You are on page 1of 1

सुनो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

पर क्या करें के हमें दिल्लगी की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया


मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
 

मैं क्या कहूँ के मझु े सब्र क्यँू नहीं आता


मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यँू नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे दे खने की आदत है
 
तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी
न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है
 
विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
 
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सब
ु रू उसे सोचने की आदत है
 
ये ख़द
ु -अज़ियती कब तक "आनंद" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

You might also like