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समकालीन कविता का आरम्भ 1962-64 से माना जाता है । साठोतरी

कविता और समकालीन कविता को एक मान लेना उचित नहीं है ।

समकालीन कविता, आधनि


ु क कविता के विकास में नई चेतना, नयी

भाव-भमि
ू , नई संवेदना तथा नए शिल्प के बदलाव की सच
ू क काव्यधारा है ।

इस काव्य धारा का लक्ष्य आम-आदमी और समाज की वास्तविकता को

प्रस्तत
ु करना है ।समकालीन कविता का अर्थ 'समसामयिकता' नहीं होता।

'समकालीनता' एक व्यापक और बहुआयामी शब्द है और आधनि


ु कता का

आधार तत्व है । जो समकालीन है वह आधनि


ु क भी हो यह आवश्यक नहीं,

किन्तु आधनि
ु क चेतना से मिश्रित दृष्टि है , वह निश्चित रूप से समकालीन

भी हो सकती है । कहने का तात्पर्य यह है कि समकालीन कविता ने बदलते

हुए जीवनमल्
ू यों को मानवीय स्तरों पर ही प्रतिष्ठित किया है । अथार्त

समकालीन कविता का सामाजिक बोध अपने समय की माँगो के अनरू


ु प

उभरा है और उसने समय को अपने दायित्यों के प्रति जागरूक बनाया है ।

समकालीन कविता यग
ु ीन यथार्थ वास्तविकता को अभिव्यक्त प्रदान करती

है ।मक्ति
ु बोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादरु सिंह, कुमारें द्र,

आलोक धन्वा, श्रीराम तिवारी, धमि


ू ल, शलभ श्रीराम सिंह, कुमार विकल,
विजेंद्र, पंकज सिंह, निर्मल वर्मा, आनंद प्रकाश, चंचल चौहान, शशि प्रकाश

आदि समकालीन कविता के प्रमख


ु कवि हैं।
समकालीन हिंदी कविता में स्त्री विमर्श एक महत्वपर्ण
ू और

उपलब्ध विषय है । समकालीन कवियों ने समाज में महिलाओं की स्थिति,

स्वतंत्रता, समानता, और उनकी अन्यायपर्ण


ू परिस्थितियों को उजागर

किया है । वे नारी उत्थान और उनके अधिकारों की महत्ता पर ध्यान केंद्रित

करते हैं, और अपनी कविताओं के माध्यम से समाज को जागरूक करने का

प्रयास करते हैं। उन्होंने समाजिक और राजनीतिक मद्


ु दों पर अपने

दृष्टिकोण को प्रस्तत
ु किया है , जिससे स्त्री के समाज में स्थान को लेकर

सोच बदल सके।"समकालीन स्त्री विमर्श" एक महत्वपर्ण


ू कविता कला है जो

आधनि
ु क समाज में महिलाओं के अधिकार, स्थिति, और सामाजिक

परिवर्तन को उजागर करती है । इसमें कई कवियों ने अपनी रचनाओं के

माध्यम से महिलाओं के अधिकारों की महत्ता पर ध्यान केंद्रित किया है ,

उनकी असमानता और उन्हें प्राप्त समानता के लिए संघर्ष को व्यक्त किया

है । कुछ प्रमख
ु "समकालीन स्त्री विमर्श" कवियों में महादे वी वर्मा, कृष्ण

शोभा, नीरजा, और कमला दास आदि शामिल हैं। इन कवियों ने समाज में

महिलाओं के अधिकारों और स्थिति के बदलाव को उजागर करने के लिए

अपने काव्य के माध्यम से योगदान दिया है ।


स्त्री-रचनाकारों ने अपनी पीड़ा, अनभ
ु व और आकांक्षा को बखब
ु ी उकेरा है ।

स्त्री लेखन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए महादे वी वर्मा कहती हैं कि “परु
ु ष

के लिए नारी अनम


ु ान है ,परन्तु नारी के लिए अनभ
ु व| अतः अपने जीवन का

जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा परु


ु ष बहुत साधना के उपरांत भी

शायद ही दे सकें|समकालीन कविता में एक तरफ स्त्रियाँ अपने लेखन से

अपने को अभिव्यक्त कर रही थीं, वहीं दस


ू री ओर परु
ु ष रचनाकार भी स्त्री

जीवन को काफि संवेदनशीलता से अपनी कविताओं में चित्रित कर रहे है

नारी सशक्तिकरण, महिला आरक्षण, समान अधिकार, उनकी स्वतंत्रता,

कामकाजी महिलाओं के दःु ख-दर्द, नारी संवेदना आदि समकालीन कवियों

के प्रिय विषय रहे हैं।समकालीन समाज में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश

डालते हुए प्रख्यात कवि सद


ु ामा पाण्डेय 'धमि
ू ल' ने अपनी कविता 'स्त्री' में

स्त्री के प्रति गहरी संवेदना को प्रकट करता है । बेटी, बहन, प्रेयसी, पत्नी,

माँ, दादी और एक औरत के रूप में नारी के विभिन्न रूपों पर समकालीन

कवियों ने कई बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं।भगवत रावत जी की कविता

‘कचरा बीनने वाली लड़कियाँ’, निर्मला पत


ु ल
ु ् की ‘घर की तलाष’, प्रमोद वर्मा

जी के ‘मेरी बेटी के सपनों का घर’, खेमकरण'सोमन की 'बिना लड़कियों का

घर आदि में नारी के आस्थामय व्यक्तित्व को प्रधानता दी है इन्होंने नारी


के भव्य विशाल गरिमामय रूप को स्थापित किया है । नारी का आस्थावादी

स्वर, मानवीय व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा नारी जागरण आदि भारतीय

सांस्कृतिक चेतना की दे न है । समकालीन हिंदी कविता की काव्यात्मक

दनि
ु या स्त्री संवेदना को एक मक
ु म्मल वाणी दे रही है । वह हमारी

उपभोक्तावादी मानसिकता, जिसमें स्त्री मात्र उपभोग की वस्तु है , जिसके

केन्द्र में उसका षारीरिक सौन्दर्य है , को परू ी तरह से बेनकाब करके पाठकों

के समक्ष प्रस्तत
ु कर दे ता है ।

समकालीन काव्य-संसार में स्त्री माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, पत्र


ु ी आदि सभी

तरह की भमि
ू का निभाती है । यहाँ पर वह स्त्री, परु
ु ष के बिना संसार नहीं

चाहती, बल्कि परु


ु ष के संसार में रचती बसती है । एक स्त्री, समाज व घर से

बाहर तथा परिवार में किस तरह की दिक्कतों का सामना करती है , इसका

वर्णन समकालीन कवियों ने अपनी कविताओं में बखब


ू ी किया है ।
सांस्कृतिक पन
ु रूत्थान का यह प्रभाव समकालीन हिन्दी कविता की कतिपय

पौराणिक आस्थामल
ू क कृतियों में स्पष्ट रूप से दे खा जा सकता है । और भी

नहीं, समकालीन हिन्दी कविता में नारी मनोभाव में क्रांतिकारी परिवर्तन

दे खने को मिलते हैं,अपनी मर्यादा एवं सीमा को उन्होंने एक नये रूप में

उपस्थित किया है बेकार के संकोच में पड़कर वे अपने विकास को अवरुद्ध

नहीं करना चाहती। विश्व में नारी ने प्रगति के क्षेत्रों में अपना सम्पर्ण

योगदान दिया है , परन्तु भारतीय नारी ने अपनी हीनता की स्थिति को

अनभ
ु व किया। एक तो उनकी अपनी संकोची प्रवत्ति
ृ , दस
ू रे परु
ु षों का कठोर

अनश
ु ासन इन सबने उसे भीरू बना दिया और यग
ु की परिस्थितियों ने उन्हें

शक्तिशाली बनने को बाध्य किया।


इस प्रकार समकालीन कविता में नारी के आस्थामय

व्यक्तित्व को प्रधानता दी गई है । नारी के भव्य, विशाल गरिमामय

रूप को स्थापित करना इन कवियों का उद्दे श्य रहा है । नई कविता

का आस्थावादी स्वर, मानवीय व्यक्ति की प्रतिष्ठा, नारी जागरण,

आदि भारतीय सांस्कृतिक चेतना की दे न है । समकालीन हिंदी

कविता में जहाँ पत्नी और प्रेमिका के रूप में नारी की वेदना को स्वर

मिला है , वहीं बहन एवं माँ के रूप में नारी के त्याग व ममत्व की भी

व्यंजना हुई है । नारी के विभिन्न रूपों में उसके त्रास को व्यक्त

करते हुए समकालीन कवि एवं कवयित्रियों ने सीता, अहिल्या,

सावित्री, गौतमी, अम्बा, गांधारी, कंु ती, तारा, द्रौपदी, राधा, मीरा

जैसे मिथकों का प्रयोग भी किया है । आज दनि


ु या बहुत ही तेजी से

बदल रही है , परं तु स्त्री की स्थिति में बदलाव उस तरह नहीं आ पाई

है , जैसी की आनी चाहिए। स्त्री की स्थिति में अपेक्षित सध


ु ार लाए

बिना दे श का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है । समकालीन कवि

और कवयित्रियाँ उसकी स्थिति में सध


ु ार के लिए सतत ् प्रयत्नषील
हैं।

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