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Devdas (Hindi)
Devdas (Hindi)
(1876-1938)
देवदास, प रणीता, शेष , च र हीन जैसे अमर उप यास के लेखक शरतच
च ोपा याय का ज म पि म बंगाल म गली िजले के एक छोटे से गाँव म 1876 म आ
था। उनके िपता का कोई आ थक संबल नह था - वह अपना समय अधूरे क से-कहािनयाँ
िलखने म लगाते। िपता क गरीबी के कारण शरतच कू ल म आगे पढ़ाई न कर सके ।
सािह य के ित लगाव उ ह िवरासत म िमला। छोटी उ म ही वे कहािनयाँ िलखने लगे।
काम क तलाश म वे बमा चले गये जहाँ कई वष तक रहे। 1916 म कलक ा के पास
हावड़ा म आकर बस गये और अपना पूरा समय लेखन म ही देना शु कया और उनक
पहचान एक लेखक के प म होने लगी। उस समय वत ता आ दोलन गित पकड़ रहा
था और बंगाल म कई समाज सुधार अिभयान भी अपनी चरम सीमा पर थे, िजनक झलक
लेखक के उप यास , कहािनय और िनब ध म िमलती है। समाज से जुड़े िजन सरोकार
को शरतच ने अपने लेखन म उजागर कया -उनसे आज भी हम जूझ रहे ह और शायद
इस वजह से उनक कृ ितय का आकषण आज भी बरकरार है।
ISBN : 9788174831767
थम सं करण : 2016 © िश ा भारत
DEVDAS (Novel) by Sharatchandra Chattopadhyay
िश ा भारत
मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ी-6
फोन: 011-23869812,23865483, फै स: 011-23867791
िवषय-सूची
पहला प र छेद
दूसरा प र छेद
तीसरा प र छेद
चौथा प र छेद
पाँचवाँ प र छेद
छठा प र छेद
सातवाँ प र छेद
आठवाँ प र छेद
नवाँ प र छेद
दसवाँ-प र छेद
यारहवाँ प र छेद
बारहवाँ प र छेद
तेरहवाँ प र छेद
चौदहवाँ प र छेद
प हवाँ प र छेद
सोलहवाँ प र छेद
पहला प र छे द
वैशाख क एक दोपहरी म जब िचलिचलाती धूप का कोई अ त नह था और गरमी क
कोई हद नह थी, मुकज -कु ल का देवदास ठीक उसी समय पाठशाला के कमरे के कोने म
एक फटी ई चटाई के ऊपर बैठकर लेट हाथ म िलये ए कभी आँख खोलता, कभी मूँदता
और कभी पैर फै ला कर जँभाई ले रहा था। आिखरकार वह गहरी सोच म डू ब गया और
पल भर म ही उसने तय कया क ऐसी परम रमणीय बेला म पाठशाला के अ दर ब द
होकर घुटते रहना कसी काम का नह । इसके बदले तो खुले आसमान के नीचे पतंग उड़ाते
ए चार तरफ घूमने- फरने से बेहतर और या होगा। इस खयाल के आते ही उसके उवर
मि त क म इसका एक उपाय भी सूझा गया। वह हाथ म लेट िलये उठ खड़ा आ।
पाठशाला म उसी समय ट फन क छु ट् टी ई थी। ब का झु ड तरह— तरह क
उछल—कू द और शोर—गुल करता आ पास ही बरगद के पेड़ के नीचे गु ली—डंडा खेल
रहा था। देवदास ने एक बार उस तरफ देखा। उसे ट फन क छु ट् टी नह िमला करती थी,
य क गोिव द पंिडत कई बार देख चुके थे क जब वह पाठशाला के बाहर िनकल जाता
है, तब फर लौट कर आना पस द नह करता। उसके िपता ने भी इस बारे म मना कर रखा
था। अनेक कारण से यही तय आ था क छु ट् टी के समय वह क ा के मु य छा भोलू क
देख—रे ख म रहा करे गा।
इस समय कमरे म के वल पंिडत जी दुपह रया के आल य म आँख ब द कये ए सो
रहे थे और पाठशाला का मु य छा भोलू एक कोने म हाथ—पैर टू टी एक बच पर छोटा
—मोटा पंिडत बना आ बैठा था। बीच—बीच म बड़े अनमनेपन से वह कभी तो लड़क
का खेल देखता था और कभी देवदास और पावती पर अलसायी िनगाह डाल लेता था।
पावती लगभग महीने भर पहले गोिव द पंिडत क देख—रे ख म पढ़ने आई है। पंिडत जी ने
स भवत: इस थोड़े से समय म ही उसका खूब मनोरं जन कया था, इसीिलए वह सोये ए
पंिडत जी का िच खूब मन लगा कर और अ य त धैयपूवक पा —पु तक 'बोधोदय' के
अि तम पृ पर याही से बना रही थी और कसी द िच कार क तरह अनेक कार से
यह देख रही थी क बड़े य से बनाया आ वह िच अपने आदश के साथ कहाँ तक िमल
रहा है। यह बात नह है क िच अपने आदश से कु छ िमल रहा था; ले कन, पावती को
इतने म ही पया आन द और आ मस तोष िमल रहा था।
उसी समय देवदास लेट हाथ म लेकर उठ खड़ा आ और उसने भोलू से ऊँची
आवाज म कहा—''िहसाब नह हो रहा है?”
भोलू ने खूब शा त और ग भीर मुँह बना कर कहा, ''कौनसा िहसाब ?”
“मन-सेर-छटाँक।”
“लाओ, जरा लेट देखूँ।”
भाव यह क उसके सामने इस तरह के काम के िलए लेट के प च ँ ने-भर क ही देर
होती है। देवदास उसके हाथ म लेट दे कर पास ही खड़ा हो गया। भोलू जोर-जोर से बोल
कर िलखने लगा—'एक मन तेल का दाम चौदह पये नौ आने तीन पाई हो, तो—'
ठीक उसी समय एक घटना हो गई। िजस हाथ-पैर-टू टी बच को पाठशाला का यह
मुख छा अपने पद और मयादा के यो य आसन समझ कर यथािनयम आज तीन बरस
से रोज बैठने के िलए इ तेमाल करता आ रहा है, उसके पीछे ढेर सारे चूने का एक ढेर लगा
आ था। उसे पंिडत जी ने न जाने कब और कस युग म स ते दाम खरीदा था। उनका
इरादा था क जब कभी अ छे दन आयेग,े तब इससे एक कमरा और दलान बनवायगे। यह
तो नह मालूम क वे शुभ दन कब आयगे; ले कन इस सफे द चूने के ित उनक सतकता
और देखभाल म कभी कोई कमी नह होती थी। संसार से अनिभ और प रणाम से
अप रिचत कोई आि त बालक इस चूने का एक कण भी न न करने पाये, इसके िलए
उनके ि य पा तथा अपे ाकृ त वय क भोलानाथ को इस सय -संिचत व तु क
सावधानी से र ा करने का भार िमला था; और वह बच के ऊपर बैठ कर उसक रखवाली
करता था।
भोलानाथ िलखा रहा था—‘एक मन तेल का दाम चौदह पये नौ आने तीन पाई हो
तो, 'अभी वह यह तक प च ँ ा था क अचानक उसके मुँह से िनकला—अरे बाप रे ! इसके
बाद खूब गुल-गपाड़ा आ और पावती भी जोर-जोर से िच ला कर और तािलयाँ बजा-
बजा कर जमीन पर लोटने लगी। शोर सुन कर तुर त ही जागे ए गोिव दलाल लाल आँख
कये ए एकदम से उठ कर खड़े हो गये। उ ह ने देखा क पेड़ के नीचे लड़क का दल कतार
बाँध कर खूब ही-ही करता आ दौड़ रहा है। उसी समय उ ह यह भी दखाई दया क टू टी
ई बच के ऊपर एक जोड़ी पैर-नाच-कू द रहे ह और चूने म जैसे वालामुखी पवत फट पड़ा
है। वे िच ला उठे — या आ? या आ? या आ रे ?
वहाँ कहने के िलए के वल पावती ही थी, ले कन वह उस समय जमीन पर लोट रही
थी और तािलयाँ बजा रही थी। पंिडत जी का िवफल अब ोध के प म कट आ—
या आ? या आ रे ? या आ?
इसके जवाब म ेत मू त भोलानाथ चूना हटा कर खड़ा हो गया। पंिडत जी ने फर
िच ला कर कहा—“बदमाश कह का! तू उसके अ दर था?”
“आँ—आँ—आँ।”
“ फर वही!”
“देवा दु ढके ल कर... आँ —आँ...मन सेर—छटाँक...”
“ फर वही, बदमाश!”
ले कन दूसरे ही ण सारी बात पंिडत जी क समझ म आ ग और उ ह ने चटाई पर
बैठ कर पूछा—“देवा तुझे ध े से िगरा कर भाग गया है?”
भोलू और भी जोर से रोने लगा—“आँ-आँ-आँ...।”
इसके बाद कु छ देर तक चूने क झाड़-प छ ई। ले कन सफे द और काले रं ग म वह
मुख छा ब त कु छ भूत क तरह दखाई देने लगा और उसका रोना भी ब द नह आ।
पंिडत जी ने कहा—“मालूम होता है क देवा तुझे ध ा देकर और िगरा कर भाग
गया है?''
भोलू ने कहा—“आँ-आँ...”
पंिडत जी ने कहा—“इसका बदला लूँगा।”
भोलू ने रोना जारी रखा।
पंिडत जी ने पूछा—“सब लड़के कहाँ ह?”
इसके बाद लड़क का दल लाल मुँह कये और हाँफता आ लौट आया और बोला
—“देवा पकड़ा नह गया। वह ट फक कर मारता है!”
“पकड़ा नह गया?”
एक और लड़का पहली ही बात दोहराने लगा—“वह- ट...”
“चुप रह!”
वह थूक गटक कर एक ओर िखसक गया। िन फल ोध म पंिडत जी ने सबसे पहले
पावती को खूब फटकारा और तब भोलानाथ का हाथ पकड़कर कहा-“चल, जरा कचहरी
म चल कर मािलक से कह आय।”
इसका मतलब यह क ज़म दार नारायण मुकज के पास चल कर उनके पु क इस
करतूत क फ रयाद क जाय।
उस समय तकरीबन तीन बजे थे। नारायण मुकज बाहर बैठ कर ा पी रहे थे और
एक नौकर हाथ म पंखा िलये हवा कर रहा था। छा सिहत पंिडत जी के इस असमय
आगमन से उ ह ने कु छ िवि मत हो कर कहा“अरे यह तो गोिव द पंिडत ह!”
ले कन गोिव द जाित के काय थ थे, इसिलए उ ह ने पहले तो भूिम हो कर णाम
कया और फर भोलू को दखला कर िव तारपूवक सब बात कह सुनाई। मुकज महाशय
ब त ही नाराज़ ए, बोले“यही तो म देखता ँ क देवदास हाथ से बाहर आ जा रहा
है।”
“अब आप ही म द क म या क ँ ?”
ज़म दार साहब ने े क िनगाली रख कर कहा“कहाँ गया है वह?”
“म या जानूँ! जो लड़के पकड़ने गये थे, उ ह ट मार-मार कर भगा दया है।”
दोन ही आदमी कु छ देर तक चुप रहे। फर नारायण बाबू ने कहा“अ छा, घर आने
दो, तब जो कु छ होगा क ँ गा।”
गोिव द अपने िव ाथ का हाथ पकड़ कर जब लौट कर पाठशाला म प च ँ े तब
उ ह ने अपने चेहरे और आँख क भाव-भंिगमा से सारी पाठशाला को सं त कर डाला
और ित ा क क य िप देवदास के िपता यहाँ के जम दार ह, ले कन फर भी म उसे
पाठशाला म नह घुसने दूग ँ ा। उस दन पाठशाला क छु ट् टी कु छ पहले ही हो गयी। चलते
समय बालक आपस म तरह-तरह क बात करने लगे।
एक लड़के ने कहा“ओफ् ! देवा कतना मजबूत है!”
दूसरे लड़के ने कहा“भोलू को खूब छकाया।”
“ओफ! कै सा ढेला फकता है!”
एक और लड़के ने भोलू का प लेकर कहा“देख लेना, भोलू भी इसका बदला लेगा!”
“ ।ँ वह तो अब पाठशाला म आयेगा नह जो उससे कोई बदला ले!”
इस छोटे-से दल के साथ एक ओर पावती भी लेट और कताब हाथ म िलये ए घर
लौट रही थी। उसने पास के एक लड़के का हाथ पकड़ कर पूछा“मिण, या वे अब देव दा
को सचमुच पाठशाला म न आने दगे?”
मिण ने कहा“नह , कसी तरह नह ।”
पावती िखसक गयी। यह बात उसे िब कु ल अ छी नह लगी। पावती के िपता का
नाम था नीलकं ठ च वत । च वत महाशय ज़म दार साहब के पड़ोसी थे। अथात् मुकज
महाशय का जो ब त बड़ा मकान था, उसी के पास च वत महाशय का भी छोटा-सा
पुराने ढंग का मकान था। उनके पास दस-पाँच बीघे ज़मीन-जायदाद थी और दो-चार घर
यजमान भी थे। जम दार साहब के घर से भी उ ह कु छ िमल जाता था। उनका प रवार
अ छी तरह से रहता था और उनके दन मज़े म कटते थे।
पहले धमदास के साथ पावती क भट ई। वह देवदास के यहाँ का नौकर था। जब
देव एक बरस क उ का था तब से ले कर आज बारह बरस क उ तक वह देवदास के ही
साथ है। वही उसे पाठशाला म प च ँ ा जाता है और फर छु ट् टी के समय आ कर घर ले
जाया करता है। यह काम उसने िनयमपूवक कया है और आज भी वह इसी काम के िलए
पाठशाला क ओर जा रहा था। पावती को देख कर उसने पूछा“ य पारो, तु हारे देव दा
कहाँ ह?”
“भाग गये ह।”
धमदास ने ब त ही च कत होकर पूछा“भाग गये? या मतलब?” उस समय पावती
भोलानाथ क दुदशा क बात करके फर नये िसरे से हँसन लगी“देखो धमदास, देव दाही
ही ही! एक दम चूने के ढेर परहीहीही! होहोहो एकदम से उसे िचत पटक कर...”
य िप धमदास ने सारी बात अ छी तरह नह समझ , ले कन फर भी पारो को
हँसते देख कर वह भी हँस पड़ा। फर हँसी रोक कर कु छ आ हपूवक पूछा“बताओ पारो,
या आ?”
“देव दा ने भोलू को ध ा दे कर िगरा दया चूने के ढेर परहीहीही!”
अब धमदास ने बाक बात भी समझ ली और ब त ही िचि तत होकर पूछा “ य
पारो, जानती हो क इस समय वह कहाँ है?”
“म या जानूँ!”
“नह , तुम जानती हो। बतला दो। जान पड़ता है क उसे ब त भूख लगी होगी।”
“हाँ, भूख तो खूब लगी होगी। ले कन म बतलाऊँगी नह ।”
“बतलाओगी य नह ?”
“बतला दूग ँ ी तो वे मुझे ब त मारगे। म जा कर उ ह खाना दे आऊँगी।”
धमदास कु छ स तु आ। बोला“अ छा, दे आना और स या से पहले ही उसे बात
म भुला कर घर ले आना।”
“अ छा ले आऊँगी।”
घर प च ँ कर पावती ने देखा क उसक माँ ने और देवदास क माँ ने भी सब बात
सुन ली ह। उससे भी पूछा गया। हँस कर और ग भीर हो कर जो कु छ उससे बना, उसने
कह सुनाया, इसके बाद उसने अपने आँचल म थोड़ी-सी मूड़ी बाँधी और जम दार के एक
आम के बाग म वेश कया। वह बाग उन लोग के मकान के पास ही था और उसी के एक
ओर बाँस का झुरमुट था। वह जानती थी क िछप कर तमाखू पीने के िलए देवदास ने इसी
झुरमुट के भीतर थोड़ी-सी जगह साफ कर रखी है। जब वह भाग कर कह िछपना चाहता
था तब इसी गु थान म चला आता था। भीतर प च ँ कर पावती ने देखा क बाँस के
झुरमुट के बीच म देवदास हाथ म एक छोटा ा िलये ए बैठा है और सयान क तरह
त बाकू पी रहा है। उसका चेहरा ब त ग भीर है और उस पर िच ता- फ़ छायी ई थी।
पावती को देख कर वह ब त खुश आ, ले कन खुशी उसने जािहर नह होने दी। तमाखू
पीते ए उसने ग भीर भाव से कहा“आओ पावती, बैठो।”
पावती पास आ कर बैठ गई। उसने अपने आँचल म जो कु छ बाँध रखा था, उस पर
तुर त ही देवदास क दृि पड़ गई। उसने िबना कु छ पूछे ही आँचल खोल िलया और मूड़ी
खाना शु करके कहा“ य पारो, पंिडत जी या कहते थे?”
“उ ह ने सब बात जा कर ताऊ जी से कह दी ह।”
देवदास ने ा जमीन पर रख कर आँख फाड़ कर पूछा“बाबू जी से सब बात कह
द ?”
“हाँ।”
“ फर या आ?”
“अब वे तु ह पाठशाला म नह आने दगे।”
“म पढ़ना ही नह चाहता।”
इस बीच वह मूड़ी को खा कर समा कर चुका था। उसने पावती क ओर देख कर
कहा“लाओ, स देश दो।”
“स देश तो म नह लाई।”
“अ छा तो लाओ, पानी दो।”
“पानी यहाँ कहाँ िमलेगा?”
देवदास ने कु छ िबगड़ कर कहा“अगर कु छ भी नह लाना था तो फर
आयी य ? जाओ, पानी ले आओ।”
उसका वह वर पावती को अ छा नह लगा। उसने कहा“अब म नह जा सकती।
चलो, तु ह चल कर पी लो।”
“भला अभी या म जा सकता ?ँ ”
“तो या यह रहोगे?”
“अभी तो यह र ग ँ ा, फर कह चला जाऊँगा।”
पावती का मन दुखी हो गया। देवदास क परे शानी देख कर और बात सुन कर उसक
आँख म जल भर आ रहा था। उसने कहा—“देव दा, म भी चलूँगी।”
“कहाँ? मेरे साथ? दुत!् ऐसा कह होता है!”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“म तो चलूँगी ही।”
“नह , तु हारे जाने क ज रत नह । जाओ, पहले पानी ले आओ।”
“पावती ने फर िसर िहला कर कहा—''म तो चलूँगी।”
“जाओ, पहले पानी ले आओ।”
“नह , म नह जाऊँगी। तुम पीछे से भाग जाओगे।”
“नह , म नह भागूँगा।”
ले कन पावती उसक इस बात पर िव ास नह कर सक , इसिलए वह बैठी रही।
देवदास ने फर म दया—“जाओ, कह रहा ँ न।”
पावती चुप रही। इसके बाद उसक पीठ पर एक घूँसा पड़ा—“जायेगी नह ?”
पावती रो पड़ी। उसने कहा—“म कसी तरह नह जाऊँगी।”
देवदास एक तरफ चला गया। पावती भी वहाँ से रोती ई उठ कर चल पड़ी और
देवदास के िपता के पास प च ँ ी। मुकज महाशय पावती को ब त चाहते थे। बोले—“ य
बेटी पारो, तुम रो य रही हो?”
“देव दा ने मुझे मारा है।”
“कहाँ है वह?”
“वह बगीचे म बाँस क झाड़ी म बैठे ए तमाखू पी रहे थे।”
एक तो पंिडत जी के आने से वे य ही िचढ़े बैठे थे, ितस पर इस समाचार ने उ ह
िबकु ल आग−बबूला कर दया। उ ह ने पूछा—“देवा शायद फर तमाखू पीने लगा है?”
“हाँ, पीते ह, रोज पीते ह। बाँस के झुरमुट म उनका ा िछपाया आ है।”
“तो फर इतने दन से य नह कहा?”
“म डरती थी क देव दा मुझे मारगे।”
ले कन असल म बात यह न थी। उसे डर था क अगर यह बात कह दूग ँ ी तो देवदास
को सजा भुगतनी पड़ेगी; और इसिलए उसने पहले कोई बात नह कही थी। ले कन आज
गु से म आ कर यह बात कह डाली। अभी उसक उमर िसफ आठ बरस क थी। अभी उसे
गु सा ब त था, ले कन फर अभी उसम समझ−बूझ कम न थी। वह घर जा कर िबछौने
पर पड़ गयी और रोती-रोती सो गई। उस रात को उसने खाना भी नह खाया।
दूसरा प र छे द
दूसरे दन देवदास पर खूब मार पड़ी। दन−भर उसे घर म ब द करके रख दया गया।
इसके बाद जब उसक माँ ब त रोने−धोने लगी, तब कह जा कर देवदास छोड़ा गया।
दूसरे दन सबेरे ही वह घर से भागा—भागा आया और पावती के मकान क िखड़क के
पास खड़ा हो गया। उसने पुकारा—“पारो, ओ पारो।”
पावती ने िखड़क खोल कर कहा—“देव दा।”
देवदास ने इशारा करके कहा—“ज दी आ।”
जब दोन इकट् ठा ए, तब देवदास ने पूछा—“तूने तमाखू पीने क बात य कह
दी?”
“तुमने मुझे मारा य ?”
“तू पानी लाने य नह गई?”
पावती चुप रही। देवदास ने कहा—“तू ब त बेवकू फ है। अ छा देख, फर कभी मत
कहना।”
पावती ने िसर िहला कर कहा—“अ छा, नह क ग ँ ी।”
“अ छा चल, बाँस−बाड़ी म से बाँस काट लाय। आज ताल पर चल कर मछली
पकड़गे।”
बँसवाड़ी के पास ही नोना का एक पेड़ था। देवदास उसी पर चढ़ गया। ब त
क ठनाई से उसने एक बाँस का िसरा ख च कर उसे नीचे झुकाया और पावती को उसे
पकड़ने के िलए देते ए कहा—“देख, इसे छोड़ मत देना, नह तो म िगर पड़ूग ँ ा।”
पावती अपनी सारी शि लगा कर उसे नीचे क ओर ख चे रही। देवदास उसे पकड़
कर और नोना क एक डाल पर पैर रख कर उसम से बंसी काटने लगा। पावती ने नीचे से
कहा—“देव भइया, तुम पाठशाला नह चलोगे?”
“नह ।”
“ताऊ जी तु ह भेज दगे।”
“बाबू जी ने खुद ही कह दया है, अब म वहाँ नह पढू ँगा। पंिडत जी घर पर ही
आयगे।”
पावती कु छ िचि तत ई। कु छ देर बाद बोली—“गरमी के कारण कल से हम लोग
क पाठशाला सबेरे क हो गई है। अब म जाऊँगी।”
देवदास ने ऊपर से आँख तरे र कहा—“नह , जाना नह होगा।”
उस समय पावती कु छ अ यमन क-सी हो गई थी। इस बीच म बाँस क डाली कु छ
ऊपर उठ गई और साथ ही देवदास भी नोना क डाल से नीचे आ पड़ा। डाल कु छ यादा
ऊँची नह थी, इसिलए कु छ यादा चोट नह आई; ले कन फर भी शरीर कई जगह से
िछल गया। नीचे आते ही ु देवदास ने एक सूखी डाल उठा कर पावती क पीठ पर,
गाल पर और जहाँ जी म आया, वहाँ जोर-जोर से कई हाथ जमा कर कहा—“जा, दूर हो
यहाँ से!”
पहले तो पावती खुद ही लि त हो गई थी, ले कन जब उस पर लगातार छड़ी-पर-
छड़ी पड़ने लगी तब उसने मारे ोध और अिभमान के अपनी दोन आँख अंगार क तरह
लाल करके रोते ए कहा—“म अभी ताऊ जी के पास जाती ।ँ ” देवदास ने ोध म आ कर
एक और हाथ जमाते ए कहा—“जा, अभी जा कर सब कह दे। मुझे परवाह नह है।”
पावती चली गई। कु छ दूर बढ़ जाने पर देवदास ने पुकारा—“पारो!”
पावती ने सुन कर भी नह सुना और वह ज दी-ज दी आगे बढ़ने लगी। देवदास ने
फर पुकारा—“ओ पारो, जरा सुन जा।”
पावती ने कोई उ र नह दया। देवदास ने नाराज होकर कु छ तो ऊँचे वर से और
कु छ मन-ही-मन कहा—“जा, मर जा!”
पावती चली गई। देवदास ने य - य करके एक-दो बंिसयाँ काट ल । उसका मन
िख हो गया था। पावती रोती-रोती घर लौट गई। उसके गाल पर छड़ी का जो दाग पड़ा
था, वह नीला होकर फू ल उठा था। उस पर पहले दादी क िनगाह पड़ी। उसने िच ला कर
कहा—“बाप रे , पारो, कसने तुझे इस तरह मारा?”
आँख प छते ए पावती ने कहा—“पंिडत जी ने।”
दादी ने उसे गोद म ले कर ब त ही गु से म कहा—“चल तो जरा, नारायण के पास
चल। देखूँ तो सही वह कै सा पंिडत है! हाय हाय! लड़क को मार ही डाला था!”
पावती ने दादी के गले से िलपट कर कहा—“चलो।”
मुकज महाशय के पास प च ँ कर दादी ने पंिडत जी के अनेक पुरख का उ लेख
करके उ ह भरपूर कोसा और अ त म खुद गोिव द को भी ढेर गािलयाँ दे कर कहा
—“नारायण, जरा देखो तो उसक िह मत! शू हो कर ा ण क लड़क पर हाथ
चलाता है! जरा देखो तो उसने कै सा मारा है!”
इतना कह कर वृ ा पावती के गाल पर पड़ा नीला दाग ब त ही वेदना के साथ
दखलाने लगी।
नारायण बाबू ने पावती से पूछा—“पारो, कसने मारा है?”
पावती चुप रही। उस समय दादी ही फर िच ला कर बोली—“और कौन मारे गा?
उसी गँवार पंिडत ने मारा है।”
“ य मारा है?”
पावती ने फर भी कोई उ र नह दया। मुकज ने समझा क इसने ज र कोई
अपराध कया है, इसीिलए मार खाई है। ले कन इस तरह मारना उिचत नह आ। यही
बात उ ह ने कट प म भी कही। तब पावती ने अपनी पीठ भी खोलकर दखलाई और
कहा—“यहाँ भी मारा है।”
पीठ के दाग और भी प , और भी बड़े थे। इसिलए दोन ही ब त ु हो गये।
मुकज महाशय ने यह राय भी जािहर क क पंिडत जी को यहाँ बुला कर उनसे कै फयत
तलब क जानी चािहए। यह भी ि थर आ क ऐसे पंिडत के पास लड़ कय को भेजना
ठीक नह ।
यह राय सुन कर पावती ब त स ई और अपनी दादी क गोद म चढ़कर घर
लौट आई। घर प च ँ कर पावती अपनी माँ क िजरह के फे र म पड़ी। वे उसे ले बैठी
—“ य मारा है?”
पावती ने कहा—“य ही झूठमूठ मारा है।”
माता ने अ छी तरह लड़क के कान मल कर कहा—“य ही झूठमूठ भी कभी कोई
मारता है?”
उसी समय उनक सास दालान म से हो कर जा रही थ । उ ह ने कमरे क चौखट के
पास आ कर कहा“ य ब , माँ होकर तुम तो इसे झूठमूठ मार सकती हो और वह मुँह-
जला नह मार सकता?”
ब ने कहा—“उसने झूठमूठ और अकारण कभी नह मारा है। यह बड़ी सीधी है न!
इसने ज र कु छ कया है, तभी मार खाई है।”
सास ने िवर होकर कहा—“अ छा मान िलया, यह सही। ले कन अब म इसे
पाठशाला नह जाने दूग ँ ी।”
“कु छ िलखना-पढ़ना नह सीखेगी?”
“िलखना-पढ़ना सीख कर या होगा? एकाध िचट् ठी-प ी िलखना आ जाय, दो-चार
पंि याँ रामायण-महाभारत पढ़ने लग जाय, बस, यही ब त है। तु हारी पारो या जजी
करे गी या वक ल बनेगी?”
ब लाचार हो कर चुप हो रही।
दोपहर को भोजन आ द समा हो जाने पर पावती पोखर पर पानी लाने के िलए जाया
करती है। बगल म पीतल क कलसी ले कर आज भी घाट पर आ कर खड़ी हो गई। देखा क
पास ही देवदास एक बेर के पेड़ क आड़ म पानी म बंसी डाले बैठा आ है। एक बार उसके
मन म आया क यहाँ से लौट चलूँ। फर मन म आया क चुपचाप जल भर कर चली जाऊँ।
ले कन वह दोन म से एक काम भी ज दी न कर सक । जब वह घाट पर कलसी रखने लगी
तब शायद कु छ आवाज ई िजससे देवदास ने िसर उठा कर उसक ओर देखा। इसके बाद
उसने हाथ से इशारा करते ए पुकार कर कहा—“पारो, जरा सुन जाओ।”
पावती धीरे -धीरे उसके पास जा कर खड़ी हो गयी। देवदास ने िसफ एक बार िसर
ऊपर उठाया, फर वह ब त देर तक शू य दृि से जल क ओर देखता रहा। पावती ने पूछा
—“देव दा, मुझसे कु छ कहना है?”
देवदास ने िबना कसी ओर देखे कहा“हाँ, बैठो।”
ले कन पावती बैठी नह , िसर नीचा कये खड़ी रही। जब कु छ देर तक
कोई बात नह ई तब पावती ब त धीरे -धीरे पैर बढ़ाती ई घाट क ओर लौटने
लगी। देवदास ने एक बार िसर उठा कर देखा। इसके बाद उसने फर जल क ओर देखते
ए कहा—“सुनो।”
पावती फर लौट आई। ले कन देवदास फर भी उससे कोई बात न कह सका और यह
देख कर पावती फर घाट क तरफ लौटने लगी। देवदास त ध हो कर बैठा रहा। थोड़ी देर
बाद उसने घूम कर देखा क पावती जल ले कर चलना चाहती है। तब वह बंसी एक
कनारे रख कर घाट के पास आ खड़ा आ और बोला, “म आ गया ।ँ ”
पावती ने िसफ कलसी जमीन पर रख दी, ले कन कु छ कहा नह ।
“म आ गया ँ पारो!”
पावती पहले तो कु छ देर तक चुप रही और अ त म ब त ही कोमल वर म बोली
—“कै से आना आ?”
“तु ह प िलखा था, याद नह है?”
“नह ।”
“यह या पारो, उस रात क बात याद नह है?”
“याद तो है। ले कन अब उस बात से मतलब?”
उसका कं ठ वर ि थर ले कन ब त ही खा था। देवदास ने उसका मम नह समझा
और कहा—“मुझे माफ करो पारो, तब मने इतना नह समझा था।”
“चुप रहो। वे सब बात सुनना भी मुझे अ छा नह लगता।”
“िजस तरह से भी होगा म माता-िपता को राजी कर लूँगा। बस तुम...”
पावती ने देवदास के चेहरे क तरफ एक बार ती ण दृि से देख कर कहा—“तु हारे
माता-िपता ह, और मेरे नह ? उनके राजी होने या न होने क ज रत नह ?”
देवदास ने लि त हो कर कहा—“हाँ, ह य नह पारो? ले कन उ ह तो इससे
इनकार नह है बस तुम...”
“तुमने कै से जाना क उनक नामंजूरी नह है? िब कु ल नामंजूरी है।”
“देवदास ने हँसने का िवफल यास करते ए कहा“नह जी, उनक जरा भी
असहमित नह हैइसे म अ छी तरह जानता ,ँ बस तुम...”
पावती बीच म ही तीखी आवाज म बोल उठीिसफ म? तु हारे साथ? छीः...”
पलक मारते ही देवदास क दोन आँख आग क तरह जल उठ । उसने कठोर वर म
कहा—“पावती, या तुम मुझे भूल गय ?”
पहले पावती कु छ ठठक , ले कन फर उसने तुर त ही अपने आप को सँभाल कर
शा त, क ठन वर म उतर दया“नह , भूलूँगी य ? म लड़कपन से तु ह देखती आ रही ।ँ
जब से होश सँभाला है, तभी से तुमसे डरती आ रही ।ँ सो या इसिलए तुम मुझे भय
दखलाने के िलए आये हो? ले कन मुझको भी या तुम नह पहचानते?”
यह कह कर वह िनभ क भाव से तन कर खड़ी हो गई।
पहले तो देवदास के मुँह से कोई बात नह िनकली। फर कु छ देर बाद उसने
कहा“सदा से मुझसे डरती ही रही हो? और कु छ भी नह ?”
पावती ने दृढ़ वर से कहा“नह , और कु छ भी नह ।”
“सच कहती हो?”
“हाँ, सच ही कहती ँ तुम पर मेरी जरा भी ा नह है। म िजनके पास जा रही ँ
वे धनवान, बुि मान, शा त और ि थर ह। वे धा मक ह । मेरे माता—िपता मेरी मंगल-
कामना करते ह। इसिलए वे मुझे तु हारे जैसे अ ानी, चंचल—िच और दुदा त ि के
हाथ कभी कसी तरह न स पगे। तुम रा ता छोड़ दो।”
“पहले तो देवदास ने कु छ इधर-उधर कया, एक बार मानो रा ता छोड़ने के िलए भी
वह तैयार हो गया। ले कन फर तुर त ही दृढ़तापूवक मुँह उठा कर बोला—“इतना
अहंकार!”
पावती ने कहा—“ य नह होगा? तुम अहंकार कर सकते हो, म नह कर सकती?
तुम म प है, गुण नह है; मुझम प है और गुण भी है। तुम लोग बड़े आदमी हो, ले कन
मेरे िपता भी भीख नह माँगते- फरते। इसके िसवा आगे चल कर म खुद भी तुम लोग पर
शायद भारी ही पड़ू,ँ यह जानते हो?”
देवदास अवाक् हो गया।
पावती फर कहने लगी“तुम सोच रहे हो क तुम मेरा ब त अिधक नुकसान कर
सकोगे। अिधक न सही, ले कन कु छ नुकसान ज र कर सकते हो, यह म जानती ।ँ अ छा,
वही करो। बस मेरा रा ता छोड़ दो।”
देवदास ने हत-बुि हो कर पूछा“नुकसान कै से क ं गा।”
पावती ने तुर त ही उ र दया“मेरी बदनामी करके । अ छा, जाओ बदनामी ही कर
लेना।”
यह सुन कर देवदास ह ा-ब ा हो कर उसे देखने लगा। उसके मुँह से के वल इतना ही
िनकला“म तु हारी बदनामी क ँ गा?”
पावती ने जहरीली हँसी हँस कर कहा“जाओ, आिखरी व मेरे नाम पर कलंक-भरी
घोषणा कर दो। उस रात को म तु हारे पास अके ली गई थी, यही बात चार तरफ सब पर
जािहर कर दो, इससे तु ह ब त कु छ स तोष हो जायगा।"
यह कहते-कहते पावती के गव ले, ोध-भरे ह ठ काँपते-काँपते क गये।
ले कन देवदास का दय, मारे ोध और अपमान के , चट-चट करके जल उठा। उसने
चीख कर कहा“तु हारे नाम पर झूठा कलंक लगा कर म अपने मन म स तोष ा
क ँ गा?” और दूसरे ही ण बंसी क मोटी मु ठया खूब ज़ोर से घुमाते ए भीषण वर म
कहा,“सुनो पावती, अपने प पर इतराना अ छा नह है। इससे अहंकार ब त बढ़ जाता
है।” और इसके बाद उसने अपना वर कु छ धीमा करके कहा“देखती नह हो क च मा म
ब त अिधक प है, इसिलए उस पर काला दाग है और कमल इतना सफे द है, इसिलए
उस पर भ रा बैठा रहता है। आओ, तु हारे भी चेहरे पर कु छ कलंक का िच ह लगा दू।ँ ”
देवदास के सहने क हद ख म हो चुक थी। उसने बंसी क मु ठया घुमा कर पावती के
िसर पर खूब जोर से चोट क िजससे उसके कपाल से लेकर बाय भ तक चमड़ी कट गयी।
पलक झपकते ही उसका सारा मुँह खून से तर हो गया।
पावती जमीन पर लोट पड़ी और बोली“अरे देव दा, यह तुमने या कया!”
देवदास ने बंसी को टु कड़े-टु कड़े करके जल म फकते ए ब त ही ि थर भाव से उ र
दया“ यादा कु छ नह , ब त मामूली, िसफ थोड़ा—सा कट गया है।”
देवदास ने अपने पतले कु रते म से थोड़ी-सी ध ी फाड़ कर और उसे जल म िभगो
कर पावती के िसर पर बाँधते ए कहा“पारो, इसम डर क या बात है! एक दन यह चोट
अ छी हो जायेगी, खाली दाग रह जायेगा। अगर कभी कोई इस बारे म पूछे तो कोई झूठ
बात बना कर कह देना; नह तो सच बोल कर अपने कलंक क बात खुद ही कट कर
देना।”
“अरी मइया री!”
“छी: पारो, ऐसा मत करो। इस अि तम िवदाई के दन के वल थोड़ी-सी याद रखने के
िलए एक िच ह बनाये देता ।ँ ऐसा चाँद-सा मुखड़ा बीच-बीच म शीशे म देखोगी तो
ज र?”
इतना कह कर देवदास उ र क अपे ा कये िबना ही वहाँ से चलने के िलए तैयार
हो गया।
पावती ने आकु ल हो कर रोते ए कहा“अरे , देव दा...”
देवदास लौट पड़ा। उसक आँखो के कोन म एक-एक बूँद जल था। वह ब त ही
ेहपूण वर म बोला“ या है पारो?”
“देखो, कसी से कहना मत।”
देवदास जरा झुक कर खड़ा हो गया और पावती के बाल पर अपने ह ठ टका कर
बोला“छी: पारो, तुम या मेरे िलए कोई पराई हो? तु ह याद नह है क जब तुम
लड़कपन म शरारत करती थ तब मने कतनी बार तु हारे कान मले ह?”
“देव दा, तुम मुझे माफ करो।”
“नह , तु ह यह कहने क ज रत नह । पारो, या तुम सचमुच ही मुझे एकदम भूल
गई हो? मने कब तुम पर ोध कया है और तु ह माफ नह कया है?”
“देव दा...”
“पावती, तुम तो जानती हो क म ब त यादा बात नह कर सकता। ब त सोच-
समझ कर भी कोई काम नह कर सकता। जब जो मन म आता है, वही कर बैठता ।ँ ”
इसके बाद देवदास ने पावती के िसर पर हाथ रख कर उसे आशीवाद देते ए
कहा“तुमने अ छा ही कया है। तुम तो शायद मेरे पास रह कर सुख न पात ; ले कन
तु हारे देव दा को तो अ य वगवास ही िमलता।”
इसी समय घाट पर दूसरी तरफ से कोई आ रहा था। पावती धीरे -धीरे उठकर जल म
उतरी और देवदास वहाँ से चला गया। जब पावती लौट कर घर आई, तब दन ढल गया
था। दादी ने िबना उसक ओर अ छी तरह देखे ही पूछा“ य बेटी, या नया तालाब खोद
कर पानी लाई हो?”
ले कन उनके मुँह क बात मुँह म ही रह गई। पावती के मुख क ओर देखते ही वे
िच ला उठ “अरे बाप रे ! यह सवनाश कै से आ?”
घाव म से उस समय भी खून बह रहा था। कपड़े भी खून से लाल हो गये थे। दादी ने
रोते ए कहा“अरी मइया री! पावती, तेरा तो याह है!”
पावती ने ि थर भाव से कलसी उतार कर रख दी। उसक माँ ने आ कर रोते ए
पूछा“पारो, यह सवनाश कै से आ?”
पावती ने सहज भाव से उ र दया“घाट पर पैर फसल जाने से िगर पड़ी थी। ट
लग जाने से माथा कट गया है।”
इसके बाद सब िमल कर उसक मरहम-पट् टी करने लग गय । देवदास ने ठीक ही
कहा था“चोट ब त यादा नह थी। चार ही पाँच दन म घाव सूख गया। और भी आठ दस
दन इसी तरह बीत गये। इसके बाद एक दन रात को हाथीपोता गाँव के जम दार ीयुत
भुवनमोहन वर बन कर िववाह करने आये। उ सव म कु छ अिधक धूम-धाम नह ई। भुवन
बाबू कोई अबोध तो थे नह , ौढ़ अव था म दूसरा याह करने के िलए आये थे, इसिलए
उ ह ने छोकरा बनना ठीक नह समझा।
वर क अव था चालीस बरस से नीचे नह , कु छ ऊपर ही है। गौर वण, मोटे-ताजे,
न द के दुलारे ीकृ ण क तरह का शरीर, िखचड़ी मूँछ, िसर पर सामने क तरफ थोड़ी
दूर के बाल उड़े ए। वर को देख कर कोई तो हँसा और कोई चुप ही रहा। भुवन बाबू शा त
और ग भीर मुख से मानो एक अपराधी क तरह िववाह-मंडप म आकर खड़े ए। छोटी
अव था के वर के कान िजस तरह मले जाते ह और उन पर जो तरह-तरह के अ याचार
होते ह, वे सब उनके साथ िब कु ल नह ए। कारण, ऐसे िव और ग भीर ि के कान
मलने के िलए कसी का हाथ उठा ही नह । वर-वधू का आमना-सामना कराये जाने क
र म के समय पावती कु छ कसमसाती ई देख कर रह गई। उसके ह ठ के कोने पर हँसी
क एक रे खा थी। भुवन बाबू ने लड़क क तरह दृि नीचे कर ली। मुह ले टोले क ि याँ
िखलिखला कर हँस पड़ । च वत महाशय इधर-उधर दौड़-धूप करने लगे। ब दश
जम दार नारायण मुकज लड़क वाल क तरफ से घर के मािलक बने ए ह। प े आदमी
ठहरे , इसिलए उ ह ने कसी तरफ से कसी बात क ु ट न होने दी। िववाह क र म ब त
ही व था के साथ समा हो गय ।
दूसरे दन सबेरे चौधरी महाशय ने जेवर का एक ब सा िनकाल कर दया। पावती
के शरीर पर सज कर वे सब झलमला उठे । पावती क माता ने यह देख कर अपने आँचल से
आँख के कोने प छ िलये। पास ही जम दार-प ी भी खड़ी थ । उ ह ने ेहपूवक िझड़कते
ए कहा“देखो बहन, इस समय रो कर असगुन मत करना।”
स या से कु छ पहले मनोरमा पावती को ख च कर एक िनजन कोठरी म ले गई और
वहाँ उसे आशीवाद देती ई बोली“जो कु छ आ, अ छा ही आ। अब देखना तुम कतने
सुख से रहती हो।”
पावती ने कु छ हँस कर कहा“हाँ, सुख से ही र ग
ँ ी। कल यम के साथ थोड़ा—सा
प रचय हो गया है क नह !”
“ह! यह कै सी बात है?”
“समय आने पर देख लोगी।”
इस पर मनोरमा ने कु छ दूसरी बात छेड़ दी“जी चाहता है क एक बार देवदास को
बुला लाऊँ और यह सोने क ितमा दखलाऊँ।”
पावती च क पड़ी। “ला सकोगी बहन? या एक बार बुला कर नह लाया जा
सकता?”
उसके कं ठ का वर सुन कर मनोरमा िसहर उठी। उसने पूछा—“ य पावती?”
पावती ने अपने हाथ का कड़ा घुमाते ए अनमनेपन से कहा—“एक बार उनके
चरण क धूल अपने म तक पर लगाऊँगी—आज म जा रही ँ न!”
मनोरमा ने पावती को ख च कर गले से लगा िलया और तब दोन िमल कर खूब
रोय । स या हो गई। घर म अँधेरा छा गया। दादी ने बाहर से दरवाजे पर ध ा देते ए
कहा—“अरे पारो, मनो, तुम सब जरा बाहर आओ।”
उसी रात को पावती अपने वामी के घर चली गई।
नवाँ प र छे द
और देवदास? वह रात उसने कलक े के ईडन गाडन क एक बच पर ऊपर बैठ कर
िबतायी। यह बात नह है क उसे ब त अिधक मानिसक क हो रहा था या यातना से
उसका दय फटा जा रहा था। तो भी, न जाने कै सी एक िशिथल उदासीनता धीरे —धीरे
उसके दय म जमा हो रही थी। अगर न द ही म लकवा मार जाये तो फर न द टू टने पर
िजस तरह उस अंग को खोजने क कोिशश पर आदमी का अिधकार नह रहता और च कत
—िवि मत मन ज दी से यह तय नह कर पाता क ज म से उसका साथ िनभाने वाला
और सदा का िव त साथी टटोले जाने पर य उतर नह देता और उसके बाद धीरे —
धीरे यह समझ म आता है क वह अंग अब हमारा नह रह गया है—ठीक उसी तरह
देवदास भी समझता जा रहा था क मेरे संसार को अक मात लकवा मार गया है और अब
उससे सदा के िलए मेरा िव छेद हो गया है । अब उस पर िम या ोध और मान करना
शोभा न देगा। पुराने अिधकार क बात सोचना भी भूल होगी। उस समय सूय दय हो रहा
था । देवदास उठ कर खड़ा हो गया और सोचने लगा क कहाँ जाऊँ? अचानक उसे अपना
कलक े वाला बासा याद आ गया । वहाँ चु ी लाल है। वह उधर ही को चलने लगा। रा ते
म उसने दो बार ध ा खाया; ठोकर खा कर उसने अपनी उँ गली ल —लुहान कर ली;
लड़खड़ा कर एक आदमी के ऊपर िगर रहा था, िजसने शराबी समझ कर उसे धके ल दया।
इस तरह घूमता—घूमता दन के अ त म भटकता आ वह अपने बासे के दरवाजे पर आ
प चँ ा। उस समय चु ी लाल सज—धज कर बाहर घूमने के िलए िनकल रहा था। देवदास
को देखकर बोला—“अरे , या देवदास है।“
देवदास चुपचाप देखता रहा।
“कब आये? तु हारा मुँह सूखा आ है। ान, भोजन आ द कु छ नह आ है...अरे यह
या? यह या?”
देवदास रा ते पर ही बैठा जा रहा था। चु ी लाल हाथ पकड़ कर अ दर ले गया।
अपने पलँग पर बैठा कर उसने शा त करके पूछा—“देवदास, आिखर बात या है?”
“कल घर से आया ।ँ ”
“कल? तो फर दन भर कहाँ रहे? और रात भर कहाँ रहे?”
“ईडन गाडन म।”
“ या पागल हो गये हो? आ या है, बतलाओ तो सही।”
“सुन कर या करोगे?”
“न बतलाओ। अ छा पहले खा-पी लो। तु हारा असबाब कहाँ है?”
“कु छ भी साथ नह लाया।”
“अ छा जाने दो। चलो, पहले खा लो।”
उस समय चु ी लाल देवदास को जबरद ती कु छ िखला—िपला कर और अपने
िब तर पर सोने का आदेश दे कर दरवाजा ब द करते ए कहा—“जरा सोने क कोिशश
करो। म रात को आ कर तु ह उठा दूग ँ ा।”
यह कह कर चु ी लाल उस समय चला गया। रात को दस बजे के लगभग लौट कर
उसने देखा क देवदास िबछौने पर गहरी न द म सो रहा है। उसे जगाये िबना खुद एक
क बल ख च कर चटाई िबछा कर वह सो रहा। सारी रात बीत गई, पर देवदास क न द
नह खुली। यहाँ तक क सबेरा होने पर भी वह नह जागा। दन के दस बजे वह उठ बैठा
और बोला—“चु ी बाबू तुम कब आये?”
“बस, अभी आया ।ँ तु ह कसी तरह क तकलीफ तो नह ई?”
“नह , िबकु ल नह ।”
देवदास ने कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देख कर कहा—“चु ी बाबू मेरे पास कु छ
भी नह है। या मेरी कु छ मदद करोगे?”
चु ी लाल हँस पड़ा। वह जानता था क देवदास के िपता ब त बड़े जम दार ह।
इसिलए हँस कर बोला—“म मदद क ँ ? अ छी बात है। जब तक तु हारी इ छा हो, यहाँ
रहो। कोई िच ता क बात नह है।”
“चु ी बाबू तु हारी आमदनी कतनी है?”
“भाई, मेरी आमदनी ब त ही मामूली है। घर पर कु छ जमीन-जायदाद है। उसे अपने
बड़े भाई के पास िगरवी रख कर यहाँ रहता ।ँ वे हर महीने स र पये के िहसाब से मेरे
पास भेज देते ह। इससे तु हारा और मेरा खच मजे म चल जायेगा।”
“तुम घर य नह जाते?”
चु ी लाल ने कु छ मुँह फे र कर—“इसम ब त—सी बात ह।”
देवदास ने फर और कु छ नह पूछा। कु छ देर बाद भोजन के िलए पुकार ई। तब
दोन ान और भोजन समा करके फर कमरे म आ बैठे। चु ी लाल ने पूछा—“ य
देवदास, िपता के साथ कु छ झगडा कया है?”
“नह ।”
“और कसी के साथ?”
देवदास ने फर उसी कार कह दया—“नह ।”
इसके बाद चु ी लाल को सहसा एक और बात याद हो आई! उसने कहा—“ओहो
तु हारा तो अभी तक याह ही नह आ।”
देवदास कु छ कहे िबना दूसरी ओर मुँह फे र कर लेट गया। थोड़ी देर म चु ी लाल ने
देखा क देवदास सो गया है। इस तरह सोते—सोते और भी दो दन बीत गये। तीसरे दन
सबेरे देवदास व थ हो कर उठ बैठा। जान पड़ा क उसके मुख पर से वह काली छाया
मानो ब त कु छ दूर हो गई है। चु ी लाल ने पूछा-“आज शरीर कै सा है?”
“जान पड़ता है क ब त कु छ अ छा है। अ छा, चु ी बाबू, रात को तुम कहाँ जाते
हो?”
आज चु ी लाल कु छ लि त आ। बोला—“हाँ, सो जाता ,ँ ले कन उस बात का
िज य करते हो? अ छा, आजकल तुम कालेज य नह जाते?”
“िलखना—पढ़ना छोड़ दया है।”
“अरे , ऐसा कह होता है! दो महीने बाद तु हारी परी ा है। तु हारी पढ़ाई भी बुरी
नह ई है। इस बार परी ा य नह दे देते?”
“नह , पढ़ना छोड़ दया है।”
चु ी लाल चुप हो गया। देवदास ने फर पूछा—“कहाँ जाते हो? मुझे नह
बतलाओगे? म भी तु हारे साथ चलूँगा।”
चु ी लाल ने देवदास के मुख क ओर देख कहा—“देवदास, तुम या जानो म कोई
अ छी जगह नह जाता।”
देवदास ने मानो मन—ही—मन कहा—अ छी और बुरी थ क बात है। फर बोला
—“चु ी बाबू मुझे अपने साथ न ले चलोगे?”
चु ी लाल ने कहा—“मुझे या द त होगी देव बाबू। फर भी यही क ग ँ ा क न ही
चलो तो अ छा है।”
“नह , म ज र चलूँगा। अगर अ छा न लगेगा तो फर न जाऊँगा, ले कन तुम तो
सुख क आशा से रोज ही उधर को मुँह कये रहते हो-कु छ भी हो, चु ी बाबू म अव य
चलूँगा।”
चु ी लाल मुँह फे र कर कु छ हँसा और मन—ही—मन बोला, मेरी दशा! फर कट
बोला—“अ छा भाई, चलना।”
तीसरे पहर धमदास सब सामान ले कर आ प च ँ ा । देवदास को देख कर वह रोने
लगा और बोला—“देव भइया, आज तीन—चार दन से माँ कतना रो रही है।”
“ य भला?”
“तुम िबना कु छ कहेत—े सुने य चले आये?”
यह कह कर उसने एक प िनकाला और देवदास के हाथ म देकर कहा— यह माँ क
िचट् ठी है।
चु ी लाल भीतरी बात जानने के िलए उ सुक हो कर देखता रहा। देवदास ने प पड़
कर रख दया। माँ ने घर आने के िलए आदेश और अनुरोध कया है । घर भर म के वल वही
ऐसी है िजसने देवदास के अचानक घर से गायब हो जाने के कारण कु छ अनुमान कया था
। उसने धमदास के हाथ चोरी से ब तसे पये भी भेजे थे । धमदास ने उ ह देवदास के हाथ
म देते ए कहा—“देव भइया, घर चलो।’’
“नह , म नह जाऊँगा। तुम लौट जाओ।”
“रात को दोन िम खूब सज—धज कर घर से बाहर िनकले । इन सब बात क ओर
देवदास क वृित तो नह थी, ले कन चु ी लाल कसी तरह एक ही बात पर राजी आ
क बे कु ल मामूली कपड़े पहन कर न चला जाय। रात के नौ बजे के समय कराये क एक
गाड़ी िचतपुर के एक दो—मंिजले मकान के सामने आ कर खड़ी हो गई। चु ी लाल ने
देवदास का हाथ पकड़ कर भीतर वेश कया। मकान माल कन का नाम था च मुखी ।
उसने आ कर वागत कया। अब तो देवदास का सारा शरीर जल उठा। वह खुद नह
जानता था क इधर कई दन से वह िब कु ल अ ात प से नारी शरीर क छाया से भी
िवमुख हो रहा था। च मुखी को देखते ही उसके दय के अ दर िछपी ई बल घृणा
दावाि क तरह भड़क उठी। उसने चु ी लाल क ओर देख कर और भ ह चढ़ाकर कहा
—“चु ी बाबू तुम मुझे कस क ब त जगह म ले आये?”
उसके तीखे वर और दृि से च मुखी और चु ी लाल दोन ही हत बुि हो गये।
दूसरे ही ण चु ी लाल ने अपने आप को सँभालते ए देवदास का एक हाथ पकड़ कर
कोमल वर से कहा—“चलो-चलो, अ दर चल कर बैठ।”
देवदास ने कोई उ र नह दया। वह कमरे के अ दर जा कर जमीन पर िबछे ए
िबछौने पर ब त ही दुखी भाव से िसर झुका कर बैठ गया । च मुखी भी चुपचाप बैठ गई।
नौकरानी चाँदी के े पर तमाखू चढ़ा कर ले आई। देवदास ने उसे छु आ भी नह । चु ी
लाल भी मुँह भारी कये चुपचाप बैठा रहा। नौकरानी क समझ म नह आया क अब म
या क ँ , इसिलए अ त म वह च मुखी के हाथ म ा दे कर चली गई। उसके दो एक
कश ख चने के समय देवदास ने तीखी दृि से उसके चेहरे क ओर देखते ए सहसा ब त
ही घृणा के साथ कहा—“कै सी अस य है! और देखने म कै सी ीहीन मालूम होती है!”
इससे पहले च मुखी को कोई कभी बातचीत म छका नह सका था। उसे अ ितभ
करना ब त ही क ठन काम था, ले कन देवदास क यह आ त रक घृणा से भरी कठोर
ट पणी उसके अ तःकरण के भीतरी भाग तक जा प च ँ ी। ण भर के िलए वह हत—बुि
—सी हो गई। इसके कु छ ही ण बाद दो—तीन बार े क गुड़गुड़ाहट का श द तो आ,
ले कन च मुखी के मुख से घुआँ बाहर नह िनकला। तब चु ी लाल के हाथ म ा दे कर
उसने एक बार देवदास के चेहरे क ओर देखा। इसके बाद वह चुपचाप बैठी रही। तीन ही
आदमी चुप थे। िसफ े क गुड़गुड़ाहट हो रही थी। ले कन वह भी मानो ब त ही डरते—
डरते। िम —मंडली म कोई तक उठने पर जब अचानक थ का झगड़ा हो जाता है और
सब लोग चुपचाप अपने मन ही मन फू लते रहते ह और ु ध अ तःकरण से झूठ—मूठ
कहते रहते ह—‘यही तो!’ उसी कार वे तीन ही मन—ही—मन कह रहे थे—यही तो!
यह बात कै से हो गई!
िजस कार भी हो, तीन म से कसी को भी शाि त नह िमल रही थी। चु ी लाल
ा रख कर नीचे उतर गया। जान पड़ता है, उसे और कोई काम ढू ँढने पर भी नह िमला।
इसिलए कमरे म दोन आदमी बैठे रहे। देवदास ने िसर उठा कर पूछा—“तुम पये लेती
हो?”
च मुखी सहसा कोई उ र न दे सक । आज उसक अव था चौबीस वष क है। इन
नौ—दस वष म कतने ही िविभ कृ ित वाले लोग के साथ उसका घिन प रचय आ
है; ले कन, ऐसा िवल ण आदमी उसने एक दन भी नह देखा। उसने कु छ इधर—उधर
करके कहा—“आपके चरण क धूल जब मेरे मकान म आ कर पड़ी है...”
देवदास ने बात समा नह करने दी, बीच म ही वह बोल उठा-' 'चरण क बात
नह पूछता। पये लेती हो न?”
“हाँ, लेती य नह । न लूँ तो हम लोग का काम कै से चले?”
“बस, रहने दो, यादा नह सुनना चाहता।”
यह कह कर देवदास ने अपने जेब म हाथ डाल कर एक नोट िनकाला और उसे
च मुखी के हाथ म देते ए चलने को कदम बढ़ाया। यह भी नह देखा क कतने पये का
नोट दया है।
च मुखी ने िवनीत भाव से कहा—“ या इतनी ज दी चले जायगे?”
देवदास ने कोई जवाब नह दया, वह बाहर बरामदे म आ कर खड़ा हो गया।
च मुखी के मन म एक बार आया क ये पये लौटा दू,ँ ले कन न जाने कै से एक
बल संकोच के कारण वह लौटा न सक । जान पड़ता है उसे कु छ भय भी आ। इसके
िसवा उन लोग को अनेक कार क लांछनाएँ, फटकार और अपमान आ द सहने का
अ यास भी होता है, इसिलए वह िनवाक िन म द हो कर चौखट पकड़े खड़ी रही। देवदास
सी ढ़य से नीचे उतर गया।
सीढ़ी पर ही चु ी लाल से भट हो गई। उसने च कत होकर पूछा—“देवदास, कहाँ
जा रहे हो?”
“बासे क तरफ जा रहा ।ँ ”
“यह य ?”
देवदास और भी दो—तीन सी ढ़याँ उतर गया।
चु ी लाल ने कहा—“चलो, म भी चलता ।ँ ”
देवदास ने पास आकर और उसका हाथ पकड़ कर कहा—“चलो।’’
“जरा ठहरो। जरा ऊपर हो आऊँ।’’
“नह । म जाता ,ँ तुम बाद म आ जाना।’’
देवदास चला गया।
चु ी लाल ने ऊपर आ कर देखा क च मुखी तब भी उसी कार चौखट पकड़े खड़ी
है।
उसे देख कर बोली—“तु हारे दो त चले गये?”
“हाँ।”
च मुखी ने अपने हाथ का नोट दखला कर कहा“यह देखो। ले कन अगर ठीक
समझते हो तो लेते जाओ। अपने दो त को लौटा देना।”
चु ी लाल ने कहा“ वह अपनी इ छा से दे गया है। म वापस य ले जाऊँ?” इतनी
देर बाद च मुखी कु छ हँस सक , ले कन उस हँसी म भी आन द नह था। बोली“अपनी
इ छा से नह , बि क हम लोग पये लेते ह इससे नाराज हो कर दे गये ह। य चु ी बाबू
या यह आदमी पागल है?”
“नह , िबकु ल नह । ले कन ऐसा मालूम होता है क आज कई दन से उसका िमजाज
ठीक नह है।”
“कु छ जानते हो य िमजाज ठकाने नह है?”
“नह जानता। शायद घर पर कु छ लड़ाई-झगड़ा आ है।”
“तो यहाँ लाये य ?”
“म तो नह लाना चाहता था, वह खुद ही जबरद ती आया था।”
इस बार च मुखी को सचमुच ही ब त आ य आ। पूछा“खुद ही जबरद ती आये
थे? सब कु छ जान-बूझ कर?”
चु ी लाल ने कु छ सोच कर कहा“और नह तो या, सब कु छ तो जानता है। म कोई
धोखा दे कर थोड़े ही लाया था।”
च मुखी पहले तो कु छ देर तक चुप रही। फर न जाने या सोच कर बोली“चु ी
बाबू, तुम मेरा एक उपकार करोगे?”
“ या?”
“तु हारे िम कहाँ रहते ह?”
“मेरे पास ही।”
“उ ह फर कसी दन यहाँ ला सकते हो?”
“मालूम होता है क नह ला सकूँ गा। इससे पहले भी वह कभी ऐसी जगह नह आया
और शायद अब आगे भी न आयेगा। ले कन उसे य बुलाना चाहती हो?”
च मुखी ने कु छ लान हँसी हँस कर कहा“चु ी बाबू, जैसे भी हो, एक बार बुला कर
उ ह फर ले आओ।”
चु ी लाल हँसा। उसने आँख दबा कर कहा“ या फटकार खा कर ेम जाग गया है?”
च मुखी भी हँसी। बोली“िबना देखे ही नोट देकर चले जाते हइसे नह समझे?”
चु ी लाल च मुखी को ब त-कु छ पहचान गया था। िसर िहला कर बोला“नह
नह । नोट-फोट क लालची और ही होती ह। तुम उनम से नह हो। ले कन असल बात या
है, कहो तो?”
च मुखी ने कहा“सचमुच ही कु छ मोह हो गया है।”
चु ी को िव ास नह आ। हँस कर बोला“बस, इ ह पाँच िमनट के अ दर?”
अब च मुखी भी हँसने लगी। बोली“उसे होने हो। जब उनका मन ठकाने हो, तब
फर एक बार लाना, उ ह फर एक बार देखूँगी। ले आओगे न?
“ या जाने!”
“तु ह, मेरे िसर क कसम।”
“अ छा, देखा जायगा।”
दसवाँ-प र छे द
पावती ने आ कर देखा क उसके वामी का मकान ब त बड़ा है, ले कन वह नये साहबी
फै शन का नह , पुराने ढंग का है। मरदाना महल, जनाना महल, पूजा का दालान, नाटय-
मि दर, अितिथ शाला, कचहरी, तोशखाना और ब त से दास तथा दािसयाँ ह। पावती
अवाक रह गई। उसने सुना था क वामी ब त बड़े आदमी ह, जम दार ह। ले कन इतना
नह समझा था। अभाव के वल आदिमय का है। नजदीक र तेदार के नाम पर कोई भी
नह है। इतना बड़ा जनाना महल है, ले कन आदिमय से खाली है। पावती अभी याह कर
आई ई लड़क थी, फर भी एकदम से गृिहणी बन गई। उसका वागत करके घर के अ दर
लाने के िलए एक बूढ़ी बुआ थी। उसके अलावा घर म के वल दास-दािसय का ही दल था।
शाम ई तो बीस वष के एक सुशील और सु दर युवक ने आकर णाम करके
कहा“माताजी, म आपका बड़ा लड़का ।ँ ”
पावती ने घूँघट के अ दर से ही उसक ओर जरा-सा देखा, पर कु छ कहा नह । उसने
फर णाम करके कहा“माता जी, म आपका बड़ा लड् का ।ँ णाम करता ।ँ ”
इस बार पावती ने अपना घूँघट म तक तक पीछे हटा कर कोमल वर म कहा“आओ
बेटा, बैठो।”
लड़के का नाम महे था। वह कु छ देर तक अवाक होकर पावती के चेहरे क ओर
देखता रहा। इसके बाद पास ही बैठ गया और िवनीत वर म कहने लगा “आज दो बरस
ए, हम अपनी माँ को खो बैठे ह। इन दो बरस से दुःख और क म ही हम लोग के दन
बीते ह। माँ, आज तुम आ गई। आशीवाद दो, िजससे अब हम लोग सुख से रह।”
पावती ने ब त ही सहज वर म बात क । कारण, एकदम गृिहणी बन जाने पर
ब त-सी बात जानने और कहने क आव यकता होती है। ले कन स भव है क यह कहानी
ब त-से लोग को कु छ अ वाभािवक जान पड़े। पर िजन लोग ने पावती को कु छ यादा
अ छी तरह पहचाना है, वे देखगे क अव था के इन अलग-अलग प रवतन ने पावती को
उसक उ क अपे ा ब त-कु छ प रप कर दया है। इसके अलावा बेकार क ल ा-
शरम या जड़ता-संकोच उसम कभी था ही नह । उसने पूछा“ य बेटा, मेरे और सब लड़के -
लड़ कयाँ कहाँ ह?”
महे ने हँस कर कहा“बतलाता ।ँ तु हारी बड़ी लड़क और मेरी छोटी बहन अपनी
ससुराल म है। मने िचट् ठी िलखी थी, ले कन यशोदा कसी तरह न आ सक ।”
पावती ने दुखी हो कर पूछा“आ नह सक , या जान-बूझ कर ही नह आई है?”
महे ने कु छ लि त हो कर कहा“माँ, यह ठीक नह मालूम।”
ले कन उसक बात से और मुख के भाव से पावती ने समझ िलया क यशोदा कु छ
नाराज है और इसिलए नह आई। फर पूछा“और मेरा छोटा लड़का?”
महे ने उ र दया“वह ज दी ही आयेगा, कलक े म है। परी ा होते ही आ
जायेगा।”
भुवन चौधरी अपनी जम दारी का काम-काज खुद ही देखते ह। इसके अलावा खुद ही
रोज अपने हाथ से शािल ाम-िशला क पूजा करना, त, िनयम, उपवास करना और
मं दर और अितिथशाला के साधु-सं यािसय क सेवा करनाइ ह सब तरह-तरह के काम
म सबेरे से रात के दस- यारह बजे तक का उनका सारा समय बीत जाता था। नया िववाह
होने पर भी उनम कसी कार का नवीन आमोद या आ हाद कट नह आ। रात को
कसी दन वे अ दर आते थे और कसी दन नह आ पाते थे। आने पर भी वे ब त ही
मामूली बातचीत करते थे। ब त आ तो पलँग पर लेट जाते थे और गाव त कया ख च कर
आँख ब द करके कहते“तु ह घर क माल कन हो, खुद ही सब कु छ देख-सुन कर समझ-
बूझ कर गृह थी चलाना।”
पावती िसर िहला कर कहती“अ छा।”
भुवन बाबू कहते“और देखो, ये सब लड़के -लड़ कयाँ तु हारी ही ह।”
वामी क ल ा देख कर पावती क आँख के कोने से हँसी फू ट िनकलती थी। वे फर
हँस कर कहते“और देखो, यह महे तु हारा बड़ा लड़का है। अभी हाल म उसने बी०ए०
पास कया है। ऐसा अ छा लड़का है, इतना िवन है! तिनक य और आ मीयता से...”
पावती हँसी रोक कर कहती“हाँ, म जानती ँ वह मेरा बड़ा लड़का है।”
“हाँ हाँ, जानोगी य नह ! ऐसा लड़का कभी कसी ने कह देखा न होगा। और मेरी
यशोमती, लड़क नह ितमा है। वह अव य आयेगी। आयेगी य नह , अपने बूढ़े बाप को
देखने न आयेगी? जब आये, तब उसे...”
पावती उनके पास आ कर मुलायम आवाज़ म कहती“तु ह िच ता करने क
आव यकता नह । यशोदा के िलए म आदमी भेजूँगी“और नह तो महे खुद ही चला
जायेगा।”
“वह जायेगा? जायेगा? अ छा उसे ब त दन नह देखा। तुम आदमी भेजोगी?”
“हाँ, भेजूँगी य नह । मेरी लड़क है, उसे बुलाने के िलए आदमी न भेजूँगी?”
उस समय भुवन महाशय मारे उ साह के उठ बैठते। वे अपना और पावती का स ब ध
भूल कर उसके िसर पर हाथ रख कर आशीवाद देते ए कहते—“तु हारा भला होगा। म
आशीवाद देता ,ँ तुम सुखी होगी, भगवान् तु ह दीघायु करगे।”
उसी समय अचानक न जाने और या- या बात भुवन चौधरी को याद हो आत ।
फर पलँग पर लेट कर आँख ब द करके मन-ही-मन कहते“बड़ी लड़क , एक ही लड़क थी,
वह इसे ब त चाहती थी...”
उस समय उनक िखचड़ी मूँछ के पास से हो कर आँसू क एक बूँद त कये पर आ
पड़ती। पावती उसे प छ देती थी। कभी-कभी वह ब त धीरे से कहते—“आहा, वे सभी
आयगे। फर एक बार सारा घर-बार चमक उठे गा, खूब रौनक होगी। पहले कै सी ब ढ़या
गह थी थी! लड़के थे, लड़क थी, घरवाली थी। खूब हो-ह ला मचा रहता था। मानो रोज
ही दुग सव रहता था। इसके बाद एक दन सब हवा हो गया। लड़के कलक े चले गये,
यशोदा को उसके ससुर आ कर ले गये- फर अ धकार मशान...”
उसी समय फर उनके आँसू बहने शु हो जाते। पावती कातर हो कर आँसू प छ कर
कहती—“महे का याह य नह कर दया?”
भुवन कहते—“आहा, वह मेरे िलए ब त ही सुख का दन होता। मने वही तो सोचा
था। ले कन उसके मन क बात कौन जाने! उसने िजद भी कै सी क , कसी तरह भी याह
नह कया। तभी तो वृ ाव था म...जब सारा घर-बार भायँ-भायँ करता था, भा यहीन
घर क तरह मिलन हो रहा था, मानो ल मी छोड़ कर चली गई हो, कसी तरह कह कु छ
काश दखाई ही नह देता था...यह...”
ये बात सुन कर पावती को ब त दुःख होता था। वह क ण वर से हँसी का बहाना
करके िसर िहला कर कहती—“तुम बूढ़े ए तो म भी ब त ज दी बूढ़ी हो जाऊँगी। औरत
को बूढ़ी होते या यादा देर लगती है?”
भुवन चौधरी उठ कर बैठ जाते और उसक ठोढ़ी पकड़ कर चुपचाप ब त देर तक
उसक तरफ देखते रहते। कारीगर िजस तरह कोई ितमा सजा कर उसके िसर पर मुकुट
पहना कर, उसे दािहने-बाय िहला-डु ला ब त देर तक देखता रहता है और कु छ गव और
ब त- ेह उस सु दर मुख के आसपास एक हो जाता है, ठीक वही दशा भुवन बाबू क भी
होती। कसी- कसी दन उनके मुख से अ फु ट वर म िनकल पड़ता—“हाय हाय, मने
अ छा नह कया...”
“ या अ छा नह कया जी?”
“सोचता ँ तुम यहाँ सोहती नह –”
पावती हँस कर कहती—“खूब सोहती ।ँ हम लोग के िलए भला सोहना न सोहना
या!”
भुवन महाशय फर लेट कर मानो मन-ही-मन कहते—“हाँ, सो म समझता ँ
समझता ।ँ ले कन तु हारा भला होगा। भगवान् तु ह देखगे।”
इस कार लगभग एक महीना बीत गया। बीच म एक बार च वत महाशय अपनी
क या को लेने के िलए आये, ले कन पावती खुद ही अपनी इ छा से नह गई। उसने िपता
से कहा—“बाबूजी, ब त ही क ी अ वि थत गृह थी है। और कु छ दन ठहर कर
आऊँगी।”
वे इस तरह मु कराये िजसम पावती न लख सके और मन-ही-मन बोले— “ि य क
जाित ही ऐसी होती है!”
उनके िवदा हो जाने पर पावती ने महे को बुला कर कहा—“बेटा, तुम एक बार
जाकर मेरी बड़ी लड़क को ले आओ।”
महे ने कु छ इधर-उधर कया। वह जानता था क यशोदा कसी तरह न आयेगी।
उसने कहा—“अगर बाबूजी एक बार जाय तो अ छा हो।”
“िछ:। यह या अ छा दीखेगा? इससे अ छा तो यह है क हम दोन माँ बेटे चल कर
उसे ले आय!”
महे को आ य आ—“तुम चलोगी?”
“हज ही या है बेटा? मुझे इसम कोई ल ा नह है। अगर मेरे जाने से यशोदा आये,
उसक नाराजगी दूर हो जाय तो मेरा जाना या कोई बड़ी बात है?”
इस बातचीत के बाद महे दूसरे दन अके ला ही यशोदा को लाने के िलए चला
गया। यह तो नह मालूम क वहाँ जा कर उसने या कौशल कया, ले कन चार दन के
बाद ही वह यशोदा को ले कर आ प च ँ ा। उसी दन पावती के अंग पर िविच नये और
ब मू य अलंकार थे। अभी कु छ ही दन पहले भुवन बाबू ने कलक े से मँगवा दये थे।
पावती आज वही सब पहन कर बैठी थी। यशोदा रा ते म मन-ही-मन ोध और अिभमान
क ब त-सी बात को उलटती-पलटती ई आ रही थी। ले कन नई ब को देख कर वह
एकदम से अवाक हो गई— िव ष े क वे सब बात उसे याद ही नह आई। िसफ अ कु ट
वर म बोली—“यही है !”
पावती यशोदा का हाथ पकड़ कर अ दर ले गई। पास िबठा कर और हाथ म पंखा ले
कर बोली—“बेटी, अपनी माँ से कु छ नाराज हो?”
यशोदा का मुख मारे ल ा के लाल हो गया। इसके बाद पावती अपने वे सब गहने
एक-एक करके यशोदा को पहनाने लगी। िवि मत यशोदा ने कहा—“यह या?”
“कु छ नह , िसफ तु हारी माँ क साध है।"
गहने पहनना यशोदा को कु छ बुरा नह मालूम आ; और जब वह सब गहने पहन
चुक तब उसके ह ठ पर हँसी का आभास दखाई दया। उसके सम त अंग म अलंकार
पहना कर पावती ने फर कहा—“बेटी, अपनी माँ पर कु छ नाराज हो?”
“नह -नह , नाराज य होने लगी? नाराजगी कै सी?”
“और नह तो या बेटी, यह तु हारे िपता का घर है। बड़ा घर ठहरा कतने ही
नौकर-नौकरािनय क ज रत होती है। म भी तो एक दासी के िसवा और कु छ नह ।ँ
छी: बेटी, तु छ दास-दािसय पर नाराज होना या तु ह शोभा देता है?”
यशोदा उमर म तो बड़ी थी, ले कन बातचीत करने म अब भी ब त छोटी थी। वह
िव वल हो गई। उसे पंखे से हवा करते-करते पावती ने फर कहा—“म गरीब दुिखया क
लड़क ।ँ तुम लोग क दया से यहाँ थोड़ा-सा थान िमला है। न जाने कतने दीन, दुःखी
और अनाथ तुम लोग क दया से यहाँ रोज आसरा पाते ह, पलते ह। म भी तो बेटी, उ ह
म से एक ।ँ जो आि त...”
यशोदा अिभभूत होकर सब बात सुन रही थी। अब वह एकदम से आ म-िव मृत हो
गई और उसके पैर पर िगर कर णाम करती ई बोली—“माँ, म तु हारे पैर पड़ती ।ँ ”
पावती ने उसका हाथ पकड़ िलया। यशोदा ने कहा—“मेरे अपराध पर यान न
देना।”
दूसरे दन महे ने यशोदा को एका त म बुला कर पूछा—“ य , तु हारा गु सा कु छ
कम आ?”
यशोदा ने ज दी से अपने भाई के पैर पर हाथ रख कर कहा“भइया, मने गु से म
आकर, छी: छी:, न जाने या- या कहा है। देखो, सब बात जािहर न होने पाय।”
महे हँसने लगा। यशोदा ने कहा“ य भइया, सौतेली माँ भी इतना आदर कर
सकती है?”
दो दन बाद यशोदा ने िपता के पास प च ँ कर खुद ही कहा“बाबूजी, तुम वहाँ िचट् ठी
िलख दो। म अभी दो महीने यह र ग ँ ी।”
भुवन बाबू ने कु छ िवि मत हो कर पूछा“ य बेटी?”
यशोदा ने शरमा कर कु छ हँसते ए कहा“मेरा शरीर कु छ ठीक नह है। अभी म कु छ
दन तक छोटी माँ के पास ही र ग ँ ी।”
चौधरी बाबू क आँख म खुशी के आँसू आ गये। उ ह ने शाम के समय पावती को
बुला कर कहा“तुमने मुझे बड़ी भारी ल ा से मुि दी है। जीती रहोसुख से रहो।”
पावती ने पूछा“यह या?”
“इसका मतलब तो म तु ह नह समझा सकता। हे नारायण, तुमने कतनी ल ा और
कतनी लािन से मुझे छु टकारा दलाया है!”
शाम के झुटपुटे म पावती ने यह नह देखा क उनक आँखो म आँसू आ गये ह। और
भुवन बाबू का छोटा लड़का िवनोद लाल। वह परी ा दे कर घर आया और फर लौट कर
पढ़ने नह गया।
यारहवाँ प र छे द
च मुखी के यहाँ हो आने के बाद देवदास दो-तीन दन तक य ही इधर-उधर सड़क पर
घूमता रहाब त—कु छ पागल क तरह। धमदास ने एक दन कु छ कहना चाहा तो वह
आँख लाल करके उस पर िबगड़ पड़ा। यह रं ग-ढंग देख कर चु ी लाल को भी उससे कु छ
कहने का साहस नह आ। धमदास ने रो कर कहा—“चु ी बाबू इनक हालत य ऐसी
हो गई है?”
चु ी लाल ने पूछा—“धमदास, आिखर आ या है?”
मानो एक अ धे ने दूसरे अ धे से रा ता पूछा। अ दर का हाल दोन म एक भी नह
जानता था। आँख प छते ए धमदास ने कहा—“चु ी बाबू चाहे िजस तरह हो, देवदास
को उसक माँ के पास भेज दीिजए। जब इ ह कु छ िलखना-पढ़ना है ही नह तो फर यहाँ
रह कर या करगे?”
बात िब कु ल ठीक थी। चु ी लाल सोचने लगे। चार-पाँच दन बाद एक रोज चु ी
बाबू ठीक उसी तरह स या के समय बाहर जा रहे थे क देवदास ने न जाने कहाँ से आ कर
उनका हाथ पकड़ कर कहा—“चु ी बाबू, वह जा रहे हो?”
चु ी लाल ने कु छ िखिसया कर कहा—“हाँ, कहो तो न जाऊँ।”
देवदास ने कहा—“नह , म तु ह जाने के िलए मना नह करता। ले कन एक बात
बतलाओ। तुम वहाँ कस आशा से जाते हो?”
“आशा और या है? य ही समय िबताने चला जाता ।ँ ”
“ या वहाँ समय बीत जाता है? म भी तो इसी रोग का मारा ,ँ मेरा समय भी नह
बीतता। म भी समय िबताना चाहता ।ँ ”
चु ी लाल कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देखता रहा। जैसे दय का भाव उसके
मुख पर पढ़ने क चे ा कर रहा हो। इसके बाद बोला—“देवदास, तु ह या हो गया है?
खुल कर बतला सकते हो?”
“कु छ भी तो नह आ।”
“बतलाओगे नह ?”
“नह चु ी बाबू, बतलाने लायक कोई बात ही नह है।”
चु ीलाल ब त देर तक िसर नीचा कये रहने के बाद बोला—“देवदास, एक बात
मानोगे?”
“ या?”
“तु ह एक बार फर वहाँ चलना होगा। म जबान दे आया ।ँ ”
“उस दन जहाँ गये थे वह न?”
“हाँ।”
“छी:, मुझे अ छा नह लगता।”
“म ऐसा इ तजाम कर दूग ँ ा क तु ह अ छा लगे।”
देवदास ने कु छ देर तक अ यमन क क तरह चुप रह कर अ त म कहा—“अ छा,
चलो चल।”
देवदास को अवनित क एक सीढ़ी नीचे उतार कर चु ी लाल न जाने कहाँ िखसक गया है।
अके ला देवदास च मुखी के कमरे म फश पर बैठा आ शराब पी रहा है। पास ही बैठी ई
च मुखी उदास हो कर उसे देख कर डरते ए बोल उठी—“देवदास, अब और मत िपयो।”
देवदास ने शराब का िगलास जमीन पर रख कर भौह टेढ़ी करके पूछा—“ य ?”
“अभी कु छ ही दन से शराब पीने लगे हो। इतनी अिधक बरदा त न कर सकोगे।”
“बरदा त करने के िलए शराब नह पीता। िसफ इसिलए पीता ँ क यहाँ रह सकूँ ।”
यह बात च मुखी कई बार सुन चुक है। अ सर उसके जी म आया है क दीवार पर
िसर पटक कर र क गंगा बहा कर मर जाऊँ। देवदास से वह ेम करने लग गई थी।
देवदास ने शराब का िगलास दूर फक दया। सोफे के पाये म लग कर वह चूर-चूर हो गया।
फर लेट कर और त कये का सहारा ले कर उसने लड़खड़ाती ई जबान से कहा—“मुझम
उठ कर जाने क ताकत नह है, इसिलए यहाँ बैठा रहता ।ँ अ छे-बुरे का होश नह रह
जाता, इसिलए तु हारे मुँह क ओर देख कर बात करता ।ँ तो भी म िब कु ल बेहोश नह
होता—तो भी कु छ होश रहता है, इसिलए तु ह छू नह सकता। ब त घृणा होती है,
च मुखी।”
च मुखी ने अपनी आँख प छ कर धीरे -धीरे कहा—“देवदास, यहाँ ऐसे ब त-से लोग
आते ह जो कभी शराब छू ते भी नह ।”
देवदास आँख फाड़कर उठ बैठा। उसने लड़खड़ाते ए इधर-उधर हाथ फक कर कहा
—“छू ते तक नह ? अगर ब दूक होती तो म उ ह गोली मार देता। च मुखी, वे लोग तो
मुझसे भी बड़े पापी ह।”
कु छ देर तक चुप रह कर वह फर न जाने या सोचने लगा। इसके बाद उसने फर
कहा—“अगर मने कभी शराब पीना छोड़ा, हाला क म छोड़ूग ँ ा नह , तो फर म यहाँ कभी
नह आऊँगा। मेरे िलए तो उपाय है, ले कन उन लोग क या दशा होगी?”
कु छ देर तक ठहर कर उसने आगे कहा—“मने ब त ही दुखी होकर शराब पीना शु
कया है। हे मेरी िवपि और दुःख क सािथन! म तुझे नह छोड़ सकता।”
देवदास त कये पर अपना मुँह रगड़ने लगा। च मुखी ने ज दी से पास आ कर उसका
मुँह पकड़ कर ऊपर उठाया। देवदास ने भ ह तान कर कहा—“छी:, मुझे छु ओ मत। अब भी
मुझे होश है। च मुखी, तुम नह जानत , िसफ म ही जानता ँ क म तुम लोग से घृणा
करता ।ँ सदा घृणा करता र ग ँ ा। फर भी आऊँगा, फर भी बैठँू गा, फर भी बात क ँ गा।
नह तो, इसके िसवा और कोई उपाय जो नह है! यह बात या तुम लोग समझोगी? हा-
हा-हा! संसार म ऐसा उपयु थान कौन-सा है? और तुम सब...”
देवदास दृि संयत करके कु छ देर तक उसके दुखी मुख क ओर देखता रहा और बोला
—“आहा! तुम सहनशीलता क सजीव मू त हो! ि य को लांछना, भ सना, अपमान,
अ याचार और उप व— कतना कु छ सहना पड़ता है, तु ह सब इसक िमसाल हो!”
इसके बाद वह िचत हो कर लेट गया और चुपचाप कहने लगा—“च मुखी कहती है
क म तु ह यार करती ।ँ ले कन म नह चाहता, नह चाहता। लोग नाटक करते ह, मुँह
पर कािलख और चूना मलते ह, चोर बनते ह, भीख माँगते ह, राजा बनते ह, रानी बनते ह,
ेम करते ह, ेम क न जाने कतनी बात करते ह, न जाने कतना रोते ह, ऐसा मालूम
होता है क जैसे सब सच ही है। च मुखी मेरा नाटक करती है और म देखता ।ँ ले कन
उसक ब त याद आती है। ण भर म मानो सब कु छ हो गया। वह कहाँ चली गई और म
कस रा ते पर चल पड़ा। अब पूरे जीवन भर चलने वाला िवराट अिभनय शु आ है—
एक भारी शराबी और यह एक...अ छा होने दो, यही होने दो। बुरा या है! आशा नह ,
भरोसा नह , सुख भी नह और साध भी नह । वाह! ब त अ छा!”
इसके बाद देवदास करवट बदल कर न जाने या बड़बड़ाने लगा। च मुखी उसका
कु छ भी मतलब न समझ सक । थोड़ी देर म देवदास सो गया। उस समय च मुखी पास आ
कर बैठ गई। उसने आँचल िभगो कर देवदास का मुँह प छ दया और भीगा आ त कया
बदल दया। फर एक पंखा ले कर कु छ देर तक उसे झलती रही और ब त देर तक िसर
नीचा कये बैठे रही। उस समय रात का लगभग एक बज गया था। वह दीया बुझा कर और
दरवाजा ब द करके दूसरे कमरे म चली गई।
बारहवाँ प र छे द
दोन भाई ि जदास और देवदास और गाँव के ब त-से लोग जम दार नारायण मुखज का
अि तम सं कार करके लौट आये। ि जदास खूब िच ला-िच ला कर रो रहा है, उसक दशा
पागल क -सी हो गई है। मुह ले के दस-पाँच आदमी िमल कर भी उसे पकड़े नह रख
सकते। देवदास शा त भाव से एक ख भे के पास बैठा आ है। न तो उसके मुख से एक श द
ही िनकलता है और न उसक खो म एक बूँद आँसू है। न तो कोई उसे पकड़ता है और न
सा वना देने का ही य करता है। मधुसूदन घोष एक बार उसके पास जा कर कहने लगे
—“हाँ भइया, तकदीर के आगे...”
देवदास ने ि जदास क ओर उँ गली दखला कर कहा—“यह सब आपको वहाँ कहना
है...”
घोष महाशय अ िभत हो कर बोले—“हाँ, सो वे कतने बड़े शोक...” और फर ऐसी
ही बात कहते-कहते वे वहाँ से िखसक गये। फर और कोई पास नह आया। दोपहर बीत
जाने पर देवदास अपनी अ मू छत माता के पैर के पास जा बैठा। वहाँ उसे ब त-सी
औरत घेरे ए बैठी ह। पावती क दादी भी वहाँ मौजूद है। उसने भरे ए गले से देवदास
क माँ से कहा—“ब जरा देखो तो, देवदास आया है।”
देवदास ने पुकारा—“माँ!”
उ ह ने एक बार देख कर कहा—“बेटा!”
इसके बाद फर उनक मुँदी ई आँख के कोन से अ ु क अज धारा बहने लगी।
ि य का दल भी हाय-हाय करके रोने-धोने लगा। देवदास कु छ देर तक अपनी माता के
चरण म मुँह िछपाये बैठा रहा। इसके बाद उठ कर धीरे -धीरे अपने िपता के कमरे क ओर
चला गया। उसक आँख म जल नह , चेहरा ग भीर तथा शा त है। अपनी लाल आँख
ऊपर क ओर गड़ा कर जमीन पर बैठ गया। ऐसा मालूम होता है क अगर उस समय उसे
कोई देख लेता तो अव य ही डर जाता—कपाल के दोन ओर क नस फू ल रही ह और बड़े-
बड़े खे बाल खड़े हो रहे ह। तपाये ए सोने के -से वण पर मानो कािलख पुत गई है। एक
तो कलक े का जघ य अनाचार, फर यह देर रात तक जागना और ितस पर िपता क
मृ यु! िजसने आज से साल-भर पहले उसे देखा था, जान पड़ता है, वह शायद इस समय
उसे देख कर सहसा पहचान भी न पाता। कु छ देर बाद पावती क माँ ढू ँढती ई दरवाजा
खोल कर अ दर आई।
“देवदास!”
“ या है चाची?”
“बेटा, इस तरह तो काम नह चलेगा।”
देवदास ने उसके मुख क ओर देख कर कहा—“ य , मने या कया है चाची?”
चाची जानती तो थी या कया है, ले कन कोई उ र न दे सक । उसने देवदास का
िसर ख च कर अपनी गोद म कर िलया और कहा—“देवता बेटा!”
“ या चाची?”
“देवता बेटा!”
देवदास ने उसक छाती म मुँह गड़ाया तो उस समय उसक आँख से एक बूँद आँसू
टपक गया।
दुखी-से-दुखी प रवार के दन भी कट जाते ह। धीरे -धीरे दूसरे दन का सबेरा आ।
रोना-धोना भी ब त-कु छ कम हो गया। ि जदास का मन अब िब कु ल ठकाने आ गया है।
उनक माँ भी अब उठ कर बैठ गई ह और आँख प छती ई दन के काम कर रही ह। दो
दन के बाद ि जदास ने देवदास को बुला कर कहा—“देवदास, िपताजी के ा म कतना
खच करना उिचत होगा?”
देवदास ने बड़े भाई के मुख क ओर देख कर कहा—“जो कु छ आप उिचत समझ।”
“नह भाई, िसफ मेरे समझने से ही काम नह चलेगा। तुम भी बड़े ए हो, तु हारी
राय लेना ज री है।”
देवदास ने पूछा—“नगद पये कतने ह?”
िपताजी के िहसाब म डेढ़ लाख पये जमा ह। मेरी समझ म दसेक हजार खच करना
काफ होगा। तु हारी या राय है?”
“मुझे उसम से कतना िमलेगा?”
ि जदास ने कु छ इधर-उधर करने के बाद कहा—“तु ह भी उसम से आधा िमल
जायगा। तु हारे स र हजार और मेरे स र हजार पये बाक रहगे।”
“माँ को या िमलेगा?”
“माँ नगद ले कर या करगी? वे तो घर क माल कन ह ही। हम लोग उनका खच
चलायगे।”
देवदास ने कु छ सोच कर कहा—“म समझता ँ क आपके िह से के तो पाँच हजार
पये खच ह और मेरे िह से के पचीस हजार। अपने बाक पचास हजार पय म से म
पचीस हजार लूँगा और बाक पचीस हजार माँ के नाम से जमा रहगे। आपक या राय
है?”
पहले तो ि जदास मानो कु छ लि त आ, पर बाद म उसने कहा, “अ छी बात है।
मेरे तो, जानते हो, ी, पु और क या है। उनका याह, जनेऊ वगैरह करना होगा। ब त-
से खच ह। इसिलए यही राय ठीक है।” फर कु छ क कर बोला, “तो फर इसक िलखा-
पड़ी हो जाय।”
“िलखा-पढ़ी होने क ज रत है? वह देखने म अ छी नह मालूम होगी। म चाहता ँ
क पये-पैसे क बात इस समय चुपचाप ही हो जाय।”
“अ छी बात है। ले कन भाई, शायद फर...”
“अ छा, म िलख ही देता ।ँ ”
उसी दन देवदास ने िलखा-पड़ी कर दी।
दूसरे दन दोपहर को देवदास नीचे उतर रहा था। सी ढ़य के पास ही पावती को देख
कर ठठक गया। पावती ने उसके चेहरे क ओर देखा। पहचानने म उसे मानो कु छ द त
हो रही थी। देवदास ने ग भीर शा त भाव से पूछा“कब आय पावती?”
वही क ठ वर! आज तीन बरस के बाद भट ई है। पावती ने िसर झुका कर
कहा“आज सवेरे आई ।ँ ”
“ब त दन से भट नह ई। खूब अ छी तरह थ ?”
पावती ने िसर िहला दया।
“चौधरी बाबू अ छी तरह ह? लड़के -ब े सब मजे म?”
“सब लोग अ छी तरह ह।”
पावती ने एक बार उसक ओर देखा, ले कन वह नह पूछ सक क तुम कै से हो और
या करते हो। अब तो इस कार का ही ठीक नह लगता था।
देवदास ने पूछाअभी कु छ दन रहोगी न?
“हाँ।”
“तब तो ठीक है...”
यह कह कर देवदास बाहर चला गया।
ा का सब कारज पूरा हो गया। उसका वणन कया जाय तो ब त कु छ िलखना
पड़ेगा, इसिलए उसक कोई आव यकता नह । ा के दूसरे दन पावती ने धमदास को
एका त म बुला कर और उसके हाथ म सोने का एक हार देख कर कहा“धम, यह हार तुम
अपनी लड़क को पहनने के िलए देना।”
धमदास ने उसके मुख क ओर देख कर अपनी सजल आँख को और भी अिधक नम
करके कहा“आहा, तु ह ब त दन से नह देखा! और सब हाल-चाल ठीक है िब टया?”
“हाँ, सब ठीक है! तु हारे लड़के -ब े तो अ छे ह?”
“हाँ, सब अ छे ह।”
“तुम अ छी तरह हो?”
अब क बार धमदास ने ल बी साँस छोड़ कर कहा“खाक अ छा !ँ अब तो मेरा भी
चल देने को जी चाहता है। मािलक तो चले ही गये।”
शोक के आवेग म धमदास न जाने और कतनी बात कहता, ले कन पावती ने उसम
बाधा डाल दी। ये सब बात सुनने के िलए उसने हार नह दया था।
पावती ने बीच म ही रोक कर कहा“धमदास, यह तुम या कहते हो? तुम नह रहोगे
तो देवदास को कौन देखेगा?”
धमदास ने अपना माथा ठ क कर कहा“जब ब े थे, तब देखता था। अब तो इसी म
भलाई है पारो, क उ ह न देखना पड़े।”
पावती ने कु छ और पास आ कर पूछा“धमदास, एक बात सच-सच बतलाओगे?”
“बतलाऊँगा य नह िब टया!”
“अ छा तो ठीक-ठीक बतलाओ क देव दा अब या करते ह?”
“मेरा िसर करते ह?”
“धमदास, साफ-साफ बतलाओ न!”
धमदास ने फर माथा ठ कते ए कहा“िब टया, म साफ-साफ और या बतलाऊँ! वे
सब या कहने क बात ह! अब मािलक तो ह नह और देवता के हाथ अगाध पये आ गये
ह। अब तो मुि कल ही है।”
पावती का मुख एकदम फ का पड़ गया। उसने कु छ उड़ती ई बात सुनी थ । त ध
हो कर उसने कहा“धमदास, तुम कह या रहे हो?”
उसने मनोरमा के प म जब कु छ बात पड़ी थ तब वह िव ास न कर सक थी।
धमदास िसर िहला कर कहने लगा“न खाना है और न सोना है। िसफ बोतल-बोतल शराब।
तीन-तीन चार-चार दन तक न जाने कहाँ पड़े रहते ह, कोई ठकाना नह । न जाने कतने
पये उड़ा दये। सुनता ँ क कई हजार पय का तो उसे खाली गहने बनवा दये ह।”
पावती िसर से पैर तक काँप उठी“धमदास, या यह बात सच है?”
धमदास अपनी धुन म कहता गया“शायद वे तु हारी बात मान ल। तुम एक बार उ ह
मना करो। कै सा शरीर था और अब कै सा हो गया है! इस तरह के अ याचार से कतने दन
जीते रहगे? और अब ये सब बात कससे क ?ँ माँ, बाप, भाई,—इन सबसे तो यह बात
कही नह जा सकती!”
कु छ ठहर कर धमदास बार-बार माथा ठ कते ए कह उठा“पावती,
जी चाहता है क िसर पटक कर मर जाऊँ। अब जीने क साध नह रही।”
पावती उठ कर चली गई। नारायण बाबू क मृ यु का समाचार सुन कर वह दौड़ी
आई थी। सोचा था क इस िवपि के समय एक बार देवदास के पास जाना उिचत है।
ले कन यहाँ उसके इतने साधू देव दा क यह हालत हो रही है! उसे इतनी अिधक बात याद
आने लग , िजनक कोई सीमा नह । िजतने िध ार उसने देवदास को दये, उससे हजार
गुने अिधक अपने आपको दये। हजार बार उसे यह खयाल आया क अगर म होती तो या
कभी ऐसा हो सकता था? पहले उसने अपने हाथ से अपने पैर पर कु हाड़ी मारी थी;
ले कन, अब वह कु हाड़ी उसके िसर पर पड़ी। उसी के देव दा क तो यह हालत होती जा
रही हैवह इस कार न हो रहा है और वह खुद दूसरे क गृह थी का भला करने के फे र म
पड़ी ई है! दूसरे को अपना समझ कर वह रोज अनाज बाँट रही है और खुद उसका सव व
आज भोजन िबना मर रहा है! पावती ने ित ा क क आज म देवदास के पैर पर अपना
िसर पटक कर ाण दे दूग ँ ी।
अभी स या होने म कु छ देर थी। पावती देवदास के घर प च
ँ कर उसके कमरे म
दािखल ई। देवदास पलँग पर बैठा आ िहसाब देख रहा था। उसने िसरउठा कर देखा।
पावती धीरे से दरवाजा ब द करके जमीन पर बैठ गई। देवदास िसर उठा कर हँसा। उसका
चेहरा उदास, मगर शा त था। उसने हँसी करते ए कहा“अगर म तु ह बदनाम क ँ तो?”
पावती ने अपनी सजल आँख एक बार उसक ओर उठा कर फर तुर त ही झुका ल ।
उसने पल-भर म ही समझा दया क वह बात मेरे कलेजे म सदा के िलए तीर क तरह चुभ
गई है; अब और य ? वह ब त-सी बात कहने के िलए आई थी, ले कन सब भूल गई।
देवदास के पास आ कर वह बात नह कर सकती। देवदास फर हँस पड़ा और
बोला“समझ गया, समझ गया पारो। य , शम आती है न?”
ले कन फर भी पावती कोई बात न कर सक । देवदास कहने लगा“इसम शम क
कौन-सी बात है? दो जने िमल कर एक लड़कपन कर डालते ह, देखो, बीच म कै सा
गोलमाल हो गया! ोध म आकर तुमने जो चाहा वह कह डाला; मने भी माथे पर यह
िनशान बना दया। य कै सा आ!”
देवदास क इन बात म जरा भी हँसी या ं य नह था। उसने स हो कर हँसते-
हँसते अतीत के दुःख क कहानी कह सुनाई थी। ले कन पावती क छाती फटने लगी। उसने
मुँह म कपड़ा दे कर और साँस रोक कर मन-ही-मन कहादेव दा, यह िनशान ही मेरे िलए
सा वना है, यही मेरा संबल है! तुम मुझसे ेह करते थे, इसिलए तुमने हम लोग के
बचपन का इितहास ललाट पर िलख दया है। यह मेरे िलए शम नह , कलंक नह , बि क
गौरव क चीज है।
“पारी!”
अपने मुँह पर से आँचल हटाये िबना ही पावती ने कहा“ या?”
“तुम पर मुझे ब त गु सा आता है...”
अब देवदास का कं ठ वर िवकृ त होने लगा। उसने कहा“बाबूजी नह रहे, यह मेरे
िलए कतने अिधक दुःख का दन है। ले कन अगर तुम होत तो फर या िच ता थी! बड़ी
ब को तुम जानती ही हो। दादा का वभाव भी कु छ िछपा नह है। भला बतलाओ, इस
समय म माँ को ले कर या क ँ ! फर भी या होगा, कु छ समझ म नही आता। तुम होत
तो िनि त होकर सब-कु छ तु हारे हाथ म स प कर...अरे , अरे , पारो, यह या?
पावती िससक-िससक कर रो रही थी। देवदास ने कहा“शायद तुम रो रही हो। अ छा
तो जाने दो, यह बात यह ख म हो गई।”
पावती ने आँख प छते ए कहा“नह , कहो, कहो।”
देवदास ने ण-भर म ही अपना कं ठ- वर साफ करके कहा“पारो, तुम तो खूब प
गृहि थन हो गई हो!”
अ दर-ही-अ दर पावती ने अपने ह ठ चबाये और मन म कहा-खाक गृहि थन ई !ँ
कह सेमल का फू ल भी देव-सेवा के काम आता है?
देवदास हँस पड़ा और हँसते ए बोला“मुझे ब त हँसी आती है। तुम जरा-सी थ , अब
कतनी बड़ी हो गई हो! खूब बड़ा मकान, ब त बड़ी जम दारी, बड़े-बड़े लड़के -लड़ कयाँ,
और चौधरी महाशयसभी बड़े ह, य पारो?” चौधरी महाशय का यान आते ही पावती
को हँसी आने लगती थी। इतने दुःख के समय म भी इसी से उसे हँसी आ गई। देवदास ने
नकली ग भीरता के साथ कहा—“एक उपकार कर सकती हो?”
पावती ने िसर उठा कर पूछा“ या?”
“तु हारी तरफ कोई अ छी लड़क िमल सकती है?”
पावती ने थूक घ ट कर और खाँस कर पूछा“अ छी लड़क ? या करोगे?”
“िमल जाय तो याह कर लूँ। जी चाहताहै क एक बार गृह थ बन जाऊँ।”
पावती ने बडे-बुजुग क तरह पूछा“खूब सु दरी चािहए न?”
“हाँ, तु हारी तरह।”
“और खूब भली मानस हो?”
“नह , ब त भली मानस क ज रत नह । बि क दु हो; तु हारी ही तरह; जो मेरे
साथ झगडा कर सके ।”
पावती ने मन-ही-मन कहानह देव दा, यह तो कसी ने न हो सके गा, य क उसको
मेरे जैसा यार कर सकना चािहए। फर-ऊपर से कहा“म जलमुँही, मेरे जैसी न जाने
कतनी हजार तु हारे पैर म आ कर अपने आपको ध य समझगी।”
“देवदास ने मजाक करते ए हँस कर कहा“हजार या क ँ गा, मुझे तो एक ही
चािहए, बोलो।”
“मजाक छोड़ो देव दा, सच बताओ। या तुम सचमुच याह करना चाहते हो?”
“कहा तो।”
देवदास ने िसफ यही बात खुल कर नह कही क तु ह छोड़ कर इस जीवन म और
कसी ी क ओर मेरा झुकाव नह होगा।
“देव दा, एक बात क ?ँ ”
“ या?”
पावती ने अपने आपको सँभालते ए कहा“तुमने शराब पीना य सीखा?”
देवदास हँस पड़ा। बोला“ या कसी चीज का खाना-पीना भी सीखना होता है?”
“यह नह ; तुमने उसक आदत य डाली?”
“ कसने कहा यह? धमदास ने?”
“चाहे कोई कहे, या यह सच है?”
देवदास ने बात िछपाई नह । कहा“हाँ, ब त कु छ ठीक है!”
पावती कु छ देर तक त ध होकर बैठ रही। फर बोली“और उसे कतने हजार के
गहने बनवा दये ह?”
देवदास ने हँस कर कहा“अभी दये नह ह, िसफ बना कर रखे ह। तुम लोगी?”
पावती ने हाथ बढ़ाकर कहा“लाओ, दो। यह देखो, मेरे शरीर पर एक भी गहना नह
है।”
“चौधरी महाशय ने नह दये तु ह?”
“ दये थे, ले कन मने वे सब उनक बड़ी लड़क को दे दये।”
“तु ह शायद उनक ज रत नह है?”
पावती ने िसर िहला कर मुँह नीचा कर िलया। अब क बार सचमुच ही देवदास क
आँखो म पानी भर आया। अपने मन म उसने समझ िलया क कसी मामूली दुःख म ि याँ
अपना गहना उतार कर कसी को नह दे देत , ले कन सुि थर हो कर उसने धीरे से
कहा“झूठ बात है पारो, म कसी भी ी को ेम नह करता, कसी को भी मने गहने नह
दये।”
पावती ने ठं डी साँस लेकर मन-ही-मन कहा-मेरा भी यही िव ास था। उसके बाद
पावती ने कहाले कन, इस बात क ित ा करो क अब कभी शराब नह िपयोगे।”
“नह , यह मुझसे नह हो सकता। या तुम ित ा कर सकती हो क कभी एक बार
भी मुझे याद नह करोगी?”
पावती ने कोई जवाब नह दया। इसी समय बाहर स या क शंख विन ई।
देवदास ने च कत हो कर िखड़क म से बाहर क ओर देखते ए कहा—“स या हो गई।
अब तुम घर जाओ पारो!”
“नह , म नह जाऊँगी। पहले तुम ित ा करो।”
“यह मुझसे नह हो सकता।”
“ य नह हो सकता।”
“ या सभी लोग सब काम कर सकते ह?”
“इ छा करने पर अव य ही कर सकते ह।”
“तुम आज रात को मेरे साथ भाग कर चल सकती हो?”
सहसा पावती के दय क गित क गई हो जैसे। अ ात प से अ कु ट वर म उसके
मुँह से िनकल गया“ऐसा कह होता है?”
देवदास पलँग पर कु छ िखसक कर बैठ गया और बोला“पावती, दरवाजा खोल दो।”
पावती और भी आगे िखसक कर दरवाजे के साथ अ छी तरह अपनी पीठ सटा कर
बैठ गई और बोली“पहले ित ा करो।”
देवदास उठ कर खड़ा हो गया और धीरता से कहने लगा“पारो, इस तरह जबरद ती
ित ा कराना कोई अ छी बात है या? या इससे कोई िवशेष लाभ है? आज क ित ा
स भव है क कल िनभा न सकूँ -मुझे झूठा य बनाना चाहती हो?”
और भी कु छ समय इसी कार चुपचाप बीत गया। उसी समय कह कसी कमरे क
घड़ी म टन-टन करके नौ बज गये। देवदास घबरा गया। उसने कहा— “पारो, दरवाजा
खोल दो।”
पावती ने कोई उ र नह दया। देवदास ने फर पुकारा“पावती।
“म यहाँ से नह जाऊँगी।”
यह कह कर पावती रोती-रोती उसी जगह लोट गई और ब त देर तक रोती रही।
कमरे म उस समय अँधेरा था। कह कु छ दखाई नह देता था। देवदास ने िसफ अनुमान
कया क पावती जमीन पर पड़ी ई रो रही है।
उसने धीरे से पुकारा“पारो!”
पावती ने रोते ए उ र दया“देव दा, मुझे ब त क हो रहा है।”
“देवदास उसके पास आ गया। उसक आँख भी गीली थ । ले कन वर िवकृ त नह
आ था। उसने कहा“ या म यह बात नह जानता?”
“देव दा, म मरी जा रही ।ँ म तु हारी सेवा नह कर सक । मेरी ज म भर क
साध...”
अ धकार म अपनी आँख प छते ए देवदास ने कहा“उसका भी तो समय है।”
“अ छा तो तुम मेरे यहाँ चलो। यहाँ तु ह देखने वाला कोई नह है।”
“तु हारे घर चलूँगा तो मेरी खूब सेवा करोगी?”
“यही तो मेरी बचपन क साध है। वग के देवता, मेरी यह साध पूरी कर दो। इसके
बाद अगर म मर जाऊँ तो उसका कोई दुःख नह ।”
अब देवदास क आँखो से भी पानी बहने लगा।
पावती ने फर कहा“देव दा, मेरे घर चलो।”
देवदास ने आँख प छ कर कहा“अ छा, आऊँगा।”
“मुझे छू कर और मेरी शपथ खा कर कहो क आओगे।”
देवदास ने अनुमान से पावती के चरण पश करके कहा“यह बात म कभी नह
भूलूंगा। अगर मेरी सेवा करने से तु हारा दुःख कम हो तो म तु हारे यहाँ आऊँगा। मरने से
पहले भी यह बात मुझे याद रहेगी।”
तेरहवाँ प र छे द
िपता क मृ यु के बाद लगातार छ: महीने तक घर रहने के कारण देवदास ब त ही घबरा
गया। न सुख था और न शाि तिब कु ल एक ही तरह का जीवन। ितस पर लगातार पावती
क िच ता। आजकल सभी काम और सभी बात म उसे पावती क याद आती। ऊपर से
भाई ि जदास और भौजाई ने देवदास का क और अिधक बढ़ा दया।
घर क माल कन क हालत भी देवदास जैसी ही है। वामी क मृ यु के साथ ही उनके
भी सब सुख का अ त हो चुका है। पराधीन भाव से अब इस घर म रहना उनके िलए
असहय हो गया है। इधर कु छ दन से वे काशी म जा कर रहने का संक प कर रही ह,
के वल देवदास का िववाह कये िबना नह जा सकत । बार-बार कहती हदेवदास, याह
कर ले, म देख कर जाऊँ। ले कन यह भला कै से स भव था? एक तो अशौच क अव था और
फर मन के मुतािबक एक लड़क खोजना। आजकल इसिलए माल कन के मन म रह-रह
कर अफसोस होता है क अगर उस समय पावती के साथ इसका िववाह हो जाता तो ब त
अ छा होता। एक दन उ ह ने देवदास को बुला कर कहा“देवदास, अब तो मुझसे नह रहा
जाता। कु छ दन काशी चल कर र ँ तो ठीक हो।”
देवदास क भी यही इ छा थी। उसने कहा“म भी तो यही कहता ।ँ छ: महीने बाद
लौटने पर सब हो जायगा।”
“हाँ बेटा, बस यही करो। अ त म लौट कर उनक बरसी हो जाने पर, तेरा याह
करके और यह देख कर क तुम घर-गह थी वाले हो गये हो, म फर काशीवास करने के
िलए चली जाऊँगी।”
देवदास इस पर राजी हो गया और अपनी माँ को कु छ दन के िलए काशी रख कर
कलक े चला गया। कलक े आने पर तीन-चार दन तक देवदास ने चु ी लाल को ढू ँढा।
वह नह िमला, बासा बदल कर कह और चला गया है। एक रोज स या के समय देवदास
को च मुखी क याद हो आयी। उसे खयाल आया—एक बार िमल िलया जाय न? इतने
दन तक उसका कभी यान ही नह आया था। देवदास को मानो कु छ शम-सी महसूस
ई, वह एक गाड़ी कराये पर ले कर स या होने के कु छ ही देर बाद च मुखी के मकान
के सामने जा प च ँ ा। ब त देर तक पुकारने के बाद अ दर से कसी ी ने उ र दया,
‘यहाँ नह है’ सामने गैस-ब ी-का एक ख भा था, देवदास ने उसके िनकट जा कर
पूछा“बतला सकती हो क वह कहाँ गई है?”
िखड़क खोल कर और कु छ देर तक देख कर उसने पूछा“ या तुम देवदास हो?”
“हाँ।”
इसके बाद उसने दरवाजा खोल कर कहा“आओ?”
आवाज देवदास को कु छ-कु छ पहचानी-सी जान पड़ती थी, ले कन फर भी वह
अ छी तरह पहचान नह सका। उस समय कु छ अँधेरा भी हो गया था। उसने
पूछा“च मुखी कहाँ हैबतला सकती हो?”
ी ने मु कराते ए कहा“हाँ, बतला सकती ।ँ ऊपर चलो।”
अब देवदास ने पहचान िलया और कहा“अरे ! तुम ही?”
“हाँ, म ही ,ँ देवदास। मुझे एकदम भूल गये?”
ऊपर प च ँ कर देवदास ने देखा क च मुखी के पहनावे म िसफ काली कनारी क
धोती है और वह भी मैली। हाथ म िसफ दो कड़े ह; इसके िसवा और कोई गहना नह है।
िसर के बाल भी बेतरतीब इधर-उधर फै ले ए ह। िवि मत हो कर उसने पूछा, “तुम
ऐसी!” अ छी तरह देखने से उसे मालूम आ क च मुखी पहले क बिन वत ब त दुबली
हो गई है।“ या तुम बीमार थ ।”
च मुखी ने हँस कर उ र दया“कोई शारी रक रोग तो िबकु ल नह है। तुम अ छी
तरह बैठो।”
देवदास ने पलँग पर बैठ कर देखा क सारे घर म एकदम प रवतन हो गया है। गृह
वािमनी क तरह उसक भी दुदशा क कोई सीमा नह है। सजावट के सामान म से एक
भी चीज नह है। अलमारी, मेज और कु रिसय क जगह खाली पड़ी ई है। िसफ एक
पलँग िबछा है और उस पर क भी चादर मैली है। दीवार पर जो तसवीर टँगी ई थ वे
हटा दी गई ह। लोहे क खूँ टयाँ अब भी दीवार म लगी ई ह और उनम से एक-दो म लाल
फ ते के टु कड़े अब भी लटक रहे ह। घड़ी अब भी ैकेट के ऊपर है। ले कन िनःश द है।
उसके आस-पास मकिड़य ने मनमाना जाल बुन रखा है। एक कोने म तेल का दीया ब त
ही धीमा-सा काश दे रहा है। उसी क सहायता से देवदास ने घर क यह नये ढंग क
सजावट देखी। उसने कु छ तो िवि मत और कु छ ु ध होकर कहा“आिखर यह दुदशा कै से
ई च मुखी?”
च मुखी ने फ क हँसी हँसते ए कहा“इसे कसने दुदशा कहा? मेरा तो भा य खुल
गया है।”
देवदास कु छ समझ न सका। उसने कहा“तु हारे शरीर के सब गहने या ए?”
“बेच डाले ह।”
“और असबाब वगैरह?”
“वह सब भी बेच दया है।”
“घर क सब तसवीर भी बेच दी?”
च मुखी ने हँसते ए सामने वाला एक मकान दखला कर कहा“उस मकान म रहने
वाली े मिण को दे दी ह।”
देवदास ने कु छ देर तक उसके मुँह क ओर देखते ए पूछा“चु ी बाबू कहाँ ह?”
“मुझे नह मालूम। कोई दो महीने ए, झगडा करके चले गये ह, फर नह आये।”
देवदास को और भी आ य आ। “झगड़ा य आ?”
च मुखी ने कहा“ य , या झगड़ा नह होता?”
“होता तो है, ले कन आिखर य ?”
“दलाली करने आये थे, इसीिलए घर से िनकाल दया।”
“काहे क दलाली?”
च मुखी ने हँस कर कहा, “इस बाजार क दलाली।” फर ठहर कर आगे कहा, “तुम
समझ नह सके ? कसी ब त बड़े सेठ को पकड़ लाये थे। दो सौ पया महीना, ब त-से
गहने और दरवाजे पर पहरे के िलए एक िसपाही। अब समझे?”
देवदास ने समझ कर हँसते ए कहा“ले कन कहाँ, वह सब कु छ भी तो नह देखता।”
“हो तब तो देखो। मने उन लोग को धता बता कर िनकाल दया था।”
“उन लोग का अपराध?”
“उनका कोई खास ऐसा अपराध तो नह था, ले कन मुझे वह सब अ छा नह लगा।”
देवदास ने ब त देर तक कु छ सोचने के बाद कहा“तब से अब तक फर कोई यहाँ नह
आया?”
“नह , तब से य , बि क िजस दन तुम यहाँ से गये हो, उसके दूसरे ही दन से यहाँ
कोई नह आया। बस, चु ी बीच-बीच म आ बैठते थे। ले कन इधर दो महीने से उनका
आना भी ब द है।”
देवदास िब तर पर लेट गया। अनमनेपन से ब त देर चुप रहने के बाद धीरे से
बोला“च मुखी, तो फर तुमने दुकानदारी सब उठा दी?”
“हाँ, दीवािलया हो गई ।ँ ”
देवदास ने उस बात का कोई उ र न दे कर कहा“ले कन तुम खाओगी या?”
“अभी तो बतलाया तु ह क जो कु छ गहने वगैरह थे, वे सब बेच दये ह।”
“उसम से अब कतना बचा है?”
“अिधक नह , फर भी आठ-नी सौ पये इस समय मेरे पास ह। एक बिनये के पास
रख दये ह। वह मुझे हर महीने बीस पये दे देता है।”
“आगे तो बीस पये म तु हारा काम नह चलता था?”
“हाँ, आजकल भी अ छी तरह से नह चलता। तीन महीने का कराया बाक है।
इसिलए सोच रही ँ क हाथ के दोन कड़े भी बेच कर और सारा देना—पावना चुका कर
और कह चली जाऊँ।”
“कहाँ जाओगी?”
“यह तो मने अभी तक तय नह कया। कसी स ती जगह म जाऊँगी। कसी ऐसे
गाँव-देहात म जहाँ बीस पये महीने म सब काम चल जाय।”
“इतने दन तक य नह गई? अगर सचमुच तु ह और कसी बात क ज रत नह
है तो इतने दन तक थ ही अपने िसर पर य इतना कज बढ़ाया?”
च मुखी िसर झुका कर कु छ सोचने लगी। अपने जीवन म इस बात को कहने म आज
उसे पहली बार शम का एहसास आ। देवदास ने कहा“ य , चुप य हो?”
च मुखी ने पलँग के एक कनारे संकुिचत भाव से बैठ कर धीरे -धीरे कहा“नाराज न
होना। जाने से पहले मने आशा क थी क अगर एक बार तुमसे भट हो जाय तो अ छा हो।
सोचती थी क शायद एक बार ज र आओगे। आज तुम आ गये हो, इसिलए अब म कल ही
यहाँ से चलने का ब दोब त क ँ गी। ले कन बतलाओगे क कहाँ जाऊँ?”
देवदास च कत हो कर उठ बैठा। उसने कहा“िसफ मुझे देखने क आशा से अब तक
क ई थ ? ले कन य ?”
“िसफ एक खयाल था मन म। तुम मुझसे घृणा करते थे, शायद इसीिलए। उतनी घृणा
और कभी कसी ने मुझसे नह क िजतनी घृणा तुम मुझसे करते थे। यह तो म नह कह
सकती क आज तु ह वह बात याद होगी या नह ; ले कन, मुझे खूब अ छी तरह याद है क
िजस दन तुम पहले-पहल यहाँ आये थे, उसी दन तुम पर मेरी दृि पड़ी थी। यह म
जानती थी क तुम ब त बड़े धनी के लड़के हो। ले कन धन क आशा से म तु हारी ओर
नह खंची। तुमसे पहले न जाने कतने लोग यहाँ आये-गये ह, ले कन, मने उनम से कसी
के भी भीतर कभी तेज नह देखा और तुमने आते ही मुझ पर आघात कया, एक अजीबो-
गरीब खा वहार कया। तुम मारे घृणा के मेरी ओर से मुँह फे रे रहे और चलते समय
तमाशे के तौर पर कु छ पैसे दे गये। वे सब बात तु ह याद ह?”
देवदास चुप रहा। च मुखी फर कहने लगी“बस, तभी से मने तुम पर नजर रखी।
ले कन ेम करके नह , घृणा करके भी नह । िजस तरह कोई चीज दखाई पड़ने पर वह
खूब याद रहती है, ठीक उसी तरह तु ह भी म कसी तरह नह भूल सक । जब तुम आते थे,
तब कु छ भी अ छा नह लगता था। इसके बाद न जाने मित कै सी फर गयी“अपनी इन
आँख से म ब त-सी चीज को एक और ही तरह से देखने लग गई। जो कु छ पहले ‘म’ थी,
उससे अब िब कु ल बदल गई। मानो अब वह ‘म’ नह रह गई। इसके बाद तुमने शराब
पीना शु कर दया। शराब से मुझे ब त घृणा है। कोई शराब से मतवाला होता तो उस
पर ब त ोध आता, ब त दुःख पाती।”
यह कह कर च मुखी ने देवदास के पैर पर हाथ रख कर छलछलाई ई आँख से
कहा“म ब त ही नीच ।ँ मेरे अपराध पर यान न देना। तुम न जाने कतनी बात कहते
थे, कतनी घृणा से मुझे अपने पास से हटा देते थे, ले कन फर भी म तु हारे उतने ही पास
प चँ ना चाहती थी। अ त म जब तुम सो जाते थे...ले कन उन सब बात को जाने दो, नह
तो शायद फर नाराज हो जाओगे।” देवदास ने कोई उ र नह दया। यह नये ढंग क
बातचीत उसे कु छ क प च ँ ा रही थी। च मुखी ने िछपा कर अपनी आँख पोछ और आगे
कहा“एक दन तुमने कहा क हम लोग कतना सहन करती हलांछना, अपमान, जघ य
अ याचार, उप व आ द। उसी दन से मुझे ब त अिभमान हो गया है। तब से मने सब कु छ
ब द कर दया है।”
देवदास उठ कर बैठ गया। उसने पूछा“ले कन तु हारे दन कस तरह बीतगे?”
च मुखी ने कहा“यह तो म पहले ही बतला चुक ।ँ ”
“मान लो क वह तु ह धोखा दे और तु हारे सब पये...”
च मुखी डरी नह । उसने शा त और सहज भाव से कहा“यह कोई आ य क बात
नह है। मने वह भी सोच िलया है। जब मुसीबत आयेगी तब तुमसे कु छ िभ ा माँग लूंगी।”
देवदास ने कु छ सोच कर कहा“अ छा, माँग लेना। अब और कह जाने का ब दोब त
करो।”
“बस कल ही क ँ गी। दोन कड़े बेच कर एक बार उस बिनये से भट क ँ गी।”
देवदास ने जेब से सौ-सौ पये के पाँच नोट िनकाल कर त कये के नीचे रख दये और
कहा“तुम कड़े मत बेचो। हाँ, उस बिनये से ज र िमलो। ले कन तुम जाओगी कहाँ? कसी
तीथ- थान म?”
“नह देवदास, तीथ और धम पर मेरी उतनी अिधक ा नह है। म कलक े से
ब त यादा दूर नह जाऊँगी। पास ही कसी गाँव म जा कर र ग ँ ी।”
“ कसी भ प रवार म नौकरानी बनोगी?”
च मुखी क आँख म फर पानी आ गया। उसने आँख प छते ए कहा—“नह , यह
सब करने को मेरा जी नह चाहता। म वाधीन प से व छ द होकर र ग ँ ी। दुःख भोगने
य जाऊँगी? शारी रक क कभी सहा नह ; अब भी नह सह सकूँ गी। अिधक ख चा-
तानी करने से शायद यह शरीर िछ -िभ हो जाय।”
देवदास फ क हँसी हँसा, बोला—“ले कन शहर के पास रहने से स भव है क फर
लोभन म पड़ जाओ।—मनु य के मन का कोई भरोसा नह ।”
अब च मुखी का मुख िखल उठा। वह हँस कर बोली—“यह बात सच है, मनु य के
मन का कोई भरोसा नह , ले कन म अब लोभन म नह पडू ग ँ ी?। म यह भी मानती ँ क
ि य को ब त अिधक लोभ होता है। ले कन लोभ क जो चीज़े ह उनका जब मने जान-
बूझ कर और अपनी इ छा से ही याग कर दया तो फर अब मुझे कोई डर नह है। अगर
म सहसा वे सारी चीज िणक आवेश म छोड़ देती तो स भव है, क सावधान रहने क
ज रत होती। ले कन इतने दन म एक दन भी तो मुझे पछतावा नह आ। म तो सुख से
।ँ ”
फर भी देवदास ने िसर िहला कर कहा—“ि य का मन चंचल और ब त ही
अिव सनीय होता है।”
उस समय च मुखी देवदास के ब त ही पास आ बैठी और हाथ पकड़ कर बोली
—“देवदास!”
देवदास के वल उसके मुँह क ओर देखता रहा, अब यह नह कह सका क मुझे मत
छु ओ।
च मुखी ने आँख म ेह भरकर उसके दोन हाथ पकड़ कर अपनी गोद म ख च
िलये और कु छ-कु छ काँपती आवाज म कहा—“आज आिखरी दन है, आज तुम नाराज न
होना। तुम से एक बात पूछने क मुझे बड़ी साध है।”
यह कह कर च मुखी ने कु छ देर तक ि थर दृि से देवदास के मुख क ओर देखते रह
कर पूछा—“ या पावती ने तु ह ब त अिधक चोट प च ँ ायी है?”
देवदास क भ ह तन गय । उसने कहा—“यह बात य पूछती हो?”
च मुखी िवचिलत नह ई। उसने शा त और दृढ़ वर से कहा—“मुझे इसके जानने
क ज रत है। तुमसे सच कहती ँ जब तुम दु:खी होते हो तब मुझे भी ब त चोट लगती है।
इसके िसवा, शायद म तु हारी ब त-सी बात जानती ।ँ बीच-बीच म नशे क बहक म मने
तु हारे मुँह से ब त-सी बात सुनी ह। ले कन फर भी मुझे िव ास नह होता क पावती ने
तु ह धोखा दया है। बि क मेरा तो खयाल है क खुद तुमने अपने आपको धोखा दया है।
देवदास, म उमर म तुमसे बड़ी ।ँ मने इस संसार म ब त-सी चीज देखी ह। तुम जानते हो
क मुझे या खयाल होता है? मेरी समझ म यह आता है क िन य ही तु हारी भूल ई है।
मेरी समझ म ि य क जो यह ब त बड़ी बदनामी है क वे ब त ही चंचल तथा अि थर-
िच आ करती ह सो ठीक नह । वे उतनी अिधक बदनामी के यो य नह ह। उनक
बदनामी भी तु ह लोग करते हो और नेकनामी भी तु ह लोग करते हो। तुम लोग जो कु छ
कहना चाहते हो, वह अनायास ही कह जाते हो। ले कन ि याँ ऐसा नह कर पात । अगर
वे कह भी तो कोई समझता नह । इसके बाद उनक बदनामी ही लोग के सामने उजागर
हो जाती है।”
च मुखी कु छ क कर और अपनी आवाज म नरमी ला कर कहने लगी—“मने इस
जीवन म ेम का वसाय ब त दन तक कया है; ले कन वा तव म के वल एक ही बार
मने ेम कया है और उस ेम का मू य ब त अिधक है। मने ब त कु छ सीखा है। जानते तो
हो क ेम करना और बात है और प का मोह कु छ और बात। इन दोन म ब त अिधक
गड़बड़ी होती है और पु ष ही अिधक गड़बड़ी करते ह। प का मोह तुम लोग क अपे ा
हम लोग म ब त ही कम होता है; इसिलए तुम लोग क तरह हम लोग उ म नह हो
जात । तुम लोग आ कर अपना ेम जतलाते हो, न जाने कतनी तरह क बात और भाव
म उसे कट करते हो, हम लोग चुप ही रहती ह। ाय: ऐसा होता है क तुम लोग के मन
को लेश प च ँ ाने म हम लोग को ल ा आती है, दुःख होता है। संकोच होता है। मुँह
देखने म भी जब घृणा होती है, तब भी कदािचत ल ा के कारण कह नह सकत क हम
तु ह ेम नह कर सकगी। इसके बाद एक णय का अिभनय आर भ होता है। फर एक
दन जब उसका अ त हो जाता है तब पु ष ु और अि थर हो कर कहते ह क ऐसी
िव ासघाितनी है!—बस, सब वही बात सुनते ह और उसी पर िव ास कर लेते ह। हम
लोग उस समय भी चुप ही रहती ह। मन म न जाने कतना दुःख होता है ले कन उसे कौन
देखने जाता है?”
देवदास ने कोई बात नह कही। च मुखी भी कु छ देर तक चुपचाप उसके मुँह क
ओर देखती रही। फर बोली—“उस समय कदािचत कु छ ममता उ प हो जाती है। ि याँ
समझती ह क कदािचत यही ेम है। वे शा त और धीर भाव से संसार के सब काम-ध धे
करती ह, दुःख के समय ाणपण से सहायता करती ह। उस समय तुम लोग उनक कतनी
नेकनामी करते हो! बात-बात म उ ह कतना ध य कहते हो! ले कन स भवत: उस समय
भी उ ह ेम का अ र ान तक नह होता। इसके बाद जब कसी अशुभ मु त म उनके
दय के अ दर क अस वेदना छटपटाती ई बाहर खड़ी हो जाती है, तब...”
इतना कह कर च मुखी देवदास के मुख क ओर दृि से देखा और कहा—“तब तुम
लोग िच ला कर कहने लगते हो, कलं कनी! छी: छी:!”
अक मात देवदास ने च मुखी का मुँह हाथ से ब द करते ए कहा—“च मुखी, यह
या।”
च मुखी ने धीरे से उसका हाथ हटाते ए कहा—“डरो मत देवदास, म तु हारी
पावती क बात नह कह रही ।ँ ”
यह कह कर वह चुप हो गई। देवदास ने भी कु छ देर तक चुप रहने के बाद अ यमन क
भाव से कहा—“ले कन कत तो है! धम-अधम है!”
च मुखी ने कहा—“वह तो है ही। और है, इसीिलए तो देवदास, जो यथाथ ेम
करता है, वह सहन कया करता है। िजसे मालूम हो जाता है क भीतर से िसफ ेम करने
से ही कतना सुख होता है, कतनी तृि होती है, वह थ ही अपनी गृह थी म दुःख और
अशाि त नह लाना चाहता। ले कन देवदास, म या कह रही थी? म िनि त प से
जानती ँ क पावती ने तु ह तिनक भी धोखा नह दया, तुमने अपने आपको ही धोखा
दया है। म जानती ँ क आज यह बात समझना तु हारे िलए संभव नह है। ले कन कभी
समय आयेगा तो शायद तुम देख सकोगे क मने इस समय जो कु छ कहा है वह ठीक है।”
देवदास क दोन आँख म पानी भर आया। आज न जाने य वह समझने लगा क
च मुखी का कहना ठीक है। च मुखी ने देख िलया क देवदास क आँख म पानी भर
आया है, ले कन उसने उसे प छने का य नह कया। वह मन-ही-मन कहने लगी—मने
तु ह अनेक बार अनेक कार से देखा है। म तु हारे मन का हाल जानती ।ँ मने खूब अ छी
तरह समझ िलया है क तुम साधारण पु ष क तरह अपनी इ छा से ेम कट नह कर
सकोगे। रही प क बात, सो वह कसे अ छा नह लगता? ले कन फर भी कसी तरह
इस बात पर िव ास नह होता क के वल इसीिलए तुम अपना इतना अिधक तेज प के
चरण पर िवस जत कर दोगे। हो सकता है क पावती ब त अिधक पवती हो। ले कन
फर भी, जान पड़ता है क पहले वही तु हारे ेम म पड़ी थी और पहले उसी ने तुम पर
यह बात कट क थी।
मन-ही-मन ये सब बात सोचते-सोचते सहसा उसके मुख से अ फु ट वर म िनकल
गया—“मने खुद ही यह समझा है क वह तुमसे कतना यार करती है।”
देवदास ज दी से उठ कर बैठ गया—“ या कहा?”
च मुखी ने कहा—“कु छ नह । म यही कह रही थी क वह तु हारे प पर नह
रीझी थी। इसम स देह नह क तुमम प है, ले कन उस पर कोई रीझ नह सकता। फर
यह प सब को दखाई भी नह देता। ले कन िजसे दख जाता है, वह फर आँख हटा भी
नह सकता।”
यह कह कर च मुखी ने ठ डी साँस ली और फर कहा—“िजसने कभी तु ह यार
कया है, वह जानती है क तुमम कतना अिधक आकषण है। इस वग से अपनी इ छा
और शौक से वापस आ सके , ऐसी ी या कोई इस पृ वी पर?”
फर कु छ देर तक चुपचाप उसके मुँह क ओर देखती ई धीरे -धीरे कहने लगी—“यह
प आँख से तो दखाई देता नह , दय के ठीक भीतरी भाग म इसक गहरी छाया पड़ती
है। इसके बाद दन का अ त होने पर वह आग के साथ ही िचता पर जल कर राख हो जाता
है।”
देवदास ने िव वल दृि से च मुखी के मुख क ओर देख कर पूछा—“आज तुम यह
सब या कह रही हो?”
च मुखी ने मु करा कर कहा—“देवदास, इससे बढ़कर आफत क बात और कोई
नह हो सकती क आदमी िजसे यार न करता हो, वही जबरद ती यार क कहानी
सुनाने बैठ जाय! ले कन म िसफ पावती क तरफ से वकालत कर रही थी, अपने िलए
नह ।” देवदास उठने के िलए उ त हो कर बोला—“अब म जाता ।ँ ”
“जरा और बैठो। कभी तु ह होश म नह पाया, कभी इस तरह तु हारे दोन हाथ
पकड़ कर बात नह कर सक —यह कै सी तृि है!” इतना कह कर वह हठात हँस पड़ी!
देवदास ने च कत होकर पूछा—“तुम हँस य पड़ ?”
“कु छ नह , य ही एक पुरानी बात याद हो आई। वह आज दस बरस पहले क बात है
जब म ेम के फे र म अपना घर-बार छोड़ कर चली आई थी। उस समय समझती थी क म
कतना अिधक ेम करती ँ और शायद इसके िलए अपने ाण दे सकती ।ँ इसके बाद एक
दन एक तु छ गहने के िलए हम दोन म ऐसा झगड़ा हो गया क फर कभी कसी ने एक-
दूसरे का मुँह न देखा। तब मन को सा वना दी क वह मुझे िबकु ल यार नह करता,
अ यथा या गहना न देता?”
च मुखी फर एक बार य ही हँस पड़ी। ले कन फर तुर त ही शा त और ग भीर
मुख से धीरे से बोली—“चू हे म जाय गहरा गहना! उस समय कहाँ जानती थी क एक
सामा य िसर का दद अ छा कर देने के बदले म भी अकातर भाव से यह ाण दये जा
सकते ह! उस समय न सीता और दमय ती क था समझती और न म जगाई-मधाई1 क
कथा पर ही िव ास करती थी। अ छा देवदास, इस जगत म सभी कु छ स भव है न?”
देवदास कु छ भी न कह सका। हत-बुि क तरह कु छ देर तक एकटक देखता रहा और
बोला—“अब म जाता ।ँ ”
“डर या है! जरा बैठो। म तु ह और भुला कर नह रखना चाहती। मेरे वे दन बीत
गये। अब तो िजतनी घृणा तुम मुझसे करते हो, उतनी ही म अपने आप पर करती ।ँ
ले कन देवदास, तुम याह य नह कर लेते?”
इतनी देर म मानो देवदास ने साँस ली। उसने कु छ हँस कर कहा—“उिचत तो जान
पड़ता है, ले कन वृि नह होती।”
“ वृि न होने पर भी याह कर डालो। बाल-ब का मुख देखने से ब त कु छ
शाि त पाओगे। इसके िसवा मेरे िलए भी एक रा ता िनकल आयेगा। तु हारे घर म दासी
क तरह रह कर दन िबता सकूँ गी।”
देवदास ने हँसते ए कहा—“अ छा, उस समय म तु ह बुलवा भेजूँगा।”
च मुखी मानो उसक वह हँसी देख ही नह सक और बोली—“जी चाहता है क
तुमसे एक बात और भी पूछूँ।”
“ या?”
“तुमने इतनी देर तक मेरे साथ बात य क ?”
“ य , इसम कोई दोष है?”
“यह तो म नह जानती। ले कन यह नई बात ज र है। इससे पहले जब तक तुम
शराब पी कर नशे म चूर नह हो जाते थे, तब तक कभी मेरा मुँह नह देखते थे।”
देवदास ने च मुखी के इन का कोई उ र न देकर िवष ण मुख से कहा—“अब
म शराब नह छू ता। मेरे िपता जी क मृ यु हो गई है।”
च मुखी ब त देर तक क ण दृि से देखती रही, फर बोली—“इसके बाद तो
शराब नह िपयोगे?”
“कह नह सकता।”
च मुखी ने उसके दोन हाथ और भी अपनी तरफ ख च कर अ ु- ाकु ल वर से
कहा—“अगर हो सके तो हमेशा के िलए छोड़ दो। देखो, असमय म ऐसे सु दर ाण न न
करो।”
देवदास सहसा उठ कर खड़ा हो गया और बोला—“म जाता ।ँ तुम जहाँ जाना वहाँ
से खबर भेजना और अगर कभी ज रत हो तो मुझसे संकोच मत करना।”
च मुखी ने णाम करके उसके चरण क धूल म तक पर लगाई और कहा
—“आशीवाद दो क म सुखी र ।ँ एक िभ ा और माँगती ।ँ ई र न करे , अगर कभी
दासी क आव यकता हो तो इसे मरण करना।”
“अ छा।” कह कर देवदास चला गया। च मुखी ने दोन हाथ जोड़ कर रोते ए
कहा—भगवान, फर एक बार कसी तरह इनसे भट हो।
शेष
शरतच च ोपा याय
बीसव सदी के ारि भक दौर म बांगला समाज म जहाँ नारी को मुँह खोलने क आजादी
नह थी. उस प रवेश म जब कमल अलग—अलग मु पर अपने पित से करती है तो
उसे यह फू टी आँख नह भाता। वत िवचार वाली मुँहफट कमल का हर पु ष के
नारी के ऊपर वािम व क न व पर चोट प च
ँ ाताह है | जैस —जैस कमल के बढ़ते ह,
उसके और उसके पित िशवनाथ, िजससे वह पुरे रीित — रवाज से याही भी नह है के
बीच टकराव और तनाव बढ़ता जाता है और कमल अपने अलग रा ते पर िनकल जाती है|
ISBN:9788174831774
पृ :285
चोखेर बाली
रवी नाथ टै गोर
रवी नाथ टैगोर का उप यास चोखेर बाली हंदी म आँख क कर करी के नाम से
चिलत है। ेम, वासना, दो ती और दा प य–जीवन क भावना के भंवर म डू बते–
उतराते चोखर बाली के पा —िबनो दनी, आशालता, महे और िबहारी—क यह
मा मक कहानी है। 1902 म िलखा गु देव रवी नाथ टैगोर का यह उप यास मानवीय
भावना औप उस समय के बंगाल के समाज का जीता–जागता िच ण तुत करता है
और इसिलए उनका सबसे उ कृ उप यास माना जाता है। िजस पर इसी नाम से फ म
भी बन चुक है।
ISBN: 9789350643600
पृ : 192
गोरा
रवी नाथ टै गोर
ISBN:9789350643594
पृ : 432