सम्भाल के
बा र न ु ई थी, दौड सकते थे। मगर मोटे राम को एक-एक पग आगे बढ़ाना
दस्
ु तर ो र ा था। भैंसे की भाँनत ाँफते थे और नाना प्रकार के ववशेषणों का
प्रयोग करते दल
ु की चाल से चले जाते थे। और यद्यवप प्रनतक्षण अदतर बढ़ता
जाता था और पीछा न छोडते थे। अच्छन घुडदौड थी। नगर के दो म ात्मा दौडते
ु ए जान पडते थे, मानो दो गैंडे धचडडया-घर से भाग आए ों। सैकडो आदमी
तमाशा दे खने लगे। ककतने ी बालक उनके पीछे तामलयाँ बजाते ु ए दौडे।
कदाधचत य दौड पिंडडत धचिंतामिण के घर पर ी समाप्त ोती, पर पिंडडत
मोटे राम िोती के ढीली ो जाने के कारण उलझकर धगर पडे। धचिंतामिण ने पीछे
कफरकर य दृश्य दे खा तो रुक गए और फेकूराम से पूछा - 'क्यों बेटा, क ाँ
नेवता ै ?'
नगर में कई बडी-बडी राननयाँ थीिं। पिंडडतजी ने सोचा, सभी राननयों के द्वार पर
चक्कर लगाऊँगा। ज ाँ भोज ोगा, व ाँ कुछ भीड-भाड ोगी ी, पता चल
जाएगा। य ननश्चय करके वे लौटे । स ानभ
ु नू त प्रकट करनें में अब कोई बािा न
थी। मोटे रामजी के पास आए तो दे खा कक वे पडे करा र े थे। उठने का नाम
न ीिं लेत।े घबराकर पूछा - 'धगर कैसे पडे ममत्र, य ाँ क ीिं गडढा भी तो न ीिं ै!'
मोटे राम - 'तम्
ु ें क्या मतलब! तम
ु लडके को ले जाओ, जो कुछ पछ
ू ना चा ो,
पछ
ू ो।'
धचिंतामिण - 'मैं य कपट व्यव ार न ीिं करता। हदल्लगी की थी, तुम बुरा मान
गए। ले उठकर बैठ जा राम का नाम लेके। मैं सच क ता ू ँ , मैंने कुछ न ीिं
पछ
ू ा।'
मोटे राम - 'इससे क ीिं अधिक। तुम गिंगा में डूबकर शपथ खाओ तो भी मुझे
ववश्वास न आए।'
धचिंतामिण - 'दस
ू रा य बात क ता तो मँछ
ू उखाड लेता।'
धचिंतामिण - 'य मने स्वयिं रचा ै । क्या तुम् ारी तर की य रटिं त ववद्या ै!
न्जतना क ा, उतना रच दे ।'
दोनों म ात्मा अलग खडे ोकर अपने-अपने रचना-कौशल की डीिंगें मार र े थे,
मल्ल-युद्ध शास्त्राथम का रप िारण करने लगा, जो ववद्वानों के मलए उधचत ै!
इतने में ककसी ने धचिंतामिण के घर जाकर क हदया कक पिंडडत मोटे राम और
धचिंतामिण में बडी लडाई ो र ी ै । धचिंतामिण तीन मह लाओिं के स्वामी थे।
कुलीन ब्राह्मण थे, परू े बीस बबस्वे। उस पर ववद्वाऩ भी उच्चकोहट के, दरू -दरू
तक यजमानी ममलती थी। ऐसे परु
ु षों को सब अधिकार ै । कदया के साथ-साथ
जब प्रचुर दक्षक्षणा भी ममलती ो, तब कैसे इनकार ककया जाए। इन तीनों
मह लाओिं का सारे मु ल्ले में आतिंक छाया ु आ था। पिंडडतजी ने उनके नाम
ब ुत ी रसीले रखे थे। बडी स्त्री को 'अमरती', मिंझली को 'गुलाबजामुन' और
छोटी को 'मो नभोग' क ते थे, पर मु ल्ले वालों के मलए तीनों मह लाएँ त्रयताप
से कम न थीिं। घर में ननत्य आँसओ
ु िं की नदी ब ती - खन
ू की नदी तो
पिंडडतजी ने भी कभी न ीिं ब ाई, अधिक-से-अधिक शब्दो की ी नदी ब ाई थी,
पर मजाल न थी कक बा र का आदमी ककसी को कुछ क जाए। सिंकट के
समय तीनों एक ो जाती थीिं। य पिंडडतजी के नीनत-चातुयम का सुफल था। ज्यों
ी खबर ममली थी कक पिंडडत धचिंतामिण पर सिंकट पडा ु आ ै , तीनों बत्रदोष की
भाँनत कुवपत ोकर घर से ननकलीिं और उनमें से जो अदय दोनों जैसी मोटी न ीिं
थी, सबसे प ले समरभमू म में जा प ु ँची। पिंडडत मोटे राम ने उसे आते दे खा तो
समझ गए कक अब कुशल न ीिं। अपना ाथ छुडाकर बगटुट भागे, पीछे कफरकर
भी न दे खा। धचिंतामिण ने ब ु त ललकारा, पर मोटे राम के कदम न रुके।
मोटे राम - 'मैं तुमसे एक न ीिं, जार बार क चुका कक मेरे कामों में मत बोला
करो, तुम न ीिं समझ सकती कक मैंने इतना ववलम्ब क्यों ककया। तुम् ें ईश्वर ने
इतनी बुवद्ध ी न ीिं दी। जल्दी जाने से अपमान ोता ै , यजमान समझता ै,
लोभी ै , भक्
ु खड ै । इसमलए चतरु लोग ववलम्ब ककया करते ै , न्जससे यजमान
समझे कक पिंडडतजी को इसकी सधु ि ी न ीिं ै , भल
ू गए ोंगे। बल
ु ाने को आदमी
भेजें। इस प्रकार जाने में जो मान-म त्त्व ै, व मरभूखों की तर जाने में क्या
कभी ो सकता ै ? मैं बुलाने की प्रतीक्षा कर र ा ू ँ। कोई-न-कोई आता ी ोगा।
लाओ थोडी फिंकी। बालकों को िखला दी ै न?'
मोटे राम ने दाँत पीसकर क ा - 'जी चा ता ै कक तुम् ारी गदम न पकडके ऐिंठ दँ ।ू
भला इस बेला में चबेना मँगाने का क्या काम था? चबेना खा लें गे तो व ाँ क्या
तम्
ु ारा मसर खाएँगे? नछः नछः! जरा भी बवु द्ध न ीिं!'
मोटे राम - 'रोते ी थे न, रोने दे ती। रोने से उनका पेट न भरता, बन्ल्क और भूख
खुल जाती।'
मोटे राम - 'करता क्या? सारा नगर छान मारा, ककसी पिंडडत ने आना स्वीकार न
ककया, कोई ककसी के य ाँ ननमिंबत्रत ै , कोई ककसी के य ाँ। तब तो मैं ब ु त
चकराया। अदत में मैंने उनसे क ा - अच्छा, आप न ीिं चलते तो रर इच्छा,
लेककन ऐसा कीन्जए कक मुझे लन्ज्जत न ोना पडे। तब जबरदस्ती प्रत्येक घर
से जो बालक ममला, उसे पकड लाना पडा। क्यों फेंकूराम, तुम् ारे वपता का क्या
नाम ै ?'
मोटे राम - 'न ीिं सरकार, ककसी बात की कमी न ीिं, ऐसे उत्तम पदाथम तो मैंने
कभी दे खे भी न थे। सारे नगर में आपकी कीनतम फैल जाएगी। मेरे एक परमममत्र
पिंडडत धचिंतामिणजी ै , आज्ञा ो तो उद ें भी बल
ु ा लँ ।ू बडे ववद्वान कममननष्ठ
ब्राह्मण ै । उनके जोड का इस नगर में दस
ू रा न ीिं ै । मैं उद ें ननमदत्रण दे ना
भूल गया। अभी सुधि आई।'
सोना - 'दे ख लेना, आज व तुम् ें पछाड दे गा। उनके पेट में तो शनीचर ै ।'
धचिंतामिण अपने आँगन में उदास बैठे थे। न्जस प्राणी को व अपना परम
ह तैषी समझते थे, न्जसके मलए वे अपने प्राण तक दे ने को तैयार र ते थे, उसी
ने आज उनके साथ बेवफाई की। बेवफाई ी न ीिं की उद ें उठाकर दे मारा।
पिंडडत मोटे राम के घर से तो कुछ जाता न था। अगर वे धचिंतामिणजी को साथ
ले जाते तो क्या रानी साह बा उद ें दत्ु कार दे ती? स्वाथम के आगे कौन ककसको
पूछता ै ? उस अमूल्य पदाथों की कल्पना करके धचिंतामिण के मँु से लार टपक
पडती थी। अब सामने पत्तल आ गई ोगी! अब थालों में अमरनतयाँ मलए भिंडारी
जी आए ोंगे। ओ ो! ककतने सुददर, कोमल, कुरकुरी, रसीली इमरनतयाँ ोंगी। अब
बेसन के लड्डू ोंगे, मँु में रखते ी घुल जाते ोंगे, जीभ भी न डुलानी पडती
ोगी। आ ! अब मो नभोग आया ोगा! ाय रे दभ
ु ामनय! मैं य ाँ पडा सड र ा ू ँ
और व ाँ य ब ार! बडे ननदम यी ो मोटे राम, तम
ु से इस ननष्ठुरता की आशा न
थी।
धचिंतामिण - 'आज ककसी अभागे का मँु दे खकर उठा था। लाओ तो पत्रा दे ख,ूँ
कैसा मु ू तम ै ! अब न ीिं र ा जाता। सारा नगर छान डालँ ग
ू ा, क ीिं तो पता
चलेगा, नामसका तो दाह नी चल र ी ै ।'
अमरतीदे वी ने पछ
ू ा - 'कौन ै डाढ़ीजार, इतनी रात को जगावत ै ?'
अमरती - 'अरे दरु मँु झौंसे, तैं कौन ै । क ते ै , म ै म, को जाने तैं कौन
स?'
मोटे राम - 'अरे , मारी बोली न ीिं प चानती ो? खब
ू प चान लो। म ै , तम्
ु ारे
दे वर।'
अमरती - 'ऐ दरु , तोरे मँु में का लागे, तोर ल ास उठे । मार दे वर बनत ै,
डाढ़ीजार।'
मोटे राम - 'अरे म ै मोटे राम शास्त्री। क्या इतना भी न ीिं प चानती? धचिंतामिण
घर में ै ?'
अमरती ने ककवाड खोल हदया और नतरस्कार भाव से बोली - 'अरे तुम थे। तो
नाम क्यों न ीिं बताते थे? जब इतनी गामलयाँ खा लीिं तो ननकला। क्या ै , क्या?'
धचिंतामिण चारपाई पर पडे-पडे सुन र े थे। जी में आता था, चलकर मोटे राम के
चरणों पर धगर पडूँ। उनके ववषय में अब तक न्जतने भी कुन्त्सत ववचार उठे थे,
सब लप्ु त ो गए। नलानन का आववभामव ु आ। रोने लगे।
'अरे भाई, आते ो या रोते ी र ोगे!' य क ते ु ए मोटे राम उसके सामने जाकर
खडे ो गए।
धचिंतामिण - 'तुम बेचारे मुझे क्या पछाडोगे, सारे श र में तो कोई ऐसा माई का
लाल हदखाई न ीिं दे ता। में शनीचर का इष्ट ै ।'
दोनों अपने-अपने मिंसूबे बाँिने लगे। ज्यों ी मोटर रानी के भवन में प ु ँची, दोनों
म ाशय उतरे । अब मोटे राम चा ते थे कक प ले मैं रानी के पास प ु ँच जाऊँ और
क दँ ू कक पिंडडत को ले आया, और धचिंतामिण चा ते थे कक प ले मैं रानी के
पास प ु ँचँू और अपना रिं ग जमा दँ ।ू
दोनों कदम बढ़ाने लगे। धचिंतामिण ल्के ोने के कारण जरा आगे बढ़ गए तो
पिंडडत मोटे राम दौडने लगे। धचिंतामिण भी दौड पडे। घड
ु दौड-सी ोने ली। मालम
ू
ोता था कक दो गैंडे भागे जा र े ै।
अदत में मोटे राम ने ाँफते ु ए क ा - 'राजसभा में दौडते ु ए जाना उधचत न ीिं
ै ।'
मोटे राम - 'जरा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड गया ै ।'
धचिंतामिण - 'मैं अपने मँु से अपनी बढ़ाई न ीिं करना चा ता सरकार। ववद्वानों
को नम्र ोना चाह ए, पर जो ययाथम ै, व तो सिंसार जानता ै । सरकार, मैं
ककसी बाद-वववाद न ीिं करता, य मेरा अनुशीलन (अभीष्ट) न ीिं। मेरे मशष्य भी
ब ु िा मेरे गुरु बन जाते ै , पर मैं ककसी से कुछ न ीिं क ता। जो सत्य ै, व
सभी जानते ै ।'
रानी - 'पिंडडत धचिंतामिण बडे सािु प्रवनृ त एविं ववद्वान ै । आप उनके मशष्य ै,
कफर भी वे आपको अपना मशष्य न ीिं क ते ै । '
बडे लडकों के ववषय में तो कोई धचदता न थी, लेककन छोटे बच्चों के सो जाने
का भय था। उद ें ककस्से-क ाननयाँ सन
ु ा-सन
ु ाकर ब ला र ी थी कक भिंडारी ने
आकर क ा -'म ाराज, चलो।'
दोनों पिंडडत आसन पर बैठ गए। कफर क्या था, बच्चे कूद-कूदकर भोजनशाला में
जा प ु ँच।े दे खा तो दोनों पिंडडत दो वीरों की भाँनत आमने-सामने डटे बैठे ै।
दोनों अपना-अपना परु
ु षाथम हदखाने के मलए अिीर ो र े थे।
धचिंतामिण - 'भिंडारीजी, तुम परोसने में बडा ववलम्ब करते ो। क्या भीतर जाकर
सोने लगते ो?'
भिंडारी - 'चुपाई मारे बैठे र ो, जौन कुछ ोई, सब आय जाई। घबराए का न ीिं
ोत। तुम् ारे मसवाय और कोई न्जवैया न ीिं बैठा ै ।'
धचिंतामिण - 'अजी, सग
ु दि गया चल्
ू े में , सग
ु दि दे वता लोग लेते ै । अपने लोग
तो भोजन करते ै ।'
मोटे राम - 'िीरज िरो भैया, सब पदाथों को आ जाने दो। ठाकुरजी का भोग तो
लग जाए।'
'राम भज, राम भज, राम भज रे मन' इद ोंने इतने ऊँचे स्वर से जाप करना शुर
ककया कक धचिंतामिण को भी अपना स्वर ऊँचा करना पडा। मोटे राम और जोर से
गरजने लगे।
मोटे राम ने लम्बी साँस खीिंचकर क ा - 'अब क्या ो सकता ै? य ससुर आया
ककिर से?'
रानी पास ी खडी थी, उद ोंने क ा - 'अरे , कुत्ता ककिर से आ गया? य रोज
बँिा र ता था, आज कैसे छूट गया? अब तो रसोई भ्रष्ट ो गई।'
सोना - 'भानय फूट गया। जो त-जो त आिी रात बीत गई, तब ई ववपत्त फाट
परी।'
सोना को बालकों पर दया आई। बेचारे इतनी दे र दे वोपम िैयम के साथ बैठे थे।
बस चलता, तो कुत्ते का गला घोंट दे ती, कफर बोली - 'लरकन का तो दोष न ीिं
परत ै । इद ें का े न ीिं खवाय दे त कोऊ।'
रानी ने भिंडारी को बल
ु ाकर क ा - 'इन छोटे -छोटे तीन बच्चों को िखला दो। ये
बेचारे क्यों भख
ू ों मरें , क्यों फेकूराम, ममठाई खाओगे।'
रानी - 'अच्छन बात ै । न्जतनी खाओगे उतनी ममलेगी, पर जो बात मैं पूछूँ, व
बतानी पडेगी, बताओगे न?'
धचिंतामिण -'म ारानी की इतनी दया-दृन्ष्ट तुम् ारे ऊपर ै , बता दो बेटा!'
सोना - 'अरे ाँ, लरकन का ई सब पिंवारा से का मतलब, तुमका िरम परे ममठाई
दे व, न िरम परे न दे व। ई का बाप का नाम बताओ तब ममठाई दे ब।'
रानी -'क्यों डाटते ो, उसे बोलने क्यों न ीिं दे ते? बोलो बेटा।'
मोटे राम - 'आप में अपने द्वार पर बुलाकर मारा अपमान कर र ी ै ।'
मोटे राम - 'न ीिं बेटा, दष्ु टों को परमात्मा स्वयिं दिं ड दे ता ै । चलो, य ाँ से चलें ।
अभ भूलकर य ाँ न आएँगे। िखलाना न वपलाना, द्वार पर बुलाकर ब्राह्मणों का
अपमान करना, तभी तो दे श में आग लगी ु ई ै ।'
धचिंतामिण - 'मोटे राम, म ारानी के सामने तुम् ें इतनी कटु बातें न करनी
चाह ए।'
मोटे राम - 'बस चुप ी र ना, न ीिं तो सारा क्रोि तुम् ारे ी मसर जाएगा। माता-
वपता का पता न ीिं, ब्राह्मण बनने चले ै । तुम् ें कौन क ता ब्राह्मण?'
मोटे राम - 'धचिंतामिण ने रिं ग जमा मलया, अब आनदद से भोजन करे गा।'
सोना - 'तुम् ारी एको ववद्या काम न आई, ऊँ तौन बाजी मार लैगा।'
इिर तो लोग पछताते चले जाते थे, उिर धचिंतामिण की पाँचों अिंगुमलयाँ घी में
थी। आसन मारे भोजन कर र े थे। रानी अपने ाथों से ममठाइयाँ परोस र ी थी,
वात्तामलाप भी ोता जाता था।
रानी - 'बडा िूत्तम ै ? मैं बालकों को दे खते ी समझ गई, अपनी स्त्री को भेष
बदलकर लाते उसे लज्जा न आई।'
रानी - 'मझ
ु से उडने चला था। मैंने भी क ा था - बचा, तम
ु को ऐसी मशक्षा दँ ग
ू ी
कक उम्र भर याद करोगे। टामी को बुला मलया।'
***
रामलीला
इिर एक मुद्दत से रामलीला दे खने न ीिं गया। बददरों के भद्दे चे रे लगाए, आिी
टाँगो का पजामा और काले रिं ग का ऊँचा कुताम प ने आदममयों को दौडते, ू - ू
करते दे खकर ँसी आती ै , मजा न ीिं आता। काशी की लीला जगतववख्यात ै,
सन
ु ा ै , लोग दरू -दरू से दे खने आते ै । मैं भी बडे शौक से गया, पर मझ
ु े तो व ाँ
की लीला और ककसी वज्र दे ात की लीला में कोई अदतर न हदखाई हदया। ाँ ,
रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे ै । राक्षसों और बददरों के चे रे
पीतल के ै , गदाएँ भी पीतल की ै , कदाधच नवासी भ्राताओिं के मुकुट सच्चे काम
के ों, लेककन साज-सामान के मसवा व ाँ भी व ी ू - ू ँ के मसवा और कुछ न ीिं।
कफर भी लाखों आदममयों की भीड लगी र ती ै।
लेककन एक जमाना व था, जब मुझे भी रामलीली में आनदद आता था। आनदद
तो ब ु त ल्का-सा शब्द ै। व आनदद उदमाद से कम न था। सिंयोगवश उन
हदनों मेरे घर से बडी थोडी दरू पर रामलीला का मैदान था, और न्जस घर में
लीला-पात्रों का रप-रिं ग भरा जाता था, व तो मेरे घर से बबल्कुल ममला ु आ था।
दो बजे हदन से पात्रों की सजावट ोने लगती थी। मैं दोप र से ी व ाँ जा
बैठता, और न्जस उत्सा से दौड-दौडकर छोटे -मोटे काम करता, उस उत्सा से तो
आज अपनी पें शन लेने भी न ीिं जाता। एक कोठरी में राजकुमारी का शिंग
ृ ार ोता
था। उनकी दे पर रामरज पीसकर पोती जाती, मँु पर पाउडर लगाया जाता
और पाउडर के ऊपर लाल, रे , नीले रिं ग की बुिंदककयाँ लगाई जाती थी। सारा
माथा, भौं ें , गाल, ठोडी, बिंद
ु ककयों से रच उठती थीिं। एक ी आदमी इस काम में
कुशल था। व ी बारी-बारी से तीनों पात्रों का शिंग
ृ ार करता था। रिं ग की प्यामलयों
में पानी लाना, रामरज पीसना, पिंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयाररयों के
बाद ववमान ननकलता तो उस समय रामचदद्रजी के पीछे बैठकर मुझे जो
उल्लास, जो गवम, जो रोमािंच ोता था। व अब लाट सा ब के दरबार मिं कुसी पर
बैठकर भी न ीिं ोता। एक बार जब ोम- में बर सा ब ने व्यवस्थापक-सभा में
मेरे मलए एक प्रस्ताव का अनम
ु ोदन ककया था, उस वक्त मझ
ु े कुछ उसी तर का
उल्लास, गवम और रोमािंच ु आ था। ाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पत्र
ु नायब-
त सीलदारी में नामजद ु आ, तब भी ऐसी ी तरिं गें मन में उठन थीिं, पर इनमें
और उस बाल-ववह्वलता में बडा अदतर ै । तब ऐसा मालूम ोता था कक मैं
स्वगम में बैठा ू ँ।
ननषाद-नौका-लीला का हदन था। मैं दो-चार लडकों के ब काने में आकर गल्
ु ली-
डिंडा खेलने लगा था। आज शिंग
ृ ार दे खने न गया। ववमान भी ननकला, पर मैंने
खेलना न छोडा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोडने के मलए उससे
क ीिं बढ़कर आत्मत्याग की जररत थी, न्जतना मैं कर सकता था। अगर दाँव
दे ना ोता तो मैं कब का भाग खडा ोता, लेककन पदाने में कुछ और बात ोती
ै । खैर, दाँव परू ा ु आ। अगर मैं चा ता तो िाँिली करके दस-पाँच ममनट और
पदा सकता था। इसकी काफी गिंज
ु ाइश थी, लेककन अब इसका मौका न था। मैं
सीिे नाले की तरफ दौडा। ववमान जलतट पर प ु ँच चुका था। मैंने दरू से दे खा
- मल्ला ककश्ती मलए आ र ा ै । दौडा, लेककन आदममयों की इतनी भीड में
दौडना
ा़ कहठन था। आिखर जब मैं भीड टाता, प्राण-पण से आगे घाट पर प ु ँचा
तो ननषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचदद्र पर मेरी ककतना श्रद्धा थी।
अपने पाठ की धचदता न करके उद ें पढ़ा करता था, न्जससे व फेल न ो जाए।
मुझसे उम्र ज्यादा ोने पर भी व नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेककन व ी रामचदद्र
नौका पर बैठे इस तर मँु फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-प चान ी न ीिं।
नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ जाती ै । भक्तों पर न्जनकी ननगा
सदा ी तीखी र ी ै, व मुझे क्यों उबारते? मैं ववकल ोकर उस बछडे की भाँनत
कूदने लगा, न्जसकी गरदन पर प ली बार जुआ रखा गया ो। कभी लपककर
नाले की ओर जाता, कभी ककसी स ायक की खोज में पीछे की तरफ दौडता, पर
सब-के-सब अपनी िुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार ककसी के कानों तक न
प ु ँची। तब से बडी-बडी ववपन्त्तयाँ झेलीिं, पर उस समय न्जनता दःु ख ु आ, उतना
कफर कभी न ु आ।
मैने ननश्चय ककया कक अब रामचदद्र से न कभी बोलँ ग
ू ा, न कभी खाने की कोई
चीज ी दँ ग
ू ा, लेककन ज्यों ी नाले को पार करके व पल
ु की ओर लौटे , मैं
दौडकर ववमान पर चढ़ गया और ऐसा खुश ु आ, मानो कोई बात ी न ु ई थी।
चौिरी - 'सन
ु ो आबादीजान, य तम्
ु ारी ज्यादती ै। मारा और तम्
ु ारा कोई
प ला साबबका तो ै न ीिं। ईश्वर ने चा ा तो य ाँ मेशा तुम् ारा आना-जाना
लगा र े गी। अब की चददा ब ु त कम आया, न ीिं तो मैं तुमसे इतना इसरार न
करता।'
आबादीजान - 'जो वसूल करँ, उसमें आिा मेरा, आिा आपका। लाइए, ाथ
माररए।'
आबादीजान - 'अगर आपको सौ दफे गरज ो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो क ीिं
गए ी न ीिं, मुझे क्या कुत्ते ने काटा ै , जो लोगों की जेब में ाथ डालती कफरँ?'
एक म ाशय ने मस्
ु कराकर क ा - 'य ाँ तम्
ु ारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और
दरवाजा दे खो।'
म ान आश्चयम! घोर आश्चयम! घोर अनथम! अरे जमीन, तू फट क्यों न ीिं जाती?
आकाश, तू फट क्यों न ीिं पडता? अरे , मुझे मौत क्यों न ीिं आ जाती। वपताजी जेब
में ाथ डाल र े ै। व कोई चीज ननकाली, और सेठजी को हदखाकर
आबादीजान को दे डाली। आ ! य तो अशफी ै । चारों ओर तामलयाँ बजने
लगी। सेठजी उल्लू बन गए। वपताजी ने मँु की खाई, इसका ननश्चय मैं न ीिं
कर सकता। मैंने केवल इतना दे खा कक वपताजी ने एक अशफी ननकालकर
आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गवमयुक्त उल्लास था
मानो उद ोंने ानतम की कब्र पर लात मारी ो। य ी वपताजी ै , न्जद ोंने मुझे
आरती में एक रुपया डालते दे खकर मेरी ओर इस तर दे खा था, मानो मुझे फाड
ी खाएँगे। मेरे उस परमोधचत व्यव ार से उनके रोब में फकम आता था, और इस
समय इस घिृ णत, कुन्ल्सत और ननिंहदत व्यापार पर गवम और आनदद से फूले न
समाते थे।
प्रातःकाल रामचदद्र की ववदाई ोने वाली थी। मैं चारपाई से उठते ी आँखें
मलता ु आ चौपाल की ओर भागा। डर र ा था कक क ीिं रामचदद्र चले न गए
ों। प ु ँचा तो दे खा - तवायफों की सवाररयाँ जाने को तैयार ै । बीसों आदमी
सरतनाक-मँु बनाए उद ें घेरे खडे ै । मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई।
सीिा रामचदद्र के पास प ु ँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो र े थे, और रामचदद्र
खडे कािंिे पर लुहटया-डोर डाले उद ें समझा र े थे। मेरे मसवा व ाँ और कोई न
था। मैंने किंु हठत स्वर से रामचदद्र से पूछा - 'क्या तुम् ारी ववदाई ो गई?'
मझ
ु े ऐसा क्रोि आया कक चलकर चौिरी को खब
ू आडे ाथों लँ ।ू वेश्याओिं के
मलए रुपए, सवाररयाँ सब कुछ, पर बेचारे रामचदद्र और उनके साधथयों के मलए
कुछ भी न ीिं। न्जन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए
दयोछावर ककए थे, उनके पास क्या इनके मलए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी
न ीिं? मैं दौडा ु आ वपताजी के पास गया। व क ीिं तफतीश पर जाने को तैयार
थे। मुझे खडे दे खकर बोले - 'क ाँ घूम र े ो? पढ़ने के वक्त तुम् ें घूमने की
सझ
ू ती ै ?'
वपताजी ने तीव्र दृन्ष्ट से दे खकर क ा - 'जाओ, अपनी ककताब दे खो, मेरे पास
रुपए न ीिं ै ।'
मेरे पास दो आने पैसे पडे थे। मैंने पैसे उठा मलए और जाकर शरमाते-शरमाते
रामचदद्र को दे हदए। उन पैसों को दे खकर रामचदद्र जो न्जतना षम ु आ, व मेरे
मलए आशातीत था। टूट पडे, मानो प्यासे को पानी ममल गया।
य ी दो आने पैसे लेकर तीनों मूनतमयाँ ववदा ु ई। केवल मैं ी उनके साथ कस्बे
के बा र तक प ु ँ चाने आया।
उद ें ववदा करके लौटा तो मेरी आँखें सजल थीिं , पर हृदय आनदद से उमडा ु आ
था।
***
मंत्र (1)
पिंडडत लीलािर चौबे की जबान में जाद ू था। न्जस वक्त व मिंच पर खडे ोकर
अपनी वाणी की सुिावन्ृ ष्ट करने लगते थे, श्रोताओिं की आत्माएँ तप्ृ त ो जाती
थीिं। लोगों पर अनुराग का नशा छा जाता था। चौबेजी के व्याख्यानों में तत्त्व
तो ब ु त कम ोता था। शब्द-योजना भी ब ु त सिंद
ु र न ोती थी, लेककन बार-बार
द ु राने पर भी उसका असर कम न ोता, बन्ल्क घन की चोटों की भाँनत और भी
प्रभावोत्पादक ो जाता था। में तो ववश्वास न ीिं आता, ककिं तु सुनने बाले क ते
ै , उद ोंने केवल एक व्याख्यान रट रखा ै और उसी को व शब्दशः प्रत्येक
सभा में एक नए अिंदाज से द ु राया करते ै । जातीय गौरव उनके व्याख्यानों का
प्रिान गुण था। मिंच पर आते ी भारत के प्राचीन गौरव और पूवज
म ों की अमर-
कीनतम का राग छे डकर सभा को मनु ि कर दे ते थे। यथा -
इसी मसवद्ध की बदौलत उनकी नेताओिं में गणना ोती थी। ववशेषतः ह द
िं -ू सभा के
तो व कणमिार ी समझे जाते थे। ह द
िं -ू सभा के उपासकों में कोई ऐसा उत्सा ी,
ऐसा दक्ष, ऐसा नीनत-चतुर न था। यों कह ए सभा के मलए उद ोंने अपना जीवन
ी उत्कषम कर हदया था। िन तो उनके पास न था, कम-से-कम लोगों का ववचार
य ी था, लेककन सा स, िैयम और बुवद्ध जैसे अमूल्य रत्न उनके पास थे, और ये
सभी सभा को अपमण थे। शुवद्ध के तो मानो प्राण ी थे। ह द
िं -ू जानत का उत्थान
और पतन, जीवन और मरण उनके ववचार में इसी प्रश्न पर अवलिंबबत था। शुवद्ध
के मसवा अब ह द
िं ू जानत का पन
ु जीवन का और कोई उपाय न था। जानत का
समस्त नैनतक, शारीररक, मानमसक, सामान्जक, आधथमक और िामममक बीमाररयों की
दवा इसी आिंदोलन की सफलता में मयामहदत थी। और व तन, मन से इसका
उपयोग ककया करते थे। चिंदा वसूल करने में चौबेजी मसद्ध स्त थे। ईश्वर ने उद ें
व 'गुन' बता हदया था कक वे पत्थर से भी तेल ननकाल सकते थे। किंजूसों को
तो व ऐसा उल्टे छुरे से मड
ू ते थे कक उन म ाशयों को सदा के मलए मशक्षा
ममल जाती थी। इस ववषय में पिंडडतजी साम, दाम, दिं ड और भेद इन चारों
नीनतयों से काम लेते थे, य ाँ तक कक राष्र-ह त के मलए डाका और चोरी को भी
क्षम्य समझते थे।
ह द
िं -ू सभा में खलबली मच गई। तुरिंत एक ववशेष अधिवेशन ु आ और नेताओिं के
सामने य समस्या उपन्स्थत की गई। ब ु त सोच-ववचार के बाद ननश्चय ु आ
कक चौबेजी पर इस कायम का भार रखा जाए। उनसे प्राथमना की जाए कक व
तुरिंत मद्रास चले जाएँ और िमम-ववमुख बिंिुओिं का उद्धार करें । क ने ी की दे र
थी। चौबेजी तो ह द
िं -ू जानत की सेवा के मलए अपने को अपणम ी कर चक
ु े थे,
पवमत-यात्रा का ववचार रोक हदया और मद्रास जाने को तैयार ो गए। ह द
िं -ू सभा
के मिंत्री ने आँखों में आँसु भरकर उनसे ववनय की कक म ाराज, य बेडा आप ी
उठा सकते ैं। आप ी को परमात्मा ने इतनी सामथ्यम दी ै । आपके मसवा ऐसा
कोई दस
ू रा मनुष्य भारतवषम में न ीिं ै , जो इस घोर-ववपन्त्त में काम आए। जानत
की दीन- ीन दशा पर दया कीन्जए। चौबेजी इस प्राथमना को अस्वीकार न कर
सके। फौरन सेवकों की एक मिंडली बनी और पिंडडतजी के नेतत्ृ व में रवाना ु ई।
ह द
िं -ू सभा ने उसे बडी िूम-िाम से ववदाई का भोज हदया। एक उदार रईस ने
चौबेजी को एक थैली भें ट की और रे लवे-स्टे शन पर जारों आदमी उद ें ववदा
करने आए।
स सा एक बढ़
ू े अछूत ने उठकर पछ
ू ा - म लोग सभी उद ीिं ऋवषयों की सिंतान
ैं?
बढ़
ू ा - तम्
ु ारी सभा म लोगों की सधु ि क्यों न ीिं लेती?
लीलािर - ह द
िं -ू सभा का जदम ु ए अभी थोडे ी हदन ु ए ै और अल्पकाल में
उसने न्जतने काम ककए ै , उस पर उसे अमभमान ो सकता ै। ह द
िं -ू जानत
शतान्ब्दयों के बाद ग री नीिंद से चौंकी ै , और अब व समय ननकट ै , जब
भारतवषम में कोई ह द
िं ू ककसी ह द
िं ू को नीच न समझेगा, जब व सब एक-दस
ू रे
को भाई समझेंगे। श्रीरामचिंद्र ने ननषाद को छाती से लगाया था, शबरी के जूठे
बेर खाए थे...।
बढ़
ू ा - आप जब इद ीिं म ात्माओिं का सिंतान ै , तो कफर ऊँच-नीच में क्यों इतना
भेद मानते ै ?
बढ़
ू ा - मेरे लडके से अपनी कदया का वववा कीन्जएगा?
बढ़
ू ा - म ककतने ी ऐसे कुलीन ब्राह्मणों को जानते ै , जो रात-हदन नशे में डूबे
र ते ै , मािंस के बबना कौर न ीिं उठाते, और ककतने ी ऐसे ै , जो एक अक्षर भी
न ीिं पढ़े ै , पर आपको उनके साथ भोजन करते दे खता ू ँ। उनसे वववा -सिंबिंि
करने में आपको कदाधचत इनकार न ोगा। जब आप खुद अज्ञान में पडे ु ए ैं,
तो मारा उद्धार कैसे कर सकते ै ? आपका हृदय अभी तक अभी तक अमभमान
से भरा ु आ ै । जाइए, अभी कुछ हदन और अपनी आत्मा का सुिार कीन्जए।
मारा उद्धार आपके ककए न ोगा। ह द
िं -ू समाज में र कर मारे माथे से नीचता
का कलिंक न ममटे गा। म ककतने ी ववद्वान, ककतने ी आचारवान ो जाएँ, आप
में यों ी नीच समझते र ें गे। ह द
िं ओ
ु िं की आत्मा मर गई ै और उसका स्थान
अ िं कार ने ले मलया ै। म अब दे वता की शरण जा र े ैं , न्जनके मानने वाले
मसे गले ममलने को आज ी तैयार ै । वे य न ीिं क ते कक तुम अपने
सिंस्कार बदलकर आओ। म अच्छे ैं या बुरे, वे इसी दशा में में अपने पास
बुला र े ैं। आप अगर ऊँचे ै तो ऊँचे बने रह ए। में उडना न पडेगा।
तबलीग वालों ने जबसे चौबेजी के आने की खबर सुनी थी, इस कफक्र में थे कक
ककसी उपाय से इन सबको य ाँ से दरू करना चाह ए। चौबेजी का नाम दरू -दरू
तक प्रमसद्ध था। जानते थे, य य ाँ जम गया तो मारी सारी करी-कराई मे नत
व्यथम ो जाएगी। इसके कदम य ाँ जमने न पाएँ। मुल्लाओिं ने उपाय सोचना
शुर ककया। ब ु त वाद-वववाद, ु ज्जत और दलील के बाद ननश्चय ु आ कक इस
काकफर को कत्ल कर हदया जाए। ऐसा सबाब लूटने के मलए आदममयों की क्या
कमी? उनके मलए तो जदनत का दरवाजा खल
ु जाएगा, ू र उसकी बलाएँ लें गी,
फररश्ते उसके कदमों की खाक का सरु मा बनाएँगे, रसल
ू उसके मसर पर बरकत
का ाथ रखेंगे, खुदाबिंद-करीम उसे सीने से लगाएँगे और क ें गे - तू मेरा प्यारा
दोस्त ै । दो ट्टे -कट्टे जवानों ने तुरिंत बीडा उठा मलया।
रात के दस बज गए थे। ह द
िं -ू सभा के कैंप में सदनाटा था। केवल चौबेजी अपनी
रावटी में बैठे ह द
िं -ू सभा के मिंत्री को पत्र मलख र े थे - य ाँ सबसे बडी
आवश्यकता िन की ै । रुपया, रुपया, रुपया! न्जतना भेज सकें, भेन्जए। डेपुटेशन
भेजकर वसूल कीन्जए, मोटे म ाजनों की जेब टटोमलए, मभक्षा माँधगए। बबना िन
के इन अभागों का उद्धार न ोगा। जब तक कोई पाठशाला न खुले, कोई
धचककत्सालय न स्थावपत ो, कोई वाचनालय न ो, इद ें कैसे ववश्वास आएगा कक
ह द
िं -ू सभा उनकी ह तधचिंतक ै । तबलीग वाले न्जतना खचम कर र े ै , उसका
आिा भी मुझे ममल जाए तो ह द
िं -ू िमम की पताका फ रने लगे। केवल व्याख्यानों
से काम न चलेगा, असीसों के कोई न्जिंदा न ीिं र ता।
बात मँु से परू ी न ननकली थी कक लाहठयों का वार पडा। पिंडडतजी मनू छम त ोगर
धगर पडे। शत्रओ
ु िं ने समीप आकर दे खा, जीवन का कोई लक्षण न था। समझ
गए, काम तमाम ो गया। लूटने का ववचार न था, पर जब कोई पूछने वाला न
ो तो ाथ बढ़ाने में क्या जम? जो कुछ ाथ लगा, ले-लेकर चलते बने।
प्रातःकाल बढ़
ू ा भी उिर से ननकला तो सदनाटा छाया ु आ था। न आदमी, न
आदमजात, छौलदाररयाँ भी गायब। चकराया, य माजरा क्या ै ? रात ी भर में
अलादीन के म ल की तर सब कुछ गायब ो गया। उन म ात्माओिं में से एक
भी नजर न ीिं आता, जो प्रातःकाल मो नभोग उडाते और सिं्या समय भिंग
घोटते हदखाई दे ते थे। जरा और समीप जाकर पिंडडत लीलािर की रावटी में
झाँका तो कलेजा सदन र गया। पिंडडतजी जमीन पर मद
ु े की तर पडे ु ए थे।
मँु पर मन्क्खयाँ मभनक र ी थी। मसर के बालों में रक्त ऐसा जम गया था, जैसे
ककसी धचत्रकार के ब्रश में रिं ग। सारे कपडे ल ू लु ान ो र े थे। समझ गया,
पिंडडतजी के साधथयों ने उद ें मारकर अपनी रा ली। स सा पिंडडतजी के मँु से
करा ने की आवाज ननकली। अभी जान बाकी थी। बढ़
ू ा तुरिंत दौडा ु आ गाँव में
आ गया और कई आदममयों को लाकर पिंडडतजी को अपने घर उठवा ले गया।
4
तीन म ीने गुजर गए। न तो ह द
िं -ू सभा ने पिंडडतजी की खबर ली और न
घरवालों ने। सभा के मुख-पत्र पर उनकी मत्ृ यु पर आँसु ब ाए गए, उनके कामों
का प्रशिंसा की गई, और उनका स्मारक बनाने के मलए चिंदा खोल हदया गया।
घरवाले भी रो-पीटकर बैठ र े ।
उिर पिंडडतजी दि
ू और िी खाकर चाक-चौबिंद ो गए। चे रे पर खून की सूखी
दौड गई, दे -भर आई। दे ात की जलवायु ने व काम कर हदखाया जो कभी
मलाई और मक्खन से न ु आ था। प ले की तर तैयार तो व न ु ए, पर
फुती और चस्
ु ती दग
ु न
ु ी ो गई। मोटाई का आलस्य अब नाम को भी न था।
उनमें एक नए जीवन का सिंचार ो गया।
जाडा शुर ो गया था। पिंडडतजी घर लौटने की तैयाररयाँ कर र े थे। इतने में
प्लेग का आक्रमण ु आ, और गाँव के तीन आदमी बीमार ो गए। बढ़
ू ा चौिरी
भी उद ीिं में था। घरवाले इन रोधगयों को छोडकर भाग खडे ु ए। व ाँ का दस्तरू
था कक न्जन बीमाररयों को वे लोग दै वी प्रकोप समझते थे , उनके रोधगयों को
छोडकर चले जाते थे। उद ें बचाना दे वताओिं से वैर मोल लेना था, और दे वताओिं
से वैर करके क ाँ जाते? न्जस प्राणी को दे वता ने चुन मलया, उसे भला वे उसके
ाथों से छननने का सा स कैसे करते? पिंडडतजी को भी लोगों ने साथ ले जाना
चा ा, ककिं तु पिंडडतजी न गए। उद ोंने गाँव में र कर रोधगयों की रक्षा करने का
ननश्चय ककया। न्जस प्राणी ने उद ें मौत के पिंजे से छुडाया था, उसे इस दशा में
छोडकर व कैसे जाते? उपकार ने उनकी आत्मा को जगा हदया था। बूढ़े चौिरी
ने तीसरे हदन ोश आने पर जब उद ें अपने पास खडे दे खा तो बोला - म ाराज,
तुम य ाँ क्यों आ गए? मेरे मलए दे वताओिं का ु क्म आ गया ै । अब मैं ककसी
तर न ीिं रुक सकता। तुम क्यों अपनी जान जोिखम में डालते ो? मुझ पर दया
करो, चले जाओ।
अस्पताल से दवा लेने में बडी कहठनाई का सामना करना पडा। गँवारों से
अस्पताल वाले दवाओिं का मनमाना दाम वसल
ू करते थे। पिंडडतजी को मफ्
ु त
क्यों दे ने लगे? डॉक्टर के मुिंशी ने क ा - दवा तैयार न ीिं ै।
मुिंशी ने बबगडकर क ा - क्यों मसर खाए जाते ो? क तो हदया, दवा तैयार न ीिं
ै , न तो इतनी जल्दी ो ी सकती ै।
डॉक्टर सा ब के पास ऐसे गरीब ननत्य आया करते थे। उनके चरणों पर ककसी
का धगर पडना, उनके सामने पडे ु ए आतमनाद करना उनके मलए कुछ नई बातें न
थी। अगर इस तर व दया करने लगते तो दवा ी भर को ोते, य ठाट-बाट
क ाँ से ननभता? मगर हदल के चा े ककतने ी बरु े ों, बातें मीठन-मीठन करते थे।
पैर टाकर बोले - रोगी क ाँ ै ?
य जवाब सन
ु कर पिंडडतजी को कुछ बोलने का सा स तो न था, पर कलेजा
मजबूत करके बोले - सरकार, अब कुछ न ीिं ो सकता?
डॉक्टर - अस्पताल से दवा न ीिं ममल सकती। म अपने पास से, दाम लेकर दवा
दे सकते ै ।
मगर दस
ू री दक
ु ान पर प ु ँचकर व ज्यादा साविान ो गए। सेठजी गद्दी पर
बैठे ु ए थे। पिंडडतजी आकर उनके सामने खडे ो गए और गीता का एक श्लोक
पढ़ सुनाया। उनका शुद्ध उच्चारण और मिुर वाणी सुनकर सेठजी चककत ो
गए, पछ
ू ा - क ाँ स्थान ै?
पिंडडतजी - काशी से आ र ा ू ँ।
स सा सेठ जी ने पीछे से पक
ु ारा - पिंडडतजी, जरा ठ ररए।
सेठजी श्रद्धा-ववनयपूणम शब्दों में बोले - भगवान इसे स्वीकार कीन्जए, य दान
न ीिं, भें ट ै । मैं भी आदमी प चानता ू ँ। ब ु तेरे सािु-सिंत, योगी-यती दे श और
िमम के सेवक आते र ते ैं , पर न जाने क्यों ककसी के प्रनत मन में श्रद्धा न ीिं
उत्पदन ोती? उनसे ककसी तर वपिंड छुडाने की पड जाती ै । आपका सिंकोच
दे खकर मैं समझ गया कक आपका य पेशा न ीिं ै । आप ववद्वान ै , िमामत्मा
ै , पर ककसी सिंकट में पडे ु ए ै । इस तच्
ु छ भें ट को स्वीकार कीन्जए और मझ
ु े
आशीवामद दीन्जए।
पिंडडतजी दवाएँ लेकर घर चले तो षम, उल्लास और ववजय से उनका हृदय उछला
पडता था। नम
ु ानजी भी सिंजीवन-बट
ू ी लाकर इतने प्रसदन न ु ए ोंगे। ऐसा
सच्चा आनिंद उद ें कभी प्राप्त न ु आ। उनके हृदय में इतने पववत्र भावों का
सिंचार कभी न ु आ था।
ु ए पवमत की ओट में नछप गए? पिंडडतजी और भी फुती से पाँव बढ़ाने लगे, मानो
उद ोंने सूयद
म े व को पकड लेने की ठान ली ै।
दे खते-दे खते अँिेरा छा गया। आकाश में दो-एक तारे हदखाई दे ने लगे। अभी दस
मील की मिंन्जल बाकी थी। न्जस तर काली घटा को मसर पर मिंडराते दे खकर
गहृ णी दौड-दौडकर सुखावन समेटने लगती ै , उसी भाँनत लीलािर ने भी दौडना
शुर ककया। उद ें अकेले पड जाने का भय न था, भय था अिंिेरें में रा भूल जाने
का। दाएँ-बाएँ बन्स्तयाँ छूटती जाती थी। पिंडडतजी को ये गाँव इस समय ब ु त
ी सु ावने मालूम ोते थे। ककतने आनिंद से लोग अलाव के सामने बैठे ताप र े
ै?
रोग घातक न था, पर यश पिंडडतजी को बदा था। एक सप्ता के बाद तीनों रोगी
चिंगे ो गए। पिंडडतजी की कीनतम दरू -दरू तक फैल गई। उद ोंने यम-दे वता से घोर
सिंग्राम करके इन आदममयों को बचा मलया था। उद ोंने दे वताओिं पर भी ववजय
पा ली थी। असिंभव को सिंभव कर हदखाया था व साक्षात भगवान थे। उनके
दशमनों के मलए लोग दरू -दरू से आने लगे, ककिं तु पिंडडतजी को अपनी कीनतम से
इतना आनिंद न ोता था, न्जतना रोधगयों को चलते-कफरते दे खकर।
चौिरी ने क ा - म ाराज, तम
ु साक्षात भगवान ो। तम
ु न आते तो म न
बचते।
6
मुल्लाओिं ने मैदान खाली पाकर आस-पास के दे ातों में खूब जोर बाँि रखा था।
गाँव के गाँव मुसलमान ोते जाते थे। उिर ह द
िं -ू सभा ने सदनाटा खीिंच मलया
था। ककसी की ह म्मत न पडती थी कक इिर आए। लोग दरू बैठे ु ए मुसलमानों
पर गोला-बारद चला र े थे। इस त्या का बदला कैसे मलया जाए, य ीिं उनके
सामने सबसे बडी समस्या थी। अधिकाररयों के पास बार-बार प्राथमना-पत्र भेजे जा
र े थे कक इस मामले की छानबीन की जाए और बार-बार य ी जवाब ममलता
था कक त्यारों का पता न ीिं चलता। उिर पिंडडतजी के स्मारक के मलए चिंदा
भी जमा ककया जा र ा था।
पिंडडतजी अभी जीववत ै , पर अब सपररवार उसी प्रािंत में , उद ीिं भीलों के साथ
र ते ैं।
***
कामिा तरु
कँु अर दौडकर उसके पास प ु ँचे और उसके ाथ से गागर छनन लेने की चेष्टा
करते ु ए बोले -'मुझे दे दो और भागकर छाँ में चली जाओ, इस समय पानी
का क्या काम था?'
कँु अर -'मझ
ु े दे दो, न ीिं तो मैं छनन लँ ग
ू ा।'
चददा - 'अच्छा भाई, न ीिं मानते तो तुम् ीिं ले चलो। ाँ, न ीिं तो।'
कुँअर गागर लेकर आगे-आगे चले। चददा पीछे ो ली। बचीगे में प ु ँचे तो चददा
एक छोटे -से पौिे के पास रुककर बोली - 'इसी दे वता की पूजा करनी ै , गागर
रख दो।'
कँु अर ने आश्चयम से पछ
ू ा -'य ा कौन दे वता ै चददा? मझ
ु े तो न ीिं नजर आता।'
पानी पीकर पौिे की मुरझाई ु ई पन्त्तयाँ री ो गई, मानो उनकी आँखें खुल
गई ों।
चददा ने पौिे को एक सीिी लकडी से बाँिते ु ए क ा - ' ाँ, उसी हदन तो, जब
तम
ु य ाँ आए। य ाँ प ले मेरी गडु डयों का घरौंदा था। मैंने गडु डयों पर छाँ
करने के मलए अमोला लगा हदया था, कफर मझ
ु े इसकी याद न ीिं र ी। घर के
काम-िदिों में भूल गई। न्जस हदन तुम य ाँ आए, मुझे न जाने क्यों इस पौिे
की याद आ गई। मैंने आकर दे खा तो व सूख गया था। मैंने तुरदत पानी
लाकर इसे सीिंचा तो कुछ-कुछ ताजा ोने लगा। तब से इसे सीिंचती ु ँ। दे खो,
ककतना रा-भरा ो गया ै ।'
कँु अर को ऐसा जान पडा, मानो व पौिा कोई नद ा-सा क्रीडाशील बालक ै।
जैसे चुम्बन से प्रसदन ोकर बालक गोद में चढ़ने के मलए दोनों ाथ फैला
दे ता ै , उसी भाँनत य पौिा भी ाथ फैलाए जान पडा। उसके एक-एक अणु में
चददा का प्रेम झलक र ा था।
चददा के घर में खेती के सभी औजार थे। कुँअर एक फावडा उठा लाए और पौिे
का एक थाल बनाकर चारों ओर ऊँची में ड उठा दी। कफर खुरपी लेकर अददर की
ममट्टी को गोड हदया। पौिा और भी ल ल ा उठा।
कँु अर ने मस्
ु कराकर क ा - ' ाँ, क ता ै , अम्माँ की गोद में बैठूँगा।'
मगर कुँअर को अभी राज-पुत्र ोने का दिं ड भोगना बाकी था। शत्रुओिं को न जाने
कैसे उनकी टो ममल गई। इिऱ तो ह तधचिंतकों के आग्र के वववश ोकर बूढ़ा
कुवेरमसिं चददा और कुँअर के वववा की तैयाररयाँ कर र ा था, उिर शत्रुओिं का
एक दल मसर पर आ प ु ँचा। कुँअर ने उस पौिे के आस-पास फूल-पत्ते लगाकर
एक फुलवारी-सी बना दी थी। पौिे को सीिंचना अब उनका काम था। प्रातःकाल
व किंिे पर काँवर रखे नदी से पानी ला र े थे कक दस-बार आदममयों ने उद ें
रास्ते में घेर मलया। कुवेरमसिं तलवार लेकर दौडा, लेककन शत्रुओिं ने उसे मार
धगराया। अकेला अस्त्र ीन कुँअर क्या करता? किंिे पर काँवर रखे ु ए कुँअर बोला
- 'अब क्यों मेरे पीछे पडे ो भाई? मैंने सब-कुछ छोड हदया।'
'तम्
ु ारा स्वामी मझ
ु े इस दशा में भी न ीिं दे ख सकता? खैर, अगर िमम समझों तो
कुवेरमसिं की तलवार मुझे दे दो। अपनी स्वािीनता के मलए लडकर प्राण दँ ।ू '
इसका उत्तर य ी ममला कक मसपाह यों ने कुँअर को पकडकर मश्ु कें कस दीिं और
उद ें एक घोडे पर बबठाकर घोडे को भगा हदया। काँवर व ीिं पडी र गई।
उसी समय चददा घर से ननकली तो दे खा - काँवर पडी ु ई ै और कँु अर को
लोग घोडे पर बबठाए ले जा र े ै । चोट खाए ु ए पक्षी की भाँनत व कई कदम
दौडी, कफर धगर पडी। उसकी आँखों में अिंिेरा छा गया।
कुँअर ने मसपा ी की नाक की आवाज सुनी। उनका हृदय बडे वेग से उछलने
लगा। य अवसर आज ककतने हदनों के बाद ममला था। व उठे , मगर पाँव थर-
थर काँप र े थे। बरामदे के नीचे उतरने का सा स न ो सका। क ीिं इसकी नीिंद
खुल गई तो? ह स
िं ा उनकी स ायता कर सकती थी। मसपा ी की बगल में उसकी
तलवार पडी थी, पर प्रेम का ह स
िं ा से वैर ै । कुँअर ने मसपा ी को जगा हदया।
व चौंककर उठ बैठा। र ा-स ा सिंशय भी उसके हदल से ननकल गया। दस
ू री बार
जो सोया तो खरामटे लेने लगा।
ु ए थे। आ पक्षी! तेरा भी जोडा अवश्य बबछुड गया ै । न ीिं तो तेरे राग में
इतनी व्यथा, इतना ववषाद, इतना रुदन क ाँ से आता! कुँअर के हृदय के टुकडे
कँु अर ने पछ
ू ा - 'चददा, य पक्षी य ाँ क ाँ?'
चददा - 'उसी झोपडे में , ज ाँ तुम् ारी खाट थी। उसी खाट के बानों से मैंने अपना
घोंसला बनाया ै ।'
चददा - 'मैं अकेली ू ँ। चददा को अपने वप्रयतम के स्मरण करने में , उसके मलए
रोने में जो सख
ु ै, व जोडे में न ीिं, मैं इसी तर अकेली मरँगी।'
चददा चली गई। कुँअर की नीिंद खुल गई। उषा की लामलमा आकाश पर छाई ु ई
थी और व धचडडया कुँअर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठन च क र ी
थी। अब उस सिंगीत में करुणा न थी, ववलाप न था, उसमें आनदद था, चापल्य
था, सारल्य था, व ववयोग का करुण-क्रिंदन न ीिं, ममलन का मिुर सिंगीत था।
एक ी हदन में इतनी दीवार उठ गई थी, न्जतनी चार मजदरू भी न उठा सकते
थे। और ककतनी सीिी, धचकनी दीवार थी कक कारीगर भी दे खकर लन्ज्जत ो
जाता। प्रेम की शन्क्त अपार ै।
वक्ष
ृ पर पक्षी का मिुर स्वर हदखाई हदया कुँअर के ाथ से घडा छुट पडा। ाथ
और पैरों में ममट्टी लपेटकर व वक्ष
ृ के नीचे जाकर बैठ गए। उस स्वर में
ककतना लामलत्य था, ककतना उल्लास, ककतनी ज्योनत। मानव-सिंगीत इसके सामने
बेसरु ा अलाप था। उसमें य जागनृ त, य अमत
ृ ,य जीवन क ाँ? सिंगीत के
आनदद में ववस्मनृ त ै , पर व ववस्मनृ त ककतनी स्मनृ तमय ोती ै , अतीत को
जीवन और प्रकाश से रिं न्जत करके प्रत्यक्ष करने दे ने की शन्क्त सिंगीत के मसवा
और क ाँ ै ? कुँअर के हृदय-नेत्रों के सामने व दृश्य खडा ु आ जब चददा इसी
पौिे को नदी से जल ला-लाकर सीिंचती थी। ाय, क्या वे हदन कफर आ सकते
ै?
कुँअर - ' ाँ, उन हदनों कभी-कभी आया करता था। मैं भी राजा की से वा में
नौकर था। उनके घर में और कौन था?'
कँु अर को ऐसा जान पडा, मानो हृदय फटा जा र ा ै। व कलेजा थामकर बैठ
गए।
मस
ु ाकफर के ाथ में एक सल
ु गत ु आ उपला था। उसने धचलम भरी और दो-चार
दम लगाकर बोला - 'उसके मरने के बाद य घर धगर गया। गाँव प ले ी
उजाड था। अब तो और भी सन
ु सान ो गया। दो-चार आदमी य ाँ आ बैठते
थे। अब तो धचडडया का पूत भी य ाँ न ीिं आता।
दस
ू रे हदन ककसान सोकर उठा तो कुँअर की लाश पडी ु ई थी।
कुँअर अब न ीिं ैं, ककदतु उनके झोंपडे की दीवारें बन गई ै , ऊपर फूस का नया
छप्पर पड गया ै और झोंपडे के द्वार पर फूलों की कई क्याररयाँ लगी ै । गाँव
के ककसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे ?
***
सती
ककसी ने इसका उत्तर न हदया। वे जोर से िाडे मार-मारकर रोने लगे। धचिंता
समझ गई कक उसके वपता ने वीरगनत पाई। उस तेर वषम की बामलका की
आँखों से आँसू की एक बँद
ू भी न धगरी, मुख जरा भी ममलन न ु आ, एक आ
भी न ननकली। ँसकर बोली - 'वीरगनत पाई तो तुम लोग रोते क्यों ो? योद्धाओिं
के मलए इससे बढ़कर और कौन मत्ृ यु ो सकती ै ? इससे बढ़कर उनकी वीरता
का और क्या परु स्कार ममल सकता ै? य रोने का न ीिं, आनदद मनाने का
अवसर ै ।'
धचिंतादे वी ने गम्भीरता से क ा - 'इसकी तुम कुछ धचिंता न करो दादा। मैं अपने
बाप की बेटी ू ँ। जो कुछ उद ोंने ककया, व ी मैं भी करँगी। अपनी मातभ
ृ मू म को
शुत्रओिं के पिंजे से छुटाने में उद ोंने प्राण दे हदए। मेरे सामने भी व ी आदशम ै।
जाकर अपने आदममयों को सम्भामलए। मेरे मलए एक घोडा और धथयारों का
प्रबदि कर दीन्जए। ईश्वर ने चा ा तो आप लोग मुझे ककसी से पीछे न पाएँगे,
लेककन यहद मुझे टते दे खना तो तलवार से एक ाथ से इस जीवन का अदत
कर दे ना। य ी मेरी आपसे ववनय ै । जाइए अब ववलम्ब न कीन्जए।'
मसपाह यों को धचिंता के ये वीर-वचन सन
ु कर कुछ भी आश्चयम न ीिं ु आ। ाँ, उद ें
य सददे अवश्य ु आ कक क्या कोमल बामलका अपने सिंकल्प पर दृढ़ र
सकेगी?
पाँच वषम बीत गए। समस्त प्रादत में धचिंतादे वी की िाक बैठ गई। शत्रओ
ु िं के कद
उखड गए। व ववजय की सजीव मनू तम थी, उसे तीरों और गोमलयों के सामने
ननश्शिंक खडे दे खकर मसपाह यों को उत्तेजना ममलती र ती थी। उसके सामने वे
कैसे कदम पीछे टाते? कोमलािंगी युवती आगे बढ़े तो कौन पुरुष पीछे टे गा!
सुददररयों के सम्मुख योद्धाओिं की वीरता अजेय ो जाती ै । रमणी के वचन-
बाण योद्धाओिं के मलए आत्म-समपमण के गुप्त सददे श ै । उसकी एक धचतवन
कायरों में भी परु
ु षत्व प्रवाह त कर दे ती ै । धचदता की छवव-कीनतम ने मनचले
सरू माओिं को चारों और से खीिंच-खीिंचकर उसकी सेना को सजा हदया, जान पर
खेलने वाले भौंरे चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मिंडराने लगे।
यों तो धचदता के सैननकों में भी सभी तलवार के िनी थे, बात पर जान दे ने
वाले, उसके इशारे पर आग में कूदने वाले, उसकी आशा पाकर एक बार आकाश
के तारे तोड लाने को भी चल पडते, ककदतु रत्नमसिं सबसे बढ़ा ु आ था। धचदता
भी हृदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नमसिं अदय वीरों की भाँनत अक्खड, मँु फट
या घमिंडी न था। और लोग अपनी-अपनी कीनतम को बढ़ा-बढ़ाकर बयान करते,
आत्म-प्रशिंसा करते ु ए उनकी जबान न रकती थी। वे जो कुछ करते, धचदता को
हदखाने के मलए। उनका ्येय अपना कतमव्य न था, धचदता थी। रत्ऩमसिं जो कुछ
करता, शादत भाव से। अपनी प्रशिंसा करना तो दरू , व चा े तो कोई शेर ी क्यों
न मार आए, उसकी चचाम तक न करता। उसकी ववनयशीलता और नम्रता, सिंकोच
की सीमा से मभड गई थी। औरों के प्रेम में ववलास था, पर रत्नमसिं के प्रेम में
त्याग और तप। और लोग मीठन नीिंद सोते थे, पर रत्नमसिं तारे धगन-धगनकर
रात काटता था और सब अपने हदल में समझते थे कक धचदता मेरी ोगी। केवल
रत्नमसिं ननराश था, और इसमलए उसे ककसी से न द्वेष था, न राग। औरों को
धचदता के सामने च कते दे खकर उसे उसकी वाकपटुता पर आश्चयम ोता,
प्रनतक्षण उसका ननराशादिकार और भी घना ो जाता था। कभी-कभी व अपने
बोदे पन पर झँुझला उठता। क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से विंधचत र ा, जो
रमिणयों के धचत्त को मोह त करते ै ? उसे कौन पूछेगा? उसकी मनोदशा कौन
जानता ै ? पर व मन में झँुझलाकर र जाता था। हदखावे की उसकी सामथ्यम
ी न थी।
आिी से अधिक रात बीत गई थी। धचिंता अपने खेमें में ववश्राम कर र ी थी।
सैननकगण भी कडी मिंन्जल मारने के बाद कुछ खा-पीकर गाकफल पडे ु ए थे।
आगे एक घना जिंगल था। जिंगल के उस पार शत्रुओिं का एक दल डेरा डाले पडा
था। धचदता उसके आने की खबर पाकर भागी-भागी चली र ी थी। उसने
प्रातःकाल शत्रुओिं पर िावा करने का ननश्चय कर मलया था। उसे ववश्वास था कक
शत्रओ
ु िं को मेरे आने की खबर न ोगी, ककदतु य उसका भ्रम था। उसी की सेना
का एक आदमी शत्रओ
ु िं से ममला ु आ था। य ाँ की खबरें व ाँ ननत्य प ु ँ चती
र ती थी। उद ोंने धचदता से ननन्श्चिंत ोने के एक षड्यदत्र रच रखा था। उसी
गुप्त त्या के मलए तीन सा सी मसपाह यों को ननयुक्त कर हदया था। वे तीनों
ह स्र
िं पशुओिं की भाँनत दबे पाँव जिंगल को पार करके आए और वक्ष
ृ ों की आड में
खडे ोकर सोचने लगे कक धचदता का खेमा कौन-सा ै ? सारी सेना बे-खबर सो
र ी थी, इससे उद ें अपने कायम की मसवद्ध में लेशमात्र सददे न था। वे वक्ष
ृ ों की
आड से ननकले और जमीन पर मगर की तर रें गते ु ए धचदता के खेम की ओर
चले।
प्रातःकाल धचदता उठन, तो चारों जवानों को भूमम पर पडे पाया। उसका कलेजा
िक से ो गया। समीप जाकर दे खा - तीनों आक्रमणकाररयों के प्राण ननकल
चक
ु े थे, पर रत्नमसिं की साँस चल र ी थी। सारी घटना समझ में आ गई।
नारीत्व ने वीरत्व पर ववजय पाई। न्जन आँखों से वपता की मत्ृ यु पर आँसू की
एक बँद
ू भी न धगरी थी, उद ीिं आँखों से आँसुओिं की झडी लग गई। उसने
रत्नमसिं का मसर अपनी जाँि पर रख मलया और हृदयािंगण में रचे ु ए स्वयिंवर
में उसके गले में जयमाल डाल दी।
धचदता अभी अपना वाक्य परू ा भी न कर पाई थीिं कक उसी प्रसिंग में बोली - ' ाँ,
आपको मेरे कारण अलबत्ता दस्
ु स यातना भोगनी पडी।'
स सा खबर आई कक शत्रओ
ु िं की एक सेना ककले की ओर बढ़ी चली आती ै।
धचदता चौंक पडी, रत्नमसिं खडा ो गया और खट
ूँ ी से लटकती ू ई तलवार उतार
ली।
रत्नमसिं ने बददक
ू कदिे पर रखते ु ए क ा - 'मुझे भय ै कक अबकी वे लोग
बडी सख्या में आ र े ै।'
'न ीिं, मुझे आशा ै , वे लोग ठ र न सकेंगे। मैं एक ी िावे में उनके कदम
उखाड दँ ग
ू ा। य ईश्वर की इच्छा ै कक मारी प्रणय-रानत ववजय-राबत्र ो।'
धचदता पनत के गले में ाथ डालकर आँखों में आँसू भरे ु ए बोली - 'मुझे भय
ै , तुम हदनों में लौटोगे। मेरा मन तुम् ारे साथ र े गा। जाओ, पर रोज खबर
भेजते र ना। तम्
ु ारे पैरों पडती ु ँ, अवसर का ववचार करके िावा करना। तम्
ु ारी
आदत ै कक शत्रु को दे खते ी आकुल ो जाते ो और जान पर खेलकर टूट
पडते ो। तम
ु से मेरा य ी अनुरोि ै कक अवसर दे खकर काम करना। जाओ
न्जस तर पीठ हदखाते ो, उसी तर मँु हदखाओ।'
रत्नमसिं मसर झुकाए, ववयोग-व्यधथत हृदय को दबाए, मदद गनत से पीछे -पीछे
चला जाता था। कदम आगे बढ़ता था, पर मन पीछे टता। आज जीवन में
प ली बार दन्ु श्चिंताओिं ने उसे आशिंककत कर रखा था। कौन जानता ै , लडाई का
अदत क्या ोगा? न्जस स्वगम-सुख को छोडकर व आया था, उसकी स्मनृ तयाँ र -
र कर उसके हृदय को मसोस र ी थीिं , धचिंता की सजल आँखें याद आती थीिं और
जी चा ता था, घोडे की रास पीछे मोड दें । प्रनतक्षण रणोत्सा क्षीण ोता जाता
था।
मसपा ी - 'इसकी परवा न ीिं। म इससे बडी सेनाओिं को परास्त कर चुके ै ।'
एक क्षण में योद्धाओिं ने घोडो की बागें उठा ली, और अस्त्र सम्भाले ु ए शत्रु सेना
पर लपके, ककदतु प ाडडयों पर प ु ँचते ी इन लोगों ने उसके ववषय में जो
अनुमान ककया था, व ममथ्या था। व सजग ी न थे, स्वयिं ककले पर िावा
करने की तैयाररयाँ भी कर र े थे। इन लोगों ने जब उद ें सामने आते दे खा तो
समझ गए कक भल
ू ु ई, लेककन अब सामना करने के मसवा चारा ी क्या था।
कफर भी वे ननराश न थे। रत्नमसिं जैसे कुशल योद्धा के साथ उद ें कोई शिंका न
थी। व इससे भी कहठन अवसरों पर अपने रण-कौशल से ववजय-लाभ कर चुका
था। क्या आज व अपना जौ र न हदखाएगा? सारी आँखें रत्नमसिं को खोज र ी
थीिं, पर उसका व ाँ क ीिं पता न था। क ाँ चला गया? य कोई न जानता था।
एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ प ु ँच।े इतनी ब ु सिंख्यक सेना के सामने ये
मुिी-भर आदमी क्या कर सकते थे। चारों ओर से रत्नमसिं की पुकार ोने लगी
- 'भैया, तुम क ाँ ो? में क्या ु क्म दे ते ो? दे खते ो, व लोग सामने आ
प ु ँचे, पर तुम अभी मौन खडे ो। सामने आकर में मागम हदखाओ, मारा उत्सा
बढ़ाओ।'
पर अब भी रत्नमसिं न हदखाई हदया। य ाँ तक कक शत्रु-दल मसर पर आ प ु ँचा
और दोनों दलों में तलवारें चलने लगी। बिंद
ु े लों के प्राण थेली पर लेकर लडना
शुर ककया, पर एक को एक ब ु त ोता ै , एक और दस का मुकाबला ी क्या?
य लडाई न थी, प्राणों का जआ
ु था। बुिंदेलों में ननराशा का अलौककक बल था।
खूब लडे, पर क्या मजाल कक कदम पीछे टें । उनमें अब जरा भी सिंगठन न था।
न्जससे न्जतना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अदत क्या ोगा, इसकी कोई धचदता न
थी। कोई तो शत्रओ
ु िं के सफें चीरता ु आ सेनापनत के समीप प ु ँच गया, कोई
उनके ाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते मारा गया। उनका अमानवु षक सा स
दे खकर शत्रुओिं के मँु से वा -वा ननकलती थी, लेककन ऐसे योद्धाओिं ने नाम
पाया ै , ववजय न ीिं पाई। एक घदटे में रिं गमिंच का पदाम धगर गया, तमाशा खत्म
ो गया। एक आँिी थी, जो आई और वक्ष
ृ ों को उखाडती ु ई चली गई। सिंगहठत
र कर ये मुिी-भर आदमी दश्ु मनों के दाँत खट्टे कर दे त,े पर न्जस पर सिंगठन का
भार था, उसका क ीिं पता न था। ववजयी मरा ठों ने एक-एक लाश ्यान से
दे खी। रत्नमसिं उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उसी पर उनके दाँत लगे
थे। रत्नमसिं के जीते-जी उद ें नीिंद न आती थी। लोगों ने प ाडी की एक-एक
चट्टान का मिंथन कर डाला, पर रत्नमसिं न ाथ आया। ववजय ु ई, पर अिूरी।
सद्या ो गई थी, सय
ू म भगवान ककसी ारे ु ए मसपा ी की भाँनत मस्तक झक
ु ाते
धचदता मसर पकडकर भूमम पर बैठ गई। सैननक ने कफर क ा - 'मरा ठे समीप
आ प ु ँच।े '
ब ु त समीप।'
'तम्
ु ारी जैसी इच्छा। मेरे कतमव्य का तो य ी अदत ै ।'
धचता के चारों ओर स्त्री और पुरुष एकबत्रत थे। शत्रुओिं ने ककले को घेर मलया ै
इसकी ककसी के कफक्र न थी। शोक और सदतोष से सबके च े रे उदास और मसर
झुके ु ए थे। अभी कल इसी आँगन में वववा का मिंडप सजाया गया था। ज ाँ
इस समय धचता सुलग र ी ै , व ीिं वन-किंु ड थी। कल भी इसी भाँनत अन्नन की
लपटें उठ र ी थी, इसी भाँनत लोग जमा थे, पर आज और कल के दृश्यों में
ककतना अदतर ै। ाँ, स्थल
ू नेत्रों के मलए अदतर ो सकता ै , पर वास्तव में य
उसी यज्ञ की पूणाम ू नत ै , उसी प्रनतज्ञा का पालन ै।
रत्नमसिं धचिंता के पास जाकर ाँफता ु आ बोला - 'वप्रये, मैं तो अभी जीववत ू ँ,
य तुमने क्या कर डाला?'
धचता में आग लग चक
ु ी थी। धचदता की साडी से अन्नन की ज्वाला ननकल र ी
थी। रत्नमसिं उदमत्त की भाँनत धचता में घस
ु गया, और धचदता का ाथ
पकडकर उठाने लगा। लोगों ने चारों से लपक-लपककर धचता की लकडडयाँ
टानी शुर कीिं, पर धचदता ने पनत की ओर आँख उठाकर न दे खा, केवल ाथों से
ट जाने का सिंकेत ककया।
रत्नमसिं मसर पीटकर बोला -' ाय वप्रये, तुम् ें क्या ो गया ै । मेरी ओर दे खती
क्यों न ी? मैं तो जीववत ू ँ।'
धचता से आवाज आई - 'तुम् ारा नाम रत्नमसिं ै , पर तुम मेरे रत्नमसिं न ीिं
ो।'
'तम
ु मेरी तरफ दे खो तो, मैं ी तम्
ु ारा दास, तम्
ु ारा उपासक, तम्
ु ारा पनत ू ँ।'
' ाय। कैसे समझाऊँ। अरे , लोगों ककसी भाँनत अन्नन को शादत करो। मैं रत्नमसिं
ी ू ँ वप्रये? क्या मुझे प चानती न ीिं ो?'
अन्नन-मशखा धचदता के मुख तक प ु ँच गई। अन्नन में कमल िखल गया। धचदता
स्पष्ट स्वर में बोली - 'खूब प चानती ू ँ। तुम मेरे रत्नमसिं न ीिं। मेरा रत्नमसिं
सच्चा शूर था। व आत्मरक्षा के मलए, इस तुच्छ दे को बचाने के मलए अपने
क्षबत्रय-िमम का पररत्यान न कर सकता था। मैं न्जस पुरुष के चरणों की दासी
बनी थी, व दे वलोक में ववराजमान ै । रत्नमसिं को बदनाम मत करो। व वीर
राजपत
ू था, रणक्षेत्र से भागने वाला कायर न ीिं।'
***
ह स
ं ा परमोधमम
दनु नया में कुछ ऐसे लोग ोते ै , जो ककसी के नौकर न ोते ु ए सबके नौकर
ोते ै , न्जद ें कुछ अपना खास काम ोने पर भी मसर उठाने की फुरसत न ीिं
ोती। जाममद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बबल्कुल बेकिक, न ककसी से दोस्ती,
न ककसी से दश्ु मनी। जो जरा ँसकर बोला, उसका बेदाग का गल
ु ाम ो गया। बे-
काम का काम करने में उसे मजा आता था। गाँव में कोई बीमार पडे , व रोगी
की सेवा-शुश्रूषा के मलए ान्जर ै । कह ए तो आिी रात को कीम के घर चला
जाए, ककसी जडी-बूटी की तलाश में मिंन्जलों का खाक छान आएँ। मुमककन न ता
कक ककसी गरीब पर अत्याचार ोते दे खे और चुप र जाए। कफर चा े कोई उसे
मार ी डाले, व ह मायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकडो ी मौके उसके
सामने आ चक
ु े थ। कािंस्टे बल से आए हदन उसकी छे डछाड ी र ती थी। इसमलए
लोग उस बौडम समझते थे। और बात भी य ी थी। जो आदमी ककसी को बोझ
भारी दे खकर, उससे छननकर, अपने मसर पर ले ले, ककसी का छप्पर उठाने या
आग बुझाने के मलए कोसों दौडा चला जाए, उसे समझदार कौन क े गा! सारािंश
य कक उसकी जात से दस
ू रों को चा े ककतना ी फायदा प ु ँचे, अपना कोई
उपकार न था। य ाँ तक कक व रोहटयों के मलए भी दस
ू रों का मु ताज था।
दीवाना तो व था, और उसका गम दस
ू रे खाते थे।
जरा दे र में भक्तों का जमाव ोने लगा। उद ोंने जाममद को चबूतरा साफ करते
दे खा तो आपस में बातें करने लगे -
' ै तो मस
ु लमान।'
'मे तर ोगा।'
'न ीिं, मे तर अपने दामन से सफाई न ीिं करता। कोई पागल मालूम ोता ै ।'
'परदे शी मस
ु ाकफर ू ँ, सा ब! मझ
ु े गोबर लेकर क्या करना ै ? ठाकुरजी का मन्ददर
दे खा तो आकर बैठ गया। कूडा पडा ु आ था। मैंने सोचा - िमामत्मा लोग आते
ोंगे, सफाई करने लगा।'
'तम
ु तो मस
ु लमान ो न?'
जाममद फाँस मलया गया। उसका आदर-सत्कार ोने लगा। एक वादार मकान
रखने को ममला। दोनों वक्त उत्तम पदाथम खाने को ममलने लगे। दो-चार आदमी
रदम उसे घेरे र ते। जाममद को भजन खब
ू याद थे। गला भी अच्छा था। व
रोज मन्ददर में जाकर कीतमन करता। भन्क्त के साथ स्वर-लामलत्य भी ो तो
कफर क्या पूछना! लोगों पर उसके कीतमन का बडा असर पडता। ककतने ी लोग
सिंगीत को लोभ से ी मन्ददर आने लगे। सबको ववश्वास ो गया कक भगवान ने
य मशकार चुनकर भेजा ै।
एक हदन मन्ददर में ब ु त-से आदमी जमा ु ए। आँगन में फशम बबछाया गया।
जाममद का मसर मुडा हदया गया। नए कपडे प नाए। वन ु आ। जाममद के
ाथों ममठाई बाँटी गई। व अपने आश्रयदाताओिं की उदारता और िममननष्ठा का
और भी कायल ो गया। ये लोग ककतने सज्जन ैं , मुझ जैसे फटे ाल परदे शी क
इतनी खानतर। इसी को सच्चा िमम क ते ै । जाममद को जीवन में कभी इतना
सम्मान न ममला था। य ाँ व ी सैलानी यव
ु क न्जसे लोग बौडम क ते थे, भक्तों
का मसरमौर बना ु आ था। सैकडो ी आदमी केवल उसके दशमन को आते थे।
उसकी प्रकािंड ववद्वता की ककतनी ी कथाएँ प्रचमलत ो गई। पत्रों में य
समाचार ननकला कक एक बडे आमलम मौलवी सा ब की शुवद्ध ु ई ै । सीिा-सादा
जाममद इस सम्मान का र स्य कुछ न समझता था। ऐसे िममपरायण सहृदय
प्रािणयों के मलए व क्या कुछ न करता? व ननत्य पज
ू ा करता, भजन गाता था।
उसके मलए य कोई नई बात न थी। अपने गाँव में भी व बराबर सत्यनारायण
की कथा में बैठा करता था। भजन-कीतमन ककया करता था। अदतर य ी था कक
दे ात में उसकी कदर न थी। य ाँ सब उसके भक्त थे।
यव
ु क - 'इसकी मग
ु ी मारे घर में घस
ु गई थी, सारा घर गददा कर आई।'
जाममद - 'तो क्या इसने मुगी को मसखा हदया था कक तुम् ारा घर गददा कर
आए?'
जाममद - 'खोदकर गाड दोगे भाई सा ब तो तुम भी यों न खडे र ोगे। समझ
गए? अगर कफर ाथ उठाया तो अच्छा न ोगा।'
'ित तेरी जात की। कभी म्लेच्छों से भलाई की आशा न रखनी चाह ए। कौआ
कौओिं ी के साथ ममलेगा। कमीना जब करे गा, कमीनापन। इसे कोई पूछता न
था, मन्ददर में झाडू लगा र ा था। दे पर कपडे का तार भी न था, मने इसका
सम्मान ककया। पशु से आदमी बना हदया, कफर भी अपना न ु आ।'
जाममद रात-भर सडक के ककनारे पडा ददम से करा ता र ा, उसे मार खाने का
दःु ख न था। ऐसी यातनाएँ व ककतनी बार भोग चक
ु ा था। उसे दःु ख और
आश्चयम केवल इस बात का था कक लोगों ने क्यों एक हदन मेरा इतना सम्मान
ककया, और क्यों आज अकारण ी मेरी इतनी दग
ु नम त की? इनकी व सज्जनता
आज क ाँ गई? मैं तो व ीिं ू ँ। मैंने कोई कसूर भी न ीिं ककया। मैंने तो व ी
ककया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाह ए। कफर इन लोगों ने मुझ पर क्यों
इतना अत्याचार ककया? दे वता क्यों राक्षस बन गए?
जाममद अभी थोडी ी दरू गया था कक व ी बुड्ढा उसे ममला। उसे दे खते ी व
बोला - 'कसम खुदा की, तुमने कल मेरा जान बचा दी। सुना, जामलमों ने तुम् ें
बुरी तर पीटा। मैं तो मौका पाते ी ननकल भागा। अब तक क ाँ थे? य ाँ लोग
रात ी से तुमसे ममलने के मलए बेकरार ो र े ै । काजी सा ब रात ी से
तम्
ु ारी तलाश में ननकले थे, मगर तम
ु न ममले। कल म दोनों अकेले पड गए
थे। दश्ु मनों ने में पीट मलया। नमाज का वक्त था, ज ाँ सब लोग मन्स्जद में
थे, अगर जरा भी खबर ो जाती तो एक जार लठै त प ु ँच जाते। तब आटे -दाल
का भाव मालूम ोता। कसम खुदा की, आज से मैंने तीन कोडी मुधगमयाँ पाली
ै , दे खू,ँ पिंडडतजी म ाराज अब क्या करते ै । कसम खुदा की, काजी सा ब ने क ा
ै , अगर व लौंडा जरा भी आँखें हदखाए तो तम
ु मझ
ु से आकर क ना। या तो
बच्चू घर छोडकर भागें गे, या ड्डी-पसली तोडकर रख दी जाएगी।'
प र रात बीत चक
ु ी थी। मस
ु ाकफरों की आमदरफ्त कम ो चली थी। जाममद ने
काजी सा ब सो िमम-ग्रदथ पढ़ना शुर ककया था। उद ोंने उसके मलए अपने बगल
का कमरा खाली कर हदया था। व काजी सा ब से सबक लेकर सोने जा र ा
था कक स सा उसे दरवाजे पर एक ताँगे के रुकने की आवाज सुनाई दी। काजी
सा ब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जाममद ने सोचा, कोई मुरीद आया ोगा।
नीचे आया तो दे खा - एक स्त्री ताँगे से उतरकर बरामदे में खडी ै और ताँगे
वाला उसका असबाब उतार र ा ै।
औरत ऊपर चली। पीछे -पीछे तािंगेवाला असबाब मलए ु ए चला। जाममद गुम-सुम
नीचे खडा र ा। य र स्य उसकी समझ में न आया।
औरत - 'तुम तो मुझे कोई मौलवी मालूम ोते ो? क्या तुम् ें खुदा ने य ी
मसखाया ै कक पराई ब ू -बेहटयों को जबरदस्ती घर में बदद करके उनकी आबर
बबगाडो?'
औरत - 'इसी तर अगर तुम् ारी ब ू -बेटी पकडकर बेआबर करे तो?'
काजी - ' ो र ा ै । जैसा तुम मारे साथ करोगे वैसा ी म तुम् ारे साथ
करें गे। कफर म तो बेआबर न ीिं करते, मसफम अपने मज ब में शाममल करते ै ।
इस्लाम कबूल करने से आबर बढ़ती ै , घटती न ीिं। ह दद ू कौम ने तो में ममटा
दे ने का बीडा उठाया ै। व इस मुल्क से मारा ननशान ममटा दे ना चा ती ै।
िोखे से, लालच से, जब्र से मस
ु लमानों को बे-दीन बनाया जा र ा ै तो
मस
ु लमान बैठे मँु ताकेंगे?'
औरत - 'ह दद ू कभी ऐसा अत्याचार न ीिं कर सकता। सम्भब ै , तुम लोगों की
शरारतों से तिंग आकर नीचे दजे के लोग इस तर बदला लेने लगे ो, मगर अब
भी कोई सच्चा ह दद ू इसे पसदद न ीिं करता।'
औरत - 'मैं तुम् ें और तुम् ारे िमम को घिृ णत समझती ू ँ। तुम कुत्ते ो। इसके
मसवा तुम् ारे मलए कोई दस
ू रा काम न ीिं। खैररयत इसी में ै कक मुझे जाने दो,
न ीिं तो मैं अभी शोर मचा दँ ग
ू ी, और तुम् ारा सारा मौलवीपन ननकल जाएगा।'
काजी - 'अगर तुमने जबान खोली, तो तुम् ें जान से ाथ िोना पडेगा। बस,
इतना समझ लो।'
औरत - 'आबर के सामने जान की कोई कीकत न ीिं। तुम मेरी जान ले सकते
ो, मगर आबर न ीिं ले सकते।'
जाममद अब तक चप
ु चाप खडा था। ज्यों ी स्त्री दरवाजे की तरफ चली और
काजी ने उसका ाथ पकडकर खीिंचा, जाममद ने तरु दत दरवाजा खोल हदया और
काजी सा ब से बोला - 'इद ें छोड दीन्जए।'
औरत - 'इससे बडी और क्या मे रबानी ोगी! मैं आपकी इस नेकी को कभी न
भूलँ ग
ू ी। आपने आज मेरी आबर बचा ली, न ीिं तो मैं क ीिं की न र ती। मुझे
अब मालूम ु आ कक अच्छे और बुरे सब जग ोते ै । मेरे शौ र का नाम
पिंडडत राजकुमार ै ।'
अह यागिंज में पिंडडत राजकुमार का पता लगाने में कहठनाई न पडी। जाममद ने
ज्यों ी आवाज दी, व घबराए ु ए बा र ननकल आए औऱ स्त्री को दे खकर बोले
- 'तम
ु क ाँ र गई थीिं, इिंहदरा? मैंने तो तम्
ु ें स्टे शन पर क ीिं न दे खा। मझ
ु े
प ु ँचने में जरा दे र ो गई थी। तम्
ु ें इतनी दे र क ाँ लगी?'
इिंहदरा ने घर के अददर कदम रखते ी क ा - 'बडी लम्बी कथा ै , जरा दम लेने
दो तो बता दँ ग
ू ी। बस, इतना ी समझ लो कक अगर इस मस
ु लमान ने मेरी
मदद न की ोती तो आबर चली गई थी।'
***
बह ष्कार
ज्ञानचदद्र -'कुछ भी न ीिं, ऐसी बातों में कोई बात ोती ै । मशकायत ै कक
कामलिंदी जबान की तेज ै । तीन साल तक जबान तेज न थी, आज जबान तेज
ो गई। कुछ न ीिं, कोई दस
ू री धचडडया नजर आई ोगी। उसके मलए वपिंजरे को
खाली करना आवश्यक था। बस य मशकायत ननकल आई। मेरा बस चले तो
ऐसे दष्ु टों को गोली मार दँ ।ू मझ
ु े कई बार कामलिंदी से बातचीत करने का अवसर
ममला ै । मैंने ऐसी ँ समख
ु दस
ू री औरत न ीिं दे खी।'
ज्ञानचदद्र - 'समझ में ी न ीिं आता कक न्जसके साथ इतने हदन ँसे-बोले,
न्जसके प्रेम की स्मनृ तयाँ हृदय के एक-कए अणु में समाई ु ई ै , उसे दर-दर
ठोकरें खाने को कैसे छोड हदया। कम-से-कम इतना तो करना चाह ए था कक उसे
ककसी सरु क्षक्षत स्थान पर प ु ँचा दे ते और उसके ननवाम का प्रबदि कर दे त।े
ननदम यी ने इस तर घर से ननकाला, जैसे कोई कुत्ते को ननकाले। बेचारी गाँव के
बा र बैठन रो र ी ै । कौन क सकता ै , क ाँ जाएगी। शायद मायके भी कोई
न ीिं र ा। सोमदत्त के डर के मारे गाँव को कोई आदमी उसके पास भी न ीिं
जाता। ऐसे बनगड का क्या हठकाना! जो आदमी स्त्री को न ीिं ु आ, व दस
ू रे का
क्या ोगा! उसकी दशा दे खकर मेरी आँखों में आँसू भर आए। जी में तो आया,
क ू ँ - ब न, तम
ु मेरे घर चलो, मगर तब तो सोमदत्त मेरे प्राणों का ग्रा क ो
जाता।'
ज्ञानचदद्र - 'जाऊँ?'
गोवविंदी - ' ाँ, अवश्य जाओ, मगर सोमदत्त कुछ खरी-खोटी भी क े तो सुन
लेने।'
तीन बषम बीत गए। गोवविंदी एक बच्चे की माँ ो गई। कामलिंदी अभी तक इसी
घर में ै । उसके पनत ने दस
ू रा वववा कर मलया ै । गोवविंदी और कामलिंदी में
ब नों का-सा प्रेम ै । गोवविंदी सदै व उसकी हदलजोई करती र ती ै। व इसकी
कल्पना भी न ीिं करती कक व कोई गैर ै और मेरी रोहटयों पर पडी ु ई ै।
लेककन सोमदत्त को कामलिंदी का य ाँ र ना एक आँख न ीिं भाता। व कोई
कानूनी कायमवाई करने की तो ह म्मत न ीिं रखता। और इस पररन्स्थनत में कर
ी क्या सकता ै , लेककन ज्ञानचदद्र का मसर नीचा करने के मलए अवसर खोजता
र ता ै।
सद्या का समय था। ग्रीष्म की उष्ण वायु अभी तक बबल्कुल शादत न ीिं ु ई
थी। गोवविंदी गिंगा-जल भरने गई थी और जल-तट की शीतल ननजमनता का
आनदद उठा र ी थी। स सा उसे सोमदत्त आता ु आ हदखाई हदया। गोवविंदी ने
आँचल से मँु नछपा मलया और कलसा लेकर चलने ी को थी कक सोमदत्त ने
सामने आकर क ा - 'जरा ठ रो गोवविंदी, तुमसे एक बात क नी ै । तुमसे य
पूछना चा ता ू ँ कक तुमसे क ू ँ या ज्ञानू से ?'
सोमदत्त - 'तुम लोगों ने गाँव में मुझे क ीिं मँु हदखाने के योनय न ीिं रखा।
नतस पर क ती ो, मैंने तुम् ारे साथ कोई बुराई न ीिं की। तीन साल से कामलिंदी
को आश्रय दे कर मेरी आत्मा को जो कष्ट प ु ँचाया ै, व मैं ी जानता ू ँ। तीन
साल से मैं इस कफक्र में था कक कैसे इस अपमान का दिं ड दँ ।ू अब व अवसर
पाकर उसे ककसी तर से न ीिं छोड सकता।'
गोवविंदी - 'अगर आपकी य ी इच्छा ै कक मैं य ाँ न र ू ँ तो मैं चली जाऊँगी,
आज ी चली जाऊँगी, लेककन उनसे आप कुछ न कह ए। आपके पैरों पडती ू ँ।'
सोमदत्त - 'न ीिं गोवविंदी, मैं इतना ननदम यी न ीिं ू ँ। मैं केवल इतना चा ता ू ँ कक
तुम कामलिंदी को अपने घर से ननकाल दो और मैं कुछ न ीिं चा ता। तीन हदन
का समय दे ता ू ँ, खूब सोच-ववचार कर लो, अगर कामलिंदी तीसरे हदन तुम् ारे घर
से न ननकली तो तुम जानोगी।'
सोमदत्त व ाँ से चला गया। गोवविंदी कलसा मलए मूनतम का भाँनत खडी र गई।
उसके सम्मुख कहठन समस्या आ खडी ु ई थी, व थी कामलिंदी। घर में एक ी
र सकती थी। दोनों के मलए उस घर में स्थान न था। क्या कामलिंदी के मलए
व अपना घर, अपना स्वगम त्याग दें गी? कामलिंदी अकेली ै , पनत ने उसे प ले ी
छोड हदया ै, व ज ाँ चा े जा सकती ै , पर व अपने प्राणािार और प्यारे
बच्चे को छोडकर क ाँ जाएगी?
प ले कामलिंदी बालक को सारे हदन िखलाया करती थी, माँ के पास केवल दि
ू
पीने जाता था। मगर अब गोवविंदी रदम उसे अपने ी पास रखती ै । दोनों के
बीच में कोई दीवार खडी ो गई ै । कामलिंदी बार-बार सोचती, आजकल मुझसे
य क्यों रठन ु ई ै ? पर उसे कोई कारण न ीिं हदखाई दे ता। उसे भय ो र ा ै
कक कदाधचत य मझ
ु े य ाँ न ीिं रखना चा ती। इसी धचदता में व गोते खाया
करती ै , ककदतु गोवविंदी भी उससे कम धचन्दतत न ीिं ै । कामलिंदी से व स्ने
तोडना न ीिं चा ती ै , पर उसकी म्लान मूनतम दे खकर उसके हृदय के टुकडे ो
जाते ै । उससे कुछ क न ीिं सकती। अव े लना के शब्द मँु से न ीिं ननकलते।
कदाधचत उसे घर से जाते दे खकर व रो पडेगी और जबरदस्ती रोक लें गी। इसी
ैंस-बैस में तीन हदन गज
ु र गए। कामलिंदी घर से न ननकली। तीसरे हदन
सद्या-समय सोमदत्त नदी के तट पर बडी दे र तक खडा र ा। अदत में चारों
ओर अिंिेरा छा गया। कफर भी पीछे कफर-कफरकर जल-तट की ओर दे खता जाता
था।
गोवविंदी इसका आशय समझ गई। एक क्षण के बाद कफर बोली - 'चलो, थोडा-सा
ी खा लो।'
गोवविंदी पलिंग पर पडी ु ई धचदता, नैराश्य और ववषाद के अपार सागर में गोते
खा र ी थी। यहद कामलिंदी का उसने बह स्कार कर हदया ोता तो आज उसे इस
ववपन्त्त का सामना न करना पडता, ककदतु य अमानुवषक व्यव ार उसके मलए
असा्य था और इस दशा में भी उसे इसका दःु ख न था। ज्ञानचदद्र की ओर से
यों नतरस्कृत ोने का भी उसे दःु ख न था। जो ज्ञानचदद्र ननत्य िमम और
सज्जनता की डीिंगें मारा करता था, व ी आज इसका इतनी ननदम यता से बह स्कार
करता ु आ जान पडता था, उस पर उसे लेशमात्र भी दःु ख, क्रोि या द्वेष न था।
उसके मन को केवल एक ी भावना आददोमलत कर र ी थी। व अब इस घर
में कैसे र सकती ै । अब तक व इस घर की स्वाममनी थी। इसमलए न कक
व अपने पनत के प्रेम की स्वाममनी थी, पर अब व प्रेम से विंधचत ो गई थी।
अब इस घर पर उसका क्या अधिकार था? व अब अपने पनत को मँु कैसे
हदखा सकती थी! व जानती थी, ज्ञानचदद्र अपने मँु से उसके ववरुद्ध एक शब्द
भी न ननकालें गे, पर उसके ववषय में ऐसी बातें जानकर क्या व उससे प्रेम कर
सकते थे? कदावप न ीिं, इस वक्त न जाने क्या समझकर चुप र े । सवेरे तूफान
उठे गा। ककतने ी ववचारशील ों, पर अपने समाज से ननकल जाना कौन पसदद
करे गा? न्स्त्रयों की सिंसार में कमी न ीिं। मेरी जग जारों ममल जाएँगी। मेरी
ककसी को क्या परवा ? अब य ाँ र ना बे याई ै । आिखर कोई लाठन मारकर
थोडे ी ननकाल दे गा। यादार के मलए आँख का इशारा ब ु त ै । मँु से न क े ,
मन की बात और भाव नछपे न ीिं र ते, लेककन मीठन ननद्रा की गोद में सोए ु ए
मशशु को दे खकर ममता ने उसके अशक्त हृदय को और भी कातर कर हदया।
इस अपने प्राणों के आिार को व कैसे छोडेगी?
मशशु को उसने गोद में उठा मलया और खडी रोती र ी। तीन साल ककतने
आनदद से गुजरे ! उसने समझा था कक इसी भाँनत सारा जीवन कट जाएगा,
लेककन उसके भानय में इससे अधिक सुख भोगना मलखा ी न था। करुण
वेदना में डूबे ु ए ये शब्द उसके मुख से ननकल आए - भगवान! अगर तुम् ें इस
भाँनत मेरी दग
ु नम त करनी थी तो तीन साल प ले क्यों न की? उस वक्त यहद
तम
ु ने मेरे जीवन का अदत कर हदया ोता, तो मैं तम्
ु ें िदयवाद दे ती। तीन
साल तक सौभानय के सुरम्य उद्यान में सौरभ, समीर और मािुयम का आनदद
उठाने के बाद इस उद्यान ी को उजाड हदया। ा! न्जस पौिे को उसने अपने
प्रेम-जाल से सीिंचा था, वे अब ननममम दभ
ु ामनय के पैरौं-तले ककतनी ननष्ठुरता से
कुचले जा र े थे। ज्ञानचदद्र के शील और स्ने का स्मरण आया तो व रो
पडी। मद
ृ ु स्मनृ तयाँ आ-आकर हृदय को मसोसने लगी।
स सा ज्ञानचदद्र के आने से व सम्भल बैठन। कठोर-से-कठोर बातें सुनने के
मलए उसने अपने हृदय को कडा कर मलया, ककदतु ज्ञानचदद्र के मुख पर रोष का
धचह्न भी न था। उद ोंने आश्चयम से पूछा - 'क्या तुम अभी तक सोई न ीिं?
जानती ो, कै बजे ै ? बार से ऊपर ै ।'
इन शब्दों में ककतना सरल स्ने था। क्या नतरस्कार के भाव इतने लमलत शब्दों
में प्रकट ो सकते ै ? प्रविंचकता क्या इतनी ननममल ो सकती ै ? शायद सोमदत्त
ने अभी वज्र का प्र ार न ीिं ककया। अवकाश न ममला ोगा, लेककन ऐसा ै तो
आज घर इतनी दे र से क्यों आए? भोजन क्यों न ककया, मुझसे बोले तक न ीिं,
आँखें लाल ो र ी थीिं। में री ओर आँख उठाकर दे खा तक न ीिं। क्या सम्भव ै
कक इनका क्रोि शादत ो गया ो? य सम्भावना की चरम सीमा से भी बा र
ै । तो क्या सोमदत्त को मुझपर दया आ गई? पत्थर पर दब
ू जमी? गोवविंदी कुछ
ननश्चय न कर सकी और न्जस भाँनत ग ृ -सुखवव ीन पधथक वक्ष
ृ की छाँ में भी
आनदद से पाँव फैलाकर सोता ै , उसकी अव्यवस्था ी उसे ननन्श्चिंत बना दे ती
ै , उसी भाँनत गोवविंदी मानमसक व्यग्रता में भी स्वस्थ ो गई। मुस्कराकर स्ने -
मद
ृ ल
ु स्वर में बोली - 'तम्
ु ारी ी रा तो दे ख र ी थी।'
न्जन भावों को गोवविंदी कई हदनों से अदतस्थल में दबाती चली जाती थी, वे िैयम
का बाँि टूटते ी बडे वेग से बा र ननकल पडे। पनत के सम्मख
ु अपराधियों की
भाँनत ाथ बाँिकर उसने क ाँ - 'स्वामी, मेरे ी कारण आपको य सारे पापड
बेलने पड र े ै । मैं ी आपके कुल की कलिंककनी ू ँ। क्यों न मुझे ककसी जग
भेज दीन्जए, ज ाँ कोई मेरी सूरत तक न दे खे। मैं आपसे सत्य क ती ू ँ।'
गोवविंदी को जान पडा, उसके सम्मुख कोई दे व-मूनतम खडी ै । स्वामी में इतनी
श्रद्धा, इतनी भन्क्त, उसे आज तक कभी न ु ई थी। गवम से उसका मस्तक ऊँचा
ो गया और मुख पर स्वगीय आभा झलक पडी। उसने कफर क ने का सा स न
ककया।
सद्या समय था। गोवविंदी अँिेरे घर में बालक के मसर ाने धचिंता में मनन बैठन
थी। आकाश पर बादल छाए ु ए थे और वा के झोंके उसके अिमननन शरीर में
शर के समान लगते थे। आज हदन-भर बच्चे ने कुछ न खाया था। घर में कुछ
था ी न ीिं। क्षुिान्नन से बालक छटपटा र ा था, पर या तो रोना न चा ता था,
या उसमें रोने की शन्क्त ी न थी।
इतने में ज्ञानचदद्र तेली के य ाँ से तेल लेकर आ प ु ँच।े दीपक जला। दीपक के
क्षीण प्रकाश में माता ने बालक का मुख दे खा तो स म उठन। बालक का मुख
पीला पड गया था और पुतमलयाँ ऊपर चढ़ गई थीिं। उसने घबराकर बालक को
गोद में उठाया। दे ठिं डी थी। धचल्लाकर बोली - ' ा भगवान! मेरे बच्चे को
क्या ो गया?' ज्ञानचदद्र ने बालक के मुख की ओर दे खकर एक ठिं डी साँस ली
और बोला -'ईश्वर, क्या सारी दया-दृन्ष्ट मारे ी ऊपर करोगे?'
गोवविंदी - ' ाय, मेरा लाल मारे भख
ू के मशधथल ो गया ै । कोई ऐसा न ीिं, जो
इसे दो घट
ू ँ दि
ू वपला दे ।'
कामलिंकी दीपक मलए दालान में खडी गाए द ु र ी थी। प ले स्वाममनी बनने के
मलए व सौत से लडा करती थी। सेववका का पद उसे स्वीकार न था। अब
सेववका का पद स्वीकार करके स्वाममनी बनी ई थी। गोवविंदी को दे खकर तरु दत
बा र ननकल आई और ववस्मय से बोली - 'क्या ै ब न, पानी-बँद
ू ी में कैसे चली
आई?'
कामलिंदी - 'दि
ू छोटे -बडे सभी खाते ै । ले जाओ, य मत समझो कक मैं तुम् ारे
घर से चली आई तो बबरानी ो गई। भगवान की दया से अब य ाँ ककसी बात
की धचिंता न ीिं ै । मुझसे क ने भर की दे र ै। ाँ, मैं आऊँगी न ीिं। इससे लाचार
गोवविंदी दि
ू की ािंडी मलए घर चली, गवम-पूणम आनदद के मारे उसके पैर उडे जाते
थे। ड्योढ़ी में पैर रखते ी बोली - 'जरा हदया हदखा दे ना, य ाँ कुछ हदखाई न ीिं
दे ता। ऐसा न ो कक दि
ू धगर पडे।'
ज्ञानचदद्र ने दीपक हदखा हदया। गोवविंदी ने बालक को अपनी गोद में मलटाकर
कटोरी से दि
ू वपलाना चा ा। पर एक घूट
ँ से अधिक दि
ू किंठ में न गया।
बालक ने एक ह चकी ली और अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी।
ज्ञानचदद्र - 'तुमने पूवम जदम में कोई बडा पाप ककया था गोवविंदी, जो मुझ जैसे
ननखट्टू के पाले पडी। मेरे जीते ी तम
ु वविवा ो, धिक्कार ै ऐसे जीवन को।'
गोवविंदी - 'तुम मेरा ी खून वपयो, अगर कफर इस तर की कोई बात मँु से
ननकालो। तुम् ारी दासी बनकर मेरा जीवन सफल ो गया। मैं इसे पूवज
म दम का
तपस्या का पन
ु ीत फल समझती ू ँ। दःु ख ककस पर न ीिं आता! तम्
ु ें भगवान
कुशल से रखें, य ी मेरी अमभलाषा ै ।'
ज्ञानचदद्र - 'भगवान तुम् ारी अमभलाषा पूणम करें , खूब चक्की पीसो।'
ज्ञानचदद्र - 'न ीिं गोवविंदी, तुम उस दष्ु ट के पास मत जाना। मैं न ीिं चा ता कक
तम्
ु ारे ऊपर उसकी छाया भी पडे। उसे खब
ू अत्याचार करने दो। मैं भी दे ख र ा
गोवविंदी - 'तुम असाममयों के पास क्यों न ीिं जाते? मारे घर न आए, मारा छुआ
पानी न वपएँ, मारे रुपए क्यों मार लें गे?'
कुछ कपडे सीने थे। जाडों के हदन थे। गोवविंदी िूप में बैठकर सीने लगी। थोडी
दे र में शाम ो गई अभी तक ज्ञानचदद्र न ीिं आए। तेल-बत्ती का समय आया,
कफर भोजन की तैयारी करने लगी। कामलिंदी थोडा-सा दि
ू दे गई थी। गोवविंदी को
तो भूख न थी, अब व एक ी वेला खाती थी, ाँ, ज्ञानचदद्र के मलए रोहटयाँ
सेंकनी थी। सोचा - दि
ू ै ी, दि
ू -रोटी खा लें गे।
सोमदत्त - 'जत
ू ा भी प ने थे।?'
गोवविंदी की छाती िड-िड करने लगी, कफर बोली - ' ाँ, जूता तो प ने थे। क्यों
पूछते ो?'
गोवविंदी घबराकर बोली - 'क्या ु आ दादाजी। ाय! बताते क्यों न ीिं? ाय!'
एक ी क्षण में गाँव ककतनी ी न्स्त्रयाँ जमा ो गई। सब क ती थीिं - 'दे वी थी।
सती थी।'
***
चोरी
ाय बचपन! तेरी याद न ीिं भूलती। व कच्चा, टूटा घर, व पुवाल का बबछौना,
व निंगे बदन, निंगे पाँव खेतों में घूमना, आम के पेडो पर चढ़ना - सारी बातें
आँखों के सामने कफर र ी ै । चमरौिे जूते प नकर उस वक्त ककतनी खुशी
ोती थी, अब 'फ्लेक्स' के बट
ू ों से भी न ीिं ोती। गरम पनए
ु (गड
ु के क ाड का
िोवन) रस में जो मजा था, व अब गल
ु ाब के शबमत में भी न ीिं, चबेने और
कच्चे बेरों में जो रस था, व अब अिंगूर और खीर मो न में भी न ीिं ममलता।
एक हदन सवेरे म दोनो भाई तालाब में मँु िोने गए। लिर ने कोई सफेद-सी
चीज मुिी में लेकर हदखाई। मैंने लपककर मुिी खोली तो उसमें एक रुपया था।
ववन्स्मत ोकर पछ
ू ा - 'य रुपया तम्
ु ें क ाँ ममला?'
लिर - 'अम्माँ ने ताक पर रखा था, चारपाई खडी करके ननकाल लाया।'
जवाब मारे पास तैयार था। ज्यादा न ीिं तो दो-तीन ककताबें पढ़ ी चुके थे।
ववद्या का कुछ-कुछ असर ो चला था। मैंने झट से क ा - 'मौलवी सा ब की
फीस दे नी ै । घर में पैसे न थे तो चचाजी ने रुपया दे हदया।'
मेरी मसट्टी-वपट्टी भल
ू गई, बदन का ल ू सख
ू गया। व ी ु आ, न्जसका मझ
ु े शक
था। पैर मन-मन-भर के ो गए। घर की ओर एक-एक कदम चलना मन्ु श्कल ो
गया। दे वी-दे वताओिं के न्जतने नाम याद थे सभी का मानता मानी - ककसी को
लड्डू, ककसी को पेड,े ककसी को बतासे। गाँव के पास प ु ँचा तो गाँव के डी का
सुममरन ककया, क्योंकक अपने लके में डी ी की इच्छा सवम-प्रिान ोती ै।
मेरी जबान बदद ो गई। सामने निंगी तलवार नाच र ी थी। शब्द भी ननकालते
ु ए डरता था।
लेककन अददर का दृश्य इससे क ीिं भयिंकर था। मे रा तो खून सदम ो गया।
लिर के दानो ाथ एक खम्बे से बँिे थे, सारी दे िूल-िूसररत ो र ी थी और
व अभी तक मससक र े थे। शायद व आँगन-भर में लोटे थे, ऐसा मालूम ु आ
कक सारा आँगन उसके आँसओ
ु िं से भर गया ै । चची लिर को डाँट र ी थीिं
और अम्माँ बैठन मसाला पीस र ी थीिं। सबसे प ले मझ
ु पर चची की नजर पडी।
बोली - 'लो, व भी आ गया। क्यों रे , रुपया तूने चुराया था कक इसने?'
अम्माँ बोली - 'अगर उसी ने चुराया था, तो तूने घर आकर ककसी से क ा क्यों
न ीिं?'
अगर सिंसार में ऐसा प्राणी ोता, न्जसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस
सकती, तो ऐसे ब ु त कम स्त्री या पुरुष ोंगे, जो उनके सामने सीिी आँखें करके
ताक सकते। मह ला आश्रम की जुगनूबाई के ववषय में लोगों की िारणा कुछ-
ऐसी ी ो गयी थी। व बेपढ़ी-मलखी, गरीब, बढ़
ू ी औरत थी; दे खने में ब ु त सरल,
बडी ँ समख
ु ; लेककन जैसे ककसी चतरु प्रफ
ु रीडर की ननगा गलनतयों ी पर जा
पडती ैं, उसी तर उसकी आँखें भी बुराईयों ी पर प ु ँच जाती थीिं। श र में
ऐसी कोई मह ला न थी, न्जसके ववषय में दो-चार लुकी-नछपी बातें उसे न मालूम
ों। उसका हठगना, स्थूल शरीर, मसर के िखचडी बाल, गोल मँु , फूले-फूले गाल,
छोटी-छोटी आँखें. उसके स्वभाव की प्रखरता और तेजी पर परदा-सा डाले र ती
थी; लेककन जब व ककसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृनत कठोर ो
जाती, आँखें फैल जाती और किंठ-स्वर ककमश ो जाता। उसकी चाल में बबन्ल्लयों
का-सा सिंयम था, दबे पाँव िीरे -िीरे चलती; पर मशकार की आ ट पाते ी, जस्त
मारने को तैयार ो जाती थी। उसका काम था, मह ला-आश्रम में मह लाओिं की
सेवा-ट ल करना; पर मह लाएँ उसकी सूरत से काँपती थी। उसका ऐसा आतिंक
था कक ज्यों ी व कमरे में कदम रखती, ओिंठों पर खेलती ु ई ँसी जैसे रो
पडती थी, च कनेवाली आवाजें बझ
ु जाती थी, मानो उनके मख
ु पर लोगों को
अपने वपछले र स्य अिंककत नजर आते ों। वपछले र स्य! कौन ैं , जो अपने
अतीत को ककसी भयिंकर जदतु के समान कठघरों में बदद करके न रखना
चा ता ो? िननयों को चोरों के भय से ननद्रा न ीिं आती। माननयों को उसी भाँनत
मान का रक्षा करनी पडती ैं। व जदतु, जो कीट के समान अल्पाकार र ा
ोगा, हदनों के साथ दीिम और सबल ोता जाता ैं , य ाँ तक की म उसकी याद
ी से काँप उठते ैं। और, अपने ी कारनामों की बात ोती, तो अधिकाँश जग
ु नू
को दत्ु कारतीिं। पर य ाँ तो मैके, ससरु ाल, ननन ाल, दहदयाल, फुकफयाल और
मौमसयाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और न्जस ककले में इतने द्वार ो,
उसकी रक्षा कौन कर सकता ैं ? व ाँ तो मला करनेवाले के सामने मस्तक
झुकाने में ी कुशल ैं। जुगनू के हदल में जारों मुदे गडे ैं और व जररत
पडने पर उद ें उखाड हदया करती थी। ज ाँ ककसी मह ला ने दन
ू की ली या
शान हदखायी, व ाँ जग
ु नू की त्योररयाँ बदलीिं। उसकी एक कडी ननगा अच्छे -
अच्छों को द ला दे ती थीिं; मगर य बात न थी कक न्स्त्रयाँ उससे घण
ृ ा करती
ों। न ीिं, सभी बडे चाव से उससे ममलती और उसका आदर-सत्कार करतीिं। अपने
पडोमसयों की ननिंदा सनातन से मनुष्य के मलए मनोरिं जन को ववषय र ी ैं ओर
जुगनू के पास इसका काफी सामान था।
चलते समय ममस खुरशेद ने ममसेज टिं डन को, जो आश्रम की प्रिान थीिं, एकादत
में बुलाकर पूछा- य बुहढ़या कौन ैं?
ममसेज टिं डन- ननकाल दे ने ी से क्या ोगा! उसकी जुबान तो बदद न ोगी। तब
तो व और ननडर ोकर कीचड फेंकेगी।
जुगनू ने द्वेष भरे स्वर में क ा - आप दे खें। मैं ऐसी सैकडों छोकररयाँ दे ख
चुकी ू ँ। आँखों का पानी जैसे मर गया ो।
जग
ु नू ने मानो तलवार खीचकर क ा- मझ
ु े चेताने का काम न ीिं, उद ें चेता
दीन्जएगा। य ाँ का आना न बदद कर दें , तो अपने बाप की न ीिं।
ममसेज टिं डन ने रद्दा जमाया- क ती ैं, मैं शादी करना ी न ीिं चा ती। ककसी
पुरुष के ाथ क्यों अपनी आजादी बेचँ!ू
3
दस
ू रे हदन सवेरे जग
ु नू ममस खरु शेद के बँगले पर प ु ँची। ममस खरु शेद वा खाने
गयी ु ई थी। खानसामा ने पछ
ू ा- क ाँ से आती ो?
जुगनू- य ीिं र ती ू ँ बेटा। मेम सा ब क ाँ से आयी ैं, तुम इनके पुराने नौकर
ोगे?
जुगनू- ककसी ऊँचे खानदान की ोंगी? व तो रिं ग-ढिं ग से ी मालूम ोता ैं।
खान.- खानदान तो कुछ ऐसा ऊँचा न ीिं ैं। इनकी माँ अभी तक ममशन में 30
र. पाती ैं। य पढ़ने में तेज थीिं, वजीफा ममल गया, ववलायत चली गयी, बस
तकदीर खुल गयी। अब तो अपनी माँ को बुलानेवाली ैं, लेककन बुहढ़या शायद ी
आये। य धगरजे-ववरजे न ीिं जातीिं इससे दोनों में पटती न ीिं।
जग
ु नू- ममजाज की तेज मालम
ू ोती ैं।
खान.- न ीिं, यों तो ब ु त नेक ैं, धगरजे न ीिं जातीिं। तुम क्या नौकरी की तलाश
में ो? करना चा ो, तो कर लो। एक आया रखना चा ती ैं।
खान.- य आशीवामद लेने वाली मेम न ी ैं। ऐसो से ब ु त धचढ़ती ैं। कोई
मँगता आया और उसे डाँट बताई। क ती ैं , बबना काम ककये ककसी को न्जददा
र ने का क न ीिं ैं। भला चा ती ो, तो चप
ु के से रा लो।
जुगनू- तो य क ो, इनका कोई िरम-करम न ीिं ैं। कफर भला गरीबों पर क्यों
दया करने लगी!
जुगनू को अपनी दीवार खडी करने के मलए काफी सामान ममल गया- नीच
खानदान की ैं , माँ से पटती न ीिं, िमम से ववमुख ैं। प ले िावे में इतनी
सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा- इनके
सा ब क्या करते ैं ? खानसामा ने मस्
ु कराकर क ा- इनकी तो अभी शादी ी न ीिं
ु ई। सा ब क ाँ से ोंगे!
खान. - अपना- अपना ररवाज ैं। इनके य ाँ तो ककतनी ी औरतें उम्रभर ब्या
न ीिं करती।
इतने में ममस खुरशेद आ प ु ँची। गुलाबी जाडा पडने लगा था। ममस सा ब साडी
के ऊपर ओवर कोट प ने ु ए थी। एक ाथ में छतरी थी, दस
ू रे में कुत्ते की
जिंजीर। प्रभात की शीतल वायु में व्यायाम ने कपोलों को ताजा और सुखम कर
हदया था। जग
ु नू ने झक
ु कर सलाम ककया; पर उद ोंने उसे दे खकर भी न दे खा।
अददर जाते ी खानसामा को बल
ु ाकर पछ
ू ा- य औरत क्या करने आयी ैं ?
जुगनू ने ज्यों ी कमरे में कदम रखा, ममस खुरशेद ने कुसी से उठकर स्वागत
ककया- आइये माँ जी! मैं जरा सैर करने चली गयी थी! आपके आश्रम में सब
कुशल ैं?
ममस.- मुझे अपने स्कूल की लडककयों के साथ बडा आनदद ममलता ैं, व सब
मेरी ी लडककयाँ ैं।
स सा एक सद
ु दर सजीला यव
ु क रे शमी सट
ू िारण ककये जत
ू े चरमर करता ु आ
अददर आया। ममस खुरशेद ने इस तर दौडकर प्रेम से उसका अमभवादन ककया,
मानो जामे में फूली न समाती ों। जुगनू उसे दे खकर कोने में दब
ु क गयी।
खरु शेद ने यव
ु क से गले ममलकर क ा- प्यारे ! मैं कब से तम्
ु ारी रा दे ख र ी
ू ँ। (जुगनू से) माँ जी, आप जाएँ, कफर कभी आना। य मेरे परम ममत्र ववमलयम
ककिं ग ैं। म और य , ब ु त हदनों तक साथ-साथ पढ़े ैं।
जग
ु नू चप
ु के से ननकलकर बा र आयी। खानसामा खडा था। पछ
ू ा- य लौंडा
कौन ैं?
जुगनू- दोनों इस तर टूटकर गले ममले ैं कक मैं लाज के मारे गड गयी। ऐसी
चूमा-चाटी तो जोर-खसम में भी न ीिं ोती। दोनों मलपट गये। लौडा तो मुझे
दे खकर िझझकता था; पर तम्
ु ारी ममस सा ब तो जैसे मतवाली ो गयी थी।
ममस खुरशेद- मुझे ववश्वास था, व आज जरर आयेगी। मैंने दरू ी से उसे
बरामदे में दे खा और तम्
ु ें सच
ू ना दी। आज आश्रम में बडे मजे र ें गे। जी चा ता
ैं, मह लाओिं की कनफुसककयाँ सन
ु ती। दे ख लेना, सभी उसकी बातों पर ववश्वास
करें गी।
लीला- तम
ु भी तो जान-बझ
ू कर दलदल में पाँव रख र ी ो।
ममस खुरशेद- मुझे अमभनय में मजा आता ैं ब न! हदल्लगी र े गी। बुहढ़या ने
बडा जुल्म कर रखा ैं। जरा उसे सबक दे ना चा ती ू ँ। कल तुम इसी वक़्त,
इसी ठाट से कफर आ जाना। बहु ढ़या कल कफर आयेगी। उसके पेट में पानी न
जम ोगा। न ीिं, ऐसा क्यों? न्जस वक़्त आयेगी, मै तम्
ु ें खबर दँ ग
ू ी। बस, तम
ु
छै ला बनी प ु ँच जाना।
5
आश्रम में उस हदन जग
ु नू को दम मारने की फुसमत न ममली। उसने सारा
वत्ृ तािंत ममसेज टिं डन से क ा। ममसेज टिं डन दौडी ु ई आश्रम प ु ँची और अदय
मह लाओिं को खबर सुनाई। जुगनू इसकी तसदीक करने के मलए बुलायी गयी।
जो मह ला आती, व जुगनू के मँु से य कथा सुनती। र एक रर समल में
कुछ-कुछ रिं ग और चढ़ जाता। य ाँ तक कक दोप र ोते- ोते सारे श र के सभ्य
समाज में य खबर गँज
ू उठन।
मम. टिं डन- सुना तो, उनके साथ का पढ़ा ु आ ैं। दोनों में प ले से कुछ बातचीत
र ी ोगी। व ी तो मै क ती थी कक इतनी उम्र ो गयी; क्वाँरी कैसे बैठन ैं? अब
कलई खुली।
जुगनू- मैं तो उसकी सूरत दे खते ी ताड गयी थी। िूप में बाल न ीिं सफेद ककये
ैं।
जग
ु नू- कल न ीिं, मैं आज रात ी को जाऊँगी।
लेककन रात को जाने के मलए कोई ब ाना जररी था। मम. टिं डन ने आश्रम के
मलए एक ककताब मँगवा भेजी। रात को नौ बजे जग
ु नू ममस खरु शेद के बँगले पर
जा प ु ँची। सिंयोग से लीलावती उस वक़्त मौजूद थी। बोली- बुहढ़या तो बेतर
पीछे पड गयी।
लीला ममशन में डॉक्टर थी। उसका बँगला भी पास ी था। व चली गयी, तो
ममस खुरशेद ने जुगनू को बुलाया।
जग
ु नू ने एक पज
ु ाम दे खकर क ा- ममसेज टिं डन में य ककताब माँगी ैं। मझ
ु े
आने में दे र ो गयी। मैं इस वक़्त आपको कष्ट न दे ती; पर सवेरे ी व मुझसे
माँगेगी। जारों रुपये की आमदनी ैं ममस सा ब, मगर एक-एक कौडी दाँत से
पकडती ैं। इनके द्वार पर मभखारी को भीख तक न ीिं ममलती।
व परदा उठाकर पीछे के कमरे में चली गयी और व ाँ से कोई पदद्र ममनट में
एक सुददर रे शमी साडी प ने, इत्र में बसी ु ई, मँु में पाउडर लगाये ननकली।
जुगनू ने उसे आँखे फाडकर दे खा। ओ ो! य श्रिंग
ृ ार! शायद इस समय व लौंडा
आनेवाला ोगा। तभी ये तैयाररयाँ ैं। न ीिं तो सोने के समय क्वाँररयों को
बनाव-सँवार की क्या जरुरत ैं? जुगनू की नीनत से न्स्त्रयों के श्रिंग
ृ ार का केवल
एक उद्देश्य था, पनत को लभ
ु ाना। इसमलए सु ाधगनों के मसवा, श्रिंग
ृ ार और सभी के
मलए वन्जमत था। अभी खुरशेद कुसी पर बैठने भी न पायी थी कक जूतों का
चरमर सुनाई हदया और एक क्षण में ववमलयम ककिं ग ने कमरे में कदम रखा।
उसकी आँखे चढ़ी ु ई मालम
ू ोती थी और कपडो से शराब की गिंि आ र ी थी।
उसने बेिडक ममस खरु शेद को छाती से लगा मलया और बार-बार उसके कपोलों
के चुम्बन लेने लगा।
ममस खरु शेद ने अपने को उसके बा ु -पाश से छुडाने की चेष्टा करके क ा- चलो
टो, शराब पीकर आये ो।
ममस खुरशेद ने रोष के साथ अपने को अलग करके क ा- तुम इस वक़्त आपे
में न ीिं ो! इतने उतावले क्यों ु ए जाते ो? क्या मैं क ीिं भागी जा र ी ू ँ!
खरु शेद- तम
ु तो पागल ो र े ो। दे खते न ी ो, कमरे में कौन बैठा ु आ ैं?
जग
ु नू बबल्ली की तर कमरे से ननकली और मसर पर पाँव रखकर भागी! उिर
कमरे से क क े उठ-उठकर छत को ह लाने लगे।
जग
ु नू उसी वक़्त ममसेज टिं डन के घर प ु ँची। उसके पेट में बल
ु बल
ु े उठ र े थे,
पर ममसेज टिं डन सो गयी थी। व ाँ से ननराश ोकर उसने कई दस
ू रे घरों की
किंु डी खटखटायी, पर कोई द्वार न खुला और दिु खया को सारी रात इसी तर
काटनी पडी, मानो कोई रोता ु आ बच्चा गोद में ो। प्रातःकाल व आश्रम में जा
कूदी।
कोई आिे घिंटे में ममसेज टिं डन भी आयी। उद ें दे खकर उसने मँु फेर मलया।
मम. टिं डन ने पछ
ू ा- रात तम
ु मेरे घर गयी थीिं? इस वक़्त म ाराज ने क ा।
जुगनू ने ववरक्त भाव से क ा- प्यासा ी तो कुएँ के पास जाता ैं। कुँआ थोडे
ी प्यासे के पास आता ैं। मझ
ु े आग में झोंककर आप दरू ट गयीिं। भगवान
ने मेरी रक्षा की, न ी कल जान ी गयी थी।
'म ाराज ने घर में घुसने ी न हदया। जगा कैसे लेती! आपको इतना तो सोचना
चाह ए था कक व ाँ गयी ैं , तो आती ोगी! घडी भर बाद सोती तो क्या बबगड
जाता; पर आपको ककसी की क्या परवा !'
'व न ीिं मारने दौडी, उसका व खसम ैं , व मारने दौडा। लाल आँखें ननकाले
आया और मुझसे क ा- ननकल जा। जब तर मैं ननकलँ -ू ननकलँ ू, तब तक िं टर
खीिंचकर दौड ी तो पडा। में मसर पर पाँव रखकर न भागती, तो चमडी उिेड
डालता। और व राँड बैठन तमाशा दे खती र ी। दोनों में प ले से ी सिी-वदी
थी। ऐसी कुलटाओिं का मँु दे खना पाप ैं। वेसवा भी इतनी ननलमज्ज न ोगी।'
जरा दे र में और भी दे ववयाँ आ प ु ँची। य सन
ु ने के मलए सभी उत्सक
ु ो र ी
थी। जग
ु नू की कैंची अववश्रािंत रप से चलती र ी। मह लाओिं को इस वत्ृ तािंत में
इतना आनदद आ र ा था कक कुछ न पूछों। एक-एक बात को खोद-खोदकर
पूछती थी। घर के काम-ििंिे भूल गये, खाने-पीने की सुधि न र ी और एक बार
सुनकर उनकी तन्ृ प्त न ोती थी, बार-बार व ी कथा नए आनदद से सुनती थीिं।
ममसेज टिं डन ने अिंत में क ा- में आश्रम में ऐसी मह लाओिं को लाना अनुधचत
ैं। आप लोग इस प्रश्न पर ववचार करे ।
जुगनू ने मँु फैलाकर ाथ से इशारा ककया, व ीिं लौडा ैं! मह लाओिं का सम्पूणम
समू धचक के समाने आने के मलए ववकल ो गया।
ममस खुरशेद ने कमरे में कदम रक्खा। ककसी ने स्वागत न ककया। ममस खुरशेद
ने जुगनू की ओर ननस्सिंकोच आँखों से दे खकर मुस्काते ु ए क ा- कह ए बाईजी,
रात आपको चोट तो न ी आयी?
जग
ु नू ने ब ु तेरी दीदा-हदलेर न्स्त्रयाँ दे खी थी; पर इस हढठाई ने उसे चककत कर
हदया। चोर ाथ में चोरी का माल मलये , सा को ललकार र ा था।
खुरशेद- व इस वक़्त तुमसे अपना अपराि क्षमा कराने आये ैं। रात व नशे
में थे।
जग
ु नू ने लाठन मारी- शराब से भी बडे नशे की चीज ैं कोई, व उसी का नशा
ोगा। उन म ाशय को परदे में क्यों ढक हदया? दे ववयाँ भी तो उनकी सरू त
दे खती।
ममस खरु शेद ने शरारत की- सरू त तो उनकी लाख-दो लाख में एक ैं।
ममस खुरशेद ने आग्र ककया- मामले को साफ़ करने के मलए उनका आप लोगों
के सामने आना जररी था। एक तरफा फैसला आप क्यों करती ैं ?
जग
ु नू ने आँख चमकाकर क ा- उद ें क ाँ नछपा हदया आपने?
जुगनू- (उँ गली चमकाकर) चमलए, चमलए, लीलावती ैं। साडी प नकर औरत बनते
लाज भी न ी आती! तुम रात को न ीिं इनके घर थे?
लीलावती ने ववनोद-भाव से क ा- मैं कब इनकार कर र ी ू ँ ? इस वक़्त
लीलावती ू ँ। रात को ववमलयम ककिं ग बन जाती ू ँ। इसमें बात ी क्या ैं ?
ममसेज मे रा ने डाँट बताई- अब बोलो दाई, लगी मँु में कामलख कक न ीिं?
ममसेज टिं डन ने पुकारा, पर जुगनू क ाँ! तलाश ोने लगी। जुगनू गायब!
एक हदन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में दे र ो गई। सूयामस्त ो गया
और व हदखलाई न हदया। मैं खोया ु आ-सा सडक पर दरू तक आँखें फाड-
फाडकर दे खता था, पर व पररधचत रे खा न हदखलाई पडती थी। कान लगाकर
सुनता था, 'झुन-झुन' की व आमोदमय ्वनन न सुनाई दे ती थी। प्रकाश से साथ
मेरी आशा भी ममलन ोती जाती थी। उिर से ककसी को आते दे खता तो पूछता
- 'कजाकी आता ै ?' पर या तो कोई सुनता ी न था, या केवल मसर ह ला दे ता
था।
स सा 'झुन-झुन' की आवाज कानों में आई। मुझे अँिेरे में चारों ओर भूत- ी-भूत
हदखलाई दे ते थे - य ाँ तक कक माताजी के कमरे में ताक पर रखी ु ई ममठाई
भी अँिेरा ो जाने के बाद मेरे मलए त्याज्य ो जाती थी, लेककन व आवाज
सन
ु ते ी मैं उसकी तरफ जोर से दौडा। ाँ, व कजाकी ी था। उसके दे खते ी
मेरी ववकलता क्रोि में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, कफर रठकर अलग खडा
ो गया।
मैंने पछ
ू ा - 'य क ाँ ममला, कजाकी?'
बाबज
ू ी - 'आज क्यों दे र की, इसका जवाब दे ?'
मैं चप
ु चाप खडा र ा अपने आँसओ
ु िं के वेग को सारी शन्क्त से दबा र ा था।
कजाकी कफर बोला - 'भैया, मैं क ीिं बा र थोडे ी चला जाऊँगा। कफर आऊँगा
और तुम् ें कदिे पर बैठाकर कुदाऊँगा। बाबूजी ने नौकरी ले ली ै तो क्या इतना
भी न करने दे गें। तुमको छोडकर मैं क ीिं न जाऊँगा, भैया। जाकर अम्माँ से क ा
दो, कजाकी जाता ै । उसका क ा-सुना माफ करें ।'
मैंने जल्दी से क ा - 'न ीिं, कजाकी ने न ीिं मारा, बाबूजी ने उसे ननकाल हदया ै,
उसकी साफा, बल्लम छनन मलया। चपरास भी ले मलया।'
खाना तो मैंने खा मलया। बच्चे शोक में खाना न ीिं छोडते, खासकर जब रबडी भी
सामने ो, मगर बडी रात तक पडे-पडे सोचता र ा - मेरे पास रुपए ोते तो एक
लाख रुपए कजाकी को दे दे ता और क ता बाबज
ू ी से कभी मत बोलना। बेचारा
भख
ू ों मर जाएगा। दे खू,ँ कल आता ै कक न ीिं। अब क्या करे गा आकर? मगर
आने को तो क गया ै । मैं कल उसे अपने साथ खाना िखलाऊँगा।
दस
ू रे हदन मैं हदन-भर अपने ह रन के बच्चे की सेवा-सत्कार में व्यस्त र ा।
प ले उसका नामकरण सिंस्कार ु आ। 'मुदनू' नाम रखा गया। कफर मैंने उसका
अपने मजोमलयों और स पाहठयों से पररचय कराया। हदन ी भर में व मझ
ु से
इतना ह ल गया कक मेरे पीछे -पीछे दौडने लगा। इतनी दे र में मैंने उसे अपने
जीवन में एक म त्त्वपूणम स्थान दे हदया। अपने भववष्य मेिं बनने वाले ववशाल
भवन में उसके मलए अलग कमरा बनाने का भी ननश्चय कर मलया। चारपाई, सैर
करने की कफटन आहद का भी आयोजन कर मलया।
य क ते-क ते उसकी ननगा टोकरी पर पडी, जो व ी रखी थी, कफर बोला - 'य
आटा कैसा ै , भैया?'
मैंने सकुचाते ु ए क ा - 'तुम् ारे ी मलए तो लाया ू ँ। तुम भूखे ोगे, आज क्या
खाया ोगा?'
कजाकी की आँखें तो मैं न दे ख सका, उसके कदिे पर बैठा ु आ था, ाँ, उसकी
आवाज से मालूम ु आ कक उसका गला भर आया ै। व बोला - 'भैया, क्या
रखी ी रोहटयाँ खाऊँगा? दाल, नम, घी - और तो कुछ न ीिं ै ।'
मैं नीचे उतरा और दौडकर सारी पूिंजी उठा लाया। कजाकी को रोज बुलाने के
मलए उस वक्त मेरे पास को नूर ीरा भी ोता तो उसको भें ट करने में पसोपेश
न ोता।
कजाकी - 'तुम् ारी अम्माँ तुमको मारे गी, क ें गी - कजाकी ने फुसलाकर मँगवा
मलए ोंगे। भैया, इन पैसों की ममठाई ले लेना और मटके में रख दे ना। मैं भख
ू ों
न ीिं मरता। मेरे दो ाथ ै । मैं भला भख
ू ों मर सकता ू ँ।'
मेरी नानी मर गई। अम्माँ क्रोि में मसिं नी ो जाती थी। मसटवपटाकर बोला -
'ककसी को तो न ीिं हदया।'
अम्माँ -'तूने आटा न ीिं ननकाला? दे ख ककतना आटा सारे आँगन में बबखरा पडा
ै ?'
मैं चुप खडा था। व ककतन ी िमकाती थीिं, चुमकारती थीिं, पर मेरी जबान न
खुलती थी। आने वाली ववपन्त्त के भय से प्राण सूख र े थे। य ाँ तक कक य
भी क ने की ह म्मत न पडती थी कक बबगडती क्यों ो, आटा तो द्वार पर रखा
स सा कजाकी ने पक
ू ारा - 'ब ू जी, आटा द्वार पर रखा ु आ ै । भैया मझ
ु े दे ने
को ले गए थे।'
अम्माँजी ने क ा - 'तुमने मुझसे पूछ क्यों न ीिं मलया? क्या मैं कजाकी को
थोडा-सा आटा न दे ती?'
मैंने इसका उत्तर न हदया। हदल में क ा - 'इस वक्त तुम् ें कजाकी पर दया आ
गई ै , जो चा े दे डालो, लेककन मैं माँगता तो मारने दौडती।' ाँ, य सोचकर
धचत्त प्रसदन ु आ कक अब कजाकी भूखों न मरे गा। अम्माँजी उसे रोज खाने को
दें गी और व रोज मुझे कदिे पर बबठाकर सैर कराएगा।
दस
ू रे हदन मैं हदन-भर मुदनू के साथ खेलता र ा। शाम को सडक पर जाकर
खडा ो गया। मगर अँिेरा ो गया और कजाकी का क ीिं पता न ीिं। हदए जल
गए, रास्ते में सदनाटा छा गया, पर कजाकी न आया।
मैं रोता ु आ घर आया। अम्माँजी ने पूछा - 'क्यों रोते ो, बेटा? क्या कजाकी
न ीिं आया?'
मैं और जोर से रोने लगा। अम्माँजी ने मुझे छाती से लगा मलया। मुझे ऐसा
मालूम ु आ कक उनका भी किंठ भी गद्गद ो गया ै।
उद ोंने क ा - 'बेटा, चप
ु ो जाओ, मैं कल ककसी रकारे को भेजकर कजाकी को
बल
ु वाऊँगी।'
मैं रोते- ी-रोते सो गया। सवेरे ज्यों ी आँखें खुली, मैंने अम्माँजी से क ा -
'कजाकी को बल
ु वा दो।'
अम्माँ ने क ा - 'आदमी गया ै बेटा, कजाकी आता ी ोगा।' मैं खुश ोकर
खेलने लगा। मुझे मालूम था कक अम्माँजी जो बात क ती ै , उसे पूरा जरर
करती ै । उद ोंने सवेरे ी एक रकारे को भेज हदया था। दस बजे जब मैं मद
ु नू
को मलए ु ए घर आया तो मालम
ू ु आ कक कजाकी अपने घर पर न ीिं ममला।
व रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो र ी थी कक न जाने क ाँ चले
गए। उसे भय था कक व क ीिं भाग गया ै।
मैंने उसके पास जाकर उसका मँु दे खते ु ए क ा - 'तुम कौन ो, क्या बेचती
ो?'
औरत ने मसर ह लाकर ' ाँ' क ा और पोटली खोलने लगी। इतने में अम्माँजी भी
रसोई से ननकल आईं। उसने अम्माँजी के पैरों को स्पशम ककया। अम्माँ ने पूछा -
'तू कजाकी की घरवाली ै ?'
औरत ने मसर झक
ु ा मलया।
औरत - ' ाँ ब ू जी, तुम् ारे आमसरवाद से खाने-पीने का दःु ख न ीिं ै । आज सवेरे
उठे और तालाब की ओर चले गए। बा र मत जाओ, वा लग जाएगी। मगर न
माने। मारे कमजोरी के पैर काँपने लगते ै , मगर तालाब में घुसकर ये कमलगट्टे
तोड लाए। तब मुझसे क ा -'ले जा, भैया को दे आ। उद ें कमलगट्टे ब ु त अच्छे
लगते ै । कुशल-क्षेम पछ
ू ती आना।'
बाबज
ू ी खाना खाकर ननकले आए थे। तौमलेए से ाथ-मँु पोंछते ु ए बोले -'और
य भी क दे ना कक सा ब ने तम
ु को ब ालकर हदया ै । जल्दी जाओ, न ीिं तो
कोई दस
ू रा आदमी रख मलया जाएगा।
औरत ने अपना कपडा उठाया और चली गई। अम्माँ ने ब ु त पक
ु ारा, पर व न
रुकी।
बाबूजी -'और क्या झूठे ी बुला र ा ू ँ! मैंने तो पाँचवें ी हदन ब ाली की ररपोटम
की थी।'
बाबज
ू ी ने क ा - 'कजाकी, तम
ु ब ाल ो गए। अब कभी दे र न करना।'
कजाकी रोते ु ए वपताजी के पैरों पर धगर पडा, मगर शायद मेरे भानय में दोनों
सुख भोगना न मलखा था। मुदनू ममला, तो कजाकी छूटा, कजाकी आया तो मुदनू
ाथ से गया और ऐसा गया कक आज तक उसके जाने का दःु ख ै । मद
ु नू मेरी
ी थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूँ, व भी कुछ न खाता था। उसे
भात से ब ु त ी रुधच थी, लेककन जब तक खूब िी न पडा ो, उसे सदतोष न
ोता था। व मेरे ी साथ सोता था और मेरे ी साथ उठता भी था। सफाई तो
उसे इतनी पसदद थी कक मल-मत्र
ू त्याग के मलए घर से बा र मैदान में ननकल
जाता था। कुत्तों से उसे धचढ़ थी, कुत्तों को घर में न घस
ु ने दे ता। कुत्ते को
दे खते ी थाली से उठ जाता और उसे दौडाकर घर से बा र ननकाल दे ता था।
***
आँसओ
ु की ोली
इस सिंसार-व्यापी रोग का पता लगाए तो ऐनत ामसक सिंसार में अवश्य ी अपना
नाम छोड जाए। पिंडडतजी का नाम तो श्रीवास्तव था, पर ममत्र मसलबबल क ा
क ते थे। नामों का असर चररत्र पर कुछ-न-कुछ पड जाता ै । बेचारे मसलबबल
सचमुच मसलबबल थे। दफ्तर जा र े ै , मगर पजामें का इजारबदद नीचे लटक
र ा ै । मसर पर फेल्ट-कैप ै , पर लम्बी-सी चुहटया पीछे झाँक र ी ै , अचकन यों
ब ु त सद
ु दर ै । न-जाने उद ें त्यो ारों से क्या धचढ़ थी। दीवाली गज
ु र जाती पर
व भलामानस कौडी ाथ में न लेता। और ोली का हदन तो उनकी भीषण
परीक्षा का हदन था। तीन तीन व घर से बा र न ननकलते। घर पर भी काले
कपडे प ने बैठ र ते थे। यार लोग टो में र ते थे कक क ीिं बचा फँस जाए,
मगर घर में घुसकर तो फौजदारी न ीिं की जाती। एक-आि बार फँसे भी, मगर
नघनघया-पुहदयाकर बेदाग ननकल गए।
स्त्री ने मसर झक
ु ाकर क ा - 'तो न लाना रिं ग-सिंग, मझ
ु े रिं ग लेकर क्या करना ै।
जब तम्
ु ीिं रिं ग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती ू ँ?'
'उनके मलए भी मैंने एक उपाय सोच मलया ै । उसे सफल बनाना तम्
ु ारा काम
ै । मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढ़कर लेट र ू ँगा। तुम क ना इद ें ज्वर
आ गया। बस, चलो छुट्टी ु ई।'
स्त्री ने आँख नचाकर क ा - 'ऐ नौज, कैसी बातें मँु से ननकालते ो, ज्वर जाए
मुद्दई के घर, य ाँ आए तो मँु झुलसा दँ ू ननगोडे का।'
'तो कफर दस
ू रा उपाय ी क्या ै ?'
बडे साले ने पूछा - 'क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छन न ीिं?
खाना खाने भी न आए?'
चम्पा ने मसर झुकाकर क ा - ' ाँ भैया, रात ी से पेट में कुछ ददम ोने लगा।
डॉक्टर ने वा में ननकलने से मना कर हदया ै।'
जरा दे र बाद छोटे साले ने क ा - 'क्यों जीजी जी, क्या भाई सा ब नीचे न ीिं
आएँगे? ऐसी भी क्या बीमारी ै ! क ो तो ऊपर जाकर दे ख आऊँ।'
चम्पा ने उसका ाथ पकडकर क ा - 'न ीिं-न ीिं, ऊपर मत जैयो! व रिं ग-विंग न
खेलेंगे। डॉक्टर ने वा में ननकलने को मना कर हदया ै ।'
स सा भाई को एक बात सझ
ू ी - 'जीजाजी के कपडो के साथ क्यों न ोली
खेलें। वे तो बीमार न ीिं ै ।'
बडे भाई के मन में बात बैठ गई। ब न बेचारी अब क्या करती? मसिंकददरों ने
किंु न्जयाँ उसके ाथ से लीिं और मसलबबल के सारे कपडे ननकाल-ननकालकर रिं ग
डाले। रमाल तक न छोडा। जब चम्पा ने उन कपडो को आँगन में अलगनी पर
सख
ू ने को डाल हदया तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी रिं गरे ज ने ब्या के जोडे रिं गे
ो। मसलबबल ऊपर बैठे य तमाशा दे ख र े थे, पर जबान न खोलते थे। छाती
पर साँप-सा लोट र ा था। सारे कपडे खराब ो गए, दफ्तर जाने को भी कुछ न
बचा। इन दष्ु टों को मेरे कपडो से न जाने क्या बैर था।
'वा री तेरी अक्ल! अभी तक तुझे इतनी कफक्र न ीिं कक व बेचारे खाएँगे क्या।
तू तो इतनी लापरवा कभी न थी। जा ननकाल ला जल्दी से चावल और मिंग
ू
की दाल।'
लीन्जए - िखचडी पकने लगी। इिर ममत्रों ने भोजन करना शुर ककया। मसलबबल
ऊपर बैठे अपनी ककस्मत को रो र े थे। उद ें इस सारी ववपन्त्त का एक ी
कारण मालम
ू ोता था - वववा ! चम्पा न आती तो ये साले क्यों आते, कपडे
क्यों खराब ोते, ोली के हदन मूिंग की िखचडी क्यों खाने को ममलती? मगर अब
पछताने से क्या ोता ै । न्जतनी दे र में लोगों ने भोजन ककया, उतनी दे र में
िखचडी तैयार ो गई। बडे साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कक िखचडी की
थाली ऊपर दे आए।
'तम्
ु ारी य ी इच्छा ै तो य ी स ी।'
'मैंने क्या ककया। सवेरे से जट
ु ी ु ई ू ँ। भैया ने खद
ु िखचडी डलवाई और मझ
ु े
य ाँ भेजा।'
'तम
ु तो दे ख र े थे कक दोनों जने मेरे मसर पर सवार थे।'
दस बजे रात को चम्पा उत्तम पदाथों का थाल मलए पनतदे व के पास प ु ँची।
म ाशय मन- ी-मन झँुझला र े थे। भाइयों के सामने मेरी परवा कौन करता
ै । न जाने क ाँ से दोनों शैतान फट पडे। हदन-भर उपवास कराया और अभी
तक भोजन का क ीिं पता न ीिं। बारे चम्पा को थाल लाते दे खकर कुछ अन्नन
शादत ु ई और बोले - 'अब तो ब ु त सवेरा ै , एक-दो घिंदटे बाद क्यों न आई?'
'तुम मुझे बना र े ो। क्या करँ जैसा बनाना आता ै , बना लाई'
'न ीिं जी, सच क र ा ू ँ। मेरी तो आत्मा तक तप्ृ त ो गई। आज मुझे ज्ञात
'दँ ग
ू ा, जनेऊ की कसम खाकर क ता ू ँ।'
'अच्छा, तो माँगती ू ँ। मझ
ु े अपने साथ ोली खेलने दो।'
पिंडडतजी का रिं ग उड गया। आँखें फाडकर बोले - ' ोली खेलने दँ ?ू मैं तो ोली
खेलता न ीिं। कभी न ीिं खेला। ोली खेलना ोता तो घर में नछपकर क्यों
बैठता।'
'य ी मेरे ननयम के ववरुद्ध ै । न्जस चीज को अपने घर में उधचत समझँू उसे
ककस दयाय से घर के बा र अनुधचत समझँू, सोचो।'
चम्पा ने मसर नीचा करके क ा - 'घर में ऐसी ककतनी बातें उधचत समझते ो,
जो घर के बा र करना अनुधचत ी न ीिं पाप भी ै ।'
चम्पा ने पनत के मख
ु की ओर दे खा तो उस पर मनोवेदना का ग रा रिं ग झलक
र ा था। पछताकर बोली - 'क्या तम
ु सचमच
ु बरु ा माल गए ो? मैं तो समझती
थी कक तुम केवल मुझे धचढ़ा र े ो।'
य क कर व चला गया। मझ
ु े उस वक्त य फटकारें ब ु त बुरी मालूम ु ईं।
अगर मुझसे व सेवा-भाव न था तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार
न था। घर चला आया, पर वे बातें मेरे कानों में गँज
ू ती र ी। ोली का सारा
मजा बबगड गया।
एक म ीने तक म दोनों में मुलाकात न ु ई। कॉलेज इम्त ान की तैयारी के
मलए बदद ो गया था। इसमलए कॉलेज में भी भेट न ोती थी। मुझे कुछ खबर
न ीिं, व कब और कैसे बीमार पडा, कब अपने घर गया। स सा एक हदन मुझे
उसका एक पत्र ममला। ाय! उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती ै।
श्रीवास्तव एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल न सके। कफर बोले -
'ककसी हदन तुम् ें कफर हदखाऊँगा। मलखा था, मुझसे आिखर बार ममल जा, अब
शायद इस जीवन में भें ट न ो। खत मेरे ाथ से छूटगर धगर पडा। उसका घर
मेरठ न्जले में था। दस
ू री गाडी जाने में आिा घदटे की कसर थी। तरु दत चल
पडा। मगर उसके दशमन न बदे थे। मेरे प ु ँचने के प ले ी व मसिार चुका था।
चम्पा, उसके बाद मैंने ोली न ीिं खेली, ोली ी न ीिं, और सभी त्यो ार छोड
हदए। ईश्वर ने शायद मुझे कक्रया की शन्क्त न ीिं दी। अब ब ु त चा ता ू ँ कक
कोई मुझसे सेवा का काम ले। खुद आगे न ीिं बढ़ सकता, लेककन पीछे चलने को
तैयार ू ँ। पर मझ
ु से कोई काम लेने वाला भी न ीिं, लेककन आज व रिं ग डालकर
तम
ु ने मझ
ु े उस धिक्कार की याद हदला दी। ईश्वर मझ
ु े ऐसी शन्क्त दे कक मैं
मन में ी न ीिं, कमम में भी मन र बनँू।'
य क ते ु ए श्रीननवास ने तश्तरी से गल
ु ाल ननकाला और उसे मन र की धचत्र
पर नछडककर प्रणाम ककया।
***
अन्नि-समाधध
एक हदन रुन्क्मन बाजार में लक़डडयाँ बेचकर लौटी तो पयाग ने क ा - 'ला, कुछ
पैसे मुझे दे दे , दम लगा आऊँ।'
रुन्क्मन ने मँु फेरकर क ा - 'दम लगाने की ऐसी चाट ै , तो काम क्यों न ीिं
करते? क्या आजकल कोई बाबा न ीिं ै , जाकर धचलम भरो?'
रुन्क्मन अँगूठा हदखाकर बोली - 'रोए मेरी बला से। तुम र ते ी ो तो कौन
सोने का कौर िखला दे ते ो? अब तो छाती फाडती ू , तब भी छाती फाडूँगी।'
'ग ने बनवाने के मलए पैसे ै और मैं चार पैसे माँगता ू ँ तो यों जवाब दे ती ै ।'
रुन्क्मन नतनककर बोली - 'ग ने बनवाती ू ँ , तो तुम् ारी छाती क्यों फटती ै?
तम
ु ने तो पीतल का छल्ला भी न ीिं बनवाया, या इतना भी न ीिं दे खा जाता?'
जब दस
ू रे हदन भी पयाग न आया तो रुन्क्मन को धचदता ु ई। गाँव-भर छान
आई। धचडडयाँ ककसी अड्डे पर न ममली। उस हदन उसने रसोई न ीिं बनाई। रात
को लेटी भी तो ब ु त दे र तक आँखें न लगीिं। शिंका ो र ी थी, पयाग सचमच
ु तो
ववरक्त न ीिं ो गया। उसने सोचा, प्रातःकाल पत्ता-पत्ता छान डालँ ग
ू ी, ककसी
सािु-सदत के साथ ोगा। जाकर थाने में रपट कर दँ ग
ू ी।
अभी तडका ी था कक रुन्क्मन थाने चलने को तैयार ो गई। ककवाड बदद करके
ननकली ी थी कक पयाग आता ु आ हदखाई हदया। पर व अकेला न था। उसके
पीछे -पीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छनिंट की साडी, रिं गी ू ई चादर, लम्बा घघ
ूँ ट
और शरमीली चाल दे खकर रुन्क्मन का कलेजा िक-सा ो गया। व एक क्षण
तबुवद्ध-सी खडी र ी, तब बढ़कर नई सौत को दोनों ाथों के बीच में ले मलया
और उसे इस भाँनत िीरे -िीरे घर के अददर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से
ननराश ोकर ववष-पान कर र ा ो।
रुन्क्मन बाजार से आटा लाई थी। अनाज और आटे के भाव में ववशेष अदतर न
था। उसे आश्चयम ु आ कक मसमलया इतने सवेरे क्या पीस र ी ै । उठकर कोठरी
में आई तो दे खा कक मसमलया अँिेरे में कुछ पीस र ी ै । उसने जाकर उसका
ाथ पकड मलया और टोकरी को उठाकर बोली - 'तझ
ु से ककसने पीसने को क ा
ै ? ककसका अनाज पीस र ी ै ?'
'मैंने तो तझ
ु से कुछ न ीिं क ा।'
'तू न मानेगी?'
रुन्क्मन ने आपन्त्त की - 'ऐसी बात मँु से ननकालते लाज न ीिं आती? तीन
हदन की ब ु ररया बाजार में घूमेगी, तो सिंसार क्या क े गा।'
मसमलया ने आग्र करके क ा - 'सिंसार क्या क े गा, क्या कोई ऐब करने जाती
ू ँ !'
'मझ
ु े गाडकर रखना थोडे ी ै । पैसे खाने-पीने के मलए ै कक गाडने के मलए?'
मसमलया ने गामलयाँ दे नी शुर की - 'न्जसने मेरी घास छुई ो, उसकी दे में कीडे
पडे, उसके बाप और भाई मर जाएँ, उसकी आँखें फूट जाएँ।' रुन्क्मन कुछ दे र
तक तो जब्त ककए बैठन र ी, आिखर खून में उबाल आ ी गया। झल्लाकर उठन
और मसमलया के दो-तीन तमाचे लगा हदए। मसमलया छाती पीट-पीटकर रोने
लगी। सारा मो ल्ला जमा ो गया। मसमलया की सुबुवद्ध और कायमशीलता सभी
की आँखों में खटकती थी - व सबसे अधिक घास क्यों छनलती ै , सबसे ज्यादा
लकडडयाँ क्यों लाती ै , इतने सवेरे क्यों उठती ै , इतने पैसे क्यों लाती ै ? इन
कारणों ने उसे पडोमसयों की स ानुभूनत से विंधचत कर हदया था। सबउसी को
बरु ा-बरु ा क ने लगी। मि
ु ी-भर घास के मलए इतना ऊिम मचा डाला, इतनी घास
तो आदमी झाडकर फेंक दे ता ै । घास न ु ई, सोना ु आ। तझ
ु े तो सोचना चाह ए
था कक अगर ककसी ने ले ी मलया तो, ै तो गाँव-भर ी का। बा र का कोई
चोर तो आया न ीिं। तूने इतनी गामलयाँ दीिं तो ककसको दीिं? पडोमसयों को तो?
'अरे , कुछ मँु से तो बोल, क्या ु आ? गाँव में ककसी ने गाली दी ै ? ककसने गाली
दी ै ? घर फूँक दँ ,ू उसका चालान करवा दँ ।ू '
मसमलया ने रो-रोकर कथा सुनाई। पयाग पर आज थाने पर खूब मार पडी थी।
झल्लाया ु आ था। व कथा सुनी तो दे में आग लग गई। रुन्क्मन पानी भरने
गई थी। व अभी घडा भी न रखने पाई थी कक पयाग उस पर टूट पडा और
मारते-मारते बेदम कर हदया। व मार का जवाब गामलयों से दे ती थी और पयाग
घर गाली पर और झल्ला-झल्लाकर मारता था। य ाँ तक की रुन्क्मन के घुटने
टूट गए, चूडडयाँ टूट गई। मसमलया बीच-बीच में क ती जाती थी - वा रे तेरा
दीदा! वा रे तेरी जबान! ऐसी औरत ी न ीिं दे खी। औरत का े को, डायन ै,
जरा भी मँु में लगाम न ीिं लगाती। ककदतु रुन्क्मन उसकी बातों को मानो
सुनती ी न थी। उसकी सारी शन्क्त पयाग को कोसने में लगी ु ई थी - तू मर
जा, तेरी ममट्टी ननकले, तुझे भवानी खाएँ, तुझे ममरगी आए। पयाग र -र कर क्रोि
से नतलममला उठता और आकर दो-चार लातें जमा दे ता। पर रुन्क्कम को अब
शायद चोट भी न लगती थी। व जग से ह लती भी न थी। मसर के बाल
खोले, जमीन पर बैठन इद ीिं मत्रों का पाठ कर र ी थी। उसके स्वर में क्रोि न
था, केवल एक उदमादमय प्रवा था। उसकी समस्त आत्मा ह स
िं ा-कामना की
अन्नन से प्रज्वमलत ो र ी थी।
'तो घर में कौन र े गा? सूना घर पाकर कोई लोटा-थाली उठा ले जाए तो? डर
ककस बात का ै ? कफर रुन्क्मन तो आती ी ोगी।'
अब पयाग को मालम
ू ु आ कक उसकी मडैया में आग लगी ु ई ै । उसकी छाती
िडकने लगी। इस मडैया में आग लगाना रई के ढे र में आग लगाना था वा
चल र ी थी। मडैया के चारो ओर एक ाथ टकर पकी ु ई फसल की चादर-सी
बबछन ु ई थी। रात में भी उसका सुन रा रिं ग झलक र ा था। आग की एक
लपट, केवल एक जरा-सी धचनगारी सारे ार को भस्म कर दे गी। सारा गाँव
तबा ो जाएगा। इसी ार से ममले ु ए दस
ू रे गाँव के भी ार थे। वे भी जल
उठें गे। ओ ! लपटें बढ़ती ी जा र ी ै । अब ववलम्ब करने का समय न था।
पयाग ने अपना उपला और धचलम व ीिं पटक हदया और किंिे पर लो बदद लाठन
रखकर बेत ाशा मडैया की ओर दौडा। मेडों से जाने में चक्कर था। इसमलए खेतों
में से ोकर भागा जा र ा था। प्रनतक्षण ज्वाला प्रचिंडतर ोती जाती थी और
पयाग के पाँव और तेजी से उठ र े थे। कोई तेज घोडा भी इस वक्त उसे पा
न ीिं सकता था। अपनी तेजी पर उसे स्वयिं आश्चयम ो र ा था। जान पडता था,
पाँव भूमम पर पडते ी न ीिं। उसकी आँखें मडैया पर लगी ु ई थीिं। दाह ने-बाएँ
से और कुछ न सूझता था। इसी एकाग्रता ने उसके पैरों में पर लगा हदए थे।
न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। तीन-चार फरलािंग उसने दो ममनट में तय
कर मलए और मडैया के पास जा प ु ँचा।
रुन्क्मन उसके अलाव को मलए एक सेकिंड में खेत के डािंडे पर आ प ु ँची, मगर
इतनी दरू में उसका ाथ जल गया, मँु जल गया और कपडों में आग लग गई।
उसे अब इतनी सुधि भी न थी कक मडैया के बा र ननकल आए। मडैया को मलए
घर में सेरों दि
ू ोता, मगर सज
ु ान के किंठ तले एक बँद
ू भी जाने की कसम थी।
कभी ाककम लोग चखते, कभी म ात्मा लोग। ककसान को दि
ू -िी से क्या
मतलब, उसे रोटी और साग चाह ए। सुजान की नम्रता का अब पारावार न था।
सबके सामने मसर झुकाए र ता, क ीिं लोग य न क ने लगें कक िन पाकर उसे
घमिंड ो गया ै । गाँव में कुल तीन कुएँ थे, ब त-से खेतों में पानी न प ु ँचता
था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा हदया। कुएँ का
वववा ु आ, यज्ञ ु आ, ब्रह्मभोज ु आ। न्जस हदन प ली बार परु चला, सज
ु ान को
मानो चारों पदाथम ममल गए। जो काम गाँव में ककसी ने न ककया था, व बाप-
दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर हदखाया।
एक हदन गाँव में गया के यात्री आकर ठ रे । सुजान ी के द्वार पर उनका
भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की ब ु त हदनों से इच्छा थी। य
अच्छा अवसर दे खकर व भी चलने को तैयार ो गया।
सज
ु ान ने गम्भीर भाव से क ा - 'अगले साल क्या ोगा, कौन जानता ै ! िमम
के काम में मीन-मेष ननकालना अच्छा न ीिं। न्जददगानी का क्या भरोसा!'
बल
ु ाकी - ' ाथ खाली ो जाएगा।'
बुलाकी इसका क्या जवाब दे ती? सत्कायम में बािा डालकर अपनी मुन्क्त क्यों
बबगाडती? प्रातःकाल स्त्री और पुरुष गया करने चले। व ाँ से लौटे तो यज्ञ और
ब्रह्मभोज की ठ री। सारी बबरादरी ननमिंबत्रत ु ए, नयार गाँवों में सुपारी बँटी।
इस िम
ू -िाम से एक लाभ ु आ कक चारों ओर वा -वा मच गई। सब य ी
क ते थे कक भगवान िन दे तो हदल भी ऐसा दे । घमिंड तो छू न ीिं गया, अपने
ाथ से पत्तल उठाता कफरता था, कुल का नाम जगा हदया। बेटा ो तो ऐसा ो।
बाप मरा, तो भूनी-भािंग भी न ीिं थी। अब लक्ष्मी घुटने तौडकर
ा़ आ बैठन ै।
सुजान के ाथों से िीरे -िीरे अधिकार छनने जाने लगे। ककसी खेत में क्या बोना
ै , ककसको क्या दे ना ै , ककससे क्या लेना ै , ककस भाव से क्या चीज बबकी, ऐसी-
ऐसी म त्त्वपूणम बातों में भी भगत जी की सला न ली जाती थी। भगत के
पास कोई जाने ी न पाता। दोनों लडके या स्वयिं बुलाकी दरू ी से मामला तय
कर मलया करती। गाँव-भर में सुजान का मान-सम्मान बढ़ता था, घर में घटता
था। लडके उसका सत्कार अब ब ु त करते। ाथ से चारपाई उठाते दे ख
लपककर खुद उठा लाते, धचलम न भरने दे त,े य ाँ तक कक उसकी िोती छाँटने
के मलए भी आग्र करते थे। मगर अधिकार उसके ाथ में न था। व अब घर
का स्वामी न ीिं, मन्ददर का दे वता था।
एक हदन बुलाकी ओखली में दाल छाँट र ी थी। एक मभखमिंगा द्वार पर आकर
धचल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूिं तो उसे कुछ दे दँ ।ू इतने में बडा
लडका भोला आकर बोला -'अम्माँ, एक म ात्मा द्वार पर खडे गला फाड र े ै?
कुछ दे दो। न ीिं तो उनका रोयाँ दख
ु ी ो जाएगा।'
बुलाकी ने उपेक्षा के भाव से क ा - 'भगत के पाँव क्या में दी लगी ै , क्यों कुछ
ले जाकर न ीिं दे त?े क्या मेरे चार ाथ ै ? ककस-ककसका रोयाँ सुखी करँ? हदन-भर
तो ताँता लगा र ता ै ।'
भोला - 'चौपट करने पर लगे ु ए ै , और क्या? अभी मिं गू बेंग (रुपए) दे ने आया
था। ह साब से 7 मन ु ए। तौला तो पौने सात मन ी ननकले।'
मैंने क ा - 'दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे क ते ै , अब इतनी दरू क ाँ
जाएगा भरपाई मलख दो, न ीिं तो उसका रोयाँ दख
ु ी ोगा। मैने भरपाई न ीिं
मलखी। दस सेर बाकी मलख दी।'
बल
ु ाकी - 'ब ु त अच्छा ककया तम
ु ने, बकने हदया करो। दस-पाँच दफे मँु की खा
जाएँगे, तो आप ी बोलना छोडे दें गे।'
भोला - 'भगत क्या ु ए कक दीन-दनु नया दोनों से गए। सारा हदन पूजा-पाठ में ी
उड जाता ै । अभी ऐसे बूढ़े न ीिं ो गए कक कोई काम ी न कर सके।'
बल
ु ाकी ने आपन्त्त की - 'भोला, य तम्
ु ारा कुदयाय ै । फावडा, कुदाल अब
उनसे न ीिं ो सकता, लेककन कुछ-न-कुछ तो करते ी र ते ै । बैलों को सानी-
पानी दे ते ै , गाय द ु ते ै और भी जो कुछ ो सकता ै , करते ै ।'
सज
ु ान - 'क ाँ आटा रखा ै , लाओ, मैं ी ननकालकर दे आऊँ। तम
ु रानी बनकर
बैठो।'
बल
ु ाकी - 'आटा मैंने मर-मरकर पीसा ै , अनाज दे दो। ऐसे मडधचरो के मलए
प र रात से उठकर चक्की न ीिं चलाती ू ँ।'
ब ु त दे र और गज
ु री, भोजन तैयार ु आ, भोला बल
ु ाने गया। सज
ु ान ने क ा -
'भख
ू न ीिं ै ।' ब ु त मनावन करने पर भी न उठा।
सज
ु ान को सबसे अधिक क्रोि बल
ु ाकी पर था। य भी लडकों के साथ ै। य
बैठन दे खती र ी और भोला ने मेरे ाथ से अनाज छनन मलया। इसके मँु से
इतना भी न ननकला कक ले जाते ै तो ले जाने दो। लडकों को न मालूम ो कक
मैंने ककतने श्रम से ग ृ स्थी जोडी ै , पर य तो जानती ै । हदन को हदन और
रात को रात न ीिं समझा। भादों की अँिेरी रात में मडैया लगा के जुआर की
रखवाली करता था। जेठ-बैसाख की दोप री में भी दम न लेता था, और अब
मेरा घर पर इतना भी अधिकार न ीिं कक भीख तक दे सकँू । माना कक भीख
इतनी न ीिं दी जाती लेककन इनको तो चप
ु र ना चाह ए था, चा े मैं घर में आग
ी क्यों न लगा दे ता। कानून में भी तो मेरा कुछ ोता ै । मैं अपना ह स्सा न ीिं
खाता, दस
ू रों को िखला दे ता ु ँ, इसमें ककसी के बाप का क्या साझा ै ? अब इस
वक्त मानने आई ै , न्जसने खसम की लातें न खाईं ो, कभी कडी ननगा से
दे खा तक न ीिं। रुपए-पैसे, लेना-दे ना, सब इसी के ाथ में दे रखा था। अब रुपए
जमा कर मलए ै , तो मझ
ु ी से घमिंड करती ै । अब इसे बेटे प्यारे ै , मैं तो
ननखट्टू, लुटाऊँ, घर-फूँकू, घोंघा ू ँ । मेरी इसे क्या परवा ! तब लडके न थे, जब
बीमार पडी थी और मैं गोद में उठाकर वैद्य के घर ले गया था। आज उसके
बेटे ै और य उनकी माँ ै । मैं तो बा र का आदमी ू ँ। मझ
ु े घर से मतलब ी
क्या? बोला - 'अब खा-पीकर क्या करँगा, ल जोतने से र ा, फावडा चलाने से
र ा। मुझे िखलाकर दाने को क्यों खराब करे गी? रख दे , बेटे दस
ू री बार खाएँगे।'
बल
ु ाकी -' तम
ु तो जरा-जरा-सी बात पर नतनक जाते ो। सच क ा ै , बढ़
ु ापे में
आदमी की बवु द्ध मारी जाती ै । भोला ने इतना तो क ा था कक इतनी भीख मत
ले जाओ, या और कुछ?'
सज
ु ान - ' ाँ, बेचारा इतना क कर र गया तम्
ु ें तो मजा तब आता, जब व
ऊपर से दो-चार डिंडे लगा दे ता। क्यों? अगर य ी अमभलाषा ै तो परू ी कर लो।
भोला खा चुका ोगा, बुला लाओ। न ीिं, भोला को क्यों बुलाती ो, तुम् ीिं न जमा
दो दो-चार ाथ। इतनी कसर ै, व भी पूरी ो जाए।'
बल
ु ाकी - ' ाँ, और क्या, य ी तो नारी का िरम ै । अपने भाग सरा ो कक मझ
ु -
जैसी सीिी औरत पा ली। न्जस बल चा ते ो, बबठाते ो। ऐसी मँु जोर ोती तो
तुम् ारे घर में एक हदन भी ननबा न ोता।'
सज
ु ान - ' ाँ भाई, व तो मैं क र ा ू ँ कक दे वी थीिं और ो। मैं तब भी राक्षस
था और अब भी दै त्य ो गया ू ँ। बेटे कमाऊँ ै , उनकी-सी न क ोगी तो क्या
मेरी-सी क ोगी, मुझसे अब क्या लेना-दे ना ै ?'
बल
ु ाकी - 'तम
ु झगडा करने पर तल
ु े बैठे ो और मैं झगडा बचाती ू ँ कक चार
आदमी ँसेंगे। चलकर खाना खा लो सीिे से, न ीिं तो मैं जाकर सो र ू ँगी।'
सज
ु ान - 'तम
ु भख
ू ी क्यों सो र ोगी? तम्
ु ारे बेटों की तो कमाई ै। ाँ, मैं बा री
आदमी ू ँ।'
सुजान - 'न ीिं, मैं ऐसे बेटों से बाज आया। ककसी और के बेटे ोंगे। मेरे बेटे ोते
तो क्या मेरी दग
ु नम त ोती?'
बुलाकी - 'गामलयाँ दोगे तो मैं भी कुछ क बैठूँगी। सुनती थी, मदम बडे समझदार
ोते ै , पर तुम सबसे दयारे ो। आदमी को चाह ए कक जैसा समय दे खे वैसा
काम करे । अब मारा और तम्
ु ारा ननबा इसी में ै कक नाम के मामलक बने
र ें और व ी करें जो लडकों को अच्छा लगे। मैं य बात समझ गई, तम
ु क्यों
न ीिं समझ पाते? जो कमाता ै , उसी का घर में राज ोता ै , य ी दनु नया का
दस्तूर ै । मैं बबना लडकों से पूछे कोई काम न ीिं करती, तुम क्यों अपने मन की
करते ो? इतने हदनों तक तो राज कर मलया, अब क्यों माया में पडे ो? आिी
रोटी खाओ, भगवान भजन करो और पडे र ो। चलो, खाना खा लो।'
बल
ु ाकी - 'बात जो थी, व मैंने क दी। अब अपने को जो चा ो समझो।'
न जाने ककतनी रात बाकी थी। सुजान ने उठकर गिंडासे से बैलों का चारा काटना
शुर ककया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट र े थे। इतना श्रम
उद ोंने अपने जीवन में कभी न ककया था। जबसे उद ोंने काम छोडा था, बराबर
चारे के मलए ाय- ाय पडी र ती थी। शिंकर भी काटता था, भोला भी काटता था,
पर चारा पूरा न पडता था। आज व इन लौडो को हदखा दें गे, चारा कैसे काटना
चाह ए। उनके सामने कहटया का प ाड खडा ो गया। और टुकडे इतने म ीन
और सुडौल था, मानो सािंचे में ढाले गए ों।
मँु -अँिरे बुलाकी उठन तो कहटया का ढ़े र दे खकर दिं ग र गई और बोली - 'क्या
भोल आज रात भी कहटया ी काटता र गया? ककतना क ा कक बेटा, जी से
ज ान ै , पर मानता ी न ीिं। रात को सोया ी न ीिं।'
बल
ु ाकी -'व तो पडा सो र ा ै । मैंने समझा, तम
ु ने काटी ै ।'
बल
ु ाकी - 'क्रोिी तो सदा के ै। अब ककसी की सन
ु ेंगे थोडे ी।'
दोप र ु आ। सभी ककसानों ने ल छोड हदए। पर सुजान भगत अपने काम में
मनन ै । भोला थक गया ै । उसकी बार-बार इच्छा ोती कक बैलों को खोल दे ।
मगर डर के मारे कुछ क न ीिं सकता। सबको आश्चयम ो र ा ै कक दादा कैसे
इतनी मे नत कर र े ै।
सुजान - ' ाँ, खोल दो। तुम बैलों को लेकर चलो, मैं डािंड फेंककर आता ू ँ।'
सज
ु ान - 'तम
ु क्या फेंक दोगे। दे खते न ीिं ो, खेत कटोरे की तर ग रा ो
गया ै । तभी तो बीच में पानी जम जाता ै । इस गोइिंड के खेत में बीस मन
का बीघा ोता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर हदया।'
बल
ु ाकी ने क ा - 'भोला, तम्
ु ारे दादा ल लेकर गए।'
चैत का म ीना था। खमल ानों में सतयुग का राज था। जग -जग अनाज के
ढे र लगे ु ए थे। य ी समय ै , जब कृषकों को भी थोडी दे र के मलए अपना
जीवन सफल मालम
ू ोता ै , जब गवम से उनका हृदय उछलने लगता ै । सज
ु ान
भगत टोकरे में अनाज भर-भर दे ते थे और दोनों लडके टोकरे लेकर घर में
अनाज रख आते थे। ककतने ी भाट और मभक्षुक भगत जी को घेरे ु ए थे।
उनमें व मभक्षुक भी था, जो आज से आठ म ीने प ले भगत के द्वार से
ननराश ोकर लौट गया था।
मभक्षुक - 'अभी तो क ीिं न ीिं गया भगतजी, प ले तुम् ारे ी पास आया ू ँ।'
भगत - 'न ी, तम
ु से न्जतना उठ सके, उठा लो।'
मभक्षुक के पास एक चादर थी, उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा और उठाने
लगा। सिंकोच के मारे और अधिक भरने का उसे सा स न ू आ।
तब सज
ु ान भगत ने चादर लेकर उसमें अनाज भरा और गठरी बाँिकर बोले -
'इसे उठा ले जाओ।'
भोला मसर झुकाए खडा था, उसे कुछ बोलने का ौसला न ु आ। वद्ध
ृ वपता ने
उसे परास्त कर हदया था।
***
सो ाग का शव
यव
ु क ववचारों में मौन उसी पवमतमाला की ओर दे ख र ा था कक स सा बादल की
गरज से भयिंकर ्वनन सुनायी दी। नदी का मिुर गान उस भीषण नाद में डूब
गया। ऐसा मालूम ु आ, मानो उस भयिंकर नाद ने पवमतो को भी ह ला हदया ै,
मानो पवमतों में कोई घोर सिंग्राम नछड गया ै। य रे लगाडी थी, जो नदी पर बने ु ए
पुल से चली आ र ी थी।
सुभद्रा ने कफर आँखें में आँसू भरे ु ए मुस्करा कर क ा—दे खना ववलायती ममसों
के जाल में न फँस जाना।
केशव कफर चारपाई पर बैठ गया और बोला—तुम् ें य सिंदे ै , तो लो, मैं जाऊँगा
ी न ीिं।
हदन गुजरने लगे। उसी तर , जैसे बीमारी के हदन कटते ैं —हदन प ाड रात काली
बला। रात-भर मनाते गुजरती थी कक ककसी तर भोर ोता, तो मनाने लगती कक
जल्दी शाम ो। मैके गयी कक व ॉ ॉँ जी ब लेगा। दस-पॉच
ॉँ हदन पररवतमन का कुछ
असर ु आ, कफर उनसे भी बरु ी दशा ु ई, भाग कर ससरु ाल चली आयी। रोगी करवट
बदलकर आराम का अनभ
ु व करता ै।
ॉँ
प ले पॉच-छ म ीनों तक तो केशव के पत्र पिंद्र वें हदन बराबर ममलते र े ।
उसमें ववयोग के द:ु ख कम, नये-नये दृश्यों का वणमन अधिक ोता था। पर सभ
ु द्रा
सिंतष्ु ट थी। पत्र मलखती, तो ववर -व्यथा के मसवा उसे कुछ सझ
ू ता ी न था। कभी-
कभी जब जी बेचैन ो जाता, तो पछताती कक व्यथम जाने हदया। क ीिं एक हदन मर
जाऊँ, तो उनके दशमन भी न ों।
लेककन छठे म ीने से पत्रों में भी ववलम्ब ोने लगा। कई म ीने तक तो म ीने
में एक पत्र आता र ा, कफर व भी बिंद ो गया। सुभद्रा के चार-छ पत्र प ु ँच
जाते, तो एक पत्र आ जाता; व भी बेहदली से मलखा ु आ—काम की अधिकता
और समय के अभाव के रोने से भरा ु आ। एक वाक्य भी ऐसा न ीिं, न्जससे हृदय
को शािंनत ो, जो टपकते ु ए हदल पर मर म रखे। ा ! आहद से अदत तक ‘वप्रये’
शब्द का नाम न ीिं। सभ
ु द्रा अिीर ो उठन। उसने योरप-यात्रा का ननश्यच कर मलया।
व सारे कष्ट स लेगी, मसर पर जो कुछ पडेगी स लेगी; केशव को आँखों से
दे खती र े गी। व इस बात को उनसे गुप्त रखेगी, उनकी कहठनाइयों को और न
बढ़ायेगी, उनसे बोलेगी भी न ीिं ! केवल उद ें कभी-कभी ऑ िंख भर कर दे ख लेगी।
य ी उसकी शािंनत के मलए काफी ोगा। उसे क्या मालूम था कक उसका केशव उसका
न ीिं र ा। व अब एक दस
ू री ी काममनी के प्रेम का मभखारी ै।
ववदा ोते समय सास और ससरु दोनों स्टे शन तक आए। जब गाडी ने सीटी दी,
तो सभ
ु द्रा ने ाथ जोडकर क ा—मेरे जाने का समाचार व ॉ ॉँ न मलिखएगा। न ीिं
तो उद ें धचिंता ोगी ओर पढ़ने में उनका जी न लगेगा।
लिंदन के उस ह स्से में , ज ॉ ॉँ इस समवृ द्ध के समय में भी दररद्रता का राज्य ैं,
ऊपर के एक छोटे से कमरे में सुभद्रा एक कुसी पर बैठन ै । उसे य ॉ ॉँ आये आज
एक म ीना ो गया ै । यात्रा के प ले उसके मन मे न्जतनी शिंकाएँ थी, सभी शादत
ोती जा र ी ै । बम्बई-बिंदर में ज ाज पर जग पाने का प्रश्न बडी आसानी से
ल ो गया। व ॉँ
अकेली औरत न थी जो योरोप जा र ी ो। पॉच-छ न्स्त्रयॉ ॉँ
और भी उसी ज ाज से जा र ी थीिं। सभ
ु द्रा को न जग ममलने में कोई कहठनाई
सिं्या ो गयी थी। िुऍ िं में बबजली की लालटनें रोती ऑ िंखें की भाँनत ज्योनत ीन-सी
ो र ी थीिं। गली में स्त्री-पुरुष सैर करने जा र े थे। सुभद्रा सोचने लगी—इन लोगों
को आमोद से ककतना प्रेम ै , मानो ककसी को धचदता ी न ीिं, मानो सभी सम्पदन
ै , जब ी ये लोग इतने एकाग्र ोकर सब काम कर सकते ै । न्जस समय जो
काम करने ै जी-जान से करते ैं। खेलने की उमिंग ै , तो काम करने की भी
उमिंग ै और एक म ैं कक न ँसते ै , न रोते ैं, मौन बने बैठे र ते ैं। स्फूनतम
का क ीिं नाम न ीिं, काम तो सारे हदन करते ैं, भोजन करने की फुरसत भी न ीिं
ममलती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में न ी लगते। केवल काम करने
का ब ाना करते ैं। मालम
ू ोता ै , जानत प्राण-शूदय ो गयी ैं।
स सा उसने केशव को जाते दे खा। ॉ,ॉँ केशव ी था। कुसी से उठकर बरामदे में
चली आयी। प्रबल इच्छा ु ई कक जाकर उनके गले से मलपट जाय। उसने अगर
अपराि ककया ै , तो उद ीिं के कारण तो। यहद व बराबर पत्र मलखते जाते, तो व
क्यों आती?
ॉँ
सुभद्रा ने ्यान से दे खा। युवती का रिं ग सॉवला था। व भारतीय बामलका थी।
उसका प नावा भारतीय था। इससे ज्यादा सुभद्रा को और कुछ न हदखायी
हदया। उसने तरु िं त जत
ू े प ने, द्वार बदद ककया और एक क्षण में गली में आ प ु ँची।
केशव अब हदखायी न दे ता था, पर व न्जिर गया था, उिर ी व बडी तेजी से
लपकी चली जाती थी। य यव
ु ती कौन ै? व उन दोनों की बातें सन
ु ना चा ती
थी, उस युवती को दे खना चा ती थी उसके पॉवॉँ इतनी तेज से उठ र े थे मानो
दौड र ी ो। पर इतनी जल्दी दोनो क ॉ ॉँ अदृश्य ो गये? अब तक उसे उन लोगों
के समीप प ु ँ च जाना चाह ए था। शायद दोनों ककसी ‘बस’ पर जा बैठे।
कफर उसने सोचा—यों क ॉ ॉँ तक चली जाऊिंगी? कौन जाने ककिर गये। चलकर
कफर अपने बरामदे से दे ख।ूँ आिखर इिर से गये ै , तो इिर से लौटें गे भी। य
ख्याल आते ी व घूम पडी ओर उसी तर दौडती ु ई अपने स्थान की ओर
चली। जब व ाँ प ु ँची, तो बार बज गये थे। और इतनी दे र उसे चलते ी गज
ु रा !
एक क्षण भी उसने क ीिं ववश्राम न ीिं ककया।
ुआ ै।
सुभद्रा ने भोजन अपने कमरे में मँगा मलया पर खाने की सधु ि ककसे थी ! व
उसी बरामदे मे उसी तरफ टकटकी लगाये खडी थी, न्जिर से केशव गया।
एक बज गया, दो बजा, कफर भी केशव न ीिं लौटा। उसने मन में क ा—व ककसी
दस
ू रे हदन प्रात:काल सभ
ु द्रा अपने काम पर जाने को तैयार ो र ी थी कक एक
यव
ु ती रे शमी साडी प ने आकर खडी ो गयी और मस्
ु कराकर बोली—क्षमा
कीन्जएगा, मैंने ब ु त सबेरे आपको कष्ट हदया। आप तो क ीिं जाने को तैयार
मामूल ोती ै ।
‘अगर मैं भल
ू ती ू ँ, तो मझ
ु े क्षमा कीन्जएगा। मैंने सन
ु ा ै कक आप कुछ कपडे भी
सीती ै , न्जसका प्रमाण य ै कक य ॉ ॉँ सीवविंग मशीन मौजद
ू ै ।‘
सुभद्रा—मैं दो लेडडयों को भाषा पढ़ाने जाया करती ू ँ, शेष समय में कुछ मसलाई
भी कर लेती ू ँ। आप कपडे लायी ैं।
युवती—न ीिं, अभी कपडे न ीिं लायी। य क ते ु ए उसने लज्जा से मसर झुका कर
मुस्काराते ु ए क ा—बात य ै कक मेरी शादी ोने जा र ी ै । मैं वस्त्राभूषण
सब ह द
िं स्
ु तानी रखना चा ती ू ँ । वववा भी वैहदक रीनत से ी ोगा। ऐसे कपडे
य ॉ ॉँ आप ी तैयार कर सकती ैं।
सुभद्रा ने ँसकर क ा—मैं ऐसे अवसर पर आपके जोडे तैयार करके अपने को
िदय समझँग
ू ी। व शुभ नतधथ कब ै?
सभ
ु द्रा—वा , मैं इस शुभ कायम में क्यों ववघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ता में
आपके कपडे दे दँ ग
ू ी, और उनसे इसका परु स्कार लँ ग
ू ी।
युवती िखलिखलाकर ँसी। कमरे में प्रकाश की ल रें -सी उठ गयीिं। बोलीिं—इसके
मलए तो परु स्कार व दें गे, बडी खश
ु ी से दें गे और तम्
ु ारे कृतज्ञ ोंगे। मैंने प्रनतज्ञा
की थी कक वववा के बिंिन में पडूँगी ी न ी; पर उद ोंने मेरी प्रनतज्ञा तोड दी। अब
मुझे मालूम ो र ा ै कक प्रेम की बेडडयॉ ॉँ ककतनी आनिंदमय ोती ै । तुम तो अभी
ाल ी में आयी ो। तुम् ारे पनत भी साथ ोंगे?
सभ
ु द्रा ने ब ाना ककया। बोली—व इस समय जममनी में ैं। सिंगीत से उद ें ब ु त
प्रेम ै । सिंगीत ी का अ्ययन करने के मलए व ॉ ॉँ गये ैं।
‘तम
ु भी सिंगीत जानती ो?’
‘ब ु त थोडा।’
‘केशव को सिंगीत ब ु त प्रेम ै ।’
केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम ु आ, जैसे बबच्छू ने काट मलया
ो। व चौंक पडी।
सभ
ु द्रा ने बात बनाकर क ा—न ीिं, मैंने य नाम कभी न ीिं सन
ु ा। व य ॉ ॉँ क्या
करते ैं?
सभ
ु द्रा का ख्याल आया, क्या केशव ककसी दस
ू रे आदमी का नाम न ीिं ो सकता?
इसमलए उसने य प्रश्न ककया। उसी जवाब पर उसकी न्जिंदगी का फैसला था।
युवती ने क ा—य ॉ ॉँ ववद्यालय में पढ़ते ैं। भारत सरकार ने उद ें भेजा ै । अभी
साल-भर भी तो आए न ीिं ु आ। तम
ु दे खकर प्रसदन ोगी। तेज और बवु द्ध की
मनू तम समझ लो। य ॉ ॉँ के अच्छे -अच्छे प्रोफेसर उनका आदर करते ै । ऐसा सद
ु दर
भाषण तो मैंने ककसी के मँु से सुना ी न ीिं। जीवन आदशम ै । मुझसे उद ें क्यों
प्रेम ो गया ै , मुझे इसका आश्चयम ै । मुझमें न रप ै , न लावण्य। ये मेरा
सौभानय ै । तो मैं शाम को कपडे लेकर आऊँगी।
ॉँ कर क ा—अच्छन बात
सुभद्रा ने मन में उठते ु ए वेग को सभॉल ै।
जब यव
ु ती चली गयी, तो सभ
ु द्रा फूट-फूटकर रोने लगी। ऐसा जान पडता था,
मानो दे में रक्त ी न ीिं, मानो प्राण ननकल गये ैं व ककतनी नन:स ाय, ककतनी
दब
ु ल
म ै , इसका आज अनुभव ु आ। ऐसा मालम
ू ु आ, मानों सिंसार में उसका कोई
न ीिं ै । अब उसका जीवन व्यथम ै । उसके मलए अब जीवन में रोने के मसवा और
क्या ै ? उनकी सारी ज्ञानेंहद्रयॉ ॉँ मशधथल-सी ो गयी थीिं मानों व ककसी ऊँचे वक्ष
ृ से
धगर पडी ो। ा ! य उसके प्रेम और भन्क्त का पुरस्कार ै । उसने ककतना
आग्र करके केशव को य ॉ ॉँ भेजा था? इसमलए कक य ॉ ॉँ आते ी उसका सवमनाश
कर दें ?
पुरानी बातें याद आने लगी। केशव की व प्रेमातुर ऑ िंखें सामने आ गयीिं। व
सरल, स ज मूनतम ऑ िंखों के सामने नाचने लगी। उसका जरा मसर िमकता था, तो
केशव ककतना व्याकुल ो जाता था। एक बार जब उसे फसली बख
ु ार आ गया
था, तो केशव घबरा कर, पिंद्र हदन की छुट्टी लेकर घर आ गया था और उसके
मसर ाने बैठा रात-भर पिंखा झलता र ा था। व ी केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब
उठा! उसके मलए सुभद्रा ने कौन-सी बात उठा रखी। व तो उसी का अपना
प्राणािार, अपना जीवन िन, अपना सवमस्व समझती थी। न ीिं-न ीिं, केशव का दोष
न ीिं, सारा दोष इसी का ै । इसी ने अपनी मिुर बातों से अद ें वशीभूत कर मलया
ै । इसकी ववद्या, बवु द्ध और वाकपटुता ी ने उनके हृदय पर ववजय पायी ै। ाय!
उसने ककतनी बार केशव से क ा था, मझ
ु े भी पढ़ाया करो, लेककन उद ोंने मेशा
य ी जवाब हदया, तुम जैसी ो, मझ
ु े वैसी ी पसदद ो। मैं तुम् ारी स्वाभाववक
सरलता को पढ़ा-पढ़ा कर ममटाना न ीिं चा ता। केशव ने उसके साथ ककतना बडा
अदयाय ककया ै ! लेककन य उनका दोष न ीिं, य इसी यौवन-मतवाली छोकरी
की माया ै।
उदमाद की-सी दशा ो गयी। ऑ िंखों में भी एक तीव्र ज्वाला चमक उठन। ज्यों-ज्यों
केशव के इस ननष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो उसने उसके
मलए झेले थे, उसका धचत्त प्रनतकार के मलए ववकल ोता जाता था। अगर कोई
बात ु ई ोती, आपस में कुछ मनोमामलदय का लेश भी ोता, तो उसे इतना द:ु ख
न ोता। य तो उसे ऐसा मालूम ोता था कक मानों कोई ँसते- ँसते अचानक
गले पर चढ़ बैठे। अगर व उनके योनय न ीिं थी, तो उद ोंने उससे वववा ी क्यों
ककया था? वववा करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा हदया था? क्यों प्रेम का बीज
बोया था? और आज जब व बीच पल्लवों से ल राने लगा, उसकी जडें उसके
अदतस्तल के एक-एक अणु में प्रववष्ट ो गयीिं, उसका रक्त उसका सारा उत्सगम
वक्ष
ृ को सीिंचने और पालने में प्रवत्ृ त ो गया, तो व आज उसे उखाड कर फेंक
दे ना चा ते ैं। क्या हृदय के टुकडे-टुकडे ु ए बबना वक्ष
ृ उखड जायगा?
सुभ्रदा हदन-भर युवती का इदतजार करती र ी। कभी बरामदे में आकर इिर-
उिर ननगा दौडाती, कभी सडक पर दे खती, पर उसका क ीिं पता न था। मन में
झँझ
ु लाती थी कक उसने क्यों उसी वक्त सारा वत
ृ ािंत न क सन
ु ाया।
केशव का पता उसे मालूम था। उस मकान और गली का नम्बर तक याद था,
ज ॉ ॉँ से व उसे पत्र मलखा करता था। ज्यों-ज्यों हदन ढलने लगा और यव
ु ती के
आने में ववलम्ब ोने लगा, उसके मन में एक तरिं गी-सी उठने लगी कक जाकर
केशव को फटकारे , उसका सारा नशा उतार दे , क े —तुम इतने भिंयकर ह स
िं क ो,
इतने म ान िूतम ो, य मुझे मालूम न था। तुम य ी ववद्या सीखने य ॉ ॉँ आये
थे। तुम् ारे पािंडडत्य की य ी फल ै ! तुम एक अबला को न्जसने तुम् ारे ऊपर
अपना सवमस्व अपमण कर हदया, यों छल सकते ो। तुममें क्या मनुष्यता नाम को
भी न ीिं र गयी? आिखर तम
ु ने मेरे मलए क्या सोचा ै । मैं सारी न्जिंदगी तम्
ु ारे
नाम को रोती र ू ँ ! लेककन अमभमान र बार उसके पैरों को रोक लेता। न ीिं,
न्जसने उसके साथ ऐसा कपट ककया ै , उसका इतना अपमान ककया ै , उसके पास
व न जायगी। व उसे दे खकर अपने ऑ िंसओ
ु िं को रोक सकेगी या न ीिं, इसमें उसे
सिंदे था, और केशव के सामने व रोना न ीिं चा ती थी। अगर केशव उससे घण
ृ ा
करता ै , तो व भी केशव से घण
ृ ा करे गी। सिं्या भी ो गयी, पर युवती न
आयी। बन्त्तयॉ ॉँ भी जलीिं, पर उसका पता न ीिं।
युवती ने घबरा कर पूछा—िोखा? कैसा िोखा? मैं बबलकुल न ीिं समझती। तुम् ारा
मतलब क्या ै?
सभ
ु द्रा ने सिंकोच के आवरण को टाने की चेष्टा करते ु ए क ा—केशव तम्
ु ें
िोखा दे कर तुमसे वववा करना चा ता ै।
‘केशव ऐसा आदमी न ीिं ै , जो ककसी को िोखा दे । क्या तुम केशव को जानती
ो?
युवती की मुख-ज्योनत कुछ ममलन पड गयी, उसकी गदम न लज्जा से झुक गयी।
अटक-अटक कर बोली— ॉ,ॉँ उद ोंने मुझसे..... य बात क ी थी।
यव
ु ती ने अमभमान से दे खकर क ा—तम
ु ने केशव को दे खा ै?
‘मेरे एक ममत्र ने मझ
ु से य बात क ी े, व केशव को जानता ै ।’
‘अगर तुम एक बार केशव को दे ख लेतीिं, एक बार उससे बातें कर लेतीिं, तो मुझसे
य प्रश्न न करती। एक न ीिं, अगर उद ोंने एक सौ वववा ककये ोते, तो मैं
इनकार न करती। उद ें दे खकर में अपने को बबलकुल भल
ू जाती ू ँ। अगर उनसे
वववा न करँ, ता कफर मुझे जीवन-भर अवववाह त ी र ना पडेगा। न्जस समय
व मुझसे बातें करने लगते ैं, मुझे ऐसा अनुभव ोता ै कक मेरी आत्मा पुष्पकी
ॉँ िखली जा र ी
भॉनत ै । मैं उसमें प्रकाश और ववकास का प्रत्यक्ष अनुभव करती
ू ँ। दनु नया चा े न्जतना ँसे, चा े न्जतनी ननददा करे , मैं केशव को अब न ीिं छोड
सकती। उनका वववा ो चक
ु ा ै, व सत्य ै ; पर उस स्त्री से उनका मन कभी न
ममला। यथाथम में उनका वववा अभी न ीिं ु आ। व कोई सािारण, अद्धममशक्षक्षता
बामलका ै । तम्
ु ीिं सोचों, केशव जैसा ववद्वान, उदारचेता, मनस्वी पर
ु ष ऐसी बामलका
के साथ कैसे प्रसदन र सकता ै ? तम्
ु ें कल मेरे वववा में चलना पडेगा।
सुभद्रा का चे रा तमतमाया जा र ा था। केशव ने उसे इतने काले रिं गों में रिं गा ै ,
य सोच कर उसका रक्त खौल र ा था। जी में आता था, इसी क्षण इसको दत्ु कार
दँ ,ू लेककन उसके मन में कुछ और ी मिंसब
ू े पैदा ोने लगे थे। उसने गिंभीर, पर
उदासीनता के भाव से पूछा—केशव ने कुछ उस स्त्री के ववषय में न ी क ा?
यव
ु ती ने तत्परता से क ा—घर प ु ँचने पर व उससे केवल य ी क दें गे कक
म और तम
ु अब स्त्री और पर
ु ष न ीिं र सकते। उसके भरण-पोषण का व
उसके इच्छानुसार प्रबिंि कर दें गे, इसके मसवा व और क्या कर सकते ैं। ह दद-ू
नीनत में पनत-पत्नी में ववच्छे द न ीिं ो सकता। पर केवल स्त्री को पूणम रीनत से
स्वािीन कर दे ने के ववचार से व ईसाई या मुसलमान ोने पर भी तैयार ैं। व
तो अभी उसे इसी आशय का एक पत्र मलखने जा र े थे, पर मैंने ी रोक मलया।
मझ
ु े उस अभाधगनी पर बडी दया आती ै , मैं तो य ॉ ॉँ तक तैयार ू ँ कक अगर
उसकी इच्छा ो तो व भी मारे साथ र े । मैं उसे अपनी ब न समझँग
ू ी। ककिं तु
केशव इससे स मत न ीिं ोते।
सभ
ु द्रा ने व्यिंनय से क ा—रोटी-कपडा दे ने को तैयार ी ैं , स्त्री को इसके मसवा
और क्या चाह ए?
युवती ने व्यिंनय की कुछ परवा न करके क ा—तो मुझे लौटने पर कपडे तैयार
ममलें गे न?
सभ
ु द्रा—न ीिं, खेद ै , अवकाश न ीिं ै।
यव
ु ती ने कुछ न क ा। चली गयी।
उसने खट
ूँ ी पर लटकाती ु ई वपस्तौल उतार ली और ्यान से दे खने लगी, मानो
उसे कभी दे खा न ो। कल सिं्या-समय जब कायम-मिंहदर के केशव और उसकी
प्रेममका एक-दस
ू रे के सम्मुख बैठे ु ए ोंगे, उसी समय व इस गोली से केशव की
प्रेम-लीलाओिं का अदत कर दे गी। दस
ू री गोली अपनी छाती में मार लेगी। क्या व
रो-रो कर अपना अिम जीवन काटे गी?
वववा -सिंस्कार समाप्त ो गया, ममत्रों ने बिाइयॉ ॉँ दीिं, स े मलयों ने मिंगलगान ककया,
कफर लोग मेजों पर जा बैठे, दावत ोने लगी, रात के बार बज गये; पर सभ
ु द्रा व ीिं
ॉँ खडी र ी, मानो कोई ववधचत्र स्वप्न दे ख र ी
पाषाण-मूनतम की भॉनत ो। ॉ,ॉँ जैसे
कोई बस्ती उजड गई ो, जैसे कोई सिंगीत बदद ो गया ो, जैसे कोई दीपक बुझ
गया ै।
ु ारा स्थान क ॉ ॉँ ै ?’
‘तम्
‘मेरा स्थान?’
‘ ॉ,ॉँ तुम् ारा स्थान क ॉ ॉँ ै ? मैं तुम् ें बडी दे र से इिर-उिर भटकते दे ख र ा ू ँ। ककस
स्रीट में र ती ो?
सुभद्रा ने मसर उठाकर दे खा, तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी कवव की कोमल
कल्पना मूनतममयी ो गयी ै । उसकी उप छवव अननिंद्य थी। प्रेम की ववभूनत रोम-
रोम से प्रदमशमत ो र ी थी। सुभद्रा दौडकर उसके गले से मलपट गई, जैसे उसकी
छोटी ब न आ गयी ो, और बोली — ॉ,ॉँ गयी तो थी।
‘केशव को दे खा?’
‘ ॉ ॉँ दे खा।‘
‘िीरे से क्यों बोली? मैंने कुछ झठ
ू क ा था?
एक बार वस्त्राभष
ू णों से सजकर अपनी छवव आईने में दे खी तो मालम
ू ो
जायेगा।
ॉँ
‘अपने कमरे से फशम, तसवीरें , ॉडडयॉ ,ॉँ गमले आहद ननकाल कर दे ख लो, कमरे की
शोभा व ी र ती ै !’
‘तम्
ु ारे पास ग ने ैं?’
सभ
ु द्रा — ँसेगें न ीिं, बलैया लें गे, ऑ िंखें खल
ु जायेगी। तम
ु आज इसी रप में उसके
पास जाना।
‘तम्
ु ें सिंदे न ोगा?’
‘बबल्कुल न ीिं।‘
‘तम
ु दो-चार म ीने प ने र ो। आिखर, पडे ी तो ै !’
एक क्षण में युवती व ॉ ॉँ से चली गयी। सुभद्रा अपनी िखडकी पर उसे इस भॉनत
ॉँ
एक क्षण, केवल एक क्षण के मलए, सुभद्रा कुछ घबडा गयी। उसने जल्दी से उठ
कर मेज पर पडी ु ई चीजें इिर-उिर टा दीिं, कपडे करीने से रख हदये। उसने
जल्दी से उलझे ु ए बाल सँभाल मलये, कफर उदासीन भाव से मस्
ु करा कर बोली—
उद ें तुमने क्यों कष्ट हदया। जाओ, बुला लो।
एक ममनट में केशव ने कमरे में कदम रखा और चौंक कर पीछे ट गये , मानो
पॉवॉँ जल गया ो। मँु से एक चीख ननकल गयी। सभ
ु द्रा गम्भीर, शािंत, ननश्चल
अपनी जग पर खडी र ी। कफर ाथ बढ़ा कर बोली, मानो ककसी अपररधचत
व्यन्क्त से बोल र ी थी—आइये, ममस्टर केशव, मैं आपको ऐसी सुशील, ऐसी सुददरी,
ऐसी ववदष
ु ी रमणी पाने पर बिाई दे ती ू ँ।
यव
ु ती ने कृतज्ञता का भाव प्रकट करके क ा—इनके पनत इस समय जममनी में
ै।
ॉँ प्रसदन-मुख से क ा—पुरष-प्रकृनत
सुभद्रा ने उसी भॉनत ी आश्चयम का ववषय ै ,
चा े मम. केशव इसे स्वीकार न करें ।
ॉँ
युवती ने कफर केशव की ओर प्रेरणा-पूणम दृन्ष्ट से दे खा, लेककन केशव उसी भॉनत
अप्रनतम बैठा र ा। उसके हृदय पर य नया आघात था। युवती ने उसे चुप दे ख
कर उसकी तरफ से सफाई दी—केशव, स्त्री और पर
ु ष, दोनों को ी समान अधिकार
दे ना चा ते ैं।
केशव डूब र ा था, नतनके का स ारा पाकर उसकी ह म्मत बँि गयी। बोला—वववा
एक प्रकार का समझौता ै । दोनों पक्षों को अधिकार ै , जब चा े उसे तोड दें ।
यव
ु ती ने ामी भरी—सभ्य-समाज में य आददोनल बडे जोरों पर ै।
‘कोई जररत ो, तो मझ
ु े याद कीन्जए।‘
केशव सारे हदन बेचैन र ा। सुभद्रा उसकी ऑ िंखों में कफरती र ी। सुभद्रा की बातें
उसके कानों में गँज
ू ती र ीिं। अब उसे इसमें कोई सददे न था कक उसी के प्रेम
ु द्रा य ॉ ॉँ आयी थी। सारी पररन्स्थनत उसकी समझ में आ गयी थी। उस
में सभ
भीषण त्याग का अनुमान करके उसके रोयें खडे ो गये। य ॉ ॉँ सुभद्रा ने क्या-क्या
कष्ट झेले ोंगे, कैसी-कैसी यातनाऍ िं स ी ोंगी, सब उसी के कारण? व उस पर
भार न बनना चा ती थी। इसमलए तो उसने अपने आने की सूचना तक उसे न
दी। अगर उसे प ले मालूम ोती कक सुभद्रा य ॉ ॉँ आ गयी ै , तो कदाधचत उसे उस
यव
ु ती की ओर इतना आकषमण ी न ोता। चौकीदार के सामने चोर को घर में
घस
ु ने का सा स न ीिं ोता। सभ
ु द्रा को दे खकर उसकी कत्तमव्य-चेतना जाग्रत ो
ॉँ के मलए उसका मन अिीर
गयी। उसके पैरों पर धगर कर उससे क्षमा मॉगने ो
उठा; व उसके मँु से सारा वत
ृ ािंत सुनेगा। य मौन उपेक्षा उसके मलए असह्य
थी। हदन तो केशव ने ककसी तर काटा, लेककन ज्यों ी रात के दस बजे, व
सुभद्रा से ममलने चला। युवती ने पूछा—क ॉ ॉँ जाते ो?
ॉँ
केशव ने बूट का लेस बॉिते ु ए क ा—जरा एक प्रोफेसर से ममलना ै , इस वक्त
आने का वादा कर चुका ू ँ?
‘जल्द आना।‘
‘ब ु त जल्द आऊँगा।‘
‘कब गयीिं?’
‘व तो दोप र को ी चली गयी?’
‘ ॉ,ॉँ उधचत तो य ी ै !’
तुम् ारी,
सभ
ु द्रा
केशव ममाम त-सा पत्र ाथ में मलये व ीिं घास पर लेट गया और फूट-फूट कर
रोने लगा।
***
आत्म-संगीत
आिी रात थी। नदी का ककनारा था। आकाश के तारे न्स्थर थे और नदी में
उनका प्रनतबबम्ब ल रों के साथ चिंचल। एक स्वगीय सिंगीत की मनो र और
जीवनदानयनी, प्राण-पोवषणी घ्वननयॉ ॉँ इस ननस्तब्ि और तमोमय दृश्य पर इस
प्रकाश छा र ी थी, जैसे हृदय पर आशाऍ िं छायी र ती ैं, या मख
ु मिंडल पर शोक।
सररता-तट पर कँटीली झाडडया थीिं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जिंतु थे। और उनकी
डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयिंकर उनकी कल्पना। मनोरमा
कोमलता और सक
ु ु मारता की मनू तम थी। परिं तु उस मिरु सिंगीत का आकषमण उसे
तदमयता की अवस्था में खीिंचे मलया जाता था। उसे आपदाओिं का ्यान न था।
ॉँ
मॉझी—रात को नाव न ीिं खोल सकता। वा तेज ै और ल रें डरावनी। जान-
जोिखम ैं
ॉँ मजदरू ी दँ ग
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा ू ँ। नाव खोल दे , मँु मॉगी ू ी।
ॉँ
मॉझी—तब तो नाव ककसी तर न ीिं खोल सकता। राननयों का इस में ननबा
न ीिं।
मनोरमा—चौिरी, तेरे पॉवॉँ पडती ू ँ। शीघ्र नाव खोल दे । मेरे प्राण िखिंचे चले जाते
ैं।
ॉँ
मॉझी—क्या इनाम ममलेगा?
ॉँ ।
मनोरमा—जो तू मॉगे
ॉँ
‘मॉझी—आप ी क ॉँ
दें , गँवार क्या जानँू, कक राननयों से क्या चीज मॉगनी
ॉँ बैठूँ, जो आपकी प्रनतष्ठा के ववरुद्ध
चाह ए। क ीिं कोई ऐसी चीज न मॉग ो?
ॉँ
मॉझी—इस ार ो लेकर मैं क्या करुँ गा?
ॉँ व ी दँ ग
मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉग, ू ी। लेककन दे र न कर। मुझे अब िैयम न ीिं ै ।
प्रतीक्षा करने की तननक भी शन्क्त न ीिं ैं। इन राग की एक-एक तान मेरी
आत्मा को तडपा दे ती ै।
ॉँ
मॉझी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीन्जए।
ू ँ।
ॉँ
मॉझी—और क्या दीन्जएगा?
मनोरमा—मेरे पास इससे ब ु मूल्य और कोई वस्तु न ीिं ै , लेककन तू अभी नाव
खोल दे , तो प्रनतज्ञा करती ू ँ कक तुझे अपना म ल दे दँ ग
ू ी, न्जसे दे खने के मलए
कदाधचत तू भी कभी गया ो। ववशुद्ध श्वेत पत्थर से बना ै , भारत में इसकी
तल
ु ना न ीिं।
ॉँ
मॉझी—( ँस कर) उस म ल में र कर मझ
ु े क्या आनदद ममलेगा? उलटे मेरे
भाई-बिंिु शत्रु ो जायँगे। इस नौका पर अँिेरी रात में भी मुझे भय न लगता।
ऑ िंिी चलती र ती ै , और मैं इस पर पडा र ता ू ँ। ककिं तु व म ल तो हदन ी में
फाड खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायँगे। और आदमी
क ॉ ॉँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर क ॉ?ॉँ इतना माल-असबाब क ॉ?ॉँ उसकी सफाई
और मरम्मत क ॉ ॉँ से कराऊँगा? उसकी फुलवाररयॉ ॉँ सूख जायँगी, उसकी क्याररयों में
गीदड बोलें गे और अटाररयों पर कबत
ू र और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।
मनोरमा अचानक एक तदमय अवस्था में उछल पडी। उसे प्रतीत ु आ कक सिंगीत
ननकटतर आ गया ै । उसकी सद
ु दरता और आनदद अधिक प्रखर ो गया था—
जैसे बत्ती उकसा दे ने से दीपक अधिक प्रकाशवान ो जाता ै । प ले धचत्ताकषमक
था, तो अब आवेशजनक ो गया था। मनोरमा ने व्याकुल ोकर क ा—आ ! तू कफर
अपने मँु ॉँ
से क्यों कुछ न ीिं मॉगता? आ ! ककतना ववरागजनक राग ै , ककतना
ववह्रवल करने वाला! मैं अब तननक िीरज न ीिं िर सकती। पानी उतार में जाने
के मलए न्जतना व्याकुल ोता ै , श्वास वा के मलए न्जतनी ववकल ोती ै , गिंि
उड जाने के मलए न्जतनी व्याकुल ोती ै , मैं उस स्वगीय सिंगीत के मलए उतनी
व्याकुल ू ँ। उस सिंगीत में कोयल की-सी मस्ती ै , पपी े की-सी वेदना ै , श्यामा की-
सी ववह्वलता ै , इससे झरनों का-सा जोर ै , ऑ िंिी का-सा बल! इसमें व सब
कुछ ै , इससे वववेकान्नन प्रज्ज्वमलत ोती, न्जससे आत्मा समाह त ोती ै , और
अिंत:करण पववत्र ोता ॉँ अब एक क्षण का भी ववलम्ब मेरे मलए मत्ृ यु की
ै । मॉझी,
यिंत्रणा ै । शीघ्र नौका खोल। न्जस सुमन की य सुगिंि ै , न्जस दीपक की य
दीन्प्त ै , उस तक मझ
ु े प ु ँचा दे । मैं दे ख न ीिं सकती इस सिंगीत का रचनयता क ीिं
ननकट ी बैठा ु आ ै , ब ु त ननकट।
ॉँ
मॉझी—आपका म ल मेरे काम का न ीिं ै , मेरी झोपडी उससे क ीिं सु ावनी ै।
मनोरमा— ाय! तो अब तझ
ु े क्या दँ ?ू य सिंगीत न ीिं ै , य इस सवु वशाल क्षेत्र की
पववत्रता ै, य समस्त सम
ु न-समू का सौरभ ै , समस्त मिरु ताओिं की
मािुरताओिं की मािुरी ै , समस्त अवस्थाओिं का सार ै । नौका खोल। मैं जब तक
जीऊँगी, तेरी सेवा करुँ गी, तेरे मलए पानी भरुँ गी, तेरी झोपडी ब ारुँ गी। ॉ,ॉँ मैं तेरे
मागम के किंकड चुनँग ॉँ
ू ी, तेरे झोंपडे को फूलों से सजाऊँगी, तेरी मॉिझन के पैर
मलँ ग ॉँ यहद मेरे पास सौ जानें
ू ी। प्यारे मॉझी, ोती, तो मैं इस सिंगीत के मलए अपमण
करती। ईश्वर के मलए मझ
ु े ननराश न कर। मेरे िैयम का अन्दतम बबिंद ु शुष्क ो
गया। अब इस चा में दा ै , अब य मसर तेरे चरणों में ै।
य ॉँ के ननकट जाकर
क ते-क ते मनोरमा एक ववक्षक्षप्त की अवस्था में मॉझी
उसके पैरों पर धगर पडी। उसे ऐसा प्रतीत ु आ, मानों व सिंगीत आत्मा पर ककसी
प्रज्ज्वमलत प्रदीप की तर ज्योनत बरसाता ु आ मेरी ओर आ र ा ै । उसे रोमािंच
ो आया। व मस्त ोकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात ु आ कक मैं वा में उडी जाती
***
ऐक्ट्रे स
रिं गमिंच का परदा धगर गया। तारा दे वी ने शकिंु तला का पाटम खेलकर दशमकों को
मुनि कर हदया था। न्जस वक्त व शकिंु तला के रुप में राजा दष्ु यदत के सम्मुख
खडी नलानन, वेदना, और नतरस्कार से उत्तेन्जत भावों को आननेय शब्दों में प्रकट
कर र ी थी, दशमक-वदृ द मशष्टता के ननयमों की उपेक्षा करके मिंच की ओर
ॉँ दौड पडे थे और तारादे वी का यशोगान करने लगे थे। ककतने
उदमत्तों की भॉनत
ी तो स्टे ज पर चढ़ गये और तारादे वी के चरणों पर धगर पडे। सारा स्टे ज फूलों
से पट गया, आभूषणें की वषाम ोने लगी। यहद उसी क्षण मेनका का ववमान नीचे
ॉँ
आ कर उसे उडा न ले जाता, तो कदाधचत उस िक्कम-िक्के में दस-पॉच
आदममयों की जान पर बन जाती। मैनेजर ने तरु दत आकर दशमकों को गण
ु -
ग्रा कता का िदयवाद हदया और वादा भी ककया कक दस
ू रे हदन कफर व ी तमाशा
ोगा। तब लोगों का मो ादमाद शािंत ु आ। मगर एक युवक उस वक्त भी मिंच
पर खडा र ा। लम्बे कद का था, तेजस्वी मुद्रा, कुददन का-सा दे वताओिं का-सा
स्वरुप, गठन ु ई दे , मुख से एक ज्योनत-सी प्रस्फुहटत ो र ी थी। कोई राजकुमार
मालूम ोता था।
यव
ु क ने कफर पछ
ू ा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते ैं ?
तारा एक साफ-सुथरे और सजे ु ए कमरे में मेज के सामने ककसी ववचार में
मनन बैठन थी। रात का व दृश्य उसकी ऑ िंखों के सामने नाच र ा था। ऐसे हदन
जीवन में क्या बार-बार आते ैं? ककतने मनुष्य उसके दशमनों के मलए ववकल ोर े
ू रे पर फाट पडते थे। ककतनों को उसने पैरों से ठुकरा हदया था— ॉ,ॉँ
ैं? बस, एक-दस
ठुकरा हदया था। मगर उस समू में केवल एक हदव्यमनू तम अववचमलत रुप से खडी
थी। उसकी ऑ िंखों में ककतना गम्भीर अनरु ाग था, ककतना दृढ़ सिंकल्प ! ऐसा जान
पडता था मानों दोनों नेत्र उसके हृदय में चभ
ु े जा र े ों। आज कफर उस परु
ु ष के
दशमन ोंगे या न ीिं, कौन जानता ै । लेककन यहद आज उनके दशमन ु ए, तो तारा
उनसे एक बार बातचीत ककये बबना न जाने दे गी।
तारा ने क ा—न ीिं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत न ीिं ; मगर ठ रो, क्या-क्या
चीजें ैं।
सिंदक
ू में सबसे प ले डडब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोनतयों
का सुददर ार था। डडब्बे में एक तरफ एक काडम भी था। तारा ने लपक कर उसे
ननकाल मलया और पढ़ा—किंु वर ननममलकादत...। काडम उसके ाथ से छूट कर धगर
पडा। व झपट कर कुरसी से उठन और बडे वेग से कई कमरों और बरामदों को
पार करती मैनेजर के सामने आकर खडी ो गयीिं। मैनेजर ने खडे ोकर उसका
स्वागत ककया और बोला—मैं रात की सफलता पर आपको बिाई दे ता ू ँ।
तारा ने खडे-खडे पछ
ू ा—कँु वर ननममलकािंत क्या बा र ैं? लडका पत्र दे कर भाग
गया। मैं उससे कुछ पछ
ू न सकी।
‘कुँवर सा ब का रुक्का तो रात ी तुम् ारे चले आने के बाद ममला था।’
‘मेरे मलए य मनोरिं जन का ववषय न ीिं , न्जिंदगी और मौत का सवाल ै । ॉ,ॉँ तुम इसे
ववनोद समझ सकती ो, मगर कोई प वा न ीिं। तुम् ारे मनोरिं जन के मलए मेरे
प्राण भी ननकल जायें, तो मैं अपना जीवन सफल समझँूगा।
एक म ीना गुजर गया, कुँवर सा ब हदन में कई-कई बार आते। उद ें एक क्षण
का ववयोग भी असह्य था। कभी दोनों बजरे पर दररया की सैर करते, कभी री-
री घास पर पाकों में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना ोता, ननत्य नये प्रोग्राम
ॉँ मलया और
बनते थे। सारे श र में मश ू र था कक ताराबाई ने कँु वर सा ब को फॉस
दोनों ाथों से सम्पन्त्त लट
ू र ी ै । पर तारा के मलए कँु वर सा ब का प्रेम ी
एक ऐसी सम्पन्त्त थी, न्जसके सामने दनु नया-भर की दौलत दे य थी। उद ें अपने
सामने दे खकर उसे ककसी वस्तु की इच्छा न ोती थी।
ॉँ उद ें ताराबाई के
उिर कँु वर सा ब के भाई बदद भी गाकफल न थे, वे ककसी भॉनत
पिंजे से छुडाना चा ते थे। क ीिं किंु वर सा ब का वववा ठनक कर दे ना ी एक ऐसा
उपाय था, न्जससे सफल ोने की आशा थी और य ी उन लोगों ने ककया। उद ें
य भय तो न था कक किंु वर सा ब इस ऐक्रे स से वववा करें गे। ॉ,ॉँ य भय
अवश्य था कक क ी ररयासत का कोई ह स्सा उसके नाम कर दें , या उसके आने
वाले बच्चों को ररयासत का मामलक बना दें । कुँवर सा ब पर चारों ओर से दबाव
पडने लगे। य ॉ ॉँ तक कक योरोवपयन अधिकाररयों ने भी उद ें वववा कर लेने की
सला दी। उस हदन सिं्या समय किंु वर सा ब ने ताराबाई के पास जाकर क ा—
तारा, दे खो, तम
ु से एक बात क ता ू ँ, इनकार न करना। तारा का हृदय उछलने लगा।
बोली—कह ए, क्या बात ै ? ऐसी कौन वस्तु ै , न्जसे आपकी भें ट करके मैं अपने को
िदय समझँू?
एक क्षण के बाद तारा ने क ा—मैं तो ननराश ो चली थी। आपने बढ़ी लम्बी
परीक्षा ली।
ॉँ
किंु वर सा ब ने जबान दॉतों-तले दबाई, मानो कोई अनुधचत बात सुन ली ो!
‘य बात न ीिं ै तारा! अगर मुझे ववश्वास ोता कक तुम मेरी याचना स्वीकार कर
लोगी, तो कदाधचत प ले ी हदन मैंने मभक्षा के मलए ाथ फैलाया ोता, पर मैं
अपने को तुम् ारे योनय न ीिं पाता था। तुम सदगुणों की खान ो, और मैं...मैं जो
कुछ ू ँ , व तुम जानती ी ो। मैंने ननश्चय कर मलया था कक उम्र भर तुम् ारी
उपासना करता र ू ँगा। शायद कभी प्रसदन ो कर तम
ु मझ ॉँ
ु े बबना मॉगे ी वरदान
दे दो। बस, य ी मेरी अमभलाषा थी! मझ
ु में अगर कोई गण
ु ै , तो य ी कक मैं
तुमसे प्रेम करता ू ँ। जब तुम साह त्य या सिंगीत या िमम पर अपने ववचार प्रकट
करने लगती ो, तो मैं दिं ग र जाता ू ँ और अपनी क्षुद्रता पर लन्ज्जत ो जाता
स सा कुँवर सा ब ने पूछा—तो मेरे भानय ककस ककस हदन उदय ोंगे , तारा? दया
करके ब ु त हदनों के मलए न टालना।
तारा मसर झक
ु ाये र ी। मँु से एक शब्द न ननकला।
ु ई थी, कभी उसके हृदय ने उसका नतरस्कार न ककया था। क्या इसका कारण
इसके मसवा कुछ और था कक ऐसा अनुराग उसे और क ीिं न ममला था।
क्या व कुँवर सा ब का जीवन सुखी बना सकती ै ? ॉ,ॉँ अवश्य। इस ववषय में
उसे लेशमात्र भी सिंदे न ीिं था। भन्क्त के मलए ऐसी कौन-सी वस्तु ै , जो
असा्य ो; पर क्या व प्रकृनत को िोखा दे सकती ै । ढलते ु ए सूयम में
म्याह्न का-सा प्रकाश ो सकता ै ? असम्भव। व स्फूनतम, व चपलता, व
ववनोद, व सरल छवव, व तल्लीनता, व त्याग, व आत्मववश्वास व क ॉ ॉँ से
लायेगी, न्जसके सन्म्मश्रण को यौवन क ते ैं ? न ीिं, व ककतना ी चा े , पर किंु वर
सा ब के जीवन को सुखी न ीिं बना सकतीिं बूढ़ा बैल कभी जवान बछडों के साथ
न ीिं चल सकता।
आ ! उसने य नौबत ी क्यों आने दी? उसने क्यों कृबत्रम सािनों से, बनावटी
मसिंगार से किंु वर को िोखें में डाला? अब इतना सब कुछ ो जाने पर व ककस मँु
से क े गी कक मैं रिं गी ु ई गुडडया ू ँ , जबानी मुझसे कब की ववदा ो चुकी, अब केवल
उसका पद-धचह्न र गया ै।
रात के बार बज गये थे। तारा मेज के सामने इद ीिं धचिंताओिं में मनन बैठन ु ई
थी। मेज पर उप ारों के ढे र लगे ु ए थे; पर व ककसी चीज की ओर ऑ िंख उठा
कर भी न दे खती थी। अभी चार हदन प ले व इद ीिं चीजों पर प्राण दे ती थी, उसे
मेशा ऐसी चीजों की तलाश र ती थी, जो काल के धचह्नों को ममटा सकें, पर अब
उद ीिं चीजों से उसे घण
ृ ा ो र ी ै । प्रेम सत्य ै — और सत्य और ममथ्या, दोनों
एक साथ न ीिं र सकते।
दाई—अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपडे लेकर क्या करना ै ? आप अपना कोई उतारा दे
दीन्जएगा।
दाई चली गई। तारा ने घडी की ओर दे खा। सचमुच बार बज गए थे। केवल
छ घिंटे और ैं। प्रात:काल किंु वर सा ब उसे वववा -मिंहदर में ले-जाने के मलए आ
जायेंगे। ाय! भगवान, न्जस पदाथम से तम
ु ने इतने हदनों तक उसे विंधचत रखा, व
आज क्यों सामने लाये? य भी तम्
ु ारी क्रीडा ैं
तारा ने एक सफद साडी प न ली। सारे आभूषण उतार कर रख हदये। गमम पानी
मौजूद था। साबुन और पानी से मँु िोया और आईने के सम्मुख जा कर खडी
ो गयी—क ॉ ॉँ थी व छवव, व ज्योनत, जो ऑ िंखों को लभ
ु ा लेती थी! रुप व ी था,
पर क्रािंनत क ॉ?ॉँ अब भी व ॉँ भर सकती
यौवन का स्वॉग ै?
तारा का हृदय इस समय गवम से छलका पडता था। व द:ु खी न थी, ननराश न
थी। कफर किंु वर सा ब से ममलेगी, ककिं तु व ननस्वाथम सिंयोग ोगा। प्रेम के बनाये
वप्रयतम, मझ
ु े क्षमा करना। मैं अपने को तम्
ु ारी दासी बनने के योनय न ीिं पाती।
तुमने मुझे प्रेम का व स्वरुप हदखा हदया, न्जसकी इस जीवन में मैं आशा न कर
सकती थी। मेरे मलए इतना ी ब ुत ै । मैं जब जीऊँगी, तुम् ारे प्रेम में मनन
र ू ँगी। मुझे ऐसा जान पड र ा ै कक प्रेम की स्मनृ त में प्रेम के भोग से क ी
अधिक मािुयम और आनदद ै । मैं कफर आऊँगी, कफर तम्
ु ारे दशमन करुँ गी; लेककन
उसी दशामें जब तम
ु वववा कर लोगे। य ी मेरे लौटने की शतम ै । मेरे प्राणें के
प्राण, मुझसे नाराज न ोना। ये आभूषण जो तुमने मेरे मलए भेजे थे, अपनी ओर
से नवविू के मलए छोडे जाती ू ँ। केवल व मोनतयों को ार, जो तुम् ारे प्रेम का
प ला उप ार ै , अपने साथ मलये जाती ू ँ। तुमसे ाथ जोडकर क ती ू ँ , मेरी
तलाश न करना। मैं तुम् री ू ँ और सदा तुम् ारी र ू ँगा.....।
तुम् ारी,
तारा
‘कोई जम न ीिं, तम
ु मझे उस पर प ु ँचा दो।’
ॉँ ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठन और नौका मिंद गनत से चलने
मॉझी
लगी, मानों जीव स्वप्न-साम्राज्य में ववचर र ा ो।
ॉँ पथ्
इसी समय एकादशी का चॉद, ृ वी से उस पार, अपनी उज्जवल नौका खेता ु आ
ननकला और व्योम-सागर को पार करने लगा।
***
ईश्वरीय दयाय
भानक
ु ँु वरर के पास आये। पदाम कराया और य शुभ-समाचार सन
ु ाया। भानक
ु ँु वरर
ने सजल नेत्रों से उनको िदयवाद हदया। पिंडडत जी के नाम पर मन्ददर और घाट
बनवाने का इरादा पक्का ो गया।
मँश
ु ी जी दस
ू रे ी हदन उस गॉवॉँ में आये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामी के
स्वागत को ान्जर ु ए। श र के रईसों की दावत ु ई। लोगों के नावों पर बैठ कर
गिंगा की खब
ू सैर की। मन्ददर आहद बनवाने के मलए आबादी से ट कर रमणीक
स्थान चुना गया।
मिंश
ु ी जी सँभल उठे । उद ें मालम
ू ो गया कक इस चतरु स्त्री से बाजी ले जाना
मन्ु श्कल ै । गॉवॉँ लेना ी ै तो अब क्या डर। खल
ु कर बोले—आपको इससे कोई
सरोकार न था, इसमलए मैंने व्यथम कष्ट दे ना मुनामसब न समझा।
भानक
ु ँु वरर के हृदय में कुठार-सा लगा। पदे से ननकल आयी और मिंश
ु ी जी की
तरफ तेज ऑ िंखों से दे ख कर बोली—आप क्या क ते ैं! आपने गॉवॉँ मेरे मलये
मलया था या अपने मलए! रुपये मैंने हदये या आपने? उस पर जो खचम पडा, व मेरा
था या आपका? मेरी समझ में न ीिं आता कक आप कैसी बातें करते ैं।
मिंश
ु ी जी ने साविानी से जवाब हदया—य तो आप जानती ैं कक गॉवॉँ मारे
नाम से बसा ु आ ै । रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका दे नदार ू ँ। र ा
त सील-वसूल का खचम, य सब मैंने अपने पास से हदया ै । उसका ह साब-
ककताब, आय-व्यय सब रखता गया ू ँ।
ॉँ
भानुकुँवरर ने क्रोि से कॉपते ु ए क ा—इस कपट का फल आपको अवश्य ममलेगा।
आप इस ननदम यता से मेरे बच्चों का गला न ीिं काट सकते। मुझे न ीिं मालूम था
कक आपने हृदय में छुरी नछपा रखी ै , न ीिं तो य नौबत ी क्यों आती। खैर, अब
से मेरी रोकड और ब ी खाता आप कुछ न छुऍ।िं मेरा जो कुछ ोगा, ले लँ ग
ू ी।
जाइए, एकािंत में बैठ कर सोधचए। पाप से ककसी का भला न ीिं ोता। तम
ु समझते
ोगे कक बालक अनाथ ैं , इनकी सम्पन्त्त जम कर लँ ग
ू ा। इस भूल में न र ना,
मैं तुम् ारे घर की ईट तक बबकवा लँ ग
ू ी।
मुिंशी जी कागजों में कुछ काट-छॉटॉँ करना चा ते थे, पर वववश ो गये। खजाने की
कुदजी ननकाल कर फेंक दी, ब ी-खाते पटक हदये , ककवाड िडाके-से बिंद ककये और
वा की तर सदन-से ननकल गये। कपट में ाथ तो डाला, पर कपट मदत्र न
जाना।
दस
ू रें काररिंदों ने य कैकफयत सुनी, तो फूले न समाये। मुिंशी जी के सामने उनकी
दाल न गलने पाती। भानक
ु ँु वरर के पास आकर वे आग पर तेल नछडकने लगे।
सब लोग इस ववषय में स मत थे कक मुिंशी सत्यनारायण ने ववश्वासघात ककया
ै । मामलक का नमक उनकी ड्डडयों से फूट-फूट कर ननकलेगा।
भानकुँवरर ने लाला छक्कन लाल से पूछा— मारा वकील कौन ै ? छक्कन लाल ने
ॉँ कर क ा—वकील तो सेठ जी
इिर-उिर झॉक ैं, पर सत्यनारायण ने उद ें प ले
ॉँ रखा
गॉठ ोगा। इस मुकदमें के मलए बडे ोमशयार वकील की जरुरत ै । मे रा
बाबू की आजकल खूब चल र ी ै । ाककम की कलम पकड लेते ैं। बोलते ैं तो
जैसे मोटरकार छूट जाती ॉँ से
ै सरकार! और क्या क ें , कई आदममयों को फॉसी
उतार मलया ै , उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल न ीिं सकता। सरकार
क ें तो व ी कर मलये जायँ।
भानुकुँवरर कफर पदे से ननकल आयी और ववन्स्मत ोकर बोली—क्या मारा पक्ष
ननबमल ै ? दनु नया जानती ै कक गॉवॉँ मारा ै । उसे मसे कौन ले सकता ै?
न ीिं, मैं सल
ु कभी न करुँ गी, आप कागजों को दे खें। मेरे बच्चों की खानतर य
कष्ट उठायें। आपका पररश्रम ननष्फल न जायगा। सत्यनारायण की नीयत प ले
खराब न थी। दे िखए न्जस ममती में गॉवॉँ मलया गया ै , उस ममती में तीस जार
का क्या खचम हदखाया गया ै । अगर उसने अपने नाम उिार मलखा ो, तो दे िखए,
वावषमक सूद चुकाया गया या न ीिं। ऐसे नरवपशाच से मैं कभी सुल न करुँ गी।
सेठ जी ने समझ मलया कक इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा।
कागजात दे खें, अमभयोग चलाने की तैयाररयॉ ॉँ ोने लगीिं।
दष्ु कामनाओिं के सामने एक बार मसर झुकाने पर कफर सँभलना कहठन ो जाता
ै । पाप के अथा दलदल में ज ॉ ॉँ एक बार पडे कक कफर प्रनतक्षण नीचे ी चले
जाते ैं। मिंश
ु ी सत्यनारायण-सा ववचारशील मनष्ु य इस समय इस कफक्र में था कक
कैसे सेंि लगा पाऊँ!
ब ु त सोचने-ववचारने पर भी मिंश
ु ी जी को अपने ऊपर ऐसा दस्
ु सा स कर सकने
का ववश्वास न ो सका। ॉ,ॉँ इसमें सग
ु म एक दस
ू री तदबीर नजर आयी—क्यों न
दफ्तर में आग लगा दँ ?ू एक बोतल ममट्टी का तेल और हदयासलाई की जरुरत ैं
ककसी बदमाश को ममला लँ ,ू मगर य क्या मालूम कक व ी उसी कमरे में रखी ै
या न ीिं। चुडल
ै ने उसे जरुर अपने पास रख मलया ोगा। न ीिं; आग लगाना गुना
बेलज्जत ोगा।
उद ोंने कफर तकम की शरण ली। मैं मानों भिंग खाकर आया ू ँ। इस चपरासी से
इतना डरा मानो कक व मुझे दे ख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? जारों
आदमी रास्ता चल र े ैं। उद ीिं में मैं भी एक ू ँ। क्या व अिंतयाममी ै ? सबके
हृदय का ाल जानता ै ? मुझे दे खकर व अदब से सलाम करता और व ॉ ॉँ का कुछ
ाल भी क ता; पर मैं उससे ऐसा डरा कक सूरत तक न हदखायी। इस तर मन
को समझा कर वे आगे बढ़े । सच ै , पाप के पिंजों में फँसा ु आ मन पतझड का
पत्ता ै , जो वा के जरा-से झोंके से धगर पडता ै।
मुिंशी जी के पैर थर-थर कॉपॉँ र े थे। एडडयॉ ॉँ जमीन से उछली पडती थीिं। पाप का
बोझ उद ें असह्य था।
पल-भर में मश
ुिं ी जी ने बह यों को उलटा-पलटा। मलखावट उनकी ऑ िंखों में तैर र ी
थी। इतना अवकाश क ॉ ॉँ था कक जरुरी कागजात छॉटॉँ लेत।े उद ोंनें सारी बह यों
को समेट कर एक गिर बनाया और मसर पर रख कर तीर के समान कमरे के
बा र ननकल आये। उस पाप की गठरी को लादे ुए व अँिेरी गली से गायब ो
गए।
तिंग, अँिेरी, दग
ु द
म िपण ॉँ स्वाथम, लोभ और
ू म कीचड से भरी ु ई गमलयों में वे निंगे पॉव,
कपट का बोझ मलए चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नामलयों में
ब ी चली जाती थी।
ब ु त दरू तक भटकने के बाद वे गिंगा ककनारे प ु ँच।े न्जस तर कलवु षत हृदयों में
क ीिं-क ीिं िमम का िुँिला प्रकाश र ता ै , उसी तर नदी की काली सत पर तारे
िझलममला र े थे। तट पर कई सािु िूनी जमाये पडे थे। ज्ञान की ज्वाला मन की
जग बा र द क र ी थी। मिंश
ु ी जी ने अपना गिर उतारा और चादर से खब
ू
मजबत ॉँ कर बलपव
ू बॉि ू क
म नदी में फेंक हदया। सोती ु ई ल रों में कुछ लचल
मुिंशी—मलया था, तब मलया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉवॉँ न ीिं
छोडा जाता। व मेरा कुछ न ीिं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी न ीिं ले
सकती। डेढ़ सौ गॉवॉँ तो ैं। तब भी वस न ीिं मानती।
मुिंशी—ऊँ ! ऐसी बातें ब ु त सुन चुका ू ँ। दनु नया उन पर चलने लगे, तो सारे
काम बदद ो जायँ। मैंने इतने हदनों इनकी सेवा की, मेरी ी बदौलत ऐसे-ऐसे
ॉँ गॉवॉँ बढ़ गए। जब तक पिंडडत जी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑ िंख
चार-पॉच
में िूल डालने की जरुरत न थी, वे आप ी मेरी खानतर कर हदया करते थे। उद ें
मरे आठ साल ो गए; मगर मस
ु म्मात के एक बीडे पान की कसम खाता ू ँ ; मेरी
जात से उनको जारों रुपये-मामसक की बचत ोती थी। क्या उनको इतनी भी
समझ न थी कक य बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता ै , इस नफे
में कुछ उसे भी ममलना चाह ए? य क कर न दो, इनाम क कर दो, ककसी तर
दो तो, मगर वे तो समझती थी कक मैंने इसे बीस रुपये म ीने पर मोल ले मलया
ै । मैंने आठ साल तक सब ककया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता र ू ँ
और अपने बच्चों को दस
ू रों का मँु ताकने के मलए छोड जाऊँ? अब मुझे य
अवसर ममला ै । इसे क्यों छोडूँ? जमीिंदारी की लालसा मलये ु ए क्यों मरुँ ? जब
तक जीऊँगा, खद
ु खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उडायेंगे।
माता की ऑ िंखों में ऑ िंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम् ारे मँु से ऐसी बातें कभी
न ीिं सन
ु ी थीिं, तम्
ु ें क्या ो गया ै ? तम्
ु ारे आगे बाल-बच्चे ैं। आग में ाथ न
डालो।
मुिंशी—अच्छन बात ै , तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा प नना, मुझे अब ल्वे-पूरी
की इच्छा ै।
माता—य अिमम मुझसे न दे खा जायगा। मैं गिंगा में डूब मरुँ गी।
पत्नी—तम्
ु ें य ॉँ बोना
सब कॉटा ै , तो मझ
ु े मायके प ु ँचा दो, मैं अपने बच्चों को
लेकर इस घर में न र ू ँगी!
मिंश
ु ी ने झँझ
ु ला कर क ा—तम
ु लोगों की बद् ॉँ खा गयी
ु वव तो भॉग ै । लाखों
सरकारी नौकर रात-हदन दस
ू रों का गला दबा-दबा कर ररश्वतें लेते ैं और चैन
करते ैं। न उनके बाल-बच्चों ी को कुछ ोता ै , न उद ीिं को ै जा पकडता ै ।
अिमम उनको क्यों न ीिं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवाहदयों
को सदा द:ु ख झेलते ी दे खा ै । मैंने जो कुछ ककया ै , सुख लूटूँगा। तुम् ारे मन
में जो आये, करो।
कफर सारे घर में खलबली पड गयी। प रे दारों पर मार पडने लगी। भानक
ु ँु वरर को
तुरदत मुिंशी सत्यनारायण पर सिंदे ु आ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की
स ायता के बबना य काम ोना असम्भव था। पुमलस में रपट ु ई। एक ओझा
नाम ननकालने के मलए बुलाया गया। मौलवी सा ब ने कुराम फेंका। ओझा ने
बताया, य ककसी पुराने बैरी का काम ै । मौलवी सा ब ने फरमाया, ककसी घर के
भेहदये ने य रकत की ै । शाम तक य दौड-िप
ू र ी। कफर य सला ोने
लगी कक इन कागजातों के बगैर मक
ु दमा कैसे चले। पक्ष तो प ले से ी ननबमल
था। जो कुछ बल था, व इसी ब ी-खाते का था। अब तो सबत
ू भी ाथ से गये।
दावे में कुछ जान ी न र ी, मगर भानकुँवरर ने क ा—बला से ार जाऍगेिं । मारी
चीज कोई छनन ले, तो मारा िमम ै कक उससे यथाशन्क्त लडें, ार कर बैठना
कायरों का काम ै । सेठ जी (वकील) को इस दघ
ु ट
म ना का समाचार ममला तो उद ोंने
भी य ी क ा कक अब दावे में जरा भी जान न ीिं ै । केवल अनम
ु ान और तकम का
भरोसा ै । अदालत ने माना तो माना, न ीिं तो ार माननी पडेगी। पर भानुकँु वरर
ने एक न मानी। लखनऊ और इला ाबाद से दो ोमशयार बैररन्स्टर बुलाये। मुकदमा
शुरु ो गया।
सारे श र में इस मुकदमें की िूम थी। ककतने ी रईसों को भानुकँु वरर ने साथी
बनाया था। मुकदमा शुरु ोने के समय जारों आदममयों की भीड ो जाती थी।
लोगों के इस िखिंचाव का मुख्य कारण य था कक भानुकुँवरर एक पदे की आड में
बैठन ु ई अदालत की कारवाई दे खा करती थी, क्योंकक उसे अब अपने नौकरों पर
जरा भी ववश्वास न था।
वादी बैररस्टर ने एक बडी मामममक वक्तत
ृ ा दी। उसने सत्यनाराण की पव
ू ामवस्था
का खब
ू अच्छा धचत्र खीिंचा। उसने हदखलाया कक वे कैसे स्वाममभक्त, कैसे कायम-
कुशल, कैसे कमम-शील थे; और स्वगमवासी पिंडडत भग
ृ ुदत्त का उस पर पूणम ववश्वास
ो जाना, ककस तर स्वाभाववक था। इसके बाद उसने मसद्ध ककया कक मुिंशी
सत्यनारायण की आधथमक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कक वे इतना िन-सिंचय करते।
अिंत में उसने मुिंशी जी की स्वाथमपरता, कूटनीनत, ननदम यता और ववश्वास-घातकता
का ऐसा घण ु ी जी को गोमलयॉ ॉँ दे ने लगे। इसके
ृ ोत्पादक धचत्र खीिंचा कक लोग मिंश
साथ ी उसने पिंडडत जी के अनाथ बालकों की दशा का बडा करणोत्पादक वणमन
ककया—कैसे शोक और लज्जा की बात ै कक ऐसा चररत्रवान, ऐसा नीनत-कुशल
मनुष्य इतना धगर जाय कक अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गदम न पर छुरी
चलाने पर सिंकोच न करे । मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-ववदारक
उदा रण ममलना कहठन ै । इस कुहटल कायम के पररणाम की दृन्ष्ट से इस मनुष्य
के पव
ू म पररधचत सदगण
ु ों का गौरव लप्ु त ो जाता ै । क्योंकक वे असली मोती न ीिं,
ॉँ के दाने थे, जो केवल ववश्वास जमाने के ननममत्त दशामये गये थे। व
नकली कॉच
केवल सुिंदर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल-छिं द से दरू र ने वाले रईस
को फँसाने के मलए फैलाया गया था। इस नर-पशु का अिंत:करण ककतना
अिंिकारमय, ककतना कपटपूणम, ककतना कठोर ै ; और इसकी दष्ु टता ककतनी घोर,
ककतनी अपावन ै । अपने शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य ै , मगर
इस ममलन हृदय मनष्ु य ने उन बेकसों के साथ दगा हदया ै , न्जन पर मानव-
स्वभाव के अनुसार दया करना उधचत ै ! यहद आज मारे पास ब ी-खाते मौजूद
ोते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट ो जाती, पर मुिंशी
जी के बरखास्त ोते ी दफ्तर से उनका लुप्त ो जाना भी अदालत के मलए
एक बडा सबूत ै।
श र में कई रईसों ने गवा ी दी, पर सुनी-सुनायी बातें न्जर में उखड गयीिं। दस
ू रे
हदन कफर मुकदमा पेश ु आ।
ू ँ। यहद मैं आपसे ऋण ले कर अपना वववा करुँ तो क्या मुझसे मेरी नव-वववाह त
विू को छनन लें गे?
‘ मारे सुयोग ममत्र ने मारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया ै ।
अगर मुिंशी सत्यनाराण की नीयत खराब ोती, तो उनके मलए सबसे अच्छा अवसर
व था जब पिंडडत भग
ृ ुदत्त का स्वगमवास ु आ था। इतने ववलम्ब की क्या जरुरत
थी? यहद आप शेर को फँसा कर उसके बच्चे को उसी वक्त न ीिं पकड लेत,े उसे
बढ़ने और सबल ोने का अवसर दे ते ैं, तो मैं आपको बद्
ु ववमान न क ू ँगा। यथाथम
बात य ै कक मुिंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ क था, व पूरा कर
हदया। आठ वषम तक तन-मन से स्वामी के सिंतान की सेवा की। आज उद ें
अपनी सािुता का जो फल ममल र ा ै, व ब ुत ी द:ु खजनक और हृदय-ववदारक
ै । इसमें भानुकुँवरर का दोष न ीिं। वे एक गुण-सम्पदन मह ला ैं; मगर अपनी
जानत के अवगुण उनमें भी ववद्यमान ैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पष्टभाषी
ोता ै ; उसे अपनी बातों में नमक-ममचम लगाने की जरुरत न ीिं ोती। य ी कारण
ै कक मुिंशी जी के मद
ृ भ
ु ाषी मात तों को उन पर आक्षेप करने का मौका ममल
गया। इस दावे की जड केवल इतनी ी ै , और कुछ न ीिं। भानुकुँवरर य ॉ ॉँ
उपन्स्थत ैं। क्या वे क सकती ैं कक इस आठ वषम की मुद्दत में कभी इस गॉवॉँ
का न्जक्र उनके सामने आया? कभी उसके ानन-लाभ, आय-व्यय, लेन-दे न की चचाम
उनसे की गयी? मान लीन्जए कक मैं गवनममेंट का मुलान्जम ू ँ। यहद मैं आज
दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने ट लओ
ु िं के टै क्सों का
पचडा गाने लगँू, तो शायद मझ
ु े शीघ्र ी अपने पद से पथ
ृ क ोना पडे, और सम्भव
ै , कुछ हदनों तक बरे ली की अनतधथशाला में भी रखा जाऊँ। न्जस गॉवॉँ से
भानुकुँवरर का सरोवार न था, उसकी चचाम उनसे क्यों की जाती?’
इतने में सिं्या ो गयी। अदालत ने एक सप्ता में फैसला सुनाने का ु क्म
हदया।
सत्यनाराण को अब अपनी जीत में कोई सददे न था। वादी पक्ष के गवा भी
उखड गये थे और ब स भी सबत
ू से खाली थी। अब इनकी धगनती भी जमीिंदारों
में ोगी और सम्भव ै , य कुछ हदनों में रईस क लाने लगें गे। पर ककसी न ककसी
कारण से अब श र के गणमादय परु
ु षों से ऑ िंखें ममलाते शमामते थे। उद ें दे खते ी
उनका मसर नीचा ो जाता था। व मन में डरते थे कक वे लोग क ीिं इस ववषय
पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। व बाजार में ननकलते तो दक
ू ानदारों में कुछ
कानाफूसी ोने लगती और लोग उद ें नतरछन दृन्ष्ट से दे खने लगते। अब तक
लोग उद ें वववेकशील और सच्चररत्र मनुष्य समझते, श र के िनी-मानी उद ें
इज्जत की ननगा से दे खते और उनका बडा आदर करते थे। यद्यवप मिंश
ु ी जी
को अब तक इनसे टे ढ़ी-नतरछन सन
ु ने का सिंयोग न पडा था, तथावप उनका मन
क ता था कक सच्ची बात ककसी से नछपी न ीिं ै । चा े अदालत से उनकी जीत ो
जाय, पर उनकी साख अब जाती र ी। अब उद ें लोग स्वाथी, कपटी और दगाबाज
समझेंगे। दस
ू रों की बात तो अलग र ी, स्वयिं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे।
बढ़
ू ी माता ने तीन हदन से मँु में पानी न ीिं डाला! स्त्री बार-बार ाथ जोड कर
क ती थी कक अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बरु े काम का फल कभी अच्छा
न ीिं ोता! न ीिं तो प ले मुझी को ववष िखला दो।
‘ब ू जी! मने बाजार में एक बात सुनी ै । बुरा न मानों तो क ू ँ ? न्जसको दे खो,
उसके मँु से य ी बात ननकलती ै कक लाला बाबू ने जालसाजी से पिंडडताइन का
कोई लका ले मलया। में तो इस पर यकीन न ीिं आता। लाला बाबू ने न सँभाला
ोता, तो अब तक पिंडडताइन का क ीिं पता न लगता। एक अिंगुल जमीन न
बचती। इद ीिं में एक सरदार था कक सबको सँभाल मलया। तो क्या अब उद ीिं के
साथ बदी करें गे? अरे ब ू ! कोई कुछ साथ लाया ै कक ले जायगा? य ी नेक-बदी
र जाती ै । बुरे का फल बुरा ोता ै । आदमी न दे खे, पर अल्ला सब कुछ
दे खता ै ।’
मिंश
ु ी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे ु ए किंु जडडन की बातें सन
ु र े थे, उसके
चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—य शैतान की खाला क्या क र ी
थी।
इस खयाल से भानक
ु ँु वरर को कुछ शान्दत ु ई। शत्रु की ानन मनष्ु य को अपने
लाभ से भी अधिक वप्रय ोती ै , मानव-स्वभाव ी कुछ ऐसा ै । तम
ु मारा एक
गॉवॉँ ले गये, नारायण चा ें गे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक
की आग में जलोगे, तुम् ारे घर में कोई हदया जलाने वाला न र जायगा।
फैसले का हदन आ गया। आज इजलास में बडी भीड थी। ऐसे -ऐसे म ानुभाव
उपन्स्थत थे, जो बगुलों की तर अफसरों की बिाई और बबदाई के अवसरों ी में
नजर आया करते ैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी जमा थी। ननयत समय
पर जज सा ब ने इजलास सुशोमभत ककया। ववस्तत
ृ दयाय भवन में सदनाटा छा
गया। अ लमद ने सिंदक
ू से तजबीज ननकाली। लोग उत्सुक ोकर एक-एक कदम
और आगे िखसक गए।
एकाएक भानक
ु ँु वरर घघ
ूँ ट ननकाले इजलास पर आ कर खडी ो गयी। जानेवाले
लौट पडे। जो बा र ननकल गये थे, दौड कर आ गये। और कौतू लपव
ू क
म भानक
ु ँु वरर
की तरफ ताकने लगे।
भानक
ु ँु वरर ने किंवपत स्वर में जज से क ा—सरकार, यहद ु क्म दें , तो मैं मिंश
ु ी जी
से कुछ पछ
ू ू ँ।
जज ने खडे ोकर क ा—य कानून का दयाय न ीिं, ईश्वरीय दयाय ै ! इसे कथा न
समिझएगा; य सच्ची घटना ै । भानुकुँवरर और सत्य नारायण अब भी जीववत
ैं। मुिंशी जी के इस नैनतक सा स पर लोग मुगि ो गए। मानवीय दयाय पर
ईश्वरीय दयाय ने जो ववलक्षण ववजय पायी, उसकी चचाम श र भर में म ीनों र ी।
भानक
ु ँु वरर मिंश
ु ी जी के घर गयी, उद ें मना कर लायीिं। कफर अपना सारा कारोबार
उद ें सौंपा और कुछ हदनों उपरािंत य गॉवॉँ उद ीिं के नाम ह ब्बा कर हदया। मिंश
ु ी
जी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उधचत न समझा, कृष्णापमण कर हदया। अब
इसकी आमदनी दीन-दिु खयों और ववद्याधथमयों की स ायता में खचम ोती ै।
***
ममता
उसी मु ल्ले में एक सेठ धगरिारी लाल र ते थे। उनका लाखों का लेन-दे न था।
वे ीरे और रत्नों का व्यापार करते थे। बाबू रामरक्षा के दरू के नाते में साढ़ू ोते
थे। परु ाने ढिं ग के आदमी थे—प्रात:काल यमन
ु ा-स्नान करनेवाले तथा गाय को
अपने ाथों से झाडने-पोंछनेवाले! उनसे ममस्टर रामरक्षा का स्वभाव न ममलता था;
परदतु जब कभी रुपयों की आवश्यकता ोती, तो वे सेठ धगरिारी लाल के य ॉ ॉँ से
बेखटके मँगा मलया करते थे। आपस का मामला था, केवल चार अिंगुल के पत्र पर
रुपया ममल जाता था, न कोई दस्तावेज, न स्टाम्प, न साक्षक्षयों की आवश्यकता।
मोटरकार के मलए दस जार की आवश्यकता ु ई, व व ॉ ॉँ से आया। घुडदौड के
मलए एक आस्रे मलयन घोडा डेढ़ जार में मलया गया। उसके मलए भी रुपया सेठ जी
के य ॉ ॉँ से आया। िीरे -िीरे कोई बीस जार का मामला ो गया। सेठ जी सरल
हृदय के आदमी थे। समझते थे कक उसके पास दक
ु ानें ैं, बैंकों में रुपया ै । जब
जी चा े गा, रुपया वसूल कर लेंगे; ककदतु जब दो-तीन वषम व्यतीत ो गये और सेठ
ॉँ
जी तकाजों की अपेक्षा ममस्टर रामरक्षा की मॉग ी का अधिक्य र ा तो धगरिारी
लाल को सददे ु आ। व एक हदन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव
से बोले—भाई सा ब, मझ
ु े एक ु ण्डी का रुपया दे ना ै , यहद आप मेरा ह साब कर
दें तो ब ु त अच्छा ो। य क कर ह साब के कागजात और उनके पत्र हदखलायें।
ममस्टर रामरक्षा ककसी गाडमन-पाटी में सन्म्ममलत ोने के मलए तैयार थे। बोले—इस
समय क्षमा कीन्जए; कफर दे ख लँ ग
ू ा, जल्दी क्या ै?
रामरक्षा—भूख न ीिं ै।
‘क्या काया ै ?’
‘मन की ममठाई।’
‘मार।’
‘ककसने मारा ै ?’
‘धगरिारीलाल ने।’
रामरक्षा—ब ु त सच्ची।
सेठ—दक
ु ानें न ीिं ैं?
रामरक्षा—दक
ु ानें आप मुफ्त लो जाइए।
सेठ—बैंक के ह स्से ?
रामरक्षा—व कब के उड गये।
4
इस घटना के कुछ हदनों पश्चात हदल्ली म्युननमसपैमलटी के मेम्बरों का चुनाव
आरम्भ ु आ। इस पद के अमभलाषी वोटरों की सजाऍ िं करने लगे। दलालों के भानय
उदय ु ए। सम्मनतयॉ ॉँ मोनतयों की तोल बबकने लगीिं। उम्मीदवार मेम्बरों के स ायक
अपने-अपने मव
ु न्क्कल के गण
ु गान करने लगे। चारों ओर च ल-प ल मच गयी।
एक वकील म ाशय ने भरी सभा में मव
ु न्क्कल सा ब के ववषय में क ा—
एक दस
ू रे म ाशय ने अपने मु ल्ले के वोटरों के सम्मुख मुवन्क्कल की प्रशिंसा यों
की—
ु र मान खॉ।ॉँ बडे जमीिंदार और प्रमसद्ध वकील थे। बाबू रामरक्षा ने अपनी
फैजल
दृढ़ता, सा स, बद्
ु ववमत्ता और मद
ृ ु भाषण से मिंश
ु ी जी सा ब की सेवा करनी
आरम्भ की। सेठ जी को परास्त करने का य अपव
ू म अवसर ाथ आया। वे रात
और हदन इसी िुन में लगे र ते। उनकी मीठन और रोचक बातों का प्रभाव
उपन्स्थत जनों पर ब ु त अच्छा पडता। एक बार आपने असािारण श्रद्धा-उमिंग में
आ कर क ा—मैं डिंके की चोट पर क ता ू ँ कक मुिंशी फैजुल र मान से अधिक
योनय आदमी आपको हदल्ली में न ममल सकेगा। य व आदमी ै , न्जसकी
गजलों पर कववजनों में ‘वा -वा ’ मच जाती ै । ऐसे श्रेष्ठ आदमी की स ायता
करना मैं अपना जातीय और सामान्जक िमम समझता ू ँ। अत्यिंत शोक का ववषय
ै कक ब ु त-से लोग इस जातीय और पववत्र काम को व्यन्क्तगत लाभ का सािन
बनाते ैं; िन और वस्तु ै , श्रीमान वायसराय के दरबार में प्रनतन्ष्ठत ोना और
वस्तु, ककिं तु सामान्जक सेवा तथा जातीय चाकरी और ी चीज ै। व मनुष्य,
न्जसका जीवन ब्याज-प्रान्प्त, बेईमानी, कठोरता तथा ननदम यता और सुख-ववलास में
व्यतीत ोता ो, इस सेवा के योनय कदावप न ीिं ै।
यों सािारणत: सेठ जी पूजा के समय ककसी से न ीिं ममलते थे। चा े कैसा ी
आवश्यक काम क्यों न ो, ईश्वरोपासना में सामान्जक बािाओिं को घस
ु ने न ीिं दे ते
थे। ककदतु ऐसी दशा में जब कक ककसी बडे घर की स्त्री ममलने के मलए आये, तो
थोडी दे र के मलए पूजा में ववलम्ब करना ननिंदनीय न ीिं क ा जा सकता, ऐसा
ववचार करके वे नौकर से बोले—उद ें बुला लाओिं
वद्ध
ृ स्त्री—मेरा काम आप ी से ो सकता ै।
सेठ जी—कह ए, कह ए।
सेठ जी के मुख का रिं ग उतर गया। सारे वाई ककले जो अभी-अभी तैयार ु ए
थे, धगर पडे। वे बोले—उसने मेरी ब ु त ानन की ै । उसका घमिंड तोड डालँ ग
ू ा, तब
छोडूँगा।
स्त्री—तो क्या कुछ मेरे बुढ़ापे का, मेरे ाथ फैलाने का, कुछ अपनी बडाई का ववचार
न करोगे? बेटा, ममता बुरी ोती ै । सिंसार से नाता टूट जाय; िन जाय; िमम जाय,
ककिं तु लडके का स्ने हृदय से न ीिं जाता। सिंतोष सब कुछ कर सकता ै । ककिं तु
बेटे का प्रेम मॉ ॉँ के हृदय से न ीिं ननकल सकता। इस पर ाककम का, राजा का,
य ॉ ॉँ तक कक ईश्वर का भी बस न ीिं ै । तम
ु मझ
ु पर तरस खाओ। मेरे लडके की
जान छोड दो, तुम् ें बडा यश ममलेगा। मैं जब तक जीऊँगी, तुम् ें आशीवामद दे ती
र ू ँगी।
सेठ जी के हृदय में गुदगुदी पैदा ो गयी। यहद इस व्यव ार में व पववत्र और
माननीय स्थान प्राप्त ो जाय—न्जसके मलए जारों खचम ककये, जारों डामलयॉ ॉँ दीिं,
जारों अनन ु ामदें कीिं, खानसामों की िझडककयॉ ॉँ स ीिं, बँगलों
ु य-ववनय कीिं, जारों खश
के चक्कर लगाये —तो इस सफलता के मलए ऐसे कई जार मैं खचम कर सकता ू ँ।
नन:सिंदे मुझे इस काम में रामरक्षा से ब ु त कुछ स ायता ममल सकती ै ; ककिं तु
इन ववचारों को प्रकट करने से क्या लाभ? उद ोंने क ा—माता, मुझे नाम-नमूद की
ब ु त चा न ीिं ैं। बडों ने क ा ै —नेकी कर दररयािं में डाल। मुझे तो आपकी
बात का ख्याल ै । पदवी ममले तो लेने से इनकार न ीिं; न ममले तो तष्ृ णा न ीिं,
परिं तु य तो बताइए कक मेरे रुपयों का क्या प्रबिंि ोगा? आपको मालम
ू ोगा कक
मेरे दस जार रुपये आते ैं।
उमडा ु आ था।
‘रामरक्षा ऐिंड िेडस’ नामक चीनी बनाने का कारखाना ब ु त उदननत पर ैं। रामरक्षा
अब भी उसी ठाट-बाट से जीवन व्यतीत कर र े ैं ; ककिं तु पाहटम यॉ ॉँ कम दे ते ैं और
हदन-भर में तीन से अधिक सूट न ीिं बदलते। वे अब उस पत्र को, जो उनकी स्त्री
ने सेठ जी को मलखा था, सिंसार की एक ब ु त अमूल्य वस्तु समझते ैं और
ममसेज रामरक्षा को भी अब सेठ जी के नाम को ममटाने की अधिक चा न ीिं ै।
क्योंकक अभी ाल में जब लडका पैदा ु आ था, ममसेज रामरक्षा ने अपना सुवणम-
ॉँ थी।
किंकण िाय को उप ार हदया था मनों ममठाई बॉटी
***
मंत्र (2)
सिं्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के मलए तैयार ो र े थे। मोटर
द्वार के सामने खडी थी कक दो क ार एक डोली मलये आते हदखायी हदये। डोली
के पीछे एक बूढ़ा लाठन टे कता चला आता था। डोली औषािालय के सामने आकर
रक गयी। बढ़ ॉँ
ू े ने िीरे -िीरे आकर द्वार पर पडी ु ई धचक से झॉका। ऐसी साफ-
सथ
ु री जमीन पर पैर रखते ु ए भय ो र ा था कक कोई घड
ु क न बैठे। डाक्टर
सा ब को खडे दे ख कर भी उसे कुछ क ने का सा स न ु आ।
डाक्टर चड्ढा ने कलाई पर नजर डाली। केवल दस ममनट समय और बाकी था।
गोल्फ-न्स्टक खूट
ँ ी से उतारने ु ए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; य मारे
खेलने का समय ै।
बढ़
ू े ने पगडी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला— ू जरु , एक ननगा
दे ख लें । बस, एक ननगा ! लडका ाथ से चला जायगा ु जूर, सात लडकों में य ी
एक बच र ा ै , ु जूर। म दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती
ोय, दीनबिंिु!
ऐसे उजडड दे ाती य ॉ ॉँ प्राय: रोज आया करते थे। डाक्टर सा ब उनके स्वभाव से
खब
ू पररधचत थे। कोई ककतना ी कुछ क े ; पर वे अपनी ी रट लगाते जायँगे।
ककसी की सन
ु ेंगे न ीिं। िीरे से धचक उठाई और बा र ननकल कर मोटर की तरफ
चले। बूढ़ा य क ता ु आ उनके पीछे दौडा—सरकार, बडा िरम ोगा। ु जूर, दया
कीन्जए, बडा दीन-दख
ु ी ू ँ; सिंसार में कोई और न ीिं ै , बाबू जी!
उसी रात उसका ँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त
ॉँ
करके इस सिंसार से मसिार गया। बूढ़े मॉ-बाप के जीवन का य ी एक आिार था।
इसी का मँु दे ख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ी जीवन की अँिेरी रात
ॉँ
भॉय-भॉ ॉँ करने लगी। बढ़
य ु ापे की ववशाल ममता टूटे ु ए हृदय से ननकल कर
अिंिकार आत्तम-स्वर से रोने लगी।
2
कई साल गज
ु र गये। डाक्टर चडढा ने खब
ू यश और िन कमाया; लेककन इसके
साथ ी अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक सािारण बात थी। य उनके
ननयममत जीवन का आशीवाद था कक पचास वषम की अवस्था में उनकी चुस्ती और
फुती युवकों को भी लन्ज्जत करती थी। उनके रएक काम का समय ननयत था,
इस ननयम से व जौ-भर भी न टलते थे। ब ु िा लोग स्वास्थ्य के ननयमों का
पालन उस समय करते ैं, जब रोगी ो जाते ें । डाक्टर चड्ढा उपचार और सिंयम
का र स्य खब
ू समझते थे। उनकी सिंतान-सिं्या भी इसी ननयम के अिीन थी।
उनके केवल दो बच्चे ु ए, एक लडका और एक लडकी। तीसरी सिंतान न ु ई,
इसीमलए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम ोती थीिं। लडकी का तो वववा ो
चुका था। लडका कालेज में पढ़ता था। व ी माता-वपता के जीवन का आिार था।
शील और ववनय का पुतला, बडा ी रमसक, बडा ी उदार, ववद्यालय का गौरव,
युवक-समाज की शोभा। मुखमिंडल से तेज की छटा-सी ननकलती थी। आज उसकी
बीसवीिं सालधगर थी।
मण
ृ ामलनी और कैलाश दोनों स पाठन थे ओर एक-दस
ू रे के प्रेम में पगे ु ए।
ॉँ के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तर -तर
कैलाश को सॉपों के सॉपॉँ
पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चररत्र की परीक्षा करता र ता था। थोडे हदन ु ए,
ॉँ पर एक माके का व्याख्यान हदया था। सॉपों
उसने ववद्यालय में ‘सॉपों’ ॉँ को नचा
दस
ू रे म ाशय ने और रद्दा चढ़ाया—ममस गोवविंद इतनी सीिी और भोली ैं , तभी
आप इतना ममजाज करते ैं ; दस
ू रे सुिंदरी ोती, तो इसी बात पर बबगड खडी ोती।
कैलाश को मण
ृ ामलनी की झेंपी ु ई सूरत को दे खकर मालूम ु आ कक इस वक्त
उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा ै । ज्यों ी प्रीनत-भोज समाप्त ु आ और
गाना शुर ु आ, उसने मण ॉँ के दरबे के सामने ले
ृ ामलनी और अदय ममत्रों को सॉपों
जाकर म ु अर बजाना शुर ककया। कफर एक-एक खाना खोलकर एक-एक सॉपॉँ को
ननकालने लगा। वा ! क्या कमाल था! ऐसा जान पडता था कक वे कीडे उसकी एक-
एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते ैं। ककसी को उठा मलया, ककसी
को गरदन में डाल मलया, ककसी को ाथ में लपेट मलया। मण
ृ ामलनी बार-बार मना
करती कक इद ें गदम न में न डालों, दरू ी से हदखा दो। बस, जरा नचा दो। कैलाश
ॉँ को मलपटते दे ख कर उसकी जान ननकली जाती थी। पछता
की गरदन में सॉपों
र ी थी कक मैंने व्यथम ी इनसे सॉपॉँ हदखाने को क ा; मगर कैलाश एक न सुनता
था। प्रेममका के सम्मख
ु अपने सपम-कला-प्रदशमन का ऐसा अवसर पाकर व कब
ॉँ तोड डाले
चूकता! एक ममत्र ने टीका की—दॉत ोंगे।
मण
ृ ामलनी ने उसका ाथ पकडकर क ा—न ीिं-न ीिं, कैलाश, ईश्वर के मलए इसे छोड
दो। तुम् ारे पैरों पडती ू ँ।
इस पर एक-दस
ू रे ममत्र बोले—मुझे तो ववश्वास न ीिं आता, लेककन तुम क ते ो,
तो मान लँ ग
ू ा।
मण
ृ ामलनी ने जब दे खा कक कैलाश पर इस वक्त भूत सवार ै , तो उसने य
तमाशा न करने के ववचार से क ा—अच्छा भाई, अब य ॉ ॉँ से चलो। दे खा, गाना
शुर ो गया ै । आज मैं भी कोई चीज सुनाऊँगी। य क ते ु ए उसने कैलाश का
किंिा पकड कर चलने का इशारा ककया और कमरे से ननकल गयी; मगर कैलाश
ववरोधियों का शिंका-समािान करके ी दम लेना चा ता था। उसने सॉपॉँ की गरदन
पकड कर जोर से दबायी, इतनी जोर से इबायी कक उसका मँु लाल ो गया, दे
की सारी नसें तन गयीिं। सॉपॉँ ने अब तक उसके ाथों ऐसा व्यव ार न दे खा था।
उसकी समझ में न आता था कक य मुझसे क्या चा ते ें । उसे शायद भ्रम ु आ
कक मुझे मार डालना चा ते ैं, अतएव व आत्मरक्षा के मलए तैयार ो गया।
अरे मख
ू ,म य क्यों न ी क ता कक जो कुछ न ोना था, व क ॉ ॉँ ु आ? मॉ-बाप
ॉँ ने
बेटे का से रा क ॉ ॉँ दे खा? मण
ृ ामलनी का कामना-तर क्या पल्लव और पष्ु प से
रिं न्जत ो उठा? मन के व स्वणम-स्वप्न न्जनसे जीवन आनिंद का स्रोत बना ु आ
था, क्या पूरे ो गये? जीवन के नत्ृ यमय ताररका-मिंडडत सागर में आमोद की ब ार
लूटते ु ए क्या उनकी नौका जलमनन न ीिं ो गयी? जो न ोना था, व ो गया।
व ी ॉँ
रा-भरा मैदान था, व ी सुन री चॉदनी ॉँ प्रकृनत
एक नन:शब्द सिंगीत की भॉनत
पर छायी ु ई थी; व ी ममत्र-समाज था। व ी मनोरिं जन के सामान थे। मगर ज ाँ
ास्य की ्वनन थी, व ॉ ॉँ करण क्रददन और अश्रु-प्रवा था।
इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी—भगत, भगत, क्या सो गये? जरा
ककवाड खोलो।
बढ़
ू े ने कठोर भाव से मसर ह ला कर क ा—मैं न ीिं जाता! मेरी बला जाय! व ी
चड्ढा ै । खब
ू जानता ू ँ। भैया लेकर उद ीिं के पास गया था। खेलने जा र े थे।
पैरों पर धगर पडा कक एक नजर दे ख लीन्जए; मगर सीिे मँु से बात तक न की।
भगवान बैठे सुन र े थे। अब जान पडेगा कक बेटे का गम कैसा ोता ै । कई
लडके ैं।
‘भगवान बडा कारसाज ै । उस बखत मेरी ऑ िंखें से ऑ िंसू ननकल पडे थे, पर उद ें
तननक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर ोता, तो भी बात न पूछता।‘
‘अच्छा ककया—अच्छा ककया। कलेजा ठिं डा ो गया, ऑ िंखें ठिं डी ो गयीिं। लडका भी
ठिं डा ो गया ोगा! तम
ु जाओ। आज चैन की नीिंद सोऊँगा। (बहु ढ़या से) जरा
तम्बाकू ले ले! एक धचलम और पीऊँगा। अब मालम
ू ोगा लाला को! सारी सा बी
ननकल जायगी, मारा क्या बबगडा। लडके के मर जाने से कुछ राज तो न ीिं चला
गया? ज ॉ ॉँ छ: बच्चे गये थे, व ॉ ॉँ एक और चला गया, तुम् ारा तो राज सुना ो
जायगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबा कर जोडा था न। अब क्या करोंगे?
एक बार दे खने जाऊँगा; पर कुछ हदन बाद ममजाज का ाल पूछूँगा।‘
बुहढ़या य क कर लेटी। बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ दे र खडा र ा, कफर बैठ गया।
अदत को लेट गया; पर य ॉँ रखी ु ई थी।
खबर उसके हृदय पर बोझे की भॉनत
उसे मालम
ू ो र ा था, उसकी कोई चीज खो गयी ै , जैसे सारे कपडे गीले ो गये
ै या पैरों में कीचड लगा ु आ ै , जैसे कोई उसके मन में बैठा ु आ उसे घर से
मलकालने के मलए कुरे द र ा ै । बुहढ़या जरा दे र में खरामटे लेनी लगी। बूढ़े बातें
करते-करते सोते ै और जरा-सा खटा ोते ी जागते ैं। तब भगत उठा, अपनी
लकडी उठा ली, और िीरे से ककवाड खोले।
‘न ीिं री, ऐसा पागल न ीिं ू ँ कक जो मुझे कॉटेॉँ बोये, उसके मलए फूल बोता कफरँ।‘
बहु ढ़या कफर सो गयी। भगत ने ककवाड लगा हदए और कफर आकर बैठा। पर
उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज कान में पडते ी उपदे श
सुनने वालों की ोती ैं। ऑ िंखें चा े उपेदेशक की ओर ों; पर कान बाजे ी की ओर
ोते ैं। हदल में भी बापे की ्वनन गँज
ू ती र ती े । शमम के मारे जग से न ीिं
उठता। ननदम यी प्रनतघात का भाव भगत के मलए उपदे शक था, पर हृदय उस अभागे
यव
ु क की ओर था, जो इस समय मर र ा था, न्जसके मलए एक-एक पल का
ववलम्ब घातक था।
भगत ने क ा—न ीिं जी, जाऊँगा क ॉ!ॉँ दे खता था, अभी ककतनी रात ै । भला, के
बजे ोंगे।
भगत लाठन खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर
उपचेतना ठे लती थी। सेवक स्वामी पर ावी था।
मगर उपचेतन ने अब एक दस
ू र रप िारण ककया, जो ह स
िं ा से ब ु त कुछ ममलता-
जुलता था—व झाड-फूँक करने न ीिं जा र ा ै; व दे खेगा, कक लोग क्या कर र े
ें । डाक्टर सा ब का रोना-पीटना दे खेगा, ककस तर मसर पीटते ें , ककस तर पछाडे
खाते ै ! वे लोग तो ववद्वान ोते ैं, सबर कर जाते ोंगे! ह स
िं ा-भाव को यों िीरज
दे ता ु आ व कफर आगे बढ़ा।
इतने में दो आदमी आते हदखायी हदये। दोनों बाते करते चले आ र े थे—चडढा
बाबू का घर उजड गया, व ी तो एक लडका था। भगत के कान में य आवाज
पडी। उसकी चाल और भी तेज ो गयी। थकान के मारे पॉवॉँ न उठते थे। मशरोभाग
इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मँु के बल धगर पडेगा। इस तर व कोई दस
ममनट चला ोगा कक डाक्टर सा ब का बँगला नजर आया। बबजली की बन्त्तयॉ ॉँ
जल र ी थीिं; मगर सदनाटा छाया ु आ था। रोने-पीटने के आवाज भी न आती थी।
भगत का कलेजा िक-िक करने लगा। क ीिं मझ
ु े ब ु त दे र तो न ीिं ो गयी? व
दौडने लगा। अपनी उम्र में व इतना तेज कभी न दौडा था। बस, य ी मालम
ू
ोता था, मानो उसके पीछे मोत दौडी
आ री ै।
दो बज गये थे। मे मान ववदा ो गये। रोने वालों में केवल आकाश के तारे र
गये थे। और सभी रो-रो कर थक गये थे। बडी उत्सक
ु ता के साथ लोग र -र
आकाश की ओर दे खते थे कक ककसी तर सुह ो और लाश गिंगा की गोद में दी
जाय।
भगत ने क ा—सुन चुका ू ँ बाबू जी, इसीमलए आया ू ँ। भैया क ॉ ॉँ ै ? जरा मुझे
हदखा दीन्जए। भगवान बडा कारसाज ै , मरु दे को भी न्जला सकता ै । कौन जाने,
अब भी उसे दया आ जाय।
क ारों ने पानी भर-भर कर कैलाश को न लाना शुर ककयािं पाइप बदद ो गया था।
क ारों की सिंख्या अधिक न थी, इसमलए मे मानों ने अ ाते के बा र के कुऍ िंसे
पानी भर-भर कर क ानों को हदया, मण
ृ ामलनी कलासा मलए पानी ला र ी थी। बढ़
ु ा
भगत खडा मस्
ु करा-मस्
ु करा कर मिंत्र पढ़ र ा था, मानो ववजय उसके सामने खडी
ै । जब एक बार मिंत्र समाप्त ो जाता, वब व एक जडी कैलाश के मसर पर डाले
गये और न-जाने ककतनी बार भगत ने मिंत्र फूँका। आिखर जब उषा ने अपनी लाल-
लाल ऑ िंखें खोलीिं तो केलाश की भी लाल-लाल ऑ िंखें खुल गयी। एक क्षण में उसने
ॉँ
अिंगडाई ली और पानी पीने को मॉगा। डाक्टर चडढा ने दौड कर नारायणी को गले
लगा मलया। नारायणी दौडकर भगत के पैरों पर धगर पडी और म़णामलनी कैलाश
के सामने ऑ िंखों में ऑ िंसू-भरे पछ
ू ने लगी—अब कैसी तबबयत ै!
एक क्षण में चारों तरफ खबर फैल गयी। ममत्रगण मुबारकवाद दे ने आने लगे।
डाक्टर सा ब बडे श्रद्धा-भाव से र एक के सामने भगत का यश गाते कफरते थे।
सभी लोग भगत के दशमनों के मलए उत्सक
ु ो उठे ; मगर अददर जा कर दे खा, तो
भगत का क ीिं पता न था। नौकरों ने क ा—अभी तो य ीिं बैठे धचलम पी र े थे।
म लोग तमाखू दे ने लगे, तो न ीिं ली, अपने पास से तमाखू ननकाल कर भरी।
***
प्रायन्श्चत
दफ्तर में जरा दे र से आना अफसरों की शान ै । न्जतना ी बडा अधिकारी ोता
ै , उत्तरी ी दे र में आता ै ; और उतने ी सबेरे जाता भी । चपरासी की ान्जरी
चौबीसों घिंटे की। व छुट्टी पर भी न ीिं जा सकता। अपना एवज दे ना पडता े।
खैर, जब बरे ली न्जला-बोडम के े ड क्लकम बाबू मदारीलाल नयार बजे दफ्तर आये,
तब मानो दफ्तर नीिंद से जाग उठा। चपरासी ने दौड कर पैरगाडी ली, अरदली ने
दौडकर कमरे की धचक उठा दी और जमादार ने डाक की ककश्त मेज जर ला कर
रख दी। मदारीलाल ने प ला ी सरकारी मलफाफा खोला था कक उनका रिं ग फक
ो गया। वे कई ममनट तक आश्चयामन्दवत ालत में खडे र े , मानो सारी
ज्ञानेन्दद्रयॉ ॉँ मशधथल ो गयी ों। उन पर बडे-बडे आघात ो चुके थे; पर इतने
ब दवास वे कभी न ु ए थे। बात य थी कक बोडम के सेक्रेटरी की जो जग एक
म ीने से खाली थी, सरकार ने सुबोिचदद्र को व जग दी थी और सुबोिचदद्र
व व्यन्क्त था, न्जसके नाम ी से मदारीलाल को घण
ृ ा थी। व सुबोिचदद्र, जो
उनका स पाठन था, न्जस जक दे ने को उद ोंने ककतनी ी चेष्टा की; पर कभरी
सफल न ु ए थे। व ी सब
ु ोि आज उनका अफसर ोकर आ र ा था। सब
ु ोि की
इिर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कक व फौज में भरती ो
गया था। मदारीलाल ने समझा-व ीिं मर गया ोगा; पर आज व मानों जी उठा
और सेक्रेटरी ोकर आ र ा था। मदारीलाल को उसकी मात ती में काम करना
पडेगा। इस अपमान से तो मर जाना क ीिं अच्छा था। सुबोि को स्कूल और
कालेज की सारी बातें अवश्य ी याद ोंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से
ननकलवा दे ने के मलए कई बार मिंत्र चलाए, झठ
ू े आरोज ककये, बदनाम ककया। क्या
सुबोि सब कुछ भूल गया ोगा? न ीिं, कभी न ीिं। व आते ी पुरानी कसर
ननकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा का कोई उपाय न सूझता था।
मदारी और सब
ु ोि के ग्र ों में ी ववरोि थािं दोनों एक ी हदन, एक ी शाला में
भरती ु ए थे, और प ले ी हदन से हदल में ईष्याम और द्वेष की व धचनगारी
पड गयी, जो आज बीस वषम बीतने पर भी न बझ
ु ी थी। सब
ु ोि का अपराि य ी
था कक व मदारीलाल से र एक बात में बढ़ा ु आ थािं डी-डौल,
रिं ग-रप, रीनत-व्यव ार, ववद्या-बुवद्ध ये सारे मैदान उसके ाथ थे। मदारीलाल ने
उसका य अपराि कभी क्षमा न ीिं ककयािं सुबोि बीस वषम तक ननरदतर उनके
ॉँ बना र ा। जब सुबोि डडग्री लेकर अपने घर चला गया और
हृदय का कॉटा
मदारी फेल ोकर इस दफ्तर में नौकर ो गये, तब उनका धचत शािंत ु आ।
ककदतु जब य मालम
ू ु आ कक सब
ु ोि बसरे जा र ा ै , जब तो मदारीलाल का
चे रा िखल उठा। उनके हदल से व ॉँ ननकल गयी। पर
परु ानी फॉस ा तभानय!
आज व पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी
ककस्मत सुबोि के ाथ में थी। ईश्वर इतना अदयायी ै ! ववधि इतना कठोर!
एक क्लकम ने पछ
ू ा-क्या ब ु त सख्त ै।
िं ॉ ॉँ मारा-मारा
सुबोि-अजी, मेरी न पूछो। बसरा, िािंस, ममश्र और न-जाने क ॉ-क
कफरा। तुम दफ्तर में ो, य ब ुत ी अच्छा ु आ। मेरी तो समझ ी मे न आता
था कक कैसे काम चलेगा। मैं तो बबलकुल कोरा ू ँ; मगर ज ॉ ॉँ जाता ू ँ , मेरा
सौभानय ी मेरे साथ जाता ै । बसरे में सभी अफसर खश
ू थे। फािंस में भी खब
ू
चैन ककये। दो साल में कोई पचीस जार रपये बना लाया और सब उडा हदया।
तॉ ॉँ से आकर कुछ हदनों को-आपरे शन दफ्तर में मटरगश्त करता र ा। य ॉ ॉँ आया
तब तुम ममल गये। (क्लको को दे ख कर) ये लोग कौन ैं?
मदारीलाल के हृदय में बनछिं या-सी चल र ी थीिं। दष्ु ट पचीस जार रपये बसरे में
कमा लाया! य ॉ ॉँ कलम नघसते-नघसते मर गये और पाँच सौ भी न जमा कर
सके। बोले-कममचारी ें । सलाम करने आये ै।
जब सब
ु ोि से ववदा ोकर कममचारी लोग चले, तब आपस में बातें ोनी लगीिं-
ॉँ
‘ये हदखाने के दॉत ै ।‘
सुबोि को आये एक म ीना गुजर गया। बोडम के क्लकम, अरदली, चपरासी सभी
उसके बवामव से खुश ैं। व इतना प्रसदनधचत ै , इतना नम्र े कक जो उससे एक
बार ममला े, सदै व के मलए उसका ममत्र ो जाता ै । कठोर शब्द तो उनकी
जबान पर आता ी न ीिं। इनकार को भी व अवप्रय न ीिं ोने दे ता; लेककन द्वेष
की ऑ िंखों में गण
ु ओर भी भयिंकर ो जाता ै । सब
ु ोि के ये सारे सदगण
ु
मदारीलाल की ऑ िंखों में खटकते र ते ें । उसके ववरद्ध कोई न कोई गुप्त षडयिंत्र
रचते ी र ते ें । प ले कममचाररयों को भडकाना चा ा, सफल न ु ए। बोडम के
मेम्बरों को भडकाना चा ा, मँु की खायी। ठे केदारों को उभारने का बीडा उठाया,
लन्ज्जत ोना पडा। वे चा ते थे कक भुस में आग लगा कर दरू से तमाशा दे खें।
सब
ु ोि से यों ँस कर ममलते, यों धचकनी-चप
ु डी बातें करते, मानों उसके सच्चे ममत्र
ै , पर घात में लगे र ते। सब
ु ोि में सब गण
ु थे, पर आदमी प चानना न जानते
थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते ैं।
क्लकम मममसल लेकर चला गया। जरा दे र में लौट कर बोला-सेक्रेटरी सा ब कमरे
में न थे। फाइल मेज पर रख आया ू ँ।
सब
ु ोिचदद्र कोई घिंटे-भर में लौटे । तब उनके कमरे का द्वार बदद था। दफ्तर में
आकर मस्
ु कराते ु ए बोले-मेरा कमरा ककसने बदद कर हदया ै , भाई क्या मेरी
बेदखली ो गयी?
सुबोिचदद्र द्वार खोल कर कमरे में गये ओर मसगार पीने लगें मेज पर नोट
रखे ु ए ै , इसके खबर ी न थी।
स सा ठे केदार ने आकर सलाम ककयािं सब
ु ोि कुसी से उठ बैठे और बोले-तम
ु ने
ब ु त दे र कर दी, तम्
ु ारा ी इदतजार कर र ा था। दस ी बजे रपये मँगवा मलये
थे। रसीद मलखवा लाये ो न?
सुबोि-तो अपने रपये ले जाओ। तुम् ारे काम से मैं ब ु त खुश न ीिं ू ँ। लकडी
तुमने अच्छन न ीिं लगायी और काम में सफाई भी न ीिं े । अगर ऐसा काम कफर
करोंगे, तो ठे केदारों के रन्जस्टर से तम्
ु ारा नाम ननकाल हदया जायगा।
ु ट डाले; मगर नोटो का क ीिं पता न ीिं। ऐिं नोट क ॉ ॉँ गये! अभी तो य ी मेने
पल
रख हदये थे। जा क ॉ ॉँ सकते ें । कफर फाइलों को उलटने-पल
ु टने लगे। हदल में
जरा-जरा िडकन ोने लगी। सारी मेज के कागज छान डाले , पुमलिंदों का पता
न ीिं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आि घिंटे में ोने वाली घटनाओिं की मन में
आलोचना करने लगे-चपरासी ने नोटों के पुमलिंदे लाकर मुझे हदये, खूब याद ै।
भला, य भी भूलने की बात ै और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर य ीिं मेज
पर रख हदया, धगना तक न ीिं। कफर वकील सा ब आ गये , परु ाने मल
ु ाकाती ैं।
उनसे बातें करता जरा उस पेड तक चला गया। उद ोंने पान मँगवाये, बस इतनी
ी दे र ु म। जब गया ू ँ तब पुमलिंदे रखे ु ए थे। खूब अच्छन तर याद ै । तब ये
नोट क ॉ ॉँ गायब ो गये ? मैंने ककसी सिंदक
ू , दराज या आलमारी में न ीिं रखे। कफर
गये तो क ॉ?ॉँ शायद दफ्तर में ककसी ने साविानी के मलए उठा कर रख हदये ों,
य ी बात ै । मैं व्यथम ी इतना घबरा गया। नछ:!
तुरदत दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले-आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा
कर न ीिं रख हदय?
मदारीलाल ने भौंचक्के ोकर क ा-क्या आपकी मेज पर नोट रखे ु ए थे? मुझे
तो खबर ी न ीिं। अभी पिंडडत सो नलाल एक फाइल लेकर गये थे , तब आपको
कमरे में न दे खा। जब मझ
ु े मालम
ू ु आ कक आप ककसी से बातें करने चले गये
ैं, वब दरवाजे बदद करा हदये। क्या कुछ नोट न ीिं ममल र े ै?
सब ॉँ
ु ोि ऑ िंखें फैला कर बोले-अरे सा ब, परू े पॉच जार के ै । अभी-अभी चेक
भन
ु ाया ै।
मदारीलाल ने स ानभ
ु नू त हदखाते ु ए क ा- गजब ो गया और क्या! आज तक
मदारीलाल ने माथा मसकोडकर क ा-आप व्यथम में कसम क्यों खाते ैं। कोई
आपसे कुछ क ता? (सुबोि के कान में )बैंक में कुछ रपये ों तो ननकाल कर
ठे केदार को दे मलये जायँ, वरना बडी बदनामी ोगी। नक
ु सान तो ो ी गया, अब
उसके साथ अपमान क्यों ो।
उसी रात को सुबोिचदद्र ने आत्म त्या कर ली। इतने रपयों का प्रबदि करना
उनके मलए कहठन था। मत्ृ यु के परदे के मसवा उद ें अपनी वेदना, अपनी
वववशता को नछपाने की और कोई आड न थी।
दस
ू रे हदन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर प ु ँच कर आवाज दीिं मदारी को
रात-भर नीिंद न आयी थी। घबरा कर बा र आय। चपरासी उद ें दे खते ी बोला-
ु जरू ! बडा गजब ो गया, मसकट्टरी सा ब ने रात को गदम न पर छुरी फेर ली।
मदारीलाल की ऑ िंखे ऊपर चढ़ गयीिं, मँु फैल गया ओर सारी दे मस र उठन,
मानों उनका ाथ बबजली के तार पर पड गया ो।
‘सब बडे-बड अफसर जमा ैं। ु जूर, ल ास की ओर ताकते न ीिं बनता। कैसा
भलामानुष ीरा आदमी था! सब लोग रो र े ैं। छोडे-छोटे दो बच्चे ैं , एक
सायानी लडकी े ब्या ने लायक। ब ू जी को लोग ककतना रोक र े ैं , पर बार-
बार दौड कर ल ास के पास आ जाती ैं। कोई ऐसा न ीिं े , जो रमाल से ऑ िंखें
न पोछ र ा ो। अभी इतने ी हदन आये ु ए, पर सबसे ककतना मेल-जोल ो
गया था। रपये की तो कभी परवा ी न ीिं थी। हदल दररयाब था!’
मदारीलाल के मसर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड कर अपने को
सँभाल न लेते, तो शायद धगर पडते। पूछा-ब ू जी ब ु त रो र ी थीिं?
‘कुछ न पनू छए, ु जरू । पेड की पन्त्तयॉ ॉँ झडी जाती ैं। ऑ िंख फूल गर गल
ू र ो
गयी ै ।‘
‘ ॉ,ॉँ मालूम ोता ै , छुरी चलाते बखत याद आयी कक शुब े में दफ्तर के सब लोग
पकड मलए जायेंगे। बस, कलक्टर सा ब के नाम धचिी मलख दी।‘
‘धचिी में मेरे बारे में भी कुछ मलखा ै ? तुम् ें यक क्या मालम
ू ोगा?’
ॉँ और तेज
मदारीलाल की सॉस ो गयी। ऑ िंखें से ऑ िंसू की दो बडी-बडी बँद
ू े धगर
पडी। ऑ िंखें पोंछतें ु ए बोले-वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नदद!ू आठ-दस साल
साथ र ा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तर र ते थे, जैसे
दो सगे भाई र ते ों। खत में मेरी क्या तरीफ मलखी ै ? मगर तुम् ें क्या मालूम
ोगा?
‘आप तो चल ी र े ै , दे ख लीन्जएगा।‘
रामेश्वरी ने ऑ िंखे पोंछ कर कफर क ा-मैया जी, जो कुछ ोना था, व तो ो चुका;
लेककन आप उस दष्ु ट का पता जरर लगाइए, न्जसने मारा सवमनाश कर मलदया
ै। य दफ्तर ी के ककसी आदमी का काम ै । वे तो दे वता थे। मुझसे य ी
क ते र े कक मेरा ककसी पर सिंदे न ीिं ै , पर ै य ककसी दफ्तरवाले का ी
काम। आप से केवल इतनी ववनती करती ू ँ कक उस पापी को बच कर न जाने
दीन्जएगा। पुमलसताले शायद कुछ ररश्वत लेकर उसे छोड दें । आपको दे ख कर
उनका य ौसला न ोगा। अब मारे मसर पर आपके मसवा कौन ै । ककससे
अपना द:ु ख क ें ? लाश की य दग
ु नम त ोनी भी मलखी थी।
मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कक सब कुछ खोल दें । साफ क
दें , मै ी व दष्ु ट, व अिम, व पामर ू ँ। वविवा के पेरों पर धगर पडें और क ें ,
व ी छुरी इस त्यारे की गदम न पर फेर दो। पर जबान न खल
ु ी; इसी दशा में बैठे-
बैठे उनके मसर में ऐसा चक्कर आया कक वे जमीन पर धगर पडे।
मदारीलाल ने दा -सिंस्कार ककया। तेर हदन तक कक्रया पर बैठे र े । तेर वें हदन
वपिंडदान ु आ; ब्र ामणों ने भोजन ककया, मभखररयों को अदन-दान हदया गया, ममत्रों
की दावत ु ई, और य सब कुछ मदारीलाल ने अपने खचम से ककया। रामेश्वरी ने
ब ु त क ा कक आपने न्जतना ककया उतना ी ब ुत ै । अब मै आपको और
जेरबार न ीिं करना चा ती। दोस्ती का क इससे ज्यादा और कोई क्या अदा
करे गा, मगर मदारीलाल ने एक न सन
ु ी। सारे श र में उनके यश की िम
ू मच
गयीिं, ममत्र ो तो ऐसा ो।
सोल वें हदन वविवा ने मदारीलाल से क ा-भैया जी, आपने मारे साथ जो
उपकार और अनग्र
ु ककये ें , उनसे म मरते दम तक उऋण न ीिं ो सकते।
आपने मारी पीठ पर ाथ न रखा ोता, तो न-जाने मारी क्या गनत ोती। क ीिं
रख की भी छॉ ॉँ तो न ीिं थी। अब में घर जाने दीन्जए। व ॉ ॉँ दे ात में खचम भी
कम ोगा और कुछ खेती बारी का मसलमसला भी कर लँ ग
ू ी। ककसी न ककसी तर
ववपन्त्त के हदन कट ी जायँगे। इसी तर मारे ऊपर दया रिखएगा।
वविवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और
आज दस साल से उनका पालन कर र े ै । दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते ै और
कदया का एक प्रनतन्ष्ठत कुल में वववा ो गया े । मदारीलाल और उनकी स्त्री
तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते ैं और उनके इशारों पर चलते ैं। मदारीलाल
सेवा से अपने पाप का प्रायन्श्चत कर र े ैं।
***
कप्ताि सा ब
जगत मसिं को स्कूल जान कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अवप्रय
न था। व सैलानी, आवारा, घुमक्कड युवक थािं कभी अमरद के बागों की ओर
ननकल जाता और अमरदों के साथ माली की गामलयॉ ॉँ बडे शौक से खाता। कभी
दररया की सैर करता और मल्ला ों को डोंधगयों में बैठकर उस पार के दे ातों में
ननकल जाता। गामलयॉ ॉँ खाने में उसे मजा आता था। गामलयॉ ॉँ खाने का कोइर
अवसर व ाथ से न जाने दे ता। सवार के घोडे के पीछे ताली बजाना, एक्को को
पीछे से पकड कर अपनी ओर खीिंचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके
मनोरिं जन के ववषय थे। आलसी काम तो न ीिं करता; पर दव्ु यमसनों का दास ोता
ै , और दव्ु यमसन िन के बबना पूरे न ीिं ोते। जगतमसिं को जब अवसर ममलता
घर से रपये उडा ले जात। नकद न ममले, तो बरतन और कपडे उठा ले जाने में
भी उसे सिंकोच न ोता था। घर में शीमशयॉ ॉँ और बोतलें थीिं, व सब उसने एक-
एक करके गुदडी बाजार प ु ँचा दी। पुराने हदनों की ककतनी चीजें घर में पडी थीिं,
उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष ओर ननपुण था कक उसकी
चतुराई और पटुता पर आश्चयम ोता था। एक बार बा र ी बा र, केवल काननमसों
के स ारे अपने दो-मिंन्जला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ी से पीतल
की एक बडी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आ ट तक न ममली।
उसके वपता ठाकुर भक्तस मस िं अपने कस्बे के डाकखाने के मुिंशी थे। अफसरों ने
उद ें श र का डाकखाना बडी दौड-िूप करने पर हदया था; ककदतु भक्तमसिं न्जन
इरादों से य ॉ ॉँ आये थे, उनमें से एक भी परू ा न ु आ। उलटी ानन य ु ई कक
दे ातो में जो भाजी-साग, उपले-ईिन मुफ्त ममल जाते थे, वे सब य ॉ ॉँ बिंद ो
गये। य ॉ ॉँ सबसे पुराना घराँव थािं न ककसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे।
इस दरु वस्था में जगतमसिं की थलपककयॉ ॉँ ब ु त अखरतीिं। अद ोंने ककतनी ी
बार उसे बडी ननदम यता से पीटा। जगतमसिं भीमकाय ोने पर भी चुपके में मार
खा मलया करता थािं अगर व अपने वपता के ाथ पकड लेता, तो व ल भी न
सकते; पर जगतमसिं इतना सीनाजोर न था। ॉ,ॉँ मार-पीट, घुडकी-िमकी ककसी का
भी उस पर असर न ोता था।
जगतमसिं ज्यों ॉँ
ी घर में कदम रखता; चारों ओर से कॉव-कॉ वॉँ मच जाती, मॉ ॉँ दरु -
दरु करके दौडती, ब ने गामलयॉ ॉँ दे न लगती; मानो घर में कोई सॉडॉँ घस
ु आया ो।
घर ताले उसकी सरू त से जलते थे। इन नतरस्कारों ने उसे ननलमज्ज बना हदया थािं
कष्टों के ज्ञान से व ननद्मवदद्व-सा ो गया था। ज ॉ ॉँ नीिंद आ जाती, व ीिं पड
र ता; जो कुछ ममल जात, व ी खा लेता।
ज्यों-ज्यों घर वालें को उसकी चोर-कला के गप्ु त सािनों का ज्ञान ोता जाता था,
वे उससे चौकदने ोते जाते थे। य ॉ ॉँ तक कक एक बार पूरे म ीने-भर तक उसकी
ॉँ वाले ने िुऑ िंिार
दाल न गली। चरस वाले के कई रपये ऊपर चढ़ गये। गॉजे
तकाजे करने शुर ककय। लवाई कडवी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को
ननकलना मुन्श्कल ॉँ में र ता; पर घात न ममलत थी।
ो गया। रात-हदन ताक-झॉक
आिखर एक हदन बबल्ली के भागों छनिंका टूटा। भक्तमसिं दोप र को डाकखानें से
चले, जो एक बीमा-रन्जस्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई रकारा या डाककया
शरारत कर जाय; ककिं तु घर आये तो मलफाफे को अचकन की जेब से ननकालने की
सुधि न र ी। जगतमसिं तो ताक लगाये ु ए था ी। पेसे के लोभ से जेब टटोली,
तो मलफाफा ममल गया। उस पर कई आने के हटकट लगे थे। व कई बार हटकट
चुरा कर आिे दामों पर बेच चुका था। चट मलफाफा उडा हदया। यहद उसे मालूम
ोता कक उसमें नोट ें , तो कदाधचत व न छूता; लेककन जब उसने मलफाफा फाड
डाला और उसमें से नोट ननक पडे तो व बडे सिंकट में पड गया। व फटा ु आ
मलफाफा गला-फाड कर उसके दष्ु कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस
मशकारी की-सी ो गयी, जो धचडडयों का मशकार करने जाय और अनजान में
ककसी आदमी पर ननशाना मार दे । उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, द:ु ख
था, पर उसे भूल का दिं ड स ने की शन्क्त न थी। उसने नोट मलफाफे में रख हदये
और बा र चला गया।
गरमी के हदन थे। दोप र को सारा घर सो र ा था; पर जगत की ऑ िंखें में नीिंद
न थी। आज उसकी बरु ी तर किंु दी ोगी- इसमें सिंदे न था। उसका घर पर
ॉँ हदन के मलए उसे क ीिं िखसक जाना चाह ए। तब तक
र ना ठनक न ीिं, दस-पॉच
लोगों का क्रोि शािंत ो जाता। लेककन क ीिं दरू गये बबना काम न चलेगा। बस्ती
में व क्रोि हदन तक अज्ञातवास न ीिं कर सकता। कोई न कोई जरर ी उसका
पता दे गा ओर व पकड मलया जायगा। दरू जाने केक मलए कुछ न कुछ खचम तो
पास ोना ी चह ए। क्यों न व मलफाफे में से एक नोट ननकाल ले ? य तो
मालम
ू ी ो जायगा कक उसी ने मलफाफा फाडा ै , कफर एक नोट ननकल लेने में
क्या ानन ै ? दादा के पास रपये तो े ी, झक मार कर दे दें गे। य सोचकर
उसने दस रपये का एक नोट उडा मलया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी
कल्पना का प्रादभ
ु ामव ु आ। अगर ये सब रपये लेकर ककसी दस
ू रे श र में कोई
दक
ू ान खोल ले, तो बडा मजा ो। कफर एक-एक पैसे के मलए उसे क्यों ककसी की
चोरी करनी पडे! कुछ हदनों में व ब ु त-सा रपया जमा करके घर आयेगा; तो
लोग ककतने चककत ो जायेंगे!
उसने मलफाफे को कफर ननकाला। उसमें कुल दो सौ रपए के नोट थे। दो सौ में
दि
ू की दक
ू ान खब
ू चल सकती ै । आिखर मरु ारी की दक
ू ान में दो-चार कढ़ाव
और दो-चार पीतल के थालों के मसवा और क्या ै ? लेककन ककतने ठाट से र ता
े ! रपयों की चरस उडा दे ता े । एक-एक दॉवॉँ पर दस-दस रपए रख दतेा ै,
नफा न ोता, तो व ठाट क ॉ ॉँ से ननभाता? इस आननद-कल्पना में व इतना
मनन ु आ कक उसका मन उसके काबू से बा र ो गया, जैसे प्रवा में ककसी के
पॉवॉँ उखड जायें ओर व ल रों में ब जाय।
‘क्या चा ते ो।‘
‘इसका भी डर न ीिं।‘
‘खुशी से जाऊँगा।‘
य पत्र मलखकर उसने डाकखाने में छोडा और उसी हदन से उत्तर की प्रतीक्षा
करने लगा; ककिं तु एक म ीना गज
ु र गया और कोई जवाब न आया। आसका जी
घबडाने लगा। जवाब क्यों न ीिं आता-क ीिं माता जी बीमार तो न ीिं ैं ? शायद
दादा ने क्रोि-वश जवाब न मलखा ोगा? कोई और ववपन्त्त तो न ीिं आ पडी?
कैम्प में एक वक्ष
ृ के नीचे कुछ मसपाह यों ने शामलग्राम की एक मूनतम रख छोडी
थी। कुछ श्रद्धालू सैननक रोज उस प्रनतमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतमसिं
उनकी ँसी उडाया करता; पर आप व ॉँ प्रनतमा के सम्मुख
ववक्षक्षप्तों की भॉनत
जाकर बडी दे र तक मस्तक झुकाये बेठा र ा। व इसी ्यानावस्था में बैठा था
कक ककसी ने उसका नाम लेकर पक
ु ार, य दफ्तर का चपरासी था और उसके
नाम की धचिी लेकर आया थािं जगतमसिं ने पत्र ाथ में मलया, तो उसकी सारी
दे कॉपॉँ उठन। ईश्वर की स्तुनत करके उसने मलफाफा खोला ओर पत्र पढ़ा। मलखा
ॉँ वषम की सजा
था-‘तुम् ारे दादा को गबन के अमभयोग में पॉच ो गई। तुम् ारी
माता इस शोक में मरणासदन ै । छुट्टी ममले, तो घर चले आओ।‘
चार वषम बीत गए। कैप्टन जगतमसिं का-सा योद्धा उस रे जीमें ट में न ीिं ैं। कहठन
अवस्थाओिं में उसका सा स और भी उत्तेन्जत ो जाता ै । न्जस मह म में
सबकी ह म्मते जवाब दे जाती ै , उसे सर करना उसी का काम ै। ल्ले और
िावे में व सदै व सबसे आगे र ता ै , उसकी त्योररयों पर कभी मैल न ीिं आता;
उसके साथ ी व इतना ववनम्र, इतना गिंभीर, इतना प्रसदनधचत ै कक सारे
अफसर ओर मात त उसकी बडाई करते ैं , उसका पुनजीतन-सा ो गया। उस पर
अफसरों को इतना ववश्वास ै कक अब वे प्रत्येक ववषय में उससे परामशम करते
ें । न्जससे पनू छए, व ी वीर जगतमसिं की ववरदावली सन
ु ा दे गा-कैसे उसने जममनों
की मेगजीन में आग लगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से
ननकाला, कैसे अपने एक मात त मसपा ी को किंिे पर लेकर ननल आया। ऐसा
जान पडता ै , उसे अपने प्राणों का मो न ी, मानो व काल को खोजता कफरता
ो!
सवा चार वषम बीत गए। सिं्या का समय ै । नैनी जेल के द्वार पर भीड लगी
‘मेरे घर क ॉ ॉँ ै ?’
जेल का अफसर आया। कैदी एक पिंन्क्त में खडे ु ए। अफसर एक-एक का नाम
लेकर रर ाई का परवाना दे ने लगा। कैहदयों के चे रे आशा से प्रफुमलत थे।
न्जसका नाम आता, व खुश-खुश अफसर के पास जात, परवाना लेता, झुककर
सलाम करता और तब अपने ववपन्त्तकाल के सिंधगयों से गले ममलकर बा र
ननकल जाता। उसके घरवाले दौडकर उससे मलपट जाते। कोई पैसे लुटा र ा था,
क ीिं ममठाइयॉ ॉँ बॉटी
ॉँ जा र ी थीिं, क ीिं जेल के कममचाररयों को इनाम हदया जा र ा
था। आज नरक के पत
ु ले ववनम्रता के दे वता बने ु ए थे।
अदत में भक्तमसिं का नाम आया। व मसर झुकाये आह स्ता-आह स्ता जेलर के
पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले , मानो
सामने कोई समद्र
ु ल रें मार र ा ै । द्वार से बा र ननकल कर व जमीन पर
बैठ गये। क ॉ ॉँ जायँ?
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