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Story Book 3
Story Book 3
क्या तम
ु को पता है कि केवल मादा मच्छर ही काटती हैं ? खून पीती हैं ?
बहुत पहले की बात है । वियतनाम के एक गाँव में टॉम और उसकी पत्नी न्हाम
रहते थे। टॉम खेती करता था और पत्नी रे शम के कीड़े पालती थी। टॉम बड़ा
मेहनती था, पर न्हाम जिंदगी में तमाम ऐशो-आराम की आकांक्षी थी।
एक दिन न्हाम एकाएक बीमार पड़ गई। टॉम उस वक्त खेतों में काम कर रहा
था। जब वह घर लौटा, उसने पाया कि न्हाम अब इस दनि
ु या में नहीं है । टॉम
घुटने टे ककर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। तभी उसे आकाशवाणी सुनाई दी कि
वह समद्र
ु के बीच स्थित एक विशाल पहाड़ी पर न्हाम का शव ले जाए।
महापरु
ु ष टॉम की इच्छा जानकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि वह अपनी
उँ गली काटकर खन
ू की तीन बँद
ू ें न्हाम के शव पर चआ
ु दे । टॉम ने वैसा ही
किया। तभी जाद-ू सा हुआ। खन
ू की बँद
ू े पड़ते ही न्हाम उठ बैठी। तब महापरु
ु ष ने
न्हाम को चेतावनी दी कि अगर वह ईमानदार और मेहनती नहीं बनेगी तो उसे
सजा भुगतनी पड़ेगी। यह कहकर वह महापरु
ु ष वहाँ से अचानक गायब हो गए।
टॉम और न्हाम नाव पर बैठकर चल दिए। रास्ते में एक गाँव के किनारे उन्होंने
नाव रोकी। टॉम खाने-पीने का कुछ सामान खरीदने चला गया। नाव में बैठी न्हाम
टॉम के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी एक विशाल सस
ु ज्जित नाव उसके
पास आई। उस नाव का मालिक एक अमीर था। उसने न्हाम को अपनी नाव पर
आकर चाय पीने की दावत दी। चायपान खत्म हुआ तो अमीर ने न्हाम से उसकी
खूबसूरती की प्रशंसा की और उससे शादी का प्रस्ताव रखा। यह भी वादा किया कि
वह उसे अपने महल की एकमात्र रानी बनाकर रखेगा। न्हाम का तो सपना ही था
कि वह धनी महिला बने, उसकी सेवा में ढे रों नौकर चाकर हों। वह चट से उस
अमीर का प्रस्ताव मान बैठी।
टॉम जब गाँव से चीजें खरीदकर लौटा तो एक बूढ़े नाविक ने उसे किस्सा सुनाया।
टॉम न्हाम की धोखेबाजी से आगबबल
ू ा हो उठा। वह फौरन उस अमीर के घर की
तरफ रवाना हुआ। कुछ ही दिनों में वह वहाँ जा पहुँचा। उसके महल में पहुँच
उसने एक नौकर से प्रार्थना कि कि वह महल के मालिक से मिलना चाहता है ।
तभी अचानक न्हाम फूल तोड़ने के लिए बगीचे में आई और टॉम को वहाँ दे ख
चकित रह गई। उसने टॉम से कहा कि वह यहाँ बेहद सख
ु ी है और यहाँ से कहीं
नहीं जाना चाहती।
टॉम ने कहा कि वह उसे कतई वापस नहीं ले जाना चाहता। वह तो अपने खून
की तीन बँद
ू ें वापस लेने आया है । वह न्हाम उसे लौटा दे । बस !
| भला आदमी |
एक धनी पुरुष ने एक मन्दिर बनवाया। मन्दिर में भगवान ् की पूजा करने के
लिए एक पज
ु ारी रखा। मन्दिर के खर्च के लिये बहुत- सी भमि
ू , खेत और बगीचे
मन्दिर के नाम कर दिए। उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था कि जो भख
ू े, दीन -दःु खी
या साधु संत आएँ, वे वहाँ दो- चार दिन ठहर सकें और उनको भोजन के लिए
भगवान ् का प्रसाद मन्दिर से मिल जाया करे । अब उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की
आवश्यकता थी, जो मन्दिर की सम्पत्ति का प्रबंध करे और मन्दिर के सब कामों
को ठीक- ठीक चलाता रहे ।
बहुत से लोग मन ही मन उस धनी पुरुष को गालियाँ दे ते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख
या पागल कहते। लेकिन वह धनी परु
ु ष किसी की बात पर ध्यान नहीं दे ता था।
जब मन्दिर के पट खल
ु ते थे और लोग भगवान ् के दर्शनों के लिये आने लगते थे,
तब वह धनी पुरुष अपने मकान की छत पर बैठकर मन्दिर में आने वाले लोगों
को चुपचाप दे खा करता था।
एक दिन एक व्यक्ति मन्दिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले फटे हुए थे।
वह बहुत पढ़ा- लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान ् का दर्शन करके
जाने लगा, तब धनी परु
ु ष ने उसे अपने पास बल
ु ाया और कहा- ‘क्या आप इस
मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का काम स्वीकारकरें गे?’
वह व्यक्ति बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा- ‘मैं तो बहुत पढ़ा- लिखा नहीं हूँ।
मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा?’
धनी पुरुष ने कहा- ‘मुझे बहुत विद्वान ् नहीं चाहिए। मैं तो एक भले आदमी को
मन्दिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’
मैं जानता हूँ कि आप भले आदमी हैं। मन्दिर के रास्ते में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा
रह गया था और उसका एक कोना ऊपर निकला था। मैं इधर बहुत दिनों से
दे खता था कि ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते
थे, लढ़
ु कते थे और उठकर चल दे ते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी;
किन्तु आपने उसे दे खकर ही उखाड़ दे ने का यत्नं किया। मैं दे ख रहा था कि आप
मेरे मजदरू से फावड़ा माँगकर ले गये और उस टुकड़े को खोदकर आपने वहाँ की
भूमि भी बराबर कर दी।
उस व्यक्ति ने कहा- ‘यह तो कोई बड़ी बात नहीं है । रास्ते में पड़े काँटे, कंकड़ और
ठोकर लगने वाले पत्थर, ईटों को हटा दे ना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है ।’धनी
पुरुष ने कहा- ‘अपने कर्त्तव्य को जानने और पालन करने वाले लोग ही भले
आदमी होते हैं।’ मैं आपको ही मंदिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’ वह व्यक्ति
मन्दिर का प्रबन्धक बन गया और उसने मन्दिर का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया।
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धर्म का मर्म |
एक साधु शिष्यों के साथ कुम्भ के मेले में भ्रमण कर रहे थे। एक स्थान पर उनने
एक बाबा को माला फेरते दे खा। लेकिन वह बाबा माला फेरते- फेरते बार- बार आँखें
खोलकर दे ख लेते कि लोगों ने कितना दान दिया है । साधु हँसे व आगे बढ़ गए।
आगे एक पंडित जी भागवत कह रहे थे, पर उनका चेहरा यंत्रवत था। शब्द भी
भावों से कोई संगति नहीं खा रहे थे, चेलों की जमात बैठी थी। उन्हें दे खकर भी
साधु खिल- खिलाकर हँस पड़े।
आश्रम में लौटते ही शिष्यों ने उनसे पहले दो स्थानों पर हँसने व फिर रोने का
कारण पछ
ू ा। वे बोले-‘बेटा पहले दो स्थानों पर तो मात्र आडम्बर था पर भगवान
की प्राप्ति के लिए एक ही व्यक्ति आकुल दिखा- वह, जो रोगी की परिचर्या कर
रहा था। उसकी सेवा भावना दे खकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और सोचने लगा न
जाने कब जनमानस धर्म के सच्चे स्वरूप को समझेगा।’
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ब्रह्मा जी के थैले |
इस संसार को बनाने वाले ब्रह्माजी ने एक बार मनुष्य को अपने पास बुलाकर
पूछा- ‘तम
ु क्या चाहते हो?’
तम
ु मनष्ु य की वह भल
ू सध
ु ार लो तो तम्
ु हारी उन्नति होगी। तम्
ु हें सख
ु - शान्ति
मिलेगी। जगत ् में तम्
ु हारी प्रशंसा होगी। तम्
ु हें करना यह है कि अपने पड़ोसी और
परिचितों के दोष दे खना बंद कर दो और अपने दोषों पर सदा दृष्टि रखो।
साधु ने धैर्य के साथ कहा- ‘राजन!् मैंने एक रुपया पाया, उसे किसी दरिद्र को दे ने
का निश्चय किया। लेकिन मुझे तुम्हारे बराबर कोई दरिद्र व्यक्ति नहीं मिला,
क्योंकि जो इतने बड़े राज्य का अधिपति होकर भी दस
ू रे राज्य पर चढ़ाई करने जा
रहा हो और इसके लिए युद्ध में अपार संहार करने को उद्यत हो रहा हो, उससे
ज्यादा दरिद्र कौन होगा?’
| मनुष्य या पशु |
यह एक सच्ची घटना है । छुट्टी हो गयी थी। सब लड़के उछलते- कूदते, हँसते- गाते
पाठशाला से निकले। पाठशाला के फाटक के सामने एक आदमी सड़क पर लेटा
था। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सब अपनी धन
ु में चले जा रहे थे।
इस पर पिता ने पछ
ू ा, ‘‘ फिर तम
ु ने क्या किया।’’ लड़के ने बताया- ‘‘फिर मैं खेलने
चला गया। ’’
पिता थोड़ा गम्भीर हुए और उन्होंने लड़के से कहा- ‘तुमने आज बहुत बड़ी गलती
कर दी। तम
ु ने एक बीमार आदमी को दे खकर भी छोड़ दिया। उसे अस्पताल क्यों
नहीं पहुँचाया?
डरते- डरते लड़के ने कहा- ‘मैं अकेला था। भला, उसे अस्पताल कैसे ले जाता?’
बच्चो! आप सोचो कि आप क्या करते हो? किसी रोगी, घायल या दःु खिया को दे ख
कर यथाशक्ति सहायता करते हो या चले जाते हो? आपको पता लगेगा कि आप
क्या हो- ‘मनष्ु य या पशु?
| संतोष का फल |
एक बार एक दे श में अकाल पड़ा। लोग भख
ू ों मरने लगे। नगर में एक धनी दयालु
पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे बच्चों को प्रतिदिन एक रोटी दे ने की घोषणा कर दी।
दस
ू रे दिन सबेरे बगीचे में सब बच्चे इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं।
लड़की ने कहा- ‘मेरी रोटी में यह मुहर निकली है । आटे में गिर गयी होगी। दे ने
आयी हूँ। आप अपनी मुहर ले लें।’
धनी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपनी धर्मपुत्री बना लिया और उसकी माता के
लिये मासिक वेतन निश्चित कर दिया। बड़ी होने पर वही लड़की उस धनी की
उत्तराधिकारिणी बनी।
लड़का और निकट आ गया और खूब जोर- जोर से गाली बकने लगा। साधु अपने
भजन में लगे थे। उन्होंने उसकी ओर कोई ध्यान न दिया। तभी एक दस
ू रे लड़के
ने आकर कहा- ‘बाबा जी! यह आपको गालियाँ दे ता है ?’
बाबा जी ने कहा- ‘हाँ भैया, दे ता तो है , पर मैं लेता कहाँ हुँ। जब मैं लेता नहीं तो
सब वापस लौटकर इसी के पास रह जाती हैं।’
साधु ने समझाया -‘पश्चात्ताप करने तथा फिर ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करने से
बुरी आदत दरू हो जायेगी। मधुर वचन बोलने और भगवान ् का नाम लेने से मुख
शद्ध
ु हो जायेगा।’
जब शेर के बच्चे अपने माँ बाप के साथ जंगल में निकलते तो उन्हें बहुत अच्छा
लगता था। लेकिन शेर- शेरनी अपने बच्चों को बहुत कम अपने साथ ले जाते थे।
वे बच्चों को गफ
ु ा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते
थे।
छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा- ‘मैं तो माँ- बाप की बात
मानँग
ू ा। मझ
ु े अकेला जाने में डर लगता है ।’ बड़े भाई ने कहा। ‘तम
ु डरपोक हो,
मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गफ
ु ा से निकला और झरने के पास गया।
उसने पेट भर पानी पिया और तब हिरनों को ढकतेहुए इधर- उधर घूमने लगा।
जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये हुए थे। शिकारियों ने दरू से शेर के बच्चे
को अकेले घूमते दे खा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया घर में बेच दे ने से
अच्छे रुपये मिलेंगे। शिकारियों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और
एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल डालकर उस बच्चे को पकड़
लिया।
बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते जितना बड़ा भी नहीं हुआ था।
उसे कम्बल में खब
ू लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया। वह न तो
छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था।
| स्वच्छता |
एक किसान ने एक बिल्ली पाल रखी थी। सफेद कोमल बालों वाली बिल्ली। रात
को वह किसान की खाट पर ही उसके पैरों के पास सो जाती थी। किसान जब
खेत पर से घर आता तो बिल्ली उसके पास दौड़ कर जाती और उसके पैरों से
अपना शरीर रगड़ती, म्याऊँ -म्याऊँ करके प्यार दिखलाती। किसान अपनी बिल्ली
को थोड़ा सा दध
ू और रोटी दे ता था।
किसान का एक लड़का था। वह बहुत आलसी था। रोज नहाता भी नहीं था। एक
दिन किसान के लड़के ने अपने पिता से कहा- ‘पिता जी! आज रात को मैं आपके
साथ सोऊँगा।’
लड़का कहने लगा- ‘बिल्ली को तो आप अपनी ही खाट पर सोने दे ते हैं, परं तु मुझे
क्यों नहीं सोनेदेते?’
लड़का- खज
ु ली से बहुत तंग था। उसके परू े शरीर में छोटे - छोटे फोड़े- जैसे हो रहे
थे। खज
ु ली के मारे वह बेचैन रहता था। उसने अपने पिता से कहा- यह खुजली
मुझे ही क्यों हुई है ? इस बिल्ली को क्यों नहीं हुई?
लड़के ने कहा- ‘मैं आज सब कपड़े गरम पानी में उबालकर धोऊँगा। बिस्तर और
चद्दर भी धोऊँगा। खूब नहाऊँगा। पिता जी! इससे मेरी खुजली दरू हो जायेगी।’
किसान ने बताया- ‘शरीर के साथ पेट भी स्वच्छ रखना चाहिये। दे खो, बिल्ली का
पेट भर गया तो उसने दध
ू भी छोड़ दिया। पेट भर जाने पर फिर नहीं खाना
चाहिये। ऐसी वस्तए
ु ँ भी नहीं खानी चाहिये, जिनसे पेट में गड़बड़ी हो। मिर्च, खटाई,
बाजार की चाट, अधिक मिठाइयाँ खाने और चाय पीने से पेट में गड़बड़ी हो जाती
है । इससे पेट साफ नहीं रहता। पेट साफ न रहे तो बहुत से रोग होते हैं। बुखार
भी पेट की गड़बड़ी से आता है । जो लोग जीभ के जरा से स्वाद के लिये बिना
भख
ू ज्यादा खा लेते हैं अथवा मिठाई, घी में तली हुई चीजें, दही- बड़े आदि बार-
बार खाते रहते हैं, उनको और भी तरह- तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। पेट साफ
करने के लिये चोकर मिले आटे की रोटी, हरी सब्जी तथा मौसमी- सस्ते फल
अधिक खाने चाहिये।’
प्रातःकाल राजा सोकर उठा और स्वप्न की बात पर विचार करने लगा। धर्मात्माओं
को अक्सर सच्चे ही स्वप्न हुआ करते हैं। राजा धर्मात्मा था, इसलिए अपने स्वप्न
की सत्यता पर उसे विश्वास था। वह विचार करने लगा कि अब आत्म- रक्षा के
लिए क्या उपाय करना चाहिए?
रात को ठीक बारह बजे सर्प अपनी बाँबी में से फुसकारता हुआ निकला और राजा
के महल की तरफ चल दिया। वह जैसे- जैसे आगे बढ़ता गया, अपने लिए की गई
स्वागत व्यवस्था को दे ख- दे खकर आनन्दित होता गया। कोमल बिछौने पर लेटता
हुआ मनभावनी सुगन्ध का रसास्वादन करता हुआ, स्थान- स्थान पर मीठा दध
ू
पीता हुआ आगे बढ़ता था। क्रोध के स्थान पर सन्तोष और प्रसन्नता के भाव
उसमें बढ़ने लगे।
जैसे- जैसे वह आगे चलता गया, वैसे ही वैसे उसका क्रोध कम होता गया।
राजमहल में जब वह प्रवेश करने लगा तो दे खा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र
खड़े हैं, परन्तु उसे जरा भी हानि पहुँचाने की चेष्टा नहीं करते। यह असाधारण
सौजन्य दे खकर सर्प के मन में स्नेह उमड़ आया। सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता के
जाद ू ने उसे मन्त्र- मुग्ध कर लिया था। कहाँ वह राजा को काटने चला था, परन्तु
अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया। हानि पहुँचाने के लिए आने वाले
शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है , उस धर्मात्मा राजा को काटूँ तो किस
प्रकार काटूँ? यह प्रश्न उससे हल न हो सका। राजा के पलंग तक जाने तक सर्प
का निश्चय पर्ण
ू रूप से बदल गया।
सर्प के आगमन की राजा प्रतीक्षा कर रहा था। नियत समय से कुछ विलम्ब में
वह पहुँचा। सर्प ने राजा से कहा- ‘हे राजन!् मैं तम्
ु हें काटकर अपने पूर्व जन्म का
बदला चुकाने आया था, परन्तु तुम्हारे सौजन्य और सद्व्यवहार ने मुझे परास्त कर
दिया। अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं मित्र हूँ। मित्रता के उपहार स्वरूप अपनी बहुमल्
ू य
मणि मैं तम्
ु हें दे रहा हूँ। लो इसे अपने पास रखो।’ इतना कहकर और मणि राजा
के सामने रखकर सर्प उलटे पाँव अपने घर वापस चला गया।
भलमनसाहत और सद्व्यवहार ऐसे प्रबल अस्त्र हैं, जिनसे बुरे- से स्वभाव के दष्ु ट
मनुष्यों को भी परास्त होना पड़ता है ।
मनीषी ने उसे समझाया, यह दोनों शब्द तो एक जैसे हैं, पर इनमें अन्तर बहुत है ।
योद्धा बनना है तो शस्त्र कला का अभ्यास करो और घुड़सवारी सीखो, किन्तु यदि
वीर बनना हो तो नम्र बनो और सबसे मित्रवत ् व्यवहार करने की आदत डालो।
सबसे मित्रता करने की बात राजकुमार को जँची नहीं और वह असन्तष्ु ट होकर
अपने घर वापस चला गया। पिता ने लौटने का कारण पछ
ू ा, तो उसने मन की
बात बता दी। भला सबके साथ मित्रता बरतना भी कोई नीति है ?
राजा चुप हो गया। पर जानता था, उससे जो कहा गया है सो सच है । कुछ दिन
बाद राजा अपने लड़के को साथ लेकर घने जंगलों में वन- विहार के लिए गया।
चलते- चलते शाम हो गई। राजा को ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। उठा तो दे खा
कि उसकी अँगूठी में जड़ा कीमती हीरा निकलकरपथरीले रे त में गिरकर गम
ु हो
गया है । हीरा बहुत कीमती था, सो राजा को बहुत चिन्ता हुई, पर किया क्या जाता,
अन्धेरी रात में कैसे ढूँढ़ते?
राजा चप
ु हो गया किन्तु कुछ दरू चलकर उसने राजकुमार से पन
ु ः पछ
ू ा कि फिर
मनीषी अध्यापक का यह कहना कैसे गलत हो गया कि ‘सबसे मित्रता का अभ्यास
करो।’ मित्रता का दायरा बड़ा होने से ही तो उसमें से हीरे ढूँढ़ सकना संभव होगा।
आने वाले अपनी- अपनी दृष्टि से उसका उद्देश्य बताते रहे । चोरों ने कहा- ‘‘एकांत
में सस्
ु ताने, योजना बनाने, हथियार जमा करने और माल का बँटवारा करने के
लिए।’’
जआ
ु रियों ने कहा,- ‘‘जुआ खेलने और लोगों की आँखों से बचे रहने के लिए।’’
कलाकारों ने कहा- ‘‘एकांत का लाभ लेकर एकाग्रता पूर्वक कला का अभ्यास करने
के लिए।’’
संतो ने कहा- ‘‘शांत वातावरण में भजन करने और ब्रह्मलीन होने के लिए।’’
कुछ विद्यार्थी आए, उनने कहा- ‘‘शांत वातावरण में विद्या अध्ययन ठीक प्रकार
होता है ।’’
काशी के सभी विद्वान,् साधु और अन्य पुण्यात्मा दानी लोग भी गंगा जी में
स्नान करके मन्दिर में आये। सबने विश्वनाथ जी को जल चढ़ाया, प्रदिक्षणा की
और सभा- मण्डप में तथा बाहर खड़े हो गये। उस दिन मन्दिर में बहुत भीड़ थी।
सबके आ जाने पर पज
ु ारी ने सबसे अपना स्वप्न बताया। सब लोग हर- हर
महादे व की ध्वनि करके शंकर जी की प्रार्थना करने लगे।
पुजारी जी बड़े त्यागी और सच्चे भगवद्भक्त थे। उन्होंने वह पात्र उठाया सबको
दिखाया। वे बोले-‘प्रत्येक सोमावार को यहाँ विद्वानों की सभा होगी, जो सबसे बड़ा
पुण्यात्मा और दयालु अपने को सिद्ध कर दे गा, उसे यह स्वर्णपात्र दिया जाएगा।’
दे श में चारों ओर यह समाचार फैल गया। दरू - दरू से तपस्वी,त्यागी, व्रत करने
वाले, दान करने वाले लोग काशी आने लगे। एक साधू ने कई महीने लगातार
चान्द्रायण- व्रत किया था। वे उस स्वर्णपात्रको लेने आये। लेकिन जब स्वर्णपात्र
उन्हें दिया गया, उनके हाथ में जाते ही वह मिट्टी का हो गया। उसकी ज्योति नष्ट
हो गयी। लज्जित हो कर उन्होंने स्वर्णपात्र लौटा दिया। पुजारी के हाथ में जाते ही
वह फिर सोने का हो गया और उसके रत्न चमकने लगे।
इसी प्रकार बहुत- से लोग आये, किन्तु कोई भी स्वर्णपात्र पा नहीं सका। सबके
हाथों में पहुँचकर वह मिट्टी का हो जाता था। कई महीने बीत गये। बहुत से लोग
स्वर्णपात्र पाने के लोभ से भगवान ् विश्वनाथ के मन्दिर के पास ही दान- पण्
ु य
करने लगे। लेकिन स्वर्णपात्र उन्हें भी नहीं मिला।
एक दिन एक बढ़
ू ा किसान भगवान ् विश्वनाथ के दर्शन करने आया। वह दे हाती
किसान था। उसके कपड़े मैले और फटे थे। वह केवल विश्वनाथ जी का दर्शन
करने आया था। उसके पास कपड़े में बँधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था।
लोग मन्दिर के पास गरीबों को कपड़े और पूड़ी- मिठाई आदि बाँट रहे थे; किन्तु
एक कोढ़ी मन्दिर से दरू पड़ा कराह रहा था। उससे उठा नहीं जाता था। उसके सारे
शरीर में घाव थे। वह भख
ू ा था, किन्तु उसकी ओर कोई दे खता तक नहीं था। बढ़
ू े
किसान को कोढ़ी पर दया आ गयी। उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और
अपना कम्बल उसे उढ़ा दिया। वहाँ से वह मन्दिर में दर्शन करने आया।
मन्दिर के पज
ु ारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जितने यात्री दर्शन
करने आते थे, सबके हाथ में एक बार वह स्वर्णपात्र रखते थे। बूढ़ा किसान जब
विश्वनाथ जी का दर्शन करके मन्दिर से निकला, पज
ु ारी ने उसके हाथ में स्वर्णपात्र
रख दिया। उसके हाथ में जाते ही स्वर्णपात्र में जड़े रत्न दग
ु न
ु े प्रकाश से चमकने
लगे। सब लोग बढ़
ू े की प्रशंसा करने लगे।
पुजारी ने कहा- जो निर्लोभ है , दीनों पर दया करता है , जो बिना किसी स्वार्थ के
दान करता है , और दखि
ु यों की सेवा करता है , वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है ।
पहले राजकुमार का कहना था- मैंने खगोल विद्या पढ़ी है - खगोल विद्या से मनुष्य
को विराट का ज्ञान होता है इसलिये मेरी विद्या सर्वश्रेष्ठ है । सत्य- असत्य का
जितना अच्छा निर्णय मैं दे सकता हूँ, दस
ू रा नहीं।
तीसरे राजकुमार का मत था- वेदान्त को व्यवहार में प्रयोग न किया जाए, साधनाएँ
न की जाएँ तो वाचिक ज्ञान मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता- दे खने वाली
बात है कि हम अपने सामाजिक जीवन में कितने व्यवस्थित हैं- मैंने सामजशास्त्र
पढ़ा है इसलिये मेरा दावा है कि श्रेष्ठता का अधिकारी मैं ही हो सकता हूँ।
| सेवाभावी की कसौटी |
स्वामीजी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा- धर्म की महत्ता
पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह
पर चलने के इच्छुक हों, वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। सभा विसर्जन के
समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नामलिखाये। स्वामीजी ने उसी समय
दस
ू रे दिन आने का आदे श दिया।
राहगीर बोला- मैं इससे भी बड़ी सेवा करने स्वामी जी के पास जा रहा हूँ। फिर
बिना इस कीचड़ में घुसे, धक्का दे ना भी सम्भव नहीं, अतः अपने कपड़े कौन
खराब करे । इतना कहकर वह आगे बढ़ गया। और आगे चलने पर उसे एक
नेत्रहीन वद्ध
ृ ा मिली। जो अपनी लकड़ी सड़क पर खटखट कर दयनीय स्वर से कह
रही थी, ‘‘कोई है क्या? जो मुझे सड़क के बायीं ओर वाली उस झोंपड़ी तक पहुँचा
दे । भगवान ् तुम्हारा भला करे गा। बड़ा अहसान होगा।’’ वह व्यक्ति कुड़कुड़ाया-
‘‘क्षमा करोमाँ! क्यों मेरा सगन
ु बिगाड़ती हो? तम
ु शायद नहीं जानती मैं बड़ा
आदमी बनने जा रहा हूँ। मझ
ु े जल्दी पहुँचना है ।’’
स्वामीजी ने मस्
ु कारते हुए प्रथम आगन्तक
ु से कहा- दोनों की राह एक ही थी, पर
तम्
ु हें सेवा के जो अवसर मिले, उनकी अवहे लना कर यहाँ चले आये। तम
ु अपना
निर्णय स्वयं ही कर लो, क्या सेवा कार्यों में मुझे सहयोग प्रदान कर सकोगे?
जिस व्यक्ति ने सेवा के अवसरों को खो दिया हो, वह भला क्या उत्तर दे ता?
माण्डव्य ऋषि विचार करने लगे कि ऐसा क्यों हुआ? यह उन्हें किस पाप की सजा
मिल रही है ? उन्होंने अपने जीवन का अवलोकन किया, कहीं कुछ नहीं मिला। फिर
विगत जीवन का अवलोकन किया। दे खते- दे खते परू े सौ जन्म दे ख लिये, पर कहीं
उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिसके परिणाम स्वरूप यह दण्ड सुनाया जाता।
अब उन्होंने परमात्मा की शरण ली। आदे श हुआ, ‘ऋषिअपना १०१ वाँ जन्म दे खो।’
| बड़ा बनो |
एक बार एक नवयुवक किसी संत के पास पहुँचा. और बोला
“महात्मा जी, मैं अपनी ज़िन्दगी से बहुत परे शान हूँ, कृपया मुझे इस परे शानी से
निकलने का उपाय बताएं संत बोले, “पानी के ग्लास में एक मुट्ठी नमक डालो और
उसे पीयो.”
यव
ु क ने ऐसा ही किया.
संत मस्
ु कुराते हुए बोले,
“एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक लेलो और मेरे पीछे -पीछे आओ.“
दोनों धीरे -धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दरू जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक
झील के सामने रुक गए.
यव
ु क ने ऐसा ही किया.
संत यव
ु क के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले,
“जीवन के दःु ख बिलकुल नमक की तरह हैं;
न इससे कम ना ज्यादा. जीवन में दःु ख की मात्रा वही रहती है , बिलकुल वही.
लेकिन हम कितने दःु ख का स्वाद लेते हैं
इसलिए जब तम
ु दख
ु ी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खद
ु को बड़ा कर लो
…ग़्लास मत बने रहो झील बन जाओ.
| जिन्दगी के आधार |
हर इंसान के लिए जीवन में शांति सर्वोपरि है . शांति के बिना इन्सान कोई सिद्धि
(Achievement) हासिल नहीं कर सकता है . परन्तु आज की भागमभाग में शांति
के आधारभत
ू तत्वों को ही भल
ू ते जा रहे हैं. इस समस्या का मल
ू हल बताती यह
Heart touching कहानी प्रस्तत
ु है :
तब प्रोफसर साहब ने कंकड़ (Pebbles) का डिब्बा उठाया और जार में उड़ेल दिया.
उन्होनें जार को हिलाकर रख दिया. जाहिर है Pebbles; Rocks के बीच खाली
जगह में घुसने ही थे. जब जार भर गया, Students से पछ
ु ा क्या जार भरा हुआ
है . सभी Students सहमत हुए.
प्रोफसर साहब ने रे त (Sand) का डिब्बा उठाया और जार में उड़ेल दिया. जाहिर है
रे त से जार में सब कुछ फुल भर गया.
“यदि आप जार में सबसे पहले रे त डालोगे” उनहोंने जारी रखा “तो उसमें Rocks,
pebbles के लिये कोई जगह खाली नहीं रहे गी. बिल्कुल ऐसा ही आपके जीवन में
चलता है .
अगर आप अपना सारा समय और ऊर्जा small stuff पर खर्च कर दोगे तो आपके
पास महत्पूर्ण चीजों के लिए समय कभी नहीं होगा. अपनी खुशी के लिए अपनी
अत्यंत महत्पूर्ण चीजों (Rocks) पर ध्यान दें . जिन्दगी के आधार ये ही हैं.
अपने बच्चों के साथ खेलें, अपने पैरेन्टस ् की सेवा करें , अपने partner साथ नाचें -
गायें बाहर घम
ू ने जायें, अपने सवास्थ्य पर ध्यान दें . आप हमेशा उसके बाद job
पर जाने, घर को साफ रखने, डिनर पार्टी दे ने तथा अन्य कार्यों का निस्तारण तय
करें .
पहले अपनी Rocks का ख्याल रखें – जो वास्तव में महत्वपूर्ण चीजें हैं.
अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करें . बाकी तो बस रे त है .”
| गार्बेज ट्रक |
एक दिन एक आदमी टै क्सी से एअरपोर्ट जा रहा था . टै क्सी वाला कुछ गुनगुनाते
हुए बड़े इत्मीनान से गाड़ी चला रहा था कि अचानक एक दस
ू री कार पार्किं ग से
निकल कर रोड पर आ गयी , टै क्सी वाले ने तेजी से ब्रेक लगायी, गाड़ी स्किड
करने लगी और बस एक -आध इंच से सामने वाली कार से भिड़ते -भिड़ते बची .
आदमी ने सोचा कि टै क्सी वाला कार वाले को भला -बुरा कहे गा …लेकिन इसके
उलट सामने वाला ही पीछे मुड़ कर उसे गलियां दे ने लगा . इसपर टै क्सी वाला
नाराज़ होने की बजाये उसकी तरफ हाथ हिलाते हुए मस्
ु कुराने लगा , और धीरे -
धीरे आगे बढ़ गया .
आदमी ने आश्चर्य से पछ
ू ा “ तम
ु ने ऐसा क्यों किया ? गलती तो उस आदमी की
थी, उसकी वजह से तम्
ु हारी गाड़ी भिड़ सकती थी और हम होस्पिटलाइज भी हो
सकते थे .!”
“सर जी ”, टै क्सी वाला बोला , “ बहुत से लोग गार्बेज ट्रक की तरह होते हैं . वे
बहुत सारा कूड़ा – करकट दिमाग में भरे हुए चलते हैं, फ्रस्ट्रे टेड, हर किसी से नाराज़
और निराशा से भरे …जब गार्बेज बहुत ज्यादा हो जाता है तो वे अपना बोझ हल्का
करने के लिए इसे दस
ू रों पर फेंकने का अवसर खोजने लगते हैं , पर जब ऐसा
कोई आदमी मुझे अपना शिकार बनाने की कोशिश करता हैं तो मैं बस यूँही
मस्
ु कुरा के हाथ हिला कर उनसे दरू ी बना लेता हूँ …किसी को भी उनका गार्बेज
नहीं लेना चाहिए , अगर ले लिया तो शायद हम भी उन्ही की तरह उसे इधर उधर
फेंकने में लग जायेंगे …घर में ,ऑफिस में सड़कों पर …और माहौल गन्दा कर दें गे
, हमें इन गार्बेज ट्रक्स को अपना दिन खराब नहीं करने दे ना चाहिए . ज़िन्दगी
बहुत छोटी है कि हम सुबह किसी अफ़सोस के साथ उठें , इसलिए … उनसे प्यार
करो जो तम्
ु हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और जो नहीं करते उन्हें माफ़ कर
दो .”
| हितैषियों का साथ |
किसी जंगल में एक सियार रहता था। एक बार भोजन के लालच में वह शहर में
चला आया। शहर के कुत्ते उसके पीछे पड़ गए। डर के कारण सियार एक धोबी के
घर में घुस गया। धोबी के आँगन में एक नाँद था।
सियार उसी में कूद गया। इससे वह परू ी तरह नीले रं ग में रं ग गया। कुत्तों ने
जब उसका नीला शरीर दे खा तो उसे कोई विचित्र और भयानक जंतु समझकर
भाग खड़े हुए। सियार मौका पाकर निकला और सीधे जंगल में चला गया। नीले
रं गवाले विचित्र पशु को दे खकर शेर और बाघ तक उससे भयभीत हो गए। वे इधर-
उधर भागने लगे।
इसलिए ब्रह्मा ने मेरी रचना करके कहा-‘मैं तुम्हें सभी जानवरों का राजा बनाता
हूँ। तम
ु धरती पर जाकर जंगली जंतओ
ु ं का पालन करो। मैं ब्रह्मा के आदे श से ही
आया हूँ’’ नीला जानवर उन सबका स्वामी है -यह बात सुनकर सिंह, बाघ आदि
सभी जंतु उसके समीप आकर बैठ गए। वे उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी
चापलूसी करने लगे।
धूर्त सियार ने सिंह को अपना महामंत्री नियुक्त किया। इसी प्रकार बाघ को
सेनानायक बनाया, चीते को पान लगाने का काम सौंपा, भेड़िए को द्वारपाल बना
दिया। उसने सभी जीव-जंतओ
ु ं को कोई-न-कोई जिम्मेदारी सौंपी, लेकिन अपनी
जाति के सियारों से बात तक न की। उन्हें धक्के दे कर बाहर निकलवा दिया।
सिंह आदि जंतु जंगल में शिकार करके लाते और उसके सामने रख दे ते थे। सियार
स्वामी की तरह मांस को सभी जीवों में बाँट दे ता था। इस प्रकार उसका राजकाज
आराम से चलता रहा।
एक दिन वह अपनी राजसभा में बैठा था। उसे दरू से सियारों के चिल्लाने की
आवाज सुनाई पड़ी। सियारों की ‘हुआ-हुआ’ सुनकर वह पल
ु कित हो गया और
आनंद-विभोर होकर सुर-में -सुर मिलाकर ‘हुआ-हुआ’करने लगा। उसके चिल्लाने से
सिंह आदि जानवरों को पता चल गया कि यह तो मामूली सियार है ।
| सियार का विश्वासघात |
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक सियार उसका सेवक था। एक बार एक
हाथी से शेर की लड़ाई हो गई। शेर बुरी तरह घायल हो गया। वह चलने-फिरने में
भी असमर्थ हो गया। आहार न मिलने से सियार भी भूखा था।
शेर ने सियार से कहा-‘तुम जाओ और किसी पशु को खोजकर लाओ, जिसे मारकर
हम अपने पेट भर सकें।’ सियार किसी जानवर की खोज करता हुआ एक गाँव में
पहुँच गया। वहाँ उसने एक गधे को घास चरते हुए दे खा।
सियार गधे के पास गया और बोला-‘मामा, प्रणाम! बहुत दिनों बाद आपके दर्शन
हुए हैं। आप इतने दब
ु ले कैसे हो गए?’ गधा बोला-‘भाई, कुछ मत पछ
ू ो। मेरा
स्वामी बड़ा कठोर है । वह पेटभर कर घास नहीं दे ता। इस धल
ू से सनी हुई घास
खाकर पेट भरना पड़ता है ।’
सियार बोला- ‘मामा, वह बड़ी सरु क्षित जगह है । वहाँ किसी का कोई डर नहीं है ।
तीन गधियाँ भी वहीं रहती हैं। वे भी एक धोबी के अत्याचारों से तंग होकर भाग
आई हैं। उनका कोई पति भी नहीं है । आप उनके योग्य हो!’ चाहो तो उन तीनों के
पति भी बन सकते हो। चलो तो सही।’
सियार की बात सुनकर गधा लालच में आ गया। गधे को लेकर धूर्त सियार वहाँ
पहुँचा, जहाँ शेर छिपा हुआ बैठा था। शेर ने पंजे से गधे पर प्रहार किया लेकिन
गधे को चोट नहीं लगी और वह डरकर भाग खड़ा हुआ।
सियार ने कहा-‘अच्छा, अब तुम पूरी तरह तैयार होकर बैठो, मैं उसे फिर से लेकर
आता हूँ।’ वह फिर गधे के पास पहुँचा। गधे ने सियार को दे खते ही कहा-‘तम
ु तो
मझ
ु े मौत के मँह
ु में ही ले गए थे। न जाने वह कौन-सा जानवर था। मैं बड़ी
मुश्किल से जान बचाकर भागा!’
सियार ने हँसते हुए कहा-‘अरे मामा, तम
ु उसे पहचान नहीं पाए। वह तो गर्दभी थी।
उसने तो प्रेम से तम्
ु हारा स्वागत करने के लिए हाथ बढ़ाया था। तम
ु तो बिल्कुल
कायर निकले! और वह बेचारी तुम्हारे वियोग में खाना-पीना छोड़कर बैठी है । तम्
ु हें
तो उसने अपना पति मान लिया है । अगर तुम नहीं चलोगे तो वह प्राण त्याग
दे गी।’
गधा एक बार फिर सियार की बातों में आ गया और उसके साथ चल पड़ा। इस
बार शेर नहीं चक
ू ा। उसने गधे को एक ही झपट्टे में मार दिया। भोजन करने से
पहले शेर स्नान करने के लिए चला गया।
एक दिन उसने एक कबूतरी को पकड़कर अपने पिंजरे में बंद कर लिया। इसी बीच
जंगल में घना अँधेरा छा गया। तेज आँधी आई और मस
ू लाधार वर्षा होने लगी।
बहे लिया काँपता हुआ एक वक्ष
ृ के नीचे छिपकर बैठ गया। वह दख
ु ी स्वर में
बोला-‘जो भी यहाँ रहता हो, मैं उसकी शरण में हूँ।’
उसी वक्ष
ृ पर अपनी पत्नी के साथ एक कबत
ू र रहता था। उसकी प्रिया कबूतरी
अब तक नहीं लौटी थी। कबूतर सोच रहा था कि शायद आँधी और वर्षा में
फँसकर उसकी मत्ृ यु हो गई थी। कबत
ू र उसके वियोग में विलाप कर रहा था।
बहे लिए ने जिस कबत
ू री को पकड़ा था, वह वही कबत
ू री थी।
बहे लिए की पक
ु ार सुनकर पिंजरे में बंद कबूतरी ने कबत
ू र से कहा-‘इस समय यह
बहे लिया तम्
ु हारी शरण में आया है । तुम अतिथि समझकर इसका सत्कार करो।
इसने ही मुझे पिंजरे में बद कर रखा है , इस बात पर इससे घण
ृ ा मत करो।’
कबत
ू र ने बहे लिए से पछ
ू ा-‘भाई, मैं तम्
ु हारी क्या सेवा करुँ ?’ बहे लिए ने काँपते हुए
कहा-‘मझ
ु े इस समय बहुत जाड़ा लग रहा है । जाड़े को दरू करने का कुछ उपाय
करो।’
कबूतर अपनी बात करता रहा किंतु उसने कबूतरी को पकड़ने के लिए बहे लिए की
निंदा नहीं की। थोड़ी दे र में उसने बहे लिए से कहा-‘अब मैं तम्
ु हारी भख
ू मिटाने का
उपाय करता हूँ। इतना कहकर कबूतर थोड़ी दे र आग के चारों ओर मँडराता रहा
और अचानक आग में कूद पड़ा।’
इस प्रकार शरण में आए हुए बहे लिए के लिए कबूतर और कबूतरी दोनों ने अपना
बलिदान दे दिया। इसीलिए कहा गया है कि सभी प्रकार का दख
ु उठाकर भी
अतिथि की सेवा करनी चाहिए।
इसी प्रकार एक बार राजा नंद की पत्नी भी क्रोध करके कलह मचाने लगी। राजा
भी अपनी पटरानी को बहुत प्यार करता था। इसलिए उसने उससे पूछा-‘तुम्हें
प्रसन्न करने के लिए मैं क्या करुँ ?’
अगले दिन राजसभा ने नंद ने महामंत्री वररुचि को मुंडित केश दे खकर पूछा-‘अरे
महामंत्री, तुमने किस पर्व पर यह मुंडन करवा लिया?’ चतुर महामंत्री से कुछ भी
छिपा हुआ नहीं था। उसने कहा-‘महाराज, स्त्री की याचना पर तो लोग घोड़े की
तरह हिनहिनाते भी लगते हैं। केश मँड
ु ाना तो कुछ भी नहीं है ।’ राजा लज्जित
होकर चुप रह गया।
उस गफ
ु ा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गफ
ु ा पर आया।
उसने गफ
ु ा के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान दे खे। उसने ध्यान से दे खा।
उसने अनुमान लगाया कि शेर अंदर तो गया, परं तु अंदर से बाहर नहीं आया है ।
वह समझ गया कि उसकी गफ
ु ा में कोई शेर छिपा बैठा है । चतुर सियार ने तुरंत
एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।
गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज दे कर
सियार को बल
ु ाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है । इसलिए आज मैं ही
इसे आवाज दे कर अंदर बल
ु ाता हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई
और कहा-‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि
अंदर शेर बैठा है । वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और इस तरह सियार ने चालाकी
से अपनी जान बचा ली।
| धोखेबाज का अंत |
किसी स्थान पर एक बहुत बड़ा तालाब था। वहीं एक बूढ़ा बगुला भी रहता था।
बढ़
ु ापे के कारण वह कमजोर हो गया था। इस कारण मछलियाँ पकड़ने में असमर्थ
था। वह तालाब के किनारे बैठकर, भख
ू से व्याकुल होकर आँसू बहाता रहता था।
एक बार एक केकड़ा उसके पास आया। बगुले को उदास दे खकर उसने पूछा, ‘मामा,
तुम रो क्यों रहे हो? क्या तुमने आजकल खाना-पीना छोड़ दिया है ?..अचानक यह
क्या हो गया?’ बगल
ु े ने बताया- ‘पुत्र, मेरा जन्म इसी तालाब के पास हुआ था।
यहीं मैंने इतनी उम्र बिताई। अब मैंने सुना है कि यहाँ बारह वर्षों तक पानी नहीं
बरसेगा।’ केकड़े ने पछ
ू ा, ‘तुमसे ऐसा किसने कहा है ?’
बगल
ु े ने कहा- ‘मझ
ु े एक ज्योतिषी ने यह बात बताई है । इस तालाब में पानी पहले
ही कम है । शेष पानी भी जल्दी ही सूख जाएगा। तालाब के सूख जाने पर इसमें
रहने वाले प्राणी भी मर जाएँगे। इसी कारण मैं परे शान हूँ।’
केकड़े ने वहाँ पर पड़ी हुई हड्डियों को दे खा। उसने बगुले से पूछा-‘मामा, सरोवर
कितनी दरू है ? आप तो थक गए होंगे।’ बगल
ु े ने केकड़े को मूर्ख समझकर उत्तर
दिया-‘अरे , कैसा सरोवर! यह तो मैंने अपने भोजन का उपाय सोचा था। अब तू भी
मरने के लिए तैयार हो जा। मैं इस पत्थर पर बैठकर तुझे खा जाऊँगा।’ इतना
सुनते ही केकड़े ने बगुले की गर्दन जकड़ ली और अपने तेज दाँतों से उसे काट
डाला। बगल
ु ा वहीं मर गया।
केकड़ा किसी तरह धीरे -धीरे अपने तालाब तक पहुँचा। मछलियों ने जब उसे दे खा
तो पछ
ू ा-‘अरे , केकड़े भाई, तुम वापस कैसे आ गए। मामा को कहाँ छोड़ आए? हम
तो उनके इंतजार में बैठे हैं।’ यह सुनकर केकड़ा हँसने लगा। उसने बताया-‘वह
बगुला महाठग था। उसने हम सभी को धोखा दिया। वह हमारे साथियों को पास
की एक चट्टान पर ले जाकर खा जाता था। मैंने उस धूर्त्त बगुले को मार दिया है ।
अब डरने की कोई बात नहीं है । इसीलिए कहा गया है कि जिसके पास बुद्धि है ,
उसी के पास बल भी होता है ।’
थोड़ी दे र में उस तरफ एक बाघ आ निकला। बाघ ने मरे हाथी को दे खकर अपने
होंठ पर जीभ फिराई। सियार ने उसकी मंशा भांपते हुए कहा, “मामा आप इस
मत्ृ यु के मुंह में कैसे आ गए? सिंह ने इसे मारा है और मुझे इसकी रखवाली करने
को कह गया है ।
यह सुनते ही बाघ वहां से भाग खड़ा हुआ। पर तभी एक चीता आता हुआ दिखाई
दिया। सियार ने सोचा चीते के दांत तेज होते हैं। कुछ ऐसा करूं कि यह हाथी की
चमड़ी भी फाड़ दे और मांस भी न खाए।
सिर्फ अपनी सझ
ू -ब झ
ू से छोटे से सियार ने अपनी समस्या का हल निकाल लिया।
इसीलिए कहते हैं कि बुद्धि के प्रयोग से कठिन से कठिन काम भी संभव हो जाता
है ।
| बल से बड़ी बद्धि
ु |
एक गुफा में एक बड़ा ताकतवर शेर रहता था। वह प्रतिदिन जंगल के अनेक
जानवरों को मार डालता था। उस वन के सारे जानवर उसके डर से काँपते रहते
थे। एक बार जानवरों ने सभा की। उन्होंने निश्चय किया कि शेर के पास जाकर
उससे निवेदन किया जाए। जानवरों के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि शेर के पास गए।
जानवरों ने उसे प्रणाम किया।
शेर ने गरजकर पछ
ू ा-‘तो मैं क्या कर सकता हूँ?’
सभी जानवरों में निवेदन किया, ‘महाराज, आप भोजन के लिए कष्ट न करें ।
आपके भोजन के लिए हम स्वयं हर दिन एक जानवर को आपकी सेवा में भेज
दिया करें गे। आपका भोजन हरदिन समय पर आपकी सेवा से पहुँच जाया करे गा।’
इसके बाद हर दिन एक पशु शेर की सेवा में भेज दिया जाता। एक दिन शेर के
पास जाने की बारी एक खरगोश की आ गई। खरगोश बुद्धिमान था।
उसने मन-ही मन सोचा- ‘अब जीवन तो शेष है नहीं। फिर मैं शेर को खश
ु करने
का उपाय क्यों करुँ ? ऐसा सोचकर वह एक कुएँ पर आराम करने लगा। इसी
कारण शेर के पास पहुँचने में उसे बहुत दे र हो गई।’
खरगोश जब शेर के पास पहुँचा तो वह भूख के कारण परे शान था। खरगोश को
दे खते ही शेर जोर से गरजा और कहा, ‘एक तो तू इतना छोटा-सा खरगोश है और
फिर इतनी दे र से आया है । बता, तझ
ु े इतनी दे र कैसे हुई?’
खरगोश बनावटी डर से काँपते हुए बोला- ‘महाराज, मेरा कोई दोष नहीं है । हम दो
खरगोश आपकी सेवा के लिए आए थे। किंतु रास्ते में एक शेर ने हमें रोक लिया।
उसने मुझे पकड़ लिया।’
मैंने उससे कहा- ‘यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे राजा तम
ु पर नाराज होंगे
और तम्
ु हारे प्राण ले लेंगे।’ उसने पछ
ू ा-‘कौन है तम्
ु हारा राजा?’ इस पर मैंने आपका
नाम बता दिया।
| लोभ का फल कड़वा |
किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती
साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु
में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वक्ष
ृ की शीतल छाया में लेटा हुआ था।
सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल दे खा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा
था। उसको दे खकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का
दे वता है । मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा
करूंगा।
| चंचलता से बद्धि
ु का नाश |
किसी तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। तालाब के किनारे रहने
वाले संकट और विकट नामक हं स से उसकी गहरी दोस्ती थी। तालाब के किनारे
तीनों हर रोज खूब बातें करते और शाम होने पर अपने-अपने घरों को चल दे ते।
एक वर्ष उस प्रदे श में जरा भी बारिश नहीं हुई। धीरे -धीरे वह तालाब भी सख
ू ने
लगा। अब हं सों को कछुए की चिंता होने लगी।
जब उन्होंने अपनी चिंता कछुए से कही तो कछुए ने उन्हें चिंता न करने को कहा।
उसने हं सों को एक युक्ति बताई। उसने उनसे कहा कि सबसे पहले किसी पानी से
लबालब तालाब की खोज करें फिर एक लकड़ी के टुकड़े से लटकाकर उसे उस
तालाब में ले चलें।
कछुए ने लकड़ी के टुकड़े को अपने दांत से पकड़ा फिर दोनो हंस उसे लेकर उड़
चले। रास्ते में नगर के लोगों ने जब दे खा कि एक कछुआ आकाश में उड़ा जा रहा
है तो वे आश्चर्य से चिल्लाने लगे। लोगों को अपनी तरफ चिल्लाते हुए दे खकर
कछुए से रहा नहीं गया।
वह अपना वादा भल
ू गया। उसने जैसे ही कुछ कहने के लिए अपना मंह
ु खोला कि
आकाश से गिर पड़ा। ऊंचाई बहुत ज्यादा होने के कारण वह चोट झेल नहीं पाया
और अपना दम तोड़ दिया। इसीलिए कहते हैं कि बुद्धिमान भी अगर अपनी
चंचलता पर काबू नहीं रख पाता है तो परिणाम काफी बुरा होता है ।
गाँववाले इसे बाघ समझेंगे और डर से इसके पास नहीं आएँगे। खेतों में चरकर यह
खूब मोटा-ताजा हो जाएगा।
एक रात गधा बाघ की खाल ओढ़े खेत में चर रहा था। तभी उसने दरू से किसी
गधी का रें कना सुना। उसकी आवाज सुनकर गधा प्रसन्न हो उठा और मौज में
आकर स्वयं भी रें कने लगा।
दोनों अपने ग्राम से बहुत दरू निकल आए थे कि तभी मार्ग में एक गहरी नदी आ
गई। उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले
जाकर मैं क्या करूंगा। और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो
वैसे भी संकट ही है । अतः किसी प्रकार इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड
छुड़ाना चाहिए।
यह विचार कर उसने कहा, “नदी बड़ी गहरी है । पहले मैं गठरी को उस पार रख
आता हूं, फिर तम
ु को अपनी पीठ पर लादकर उस पार ले चलंग
ू ा। दोनों को एक
साथ ले चलना कठिन है ।” “ठीक है , ऐसा ही करो।”
किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला, “अपने पहने हुए गहने-
कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। और
कपड़े भीगें गे भी नहीं।” उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार
गया तो फिर लौटकर आया ही नहीं।
वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही। इसलिए कहते हैं कि अपने
हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।
| विवेकहीन स्वामी |
किसी वन में मदोत्कट नाम का सिंह निवास करता था। बाघ, कौआ और सियार, ये
तीन उसके नौकर थे। एक दिन उन्होंने एक ऐसे उं ट को दे खा जो अपने गिरोह से
भटककर उनकी ओर आ गया था। उसको दे खकर सिंह कहने लगा, “अरे वाह! यह
तो विचित्र जीव है । जाकर पता तो लगाओ कि यह वन्य प्राणी है अथवा कि ग्राम्य
प्राणी”
सिंह बोला, “ मैं अपने यहां आने वाले अतिथि को नहीं मारता। कहा गया है कि
विश्वस्त और निर्भय होकर अपने घर आए शत्रु को भी नहीं मारना चाहिए। अतः
उसको अभयदान दे कर यहां मेरे पास ले आओ जिससे मैं उसके यहां आने का
कारण पछ
ू सकंू ।”
उसके कुछ दिन बाद मदोत्कट सिंह का किसी जंगली हाथी के साथ घमासान युद्ध
हुआ। उस हाथी के मस
ू ल के समान दांतों के प्रहार से सिंह अधमरा तो हो गया
किन्तु किसी प्रकार जीवित रहा, पर वह चलने-फिरने में अशक्त हो गया था। उसके
अशक्त हो जाने से कौवे आदि उसके नौकर भख
ू े रहने लगे। क्योंकि सिंह जब
शिकार करता था तो उसके नौकरों को उसमें से भोजन मिला करता था।
अब सिंह शिकार करने में असमर्थ था। उनकी दर्दु शा दे खकर सिंह बोला, “किसी
ऐसे जीव की खोज करो कि जिसको मैं इस अवस्था में भी मारकर तुम लोगों के
भोजन की व्यवस्था कर सकंू ।”
सियार सिंह के पास गया और वहां पहुंचकर कहने लगा, “स्वामी! हम सबने
मिलकर सारा वन छान मारा है , किन्तु कहीं कोई ऐसा पशु नहीं मिला कि जिसको
हम आपके समीप मारने के लिए ला पाते। अब भख
ू इतनी सता रही है कि हमारे
लिए एक भी पग चलना कठिन हो गया है । आप बीमार हैं। यदि आपकी आज्ञा हो
तो आज कथनक के मांस से ही आपके खाने का प्रबंध किया जाए।”
पर सिंह ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसने ऊंट को अपने यहां पनाह दी
है इसलिए वह उसे मार नहीं सकता।
पर सियार ने सिंह को किसी तरह मना ही लिया। राजा की आज्ञा पाते ही श्रग
ृ ाल
ने तत्काल अपने साथियों को बल
ु ाया लाया। उसके साथ ऊंट भी आया। उन्हें
दे खकर सिंह ने पछ
ू ा, “तुम लोगों को कुछ मिला?”
उसने सिंह को प्रणाम करके कहा, “स्वामी! ये सभी आपके लिए अभक्ष्य हैं। किसी
का आकार छोटा है , किसी के तेज नाखून हैं, किसी की दे ह पर घने बाल हैं। आज
तो आप मेरे ही शरीर से अपनी जीविका चलाइए जिससे कि मुझे दोनों लोकों की
प्राप्ति हो सके।”
| वंश की रक्षा |
किसी पर्वत प्रदे श में मन्दविष नाम का एक वद्ध
ृ सर्प रहा करता था। एक दिन वह
विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है , जिससे बिना परिश्रम किए ही
उसकी आजीविका चलती रहे । उसके मन में तब एक विचार आया।
वह समीप के मेढकों से भरे तालाब के पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी
बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते दे खकर तालाब के किनारे
एक पत्थर पर बैठे मेढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पछ
ू ा,“मामा! आज क्या बात
है ? शाम हो गई है , किन्तु तुम भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो?”
उससे उसकी तत्काल मत्ृ यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दःु ख हुआ और
उस शोकाकुल पिता ने मझ
ु े शाप दे ते हुए कहा, “दष्ु ट! तम
ु ने मेरे पत्र
ु को बिना
किसी अपराध के काटा है , अपने इस अपराध के कारण तम
ु को मेढकों का वाहन
बनना पड़ेगा।” “बस, तुम लोगों के वाहन बनने के उद्देश्य से ही मैं यहां तुम लोगों
के पास आया हूं।”
मेढक सर्प से यह बात सुनकर अपने परिजनों के पास गया और उनको भी उसने
सर्प की वह बात सुना दी। इस प्रकार एक से दस
ू रे और दस
ू रे से तीसरे कानों में
जाती हुई यह बात सब मेढकों तक पहुँच गई। उनके राजा जलपाद को भी इसका
समाचार मिला। उसको यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सबसे पहले वही सर्प के
पास जाकर उसके फन पर चढ़ गया। उसे चढ़ा हुआ दे खकर अन्य सभी मेढक
उसकी पीठ पर चढ़ गए। सर्प ने किसी को कुछ नहीं कहा।
| महामनि
ु और चुहिया |
एक महान तपस्वी एक दिन गंगा में नहाने के लिए गए। स्नान करके वह सर्य
ू की
पज
ू ा करने लगे। तभी उन्होंने दे खा कि एक बाज ने झपट्टा मारा और एक चहि
ु या
को पंजे में जकड़ लिया। तपस्वी को चहि
ु या पर दया आ गई। उन्होंने बाज को
पत्थर मारकर चुहिया को छुड़ा लिया। चुहिया तपस्वी के चरणों में दब
ु ककर बैठ
गई।
तपस्वी ने सोचा कि चुहिया को लेकर कहाँ घूमता फिरुँ गा, इसको कन्या बनाकर
साथ लेकर चलता हूँ। तपस्वी ने अपने तप के प्रभाव से चुहिया को कन्या का रूप
दे दिया। वह उसे साथ लेकर अपने आश्रम पर आ गए।
तपस्वी की पत्नी ने पछ
ू ा-‘उसे कहाँ से ले आए?’तपस्वी ने परू ी बात बता दी।
दोनों पुत्री की तरह कन्या का पालन-पोषण करने लगे। कुछ दिनों बाद कन्या
युवती हो गई। पति-पत्नी को उसके विवाह की चिंता सताने लगी।
तब तपस्वी ने बादल से ही पछ
ू ा-‘तम
ु से जो उत्तम हो, उसका नाम बताओ।’ बादल
ने बताया-‘मुझसे उत्तम वायु दे वता हैं। वह तो मुझे भी उड़ा ले जाते हैं।’ तपस्वी
ने वायु दे वता का आवाहन किया। वायु को दे खकर लड़की ने कहा-‘वायु है तो
शक्तिशाली, पर चंचल बहुत है । यदि कोई इससे अच्छा हो तो उसे बल
ु ाइए।’
तपस्वी ने वायु से पछ
ू ा- ‘बताओ, तम
ु से अच्छा कौन है ?’ वायु ने कहा-‘मझ
ु से श्रेष्ठ
तो पर्वत ही होता है । वह मेरी गति को भी रोक दे ता है ।’तपस्वी ने पर्वत को
बुलाया। पर्वत के आने पर लड़की ने कहा-‘पर्वत तो बहुत कठोर है । किसी दस
ू रे वर
की खोज कीजिए।’
तपस्वी ने पर्वत से पूछा- ‘पर्वतराज, तुम अपने से श्रेष्ठ किसे मानते हो?’ पर्वत ने
कहा-‘चूहे मुझसे भी श्रेष्ट होते हैं। वे मेरे शरीर में भी छे द कर दे ते हैं।’ तपस्वी ने
चूहों के राजा को बुलाया और पुत्री से प्रश्न किया-‘क्या तम
ु इसे पसंद करती हो?’
लड़की चूहे को दे खकर बड़ी प्रसन्न हुई और उससे विवाह करने को तैयार हो गई।
वह बोली-‘पिताजी, आप मझ
ु े फिर से चहि
ु या बना दीजिए। मैं इनसे विवाह करके
आनंदपूर्वक रह सकूँगी।’ तपस्वी ने उसे फिर से चुहिया बना दिया।
| जैसे को तैसा |
किसी नगर में एक व्यापारी का पुत्र रहता था। दर्भा
ु ग्य से उसकी सारी संपत्ति
समाप्त हो गई। इसलिए उसने सोचा कि किसी दस
ू रे दे श में जाकर व्यापार किया
जाए। उसके पास एक भारी और मल्
ू यवान तराजू था। उसका वजन बीस किलो
था। उसने अपने तराजू को एक सेठ के पास धरोहर रख दिया और व्यापार करने
दस
ू रे दे श चला गया।
कई दे शों में घम
ू कर उसने व्यापार किया और खब
ू धन कमाकर वह घर वापस
लौटा। एक दिन उसने सेठ से अपना तराजू माँगा। सेठ बेईमानी पर उतर गया।
वह बोला, ‘भाई तुम्हारे तराजू को तो चूहे खा गए।’ व्यापारी पुत्र ने मन-ही-मन
कुछ सोचा और सेठ से बोला-‘सेठ जी, जब चूहे तराजू को खा गए तो आप कर भी
क्या कर सकते हैं! मैं नदी में स्नान करने जा रहा हूँ। यदि आप अपने पुत्र को मेरे
साथ नदी तक भेज दें तो बड़ी कृपा होगी।’ सेठ मन-ही-मन भयभीत था कि
व्यापारी का पत्र
ु उस पर चोरी का आरोप न लगा दे । उसने आसानी से बात बनते
न दे खी तो अपने पत्र
ु को उसके साथ भेज दिया।
स्नान करने के बाद व्यापारी के पुत्र ने लड़के को एक गुफ़ा में छिपा दिया। उसने
गुफा का द्वार चट्टान से बंद कर दिया और अकेला ही सेठ के पास लौट आया।
सेठ ने पछ
ू ा, ‘मेरा बेटा कहाँ रह गया?’ इस पर व्यापारी के पुत्र ने उत्तर दिया,‘जब
हम नदी किनारे बैठे थे तो एक बड़ा सा बाज आया और झपट्टा मारकर आपके पुत्र
को उठाकर ले गया।’ सेठ क्रोध से भर गया। उसने शोर मचाते हुए कहा-‘तम
ु झठ
ू े
और मक्कार हो। कोई बाज इतने बड़े लड़के को उठाकर कैसे ले जा सकता है ?तुम
मेरे पुत्र को वापस ले आओ नहीं तो मैं राजा से तम्
ु हारी शिकायत करुँ गा’
व्यापारी पुत्र ने कहा, ‘आप ठीक कहते हैं।’ दोनों न्याय पाने के लिए राजदरबार में
पहुँचे। सेठ ने व्यापारी के पुत्र पर अपने पुत्र के अपहरण का आरोप लगाया।
न्यायाधीश ने कहा, ‘तम
ु सेठ के बेटे को वापस कर दो।’ इस पर व्यापारी के पुत्र
ने कहा कि ‘मैं नदी के तट पर बैठा हुआ था कि एक बड़ा-सा बाज झपटा और
सेठ के लड़के को पंजों में दबाकर उड़ गया। मैं उसे कहाँ से वापस कर दँ ?
ू ’
न्यायाधीश ने कहा, ‘तम
ु झठ
ू बोलते हो। एक बाज पक्षी इतने बड़े लड़के को कैसे
उठाकर ले जा सकता है ?’
इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा, ‘यदि बीस किलो भार की मेरी लोहे की तराजू को
साधारण चूहे खाकर पचा सकते हैं तो बाज पक्षी भी सेठ के लड़के को उठाकर ले
जा सकता है ।’ न्यायाधीश ने सेठ से पछ
ू ा, ‘यह सब क्या मामला है ?’ अंततः सेठ
ने स्वयं सारी बात राजदरबार में उगल दी। न्यायाधीश ने व्यापारी के पुत्र को
उसका तराजू दिलवा दिया और सेठ का पुत्र उसे वापस मिल गया।
| बकरा और ब्राह्मण |
किसी गांव में सम्भद
ु याल नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने
यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सन
ु सान था।
आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले।
पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही
अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”
आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला। उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता
ले जाने का कारण पछ
ू ा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा
नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है । थोड़ी दरू जाकर, उसने बकरे को
कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया।
इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई। इसीलिए कहते हैं कि
किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है । अतः अपने
दिमाग से काम लें और अपने आप पर विश्वास करें ।
रास्ते में सबसे बड़े भाई ने कहा-‘हमारा चौथा भाई तो निरा अनपढ़ है । राजा सदा
विद्वान व्यक्ति का ही सत्कार करते हैं। केवल बुद्धि से तो कुछ मिलता नहीं।
विद्या के बल पर हम जो धन कमाएँगे, उसमें से इसे कुछ नहीं दें गे। अच्छा तो
यही है कि यह घर वापस चला जाए।’
ू रे भाई का विचार भी यही था। किंतु तीसरे भाई ने उनका विरोध किया। वह
दस
बोला-‘हम बचपन से एक साथ रहे हैं, इसलिए इसको अकेले छोड़ना उचित नहीं है ।
हम अपनी कमाई का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा इसे भी दे दिया करें गे।’ अतः चौथा भाई
भी उनके साथ लगा रहा।
रास्ते में एक घना जंगल पड़ा। वहाँ एक जगह हड्डियों का पंजर था। उसे दे खकर
उन्होंने अपनी-अपनी विद्या की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उनमें से एक ने
हड्डियों को सही ढं ग से एक स्थान पर एकत्रित कर दिया। वास्तव में ये हड्डियाँ
एक मरे हुए शेर की थीं।
दस
ू रे ने बड़े कौशल से हड्डियों के पंजर पर मांस एवं खाल का अवरण चढ़ा दिया।
उनमें उसमें रक्त का संचार भी कर दिया। तीसरा उसमें प्राण डालकर उसे जीवित
करने ही वाला था कि चौथे भाई ने उसको रोकते हुए कहा, ‘तम
ु ने अपनी विद्या से
यदि इसे जीवित कर दिया तो यह हम सभी को जान से मार दे गा।’
तीसरे भाई ने अपनी विद्या के बल पर जैसे ही शेर में प्राणों का संचार किया, शेर
तड़पकर उठा और उन पर टूट पड़ा। उसने पलक झपकते ही तीनों अभिमानी
विद्वानों को मार डाला और गरजता हुआ चला गया। उसके दरू चले जाने पर
चौथा भाई पेड़ से उतरकर रोता हुआ घर लौट आया। इसीलिए कहा गया है कि
विद्या से बुद्धि श्रेष्ठ होती है ।
उस राज्य के राजा का नाम बलि था। उसकी दो पुत्रियाँ थीं। दोनों युवती थीं। वे
प्रतिदिन सुबह-सुबह अपने पिता को प्रणाम करतीं। प्रणाम करने के बाद उनमें से
एक कहती, ‘महाराज की जय हो, जिससे हम सब सख
ु ी रहें ।’ दस
ू री कहती,
‘महाराज, आपको आपके कर्मों का फल अवश्य मिले।’
राजा बलि दस
ू री बेटी के कड़वी बातों को सन
ु कर क्रोध से भर जाता था। एक दिन
उसने मंत्रियों को आदे श दिया, ‘कड़वे वचन बोलनेवाली मेरी इस पुत्री का किसी
परदे सी से ब्याह कर दो, जिससे यह अपने कर्म का फल भुगते।’
मंत्रियों ने मंदिर में रहने वाले उसी भिखारी राजकुमार के साथ उस राजकुमारी का
विवाह कर दिया। राजकुमारी अपने उस पति को प्राप्त करके तनिक भी दख
ु ी नहीं
हुई। वह प्रसन्नता के साथ पति की सेवा करने लगी। कुछ दिन बाद वह पति को
साथ लेकर दस
ू रे राज्य में चली गई।
वहाँ उसने एक सरोवर के किनारे पर बसेरा बना लिया। एक दिन राजकुमारी अपने
पति को घर की रखवाली के लिए छोड़कर भोजन का सामान लाने के लिए स्वयं
नगर में चली गई। राजकुमार जमीन पर सिर टिकाकर सो गया। वह सो रहा था
कि उसके पेट में रहने वाला सर्प उसके मख
ु से बाहर निकलकर हवा खाने लगा।
इसी बीच पास ही की बाँबी में रहनेवाला साँप भी बिल से बाहर निकल आया।
उसने पेट में रहने वाले साँप को फटकारते हुए कहा, ‘तू बहुत दष्ु ट है , जो इस सुंदर
राजकुमार को इतने दिनों से पीड़ित कर रहा है ।’
पेट में रहने वाले साँप ने कहा, ‘और तू कौन-सा बहुत भला है ! अपनी तो दे ख, तूने
अपनी बाँबी में सोने से भरे दो-दो कलश छिपा रखे हैं।’ बाँबीवाले सर्प ने कहा,
‘क्या कोई इस उपाय को नहीं जानता कि राजकुमारी को पुरानी राई की काँजी
पिलाई जाए तो तू तुरंत मर जाएगा?’
सभा के बाद तथागत ने अपने शिष्य आनंद से कहा, थोड़ी दरू घूम कर आते हैं।
आनंद, भगवान बुद्ध के साथ चल दिए। अभी वे विहार के मुख्य द्वार तक ही
पहुंचे ही थे कि एक किनारे रुक कर खड़े हो गये।
प्रवचन सुनने आये लोग एबाहर निकल रहे थे, इसलिए भीड़ का माहौल था, लेकिन
उसमें से निकल कर एक स्त्री तथागत से मिलने आई। उसने कहा, 'तथागत मैं
नर्तकी हूं'। आज नगर के श्रेष्ठी के घर मेरे नत्ृ य का कार्यक्रम पहले से तय था,
लेकिन मैं उसके बारे में भल
ू चक
ु ी थी। आपने कहा, ' जागो समय निकला जा रहा
है तो मुझे तुरंत इस बात की याद आई।'
उसके बाद एक डाकू भगवान बुद्ध से मिला उसने कहा, 'तथागत मैं आपसे कोई
बात छिपाऊंगा मै भल
ू गया था कि आज मुझे एक जगह डाका डालने जाना था
कि आज उपदे श सुनते ही मुझे अपनी योजना याद आ गई।'
इस तरह एक बढ़
ू ा व्यक्ति बद्ध
ु के पास आया वद्ध
ृ ने कहा, 'तथागत! जिन्दगी भर
दनि
ु या भर की चीजों के पीछे भागता रहा। अब मौत का सामना करने का दिन
नजदीक आता जा रहा है , तब मुझे लगता है कि सारी जिन्दगी यूं ही बेकार हो
गई।
आपकी बातों से आज मेरी आंखें खुल गईं। आज से मैं अपने सारे मोह छोड़कर
निर्वाण के लिए कोशिश करूंगा। जब सब लोग चले गए तो भगवान बद्ध
ु ने कहा,
'आनंद! प्रवचन मैंने एक ही दिया, लेकिन उसका हर किसी ने अलग अलग मतलब
निकाला।'
बावर्ची ने अत्यंत शांत भाव से उत्तर दिया, 'जहांपना ! पहले आपका गस्
ु सा दे खकर
मैनें समझ लिया था कि अब जान नहीं बचेगी। लेकिन फिर सोचा कि लोग कहें गे
की बादशाह ने थोड़ी सी गलती पर एक बेगन
ु ाह को मौत की सजा दी। ऐसे में
आपकी बदनामी होती होती। तब मैनें सोचा कि सारी सब्जी ही उड़ेल दं ।ू ताकि
दनि
ु या आपको बदनाम न करे । और मुझे ही अपराधी समझे।'
नौशेरवां को उसके जबाव में इस्लाम के गंभीर संदेश के दर्शन हुए और पता चला
कि सेवक भाव कितना कठिन है । इस तरह बादशाह ने बावर्ची को जीवनदान दे
दिया।
| दनि
ु या में आए हो अगर तो मरना ही होगा |
कृशा गौतमी श्रावस्ती के निर्धन परिवार में जन्मी थी। जितनी वह निर्धन थी,
उतनी ही सद
ंु र। संद
ु रता के कारण उसका विवाह एक धनी व्यक्ति से उसका विवाह
हो गया। लेकिन वहां उसका हमेशा अपमान होता था। जब पत्र
ु हुआ तो सम्मान
होने लगा।
सक
ु रात ने लड़के के तरफ ध्यान नही दिया परं तु वह मन ही मन खुश जरूर थे।
रात में सक
ु रात ने लड़के से अगले दिन सुबह सफलता का रहस्य बताने का वादा
किया। अगली सुबह सुकरात लड़के को लेकर नदी किनारे गए।
सक
ु रात ने लड़को को नदी किनारे लाकर कहा कि तम
ु नदी में डुबकी लगाओं फिर
मै तम्
ु हें सफलता पाने का तरीका बताता हूं। लड़के ने जैसे ही डुबकी लगाया
सक
ु रात ने उसका सिर पकडकर पानी में दबा दिया।
लड़का छटपटाने लगा। सुकरात ने उसे फिर से डुबकी लगाने के लिए कहा जैसे ही
लड़का अंदर गया सक
ु रात ने फिर उसका सिर दबा दिया। एक बार सुकरात उसे
निकलने नही दे रहा था। लड़का बहुत जोर से छटपटाने लगा।
सक
ु रात के छोड़ते ही लड़का बाहर निकला । सुकरात ने कहा तम
ु सफलता के लिए
इसी तरह छटपटाओगे जिस तरह हवा के लिए छटपटा रहे थे, मानो उसके बिना
मर जाओगे, तो सफलता हर हाल में तम्
ु हारे कदमों में होगी।
एक बार बादशाह जंगल की सैर करने गया। उसके साथ कुछ नौकर चाकर भी थे।
घूमते-घूमते वह शहर से काफी दरू निकल आए। इस बीच बादशाह को भख
ू लगी।
बादशाह ने सेवकों से कहा कि यहीं भोजन बनाने की व्यवस्था की जाए। खाना
वहीं तैयार किया गया। बादशाह जब खाना खाने बैठा तो उसे सब्जी में नमक कम
लगा। उसने अपने सेवकों से कहा कि जाओ और गांव से नमक लेकर आओ।
दो कदम पर गांव था। एक नौकर जाने को हुआ तो बादशाह ने कहा, 'दे खो जितना
नमक लाओ, उतना पैसा दे आना।'
| एक राजा जो था कंगाल |
एक महात्मा रास्ते से कहीं जा रहे थे। वह फटे हुए मैले कपड़े पहने हुए थे।
सामने से आ रहे राजा के सिपाही बोले, रास्ते से हट जाओ। राजा साहब आ रहे
हैं।
इतने में राजा साहब आ गए। महात्मा आगे बढ़े और राजा से पूछ बैठे, राजा जिसे
चाहे अपने दे श से निकाल सकता है , ऐसा है क्या ? तब तो बहुत अच्छा है ...
महात्मा ने आगे कहा कि, मुझे रात को मच्छर काटते हैं, सांप का भय सताता है ।
राजाजी आप हुक्म दो कि हमारे दे श में सांप नहीं रहें ।
तब राजा ने कहा कि, हम इनको नहीं निकाल सकते, आप हमारे महल में रह
सकते हैं। राजा के आमंत्रण पर महात्मा जी एक दिन महल गए। दे खा कि महल
के दरवाजे पर बंदक
ू धारी पहरे दार तैनात हैं।
शाम के समय राजा, महात्माजी के नजदीक के कमरे में खड़े होकर ईश्वर से
प्रार्थना करने लगा कि, हे भगवान, मुझे धन दो, आयु दो, राज्य बढ़ाओ।
महात्मा ने सुन लिया। महात्मा बोले, हमने तो समझा था, आप राजा हो, धनी होगे
ही। तुम तो कंगाल निकले, ऐसे में हम तेरे पास रहकर क्या करें गे। जिससे तुम
मांगते हो, जरूरत हुई तो हम भी उसी से मांग लेंगे।
भेंट के हीरे -जवाहरातों को भरे थालों को फकीर ने छुआ तक नहीं, हां बदले में एक
सख
ू ी रोटी नवाब को दी, कहां इसे खा लो। रोटी सख्त थी, नवाब से चबायी नहीं
गई। तब फकीर ने कहा जैसे आपकी दी हुई वस्तु मेरे काम की नहीं उसी तरह
मेरी दी हुई वस्तु आपके काम की नहीं।
हमें वही लेना चाहिए जो हमारे काम का हो। अपने काम का श्रेय भी नहीं लेना
चाहिए। नवाब फकीर की इन बातों को सुनकर काफी प्रभावित हुआ। नवाब जब
जाने के लिए हुआ तो फकीर भी दरवाजे तक उसे छोड़ने आया। नवाब ने पछ
ू ा, मैं
जब आया था तब आपने दे खा तक नहीं था, अब छोड़ने आ रहे हैं?
स्वामीजी ने पास ही रखी स्लेट पर चूने की खड़िया से लिखा, चूने का पानी मैंने
पिया और इसका परिणाम तुझे भोगना पड़ा। इसका एक ही कारण है वह यह कि
हम दोनों के शरीर में आत्मा का वास है । यदि दस
ू रे की आत्मा को कष्ट दिया
जाए तो वह कष्ट स्वयं को भी भोगना पड़ता है । इसलिए दस
ू रों को कष्ट दे ने की
कोशिश भी नहीं करनी चाहिए।
एक दिन कक्षा में वो कुछ मित्रों को कहानी सुना रहे थे, सभी उनकी बातें सुनने में
इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब मास्टर जी कक्षा में आए और
पढ़ाना शरू
ु कर दिया।
मास्टर जी ने अभी पढऩा शुरू ही किया था कि उन्हें कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी।
कौन बात कर रहा है ? मास्टर जी ने तेज आवाज़ में पूछा। सभी छात्रों ने स्वामी
जी और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ इशारा कर दिया। मास्टर जी क्रोधित हो
गए।
उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को ब्रेंच पर खड़े होने की सजा दे दी। सभी छात्र
एक-एक कर ब्रेंच पर खड़े होने लगे, स्वामी जी ने भी यही किया।
नौकरों ने पूछा कि क्या करें ? बंजारा बोला- 'अरे ! सोचते क्या हो, बोरों के एक
तरफ रे त (बालू) भर लो। यह राजस्थानी जमीन है , यहां रे त बहुत है ।' नौकरों ने
वैसा ही किया। बैलों की पीठ पर एक तरफ आधे बोरे में मिट्टी हो गई और दस
ू री
तरफ आधे बोरे में रे त हो गई।
दिल्ली से एक सज्जन उधर आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में से एक तरफ
रे त गिरते हुए दे खी तो बोले कि बोरों में एक तरफ रे त क्यों भरी है ? नौकरों ने
कहा- 'सन्तल
ु न करने के लिये।' वे सज्जन बोले- 'अरे यह तम
ु क्या मर्ख
ू ता करते हो
?
नौकरों ने कहा कि आपकी बात तो ठीक जंचती है , पर हम वही करें गे, जो हमारा
मालिक कहे गा। आप जाकर हमारे मालिक से यह बात कहो और उनसे हमें आदे श
दिलवाओ। वह राहगीर (बंजारे ) से मिला और उससे बात कही। बंजारे ने पूछा कि
आप कहां के हैं ? कहां जा रहे हैं ?
उसने कहा कि मैं भिवानी का रहने वाला हूं रुपए कमाने के लिए दिल्ली गया था।
कुछ दिन वहां रहा, फिर बीमार हो गया। जो थोड़े रुपए कमाए थे, वे खर्च हो गये।
व्यापार में घाटा लग गया। पास में कुछ रहा नहीं तो विचार किया कि घर चलना
चाहिये।
उसकी बात सुनकर बंजारा नौकरों से बोला कि इनकी सलाह मत लो। अपने जैसे
चलते हैं, वैसे ही चलो। इनकी बुद्धि तो अच्छी दिखती है , पर उसका नतीजा ठीक
नहीं निकलता नहीं तो ये अबतक धनवान हो जाते। हमारी बुद्धि भले ही ठीक न
दिखे, पर उसका नतीजा ठीक होता है । मैंने कभी अपने काम में घाटा नहीं उठाया।
बंजारा अपने बैलों को लेकर दिल्ली पहुंचा। वहां उसने जमीन खरीदकर मिट्टी और
रे त दोनों का अलग-अलग ढे र लगा दिया और नौकरों से कहा कि बैलों को जंगल
में ले जाओ और जहां चारा-पानी हो, वहां उनको रखो। यहां उनको चारा खिलायेंगे
तो नफा कैसे कमाएंगे ? मिट्टी बिकनी शुरु हो गई।
तब एक दरबारी ने कहा कि- 'राजस्थान क्यों भेजें ? वहां की रे त यहीं मंगा लेते हैं,
अरे ! यह दिल्ली का बाजार है , यहां सब कुछ मिलता है मैंने एक जगह रे त का ढे र
लगा हुआ दे खा है ।'बादशाह- 'अच्छा ! तो फिर जल्दी रे त मंगवा लो।'
उन्होंने सफर में खर्च के लिए एक हजार दीनार रख लिए। यात्रा के दौरान बख
ु ारी
की पहचान दस
ू रे यात्रियों से हुई। बख
ु ारी उन्हें ज्ञान की बातें बताते गए।
एक यात्री से उनकी नजदीकियां कुछ ज्यादा बढ़ गईं। एक दिन बातों-बातों में
बुखारी ने उसे दीनार की पोटली दिखा दी। उस यात्री को लालच आ गया।
यह सुन कर बुखारी बोले, 'नहीं, जिसके दीनार चोरी हुए है उसके दिल में शक बना
रहे गा। इसलिए मेरी भी तलाशी भी जाए।’ बख
ु ारी की तलाशी ली गई। उनके पास
से कुछ नहीं मिला।
मैं दौलत तो गंवा सकता हूं लेकिन ईमानदारी और सच्चाई को खोना नहीं चाहता।'
उस यात्री ने बुखारी से माफी मांगी।
| दो दोस्तों की अनसुनी कहानी |
एक बार दो मित्र साथ-साथ एक रे गिस्तान में चले जा रहे थे। रास्ते में दोनों में
कुछ कहासन
ु ी हो गई। बहसबाजी में बात इतनी बढ़ गई की उनमे से एक मित्र ने
दस
ू रे के गाल पर जोर से तमाचा मार दिया।
जिस मित्र को तमाचा पड़ा उसे दःु ख तो बहुत हुआ किंतु उसने कुछ नहीं कहा वो
बस झुका और उसने वहां पड़े बालू पर लिख दिया...
दोनों मित्र आगे चलते रहे और उन्हें एक छोटा सा पानी का तालाब दिखा और उन
दोनों ने पानी में उतर कर नहाने का निर्णय कर लिया। जिस मित्र को तमाचा पड़ा
था वह दलदल में फंस गया और डूबने लगा किंतु दस
ू रे मित्र ने उसे बचा लिया।
जब वह बच गया तो बाहर आकर उसने एक पत्थर पर लिखा...
जिस मित्र ने उसे तमाचा मारा था और फिर उसकी जान बचाई थी वह काफी
सोच में पड़ा रहा और जब उससे रहा न गया तो उसने पूछा
इस पर दस
ू रे मित्र ने उत्तर दिया, 'जब कोई हमारा दिल दख
ु ाए तो हमें उस
अनभ
ु व के बारे में लिख लेना चाहिए क्योंकि उस चीज को भल
ु ा दे ना ही अच्छा है ।
क्षमा रुपी वायु शीघ्र ही उसे मिटा दे गी किंतु जब कोई हमारे साथ कुछ अच्छा करे
हम पर उपकार करे तो हमे उस अनुभव को पत्थर पर लिख दे ना चाहिए जिससे
कि कोई भी जल्दी उसको मिटा न सके'।
| समस्याओं से भागें नहीं बल्कि उनका डटकर सामना करें |
कौशाम्बी नरे श की महारानी भगवान बुद्ध से घण
ृ ा करती थी। एक बार जब
भगवान बुद्ध कौशाम्बी आए तो महारानी ने उन्हें परे शान और अपमानित करने के
लिए कुछ विरोधियों को उनके पीछे लगा दिया।
गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद उनके साथ हमेशा रहते थे। जोकि गौतम बुद्ध के प्रति
इस खराब व्यवहार दे ख दःु खी हो गए। परे शान होकर आनंद ने भगवान बद्ध
ु से
कहा, 'भगवान, ये लोग हमारा अपमान करते हैं। क्यों न इस शहर को छोड़कर कहीं
और चल दें ?'
भगवान बुद्ध ने आनंद से प्रश्न किया, 'कहां जाएं?' आनंद ने कहा, 'किसी दस
ू रे
शहर जहां इस तरह के लोग न हों। तब गौतम बुद्ध बोले, 'अगर वहां भी लोगों ने
ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया तो?' शिष्य आनंद बोला, 'तो फिर वहां से भी
किसी दस
ू रे शहर की ओर चलेंगे और फिर वहां से भी किसी दस
ू रे शहर।'
तथागत ने गंभीर होकर कहा, 'नहीं आनंद, ऐसा सोचना ठीक नहीं है । जहां कोई
मुश्किल पैदा हो, कठिनाईयां आएं, वहीं डटकर उनका मुकाबला करना चाहिए। वहीं
उनका समाधान किया जाना चाहिए। जब वे हट जाएं तभी उस स्थान को छोड़ना
चाहिए।'
ध्यान रखो मुश्किलों को वहीं छोड़कर आगे बढ़ना, पलायन है , किसी समस्या का
हल नहीं।
आखिर उसने निर्णय लिया कि गधा काफी बूढा हो चूका था, उसे बचाने से कोई
लाभ होने वाला नहीं था इसलिए उसे कुएं में ही दफना दे ना चाहिए।
सब लोग चुपचाप कुएं में मिट्टी डालते रहे । तभी किसान ने कुएं में झांका तो वह
है रान रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा
एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा
दे ता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।
जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे वह हिल
कर उस मिट्टी को गिरा दे ता और एस सीढी ऊपर चढ़ आता । जल्दी ही सबको
आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएं के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर
बाहर भाग गया।
वहां उसने जहाज बनाने की कला सीखी क्योंकि वहां जहाज बनाए जाते थे। फिर
वह किसी तीसरे दे श में गया और कई ऐसे लोगों के संपर्क में आया, जो घर बनाने
का काम करते थे।
लोग है रत से उसे दे खते। धीरे -धीरे यह बात भगवान बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसे
जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। वह इस बात से चिंतित हो गए
कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश न कर दे । एक दिन वे एक भिखारी का रूप
धरकर हाथ में भिक्षापात्र लिए उसके सामने गए।
केवल ज्ञान से ही कुछ नहीं होने वाला है , असल उपलब्धि है निर्मल मन। अगर
मन पवित्र नहीं हुआ तो सारा ज्ञान व्यर्थ है । अहंकार से मक्
ु त व्यक्ति ही ईश्वर
को पा सकता है । यह सुनकर ब्रह्यचारी को अपनी भूल का अहसास हो गया।
प्रखरबद्धि
ु बोले, 'पहली बात, रात को मजबत
ू किले में रहना। दस
ू री बात, स्वादिष्ट
भोजन ग्रहण करना और तीसरी, सदा मल
ु ायम बिस्तर पर सोना।' गरु
ु की अजीब
बातें सुनकर राजा बोला, 'गरु
ु जी, इन बातों को अपनाकर तो मेरे अंदर अभिमान
और भी अधिक उत्पन्न होगा।' इस पर प्रखरबुद्धि मुस्करा कर बोले, 'तुम मेरी बातों
का अर्थ नहीं समझे। मैं तुम्हें समझाता हूं।
जिह्वा तो जन्म के समय भी विद्यमान थी। दांत उससे बहुत बाद में आए। बाद
में आने वाले को बाद में जाना चाहिए था। ये दांत पहले कैसे चले गए?
तब संत ने थोड़ा रुके और फिर बोले कि यही बतलाने के लिए मैनें तुम्हें यहां
बुलाया है । दे खो, 'जिह्वा अब तक विद्यमान है , तो इसलिए कि इसमें कठोरता नहीं
है ।
ये दांत बाद में आकर पहले समाप्त हो गए तो इसलिए कि इनमें कठोरता बहुत
थी। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बनी। इसलिए मेरे बच्चों यदि दे र
तक जीना चाहते हो तो नम्र बनो, कठोर नहीं।'
कुछ दिन बाद मुनीम हिसाब लेकर आया और सेठ जी से बोला, 'जिस हिसाब से
आज खर्चा हो रहा है , उस तरह अगर आज से कोई कमाई न भी हो तो आपकी
सात पीढ़ियां खा सकती हैं।'
सेठ जी चौंक पड़े। पूछा, 'तब आठवीं पीढ़ी का क्या होगा?' सेठ जी सोचने लगे
और तनाव में आ गए। फिर बीमार रहने लगे। बहुत इलाज कराया मगर कुछ फर्क
नहीं पड़ा।
एक दिन सेठ जी का एक दोस्त हालचाल पूछने आया। सेठजी बोले, 'इतना कमाया
फिर भी आठवीं पीढ़ी के लिए कुछ नहीं है । दोस्त बोला, 'एक पंडित जी थोड़ी दरू
पर रहते है अगर उन्हें सुबह को खाना खिलाएं तो आपका रोग ठीक हो जाएगा।'
अगले ही दिन सेठ जी भोजन लेकर पंडित जी के पास पहुंचे। पंडित जी ने आदर
के साथ बैठाया। फिर अपनी पत्नी को आवाज दी, 'सेठ जी खाना लेकर आए हैं।'
आपको सीखने की भला क्या जरूरत है ? कहीं आप लोगों को खुश करने के लिए
उनसे सीखने का दिखावा तो नहीं करते?
मित्र की बात पर अफलातून जोर से हं से और फिर उन्होंने कहा, 'हर किसी के पास
कुछ न कुछ ऐसी चीज है जो दस
ू रों के पास नहीं। इसलिए हर किसी को हर किसी
से सीखना चाहिए।'
स्त्री यह सब बात सुन रही थी। उसने संत ज्ञानेश्वर से पूछा कि 'महाराज आप
यह बात कल भी बता सकते थे। लेकिन आपने यह बात कहने के लिए हमें आज
ही क्यों बल
ु ाया', तब संत ज्ञानेश्वर बोले कि बहन जब तम
ु कल मेरे पास आईं, तब
मेरे पास गुड़ रखा हुआ था।
चंदन घिसते समय हाथों में पहनी हुई चुड़ियों के टकराने से खन-खन की आवाज
होने लगी। वह खन-खनखनाहट की आवाज राजा निमि को अत्यंत परे शानी खड़ी
कर रही थी। तब राजा ने कहा
यह आवाज मुझे अच्छी नहीं लगती इसे बंद करो।राजा की व्यथा सुनकर रानियों
ने एक-एक चूड़ी ही कलायियों में रहने दी और चंदन घिसती रहीं।
राजा को रानियों के बारे में पता चल गया कि वो किस तरह से चंदन घिस रहीं
हैं। तब राजा ने सोचा कि जब चड़ि
ू यां अनेक थीं और उनका संयोग था कि वो
आपस में टकरा जातीं थीं और अशांति महसस
ू होने लगी। जब एक चड़
ू ी बची तो
शोरगल
ु बंद हो गया। सचमच
ु संसार में समस्त अशांति का मल
ू संयोग ही है ।
| कर्म तेरे अच्छे होगें तो भगवान भी तेरा साथ दे गें |
एक बार दे वर्षि नारद अपने शिष्य तम्
ु बुरु के साथ कही जा रहे थे। गर्मियों के दिन
थे एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में बैठे ही थे कि
अचानक एक कसाई वहां से 25-30 बकरों को लेकर गज
ु रा उसमे से एक बकरा
एक दक
ु ान पर चढ़कर घांस खाने के लिए दौड़ पड़ा।
दक
ु ान शहर के मशहूर सेठ शागाल्चंद सेठ की थी। दक
ु ानदार का बकरे पर ध्यान
जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर मारा। बकरा चिल्लाने लगा। दक
ु ानदार ने
बकरे को पकड़कर कसाई को सौंप दिया।
इस दक
ु ान पर जो नाम लिखा है 'शागाल्चंद सेठ' वह शागाल्चंद सेठ स्वयं यह
बकरा होकर आया है । यह दक
ु ानदार शागाल्चंद सेठ का ही पुत्र है सेठ मरकर
बकरा हुआ है और इस दक
ु ान से अपना पुराना सम्बन्ध समझकर घांस खाने
गया।
उसके बेटे ने ही उसको मारकर भगा दिया। मैंने दे खा की 30 बकरों में से कोई
दक
ु ान पर नहीं गया। इस बकरे का परु ाना संबंध था इसलिए यह गया।
इसलिए ध्यान करके दे खा तो पता चला की इसका पुराना सम्बन्ध था। जिस बेटे
के लिए शागाल्चंद सेठ ने इतना कमाया था, वही बेटा घांस खाने नहीं दे ता और
गलती से खा लिए तो सिर मांग रहा है पिता की यह कर्म गति और मनुष्य के
मोह पर मुझे हंसी आ रही है ।
| अभिमान से नहीं उदारता से करो दान |
राजा जानश्र
ु ति
ु अपने समय के महान दानी थे। एक शाम वह महल की छत पर
विश्राम कर रहे थे, तभी सफेद हं सों का जोड़ा आपस में बात करता आकाश-मार्ग से
गुजरा।
हं स अपनी पत्नी से कह रहा था। क्या तुझे राजा जानुश्रुति के शरीर से निकल रहा
यश प्रकाश नहीं दिखाई दे ता। बचकर चल, नहीं तो इसमें झुलस जाएगी।
हं सिनी मस्
ु कराई, प्रिय मझ
ु े आतंकित क्यों करते हो? क्या राजा के समस्त दानों में
यश निहित नहीं है , इस लिए मैं ठीक हूं। जबकि संत रै क्व एकांत साधना लीन हैं?
उनका तेज दे खते ही बनता है । व हीं सच्चे अर्थों में दानी हैं।
जानुश्रुति के ह्दय में हंसो की बातचीत कांटों की तरह चुभी। उन्होंने सैनिकों को
संत रै क्व का पता लगाने का आदे श दिया। बहुत खोजने पर किसी एकांत स्थान
में वह संत अपनी गाड़ी के नीचे बैठे मिले।
जानश्र
ु ति
ु राजसी वैभव से अनेक रथ, घोड़े, गौ और सोने की मद्र
ु ाएं लेकर रै क्व के
पास पहुंचे। रै क्व ने बहुमल्
ू य भेटों को अस्वीकार करते हुए कहा कि मित्र यह सब
कुछ ज्ञान से तुच्छ है । ज्ञान का व्यापार नहीं होता।
राजा शर्मिंदा होकर लौट गए कुछ दिन बाद वह खाली हाथ, जिज्ञासु की तरह रै क्व
के पास पहुंचे। रै क्व ने राजा की जिज्ञासा दे खकर उपदे श दिया कि दान करो, किंतु
अभिमान से नहीं उदारता की, अहं से नहीं, उन्मक्
ु त भाव से दान करो। राजा रै क्व
की बात सन
ु कर प्रभावित हुए और लौट गए।
| खुशी कुछ पाने से नहीं, बल्कि दे ने से मिलती है |
एक आध्यात्मिक गरु
ु थे। एक आयोजन में उनके अनेक शिष्य आए। गरु
ु जी ने
अपने शिष्यों के लिए एक प्रतियोगिता रखी। हर व्यक्ति को एक गब्ु बारा दे दिया
और उस पर अपना-अपना नाम लिखने को कहा। सारे गब्ु बारे इकट्ठा कर दस
ू रे
कमरे में रख दिए गए।
फिर उन लोगों से कहा गया कि वे एक साथ उस कमरे में जाकर अपने नाम का
गुब्बारा ढूंढकर लाएं। वही जीतेगा, जो दो मिनट के अंदर अपने नाम का गुब्बारा ले
आएगा। प्रतियोगिता शुरू होते ही सभी लोग कमरे की ओर दौड़ पड़े।
अबकी बार आयोजकों ने फिर हर व्यक्ति के नाम लिखे गुब्बारे तैयार किए और
लोगों से कहा, वे एक-एक करके कमरे में जाएं और कोई भी एक गुब्बारा उठाकर
ले आएं और उस पर जिस व्यक्ति का नाम लिखा हो, उसे दे दें । तेजी से काम
करने पर दो मिनटों में हर व्यक्ति के हाथ में उसका नाम लिखा गब्ु बारा था।
यहां पत्थर तोड़ते-तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या
बनेगा। साधु आगे बढ़े । एक दस
ू रा मजदरू मिला। संत ने पूछा- यहां क्या बनेगा?
मजदरू बोला- दे खिए साधु बाबा, यहां कुछ भी बने।
चाहे मंदिर बने या जेल, मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदरू ी के रूप में 100
रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई
मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है । साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदरू मिला।
साधु ने उससे पछ
ू ा- यहां क्या बनेगा? मजदरू ने कहा- मंदिर।
बीच-बीच में जब ज्यादा मस्ती आती है तो भजन गाने लगता हूं। जीवन में इससे
ज्यादा काम करने का आनंद कभी नहीं आया। साधु ने कहा- यही जीवन का
रहस्य है मेरे भाई। बस नजरिया का फर्क है ।
| मन में यदि सुराख है तो उसमें प्रेम कैसे भरे गा |
गौतम बुद्ध यात्रा पर थे। रास्ते में उनसे लोग मिलते। कुछ उनके दर्शन करके
संतष्ु ट हो जाते तो कुछ अपनी समस्याएं रखते थे। बद्ध
ु सबकी परे शानियों का
समाधान करते थे।
रस्सी और बाल्टी भी पड़ी हुई थी। शिष्य ने बाल्टी कुएं में डाली और खींचने
लगा। कुआं गहरा था। पानी खींचते-खींचते उसके हाथ थक गए पर वह पानी नहीं
भर पाया क्योंकि बाल्टी जब भी ऊपर आती खाली ही रहती।
सभी यह दे खकर हंसने लगे। हालांकि कुछ यह भी सोच रहे थे कि इसमें कोई
चमत्कार तो नहीं? थोड़ी दे र में सबको कारण समझ में आ गया। दरअसल बाल्टी
में छे द था। बुद्ध ने उस व्यक्ति की तरफ दे खा और कहा- हमारा मन भी इसी
बाल्टी की ही तरह है जिसमें कई छे द हैं।
आखिर पानी इसमें टिकेगा भी तो कैसे? मन में यदि सरु ाख रहे गा तो उसमें प्रेम
भरे गा कैसे। क्या वह रुक पाएगा? तम्
ु हें प्रेम मिलता भी है तो टिकता नहीं है । तम
ु
उसे अनभ
ु व नहीं कर पाते क्योंकि मन में विकार रूपी छे द हैं।
| लालची चिड़िया |
एक जंगल में पक्षियों का एक बड़ा सा दल रहता था। रोज सुबह सभी पक्षी भोजन
की तलाश में निकलते थे। पक्षियों के राजा ने अपने पक्षियों को कह रखा था कि
जिसे भी भोजन दिखाई दे गा वह आकर अपने बाकी साथियों को आकर बता दे गा
और फिर सभी पक्षी एक साथ मिलकर दाना खाएंगे। इस तरह उस दल के सभी
पक्षियों को भरपरू खाना मिल जाता था।
एक दिन भोजन की तालश में एक चिड़िया उड़ते-उड़ते काफी दरू निकल गयी।
जंगल के बाहर रास्ते तक आ गई। इस रास्ते से गाड़ियों में अनाज के बोरे मण्डी
जाया करते थे। रास्ते में काफी सारा अनाज गाड़ियों से नीचे गिरकर सड़क पर
बिखर जाता था। चिड़िया गाड़ियों में अनाज के भरे बोरे दे खकर बहुत खुश हुई,
क्योंकि अब उसे और कोई जगह तलाश करने की जरूरत ही नहीं थी। अनाज से
भरी गाड़ियाँ वहां से रोज गज
ु रती थीं और अनाज के दाने सड़क पर बिखरते भी
रोज थे। चिड़िया के मन में लालच आ गया। उसने सोचा कि उस जगह के बारे में
वह किसी को नहीं बतायेगी और रोज इसी जगह आकर पेट भर खाना खाया
करे गी।
चिड़िया ने भी एक अनठ
ू ी झठ
ू ी कहानी सन
ु ा दी कि वह किसी तरह जान बचाकर
आयी है । उस रास्ते से तो इतनी गाड़ियाँ गज
ु रती हैं रास्ता पार करना मश्कि
ु ल है ।
दल की बाकी चिड़िया यह सुनकर डर गयीं और सभी ने निश्चय कर लिया कि
वह रास्ते के पास नहीं जाएंगी।
इस तरह वह चिड़िया रोज उसी रास्ते पर जाकर पेट भर दाना खाती रही। एक
दिन चिड़िया रोज की तरह रास्ते पर बैठकर खाना खा रही थी। खाना खाने में वह
इतनी मग्न थी कि उसे उसकी तरफ आती हुई गाड़ी की आहट सुनाई ही नहीं दी।
गाड़ी भी तेजी से आगे बढ़ रही थी। चिड़िया दाना चुगने में मग्न थी, गाड़ी पास
आ गयी और गाड़ी का पहिया चिड़िया को कुचलता हुआ आगे निकल गया।
इस तरह लालची चिड़िया अपने ही जाल में फँस गयी।
| स्वावलम्बन |
बहुत पुरानी बात है । बंगाल के एक छोटे से स्टे शन पर एक रे लगाड़ी आकर रुकी।
गाड़ी में से एक आधुनिक नौजवान लड़का उतरा। लड़के के पास एक छोटा सा
संदक
ू था।
| पंडित और ग्वालिन |
एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था।
पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दरू -दरू से लोग ज्ञान प्राप्त करने
आते थे।
नदी के दस
ू रे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बढ़
ू े पिताश्री के साथ
रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को दे खभाल करती थी। सब
ु ह जल्दी
उठकर अपनी गायों को नहला कर दध
ू दोहती, फिर अपने पिताजी के लिए खाना
बनाती, तत्पश्चात ् तैयार होकर दध
ू बेचने के लिए निकल जाया करती थी।
पंडित जी के आश्रम में भी दध
ू लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित
जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना
है , इसलिए अगले दिन दध
ू उन्हें जल्दी चाहिए।
लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।
लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा—‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से। मैंने
भगवान ् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’
पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी
पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम
जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।
पंडित जी है रान रह गये। उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर
नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा
था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये। पंडित जी को
गिरते दे ख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं,
आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में लगा हुआ था।’’
पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा
अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी
भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद
करने की जरूरत है ।
कहानी में हमें यह बताया गया है कि अगर सच्चे मन से भगवान को याद किया
जाये, तो भगवान तुरन्त अपने भक्तों की मदद करते है ।