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कहानी 

: ” का़नून का मकड़जाल”

लेखक : सैय्यद इब्राहीम हुसैन ( दानिश हुसैनी)

नोट :- ये कहानी सच्ची घटनाओं पर आधारित है और इस कहानी के सभी किरदार काल्पनिक हैं |

सुबह से हुश हश.. चिड़िया उड़ कव्वा उड़.. करते करते थक चुका कै फ़ी बग़ल में लाठी दबाए अपने खेत के किनारे खाट पर लेटा आराम
कर रहा था कि एक बारगी खुरखुराहट के साथ ही पत्तियां चबाने की आवाज़ सुनाई दी ।

वैसे भी कहते हैं कि किसान की जागीर उसकी ज़मीन और फ़सल होती है जिसे वो किसी देना तो दूर ग़ैर का हाथ भी नहीं लगवाना चाहता
और फिर एक किसान अपनी जागीर की रखवाली किसी चौकीदार से भी ज़्यादा करता है क्यूंकि चौकीदार चोर भी हो सकता है और
लापरवाह भी जबकि किसान की रखवाली अपने सुहाग की टोह में रहती किसी वफा़दार सुहागन जैसी होती है ।

और यही कै फ़ी के साथ हुआ कि उसने जैसे ही आवाज़ सुनकर अधूरी नींद से चौकन्ना होते हुए देखा तो अमित की बकरियां खेत चर रही
थीं ।

उसने पहले तो बकरियों को हंकाया लेकिन जब बकरियां ना मानीं तो लाठी फें क कर ऐसे मारा कि लगे भी ना और बकरियां भाग भी जाएं ।

लेकिन बद कि़स्मती तो देखिए कि फें की हुई लाठी एक पत्थर से टकरा कर घूमते हुए बकरी के बच्चे को जा लगी और वो “में में” करता
हुआ तीन टांग पे भागता फिरा ।

बच्चे को मिमियाता देख कै फ़ी पहले तो बच्चे की तरफ़ को लपका लेकिन फिर उसे लगा कि शायद चोट ज़्यादा नहीं लगी है और इसीलिए
फिर वो अपने बिस्तर पे लेट गया लेकिन ।

लेकिन अब वो बकरी का बच्चा जब अपनी टोली के साथ भागने लगा तो उन्हे चरा रहे अमित की नज़र नन्हे बच्चे पे पड़ी तो उसका टम्पर
हाई हो गया और उसने आव देखा ना ताव और लपकते हुए कै फ़ी को गरिया कर एक मुक्का जड़ दिया ।

और फिर जब नींद में डू बे झल्लाए कै फ़ी ने लाठी तानी तो अमित का सिर फू ट गया ।

ख़ैर मामला थाने पहुंचा तो दरोग़ा साहब 2000 की लाल नोट के बदले में कै फ़ी को गिरफ्तार करके गाली गलौज और धमकी की धारा
504,506 मार पीट की धारा 323 ,324 के साथ ही इरादतन हत्या की धारा 307 में एफआईआर दर्ज कर लेते हैं ।
इसके बाद जब लॉक अप में बैठे कै फ़ी ने मुक्के की बात बताई तो थानेदार साहब 2000 की दो नोटों को जेब के हवाले करते हुए गाली
गलौज , धमकी , मारपीट के साथ ही रॉबरी की धारा 390 के तहत रिपोर्ट बना देते हैं ।

अब जब अगले दिन सिपाही कै फ़ी को लेकर कोर्ट पहुंचता है तो कै फ़ी की अम्मी शबनम और अमित की अम्मा संजू काले कोट वाले वकील
साहब के साथ न्यायधीश महोदय के सामने पेश होते हैं जिसके बाद महोदय कै फ़ी को जेल और अमित को बेल का फ़ै सला सुना देते हैं।

और फिर जब शौहर को हादसे में खो चुकी इकलौते बेटे की किसानी मज़दूरी से पेट की आग बुझाती शबनम को पता चलता है कि धारा
307 में ज़मानत नहीं मिलती तो वो गिड़गिड़ाती हुई अमित के घर पहुंचती है तो अमित को भी फू टे हुए सिर से ज़्यादा बचपन के साथी
और कई बार उसका पाठ ले चुके पड़ोसी का दर्द महसूस होने लगता है और अमित ये बात अपने वकील को बताता है तो वकील साहब
इंसानियत से ज़्यादा अपने धंधे का ख़्याल रखते हुए अमित को बहका कर शबनम पे धमकी देने और घर पे हमला करने का मुकदमा दर्ज
कर देते हैं !!

ख़ैर जैसे तैसे हफ़्ता दस दिन गुज़रने के बाद शबनम बनिया को सरसों की खड़ी फ़सल बेच कर विवेचक को 5000 थमाती है तो
विवेचक साहब अपनी रिपोर्ट में कै फ़ी पर से धारा 307 ख़त्म कर देते हैं और इस तरह कै फ़ी को ज़मानत मिल जाती है ।

ये कहानी अपने अंजाम पर तब पहुंचती है कि जब पूरे गांव में अच्छी अम्मा कही जाने वाली शबनम अपने मुक़दमे में हाज़िर होती है तो गाव
वालों की गवाही पे शबनम बा इज़्ज़त बरी हो जाती है ।

और फिर सादी दिखने वाली इस कहानी में क्लाइमैक्स यूं आता है कि कु छ देर के सन्नाटे के बाद कचहरी में एक झन्नाटेदार झापड़ के साथ
ही बिलख कर रोने की आवाज़ गूंजने लगती है ।

और वो झापड़ किसी और का नहीं बल्कि ख़ुद माथे पे टीका लगाए अमित के वकील साहब के गालों पे रसीद किया हुआ अमित के हाथों
का होता है और ये रोने की आवाज़ कै फ़ी के सीने से चिपके अमित की ही होती है ।

वैसे क्या ये कहानी अपने अंजाम पर पहुंच चुकी थी??

नहीं बल्कि बद कि़स्मती के पत्थर , नींद की झल्लाहट , थानेदारों की रिश्वत और वकील के धंधे के इस मकड़जाल के बीच अभी जज
साहब का किरदार अधूरा था और इन्हीं जज साहब का किरदार कहानी के ताने बाने को पूरी तरह से बुनता है जो अपने हाथों में वकील के
लाइसेंस को रद करने के साथ उसकी सज़ा का काग़ज़ लिए होते हैं ।
दर असल शबनम पे लगे मुक़दमे के खा़रिज होते ही कमाई की टोह में जुटे वकील साहब अमित के कानों में बुद बुदाते हैं कि इसपर
जातिवाद यानी दलित एक्ट लगवा दिया जाए “ये मुल्ला” है इसे सज़ा देना हमारा अधिकार है ।

जिसपर कचहरी का सारा माहौल बदल जाता है और न्यायधीश की कु र्सी पर जज लोया की छवि उभर आती है और उन्ही जज साहब के
आख़िरी जुमले होते हैं बाबू जी जिस क़ानून से तुम अपना पेट भर रहे हो उसे बनाने में भी मुसलमान का ही हाथ था और तुम्हारी जगह
कम से कम जेल है ।

वैसे सच तो ये है कि अब कहानी सच में ख़त्म हो चुकी है लेकिन मुझे अब तक इस कहानी का असली विलेन नहीं मिल सका है ।

क्यूंकि इस कहानी का असली विलेन ना तो बेजु़बान जानवर है ना बदकि़स्मती का पत्थर और ना ही हीट आफ़ द मूवमेंट में हुआ अमित
का बच्चे के प्यार में गुस्सा और ना ही हड़बड़ाए कै फ़ी का लाठी मारना ।

तो फिर इस कहानी का असली विलेन है कौन??

रिश्वत खोर दरोग़ा या फिर लालची विवेचक या फिर पेट पीटता वकील ??

!!नहीं बिल्कु ल नहीं!!

दर असल इस कहानी का असली विलेन तो वो सिस्टम और वो सोच है कि जो हीट आफ़ द मूवमेंट और कमज़ोरों ज़रूरतमंदों का फ़ायदा
उठाने वालों को बढ़ावा देता है ।

क्यूंकि अगर एक टैक्सी ड्राइवर बिना यूनियन के गिनती से ज़्यादा सवारी नहीं बिठाल सकता तो फ़िर क़ानून को धंधे का टट्टू बनाते
सरकारी कर्मचारी , पुलिस या वकील में खुलेआम किसी बेगुनाह को फं सा कर एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी से बच जाने का हौसला
भी नहीं आ सकता ।

सच मे महान हैं वो अम्बेडकर साहब जिन्होंने करोड़ों। की आबादी को सिस्टम एक अनोखे धागे में पिरो दिया और सच में नफ़रत के लायक
है वो सोच वो व्यक्ति जो इस धागे को तोड़ने के प्रयास में हो और वो बस नफ़रत और बॉयकॉट के लायक है फिर चाहे वो अके ला हो या
फिर सिस्टम में साथ हो विपक्ष में हो या फिर सत्ता धारी ।

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