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बूढ़ी काकी — प्रेमचन्द

būḍhī kākī is a story written by Premchand in 1918 in Urdu and


was published in Urdu magazine Tehzeebe Niiswaan (तिज़ीबे
नीसिााँ). This story was later adapted into Hindi and published in
the Hindi journal śrīśāradā (श्रीशारदा) in 1921. In 2004, a video
depiction of the story was shown on Indian national TV
‘Doordarshan’ under the TV series ‘Tehreer -Munshi Premchand Ki’
directed by famous writer and film-director Gulzar. The video link is
here - https://youtu.be/BCBOA4mvFbs
An audio rendition of the story is also available here -
https://archive.org/details/BoodhiKaki

बढ़
ु ापा बिुधा बचपन का पन
ु रागमन िुआ करता
िै । बढ़
ू ी काकी में जिह्िा–स्िाद के ससिा और
कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की
ओर आकवषित करने का रोने के अततररक्त दस
ू रा
कोई सिारा िी। समस्त इजन्ियााँ, नेत्र, िाथ और
पैर ििाब दे चक
ु े थे। पथ्
ृ िी पर पड़ी रितीीं और
िब घरिाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रततकूल
करते या भोिन का समय टल िाता, उसका
पररमाण पण
ू ि न िोता अथिा बाज़ार से कोई िस्तु आती और उन्िें न समलती तो
रोने लगती थीीं। उनका रोना – सससकना साधारण न था, िि गला फाड़ – फाड़ कर
रोती थीीं।

उनके पततदे ि को स्िगि ससधारे कालान्तर िो चक


ु ा था। बेटे तरुण िो िोकर चल बसे
थे। अब एक भतीिे के ससिाय और कोई न था। उसी भतीिे के नाम उन्िोंने अपनी

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सारी सम्पवि सलख दी थी। भतीिे ने सम्पवि सलखाते समय तो खूब लम्बे – चौड़े
िादे ककये, परन्तु िे सब िादे केिल कुली डडपो के दलालों के हदखाए िुए सब्ज़बाग़
थे। यद्यवप उस सम्पवि की िावषिक आय डेढ़ – दो सौ रुपये से कम न थी तथावप
बढ़
ू ी काकी को पेट भर भोिन भी कहिनाई से समलता था। इसमें उनके भतीिे पींडडत
बद्
ु धधराम का अपराध था अथिा उनकी अधाांधगनी श्रीमती रूपा का, इसका तनणिय
करना सिि निीीं। बद्
ु धधराम स्िभाि के सज्िन थे; ककन्तु उसी समय तक िब तक
कक उनके कोष पर कोई आाँच न आये। रूपा स्िभाि से तीव्र थी सिी, पर ईश्िर से
डरती थी। अतएि बढ़
ू ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बद्
ु धधराम
की भलमनसाित।

बद्
ु धधराम को कभी – कभी अपने अत्याचार का खेद िोता था। विचारते कक इसी
सम्पवि के कारण मैं इस समय भलामानस
ु बना बैिा िूाँ। यहद मौखखक आश्िासन
और सख
ू ी सिानभ
ु तू त से जस्थतत में सध
ु ार िो सकता तो उन्िें कदाधचत ् कोई आपवि
न िोती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सचेष्टा को दबाये रखता था। यिााँ तक
कक यहद द्िार पर कोई भला आदमी बैिा िोता और बढ़
ू ी काकी उस समय अपना
राग अलापने लगतीीं तो िि आग िो िाते और घर में आकर ज़ोर से डााँटते। लड़कों
को बड्
ु ढों से स्िभाविक विद्िेष िोता िी िै और कफर िब माता – वपता का यि रीं ग
दे खते तो बढ़
ू ी काकी को और भी सताया करते। कोई चट
ु की काट कर भागता, कोई
उन पर पानी की कुल्ली कर दे ता। काकी चीख मार कर रोतीीं; परन्तु यि बात प्रससद्ध
थी कक िि केिल खाने के सलये रोती िैं; अतएि उनके सींताप और आतिनाद पर कोई
ध्यान निीीं दे ता था। िााँ, काकी कभी क्रोधातुर िोकर बच्चों को गासलयाीं दे ने लगतीीं
तो रूपा घटनास्थल पर अिश्य आ पिुींचती। इस भय से काकी अपनी जिह्िा–कृपाण
का कदाधचत ् िी प्रयोग करती थीीं, यद्यवप उपिि शाजन्त का यि उपाय रोने से किीीं
अधधक उपयक्
ु त था।

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सम्पण
ू ि पररिार में यहद काकी से ककसी को अनरु ाग था, तो िि बद्
ु धधराम की छोटी
लड़की लाड़ली थी। लाड़ली अपने दोनों भाइयों के भय से से अपने हिस्से की समिाई
– चबेना बढ़
ू ी काकी के पास बैिकर खाया करती थी। यिी उसका रक्षागार था और
यद्यवप काकी की शरण उनकी लोलप
ु ता के कारण बिुत मिीं गी पड़ती थी, तथावप
भाइयों के अन्याय से किीीं सल
ु भ थी। इसी स्िाथािनक
ु ू लता ने उन दोनों में प्रेम और
सिानभ
ु तू त का आरोपण कर हदया था।

रात का समय था। बद्


ु धधराम के द्िार पर शिनाई बि रिी थी और गाींि के बच्चों
का झण्
ु ड विस्मयपण
ू ि नेत्रों से गाने का रसास्िादन कर रिा था। चारपाइयों पर मेिमान
विश्राम करते िुए नाइयों से मजु क्कयााँ लगिा रिे थे। समीप िी खड़ा िुआ भाट
बबरदारिली सन
ु ा रिा था और कुछ भािज्ञ मेिमानों के " िाि, िाि " पर ऐसा ख़श

िो रिा था मानो इस िाि िाि का यथाथि में ििी अधधकारी िै । दो एक अींग्रेिी पढ़े
नियि
ु क इन व्यििारों से उदासीन थे। िे इस गींिार – मण्डली में सजम्मसलत िोना
अपनी प्रततष्िा के प्रततकूल समझते थे।

आि बद्
ु धधराम के बड़े लड़के सख
ु राम का ततलक आया िै । यि उसी का उत्सि िै ।
घर के भीतर जस्त्रयाीं गा रिी थीीं और रूपा मेिमानों के सलये भोिन के प्रबन्ध में
व्यस्त थी। भट्हटयों पर कढा.ि चढ़े थे। एक में परू रयाीं – कचौररयाीं तनकल रिी थीीं।
दस
ू रे में अन्य पकिान बन रिे थे। एक बड़े िीं डे में मसालेदार तरकारी पक रिी थी।
घी और मसाले की क्षुधािधिक सग
ु ींधध चारों ओर फैली िुई थी।

बढ़
ू ी काकी अपनी कोिरी में शोकमय विचार की भाींतत बैिी िुई थीीं। िि स्िाद –
समधश्रत सग
ु जन्ध उन्िें बेचन
ै कर रिी थी। िे मन िी मन विचार कर रिी थीीं, सींभित:
मझ
ु े पडू ड़याीं न समलेंगी। इतनी दे र िो गयी, कोई भोिन लेकर निीीं आया, मालम
ू िोता
िै , सब लोग भोिन कर चक
ु े । मेरे सलये कुछ न बचा। यि सोच कर उन्िें रोना आया,
परन्तु अपशकुन के भय से िे रो न सकीीं।

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" आिा! कैसी सग
ु जन्ध िै ! अब मझ
ु े कौन पछ
ू ता िै? िब रोहटयों के िी लाले पड़े िैं
तब ऐसे भाग्य किााँ कक भरपेट पडू ड़याीं समलें? " यि विचार कर उन्िें रोना आया, कलेिे
में एक िूक सी उिने लगी, परन्तु रूपा के भय से उन्िोंने कफर मौन धारण कर सलया।

बढ़
ू ी काकी दे र तक इन्िीीं द:ु खदायक विचारों में डूबी रिीीं। घी और मसालों की सग
ु जन्ध
रि–रि कर मन को आपे से बािर ककये दे ती थी। माँि
ु में पानी भर – भर आता था।
पडू ड़यों का स्िाद स्मरण कर हृदय में गद
ु गद
ु ी िोने लगती थी। ककसे पक
ु ारूीं; आि
लाड़ली बेटी भी निीीं आई। दोनों छोकड़े सदा हदक (कष्ट) ककया करते िैं। आि उनका
भी किीीं पता निीीं। कुछ मालम
ू तो िोता कक क्या बन रिा िै।

बढ़
ू ी काकी की कल्पना में पडू ड़यों की तस्िीर नाचने लगी। खब
ू लाल – लाल, फूली –
फूली, नरम – नरम िोंगी। रूपा ने भलीभाींतत मोयन हदया िोगा। कचौररयों में अििाइन
और इलायची की मिक आ रिी िोगी। एक परू ी समलती तो ज़रा िाथ में लेकर
दे खती। क्यों न चलकर कढ़ाि से सामने िी बैिूीं। पडू ड़याीं छन – छन कर तैरती िोंगी।
कढ़ाि से गरम गरम तनकल कर थाल में रखी िाती िोंगी। फूल िम घर में भी सींघ

सकते िैं; परन्तु िाहटका में कुछ और बात िोती िै। इस प्रकार तनणिय करके बढ़
ू ी
काकी उकड़ू बैिकर िाथों के बल सरकती िुई बड़ी कहिनाई से चौखट उतरीीं और धीरे
धीरे रीं गती िुई कढ़ाि के पास िा बैिीीं। यिाीं आने पर उन्िें उतना िी धैयि िुआ
जितना भख
ू े कुिे को खाने िाले के सम्मख
ु बैिने पर िोता िै ।

रूपा उस समय कायिभार से उद्विग्न िो रिी थी। कभी इस कोिे में िाती, कभी उस
कोिे में; कभी कढा.ि के पास आती कभी भण्डार में िाती। ककसी ने बािर से आकर
किा — मिाराि िीं डई माींग रिे िैं। िीं डई दे ने लगी। इतने में कफर ककसी ने आकर
किा — भाट आया िै , उसे कुछ दे दो। भाट के सलये सीधा तनकाल रिी थी कक एक
तीसरे आदमी ने आकर पछ
ू ा — " अभी भोिन तैयार िोने में ककतना विलम्ब िै?
ज़रा ढोल मिीरा उतार दो।"

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बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते – दौड़ते व्याकुल िो रिी थी, झींझ
ु लाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु
रोष प्रकट करने का अिसर न पाती थी। भय िोता, किीीं पड़ौससनें यि न किने लगें
कक इतने में िी उबल पड़ी। प्यास से उसका कण्ि सख
ू रिा था। गमी के मारे फींु की
िाती थी, परन्तु इतना अिकाश भी निीीं था कक ज़रा पानी पी ले अथिा पींखा लेकर
झले। यि भी खटका था कक ज़रा आींख िटी और चीज़ों की लट
ू मची।

इस अिस्था में बढ़
ू ी काकी को कढ़ाि के पास बैिा दे खा तो िल गई। क्रोध न रुक
सका। इसका भी ध्यान न रिा कक पड़ोससनें बैिी िुई िैं, मन में क्या किें गी, परु
ु षों में
लोग सन
ु ेंगे तो क्या किें गे। जिस प्रकार मेंढक केंचए
ु पर झपटता िै , उसी प्रकार िि
बढ़
ू ी काकी पर झपटी और उन्िें दोनों िाथों से खझींझोड़ कर बोली — ' ऐसे पेट में
आग लगे, पेट िै या भाड़? कोिरी में बैिते क्या दम घट
ु ता था? अभी मेिमानों ने निीीं
खाया, भगिान को भोग निीीं लगा; तब तक धैयि न िो सका? आकर छाती पर सिार
िो गयीीं। िल िाय ऐसी िीभ। हदन भर खाती न िोतीीं तो न िाने ककस की िाींडी
.में मींि
ु डालतीीं? गााँि दे खेगा तो किे गा बहु ढ़या भरपेट खाने को निीीं पाती, तब तो इस
तरि माँि
ु बाये कफरती िै । डाईन मरे न माींचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी िै । नाक
कटिा कर दम लेगी। इतना िूींसती िै, न िाने किााँ भस्म िो िाती िो िाता िै । लो!
भला चािती िो तो िाकर कोिरी में बैिो, िब घर के लोग खाने लगें गे तब तुम्िें भी
समलेगा। तुम कोई दे िी निीीं िो कक चािे ककसी के मींि
ु में पानी न िाये परन्तु
तम्
ु िारी पि
ू ा पिले िो िाय।"

बढ़
ू ी काकी ने ससर न उिाया, न रोईं, न बोलीीं। चप
ु चाप रें गती िुई अपनी कोिरी में
चली गयीीं।आघात ऐसा किोर था कक हृदय और मजस्तष्क की सम्पण
ू ि शजक्तयाीं,
सम्पण
ू ि विचार और सम्पण
ू ि भार उसी ओर आकवषित िो गये थे। नदी में िब कगार
का कोई िि
ृ दखण्ड कटकर धगरता िै तो आस – पास का िलसमि
ू चारों ओर से उसी
स्थान को परू ा करने के सलये दौड़ता िै ।

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भोिन तैयार िो गया। आाँगन में पिल पड़ गये। मेिमान खाने लगे। जस्त्रयों ने
िेिनार गीत गाना आरम्भ कर हदया। मेिमानों के नाई और सेिकगण भी उसी
मण्डली के साथ, ककन्तु कुछ िटकर, भोिन करने बैिे थे, परन्तु सभ्यतानस
ु ार िब
तक सबके सब खा न चक
ु ें कोई उि निीीं सकता था। दो एक मेिमान िो कुछ पढ़े
सलखे थे, सेिकों के दीघाििार पर झींझ
ु ला रिे थे। िे इस बन्धन को व्यथि और बेससर
– पैर की बात समझते थे।

बढ़
ू ी काकी अपनी कोिरी में िाकर पश्चाताप कर रिी थीीं कक मैं किााँ से किााँ आ
गयी। उन्िें रूपा पर क्रोध निीीं था। अपनी िल्दबाज़ी पर द:ु ख था। सच िी तो िै
िब तक मेिमान लोग भोिन न कर चक
ु ें गे घरिाले कैसे खायेंगे। मझ
ु से इतनी दे र
भी निीीं रिा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब िब तक कोई बल
ु ाने न
आयेगा न िाऊाँगी।

मन िी मन इसी प्रकार विचार कर िि बल


ु ािे की प्रतीक्षा करने लगीीं। परन्तु घी का
रुधचकर सि
ु ास बड़ा िी धैयि – परीक्षक प्रतीत िो रिा था। उन्िें एक – एक पल एक
– एक यग
ु के समान मालम
ू िोता था। अब पिल बबछ गये िोंगे। अब मेिमान आ
गये िोंगे। लोग िाथ – पैर धो रिे िैं, नाई पानी दे रिा िै । मालम
ू िोता िै लोग खाने
बैि गये। िेिनार गाया िा रिा िै , यि विचार कर िि मन को बिलाने के सलये लेट
गयीीं और धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीीं। उन्िें लगा मझ
ु े गाते दे र िो गयी।
क्या इतनी दे र तक लोग भोिन िी कर रिे िोंगे? ककसी की आिाज़ सन
ु ाई निीीं दे ती।
अिश्य िी लोग खा – पीकर चले गये। मझ
ु े कोई बल
ु ाने निीीं आया। रूपा धचढ़ गयी
िै , क्या िाने न बल
ु ाये, सोचती िो कक अपने आप िी आिेंगी, िि कोई मेिमान तो िै
निीीं, िो उन्िें िाकर बल
ु ाऊीं। बढ़
ू ी काकी चलने को तैयार िुई। यि विश्िास कक एक
समनट में पडू ड़या और मसालेदार तरकाररयाीं सामने आयेंगी, उनकी स्िादे जन्ियों को
गद
ु गद
ु ाने लगा। उन्िोंने मन में तरि – तरि के मन्सब
ू े बाींधे — पिले तरकारी से
पडू ड़याीं खाऊींगी, कफर दिी शक्कर से; कचौररयाीं रायते के साथ मज़ेदार मालम
ू िोंगी।

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चािे कोई बरु ा माने चािे भला, मैं तो माींग – माींग कर खाऊींगी। यिी न लोग किें गे
कक इन्िें विचार निीीं? किा करें , इतने हदनों के बाद पडू ड़याीं समल रिी िैं तो मींि
ु झि
ू ा
करके थोड़े िी उि िाऊींगी।

िि उकड़ूीं बैि कर िाथों के बल खखसकती आींगन में आयीीं। परन्तु िाय रे दभ


ु ािग्य !
असभलाषा ने अपने परु ाने स्िभाि के अनस
ु ार समय की समथ्या कल्पना की थी।
मेिमान मण्डली अभी बैिी थी। कोई खाकर उीं गसलयाीं चाटता था, कोई ततरछे नेत्रों से
दे खता था कक लोग अभी खा रिे िैं या निीीं? कोई इस धचन्ता में था कक पिल पर
पडू ड़याीं छूटी िाती िैं ककसी तरि इन्िें भीतर रख लेता। कोई दिी खाकर िीभ
चटखारता था, परन्तु दोना माींगते सींकोच करता था कक इतने में बढ़
ू ी काकी रें गती
िुई उनके बीच में िा पिुींची। कई आदमी चौंक कर उि खड़े िुए। पक
ु ारने लगे… अरे
यि कौन बहु ढ़या िै? यि किााँ से आ गई? दे खो ककसी को छू न दे ।

पीं। बद्
ु धधराम काकी को दे खते िी क्रोध से ततलसमला गये। पडू ड़यों का थाल सलये खड़े
थे। थाल को ज़मीन पर पटक हदया और जिस प्रकार तनदि यी मिािन ककसी बेईमान
और भगोड़े आसामी को दे खते िी झपट कर उसका टें टुआ पकड़ लेता िै उसी तरि
लपककर उन्िोंने बढ़
ू ी काकी के दोनों िाथ पकड़े और घसीटते िुए लाकर उन्िें अींधेरी
कोिरी में धम्म से पटक हदया। आशारूपी िाहटका लू के एक झौंके से नष्ट – विनष्ट
िो गयी।

मेिमानों ने भोिन ककया। घरिालों ने भोिन ककया। बािेिाले, धोबी, चमार भी भोिन
कर चक
ु े , परन्तु बढ़
ू ी काकी को ककसी ने न पछ
ू ा। बद्
ु धधराम और रूपा बढ़
ू ी काकी को
उसकी तनल्र्लज्िता के सलये दण्ड दे ने का तनश्चय कर चक
ु े थे। उनके बढ़
ु ापे पर,
दीनता पर, ितज्ञान पर ककसी को करुणा न आती थी। अकेली लाड़ली उनके सलये
कुढ़ रिी थी।

लाड़ली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल – विनोद और
चींचलता की उसमें गींध तक न थी। दोनों बार िब उसके माता वपता ने काकी को

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तनदि यता से घसीटा तो लाड़ली का हृदय ऐींि कर रि गया। िि झींझ
ु ला रिी थी कक
यि लोग काकी को क्यों बिुत सी पडू ड़याीं निीीं दे दे त?े क्या मेिमान सब की सब खा
िायेंग?े और यहद काकी ने मेिमानों से पिले खा सलया तो क्या बबगड़ िायेगा? िि
काकी के पास िाकर उन्िें धैयि दे ना चािती थी; परन्तु माता के भय से न िाती थी।
उसने अपने हिस्से की पडू ड़याीं बबलकुल न खायीीं थीीं। अपनी गडु ड़यों की वपटारी में
बन्द कर रखी थीीं। िि उन पडू ड़यों को काकी के पास ले िाना चािती थी। उसका
हृदय अधीर िो रिा था। बढ़
ू ीकाकी मेरी बात सन
ु ते िी उि बैिेंगी। पडू ड़याीं दे ख कर
कैसी प्रसन्न िोंगी! मझ
ु े खूब प्यार करें गी!

रात के ग्यारि बि गये थे। रूपा आींगन में पड़ी सो रिी थी। लाड़ली की आींखों में
नीींद न आती थी। काकी को पडू ड़याीं खखलाने की खुशी उसे सोने न दे ती थी। उसने
गुडड़यों की वपटारी सामने िी रखी थी। िब विश्िास िो गया कक अम्मा सो रिी िै ;
तो िि चप
ु के से उिी और विचारने लगी — कैसे चल?ींू चारों ओर अींधेरा था, केिल
चल्
ू िों में आग चमक रिी थी; चल्
ू िों के पास एक कुिा लेटा िुआ था। लाड़ली की
दृजष्ट द्िार के सामनेिाले नीम की ओर गयी। उसे मालम
ू िुआ कक उस पर िनम
ु ान
िी बैिे िुए िैं। उनकी पींछ
ू , उनकी गदा सब स्पष्ट हदखलाई दे रिी थी। मारे भय के
उसने आींखें बन्द कर लीीं, इतने में कुिा उि बैिा, लाड़ली को ढाढ़स िुआ। कई सोये
िुए मनष्ु यों के बदले एक िागता िुआ कुिा उसके सलये अधधकतर धैयि का करण
िुआ। उसने वपटारी उिायी और बढ़
ू ी काकी की कोिरी की ओर चली।

बढ़
ू ी काकी को केिल इतना स्मरण था कक ककसी ने मेरे िाथ पकड़ कर घसीटे कफर
ऐसा मालम
ू िुआ िैसे कोई पिाड़ पर उड़ाये सलये िाता िै । उनके पैर बार बार पत्थरों
से टकराये तब ककसी ने उन्िें पिाड़ पर पटका, िे मजू छछत िो गयीीं।

िब िे सचेत िुईं तो ककसी का ज़रा भी आिट न समलती थी। समझा कक सब लोग


खा पीकर सो गये और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गयी। रात कैसे कटे गी? राम!
क्या खाऊीं? पेट में अजग्न धधक रिी िै । िा! ककसी ने मेरी सध
ु न ली! क्या मेरा िी

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पेट काटने से धन िट
ु िायेगा? इन लोगों को इतनी भी दया निीीं आती कक न िाने
बहु ढ़या कब मर िाये? उसका क्यों िी दख
ु ायें? मैं पेट की रोहटयाीं िी खाती िूाँ कक और
कुछ? इस पर यि िाल! मैं अींधी – अपाहिि ििरी, न कुछ सन
ु ींू न बझ
ू ,ींू यहद आींगन
में चली गई तो बद्
ु धधराम से इतना किते न बनता था कक काकी अभी लोग खा रिे
िैं, कफर आना। मझ
ु े घसीटा, पटका। उन्िीीं पडू ड़यों के सलये रूपा ने सबके सामने गासलयाीं
दीीं। उन्िीीं पडू ड़यों के सलये इतनी दग
ु ति त करने पर भी उनका पत्थर का कलेिा न
पसीिा। सबको खखलाया, मेरी बात तक न पछ
ू ी। िब तब िी न दीीं तो अब क्या
दें गी?

यि विचार कर काकी तनराशामय सींतोष के साथ लेट गयीीं। ग्लातन से गला भर –


भर आता था, परन्तु मेिमानों के भय से रोती न थीीं।

सिसा उनके कानों में आिाज़ आयी — " काकी उिो, मैं पडू ड़याीं लायी िूाँ।"

काकी ने लाड़ली की बोली पहिचानी। चटपट उि बैिीीं। दोनों िाथों से लाड़ली को


टटोला और उसे गोद में बबिा सलया। लाड़ली ने पडू ड़याीं तनकाल कर दीीं। काकी ने
पछ
ू ा — " क्या तुम्िारी अम्मा ने दी िैं? "

लाड़ली ने किा — " निीीं ये मेरे हिस्से की िैं।" काकी पडू ड़यों पर टूट पड़ीीं। पाींच
समनट में वपटारी खाली िो गयी। लाड़ली ने पछ
ू ा — " काकी पेट भर गया?" िैसे
थोड़ी सी िषाि िण्डक के स्थान पर और भी गमी पैदा कर दे ती िै उसी भाींतत इन
थोड़ी सी पडू ड़यों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को उिेजित कर हदया था। बोलीीं — "
निीीं बेटी, िाकर अम्माीं से और माींग लाओ। " लाड़ली ने किा — " अम्माीं सोती िैं,
िगाऊींगी तो मारें गी।"

काकी ने वपटारी को कफर टटोला। उसमें कुछ खुचन


ि धगरे थे। उन्िें तनकाल कर िे खा
गयीीं। बार – बार िोंि चाटती थीीं, चटखारें भरती थीीं।

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हृदय मसोस रिा था कक और पडू ड़याीं कैसे पाऊीं। सींतोष सेतु िब टूट िाता िै तब
इच्छा का बिाि अपररसमत िो िाता िै । मतिालों को मद का स्मरण कराना उन्िें
मदान्ध बनाना िै । काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल बिाि में बि गया। उधचत
और अनधु चत का विचार िाता रिा। िे कुछ दे र तक उस इच्छा को रोकतीीं रिीीं।
सिसा लाड़ली से बोलीीं — " मेरा िाथ पकड़ कर ििाीं ले चलो ििााँ मेिमानों ने बैिकर
भोिन ककया िै।"

लाड़ली उनका असभप्राय समझ न सकी। उसने काकी का िाथ पकड़ा और ले िाकर
िूिे पिलों के पास बबिला हदया। दीन, क्षुधातुर, ितज्ञान बहु ढ़या पिलों से पडू ड़यों के
टुकड़े चन
ु – चन
ु कर भक्षण करने लगी। ओि! दिी ककतना स्िाहदष्ट था, कचौररयाीं
ककतनी सलोनी, खस्ता ककतने सक
ु ोमल। काकी बद्
ु धधिीन िोते िुए भी इतना िानती
थी कक मैं िो काम कर रिी िूाँ िो मझ
ु े कदावप निीीं करना चाहिये। मैं दस
ू रों के िूिे
पिल चाट रिी िूाँ, परन्तु बढ
ु ा.पा तष्ृ णा – रोग का अजन्तम समय िै , िब सम्पण
ू ि
इच्छाएीं एक िी केन्ि पर आ िाती िैं। बढ़
ू ी काकी का यि केन्ि उनकी स्िादे जन्िय
थी।

िीक उसी समय रूपा की आींख खल


ु ी। उसे मालम
ू िुआ कक लाड़ली मेरे पास निीीं िै ।
िि चौंकी, चारपाई के इधर – उधर ताकने लगी कक किीीं नीचे तो निीीं धगर पड़ी। उसे
ििाीं, न पाकर िि उि बैिी तो क्या दे खती िै कक लाड़ली िूिे पिलों के पास चप
ु चाप
खड़ी िै और बढ़
ू ी काकी पिलों पर पडू ड़यों के टुकडे. उिा – उिा कर खा रिी िै। रूपा
का हृदय सन्न िो गया। ककसी गाय की गदि न पर छुरी चलते दे ख कर िो अिस्था
उसकी िोती, ििी उस समय िुई ।

एक ब्राह्मणी दस
ू रों का िूिा पिल टटोले, इससे अधधक शोकमय दृश्य असम्भि था।
पडू ड़यों के कुछ ग्रासों के सलये उसकी चचेरी सास ऐसा पततत और तनकृष्ट कमि कर
रिी िै ! यि िि दृश्य था जिसे दे खकर दे खने िालों के हृदय काींप उिते िैं। ऐसा
प्रतीत िोता मानो ज़मीन रुक गयी, आसमान चक्कर खा रिा िै। सींसार पर कोई नई

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विपवि आनेिाली िै । रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मख
ु क्रोध किााँ? करुणा
और भय से उसकी आींखें भर आईं। इस अधमि के पाप का भागी कौन िै ? उसने सच्चे
हृदय से गगन – मण्डल की ओर िाथ उिा कर किा — " परमात्मा, मेरे बच्चों पर
दया करो, इस अधमि का दण्ड मझ
ु े मत दो निीीं तो िमारा सत्यानाश िो िायेगा।"

रूपा को अपनी स्िाथिपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न हदखाई
पड़ा था। िि सोचने लगी — िाय! ककतनी तनदि य िूाँ मैं। जिसकी सम्पवि से मझ
ु े दो
सौ रूपया िावषिक आय िो रिी िै , उसकी यि दग
ु ति त! और मेरे कारण। िे दयामय
भगिन! मझ
ु से भारी चक
ू िुई, मझ
ु े क्षमा करो। आि मेरे बेटे का ततलक था सैंकड़ों
मनष्ु यों ने भोिन पाया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रिी। अपने नाम के सलये
सैंकड़ों रुपये व्यय कर हदये, परन्तु जिसकी बदौलत िज़ारों रुपये खाये उसे इस उत्सि
में भी भरपेट भोिन न दे सकी। केिल इस कारण तो, िि िद्
ृ धा िै, असिाय िै !

रूपा ने हदया िलाया, अपने भण्डार का द्िार खोला और एक थाली में सम्पण
ू ि
सामधग्रयाीं सिा कर, सलये िुए बढ़
ू ी काकी की ओर चली।

आधी रात िा चक
ु ी थी, आकाश पर तारों के थाल सिे िुए थे और उन पर बैिे िुए
दे िगण स्िगीय पदाथि सिा रिे थे, परन्तु उनमें ककसी को िि परमानन्द प्राप्त न
िो सकता था िो बढ़
ू ी काकी को अपने सम्मख
ु थाल दे खकर प्राप्त िुआ था। रूपा ने
कींिािरुद्ध स्िर में किा — ' काकी उिो, भोिन कर लो। मझ
ु से आि बड़ी भल
ू िुई,
उसका बरु ा न मानना। परमात्मा से प्राथिना कर दो कक िि मेरा अपराध क्षमा कर
दे ।"

भोले – भाले बच्चों की भाींतत, िो समिाइयाीं पाकर मार और ततरस्कार सब भल


ू िाते
िैं, बढ़
ू ी काकी बैिी िुई खाना खा रिी थीीं। उनके एक – एक रोयें से सच्ची सहदच्छाएीं
तनकल रिी थीीं और रूपा बेिी इस स्िगीय दृश्य का आनन्द लट
ू ने में तनमग्न थी।

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