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् मानी से दिल जाता राजा का

बु दधि
सदियों पहले की बात है । राजा सूर्यसे न प्रतापगढ़ का राजा था।
राजा की इकलौती सं तान उसकी पु त्री भानु मति थी। वह अत्यं त सुं दर थी।
भानु मति के विवाह योग्य होने पर राजा को पु त्री के लिए एक योग्य वर की तलाश
थी।
् मान वर खोजना चाहता था जो उसकी पु त्री से विवाह के
राजा एक ऐसा बु दधि
पश्चात उसके राज्य को भी सं भाल सके।
राजा ने ऐलान किया कि जो कोई भी राजकुमारी से विवाह करना चाहता है वह
सं सार की सबसे मूलयवान वस्तु ले कर आए।
अने क राजकुमार कई मु लयमान वस्तु एं ले कर राजा के समक्ष उपस्थित होते रहते थे
किन्तु राजा ने सबको नकार दिया। राजा को यकीन था कि एक दिन कोई न कोई
योग्य यु वक इस शर्त को जरूर पूरा करे गा।
एक दिन उसी राजा के राज्य के एक गां व के किसान के पु त्र रघु को राजा के इस शर्त
के बारे में पता लगा।
रघु बहुत बु दधि् मान था। उसने विवे कपूर्ण तरिके से सोचा और फिर एक दिन तीन
वस्तु एं ले कर राजा के दरबार में हाजिर हो गया।
राजा से अनु मति पाकर वह बोला - मैं दुनिया की तीन सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु एं लाया
हँ ।ू
मे रे हाथ में यह मिट् टी है जो हमें अन्न दे ती है , यह जल है जो अमूल्य है और इसके
बिना जीवन सं भव नहीं है तीसरी वस्तु पु स्तक है ।
पु स्तकें ज्ञान का आधार होती हैं और ज्ञान के बिना सृ ष्टि का सं चालन असं भव है ।
् मता से राजा प्रभावित हुआ और उसने भानु मति का विवाह उससे
रघु की बु दधि
करके उसे राज्य का योग्य उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
् , विवे क और ज्ञान से कठिन से कठिन प्रश्नों का हल निकल
सार यह है कि बु दधि
जाता है ।

कष्टों में तपकर बने खरा सोना


दं डी स्वामी बहुत बड़े विद्वान थे ।
वे सत्य के आग्रही थे और अहं कार व पाखं डी से दरू रहते थे ।
उनका आश्रम मथु रा में था। उसने शिक्षा पाने दरू -दरू से लोग आते थे । उनके
शिष्यों में दयानं द भी थे ।
सभी शिष्यों के मध्य आश्रम के कार्यों का स्पष्ट विभाजन था, किन्तु दयानं द से
अधिक काम लिया जाता था। उन्हें भोजन भी कम दिया जाता, जिसमे मात्र गु ड़ व
भु ने हुए चने होते थे ।
रात में पढ़ने के लिए प्रकाश की सु विधा भी उन्हें नहीं दी जाती थी। जबकि दस ू रे
शिष्यों को अने क प्रकार की सु विधाएँ प्राप्त थी।
स्वामी जी के शिष्य दयानं द के प्रति उनके इस व्यवहार से चकित थे और परस्पर
बातचीत में इसकी निं दा भी करते थे , किन्तु दयानं द को गु रु की निं दा अच्छी नहीं
लगती थी।
वे अन्य शिष्यों को ऐसा करने से रोकते थे और सदै व खु श रहकर गु रु की आज्ञा का
पालन करते थे ।
एक दिन एक शिष्य ने स्वामी जी से इसका कारण पूछा, तो वे मौन ही रहे ।
अगले दिन उन्होंने अपने शिष्यों के मध्य शास्त्रार्थ करने का निर्णय लिया। सभी
शिष्यों को बु लाकर उन्हें बहस हे तु एक विषय दे दिया, उन्होंने सारे शिष्यों को एक
तरफ और दयानं द को अकेले दस ू री तरफ बै ठाया। शास्त्रार्थ शु रू हुआ तो सभी
शिष्यों पर दयानद भाड़ी पड़े और जीत गए।
तब दं डी स्वामी ने शे ष शिष्यों से कहा - दे खा आप लोगों ने , दयानं द अकेला आपसे
लोहा ले सकता है , क्योंकि वह हर काम पूर्ण समर्पण से करता है ।
दयानं द खरा सोना है और सोना आग में तपकर ही निखरता है । यही दयानं द आगे
चलकर भारत के महँ समाज सु धारक दयानं द सरस्वती के नाम से विख्यात हुए।
कथासार यह है कि माता-पिता व गु रु के द्वारा सौपें गए कार्य बिना शिकायत व पूर्ण
् होती है ।
समर्पण से करने पर कार्यकुशलता व ज्ञान की वृ दधि

कथा सु नने का पु ण्य नहीं मिला


एक से ठ ने सं कल्प लिया की बारह वर्ष तक वह प्रतिदिन कथा सु नेंगे । उनकी कामना
थी कि उनकी धन, सं पदा बढ़ती रहे ।
ईश्वर के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने यह मार्ग चु ना। सं कल्प
ले ने के बाद कथा सु नाने के लिए ब्राह्मण की खोज आरं भ हुई।
से ठ जी चाहते थे कि अत्यल्प पारिश्रमिक पर कार्य हो जाए।
इसलिए उन्होंने अने क ब्राह्मणों का साक्षात्कार लिया। अं त में उन्हें एक जै सा
सदाचारी धर्मनिष्ठा ब्राह्मण मिला, जिसने बारह वर्ष तक बहुत कम पारिश्रमिक पर
कथा सु नाना स्वीकार कर लिया।
ब्राह्मण तय समय पर प्रतिदिन आता और से ठ जी को कथा सु ना जाता।
बारह वर्ष होने ही वाले थे कि से ठ जी को अत्यं त जरूरी व्यापारिक कार्य से बाहर
जाना पड़ा। जाने के पूर्व उन्होंने जब यह बात ब्राह्मण को बताई, तो वह बोला -
आपके स्थान पर आपके पु त्र कथा सु न ले गा।
यह धर्मनु सार ही है ।
से ठ जी ने शं का व्यक्त की - कथा सु नकर मे रा पु त्र वै रागी तो नहीं हो जाये गा ?
ब्राह्मण ने कहा - इतने वर्षों तक कथा सु नने के बाद आप सं न्यासी नहीं बने , तो दो-
चार दिन में आपका पु त्र कैसे वै रागी बन जाएगा ?
से ठ से कहा - मैं तो कथा इसलिए सु नता था कि धार्मिकता का पु ण्य मिले , किन्तु
कथा के प्रभाव से मैं वै रागी न बनूं।
यह सु नकर ब्राह्मण बोला - क्षमा करें से ठ जी! आपको कथा का कोई पु ण्य नहीं
मिले गा, क्योंकि आपकी धार्मिकता हार्दिक नहीं दिखावटी है और आप इसे स्वार्थवश
कर रहे थे ।
से ठ जी निरुत्तर हो गए। वस्तु तः जब ईशभक्ति निष्काम होती है और तभी वह
फलती भी है ।

सु ख-शां ति का स्थायी आधार


आश्रम में रहने वाले शिष्यों ने एक दिन अपने गु रु से प्रश्न किया गु रूजी! धन,
कुटु ं ब और धर्म में से कौन सच्चा सहायक है ?
गु रूजी ने उत्तर में यह कथा सु नाई - एक व्यक्ति के तीन मित्र थे । तीनों में से एक
उसे अत्यधिक प्रिय था।
वह प्रतिदिन उससे मिलता और जहाँ खिन जाना होता तो वह उसी के साथ जाता।
ू रे मित्र से उस व्यक्ति की मध्यम मित्रता थी।
दस
उससे वह दो-चार दिन में मिलता था। तीसरा मित्र से वह दो माह में एक बार ही
मिलता और कभी किसी काम में उसे साथ नहीं रखता था।
एक बार अपने व्यापार के सिलसिले में उस व्यक्ति से कोई गलती हो गई। जिसके
लिए उसे राजदरबार में बु लाया गया।
वह घबराया और उसने प्रथम मित्र से सदा की भां ति साथ चलने का आग्रह
किया, किन्तु उसने सारी बात सु नकर चलने से इं कार कर दिया क्योंकि वह राजा से
सं बंध बिगाड़ना नहीं चाहता था।
दसू रे मित्र ने भी व्यस्तता जताकर चलने में असमर्थता जताई किन्तु तीसरा मित्र
न केवल साथ चला बल्कि राजा के समक्ष उस व्यक्ति का पक्ष जोरदार ढं ग से
प्रस्तु त किया, जिस कारण राजा ने उसे दोषमु क्त कर दिया।
यह कथा सु नाकर गु रूजी ने समझाया - धन वह है जिसे परम प्रिय मन जाता है ,
किन्तु मृ त्यु के बाद वह किसी काम का नहीं।
कुटु ं ब यथासं भव सहायता करता है , किन्तु शरीर रहने तक ही।
मगर धर्म वह है जो इस लोक और परलोक दोनों में साथ दे ते है और सभी प्रकार की
दुर्गति से बचाता है ।
सार यह है कि मनु ष्य को अपनी वाणी व आचरण, दोनों से धर्म का पालन करना
चाहिए यही सु ख शां ति का स्थायी आधार है ।

झठ
ू बोलकर भी पाया सच बोलने का पु ण्य
एक किसान की फसल पाले ने बर्बाद कर दी।
उसके घर में अन्न का एक दाना भी नहीं बचा। गां व में ऐसा कोई नहीं था, जो
किसान की सहायता करे ।
किसान सोच्त्र रहा कि वह क्या करे ?
जब कोई उपाय नहीं सूझा तो वह एक रात जमींदार के बाड़े में जाकर उसकी एक
गाय चु रा लाया।
जब सु बह हुई तो उसने गाय का दध ू दह
ू कर अपने बच्चों को भरपे ट पिलाया। उधर
जमींदार के नौकरों को जब पता चला कि किसान ने जमींदार की गाय चु राई है तो
उन्होंने जमींदार से शिकायत की।
जमींदार ने पं चायत में किसान को बु लाया। पांचों ने किसान से पूछा - यह गाय तु म
कहाँ से लाए ?
किसान ने उत्तर दिया - इसे मैं मे ले से खरीदकर लाया हँ ।ू
पं चों ने बहुत घु मा-फिरकर सवाल किया, किन्तु किसान इसी उत्तर पर अडिग रहा।
फिर पं चों ने जमींदार से पूछा क्या यह गया आपका ही है ?
जमींदार ने किसान की और दे खा तो किसान ने अपनी आँ खे नीची कर ली।
तब जमींदार ने किसान ने कहा - पं चों मु झसे भूल हुई। यह गाय मे री नहीं हैं ।
पं चों ने किसान को दोषमु क्त कर दिया। घर पहुंचने पर जमींदार के नौकरों ने झठ
ू का
बोलने का कारण पूछा तो जमींदार बोला - उस किसान की नजरों में उसका दर्द
झलक रहा था।
मैं उसकी विवशता समझ गया। यदि मैं सच बोलता तो उसे सजा हो जाती।
इसलिए मैं ने झठ
ू बोलकर एक परिवार को और सं कटग्रस्त होने से बचा लिया।
इतने में किसान जमींदार की गाय ले कर उसके घर पहुंच गया और जमींदार के पै रों में
गिरकर माफ़ी मां गने लगा। जमींदार ने उसे गले से लगाकर माफ़ कर दिया और
उसकी आर्थिक सहायता की।
वस्तु तः किसी के भले के लिए बोला गया झठ
ू पूर्णतः धार्मिक है , क्योंकि सं कटग्रस्त
की सहायत के लिए साधना की पवित्रता नहीं, बल्कि साध्य की सात्विकता दे खि
जाती है ।

सफल होने के लिए हमे शा सीखते रहें


सिं कंदर और रोहित मित्र हैं ।
दोनों ने एक साथ अपना-अपना काम शु रू किया। दोनों मित्रों का व्यापार खूब चला
किछ समय बाद रोहित ने सोचा कि अब मे रा व्यापार चल पड़ा है ।
मैं तरक्की करता चला जाऊंगा, इसलिए अब मु झे इस लाइन में कुछ नया सिखने
की जरूरत नहीं है ।
व्यापार में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं । रोहित के व्यापार में भी ऐसी स्थिति आयी
और उसे नु क्सान झे लना पड़ा।
सिं कंदर के व्यापार में भी उतार-चढ़ाव आये पर उसे उतना नु क्सान नहीं हुआ जितना
रोहित को हुआ।
रोहित सोचने लगा कि सिकंदर ने अपने नु कसान को नियं त्रित कैसे किया ?
रोहित ने इस बारे में उससे पूछने का मन बनाया।
जब उसने सिकंदर से इस बारे में पूछा तब सिकंदर ने कहा कि मैं अभी सिख रहा हँ ।ू
रोहित ने कहा - मैं समझा नहीं। सिकंदर ने सपनी बात समझाते हुए कहा - मैं अपनी
ू रों की गलतियों और कामयाबी से भी सीखता हँ ।ू
ही नहीं दस
इससे मे रे जीवन में एक जै सी परे शानी बार-बार नहीं आती। अगर आती भी है तो
आसानी से हल हो जाती है ।
सिकंदर की बात सु नकर रोहित को अपनी गलती का अहसास हुआ।
उसे एहसास हुआ कि शु रूआती सफलता के बाद उसने सीखना एकदम छोड़ दिया
था। यही वजह है कि अपने व्यापार में होने वाले नु कसान का आकलन वह नहीं कर
पाया।
जीवन में सफल होने के लिए सीखते रहना जरूरी है ।
इं सान को हमे शा सीखते रहना चाहिए इससे उसके भीतर नकारात्मक विचार नहीं
आते हैं , बल्कि उसमें सकारात्मक बदलाव आता रहता है
और सफलता की सीढियाँ चढ़ता रहता है । सीखते रहने वाले व्यक्ति को सफलता के
अवसर भी ज्यादा मिलते हैं ।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह के व्यक्ति में अहं कार नहीं होता। जिसके मन में
अहं कार होगा वह कभी सिखने का प्रयास नहीं करे गा।

जीवन साथी सबसे अजीज होता है


कॉले ज में Happy married life पर एक कार्यक् रम हो रहा था, जिसमे कुछ
शादीशु दा जोडे हिस्सा ले रहे थे ।
जिस समय प्रोफेसर मं च पर आए उन्होने नोट किया कि सभी पति- पत्नी शादी पर
जोक कर हँ स रहे थे ।
ये दे ख कर प्रोफेसर ने कहा कि चलो पहले एक Game खे लते है ... उसके बाद अपने
विषय पर बातें करें गे ।
सभी खु श हो गए और कहा कोन सा Game ?
प्रोफ़ेसर ने एक married लड़की को खड़ा किया और कहा कि तु म ब्ले क बोर्ड पे ऐसे
25- 30 लोगों के नाम लिखो जो तु म्हे सबसे अधिक प्यारे हों ।
लड़की ने पहले तो अपने परिवार के लोगो के नाम लिखे फिर अपने सगे सम्बन्धी,
दोस्तों,पडोसी और सहकर्मियों के नाम लिख दिए ।
अब प्रोफ़ेसर ने उसमे से कोई भी कम पसं द वाले 5 नाम मिटाने को कहा ।
लड़की ने अपने सह कर्मियों के नाम मिटा दिए ।
प्रोफ़ेसर ने और 5 नाम मिटाने को कहा... लड़की ने थोडा सोच कर अपने पड़ोसियो
के नाम मिटा दिए ।
अब प्रोफ़ेसर ने और 10 नाम मिटाने को कहा ।
लड़की ने अपने सगे सम्बन्धी और दोस्तों के नाम मिटा दिए ।
अब बोर्ड पर सिर्फ 4 नाम बचे थे जो उसके मम्मी- पापा,पति और बच्चे का नाम था

अब प्रोफ़ेसर ने कहा इसमें से और 2 नाम मिटा दो ।
लड़की असमं जस में पड गयी बहुत सोचने के बाद बहुत दुखी होते हुए उसने अपने
मम्मी- पापा का नाम मिटा दिया ।
सभी लोग स्तब्ध और शांत थे क्योकि वो जानते थे कि ये गे म सिर्फ वो लड़की ही
नहीं खे ल रही थी उनके दिमाग में भी यही सब चल रहा था।
अब सिर्फ 2 ही नाम बचे थे पति और बे टे का प्रोफ़ेसर ने कहा और एक नाम मिटा
दो ।
लड़की अब सहमी सी रह गयी बहुत सोचने के बाद रोते हुए अपने बे टे का नाम काट
दिया ।
प्रोफ़ेसर ने उस लड़की से कहा तु म अपनी जगह पर जाकर बै ठ जाओ और सभी की
तरफ गौर से दे खा और पूछा- क्या कोई बता सकता है कि ऐसा क्यों हुआ कि सिर्फ
पति का ही नाम बोर्ड पर रह गया।
कोई जवाब नहीं दे पाया सभी मुँ ह लटका कर बै ठे थे ।
प्रोफ़ेसर ने फिर उस लड़की को खड़ा किया और कहा ।
ऐसा क्यों ! जिसने तु म्हे जन्म दिया और पाल पोस कर इतना बड़ा किया उनका नाम
तु मने मिटा दिया और तो और तु मने अपनी कोख से जिस बच्चे को जन्म दिया उसका
भी नाम तु मने मिटा दिया ?
लड़की ने जवाब दिया कि अब मम्मी- पापा बूढ़े हो चु के हैं , कुछ साल के बाद वो
मु झे और इस दुनिया को छोड़ के चले जायें गे ।
मे रा बे टा जब बड़ा हो जाये गा तो जरूरी नहीं कि वो शादी के बाद मे रे साथ ही रहे ।
ले किन मे रे पति जब तक मे री जान में जान है तब तक मे रा आधा शरीर बनके मे रा
साथ निभायें गे ।
इस लिए मे रे लिए सबसे अजीज मे रे पति हैं ।
प्रोफ़ेसर और बाकी स्टू डेंट ने तालियों की गूंज से लड़की को सलामी दी ।
प्रोफ़ेसर ने कहा तु मने बिलकुल सही कहा कि तु म और सभी के बिना रह सकती हो
पर अपने आधे अं ग अर्थात अपने पति के बिना नहीं रह सकती l
मजाक मस्ती तक तो ठीक है पर हर इं सान का अपना जीवन साथी ही उसको सब से
ज्यादा अजीज होता है ।

अपने काम को खु द नहीं समझें महत्वहीन


ू रे सं स्थान में काम करते थे ।
मु केश दफ्तर में नये हैं , पहले वह दस
अपना काम तल्लीनता से करते हैं . ले किन चे हरा बताता है कि मु केश अपने काम से
खु श नहीं हैं ।
एक दिन इस बारे में पूछने पर उन्होंने कहा - जब काम में मन नहीं लगे , तो चे हरा
उदास हो ही जाता है । काम में मन क्यों नहीं लग रहा है ?
यह पूछने पर उन्होंने कहा - अरे यह भी कोई काम है । इसके बाद उन्होंने ढे र सारे
तथ्यों के साथ अपने काम को महत्वहीन बताने की कोशिश की।
उन्होंने यह भी कहा कि इस समय जो काम मे रे जिम्मे है , उसके आधार पर दस ू रे
सं स्थान में नौकरी भी नहीं मिले गी। इस बात को मु केश के रिपोर्टिं ग मै नेजर मिस्टर
कुमार को बताया गया। वह सु लझे हुए इं सान हैं ।
उन्होंने तरिके से मु केश को समझाया कि उनका काम कैसे महत्वपूर्ण है । मिस्टर
कुमार ने उनसे पूछा - मु केश पहले अपने काम के बारे में बताइए।
मु केश ने कहा - मे रा काम यह दे खना है कि हमारी कम्पनी के प्रोडक्ट में कहाँ -कहाँ
गड़बड़ी है । उसे कैसे दरू किया जा सकता था। आगे ऐसा क्या किया जाये जिससे
पु रानी खामियां फिर से सामने नहीं आये ।
मु केश की बात खत्म होते ही मिस्टर कुमार ने कहा - यह जान कर अच्छा लगा की
आपको अपने काम की अच्छी समझ है ।
जै सा आपने कहा है उसके अनु सार आपका काम प्रोडक्ट को कैसे बे हतर बनाया
जाये और उसके निर्माण के दौरान की खामियों को दरू करने से जु ड़ा है ।
मु केश ने हाँ में सर हिलाया। इसके बाद मिस्टर कुमार ने पूछा - जब प्रोडक्ट को
ले कर इतनी बड़ी जिम्मे दारी कंपनी ने आपको दी है तब आप अपने काम को
महत्वहीन क्यों समझते हैं ।
एक आम धारणा है कि जो लोग प्रोडक्ट के निर्माण से सीधे जु ड़े हैं वही मे नस्ट् रीम
में काम करते हैं । ले किन हर काम मे नस्ट् रीम का होता है । अगर ऐसा नहीं होता तो
कम्पनी आपके ऊपर खर्च नहीं करती।
कम्पनी को पता है कि आपके काम का परिणाम प्रोडक्ट पर दिखे गा। इसलिए इस
बात को मन से निकालिए कि आप जो काम कर रहे हैं उसकी पूछ नहीं है । ध्यान से
दे खेंगे तो लगे गा कि आपका काम ही सबसे महत्वपूर्ण है ।

एकता और समझदारी
ऊँचे आकाश में सफेद कबूतरों की एक टोली उड़कर जा रही थी।
बहुत दरू जाना था उन्हें । लं बा रास्ता था। सु बह से उड़ते -उड़ते थकान होने लगी थी।
सूरज ते जी से चमक रहा था। कबूतरों को भूख लगने लगी थी। तभी उन्होंने दे खा कि
नीचे जमीन पर चावल के बहुत से दाने पड़े थे ।
ू रे से कहा, चलो भाई, थोड़ी दे र रुककर कुछ खा लिया जाए। फिर
कबूतरों ने एक-दस
आगे जाएँ गे। एक बु जुर्ग कबूतर ने चारों ओर दे खा। वहाँ दरू -दरू तक कोई घर या
मनु ष्य दिखाई नहीं दे रहा था। फिर चावल के ये दाने यहाँ कहाँ से आए ?
बु जुर्ग कबूतर ने बाकी कबूतरों को समझाया, मु झे लगता है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है ।
तु म लोग नीचे मत उतरो।
ले किन किसी ने भी उसकी बात नहीं सु नी। सभी कबूतर ते जी से उतरे दाना चु गने
लगे ।
इतने बढ़िया दाने बहुत दिनों के बाद खाने को मिले थे ।
वे बहुत खु श थे । जब सभी ने भरपे ट खा लिया तो बोले चलो भाई, अब आगे चला
जाए। ले किन यह क्या ? जब उन्होंने उड़ने की कोशिश की तो उड़ ही नहीं पाए।
दोनों के साथ-साथ वहाँ एक चिड़ीमार का जाल भी था, जिसमें उनके पाँ व फँस गए
थे । उन्हें अपनी गलती पर पछतावा हुआ।
बूढ़ा कबूतर पे ड़ पर बै ठकर सब दे ख रहा था। उसने जब अपने साथियों को मु सीबत
में दे खा तो फौरन उड़ा और चारो ओर दे खा।
दरू उसे चिड़ीमार आता दिखाई दिया।
वह फौरन लौटा और अपने साथियों को बताया। सब वहाँ से निकलने का उपाय
सोचने लगे ।
तब बूढ़े कबूतर ने कहा, दोस्तों, एकता में बड़ी शक्ति होती है । सब एक साथ उड़ोगे
तो जाल तु म्हें रोक नहीं पाएगा।
उसने गिना - एक दो तीन। ........ उड़ो .....
सारे कबूतरों ने एक साथ जोर लगाया और जाल उनके साथ उठने लगा। जब तक
चिड़ीमार वहाँ पहुँचा, तब तक जाल काफी ऊपर उठ चूका था। वह दे खता ही रह
गया और कबूतर जाल ले कर उड़ गए। बूढ़ा कबूतर सबसे आगे उड़ रहा था।
काफी दे र उड़ने के बाद वे नीचे उतरे । वहाँ कबूतरों के दोस्त चूहे रहते थे । चूहों ने
अपने ते ज दातों से जाल काट दिया।
इस तरह बूढ़े कबूतर की समझदारी और साथ मिलकर काम करने से सभी कबूतर बच
गए।

नु कसान का मातम मनाने से नहीं मिलती सफलता


आकाश मायूस बै ठा था। उसे व्यापर में बहुत नु कसान हुआ था। बैं क से भी उसने कर्ज
ले रखा था, ले किन नु कसान की वजह से वह क़िस्त चु काने की स्थिति में नहीं था।
उसे डर लग रहा था कि बैं क वाले दबाव बनाने लगें गे तो वह क्या करे गा। उसे यह
भी समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कौन सा काम शु रू करें ।
जिस बिजने स में नु कसान हुआ था उसे दोबारा शु रू करने की हिम्मत आकाश में नहीं
थी।
यही सब सोच कर वह परे शान रहने लगा। एक दिन उसका दोस्त परे श उससे मिलने
आया। परे श ने आकाश को दे खते ही कहा - क्या बात है यार, बहुत परे शान लग रहे
हो।
आकाश ने अपनी परे शानी छुपाने की कोशिश करते हुए कहा - कुछ नहीं यार,
बिजने स में थोड़ा उतर-चढ़ाव आता रहता है ।
परे श ने कहा - तु म्हारा चे हरा बता रहा है कि मामला गं भीर है । मु झसे छुपाओ नहीं।
परे श की बात सु नकर आकाश ने उसे अपनी सारी कहानी बता दी।
इसके बाद उसने पूछा मे री जगह तु म होते तो क्या करते ?
परे श ने थोड़ा सोचने के बाद कहा - अगर मैं तु म्हारी जगह होता तो अपनी
असफलता पर पछतावा नहीं करता।
आगे क्या करना है , उसपर विचार करता।
पछतावा करते रहने से आदमी नु कसान से दुःख से बाहर नहीं निकल पता है ।
मे री मानो तो तु म नए सिरे से अपने बिजने स को खड़ा करने की सोचो।
मित्र की सलाह के बाद आकाश ने कहा - तु म बात तो ठीक कह रहे हो, ले किन
मु झमें फिर से वही बिजने स शु रू करने की हिम्मत नहीं है ।
इस पर परे श ने कहा - यह सही है की तु म्हें नु कसान हुआ है ले किन तु म्हें तजु र्बा भी
मिला है । अगर तु म कुछ नया शु रू करने की योजना बनाते हो तो तु म्हें शून्य से शु रू
करना होगा।
अगर तु म अपने पु राने काम को नए सिरे से शु रू करते हो तो तु म्हें बहुत ज्यादा
होमवर्क करने की जरूरत नहीं पड़े गी। मे री राय में तु म्हें नु कसान का मातम नहीं
मामना चाहिए। काम को नए सिरे से शु रू करने की प्लानिं ग करनी चाहिए।
जितना ज्यादा नु कसान के बारे में सोचोगे उतना अधिक तु म अपनी सफलता से दरू
होते जाओगे ।

मिलकर काम करने से तरक्की होती है


दुनिया में जो तरक्की हो रही है या दे श में कोई तरक्की करता है तो उसे जरूर दे खना
चाहिए । चाहे घर की टीम हो या बाहरी लोगों को मिलाकर बनाई हुई हो । जहाँ -
जहाँ अच्छे समूह बन गए वहाँ -वहाँ तरक्की हो गई । ऐसा ही दे खा गया है । आपके
आस-पास जितने लोग तरक्की पसन्द हैं वो मिलकर ही काम करते होगें । उनका टीम
वर्क अच्छा होगा ।
एक परिवार था वो गरीब था । खाने को कुछ नहीं था । काफी सोचा की काम मिले
मगर काम नहीं मिला ।
दो बच्चे थे , बीबी थी । एक दिन उन्हें विचार आया कि इस गां व में काम मिलना
मु श्किल है । चलो कहीं और चलते हैं ।
इस इरादे से वे एक दिन गां व छोड़कर चल दिये । रात का समय था, रास्ता भी
जं गली था ।
सोचा वृ क्ष के नीचे रात गु जारी जाये । आदमी ने अपने एक लड़के को लकड़ी चु नने
तथा दसू रे को पानी लाने के लिए भे ज दिया तथा बीबी को चूल्हा बनाने के लिए कहा

और उसने जगह साफ कर दी । चारों ने अपने -अपने काम कर लिए ।
चूल्हा जलाया गया पानी गर्म होने लग गया ।
वृ क्ष के ऊपर हं स रहता था वो सोचने लगा यह कैसा मूर्ख हैं इन्होनें चूल्हा तो जला
दिया मगर इन के पास पकाने को तो है ही नहीं कुछ भी ।
हं स ने उनसे पूछा - तु म्हारे पास पकाने को क्या है ? वो आदमी बोला-तु झे मार के
खायें गे ।
हं स बोला - मु झे क्यों मारोगे ? आदमी बोला - हमारे पास न पै सा है और न ही
सामान तो क्या करें ?
हं स सोच में पड़ गया । इन्होनें चूल्हा भी जला लिया है ।
सब कर्मशील हैं , मु झे तो यह खा ही जायें गे तो हं स बोला - अगर मैं आपको धन दे दं ू
तो मु झे छोड़ दोगे ।
घर का स्वामी बोला - हां , छोड़ दें गे ।
हं स कहने लगा मे रे साथ चलो मैं तु म्हें धन दे ता हं ू ।
हं स उन को थोड़ी दरू ले गया और चोंच से इशारा किया और कहा कि यहां से निकाल
लो ।
उन्होंने गढ्ढा खोदा और वहां से धन निकाल लिया ।
हं स का धन्यवाद कर के वापस अपने गां व आ गये और एक ही दिन में खूब मौज से
रहने लग गए ।
अब उनके घर में किसी चीज की कमी नहीं थी । पड़ोसी ने दे खा कि इस परिवार के
पास ऐसी कौन सी चीज आ गयी जो इन के पास इतना कुछ आ गया ।
उसने छोटे लड़के को बु ला कर सारी बात पूछ ली कि पै सा कहाँ से आया है ।
उनके भी दो बच्चे थे । उन्होंने भी ऐसी योजना बनाई और चल दिये ।
उन्होंने भ उसी वृ क्ष के नीचे डे रा लगा लिया । आदमी ने अपने बड़े लड़के को कहा -
लकड़ी लाओ तथा छोटे लड़के को पानी लाने के लिए कहा परन्तु दोनों आनाकानी
करने लगे ।
बीबी ने भी कहा कि मैं थक चु की हं ू । जै से-जै से पानी लकड़ी इकट् ठी हो गई और
पानी गर्म होने लगा ।
हं स फिर आया और बोला तु म्हारे पास खाने को तो नहीं है तो फिर पानी गर्म कर रहे
हो ।
आदमी बोला तु झे मार कर खायें गे ।
हं स मु स्कुरा उठा और बोला - मारने वाले तो तीन दिन पहले आये थे ।
तु म अपना समय खराब मत करो । घर जाओ तु म मु झे क्या मरोगे तु म तो आपस में
ही लड़ रहे हो ।
ू रों को जितना होता है वे खु द नहीं लड़ते ।
जिन्होंने दस
सं सार का नियम भी ऐसा ही है । जिन लोगों ने तरक्की करनी है वे मिलकर चलते हैं
और आज भी सं सार में उन का ही बोल -बाला है । जो आपसी तालमे ल में रहते हैं वे
ही समाज रूपी हं स को जीत सकते हैं ।

बु राई से निपटने का स्टिक उपाय


एक सं त के आश्रम में सै कड़ों गायें थी।
ू से जो भी धन आता उससे आश्रम का सं चालन कार्य होता था।
गायों के दध
ू में निरं तर पानी मिलाया जा रहा
एक दिन एक शिष्य बोला - गु रु जी आश्रम के दध
है ।

सं त ने उसे रोकने का उपाय पूछा तो वह बोला - एक कर्मचारी रख ले ते हैं , जो दध
की निगरानी करे गा। सं त से स्वीकृति दे दी।
अगले ही दिन कर्मचारी रख लिया गया। तीन दिन बाद व्ही शिष्य फिर आकर सं त से
ू में और भी पानी मिल रहा है ।
बोला - इस कर्मचारी की नियु क्ति के बाद से तो दध
सं त ने कहा - एक और आदमी रख लो, जो पहले वाले पर नजर रखे ।
ऐसा ही किया गया। ले किन दो दिन बाद तो आश्रम में हड़कंप मच गया।
सभी शिष्य सं त के पास आकर बोले - आज दध ू में पानी तो था ही साथ ही एक
मछली भी पाई गई। तब सं त ने कहा - तु म मिलावट रोकने के लिए जितने अधिक
निरीक्षक रखोगे , मिलावट उतनी ही अधिक होगी, क्योंकि पहले इस अनै तिक कार्य
में कम कर्मचारियों का हिस्सा होता था तो कम पानी मिलता था।
एक निरीक्षक रखने से उसके लाभ के मद्दे नजर पानी की मात्रा और बढ़ गई।
जब इतना पानी मिलाएं गे तो इसमें मछली नहीं तो क्या मक्खन मिले गा ?
शिष्यों ने सं त से समाधान पूछा तो वे बोले - हमारी सबसे पहले कोशिश यह होनी
चाहिए की हम उन लोगों को धर्म के मार्ग पर लाएं ।
हमें उनकी मानसिकता बदलकर उन्हें निष्ठावान बनाने की कोशिश करनी चाहिए
ताकि वे यह कृत्य छोड़ दें ।
सार यह है कि बु राई पर प्रतिबं ध लगाने के स्थान पर यदि आत्म-बोध जाग्रत
किया जाए तो व्यक्ति स्वयं ही कुमार्ग का त्याग कर दे ता है ।

तानसे न का चूर हुआ अहं कार


सम्राट अकबर कलाप्रेमी थे , उनके दरबार में कलाकारों को पर्याप्त सम्मान मिलता
था।
तानसे न जै से महान सं गीत कार अकबर के दरबार की शोभा थे । सम्राट अकबर
तानसे न के सं गीत को बहुत पसं द करते थे ।
तानसे न अपनी सं गीत कला से सम्राट को खु श रखते थे ।
अकबर का चहे ता सं गीतकार होने के कारण तानसे न को थोड़ा अहं कार आ गया।
उस समय कुछ सं गीत साधक ऐसे थे , जिन्होंने अपनी सं गीत साधना का लक्ष्य
ईश्वर को बनाया था।
वे लोग सं गीत के माध्यम से ईश उपासना में लीन रहते थे इनमें अष्टछाप के कवि
तथा वल्ल्भ सं पर् दाय के आचार्य विठलनाथ भी थे ।
एक बार तानसे न की मु लाकात आचार्य विठलनाथ से हुई।
आचार्य विठलनाथ को तानसे न से वार्तालाप के दौरान आभास हुआ की तानसे न के
अं दर अहं कार की भावना है ।
आचार्य विठलनाथ के कहने पर तानसे न ने गायन प्रस्तु त किया।
विठलनाथ ने तारीफ करते हुए तानसे न को एक हजार रुपए व दो कौड़ी ईनाम के रूप
में दी।
तानसे न ने कौड़ियाँ दे ने का कारण पूछा तो विठलनाथ बोले - आप मु गल दरबार के
मु ख्य गायक हैं ।
इसलिए एक हजार रुपए का इनाम आपकी है सियत को ध्यान में रखकर दिया है और
यह दो कौड़ी मे री व्यक्तिगत दृष्टि में आपके गायन की कीमत है ।
तानसे न को बहुत बु रा लगा। तब विठलनाथ ने कृष्ण भक्त गोविं सवामी को गायन
करने का आग्रह किया।
गोविं दस्वामी ने गायन प्रस्तु त करने का आग्रह किया। गोविं दस्वामी ने गायन
प्रस्तु त करने का आग्रह किया। गोविं दस्वामी ने गायन प्रस्तु त किया, जिसे सु नकर
तानसे न की गलत फहमी दरू हो गई।
तानसे न बोले - विठलनाथ जी महाराज! मे रे गायन की कीमत वास्तव में दो कौड़ी ही
है , क्योंकि मैं सम्राट को खु श करने के लिए गता हँ ू और आप ईश्वर को प्रसन्न
करने के लिए गाते हैं ।
मखमल व टाट का मु काबला भला कैसे सं भव है ?
आपने अच्छा किया जो मे रा अहं कार तोड़ दिया।
वस्तु तः भौतिक उपलब्धि की चाह में किए गए कर्म से सदै व वह कर्म श्रेष्ठ होता है ,
जो विशु द्ध रूप से परमात्मा को समर्पति हो।

कर्मों के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन


एक महात्मा के शिष्यों में एक राजकुमार और एक किसान पु त्र भी शामिल थे ।
राजकुमार को राजपु त्र होने का अहं कार था, जबकि किसान का बे टा विनम्र और
कर्मठ था।
राजकुमार के पिता अर्थात वहां के राजा प्रतिवर्ष एक प्रतियोगिता का आयोजन
् का पै नापन और दृष्टि की विशालता परखी
करते थे , जिसमे प्रतिभागियों की बु दधि
जाती थी।
उसमें हिस्से ले ने के लिए दरू -दरू से राजकुमार आते थे ।
अध्ययन पूरा होने पर राजकुमार ने किसान पु त्र को उक्त प्रतियोगिता में शामिल
होने का न्यौता दिया, ताकि वहां बु लाकर उसका निरादर किया जाए।
जब किसान पु त्र प्रतियोगिता स्थल पर पहुंचा तो राजकुमार व अन्य राजपु त्रों ने
उसे अपने मध्य बै ठने से इं कार कर दिया।
अं ततः किसान पु त्र अलग बै ठा गया। राजा ने प्रश्न पूछा - यदि तु म्हारे समक्ष एक
घायल शे र आ जाए तो तु म उसे छोड़कर भाग जाओगे या उसका उपचार करोगे ?
सभी राजकुमारों का एक ही उत्तर था कि शे र एक हिं सक प्राणी है हम अपने प्राण
सं कट में डालकर उस शे र का उपचार नहीं करें गे ।
किन्तु किसान पु त्र बोला - मैं शे र का उपचार करूंगा, क्योंकि उस समय घायल जीव
को बचाना मे रा परम कर्तव्य होगा। मनु ष्य होने के नाते यही मे रा कर्म है ।
शे र का कर्म है मांस खाना, स्वस्थ होने पर वह मु झ पर हमला अवश्य करे गा।
इसलिए मु झे बु दधि ् से कार्य ले ना होगा। मैं शे र का उपचार करूंगा। जब मु झे लगे गा
कि अब इसकी जान को कोई खतरा नहीं है तो मैं शे र के पूर्णतः अपने पै रों पर खड़ा
होने से पहले तु रं त सु रक्षित स्थान पर छिप जाऊंगा।
इस तरह मैं शे र व अपने दोनों के प्राण बचा पाउँगा।
् मत्ता पूर्वक बातें सु नकर राजा बहुत
एक साधारण किसान पु त्र के मु ख से ऐसी बु दधि
प्रभावित हुए व उसे विजे ता घोषित करते हुए मं तर् ी पद प्रदान किया। वस्तु तः
व्यक्ति का मूल्यांकन उसके वस्त्र या रहन-सहन से नहीं, बल्कि उसके विचार व
कर्मों के आधार पर होना चाहिए।

अपने व्यवहार से ही मिलता सवाल का जबाब


एक दार्शनिक समस्याओं के अत्यं त सटीक समाधान बताते थे ।
एक बार उनके पास एक से नापति पहुंचा और स्वर्ग-नरक के विषय में जानकारी चाही।
दार्शनिक ने उसका पूर्ण परिचय पूछा तो उसने अपने वीरतापूर्ण कार्यों के बारे में
सविस्तार बताया।
उसकी बातें सु नकर दार्शनिक ने कहा - शक्ल सूरत से तो आप से नापति नहीं भिखारी
लगते हैं ।
मु झे विश्वास नहीं होता कि आप में हथियार उठाने की क्षमता भी होगी।
दार्शनिक की अपमानजनक बातें सु नकर से नापति को गु स्सा आ गया। उसने म्यान से
तलवार निकाला ली।
यह दे खकर दार्शनिक ठहाका लगाते हुए बोले - अच्छा तो आप तलवार भी रखते हैं ।
यह शायद काठ की होगी। लोहे की होती तो अब तक आपके हाथ से छट
ू कर गिर
गई होती।
अब तो से नापति आप से बाहर हो गया।
उसकी आँ खे क् रोध से लाल हो गई और वह दार्शनिक पर हमला करने को उद्यत हो
गया। तभी दार्शनिक ने गं भीर होकर कहा - बस यही नरक है ।
क् रोध में उन्मत होकर आपने अपना विवे क खो दिया और मे री हत्या करने को तत्पर
हो गए। दार्शनिक की बात सु नकर से नापति ने शांत होकर तलवार म्यान में वापस
रख ली।
तब दार्शनिक ने कहा - विवे क जाग्रत होने पर व्यक्ति को अपनी भूलों का अहसास
होने लगता है ।
मन शांत होने से स्थिरता आती है और दिव्य आनं द की अनु भति
ू होती है ।
यही यह है कि आत्म - नियं तर् ण से विवे क उपजता है जिसके कारण अनु चित कर्म या
व्यवहार पर रोक लगती है और जीवन में शां ति व सं तोष की अनु भति
ू होती है ।

सोचने वाला पर्वत


एक स्थान पर तीन पर्वत थे ।
उन पर्वतों के साथ लगी हुई एक बड़ी खाई थी, जिसके कारण कोई उस तरफ नहीं जा
पाता था।
एक बार दे वताओं का उस ओर आना हुआ। उन्होंने पहाड़ों से कहा - हमें इस क्षे तर्
का नामकरण करना है ।
तु म में से किसी एक के नाम पर ही नामकरण किया जाएगा।
हम तु म तीनों की एक-एक इच्छा पूरी कर सकते हैं ।
एक वर्ष बाद जिस पर्वत का सर्वाधिक विकास होगा, उसी के नाम पर इस क्षे तर् का
नामकरण किया जाएगा।
पहले पर्वत ने वर माँ गा - मैं सबसे ऊंचा हो जाऊँ, ताकि दरू -दरू तक दिखाई दँ ।ू
ू रे ने कहा - मु झे प्राकृतिक सं पदाओं से भरकर घना और हरा-भरा कर दो।
दस
तीसरे पर्वत ने वर माँ गा - मे री ऊंचाई कम कर इसे खाई को समतल बना दो, ताकि
यह सं पर्ण
ू क्षे तर् उपजाऊ हो जाए।
दे वता तीनों की इच्छा पूर्ण होने का वरदान दे कर चले गए। जब एक वर्ष बाद दे वता
उस क्षे तर् में एक बार फिर पहुंचे तो उन्होंने दे खा कि पहला पर्वत बहुत ऊंचा हो गया
था, किन्तु वहां कोई नहीं जा पाता था।
दसू रा पर्वत इतना अधिक घना व हरा भरा हो गया था कि उसके भीतर सूर्य की
रोशनी तक नहीं पहुंच पाती थी, इसलिए कोई उसके भीतर जाने का साहस ही नहीं
कर पता था।
तीसरे पर्वत की ऊंचाई बहुत कम हो गई थी और खाई भर जाने से उसके आस-पास
की भूमि उपजाऊ हो गई थी, इसलिए लोग वहां पर आकर बसने लगे थे ।
दे वताओं ने उस क्षे तर् का नाम तीसरे पर्वत के नाम पर रखा।
कथासार यह है कि हर किसी की निगाह में आने की इच्छा और शबे ऊंचा होना
अहं कार का प्रतीक है ।
प्रकृतिक सं पदाओं से भरा होने के बाबजूद किसी के काम न आना स्वार्थी वृ त्ति को
दर्शाता है ।
अपने गु णों व धन का समाज विकास हे तु उपयोग करने वाला ही वास्तव में सम्मान
का अधिकारी होता है ।

घमं ड कुल्हाड़ी हुई निरुत्तर


एक बार कुल्हाड़ी और लकड़ी के एक डं डे में विवाद छिड़ गया। दोनों स्वयं को
शक्तिशाली बता रहे थे । हालाँ कि लकड़ी का डं डा बाद में शांत हो गया, किन्तु
कुल्हाड़ी का बोलना जारी रहा।
कुल्हाड़ी में घमं ड अत्यधिक था।
वह गु स्से में भरकर बोल रही थी। तु मने स्वयं को समझ क्या रखा है ?
तु म्हारी शक्ति मे रे आगे पानी भरती है । मैं चाहँ ू तो बड़े -बड़े वृ क्षों को पल में काटकर
गिरा दँ ।ू धरती का सीना फाड़कर उसमें तालाब, कुआ बना दँ ।ू तु म मे री बराबरी कर
पाओगे ?
ू ी।
मे रे सामने से हट जाओ अन्यथा तु म्हारे टु कड़े -टु कड़े कर दं ग
लकड़ी का डं डा कुल्हाड़ी की अँ हकारपूर्ण बातों को सु नकर धीरे से बोला - तु म जो
कह रही हो, वह बिल्कुल ठीक है , किन्तु तु म्हारा ध्यान शायद एक बात की और नहीं
गया।
जो कुछ तु मने करने को कहा है , वे शक तु म कर सकती हो, किन्तु अकेले अपने दम
पर नहीं कर सकती।
कुल्हाड़ी ने चिढ़कर कहा, क्यों ?
मु झमें किस बात की कमी है ?
डं डा बोला - जब तक मैं तु म्हारी सहायता न करूं, तु म यह सब नहीं कर सकती हो
.
जब तक मैं हत्या बनकर तु ममें न लगाया जाऊं, तब कोई किसे पकड़कर तु मसे ये
सारे काम ले गा ?
बिना हत्थे की कुल्हाड़ी से कोई काम ले ना असं भव है । कुल्हाड़ी को अपनी भूल का
एहसास हुआ और उसने डं डे से क्षमा मां गी।
कथासार यह है कि दुनिया सहयोग से चलती है ।
जिस प्रकार ताली दोनों हाथों के मे ल से बजती है , उसी प्रकार सामाजिक विकास
भी परस्पर सहयोग से ही सं भव होता है ।

दिमाग का इस्ते माल कर पक्ष में करें परिस्थितियाँ


एक शे र जं गल में शिकार पर निकला था।
एक लोमड़ी अचानक उसके सामने आ गयी। लोमड़ी को लगा कि अब उसे कोई नहीं
बचा सकता है , ले किन उसने हार नहीं मानी और अपनी जान बचने के लिए एक
तरकीब सोची।
लोमड़ी ने शे र से कड़े शब्दों में कहा - तु म्हारे पास इतनी ताकत नहीं कि मु झे मार
सको।
यह सु नकर शे र थोड़ा अचं भित हुआ।
उसने पूछा - तु म ऐसा कैसे कह सकती हो ? लोमड़ी ने अपनी आवाज और ऊँची
करते हुए बोली - मैं तु म्हें सच बता दे ती हँ ।ू ईश्वर ने स्वयं मु झे इस जं गल और
जं गल में रहने वाले सभी जानवरों का राजा बनाया है ।
यदि तु मने मु झे मारा तो यह ईश्वर के विरुद्ध होगा और तु म भी मर जाओगे ।
कुछ दे र चु प रहने के बाद लोमड़ी ने कहा - अगर विश्वास नहीं हो रहा है तो तु म मे रे
साथ जं गल घूमने चलो। तु म मे रे पीछे चलना और दे खना कि जं गल के जानवर
मु झसे कितना डरते हैं ।
शे र इसके लिए तै यार हो गया।
लोमड़ी निडर होकर शे र के आगे -आगे चलने लगी। लोमड़ी के पीछे शे र को चलते
ू रे जानवर डर कर भाग गये ।
दे ख कर जं गल के दस
कुछ दे र जं गल में घूमने के बाद लोमड़ी ने शे र से सवाल किया - क्या तु म्हें मे री बात
पर विश्वास हुआ ?
कुछ दे र चु प रहने के बाद शे र ने कहा - तु म ठीक कहती हो। जं गल की राजा तु म्हीं
है ।
परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हो हम अपने दिमाग का इस्ते माल कर उसे
अपने पक्ष में कर सकते हैं । हमारा दिमाग प्रोग्राम के आधार पर काम करने वाला
कंप्यूटर नहीं है ।
दिमाग को आउट ऑफ़ बॉक्स सोचने की क्षमता है । हर समस्या का समाधान
तलाशने की ताकत है , यह तभी सं भव होगा जब हँ ू विपरीत परिस्थितियाँ में भी
अपना धै र्य बरकरार रखें गे ।

अन्धी का बे टा
एक औरत थी जो अं धी थी जिसके कारण उसके बे टे को स्कू ल में बच्चे चिढाते थे की
अं धी का बे टा आ गया।
हर बात पर उसे ये शब्द सु नने को मिलता था कि "अन्धी का बे टा" इसलिए वो
अपनी माँ से चिडता था ❗
उसे कही भी अपने साथ ले कर जाने में हिचकता था उसे नापसं द करता था।
उसकी माँ ने उसे पढ़ाया और उसे इस लायक बना दिया की वो अपने पै रो पर खड़ा
हो सके ले किन जब वो बड़ा आदमी बन गया तो अपनी माँ को छोड़ अलग रहने
लगा।
एक दिन एक बूढी औरत उसके घर आई और गार्ड से बोली मु झे तु म्हारे साहब से
मिलना है जब गार्ड ने अपने मालिक से बोल तो मालिक ने कहा कि बोल दो मै अभी
घर पर नही हँ ।ू
गार्ड ने जब बु ढिया से बोला कि वो अभी नही है । तो वो वहा से चली गयी।
थोड़ी दे र बाद जब लड़का अपनी कार से ऑफिस के लिए जा रहा होता है ।
तो दे खता है कि सामने बहुत भीड़ लगी है ।
और जानने के लिए कि वहाँ क्यों भीड़ लगी है वह वहा गया तो दे खा उसकी माँ वहा
मरी पड़ी थी।
उसने दे खा की उसकी मु ट्ठी में कुछ है ।
उसने जब मु ट्ठी खोली तो दे खा की एक ले टर जिसमें यह लिखा था कि बे टा जब तू
छोटा था तो खे लते वक़्त ते री आँ ख में सरिया धं स गयी थी और तू अँ धा हो गया था
तो मैं ने तु म्हे अपनी आँ खे दे दी थी।
इतना पढ़ कर लड़का जोर-जोर से रोने लगा।
उसकी माँ उसके पास नही आ सकती थी। दोस्तों वक़्त रहते ही लोगो की वै ल्यू
करना सीखो।
माँ -बाप का कर्ज हम कभी नही चूका सकते ।
हमारी प्यास का अंदाज़ भी अलग है दोस्तों, कभी समंदर को ठु करा दे ते है , तो कभी
आंस ू तक पी जाते है ।

क्या फर्क पड़ता है ?


एक शहर में एक बहुत अमीर व्यक्ति रहता था। उसका नाम तो था धनीमल ले किन
था वह बे हद कंजूस।
उसका कहना था कि अगर आप अपना पै सा अपने पास रखें गे तो सबको पता चल
जाएगा कि आपके पास बहुत पै से है ।
फिर चोर-डाकू आपके पीछे पड़ जाएँ गे और सारा पै सा लूटकर ले जाएँ गे। इसलिए
वह अपना सारा पै सा छिपाकर रखता था और खु द एक बहुत गरीब व्यक्ति के समान
रहता था।
पै बंद लगे कपड़े , घिसे हुए जूते, रुखा-सूखा खाना, यह सब दे खकर लोग उसे भिखारी
समझते थे ।
जिनको पता था कि वह धनवान है , वे उसे कंजूस कहकर बु लाते थे । एक दिन धनीमल
को अपनी सं पत्ति को चोरों से बचाने का एक बहुत बढ़िया उपाय समझ में आया।
उसने सारे पै सों से बहुत-सा सोना खरीद लिया और फिर सारे सोने को पिघलाकर
उसका एक बड़ा-सा गोला बना लिया। उसने शहर के बाहर जाकर एक पु राने कुँए के
पास एक गड्ढा खोदा और सोने का वह गोला उसमें डालकर गड्ढा बं द कर दिया।
वह अब निश्चिं त था।
अपनी तसल्ली के लिए वह रोज रात को आकर गढ्ढे में दे ख ले ता था कि उसका
सोना वहाँ है या नहीं।
उसे विश्वास था कि कोई भी चोर इस जगह के बारे में नहीं जान पाएगा।
ले किन ऐसा नहीं हुआ। धीरे -धीरे पु रे शहर में यह चर्चा होने लगी कि धनीमल रात में
शहर के बाहर जाकर कुछ करता है ।
एक रात जब उसने गढ्ढा खोदकर दे खा तो सोना वहां से गायब था।
उसे गहरा सदमा लगा और वह चीखकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सु नकर
बहुत-से लोग वहाँ आ गए। धनीमल रो-रोकर अपना दुःख बताने लगा।
तब उसके एक पड़ोसी से उसे कहा, धनीमल तु म एक भारी पत्थर इस गढ्ढे में रख दो
और समझ लो कि वही तु म्हारा सोना है ।
यह सु नकर धनीमल को बहुत गु स्सा आया।
तु म मे रे सोने को पत्थर जै से बता रहे हो।
वह बोला।
दे खो धनीमल, वह सोना तु म कभी इस्ते माल तो करते नहीं थे ।
एक पत्थर की तरह यहां उसे दबाकर रख दिया था तो फिर यहां सोना हो या पत्थर
क्या फर्क पड़ता है ?
उसका पड़ोसी बोला।
बात तो ठीक ही थी। धनीमल ने बहुमूल्य सोने को पत्थर के समान मूल्यहीन बना
दिया था।
उसके बाद धनीमल ने मे हनत करके फिर पै से कमाए ले किन अब वह कंजूस नहीं रहा
था। अपने पै से को वह अपने ऊपर और दसू रे लोगों की सहायता के लिए खर्च करता
था।

असफलता से भी सीखने की कोशिश


शे खर ने अपने दादाजी से यह सवाल पूछा - सभी भी अपने जीवन में आगे बढ़ना
चाहते हैं , ले किन बहुत काम लोग ही अपने लक्ष्य तक पहुंच पाते हैं । अगर अपने
लक्ष्य तक पहुंचना है तो क्या करना चाहिए।
शे खर स्नातक अं तिम वर्ष का छात्र हैं और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तयारी कर
रहा है , उसके दादाजी प्राइमरी स्कू ल से रिटायर्ड शिक्षक हैं , उन्होंने शे खर का
सवाल सु नने के बाद कहा - अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले
खु द को असफलताओं को स्वीकार करने के लिए तै यार करना चाहिए।
दादाजी का जवाब सु नने के बाद शे खर ने पूछा - मैं आपकी बात समझ नहीं पाया।
आखिर अपने आप को असफलता के लिए तै यार कर सफलता कैसे पायी जा सकती
है ।
शे खर का सवाल सु नने के बाद दादाजी ने कहा - इस बात को मैं तु म्हारा ही उदाहरण
दे कर समझता हँ ।ू
तु म इस समय प्रतियोगिता परीक्षाओं की तयारी कर रहे हो। तु म अगले वर्ष होने
वाली परीक्षाओं में बै ठोगे । तु म यही सोचकर बै ठोगे कि तु म्हें सफलता मिले गी।
दादाजी की बात पर शे खर ने हाँ में सिर हिलाया।
इसके बार दादाजी जी ने कहा - मान लो तु म अपने पहले प्रयास में असफल हो
जाते हो तो तु म क्या करोगे ?
शे खर ने कहा - मु झे बहुत निराशा होगी। मैं तै यारी में अपनी तरफ से कही कमी नहीं
छोड़ रहा हँ ।ू
दादाजी ने कहा - निराशा ही असफलता की जड़ है ।
वह कैसे , शे खर ने सवाल किया।
ू रे
दादाजी बोले तु म्हें लगता है कि तु म्हारी तै यारी मु कम्मल है ले किन परीक्षा तो दस
की इच्छा पर निर्भर है ।
अगर तु म पहले प्रयास में असफल होने के बाद निराश हो जाते हो तो तु म्हारी आगे
की तै यारी प्रभावित होगी।
अगर तु म असफलता को अपनी कमियों को दुरस्त करने का मौका मानोगे तभी आगे
की तै यारी में उन्हें दरू कर पाओगे ।
हर परीक्षार्थी यही सोचता है कि उसकी तै यारी पूरी है , ले किन सफलता कुछ लोगों
को ही मिलती है ।
ू रों की असफलता
ये वही लोग होते हैं जो अपनी असफलता से सीखते हैं ही और दस
से भी सीखने की कोशिश करते हैं ।

मु झे परमात्मा दिखा दो
एक बार अकबर ने बीरबल से कहा - मु झे परमात्मा दिखा दो । राजा का हुक्म था ।
बीरबल बहुत परे शान था कि परमात्मा को कैसे राजा को दिखाये ।
इसी विचार को ले कर बीरबल छुट् टी पर चला गया और उदास रहने लगा ।
एक दिन परिवार में चर्चा हुई, उदासी का कारण पूछा गया तो बीरबल ने बता दिया
कि राजा ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं ।
बीरबल का बे टा बोला - कल सु बह मु झे आप साथ ले जायें । मैं अपने आप राजा को
ू ा।
दर्शन करा दं ग
ू रे दिन सु बह बीरबल और लड़का दरबार में पहुँचे और राजा को कहा मे रा लड़का
दस
आपके प्रश्न के उत्तर का समाधान करे गा ।
राजा ने सोचा यह लड़का क्या समाधान करे गा ?
लड़का बोला - इस वक्त मैं आपका गु रु हँ ू , मु झे उचित स्थान दिया जाये ।
राजा ने सोचा बात तो ठीक कह रहा है ।
मैं ने तो प्रश्न किया है , समाधान करने वाला गु रु समान होता है ।
राजा ने लड़के के लिए अपने साथ थोड़ा ऊँचा स्थान दिया ।
ू का कटोरा मं गाओ । राजा ने दध
लड़का बोला महाराज - एक दध ू का कटोरा मं गाया

ू में घी है । राजा बोला - हाँ है ।
लड़का बोला - महाराज इस दध
लड़का बोला - पहले मु झे आप उसका दर्शन कराओ ।
राजा बोला - तू मु र्ख है ।
घी के दर्शन ऐसे थोड़े होते हैं ।
ू को गर्म करना पड़ता है फिर उसकी दही जमाना पड़ता है । फिर उसको
पहले दध
मघानी में रिड़का जाता है ।
फिर मक्खन निकलता है फिर उसे गर्म-गर्म कढाई में डाला जाता है । फिर उसकी
मै ल निकाली जाती है ।
तब जाकर घी के दर्शन होते हैं । ऐसे ही थोड़े दर्शन होते हैं ।
लड़का बोला - यही उत्तर है आपके प्रश्न का पहले इन्सान को तपना पड़ता है ।
फिर उसको जमना पड़ता है । फिर उसको साधना करनी पड़ती है । फिर उसको ज्ञान
की अग्नि में तपना होता है ।
फिर उस ईश्वर के दर्शन होते हैं ।
अकबर समझ गया और बोला - तू वाकई ही मे रा गु रु है ।
ईश्वर को जानने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है ।
वै से हर आत्मा में ईश्वर का अं श है और उसी को ईश्वर का रूप समझना चाहिए
तभी सु ख की प्राप्ति होती है ।
यह भी सं सार का एक नियम है ।

कर्मशीलता को माना सच्ची उपासना


कार्य उद्यम से ही सिद्ध होते हैं , मनोरथ मात्र से नहीं । सोये हुए शेर के मुख में मृ ग
प्रवेश नहीं करते ।
दो मित्र थे । दोनों के मध्य मित्रता अवश्य थी, किन्तु दृष्टि और विचार दोनों के
भिन्न-भिन्न थे ।
एक आलसी था और सदै व भाग्य के भरोसे रहता, वह ईश्वर से मां गता रहता की
ू रा मे हनती था।
बिना मे हनत किए उसे सब कुछ मिल जाए। दस
वह मूर्तियां बनाता और उससे मिलती आय से सु खपूर्वक जीवन यापन करता। पहला
मित्र दुनिया के प्रत्ये क आयाम को नकारात्मक दृष्टि से दे खता, तो दस
ू रा
सकारात्मकता से भरा था।
एक दिन वह दोनों मित्र जं गल से होकर कहीं जा रहा थे । मार्ग में उन्हें एक सुं दर
गु लाबी पत्थर दिखाई दिया। पहला मित्र उस पत्थर को भगवान का प्रतीक मानकर
हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा और ईश्वर से आशिर्बाद मां गने लगा। दस ू रे मित्र
ने उस पत्थर को बड़े ध्यान से दे खा और फिर उसे उठाकर अपने घर ले गया।
शीघ्र ही उसने उस पत्थर से भगवान की अत्यं त सुं दर प्रतिमा बना दी।
कलाकार की इस सुं दर कला को जिसने दे खा, उसी ने सराहा।
एक श्रद्धालु ने इस प्रतिमा को ऊँचे दाम दे कर खरीद लिया।
इससे मूर्तिकार को बहुत अच्छी आय हुई।
एक दिन दोनों मित्र मिले और एक-दस ू रे का हाल-चाल पूछा। पहले ने दुःख क्ले श
ू रे ने प्रगति व प्रसन्नता का समाचार सु नाया।
प्रकट किया, किन्तु दस
दरसअल पहला मित्र परिश्रम की बजाय भाग्य के भरोसे रहता था और दस ू रा कर्म
में विश्वास करता था और मानता था कि सच्ची उपासना कर्मशीलता में निहित है ।
वास्तव में अपने समस्त कर्तव्यों का निष्काम भाव से समु चित निर्वहन ही कर्मयोग है
और यही सच्ची भक्ति या उपासना है ।
ईश्वर भी उसकी सहायत करता है जो अपनी सहायता खुद करते हैं ।

सीख
अपनी कमियों को छुपाना कितना सामान्य है पर उनका सामना करे तो सारे संकट
गायब हो जाते हैं ।
बात उन दिनों की है जब स्नातक में पढ़ता था
इं टर में कम प्राप्तांक आने के कारण मे रा नामांकन वाणिज्य महाविद्यालय, पटना
जिसमें कि रे गु लर कोर्स होता है , नहीं हो पाया था।
इसी वजह से मैं ने पटना विश्व विद्यालय के दरू स्थ शिक्षा माध्यम से स्नातक में
नामांकन करा लिया।
ू रे को
परन्तु मु झे यह कहने में बहुत ही झें प महसूस होती थी, इसलिए मैं अक्सर दस
कहा करता था कि मैं वाणिज्य महाविद्यालय में पढ़ता हँ ।ू
एक बार की बात है , मैं बगल के बैं क में खाता खु लवाने के लिए गया था।
वहां बातचीत के क् रम में बैं क मै नेजर ने मु झसे पूछ लिया, बाबू, तु म कहाँ पढ़ते हो ?
आदतन मैं ने कह दिया कि वाणिज्य महविद्यालय-द्वितीय वर्ष।
फिर उन्होंने मु झसे पूछा कि अभी वहां के प्रिं सिपल कौन हैं ?
अब तो मे रे पास कोई जवाब ही नहीं था। परन्तु अपने हाव-भाव को छुपाते हुए मैं ने
ू रा सवाल
कह दिया कि पता नहीं सर क्योंकि मैं ज्यादा नहीं जाता हँ ।ू तब उन्होंने दस
दाग दिया कि अकाउन्टें स कौन पढ़ाते हैं ?
अब तो मैं निरुत्तर हो गया क्योंकि इसका गलत उत्तर दे ते साथ ही मे री चोरी पकड़ी
जाती। मैं बगल-बगल दे खने लगा। सं भवतः उनकों वाकया समझते दे र नहीं लगी ।
उन्होंने कहा, ऐसे हो ही नहीं सकता कि कोई विद्यार्थी यह नहीं जाने की उसके
कॉले ज का प्रिं सिपल कौन है चाहे वह कितना ही कम क्यों न कॉले ज जाता हो।
मैं भी वाणिज्य महाविद्यालय का स्टू डेंट रहा हँ ू इसलिए जिज्ञासावश पूछ लिया था।
मैं ने बहुत ही लज्जित होकर पूरी सच्ची कहानी कह डाली।
तब उन्होंने समझाया कम नं बर आने के कारण कॉले ज में एडमिशन न हो पाना गलत
नहीं है परन्तु झठ
ू बोलना तो निहायत ही गलत है ।
तु म्हारा कम नं बर आने के कारण एडमीशन नहीं हो पाया, मगर तु म अभी से कोशिश
करोगे तो निश्चित ही तु म अच्छा मु काम पा जाओगे ।
परन्तु इसके लिए तु म्हें अपनी कमजोरी को छिपाना नहीं चाहिए बल्कि उसको एक
आधार मानकर बड़ी मजबूती से अपनी मं जिल को पाने के लिए कोशिश करनी
चाहिए।
बैं क मै नेजर की वह सीख हमे शा के लिए मे रे मन मस्तिष्क में अं कित हो गई।
निरं तर प्रयास से आज मैं सराकरी से वा में हँ ।ू
घर किसका ?
अक्सर हम सामने वाले से कर्तव्य या जिम्मे दारी की उम्मीदें करते हैं । क्या उसी
जिम्मे दारी और कर्तव्य का पालन खुद करते हैं ?
मु झे इं ग्लिश ऑनर्स की परीक्षा के लिए मधु बनी सें टर मिला था। मैं परीक्षा दे ने के
लिए अपनी चचे री बहन गु ड़ी के यहाँ रुकी थी।
मैं अपनी पढ़ाई कर रही थी, तभी मैं ने सु ना गु ड़ी अपनी कामवाली बाई को सु ना रही
थी, दे ख सोफे पर कितनी धूल जमी है ,
उधर टे बल के नीचे कितना कचरा पड़ा है , कांच पर कितने दाग लगे हैं , कैसी सफाई
करती है । घर को अपना समझकर काम किया कर।
अगले दिन बाई नहीं आयी, तो गु ड़ी बोली कि कल आएगी, तो सफाई कर ले गी।
ू रे दिन मालूम पड़ा कि बाई आज भी नहीं, कल आएगी तो गु ड़ी ने बस सामने -
दस
सामने से यूँ ही झाड़ू मार दी कि मैं क्यों करूं।
कल बाई आएगी तो सब अच्छे से करें गी ही न। वह क्या करे गी नहीं तो आकर !
मैं सोच में पड़ गई कि घर किसका है , बहन का या बाई का ? सफाई की जिम्मे दारी
ज्यादा किसकी है ? बहन अपने घर को किसका समझ रही है ?

जन्म का रिश्ता हैं माता-पिता से


एक वृ द्ध माँ रात को 11:30 बजे रसोई में बर्तन साफ कर रही है , घर में दो बहुएँ हैं ,
जो बर्तनों की आवाज से परे शान होकर अपने पतियों को सास को उल्हाना दे ने को
कहती हैं
वो कहती है आपकी माँ को मना करो इतनी रात को बर्तन धोने के लिये हमारी नींद
खराब होती है
साथ ही सु बह 4 बजे उठकर फिर खट् टर पट् टर शु रू कर दे ती है सु बह 5 बजे पूजा
आरती करके हमे सोने नही दे ती ना रात को ना ही सु बह जाओ सोच क्या रहे हो
जाकर माँ को मना करो
बड़ा बे टा खड़ा होता है और रसोई की तरफ जाता है
रास्ते मे छोटे भाई के कमरे में से भी वो ही बाते सु नाई पड़ती जो उसके कमरे हो रही
थी
वो छोटे भाई के कमरे को खटखटा दे ता है छोटा भाई बाहर आता है
दोनो भाई रसोई में जाते हैं , और माँ को बर्तन साफ करने में मदद करने लगते है , माँ
मना करती पर वो नही मानते , बर्तन साफ हो जाने के बाद दोनों भाई माँ को बड़े
प्यार से उसके कमरे में ले जाते है , तो दे खते हैं पिताजी भी जागे हुए हैं
दोनो भाई माँ को बिस्तर पर बै ठा कर कहते हैं , माँ सु बह जल्दी उठा दे ना, हमें भी
पूजा करनी है , और सु बह पिताजी के साथ योगा भी करें गे
माँ बोली ठीक है बच्चों, दोनो बे टे सु बह जल्दी उठने लगे , रात को 9:30 पर ही बर्तन
मांजने लगे , तो पत्नियां बोलीं माता जी करती तो हैं आप क्यों कर रहे हो बर्तन
साफ, तो बे टे बोले हम लोगो की
शादी करने के पीछे एक कारण यह भी था कि माँ की सहायता हो जाये गी पर तु म
लोग ये कार्य नही कर रही हो कोई बात नही हम अपनी माँ की सहायता कर दे ते है
हमारी तो माँ है इसमें क्या बु राई है , अगले तीन दिनों में घर मे पूरा बदलाव आ
गया बहुएँ जल्दी बर्तन इसलिये साफ करने लगी की नही तो उनके पति बर्तन साफ
करने लगें गे
साथ ही सु बह भी वो भी पतियों के साथ ही उठने लगी और पूजा आरती में शामिल
होने लगी
कुछ दिनों में पूरे घर के वातावरण में पूरा बदलाव आ गया बहुएँ सास ससु र को पूरा
सम्मान दे ने लगी
माँ का सम्मान तब कम नही होता जब बहुवे उनका सम्मान नही करती , माँ का
सम्मान तब कम होता है जब बे टे माँ का सम्मान नही करे या माँ के कार्य मे सहयोग
ना करे

हाथी क्यों हारा


एक बार एक व्यक्ति, एक हाथी को रस्सी से बां ध कर ले जा रहा था।
ू रा व्यक्ति इसे दे ख रहा था।
एक दस
उसे बढ़ा आश्चर्य हुआ की इतना बड़ा जानवर इस हलकी से रस्सी से बं धा जा रहा
है ।
ू रे व्यक्ति ने हाथी के मालिक से पूछा ” यह कैसे सं भव है की इतना बड़ा जानवर
दस
एक हलकी सी रस्सी को नहीं तोड़ पा रहा और तु म्हारे पीछ- पीछे चल रहा है ।
हाथी के मालिक ने बताया जब ये हाथी छोटे होते हैं तो इन्हें रस्सी से बां ध दिया
जाता है उस समय यह कोशिश करते है रस्सी तोड़ने की पर उसे तोड़ नहीं पाते ।
बार- बार कोशिश करने पर भी यह उस रस्सी को नहीं तोड़ पाते तो हाथी सोच ले ते
है की
वह इस रस्सी को नही तोड़ सकते और बढे होने पर कोशिश करना ही छोड़ दे ते है ।
दोस्तों हम भी ऐसी बहुत सी नकारात्मक बातें अपने दिमाग में बै ठा ले ते हैं की हम
नहीं कर सकते ।
और एक ऐसी ही रस्सी से अपने को बां ध ले ते हैं जो सच में होती ही नहीं है ।

एक ईमानदार लड़का
एक गां व में एक लड़का रहता था।
उसके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।
उसके मन में विचार आया किसी बड़े शहर में जाकर वह नौकरी करे ।
वह कलकत्ता गया और नौकरी ढूंढने लगा।
बहुत खोज के बाद उसे एक से ठ के घर में नौकरी मिल गयी।
नौकरी छे ह अने रोज़ की थी।
काम था से ठ को रोज़ 6 घं टे अख़बार और किताब पढ़कर सु नाना लड़के को नौकरी
की ज़रूरत थी तो उसने वह नौकरी स्वीकार कर ली।
एक दिन की बात है लड़के को दुकान के कोने में 100-100 के 8 नोट पड़े मिले ।
उसने चु पचाप उन्हें अख़बार और किताबो से ढक दिया।
ू रे दिन रुपयों की खोजबीन हुई। लड़का सु बह जब दुकान पर आया तो उससे पूछा
दस
गया।
लड़के ने तु रं त ही प्रसनन्ता से रूपये निकालकर ग्राहक को दे दिए।
वह बहुत ही खु श हुआ। लड़के के ईमानदारी से सबको बहुत प्रसनन्ता हुई।
से ठ भी लड़के से बहुत खु श हुआ। से ठ ने लड़के को पु रस्कार दे ना चाहा तो लड़के ने
ले ने से मना कर दिया।
लड़के ने कहा से ठ जी में आगे पढ़ना चाहता हु। पर पै सो के आभाव ने पढ़ नहीं पा
रहा। आप कुछ सहयता कर दें ।
से ठ ने लड़के की पढ़ाई का प्रवन्ध कर दिया। लड़का बहुत मे हनत से पढता गया।
यही लड़का आगे चलकर बहुत बढ़ा सहित्यकार बना। इसका नाम था – राम नरे श
त्रिपाठी। हिं दी साहित्य में इनका बहुत बढ़ा योगदान है ।
ईमानदार मनु ष्य ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है ।

अं गुलिमार की कहानी
एक बार गौतम बु द्ध कोसला के जं गलो से गु जर रहे थे
तभी उन्होंने सु ना की इन जं गलो में कोई व्यक्ति इतना दुष्ट है वह लोगो की
उँगलियाँ काटकर उनकी माला बनाकर पहनता है ।
उसने 100 लोगो की ऊँगली पहनने का प्रण लिया है ।
गौतम बु द्धा को बहुत अफ़सोस हुआ की यह व्यक्ति अपने जीवन को कैसे बिगड़ रहा
है ।
उन्होंने उससे मिलने का निश्चय किया और जहाँ वह रहता था वहां जाने लगे ।
अं गुलिमार गौतम बु द्ध को आता हुआ दे कर चिल्लाया की लौट जाओ वर्णा में तु म्हे
मारकर तम्हारी ऊँगली अपनी माला में पहन लूंगा।
पर गौतम बु द्ध को उस पर बहुत करुणा थी की ये कैसे भी ये काम छोड़ दे की सं तो
का स्वभाव होता है की उनके ह्रदय में सबके प्रति करुणा होती है की सबका जीवन
सवाँरे।
गौतम बु द्ध अं गुलिमार की तरफ चलते गए अं गुलिमार को बड़ा आश्चर्य हुआ की
लोग मु झसे दरू भागते हैं ।
ये मे रे मना करने पर भी मे रे पास आ रहे हैं ।
इन्हे मु झसे डर भी नहीं लग रहा तभी अं गुलिमार से गौतम बु द्ध ने कहा की तु म मु झे
मारना चाहते हो तो मार दे ना पर पहले मे रे एक सवाल का जवाव दो
सामने पे ड़ लगा है उसकी एक डं डी तोड़ लाओ अनु गलीमर सामने से पे ड़ की डं डी
थोड़ लाया तभी गौतम बु द्ध ने कहा अब इस डं डी को पे ड़ में जोड़ आओ।
अं गुलिमार ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है गौतम बु द्ध ने कहा कोशिश करो हो
जाएगा।
अनु गीमार ने कोशिश की पर डं डी पे ड़ से नहीं जु डी।
तभी गौतम बु द्ध ने उसे समझाया की तु म पे ड़ से जै से डं डी तोड़ तो सकते हो पर
जोड़ नहीं सकते ।
इसी तरह तु म आदमियों को मार तो सकते हो पर उन्हें जिन्दा नहीं कर सकते ।
अनु गलीमर का इस वचन का बहुत प्रभाव पड़ा और उसने लोगो को मारना छोड़
दिया और गौतम बु द्ध का शिष्य बन गया।

सबसे बड़ी सिख दे ने वाली कहानी


एक समय की बात है , एक जं गल में से ब का एक बड़ा पे ड़ था ।
एक बच्चा रोज उस पे ड़ पर खे लने आया करता था ।
वह कभी पे ड़ की डाली से लटकता, कभी फल तोड़ता, कभी उछल कू द करता था,
से ब का पे ड़ भी उस बच्चे से काफ़ी खु श रहता था ।
कई साल इस तरह बीत गये ।
अचानक एक दिन बच्चा कहीं चला गया और फिर लौट के नहीं आया, पे ड़ ने उसका
काफ़ी इं तज़ार किया पर वह नहीं आया अब तो पे ड़ उदास हो गया था ।
काफ़ी साल बाद वह बच्चा फिर से पे ड़के पास आया पर वह अब कुछ बड़ा हो गया
था । पे ड़ उसे दे खकर काफ़ी खु श हुआ और उसे अपने साथ खे लने के लिए कहा ।
पर बच्चा उदास होते हुए बोला कि अब वह बड़ा हो गया है अब वह उसके साथ नहीं
खे ल सकता. बच्चा बोला की, “अब मु झे खिलोने से खे लना अच्छा लगता है , पर मे रे
पास खिलोने खरीदने के लिए पै से नहीं है ”
पे ड़ बोला, “उदास ना हो तु म मे रे फल (से ब) तोड़ लो और उन्हें बे च कर खिलोने
खरीद लो ।
बच्चा खु शी खु शी फल (से ब) तोड़के ले गया ले किन वह फिर बहुत दिनों तक वापस
नहीं आया. पे ड़ बहुत दुखी हुआ ।
अचानक बहुत दिनों बाद बच्चा जो अब जवान हो गया था वापस आया, पे ड़ बहुत
खु श हुआ और उसे अपने साथ खे लने के लिए कहा ।
पर लड़के ने कहा कि, “वह पे ड़ के साथ नहीं खे ल सकता अब मु झे कुछ पै से चाहिए
क्यूंकी मु झे अपने बच्चों के लिए घर बनाना है । ”
पे ड़ बोला, “मे री शाखाएँ बहुत मजबूत हैं तु म इन्हें काट कर ले जाओ और अपना घर
बना लो अब लड़के ने खु शी-खु शी सारी शाखाएँ काट डालीं और ले कर चला गया ।
उस समय पे ड़ उसे दे खकर बहोत खु श हुआ ले किन वह फिर कभी वापस नहीं आया.
और फिर से वह पे ड़ अकेला और उदास हो गया था ।
अं त में वह काफी दिनों बाद थका हुआ वहा आया ।
तभी पे ड़ उदास होते हुए बोला की, “अब मे रे पास ना फल हैं और ना ही लकड़ी अब
में तु म्हारी मदद भी नहीं कर सकता ।
बूढ़ा बोला की, “अब उसे कोई सहायता नहीं चाहिए बस एक जगह चाहिए जहाँ वह
बाकी जिं दगी आराम से गु जार सके.” पे ड़ ने उसे अपनी जड़ो मे पनाह दी और बूढ़ा
हमे शा वहीं रहने लगा ।
यही कहानी आज हम सब की भी है । मित्रों इसी पे ड़ की तरह हमारे माता-पिता भी
होते हैं , जब हम छोटे होते हैं तो उनके साथ खे लकर बड़े होते हैं और बड़े होकर उन्हें
छोड़ कर चले जाते हैं और तभी वापस आते हैं जब हमें कोई ज़रूरत होती है । धीरे -
धीरे ऐसे ही जीवन बीत जाता है । हमें पे ड़ रूपी माता-पिता की से वा करनी चाहिए
ना की सिर्फ़ उनसे फ़ायदा ले ना चाहिए । इस कहानी में हमें दिखाई दे ता है की उस
पे ड़ के लिए वह बच्चा बहुत महत्वपूर्ण था, और वह बच्चा बार-बार जरुरत के
अनु सार उस से ब के पे ड़ का उपयोग करता था । ये सब जानते हुए भी की वह उसका
केवल उपयोग ही कर रहा है । इसी तरह आज-कल हम भी हमारे माता-पिता का
जरुरत के अनु सार उपयोग करते है और बड़े होने पर उन्हें भूल जाते है । हमें हमे शा
हमारे माता-पिता की से वा करनी चाहिये , उनका सम्मान करना चाहिये । और
हमे शा, भले ही हम कितने भी व्यस्त क्यू ना हो उनके लिए थोडा समय तो भी
निकलते रहना चाहिये ।

सच्ची दोस्ती की एक कहानी


एक जगं ल में तीन दोस्त बड़े आनं द से रहते थे , कछुआ हिरण और कौआ। जं गल में
सभी प्रकार के प्राणी और पक्षी भी रहते थे , ले किन उनके जै सा कोई न था। एक
दिन हिरण बोली अरे .. वही बै ठे-बै ठे मै बोर हो गयी हु.. चलिए कोई ऐसा खे ल खे लते
है , जिसमें सभी को मजा आ जाए, कछुआ और कौआ बोला हाँ दोस्तों.. वही बै ठे-
बै ठे का खे ल खे ल कर बोर हो चूके है अब कुछ नया खे ल खे लेंगे ।
कौवे को हिरन बोली ठीक है तो तु म एक बड़े से पे ड पर बै ठ कर आं खे बं द करके दस
तक गिनती करो और हम दोनों छुपें गे उसके बाद तु म हमे ढूँढना, ढूढने पर जो भी
पहला मित्र दिखे गा वो तु म्हारी जगह पर दस तक गिनती करे गा और तु म छप ू
जाना। कौआ गिनती करने लगा हिरन और कछुवा छुपने लगे , इसी तरह खे ल
चलता रहा। जब खे ल खे ल कर तीनो मित्र थक गए तब एक जगह बै ठ कर बाते
करने लगे उतने में एक शिकारी वहाँ से गु जर रहा था। तभी उसकी नजर हिरन कौआ
और कछुवे पर पड़ी।
शिकारी ने जै से ही तीनो मित्रो को दे खा उन्हें पकडने के लिए दौड़ा, खतरे का
आभास होते ही हिरन और कौआ रफू चक्कर हो गये , यानि की वहाँ से भाग गये ।
कछुवे को आभास हुआ पं रतु कछुवे की चाल धीर होने के कारण शिकारी के हाथ लग
गया और शिकारी उसे अपने दुपटे में बां धकर ले जाने लगा, शिकारी मन ही मन खु श
हो गया, हिरन नही तो कछुवा ही सही, रात का तो प्रबं द हो गया, यह कहकर वहां
से जाने लगा।
उधर हिरन और कौआ अपने मित्र को ऐसे शिकारी के कैद में दे खकर दुखी होने लगे ,
तभी शिकारी भोजन में कछुवे को खाने वाला है यह सु नकर हिरन और कौवे ने एक
योजना बनाई। कौवे ने हिरन को कहाँ की, जै से ही शिकारी यहा से जब जाने लगे गा
तब तु म उसके सामने जाना, जब शिकारी तु म्हे दे खेगा तो अपनी पोटली जमीन पर
रखकर तु म्हे पकड़ने के लिए जै से ही दौड़े गा, मै जमीन पर रखी हुई पोटली पकडकर
उड़ जाऊगाँ और तु म वहा से भाग जाना।
जै से ही शिकारी वहां से जाने लगा हिरन उसके सामने आ गई, शिकारी ने हिरन को
पकडने के लिए पोटली जै से ही जमीन पर रखा, कौआ अपनी चोच में पोटली
पकडकर उड़ गया। शिकारी हिरन को पकडने के लिए दौडा और पीछे मु डकर दे खा
कौआ पोटली चोच में पकडकर उड़ रहा था और इधर हिरन पलक झपटे ही भाग
गयी।
शिकारी निराश होकर घर लौट गया, कौवे ने पोटली को महफुस जगह पर रखा और
कछुवे को शिकारी के चं गुल से आजाद कराया और तीनो मित्र आनं द से रहने लगे ।
इससे हमें यह सीख मिलती है की, असली दोस्ताना वही जो समय पर काम आए।

गु रु ने बचाया शिष्य का जीवन


एक गु रु और शिष्य तीर्थाटन हे तु जा रहे थे ।
चलते -चलते शाम घिर आई तो दोनों एक पे ड़ के नीचे रात्रि विश्राम के लिए रुक
गए।
गु रूजी रात्रि में मात्र तीन चार घं टे ही सोते थे , इसलिए उनकी नींद जल्दी पूर्ण हो
गई। वे शिष्य को जगाए बिना दै निक कार्यों से निवृ त हो पूजा-पाठ में लग गए।
इसी बीच उन्होंने एक विषधर सर्प को अपने शिष्य की ओर जाते दे खा। चूँकि गु रूजी
पशु -पक्षियों की भाषा समझते थे , इसलिए उन्होंने सर्प से प्रश्न किया - सोए हुए
मे रे शिष्य को डसने का प्रयोजन है ?
सर्प ने उत्तर दिया - महात्म्न! आपके शिष्य ने पूर्वजन्म में मे री हत्या की थी।
मु झे उससे बदला ले ना है । अकाल मृ त्यु होने पर मु झे सर्प योनि मिली है । मैं आपके
शिष्य को डसकर उसे भी अकाल मृ त्यु दं ग ू ा।
क्षणभर विचार के उपरांत गु रूजी बोले - मे रा शिष्य अत्यं त सदाचारी व होनहार होने
के साथ ही अच्छा साधक भी है , फिर तु म उसे मरकर विश्व को उसके ज्ञान और
प्रतिभा से क्यों वं चित कर रहे हो ?
स्वयं भी इस कार्य से मु क्ति नहीं मिले गी।
किन्तु सर्प का निश्चय नहीं बदला। तब गु रूजी ने एक प्रस्ताव को रखते हुए कहा -
मे रे शिष्य की साधना अभी अधूरी है ।
उसे अभी इस क्षे तर् में बहुत कुछ करना है , जबकि मे रे लक्ष्य पूर्ण हो चु के हैं । मे रे
नाश में किसी की हानि नहीं है । अतः उसके स्थान पर मु झे डस लो।
गु रु का यह स्ने ह दे खकर सर्प का हृदय परिवर्तन हो गया और वह उन्हें प्रणाम कर
वहां से चला गया।
वस्तु तः गु रु की गु रुता न केवल शिष्य को ज्ञान दे ने में , बल्कि उसे पूर्ण परिपक्व होने
तक उसकी रक्षा करने में निहित है ।

पत्नी ने कराया पति को आत्म-बोध


उपन्यासकार डा. क् रोनिन अत्यं त निर्धन थे ।
पु स्तकों की रॉयल्टी या तो प्रकाशक हड़प जाते अथवा क् रोनिन को उनके हक से
कम दो क् रोनिन बहुत सीधे थे । प्रकाशकों से लड़ाई कर अपना हक ले ना उन्हें नहीं
आता था।
अतः गरीबी में उनका जीवन बिट रहा था। इसी गरीबी में जै से-तै से उन्होंने चिकित्सा
की पढ़ाई पूर्ण की और डॉक्टर बन गया जब वे चिकित्सा के क्षे तर् में आए तो कुछ
लोगों ने उन्हें इसके जरिए पै सा कमाने का तरीका बताया।
वे लोगों की बातों में आकर मरीज से मोटी फ़ीस वसूलने लगे । वे किसी भी निधर्न पर
दया नहीं करता और पु र पूरा चिकित्सा खर्च ले ते।
यह दे खकर क् रोनिन की पत्नी बहुत दुखी हुई। वे अत्यं त दयालु थी।
पति की गरीबों के साथ यह निर्दय दे ख एक दिन वे बोली - हम गरीब ही ठीक थे । हम
से कम दिल में दया तो थी।
उस दया को खोकर तो हम कंगाल हो गए, अब मनु ष्य ही नहीं रहे ।
पत्नी की मर्मस्पर्शी बात सु नकर डा. कोर्निन को आत्मा-बोध हुआ और उन्होंने
अपनी पत्नी से कहा - तु म सच कह रही हो।
व्यक्ति धन से नहीं, मन से धनी होता है । तु मने सही समय पर सही राह दिखाई
अन्यथा हम अमानवीयता की गहरी खाई में गिर जाते तो कभी उठ ही नहीं पाते ।
कथा का निहितार्थ यह है कि जब मनु ष्य अपनी मानवीयता की मूल पहचान से
डिगने लगता है , तो सामाजिक नै तिकता तो खं डित होती ही है , वह स्वयं भी भीतर
खोखला हो जाता है , क्यूंकि ऐसा उनकी पवित्र सं स्कारशीलता बलि चढ़ चु कने के
बाद ही होता है ।

अनोखे गहनों की मां ग


उन्नीसवीं शताब्दी का एक प्रसं ग है ।
मे दिनीपु र जिले के वीर सिं ह नामक गाँ व में एक मां अपने पु त्र के साथ रहती थी। माँ
का रहन-सहन अत्यं त सादा था और विचार अति उच्च।
अपने पु त्र को वह सदा सु संस्कारों की शिक्षा दे ती थी। पु त्र भी मां का आज्ञाकारी
था। माँ बहुत सं घर्ष कर पु त्र का पालन-पोषण कर रही थी।
पु त्र अपनी माँ के कष्टों को दे खता- समझता था और इसी वजह से उसके मन में यह
भावना थी कि बड़ा होकर अपनी माँ को सभी प्रकार के सु ख दँ ।ू
एक दिन पु त्र ने माँ से कहा - मे री बहुत इच्छा है कि तु म्हारे लिए कुछ गहने
बनबाऊं, तु म्हारे पास एक भी गहना नहीं है ।
यह सु नकर माँ बोली - बे टा !
मु झे बहुत दिनों से तीन प्रकार के गहनों की इच्छा है । पु त्र ने पूछा - वे कौन से
गहने हैं ? माँ ने उत्तर दिया - बे टा इस गां व में स्कू ल नहीं है ।
तु म एक अच्छा स्कू ल बनवाना। एक दवाखाना खु लवाना। गरीब और अनाथ बच्चों
के रहने और भोजन की व्यवस्था करवाना।
यही मे रे लिए गहनों के समान होने । मां की बात सु नकर पु त्र रो पड़ा। वह पु त्र था
पं डित ईश्वरचं दर् विद्यासागर और माँ थी भगवती दे वी। वीर सिं ह गाँ व में इस पु त्र
द्वारा स्थापित किया हुआ भगवती विद्यालय आज भी उन अमूल्य गहनों की कथा
सूना रहा है ।
कथा का सार यह है कि स्वयं की सज्जा से अधिक समाज को सं वारने की कामना ही
मनु ष्य को मनु ष्यत्व प्रदान करती है और ऐसी मनु ष्यता से भरा समाज एक
सु संस्कृत राष्ट् र की परिकल्पना को साकार करता है ।

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