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दोपहर का भोजन
अमरकाांत
अचानक उिे मािमू हुआ कक बहुत दे र िे उिे प्याि नहीां िगी हैं। वह मतवािे की तरह
उठी ओर गगरे िे िोटा-भर पानी िेकर गट-गट चढा गई। खािी पानी उिके किेजे में िग
गया और वह 'हाय राम' कहकर वहीां जमीन पर िेट गई।
आधे घांटे तक वहीां उिी तरह पडी रहने के बाद उिके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों
को मि-मिकर इधर-उधर दे खा और किर उिकी दृष्टट ओिारे में अध-टूटे खटोिे पर िोए
अपने छह वर्षीय िडके प्रमोद पर जम गई।
िडका नांग-धडांग पडा था। उिके गिे तथा छाती की हडि्डयाँ िाि ददखाई दे ती थीां। उिके
हाथ-पैर बािी ककडडयों की तरह िख
ू े तथा बेजान पडे थे और उिका पेट हां डडया की तरह
िूिा हुआ था। उिका मख
ु खि
ु ा हुआ था और उि पर अनगगनत मष्खखयाँ उड रही थीां।
दि-पांद्रह समनट तक वह उिी तरह खडी रही, किर उिके चेहरे पर व्यग्रता िैि गई और उिने आिमान
तथा कडी धप
ू की ओर गचांता िे दे खा। एक-दो क्षण बाद उिने सिर को ककवाड िे कािी आगे बढाकर
गिी के छोर की तरि ननहारा, तो उिका बडा िडका रामचांद्र धीरे -धीरे घर की ओर िरकता नजर
आया।
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उिने िुती िे एक िोटा पानी ओिारे की चौकी के पाि नीचे रख ददया और चौके में जाकर खाने के
स्थान को जल्दी-जल्दी पानी िे िीपने-पोतने िगी। वहाँ पीढा रखकर उिने सिर को दरवाजे की ओर
घम
ु ाया ही था कक रामचांद्र ने अांदर कदम रखा।
रामचांद्र आकर धम-िे चौंकी पर बैठ गया और किर वहीां बेजान-िा िेट गया। उिका मँह
ु िाि तथा चढा
हुआ था, उिके बाि अस्त-व्यस्त थे और उिके िटे -परु ाने जत
ू ों पर गदद जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहिे दहम्मत नहीां हुई कक उिके पाि आए और वहीां िे वह भयभीत दहरनी की भाँनत सिर
ु ाकर बेटे को व्यग्रता िे ननहारती रही। ककांत,ु िगभग दि समनट बीतने के पश्चार भी जब
उचका-घम
रामचांद्र नहीां उठा, तो वह घबरा गई। पाि जाकर पक
ु ारा - 'बडकू, बडकू!' िेककन उिके कुछ उत्तर न
दे ने पर डर गई और िडके की नाक के पाि हाथ रख ददया। िाांि ठीक िे चि रही थी। किर सिर पर हाथ
रखकर दे खा, बख
ु ार नहीां था। हाथ के स्पशद िे रामचांद्र ने आँखें खोिीां। पहिे उिने माां की ओर िस्
ु त
नजरों िे दे खा, किर झट-िे उठ बैठा। जूते ननकािने और नीचे रखे िोटे के जि िे हाथ-पैर धोने के बाद
वह यांत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिद्धेश्वर ने डरते-डरते पछ
ू ा, ''खाना तैयार है । यहीां िगाऊँ खया?''
रामचांद्र ने उठते हुए प्रश्न ककया, ''बाबू जी खा चक
ु े ?''
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर ददया, ''आते ही होंगे।''
रामचांद्र पीढे पर बैठ गया। उिकी उम्र िगभग इखकीि वर्षद की थी। िांबा, दब
ु िा-पतिा, गोरा रां ग, बडी-
बडी आँखें तथा होठों पर झर्ु रद याँ।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थािी िामने िाकर रख दी और पाि ही बैठकर पांखा करने िगी। रामचांद्र ने खाने
की ओर दाशदननक की भाँनत दे खा। कुि दो रोदटयाँ, भर-कटोरा पननयाई दाि और चने की तिी तरकारी।
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ककांतु िच बोिने की उिकी तबीयत नहीां हुई और झठ
ू -मठ
ू उिने कहा, ''ककिी िडके के यहाँ पढने गया
है , आता ही होगा। ददमाग उिका बडा तेज है और उिकी तबीयत चौबीि घांटे पढने में ही िगी रहती है ।
हमेशा उिी की बात करता रहता है ।''
सिद्धेश्वरी भय तथा आतांक िे अपने बेटे को एकटक ननहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते
उिने पछ
ू ा, ''वहाँ कुछ हुआ खया?''
रामचांद्र ने अपनी बडी-बडी भावहीन आँखों िे अपनी माँ को दे खा, किर नीचा सिर करके कुछ रूखाई िे
बोिा, ''िमय आने पर िब ठीक हो जाएगा।''
सिद्धेश्वरी चप
ु रही। धप
ू और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आिमान में बादि में एक-दो
टुकडे पाि की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गिी िे गज
ु रते हुए एक खडखडडया इखके की आवाज
आ रही थी। और खटोिे पर िोए बािक की िाँि का खर-खर शब्द िन
ु ाई दे रहा था।
सिद्धेश्वरी किर झठ
ू बोि गई, ''आज तो िचमुच नहीां रोया। वह बडा ही होसशयार हो गया है । कहता था,
बडका भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐिा िडका..."
पर वह आगे कुछ न बोि िकी, जैिे उिके गिे में कुछ अटक गया। कि प्रमोद ने रे वडी खाने की ष्जद
पकड िी थी और उिके सिए डेढ घांटे तक रोने के बाद िोया था।
रामचांद्र ने कुछ आश्चयद के िाथ अपनी माँ की ओर दे खा और किर सिर नीचा करके कुछ तेजी िे खाने
िगा।
थािी में जब रोटी का केवि एक टुकडा शेर्ष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न
ककया, ''एक रोटी और िाती हूँ?''
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रामचांद्र हाथ िे मना करते हुए हडबडाकर बोि पडा, ''नहीां-नहीां, जरा भी नहीां। मेरा पेट पहिे ही भर
चक
ु ा है । मैं तो यह भी छोडनेवािा हूँ। बि, अब नहीां।''
रामचांद्र बबगड उठा, ''अगधक खखिाकर बीमार डािने की तबीयत है खया? तुम िोग जरा भी नहीां िोचती
हो। बि, अपनी ष्जद। भख
ू रहती तो खया िे नहीां िेता?''
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचांद्र ने थािी में बचे टुकडे िे हाथ खीांच सिया और िोटे की
ओर दे खते हुए कहा, ''पानी िाओ।''
सिद्धेश्वरी िोटा िेकर पानी िेने चिी गई। रामचांद्र ने कटोरे को उँ गसियों िे बजाया, किर हाथ को थािी
में रख ददया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकडे को धीरे -िे हाथ िे उठाकर आँख िे ननहारा और अांत में
इधर-उधर दे खने के बाद टुकडे को मँह
ु में इि िरिता िे रख सिया, जैिे वह भोजन का ग्राि न होकर
पान का बीडा हो।
मांझिा िडका मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढे पर बैठ गया। वह कुछ िाँविा था और उिकी आांखें
ु िा-पतिा था, ककांतु उतना
छोटी थीां। उिके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दब
िांबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीां अगधक गांभीर और उदाि ददखाई पड रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उिके िामने थािी रखते हुए प्रश्न ककया, ''कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पछ
ू रहा था।''
मोहन ने रोटी के एक बडे ग्राि को ननगिने की कोसशश करते हुए अस्वाभापवक मोटे स्वर में जवाब
ददया, ''कहीां तो नहीां गया था। यहीां पर था।''
सिद्धेश्वरी वहीां बैठकर पांखा डुिाती हुई इि तरह बोिी, जैिे स्वप्न में बडबडा रही हो, ''बडका तम्
ु हारी
बडी तारीि कर रहा था। कह रहा था, मोहन बडा ददमागी होगा, उिकी तबीयत चौबीिों घांटे पढने में ही
िगी रहती है ।'' यह कहकर उिने अपने मांझिे िडके की ओर इि तरह दे खा, जैिे उिने कोई चोरी की
हो।
मोहन अपनी माँ की ओर दे खकर िीकी हँ िी हँ ि पडा और किर खाने में जुट गया। वह परोिी गई दो
रोदटयों में िे एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाि तथा अगधकाांश तरकारी िाि कर चक
ु ा था।
सिद्धेश्वरी की िमझ में नहीां आया कक वह खया करे । इन दोनों िडकों िे उिे बहुत डर िगता था।
अचानक उिकी आँखें भर आईं। वह दि
ू री ओर दे खने िगी।
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थोडी दे र बाद उिने मोहन की ओर मँह
ु िेरा, तो िडका िगभग खाना िमाप्त कर चक
ु ा था।
सिद्धेश्वरी ने गगडगगडाते हुए कहा, ''नहीां बेटा, मेरी किम, थोडी ही िे िो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी िी
थी।''
मोहन ने अपनी माँ को गौर िे दे खा, किर धीरे -धीरे इि तरह उत्तर ददया, जैिे कोई सशक्षक अपने सशटय
को िमझाता है , ''नहीां रे , बि, अव्वि तो अब भख
ू नहीां। किर रोदटयाँ तूने ऐिी बनाई हैं कक खाई नहीां
जातीां। न मािम
ू कैिी िग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है , तो कटोरे में थोडी दाि दे दे । दाि बडी
अच्छी बनी है ।''
मांश
ु ी जी ने कटोरे को हाथ में िेकर दाि को थोडा िड
ु कते हुए पछ
ू ा, ''बडका ददखाई नहीां दे रहा?''
सिद्धेश्वरी की िमझ में नहीां आ रहा था कक उिके ददि में खया हो गया है - जैिे कुछ काट रहा हो। पांखे
को जरा और जोर िे घम
ु ाती हुई बोिी, ''अभी-अभी खाकर काम पर गया है । कह रहा था, कुछ ददनों में
नौकरी िग जाएगी। हमेशा, 'बाबू जी, बाबू जी' ककए रहता है । बोिा, बाबू जी दे वता के िमान हैं।''
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मांश
ु ी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पछ
ू ा, ''ऐां, खया कहता था कक बाबू जी दे वता के
िमान हैं? बडा पागि है ।''
सिद्धेश्वरी पर जैिे नशा चढ गया था। उन्माद की रोगगणी की भाांनत बडबडाने िगी, ''पागि नहीां हैं, बडा
होसशयार है । उि जमाने का कोई महात्मा है । मोहन तो उिकी बडी इज्जत करता है । आज कह रहा था
कक भैया की शहर में बडी इज्जत होती हैं, पढने-सिखनेवािों में बडा आदर होता है और बडका तो छोटे
भाइयों पर जान दे ता हैं। दनु नया में वह िबकुछ िह िकता है , पर यह नहीां दे ख िकता कक उिके प्रमोद
को कुछ हो जाए।''
मांश
ु ी जी दाि-िगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने िामने की ताक की ओर दे खते हुए हां िकर कहा, ''बडका
का ददमाग तो खैर कािी तेज है , वैिे िडकपन में नटखट भी था। हमेशा खेि-कूद में िगा रहता था,
िेककन यह भी बात थी कक जो िबक मैं उिे याद करने को दे ता था, उिे बरादक रखता था। अिि तो यह
कक तीनों िडके कािी होसशयार हैं। प्रमोद को कम िमझती हो?'' यह कहकर वह अचानक जोर िे हँ ि
पडे।
मांश
ु ी जी डेढ रोटी खा चक
ु ने के बाद एक ग्राि िे यद्ध
ु कर रहे थे। कदठनाई होने पर एक गगिाि पानी
चढा गए। किर खर-खर खाँिकर खाने िगे।
किर चप्ु पी छा गई। दरू िे ककिी आटे की चखकी की पक
ु -पक
ु आवाज िुनाई दे रही थी और पाि की नीम
के पेड पर बैठा कोई पांडूक िगातार बोि रहा था।
सिद्धेश्वर की िमझ में नहीां आ रहा था कक खया कहे । वह चाहती थी कक िभी चीजें ठीक िे पछ
ू िे। िभी
चीजें ठीक िे जान िे और दनु नया की हर चीज पर पहिे की तरह धडल्िे िे बात करे । पर उिकी दहम्मत
नहीां होती थी। उिके ददि में जाने कैिा भय िमाया हुआ था।
अब मांश
ु ी जी इि तरह चप
ु चाप दब
ु के हुए खा रहे थे, जैिे पपछिे दो ददनों िे मौन-व्रत धारण कर रखा हो
और उिको कहीां जाकर आज शाम को तोडने वािे हों।
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मांश
ु ी जी ने चने के दानों की ओर इि ददिचस्पी िे दृष्टटपात ककया, जैिे उनिे बातचीत करनेवािे हों।
किर िच
ू ना दी, ''गांगाशरण बाबू की िडकी की शादी तय हो गई। िडका एम.ए. पाि हैं।''
सिद्धेश्वरी हठात चप
ु हो गई। मांश
ु ी जी भी आगे कुछ नहीां बोिे। उनका खाना िमाप्त हो गया था और वे
थािी में बचे-खच
ु े दानों को बांदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरीने पछ
ू ा, ''बडका की किम, एक रोटी दे ती हूँ। अभी बहुत-िी हैं।''
मांश
ु ी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के िमान तथा रिोई की ओर कनखी िे दे खा, तत्पश्चात ककिी छां टे
उस्ताद की भाांनत बोिे, ''रोटी? रहने दो, पेट कािी भर चक
ु ा है । अन्न और नमकीन चीजों िे तबीयत
ऊब भी गई है । तम
ु ने व्यथद में किम धरा दी। खैर, किम रखने के सिए िे रहा हूँ। गड
ु होगा खया?''
सिद्धेश्वरी ने बताया कक हां डडया में थोडा-िा गड
ु है ।
मांश
ु ी जी ने उत्िाह के िाथ कहा, ''तो थोडे गड
ु का ठां डा रि बनाओ, पीऊँगा। तम्
ु हारी किम भी रह
जाएगी, जायका भी बदि जाएगा, िाथ-ही-िाथ हाजमा भी दरू
ु स्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में
दम आ गया है ।'' यह कहकर वे ठहाका मारकर हँ ि पडे।
मांश
ु ी जी के ननबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जठ
ू ी थािी िेकर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटिोई
की दाि को कटोरे में उडेि ददया, पर वह परू ा भरा नहीां। नछपि
ु ी में थोडी-िी चने की तरकारी बची थी,
उिे पाि खीांच सिया। रोदटयों की थािी को भी उिने पाि खीांच सिया। उिमें केवि एक रोटी बची थी।
मोटी-भद्दी और जिी उि रोटी को वह जूठी थािी में रखने जा रही थी कक अचानक उिका ध्यान ओिारे
में िोए प्रमोद की ओर आकपर्षदत हो गया। उिने िडके को कुछ दे र तक एकटक दे खा, किर रोटी को दो
बराबर टुकडों में पवभाष्जत कर ददया। एक टुकडे को तो अिग रख ददया और दि
ू रे टुकडे को अपनी जूठी
थािी में रख सिया। तदप
ु राांत एक िोटा पानी िेकर खाने बैठ गई। उिने पहिा ग्राि मँह
ु में रखा और
तब न मािम
ू कहाँ िे उिकी आँखों िे टप-टप आँिू चन
ू े िगे।
िारा घर मष्खखयों िे भनभन कर रहा था। आँगन की अिगनी पर एक गांदी िाडी टां गी थी, ष्जिमें पैबांद
िगे हुए थे। दोनों बडे िडकों का कहीां पता नहीां था। बाहर की कोठरी में मांश
ु ी जी औांधे मँह
ु होकर
ननष्श्चांतता के िाथ िो रहे थे, जेिे डेढ महीने पव
ू द मकान-ककराया-ननयांत्रण पवभाग की खिकी िे उनकी
छँ टनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तिाश में कहीां जाना न हो।
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जयदोि
अज्ञेय
िेष्फ्टनेंट िागर ने अपना कीचड िे िना चमडे का दस्ताना उतार कर, ट्रक के दरवाजे पर पटकते हुए
कहा,''गरू
ु ां ग, तम
ु गाडी के िाथ ठहरो, हम कुछ बन्दोबस्त करे गा।''
गरू
ु ां ग िडाक िे जत
ू ों की एडडयाँ चटका कर बोिा,''ठीक ए िा'ब -''
जोरहाट पहुँचने तक ही शाम हो गई थी, पर उिे सशविागर के मष्न्दर दे खने का इतना चाव था कक वह
रुका नहीां, जल्दी िे चाय पी कर आगे चि पडा। रात जोरहाट में रहे तो िबेरे चि कर िीधे डडबरूगढ
जाना होगा, रात सशविागर में रह कर िबेरे वह मष्न्दर और ताि को दे ख िकेगा। सशविागर,
रूद्रिागर, जयिागर - कैिे िन्
ु दर नाम है । िागर कहिाते हैं तो बडे-बडे ताि होंगे -- और प्रत्येक के
ककनारे पर बना हुआ मष्न्दर ककतना िन्
ु दर दीखता होगा अिसमया िोग हैं भी बडे िाि-िथ
ु रे , उनके
गाँव इतने स्वच्छ होते हैं तो मष्न्दरों का खया कहना
िेककन िात-एक मीि बाकी थे कक गाडी कच्ची िडक के कीचड में िँि गई। पहिे तो स्टीयर्रांग ऐिा
मखखन-िा नरम चिा मानो गाडी नहीां, नाव की पतवार हो और नाव बडे िे भँवर में हचकोिे खाती झम
ू
रही हो; किर िेष्फ्टनेंट के िँभािते-िँभािते गाडी धीमी हो कर रूक गई, यद्यपप पदहयों के घम
ू ते रह
कर कीचड उछािने की आवाज आती रही।
इिके सिए िाधारणत: तैयार होकर ही ट्रक चिते थे। तुरन्त बेिचा ननकािा गया, कीचड िाि करने
की कोसशश हुई िेककन कीचड गहरा और पतिा था, बेिचे का नहीां, पम्प का काम था। किर टायरों पर
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िोहे की जांजीरें चढाई गईं। पदहये घम
ू ने पर कहीां पकडने को कुछ समिे तो गाडी आगे दठिे -- मगर
चिने की कोसशश पर िीक गहरी कटती गई और ट्रक धँिता गया, यहाँ तक कक नीचे का गीयर-बखि
भी कीचड में डूबने को हो गया मानों इतना कािी न हो; तभी इांजन ने दो-चार बार िट्-िट्-िट् का शब्द
ककया और चप
ु हो गया -- किर स्टाटद ही न हुआ।
तभी िागर ने दस्तानें िेंक कर कहा, ''हम कुछ बन्दोबस्त करे गा'' और किच्च-किच्च कीचड में जमा-
जमा कर बट
ू रखता हुआ आगे चढ चिा।''
कहने को तो उिने कह ददया, पर बन्दोबस्त वह खया करे गा रात में ? बादि किर नघरने िगे; सशविागर
िात मीि है तो दि
ू रे िागर भी तीन-चार मीि तो होंगे और खया जाने कोई बस्ती भी होगी कक नहीां;
और जयिागर तो बडे बीहड मैदान के बीच में हैं उिने पढा था कक उि मैदान के बीच में ही रानी
जयमती को यन्त्रणा दी गई थी कक वह अपने पनत का पता बता दे । पाँच िाख आदमी उिे दे खने इकठ्ठे
हुए थे और कई ददनों तक रानी को िारी जनता के िामने िताया तथा अपमाननत ककया गया था।
एक बात हो िकती है कक पैदाि ही सशविागर चिा जाए। पर उि कीचड में किच्च-किच्च िात मीि -
उिी में भोर हो जायेगा, किर तुरांत गाडी के सिए वापि जाना पडेगा किर नहीां, वह बेकार है । दि
ू री िरू त
रात गाडी में ही िोया जा िकता है । पर गुरूांग? वह भख
ू ा ही होगा कच्ची रिद तो होगी पर बनाएगा
कैिे? िागर ने तो गहरा नाश्ता ककया था, उिके पाि बबस्कुट वगैरह भी है पर अििरी का बडा कायदा
है कक अपने मातहत को कम-िे-कम खाना तो ठीक खखिाये शायद आि-पाि कोई गाँव हो --
कीचड में कुछ पता न िगता था कक िडक ककतनी है और अगि-बगि का मैदान ककतना। पहिे तो दो-
चार पेड भी ककनारे -ककनारे थे, पर अब वह भी नहीां, दोनों ओर िपाट िन
ू ा मैदान था और दरू के पेड भी
ऐिे धध
ँु िे हो गए थे कक भ्रम हो, कहीां चश्मे पर नमी की ही करामात तो नहीां है अब रास्ता जानने का
एक ही तरीका था, जहाँ कीचड कम गहरा हो वही िडक; इधर-उधर हटते ही पपांडसियाँ तक पानी में डूब
जाती थीां और तब वह किर धीरे -धीरे पैर िे टटोि कर मध्य में आ जाता था।
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यह खया है ? हाँ, पि
ु -िा है -- यह रे सिांग हैं। मगर दो पि
ु है िमकोण बनाते हुए क़्या दो रास्ते है ? कौन-
िा पकडें?
एक कुछ ऊँची जमीन की ओर जाता जान पडता था। ऊँचे पर कीचड कम होगा, इि बात का ही आकर्षदण
कािी था; किर ऊँचाई पर िे शायद कुछ दीख भी जाए। िागर उधर ही को चि पडा। पि
ु के पार ही
िडक एक ऊँची उठी हुई पटरी-िी बन गई, तननक आगे इिमें कई मोड िे आये, किर जैिे धन-खेत में
कहीां-कहीां कई-एक छोटे -छोटे खेत एक-िाथ पडने पर उनकी मेड मानो एक-िाथ ही कई ओर जाती
जान पडती है , इिी तरह वह पटरी भी कई ओर को जाती-िी जान पडी। िागर मानो एक बबन्द ु पर खडा
है , जहाँ िे कई रास्ते हैं, प्रत्येक के दोनों ओर जि मानो अथाह िमद्र
ु में पटर्रयाँ बबछा दी गईं हों।
मानो उिके प्रश्न के उत्तर में ही िहिा आकाश में बादि कुछ िीका पडा और िहिा धध
ुँ िा-िा चाँद भी
झिक गया। उिके अधरू े प्रकाश में िागर ने दे खा -- एक बडी-िी, ऊपर िे चपटी-िी इमारत -- मानो
दम
ु ांष्जिी बारादरी बरामदे िे, ष्जिमें कई-एक महराबें; एक के बीच िे मानो आकाश झाँक ददया...
िागर दठठक कर क्षण-भर उिे दे खता रहा। िहिा उिके भीतर कुछ जागा ष्जिने इमारत को पहचान
सिया -- यह तो अहोम राजाओां का क्रीडा भवन है -- खया नाम है ? -- रां ग-महि, नहीां, हवा-महि -- नहीां,
ठीक याद नहीां आता, पर यह उि बडे पठार के ककनारे पर है ष्जिमें जयमती --
एकाएक हवा िनिना उठी। आि-पाि के पानी में जहाँ-तहाँ नरिि के झोंप थे, झक
ु कर िुििुिा उठे
जैिे राजा के आने पर भत्ृ योंिेवकों में एक सिहरन दौड जाए एकाएक यह िक्ष्य कर के कक चाँद किर
नछपा जा रहा है , िागर ने घम
ू कर चीन्ह िेना चाहा कक ट्रक ककधर ककतनी दरू है , पर वह अभी यह भी
तय नहीां कर िका था कक कहाँ क्षक्षनतज है ष्जिके नीचे पठार है और ऊपर आकाश या मेघािी कक चाँद
नछप गया और अगर उिने खब
ू अच्छी तरह आकार पहचान न रखा होता तो रां ग-महि या हवा-महि
भी खो जाता।
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महि में छत होगी। वहाँ िख
ू ा होगा। वहाँ आग भी जि िकती है । शायद बबस्तर िाकर िोया भी जा
िकता है । ट्रक िे तो यही अच्छा रहे गा -- गाडी को तो कोई खतरा नहीां --
िागर जल्दी-जल्दी आगे बढने िगा।
रां ग-महि बहुत बडा हो गया था। उिकी कुरिी ही इतनी ऊँची थी कक अिसमया घर उिकी ओट नछप
जाए। पखके िशद पर पैर पडते ही िागर ने अनम
ु ान ककया, तीि-पैंतीि िीदढयाँ होंगी िीदढयाँ चढ कर
वह अििी ि्योढी तक पहुँचग
े ा।
ऊपर चढते-चढते हवा चीख उठी। कई मेहराबों िे मानो उिने गुराद कर कहा, ''कौन हो तुम, इतनी रात
गए मेरा एकान्त भांग करनेवािे?'' पवरोध के िूत्कार का यह थपेडा इतना िच्चा था कक िागर मानो
िुििुिा ही उठा, ''मैं -- िागर, आिरा ढूँढता हूँ -- रै नबिेरा --''
पोपिे मँह
ु का बढ
ू ा जैिे खखसिया कर हँ िे; वैिे ही हवा हँ ि उठी।
िीदढयों की चोटी िे मेहराबों के तिे खडे िागर ने नीचे और बाहर की ओर दे खा। शन्
ू य, महाशन्
ू य;
बादिों में बिी नमी और ज्वािा िे प्िवन, वज्र और बबजिी िे भरा हुआ शन्
ू य। खया उिी की गरु ादहट
हवा में हैं, या कक नीचे िैिे नांगे पठार की, ष्जिके चत
ू डों पर ददन-भर िड पानी के कोडों की बौछार
पडती रही है ? उिी पठार का आक्रोश, सििकन, र्रर्रयाहट?
इिी जगह, इिी मेहराब के नीचे खडे कभी अधनांगे अहोम राज ने अपने गठीिे शरीर को दपद िे अकडा
कर, सितार की खूँटी की तरह उमेठ कर, बाँयें हाथ के अँगूठे को कमरबन्द में अटका कर, िीदढयों पर
खडे क्षत-शरीर राजकुमारों को दे खा होगा, जैिे कोई िाँड खसिया बैिों के झण्
ु ड को दे खे, किर दादहने
हाथ की तजदनी को उठा कर दादहने भ्रू को तननक-िा कांु गचत करके, िांकेत िे आदे श ककया होगा कक
यन्त्रणा को और कडी होने दो।
िेष्फ्टनेण्ट िागर की टाँगें मानो सशगथि हो गयीां। वह िीढी पर बैठ गया, पैर उिने नीचे को िटका
ददये, पीठ मेहराब के ननचिे दहस्िे िे टे क दी। उिका शरीर थक गया था ददन-भर स्टीयर्रांग पर बैठे-बैठे
और पौने दो िौ मीि तक कीचड की िडक में बनी िीकों पर आँखें जमाये रहने िे आँखें भी ऐिे चन
ु चन
ु ा
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रही थीां मानो उनमें बहुत बारीक पपिी हुई रे त डाि दी गई हो -- आँखें बन्द भी वह करना चाहे और बन्द
करने में खिेश भी हो -- वह आँख खुिी रखकर ही ककिी तरह दीठ को िमेट िे, या बन्द करके दे खता
रह िके, तो
अहोम राजा चसू िक-िा राजा में ईश्वर का अांश होता है , ऐिे अन्धपवश्वाि पािनेवािी अहोम जानत के
सिए यह मानना स्वाभापवक ही था कक राजकुि का अक्षत-शरीर व्यष्खत ही राजा हो िकता है , ष्जिके
शरीर में कोई क्षत है , उिमें दे वत्व का अांश कैिे रह िकता है ?
और प्रात:काि वहीां रां गमहि की िीदढयों पर, उिके चरणों में यह वीभत्ि उपहार चढाया गया होगा --
और उिने उिी दपद-भरी अवज्ञा में , होठों की तार-िी तनी पतिी रे खा को तननक मोड-िी दे कर, शब्द
ककया होगा, 'हूँ' और रखत-िने थाि को पैर िे तननक-िा ठुकरा ददया होगा -
चसू िक-िा -- ननटकांटक राजा - िेककन नहीां यह तीर-िा कैिा िाि गया? एक राजकुमार भाग गया --
अक्षत –
वहाँ िामने -- िेष्फ्टनेंट ने किर आँखों को कि कर बादिों की दरार को भेदने की कोसशश की -- वहाँ
िामने कहीां नगा पवदत श्रेणी है । वनवािी वीर नगा जानतयों िे अहोम राजाओां की कभी नहीां बनी --वे
अपने पवदतों के नांगे राजा थे, ये अपनी िमति भसू म के कौशेय पहन कर भी अधनांगे रहने वािे
महाराजा, पीदढयों के यद्ध
ु के बाद दोनों ने अपनी-अपनी िीमाएँ बाँध िी थीां और कोई ककिी िे छे ड-छाड
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नहीां करता था -- केवि िीमा-प्रदे श पर पडने वािी नमक की झीिों के सिए यद्ध
ु होता था खयोंकक नमक
दोनों को चादहए था। पर अहोम राजद्रोही नगा जानतयों के िरदार के पाि आश्रय पाए -- अिह्य है -
अिह्य -
हवा ने िाँय-िाँय कर के दाद दी अिह्य। मानो चसू िक-िा के पववश क्रोध की िम्बी िाँि िागर की दे ह
को छू गई- यहीां खडे होकर उिने वह िाांि खीांची होगी -- उि मेहराब ही की इँट-इँट में तो उिके िि
ु गते
वाय-ु कण बिे होंगे?
िेककन जाएगा कहाँ - उिकी वधू तो है ? वह जानेगी उिका पनत कहाँ है , उिे जानना होगा - जयमती
अहोम राज्य की अद्पवतीय िन्
ु दरी -- जनता की िाडिी -- होने दो - चसू िक-िा राजा है , वह शत्रपु वहीन
ननटकण्टक राज्य करना चाहता है - जयमती को पनत का पता दे ना होगा -- उिे पकडवाना होगा --
चसू िक-िा उिका प्राण नहीां चाहता, केवि एक कान चाहता है , या एक नछगुनी -- चाहें बायें हाथ की भी
नछगुनी - खयों नहीां बतायेगी जयमती? वह प्रजा है ; प्रजा की हि्डी-बोटी पर भी राजा का अगधकार है -
बहुत ही छोटे एक क्षण के सिए चाँद झिक गया। िागर ने दे खा, िामने खि ु ा, आकारहीन, ददशाहीन,
मानातीत ननरा पवस्तार; ष्जिमें नरििों की िायँ-िायँ, हवा का अिांख्य कराहटों के िाथ रोना, उिे घेरे
हुए मेहराबों की क्रुद्ध िाँपों की-िी िँु िकार चाँद किर नछप गया और पानी की नयी बौछार के िाथ िागर
ने आँखें बन्द कर िीां अिांख्य िहमी हुई कराहें और पानी की मार ऐिे जैिे नांगे चत
ू डों पर ि-ददया प्रान्त
के िचीिे बेतों की िडाक-िडाक। ि-ददया अथादत शव-ददया? कब ककिका शव वहाँ समिता था याद नहीां
आता, पर था शव जरूर -- ककिका शव नहीां, जयमती का नहीां। वह तो -- वह तो उन पाँच िाख बेबि
दे खने वािों के िामने एक िकडी के मांचपर खडी है , अपनी ही अस्पश्ृ य िज्जा में , अभेद्य मौन में ,
अटूट िांकल्प और दद
ु द मनीय स्पद्धाद में सिपटी हुई; िात ददन की भख
ू ी-प्यािी, घाम और रखत की कीच
िे िथपथ, िेककन शेर्षनाग के माथे में ठुकी हुई कोिी की भाँनत अडडग, आकाश को छूने वािी
प्रात:सशखा-िी ननटकम्प िेककन यह खया? िागर नतिसमिा कर उठ बैठा। मानों अँधेरे में भत
ु ही-िी
दीख पडनेवािी वह िाखों की भीड भी काँप कर किर जड हो गई -- जयमती के गिे िे एक बडी तीखी
करूण चीख ननकि कर भारी वाय-ु मण्डि को भेद गई -- जैिे ककिी थि ु कछुए के पेट को मछे रे की
ु थि
बछी िागर ने बडे जोर िे मदु ि्ठयाँ भीांच िी खया जयमती टूट गई? नहीां, यह नहीां हो िकता, नरििों
की तरह बबना रीढ के गगरती-पडती इि िाख जनता के बीच वही तो दे वदारू-िी तनी खडी है , मानवता
की ज्योनत:शिाका िहिा उिके पीछे िे एक दृप्त, रूखी, अवज्ञा-भरी हँ िी िे पीति की तरह
झनझनाते स्वर ने कहा, ''मैं राजा हूँ -''
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िागर ने चौक कर मड
ु कर दे खा --िन
ु हिा, रे शमी वस्त्र, रे शमी उत्तरीय, िोने की कांठी और बडे-बडे
अनगढ पन्नों की मािा पहने भी अधनांगा एक व्यष्खत उिकी और ऐिी दया-भरी अवज्ञा िे दे ख रहा
था, जैिे कोई राह ककनारे के कृसम-कीट को दे खे। उिका िग
ु दठत शरीर, छे नी िे तराशी हुई गचकनी
माांि-पेसशयाँ, दपद-स्िीत नािाएँ, तेि िे चमक रही थीां, आँखों की कोर में िािी थी जो अपनी अिग
अिग बात कहती थी -- मैं मद भी हो िकती हूँ, गवद भी, पविाि-िोिप
ु ता भी और ननरी नश
ृ ांि नर-रखत-
पपपािा भी िागर टुकुर-टुकुत दे खता रह गया। न उड िका, न दहि िका। वह व्यष्खत किर बोिा,
''जयमती? हुँ: , जयमती - अँगूठे और तजदनी की चट
ु की बना कर उिने झटक दी, मानो हाथ का मैि
कोई मिि कर िेंक दे । बबना कक्रया के भी वाखय िाथदक होता है, कम-िे-कम राजा का वाखय िागर ने
कहना चाहा, ''नश
ृ ांि- राक्षि- '' िेककन उिकी आँखों की िािी में एक बाध्य करनेवािी प्रेरणा थी, िागर
ने उिकी दृष्टट का अनि
ु रण करते हुए दे खा, जयमती िचमच
ु िडखडा गई थी। चीखने के बाद उिका
शरीर ढीिा होकर िटक गया था, कोडों की मार रुक गई थी, जनता िाँि रोके िन
ु रही थी िागर ने भी
िाँि रोक िी। तब मानो स्तब्धता में उिे अगधक स्पटट दीखने िगा, जयमती के िामने एक नगा बाँका
खडा था, सिर पर किगी, गिे में िकडी के मँड
ु ों की मािा, मँह
ु पर रां ग की व्याघ्रोपम रे खाएँ, कमर के
घाि की चटाई की कौपीन, हाथ में बछी। और वह जयमती िे कुछ कह रहा था।
िागर के पीछे एक दपद-स्िीत स्वर किर बोिा, ''चसू िक-िा के पवधान में हस्तक्षेप करनेवािा यह ढीठ
नगा कौन है ? पर िहिा उि नांगे व्यष्खत का स्वर िन
ु ाई पडने िगा और िब चप
ु हो गए।
''जयमती, तम्
ु हारा िाहि धन्य है । जनता तम्
ु हें दे वी मानती है । पर और अपमान खयों िहो? राजा का
बि अपार है -- कुमार का पता बता दो और मष्ु खत पाओ -''
नगा वीर किर बोिा, ''चसु िक-िा केवि अपनी रक्षा चाहता है , कुमार के प्राण नहीां। एक कान दे दे ने में
खया है ? या नछगन
ु ी? उतना तो भी खेि में या मल्ि-यद्ध
ु में भी जा िकता है ।''
िागर ने पीछे िन
ु ा, ''हुँ:,'' और मड
ु कर दे खा, उि व्यष्खत के चेहरे पर एक क्रूर कुदटि मि
ु कान खेि रही
है ।
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िागर ने उद्धत होकर कहा, ''हुँ: खया?''
वह व्यष्खत तन कर खडा हो गया, थोडी दे र िागर की ओर दे खता रहा, मानो िोच रहा हो, इिे खया वह
उत्तर दे ? किर और भी कुदटि ओठों के बीच िे बोिा, ''मैं चसू िक-िा, डरपोक! अभी जानेगा। पर अभी
तो मेरे काम की कह रहा है --''
नगा वीर जयमती के और ननकट जाकर धीरे -धीरे कुछ कहने िगा।
िागर ने आगे झक
ु कर िन
ु सिया।
''जयमती, कुमार तो अपने समत्र नगा िरदार के पाि िरु क्षक्षत है । चसू िक तो उिे तो उिे पकड ही नहीां
िकता, तुम पता बता कर अपनी रक्षा खयों न करो? दे खो, तुम्हारी कोमि दे ह --''
आवेश में िागर खडा हो गया, खयोंकक उि कोमि दे ह में एक बबजिी-िी दौड गई और उिने तन कर,
िहिा नगा वीर की ओर उन्मख
ु होकर कहा, ''कायर, नपांि
ु क तुम नगा कैिे हुए? कुमार तो अमर है ,
कीडा चसू िक-िा उन्हें कैिे छुएगा? मगर खया िोग कहें गे, कुमार की रानी जयमती ने दे ह की यन्त्रणा
िे घबडा कर उिका पता बता ददया? हट जाओ, अपना किांकी मँह
ु मेरे िामने िे दरू करो - ''
जनता में तीव्र सिहरन दौड गई। नरिि बडी जोर िे काँप गए; गँदिे पानी में एक हिचि उठी ष्जिके
िहराते गोि वत्ृ त िैिे कक िैिते ही गए; हवा िँुुककार उठी, बडे जोर की गडगडाहट हुई। मेघ और
कािे हो गए -- यह ननरी रात है कक महाननशा, कक यन्त्रणा की रात -- िातवीां रात, कक नवीां रात? और
जयमती खया अब बोि भी िकती है , खया यह उिके दृढ िांकल्प का मौन है , कक अशखतता का? और
यह वही भीड है कक नयी भीड, वही नगा वीर, कक दि
ू रा कोई, कक भीड में कई नगे बबखरे है
नगा वीर ने पक
ु ार कर कहा, ''जयमती - रानी जयमती - ''
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रानी का शरीर काँप गया। वह एक टक आँखों िे उिे दे खने िगी, कुछ बोिी नहीां। िकी नहीां।
''तुम कुमार का पता दे दो। िरदार उिकी रक्षा करें गे। वह िरु क्षक्षत है ।''
रानी की आँखों में कुछ घना हो आया। बडे कटट िे उिने कहा, ''नीच - ''एक बार उिने ओठों पर जीभ
िेरी, कुछ और बोिना चाहा, पर िकी नहीां।
ककिी ने रानी के ओठों की ओर पानी बढाया। वह थोडी दे र समट्टी के किोरे की ओर पवतटृ ण दृष्टट िे
दे खती रही, किर उिने आँख भर कर नगा यव
ु क की ओर दे खा, किर एक घँट
ू पी सिया। तभी चसू िक-िा
ने कहा, ''बि, एक-एक घँट
ू , अगधक नहीां - ''
रानी ने एक बार दृष्टट चारों ओर िाख-िाख जनता की ओर दौडाई। किर आँखें नगा यव
ु क पर गडा कर
बोिी, ''कुमार िरु क्षक्षत है । और कुमार की यह िाख-िाख प्रजा -- जो उनके सिए आँखें बबछाये है -- एक
नेता के सिए, ष्जिके पीछे चि कर आततायी का राज्य उिट दे -- जो एक आदशद माँगती है -- मैं उिकी
आशा तोड दँ ू -- उिे हरा दँ ू -- कुमार को हरा दँ ?ू ''
वह िक्षण भर चप
ु हुई। चसू िक-िा ने एक बार आँख दौडा कर िारी भीड को दे ख सिया। उिकी आँख
कहीां दटकी नहीां मानो उि भीड में उिे दटकने िायक कुछ नहीां समिा, जैिे रें गते कीडों पर दीठ नहीां
जमती।
रानी ने किर उिे ष्स्थर दृष्टट िे दे खा। किर धीरे -धीरे कहा, ''चसू िक-'' और किर कुछ ऐिे भाव िे अधरू ा
छोड ददया कक उिके उच्चारण िे मँह
ु दपू र्षत हो जाएगा। किर कहा, ''यह प्रजा कुमार की है -- जा कर
नगा िरदार िे कहना कक कुमार -- वह किर रुक गई। पर तू -- तू नगा नहीां, तू तो उि -- उि गगद्ध की
प्रजा है -- जा उिके गन्दे पांजे को चाट -
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िागर ने दे खा, भीड का रां ग बदि गया है । वैिा ही अन्धकार, वैिा ही अथाह प्रिार, पर उिमें जैिे कहीां
व्यवस्था, भीड में जगह-जगह नगा दशदक बबखरे , पर बबखरे पन में भी एक माप नगा ने पाि िे कहा,
''मेरे राजा - ''
एकाएक बडे जोर की गडगडाहट हुई। िागर खडा हो गया उिने आँखें िाड कर दे खा, नगा यव
ु क िहिा
बछी के िहारे कई-एक िीदढयाँ िाँद कर चसू िक-िा के पाि पहुँच गया है , बछी िीढी की इँटों की दरार
में िँिी रह गई है, पर नगा चसू िक-िा को धखके िे गगरा कर उिकी छाती पर चढ गया है ; उधर जनता
में एक बबजिी कडक गई है , ''कुमार की जय - ''ककिीने िाँद कर मांच पर चढ कर कोडा सिए जल्िादों
को गगरा ददया है , ककिीने अपना-अांग-वस्त्र जयमती पर डािा है और कोई उिके बन्धन की रस्िी
टटोि रहा है ।
पर चसू िक-िा और नगा िागर मन्त्र-मग्ु ध-िा खडा था; उिकी दीठ चसू िक-िा पर जमी थी िहिा
उिने दे खा, नगा तो ननहत्था है , पर नीचे पडे चसू िक-िा के हाथ में एक चन्द्रकार डाओ है जो वह नगा के
कान के पीछे िाध रहा है -- नगा को ध्यान नहीां है ; मगर चसू िक-िा की आँखों में पहचान है कक नगा
और कोई नहीां, स्वयां कुमार है ; और वह डाओ िाध रहा है कुमार छाती पर है , पर मर जाएगा या क्षत भी
हो गया तो चसू िक-िा ही मर गया तो भी अगर कुमार क्षत हो गया तो -- िागर उछिा। वह चसू िक-िा
का हाथ पकड िेगा -- डाओ छीन िेगा।
अब? चसू िक-िा का हाथ िध गया है, डाओ पर उिकी पकड कडी हो गई है , अब --
िेष्फ्टनेन्ट िागर ने वहीां पडे-पडे कमर िे र्रवाल्वर खीांचा और सशस्त िेकर दाग ददया धाँय -
धआ
ु ँ हो गया। हटे गा तो दीखेगा - पर धआ
ु ँ हटता खयों नहीां? आग िग गई -- रां ग-महि जि रहा है ,
िपटें इधर-उधर दौड रही है । खया चसू िक-िा जि गया? -- और कुमार -- खया यह कुमार की जयध्वनन
है ? कक जयमती की यह अद्भत
ु , रोमाांचकारी गँुज
ू , ष्जिमें मानो वह डूबा जा रहा है , डूबा जा रहा है --
नहीां, उिे िँभिना होगा।
िेष्फ्टनेन्ट िागर िहिा जाग कर उठ बैठा। एक बार हखका-बखका होकर चारों ओर दे खा, किर उिकी
बबखरी चेतना केष्न्द्रत हो गई। दरू िे दो ट्रकों की दो जोडी बष्त्तयाँ परू े प्रकाश िे जगमगा रही थीां, और
एक िे िचद-िाइट इधर-उधर भटकती हुई रां ग-महि की िीदढयों को क्षण-क्षण ऐिे चमका दे ती थी मानो
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बादिों िे पथ्
ृ वी तक ककिी वज्रदे वता के उतारने का मागद खुि जाता है । दोनों ट्रकों के हानद परू े जोर िे
बजाये जा रहे थे।
बौछार िे भीगा हुआ बदन झाड कर िेष्फ्टनेन्ट िागर उठ खडा हुआ। खया वह रां ग-महि की िीदढयों
पर िो गया था? एक बार आँखें दौडा कर उिने मेहराब को दे खा, चाँद ननकि आया था, मेहराब की इँटें
दीख रही थीां। किर धीरे -धीरे उतरने िगा।
नीचे िे आवाज आई, ''िा'ब, दि
ू रा गाडी आ गया, टो कर के िे जाएगा - ''
िागर ने मँह
ु उठा कर िामने दे खा, और दे खता रह गया। दरू चौरि ताि चमक रहा था, ष्जिके ककनारे
पर मष्न्दर भागते बादिों के बीच में काँपता हुआ, मानो शभ्र
ु चाँदनी िे ढका हुआ दहांडोिा -- खया एक
रानी के असभमान का प्रतीक, ष्जिने राजा को बचाया, या एक नारी के िाहि का, ष्जिने परू
ु र्ष का पथ-
प्रदशदन ककया; या कक मानव मात्र की अदम्य स्वातांत्र प्रेरणा का अभीत, अज्ञेय, जय-दोि?
सिर झक
ु ाकर नाक रगडता हूँ उि अपने बनानेवािे के िामने ष्जिने हम िब को बनाया और बात में
वह कर ददखाया कक ष्जिका भेद ककिी ने न पाया। आनतयाँ जानतयाँ जो िाँिें हैं, उिके बबन ध्यान यह
िब िाँिे हैं। यह कि का पत
ु िा जो अपने उि खेिाडी की िध
ु रखखे तो खटाई में खयों पडे और कडवा
किैिा खयों हो। उि िि की समठाई चखखे जो बडे िे बडे अगिों ने चखखी है ।
समट्टी के बािन को इतनी िकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड िके। िच है , जो बनाया
हुआ हो, िो अपने बनानेवािो को खया िराहे और खया कहे । यों ष्जिका जी चाहे , पडा बके। सिर िे िगा
पाँव तक ष्जतने रोंगटे हैं, जो िबके िब बोि उठें और िराहा करें और उतने बरिों उिी ध्यान में रहें
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ष्जतनी िारी नददयों में रे त और िूि िसियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो िके, कराहा करैं। इि सिर
झक
ु ाने के िाथ ही ददन रात जपता हूँ उि अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को ष्जिके सिये यों कहा है –
जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उिका चचेरा भाई ष्जिका ब्याह उिके घर हुआ, उिकी िरु त
मझ
ु े िगी रहती है । मैं िूिा अपने आप में नहीां िमाता, और ष्जतने उनके िडके वािे हैं, उन्हीां को मेरे
जी में चाह है । और कोई कुछ हो, मझ
ु े नहीां भाता। मझ
ु को उम्र घराने छूट ककिी चोर ठग िे खया पडी!
जीते और मरते आिरा उन्हीां िभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीिों घडी।
एक ददन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कक कोई कहानी ऐिी कदहए कक ष्जिमें दहांदवी छुट और
ककिी बोिी का पट
ु न समिे, तब जाके मेरा जी िूि की किी के रूप में खखिे। बाहर की बोिी और गँवारी
कुछ उिके बीच में न हो। अपने समिने वािों में िे एक कोई पढे -सिखे, परु ाने-धरु ाने, डाँग, बढ
ू े धाग यह
खटराग िाए। सिर दहिाकर, मँह
ु थथ
ु ाकर, नाक भी चढाकर, आँखें किराकर िगे कहने - यह बात होते
ददखाई नहीां दे ती। दहांदवीपन भी न ननकिे और भाखापन भी न हो। बि जैिे भिे िोग अच्छे आपि में
बोिते चािते हैं, ज्यों का त्यों वही िब डौि रहे और छाँह ककिी की न हो, यह नही होने का। मैंने उनकी
ठां डी िाँि का टहोका खाकर झँझ
ु िाकर कहा - मैं कुछ ऐिा बडबोिा नहीां जो राई को परबत कर ददखाऊँ
और झठ
ू िच बोिकर उँ गसियाँ नचाऊँ, और बे-सिर बे-दठकाने की उिझी-िि
ु झी बातें िन
ु ाऊँ, जो मझ
ु
िे न हो िकता तो यह बात मँह
ु िे खयों ननकािता? ष्जि ढब िे होता, इि बखेडे को टािता।
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कहानी के जीवन का उभार और बोिचाि की दि
ु दहन का सिांगार
ककिी दे श में ककिी राजा के घर एक बेटा था। उिे उिके माँ-बाप और िब घर के िोग कँु वर उदै भान
करके पक
ु ारते थे। िचमच
ु उिके जीवन की जोत में िरू ज की एक स्रोत आ समिी थी। उिका अच्छापन
और भिा िगना कुछ ऐिा न था जो ककिी के सिखने और कहने में आ िके। पांद्रह बरि भरके उिने
िोिहवें में पाँव रखखा था। कुछ यों ही िी मिें भीनती चिी थीां। पर ककिी बात के िोच का घर-घाट न
पाया था और चाह की नदी का पाट उिने दे खा न था। एक ददन हर्रयािी दे खने को अपने घोडे पर चढके
अठखेि और अल्हडपन के िाथ दे खता भािता चिा जाता था। इतने में जो एक दहरनी उिके िामने
आई, तो उिका जी िोट पोट हुआ। उि दहरनी के पीछे िब छोड छाडकर घोडा िेंका। कोई घोडा उिको
पा िकता था? जब िरू ज नछप गया और दहरनी आँखों िे ओझि हुई, तब तो कँु वर उदै भान भख
ू ा,
प्यािा, उनीांदा, जँ भाइयाँ, अँगडाइयाँ िेता, हखका बखका होके िगा आिरा ढूँढने। इतने में कुछ एक
अमराइयाँ दे ख पडी, तो उधर चि ननकिा; तो दे खता है वो चािीि-पचाि रां डडयाँ एक िे एक जोबन में
अगिी झि
ू ा डािे पडी झि
ू रही है और िावन गानतयाँ हैं।
ज्यों ही उन्होंने उिको दे खा - तू कौन? तू कौन? की गचांघाड िी पड गई। उन िभों में एक के िाथ उिकी
आँख िग गई।
वही झि
ू ेवािी िाि जोडा पहने हुए, ष्जिको िब रानी केतकी कहते थीां, उिके भी जी में उिकी चाह ने
घर ककया। पर कहने-िुनने को बहुत िी नाँह-नह
ू की और कहा -
"इि िग चिने को भिा खया कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट िे टहक पडे। यह न जाना, यह रां डडयाँ
अपने झि
ू रही हैं। अजी तुम तो इि रूप के िाथ इि रव बेधडक चिे आए हो, ठां डे ठां डे चिे जाओ।"
तब कँु वर ने मिोि के मिीिा खाके कहा - "इतनी रूखाइयाँ न कीष्जए। मैं िारे ददन का थका हुआ एक
पेड की छाँह में ओि का बचाव करके पडा रहूँगा। बडे तडके धध
ुँ िके में उठकर ष्जधर को मँह
ु पडेगा चिा
जाऊँगा। कुछ ककिी का िेता दे ता नहीां। एक दहरनी के पीछे िब िोगों को छोड छाडकर घोडा िेंका था।
कोई घोडा उिको पा िकता था? जब तिक उजािा रहा उिके ध्यान में था। जब अँधेरा छा गया और जी
बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आिरा ढूँढकर यहाँ चिा आया हूँ। कुछ रोक टोक तो इतनी न थी
जो माथा ठनक जाता और रूका रहता। सिर उठाए हाँपता चिा आया। खया जानता था - वहाँ
पदद्समननयाँ पडी झि
ू ती पेगै चढा रही हैं। पर यों बदी थी, बरिों मैं भी झि
ू करूँगा।"
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यह बात िन
ु कर वह जो िाि जोडेवािी िब की सिरधरी थी, उिने कहा - "हाँ जी, बोसियाँ ठोसियाँ न
मारो और इनको कह दो जहाँ जी चाहे , अपने पड रहें , और जो कुछ खाने को माँगे, इन्हें पहुँचा दो। घर
आए को आज तक ककिी ने मार नहीां डािा। इनके मँह
ु का डौि, गाि तमतमाए, और होंठ पपडाए, और
घोडे का हाँपना, और जी का काँपना, और ठां डी िाँिें भरना, और ननढाि हो गगरे पडना इनको िच्चा
करता है । बात बनाई हुई और िचौटी की कोई नछपती नहीां। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे ित्ते
की कर दो।"
इतना आिरा पाके िबिे परे जो कोने में पाँच िात पौदे थे, उनकी छाँव में कँु वर उदै भान ने अपना
बबछौना ककया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कक िो रहें , पर नीांद कोई चाहत की िगावट में आती
थी? पडा पडा अपने जी िे बातें कर रहा था। जब रात िाँय-िाँय बोिने िगी और िाथवासियाँ िब िो
रहीां, रानी केतकी ने अपनी िहे िी मदनबान को जगाकर यों कहा - "अरी ओ, तूने कुछ िन
ु ा है ? मेरा जी
उिपर आ गया है ; और ककिी डौि िे थम नहीां िकता। तू िब मेरे भेदों को जानती है । अब होनी जो हो
िो हो; सिर रहता रहे , जाता जाय। मैं उिके पाि जाती हूँ। तू मेरे िाथ चि। पर तेरे पाँवों पडती हूँ, कोई
िन
ु ने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और उिके बनानेवािे ने समिा ददया। मैं इिी जी में इि
अमराइयों में आई थी।"
रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहाँ आन पहुँची, जहाँ कँु वर उदै भान िेटे हुए कुछ कुछ िोच में
बडबडा रहे थे।
मदनबान आगे बढके कहने िगी - "तुम्हें अकेिा जानकर रानी जी आप आई हैं।"
उन्होंने कहा - "मेरा बाप राजा िरू जभान और माँ रानी िछमीबाि हैं। आपि में जो गँठजोड हो जाय तो
कुछ अनोखी, अचरज और अचांभे की बात नहीां। योंही आगे िे होता चिा आया है । जैिा मँह
ु वैिा
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थप्पड। जोड तोड टटोि िेते हैं। दोनों महाराजों को यह गचतचाही बात अच्छी िगेगी, पर हम तुम दोनों
के जी का गँठजोडा चादहए।"
इिी में मदनबान बोि उठी - "िो तो हुआ। अपनी अपनी अँगदू ठयाँ हे र िेर कर िो और आपि में
सिखौती सिख दो। किर कुछ दहचर समचर न रहे ।" कँु वर उदै भान ने अपनी अँगूठी रानी केतकी को पहना
दी; और रानी ने भी अपनी अँगठ
ू ी कँु वर की उँ गिी में डाि दी; और एक धीमी िी चट
ु की भी िे िी।
ककिी ककिी ने महाराज और महारानी िे कहा - "कुछ दाि में कािा है । वह कँु वर बरु े तें वर और बेडौि
आँखें ददखाई दे ती हैं। घर िे बाहर पाँव नहीां धरना। घरवासियाँ जो ककिी डौि िे बहिानतयाँ हैं, तो और
कुछ नहीां करना, ठां डी ठां डी िाँिें भरता है । और बहुत ककिी ने छे डा तो छपरखट पर जाके अपना मांह
ु
िपेट के आठ आठ आँिू पडा रोता है ।"
यह िन
ु ते ही कँु वर उदै भान के माँ-बाप दोनों दौडे आए। गिे िगाया, मँह
ु चम
ू पाँव पर बेटे के गगर पडे,
हाथ जोडे और कहा - 'जो अपने जी की बात है , िो कहते खयों नहीां? खया दख
ु डा है जो पडे पडे कराहते
हो? राज-पाट ष्जिको चाहो, दे डािो। कहो तो, खया चाहते हो? तुम्हारा जी खयों नहीां िगता? भिा वह
खया है जो हो नहीां िकता? मँह
ु िे बोिो, जी को खोिो। जो कुछ कहने िे िोच करते हो, अभी सिख
भेजो। जो कुछ सिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तम
ु कहो कूएँ में गगर पडो, तो हम दोनों अभी
गगर पडते हैं। कहो - सिर काट डािो, तो सिर अपने अभी काट डािते हैं।"
कँु वर उदै भान, जो बोिते ही न थे, सिख भेजने का आिरा पाकर इतना बोिे - "अच्छा आप सिधार्रए, मैं
सिख भेजता हूँ। पर मेरे उि सिखे को मेरे मँह
ु पर ककिी ढब िे न िाना। इिीसिए मैं मारे िाज के
मख
ु पाट होके पडा था और आप िे कुछ न कहना था।" यह िन
ु कर दोनों महाराज और महारानी अपने
स्थान को सिधारे । तब कँु वर ने यह सिख भेजा - "अब जो मेरा जी होठों पर आ गया और ककिी डौि न
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रहा गया और आपने मझ
ु े िौ िौ रूप िे खोि और बहुत िा टटोिा, तब तो िाज छोड के हाथ जोड के
मँह
ु िाड के नघनघया के यह सिखता हूँ -
उि ददन जो मैं हर्रयािी दे खने को गया था, एक दहरनी मेरे िामने कनौनतयाँ उठाए आ गई। उिके पीछे
मैंने घोडा बगछुट िेंका। जब तक उजािा रहा, उिकी धन
ु में बहका ककया। जब िरू ज डूबा मेरा जी बहुत
ऊबा। िह
ु ानी िी अमराइयाँ ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक
हुआ। वहाँ का यह िौदहिा है । कुछ रां डडयाँ झि
ू ा डािे झि
ू रही थीां। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी
महाराज जगतपरकाि की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगठ ू ी अपनी मझु े दी और मेरी अँगठ
ू ी उन्होंने िे िी और
सिखौट भी सिख दी। िो यह अँगूठी उनकी सिखौट िमेत मेरे सिखे हुए के िाथ पहुँचती है । अब आप
पढ िीष्जए। ष्जिमें बेटे का जी रह जाय, िो कीष्जए।"
महाराज और महारानी ने अपने बेटे के सिखे हुए पर िोने के पानी िे यों सिखा - "हम दोनों ने इि
अँगूठी और सिखौट को अपनी आँखों िे मिा। अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत। जो रानी केतकी के
माँ बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे िमधी और िमगधन हैं। दोनों राज एक हो जायेंगे। और जो
कुछ नाँह-नँह
ू ठहरे गी तो ष्जि डौि िे बन आवेगा, ढाि तिवार के बि तुम्हारी दल्
ु हन हम तुमिे समिा
दें गे। आज िे उदाि मत रहा करो। खेिो, कूदो, बोिो चािो, आनांदें करो। अच्छी घडी, िभ
ु मह
ु ू रत िोच
के तुम्हारी ििरु ाि में ककिी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीतचाही ठीक कर िावे।' और िभ
ु घडी िभ
ु
मह
ु ू रत दे ख के रानी केतकी के माँ-बाप के पाि भेजा।
ब्राह्मन जो िभ
ु मह
ु ू रत दे खकर हडबडी िे गया था, उि पर बरु ी घडी पडी। िन
ु ते ही रानी केतकी के माँ-
बाप ने कहा - "हमारे उनके नाता नहीां होने का! उनके बाप-दादे हमारे बापदादे के आगे िदा हाथ जोडकर
बातें ककया करते थे और टुक जो तेवरी चढी दे खते थे, बहुत डरते थे। खया हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊँचे
पर चढ गए। ष्जनके माथे हम बाएँ पाँव के अँगठ
ू े िे टीका िगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। ककिी
का मँह
ु जो यह बात हमारे मँह
ु पर िावे!" ब्राह्मण ने जि-भन
ु के कहा - "अगिे भी बबचारे ऐिे ही कुछ
हुए हैं।
राजा िरू जभान भी भरी िभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेि नहीां। यह कँु वर की हठ िे
कुछ हमारी नहीां चिती। नहीां तो ऐिी ओछी बात कब हमारे मँह
ु िे ननकिती।" यह िन
ु ते ही उन
महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर िूिों की चँ गेर िेंक मारी और कहा - "जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न
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होता तो तुझको अभी चखकी में दिवा डािता।" और अपने िोगों िे कहा - "इिको िे जाओ और ऊपर
एक अँधेरी कोठरी में मँुूद रखखो।" जो इि ब्राह्मन पर बीती िो िब उदै भान के माँ-बाप ने िन
ु ी। िन
ु ते
ही िडने के सिये अपना ठाठ बाँध के भादों के दि बादि जैिे नघर आते हैं, चढ आया। जब दोनों
महाराजों में िडाई होने िगी, रानी केतकी िावन-भादों के रूप रोने िगी; और दोनों के जी में यह आ गई
- यह कैिी चाहत ष्जिमें िोह बरिने िगा और अच्छी बातों को जी तरिने िगा।
कँु वर ने चप
ु के िे यह कहिा भेजा - "अब मेरा किेजा टुकडे टुकडे हुआ जाता है । दोनों महाराजाओां को
आपि में िडने दो। ककिी डौि िे जो हो िके, तो मझ
ु े अपने पाि बि
ु ा िो। हम तम
ु समिके ककिी और
दे ि ननकि चिें; होनी हो िो हो, सिर रहता रहे , जाता जाय।"
उिके िामने छ: राग छत्तीि रागगननयाँ आठ पहर रूप बँददयों का िा धरे हुए उिकी िेवा में िदा हाथ
जोडे खडी रहती थीां। और वहाँ अतीतों को गगर कहकर पक
ु ारते थे - भैरोगगर, पवभािगगर, दहांडोिगगर,
मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकिेन, जोनतिरूप िारां गरूप। और अतीनतनें उि ढब िे कहिाती थीां - गुजरी,
टोडी, अिावरी, गौरी, मािसिरी, बबिाविी। जब चाहता, अधर में सिधािन पर बैठकर उडाए किरता था
और नब्बें िाख अतीत गुटके अपने मँह
ु में सिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बबखेरे उिके िाथ होते थे।
ष्जि घडी रानी केतकी के बाप की गचठ्ठी एक बगिा उिके घर पहुँचा दे ता है , गुरू महें दर गगर एक
गचग्घाड मारकर दि बादिों को ढिका दे ता है ।
जैिा गुरूजी ने कहा, झटपट वही ककया। पवपत का मारा कँु वर उदै भान और उिका बाप वह राजा
िरू जभान और उिकी माँ िछमीबाि दहरन दहरनी वन गए। हरी घाि कई बरि तक चरते रहे ; और उि
भीड भाड का तो कुछ थि बेडा न समिा, ककधर गए और कहाँ थे बि यहाँ की यहीां रहने दो। किर िन
ु ो।
अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकाि की िनु नए। उनके घर का घर गुरूजी के पाँव पर गगरा
और िबने सिर झक
ु ाकर कहा - "महाराज, यह आपने बडा काम ककया। हम िबको रख सिया। जो आज
आप न पहुँचते तो खया रहा था। िब ने मर समटने की ठान िी थी।
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इन पापपयों िे कुछ न चिेगी, यह जानते थे। राज पाट हमारा अब ननछावर करके ष्जिको चादहए, दे
डासिए; राज हम िे नहीां थम िकता। िरू जभान के हाथ िे आपने बचाया। अब कोई उनका चचा
चांद्रभान चढ आवेगा तो खयोंकर बचना होगा? अपने आप में तो िकत नहीां। किर ऐिे राज का किट्टे मँह
ु
कहाँ तक आपको िताया करें ।" जोगी महें दर गगर ने यह िन
ु कर कहा - "तम
ु हमारे बेटा बेटी हो, अनांदे
करो, दनदनाओ, िख
ु चैन िे रहों। अब वह कौन है जो तम्
ु हें आँख भरकर और ढब िे दे ख िके। वह
बघांबर और यह भभत
ू हमने तुमको ददया। जो कुछ ऐिी गाढ पडे तो इिमें िे एक रोंगटा तोड आग में
िांू क दीष्जयो। वह रोंगटा िुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुँचेंगे। रहा भभत
ू , िो इिसिये है
जो कोई इिे अांजन करै , वह िबको दे खै और उिे कोई न दे ख,ै जो चाहै िो करै ।"
रानी केतकी ने भी गुरूजी को दां डवत की; पर जी में बहुत िी गुरू जी को गासियाँ दी। गुरूजी िात ददन
िात रात यहाँ रह कर जगतपरकाि को सिांघािन पर बैठाकर अपने बघांबर पर बैठ उिी डौि िे कैिाश
पर आ धमके और राजा जगतपरकाि अपने अगिे ढब िे राज करने िगा।
रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पपछिी बातों का ध्यान कर जान िे हाथ धोना।
दोहरा
(अपनी बोिी की धन
ु में )
रानी को बहुत िी बेकिी थी।
कब िझ
ू ती कुछ बरु ी भिी थी।।
चप
ु के चप
ु के कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी।।
कहती थी कभी अरी मदनबान।
है आठ पर मझ
ु े वही ध्यान।।
याँ प्याि ककिे ककिे भिा भख
ू ।
दे खूँ वही किर हरे हरे रूख।।
टपके का डर है अब यह कदहए।
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चाहत का घर है अब यह कदहए।।
अमराइयों में उनका वह उतरना।
और रात का िाँय िाँय करना।।
और चप
ु के िे उठके मेरा जाना।
और तेरा वह चाह का जताना।।
उनकी वह उतार अँगूठी िेनी।
और अपनी अँगूठी उनको दे नी।।
आँखों में मेरे वह किर रही है ।
जी का जो रूप था वही है ।।
खयोंकर उन्हें भि
ू ँ ू खया करूँ मैं।
माँ बाप िे कब तक डरूँ मैं।।
अब मैंने िन
ु ा है ऐ मदनबान।
बन बन के दहरन हुए उदयभान।।
चरते होंगे हरी हरी दब
ू ।
कुछ तू भी पिीज िोच में डूब।।
मैं अपनी गई हूँ चौकडी भि
ू ।
मत मझ
ु को िांुुघा यह डहडहे िूि।।
िूिों को उठाके यहाँ िे िेजा।
िौ टुकडे हुआ मेरा किेजा।।
बबखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घाि का िा के रख दे गट्ठा।।
हर्रयािी उिी की दे ख िँ ू मैं।
कुछ और तो तुझको खया कहूँ मैं।।
इन आँखों में हैं िडक दहरन की।
पिकें हुई जैिे घािवन की।।
जब दे खखए डब-डबा रही है ।
ओिें आांिू की छा रही हैं।।
यह बात जो जी में गड गई है ।
एक ओि-िी मझ
ु पै पड गई है ।
इिी डौि जब अकेिी होती तो मदनवान के िाथ ऐिे कुछ मोती पपरोती।
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रानी केतकी का चाहत िे बेकि होना और मदनवान का िाथ दे ने िे नाहीां करना और िेना उिी भभत
ू
का, जो गुरूजी दे गए थे, आँख-समचौबि के बहाने अपनी माँ रानी कामिता िे।
महारानी ने कहा - "वह खेिने के सिये नहीां हैं। ऐिे िटके ककिी बरु े ददन के िँभािने को डाि रखते हैं।
खया जाने कोई घडी कैिी है , कैिी नहीां।" रानी केतकी अपनी माँ की इि बात पर अपना मँह
ु थथ
ु ा कर
उठ गई और ददन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बि
ु ाया तो कहा मुझे रूच नहीां। तब रानी कामिता
बोि उठीां- "अजी तम
ु ने िन
ु ा भी, बेटी तम्
ु हारी आँख समचौवि खेिने क सिये वह भभत
ू गरू
ु जी का ददया
माँगती थी। मैंने न ददया और कहा, िडकी यह िडकपन की बातें अच्छी नहीां। ककिी बरु े ददन के सिये
गरू
ु जी गए हैं। इिी पर मझ
ु िे रूठी है । बहुतेरा बहिाती हूँ, मानती नहीां।"
रानी केतकी का चाहत िे बेकि होना और मदन बान का िाथ दे ने िे नहीां करना
एक रात रानी केतकी उिी ध्यान में मदनबान िे यों बोि उठी - "अब मैं ननगोडी िाज िे कुट करती हूँ,
तू मेरा िाथ दे ।" मदनबान ने कहा - खयों कर? रानी केतकी ने वह भभत
ू का िेना उिे बताया और यह
िन
ु ाया -
"यह िब आँख-समचौवि के झाई झप्पे मैंने इिी ददन के सिये कर रखखे थे।"
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पर दोनों हाथ डािकर िटका करें , और ष्जिके सिए यह िब कुछ है , िो वह कहाँ? और होय तो खया
जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान ननगोडी नोची खिोटी उजडी उनकी िहे िी है । चल्
ू हे और
भाड में जाय यह चाहत ष्जिके सिए आपकी माँ-बाप का राज-पाट िख
ु नीांद िाज छोडकर नददयों के
कछारों में किरना पडे, िो भी बेडौि। जो वह अपने रूप में होते तो भिा थोडा बहुत आिरा था।
और िब छोटे बडों का नतिसमिाना दि पन्द्रह ददन पीछे एक ददन रानी केतकी बबन कहे मदनबान के
वह भभत
ू आँखों में िगा के घर िे बाहर ननकि गई। कुछ कहने में आता नहीां, जो माँ बाप पर हुई। िब
ने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ िमझकर रानी केतकी को अपने पाि बि
ु ा सिया होगा। महाराज
जगतपरकाि और महारानी कामिता राजपाट उि पवयोग में छोड छाड के पहाड को चोटी पर जा बैठे
और ककिी को अपने आँखों में िे राज थामने को छोड गए। बहुत ददनों पीछे एक ददन महारानी ने
महाराज जगतपरकाि िे कहा - "रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी।
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उिे बि
ु ाकर तो पँुछ
ू ो।" महाराज ने उिे बि
ु ाकर पछ
ू ा तो मदनबान ने िब बातें खोसियाँ। रानी केतकी
के माँ बाप ने कहा - "अरी मदनबान, जो तू भी उिके िाथ होती तो हमारा जी भरता।
अब तो वह तझ
ु े िे जाये तो कुछ हचर पचर न कीष्जयो, उिको िाथ ही िीष्जयो। ष्जतना भभत
ू है , तू
अपने पाि रख। हम कहाँ इि राख को चल्
ू हें में डािेंगे। गरू
ु जी ने तो दोनों राज का खोज खोया - कँु वर
उदै भान और उिके माँ-बाप दोनों अिग हो रहे । जगतपरकाि और कामिता को यों तिपट ककया।
भभत
ू न होती तो ये बातें काहे को िामने आती" ।
मदनबान भी उनके ढूँढने को ननकिी। अांजन िगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी
किरती थी।
बहुत ददनों पीछे कहीां रानी केतकी भी दहरनों की दहाडों में उदै भान उदै भान गचघाडती हुई आ ननकिी।
एक ने एक को ताडकर पक ु ारा - "अपनी तनी आँखें धो डािो।" एक डबरे पर बैठकर दोनों की मठ ु भेड
हुई। गिे िग के ऐिी रोइयाँ जो पहाडों में कूक िी पड गई।
दोहरा
रानी केतकी ने अपनी बीती िब कही और मदनबान वही अगिा झीांकना झीका की और उनके माँ-बाप
ने जो उनके सिये जोग िाधा था, जो पवयोग सिया था, िब कहा। जब यह िब कुछ हो चक
ु ी, तब किर
हँ िने िगी। रानी केतकी उिके हां िने पर रूककर कहने िगी -
दोहरा
हम नहीां हँ िने िे रूकते, ष्जिका जी चाहे हँ िे।
है वही अपनी कहावत आ िँिे जी आ िँिे।।
अब तो िारा अपने पीछे झगडा झाँटा िग गया।
पाँव का खया ढूँढती हा जी में काँटा िग गया।।
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पर मदनबान िे कुछ रानी केतकी के आँिू पँछ
ु ते चिे। उन्ने यह बात कही - "जो तुम कहीां ठहरो तो मैं
तुम्हारे उन उज़डे हुए माँ-बाप को िे आऊँ और उन्हीां िे इि बात को ठहराऊँ। गोिाई महें दर गगर
ष्जिकी यह िब करतत
ू है , वह भी इन्हीां दोनों उजडे हुओां की मठ्ठ
ु ी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तम्
ु हारे
ध्यान चढें , तो गए हुए ददन किर िकते हैं। पर तम्
ु हारे कुछ भावे नहीां, हम खया पडी बकती है । मैं इिपर
बीडा उठाती हूँ"।
बहुत ददनों पीछे रानी केतकी ने इिपर 'अच्छा' कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पाि भेजा और
गचठ्ठी अपने हाथों िे सिख भेजी जो आपिे हो िके तो उि जोगी िे ठहरा के आवें ।
मदनबान रानी केतकी को अकेिा छोडकर राजा जगतपरकाि और रानी कामिता ष्जि पहाड पर बैठी
थीां, झट िे आदे श करके आ खडी हुई और कहने िगी - "िीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर िे
बिा और अच्छे ददन आये। रानी केतकी का एक बाि भी बाँका नहीां हुआ। उन्हीां के हाथों की सिखी गचठ्ठी
िाई हूँ, आप पढ िीष्जए। आगे जो जी चाहे िो कीष्जए।'
महाराज ने उि बधांबर में िे एक रोंगटा तोडकर आग पर रख के िँू क ददया। बात की बात में गोिाई
महें दर गगर आ पहुँचा और जो कुछ नया िवाांग जोगी-जागगन का आया, आँखों दे खा; िबको छाती
िगाया और कहा - "बधांबर इिी सिये तो मैं िौंप गया था कक जो तम
ु पर कुछ हो तो इिका एक बाि
िँू क दीष्जयो। तम्
ु हारी यह गत हो गई। अब तक खया कर रहे थे और ककन नीांदों में िोते थे? पर तम
ु
खया करो यह खखिाडी जो रूप चाहे िौ ददखावे, जो नाच चाहे िौ नचावे। भभत
ू िडकी को खया दे ना था।
दहरनी दहरन उदै भान और िरू जभान उिके बाप और िछमीबाि उनकी माँ को मैंने ककया था। किर उन
तीनों को जैिा का तैिा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई िो हुई। अब उठ चिो, अपने राज पर
पवराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को िमेटो, कँु वर उदै भान को मैंने अपना बेटा
ककया और उिको िेके मैं ब्याहने चढूँगा।"
महाराज यह िन
ु ते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उिी घडी यह कह ददया "िारी छतों और कोठों को
गोटे िे मढो और िोने और रूपे के िन
ु हरे रूपहरे िेहरे िब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की
िडडयाँ बाँध दो और कह दो, चािीि ददन रात तक ष्जि घर में नाच आठ पहर न रहे गा, उि घर वािे िे
मैं रूठ रहूँगा, और छ: मदहने कोई चिनेवािा कहीां न ठहरे । रात ददन चिा जावे।" इि हे र िेर में वह
राज था। िब कहीां यही डौि था।
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जाना महाराज, महारानी और गुिाई महें दर गगर का रानी केतकी के सिये किर महाराज और महारानी
और महें दर गगर मदनबान के िाथ जहाँ रानी केतकी चप
ु चाप िन
ु खीांचे हुए बैठी हुई थी, चप
ु चप
ु ाते वहाँ
आन पहुँच।े गरू
ु जी ने रानी केतकी को अपने गोद में िेकर कँु वर उदै भान का चढावा ददया और कहा -
तम
ु अपने माँ-बाप के िाथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदै भान को सिये हुये आता हूँ।"
गरू
ु जी गोिाई ष्जनको दां डडत है , िो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी िो कहने में आवें गी - यहाँ पर
धम
ू धाम और िैिावा अब ध्यान कीष्जये। महाराज जगतपरकाि ने अपने िारे दे श में कह ददया - "यह
पक
ु ार दे जो यह न करे गा उिकी बरु ी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने िामने नछपोिे बना बना के िह
ू े
कपडे उनपर िगा के मोट धनर्ष
ु की और गोखरू, रूपहिे िन
ु हरे की ककरनें और डाँक टाँक टाँक रखखो
और ष्जतने बड पीपि नए परु ाने जहाँ जहाँ पर हों, उनके िूि के िेहरे बडे बडे ऐिे ष्जिमें सिर िे िगा
पैर तिक पहुँच,े बाँधो।
चौतुखका
पौदों ने रां गा के िह
ू े जोडे पहने। िब पाँव में डासियों ने तोडे पहने।।
बट
ू े बट
ू े ने िूि िूि के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोडे थोडे पहने।।
ष्जतने डहडहे और हर्रयावि िि पात थे, िब ने अपने हाथ में चहचही मेहांदी की रचावट के िाथ
ष्जतनी िजावट में िमा िके, कर सिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही दि
ु दहनें नन्हीां नन्हीां िसियों की और
िह
ु ागगनें नई नई कसियों के जोडे पांखडु डयों के पहने हुए थीां। िब ने अपनी गोद िह
ु ाय और प्यार के िूि
और ििों िे भरी और तीन बरि का पैिा िारे उि राजा के राज भर में जो िोग ददया करते थे, ष्जि ढब
िे हो िकता था खेती बारी करके, हि जोत के और कपडा ित्ता बेंचकर िो िब उनको छोड ददया और
कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें । और ष्जतने राज भर में कुएँ थे, खँडिािों की खँडिािें
उनमें उडेि गई और िारे बनों और पहाड तननयाँ में िाि पटों की झमझमाहट रातों को ददखाई दे ने
िगी। और ष्जतनी झीिें थीां उनमें कुिम
ु और टे िू और हरसिांगार पड गया और केिर भी थोडी थोडी
घोिे में आ गई। िुनगे िे िगा जड तिक ष्जतने झाड झांखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीां, उनपर
रूपहरी िन
ु हरी डाँक गोंद िगाकर गचपका ददया और िबों को कह ददया जो िही पगडी और बागे बबन
कोई ककिी डौि ककिी रूप िे किर चिे नहीां। और ष्जतने गवैये, बजवैए, भाांड-भगनतए रहि धारी और
िांगीत पर नाचनेवािे थे, िबको कह ददया ष्जि ष्जि गाँव में जहाँ जहाँ हों अपनी अपनी दठकानों िे
ननकिकर अच्छे अच्छे बबछौने बबछाकर गाते-नाचते धम
ू मचाते कूदते रहा करें ।
ढूँढना गोिाई महें दर गगर का कँु वर उदै भान और उिके माँ बाप को न पाना और बहुत तिमिाना
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यहाँ की बात और चह
ु िें जो कुछ है , िो यहीां रहने दो। अब आगे यह िन
ु ो। जोगी महें दर और उिके ९०
िाख जनतयों ने िारे बन के बन छान मारे , पर कहीां कँु वर उदै भान और उिके माँ-बाप का दठकाना न
िगा। तब उन्होंने राजा इांदर को गचठ्ठी सिख भेजी। उि गचठ्ठी में यह सिखा हुआ था - 'इन तीनों जनों को
दहरनी दहरन कर डािा था। अब उनको ढूँढता किरता हूँ। कहीां नहीां समिते और मेरी ष्जतनी िकत थी,
अपनी िी बहुत कर चक
ु ा हूँ। अब मेरे मँह
ु िे ननकिा कँु वर उदै भान मेरा बेटा मैं उिका बाप और ििरु ाि
में िब ब्याह का ठाट हो रहा है । अब मझ
ु पर पवपष्त्त गाढी पडी जो तुमिे हो िके, करो।'
राजा इांदर गचठ्ठी का दे खते ही गुरू महें दर को दे खने को िब इांद्रािन िमेट कर आ पहुँचे और कहा -
"जैिा आपका बेटा वैिा मेरा बेटा। आपके िाथ मैं िारे इांद्रिोक को िमेटकर कँु वर उदै भान को ब्याहने
चढूँगा।"
गोिाई महें दर गगर ने राजा इांद्र िे कहा - हमारी आपकी एक ही बात है , पर कुछ ऐिा िझ
ु ाइए ष्जििे
कँु वर उदै भान हाथ आ जावे।" राजा इांदर ने कहा - ष्जतने गवैए और गायनें हैं, उन िबको िाथ िेकर
हम और आप िारे बनों में किरा करें । कहीां न कहीां दठकाना िग जाएगा।" गरू
ु ने कहा - अच्छा।
दहरन दहरनी का खेि बबगडना और कँु वर उदै भान और उिके माँ बाप का नए सिरे िे रूप पकडना
एक रात राजा इांदर और गोिाई महें दर गगर ननखरी हुई चाँदनी में बैठे राग िन
ु रहे थे, करोडों दहरन राग
के ध्यान में चौकडी भि
ू आि पाि िर झक
ु ाए खडे थे। इिी में राजा इांदर ने कहा - "इन िब दहरनों पर
पढके मेरी िकत गरू
ु की भगत िूरे मांत्र ईश्वरोवाच पढ के एक एक छीांटा पानी का दो।" खया जाने वह
पानी कैिा था। छीटों के िाथ ही कँु वर उदै भान और उिके माँ बाप तीनों जनें दहरनों का रूप छोड कर
जैिे थे वैिे हो गए। गोिाई महें दर गगर और राजा इांदर ने उन तीनों को गिे िगाया और बडी आवभगत
िे अपने पाि बैठाया और वही पानी घडा अपने िोगों को दे कर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मांुुडवाते ही
ओिे पडे थे।
राजा इांदर के िोगों ने जो पानी के छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के ददए तो जो मरे थे िब उठ खडे हुए; और
जो अधमए
ु भाग बचे थो, िब सिमट आए। राजा इांदर और महें दर गगर कँु वर उदै भान और राजा
िरू जभान और रानी िक्ष्मीबाि को िेकर एक उडन - खटोिो पर बैठकर बडी धम
ू धाम िे उनको उनके
राज पर बबठाकर ब्याह का ठाट करने िगे। पिेर्रयन हीरे -मोती उन िब पर िे ननछावर हुए।
राजा िरू जभान और कँु वर उदै भान और रानी िछमीबाि गचतचाही अिीि पाकर िूिी न िमाई और
अपने िारे राज को कह ददया - "जेवर भोरे के मँह
ु खोि दो। ष्जि ष्जि को जो जा उकत िझ
ू े, बोि दो।
आज के ददन का िा कौन िा ददन होगा। हमारी आँखों की पत
ु सियों का ष्जििे चैन हैं, उि िाडिे
इकिौते का ब्याह और हम तीनों का दहरनों के रूप िे ननकिकर किर राज पर बैठना। पहिे तो यह
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चादहए ष्जन ष्जन की बेदटयाँ बबन ब्यादहयाँ हों, उन िब को उतना कर दो जो अपनी ष्जि चाव चीज िे
चाहें ; अपनी गुडडयाँ िँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें , िब की िब हमारे यहाँ िे खाया पकाया
रीांधा करें । और िब राज भर की बेदटयाँ िदा िह
ु ागनें बनी रहें और िह
ू े रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना
करें और िोने रूपे के केवाड गांगाजमन
ु ी िब घरों में िग जाएँ और िब कोठों के माथे पर केिर और
चांदन के टीके िगे हों। और ष्जतने पहाड हमारे दे श में हों, उतने ही पहाड िोने रूपे के आमने िामने खडे
हो जाएँ और िब डाँगों की चोदटयाँ मोनतयों की माँग ताँगे भर जाएँ; और िूिों के गहने और बँधनवार िे
िब झाड पहाड िदे िँदे रहें ; और इि राज िे िगा उि राज तक अधर में छत िी बाँध दो। और चप्पा
चप्पा कहीां ऐिा न रहें जहाँ भीड भडखका धम
ू धडखका न हो जाय। िूि बहुत िारे बहा दो जो नददयाँ
जैिे िचमच
ु िूि की बदहयाँ हैं यह िमझा जाय।
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जब कँु वर उदै भान को वे इि रूप िे ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी िे मँुुदा हुआ था,
उिको भी िाथ िे सिया और बहुत िे हाथ जोडे और कहा - ब्राह्मन दे वता हमारे कहने िन
ु ने पर न
जाओ। तम्
ु हारी जो रीत चिी आई है , बताते चिो।
एक उडन खटोिे पर वह भी रीत बता के िाथ हो सिया। राजा इांदर और गोिाई महें दर गगर ऐरावत हाथी
ही पर झि
ू ते झािते दे खते भािते चिे जाते थे। राजा िरू जभान दल्
ु हा के घोडे के िाथ मािा जपता
हुआ पैदि था। इिी में एक िन्नाटा हुआ। िब घबरा गए। उि िन्नाटे में िे जो वह ९० िाख अतीत थे,
अब जोगी िे बने हुए िब मािे मोनतयों की िडडयों की गिे में डािे हुए और गानतयाँ उि ढब की बाँधे हुए
समर्रगछािों और बघांबरों पर आ ठहर गए। िोगों के ष्जयों में ष्जतनी उमांगे छा रही थी, वह चौगुनी
पचगुनी हो गई। िख
ु पाि और चांडोि और रथों पर ष्जतनी राननयाँ थीां, महारानी िछमीदाि के पीछे
चिी आनतयाँ थीां। िब को गुदगदु दयाँ िी होने िगीां इिी में भरथरी का िवाँग आया।
कहीां जोगी जानतयाँ आ खडे हुए। कहीां कहीां गोरख जागे कहीां मछ
ु ां दारनाथ भागे। कहीां मच्छ कच्छ बराह
िांमख
ु हुए, कहीां परिरु ाम, कहीां बामन रूप, कहीां हरनाकुि और नरसिांह, कहीां राम िछमन िीता
िामने आई, कहीां रावन और िांका का बखेडा िारे का िारा िामने ददखाई दे ने िगा कहीां कन्है या जी की
जनम अटटमी होना और विद
ु े व का गोकुि िे जाना और उनका बढ चिना, गाए चरानी और मरु िी
बजानी और गोपपयों िे धम
ू ें मचानी और रागधका रहि और कुब्जा का बि कर िेना, वही करीि की
कांुुजे, बिीबट, चीरघाट, वांद
ृ ावन, िेवाकांु ज, बरिाने में रहना और कन्है या िे जो जो हुआ था, िब का
िब ज्यों का त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ िोने का घर बनाना, इधर बबर्रज को न
आना और िोिह िौ गोपपयों का तिमिाना िामने आ गया। उन गोपपयों में िे ऊधो क हाथ पकडकर
एक गोपी के इि कहने ने िबको रूिा ददया जो इि ढब िे बोि के उनिे रूँधे हुए जी को खोिे थी।
चौचख
ु का
जब छाांडड करीि को कँुुजन को हर्र द्वार्रका जीउ माँ जाय बिे।
किधौत के धाम बनाए घने महराजन के महराज भये।
तज मोर मक
ु ु ट अरू कामर्रया कछु औरदह नाते जाड सिए।
धरे रूप नए ककए नेह नए और गइया चरावन भि
ू गए।
अच्छापन घाटों का कोई खया कह िके, ष्जतने घाट दोनों राज की नददयों में थे, पखके चाँदी के थखके िे
होकर िोगों को हखका बखका कर रहे थे। ननवाडे, भौसिए, बजरे , िचके, मोरपांखी, स्यामिांद
ु र, रामिांद
ु र,
और ष्जतनी ढब की नावे थीां, िन
ु हरी रूपहरी, िजी िजाई किी किाई और िौ िौ िचकें खानतयाँ,
आनतयाँ, जानतयाँ, ठहरानतयाँ, किरानतयाँ थीां। उन िभी पर खचाखच कांचननयाँ, रामजननयाँ, डोसमननयाँ
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भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती िाँदती घम
ू ें मचानतयाँ अँगडानतयाँ
जम्हानतयाँ उँ गसियाँ नचानतयाँ और ढुिी पडनतयाँ थीां और कोई नाव ऐिी न थी जो िोने रूपे के पत्तरों
िे मढी हुई और िवारी िे भरी हुई न हो। और बहुत िी नावों पर दहांडोिे भी उिी डब के थे। उनपर गायनें
बैठी झि
ु ती हुई िोहनी, केदार, बागेिरी, काम्हडों में गा रही थीां। दि बादि ऐिे नेवाडों के िब झीिों में
छा रहे थे।
कँु वर उदै भान के अच्छे पन का कुछ हाि सिखना ककििे हो िके। हाय रे उनके उभार के ददनों का
िह
ु ानापन, चाि ढाि का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपि की कािी िबन और मख
ु डे का गदराया
हुआ जोबन जैिे बडे तडके धांुुधिे के हरे भरे पहाडों की गोद िे िरू ज की ककरनें ननकि आती है । यही
रूप था। उनकी भीांगी मिों िे रि टपका पडता था। अपनी परछाँई दे खकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी,
उिका डौि ठीक ठीक उनके पाँव तिे जैिे धप
ू थी।
दल्
ू हा का सिांहािन पर बैठना
दल्
ू हा उदै भान सिांहािन पर बैठा और इधर उधर राजा इांदर और जोगी महें दर गगर जम गए और दल्
ू हा
का बाप अपने बेटे के पीछे मािा सिये कुछ गन
ु गन
ु ाने िगा। और नाच िगा होने और अधर में जो उडन
खटोिे राजा इांदर के अखाडे के थे। िब उिी रूप िे छत बाँधे गथरका ककए। दोनों महाराननयाँ िमगधन
बन के आपि में समसियाँ चसियाँ और दे खने दाखने को कोठों पर चन्दन के ककवाडों के आड तिे आ
बैदठयाँ। िवाांग िांगीत भँडताि रहि हँ िी होने िगी। ष्जतनी राग रागगननयाँ थीां, ईमन कल्यान, िध
ु
कल्यान, खझांझोटी, कन्हाडा, खम्माच, िोहनी, परज, बबहाग, िोरठ, कािांगडा, भैरवी, गीत, िसित भैरी
रूप पकडे हुए िचमच
ु के जैिे गानेवािे होते हैं, उिी रूप में अपने अपने िमय पर गाने िगे और गाने
िगगयाँ। उि नाच का जो ताव भाव रचावट के िाथ हो, ककिका मँह
ु जो कह िके। ष्जतने महाराजा
जगतपरकाि के िख
ु चैन के घर थे, माधो बबिाि, रिधाम कृटण ननवाि, मच्छी भवन, चांद्र भवन
िबके िब िप्पे िपेटे और िच्ची मोनतयों की झािरें अपनी अपनी गाँठ में िमेटे हुए एक भेि के िाथ
मतवािों के बैठनेवािों के मँह
ु चम
ू रहे थे।
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बीचो बीच उन िब घरों के एक आरिी धाम बना था ष्जिकी छत और ककवाड और आांगन में आरिी
छुट कहीां िकडी, इांटद, पत्थर की पट
ु एक उँ गिी के पोर बराबर न िगी थी। चाँदनी िा जोडा पहने जब
रात घडी एक रह गई थी। तब रानी केतकी िी दल्
ु हन को उिी आरिी भवन में बैठकर दल्
ू हा को बि
ु ा
भेजा। कँु वर उदै भान कन्है या िा बना हुआ सिर पर मक
ु ु ट धरे िेहरा बाँधे उिी तडावे और जमघट के
िाथ चाँद िा मख
ु डा सिए जा पहुँचा। ष्जि ष्जि ढब में ब्राह्मन और पांडडत बहते गए और जो जो
महाराजों में रीतें होती चिी आई थी, उिी डौि िे उिी रूप िे भँवरी गँठजोडा हो सिया।
वह उडनखटोिीवासियाँ जो अधर में छत िी बाँधे हुए गथरक रही थी, भर भर झोसियाँ और मदु ि्ठयाँ
हीरे और मोनतयाँ िे ननछावर करने के सिए उतर आइयाँ और उडन-खटोिे अधर में ज्यों के त्यों छत
बाँधे हुए खडे रहे । और वह दल्
ू हा दल्
ू हन पर िे िात िात िेरे वारी िेर होने में पपि गइयाँ। िभों को एक
चप
ु की िी िग गई। राजा इांदर ने दल्
ू हन को मँह
ु ददखाई में एक हीरे का एक डाि छपरखट और एक पेडी
पख
ु राज की दी और एक परजात का पौधा ष्जिमें जो िि चाहो िो समिे, दल्
ू हा दल्
ू हन के िामने िगा
ददया। और एक कामधेनू गाय की पदठया बनछया भी उिके पीछे बाँध दी और इखकीि िाांुैडडया उन्हीां
उडन-खटोिेवासियों में िे चन
ु कर अच्छी िे अच्छी िथ
ु री िे िथ
ु री गाती बजानतयाँ िीनतयाँ पपरोनतयाँ
और िघ
ु र िे िघ
ु र िौंपी और उन्हें कह ददया - "रानी केतकी छूट उनके दल्
ू हा िे कुछ बात चीत न
रखना, नहीां तो िब की िब पत्थर की मरू त हो जाओगी और अपना ककया पाओगी।" और गोिाई महें दर
गगर ने बावन तोिे पाख रत्ती जो उिकी इखकीि चट
ु की आगे रखखी और कहा - "यह भी एक खेि है ।
जब चादहए, बहुत िा ताँबा गिाके एक इतनी िी चट
ु की छोड दीजै; कांचन हो जायेगा।" और जोगी जी ने
िभों िे यह कह ददया- "जो िोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चािीि ददन रात िोने की नददयों
के रूप में मनन बरिे। जब तक ष्जएँ, ककिी बात को किर न तरिें।"
९ िाख ९९ गायें िोने रूपे की सिगौर्रयों की, जडाऊ गहना पहने हुए, घँघ
ु रू छमछमानतयाँ महां तों को
दान हुई और िात बरि का पैिा िारे राज को छोड ददया गया। बाईि िौ हाथी और छत्तीि िौ ऊँट
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रूपयों के तोडे िादे हुए िट
ु ा ददए। कोई उि भीडभाड में दोनों राज का रहनेवािा ऐिा न रहा ष्जिको
घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न समिे हो। और मदनबान छुट दल्
ू हा दल्
ू हन के पाि
ककिी का दहयाव न था जो बबना बि
ु ाये चिी जाए। बबना बि
ु ाए दौडी आए तो वही और हँ िाए तो वही
हँ िाए। रानी केतकी के छे डने के सिए उनके कँु वर उदै भान को कँु वर खयोडा जी कहके पक
ु ारती थी और
ऐिी बातों को िौ िौ रूप िे िँवारती थी।
दोहरा
बहुत ददनों पीछे कहीां रानी केतकी भी दहरनों की दहाडों में उदै भान उदै भान गचघाडती हुई आ ननकिी।
एक ने एक को ताडकर पक ु ारा-अपनी तनी आँखें धो डािो। एक डबरे पर बैठकर दोनों की मठ ु भेड हुई।
गिे िग के ऐिी रोइयाँ जो पहाडों में कूक िी पड गई।
दोहरा
छा गई ठां डी िाँि झाडों में ।
पड गई कूक िी पहाडों में ।
दोनों जननयाँ एक अच्छी िी छाांव को ताडकर आ बैदठयाँ और अपनी अपनी दोहराने िगीां। बातचीत
रानी केतकी की मदनबान के िाथ रानी केतकी ने अपनी बीती िब कही और मदनबान वही अगिा
झीांकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके सिये जोग िाधा था, जो पवयोग सिया था, िब कहा।
जब यह िब कुछ हो चक
ु ी, तब किर हँ िने िगी। रानी केतकी उिके हां िने पर रूककर कहने िगी-
दोहरा
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हम नहीां हँ िने िे रूकते, ष्जिका जी चाहे हँ िे।
हैं वही अपनी कहावत आ िँिे जी आ िँिे॥
अब तो िारा अपने पीछे झगडा झाँटा िग गया।
पाँव का खया ढूँढती हाजी में काँटा िग गया॥
महाराज ने उि बधांबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के िँू क ददया। बात की बात में गोिाई महें दर
गगर आ पहुँचा और जो कुछ नया िवादग जोगी-जागगन का आया, आँखों दे खा; िबको छाती िगाया और
कहा- बघांबर इिीसिये तो मैं िौंप गया था कक जो तुम पर कुछ हो तो इिका एक बाि िँू क दीष्जयो।
तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक खया कर रहे थे और ककन नीांदों में िोते थे? पर तुम खया करो यह
खखिाडी जो रूप चाहे िौ ददखावे, जो नाच चाहे िौ नचावे। भभत
ू िडकी को खया दे ना था। दहरनी दहरन
उदै भान और िरू जभान उिके बाप और िछमीबाि उनकी माँ को मैंने ककया था। किर उन तीनों को
जैिा का तैिा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई िो हुई। अब उठ चिो, अपने राज पर पवराजो और
ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को िमेटो, कँु वर उदै भान को मैंने अपना बेटा ककया और उिको
िेके मैं ब्याहने चढूँगा।
महाराज यह िन
ु ते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उिी घडी यह कह ददया िारी छतों और कोठों को गोटे
िे मढो और िोने और रूपे के िन
ु हरे िेहरे िब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की िडडयाँ बाँध
दो और कह दो, चािीि ददन रात तक ष्जि घर में नाच आठ पहर न रहे गा, उि घर वािे िे मैं रूठा
रहूँगा, और छ: मदहने कोई चिने वािा कहीां न ठहरे । रात ददन चिा जावे। इि हे र िेर में वह राज था।
िब कहीां यही डौि था। जाना महाराज, महारानी और गुिाई महें दर गगर का रानी केतकी के सिये किर
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महाराज और महारानी और महें दर गगर मदनबान के िाथ जहाँ रानी केतकी चप
ु चाप िन
ु खीांचे हुए बैठी
हुई थी, चप
ु चप
ु ाते वहाँ आन पहुँच।े गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में िेकर कँु वर उदै भान का
चढावा ददया और कहा-तम ु अपने माँ-बाप के िाथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदै भान को सिये हुए
आता हूां। गरू
ु जी गोिाई ष्जनको दां डडत है , िो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी िो कहने में आवेंगी-
यहाँ पर धम
ू धाम और िैिावा अब ध्यान कीष्जये। महाराज जगतपरकाि ने अपने िारे दे श में कह
ददया-यह पक
ु ार दे जो यह न करे गा उिकी बरु ी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने िामने नछपोिे बना बना
के िह
ू े कपडे उन पर िगा के मोट धनर्ष
ु की और गोखरू, रूपहिे िन
ु हरे की ककरनें और डाँक टाँक टाँक
रखखो और ष्जतने बड पीपि नए परु ाने जहाँ जहाँ पर हों, उनके िूि के िेहरे बडे-बडे ऐिे ष्जिमें सिर िे
िगा पैदा तिक पहुँचे बाँधो।
चौतुखका
पौदों ने रां गा के िह
ू े जोडे पहने।
िब पाँण में डासियों ने तोडे पहने।।
बट
ू े बट
ू े ने िूि िूि के गहने पहने।
जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥
ष्जतने डहडहे और हर्रयावि िि पात थे, िब ने अपने हाथ में चहचही मेहांदी की रचावट के िाथ
ष्जतनी िजावट में िमा िके, कर सिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही ढुिदहनें नन्हीां नन्हीां िसियों की ओर
िह
ु ागगनें नई नई कसियों के जोडे पांखडु डयों के पहने हुए थीां। िब ने अपनी गोद िह
ु ाय और प्यार के िूि
और ििों िे भरी और तीन बरि का पैिा िारे उि राजा के राज भर में जो िोग ददया करते थे ष्जि ढण
िे हो िकता था खेती बारी करके, हि जोत के और कपडा ित्ता बेंचकर िो िब उनको छोड ददया और
कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें । और ष्जतने राज भर में कुएँ थे, खँड िािों की खँडिािें
उनमें उडेि गई और िारे बानों और पहाड तननयाँ में िाि पटों की झमझमाहट रातों को ददखाई दे ने
िगी। और ष्जतनी झीिें थीां उनमें कुिम
ु और टे िू और हरसिांगार पड गया और केिर भी थोडी थोडी
घोिे में आ गई।
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सिहाफ़
इस्मत चग
ु ताई
जब मैं जाडों में सिहाि ओढती हूँ तो पाि की दीवार पर उिकी परछाई हाथी की तरह झम
ू ती हुई मािम
ू
होती है । और एकदम िे मेरा ददमाग बीती हुई दनु नया के पदों में दौडने-भागने िगता है । न जाने खया
कुछ याद आने िगता है ।
यह जब का ष्जक्र है , जब मैं छोटी-िी थी और ददन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के िाथ मार-कुटाई में
गुज़ार ददया करती थी। कभी-कभी मझ
ु े ख़याि आता कक मैं कमबख्त इतनी िडाका खयों थी? उि उम्र
में जबकक मेरी और बहनें आसशक जमा कर रही थीां, मैं अपने-पराये हर िडके और िडकी िे जत
ू म-
पैजार में मशगूि थी।
वही बेगम जान ष्जनका सिहाफ़ अब तक मेरे ज़हन में गमद िोहे के दाग की तरह महिूज है । ये वो बेगम
जान थीां ष्जनके गरीब माँ-बाप ने नवाब िाहब को इिसिए दामाद बना सिया कक वह पकी उम्र के थे
मगर ननहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाज़ारी औरत उनके यहाँ नज़र न आई। ख़द
ु हाजी थे और
बहुतों को हज करा चक
ु े थे।
मगर बेगम जान िे शादी करके तो वे उन्हें कुि िाज़ो-िामान के िाथ ही घर में रखकर भि
ू गए। और
वह बेचारी दब
ु िी-पतिी नाज़क
ु -िी बेगम तन्हाई के गम में घि
ु ने िगीां। न जाने उनकी ष्ज़न्दगी कहाँ
िे शरू
ु होती है ? वहाँ िे जब वह पैदा होने की गिती कर चक
ु ी थीां, या वहाँ िे जब एक नवाब की बेगम
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बनकर आयीां और छपरखट पर ष्ज़न्दगी गुजारने िगीां, या जब िे नवाब िाहब के यहाँ िडकों का जोर
बँधा। उनके सिए मरु ग्गन हिवे और िज़ीज़ खाने जाने िगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में िे
उनकी िचकती कमरोंवािे िडकों की चस्
ु त पपण्डसियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुते दे ख-
दे खकर अांगारों पर िोटने िगीां।
या जब िे वह मन्नतों-मरु ादों िे हार गईं, गचल्िे बँधे और टोटके और रातों की वज़ीिाख्वानी भी गचत
हो गई। कहीां पत्थर में जोंक िगती है ! नवाब िाहब अपनी जगह िे टि-िे-मि न हुए। किर बेगम जान
का ददि टूट गया और वह इल्म की तरि मोतवज्जो हुई। िेककन यहाँ भी उन्हें कुछ न समिा। इष्श्कया
नावेि और जज़्बाती अशआर पढकर और भी पस्ती छा गई। रात की नीांद भी हाथ िे गई और बेगम
जान जी-जान छोडकर बबल्कुि ही यािो-हिरत की पोट बन गईं।
चल्
ू हे में डािा था ऐिा कपडा-ित्ता। कपडा पहना जाता है ककिी पर रोब गाँठने के सिए। अब न तो
नवाब िाहब को िुिदत कक शबनमी कुतों को छोडकर ज़रा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीां आने-
जाने दे ते। जब िे बेगम जान ब्याहकर आई थीां, र्रश्तेदार आकर महीनों रहते और चिे जाते, मगर वह
बेचारी कैद की कैद रहतीां।
उन र्रश्तेदारों को दे खकर और भी उनका खून जिता था कक िबके-िब मज़े िे माि उडाने, उम्दा घी
ननगिने, जाडे का िाज़ो-िामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के सिहाि के, पडी िदी में
अकडा करतीां। हर करवट पर सिहाफ़ नईं-नईं िरू तें बनाकर दीवार पर िाया डािता। मगर कोई भी
िाया ऐिा न था जो उन्हें ष्ज़न्दा रखने सिए कािी हो। मगर खयों ष्जये किर कोई? ष्ज़न्दगी! बेगम जान
की ष्ज़न्दगी जो थी! जीना बांदा था निीबों में , वह किर जीने िगीां और खब
ू जीां।
रब्बो ने उन्हें नीचे गगरते-गगरते िँभाि सिया। चटपट दे खते-दे खते उनका िख
ू ा ष्जस्म भरना शरू
ु हुआ।
गाि चमक उठे और हुस्न िूट ननकिा। एक अजीबो-गरीब तेि की मासिश िे बेगम जान में ष्ज़न्दगी
की झिक आई। माफ़ कीष्जएगा, उि तेि का नस्
ु खा आपको
ा़ बेहतरीन-िे-बेहतरीन र्रिािे में भी न
समिेगा।
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माँग ही बबगडी न दे खी। खया मजाि जो एक बाि इधर-उधर हो जाए। उनकी आँखें कािी थीां और अबरू
पर के ज़ायद बाि अिहदा कर दे ने िे कमानें-िीां खखांची होती थीां। आँखें ज़रा तनी हुई रहती थीां। भारी-
भारी िूिे हुए पपोटे , मोटी-मोटी पिकें। िबिे ष्ज़याद जो उनके चेहरे पर है रतअांगेज़ जाष्ज़बे-नज़र
चीज़ थी, वह उनके होंठ थे। अमम
ू न वह िख
ु ी िे रां गे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मँछ
ू ें -िी थीां
और कनपदटयों पर िम्बे-िम्बे बाि। कभी-कभी उनका चेहरा दे खते-दे खते अजीब-िा िगने िगता था,
कम उम्र िडकों जैिा।
रब्बो को घर का और कोई काम न था। बि वह िारे वखत उनके छपरखट पर चढी कभी पैर, कभी सिर
और कभी ष्जस्म के और दि
ू रे दहस्िे को दबाया करती थी। कभी तो मेरा ददि बोि उठता था, जब दे खो
रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मासिश कर रही है ।
कोई दि
ू रा होता तो न जाने खया होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा ष्जस्म तो िड-गि
के खत्म हो जाय। और किर यह रोज़-रोज़ की मासिश कािी नहीां थीां। ष्जि रोज़ बेगम जान नहातीां, या
अल्िाह! बि दो घण्टा पहिे िे तेि और खश
ु बद
ु ार उबटनों की मासिश शरू
ु हो जाती। और इतनी होती
कक मेरा तो तख़य्यि
ु िे ही ददि िोट जाता। कमरे के दरवाज़े बन्द करके अँगीदठयाँ िि
ु गती और
चिता मासिश का दौर। अमम
ू न सिफ़द रब्बो ही रही। बाकी की नौकराननयाँ बडबडातीां दरवाज़े पर िे ही,
जरूर्रयात की चीज़ें दे ती जातीां।
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नमी में डूबे रहते और ष्जस्म में िे अजीब घबरानेवािी बू के शरारे ननकिते रहते थे। और ये नन्हें -नन्हें
िूिे हुए हाथ ककि कदर िूतीिे थे! अभी कमर पर, तो वह िीष्जए किििकर गए कूल्हों पर! वहाँ िे
रपटे रानों पर और किर दौडे टखनों की तरि! मैं तो जब कभी बेगम जान के पाि बैठती, यही दे खती कक
अब उिके हाथ कहाँ हैं और खया कर रहें हैं?
गमी-जाडे बेगम जान है दराबादी जािी कारगे के कुते पहनतीां। गहरे रां ग के पाजामे और ििेद झाग-िे
कुते। और पांखा भी चिता हो, किर भी वह हल्की दि
ु ाई ज़रूर ष्जस्म पर ढके रहती थीां। उन्हें जाडा बहुत
पिन्द था। जाडे में मझ
ु े उनके यहाँ अच्छा मािम
ू होता। वह दहिती-डुिती बहुत कम थीां। कािीन पर
िेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बि! रब्बो िे दि
ू री िारी नौकर्रयाँ खार खाती थीां।
चड
ु ि
ै बेगम जान के िाथ खाती, िाथ उठती-बैठती और माशा अल्िाह! िाथ ही िोती थी! रब्बो और
बेगम जान आम जििों और मजमओ
ू ां की ददिचस्प गुफ्तगू का मौजँ ू थीां। जहाँ उन दोनों का ष्ज़क्र
आया और कहकहे उठे । िोग न जाने खया-खया चट
ु कुिे गरीब पर उडाते, मगर वह दनु नया में ककिी िे
समिती ही न थी। वहाँ तो बि वह थीां और उनकी खुजिी!
िवाि यह उठा कक मैं िोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में । सिहाज़ा मेरे सिए भी उनके
छपरखट िे िगाकर छोटी-िी पिँ गडी डाि दी गई। दि-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे । मैं और
बेगम जान चाांि खेिते रहे और किर मैं िोने के सिए अपने पिांग पर चिी गई। और जब मैं िोयी तो
रब्बो वैिी ही बैठी उनकी पीठ खज
ु ा रही थी। 'भांगन कहीां की!' मैंने िोचा। रात को मेरी एकदम िे आँख
खुिी तो मझ
ु े अजीब तरह का डर िगने िगा। कमरे में घप
ु अँधेरा। और उि अँधेरे में बेगम जान का
सिहाि ऐिे दहि रहा था, जैिे उिमें हाथी बन्द हो!
''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज़ ननकािी। हाथी दहिना बन्द हो गया। सिहाि नीचे दब गया।
''खया है ? िो जाओ।''
बेगम जान ने कहीां िे आवाज़ दी।
''डर िग रहा है ।''
मैंने चह
ू े की-िी आवाज़ िे कहा।
''िो जाओ। डर की खया बात है ? आयतिकुिी पढ िो।''
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''अच्छा।''
मैंने जल्दी-जल्दी आयतिकुिी पढी। मगर 'यािमू मा बीन' पर हर दिा आकर अटक गई। हािाँकक
मझ
ु े वखत परू ी आयत याद है ।
''तम्
ु हारे पाि आ जाऊँ बेगम जान?''
''नहीां बेटी, िो रहो।'' ज़रा िख्ती िे कहा।
और किर दो आदसमयों के घि
ु रु -िुिरु करने की आवाज़ िन
ु ायी दे ने िगी। हाय रे ! यह दि
ू रा
कौन? मैं और भी डरी।
''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीां?''
''िो जाओ बेटा, कैिा चोर?''
रब्बो की आवाज़ आई। मैं जल्दी िे सिहाि में मँह
ु डािकर िो गई।
िब
ु ह मेरे जहन में रात के खौिनाक नज़्ज़ारे का खयाि भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ।
रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज़ ही होता था। िब तो
कहते थे, मझ
ु पर भत
ू ों का िाया हो गया है । सिहाज़ा मझ
ु े खयाि भी न रहा। िब
ु ह को
सिहाि बबल्कुि मािम
ू नज़र आ रहा था।
मगर दि
ू री रात मेरी आँख खुिी तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगडा बडी खामोशी िे
छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक िमझ में न आया कक खया िैििा हुआ?
रब्बो दहचककयाँ िेकर रोयी, किर बबल्िी की तरह िपड-िपड रकाबी चाटने-जैिी आवाज़ें आने
िगीां, ऊँह! मैं तो घबराकर िो गई।
आज रब्बो अपने बेटे िे समिने गई हुई थी। वह बडा झगडािू था। बहुत कुछ बेगम जान ने
ककया, उिे दक
ु ान करायी, गाँव में िगाया, मगर वह ककिी तरह मानता ही नहीां था। नवाब
िाहब के यहाँ कुछ ददन रहा, खूब जोडे-बागे भी बने, पर न जाने खयों ऐिा भागा कक रब्बो
िे समिने भी न आता। सिहाज़ा रब्बो ही अपने ककिी र्रश्तेदार के यहाँ उििे समिने गई
थीां। बेगम जान न जाने दे तीां, मगर रब्बो भी मजबरू हो गई। िारा ददन बेगम जान परे शान
रहीां। उनका जोड-जोड टूटता रहा। ककिी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न
खाया और िारा ददन उदाि पडी रहीां।
''मैं खज
ु ा दँ ू बेगम जान?''
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मैंने बडे शौक िे ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मझ
ु े गौर िे दे खने िगीां।
''मैं खज
ु ा दँ ?
ू िच कहती हूँ!''
''और इधर...'' हािाँकक बेगम जान का हाथ खूब जा िकता था, मगर वह मझ
ु िे ही खुजवा
रही थीां और मझ
ु े उल्टा िख्र हो रहा था। ''यहाँ ओई! तुम तो गद
ु गुदी करती हो वाह!'' वह
हँ िी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।
''नहीां बेगम जान, मैं तो गडु डया नहीां िेती। खया बच्चा हूँ अब मैं?''
''इधर...'' उन्होंने मेरा हाथ पकडकर जहाँ खुजिी हो रही थी, रख ददया। जहाँ उन्हें खुजिी
मािम
ू होती, वहाँ मेरा हाथ रख दे तीां। और मैं बेखयािी में , बबए
ु के ध्यान में डूबी मशीन
की तरह खज
ु ाती रही और वह मत
ु वानतर बातें करती रहीां।
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''िन
ु ो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं। कि दजी को दे दँ ग
ू ी, कक नई-िी िाए। तुम्हारी
अम्माँ कपडा दे गई हैं।''
''वह िाि कपडे की नहीां बनवाऊँगी। चमारों-जैिा है !'' मैं बकवाि कर रही थी और हाथ न
जाने कहाँ-िे-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मझ
ु े मािम
ू भी न हुआ।
बेगम जान तो चप
ु िेटी थीां। ''अरे !'' मैंने जल्दी िे हाथ खीांच सिया।
''उन्होंने मझ
ु े बाजू पर सिर रखकर सिटा सिया।
''अब है , ककतनी िख
ू रही है । पिसियाँ ननकि रही हैं।'' उन्होंने मेरी पिसियाँ गगनना शरू
ु
कीां।
''ऊँ!'' मैं भन
ु भन
ु ायी।
''ओइ! तो खया मैं खा जाऊँगी? कैिा तांग स्वेटर बना है ! गरम बननयान भी नहीां पहना
तुमने!''
मैं कुिबि
ु ाने िगी।
''ककतनी पिसियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदिी।
''एक तरि नौ और दि
ू री तरि दि।''
मैंने स्कूि में याद की हुई हाइष्जन की मदद िी। वह भी ऊटपटाँग।
''हटाओ तो हाथ हाँ, एक दो तीन...''
मेरा ददि चाहा ककिी तरह भागँू और उन्होंने जोर िे भीांचा।
''ऊँ!'' मैं मचि गई।
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बेगम जान जोर-जोर िे हँ िने िगीां।
अब भी जब कभी मैं उनका उि वखत का चेहरा याद करती हूँ तो ददि घबराने िगता है ।
उनकी आँखों के पपोटे और वज़नी हो गए। ऊपर के होंठ पर सियाही नघरी हुई थी। बावजद
ू
िदी के, पिीने की नन्हीां-नन्हीां बँद
ू ें होंठों और नाक पर चमक रहीां थीां। उनके हाथ ठण्डे थे,
मगर नरम-नरम जैिे उन पर की खाि उतर गई हो। उन्होंने शाि उतार दी थी और कारगे
के महीन कुतो में उनका ष्जस्म आटे की िोई की तरह चमक रहा था। भारी जडाऊ िोने के
बटन गरे बान के एक तरि झि
ू रहे थे। शाम हो गई थी और कमरे में अांधेरा घप
ु हो रहा
था। मझ
ु े एक नामािम
ू डर िे दहशत-िी होने िगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!
थोडी दे र के बाद वह पस्त होकर ननढाि िेट गईं। उनका चेहरा िीका और बदरौनक हो गया
और िम्बी-िम्बी िाँिें िेने िगीां। मैं िमझी कक अब मरीां यह। और वहाँ िे उठकर िरपट
भागी बाहर।
शक्र
ु है कक रब्बो रात को आ गई और मैं डरी हुई जल्दी िे सिहाि ओढ िो गई। मगर नीांद
कहाँ? चप
ु घण्टों पडी रही।
आज रब्बो में और बेगम जान में किर अनबन हो गई। मेरी ककस्मत की खराबी कदहए या
कुछ और, मझ
ु े उन दोनों की अनबन िे डर िगा। खयोंकक िौरन ही बेगम जान को खयाि
आया कक मैं बाहर िदी में घम
ू रही हूँ और मरूँगी ननमोननया में !
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उन्होंने मझ
ु े पाि बबठा सिया। वह खुद मँह
ु -हाथ सििप्ची में धो रही थीां। चाय नतपाई पर
रखी थी।
वह कपडे बदिती रहीां और मैं चाय पीती रही। बेगम जान नाइन िे पीठ मिवाते वखत
अगर मझ
ु े ककिी काम िे बि
ु ाती तो मैं गदद न मोडे-मोडे जाती और वापि भाग आती। अब
जो उन्होंने कपडे बदिे तो मेरा ददि उिटने िगा। मँह
ु मोडे मैं चाय पीती रही।
''हाय अम्माँ!'' मेरे ददि ने बेकिी िे पक
ु ारा, ''आखखर ऐिा मैं भाइयों िे खया िडती हूँ जो
तम
ु मेरी मि
ु ीबत...''
अम्माँ को हमेशा िे मेरा िडकों के िाथ खेिना नापिन्द है । कहो भिा िडके खया शेर-चीते
हैं जो ननगि जाएँगे उनकी िाडिी को? और िडके भी कौन, खुद भाई और दो-चार िडे-
िडाये ज़रा-ज़रा-िे उनके दोस्त! मगर नहीां, वह तो औरत जात को िात तािों में रखने की
कायि और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कक दनु नया-भर के गुण्डों िे नहीां।
बि चिता तो उि वखत िडक पर भाग जाती, पर वहाँ न दटकती। मगर िाचार थी।
मजबरू न किेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।
मगर मैं खिी की तरह िैि गई। िारे खखिौने, समठाइयाँ एक तरि और घर जाने की रट
एक तरि।
''वहाँ भैया मारें गे चड
ु ि
ै !'' उन्होंने प्यार िे मझ
ु े थप्पड िगाया।
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''पडे मारे भैया,'' मैंने ददि में िोचा और रूठी, अकडी बैठी रही।
और किर उिके बाद बेगम जान को दौरा पड गया। िोने का हार, जो वह थोडी दे र पहिे
मझ
ु े पहना रही थीां, टुकडे-टुकडे हो गया। महीन जािी का दप
ु ट्टा तार-तार। और वह माँग, जो
मैंने कभी बबगडी न दे खी थी, झाड-झांखाड हो गई।
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके िे-िेकर गचल्िाने िगीां। मैं रपटी बाहर।
बडे जतनों िे बेगम जान को होश आया। जब मैं िोने के सिए कमरे में दबे पैर जाकर
झाँकी तो रब्बो उनकी कमर िे िगी ष्जस्म दबा रही थी।
िर िर िट खच!
''अल्िाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज़ ननकािी। सिहाफ़ में हाथी िुदका और बैठ गया। मैं भी
चपु हो गई। हाथी ने किर िोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने ददि में ठान सिया
कक जरूर दहम्मत करके सिरहाने का िगा हुआ बल्ब जिा दँ ।ू हाथी किर िडिडा रहा था
और जैिे उकडूँ बैठने की कोसशश कर रहा था। चपड-चपड कुछ खाने की आवाजें आ रही थीां,
जैिे कोई मज़ेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं िमझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीां
खाया।
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और रब्बो मई ु तो है िदा की चट्टू! ज़रूर यह तर माि उडा रही है । मैंने नथन
ु े िुिाकर िँ-ू िँू
हवा को िँघ
ू ा। मगर सिवाय अतर, िन्दि और दहना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न
महिि
ू हुआ।
''आ न अम्माँ!'' मैं दहम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ िुनवाई न हुई और सिहाि मेरे
ददमाग में घि
ु कर िूिना शरू ु हुआ। मैंने डरते-डरते पिांग के दि
ू री तरि पैर उतारे और
टटोिकर बबजिी का बटन दबाया। हाथी ने सिहाि के नीचे एक किाबाज़ी िगायी और
पपचक गया। किाबाज़ी िगाने मे सिहाफ़ का कोना िुट-भर उठा,
अल्िाह! मैं गडाप िे अपने बबछौने में !!!
पहे िी
उपें द्रनाथ अश्क
रामदयाि परू ा बहुरूपपया था। भेि और आवाज बदिने में उिे कमाि हासिि था। कॉिेज मे पढता था
तो वहाँ उिके असभनय की धम
ू मची रहती थी; अब सिनेमा की दनु नया में आ गया था तो यहाँ उिकी
चचाद थी। कॉिेज िे डडग्री िेते ही उिे बम्बई की एक किल्म-कम्पनी में अच्छी जगह समि गयी थी और
अल्प-काि ही में उिकी गणना भारत के श्रेटठ असभनेताओां में होने िगी थी। िोग उिके असभनय को
दे ख कर आश्चयदचककत रह जाते थे। उिके पाि प्रनतभा थी, किा थी और ख्यानत के उच्च सशखर पर
पहुँचने की महत्त्वाकाांक्षा! इिीसिए ष्जि पात्र की भसू मका में काम करता बहुरूप और असभनय मे वह
बात पैदा कर दे ता था कक दशदक अनायाि ही 'वाह-वाह' कर उठते और किर हफ्तों उिकी किा की चचाद
िोगों में चिा करती।
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दो महीने हुए, उि की शादी हुई थी। बम्बई की एक ननकटवती बस्ती में छोटी-िी एक कोठी ककराये पर
िे कर वह रहने िगा था। कभी िमय था कक वह ननधदन कहता था, परन्तु अब तो वह धन-िम्पष्त्त में
खेिता था। रूपये की उिे खया परवाह थी? उिका पववाह भी उच्च घराने में हुआ था। पत्नी भी िन्
ु दर
और िसु शक्षक्षत समिी थी। ष्जि प्रकार बादि िख
ू ी धरती पर अमत
ृ की वर्षाद कर के उिे तप्ृ त कर दे ता है ,
उिी प्रकार ननधदनता िे िख
ू े हुए रामदयाि के हृदय को पवधाता ने वैभव की वर्षाद िे िीांच ददया था।
िन्ध्या का िमय था। िाये बढते-बढते ककिी भयानक दे व की भाांनत िांिार पर छा गये थे। रामदयाि
िायब्रेरी में बैठा था। अभी तक कमरे में बबजिी न जिी थी और वह ककवाड के िमीप कुिी रखे एक
िेख पढने में ननमग्न था।
चपरािी ने बबजिी का बटन दबाया। क्षण भर में रोशनी िे कमरा जगमगा उठा। रामदयाि ने रूमाि िे
ऐनक को िाि ककया और किर िेख पर अपनी दृष्टट जमा दी। वह 'नवयग
ु ' का 'मदहिा-अांक' दे ख रहा
था। अांक दे खना तो उिने योंहीां शरू
ु ककया था, परन्तु एक िेख कुछ ऐिा रोचक था कक एक बार जो
पढना आरम्भ ककया तो िमाप्त ककये बबना जी न माना।
िेख में ककिी असभनेता के असभनय की पववेचना न थी। छद्मवेर्ष किा पर कोई नयी बात न सिखी गयी
थी। एक िीधा-िाधा िेख था, ष्जिमें नारी स्वभाव पर एक नत
ू न दृष्टट-कोण िे प्रकाश डािा गया था।
एक िवदथा नयी बात थी। सिखा था –
"स्त्री प्रेम की दे वी है । वह अपने पप्रय पनत के सिए अपना िवदस्व ननछावर कर िकती है । वह उि की
पज
ू ा कर िकती है , पर यदद उि का पनत उि के प्रेम की अवहे िना करे , उिकी मह
ु ब्बत को ठुकरा दे तो
अविर समिने पर वह अपने प्रेम की तर्ष
ृ ा बझ
ु ाने के सिए ककिी दि
ू री चीज को ढां ुूढ िेती है -- चाहे वह
चि हो या अचि, िजीव हो या ननजीव! यही प्रकृनत का ननयम है ।"
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रखती और कान उमेठ कर तारों को छे डती तो िोये हुए उद्गार जाग उठते और कानों के रास्ते समठाि
और मस्ती का एक िमद्र
ु श्रोता की नि-नि में व्याप्त हो कर रह जाता। रामदयाि उि पर जी-जान िे
मग्ु ध था और वह भी उिे हृदय की िमस्त शष्खतयों िे प्यार करती थी। दोनों को एक-दि
ू रे पर गवद था,
ककन्तु यह िब कुछ स्थायी न हो िका। अिार िांिार में कोई वस्तु स्थायी हो भी कैिे िकती है ?
मनोमासिन्य की आँधी ने मह
ु ब्बत के इि छोटे -िे पौधे को क्षण भर में बबादद कर ददया।
उसमदिा नीचे ड्राइांग-रूम में बैठी थी। वह रामदयाि की प्रतीक्षा कर रही थी। िामने के भवन में आज
कोई यव
ु क घम
ू रहा था। वह कुतह
ू िवश उिे भी दे ख रही थी। उिके कान िीदढयों की ओर िगे हुए थे,
परन्तु आँखें उि यव
ु क को बेचन
ै ी िे घम
ू ते दे ख रही थीां। वह कोठी कई ददनों िे खािी थी, परन्तु अब
कुछ ददन िे इिे ककिी ने ककराये पर िे सिया था उिने दो-तीन बार ककिी यव
ु क को बबजिी के प्रकाश
में घम
ू ते दे खा था। ऐिा प्रतीत होता था, जैिे वह बेचन
ै हो, जैिे आकुिता उिे बैठने न दे ती हो।
अँगीठी पर रखी हुई घडी ने टन-टन नौ बजाये। िामने के भवन में रोशनी बझ
ु गयी। उसमदिा अपने
आपको अकेिी-िी महिि
ू करने िगी। उिने सितार उठाया, उिकी कोमि उँ गसियाँ उिके पदो पर
गथरकने िगीां, उिके अधर दहिे और दि
ू रे क्षण एक करूणापण
ू द गीत वायम
ु ण्डि में गँज
ू उठा --
िखख इन नैनन ते घन हारे
स्वर में ददद था, िोच था और िय थी, िीने में प्रतीक्षा की आग थी। वह तन्मय हो गयी, अपनी मधरु
ध्वनन में खो गयी और उिे यह भी मािम
ू न हुआ कक रामदयाि कब आया और कब तक ककवाड की
ओट में खडा उिे दे खता रहा।
दि
ू रे ददन रामदयाि प्रात: ही घर िे चिा गया और बहुत रात गये घर िौटा। उसमदिा दौडी-दौडी गयी
और गांगािागर में पानी िे आयी।
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उसमदिा ने पानी का भरा हुआ गांगािागर आगे रख ददया। घर में दो दासियाँ तो थीां, परन्तु पनत की िेवा
वह स्वयां ककया करती थी। रामदयाि जब िन्ध्या को घर आया करता तो वह उिका हाथ-मँह
ु धि
ु ाती,
तश्तरी में कुछ खाने को िाती और स्टूडडयो की खबरें पछ
ू ती। रामदयाि ने हाथ न बढाये। वह चप
ु चाप
खडी उिकी गम्भीर मद्र
ु ा को दे खती रही।
उिका हृदय धडकने िगा। बीसियों प्रकार की शांकाएां उिके मन में उठने िगीां। उिने उन्हें बि
ु ाने का
इरादा ककया, ककन्तु खझडक न दें , यह िोच कर चप
ु हो रही। आशा ने किर गुदगुदी की, ननराशा ने किर
दामन पकड सिया। मनटु य के हृदय में जब िन्दे ह हो जाता है तो ननराशा हमददद की भाांनत िमीप आ
जाती है और आशा मरीगचका बन कर भाग जाती है । किर भी उिने िाहि करके पछ
ू ा --
"जी तो अच्छा है ?"
"चप
ु रहो!"
"स्वामी?"
"मैं कहता हूँ, खामोश रहो!"
उसमदिा खडी-की-खडी रह गयी। ननराशा ने आशा को ठुकरा ददया और अब उि में उठने का भी िाहि न
रहा।
उिे कि की घटना याद हो आयी, परन्तु िाधारण-िी बात पर इतना क्रोध! वह िमझ न िकी। उन्हें तो
इि बात पर प्रिन्न होना चादहए था। नहीां, यह बात नहीां; उििे अवश्य कोई दि
ू री अवज्ञा हो गयी है । हो
िकता है , ककिी िे झगड पडे हों अथवा कोई दि
ू री घटना घटी हो। अशभ
ु की आशांका िे उि का मन
उद्पवग्न हो उठा। उिके चरणों पर झक
ु ते हुए उिने कहा "दािी िे कोई अपराध हो गयाहो तो क्षमा कर
दें ।"
उसमदिा बहुत दे र तक उिी तरह बैठी रही और किर िेट कर धरती में मँह
ु नछपा कर आँिू बहाने िगी।
उिे पवश्वाि न होता था कक उिके पनत ने इतनी-िी बात पर उिे नज़रों िे गगरा ददया है । रामदयाि के
प्रनत उिके मन में कई प्रकार के पवचार उठने िगे। उि ने उन्हें आज तक सशकायत का मौका न ददया
था। उि ने उनकी िाधारण-िी बात को भी सिर-आँखों पर सिया था, किर यह ननरादर खयों?
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िांि जाये, परन्तु उसमदिा के सिये ऐिा िोचना भी पाप है । तो किर वह अपने पनत िे इि
अन्यमनस्कता का कारण ही खयों न पछ
ू िे? खया उिे इि बात का अगधकार नहीां? वह िहधसमदणी नहीां
खया? अधाांगगनी नहीां खया? यह िोच कर वह उठी। उिके शरीर में स्िूनतद का िांचार हो आया। वह
जायेगी, अपने पनत िे इि क्रोध का कारण पछ
ू कर रहे गी और उि िमय तक न छोडेगी, जब तक वे
उिे िब कुछ न बता दें , या अपनी भज
ु ाओां में भीांच कर यह न कह दें -- मैं तो हां िी कर रहा था!
उिके मख
ु पर दृढ-िांकल्प के गचह्न प्रस्िुदटत हो गये। वह उठी और धीरे -धीरे रामदयाि के कमरे में
दाखखि हुई। वह िेटा हुआ था। उि के चेहरे पर एक गम्भीर मस्
ु कराहट खेि रही थी -- अव्यखत वेदना
की अथवा गुप्त-उल्िाि की, कौन जाने?
उसमदिा के आते ही वह उठ बैठा। उिने कडक कर कहा, "मेरे कमरे िे ननकि जाओ, जा कर िो रहो,
मझ
ु े तांग मत करो।"
"खया अपराध "
"मैं कहता हूँ, चिी जाओ!
उसमदिा खडी-की-खडी रह गयी। जैिे ककिी जादग
ू रनी ने उिके सिर पर जाद ू की छडी िेर दी हो। वह
स्िूनतद और िांकल्प, जो कुछ दे र पहिे उिके मन में पैदा हुए थे, िब हवा हो गये। इच्छा होने पर भी वह
दोबारा न पछ
ू िकी। उदािी का कारण पछ
ू ना, उि अकारण क्रोध का गगिा करना, अपने किरू की
मािी माांगना, िब कुछ भि
ू गयी। कल्पनाओां के भव्य प्रािाद पि भर में धराशायी हो गये।
वह चप
ु चाप वापि चिी आयी और िारी रात गीिे बबस्तर पर िोये हुए मनटु य की भाांनत करवटें बदिती
रही। नीांद न जाने कहाँ उड गयी थी?
..
िमय के पांख िगा कर ददन उडते गये। रामदयाि अब घर में बहुत कम आता था। उसमदिा को िेवा के
सिए दो दासियों में एक और की वपृ द्ध हो गयी थी। वह उनिे तांग आ गयी थी। वह िेवा की भख
ू ी न थी,
मह
ु ब्बत की भख
ू ी थी और मह
ु ब्बत के िूि िे उिकी जीवन-वादटका िवदथा शन्
ू य थी। बरिात के बादि
आकाश पर नघरे हुए थे। ठण्डी हवा िाकी की चाि चि रही थी। बाहर ककिी जगह पपीहा रह-रह कूक
उठता था। वायु का एक झोंका अन्दर आया। उसमदिा के हृदय में उल्िाि के बदिे अविाद की एक िहर
दौड गयी। हृदय की गहराइयों िे एक िम्बी िाांि ननकि गयी। उिने सितार उठाया और पवरह का एक
गीत गाने िगी। उिकी आवाज़ में ददद था, गम था और जिन थी। वाय-ु मण्डि उिके गीत िे झांकृत हो
कर रह गया। अपने गीत की तन्मयता में वह बाह्य िांिार को भि
ू गयी। रात की नीरवता में उिका
गीत वायु के कण-कण में बि गया।
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िहिा िामने के भवन िे, जैिे ककिी ने सितार की आवाज़ के उत्तर में गाना आरम्भ ककया -
पपया बबन चैन कहाँ मन को राग खया था, ककिी ने उसमदिा का ददि चीर कर िामने रख ददया था। वह
अपना गाना भि
ू गयी और तन्मय हो कर िन
ु ने िगी। खया आवाज थी, कैिा जाद ू था? रूह खखांची चिी
जाती थी। एक महीने िे वहाँ कोई सितार बजाया करता था, ककन्तु उसमदिा ने कभी उि ओर ध्यान न
ददया था। आज न जाने खयों, उिका हृदय अनायाि ही गीत की ओर आकपर्षदत हुआ जा रहा था। इच्छा
हुई खखडकी में जा कर बैठ जाय, परन्तु किर खझझक गयी, उिी तरह जैिे नया चोर चोरी करने िे पहिे
दहचककचाता है ।
वह खखडकी िे झाांकने के सिए उठी। उिे अपने पनत का ध्यान हो आया, वह किर बैठ गयी। उिने सितार
को उठाया, किर रख ददया कक गाने वािा यह न िमझ िे कक उिके गीत का उत्तर ददया जा रहा है । उठ
कर उिने एक पस्
ु तक िे िी और पढना आरम्भ कर ददया, परन्तु पढने में उिका जी न िगा। उिे हर
पांष्खत में यही अक्षर सिखे हुए ददखायी ददये –
गीत िमाप्त हो गया, वाय-ु मण्डि के कण-कण पर छाया हुआ जाद ू टूट गया। वह जल्दी िे उठ कर
खखडकी में चिी गयी। उिने दे खा, यव
ु क सितार पर हाथ रखे उि का गाना िन
ु रहा है ।
उिके शरीर में िनिनी दौड गयी -- पवजय की िनिनी! उि िमय वह रामदयाि, उिकी मह
ु ब्बत,
उिकी जुदाई, िब कुछ भि
ू गयी। उिके हृदय में , उिके मष्स्तटक में केवि एक ही पवचार बि गया --
उिने दि
ू रे रागी को मात कर ददया है !
इिके बाद प्रनतददन दोनों ओर िे गीत उठते और वाय-ु मण्डि में बबखर जाते। दो दख
ु ी आत्माएां िांगीत
द्वारा एक-दि
ू े िे िहानभ
ु नू त प्रकट करतीां, ददि के ददद गीतों की जबान िे एक-दि
ू रे को िन
ु ाये जाते।
एक महीना और बीत गया। कम्पनी एक नयी किल्म तैयार कर रही थी और इन ददनों रामदयाि को
रात में भी वहीां काम करना पडता था। कई रातें वह कम्पनी के स्टूडडयो में ही बबता दे ता। इतने ददनों में
वह केवि एक बार घर आया था। उसमदिा का ददि धडक उठा था। पहिी धडकन और इि धडकन में
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ककतना अांतर था। पहिे वह इि डर िे काांप उठती थी कक रामदयाि कहीां उििे रूटट न हो जाये, अब वह
इि भय िे मरी जाती थी कक कहीां उि के ददि की बात न जान िे, कहीां वह रात भर रह कर उनके प्रेम-
िांगीत में बाधा न डाि दे ।
उि ददन उसमदिा ने एक मीठा गीत गाया, ष्जिमें उदािीनता के स्थान पर उल्िाि दहिोरें िे रहा था।
अब वह कमरे में बैठ कर गाने के बदिे बाहर बरामदें में बैठ कर गाया करती थी। दोनों की तानें एक-दि
ू े
की तानों में समि कर रह जाती। उनके हृदय कब के समि चक
ु े थे।
धीरे -धीरे यह गुनगुनाहट गीत बन गयी और वह परू ी आवाज िे गाने िगी। अपने गीत की धन
ू में मस्त
वह गाती गयी। वादटका की ििीि के दि
ू री ओर िे ककिी ने धीरे िे कन्धे को छुआ। उिके स्वर में
कम्पन पैदा हो गया और वह सिहर उठी।
"आप तो खब
ू गाती है !"
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बैठे-बैठे उसमदिा ने दे खा वह एक िन्
ु दर बसिटठ यव
ु क था। छोटी-छोटी मँछ
ू ें ऊपर को उठी हुई थीां। बाि
िम्बे थे और बांगािी िैशन िे कटे हुए थे। गिे में सिल्क का एक कुताद था और कमर में धोती।
उसमदिा ने कनखखयों िे यव
ु क को दे खा। ददि ने कहा, भाग चि, पर पाांव वहीां जम गये। पांछी जाि के
पाि था, दाना िामने था, अब िांिा कक अब िांिा।
"आप के गिे में जाद ू हैं!"
उसमदिा ने यव
ु क की ओर दे खा और मस्
ु कुरायी। वह भी मस्
ु करा ददया। बोिी, "यह तो आपकी कृपा है ,
नहीां मैं तो आपके चरणों में बैठ कर मु त तक िीख िकती हूँ!"
वह हां िा।
"आप अकेिे रहते हैं?"
"हाँ"
"और आपकी पत्नी?"
वह एक िीकी हँ िी हँ िा "मेरी पत्नी, मेरी पत्नी कहाँ हैं? इि िांिार में मैं िवदथा एकाकी हूँ, मह
ु ब्बत िे
ठुकराया हुआ, यहाँ आ गया हूँ, कोई मझ
ु े पछ
ू ने वािा नहीां, कोई मझ
ु िे बात करने वािा नहीां।"
यव
ु क के स्वर में कम्पन था। उसमदिा ने दे खा, उिका मख
ु पीिा पड गया है और अविाद तथा ननराशा
की एक हल्की-िी रे खा वहाँ िाि ददखायी दे ती है । उिके हृदय में िहानभ
ु नू त का िमद्र
ु उमड पडा और
उिकी आँखें डबडबा आयीां।
वह दीवार िाँद कर बेंच पर आ बैठा। उसमदिा अभी तक बैठी ही थी, उठी न थी। वह तननक खखिक गयी,
ककन्तु उठने का िाहि अब उिमें नहीां था।
यव
ु क ने उिका हाथ अपने हाथ में िे सिया। उसमदिा के शरीर में िनिनी दौड गयी। उिने हाथ छुडाना
चाहा। यव
ु क की आँखें िजि हो गयीां। उिका हाथ वहीां-का-वहीां रह गया। वह किर बोिा --
"मेरा पवचार था, मैं यहाँ आ कर, एकान्त में गा कर अपना ददि बहिा सिया करूांगा। मेरे पाि धन और
वैभव का अभाव नहीां, परन्तु उििे मझ
ु े चैन नहीां समिता, हृदय को शाष्न्त प्राप्त नहीां होती। इिीसिए
मैं सितार बजाता था! उिकी मनमोहक झांकार मेरे चांचि मन को एकाग्र रर कर दे ती थी, उिमें मझ
ु े
अपार शाष्न्त समिती थी, परन्तु अब तो सितार भी बेबि हो गया है, वह भी मझ
ु े शान्त नहीां कर िकता,
मेरी शाष्न्त का आधार अब मेरे सितार बजाने पर नहीां रहा।"
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उसमदिा िब कुछ िमझ रही थी। उिने किर हाथ छुडाने का प्रयाि ककया। यव
ु क ने उिे नहीां छोडा और
पवद्यत
ु वेग िे उिे अपने प्यािे होठों िे िगा सिया। उसमदिा के िमस्त शरीर में आग-िी दौड गयी।
उिने हाथ छुडा सिया और भाग गयी।
उसमदिा ने कुछ उत्तर नहीां ददया। वह अपने कमरे में आ गयी और पिांग पर िेट कर रोने िगी। पक्षी
जाि में िांि चक
ु ा था और अब मख ु त होने के सिए छटपटा रहा था।
..
ककतनी दे र तक वह िेटे-िेटे रोती रही। उिे रह-रहकर अपने पनत की ननटठुरता का ध्यान आता था।
आत्मग्िानन िे उि का हृदय जिा जा रहा था। वह इि मागद को छोड दे ना चाहती थी। पश्चाताप को
आग उिे जिाये डािती थी। वह चाहती थी, उिका पनत आ जाये, उिके पाि बैठे, उििे प्रेम करे और
वह उि के चरणों में बैठ कर इतना रोये, इतना रोये कक उिका पार्षाण-हृदय पानी पानी हो जाये।
उठ कर वह रामदयाि के पस्
ु तकािय में गयी। एक छोटी-िी मेज़ पर एक कोने में उिके पनत का एक
िोटो चौखटे में जडा रखा था। उि ने उिे उठाया, कई बार चम
ू ा और उिकी आँखों िे आँिू बह ननकिे।
रामदयाि के पैरों की चाप िे उिके पवचारों का क्रम टूट गया। वह उठी और िच्चे हृदय िे उि का
स्वागत करने को तैयार हो गयी। उि िमय उिका मन िाि था। पवशद्ध
ु -प्रेम का एक िागर वहाँ उमडा
आ रहा था, ष्जिके पानी को पश्चाताप की आग ने स्वच्छ और ननमदि कर ददया था।
वह रिोई-घर िे पानी िे आयी और रामदयाि के िामने जा खडी हुई। उिकी आँखें िजि थीां और मन
आशा के तार िे बांधा डोि रहा था। उिने दे खा, रामदयाि ने उिके हाथ िे गगिाि िे कर मँह
ु धो सिया
और किर उिे कुछ नाश्ता िाने को कहा और जब वह समठाई िे आयी तो रामदयाि ने तश्तरी िेने के
बदिे उिे अपनी भज
ु ाओां में िे कर उिके मँह
ु में समठाई का एक टुकडा रख ददया। ननसमर्ष भर के सिए
उिके मख
ु पर स्वगीय-आनन्द की ज्योनत चमक उठी। उिने सिर उठाया, दे खा -- रामदयाि उिी तरह
बैठा है । और वह उिी तरह गगिाि सिये खडी है । आशा का तार टूट गया, मादक कल्पना हवा हो गयी।
ित्य िामने था -- ककतना कटु, ककतना भयानक?
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में सिपट कर रोयी। खूब रोयी। ऐिे मानो एक दख
ु ी बहन अपनी िख
ु ी बहन के गिे सिपट कर आँिू बहा
रही हो।
कई ददन तक वह अपने कमरे के बाहर न ननकिी। रामदयाि दािी िे कह गया था, "मैं और पन्द्रह ददन
घर न आ िकांुूगा, इिसिए तुम िावधानी िे रहना।' उसमदिा को अपने पनत की ननदद यता पर रोना
आता था। वह पाप की नदी में बहे जा रही थी और उिका पनत उिे बचाने को हाथ तक न दहिाता था।
भ्राष्न्त की पवकराि िहरें िपिपाती हुई उि की ओर बढी आ रही थीां और उिका पनत ननश्चेटट और
ननष्टक्रय एक ओर खडा तमाशा दे ख रहा था।
िाथ के भवन िे बराबर गीत उठते थे। उनमें उल्िाि की तानें न होती थीां, दख
ु और वेदना का बाहुल्य
रहता था। उसमदिा की िांगीत-पप्रय आत्मा तडप उठती थी, परन्तु वह अपने कमरे के बाहर न ननकिती
थी।
शाम का वखत था। गाने वािा प्रिय के गीत गा रहा था। उि का एक-एक स्वर उसमदिा के हृदय में चभ
ु ा
जा रहा था। वह उठी, ड्राइांग-रूम में आ गयी। उिका सितार अिहाय सभखारी की भाांनत एक ओर पडा
था। उि पर समट्टी की एक हल्की-िी तह जम गयी थी। उिने उिे कपडे िे िाि ककया और आवेश में आ
कर चम
ू सिया। उिकी आँखों िे आँिू छिक आये। गाने वािा गा रहा था।
वह गाता हुआ अपने भवन िे उतरा और ििीि को िाांद कर उसमदिा के पाि आ बैठा। वह सितार
बजाती रही और वह गाता रहा।
दोनों अपनी किा के सशखर पर जा पहुँच।े उिने शायद इििे पहिे इतना अच्छा न गाया हो और इिने
शायद इििे पहिे इतना अच्छा सितार न बजाया हो। गीत की िय और सितार की झनकार दोनों एक
हो कर मानों रूठे हुए ददिों को प्रेम का मागद बता रही थीां।
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गीत िमाप्त हो गया। उसमदिा यव
ु क की भज
ू ाओां में थीां। अपने पवशाि वक्षस्थि िे भीांचते हुए यव
ु क ने
उिे चम
ू सिया। उसमदिा चौकी, यव
ु क पीछे हटा। वह उठ कर भागने को हुई। यव
ु क ने उिे बैठा सिया और
अपनी िम्बी मँछ
ू ें उतार दीां और सिर के िम्बे-िम्बे बाि दरू कर ददये।
गोधसू ि का िमय था। िन्ध्या के क्षीण प्रकाश में उसमदिा ने दे खा वह अपने पनत के िामने बैठी है । वह
हां ि रहा था, परन्तु उसमदिा के मख
ु पर मौत की नीरव स्याही पत
ु गयी।
"दे खा हमारा बहुरूप उम्मी!" रामदयाि ने पवजय की खुशी में उिे अपनी ओर खीांचते हुए कहा। कौन
जानता है कक वह 'नवयग
ु ' में छपे िेख की परीक्षा न कर रहा था!
कुछ िमय बीत गया। रामदयाि अपने पवचारों में ननमग्न रहा।
उि के पवचारों का क्रम उसमदिा के कमरे िे आने वािी एक चीख िे टूट गया। भाग कर ऊपर पहुँचा।
रामदयाि काांप उठा। उिने उिे बचाने का भरिक प्रयत्न ककया, पर वह ििि न हुआ।
.
श्मशान में उसमदिा का शव जि रहा था। और मनू तदवत बैठा रामदयाि अपनी मख
ू त
द ा और नारी-हृदय की
इि पहे िी को िमझने का प्रयाि कर रहा था।
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