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भारत प्रसाद

समकालीन कविता के सुपरिचित कवि महेश आलोक अपनी अलीक लेखन शैली के कारण अलग पहचान रखते
हैं।विगत करीब 30वर्षों से सृजन के क्षेत्र में अपनी गुणात्मक निरंतरता बरकरार रखने वाले आलोक जी ने बड़ी
सजगता,साहस और बारीकियत से अपने मुहावरे को निर्मित किया है। यह मुहावरा मौजूदा वक्त में बिल्कु ल अछू ता
या अपरिचित तो नहीं, पर दुर्लभ और मुश्किल अवश्य है। महेश आलोक सीधी,सपाट और आसान सृजन प्रवाह
के कवि नहीं।आरंभ से ही उनका यह अलहदापन साफ सुनाई पड़ता है।अब तो यही उनकी सुस्थायी पहचान भी
बन गयी है। आलोक जी की रचनात्मक कहानी उस दौर में आरंभ होती है,जब गोरख पांडे जैसे तेजस्वी और
औघड़ी मेधा के कवि अपनी परिवर्तनकारी आवाज दे कर चेतना जगा चुके थे। जे.एन.यू. जैसा संस्थान जो कि
अपनी प्रगतिशील और वामपंथी बेलीकियत के कारण आंखों को आकर्षित करता और खटकता भी रहा है,महेश
आलोक के भीतरी निर्माण की वैचारिक भूमि कहा जा सकता है।कह सकते हैं, कि यदि जे.एन.यू. न होता,तो
महेश आलोक कवि होकर भी वैसे कवि न होते,जैसे आज मजबूती से हैं।

हाल ही में सेतु प्रकाशन से आया हुआ उनका संग्रह, कह लीजिये कि उनकी संभावनाओं का प्रतिनिधि स्वर
है। प्रतीकात्मकता का तारनुमा महीन तनाव उनकी कविताई का जक सुपरिचित अंदाज़ है,जिसकी तहों में वे बड़े
ही मन से उतरते हैं। हिंदी कविता में शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय ,अज्ञेय इस पद्धति के मानक हस्ताक्षर
रहे।काफी हद तक के दारनाथ सिंह भी इसी मार्ग के उम्दा पथिक रहे। महेश आलोक के कवि के निर्माण का वक्त
के दारनाथ सिंह की शिखर लोकप्रियता का भी समय है।इसलिए सहज है कि महेश आलोक जाने-अनजाने अपने
अग्रधावक कवि के भाषाई कौशल, शब्द लाघव और अर्थ की प्रक्षेपण शक्ति से सघनतः प्रभावित रहे हों। पर यह
भी कहना जरूरी है,कि महेश जी उनकी तर्ज पर नहीं, अपनी समझ,दृष्टि और ज्ञान के ताप में प्रतीकात्मकता का
सजग प्रयोग करते हैं। कविता में प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग आग की लपट से खेलने जैसा है,यदि निहितार्थ को
ध्वनित करने वाला बन गया,तब तो वाह वाह,वरना वह अर्थ को मृत्यु देने वाला सिद्ध होता है। कवि की एक
कविता है-जबकि ऐसा जरूर लग रहा था मुझे। आइए देखते हैं, चंद पंक्तियां----

मैं अपनी आंखों में चन्द्रमा के लिए


घर बना रहा था
और चांदनी मेरे दरवाजे की दरारों से फिसलकर
बिस्तर की सिलवटों में मोहब्बत के बिंबों पर.
नृत्य कर रही थी....
( छाया का समुद्र-पृष्ठ-13)

कोई भी सजग और अध्ययन सम्पन्न पाठक एक बारगी इस कविता को पढ़कर रूके गा, फिर पढ़ेगा,सोचेगा, फिर
पढ़ेगा-तब शायद एक अर्थ की झलक पा जाय। इसी श्रेणी में उनकी अनेक कविताएं हैं, जैसे-आस्था, मित्रता,
किसके हिस्से का दुख मेरा दुख है, चीटियाँ । चीटियाँ बेखास,नगण्य, परन्तु कवि की अति कलात्मक निगाह
उनमें भी वह ढूंढ़ लेती है,जो बेखास को बहुखास बना देती है।

चीटियाँ नहीं डरतीं किसी तानाशाह के मोर्टार से


वे डरती हैं चीटियों से जो अपने कद से
इतनी लंबी हो गयी हैं, जितनी तानाशाह की मूंछ
तानाशाह जिसे ऐंठते हुए चलाता है मोर्टार।
(छाया का समुद्र- पृष्ठ-21)
विषयों को प्रतीकात्मक रंग देते हुए कवि का लक्ष्य पाठक उतना नहीं, जितना स्वयं की रुचि कि हमें स्वयं की
कोशिश को किस हद तक तान देना है,इसलिए जो काव्यप्रेमी इनकी कविताओं को पढ़कर तत्काल अर्थ, व्यंजना
और रस की तलाश करने चलेंगे, उन्हें निराश होना पड़ेगा।

महेश जी "समय के असह्य तनाव में बजती हुई कविताएँ" रचने वाले आह्वाहक भी हैं।वैसे इस मोर्चे की कविताएं
गिनती में कम हैं, पर जब भी वे तबियत के साथ घटनाओं की तहों में उतरते हैं, तो पांव जमा लेने वाली रचना
निकाल लाते हैं। जैसे "शहीद" शीर्षक कविता,जिसमें कवि ने अथक शिद्दत और खदबदाते आक्रोश के साथ
अपनी सामयिक प्रतिबद्धता को साकार किया है।दम की बात यह कि इसमें प्रतीक प्रेमी महेश जी जरा भी
प्रतीकवादी नहीं हुए हैं, और अपनी अश्रुपूरित दृष्टि को सीधे सीधे तड़पते शब्दों में प्रकट कर देते हैं-

तोपों की सलामी में पिता शहादत


और आंसू मिलाकर
बना रहे हैं रजाई कि ठंढ से बच सकें
इस साल
शायद बन सके उससे मां के लिए
एक चश्मा, बेटे ने वादा जो किया था
(छाया का समुद्र-पृष्ठ-120)

समसामयिक मुद्दों की धुरी पर धारदार चिंगारी के साथ घूमती उनकी कई कविताएं यकीनन अनिवार्यतः पढ़ी
जाने योग्य हैं, क्योंकि इसमें वक्त का चेहरा है, उसकी नाजुक धड़कनें है,और यदि देख सकें तो अनेकशः धाराओं
में फू ट बहते आंसूं भी हैं। एक और कविता महेश आलोक की है---
खुद को जीवित रखने के लिए
इसकी कु छ पंक्तियों को नजीर के तौर पर उठा रहा हूँ-

वह अपनी पत्नी की लाश


जलाने के लिए
घर के छप्परों को जला रहा है
वह अपनी मां की लाश
जलाने के लिए
अपना रिक्शा बेच रहा है
वह अपनी बहन की लाश
जलाने के लिए
जंगल से लकड़ियाँ बटोर रहा है।
(छाया का समुद्र- पृष्ठ- 118)

कोई एक क्षेत्र, एक टाइप का विषय कवि को बंद नहीं कर सकता,वे कु शलता और आत्मविश्वास के साथ नितांत
भिन्न और विषम विषयों की असलियत में डु बकी लगाते हैं।यह अवश्य है कि दृष्टि सर्वत्र यथार्थ परक,तार्कि क और
परिवर्तन धर्मी है।यही वह मूल शक्ति है,जो कवि की क्षमता को लगातार तरोताजा रखती है,और कविता के निशाने
पर चढ़ने वाले हर विषय से कु छ अनकहा, अलक्षित किन्तु बेशकीमती सत्य निकाल लाती है। इस पूरे काव्य
समय की स्थायी खासियत है,गद्यात्मकता का अखंड साम्राज्य।इसके अपने लाभ और क्षति दोनों हैं, जिससे
महेश आलोक जी की कविताई भी बच नहीं पायी है। इससे बचने के लिए जिस आत्मपीड़क श्रम और व्यक्तित्व
की विलक्षण तराश जरूरी होती है,वह निश्चय ही,हमारे सुयोग्य कवि के लिए बड़ी शर्त है। अनेकशः कविताएं हमें
न के वल आश्वस्त करती हैं, बल्कि हमें भीतर से दृष्टि सम्पन्न और सचेत करती हैं, पर क्या हिंदी कविता का
माथा अभूतपूर्व बनाने के लिए काफी हैं, शायद नहीं।हमें कवि महेश जी से नायाब सृजन का पैमाना रचने की
उम्मीद है,और यह तो तभी होगा,जब अब तक अपनी बनी प्रतिमा से बहस करेंगे, खुद से लड़ेंगे, खुद की न
के वल निर्लिप्त आलोचना, बल्कि इंकार भी करेंगे।यह आत्मालोचन ही वह संजीवनी दृष्टि है,जो चारों ओर अर्थों के
बहते समुद्र के बीच कवि को खड़े होने का औघड़ संकल्प देती है।
महेश आलोक उस वक्त की सर्जनात्मक उम्मीद बनकर उठे हैं, जब कविता के नाम पर शतरंज, अर्थ के नाम पर
जालबाजी, शैली के नाम पर मकड़जाल और शब्दों के नाम पर तीरंदाजी सर्वाधिक बढ़ चुकी है।महेश जी में
कविता की इज्जत बचाए रखने का हुनर,सलीका और समझ तीनों है। इसलिए अपने समकक्ष कवियों के बीच बहुत
अलग और खास मूल्य के रचनाकार हैं वे।
कु छ कविताओं की ओर पुनः आपकी निगाहें लौटाने की आकांक्षा कै से रोक सकता हूँ-
"नुस्खा" शीर्षक कविता की कु छ पंक्तियां नजर में लाइए न!

बुरे आदमी के पास


अच्छा आदमी बनने का नुस्खा था
अच्छा आदमी बनने के लिए
उसने वह सब किया
जो उसके बेटे की किताब में लिखा था
और जो नहीं लिखा था
जरूरी था,उसने किया!
( छाया का समुद्र-पृष्ठ- 69)

महेश आलोक अपनी पीढ़ी के उन चंद शिल्पकारों में जो नैसर्गिक प्रेम के अनगढ़पन को बचाने के फन में माहिर
हैं। उनकी प्रेमानुभूति ऊपर बहती,चमकती,आकर्षण भरती रहस्य नहीं, बल्कि गहरे बहुत गहरे हृदय में हौले से
तरंगें पैदा करती रागिनी है। उनकी यह क्षमता सिद्ध करती है,कि कवि प्रेम की बेलीकियत का फकीर है,साथ ही
एक संकल्प धर्मी सर्जक,प्रेम को नवपरिभाषा देने का। ऐसा कवि शायद ही मिले जो अपनी नसों के उद्वेग में प्रेम
के ताप को न जीता हो।यह प्रेम का अकथनीय प्रताप ही है,जो कवि के तरल हृदय को मानवेतर सत्ता के प्रति
आकं ठ नेह से लबरेज़ कर देता है। महेश आलोक स्थूल प्रेम तक सीमित रहते ही नहीं, उसे एक गझिन और
प्रगाढ़ आनंद में तब्दील कर देते हैं।देखिए जरा " उसकी मुस्कु राहट" कविता की पंक्तियों को------

किसी अपठित चित्र लिपि सी


उसकी मुस्कु राहट
मेरे शरीर की हरियाली पर
लिख रही है
एक पठनीय कविता
फिसल रही है, नसों में
कार्तिक की पूर्णिमा।
छाया का समुद्र( पृष्ठ- 104)

प्रेम के प्राणत्व में धड़कती कवि की एक और आवाज़ है- चुंबन। चुंबन का एहसास लगभग हर एक के जीवन का
शब्दातीत भाव है, जिसकी अन्तर्धारा से बार बार गुजर कर भी व्यक्ति उसको शब्द देने से बचता है, कारण कि
नितांत निजी,किन्तु नाजुक एहसास उसकी अभिव्यक्ति क्षमता पर अतिशय भारी पड़ते हैं।किन्तु आलोक जी ने
यह जोखिम बखूबी उठाया है,पूरी हिम्मत और आसक्ति के साथ----

सचमुच दुनिया की सबसे पवित्रतम


और खूबसूरत चीज है चुंबन।
(छाया का समुद्र पृष्ठ- 94)
एक छोटी कविता " उसके पांवों के स्पर्श से" है। कवि ने इसमें मितव्ययिता से काम लिया है।भाव सघन हैं, मौन
खिल उठा है,शब्द मंत्र हो गये हैं और एहसास को खुशबू की सूक्ष्मता मिल गयी है। फिर देखिए,कै से भाव
प्रज्ज्वलित हुए हैं---

उसके पांवों के स्पर्श से


पृथ्वी की पलकें
खुल रही हैं मेरी आत्मा में
( पृष्ठ-103, छाया का...)

अंततः पुस्तक की भूमिका और कवित्व के परिचय के तौर पर अमिताभ राय के शब्द देखिए-
"नब्बे के बाद जिन काव्य व्यक्तित्वों का विकास हुआ,उसमें महेश आलोक प्रमुख हैं।यह समय सिर्फ़ कविता के
स्वर बदलने का नहीं है।भारतीय समाज, उसकी राजनीति सब कु छ अनिवार्यतः बदल रही थी।"

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भरत प्रसाद
अध्यक्ष- हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय वि.वि.
शिलांग-793022, मेघालय
मो.न. 9774125265

पुस्तक समीक्षा: छाया का समुद्र

प्रकाशक- सेतु प्रकाशन प्रा.लि.


305, प्रियदर्शिनी अपार्टमेंट
पटपड़गंज, दिल्ली-92
प्रथम संस्करण - 2019
मूल्य: 145रु.

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