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राजधर्म का साररूप में वर्णन - Krishnakosh
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विषय सूची
1 क्षत्रिय के धर्म का वर्णन
2 राजा द्वारा शत्रुओं को मारने के लिए योजना बनाना
3 राजा द्वारा प्रजा को मधुर वाणी से समझाने की शक्ति
4 राजा में राजधर्म के ज्ञाता होने के गुण
5 शत्रु के साथ संधि या विग्रह करना
6 राजा द्वारा प्रजा से कर वसुल करना
7 राजा का लोभी मनुष्य से सावधान रहना
8 राजा का बुद्धिमान मंत्री को ही पद के लिए नियुक्त करना
9 टीका टिप्पणी और संदर्भ
10 संबंधित लेख
10.1 महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ
युधिष्ठिर ने कहा- भारत! राजधर्म के तत्व को जानने वाले पूर्ववर्ती राजाओं ने पूर्वकाल में जिनका अनुष्ठान किया हैं, उन अनेक प्रकार के राजोचित बर्तावों का आपने वर्णन किया। भरतश्रेष्ठ! आपने पूर्व
पुरुषों द्वारा आचरित तथा सज्जन सम्मत जिन श्रेष्ठ राजधर्मो का विस्तार पूर्वक वर्णन किया हैं, उन्हीं को इस प्रकार संक्षिप्त करके बताइये, जिससे उनका विशेष रुप से पालन हो सके ।
भीष्मजी बोले-
भूपाल! क्षत्रिय के लिये सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है समस्त प्राणियों की रक्षा करना, परंतु यह रक्षा का कार्य कै से किया जाय, उसको बता रहा हूं, सुनो।
जैसे सांप खाने वाला मोर विचित्र पंख धारण करता
है, उसी प्रकार धर्मज्ञ राजा को समय-समय पर अपना अनेक प्रकार का रुप प्रकट करना चाहिये। राजा मध्यस्थ-भाव से रहकर तीक्ष्णता, कु टिल नीति, अभय-दान, सरलता तथा श्रेष्ठभाव का अवलम्बन
करे। ऐसा करने से ही वह सुख का भागी होता है। जिस कार्य के लिये जो हितकर हो, उसमें वैसा ही रुप प्रकट करे (उदाहरण के लिये अपराधी को दण्ड देते समय उग्र रुप और दीनों पर अनु्ग्रह करते समय
शान्त एवं दयालु रुप प्रकट करे)।इस प्रकार अनेक रुप धारण करने वाले राजा का छोटा-सा कार्य भी बिगड़ने नहीं पाता है। जैसे शरद-ॠतु का मोर बोलता नहीं, उसी प्रकार राजा को भी मौन रहकर सदा
राजकिय गुप्त विचारों को सुरक्षित रखना चाहिये। वह मधुर वचन बोले, सौम्य-स्वरुप से रहे, शोभा सम्पन्न होवे और शास्त्रों का विशेष ज्ञान प्राप्त करें।
बाढ़ के समय जिस ओर से जल बहकर गांवों को डूबा
देने का संकट उपस्थित कर दे , उस स्थान पर जैसे लोग मजबूत बांध बांध देते हैं, उसी प्रकार जिन द्वारो से संकट आने की सम्भावना हो, उन्हें सुदृढ़ बनाने और बंद करने के लिये राजा को सतत प्रावधान
रहना चाहिये। जैसे पर्वतों पर वर्षा होने से जो पानी एकत्र होकर नदी या तालाब के रुप में रहता हैं, उसका उपभोग करने के लिये लोग उसका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार राजा को सिद्ध ब्राह्मणों का आश्रय
लेना चाहिये तथा जिस प्रकार धर्म का ढोंगी सिर पर जटा धारण करता हैं, उसी तरह राजा को भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने की इच्छा से उच्च लक्षणों को धारण करना चाहिये। वह सदा अपराधियों को दण्ड
देने के लिये उद्यत रहे, प्रत्येक कार्य सावधानी के साथ करे, लोगों के आय-व्यय देखकर ताड़ के वृक्ष से रस निकालने की भाँति उनसे धनरुपी रस ले (अर्थात् जैसे उस रस के लिये पेड़ को काट नहीं दिया
जाता, उसी प्रकार प्रजा का उच्छे द न करे) राजा अपने दल के लोगों के प्रति विशुद्ध व्यवहार करे। शत्रु के राज्य में जो खेती की फसल हो, उसे अपने दल के घोड़ों और बैलों के पैरों से कु चलवा दे। अपना
पक्ष बलवान् होने पर ही शत्रुओं पर आक्रमण करे और अपने में कहाँ कै सी दुर्बलता है, इसका भलीभाँति निरीक्षण करता रहे। शत्रु के दोषों को प्रकाशित करे और उसके पक्ष के लोगों को अपने पक्ष में आने
के लिये विचलित कर दे। जैसे लोग जंगल से फू ल चुनते हैं, उसी प्रकार राजा बाहर से धन का संग्रह करे।[1]
मन्त्री आदि दूसरों की बुद्धि के सहयोग से कर्तव्य का निश्चय किया जाता हैं और शास्त्रीय बुद्धि से आत्मगुण की प्राप्ति होती हैं। यही शास्त्र का प्रयोजन हैं। राजा मधुर वाणी द्वारा समझा-बुझाकर अपने प्रति
दूसरे का विश्वास उत्पन्न करे। अपनी शक्ति का भी प्रदर्शन करे तथा अपने विचार और बुद्धि से कर्तव्य का निश्चय करे। राजा में सब को समझा-बुझाकर युक्ति से काम निकालने की बुद्धि होनी चाहिये। वह
विद्वान होने के साथ ही लोगों की कर्तव्य की प्ररेणा दे और अकर्तव्य की ओर जाने से रोक अथवा जिसकी बुद्धि गूढ़ या गम्भीर है, उस धीर पुरुष को उपदेश देने की आवश्यकता ही क्या है? वह बुद्धिमान्
राजा बुद्धि में बृहस्पति के समान होकर भी किसी कारणवश यदि निम्न श्रेणी की बात कह डाले तो उसे चाहिये कि जैसे तपाया हुआ लोहा पानी में डालने से शान्त हो जाता है, उसी तरह अपने शान्त स्वभाव
को स्वीकार कर ले। राजा अपने तथा दूसरे को भी शास्त्र में बताये हुए समस्त कर्मो में ही लगावे। कार्य साधन के उपाय को जानने वाला राजा अपने कार्यो में कोमल-स्वभाव, विद्वान तथा शूरवीर मनुष्य को
तथा अन्य जो अधिक बलशाली व्यक्ति हों, उनको नियुक्त करे। जैसे वाणी के विस्त्तृत तार सातों स्वरों का अनुसरण करते हैं,उसी प्रकार अपने कर्मचारियों को योग्यता-नुसार कर्मो में संलग्न देख उन सबके
अनुकु ल व्यवहार करे। राजा को चाहिये कि सबको प्रिय करे, किंतु धर्म में बाधा न आने दे। प्रजागण को ‘यह मेरा ही प्रियगण है ‘ ऐसा समझने वाला राजा पर्वत के समान अविचल बना रहता है।[2] जैसे सूर्य
अपनी विस्तृत किरणों का आश्रय ले सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार राजा प्रिय और अप्रिय को समान समझकर सुदृढ़ उद्योग का अवलम्बन करके धर्म की रक्षा करे। जो लोग कु ल, स्वभाव और देश के धर्म
को जानते हों, मधुरभाषी हों, युवावस्था में जिनका जीवन निष्कलंक रहा हो, जो हितसाधन में तत्पर और घबराहट से रहित हों, जिनमें लोभ का अभाव हों, जो शिक्षित, जितेन्द्रीय, धर्मनिष्ठ तथा धर्म एवं
अर्थ की रक्षा करने वाले हों, उन्हीं को राजा अपने समस्त कार्यो में लगावे। इस प्रकार राजा सदा सावधान रहकर राज्य के प्रत्येक कार्य का आरम्भ और समाप्ति करे। मन में संतोष रखे और गुप्तचरों की
सहायता से राष्ट्र की सारी बातें जानता रहे।[3]-
जिसका हर्ष और क्रोध कभी निष्फल नहीं होता, जो स्वंय ही सारे कार्यो की देखभाल करता है तथा आत्मविश्वास ही जिसका खजाना हो, उस राजा के लिये यह वसुन्धुरा (पृथ्वी) ही धन देने वाली बन जाती
है। जिसका अनुग्रह सब पर प्रकट है तथा जिसका निग्रह (दण्ड देना) भी यर्थाथ कारण से होता है, जो अपनी और अपने राज्य की सुरक्षा करता है, वही राजा राजधर्म का ज्ञाता है। जैसे सूर्य उदित होकर
प्रतिदिन अपनी किरणों द्वारा सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करते (या देखते) हैं, उसी प्रकार राजा सदा अपनी दृष्टि से सम्पूर्ण राष्ट्र का निरीक्षण करे।
गुप्तचरों को बारंबार भेजकर राज्य के समाचार जाने तथा
स्वयं अपनी बुद्धि के द्वारा भी सोच-विचार कर कार्य करे। बुद्धिमान राजा समय पड़ने पर ही प्रजा से धन ले। अपनी अर्थ-संग्रह की नीति किसी के सम्मुख प्रकट न करे। जैसे बुद्धिमान मनुष्य गाय की रक्षा
करते हुए भी उससे दुध दुहता है, उसी प्रकार राजा सदा पृथ्वी का पालन करते हुए ही उससे धन का दोहन करे। जैसे मधुमक्खी क्रमश: अनेक फू लों से रस का संचय करके शहद तैयार करती है, उसी प्रकार
राजा समस्त प्रजाजनों से थोड़ा-थोड़ा द्रव्य लेकर उसका संचय करे। जो धन की राज्य की सुरक्षा करने से बचे, उसी को धर्म और उपभोग के कार्य में खर्च करना चाहिये। शास्त्रज्ञ और मनस्वी राजा को
कोषागार के संचित धन से द्रव्य लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिये। थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्कार न करे। शत्रु शक्तिहीन हो तो भी उसकी अवहेलना न करे। बुद्धि से अपने स्परुप और
अवस्था को समझे तथा बुद्धिहीनों पर कभी विश्वास न करें। धारणाशक्ति, चतुरता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश-काल की परिस्थिति से असावधान न रहना-ये आठ गुण थोड़े या अधिक धन को
बढ़ाने के मुख्य साधन हैं अर्थात् धनरुपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये ईधन हैं। थोड़ी-सी भी आग यदि घीसे सिंच जाय तो बढ़कर बहुत बड़ी हो जाती है। एक ही छोटे -से बीज को बो देने पर उससे
सहस्त्रों बीज पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार महान् आय-व्यय के विषय में विचार करके थोड़े-से भी धन का अनादर न करे। शत्रु बालक, जवान अथवा बूढ़ा ही क्यों न हो, सदा सावधान न रहने वाले मनुष्य का
नाश कर डालता है। दूसरा कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकु ल समय का सहयोग पाकर राजा की जड़ उखाड़ सकता है। इसीलिये जो समय को जानता है, वही समस्त राजाओं में श्रेष्ठ हैं।[3]
द्वेष रखने वाला शत्रु दुर्बल हो या बलवान्, राजा की कीर्ति नष्ट कर देता है, उसके धर्म में बाधा पहुँचाता है तथा धनोपार्जन में उसकी बढ़ी हुई शक्ति का विनाश कर डालता है; इसलिये मन को वश में रखने
वाला राजा शत्रु ओर से लापरवाह न रहे।[3] हानि, लाभ, रक्षा और संग्रह को जानकर तथा सदा परस्पर सम्बन्धित ऐश्वर्य और भोग को भी भलीभाँति समझकर बुद्धिमान राजा को शत्रु के साथ संधि या
विग्रह करना चाहिये; इस विषय पर विचार करने के लिये बुद्धिमानों का सहारा लेना चाहिये। प्रतिभाशाली बुद्धि बलवान् को भी पछाड़ देती है। बुद्धि के द्वारा नष्ट होते हुए बल की भी रक्षा होती हैं। बढ़ता
हुआ शत्रु भी बुद्धि के द्वारा परास्त होकर कष्ट उठाने लगता है। बुद्धि से सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता हैं,वह सर्वोत्तम होता है। जिसने सब प्रकार के दोषों का त्याग कर दिया हैं, वह धीर राजा यदि
किसी वस्तु की कामना करे तो वह थोड़ा-सा बल लगाने पर भी अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। जो आवश्यक वस्तुओं से सम्पन्न होने पर भी अपने लिये कु छ चाहता है अर्थात् दूसरों से
अपनी इच्छा पूरी कराने की आश रखता हैं, वह लोभी और अंहकारी नरेश अपने श्रेय का छोटा-सा पात्र भी नहीं भर सकता।[4]-
इसलिये राजा को चाहिये कि वह सारी प्रजा पर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे। वह दीर्घकाल तक प्रजा को सताकर उस पर बिजली के समान गिरकर अपना प्रभाव न दिखावे। विद्या, तप
तथा प्रचुर धन-ये सब उद्योग से प्राप्त हो सकते हैं। वह उद्योग प्राणियों में बुद्धि के अधीन होकर रहता है; अत: उद्योग को ही समस्त कार्यों की सिद्धि का पर्याप्त समझे। अत: जहाँ जितेन्द्रीयों में बुद्धिमान एवं
मनस्वी महर्षि निवास करते हैं,[5] जिसमें इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता के रुप में इन्द्र, विष्णु एवं सरस्वती का निवास हैं तथा जिसके भीतर सदा सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन-निर्वाह का आधार हैं, विद्वान पुरुष
को चाहिये कि उस मानव-देह की अवहेलना न करे।[4]
राजा लोभी मनुष्य को सदा ही कु छ देकर दबाये रखे; क्योंकि लोभी पुरुष दूसरे के धन से कभी तृप्त नहीं होता। सत्कर्मो के फलस्वरुप सुख का उपभोग करने के लिये तो सभी लालायित रहते है; परंतु जो
लोभी धनहीन हैं, वह धर्म और काम दोनों को त्याग देता हैं। लोभी मनुष्य दूसरों के धन, भोग-सामग्री, स्त्री-पुत्र और समृद्धि सबको प्राप्त करना चाहता है। लोभी में सब प्रकार के दोष प्रकट होते हैं; अत:
राजा उसे अपने यहाँ किसी पद पर स्थान न दे। बुद्धिमान् राजा नीच मनुष्य को देखते ही अपने यहाँ से दूर हटा दे और यदि उसका वश चले तो वह शत्रुओं के सारे उद्योगों तथा कार्यों का विध्वंस कर डाले।[4]
पाण्डु नन्दन! धर्मात्मा पुरुषों में जो विशेष रुप से सम्पूर्ण विषयों का ज्ञाता हो्, उसी को मन्त्री बनावे और उसकी सुरक्षा का विशेष प्रबन्ध करें। प्रजा का विश्वास-पात्र और कु लीन राजा नरेशों को वश में करने
में समर्थ होता है।। राजा के जो शास्त्रोक्त धर्म हैं, उन्हें संक्षेप से मैंने यहाँ बताया है। तुम अपनी बुद्धि से विचार करके उन्हें हदय में धारण करो।जो उन्हें गुरु से सीखकर हदय में धारण करता और आचरणमें
लाता है, वही राजा अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ होता है। जिन्हें अन्याय से उपार्जित, हठ से प्राप्त तथा दैव के विधान के अनुसार उपलब्ध हुआ सुख विधि के अनुरुप प्राप्त हुआ-सा दिखायी देता हैं,
राजधर्म को न जानने वाले उस राजा की गति नहीं है तथा उसका परम उत्तम राज्य सुख चिरस्थायी नहीं होता। उक्त राजधर्म के अनुसार संधि-विग्रह आदि गुणों के प्रयोग में सतत सावधान रहने वाला नरेश
धनसम्पन्न, बुद्धि और शील के द्वारा सम्मानित, गुणवान् तथा युद्ध में जिनका पराक्रम देखा गया है, उन वीर शत्रुओं को भी कू ट कौशलपूर्वक नष्ट कर सकता है। राजा नाना प्रकार की कार्यपद्धतियों द्वारा
शत्रु-विजय के बहुत-से उपाय ढूंढ निकाले। अयोग्य उपाय से काम लेने का विचार न करे, जो निर्दोष व्यक्तियों के भी दोष देखता है, वह मनुष्य विशिष्ट सम्पति, महान् यश और प्रचुर धन नहीं पा सकता।
सुहदों में से जो मित्र प्रेमपूर्वक साथ-साथ एक कार्य में प्रवृत होते हों और साथ-ही-साथ उससे निवृत होते हों, उन्हें अच्छी तरह जानकर उन दोनों में से जो मित्र लौटकर मित्र का गुरुतर भार वहन कर सके ,
उसी को विद्वान पुरुष अत्यन्त स्नेही मित्र मानकर दूसरों के सामने उसका उदाहरण दें। नरेश्वर! मेरे बताये हुए इन राजधर्मो का आचरण करो और प्रजा के पालन में मन लगाओ; इससे तुम सुखपूर्वक
पुण्यफल प्राप्त करोगे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् का मूल धर्म है।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1. ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-11
2. ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 12-25
3. ↑ 3.0 3.1 3.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 26-40
4. ↑ 4.0 4.1 4.2 4.3 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 41-56
5. ↑ इमावेव गौतमभरद्वाजौ’ इत्यादि श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों का गौतम, भरद्वाज, वसिष्ठ और विश्वामित्र आदि महर्षियों ने सम्बन्ध सूचित होता है।
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