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प्रेमचिंद

मानसरोवर
भाग 5

www.hindikosh.in
Manasarovar – Part 5

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि


समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright
has expired.

यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (प्रेमचिंद, मानसरोवर झील)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

Sanjayacharya

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Contents
मन्ददर ......................................................................................................... 4
ननमिंत्रण ..................................................................................................... 13
रामलीला .................................................................................................... 42
मिंत्र (1) ...................................................................................................... 51
कामना तरु ................................................................................................ 69
सती .......................................................................................................... 82
ह स
िं ा परमोिमम ........................................................................................... 96
बह ष्कार .................................................................................................. 108
चोरी ........................................................................................................ 126
लािंछन...................................................................................................... 135
कजाकी .................................................................................................... 151
आँसओ
ु की ोली ...................................................................................... 167
अन्नन-समाधि ........................................................................................... 177
सुजान भगत ............................................................................................ 191
सो ाग का शव ......................................................................................... 206
आत्म-सिंगीत ............................................................................................. 235
ऐक्रे स ..................................................................................................... 240
ईश्वरीय दयाय .......................................................................................... 254
ममता ...................................................................................................... 277
मिंत्र (2) .................................................................................................... 293
प्रायन्श्चत ................................................................................................. 309
कप्तान सा ब ........................................................................................... 325
मन्दिर

मात-ृ प्रेम, तुझे िदय ैं! सिंसार में और जो कुछ ैं, ममथ्या ैं , ननस्सार ैं। मात-ृ
प्रेम ी सत्य ैं , अक्षय ैं, अनश्वर ैं। तीन हदन से सुिखया के मँु में न अदन
का एक दाना गया था, न पानी की एक बँद
ू , सामने पुआल पर माता का नद ा-
सा लाल पडा करा र ा था। आज तीन हदन से उसने आँखें न खोली थीिं। कभी
उसे गोद में उठा लेती, कभी पआ
ु ल पर सल
ु ा दे ती, ँसते-खलते बालक को
अचानक क्या ो गया, य कोई न ीिं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और
प्यास क ाँ? एक बार पानी का एक घूट
ँ मँु में मलया था, पर किंठ के नीचे न ले
जा सकी, इस दिु खया की ववपन्त्त का पारवार न था। साल-भर भीतर ी दो
बालक गिंगाजी की गोद में सौंप चुकी थी, पनतदे व प ले ी मसिार चुके थे, अब
उस अभाधगनी के जीवन का आिार, अवलम्ब जो कुछ था, य ी बालक था। ाय!
क्या ईश्वर इसे भी इसकी गोद से छनन लेना चा ता ैं ?

य कल्पना करते ी माता की आँखों से झर-झर आँसु ब ने लगते थे। इस


बालक को व क्षण-भर के मलए भी अकेला न छोडती थी। उसे साथ ले कर घास
छनलने जाती, घास बेचने बाजार जाती तो बालक गोद में ोता। उसके मलए उसने
नद ी-सी खुरपी और नद ी-सी खािंची बनवा दी थी। न्जयावन माता के साथ घास
छनलता और गवम से क ता - 'अम्माँ, में भी बडी-सी खुरपी बना दो, म ब ु त-सी
घास छनलें गे, तुम द्वारे माची पर बैठन र ना अम्माँ, मैं घास बेच लाऊँगा।'

माँ पूछती - ' मारे मलए क्या-क्या लाओगे, बेटा?'

न्जयावन लाल-लाल साडडयों का वादा करता, अपने मलए ब ु त-सा गड


ु लाना
चा ता था। वे ी भोली-भोली बातें इस समय याद आ-आकर माता के हृदय को
शूल के समान बेि र ी थी। जो बालक दे खा, य ी क ता कक ककसी की डीठ
(नजर) ैं , पर ककसकी डीठ ैं? इस वविवा का भी सिंसार में कोई वैरी ैं ? अगर
उसका नाम मालूम ो जाता तो सुिखया जाकर उसके चरणों में धगर पडती और
बालक को उसकी गोद में रख दे ती, क्या उसका हृदय दया से न वपघल जाता?
पर नाम कोई न ीिं बताता, ाय! ककससे पूछे, क्या करे ?

तीन प र बीत चुकी थी, सुिखया का धचिंता-व्यधथत चिंचल मन कोठे -कोठे दौड र ा
था। ककस दे वी की शरण जाए, ककस दे वता की मनौती करें , इसी सोच में पडे-पडे
उसे एक झपकी आ गई, क्या दे खती ैं कक उसकी स्वामी आकर बालक के
मसर ाने खडा ो जाता ैं औऱ बालक के मसर पर ाथ फेरकर क ता ैं - रो
मत, सिु खया! तेरा बालक अच्छा ो जाएगा। कल ठाकुरजी की पज
ू ा कर दे , व ी
तेरे स ायक ोंगे। य क कर व चला गया। सिु खया की आँख खल
ु गई, अवश्य
ी उसके पनतदे व आए थे, इसमें सुिखया को जरा भी सददे न ु आ। उद ें अब
भी मेरी सुधि ैं, य सोचकर उसका हृदय आशा से पररप्लाववत ो उठा, पनत के
प्रनत श्रद्धा और प्रेम से उसकी आँखें सजग ो गई। उसने बालक को गोद में उठा
मलया और आकाश की और ताकती ु ई बोली - भगवान, मेरा बालक अच्छा ो
जाए, तो मैं तम्
ु ारी पज
ू ा करँगी। अनाथ वविवा पर दया करो।

उसी समय न्जलावन की आँखें खुल गई। उसने पानी माँगा, माता ने दौडकर
कटोरे में पानी मलया और बालक को वपला हदया।

न्जयावन ने पानी पीकर क ा - 'अम्माँ रात ैं कक हदन?'

सिु खया - 'अभी तो रात ैं बेटा, तम्


ु ारा जी कैसा ैं?'

न्जयावन - 'अच्छा ैं अम्माँ, अब मैं अच्छा ो गया।'

सुिखया - 'तुम् ारे मँु में घी-शक्कर, बेटा, भगवान करे तुम जल्द अच्छे ो
जाओ, कुछ खाने को जी चा ता ैं?'

न्जयावन - ' ाँ अम्माँ, थोडा-सा गुड दे दो।'


सिु खया - 'गड
ु मत खाओ भैया, अवगन
ु करे गा, क ो तो िखचडी बना दँ ।ू '

न्जयावन - 'न ीिं मेरी अम्माँ, जरा-सा गुड दे दो, तेरे पैरों पडूँ।'

माता इस आग्र को न टाल सकी, उसने थोडा-सा गुड ननकालकर न्जयावन के


ाथ पर रख हदया और ाँडी का ढ़क्कन लगाने जा र ी थी कक ककसी ने बा र
से आवाज दी, ाँडी छोडकर व ककवाड खोलने गई, न्जयावन में गुड की दो
वपिंडडयाँ ननकाल ली और जल्दी-जल्दी से चट कर गया।

हदन-भर न्जयावन की तबीयत अच्छन र ी, उसने थोडी-सी िखचडी खाई, दो-एक


बार िीरे -िीरे द्वार पर भी आया और मजोमलयों के साथ खेल न सकने पर भी
उद ें खेलते दे खकर उसकी जी ब ल गया। सुिखया ने समझा, बच्चा अच्छा ो
गया। दो-एक हदन में जब पैसे ाथ में आ जाएँगे तो व एक हदन ठाकुरजी की
पूजा करने चली जाएगी। जाडे के हदन झाडू-ब ार, न ाने-िोने और खाने-पीने में
कट गए, मगर जब सद्या समय कफर न्जयावन का जी भारी ो गया, तो
सिु खया घबरा उठन, तरु दत मन में शिंका उत्पदन ु ई कक पज
ू ा में ववलम्ब करने से
ी बालक कफर से मरु झा गया ै , अभी थोडा-सा हदन बाकी था। बच्चे को लेटाकर
व पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो जमीिंदार के बगीचे में ममल गए,
तुलसीदल द्वार पर ी था, पर ठाकुर जो के भोज के मलए कुछ ममष्ठान तो
चाह ए, न ीिं तो गाँव वालों को बाँटेगी क्या? चढ़ाने के मलए कम-से-कम एक आना
तो चाह ए, सारा गाँव छान आई, क ीिं पैसे उिार न ममले। अब व ताश ो गई।
ाय रे अहदन, कोई चार आने पैसे भी न ीिं दे ता। आिखर उसने अपने ाथों के
चाँदी के कडे उतारे और दौडी ु ई बननए की दक
ु ान पर गई। कडे धगरवी रखे,
बतासे मलए और दौडी ु ई घर आई।

पज
ू ा का सामान तैयार ो गया तो उसने बालक को गोद में उठाया और दस
ू रे
ाथ में पूजा की थाली मलए मिंहदर की ओर चली.
मन्ददर में आरती का घदटा बज र ा था। दस-पाँच भक्तजन खडे स्तनु त कर र े
थे। इतने में सिु खया जाकर मन्ददर के सामने खडी ो गई।

पुजारी ने पूछा - 'क्या ै रे ? क्या करने आई ै ?'

सुिखया चबूतरे पर आकर बोली - 'ठाकुरजी की मनौती की थी म ाराज, पूजा


करने आई ू ँ।'

पुजारीजी हदन-भर जमीिंदार के असाममयों की पूजा ककया करते थे और शाम-सबेरे


ठाकुरजी की। रात को मन्ददर में ी सोते थे, मन्ददर में ी अपना भोजन भी
बनता था, न्जससे ठाकुरद्वारे की सारी अस्तकारी काली पड र ी थी। स्वभाव के
बडे दयालु थे, ननष्ठावान ऐसे कक चा े ककतनी ी ठिं ड पडे, ककतनी ठिं डी वा चले ,
बबना स्नान ककए मँु में पानी तक न डालते थे। अगर इस पर भी उनके ाथों
और पैरों में मैल की मोटी त जमी ु ई थी तो इसमें उनका कोई दोष न था।

पुजारीजी बोला - 'तो क्या भीतर आएँगी? ो तो चुकी पूजा, य ाँ आकर भरभ्रष्ट
करे गी।'

एक भक्तजन ने क ा - 'ठाकुरजी को पववत्र करने आई ै ?'

सुिखया ने बडी दीनता से क ा - 'ठाकुरजी के चरन छूने आई ू ँ , सरकार! पूजा


की सब सामग्री लाई ू ँ।'

पज
ु ारी - 'कैसी बेसमझी की बात करती ै रे , कुछ पगली तो न ीिं ो गई ै!
भला तू ठाकुरजी को कैसे छुएगी।'

सिु खया को अब तक कभी ठाकुरद्वारे में आने का अवसर न ममला था। आश्चयम
से बोली - 'सरकार, व तो सिंसार के मामलक ै । उनके दरसन से तो पापी भी
तर जाता ै , मेरे छूने से उद ें छूत लग जाएगी!'
पज
ु ारी - 'अरे , तू चमाररन ै कक न ीिं रे ?'

सुिखया - 'तो क्या भगवान ने चमारों को न ीिं मसरजा ै ? चमारों का भगवान


कोई और ै ? इस बच्चे की मनौती ै सरकार!'

इस पर व ी भक्त म ोदय, जो अब स्तुनत समाप्त कर चुके थे, डपटकर बोले -


'मार के भगा दो चुडल
ै को। भ्रष्ट करने आई ै , फेंक दो थाली-वाली। सिंसार में
तो आप ी आग लगी ु ई ै , चमार भी ठाकुरजी की पूजा करने लगें गे तो पथ्
ृ वी
र े गी कक रसातल को चली जाएगी?'

दस
ू रे भक्त म ाशय बोले - 'अब बेचारे ठाकुरजी को भी चमारों के ाथ का
भोजन करना पडेगा। अब परलय ोने में कुछ कसर न ीिं ै ।'

ठिं ड पड र ी थी, सुिखया काँप र ी थी और य ाँ िमम के ठे केदार लोग समय की


गनत पर आलोचनाएँ कर र े थे। बच्चा मारे ठिं ड के उसकी छाती में घुसा जाता
था, ककदतु सुिखया व ाँ से टने का नाम न लेती थी। ऐसा मालूम ोता था कक
उसके दोनों पाँव भमू म में पड गए ै । र -र कर उसके हृदय में ऐसा उद्गार
उठता था कक जाकर ठाकुरजी के चरणों में धगर पडे। ठाकुरजी क्या इद ीिं के ै,
म गरीबों का उनसे कोई नाता न ीिं ै , ये लोग कौन ोते ै रोकने वाले? पर
भय ोता था कक इन लोगों ने क ीिं सचमुच थाली-वाली फेंक दी तो क्या
करँगी? हदल में ऐिंठकर र जाती थी। स सा एक सूझी। व व ाँ से कुछ दरू
जाकर एक वक्ष
ृ के नीचे अिंिेरे में नछपकर इन भक्तजनों के जाने की रा दे खने
लगी।

आरती और स्तुनत के पश्चात भक्तजन बडी दे र तक श्रीमद्भागवत का पाठ


करते र े । उिर पुजारीजी ने चूल् ा जलाया और खाना पकाने लगे। चूल् े के
सामने बैठे ु ए ' ू ँ - ू ँ' करते जाते थे और बीच-बीच में हटप्पिणयाँ भी करते जाते
थे। दस बजे रात तक कथा-वाताम ोती र ी और सिु खया वक्ष
ृ के नीचे
्यानावस्था में खडी र ी।

सारे भक्त लोगों ने एक-एक करके घर की रा ली। पुजारीजी अकेले र गए।


अब सिु खया आकर मन्ददर के बरामदे के सामने खडी ो गई, ज ाँ पज
ु ारीजी
अकेले आसन जमाए बटलोई का क्षुिावद्धमक मिरु सिंगीत सन
ु ने में मनन थे।
पुजारी ने आ ट पाकर गरदन उठाई, तो सुिखया को खडी दे खा। धचढ़कर बोले -
'क्यों रे तू अभी तक खडी ै !'

सिु खया ने थाली जमीन पर रखी दी और एक ाथ फैलाकर मभक्षा-प्राथमना करती

ु ई बोली - 'म ाराजजी, मैं अभाधगन ू ँ। य ी बालक मेरे जीवन का अलम ै,


मुझ पर दया करो। तीन हदन से इसने मसर न ीिं उठाया। तुम् ें बडा जस ोगा
म ाराजजी!'

य क ते-क ते सुिखया रोने लगी। पुजारीजी दयालु तो थे, पर चमाररन को


ठाकुरजी के समीप जाने दे ने का अश्रुतपूवम घोर पातक व कैसे कर सकते थे? न
जाने ठाकुरजी इसका क्या दिं ड दे ? आिखर उनके भी बाल-बच्चे थे। क ीिं ठाकुरजी
कुवपत ोकर गाँव का सवमनाश कर दें , तो? बोले - 'घर जाकर भगवान का नाम
ले, तेरा बालक अच्छा ो जाएगा। मैं य तल
ु सीदल दे ता ू ँ, बच्चे को िखला दे ,
चरणामत
ृ उसकी आँखों में लगा दे , भगवान चा ें गे तो सब अच्छा ी ोगा।'

सुिखया - 'ठाकुरजी के चरणों पर धगरने न दोगे म ाराजजी? बडी दिु खया ू ँ , उिार
लेकर पज
ू ा की सामग्री जट
ु ाई ै । मैंने कल सपना दे खा था, म ाराजजी कक
ठाकुरजी की पूजा कर, तेरा बालक अच्छा ो जाएगा। तभी दौडी आई ू ँ। मेरे
पास एक रुपया ै। व मुझसे ले लो, पर मुझे एक छन-भर ठाकुरजी के चरणों
पर धगर लेने दो।'

इस प्रलोभन ने पिंडडतजी को एक क्षण के मलए ववचमलत कर हदया, ककदतु मूखत


म ा
के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ-कुछ बाकी था। सम्भलकर बोले -
'अरी पगली, ठाकुरजी भक्तों के मन का भाव दे खते ै कक चरन पर धगरना
दे खते ै । सन
ु ा न ीिं ै - 'मन चिंगा तो कठौती में गिंगा।' मन में भक्त न ो तो
लाख कोई भगवान के चरणों में धगरे , कुछ न ोगा। मेरे पास एक जदतर ै।
दाम तो उसका ब ु त ै , पर तुझे एक ी रुपए में दे दँ ग
ू ा। उसे बच्चे के गले में
बाँि दे ना, बस बच्चा कल खेलने लगेगा।'

सुिखया - 'ठाकुरजी की पूजा न करने दोगे?'

पज
ु ारी - 'तेरे मलए इतनी ी प ू जा ब ु त ै । जो बात कभी न ीिं ु ई, व आज मैं
कर दँ ू और गाँव पर कोई आफत-ववपत आ पडे तो क्या ो, इसे भी तो सोचो! तू
य जदतर ले जा, भगवान चा ें गे तो रात ी भर में बच्चे का क्लेश कट
जाएगा। ककसी का डीठ पड गई ै। ै भी तो चोंचला। मालम
ू ोता ै , छत्तरी
बिंस ै ।'

सुिखया - 'जबसे इसे ज्वर ै , मेरे प्राण न ों में समाए ु ए ै ।'

पज
ु ारी - 'बडा ोन ार बालक ै । भगवान इसे न्जला दें तो तेरे सारे सिंकट र
लेगा। य ाँ तो ब ु त खेलने आया करता था। इिर दो-तीन हदन से न ीिं दे खा
था।'

सिु खया - 'तो जदतर को कैसे बाँिग


ू ी, म ाराज?'

पुजारी - 'कपडे में बाँिकर दे ता ू ँ। बस, गले में प ना दे ना। अब तू इस बेला में
नवीन वस्तर क ाँ खोजने जाएगी।'

सुिखया ने दो रुपए पर कडे धगरों रखे थे। एक प ले ी भिंज चुका था। दस


ू रा
पुजारीजी को भें ट ककया और जदतर लेकर मन को समझाती ु ई घर लौट आई।
सिु खया ने घर प ु ँ चकर बालक के गले में जदतर बाँि हदया। ज्यों-ज्यों रात
गज
ु रती थी, उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था। य ाँ तक कक तीन बजते -बजते
उसके ाथ-पाँव शीतल ोने लगे! तब व घबरा उठन और सोचने लगी। ाय! मैं
व्यथम ी सिंकोच में पडी र ी और बबना ठाकुरजी के दशमन ककए चली आई। अगर
मैं अददर चली जाती और भगवान के चरणों पर धगर पडती तो कोई मेरा क्या
कर लेता? य ीिं न ोता कक लोग मुझे िक्के दे कर ननकाल दे त।े शायद मारते भी,
पर मेरा मनोरथ तो परू ा ो जाता। यहद मैं ठाकुरजी के चरणों को अपने आँसओ
ू िं
से मभगो दे ती और बच्चे को उनके चरणों में सल
ु ा दे ती तो क्या उद ें दया न
आती? व तो दयामय भगवान ै , दीनों की रक्षा करते ै , क्या मुझ पर दया न ीिं
करते? य सोचकर सुिखया का मन अिीर ो उठा। न ीिं, अब ववलम्ब करने का
समय न था। व अवश्य जाएँगी और ठाकुरजी के चरणों पर धगरकर रोएगी।
उस अबला के आशिंककत हृदय का अब इसके मसवा और कोई अवलम्ब, कोई
आसरा न था। मन्ददर के द्वार बदद ोंगे तो व ताले तोड डालेगी। ठाकुरजी
क्या ककसी के ाथों बबक गए ै कक कोई उद ें बदद कर रखे।

रात के तीन बज गए थे। सुिखया ने बालक को कम्बल से ढाँपकर गोद में


उठाया, एक ाथ से थाली उठाई और मन्ददर की ओर चली। घर से बा र
ननकलते ी शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव
मशधथल ु ए जाते थे। उस पर चारों ओर अदिकार छाया ु आ था। रास्ता दो
फरलािंग से कम न था। पगडिंडी वक्ष
ृ ों के नीचे-नीचे गई थी। कुछ दरू दाह नी ओर
एक पोखरा था, कुछ दरू बाँस की कोहठयाँ। पोखरे में एक िोबी मर गया था औऱ
बाँस की कोहठयों में चुडल
ै ों का अड्डा था। बाई ओर रे -भरे खेत थे। चारों ओर
सन-सन ो र ा था, अदिकार सािंय-सािंय कर र ा था। स सा गीदडों के ककमश
स्वर में ु आँ- ु आँ करना शुर ककया। ाय! अगर कोई उसे एक लाख रुपया भी
दे ता तो भी इस समय व य ाँ न आती, पर बालक की ममता सारी शिंकाओिं को
दबाए ु ए थी। ' े भगवान! अब तुम् ारा ी आसरा ै !' य जपती ु ई व
मन्ददर की ओर चली जा र ी थी।
मन्ददर के द्वार पर प ु ँचकर सिु खया मे जिंजीर टटोलकर दे खी। ताला पडा ु आ
था। पज
ु ारी जी बरामदे से ममली ु ई कोठरी में ककवाड बदद ककए सो र े थे।
चारों ओर अदिेरा छाया ु आ था। सुिखया चबूतरे के नीचे से एक ईट उठा लाई
और जोर-जोर से ताले पर पटकने लगी। उसके ाथों में न जाने इतनी शन्क्त
क ाँ से आ गई थी। दो ी तीन चोटों में ताला और ईट दोनों टूटकर चौखट पर
धगर पडे। सुिखया ने द्वार खोल हदया और अददर जाना ी चा ती थी कक
पज
ु ारी ककवाड खोलकर डबडाए ु ए बा र ननकल आए और 'चोर-चोर!' का शोर
मचाते ु ए गाँव की ओर दौडे। जोडे में प्रातः प र रात र े ी लोगों की नीिंद
खुल जाती ै। य शोर सुनते ी कई आदमी इिर-उिर से लालटे नें मलए ु ए
ननकल पडे और पूछने लगे - 'क ाँ ै ? क ाँ ै ? ककिर गया?'

पज
ु ारी - 'मन्ददर का द्वार खल
ु ा पडा ै । मैने खट-खट की आवाज सन
ु ी।'

स सा सुिखया बरामदे से ननकलकर चबूतरे पर आई और बोली - 'चोर न ीिं ै,


मैं ू ँ, ठाकुरजी की पज
ू ा करने आई थी। अभी तो अददर गई भी न ीिं, मार ल्ला
मचा हदया।'

पुजारी ने क ा - 'अब अनथम ो गया! सुिखया ने मन्ददर में जाकर ठाकुरजी को


भ्रष्ट कर आई!'

कफर क्या था, कई आदमी झल्लाए ु ए लपके और सुिखया पर लातों और घूिंसो


की मार पडने लगी। सुिखया एक ाथ से बच्चे को पकडे ु ए थी और एक ाथ
से उसकी रक्षा कर र ी थी। एकाएक बमलष्ठ ठाकुर ने उसे इतनी जोर से िक्का
हदया कक बालक उसके ाथ से छूटकर जमीन पर धगर पडा, मगर व न रोया, न
बोला, न साँस ली। सुिखया भी धगर पडी। सम्भलकर बच्चे को उठाने लगी, तो
उसके मुख से एक चीख ननकल गई। बच्चे का माथा छूकर दे खा। सारी दे ठिं डी
ो गई थी। एक लम्बी साँस खीिंचकर व उठ खडी ु ई। उसकी आँखों में आँसू
न आए। उसका मुख क्रोि का ज्वाला से तमतमा उठा। आँखों से अिंगारे बरसने
लगे, दोनों महु ियाँ बँि गई। दािंत वपसकर बोली - 'पावपयों, मेरे बच्चे के प्राण
लेकर दरू क्यों खडे ो? मझ
ु े भी क्यों न ीिं उसी के साथ मार डालते? मेरे छू लेने
से ठाकुरजी को छूत लग गई? पारस को छूकर लो ा सोना ो जाता ै , पारस
लो ा न ीिं ोता। मेरे छूने से ठाकुरजी अपववत्र ो जाएँगे! मझ
ु े बनाया तो छूत
न ीिं लगी? लो, अब कभी ठाकुरजी को छूने न ीिं आऊँगी। ताले में बदद रखो, प रा
बैठा ो। ाय, तुम् ें दया छू भी न ीिं गई! तुम इतने कठोर ो! बाल-बच्चे वाले
ोकर भी तुम् े एक अभाधगन माता पर दया न आई! नतस पर िरम के ठे केदार
बनते ो! तम
ु सब-के-सब त्यारे ो, ननपट त्यारे ो। डरो मत, मैं थाना-पमु लस
न ीिं जाऊँगी। मेरा दयाय भगवान करें गे, अब उद ीिं के दरबार में फररयाद करँगी।'

ककसी ने चँू न की, कोई ममनममनाया तक न ीिं। पाषाण-मूनतमयों की भाँनत सब-के-


सब मसर झक
ु ाए खडे र े ।

इतनी दे र में सारा गाँव जमा ो गया। सुिखया ने एक बार कफर बालक के मँु
की ओर दे खा। मँु से ननकला- ाय मेरे लाला! कफर व मून्च्छत ोकर धगर
पडी। प्राण ननकल गए। बच्चें के मलए प्राण दे हदए।

माता, तू िदय ै । तुम जैसी ननष्ठा, तुझ जैसी श्रद्धा, तुझ जैसा ववश्वास दे वताओिं
को भी दल
ु भ
म ै।

***

निमंत्रण

पिंडडत मोटे राम शास्त्री ने अददर जाकर अपने ववशाल उदर पर ाथ फेरते ु ए
य पद पिंचम स्वर में गाया -

अजगर करे न चाकरी, पिंछन करे न काम।


दास मल
ू का क गए, सबके दाता राम॥

सोना ने प्रफुन्ल्लत ोकर पूछा - 'कोई मीठन-ताजी खबर ै क्या?'


शास्त्रीजी ने पैंतरे बदलकर क ा - 'मार मलया आज। ऐसा ताककर मारा कक
चारों खाने धचत्त। सारे घर का नेवता! सारे घर का। व बढ़-बढ़कर ाथ मारँगा
कक दे खने वाले दिं ग र जाएँगे। उदर म ाराज अभी से अिीर ो र े ै। '

सोना - 'क ीिं प ले की भाँनत अब की िोखा न ो। पक्का-पोढ़ा कर मलया ै न?'

मोटे राम ने मँछ


ू ें ऐिंठते ु ए क ा - 'ऐसा असगन
ु मँु से न ननकालो। बडे जप-
तप के बाद य शुभ हदन आया ै । जो तैयाररयाँ करनी ों, कर लो।'

सोना - 'व तो करँगी ी। क्या इतना भी न ीिं जानती? जदम-भर घास थोडे ी
खोदती र ी ू ँ , मगर ै घर-भर का न?'

मोटे राम - 'अब और कैसे क ू ँ, पूरे घर-भर का ै । इसका अथम समझ में न आया
ो तो मझ
ु से पछ
ू ो। ववद्वानों की बात समझना सबका काम न ीिं। अगर उनकी
बात सभी समझ ले, तो उनकी ववद्वता का म त्त्व ी क्या र े , बताओ, समझी?
मैं इस समय ब ु त ी सरल भाषा में बोल र ा ू ँ, मगर तुम न ीिं समझ सकी।
बताओ, ववद्वता ककसे क ते ै ? म त्त्व ी का अथम बताओ। घर-भर का
ननमदत्रण दे ना क्या हदल्लगी ै ? ाँ, ऐसे अवसर पर ववद्वान लोग राजनीनत से
काम लेते ै और उसका व ी आशय ननकालते ै , जो अपने अनुकूल ो।
मरु ादापरु की रानी साह बा सात ब्राह्मणों को इच्छापण
ू म भोजन करना चा ती ै।
कौन-कौन म ाशय मेरे साथ जाएँगे, य ननणमय करना मेरा काम ै । अलगू
शास्त्री, बेनीशास्त्री, छे दीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री आहद जब
इतने आदमी अपने घर ी में ै , तब बा र कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।'

सोना - 'और सातवाँ कौन?'

मोटे राम - 'बुवद्ध दौडाओ।'

सोना - 'एक पत्तल घर लेते आना।'


मोटे राम - 'कफर व ी बात क ी, न्जसमें बदनामी ो। नछः नछः! पत्तल घर लाऊँ!
उस पत्तल में व स्वाद क ाँ जो जजमान के घर बैठकर भोजन करने में ै।
सुनो, सातवें म ाशय ै - पिंडडत सोनाराम शास्त्री।'

सोना - 'चलो, हदल्लगी करते ो। भला मैं कैसे जाऊँगी?'

मोटे राम - 'ऐसे ी कहठन अवसरों पर तो ववद्या का आवश्यकता पडती ै।


ववद्वान आदमी अवसर को अपना सेवक बना दे ता ै , मूखम भानय को रोता ै।
पररिान का अथम समझती ो? पररिान 'प नावे' को क ते ै । इसी साडी को मेरी
तर बाँि लो, मेरी ममरजई प न लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगडी मैं बाँि
दँ ग
ू ा। कफर कौन प चान सकता ै ?'

सोना ने ँसकर क ा - 'मुझे तो लाज लगेगी।'

मोटे राम - 'तम्


ु ें करना ी क्या ै ? बातें तो म करें गे।'

सोना ने मन- ी-मन आने वाले पदाथों का आनदद लेकर क ा - 'बडा मजा
ोगा!'

मोटे राम - 'बस, अब ववलम्ब न करो। तैयारी करो, चलो।'

सोना - 'ककतनी फिंकी बना लँ ू?'

मोटे राम - 'य मैं न ीिं जानता। बस, य ी आदशम सामने रखो कक अधिक-से-
अधिक लाभ ो।'

स सा सोनादे वी को एक बात याद आ गई। बोली - 'अच्छा, इन बबछुओिं का क्या


करँगी?'

मोटे राम ने त्योरी चढ़ाकर क ा - 'इद ें उतारकर रख दे ना, और क्या करोगी?'


सोना - ' ाँ जी, क्यों न ी, उतारकर रख क्यों दँ ग
ू ी?'

मोटे राम - 'तो क्या तम्


ु ारे बबछुए प नने ी से मैं जी र ा ू ँ ? जीता ू ँ पौन्ष्टक
पदाथों के सेवन से। तुम् ारे बबछुओिं के पुण्य से न ीिं जीता।'

सोना - 'न ीिं भाई, मैं बबछुए न उताऊँगी?'

मोटे राम ने सोचकर क ा - 'अच्छा, प ने चलो, कोई ानन न ीिं। गोविमनिारी य


बािा भी र लें गे। बस, पाँव में ब ु त-से कपडे लपेट लेना। मैं क दँ ग
ू ा, इन
पिंडडतजी को फीलपाँ ो गया। कैसी सझ
ू ी?'

पिंडडताइन ने पनतदे व को प्रशिंसासूचक नेत्रों से दे खकर क ा - 'जदम-भर पढ़ा न ीिं


ै ।'

सद्या समय पिंडडतजी ने पाँचों पुत्रों को बुलाया और उपदे श दे ने लगे - 'पुत्रों,


कोई काम करने के प ले खूब सोच-समझ लेना चाह ए कक कैसे क्या ोगा। मान
लो, रानी साह बा ने तुम लोगों का पता-हठकाना पूछना आरम्भ ककया तो तुम
लोग क्या उत्तर दोगे? य तो म ान मख
ू त
म ा ोगी कक तम
ु सब मेरा नाम लो।
सोचो, ककतने कलिंक और लज्जा की बात ोगी कक मझ
ु जैसा ववद्वान केवल
भोजन के मलए इतना बडा कुचक्र रचे। इसमलए तुम सब थोडी दे र के मलए भूल
जाओ कक मेरे पुत्र ो। कोई मेरा नाम न बतलाए। सिंसार में नामों की कमी न ीिं,
कोई अच्छा-सा नाम चुनकर बता दे ना। वपता का नाम बदल दे ने से कोई गाली
न ीिं लगती। य कोई अपराि न ीिं।'

अलगू - 'आप ी बता दीन्जए।'


मोटे राम - 'अच्छन बात ै , ब ु त अच्छन बात ै। ाँ, इतने म त्त्व का काम मुझे
स्वयिं करना चाह ए। अच्छा सन
ु ो - अलगरू ाम के वपता का नाम ै पिंडडत केशव
पािंड,े खूब याद कर लो। बेनीराम के वपता का नाम पिंडडत मिंगर ओझा, खूब याद
रखना। छे दीराम के वपता ै पिंडडत दमडी नतवारी, भूलना न ीिं। भवानी, तुम गिंगू
पािंडे बताना, खूब याद कर लो। अब र े फेकूराम, तुम बेटा बतलाना सेतूराम
पाठक। ो गया नामकरण! अच्छा अब मैं परीक्षा लँ ग
ू ा। ोमशयार र ना। बोलो
अलगू, तम्
ु ारे वपता का क्या नाम ै ?'

अलगू - 'पिंडडत केशव पािंड।े '

'बेनीराम, तुम बताओ।'

'दमडी नतवारी।'

छे दीराम -'य तो मेरे वपता का नाम ै ।'

बेनीराम -'मैं तो भूल गया।'

मोटे राम - 'भल


ू गए! पिंडडत के पत्र
ु ोकर तम
ु एक नाम भी न ीिं याद कर
सकते! बडे दःु ख की बात ै । मझ
ु े पाँचों नाम याद ै , तम्
ु ें एक नाम भी याद
न ीिं? सुनो, तुम् ारे वपता का नाम ै पिंडडत मिंगर ओझा।'

पिंडडतजी लडको की परीक्षा ले ी र े थे कक उनके परम ममत्र पिंडडत धचिंतामिण ने


द्वार पर आवाज दी। पिंडडत मोटे राम ऐसे घबराए कक मसर-पैर की सधु ि न र ी।
लडकों को भगाना ी चा ते थे कक धचिंतामिण अददर चले आए। दोनों सज्जनों
में बचपन से गाढ़ी मैत्री थी। दोनों ब ु िा साथ-साथ भोजन करने जाया करते थे,
और यहद पिंडडत मोटे राम अव्वल र ते तो पिंडडत धचिंतामिण के द्ववतीय पर में
कोई बािक न ो सकता था, पर आज मोटे रामजी अपने ममत्र को साथ न ीिं ले
जाना चा ते थे। उनको साथ ले जाना अपने घर वालों में से ककसी एक को छोड
दे ना था और इतना म ान आत्मत्याग करने के मलए वे तैयार न थे।

धचिंतामिण ने य समारो दे खा तो प्रसदन ोकर बोले - 'क्यों भाई, अकेले- ी-


अकेले! मालम
ू ोता ै , आज क ीिं ग रा ाथ मारा ै ।'

मोटे राम ने मँु लटकाकर क ा - 'कैसी बातें करते ो, ममत्र! ऐसा तो कभी न ीिं

ु आ कक मुझे अवसर ममला ो और तुम् ें सूचना न दी ो। कदाधचत कुछ समय


ी बदल गया या ककसी ग्र का फेर ै । कोई झठ
ू को भी न ीिं बल
ु ाता।'

पिंडडत धचिंतामिण ने अववश्वास के भाव से क ा - 'कोई-न-कोई बात तो ममत्र


अवश्य ै , न ीिं तो ये बालक क्यों जमा ैं?'

मोटे राम - 'तुम् ारी इद ीिं बातों पर मुझे क्रोि आता ैं। लडकों की परीक्षा ले र ा

ू ँ। ब्राह्मण के लडके ै , चार अक्षर पढ़े बबना इनको कौन पूछेगा?'

धचिंतामिण को अब भी ववश्वास न आया। उद ोंने सोचा - लडकों से ी इस बात


का पता लग सकता ै । फेकूराम सबसे छोटा था। उसी से पछ
ू ा - 'क्या पढ़ र े
ो बेटा! में भी सुनाओ।'

मोटे राम ने फेकूराम को बोलने का अवसर न हदया। डरे कक य तो सारा भिंडा


फोड दे गा, कफर बोले - 'अभी य क्या पढ़े गा, हदन-भर खेलता ै ।'

फेकूराम इतना बडा अपराि अपने नद े -से मसर पर क्यों लेता। बाल-सल
ु भ गवम
से बोला - ' मको याद ै , पिंडडत सेतूराम पाठक। य याद भी कर लें, इस पर भी
क ते ै , रदम खेलता ै !'

य क ते ु ए उसने रोना शुर कर हदया।


धचिंतामिण ने बालक को गले लगा मलया और बोले -'न ीिं बेटा, तम
ु ने पाठ याद
सन
ु ा हदया ै । तम
ु खब
ू पढ़ते ो। य सेतरु ाम पाठक कौन ै बेटा?'

मोटे राम ने बबगडकर क ा - 'तुम भी लडकों की बातों में आते ो। सुन मलया
ोगा ककसी का नाम, (फेंकू से) जा, बा र ज खेल।'

धचिंतामिण अपने ममत्र की घबरा ट दे खकर समझ गए कक कोई-न-कोई र स्य


अवश्य ै । ब ु त हदमाग पडाने पर भी सेतुराम पाठक का आशय उनकी समझ
में न आया। अपने परम ममत्र की इस कुहटलता पर मन में दिु खत ोकर बोले -
'अच्छा, आप पाठ पढ़ाइए और पररक्षा लीन्जए, मैं जाता ू ँ। तम
ु इतने स्वाथी ो,
इसका मुझे गुमान तक न था। आज तुम् ारी ममत्रता की पररक्षा ो गई।'

पिंडडत धचिंतामिण बा र चले गए। मोटे रामजी के पास उद ें मनाने का समय न


था। कफर परीक्षा लेने लगे।

सोना ने क ा - 'मना लो, मना लो, रठे जाते ै । कफर परीक्षा लेना।'

मोटे राम - 'जब कोई काम पडेगा मना लँ ग


ू ा। ननमिंत्रण की सच
ू ना पाते ी इनका
सारा क्रोि शादत ो जाएगा! ाँ भवानी, तुम् ारे वपता का क्या नाम ै , बोलो।'

भवानी - 'गिंगू पािंड।े '

मोटे राम - 'और तम्


ु ारे वपता का नाम फेंकू?'

फेकूराम - 'बता तो हदया, उस पर क ते ो, पढ़ता न ीिं!'

मोटे राम - ' में भी बता दो।'

फेकूराम - 'सेतरू ाम पाठक तो ै ।'


मोटे राम - 'ब ु त ठनक, मारा लडका बडा राजा ै । आज तम्
ु ें अपने साथ
बैठाएँगे और सबसे अच्छा माल तम्
ु ीिं को िखलाएँगे।'

सोना - ' में भी कोई नाम बता दो।'

मोटे राम ने रमसकता से मुस्कराकर क ा - 'तुम् ारा नाम ै पिंडडत मो नस्वरप


सुकुल।'

सोनादे वी ने लजाकर मसर झुका मलया।

सोनादे वी तो लडकों को कपडे प नाने लगीिं। उिर फेकू आनदद की उमिंग में
घर से बा र ननकला। पिंडडत धचिंतामिण रठकर तो चले गए थे , पर कुतू लवश
अभी द्वार पर दब
ु के खडे थे। न्जन बातों की भनक इतनी दे र में पडी, उससे य
तो ज्ञात ो गया कक क ीिं ननमिंत्रण ै , पर क ाँ ै , कौन-कौन-से लोग ननमिंबत्रत ै,
य ज्ञात न ु आ। इतने में फेकू बा र ननकला तो उद ोंने उसे गोद में उठा
मलया और बोले - 'क ाँ नेवता ै , बेटा?'

अपनी जान में तो उद ोंने ब ु त िीरे से पूछा था, पर न-जाने कैसे पिंडडत मोटे राम
के कान में भनक पड गई। तुरदत बा र ननकल आए। दे खा तो धचिंतामिण जी
फेकू को गोद में मलए कुछ पछ
ू र े ै । लपककर लडके का ाथ पकड मलया और
चा ा कक उसे अपने ममत्र की गोद से छनन लें , मगर धचिंतामिणजी को अभी तक
प्रश्न का उत्तर न ममला था। अतएव ने लडके का ाथ छुटाकर उसे मलए ु ए
अपने घर की ओर भागे। मोटे राम भी य क ते ु ए उनके पीछे दौडे -'उसें क्यों
मलए जाते ो? िूतम क ीिं का, दष्ु ट! धचिंतामिण, मैं क े दे ता ू ँ, इसका नतीजा अच्छा
न ोगा, कफर कभी ककसी ननमिंत्रण में न ले जाऊँगा। भला चा ते ो, तो उसे
उतार दो।'
मगर धचिंतामिण ने एक न सुनी, भागते ी चले गए। उनकी दे अभी सम्भाल के
बा र न ु ई थी, दौड सकते थे। मगर मोटे राम को एक-एक पग आगे बढ़ाना
दस्
ु तर ो र ा था। भैंसे की भाँनत ाँफते थे और नाना प्रकार के ववशेषणों का
प्रयोग करते दल
ु की चाल से चले जाते थे। और यद्यवप प्रनतक्षण अदतर बढ़ता
जाता था और पीछा न छोडते थे। अच्छन घुडदौड थी। नगर के दो म ात्मा दौडते

ु ए जान पडते थे, मानो दो गैंडे धचडडया-घर से भाग आए ों। सैकडो आदमी
तमाशा दे खने लगे। ककतने ी बालक उनके पीछे तामलयाँ बजाते ु ए दौडे।
कदाधचत य दौड पिंडडत धचिंतामिण के घर पर ी समाप्त ोती, पर पिंडडत
मोटे राम िोती के ढीली ो जाने के कारण उलझकर धगर पडे। धचिंतामिण ने पीछे
कफरकर य दृश्य दे खा तो रुक गए और फेकूराम से पूछा - 'क्यों बेटा, क ाँ
नेवता ै ?'

फेकूराम - 'बता दें तो में ममठाई दोगे न?'

धचिंतामिण - ' ाँ, दँ ग


ू ा, बताओ।'

फेकूराम - 'रानी के य ाँ।'

धचिंतामिण - 'क ाँ की रानी।'

फेकूराम - 'य मैं न ीिं जानता, कोई बडी रानी ै ।'

नगर में कई बडी-बडी राननयाँ थीिं। पिंडडतजी ने सोचा, सभी राननयों के द्वार पर
चक्कर लगाऊँगा। ज ाँ भोज ोगा, व ाँ कुछ भीड-भाड ोगी ी, पता चल
जाएगा। य ननश्चय करके वे लौटे । स ानभ
ु नू त प्रकट करनें में अब कोई बािा न
थी। मोटे रामजी के पास आए तो दे खा कक वे पडे करा र े थे। उठने का नाम
न ीिं लेत।े घबराकर पूछा - 'धगर कैसे पडे ममत्र, य ाँ क ीिं गडढा भी तो न ीिं ै!'
मोटे राम - 'तम्
ु ें क्या मतलब! तम
ु लडके को ले जाओ, जो कुछ पछ
ू ना चा ो,
पछ
ू ो।'

धचिंतामिण - 'मैं य कपट व्यव ार न ीिं करता। हदल्लगी की थी, तुम बुरा मान
गए। ले उठकर बैठ जा राम का नाम लेके। मैं सच क ता ू ँ , मैंने कुछ न ीिं
पछ
ू ा।'

मोटे राम - 'चल झूठा।'

धचिंतामिण - 'जनेऊ ाथ में लेकर क ता ू ँ।'

मोटे राम - 'तम्


ु ारी शपथ का ववश्वास न ीिं।'

धचिंतामिण - 'तुम मुझे इतना िूतम समझते ो?'

मोटे राम - 'इससे क ीिं अधिक। तुम गिंगा में डूबकर शपथ खाओ तो भी मुझे
ववश्वास न आए।'

धचिंतामिण - 'दस
ू रा य बात क ता तो मँछ
ू उखाड लेता।'

मोटे राम - 'तो कफर आ जाओ!'

धचिंतामिण - 'प ले पिंडडताइन से पूछ आओ।'

मोटे राम य व्यिंनय न स सके। चट उठ बैठे और पिंडडत धचिंतामिण का ाथ


पकड मलया। दोनों ममत्र में मल्ल-युद्ध ोने लगा। दोनों नुमानजी की स्तुनत कर
र े थे और उतने जोर से गरज-गरजकर मानो मसिं द ाड र े ों। बस ऐसा जान
पडता था, मानो दो पीपे आपस में टकरा र े ों।

मोटे राम - 'म ाबली ववक्रम बजरिं गी।'


धचिंतामिण - 'भत
ू -वपशाच ननकट नह िं आवे। '

मोटे राम - 'जय-जय-जय नुमान गोसाई।'

धचिंतामिण - 'प्रभ,ु रिखए लाज मारी।'

मोटे राम ने बबगडकर बोले - 'य नम


ु ान चालीसा में न ीिं ै ।'

धचिंतामिण - 'य मने स्वयिं रचा ै । क्या तुम् ारी तर की य रटिं त ववद्या ै!
न्जतना क ा, उतना रच दे ।'

मोटे राम - 'अबे, म रचने पर आ जाएँ तो एक हदन में एक लाख स्तुनतयाँ रच


डाले, ककदतु इतना अवकाश ककसे ै ।'

दोनों म ात्मा अलग खडे ोकर अपने-अपने रचना-कौशल की डीिंगें मार र े थे,
मल्ल-युद्ध शास्त्राथम का रप िारण करने लगा, जो ववद्वानों के मलए उधचत ै!
इतने में ककसी ने धचिंतामिण के घर जाकर क हदया कक पिंडडत मोटे राम और
धचिंतामिण में बडी लडाई ो र ी ै । धचिंतामिण तीन मह लाओिं के स्वामी थे।
कुलीन ब्राह्मण थे, परू े बीस बबस्वे। उस पर ववद्वाऩ भी उच्चकोहट के, दरू -दरू
तक यजमानी ममलती थी। ऐसे परु
ु षों को सब अधिकार ै । कदया के साथ-साथ
जब प्रचुर दक्षक्षणा भी ममलती ो, तब कैसे इनकार ककया जाए। इन तीनों
मह लाओिं का सारे मु ल्ले में आतिंक छाया ु आ था। पिंडडतजी ने उनके नाम
ब ुत ी रसीले रखे थे। बडी स्त्री को 'अमरती', मिंझली को 'गुलाबजामुन' और
छोटी को 'मो नभोग' क ते थे, पर मु ल्ले वालों के मलए तीनों मह लाएँ त्रयताप
से कम न थीिं। घर में ननत्य आँसओ
ु िं की नदी ब ती - खन
ू की नदी तो
पिंडडतजी ने भी कभी न ीिं ब ाई, अधिक-से-अधिक शब्दो की ी नदी ब ाई थी,
पर मजाल न थी कक बा र का आदमी ककसी को कुछ क जाए। सिंकट के
समय तीनों एक ो जाती थीिं। य पिंडडतजी के नीनत-चातुयम का सुफल था। ज्यों
ी खबर ममली थी कक पिंडडत धचिंतामिण पर सिंकट पडा ु आ ै , तीनों बत्रदोष की
भाँनत कुवपत ोकर घर से ननकलीिं और उनमें से जो अदय दोनों जैसी मोटी न ीिं
थी, सबसे प ले समरभमू म में जा प ु ँची। पिंडडत मोटे राम ने उसे आते दे खा तो
समझ गए कक अब कुशल न ीिं। अपना ाथ छुडाकर बगटुट भागे, पीछे कफरकर
भी न दे खा। धचिंतामिण ने ब ु त ललकारा, पर मोटे राम के कदम न रुके।

धचिंतामिण - 'अजी, भागें क्यों? ठ रो, कुछ मजा तो चखते जाओ।'

मोटे राम - 'मैं ार गया भाई, ार गया।'

धचिंतामिण - 'अजी, कुछ दक्षक्षणा तो लेते जाओ।'

मोटे राम ने भागते ु ए क ा - 'दया करो भाई, दया करो।'

आठ बजते-बजते पिंडडतजी मोटे राम ने स्नान और पूजा करके क ा - 'अब


ववलम्ब न ीिं करना चाह ए, फिंकी तैयार ै न?'

सोना - 'फिंकी मलए तो कब से बैठन ू ँ, तुम् ें तो जैसे ककसी बात की सुधि ी


न ीिं र ती, रात को कौन दे खता ै कक ककतनी दे र तक पूजा करता ो'

मोटे राम - 'मैं तुमसे एक न ीिं, जार बार क चुका कक मेरे कामों में मत बोला
करो, तुम न ीिं समझ सकती कक मैंने इतना ववलम्ब क्यों ककया। तुम् ें ईश्वर ने
इतनी बुवद्ध ी न ीिं दी। जल्दी जाने से अपमान ोता ै , यजमान समझता ै,
लोभी ै , भक्
ु खड ै । इसमलए चतरु लोग ववलम्ब ककया करते ै , न्जससे यजमान
समझे कक पिंडडतजी को इसकी सधु ि ी न ीिं ै , भल
ू गए ोंगे। बल
ु ाने को आदमी
भेजें। इस प्रकार जाने में जो मान-म त्त्व ै, व मरभूखों की तर जाने में क्या
कभी ो सकता ै ? मैं बुलाने की प्रतीक्षा कर र ा ू ँ। कोई-न-कोई आता ी ोगा।
लाओ थोडी फिंकी। बालकों को िखला दी ै न?'

सोना - 'उद ें तो मैंने साँझ ी को िखला दी थी।'


मोटे राम - 'कोई सोया तो न ीिं?'

सोना - 'आज भला कौन सोएगा? सब भूख-भूख धचल्ला र े थे तो मैंने एक पैसे


का चबेना मँगवा हदया। सब-के-सब ऊपर बैठे खा र े ै । सुनते न ीिं ो, मार-
पीट ो र ी ै ।'

मोटे राम ने दाँत पीसकर क ा - 'जी चा ता ै कक तुम् ारी गदम न पकडके ऐिंठ दँ ।ू
भला इस बेला में चबेना मँगाने का क्या काम था? चबेना खा लें गे तो व ाँ क्या
तम्
ु ारा मसर खाएँगे? नछः नछः! जरा भी बवु द्ध न ीिं!'

सोना ने अपराि स्वीकार करते ु ए क ा - ' ाँ, भूल तो ु ई, पर सब-के-सब इतना


कोला ल मचाए ु ए थे कक सुना न ीिं जाता था।'

मोटे राम - 'रोते ी थे न, रोने दे ती। रोने से उनका पेट न भरता, बन्ल्क और भूख
खुल जाती।'

स सा एक आदमी ने बा र से आवाज दी - 'पिंडडतजी, म ारानी बुला र ी ै , और


लोगों को लेकर जल्दी चलो।'

पिंडडतजी ने पत्नी की ओर गवम से दे खकर क ा - 'दे खा, इसे ननमिंत्रण क ते ै ।


अब तैयारी करनी चाह ए।'

बा र आकर पिंडडतजी ने इस आदमी से क ा - 'तम


ु एक क्षण और न आते तो
मैं कथा सन
ु ाने चला गया ोता। मझ
ु े बबल्कुल याद न थी। चलो, म ब ु त शीध्र
आते ै ।'

नौ बजते-बजते पिंडडत मोटे राम बाल-गोपाल सह त राना साह बा के द्वार पर जा


प ु ँच।े रानी बडी ववशालकाय एविं तेजस्वी मह ला थीिं। इस समय ने कारचोबीदार
तककया लगाए तख्त पर बैठन ु ई थीिं। दो आदमी ाथ बाँिे पीछे खडे थे। बबजली
का पिंखा चल र ा था। पिंडडतजी को दे खते ी रानी ने तख्त से उठकर चरण-
स्पशम ककया औऱ इस बालक-मिंडल को दे खकर मुस्कराती ु ई बोलीिं - 'इन बच्चों
को आप क ाँ से पकड लाएँ?'

मोटे राम - 'करता क्या? सारा नगर छान मारा, ककसी पिंडडत ने आना स्वीकार न
ककया, कोई ककसी के य ाँ ननमिंबत्रत ै , कोई ककसी के य ाँ। तब तो मैं ब ु त
चकराया। अदत में मैंने उनसे क ा - अच्छा, आप न ीिं चलते तो रर इच्छा,
लेककन ऐसा कीन्जए कक मुझे लन्ज्जत न ोना पडे। तब जबरदस्ती प्रत्येक घर
से जो बालक ममला, उसे पकड लाना पडा। क्यों फेंकूराम, तुम् ारे वपता का क्या
नाम ै ?'

फेकूराम ने गवम से क ा - 'पिंडडत सेतरु ाम पाठक।'

रानी - 'बालक तो बडा ोन ार ै ।'

और बालकों को भी उत्किंठा ो र ी थी कक मारी भी पररक्षा ली जाए, लेककन


जब पिंडडतजी ने उनसे कोई प्रश्न ककया और उिर रानी ने फेकूराम की प्रशिंसा
कर दी, तब तो वे अिीर ो उठे । भवानी बोला - 'मेरे वपता का नाम ैं पिंडडत
गिंगू पािंड।े '

छे दी बोला - 'मेरे वपता का नाम ै दमडी नतवारी!'

बेनीराम ने क ा - 'मेरे वपता का नाम ै पिंडडत मिंगर ओझा।'

अलगरू ाम समझदार था। चप


ु चाप खडा र ा।

रानी ने उससे पूछा - 'तुम् ारे वपता का नाम क्या ै ?'


अलगू को इस वक्त वपता का ननहदम ष्ट नाम याद न आया। न य ीिं सझ
ू ा कक
कोई नान ले ले। तबवु द्ध-सा खडा र ा। पिंडडत मोटे राम ने जब उसकी ओर दाँत
पीसकर दे खा, तब र ा-स ा वास भी गायब ो गया।

फेंकूराम ने क ा - ' म बता दें , भैया भल


ू गए।'

रानी ने आश्चयम से क ा - 'क्या अपने वपता का नाम भूल गया? य तो ववधचत्र


बात दे खी।'

मोटे राम ने अलगू के पास जाकर क ा - 'क से ै ।'


अलगूराम बोल उठा - 'केशव पािंड।े '

रानी - 'अब तक क्यों चुप था?'

मोटे राम - 'कुछ ऊँचा सन


ु ता ै , सरकार।'

रानी - 'मैंने सामान तो ब ु त-सा मँगवाया ै सब खराब ोगा, लडके क्या


खाएँगे?'

मोटे राम - 'सरकार इद ें बालक न समझें इनमें जो सबसे छोटा ै, य दो पत्तल


खाकर उठे गा।'

जब सामने पत्तलें पड गई और भिंडारी चाँदी की थालों में एक-से-एक उत्तम


पदाथम ला-लाकर परोसने लगा, तब पिंडडत मोटे रामजी आँखें खुल गई। उद ें आए
हदन ननमिंत्रण ममलते र ते थे पर ऐसे अनप
ु म पदाथम कभी सामने न आए थे। घी
की ऐसी सोंिी सुगदि उद ें कभी न ममली थी। प्रत्येक वस्तु से केवडे और
गुलाब की लपटें उड र ी थी। घी टपक र ा था। पिंडडतजी ने सोचा - ऐसे पदाथों
से कभी पेट भर सकता ै ! मनों खा जाऊँ कफर भी और खाने को जी चा े ।
दे वतागण इनसे उत्तम और कौन-से पदाथम खाते ोंगे? इनसे उत्तम पदाथों की
तो कल्पना भी न ीिं ो सकती।

पिंडडतजी को इस वक्त अपने परमममत्र पिंडडत धचिंतामिण की याद आई। अगर वे


ोते, तो रिं ग जम जाता। उनके बबना रिं ग फीका र े गा। य ाँ दस
ू रा कौन ै न्जससे
लाग-डािंग करुँ । लडके तो दो पत्तलों में चें बोल जाएँगे। सोना कुछ साथ दे गी,
मगर कब तक! धचिंतामिण के बबना रिं ग न गठे गा। वे मुझे ललकारें गे, मैं उद ें
ललकारँगा। उस उमिंग में पत्तलों की कौन धगनती? मारी दे खा-दे खी लडके भी
डट जाएँगे। ओ , बडी भल
ू ो गई। य ख्याल मझ
ु े प ले न आया। रानी साह बा
से क ू ँ, बुरा तो न मानेंगी। उँ ! जो कुछ ो, एक बार जोर लगाना ी चाह ए।
तुरदत खडे ोकर रानी साह बा से बोले - 'सरकार! आज्ञा ो तो कुछ क ू ँ?'

रानी - 'कह ए, कह ए म ाराज, क्या ककसी वस्तु की कमी र गई ै ?'

मोटे राम - 'न ीिं सरकार, ककसी बात की कमी न ीिं, ऐसे उत्तम पदाथम तो मैंने
कभी दे खे भी न थे। सारे नगर में आपकी कीनतम फैल जाएगी। मेरे एक परमममत्र
पिंडडत धचिंतामिणजी ै , आज्ञा ो तो उद ें भी बल
ु ा लँ ।ू बडे ववद्वान कममननष्ठ
ब्राह्मण ै । उनके जोड का इस नगर में दस
ू रा न ीिं ै । मैं उद ें ननमदत्रण दे ना
भूल गया। अभी सुधि आई।'

रानी - 'आपकी इच्छा ो तो बल


ु ा लीन्जए, मगर आने-जाने में दे र ोगी और
भोजन परोस हदया गया ै ।'

मोटे राम - 'मैं अभी आता ू ँ सरकार, दौडता ु आ जाऊँगा।'

रानी - 'मेरी मोटर ले लीन्जए।'

जब पिंडडतजी चलने को तैयार ू ए, तब सोना ने क ा - 'तुम् ें आज क्या ो गया


ै , जी! उसे क्यों बुला र े ो?'
मोटे राम - 'कोई साथ दे ने वाला भी तो चाह ए?'

सोना - 'मैं क्या तम


ु से दब जाती?'

पिंडडतजी ने मुस्कराकर क ा - 'तुम जानती न ीिं, घर की बात और ै , दिं गल की


बात और। परु ाना िखलाडी मैदान में जाकर न्जतना नाम करे गा, उतना नया पिा
न ीिं कर सकता। ब ु त बल का काम न ीिं, सा स का काम ै। बस य ाँ भी व ी
ाल समझो। झिंडे गाड दँ ग
ू ा। समझ लेना।'

सोना - 'क ीिं लडके सो जाएँ तो?'

मोटे राम - 'और भूख खुल जाएगी। जगा तो मैं लँ ग


ू ा।'

सोना - 'दे ख लेना, आज व तुम् ें पछाड दे गा। उनके पेट में तो शनीचर ै ।'

मोटे राम - 'बवु द्ध की सवमत्र प्रिानता र ती ै। य न समझो कक भोजन करने की


कोई ववद्या ी न ीिं। इसका भी एक शास्त्र ै , न्जसे मथरु ा के शननचरानदद
म ाराज ने रचा ै । चतुर आदमी थोडी-सी जग में ग ृ स्थी का सब सामान रख
लेता ै । अनाडी
ा़ ब ु त-सी जग में भी य ी सोचता ै कक कौन-सी वस्तु क ाँ
रखू।ँ गँवार आदमी प ले से ी बक- बककर खाने लगता ै और चट एक
लोटा पानी पीकर अफर जाता ै । चतुर आदमी बडी साविानी से खाता ै , उसको
कौर नीचे उतारने के मलए पानी की आवश्यकता न ीिं पडती। दे र तक भोजन
करते र ने से व सप
ु ाच्य भी ो जाता ै । धचिंतामिण मेरे सामने क्या ठ रे गा!'

धचिंतामिण अपने आँगन में उदास बैठे थे। न्जस प्राणी को व अपना परम
ह तैषी समझते थे, न्जसके मलए वे अपने प्राण तक दे ने को तैयार र ते थे, उसी
ने आज उनके साथ बेवफाई की। बेवफाई ी न ीिं की उद ें उठाकर दे मारा।
पिंडडत मोटे राम के घर से तो कुछ जाता न था। अगर वे धचिंतामिणजी को साथ
ले जाते तो क्या रानी साह बा उद ें दत्ु कार दे ती? स्वाथम के आगे कौन ककसको
पूछता ै ? उस अमूल्य पदाथों की कल्पना करके धचिंतामिण के मँु से लार टपक
पडती थी। अब सामने पत्तल आ गई ोगी! अब थालों में अमरनतयाँ मलए भिंडारी
जी आए ोंगे। ओ ो! ककतने सुददर, कोमल, कुरकुरी, रसीली इमरनतयाँ ोंगी। अब
बेसन के लड्डू ोंगे, मँु में रखते ी घुल जाते ोंगे, जीभ भी न डुलानी पडती
ोगी। आ ! अब मो नभोग आया ोगा! ाय रे दभ
ु ामनय! मैं य ाँ पडा सड र ा ू ँ
और व ाँ य ब ार! बडे ननदम यी ो मोटे राम, तम
ु से इस ननष्ठुरता की आशा न
थी।

अमरतीदे वी बोली - 'तम


ु इतना हदल छोटा क्यों करते ो? वपतप
ृ क्ष तो आ ी र ा
ै , ऐसे-ऐसे न जाने ककतने आएँगे।'

धचिंतामिण - 'आज ककसी अभागे का मँु दे खकर उठा था। लाओ तो पत्रा दे ख,ूँ
कैसा मु ू तम ै ! अब न ीिं र ा जाता। सारा नगर छान डालँ ग
ू ा, क ीिं तो पता
चलेगा, नामसका तो दाह नी चल र ी ै ।'

एकाएक मोटर की आवाज आई। उसके प्रकाश से पिंडडतजी का सारा घर जगमगा


उठा। वे िखडकी से झाँकने लगे तो मोटे राम को उतरते दे खा। एक लम्बी साँस
लेकर चारपाई पर धगर पडे। मन में क ा - दष्ु ट भोजन करके अब य ाँ मुझसे
बखान करने आया ै।

अमरतीदे वी ने पछ
ू ा - 'कौन ै डाढ़ीजार, इतनी रात को जगावत ै ?'

मोटे राम - ' म ै म! गाली न दो।'

अमरती - 'अरे दरु मँु झौंसे, तैं कौन ै । क ते ै , म ै म, को जाने तैं कौन
स?'
मोटे राम - 'अरे , मारी बोली न ीिं प चानती ो? खब
ू प चान लो। म ै , तम्
ु ारे
दे वर।'

अमरती - 'ऐ दरु , तोरे मँु में का लागे, तोर ल ास उठे । मार दे वर बनत ै,
डाढ़ीजार।'

मोटे राम - 'अरे म ै मोटे राम शास्त्री। क्या इतना भी न ीिं प चानती? धचिंतामिण
घर में ै ?'

अमरती ने ककवाड खोल हदया और नतरस्कार भाव से बोली - 'अरे तुम थे। तो
नाम क्यों न ीिं बताते थे? जब इतनी गामलयाँ खा लीिं तो ननकला। क्या ै , क्या?'

मोटे राम - 'कुछ न ीिं, धचिंतामिण को शुभ-सिंवाद दे ने आया ू ँ। रानी साह बा ने


उद ें याद ककया ै।'

अमरती - 'भोजन के बाद बल


ु ाकर क्या करें गी?'

मोटे राम - 'अभी भोजन क ाँ ु आ ै । मैंन जब इनकी ववद्या, कममननष्ठा,


सद्वववार की प्रशिंसा की, तब मनु ि ो गई। मझ
ु से क ा कक उद ें मोटर पर
लाओ। क्या सो गए?'

धचिंतामिण चारपाई पर पडे-पडे सुन र े थे। जी में आता था, चलकर मोटे राम के
चरणों पर धगर पडूँ। उनके ववषय में अब तक न्जतने भी कुन्त्सत ववचार उठे थे,
सब लप्ु त ो गए। नलानन का आववभामव ु आ। रोने लगे।

'अरे भाई, आते ो या रोते ी र ोगे!' य क ते ु ए मोटे राम उसके सामने जाकर
खडे ो गए।

धचिंतामिण - 'तब क्यों न ले गए? जब इतनी दद


ु म शा कर मलए, तब आए। अभी
तक पीठ में ददम ो र ा ै ।'
मोटे राम - 'अजी, व तर माल िखलाऊँगा कक सारा ददम -वदम भाग जाएगा, तुम् ारे
यजमानों को भी ऐसे पदाथम न ु ए ोंगे। आज तुम् ें बदकर पछाडूँगा?'

धचिंतामिण - 'तुम बेचारे मुझे क्या पछाडोगे, सारे श र में तो कोई ऐसा माई का
लाल हदखाई न ीिं दे ता। में शनीचर का इष्ट ै ।'

मोटे राम - 'अजी, य ाँ बरसों तपस्या की ै । भिंडारे का भिंडारा साफ कर दें और


इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी र े । बस, य ी समझ लो कक भोजन करके म खडे न ीिं
र सकते। चलना तो दस
ू री बात ै । गाडी पर लदकर आते ै ।'

धचिंतामिण - 'तो य कौन बडी बात ै । य ाँ तो हटकटी पर उठाकर लाए जाते


ै । ऐसी-ऐसी डकारें लेते ै कक जान पडता ै , बम-गोला छूट र ा ै । एक बार
खुकफया पुमलस ने बम-गोले के सददे में घर की तलाशी तक ली थी।'

मोटे राम -'झठ


ू बोलते ो। कोई इस तर न ीिं डकार सकता।'

धचिंतामिण - 'अच्छा, तो आकर सुन लेना। डरकर भाग न जाओ तो स ी।'

एक क्षण में दोनों ममत्र मोटर पर बैठे और मोटर चल पडी।

रास्ते में पिंडडत धचिंतामिण को शिंका ु ई कक क ीिं ऐसा न ो कक मैं पिंडडत


मोटे राम का वपछलनगू समझा जाऊँ और मेरा यथेष्ठ सम्मान न ो। उिर पिंडडत
मोटे राम को भी भय ु आ कक क ीिं ये म ाशय मेरे प्रनतद्विंद्वी न बन जाएँ और
रानी साह बा पर अपना रिं ग जमा लें ।

दोनों अपने-अपने मिंसूबे बाँिने लगे। ज्यों ी मोटर रानी के भवन में प ु ँची, दोनों
म ाशय उतरे । अब मोटे राम चा ते थे कक प ले मैं रानी के पास प ु ँच जाऊँ और
क दँ ू कक पिंडडत को ले आया, और धचिंतामिण चा ते थे कक प ले मैं रानी के
पास प ु ँचँू और अपना रिं ग जमा दँ ।ू

दोनों कदम बढ़ाने लगे। धचिंतामिण ल्के ोने के कारण जरा आगे बढ़ गए तो
पिंडडत मोटे राम दौडने लगे। धचिंतामिण भी दौड पडे। घड
ु दौड-सी ोने ली। मालम

ोता था कक दो गैंडे भागे जा र े ै।

अदत में मोटे राम ने ाँफते ु ए क ा - 'राजसभा में दौडते ु ए जाना उधचत न ीिं
ै ।'

धचिंतामिण - 'तो तुम िीरे -िीरे आओ न, दौडने को कौन क ता ै !'

मोटे राम - 'जरा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड गया ै ।'

धचिंतामिण - 'तो ननकाल लो, तब तक मैं चलता ू ँ।'

मोटे राम - 'मैं न क ता तो रानी तुम् ें पूछती भी न।'

मोटे राम ने ब ु त ब ाने ककए, पर धचिंतामिण ने एक न सुनी। भवन में प ु ँच।े


रानी साह बा बैठन कुछ मलख र ी थी और र -र कर द्वार की ओर ताक लेती
थी कक स सा पिंडडत धचिंतामिण उनके सामने आ खडे ु ए और यों स्तुनत करने
लगे -

े े यशोदे , तू बालकेशव, मुरारनामा...

रानी - 'क्या मतलब? अपना मतलब क ो?'

धचिंतामिण - 'सरकार को आशीवामद दे ता ू ँ सरकार ने इस दास धचिंतामिण को


ननमिंबत्रत करके ककतना अनग्र
ु मसत (अनग्र
ु ह त) ककया ै । उसका बखान शेषनाग
अपनी स स्र न्जह्वा द्वारा भी न ीिं कर सकते।'
रानी - 'तम्
ु ारा ी नाम धचिंतामिण ै ? वे क ाँ र गए - पिंडडत मोटे राम शास्त्री?'

धचिंतामिण - 'पीछे आ र ा ै , सरकार। मेरे बराबर आ सकता ै , भला! मेरा तो


मशष्य ै ।'

रानी - 'अच्छा, तो वे आपके मशष्य ै ।'

धचिंतामिण - 'मैं अपने मँु से अपनी बढ़ाई न ीिं करना चा ता सरकार। ववद्वानों
को नम्र ोना चाह ए, पर जो ययाथम ै, व तो सिंसार जानता ै । सरकार, मैं
ककसी बाद-वववाद न ीिं करता, य मेरा अनुशीलन (अभीष्ट) न ीिं। मेरे मशष्य भी
ब ु िा मेरे गुरु बन जाते ै , पर मैं ककसी से कुछ न ीिं क ता। जो सत्य ै, व
सभी जानते ै ।'

इतने में पिंडडत मोटे राम भी धगरते-पडते ाँफते ु ए आ प ु ँचे और य दे खकर कक


धचिंतामिण भद्रता और सभ्यता की मूनतम बने खडे ै , वे दे वोपम शान्दत के साथ
खडे ो गए।

रानी - 'पिंडडत धचिंतामिण बडे सािु प्रवनृ त एविं ववद्वान ै । आप उनके मशष्य ै,
कफर भी वे आपको अपना मशष्य न ीिं क ते ै । '

मोटे राम - 'सरकार, मैं इनता दासानुदास ू ँ।'

धचिंतामिण -'जगताररणी, मैं इनकी चरण-रज ू ँ।'

मोटे राम -'ररपुदलसिं ाररणी, मैं इनके द्वार का कूकर ू ँ।'

रानी -'आप दोनों सज्जन पूज्य ै । एक से एक बढ़े ु ए। चमलए, भोजन कीन्जए।'


सोनारानी बैठन पिंडडत मोटे राम की रा दे ख र ी थीिं। पनत की इस ममत्र-भन्क्त पर
उद ें बडा क्रोि आ र ा था।

बडे लडकों के ववषय में तो कोई धचदता न थी, लेककन छोटे बच्चों के सो जाने
का भय था। उद ें ककस्से-क ाननयाँ सन
ु ा-सन
ु ाकर ब ला र ी थी कक भिंडारी ने
आकर क ा -'म ाराज, चलो।'

दोनों पिंडडत आसन पर बैठ गए। कफर क्या था, बच्चे कूद-कूदकर भोजनशाला में
जा प ु ँच।े दे खा तो दोनों पिंडडत दो वीरों की भाँनत आमने-सामने डटे बैठे ै।
दोनों अपना-अपना परु
ु षाथम हदखाने के मलए अिीर ो र े थे।

धचिंतामिण - 'भिंडारीजी, तुम परोसने में बडा ववलम्ब करते ो। क्या भीतर जाकर
सोने लगते ो?'

भिंडारी - 'चुपाई मारे बैठे र ो, जौन कुछ ोई, सब आय जाई। घबराए का न ीिं
ोत। तुम् ारे मसवाय और कोई न्जवैया न ीिं बैठा ै ।'

मोटे राम - 'भैया, भोजन करने के प ले कुछ दे र सुगदि का स्वाद तो लो।'

धचिंतामिण - 'अजी, सग
ु दि गया चल्
ू े में , सग
ु दि दे वता लोग लेते ै । अपने लोग
तो भोजन करते ै ।'

मोटे राम - 'िीरज िरो भैया, सब पदाथों को आ जाने दो। ठाकुरजी का भोग तो
लग जाए।'

धचिंतामिण - 'तो बैठे क्यों ो, तब तक भोग ी लगाओ। एक बािा तो ममटे , न ीिं


तो लाओ, मैं चटपट भोग लगा दँ ।ू व्यथम दे री करोगे।'

इतने में रानी आ गई। धचिंतामिण साविान ो गए। रामायण की चौपाइयों का


पाठ करने लगे -
र ा एक हदन अवि अिारा। समुझत मन दख
ु भयउ अपारा॥
कौशलेश दशरथ के जाए। म वपतु बचन मानन बन आए॥
उलहट पलहट लिंका कवप जारी। कूहद पडा तब मसदिु मझारी॥
जेह पर जाकर सत्य सने ू । सो तेह ममले न कछु सददे ू ॥
जामवदत के वचन सु ाए। सनु न ु नमान हृदय अनत भाए॥

पिंडडत मोटे राम ने दे खा कक धचिंतामिण का रिं ग जमता जाता ै तो वे भी अपनी


ववद्वता प्रकट करने को व्याकुल ो गए। ब ु त हदमाग लडाया, पर कोई शलोक,
कोई मिंत्र, कोई कववता याद न आई तब उद ोंने सीिे -सीिे राम-नाम का पाठ
आरम्भ कर हदया।

'राम भज, राम भज, राम भज रे मन' इद ोंने इतने ऊँचे स्वर से जाप करना शुर
ककया कक धचिंतामिण को भी अपना स्वर ऊँचा करना पडा। मोटे राम और जोर से
गरजने लगे।

इतने भिंडारी ने क ा - 'म ाराज, अब भोग लगाइए।'

य सुनकर उस प्रनतस्पद्धाम का अदत ु आ। भोग की तैयारी ु ई। बाल विंद


ृ सजग
ो गया। ककसी ने घिंटा मलया, ककसी ने घडडयाल, ककसी ने शिंख, ककसी ने करताल
और धचिंतामिण ने आरती उठा ली। मोटे राम मन में ऐिंठकर र गए। रानी के
समीप जाने का य अवसर उनके ाथ से ननकल गया।

पर य ककसे मालूम था कक ववधि-वाम उिर कुछ और ी कुहटल-क्रीडा कर र ा


ै । आरती समाप्त ो गई थी। भोजन शुर ोने को ी था कक एक कुत्ता न-
जाने ककिर से आ ननकला। पिंडडत धचतामिण के ाथ से लड्डू थाल में धगर
पडा। पिंडडत मोटे राम अचकचाकर र गए। सवमनाश!
धचिंतामिण ने मोटे राम से इशारे में क ा - 'अब क्या क ते ो ममत्र? कोई उपाय
ननकालो, य ाँ तो कमर टूट गई।'

मोटे राम ने लम्बी साँस खीिंचकर क ा - 'अब क्या ो सकता ै? य ससुर आया
ककिर से?'

रानी पास ी खडी थी, उद ोंने क ा - 'अरे , कुत्ता ककिर से आ गया? य रोज
बँिा र ता था, आज कैसे छूट गया? अब तो रसोई भ्रष्ट ो गई।'

धचिंतामिण - 'सरकार, आचायों ने इस ववषय में ...।'

मोटे राम - 'कोई जम न ीिं ै , सरकार, कोई जम न ीिं ै ।'

सोना - 'भानय फूट गया। जो त-जो त आिी रात बीत गई, तब ई ववपत्त फाट
परी।'

धचिंतामिण - 'सरकार स्वान के मुख में अमत


ृ ...।'

मोटे राम - 'तो अब आज्ञा ो तो चले।'

रानी - ' ाँ और क्या। मझ


ु े बडा दःु ख ै कक इस कुत्ते ने आज इतना बडा अनथम
कर डाला। तम
ु बडे गस्
ु ताख ो गए, टामी। भिंडारी ये पत्तल उठाकर मे तर को
दे दो।'

धचिंतामिण - '(सोना से) छाती फटी जाती ै ।'

सोना को बालकों पर दया आई। बेचारे इतनी दे र दे वोपम िैयम के साथ बैठे थे।
बस चलता, तो कुत्ते का गला घोंट दे ती, कफर बोली - 'लरकन का तो दोष न ीिं
परत ै । इद ें का े न ीिं खवाय दे त कोऊ।'

धचिंतामिण - 'मोटे राम म ादष्ु ट ै , इसकी बुवद्ध भ्रष्ट ो गई ै ।'


सोना - 'ऐसे तो ववद्वान बने र े । अब का े ना ी बोलत बनत। मँु में द ी जम
गया, जीभै न ीिं खुलत ै ।'

धचिंतामिण - 'सत्य क ता ू ँ , रानी को चमका दे दे ता। उस दष्ु ट के मारे सब खेल


बबगड गया। सारी अमभलाषाएँ मन में र गई। ऐसे पदाथम अब क ाँ ममल सकते
ै ?'

सोना - 'सारी मनुसई ननकल गई। घर ी में गरजै के सेर ै ।'

रानी ने भिंडारी को बल
ु ाकर क ा - 'इन छोटे -छोटे तीन बच्चों को िखला दो। ये
बेचारे क्यों भख
ू ों मरें , क्यों फेकूराम, ममठाई खाओगे।'

फेकूराम - 'इसीमलए तो आए ै ।'

रानी - 'ककतनी ममठाई खाओगे ?'

फेकूराम - 'ब ु त-सी ( ाथों से बताकर) इतनी।'

रानी - 'अच्छन बात ै । न्जतनी खाओगे उतनी ममलेगी, पर जो बात मैं पूछूँ, व
बतानी पडेगी, बताओगे न?'

फेकूराम - ' ाँ बताऊँगा, पूनछए?'

रानी - 'झूठ बोले तो एक ममठाई न ममलेगी, समझ गए।'

फेकूराम - 'मच दीन्जएगा, मैं झठ


ू बोलँ ग
ू ा ी न ीिं।'

रानी - 'अपने वपता का नाम बताओ।'


मोटे राम - 'बच्चों को रदम सब बातें स्मरण न ीिं र ती। उसने तो आते ी
आते बता हदया था।'

रानी - 'मैं कफर पूछती ू ँ , इसमें आपकी क्या ानन ै।'

धचिंतामिण - 'नाम पूछने में कोई जम न ीिं।'

मोटे राम - 'तम


ु चप
ु र ो धचिंतामिण, न ीिं तो ठनक न ोगा। मेरे क्रोि को अभी
तुम न ीिं जातने, दबा बैठूँगा, तो रोते भागोगे।'

रानी -'आप तो व्यथम इतनी क्रोि कर र े ै । बोलो फेकूराम, चप


ु क्यों ो कफर
ममठाई न पाओगे।'

धचिंतामिण -'म ारानी की इतनी दया-दृन्ष्ट तुम् ारे ऊपर ै , बता दो बेटा!'

मोटे राम - 'धचिंतामिणजी, मैं दे ख र ा ू ँ , तुम् ारे अहदन आए ै। व न ीिं बताता,


तुम् ारा साझा, आए व ाँ से बडे खैरख्वा बन के।'

सोना - 'अरे ाँ, लरकन का ई सब पिंवारा से का मतलब, तुमका िरम परे ममठाई
दे व, न िरम परे न दे व। ई का बाप का नाम बताओ तब ममठाई दे ब।'

फेकूराम ने िीरे से नाम मलया। इस पर पिंडडतजी ने उसे इतने जोर से डाँटा कक


उसकी आिी बात मँु में ी र गई।

रानी -'क्यों डाटते ो, उसे बोलने क्यों न ीिं दे ते? बोलो बेटा।'

मोटे राम - 'आप में अपने द्वार पर बुलाकर मारा अपमान कर र ी ै ।'

धचिंतामिण - 'इसमें अपमान की तो कोई बात न ीिं ै , भाई।'


मोटे राम - 'अब म इस द्वार पर कभी न आएँगे। य ाँ सत्परु
ु षों का अपमान
ककया जाता ै ।'

अलगू - 'कह ए तो मैं धचिंतामिण को एक पटकनी दँ ।ू '

मोटे राम - 'न ीिं बेटा, दष्ु टों को परमात्मा स्वयिं दिं ड दे ता ै । चलो, य ाँ से चलें ।
अभ भूलकर य ाँ न आएँगे। िखलाना न वपलाना, द्वार पर बुलाकर ब्राह्मणों का
अपमान करना, तभी तो दे श में आग लगी ु ई ै ।'

धचिंतामिण - 'मोटे राम, म ारानी के सामने तुम् ें इतनी कटु बातें न करनी
चाह ए।'

मोटे राम - 'बस चुप ी र ना, न ीिं तो सारा क्रोि तुम् ारे ी मसर जाएगा। माता-
वपता का पता न ीिं, ब्राह्मण बनने चले ै । तुम् ें कौन क ता ब्राह्मण?'

धचिंतामिण - 'जो कुछ मन चा े , क लो। चदद्रमा पर थक


ू ने से थक
ू अपने ी
मँु पर पडता ै । जब तुम िमम का एक लक्षण न ीिं जानते, तब तुमसे क्या बातें
करँ? ब्राह्मण को िैयम रखना चाह ए।'

मोटे राम - 'पेट के गल


ु ाम ो, ठाकुरसो ाती कर र े ो कक एकाि पत्तल ममल
जाए। य ाँ मयामदा का पालन करते ै । '

धचिंतामिण - 'क दो हदया भाई कक तम


ु बडे, मैं छोटा, अब और क्या क ू ँ। तम

सत्य क ते ोगे , मैं ब्राह्मण न ीिं शूद्र ू ँ।'

रानी - 'ऐसा न कह ए धचिंतामिणजी।'

'इसका बदला न मलया तो क ना।' य क ते ु आए पिंडडत मोटे राम बालकविंद


ृ के
साथ बा र चले आए और भानय को कोसते ु ए घर को चले। बार-बार पछता र े
थे कक दष्ु ट धचिंतामिण को क्यों बुला लाया।
सोना ने क ा - 'भिंडा फूटत-फूटत बच गया। फेकुवा नाँव बताए दे ता। का े रे ,
अपने बाप का नाँय बताए दे त।े '

फेकूराम - 'और क्या, वे तो सच-सच पूछती थीिं।'

मोटे राम - 'धचिंतामिण ने रिं ग जमा मलया, अब आनदद से भोजन करे गा।'

सोना - 'तुम् ारी एको ववद्या काम न आई, ऊँ तौन बाजी मार लैगा।'

मोटे राम - 'मैं तो जानता ू ँ, रानी ने जान-बूझकर कुत्ते को बुला मलया।'

सोना - 'मैं तो ओकरा मँु दे खते ताड गई कक मका प चान गई।'

इिर तो लोग पछताते चले जाते थे, उिर धचिंतामिण की पाँचों अिंगुमलयाँ घी में
थी। आसन मारे भोजन कर र े थे। रानी अपने ाथों से ममठाइयाँ परोस र ी थी,
वात्तामलाप भी ोता जाता था।

रानी - 'बडा िूत्तम ै ? मैं बालकों को दे खते ी समझ गई, अपनी स्त्री को भेष
बदलकर लाते उसे लज्जा न आई।'

धचिंतामिण - 'मुझे कोस र े ोंगे।'

रानी - 'मझ
ु से उडने चला था। मैंने भी क ा था - बचा, तम
ु को ऐसी मशक्षा दँ ग
ू ी
कक उम्र भर याद करोगे। टामी को बुला मलया।'

धचिंतामिण - 'सरकार की बवु द्ध िदय ै ।'

***
रामलीला

इिर एक मुद्दत से रामलीला दे खने न ीिं गया। बददरों के भद्दे चे रे लगाए, आिी
टाँगो का पजामा और काले रिं ग का ऊँचा कुताम प ने आदममयों को दौडते, ू - ू
करते दे खकर ँसी आती ै , मजा न ीिं आता। काशी की लीला जगतववख्यात ै,
सन
ु ा ै , लोग दरू -दरू से दे खने आते ै । मैं भी बडे शौक से गया, पर मझ
ु े तो व ाँ
की लीला और ककसी वज्र दे ात की लीला में कोई अदतर न हदखाई हदया। ाँ ,
रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे ै । राक्षसों और बददरों के चे रे
पीतल के ै , गदाएँ भी पीतल की ै , कदाधच नवासी भ्राताओिं के मुकुट सच्चे काम
के ों, लेककन साज-सामान के मसवा व ाँ भी व ी ू - ू ँ के मसवा और कुछ न ीिं।
कफर भी लाखों आदममयों की भीड लगी र ती ै।

लेककन एक जमाना व था, जब मुझे भी रामलीली में आनदद आता था। आनदद
तो ब ु त ल्का-सा शब्द ै। व आनदद उदमाद से कम न था। सिंयोगवश उन
हदनों मेरे घर से बडी थोडी दरू पर रामलीला का मैदान था, और न्जस घर में
लीला-पात्रों का रप-रिं ग भरा जाता था, व तो मेरे घर से बबल्कुल ममला ु आ था।
दो बजे हदन से पात्रों की सजावट ोने लगती थी। मैं दोप र से ी व ाँ जा
बैठता, और न्जस उत्सा से दौड-दौडकर छोटे -मोटे काम करता, उस उत्सा से तो
आज अपनी पें शन लेने भी न ीिं जाता। एक कोठरी में राजकुमारी का शिंग
ृ ार ोता
था। उनकी दे पर रामरज पीसकर पोती जाती, मँु पर पाउडर लगाया जाता
और पाउडर के ऊपर लाल, रे , नीले रिं ग की बुिंदककयाँ लगाई जाती थी। सारा
माथा, भौं ें , गाल, ठोडी, बिंद
ु ककयों से रच उठती थीिं। एक ी आदमी इस काम में
कुशल था। व ी बारी-बारी से तीनों पात्रों का शिंग
ृ ार करता था। रिं ग की प्यामलयों
में पानी लाना, रामरज पीसना, पिंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयाररयों के
बाद ववमान ननकलता तो उस समय रामचदद्रजी के पीछे बैठकर मुझे जो
उल्लास, जो गवम, जो रोमािंच ोता था। व अब लाट सा ब के दरबार मिं कुसी पर
बैठकर भी न ीिं ोता। एक बार जब ोम- में बर सा ब ने व्यवस्थापक-सभा में
मेरे मलए एक प्रस्ताव का अनम
ु ोदन ककया था, उस वक्त मझ
ु े कुछ उसी तर का
उल्लास, गवम और रोमािंच ु आ था। ाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पत्र
ु नायब-
त सीलदारी में नामजद ु आ, तब भी ऐसी ी तरिं गें मन में उठन थीिं, पर इनमें
और उस बाल-ववह्वलता में बडा अदतर ै । तब ऐसा मालूम ोता था कक मैं
स्वगम में बैठा ू ँ।

ननषाद-नौका-लीला का हदन था। मैं दो-चार लडकों के ब काने में आकर गल्
ु ली-
डिंडा खेलने लगा था। आज शिंग
ृ ार दे खने न गया। ववमान भी ननकला, पर मैंने
खेलना न छोडा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोडने के मलए उससे
क ीिं बढ़कर आत्मत्याग की जररत थी, न्जतना मैं कर सकता था। अगर दाँव
दे ना ोता तो मैं कब का भाग खडा ोता, लेककन पदाने में कुछ और बात ोती
ै । खैर, दाँव परू ा ु आ। अगर मैं चा ता तो िाँिली करके दस-पाँच ममनट और
पदा सकता था। इसकी काफी गिंज
ु ाइश थी, लेककन अब इसका मौका न था। मैं
सीिे नाले की तरफ दौडा। ववमान जलतट पर प ु ँच चुका था। मैंने दरू से दे खा
- मल्ला ककश्ती मलए आ र ा ै । दौडा, लेककन आदममयों की इतनी भीड में
दौडना
ा़ कहठन था। आिखर जब मैं भीड टाता, प्राण-पण से आगे घाट पर प ु ँचा
तो ननषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचदद्र पर मेरी ककतना श्रद्धा थी।
अपने पाठ की धचदता न करके उद ें पढ़ा करता था, न्जससे व फेल न ो जाए।
मुझसे उम्र ज्यादा ोने पर भी व नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेककन व ी रामचदद्र
नौका पर बैठे इस तर मँु फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-प चान ी न ीिं।
नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ जाती ै । भक्तों पर न्जनकी ननगा
सदा ी तीखी र ी ै, व मुझे क्यों उबारते? मैं ववकल ोकर उस बछडे की भाँनत
कूदने लगा, न्जसकी गरदन पर प ली बार जुआ रखा गया ो। कभी लपककर
नाले की ओर जाता, कभी ककसी स ायक की खोज में पीछे की तरफ दौडता, पर
सब-के-सब अपनी िुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार ककसी के कानों तक न
प ु ँची। तब से बडी-बडी ववपन्त्तयाँ झेलीिं, पर उस समय न्जनता दःु ख ु आ, उतना
कफर कभी न ु आ।
मैने ननश्चय ककया कक अब रामचदद्र से न कभी बोलँ ग
ू ा, न कभी खाने की कोई
चीज ी दँ ग
ू ा, लेककन ज्यों ी नाले को पार करके व पल
ु की ओर लौटे , मैं
दौडकर ववमान पर चढ़ गया और ऐसा खुश ु आ, मानो कोई बात ी न ु ई थी।

रामलीला समाप्त ो गई थी। राजगद्दी ोने वाली थी, पर न जाने क्यों दे र ो


र ी थी। शायद चददा कम वसल
ू ु आ था। रामचदद्र की इन हदनों कोई बात भी
न पूछता था। न घर ी जाने की छुट्टी ममलती थी, न भोजन का ी प्रबदि ोता
था। चौिरी सा ब के य ाँ से एक सीिा कोई तीन बजे हदन को ममलता था।
बाकी सारे हदन कोई पानी को न ीिं पूछता। लेककन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-
की-त्यों थी। मेरी दृन्ष्ट में अब भी रामचदद्र ी थे। घर पर मुझे खाने को कोई
चीज ममलती, व लेकर रामचदद्र को दे आता। उद ें िखलाने में मझ
ु े न्जतना
आनदद ममलता था, उतना आप खा जाने में कभी न ममलता। कोई ममठाई या
फल पाते ी मैं बेत ाशा चौपाल की ओर दौडता। अगर रामचदद्र व ाँ न ममलते
तो उद ें चारों ओर तलाश करता, और जब तक व चीज उद ें िखला न दे ता,
मुझे चैन न आता था।

खैर, राजगद्दी का हदन आया। रामलीला के मैदान में एक बडा-सा शाममयाना


ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओिं के दल भी आ प ु ँच।े शाम
को रामचदद्र की सवारी ननकली, और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई।
श्रद्धानुसार ककसी ने रुपए हदए, ककसी ने पैसे। मेरे वपता पुमलस के आदमी थे।
इसमलए उद ोंने बबना कुछ हदए आरती उतारी। उस वक्त मझ
ु े न्जतनी लज्जा
आई, उसे बयान न ीिं कर सकता।

मेरे पास उस वक्त सिंयोग से एक रुपया था। मेरे मामाजी दश रे के प ले आए


थे और मझ
ु े एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोडा था। दश रे के
हदन भी खचम न कर सका। मैंने तुरदत व रुपया लाकर आरती की थाली में
डाल हदया। वपताजी मेरी ओर कुवपत-नेत्रों से दे खकर र गए। उद ोंने कुछ क ा
तो न ीिं, लेककन मँु ऐसा बना मलया, न्जससे प्रकट ोता था कक मेरी इस िष्ृ टता
से उनके रौब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते पररक्रमा परू ी ु ई।
आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी ु ई थी। ठनक तो न ीिं क सकता,
मगर अब ऐसा अनुमान ोता ै कक चार-पाँच सौ रुपयों से कम न थे। चौिरी
सा ब इनसे कुछ ज्यादा ी खचम कर चुके थे। उद ें इसकी कफक्र ु ई कक ककसी
तर कम-से-कम दो सौ रुपए और वसूल ो जाएँ और इसकी सबसे अच्छन
तरकीब उद ें य ी मालम
ू ु ई कक वेश्याओिं द्वारा म कफल में वसल
ू ी ो।

जब लोग आकर बैठ जाए, और म कफल में रिं ग जम जाए तो आबादीजान


रमसकजनों की कलाइयाँ पकड-पकडकर ऐसे ाव-भाव हदखाएँ कक लोग शरमाते-
शरमाते भी कुछ-न-कुछ दें ी मरे । आबादीजान और चौिरी सा ब में सला ोने
लगी। मैं सिंयोग से उन दोनों प्रािणयों की बातें सन
ु र ा था। चौिरी ने समझा
ोगा य लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर य ाँ ईश्वर की दया से अक्ल के
पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती जाती थी।

चौिरी - 'सन
ु ो आबादीजान, य तम्
ु ारी ज्यादती ै। मारा और तम्
ु ारा कोई
प ला साबबका तो ै न ीिं। ईश्वर ने चा ा तो य ाँ मेशा तुम् ारा आना-जाना
लगा र े गी। अब की चददा ब ु त कम आया, न ीिं तो मैं तुमसे इतना इसरार न
करता।'

आबादीजान - 'आप मुझसे भी जमीिंदारी चालें चलते ै , क्यों? मगर य ाँ ु जूर की


दाल न गलेगी, वा ! रुपए तो मैं वसूल करँ, और मँछ
ू ों पर ताव आप दें , कमाई
का अच्छा ढिं ग ननकाला ै । इस कमाई से तो वाकई आप थोडे हदनों में राजा ो
जाएँगे। उसके सामने जमीिंदारी झक मारे गी। बस, कल ी से एक चकला खोल
दीन्जए, खद
ु ा की कसम, मालामाल ो जाइएगा।'

चौिरी - 'तुम हदल्लगी करती ो, और य ाँ काकफया तिंग ो र ा ै।'


आबादीजान - 'तो आप भी तो मझ
ु ी से उस्तादी करते ै । य ाँ आप जैसे कािंइयों
को रोज उिं गमलयों पर नचाती ू ँ।'

चौिरी - 'आिखर तुम् ारी मिंशा ककया ै ?'

आबादीजान - 'जो वसूल करँ, उसमें आिा मेरा, आिा आपका। लाइए, ाथ
माररए।'

चौिरी - 'य ी स ी।'

आबादीजान - 'अच्छा, तो क्या आप समझते थे कक अपनी उजरत छोड दँ ग


ू ी? वा
री आपकी समझ! खब
ू , क्यों न ो। दीवाना बकारे दरवेश ु मशयार।'

चौिरी - 'तो क्या तुमने दो री फीस लेने की ठानी ै?'

आबादीजान - 'अगर आपको सौ दफे गरज ो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो क ीिं
गए ी न ीिं, मुझे क्या कुत्ते ने काटा ै , जो लोगों की जेब में ाथ डालती कफरँ?'

चौिरी की एक न चली। आबादी के सामने दबना पडा। नाच शुर ु आ।


आबादीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कममसन, उस पर सीन। औऱ
उसकी अदाएँ तो इस गजब की थीिं कक मेरी तबीयत भी मस्त ु ई जाती थी।
आदममयों में प चानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। न्जसके सामने बैठ
गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ी मलया। पाँच रुपए से कम तो शायद ी ककसी ने
हदए ों। वपताजी के सामने भी व बैठ गयी। मैं मारे शमम के गड गया। जब
उसने कलाई पकडी, तब तो मैं स म उठा। मुझे यकीन था कक वपताजी उसका
ाथ झटक दें गे और शायद दत्ु कार भी दें , ककदतु य क्या ो र ा ै । ईश्वर! मेरी
आँखें िोखा तो न ीिं खा र ी ै । वपताजी मँछ
ू ों में ँस र े ै । ऐसी मद
ृ -ु ँसी
उनके चे रे पर मैंने कभी न ीिं दे खी थी। उनकी आँखों से अनुराग टपका पडता
था। उनका एक-एक रोम पल
ु ककत ो र ा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली।
व दे खो, उद ोंने िीरे से आबादी के कोमल ाथों से अपनी कलाई छुडा ली। अरे !
य कफर क्या ु आ? आबादी तो उनके गले में बाँ े डाले दे ती ै । अब वपताजी
उसे जरर पीटें गे। चुडल
ै को जरा भी शमम न ीिं।

एक म ाशय ने मस्
ु कराकर क ा - 'य ाँ तम्
ु ारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और
दरवाजा दे खो।'

बात तो इन म ाशय ने मेरे मन की क ी और ब ु त- ी उधचत क ी, लेककन न


जाने क्यों वपताजी ने उसकी ओर कुवपत-नेत्रों से दे खा और मँछ
ू ों पर ताव हदया।
मँु से तो व कुछ न बोले, पर उनके मख
ु की आकृनत धचल्लाकर सरोष शब्दों
में क र ी थी - 'तू बननया, मझ
ु े समझता क्या ै ? य ाँ ऐसे अवसर पर जान
तक ननसार करने को तैयार ै । रुपए की कीकत ी क्या? तेरा जी चा े , आजमा
ले। तुझसे दन
ू ी रकम न दे डालँ ू तो मँु न हदखाऊँ।'

म ान आश्चयम! घोर आश्चयम! घोर अनथम! अरे जमीन, तू फट क्यों न ीिं जाती?
आकाश, तू फट क्यों न ीिं पडता? अरे , मुझे मौत क्यों न ीिं आ जाती। वपताजी जेब
में ाथ डाल र े ै। व कोई चीज ननकाली, और सेठजी को हदखाकर
आबादीजान को दे डाली। आ ! य तो अशफी ै । चारों ओर तामलयाँ बजने
लगी। सेठजी उल्लू बन गए। वपताजी ने मँु की खाई, इसका ननश्चय मैं न ीिं
कर सकता। मैंने केवल इतना दे खा कक वपताजी ने एक अशफी ननकालकर
आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गवमयुक्त उल्लास था
मानो उद ोंने ानतम की कब्र पर लात मारी ो। य ी वपताजी ै , न्जद ोंने मुझे
आरती में एक रुपया डालते दे खकर मेरी ओर इस तर दे खा था, मानो मुझे फाड
ी खाएँगे। मेरे उस परमोधचत व्यव ार से उनके रोब में फकम आता था, और इस
समय इस घिृ णत, कुन्ल्सत और ननिंहदत व्यापार पर गवम और आनदद से फूले न
समाते थे।

आबादीजान ने एक मनो र मुस्कान के मलए वपताजी को सलाम ककया और आगे


बढ़ी, मगर मझ
ु से व ाँ बैठा गया। मारे शमम के मेरा मस्तक झक
ु ा जाता था, अगर
मेरी आँखों-दे खी बात न ोती तो मझ
ु े इस पर कभी एतबार न ोता। मैं बा र
जो कुछ दे खता-सन
ु ता था, उसकी ररपोटम अम्माँ से जरर करता था। पर इस
मामले को मैंने उनसे नछपा रखा। मैं जानता था, उद ें य बात सुनकर बडा
दःु ख ोगा।

रात-भर गाना ोता र ा। तबले की िमक मेरे कानों मे आ र ी थी। जी चा ता


था, चल कर दे खू,ँ पर सा स न ोता था। मैं ककसी को मँु कैसे हदखाऊँगा? क ीिं
ककसी ने वपताजी का न्जक्र छे ड हदया तो मैं क्या करँगा?

प्रातःकाल रामचदद्र की ववदाई ोने वाली थी। मैं चारपाई से उठते ी आँखें
मलता ु आ चौपाल की ओर भागा। डर र ा था कक क ीिं रामचदद्र चले न गए
ों। प ु ँचा तो दे खा - तवायफों की सवाररयाँ जाने को तैयार ै । बीसों आदमी
सरतनाक-मँु बनाए उद ें घेरे खडे ै । मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई।
सीिा रामचदद्र के पास प ु ँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो र े थे, और रामचदद्र
खडे कािंिे पर लुहटया-डोर डाले उद ें समझा र े थे। मेरे मसवा व ाँ और कोई न
था। मैंने किंु हठत स्वर से रामचदद्र से पूछा - 'क्या तुम् ारी ववदाई ो गई?'

रामचदद्र - ' ाँ, ो तो गई। मारी ववदाई ी क्या? चौिरी सा ब ने क हदया -


जाओ, चले जाते ैं।'

'क्या रुपया और कपडे न ीिं ममले?'

'अभी न ीिं ममले। चौिरी सा ब क ते ै - इस वक्त रुपए न ीिं ै । कफर आकर


ले जाना।'

'कुछ न ीिं ममला।'


'एक पैसा भी न ीिं। क ते ै , कुछ बचत न ीिं ु ई। मैंने सोचा था, कुछ रुपए ममल
जाएँगे तो पढ़ने की ककताबें ले लँ ग
ू ा। सो कुछ न ममला। रा -खचम भी न ीिं हदया।
क ते ै - कौन दरू ै , पैदल चले जाओ।'

मझ
ु े ऐसा क्रोि आया कक चलकर चौिरी को खब
ू आडे ाथों लँ ।ू वेश्याओिं के
मलए रुपए, सवाररयाँ सब कुछ, पर बेचारे रामचदद्र और उनके साधथयों के मलए
कुछ भी न ीिं। न्जन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए
दयोछावर ककए थे, उनके पास क्या इनके मलए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी
न ीिं? मैं दौडा ु आ वपताजी के पास गया। व क ीिं तफतीश पर जाने को तैयार
थे। मुझे खडे दे खकर बोले - 'क ाँ घूम र े ो? पढ़ने के वक्त तुम् ें घूमने की
सझ
ू ती ै ?'

मैंने क ा - 'गया था चौपाल। रामचदद्र ववदा ो र े थे। उद ें चौिरी सा ब ने


कुछ न ीिं हदया।'

'तो तुम् ें इसकी क्या कफक्र पडी ै ?'

'व जाएँगे कैसे? उनके पास रा -खचम भी तो न ीिं ै ।'

'क्या कुछ खचम भी न ीिं हदया? य तो चौिरी सा ब की बेइिंसाफी ै।'

'आप अगर दो रुपया दे दें तो उद ें दे आऊँ। इतने में शायद घर प ु ँच जाएँ।'

वपताजी ने तीव्र दृन्ष्ट से दे खकर क ा - 'जाओ, अपनी ककताब दे खो, मेरे पास
रुपए न ीिं ै ।'

य क कर व घोडे पर सवार ो गए। उसी हदन से वपताजी पर से मेरी श्रद्धा


उठ गई। मैंने कफर कभी उनकी डाँट-डपट की परवा न ीिं की। मेरा हदल क ता
-'आपको मुझको उपदे श दे ने का अधिकार न ीिं ै । मुझे उनकी सूरत से धचढ़ ो
गई। व जो क ते, मैं ठनक उसका उल्टा करता। यद्यवप इससे मेरी ानन ु ई,
लेककन मेरा अतःकरण उस समय ववल्पवकारी ववचारों से भरा ु आ था।

मेरे पास दो आने पैसे पडे थे। मैंने पैसे उठा मलए और जाकर शरमाते-शरमाते
रामचदद्र को दे हदए। उन पैसों को दे खकर रामचदद्र जो न्जतना षम ु आ, व मेरे
मलए आशातीत था। टूट पडे, मानो प्यासे को पानी ममल गया।

य ी दो आने पैसे लेकर तीनों मूनतमयाँ ववदा ु ई। केवल मैं ी उनके साथ कस्बे
के बा र तक प ु ँ चाने आया।

उद ें ववदा करके लौटा तो मेरी आँखें सजल थीिं , पर हृदय आनदद से उमडा ु आ
था।

***
मंत्र (1)

पिंडडत लीलािर चौबे की जबान में जाद ू था। न्जस वक्त व मिंच पर खडे ोकर
अपनी वाणी की सुिावन्ृ ष्ट करने लगते थे, श्रोताओिं की आत्माएँ तप्ृ त ो जाती
थीिं। लोगों पर अनुराग का नशा छा जाता था। चौबेजी के व्याख्यानों में तत्त्व
तो ब ु त कम ोता था। शब्द-योजना भी ब ु त सिंद
ु र न ोती थी, लेककन बार-बार
द ु राने पर भी उसका असर कम न ोता, बन्ल्क घन की चोटों की भाँनत और भी
प्रभावोत्पादक ो जाता था। में तो ववश्वास न ीिं आता, ककिं तु सुनने बाले क ते
ै , उद ोंने केवल एक व्याख्यान रट रखा ै और उसी को व शब्दशः प्रत्येक
सभा में एक नए अिंदाज से द ु राया करते ै । जातीय गौरव उनके व्याख्यानों का
प्रिान गुण था। मिंच पर आते ी भारत के प्राचीन गौरव और पूवज
म ों की अमर-
कीनतम का राग छे डकर सभा को मनु ि कर दे ते थे। यथा -

'सज्जनों! मारी अिोगनत की कथा सुनकर ककसकी आँखों से अश्रुिारा न ननकल


पडेगी? में प्राचीन गौरव को याद करके सिंदे ोने लगा कक म व ीिं ैं या बदल
गए। न्जसने कल, मसिं से पिंजा मलया, व आज चू े को दे खकर बबल खोज र ा
ै । इस पतन की भी सीमा ै । दरू क्यों जाइए, म ाराज चिंद्रगप्ु त के समय को ी
ले लीन्जए। यूनान का सुववज्ञ इनत ासकार मलखता ै कक उस जमाने में य ाँ
द्वार पर ताले न डाले जाते थे, चोरी क ीिं सुनने में न आती थी, व्यमभचार का
नाम-ननशान न था, दस्तावेजों का आववष्कार ी न ु आ था। पुजों पर लाखों का
लेन-दे न ो जाता था। दयाय पद पर बैठे ु ए कममचारी मन्क्खयाँ मारा करते थे।
सज्जनों! उन हदनों आदमी जवान न मरता था। (तामलयाँ) ाँ , उन हदनों कोई
आदमी जवान न मरता था। बाप के सामने बेटे का अवसान ो जाना एक
अभूतपूवम - एक सिंभव - घटना थी। आज ऐसे ककतने माता-वपता ै , न्जनके
कलेजे पर जवान बेटे का दाग न ो? व भारत न ीिं र ा, भारत गारत ो गया।'
य चोबेजी की शैली थी। व वतममान की अिोगनत और दद
ु म शा तथा भत
ू की
समवृ द्ध और सद
ु शा का राग अलापकर लोगों में जातीय स्वामभमान जाग्रत कर
दे ते थे।

इसी मसवद्ध की बदौलत उनकी नेताओिं में गणना ोती थी। ववशेषतः ह द
िं -ू सभा के
तो व कणमिार ी समझे जाते थे। ह द
िं -ू सभा के उपासकों में कोई ऐसा उत्सा ी,
ऐसा दक्ष, ऐसा नीनत-चतुर न था। यों कह ए सभा के मलए उद ोंने अपना जीवन
ी उत्कषम कर हदया था। िन तो उनके पास न था, कम-से-कम लोगों का ववचार
य ी था, लेककन सा स, िैयम और बुवद्ध जैसे अमूल्य रत्न उनके पास थे, और ये
सभी सभा को अपमण थे। शुवद्ध के तो मानो प्राण ी थे। ह द
िं -ू जानत का उत्थान
और पतन, जीवन और मरण उनके ववचार में इसी प्रश्न पर अवलिंबबत था। शुवद्ध
के मसवा अब ह द
िं ू जानत का पन
ु जीवन का और कोई उपाय न था। जानत का
समस्त नैनतक, शारीररक, मानमसक, सामान्जक, आधथमक और िामममक बीमाररयों की
दवा इसी आिंदोलन की सफलता में मयामहदत थी। और व तन, मन से इसका
उपयोग ककया करते थे। चिंदा वसूल करने में चौबेजी मसद्ध स्त थे। ईश्वर ने उद ें
व 'गुन' बता हदया था कक वे पत्थर से भी तेल ननकाल सकते थे। किंजूसों को
तो व ऐसा उल्टे छुरे से मड
ू ते थे कक उन म ाशयों को सदा के मलए मशक्षा
ममल जाती थी। इस ववषय में पिंडडतजी साम, दाम, दिं ड और भेद इन चारों
नीनतयों से काम लेते थे, य ाँ तक कक राष्र-ह त के मलए डाका और चोरी को भी
क्षम्य समझते थे।

गमी के हदन थे। लीलािर ककसी शीतल पवमतीय-प्रदे श को जाने की तैयाररयाँ कर


र े थे कक सैर ो जाएगी और बन पडा तो कुछ चिंदा भी वसूल कर लाएँगे।
उनको जब भ्रमण की इच्छा ोती तो ममत्रों के साथ एक डेपुटेशन के रप में
ननकल खडे ोते, अगर एक जार रुपए वसूल करके व इसका आिा सैर-सपाटे
में खचम भी कर दें तो ककसी की क्या ानन? ह द
िं ू सभा को तो कुछ ममल ी
जाता था। व न उद्योग करते तो इतना भी तो न ममलता। पिंडडतजी ने अबकी
सपररवार जाने का ननश्चय ककया था। जब से 'शुवद्ध' का आववभामव था, उनकी
आधथमक दशा, जो प ले ब ु त शोचनीय र ती थी, ब ु त कुछ सिंभल गई थी।

लेककन जानत के उपासकों को ऐसा सौभानय क ाँ कक शािंनत-ननवास का आनिंद


उठा सकें। उनका तो जदम ी मारे -मारे कफरने के मलए ोता ै । खबर आई कक
मद्रास प्रािंत में तबलीग वालों ने तफ
ू ान मचा रखा ै, ह द
िं ओ
ू िं के गाँव-के-गाँव
मुसलमान ोते जाते ै , मुल्लाओिं ने बडे जोश से तबलीग का काम शुर ककया ै।
अगर ह द
िं -ू सभा ने इस प्रवा को रोकने की आयोजना न की तो सारा प्रािंत
ह द
िं ओ
ु िं से शूदय ो जाएगा। ककसी मशखािारी की सूरत तक न नजर आएगी।

ह द
िं -ू सभा में खलबली मच गई। तुरिंत एक ववशेष अधिवेशन ु आ और नेताओिं के
सामने य समस्या उपन्स्थत की गई। ब ु त सोच-ववचार के बाद ननश्चय ु आ
कक चौबेजी पर इस कायम का भार रखा जाए। उनसे प्राथमना की जाए कक व
तुरिंत मद्रास चले जाएँ और िमम-ववमुख बिंिुओिं का उद्धार करें । क ने ी की दे र
थी। चौबेजी तो ह द
िं -ू जानत की सेवा के मलए अपने को अपणम ी कर चक
ु े थे,
पवमत-यात्रा का ववचार रोक हदया और मद्रास जाने को तैयार ो गए। ह द
िं -ू सभा
के मिंत्री ने आँखों में आँसु भरकर उनसे ववनय की कक म ाराज, य बेडा आप ी
उठा सकते ैं। आप ी को परमात्मा ने इतनी सामथ्यम दी ै । आपके मसवा ऐसा
कोई दस
ू रा मनुष्य भारतवषम में न ीिं ै , जो इस घोर-ववपन्त्त में काम आए। जानत
की दीन- ीन दशा पर दया कीन्जए। चौबेजी इस प्राथमना को अस्वीकार न कर
सके। फौरन सेवकों की एक मिंडली बनी और पिंडडतजी के नेतत्ृ व में रवाना ु ई।
ह द
िं -ू सभा ने उसे बडी िूम-िाम से ववदाई का भोज हदया। एक उदार रईस ने
चौबेजी को एक थैली भें ट की और रे लवे-स्टे शन पर जारों आदमी उद ें ववदा
करने आए।

यात्रा का वत्ृ तािंत मलखने की जररन न ीिं। र स्टे शन पर सेवकों का


सम्मानपूवक
म स्वागत ु आ। कई जग थैमलयाँ ममली। रतलाम की ररयासत ने
एक शाममयाना भें ट ककया। बडौदा ने एक मोटर दी कक सेवकों को पैदल चलने
का कष्ट न उठाना पडे, य ाँ तक कक मद्रास प ु ँचते-प ु ँ चते सेवादल के पास एक
माकूल रकम के अनतररक्त जररत की ककतनी चीजें जमा ो गईं। व ाँ आबादी
से दरू खुले ु ए मैदान में ह द
िं -ू सभा का पडाव पडा। शाममयाने पर राष्रीय-झिंडा
ल राने लगा। सेवकों ने अपनी-अपनी वहदम याँ ननकालीिं, स्थानीय िन-कुबेरों ने
दावत के सामान भेजे, रावहटयाँ पड गई। चारों ओर ऐसी च ल-प ल ो गई,
मानो ककसी राजा का कैंप ै।

रात के आठ बजे थे। अछूतों की एक बस्ती के समीप, सेवक-दल का कैम्प गैस


के प्रकाश से जगमगा र ा था। कई जार आदममयों का जमाव था, न्जनमें
अधिकािंश अछूत ी थे। उनके मलए अलग टाट बबछा हदए गए थे। ऊँचे वणम के
ह द
िं ू कालीनों पर बैठे ु ए थे। पिंडडत लीलािर का िआ
ु िंिार व्याख्यान ो र ा था।
तम
ु उद ीिं ऋवषयों की सिंतान ो, जो आकाश के नीचे एक नई सन्ृ ष्ट की रचना
कर सकते थे। न्जनके दयाय, बुवद्ध और ववचार-शन्क्त के सामने आज सारा सिंसार
मसर झुका र ा ै।

स सा एक बढ़
ू े अछूत ने उठकर पछ
ू ा - म लोग सभी उद ीिं ऋवषयों की सिंतान
ैं?

लीलािर - ननस्सिंदे ! तम्


ु ारी िमननयों में भी उद ीिं ऋवषयों का रक्त दौड र ा ै
और यद्यवप आज का ननदम यी, कठोर, ववचार ीन और सिंकुधचत ह द
िं -ू समाज तम्
ु ें
अव े लना की दृन्ष्ट से दे ख र ा ै , तथावप तुम ककसी ह द
िं ू से नीच न ीिं ो, चा े
व अपने को ककतना ी ऊँचा समझता ो।

बढ़
ू ा - तम्
ु ारी सभा म लोगों की सधु ि क्यों न ीिं लेती?

लीलािर - ह द
िं -ू सभा का जदम ु ए अभी थोडे ी हदन ु ए ै और अल्पकाल में
उसने न्जतने काम ककए ै , उस पर उसे अमभमान ो सकता ै। ह द
िं -ू जानत
शतान्ब्दयों के बाद ग री नीिंद से चौंकी ै , और अब व समय ननकट ै , जब
भारतवषम में कोई ह द
िं ू ककसी ह द
िं ू को नीच न समझेगा, जब व सब एक-दस
ू रे
को भाई समझेंगे। श्रीरामचिंद्र ने ननषाद को छाती से लगाया था, शबरी के जूठे
बेर खाए थे...।

बढ़
ू ा - आप जब इद ीिं म ात्माओिं का सिंतान ै , तो कफर ऊँच-नीच में क्यों इतना
भेद मानते ै ?

लीलािर - इसमलए तो म पनतत ो गए, अज्ञान में पडकर उन म ात्माओिं को


भल
ू गए ै।

बूढ़ा - अब तो आपकी ननद्रा टूटी ै , मारे साथ भोजन करोगे?

लीलािर - मुझे कोई आपन्त्त न ीिं ै।

बढ़
ू ा - मेरे लडके से अपनी कदया का वववा कीन्जएगा?

लीलािर - जब तक तुम् ारे जदम-सिंस्कार न बदल जाएँ, जब तक तुम् ारे आ ार-


व्यव ार में पररवतमन न ो जाए, म तम
ु से वववा का सिंबिंि न ीिं कर सकते,
मािंस खाना छोडो, महदरा पीना छोडो, मशक्षा ग्र ण करो, तभी तम
ु उच्च-वणम के
ह द
िं ओ
ु िं से ममल सकते ो।

बढ़
ू ा - म ककतने ी ऐसे कुलीन ब्राह्मणों को जानते ै , जो रात-हदन नशे में डूबे
र ते ै , मािंस के बबना कौर न ीिं उठाते, और ककतने ी ऐसे ै , जो एक अक्षर भी
न ीिं पढ़े ै , पर आपको उनके साथ भोजन करते दे खता ू ँ। उनसे वववा -सिंबिंि
करने में आपको कदाधचत इनकार न ोगा। जब आप खुद अज्ञान में पडे ु ए ैं,
तो मारा उद्धार कैसे कर सकते ै ? आपका हृदय अभी तक अभी तक अमभमान
से भरा ु आ ै । जाइए, अभी कुछ हदन और अपनी आत्मा का सुिार कीन्जए।
मारा उद्धार आपके ककए न ोगा। ह द
िं -ू समाज में र कर मारे माथे से नीचता
का कलिंक न ममटे गा। म ककतने ी ववद्वान, ककतने ी आचारवान ो जाएँ, आप
में यों ी नीच समझते र ें गे। ह द
िं ओ
ु िं की आत्मा मर गई ै और उसका स्थान
अ िं कार ने ले मलया ै। म अब दे वता की शरण जा र े ैं , न्जनके मानने वाले
मसे गले ममलने को आज ी तैयार ै । वे य न ीिं क ते कक तुम अपने
सिंस्कार बदलकर आओ। म अच्छे ैं या बुरे, वे इसी दशा में में अपने पास
बुला र े ैं। आप अगर ऊँचे ै तो ऊँचे बने रह ए। में उडना न पडेगा।

लीलािर - एक ऋवष-सिंतान के मँु से ऐसी बातें सुनकर मुझे आश्चयम ो र ा


ै । वणम-भेद तो ऋवषयों का ी ककया ु आ ै । उसे तुम कैसे ममटा सकते ो?

बूढ़ा - ऋवषयों को मत बदनाम कीन्जए, य सब पाखिंड आप लोगों का रचा ु आ


ै । आप क ते ैं। तुम महदरा पीते ो, लेककन आप महदरा पीने वालों की जूनतयाँ
चाटते ैं। आज मसे मािंस खाने के कारण नघनाते ैं , लेककन आप गो-मािंस खाने
वालों के सामने नाक रगडते ैं। इसमलए न कक वे आपसे बलवान ै! म भी
आज राजा ो जाएँ तो आप मारे सामने ाथ बाँि खडे ोंगे। आपके िमम में
व ी ऊँचा ै , जो बलवान ै , व ी नीच ै , जो ननबमल ै । य ी आपका िमम ै ।

य क कर बूढ़ा व ाँ से चला गया। और उसके साथ ी और लोग भी उठ खडे

ु ए। केवल चौबेजी और उनके दल वाले मिंच पर र गए, मानो मिंचगान समाप्त


ो जाने के बाद उसकी प्रनत्वनन वायु में गँज
ू र ी ो।

तबलीग वालों ने जबसे चौबेजी के आने की खबर सुनी थी, इस कफक्र में थे कक
ककसी उपाय से इन सबको य ाँ से दरू करना चाह ए। चौबेजी का नाम दरू -दरू
तक प्रमसद्ध था। जानते थे, य य ाँ जम गया तो मारी सारी करी-कराई मे नत
व्यथम ो जाएगी। इसके कदम य ाँ जमने न पाएँ। मुल्लाओिं ने उपाय सोचना
शुर ककया। ब ु त वाद-वववाद, ु ज्जत और दलील के बाद ननश्चय ु आ कक इस
काकफर को कत्ल कर हदया जाए। ऐसा सबाब लूटने के मलए आदममयों की क्या
कमी? उनके मलए तो जदनत का दरवाजा खल
ु जाएगा, ू र उसकी बलाएँ लें गी,
फररश्ते उसके कदमों की खाक का सरु मा बनाएँगे, रसल
ू उसके मसर पर बरकत
का ाथ रखेंगे, खुदाबिंद-करीम उसे सीने से लगाएँगे और क ें गे - तू मेरा प्यारा
दोस्त ै । दो ट्टे -कट्टे जवानों ने तुरिंत बीडा उठा मलया।

रात के दस बज गए थे। ह द
िं -ू सभा के कैंप में सदनाटा था। केवल चौबेजी अपनी
रावटी में बैठे ह द
िं -ू सभा के मिंत्री को पत्र मलख र े थे - य ाँ सबसे बडी
आवश्यकता िन की ै । रुपया, रुपया, रुपया! न्जतना भेज सकें, भेन्जए। डेपुटेशन
भेजकर वसूल कीन्जए, मोटे म ाजनों की जेब टटोमलए, मभक्षा माँधगए। बबना िन
के इन अभागों का उद्धार न ोगा। जब तक कोई पाठशाला न खुले, कोई
धचककत्सालय न स्थावपत ो, कोई वाचनालय न ो, इद ें कैसे ववश्वास आएगा कक
ह द
िं -ू सभा उनकी ह तधचिंतक ै । तबलीग वाले न्जतना खचम कर र े ै , उसका
आिा भी मुझे ममल जाए तो ह द
िं -ू िमम की पताका फ रने लगे। केवल व्याख्यानों
से काम न चलेगा, असीसों के कोई न्जिंदा न ीिं र ता।

स सा ककसी की आ ट पाकर व चौंक पडे। आँखें ऊपर उठाई तो दे खा, दो


आदमी सामने खडे ै । पिंडडतजी ने शिंककत ोकर पूछा - तुम कौन ो? क्या काम
ै?

उत्तर ममला - म इजराइल के फररश्ते ै । तुम् ारी र कब्ज करने आए ै।


इजराइल ने तुम् ें याद ककया ै।

पिंडडतजी यों ब ु त ी बमलष्ठ परु


ु ष थे, उन दोनों को एक िक्के में धगरा सकते
थे। प्रातःकाल तीन पाव मो न-भोग और दो सेर दि
ू का नाश्ता करते थे। दोप र
के समय पाव-भर िी दाल में खाते, तीसरे प र दधु िया भिंग छानते, न्जसमें सेर-
भर मलाई और आिा सेर बादाम ममली र ती। रात को डटकर ब्यालू (राबत्र-
भोजन) करते, क्योंकक प्रातःकाल तक कफर कुछ न खाते थे। इस पर तुराम य कक
पैदल पग-भर भी न चलते थे। पालकी ममले, तो पूछना ी क्या? जैसे घर पर
पलिंग उडा जा र ा ो। कुछ न ो तो इक्का तो था ी, यद्यवप काशी में दो ी
चार इक्के वाले ऐसे थे जो उद ें दे खकर क न दें कक इक्का खाली न ीिं ै । ऐसा
मनष्ु य नमम अखाडे में पट पडकर ऊपर वाले प लवाल को थका सकता था, चस्
ु ती
और फुती के अवसर पर तो व रे त पर ननकला ु आ कछुआ था।

पिंडडतजी ने एक बार कनिखयों से दरवाजे की तरफ दे खा। भागने का कोई मौका


न था। तब उनमें सा स का सिंचार ु आ। भय की पराकाष्ठा ी सा स ै । अपने
सोंटे की तरफ ाथ बढ़ाया और गरजकर बोले - ननकल जाओ य ाँ से।

बात मँु से परू ी न ननकली थी कक लाहठयों का वार पडा। पिंडडतजी मनू छम त ोगर
धगर पडे। शत्रओ
ु िं ने समीप आकर दे खा, जीवन का कोई लक्षण न था। समझ
गए, काम तमाम ो गया। लूटने का ववचार न था, पर जब कोई पूछने वाला न
ो तो ाथ बढ़ाने में क्या जम? जो कुछ ाथ लगा, ले-लेकर चलते बने।

प्रातःकाल बढ़
ू ा भी उिर से ननकला तो सदनाटा छाया ु आ था। न आदमी, न
आदमजात, छौलदाररयाँ भी गायब। चकराया, य माजरा क्या ै ? रात ी भर में
अलादीन के म ल की तर सब कुछ गायब ो गया। उन म ात्माओिं में से एक
भी नजर न ीिं आता, जो प्रातःकाल मो नभोग उडाते और सिं्या समय भिंग
घोटते हदखाई दे ते थे। जरा और समीप जाकर पिंडडत लीलािर की रावटी में
झाँका तो कलेजा सदन र गया। पिंडडतजी जमीन पर मद
ु े की तर पडे ु ए थे।
मँु पर मन्क्खयाँ मभनक र ी थी। मसर के बालों में रक्त ऐसा जम गया था, जैसे
ककसी धचत्रकार के ब्रश में रिं ग। सारे कपडे ल ू लु ान ो र े थे। समझ गया,
पिंडडतजी के साधथयों ने उद ें मारकर अपनी रा ली। स सा पिंडडतजी के मँु से
करा ने की आवाज ननकली। अभी जान बाकी थी। बढ़
ू ा तुरिंत दौडा ु आ गाँव में
आ गया और कई आदममयों को लाकर पिंडडतजी को अपने घर उठवा ले गया।

मर म-पट्टी ोने लगी। बूढ़ा हदन-के-हदन और रात-की-रात पिंडडतजी के पास बैठा


र ता। उसके घर वाले उनकी शुश्रषा में लगे र ते। गाँववाले भी यथाशन्क्त
स ायता करते। इस बेचारे का य ाँ कौन अपना बैठा ु आ ै ? अपने ैं तो म,
बेगाने ैं तो म, मारे ी उद्धार के मलए तो बेचारा य ाँ आया था, न ीिं तो य ाँ
उसे क्यों आना था? कई बार पिंडडतजी अपने घर पर बीमार पड चक
ु े थे, पर उनके
घरवालों नें इतनी तमदयता से उनकी तीमारदारी न की थी। सारा घर, और घर
ी न ी, सारा गाँव उनका गुलाम बना ु आ था। अनतधथ-सेवा उनके िमम का एक
अिंग था। सभ्य-स्वाथम ने अभी उस भाव का गला न ीिं घोंटा था। साँप का मिंत्र
जानने वाला दे ाती अब भी माघ-पूस की अिेरी मेघाच्छदन राबत्र में मिंत्र झाडने
के मलए दस-पाँच कोस पैदल दौडता ु आ चला जाता ै । उसे डबल फीस और
सवारी की जररत न ीिं ोती। बढ़
ू ा मल-मत्र
ू तक अपने ाथों से उठाकर फेंकता,
पिंडडतजी की घड
ु ककयाँ सन
ु ता, सारे गाँव से दि
ू माँगकर उद ें वपलाता। पर उसकी
त्योररयाँ कभी मैली न ोती। अगर उसके क ीिं चले जाने पर घरवाले लापरवा ी
करते तो आकर सबको डाँटता।

म ीने-भर बाद पिंडडतजी चलने-कफरने लगे और अब उद ें ज्ञात ु आ कक इन


लोगों ने मेरे साथ ककतना उपकार ककया ै । इद ीिं लोगों का काम था कक मुझे
मौत के मँु से ननकाला, न ीिं तो मरने में क्या कसर र गई थी? उद ें अनुभव

ु आ कक मैं न्जन लोगों को नीच समझता था और न्जनके उद्धार का बीडा


उठाकर आया था, वे मुझसे क ीिं ऊँचे ैं। मैं इस पररन्स्थनत में कदाधचत रोगी को
ककसी अस्पताल में भेजकर ी अपनी कतमव्य-ननष्ठा पर गवम करता, समझता मैंने
दिीधच और ररश्चिंद्र का मुख उज्जवल कर हदया। उनके रोएँ-रोएँ से इन दे व-
तुल्य प्रािणयों के प्रनत आशीवामद ननकलने लगा।

4
तीन म ीने गुजर गए। न तो ह द
िं -ू सभा ने पिंडडतजी की खबर ली और न
घरवालों ने। सभा के मुख-पत्र पर उनकी मत्ृ यु पर आँसु ब ाए गए, उनके कामों
का प्रशिंसा की गई, और उनका स्मारक बनाने के मलए चिंदा खोल हदया गया।
घरवाले भी रो-पीटकर बैठ र े ।

उिर पिंडडतजी दि
ू और िी खाकर चाक-चौबिंद ो गए। चे रे पर खून की सूखी
दौड गई, दे -भर आई। दे ात की जलवायु ने व काम कर हदखाया जो कभी
मलाई और मक्खन से न ु आ था। प ले की तर तैयार तो व न ु ए, पर
फुती और चस्
ु ती दग
ु न
ु ी ो गई। मोटाई का आलस्य अब नाम को भी न था।
उनमें एक नए जीवन का सिंचार ो गया।

जाडा शुर ो गया था। पिंडडतजी घर लौटने की तैयाररयाँ कर र े थे। इतने में
प्लेग का आक्रमण ु आ, और गाँव के तीन आदमी बीमार ो गए। बढ़
ू ा चौिरी
भी उद ीिं में था। घरवाले इन रोधगयों को छोडकर भाग खडे ु ए। व ाँ का दस्तरू
था कक न्जन बीमाररयों को वे लोग दै वी प्रकोप समझते थे , उनके रोधगयों को
छोडकर चले जाते थे। उद ें बचाना दे वताओिं से वैर मोल लेना था, और दे वताओिं
से वैर करके क ाँ जाते? न्जस प्राणी को दे वता ने चुन मलया, उसे भला वे उसके
ाथों से छननने का सा स कैसे करते? पिंडडतजी को भी लोगों ने साथ ले जाना
चा ा, ककिं तु पिंडडतजी न गए। उद ोंने गाँव में र कर रोधगयों की रक्षा करने का
ननश्चय ककया। न्जस प्राणी ने उद ें मौत के पिंजे से छुडाया था, उसे इस दशा में
छोडकर व कैसे जाते? उपकार ने उनकी आत्मा को जगा हदया था। बूढ़े चौिरी
ने तीसरे हदन ोश आने पर जब उद ें अपने पास खडे दे खा तो बोला - म ाराज,
तुम य ाँ क्यों आ गए? मेरे मलए दे वताओिं का ु क्म आ गया ै । अब मैं ककसी
तर न ीिं रुक सकता। तुम क्यों अपनी जान जोिखम में डालते ो? मुझ पर दया
करो, चले जाओ।

लेककन पिंडडतजी पर कोई असर न ु आ। व बारी-बारी से तीनों रोधगयों के पास


जाते और कभी उनकी धगन्ल्टयाँ सेंकते, कभी उद ें पुराणों की कथा सुनाते। घरों
पर नाज, बतमन आहद सब ज्यों-के-ज्यों रखे ु ए थे। पिंडडतजी पथ्य बनाकर
रोधगयों को िखलाते। रात को जब रोगी सो जाते और सारा गाँव भाँय-भाँय करने
लगता तो पिंडडतजी को भयिंकर जिंतु हदखाई दे त।े उनके कलेजे में िकडन ोने
लगती, लेककन व ाँ से टलने का नाम न लेत।े उद ोंने ननश्चय कर मलया था कक
या तो इन लोगों को बचा ी लँ ग
ू ा या इन पर अपने को बमलदान ी कर दँ ग
ू ा।

जब तीन हदन सेंक-बाँि करने पर भी रोधगयों की ालत न सँभली तो पिंडडतजी


को बडी धचिंता ु ई। श र व ाँ से बीस मील पर था। रे ल का क ीिं पता न ीिं,
रास्ता बी ड और सवारी कोई न ीिं। इिर य भय कक अकेले रोधगयों की न जाने
क्या दशा ो। बेचारे बडे सिंकट में पडे। अिंत को चौथे हदन, प र रात र े , व
अकेले श र को चल हदए और दस बजते-बजते व ाँ जा प ु ँ च।े

अस्पताल से दवा लेने में बडी कहठनाई का सामना करना पडा। गँवारों से
अस्पताल वाले दवाओिं का मनमाना दाम वसल
ू करते थे। पिंडडतजी को मफ्
ु त
क्यों दे ने लगे? डॉक्टर के मुिंशी ने क ा - दवा तैयार न ीिं ै।

पिंडडतजी ने धगडधगडाकर क ा - सरकार, बडी दरू से आया ू ँ। कई आदमी बीमार


पडे ैं। दवा न ममलेगी तो सब मर जाएँगे।

मुिंशी ने बबगडकर क ा - क्यों मसर खाए जाते ो? क तो हदया, दवा तैयार न ीिं
ै , न तो इतनी जल्दी ो ी सकती ै।

पिंडडतजी अत्यिंत दीनभाव से बोले - सरकार, ब्राह्मण ू ँ , आपके बाल-बच्चो को


भगवान धचरिं जीवी करें , दया कीन्जए। आपका इकबाल चमकता र े ।

ररश्वती कममचारी में दया क ाँ? वे तो रुपए के गुलाम ै , ज्यों-ज्यों पिंडडतजी


उसकी खुशामद करते थे, व और भी झल्लाता था। अपने जीवन में पिंडडतजी ने
कभी इतनी दीनता न प्रकट की थी। उनके पास इस वक्त एक थेला भी न था,
अगर व जानते कक दवा ममलने में इतनी हदक्कत ोगी तो गाँववालों से ी
कुछ माँग-जाँचकर लाए ोते। बेचारे तबवु द्ध-से खडे सोच र े थे कक अब क्या
करना चाह ए? स सा डॉक्टर सा ब स्वयिं बिंगले से ननकल आए। पिंडडतजी
लपककर पैरों पर धगर पडे और करुण-स्वर में बोले - दीनबिंिु, मेरे घर में तीन
आदमी ताऊन में पडे ु ए ैं। बडा गरीब ू ँ , सरकार कोई दवा ममले।

डॉक्टर सा ब के पास ऐसे गरीब ननत्य आया करते थे। उनके चरणों पर ककसी
का धगर पडना, उनके सामने पडे ु ए आतमनाद करना उनके मलए कुछ नई बातें न
थी। अगर इस तर व दया करने लगते तो दवा ी भर को ोते, य ठाट-बाट
क ाँ से ननभता? मगर हदल के चा े ककतने ी बरु े ों, बातें मीठन-मीठन करते थे।
पैर टाकर बोले - रोगी क ाँ ै ?

पिंडडतजी - सरकार, वे तो घर पर ैं, इतनी दरू कैसे लाता?

डॉक्टर - रोगी घर और तुम दवा लेने आए ो? ककतने मजे की बात ै ! रोगी को


दे खे बबना कैसे दवा दे सकता ू ँ ?

पिंडडतजी को अपनी भूल मालम


ू ु ई। वास्तव में बबना रोगी को दे खे रोग की
प चान कैसे ो सकती ै , लेककन तीन-तीन रोधगयों को इतनी दरू लाना आसान
न था। अगर गाँववाले उनकी स ायता करते तो डोमलयों का प्रबिंि ो सकता था,
पर व ाँ तो सब कुछ अपने ी बूते पर करना था, गाँववालों से इसमें स ायता
ममलने की कोई आशा न थी। स ायता की कौन क े , वे तो उनके शत्रु ो र े थे।
उद ें भय ोता था कक य दष्ु ट दे वताओिं से वैर बढ़ाकर म लोगों पर न जाने
क्या ववपन्त्त लाएँगे। अगर कोई दस
ू रा आदमी ोता तो व उसे कब का मार
चुके ोते। पिंडडतजी से उद ें प्रेम ो गया था, इसमलए छोड हदया था।

य जवाब सन
ु कर पिंडडतजी को कुछ बोलने का सा स तो न था, पर कलेजा
मजबूत करके बोले - सरकार, अब कुछ न ीिं ो सकता?

डॉक्टर - अस्पताल से दवा न ीिं ममल सकती। म अपने पास से, दाम लेकर दवा
दे सकते ै ।

पिंडडतजी - य दवा ककतने की ोगी, सरकार।

डॉक्टर सा ब ने दवा का दाम 10 रुपया बताया और य भी क ा कक इस दवा


से न्जतना लाभ ोगा, उतना अस्पताल की दवा से न ीिं ो सकता। कफर बोले -
व ाँ पुरानी दवा रखा र ता ै । गरीब लोग आता ै, दवाई ले जाता ै , न्जसको
जीना ोता ै , जीता ै , न्जसे मरना ोता ै , मरता ै। मसे कुछ मतलब न ीिं।
म तम
ु को जो दवा दें गे, व सच्चा दवा ोगा।

दस रुपए! इस समय पिंडडतजी को दस रुपए दस लाख जान पडे। इतने रुपए व


एक हदन में भिंग-बट
ू ी में उडा हदया करते थे, पर इस समय तो थेले-थेले को
मु ताज थे। ककसी से उिार ममलने की आशा क ाँ। ाँ, सिंभव ै , मभक्षा माँगने से
कुछ ममल जाए, लेककन इतनी जल्द दस रुपए ककसी भी उपाय से न ममल सकते
थे। आिे घिंटे तक व इसी उिेडबुन में खडे र े । मभक्षा के मसवा कोई दस
ू रा
उपाय न सूझता था, और मभक्षा उद ोंने कभी माँगी न थी। व चिंदे जमा कर
चुके थे, एक-एक बार में जारों वसूल कर लेते थे, पर व दस
ू री बात थी। िमम
के रक्षक, जानत के सेवक और दमलतों के उद्धारक बनकर चिंदा लेने में एक गौरव
था, चिंदा लेकर व दे ने वालों पर अ सान करते थे , पर य ाँ तो मभखाररयों की
तर ाथ फैलाना, धगडधगडाना और फटकारें स नी पडेगी। कोई क े गा - इतने
मोटे -ताजे तो ो, मे नत क्यों न ीिं करते, तुम् ें भीख माँगते शमम न ीिं आती? कोई
क े गा - घास खोद लाओ, मैं तुम् ें अच्छन मजदरू ी दँ ग
ू ा। ककसी को उनके ब्राह्मण
ोने का ववश्वास न आएगा। अगर य ाँ उनका रे शमी अचकन और रे शमी साफा
ोता, केसररया रिं ग वाला दप
ु ट्टा ी ममल जाता तो व कोई स्वाँग भर लेत।े
ज्योनतवष बनकर व ककसी िनी सेठ को फाँस सकते थे, और इस फन में व
उस्ताद भी थे, पर य ाँ य सामान क ाँ - कपडे-लत्ते तो सब कुछ लुट चुके थे।
ववपन्त्त में कदाधचत बुवद्ध भी भ्रष्ट ो जाती ै । अगर व मैदान में खडे ोकर
कोई मनो र व्याख्यान दे दे ते, तो शायद उनके दस-पाँच भक्त पैदा ो जाते,
लेककन इस तरफ उनका ्यान ी न गया। व सजे ु ए पिंडाल में , फूलों से
सस
ु न्ज्जत मेज के सामने, मिंच पर खडे ोकर अपनी वाणी का चमत्कार हदखला
सकते थे। इस दरु वस्था में कौन उनका व्याख्यान सुनेगा! लोग समझेंगे, कोई
पागल बक र ा ै।

मगर दोप र ढली जा र ी थी, अधिक सोच-ववचार का अवकाश न था। य ीिं


सिं्या ो गई, तो रात को लौटना असिंभव ो जाएगा। कफर रोधगयों की न जाने
क्या दशा ो। य अब इस अननन्श्चत दशा में खडे न र सके, चा े न्जतना
नतरस्कार ो, ककतना ी अपमान स ना पडे, मभक्षा के मसवा और कोई उपाय न
था।

व बाजार में जाकर एक दक


ु ान के सामने खडे ो गए, पर कुछ माँगने की
ह म्मत न पडी। दक
ु ानदार ने पछ
ू ा - क्या लोगे?

पिंडडतजी बोले - चावल का क्या भाव ै?

मगर दस
ू री दक
ु ान पर प ु ँचकर व ज्यादा साविान ो गए। सेठजी गद्दी पर
बैठे ु ए थे। पिंडडतजी आकर उनके सामने खडे ो गए और गीता का एक श्लोक
पढ़ सुनाया। उनका शुद्ध उच्चारण और मिुर वाणी सुनकर सेठजी चककत ो
गए, पछ
ू ा - क ाँ स्थान ै?

पिंडडतजी - काशी से आ र ा ू ँ।

य क कर पिंडडतजी ने सेठ जी को िमम के दसों लक्षण बतलाए और श्लोक की


ऐसी अच्छन व्याख्या की कक व मुनि ो गए, कफर बोले - म ाराज, आज चलकर
मेरे स्थान को पववत्र कीन्जए।

कोई स्वाथी आदमी ोता तो इस प्रस्ताव को स षम स्वीकार कर लेता, लेककन


पिंडडतजी को लौटने की पडी?

पिंडडतजी बोले - न ीिं सेठजी, मझ


ु े अवकाश न ीिं ै।

सेठ - म ाराज, आपको मारी इतनी खानतरी करनी पडेगी।

पिंडडतजी जब ककसी तर ठ रने पर राजी न ु ए, तो सेठजी ने उदास ोकर क ा


- कफर म आपकी क्या सेवा करें ? कुछ आज्ञा दीन्जए, आपकी वाणी से तो तन्ृ प्त
न ीिं ु ई। कफर कभी इिर आना ो तो अवश्य दशमन दीन्जएगा।
पिंडडतजी - इतनी श्रद्धा ै तो अवश्य आऊँगा।

य क कर पिंडडतजी कफर उठ खडे ु ए। सिंकोच ने कफर उनकी जबान बिंद कर


दी। य आदर-सत्कार इसीमलए तो ै कक मैं अपना स्वाथम-भाव नछपाए ु ए ू ँ।
कोई इच्छा प्रकट की और इनकी आँखें बदलीिं। सूखा जवाब चा े न ममले, पर
श्रद्धा न र े गी। व नीचे उतर गए और सडक पर एक क्षण के मलए खडे ोकर
सोचने लगे। अब क ाँ जाऊँ? उिर जाडे का हदन ककसी ववलासी के िन की भाँनत
भागा चला जाता था। व अपने ी ऊपर झँझ
ु ला र े थे। जब ककसी से माँगँग
ू ा
न ीिं तो कोई क्यों दे ने लगा? कोई क्या मेरे मन का ाल जानता ै ? वे हदन गए,
जब िनी लोग ब्राह्मणों की पूजा ककया करते थे। य आशा छोड दो कक
म ाशय आकर तुम् ारे ाथ में रुपए रख दें गे। व िीरे -िीरे आगे बढ़े ।

स सा सेठ जी ने पीछे से पक
ु ारा - पिंडडतजी, जरा ठ ररए।

पिंडडतजी ठ र गए। कफर घर चलने का आग्र करने आता ोगा। य तो न ु आ


कक एक रुपए का नोट लाकर दे ता, मझ
ु े घर ले जाकर न जाने क्या करे गा?

मगर सेठजी ने सचमुच एक धगदनी ननकालकर उनके पैरों पर रख दी तो उनकी


आँखों में अ सान के आँसू उछल आए। ैं! अब भी सच्चे िमामत्मा जीव सिंसार
में ैं, न ीिं तो य पथ्
ृ वी रसातल को न चली जाती? अगर इस वक्त उद ें सेठजी
के कल्याण के मलए अपनी दे का सेर-आि सेर रक्त भी दे ना पडता तो भी
शौक से दे दे त।े गद्गद्-किंठ से बोले - इसका तो कुछ काम न था, सेठजी! मैं
मभक्षुक न ीिं ू ँ , आपका सेवक ू ँ।

सेठजी श्रद्धा-ववनयपूणम शब्दों में बोले - भगवान इसे स्वीकार कीन्जए, य दान
न ीिं, भें ट ै । मैं भी आदमी प चानता ू ँ। ब ु तेरे सािु-सिंत, योगी-यती दे श और
िमम के सेवक आते र ते ैं , पर न जाने क्यों ककसी के प्रनत मन में श्रद्धा न ीिं
उत्पदन ोती? उनसे ककसी तर वपिंड छुडाने की पड जाती ै । आपका सिंकोच
दे खकर मैं समझ गया कक आपका य पेशा न ीिं ै । आप ववद्वान ै , िमामत्मा
ै , पर ककसी सिंकट में पडे ु ए ै । इस तच्
ु छ भें ट को स्वीकार कीन्जए और मझ
ु े
आशीवामद दीन्जए।

पिंडडतजी दवाएँ लेकर घर चले तो षम, उल्लास और ववजय से उनका हृदय उछला
पडता था। नम
ु ानजी भी सिंजीवन-बट
ू ी लाकर इतने प्रसदन न ु ए ोंगे। ऐसा
सच्चा आनिंद उद ें कभी प्राप्त न ु आ। उनके हृदय में इतने पववत्र भावों का
सिंचार कभी न ु आ था।

हदन ब ु त थोडा र गया था। सय


ू द
म े व अववरल गनत से पन्श्चम की ओर दौडते
चले जाते थे। क्या उद ें भी ककसी रोगी को दवा दे नी थी? व बडे वेग से दौडते

ु ए पवमत की ओट में नछप गए? पिंडडतजी और भी फुती से पाँव बढ़ाने लगे, मानो
उद ोंने सूयद
म े व को पकड लेने की ठान ली ै।

दे खते-दे खते अँिेरा छा गया। आकाश में दो-एक तारे हदखाई दे ने लगे। अभी दस
मील की मिंन्जल बाकी थी। न्जस तर काली घटा को मसर पर मिंडराते दे खकर
गहृ णी दौड-दौडकर सुखावन समेटने लगती ै , उसी भाँनत लीलािर ने भी दौडना
शुर ककया। उद ें अकेले पड जाने का भय न था, भय था अिंिेरें में रा भूल जाने
का। दाएँ-बाएँ बन्स्तयाँ छूटती जाती थी। पिंडडतजी को ये गाँव इस समय ब ु त
ी सु ावने मालूम ोते थे। ककतने आनिंद से लोग अलाव के सामने बैठे ताप र े
ै?

स सा एक कुत्ता हदखाई हदया। न जाने ककिर से आकर व उनके सामने


पगडिंडी पर चलने लगा। पिंडडतजी चौंक पडे, पर एक क्षण में उद ोंने कुत्ते को
प चान मलया। व बूढ़े चौिरी का कुत्ता मोती था। व गाँव छोडकर आज इिर
इतनी दरू कैसे आ ननकला? क्या जानता ैं? पिंडडतजी दवा लेकर आ र े ोंगे , क ीिं
रास्ता भूल जाएँ? कौन जानता ै ? पिंडडतजी ने एक बार मोती क कर पुकारा, तो
कुत्ते ने दम
ु ह लाई, पर रुका न ीिं। व इससे अधिक पररचय दे कर समय नष्ट
न करना चा ता था। पिंडडतजी को ज्ञात ु आ कक ईश्वर मेरे साथ ै , व ी मेरी
रक्षा कर र े ै ? अब उद ें कुशल से घर प ु ँचने का ववश्वास ो गया।

दस बजते-बजते पिंडडतजी घर प ु ँच गए।

रोग घातक न था, पर यश पिंडडतजी को बदा था। एक सप्ता के बाद तीनों रोगी
चिंगे ो गए। पिंडडतजी की कीनतम दरू -दरू तक फैल गई। उद ोंने यम-दे वता से घोर
सिंग्राम करके इन आदममयों को बचा मलया था। उद ोंने दे वताओिं पर भी ववजय
पा ली थी। असिंभव को सिंभव कर हदखाया था व साक्षात भगवान थे। उनके
दशमनों के मलए लोग दरू -दरू से आने लगे, ककिं तु पिंडडतजी को अपनी कीनतम से
इतना आनिंद न ोता था, न्जतना रोधगयों को चलते-कफरते दे खकर।

चौिरी ने क ा - म ाराज, तम
ु साक्षात भगवान ो। तम
ु न आते तो म न
बचते।

पिंडडतजी बोले - मैंने कुछ न ीिं ककया, य सब ईश्वर की दया ै।

चौिरी - अब म तुम् ें कभी न जाने दें गे। जाकर अपने बाल-बच्चों को भी ले


लाओ।

पिंडडतजी - ाँ, मैं भी सोच र ा ू ँ। तुमको छोडकर अब न ीिं जा सकता।

6
मुल्लाओिं ने मैदान खाली पाकर आस-पास के दे ातों में खूब जोर बाँि रखा था।
गाँव के गाँव मुसलमान ोते जाते थे। उिर ह द
िं -ू सभा ने सदनाटा खीिंच मलया
था। ककसी की ह म्मत न पडती थी कक इिर आए। लोग दरू बैठे ु ए मुसलमानों
पर गोला-बारद चला र े थे। इस त्या का बदला कैसे मलया जाए, य ीिं उनके
सामने सबसे बडी समस्या थी। अधिकाररयों के पास बार-बार प्राथमना-पत्र भेजे जा
र े थे कक इस मामले की छानबीन की जाए और बार-बार य ी जवाब ममलता
था कक त्यारों का पता न ीिं चलता। उिर पिंडडतजी के स्मारक के मलए चिंदा
भी जमा ककया जा र ा था।

मगर इस नई ज्योनत ने मुल्लाओिं का रिं ग फीका कर हदया। व ाँ एक ऐसे दे वता


का अवतार ु आ था, जो मद
ु ाम को न्जला दे ता था। जो अपने भक्तों के कल्याण
के मलए अपने प्राणों का बमलदान कर सकता था। मल्
ु लाओिं के य ाँ मसवद्ध क ाँ,
य ववभूनत क ाँ, य चमत्कार क ाँ? इस ज्वलिंत उपकार के सामने जदनत और
अखूबत (भात-ृ भन्क्त) की कोरी दलीलें कब ठ र सकती थीिं? पिंडडतजी अब व
अपने ब्राह्मणत्व पर घमिंड करनेवाले पिंडडतजी न थे। उद ोंने शुद्रो और भीलों का
आदर करना सीख मलया था। उद ें छाती से लगाते ु ए अब पिंडडतजी को घण
ृ ा न
ोती थी। जब अपने घर में सय
ू म का प्रकाश ो गया तो उद ें दस
ू रों के य ाँ जाने
की क्या जररत थी! सनातन-िमम की ववजय ो गई। गाँव-गाँव में मिंहदर बनने
लगे और शाम-सवेरे मिंहदरों में शिंख और घिंटें की ्वनन सुनाई दे ने लगी। लोगों
के आचरण आप- ी-आप सुिरने लगे। पिंडडतजी ने ककसी को शुद्ध न ीिं ककया।
उद ें अब शुवद्ध का नाम लेते शमम आती थी। मैं भला इद ें क्या शुद्ध करँगा,
प ले अपने को तो शुद्ध कर लँ ।ू ऐसी ननममल एविं पववत्र आत्माओिं को शुवद्ध के
ढोंग से अपमाननत न ीिं कर सकता।

य मिंत्र था, जो उद ोंने उन चािंडालों से सीखा था और इसी बल से व अपने


िमम की रक्षा करने में सफल ु ए थे।

पिंडडतजी अभी जीववत ै , पर अब सपररवार उसी प्रािंत में , उद ीिं भीलों के साथ
र ते ैं।

***
कामिा तरु

राजा इदद्रनाथ का दे ादत ो जाने के बाद कँु अर राजनाथ तो शत्रओ


ु िं ने चारों
ओर से ऐसा दबाया कक उद ें अपने प्राण लेकर एक पुराने सेवक की शरण जाना
पडा, जो एक छोटे -से गाँव का जागीरदार था। कुँअर स्वभाव से ी शान्दत-वप्रय,
रमसक, ँस-खेलकर समय काटने वाले, रमसकजनों के साथ ककसी वक्ष
ृ के नीचे बैठे

ु ए, काव्य-चचाम करने में उद ें जो आनदद ममलता था, व मशकार या राज-दरबार


में न ीिं। इस पवमतमालाओिं से नघरे ु ए गाँव में आकर उद ें न्जस शान्दत और
आनदद का अनभ
ु व ु आ, उसके बदले व ऐसे-ऐसे कई राज्य-त्याग कर सकते
थे। य पवमतमालाओिं की मनो र छटा, य नेत्ररिं जक ररयाली, य जल-प्रवा की
मिुर वीणा, य पक्षक्षयों की मीठन बोमलयाँ, य मिंग
ृ -शावकों की छलािंगे, य बछडों
की कुलें लें, य ग्राम-ननवामसयों की बालोधचत सरलता, य रमिणयों की सिंकोचमय
चपलता। ये सभी बातें उनके मलए नई थी, पर इन सबों से बढ़कर जो वस्तु
उनको आकवषमत करती थी, व जागीरदार की यव
ु ती कदया चददा थी।

चददा घर का सारा काम-काज आप ी करती थी। उसको माता की खोद में


खेलना नसीब न ु आ। वपताजी की सेवा ी में रत र ती थी। उसका वववा इसी
साल ोने वाला था, कक इसी बीच में कँु अरजी ने आकर उसके जीवन में नवीन
भावनाओिं और आशाओिं को अिंकुररत कर हदया। उसने अपने पनत का जो धचत्र
मन में खीिंच रखा था, व ी मानो रप िारण करके उसके सम्मुख आ गया। कुँअर
की आदशम रमणी भी चददा के रप में अवतररत ो गई, लेककन कुँअर समझते थे
- मेरे ऐसे भानय क ाँ? चददा भी समझती थी - क ाँ य और क ाँ मैं।

दोप र का समय था और जेठ का म ीना। खपरै ल का घर भिी की भाँनत तपने


लगा। खस की टहट्टयों और त खानों में र ने वाले राजकुमार का धचत्त गरमी से
इतना बेचैन ु आ कक व बा र ननकल आए और सामने के बाग में जाकर एक
घने वक्ष
ृ की छाँव में बैठ गए। स सा उद ोंने दे खा - चददा नदी से जल की
गागर मलए चली आ र ी ै । नीचे जलती ु ई रे त थी, ऊपर जलता ु आ सय
ू ।म लू
से दे झल
ु सी जाती थी। कदाधचत इस समय प्यास से तडपते आदमी को भी
नदी तक जाने की ह म्मत न पडती। चददा क्यों पानी लेने गई थी? घर में पानी
भरा ु आ ै । कफर इस समय व क्यों पानी लेने ननकली?

कँु अर दौडकर उसके पास प ु ँचे और उसके ाथ से गागर छनन लेने की चेष्टा
करते ु ए बोले -'मुझे दे दो और भागकर छाँ में चली जाओ, इस समय पानी
का क्या काम था?'

चददा ने गागर न छोडी। मसर से िखसका आँचल सम्भालकर बोली - 'तम


ु इस
समय कैसे आ गए? शायद गरमी के मारे अददर न र सके?'

कँु अर -'मझ
ु े दे दो, न ीिं तो मैं छनन लँ ग
ू ा।'

चददा ने मुस्कराकर क ा - 'राजकुमारों को गागर लेकर चलना शोभा न ीिं दे ता।'

कुँअर ने गागर का मँु पकडकर क ा - 'इस अपराि का ब ु त दिं ड स चुका ू ँ


चददा, अब तो अपने राजकुमार करने में भी लज्जा आती ै ।'

चददा - 'दे खो, िप


ू में खद
ु ै रान ोते ो और मझ
ु े भी ै रान करते ो, गागर छोड
दो। सच क ती ू ँ , पूजा का जल ै ।'

कँु अर - 'क्या मेरे ले जाने से पज


ू ा का जल अपववत्र ो जाएगा?'

चददा - 'अच्छा भाई, न ीिं मानते तो तुम् ीिं ले चलो। ाँ, न ीिं तो।'

कुँअर गागर लेकर आगे-आगे चले। चददा पीछे ो ली। बचीगे में प ु ँचे तो चददा
एक छोटे -से पौिे के पास रुककर बोली - 'इसी दे वता की पूजा करनी ै , गागर
रख दो।'
कँु अर ने आश्चयम से पछ
ू ा -'य ा कौन दे वता ै चददा? मझ
ु े तो न ीिं नजर आता।'

चददा ने पौिे को सीिंचते ु ए क ा - 'य ी तो मेरा दे वता ै ।'

पानी पीकर पौिे की मुरझाई ु ई पन्त्तयाँ री ो गई, मानो उनकी आँखें खुल
गई ों।

कँु अर ने क ा - 'य पौिा क्या तम


ु ने लगाया ै चददा?'

चददा ने पौिे को एक सीिी लकडी से बाँिते ु ए क ा - ' ाँ, उसी हदन तो, जब
तम
ु य ाँ आए। य ाँ प ले मेरी गडु डयों का घरौंदा था। मैंने गडु डयों पर छाँ
करने के मलए अमोला लगा हदया था, कफर मझ
ु े इसकी याद न ीिं र ी। घर के
काम-िदिों में भूल गई। न्जस हदन तुम य ाँ आए, मुझे न जाने क्यों इस पौिे
की याद आ गई। मैंने आकर दे खा तो व सूख गया था। मैंने तुरदत पानी
लाकर इसे सीिंचा तो कुछ-कुछ ताजा ोने लगा। तब से इसे सीिंचती ु ँ। दे खो,
ककतना रा-भरा ो गया ै ।'

य क ते-क ते उसने मसर उठाकर कुँअर की ओर ताकते ु ए क ा - 'और सब


काम भूल जाऊ, पर इस पौिे को पानी दे ना न ीिं भूलती। तम्
ु ीिं इसके प्राण-दाता
ो। तुम् ीिं ने आकर इसे न्जला हदया, न ीिं तो बेचारा सूख गया ोता। य तुम् ारे
शुभागमन का स्मनृ त-धचह्न ै । जरा इसे दे खो। मालम
ू ोता ै , ँस र ा ै । मझ
ु े
तो जान पडता ै कक य मझ
ु से बोलता ै । सच क ती ू ँ , कभी य रोता ै,
कभी ँसता ै , कभी रठता ै , आज तुम् ारा लाया ु आ पानी पाकर फूला न ीिं
समाता। एक-एक पत्ता तुम् ें िदयवाद दे र ा ै ।'

कँु अर को ऐसा जान पडा, मानो व पौिा कोई नद ा-सा क्रीडाशील बालक ै।
जैसे चुम्बन से प्रसदन ोकर बालक गोद में चढ़ने के मलए दोनों ाथ फैला
दे ता ै , उसी भाँनत य पौिा भी ाथ फैलाए जान पडा। उसके एक-एक अणु में
चददा का प्रेम झलक र ा था।
चददा के घर में खेती के सभी औजार थे। कुँअर एक फावडा उठा लाए और पौिे
का एक थाल बनाकर चारों ओर ऊँची में ड उठा दी। कफर खुरपी लेकर अददर की
ममट्टी को गोड हदया। पौिा और भी ल ल ा उठा।

चददा बोली- 'कुछ सुनते ो, क्या क र ा ै ?'

कँु अर ने मस्
ु कराकर क ा - ' ाँ, क ता ै , अम्माँ की गोद में बैठूँगा।'

चददा - 'न ीिं, क र ा ै , इतना प्रेम करके कफर भूल न जाना।'

मगर कुँअर को अभी राज-पुत्र ोने का दिं ड भोगना बाकी था। शत्रुओिं को न जाने
कैसे उनकी टो ममल गई। इिऱ तो ह तधचिंतकों के आग्र के वववश ोकर बूढ़ा
कुवेरमसिं चददा और कुँअर के वववा की तैयाररयाँ कर र ा था, उिर शत्रुओिं का
एक दल मसर पर आ प ु ँचा। कुँअर ने उस पौिे के आस-पास फूल-पत्ते लगाकर
एक फुलवारी-सी बना दी थी। पौिे को सीिंचना अब उनका काम था। प्रातःकाल
व किंिे पर काँवर रखे नदी से पानी ला र े थे कक दस-बार आदममयों ने उद ें
रास्ते में घेर मलया। कुवेरमसिं तलवार लेकर दौडा, लेककन शत्रुओिं ने उसे मार
धगराया। अकेला अस्त्र ीन कुँअर क्या करता? किंिे पर काँवर रखे ु ए कुँअर बोला
- 'अब क्यों मेरे पीछे पडे ो भाई? मैंने सब-कुछ छोड हदया।'

सरदार बोला - ' में आपको पकड ले जाने का ु क्म ै ।'

'तम्
ु ारा स्वामी मझ
ु े इस दशा में भी न ीिं दे ख सकता? खैर, अगर िमम समझों तो
कुवेरमसिं की तलवार मुझे दे दो। अपनी स्वािीनता के मलए लडकर प्राण दँ ।ू '

इसका उत्तर य ी ममला कक मसपाह यों ने कुँअर को पकडकर मश्ु कें कस दीिं और
उद ें एक घोडे पर बबठाकर घोडे को भगा हदया। काँवर व ीिं पडी र गई।
उसी समय चददा घर से ननकली तो दे खा - काँवर पडी ु ई ै और कँु अर को
लोग घोडे पर बबठाए ले जा र े ै । चोट खाए ु ए पक्षी की भाँनत व कई कदम
दौडी, कफर धगर पडी। उसकी आँखों में अिंिेरा छा गया।

स सा उसकी दृन्ष्ट वपता की लाश पर पडी। व घबराकर उठन और लाश के


पास जा प ु ँची। कुवेर अभी मरा न था। प्राण आँखों में अटके ु ए थे। चददा को
दे खते ी क्षीण स्वर में बोला -'बेटी... कुँअर।' इसके आगे व कुछ न क सका।
प्राण ननकल गए, पर इस शब्द 'कुँअर' ने उसका आशय प्रकट कर हदया।

बीस वषम बीत गए। कुँअर कैद से न छूट सके।

य एक प ाडी ककला था। ज ाँ तक ननगा जाती, प ाडडयाँ ी नजर आतीिं।


ककले में उद ें कोई कष्ट न था। नौकर-चाकर, भोजन-वस्त्र, सैर-मशकार ककसी बात
की कमी न थी। पर उस ववयोधगनी को कौन शादत करता, जो ननत्य कुँअर के
हृदय में जला करती थी। जीवन में अब उनके मलए कोई आशा न थी, कोई
प्रकाश न था। अगर कोई इच्छा थी तो य ी कक एक बार उस प्रेमतीथम की यात्रा
कर लें , ज ाँ उद ें व सब कुछ ममला, जो मनष्ु य को मम सकता ै। ाँ, उनके
मन में एकमात्र य ी अमभलाषा थी कक उन पववत्र स्मनृ तयों से रिं न्जत भूमम के
दशमन करके जीवन का उसी नदी के तट पर अदत कर दें । व ी नदी का ककनारा,
व ी वक्ष
ृ का किंु ज, व ी चददा का छोटा-स सुददर घर उसकी आँखों में कफरा
करता और व पौिा न्जसे उन दोनों ने ममलकर सीिंचा था, उसमें तो मानो उसके
प्राण बसते थे। क्या व हदन भी आएगा, जब व उस पौिे को री- री पन्त्तयों
से लदा ु आ दे खेगा? कौन जाने, व अब ै भी या सूख गया? कौन अब उसको
सीिंचता ोगा? चददा इतने हदनों अवववाह त थोडे ी बैठन ोगी? ऐसा सम्भव भी
तो न ीिं। उसे अब मेरी याद आ जाती ो। ाँ, शायद कभी उसे अपने घर की
याद खीिंच लाती ो तो पौिे को दे खकर उसे मेरी याद आ जाती ो। मझे जैसे
अभागे के मलए इससे अधिक व और कर ी क्या सकती ै । उस भूमम को एक
बार दे खने के मलए व अपना जीवन दे सकता था, पर य अमभलाषा न परू ी
ोती थी।

आ ! एक युग बीत गया, शोक और नैराश्य ने उठती जवानी को कुचल हदया। न


आँखों में ज्योनत, न पैरों में शन्क्त। जीवन क्या था, एक दःु खदाई स्वप्न था। उस
सघन अदिकार में उसे कुछ न सझ
ू ता था। बस, जीवन का आिार एक
अमभलाषा थी, एक सुखद स्वप्न, जो जीवन में न जाने कब उसने दे खा था। एक
बार कफर व ी स्वप्न दे खना चा ता था। कफर उसकी अमभलाषाओिं का अदत ो
जाएगा, उसे कोई इच्छा न र े गी। सारा अनदत भववष्य, सारी अनदत धचिंताएँ इसी
के स्वप्न में लीन ो जाती थी।

उसके रक्षकों को अब उसकी ओर से कोई शिंका न थी। उद ें उसे पर दया आती


थी। रात को प रे पर केवल एक आदमी र जाता था, और लोग मीठन नीिंद सोते
थे। कुँअर भाग सकता ै , इसकी कोई सम्भावना, कोई शिंका न थी। य ाँ तक कक
एक हदन य मसपा ी भी ननश्शिंक ोकर बददक
ू मलए लेट र ा। ननद्रा ककसी
ह स
िं क पशु की भाँनत ताक लगाए बैठन थी। लेटते ी टूट पडी।

कुँअर ने मसपा ी की नाक की आवाज सुनी। उनका हृदय बडे वेग से उछलने
लगा। य अवसर आज ककतने हदनों के बाद ममला था। व उठे , मगर पाँव थर-
थर काँप र े थे। बरामदे के नीचे उतरने का सा स न ो सका। क ीिं इसकी नीिंद
खुल गई तो? ह स
िं ा उनकी स ायता कर सकती थी। मसपा ी की बगल में उसकी
तलवार पडी थी, पर प्रेम का ह स
िं ा से वैर ै । कुँअर ने मसपा ी को जगा हदया।
व चौंककर उठ बैठा। र ा-स ा सिंशय भी उसके हदल से ननकल गया। दस
ू री बार
जो सोया तो खरामटे लेने लगा।

कुँअर का पता न था।

कँु अर इस समय वा के घोडे पर सवार, कल्पना की द्रत


ु गनत से भागा जा र ा
था। उस स्थान को, ज ाँ उसने सुख-स्वपन दे खा था।
ककले के चारों ओर तलाश ु ई, नायक ने सवार दौडाए, पर क ीिं पता न चला।

प ाडी रास्तों का काटना कहठन, उस पर अज्ञातवास की कैद, मत्ृ यु के दत


ू पीछे
लगे ु ए, न्जनसे बचना मुन्श्कल। कुँअर को कामना-तीथम में म ीनों लग गए। जब
यात्रा पूरी ु ई, तो कुँअर में एक कामना के मसवा और कुछ शेष न था। हदन-भर
की कहठन यात्रा के बाद जब व उस स्थान पर प ु ँचे तो सद्या ो गई थी।
व ाँ बस्ती का नाम भी न था। दो-चार टूटे ु ए झोंपडे उस बस्ती के धचह्न-
स्वरप शेष र गए थे। व झोंपडा, न्जसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, न्जसके नीचे
उद ोंने जीवन के सख
ु मय हदन काटे थे, जो उनकी कामनाओिं का आगार और
उपासना का मन्ददर था, अब उनकी अमभलाषाओिं की भाँनत भनन ो गया था।
झोंपडे की भननावस्था मूक भाषा में अपनी करुण-कथा सुना र ी थीिं। कुँअर उसे
दे खते ी 'चददा-चददा' पुकारते ु ए दौडे, उद ोंने उस रज को माथे पर मला, मानो
ककसी दे वता की ववभूनत ो और उसकी टूटी ु ई दीवारों से धचपटकर बडी दे र
तक रोते र े । ाय रे अमभलाषा! व रोने ी के मलए इतनी दरू से आए थे। रोने
की अमभलाषा इतने हदनों से उद ें ववकल कर र ी थी। पर इस रुदन में ककतना
स्वगीय आनदद था। क्या समस्त सिंसार का सुख इन आँसुओिं की तुलना कर
सकता था?

तब व झोंपडे से ननकले। सामने मैदान पर एक वक्ष


ृ रे -भरे नवीन पल्लवों को
गोद में मलए मानो उसका स्वागत करने खडा था। य व पौिा ै , न्जसे आज
से बीस वषम प ले दोनों ने आरोवपत ककया था। कुँअर उदमत की भाँनत दौडे और
जाकर उस वक्ष
ृ से मलपट गए, मानो कोई वपता अपनी मात ृ ीन पुत्र को छाती से
लगाए ु ए ो। य उसी प्रेम की ननशानी ै , उसी अक्षय प्रेम की जो इतने हदनों
के बाद आज इतना ववशाल ो गया ै । कँु अर का हृदय ऐसा ो उठा, मानो इस
वक्ष
ृ को अपने अददर रख लेगा। न्जससे वा का झोंका भी न लगे। उसके एक-
एक पल्लव पर चददा की स्मनृ त बैठन ु ई थी। पक्षक्षयों का इतना रम्य सिंगीत
क्या कभी उद ोंने सुना था? उनके ाथों में दम न था, सारी दे भूख-प्यास और
थकान से मशधथल ो र ी थी। पर, व इस वक्ष
ृ पर चढ़ गए, इतनी फुती से चढ़े
कक बददर भी न चढ़ता। सबसे ऊँची फुनगी पर बैठकर उद ोंने चारों ओर गवमपूणम
दृन्ष्ट डाली। य ी उनकी कामनाओिं का स्वगम था। सारा दृश्य चददामय ो र ा
था। दरू की नीली पवमत-श्रेिणयों पर चददा बैठन गा र ी थी। आकाश में तैरने
वाली लामलमापयी नौकाओिं पर चददा ी उडी जाती थी। सय
ू म की श्वेत-पीत
प्रकाश की रे खाओिं पर चददा ी बैठन ँस र ी थी। कुँअर के मन में आया, पक्षी
ोता तो इद ीिं डामलयों पर बैठा ु आ जीवन के हदन पूरे करता।

जब अँिेरा ो गया तो कँु अर नीचे उतरे और उसी वक्ष


ृ के नीचे थोडी-सी भमू म
झाडकर पन्त्तयों की शय्या बनाई और लेटे। य ी उनके जीवन का स्वगम-स्वप्न
था, आ ! व ी वैरानय! अब व इस वक्ष
ृ को छोडकर क ीिं न जाएँगे, हदल्ली के
तख्त के मलए भी व इस आश्रम को न छोडेगे।

उसी न्स्ननि, अमल चाँदनी में स सा एक पक्षी आकर उस वक्ष


ृ पर बैठा और ददम
से डूबे ु ए स्वर में गाने लगा। ऐसा जान पडा, मानो व वक्ष
ृ मसर िन
ु र ा ै।
व नीरव राबत्र उस वेदनामय सिंगीत से ह ल उठन। कँु अर का हृदय इस तर
ऐिंठने लगा, मानो व फट जाएगा। स्वर में करुणा और ववयोग के तीर-से भरे

ु ए थे। आ पक्षी! तेरा भी जोडा अवश्य बबछुड गया ै । न ीिं तो तेरे राग में
इतनी व्यथा, इतना ववषाद, इतना रुदन क ाँ से आता! कुँअर के हृदय के टुकडे

ु ए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भाँनत हदल को छे द डालता था। व बै ठे न


र सके। उठकर आत्म-ववस्मनृ त की दशा में दौडे ु ए झोपडे में गए, व ाँ से कफर
वक्ष
ृ के नीचे आए। उस पक्षी को कैसे पाएँ। क ीिं हदखाई न ीिं दे ता।
पक्षी का गाना बदद ु आ तो कँु अर को नीिंद आ गई। उद ें स्वप्न में ऐसा जान
पडा कक व ी पक्षी उनके समीप आया। कँु अर ने ्यान से दे खा , तो व पक्षी न
था, चददा थी, ाँ, प्रत्यक्ष चददा थी।

कँु अर ने पछ
ू ा - 'चददा, य पक्षी य ाँ क ाँ?'

चददा ने क ा - 'मैं ी तो व पक्षी ू ँ।'

कुँअर - 'तुम पक्षी ो! क्या तुम् ीिं गा र ी थीिं?'

चददा - ' ाँ वप्रयतम, मैं ी गा र ी थी। इसी तर रोते-रोते एक यग


ु बीत गया।'

कुँअर - 'तुम् ारा घोंसला क ाँ ै ?'

चददा - 'उसी झोपडे में , ज ाँ तुम् ारी खाट थी। उसी खाट के बानों से मैंने अपना
घोंसला बनाया ै ।'

कँु अर - 'और तम्


ु ारा जोडा क ाँ ै ?'

चददा - 'मैं अकेली ू ँ। चददा को अपने वप्रयतम के स्मरण करने में , उसके मलए
रोने में जो सख
ु ै, व जोडे में न ीिं, मैं इसी तर अकेली मरँगी।'

कुँअर - 'मैं क्या पक्षी न ीिं ो सकता।'

चददा चली गई। कुँअर की नीिंद खुल गई। उषा की लामलमा आकाश पर छाई ु ई
थी और व धचडडया कुँअर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठन च क र ी
थी। अब उस सिंगीत में करुणा न थी, ववलाप न था, उसमें आनदद था, चापल्य
था, सारल्य था, व ववयोग का करुण-क्रिंदन न ीिं, ममलन का मिुर सिंगीत था।

कुँअर सोचने लगे - इस स्वप्न का क्या र स्य ै?


कुँअर ने शय्या से उठते ी एक झाडू बनाई और झोंपडे को साफ करने लगे।
उनके जीते जी इसकी य दशा न ीिं र सकती। व इसकी दीवारें उठाएँगे , इस
पर छप्पर डालें गे, इसे लीपें गे। इसमें उनकी चददा की स्मनृ त वास करती ै।
झोंपडे के एक कोने में व काँवर रखी ु ई थी, न्जस पर पानी ला-लाकर व इस
वक्ष
ृ को सीिंचते थे। उद ोंने काँवर उठा ली और पानी लाने चले। दो हदन से
भोजन न ककया था। रात को भूख लगी ु ई थी, पर इस समय भोजन की
बबल्कुल इच्छा न थी। दे में एक अद्भुत स्फूनतम का अनुभव ोता था। उद ोंने
नदी से पानी ला-लाकर ममट्टी मभगोना शुर ककया। दौडे जाते थे और दौडे आते
थे। इतनी शन्क्त उनमें कभी न थी।

एक ी हदन में इतनी दीवार उठ गई थी, न्जतनी चार मजदरू भी न उठा सकते
थे। और ककतनी सीिी, धचकनी दीवार थी कक कारीगर भी दे खकर लन्ज्जत ो
जाता। प्रेम की शन्क्त अपार ै।

सद्या ो गई। धचडडयों ने बसेरा मलया। वक्ष


ृ ों ने भी आँखें बदद की, मगर कुँअर
को आराम क ाँ? तारों के ममलन प्रकाश में ममट्टी के रद्दे रखे जा र े थे। ाय रे
कामना! क्या तू उस बेचारे के प्राण ी लेकर छोडेगी?

वक्ष
ृ पर पक्षी का मिुर स्वर हदखाई हदया कुँअर के ाथ से घडा छुट पडा। ाथ
और पैरों में ममट्टी लपेटकर व वक्ष
ृ के नीचे जाकर बैठ गए। उस स्वर में
ककतना लामलत्य था, ककतना उल्लास, ककतनी ज्योनत। मानव-सिंगीत इसके सामने
बेसरु ा अलाप था। उसमें य जागनृ त, य अमत
ृ ,य जीवन क ाँ? सिंगीत के
आनदद में ववस्मनृ त ै , पर व ववस्मनृ त ककतनी स्मनृ तमय ोती ै , अतीत को
जीवन और प्रकाश से रिं न्जत करके प्रत्यक्ष करने दे ने की शन्क्त सिंगीत के मसवा
और क ाँ ै ? कुँअर के हृदय-नेत्रों के सामने व दृश्य खडा ु आ जब चददा इसी
पौिे को नदी से जल ला-लाकर सीिंचती थी। ाय, क्या वे हदन कफर आ सकते
ै?

स सा एक बटो ी आकर खडा ो गया और कुँअर को दे खकर व ी प्रश्न करने


लगा, जो सािारणतः दो अपररधचत प्रािणयों में ु आ करते ै - कौन ो, क ाँ से
आते ो, क ाँ जाओगे? प ले व भी इसी गाँव में र ता था, पर जब गाँव उजड
गया तो समीप के एक दस
ू रे गाँव में जा बसा था। अब भी उसके खेत य ाँ थे।
रात को जिंगली पशुओिं से अपने खेतों की रक्षा के करने के मलए व आकर रोता
था।

कुँअर ने पूछा -'तुम् ें मालूम ै , इस गाँव में एक कुवेरमसिं ठाकुर र ते थे?'

ककसान ने बडी उत्सक


ु ता से क ा - ' ाँ- ाँ भाई, जानता क्यों न ीिं! बेचारे य ीिं तो
मारे गए। तम
ु से भी क्या जान प चान थी?'

कुँअर - ' ाँ, उन हदनों कभी-कभी आया करता था। मैं भी राजा की से वा में
नौकर था। उनके घर में और कौन था?'

ककसान - 'अरे भाई, कुछ न पूछो, बडी करुण-कथा ै । उनकी स्त्री तो प ले ी


मर चूकी थी। केवल लडकी बच र ी थी। आ ! कैसी सुशील, कैसी सुघड लडकी
थी। उसे दे खकर आँखों में ज्योनत आ जाती थी। बबल्कुल स्वगम की दे वी जान
पडती थी। जब कुवेरमसिं जीता था, तभी कँु अर राजनाथ य ाँ भागकर आए थे
और उसके य ाँ र े थे। उस लडकी की कुँअर से क ीिं बातचीत ो गई। जब
कुँअर को शत्रुओिं ने पकड मलया, तो चददा घर में अकेली र गई। गाँव वालों ने
ब ु त चा ा कक उसका वववा ो जाए। उसके मलए वरों का तोडा न था भाई।
ऐसा कौन था, जो उसे पाकर अपने को िदय न मानता, पर व ककसी से वववा
करने पर राजी न ु ई। य पेड, जो तम
ु दे ख र े ो, तब छोटा-सा पौिा था।
इसके आस-पास फूलों की कई और क्याररयाँ थीिं। इद ीिं को गोडने, ननराने, सीिंचने
में उसका हदन कटता था। बस, य ी क ती थी कक मारे कुँअर आते ोंगे।'
कुँअर की आँखों से आँसूओिं की वषाम ोने लगी। मुसाकफर ने जरा दम लेकर क ा
- 'हदन-हदन घुलती जाती थी। तुम् ें ववश्वास न आएगा भाई, उसने दस साल इसी
तर काट हदए। इतनी दब
ु ल
म ो गई थी कक प चानी न जाती थी, पर अब भी
उसे कँु अर सा ब के आने की आशा बनी ु ई थी। आिखर एक हदन इस वक्ष
ृ के
नीचे उसकी लाश ममली। ऐसा प्रेम कौन करे गा भाई। कँु अर न जाने मरे कक
न्जए, कभी उद ें इस ववरह णी कक याद आ भी जाती ै कक न ीिं , पर इसने तो
प्रेम को ऐसा ननभाया जैसा चाह ए।'

कँु अर को ऐसा जान पडा, मानो हृदय फटा जा र ा ै। व कलेजा थामकर बैठ
गए।

मस
ु ाकफर के ाथ में एक सल
ु गत ु आ उपला था। उसने धचलम भरी और दो-चार
दम लगाकर बोला - 'उसके मरने के बाद य घर धगर गया। गाँव प ले ी
उजाड था। अब तो और भी सन
ु सान ो गया। दो-चार आदमी य ाँ आ बैठते
थे। अब तो धचडडया का पूत भी य ाँ न ीिं आता।

'उसके मरने के कई म ीनें के बाद य ी धचडडया इस पेड पर बोलती ु ई सन


ु ाई
दी। तब से बराबर इसे य ाँ बोलते सुनता ू ँ। रात को सभी धचडडया सो जाती ै,
पर य रात-भर बोलती र ती ै । इसका जोडा कभी न ीिं हदखाई हदया। बस,
फुट्टै ल ै । हदन-भर उसी झोपडे में पडी र ती ै । रात को इस पेड पर आकर
बैठती ै , मगर इस समय इसके गाने में कुछ और ी बात ै , न ीिं तो सुनकर
रोना आता ै । ऐसा जान पडता ै , मानो कोई कलेजे को मसोस र ा ै । मैं तो
कभी-कभी पडे-पडे रो हदया करता ू ँ। सब लोग क ते ै कक य व ीिं चददा ै।
अब भी कुँअर के ववयोग में ववलाप कर र ी ै । मुझे भी ऐसा जान पडता ै।
आज न जाने क्यों मनन ै ?'

ककसान तम्बाकू पीकर सो गया। कँु अर कुछ दे र तक खोए ु ए से खडे र े । कफर


िीरे से बोले - 'चददा, क्या तुम सचमुत तुम् ीिं ो, मेरे पास क्यों न ीिं आती?'
एक क्षण में धचडडया आकर उनके ाथ पर बैठ गई। चदद्रमा के प्रकाश में कुँअर
ने धचडडया को दे खा। ऐसा जान पडा, मानो उसकी आँखें खुल गई ो, मानो आँखों
के सामने कोई आवरण ट गया ो। पक्षी के रप में भी चददा की मुखाकृनत
अिंककत थी।

दस
ू रे हदन ककसान सोकर उठा तो कुँअर की लाश पडी ु ई थी।

कुँअर अब न ीिं ैं, ककदतु उनके झोंपडे की दीवारें बन गई ै , ऊपर फूस का नया
छप्पर पड गया ै और झोंपडे के द्वार पर फूलों की कई क्याररयाँ लगी ै । गाँव
के ककसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे ?

उस झोंपडे में अब पक्षक्षयों के एक जोडे ने अपना घोंसला बनाया ै । दोनों साथ-


साथ दाने-चारे की खोज में जाते ै , साथ-साथ आते ै , रात को दोनों उसी वक्ष

की डाल पर बैठे हदखाई दे ते ै । उनका सरु म्य सिंगीत रात की नीरवता में दरू
तक सुनाई दे ता ै । वन के जीव-जदतु व स्वगीय गान सुनकर मुनि ो जाते
ै।

य पक्षक्षयों का जोडा कँु अर और चददा को जोडा ै , इसमें ककसी को सददे न ीिं


ै।

एक बार एक व्याि ने इन पक्षक्षयों को फँसाना चा ा, पर गाँव वालों ने उसे


मारकर भगा हदया।

***
सती

दो शताब्दी से अधिक बीत गए ै , पर धचिंतादे वी का नाम चला आता ै।


बुिंदेलखड के एक बी ड स्थान में आज भी मिंगलवार को स स्रों स्त्री-पुरुष
धचिंतादे वी की पूजा करने आते ै । उस हदन य ननजमन स्थान सु ाने गीतों में
गँज
ू उठता ै , टीले और टोकरे रमिणयों के रिं ग-बबरिं गे वस्त्रों से सश
ु ोमभत ो जाते
ै । दे वी का मन्ददर एक ब ु त ऊँचे टीले पर बना ु आ ै । उसके कलश पर
ल राती ु ई लाल पताका ब ु त दरू से हदखाई दे ती ै । मन्ददर इतना छोटा ै कक
उसमें मुन्श्कल से एक साथ दो आदमी समा सकते ै । भीतर कोई प्रनतमा न ीिं
ै , केवल एक छोटी-सी वेदी बनी ु ई ै । नीचे से मन्ददर तक पत्थर का जीना ै।
भीड-भाड से िक्का खाकर कोई नीचे न धगर पडे, इसमलए जीने की दीवार दोनों
तरफ से बनी ु ई ै । य ीिं धचिंतादे वी सती ु ई थी, पर लोकरीनत के अनस
ु ार व
अपने मत
ृ -पनत के साथ धचता पर न ीिं बैठन थी। उसका पनत ाथ जोडे सामने
खडा था, पर व उसकी ओर आँख उठाकर भी न दे खती थी। व पनत-शरीर के
साथ न ीिं, उसकी आत्मा के साथ सती ु ई। उस धचता पर पनत का शरीर न थीिं,
उसकी मयामदा भस्सीभूत ो र ी थी।

युमना तट पर कालपी एक छोटा-सा नगर ै । धचिंता उसी नगर के एक वीर


बुिंदेल की कदया थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ी परलोक मसिार गई
थी। उसके पालन-पोषण का भार वपता पर पडा। सिंग्राम का समय था, योद्धाओिं
को कमर खोलने की भी फुसमत न ममलती थी, वे घोडे की पीठ पर भोजन करते
और उसी पर बैठे-बैठे झपककयाँ ले लेते थे। धचिंता का बाल्यकाल वपता के साथ
समरभमू म में कटा। बाप उसे ककसी खो में या वक्ष
ृ की आड में नछपाकर मैदान
में चला जाता। धचिंता ननश्शिंक भाव से बैठन ु ई ममट्टी के ककले बनाती और
बबगाडती। उसके घरौंदे थे, उसकी गुडडया ओढ़नी न ओढ़ती थीिं। व मसपाह यों के
गुड्डे बनाती और उद ें रण-क्षेत्र में खडा करती थी। कभी-कभी उसका वपता
सद्या समय भी न लौटता, पर धचिंता को भय छू तक न गया था। ननजमन
स्थान पर भख
ू ी-प्यासी रात-रात-भर बैठन र जाती। उसने नेवले और मसयार की
क ाननयाँ कभी न सन
ु ी थी। वीरों के आत्मोत्सगम की क ाननयाँ, और व भी
योद्धाओिं के मँु से सन
ु -सन
ु कर व आदशमवाहदनी बन गई थी।

एक बार तीन हदन तक धचिंता को अपने वपता की खबर न ममली। व एक


प ाडी की खो में बैठन मन- ी-मन एक ऐसा ककला बना र ी थी, न्जसे शत्रु न
जान सके। हदन भर व उसी ककले का नक्शा सोचती और रात को उसी ककले
का स्वप्न दे खती। तीसरे हदन सद्या समय उसके वपता के साधथयों ने आकर
उसके सामने रोना शुर ककया। धचिंता ने ववन्स्मत ोकर पूछा - 'दादाजी क ाँ ै?
तुम लोग क्यो?'

ककसी ने इसका उत्तर न हदया। वे जोर से िाडे मार-मारकर रोने लगे। धचिंता
समझ गई कक उसके वपता ने वीरगनत पाई। उस तेर वषम की बामलका की
आँखों से आँसू की एक बँद
ू भी न धगरी, मुख जरा भी ममलन न ु आ, एक आ
भी न ननकली। ँसकर बोली - 'वीरगनत पाई तो तुम लोग रोते क्यों ो? योद्धाओिं
के मलए इससे बढ़कर और कौन मत्ृ यु ो सकती ै ? इससे बढ़कर उनकी वीरता
का और क्या परु स्कार ममल सकता ै? य रोने का न ीिं, आनदद मनाने का
अवसर ै ।'

एक मसपा ी ने धचिंनतत स्वर में क ा - ' में तम्


ु ारी धचिंता ै । तम
ु अब क ाँ
र ोगी?'

धचिंतादे वी ने गम्भीरता से क ा - 'इसकी तुम कुछ धचिंता न करो दादा। मैं अपने
बाप की बेटी ू ँ। जो कुछ उद ोंने ककया, व ी मैं भी करँगी। अपनी मातभ
ृ मू म को
शुत्रओिं के पिंजे से छुटाने में उद ोंने प्राण दे हदए। मेरे सामने भी व ी आदशम ै।
जाकर अपने आदममयों को सम्भामलए। मेरे मलए एक घोडा और धथयारों का
प्रबदि कर दीन्जए। ईश्वर ने चा ा तो आप लोग मुझे ककसी से पीछे न पाएँगे,
लेककन यहद मुझे टते दे खना तो तलवार से एक ाथ से इस जीवन का अदत
कर दे ना। य ी मेरी आपसे ववनय ै । जाइए अब ववलम्ब न कीन्जए।'
मसपाह यों को धचिंता के ये वीर-वचन सन
ु कर कुछ भी आश्चयम न ीिं ु आ। ाँ, उद ें
य सददे अवश्य ु आ कक क्या कोमल बामलका अपने सिंकल्प पर दृढ़ र
सकेगी?

पाँच वषम बीत गए। समस्त प्रादत में धचिंतादे वी की िाक बैठ गई। शत्रओ
ु िं के कद
उखड गए। व ववजय की सजीव मनू तम थी, उसे तीरों और गोमलयों के सामने
ननश्शिंक खडे दे खकर मसपाह यों को उत्तेजना ममलती र ती थी। उसके सामने वे
कैसे कदम पीछे टाते? कोमलािंगी युवती आगे बढ़े तो कौन पुरुष पीछे टे गा!
सुददररयों के सम्मुख योद्धाओिं की वीरता अजेय ो जाती ै । रमणी के वचन-
बाण योद्धाओिं के मलए आत्म-समपमण के गुप्त सददे श ै । उसकी एक धचतवन
कायरों में भी परु
ु षत्व प्रवाह त कर दे ती ै । धचदता की छवव-कीनतम ने मनचले
सरू माओिं को चारों और से खीिंच-खीिंचकर उसकी सेना को सजा हदया, जान पर
खेलने वाले भौंरे चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मिंडराने लगे।

इद ीिं योद्धाओिं में रत्नमसिं नाम का एक यव


ु क राजपत
ू भी था।

यों तो धचदता के सैननकों में भी सभी तलवार के िनी थे, बात पर जान दे ने
वाले, उसके इशारे पर आग में कूदने वाले, उसकी आशा पाकर एक बार आकाश
के तारे तोड लाने को भी चल पडते, ककदतु रत्नमसिं सबसे बढ़ा ु आ था। धचदता
भी हृदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नमसिं अदय वीरों की भाँनत अक्खड, मँु फट
या घमिंडी न था। और लोग अपनी-अपनी कीनतम को बढ़ा-बढ़ाकर बयान करते,
आत्म-प्रशिंसा करते ु ए उनकी जबान न रकती थी। वे जो कुछ करते, धचदता को
हदखाने के मलए। उनका ्येय अपना कतमव्य न था, धचदता थी। रत्ऩमसिं जो कुछ
करता, शादत भाव से। अपनी प्रशिंसा करना तो दरू , व चा े तो कोई शेर ी क्यों
न मार आए, उसकी चचाम तक न करता। उसकी ववनयशीलता और नम्रता, सिंकोच
की सीमा से मभड गई थी। औरों के प्रेम में ववलास था, पर रत्नमसिं के प्रेम में
त्याग और तप। और लोग मीठन नीिंद सोते थे, पर रत्नमसिं तारे धगन-धगनकर
रात काटता था और सब अपने हदल में समझते थे कक धचदता मेरी ोगी। केवल
रत्नमसिं ननराश था, और इसमलए उसे ककसी से न द्वेष था, न राग। औरों को
धचदता के सामने च कते दे खकर उसे उसकी वाकपटुता पर आश्चयम ोता,
प्रनतक्षण उसका ननराशादिकार और भी घना ो जाता था। कभी-कभी व अपने
बोदे पन पर झँुझला उठता। क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से विंधचत र ा, जो
रमिणयों के धचत्त को मोह त करते ै ? उसे कौन पूछेगा? उसकी मनोदशा कौन
जानता ै ? पर व मन में झँुझलाकर र जाता था। हदखावे की उसकी सामथ्यम
ी न थी।

आिी से अधिक रात बीत गई थी। धचिंता अपने खेमें में ववश्राम कर र ी थी।
सैननकगण भी कडी मिंन्जल मारने के बाद कुछ खा-पीकर गाकफल पडे ु ए थे।
आगे एक घना जिंगल था। जिंगल के उस पार शत्रुओिं का एक दल डेरा डाले पडा
था। धचदता उसके आने की खबर पाकर भागी-भागी चली र ी थी। उसने
प्रातःकाल शत्रुओिं पर िावा करने का ननश्चय कर मलया था। उसे ववश्वास था कक
शत्रओ
ु िं को मेरे आने की खबर न ोगी, ककदतु य उसका भ्रम था। उसी की सेना
का एक आदमी शत्रओ
ु िं से ममला ु आ था। य ाँ की खबरें व ाँ ननत्य प ु ँ चती
र ती थी। उद ोंने धचदता से ननन्श्चिंत ोने के एक षड्यदत्र रच रखा था। उसी
गुप्त त्या के मलए तीन सा सी मसपाह यों को ननयुक्त कर हदया था। वे तीनों
ह स्र
िं पशुओिं की भाँनत दबे पाँव जिंगल को पार करके आए और वक्ष
ृ ों की आड में
खडे ोकर सोचने लगे कक धचदता का खेमा कौन-सा ै ? सारी सेना बे-खबर सो
र ी थी, इससे उद ें अपने कायम की मसवद्ध में लेशमात्र सददे न था। वे वक्ष
ृ ों की
आड से ननकले और जमीन पर मगर की तर रें गते ु ए धचदता के खेम की ओर
चले।

सारी सेना बेखबर सो र ी थी, प रे के मसपा ी थककर चरू ो जाने के कारण


ननद्रा में मनन ो गए थे। केवल एक प्राणी खेमें के पीछे मारे ठिं ड के मसकुडा

ु आ बैठा था। य ी रत्नमसिं था। आज उसने य कोई नयी बात न की थी।


पडावों में उसकी रातें इसी भाँनत धचदता के खेमें के पीछे बैठे -बैठे कटती थीिं।
घातकों की आ ट पाकर उसने तलवार ननकाल ली और चौंककर उठ खडा ु आ।
दे खा - तीन आदमी झक
ु े ु ए चले आ र े ै । अब क्या करें ? अगर शोर मचाता
ै तो सेना में खलबली पड जाए, और अँिरे मिं लोग एक-दस
ू रे पर वार करके
आपस में ी कट मरें । इिर अकेले तीन जवानों से मभडने में प्राणों का भय था।
अधिक सोचने का मौका न था। उसमें योद्धाओिं की अववलम्ब ननश्चय कर लेने
की शन्क्त थी, तुरदत तलवार खीिंच ली और उन तीनों पर टूट पडा। कई ममनटों
तक तलवारें छपाछप चलती र ीिं। कफर सदनाटा छा गया। उिर वे तीनों आ त
ोकर धगर पडे, इिर य भी जख्मों से चरू ोकर अचेत ो गया।

प्रातःकाल धचदता उठन, तो चारों जवानों को भूमम पर पडे पाया। उसका कलेजा
िक से ो गया। समीप जाकर दे खा - तीनों आक्रमणकाररयों के प्राण ननकल
चक
ु े थे, पर रत्नमसिं की साँस चल र ी थी। सारी घटना समझ में आ गई।
नारीत्व ने वीरत्व पर ववजय पाई। न्जन आँखों से वपता की मत्ृ यु पर आँसू की
एक बँद
ू भी न धगरी थी, उद ीिं आँखों से आँसुओिं की झडी लग गई। उसने
रत्नमसिं का मसर अपनी जाँि पर रख मलया और हृदयािंगण में रचे ु ए स्वयिंवर
में उसके गले में जयमाल डाल दी।

म ीने-भर न रत्नमसिं की आँखें खल


ु ी और न धचदता की आँखें बदद ु ईं। धचदता
उसके पास से एक क्षण के मलए भी न जाती। न अपने इलाके की परवा थी, न
शत्रुओिं के बढ़ते चले आने की कफक्र। रत्नमसिं की आँखें खुली। दे खा - चारपाई
पडी ु ई ै , और धचदता सामने पिंखा मलए खडी ै । क्षीण स्वर में बोला - 'धचदता,
पिंखा मुझे दे दो, तुम् ें कष्ट ो र ा ै ।'

धचदता का हृदय इस समय स्वगम के अखिंड, अपार सुख का अनुभव कर र ा था।


एक म ीना प ले न्जस जीणम शरीर के मसर ाने बैठन ु ई व नैराश्य से रोया
करती थी, उसे आज बोलते दे खकर आह्दाद का पारावा न था। उसने स्ने -मिुर
स्वर में क ा - 'प्राणनाथ, यहद य कष्ट ै तो सुख क्या ै , मैं न ीिं जानती।'
प्राणनाथ - इस सम्बोिन में ववलक्षण मिंत्र की-सी शन्क्त थी। रत्नमसिं की आँखें
चमक उठनिं। जीणम मद्र
ु ा प्रदीप्त ो गई, नसों में एक नए जीवन का सिंचार ो
उठा, और व जीवन ककतना स्फूनतममय था, उसमें ककतना मािुयम, ककतना उल्लास
और ककतनी करुणा थी! रत्नमसिं के अिंग-अिंग फडकने लगे। उसे अपनी भुजाओिं
में आलौककक पराक्रम का अनभ
ु व ोने लगा। ऐसा जान पडा, मानो व सारे
सिंसार को सर कर सकता ै , उडकर आकाश पर प ु ँच सकता ै , पवमतों को चीर
सकता ै । एक क्षण के मलए उसे ऐसी तन्ृ प्त ु ई, मानो उसकी सारी
अमभलाषाएँ परू ी ो गई ै , और व उसे ककसी से कुछ न ीिं चा ता, शायद मशव
को सामने खडे दे खकर भी व मँु फेर लेगा, कोई वरदान न माँगेगा। उसे अब
ककसी ऋवद्ध की, ककसी पदाथम की इच्छा न थी। उसे गवम ो र ा था, मानो उससे
अधिक सुखी, उससे अधिक भानयशाली पुरुष सिंसार में और कोई न ोगा।

रत्नमसिं ने उठने की चेष्टा करते ु ए क ा - 'बबना तप के मसवद्ध न ीिं ममलती।'

धचदता अभी अपना वाक्य परू ा भी न कर पाई थीिं कक उसी प्रसिंग में बोली - ' ाँ,
आपको मेरे कारण अलबत्ता दस्
ु स यातना भोगनी पडी।'

धचदता ने रत्नमसिं को कोमल ाथों से मलटाते ु ए क ा - 'इस मसवद्ध के मलए


तम
ु ने तपस्या न ीिं की थी। झठ
ू क्यों बोलते ो? तम
ु केवल एक अबला की रक्षा
कर र े थे। यहद मेरी जग कोई दस
ू री स्त्री ोती तो भी तम
ु इतने ी प्राणपण
से उसकी रक्षा करते। मुझे इसका ववश्वास ै । मैं तुमसे सत्य क ती ू ँ , मैंने
आजीवन ब्रह्मचाररणी र ने का प्रण मलया था, लेककन तुम् ारे आत्मोत्सगम ने मेरे
प्रण को तोड डाला। मेरा पालन योद्धाओिं की गोद में ुआ ै , मेरा हृदय उसी पुरुष
मसिं के चरणों पर अपमण ो सकता ै , जो प्राणों की बाजी खेल सकता ो।
रमसकों का ास-ववलास, गिंड
ु ों के रप-रिं ग और फेकैतों से दाव-घात का मेरी दृन्ष्ट
में रत्ती-भर भी मूल्य न ीिं। उसनी नट-ववद्या को मैं केवल तमाशे की तर
दे खती ू ँ। तुम् ारे हृदय में मैंने सच्चा उत्सगम पाया और तुम् ारी दासी ो गई।
आज से न ीिं, ब ु त हदनों से।'
प्रणय की प ली रात थी। चारों ओर सदनाटा था। केवल दोनों प्रेममयों के हृदयों
में अमभलाषाएँ ल रा र ी थीिं। चारों ओर अनरु ागमयी चाँदनी नछटकी ु ई थी, औऱ
उसकी ास्यमयी छटा में वर-विू प्रेमालाप कर र े थे।

स सा खबर आई कक शत्रओ
ु िं की एक सेना ककले की ओर बढ़ी चली आती ै।
धचदता चौंक पडी, रत्नमसिं खडा ो गया और खट
ूँ ी से लटकती ू ई तलवार उतार
ली।

धचदता ने उसकी ओर कातर-स्ने की दृन्ष्ट से दे खकर क ा - 'कुछ आदममयों


को उिर भेज दो। तम्
ु ारे जाने की क्या जररत ै ?'

रत्नमसिं ने बददक
ू कदिे पर रखते ु ए क ा - 'मुझे भय ै कक अबकी वे लोग
बडी सख्या में आ र े ै।'

धचदता - 'तो मैं भी चलँ ग


ू ी।'

'न ीिं, मुझे आशा ै , वे लोग ठ र न सकेंगे। मैं एक ी िावे में उनके कदम
उखाड दँ ग
ू ा। य ईश्वर की इच्छा ै कक मारी प्रणय-रानत ववजय-राबत्र ो।'

'न-जाने क्यों मन कातर ो र ा ै । जाने दे ने को जी न ीिं चा ता।'

रत्नमसिं ने इस सरल, अनुरक्त आग्र से ववह्वल ोकर धचदता को गले लगा


मलया और बोले - 'मैं सवेरे तक लौट आऊँगा, वप्रये।'

धचदता पनत के गले में ाथ डालकर आँखों में आँसू भरे ु ए बोली - 'मुझे भय
ै , तुम हदनों में लौटोगे। मेरा मन तुम् ारे साथ र े गा। जाओ, पर रोज खबर
भेजते र ना। तम्
ु ारे पैरों पडती ु ँ, अवसर का ववचार करके िावा करना। तम्
ु ारी
आदत ै कक शत्रु को दे खते ी आकुल ो जाते ो और जान पर खेलकर टूट
पडते ो। तम
ु से मेरा य ी अनुरोि ै कक अवसर दे खकर काम करना। जाओ
न्जस तर पीठ हदखाते ो, उसी तर मँु हदखाओ।'

धचदता का हृदय कातर ो र ा था। व ाँ प ले केवल ववजय-लालसा का


आधिपत्य था, अब भोग-ववलास की प्रिानता थी। व ी वीर बाला, जो मसिं नी की
तर गरजकर शत्रओ
ु िं के कलेजे को कँपा दे ती थी, आज इतनी दब
ु ल
म ो र ी थी
कक जब रत्नमसिं घोडे पर सवार ु आ तो आप उसकी कुशल-कामना से मन- ी-
मन दे वी की मनौनतयाँ कर र ी थी। जब तक व वक्ष
ृ ों की ओट में नछप न
गया, व खडी दे खती र ी, कफर व ककले के सबसे ऊँचे बुजम पर चढ़ गई, और
घदटों उसी तरफ ताकती र ी। व ाँ शूदय था, प ाडडयों ने कभी का रत्नमसिं को
अपनी ओट में नछपा मलया था, पर धचदता को ऐसा जान पडा था कक व सामने
चले जा र े ै । जब ऊषा की लोह त छवव वक्ष
ृ ों की आड से झाँकने लगी तो
उसकी मो ववस्मनृ त टूट गई, मालूम ु आ, चारों तरफ शूदय ै। व रोती ु ई बुजम
से उतरी और शय्या पर मँु ढाँपकर रोने लगी।

रत्नमसिं के साथ मुन्श्कल से सौ आदमी थे, ककदतु सभी मिंजे ु ए, अवसर और


सिंख्या को तुच्छ समझने वाले, अपनी जान के दश्ु मन। वीरोल्लास से भरे ु ए,
एक वीर-रस-पण
ू म पद गाते ु ए, घोडो को बढ़ाए चले जाते थे -

बाँकी तेरी पाग मसपा ी, इसकी रखना लाज।


तेग-तेवर कुछ काम न आए, बख्तर-ढाल व्यथम ो जावे।
रिखयो मन में लाग मसपा ी, बाँकी तेरी पाग।
इसकी रखना लाज मसपा ी, इसकी रखना लाज॥
प ाडडयाँ इन वीर-स्वरों से गँज
ू र ी थीिं। घोडों की टाप ताल दे र ीथी। य ाँ तक
कक रात बीत गई, सय
ू म ने लाल आँखें खोल दी और इन वीरों पर अपनी स्वणम-
छटा की वषाम करने लगा।

व ी रक्तमय प्रकाश में शत्रओ


ु िं की सेना एक प ाडी पर पडाव डाले ए नजर
आई।

रत्नमसिं मसर झुकाए, ववयोग-व्यधथत हृदय को दबाए, मदद गनत से पीछे -पीछे
चला जाता था। कदम आगे बढ़ता था, पर मन पीछे टता। आज जीवन में
प ली बार दन्ु श्चिंताओिं ने उसे आशिंककत कर रखा था। कौन जानता ै , लडाई का
अदत क्या ोगा? न्जस स्वगम-सुख को छोडकर व आया था, उसकी स्मनृ तयाँ र -
र कर उसके हृदय को मसोस र ी थीिं , धचिंता की सजल आँखें याद आती थीिं और
जी चा ता था, घोडे की रास पीछे मोड दें । प्रनतक्षण रणोत्सा क्षीण ोता जाता
था।

स सा एक सरदार ने समीप आकर क ा - 'भैया, य दे खो, ऊँची प ाडी पर शत्रु


डेरा डाले पडे ै । तुम् ारी क्या राय ै ? मारी तो य इच्छा ै कक तुरदत उन
पर िावा कर दें । गाकफल पडे ु ए ै , भाग खडे ोंगे। दे र करने से वे भी सम्भल
जाएँगे और तब मामला और नाजक
ु ो जाएगा। एक जार से कम न ोंगे।'

रत्नमसिं ने धचिंनतत नेत्रों से शत्रु-दल की ओर दे खकर क ा - ' ाँ, मालूम तो ोता


ै ।'

मसपा ी - 'तो िावा कर हदया जाए न?'

रत्नमसिं - 'जैसी तम्


ु ारी इच्छा, सिंख्या अधिक ै, य सोच लो।'

मसपा ी - 'इसकी परवा न ीिं। म इससे बडी सेनाओिं को परास्त कर चुके ै ।'

रत्नमसिं - 'य सच ै , पर आग में कूदना ठनक न ीिं।'


मसपा ी - 'भैया, तुम क ते क्या ो? मसपा ी का तो जीवन ी आग में कूदने के
मलए ै । तुम् ारे ु क्म की दे र ै , कफर मारा जीवट दे खना।'

रत्नमसिं - 'अभी म लोग ब ु त थके ु ए ै । जरा ववश्राम कर लेना अच्छा ै ।'

मसपा ी - 'न ीिं भैया, उन सबको मारी आ ट ममल गई तो गजब ो जाएगा।'

रत्नमसिं - 'तो कफर िावा ी कर दो।'

एक क्षण में योद्धाओिं ने घोडो की बागें उठा ली, और अस्त्र सम्भाले ु ए शत्रु सेना
पर लपके, ककदतु प ाडडयों पर प ु ँचते ी इन लोगों ने उसके ववषय में जो
अनुमान ककया था, व ममथ्या था। व सजग ी न थे, स्वयिं ककले पर िावा
करने की तैयाररयाँ भी कर र े थे। इन लोगों ने जब उद ें सामने आते दे खा तो
समझ गए कक भल
ू ु ई, लेककन अब सामना करने के मसवा चारा ी क्या था।
कफर भी वे ननराश न थे। रत्नमसिं जैसे कुशल योद्धा के साथ उद ें कोई शिंका न
थी। व इससे भी कहठन अवसरों पर अपने रण-कौशल से ववजय-लाभ कर चुका
था। क्या आज व अपना जौ र न हदखाएगा? सारी आँखें रत्नमसिं को खोज र ी
थीिं, पर उसका व ाँ क ीिं पता न था। क ाँ चला गया? य कोई न जानता था।

पर व क ीिं न ीिं जा सकता। अपने साधथयों को इस कहठन अवस्था में छोडकर


व क ीिं न ीिं जा सकता, सम्भव न ीिं। अवश्य ी व य ीिं ै , और ारी ु ई बाजी
को न्जताने की कोई युन्क्त सोच र ा ै।

एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ प ु ँच।े इतनी ब ु सिंख्यक सेना के सामने ये
मुिी-भर आदमी क्या कर सकते थे। चारों ओर से रत्नमसिं की पुकार ोने लगी
- 'भैया, तुम क ाँ ो? में क्या ु क्म दे ते ो? दे खते ो, व लोग सामने आ
प ु ँचे, पर तुम अभी मौन खडे ो। सामने आकर में मागम हदखाओ, मारा उत्सा
बढ़ाओ।'
पर अब भी रत्नमसिं न हदखाई हदया। य ाँ तक कक शत्रु-दल मसर पर आ प ु ँचा
और दोनों दलों में तलवारें चलने लगी। बिंद
ु े लों के प्राण थेली पर लेकर लडना
शुर ककया, पर एक को एक ब ु त ोता ै , एक और दस का मुकाबला ी क्या?
य लडाई न थी, प्राणों का जआ
ु था। बुिंदेलों में ननराशा का अलौककक बल था।
खूब लडे, पर क्या मजाल कक कदम पीछे टें । उनमें अब जरा भी सिंगठन न था।
न्जससे न्जतना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अदत क्या ोगा, इसकी कोई धचदता न
थी। कोई तो शत्रओ
ु िं के सफें चीरता ु आ सेनापनत के समीप प ु ँच गया, कोई
उनके ाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते मारा गया। उनका अमानवु षक सा स
दे खकर शत्रुओिं के मँु से वा -वा ननकलती थी, लेककन ऐसे योद्धाओिं ने नाम
पाया ै , ववजय न ीिं पाई। एक घदटे में रिं गमिंच का पदाम धगर गया, तमाशा खत्म
ो गया। एक आँिी थी, जो आई और वक्ष
ृ ों को उखाडती ु ई चली गई। सिंगहठत
र कर ये मुिी-भर आदमी दश्ु मनों के दाँत खट्टे कर दे त,े पर न्जस पर सिंगठन का
भार था, उसका क ीिं पता न था। ववजयी मरा ठों ने एक-एक लाश ्यान से
दे खी। रत्नमसिं उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उसी पर उनके दाँत लगे
थे। रत्नमसिं के जीते-जी उद ें नीिंद न आती थी। लोगों ने प ाडी की एक-एक
चट्टान का मिंथन कर डाला, पर रत्नमसिं न ाथ आया। ववजय ु ई, पर अिूरी।

धचदता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँनत-भाँनत की शिंकाएँ उठ र ी थीिं। व


कभी इतनी दब
ु ल
म न थी। बुिंदेलों की ार ी क्यों ोगी, इसका कोई कारण तो व
न बता सकती थी, पर य भावना उसके ववकल हृदय से ककसी तर न ननकलती
थी। उस अभाधगन के भानय में प्रेम का सुख भोगना मलखा ोता, तो क्या बचपन
में माँ मर जाती, वपता के साथ वन-वन घूमना पडता, खो ों और किंदराओिं में
र ना पडता। और व आश्रम भी तो ब ु त हदन न र ा। वपता भी मँु मोडकर
चल हदए। तब से उसे एक हदन भी तो आराम से बैठना नसीब न ु आ। वविाता
क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड दे गा? आ ! उसके दब
ु ल
म हृदय में इस समय
एक ववधचत्र भावना उत्पदन ु ई - ईश्वर उसके वप्रयतम को आज सकुशल लाए
तो व उसे लेकर ककसी दरू गाँव में जा बसेगी। पनतदे व की सेवा और आरािना
में जीवन सफल करे गी। इस सिंग्राम से सदा के मलए मँु मोड लेगी। आज प ली
बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत ु आ।

सद्या ो गई थी, सय
ू म भगवान ककसी ारे ु ए मसपा ी की भाँनत मस्तक झक
ु ाते

ु ए कोई आड खोज र े थे। स सा एक मसपा ी निंगे मसर, पाँव, ननरस्त्र उसके


सामने आकर खडा ो गया। धचदता पर व्रजपात ो गया। एक क्षण तक
ममाम त-सी बैठन र ी। कफर उठकर घबराई ु ई सैननक के पास आई और आतुर
स्वर में पूछा - 'कौन-कौन बचा?'

सैननक ने क ा - 'कोई न ीिं।'

'कोई न ीिं? कोई न ीिं?'

धचदता मसर पकडकर भूमम पर बैठ गई। सैननक ने कफर क ा - 'मरा ठे समीप
आ प ु ँच।े '

'समीप आ प ु ँच?े '

ब ु त समीप।'

'तो तुरदत धचता तैयार करो। समय न ीिं ै ।'

'अभी म लोग तो मसर कटाने को ान्जर ी ै।'

'तम्
ु ारी जैसी इच्छा। मेरे कतमव्य का तो य ी अदत ै ।'

'ककला बदद करके म म ीनों लड सकते ै ।'

'तो जाकर लडो। मेरी लडाई अब ककसी से न ीिं।'


एक ओर अदिकार, प्रकाश को पैरों-तले कुचलता चला आता था, दस
ू री ओर
ववजयी मरा ठे ल राते ु ए खेतों। और ककलें में धचता बन र ी थी। ज्यों ी
दीपक जले, धचता में भी आग लगी। सती धचदता सोल ों शिंग
ृ ार ककए, अनुपम
छवव हदखाती ु ई, प्रसदन-मुख अन्नन-मागम से पनतलोक की यात्रा करने जा र ी
थी।

धचता के चारों ओर स्त्री और पुरुष एकबत्रत थे। शत्रुओिं ने ककले को घेर मलया ै
इसकी ककसी के कफक्र न थी। शोक और सदतोष से सबके च े रे उदास और मसर
झुके ु ए थे। अभी कल इसी आँगन में वववा का मिंडप सजाया गया था। ज ाँ
इस समय धचता सुलग र ी ै , व ीिं वन-किंु ड थी। कल भी इसी भाँनत अन्नन की
लपटें उठ र ी थी, इसी भाँनत लोग जमा थे, पर आज और कल के दृश्यों में
ककतना अदतर ै। ाँ, स्थल
ू नेत्रों के मलए अदतर ो सकता ै , पर वास्तव में य
उसी यज्ञ की पूणाम ू नत ै , उसी प्रनतज्ञा का पालन ै।

स सा घोडे की टापों की आवाजें सन


ु ाई दे ने लगीिं। मालम
ू ोता था, कोई मसपा ी
घोडे को सरपट भगाता ु आ आ र ा ै । एक क्षण में टापों की आवाज बदद ो
गई, और एक सैननक आँगन में दौडता ु आ आ प ु ँ चा। लोगों ने चककत ोकर
दे खा, य रत्नमसिं था।

रत्नमसिं धचिंता के पास जाकर ाँफता ु आ बोला - 'वप्रये, मैं तो अभी जीववत ू ँ,
य तुमने क्या कर डाला?'

धचता में आग लग चक
ु ी थी। धचदता की साडी से अन्नन की ज्वाला ननकल र ी
थी। रत्नमसिं उदमत्त की भाँनत धचता में घस
ु गया, और धचदता का ाथ
पकडकर उठाने लगा। लोगों ने चारों से लपक-लपककर धचता की लकडडयाँ
टानी शुर कीिं, पर धचदता ने पनत की ओर आँख उठाकर न दे खा, केवल ाथों से
ट जाने का सिंकेत ककया।
रत्नमसिं मसर पीटकर बोला -' ाय वप्रये, तुम् ें क्या ो गया ै । मेरी ओर दे खती
क्यों न ी? मैं तो जीववत ू ँ।'

धचता से आवाज आई - 'तुम् ारा नाम रत्नमसिं ै , पर तुम मेरे रत्नमसिं न ीिं
ो।'

'तम
ु मेरी तरफ दे खो तो, मैं ी तम्
ु ारा दास, तम्
ु ारा उपासक, तम्
ु ारा पनत ू ँ।'

'मेरे पनत ने वीर-गनत पाई।'

' ाय। कैसे समझाऊँ। अरे , लोगों ककसी भाँनत अन्नन को शादत करो। मैं रत्नमसिं
ी ू ँ वप्रये? क्या मुझे प चानती न ीिं ो?'

अन्नन-मशखा धचदता के मुख तक प ु ँच गई। अन्नन में कमल िखल गया। धचदता
स्पष्ट स्वर में बोली - 'खूब प चानती ू ँ। तुम मेरे रत्नमसिं न ीिं। मेरा रत्नमसिं
सच्चा शूर था। व आत्मरक्षा के मलए, इस तुच्छ दे को बचाने के मलए अपने
क्षबत्रय-िमम का पररत्यान न कर सकता था। मैं न्जस पुरुष के चरणों की दासी
बनी थी, व दे वलोक में ववराजमान ै । रत्नमसिं को बदनाम मत करो। व वीर
राजपत
ू था, रणक्षेत्र से भागने वाला कायर न ीिं।'

अन्दतम शब्द ननकले ी थे कक अन्नन की ज्वाला धचदता के मसर के ऊपर जा


प ु ँची। कफर एक क्षण में व अनप
ु म रप-रामश, व आदशम वीरता की उपामसका,
व सच्ची सती अन्नन-रामश में ववलीन ो गई।

रत्नमसिं चुपचाप, तबुवद्ध-सा खडा य शोकमय दृश्य दे खता र ा। कफर अचानक


एक ठिं डी साँस खीिंचकर उसी धचता में कूद पडा।

***
ह स
ं ा परमोधमम

दनु नया में कुछ ऐसे लोग ोते ै , जो ककसी के नौकर न ोते ु ए सबके नौकर
ोते ै , न्जद ें कुछ अपना खास काम ोने पर भी मसर उठाने की फुरसत न ीिं
ोती। जाममद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बबल्कुल बेकिक, न ककसी से दोस्ती,
न ककसी से दश्ु मनी। जो जरा ँसकर बोला, उसका बेदाग का गल
ु ाम ो गया। बे-
काम का काम करने में उसे मजा आता था। गाँव में कोई बीमार पडे , व रोगी
की सेवा-शुश्रूषा के मलए ान्जर ै । कह ए तो आिी रात को कीम के घर चला
जाए, ककसी जडी-बूटी की तलाश में मिंन्जलों का खाक छान आएँ। मुमककन न ता
कक ककसी गरीब पर अत्याचार ोते दे खे और चुप र जाए। कफर चा े कोई उसे
मार ी डाले, व ह मायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकडो ी मौके उसके
सामने आ चक
ु े थ। कािंस्टे बल से आए हदन उसकी छे डछाड ी र ती थी। इसमलए
लोग उस बौडम समझते थे। और बात भी य ी थी। जो आदमी ककसी को बोझ
भारी दे खकर, उससे छननकर, अपने मसर पर ले ले, ककसी का छप्पर उठाने या
आग बुझाने के मलए कोसों दौडा चला जाए, उसे समझदार कौन क े गा! सारािंश
य कक उसकी जात से दस
ू रों को चा े ककतना ी फायदा प ु ँचे, अपना कोई
उपकार न था। य ाँ तक कक व रोहटयों के मलए भी दस
ू रों का मु ताज था।
दीवाना तो व था, और उसका गम दस
ू रे खाते थे।

आिखर जब लोगों ने ब ु त धिक्कारा -'क्यों अपना जीवन नष्ट कर र े ो, तम



दस
ू रो के मलए मरते ो, कोई तुम् ारा भी पूछने वाला ै? अगर एक हदन बीमार
पड जाओ, तो कोई चुल्लू-भर पानी न दे । जब तक दस
ू रो की सेवा करते ो, लोग
खैरात समझकर खाने को दे दे ते ै । न्जस हदन आ पडेगी, कोई सीिे मँु बात
भी न करे गा।' तब जाममद की आँखें खुली। बतमन-भािंडा कुछ था ी न ीिं। एक
हदन उठा और एक तरफ की रा ली। दो हदन के बाद एक श र में प ु ँचा। श र
ब ु त बडा था। म ल आसमानों से बातें करने वाले। सडकें चौडी और साफ,
बाजार गुलजार, मसन्जदों और मन्ददरों की सिंख्या अगर मकानों से अधिक न थी,
तो कम भी न ीिं। दे ात में कोई मसन्जद न थी, न कोई मन्ददर। मस
ु लमान लोग
एक चबत
ू रें पर नमाज पढ़ लेते थे। ह दद ू एक वक्ष
ृ के नीचे पानी चढ़ा हदया
करते थे। नगर में िमम का य मा ात्य दे खकर जाममद को बडा कौतू ल और
आनदद ु आ। उसकी दृन्ष्ट से मज ब का न्जतना सम्मान था उतना और ककसी
सािंसाररक वस्तु का न ीिं।

व सोचने लगा - ये लोग ककतने ईमान के पक्के, ककतने सत्यवादी ै । इनमें


ककतनी दया, ककतना वववेक, ककतनी स ानुभूनत ोगी, तभी तो खुदा ने इद ें इतना
माना ै। व र आने-जाने वाले को श्रद्धा की दृन्ष्ट से दे खता और उसके सामने
ववनय से मसर झुकाता था। य ाँ के सभी प्राणी उसे दे वता-तुल्य मालूम ोते थे।

घूमते-घूमते साँझ ो गई। व थककर एक मन्ददर के चबूतरे पर जा बैठा।


मन्ददर ब ु त बडा था, ऊपर सन
ु ला कलश चमक र ा था। जगमो न पर
सिंगमरमर के चौके जडे ु ए थे, मगर आँगन में जग -जग गोबर और कूडा पडा
था। जाममद को गिंदगी से धचढ़ थी, दे वालय की य दशा दे खकर उससे न र ा
गया। इिर-उिर ननगा दौडाई कक क ीिं झाडू ममल जाए तो साफ कर दे , पर
झाडू क ीिं नजर न आई। वववश ोकर उसने दामन से चबूतरे को साफ करना
शुर कर हदया।

जरा दे र में भक्तों का जमाव ोने लगा। उद ोंने जाममद को चबूतरा साफ करते
दे खा तो आपस में बातें करने लगे -

' ै तो मस
ु लमान।'

'मे तर ोगा।'

'न ीिं, मे तर अपने दामन से सफाई न ीिं करता। कोई पागल मालूम ोता ै ।'

'उिर का भेहदया न ो।'


'न ीिं, च े रे से तो बडा गरीब मालम
ू ोता ै ।'

' सन ननजामी का कोई मुरीद ोगा।'

'अजी गोबर के लालच से सफाई कर र ा ै । कोई भहठयाया ोगा। गोबर न ले


जाना बे, समझा? क ाँ र ता ै ?'

'परदे शी मस
ु ाकफर ू ँ, सा ब! मझ
ु े गोबर लेकर क्या करना ै ? ठाकुरजी का मन्ददर
दे खा तो आकर बैठ गया। कूडा पडा ु आ था। मैंने सोचा - िमामत्मा लोग आते
ोंगे, सफाई करने लगा।'

'तम
ु तो मस
ु लमान ो न?'

'ठाकुरजी तो सबक ठाकुरजी ै - क्या ह दद,ू क्या मुसलमान।'

'तुम ठाकुरजी को मानते ो?'

'ठाकुरजी को कौन न मानेगा सा ब? न्जसने पैदा ककया, उसे न मानँग


ू ा तो ककसे
मानँूगा?'

भक्तों में सला ोने लगी -

'दे ाती ै ।'

'फाँस लेना चाह ए, जाने न पाए।'

जाममद फाँस मलया गया। उसका आदर-सत्कार ोने लगा। एक वादार मकान
रखने को ममला। दोनों वक्त उत्तम पदाथम खाने को ममलने लगे। दो-चार आदमी
रदम उसे घेरे र ते। जाममद को भजन खब
ू याद थे। गला भी अच्छा था। व
रोज मन्ददर में जाकर कीतमन करता। भन्क्त के साथ स्वर-लामलत्य भी ो तो
कफर क्या पूछना! लोगों पर उसके कीतमन का बडा असर पडता। ककतने ी लोग
सिंगीत को लोभ से ी मन्ददर आने लगे। सबको ववश्वास ो गया कक भगवान ने
य मशकार चुनकर भेजा ै।

एक हदन मन्ददर में ब ु त-से आदमी जमा ु ए। आँगन में फशम बबछाया गया।
जाममद का मसर मुडा हदया गया। नए कपडे प नाए। वन ु आ। जाममद के
ाथों ममठाई बाँटी गई। व अपने आश्रयदाताओिं की उदारता और िममननष्ठा का
और भी कायल ो गया। ये लोग ककतने सज्जन ैं , मुझ जैसे फटे ाल परदे शी क
इतनी खानतर। इसी को सच्चा िमम क ते ै । जाममद को जीवन में कभी इतना
सम्मान न ममला था। य ाँ व ी सैलानी यव
ु क न्जसे लोग बौडम क ते थे, भक्तों
का मसरमौर बना ु आ था। सैकडो ी आदमी केवल उसके दशमन को आते थे।
उसकी प्रकािंड ववद्वता की ककतनी ी कथाएँ प्रचमलत ो गई। पत्रों में य
समाचार ननकला कक एक बडे आमलम मौलवी सा ब की शुवद्ध ु ई ै । सीिा-सादा
जाममद इस सम्मान का र स्य कुछ न समझता था। ऐसे िममपरायण सहृदय
प्रािणयों के मलए व क्या कुछ न करता? व ननत्य पज
ू ा करता, भजन गाता था।
उसके मलए य कोई नई बात न थी। अपने गाँव में भी व बराबर सत्यनारायण
की कथा में बैठा करता था। भजन-कीतमन ककया करता था। अदतर य ी था कक
दे ात में उसकी कदर न थी। य ाँ सब उसके भक्त थे।

एक हदन जाममद कई भक्तों के साथ बैठा ु आ कोई पुराण पढ़ र ा था तो


क्या दे खता ै कक सामने सडक पर एक बमलष्ठ युवक, माथे पर नतलक लगाए,
जनेऊ प ने, एक बढ़
ू े दब
ु ल
म मनष्ु य को मार र ा ै । बड्
ु ढा रोता ै , धगडधगडाता ै
और पैरों पड-पड के क ता ै कक म ाराज, मेरा कसूर माफ करो। ककदतु
नतलकिारी युवक को उस पर जरा भी दया न ीिं आती। जाममद का रक्त खौल
उठा। ऐसे दृश्य दे खकर व शादत ने बैठ सकता था। तुरदत कूदकर बा र
ननकला, और यव
ु क के सामने आकर बोला - 'बड्
ु ढे को क्यों मारते ो, भाई?
तम्
ु ें इस पर जरा भी दया न ीिं आती?'

युवक - 'मैं मारते-मारते इसकी ड्डडयाँ तोड दँ ग


ू ा।'

जाममद - 'आिखर इसने क्या कुसूर ककया ै ? कुछ मालूम भी तो ो।'

यव
ु क - 'इसकी मग
ु ी मारे घर में घस
ु गई थी, सारा घर गददा कर आई।'

जाममद - 'तो क्या इसने मुगी को मसखा हदया था कक तुम् ारा घर गददा कर
आए?'

बुड्ढा - 'खुदाबदद, मैं तो उसे बराबर खािंचे में ढािंके र ता ू ँ। आज गफलत ो


गई। क ता ू ँ , म ाराज, कुसूर माफ करो, मगर न ीिं मानते। ु जूर, मारते-मारते
अिमरा कर हदया।'

युवक- 'अभी न ीिं मारा ै , अब मारँगा, खोदकर गाड दँ ग


ू ा।'

जाममद - 'खोदकर गाड दोगे भाई सा ब तो तुम भी यों न खडे र ोगे। समझ
गए? अगर कफर ाथ उठाया तो अच्छा न ोगा।'

जवान को अपनी ताकत का नशा था। उसने कफर बड्


ु ढे को चाँटा लगाया, पर
चाँटा पडने के प ले ी जाममद ने उसकी गदम न पकड ली। दोनों में मल्ल-युद्ध
ोने लगा। जाममद करारा जवान था। युवक को पटकनी दी तो चारों खाने धचत्त
धगर पडा। उसका धगरना था कक भक्तों का समुदाय, जो अब तक मन्ददर में बैठा
तमाशा दे ख र ा था, लपक पडा और जाममद पर चारों तरफ से चोटें पडने लगी।
जाममद की समझ में न आता था कक लोग मझ
ु े क्यों मार र े ैं। कोई कुछ न ीिं
पछ
ू ता। नतलकिारी जवान को कोई कुछ न ीिं क ता। बस, जो आता ै , मझ
ु ी पर
ाथ साफ करता ै । आिखर व बेदम ोकर धगर पडा तब लोगों में बातें ोने
लगी।
'दगा दे गया।'

'ित तेरी जात की। कभी म्लेच्छों से भलाई की आशा न रखनी चाह ए। कौआ
कौओिं ी के साथ ममलेगा। कमीना जब करे गा, कमीनापन। इसे कोई पूछता न
था, मन्ददर में झाडू लगा र ा था। दे पर कपडे का तार भी न था, मने इसका
सम्मान ककया। पशु से आदमी बना हदया, कफर भी अपना न ु आ।'

'इनके िमम का तो मूल ी य ी ै ।'

जाममद रात-भर सडक के ककनारे पडा ददम से करा ता र ा, उसे मार खाने का
दःु ख न था। ऐसी यातनाएँ व ककतनी बार भोग चक
ु ा था। उसे दःु ख और
आश्चयम केवल इस बात का था कक लोगों ने क्यों एक हदन मेरा इतना सम्मान
ककया, और क्यों आज अकारण ी मेरी इतनी दग
ु नम त की? इनकी व सज्जनता
आज क ाँ गई? मैं तो व ीिं ू ँ। मैंने कोई कसूर भी न ीिं ककया। मैंने तो व ी
ककया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाह ए। कफर इन लोगों ने मुझ पर क्यों
इतना अत्याचार ककया? दे वता क्यों राक्षस बन गए?

व रात-भर इसी उलझन में पडा र ा। प्रातःकाल उठकर एक तरफ की रा ली।

जाममद अभी थोडी ी दरू गया था कक व ी बुड्ढा उसे ममला। उसे दे खते ी व
बोला - 'कसम खुदा की, तुमने कल मेरा जान बचा दी। सुना, जामलमों ने तुम् ें
बुरी तर पीटा। मैं तो मौका पाते ी ननकल भागा। अब तक क ाँ थे? य ाँ लोग
रात ी से तुमसे ममलने के मलए बेकरार ो र े ै । काजी सा ब रात ी से
तम्
ु ारी तलाश में ननकले थे, मगर तम
ु न ममले। कल म दोनों अकेले पड गए
थे। दश्ु मनों ने में पीट मलया। नमाज का वक्त था, ज ाँ सब लोग मन्स्जद में
थे, अगर जरा भी खबर ो जाती तो एक जार लठै त प ु ँच जाते। तब आटे -दाल
का भाव मालूम ोता। कसम खुदा की, आज से मैंने तीन कोडी मुधगमयाँ पाली
ै , दे खू,ँ पिंडडतजी म ाराज अब क्या करते ै । कसम खुदा की, काजी सा ब ने क ा
ै , अगर व लौंडा जरा भी आँखें हदखाए तो तम
ु मझ
ु से आकर क ना। या तो
बच्चू घर छोडकर भागें गे, या ड्डी-पसली तोडकर रख दी जाएगी।'

जाममद को मलए व बुड्ढा काजी जोरावर ु सैन के दरवाजे पर प ु ँचा। काजी


सा ब वजू कर र े थे। जाममद को दे खते ी दौडकर गले लगा मलया और बोले -
'वल्ला , तम्
ु ें आँखें ढूँढ़ र ी थीिं। तम
ु ने अकेले इतने काकफरों के दाँत खट्टे कर
हदए। क्यों न ो, मोममन का खून ै । काकफरों की कीकत क्या? सुना सब-के-सब
तुम् ारी शुवद्ध करने जा र े थे, मगर तुमने उनके सारे मनसूबे पलट हदए।
इस्लाम को ऐसे ी खाहदमों की जररत ै । तुम जैसे दीनदारों से इस्लाम का
नाम रोशन ै । गलती य ी ु आ कक तुमने एक म ीने-भर तक सब्र न ीिं ककया।
शादी ो जाने दे त, तब मजा आता। एक नाजनीन साथ लाते, और दौलत मफ्
ु त,
वल्ला ! तम
ु ने उजलत कर दी।'

हदन-भर भक्तों का ताँता लगा र ा। जाममद को एक नजर दे खने का सबको


शौक था। सभी उसकी ह म्मत, जोर और मज बी जोश की प्रशिंसा करते थे।

प र रात बीत चक
ु ी थी। मस
ु ाकफरों की आमदरफ्त कम ो चली थी। जाममद ने
काजी सा ब सो िमम-ग्रदथ पढ़ना शुर ककया था। उद ोंने उसके मलए अपने बगल
का कमरा खाली कर हदया था। व काजी सा ब से सबक लेकर सोने जा र ा
था कक स सा उसे दरवाजे पर एक ताँगे के रुकने की आवाज सुनाई दी। काजी
सा ब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जाममद ने सोचा, कोई मुरीद आया ोगा।
नीचे आया तो दे खा - एक स्त्री ताँगे से उतरकर बरामदे में खडी ै और ताँगे
वाला उसका असबाब उतार र ा ै।

मह ला ने मकान को इिर-उिर दे खकर क ा - 'न ीिं जी, मुझे अच्छन तर ख्याल


ै, य उनका मकान न ीिं ै । शायद तम
ु भल
ू गए ो।'
तािंगेवाला - ' ु जरू को मानती ी न ीिं। क हदया कक बाबू सा ब ने मकान
तब्दील कर हदया ै । ऊपर चमलए।'

स्त्री ने कुछ िझझकते ु ए क ा - 'बुलाते क्यों न ीिं? आवाज दो।'

तािंगेवाला - 'ओ सा ब, आवाज क्या दँ ,ू जब जानता ू ँ कक साब का मकान य ी


ै , तो ना क धचल्लाने से क्या फायदा? बेचारे आराम कर र े ोंगे। आराम में
खलल पडेगा, आप ननसाखानतर रह ए, चमलए ऊपर चमलए।'

औरत ऊपर चली। पीछे -पीछे तािंगेवाला असबाब मलए ु ए चला। जाममद गुम-सुम
नीचे खडा र ा। य र स्य उसकी समझ में न आया।

तािंगेवाले की आवाज सुनते ी काजी सा ब छत पर ननकल आए और औरत को


आते दे ख कमरे की िखडककयाँ चारों तरफ से बदद करके खूिंटी पर लटकती
तलवार उतार ली और दरवाजे पर आकर खडे ो गए।

औरत ने जीना तय करके ज्यों ी छत पर पैर रखा कक काजी सा ब को दे खकर


िझझकी। व तुरदत पीछे की तरफ मुडना चा ती थी कक काजी सा ब ने
लपककर उसका ाथ पकड मलया और अपने कमरे में घसीट लाए। इसी बीच में
जाममद और तािंगेवाला, ये दोनों भी ऊपर आ गए थे। जाममद य दृश्य दे खकर
ववन्स्मत ो गया। य र स्य और भी र स्य ो गया था। य ववद्या का सागर,
य दयाय का भिंडार, य नीनत, िमम और दशमन का आगार इस समय एक
अपररधचत मह ला के ऊपर य घोर अत्याचार कर र ा ै । तािंगेवाले के साथ व
भी काजी के कमरे में चला गया। काजी सा ब तो स्त्री के दोनों ाथ पकडे ु ए
थे। तािंगेवाले ने दरवाजा बदद कर हदया।

मह ला ने तािंगेवाले की ओर खून-भरी आँखों से दे खकर क ा - 'तू मुझे य ाँ क्यों


लाया?'
काजी सा ब ने तलवार चमकाकर क ा - 'प ले आराम से बैठ जाओ, सब कुछ
मालम
ू ो जाएगा।'

औरत - 'तुम तो मुझे कोई मौलवी मालूम ोते ो? क्या तुम् ें खुदा ने य ी
मसखाया ै कक पराई ब ू -बेहटयों को जबरदस्ती घर में बदद करके उनकी आबर
बबगाडो?'

काजी - ' ाँ, खुदा का य ी ु क्म ै कक काकफरों को न्जस तर मुमककन ो,


इस्लाम के रास्ते पर लाया जाए, अगर खश
ु ी से न आए तो जब्र से।'

औरत - 'इसी तर अगर तुम् ारी ब ू -बेटी पकडकर बेआबर करे तो?'

काजी - ' ो र ा ै । जैसा तुम मारे साथ करोगे वैसा ी म तुम् ारे साथ
करें गे। कफर म तो बेआबर न ीिं करते, मसफम अपने मज ब में शाममल करते ै ।
इस्लाम कबूल करने से आबर बढ़ती ै , घटती न ीिं। ह दद ू कौम ने तो में ममटा
दे ने का बीडा उठाया ै। व इस मुल्क से मारा ननशान ममटा दे ना चा ती ै।
िोखे से, लालच से, जब्र से मस
ु लमानों को बे-दीन बनाया जा र ा ै तो
मस
ु लमान बैठे मँु ताकेंगे?'

औरत - 'ह दद ू कभी ऐसा अत्याचार न ीिं कर सकता। सम्भब ै , तुम लोगों की
शरारतों से तिंग आकर नीचे दजे के लोग इस तर बदला लेने लगे ो, मगर अब
भी कोई सच्चा ह दद ू इसे पसदद न ीिं करता।'

काजी सा ब ने कुछ सोचकर क ा - 'बेशक, प ले इस तर की शरारत


मस
ु लमान शो दे ककया करते थे। मगर शरीफ लो इन रकतों को बरु ा समझते
थे और अपने इमकान-भर रोकने की कोमशश करते थे। तालीम और त जीब की
तरक्की के साथ कुछ हदनों में य गुिंडापन जरर गायब ो जाता, मगर अब तो
सारी ह दद ू कौम में ननगलने को तैयार बैठन ु ई ै । कफर मारे मलए और
रास्ता ी कौन-सा ै। म कमजोर ै । इसमलए में मजबूर ोकर अपने को
कायम रखने के मलए दगा से काम लेना पडता ै , मगर तम
ु इतना घबराती क्यों
ो? तम्
ु ें य ाँ ककसी बात की तकलीफ न ोगी। इस्लाम औरतों के क का
न्जतना मल ाज करता ै , उतना और कोई मज ब न ीिं करता। और मुसलमान
मदम तो अपनी औरतों पर जान दे ता ै । मेरे नौजवान दोस्त (जाममद) तुम् ारे
सामने खडे ै , इद ीिं के साथ तुम् ारा ननका कर हदया जाएगा। बस, आराम से
न्जददगी के हदन बसर करना।'

औरत - 'मैं तुम् ें और तुम् ारे िमम को घिृ णत समझती ू ँ। तुम कुत्ते ो। इसके
मसवा तुम् ारे मलए कोई दस
ू रा काम न ीिं। खैररयत इसी में ै कक मुझे जाने दो,
न ीिं तो मैं अभी शोर मचा दँ ग
ू ी, और तुम् ारा सारा मौलवीपन ननकल जाएगा।'

काजी - 'अगर तुमने जबान खोली, तो तुम् ें जान से ाथ िोना पडेगा। बस,
इतना समझ लो।'

औरत - 'आबर के सामने जान की कोई कीकत न ीिं। तुम मेरी जान ले सकते
ो, मगर आबर न ीिं ले सकते।'

काजी - 'क्यों ना क न्जद करती ो?'

औरत ने दरवाजे के पास जाकर क ा - 'मैं क ती ू ँ , दरवाजा खोल दो।'

जाममद अब तक चप
ु चाप खडा था। ज्यों ी स्त्री दरवाजे की तरफ चली और
काजी ने उसका ाथ पकडकर खीिंचा, जाममद ने तरु दत दरवाजा खोल हदया और
काजी सा ब से बोला - 'इद ें छोड दीन्जए।'

काजी - 'क्या बकता ै ?'

जाममद - 'कुछ न ीिं, खैररयत इसी में ै कक इद ें छोड दीन्जए।'


लेककन अब काजी सा ब ने उस मह ला का ाथ न छोडा, और तािंगेवाला भी उसे
पकडने के मलए बढ़ा तो जाममद ने एक िक्का दे कर काजी सा ब को िकेल
हदया और उस स्त्री का ाथ पकडे ु ए कमरे से बा र ननकल गया। तािंगेवाला
पीछे लपका, मगर जाममद ने उसे इतने जोर से िक्का हदया कक व औिंिे मँु
जा धगरा। एक क्षण में जाममद और स्त्री, दोनों सडक पर थे।

जाममद - 'आपका घर ककस मु ल्ले में ै ?'

औरत - 'अह यागिंज में ।'

जाममद - 'चमलए, मैं आपको प ु ँचा आऊँ।'

औरत - 'इससे बडी और क्या मे रबानी ोगी! मैं आपकी इस नेकी को कभी न
भूलँ ग
ू ी। आपने आज मेरी आबर बचा ली, न ीिं तो मैं क ीिं की न र ती। मुझे
अब मालूम ु आ कक अच्छे और बुरे सब जग ोते ै । मेरे शौ र का नाम
पिंडडत राजकुमार ै ।'

उसी वक्त एक तािंगा सडक पर आता हदखाई हदया। जाममद ने स्त्री को उस पर


बबठा हदया, और खुद बैठना ी चा ता था कक ऊपर से काजी सा ब ने जाममद
पर लि चलाया और डिंडा तािंगे से टकराया। जाममद तािंगे में जा बैठा और तािंगा
चल हदया।

अह यागिंज में पिंडडत राजकुमार का पता लगाने में कहठनाई न पडी। जाममद ने
ज्यों ी आवाज दी, व घबराए ु ए बा र ननकल आए औऱ स्त्री को दे खकर बोले
- 'तम
ु क ाँ र गई थीिं, इिंहदरा? मैंने तो तम्
ु ें स्टे शन पर क ीिं न दे खा। मझ
ु े
प ु ँचने में जरा दे र ो गई थी। तम्
ु ें इतनी दे र क ाँ लगी?'
इिंहदरा ने घर के अददर कदम रखते ी क ा - 'बडी लम्बी कथा ै , जरा दम लेने
दो तो बता दँ ग
ू ी। बस, इतना ी समझ लो कक अगर इस मस
ु लमान ने मेरी
मदद न की ोती तो आबर चली गई थी।'

पिंडडतजी परू ी बात सन


ु ने के मलए और भी व्याकुल ो उठे । इिंहदरा के साथ व
भी घर में चले गए, पर एक ी ममनट के बाद बा र आकर जाममद से बोले -
'भाई सा ब, शायद आप बनावट समझें, पर मुझे आपके रप में इस समय अपने
इष्टदे व के दशमन ो र े ै । मेरी जबान में इतनी ताकत न ीिं कक आपका शुकक्रया
अदा कर सकूँ। आइए, बैठ जाइए।'

जाममद - 'जी न ीिं, अब मुझे इजाजत दीन्जए।'

पिंडडत - 'मैं आपकी इस नेकी का क्या बदला दे सकता ू ँ।'

जाममद - 'इसका बदला य ी ै कक इस शरारत का बदला ककसी गरीब मुसलमान


से न लीन्जएगा, मेरी आपसे य ी दरख्वास्त ै।'

य क कर जाममद चल खडा ु आ और उस अिंिेरी रात के सदनाटे में श र से


बा र ननकल गया। उस श र की ववषाक्त वायु में सािंस लेते ु ए उसका दम
घुटता था। व जल्द-से-जल्द श र से भागकर अपने गाँव में प ु ँचना चा ता था,
ज ाँ मज ब का नाम स ानभ
ु नू त, प्रेम और सौ ादम था। िमम और िामममक लोगों
से उसे घण
ृ ा ो गई थी।

***
बह ष्कार

पिंडडत ज्ञानचदद्र ने गोववददी की ओर सतष्ृ ण नेत्रों से दे खकर क ा -'मुझे ऐसे


ननदम यी प्रािणयों से जरा भी स ानुभूनत न ीिं ै । इस बबमरता की भी कोई द ै
कक न्जसके साथ तीन वषम जीवन के सुख भोगे, उसे एक जरा-सा बात पर घर से
ननकाल हदया।'

गोववददी ने आँखें नीची करके पूछा -'आिखर बात क्या ु ई थी?'

ज्ञानचदद्र -'कुछ भी न ीिं, ऐसी बातों में कोई बात ोती ै । मशकायत ै कक
कामलिंदी जबान की तेज ै । तीन साल तक जबान तेज न थी, आज जबान तेज
ो गई। कुछ न ीिं, कोई दस
ू री धचडडया नजर आई ोगी। उसके मलए वपिंजरे को
खाली करना आवश्यक था। बस य मशकायत ननकल आई। मेरा बस चले तो
ऐसे दष्ु टों को गोली मार दँ ।ू मझ
ु े कई बार कामलिंदी से बातचीत करने का अवसर
ममला ै । मैंने ऐसी ँ समख
ु दस
ू री औरत न ीिं दे खी।'

गोवविंदी - 'तुमने सोमदत्त को समझाया न ीिं।'

ज्ञानचदद्र - 'ऐसे लोग समझाने से न ीिं मानते। य लात का आदमी ै , बातों की


उसे क्या परवा ? मेरा तो य ववचार ै कक न्जससे एक बार सम्बदि ो गया,
कफर चा े व अच्छन ो या बुरी, उसके साथ जीवन-भर ननवाम करना चाह ए। मैं
तो क ता ू ँ , अगर स्त्री के कुल में कोई दोष ननकल आए तो क्षमा से काम लेना
चाह ए।'

गोवविंदी ने कातर नेत्रों से दे खकर क ा - 'ऐसे आदमी तो ब ु त कम ोते ै ।'

ज्ञानचदद्र - 'समझ में ी न ीिं आता कक न्जसके साथ इतने हदन ँसे-बोले,
न्जसके प्रेम की स्मनृ तयाँ हृदय के एक-कए अणु में समाई ु ई ै , उसे दर-दर
ठोकरें खाने को कैसे छोड हदया। कम-से-कम इतना तो करना चाह ए था कक उसे
ककसी सरु क्षक्षत स्थान पर प ु ँचा दे ते और उसके ननवाम का प्रबदि कर दे त।े
ननदम यी ने इस तर घर से ननकाला, जैसे कोई कुत्ते को ननकाले। बेचारी गाँव के
बा र बैठन रो र ी ै । कौन क सकता ै , क ाँ जाएगी। शायद मायके भी कोई
न ीिं र ा। सोमदत्त के डर के मारे गाँव को कोई आदमी उसके पास भी न ीिं
जाता। ऐसे बनगड का क्या हठकाना! जो आदमी स्त्री को न ीिं ु आ, व दस
ू रे का
क्या ोगा! उसकी दशा दे खकर मेरी आँखों में आँसू भर आए। जी में तो आया,
क ू ँ - ब न, तम
ु मेरे घर चलो, मगर तब तो सोमदत्त मेरे प्राणों का ग्रा क ो
जाता।'

गोवविंदी - 'तुम जाकर एक बार कफर समझाओ। अगर व ककसी तर न माने


को कािंमलदी को लेते आऩा।'

ज्ञानचदद्र - 'जाऊँ?'

गोवविंदी - ' ाँ, अवश्य जाओ, मगर सोमदत्त कुछ खरी-खोटी भी क े तो सुन
लेने।'

ज्ञानचदद्र ने गोवविंदी को गले लगाकर क ा -'तम्


ु ारे हृदय में बडी दया ै
गोवविंदी। लो जाता ू ँ, अगर सोमदत्त न माता को कामलिंदी ी को लेता आऊँगा।
अभी ब ु त दरू न गई ोगी।'

तीन बषम बीत गए। गोवविंदी एक बच्चे की माँ ो गई। कामलिंदी अभी तक इसी
घर में ै । उसके पनत ने दस
ू रा वववा कर मलया ै । गोवविंदी और कामलिंदी में
ब नों का-सा प्रेम ै । गोवविंदी सदै व उसकी हदलजोई करती र ती ै। व इसकी
कल्पना भी न ीिं करती कक व कोई गैर ै और मेरी रोहटयों पर पडी ु ई ै।
लेककन सोमदत्त को कामलिंदी का य ाँ र ना एक आँख न ीिं भाता। व कोई
कानूनी कायमवाई करने की तो ह म्मत न ीिं रखता। और इस पररन्स्थनत में कर
ी क्या सकता ै , लेककन ज्ञानचदद्र का मसर नीचा करने के मलए अवसर खोजता
र ता ै।

सद्या का समय था। ग्रीष्म की उष्ण वायु अभी तक बबल्कुल शादत न ीिं ु ई
थी। गोवविंदी गिंगा-जल भरने गई थी और जल-तट की शीतल ननजमनता का
आनदद उठा र ी थी। स सा उसे सोमदत्त आता ु आ हदखाई हदया। गोवविंदी ने
आँचल से मँु नछपा मलया और कलसा लेकर चलने ी को थी कक सोमदत्त ने
सामने आकर क ा - 'जरा ठ रो गोवविंदी, तुमसे एक बात क नी ै । तुमसे य
पूछना चा ता ू ँ कक तुमसे क ू ँ या ज्ञानू से ?'

गोवविंदी ने िीरे से क ा - 'उद ीिं से क दीन्जए।'

सोमदत्त - 'जी तो मेरा य ी चा ता ै , लेककन तम्


ु ारी दीनता पर दया आती ै।
न्जस हदन मैं ज्ञानचदद्र से य बात क दँ ग
ू ा, तम्
ु ें घर से ननकलना पडेगा। मैंने
सारी बातों का पता लगा मलया ै । तुम् ारा बाप कौन था, तुम् ारी माँ की क्या
दशा ु ई, य सारी कथा जानता ू ँ। क्या तुम समझती ो कक ज्ञानचदद्र य
कथा सुनकर तुम् ें अपने घर में रखेगा? उसके ववचार ककतने ी स्वािीन ो, पर
जीती मक्खी न ीिं ननगल सकता।'

गोवविंदी ने थर-थर काँपते ु ए क ा - 'जब आप सारी बातें जानते ै , तो मैं क्या


क ू ँ ? आप जैसा उधचत समझें करें , लेककन मैंने तो आपके साथ कभी कोई बुराई
न ीिं की।'

सोमदत्त - 'तुम लोगों ने गाँव में मुझे क ीिं मँु हदखाने के योनय न ीिं रखा।
नतस पर क ती ो, मैंने तुम् ारे साथ कोई बुराई न ीिं की। तीन साल से कामलिंदी
को आश्रय दे कर मेरी आत्मा को जो कष्ट प ु ँचाया ै, व मैं ी जानता ू ँ। तीन
साल से मैं इस कफक्र में था कक कैसे इस अपमान का दिं ड दँ ।ू अब व अवसर
पाकर उसे ककसी तर से न ीिं छोड सकता।'
गोवविंदी - 'अगर आपकी य ी इच्छा ै कक मैं य ाँ न र ू ँ तो मैं चली जाऊँगी,
आज ी चली जाऊँगी, लेककन उनसे आप कुछ न कह ए। आपके पैरों पडती ू ँ।'

सोमदत्त - 'क ाँ चली जाओगी?'

गोवविंदी - 'और क ीिं हठकाना न ीिं ै तो गिंगाजी तो ै ।'

सोमदत्त - 'न ीिं गोवविंदी, मैं इतना ननदम यी न ीिं ू ँ। मैं केवल इतना चा ता ू ँ कक
तुम कामलिंदी को अपने घर से ननकाल दो और मैं कुछ न ीिं चा ता। तीन हदन
का समय दे ता ू ँ, खूब सोच-ववचार कर लो, अगर कामलिंदी तीसरे हदन तुम् ारे घर
से न ननकली तो तुम जानोगी।'

सोमदत्त व ाँ से चला गया। गोवविंदी कलसा मलए मूनतम का भाँनत खडी र गई।
उसके सम्मुख कहठन समस्या आ खडी ु ई थी, व थी कामलिंदी। घर में एक ी
र सकती थी। दोनों के मलए उस घर में स्थान न था। क्या कामलिंदी के मलए
व अपना घर, अपना स्वगम त्याग दें गी? कामलिंदी अकेली ै , पनत ने उसे प ले ी
छोड हदया ै, व ज ाँ चा े जा सकती ै , पर व अपने प्राणािार और प्यारे
बच्चे को छोडकर क ाँ जाएगी?

लेककन कामलिंदी से व क्या क े गी? न्जसके साथ इतने हदनों तक ब नों की तर


र ी, उसे क्या अपने घर से ननकाल दे गी? उसका बच्चा कामलिंदी से ककतना ह ला

ु आ था, कामलिंदी उसके ककतना चा ती थी? क्या उस पररत्यक्ता दीना को व


अपने घर ननकला दे गी? इसके मसवा और उपाय ी क्या था? उसका जीवन अब
एक स्वाथी, दम्भी व्यन्क्त की दया पर अवलन्म्बत था। क्या अपने पनत के प्रेम
पर व भरोसा कर सकती थी। ज्ञानचदद्र सहृदय थे , उदार थे, ववचारशील थे, दृढ़
थे, पर क्या उनका प्रेम अपमान, व्यिंनय और बह ष्कार जैसे आघातों को स न कर
सकता था।
उसी हदन से गोवविंदी और कामलिंदी में कुछ पाथमक्य-सा हदखाई दे ने लगा। दोनों
अब ब ु त कम साथ बैठती। कामलिंदी पुकारती - 'ब न, आकर खाना खा लो।'

गोवविंदी क ती - 'तुम खा लो, मैं कफर खा लँ ग


ू ी।'

प ले कामलिंदी बालक को सारे हदन िखलाया करती थी, माँ के पास केवल दि

पीने जाता था। मगर अब गोवविंदी रदम उसे अपने ी पास रखती ै । दोनों के
बीच में कोई दीवार खडी ो गई ै । कामलिंदी बार-बार सोचती, आजकल मुझसे
य क्यों रठन ु ई ै ? पर उसे कोई कारण न ीिं हदखाई दे ता। उसे भय ो र ा ै
कक कदाधचत य मझ
ु े य ाँ न ीिं रखना चा ती। इसी धचदता में व गोते खाया
करती ै , ककदतु गोवविंदी भी उससे कम धचन्दतत न ीिं ै । कामलिंदी से व स्ने
तोडना न ीिं चा ती ै , पर उसकी म्लान मूनतम दे खकर उसके हृदय के टुकडे ो
जाते ै । उससे कुछ क न ीिं सकती। अव े लना के शब्द मँु से न ीिं ननकलते।
कदाधचत उसे घर से जाते दे खकर व रो पडेगी और जबरदस्ती रोक लें गी। इसी
ैंस-बैस में तीन हदन गज
ु र गए। कामलिंदी घर से न ननकली। तीसरे हदन
सद्या-समय सोमदत्त नदी के तट पर बडी दे र तक खडा र ा। अदत में चारों
ओर अिंिेरा छा गया। कफर भी पीछे कफर-कफरकर जल-तट की ओर दे खता जाता
था।

रात के दस बज गए थे। अभी ज्ञानचदद्र घर न ीिं आए। गोवविंदी घबरा र ी थी।


उद ें इतनी दे र तो कभी न ीिं ोती थी। आज इतनी दे र क ाँ लगा र े ै ? शिंका
से उसका हृदय काँप र ा था।

स सा मरदाने कमरे का द्वार खुलने की आवाज आई। गोवविंदी दौडी ु ई बैठक


में आई, लेककन पनत का मुख दे खते ी उसकी सारी दे मशधथल पड गई, उस
मख
ु पर ास्य था, पर उस ास्य में भानय-नतरस्कार झलक र ा था। ववधि-वाम
ने ऐसे सीिे-सादे मनुष्य को भी अपनी क्रीडा-कौशल के मलए चुन मलया। क्या
व र स्य रोने के योनय था? र स्य रोने का वस्तु न ीिं, ँसने की वस्तु ै।
ज्ञानचदद्र ने गोवविंदी की ओर न ीिं दे खा। कपडे उतारकर साविानी से साविानी
से अलगनी पर रखे, जूता उतारा और फशम पर बैठकर एक पुस्तक के पदने
उलटने लगा।

गोवविंदी ने डरते-डरते क ा - 'आज इतनी दे र क ाँ की? भोजन ठिं डा ो र ा ै।'

ज्ञानचदद्र ने फशम की ओर ताकते ु ए क ा - 'तम


ु लोग भोजन कर लो, मैं एक
ममत्र के घर खाकर आया ू ँ।'

गोवविंदी इसका आशय समझ गई। एक क्षण के बाद कफर बोली - 'चलो, थोडा-सा
ी खा लो।'

ज्ञानचदद्र - 'अब बबल्कुल भूख न ीिं ै ।'

गोवविंदी - 'तो मैं भी जाकर सो र ती ू ँ।'

ज्ञानचदद्र ने अब गोवविंदी की ओर दे खकर क ा - 'क्यों? तम


ु क्यों न खाओगी?'

व और कुछ न क सकी। गला भर आया।

ज्ञानचनद्र ने समीप आकर क ा - 'मैं सच क ता ू ँ गोवविंदी, एक ममत्र के घर


भोजन कर आया ू ँ। तुम जाकर खा लो।'

गोवविंदी पलिंग पर पडी ु ई धचदता, नैराश्य और ववषाद के अपार सागर में गोते
खा र ी थी। यहद कामलिंदी का उसने बह स्कार कर हदया ोता तो आज उसे इस
ववपन्त्त का सामना न करना पडता, ककदतु य अमानुवषक व्यव ार उसके मलए
असा्य था और इस दशा में भी उसे इसका दःु ख न था। ज्ञानचदद्र की ओर से
यों नतरस्कृत ोने का भी उसे दःु ख न था। जो ज्ञानचदद्र ननत्य िमम और
सज्जनता की डीिंगें मारा करता था, व ी आज इसका इतनी ननदम यता से बह स्कार
करता ु आ जान पडता था, उस पर उसे लेशमात्र भी दःु ख, क्रोि या द्वेष न था।
उसके मन को केवल एक ी भावना आददोमलत कर र ी थी। व अब इस घर
में कैसे र सकती ै । अब तक व इस घर की स्वाममनी थी। इसमलए न कक
व अपने पनत के प्रेम की स्वाममनी थी, पर अब व प्रेम से विंधचत ो गई थी।
अब इस घर पर उसका क्या अधिकार था? व अब अपने पनत को मँु कैसे
हदखा सकती थी! व जानती थी, ज्ञानचदद्र अपने मँु से उसके ववरुद्ध एक शब्द
भी न ननकालें गे, पर उसके ववषय में ऐसी बातें जानकर क्या व उससे प्रेम कर
सकते थे? कदावप न ीिं, इस वक्त न जाने क्या समझकर चुप र े । सवेरे तूफान
उठे गा। ककतने ी ववचारशील ों, पर अपने समाज से ननकल जाना कौन पसदद
करे गा? न्स्त्रयों की सिंसार में कमी न ीिं। मेरी जग जारों ममल जाएँगी। मेरी
ककसी को क्या परवा ? अब य ाँ र ना बे याई ै । आिखर कोई लाठन मारकर
थोडे ी ननकाल दे गा। यादार के मलए आँख का इशारा ब ु त ै । मँु से न क े ,
मन की बात और भाव नछपे न ीिं र ते, लेककन मीठन ननद्रा की गोद में सोए ु ए
मशशु को दे खकर ममता ने उसके अशक्त हृदय को और भी कातर कर हदया।
इस अपने प्राणों के आिार को व कैसे छोडेगी?

मशशु को उसने गोद में उठा मलया और खडी रोती र ी। तीन साल ककतने
आनदद से गुजरे ! उसने समझा था कक इसी भाँनत सारा जीवन कट जाएगा,
लेककन उसके भानय में इससे अधिक सुख भोगना मलखा ी न था। करुण
वेदना में डूबे ु ए ये शब्द उसके मुख से ननकल आए - भगवान! अगर तुम् ें इस
भाँनत मेरी दग
ु नम त करनी थी तो तीन साल प ले क्यों न की? उस वक्त यहद
तम
ु ने मेरे जीवन का अदत कर हदया ोता, तो मैं तम्
ु ें िदयवाद दे ती। तीन
साल तक सौभानय के सुरम्य उद्यान में सौरभ, समीर और मािुयम का आनदद
उठाने के बाद इस उद्यान ी को उजाड हदया। ा! न्जस पौिे को उसने अपने
प्रेम-जाल से सीिंचा था, वे अब ननममम दभ
ु ामनय के पैरौं-तले ककतनी ननष्ठुरता से
कुचले जा र े थे। ज्ञानचदद्र के शील और स्ने का स्मरण आया तो व रो
पडी। मद
ृ ु स्मनृ तयाँ आ-आकर हृदय को मसोसने लगी।
स सा ज्ञानचदद्र के आने से व सम्भल बैठन। कठोर-से-कठोर बातें सुनने के
मलए उसने अपने हृदय को कडा कर मलया, ककदतु ज्ञानचदद्र के मुख पर रोष का
धचह्न भी न था। उद ोंने आश्चयम से पूछा - 'क्या तुम अभी तक सोई न ीिं?
जानती ो, कै बजे ै ? बार से ऊपर ै ।'

गोवविंदी ने स मते ु ए क ा - 'तुम भी तो अभी न ीिं सोए।'

ज्ञानचदद्र - 'मैं न सोऊँ तो तुम भी न सोओ? मैं न खाऊँ तो तुम भी न खाओ?


मैं बीमार पडू तो तुम भी बीमार पडो? य क्यों? मैं तो एक जदमपत्री बना र ा
था। कल दे नी ोगी। तुम क्या करती र ीिं बोलो?'

इन शब्दों में ककतना सरल स्ने था। क्या नतरस्कार के भाव इतने लमलत शब्दों
में प्रकट ो सकते ै ? प्रविंचकता क्या इतनी ननममल ो सकती ै ? शायद सोमदत्त
ने अभी वज्र का प्र ार न ीिं ककया। अवकाश न ममला ोगा, लेककन ऐसा ै तो
आज घर इतनी दे र से क्यों आए? भोजन क्यों न ककया, मुझसे बोले तक न ीिं,
आँखें लाल ो र ी थीिं। में री ओर आँख उठाकर दे खा तक न ीिं। क्या सम्भव ै
कक इनका क्रोि शादत ो गया ो? य सम्भावना की चरम सीमा से भी बा र
ै । तो क्या सोमदत्त को मुझपर दया आ गई? पत्थर पर दब
ू जमी? गोवविंदी कुछ
ननश्चय न कर सकी और न्जस भाँनत ग ृ -सुखवव ीन पधथक वक्ष
ृ की छाँ में भी
आनदद से पाँव फैलाकर सोता ै , उसकी अव्यवस्था ी उसे ननन्श्चिंत बना दे ती
ै , उसी भाँनत गोवविंदी मानमसक व्यग्रता में भी स्वस्थ ो गई। मुस्कराकर स्ने -
मद
ृ ल
ु स्वर में बोली - 'तम्
ु ारी ी रा तो दे ख र ी थी।'

य क ते-क ते गोवविंदी का गला भर आया। व्याि के जाल में फडफ़डाती ु ई


धचडडया
ा़ क्या मीठे राग गा सकती ै ? ज्ञानचदद्र ने चारपाई पर बैठकर क ा -
'झठ
ू न बात, रोज तो तम
ु अब तक सो जाया करती थी।'
एक सप्ता बीत गया, पर ज्ञानचदद्र ने गोववददी से कुछ न पूछा, और न उसके
बतामव ी से उनके मनोगत भावों का कुछ पररचय ममला। अगर उनके व्यव ारों
में कोई नवीनता थीिं तो य कक व प ले से भी ज्यादा स्ने शीलस ननद्मवदद्व
और प्रफुल्लवदन ो गए। गोवविंदी का इतना आदर और मान उद ोंने कभी न ीिं
ककया था। उनके प्रयत्नशील र ने पर भी गोवविंदी उनके मनोभावों को तोड र ी
थी और उसका धचत्त प्रनतक्षण शिंका से चिंचल और क्षुब्ि र ता था। अब उसे
इसमें लेशमात्र भी सददे न ीिं था कक सोमदत्त ने आग लगा दी ै । गीली
लकडी में पडकर व धचनगारी बुझ जाएगी, या जिंगल की सख
ू ी पन्त्तयाँ ा ाकार
करके जल उठें गी, य कौन जान सकता ै । लेककन इस सप्ता के गुजरते ी
अन्नन का प्रकोप ोने लगा। ज्ञानचदद्र एक म ाजन के मन
ु ीम थे। उस म ाजन
ने क हदया - मेरे य ाँ अब आपका काम न ीिं। जीववका का दस
ू रा सािन
यजमानी ै । यजमान भी एक-एक करके उद ें जवाब दे ने लगे। य ाँ तक कक
उनके द्वार पर आना-जाना बदद ो गया। आग सूखी पन्त्तयों में लगकर अब
रे वक्ष
ृ के चारों ओर मिंडराने लगी। पर ज्ञानचदद के मुख में गोवविंदी के प्रनत
एक भी कटु, अमद
ृ ु शब्द न था। व इस सामान्जक दिं ड की शायद कुछ परवा
न करते, यहद दभ
ु ामनयवश इसने उसकी जीववका के द्वार न बदद कर हदए ोते।
गोवविंदी सब कुछ समझती थी, पर सिंकोच के मारे कुछ न क सकती थी। उसी
के कारण उसके प्राणवप्रय पनत की य दशा ो र ी ै, य उसके मलए डूब मरने
की बात थी। पर कैसे प्राणों का उत्सगम करे । कैसे जीवन-मो से मुक्त ो। इस
ववपन्त्त में स्वामी के प्रनत उसके रोम-रोम से शुभ-कामनाओिं की सररता-सी
ब ती थी, पर मँु से एक शब्द भी न ननकलता था। भानय की सबसे ननष्ठुर
लीला उस हदन ु ई, जब कामलिंदी भी बबना कुछ-सन
ु े सोमदत्त के घर जा प ु ँची।
न्जसके मलए य सारी यातनाएँ झेलनी पडी, उसी ने अदत में बेवफाई की।
ज्ञानचदद्र ने सुना तो केवल मुस्करा हदए, पर गोवविंदी इस कुहटल आघात को
इतनी शान्दत से स न न कर सकी। कामलिंदी के प्रनत उसके मुख से अवप्रय शब्द
ननकल ी आए।
ज्ञानचदद्र ने क ा - 'उसे व्यथम ी कोसती ो वप्रये, उसका कोई दोष न ीिं, भगवान
मारी परीक्षा ले र े ै । इस वक्त िैयम के मसवा में ककसी से कोई आशा न
रखनी चाह ए।'

न्जन भावों को गोवविंदी कई हदनों से अदतस्थल में दबाती चली जाती थी, वे िैयम
का बाँि टूटते ी बडे वेग से बा र ननकल पडे। पनत के सम्मख
ु अपराधियों की
भाँनत ाथ बाँिकर उसने क ाँ - 'स्वामी, मेरे ी कारण आपको य सारे पापड
बेलने पड र े ै । मैं ी आपके कुल की कलिंककनी ू ँ। क्यों न मुझे ककसी जग
भेज दीन्जए, ज ाँ कोई मेरी सूरत तक न दे खे। मैं आपसे सत्य क ती ू ँ।'

ज्ञानचदद्र ने गोवविंदी को और कुछ न क ने हदया। उसे हृदय से लगा कर बोले -


'वप्रये, ऐसी बातों से मुझे दख
ु ी न करो, तुम आज भी उतनी ी पववत्र ो, न्जतनी
उस समय थीिं , जब दे वताओिं के समझ मैंने आजीवन पत्नीव्रत मलया था, तुब
मुझसे तुम् ारा पररचय न था। अब तो मेरी दे और आत्मा का एक-एक परमाणु
तम्
ु ारे अक्षय प्रेम से आलोककत ो र ा ै । उप ास और ननददा की तो बात ी
क्या ै , दद
ु ै व का कठोरतम आघात भी मेरे व्रत को भिंग न ीिं कर सकता। अगर
डूबेंगे तो साथ-साथ डूबेंगे, तरें गे तो साथ-साथ तरें गे। मेरे जीवन का मुख्य कतमव्य
तुम् ारे प्रनत ै । सिंसार इसके पीछे - ब ु त पीछे ै ।'

गोवविंदी को जान पडा, उसके सम्मुख कोई दे व-मूनतम खडी ै । स्वामी में इतनी
श्रद्धा, इतनी भन्क्त, उसे आज तक कभी न ु ई थी। गवम से उसका मस्तक ऊँचा
ो गया और मुख पर स्वगीय आभा झलक पडी। उसने कफर क ने का सा स न
ककया।

सम्पदनता अपमान और बह स्कार को तुच्छ समझती ै । उनके अभाव में ये


बािाएँ प्राणादतक ो जाती ै । ज्ञानचदद्र हदन के हदन घर में पडे र ते। घर से
बा र ननकलने का उद ें सा स न ोता था। जब तक गोवविंदी के पास ग ने थे ,
तब तक भोजन की धचिंता न थी। ककदतु जब य आिार भी न र गया तो
ालत और भी खराब ो गई। कभी-कभी ननरा ार र जाना पडता । अपनी
व्यथा ककससे क ें , कौन ममत्र था? कौन अपना था?

गोवविंदी प ले भी हृष्ट-पष्ु ट न थी, पर अब तो अना ार और अदतवेदना के कारण


उसकी दे और भी जीणम ो गई थी। प ले मशशु के मलए दि
ू मोल मलया करती
थी। अब इसकी सामथ्यम न थी। बालक हदन-पर-हदन दब
ु ल
म ोता जाता था।
मालूम ोता था, उसे सूखे का रोग ो गया ै । हदन-के-हदन बच्चा खुराम खाट पर
पडा माता को नैराश्य-दृन्ष्ट से दे खा करता। कदाधचत उसकी बाल-बुवद्ध भी
अवस्था को समझती थी। कभी ककसी वस्तु के मलए ठ न करता। उसकी
बालोधचत सरलता, चिंचलता और क्रीडाशीलता ने अब तक दीघम, आशा-वव ीन
प्रनतक्षा का रप िारण कर मलया था। माता-वपता उसकी दशा दे खकर मन- ी-मन
कुढ़-कुढ़कर र जाते थे।

सद्या समय था। गोवविंदी अँिेरे घर में बालक के मसर ाने धचिंता में मनन बैठन
थी। आकाश पर बादल छाए ु ए थे और वा के झोंके उसके अिमननन शरीर में
शर के समान लगते थे। आज हदन-भर बच्चे ने कुछ न खाया था। घर में कुछ
था ी न ीिं। क्षुिान्नन से बालक छटपटा र ा था, पर या तो रोना न चा ता था,
या उसमें रोने की शन्क्त ी न थी।

इतने में ज्ञानचदद्र तेली के य ाँ से तेल लेकर आ प ु ँच।े दीपक जला। दीपक के
क्षीण प्रकाश में माता ने बालक का मुख दे खा तो स म उठन। बालक का मुख
पीला पड गया था और पुतमलयाँ ऊपर चढ़ गई थीिं। उसने घबराकर बालक को
गोद में उठाया। दे ठिं डी थी। धचल्लाकर बोली - ' ा भगवान! मेरे बच्चे को
क्या ो गया?' ज्ञानचदद्र ने बालक के मुख की ओर दे खकर एक ठिं डी साँस ली
और बोला -'ईश्वर, क्या सारी दया-दृन्ष्ट मारे ी ऊपर करोगे?'
गोवविंदी - ' ाय, मेरा लाल मारे भख
ू के मशधथल ो गया ै । कोई ऐसा न ीिं, जो
इसे दो घट
ू ँ दि
ू वपला दे ।'

य क कर उसने बालक को पनत की गोद में दे हदया और एक लुहटया लेकर


कामलिंदी के घर दि
ू माँगने चली। न्जस कामलिंदी ने आज छः म ीने से इस घर
की ओर ताका न था, उसी के द्वार पर दि
ू की मभक्षा माँगने जाते ु ए उसे
ककतनी नलानन, ककतना सिंकोच ो र ा था, य भगवान के मसवा और कौन जान
सकता ै। य व बालक ै , न्जस पर एक हदन कामलिंदी प्राण दे ती थी, पर
उसकी ओर से अब उसने अपना हृदय इतना कठोर कर मलया था कक घर में कई
गौएँ लगने पर भी एक धचल्लू दि
ू न भेजा। उसी की दया-मभक्षा माँगने आज,
अँिेरी रात में , भीगती ू ई गोवविंदी दौडी जा र ी ै । माता, तेरे वात्सल्य को िदय
ै!

कामलिंकी दीपक मलए दालान में खडी गाए द ु र ी थी। प ले स्वाममनी बनने के
मलए व सौत से लडा करती थी। सेववका का पद उसे स्वीकार न था। अब
सेववका का पद स्वीकार करके स्वाममनी बनी ई थी। गोवविंदी को दे खकर तरु दत
बा र ननकल आई और ववस्मय से बोली - 'क्या ै ब न, पानी-बँद
ू ी में कैसे चली
आई?'

गोवविंदी ने सकुचाते ु ए क ा - 'लाला ब ु त भूखा ै , कामलिंदी। आज हदन-भर कुछ


न ीिं ममला, थोडा-सा दि
ू लेने लाई ू ँ।'

कामलिंदी भीतर जाकर दि


ू का मटका मलए बा र ननकल आई और बोली -
'न्जतना चा ो, ले लो गोवविंदी। दि
ू की कौन कमी ै ! लाला तो अब चलता ोगा।
ब ु त जी चा ता ै कक जाकर उसे दे ख आऊँ, लेककन जाने का ु क्म न ीिं ै । पेट
पालना ै ,तो ु कुम मानना ी पडेगा। तुमने बतलाया न ीिं, न ीिं तो लाला के मलए
दि
ू का तोडा थोडी ै ! मैं चली क्या आई कक तुमने मँु दे खने को तरसा डाला।
मुझे कभी पूछता ै ?'
य क ते ु ए कामलिंदी ने दि
ू का मटका गोवविंदी के ाथ में रख हदया। गोवविंदी
की आँखों से आँसू ब ने लगे। कामलिंदी इतनी दया करे गी, इसकी उसे आशा न ीिं
थी। अब उसे ज्ञान ु आ कक य व ी दयाशील, सेवा-परायण रमणी ै , जो प ले
थी, लेशमात्र भी अदतर न था। कफर बोली -'इतना दि
ू लेकर क्या करँगी ब न,
इस लोटे में डाल दो।'

कामलिंदी - 'दि
ू छोटे -बडे सभी खाते ै । ले जाओ, य मत समझो कक मैं तुम् ारे
घर से चली आई तो बबरानी ो गई। भगवान की दया से अब य ाँ ककसी बात
की धचिंता न ीिं ै । मुझसे क ने भर की दे र ै। ाँ, मैं आऊँगी न ीिं। इससे लाचार

ू ँ। कल ककसी बेला लाला को लेकर नदी ककनारे आ जाना। दे खने को ब ु त जी


चा ता ै ।'

गोवविंदी दि
ू की ािंडी मलए घर चली, गवम-पूणम आनदद के मारे उसके पैर उडे जाते
थे। ड्योढ़ी में पैर रखते ी बोली - 'जरा हदया हदखा दे ना, य ाँ कुछ हदखाई न ीिं
दे ता। ऐसा न ो कक दि
ू धगर पडे।'

ज्ञानचदद्र ने दीपक हदखा हदया। गोवविंदी ने बालक को अपनी गोद में मलटाकर
कटोरी से दि
ू वपलाना चा ा। पर एक घूट
ँ से अधिक दि
ू किंठ में न गया।
बालक ने एक ह चकी ली और अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी।

करुण रोदन से घर गँज


ू उठा। सारी बस्ती के लोग चौंक पडे, पर जब मालूम

ु आ कक ज्ञानचदद्र के घर से आवाज आ र ी ै , तो कोई द्वार पर न आया।


रात-भर भनन हृदय दम्पनत रोते र े । प्रातःकाल ज्ञानचदद्र ने शव उठा मलया और
शमशान की ओर चले। सैकडो आदममयों ने उद ें जाता दे खा, पर कोई समीप न
आया।
कुल-मयामदा सिंसार की सबसे उत्तम वस्तु ै । उस पर प्राण तक दयोछावर कर
हदए जाते ै । ज्ञानचदद्र के ाथ से व वस्तु ननकल गई, न्जस पर उद ें गौरव
था। व गवम, व आत्म-बल, व तेज, जो परम्परा ने उनके हृदय में कूट-कूटकर
भर हदया था, उसका कुछ अिंश तो प ले ी ममट चुका था, बचा-खुचा पुत्र-शोक ने
ममटा हदया। उद ें ववश्वास ो गया कक उनके अववचार का ईश्वर ने य दिं ड
हदया ै । दरु वस्था, जीणमता और मानमसक दब
ु ल
म ता सभी इस ववश्वास को दृढ़
करती थी। व गोवविंदी को अब भी ननदोष समझते थे। उसके प्रनत एक कटु
शब्द उनके मँु से न ननकलता था, न कोई कटु भाव उनके हदल में जग पाता
था। ववधि की क्रूर-क्रीडा ी उनका सवमनाश कर र ी थी, इसमें उद ें लेशमात्र भी
सददे न था।

अब य घर उद ें फाडे खाता था। घर के प्राण-से ननकल गए थे। अब माता


ककसे गोद में लेकर चाँद मामा को बुलाएगी, ककसे उबटन मलेगी, ककसके मलए
प्रातःकाल लवा पकाएगी! अब सब कुछ शूदय था, मालूम ोता था कक उनके
हृदय ननकाल मलए गए ै । अपमान, कष्ट, अना ार, इन सारी ववडम्बनाओिं के ोते

ु ए भी बालक की बाल-क्रीडाओिं में वे सब-कुछ भूल जाते थे। उसके स्ने मय


लालन-पालन में ी अपना जीवन साथमक समझते थे। अब चारों ओर अदिकार
था।

यहद ऐसे मनुष्य ै , न्जद ें ववपन्त्त से उत्तेजना और सा स ममलता ै तो ऐसे


भी मनष्ु य ै , जो आपन्त्त-काल में कतमव्य ीन, परु
ु षाथम ीन और उद्यम ीन ो
जाते ै । ज्ञानचदद्र मशक्षक्षत थे, योनय थे। यहद श र जाकर दौड-िूप करते तो
उद ें क ीिं-न-क ीिं काम ममल जाता। वेतन कम ी स ी, रोहटयों को तो मु ताज
न र ते, ककदतु अववश्वास उद ें घर से ननकलने न दे ता था। क ाँ जाएँ , श र में
कौन जानता ै ? अगर दो-चार पररधचत प्राणी ै भी, तो उद ें मेरी क्यों परवा
ोने लगी? कफर इस दशा में जाए कैसे? दे पर साबबत कपडे भी न ीिं। जाने के
प ले गोवविंदी के मलए कुछ-न-कुछ प्रबदि करना आवश्यक था। उसका कोई
सुभीता न था। इद ीिं धचिंताओिं में पडे-पडे उनके हदन कटते जाते थे। य ाँ तक
कक उद ें घर से बा र ननकलते ी बडा सिंकोच ोता था। गोवविंदी ी पर
अदनोपाजमन का भार था। बेचारी हदन को बच्चों के कपडे सीती, रात को दस
ू रो
का आटा पीसती। ज्ञानचदद्र सब कुछ दे खते थे और माथा ठोककर र जाते थे।

एक हदन भोजन करते ु ए ज्ञानचदद्र ने आत्म-धिक्कार के भाव से मस्


ु करा क ा
- 'मझ
ु -सा ननलमज्ज परु
ु ष भी सिंसार में दस
ू रा न ोगा, न्जसे स्त्री की कमाई खाते
भी मौत न ीिं आती।'

गोवविंदी ने भौं मसकोडकर क ा - 'तम्


ु ारे पैरों पडती ू ँ , मेरे सामने ऐसी बातें मत
ककया करो, ै तो य सब मेरे ी कारन?'

ज्ञानचदद्र - 'तुमने पूवम जदम में कोई बडा पाप ककया था गोवविंदी, जो मुझ जैसे
ननखट्टू के पाले पडी। मेरे जीते ी तम
ु वविवा ो, धिक्कार ै ऐसे जीवन को।'

गोवविंदी - 'तुम मेरा ी खून वपयो, अगर कफर इस तर की कोई बात मँु से
ननकालो। तुम् ारी दासी बनकर मेरा जीवन सफल ो गया। मैं इसे पूवज
म दम का
तपस्या का पन
ु ीत फल समझती ू ँ। दःु ख ककस पर न ीिं आता! तम्
ु ें भगवान
कुशल से रखें, य ी मेरी अमभलाषा ै ।'

ज्ञानचदद्र - 'भगवान तुम् ारी अमभलाषा पूणम करें , खूब चक्की पीसो।'

गोवविंदी - 'तुम् ारी बला से चक्की पीसती ू ँ।'

ज्ञानचदद्र - ' ाँ- ाँ, पीसो। मैं मना थोडे करता ू ँ। तम


ु न चक्की पीसोगी, तो य ाँ
मँछ
ू ों पर ताव दे कर खाएगा कौन, अच्छा, आज दाल में घी भी ै । ठनक ै , अब
मेरी चाँदी ै , बेडा पार लग जाएगा। इसी गाँव में बडे-बडे उच्च-कुल की कदयाएँ
ै । अपने वस्त्राभूषण के सामने उद ें और ककसी की परवा न ीिं। पनत म ाशय
चोरी करके लाएँ, चा े डाका मारकर लाएँ, उद ें इसी परवा न ीिं। तुममें व गुण
न ीिं ै । तम
ु उच्च-कुल की कदया न ीिं ो। वा री दनु नया। ऐसी पववत्र दे ववयों
का तेरे य ाँ अनादार ोता ै । उद ें कुल-कलिंककनी समझा जाता ै । िदय ै तेरा
व्यापारय़ तम
ु ने कुछ और सन
ु ा ै ? सोमदत्त ने मेरे असाममयों को ब का हदया ै
कक लगान मत दे ना, दे खें क्या करते ै । बताओ, जमीिंदार की रकम कैसे
चुकाऊँगा।'

गोवविंदी - 'मैं सोमदत्त से जाकर पछ


ू ती ू ँ न? मना कैसे करें गे, कोई हदल्लगी ै !'

ज्ञानचदद्र - 'न ीिं गोवविंदी, तुम उस दष्ु ट के पास मत जाना। मैं न ीिं चा ता कक
तम्
ु ारे ऊपर उसकी छाया भी पडे। उसे खब
ू अत्याचार करने दो। मैं भी दे ख र ा

ू ँ कक भगवान ककतने दयायी ै ।'

गोवविंदी - 'तुम असाममयों के पास क्यों न ीिं जाते? मारे घर न आए, मारा छुआ
पानी न वपएँ, मारे रुपए क्यों मार लें गे?'

ज्ञानचदद्र - 'वा , इससे सरल तो कोई काम ी न ीिं ै। क दें गे - म रुपए दे


चुके। सारा गाँव उनकी तरफ ो जाएगा। मैं तो अब गाँव-भर का द्रो ी ू ँ न।
आज खब
ू डटकर भोजन ककया। अब मैं भी रईस ू ँ, बबना ाथ-पैर ह लाए गल
ु छरे
उडाता ू ँ। सच क त ू ँ , तम्
ु ारी ओर से मैं अब मैं ननन्श्चिंत ो गया। दे श-ववदे श
भी चला जाऊँ तो तुम अपना ननवाम कर सकती ो।'

गोवविंदी - 'क ीिं जाने का काम न ीिं ै।'

ज्ञानचदद्र - 'तो य ाँ जाता ी कौन ै । ककसे कुत्ते ने काटा ै जो य सेवा


छोडकर मे नत-मजूरी करने जाए। तुम सचमुच दे वी ो गोवविंदी।'

भोजन करके ज्ञानचदद्र बा र ननकले। गोवविंदी भोजन करके कोठरी में आई तो


ज्ञानचदद्र न थे। समझी क ीिं बा र चले गए ोंगे। आज पनत की बातों से उसका
धचत्त कुछ प्रसदन थी। शायद अब व नौकरी-चाकरी की खोज में क ी जाने
वाले ै। य आशा बँि र ी थी। ाँ, उनकी व्यिंनयोन्क्तयों का भाव उसकी समझ
ी में न आता था। ऐसी बातों व कभी न करते थे। आज क्या सझ
ू ी।

कुछ कपडे सीने थे। जाडों के हदन थे। गोवविंदी िूप में बैठकर सीने लगी। थोडी
दे र में शाम ो गई अभी तक ज्ञानचदद्र न ीिं आए। तेल-बत्ती का समय आया,
कफर भोजन की तैयारी करने लगी। कामलिंदी थोडा-सा दि
ू दे गई थी। गोवविंदी को
तो भूख न थी, अब व एक ी वेला खाती थी, ाँ, ज्ञानचदद्र के मलए रोहटयाँ
सेंकनी थी। सोचा - दि
ू ै ी, दि
ू -रोटी खा लें गे।

भोजन बनाकर ननकली ी थी कक सोमदत्त ने आँगन में आकर पछ


ू ा - 'क ाँ ै
ज्ञानू?'

गोवविंदी - 'क ीिं गए ै ।'

सोमदत्त - 'कपडे प नकर गए ै ।'

गोवविंदी - ' ाँ, काली ममजमई प ने थे।'

सोमदत्त - 'जत
ू ा भी प ने थे।?'

गोवविंदी की छाती िड-िड करने लगी, कफर बोली - ' ाँ, जूता तो प ने थे। क्यों
पूछते ो?'

सोमदत्त ने जोर से ाथ मारकर क ा - ' ाय ज्ञानू! ाय!'

गोवविंदी घबराकर बोली - 'क्या ु आ दादाजी। ाय! बताते क्यों न ीिं? ाय!'

सोमदत्त - 'अभी थाने से आ र ा ू ँ। व ाँ उनकी लाश ममली ै । रे ल के नीचे


दब गए। ाय ज्ञान!ू मझ
ु त्यारे को क्यों न मौत आ गई?'
गोवविंदी के मँु से कफर कोई शब्द न ननकला। अन्दतम ' ाय' के साथ ब ु त हदनों
तक तडपता ु आ प्राण-पक्षी उड गया।

एक ी क्षण में गाँव ककतनी ी न्स्त्रयाँ जमा ो गई। सब क ती थीिं - 'दे वी थी।
सती थी।'

प्रातःकाल दो अधथमयाँ गाँव से ननकली। एक पर रे शमी चुिंदरी का कफन था, दस


ू री
पर रे शमी शॉल का। गाँव के द्ववजों में से केवल सोमदत्त ी ाथ था। शेष गाँव
के नीच जानत वाले आदमी थे। सोमदत्त ी न दा -कक्रया का प्रबदि ककया था।
व र -र कर दोनों ाथों से अपनी छाती पीटता था और जोर-जोर से धचल्लाता
- ' ाय! ाय! ज्ञानू!!'

***
चोरी

ाय बचपन! तेरी याद न ीिं भूलती। व कच्चा, टूटा घर, व पुवाल का बबछौना,
व निंगे बदन, निंगे पाँव खेतों में घूमना, आम के पेडो पर चढ़ना - सारी बातें
आँखों के सामने कफर र ी ै । चमरौिे जूते प नकर उस वक्त ककतनी खुशी
ोती थी, अब 'फ्लेक्स' के बट
ू ों से भी न ीिं ोती। गरम पनए
ु (गड
ु के क ाड का
िोवन) रस में जो मजा था, व अब गल
ु ाब के शबमत में भी न ीिं, चबेने और
कच्चे बेरों में जो रस था, व अब अिंगूर और खीर मो न में भी न ीिं ममलता।

मैं अपने चचरे भाई लिर के साथ दस


ू रे गाँव में एक मौलवी सा ब के य ाँ
पढ़ने जाया करता था। मेरी उम्र आठ साल की थी, लिर (अब स्वगम में ननवास
करता ै ) मुझसे दो साल जेठे थे। म दोनों प्रातःकाल बासी रोहटयाँ खा, दोप र
के मलए मटर और जौ का चबेना लेकर चल दे ते थे। कफर तो सारा हदन अपना
था। मौलवी सा ब के य ाँ कोई ाजरी का रन्जस्टर तो था न ीिं , और न
गैर ान्जरी का जुमामना ी दे ना पडता था। कफर डर ककस बात का! कभी तो थाने
के सामने खडे मसपाह यों की कवायद दे खते, कङी ककसी भालू या बददर नचाने
वाले मदारी के पीछे -पीछे घम
ू ने में हदन काट दे त,े कभी रे लवे स्टे शन की ओर
ननकल जाते और गाडडयों की ब ार दे खते। गाडडयों के समय का न्जतना ज्ञान
मको था, उतना शायद टाइम-टे बबल को भी न था। रास्तें में श र के एक
म ाजन ने एक बाग लगवाना शुर ककया था। व ाँ एक कुआँ खुद र ा था। व
भी मारे मलए एक हदलचस्प तमाशा था। बूढ़ा माली में अपनी झोंपडी में बडे
प्रेम से बैठाता था। म उससे झगड-झगडकर उसका काम करते। क ीिं बाल्टी
मलए पौिे को सीिंच र े ै , क ीिं खरु पी से क्याररयाँ गोड र े ै । क ीिं कैंची से
बेलों की पन्त्तयाँ छाँट र े ै । उन कामों में ककतना आनदद था। माली बाल-
प्रवनृ त का पिंडडत था। मसे काम लेता, पर इस तर की मानो मारे ऊपर कोई
अ सान कर र ा ै । न्जतना काम व हदन-भर में करता, म घिंटे-भर में ननबटा
दे ते थे। अब व माली न ीिं ै , लेककन बाग रा-भरा ै । उसके पास से ोकर
गज
ु रता ू ँ तो जी चा ता ै , उन पेडों के गले ममलकर रोऊँ, और क ू ँ - प्यारे , तम

मझ
ु े भल
ू गए, लेककन मैं तम्
ु ें न ीिं भल
ू ा। मेरे हृदय में तम्
ु ारी याद अभी तक
री ै - उतनी ी री, न्जतने तम्
ु ारे पत्ते। ननस्वाथम प्रेम के तम
ु जीते-जागते
स्वरप ो।

कभी-कभी म फ्तों गैर ान्जर र ते, पर मौलवी सा ब से ऐसा ब ाना कर दे ते


कक उनकी बढ़ी ु ई त्योररयाँ उतर जाती। उतनी कल्पना-शन्क्त आज ोती तो
ऐसा उपदयास मलख डालता कक लोग चककत र जाते। अब तो ाल ै कक ब ु त
मसर खपाने के बाद कोई क ानी सूझती ै , खैर मारे मौलवी सा ब दरजी थे।
मौलवीधगरी केवल शौक से करते थे। म दोनों भाई अपने गाँव के कुमी-कुम् ारों
से उनकी खूब बडाई करते थे। यों कह ए कक म मौलवी सा ब के सफरी एजेंट
थे। मारे उद्योग से जब मौलवी सा ब को कुछ काम ममल जाता तो म फूले
न समाते। न्जस हदन कोई अच्छा ब ाना न सझ
ू ता, मौलवी सा ब के मलए कोई-
न-कोई सौगात ले जाते। कभी सेर-आि सेर फमलयाँ तोड लीिं तो कभी दस-पाँच
ईख, कभी जौं या गे ू ँ की री- री बालें ले ली, उन सौगातों के दे खते ी मौलवी
सा ब का क्रोि शादत ो जाता। जब इन चाजों की फसल न ोती तो म सजा
से बचने के मलए कोई और उपाय सोचते। मौलवी सा ब को धचडडयों का शौक
था। मकतब में श्याम, बल
ु बल
ु , दह यल और चिंडूलों के वपिंजरे लटकते र ते थे।
में सबक याद ो या न ो, पर धचडडयों को याद ो जाते थे। मारे साथ ी वे
पढ़ा करती थीिं। इन धचडडयों के मलए बेसन पीसने में म लोग खूब उत्सा
हदखाते थे। मौलवी सा ब सब लडको को पनतिंगे पकड लाने की ताकीद करते
र ते थे। इन धचडडयों को पनतिंगों से ववशेष रुधच थी। कभी-कभी मारी बला
पनतिंगों ी के मसर चली जाती थी। उनका बमलदान करके म मौलवी सा ब के
रौद्र रप को प्रसदन कर मलया करते थे।

एक हदन सवेरे म दोनो भाई तालाब में मँु िोने गए। लिर ने कोई सफेद-सी
चीज मुिी में लेकर हदखाई। मैंने लपककर मुिी खोली तो उसमें एक रुपया था।
ववन्स्मत ोकर पछ
ू ा - 'य रुपया तम्
ु ें क ाँ ममला?'
लिर - 'अम्माँ ने ताक पर रखा था, चारपाई खडी करके ननकाल लाया।'

घर में कोई सददक


ू या अलमारी तो थी न ीिं, रुपए-पैसे एक ऊँचे ताक पर रख
हदए जाते थे। एक हदन चाचाजी ने सन बेचा था। उसी के रुपए जमीिंदार को दे ने
के मलए ताक पर रखे ु ए थे। लिर को न जाने क्योंकर पता लग गया। जब
घर के सब लोग काम-ििंिे में लग गए तो अपनी चारपाई खडी की और उस पर
चढ़कर एक रुपया ननकाल मलया।

उस वक्त तक मने कभी रुपया छुआ तक न था। व रुपया दे खकर आनदद


और भय की जो तरिं गें हदल में उठन थीिं, वे अब तक याद ै। मारे मलए रुपया
एक अलभ्य वस्तु थी। मौलवी सा ब को मारे य ाँ से मसफम बार आने ममला
करते थे। म ीने के अदत में चचाजी खुद जाकर पैसे दे आते थे। भला कौन
मारे गवम का अनुमान कर सकता ै । लेककन मार का भय आनदद में वव्न
डाल र ा था। रुपए अनधगनती तो थे न ीिं। चोरी का खुल जाना मानी ु ई बात
थी। चचाजी के क्रोि का, मझ
ु े तो न ीिं, लिर को प्रयत्क्ष अनभ
ु व ो चक
ु ा था।
यों उनसे ज्यादा सीिा-सादा आदमी दनु नया में न था। चची ने उनकी रक्षा का
भर मसर पर न रख मलया ोता तो कोई बननया उद ें बाजार में बेच सकता था।
पर जब क्रोि आ जाता तो कफर उद ें कुछ न सूझता। और तो और, चची भी
उनके क्रोि का सामना करते डरती थी। म दोनों ने कई ममनट तक इद ीिं बातों
पर ववचार ककया और आिखर ननश्चय ु आ कक आई ु ई लक्ष्मी को न जाने दे ना
चाह ए। एक तो मारे ऊपर सददे ोगा ी न ीिं , अगर ु आ भी तो म साफ
इनकार कर जाएँगे। क ें गे, म रुपया लेकर क्या करते! थोडा सोच-ववचार करते
तो य ननश्चय पलट जाता, और व वीभत्स लीला न ोती, जो आगे चलकर

ु ई, पर उस समय ममें शान्दत से ववचार करने की क्षमता ी न थी।

मँु - ाथ िोकर म दोनों घर आए और डरते-डरते अददर कदम रखा। अगर क ीिं


इस वक्त तलाशी की नौबत आई तो कफर भगवान ी मामलक ै । लेककन सब
लोग अपना-अपना काम कर र े थे। कोई मसे न बोला। मने नाश्ता भी न
ककया, चबेना भी न मलया, ककताब बगल में दबाई और मदरसे का रास्ता मलया।

बरसात के हदन थे। आकाश पर बादल छाए ु ए थे। म दोनों खश


ु -खश
ु मकतब
चले जा र े थे। आज काऊिंमसल की ममननस्री पाकर भी शायद उतना आनदद न
ोता। जारों मिंसूबे बाँिते थे, जारों वाई ककले बनाते थे। य अवसर बडे
भानय से ममला था। जीवन में कफर शायद ी य अवसर ममले। इसमलए रुपए
को इस तर खचम करना चा ते थे कक ज्यादा-से-ज्यादा हदनों तक चल सके।
यद्यवप उन हदनों पाँच आने सेर ब ु त अच्छन ममठाई ममलती थी और शायद
आिा सेर ममठाई में म दोनों अफर जाते, लेककन य ख्याल ु आ कक ममटाई
खाएँगे तो रुपया आज ी गायब ो जाएगा। कोई सस्ती चीज खानी चाह ए,
न्जसमें मजा भी आए, पेट भी भरे और पैसे भी कम खचम ो। आिखर अमरदों
पर मारी नजर गई। म दोनों राजी ो गए। दौ पैसे के अमरद मलए। सस्ता
समय था, बडे-बडे बार अमरद ममले। म दोनों के कुतों के दाम भर गए। जब
लिर ने खटककन के ाथ में रुपया रखा तो उसने सददे से पछ
ू ा -'रुपया क ाँ
पाया, लाला? चरु ा तो न ीिं लाए?'

जवाब मारे पास तैयार था। ज्यादा न ीिं तो दो-तीन ककताबें पढ़ ी चुके थे।
ववद्या का कुछ-कुछ असर ो चला था। मैंने झट से क ा - 'मौलवी सा ब की
फीस दे नी ै । घर में पैसे न थे तो चचाजी ने रुपया दे हदया।'

इस जवाब ने खटककन का सददे दरू कर हदया। म दोनों ने एक पुमलया पर


बैठकर खब
ू अमरद खाए। मगर अब साढ़े पिंद्र आने पैसे क ाँ ले जाए। एक
रुपया नछपा लेना तो इतना मुन्श्कल काम न था। पैसौं के ढे र क ाँ नछपता। न
कमर समर में इतनी जग थी और न जेब में इतनी गुिंजाइश। उद ें अपने पास
रखना चोरी का हढिंढोरा पीटना था। ब ु त सोचने के बाद य ननश्चय ककया कक
बार आने तो मौलवी सा ब को दे हदए जाएँ, शेष साढे तीन आने की ममठाई
उडे। य फैसला करके म लोग मकतब प ु ँच।े आज कई हदन के बाद गए थे।
मौलवी सा ब ने बबगडकर पछ
ू ा - 'इतने हदन क ाँ र े ?'
मैंने क ा- 'मौलवी सा ब, घर में गमी ो गई।'

य क ते-क ते बार आने उनके सामने रख हदए। कफर क्या पछ


ू ना था? पैसे
दे खते ी मौलवी सा ब की बाछें िखल गई। म ीना खत्म ोने में अभी कई हदन
बाकी थे। सािारणतः म ीना चढ़ जाने के बाद और बार-बार तकाजे पर क ीिं
पैसे ममलते थे। अबकी इतनी जल्दी पैसे पाकर उनका खुश ोना कोई
अस्वाभाववक बात न थी। मने अदय लडकों की ओर सगवम नेत्रों से दे खा, मानो
क र े ों - एक तम
ु ो कक माँगने पर भी पैसे न ीिं दे त,े एक म ै कक पेशगी
दे ते ै ।

म अभी सबक पढ़ ी र े थे कक मालूम ु आ, आज तालाब का मेला ै । दोप र


में छुट्टी ो जाएगी। मौलवी सा ब मेले में बल
ु बल
ु लडाने जाएँगे। य खबर
सन
ु ते ी मारी खश
ु ी का हठकाना न र ा। बार आने तो बैंक में जमा ी कर
चुके थे, साढ़े तीन आने में मेला दे खने की ठ री। खूब ब ार र े गी। मजे से
रे वडडयाँ खाएँगे, गोलगप्पे उडाएँगे, झूले पर चढ़े गे और शाम को घर प ु ँचेंगे।
लेककन मौलवी सा ब ने एक कडी शतम य लगा दी कक सब लडके छुट्टी के प ले
अपना-अपना सबक सुना दें । जो सबक न सुना सकेगा, उसे छुट्टी न ममलेगी।
नतीजा य ु आ कक मझ
ु े तो छुट्टी ममल गई, पर लिर कैद कर मलए गए। और
कई लडकों ने भी सबक सुना हदए थे, वे सभी मेला दे खने चल पडे। मैं भी उनके
साथ ो गया। पैसे मेरे पास थे , इसमलए मैंने लिर को साथ लेने का इदतजार
न ककया। तय ो गया था कक व छुट्टी पाते ी मेले में आ जाए, और दोनों
साथ-साथ मेला दे खें। मैंने वचन हदया था कक जब तक व न आएँगे , एक पैसा
भी खचम न करँगा, लेककन क्या मालूम था कक दभ
ु ामनय कुछ और ी लीला रच
र ा ै । मझ
ु े मेला प ु ँचे एक घिंटा से ज्यादा गज
ु र गया, पर लिर का क ी पता
न ीिं। क्या अभी तक मौलवी सा ब ने छुट्टी न ीिं दी, या रास्ता भूल गए? आँखें
फाड-फाडकर सडक की ओर दे खता था। अकेले मेला दे खने में जी भी न लगता
था। सिंशय ो र ा था कक क ीिं चोरी खुल तो न ीिं गई और चाचाजी लिर को
पकडकर घर तो न ीिं ले गए? आिखर जब शाम ो गई तो मैंने कुछ रे वडडयाँ
खाई और लिर के ह स्से के पैसे जेब में रखकर िीरे -िीरे घर चला। रास्ते में
ख्याल आया, मकतब ोता चलँ ू, शायद लिर अभी व ीिं ो, मगर व ाँ सदनाटा
था। ाँ, एक लडका खेलता ु आ ममला। उसने मुझे दे खते ी जोर से क क ा
मारा और बोला -'बचा, घर जाओ तो कैसी मार पडती ै । तुम् ारे चचा आए थे,
लिर को मारते-मारते ले गए ै । अजी, ऐसा तानकर घूस
ँ ा मारा कक ममयाँ
लिर मँु के बल धगर पडे। य ाँ से घसीटते ले गए ै । मौलवी सा ब की
तनस्वा दे दी थी, व भी ले ली। अभी कोई ब ाना सोच लो, न ीिं तो बेभाव की
पडेगी।'

मेरी मसट्टी-वपट्टी भल
ू गई, बदन का ल ू सख
ू गया। व ी ु आ, न्जसका मझ
ु े शक
था। पैर मन-मन-भर के ो गए। घर की ओर एक-एक कदम चलना मन्ु श्कल ो
गया। दे वी-दे वताओिं के न्जतने नाम याद थे सभी का मानता मानी - ककसी को
लड्डू, ककसी को पेड,े ककसी को बतासे। गाँव के पास प ु ँचा तो गाँव के डी का
सुममरन ककया, क्योंकक अपने लके में डी ी की इच्छा सवम-प्रिान ोती ै।

य सब कुछ ककया, लेककन ज्यों-ज्यों घर ननकट आता, हदल की िडकन बढ़ती


जाती थी। घटाएँ उमडी आती थी। मालूम ोता था -आसमान फटकर धगरा ी
चा ता ै । दे खता था - लोग अपने-अपने काम छोड-छोडकर भागे जा र े ै , गौर
(गाय के बछडे) भी पँछ
ू उठाए घर की ओर उछलते-कूदते चले जाते थे। धचडडयाँ
अपने घोंसलों की ओर उडी चली जाती थी, लेककन मैं उसी मदद गनत से चला
जाता था। मानो पैरों में शन्क्त न ीिं। जी चा ता था, जोर का बुखार चढ़ आए या
क ीिं चोट लग जाए। लेककन क ने से िोबी गिे पर न ीिं चढ़ता। बुलाने से मौत
न ीिं आती। बीमारी का तो क ना ी क्या! कुछ न ु आ, और िीरे -िीरे चलने पर
भी घर सामने आ गया। अब क्या ो? मारे द्वार पर इमली का एक घना वक्ष

था। मैं उसी की आड में नछप गया कक जरा और अिंिेरा ो जाए तो चुपके से
घस
ु जाऊँ और अम्माँ के कमरे में चारपाई के नीचे जा बैठूँ। जब सब लोग सो
जाएँगे तो अम्माँ को सारी कथा क सुनाऊँगा। अम्माँ कभी न ीिं मारती, जरा
उनके सामने झठ
ू -मठ
ू रोऊँगा तो व और भी वपघल जाएँगी। रात कट जाने पर
कफर कौन पूछता ै । सब
ु गस्
ु सा ठिं डा ो जाएगा। अगर ये मिंसब
ू े परू े ो जाते
तो इसमें सददे न ीिं कक मैं बेदाग बच जाता। लेककन व ाँ वविाता को कुछ और
मिंजूर था। मुझे एक लडके ने दे ख मलया और मेरे नाम की रट लगाते ु ए सीिे
मेरे घर में भागा। अब मेरे मलए कोई आशा न र ी। लाचार घर में दािखल ु आ
तो स सा मँु से एक चीख ननकल गई, जैसे मार खाया ु आ कुत्ता ककसी को
अपनी ओर आता दे खकर भय से धचल्लाने लगता ै । बरोठे में वपताजी बैठे थे।
वपताजी का स्वास्थ्य इन हदनों कुछ खराब ो गया था। छुट्टी लेकर घर आए ु ए
थे। य तो न ीिं क सकता कक उद ें मशकायत क्या थी, पर व मूिंग की दाल
खाते थे, और सद्या समय शीशे के धगलास में एक बोतल में से कुछ उडेल-
उडेलकर पीते थे। शायद व ककसी तजुरबेकार कीम की बताई ई दवा थी।
दवाएँ सब बासने वाली और कडवी ोती ै। य दवा भी बरु ी ी थी, पर वपताजी
न-जाने क्यों इस दवा को खब
ू मजा ले-लेकर पीते थे। म जो दवा पीते ै तो
आँखें बदद करके एक ी घूिंट में गटक जाते ै , पर शायद इस दवा का असर
िीरे -िीरे पीने से ी ोता ो। वपताजी के पास गाँव के दो-तीन और कभी-कभी
चार-पाँच और रोगी भी जमा ो जाते, और घदटों दवा पीते र ते थे। मुन्श्कल से
खाना खाने उठते थे। इस समय भी व पी र े थे। रोधगयों की मिंडली जमा थी,
मुझे दे खते ी वपताजी ने लाल-लाल आँखें करके पूछा -'क ाँ थे अब तक?'

मैंने दबी जबान से क ा - 'क ीिं तो न ीिं।'

'अब चोरी की आदत सीख र ा ै । बोल, तूने रुपया चुराया कक न ीिं?'

मेरी जबान बदद ो गई। सामने निंगी तलवार नाच र ी थी। शब्द भी ननकालते

ु ए डरता था।

वपताजी ने जोर से डाँटकर पछ


ू ा - 'बोलता क्यों न ीिं? तूने रुपया चुराया कक
न ीिं?'
मैंने जान पर खेलकर क ा - 'मैंने क ाँ...।'
मँु से पूरी बात भी न ननकलने पाई थीिं कक वपताजी ववकराल रप िारण ककए,
दाँत पीसते झपटकर उठे और ाथ उठाए मेरी ओर चले। मैं जोर से धचल्लाकर
रोने लगा। ऐसा धचल्लाया कक वपताजी भी स म गए। उनका ाथ उठा ी र
गया। शायद समझे कक जब अभी से इसका य ाल ै , तब तमाचा पड जाने
पर क ीिं इसकी जान ी न ननकल जाए। मैंने जो दे खा कक मेरी ह कमत काम
कर गई तो और भी गला फाड-फाडकर रोने लगा। इतने में मिंडली के दो-तीन
आदममयों ने वपताजी को पकड मलया और मेरी ओर इशारा ककया कक भाग जा।
बच्चे ऐसे मौके पर और भी मचल जाते ै , और व्यथम मार खा जाते ै । मैंने
बुवद्धमानी से काम मलया।

लेककन अददर का दृश्य इससे क ीिं भयिंकर था। मे रा तो खून सदम ो गया।
लिर के दानो ाथ एक खम्बे से बँिे थे, सारी दे िूल-िूसररत ो र ी थी और
व अभी तक मससक र े थे। शायद व आँगन-भर में लोटे थे, ऐसा मालूम ु आ
कक सारा आँगन उसके आँसओ
ु िं से भर गया ै । चची लिर को डाँट र ी थीिं
और अम्माँ बैठन मसाला पीस र ी थीिं। सबसे प ले मझ
ु पर चची की नजर पडी।
बोली - 'लो, व भी आ गया। क्यों रे , रुपया तूने चुराया था कक इसने?'

मैंने ननश्शिंक ोकर क ा - ' लिर ने।'

अम्माँ बोली - 'अगर उसी ने चुराया था, तो तूने घर आकर ककसी से क ा क्यों
न ीिं?'

अब झूठ बोले बगैर बचना मुन्श्कल था। मैं तो समझता था कक जब आदमी को


जान का खतरा ो तो झूठ बोलना क्षम्य ै। लिर मार खाने के आदी थे, दो-
चार घूस
ँ े और पडने से उनका कुछ न बबगड सकता था। मैंने मार कभी न खाई
थी। मेरा तो दो ी घस
ूँ ों में काम तमाम ो जाता। कफर लिर ने भी तो अपने
को बचाने के मलए मुझे फँसाने की चेष्टा की थी, न ीिं तो चची मुझसे य क्यों
पूछती - रुपया तूने चुराया या लिर ने? ककसी भी मसद्धादत से मेरा झूठ बोलना
इस समय स्तत्ु य न ीिं तो क्षम्य जरर था। मैंने छूटते ी क ा - ' लिर क ते
थे कक ककसी को बताया तो मार डालँ ग
ू ा।'

अम्माँ - 'दे खा, व ी बात ननकली न। मैं तो प ले ी क ती थी कक बच्चा को


ऐसी आदत न ीिं, पैसा तो व ाथ से छूता ी न ीिं, लेककन सब लोग मझ
ु ी को
उल्लू बनाने लगे।'

लिर - 'मैंने तुमसे कब क ा था कक बताओगे तो मारँगा।'

मैं - 'व ीिं, तालाब के ककनारे तो।'

लिर - 'अम्माँ, बबल्कुल झठ


ू ै ।'

चची - 'झूठ न ीिं, सच ै । झूठा तो तू ै , और सारा सिंसार सच्चा ै , तेरा नाम


ननकल गया ै न। तेरा बाप नौकरी करता, बा र से रुपया कमा लाता, चार जने
उसे भला आदमी करते तो तू भी सच्चा ोता। अब तो तू ी झठ
ू ा ै । न्जसके
भाग में ममठाई मलखी थी, उसने ममठाई खाई। तेरे भाग में लात खानी ी मलखा
था।'

य क ते ु ए चची ने लिर को खोल हदया और ाथ पकडकर भीतर ले गई।


मेरे ववषय में स्ने -पूणम आलोचना करके अम्माँ ने पाँसा पलट हदया था, न ीिं तो
अभी बेचारे पर न जाने ककतनी मार पडती। मैंने अम्माँ के पास बैठकर अपनी
ननदोवषता का राग खूब अलापा। मेरी सरल-हृदय माता मुझे सत्य का अवतार
समझती थी। उद ें पूरा ववश्वास ो गया कक सारा अपराि लिर का ै । एक
क्षण बाद मैं गड
ु -चबेना मलए कोठरी से बा र ननकला। लिर भी उसी वक्त
धचउडा खाते ु ए बा र ननकले। म दोनों साथ-साथ बा र आए और अपनी-
अपनी बीती सुनाने लगे। मेरी कथा सुखमय थी, लिर की दःु खमय, पर अदत
दोनों का एक था - गुड और चबेना।
***
लांछि

अगर सिंसार में ऐसा प्राणी ोता, न्जसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस
सकती, तो ऐसे ब ु त कम स्त्री या पुरुष ोंगे, जो उनके सामने सीिी आँखें करके
ताक सकते। मह ला आश्रम की जुगनूबाई के ववषय में लोगों की िारणा कुछ-
ऐसी ी ो गयी थी। व बेपढ़ी-मलखी, गरीब, बढ़
ू ी औरत थी; दे खने में ब ु त सरल,
बडी ँ समख
ु ; लेककन जैसे ककसी चतरु प्रफ
ु रीडर की ननगा गलनतयों ी पर जा
पडती ैं, उसी तर उसकी आँखें भी बुराईयों ी पर प ु ँच जाती थीिं। श र में
ऐसी कोई मह ला न थी, न्जसके ववषय में दो-चार लुकी-नछपी बातें उसे न मालूम
ों। उसका हठगना, स्थूल शरीर, मसर के िखचडी बाल, गोल मँु , फूले-फूले गाल,
छोटी-छोटी आँखें. उसके स्वभाव की प्रखरता और तेजी पर परदा-सा डाले र ती
थी; लेककन जब व ककसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृनत कठोर ो
जाती, आँखें फैल जाती और किंठ-स्वर ककमश ो जाता। उसकी चाल में बबन्ल्लयों
का-सा सिंयम था, दबे पाँव िीरे -िीरे चलती; पर मशकार की आ ट पाते ी, जस्त
मारने को तैयार ो जाती थी। उसका काम था, मह ला-आश्रम में मह लाओिं की
सेवा-ट ल करना; पर मह लाएँ उसकी सूरत से काँपती थी। उसका ऐसा आतिंक
था कक ज्यों ी व कमरे में कदम रखती, ओिंठों पर खेलती ु ई ँसी जैसे रो
पडती थी, च कनेवाली आवाजें बझ
ु जाती थी, मानो उनके मख
ु पर लोगों को
अपने वपछले र स्य अिंककत नजर आते ों। वपछले र स्य! कौन ैं , जो अपने
अतीत को ककसी भयिंकर जदतु के समान कठघरों में बदद करके न रखना
चा ता ो? िननयों को चोरों के भय से ननद्रा न ीिं आती। माननयों को उसी भाँनत
मान का रक्षा करनी पडती ैं। व जदतु, जो कीट के समान अल्पाकार र ा
ोगा, हदनों के साथ दीिम और सबल ोता जाता ैं , य ाँ तक की म उसकी याद
ी से काँप उठते ैं। और, अपने ी कारनामों की बात ोती, तो अधिकाँश जग
ु नू
को दत्ु कारतीिं। पर य ाँ तो मैके, ससरु ाल, ननन ाल, दहदयाल, फुकफयाल और
मौमसयाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और न्जस ककले में इतने द्वार ो,
उसकी रक्षा कौन कर सकता ैं ? व ाँ तो मला करनेवाले के सामने मस्तक
झुकाने में ी कुशल ैं। जुगनू के हदल में जारों मुदे गडे ैं और व जररत
पडने पर उद ें उखाड हदया करती थी। ज ाँ ककसी मह ला ने दन
ू की ली या
शान हदखायी, व ाँ जग
ु नू की त्योररयाँ बदलीिं। उसकी एक कडी ननगा अच्छे -
अच्छों को द ला दे ती थीिं; मगर य बात न थी कक न्स्त्रयाँ उससे घण
ृ ा करती
ों। न ीिं, सभी बडे चाव से उससे ममलती और उसका आदर-सत्कार करतीिं। अपने
पडोमसयों की ननिंदा सनातन से मनुष्य के मलए मनोरिं जन को ववषय र ी ैं ओर
जुगनू के पास इसका काफी सामान था।

नगर में इिंदम


ु ती-मह ला-पाठशाला नाम का एक लडककयों का ाईस्कूल था। ाल
में ममस खुरशेद उसकी ै ड ममस्रे स ोकर आयी थी। श र में मह लायों का
दस
ू रा क्लब न था! ममस खुरशेद मह ला एक हदन आश्रम में आयीिं। ऐसी ऊँचे
दजे की मशक्षा पायी ु ई आश्रम में कोई दे वी न थी। उनकी बडी आवभगत ु ई।
प ले ी हदन मालूम ो गया, ममस खुरशेद के आने से आश्रम में एक नये
जीवन का सिंचार ोगा। व इस तर हदल खोलकर रे क से ममलीिं, कुछ ऐसी
हदलचस्प बातें कीिं कक सभी दे ववयाँ मनु ि ो गयीिं। गानें में भी चतरु थीिं।
व्याख्यान भी खूब दे ती थी और अमभनय-कला में तो उद ोंने लिंदन में नाम कमा
मलया था। ऐसी सवमगुण-सम्पदना दे वी का आना आश्रम का सौभानय था। गुलाबी-
गोरा रिं ग, कोमल गाल, मदभरी आँखें, नये फैशन के कटे ु ए केश, एक-एक अिंग
साँचे में ढला ु आ, मादकता की इससे अच्छन प्रनतमा न बन सकती थी।

चलते समय ममस खुरशेद ने ममसेज टिं डन को, जो आश्रम की प्रिान थीिं, एकादत
में बुलाकर पूछा- य बुहढ़या कौन ैं?

जुगनू कई बार कमरे में आकर ममस खुरशेद को अदवेष्ण की आँखों से दे ख


चुकी थी, मानो कोई श सवार ककसी नयी घोडी को दे ख र ा ो।
ममसेज टिं डन ने मस्
ु कराकर क ा- य ाँ ऊपर का काम करने के मलए नौकर ैं।
कोई काम ो, तो बल
ु ाऊँ? ममस खरु शेद ने िदयवाद दे कर क ा- जी न ीिं, कोई
ववशेष काम न ीिं ैं। मुझे चालबाज मालूम ोती ैं। य भी दे ख र ीिं ू ँ कक य ाँ
की सेववका न ीिं, स्वाममनी ैं। ममसेज टिं डन तो जुगनू से जली बैठन थी। इनके
वैिव्य को लािंनछत करने के मलए, व सदा-सु ाधगन क ा करती थी। ममस खुरशेद
से उसकी न्जतनी बुराई ो सकी, व की, और उससे सचेत र ने का आदे श हदया।

ममस खुरशेद ने गम्भीर ोकर क ा- तब तो भयिंकर स्त्री ैं। तभी सब दे ववयाँ


इससे काँपती ैं। आप इसे ननकाल क्यों न ी दे ती? ऐसी चुडल
ै को एक हदन भी
न रखना चाह ए।

ममसेज टिं डन ने मजबूरी बतायी- कैसे ननकाल दँ ,ू न्जददा र ना मुन्श्कल ो जाए।


मारा भानय उसकी मुिी में ैं। आपको दो-चार हदन में उसके जौ र हदखेंगे। मैं
तो डरती ू ँ , क ीिं आप भी उसके पिंजे में न फँस जायँ। उसके सामने भूलकर भी
ककसी परु
ु ष से बातें न कीन्जएगा। इसके गोयिंदे न जाने क ाँ-क ाँ लगे ुए ैं।
नौकरों से ममलकर भेद य ले, डाककयों से ममलकर धचहियाँ य दे खे, लडको को
फुसलाकर घर का ाल य पूछे। इस राँड को खुकफया पुमलस में जाना चाह ए
था! य ाँ न जाने क्यों आ मरी!

ममस खुरशेद धचन्दतत ो गयी, मानो इस समस्या को ल करने की कफक्र में


ोष एक क्षण बाद बोली- अच्छा, मैं इसे ठनक करँगी, अगर ननकाल न दँ ,ू तो
क ना।

ममसेज टिं डन- ननकाल दे ने ी से क्या ोगा! उसकी जुबान तो बदद न ोगी। तब
तो व और ननडर ोकर कीचड फेंकेगी।

ममस खरु शेद ने ननन्श्चिंत स्वर से क ा- मैं उसकी जब


ु ान भी बदद कर दँ ग
ू ी
ब न! आप दे ख लीन्जएगा। टके की औरत, य ाँ बादशा त कर र ी ैं। मैं य
बदामश्त न ी कर सकती।
व चली गयी, तो ममसेज टिं डन ने जुगनू को बुलाकर क ा- इन नयी ममस सा ब
को दे खा, य ाँ वप्रिंमसपल ैं।

जुगनू ने द्वेष भरे स्वर में क ा - आप दे खें। मैं ऐसी सैकडों छोकररयाँ दे ख
चुकी ू ँ। आँखों का पानी जैसे मर गया ो।

ममसेज टिं डन िीरे से बोली- तम्


ु ें कच्चा ी खा जायेंगी। उनसे डरती र ना। क
गयी ैं, मैं इसे ठनक करके छोडूँगी। मैने सोचा, तम् ें चेता दँ ।ू ऐसा न ो, उसके
सामने कुछ ऐसी-वैसी बातें क बैठो।

जग
ु नू ने मानो तलवार खीचकर क ा- मझ
ु े चेताने का काम न ीिं, उद ें चेता
दीन्जएगा। य ाँ का आना न बदद कर दें , तो अपने बाप की न ीिं।

ममसेज टिं डन ने पीठ ठोंकी- मैने समझा हदया भाई, आगे तम


ु जानो, तम्
ु ारा काम
जाने।

जुगनू- आप चुपचाप दे खती जाइएिं, कैसी नतगनी का नाच नचाती ू ँ। इसने अब


ब्या क्यों न ीिं ककया? उमर तो तीस के लगभग ोगी?

ममसेज टिं डन ने रद्दा जमाया- क ती ैं, मैं शादी करना ी न ीिं चा ती। ककसी
पुरुष के ाथ क्यों अपनी आजादी बेचँ!ू

जुगनू ने आँखें नचाकर क ा- कोई पूछता ी न ोगा। ऐसी ब ु त-सी क्वाँररयाँ


दे ख चुकी ू ँ। सतर चू े खाकर, बबल्ली चली ज्ज चली।

और कई लेडडयाँ आ गयीिं और बात का मसलमसला बदद ो गया।

3
दस
ू रे हदन सवेरे जग
ु नू ममस खरु शेद के बँगले पर प ु ँची। ममस खरु शेद वा खाने
गयी ु ई थी। खानसामा ने पछ
ू ा- क ाँ से आती ो?

जुगनू- य ीिं र ती ू ँ बेटा। मेम सा ब क ाँ से आयी ैं, तुम इनके पुराने नौकर
ोगे?

खान. - नागपुर से आयी ैं। मेरा घर भी व ीिं ै । दस साल से इनके साथ ू ँ।

जुगनू- ककसी ऊँचे खानदान की ोंगी? व तो रिं ग-ढिं ग से ी मालूम ोता ैं।

खान.- खानदान तो कुछ ऐसा ऊँचा न ीिं ैं। इनकी माँ अभी तक ममशन में 30
र. पाती ैं। य पढ़ने में तेज थीिं, वजीफा ममल गया, ववलायत चली गयी, बस
तकदीर खुल गयी। अब तो अपनी माँ को बुलानेवाली ैं, लेककन बुहढ़या शायद ी
आये। य धगरजे-ववरजे न ीिं जातीिं इससे दोनों में पटती न ीिं।

जग
ु नू- ममजाज की तेज मालम
ू ोती ैं।

खान.- न ीिं, यों तो ब ु त नेक ैं, धगरजे न ीिं जातीिं। तुम क्या नौकरी की तलाश
में ो? करना चा ो, तो कर लो। एक आया रखना चा ती ैं।

जुगनू- न ी बेटा, मैं अब क्या नौकरी करँगी। इस बँगले में प ले जो मेम र ती


थीिं, मुझ पर बडी ननगा रखती थीिं। मैने समझा, चलँ ू, नयी मेम सा ब को
आशीवामद दे आऊँ।

खान.- य आशीवामद लेने वाली मेम न ी ैं। ऐसो से ब ु त धचढ़ती ैं। कोई
मँगता आया और उसे डाँट बताई। क ती ैं , बबना काम ककये ककसी को न्जददा
र ने का क न ीिं ैं। भला चा ती ो, तो चप
ु के से रा लो।

जुगनू- तो य क ो, इनका कोई िरम-करम न ीिं ैं। कफर भला गरीबों पर क्यों
दया करने लगी!
जुगनू को अपनी दीवार खडी करने के मलए काफी सामान ममल गया- नीच
खानदान की ैं , माँ से पटती न ीिं, िमम से ववमुख ैं। प ले िावे में इतनी
सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा- इनके
सा ब क्या करते ैं ? खानसामा ने मस्
ु कराकर क ा- इनकी तो अभी शादी ी न ीिं

ु ई। सा ब क ाँ से ोंगे!

जुगनू ने बनाबटी आश्चयम से क ा- अरे , अब तक ब्या न ी ु आ! मारे य ाँ तो


दनु नया ँसने लगे।

खान. - अपना- अपना ररवाज ैं। इनके य ाँ तो ककतनी ी औरतें उम्रभर ब्या
न ीिं करती।

जुगनू ने मामममक भाव से क ा- ऐसी क्वाँररयों को मैं भी ब ु त दे ख चुकी। मारी


बबरादरी में कोई इस तर र ें , तो थुडी-थुडी ो जाय। मुदा इनके य ाँ जो जी में
आवे करें , कोई न ीिं पूछता।

इतने में ममस खुरशेद आ प ु ँची। गुलाबी जाडा पडने लगा था। ममस सा ब साडी
के ऊपर ओवर कोट प ने ु ए थी। एक ाथ में छतरी थी, दस
ू रे में कुत्ते की
जिंजीर। प्रभात की शीतल वायु में व्यायाम ने कपोलों को ताजा और सुखम कर
हदया था। जग
ु नू ने झक
ु कर सलाम ककया; पर उद ोंने उसे दे खकर भी न दे खा।
अददर जाते ी खानसामा को बल
ु ाकर पछ
ू ा- य औरत क्या करने आयी ैं ?

खानसामा ने जूते का फीता खोलते ु ए क ा- मभखाररन ैं, ु जूर! पर औरत


समझदार ैं! मैंने क ा, य ाँ नौकरी करे गी, तो राजी न ीिं ु ई। पछ
ू ने लगी, इनके
सा ब क्या करते ैं। जब मैंने बता हदया, तो इससे बडा ताज्जब
ु ु आ , और ोना
भी चाह ए। ह ददओ
ु िं में तो दि
ु मँु े बालकों तक का वववा ो जाता ैं।

खरु शेद ने जाँच की- और क्या क ती थी?


'और तो कोई बात न ी ु जरू !'

'अच्छा, उसे मेरे पास भेज दो।'

जुगनू ने ज्यों ी कमरे में कदम रखा, ममस खुरशेद ने कुसी से उठकर स्वागत
ककया- आइये माँ जी! मैं जरा सैर करने चली गयी थी! आपके आश्रम में सब
कुशल ैं?

जुगनू एक कुसी का तककया पकडकर खडी-खडी बोली- कुशल ैं ममस सा ब!


मैने क ा, आपको आशीवामद दे आऊँ। मैं आपकी चेली ू ँ। जब कोई काम पडे,
मुझे याद कीन्जएगा। य ाँ अकेले तो ु जूर को अच्छा न लगता ोगा।

ममस.- मुझे अपने स्कूल की लडककयों के साथ बडा आनदद ममलता ैं, व सब
मेरी ी लडककयाँ ैं।

जुगनू ने मात-ृ भाव से मसर ह लाकर क ा- य ठनक ैं ममस सा ब; पर अपना-


अपना ी ोता ैं। दस
ू रा अपना ो जाएगा तो अपनों के मलए कोई क्यों रोयें?

स सा एक सद
ु दर सजीला यव
ु क रे शमी सट
ू िारण ककये जत
ू े चरमर करता ु आ
अददर आया। ममस खुरशेद ने इस तर दौडकर प्रेम से उसका अमभवादन ककया,
मानो जामे में फूली न समाती ों। जुगनू उसे दे खकर कोने में दब
ु क गयी।

खरु शेद ने यव
ु क से गले ममलकर क ा- प्यारे ! मैं कब से तम्
ु ारी रा दे ख र ी

ू ँ। (जुगनू से) माँ जी, आप जाएँ, कफर कभी आना। य मेरे परम ममत्र ववमलयम
ककिं ग ैं। म और य , ब ु त हदनों तक साथ-साथ पढ़े ैं।
जग
ु नू चप
ु के से ननकलकर बा र आयी। खानसामा खडा था। पछ
ू ा- य लौंडा
कौन ैं?

खानसामा ने मसर ह लाया- मैंने इसे आज ी दे खा ैं। शायद अब क्वाँरेपन से


जी ऊबा! अच्छा तर दार जवान ैं।

जुगनू- दोनों इस तर टूटकर गले ममले ैं कक मैं लाज के मारे गड गयी। ऐसी
चूमा-चाटी तो जोर-खसम में भी न ीिं ोती। दोनों मलपट गये। लौडा तो मुझे
दे खकर िझझकता था; पर तम्
ु ारी ममस सा ब तो जैसे मतवाली ो गयी थी।

खानसामा ने मानो अमिंगल आभास से क ा- मुझे तो कुछ बेढ़ब मामला नजर


आता ैं।

जुगनू तो य ाँ से सीिे ममसेज टिं डन के घर प ु ँ ची। इिर ममस खुरशेद और


युवक में बाते ोने लगी।

ममस खुरशेद ने क क ा मारकर क ा- तुमने अपने खूब खेला लीला, बुहढ़या


सचमुच चौंधिया गयी।

लीला- मैं तो डर र ी थी कक क ीिं बहु ढ़या भाँप न जाये।

ममस खुरशेद- मुझे ववश्वास था, व आज जरर आयेगी। मैंने दरू ी से उसे
बरामदे में दे खा और तम्
ु ें सच
ू ना दी। आज आश्रम में बडे मजे र ें गे। जी चा ता
ैं, मह लाओिं की कनफुसककयाँ सन
ु ती। दे ख लेना, सभी उसकी बातों पर ववश्वास
करें गी।

लीला- तम
ु भी तो जान-बझ
ू कर दलदल में पाँव रख र ी ो।

ममस खुरशेद- मुझे अमभनय में मजा आता ैं ब न! हदल्लगी र े गी। बुहढ़या ने
बडा जुल्म कर रखा ैं। जरा उसे सबक दे ना चा ती ू ँ। कल तुम इसी वक़्त,
इसी ठाट से कफर आ जाना। बहु ढ़या कल कफर आयेगी। उसके पेट में पानी न
जम ोगा। न ीिं, ऐसा क्यों? न्जस वक़्त आयेगी, मै तम्
ु ें खबर दँ ग
ू ी। बस, तम

छै ला बनी प ु ँच जाना।

5
आश्रम में उस हदन जग
ु नू को दम मारने की फुसमत न ममली। उसने सारा
वत्ृ तािंत ममसेज टिं डन से क ा। ममसेज टिं डन दौडी ु ई आश्रम प ु ँची और अदय
मह लाओिं को खबर सुनाई। जुगनू इसकी तसदीक करने के मलए बुलायी गयी।
जो मह ला आती, व जुगनू के मँु से य कथा सुनती। र एक रर समल में
कुछ-कुछ रिं ग और चढ़ जाता। य ाँ तक कक दोप र ोते- ोते सारे श र के सभ्य
समाज में य खबर गँज
ू उठन।

एक दे वी ने पूछा- य युवक ै कौन?

मम. टिं डन- सुना तो, उनके साथ का पढ़ा ु आ ैं। दोनों में प ले से कुछ बातचीत
र ी ोगी। व ी तो मै क ती थी कक इतनी उम्र ो गयी; क्वाँरी कैसे बैठन ैं? अब
कलई खुली।

जुगनू- और कुछ ो या न ो, जवान तो बाँका ैं।

मम. टिं डन- य मारी ववद्वान ब नों का ाल ैं।

जुगनू- मैं तो उसकी सूरत दे खते ी ताड गयी थी। िूप में बाल न ीिं सफेद ककये
ैं।

मम. टिं डन- कल कफर जाना।

जग
ु नू- कल न ीिं, मैं आज रात ी को जाऊँगी।
लेककन रात को जाने के मलए कोई ब ाना जररी था। मम. टिं डन ने आश्रम के
मलए एक ककताब मँगवा भेजी। रात को नौ बजे जग
ु नू ममस खरु शेद के बँगले पर
जा प ु ँची। सिंयोग से लीलावती उस वक़्त मौजूद थी। बोली- बुहढ़या तो बेतर
पीछे पड गयी।

ममस खरु शेद- मैने तम


ु से क ा था, उसके पेट में पानी न पचेगा। तम
ु जाकर रप
भर आओ। तब तक इसे मैं बातों मे लगाती ू ँ। शराबबयों की तर अिंट-सिंट
बकना शुर करना। मुझे भगा ले जाने का प्रस्ताव भी करना। बस यों बन जाना,
जैसे अपने ोश में न ीिं ो।

लीला ममशन में डॉक्टर थी। उसका बँगला भी पास ी था। व चली गयी, तो
ममस खुरशेद ने जुगनू को बुलाया।

जग
ु नू ने एक पज
ु ाम दे खकर क ा- ममसेज टिं डन में य ककताब माँगी ैं। मझ
ु े
आने में दे र ो गयी। मैं इस वक़्त आपको कष्ट न दे ती; पर सवेरे ी व मुझसे
माँगेगी। जारों रुपये की आमदनी ैं ममस सा ब, मगर एक-एक कौडी दाँत से
पकडती ैं। इनके द्वार पर मभखारी को भीख तक न ीिं ममलती।

ममस. खुरशेद ने पुजाम दे खकर क ा- इस वक़्त तो य ककताब न ी ममल सकती,


सुब ले जाना। तुमसे कुछ बाते करनी ैं। बैठो, मै अभी आती ू ँ।

व परदा उठाकर पीछे के कमरे में चली गयी और व ाँ से कोई पदद्र ममनट में
एक सुददर रे शमी साडी प ने, इत्र में बसी ु ई, मँु में पाउडर लगाये ननकली।
जुगनू ने उसे आँखे फाडकर दे खा। ओ ो! य श्रिंग
ृ ार! शायद इस समय व लौंडा
आनेवाला ोगा। तभी ये तैयाररयाँ ैं। न ीिं तो सोने के समय क्वाँररयों को
बनाव-सँवार की क्या जरुरत ैं? जुगनू की नीनत से न्स्त्रयों के श्रिंग
ृ ार का केवल
एक उद्देश्य था, पनत को लभ
ु ाना। इसमलए सु ाधगनों के मसवा, श्रिंग
ृ ार और सभी के
मलए वन्जमत था। अभी खुरशेद कुसी पर बैठने भी न पायी थी कक जूतों का
चरमर सुनाई हदया और एक क्षण में ववमलयम ककिं ग ने कमरे में कदम रखा।
उसकी आँखे चढ़ी ु ई मालम
ू ोती थी और कपडो से शराब की गिंि आ र ी थी।
उसने बेिडक ममस खरु शेद को छाती से लगा मलया और बार-बार उसके कपोलों
के चुम्बन लेने लगा।

ममस खरु शेद ने अपने को उसके बा ु -पाश से छुडाने की चेष्टा करके क ा- चलो
टो, शराब पीकर आये ो।

ककिं ग ने उसे और धचपटाकर क ा- आज तुम् ें भी वपलाऊँगा वप्रये! तुमको पीना


ोगा। कफर म दोनों मलपटकर सोएँगे। नशे में प्रेम ककतना सजीव ो जाता ैं ,
इसकी परीक्षा कर लो।

ममस खुरशेद ने इस तर जुगनू की उपन्स्थनत का उसे सिंकेत ककया कक जुगनू


की नजर पड जाये , पर ककिं ग नशे ने मस्त था। जग
ु नू की तरफ दे खा ी न ीिं।

ममस खुरशेद ने रोष के साथ अपने को अलग करके क ा- तुम इस वक़्त आपे
में न ीिं ो! इतने उतावले क्यों ु ए जाते ो? क्या मैं क ीिं भागी जा र ी ू ँ!

ककिं ग- इतने हदनों चोरों की तर आया ू ँ , आज से खुले खजाने आऊँगा?

खरु शेद- तम
ु तो पागल ो र े ो। दे खते न ी ो, कमरे में कौन बैठा ु आ ैं?

ककिं ग ने कबकाकर जुगनू की तरफ दे खा और िझझककर बोला- य बुहढ़या य ाँ


कब आयी? तम
ु य ाँ क्यों आयी बड्
ु ढी! शैतान की बच्ची! भेद लेने आती ैं!
मको बदनाम करना चा ती ैं ? मैं तेरा गला घोंट दँ ग
ू ा। ठ र, भागती क ाँ ैं? मैं
तुझे न्जददा न छोडूँगा!

जग
ु नू बबल्ली की तर कमरे से ननकली और मसर पर पाँव रखकर भागी! उिर
कमरे से क क े उठ-उठकर छत को ह लाने लगे।
जग
ु नू उसी वक़्त ममसेज टिं डन के घर प ु ँची। उसके पेट में बल
ु बल
ु े उठ र े थे,
पर ममसेज टिं डन सो गयी थी। व ाँ से ननराश ोकर उसने कई दस
ू रे घरों की
किंु डी खटखटायी, पर कोई द्वार न खुला और दिु खया को सारी रात इसी तर
काटनी पडी, मानो कोई रोता ु आ बच्चा गोद में ो। प्रातःकाल व आश्रम में जा
कूदी।

कोई आिे घिंटे में ममसेज टिं डन भी आयी। उद ें दे खकर उसने मँु फेर मलया।

मम. टिं डन ने पछ
ू ा- रात तम
ु मेरे घर गयी थीिं? इस वक़्त म ाराज ने क ा।

जुगनू ने ववरक्त भाव से क ा- प्यासा ी तो कुएँ के पास जाता ैं। कुँआ थोडे
ी प्यासे के पास आता ैं। मझ
ु े आग में झोंककर आप दरू ट गयीिं। भगवान
ने मेरी रक्षा की, न ी कल जान ी गयी थी।

मम. टिं डन ने उत्सुकता से क ा- ु आ क्या? कुछ क ो। मुझे तुमने जगा क्यों न


हदया? तुम तो जानती ी ो, मेरी आदत सवेरे सो जाने की ैं।

'म ाराज ने घर में घुसने ी न हदया। जगा कैसे लेती! आपको इतना तो सोचना
चाह ए था कक व ाँ गयी ैं , तो आती ोगी! घडी भर बाद सोती तो क्या बबगड
जाता; पर आपको ककसी की क्या परवा !'

'तो क्या ु आ? ममस खुरशेद मारने दौडी।'

'व न ीिं मारने दौडी, उसका व खसम ैं , व मारने दौडा। लाल आँखें ननकाले
आया और मुझसे क ा- ननकल जा। जब तर मैं ननकलँ -ू ननकलँ ू, तब तक िं टर
खीिंचकर दौड ी तो पडा। में मसर पर पाँव रखकर न भागती, तो चमडी उिेड
डालता। और व राँड बैठन तमाशा दे खती र ी। दोनों में प ले से ी सिी-वदी
थी। ऐसी कुलटाओिं का मँु दे खना पाप ैं। वेसवा भी इतनी ननलमज्ज न ोगी।'
जरा दे र में और भी दे ववयाँ आ प ु ँची। य सन
ु ने के मलए सभी उत्सक
ु ो र ी
थी। जग
ु नू की कैंची अववश्रािंत रप से चलती र ी। मह लाओिं को इस वत्ृ तािंत में
इतना आनदद आ र ा था कक कुछ न पूछों। एक-एक बात को खोद-खोदकर
पूछती थी। घर के काम-ििंिे भूल गये, खाने-पीने की सुधि न र ी और एक बार
सुनकर उनकी तन्ृ प्त न ोती थी, बार-बार व ी कथा नए आनदद से सुनती थीिं।

ममसेज टिं डन ने अिंत में क ा- में आश्रम में ऐसी मह लाओिं को लाना अनुधचत
ैं। आप लोग इस प्रश्न पर ववचार करे ।

ममसेज पिंड्या ने समथमन ककया- म आश्रम को आदशम से धगराना न ी चा ते।


मैं तो क ती ू ँ , ऐसी औरत ककसी सिंस्था की वप्रिंमसपल बनने के योनय न ीिं ैं।

ममसेज बाँगडा ने फरमाया- जग


ु नब
ू ाई ने ठनक क ा था, ऐसी औरत का मँु
दे खना भी पाप ैं। उससे साफ क दे ना चाह ए, आप य ाँ तशरीफ न लाएँ।

अभी य ी िखचडी पक ी र ी थी कक आश्रम के सामने एक मोटर आकर रुकी।


मह लाओिं ने मसर उठा-उठाकर दे खा, गाडी में ममस खरु शेद और ववमलयम ककिं ग
ैं।

जुगनू ने मँु फैलाकर ाथ से इशारा ककया, व ीिं लौडा ैं! मह लाओिं का सम्पूणम
समू धचक के समाने आने के मलए ववकल ो गया।

ममस खुरशेद ने मोटर से उतर कर ु ड बदद कर हदया और आश्रम के द्वार की


ओर चली। मह लाएँ भाग-भागकर अपनी-अपनी जग आ बैठन।

ममस खुरशेद ने कमरे में कदम रक्खा। ककसी ने स्वागत न ककया। ममस खुरशेद
ने जुगनू की ओर ननस्सिंकोच आँखों से दे खकर मुस्काते ु ए क ा- कह ए बाईजी,
रात आपको चोट तो न ी आयी?
जग
ु नू ने ब ु तेरी दीदा-हदलेर न्स्त्रयाँ दे खी थी; पर इस हढठाई ने उसे चककत कर
हदया। चोर ाथ में चोरी का माल मलये , सा को ललकार र ा था।

जुगनू ने ऐिंठकर क ा- जी न भरा ो, तो अब वपटवा दो। सामने ी तो ैं।

खुरशेद- व इस वक़्त तुमसे अपना अपराि क्षमा कराने आये ैं। रात व नशे
में थे।

जुगनू ने ममसेज टिं डन की ओर दे खकर क ा- और आप भी तो कुछ कम नशे में


न ी थी।

खरु शेद ने व्यिंनय समझकर क ा- मैने आज तक कभी न ी पी। मझ


ु पर झठ
ू ा
इलजाम मत लगाओ।

जग
ु नू ने लाठन मारी- शराब से भी बडे नशे की चीज ैं कोई, व उसी का नशा
ोगा। उन म ाशय को परदे में क्यों ढक हदया? दे ववयाँ भी तो उनकी सरू त
दे खती।

ममस खरु शेद ने शरारत की- सरू त तो उनकी लाख-दो लाख में एक ैं।

ममसेज टिं डन ने आशिंककत ोकर क ा- न ीिं, उद ें य ाँ लाने की जररत न ी ैं।


आश्रम को म बदनाम न ीिं करना चा ते।

ममस खुरशेद ने आग्र ककया- मामले को साफ़ करने के मलए उनका आप लोगों
के सामने आना जररी था। एक तरफा फैसला आप क्यों करती ैं ?

ममसेज टिं डन ने टालने के मलए क ा- य ाँ कोई मुकद्दमा थोडे ी पेश ैं।

ममस खरु शेद- वा ! मेरी इज्जत में बट्टा लगा जा र ा ैं , और आप क ती ैं , कोई


मक
ु द्दमा न ी ैं? ममस्टर ककिं ग आयेगे और आपको उनका बयान सन
ु ना ोगा।
ममसेज टिं डन के छोडकर और सभी मह लाएँ ककिं ग को दे खने के मलए उत्सक
ु थी।
ककसी ने ववरोि न ककया।

खुरशेद ने द्वार पर आकर ऊँची आवाज से क ा- तुम जरा य ाँ चले आओ।

ु ड खुला औऱ ममस लीलावती रे शमी साडी प ने मुस्काती ु ई ननकल आयी।

आश्रम में सदनाटा छा गया। दे ववयाँ ववन्स्मत आँखों से लीलावती को दे खने


लगी।

जग
ु नू ने आँख चमकाकर क ा- उद ें क ाँ नछपा हदया आपने?

खुरशेद- छूमिंतर से उड गये। जाकर गाडी दे ख लो।

जुगनू लपककर गाडी के पास गयी और खूब दे ख-भालकर मँु लटकाये ुए


लौटी।

ममस खरु शेद ने पछ


ू ा- क्या ु आ, ममला कोई?

जुगनू- मैं य नतररया-चररत्र क्या जानँू। (लीलावती को गौर से दे खकर) और


मरदों को साडी प नाकर आँखों मे िल
ू झोंक र ी ो। य ी तो ैं व मतवाले
सा ब!

खुरशेद- खूब प चानती ो?

जुगनू- ाँ- ाँ, क्या अँिी ू ँ ?

ममसेज टिं डन- क्या पागलों-सी बातें करती ो जग


ु नू, य तो डॉक्टर लीलावती ैं।

जुगनू- (उँ गली चमकाकर) चमलए, चमलए, लीलावती ैं। साडी प नकर औरत बनते
लाज भी न ी आती! तुम रात को न ीिं इनके घर थे?
लीलावती ने ववनोद-भाव से क ा- मैं कब इनकार कर र ी ू ँ ? इस वक़्त
लीलावती ू ँ। रात को ववमलयम ककिं ग बन जाती ू ँ। इसमें बात ी क्या ैं ?

दे ववयों को अब यथाथम की लामलमा हदखाई दी। चारों ओर क क े पडने लगे।


कोई तामलयाँ बजाती, कोई डॉक्टर लीलावती से मलपटी जाती थी, कोई ममस
खुरशेद की पीठ पर थपककयाँ दे ती थी। कई ममनट तक ू - क मचता र ा।
जुगनू का मँु उस लामलमा में बबलकुल जरा-सा ननकल आया। जबान बदद ो
गयी। ऐसा चरका उसने कभी न खाया था। इतनी जलील कभी न ु ई थी।

ममसेज मे रा ने डाँट बताई- अब बोलो दाई, लगी मँु में कामलख कक न ीिं?

ममसेज बाँगडा- इसी तर य सबको बदनाम करती ैं।

लीलावती- आप लोग भी तो, व जो क ती ैं , उस पर ववश्वास कर लेती ैं।

इस डबोंग में जुगनू को ककसी ने जाते न दे खा। अपने मसर पर य तूफान


दे खकर उसे चुपके से सरक जाने ी में अपनी कुशल मालम
ू ु ई। पीछे के द्वार
से ननकली और गमलयों-गमलयों भागी।

ममस खुरशेद ने क ा- जरा उससे पूछोस मेरे पीछे क्यों पड गयी?

ममसेज टिं डन ने पुकारा, पर जुगनू क ाँ! तलाश ोने लगी। जुगनू गायब!

उस हदन से श र में कफर ककसी ने जग


ु नू की सरू त न ीिं दे खी। आश्रम के
इनत ास में य मामला आज भी उल्लेख और मनोरिं जन का ववषय बना ु आ ैं।
***
कजाकी

मेरी बाल-स्मनृ तयों में 'कजाकी' एक न ममटने वाला व्यन्क्त ै । आज चालीस


साल गज
ु र गए, कजाकी की मनू तम अभी तक आँखों के सामने नाच र ी ै । मैं
उन हदनों अपने वपता के साथ आजमगढ़ की एक त सील में था। कजाकी जानत
का पासी था, बडा ी ँसमुख, बडा ी सा सी, बडा ी न्जददाहदल। व रोज शाम
को डाक का थैला लेकर आता। रात-भर र ता और सवेरे डाक लेकर चला जाता।
शाम को कफर उिर से डाक लेकर आता। मैं हदन-भर एक उद्ववनन दशा में
उसकी रा दे खा करता। ज्यों ी चार बजते, व्याकुल ोकर सडक पर आ खडा ो
जाता, और थोडी दे र में कजाकी कदिे पर बल्लम रखे, उसकी झिंझ
ु न
ु ी बजाता, दरू
से दौडता ु आ आता हदखलाई दे ता। व साँवले रिं ग की गठनला, लम्बा जवान था।
शरीर सािंचे में ऐसा ढला था कक चतुर मूनतमकार भी उसमें कोई दोष न ननकाल
सकता। उसकी छोटी-छोटी मँछ
ू े , उसके सुडौल चे रे पर ब ु त अच्छन मालूम ोती
थीिं। मुझे दे खकर व और तेज दौडने लगता, उसकी झुिंझनी और तेजी से बजने
लगती, और मेरे हृदय में और जोर से खश
ु ी की ध़डकन ोने लगती। षमनतरे क में
मैं दौड पडता और एक क्षण में कजाकी का कदिा मेरा मसिं ासन बन जाता। व
स्थान मेरी अमभलाषाओिं का स्वगम था। स्वगम के ननवामसयों को भी शायद व
आददोमलत आनदद न ममलता ोगा जो मुझे कजाकी के ववशाल कदिों पर
ममलता था। सिंसार मेरी आँखों में तुच्छ ो जाता और जब कजाकी मुझे कदिे
पर मलए ु ए दौडने लगता, तब तो ऐसा मालूम ोता, मानो मैं वा के घोडे पर
उडा जा र ा ू ँ।

कजाकी डाकखाने में प ु ँ चता तो पसीने से तर र ता, लेककन आराम करने की


आदत न थी। थैला रखते ी व म लोगों को लेकर ककसी मैदान में ननकल
जाता, कभी मारे साथ खेलता, कभी बबर े गाकर सन
ु ाता और कभी क ाननयाँ।
उसे चोरी और डाके, मार-पीट, भत
ू -प्रेत की सैकडो क ाननयाँ याद थीिं। मैं ये
क ाननयाँ सुनकर ववस्मयपूणम आनदद में मनन ो जाता। उसकी क ाननयों के
चोर और डाकू सच्चे योद्धा ोते थे, जो अमीरों को लट
ू कर दीन-दख
ु ी प्रािणयों का
पालन करते थे। मझ
ु े उन पर घण
ृ ा के बदले श्रद्धा ोती थी।

एक हदन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में दे र ो गई। सूयामस्त ो गया
और व हदखलाई न हदया। मैं खोया ु आ-सा सडक पर दरू तक आँखें फाड-
फाडकर दे खता था, पर व पररधचत रे खा न हदखलाई पडती थी। कान लगाकर
सुनता था, 'झुन-झुन' की व आमोदमय ्वनन न सुनाई दे ती थी। प्रकाश से साथ
मेरी आशा भी ममलन ोती जाती थी। उिर से ककसी को आते दे खता तो पूछता
- 'कजाकी आता ै ?' पर या तो कोई सुनता ी न था, या केवल मसर ह ला दे ता
था।

स सा 'झुन-झुन' की आवाज कानों में आई। मुझे अँिेरे में चारों ओर भूत- ी-भूत
हदखलाई दे ते थे - य ाँ तक कक माताजी के कमरे में ताक पर रखी ु ई ममठाई
भी अँिेरा ो जाने के बाद मेरे मलए त्याज्य ो जाती थी, लेककन व आवाज
सन
ु ते ी मैं उसकी तरफ जोर से दौडा। ाँ, व कजाकी ी था। उसके दे खते ी
मेरी ववकलता क्रोि में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, कफर रठकर अलग खडा
ो गया।

कजाकी ने ँसकर क ा - 'मारोगे तो मैं एक चीज लाया ू ँ, व न दँ ग


ू ा।'

मैने सा स करके क ा - 'जाओ, मत दे ना, मैं लूगाँ ी न ीिं।'

कजाकी - 'अभी हदखा दँ ू तो दौडकर गोद में आ जाओगे।'

मैंने वपघलकर क ा - 'अच्छा, हदखा दो।'

कजाकी - 'तो आकर मेरे किंिे पर बैठ जाओ, भाग चलँ ।ू आज ब ु त दे र ो गई


ै । बाबू जी बबगड र े ोंगे।'
मैंने अकडकर क ा - 'प ले हदखा।'

मेरी ववजय ु ई। अगर कजाकी को दे र का डर न ोता और व एक ममनट भी


और रुक सकता, तो शायद पाँसा पलट जाता। उसने कोई चीज हदखलाई, न्जसे
एक ाथ से छाती में धचपकाए ु ए था, लम्बा मँु था और दो आँखें चमक र ी
थी। मैंने दौडकर कजाकी की गोद से ले मलया। य ह रन का बच्चा था। आ !
मेरी उस खुशी का कौन अनुमान करे गा? तबसे कहठ परीक्षाएँ पास की, अच्छा पद
पाया, रायब ादरु भी ु आ, पर व खश
ु ी कफर न ामसल ु ई। मैं उसे गोद में मलए,
उसके कोमल स्पशम का आनदद उठाता घर की ओर दौडा। कजाकी को दे र इतनी
दे र क्यों ु ई, इसका ख्याल ी न र ा।

मैंने पछ
ू ा - 'य क ाँ ममला, कजाकी?'

कजाकी - 'भैया, य ाँ से थोडी दरू पर एक छोटा-सा जिंगल ै । उसमें ब ु त-से


ह रन ैं। मेरा ब ु त जी चा ता था कक कोई बच्चा ममल जाए, तो तुम् ें दँ ।ू आज
य बच्चा ह रनों के झिंड
ु के साथ हदखलाई हदया। मैं झिंड
ु की ओर दौडा तो सब-
के-सब भागे। य बच्चा भी भागा, लेककन मैंने पीछा न छोडा। और ह रन तो
ब ु त दरू ननकल गए, य ीिं पीछे र गया। मैंने इसे पकड मलया। इसी से इतनी
दे र ु ई।'

यों बातें करते म दोनों डाकखाने प ु ँ च।े बाबज


ू ी ने मझ
ु े न दे खा, ह रन के बच्चे
को भी न दे खा, कजाकी ी पर उनकी ननगा पडी। बबगडकर बोले - 'आज इतनी
दे र क ाँ लगाई? अब थैला लेकर आया ै , उसे लेकर क्या करँ? डाक तो चली
गई। बता, तूने इतनी दे र क ाँ लगाई?'

कजाकी के मँु से आवाज न ननकली।


बाबज
ू ी ने क ा - 'तझ
ु े शायद अब नौकरी न ीिं करनी ै । नीच ै न, पेट भरा तो
मोटा ो गया। जब भख
ू ों मरने लगेगा तो आँखें खल
ु ें गी।'

कजाकी चुपचाप खडा र ा।

बाबूजी का क्रोि और बढ़ा, कफर बोले - 'अच्छा, थैला रख दे , और अपने घर की


रा ले। सूअर, अब डाक ले के आया ै । तेरा क्या बबगडेगा, ज ाँ चा े गा, मजूरी
कर लेगा। माथे तो मेरे जाएगी, जवाब तो मुझसे तलब ोगा।'

कजाकी ने रुआँसा ोकर क ा - 'सरकार, अब कभी दे र न ोगी।'

बाबज
ू ी - 'आज क्यों दे र की, इसका जवाब दे ?'

कजाकी के पास कोई जवाब न था। आश्चयम तो य था कक मेरी भी जबान बदद


ो गई। बाबज
ू ी बडे गस्
ु सेदार थे। उद ें काम करना पडता था। इसी से बात-बात
पर झँझ
ु ला पडते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता न था। व भी मझ
ु े कभी
प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घदटे -घदटे -भर के मलए भोजन करने
आते थे, बाकी सारे हदन दफ्तर में मलखा करते थे। उद ोंने बार-बार एक स कारी
के मलए अफसरों से ववनय की थी, पर इसका कुछ असर न ु आ था। य ाँ तक
कक तातील के हदन भी बाबूजी दफ्तर ी में र ते थे। केवल माताजी उनका क्रोि
शादत करना जानती थी, पर व दफ्तर में कैसे आतीिं। बेचारा कजाकी उसी वक्त
मेरे दे खते-दे खते ननकाल हदया गया। उसकी बल्लम, चपरास और साफा छनन
मलया गया और उसे डाकखाने से ननकल जाने का नाहदरी ु क्म सुना हदया।
आ ! उस वक्त मेरा ऐसा जी चा ता था कक मेरे पास सोने की लिंका ोती तो
कजाकी को दे दे ता और बाबूजी को हदखा दे ता कक आपके ननकाल दे ने से
कजाकी का बाल भी बाँका न ीिं ु आ। ककसी योद्धा को अपनी तलवार पर न्जतना
घमिंड ोता ै , उतना ी घमिंड कजाकी को अपनी चपरास पर था। जब व
चपरास खोलने लगा तो उसके ाथ काँप र े थे और आँखों से आँसू ब र े थे।
और इस सारे उपद्रव की जड व कोमल वस्तु थी, जो मेरी गोद में मँु नछपाए
ऐसे चैन से बैठन ु ई थी, मानो माता की गोद में ो। जब कजाकी चला तो मैं
िीरे -िीरे उसके पीछे -पीछे चला। मेरे घर के द्वार पर आकर कजाकी न क ा -
'भैया, अब घर जाओ, साँझ ो गई।'

मैं चप
ु चाप खडा र ा अपने आँसओ
ु िं के वेग को सारी शन्क्त से दबा र ा था।
कजाकी कफर बोला - 'भैया, मैं क ीिं बा र थोडे ी चला जाऊँगा। कफर आऊँगा
और तुम् ें कदिे पर बैठाकर कुदाऊँगा। बाबूजी ने नौकरी ले ली ै तो क्या इतना
भी न करने दे गें। तुमको छोडकर मैं क ीिं न जाऊँगा, भैया। जाकर अम्माँ से क ा
दो, कजाकी जाता ै । उसका क ा-सुना माफ करें ।'

मैं दौडता ु आ घर गया, लेककन अम्माँजी से कुछ क ने के बदले बबलख-


बबलखकर रोने लगा। अम्माँजी रसोई के बा र ननकलकर पूछने लगी - 'क्या

ु आ बेटा? ककसने मारा? बाबूजी ने कुछ क ा ै ? अच्छा, र तो जाओ, आज घर


आते ै , पूछती ू ँ। जब दे खो, मेरे लडके को मारा करते ै । चुप र ो, बेटा, अब तुम
उनके पास कभी मत जाना।'

मैंने बडी मुन्श्कल से आवाज सम्भालकर क ा - 'कजाकी ...।'

अम्माँ ने समझा, कजाकी ने मारा ै , बोली - 'अच्छा, आने दो कजाकी को। दे खो


खडे-खडे ननकलवा दे ती ू ँ! रकारा ोकर मेरे राजा बेटा को मारे । आज ी तो
साफा, बल्लम, सब नछनवाए लेती ू ँ। वा !'

मैंने जल्दी से क ा - 'न ीिं, कजाकी ने न ीिं मारा, बाबूजी ने उसे ननकाल हदया ै,
उसकी साफा, बल्लम छनन मलया। चपरास भी ले मलया।'

अम्माँ - 'य तम्


ु ारे बाबज
ू ी ने ब ु त बरु ा ककया। व बेचारा अपने काम में
इतना चौकस र ता ै । कफर उसे क्यों ननकाला?'

मैंने क ा - 'आज उसे दे र ो गई थी।'


य क कर मैंने ह रन के बच्चे को गोद से उतार हदया। घर में उसके भाग जाने
का भय न था। अब तक अम्माँ की ननगा भी उस पर न पडी थी। उसे फुदकते
दे खकर व स सा चौंक पडी और लपककर मेरा ाथ पकड मलया कक क ीिं य
भयिंकर जीव मुझे काट न खाए। मैं क ाँ तो फूट-फूटकर रो र ा था। और क ाँ
अम्माँ की घबरा ट दे खकर िखलिखलाकर ँस पडा।

अम्माँ - 'अरे , य तो ह रन का बच्चा ै । क ाँ ममला?'

मैंने ह रन के बच्चे का सारा इनत ास और उसका भीषण पररणाम आहद से


अदत तक क सन
ु ाया - 'अम्माँ, य इतना तेज भागता था कक कोई दस
ू रा ोता
तो पकड ी न सकता। सन-सन वा की उडता चला जाता था। कजाकी पाँच-छः
घदटे तक इसके पीछे दौडता र ा। तब क ीिं जाकर बचा ममला। अम्माँजी, कजाकी
की तर कोई दनु नया-भर में न ीिं दौड सकता, इसी से तो दे र ो गई। इसमलए
बाबूजी ने बेचारे को ननकाल हदया - चपरास, बल्लम, सब छनन मलया। अब बेचारा
क्या करे गा? भख
ू ों मर जाएगा।'

अम्माँ ने पूछा - 'क ाँ ै कजाकी, जरा उसे बल


ु ा तो लाओ।'

मैंने क ा - 'बा र तो खडा ै , क ता था, अम्माँजी से मेरा क ा-सुना माफ करवा


दे ना।'

अब तक अम्माँजी मेरे वत्ृ तादत को हदल्लगी समझ र ी थी। शायद य


समझती थीिं कक बाबूजी ने कजाकी को डाँटा ोगा, लेककन मेरा अन्दतम वाक्य
सुनकर सिंशय ु आ कक क ीिं सचमुच तो कजाकी बरखास्त न ीिं कर हदया गया!
बा र आकर 'कजाकी! कजाकी!' पुकारने लगी, पर कजाकी का क ीिं पता न था।
मैंने बार-बार पुकारा, लेककन कजाकी व ाँ न था।

खाना तो मैंने खा मलया। बच्चे शोक में खाना न ीिं छोडते, खासकर जब रबडी भी
सामने ो, मगर बडी रात तक पडे-पडे सोचता र ा - मेरे पास रुपए ोते तो एक
लाख रुपए कजाकी को दे दे ता और क ता बाबज
ू ी से कभी मत बोलना। बेचारा
भख
ू ों मर जाएगा। दे खू,ँ कल आता ै कक न ीिं। अब क्या करे गा आकर? मगर
आने को तो क गया ै । मैं कल उसे अपने साथ खाना िखलाऊँगा।

य ी वाई ककले बनाते-बनाते मझ


ु े नीिंद आ गई।

दस
ू रे हदन मैं हदन-भर अपने ह रन के बच्चे की सेवा-सत्कार में व्यस्त र ा।
प ले उसका नामकरण सिंस्कार ु आ। 'मुदनू' नाम रखा गया। कफर मैंने उसका
अपने मजोमलयों और स पाहठयों से पररचय कराया। हदन ी भर में व मझ
ु से
इतना ह ल गया कक मेरे पीछे -पीछे दौडने लगा। इतनी दे र में मैंने उसे अपने
जीवन में एक म त्त्वपूणम स्थान दे हदया। अपने भववष्य मेिं बनने वाले ववशाल
भवन में उसके मलए अलग कमरा बनाने का भी ननश्चय कर मलया। चारपाई, सैर
करने की कफटन आहद का भी आयोजन कर मलया।

लेककन सद्या ोते ी मैं सब कुछ छोड-छाडकर सडक पर जा ख़डा ु आ और


कजाकी की बाट जो ने लगा। जानता था कक कजाकी ननकाल हदया गया ै , अब
उसे य ाँ आने की कोई जररत न ीिं र ी। कफर न जाने मुझे क्यों य आशा ो
र ी थी कक व आ र ा ै । एकाएक मुझे ख्याल आया कक कजाकी भूखों मर
र ा ोगा। मैं तरु दत आटा ाथों में लपेटे, टोकरी से धगरते आटे की एक लकीर
बनाता ु आ भागा। जाकर सडक पर खडा ु आ ी था कक कजाकी सामने से
आता ु आ हदखलाई हदया। उसके ाथ में बल्लम भी था, कमर में चपरास भी,
मसर पर साफा भी बँिा ु आ था। बल्लम में डाक का थैला भी बँिा ु आ था। मैं
दौडकर उसकी कमर से मलपट गया और ववन्स्मत ोकर बोला - 'तुम् ें चपरास
और बल्लम क ाँ से ममल गया, कजाकी?'
कजाकी ने मझ
ु े उठाकर कदिे पर बैठाते ु ए क ा - 'व चपरास ककस काम की
थी, भैया? व तो गल
ु ामी की चपरास थी, य परु ानी खश
ू ी की चपरास ै । प ले
सरकार का नौकर था, अब तुम् ारा नौकर ू ँ।'

य क ते-क ते उसकी ननगा टोकरी पर पडी, जो व ी रखी थी, कफर बोला - 'य
आटा कैसा ै , भैया?'

मैंने सकुचाते ु ए क ा - 'तुम् ारे ी मलए तो लाया ू ँ। तुम भूखे ोगे, आज क्या
खाया ोगा?'

कजाकी की आँखें तो मैं न दे ख सका, उसके कदिे पर बैठा ु आ था, ाँ, उसकी
आवाज से मालूम ु आ कक उसका गला भर आया ै। व बोला - 'भैया, क्या
रखी ी रोहटयाँ खाऊँगा? दाल, नम, घी - और तो कुछ न ीिं ै ।'

मैं अपनी भूल पर ब ु त लन्ज्जत ु आ। सच तो ै , बेचारा रखी रोहटयाँ कैसे


खाएगा? लेककन नमक, दाल, घी कैसे लाऊँ? अब तो अम्माँ चौके में ोगी। आटा
लेकर तो ककसी तर भाग आया था (अभी तक मझ
ु े न मालम
ू था कक मेरी चोरी
पकड ली गई, आटे की लकीर ने सरु ाग दे हदया ै) अब ये तीन-तीन चीजें कैसे
लाऊँगा? अम्माँ से मागँग
ू ा तो कभी न दें गी। एक-एक पैसे के मलए तो घिंटों
रुलाती ै , इतनी सारी चीजें क्यो दे ने लगी? एकाएक मुझे एक बात याद आई।
मैंने अपनी ककताबों के बस्तों में कई आने पैसे रख छोडे थे। मुझे पैसे जमा
करके रखने में बडा आनदद आता था। मालूम न ी अब व आदत क्यों बदल
गई। अब भी व ी आदत ोती तो शायद इतना फाकेमस्त न र ता। बाबज
ू ी मझ
ु े
प्यार तो कभी न करते थे, पर पैसे खूब दे ते थे, शायद अपने काम में व्यस्त
र ने के कारण, मुझसे वपिंड छुडाने के मलए नुस्खें को सबसे आसान समझते थे।
इनकार करने में मेरे रोने और मचलने का भय था। इस बािा को व दरू ी से
टाल दे ते थे। अम्माँ का स्वभाव इससे ठनक प्रनतकूल था। उद ें मेरे रोने और
मचलने से ककसी काम में बािा पडने का भय न था। आदमी लेटे -लेटे हदन-भर
रोना सन
ु सकता ै , ह साब लगाते ु ए जोर की आवाज से ्यान बँट जाता
ै ।अम्माँ मझ
ु े प्यार तो ब ु त करती थी, पर पैसे का नाम सन
ु ते ी उनकी
त्योररयाँ बदल जाती थी। मेरे पास ककताबें न थी। ाँ, एक बस्ता था, न्जसमें
डाकखाने के दो-चार फामम त करके पुस्तक रप में रखे ु ए थे। मैंने सोचा -
दाल, नमक और घी से मलए क्या उतने पैसे काफी न ोंगे ? मेरी मुिी में न ीिं
आते। य ननश्चय करके मैंने क ा - 'अच्छा, मुझे उतार दो तो मैं दाल और
नमक ला दँ ,ू मगर रोज आया करोगे न?'

कजाकी - 'भैया, खाने को दोगे तो क्यों न आऊँगा।'

मैंने क ा - 'मैं रोज खाने को दँ ग


ू ा।'

कजाकी - 'तो मैं रोज आऊँगा।'

मैं नीचे उतरा और दौडकर सारी पूिंजी उठा लाया। कजाकी को रोज बुलाने के
मलए उस वक्त मेरे पास को नूर ीरा भी ोता तो उसको भें ट करने में पसोपेश
न ोता।

कजाकी ने ववन्स्मत ोकर पूछा - 'ये पैसे क ाँ पाए, भैया?'

मैंने गवम से क ा - 'मेरे ी तो ै ।'

कजाकी - 'तुम् ारी अम्माँ तुमको मारे गी, क ें गी - कजाकी ने फुसलाकर मँगवा
मलए ोंगे। भैया, इन पैसों की ममठाई ले लेना और मटके में रख दे ना। मैं भख
ू ों
न ीिं मरता। मेरे दो ाथ ै । मैं भला भख
ू ों मर सकता ू ँ।'

मैंने ब ु त क ा कक पैसे मेरे ै , लेककन कजाकी ने न मलए। उसने बडी दे र तक


इिर-उिर की सैर कराई, गीत सन
ु ाए और मझ
ु े घर प ु ँचाकर चला गया। मेरे
द्वार पर आटे की टोकरी भी रख दी।
मैंने घर में कदम रखा ी था कक अम्माँजी ने डाँटकर क ा - 'क्यों रे चोर, तू
आटा क ाँ ले गया था? अब चोरी करना सीखता ै ? बता, ककसको आटा दे आया,
न ीिं तो तेरी खाल उिेडकर रख दँ ग
ू ी।'

मेरी नानी मर गई। अम्माँ क्रोि में मसिं नी ो जाती थी। मसटवपटाकर बोला -
'ककसी को तो न ीिं हदया।'

अम्माँ -'तूने आटा न ीिं ननकाला? दे ख ककतना आटा सारे आँगन में बबखरा पडा
ै ?'

मैं चुप खडा था। व ककतन ी िमकाती थीिं, चुमकारती थीिं, पर मेरी जबान न
खुलती थी। आने वाली ववपन्त्त के भय से प्राण सूख र े थे। य ाँ तक कक य
भी क ने की ह म्मत न पडती थी कक बबगडती क्यों ो, आटा तो द्वार पर रखा

ुआ ा, और न उठाकर लाते ी बनता था, मानो कक्रया-शन्क्त ी लप्ु त ो गई,


मानो पैरों में ह लने की सामथ्यम ी न ीिं।

स सा कजाकी ने पक
ू ारा - 'ब ू जी, आटा द्वार पर रखा ु आ ै । भैया मझ
ु े दे ने
को ले गए थे।'

य सुनते ी अम्माँ द्वार की ओर चली गई। कजाकी से व पदाम न करती थीिं।


उद ोंने कजाकी से कोई बात की या न ीिं, य तो मैं न ीिं जानता, लेककन अम्माँ
खाली टोकरी मलए ु ए घर में आईं। कफर कोठरी में जाकर सददक
ू से कुछ
ननकाला और द्वार की ओर गईं। मैंने दे खा कक उनकी मुिी बदद थी। अब
मुझसे व ाँ खडे न र ा गया।

अम्माँजी के पीछे -पीछे मैं भी गया। अम्माँ ने द्वार पर कई बार पक


ु ारा, मगर
कजाकी चला था।

मैंने बडे िीरज से क ा - 'मैं जाकर खोज लाऊँ, अम्माँजी?'


अम्माँजी ने ककवाड बदद करते ु ए क ा - 'तम
ु अँिेरे में क ाँ जाओगे, अभी तो
य ीिं खडा था। मैंने क ा कक य ीिं र ना, मैं आती ू ँ। तब तक न जाने क ाँ
िखसक गया। बडा सिंकोची ै । आटा तो लेता ी न था। मैंने जबरदस्ती उसके
अिंगोछे में बाँि हदया। मुझे तो बेचारे पर बडी दया आती ै । न जाने बेचारे के
घर में कुछ खाने को ै कक न ीिं। रुपए लाई थी कक दे दँ ग
ू ी, पर न जाने क ाँ
चला गया।'

अब तो मुझे भी सा स ु आ। मैंने अपनी चोरी की पूरी कथा क डाली। बच्चों


के साथ समझदार बच्चे बनकर माँ-बाप उन पर न्जतना असर डाल सकते ै ,
न्जतनी मशक्षा दे सकते ै , उतने बूढ़े बनकर न ीिं।

अम्माँजी ने क ा - 'तुमने मुझसे पूछ क्यों न ीिं मलया? क्या मैं कजाकी को
थोडा-सा आटा न दे ती?'

मैंने इसका उत्तर न हदया। हदल में क ा - 'इस वक्त तुम् ें कजाकी पर दया आ
गई ै , जो चा े दे डालो, लेककन मैं माँगता तो मारने दौडती।' ाँ, य सोचकर
धचत्त प्रसदन ु आ कक अब कजाकी भूखों न मरे गा। अम्माँजी उसे रोज खाने को
दें गी और व रोज मुझे कदिे पर बबठाकर सैर कराएगा।

दस
ू रे हदन मैं हदन-भर मुदनू के साथ खेलता र ा। शाम को सडक पर जाकर
खडा ो गया। मगर अँिेरा ो गया और कजाकी का क ीिं पता न ीिं। हदए जल
गए, रास्ते में सदनाटा छा गया, पर कजाकी न आया।

मैं रोता ु आ घर आया। अम्माँजी ने पूछा - 'क्यों रोते ो, बेटा? क्या कजाकी
न ीिं आया?'

मैं और जोर से रोने लगा। अम्माँजी ने मुझे छाती से लगा मलया। मुझे ऐसा
मालूम ु आ कक उनका भी किंठ भी गद्गद ो गया ै।
उद ोंने क ा - 'बेटा, चप
ु ो जाओ, मैं कल ककसी रकारे को भेजकर कजाकी को
बल
ु वाऊँगी।'

मैं रोते- ी-रोते सो गया। सवेरे ज्यों ी आँखें खुली, मैंने अम्माँजी से क ा -
'कजाकी को बल
ु वा दो।'

अम्माँ ने क ा - 'आदमी गया ै बेटा, कजाकी आता ी ोगा।' मैं खुश ोकर
खेलने लगा। मुझे मालूम था कक अम्माँजी जो बात क ती ै , उसे पूरा जरर
करती ै । उद ोंने सवेरे ी एक रकारे को भेज हदया था। दस बजे जब मैं मद
ु नू
को मलए ु ए घर आया तो मालम
ू ु आ कक कजाकी अपने घर पर न ीिं ममला।
व रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो र ी थी कक न जाने क ाँ चले
गए। उसे भय था कक व क ीिं भाग गया ै।

बालकों का हृदय कोमल ोता ै , इसका अनम


ु ान दस
ू रा न ीिं कर सकता। उनमें
अपने भावों को व्यक्त करने के मलए शब्द न ीिं ोते। उद ें य भी ज्ञात न ीिं
ोता कक कौन-सी बात उद ें ववकल कर र ी ै , कौन-सा काँटा उनके हृदय में
खटक र ा ै , क्यों बार-बार उद ें रोना आता ै , क्यों वे मन मारे बैठे र ते ै , क्यों
खेलने में जी न ीिं लगता? मेरी भी य ी दशा थी। कभी घर में आता, कभी बा र
जात, कभी सडक पर जा प ु ँचता। आँखें कजाकी को ढूँढ़ र ी थीिं। व क ाँ चला
गया? क ीिं भाग तो न ीिं गया?

तीसरे प र को मैं खोया ु आ-सा सडक पर खडा था। स सा मैंने कजाकी को


एक गली में दे खा। ाँ, व कजाकी ी था। मैं उसकी ओर धचल्लाता ु आ दौडा,
पर गली में उसका पता न था. न जाने ककिर गायब ो गया। मैंने गली के
इस मसरे से उस मसरे तक दे खा, मगर क ीिं कजाकी की गदि न ममली।

घर जाकर मैंने अम्माँजी से य बात क ी। मझ


ु े ऐसा जान पडा कक व य
बात सुनकर ब ु त धचिंनतत ो गई।
इसके बाद दो-तीन तक कजाकी न हदखलाई हदया। मैं भी अब उसे कुछ-कुछ
भल
ू ने लगा। बच्चे प ले न्जससे न्जतना प्रेम करते ै , बाद में उतने ी ननष्ठुर
भी ो जाते ै । न्जस िखलौने पर प्राण दे ते ै , उसी को दो-चार हदन के बाद
पटककर तोड भी डालते ै ।

दस-बार हदन और बीत गए। दोप र का समय था। बाबज


ू ी खाना खा र े थे। मैं
मुदनू के पैरों में पीनस की पैजननयाँ बाँि र ा था। एक औरत घूघ
ँ ट ननकाले ुए
आई और आँगन में खडी ो गई। उसके कपडे फटे ु ए और मैले थे, पर गोरी,
सुददर स्त्री थी। उसने मुझसे पूछा - 'भैया, ब ू जी क ाँ ै ?'

मैंने उसके पास जाकर उसका मँु दे खते ु ए क ा - 'तुम कौन ो, क्या बेचती
ो?'

औरत - 'कुछ बेचती न ीिं ू ँ , तम्


ु ारे मलए ये कमलगट्टे लाई ू ँ। भैया, तम्
ु ें
कमलगट्टे ब ु त अच्छे लगते ै न?'

मैंने उसके ाथों से लटकती ु ई पोटली को उत्सक


ु नेत्रों से दे खा - 'क ाँ से लाई
ो? दे खें'

औरत - 'तुम् ारे रकारे ने भेजा ै , भैया।'

मैंने उछलकर क ा - 'कजाकी ने?'

औरत ने मसर ह लाकर ' ाँ' क ा और पोटली खोलने लगी। इतने में अम्माँजी भी
रसोई से ननकल आईं। उसने अम्माँजी के पैरों को स्पशम ककया। अम्माँ ने पूछा -
'तू कजाकी की घरवाली ै ?'

औरत ने मसर झक
ु ा मलया।

अम्माँ - 'आजकल कजाकी क्या करता ै ?'


औरत ने रोकर क ा - 'ब ू जी, न्जस हदन से आपके पास से आटा लेकर गए ै,
उसी हदन से बीमार पडे ै । बस भैया-भैया ककया करते ै । भैया ी में उनका
मन बसा र ता ै । चौंक-चौककर 'भैया! भैया!' क ते ु ए द्वार की ओर दौडते
ा़ ै।
न जाने उद ें क्या ो र ा ै । ब ू जी एक हदन मझ
ु से कुछ क ा न सन
ु ा, घर से
चल हदए और एक गली में नछपकर भैया को दे खते र े । जब भैया ने उद ें दे ख
मलया, तो भागे। तुम् ारे पास आते ु ए लजाते ै ।'

मैंने क ा - ' ाँ- ाँ, मैंने उस हदन तम


ु से जो क ा था अम्माँजी।'

अम्माँ -'घर में कुछ खाने-पीने को ै ?'

औरत - ' ाँ ब ू जी, तुम् ारे आमसरवाद से खाने-पीने का दःु ख न ीिं ै । आज सवेरे
उठे और तालाब की ओर चले गए। बा र मत जाओ, वा लग जाएगी। मगर न
माने। मारे कमजोरी के पैर काँपने लगते ै , मगर तालाब में घुसकर ये कमलगट्टे
तोड लाए। तब मुझसे क ा -'ले जा, भैया को दे आ। उद ें कमलगट्टे ब ु त अच्छे
लगते ै । कुशल-क्षेम पछ
ू ती आना।'

मैंने पोटली से कमलगट्टे ननकल मलए थे और मजे से चख र ा था। अम्माँ ने


ब ु त आँखें हदखाई, मगर य ाँ इतनी सब्र क ाँ।

अम्माँ ने क ा -'क दे ना सब कुशल ै ।'

मैंने क ा -'य भी क दे ना कक भैया ने बल


ु ाया ै । न जाओगे तो कफर तम
ु से
कभी न बोलें गे, ाँ।'

बाबज
ू ी खाना खाकर ननकले आए थे। तौमलेए से ाथ-मँु पोंछते ु ए बोले -'और
य भी क दे ना कक सा ब ने तम
ु को ब ालकर हदया ै । जल्दी जाओ, न ीिं तो
कोई दस
ू रा आदमी रख मलया जाएगा।
औरत ने अपना कपडा उठाया और चली गई। अम्माँ ने ब ु त पक
ु ारा, पर व न
रुकी।

अम्माँ ने पूछा - 'सचमुच ब ाल ो गया?'

बाबूजी -'और क्या झूठे ी बुला र ा ू ँ! मैंने तो पाँचवें ी हदन ब ाली की ररपोटम
की थी।'

अम्माँ - 'य तुमने ब ु त अच्छा ककया।'

बाबूजी - 'उसकी बीमारी की य ी दवा ै।'

प्रातःकाल मैं उठा तो क्या दे खता ु ँ कक कजाकी लाठन टे कता ु आ चला आ र ा


ै। व ब ु त दब
ु ला ो गया था, मालूम ोता था, बूढ़ा ो गया ै। रा-भरा पेड
सूखकर ठूँठ ो गया था। मैं उसकी ओर दौडा और उसकी कमर से धचपट गया।
कजाकी ने मेरे गाल चूमे और मुझे उठाकर कदिे पर बैठाने की चेष्ठा करने
लगा, पर मैं न उठ सका। तब व जानवरों की भाँनत भूमम पर ाथों और घुटनों
के बल खडा ो गया और मैं उसकी पीठ पर सवार ोकर डाकखाने की ओर
चला। मैं उस वक्त फूला न समाता था और शायद कजाकी मझ
ु से भी ज्यादा
खुश था।

बाबज
ू ी ने क ा - 'कजाकी, तम
ु ब ाल ो गए। अब कभी दे र न करना।'

कजाकी रोते ु ए वपताजी के पैरों पर धगर पडा, मगर शायद मेरे भानय में दोनों
सुख भोगना न मलखा था। मुदनू ममला, तो कजाकी छूटा, कजाकी आया तो मुदनू
ाथ से गया और ऐसा गया कक आज तक उसके जाने का दःु ख ै । मद
ु नू मेरी
ी थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूँ, व भी कुछ न खाता था। उसे
भात से ब ु त ी रुधच थी, लेककन जब तक खूब िी न पडा ो, उसे सदतोष न
ोता था। व मेरे ी साथ सोता था और मेरे ी साथ उठता भी था। सफाई तो
उसे इतनी पसदद थी कक मल-मत्र
ू त्याग के मलए घर से बा र मैदान में ननकल
जाता था। कुत्तों से उसे धचढ़ थी, कुत्तों को घर में न घस
ु ने दे ता। कुत्ते को
दे खते ी थाली से उठ जाता और उसे दौडाकर घर से बा र ननकाल दे ता था।

कजाकी को डाकखाने में छोडकर जब मैं खाना खाने गया, तो मद


ु नू भी आ बैठा।
अभी दो-चार ी कौर खाए थे कक एक बडा-से झबरा कुत्ता आँगन में हदखाई
हदया। मुदनू उसे दे खते ी दौडा। दस
ू रे घर में जाकर कुत्ता चू ा ो जाता ै।
झबरा कुत्ता उसके मलए यमराज का दत
ू था। मुदनू को उसे घर से ननकालकर
भी सदतोष न ु आ। व उसे घर के बा र मैदान में भी दौडाने लगा। मुदनू को
शायद ख्याल न र ा कक य ाँ मेरी अलमदारी न ीिं ै। व उस क्षेत्र में प ु ँच गया
था, ज ाँ झबरे का भी उतना ी अधिकार था, न्जनता मद
ु नू का। मद
ु नू कुत्तों को
भगाते-भगाते कदाधचत अपने बा ु बल पर घमिंड करने लगा था। व य न
समझता था कक घर में उसकी पीठ पर घर के स्वामी का भय काम ककया करता
ै । झबरे ने मैदान में आते ी उलटकर मुदनू की गदम न दबा दी। बेचारे मुदनू के
मँु से आवाज तक न ीिं ननकली। जब पडोमसयों ने शोर मचाया, तो मैं दौडा।
दे खा तो मुदनू मरा पडा ै और झबरे का क ीिं पता न ीिं।

***
आँसओ
ु की ोली

नामों को बबगाडने की प्रथा न-जाने कब से चली और क ाँ शुर ु ई।

इस सिंसार-व्यापी रोग का पता लगाए तो ऐनत ामसक सिंसार में अवश्य ी अपना
नाम छोड जाए। पिंडडतजी का नाम तो श्रीवास्तव था, पर ममत्र मसलबबल क ा
क ते थे। नामों का असर चररत्र पर कुछ-न-कुछ पड जाता ै । बेचारे मसलबबल
सचमुच मसलबबल थे। दफ्तर जा र े ै , मगर पजामें का इजारबदद नीचे लटक
र ा ै । मसर पर फेल्ट-कैप ै , पर लम्बी-सी चुहटया पीछे झाँक र ी ै , अचकन यों
ब ु त सद
ु दर ै । न-जाने उद ें त्यो ारों से क्या धचढ़ थी। दीवाली गज
ु र जाती पर
व भलामानस कौडी ाथ में न लेता। और ोली का हदन तो उनकी भीषण
परीक्षा का हदन था। तीन तीन व घर से बा र न ननकलते। घर पर भी काले
कपडे प ने बैठ र ते थे। यार लोग टो में र ते थे कक क ीिं बचा फँस जाए,
मगर घर में घुसकर तो फौजदारी न ीिं की जाती। एक-आि बार फँसे भी, मगर
नघनघया-पुहदयाकर बेदाग ननकल गए।

लेककन अबकी समस्या ब ु त कहठन ो गई थी। शास्त्रों के अनुसार 25 वषम तक


ब्रह्मचयम का पालन करने के बाद उद ोंने वववा ककया था। ब्रह्मचयम के पररपक्व
ोने में जो थोडी-ब ु त कसर र ी, व तीन वषम के गौने की मुद्दत ने पूरी कर
दी।यद्यवप स्त्री से कोई शिंका न थी, तथावप व औरतों को मसर चढ़ाने के ामी
न थे। इस मामले में उद ें अपनी व ी परु ाना-िरु ाना ढिं ग पसदद था। बीवी को
जब कसकर डाँट हदया, तो उसकी मजाल ै कक रिं ग ाथ से छुए। ववपन्त्त य
थी कक ससुराल के लोग भी ोली मनाने आने वाले थे। पुरानी मसल ै 'ब न
अददर तो भाई मसिंकददर' इन मसिंकदरों के आक्रमण से बचने का उद ें कोई उपाय
न सूझता था। ममत्र लोग घर में न जा सकते थे, लेककन मसिंकदरों को कौन रोक
सकता ै!
स्त्री ने आँख फाडकर क ा - 'अरे भैया! क्या सचमच
ु रिं ग घर न लाओगे? य
कैसी ोली ै , बाबा?'

मसलबबल ने त्योररयाँ चढ़ाकर क ा - 'बस, मैंने एक बार क हदया और बात


दो राना मझ
ु े पसदद न ीिं। घर में रिं ग न ीिं आएगा और न कोई छुएगा? मझ
ु े
कपडो पर लाल छनिंटे दे खकर मचली आने लगती ै। मारे घर में ऐसी ी ोली
ोती ै ।'

स्त्री ने मसर झक
ु ाकर क ा - 'तो न लाना रिं ग-सिंग, मझ
ु े रिं ग लेकर क्या करना ै।
जब तम्
ु ीिं रिं ग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती ू ँ?'

मसलबबल ने प्रसदन ोकर क ा - 'ननस्सिंदे य ी सा्वी स्त्री का िमम ै । '

'लेककन भैया तो आने वाले ै। व क्यों मानेंगे?'

'उनके मलए भी मैंने एक उपाय सोच मलया ै । उसे सफल बनाना तम्
ु ारा काम
ै । मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढ़कर लेट र ू ँगा। तुम क ना इद ें ज्वर
आ गया। बस, चलो छुट्टी ु ई।'

स्त्री ने आँख नचाकर क ा - 'ऐ नौज, कैसी बातें मँु से ननकालते ो, ज्वर जाए
मुद्दई के घर, य ाँ आए तो मँु झुलसा दँ ू ननगोडे का।'

'तो कफर दस
ू रा उपाय ी क्या ै ?'

'तुम ऊपर वाली छोटी कोठरी में नछपे र ना, मैं क दँ ग


ू ी, उद ोंने जुलाब मलया ै।
बा र ननकालें गे तो वा लग जाएगी।'

पिंडडतजी िखल उठे - 'बस-बस, य ी सबसे अच्छा।'


ोली का हदन था। बा र ा ाकार मचा ु आ था। परु ाने जमाने में अबीर और
गल
ु ाल के मसवा और कोई रिं ग न खेला जाता था। अब नीले, रे , काले, सभी रिं गों
का मेल ो गया ै और इस सिंगठन से बचना आदमी के मलए तो सम्भव न ीिं।
ाँ, दे वता बचें । मसलबबल के दोनों साले मो ल्ले भर के मदों, औरतों, बच्चों और
बूढ़ों का ननशाना बने ु ए थे। बा र के दीवानखाने के फशम, दीवारें , य ाँ तक की
तस्वीरें भी रिं ग उठन थी। घर में भी य ी ाल था। मो ल्ले की ननदें भला कब
मानने लगी थीिं! परनाला तक रिं गीन ो गया था।

बडे साले ने पूछा - 'क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छन न ीिं?
खाना खाने भी न आए?'

चम्पा ने मसर झुकाकर क ा - ' ाँ भैया, रात ी से पेट में कुछ ददम ोने लगा।
डॉक्टर ने वा में ननकलने से मना कर हदया ै।'

जरा दे र बाद छोटे साले ने क ा - 'क्यों जीजी जी, क्या भाई सा ब नीचे न ीिं
आएँगे? ऐसी भी क्या बीमारी ै ! क ो तो ऊपर जाकर दे ख आऊँ।'

चम्पा ने उसका ाथ पकडकर क ा - 'न ीिं-न ीिं, ऊपर मत जैयो! व रिं ग-विंग न
खेलेंगे। डॉक्टर ने वा में ननकलने को मना कर हदया ै ।'

दोनों भाई ाथ मल कर र गए।

स सा भाई को एक बात सझ
ू ी - 'जीजाजी के कपडो के साथ क्यों न ोली
खेलें। वे तो बीमार न ीिं ै ।'

बडे भाई के मन में बात बैठ गई। ब न बेचारी अब क्या करती? मसिंकददरों ने
किंु न्जयाँ उसके ाथ से लीिं और मसलबबल के सारे कपडे ननकाल-ननकालकर रिं ग
डाले। रमाल तक न छोडा। जब चम्पा ने उन कपडो को आँगन में अलगनी पर
सख
ू ने को डाल हदया तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी रिं गरे ज ने ब्या के जोडे रिं गे
ो। मसलबबल ऊपर बैठे य तमाशा दे ख र े थे, पर जबान न खोलते थे। छाती
पर साँप-सा लोट र ा था। सारे कपडे खराब ो गए, दफ्तर जाने को भी कुछ न
बचा। इन दष्ु टों को मेरे कपडो से न जाने क्या बैर था।

घर में नाना प्रकार के स्वाहदष्ट व्यिंजन बन र े थे। मो ल्ले की एक ब्राह्मणी


का साथ चम्पा भी जट
ु ी ु ई थी। दोनों भाई और कई अदय सज्जन आँगन में
भोजन करने बैठ तो बडे साले ने चम्पा से पूछा - 'कुछ उनके मलए भी िखचडी-
ववचडी बनाई ै ? पूररयाँ तो बेचारे आज खा न सकेंगे।'

चम्पा ने क ा -'अभी तो न ीिं बनाई, अब बना लँ ग


ू ी।'

'वा री तेरी अक्ल! अभी तक तुझे इतनी कफक्र न ीिं कक व बेचारे खाएँगे क्या।
तू तो इतनी लापरवा कभी न थी। जा ननकाल ला जल्दी से चावल और मिंग

की दाल।'

लीन्जए - िखचडी पकने लगी। इिर ममत्रों ने भोजन करना शुर ककया। मसलबबल
ऊपर बैठे अपनी ककस्मत को रो र े थे। उद ें इस सारी ववपन्त्त का एक ी
कारण मालम
ू ोता था - वववा ! चम्पा न आती तो ये साले क्यों आते, कपडे
क्यों खराब ोते, ोली के हदन मूिंग की िखचडी क्यों खाने को ममलती? मगर अब
पछताने से क्या ोता ै । न्जतनी दे र में लोगों ने भोजन ककया, उतनी दे र में
िखचडी तैयार ो गई। बडे साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कक िखचडी की
थाली ऊपर दे आए।

मसलबबल ने थाली की ओर कुवपत नेत्रों से दे खकर क ा - 'इसे मेरे सामने से


टा ले जाव।'

'क्या आज उपवास ी करोगे?'

'तम्
ु ारी य ी इच्छा ै तो य ी स ी।'
'मैंने क्या ककया। सवेरे से जट
ु ी ु ई ू ँ। भैया ने खद
ु िखचडी डलवाई और मझ
ु े
य ाँ भेजा।'

' ाँ, व तो मैं दे ख र ा ू ँ कक मैं घर का स्वामी न ीिं। मसिंकदरों ने उसपर कब्जा


जमा मलया ै , मगर मैं य न ीिं मान सकता कक तम
ु चा ती तो औऱ लोगों के
प ले ी मेरे पास थाली न प ु ँच जाती ै । मैं इसे पनतव्रत िमम के ववरुद्ध
समझता ू ँ , और क्या क ू ँ।'

'तम
ु तो दे ख र े थे कक दोनों जने मेरे मसर पर सवार थे।'

'अच्छन हदल्लगी ै कक और लोग तो समोसे और खस्ते उडाए औऱ मुझे मँग


ू की
िखचडी दी जाए। वा रे नसीब!'

'तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्यों ी अवसर ममलेगा, दस


ू री थाली लाऊँगी।'

'सारे कपडे रिं गवा डाले, दफ्तर कैसे जाऊँगा? य हदल्लगी मझ


ु े जरा भी न ीिं
भाती। मैं इसे बदमाशी क ता ू ँ। तुमने सिंदक
ू की किंु जी क्यों दे दी? क्या मैं
इतना पूछ सकता ू ँ?'

'जबरदस्ती छनन ली। तम


ु ने सन
ु ा न ीिं? करती क्या?'

'अच्छा, जो ु आ सो ु आ, य थाली ले जाव। िमम समझना तो दस


ू री थाली
लाना, न ीिं तो आज व्रत ी स ी।'

'एकाएक पैरों की आ ट पाकर मसलबबल ने सामने दे खा, तो दोनों साले आ र े


ै । उद ें दे खते ी बेचारे ने मँु बना मलया, चादर से शरीर ढक मलया और
करा ने लगे।'

बडे साल ने क ा - 'कह ए, कैसी तबीयत ै ? थोडी-सी िखचडी खा लीन्जए।'


मसलबबल ने मँु बनाकर क ा - 'अभी तो कुछ खाने की इच्छा न ीिं ै ।'

'न ीिं, उपवास करना तो ाननकारक ोगा। िखचडी खा लीन्जए।'

बेचारे मसलबबल ने मन में इन दोनों शैतानों को खूब कोसा और ववष की भाँनत


िखचडी किंठ के नीचे उतारी। आज ोली के हदन िखचडी ी भानय में मलखी थी
जब तक सारी िखचडी समाप्त न ो गई, दोनों व ाँ डटे र े , मानो जेल के
अधिकारी ककसी अनशन व्रतिारी कैदी को भोजन करा र े ों। बेचारे को ठूँस-
ठूँसकर िखचडी खानी पडी। पकवानों के मलए गिंज
ु ाइश ी न र ी।

दस बजे रात को चम्पा उत्तम पदाथों का थाल मलए पनतदे व के पास प ु ँची।
म ाशय मन- ी-मन झँुझला र े थे। भाइयों के सामने मेरी परवा कौन करता
ै । न जाने क ाँ से दोनों शैतान फट पडे। हदन-भर उपवास कराया और अभी
तक भोजन का क ीिं पता न ीिं। बारे चम्पा को थाल लाते दे खकर कुछ अन्नन
शादत ु ई और बोले - 'अब तो ब ु त सवेरा ै , एक-दो घिंदटे बाद क्यों न आई?'

चम्पा ने सामने थाली रखकर क ा - 'तम


ु तो न ारी ी मानते ो, न जीती।
अब आिखर ये दो मे मान आए ु ए ै , इनका सेवा-सत्कार न करँ, तो भी काम
न ीिं चलता। तुम् ीिं को बुरा लगेगा। कौन रोज आएँगे।'

'ईश्वर न करे कक रोज आएँ , य ाँ तो एक हदन में बधिया बैठ गई।'

थाल की सुगदिमय, तरबतर चीजे दे खकर स सा पिंडडत के मुखारवविंद पर


मुस्कान की लाली दौड गई। एक-एक चीज खाते थे और चम्पा को सरा ते थे -
'सच क ता ू ँ , चम्पा मैंने ऐसी चीजें कभी न ीिं खाई थी। लवाई साला क्या
बनाएगा। जी चा ता ू ँ , कुछ इनाम दँ ।ू '

'तुम मुझे बना र े ो। क्या करँ जैसा बनाना आता ै , बना लाई'
'न ीिं जी, सच क र ा ू ँ। मेरी तो आत्मा तक तप्ृ त ो गई। आज मुझे ज्ञात

ु आ कक भोजन का सम्बदि उदर से इतना न ीिं, न्जतना आत्मा से ै । बतलाओ,


क्या इनाम दँ ?ू '

'जो मागँ,ू व दोगे?'

'दँ ग
ू ा, जनेऊ की कसम खाकर क ता ू ँ।'

'न दो तो मेरी बात जाए।'

'क ता ू ँ भाई, अब कैसे क ू ँ। क्या मलखा-पढ़ी कर दँ ।ू '

'अच्छा, तो माँगती ू ँ। मझ
ु े अपने साथ ोली खेलने दो।'

पिंडडतजी का रिं ग उड गया। आँखें फाडकर बोले - ' ोली खेलने दँ ?ू मैं तो ोली
खेलता न ीिं। कभी न ीिं खेला। ोली खेलना ोता तो घर में नछपकर क्यों
बैठता।'

'और के साथ मत खेलो, लेककन मेरे साथ खेलना ी पडेगा।'

'य ी मेरे ननयम के ववरुद्ध ै । न्जस चीज को अपने घर में उधचत समझँू उसे
ककस दयाय से घर के बा र अनुधचत समझँू, सोचो।'

चम्पा ने मसर नीचा करके क ा - 'घर में ऐसी ककतनी बातें उधचत समझते ो,
जो घर के बा र करना अनुधचत ी न ीिं पाप भी ै ।'

पिंडडतजी ने झेंपते ु ए क ा - 'अच्छा भाई, तम


ु जीती मैं ारा। अब तो मैं तम
ु से
य ी दान माँगता ू ँ।'
'प ले मेरा परु स्कार दे दो, पीछे मझ
ु से दान माँगना।' य क ते ु ए चम्पा ने लोटे
का रिं ग उठा मलया और पिंडडतजी को मसर से पाँव तक न ला हदया। जब तक
व उठकर भागे उसने मुिी-भर गुलाल लेकर सारे मँु में पोत हदया।

पिंडडतजी रोनी सरू त बनाकर बोले - 'अभी और कसर बाकी ो तो व भी परू ी


कर लो। मैं जानता था कक तम
ु मेरी आस्तीन का साँप बनोगी। अब और कुछ
रिं ग बाकी न ीिं र ा?'

चम्पा ने पनत के मख
ु की ओर दे खा तो उस पर मनोवेदना का ग रा रिं ग झलक
र ा था। पछताकर बोली - 'क्या तम
ु सचमच
ु बरु ा माल गए ो? मैं तो समझती
थी कक तुम केवल मुझे धचढ़ा र े ो।'

श्रीवास्तव ने काँपते ु ए स्वर में क ा - 'न ीिं चम्पा, मझ


ु े बरु ा न ीिं लगा। ाँ,
तम
ु ने मझ
ु े उस कतमव्य की की याद हदया दी, जो मैं अपनी कायरता का कारण
भूला बैठा था। व सामने जो धचत्र दे ख र ी ो, मेरे ममत्र मन रनाथ का ै , जो
अब सिंसार में न ीिं ै । तुमसे क्या क ू ँ , ककतना सरस, ककतना भावुक, ककतना
सा सी आदमी था। दे श की दशा दे ख-दे खकर उसका खून जलता र ता था। 19-
20 भी कोई उम्र ोती ै , पर व उसी उम्र में अपने जीवन का मागम ननन्श्चत
कर चक
ु ा था। सेवा करने का अवसर पाकर व इस तर उसे पकडता था, मानो
सम्पन्त्त ो। जदम की ववरागी थी। वासना तो उसे छू ी न गई थी। मारे और
साथी सैर-सपाटे करते थे, पर उसका मागम सबसे अलग था। सत्य के मलए प्राण
दे ने को तैयार, क ीिं अदयाय दे खा और भवें तन गई, क ीिं पत्रों में अत्याचार की
खबर दे खी और चे रा तमतमा उठा। ऐसा तो मैंने आदमी न ीिं दे खा। ईश्वर ने
अकाल ी बुला मलया, न ीिं तो मनुष्यों में रत्न ोता। ककसी मुसीबत के मारे का
उद्धार करने को अपने प्राण थेली पर मलए कफरता था। स्त्री जानत का इतना
आदर और सम्मान कोई क्या करे गा? स्त्री उसके मलए पूजा और भन्क्त की वस्तु
थी। पाँच वषम ु ए, य ी ोली का हदन था। मैं भिंग के नशे में चूर, रिं ग से मसर से
पाँव तक न ाया ु आ, उसे गाना सन
ु ने के मलए बल
ु ाने गया तो दे खा कक व
कपडे प ने क ीिं जाने को तैयार था। मैंने पछ
ू ा - 'क ाँ जा र े ो?'

उसने मेरा ाथ पकडकर क ा - 'तुम अच्छे वक्त पर आ गए, न ीिं तो मुझे


अकेले जाना पडता। एक अनाथ बहु ढ़या मर गई ै , कोई उसे कदिा दे ने वाला
न ीिं ममलता। कोई ककसी ममत्र से ममलने गया ु आ ै , कोई नशे में चरू पडा ु आ
ै , कोई ममत्रों की दावत कर र ा ै , कोई म कफल सजाए बैठा ै । कोई लाश को
उठाने वाला न ीिं। ब्राह्मण-क्षत्री उस चमाररन की लाश को कैसे छुएँगे, उनका तो
िमम भ्रष्ट ोता ै , कोई तैयार न ीिं ोता। बडी मुन्श्कल से दो क ार ममले ै।
एक मैं ू ँ, चौथे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम् ें भेज हदया। चलो, चले।'

ाय! अगर मैं जानता कक य प्यारे मन र का आदे श ै , तो आज मेरी आत्मा


को इतनी नलानन न ोती। मेरे घर ममत्र आए ु ए थे। गाना ो र ा था। उस
वक्त लाश उठाकर नदी पर जाना मुझे अवप्रय लगा। मैं बोला - 'इस वक्त तो
भाई, मैं न ीिं जा सकँू गा। घर पर मे मान बैठे ु ए ै । मैं तम्
ु ें बल
ु ाने आया था।'

मन र ने मेरी ओर नतरस्कार के नेत्रों से दे खकर क ा - 'अच्छन बात ै , तुम


जाओ, मैं और कोई साथी खोज लँ ग
ू ा। मगर मुझे ऐसी आशा न ीिं थी। तुमने भी
व ी क ा, जो तम
ु से प ले औरों ने क ा था। कोई नई बात न ीिं थी। अगर म
लोग अपने कतमव्य को भूल न गए ोते तो आज य दशा ी क्यों ोती? ऐसी
ोली को धिक्कार ै । त्यो ार तमाशा दे खने, अच्छन-अच्छन चीजें खाने और
अच्छे -अच्छे कपडे प ने का नाम न ीिं ै। य व्रत ै , तप ै , अपने भाइयों से
प्रेम और स ानुभूनत करना ी त्यो ार का खास मतलब ै और कपडे लाल करने
के प ले खून को लाल कर लो। सफेद खून पर य लाली शोभा न ीिं दे ती।'

य क कर व चला गया। मझ
ु े उस वक्त य फटकारें ब ु त बुरी मालूम ु ईं।
अगर मुझसे व सेवा-भाव न था तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार
न था। घर चला आया, पर वे बातें मेरे कानों में गँज
ू ती र ी। ोली का सारा
मजा बबगड गया।
एक म ीने तक म दोनों में मुलाकात न ु ई। कॉलेज इम्त ान की तैयारी के
मलए बदद ो गया था। इसमलए कॉलेज में भी भेट न ोती थी। मुझे कुछ खबर
न ीिं, व कब और कैसे बीमार पडा, कब अपने घर गया। स सा एक हदन मुझे
उसका एक पत्र ममला। ाय! उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती ै।

श्रीवास्तव एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल न सके। कफर बोले -
'ककसी हदन तुम् ें कफर हदखाऊँगा। मलखा था, मुझसे आिखर बार ममल जा, अब
शायद इस जीवन में भें ट न ो। खत मेरे ाथ से छूटगर धगर पडा। उसका घर
मेरठ न्जले में था। दस
ू री गाडी जाने में आिा घदटे की कसर थी। तरु दत चल
पडा। मगर उसके दशमन न बदे थे। मेरे प ु ँचने के प ले ी व मसिार चुका था।
चम्पा, उसके बाद मैंने ोली न ीिं खेली, ोली ी न ीिं, और सभी त्यो ार छोड
हदए। ईश्वर ने शायद मुझे कक्रया की शन्क्त न ीिं दी। अब ब ु त चा ता ू ँ कक
कोई मुझसे सेवा का काम ले। खुद आगे न ीिं बढ़ सकता, लेककन पीछे चलने को
तैयार ू ँ। पर मझ
ु से कोई काम लेने वाला भी न ीिं, लेककन आज व रिं ग डालकर
तम
ु ने मझ
ु े उस धिक्कार की याद हदला दी। ईश्वर मझ
ु े ऐसी शन्क्त दे कक मैं
मन में ी न ीिं, कमम में भी मन र बनँू।'

य क ते ु ए श्रीननवास ने तश्तरी से गल
ु ाल ननकाला और उसे मन र की धचत्र
पर नछडककर प्रणाम ककया।

***
अन्नि-समाधध

सािु-सदतों के सत्सिंग से बुरे भी अच्छे ो जाते ै , ककदतु पयाग का दभ


ु ामनय था
कक उस पर सत्सिंग का उल्टा ी असर ु आ। उसे गािंजे, चरस और भिंग का
चस्का पड गया, न्जसका फल य ु आ कक मे नती, उद्यमशील युवक आलस्य
का उपासक बन बैठा। जीवन-सिंग्राम में य आनदद क ाँ! ककसी वट-वक्ष
ृ के नीचे
िन
ू ी जल र ी ै , एक जटािारी म ात्मा ववराज र े ै , भक्तजन उद ें घेरे बैठे ु ए
ै और नतल-नतल पर चरस के दम लग र े ै । बीच-बीच में भजन भी ो जाते
ै । मजूरी-िूतरी में य स्वगम-सुख क ाँ! धचलम भरना पयाग का काम था।
भक्तों को परलोक में पुण्य-फल की आशा थी, पयाग को तत्काल फल ममलता
था। धचलमों का प ला क उसी का ोता था। म ात्माओिं के श्रीमुख से भगवत
चचाम सुनते ु ए व आनदद से ववह्वल ो उठता था, उस पर आत्म-ववस्मनृ त-सी
छा जाती थी। व सौरभ, सिंगीत और प्रकाश से भरे ु ए एक दस
ू रे ी सिंसार में
प ु ँच जाता था। इसमलए जब उसकी स्त्री रुन्क्मन रात के दस-नयार बज जाने
पर उसे बुलाने आती तो पयाग को प्रत्यक्ष क्रूर अनुभव ोता, सिंसार उसे काँटों से
भरा ु आ जिंगल-सा हदखता, ववशेषतः जब घर आने पर उसे मालूम ोता कक
अभी चूल् ा न ीिं जला और चने-चबेने की कुछ कफक्र करनी ै। व जानत का भर
था, गाँव की चौकीदारी उसकी मीरास थी, दो रुपए और कुछ आने वेतन ममलता
था। वदी और साफा मफ्
ु त। काम था सप्ता में एक हदन थाने जाना, व ाँ
अफसरों के द्वार पर झाडू लगाना, अस्तबल साफ करना, लकडी चीरना। पयाग
रक्त के घूिंट पी-पीकर ये काम करता, क्योंकक अवज्ञा शारीररक और आधथमक दोनों
ी दृन्ष्ट से म ँगी पडती थी। आँसू यों न पँछ
ु ते थे कक चौकीदारी में यहद कोई
काम था तो इतना ी, और म ीने में चार हदनों के मलए दो रुपए और कुछ आने
कम न थे। कफर गाँव में भी अगर बडे आदममयों पर न ीिं , तो नीचों पर रोब था।
वेतन पें शन थी और जबसे म ात्माओिं का सम्पकम ु आ, पयाग के जेब-खचम की
मद में आ गई। अतएव जीववका का प्रश्न हदनोंहदन धचदतोंत्पादक रप िारण
करने लगा.
इन सत्सिंगों के प ले य दम्पनत गाँव में मजदरू ी करता था। रुन्क्मन लकडडयाँ
तोडकर बाजार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी ल जोतता, कभी परु
ाँकता। जो काम सामने आ जाए, उसमें जुट जाता था। ँसमुख, श्रमशील,
ववनोदी, ननद्मवदद्व आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखों न ीिं मरता। उस पर
नम्र इतना कक ककसी काम के मलए 'न ीिं' न करता। ककसी ने कुछ क ा और व
'अच्छा भैया' क कर दौडा। इसमलए उसका गाँव में मान था। इसी की बदौलत
ननरुद्यम ोने पर भी दो-तीन साल उसे कष्ट न ु आ। दोनों जन
ू की बात ी
क्या, जब म तो को य ऋवद्ध न प्राप्त थी, न्जसके द्वार पर बैलों की तीन-तीन
जोडडयाँ बँिती थीिं, तो पयाग ककस धगनती में था। ाँ, एक जून की दाल-रोटी में
सददे न था। परदतु अब य समस्या हदन-पर-हदन ववषमतर ोती जाती थी।
उस पर ववपन्त्त य थी कक रुन्क्मन भी ककसी कारण से उतनी पनतपरायण,
उतनी सेवाशील, उतनी तत्पर न थी। न ीिं, उसकी प्रगल्भता और वाचालता में
वाचालता में आश्चयमजनक ववकास ोता जाता था। अतएव पयाग को ककसी ऐसी
मसद्धी की आवश्यकता थी, जो उसे जीववका की धचदता से मुक्त कर दे और व
ननन्श्चिंत ोकर भगवद्भजन और सािु-सेवा में प्रवत
ृ ो जाए।

एक हदन रुन्क्मन बाजार में लक़डडयाँ बेचकर लौटी तो पयाग ने क ा - 'ला, कुछ
पैसे मुझे दे दे , दम लगा आऊँ।'

रुन्क्मन ने मँु फेरकर क ा - 'दम लगाने की ऐसी चाट ै , तो काम क्यों न ीिं
करते? क्या आजकल कोई बाबा न ीिं ै , जाकर धचलम भरो?'

पयाग ने त्योरी चढ़ाकर क ा - 'भला चा ती ै तो पैसे दे दे , अगर इस तर तिंग


करे गी तो एक हदन क ीिं चला जाऊँगा, तब रोएँगे।'

रुन्क्मन अँगूठा हदखाकर बोली - 'रोए मेरी बला से। तुम र ते ी ो तो कौन
सोने का कौर िखला दे ते ो? अब तो छाती फाडती ू , तब भी छाती फाडूँगी।'

'तो अब य ी फैसला ै ?'


' ाँ- ाँ, क तो हदया, मेरे पास पैसे न ीिं ै ।'

'ग ने बनवाने के मलए पैसे ै और मैं चार पैसे माँगता ू ँ तो यों जवाब दे ती ै ।'

रुन्क्मन नतनककर बोली - 'ग ने बनवाती ू ँ , तो तुम् ारी छाती क्यों फटती ै?
तम
ु ने तो पीतल का छल्ला भी न ीिं बनवाया, या इतना भी न ीिं दे खा जाता?'

पयाग उस हदन घर न आया। रात के नौ बज गए, तब रुन्क्मन ने ककवाड बदद


कर मलए। समझी, गाँव में क ीिं नछपा बैठा ोगा। समझता ोगा, मुझे मनाने
आएगी, मेरी बला जाती ै।

जब दस
ू रे हदन भी पयाग न आया तो रुन्क्मन को धचदता ु ई। गाँव-भर छान
आई। धचडडयाँ ककसी अड्डे पर न ममली। उस हदन उसने रसोई न ीिं बनाई। रात
को लेटी भी तो ब ु त दे र तक आँखें न लगीिं। शिंका ो र ी थी, पयाग सचमच
ु तो
ववरक्त न ीिं ो गया। उसने सोचा, प्रातःकाल पत्ता-पत्ता छान डालँ ग
ू ी, ककसी
सािु-सदत के साथ ोगा। जाकर थाने में रपट कर दँ ग
ू ी।

अभी तडका ी था कक रुन्क्मन थाने चलने को तैयार ो गई। ककवाड बदद करके
ननकली ी थी कक पयाग आता ु आ हदखाई हदया। पर व अकेला न था। उसके
पीछे -पीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छनिंट की साडी, रिं गी ू ई चादर, लम्बा घघ
ूँ ट
और शरमीली चाल दे खकर रुन्क्मन का कलेजा िक-सा ो गया। व एक क्षण
तबुवद्ध-सी खडी र ी, तब बढ़कर नई सौत को दोनों ाथों के बीच में ले मलया
और उसे इस भाँनत िीरे -िीरे घर के अददर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से
ननराश ोकर ववष-पान कर र ा ो।

जब पडोमसयों की भीड छँ ट गई तो रुन्क्मन ने पयाग से पूछा - 'इसे क ाँ से


लाए?'
पयाग ने ँसकर क ा - 'घर से भागी जाती थी, मझ
ु े रास्ते में ममल गई। घर का
काम-िदिा करे गी, पडी र े गी।'

'मालूम ोता ै , मुझसे तुम् ारा जी भर गया।'

पयाग ने नतरछन धचतवनों से दे खकर पूछा - 'दत


ु पगली, इसे तेरी सेवा-ट ल
करने को लाया ू ँ।'

'नई के आगे पुरानी को कौन पूछता ै ?'

'चल, मन न्जससे ममले व ी नई ै , मन न्जससे न ममले व ी परु ानी ै । ला, कुछ


पैसा ो तो दे दे , तीन हदन से दम न ीिं लगाया, पैर सीिे न ीिं पडते। ाँ, दे ख दो-
चार हदन इस बेचारी को िखला-वपला दे , कफर तो आप ी काम करने लगेगी।'

रुन्क्मन ने परू ा रुपया लाकर पयाग के ाथ पर रख हदया। दस


ू री बार क ने की
जररत ी न पडी।

पयाग में चा े और कोई गुण ो या न ो, य मानना पडेगा कक व शासन के


मल
ू मसद्धादतों से पररधचत था। उसने भेद-नीनत को अपना लक्ष्य बना मलया था।

एक मास तक ककसी प्रकार का वव्न-बािा न पडी। रुन्क्मन अपनी सारी


चौकडडयाँ भूल गई थी। बडे तडके उठती, कभी लकडडयाँ तोडकर, कभी चारा
काटकर, कभी उपले पाथकर बाजार ले जाती। व ाँ जो कुछ ममलता, उसका आिा
तो पयाग के त्थे चढ़ा दे ती। आिे में घर का काम चलता। व सौत को कोई
काम न करने दे ती। पडोमसयों से क ती - 'ब न, सौत ै तो क्या, ै तो कल की
ब ु ररया। दो-चार म ीने भी आराम से न र े गी तो क्या याद करे गी। मैं तो काम
करने को ी ू ँ ।'
गाँव-भर में रुन्क्मन के शील-स्वभाव का बखान ोता था, पर सत्सिंगी घाघ पयाग
सब कुछ समझता था और अपनी नीनत की सफलता पर प्रसदन ोता था।

एक हदन ब ू ने क ा - 'दीदी, अब तो घर में बैठे-बैठे जी ऊबता ै । मुझे भी


कोई काम हदला दो।'

रुन्क्मन ने स्ने मसिंधचत स्वर में क ा - 'क्या मेरे मख


ु में कामलख पत
ु वाने पर
लगी ु ई ै ? भीतर का काम ककए जा, बा र के मलए मैं ू ँ ी।'

ब ू का नाम कौशल्या था, जो बबगडकर मसमलया ो गया था। इस वक्त मसमलया


ने कुछ जवाब न हदया। लेककन लौडडयों की-सी दशा अब उसके मलए असह्य ो
गई थी। व हदन-भर घर का काम करते-करते मरे , कोई न ीिं पूछता। रुन्क्मन
बा र से चार पैसे लाती ै , तो घर की मामलकन बनी ु ई ै । अब मसमलया भी
मजूरी करे गी और मालककन का घमिंड तोड दे गी। पयाग पैसों का यार ै, य
बात उससे अब नछपी न थी। जब रुन्क्मन चारा लेकर बाजार चली गई, तो उसने
घर की टट्टी लगाई और गाँव का रिं ग-ढिं ग दे खने के मलए ननकल पडी। गाँव में
ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बननए सभी थे। मसमलया ने शील और सिंकोच का कुछ
ऐसा स्वािंग रचा कक सभी न्स्त्रयाँ उसपर मुनि ो गई। ककसी ने चावल हदया,
ककसी ने दाल, ककसी ने कुछ। नई ब ू की आवभगत कौन न करता? प ले ी
दौर में मसमलया को मालूम ो गया कक गाँव में वपसन ारी का स्थान खाली ै
और व इस काम को कर सकती ै। व य ाँ से घर लौटी तो उसके मसर पर
गे ू ँ से भरी एक टोकरी थी।

पयाग ने प र रात ी से चक्की की आवाज सुनी तो रुन्क्मन से बोला - 'आज


भी मसमलया अभी से वपसने लगी।'

रुन्क्मन बाजार से आटा लाई थी। अनाज और आटे के भाव में ववशेष अदतर न
था। उसे आश्चयम ु आ कक मसमलया इतने सवेरे क्या पीस र ी ै । उठकर कोठरी
में आई तो दे खा कक मसमलया अँिेरे में कुछ पीस र ी ै । उसने जाकर उसका
ाथ पकड मलया और टोकरी को उठाकर बोली - 'तझ
ु से ककसने पीसने को क ा
ै ? ककसका अनाज पीस र ी ै ?'

मसमलया ने ननश्शिंक ोकर क ा - 'तम


ु जाकर आराम से सोती क्यों न ीिं। मैं
पीसती ू ँ तो तम्
ु ारे क्या बबगडता ै ! चक्की की घम
ु रु -घम
ु रु भी न ीिं स ी
जाती? लाओ, टोकरी दे दो, बैठे-बैठे कब तक खाऊँगी, दो म ीने तो ो गए।'

'मैंने तो तझ
ु से कुछ न ीिं क ा।'

'तुम चा े न क ो, अपना िरम भी तो कुछ ै ।'

'तू अभी य ाँ के आदममयों को न ीिं जानती। आटा तो वपसाते सबको अच्छा


लगता ै । पैसे दे ते रोते ै । ककसके गे ू ँ ै ? मैं सवेरे उसके मसर पर पटक
आऊँगी।'

मसमलया ने रुन्क्मन के ाथ से टोकरी छनन ली और बोली - 'पैसे क्यों न दें गे?


कुछ बेगार करती ू ँ।'

'तू न मानेगी?'

'तुम् ारी लौडी बनकर न र ू ँ गी।'

य तकरार सुनकर पयाग भी आ प ु ँचा और रुन्क्मन से बोला - 'काम करती ै


तो करने क्यों न ीिं दे ती? अब क्या जनम-भर ब ु ररया ी बनी र े गी? ो गए दो
मह ने।'

'तुम क्या जानो, नाक तो मेरी कटे गी।'


मसमलया बोल उठन - 'तो क्या कोई बैठे िखलाता ै ? चौका-बरतन, झाडू-ब ार,
रोटी-पानी, पीसना-कूटना, य कौन करता ै ? पानी खीिंचते-खीिंचते मेरे ाथों में
घिे पड गए। मुझसे अब सारा काम न ोता।'

पयाग ने क ा - 'तो तू ी बाजार जाया कर। घर का काम रुन्क्मन कर लेगी।'

रुन्क्मन ने आपन्त्त की - 'ऐसी बात मँु से ननकालते लाज न ीिं आती? तीन
हदन की ब ु ररया बाजार में घूमेगी, तो सिंसार क्या क े गा।'

मसमलया ने आग्र करके क ा - 'सिंसार क्या क े गा, क्या कोई ऐब करने जाती

ू ँ !'

मसमलया की डडग्री ो गई। आधिपत्य रुन्क्मन के ाथ से ननकल गया।

मसमलया की अमलदारी ो गई। जवान औरत थी। गे ू ँ पीसकर उठन तो औरों के


साथ घास छनलने चली गई, औऱ इतनी घास छनली कक सब दिं ग र गई। गिा
उठाए न उठता था। न्जन पुरुषों को घास छनलने का बडा अभ्यास था, उनसे भी
उसने बाजी मार ली। य गिा बार आने का बबका। मसमलया ने आटा, चावल,
तेल, नमक, तरकारी, मसाला सब कुछ मलया, और चार आने बचा भी मलए।
रुन्क्मन ने समझ रखा था कक मसमलया बाजार से दो-चार आने पैसे लेकर लौटे गी
तो उसे डाँटूँगी और दस
ू रे हदन से कफर मैं बाजार जाने लगँग
ू ी। कफर मेरा राज्य
ो जाएगा। पर य सामान दे खे तो आँखें खल
ु गई। पयाग खाने बैठा तो
मसालेदार तरकारी का बखान करने लगा। म ीनों से ऐसी स्वाहदष्ट वस्तु
मयस्सर न ु ई थी, ब ु त प्रसदन ु आ। भोजन करके बा र जाने लगा तो
मसमलया बरोठे में खडी ममल गई। बोला - 'आज ककतने पैसे ममले?'

'बार आने ममले थे।'

'सब खचम कर डाले ? कुछ बचे ों तो मझ


ु े दे दो।'
मसमलया ने बचे ु ए चार आने पैसे दे हदए। पयाग पैसे खनखनाता ु आ बोला -
'तन
ू े तो आज मालामाल कर हदया। रुन्क्मन तो दो-चार पैसों ी में टाल दे ती
थी।'

'मझ
ु े गाडकर रखना थोडे ी ै । पैसे खाने-पीने के मलए ै कक गाडने के मलए?'

'अब तू ी बाजार जाया कर, रुन्क्मन घर का काम करे गी।'

रुन्क्मन और मसमलया में सिंग्राम नछड गया। मसमलया पयाग पर अपना


आधिपत्य जमाए रखने के मलए जान तोडकर पररश्रम करती। प र रात ी से
उसकी चक्की की आवाज कानों में आने लगती। हदन ननकलते ी घास लाने
चली जाती और जरा दे र सुस्ताकर बाजार की रा लेती। व ाँ से लौटकर भी व
बेकार न बैठन, कभी सन कातती, कभी लकडडयाँ तोडती। रुन्क्मन उसके प्रबदि में
बराबर ऐब ननकालती और जब अवसर ममलता तो गोबर बटोककर उपले पाथती
और गाँव में बेचती। पयाग के दोनों ाथों में लड्डू थे। न्स्त्रयाँ उसे अधिक-से-
अधिक पैसे दे ने और स्ने का अधिकािंश दे कर अपने अधिकार में लाने का
प्रयत्न करती र तीिं, पर मसमलया ने कुछ ऐसी दृढ़ता से आसन जमा मलया था
कक ककसी तर ह लाए न ह लती थी। य ाँ तक कक एक हदन दोनों प्रनतयोधगयों
में खल्
ु लमखल्
ु ला ठन गई। एक हदन मसमलया घास लेकर लौटी तो पसीने में तर
थी। फागन
ु का म ीना था, िप
ू तेज थी। उसने सोचा, न ाकर बाजार जाऊँगी।
घास द्वार पर ी रखकर व तालाब में न ाने चली गई। रुन्क्मन ने थोडी-सी
घास ननकालकर पडोमसन के घर में नछपा दी और गिे को ढीला करके बराबर
कर हदया। मसमलया न ाकर लौटी तो घास कम मालूम ु ई। रुन्क्मन ने पूछा।
उसने क ा - 'मैं न ीिं जानती।'

मसमलया ने गामलयाँ दे नी शुर की - 'न्जसने मेरी घास छुई ो, उसकी दे में कीडे
पडे, उसके बाप और भाई मर जाएँ, उसकी आँखें फूट जाएँ।' रुन्क्मन कुछ दे र
तक तो जब्त ककए बैठन र ी, आिखर खून में उबाल आ ी गया। झल्लाकर उठन
और मसमलया के दो-तीन तमाचे लगा हदए। मसमलया छाती पीट-पीटकर रोने
लगी। सारा मो ल्ला जमा ो गया। मसमलया की सुबुवद्ध और कायमशीलता सभी
की आँखों में खटकती थी - व सबसे अधिक घास क्यों छनलती ै , सबसे ज्यादा
लकडडयाँ क्यों लाती ै , इतने सवेरे क्यों उठती ै , इतने पैसे क्यों लाती ै ? इन
कारणों ने उसे पडोमसयों की स ानुभूनत से विंधचत कर हदया था। सबउसी को
बरु ा-बरु ा क ने लगी। मि
ु ी-भर घास के मलए इतना ऊिम मचा डाला, इतनी घास
तो आदमी झाडकर फेंक दे ता ै । घास न ु ई, सोना ु आ। तझ
ु े तो सोचना चाह ए
था कक अगर ककसी ने ले ी मलया तो, ै तो गाँव-भर ी का। बा र का कोई
चोर तो आया न ीिं। तूने इतनी गामलयाँ दीिं तो ककसको दीिं? पडोमसयों को तो?

सिंयोग से उस पयाग थाने गया था। शाम को थका-माँदा लौटा तो मसमलया से


बोला -'ला, कुछ पैसे दे दे तो दम लगा आऊँ। थककर चूर ो गया ू ँ।'

मसमलया उसे दे खते ी ाय- ाय करके रोने लगी। पयाग ने घबराकर पछ


ू ा -
'क्या ु आ? क्यों रोती ै ? क ीिं गमी तो न ीिं लग गई? नै र से कोई आदमी तो
न ीिं आया?'

'अब इस घर में मेरा र ना न ोगा। अपने घर जाऊँगी।'

'अरे , कुछ मँु से तो बोल, क्या ु आ? गाँव में ककसी ने गाली दी ै ? ककसने गाली
दी ै ? घर फूँक दँ ,ू उसका चालान करवा दँ ।ू '

मसमलया ने रो-रोकर कथा सुनाई। पयाग पर आज थाने पर खूब मार पडी थी।
झल्लाया ु आ था। व कथा सुनी तो दे में आग लग गई। रुन्क्मन पानी भरने
गई थी। व अभी घडा भी न रखने पाई थी कक पयाग उस पर टूट पडा और
मारते-मारते बेदम कर हदया। व मार का जवाब गामलयों से दे ती थी और पयाग
घर गाली पर और झल्ला-झल्लाकर मारता था। य ाँ तक की रुन्क्मन के घुटने
टूट गए, चूडडयाँ टूट गई। मसमलया बीच-बीच में क ती जाती थी - वा रे तेरा
दीदा! वा रे तेरी जबान! ऐसी औरत ी न ीिं दे खी। औरत का े को, डायन ै,
जरा भी मँु में लगाम न ीिं लगाती। ककदतु रुन्क्मन उसकी बातों को मानो
सुनती ी न थी। उसकी सारी शन्क्त पयाग को कोसने में लगी ु ई थी - तू मर
जा, तेरी ममट्टी ननकले, तुझे भवानी खाएँ, तुझे ममरगी आए। पयाग र -र कर क्रोि
से नतलममला उठता और आकर दो-चार लातें जमा दे ता। पर रुन्क्कम को अब
शायद चोट भी न लगती थी। व जग से ह लती भी न थी। मसर के बाल
खोले, जमीन पर बैठन इद ीिं मत्रों का पाठ कर र ी थी। उसके स्वर में क्रोि न
था, केवल एक उदमादमय प्रवा था। उसकी समस्त आत्मा ह स
िं ा-कामना की
अन्नन से प्रज्वमलत ो र ी थी।

अिंिेरा ु आ तो रुन्क्मन उठकर एक ओर ननकल गई, जैसे आँखों से आँसू की िार


ननकल जाती ै । मसमलया भोजन बना र ी थी। उसने उसे जाते दे खा भी, पर कुछ
पूछा न ीिं। द्वार पर पयाग बैठा धचलम पी र ा था। उसने कुछ न क ा।

जब फसल पकने लगती थी तो डेढ़-दो म ीने पयाग तो ार की दे खभाल करनी


पडती थी। उसका ककसानों से दो फसलों तक ल पीछे कुछ अनाज बँिा ु आ
था। माघ ी में व ार के बीच में थोडी-सी जमीन साफ करके एक मडैया डाल
दे ता था और रात को खा-पीकर आग, धचलम और तमाखू-चरस मलए ु ए इसी
मडैया में जाकर पडा र ता था। चैत के अदत तक उसकी य ी ननयम था।
आजकल व ी हदन थे। फलस पकी ु ई तैयार थी। दो-चार हदन में कटाई शुर
ोने वाली थी। पयाग ने दस बजे रात तक रुन्क्मन की रा दे खी। कफर य
समझकर कक शायद ककसी पडोमसन के घर सो र ी ोगी, उसने खा-पीकर अपनी
लाठन उठाई और मसमलया से बोला -'ककवाड बदद कर ले, अगर रुन्क्मन आए तो
खोल दे ना और मना-जुनाकर थोडा-ब ु त िखला दे ना। तेरे पीछे आज इतना
तूफान ो गया। मुझे न जाने इतना गुस्सा कैसे आ गया। मैंने उसे कभी फूल
की छडी से भी न छुआ था। क ीिं बूड-ििंस न मरी ो तो कल आफत आ जाए।'
मसमलया बोली - 'न जानेव आएगी कक न ीिं। मैं अकेली कैसे र ू ँगी, मझ
ु े डर
लगता ै ।'

'तो घर में कौन र े गा? सूना घर पाकर कोई लोटा-थाली उठा ले जाए तो? डर
ककस बात का ै ? कफर रुन्क्मन तो आती ी ोगी।'

मसमलया ने अददर से टट्टी बदद कर ली। पयाग ार की ओर चला। चरस की


तरिं ग में य भजन गाता जाता था -
ठधगनी! क्या नैना झमकावे
कद्दू काट मद
ृ िं ग बनावे, नीबू काट मजीरा,
पाँच तोरई मिंगल गाबें , नाचे बालम खीरा।
रपा पह र के रप हदखावे, सोना पह र ररझावे,
गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे
ठधगनी...।

स सा मसवाने पर प ु ँचते ी उसने दे खा कक सामने ार में ककसी ने आग


जलाई। एक क्षण में एक ज्वाला-सी द क उठन। उसने धचल्लाकर पुकारा - 'कौन
ै व ाँ? अरे , य कौन आग जलाता ै ?'

ऊपर उठती ु ई ज्वालाओिं ने अपनी न्जह्वा से उत्तर हदया।

अब पयाग को मालम
ू ु आ कक उसकी मडैया में आग लगी ु ई ै । उसकी छाती
िडकने लगी। इस मडैया में आग लगाना रई के ढे र में आग लगाना था वा
चल र ी थी। मडैया के चारो ओर एक ाथ टकर पकी ु ई फसल की चादर-सी
बबछन ु ई थी। रात में भी उसका सुन रा रिं ग झलक र ा था। आग की एक
लपट, केवल एक जरा-सी धचनगारी सारे ार को भस्म कर दे गी। सारा गाँव
तबा ो जाएगा। इसी ार से ममले ु ए दस
ू रे गाँव के भी ार थे। वे भी जल
उठें गे। ओ ! लपटें बढ़ती ी जा र ी ै । अब ववलम्ब करने का समय न था।
पयाग ने अपना उपला और धचलम व ीिं पटक हदया और किंिे पर लो बदद लाठन
रखकर बेत ाशा मडैया की ओर दौडा। मेडों से जाने में चक्कर था। इसमलए खेतों
में से ोकर भागा जा र ा था। प्रनतक्षण ज्वाला प्रचिंडतर ोती जाती थी और
पयाग के पाँव और तेजी से उठ र े थे। कोई तेज घोडा भी इस वक्त उसे पा
न ीिं सकता था। अपनी तेजी पर उसे स्वयिं आश्चयम ो र ा था। जान पडता था,
पाँव भूमम पर पडते ी न ीिं। उसकी आँखें मडैया पर लगी ु ई थीिं। दाह ने-बाएँ
से और कुछ न सूझता था। इसी एकाग्रता ने उसके पैरों में पर लगा हदए थे।
न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। तीन-चार फरलािंग उसने दो ममनट में तय
कर मलए और मडैया के पास जा प ु ँचा।

मडैया के आस-पास कोई न था। ककसने य कमम ककया ै, य सोचने का मौका


न था। उसे खोजने की तो बात ी और थी। पयाग को सददे रुन्क्मन पर ु आ,
पर य क्रोि का समय न था। ज्वालाएँ कुचाली बालकों की भाँनत ठिा मारती,
िक्कम-िक्का करतीिं, कभी दाह नी ओर लपकतीिं और कभी बाईं तरफ। बस, ऐसा
मालूम ोता था कक लपट अब खेत तक प ु ँ ची, अब प ु ँची। मानों ज्वालाएिं
आग्र पूवक
म क्याररयों की ओर बढ़ती और असफल ोकर दस
ू री बार कफर दन
ू े वेग
से लपकती थीिं। आग कैसे बझ
ु ।े लाठन से पीटकर बुझाने का गौं (अवसर) न था।
व तो ननरी मख
ू त
म ा थी। कफर क्या ो? फसल जल गई तो कफर व ककसी को
मँु न हदखा सकेगा। आ ! गाँवभर में को राम मच जाएगा। सवमनाश ो
जाएगा। उसने ज्यादा न ीिं सोचा। गँवारों को सोचना न ीिं आता। पयाग ने लाठन
सम्भाली, जोर से एक छलािंग मारकर आग के अददर मडैया के द्वार पर जा
प ु ँचा, जलती ु ई मडैया को अपनी लाठन पर उठाया और उसे मसर पर मलए
सबसे चौडी मेड पर गाँव की तरफ भागा। ऐसा जान पडा, मानो कोई अन्नन-यज्ञ
वा में उडता चला जा र ा ै । फूस की जलती ु ई िन्ज्जयाँ उसके ऊपर धगर
र ी थी, पर उसे इसका ज्ञान तक न था। एक बार एक मूठा अलग ोकर उसके
ाथ पर धगर पडा। सारा ाथ भुन गया। पर उसके पाँव पल-भर भी न रके।
ाथों में जरा भी ह चक न ु ई। ाथों का ह लना खेती की तबा ोना था।
पयाग की ओर से अब कोई शिंका न थी। अगर भय था तो य ी कक मडैया का
व केदद्र भाग ज ाँ लाठन की किंु दा डालकर पयाग ने उसे उठाया था। न जल
जाए क्योंकक छे द के फैलते ी मडैया उसके ऊपर आ धगरे गी और अन्नन-समाधि
में मनन कर दे गी। पयाग य जानता था और वा की चाल से लडने में लगा
र ा। न ीिं तो अब तक बीच में आग प ु ँच गई ोता और ा ाकार मच गया
ोता। एक फरलाँग तो ननकल गया, पयाग की ह म्मत ने ार न ीिं मानी। व
दस
ू रा फरलाँग भी पूरा ो गया। दे खना पयाग, दो फरलाँग की और कसर ै।
पाँव जरा भी सुस्त न ों। ज्वाला लाठन के किंु दे पर प ु ँची और तुम् ारे जीवन
का अदत ै । मरने के बाद भी तम्
ु ें गामलयाँ ममलेगी, तम
ु अनदत काल तक
आ ों की आग में जलते र ोगे। बस, एक ममनट और! अब केवल दो खेत और
र गए ै । सवमनाश! लाठन का किंु दा ननकल गया। मडैया िखसक र ी ै , अब कोई
आशा न ीिं। पयाग प्राण छोडकर दौड र ा ै, व ककनारे का खेत आ प ु ँ चा।
अब केवल दो सेकिंड का और मामला ै । ववजय का द्वार सामने बीस ाथ पर
खडा स्वागत कर र ा ै । उिर स्वगम ै , इिर नरक। मगर व मडैया िखसकती

ु ई पयाग के मसर पर आ प ु ँ ची। व अब भी उसे फेंककर अपनी जान बचा


सकता ै । पर उसे प्राणों को मो न ीिं। व उस जलती ु ई आग को मसर पर
मलए भागा जा र ा ै । व ाँ उसके पाँव लडखडाएँ। अब य क्रूर अन्नन-लीला न ीिं
दे खी जाती।

एकाएक एक स्त्री सामने के वक्ष


ृ के नीचे से दौडती ु ई पयाग के पास प ु ँची।
य रुन्क्मन थी। उसने तुरदत पयाग के सामने आकर गरदन झुकाई और जलती

ु ई मडैया के नीचे प ु ँ चकर उसे दोनों ाथों पर ले मलया। उसी दम पयाग


मूनछम त ोकर धगर पडा। उसका सारा मँु झुलस गया था।

रुन्क्मन उसके अलाव को मलए एक सेकिंड में खेत के डािंडे पर आ प ु ँची, मगर
इतनी दरू में उसका ाथ जल गया, मँु जल गया और कपडों में आग लग गई।
उसे अब इतनी सुधि भी न थी कक मडैया के बा र ननकल आए। मडैया को मलए

ु ए धगर पडी। इसके बाद कुछ दे र कर मडैया ह लती र ी। रुन्क्मन ाथ-पाँव


फेंकती र ी, कफर अन्नन ने उसे ननगल मलया। रुन्क्मन ने अन्नन-समाधि ले ली।
कुछ दे र बाद पयाग को ोश आया। सारी दे जल र ी थी। उसने दे खा वक्ष
ृ के
नीचे फूस की लाल आग चमक र ी ै । उठकर दौडा औऱ पैरे से आग को टा
हदया - नीचे रुन्क्मन का अिजली लाश पडी ु ई थी। उसने बैठकर दोनों ाथों से
मँु ढाँप मलया और रोने लगा।

प्रातःकाल गाँव के लोग पयाग को उठाकर उसके घर ले गए। एक सप्ता तक


उसका इलाज ोता र ा, पर बचा न ीिं। कुछ तो आग ने जलाया था, जो कसर
थी, व शोकान्नन ने पूरी कर दी।
***
सज
ु ाि भगत

सीिे-सादे ककसान िन ाथ में आते ी िमम और कीनतम को ओर झक


ु ते ै । हदव्य
समाज की भाँनत वे प ले अपने भोग0ृृ-ववलास की ओर न ीिं दौडते। सज
ु ान की
खेती में कई साल से किंचन बरस र ा था। मे नत तो गाँव के सभी ककसान
करते थे, पर सुजान के चदद्रमा बली थे, ऊसर में भी दाना छनिंट आता था तो
कुछ-न-कुछ पैदा ो जाता था। तीन वषम लगातार ईख लगती गई। उिर गुड का
भाव तेज था। कोई दो-ढाई जार ाथ में आए। बस धचत्त की वन्ृ त्त िमम की
ओर झक
ु पडी। सािु-सदतों का आदर-सत्कार ोने लगा, द्वार पर िन
ू ी जलने
लगी, कानन
ू गो इलाके में आते तो सज
ु ान म तो के चौपाल में ठ रते। ल्के के
ै ड कािंस्टे बल, थानेदार, मशक्षा-ववभाग का अफसर, एक-न-एक उस चौपाल में पडा
ी र ता। म तो मारे खुशी के फूले न समाते। िदय भाग! उसके द्वार पर अब
इतने बडे-बडे ाककम आकर ठ रते ै । न्जन ाककमों के सामने उसका मँु न
खुलता था, उद ीिं की अब 'म तो-म तो' करते जबान सूखती थी। कभी-कभी
भजन-भाव ो जाता था। एक म ात्मा ने डौल अच्छा दे खा तो गाँव में आसन
जमा हदया। गािंजे और चरस की ब ार उडने लगी। एक ढोलक आई, मजीरे मँगाए
गए, सत्सिंग ोने लगा। य सब सुजान के दम का जलूस था।

घर में सेरों दि
ू ोता, मगर सज
ु ान के किंठ तले एक बँद
ू भी जाने की कसम थी।
कभी ाककम लोग चखते, कभी म ात्मा लोग। ककसान को दि
ू -िी से क्या
मतलब, उसे रोटी और साग चाह ए। सुजान की नम्रता का अब पारावार न था।
सबके सामने मसर झुकाए र ता, क ीिं लोग य न क ने लगें कक िन पाकर उसे
घमिंड ो गया ै । गाँव में कुल तीन कुएँ थे, ब त-से खेतों में पानी न प ु ँचता
था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा हदया। कुएँ का
वववा ु आ, यज्ञ ु आ, ब्रह्मभोज ु आ। न्जस हदन प ली बार परु चला, सज
ु ान को
मानो चारों पदाथम ममल गए। जो काम गाँव में ककसी ने न ककया था, व बाप-
दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर हदखाया।
एक हदन गाँव में गया के यात्री आकर ठ रे । सुजान ी के द्वार पर उनका
भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की ब ु त हदनों से इच्छा थी। य
अच्छा अवसर दे खकर व भी चलने को तैयार ो गया।

उसकी स्त्री बुलाकी ने क ा - 'अभी र ने दो, अगले साल चलेगे'

सज
ु ान ने गम्भीर भाव से क ा - 'अगले साल क्या ोगा, कौन जानता ै ! िमम
के काम में मीन-मेष ननकालना अच्छा न ीिं। न्जददगानी का क्या भरोसा!'

बल
ु ाकी - ' ाथ खाली ो जाएगा।'

सुजान - 'भगवान की इच्छा ोगी तो कफर रुपए ो जाएँगे। उनके य ाँ ककस


बात की कमी ै !'

बुलाकी इसका क्या जवाब दे ती? सत्कायम में बािा डालकर अपनी मुन्क्त क्यों
बबगाडती? प्रातःकाल स्त्री और पुरुष गया करने चले। व ाँ से लौटे तो यज्ञ और
ब्रह्मभोज की ठ री। सारी बबरादरी ननमिंबत्रत ु ए, नयार गाँवों में सुपारी बँटी।
इस िम
ू -िाम से एक लाभ ु आ कक चारों ओर वा -वा मच गई। सब य ी
क ते थे कक भगवान िन दे तो हदल भी ऐसा दे । घमिंड तो छू न ीिं गया, अपने
ाथ से पत्तल उठाता कफरता था, कुल का नाम जगा हदया। बेटा ो तो ऐसा ो।
बाप मरा, तो भूनी-भािंग भी न ीिं थी। अब लक्ष्मी घुटने तौडकर
ा़ आ बैठन ै।

एक द्वेषी ने क ा - 'क ीिं गडा ु आ िन पा गया ै ।'

इस पर चारों ओर से उस पर बौछारे पडने लगी - ' ाँ, तुम् ारे बाप-दादा जो


खजाना छोड गए थे, य ी उसके ाथ लग गया ै । अरे भैया, य िमम की कमाई
ै । तम
ु भी तो छाती फाडकर काम करते ो, क्यों ऐसी ईख न ीिं लगती? क्यों
ऐसी फसल न ीिं ोती? भगवान आदमी का हदल दे खते ै । जो खचम करता ै , उसी
को दे ते ै ।'
सज
ु ान म तो सज
ु ान भगत ो गए। भगतों के आचार-ववचार कुछ और ोते ै।
व बबना स्नान ककए कुछ न ीिं खाता। गिंगाजी अगर घर से दरू ों और व
रोज स्नान करके दोप र तक घर न लौट सकता ो तो पवो के हदन तो उसे
अवश्य ी न ाना चाह ए। भजन-भाव उसके घर अवश्य ोना चाह ए। पूजा-
अचमना उसके मलए अननवायम ै । खान-पान में भी उसे ब ु त ववचार रखना पडता
ै । सबसे बडी बात य ै कक झूठ का त्याग करना पडता ै । भगत झूठ न ीिं
बोल सकता। सािारण मनष्ु य को अगर झठ
ू का दिं ड एक ममले तो भगत को
एक लाख से कम न ीिं ममल सकता। अज्ञान की अवस्था में ककतने ी अपराि
क्षम्य ो जाते ै । ज्ञानी के मलए क्षमा न ीिं ै , प्रायन्श्चत न ीिं ै , यहद ै तो ब ु त
ी कहठन। सुजान को भी अब भगतों की मयामदा को ननभाना पडा। अब तक
उसकी जीवन मजूर का जीवन था। उसका कोई आदम श, कोई मयामदा उसके सामने
न थी। अब उसके जीवन में ववचार का उदय ु आ, ज ाँ का मागम काटों से भरा

ु आ था। स्वाथम-सेवा ी प ले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी कािंटे से व


पररन्स्थनतयों को तौलता था। व अब उद ें औधचत्य के कािंटों पर तौलने लगा।
यों क ो कक जड-जगत से ननकलकर उसने चेतन-जगत में प्रवेश ककया। उसने
कुछ लेन-दे न करना शुर ककया पर अब उसे ब्याज लेते ु ए आत्मनलानन-सी ोती
थी। य ाँ तक कक गऊओिं को द ु ते समय उसे बछडो का ्यान बना र ता था।
क ीिं बछडा भूखा न र जाए, न ीिं तो उसका रोयाँ दख
ु ी ोगा। व गाँव का
मिु खया था, ककतने ी मक
ु दमों में उसने झठ
ू न श ादतें बनवाई थी, ककतनों से डािंड
लेकर मामले को रफा-दफा करा हदया था। अब इन व्यापारों से उसे घण
ृ ा ोती
थी। झूठ और प्रपिंच से कोसों दरू भागता था। प ले उसकी य चेष्टा ोती थी
कक मजूरों से न्जतना काम मलया जा सके लो और मजूरी न्जतनी कम दी जा
सके, दो। पर अब उसे मजूर के काम की कम, मजूरी की अधिक धचदता र ती
थी। क ीिं बेचारे मजूर का रोयाँ न दख
ु ी ो जाए। व उसका वाक्यािंश-सा ो
गया। ककसी का रोयाँ न दख
ु ी ो जाए। उसके दोनों जवान बेटे बात-बात में उस
पर फन्ब्तयाँ कसते, य ाँ तक कक बुलाकी भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी
थी, न्जसे घर के भले-बरु े से कोई प्रयोजन न था। चेतन-जगत में आकर सज
ु ान
भगत कोरे भगत र गए।

सुजान के ाथों से िीरे -िीरे अधिकार छनने जाने लगे। ककसी खेत में क्या बोना
ै , ककसको क्या दे ना ै , ककससे क्या लेना ै , ककस भाव से क्या चीज बबकी, ऐसी-
ऐसी म त्त्वपूणम बातों में भी भगत जी की सला न ली जाती थी। भगत के
पास कोई जाने ी न पाता। दोनों लडके या स्वयिं बुलाकी दरू ी से मामला तय
कर मलया करती। गाँव-भर में सुजान का मान-सम्मान बढ़ता था, घर में घटता
था। लडके उसका सत्कार अब ब ु त करते। ाथ से चारपाई उठाते दे ख
लपककर खुद उठा लाते, धचलम न भरने दे त,े य ाँ तक कक उसकी िोती छाँटने
के मलए भी आग्र करते थे। मगर अधिकार उसके ाथ में न था। व अब घर
का स्वामी न ीिं, मन्ददर का दे वता था।

एक हदन बुलाकी ओखली में दाल छाँट र ी थी। एक मभखमिंगा द्वार पर आकर
धचल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूिं तो उसे कुछ दे दँ ।ू इतने में बडा
लडका भोला आकर बोला -'अम्माँ, एक म ात्मा द्वार पर खडे गला फाड र े ै?
कुछ दे दो। न ीिं तो उनका रोयाँ दख
ु ी ो जाएगा।'

बुलाकी ने उपेक्षा के भाव से क ा - 'भगत के पाँव क्या में दी लगी ै , क्यों कुछ
ले जाकर न ीिं दे त?े क्या मेरे चार ाथ ै ? ककस-ककसका रोयाँ सुखी करँ? हदन-भर
तो ताँता लगा र ता ै ।'

भोला - 'चौपट करने पर लगे ु ए ै , और क्या? अभी मिं गू बेंग (रुपए) दे ने आया
था। ह साब से 7 मन ु ए। तौला तो पौने सात मन ी ननकले।'
मैंने क ा - 'दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे क ते ै , अब इतनी दरू क ाँ
जाएगा भरपाई मलख दो, न ीिं तो उसका रोयाँ दख
ु ी ोगा। मैने भरपाई न ीिं
मलखी। दस सेर बाकी मलख दी।'

बल
ु ाकी - 'ब ु त अच्छा ककया तम
ु ने, बकने हदया करो। दस-पाँच दफे मँु की खा
जाएँगे, तो आप ी बोलना छोडे दें गे।'

भोला - 'हदन-भर एक-न-एक खुचड ननकालते ै । सौ दफे क हदया कक तुम घर-


ग ृ स्थी के मामले में न बोला करो, पर इनसे बबना बोले र ा ी न ीिं जाता।'

बुलाकी - 'मैं जानती थी कक इनका य ाल ोगा तो गुरुमदत्र न लेने दे ती।'

भोला - 'भगत क्या ु ए कक दीन-दनु नया दोनों से गए। सारा हदन पूजा-पाठ में ी
उड जाता ै । अभी ऐसे बूढ़े न ीिं ो गए कक कोई काम ी न कर सके।'

बल
ु ाकी ने आपन्त्त की - 'भोला, य तम्
ु ारा कुदयाय ै । फावडा, कुदाल अब
उनसे न ीिं ो सकता, लेककन कुछ-न-कुछ तो करते ी र ते ै । बैलों को सानी-
पानी दे ते ै , गाय द ु ते ै और भी जो कुछ ो सकता ै , करते ै ।'

मभक्षुक अभी तक खडा धचल्ला र ा था। सज


ु ान ने जब घर में से ककसी को कुछ
लाते न दे खा, तो उठकर अददर गया और कठोर स्वर में बोला - 'तुम लोगों को
सुनाई न ीिं दे ता कक द्वार पर कौन घदटे -भर से खडा भीख माँग र ा ै । अपना
काम तो हदन-भर करना ी ै , एक छन भगवान का काम भी तो ककया करो।'

बुलाकी - 'तुम तो भगवान का काम करने को बैठे ी ो, क्या घर-भर भगवान


ी का काम करे गा?'

सज
ु ान - 'क ाँ आटा रखा ै , लाओ, मैं ी ननकालकर दे आऊँ। तम
ु रानी बनकर
बैठो।'
बल
ु ाकी - 'आटा मैंने मर-मरकर पीसा ै , अनाज दे दो। ऐसे मडधचरो के मलए
प र रात से उठकर चक्की न ीिं चलाती ू ँ।'

सुजान भिंडार घर में गए और एक छोटी-सी छबडी को जौ से भरे ु ए ननकले।


जौ सेर भर से कम न था। सज
ु ान ने जान-बझ
ू कर, केवल बल
ु ाकी और भोला को
धचढ़ाने के मलए, मभक्षा परम्परा का उल्लिंघन ककया था। नतस पर भी य हदखाने
के मलए कक छबडी में ब ु त ज्यादा जौं न ीिं ै, व उसे चुटकी से पकडे ु ए थे।
चुटकी इतना बोझ न सम्भाल सकती थी। ाथ काँप र ा था। एक क्षण ववलम्ब
ोने से छबडी के ाथ से छूटकर धगर पडने की सम्भावना थी। इसमलए जल्दी
से बा र ननकल जाना चा ते थे। स सा भोला ने छबडी उनके ाथ से छनन ली
और त्योररयाँ बदलकर बोला - 'सदत का माल न ीिं ै जो लट
ु ाने चले ो। छाती
फाड-फाडकर काम करते ै , तब दाना घर में आता ै ।'

सुजान ने िखमसयाकर क ा - 'मैं भी तो बैठा न ीिं र ता।'

भोला - 'भीख, भीख की ी तर दी जाती ै , लुटाई न ीिं जाती। म तो एक वेला


खाकर हदन काटते ै कक पनत-पानी बना र े , और तुम् ें लुटाने की सूझी। तुम् ें
क्या मालूम कक घर में क्या ो र ा ै ।'

सुजान ने इसका कोई जवाब न हदया। बा र आकर मभखारी से क हदया -


'बाबा, इस समय जाओ, ककसी का ाथ खाली न ीिं ै । ' और पेड के नीचे बैठकर
ववचार मनन ो गया। अपने ी घर में उसका य अनादर! अभी य अपाह ज
न ीिं ै , ाथ-पाँव थके न ीिं ै । घर का कुछ-न-कुछ काम करता ी र ता ै । उस
पर य अनादर उसी ने घर बनाया, य सारी ववभूनत उसी के श्रम का फल ै , पर
अब इस घर पर उसका कोई अधिकार न ीिं र ा। अब व द्वार का कुत्ता ै , पडा
र े और घर वाले जो रखा दे दें , व खाकर पेट भर मलया करे । ऐसे जीवन को
धिक्कार ै । सुजान ऐसे घर में न ीिं र सकता।
सद्या ो गई थी। भोला को छोटा भाई शिंकर नाररयल भरकर लाया। सज
ु ान ने
नाररयल दीवार से हटकाकर रख हदया। िीरे -िीरे तम्बाकू जल गया। जरा दे र में
भोला ने द्वार पर चारपाई डाल दी। सुजान पेड के नीचे से न उठा।

ब ु त दे र और गज
ु री, भोजन तैयार ु आ, भोला बल
ु ाने गया। सज
ु ान ने क ा -
'भख
ू न ीिं ै ।' ब ु त मनावन करने पर भी न उठा।

तब बुलाकी ने आकर क ा - 'खाना खाने क्यों न ीिं चलते? जी तो अच्छा ै ?'

सज
ु ान को सबसे अधिक क्रोि बल
ु ाकी पर था। य भी लडकों के साथ ै। य
बैठन दे खती र ी और भोला ने मेरे ाथ से अनाज छनन मलया। इसके मँु से
इतना भी न ननकला कक ले जाते ै तो ले जाने दो। लडकों को न मालूम ो कक
मैंने ककतने श्रम से ग ृ स्थी जोडी ै , पर य तो जानती ै । हदन को हदन और
रात को रात न ीिं समझा। भादों की अँिेरी रात में मडैया लगा के जुआर की
रखवाली करता था। जेठ-बैसाख की दोप री में भी दम न लेता था, और अब
मेरा घर पर इतना भी अधिकार न ीिं कक भीख तक दे सकँू । माना कक भीख
इतनी न ीिं दी जाती लेककन इनको तो चप
ु र ना चाह ए था, चा े मैं घर में आग
ी क्यों न लगा दे ता। कानून में भी तो मेरा कुछ ोता ै । मैं अपना ह स्सा न ीिं
खाता, दस
ू रों को िखला दे ता ु ँ, इसमें ककसी के बाप का क्या साझा ै ? अब इस
वक्त मानने आई ै , न्जसने खसम की लातें न खाईं ो, कभी कडी ननगा से
दे खा तक न ीिं। रुपए-पैसे, लेना-दे ना, सब इसी के ाथ में दे रखा था। अब रुपए
जमा कर मलए ै , तो मझ
ु ी से घमिंड करती ै । अब इसे बेटे प्यारे ै , मैं तो
ननखट्टू, लुटाऊँ, घर-फूँकू, घोंघा ू ँ । मेरी इसे क्या परवा ! तब लडके न थे, जब
बीमार पडी थी और मैं गोद में उठाकर वैद्य के घर ले गया था। आज उसके
बेटे ै और य उनकी माँ ै । मैं तो बा र का आदमी ू ँ। मझ
ु े घर से मतलब ी
क्या? बोला - 'अब खा-पीकर क्या करँगा, ल जोतने से र ा, फावडा चलाने से
र ा। मुझे िखलाकर दाने को क्यों खराब करे गी? रख दे , बेटे दस
ू री बार खाएँगे।'
बल
ु ाकी -' तम
ु तो जरा-जरा-सी बात पर नतनक जाते ो। सच क ा ै , बढ़
ु ापे में
आदमी की बवु द्ध मारी जाती ै । भोला ने इतना तो क ा था कक इतनी भीख मत
ले जाओ, या और कुछ?'

सज
ु ान - ' ाँ, बेचारा इतना क कर र गया तम्
ु ें तो मजा तब आता, जब व
ऊपर से दो-चार डिंडे लगा दे ता। क्यों? अगर य ी अमभलाषा ै तो परू ी कर लो।
भोला खा चुका ोगा, बुला लाओ। न ीिं, भोला को क्यों बुलाती ो, तुम् ीिं न जमा
दो दो-चार ाथ। इतनी कसर ै, व भी पूरी ो जाए।'

बल
ु ाकी - ' ाँ, और क्या, य ी तो नारी का िरम ै । अपने भाग सरा ो कक मझ
ु -
जैसी सीिी औरत पा ली। न्जस बल चा ते ो, बबठाते ो। ऐसी मँु जोर ोती तो
तुम् ारे घर में एक हदन भी ननबा न ोता।'

सज
ु ान - ' ाँ भाई, व तो मैं क र ा ू ँ कक दे वी थीिं और ो। मैं तब भी राक्षस
था और अब भी दै त्य ो गया ू ँ। बेटे कमाऊँ ै , उनकी-सी न क ोगी तो क्या
मेरी-सी क ोगी, मुझसे अब क्या लेना-दे ना ै ?'

बल
ु ाकी - 'तम
ु झगडा करने पर तल
ु े बैठे ो और मैं झगडा बचाती ू ँ कक चार
आदमी ँसेंगे। चलकर खाना खा लो सीिे से, न ीिं तो मैं जाकर सो र ू ँगी।'

सज
ु ान - 'तम
ु भख
ू ी क्यों सो र ोगी? तम्
ु ारे बेटों की तो कमाई ै। ाँ, मैं बा री
आदमी ू ँ।'

बुलाकी - 'बेटे तुम् ारे भी तो ै ।'

सुजान - 'न ीिं, मैं ऐसे बेटों से बाज आया। ककसी और के बेटे ोंगे। मेरे बेटे ोते
तो क्या मेरी दग
ु नम त ोती?'

बुलाकी - 'गामलयाँ दोगे तो मैं भी कुछ क बैठूँगी। सुनती थी, मदम बडे समझदार
ोते ै , पर तुम सबसे दयारे ो। आदमी को चाह ए कक जैसा समय दे खे वैसा
काम करे । अब मारा और तम्
ु ारा ननबा इसी में ै कक नाम के मामलक बने
र ें और व ी करें जो लडकों को अच्छा लगे। मैं य बात समझ गई, तम
ु क्यों
न ीिं समझ पाते? जो कमाता ै , उसी का घर में राज ोता ै , य ी दनु नया का
दस्तूर ै । मैं बबना लडकों से पूछे कोई काम न ीिं करती, तुम क्यों अपने मन की
करते ो? इतने हदनों तक तो राज कर मलया, अब क्यों माया में पडे ो? आिी
रोटी खाओ, भगवान भजन करो और पडे र ो। चलो, खाना खा लो।'

सुजान - 'तो अब मैं द्वार का कुत्ता ू ँ ?'

बल
ु ाकी - 'बात जो थी, व मैंने क दी। अब अपने को जो चा ो समझो।'

सुजान न उठे । बुलाकी ारकर चली गई।

सुजान के सामने अब एक नई समस्या खडी ो गई थी। व ब ु त हदनों से घर


का स्वामी था और अब भी ऐसा ी समझता र ा। पररन्स्थनत में ककतना उलट-
फेर ो गया था, इसकी उसे खबर न थी। लडके उसका सेवा-सम्मान करते ै , य
बात उसे भ्रम में डाले ु ए थी। लडके उसके सामने धचलम न ीिं पीते, खाट पर
न ीिं बैठते, क्या य सब उसके ग ृ -स्वामी ोने का प्रमाण न था? पर आज उसे
य ज्ञात ु आ कक य केवल श्रद्धा थी, उसके स्वाममत्व का प्रमाण न ीिं। अब तक
न्जस घर में राज ककया, उसी घर में परािीन बनकर व न ीिं र सकता। उसको
श्रद्धा की चा न ीिं, सेवा की भख
ू न ीिं। उसे अधिकार चाह ए। व इस घर पर
दस
ू रों का अधिकार न ीिं दे ख सकता। मन्ददर का पुजारी बनकर व न ीिं र
सकता।

न जाने ककतनी रात बाकी थी। सुजान ने उठकर गिंडासे से बैलों का चारा काटना
शुर ककया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट र े थे। इतना श्रम
उद ोंने अपने जीवन में कभी न ककया था। जबसे उद ोंने काम छोडा था, बराबर
चारे के मलए ाय- ाय पडी र ती थी। शिंकर भी काटता था, भोला भी काटता था,
पर चारा पूरा न पडता था। आज व इन लौडो को हदखा दें गे, चारा कैसे काटना
चाह ए। उनके सामने कहटया का प ाड खडा ो गया। और टुकडे इतने म ीन
और सुडौल था, मानो सािंचे में ढाले गए ों।

मँु -अँिरे बुलाकी उठन तो कहटया का ढ़े र दे खकर दिं ग र गई और बोली - 'क्या
भोल आज रात भी कहटया ी काटता र गया? ककतना क ा कक बेटा, जी से
ज ान ै , पर मानता ी न ीिं। रात को सोया ी न ीिं।'

सुजान भक्त ने तान से क ा - 'व सोता ी कब ै ? जब दे खता ू ँ , काम ी


करता र ता ै । ऐसा कमाऊँ सिंसार में और कौन ोगा?'

इतने में भोला आँखें मलता ु आ बा र ननकला। उसे भी य ढे र दे खकर आश्चयम

ु आ। माँ से बोला - 'क्या शिंकर आज बडी रात को उठा था, अम्माँ?'

बल
ु ाकी -'व तो पडा सो र ा ै । मैंने समझा, तम
ु ने काटी ै ।'

भोला - 'मैं तो सवेरे उठ ी न ीिं पाता। हदन-भर चा े न्जतना काम कर लँ ,ू पर


रात को मुझसे न ीिं उठा जाता।'

बुलाकी - 'तो क्या तुम् ारे दादा ने काटी ै?'

भोला - ' ाँ, मालम


ू ोता ै । रात-भर सोए न ीिं। मझ
ु से कल बडी भल
ू ु ई। अरे ,
व तो ल लेकर जा र े ै । जान दे ने पर उतार ो गए ै क्या?'

बल
ु ाकी - 'क्रोिी तो सदा के ै। अब ककसी की सन
ु ेंगे थोडे ी।'

भोला - 'शिंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मँु - ाथ िोकर ल ले जाऊँ।' जब


और ककसानो के साथ भोला ल लेकर खेत में प ु ँचा तो सुजान आिा खेत जोत
चक
ु े थे। भोला ने चप
ु के से काम करना शुर ककया । सज
ु ान से कुछ बोलने की
ह म्मत न पडी।

दोप र ु आ। सभी ककसानों ने ल छोड हदए। पर सुजान भगत अपने काम में
मनन ै । भोला थक गया ै । उसकी बार-बार इच्छा ोती कक बैलों को खोल दे ।
मगर डर के मारे कुछ क न ीिं सकता। सबको आश्चयम ो र ा ै कक दादा कैसे
इतनी मे नत कर र े ै।

आिखर डरते-डरते बोला - 'दादा, अब तो दोप र ो गया। ल खोल दें न?'

सुजान - ' ाँ, खोल दो। तुम बैलों को लेकर चलो, मैं डािंड फेंककर आता ू ँ।'

भोला - 'मैं सिंझा को डािंड फेंक दँ ग


ू ा।'

सज
ु ान - 'तम
ु क्या फेंक दोगे। दे खते न ीिं ो, खेत कटोरे की तर ग रा ो
गया ै । तभी तो बीच में पानी जम जाता ै । इस गोइिंड के खेत में बीस मन
का बीघा ोता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर हदया।'

बैल खोल हदए गए। भोला बैलों को लेकर घर चला, पर सज


ु ान डािंड फेंकते र े ।
आि घदटे के बाद डािंड फेंककर व घर गए। मगर थकान का नाम न था। न ा-
खाकर आराम करने के बदले उद ोंने बैलों को स लाना शुर ककया। उनकी पीठ
पर ाथ फेरा, उनके पैर मले, पँछ
ू स लाई। बैलों की पँछ
ू ें खडी थी। सुजान की
गोद में मसर रखे उद ें अकथनीय सुख ममल र ा था। ब ु त हदनों के बाद आज
उद ें य आनदद प्राप्त ु आ था। उनकी आँखों में कृतज्ञता भऱी ु ई थी। मानो
वे क र े थे, म तम्
ु ारे साथ रात-हदन काम करने को तैयार ै।

अदय कृषकों की भाँनत भोला अभी कमर सीिी कर र ा था कक सुजान ने कफर


ल उठाया और खेत की ओर चले। दोनों बैल उमिंग से भरे दौडे चले जाते थे,
मानो उद ें स्वयिं खेत में प ु ँचने की जल्दी थी।
भोला ने मडैया में लेटे-लेट वपता को ल मलए जाते दे खा, पर उठ न सका।
उसकी ह म्मत छूट गई। उसने कभी इतना पररश्रम न ककया था। उसे बनी-बनाई
धगरस्ती ममल गई थी। उसे ज्यों-त्यों चला र ा था। इन दामों व घर का स्वामी
बनने का इच्छुक न था। जवान आदमी को बीस िदिे ोते ै। ँसने-बोलने के
मलए, गाने-बजाने के मलए भी तो उसे कुछ समय चाह ए। पडोस के गाँव में दिं गल
ो र ा ै । जवान आदमी कैसे अपने को व ाँ जाने से रोकेगा? ककसी गाँव में
बरात आई ै , नाच-गान ो र ा ै । जवान आदमी क्यों उसके आनदद से विंधचत
र सकता ै ? वद्ध
ृ जनों के मलए ये बािाएँ न ीिं। उद ें न नाच-गाने से मतलब, न
खेल-तमाशे से गरज, केवल अपने से काम ै।

बल
ु ाकी ने क ा - 'भोला, तम्
ु ारे दादा ल लेकर गए।'

भोला - 'जाने दो अम्मा, मुझसे य न ीिं ो सकता।'

सुजान भगत के इस नवीन उत्सा पर गाँव में टीकाएँ ु ई - ननकल गई सारी


भगती। बना ु आ था। माया में फँसा ु आ ै । आदमी का े को, भत
ू ै।

मगर भगतजी के द्वार पर अब कफर सािु-सदत आसन जमाए दे खे जाते ै ।


उनका आदर-सत्कार ोता ै । अब की उसकी खेती ने सोना उगल हदया ै।
बखारी में अनाज रखने की जग न ीिं ममलती। न्जस खेत में पाँच मन मन्ु श्कल
से ोता था, उसी खेत में अबकी दस मन की उपज ु ई ै।

चैत का म ीना था। खमल ानों में सतयुग का राज था। जग -जग अनाज के
ढे र लगे ु ए थे। य ी समय ै , जब कृषकों को भी थोडी दे र के मलए अपना
जीवन सफल मालम
ू ोता ै , जब गवम से उनका हृदय उछलने लगता ै । सज
ु ान
भगत टोकरे में अनाज भर-भर दे ते थे और दोनों लडके टोकरे लेकर घर में
अनाज रख आते थे। ककतने ी भाट और मभक्षुक भगत जी को घेरे ु ए थे।
उनमें व मभक्षुक भी था, जो आज से आठ म ीने प ले भगत के द्वार से
ननराश ोकर लौट गया था।

स सा भगत ने उस मभक्षुक से पूछा - 'क्यों बाबा, आज क ाँ-क ाँ चक्कर लगा


आए?'

मभक्षुक - 'अभी तो क ीिं न ीिं गया भगतजी, प ले तुम् ारे ी पास आया ू ँ।'

भगत - 'अच्छा, तुम् ारे सामने य ढे र ै । इसमें से न्जतना अनाज उठाकर ले


जा सको, ले जाओ।'

मभक्षुक ने क्षुब्ि नेत्रों से ढे र को दे खकर क ा - 'न्जतना अपने ाथ से उठाकर


दे दोगे, उतना ी लँ ग
ू ा।'

भगत - 'न ी, तम
ु से न्जतना उठ सके, उठा लो।'

मभक्षुक के पास एक चादर थी, उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा और उठाने
लगा। सिंकोच के मारे और अधिक भरने का उसे सा स न ू आ।

भगत उसके मन का भाव समझकर आश्वासन दे ते ु ए बोले - 'बस, इतना तो


एक बच्चा भी उठा ले जाएगा।'

मभक्षुक ने भोला की ओर सिंहदनि नेत्रों से दे खकर क ा - 'मेरे मलए इतना ी


काफी ै ।'

भगत - 'न ीिं तम


ु सकुचाते ो। अभी और भरो।'

मभक्षुक ने एक पिंसेरी अनाज और भरा, और कफर भोला की ओर सशिंक दृन्ष्ट से


दे खने लगा।
भगत - 'उसकी ओर क्या दे खते ो, बाबाजी? मैं जो क ता ू ँ, व करो। तम
ु से
न्जतना उठाया जा सके, उठा लो।'

मभक्षुक डर र ा था कक क ीिं उसने अनाज भर मलया और भोला ने गठरी न


उठाने दी तो ककतनी भद्द ोगी। और मभक्षुकों को ँसने का अवसर ममल जाएगा।
सब य ी क ें गे कक मभक्षुक ककतना लोभी ै । उसे और अनाज भरने की ह म्मत
न पडी।

तब सज
ु ान भगत ने चादर लेकर उसमें अनाज भरा और गठरी बाँिकर बोले -
'इसे उठा ले जाओ।'

मभक्षुक - 'बाबा, इतना तो मुझसे उठ न सकेगा।'

भगत - 'अरे ! इतना भी न उठ सकेगा। ब ु त ोगा तो मन भर, भला जोर तो


लगाओ, दे खू,ँ उठा सकते ो या न ीिं।'

मभक्षुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी, जग से ह ली भी न ीिं, कफर बोला -


'भगत जी, य मुझसे न उठ सकेगी।'

भगत - 'अच्छा, बताओ ककस गाँव में र ते ो?'

मभक्षुक - 'बडी दरू ै भगतजी, अमोला का नाम तो सुना ोगा।'

भगत - 'अच्छा, आगे-आगे चलो, मैं प ु ँचा दँ ग


ू ा।'

य क कर भगत ने जोर लगाकर गठरी उठाई और मसर पर रखकर मभक्षुक के


पीछे ो मलए। दे खने वाले भगत का य पौरुष दे खकर चककत ो गए। उद ें
क्या मालूम था कक भगत पर इस समय कौन-सा नशा था। आठ म ीने के
ननरदतर अववरल पररश्रम का आज उद ें फल ममला था। आज उद ोंने अपना
खोया ु आ अधिकार कफर पाया था। व ी तलवार, जो केले को भी न ीिं काट
सकती, सान पर चढ़कर लो े को काट दे ती ै । मानव-जीवन में लाग बडे म त्त्व
की वस्तु ै । न्जसमें लाग ै, व बढ
ू ा भी ो तो जवान ै । न्जसमें लाग न ीिं,
गैरात न ीिं, व जवान भी मत
ृ क ै । सुजान भगत में लाग थी और उसी ने उद ें
अमानुषीय बल प्रदान कर हदया था। चलते समय उद ोंने भोला की ओर सगवम
नेत्रों से दे खा और बोले - 'ये भाट और मभक्षुक खडे ै , कोई खाली ाथ न लौटने
पाए।'

भोला मसर झुकाए खडा था, उसे कुछ बोलने का ौसला न ु आ। वद्ध
ृ वपता ने
उसे परास्त कर हदया था।

***
सो ाग का शव

म्यप्रदे श के एक प ाडी गॉवॉँ में एक छोटे -से घर की छत पर एक यव


ु क मानो
सिं्या की ननस्तब्िता में लीन बैठा था। सामने चदद्रमा के ममलन प्रकाश में ऊदी
ॉँ गम्भीर र स्यमय, सिंगीतमय, मनो र मालूम
पवमतमालाऍ िं अनदत के स्वप्न की भॉनत
ोती थीिं, उन प ाडडयों के नीचे जल-िारा की एक रौप्य रे खा ऐसी मालूम ोती थी,
मानो उन पवमतों का समस्त सिंगीत, समस्त गाम्भीयम, सम्पूणम र स्य इसी उज्जवल
प्रवा में लीन ो गया ो। युवक की वेषभूषा से प्रकट ोता था कक उसकी दशा
ब ु त सम्पदन न ी ै। ॉ,ॉँ उसके मख
ु से तेज और मनन्स्वता झलक र ी थी।
उसकी ऑ िंखो पर ऐनक न थी, न मँछ
ू ें मड
ु ी ु ई थीिं, न बाल सँवारे ु ए थे, कलाई
पर घडी न थी, य ॉ ॉँ तक कक कोट के जेब में फाउदटे नपेन भी न था। या तो व
मसद्धादतों का प्रेमी था, या आडम्बरों का शत्रु।

यव
ु क ववचारों में मौन उसी पवमतमाला की ओर दे ख र ा था कक स सा बादल की
गरज से भयिंकर ्वनन सुनायी दी। नदी का मिुर गान उस भीषण नाद में डूब
गया। ऐसा मालूम ु आ, मानो उस भयिंकर नाद ने पवमतो को भी ह ला हदया ै,
मानो पवमतों में कोई घोर सिंग्राम नछड गया ै। य रे लगाडी थी, जो नदी पर बने ु ए
पुल से चली आ र ी थी।

एक युवती कमरे से ननकल कर छत पर आयी और बोली—आज अभी से गाडी


आ गयी। इसे भी आज ी वैर ननभाना था।

युवक ने युवती का ाथ पकड कर क ा—वप्रये ! मेरा जी चा ता ै ; क ीिं न जाऊँ;


मैंने ननश्चय कर मलया ै । मैंने तुम् ारी खानतर से ामी भर ली थी, पर अब जाने
की इच्छा न ीिं ोती। तीन साल कैसे कटें गे।

युवती ने कातर स्वर में क ा—तीन साल के ववयोग के बाद कफर तो


जीवनपयमदत कोई बािा न खडी ोगी। एक बार जो ननश्चय कर मलया ै , उसे पूरा
ी कर डालो, अनिंत सख
ु की आशा में मैं सारे कष्ट झेल लँ ग
ू ी।

य क ते ु ए युवती जलपान लाने के ब ाने से कफर भीतर चली गई। ऑ िंसुओिं


का आवेग उसके बाबू से बा र ो गया। इन दोनों प्रािणयों के वैवाह क जीवन की
य प ली ी वषमगॉठ थी। यव
ु क बम्बई-ववश्वववद्यालय से एम० ए० की उपाधि
लेकर नागपरु के एक कालेज में अ्यापक था। नवीन युग की नयी-नयी वैवाह क
और सामान्जक क्रािंनतयों न उसे लेशमात्र भी ववचमलत न ककया था। पुरानी प्रथाओिं
से ऐसी प्रगाढ़ ममता कदाधचत वद्ध
ृ जनों को भी कम ोगी। प्रोफेसर ो जाने के
बाद उसके माता-वपता ने इस बामलका से उसका वववा कर हदया था। प्रथानुसार
ी उस आँखममचौनी के खेल मे उद ें प्रेम का रत्न ममल गया। केवल छुहट्टयों में
य ॉ ॉँ प ली गाडी से आता और आिखरी गाडी से जाता। ये दो-चार हदन मीठे स्व्प्न
ॉँ रो-रोकर बबदा ोते। इसी कोठे पर
के समान कट जाते थे। दोनों बालकों की भॉनत
खडी ोकर व उसको दे खा करती, जब तक ननदम यी प ाडडयािं उसे आड मे न कर
लेतीिं। पर अभी साल भी न गज
ु रने पाया था कक ववयोग ने अपना षड्यिंत्र रचना
शुर कर हदया। केशव को ववदे श जा कर मशक्षा पूरी करने के मलए एक वन्ृ त्त
ममल गयी। ममत्रों ने बिाइयॉ ॉँ दी। ककसके ऐसे भानय ॉँ स्वभानय-
ैं, न्जसे बबना मॉगे
ननमामण का ऐसा अवसर प्राप्त ो। केशव ब ु त प्रसदन था। व इसी दवु विा में पडा

ु आ घर आया। माता-वपता और अदय सम्बन्दियों ने इस यात्रा का घोर ववरोि


ककया। नगर में न्जतनी बिाइयॉ ममली थीिं, य ॉ िं उससे क ीिं अधिक बािाऍ िं ममलीिं।
ककदतु सुभद्रा की उच्चाकािंक्षाओिं की सीमा न थी। व कदाधचत केशव को इदद्रासन
पर बैठा ु आ दे खना चा ती थी। उसके सामने तब भी व ी पनत सेवा का आदशम
ोता था। व तब भी उसके मसर में तेल डालेगी, उसकी िोती छॉटेॉँ गी, उसके पॉवॉँ
दबायेगी और उसके पिंखा झलेगी। उपासक की म त्वाकािंक्षा उपास्य ी के प्रनत
ोती ै। व उसको सोने का मन्ददर बनवायेगा, उसके मसिं ासन को रत्नों से
सजायेगा, स्वगम से पुष्प लाकर भें ट करे गा, पर व स्वयिं व ी उपासक र े गा। जटा
के स्थान पर मुकुट या कौपीन की जग वपताम्बर की लालसा उसे कभी न ी
सताती। सुभद्रा ने उस वक्त तक दम न मलया जब तक केशव ने ववलायत जाने
का वादा न कर मलया, माता-वपता ने उसे किंलककनी और न जाने क्या-क्या क ा,
पर अदत में स मत ो गए। सब तैयाररयािं ो गयीिं। स्टे शन समीप ी था। य ॉ ॉँ
गाडी दे र तक खडी र ती थी। स्टे शनों के समीपस्थ गॉवॉँ के ननवामसयों के मलए
गाडी का आना शत्रु का िावा न ीिं, ममत्र का पदापमण ै । गाडी आ गयी। सुभद्रा
जलपान बना कर पनत का ाथ िुलाने आयी थी। इस समय केशव की प्रेम-
कातर आपन्त्त ने उसे एक क्षण के मलए ववचमलत कर हदया। ा ! कौन जानता ै,
तीन साल मे क्या ो जाय ! मन में एक आवेश उठा—क दँ ,ू प्यारे मत जाओ।
थोडी ी खायेंगे, मोटा ी प नेगें, रो-रोकर हदन तो न कटे गें। कभी केशव के आने में
एक-आिा म ीना लग जाता था, तो व ववकल ो जाया करता थी। य ी जी चा ता
था, उडकर उनके पास प ु ँच जाऊँ। कफर ये ननदम यी तीन वषम कैसे कटें गें ! लेककन
ॉँ
उसने कठोरता से इन ननराशाजनक भावों को ठुकरा हदया और कॉपते किंठ से
बोली—जी तो मेरा भी य ी चा ता ै । जब तीन साल का अनम
ु ान करती ू ँ , तो
एक कल्प-सा मालूम ोता ै । लेककन जब ववलायत में तुम् ारे सम्मान और आदर
का ्यान करती ू ँ , तो ये तीन साल तीन हदन से मालम
ू ोते ैं। तम
ु तो ज ाज
पर प ु ँचते ी मुझे भूल जाओगे। नये-नये दृश्य तुम् ारे मनोरिं जन के मलए आ
खडे ोंगे। यूरोप प ु ँचकर ववद्वानो के सत्सिंग में तुम् ें घर की याद भी न
आयेगी। मुझे तो रोने के मसवा और कोई ििंिा न ीिं ै । य ी स्मनृ तयॉ ॉँ ी मेरे जीवन
का आिार ोंगी। लेककन क्या करुँ , जीवन की भोग-लालसा तो न ीिं मानती। कफर
न्जस ववयोग का अिंत जीवन की सारी ववभूनतयॉ ॉँ अपने साथ लायेगा, व वास्तव में
तपस्या ै । तपस्या के बबना तो वरदान न ीिं ममलता।

केशव को भी अब ज्ञात ु आ कक क्षिणक मो के आवेश में स्वभानय ननमामण का


ऐसा अच्छा अवसर त्याग दे ना मूखत
म ा ै । खडे ोकर बोले —रोना-िोना मत, न ीिं
तो मेरा जी न लगेगा।

सुभद्रा ने उसका ाथ पकडकर हृदय से लगाते ु ए उनके मँु की ओर सजल नेत्रों


से दे खा ओर बोली—पत्र बराबर भेजते र ना।

सुभद्रा ने कफर आँखें में आँसू भरे ु ए मुस्करा कर क ा—दे खना ववलायती ममसों
के जाल में न फँस जाना।

केशव कफर चारपाई पर बैठ गया और बोला—तुम् ें य सिंदे ै , तो लो, मैं जाऊँगा
ी न ीिं।

सुभ्रदा ने उसके गले मे बॉ ॉँ े डाल कर ववश्वास-पूणम दृन्ष्ट से दे खा और बोली—मैं


हदल्लगी कर र ी थी।

‘अगर इदद्रलोक की अप्सरा भी आ जाये , तो आँख उठाकर न दे खूिं। ब्रह्मा ने ऐसी


दस
ू री सष्ृ टी की ी न ीिं।’

‘बीच में कोई छुट्टी ममले, तो एक बार चले आना।’

‘न ीिं वप्रये, बीच में शायद छुट्टी न ममलेगी। मगर जो मैंने सन


ु ा कक तुम रो-रोकर
घल
ु ी जाती ो, दाना-पानी छोड हदया ै , तो मैं अवश्य चला आऊँगा ये फूल जरा
भी कुम् लाने न पायें।’

दोनों गले ममल कर बबदा ो गये। बा र सम्बन्दियों और ममत्रों का एक समू


खडा था। केशव ने बडों के चरण छुए, छोटों को गले लगाया और स्टे शन की ओर
चले। ममत्रगण स्टे शन तक प ु ँ चाने गये। एक क्षण में गाडी यात्री को लेकर चल
दी।

उिर केशव गाडी में बैठा ु आ प ाडडयों की ब ार दे ख र ा था; इिर सभ


ु द्रा भमू म
पर पडी मससककयॉ भर र ी थी।

हदन गुजरने लगे। उसी तर , जैसे बीमारी के हदन कटते ैं —हदन प ाड रात काली
बला। रात-भर मनाते गुजरती थी कक ककसी तर भोर ोता, तो मनाने लगती कक
जल्दी शाम ो। मैके गयी कक व ॉ ॉँ जी ब लेगा। दस-पॉच
ॉँ हदन पररवतमन का कुछ
असर ु आ, कफर उनसे भी बरु ी दशा ु ई, भाग कर ससरु ाल चली आयी। रोगी करवट
बदलकर आराम का अनभ
ु व करता ै।

ॉँ
प ले पॉच-छ म ीनों तक तो केशव के पत्र पिंद्र वें हदन बराबर ममलते र े ।
उसमें ववयोग के द:ु ख कम, नये-नये दृश्यों का वणमन अधिक ोता था। पर सभ
ु द्रा
सिंतष्ु ट थी। पत्र मलखती, तो ववर -व्यथा के मसवा उसे कुछ सझ
ू ता ी न था। कभी-
कभी जब जी बेचैन ो जाता, तो पछताती कक व्यथम जाने हदया। क ीिं एक हदन मर
जाऊँ, तो उनके दशमन भी न ों।

लेककन छठे म ीने से पत्रों में भी ववलम्ब ोने लगा। कई म ीने तक तो म ीने
में एक पत्र आता र ा, कफर व भी बिंद ो गया। सुभद्रा के चार-छ पत्र प ु ँच
जाते, तो एक पत्र आ जाता; व भी बेहदली से मलखा ु आ—काम की अधिकता
और समय के अभाव के रोने से भरा ु आ। एक वाक्य भी ऐसा न ीिं, न्जससे हृदय
को शािंनत ो, जो टपकते ु ए हदल पर मर म रखे। ा ! आहद से अदत तक ‘वप्रये’
शब्द का नाम न ीिं। सभ
ु द्रा अिीर ो उठन। उसने योरप-यात्रा का ननश्यच कर मलया।
व सारे कष्ट स लेगी, मसर पर जो कुछ पडेगी स लेगी; केशव को आँखों से
दे खती र े गी। व इस बात को उनसे गुप्त रखेगी, उनकी कहठनाइयों को और न
बढ़ायेगी, उनसे बोलेगी भी न ीिं ! केवल उद ें कभी-कभी ऑ िंख भर कर दे ख लेगी।
य ी उसकी शािंनत के मलए काफी ोगा। उसे क्या मालूम था कक उसका केशव उसका
न ीिं र ा। व अब एक दस
ू री ी काममनी के प्रेम का मभखारी ै।

सुभद्रा कई हदनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे ु ए सेती र ी। उसे ककसी प्रकार


की शिंका न ोती थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते र ने से उसे समुद्री यात्रा का ाल
मालूम ोता र ता था। एक हदन उसने अपने सास-ससुर के सामने अपना ननश्चय
प्रकट ककया। उन लोगों ने ब ु त समझाया; रोकने की ब ु त चेष्टा की; लेककन सभ
ु द्रा
ने अपना ठ न छोडा। आिखर जब लोगों ने दे खा कक य ककसी तर न ीिं मानती,
तो राजी ो गये। मैकेवाले समझा कर ार गये। कुछ रपये उसने स्वयिं जमा कर
ॉँ
रखे थे, कुछ ससुराल में ममले। मॉ-बाप ने भी मदद की। रास्ते के खचम की धचिंता
न र ी। इिंनलैंड प ु ँचकर व क्या करे गी, इसका अभी उसने कुछ ननश्चय न
ककया। इतना जानती थी कक पररश्रम करने वाले को रोहटयों की क ीिं कमी न ीिं
र ती।

ववदा ोते समय सास और ससरु दोनों स्टे शन तक आए। जब गाडी ने सीटी दी,
तो सभ
ु द्रा ने ाथ जोडकर क ा—मेरे जाने का समाचार व ॉ ॉँ न मलिखएगा। न ीिं
तो उद ें धचिंता ोगी ओर पढ़ने में उनका जी न लगेगा।

ससरु ने आश्वासन हदया। गाडी चल दी।

लिंदन के उस ह स्से में , ज ॉ ॉँ इस समवृ द्ध के समय में भी दररद्रता का राज्य ैं,
ऊपर के एक छोटे से कमरे में सुभद्रा एक कुसी पर बैठन ै । उसे य ॉ ॉँ आये आज
एक म ीना ो गया ै । यात्रा के प ले उसके मन मे न्जतनी शिंकाएँ थी, सभी शादत
ोती जा र ी ै । बम्बई-बिंदर में ज ाज पर जग पाने का प्रश्न बडी आसानी से
ल ो गया। व ॉँ
अकेली औरत न थी जो योरोप जा र ी ो। पॉच-छ न्स्त्रयॉ ॉँ
और भी उसी ज ाज से जा र ी थीिं। सभ
ु द्रा को न जग ममलने में कोई कहठनाई

ु ई, न मागम में । य ॉ ॉँ प ु ँचकर और न्स्त्रयों से सिंग छूट गया। कोई ककसी


ववद्यालय में चली गयी; दो-तीन अपने पनतयों के पास चलीिं गयीिं, जो य ॉ ॉँ प ले
आ गये थे। सुभद्रा ने इस मु ल्ले में एक कमरा ले मलया। जीववका का प्रश्न भी
उसके मलए ब ु त कहठन न र ा। न्जन मह लाओिं के साथ व आयी थी, उनमे कई
उच्च- अधिकाररयों की पन्त्नयॉ ॉँ थी। कई अच्छे -अच्छे अँगरे ज घरनों से उनका
पररचय था। सभ
ु द्रा को दो मह लाओिं को भारतीय सिंगीत और ह ददी-भाषा मसखाने
का काम ममल गया। शेष समय मे व कई भारतीय मह लाओिं के कपडे सीने का
काम कर लेती ै । केशव का ननवास-स्थान य ॉ ॉँ से ननकट ै , इसीमलए सुभद्रा ने
इस मु ल्ले को पिंसद ककया ै । कल केशव उसे हदखायी हदया था। ओ ! उद ें
‘बस’ से उतरते दे खकर उसका धचत्त ककतना आतुर ो उठा था। बस य ी मन में
आता था कक दौडकर उनके गले से मलपट जाय और पछ ु य ॉ ॉँ आते
ू े —क्यों जी, तम
ी बदल गए। याद ै , तम
ु ने चलते समय क्या-क्या वादा ककये थे? उसने बडी
मुन्श्कल से अपने को रोका था। तब से इस वक्त तक उसे मानो नशा-सा छाया

ुआ ै, व उनके इतने समीप ै ! चा े रोज उद ें दे ख सकती ै , उनकी बातें सुन


सकती ै ; ॉ,ॉँ स्पशम तक कर सकती ै । अब य उससे भाग कर क ॉ ॉँ जायेगें?
उनके पत्रों की अब उसे क्या धचदता ै । कुछ हदनों के बाद सम्भव ै व उनसे
ोटल के नौकरों से जो चा े , पछ
ू सकती ै।

सिं्या ो गयी थी। िुऍ िं में बबजली की लालटनें रोती ऑ िंखें की भाँनत ज्योनत ीन-सी
ो र ी थीिं। गली में स्त्री-पुरुष सैर करने जा र े थे। सुभद्रा सोचने लगी—इन लोगों
को आमोद से ककतना प्रेम ै , मानो ककसी को धचदता ी न ीिं, मानो सभी सम्पदन
ै , जब ी ये लोग इतने एकाग्र ोकर सब काम कर सकते ै । न्जस समय जो
काम करने ै जी-जान से करते ैं। खेलने की उमिंग ै , तो काम करने की भी
उमिंग ै और एक म ैं कक न ँसते ै , न रोते ैं, मौन बने बैठे र ते ैं। स्फूनतम
का क ीिं नाम न ीिं, काम तो सारे हदन करते ैं, भोजन करने की फुरसत भी न ीिं
ममलती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में न ी लगते। केवल काम करने
का ब ाना करते ैं। मालम
ू ोता ै , जानत प्राण-शूदय ो गयी ैं।

स सा उसने केशव को जाते दे खा। ॉ,ॉँ केशव ी था। कुसी से उठकर बरामदे में
चली आयी। प्रबल इच्छा ु ई कक जाकर उनके गले से मलपट जाय। उसने अगर
अपराि ककया ै , तो उद ीिं के कारण तो। यहद व बराबर पत्र मलखते जाते, तो व
क्यों आती?

लेककन केशव के साथ य युवती कौन ै ? अरे ! केशव उसका ाथ पकडे ु ए ै।


दोनों मस्
ु करा-मस्
ु करा कर बातें करते चले जाते ैं। य यव
ु ती कौन ै?

ॉँ
सुभद्रा ने ्यान से दे खा। युवती का रिं ग सॉवला था। व भारतीय बामलका थी।
उसका प नावा भारतीय था। इससे ज्यादा सुभद्रा को और कुछ न हदखायी
हदया। उसने तरु िं त जत
ू े प ने, द्वार बदद ककया और एक क्षण में गली में आ प ु ँची।
केशव अब हदखायी न दे ता था, पर व न्जिर गया था, उिर ी व बडी तेजी से
लपकी चली जाती थी। य यव
ु ती कौन ै? व उन दोनों की बातें सन
ु ना चा ती
थी, उस युवती को दे खना चा ती थी उसके पॉवॉँ इतनी तेज से उठ र े थे मानो
दौड र ी ो। पर इतनी जल्दी दोनो क ॉ ॉँ अदृश्य ो गये? अब तक उसे उन लोगों
के समीप प ु ँ च जाना चाह ए था। शायद दोनों ककसी ‘बस’ पर जा बैठे।

अब व गली समाप्त करके एक चौडी सडक पर आ प ु ँ ची थी। दोनों तरफ बडी-बडी

ु ाने थी, न्जनमें सिंसार की ववभूनतयॉ िं गवम से फूली उठन थी।


जगमगाती ु ई दक
कदम-कदम पर ोटल और रे स्रॉ ॉँ थे। सुभद्रा दोनों और नेत्रों से ताकती, पगपग पर
भ्रािंनत के कारण मचलती ककतनी दरू ननकल गयी, कुछ खबर न ीिं।

कफर उसने सोचा—यों क ॉ ॉँ तक चली जाऊिंगी? कौन जाने ककिर गये। चलकर
कफर अपने बरामदे से दे ख।ूँ आिखर इिर से गये ै , तो इिर से लौटें गे भी। य
ख्याल आते ी व घूम पडी ओर उसी तर दौडती ु ई अपने स्थान की ओर
चली। जब व ाँ प ु ँची, तो बार बज गये थे। और इतनी दे र उसे चलते ी गज
ु रा !
एक क्षण भी उसने क ीिं ववश्राम न ीिं ककया।

व ऊपर प ु ँची, तो ग ृ -स्वाममनी ने क ा—तुम् ारे मलए बडी दे र से भोजन रखा

ुआ ै।

सुभद्रा ने भोजन अपने कमरे में मँगा मलया पर खाने की सधु ि ककसे थी ! व
उसी बरामदे मे उसी तरफ टकटकी लगाये खडी थी, न्जिर से केशव गया।

एक बज गया, दो बजा, कफर भी केशव न ीिं लौटा। उसने मन में क ा—व ककसी

ू रे मागम से चले गये। मेरा य ॉ ॉँ खडा र ना व्यथम ै । चलँ ू, सो र ू ँ। लेककन कफर


दस
ख्याल आ गया, क ीिं आ न र े ों।

मालूम न ीिं, उसे कब नीिंद आ गयी।


4

दस
ू रे हदन प्रात:काल सभ
ु द्रा अपने काम पर जाने को तैयार ो र ी थी कक एक
यव
ु ती रे शमी साडी प ने आकर खडी ो गयी और मस्
ु कराकर बोली—क्षमा
कीन्जएगा, मैंने ब ु त सबेरे आपको कष्ट हदया। आप तो क ीिं जाने को तैयार
मामूल ोती ै ।

ु द्रा ने एक कुसी बढ़ाते ु ए क ा— ॉ,ॉँ एक काम से बा र जा र ी थी। मैं


सभ
आपकी क्या सेवा कर सकती ू ँ ?

य क ते ु ए सभ ु ती को मसर से पॉवॉँ तक उसी आलोचनात्मक दृन्ष्ट


ु द्रा ने यव
से दे खा, न्जससे न्स्त्रयॉ ॉँ ी दे ख सकती ैं। सौंदयम की ककसी पररभाषा से भी उसे
ॉँ
सुददरी न क ा जा सकता था। उसका रिं ग सॉवला, मँु कुछ चौडा, नाक कुछ
धचपटी, कद भी छोटा और शरीर भी कुछ स्थूल था। ऑ िंखों पर ऐनक लगी ु ई थी।
लेककन इन सब कारणों के ोते ु ए भी उसमें कुछ ऐसी बात थी, जो ऑ िंखों को
अपनी ओर खीिंच लेती थी। उसकी वाणी इतनी मिुर, इतनी सिंयममत, इतनी
ववनम्र थी कक जान पडता था ककसी दे वी के वरदान ों। एक-एक अिंग से प्रनतमा
ववकीणम ो र ी थी। सभ
ु द्रा उसके सामने लकी एविं तच्
ु छ मालम
ू ोती थी। यव
ु ती
ने कुसी पर बैठते ु ए क ा—

‘अगर मैं भल
ू ती ू ँ, तो मझ
ु े क्षमा कीन्जएगा। मैंने सन
ु ा ै कक आप कुछ कपडे भी
सीती ै , न्जसका प्रमाण य ै कक य ॉ ॉँ सीवविंग मशीन मौजद
ू ै ।‘

सुभद्रा—मैं दो लेडडयों को भाषा पढ़ाने जाया करती ू ँ, शेष समय में कुछ मसलाई
भी कर लेती ू ँ। आप कपडे लायी ैं।

युवती—न ीिं, अभी कपडे न ीिं लायी। य क ते ु ए उसने लज्जा से मसर झुका कर
मुस्काराते ु ए क ा—बात य ै कक मेरी शादी ोने जा र ी ै । मैं वस्त्राभूषण
सब ह द
िं स्
ु तानी रखना चा ती ू ँ । वववा भी वैहदक रीनत से ी ोगा। ऐसे कपडे
य ॉ ॉँ आप ी तैयार कर सकती ैं।

सुभद्रा ने ँसकर क ा—मैं ऐसे अवसर पर आपके जोडे तैयार करके अपने को
िदय समझँग
ू ी। व शुभ नतधथ कब ै?

युवती ने सकुचाते ु ए क ा—व तो क ते ैं, इसी सप्ता में ो जाय; पर मैं उद ें


टालती आती ू ँ। मैंने तो चा ा था कक भारत लौटने पर वववा ोता, पर व इतने
उतावले ो र े ैं कक कुछ क ते न ीिं बनता। अभी तो मैंने य ी क कर टाला ै
कक मेरे कपडे मसल र े ैं।

सुभद्रा—तो मैं आपके जोडे ब ु त जल्द दे दँ ग


ू ी।

युवती ने ँसकर क ा—मैं तो चा ती थी आप म ीनों लगा दे तीिं।

सभ
ु द्रा—वा , मैं इस शुभ कायम में क्यों ववघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ता में
आपके कपडे दे दँ ग
ू ी, और उनसे इसका परु स्कार लँ ग
ू ी।

युवती िखलिखलाकर ँसी। कमरे में प्रकाश की ल रें -सी उठ गयीिं। बोलीिं—इसके
मलए तो परु स्कार व दें गे, बडी खश
ु ी से दें गे और तम्
ु ारे कृतज्ञ ोंगे। मैंने प्रनतज्ञा
की थी कक वववा के बिंिन में पडूँगी ी न ी; पर उद ोंने मेरी प्रनतज्ञा तोड दी। अब
मुझे मालूम ो र ा ै कक प्रेम की बेडडयॉ ॉँ ककतनी आनिंदमय ोती ै । तुम तो अभी
ाल ी में आयी ो। तुम् ारे पनत भी साथ ोंगे?

सभ
ु द्रा ने ब ाना ककया। बोली—व इस समय जममनी में ैं। सिंगीत से उद ें ब ु त
प्रेम ै । सिंगीत ी का अ्ययन करने के मलए व ॉ ॉँ गये ैं।

‘तम
ु भी सिंगीत जानती ो?’

‘ब ु त थोडा।’
‘केशव को सिंगीत ब ु त प्रेम ै ।’

केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम ु आ, जैसे बबच्छू ने काट मलया
ो। व चौंक पडी।

युवती ने पूछा—आप चौंक कैसे गयीिं? क्या केशव को जानती ो?

सभ
ु द्रा ने बात बनाकर क ा—न ीिं, मैंने य नाम कभी न ीिं सन
ु ा। व य ॉ ॉँ क्या
करते ैं?

सभ
ु द्रा का ख्याल आया, क्या केशव ककसी दस
ू रे आदमी का नाम न ीिं ो सकता?
इसमलए उसने य प्रश्न ककया। उसी जवाब पर उसकी न्जिंदगी का फैसला था।

युवती ने क ा—य ॉ ॉँ ववद्यालय में पढ़ते ैं। भारत सरकार ने उद ें भेजा ै । अभी
साल-भर भी तो आए न ीिं ु आ। तम
ु दे खकर प्रसदन ोगी। तेज और बवु द्ध की
मनू तम समझ लो। य ॉ ॉँ के अच्छे -अच्छे प्रोफेसर उनका आदर करते ै । ऐसा सद
ु दर
भाषण तो मैंने ककसी के मँु से सुना ी न ीिं। जीवन आदशम ै । मुझसे उद ें क्यों
प्रेम ो गया ै , मुझे इसका आश्चयम ै । मुझमें न रप ै , न लावण्य। ये मेरा
सौभानय ै । तो मैं शाम को कपडे लेकर आऊँगी।

ॉँ कर क ा—अच्छन बात
सुभद्रा ने मन में उठते ु ए वेग को सभॉल ै।

जब यव
ु ती चली गयी, तो सभ
ु द्रा फूट-फूटकर रोने लगी। ऐसा जान पडता था,
मानो दे में रक्त ी न ीिं, मानो प्राण ननकल गये ैं व ककतनी नन:स ाय, ककतनी
दब
ु ल
म ै , इसका आज अनुभव ु आ। ऐसा मालम
ू ु आ, मानों सिंसार में उसका कोई
न ीिं ै । अब उसका जीवन व्यथम ै । उसके मलए अब जीवन में रोने के मसवा और
क्या ै ? उनकी सारी ज्ञानेंहद्रयॉ ॉँ मशधथल-सी ो गयी थीिं मानों व ककसी ऊँचे वक्ष
ृ से
धगर पडी ो। ा ! य उसके प्रेम और भन्क्त का पुरस्कार ै । उसने ककतना
आग्र करके केशव को य ॉ ॉँ भेजा था? इसमलए कक य ॉ ॉँ आते ी उसका सवमनाश
कर दें ?

पुरानी बातें याद आने लगी। केशव की व प्रेमातुर ऑ िंखें सामने आ गयीिं। व
सरल, स ज मूनतम ऑ िंखों के सामने नाचने लगी। उसका जरा मसर िमकता था, तो
केशव ककतना व्याकुल ो जाता था। एक बार जब उसे फसली बख
ु ार आ गया
था, तो केशव घबरा कर, पिंद्र हदन की छुट्टी लेकर घर आ गया था और उसके
मसर ाने बैठा रात-भर पिंखा झलता र ा था। व ी केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब
उठा! उसके मलए सुभद्रा ने कौन-सी बात उठा रखी। व तो उसी का अपना
प्राणािार, अपना जीवन िन, अपना सवमस्व समझती थी। न ीिं-न ीिं, केशव का दोष
न ीिं, सारा दोष इसी का ै । इसी ने अपनी मिुर बातों से अद ें वशीभूत कर मलया
ै । इसकी ववद्या, बवु द्ध और वाकपटुता ी ने उनके हृदय पर ववजय पायी ै। ाय!
उसने ककतनी बार केशव से क ा था, मझ
ु े भी पढ़ाया करो, लेककन उद ोंने मेशा
य ी जवाब हदया, तुम जैसी ो, मझ
ु े वैसी ी पसदद ो। मैं तुम् ारी स्वाभाववक
सरलता को पढ़ा-पढ़ा कर ममटाना न ीिं चा ता। केशव ने उसके साथ ककतना बडा
अदयाय ककया ै ! लेककन य उनका दोष न ीिं, य इसी यौवन-मतवाली छोकरी
की माया ै।

सुभद्रा को इस ईष्याम और द:ु ख के आवेश में अपने काम पर जाने की सुि न


र ी। व कमरे में इस तर ट लने लगी, जैसे ककसी ने जबरदस्ती उसे बदद कर
हदया ो। कभी दोनों मुहियॉ ॉँ बँि जातीिं, कभी दॉत
ॉँ पीसने लगती, कभी ओिंठ काटती।

उदमाद की-सी दशा ो गयी। ऑ िंखों में भी एक तीव्र ज्वाला चमक उठन। ज्यों-ज्यों
केशव के इस ननष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो उसने उसके
मलए झेले थे, उसका धचत्त प्रनतकार के मलए ववकल ोता जाता था। अगर कोई
बात ु ई ोती, आपस में कुछ मनोमामलदय का लेश भी ोता, तो उसे इतना द:ु ख
न ोता। य तो उसे ऐसा मालूम ोता था कक मानों कोई ँसते- ँसते अचानक
गले पर चढ़ बैठे। अगर व उनके योनय न ीिं थी, तो उद ोंने उससे वववा ी क्यों
ककया था? वववा करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा हदया था? क्यों प्रेम का बीज
बोया था? और आज जब व बीच पल्लवों से ल राने लगा, उसकी जडें उसके
अदतस्तल के एक-एक अणु में प्रववष्ट ो गयीिं, उसका रक्त उसका सारा उत्सगम
वक्ष
ृ को सीिंचने और पालने में प्रवत्ृ त ो गया, तो व आज उसे उखाड कर फेंक
दे ना चा ते ैं। क्या हृदय के टुकडे-टुकडे ु ए बबना वक्ष
ृ उखड जायगा?

स सा उसे एक बात याद आ गयी। ह स


िं ात्मक सिंतोष से उसका उत्तेन्जत मख
ु -
मण्डल और भी कठोर ो गया। केशव ने अपने प ले वववा की बात इस यव
ु ती
से गुप्त रखी ोगी ! सुभद्रा इसका भिंडाफोड करके केशव के सारे मिंसूबों को िूल
में ममला दे गी। उसे अपने ऊपर क्रोि आया कक युवती का पता क्यों न पूछ मलया।
उसे एक पत्र मलखकर केशव की नीचता, स्वाथमपरता और कायरता की कलई खोल
दे ती—उसके पािंडडत्य, प्रनतभा और प्रनतष्ठा को िूल में ममला दे ती। खैर, सिं्या-
समय तो व कपडे लेकर आयेगी ी। उस समय उससे सारा कच्चा धचिा बयान
कर दँ ग
ू ी।

सुभ्रदा हदन-भर युवती का इदतजार करती र ी। कभी बरामदे में आकर इिर-
उिर ननगा दौडाती, कभी सडक पर दे खती, पर उसका क ीिं पता न था। मन में
झँझ
ु लाती थी कक उसने क्यों उसी वक्त सारा वत
ृ ािंत न क सन
ु ाया।

केशव का पता उसे मालूम था। उस मकान और गली का नम्बर तक याद था,
ज ॉ ॉँ से व उसे पत्र मलखा करता था। ज्यों-ज्यों हदन ढलने लगा और यव
ु ती के
आने में ववलम्ब ोने लगा, उसके मन में एक तरिं गी-सी उठने लगी कक जाकर
केशव को फटकारे , उसका सारा नशा उतार दे , क े —तुम इतने भिंयकर ह स
िं क ो,
इतने म ान िूतम ो, य मुझे मालूम न था। तुम य ी ववद्या सीखने य ॉ ॉँ आये
थे। तुम् ारे पािंडडत्य की य ी फल ै ! तुम एक अबला को न्जसने तुम् ारे ऊपर
अपना सवमस्व अपमण कर हदया, यों छल सकते ो। तुममें क्या मनुष्यता नाम को
भी न ीिं र गयी? आिखर तम
ु ने मेरे मलए क्या सोचा ै । मैं सारी न्जिंदगी तम्
ु ारे
नाम को रोती र ू ँ ! लेककन अमभमान र बार उसके पैरों को रोक लेता। न ीिं,
न्जसने उसके साथ ऐसा कपट ककया ै , उसका इतना अपमान ककया ै , उसके पास
व न जायगी। व उसे दे खकर अपने ऑ िंसओ
ु िं को रोक सकेगी या न ीिं, इसमें उसे
सिंदे था, और केशव के सामने व रोना न ीिं चा ती थी। अगर केशव उससे घण
ृ ा
करता ै , तो व भी केशव से घण
ृ ा करे गी। सिं्या भी ो गयी, पर युवती न
आयी। बन्त्तयॉ ॉँ भी जलीिं, पर उसका पता न ीिं।

एकाएक उसे अपने कमरे के द्वार पर ककसी के आने की आ ट मालम


ू ु ई। व
कूदकर बा र ननकल आई। युवती कपडों का एक पुमलिंदा मलए सामने खडी थी।
सुभद्रा को दे खते ी बोली—क्षमा करना, मुझे आने में दे र ो गयी। बात य ै कक
केशव को ककसी बडे जररी काम से जममनी जाना ै । व ॉ ॉँ उद ें एक म ीने से
ज्यादा लग जायगा। व चा ते ैं कक मैं भी उनके साथ चलँ ।ू मुझसे उद ें अपनी
थीमसस मलखने में बडी स ायता ममलेगी। बमलमन के पस्
ु तकालयों को छानना
पडेगा। मैंने भी स्वीकार कर मलया ै । केशव की इच्छा ै कक जममनी जाने के
प ले मारा वववा ो जाय। कल सिं्या समय सिंस्कार ो जायगा। अब ये कपडे
मुझे आप जममनी से लौटने पर दीन्जएगा। वववा के अवसर पर म मामूली कपडे
प न लें गे। और क्या करती? इसके मसवा कोई उपाय न था, केशव का जममन जाना
अननवायम ै ।

सुभद्रा ने कपडो को मेज पर रख कर क ा—आपको िोखा हदया गया ै।

युवती ने घबरा कर पूछा—िोखा? कैसा िोखा? मैं बबलकुल न ीिं समझती। तुम् ारा
मतलब क्या ै?

सभ
ु द्रा ने सिंकोच के आवरण को टाने की चेष्टा करते ु ए क ा—केशव तम्
ु ें
िोखा दे कर तुमसे वववा करना चा ता ै।

‘केशव ऐसा आदमी न ीिं ै , जो ककसी को िोखा दे । क्या तुम केशव को जानती
ो?

‘केशव ने तुमसे अपने ववषय में सब-कुछ क हदया ै ?’


‘सब-कुछ।’

‘मेरा तो य ी ववचार ै कक उद ोंने एक बात भी न ीिं नछपाई?’

‘तुम् े मालूम ै कक उसका वववा ो चुका ै ?’

युवती की मुख-ज्योनत कुछ ममलन पड गयी, उसकी गदम न लज्जा से झुक गयी।
अटक-अटक कर बोली— ॉ,ॉँ उद ोंने मुझसे..... य बात क ी थी।

सुभद्रा परास्त ो गयी। घण


ृ ा-सूचक नेत्रों से दे खती ु ई बोली—य जानते ु ए भी
तुम केशव से वववा करने पर तैयार ो।

यव
ु ती ने अमभमान से दे खकर क ा—तम
ु ने केशव को दे खा ै?

‘न ीिं, मैंने उद ें कभी न ीिं दे खा।’

‘कफर, तुम उद ें कैसे जानती ो?’

‘मेरे एक ममत्र ने मझ
ु से य बात क ी े, व केशव को जानता ै ।’

‘अगर तुम एक बार केशव को दे ख लेतीिं, एक बार उससे बातें कर लेतीिं, तो मुझसे
य प्रश्न न करती। एक न ीिं, अगर उद ोंने एक सौ वववा ककये ोते, तो मैं
इनकार न करती। उद ें दे खकर में अपने को बबलकुल भल
ू जाती ू ँ। अगर उनसे
वववा न करँ, ता कफर मुझे जीवन-भर अवववाह त ी र ना पडेगा। न्जस समय
व मुझसे बातें करने लगते ैं, मुझे ऐसा अनुभव ोता ै कक मेरी आत्मा पुष्पकी
ॉँ िखली जा र ी
भॉनत ै । मैं उसमें प्रकाश और ववकास का प्रत्यक्ष अनुभव करती

ू ँ। दनु नया चा े न्जतना ँसे, चा े न्जतनी ननददा करे , मैं केशव को अब न ीिं छोड
सकती। उनका वववा ो चक
ु ा ै, व सत्य ै ; पर उस स्त्री से उनका मन कभी न
ममला। यथाथम में उनका वववा अभी न ीिं ु आ। व कोई सािारण, अद्धममशक्षक्षता
बामलका ै । तम्
ु ीिं सोचों, केशव जैसा ववद्वान, उदारचेता, मनस्वी पर
ु ष ऐसी बामलका
के साथ कैसे प्रसदन र सकता ै ? तम्
ु ें कल मेरे वववा में चलना पडेगा।

सुभद्रा का चे रा तमतमाया जा र ा था। केशव ने उसे इतने काले रिं गों में रिं गा ै ,
य सोच कर उसका रक्त खौल र ा था। जी में आता था, इसी क्षण इसको दत्ु कार
दँ ,ू लेककन उसके मन में कुछ और ी मिंसब
ू े पैदा ोने लगे थे। उसने गिंभीर, पर
उदासीनता के भाव से पूछा—केशव ने कुछ उस स्त्री के ववषय में न ी क ा?

यव
ु ती ने तत्परता से क ा—घर प ु ँचने पर व उससे केवल य ी क दें गे कक
म और तम
ु अब स्त्री और पर
ु ष न ीिं र सकते। उसके भरण-पोषण का व
उसके इच्छानुसार प्रबिंि कर दें गे, इसके मसवा व और क्या कर सकते ैं। ह दद-ू
नीनत में पनत-पत्नी में ववच्छे द न ीिं ो सकता। पर केवल स्त्री को पूणम रीनत से
स्वािीन कर दे ने के ववचार से व ईसाई या मुसलमान ोने पर भी तैयार ैं। व
तो अभी उसे इसी आशय का एक पत्र मलखने जा र े थे, पर मैंने ी रोक मलया।
मझ
ु े उस अभाधगनी पर बडी दया आती ै , मैं तो य ॉ ॉँ तक तैयार ू ँ कक अगर
उसकी इच्छा ो तो व भी मारे साथ र े । मैं उसे अपनी ब न समझँग
ू ी। ककिं तु
केशव इससे स मत न ीिं ोते।

सभ
ु द्रा ने व्यिंनय से क ा—रोटी-कपडा दे ने को तैयार ी ैं , स्त्री को इसके मसवा
और क्या चाह ए?

युवती ने व्यिंनय की कुछ परवा न करके क ा—तो मुझे लौटने पर कपडे तैयार
ममलें गे न?

सुभद्रा— ॉ,ॉँ ममल जायेंगे।

युवती—कल तुम सिं्या समय आओगी?

सभ
ु द्रा—न ीिं, खेद ै , अवकाश न ीिं ै।
यव
ु ती ने कुछ न क ा। चली गयी।

सुभद्रा ककतना ी चा ती थी कक समस्या पर शािंतधचत्त ोकर ववचार करे , पर


हृदय में मानों ज्वाला-सी द क र ी थी! केशव के मलए व अपने प्राणों का कोई
मल्
ू य न ीिं समझी थी। व ी केशव उसे पैरों से ठुकरा र ा ै। य आघात इतना
आकन्स्मक, इतना कठोर था कक उसकी चेतना की सारी कोमलता मन्ू च्छम त ो गयी
! उसके एक-एक अणु प्रनतकार के मलए तडपने लगा। अगर य ी समस्या इसके
ववपरीत ोती, तो क्या सुभद्रा की गरदन पर छुरी न कफर गयी ोती? केशव
उसके खून का प्यासा न ो जाता? क्या पुरष ो जाने से ी सभी बाते क्षम्य
और स्त्री ो जाने से सभी बातें अक्षम्य ो जाती ै ? न ीिं, इस ननणमय को सुभद्रा की
ववद्रो ी आत्मा इस समय स्वीकार न ीिं कर सकती। उसे नाररयों के ऊिंचे आदशो की
परवा न ीिं ै । उन न्स्त्रयों में आत्मामभमान न ोगा? वे पर
ु षों के पैरों की जनू तयाँ
बनकर र ने ी में अपना सौभानय समझती ोंगी। सुभद्रा इतनी आत्ममभमान-शूदय
न ीिं ै। व अपने जीते-जी य न ीिं दे ख सकती थी कक उसका पनत उसके
जीवन की सवमनाश करके चैन की बिंशी बजाये। दनु नया उसे त्याररनी, वपशाधचनी
क े गी, क े —उसको परवा न ीिं। र -र कर उसके मन में भयिंकर प्रेरणा ोती थी
कक इसी समय उसके पास चली जाय, और इसके पह ले कक व उस यव
ु ती के
प्रेम का आदनद उठाये, उसके जीवन का अदत कर दे । व केशव की ननष्ठुरता को
याद करके अपने मन को उत्तेन्जत करती थी। अपने को धिक्कार-धिक्कार कर
नारी सुलभ शिंकाओिं को दरू करती थी। क्या व इतनी दब
ु ल
म ै ? क्या उसमें इतना
सा स भी न ीिं ै ? इस वक्त यहद कोई दष्ु ट उसके कमरे में घुस आए और उसके
सतीत्व का अप रण करना चा े , तो क्या व उसका प्रनतकार न करे गी? आिखर
आत्म-रक्षा ी के मलए तो उसने य वपस्तौल ले रखी ै । केशव ने उसके सत्य
का अप रण ी तो ककया ै । उसका प्रेम-दशमन केवल प्रविंचना थी। व केवल अपनी
ॉँ भरता था। कफर उसक वि
वासनाओिं की तन्ृ प्त के मलए सुभद्रा के साथ प्रेम-स्वॉग
करना क्या सुभद्रा का कत्तमव्य न ीिं?
इस अन्दतम कल्पना से सभ
ु द्रा को व उत्तेजना ममल गयी, जो उसके भयिंकर
सिंकल्प को परू ा करने के मलए आवश्यक थी। य ी व अवस्था ै , जब स्त्री-पर
ु ष
के खून की प्यासी ो जाती ै।

उसने खट
ूँ ी पर लटकाती ु ई वपस्तौल उतार ली और ्यान से दे खने लगी, मानो
उसे कभी दे खा न ो। कल सिं्या-समय जब कायम-मिंहदर के केशव और उसकी
प्रेममका एक-दस
ू रे के सम्मुख बैठे ु ए ोंगे, उसी समय व इस गोली से केशव की
प्रेम-लीलाओिं का अदत कर दे गी। दस
ू री गोली अपनी छाती में मार लेगी। क्या व
रो-रो कर अपना अिम जीवन काटे गी?

सिं्या का समय था। आयम-मिंहदर के ऑ िंगन में वर और विू इष्ट-ममत्रों के साथ


बैठे ु ए थे। वववा का सिंस्कार ो र ा था। उसी समय सुभद्रा प ु ँची और बदामदे
ॉँ खडी
में आकर एक खम्भें की आड में इस भॉनत ो गई कक केशव का मँु उसके
सामने था। उसकी ऑ िंखें में व दृश्य िखिंच गया, जब आज से तीन साल प ले
ॉँ केशव को मिंडप में बैठे ु ए आड से दे खा था। तब उसका हृदय
उसने इसी भॉनत
ककतना उछवामसत ो र ा था। अिंतस्तल में गद
ु गद
ु ी-सी ो र ी थी, ककतना अपार
अनुराग था, ककतनी असीम अमभलाषाऍ िं थीिं, मानों जीवन-प्रभात का उदय ो र ा
ॉँ सुखद था, भववष्य उषा-स्वप्न की भॉनत
ो। जीवन मिुर सिंगीत की भॉनत ॉँ सुददर।

क्या य व ी केशव ै ? सुभद्रा को ऐसा भ्रम ु आ, मानों य केशव न ीिं ै। ॉ,ॉँ य


व केशव न ीिं था। य उसी रप और उसी नाम का कोई दस
ू रा मनुष्य था। अब
उसकी मस्
ु कुरा ट में, उनके नेत्रों में , उसके शब्दों में, उसके हृदय को आकवषमत करने
ॉँ नन:स्पिंद, ननश्चल खडी ै , मानों
वाली कोई वस्तु न थी। उसे दे खकर व उसी भॉनत
कोई अपररधचत व्यन्क्त ो। अब तक केशव का-सा रपवान, तेजस्वी, सौम्य,
शीलवान, पुरष सिंसार में न था; पर अब सुभद्रा को ऐसा जान पडा कक व ॉ ॉँ बैठे

ु ए युवकों में और उसमें कोई अदतर न ीिं ै । व ईष्यामन्नन, न्जसमें व जली जा


िं ा-कल्पना, जो उसे व ॉ ॉँ तक लायी थी, मानो एगदम शािंत
र ी थी, व ह स ो गयी।
ववररक्त ह स
िं ा से भी अधिक ह स
िं ात्मक ोती ै —सभ
ु द्रा की ह स
िं ा-कल्पना में एक
प्रकार का ममत्व था—उसका केशव, उसका प्राणवल्लभ, उसका जीवन-सवमस्व और
ककसी का न ीिं ो सकता। पर अब व ममत्व न ीिं ै। व उसका न ीिं ै , उसे
अब परवा न ीिं, उस पर ककसका अधिकार ोता ै।

वववा -सिंस्कार समाप्त ो गया, ममत्रों ने बिाइयॉ ॉँ दीिं, स े मलयों ने मिंगलगान ककया,
कफर लोग मेजों पर जा बैठे, दावत ोने लगी, रात के बार बज गये; पर सभ
ु द्रा व ीिं
ॉँ खडी र ी, मानो कोई ववधचत्र स्वप्न दे ख र ी
पाषाण-मूनतम की भॉनत ो। ॉ,ॉँ जैसे
कोई बस्ती उजड गई ो, जैसे कोई सिंगीत बदद ो गया ो, जैसे कोई दीपक बुझ
गया ै।

जब लोग मिंहदर से ननकले, तो व भी ननकले, तो व भी ननकल आयी; पर उसे


कोई मागम न सूझता था। पररधचत सडकें उसे भूली ु ई-सी जान पडने लगीिं। सारा
सिंसार ी बदल गया था। व सारी रात सडकों पर भटकती कफरी। घर का क ीिं
पता न ीिं। सारी दक
ु ानें बदद ो गयीिं, सडकों पर सदनाटा छा गया, कफर भी व
ॉँ उसे जीवन-पथ में भी
अपना घर ढूँढती ु ई चली जा र ी थी। ाय! क्या इसी भॉनत
भटकना पडेगा?

स सा एक पुमलसमैन ने पुकारा—मैडम, तुम क ॉ ॉँ जा र ी ो?

सुभद्रा ने हठठक कर क ा—क ीिं न ीिं।

ु ारा स्थान क ॉ ॉँ ै ?’
‘तम्

‘मेरा स्थान?’

‘ ॉ,ॉँ तुम् ारा स्थान क ॉ ॉँ ै ? मैं तुम् ें बडी दे र से इिर-उिर भटकते दे ख र ा ू ँ। ककस
स्रीट में र ती ो?

सुभद्रा को उस स्रीट का नाम तक न याद था।


‘तम्
ु ें अपने स्रीट का नाम तक याद न ीिं?’

‘भूल गयी, याद न ीिं आता।‘

स सा उसकी दृन्ष्ट सामने के एक साइन बोडम की तरफ उठन, ओ ! य ी तो


उसकी स्रीट ै । उसने मसर उठाकर इिर-उिर दे खा। सामने ी उसका डेरा था।
और इसी गली में , अपने ी घर के सामने, न-जाने ककतनी दे र से व चक्कर लगा
र ी थी।

अभी प्रात:काल ी था कक युवती सुभद्रा के कमरे में प ु ँची। व उसके कपडे सी


र ी थी। उसका सारा तन-मन कपडों में लगा ु आ था। कोई युवती इतनी
एकाग्रधचत ोकर अपना श्रिंग
ृ ार भी न करती ोगी। न-जाने उससे कौन-सा पुरस्कार
लेना चा ती थी। उसे यव
ु ती के आने की खबर न ु ई।

युवती ने पूछा—तुम कल मिंहदर में न ीिं आयीिं?

सुभद्रा ने मसर उठाकर दे खा, तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी कवव की कोमल
कल्पना मूनतममयी ो गयी ै । उसकी उप छवव अननिंद्य थी। प्रेम की ववभूनत रोम-
रोम से प्रदमशमत ो र ी थी। सुभद्रा दौडकर उसके गले से मलपट गई, जैसे उसकी
छोटी ब न आ गयी ो, और बोली — ॉ,ॉँ गयी तो थी।

‘मैंने तुम् ें न ीिं दे खा।‘

‘ ॉ,िं मैं अलग थी।‘

‘केशव को दे खा?’

‘ ॉ ॉँ दे खा।‘
‘िीरे से क्यों बोली? मैंने कुछ झठ
ू क ा था?

सुभद्रा ने सहृदयता से मुस्कराकर क ा — मैंने तुम् ारी ऑ िंखों से न ीिं, अपनी


ऑ िंखों से दे खा। मझे तो व तुम् ारे योनय न ीिं जिंच।े तुम् ें ठग मलया।

युवती िखलिखलाकर ँसी और बोली—व ! मैं समझती ू ँ, मैंने उद ें ठगा ै।

एक बार वस्त्राभष
ू णों से सजकर अपनी छवव आईने में दे खी तो मालम
ू ो
जायेगा।

‘तब क्या मैं कुछ और ो जाऊँगी।‘

ॉँ
‘अपने कमरे से फशम, तसवीरें , ॉडडयॉ ,ॉँ गमले आहद ननकाल कर दे ख लो, कमरे की
शोभा व ी र ती ै !’

युवती ने मसर ह ला कर क ा—ठनक क ती ो। लेककन आभूषण क ॉ ॉँ से लाऊँ। न-


जाने अभी ककतने हदनों में बनने की नौबत आये।

‘मैं तुम् ें अपने ग ने प ना दँ ग


ू ी।‘

‘तम्
ु ारे पास ग ने ैं?’

‘ब ु त। दे खो, मैं अभी लाकर तम्


ु ें प नाती ू ँ ।‘

युवती ने मँु से तो ब ु त ‘न ीिं-न ीिं’ ककया, पर मन में प्रसदन ो र ी थी। सुभद्रा


ने अपने सारे ग ने प ना हदये। अपने पास एक छल्ला भी न रखा। युवती को
य नया अनुभव था। उसे इस रप में ननकलते शमम तो आती थी; पर उसका रप
चमक उठा था। इसमें सिंदे न था। उसने आईने में अपनी सरू त दे खी तो उसकी
सरू त जगमगा उठन, मानो ककसी ववयोधगनी को अपने वप्रयतम का सिंवाद ममला ो।
मन में गद
ु गद
ु ी ोने लगी। व इतनी रपवती ै , उसे उसकी कल्पना भी न थी।
क ीिं केशव इस रप में उसे दे ख लेते; व आकािंक्षा उसके मन में उदय ु ई, पर
क े कैसे। कुछ दे र में बाद लज्जा से मसर झक
ु ा कर बोली—केशव मझ
ु े इस रप में
दे ख कर ब ु त ँसेगें।

सभ
ु द्रा — ँसेगें न ीिं, बलैया लें गे, ऑ िंखें खल
ु जायेगी। तम
ु आज इसी रप में उसके
पास जाना।

युवती ने चककत ोकर क ा —सच! आप इसकी अनुमनत दे ती ैं!

सुभद्रा ने क ा—बडे षम से।

‘तम्
ु ें सिंदे न ोगा?’

‘बबल्कुल न ीिं।‘

‘और जो मैं दो-चार हदन प ने र ू ँ?’

‘तम
ु दो-चार म ीने प ने र ो। आिखर, पडे ी तो ै !’

‘तुम भी मेरे साथ चलो।‘

‘न ीिं, मुझे अवकाश न ीिं ै ।‘

‘अच्छा, लो मेरे घर का पता नोट कर लो।‘

‘ ॉ,ॉँ मलख दो, शायद कभी आऊँ।‘

एक क्षण में युवती व ॉ ॉँ से चली गयी। सुभद्रा अपनी िखडकी पर उसे इस भॉनत
ॉँ

प्रसदन-मुख खडी दे ख र ी थी, मानो उसकी छोटी ब न ो, ईष्याम या द्वेष का लेश


भी उसके मन में न था।
मन्ु श्कल से, एक घिंटा गज
ु रा ोगा कक यव
ु ती लौट कर बोली—सभ
ु द्रा क्षमा करना, मैं
तम्
ु ारा समय ब ु त खराब कर र ी ू ँ। केशव बा र खडे ैं। बल
ु ा लँ ?ू

एक क्षण, केवल एक क्षण के मलए, सुभद्रा कुछ घबडा गयी। उसने जल्दी से उठ
कर मेज पर पडी ु ई चीजें इिर-उिर टा दीिं, कपडे करीने से रख हदये। उसने
जल्दी से उलझे ु ए बाल सँभाल मलये, कफर उदासीन भाव से मस्
ु करा कर बोली—
उद ें तुमने क्यों कष्ट हदया। जाओ, बुला लो।

एक ममनट में केशव ने कमरे में कदम रखा और चौंक कर पीछे ट गये , मानो
पॉवॉँ जल गया ो। मँु से एक चीख ननकल गयी। सभ
ु द्रा गम्भीर, शािंत, ननश्चल
अपनी जग पर खडी र ी। कफर ाथ बढ़ा कर बोली, मानो ककसी अपररधचत
व्यन्क्त से बोल र ी थी—आइये, ममस्टर केशव, मैं आपको ऐसी सुशील, ऐसी सुददरी,
ऐसी ववदष
ु ी रमणी पाने पर बिाई दे ती ू ँ।

केशव के मँु पर वाइयॉ ॉँ उड र ी थीिं। व पथ-भ्रष्ट-सा बना खडा था। लज्जा


और नलानन से उसके चे रे पर एक रिं ग आता था, एक रिं ग जाता था। य बात
एक हदन ोनेवाली थी अवश्य, पर इस तर अचानक उसकी सुभद्रा से भें ट ोगी,
इसका उसे स्वप्न में भी गुमान न था। सुभद्रा से य बात कैसे क े गा, इसको
उसने खब
ू सोच मलया था। उसके आक्षेपों का उत्तर सोच मलया था, पत्र के शब्द
तक मन में अिंककत कर मलये थे। ये सारी तैयाररयॉ ॉँ िरी र गयीिं और सुभद्रा से
साक्षात ो गया। सुभद्रा उसे दे ख कर जरा सी न ीिं चौंकी, उसके मुख पर आश्चयम,
घबरा ट या द:ु ख का एक धचह्न भी न हदखायी हदया। उसने उसी भिंनत उससे बात
की; मानो व कोई अजनबी ो। य ॉ िंकब आयी, कैसे आयी, क्यों आयी, कैसे गुजर
करती ै; य और इस तर के असिंख्य प्रश्न पूछने के मलए केशव का धचत्त
चिंचल ो उठा। उसने सोचा था, सभ
ु द्रा उसे धिक्कारे गी; ववष खाने की िमकी दे गी—
ननष्ठुर; ननदम य और न-जाने क्या-क्या क े गी। इन सब आपदाओिं के मलए व
तैयार था; पर इस आकन्स्मक ममलन, इस गवमयुक्त उपेक्षा के मलए व तैयार न
था। व प्रेम-व्रतिाररणी सुभद्रा इतनी कठोर, इतनी हृदय-शूदय ो गयी ै ? अवश्य
ी इस सारी बातें प ले ी मालम
ू ो चक
ु ी ैं। सब से तीव्र आघात य था कक
इसने अपने सारे आभष
ू ण इतनी उदारता से दे डाले, और कौन जाने वापस भी न
लेना चा ती ो। व परास्त और अप्रनतम ोकर एक कुसी पर बैठ गया। उत्तर में
एक शब्द भी उसके मुख से न ननकला।

यव
ु ती ने कृतज्ञता का भाव प्रकट करके क ा—इनके पनत इस समय जममनी में
ै।

केशव ने ऑ िंखें फाड कर दे खा, पर कुछ बोल न सका।

युवती ने कफर क ा—बेचारी सिंगीत के पाठ पढ़ा कर और कुछ कपडे सी कर अपना


ननवाम करती ै। व म ाशय य ॉ ॉँ आ जाते, तो उद ें उनके सौभानय पर बिाई
दे ती।

केशव इस पर भी कुछ न बोल सका, पर सुभद्रा ने मुस्करा कर क ा—व मुझसे


रठे ु ए ैं, बिाई पाकर और भी झल्लाते। युवती ने आश्चयम से क ा—तुम उद ीिं
के प्रेम मे य ॉ ॉँ आयीिं, अपना घर-बार छोडा, य ॉ ॉँ मे नत-मजदरू ी करके ननवाम कर
र ी ो, कफर भी व तम
ु से रठे ु ए ैं? आश्चयम!

ॉँ प्रसदन-मुख से क ा—पुरष-प्रकृनत
सुभद्रा ने उसी भॉनत ी आश्चयम का ववषय ै ,
चा े मम. केशव इसे स्वीकार न करें ।

ॉँ
युवती ने कफर केशव की ओर प्रेरणा-पूणम दृन्ष्ट से दे खा, लेककन केशव उसी भॉनत
अप्रनतम बैठा र ा। उसके हृदय पर य नया आघात था। युवती ने उसे चुप दे ख
कर उसकी तरफ से सफाई दी—केशव, स्त्री और पर
ु ष, दोनों को ी समान अधिकार
दे ना चा ते ैं।

केशव डूब र ा था, नतनके का स ारा पाकर उसकी ह म्मत बँि गयी। बोला—वववा
एक प्रकार का समझौता ै । दोनों पक्षों को अधिकार ै , जब चा े उसे तोड दें ।
यव
ु ती ने ामी भरी—सभ्य-समाज में य आददोनल बडे जोरों पर ै।

सुभद्रा ने शिंका की—ककसी समझौते को तोडने के मलए कारण भी तो ोना


चाह ए?

केशव ने भावों की लाठन का स ार लेकर क ा—जब इसका अनुभव ो जाय कक


म इस बदिन से मुक्त ोकर अधिक सुखी ो सकते ैं , तो य ी कारण काफी
ै । स्त्री को यहद मालूम ो जाय कक व दस
ू रे पुरष के साथ ...

सुभद्रा ने बात काट कर क ा—क्षमा कीन्जए मम. केशव, मझ


ु में इतनी बुवद्ध न ीिं कक
इस ववषय पर आपसे ब स कर सकूँ। आदशम समझौता व ी ै , जो जीवन-पयमदत
र े । मैं भारत की न ीिं क ती। व ॉ ॉँ तो स्त्री पुरष की लौंडी ै , मैं इनलैंड की क ती

ू ँ। य ॉ ॉँ भी ककतनी ी औरतों से मेरी बातचीत ु ई ै । वे तलाकों की बढ़ती ु ई


सिंख्या को दे ख कर खश
ु न ीिं ोती। वववा सबसे ऊँचा आदशम उसकी पववत्रता और
न्स्थरता ै । पुरषों ने सदै व इस आदम श को तोडा ै , न्स्त्रयों ने ननबा ा ै । अब
पुरषों का अदयाय न्स्त्रयों को ककस ओर ले जायेगा, न ीिं क सकती।

इस गम्भीर और सिंयत कथन ने वववाद का अदत कर हदया। सभ


ु द्रा ने चाय
मँगवायी। तीनों आदममयों ने पी। केशव पूछना चा ता था, अभी आप य ॉ ॉँ ककतने
हदनों र ें गी। लेककन न पूछ सका। व य ॉ ॉँ पिंद्र ममनट और र ा, लेककन ववचारों में
डूबा ु आ। चलते समय उससे न र ा गया। पूछ ी बैठा—अभी आप य ॉ ॉँ ककतने
हदन और र े गी?

‘सुभद्रा ने जमीन की ओर ताकते ु ए क ा—क न ीिं सकती।‘

‘कोई जररत ो, तो मझ
ु े याद कीन्जए।‘

‘इस आश्वासन के मलए आपको िदयवाद।‘

केशव सारे हदन बेचैन र ा। सुभद्रा उसकी ऑ िंखों में कफरती र ी। सुभद्रा की बातें
उसके कानों में गँज
ू ती र ीिं। अब उसे इसमें कोई सददे न था कक उसी के प्रेम

ु द्रा य ॉ ॉँ आयी थी। सारी पररन्स्थनत उसकी समझ में आ गयी थी। उस
में सभ
भीषण त्याग का अनुमान करके उसके रोयें खडे ो गये। य ॉ ॉँ सुभद्रा ने क्या-क्या
कष्ट झेले ोंगे, कैसी-कैसी यातनाऍ िं स ी ोंगी, सब उसी के कारण? व उस पर
भार न बनना चा ती थी। इसमलए तो उसने अपने आने की सूचना तक उसे न
दी। अगर उसे प ले मालूम ोती कक सुभद्रा य ॉ ॉँ आ गयी ै , तो कदाधचत उसे उस
यव
ु ती की ओर इतना आकषमण ी न ोता। चौकीदार के सामने चोर को घर में
घस
ु ने का सा स न ीिं ोता। सभ
ु द्रा को दे खकर उसकी कत्तमव्य-चेतना जाग्रत ो
ॉँ के मलए उसका मन अिीर
गयी। उसके पैरों पर धगर कर उससे क्षमा मॉगने ो
उठा; व उसके मँु से सारा वत
ृ ािंत सुनेगा। य मौन उपेक्षा उसके मलए असह्य
थी। हदन तो केशव ने ककसी तर काटा, लेककन ज्यों ी रात के दस बजे, व
सुभद्रा से ममलने चला। युवती ने पूछा—क ॉ ॉँ जाते ो?

ॉँ
केशव ने बूट का लेस बॉिते ु ए क ा—जरा एक प्रोफेसर से ममलना ै , इस वक्त
आने का वादा कर चुका ू ँ?

‘जल्द आना।‘

‘ब ु त जल्द आऊँगा।‘

केशव घर से ननकला, तो उसके मन में ककतनी ी ववचार-तिंरगें उठने लगीिं। क ीिं


सुभद्रा ममलने से इनकार कर दे , तो? न ीिं ऐसा न ीिं ो सकता। व इतनी अनुदार
न ीिं ै। ॉ,ॉँ य ो सकता ै कक व अपने ववषय में कुछ न क े । उसे शािंत करने
के मलए उसने एक कृपा की कल्पना कर डाली। ऐसा बीमार था कक बचने की आशा
न थी। उमममला ने ऐसी तदमय ोकर उसकी सेवा-सुश्रुषा की कक उसे उससे प्रेम ो
गया। कथा का सुभद्रा पर जो असर पडेगा, इसके ववषय में केशव को कोई सिंदे
न था। पररन्स्थनत का बोि ोने पर व उसे क्षमा कर दे गी। लेककन इसका फल
क्या ोगा लेककन इसका फल क्या ोगा? क्या व दोनों के साथ एक-सा प्रेम कर
सकता ै ? सभ
ु द्रा को दे ख लेने के बाद उमममला को शायद उसके साथ-साथ र ने में
आपन्त्त ो। आपन्त्त ो ी कैसे सकती ै ! उससे य बात नछपी न ीिं ै। ॉ,ॉँ य
दे खना ै कक सभ
ु द्रा भी इसे स्वीकार करती ै कक न ीिं। उसने न्जस उपेक्षा का
पररचय हदया ै , उसे दे खते ु ए तो उसके मान में सिंदे ी जान पडता ै । मगर
व उसे मनायेगा, उसकी ववनती करे गा, उसके पैरों पडेगा और अिंत में उसे मनाकर ी
छोडेगा। सुभद्रा से प्रेम और अनुराग का नया प्रमाण पा कर व मानो एक कठोर
ननद्रा से जाग उठा था। उसे अब अनुभव ो र ा था कक सुभद्रा के मलए उसके
हृदय जो स्थान था, व खाली पडा ु आ ै । उमममला उस स्थान पर अपना
आधिपत्य न ीिं जमा सकती। अब उसे ज्ञात ु आ कक उमममला के प्रनत उसका प्रेम
केवल व तष्ृ णा थी, जो स्वादयुक्त पदाथों को दे ख कर ी उत्पदन ोती ै । व
सच्ची क्षुिा न थी अब कफर उसे सरल सामादय भोजन की इच्छा ो र ी थी।
ववलामसनी उमममला कभी इतना त्याग कर सकती ै , इसमें उसे सिंदे था।

सुभद्रा के घर के ननकट प ु ँच कर केशव का मन कुछ कातर ोने लगा। लेककन


उसने जी कडा करके जीने पर कदम रक्खा और क्षण में सुभद्रा के द्वार पर
प ु ँचा, लेककन कमरे का द्वार बिंद था। अिंदर भी प्रकाश न था। अवश्य ी व क ी
गयी ै , आती ी ोगी। तब तक उसने बरामदे में ट लने का ननश्चय ककया।

स सा मालककन आती ु ई हदखायी दी। केशव ने बढ़ कर पछ


ू ा— आप बता सकती
ैं कक य मह ला क ॉ ॉँ गयी ैं?

मालककन ने उसे मसर से पॉवॉँ तक दे ख कर क ा—व तो आज य ॉ ॉँ से चली


गयीिं।

केशव ने कबका कर पूछा—चली गयीिं! क ॉ ॉँ चली गयीिं?

‘य तो मुझसे कुछ न ीिं बताया।‘

‘कब गयीिं?’
‘व तो दोप र को ी चली गयी?’

‘अपना असबाव ले कर गयीिं?’

‘असबाव ककसके मलए छोड जाती? ॉ,ॉँ एक छोटा-सा पैकेट अपनी एक स े ली के


मलए छोड गयी ैं। उस पर ममसेज केशव मलखा ु आ ै । मझ
ु से क ा था कक यहद
व आ भी जायँ, तो उद ें दे दे ना, न ीिं तो डाक से भेज दे ना।’

केशव को अपना हृदय इस तर बैठता ु आ मालूम ु आ जैसे सूयम का अस्त


ॉँ लेकर बोला—
ोना। एक ग री सॉस

‘आप मुझे व पैकेट हदखा सकती ैं? केशव मेरा ी नाम ै ।’

मालककन ने मुस्करा कर क ा—ममसेज केशव को कोई आपन्त्त तो न ोगी?

‘तो कफर मैं उद ें बल


ु ा लाऊँ?’

‘ ॉ,ॉँ उधचत तो य ी ै !’

‘ब ु त दरू जाना पडेगा!’

केशव कुछ हठठकता ु आ जीने की ओर चला, तो मालककन ने कफर क ा—मैं


समझती ू ँ , आप इसे मलये ी जाइये , व्यथम आपको क्यों दौडाऊँ। मगर कल मेरे
पास एक रसीद भेज दीन्जएगा। शायद उसकी जरुरत पडे!

य क ते ु ए उसने एक छोटा-सा पैकेट लाकर केशव को दे हदया। केशव पैकेट


लेकर इस तर भागा, मानों कोई चोर भागा जा र ा ो। इस पैकेट में क्या ै, य
जानने के मलए उसका हृदय व्याकुल ो र ा था। इसे इतना ववलम्ब असह्य था
कक अपने स्थान पर जाकर उसे खोले। समीप ी एक पाकम था। व ॉ ॉँ जाकर उसने
बबजली के प्रकाश में उस पैकेट को खोला डाला। उस समय उसके ाथ कॉपॉँ र े थे
और हृदय इतने वेग से िडक र ा था, मानों ककसी बिंिु की बीमारी के समाचार के
बाद ममला ो।

पैकेट का खुलना था कक केशव की ऑ िंखों से ऑ िंसुओिं की झडी लग गयी। उसमें


एक पीले रिं ग की साडी थी, एक छोटी-सी सेंदरु की डडबबया और एक केशव का
फोटा-धचत्र के साथ ी एक मलफाफा भी था। केशव ने उसे खोल कर पढ़ा। उसमें
मलखा था—

‘ब न मैं जाती ू ँ। य मेरे सो ाग का शव ै । इसे टे म्स नदी में ववसन्जमत कर


दे ना। तम्
ु ीिं लोगों के ाथों य सिंस्कार भी ो जाय, तो अच्छा।

तुम् ारी,
सभ
ु द्रा

केशव ममाम त-सा पत्र ाथ में मलये व ीिं घास पर लेट गया और फूट-फूट कर
रोने लगा।
***
आत्म-संगीत

आिी रात थी। नदी का ककनारा था। आकाश के तारे न्स्थर थे और नदी में
उनका प्रनतबबम्ब ल रों के साथ चिंचल। एक स्वगीय सिंगीत की मनो र और
जीवनदानयनी, प्राण-पोवषणी घ्वननयॉ ॉँ इस ननस्तब्ि और तमोमय दृश्य पर इस
प्रकाश छा र ी थी, जैसे हृदय पर आशाऍ िं छायी र ती ैं, या मख
ु मिंडल पर शोक।

रानी मनोरमा ने आज गरु


ु -दीक्षा ली थी। हदन-भर दान और व्रत में व्यस्त र ने
के बाद मीठन नीिंद की गोद में सो र ी थी। अकस्मात उसकी ऑ िंखें खल
ु ीिं और ये
मनो र ्वननयॉ ॉँ कानों में प ु ँची। व व्याकुल ो गयी—जैसे दीपक को दे खकर
पतिंग; व अिीर ो उठन, जैसे खॉडॉँ की गिंि पाकर चीिंटी। व उठन और द्वारपालों
एविं चौकीदारों की दृन्ष्टयॉ ॉँ बचाती ु ई राजम ल से बा र ननकल आयी—जैसे
वेदनापूणम क्रददन सुनकर ऑ िंखों से ऑ िंसू ननकल जाते ैं।

सररता-तट पर कँटीली झाडडया थीिं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जिंतु थे। और उनकी
डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयिंकर उनकी कल्पना। मनोरमा
कोमलता और सक
ु ु मारता की मनू तम थी। परिं तु उस मिरु सिंगीत का आकषमण उसे
तदमयता की अवस्था में खीिंचे मलया जाता था। उसे आपदाओिं का ्यान न था।

व घिंटों चलती र ी, य ॉ ॉँ तक कक मागम में नदी ने उसका गनतरोि ककया।

मनोरमा ने वववश ोकर इिर-उिर दृन्ष्ट दौडायी। ककनारे पर एक नौका हदखाई


ॉँ मैं उस पार जाऊँगी, इस मनो र राग ने मुझे
दी। ननकट जाकर बोली—मॉझी,
व्याकुल कर हदया ै।

ॉँ
मॉझी—रात को नाव न ीिं खोल सकता। वा तेज ै और ल रें डरावनी। जान-
जोिखम ैं

ॉँ मजदरू ी दँ ग
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा ू ँ। नाव खोल दे , मँु मॉगी ू ी।

ॉँ
मॉझी—तब तो नाव ककसी तर न ीिं खोल सकता। राननयों का इस में ननबा
न ीिं।

मनोरमा—चौिरी, तेरे पॉवॉँ पडती ू ँ। शीघ्र नाव खोल दे । मेरे प्राण िखिंचे चले जाते
ैं।

ॉँ
मॉझी—क्या इनाम ममलेगा?

ॉँ ।
मनोरमा—जो तू मॉगे

ॉँ
‘मॉझी—आप ी क ॉँ
दें , गँवार क्या जानँू, कक राननयों से क्या चीज मॉगनी
ॉँ बैठूँ, जो आपकी प्रनतष्ठा के ववरुद्ध
चाह ए। क ीिं कोई ऐसी चीज न मॉग ो?

मनोरमा—मेरा य ार अत्यदत मूल्यवान ै । मैं इसे खेवे में दे ती ू ँ। मनोरमा ने


गले से ार ननकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुख-मिंडल प्रकामशत ो गया—व
कठोर, और काला मुख, न्जस पर झुररम यॉ ॉँ पडी थी।

अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत ु आ, मानों सिंगीत की ्वनन और ननकट ो गयी


ो। कदाधचत कोई पूणम ज्ञानी पुरुष आत्मानिंद के आवेश में उस सररता-तट पर
बैठा ु आ उस ननस्तब्ि ननशा को सिंगीत-पण
ू म कर र ा ै । रानी का हृदय उछलने
लगा। आ ! ककतना मनोमुनिकर राग था ! उसने अिीर ॉँ अब
ोकर क ा—मॉझी,
दे र न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी िीरज न ीिं रख सकती।

ॉँ
मॉझी—इस ार ो लेकर मैं क्या करुँ गा?

मनोरमा—सच्चे मोती ैं।


ॉँ
मॉझी—य और भी ववपन्त्त ॉँ
ैं मॉिझन गले में प न कर पडोमसयों को हदखायेगी,
व सब डा से जलें गी, उसे गामलयॉ ॉँ दें गी। कोई चोर दे खेगा, तो उसकी छाती पर
सॉपॉँ लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपडी पर हदन-द ाडे डाका पड जायगा। लोग
चोरी का अपराि लगायेंगे। न ीिं, मुझे य ार न चाह ए।

ॉँ व ी दँ ग
मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉग, ू ी। लेककन दे र न कर। मुझे अब िैयम न ीिं ै ।
प्रतीक्षा करने की तननक भी शन्क्त न ीिं ैं। इन राग की एक-एक तान मेरी
आत्मा को तडपा दे ती ै।

ॉँ
मॉझी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीन्जए।

मनोरमा—अरे ननदम यी! तू मुझे बातों में लगाये रखना चा ता ैं मैं जो दे ती ै , व


ॉँ
लेता न ीिं, स्वयिं कुछ मॉगता न ी। तुझे क्या मालूम मेरे हृदय की इस समय क्या
दशा ो र ी ै । मैं इस आन्त्मक पदाथम पर अपना सवमस्व दयौछावर कर सकती

ू ँ।

ॉँ
मॉझी—और क्या दीन्जएगा?

मनोरमा—मेरे पास इससे ब ु मूल्य और कोई वस्तु न ीिं ै , लेककन तू अभी नाव
खोल दे , तो प्रनतज्ञा करती ू ँ कक तुझे अपना म ल दे दँ ग
ू ी, न्जसे दे खने के मलए
कदाधचत तू भी कभी गया ो। ववशुद्ध श्वेत पत्थर से बना ै , भारत में इसकी
तल
ु ना न ीिं।

ॉँ
मॉझी—( ँस कर) उस म ल में र कर मझ
ु े क्या आनदद ममलेगा? उलटे मेरे
भाई-बिंिु शत्रु ो जायँगे। इस नौका पर अँिेरी रात में भी मुझे भय न लगता।
ऑ िंिी चलती र ती ै , और मैं इस पर पडा र ता ू ँ। ककिं तु व म ल तो हदन ी में
फाड खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायँगे। और आदमी
क ॉ ॉँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर क ॉ?ॉँ इतना माल-असबाब क ॉ?ॉँ उसकी सफाई
और मरम्मत क ॉ ॉँ से कराऊँगा? उसकी फुलवाररयॉ ॉँ सूख जायँगी, उसकी क्याररयों में
गीदड बोलें गे और अटाररयों पर कबत
ू र और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।

मनोरमा अचानक एक तदमय अवस्था में उछल पडी। उसे प्रतीत ु आ कक सिंगीत
ननकटतर आ गया ै । उसकी सद
ु दरता और आनदद अधिक प्रखर ो गया था—
जैसे बत्ती उकसा दे ने से दीपक अधिक प्रकाशवान ो जाता ै । प ले धचत्ताकषमक
था, तो अब आवेशजनक ो गया था। मनोरमा ने व्याकुल ोकर क ा—आ ! तू कफर
अपने मँु ॉँ
से क्यों कुछ न ीिं मॉगता? आ ! ककतना ववरागजनक राग ै , ककतना
ववह्रवल करने वाला! मैं अब तननक िीरज न ीिं िर सकती। पानी उतार में जाने
के मलए न्जतना व्याकुल ोता ै , श्वास वा के मलए न्जतनी ववकल ोती ै , गिंि
उड जाने के मलए न्जतनी व्याकुल ोती ै , मैं उस स्वगीय सिंगीत के मलए उतनी
व्याकुल ू ँ। उस सिंगीत में कोयल की-सी मस्ती ै , पपी े की-सी वेदना ै , श्यामा की-
सी ववह्वलता ै , इससे झरनों का-सा जोर ै , ऑ िंिी का-सा बल! इसमें व सब
कुछ ै , इससे वववेकान्नन प्रज्ज्वमलत ोती, न्जससे आत्मा समाह त ोती ै , और
अिंत:करण पववत्र ोता ॉँ अब एक क्षण का भी ववलम्ब मेरे मलए मत्ृ यु की
ै । मॉझी,
यिंत्रणा ै । शीघ्र नौका खोल। न्जस सुमन की य सुगिंि ै , न्जस दीपक की य
दीन्प्त ै , उस तक मझ
ु े प ु ँचा दे । मैं दे ख न ीिं सकती इस सिंगीत का रचनयता क ीिं
ननकट ी बैठा ु आ ै , ब ु त ननकट।

ॉँ
मॉझी—आपका म ल मेरे काम का न ीिं ै , मेरी झोपडी उससे क ीिं सु ावनी ै।

मनोरमा— ाय! तो अब तझ
ु े क्या दँ ?ू य सिंगीत न ीिं ै , य इस सवु वशाल क्षेत्र की
पववत्रता ै, य समस्त सम
ु न-समू का सौरभ ै , समस्त मिरु ताओिं की
मािुरताओिं की मािुरी ै , समस्त अवस्थाओिं का सार ै । नौका खोल। मैं जब तक
जीऊँगी, तेरी सेवा करुँ गी, तेरे मलए पानी भरुँ गी, तेरी झोपडी ब ारुँ गी। ॉ,ॉँ मैं तेरे
मागम के किंकड चुनँग ॉँ
ू ी, तेरे झोंपडे को फूलों से सजाऊँगी, तेरी मॉिझन के पैर
मलँ ग ॉँ यहद मेरे पास सौ जानें
ू ी। प्यारे मॉझी, ोती, तो मैं इस सिंगीत के मलए अपमण
करती। ईश्वर के मलए मझ
ु े ननराश न कर। मेरे िैयम का अन्दतम बबिंद ु शुष्क ो
गया। अब इस चा में दा ै , अब य मसर तेरे चरणों में ै।
य ॉँ के ननकट जाकर
क ते-क ते मनोरमा एक ववक्षक्षप्त की अवस्था में मॉझी
उसके पैरों पर धगर पडी। उसे ऐसा प्रतीत ु आ, मानों व सिंगीत आत्मा पर ककसी
प्रज्ज्वमलत प्रदीप की तर ज्योनत बरसाता ु आ मेरी ओर आ र ा ै । उसे रोमािंच
ो आया। व मस्त ोकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात ु आ कक मैं वा में उडी जाती

ू ँ। उसे अपने पाश्वम-दे श में तारे िझलममलाते ु ए हदखायी दे ते थे। उस पर एक


आमववस्मत
ृ का भावावेश छा गया और अब व ी मस्ताना सिंगीत, व ी मनो र
राग उसके मँु से ननकलने लगा। व ी अमत
ृ की बँद
ू ें , उसके अिरों से टपकने
लगीिं। व स्वयिं इस सिंगीत की स्रोत थी। नदी के पास से आने वाली ्वननयॉ,ॉँ
प्राणपोवषणी ्वननयॉ ॉँ उसी के मँु से ननकल र ी थीिं।

मनोरमा का मुख-मिंडल चदद्रमा के तर प्रकाशमान ो गया था, और ऑ िंखों से प्रेम


की ककरणें ननकल र ी थीिं।

***
ऐक्ट्रे स

रिं गमिंच का परदा धगर गया। तारा दे वी ने शकिंु तला का पाटम खेलकर दशमकों को
मुनि कर हदया था। न्जस वक्त व शकिंु तला के रुप में राजा दष्ु यदत के सम्मुख
खडी नलानन, वेदना, और नतरस्कार से उत्तेन्जत भावों को आननेय शब्दों में प्रकट
कर र ी थी, दशमक-वदृ द मशष्टता के ननयमों की उपेक्षा करके मिंच की ओर
ॉँ दौड पडे थे और तारादे वी का यशोगान करने लगे थे। ककतने
उदमत्तों की भॉनत
ी तो स्टे ज पर चढ़ गये और तारादे वी के चरणों पर धगर पडे। सारा स्टे ज फूलों
से पट गया, आभूषणें की वषाम ोने लगी। यहद उसी क्षण मेनका का ववमान नीचे
ॉँ
आ कर उसे उडा न ले जाता, तो कदाधचत उस िक्कम-िक्के में दस-पॉच
आदममयों की जान पर बन जाती। मैनेजर ने तरु दत आकर दशमकों को गण
ु -
ग्रा कता का िदयवाद हदया और वादा भी ककया कक दस
ू रे हदन कफर व ी तमाशा
ोगा। तब लोगों का मो ादमाद शािंत ु आ। मगर एक युवक उस वक्त भी मिंच
पर खडा र ा। लम्बे कद का था, तेजस्वी मुद्रा, कुददन का-सा दे वताओिं का-सा
स्वरुप, गठन ु ई दे , मुख से एक ज्योनत-सी प्रस्फुहटत ो र ी थी। कोई राजकुमार
मालूम ोता था।

जब सारे दशमकगण बा र ननकल गये , उसने मैनेजर से पूछा—क्या तारादे वी से


एक क्षण के मलए ममल सकता ू ँ ?

मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से क ा— मारे य ॉ ॉँ ऐसा ननयम न ीिं ै।

यव
ु क ने कफर पछ
ू ा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते ैं ?

मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से क ा—जी न ीिं। क्षमा कीन्जएगा। य मारे


ननयमों के ववरुद्ध ै।

युवक ने और कुछ न क ा, ननराश ोकर स्टे ज के नीचे उतर पडा और बा र


जाना ी चा ता था कक मैनेजर ने पूछा—जरा ठ र जाइये , आपका काडम?
युवक ने जेब से कागज का एक टुकडा ननकल कर कुछ मलखा और दे हदया।
मैनेजर ने पुजे को उडती ु ई ननगा से दे खा—किंु वर ननममलकादत चौिरी ओ. बी.
ई.। मैनेजर की कठोर मुद्रा कोमल ो गयी। किंु वर ननममलकादत—श र के सबसे बडे
रईस और ताल्लक
ु े दार, साह त्य के उज्जवल रत्न, सिंगीत के मसद्ध स्त आचायम, उच्च-
कोहट के ववद्वान, आठ-दस लाख सालाना के नफेदार, न्जनके दान से दे श की
ककतनी ी सिंस्थाऍ िं चलती थीिं—इस समय एक क्षुद्र प्राथी के रुप में खडे थे।
मैनेजर अपने उपेक्षा-भाव पर लन्ज्जत ो गया। ववनम्र शब्दों में बोला—क्षमा
कीन्जएगा, मुझसे बडा अपराि ु आ। मैं अभी तारादे वी के पास ु जूर का काडम मलए
जाता ू ँ।

किंु वर सा ब ने उससे रुकने का इशारा करके क ा—न ीिं, अब र ने ी दीन्जए, मैं


ॉँ बजे आऊँगा। इस वक्त तारादे वी को कष्ट
कल पॉच ोगा। य उनके ववश्राम का
समय ै।

मैनेजर—मुझे ववश्वास ै कक व आपकी खानतर इतना कष्ट स षम स लें गी, मैं


एक ममनट में आता ू ँ।

ककदतु किंु वर सा ब अपना पररचय दे ने के बाद अपनी आतुरता पर सिंयम का परदा


डालने के मलए वववश थे। मैनेजर को सज्जनता का िदयवाद हदया। और कल
आने का वादा करके चले गये।

तारा एक साफ-सुथरे और सजे ु ए कमरे में मेज के सामने ककसी ववचार में
मनन बैठन थी। रात का व दृश्य उसकी ऑ िंखों के सामने नाच र ा था। ऐसे हदन
जीवन में क्या बार-बार आते ैं? ककतने मनुष्य उसके दशमनों के मलए ववकल ोर े

ू रे पर फाट पडते थे। ककतनों को उसने पैरों से ठुकरा हदया था— ॉ,ॉँ
ैं? बस, एक-दस
ठुकरा हदया था। मगर उस समू में केवल एक हदव्यमनू तम अववचमलत रुप से खडी
थी। उसकी ऑ िंखों में ककतना गम्भीर अनरु ाग था, ककतना दृढ़ सिंकल्प ! ऐसा जान
पडता था मानों दोनों नेत्र उसके हृदय में चभ
ु े जा र े ों। आज कफर उस परु
ु ष के
दशमन ोंगे या न ीिं, कौन जानता ै । लेककन यहद आज उनके दशमन ु ए, तो तारा
उनसे एक बार बातचीत ककये बबना न जाने दे गी।

य सोचते ु ए उसने आईने की ओर दे खा, कमल का फूल-सा िखला था, कौन क


सकता था कक व नव-ववकमसत पुष्प तैंतीस बसिंतों की ब ार दे ख चुका ै । व
कािंनत, व कोमलता, व चपलता, व मािुयम ककसी नवयौवना को लन्ज्जत कर
सकता था। तारा एक बार कफर हृदय में प्रेम दीपक जला बैठन। आज से बीस साल
प ले एक बार उसको प्रेम का कटु अनुभव ु आ था। तब से व एक प्रकार का
वैिव्य-जीवन व्यतीत करती र ी। ककतने प्रेममयों ने अपना हृदय उसको भें ट
करना चा ा था; पर उसने ककसी की ओर ऑ िंख उठाकर भी न दे खा था। उसे
उनके प्रेम में कपट की गदि आती थी। मगर आ ! आज उसका सिंयम उसके
ाथ से ननकल गया। एक बार कफर आज उसे हृदय में उसी मिुर वेदना का
अनुभव ु आ, जो बीस साल प ले ु आ था। एक पुरुष का सौम्य स्वरुप उसकी
ऑ िंखें में बस गया, हृदय पट पर िखिंच गया। उसे व ककसी तर भूल न सकती
थी। उसी परु
ु ष को उसने मोटर पर जाते दे खा ोता, तो कदाधचत उिर ्यान भी
न करती। पर उसे अपने सम्मख
ु प्रेम का उप ार ाथ में मलए दे खकर व न्स्थर न
र सकी।

स सा दाई ने आकर क ा—बाई जी, रात की सब चीजें रखी ु ई ैं, कह ए तो


लाऊँ?

तारा ने क ा—न ीिं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत न ीिं ; मगर ठ रो, क्या-क्या
चीजें ैं।

‘एक ढे र का ढे र तो लगा ै बाई जी, क ॉ ॉँ तक धगनाऊँ—अशकफम यॉ ॉँ ैं, ब्रूचज


े बाल
के वपन, बटन, लाकेट, अँगूहठयॉ ॉँ सभी तो ैं। एक छोटे -से डडब्बे में एक सुददर ार
ै । मैंने आज तक वैसा ार न ीिं दे खा। सब सिंदक
ू में रख हदया ै ।’
‘अच्छा, व सिंदक
ू मेरे पास ला।’ दाई ने सददक
ू लाकर मेज रख हदया। उिर एक
लडके ने एक पत्र लाकर तारा को हदया। तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से दे खा—
किंु वर ननममलकादत ओ. बी. ई.। लडके से पूछा—य पत्र ककसने हदया। व तो न ीिं,
ॉँ
जो रे शमी साफा बॉिे ु ए थे?

लडके ने केवल इतना क ा—मैनेजर सा ब ने हदया ै । और लपका ु आ बा र


चला गया।

सिंदक
ू में सबसे प ले डडब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोनतयों
का सुददर ार था। डडब्बे में एक तरफ एक काडम भी था। तारा ने लपक कर उसे
ननकाल मलया और पढ़ा—किंु वर ननममलकादत...। काडम उसके ाथ से छूट कर धगर
पडा। व झपट कर कुरसी से उठन और बडे वेग से कई कमरों और बरामदों को
पार करती मैनेजर के सामने आकर खडी ो गयीिं। मैनेजर ने खडे ोकर उसका
स्वागत ककया और बोला—मैं रात की सफलता पर आपको बिाई दे ता ू ँ।

तारा ने खडे-खडे पछ
ू ा—कँु वर ननममलकािंत क्या बा र ैं? लडका पत्र दे कर भाग
गया। मैं उससे कुछ पछ
ू न सकी।

‘कुँवर सा ब का रुक्का तो रात ी तुम् ारे चले आने के बाद ममला था।’

‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज हदया?’

मैनेजर ने दबी जबान से क ा—मैंने समझा, तम


ु आराम कर र ी ोगी, कष्ट दे ना
उधचत न समझा। और भाई, साफ बात य ै कक मैं डर र ा था, क ीिं कुँवर सा ब
को तुमसे ममला कर तुम् ें खो न बैठूँ। अगर मैं औरत ोता, तो उसी वक्त उनके
पीछे ो लेता। ऐसा दे वरुप परु
ु ष मैंने आज तक न ीिं दे खा। व ी जो रे शमी साफा
ॉँ खडे थे तुम् ारे सामने। तुमने भी तो दे खा था।
बॉिे

तारा ने मानो अिमननद्रा की दशा में क ा— ॉ,ॉँ दे खा तो था—क्या य कफर आयेंगे?


‘ ॉ,ॉँ आज पॉच
ॉँ बजे शाम को। बडे ववद्वान आदमी ैं, और इस श र के सबसे बडे
रईस।’

‘आज मैं रर समल में न आऊँगी।’

कुँवर सा ब आ र े ोंगे। तारा आईने के सामने बैठन ै और दाई उसका श्रिंग


ृ ार
कर र ी ै । श्रिंग
ृ ार भी इस जमाने में एक ववद्या ै । प ले पररपाटी के अनस
ु ार ी
श्रिंग
ृ ार ककया जाता था। कववयों, धचत्रकारों और रमसकों ने श्रिंग ॉँ
ृ ार की मयामदा-सी बॉि
दी थी। ऑ िंखों के मलए काजल लाजमी था, ाथों के मलए में दी, पाँव के मलए
म ावर। एक-एक अिंग एक-एक आभूषण के मलए ननहदम ष्ट था। आज व पररपाटी
न ीिं र ी। आज प्रत्येक रमणी अपनी सुरुधच सुबुद्वव और तुलनात्मक भाव से श्रिंग
ृ ार
करती ै । उसका सौंदयम ककस उपाय से आकषमकता की सीमा पर प ु ँच सकता ै,
य ी उसका आदशम ोता ैं तारा इस कला में ननपण
ु थी। व पदद्र साल से इस
कम्पनी में थी और य समस्त जीवन उसने पुरुषों के हृदय से खेलने ी में
व्यतीत ककया था। ककस धचवतन से, ककस मुस्कान से, ककस अँगडाई से , ककस तर
केशों के बबखेर दे ने से हदलों का कत्लेआम ो जाता ै ; इस कला में कौन उससे
बढ़ कर ो सकता था! आज उसने चुन-चुन कर आजमाये ु ए तीर तरकस से
ननकाले, और जब अपने अस्त्रों से सज कर व दीवानखाने में आयी, तो जान पडा
मानों सिंसार का सारा मािय
ु म उसकी बलाऍ िं ले र ा ै। व मेज के पास खडी ोकर
कुँवर सा ब का काडम दे ख र ी थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर लगे ुए
थे। व चा ती थी कक कुँवर सा ब इसी वक्त आ जाऍ िंऔर उसे इसी अददाज से खडे
दे खें। इसी अददाज से व उसके अिंग प्रत्यिंगों की पूणम छवव दे ख सकते थे। उसने
अपनी श्रिंग
ृ ार कला से काल पर ववजय पा ली थी। कौन क सकता था कक य
चिंचल नवयौवन उस अवस्था को प ु ँच चक
ु ी ै , जब हृदय को शािंनत की इच्छा
ोती ै, व ककसी आश्रम के मलए आतुर ो उठता ै , और उसका अमभमान नम्रता
के आगे मसर झुका दे ता ै।
तारा दे वी को ब ु त इदतजार न करना पडा। कुँवर सा ब शायद ममलने के मलए
उससे भी उत्सुक थे। दस ी ममनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा
सँभल गयी। एक क्षण में कुँवर सा ब ने कमरे में प्रवेश ककया। तारा मशष्टाचार के
मलए ाथ ममलाना भी भल
ू गयी, प्रौढ़ावस्था में भी प्रेमी की उद्ववननता और
असाविानी कुछ कम न ीिं ोती। व ककसी सलज्जा यव ॉँ मसर झक
ु ती की भॉनत ु ाए
खडी र ी।

कँु वर सा ब की ननगा आते ी उसकी गदम न पर पडी। व मोनतयों का ार, जो


उद ोंने रात को भें ट ककया था, चमक र ा था। कँु वर सा ब को इतना आनदद
और कभी न ु आ। उद ें एक क्षण के मलए ऐसा जान पडा मानों उसके जीवन की
सारी अमभलाषा पूरी ो गयी। बोले—मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट हदया,
क्षमा कीन्जएगा। य तो आपके आराम का समय ोगा? तारा ने मसर से
िखसकती ु ई साडी को सँभाल कर क ा—इससे ज्यादा आराम और क्या ो
सकता कक आपके दशमन ु ए। मैं इस उप ार के मलए और क्या आपको मनों
िदयवाद दे ती ू ँ। अब तो कभी-कभी मल
ु ाकात ोती र े गी?

ननममलकादत ने मुस्कराकर क ा—कभी-कभी न ीिं, रोज। आप चा े मुझसे ममलना


पसदद न करें , पर एक बार इस डयोढ़ी पर मसर को झक
ु ा ी जाऊँगा।

तारा ने भी मुस्करा कर उत्तर हदया—उसी वक्त तक जब तक कक मनोरिं जन की


कोई नयी वस्तु नजर न आ जाय! क्यों?

‘मेरे मलए य मनोरिं जन का ववषय न ीिं , न्जिंदगी और मौत का सवाल ै । ॉ,ॉँ तुम इसे
ववनोद समझ सकती ो, मगर कोई प वा न ीिं। तुम् ारे मनोरिं जन के मलए मेरे
प्राण भी ननकल जायें, तो मैं अपना जीवन सफल समझँूगा।

दोंनों तरफ से इस प्रीनत को ननभाने के वादे ु ए, कफर दोनों ने नाश्ता ककया और


कल भोज का दयोता दे कर कुँवर सा ब ववदा ु ए।
4

एक म ीना गुजर गया, कुँवर सा ब हदन में कई-कई बार आते। उद ें एक क्षण
का ववयोग भी असह्य था। कभी दोनों बजरे पर दररया की सैर करते, कभी री-
री घास पर पाकों में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना ोता, ननत्य नये प्रोग्राम
ॉँ मलया और
बनते थे। सारे श र में मश ू र था कक ताराबाई ने कँु वर सा ब को फॉस
दोनों ाथों से सम्पन्त्त लट
ू र ी ै । पर तारा के मलए कँु वर सा ब का प्रेम ी
एक ऐसी सम्पन्त्त थी, न्जसके सामने दनु नया-भर की दौलत दे य थी। उद ें अपने
सामने दे खकर उसे ककसी वस्तु की इच्छा न ोती थी।

मगर एक म ीने तक इस प्रेम के बाजार में घम


ू ने पर भी तारा को व वस्तु न
ममली, न्जसके मलए उसकी आत्मा लोलुप ो र ी थी। व कुँवर सा ब से प्रेम की,
अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और ननष्कपट प्रेम की बातें रोज सुनती थी, पर
उसमें ‘वववा ’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी छोडकर
और सब कुछ ममलता ो। ऐसे प्यासे को पानी के मसवा और ककस चीज से तन्ृ प्त
ो सकती ै ? प्यास बझ
ु ाने के बाद, सम्भव ै , और चीजों की तरफ उसकी रुधच ो,
पर प्यासे के मलए तो पानी सबसे मल्
ू यवान पदाथम ै । व जानती थी कक कँु वर
सा ब उसके इशारे पर प्राण तक दे दें गे, लेककन वववा की बात क्यों उनकी जबान
से न ीिं ममलती? क्या इस ववषय का कोई पत्र मलख कर अपना आशय क दे ना
सम्भव था? कफर क्या व उसको केवल ववनोद की वस्तु बना कर रखना चा ते
ैं? य अपमान उससे न स ा जाएगा। कुँवर के एक इशारे पर व आग में कूद
सकती थी, पर य अपमान उसके मलए असह्य था। ककसी शौकीन रईस के साथ
व इससे कुछ हदन प ले शायद एक-दो म ीने र जाती और उसे नोच-खसोट कर
अपनी रा लेती। ककदतु प्रेम का बदला प्रेम ै , कुँवर सा ब के साथ व य ननलमज्ज
जीवन न व्यतीत कर सकती थी।

ॉँ उद ें ताराबाई के
उिर कँु वर सा ब के भाई बदद भी गाकफल न थे, वे ककसी भॉनत
पिंजे से छुडाना चा ते थे। क ीिं किंु वर सा ब का वववा ठनक कर दे ना ी एक ऐसा
उपाय था, न्जससे सफल ोने की आशा थी और य ी उन लोगों ने ककया। उद ें
य भय तो न था कक किंु वर सा ब इस ऐक्रे स से वववा करें गे। ॉ,ॉँ य भय
अवश्य था कक क ी ररयासत का कोई ह स्सा उसके नाम कर दें , या उसके आने
वाले बच्चों को ररयासत का मामलक बना दें । कुँवर सा ब पर चारों ओर से दबाव
पडने लगे। य ॉ ॉँ तक कक योरोवपयन अधिकाररयों ने भी उद ें वववा कर लेने की
सला दी। उस हदन सिं्या समय किंु वर सा ब ने ताराबाई के पास जाकर क ा—
तारा, दे खो, तम
ु से एक बात क ता ू ँ, इनकार न करना। तारा का हृदय उछलने लगा।
बोली—कह ए, क्या बात ै ? ऐसी कौन वस्तु ै , न्जसे आपकी भें ट करके मैं अपने को
िदय समझँू?

बात मँु से ननकलने की दे र थी। तारा ने स्वीकार कर मलया और षोदमाद की


दशा में रोती ु ई किंु वर सा ब के पैरों पर धगर पडी।

एक क्षण के बाद तारा ने क ा—मैं तो ननराश ो चली थी। आपने बढ़ी लम्बी
परीक्षा ली।

ॉँ
किंु वर सा ब ने जबान दॉतों-तले दबाई, मानो कोई अनुधचत बात सुन ली ो!

‘य बात न ीिं ै तारा! अगर मुझे ववश्वास ोता कक तुम मेरी याचना स्वीकार कर
लोगी, तो कदाधचत प ले ी हदन मैंने मभक्षा के मलए ाथ फैलाया ोता, पर मैं
अपने को तुम् ारे योनय न ीिं पाता था। तुम सदगुणों की खान ो, और मैं...मैं जो
कुछ ू ँ , व तुम जानती ी ो। मैंने ननश्चय कर मलया था कक उम्र भर तुम् ारी
उपासना करता र ू ँगा। शायद कभी प्रसदन ो कर तम
ु मझ ॉँ
ु े बबना मॉगे ी वरदान
दे दो। बस, य ी मेरी अमभलाषा थी! मझ
ु में अगर कोई गण
ु ै , तो य ी कक मैं
तुमसे प्रेम करता ू ँ। जब तुम साह त्य या सिंगीत या िमम पर अपने ववचार प्रकट
करने लगती ो, तो मैं दिं ग र जाता ू ँ और अपनी क्षुद्रता पर लन्ज्जत ो जाता

ू ँ। तुम मेरे मलए सािंसाररक न ीिं, स्वगीय ो। मुझे आश्चयम य ी ै कक इस समय


मैं मारे खश
ु ी के पागल क्यों न ीिं ो जाता।’

किंु वर सा ब दे र तक अपने हदल की बातें क ते र े । उनकी वाणी कभी इतनी


प्रगल्भ न ु ई थी!

तारा मसर झुकाये सुनती थी, पर आनिंद की जग उसके मुख पर एक प्रकार का


क्षोभ—लज्जा से ममला ु आ—अिंककत ो र ा था। य पुरुष इतना सरल हृदय,
इतना ननष्कपट ै ? इतना ववनीत, इतना उदार!

स सा कुँवर सा ब ने पूछा—तो मेरे भानय ककस ककस हदन उदय ोंगे , तारा? दया
करके ब ु त हदनों के मलए न टालना।

तारा ने कुँवर सा ब की सरलता से परास्त ोकर धचिंनतत स्वर में क ा—कानून का


क्या कीन्जएगा? कुँवर सा ब ने तत्परता से उत्तर हदया—इस ववषय में तुम
ननश्चिंत र ो तारा, मैंने वकीलों से पूछ मलया ै । एक कानून ऐसा ै न्जसके
अनुसार म और तुम एक प्रेम-सूत्र में बँि सकते ैं। उसे मसववल-मैररज क ते ैं।
बस, आज ी के हदन व शुभ मु ू तम आयेगा, क्यों?

तारा मसर झुकाये र ी। बोल न सकी।

‘मैं प्रात:काल आ जाऊँगा। तैयार र ना।’

तारा मसर झक
ु ाये र ी। मँु से एक शब्द न ननकला।

ॉँ बैठन र ी। पुरुषों के हृदय से


किंु वर सा ब चले गये, पर तारा व ीिं मूनतम की भॉनत
क्रीडा करनेवाली चतुर नारी क्यों इतनी ववमूढ़ ो गयी ै!

वववा का एक हदन और बाकी ै । तारा को चारों ओर से बिाइयॉ ॉँ ममल र ी ैं।


धथएटर के सभी स्त्री-पुरुषों ने अपनी सामथ्यम के अनुसार उसे अच्छे -अच्छे उप ार
हदये ैं, कँु वर सा ब ने भी आभष
ू णों से सजा ु आ एक मसिंगारदान भें ट ककया ैं,
ॉँ
उनके दो-चार अिंतरिं ग ममत्रों ने भॉनत-भॉ ॉँ के सौगात भेजे ैं; पर तारा के सद
नत ु दर
मुख पर षम की रे खा भी न ीिं नजर आती। व क्षुब्ि और उदास ै । उसके मन में
चार हदनों से ननरिं तर य ी प्रश्न उठ र ा ै —क्या कुँवर के साथ ववश्वासघात करें ?
न्जस प्रेम के दे वता ने उसके मलए अपने कुल-मयामदा को नतलािंजमल दे दी, अपने
बिंिुजनों से नाता तोडा, न्जसका हृदय ह मकण के समान ननष्कलिंक ै , पवमत के
समान ववशाल, उसी से कपट करे ! न ीिं, व इतनी नीचता न ीिं कर सकती , अपने
जीवन में उसने ककतने ी यव
ु कों से प्रेम का अमभनय ककया था, ककतने ी प्रेम के
मतवालों को व सब्ज बाग हदखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दवु विा न

ु ई थी, कभी उसके हृदय ने उसका नतरस्कार न ककया था। क्या इसका कारण
इसके मसवा कुछ और था कक ऐसा अनुराग उसे और क ीिं न ममला था।

क्या व कुँवर सा ब का जीवन सुखी बना सकती ै ? ॉ,ॉँ अवश्य। इस ववषय में
उसे लेशमात्र भी सिंदे न ीिं था। भन्क्त के मलए ऐसी कौन-सी वस्तु ै , जो
असा्य ो; पर क्या व प्रकृनत को िोखा दे सकती ै । ढलते ु ए सूयम में
म्याह्न का-सा प्रकाश ो सकता ै ? असम्भव। व स्फूनतम, व चपलता, व
ववनोद, व सरल छवव, व तल्लीनता, व त्याग, व आत्मववश्वास व क ॉ ॉँ से
लायेगी, न्जसके सन्म्मश्रण को यौवन क ते ैं ? न ीिं, व ककतना ी चा े , पर किंु वर
सा ब के जीवन को सुखी न ीिं बना सकतीिं बूढ़ा बैल कभी जवान बछडों के साथ
न ीिं चल सकता।

आ ! उसने य नौबत ी क्यों आने दी? उसने क्यों कृबत्रम सािनों से, बनावटी
मसिंगार से किंु वर को िोखें में डाला? अब इतना सब कुछ ो जाने पर व ककस मँु
से क े गी कक मैं रिं गी ु ई गुडडया ू ँ , जबानी मुझसे कब की ववदा ो चुकी, अब केवल
उसका पद-धचह्न र गया ै।

रात के बार बज गये थे। तारा मेज के सामने इद ीिं धचिंताओिं में मनन बैठन ु ई
थी। मेज पर उप ारों के ढे र लगे ु ए थे; पर व ककसी चीज की ओर ऑ िंख उठा
कर भी न दे खती थी। अभी चार हदन प ले व इद ीिं चीजों पर प्राण दे ती थी, उसे
मेशा ऐसी चीजों की तलाश र ती थी, जो काल के धचह्नों को ममटा सकें, पर अब
उद ीिं चीजों से उसे घण
ृ ा ो र ी ै । प्रेम सत्य ै — और सत्य और ममथ्या, दोनों
एक साथ न ीिं र सकते।

तारा ने सोचा—क्यों न य ॉ ॉँ से क ीिं भाग जाय? ककसी ऐसी जग चली जाय,


ज ॉ ॉँ कोई उसे जानता भी न ो। कुछ हदनों के बाद जब किंु वर का वववा ो
जाय, तो व कफर आकर उनसे ममले और य सारा वत्ृ तािंत उनसे क सुनाए। इस
समय किंु वर पर वज्रपात-सा ोगा— ाय न-जाने उनकी दशा ोगी; पर उसके मलए
इसके मसवा और कोई मागम न ीिं ै । अब उनके हदन रो-रोकर कटें गे, लेककन उसे
ककतना ी द:ु ख क्यों न ो, व अपने वप्रयतम के साथ छल न ीिं कर सकती।
उसके मलए इस स्वगीय प्रेम की स्मनृ त, इसकी वेदना ी ब ुत ै । इससे अधिक
उसका अधिकार न ीिं।

दाई ने आकर क ा—बाई जी, चमलए कुछ थोडा-सा भोजन कर लीन्जए अब तो


बार बज गए।

तारा ने क ा—न ीिं, जरा भी भख


ू न ीिं। तुम जाकर खा लो।

दाई—दे िखए, मुझे भूल न जाइएगा। मैं भी आपके साथ चलँ ग


ू ी।

तारा—अच्छे -अच्छे कपडे बनवा रखे ैं न?

दाई—अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपडे लेकर क्या करना ै ? आप अपना कोई उतारा दे
दीन्जएगा।

दाई चली गई। तारा ने घडी की ओर दे खा। सचमुच बार बज गए थे। केवल
छ घिंटे और ैं। प्रात:काल किंु वर सा ब उसे वववा -मिंहदर में ले-जाने के मलए आ
जायेंगे। ाय! भगवान, न्जस पदाथम से तम
ु ने इतने हदनों तक उसे विंधचत रखा, व
आज क्यों सामने लाये? य भी तम्
ु ारी क्रीडा ैं

तारा ने एक सफद साडी प न ली। सारे आभूषण उतार कर रख हदये। गमम पानी
मौजूद था। साबुन और पानी से मँु िोया और आईने के सम्मुख जा कर खडी
ो गयी—क ॉ ॉँ थी व छवव, व ज्योनत, जो ऑ िंखों को लभ
ु ा लेती थी! रुप व ी था,
पर क्रािंनत क ॉ?ॉँ अब भी व ॉँ भर सकती
यौवन का स्वॉग ै?

तारा को अब व ॉ ॉँ एक क्षण भी और र ना कहठन ो गया। मेज पर फैले ु ए

ू ण और ववलास की सामधग्रयॉ ॉँ मानों उसे काटने लगी। य


आभष कृबत्रम जीवन
असह्य ो उठा, खस की टहटटयों और बबजली के पिंखों से सजा ु आ शीतल भवन
उसे भट्टी के समान तपाने लगा।

उसने सोचा—क ॉ ॉँ भाग कर जाऊँ। रे ल से भागती ू ँ, तो भागने ना पाऊँगी। सबेरे


ी कँु वर सा ब के आदमी छूटें गे और चारों तरफ मेरी तलाश ोने लगेगी। व
ऐसे रास्ते से जायगी, न्जिर ककसी का ख्याल भी न जाय।

तारा का हृदय इस समय गवम से छलका पडता था। व द:ु खी न थी, ननराश न
थी। कफर किंु वर सा ब से ममलेगी, ककिं तु व ननस्वाथम सिंयोग ोगा। प्रेम के बनाये

ु ए कत्तमव्य मागम पर चल र ी ै , कफर द:ु ख क्यों ो और ननराश क्यों ो?

स सा उसे ख्याल आया—ऐसा न ो, कँु वर सा ब उसे व ॉ ॉँ न पा कर शेक-


ववह्वलता की दशा में अनथम कर बैठें। इस कल्पना से उसके रोंगटे खडे ो गये।
एक क्षण के के मलए उसका मन कातर ो उठा। कफर व मेज पर जा बैठन, और
य पत्र मलखने लगी—

वप्रयतम, मझ
ु े क्षमा करना। मैं अपने को तम्
ु ारी दासी बनने के योनय न ीिं पाती।
तुमने मुझे प्रेम का व स्वरुप हदखा हदया, न्जसकी इस जीवन में मैं आशा न कर
सकती थी। मेरे मलए इतना ी ब ुत ै । मैं जब जीऊँगी, तुम् ारे प्रेम में मनन
र ू ँगी। मुझे ऐसा जान पड र ा ै कक प्रेम की स्मनृ त में प्रेम के भोग से क ी
अधिक मािुयम और आनदद ै । मैं कफर आऊँगी, कफर तम्
ु ारे दशमन करुँ गी; लेककन
उसी दशामें जब तम
ु वववा कर लोगे। य ी मेरे लौटने की शतम ै । मेरे प्राणें के
प्राण, मुझसे नाराज न ोना। ये आभूषण जो तुमने मेरे मलए भेजे थे, अपनी ओर
से नवविू के मलए छोडे जाती ू ँ। केवल व मोनतयों को ार, जो तुम् ारे प्रेम का
प ला उप ार ै , अपने साथ मलये जाती ू ँ। तुमसे ाथ जोडकर क ती ू ँ , मेरी
तलाश न करना। मैं तुम् री ू ँ और सदा तुम् ारी र ू ँगा.....।

तुम् ारी,
तारा

य पत्र मलखकर तारा ने मेज पर रख हदया, मोनतयों का ार गले में डाला और


बा र ननकल आयी। धथएटर ाल से सिंगीत की ्वनन आ र ी थी। एक क्षण के
मलए उसके पैर बँि गये। पदद्र वषो का परु ाना सम्बदि आज टूट र ा था। स सा
उसने मैनेजर को आते दे खा। उसका कलेजा िक से ो गया। व बडी तेजी से
लपककर दीवार की आड में खडी ो गयी। ज्यों ी मैनेजर ननकल गया, व ाते
के बा र आयी और कुछ दरू गमलयों में चलने के बाद उसने गिंगा का रास्ता
पकडा।

ॉँ सािु-बैरागी िूननयों के सामने लेटे


गिंगा-तट पर सदनाटा छाया ु आ था। दस-पॉच
ॉँ यात्री कम्बल जमीन पर बबछाये सो र े थे। गिंगा ककसी ववशाल सपम
थे। दस-पॉच
ॉँ रें गती चली जाती थी। एक छोटी-सी नौका ककनारे पर लगी ु ई थी।
की भॉनत
मल्ला ा नौका में बैठा ु आ था।

ॉँ उस पार नाव ले चलेगा?


तारा ने मल्ला ा को पुकारा—ओ मॉझी,

ॉँ ने जवाब हदया—इतनी रात गये नाव न जाई।


मॉझी

मगर दन ु कर उसे डॉडॉँ उठाया और नाव को खोलता ु आ


ू ी मजदरू ी की बात सन
बोला—सरकार, उस पार क ॉ ॉँ जै ैं?

‘उस पार एक गॉवॉँ में जाना ै ।’

‘मुदा इतनी रात गये कौनों सवारी-मसकारी न ममली।’

‘कोई जम न ीिं, तम
ु मझे उस पर प ु ँचा दो।’

ॉँ ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठन और नौका मिंद गनत से चलने
मॉझी
लगी, मानों जीव स्वप्न-साम्राज्य में ववचर र ा ो।

ॉँ पथ्
इसी समय एकादशी का चॉद, ृ वी से उस पार, अपनी उज्जवल नौका खेता ु आ
ननकला और व्योम-सागर को पार करने लगा।

***
ईश्वरीय दयाय

कानपुर न्जले में पिंडडत भग


ृ ुदत्त नामक एक बडे जमीिंदार थे। मुिंशी सत्यनारायण
उनके काररिंदा थे। व बडे स्वाममभक्त और सच्चररत्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की
त सील और जारों मन अनाज का लेन-दे न उनके ाथ में था; पर कभी उनकी
ॉँ
ननयत डावॉडोल न ोती। उनके सुप्रबिंि से ररयासत हदनोंहदन उदननत करती जाती
थी। ऐसे कत्तव्यमपरायण सेवक का न्जतना सम्मान ोना चाह ए, उससे अधिक ी
ोता था। द:ु ख-सख
ु के प्रत्येक अवसर पर पिंडडत जी उनके साथ बडी उदारता से
पेश आते। िीरे -िीरे मुिंशी जी का ववश्वास इतना बढ़ा कक पिंडडत जी ने ह साब-
ककताब का समझना भी छोड हदया। सम्भव ै , उनसे आजीवन इसी तर ननभ
जाती, पर भावी प्रबल ै । प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पिंडडत जी भी स्नान करने गये।
व ॉ ॉँ से लौटकर कफर वे घर न आये। मालूम न ीिं, ककसी गढ़े में कफसल पडे या
कोई जल-जिंतु उद ें खीिंच ले गया, उनका कफर कुछ पता ी न चला। अब मिंुशी
सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े । एक तभाधगनी वविवा और दो छोटे -छोटे
बच्चों के मसवा पिंडडत जी के घर में और कोई न था। अिंत्येन्ष्ट-कक्रया से ननवत्ृ त
ोकर एक हदन शोकातुर पिंडडताइन ने उद ें बुलाया और रोकर क ा—लाला, पिंडडत
जी में मँझिार में छोडकर सुरपुर को मसिर गये, अब य नैया तुम् ी पार
लगाओगे तो लग सकती ै। य सब खेती तुम् ारी लगायी ु ई ै , इसे तुम् ारे ी
ऊपर छोडती ू ँ। ये तम्
ु ारे बच्चे ैं, इद ें अपनाओ। जब तक मामलक न्जये , तम्
ु ें
अपना भाई समझते र े । मझ
ु े ववश्वास ै कक तम
ु उसी तर इस भार को सँभाले
र ोगे।

सत्यनाराण ने रोते ु ए जवाब हदया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भानय ी


फूट गये, न ीिं तो मझ
ु े आदमी बना दे त।े मैं उद ीिं का नमक खाकर न्जया ू ँ और
उद ीिं की चाकरी में मरुँ गा भी। आप िीरज रखें। ककसी प्रकार की धचिंता न करें । मैं
जीते-जी आपकी सेवा से मँु न मोडूँगा। आप केवल इतना कीन्जएगा कक मैं न्जस
ककसी की मशकायत करुँ , उसे डॉटॉँ दीन्जएगा; न ीिं तो ये लोग मसर चढ़ जायेंगे।
2

इस घटना के बाद कई वषो तक मिंश


ु ीजी ने ररयासत को सँभाला। व अपने
काम में बडे कुशल थे। कभी एक कौडी का भी बल न ीिं पडा। सारे न्जले में
उनका सम्मान ोने लगा। लोग पिंडडत जी को भूल-सा गये। दरबारों और कमेहटयों
में वे सन्म्ममलत ोते, न्जले के अधिकारी उद ीिं को जमीिंदार समझते। अदय रईसों
में उनका आदर था; पर मान-वद्
ृ वव की म ँगी वस्तु ै । और भानुकुँवरर, अदय
न्स्त्रयों के सदृश पैसे को खूब पकडती। व मनुष्य की मनोवन्ृ त्तयों से पररधचत न
थी। पिंडडत जी मेशा लाला जी को इनाम इकराम दे ते र ते थे। वे जानते थे कक
ज्ञान के बाद ईमान का दस
ू रा स्तम्भ अपनी सद
ु शा ै । इसके मसवा वे खद
ु भी कभी
ॉँ कर मलया करते थे। नाममात्र
कागजों की जॉच ी को स ी, पर इस ननगरानी का
डर जरुर बना र ता था; क्योंकक ईमान का सबसे बडा शत्रु अवसर ै । भानुकुँवरर इन
बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा िनाभाव-जैसे प्रबल शत्रुओिं के पिंजे
में पड कर मुिंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता?

कानपुर श र से ममला ु आ, ठनक गिंगा के ककनारे , एक ब ु त आजाद और उपजाऊ


गॉवॉँ था। पिंडडत जी इस गॉवॉँ को लेकर नदी-ककनारे पक्का घाट, मिंहदर, बाग, मकान
आहद बनवाना चा ते थे; पर उनकी य कामना सफल न ो सकी। सिंयोग से अब
य गॉवॉँ बबकने लगा। उनके जमीिंदार एक ठाकुर सा ब थे। ककसी फौजदारी के
मामले में फँसे ु ए थे। मुकदमा लडने के मलए रुपये की चा थी। मुिंशीजी ने
कच री में य समाचार सुना। चटपट मोल-तोल ु आ। दोनों तरफ गरज थी।
सौदा पटने में दे र न लगी, बैनामा मलखा गया। रन्जस्री ु ई। रुपये मौजूद न थे,
पर श र में साख थी। एक म ाजन के य ॉ ॉँ से तीस जार रुपये मँगवाये गये और
ठाकुर सा ब को नजर ककये गये। ॉ,ॉँ काम-काज की आसानी के खयाल से य
सब मलखा-पढ़ी मश
िंु ीजी ने अपने ी नाम की; क्योंकक मामलक के लडके अभी
नाबामलग थे। उनके नाम से लेने में ब ु त झिंझट ोती और ववलम्ब ोने से
मशकार ाथ से ननकल जाता। मुिंशीजी बैनामा मलये असीम आनिंद में मनन

भानक
ु ँु वरर के पास आये। पदाम कराया और य शुभ-समाचार सन
ु ाया। भानक
ु ँु वरर
ने सजल नेत्रों से उनको िदयवाद हदया। पिंडडत जी के नाम पर मन्ददर और घाट
बनवाने का इरादा पक्का ो गया।

मँश
ु ी जी दस
ू रे ी हदन उस गॉवॉँ में आये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामी के
स्वागत को ान्जर ु ए। श र के रईसों की दावत ु ई। लोगों के नावों पर बैठ कर
गिंगा की खब
ू सैर की। मन्ददर आहद बनवाने के मलए आबादी से ट कर रमणीक
स्थान चुना गया।

यद्यवप इस गॉवॉँ को अपने नाम लेते समय मिंश


ु ी जी के मन में कपट का भाव
न था, तथावप दो-चार हदन में ी उनका अिंकुर जम गया और िीरे -िीरे बढ़ने
लगा। मुिंशी जी इस गॉवॉँ के आय-व्यय का ह साब अलग रखते और अपने स्वाममनों
को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरर इन बातों में दखल
दे ना उधचत न समझती थी; पर दस
ू रे काररिंदों से बातें सुन-सुन कर उसे शिंका ोती
थी कक क ीिं मुिंशी जी दगा तो न दें गे। अपने मन का भाव मश
ुिं ी से नछपाती थी,
इस खयाल से कक क ीिं काररिंदों ने उद ें ानन प ु ँ चाने के मलए य षडयिंत्र न रचा
ो।

इस तर कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अिंकुर ने वक्ष


ृ का रुप िारण
ककया। भानक
ु ँु वरर को मिंश
ु ी जी के उस मागम के लक्षण हदखायी दे ने लगे। उिर
मिंश
ु ी जी के मन ने कानन
ू से नीनत पर ववजय पायी, उद ोंने अपने मन में फैसला
ककया कक गॉवॉँ मेरा ै। ॉ,ॉँ मैं भानुकुँवरर का तीस जार का ऋणी अवश्य ू ँ। वे
ब ु त करें गी तो अपने रुपये ले लें गी और क्या कर सकती ैं? मगर दोनों तरफ
य आग अददर ी अददर सुलगती र ी। मुिंशी जी अस्त्रसन्ज्जत ोकर आक्रमण
के इिंतजार में थे और भानुकुँवरर इसके मलए अवसर ढूँढ़ र ी थी। एक हदन उसने
सा स करके मिंश
ु ी जी को अददर बल
ु ाया और क ा—लाला जी ‘बरगदा’ के मन्ददर
का काम कब से लगवाइएगा? उसे मलये आठ साल ो गये, अब काम लग जाय तो
अच्छा ो। न्जिंदगी का कौन हठकाना ै , जो काम करना ै ; उसे कर ी डालना
चाह ए।

इस ढिं ग से इस ववषय को उठा कर भानुकुँवरर ने अपनी चतुराई का अच्छा पररचय


हदया। मुिंशी जी भी हदल में इसके कायल ो गये। जरा सोच कर बोले—इरादा
तो मेरा कई बार ु आ, पर मौके की जमीन न ीिं ममलती। गिंगातट की जमीन
असाममयों के जोत में ै और वे ककसी तर छोडने पर राजी न ीिं।

भानुकुँवरर—य बात तो आज मुझे मालूम ु ई। आठ साल ु ए, इस गॉवॉँ के


ववषय में आपने कभी भल
ू कर भी दी तो चचाम न ीिं की। मालम
ू न ीिं, ककतनी
त सील ु ाफा ै , कैसा गॉवॉँ
ै , क्या मन ै , कुछ सीर ोती ै या न ीिं। जो कुछ करते
ैं, आप ी करते ैं और करें गे। पर मुझे भी तो मालूम ोना चाह ए?

मिंश
ु ी जी सँभल उठे । उद ें मालम
ू ो गया कक इस चतरु स्त्री से बाजी ले जाना
मन्ु श्कल ै । गॉवॉँ लेना ी ै तो अब क्या डर। खल
ु कर बोले—आपको इससे कोई
सरोकार न था, इसमलए मैंने व्यथम कष्ट दे ना मुनामसब न समझा।

भानक
ु ँु वरर के हृदय में कुठार-सा लगा। पदे से ननकल आयी और मिंश
ु ी जी की
तरफ तेज ऑ िंखों से दे ख कर बोली—आप क्या क ते ैं! आपने गॉवॉँ मेरे मलये
मलया था या अपने मलए! रुपये मैंने हदये या आपने? उस पर जो खचम पडा, व मेरा
था या आपका? मेरी समझ में न ीिं आता कक आप कैसी बातें करते ैं।

मिंश
ु ी जी ने साविानी से जवाब हदया—य तो आप जानती ैं कक गॉवॉँ मारे
नाम से बसा ु आ ै । रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका दे नदार ू ँ। र ा
त सील-वसूल का खचम, य सब मैंने अपने पास से हदया ै । उसका ह साब-
ककताब, आय-व्यय सब रखता गया ू ँ।

ॉँ
भानुकुँवरर ने क्रोि से कॉपते ु ए क ा—इस कपट का फल आपको अवश्य ममलेगा।
आप इस ननदम यता से मेरे बच्चों का गला न ीिं काट सकते। मुझे न ीिं मालूम था
कक आपने हृदय में छुरी नछपा रखी ै , न ीिं तो य नौबत ी क्यों आती। खैर, अब
से मेरी रोकड और ब ी खाता आप कुछ न छुऍ।िं मेरा जो कुछ ोगा, ले लँ ग
ू ी।
जाइए, एकािंत में बैठ कर सोधचए। पाप से ककसी का भला न ीिं ोता। तम
ु समझते
ोगे कक बालक अनाथ ैं , इनकी सम्पन्त्त जम कर लँ ग
ू ा। इस भूल में न र ना,
मैं तुम् ारे घर की ईट तक बबकवा लँ ग
ू ी।

य ु ँु वरर कफर पदे की आड में आ बैठन और रोने लगी। न्स्त्रयॉ ॉँ क्रोि


क कर भानक
के बाद ककसी न ककसी ब ाने रोया करती ैं। लाला सा ब को कोई जवाब न
सूझा। य ॉ ॉँ से उठ आये और दफ्तर जाकर कागज उलट-पलट करने लगे, पर
भानुकुँवरर भी उनके पीछे -पीछे दफ्तर में प ु ँची और डॉटॉँ कर बोली—मेरा कोई
कागज मत छूना। न ीिं तो बुरा ोगा। तुम ववषैले साँप ो, मैं तुम् ारा मँु न ीिं
दे खना चा ती।

मुिंशी जी कागजों में कुछ काट-छॉटॉँ करना चा ते थे, पर वववश ो गये। खजाने की
कुदजी ननकाल कर फेंक दी, ब ी-खाते पटक हदये , ककवाड िडाके-से बिंद ककये और
वा की तर सदन-से ननकल गये। कपट में ाथ तो डाला, पर कपट मदत्र न
जाना।

दस
ू रें काररिंदों ने य कैकफयत सुनी, तो फूले न समाये। मुिंशी जी के सामने उनकी
दाल न गलने पाती। भानक
ु ँु वरर के पास आकर वे आग पर तेल नछडकने लगे।
सब लोग इस ववषय में स मत थे कक मुिंशी सत्यनारायण ने ववश्वासघात ककया
ै । मामलक का नमक उनकी ड्डडयों से फूट-फूट कर ननकलेगा।

ु दमेबाजी की तैयाररयॉ ॉँ ोने लगीिं! एक तरफ दयाय का शरीर था,


दोनों ओर से मक
दस
ू री ओर दयाय की आत्मा। प्रकृनत का पुरुष से लडने का सा स ु आ।

भानकुँवरर ने लाला छक्कन लाल से पूछा— मारा वकील कौन ै ? छक्कन लाल ने
ॉँ कर क ा—वकील तो सेठ जी
इिर-उिर झॉक ैं, पर सत्यनारायण ने उद ें प ले
ॉँ रखा
गॉठ ोगा। इस मुकदमें के मलए बडे ोमशयार वकील की जरुरत ै । मे रा
बाबू की आजकल खूब चल र ी ै । ाककम की कलम पकड लेते ैं। बोलते ैं तो
जैसे मोटरकार छूट जाती ॉँ से
ै सरकार! और क्या क ें , कई आदममयों को फॉसी
उतार मलया ै , उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल न ीिं सकता। सरकार
क ें तो व ी कर मलये जायँ।

छक्कन लाल की अत्यन्ु क्त से सिंदे पैदा कर मलया। भानक


ु ँु वरर ने क ा—न ीिं,
प ले सेठ जी से पछ
ू मलया जाय। उसके बाद दे खा जायगा। आप जाइए, उद ें बल
ु ा
लाइए।

छक्कनलाल अपनी तकदीर को ठोंकते ु ए सेठ जी के पास गये। सेठ जी पिंडडत


भग
ृ द
ु त्त के जीवन-काल से ी उनका कानन
ू -सम्बदिी सब काम ककया करते थे।
मुकदमे का ाल सुना तो सदनाटे में आ गये। सत्यनाराण को य बडा नेकनीयत
आदमी समझते थे। उनके पतन से बडा खेद ु आ। उसी वक्त आये। भानुकुँवरर
ने रो-रो कर उनसे अपनी ववपन्त्त की कथा क ी और अपने दोनों लडकों को
उनके सामने खडा करके बोली—आप इन अनाथों की रक्षा कीन्जए। इद ें मैं
आपको सौंपती ू ँ।

सेठ जी ने समझौते की बात छे डी। बोले —आपस की लडाई अच्छन न ीिं।

भानुकुँवरर—अदयायी के साथ लडना ी अच्छा ै।

सेठ जी—पर मारा पक्ष ननबमल ै।

भानुकुँवरर कफर पदे से ननकल आयी और ववन्स्मत ोकर बोली—क्या मारा पक्ष
ननबमल ै ? दनु नया जानती ै कक गॉवॉँ मारा ै । उसे मसे कौन ले सकता ै?
न ीिं, मैं सल
ु कभी न करुँ गी, आप कागजों को दे खें। मेरे बच्चों की खानतर य
कष्ट उठायें। आपका पररश्रम ननष्फल न जायगा। सत्यनारायण की नीयत प ले
खराब न थी। दे िखए न्जस ममती में गॉवॉँ मलया गया ै , उस ममती में तीस जार
का क्या खचम हदखाया गया ै । अगर उसने अपने नाम उिार मलखा ो, तो दे िखए,
वावषमक सूद चुकाया गया या न ीिं। ऐसे नरवपशाच से मैं कभी सुल न करुँ गी।
सेठ जी ने समझ मलया कक इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा।
कागजात दे खें, अमभयोग चलाने की तैयाररयॉ ॉँ ोने लगीिं।

मुिंशी सत्यनारायणलाल िखमसयाये ॉँ उसे


ु ए मकान प ु ँ च।े लडके ने ममठाई मॉगी।
पीटा। स्त्री पर इसमलए बरस पडे कक उसने क्यों लडके को उनके पास जाने हदया।

ृ ा माता को डॉटॉँ कर क ा—तुमसे इतना भी न ीिं


अपनी वद्ध ो सकता कक जरा
ॉँ घर आऊँ और कफर लडके
लडके को ब लाओ? एक तो मैं हदन-भर का थका-मॉदा
को खेलाऊँ? मझ
ु े दनु नया में न और कोई काम ै , न ििंिा। इस तर घर में बावैला
मचा कर बा र आये , सोचने लगे—मझ
ु से बडी भल
ू ु ई। मैं कैसा मख
ू म ू ँ। और
इतने हदन तक सारे कागज-पत्र अपने ाथ में थे। चा ता, कर सकता था, पर ाथ
पर ाथ िरे बैठे र ा। आज मसर पर आ पडी, तो सूझी। मैं चा ता तो ब ी-खाते
सब नये बना सकता था, न्जसमें इस गॉवॉँ का और रुपये का न्जक्र ी न ोता, पर
मेरी मूखत
म ा के कारण घर में आयी ु ई लक्ष्मी रुठन जाती ैं। मुझे क्या मालूम था
कक व चुडल
ै मझ
ु से इस तर पेश आयेगी, कागजों में ाथ तक न लगाने दे गी।

इसी उिेडबुन में मुिंशी जी एकाएक उछल पडे। एक उपाय सझ


ू गया—क्यों न
कायमकत्तामओिं को ममला लँ ?ू यद्यवप मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे
और इस समय सीिे बात भी न करें गे, तथावप उनमें ऐसा कोई भी न ीिं, जो
प्रलोभन से मि
ु ी में न आ जाय। ॉ,ॉँ इसमें रुपये पानी की तर ब ाना पडेगा, पर
इतना रुपया आयेगा क ॉ ॉँ से? ाय दभ
ु ामनय? दो-चार हदन प ले चेत गया ोता, तो
कोई कहठनाई न पडती। क्या जानता था कक व डाइन इस तर वज्र-प्र ार
करे गी। बस, अब एक ी उपाय ै । ककसी तर कागजात गुम कर दँ ।ू बडी
जोिखम का काम ै , पर करना ी पडेगा।

दष्ु कामनाओिं के सामने एक बार मसर झुकाने पर कफर सँभलना कहठन ो जाता
ै । पाप के अथा दलदल में ज ॉ ॉँ एक बार पडे कक कफर प्रनतक्षण नीचे ी चले
जाते ैं। मिंश
ु ी सत्यनारायण-सा ववचारशील मनष्ु य इस समय इस कफक्र में था कक
कैसे सेंि लगा पाऊँ!

मुिंशी जी ने सोचा—क्या सेंि लगाना आसान ै ? इसके वास्ते ककतनी चतुरता,


ककतना सा ब, ककतनी बद्
ु वव, ककतनी वीरता चाह ए! कौन क ता ै कक चोरी
करना आसान काम ै ? मैं जो क ीिं पकडा गया, तो मरने के मसवा और कोई मागम
न र े गा।

ब ु त सोचने-ववचारने पर भी मिंश
ु ी जी को अपने ऊपर ऐसा दस्
ु सा स कर सकने
का ववश्वास न ो सका। ॉ,ॉँ इसमें सग
ु म एक दस
ू री तदबीर नजर आयी—क्यों न
दफ्तर में आग लगा दँ ?ू एक बोतल ममट्टी का तेल और हदयासलाई की जरुरत ैं
ककसी बदमाश को ममला लँ ,ू मगर य क्या मालूम कक व ी उसी कमरे में रखी ै
या न ीिं। चुडल
ै ने उसे जरुर अपने पास रख मलया ोगा। न ीिं; आग लगाना गुना
बेलज्जत ोगा।

ब ु त दे र मुिंशी जी करवटें बदलते र े । नये -नये मनसूबे सोचते; पर कफर अपने ी


तको से काट दे त।े वषामकाल में बादलों की नयी-नयी सूरतें बनती और कफर वा
के वेग से बबगड जाती ैं; व ी दशा इस समय उनके मनसूबों की ो र ी थी।

पर इस मानमसक अशािंनत में भी एक ववचार पूणरु


म प से न्स्थर था—ककसी तर इन
कागजात को अपने ाथ में लाना चाह ए। काम कहठन ै —माना! पर ह म्मत न
थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या तीस जार की जायदाद दाल-भात का कौर ै ?—
चा े न्जस तर ो, चोर बने बबना काम न ीिं चल सकता। आिखर जो लोग चोररयॉ ॉँ
करते ैं, वे भी तो मनुष्य ी ोते ॉँ का काम
ैं। बस, एक छलॉग ै । अगर पार ो
गये, तो राज करें गे, धगर पडे, तो जान से ाथ िोयेंगे।

रात के दस बज गये। मिंश


ु ी सत्यनाराण किंु न्जयों का एक गच्
ु छा कमर में दबाये
घर से बा र ननकले। द्वार पर थोडा-सा पआ
ु ल रखा ु आ था। उसे दे खते ी वे
चौंक पडे। मारे डर के छाती िडकने लगी। जान पडा कक कोई नछपा बैठा ै । कदम
रुक गये। पुआल की तरफ ्यान से दे खा। उसमें बबलकुल रकत न ु ई! तब
ॉँ आगे बडे और मन को समझाने लगे—मैं कैसा बौखल ू ँ
ह म्मत बॉिी,

अपने द्वार पर ककसका डर और सडक पर भी मझ


ु े ककसका डर ै ? मैं अपनी रा
जाता ू ँ। कोई मेरी तरफ नतरछन ऑ िंख से न ीिं दे ख सकता। ॉ,ॉँ जब मुझे सेंि
लगाते दे ख ले—न ीिं, पकड ले तब अलबत्ते डरने की बात ै । नतस पर भी बचाव
की युन्क्त ननकल सकती ै।

अकस्मात उद ोंने भानुकुँवरर के एक चपरासी को आते ु ए दे खा। कलेजा िडक


उठा। लपक कर एक अँिेरी गली में घुस गये। बडी दे र तक व ॉ ॉँ खडे र े । जब व
मसपा ी ऑ िंखों से ओझल ो गया, तब कफर सडक पर आये। व मसपा ी आज
सुब तक इनका गुलाम था, उसे उद ोंने ककतनी ी बार गामलयॉ ॉँ दी थीिं, लातें मारी
थीिं, पर आज उसे दे खकर उनके प्राण सख
ू गये।

उद ोंने कफर तकम की शरण ली। मैं मानों भिंग खाकर आया ू ँ। इस चपरासी से
इतना डरा मानो कक व मुझे दे ख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? जारों
आदमी रास्ता चल र े ैं। उद ीिं में मैं भी एक ू ँ। क्या व अिंतयाममी ै ? सबके
हृदय का ाल जानता ै ? मुझे दे खकर व अदब से सलाम करता और व ॉ ॉँ का कुछ
ाल भी क ता; पर मैं उससे ऐसा डरा कक सूरत तक न हदखायी। इस तर मन
को समझा कर वे आगे बढ़े । सच ै , पाप के पिंजों में फँसा ु आ मन पतझड का
पत्ता ै , जो वा के जरा-से झोंके से धगर पडता ै।

मुिंशी जी बाजार प ु ँच।े अधिकतर दक


ू ानें बिंद ो चुकी थीिं। उनमें सॉडॉँ और गायें
बैठन ु ईजुगाली कर र ी थी। केवल लवाइयों की दक
ू ानें खुली थी और क ीिं-क ीिं
ॉँ लगाते कफरते थे। सब
गजरे वाले ार की ॉक लवाई मुिंशी जी को प चानते थे,
अतएव मुिंशी जी ने मसर झुका मलया। कुछ चाल बदली और लपकते ु ए चले।
एकाएक उद ें एक बनघी आती हदखायी दी। य सेठ बल्लभदास सवकील की बनघी
थी। इसमें बैठकर जारों बार सेठ जी के साथ कच री गये थे , पर आज व बनघी
कालदे व के समान भयिंकर मालम
ू ु ई। फौरन एक खाली दक
ू ान पर चढ़ गये।
व ॉ ॉँ ववश्राम करने वाले सॉडॉँ ने समझा, वे मुझे पदच्युत करने आये ैं! माथा
झुकाये फुिंकारता ु आ उठ बैठा; पर इसी बीच में बनघी ननकल गयी और मुिंशी जी
की जान में जान आयी। अबकी उद ोंने तकम का आश्रय न मलया। समझ गये कक
इस समय इससे कोई लाभ न ीिं, खैररयत य ु ई कक वकील ने दे खा न ीिं। य
एक घाघ ैं। मेरे चे रे से ताड जाता।

कुछ ववद्वानों का कथन ै कक मनुष्य की स्वाभाववक प्रवन्ृ त्त पाप की ओर ोती


ै , पर य कोरा अनुमान ी अनुमान ै , अनुभव-मसद्ध बात न ीिं। सच बात तो य
ै कक मनष्ु य स्वभावत: पाप-भीरु ोता ै और म प्रत्यक्ष दे ख र े ैं कक पाप से
उसे कैसी घण
ृ ा ोती ै।

एक फलाांग आगे चल कर मुिंशी जी को एक गली ममली। व भानुकुँवरर के घर


का एक रास्ता था। िि
ुँ ली-सी लालटे न जल र ी थी। जैसा मश
िंु ी जी ने अनम
ु ान
ककया था, प रे दार का पता न था। अस्तबल में चमारों के य ॉ ॉँ नाच ो र ा था।
कई चमाररनें बनाव-मसिंगार करके नाच र ी थीिं। चमार मद
ृ िं ग बजा-बजा कर गाते
थे—

‘ना ीिं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।


सोवत र े उँ, सपन एक दे खेउँ, रामा।
खुमल गयी नीिंद, ढरक गये कजरा।
ना ीिं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।’

दोनों प रे दार व ी तमाशा दे ख र े थे। मुिंशी जी दबे-पॉवॉँ लालटे न के पास गए और


न्जस तर बबल्ली चू े पर झपटती ै , उसी तर उद ोंने झपट कर लालटे न को
बुझा हदया। एक पडाव पूरा ो गया, पर वे उस कायम को न्जतना दष्ु कर समझते थे,
उतना न जान पडा। हृदय कुछ मजबूत ु आ। दफ्तर के बरामदे में प ु ँ चे और खूब
कान लगाकर आ ट ली। चारों ओर सदनाटा छाया ु आ था। केवल चमारों का
कोला ल सन
ु ायी दे ता था। इस समय मिंश
ु ी जी के हदल में िडकन थी, पर मसर
िमिम कर र ा था; ाथ-पॉवॉँ कॉपॉँ र े थे, सॉस
ॉँ बडे वेग से चल र ी थी। शरीर

का एक-एक रोम ऑ िंख और कान बना ु आ था। वे सजीवता की मूनतम ो र े थे।


उनमें न्जतना पौरुष, न्जतनी चपलता, न्जतना-सा स, न्जतनी चेतना, न्जतनी बुद्वव,
न्जतना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत ोकर इच्छा-शन्क्त की
स ायता कर र े थे।

दफ्तर के दरवाजे पर व ी पुराना ताला लगा ु आ था। इसकी किंु जी आज ब ु त


तलाश करके वे बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, ककवाडो ने ब ु त दबी जबान
से प्रनतरोि ककया। इस पर ककसी ने ्यान न हदया। मुिंशी जी दफ्तर में दािखल

ु ए। भीतर धचराग जल र ा था। मिंश


ु ी जी को दे ख कर उसने एक दफे मसर
ह लाया, मानो उद ें भीतर आने से रोका।

मुिंशी जी के पैर थर-थर कॉपॉँ र े थे। एडडयॉ ॉँ जमीन से उछली पडती थीिं। पाप का
बोझ उद ें असह्य था।

पल-भर में मश
ुिं ी जी ने बह यों को उलटा-पलटा। मलखावट उनकी ऑ िंखों में तैर र ी
थी। इतना अवकाश क ॉ ॉँ था कक जरुरी कागजात छॉटॉँ लेत।े उद ोंनें सारी बह यों
को समेट कर एक गिर बनाया और मसर पर रख कर तीर के समान कमरे के
बा र ननकल आये। उस पाप की गठरी को लादे ुए व अँिेरी गली से गायब ो
गए।

तिंग, अँिेरी, दग
ु द
म िपण ॉँ स्वाथम, लोभ और
ू म कीचड से भरी ु ई गमलयों में वे निंगे पॉव,
कपट का बोझ मलए चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नामलयों में
ब ी चली जाती थी।

ब ु त दरू तक भटकने के बाद वे गिंगा ककनारे प ु ँच।े न्जस तर कलवु षत हृदयों में
क ीिं-क ीिं िमम का िुँिला प्रकाश र ता ै , उसी तर नदी की काली सत पर तारे
िझलममला र े थे। तट पर कई सािु िूनी जमाये पडे थे। ज्ञान की ज्वाला मन की
जग बा र द क र ी थी। मिंश
ु ी जी ने अपना गिर उतारा और चादर से खब

मजबत ॉँ कर बलपव
ू बॉि ू क
म नदी में फेंक हदया। सोती ु ई ल रों में कुछ लचल

ु ई और कफर सदनाटा ो गया।

ु ी सतयनाराणलाल के घर में दो न्स्त्रयॉ ॉँ थीिं—माता और पत्नी। वे दोनों


मिंश
अमशक्षक्षता थीिं। नतस पर भी मश
िंु ी जी को गिंगा में डूब मरने या क ीिं भाग जाने
की जरुरत न ोती थी ! न वे बॉडी प नती थी, न मोजे-जूते, न ारमोननयम पर
गा सकती थी। य ॉ ॉँ तक कक उद ें साबुन लगाना भी न आता था। े यरवपन,
ब्रुचज
े , जाकेट आहद परमावश्यक चीजों का तो नाम ी न ीिं सुना था। ब ू में
आत्म-सम्मान जरा भी न ीिं था; न सास में आत्म-गौरव का जोश। ब ू अब तक

ु ककयॉ ॉँ भीगी बबल्ली की तर


सास की घड स लेती थी— ा मख
ू े ! सास को बच्चे
ु ाने, य ॉ ॉँ तक कक घर में झाडू दे ने से भी घण
के न लाने-िल ृ ा न थी, ा ज्ञानािंिे! ब ू
ॉँ
स्त्री क्या थी, ममट्टी का लोंदा थी। एक पैसे की जरुरत ोती तो सास से मॉगती।
सारािंश य कक दोनों न्स्त्रयॉ ॉँ अपने अधिकारों से बेखबर, अिंिकार में पडी ु ई
पशुवत जीवन व्यतीत करती थीिं। ऐसी फू ड थी कक रोहटयािं भी अपने ाथों से बना
लेती थी। किंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीिं। आगरे वाले
की दक
ू ान की चीजें खायी ोती तो उनका मजा जानतीिं। बहु ढ़या खस
ू ट दवा-दरपन
भी जानती थी। बैठन-बैठन घास-पात कूटा करती।

मुिंशी जी ने मॉ ॉँ के पास जाकर क ा—अम्मॉ ॉँ ! अब क्या ोगा? भानुकुँवरर ने मुझे


जवाब दे हदया।

माता ने घबरा कर पूछा—जवाब दे हदया?

मुिंशी— ॉ,ॉँ बबलकुल बेकसूर!

माता—क्या बात ु ई? भानक


ु ँु वरर का ममजाज तो ऐसा न था।
ु ी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गॉवॉँ मलया था, उसे मैंने अपने
मिंश
अधिकार में कर मलया। कल मझ
ु से और उनसे साफ-साफ बातें ु ई। मैंने क
हदया कक गॉवॉँ मेरा ै । मैंने अपने नाम से मलया ै , उसमें तुम् ारा कोई इजारा न ीिं।
बस, बबगड गयीिं, जो मँु में आया, बकती र ीिं। उसी वक्त मुझे ननकाल हदया और
िमका कर क ा—मैं तुमसे लड कर अपना गॉवॉँ ले लँ ग
ू ी। अब आज ी उनकी
तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर ोगा; मगर इससे ोता क्या ै ? गॉवॉँ मेरा ै।
उस पर मेरा कब्जा ै । एक न ीिं, जार मक
ु दमें चलाएिं, डडगरी मेरी ोगी?

माता ने ब ू की तरफ ममाांतक दृन्ष्ट से दे खा और बोली—क्यों भैया? व गॉवॉँ


मलया तो था तुमने उद ीिं के रुपये से और उद ीिं के वास्ते?

मुिंशी—मलया था, तब मलया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉवॉँ न ीिं
छोडा जाता। व मेरा कुछ न ीिं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी न ीिं ले
सकती। डेढ़ सौ गॉवॉँ तो ैं। तब भी वस न ीिं मानती।

माना—बेटा, ककसी के िन ज्यादा ोता ै , तो व उसे फेंक थोडे ी दे ता ै ? तुमने


अपनी नीयत बबगाडी, य अच्छा काम न ीिं ककया। दनु नया तुम् ें क्या क े गी? और
दनु नया चा े क े या न क े , तुमको भला ऐसा करना चाह ए कक न्जसकी गोद में
इतने हदन पले, न्जसका इतने हदनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो?
नारायण ने तुम् ें क्या न ीिं हदया? मजे से खाते ो, प नते ो, घर में नारायण का
हदया चार पैसा ै , बाल-बच्चे ैं, और क्या चाह ए? मेरा क ना मानो, इस कलिंक का
टीका अपने माथे न लगाओ। य अपजस मत लो। बरक्कत अपनी कमाई में ोती
ै ; राम की कौडी कभी न ीिं फलती।

मुिंशी—ऊँ ! ऐसी बातें ब ु त सुन चुका ू ँ। दनु नया उन पर चलने लगे, तो सारे
काम बदद ो जायँ। मैंने इतने हदनों इनकी सेवा की, मेरी ी बदौलत ऐसे-ऐसे
ॉँ गॉवॉँ बढ़ गए। जब तक पिंडडत जी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑ िंख
चार-पॉच
में िूल डालने की जरुरत न थी, वे आप ी मेरी खानतर कर हदया करते थे। उद ें
मरे आठ साल ो गए; मगर मस
ु म्मात के एक बीडे पान की कसम खाता ू ँ ; मेरी
जात से उनको जारों रुपये-मामसक की बचत ोती थी। क्या उनको इतनी भी
समझ न थी कक य बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता ै , इस नफे
में कुछ उसे भी ममलना चाह ए? य क कर न दो, इनाम क कर दो, ककसी तर
दो तो, मगर वे तो समझती थी कक मैंने इसे बीस रुपये म ीने पर मोल ले मलया
ै । मैंने आठ साल तक सब ककया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता र ू ँ
और अपने बच्चों को दस
ू रों का मँु ताकने के मलए छोड जाऊँ? अब मुझे य
अवसर ममला ै । इसे क्यों छोडूँ? जमीिंदारी की लालसा मलये ु ए क्यों मरुँ ? जब
तक जीऊँगा, खद
ु खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उडायेंगे।

माता की ऑ िंखों में ऑ िंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम् ारे मँु से ऐसी बातें कभी
न ीिं सन
ु ी थीिं, तम्
ु ें क्या ो गया ै ? तम्
ु ारे आगे बाल-बच्चे ैं। आग में ाथ न
डालो।

ब ू ने सास की ओर दे ख कर क ा— मको ऐसा िन न चाह ए, म अपनी दाल-


रोटी में मगन ैं।

मुिंशी—अच्छन बात ै , तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा प नना, मुझे अब ल्वे-पूरी
की इच्छा ै।

माता—य अिमम मुझसे न दे खा जायगा। मैं गिंगा में डूब मरुँ गी।

पत्नी—तम्
ु ें य ॉँ बोना
सब कॉटा ै , तो मझ
ु े मायके प ु ँचा दो, मैं अपने बच्चों को
लेकर इस घर में न र ू ँगी!

मिंश
ु ी ने झँझ
ु ला कर क ा—तम
ु लोगों की बद् ॉँ खा गयी
ु वव तो भॉग ै । लाखों
सरकारी नौकर रात-हदन दस
ू रों का गला दबा-दबा कर ररश्वतें लेते ैं और चैन
करते ैं। न उनके बाल-बच्चों ी को कुछ ोता ै , न उद ीिं को ै जा पकडता ै ।
अिमम उनको क्यों न ीिं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवाहदयों
को सदा द:ु ख झेलते ी दे खा ै । मैंने जो कुछ ककया ै , सुख लूटूँगा। तुम् ारे मन
में जो आये, करो।

प्रात:काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुिंशी छक्कनलाल बौखलाये


से घर में गये और मालककन से पूछा—कागजात आपने उठवा मलए ैं।

भानुकुँवरर ने क ा—मुझे क्या खबर, ज ॉ ॉँ आपने रखे ोंगे, व ीिं ोंगे।

कफर सारे घर में खलबली पड गयी। प रे दारों पर मार पडने लगी। भानक
ु ँु वरर को
तुरदत मुिंशी सत्यनारायण पर सिंदे ु आ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की
स ायता के बबना य काम ोना असम्भव था। पुमलस में रपट ु ई। एक ओझा
नाम ननकालने के मलए बुलाया गया। मौलवी सा ब ने कुराम फेंका। ओझा ने
बताया, य ककसी पुराने बैरी का काम ै । मौलवी सा ब ने फरमाया, ककसी घर के
भेहदये ने य रकत की ै । शाम तक य दौड-िप
ू र ी। कफर य सला ोने
लगी कक इन कागजातों के बगैर मक
ु दमा कैसे चले। पक्ष तो प ले से ी ननबमल
था। जो कुछ बल था, व इसी ब ी-खाते का था। अब तो सबत
ू भी ाथ से गये।
दावे में कुछ जान ी न र ी, मगर भानकुँवरर ने क ा—बला से ार जाऍगेिं । मारी
चीज कोई छनन ले, तो मारा िमम ै कक उससे यथाशन्क्त लडें, ार कर बैठना
कायरों का काम ै । सेठ जी (वकील) को इस दघ
ु ट
म ना का समाचार ममला तो उद ोंने
भी य ी क ा कक अब दावे में जरा भी जान न ीिं ै । केवल अनम
ु ान और तकम का
भरोसा ै । अदालत ने माना तो माना, न ीिं तो ार माननी पडेगी। पर भानुकँु वरर
ने एक न मानी। लखनऊ और इला ाबाद से दो ोमशयार बैररन्स्टर बुलाये। मुकदमा
शुरु ो गया।

सारे श र में इस मुकदमें की िूम थी। ककतने ी रईसों को भानुकँु वरर ने साथी
बनाया था। मुकदमा शुरु ोने के समय जारों आदममयों की भीड ो जाती थी।
लोगों के इस िखिंचाव का मुख्य कारण य था कक भानुकुँवरर एक पदे की आड में
बैठन ु ई अदालत की कारवाई दे खा करती थी, क्योंकक उसे अब अपने नौकरों पर
जरा भी ववश्वास न था।
वादी बैररस्टर ने एक बडी मामममक वक्तत
ृ ा दी। उसने सत्यनाराण की पव
ू ामवस्था
का खब
ू अच्छा धचत्र खीिंचा। उसने हदखलाया कक वे कैसे स्वाममभक्त, कैसे कायम-
कुशल, कैसे कमम-शील थे; और स्वगमवासी पिंडडत भग
ृ ुदत्त का उस पर पूणम ववश्वास
ो जाना, ककस तर स्वाभाववक था। इसके बाद उसने मसद्ध ककया कक मुिंशी
सत्यनारायण की आधथमक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कक वे इतना िन-सिंचय करते।
अिंत में उसने मुिंशी जी की स्वाथमपरता, कूटनीनत, ननदम यता और ववश्वास-घातकता
का ऐसा घण ु ी जी को गोमलयॉ ॉँ दे ने लगे। इसके
ृ ोत्पादक धचत्र खीिंचा कक लोग मिंश
साथ ी उसने पिंडडत जी के अनाथ बालकों की दशा का बडा करणोत्पादक वणमन
ककया—कैसे शोक और लज्जा की बात ै कक ऐसा चररत्रवान, ऐसा नीनत-कुशल
मनुष्य इतना धगर जाय कक अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गदम न पर छुरी
चलाने पर सिंकोच न करे । मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-ववदारक
उदा रण ममलना कहठन ै । इस कुहटल कायम के पररणाम की दृन्ष्ट से इस मनुष्य
के पव
ू म पररधचत सदगण
ु ों का गौरव लप्ु त ो जाता ै । क्योंकक वे असली मोती न ीिं,
ॉँ के दाने थे, जो केवल ववश्वास जमाने के ननममत्त दशामये गये थे। व
नकली कॉच
केवल सुिंदर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल-छिं द से दरू र ने वाले रईस
को फँसाने के मलए फैलाया गया था। इस नर-पशु का अिंत:करण ककतना
अिंिकारमय, ककतना कपटपूणम, ककतना कठोर ै ; और इसकी दष्ु टता ककतनी घोर,
ककतनी अपावन ै । अपने शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य ै , मगर
इस ममलन हृदय मनष्ु य ने उन बेकसों के साथ दगा हदया ै , न्जन पर मानव-
स्वभाव के अनुसार दया करना उधचत ै ! यहद आज मारे पास ब ी-खाते मौजूद
ोते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट ो जाती, पर मुिंशी
जी के बरखास्त ोते ी दफ्तर से उनका लुप्त ो जाना भी अदालत के मलए
एक बडा सबूत ै।

श र में कई रईसों ने गवा ी दी, पर सुनी-सुनायी बातें न्जर में उखड गयीिं। दस
ू रे
हदन कफर मुकदमा पेश ु आ।

प्रनतवादी के वकील ने अपनी वक्तत


ृ ा शुरु की। उसमें गिंभीर ववचारों की अपेक्षा
ास्य का आधिक्य था—य एक ववलक्षण दयाय-मसद्धािंत ै कक ककसी िनाढ़य
मनष्ु य का नौकर जो कुछ खरीदे , व उसके स्वामी की चीज समझी जाय। इस
मसद्धािंत के अनुसार मारी गवनममेंट को अपने कममचाररयों की सारी सम्पन्त्त पर
कब्जा कर लेना चाह ए। य स्वीकार करने में मको कोई आपन्त्त न ीिं कक म
इतने रुपयों का प्रबिंि न कर सकते थे और य िन मने स्वामी ी से ऋण मलया;
पर मसे ऋण चुकाने का कोई तकाजा न करके व ॉँ जाती
जायदाद ी मॉगी ै।
यहद ह साब के कागजात हदखलाये जायँ, तो वे साफ बता दें गे कक मैं सारा ऋण दे
चक
ु ा। मारे ममत्र ने क ा कक ऐसी अवस्था में बह यों का गम
ु ो जाना भी
अदालत के मलये एक सबूत ोना चाह ए। मैं भी उनकी युन्क्त का समथमन करता

ू ँ। यहद मैं आपसे ऋण ले कर अपना वववा करुँ तो क्या मुझसे मेरी नव-वववाह त
विू को छनन लें गे?

‘ मारे सुयोग ममत्र ने मारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया ै ।
अगर मुिंशी सत्यनाराण की नीयत खराब ोती, तो उनके मलए सबसे अच्छा अवसर
व था जब पिंडडत भग
ृ ुदत्त का स्वगमवास ु आ था। इतने ववलम्ब की क्या जरुरत
थी? यहद आप शेर को फँसा कर उसके बच्चे को उसी वक्त न ीिं पकड लेत,े उसे
बढ़ने और सबल ोने का अवसर दे ते ैं, तो मैं आपको बद्
ु ववमान न क ू ँगा। यथाथम
बात य ै कक मुिंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ क था, व पूरा कर
हदया। आठ वषम तक तन-मन से स्वामी के सिंतान की सेवा की। आज उद ें
अपनी सािुता का जो फल ममल र ा ै, व ब ुत ी द:ु खजनक और हृदय-ववदारक
ै । इसमें भानुकुँवरर का दोष न ीिं। वे एक गुण-सम्पदन मह ला ैं; मगर अपनी
जानत के अवगुण उनमें भी ववद्यमान ैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पष्टभाषी
ोता ै ; उसे अपनी बातों में नमक-ममचम लगाने की जरुरत न ीिं ोती। य ी कारण
ै कक मुिंशी जी के मद
ृ भ
ु ाषी मात तों को उन पर आक्षेप करने का मौका ममल
गया। इस दावे की जड केवल इतनी ी ै , और कुछ न ीिं। भानुकुँवरर य ॉ ॉँ
उपन्स्थत ैं। क्या वे क सकती ैं कक इस आठ वषम की मुद्दत में कभी इस गॉवॉँ
का न्जक्र उनके सामने आया? कभी उसके ानन-लाभ, आय-व्यय, लेन-दे न की चचाम
उनसे की गयी? मान लीन्जए कक मैं गवनममेंट का मुलान्जम ू ँ। यहद मैं आज
दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने ट लओ
ु िं के टै क्सों का
पचडा गाने लगँू, तो शायद मझ
ु े शीघ्र ी अपने पद से पथ
ृ क ोना पडे, और सम्भव
ै , कुछ हदनों तक बरे ली की अनतधथशाला में भी रखा जाऊँ। न्जस गॉवॉँ से
भानुकुँवरर का सरोवार न था, उसकी चचाम उनसे क्यों की जाती?’

इसके बाद ब ु त से गवा पेश ु ए; न्जनमें अधिकािंश आस-पास के दे ातों के


जमीिंदार थे। उद ोंने बयान ककया कक मने मुिंशी सत्यनारायण असाममयों को
अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से खजाने में रुपया दािखल करते दे खा
ै।

इतने में सिं्या ो गयी। अदालत ने एक सप्ता में फैसला सुनाने का ु क्म
हदया।

सत्यनाराण को अब अपनी जीत में कोई सददे न था। वादी पक्ष के गवा भी
उखड गये थे और ब स भी सबत
ू से खाली थी। अब इनकी धगनती भी जमीिंदारों
में ोगी और सम्भव ै , य कुछ हदनों में रईस क लाने लगें गे। पर ककसी न ककसी
कारण से अब श र के गणमादय परु
ु षों से ऑ िंखें ममलाते शमामते थे। उद ें दे खते ी
उनका मसर नीचा ो जाता था। व मन में डरते थे कक वे लोग क ीिं इस ववषय
पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। व बाजार में ननकलते तो दक
ू ानदारों में कुछ
कानाफूसी ोने लगती और लोग उद ें नतरछन दृन्ष्ट से दे खने लगते। अब तक
लोग उद ें वववेकशील और सच्चररत्र मनुष्य समझते, श र के िनी-मानी उद ें
इज्जत की ननगा से दे खते और उनका बडा आदर करते थे। यद्यवप मिंश
ु ी जी
को अब तक इनसे टे ढ़ी-नतरछन सन
ु ने का सिंयोग न पडा था, तथावप उनका मन
क ता था कक सच्ची बात ककसी से नछपी न ीिं ै । चा े अदालत से उनकी जीत ो
जाय, पर उनकी साख अब जाती र ी। अब उद ें लोग स्वाथी, कपटी और दगाबाज
समझेंगे। दस
ू रों की बात तो अलग र ी, स्वयिं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे।
बढ़
ू ी माता ने तीन हदन से मँु में पानी न ीिं डाला! स्त्री बार-बार ाथ जोड कर
क ती थी कक अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बरु े काम का फल कभी अच्छा
न ीिं ोता! न ीिं तो प ले मुझी को ववष िखला दो।

ु ाया जानेवाला था, प्रात:काल एक किंु जडडन तरकाररयॉ ॉँ लेकर


न्जस हदन फैसला सन
आयी और मिंमु शयाइन से बोली—

‘ब ू जी! मने बाजार में एक बात सुनी ै । बुरा न मानों तो क ू ँ ? न्जसको दे खो,
उसके मँु से य ी बात ननकलती ै कक लाला बाबू ने जालसाजी से पिंडडताइन का
कोई लका ले मलया। में तो इस पर यकीन न ीिं आता। लाला बाबू ने न सँभाला
ोता, तो अब तक पिंडडताइन का क ीिं पता न लगता। एक अिंगुल जमीन न
बचती। इद ीिं में एक सरदार था कक सबको सँभाल मलया। तो क्या अब उद ीिं के
साथ बदी करें गे? अरे ब ू ! कोई कुछ साथ लाया ै कक ले जायगा? य ी नेक-बदी
र जाती ै । बुरे का फल बुरा ोता ै । आदमी न दे खे, पर अल्ला सब कुछ
दे खता ै ।’

ब ू जी पर घडों पानी पड गया। जी चा ता था कक िरती फट जाती, तो उसमें समा


जाती। न्स्त्रयॉ ॉँ स्वभावत: लज्जावती ोती ैं। उनमें आत्मामभमान की मात्रा अधिक
ोती ै । ननददा-अपमान उनसे स न न ीिं ो सकता ै । मसर झक
ु ाये ु ए बोली—
बुआ! मैं इन बातों को क्या जानँू? मैंने तो आज ी तुम् ारे मँु से सुनी ै । कौन-सी
तरकाररयॉ ॉँ ैं?

मिंश
ु ी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे ु ए किंु जडडन की बातें सन
ु र े थे, उसके
चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—य शैतान की खाला क्या क र ी
थी।

स्त्री ने पनत की ओर से मिंु फेर मलया और जमीन की ओर ताकते ु ए बोली—


क्या तुमने न ीिं सुना? तुम् ारा गुन-गान कर र ी थी। तुम् ारे पीछे दे खो, ककस-
ककसके मँु से ये बातें सुननी पडती ैं और ककस-ककससे मँु नछपाना पडता ै।
मुिंशी जी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर न ीिं हदया। आत्मा
लज्जा से परास्त ो गयी। जो मनुष्य सदै व सवम-सम्माननत र ा ो; जो सदा
आत्मामभमान से मसर उठा कर चलता र ा ो, न्जसकी सुकृनत की सारे श र में
चचाम ोती ो, व कभी सवमथा लज्जाशूदय न ीिं ो सकता; लज्जा कुपथ की सबसे
बडी शत्रु ै । कुवासनाओिं के भ्रम में पड कर मिंश
ु ी जी ने समझा था, मैं इस काम
को ऐसी गुप्त-रीनत से पूरा कर ले जाऊँगा कक ककसी को कानों-कान खबर न
ोगी, पर उनका य मनोरथ मसद्ध न ु आ। बािाऍ िं आ खडी ु ई। उनके टाने में
उद ें बडे दस्
ु सा स से काम लेना पडा; पर य भी उद ोंने लज्जा से बचने के
ननममत्त ककया। न्जसमें य कोई न क े कक अपनी स्वाममनी को िोखा हदया। इतना
यत्न करने पर भी ननिंदा से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवामलयॉ ॉँ भी अब
अपमान करतीिं ैं। कुवासनाओिं से दबी ु ई लज्जा-शन्क्त इस कडी चोट को स न
न कर सकी। मुिंशी जी सोचने लगे, अब मुझे िन-सम्पन्त्त ममल जायगी, ऐश्वयमवान
ो जाऊँगा, परदतु ननददा से मेरा पीछा न छूटे गा। अदालत का फैसला मुझे लोक-
ननददा से न बचा सकेगा। ऐश्वयम का फल क्या ै ?—मान और मयामदा। उससे ाथ
िो बैठा, तो ऐश्वयम को लेकर क्या करुँ गा? धचत्त की शन्क्त खोकर, लोक-लज्जा
स कर, जनसमद
ु ाय में नीच बन कर और अपने घर में कल का बीज बोकर य
सम्पन्त्त मेरे ककस काम आयेगी? और यहद वास्तव में कोई दयाय-शन्क्त ो और
व मुझे इस कुकृत्य का दिं ड दे , तो मेरे मलए मसवा मुख में कामलख लगा कर
ननकल जाने के और कोई मागम न र े गा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई ववपत्त पडती
ैं, तो लोग उनके साथ स ानुभूनत करते ैं। दष्ु टों की ववपन्त्त लोगों के मलए व्यिंनय
की सामग्री बन जाती ै । उस अवस्था में ईश्वर अदयायी ठ राया जाता ै ; मगर
दष्ु टों की ववपन्त्त ईश्वर के दयाय को मसद्ध करती ै । परमात्मन! इस दद
ु म शा से
ककसी तर मेरा उद्धार करो! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरर के पैरों पर धगर पडूँ और
ववनय करुँ कक य मुकदमा उठा लो? शोक! प ले य बात मुझे क्यों न सूझी?
अगर कल तक में उनके पास चला गया ोता, तो बात बन जाती; पर अब क्या ो
सकता ै । आज तो फैसला सुनाया जायगा।
मिंश
ु ी जी दे र तक इसी ववचार में पडे र े , पर कुछ ननश्चय न कर सके कक क्या
करें ।

भानुकुँवरर को भी ववश्वास ो गया कक अब गॉवॉँ ाथ से गया। बेचारी ाथ मल


कर र गयी। रात-भर उसे नीिंद न आयी, र -र कर मिंश
ु ी सत्यनारायण पर क्रोि
आता था। ाय पापी! ढोल बजा कर मेरा पचास जार का माल मलए जाता ै
और मैं कुछ न ीिं कर सकती। आजकल के दयाय करने वाले बबलकुल ऑ िंख के
अँिे ैं। न्जस बात को सारी दनु नया जानती ै , उसमें भी उनकी दृन्ष्ट न ीिं प ु ँचती।
बस, दस
ू रों को ऑ िंखों से दे खते ैं। कोरे कागजों के गुलाम ैं। दयाय व ै जो
दि
ू का दि
ू , पानी का पानी कर दे ; य न ीिं कक खुद ी कागजों के िोखे में आ
जाय, खद
ु ी पाखिंडडयों के जाल में फँस जाय। इसी से तो ऐसी छली, कपटी,
दगाबाज, और दरु ात्माओिं का सा स बढ़ गया ै । खैर, गॉवॉँ जाता ै तो जाय;
लेककन सत्यनारायण, तुम श र में क ीिं मँु हदखाने के लायक भी न र े ।

इस खयाल से भानक
ु ँु वरर को कुछ शान्दत ु ई। शत्रु की ानन मनष्ु य को अपने
लाभ से भी अधिक वप्रय ोती ै , मानव-स्वभाव ी कुछ ऐसा ै । तम
ु मारा एक
गॉवॉँ ले गये, नारायण चा ें गे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक
की आग में जलोगे, तुम् ारे घर में कोई हदया जलाने वाला न र जायगा।

फैसले का हदन आ गया। आज इजलास में बडी भीड थी। ऐसे -ऐसे म ानुभाव
उपन्स्थत थे, जो बगुलों की तर अफसरों की बिाई और बबदाई के अवसरों ी में
नजर आया करते ैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी जमा थी। ननयत समय
पर जज सा ब ने इजलास सुशोमभत ककया। ववस्तत
ृ दयाय भवन में सदनाटा छा
गया। अ लमद ने सिंदक
ू से तजबीज ननकाली। लोग उत्सुक ोकर एक-एक कदम
और आगे िखसक गए।

जज ने फैसला सुनाया—मुद्दई का दावा खाररज। दोनों पक्ष अपना-अपना खचम स


लें ।
यद्यवप फैसला लोगों के अनम
ु ान के अनस
ु ार ी था, तथावप जज के मँु से उसे
सन
ु कर लोगों में लचल-सी मच गयी। उदासीन भाव से फैसले पर आलोचनाऍ िं
करते ु ए लोग िीरे -िीरे कमरे से ननकलने लगे।

एकाएक भानक
ु ँु वरर घघ
ूँ ट ननकाले इजलास पर आ कर खडी ो गयी। जानेवाले
लौट पडे। जो बा र ननकल गये थे, दौड कर आ गये। और कौतू लपव
ू क
म भानक
ु ँु वरर
की तरफ ताकने लगे।

भानक
ु ँु वरर ने किंवपत स्वर में जज से क ा—सरकार, यहद ु क्म दें , तो मैं मिंश
ु ी जी
से कुछ पछ
ू ू ँ।

यद्यवप य बात ननयम के ववरुद्ध थी, तथावप जज ने दयापूवमक आज्ञा दे दी।

तब भानुकुँवरर ने सत्यनारायण की तरफ दे ख कर क ा—लाला जी, सरकार ने


तुम् ारी डडग्री तो कर ी दी। गॉवॉँ तुम् ें मुबारक र े ; मगर ईमान आदमी का सब
कुछ ै । ईमान से क दो, गॉवॉँ ककसका ै?

जारों आदमी य प्रश्न सुन कर कौतू ल से सत्यनारायण की तरफ दे खने लगे।


मुिंशी जी ववचार-सागर में डूब गये। हृदय में सिंकल्प और ववकल्प में घोर सिंग्राम
ोने लगा। जारों मनुष्यों की ऑ िंखें उनकी तरफ जमी ु ई थीिं। यथाथम बात अब
ककसी से नछपी न थी। इतने आदममयों के सामने असत्य बात मँु से ननकल न
सकी। लज्जा से जबान बिंद कर ली—‘मेरा’ क ने में काम बनता था। कोई बात न
थी; ककिं तु घोरतम पाप का दिं ड समाज दे सकता ै , उसके ममलने का पूरा भय था।
‘आपका’ क ने से काम बबगडता था। जीती-न्जतायी बाजी ाथ से ननकली जाती
थी, सवोत्कृष्ट काम के मलए समाज से जो इनाम ममल सकता ै , उसके ममलने की
पूरी आशा थी। आशा के भय को जीत मलया। उद ें ऐसा प्रतीत ु आ, जैसे ईश्वर ने
मझ
ु े अपना मख
ु उज्जवल करने का य अिंनतम अवसर हदया ै । मैं अब भी
मानव-सम्मान का पात्र बन सकता ू ँ। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता ू ँ।
ॉँ
उद ोंने आगे बढ़ कर भानुकुँवरर को प्रणाम ककया और कॉपते ु ए स्वर से बोले—
आपका!

जारों मनुष्यों के मँु से एक गगनस्पशी ्वनन ननकली—सत्य की जय!

जज ने खडे ोकर क ा—य कानून का दयाय न ीिं, ईश्वरीय दयाय ै ! इसे कथा न
समिझएगा; य सच्ची घटना ै । भानुकुँवरर और सत्य नारायण अब भी जीववत
ैं। मुिंशी जी के इस नैनतक सा स पर लोग मुगि ो गए। मानवीय दयाय पर
ईश्वरीय दयाय ने जो ववलक्षण ववजय पायी, उसकी चचाम श र भर में म ीनों र ी।
भानक
ु ँु वरर मिंश
ु ी जी के घर गयी, उद ें मना कर लायीिं। कफर अपना सारा कारोबार
उद ें सौंपा और कुछ हदनों उपरािंत य गॉवॉँ उद ीिं के नाम ह ब्बा कर हदया। मिंश
ु ी
जी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उधचत न समझा, कृष्णापमण कर हदया। अब
इसकी आमदनी दीन-दिु खयों और ववद्याधथमयों की स ायता में खचम ोती ै।

***
ममता

बाबू रामरक्षादास हदल्ली के एक ऐश्वयमशाली खत्री थे, ब ु त ी ठाठ-बाट से


र नेवाले। बडे-बडे अमीर उनके य ॉ ॉँ ननत्य आते-आते थे। वे आयें ु ओिं का आदर-
सत्कार ऐसे अच्छे ढिं ग से करते थे कक इस बात की िूम सारे मु ल्ले में थी।
ननत्य उनके दरवाजे पर ककसी न ककसी ब ाने से इष्ट-ममत्र एकत्र ो जाते, टे ननस
खेलते, ताश उडता, ारमोननयम के मिरु स्वरों से जी ब लाते, चाय-पानी से हृदय
प्रफुन्ल्लत करते, अधिक और क्या चाह ए? जानत की ऐसी अमूल्य सेवा कोई छोटी
बात न ीिं ै । नीची जानतयों के सुिार के मलये हदल्ली में एक सोसायटी थी। बाबू
सा ब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कायम को असािारण उत्सा से पूणम करते थे।
जब उनका बूढ़ा क ार बीमार ु आ और कक्रन्श्चयन ममशन के डाक्टरों ने उसकी
सश्र
ु षु ा की, जब उसकी वविवा स्त्री ने ननवाम की कोई आशा न दे ख कर
कक्रन्श्चयन-समाज का आश्रय मलया, तब इन दोनों अवसरों पर बाबू सा ब ने शोक
के रे जल्यूशदस पास ककये। सिंसार जानता ै कक सेक्रेटरी का काम सभाऍ िं करना
और रे जल्यूशन बनाना ै । इससे अधिक व कुछ न ीिं कर सकता।

ममस्टर रामरक्षा का जातीय उत्सा य ी तक सीमाबद्ध न था। वे सामान्जक


कुप्रथाओिं तथा अिंि-ववश्वास के प्रबल शत्रु थे। ोली के हदनों में जब कक मु ल्ले
में चमार और क ार शराब से मतवाले ोकर फाग गाते और डफ बजाते ु ए
ननकलते, तो उद ें , बडा शोक ोता। जानत की इस मूखत
म ा पर उनकी ऑ िंखों में ऑ िंसू
भर आते और वे प्रात: इस कुरीनत का ननवारण अपने िं टर से ककया करते। उनके
िं टर में जानत-ह तैवषता की उमिंग उनकी वक्तत
ृ ा से भी अधिक थी। य उद ीिं के
प्रशिंसनीय प्रयत्न थे, न्जद ोंने मख्
ु य ोली के हदन हदल्ली में लचल मचा दी,
फाग गाने के अपराि में जारों आदमी पुमलस के पिंजे में आ गये। सैकडों घरों में
मुख्य ोली के हदन मु रम म का-सा शोक फैल गया। इिर उनके दरवाजे पर जारों
पुरुष-न्स्त्रयॉ ॉँ अपना दख
ु डा रो र ी थीिं। उिर बाबू सा ब के ह तैषी ममत्रगण अपने
उदारशील ममत्र के सद्व्यव ार की प्रशिंसा करते। बाबू सा ब हदन-भर में इतने रिं ग
बदलते थे कक उस पर ‘पेररस’ की पररयों को भी ईष्याम ो सकती थी। कई बैंकों
में उनके ह स्से थे। कई दक
ु ानें थीिं; ककिं तु बाबू सा ब को इतना अवकाश न था कक
उनकी कुछ दे खभाल करते। अनतधथ-सत्कार एक पववत्र िमम ै । ये सच्ची
दे शह तैवषता की उमिंग से क ा करते थे—अनतधथ-सत्कार आहदकाल से भारतवषम के
ननवामसयों का एक प्रिान और सरा नीय गुण ै । अभ्यागतों का आदर-सम्मान
करनें में म अद्ववतीय ैं। म इससे सिंसार में मनुष्य क लाने योनय ैं। म
सब कुछ खो बैठे ैं, ककदतु न्जस हदन ममें य गुण शेष न र े गा; व हदन ह द
िं -ू
जानत के मलए लज्जा, अपमान और मत्ृ यु का हदन ोगा।

ममस्टर रामरक्षा जातीय आवश्यकताओिं से भी बेपरवा न थे। वे सामान्जक और


म पेण योग दे ते थे। य ॉ ॉँ तक कक प्रनतवषम दो, बन्ल्क
राजनीनतक कायो में पूणरु
कभी-कभी तीन वक्तत
ृ ाऍ िंअवश्य तैयार कर लेत।े भाषणों की भाषा अत्यिंत
उपयक्
ु त, ओजस्वी और सवाांग सिंद
ु र ोती थी। उपन्स्थत जन और इष्टममत्र उनके
एक-एक शब्द पर प्रशिंसासूचक शब्दों की ्वनन प्रकट करते, तामलयॉ ॉँ बजाते, य ॉ ॉँ
तक कक बाबू सा ब को व्याख्यान का क्रम न्स्थर रखना कहठन ो जाता।
व्याख्यान समाप्त ोने पर उनके ममत्र उद ें गोद में उठा लेते और आश्चयमचककत
ोकर क ते—तेरी भाषा में जाद ू ै ! सारािंश य कक बाबू सा ब के य जातीय प्रेम
और उद्योग केवल बनावटी, स ायता-शूदय तथा फैशनेबबल था। यहद उद ोंने ककसी
सदद्
ु योग में भाग मलया था, तो व सन्म्ममलत कुटुम्ब का ववरोि था। अपने वपता
के पश्चात वे अपनी वविवा मॉ ॉँ से अलग ो गए थे। इस जातीय सेवा में उनकी
स्त्री ववशेष स ायक थी। वविवा मॉ ॉँ अपने बेटे और ब ू के साथ न ीिं र सकती
थी। इससे ब ू की सवािीनता में ववघ्न पडने से मन दब
ु ल
म और मन्स्तष्क
शन्क्त ीन ो जाता ै । ब ू को जलाना और कुढ़ाना सास की आदत ै । इसमलए
बाबू रामरक्षा अपनी मॉ ॉँ से अलग ो गये थे। इसमें सिंदे न ीिं कक उद ोंने मात-ृ
ऋण का ववचार करके दस जार रुपये अपनी मॉ ॉँ के नाम जमा कर हदये थे, कक
उसके ब्याज से उनका ननवाम ोता र े ; ककिं तु बेटे के इस उत्तम आचरण पर मॉ ॉँ
का हदल ऐसा टूटा कक व हदल्ली छोडकर अयो्या जा र ीिं। तब से व ीिं र ती ैं।
बाबू सा ब कभी-कभी ममसेज रामरक्षा से नछपकर उससे ममलने अयो्या जाया
करते थे, ककिं तु व हदल्ली आने का कभी नाम न लेतीिं। ॉ,ॉँ यहद कुशल-क्षेम की
धचिी प ु ँचने में कुछ दे र ो जाती, तो वववश ोकर समाचार पछ
ू दे ती थीिं।

उसी मु ल्ले में एक सेठ धगरिारी लाल र ते थे। उनका लाखों का लेन-दे न था।
वे ीरे और रत्नों का व्यापार करते थे। बाबू रामरक्षा के दरू के नाते में साढ़ू ोते
थे। परु ाने ढिं ग के आदमी थे—प्रात:काल यमन
ु ा-स्नान करनेवाले तथा गाय को
अपने ाथों से झाडने-पोंछनेवाले! उनसे ममस्टर रामरक्षा का स्वभाव न ममलता था;
परदतु जब कभी रुपयों की आवश्यकता ोती, तो वे सेठ धगरिारी लाल के य ॉ ॉँ से
बेखटके मँगा मलया करते थे। आपस का मामला था, केवल चार अिंगुल के पत्र पर
रुपया ममल जाता था, न कोई दस्तावेज, न स्टाम्प, न साक्षक्षयों की आवश्यकता।
मोटरकार के मलए दस जार की आवश्यकता ु ई, व व ॉ ॉँ से आया। घुडदौड के
मलए एक आस्रे मलयन घोडा डेढ़ जार में मलया गया। उसके मलए भी रुपया सेठ जी
के य ॉ ॉँ से आया। िीरे -िीरे कोई बीस जार का मामला ो गया। सेठ जी सरल
हृदय के आदमी थे। समझते थे कक उसके पास दक
ु ानें ैं, बैंकों में रुपया ै । जब
जी चा े गा, रुपया वसूल कर लेंगे; ककदतु जब दो-तीन वषम व्यतीत ो गये और सेठ
ॉँ
जी तकाजों की अपेक्षा ममस्टर रामरक्षा की मॉग ी का अधिक्य र ा तो धगरिारी
लाल को सददे ु आ। व एक हदन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव
से बोले—भाई सा ब, मझ
ु े एक ु ण्डी का रुपया दे ना ै , यहद आप मेरा ह साब कर
दें तो ब ु त अच्छा ो। य क कर ह साब के कागजात और उनके पत्र हदखलायें।
ममस्टर रामरक्षा ककसी गाडमन-पाटी में सन्म्ममलत ोने के मलए तैयार थे। बोले—इस
समय क्षमा कीन्जए; कफर दे ख लँ ग
ू ा, जल्दी क्या ै?

धगरिारी लाल को बाबू सा ब की रुखाई पर क्रोि आ गया, वे रुष्ट ोकर बोले—


आपको जल्दी न ीिं ै , मुझे तो ै ! दो सौ रुपये मामसक की मेरी ानन ो र ी ै!
ममस्टर के असिंतोष प्रकट करते ु ए घडी दे खी। पाटी का समय ब ु त करीब था। वे
ब ु त ववनीत भाव से बोले—भाई सा ब, मैं बडी जल्दी में ू ँ। इस समय मेरे ऊपर
कृपा कीन्जए। मैं कल स्वयिं उपन्स्थत ू ँगा।
सेठ जी एक माननीय और िन-सम्पदन आदमी थे। वे रामरक्षा के कुरुधचपण
ू म
व्यव ार पर जल गए। मैं इनका म ाजन ू ँ —इनसे िन में , मान में , ऐश्वयम में , बढ़ा

ु आ, चा ू ँ तो ऐसों को नौकर रख लँ ,ू इनके दरवाजें पर आऊँ और आदर-सत्कार की


जग उलटे ऐसा रुखा बतामव? व ॉँ मेरे सामने न खडा र े ; ककदतु क्या मैं
ाथ बॉिे
पान, इलायची, इत्र आहद से भी सम्मान करने के योनय न ीिं? वे नतनक कर
बोले—अच्छा, तो कल ह साब साफ ो जाय।

रामरक्षा ने अकड कर उत्तर हदया— ो जायगा।

रामरक्षा के गौरवशाल हृदय पर सेठ जी के इस बतामव के प्रभाव का कुछ खेद-


जनक असर न ु आ। इस काठ के कुददे ने आज मेरी प्रनतष्ठा िूल में ममला दी।
व मेरा अपमान कर गया। अच्छा, तुम भी इसी हदल्ली में र ते ो और म भी
ॉँ पड गयी। बाबू सा ब की तबीयत ऐसी धगरी और
य ी ैं। ननदान दोनों में गॉठ
हृदय में ऐसी धचदता उत्पदन ु ई कक पाटी में आने का ्यान जाता र ा, वे दे र तक
इसी उलझन में पडे र े । कफर सट
ू उतार हदया और सेवक से बोले—जा, मन
ु ीम
जी को बल
ु ा ला। मन
ु ीम जी आये, उनका ह साब दे खा गया, कफर बैंकों का एकाउिं ट
दे खा; ककदतु ज्यों-ज्यों इस घाटी में उतरते गये , त्यों-त्यों अँिेरा बढ़ता गया। ब ु त
कुछ टटोला, कुछ ाथ न आया। अदत में ननराश ोकर वे आराम-कुसी पर पड
ॉँ ले ली। दक
गए और उद ोंने एक ठिं डी सॉस ु ानों का माल बबका; ककदतु रुपया बकाया
में पडा ु आ था। कई ग्रा कों की दक
ु ानें टूट गयी। और उन पर जो नकद रुपया
बकाया था, व डूब गया। कलकत्ते के आढ़नतयों से जो माल मँगाया था, रुपये
चुकाने की नतधथ मसर पर आ प ु ँची और य ॉ ॉँ रुपया वसूल न ु आ। दक
ु ानों का
य ाल, बैंकों का इससे भी बुरा। रात-भर वे इद ीिं धचिंताओिं में करवटें बदलते र े ।
अब क्या करना चाह ए? धगरिारी लाल सज्जन पुरुष ैं। यहद सारा ाल उसे सुना
दँ ,ू तो अवश्य मान जायगा, ककदतु य कष्टप्रद कायम ोगा कैसे? ज्यों-ज्यों प्रात:काल
समीप आता था, त्यों-त्यों उनका हदल बैठा जाता था। कच्चे ववद्याथी की जो दशा
परीक्षा के सन्दनकट आने पर ोती ै, य ी ाल इस समय रामरक्षा का था। वे
पलिंग से न उठे । मँु - ाथ भी न िोया, खाने को कौन क े । इतना जानते थे कक
द:ु ख पडने पर कोई ककसी का साथी न ीिं ोता। इसमलए एक आपन्त्त से बचने
के मलए कई आपन्त्तयों का बोझा न उठाना पडे, इस खयाल से ममत्रों को इन
मामलों की खबर तक न दी। जब दोप र ो गया और उनकी दशा ज्यों की त्यों
र ी, तो उनका छोटा लडका बुलाने आया। उसने बाप का ाथ पकड कर क ा—
लाला जी, आज दाने क्यों न ीिं तलते?

रामरक्षा—भूख न ीिं ै।

‘क्या काया ै ?’

‘मन की ममठाई।’

‘और क्या काया ै ?’

‘मार।’

‘ककसने मारा ै ?’

‘धगरिारीलाल ने।’

लडका रोता ु आ घर में गया और इस मार की चोट से दे र तक रोता र ा।


अदत में तश्तरी में रखी ु ई दि
ू की मलाई ने उसकी चोट पर मर म का काम
ककया।

रोगी को जब जीने की आशा न ीिं र ती, तो औषधि छोड दे ता ै । ममस्टर


रामरक्षा जब इस गत्ु थी को न सल
ु झा सके, तो चादर तान ली और मँु लपेट कर
सो र े । शाम को एकाएक उठ कर सेठ जी के य ॉ ॉँ प ु ँ चे और कुछ असाविानी से
बोले—म ाशय, मैं आपका ह साब न ीिं कर सकता।
सेठ जी घबरा कर बोले—क्यों?

रामरक्षा—इसमलए कक मैं इस समय दररद्र-नन िं ग ू ँ। मेरे पास एक कौडी भी न ीिं


ै । आप का रुपया जैसे चा ें वसूल कर लें ।

सेठ—य आप कैसी बातें क ते ैं?

रामरक्षा—ब ु त सच्ची।

सेठ—दक
ु ानें न ीिं ैं?

रामरक्षा—दक
ु ानें आप मुफ्त लो जाइए।

सेठ—बैंक के ह स्से ?

रामरक्षा—व कब के उड गये।

सेठ—जब य ाल था, तो आपको उधचत न ीिं था कक मेरे गले पर छुरी फेरते?

रामरक्षा—(अमभमान) मैं आपके य ॉ ॉँ उपदे श सन


ु ने के मलए न ीिं आया ू ँ।

य क कर ममस्टर रामरक्षा व ॉ ॉँ से चल हदए। सेठ जी ने तुरदत नामलश कर दी।


बीस जार मल ॉँ
ू , पॉच जार ब्याज। डडगरी ो गयी। मकान नीलाम पर चढ़ा। पदद्र
ॉँ
जार की जायदाद पॉच जार में ननकल गयी। दस जार की मोटर चार जार में
बबकी। सारी सम्पन्त्त उड जाने पर कुल ममला कर सोल जार से अधिक रमक
न खडी ो सकी। सारी ग ृ स्थी नष्ट ो गयी, तब भी दस जार के ऋणी र
गये। मान-बडाई, िन-दौलत सभी ममट्टी में ममल गये। ब ु त तेज दौडने वाला मनुष्य
प्राय: मँु के बल धगर पडता ै।

4
इस घटना के कुछ हदनों पश्चात हदल्ली म्युननमसपैमलटी के मेम्बरों का चुनाव
आरम्भ ु आ। इस पद के अमभलाषी वोटरों की सजाऍ िं करने लगे। दलालों के भानय
उदय ु ए। सम्मनतयॉ ॉँ मोनतयों की तोल बबकने लगीिं। उम्मीदवार मेम्बरों के स ायक
अपने-अपने मव
ु न्क्कल के गण
ु गान करने लगे। चारों ओर च ल-प ल मच गयी।
एक वकील म ाशय ने भरी सभा में मव
ु न्क्कल सा ब के ववषय में क ा—

‘मैं न्जस बुजरुग का पैरोकार ू ँ , व कोई मामूली आदमी न ीिं ै। य व शख्स


ै , न्जसने फरजिंद अकबर की शादी में पचीस जार रुपया मसफम रक्स व सरुर में
सफम कर हदया था।’

उपन्स्थत जनों में प्रशिंसा की उच्च ्वनन ु ई

एक दस
ू रे म ाशय ने अपने मु ल्ले के वोटरों के सम्मुख मुवन्क्कल की प्रशिंसा यों
की—

“मैं य न ीिं क सकता कक आप सेठ धगरिारीलाल को अपना मेम्बर बनाइए।


आप अपना भला-बुरा स्वयिं समझते ैं, और य भी न ीिं कक सेठ जी मेरे द्वारा
अपनी प्रशिंसा के भूखें ों। मेरा ननवेदन केवल य ी ै कक आप न्जसे मेम्बर बनायें,
ॉँ पररचय ले लें । हदल्ली में केवल एक मनुष्य
प ले उसके गुण-दोषों का भली भॉनत
ै , जो गत वषो से आपकी सेवा कर र ा ै । केवल एक आदमी ै , न्जसने पानी
प ु ँचाने और स्वच्छता-प्रबिंिों में ाहदम क िमम-भाव से स ायता दी ै । केवल एक
पुरुष ै , न्जसको श्रीमान वायसराय के दरबार में कुसी पर बैठने का अधिकार प्राप्त
ै , और आप सब म ाशय उसे जानते भी ैं।”

उपन्स्थत जनों ने तामलयॉ ॉँ बजायीिं।

सेठ धगरिारीलाल के मु ल्ले में उनके एक प्रनतवादी थे। नाम था मुिंशी

ु र मान खॉ।ॉँ बडे जमीिंदार और प्रमसद्ध वकील थे। बाबू रामरक्षा ने अपनी
फैजल
दृढ़ता, सा स, बद्
ु ववमत्ता और मद
ृ ु भाषण से मिंश
ु ी जी सा ब की सेवा करनी
आरम्भ की। सेठ जी को परास्त करने का य अपव
ू म अवसर ाथ आया। वे रात
और हदन इसी िुन में लगे र ते। उनकी मीठन और रोचक बातों का प्रभाव
उपन्स्थत जनों पर ब ु त अच्छा पडता। एक बार आपने असािारण श्रद्धा-उमिंग में
आ कर क ा—मैं डिंके की चोट पर क ता ू ँ कक मुिंशी फैजुल र मान से अधिक
योनय आदमी आपको हदल्ली में न ममल सकेगा। य व आदमी ै , न्जसकी
गजलों पर कववजनों में ‘वा -वा ’ मच जाती ै । ऐसे श्रेष्ठ आदमी की स ायता
करना मैं अपना जातीय और सामान्जक िमम समझता ू ँ। अत्यिंत शोक का ववषय
ै कक ब ु त-से लोग इस जातीय और पववत्र काम को व्यन्क्तगत लाभ का सािन
बनाते ैं; िन और वस्तु ै , श्रीमान वायसराय के दरबार में प्रनतन्ष्ठत ोना और
वस्तु, ककिं तु सामान्जक सेवा तथा जातीय चाकरी और ी चीज ै। व मनुष्य,
न्जसका जीवन ब्याज-प्रान्प्त, बेईमानी, कठोरता तथा ननदम यता और सुख-ववलास में
व्यतीत ोता ो, इस सेवा के योनय कदावप न ीिं ै।

सेठ धगरिारीलाल इस अदयोन्क्तपण


ू म भाषण का ाल सन
ु कर क्रोि से आग ो
गए। मैं बेईमान ू ँ! ब्याज का िन खानेवाला ू ँ! ववषयी ू ँ! कुशल ु ई, जो तुमने
मेरा नाम न ीिं मलया; ककिं तु अब भी तुम मेरे ाथ में ो। मैं अब भी तुम् ें न्जस
तर चा ू ँ , नचा सकता ू ँ। खुशामहदयों ने आग पर तेल डाला। इिर रामरक्षा अपने
काम में तत्पर र े । य ॉ ॉँ तक कक ‘वोहटिंग-डे’ आ प ु ँचा। ममस्टर रामरक्षा को उद्योग
में ब ु त कुछ सफलता प्राप्त ु ई थी। आज वे ब ु त प्रसदन थे। आज धगरिारीलाल को
नीचा हदखाऊँगा, आज उसको जान पडेगा कक िन सिंसार के सभी पदाथो को इकिा
न ीिं कर सकता। न्जस समय फैजुलर मान के वोट अधिक ननकलें गे और मैं
तामलयॉ ॉँ बजाऊँगा, उस समय धगरिारीलाल का चे रा दे खने योनय ोगा, मँु का
रिं ग बदल जायगा, वाइयॉ ॉँ उडने लगेगी, ऑ िंखें न ममला सकेगा। शायद, कफर मुझे
मँु न हदखा सके। इद ीिं ववचारों में मनन रामरक्षा शाम को टाउन ाल में प ु ँच।े
उपन्स्थत जनों ने बडी उमिंग के साथ उनका स्वागत ककया। थोडी दे र के बाद
‘वोहटिंग’ आरम्भ ु आ। मेम्बरी ममलने की आशा रखनेवाले म ानभ
ु ाव अपने-अपने
भानय का अिंनतम फल सन
ु ने के मलए आतरु ो र े थे। छ बजे चेयरमैन ने
फैसला सुनाया। सेठ जी की ार ो गयी। फैजुलर मान ने मैदान मार मलया।
रामरक्षा ने षम के आवेग में टोपी वा में उछाल दी और स्वयिं भी कई बार उछल
पडे। मु ल्लेवालों को अचम्भा ु आ। चॉदनी चौक से सेठ जी को टाना मेरु को
स्थान से उखाडना था। सेठ जी के चे रे से रामरक्षा को न्जतनी आशाऍ िं थीिं , वे
सब परू ी ो गयीिं। उनका रिं ग फीका पड गया था। खेद और लज्जा की मनू तम बने

ु ए थे। एक वकील सा ब ने उनसे स ानभ


ु नू त प्रकट करते ु ए क ा—सेठ जी, मझ
ु े
आपकी ार का ब ु त बडा शोक ै । मैं जानता कक खुशी के बदले रिं ज ोगा, तो
कभी य ॉ ॉँ न आता। मैं तो केवल आपके ख्याल से य ॉ ॉँ आया था। सेठ जी ने ब ु त
रोकना चा ा, परिं तु ऑ िंखों में ऑ िंसू डबडबा ी गये। वे नन:स्प ृ बनाने का व्यथम
प्रयत्न करके बोले—वकील सा ब, मझ
ु े इसकी कुछ धचिंता न ीिं, कौन ररयासत
ननकल गयी? व्यथम उलझन, धचिंता तथा झिंझट र ती थी, चलो, अच्छा ु आ। गला
छूटा। अपने काम में रज ोता था। सत्य क ता ू ँ , मुझे तो हृदय से प्रसदनता ी

ु ई। य काम तो बेकाम वालों के मलए ै , घर न बैठे र े , य ी बेगार की। मेरी


मूखत
म ा थी कक मैं इतने हदनों तक ऑ िंखें बिंद ककये बैठा र ा। परिं तु सेठ जी की
मुखाकृनत ने इन ववचारों का प्रमाण न हदया। मुखमिंडल हृदय का दपमण ै , इसका
ननश्चय अलबत्ता ो गया।

ककिं तु बाबू रामरक्षा ब ु त दे र तक इस आनदद का मजा न लूटने पाये और न


सेठ जी को बदला लेने के मलए ब ु त दे र तक प्रतीक्षा करनी पडी। सभा ववसन्जमत
ोते ी जब बाबू रामरक्षा सफलता की उमिंग में ऐिंठतें , मोंछ पर ताव दे ते और चारों
ओर गवम की दृन्ष्ट डालते ु ए बा र आये, तो दीवानी की तीन मसपाह यों ने आगे
बढ़ कर उद ें धगरफ्तारी का वारिं ट हदखा हदया। अबकी बाबू रामरक्षा के चे रे का
रिं ग उतर जाने की, और सेठ जी के इस मनोवािंनछत दृश्य से आनदद उठाने की
बारी थी। धगरिारीलाल ने आनदद की उमिंग में तामलयॉ ॉँ तो न बजायीिं, परिं तु
मुस्करा कर मँु फेर मलया। रिं ग में भिंग पड गया।
आज इस ववषय के उपलक्ष्य में मिंश
ु ी फैजल
ु र मान ने प ले ी से एक बडे समारो
के साथ गाडमन पाटी की तैयाररयॉ िं की थीिं। ममस्टर रामरक्षा इसके प्रबिंिकत्ताम थे।
आज की ‘आफ्टर डडनर’ स्पीच उद ोंने बडे पररश्रम से तैयार की थी; ककिं तु इस वारिं ट
ने सारी कामनाओिं का सत्यानाश कर हदया। यों तो बाबू सा ब के ममत्रों में ऐसा
कोई भी न था, जो दस जार रुपये जमानत दे दे ता; अदा कर दे ने का तो न्जक्र ी
कया; ककिं तु कदाधचत ऐसा ोता भी तो सेठ जी अपने को भानय ीन समझते। दस
जार रुपये और म्यनु नस्पैमलटी की प्रनतन्ष्ठत मेम्बरी खोकर इद ें इस समय य
षम ु आ था।

ममस्टर रामरक्षा के घर पर ज्यों ी य खबर प ु ँ ची, कु राम मच गया। उनकी


स्त्री पछाड खा कर पथ्
ृ वी पर धगर पडी। जब कुछ ोश में आयी तो रोने लगी।
और रोने से छुट्टी ममली तो उसने धगरिारीलाल को कोसना आरम्भ ककया। दे वी-
दे वता मनाने लगी। उद ें ररश्वतें दे ने पर तैयार ु ई कक ये धगरिारीलाल को ककसी
प्रकार ननगल जायँ। इस बडे भारी काम में व ॉँ
गिंगा और यमुना से स ायता मॉग
र ी थी, प्लेग और ववसूधचका की खुशामदें कर र ी थी कक ये दोनों ममल कर उस
धगरिारीलाल को डप ले जायँ! ककिं तु धगरिारी का कोई दोष न ीिं। दोष तुम् ारा
ै । ब ु त अच्छा ु आ! तम
ु इसी पज
ू ा के दे वता थे। क्या अब दावतें न िखलाओगे?
मैंने तुम् ें ककतना समझया, रोयी, रुठन, बबगडी; ककदतु तुमने एक न सुनी।
धगरिारीलाल ने ब ु त अच्छा ककया। तुम् ें मशक्षा तो ममल गयी; ककदतु तुम् ारा भी
दोष न ीिं। य सब आग मैंने ी लगायी। मखमली स्लीपरों के बबना मेरे पॉवॉँ ी
न ीिं उठते थे। बबना जडाऊ कडों के मुझे नीिंद न आती थी। सेजगाडी मेरे ी मलए
मँगवायी थी। अिंगरे जी पढ़ने के मलए मेम सा ब को मैंने ी रखा। ये सब कॉटेॉँ
मैंने ी बोये ैं।

ममसेज रामरक्षा ब ु त दे र तक इद ीिं ववचारों में डूबी र ी। जब रात भर करवटें


बदलने के बाद व सबेरे उठन, तो उसके ववचार चारों ओर से ठोकर खा कर केवल
एक केदद्र पर जम गये। धगरिारीलाल बडा बदमाश और घमिंडी ै । मेरा सब कुछ ले
कर भी उसे सिंतोष न ीिं ु आ। इतना भी इस ननदम यी कसाई से न दे खा गया।
मभदन-मभदन प्रकार के ववचारों ने ममल कर एक रुप िारण ककया और क्रोिान्नन को
द ला कर प्रबल कर हदया। ज्वालामख
ु ी शीशे में जब सय
ू म की ककरणें एक ोती ैं,
तब अन्नन प्रकट ो जाती ैं। स्त्री के हृदय में र -र कर क्रोि की एक असािारण
ल र उत्पदन ोती थी। बच्चे ने ममठाई के मलए ठ ककया; उस पर बरस पडीिं;
म री ने चौका-बरतन करके चूल् ें में आग जला दी, उसके पीछे पड गयी—मैं तो
अपने द:ु खों को रो र ी ू ँ, इस चुडल
ै को रोहटयों की िुन सवार ै । ननदान नौ बजे
उससे न र ा गया। उसने य पत्र मलख कर अपने हृदय की ज्वाला ठिं डी की—

‘सेठ जी, तुम् ें अब अपने िन के घमिंड ने अिंिा कर हदया ै , ककदतु ककसी का


घमिंड इसी तर सदा न ीिं र सकता। कभी न कभी मसर अवश्य नीचा ोता ै।
अफसोस कक कल शाम को, जब तम
ु ने मेरे प्यारे पनत को पकडवाया ै , मैं व ॉ ॉँ
मौजद
ू न थी; न ीिं तो अपना और तम्
ु ारा रक्त एक कर दे ती। तम
ु िन के मद में
भूले ु ए ो। मैं उसी दम तुम् ारा नशा उतार दे ती! एक स्त्री के ाथों अपमाननत ो
कर तुम कफर ककसी को मँु हदखाने लायक न र ते। अच्छा, इसका बदला तुम् ें
ककसी न ककसी तर जरुर ममल जायगा। मेरा कलेजा उस हदन ठिं डा ोगा, जब
तुम ननवांश ो जाओगे और तुम् ारे कुल का नाम ममट जायगा।

सेठ जी पर य फटकार पडी तो वे क्रोि से आग ो गये। यद्यवप क्षु द्र हृदय


मनुष्य न थे, परिं तु क्रोि के आवेग में सौजदय का धचह्न भी शेष न ीिं र ता। य
्यान न र ा कक य एक द:ु िखनी की क्रिंदन-्वनन ै , एक सतायी ु ई स्त्री की
मानमसक दब
ु ल
म ता का ववचार ै । उसकी िन- ीनता और वववशता पर उद ें तननक
भी दया न आयी। मरे ु ए को मारने का उपाय सोचने लगे।

इसके तीसरे हदन सेठ धगरिारीलाल पूजा के आसन पर बैठे ु ए थे, म रा ने


आकर क ा—सरकार, कोई स्त्री आप से ममलने आयी ै । सेठ जी ने पूछा—कौन
स्त्री ै ? म रा ने क ा—सरकार, मुझे क्या मालूम? लेककन ै कोई भलेमानुस! रे शमी
साडी प ने ु ए ाथ में सोने के कडे ैं। पैरों में टाट के स्लीपर ैं। बडे घर की स्त्री
जान पडती ैं।

यों सािारणत: सेठ जी पूजा के समय ककसी से न ीिं ममलते थे। चा े कैसा ी
आवश्यक काम क्यों न ो, ईश्वरोपासना में सामान्जक बािाओिं को घस
ु ने न ीिं दे ते
थे। ककदतु ऐसी दशा में जब कक ककसी बडे घर की स्त्री ममलने के मलए आये, तो
थोडी दे र के मलए पूजा में ववलम्ब करना ननिंदनीय न ीिं क ा जा सकता, ऐसा
ववचार करके वे नौकर से बोले—उद ें बुला लाओिं

जब व स्त्री आयी तो सेठ जी स्वागत के मलए उठ कर खडे ो गये। तत्पश्चात


अत्यिंत कोमल वचनों के कारुिणक शब्दों से बोले—माता, क ॉ ॉँ से आना ु आ? और
जब य उत्तर ममला कक व अयो्या से आयी ै , तो आपने उसे कफर से दिं डवत
ककया और चीनी तथा ममश्री से भी अधिक मिुर और नवनीत से भी अधिक
धचकने शब्दों में क ा—अच्छा, आप श्री अयो्या जी से आ र ी ैं? उस नगरी का
क्या क ना! दे वताओिं की पुरी ैं। बडे भानय थे कक आपके दशमन ु ए। य ॉ ॉँ आपका
आगमन कैसे ु आ? स्त्री ने उत्तर हदया—घर तो मेरा य ीिं ै । सेठ जी का मख

पुन: मिुरता का धचत्र बना। वे बोले—अच्छा, तो मकान आपका इसी श र में ै ?
तो आपने माया-जिंजाल को त्याग हदया? य तो मैं प ले ी समझ गया था। ऐसी
पववत्र आत्माऍ िं सिंसार में ब ु त थोडी ैं। ऐसी दे ववयों के दशमन दल
ु भ
म ोते ैं। आपने
मुझे दशमन हदया, बडी कृपा की। मैं इस योनय न ीिं, जो आप-जैसी ववदवु षयों की
कुछ सेवा कर सकँू ? ककिं तु जो काम मेरे योनय ो—जो कुछ मेरे ककए ो सकता
ॉँ से तैयार ू ँ। य ॉ ॉँ सेठ-सा ू कारों ने मुझे ब ु त
ो—उसे करने के मलए मैं सब भॉनत
बदनाम कर रखा ै , मैं सबकी ऑ िंखों में खटकता ू ँ। उसका कारण मसवा इसके
और कुछ न ीिं कक ज ॉ ॉँ वे लोग लाभ का ्यान रखते ैं , व ॉ ॉँ मैं भलाई पर रखता

ू ँ। यहद कोई बडी अवस्था का वद्ध


ृ मनुष्य मुझसे कुछ क ने-सुनने के मलए आता
ै , तो ववश्वास मानों, मुझसे उसका वचन टाला न ीिं जाता। कुछ बुढ़ापे का ववचार;
कुछ उसके हदल टूट जाने का डर; कुछ य ख्याल कक क ीिं य ववश्वासघानतयों के
फिंदे में न फिंस जाय, मुझे उसकी इच्छाओिं की पूनतम के मलए वववश कर दे ता ै।
मेरा य मसद्धादत ै कक अच्छन जायदाद और कम ब्याज। ककिं तु इस प्रकार बातें
आपके सामने करना व्यथम ै । आप से तो घर का मामला ै । मेरे योनय जो कुछ
काम ो, उसके मलए मैं मसर ऑ िंखों से तैयार ू ँ।

वद्ध
ृ स्त्री—मेरा काम आप ी से ो सकता ै।

सेठ जी—(प्रसदन ो कर) ब ु त अच्छा; आज्ञा दो।

स्त्री—मैं आपके सामने मभखाररन बन कर आयी ू ँ। आपको छोडकर कोई मेरा


सवाल पूरा न ीिं कर सकता।

सेठ जी—कह ए, कह ए।

स्त्री—आप रामरक्षा को छोड दीन्जए।

सेठ जी के मुख का रिं ग उतर गया। सारे वाई ककले जो अभी-अभी तैयार ु ए
थे, धगर पडे। वे बोले—उसने मेरी ब ु त ानन की ै । उसका घमिंड तोड डालँ ग
ू ा, तब
छोडूँगा।

स्त्री—तो क्या कुछ मेरे बुढ़ापे का, मेरे ाथ फैलाने का, कुछ अपनी बडाई का ववचार
न करोगे? बेटा, ममता बुरी ोती ै । सिंसार से नाता टूट जाय; िन जाय; िमम जाय,
ककिं तु लडके का स्ने हृदय से न ीिं जाता। सिंतोष सब कुछ कर सकता ै । ककिं तु
बेटे का प्रेम मॉ ॉँ के हृदय से न ीिं ननकल सकता। इस पर ाककम का, राजा का,
य ॉ ॉँ तक कक ईश्वर का भी बस न ीिं ै । तम
ु मझ
ु पर तरस खाओ। मेरे लडके की
जान छोड दो, तुम् ें बडा यश ममलेगा। मैं जब तक जीऊँगी, तुम् ें आशीवामद दे ती
र ू ँगी।

सेठ जी का हृदय कुछ पसीजा। पत्थर की त में पानी र ता ै ; ककिं तु तत्काल ी


उद ें ममसेस रामरक्षा के पत्र का ्यान आ गया। वे बोले —मुझे रामरक्षा से कोई
उतनी शत्रुता न ीिं थी, यहद उद ोंने मुझे न छे डा ोता, तो मैं न बोलता। आपके
क ने से मैं अब भी उनका अपराि क्षमा कर सकता ू ँ! परदतु उसकी बीबी
सा बा ने जो पत्र मेरे पास भेजा ै , उसे दे खकर शरीर में आग लग जाती ै । हदखाउँ
आपको! रामरक्षा की मॉ ॉँ ने पत्र ले कर पढ़ा तो उनकी ऑ िंखों में ऑ िंसू भर आये। वे
बोलीिं—बेटा, उस स्त्री ने मुझे ब ु त द:ु ख हदया ै । उसने मुझे दे श से ननकाल
हदया। उसका ममजाज और जबान उसके वश में न ीिं; ककिं तु इस समय उसने जो
गवम हदखाया ै ; उसका तुम् ें ख्याल न ीिं करना चाह ए। तुम इसे भुला दो। तुम् ारा
दे श-दे श में नाम ै। य नेकी तम्
ु ारे नाक को और भी फैला दे गी। मैं तम
ु से प्रण
करती ू ँ कक सारा समाचार रामरक्षा से मलखवा कर ककसी अच्छे समाचार-पत्र में
छपवा दँ ग
ू ी। रामरक्षा मेरा क ना न ीिं टालेगा। तुम् ारे इस उपकार को व कभी न
भूलेगा। न्जस समय ये समाचार सिंवादपत्रों में छपें गे, उस समय जारों मनुष्यों को
तुम् ारे दशमन की अमभलाषा ोगी। सरकार में तुम् ारी बडाई ोगी और मैं सच्चे
हृदय से क ती ू ँ कक शीघ्र ी तुम् ें कोई न कोई पदवी ममल जायगी। रामरक्षा
की अँगरे जों से ब ु त ममत्रता ै , वे उसकी बात कभी न टालें गे।

सेठ जी के हृदय में गुदगुदी पैदा ो गयी। यहद इस व्यव ार में व पववत्र और
माननीय स्थान प्राप्त ो जाय—न्जसके मलए जारों खचम ककये, जारों डामलयॉ ॉँ दीिं,
जारों अनन ु ामदें कीिं, खानसामों की िझडककयॉ ॉँ स ीिं, बँगलों
ु य-ववनय कीिं, जारों खश
के चक्कर लगाये —तो इस सफलता के मलए ऐसे कई जार मैं खचम कर सकता ू ँ।
नन:सिंदे मुझे इस काम में रामरक्षा से ब ु त कुछ स ायता ममल सकती ै ; ककिं तु
इन ववचारों को प्रकट करने से क्या लाभ? उद ोंने क ा—माता, मुझे नाम-नमूद की
ब ु त चा न ीिं ैं। बडों ने क ा ै —नेकी कर दररयािं में डाल। मुझे तो आपकी
बात का ख्याल ै । पदवी ममले तो लेने से इनकार न ीिं; न ममले तो तष्ृ णा न ीिं,
परिं तु य तो बताइए कक मेरे रुपयों का क्या प्रबिंि ोगा? आपको मालम
ू ोगा कक
मेरे दस जार रुपये आते ैं।

रामरक्षा की मॉ ॉँ ने क ा—तुम् ारे रुपये की जमानत में करती ू ँ। य दे खों, बिंगाल-


बैंक की पास बक
ु ै । उसमें मेरा दस जार रुपया जमा ै । उस रुपये से तम

रामरक्षा को कोई व्यवसाय करा दो। तुम उस दक
ु ान के मामलक र ोगे, रामरक्षा
को उसका मैनेजर बना दे ना। जब तक तम्
ु ारे क े पर चले , ननभाना; न ीिं तो
दक
ू ान तम्
ु ारी ै । मझ
ु े उसमें से कुछ न ीिं चाह ए। मेरी खोज-खबर लेनेवाला ईश्वर
ै । रामरक्षा अच्छन तर र े , इससे अधिक मुझे और न चाह ए। य क कर पास-
बुक सेठ जी को दे दी। मॉ ॉँ के इस अथा प्रेम ने सेठ जी को ववह्वल कर हदया।
पानी उबल पडा, और पत्थर के नीचे ढँ क गया। ऐसे पववत्र दृश्य दे खने के मलए
जीवन में कम अवसर ममलते ैं। सेठ जी के हृदय में परोपकार की एक ल र-सी
ॉँ
उठन; उनकी ऑ िंखें डबडबा आयीिं। न्जस प्रकार पानी के ब ाव से कभी-कभी बॉि
टूट जाता ॉँ को
ै ; उसी प्रकार परोपकार की इस उमिंग ने स्वाथम और माया के बॉि
तोड हदया। वे पास-बुक वद्ध
ृ स्त्री को वापस दे कर बोले—माता, य अपनी ककताब
लो। मुझे अब अधिक लन्ज्जत न करो। य दे खो, रामरक्षा का नाम ब ी से उडा
दे ता ू ँ। मुझे कुछ न ीिं चाह ए, मैंने अपना सब कुछ पा मलया। आज तुम् ारा
रामरक्षा तुम को ममल जायगा।

इस घटना के दो वषम उपरािंत टाउन ाल में कफर एक बडा जलसा ु आ। बैंड बज


र ा था, झिंडडयॉ ॉँ और ्वजाऍ िं वायु-मिंडल में ल रा र ी थीिं। नगर के सभी माननीय
पुरुष उपन्स्थत थे। लैंडो, कफटन और मोटरों से सारा ाता भरा ु आ था। एकाएक
मश्ु ती घोडों की एक कफटन ने ाते में प्रवेश ककया। सेठ धगरिारीलाल ब ु मल्
ू य वस्त्रों
से सजे ु ए उसमें से उतरे । उनके साथ एक फैशनेबुल नवयुवक अिंग्रेजी सूट प ने
मुस्कराता ु आ उतरा। ये ममस्टर रामरक्षा थे। वे अब सेठ जी की एक खास
दक
ु ान का मैनेजर ैं। केवल मैनेजर ी न ीिं, ककिं तु उद ें मैंनेन्जिंग प्रोप्राइटर
समझना चाह ए। हदल्ली-दरबार में सेठ जी को राब ादरु का पद ममला ै । आज
डडन्स्रक्ट मैन्जस्रे ट ननयमानुसार इसकी घोषणा करें गे और सूधचत करें गे कक नगर
के माननीय परु
ु षों की ओर से सेठ जी को िदयवाद दे ने के मलए बैठक ु ई ै।
सेठ जी की ओर से िदयवाद का वक्तव्य रामरक्षा करें गे। न्जल लोगों ने उनकी
वक्तत
ृ ाऍ िं सुनी ैं, वे ब ु त उत्सुकता से उस अवसर की प्रतीक्षा कर र े ैं।

बैठक समाप्त ोने पर सेठ जी रामरक्षा के साथ अपने भवन पर प ु ँचे, तो


मालूम ु आ कक आज व ी वद्ध
ृ ा उनसे कफर ममलने आयी ै । सेठ जी दौडकर
रामरक्षा की मॉ ॉँ के चरणों से मलपट गये। उनका हृदय इस समय नदी की भॉनत
ॉँ

उमडा ु आ था।

‘रामरक्षा ऐिंड िेडस’ नामक चीनी बनाने का कारखाना ब ु त उदननत पर ैं। रामरक्षा
अब भी उसी ठाट-बाट से जीवन व्यतीत कर र े ैं ; ककिं तु पाहटम यॉ ॉँ कम दे ते ैं और
हदन-भर में तीन से अधिक सूट न ीिं बदलते। वे अब उस पत्र को, जो उनकी स्त्री
ने सेठ जी को मलखा था, सिंसार की एक ब ु त अमूल्य वस्तु समझते ैं और
ममसेज रामरक्षा को भी अब सेठ जी के नाम को ममटाने की अधिक चा न ीिं ै।
क्योंकक अभी ाल में जब लडका पैदा ु आ था, ममसेज रामरक्षा ने अपना सुवणम-
ॉँ थी।
किंकण िाय को उप ार हदया था मनों ममठाई बॉटी

य सब ो गया; ककिं तु व बात, जो अब ोनी चाह ए थी, न ु ई। रामरक्षा की मॉ ॉँ


अब भी अयो्या में र ती ैं और अपनी पुत्रविू की सूरत न ीिं दे खना चा तीिं।

***
मंत्र (2)

सिं्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के मलए तैयार ो र े थे। मोटर
द्वार के सामने खडी थी कक दो क ार एक डोली मलये आते हदखायी हदये। डोली
के पीछे एक बूढ़ा लाठन टे कता चला आता था। डोली औषािालय के सामने आकर
रक गयी। बढ़ ॉँ
ू े ने िीरे -िीरे आकर द्वार पर पडी ु ई धचक से झॉका। ऐसी साफ-
सथ
ु री जमीन पर पैर रखते ु ए भय ो र ा था कक कोई घड
ु क न बैठे। डाक्टर
सा ब को खडे दे ख कर भी उसे कुछ क ने का सा स न ु आ।

डाक्टर सा ब ने धचक के अिंदर से गरज कर क ा—कौन ै ? क्या चा ता ै?

डाक्टर सा ब ने ाथ जोडकर क ा— ु जूर बडा गरीब आदमी ू ँ। मेरा लडका कई


हदन से.......

डाक्टर सा ब ने मसगार जला कर क ा—कल सबेरे आओ, कल सबेरे, म इस


वक्त मरीजों को न ीिं दे खते।

बूढ़े ने घुटने टे क कर जमीन पर मसर रख हदया और बोला—द ु ाई ै सरकार की,


लडका मर जायगा! ु जूर, चार हदन से ऑ िंखें न ीिं.......

डाक्टर चड्ढा ने कलाई पर नजर डाली। केवल दस ममनट समय और बाकी था।
गोल्फ-न्स्टक खूट
ँ ी से उतारने ु ए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; य मारे
खेलने का समय ै।

बढ़
ू े ने पगडी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला— ू जरु , एक ननगा
दे ख लें । बस, एक ननगा ! लडका ाथ से चला जायगा ु जूर, सात लडकों में य ी
एक बच र ा ै , ु जूर। म दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती
ोय, दीनबिंिु!

ऐसे उजडड दे ाती य ॉ ॉँ प्राय: रोज आया करते थे। डाक्टर सा ब उनके स्वभाव से
खब
ू पररधचत थे। कोई ककतना ी कुछ क े ; पर वे अपनी ी रट लगाते जायँगे।
ककसी की सन
ु ेंगे न ीिं। िीरे से धचक उठाई और बा र ननकल कर मोटर की तरफ
चले। बूढ़ा य क ता ु आ उनके पीछे दौडा—सरकार, बडा िरम ोगा। ु जूर, दया
कीन्जए, बडा दीन-दख
ु ी ू ँ; सिंसार में कोई और न ीिं ै , बाबू जी!

मगर डाक्टर सा ब ने उसकी ओर मँु फेर कर दे खा तक न ीिं। मोटर पर बैठ कर


बोले—कल सबेरे आना।

ॉँ ननश्चल खडा र ा। सिंसार में


मोटर चली गयी। बूढ़ा कई ममनट तक मनू तम की भॉनत
ऐसे मनष्ु य भी ोते ैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे ककसी की जान की भी
परवा न ीिं करते, शायद इसका उसे अब भी ववश्वास न आता था। सभ्य सिंसार
इतना ननममम, इतना कठोर ै , इसका ऐसा मममभेदी अनुभव अब तक न ु आ था।
व उन पुराने जमाने की जीवों में था, जो लगी ु ई आग को बुझाने, मुदे को किंिा
दे ने, ककसी के छप्पर को उठाने और ककसी कल को शािंत करने के मलए सदै व
तैयार र ते थे। जब तक बढ़
ू े को मोटर हदखायी दी, व खडा टकटकी लागाये उस
ओर ताकता र ा। शायद उसे अब भी डाक्टर सा ब के लौट आने की आशा थी।
कफर उसने क ारों से डोली उठाने को क ा। डोली न्जिर से आयी थी, उिर ी चली
गयी। चारों ओर से ननराश ो कर व डाक्टर चड्ढा के पास आया था। इनकी बडी
तारीफ सुनी थी। य ॉ ॉँ से ननराश ो कर कफर व ककसी दस
ू रे डाक्टर के पास न
गया। ककस्मत ठोक ली!

उसी रात उसका ँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त
ॉँ
करके इस सिंसार से मसिार गया। बूढ़े मॉ-बाप के जीवन का य ी एक आिार था।
इसी का मँु दे ख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ी जीवन की अँिेरी रात
ॉँ
भॉय-भॉ ॉँ करने लगी। बढ़
य ु ापे की ववशाल ममता टूटे ु ए हृदय से ननकल कर
अिंिकार आत्तम-स्वर से रोने लगी।

2
कई साल गज
ु र गये। डाक्टर चडढा ने खब
ू यश और िन कमाया; लेककन इसके
साथ ी अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक सािारण बात थी। य उनके
ननयममत जीवन का आशीवाद था कक पचास वषम की अवस्था में उनकी चुस्ती और
फुती युवकों को भी लन्ज्जत करती थी। उनके रएक काम का समय ननयत था,
इस ननयम से व जौ-भर भी न टलते थे। ब ु िा लोग स्वास्थ्य के ननयमों का
पालन उस समय करते ैं, जब रोगी ो जाते ें । डाक्टर चड्ढा उपचार और सिंयम
का र स्य खब
ू समझते थे। उनकी सिंतान-सिं्या भी इसी ननयम के अिीन थी।
उनके केवल दो बच्चे ु ए, एक लडका और एक लडकी। तीसरी सिंतान न ु ई,
इसीमलए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम ोती थीिं। लडकी का तो वववा ो
चुका था। लडका कालेज में पढ़ता था। व ी माता-वपता के जीवन का आिार था।
शील और ववनय का पुतला, बडा ी रमसक, बडा ी उदार, ववद्यालय का गौरव,
युवक-समाज की शोभा। मुखमिंडल से तेज की छटा-सी ननकलती थी। आज उसकी
बीसवीिं सालधगर थी।

सिं्या का समय था। री- री घास पर कुमसमयॉ ॉँ बबछन ु ई थी। श र के रईस और

ु क्काम एक तरफ, कालेज के छात्र दस


ू री तरफ बैठे भोजन कर र े थे। बबजली के
प्रकाश से सारा मैदान जगमगा र ा था। आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।
छोटा-सा प्र सन खेलने की तैयारी थी। प्र सन स्वयिं कैलाशनाथ ने मलखा था। व ी
ॉँ
मुख्य एक्टर भी था। इस समय व एक रे शमी कमीज प ने, निंगे मसर, निंगे पॉव,
इिर से उिर ममत्रों की आव भगत में लगा ु आ था। कोई पुकारता—कैलाश, जरा इिर
आना; कोई उिर से बुलाता—कैलाश, क्या उिर ी र ोगे? सभी उसे छोडते थे, चु लें
करते थे, बेचारे को जरा दम मारने का अवकाश न ममलता था। स सा एक रमणी
ने उसके पास आकर पछ ु ारे सॉपॉँ क ॉ ॉँ ैं? जरा मझ
ू ा—क्यों कैलाश, तम् ु े हदखा
दो।

कैलाश ने उससे ाथ ममला कर क ा—मण


ृ ामलनी, इस वक्त क्षमा करो, कल हदखा
ू ॉ।ॉँ
दग
मण
ृ ामलनी ने आग्र ककया—जी न ीिं, तम्
ु ें हदखाना पडेगा, मै आज न ीिं मानने
की। तम
ु रोज ‘कल-कल’ करते ो।

मण
ृ ामलनी और कैलाश दोनों स पाठन थे ओर एक-दस
ू रे के प्रेम में पगे ु ए।
ॉँ के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तर -तर
कैलाश को सॉपों के सॉपॉँ
पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चररत्र की परीक्षा करता र ता था। थोडे हदन ु ए,
ॉँ पर एक माके का व्याख्यान हदया था। सॉपों
उसने ववद्यालय में ‘सॉपों’ ॉँ को नचा

कर हदखाया भी था! प्रािणशास्त्र के बडे-बडे पिंडडत भी य व्याख्यान सुन कर दिं ग


र गये थे! य ववद्या उसने एक बडे सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जडी-बूहटयॉ ॉँ
जमा करने का उसे मरज था। इतना पता भर ममल जाय कक ककसी व्यन्क्त के
पास कोई अच्छन जडी ै , कफर उसे चैन न आता था। उसे लेकर ी छोडता था। य ी
व्यसन था। इस पर जारों रपये फँू क चक
ु ा था। मण
ृ ामलनी कई बार आ चक
ु ी थी;
ॉँ को दे खने के मलए इतनी उत्सुक न ु ई थी। क
पर कभी सॉपों न ीिं सकते, आज
उसकी उत्सुकता सचमुच जाग गयी थी, या व कैलाश पर उपने अधिकार का
प्रदशमन करना चा ती थी; पर उसका आग्र बेमौका था। उस कोठरी में ककतनी
भीड लग जायगी, भीड को दे ख कर सॉपॉँ ककतने चौकेंगें और रात के समय उद ें
छे डा जाना ककतना बरु ा लगेगा, इन बातों का उसे जरा भी ्यान न आया।

कैलाश ने क ा—न ीिं, कल जरर हदखा दँ ग


ू ा। इस वक्त अच्छन तर हदखा भी तो
न सकूँगा, कमरे में नतल रखने को भी जग न ममलेगी।

एक म ाशय ने छे ड कर क ा—हदखा क्यों न ीिं दे ते, जरा-सी बात के मलए इतना


टाल-मटोल कर र े ो? ममस गोवविंद, धगमज न मानना। दे खें कैसे न ीिं हदखाते!

दस
ू रे म ाशय ने और रद्दा चढ़ाया—ममस गोवविंद इतनी सीिी और भोली ैं , तभी
आप इतना ममजाज करते ैं ; दस
ू रे सुिंदरी ोती, तो इसी बात पर बबगड खडी ोती।

तीसरे सा ब ने मजाक उडाया—अजी बोलना छोड दे ती। भला, कोई बात ै ! इस


पर आपका दावा ै कक मण
ृ ामलनी के मलए जान ान्जर ै।
मण
ृ ामलनी ने दे खा कक ये शो दे उसे रिं ग पर चढ़ा र े ैं, तो बोली—आप लोग मेरी
वकालत न करें , मैं खुद अपनी वकालत कर लँ ग ॉँ का तमाशा
ू ी। मैं इस वक्त सॉपों
न ीिं दे खना चा ती। चलो, छुट्टी ु ई।

इस पर ममत्रों ने ठट्टा लगाया। एक सा ब बोले—दे खना तो आप सब कुछ चा ें ,


पर हदखाये भी तो?

कैलाश को मण
ृ ामलनी की झेंपी ु ई सूरत को दे खकर मालूम ु आ कक इस वक्त
उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा ै । ज्यों ी प्रीनत-भोज समाप्त ु आ और
गाना शुर ु आ, उसने मण ॉँ के दरबे के सामने ले
ृ ामलनी और अदय ममत्रों को सॉपों
जाकर म ु अर बजाना शुर ककया। कफर एक-एक खाना खोलकर एक-एक सॉपॉँ को
ननकालने लगा। वा ! क्या कमाल था! ऐसा जान पडता था कक वे कीडे उसकी एक-
एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते ैं। ककसी को उठा मलया, ककसी
को गरदन में डाल मलया, ककसी को ाथ में लपेट मलया। मण
ृ ामलनी बार-बार मना
करती कक इद ें गदम न में न डालों, दरू ी से हदखा दो। बस, जरा नचा दो। कैलाश
ॉँ को मलपटते दे ख कर उसकी जान ननकली जाती थी। पछता
की गरदन में सॉपों
र ी थी कक मैंने व्यथम ी इनसे सॉपॉँ हदखाने को क ा; मगर कैलाश एक न सुनता
था। प्रेममका के सम्मख
ु अपने सपम-कला-प्रदशमन का ऐसा अवसर पाकर व कब
ॉँ तोड डाले
चूकता! एक ममत्र ने टीका की—दॉत ोंगे।

कैलाश ॉँ तोड डालना मदाररयों का काम


ँसकर बोला—दॉत ॉँ न ीिं
ै । ककसी के दॉत
तोड गये। कह ए तो हदखा दँ ?ू क कर उसने एक काले सॉपॉँ को पकड मलया और
बोला—‘मेरे पास इससे बडा और ज रीला सॉपॉँ दस
ू रा न ीिं ै , अगर ककसी को काट
ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय। ल र भी न आये। इसके काटे पर मदत्र
ॉँ हदखा दँ ?ू ’
न ीिं। इसके दॉत

मण
ृ ामलनी ने उसका ाथ पकडकर क ा—न ीिं-न ीिं, कैलाश, ईश्वर के मलए इसे छोड
दो। तुम् ारे पैरों पडती ू ँ।
इस पर एक-दस
ू रे ममत्र बोले—मुझे तो ववश्वास न ीिं आता, लेककन तुम क ते ो,
तो मान लँ ग
ू ा।

कैलाश ने सॉपॉँ की गरदन पकडकर क ा—न ीिं सा ब, आप ऑ िंखों से दे ख कर


ॉँ तोडकर वश में ककया, तो क्या। सॉपॉँ बडा समझदार
माननए। दॉत ोता ैं! अगर
उसे ववश्वास ो जाय कक इस आदमी से मुझे कोई ानन न प ु ँचग
े ी, तो व उसे
धगमज न काटे गा।

मण
ृ ामलनी ने जब दे खा कक कैलाश पर इस वक्त भूत सवार ै , तो उसने य
तमाशा न करने के ववचार से क ा—अच्छा भाई, अब य ॉ ॉँ से चलो। दे खा, गाना
शुर ो गया ै । आज मैं भी कोई चीज सुनाऊँगी। य क ते ु ए उसने कैलाश का
किंिा पकड कर चलने का इशारा ककया और कमरे से ननकल गयी; मगर कैलाश
ववरोधियों का शिंका-समािान करके ी दम लेना चा ता था। उसने सॉपॉँ की गरदन
पकड कर जोर से दबायी, इतनी जोर से इबायी कक उसका मँु लाल ो गया, दे
की सारी नसें तन गयीिं। सॉपॉँ ने अब तक उसके ाथों ऐसा व्यव ार न दे खा था।
उसकी समझ में न आता था कक य मुझसे क्या चा ते ें । उसे शायद भ्रम ु आ
कक मुझे मार डालना चा ते ैं, अतएव व आत्मरक्षा के मलए तैयार ो गया।

कैलाश ने उसकी गदम न खूब दबा कर मँु ॉँ


खोल हदया और उसके ज रीले दॉत
हदखाते ु ए बोला—न्जन सज्जनों को शक ो, आकर दे ख लें । आया ववश्वास या
अब भी कुछ शक ॉँ दे खें और चककत
ै ? ममत्रों ने आकर उसके दॉत ो गये। प्रत्यक्ष
प्रमाण के सामने सददे को स्थान क ॉ।ॉँ ममत्रों का शिंका-ननवारण करके कैलाश ने
सॉपॉँ की गदम न ढीली कर दी और उसे जमीन पर रखना चा ा, पर व काला
गे ू ँवन क्रोि से पागल ो र ा था। गदम न नरम पडते ी उसने मसर उठा कर कैलाश
की उँ गली में जोर से काटा और व ॉ ॉँ से भागा। कैलाश की ऊँगली से टप-टप खून
टपकने लगा। उसने जोर से उँ गली दबा ली और उपने कमरे की तरफ दौडा। व ॉ ॉँ
मेज की दराज में एक जडी रखी ु ई थी, न्जसे पीस कर लगा दे ने से घतक ववष भी
रफू ो जाता था। ममत्रों में लचल पड गई। बा र म कफल में भी खबर ु ई। डाक्टर
ॉँ गयी और जडी पीसने
सा ब घबरा कर दौडे। फौरन उँ गली की जड कस कर बॉिी
के मलए दी गयी। डाक्टर सा ब जडी के कायल न थे। व उँ गली का डसा भाग
नश्तर से काट दे ना चा ते, मगर कैलाश को जडी पर पूणम ववश्वास था। मण
ृ ामलनी
प्यानों पर बैठन ु ई थी। य खबर सुनते ी दौडी, और कैलाश की उँ गली से
टपकते ु ए खून को रमाल से पोंछने लगी। जडी पीसी जाने लगी; पर उसी एक
ममनट में कैलाश की ऑ िंखें झपकने लगीिं, ओठों पर पीलापन दौडने लगा। य ॉ ॉँ तक
कक व खडा न र सका। फशम पर बैठ गया। सारे मे मान कमरे में जमा ो गए।
कोई कुछ क ता था। कोई कुछ। इतने में जडी पीसकर आ गयी। मण
ृ ामलनी ने
उँ गली पर लेप ककया। एक ममनट और बीता। कैलाश की ऑ िंखें बदद ो गयीिं। व
लेट गया और ाथ से पिंखा झलने का इशारा ककया। मॉ ॉँ ने दौडकर उसका मसर
गोद में रख मलया और बबजली का टे बुल-फैन लगा हदया।

डाक्टर सा ब ने झुक कर पूछा कैलाश, कैसी तबीयत ै ? कैलाश ने िीरे से ाथ


उठा मलए; पर कुछ बोल न सका। मण
ृ ामलनी ने करण स्वर में क ा—क्या जडी
कुछ असर न करें गी? डाक्टर सा ब ने मसर पकड कर क ा—क्या बतलाऊँ, मैं
इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न ोगा।

आि घिंटे तक य ी ाल र ा। कैलाश की दशा प्रनतक्षण बबगडती जाती थी। य ॉ ॉँ


तक कक उसकी ऑ िंखें पथरा गयी, ाथ-पॉवॉँ ठिं डे पड गये, मुख की कािंनत ममलन पड
गयी, नाडी का क ीिं पता न ीिं। मौत के सारे लक्षण हदखायी दे ने लगे। घर में

ृ ामलनी एक ओर मसर पीटने लगी; मॉ ॉँ अलग पछाडे खाने


कु राम मच गया। मण
लगी। डाक्टर चड्ढा को ममत्रों ने पकड मलया, न ीिं तो व नश्तर अपनी गदम न पर
मार लेत।े

एक म ाशय बोले—कोई मिंत्र झाडने वाला ममले, तो सम्भव ै , अब भी जान बच


जाय।

एक मुसलमान सज्जन ने इसका समथमन ककया—अरे सा ब कब्र में पडी ु ई लाशें


न्जददा ो गयी ैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पडे ु ए ैं।
डाक्टर चड्ढा बोले—मेरी अक्ल पर पत्थर पड गया था कक इसकी बातों में आ
गया। नश्तर लगा दे ता, तो य नौबत ी क्यों आती। बार-बार समझाता र ा कक
बेटा, सॉपॉँ न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, ककसी झाड-फूँक करने वाले ी
को बल
ु ाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख
दँ ग ॉँ कर घर से ननकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश
ू ा। लँ गोटी बॉि
उठ बैठे। ईश्वर के मलए ककसी को बुलवाइए।

एक म ाशय का ककसी झाडने वाले से पररचय था। व दौडकर उसे बल


ु ा लाये;
मगर कैलाश की सरू त दे खकर उसे मिंत्र चलाने की ह म्मत न पडी। बोला—अब
क्या ो सकता ै , सरकार? जो कुछ ोना था, ो चुका?

अरे मख
ू ,म य क्यों न ी क ता कक जो कुछ न ोना था, व क ॉ ॉँ ु आ? मॉ-बाप
ॉँ ने
बेटे का से रा क ॉ ॉँ दे खा? मण
ृ ामलनी का कामना-तर क्या पल्लव और पष्ु प से
रिं न्जत ो उठा? मन के व स्वणम-स्वप्न न्जनसे जीवन आनिंद का स्रोत बना ु आ
था, क्या पूरे ो गये? जीवन के नत्ृ यमय ताररका-मिंडडत सागर में आमोद की ब ार
लूटते ु ए क्या उनकी नौका जलमनन न ीिं ो गयी? जो न ोना था, व ो गया।

व ी ॉँ
रा-भरा मैदान था, व ी सुन री चॉदनी ॉँ प्रकृनत
एक नन:शब्द सिंगीत की भॉनत
पर छायी ु ई थी; व ी ममत्र-समाज था। व ी मनोरिं जन के सामान थे। मगर ज ाँ
ास्य की ्वनन थी, व ॉ ॉँ करण क्रददन और अश्रु-प्रवा था।

श र से कई मील दरू एक छोट-से घर में एक बूढ़ा और बुहढ़या अगीठन के


सामने बैठे जाडे की रात काट र े थे। बूढ़ा नाररयल पीता था और बीच-बीच में
ॉँ
खॉसता था। बुहढ़या दोनों घुटननयों में मसर डाले आग की ओर ताक र ी थी। एक
ममट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल र ी थी। घर में न चारपाई थी, न बबछौना।
एक ककनारे थोडी-सी पआ
ु ल पडी ु ई थी। इसी कोठरी में एक चल्
ू ा था। बहु ढ़या
ू ी लकडडयॉ ॉँ बटोरती थी। बढ़
हदन-भर उपले और सख ू ा रस्सी बट कर बाजार में
बेच आता था। य ी उनकी जीववका थी। उद ें न ककसी ने रोते दे खा, न ँसते।
उनका सारा समय जीववत र ने में कट जाता था। मौत द्वार पर खडी थी, रोने या
ँसने की क ॉ ॉँ फुरसत! बुहढ़या ने पूछा—कल के मलए सन तो ै न ीिं, काम क्या
करोंगे?

‘जा कर झगडू सा से दस सेर सन उिार लाऊँगा?’

‘उसके प ले के पैसे तो हदये ी न ीिं , और उिार कैसे दे गा?’

‘न दे गा न स ी। घास तो क ीिं न ीिं गयी। दोप र तक क्या दो आने की भी न


काटूँगा?’

इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी—भगत, भगत, क्या सो गये? जरा
ककवाड खोलो।

भगत ने उठकर ककवाड खोल हदये। एक आदमी ने अददर आकर क ा—कुछ


सुना, डाक्टर चड्ढा बाबू के लडके को सॉपॉँ ने काट मलया।

भगत ने चौंक कर क ा—चड्ढा बाबू के लडके को! व ी चड्ढा बाबू ैं न, जो


छावनी में बँगले में र ते ैं?

‘ ॉ-ॉँ ॉ ॉँ व ी। श र में ल्ला मचा ु आ ै । जाते ो तो जाओिं, आदमी बन


जाओिंगे।‘

बढ़
ू े ने कठोर भाव से मसर ह ला कर क ा—मैं न ीिं जाता! मेरी बला जाय! व ी
चड्ढा ै । खब
ू जानता ू ँ। भैया लेकर उद ीिं के पास गया था। खेलने जा र े थे।
पैरों पर धगर पडा कक एक नजर दे ख लीन्जए; मगर सीिे मँु से बात तक न की।
भगवान बैठे सुन र े थे। अब जान पडेगा कक बेटे का गम कैसा ोता ै । कई
लडके ैं।

‘न ीिं जी, य ी तो एक लडका था। सुना ै , सबने जवाब दे हदया ै ।‘

‘भगवान बडा कारसाज ै । उस बखत मेरी ऑ िंखें से ऑ िंसू ननकल पडे थे, पर उद ें
तननक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर ोता, तो भी बात न पूछता।‘

‘तो न जाओगे? मने जो सन


ु ा था, सो क हदया।‘

‘अच्छा ककया—अच्छा ककया। कलेजा ठिं डा ो गया, ऑ िंखें ठिं डी ो गयीिं। लडका भी
ठिं डा ो गया ोगा! तम
ु जाओ। आज चैन की नीिंद सोऊँगा। (बहु ढ़या से) जरा
तम्बाकू ले ले! एक धचलम और पीऊँगा। अब मालम
ू ोगा लाला को! सारी सा बी
ननकल जायगी, मारा क्या बबगडा। लडके के मर जाने से कुछ राज तो न ीिं चला
गया? ज ॉ ॉँ छ: बच्चे गये थे, व ॉ ॉँ एक और चला गया, तुम् ारा तो राज सुना ो
जायगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबा कर जोडा था न। अब क्या करोंगे?
एक बार दे खने जाऊँगा; पर कुछ हदन बाद ममजाज का ाल पूछूँगा।‘

आदमी चला गया। भगत ने ककवाड बदद कर मलये , तब धचलम पर तम्बाखू रख


कर पीने लगा।

बुहढ़या ने क ा—इतनी रात गए जाडे-पाले में कौन जायगा?

‘अरे , दोप र ी ोता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न


जाता। भल
ू न ीिं गया ू ँ। पदना की सरू त ऑ िंखों में कफर र ी ै । इस ननदम यी ने
उसे एक नजर दे खा तक न ीिं। क्या मैं न जानता था कक व न बचेगा? खूब जानता
था। चड्ढा भगवान न ीिं थे, कक उनके एक ननगा दे ख लेने से अमत
ृ बरस जाता।
न ीिं, खाली मन की दौड थी। अब ककसी हदन जाऊँगा और क ू ँगा—क्यों सा ब,
कह ए, क्या रिं ग ै ? दनु नया बुरा क े गी, क े ; कोई परवा न ीिं। छोटे आदममयों में तो
सब ऐव ें । बडो में कोई ऐब न ीिं ोता, दे वता ोते ैं।‘
भगत के मलए य जीवन में प ला अवसर था कक ऐसा समाचार पा कर व बैठा
र गया ो। अस्सी वषम के जीवन में ऐसा कभी न ु आ था कक सॉपॉँ की खबर
पाकर व दौड न गया ो। माघ-पूस की अँिेरी रात, चैत-बैसाख की िूप और लू,
सावन-भादों की चढ़ी ु ई नदी और नाले, ककसी की उसने कभी परवा न की। व
तुरदत घर से ननकल पडता था—नन:स्वाथम, ननष्काम! लेन-दे न का ववचार कभी हदल
में आया न ीिं। य सा काम ी न था। जान का मूल्य कोन दे सकता ै ? य एक
पण्
ु य-कायम था। सैकडों ननराशों को उसके मिंत्रों ने जीवन-दान दे हदया था; पर आप
व घर से कदम न ीिं ननकाल सका। य खबर सन
ु कर सोने जा र ा ै।

बुहढ़या ने क ा—तमाखू अँगीठन के पास रखी ु ई ै । उसके भी आज ढाई पैसे ो


गये। दे ती ी न थी।

बुहढ़या य क कर लेटी। बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ दे र खडा र ा, कफर बैठ गया।
अदत को लेट गया; पर य ॉँ रखी ु ई थी।
खबर उसके हृदय पर बोझे की भॉनत
उसे मालम
ू ो र ा था, उसकी कोई चीज खो गयी ै , जैसे सारे कपडे गीले ो गये
ै या पैरों में कीचड लगा ु आ ै , जैसे कोई उसके मन में बैठा ु आ उसे घर से
मलकालने के मलए कुरे द र ा ै । बुहढ़या जरा दे र में खरामटे लेनी लगी। बूढ़े बातें
करते-करते सोते ै और जरा-सा खटा ोते ी जागते ैं। तब भगत उठा, अपनी
लकडी उठा ली, और िीरे से ककवाड खोले।

बुहढ़या ने पूछा—क ॉ ॉँ जाते ो?

‘क ीिं न ीिं, दे खता था कक ककतनी रात ै ।‘

‘अभी ब ु त रात ै , सो जाओ।‘

‘नीिंद, न ीिं आतीिं।’

‘नीिंद का े आवेगी? मन तो चडढा के घर पर लगा ु आ ै ।‘


‘चडढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी ै , जो व ॉ ॉँ जाऊँ? व आ कर पैरों पडे,
तो भी न जाऊँ।‘

‘उठे तो तुम इसी इरादे से ी?’

‘न ीिं री, ऐसा पागल न ीिं ू ँ कक जो मुझे कॉटेॉँ बोये, उसके मलए फूल बोता कफरँ।‘

बहु ढ़या कफर सो गयी। भगत ने ककवाड लगा हदए और कफर आकर बैठा। पर
उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज कान में पडते ी उपदे श
सुनने वालों की ोती ैं। ऑ िंखें चा े उपेदेशक की ओर ों; पर कान बाजे ी की ओर
ोते ैं। हदल में भी बापे की ्वनन गँज
ू ती र ती े । शमम के मारे जग से न ीिं
उठता। ननदम यी प्रनतघात का भाव भगत के मलए उपदे शक था, पर हृदय उस अभागे
यव
ु क की ओर था, जो इस समय मर र ा था, न्जसके मलए एक-एक पल का
ववलम्ब घातक था।

उसने कफर ककवाड खोले, इतने िीरे से कक बुहढ़या को खबर भी न ु ई। बा र


ननकल आया। उसी वक्त गॉवॉँ को चौकीदार गश्त लगा र ा था, बोला—कैसे उठे
भगत? आज तो बडी सरदी ै ! क ीिं जा र े ो क्या?

भगत ने क ा—न ीिं जी, जाऊँगा क ॉ!ॉँ दे खता था, अभी ककतनी रात ै । भला, के
बजे ोंगे।

चौकीदार बोला—एक बजा ोगा और क्या, अभी थाने से आ र ा था, तो डाक्टर


चडढा बाबू के बॅगले पर बडी भड लगी ु ई थी। उनके लडके का ाल तो तुमने
सन
ु ा ोगा, कीडे ने छू मलया ै । चा े मर भी गया ो। तम
ु चले जाओिं तो साइत
बच जाय। सन
ु ा ै , इस जार तक दे ने को तैयार ैं।

भगत—मैं तो न जाऊँ चा े व दस लाख भी दें । मुझे दस जार या दस लाखे


लेकर करना क्या ैं? कल मर जाऊँगा, कफर कौन भोगनेवाला बैठा ु आ ै।
चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की दे
अपने काबू में न ीिं र ती, पैर क ीिं रखता ै , पडता क ीिं ै , क ता कुछ े , जबान से
ननकलता कुछ ै , व ी ाल इस समय भगत का था। मन में प्रनतकार था; पर कमम
मन के अिीन न था। न्जसने कभी तलवार न ीिं चलायी, व इरादा करने पर भी
तलवार न ीिं चला सकता। उसके ॉँ
ाथ कॉपते ैं , उठते ी न ीिं।

भगत लाठन खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर
उपचेतना ठे लती थी। सेवक स्वामी पर ावी था।

आिी रा ननकल जाने के बाद स सा भगत रक गया। ह स


िं ा ने कक्रया पर ववजय
पायी—मै यों ी इतनी दरू चला आया। इस जाडे-पाले में मरने की मुझे क्या पडी
थी? आराम से सोया क्यों न ीिं? नीिंद न आती, न स ी; दो-चार भजन ी गाता। व्यथम
इतनी दरू दौडा आया। चडढा का लडका र े या मरे , मेरी कला से। मेरे साथ उद ोंने
ऐसा कौन-सा सलूक ककया था कक मै उनके मलए मरँ? दनु नया में जारों मरते ें ,
जारों जीते ें । मझ
ु े ककसी के मरने-जीने से मतलब!

मगर उपचेतन ने अब एक दस
ू र रप िारण ककया, जो ह स
िं ा से ब ु त कुछ ममलता-
जुलता था—व झाड-फूँक करने न ीिं जा र ा ै; व दे खेगा, कक लोग क्या कर र े
ें । डाक्टर सा ब का रोना-पीटना दे खेगा, ककस तर मसर पीटते ें , ककस तर पछाडे
खाते ै ! वे लोग तो ववद्वान ोते ैं, सबर कर जाते ोंगे! ह स
िं ा-भाव को यों िीरज
दे ता ु आ व कफर आगे बढ़ा।

इतने में दो आदमी आते हदखायी हदये। दोनों बाते करते चले आ र े थे—चडढा
बाबू का घर उजड गया, व ी तो एक लडका था। भगत के कान में य आवाज
पडी। उसकी चाल और भी तेज ो गयी। थकान के मारे पॉवॉँ न उठते थे। मशरोभाग
इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मँु के बल धगर पडेगा। इस तर व कोई दस
ममनट चला ोगा कक डाक्टर सा ब का बँगला नजर आया। बबजली की बन्त्तयॉ ॉँ
जल र ी थीिं; मगर सदनाटा छाया ु आ था। रोने-पीटने के आवाज भी न आती थी।
भगत का कलेजा िक-िक करने लगा। क ीिं मझ
ु े ब ु त दे र तो न ीिं ो गयी? व
दौडने लगा। अपनी उम्र में व इतना तेज कभी न दौडा था। बस, य ी मालम

ोता था, मानो उसके पीछे मोत दौडी
आ री ै।

दो बज गये थे। मे मान ववदा ो गये। रोने वालों में केवल आकाश के तारे र
गये थे। और सभी रो-रो कर थक गये थे। बडी उत्सक
ु ता के साथ लोग र -र
आकाश की ओर दे खते थे कक ककसी तर सुह ो और लाश गिंगा की गोद में दी
जाय।

स सा भगत ने द्वार पर प ु ँच कर आवाज दी। डाक्टर सा ब समझे, कोई मरीज


आया ोगा। ककसी और हदन उद ोंने उस आदमी को दत्ु कार हदया ोता; मगर
आज बा र ननकल आये। दे खा एक बूढ़ा आदमी खडा ै —कमर झुकी ु ई, पोपला
मँु , भौ े तक सफेद ो गयी थीिं। लकडी के स ारे कॉपॉँ र ा था। बडी नम्रता से
बोले—क्या ै भई, आज तो मारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड गयी ै कक कुछ क ते
न ीिं बनता, कफर कभी आना। इिर एक म ीना तक तो शायद मै ककसी भी मरीज
को न दे ख सकँू गा।

भगत ने क ा—सुन चुका ू ँ बाबू जी, इसीमलए आया ू ँ। भैया क ॉ ॉँ ै ? जरा मुझे
हदखा दीन्जए। भगवान बडा कारसाज ै , मरु दे को भी न्जला सकता ै । कौन जाने,
अब भी उसे दया आ जाय।

चडढा ने व्यधथत स्वर से क ा—चलो, दे ख लो; मगर तीन-चार घिंटे ो गये। जो


कुछ ोना था, ो चक
ु ा। ब ु तेर झाडने-फँकने वाले दे ख-दे ख कर चले गये।

डाक्टर सा ब को आशा तो क्या ोती। ॉ ॉँ बूढे पर दया आ गयी। अददर ले गये।


भगत ने लाश को एक ममनट तक दे खा। तब मुस्करा कर बोला—अभी कुछ न ीिं
बबगडा ै , बाबू जी! य नारायण चा ें गे, तो आि घिंटे में भैया उठ बैठेगे। आप
ना क हदल छोटा कर र े ै । जरा क ारों से कह ए, पानी तो भरें ।

क ारों ने पानी भर-भर कर कैलाश को न लाना शुर ककयािं पाइप बदद ो गया था।
क ारों की सिंख्या अधिक न थी, इसमलए मे मानों ने अ ाते के बा र के कुऍ िंसे
पानी भर-भर कर क ानों को हदया, मण
ृ ामलनी कलासा मलए पानी ला र ी थी। बढ़
ु ा
भगत खडा मस्
ु करा-मस्
ु करा कर मिंत्र पढ़ र ा था, मानो ववजय उसके सामने खडी
ै । जब एक बार मिंत्र समाप्त ो जाता, वब व एक जडी कैलाश के मसर पर डाले
गये और न-जाने ककतनी बार भगत ने मिंत्र फूँका। आिखर जब उषा ने अपनी लाल-
लाल ऑ िंखें खोलीिं तो केलाश की भी लाल-लाल ऑ िंखें खुल गयी। एक क्षण में उसने
ॉँ
अिंगडाई ली और पानी पीने को मॉगा। डाक्टर चडढा ने दौड कर नारायणी को गले
लगा मलया। नारायणी दौडकर भगत के पैरों पर धगर पडी और म़णामलनी कैलाश
के सामने ऑ िंखों में ऑ िंसू-भरे पछ
ू ने लगी—अब कैसी तबबयत ै!

एक क्षण में चारों तरफ खबर फैल गयी। ममत्रगण मुबारकवाद दे ने आने लगे।
डाक्टर सा ब बडे श्रद्धा-भाव से र एक के सामने भगत का यश गाते कफरते थे।
सभी लोग भगत के दशमनों के मलए उत्सक
ु ो उठे ; मगर अददर जा कर दे खा, तो
भगत का क ीिं पता न था। नौकरों ने क ा—अभी तो य ीिं बैठे धचलम पी र े थे।
म लोग तमाखू दे ने लगे, तो न ीिं ली, अपने पास से तमाखू ननकाल कर भरी।

य ॉ ॉँ तो भगत की चारों ओर तलाश ोने लगी, और भगत लपका ु आ घर चला


जा र ा था कक बुहढ़या के उठने से प ले प ु ँच जाऊँ!

जब मे मान लोग चले गये, तो डाक्टर सा ब ने नारायणी से क ा—बड


ु ढा न-जाने
क ाँ चला गया। एक धचलम तमाखू का भी रवादार न ु आ।

नारायणी—मैंने तो सोचा था, इसे कोई बडी रकम दँ ग


ू ी।

चडढा—रात को तो मैंने न ीिं प चाना, पर जरा साफ ो जाने पर प चान गया।


एक बार य एक मरीज को लेकर आया था। मुझे अब याद आता े कक मै
खेलने जा र ा था और मरीज को दे खने से इनकार कर हदया था। आज उस हदन
की बात याद करके मझ
ु ें न्जतनी नलानन ो र ी ै , उसे प्रकट न ीिं कर सकता। मैं
उसे अब खोज ननकालँ ग
ू ा और उसके पैरों पर धगर कर अपना अपराि क्षमा
कराऊँगा। व कुछ लेगा न ीिं, य जानता ू ँ , उसका जदम यश की वषाम करने ी
के मलए ु आ ै । उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदशम हदखा हदया ै , जो अब से
जीवनपयमदत मेरे सामने र े गा।

***
प्रायन्श्चत

दफ्तर में जरा दे र से आना अफसरों की शान ै । न्जतना ी बडा अधिकारी ोता
ै , उत्तरी ी दे र में आता ै ; और उतने ी सबेरे जाता भी । चपरासी की ान्जरी
चौबीसों घिंटे की। व छुट्टी पर भी न ीिं जा सकता। अपना एवज दे ना पडता े।
खैर, जब बरे ली न्जला-बोडम के े ड क्लकम बाबू मदारीलाल नयार बजे दफ्तर आये,
तब मानो दफ्तर नीिंद से जाग उठा। चपरासी ने दौड कर पैरगाडी ली, अरदली ने
दौडकर कमरे की धचक उठा दी और जमादार ने डाक की ककश्त मेज जर ला कर
रख दी। मदारीलाल ने प ला ी सरकारी मलफाफा खोला था कक उनका रिं ग फक
ो गया। वे कई ममनट तक आश्चयामन्दवत ालत में खडे र े , मानो सारी
ज्ञानेन्दद्रयॉ ॉँ मशधथल ो गयी ों। उन पर बडे-बडे आघात ो चुके थे; पर इतने
ब दवास वे कभी न ु ए थे। बात य थी कक बोडम के सेक्रेटरी की जो जग एक
म ीने से खाली थी, सरकार ने सुबोिचदद्र को व जग दी थी और सुबोिचदद्र
व व्यन्क्त था, न्जसके नाम ी से मदारीलाल को घण
ृ ा थी। व सुबोिचदद्र, जो
उनका स पाठन था, न्जस जक दे ने को उद ोंने ककतनी ी चेष्टा की; पर कभरी
सफल न ु ए थे। व ी सब
ु ोि आज उनका अफसर ोकर आ र ा था। सब
ु ोि की
इिर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कक व फौज में भरती ो
गया था। मदारीलाल ने समझा-व ीिं मर गया ोगा; पर आज व मानों जी उठा
और सेक्रेटरी ोकर आ र ा था। मदारीलाल को उसकी मात ती में काम करना
पडेगा। इस अपमान से तो मर जाना क ीिं अच्छा था। सुबोि को स्कूल और
कालेज की सारी बातें अवश्य ी याद ोंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से
ननकलवा दे ने के मलए कई बार मिंत्र चलाए, झठ
ू े आरोज ककये, बदनाम ककया। क्या
सुबोि सब कुछ भूल गया ोगा? न ीिं, कभी न ीिं। व आते ी पुरानी कसर
ननकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा का कोई उपाय न सूझता था।

मदारी और सब
ु ोि के ग्र ों में ी ववरोि थािं दोनों एक ी हदन, एक ी शाला में
भरती ु ए थे, और प ले ी हदन से हदल में ईष्याम और द्वेष की व धचनगारी
पड गयी, जो आज बीस वषम बीतने पर भी न बझ
ु ी थी। सब
ु ोि का अपराि य ी
था कक व मदारीलाल से र एक बात में बढ़ा ु आ थािं डी-डौल,
रिं ग-रप, रीनत-व्यव ार, ववद्या-बुवद्ध ये सारे मैदान उसके ाथ थे। मदारीलाल ने
उसका य अपराि कभी क्षमा न ीिं ककयािं सुबोि बीस वषम तक ननरदतर उनके
ॉँ बना र ा। जब सुबोि डडग्री लेकर अपने घर चला गया और
हृदय का कॉटा
मदारी फेल ोकर इस दफ्तर में नौकर ो गये, तब उनका धचत शािंत ु आ।
ककदतु जब य मालम
ू ु आ कक सब
ु ोि बसरे जा र ा ै , जब तो मदारीलाल का
चे रा िखल उठा। उनके हदल से व ॉँ ननकल गयी। पर
परु ानी फॉस ा तभानय!
आज व पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी
ककस्मत सुबोि के ाथ में थी। ईश्वर इतना अदयायी ै ! ववधि इतना कठोर!

जब जरा धचत शािंत ु आ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लको को सरकारी ु क्म


सुनाते ु ए क ा-अब आप लोग जरा ाथ-पॉवॉँ सँभाल कर रह एगा। सुबोिचदद्र वे
आदमी न ीिं ें , जो भूलो को क्षम कर दें ?

एक क्लकम ने पछ
ू ा-क्या ब ु त सख्त ै।

मदारीलाल ने मुस्करा कर क ा-व तो आप लोगों को दो-चार हदन ी में मालूम


ो जाएगा। मै अपने मँु से ककसी की क्यों मशकायत करँ? बस, चेतावनी दे दी कक
जरा ाथ-पॉवॉँ सँभाल कर रह एगा। आदमी योनय ै , पर बडा ी क्रोिी, बडा
दम्भी। गुस्सा तो उसकी नाक पर र ता ै । खुद जारों जम कर जाय और
डकार तक न ले; पर क्या मजाल कक कोइर मात त एक कौडी भी जम करने
जाये। ऐसे आदमी से ईश्वर ी बचाये! में तो सोच रा ू ँ कक छुट्टी लेकर घर
चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर ान्जरी बजानी ोगी। आप लोग आज से सरकार
के नौकर न ीिं, सेक्रटरी सा ब के नौकर ैं। कोई उनके लडके को पढ़ायेगा। कोई
बाजास से सौदा-सुलुफ लायेगा और कोई उद ें अखबार सुनायेगा। ओर चपरामसयों
के तो शायद दफ्तर में दशमन ी न ों।

इस प्रकार सारे दफ्तर को सब


ु ोिचदद्र की तरफ से भडका कर मदारीलाल ने
अपना कलेजा ठिं डा ककया।

इसके एक सप्ता बाद सुबोिचदद्र गाडी से उतरे , तब स्टे शन पर दफ्तर के सब


कममचाररयों को ान्जर पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे । मदारीलाल को
दे खते ी सब
ु ोि लपक कर उनके गले से मलपट गये और बोले-तम
ु खब
ू ममले
भाई। य ॉ ॉँ कैसे आये? ओ ! आज एक यग
ु के बाद भें ट ु ई!

मदारीलाल बोले-य ॉ ॉँ न्जला-बोडम के दफ्तर में े ड क्लकम ू ँ। आप तो कुशल से ै?

िं ॉ ॉँ मारा-मारा
सुबोि-अजी, मेरी न पूछो। बसरा, िािंस, ममश्र और न-जाने क ॉ-क
कफरा। तुम दफ्तर में ो, य ब ुत ी अच्छा ु आ। मेरी तो समझ ी मे न आता
था कक कैसे काम चलेगा। मैं तो बबलकुल कोरा ू ँ; मगर ज ॉ ॉँ जाता ू ँ , मेरा
सौभानय ी मेरे साथ जाता ै । बसरे में सभी अफसर खश
ू थे। फािंस में भी खब

चैन ककये। दो साल में कोई पचीस जार रपये बना लाया और सब उडा हदया।
तॉ ॉँ से आकर कुछ हदनों को-आपरे शन दफ्तर में मटरगश्त करता र ा। य ॉ ॉँ आया
तब तुम ममल गये। (क्लको को दे ख कर) ये लोग कौन ैं?

मदारीलाल के हृदय में बनछिं या-सी चल र ी थीिं। दष्ु ट पचीस जार रपये बसरे में
कमा लाया! य ॉ ॉँ कलम नघसते-नघसते मर गये और पाँच सौ भी न जमा कर
सके। बोले-कममचारी ें । सलाम करने आये ै।

सबोि ने उन सब लोगों से बारी-बारी से ाथ ममलाया और बोला-आप लोगों ने


व्यथम य कष्ट ककया। ब ु त आभारी ू ँ। मुझे आशा े कक आप सब सज्जनों को
मुझसे कोई मशकायत न ोगी। मुझे अपना अफसर न ीिं, अपना भाई समिझए।
आप सब लोग ममल कर इस तर काम कीन्जए कक बोडम की नेकनामी ो और मैं
भी सुखरम र ू ँ। आपके े ड क्लकम सा ब तो मेरे पुराने ममत्र और लँ गोहटया यार ै।

एक वाकचतुर क्लक्र ने क ा- म सब ु जूर के ताबेदार ैं। यथाशन्क्त आपको


असिंतष्ु ट न करें गे; लेककन आदमी ी ै , अगर कोई भल
ू ो भी जाय, तो ु जरू
उसे क्षमा करें गे।

सुबोि ने नम्रता से क ा-य ी मेरा मसद्धादत ै और मेशा से य ी मसद्धादत र ा


ै । ज ॉ ॉँ र ा, मत तों से ममत्रों का-सा बतामव ककया। म और आज दोनों ी ककसी
तीसरे के गल
ु ाम ैं। कफर रोब कैसा और अफसरी कैसी? ॉ,ॉँ में नेकनीयत के
साथ अपना कतमव्य पालन करना चाह ए।

जब सब
ु ोि से ववदा ोकर कममचारी लोग चले, तब आपस में बातें ोनी लगीिं-

‘आदमी तो अच्छा मालूम ोता ै ।‘

‘ े ड क्लकम के क ने से तो ऐसा मालूम ोता था कक सबको कच्चा ी खा


जायगा।‘

‘प ले सभी ऐसे ी बातें करते ै ।‘

ॉँ
‘ये हदखाने के दॉत ै ।‘

सुबोि को आये एक म ीना गुजर गया। बोडम के क्लकम, अरदली, चपरासी सभी
उसके बवामव से खुश ैं। व इतना प्रसदनधचत ै , इतना नम्र े कक जो उससे एक
बार ममला े, सदै व के मलए उसका ममत्र ो जाता ै । कठोर शब्द तो उनकी
जबान पर आता ी न ीिं। इनकार को भी व अवप्रय न ीिं ोने दे ता; लेककन द्वेष
की ऑ िंखों में गण
ु ओर भी भयिंकर ो जाता ै । सब
ु ोि के ये सारे सदगण

मदारीलाल की ऑ िंखों में खटकते र ते ें । उसके ववरद्ध कोई न कोई गुप्त षडयिंत्र
रचते ी र ते ें । प ले कममचाररयों को भडकाना चा ा, सफल न ु ए। बोडम के
मेम्बरों को भडकाना चा ा, मँु की खायी। ठे केदारों को उभारने का बीडा उठाया,
लन्ज्जत ोना पडा। वे चा ते थे कक भुस में आग लगा कर दरू से तमाशा दे खें।
सब
ु ोि से यों ँस कर ममलते, यों धचकनी-चप
ु डी बातें करते, मानों उसके सच्चे ममत्र
ै , पर घात में लगे र ते। सब
ु ोि में सब गण
ु थे, पर आदमी प चानना न जानते
थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते ैं।

एक हदन मदारीलाल सेक्रटरी सा ब के कमरे में गए तब कुसी खाली दे खी। वे


ॉँ
ककसी काम से बा र चले गए थे। उनकी मेज पर पॉच जार के नोट पमु लदों में
बँिे ु ए रखे थे। बोडम के मदरसों के मलए कुछ लकडी के सामान बनवाये गये थे।
उसी के दाम थे। ठे केदार वसल
ू ी के मलए बुलया गया थािं आज ी सेक्रेटरी सा ब
ॉँ कर
ने चेक भेज कर खजाने से रपये मॅगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झॉक
दे खा, सुबोि का क ीिं जता न ीिं। उनकी नीयत बदल गयी। दम ष्याम में लोभ का
सन्म्मश्रण ॉँ
ो गया। कॉपते ुए ाथों से पमु लिंदे उठाये; पतलन
ू की दोनों जेबों में
भर कर तरु दत कमरे से ननकले ओर चपरासी को पक
ु ार कर बोले-बाबू जी भीतर
ै ? चपरासी आप ठे केदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला ु आ थािं सामने
वाले तमोली के दक
ू ान से आकर बोला-जी न ीिं, कच री में ककसी से बातें कर र े
ै । अभी-अभी तो गये ैं।

मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लकम से क ा-य मममसल ले जाकर सेक्रेटरी


सा ब को हदखाओ।

क्लकम मममसल लेकर चला गया। जरा दे र में लौट कर बोला-सेक्रेटरी सा ब कमरे
में न थे। फाइल मेज पर रख आया ू ँ।

मदारीलाल ने मँु मसकोड कर क ा-कमरा छोड कर क ॉ ॉँ चले जाया करते ैं?


ककसी हदन िोखा उठायेंगे।

क्लकम ने क ा-उनके कमरे में दफ्तवालों के मसवा और जाता ी कौन ै?

मदारीलाल ने तीव्र स्वर में क ा-तो क्या दफ्तरवाले सब के सब दे वता ैं ? कब


ककसकी नीयत बदल जाय, कोई न ीिं क सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर
अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते दे खी ैं।इस वक्त म सभी सा ैं ; लेककन
अवसर पाकर शायद ी कोई चक
ू े । मनष्ु य की य ी प्रकृनत ै । आप जाकर उनके
कमरे के दोनों दरवाजे बदद कर दीन्जए।

क्लकम ने टाल कर क ा-चपरासी तो दरवाजे पर बैठा ु आ ै।

मदारीलाल ने झँुझला कर क ा-आप से मै जो क ता ू ँ , व कीन्जए। क ने लगें ,


चपरासी बैठा ु आ ै । चपरासी कोई ऋवष ै , मुनन ै ? चपरसी ी कुछ उडा दे , तो
आप उसका क्या कर लें गे? जमानत भी ै तो तीन सौ की। य ॉ ॉँ एक-एक कागज
लाखों का ै।

य क कर मदारीलाल खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बदद कर


हदये। जब धचत शािंत ु आ तब नोटों के पमु लिंदे जेब से ननकाल कर एक आलमारी
में कागजों के नीचे नछपा कर रख हदयें कफर आकर अपने काम में व्यस्त ो
गये।

सब
ु ोिचदद्र कोई घिंटे-भर में लौटे । तब उनके कमरे का द्वार बदद था। दफ्तर में
आकर मस्
ु कराते ु ए बोले-मेरा कमरा ककसने बदद कर हदया ै , भाई क्या मेरी
बेदखली ो गयी?

मदारीलाल ने खडे ोकर मद


ृ ु नतरस्कार हदखाते ु ए क ा-सा ब, गस्
ु ताखी माफ ो,
आप जब कभी बा र जायँ, चा े एक ी ममनट के मलए क्यों न ो, तब दरवाजा-
बदद कर हदया करें । आपकी मेज पर रपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बबखरे
पडे र ते ैं, न जाने ककस वक्त ककसकी नीयत बदल जाय। मैंने अभी सुना कक
आप क ीिं गये ैं , जब दरवाजे बदद कर हदये।

सुबोिचदद्र द्वार खोल कर कमरे में गये ओर मसगार पीने लगें मेज पर नोट
रखे ु ए ै , इसके खबर ी न थी।
स सा ठे केदार ने आकर सलाम ककयािं सब
ु ोि कुसी से उठ बैठे और बोले-तम
ु ने
ब ु त दे र कर दी, तम्
ु ारा ी इदतजार कर र ा था। दस ी बजे रपये मँगवा मलये
थे। रसीद मलखवा लाये ो न?

ठे केदार- ु जरू रसीद मलखवा लाया ू ँ।

सुबोि-तो अपने रपये ले जाओ। तुम् ारे काम से मैं ब ु त खुश न ीिं ू ँ। लकडी
तुमने अच्छन न ीिं लगायी और काम में सफाई भी न ीिं े । अगर ऐसा काम कफर
करोंगे, तो ठे केदारों के रन्जस्टर से तम्
ु ारा नाम ननकाल हदया जायगा।

य क कर सुबोि ने मेज पर ननगा डाली, तब नोटों के पमु लिंदे न थे। सोचा,


शायद ककसी फाइल के नीचे दब गये ों। कुरसी के समीप के सब कागज उलट-

ु ट डाले; मगर नोटो का क ीिं पता न ीिं। ऐिं नोट क ॉ ॉँ गये! अभी तो य ी मेने
पल
रख हदये थे। जा क ॉ ॉँ सकते ें । कफर फाइलों को उलटने-पल
ु टने लगे। हदल में
जरा-जरा िडकन ोने लगी। सारी मेज के कागज छान डाले , पुमलिंदों का पता
न ीिं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आि घिंटे में ोने वाली घटनाओिं की मन में
आलोचना करने लगे-चपरासी ने नोटों के पुमलिंदे लाकर मुझे हदये, खूब याद ै।
भला, य भी भूलने की बात ै और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर य ीिं मेज
पर रख हदया, धगना तक न ीिं। कफर वकील सा ब आ गये , परु ाने मल
ु ाकाती ैं।
उनसे बातें करता जरा उस पेड तक चला गया। उद ोंने पान मँगवाये, बस इतनी
ी दे र ु म। जब गया ू ँ तब पुमलिंदे रखे ु ए थे। खूब अच्छन तर याद ै । तब ये
नोट क ॉ ॉँ गायब ो गये ? मैंने ककसी सिंदक
ू , दराज या आलमारी में न ीिं रखे। कफर
गये तो क ॉ?ॉँ शायद दफ्तर में ककसी ने साविानी के मलए उठा कर रख हदये ों,
य ी बात ै । मैं व्यथम ी इतना घबरा गया। नछ:!

तुरदत दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले-आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा
कर न ीिं रख हदय?

मदारीलाल ने भौंचक्के ोकर क ा-क्या आपकी मेज पर नोट रखे ु ए थे? मुझे
तो खबर ी न ीिं। अभी पिंडडत सो नलाल एक फाइल लेकर गये थे , तब आपको
कमरे में न दे खा। जब मझ
ु े मालम
ू ु आ कक आप ककसी से बातें करने चले गये
ैं, वब दरवाजे बदद करा हदये। क्या कुछ नोट न ीिं ममल र े ै?

सब ॉँ
ु ोि ऑ िंखें फैला कर बोले-अरे सा ब, परू े पॉच जार के ै । अभी-अभी चेक
भन
ु ाया ै।

मदारीलाल ने मसर पीट कर क ा-पूरे पाँच जार! ा भगवान! आपने मेज पर


खब
ू दे ख मलया ै?

‘अजी पिंद्र ममनट से तलाश कर र ा ू ँ।‘

‘चपरासी से पूछ मलया कक कौन-कौन आया था?’

‘आइए, जरा आप लोग भी तलाश कीन्जए। मेरे तो ोश उडे ु ए ै ।‘

सारा दफ्तर सेक्रेटरी सा ब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमाररयॉ,ॉँ


सिंदक
ू सब दे खे गये। रन्जस्टरों के वकम उलट-पुलट कर दें खे गये; मगर नोटों का
क ीिं पता न ीिं। कोई उडा ले गया, अब इसमें कोइर शब ा न था। सब
ु ोि ने एक
ॉँ ली और कुसी पर बैठ गये। चे रे का रिं ग फक
लम्बी सॉस ो गया। जर-सा मँु
ननकल आया। इस समय कोई उद े दे खत तो समझता कक म ीनों से बीमार ै।

मदारीलाल ने स ानभ
ु नू त हदखाते ु ए क ा- गजब ो गया और क्या! आज तक

ु े य ॉ ॉँ काम करते दस साल


कभी ऐसा अिंिेर न ु आ था। मझ ो गये, कभी िेले
की चीज भी गायब न ु ई। मैं आपको प ले हदन साविान कर दे ना चा ता था
कक रपये-पैसे के ववषय में ोमशयार रह एगा; मगर शुदनी थी, ख्याल न र ा।
जरर बा र से कोई आदमी आया और नोट उडा कर गायब ो गया। चपरासी का
य ी अपराि ै कक उसने ककसी को कमरे में जोने ी क्यों हदया। व लाख
कसम खाये कक बा र से कोई न ीिं आया; लेककन में इसे मान न ीिं सकता। य ॉ ॉँ
से तो केवल पन्ण्डत सो नलाल एक फाइल लेकर गये थे; मगर दरवाजे ी से
ॉँ कर चले आये।
झॉक

सो नलाल ने सफाई दी-मैंने तो अददर कदम ी न ीिं रखा, सा ब! अपने जवान


बेटे की कसम खाता ू ँ, जो अददर कदम रखा भी ो।

मदारीलाल ने माथा मसकोडकर क ा-आप व्यथम में कसम क्यों खाते ैं। कोई
आपसे कुछ क ता? (सुबोि के कान में )बैंक में कुछ रपये ों तो ननकाल कर
ठे केदार को दे मलये जायँ, वरना बडी बदनामी ोगी। नक
ु सान तो ो ी गया, अब
उसके साथ अपमान क्यों ो।

सुबोि ने करण-स्वर में क ा- बैंक में मुन्श्कल से दो-चार सौ रपये ोंगे,


भाईजान! रपये ोते तो क्या धचदता थी। समझ लेता, जैसे पचीस जार उड गये ,
वैसे ी तीस जार भी उड गये। य ॉ ॉँ तो कफन को भी कौडी न ीिं।

उसी रात को सुबोिचदद्र ने आत्म त्या कर ली। इतने रपयों का प्रबदि करना
उनके मलए कहठन था। मत्ृ यु के परदे के मसवा उद ें अपनी वेदना, अपनी
वववशता को नछपाने की और कोई आड न थी।

दस
ू रे हदन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर प ु ँच कर आवाज दीिं मदारी को
रात-भर नीिंद न आयी थी। घबरा कर बा र आय। चपरासी उद ें दे खते ी बोला-

ु जरू ! बडा गजब ो गया, मसकट्टरी सा ब ने रात को गदम न पर छुरी फेर ली।

मदारीलाल की ऑ िंखे ऊपर चढ़ गयीिं, मँु फैल गया ओर सारी दे मस र उठन,
मानों उनका ाथ बबजली के तार पर पड गया ो।

‘छुरी फेर ली?’


‘जी ॉ,ॉँ आज सबेरे मालम
ू ु आ। पमु लसवाले जमा ैं। आपाके बल
ु ाया ै ।‘

‘लाश अभी पडी ु ई ैं?

‘जी ॉ,ॉँ अभी डाक्टरी ोने वाली ैं।‘

‘ब ु त से लोग जमा ैं?’

‘सब बडे-बड अफसर जमा ैं। ु जूर, ल ास की ओर ताकते न ीिं बनता। कैसा
भलामानुष ीरा आदमी था! सब लोग रो र े ैं। छोडे-छोटे दो बच्चे ैं , एक
सायानी लडकी े ब्या ने लायक। ब ू जी को लोग ककतना रोक र े ैं , पर बार-
बार दौड कर ल ास के पास आ जाती ैं। कोई ऐसा न ीिं े , जो रमाल से ऑ िंखें
न पोछ र ा ो। अभी इतने ी हदन आये ु ए, पर सबसे ककतना मेल-जोल ो
गया था। रपये की तो कभी परवा ी न ीिं थी। हदल दररयाब था!’

मदारीलाल के मसर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड कर अपने को
सँभाल न लेते, तो शायद धगर पडते। पूछा-ब ू जी ब ु त रो र ी थीिं?

‘कुछ न पनू छए, ु जरू । पेड की पन्त्तयॉ ॉँ झडी जाती ैं। ऑ िंख फूल गर गल
ू र ो
गयी ै ।‘

‘ककतने लडके बतलाये तुमने?’

‘ ु जूर, दो लडके ैं और एक लडकी।‘

‘नोटों के बारे में भी बातचीत ो र ी ोगी?’

‘जी ॉ,ॉँ सब लोग य ी क ते ें कक दफ्तर के ककसी आदमी का काम ै । दारोगा


जी तो सो नलाल को धगरफ्तार करना चा ते थे ; पर साइत आपसे सलाइ लेकर
करें गे। मसकट्टरी सा ब तो मलख गए ैं कक मेरा ककसी पर शक न ीिं ै। ‘
‘क्या सेक्रेटरी सा ब कोई खत मलख कर छोड गये ै ?’

‘ ॉ,ॉँ मालूम ोता ै , छुरी चलाते बखत याद आयी कक शुब े में दफ्तर के सब लोग
पकड मलए जायेंगे। बस, कलक्टर सा ब के नाम धचिी मलख दी।‘

‘धचिी में मेरे बारे में भी कुछ मलखा ै ? तुम् ें यक क्या मालम
ू ोगा?’

‘ ु जरू , अब मैं क्या जानँू, मद


ु ा इतना सब लोग क ते थे कक आपकी बडी तारीफ
मलखी ै ।‘

ॉँ और तेज
मदारीलाल की सॉस ो गयी। ऑ िंखें से ऑ िंसू की दो बडी-बडी बँद
ू े धगर
पडी। ऑ िंखें पोंछतें ु ए बोले-वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नदद!ू आठ-दस साल
साथ र ा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तर र ते थे, जैसे
दो सगे भाई र ते ों। खत में मेरी क्या तरीफ मलखी ै ? मगर तुम् ें क्या मालूम
ोगा?

‘आप तो चल ी र े ै , दे ख लीन्जएगा।‘

‘कफन का इदताजाम ो गया ै ?’

‘न ी ु जूर, का न कक अभी ल ास की डाक्टरी ोगी। मुदा अब जल्दी चमलए।


ऐसा न ो, कोई दस
ू रा आदमी बुलाने आता ो।‘

‘ मारे दफ्तर के सब लोग आ गये ोंगे?’

‘जी ॉ;ॉँ इस मु ल्लेवाले तो सभी थे।

‘मदारीलाल जब सुबोिचदद्र के घर प ु ँचे, तब उद ें ऐसा मालम


ू ु आ कक सब
लोग उनकी तरफ सिंदे की ऑ िंखें से दे ख र े ैं। पमु लस इिंस्पेक्टर ने तरु दत उद ें
बल
ु ा कर क ा-आप भी अपना बयान मलखा दें और सबके बयान तो मलख चक
ु ा
ू ँ ।‘

मदारीलाल ने ऐसी साविानी से अपना बयान मलखाया कक पुमलस के अफसर भी


दिं ग र गये। उद ें मदारीलाल पर शुब ा ोता था, पर इस बयान ने उसका अिंकुर
भी ननकाल डाला।

इसी वक्त सुबोि के दोनों बालक रोते ु ए मदारीलाल के पास आये और क ा-


चमलए, आपको अम्मॉ ॉँ बुलाती ैं। दोनों मदारीलाल से पररधचत थे। मदारीलाल
य ॉ ॉँ तो रोज ी आते थे; पर घर में कभी न ीिं गये थे। सब
ु ोि की स्त्री उनसे पदाम
करती थी। य बल
ु ावा सन
ु कर उनका हदल िडक उठा-क ी इसका मझ
ु पर
शुब ा न ो। क ीिं सुबोि ने मेरे ववषय में कोई सिंदे न प्रकट ककया ो। कुछ
िझझकते और कुछ डरते ु ए भीतर गए, तब वविवा का करुण-ववलाप सुन कर
कलेजा कॉपॉँ उठाृा। इद ें दे खते ी उस अबला के ऑ िंसुओिं का कोई दस
ू रा स्रोत
खुल गया और लडकी तो दौड कर इनके पैरों से मलपट गई। दोनों लडको ने भी
घेर मलया। मदारीलाल को उन तीनों की ऑ िंखें में ऐसी अथा वेदना, ऐसी ववदारक
याचना भरी ु ई मालम
ू ु ई कक वे उनकी ओर दे ख न सके। उनकी आत्मा अद ें
धिक्कारने लगी। न्जन बेचारों को उन पर इतना ववश्वास, इतना भरोसा, इतनी
अत्मीयता, इतना स्ने था, उद ीिं की गदम न पर उद ोंने छुरी फेरी! उद ीिं के ाथों
य भरा-पूरा पररवार िूल में ममल गया! इन असा ायों का अब क्या ाल ोगा?
लडकी का वववा करना ै ; कौन करे गा? बच्चों के लालन-पालन का भार कौन
उठाएगा? मदारीलाल को इतनी आत्मनलानन ु ई कक उनके मँु से तसल्ली का
एक शब्द भी न ननकला। उद ें ऐसा जान पडा कक मेरे मुख में कामलख पुती ै,
मेरा कद कुछ छोटा ो गया ै । उद ोंने न्जस वक्त नोट उडये थे, उद ें गुमान भी
न था कक उसका य फल ोगा। वे केवल सुबोि को न्जच करना चा ते थें
उनका सवमनाश करने की इच्छा न थी।

शोकातुर वविवा ने मससकते ु ए क ा। भैया जी, म लोगों को वे मझिार में


छोड गए। अगर मुझे मालूम ोता कक मन में य बात ठान चुके ैं तो अपने
पास जो कुछ था; व सब उनके चरणों पर रख दे ती। मझ
ु से तो वे य ी क ते र े
कक कोई न कोई उपाय ो जायगा। आप ी के माफमत वे कोई म ाजन ठनक
करना चा ते थे। आपके ऊपर उद ें ककतना भरोसा था कक क न ीिं सकती।

मदारीलाल को ऐसा मालम


ू ु आ कक कोई उनके हृदय पर नश्तर चला र ा ै।
उद ें अपने किंठ में कोई चीज फॅंसी ु ई जान पडती थी।

रामेश्वरी ने कफर क ा-रात सोये, तब खूब ँस र े थे। रोज की तर दि


ू वपया,
बच्चो को प्यार ककया, थोडीदे र ारमोननयम चाया और तब कुल्ला करके लेटे।
कोई ऐसी बात न थी न्जससे लेश्मात्र भी सिंदे ोता। मझ
ु े धचन्दतत दे खकर बोले -
तुम व्यथम घबराती ों बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती ै । आिखर व ककस
हदन काम आयेगी? मेरे साथ के खेले ु ए ैं। इन नगर में उनका सबसे पररचय
ै । रपयों का प्रबदि आसानी से ो जायगा। कफर न जाने कब मन में य बात
समायी। मैं नसीबों-जली ऐसी सोयी कक रात को ममनकी तक न ीिं। क्या जानती
थी कक वे अपनी जान पर खेले जाऍगेिं ?

मदारीलाल को सारा ववश्व ऑ िंखों में तैरता ु आ मालूम ु आ। उद ोंने ब ु त जब्त


ककया; मगर ऑ िंसुओिं के प्रभाव को न रोक सके।

रामेश्वरी ने ऑ िंखे पोंछ कर कफर क ा-मैया जी, जो कुछ ोना था, व तो ो चुका;
लेककन आप उस दष्ु ट का पता जरर लगाइए, न्जसने मारा सवमनाश कर मलदया
ै। य दफ्तर ी के ककसी आदमी का काम ै । वे तो दे वता थे। मुझसे य ी
क ते र े कक मेरा ककसी पर सिंदे न ीिं ै , पर ै य ककसी दफ्तरवाले का ी
काम। आप से केवल इतनी ववनती करती ू ँ कक उस पापी को बच कर न जाने
दीन्जएगा। पुमलसताले शायद कुछ ररश्वत लेकर उसे छोड दें । आपको दे ख कर
उनका य ौसला न ोगा। अब मारे मसर पर आपके मसवा कौन ै । ककससे
अपना द:ु ख क ें ? लाश की य दग
ु नम त ोनी भी मलखी थी।

मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कक सब कुछ खोल दें । साफ क
दें , मै ी व दष्ु ट, व अिम, व पामर ू ँ। वविवा के पेरों पर धगर पडें और क ें ,
व ी छुरी इस त्यारे की गदम न पर फेर दो। पर जबान न खल
ु ी; इसी दशा में बैठे-
बैठे उनके मसर में ऐसा चक्कर आया कक वे जमीन पर धगर पडे।

तीसरे प र लाश की परीक्षा समाप्त ु ई। अथी जलाशय की ओर चली। सारा


दफ्तर, सारे ु क्काम और जारों आदमी साथ थे। दा -सिंस्कार लडको को करना
चाह ए था पर लडके नाबामलग थे। इसमलए वविवा चलने को तैयार ो र ी थी
कक मदारीलाल ने जाकर क ा-ब ू जी, य सिंस्कार मुझे करने दो। तुम कक्रया पर
बैठ जाओिंगी, तो बच्चों को कौन सँभालेगा। सुबोि मेरे भाई थे। न्जिंदगी में उनके
साथ कुछ सलूक न कर सका, अब न्जिंदगी के बाद मुझे दोस्ती का कुछ क अदा
कर लेने दो। आिखर मेरा भी तो उन पर कुछ क था। रामेश्वरी ने रोकर क ा-
आपको भगवान ने बडा उदार हृदय हदया ै भैया जी, न ीिं तो मरने पर कौन
ककसको पूछता ै । दफ्तर के ओर लोग जो आिी-आिी रात तक ॉँ खडे
ाथ बॉिे
र ते थे झूठन बात पूछने न आये कक जरा ढाढ़स ोता।

मदारीलाल ने दा -सिंस्कार ककया। तेर हदन तक कक्रया पर बैठे र े । तेर वें हदन
वपिंडदान ु आ; ब्र ामणों ने भोजन ककया, मभखररयों को अदन-दान हदया गया, ममत्रों
की दावत ु ई, और य सब कुछ मदारीलाल ने अपने खचम से ककया। रामेश्वरी ने
ब ु त क ा कक आपने न्जतना ककया उतना ी ब ुत ै । अब मै आपको और
जेरबार न ीिं करना चा ती। दोस्ती का क इससे ज्यादा और कोई क्या अदा
करे गा, मगर मदारीलाल ने एक न सन
ु ी। सारे श र में उनके यश की िम
ू मच
गयीिं, ममत्र ो तो ऐसा ो।

सोल वें हदन वविवा ने मदारीलाल से क ा-भैया जी, आपने मारे साथ जो
उपकार और अनग्र
ु ककये ें , उनसे म मरते दम तक उऋण न ीिं ो सकते।
आपने मारी पीठ पर ाथ न रखा ोता, तो न-जाने मारी क्या गनत ोती। क ीिं
रख की भी छॉ ॉँ तो न ीिं थी। अब में घर जाने दीन्जए। व ॉ ॉँ दे ात में खचम भी
कम ोगा और कुछ खेती बारी का मसलमसला भी कर लँ ग
ू ी। ककसी न ककसी तर
ववपन्त्त के हदन कट ी जायँगे। इसी तर मारे ऊपर दया रिखएगा।

मदारीलाल ने पूछा-घर पर ककतनी जायदाद ै?

रामेश्वरी-जायदाद क्या ै , एक कच्चा मकान ै और दर-बार बीघे की काश्तकारी


ै । पक्का मकान बनवाना शुर ककया था; मगर रपये पूरे न पडे। अभी अिूरा पडा

ुआ ै । दस-बार जार खचम ो गये और अभी छत पडने की नौबत न ीिं


आयी।

मदारीलाल-कुछ रपये बैंक में जमा ें , या बस खेती ी का स ारा ै?

वविवा-जमा तो एक पाई भी न ीिं ैं , भैया जी! उनके ाथ में रपये र ने ी न ीिं


पाते थे। बस, व ी खेती का स ारा ै।

मदारी0-तो उन खेतों में इतनी पैदावार ो जायगी कक लगान भी अदा ो जाय


ओर तुम लोगो की गुजर-बसर भी ो?

रामेश्वरी-और कर ी क्या सकते ैं , भेया जी! ककसी न ककसी तर न्जिंदगी तो


काटश्नी ी ै । बच्चे न ोते तो मै ज र खा लेती।

मदारी0-और अभी बेटी का वववा भी तो करना ै।

वविवा-उसके वववा की अब कोई धचिंता न ीिं। ककसानों में ऐसे ब ु त से ममल


जायेंगे, जो बबना कुछ मलये-हदये वववा कर लें गे।

मदारीलाल ने एक क्षण सोचकर क ा-अगर में कुछ सला दँ ,ू तो उसे मानेंगी


आप?

रामेश्वरी-भैया जी, आपकी सला न मानँग


ू ी तो ककसकी सला मानँग
ू ी और दस
ू रा
ै ी कौन?

मदारी0-तो आप उपने घर जाने के बदले मेरे घर चमलए। जैसे मेरे बाल-बच्चे


र ें गें, वैसे ी आप के भी र ें गे। आपको कष्ट न ोगा। ईश्वर ने चा ा तो कदया
का वववा भी ककसी अच्छे कुल में ो जायगा।

वविवा की ऑ िंखे सजल ो गयीिं। बोली-मगर भैया जी, सोधचए.....मदारीलाल ने


बात काट कर क ा-मैं कुछ न सोचँग
ू ा और न कोई उज्र सुनँग
ु ा। क्या दो भाइयों
के पररवार एक साथ न ीिं र ते? सब
ु ोि को मै अपना भाई समझता था और
मेशा समझँग
ू ा।

वविवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और
आज दस साल से उनका पालन कर र े ै । दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते ै और
कदया का एक प्रनतन्ष्ठत कुल में वववा ो गया े । मदारीलाल और उनकी स्त्री
तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते ैं और उनके इशारों पर चलते ैं। मदारीलाल
सेवा से अपने पाप का प्रायन्श्चत कर र े ैं।

***
कप्ताि सा ब

जगत मसिं को स्कूल जान कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अवप्रय
न था। व सैलानी, आवारा, घुमक्कड युवक थािं कभी अमरद के बागों की ओर
ननकल जाता और अमरदों के साथ माली की गामलयॉ ॉँ बडे शौक से खाता। कभी
दररया की सैर करता और मल्ला ों को डोंधगयों में बैठकर उस पार के दे ातों में
ननकल जाता। गामलयॉ ॉँ खाने में उसे मजा आता था। गामलयॉ ॉँ खाने का कोइर
अवसर व ाथ से न जाने दे ता। सवार के घोडे के पीछे ताली बजाना, एक्को को
पीछे से पकड कर अपनी ओर खीिंचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके
मनोरिं जन के ववषय थे। आलसी काम तो न ीिं करता; पर दव्ु यमसनों का दास ोता
ै , और दव्ु यमसन िन के बबना पूरे न ीिं ोते। जगतमसिं को जब अवसर ममलता
घर से रपये उडा ले जात। नकद न ममले, तो बरतन और कपडे उठा ले जाने में
भी उसे सिंकोच न ोता था। घर में शीमशयॉ ॉँ और बोतलें थीिं, व सब उसने एक-
एक करके गुदडी बाजार प ु ँचा दी। पुराने हदनों की ककतनी चीजें घर में पडी थीिं,
उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष ओर ननपुण था कक उसकी
चतुराई और पटुता पर आश्चयम ोता था। एक बार बा र ी बा र, केवल काननमसों
के स ारे अपने दो-मिंन्जला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ी से पीतल
की एक बडी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आ ट तक न ममली।

उसके वपता ठाकुर भक्तस मस िं अपने कस्बे के डाकखाने के मुिंशी थे। अफसरों ने
उद ें श र का डाकखाना बडी दौड-िूप करने पर हदया था; ककदतु भक्तमसिं न्जन
इरादों से य ॉ ॉँ आये थे, उनमें से एक भी परू ा न ु आ। उलटी ानन य ु ई कक
दे ातो में जो भाजी-साग, उपले-ईिन मुफ्त ममल जाते थे, वे सब य ॉ ॉँ बिंद ो
गये। य ॉ ॉँ सबसे पुराना घराँव थािं न ककसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे।
इस दरु वस्था में जगतमसिं की थलपककयॉ ॉँ ब ु त अखरतीिं। अद ोंने ककतनी ी
बार उसे बडी ननदम यता से पीटा। जगतमसिं भीमकाय ोने पर भी चुपके में मार
खा मलया करता थािं अगर व अपने वपता के ाथ पकड लेता, तो व ल भी न
सकते; पर जगतमसिं इतना सीनाजोर न था। ॉ,ॉँ मार-पीट, घुडकी-िमकी ककसी का
भी उस पर असर न ोता था।

जगतमसिं ज्यों ॉँ
ी घर में कदम रखता; चारों ओर से कॉव-कॉ वॉँ मच जाती, मॉ ॉँ दरु -
दरु करके दौडती, ब ने गामलयॉ ॉँ दे न लगती; मानो घर में कोई सॉडॉँ घस
ु आया ो।
घर ताले उसकी सरू त से जलते थे। इन नतरस्कारों ने उसे ननलमज्ज बना हदया थािं
कष्टों के ज्ञान से व ननद्मवदद्व-सा ो गया था। ज ॉ ॉँ नीिंद आ जाती, व ीिं पड
र ता; जो कुछ ममल जात, व ी खा लेता।

ज्यों-ज्यों घर वालें को उसकी चोर-कला के गप्ु त सािनों का ज्ञान ोता जाता था,
वे उससे चौकदने ोते जाते थे। य ॉ ॉँ तक कक एक बार पूरे म ीने-भर तक उसकी
ॉँ वाले ने िुऑ िंिार
दाल न गली। चरस वाले के कई रपये ऊपर चढ़ गये। गॉजे
तकाजे करने शुर ककय। लवाई कडवी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को
ननकलना मुन्श्कल ॉँ में र ता; पर घात न ममलत थी।
ो गया। रात-हदन ताक-झॉक
आिखर एक हदन बबल्ली के भागों छनिंका टूटा। भक्तमसिं दोप र को डाकखानें से
चले, जो एक बीमा-रन्जस्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई रकारा या डाककया
शरारत कर जाय; ककिं तु घर आये तो मलफाफे को अचकन की जेब से ननकालने की
सुधि न र ी। जगतमसिं तो ताक लगाये ु ए था ी। पेसे के लोभ से जेब टटोली,
तो मलफाफा ममल गया। उस पर कई आने के हटकट लगे थे। व कई बार हटकट
चुरा कर आिे दामों पर बेच चुका था। चट मलफाफा उडा हदया। यहद उसे मालूम
ोता कक उसमें नोट ें , तो कदाधचत व न छूता; लेककन जब उसने मलफाफा फाड
डाला और उसमें से नोट ननक पडे तो व बडे सिंकट में पड गया। व फटा ु आ
मलफाफा गला-फाड कर उसके दष्ु कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस
मशकारी की-सी ो गयी, जो धचडडयों का मशकार करने जाय और अनजान में
ककसी आदमी पर ननशाना मार दे । उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, द:ु ख
था, पर उसे भूल का दिं ड स ने की शन्क्त न थी। उसने नोट मलफाफे में रख हदये
और बा र चला गया।
गरमी के हदन थे। दोप र को सारा घर सो र ा था; पर जगत की ऑ िंखें में नीिंद
न थी। आज उसकी बरु ी तर किंु दी ोगी- इसमें सिंदे न था। उसका घर पर
ॉँ हदन के मलए उसे क ीिं िखसक जाना चाह ए। तब तक
र ना ठनक न ीिं, दस-पॉच
लोगों का क्रोि शािंत ो जाता। लेककन क ीिं दरू गये बबना काम न चलेगा। बस्ती
में व क्रोि हदन तक अज्ञातवास न ीिं कर सकता। कोई न कोई जरर ी उसका
पता दे गा ओर व पकड मलया जायगा। दरू जाने केक मलए कुछ न कुछ खचम तो
पास ोना ी चह ए। क्यों न व मलफाफे में से एक नोट ननकाल ले ? य तो
मालम
ू ी ो जायगा कक उसी ने मलफाफा फाडा ै , कफर एक नोट ननकल लेने में
क्या ानन ै ? दादा के पास रपये तो े ी, झक मार कर दे दें गे। य सोचकर
उसने दस रपये का एक नोट उडा मलया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी
कल्पना का प्रादभ
ु ामव ु आ। अगर ये सब रपये लेकर ककसी दस
ू रे श र में कोई
दक
ू ान खोल ले, तो बडा मजा ो। कफर एक-एक पैसे के मलए उसे क्यों ककसी की
चोरी करनी पडे! कुछ हदनों में व ब ु त-सा रपया जमा करके घर आयेगा; तो
लोग ककतने चककत ो जायेंगे!

उसने मलफाफे को कफर ननकाला। उसमें कुल दो सौ रपए के नोट थे। दो सौ में
दि
ू की दक
ू ान खब
ू चल सकती ै । आिखर मरु ारी की दक
ू ान में दो-चार कढ़ाव
और दो-चार पीतल के थालों के मसवा और क्या ै ? लेककन ककतने ठाट से र ता
े ! रपयों की चरस उडा दे ता े । एक-एक दॉवॉँ पर दस-दस रपए रख दतेा ै,
नफा न ोता, तो व ठाट क ॉ ॉँ से ननभाता? इस आननद-कल्पना में व इतना
मनन ु आ कक उसका मन उसके काबू से बा र ो गया, जैसे प्रवा में ककसी के
पॉवॉँ उखड जायें ओर व ल रों में ब जाय।

उसी हदन शाम को व बम्बई चल हदया। दस


ू रे ी हदन मश
ुिं ी भक्तमसिं पर
गबन का मुकदमा दायर ो गया।

बम्बई के ककले के मैदान में बैंड बज र ा था और राजपूत रे न्जमें ट के सजीले


सिंद
ु र जवान कवायद कर र े थे, न्जस प्रकार वा बादलों को नए-नए रप में
बनाती और बबगाडती ॉँ सेना नायक सैननकों को नए-नए रप में
ै , उसी भॉनत
बनाती और बबगाडती ॉँ सेना नायक सैननकों को नए-नए रप में बना
ै , उसी भॉनत
बबगाड र ा था।
जब कवायद खतम ो गयी, तो एक छर रे डील का युवक नायक के सामने
आकर खडा ो गया। नायक ने पूछा-क्या नाम ै ? सैननक ने फौजी सलाम करके
क ा-जगतमसिं ?

‘क्या चा ते ो।‘

‘फौज में भरती कर लीन्जए।‘

‘मरने से तो न ीिं डरते?’

‘बबलकुल न ीिं-राजपूत ू ँ।‘

‘ब ु त कडी मे नत करनी पडेगी।‘

‘इसका भी डर न ीिं।‘

‘अदन जाना पडेगा।‘

‘खुशी से जाऊँगा।‘

कप्तान ने दे खा, बला का ान्जर-जवाब, मनचला, ह म्मत का िनी जवान ै , तरु िं त


फौज में भरती कर मलया। तीसरे हदन रे न्जमें ट अदन को रवाना ु आ। मगर ज्यों-
ज्यों ज ाज आगे चलता था, जगत का हदल पीछे र जाता था। जब तक जमीन
का ककनारा नजर आता र ा, व ज ाज के डेक पर खडा अनुरक्त नेत्रों से उसे
दे खता र ा। जब व भूमम-तट जल में ववलीन ॉँ
ो गया तो उसने एक ठिं डी सॉस
ली और मँु ढॉपॉँ कर रोने लगा। आज जीवन में प ली बर उसे वप्रयजानों की
याद आयी। व छोटा-सा कस्बा, व ॉँ की दक
गॉजे ू ान, व सैर-सपाटे , व सु ू द-
ममत्रों के जमघट ऑ िंखों में कफरने लगे। कौन जाने, कफर कभी उनसे भें ट ोगी या
न ीिं। एक बार व इतना बेचैन ु आ कक जी में आय, पानी में कूद पडे।

जगतमसिं को अदन में र ते तीन म ीने गज ॉँ


ु र गए। भॉनत-भॉ ॉँ की नवीनताओिं
नत
ने कई हदन तक उसे मनु ि ककये रखा; लेककन परु ाने सिंस्कार कफर जाग्रत ोने
लगे। अब कभी-कभी उसे स्ने मयी माता की याद आने लगी, जो वपता के क्रोि,
ब नों के धिक्कार और स्वजनों के नतरस्कार में भी उसकी रक्षा करती थी। उसे
व हदन याद आया, जब एक बार व बीमार पडा था। उसके बचने की कोई
आशा न थी, पर न तो वपता को उसकी कुछ धचदता थी, न ब नों को। केवल
माता थी, जो रात की रात उसके मसर ाने बैठन अपनी मिरु , स्ने मयी बातों से
उसकी पीडा शािंत करती र ी थी। उन हदनों ककतनी बार उसने उस दे वी को नीव
राबत्र में रोते दे खा था। व स्वयिं रोगों से जीझम ो र ी थी; लेककन उसकी सेवा-
शुश्रूषा में व अपनी व्यथा को ऐसी भूल गयी थी, मानो उसे कोई कष्ट ी न ीिं।
क्या उसे माता के दशमन कफर ोंगे? व इसी क्षोभ ओर नेराश्य में समुद्र-तट पर
चला जाता और घण्टों अनिंत जल-प्रवा को दे खा करता। कई हदनों से उसे घर
पर एक पत्र भेजने की इच्छा ो र ी थी, ककिं तु लज्जा और नलाननक कके कारण
व टालता जाता था। आिखर एक हदन उससे न र ा गया। उसने पत्र मलखा और
ॉँ
अपने अपरािों के मलए क्षमा मॉग। पत्र आहद से अदत तक भन्क्त से भरा ु आ
थािं अिंत में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन हदया था-माता जी, मैने
बडे-बडे उत्पात ककय ें , आप लेग मुझसे तिंग आ गयी थी, मै उन सारी भल
ू ों के
मलए सच्चे हृदय से लन्ज्जत ू ँ और आपको ववश्वास हदलाता ू ँ कक जीता र ा, तो
कुछ न कुछ करके हदखाऊँगा। तब कदाधचत आपको मझ
ु े अपना पत्र
ु क ने में
सिंकोच न ोगा। मुझे आशीवाद दीन्जए कक अपनी प्रनतज्ञा का पालन कर सकूँ।‘

य पत्र मलखकर उसने डाकखाने में छोडा और उसी हदन से उत्तर की प्रतीक्षा
करने लगा; ककिं तु एक म ीना गज
ु र गया और कोई जवाब न आया। आसका जी
घबडाने लगा। जवाब क्यों न ीिं आता-क ीिं माता जी बीमार तो न ीिं ैं ? शायद
दादा ने क्रोि-वश जवाब न मलखा ोगा? कोई और ववपन्त्त तो न ीिं आ पडी?
कैम्प में एक वक्ष
ृ के नीचे कुछ मसपाह यों ने शामलग्राम की एक मूनतम रख छोडी
थी। कुछ श्रद्धालू सैननक रोज उस प्रनतमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतमसिं
उनकी ँसी उडाया करता; पर आप व ॉँ प्रनतमा के सम्मुख
ववक्षक्षप्तों की भॉनत
जाकर बडी दे र तक मस्तक झुकाये बेठा र ा। व इसी ्यानावस्था में बैठा था
कक ककसी ने उसका नाम लेकर पक
ु ार, य दफ्तर का चपरासी था और उसके
नाम की धचिी लेकर आया थािं जगतमसिं ने पत्र ाथ में मलया, तो उसकी सारी
दे कॉपॉँ उठन। ईश्वर की स्तुनत करके उसने मलफाफा खोला ओर पत्र पढ़ा। मलखा
ॉँ वषम की सजा
था-‘तुम् ारे दादा को गबन के अमभयोग में पॉच ो गई। तुम् ारी
माता इस शोक में मरणासदन ै । छुट्टी ममले, तो घर चले आओ।‘

जगतमसिं ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर क -‘ ु जूर, मेरी मॉ ॉँ बीमार ै,


मुझे छुट्टी दे दीन्जए।‘

कप्तान ने कठोर ऑ िंखों से दे खकर क ा-अभी छुट्टी न ीिं ममल सकती।

‘तो मेरा इस्तीफा ले लीन्जए।‘

‘अभी इस्तीफा न ीिं मलया जा सकता।‘

‘मै अब एक क्षण भी न ीिं र सकता।‘

‘र ना पडेगा। तुम लोगों को ब ु त जल्द लाभ पर जाना पडेगा।‘

‘लडाई नछड गयी! आ , तब मैं घर न ीिं जाऊँगा? म लोग कब तक य ॉ ॉँ से


जायेंगे?’

‘ब ु त जल्द, दो ी चार हदनों में ।‘


4

चार वषम बीत गए। कैप्टन जगतमसिं का-सा योद्धा उस रे जीमें ट में न ीिं ैं। कहठन
अवस्थाओिं में उसका सा स और भी उत्तेन्जत ो जाता ै । न्जस मह म में
सबकी ह म्मते जवाब दे जाती ै , उसे सर करना उसी का काम ै। ल्ले और
िावे में व सदै व सबसे आगे र ता ै , उसकी त्योररयों पर कभी मैल न ीिं आता;
उसके साथ ी व इतना ववनम्र, इतना गिंभीर, इतना प्रसदनधचत ै कक सारे
अफसर ओर मात त उसकी बडाई करते ैं , उसका पुनजीतन-सा ो गया। उस पर
अफसरों को इतना ववश्वास ै कक अब वे प्रत्येक ववषय में उससे परामशम करते
ें । न्जससे पनू छए, व ी वीर जगतमसिं की ववरदावली सन
ु ा दे गा-कैसे उसने जममनों
की मेगजीन में आग लगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से
ननकाला, कैसे अपने एक मात त मसपा ी को किंिे पर लेकर ननल आया। ऐसा
जान पडता ै , उसे अपने प्राणों का मो न ी, मानो व काल को खोजता कफरता
ो!

लेककन ननत्य राबत्र के समय, जब जगतमसिं को अवकाश ममलता ै, व अपनी


छोलदारी में अकेले बैठकर घरवालों की याद कर मलया करता ै -दो-चार ऑ िंसू की
बँदे अवश्य धगरा दे ता े। व प्रनतमास अपने वेतन का बडा भाग घर भेज दे ता
ै , और ऐसा कोई सप्ता न ीिं जाता जब कक व माता को पत्र न मलखता ो।
सबसे बडी धचिंता उसे अपने वपता की ै , जो आज उसी के दष्ु कमो के कारण
कारावास की यातना झेल र े ैं। ाय! व कौन हदन ोगा, जब कक व उनके
चरणों पर मसर रखकर अपना अपराि क्षमा करायेगा, और व उसके मसर पर
ाथ रखकर आशीवाद दें गे?

सवा चार वषम बीत गए। सिं्या का समय ै । नैनी जेल के द्वार पर भीड लगी

ु ई ै । ककतने ी कैहदयों की ममयाद परू ी ो गयी ै । उद ें मलवा जाने के मलए


उनके घरवाले आये ुए ै ; ककदतु बढ़
ू ा भक्तमसिं अपनी अँिेरी कोठरी में मसर
झक
ु ाये उदास बैठा ु आ ै । उसकी कमर झक
ु कर कमान ो गयी ै । दे अन्स्थ-
पिंजर-मात्र र गयी े । ऐसा जान पडता ें , ककसी चतुर मशल्पी ने एक अकाल-
पीडडत मनुष्य की मूनतम बनाकर रख दी ै । उसकी भी मीयाद पूरी ो गयी ै ;
लेककन उसके घर से कोई न ीिं आया। आये कौन? आने वाल था ी कौन?

एक बूढ़ ककदतु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसक किंिा ह लाया और बोला-क ो


भगत, कोई घर से आया?

भक्तमसिं ने किंवपत किंठ-स्वर से क ा-घर पर ै ी कौन?

‘घर तो चलोगे ी?’

‘मेरे घर क ॉ ॉँ ै ?’

‘तो क्या य ी पडे र ोंगे ?’

‘अगर ये लोग ननकाल न दें गे, तो य ीिं पडा र ू ँगा।‘

आज चार साल के बाद भगतमसिं को अपने प्रताडडत, ननवाममसत पुत्र की याद आ


र ी थी। न्जसके कारण जीतन का सवमनाश ो गया; आबर ममट गयी; घर बरबाद
ो गया, उसकी स्मनृ त भी अस य थी; ककदतु आज नैराश्य ओर द:ु ख के अथा
सागर में डूबते ु ए उद ोंने उसी नतनके का स ार मलयािं न-जाने उस बेचारे की
क्या दख्शा ु ई। लाख बरु ा ै , तो भी अपना लडका े । खानदान की ननशानी तो
े । मरँगा तो चार ऑ िंसू तो ब ायेगा; दो धचल्लू पानी तो दे गा। ाय! मैने उसके
साथ कभी प्रेम का व्यव ार न ीिं ककयािं जरा भी शरारत करता, तो यमदत
ू की
ॉँ उसकी गदम न पर सवार
भॉनत ो जाता। एक बार रसोई में बबना पैर िोये चले
जाने के दिं ड में मेने उसे उलटा लटका हदया था। ककतनी बार केवल जोर से
बोलने पर मैंने उस वमाचे लगाये थे। पत्र
ु -सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न
ककयािं उसी का दिं ड ै । ज ॉ ॉँ प्रेम का बदिन मशधथल ो, व ॉ ॉँ पररवार की रक्षा कैसे
ो सकती ै?

सबेरा ु आ। आशा की सूयम ननकला। आज उसकी रन्श्मयॉ ॉँ ककतनी कोमल और


मिरु थीिं, वायु ककतनी सख
ु द, आकाश ककतना मनो र, वक्ष
ृ ककतने रे -भरे , पक्षक्षयों
का कलरव ककतना मीठा! सारी प्रकृनत आश के रिं ग में रिं गी ु ई थी; पर भक्तमसिं
के मलए चारों ओर िरे अिंिकार था।

जेल का अफसर आया। कैदी एक पिंन्क्त में खडे ु ए। अफसर एक-एक का नाम
लेकर रर ाई का परवाना दे ने लगा। कैहदयों के चे रे आशा से प्रफुमलत थे।
न्जसका नाम आता, व खुश-खुश अफसर के पास जात, परवाना लेता, झुककर
सलाम करता और तब अपने ववपन्त्तकाल के सिंधगयों से गले ममलकर बा र
ननकल जाता। उसके घरवाले दौडकर उससे मलपट जाते। कोई पैसे लुटा र ा था,
क ीिं ममठाइयॉ ॉँ बॉटी
ॉँ जा र ी थीिं, क ीिं जेल के कममचाररयों को इनाम हदया जा र ा

था। आज नरक के पत
ु ले ववनम्रता के दे वता बने ु ए थे।

अदत में भक्तमसिं का नाम आया। व मसर झुकाये आह स्ता-आह स्ता जेलर के
पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले , मानो
सामने कोई समद्र
ु ल रें मार र ा ै । द्वार से बा र ननकल कर व जमीन पर
बैठ गये। क ॉ ॉँ जायँ?

स सा उद ोंने एक सैननक अफसर को घोडे पर सवार, जेल की ओर आते दे खा।


उसकी दे पर खाकी वरदी थी, मसर पर कारचोबी साफा। अजीब शान से घोडे पर
बैठा ु आ था। उसके पीछे -पीछे एक कफटन आ र ी थी। जेल के मसपाह यों ने
अफसर को दे खते ी बददक
ू ें सँभाली और लाइन में खडे ाकर सलाम ककया।

भक्तसमसिं ने मन में क ा-एक भानयवान व ै , न्जसके मलए कफटन आ र ी ै;


ओर एक अभागा मै ू ँ, न्जसका क ीिं हठकाना न ीिं।

फौजी अफसर ने इिर-उिर दे खा और घोडे से उतर कर सीिे भक्तमसिं के


सामने आकर खडा ो गया।

भक्तमसिं ने उसे ्यान से दे खा और तब चौंककर उठ खडे ु ए और बोले-अरे !


बेटा जगतमसिं !

जगतमसिं रोता ु आ उनके पैरों पर धगर पडा।

***

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