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समकालीन कविता में स्त्री
समकालीन कविता में स्त्री
भाव-भमि
ू , नई संवेदना तथा नए शिल्प के बदलाव की सच
ू क काव्यधारा है ।
प्रस्तत
ु करना है ।समकालीन कविता का अर्थ 'समसामयिकता' नहीं होता।
किन्तु आधनि
ु क चेतना से मिश्रित दृष्टि है , वह निश्चित रूप से समकालीन
हुए जीवनमल्
ू यों को मानवीय स्तरों पर ही प्रतिष्ठित किया है । अथार्त
समकालीन कविता यग
ु ीन यथार्थ वास्तविकता को अभिव्यक्त प्रदान करती
है ।मक्ति
ु बोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादरु सिंह, कुमारें द्र,
दृष्टिकोण को प्रस्तत
ु किया है , जिससे स्त्री के समाज में स्थान को लेकर
आधनि
ु क समाज में महिलाओं के अधिकार, स्थिति, और सामाजिक
है । कुछ प्रमख
ु "समकालीन स्त्री विमर्श" कवियों में महादे वी वर्मा, कृष्ण
शोभा, नीरजा, और कमला दास आदि शामिल हैं। इन कवियों ने समाज में
स्त्री लेखन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए महादे वी वर्मा कहती हैं कि “परु
ु ष
स्त्री के प्रति गहरी संवेदना को प्रकट करता है । बेटी, बहन, प्रेयसी, पत्नी,
दनि
ु या स्त्री संवेदना को एक मक
ु म्मल वाणी दे रही है । वह हमारी
केन्द्र में उसका षारीरिक सौन्दर्य है , को परू ी तरह से बेनकाब करके पाठकों
के समक्ष प्रस्तत
ु कर दे ता है ।
तरह की भमि
ू का निभाती है । यहाँ पर वह स्त्री, परु
ु ष के बिना संसार नहीं
बाहर तथा परिवार में किस तरह की दिक्कतों का सामना करती है , इसका
पौराणिक आस्थामल
ू क कृतियों में स्पष्ट रूप से दे खा जा सकता है । और भी
नहीं, समकालीन हिन्दी कविता में नारी मनोभाव में क्रांतिकारी परिवर्तन
दे खने को मिलते हैं,अपनी मर्यादा एवं सीमा को उन्होंने एक नये रूप में
नहीं करना चाहती। विश्व में नारी ने प्रगति के क्षेत्रों में अपना सम्पर्ण
ू
अनभ
ु व किया। एक तो उनकी अपनी संकोची प्रवत्ति
ृ , दस
ू रे परु
ु षों का कठोर
अनश
ु ासन इन सबने उसे भीरू बना दिया और यग
ु की परिस्थितियों ने उन्हें
कविता में जहाँ पत्नी और प्रेमिका के रूप में नारी की वेदना को स्वर
मिला है , वहीं बहन एवं माँ के रूप में नारी के त्याग व ममत्व की भी
सावित्री, गौतमी, अम्बा, गांधारी, कंु ती, तारा, द्रौपदी, राधा, मीरा
बदल रही है , परं तु स्त्री की स्थिति में बदलाव उस तरह नहीं आ पाई