Gurudutt Ki Lokpriya Kahaniyan

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पाठक से िनवेदन

अपने आसपास होने वाली िकसी भी घटना या दुघटना को देखना और उसे श द देकर कथा प देना एक लेखक
क िलए ही संभव ह। अतः हम कह सकते ह िक लेखक एक साधारण मानव से अिधक समथ होता ह और हम
उसे ा कह सकते ह। अथा वह य , जो कछ समाज म घट रहा ह या घट चुका ह, उसका यथाथ वणन
कर हम उसका ान देता ह। वह वणन िकतना रोचक ह, यह उस लेखक क भाषा ान पर आधा रत होता ह।
परतु उस घटना या दुघटना का अनुमािनत कारण, प रणाम और उसका हल अपने पा क मा यम से समाज क
सामने रखना एक साधारण ा या लेखक से अिधक एक सािह यकार ही कर सकता ह।
सािह यकार अपने पा ारा समाज को एक िदशा देता ह। वह अपने पा ारा अपने पाठक को अ छाई या
बुराई का ान दे सकता ह। यही यास व. गु द ने अपनी कथा म िकया ह। अतः िन त ही व. गु द
को हम सािह यकार क ेणी म रख सकते ह। व. गु द ने अपनी कथा म िवशु भारतीय सं कित का
वणन अ यंत रोचक ढग से अपने पा क मा यम से िलखा।
आज क बदलते प रवेश म हम कई कार क सम या का सामना करना पड़ता ह। इन कथा (चालीस वष
पूव िलखी गई) क पा आज वतमान म होने वाली घटनाएँ या उनक प रणाम व प होने वाली सम याएँ या
अ यव था को झेलते भी ह (इन सम या का अनुमान चालीस वष पूव उ ह ने कर िलया था)। इन कथा क
पा पाठक को अपने आसपास घूमते िमलगे।
तुत पु तक म व. गु द क कछ ऐसी ही दुलभ कथा का सं ह ह। थम दो कथाएँ कवल कथाएँ ही
नह , स य घटनाएँ ह, जो उनक अपने जीवन से संबंिधत ह। भारत िवभाजन से पूव ि िटश राज क रता से इस
देश का नाग रक िकतना त था, इसका िच ण ह। शेष कथा म अ यंत रोचक ढग म आधुिनक भारत क
नाग रक ारा झेली जाने वाली िविभ परशािनयाँ ह। मुखतः यायालय क अ यव था, तथाकिथत गु
ारा ाचीन ंथ क मनघड़त या या, धमातरण क दु प रणाम, अित आ मिव ास, आजादी क पूव भारतीय
मन थित, युवा म प म का बढ़ता भाव, सरकारी कमचा रय का मूखतापूण यवहार, बेरोजगार क प रणाम,
संयु प रवार क सम या, युवा मन क उड़ान, उनतजातीय िववाहोपरांत ब म असमंजस, आधुिनक युवा
का दबंगपन तथा कछ अ य ऐसी सम या का इन कथा म वणन ह। ये कथाएँ भले ही छोटी ह, परतु अपने
अंदर एक िव तृत संदेश सहजे ए ह। यान से पढ़ने व उसक उपरांत मनन करने पर ही पाठक को इनम छपा
संदेश िमलेगा िक आधुिनकता क दौड़ म कछ पाने क चाह म हमने िकतना खो िदया।
लेखक अपने संदेश म िकतना सफल ए ह और एक भावुक मन पर इन कथा का या भाव पड़ता ह,
इनका िनणय हम पाठक पर ही छोड़ देते ह।
—प ेश द
ान क सीमा
जब म पाँच वष का आ तो मेर पढ़ने-िलखने क िचंता होने लगी। उन िदन यह था थी िक पहले लड़क को
पाधे क पास पढ़ने बैठा िदया जाता था। हमार मुह े क मेरी आयु क लड़क पाधे क पास पढ़ने क िलए बैठाए गए
थे।
जैसे प रवार क पुरोिहत होते ह, वैसे ही पाधे होते थे। वाभािवकतया मुझे भी एक पाधे क पास पढ़ने क िलए
बैठाया गया। पाधे ने मेरी नई पाटी ली और उस पर कसर से गणेश ( वा तक) का िच बनाकर उसका पूजन
िकया और िफर मुझे लुंडी भाषा का ‘उड़ा-ऐड़ा’ (अ-आ) िलखना िसखाया।
हमारा पा रवा रक पाधा हमारी गली क सामने क गली म रहता था, परतु उसक पढ़ाने का थान कछ अंतर पर
था। उसका िव यात नाम था—मोती पाधा। वैसे उसक िपता अथवा बाबा का नाम मोती राम था और उनक नाम से
ही वह भी मोती पाधा िस था। वा तव म उसका नाम था पंिडत कमचंद।
मुझे थम िश ा तथा दी ा देने क िलए पंिडतजी को सवा पए तथा ल िदए गए। इसक साथ ही सार
मुह े म भी ल बाँट गए। म भी ब त स था। कारण यह िक मुह े क अ य लड़क क साथ म भी
पढ़नेवाला बन गया था।
लगभग छह मास तक म पंिडत कमचंद अथा मोती पाधे से पढ़ता रहा। इन छह महीन म लुंडी क अ र का
ान ही ा कर सका था। मुझे इससे संतुि नह थी और म िनराश हो गया था।
मेरा एक िम था चु ीलाल। हमार मकान क सामने क मकान म रहता था। वह मुझसे आयु म कछ बड़ा था
और एक अ य पाधे से पढ़ा करता था। वह िश ा म पहाड़ (गुणा करने क गुर) सीख चुका था।
एक िदन उसने मुझे कहा िक चलो हमार पाधे क पास। तु हार मोती पाधे को तो पढ़ाना ही नह आता। म भी
पहले वहाँ पढ़ने बैठा था, परतु जब उसने कछ पढ़ाया नह तो म उसे छोड़ ‘ट साल’ वाले पाधे से पढ़ने जाने लगा
। मुझे उसक बात पसंद आई और म िबना िपताजी तथा माँ को बताए उसक साथ उसक पाधे क पास जा प चा।
पाधे क स मुख मुझे तुत िकया गया तो पाधे ने कह िदया, ‘‘सवा पया लाओ।’’
मने पाधे को बता िदया िक म िपताजी को बताए िबना ही आया और मेर पास पए नह ह। उसने कहा,
‘‘अ छा, कछ िदन आओ और िफर घर से माँग लाना।’’
म उस पाधे क पास जाने लगा। मुझे जमा-बाक तथा पहाड़ िसखाए जाने लगे। अभी मुझे वहाँ जाते कछ ही िदन
ए थे िक पाधा कमचंद िपताजी क पास िशकायत लेकर आ प चा िक म उसक पास पढ़ने नह आता। यह बात
उसने मेर पीछ कही थी। उस समय म ट सालवाले पाधे क पास पढ़ने गया आ था।
इस कारण मेरी खोज होने लगी। सायंकाल म अपनी पाटी और कलम-दवात िलये आया तो िपताजी ने बुला
िलया। म उनक सामने दुकान पर जा खड़ा आ। िपताजी ने पूछा, ‘‘कहाँ से आ रह हो?’’
‘‘पाधे से पढ़कर।’’
‘‘तुम वहाँ नह थे?’’
‘‘म ट सालवाले पाधे से पढ़ने जाता ।’’
‘‘पर वह तो मुसलमान ह?’’
‘‘वह मोती पाधे से अ छा पढ़ाता ह और म जमा, बाक तथा पहाड़ सीख रहा !’’
‘‘कब से जा रह हो वहाँ?’’
‘‘दो महीने से।’’
‘‘और उसने नजर (दि णा) नह माँगी?’’
‘‘माँगी थी!’’
‘‘तो कहाँ से दी थी?’’
‘‘मने कहा था िक म आपसे पूछ िबना पढ़ने आया । उसने कह िदया िक कछ िदन आओ, िफर घर से माँग
लाना।’’
इस घटना ने मेरी िश ा क चचा आरभ कर दी। दुकान पर फोरमैन ि यन कल क मा टर लाला बूटाराम
आया करते थे। वह हमार मुह े म ही रहते थे और मा टरजी करक पुकार जाते थे।
वह कई बार िपताजी को कह चुक थे िक मुझे कल म वेश िदलाना चािहए, पाधे क था अब नह रहगी।
िपताजी का िवचार कछ िभ था। हमारी दुकान क सामने क मकान म एक पंिडत धमचंद रहते थे। वह िन य
दुकान पर एक-आध लवंग लेने आया करते थे। पंिडत धमचंद रहनेवाले अमृतसर क थे और उन िदन लाहौर
आकर रहने लगे थे। िकसी समय वह वामी दयानंदजी क साथ लेखक क प म रह चुक थे, इस कारण िपताजी
क मन म उनक ित भारी ा थी। वह िपताजी को कहा करते थे िक गु दास को जरा बड़ा होने द, िफर इसे
सं कत पढ़ाकर वै क िसखा द। तब यह वै बन जाएगा।
िपताजी क दुकान अ ारी क थी और उन िदन वह िहकमत (िचिक सा-काय) भी करते थे। अतः पंिडत धमचंद
क योजना िपताजी को पसंद थी और वह उिचत समय क ती ा कर रह थे।
परतु अपने आप पाधा बदलने क घटना से अिवलंब कछ करना आव यक हो गया।
हमारी दुकान पर मुह े क युवक, जो मेर बड़ भाई साहब क िम थे, एक आ करते थे। यहाँ एक कार
क गो ी आ करती थी। एक य समाचार-प पढ़ा करता था और सब सुना करते थे और िफर चचा आरभ
हो जाती थी।
उस िदन िपताजी ने मेरी बात सबको बता दी िक मने अपना पाधा वयं ही बदल िलया ह। मा टर बूटाराम भी
ायः वहाँ आया करते थे और वह उस िदन भी उप थत थे। उ ह ने िपताजी को कह िदया, ‘‘इसे हमार कल म
भरती करा दो। वहाँ उदू तथा अं ेजी भी पढ़ाई जाती ह।’’
िपताजी ने पूछ िलया, ‘‘वहाँ िहदी भी पढ़ाते ह या?’’
‘‘नह ।’’
वहाँ उप थत बालकराम कहने लगे, ‘‘इसे हमार कल म भरती करा दो। वहाँ िहदी भी पढ़ाई जाती ह।’’
बालकराम हमार मुह े का ही युवक था और डी.ए.वी. कल म आठव क ा म पढ़ता था। उसक बात
सुनकर मा टर बूटाराम ने कह िदया, ‘‘वहाँ उदू नह पढ़ाई जाती और िबना उदू पढ़ इसे कह नौकरी नह
िमलेगी।’’ िपताजी क मुख से िनकल गया, ‘‘गु दास नौकरी नह करगा।’’
मा टरजी हस पड़। उन िदन कल म पढ़ाने का अिभ ाय यह िलया जाता था िक लड़का पढ़-िलखकर कह
नौकरी कर। िपताजी क म त क म संभवतया पंिडत धमचंद क योजना थी।
अतः मेरी पढ़ाई का काँटा िफर बदला। अपने मुह े से कछ ही दूरी पर एक ाइमरी कल म मुझे पढ़ने भेजा
गया। उस कल म उदू तथा िहदी, दोन भाषाएँ पढ़ाई जाती थ ।
इस ाइमरी कल म एक वष तक म पढ़ा। एक वष क उपरांत मुझे डी.ए.वी. कल क थम ेणी म भरती
करा िदया गया।
इन िदन म बड़ भाई साहब क साथ आयसमाज क सा ािहक स संग म जाने लगा था। मेरा उनक साथ जाने म
आकषण यह था िक भाई साहब स संग से लौटते ए लाहौरी दरवाजे से दो-तीन आने क फल खरीद लाया करते
थे और वे मुझे भी खाने क िलए िमलते थे।
ब त ही स ता काल था। तीन पैसे क एक दजन अ छ कले, एक आने दजन संतर, मौसम क िदन सहारनपुरी
कलमी आम एक आने क दजन िमल जाते थे और िफर भाई साहब ारा तीन आने म खरीदे ए फल से घर म
दावत हो जाती थी। अतः म ब त ही शौक से जाता था और वापसी म फल खरीदकर खाने का लोभ ही जाने म
मुझे उ सािहत करता था।
आयसमाज अनारकली म भाई साहब क एक िम थे मा टर हरगोिवंद। जब भी आयसमाज म कोई सेवा-काय
होता तो दोन सेवा क िलए अपना नाम िलखाया करते थे। अतः दोन म काफ घिन ता थी।
मा टरजी का एक लड़का था मदनगोपाल। वह भी डी.ए.वी. कल क पहली क ा म पढ़ता था। भाई साहब ने
जब बताया िक मुझे भी डी.ए.वी. कल म भरती कराया जा रहा ह तो मा टर हरगोिवंद ने कह िदया िक म भी
मदनगोपाल क साथ ही कल चला जाया क । मदनगोपाल लाहौरी दरवाजा सू र मंडी म रहता था। वह थान
हमार कल क रा ते म ही था।
िफर भी पहले िदन म बालकराम क साथ ही कल गया। उसने ही कल म मेरा फॉम भरकर मुझे भरती कराया
था। वेश शु क चार आने और पीछ दो आना शु क ित मास देने का िनयम था। कछ िदन तक म बालकराम क
साथ गया और िफर म अकला जाने लगा।
अगले महीने कल म एक घटना हो गई।
‘व छो वाली’ ाइमरी कल म तो कवल तीन मा टर थे, परतु यहाँ डी.ए.वी. कल म दस ेिणयाँ थ और
पं ह-सोलह मा टर थे। हडमा टर था, क था, चपरासी था और िफर एक ‘ि ल मा टर’ था। इस कार एक
भीड़-भाड़ थी।
दूसर महीने क फ स दो आने म लेकर गया तो मुझे िविदत नह था िक कहाँ जमा करानी चािहए। मने
मदनगोपाल से पूछा तो वह मुझे अपने साथ ही ले गया। उसे भी फ स जमा करानी थी। उसने हम दोन क फ स
जमा करा दी। क बाबू ने चार आने िलये और रिज टर पर िलख िदया। फ स देकर हम चले आए।
इसक आठ-दस िदन उपरांत कल का चपरासी आया और मुझे क ा म से उठाकर हडमा टर क कमर म ले
गया।
हडमा टर क मूँछ कछ-कछ वैसी ही थ जैसी क बाबू क थ । जब उनक कमर म प चा तो उ ह ने पूछ
िलया, ‘‘तुम गु दास हो।’’
मने कहा, ‘‘जी हाँ।’’
‘‘तुम पहली ेणी म पढ़ते हो?’’
‘‘जी।’’
‘‘इस महीने क फ स नह दी?’’
‘‘जी, दी ह।’’
‘‘िकसको दी ह?’’
मने हडमा टर क मुख पर देखकर कहा, ‘‘जी, आपको दी ह?’’
हडमा टर ने तीन-चार बार पूछा और मने यही दुहराया िक आपको दी ह। इस पर हडमा टर को ोध चढ़ गया
और उसने कमर क अलमारी म से बत िनकालकर मुझे कहा, ‘‘हाथ िनकालो।’’
मने हाथ आगे िकया तो हडमा टर ने तीन बत लगाकर पुनः पूछा, ‘‘फ स िकसको दी ह?’’
ोध तो मुझे भी आ रहा था, परतु म िववश था। म उनक मूँछ देखकर येक बार यही कहता था िक आपको
दी ह।
जब आठ-दस बत लग चुक और म अभी अपनी बात पर ढ़ था िक मने फ स उनको ही दी ह तो मेरी आँख म
आँसू छलकने लगे। इस पर हडमा टर साहब को कछ चेतना आई। वह कछ िवचारकर पूछने लगे, ‘‘तुम अकले
ही मुझे फ स देने आए थे अथवा तु हार साथ कोई और भी था?’’
मुझे भी मरण हो आया। मने कहा, ‘‘जी, मेरा एक दो त ह मदनगोपाल। वह मेरी ही क ा म पढ़ता ह। हम
दोन ने एक साथ दी थी।’’
इस पर चपरासी भेजकर मदनगोपाल को बुलाया गया। वह आया तो हडमा टर ने उससे पूछ िलया, ‘‘तुमने इस
महीने क फ स दी ह?’’
‘‘जी।’’ मदनगोपाल ने कहा।
‘‘इस लड़क ने भी दी ह?’’
‘‘जी। हम दोन ने एक साथ दी थी।’’
‘‘िकसको दी थी?’’
‘‘ क बाबू को।’’ मदनगोपाल ने कहा।
अब क को बुलाया गया। वह मदनगोपाल को पहचानता था। उसने रिज टर म उसक नाम क आगे चार आने
जमा िलखे थे।
भूल क बाबू क थी। दोन क फ स एक क नाम क आगे जमा क गई थी। परतु हडमा टर का रोष तो मेरा
उनका नाम लेने पर था। मेर कथन का अथ यह िलया गया िक म उनको बदनाम कर रहा । अतः उ ह ने िफर
मुझसे पूछा, ‘‘फ स िकसको दी थी?’’
अब मने क बाबू को देखा तो दोन म अंतर समझ गया। मने कह िदया, ‘‘इनको दी थी।’’
‘‘तुम तो कहते थे िक मुझे दी थी?’’ वा तव म हडमा टरजी ने यह न अपनी पीटने क सफाई देने क िलए
पूछा था। मने कह िदया, ‘‘जी, आप दोन एक जैसे ही लगते ह।’’
इस पर हडमा टरजी हस पड़।
जब म मदनगोपाल क साथ वापस क ा म आने लगा तो उसने पूछ िलया िक या आ ह। मने सारी बात बताई
तो वह भी हस पड़ा।
उस िदन मने अपनी पु तक उठाई और कल समा होने से पहले ही घर लौट गया।
इसका भी एक प रणाम आ। म हडमा टर साहब को भलीभाँित पहचानने लगा था और वह भी मुझे पहचान गए
थे। आयसमाज क स संग म भाई साहब से उ ह ने मेरी िशकायत लगाई होगी और भाई साहब ने भी मेर िवषय म
उ ह बताया होगा। मुझे फोकट म दस बत खाने पड़ थे।
समय यतीत होता गया। म चौथी क ा म प चा। हमारी ेणी म एक जयगोपाल पढ़ता था। वह भी हमार
मुह े म रहता था। हम दोन एक साथ ही कल आते-जाते थे।
हमार एक मा टर कपाराम थे। वह सामा य ान तथा ‘िकडर-गाडन’ पढ़ाया करते थे। सामा य ान म वह देश-
िवदेश क बात बताते थे। उ ह ने एक िदन क ा म एक ‘शेर’ सुनाया—
हॉलड क एक ित ल ने जान अपनी वार क,
मु क अपना बचा िलया पानी क मार से।
इस शेर से संबंिधत एक कहानी भी उ ह ने सुनाई थी, परतु जो बात म यहाँ बताना चाहता , वह ह उनका िश ा
देने का ढग।
एक िदन मा टरजी ने दो रग क कागज िलये। उनको काटकर उ ह ने एक का ताना बनाया और दूसर का बाना
बनाया। िफर उसम फल बनाने का ढग बताया। यह सब बताकर उ ह ने सब लड़क को अपने-अपने घर से यह
बनाकर लाने क िलए कह िदया।
हम दोन घर प चे। मने अपने िपताजी से दो पैसे िलये और रगदार दो रोगनी कागज खरीद लाया। जयगोपाल क
पास पैसे नह थे। इस कारण मने दोन कागज आधे-आधे उसको दे िदए।
हम दोन मा टरजी क बताए अनुसार चटाई बनाने लगे। जयगोपाल ने तुरत बना ली, परतु म कई बार य न करक
भी नह बना सका।
तीन-चार बार असफल य न करने क बाद मने जयगोपाल को कहा िक मुझे भी बना दे। उसने इनकार कर िदया।
उसका कहना था िक अपना काम वयं करना चािहए।
म िफर बनाने लगा, परतु जब कई बार य न करने पर भी नह बना सका तो झुँझलाकर मने अपने कागज क
टकड़-टकड़ कर िदए।
इस पर जयगोपाल मुझे िचढ़ाते ए कहने लगा, ‘‘यह देखो, मेरी िकतनी सुंदर बनी ह!’’ मुझे ोध आ रहा था।
मने उसक चटाई छीनकर उसक भी टकड़-टकड़ कर िदए। म जयगोपाल क घर गया आ था। जयगोपाल ने
कागज क टकड़ अपने कल क पु तक क थैले म रख िलये और मुझे कहने लगा, कल कल चलो, मा टरजी
से दंड िदलवाऊगा।
म झुँझलाया बैठा था। उसक बात सुनकर मुझे ोध चढ़ आया। मने कहा, ‘‘म तु ह यह दंड देता ।’’ इतना
कह म उससे लड़ने लगा। हम दोन म हाथापाई होने लगी।
क ती हो गई। वह मुझसे दुबल था। जब मने उसे नीचे पटका और मु से उसक मर मत करने लगा तो उसने
शोर मचाकर अपनी माँ को बुला िलया। उसक माँ ने आकर हम दोन को छड़ाया। इसक बाद म अपने घर को
लौट गया।
अगले िदन हम दोन कल साथ-साथ नह गए। मा टर कपाराम क घंट म उसने मा टरजी से मेरी िशकायत कर
दी और फट कागज क टकड़ िनकालकर िदखा िदए।
मा टरजी ने मुझसे पूछा तो मने स य-स य बात बता दी। इस पर मा टरजी ने पूछा, ‘‘तुमने अपनी चटाई तो
फाड़ी, परतु जयगोपाल क य फाड़ दी?’’
‘‘वह मेरी थी। कागज क दाम मने िदए थे।’’
‘‘परतु कागज तु हारा होने से चटाई तु हारी कसे हो गई?’’
‘‘तो िकसक थी?’’
‘‘तु हार पास पैसे कहाँ से आए थे?’’
‘‘मने िपताजी से िलये थे।’’
‘‘पैसे िपताजी क थे तो कागज भी िपताजी का आ? तुमने इसे फाड़ने से पहले िपताजी से पूछा था?’’
म इस याय का अथ समझ ही रहा था िक मा टरजी ने मुझे दंड सुना िदया। उ ह ने कहा, ‘‘बच पर खड़ हो
जाओ।’’
म बच पर खड़ा हो गया। मा टर कपाराम क घंटी म म बच पर खड़ा रहा। इससे जयगोपाल स हो गया
और हम पुनः िम हो गए।
इस घटना को िलखने का अिभ ाय यह बताना ह िक म हाथ का काम करने म भ ा था, परतु मुझम एक िवशेष
बात थी। म बात करते ए यु - ितयु करता था। परतु यु का आधार तो ान होता ह। यही कारण था िक
म मा टरजी क बात का उ र नह दे सका था। और उन िदन मेर ान क यही सीमा थी।
q
गु दि णा
िदसंबर 1919 म मुझे गवनमट कॉिलज म िडमा टर बना िदया गया। उ ह िदन ोफसर बी.क. िसंह, िजनक
साथ म रसच कर रहा था, का ढाका तबादला हो गया। उ ह ने िजतना रसच का काम लाहौर म आ था, उसक
रपोट पंजाब िव िव ालय को दी और शेष काय वहाँ ढाका म जाकर करने लगे। मेर िलए वहाँ जाने का बंध
नह हो सका और म लाहौर म ही िडमा टर एक सौ पचास पए मािसक पर बना िदया गया।
इससे तो मेर पास अवकाश ब त रहने लगा। म पंजाब िव िव ालय क पु तकालय म से राजनीित क पु तक
लेकर पढ़ने लगा। इ ह िदन मुझे जॉन टअट िमल तथा हबट पसर को पढ़ने का अवसर िमला।
मने इ ह िदन क युिन ट िवचारधारा पर सािह य भी पढ़ा था। लेटो क ‘ रप लक’ और अर तू तथा कांट क
िवचार पढ़ने का अवसर िमला।
िदसंबर 1919 म अमृतसर कां ेस का अिधवेशन हो रहा था। इस अिधवेशन म म दशक का िटकट लेकर प चा।
कॉिलज म ि समस क छ याँ थ । म िन य ातः लाहौर से अमृतसर जाता था और रात क गाड़ी से लौट आता
था। पहले िदन धान का भाषण था। लाहौर से जानेवाली गाड़ी म भीड़ इतनी अिधक थी िक िटकट नह िमल
सका। मुझे मरण ह िक िबना िटकट क ही अमृतसर जाना पड़ा था।
उन िदन मुझे कछ ऐसा अनुभव आ िक अमृतसर क नाग रक क ओर से जो वागत बाल गंगाधर ितलक का
आ था, अ य िकसी नेता का नह आ। ितलक क स मुख जनसाधारण क अ य सब नेता छोट समझे गए थे।
कां ेस अिधवेशन का तीसरा िदन था। कदािच वह आिखरी िदन था। म अमृतसर रलवे टशन क लेटफॉम पर
गाड़ी क ती ा कर रहा था िक एक साहब मेर पास आए और पूछने लगे, ‘‘आप लाहौर म रहते ह?’’
‘‘हाँ।’’ मने कहा।
‘‘वहाँ या काम करते ह?’’ उसका न था।
‘‘गवनमट कॉिलज म ोफसर ।’’ म िवचार करता था िक यह सामा य य ोफसर और िडमा टर म
अंतर नह जानता होगा। इसी कारण मने ोफसर बताया था। कदािच िडमा टर कहता तो वह समझता भी नह
अथवा समझ लेता िक कायालय म एकाउटट अथवा क ।
उस य ने अगला न िकया, ‘‘आपका शुभ नाम या ह?’’
मने बताया, ‘‘गु द ।’’
यह सब बात िबना िकसी छल-कपट क क गई थ । परतु बाद म िविदत आ िक वह खुिफया-पुिलस का
य था।
ि समस क उपरांत जब कॉिलज खुला तो एक िदन हमार िवभाग क ोफसर भाई पे्रमिसंह ने मुझे अपने कमर
म बुलाकर पूछा, ‘‘िम टर गु द ! तुम कां ेस अिधवेशन पर गए थे?’’
‘‘जी, गया था।’’ मेरा िन छल उ र था।
‘‘तु ह ऐसा नह करना चािहए था। तु ह िविदत हो िक कां ेस सरकार क िव ोही सं था ह।’’
‘‘तो सरकार ने उसका अिधवेशन य होने िदया ह?’’ मेरा यह न था।
‘‘यह सरकार जाने। मगर हम सरकारी नौकरी करनी ह। हम सावधान रहना चािहए।’’
म मुख देखता रह गया। इस पर उसने बताया, ‘‘जानते हो, तु हार वहाँ जाने का या प रणाम आ ह?’’
‘‘ या आ ह?’’ मने पूछा।
‘‘िकसी ने तु ह वहाँ देख िलया ह और उसने िकसी से तु हारा नाम पूछा और रपोट क ह। उस रपोट पर
डायर टर एजुकशन से ि ंिसपल क पास जाँच आई ह और वह गु द स धी (हमार कॉिलज क एक अ य
ोफसर) क पास गई ह। स धी इस पर पसीना-पसीना हो रहा ह।
‘‘जब मुझे पता चला िक उससे ि ंिसपल ने कहा ह िक डायर टर को िमलकर सफाई दो तो म समझ गया था
िक यह शरारत तु हारी ह। िफर भी मने बताया नह । िम टर स धी अभी-अभी डायर टर से िमलने गया ह।’’
पहले तो म डरा, परतु बाद म शांत हो गया। मालूम होता ह िक स धी क कथन क बाद मामला फाइल कर िदया
गया था।
परतु मेर िव एक अ य कार से मामला उप थत हो गया।
स 1920 क बात ह, एक िदन म िव िव ालय पु तकालय से दो पु तक हर ड ला क क लेकर लैबोरटरी
म आया। मने पु तक मेज पर रख द और लड़क को ै टकल म सहायता देने लगा।
इस समय हमार िवभाग क सीिनयर ोफसर िम टर एच.बी. ड फ वहाँ मुझे काम करते देखने आए। बाद
म जब वह मेज क पास गए तो वहाँ हर ड ला क क पु तक देख, पु तक उठाकर ब त देर तक पढ़ते रह। उसी
िदन पी रयड क उपरांत उसने मुझसे पूछा, ‘‘ये पु तक तुम य पढ़ते हो?’’
मेरा सतक उ र था, ‘‘ ान वृ क िलए।’’
‘‘तु ह किम ी क पु तक पढ़नी चािहए।’’
म चुप रहा।
मुझे कछ ऐसा तीत होता ह िक उस िदन से ही वह मेरी गितिविधय पर ि रखने लगा था। उसी वष िसतंबर-
अ ूबर म मुझे ोफसर ने िकसी खिनज पदाथ का एक ढला िदया और कहा, ‘‘इसम पार क िमकदार पता करनी
ह। इसे कसे पता करगे?’’
मने कहा, ‘‘म सािह य पढ़कर बताऊगा।’’
उसका कहना था, ‘‘एक परी ण क योजना बनाओ और मुझे िलखकर बताओ िक इस पर तु ह रसच करने क
िलए या- या चािहए?’’
मने एक स ाह भर इस िवषय क सब उपल ध पु तक पढ़ और एक योजना बनाकर दे दी।
एक परी ण को ातः चार बजे आरभ कर तो रात क 9-10 बजे तक वह समा होता था। पहले उस खिनज
पदाथ को नाइि क एिसड म उबाला जाता था। उससे जो कछ तैयार होता था, उसम से उसे शु िकया जाता था।
कई कार क नाइ ट बनते थे। इनम मकरी नाइ ट भी होता था।
मकरी नाइ ट पृथक िकया जाता था। तदनंतर उसको मै ट (भूना) जाता था और उसम से नाइ ोजन डाइ-
ऑ साइड खािलस नामक घोल म ले िलया जाता था और िफर उस सोिडयम नाइ ाई क िमकदार जानी जाती थी।
वैसे खिनज पदाथ का नाइ ोजन म घोल तो कई तजुरब क िलए एकदम तैयार कर िलया था, परतु उनम से
खािलस पार का नाइ ट िनकालने और िफर उसम नाइ ोजन का अनुमान लगाने म िदन भर लग जाता था। म ये
आँकड़ िलखता जाता था।
छह महीने से अिधक लगे एक सौ से ऊपर परी ण क प रणाम तीत करने म। छह महीने क उपरांत मने अपने
आँकड़ ोफसर साहब को िदखाए। तीन-चार िदन आँकड़ का अ ययन कर उसने बताया, ‘‘ये ठीक नह ह।’’
मेरा न था, ‘‘सर! या ठीक नह ह?’’
‘‘प रणाम पर पर ब त िभ -िभ ह।’’
‘‘यह इस कारण िक खिनज पदाथ क टकड़ क िभ -िभ भाग म पार क मा ा िभ -िभ ह।’’
वह बोला, ‘‘परतु मेरी जानकारी म इतना अंतर नह था।’’
उसने यही जाँच अपने पहले सं थान म कराई थी। वह गवनमट कॉिलज म आने से पूव सैिनक किमकल
लैबोरटरी म काम करता था। संभवतया वहाँ उसने अपने िकसी अिस टट से यही परी ण कराए ह गे।
मने पूछ िलया, ‘‘परतु ीमा यह या ह और िकसिलए यह खोज कराई जा रही ह?’’
वह बोला, ‘‘यह सरकारी रह य ह। म बता नह सकता।’’
मेर मुख से अक मा यह वा य िनकल गया—
But Sir! I am not a beast of burden who is required to carry load without knowing what is in it. I
must know what I am doing and why I am doing.
( ीमा , म बोझा ढोनेवाला पशु नह िक िबना जाने िक बोझे म या ह, उसे ढोता र । मुझे पता होना चािहए िक
म या और िकस उ े य से कर रहा ।)
यह सुनकर उसने कह िदया, ‘‘तुम जा सकते हो।’’
म चला आया।
उसी वष म ोफसर ेमिसंह क साथ क मीर मण करने गया तो उस मण म िम टर ड फ क तजरब
पर चचा चली। तब ोफसर साहब ने बताया िक िम टर ड फ मुझसे ब त नाराज ह।
क मीर से लौटने पर मुझम एक अ य प रवतन आ। महा मा गांधी ने िवदेशी व क होली कराई थी। मने भी
अपना पट-कोट, नेकटाई-कॉलर इ यािद होली क िलए िदए थे और तब से म ख र पहनने लगा था।
ी म ऋतु क उपरांत जब कॉिलज खुला तो म िसर से पाँव तक ख र क कपड़ म था।
ो. ड फ मुझे देख आग-बबूला हो गया। पहले ही िदन उसने पूछा, ‘‘यह या पहन आए हो?’’
‘‘यह इिडयन स ह।’’
‘‘यह गांधी का यूिनफाम ह।’’
‘‘म समझता नह ह।’’
‘‘गांधी सरकार का िव ोही ह।’’
‘‘मुझे इसका ान नह ।’’
मने ख र क कपड़ नह उतार। इससे पहले एक अ य घटना हो चुक थी। ि ंस ऑफ वे स भारत म आया था।
गांधीजी ने ि ंस का काले झंड से वागत करने का ताव कां ेस से पा रत कराया था। कलक ा म ि ंस क
जलूस का ब त जबरद त बिह कार आ था। जहाँ-जहाँ भी वह गया, वहाँ-वहाँ नगर-नगर म बाजार बंद कर
उसक वागत का बिह कार िकया गया था।
लाहौर म ि ंस क जलूस को सफल करने क िलए सब सरकारी अफसर और कमचा रय को आ ा ई िक वे
अपने प रवार को लेकर उनक िलए िनयत थान पर जलूस क पहले प च जाएँ।
हमार ि ंिसपल का भी एक स यूलर आया। उसक अनुसार कॉिलज क चपरासी से लेकर सीिनयर-मो ट ोफसर
तक से पूछा गया िक उनक प रवार क िलए िकतनी करिसयाँ रखवाई जाएँ।
हमार कॉिलज क टाफ क िलए हाई कोट भवन क सामने सड़क क िकनार करिसयाँ लगी थ । स यूलर हमार
िवभाग म भी आया। म ोफसर ेमिसंह क कमर म खड़ा था, जब वह स यूलर आया। मने भाई ेमिसंह क राय
पूछी। उसने मेर स मुख स यूलर पर िलख िदया, ‘सीन’ अथा नोिटस िमला। मने भी ऐसा ही िलख िदया।
अगले िदन सब ोफसर ने अपने प रवार क िलए सीट िलखकर भेजी थ । मने यह आव यक नह समझा और
म जलूस देखने भी नह गया।
म समझता िक ऊट क कमर पर यह अंितम ितनका िस आ। उस वष ी म ऋतु क छ य म मुझे
नोिटस िमल गया िक गवनमट कॉिलज को मेरी सेवा क आव यकता नह ह।
िविच बात यह थी िक वे लड़क, जो मुझसे ै टकल म सहायता लेते थे, ायः मुझको घेरकर खड़ हो जाया
करते थे। उन िदन कां ेस कल , कॉिलज क बिह कार क माँग कर रही थी। िव ाथ वग म भी िवचार-मंथन हो
रहा था। लड़क मुझसे पूछते थे, ‘‘हम कॉिलज छोड़ना चािहए अथवा नह ?’’
मेरी िवचा रत राय यह होती थी, ‘‘नह , सबको पढ़ाई करनी चािहए।’’ लड़क िव मय करते थे। मेरी ख र क
पोशाक, िनभ कता से िव ािथय से बातचीत, देश ेम और अं ेजी रा य क समा क िवचार से यह राय मेल
नह खाती थी। म यथासंभव उनको बताता था िक येक काय अपने-अपने समय पर ठीक होता ह।
ऐसा तीत होता था िक कछ एक िव ाथ मेरी मुखिबरी भी करते थे।
एक िदन भाई ेमिसंह ने मुझे अपने कमर म बुलाकर कमर का ार बंद कर कहा, ‘‘ ोफसर ड फ
तु हारी बात पर िव मय करता ह।’’
‘‘ या कहता ह?’’ मने पूछा।
‘‘कहता था, यह गु द न समझ म आनेवाली पहली ह। यह लड़क को कॉिलज छोड़ने को नह कहता, परतु
उ ह सरकार क िवपरीत तैयार करता ह। वह कहता ह िक अं ेजी सरकार को अब यहाँ से जाना चािहए।’’
भाई ेमिसंह ने मुझे बताया िक उसने ोफसर से कहा ह, ‘‘गु द एक सही िदमाग का देशभ ह। परतु
ोफसर ने कह िदया ह िक वह तु ह खतरनाक बागी समझता ह और तु हारी सेवाएँ टिमनेट करने क िलए
अिधका रय को िलख चुका ह।’’
ेमिसंहजी ने मुझे आगे कहा, ‘‘िम टर गु द ! मुझे ब त खेद ह िक म तु ह यह बुरा समाचार सुना रहा ।’’
दुःख तो मुझे भी आ था। उस समय म दो ब का िपता था। परतु अपने भा य पर भरोसा करते ए मने कह
िदया, ‘‘सर! देखा जाएगा।’’
भाई ेमिसंह क मुझसे अ यंत सहानुभूित थी। पर मेरा माग िवल ण था। उसने मुझे कहा, ‘‘ यथ म ख र-
व र क झगड़ म पड़कर तुमने अपना भिव य िबगाड़ िलया ह।’’
‘‘ ोफसर साहब! मुझे अपने भा य पर िव ास ह।’’ मेरा कहना था।
बस उस िदन से मेर जीवन का नया पट खुला।
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भाई ेमिसंह क सूचना से िक गवनमट कॉिलज क मेरी नौकरी समा हो रही ह, मुझे िचंता तो लगी थी, परतु
भिव य का भय नह था।
म कॉिलज लैबोरटरी से िनकल कॉिलज क सामने गोल बाग म जाकर वहाँ रखी बच पर बैठ यह िवचार कर रहा
था िक िकसी कल म टीचर का काम ढढ़ना चािहए। इस समय ो. िचराम टाउन हॉल क तरफ से हाथ म टिनस
का ब ा िलये घुमाते ए आते िदखाई िदए।
ो. िचराम किम ी िवभाग म सीिनयर ोफसर रह चुक थे। उन िदन वह रटायर हो चुक थे। ोफसर साहब
ने मेरी कई कार से सहायता क थी। इस िवषय म अपने िश ा संबंधी सं मरण म म िलखूँगा।
ोफसर साहब ने मुझे बच पर बैठ देखा तो मेर सामने आ पूछने लगे, ‘‘हलो गु द ! वट आर यू डइग िहयर?’’
(गु द ! यहाँ बैठ या कर रह हो?)
मने बताया, ‘‘मुझे अभी पता चला ह िक मेरी सेवाएँ कॉिलज म समा कर दी गई ह।’’
इस पर ोफसर साहब ने पूछा, ‘‘अब या करोगे?’’
‘‘सर! िवचार कर रहा ।’’
‘‘नोिटस िमल गया ह या?’’
‘‘जी, अभी नह ।’’
‘‘तो नोिटस आने दो। जब आए तो वह लेकर मेर पास आ जाना। म तु ह काम दूँगा। म अभी-अभी तु हार िवषय
म ही िवचार कर रहा था।’’
‘‘म अव य िमलूँगा।’’
सरकारी नौकरी से पशन लेकर ोफसर िचराम कां ेस म काम कर रह थे। वह भी ख र पहनने लगे थे।
इसक कछ िदन प ा ी म ऋतु क छ याँ आरभ हो गई। ‘ि यून’ समाचार-प म दयालिसंह कॉिलज म
किम ी क ोफसर क िलए िव ापन िनकला था। मने अरजी भेज दी। ोफसर िचराम दयालिसंह कॉिलज क
मैनेिजंग कमेटी क सद य थे। म समझा था िक ोफसर साहब इसी काम क िवषय म कह रह थे। इसी कारण मने
अरजी कर दी थी।
परतु भा य म कछ अ य िलखा था। अग त मास क म य म मुझे डायर टर ऑफ एजुकशन का नोिटस िमला
िक सरकार को मेरी सेवा क आव यकता नह ह। उस समय म सप रवार ह र ार गया आ था। अतः ोफसर
िचरामजी क बात मरण कर म लाहौर आया और ोफसर साहब से िमला।
उ ह ने मेरा नोिटस देखा तो कहा, ‘‘दो अ ूबर से तु हारी नौकरी छटी ह और दो अ ूबर को ातःकाल मुझसे
िमलना। तु ह काम िमल जाएगा।’’
म समझा नह िक यह दयालिसंह कॉिलज म ोफसरिशप ह अथवा कछ अ य।
म दो अ ूबर क ातः नौ बजे ोफसर िचरामजी से िमला तो उ ह ने मुझे नेशनल कॉिलज क ि ंिसपल
आचाय जुगलिकशोर क नाम एक िलफाफा देकर कहा, ‘‘यह प आचायजी क पास ले जाओ और वहाँ पर काम
करो।’’
म ैडला हॉल क समीप खुली भूिम पर बनी नई इमारत म जा प चा। वहाँ कां ेस ारा संचािलत नेशनल
कॉिलज क ि ंिसपल आचाय जुगलिकशोर क सामने जा खड़ा आ।
आचायजी ने प पढ़ा और मुझे अपने समीप बैठाकर बताया, ‘‘कां ेस क एजुकशन कमेटी ने बेिसक िश ा
णाली पर एक कल खोला ह। तु ह उसम हडमा टर िनयु िकया गया ह।’’
मुझे संतोष इस बात का था िक म बेकार एक िदन क िलए भी नह आ। यह ठीक ह िक म दयालिसंह कॉिलज
म ोफसर बनने क आशा करता था, इस कारण मुझे कछ िनराशा ई थी।
परतु यह िनराशा अिधक काल तक नह रही। साथ ही िश ा संबंधी उ े य का थम पाठ मुझे उसी िदन िमला।
म कल क िफट हो रही लैबोरटरी को देख रहा था िक आचाय जुगलिकशोर भाई परमानंदजी क साथ लैबोरटरी
क ओर आते िदखाई िदए। वा तव म आचायजी भाईजी से मेरा प रचय कराने आए थे।
भाईजी को म भलीभाँित पहचानता था। आयसमाज क लेटफॉम पर अनेक बार उनक दशन कर चुका था और
उनक मुकदमे, फाँसी, िफर आज म कद का सब वृ ांत जानता था। मुझे यह भी ात था िक कसे पंिडत मदनमोहन
मालवीय तथा बाद म ी सी. एफ. एं ज क य न से भाईजी स 1920 म छट थे और भाईजी अब िश ा क े
म काम कर रह थे।
जुगलिकशोरजी ने मुझे कहा, ‘‘आप ह भाई परमानंदजी! आपने नाम तो सुना होगा?’’
मेरी हसी िनकल गई। मने कहा, ‘‘आचायजी! आज भारत म भाईजी को कौन नह जानता?’’
मेरा मतलब था मेरा प रचय कराइए। परतु आचायजी ने मतलब क बात क , ‘‘आप इस कल क मैनेजर ह,
अतः आप इनक अधीन ह।’’
अब आचायजी ने मेरा प रचय जैसा ो. िचरामजी क प म िलखा था, करा िदया।
भाईजी ने आचायजी को छोड़कर मुझसे सीधी बातचीत आरभ कर दी। वह कहने लगे, ‘‘गु द ! गवनमट
कॉिलज से य चले आए हो?’’
‘‘जी, म छोड़ नह आया, िनकाल िदया गया ।’’
‘‘िकस जुम क िलए।’’
‘‘देशभ क अपराध क कारण।’’
‘‘तो लड़क को कॉिलज का बिह कार करने को कह रह थे?’’
‘‘जी नह । उनको वहाँ पढ़ते ए देश से ेम करने को कहता था।’’
भाईजी क मुख पर मुसकराहट आई और उ ह मेर इस उ र से संतोष अनुभव आ। उ ह ने बात बदलकर पूछ
िलया, ‘‘यहाँ या पढ़ाओगे?’’
‘‘मुझे साइस पढ़ाने क िलए कहा गया ह और वह भी िहदी म।’’
‘‘साइस क ट कल श द का या करोगे?’’
इस समय तक म अपने म त क म इस सम या का सुझाव िवचार कर चुका था। मने कहा, ‘‘भाईजी, वे श द
िजनका पयाय िहदी म नह , उनको िव ािथय क म त क म बैठाने क िलए अं ेजी अ र म बोड पर िलखकर
िहदी म उनका उ ारण िलख दूँगा। िफर लड़क को क गा िक कॉपी पर िलख लो। जब उस श द का बीस-तीस
बार योग होगा तो वह श द िहदी भाषा का अपना हो जाएगा। शेष पढ़ाई तो ऐसे कराऊगा जैसे इितहास, भूगोल
पढ़ाया जाता ह।’’
मेरी इस सफाई ने भाईजी क म त क पर गहरा भाव उ प िकया तीत होता था। वह स तीत होते थे।
अब वह पूछने लगे िक इस कल और कॉिलज का उ े य या समझते हो?
मने कह िदया, ‘‘गांधीजी क आंदोलन म कल -कॉिलज से िनकाले लड़क को जीवनोपयोगी काम िसखाना।’’
‘‘हाँ, कां ेसी यही कहते ह। परतु म समझता िक हमारा उ े य ह िश ा से उ ह ब त अ छा इनसान बनाना।
इतना अ छा िक सरकार उनको नौकरी देकर अपना क याण समझे। िश ा का उ े य इनसान बनाना ह। िजसको
इनसान क आव यकता होगी, वह इन िश ा क पीछ भागेगा। यही म चाहता ।’’
सरकारी कॉिलज म पढ़ते ए तो म िनरतर िवचार करता रहता था िक एम.एस-सी. करने पर कहाँ और कसी
नौकरी िमलेगी। आज पहली बार यह कान म पड़ा िक वा तिवक िश ा वह ह, िजसक सरकार और लोग को
ज रत हो।
म भाईजी का मुख देखता रहा। इसक उपरांत भाईजी साइस क िवषय म अ य पूछताछ करते रह।
वा तव म मेरी राजनीित म नया अ याय आरभ आ था। गांधीजी क राजनीित तो पहले भी मेरी समझ म नह
आती थी। भाईजी क नीित थी िक रा य का बिह कार नह , वर रा य म देशभ का घुस जाना। यही म गवनमट
कॉिलज क िव ािथय को कहता था। देशभ बनकर सरकारी अफसर बनो।
यहाँ भाईजी क थम पाठ का अथ म यह समझा था िक देश म यो य मानव बनाओ। वे देशभ ह तो सरकार
देशीय हो जाएगी। यह जड़ म ांित लाना था। फल वतः ांित ही होगा।
ऐसा तीत होता ह िक स 1922 म भारत इस कार क िवचार क अनुकल नह था। गांधीजी क योजना
असफल हो चुक थी। कारण कछ भी मानो, गांधीजी का नाम असफलता का ल ण होता जा रहा था। नेह
(मोतीलाल) का नाम जनता क सम आ रहा था।
नेह नीित िकसी कार से भी भाईजी को पसंद नह थी। य प म नेह -प रवार िहदू िवचार का िवरोधी था
और भाई परमानंद समझते थे िक देश िहदू समाज क िलए ह और िहदू समाज ही देश का क याण कर सकगा।
‘‘परतु भाईजी!’’भाईजी क एक िश य गोकलचं ने पूछ िलया, ‘‘गांधीजी भी तो अपने को रामभ कहते ह?’’
उन िदन गांधीजी मोतीलालजी क ेरणा से ‘िखलाफत’ आंदोलन का समथन कर चुक थे। िखलाफत आंदोलन
क असफलता पर मुसलमान म िनराशा का संचार हो चुका था और देश म सबसे भयंकर िहदू-मुसलमान फसाद
मोपला-िव ोह क नाम से संप हो चुका था।
इस कार गोकलचं जी क कहने पर भाईजी ने आवेश म कहा, ‘‘गांधीजी इज आइदर ए फल और ए नेव (या
तो गांधीजी मूख ह या धूत ह)।’’
भाईजी िखलाफत क पद से भारत का संबंध नह मानते थे। मुसलमान क नेता मुह मद अली िहदु को गािलयाँ
देते थे और कां ेसी कहते िफरते थे, ‘‘िहदू-मुसलमान भाई-भाई!’’
यह तो मुझे भाईजी क संगित से ही ात आ था िक देश क िलए याग-तप या िहदू ही कर सकता ह,
मुसलमान तो दूध पीनेवाले मजनूँ ह।
नेशनल कल म काम करते ए मेर राजनीितक िवचार म भारी प रवतन आ था। गांधीजी क सदैव और सव
अिहसा एक न समझ म आनेवाली बात हो गई थी। साथ ही कां ेस का येक क मत पर िहदू-मुसिलम का ऐ य
का घोष मूखतापूण तीत होने लगा था। पंजाब क युवक स या ह का िवक प ढढ़ने लगे थे।
महामना पंिडत मदनमोहन मालवीय, बालगंगाधर ितलक उनसे पूव वामी दयानंद, िववेकानंद इ यािद का एक
उपाय था, वह था जन-जागृित।
वीर सावरकर, लाला हरदयाल इ यािद ांितका रय का दूसरा उपाय था िहसा मक ांित।
इन दोन उपाय म मुसलमान क हिसयत से कह कोई नह था। उ र देश म एक-दो मुसलमान राम साद
िब मल क सािथय म थे, परतु वे अपवाद ही कह जा सकते थे। व तुतः ये दोन आंदोलन िहदू आंदोलन ही थे।
यह ान-वृ भाई परमानंदजी क संगित और सा य का फल था। भाईजी क िवचारधारा क स यता का
माण मोपला-िव ोह, सहारनपुर दंगा और कोहाट क िहदू-मुसलमान फसाद ने तुत कर िदया था।
अतः पंजाब म दो आंदोलन चलने लगे। एक ितलक इ यािद िहदू िवचार क लोग क पदिच पर था और दूसरा
सावरकर इ यािद ांितका रय क नकल पर था। एक का नाम था आय वरा य सभा और दूसरा था नौजवान
भारत सभा।
इन दोन आंदोलन म सि य भाग लेने का अवसर मुझे िमला।
म नेशनल कल का हडमा टर ही था। एक िदन कल क छ ी क उपरांत म घर को जा रहा था िक नेशनल
कॉिलज क दो िव ाथ मेर साथ चल पड़। एक थे जो पीछ सरदार भगत िसंह क नाम से िव यात ए और दूसर थे
ी सुखदेव। कछ दूर तक साथ चलते-चलते भगत िसंह ने कहा, ‘‘मा टरजी! हम आपक साथ चल रह ह।’’
‘‘वह तो देख रहा , कछ काम ह?’’ मने पूछा।
‘‘जी! हम गांधी ारा फलाई ांितय को जनमानस से िमटाने क िलए एक सभा बनाना चाहते ह।’’
‘‘सभा का या नाम रखोगे?’’
‘‘यह अभी िवचाराधीन ह।’’
‘‘गांधीजी क िकस ांित को िमटाने का य न करना चाहते हो?’’
‘‘सव सदा अिहसा।’’
‘‘यह तो नकारा मक काम आ। कछ सकारा मक काय म होना चािहए।’’
‘‘उसी क िलए तो आपसे राय कर रह ह।’’
मने मुसकराते ए पूछा, ‘‘सड़क पर चलते-चलते?’’
‘‘नह , िकसी सुरि त थान पर चलगे।’’ और िफर मने भगत िसंह क भट कदारनाथ सहगल से करवाई, जो
बम बनाना जानता था। भट करवाते समय मने भगत िसंह से कहा, ‘‘गु दि णा नह दोगे िश य!’’
‘‘किहए मा टरजी, या देना होगा?’’
‘‘बम का इ तेमाल कभी िकसी िनद ष क ह या क िलए नह करोगे।’’
‘‘ऐसा ही होगा मा टरजी।’’
भगत िसंह ने मुझको िदया आ वचन जीवन भर िनभाया। असबली म भी उस थान पर बम फका, जहाँ कोई
नह था।
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राजनीित
ब त छोटी अव था क बात ह। यह मरण नह िक उस समय िकतनी वयस थी। इतना मरण ह िक म तब
कल अथवा ‘पाधे’ से भी पढ़ने नह जाता था। उन िदन मेरा मु य काम था खाना-पीना और खेलना।
भाई-दूज का िदन था। बहन भाइय को टीका लगाने आई ई थ । हम तीन भाई थे और हमारी चार बहन थ । इन
चार म एक बाल िवधवा थी। वह ायः िपताजी क घर पर ही रहती थी। कभी-कभार अपनी ससुराल जाया करती
थी। तीन बहन ससुराल से िमठाई, फल, पु पमाला और पान लाई थ । िवधवा बहन ने भी छहार और बतासे एक
थाली म रखकर दूसरी बहन क सामान क साथ अपनी थाली रख दी थी।
मकान क नीचे क कएँ से ान कर और पहले िदनवाले व पहन म ऊपर आया था िक माँ ने मुझे नए धुले
ए व देकर कहा, ‘‘इ ह पहन लो।’’
‘‘ या ह?’’ मेरा न था।
‘‘बहन टीका लगाएँगी। आज धुले व पहनने चािहए।’’
हमार मकान म ऊपर क मंिजल पर तीन कमर और एक बरसाती थी। एक कमर को बड़ भाई ने अपनी बैठक
बनाया आ था और वह बरसाती म सोते थे। एक अ य कमरा मँझले भाई क पास था। वह िपताजी क साथ दुकान
पर काम करते थे, इस कारण उनक िलए पृथक बैठक क आव यकता नह समझी गई थी।
म मँझले भाई क कमर म गया और वहाँ कपड़ बदलकर बड़ कमर म आ गया। मेर वहाँ प चते ही माताजी ने
कहा, ‘‘जाओ दुकान पर, और िपताजी से बहन को देने क िलए पैसे ले आओ।’’
म दुकान पर गया। दुकान मकान क नीचे ही थी। हमारा मकान एक तरफ बाजार म पड़ता था, उधर ही दुकान
थी। दूसरी तरफ ‘भू रया’ क गली थी।
मकान क ऊपर क मंिजल से नीचे आया और दुकान पर जाकर माताजी क बात िपताजी को कह दी। िपताजी
ने चार-चार आने क चार कागज क पुि़डया बनाकर दे द और कहा, ‘‘यह चार क िलए ह।’’
म ऊपर आ दोन भाइय क बीच म बैठ गया। बहन ने कसर से टीका लगाया। ऊपर चावल लगा िदए। तदनंतर
गले म फल क माला और मुख म एक-एक टकड़ा िमठाई डाल दी। बड़ भाई ने बहन को दो-दो पए िदए। छोट
भाई ने एक-एक पया िदया और मने ताँबे क पैस वाली एक-एक पुि़डया दी। तदनंतर म नीचे गली म खेलने चला
गया। बा यकाल का मेरा एक िम था। नाम था चु ीलाल। वह भी माथे पर ितलक लगाए ए गली म खड़ा था।
म आया तो दोन खेलने लगे। म या क समय भूख लगी तो दोन अपने-अपने मकान क छत पर चले गए।
उस कमर म जहाँ बैठ बहन ने टीका लगाया था, वह बैठकर खाना खाया जाता था। म बैठा तो माँ ने चने क
दाल और चावल क बनी िखचड़ी थाली म डाल दी। मने खाते ए पूछा, ‘‘भाभी!’’ माताजी को हम ऐसे ही
संबोिधत िकया करते थे। वह भी िकसी क भाभी रही होगी और अब तो प रवार म सबक भाभी बन गई थ ।
‘‘वह िमठाई?’’
‘‘वह तु हारी भौजाइयाँ ले गई ह।’’
‘‘और मेर िह से क ?’’
माताजी चुप बैठी रह । समीप बैठी छोटी भौजाई ने पूछा, ‘‘बहन को या िदया था?’’
मने बताया, ‘‘चार-चार आने।’’
वह बोली, ‘‘चार-चार आने म इतनी ही िमलती ह।’’
वा तव म मुझे तो कछ भी नह िमली थी। टीका करते समय बरफ का एक छोटा टकड़ा मुख म िदया था बस!
मने कहा, ‘‘कछ तो िमलनी थी।’’ इसका उ र भौजाई ने नह िदया। माँ तो पहले ही चुप थी। म भी चुप रहा, परतु
मन म असंतोष बना रहा।
भोजन कर चुका तो माँ ने दुकान पर भेज िदया और कहा, ‘‘िपताजी को भेज दो और वयं दुकान पर बैठना।’’
दुकान पर जाकर मने िपताजी को कहा, ‘‘मुझे िमठाई नह िमली।’’
‘‘ य ?’’
‘‘भौजाइय ने ले ली ह।’’
िपताजी ने कहा, ‘‘वे बड़ी ह। इसिलए उ ह ने ले ली ह।’’
म इस यु को नह समझा। परतु अब समझने लगा । इसे समझने म अनुभव क एक लंबी ि या म से
गुजरना पड़ा ह।
उस घटना को घट लगभग अ सी वष यतीत हो चुक ह और अब समझ म आ रहा ह िक इस भूमंडल म
राजनीित क नाम पर यही कछ हो रहा ह।
इस लंबे काल क िविभ अनुभव को ही म राजनीित क िश ा मानता और इस घटना का अथ आज
म त क म प आ ह।
प रवार म बड़ का अथ तो यह ह ही िक जो य कछ वष पहले इस संसार म आया। यही उस समय म
समझा था। म कछ वष पीछ य रह गया, यह समझ नह सका था। िफर भी यह समझा िक ‘वे बड़ थे,
इसिलए ले गए’ यह संतोषजनक उ र नह था। आज भी यह संतोषजनक समझ म नह आता।
आज भी राजनीित म इस सफाई को ठीक नह माना जाता। परतु मुझे यह समझ म आ रहा ह िक भौजाइय का
िमठाई ले जाना और मुझे कवल उतना ही देना, जो उस समय मुख चोलने को िमली थी, ठीक ही था। दोन
भौजाइय ने िकतना-िकतना भाग िलया था, यह मुझे पता नह चला। परतु मुझे मुख मीठा करने मा को िमला, यही
पया समझा गया था।
म समाज म नेता नह माना जाता। न ही इस समय चारक, उपदेशक, िश क इ यािद िकसी कार क उपािध
से यु ।
िफर भी िलख रहा । इस वृ ाव था म उनको मरण करने म रस िमलता ह। इनसे िकसी को लाभ होगा
अथवा नह , यह मेरी िचंता का िवषय नह ह।
ये सं मरण बड़-बड़ नेता , गु जन अथवा अिधका रय से संपक क नह ह वर बदलते काल म अपने मन
और अपनी बु का िवकास तथा देश क गित अथवा िवगित क अपने मन पर उ प िति या क ह।
आज देश म यापक प म जो कछ समझा जा रहा ह, वह अपनी समझ से कछ िवल ण ह। म तो वयं को
ठीक समझता ही , परतु दूसर जो भी समझ, उनका अिधकार।
िजसे राजनीित समझा जाता ह और जब क बात म िलख रहा , तब भी ऐसा ही समझा जाता था, उसका
म त क पर पहला आघात आ स 1904 म।
म डी.ए.वी. हाई कल क चौथी ेणी म पढ़ता था। हमार एक मा टर थे लाला कपाराम। वह हम िकडरगाटन
और सामा य ान क िश ा िदया करते थे।
एक िदन वह ेणी म आए और कहने लगे, ‘‘कल रिववार ह और अपने देश म एक नई बात होनेवाली ह।’’
सब िव ािथय का यान मा टरजी क ओर आकिषत आ तो उ ह ने लड़क से पूछ िलया, ‘‘जानते हो, हमार
देश का या नाम ह?’’
मा टरजी ने एक लड़क क ओर संकत कर पूछा, ‘‘मदनलाल! तुम बताओ।’’
मदनलाल मेर साथ ही बच पर बैठा आ था। वह उठकर बोला, ‘‘िहदु तान।’’
‘‘और इसम रहनेवाल का या नाम ह?’’ मा टरजी ने पूछा।
‘‘िहदु तानी।’’
‘‘कल हम िहदु तानी यह घोषणा करनेवाले ह िक यह देश हमारा ह। अं ेज यहाँ से चले जाएँ। जानते हो
य ?’’ मा टरजी ने लड़क से पूछा।
मने हाथ खड़ा कर संकत िकया िक म जानता ।
‘‘हाँ, गु दास बताएगा।’’ मा टरजी ने कहा।
उन िदन म गु दास क नाम से जाना जाता था।
मने खड़ होकर, उन िदन क एक मश र गाने का एक पद बोल िदया—‘‘िहदी ह हम, वतन ह िहदो ताँ
हमारा।’’
लड़क ने ताली बजा दी। मा टरजी ने कहा, ‘‘कल हम यही घोषणा करनेवाले ह िक यह िहदु तान हमारा देश
ह। शहर म लोह क तालाब पर ‘लंगे-मंडी’ क मैदान म जलसा होगा और हमार नेता लाला लाजपतराय या यान
दगे। सब लड़क को वहाँ चार बजे प च जाना चािहए।’’
हमारा एक सहपाठी जयदेव था। वह हमारी ेणी म सबसे नालायक समझा जाता था। िपछले वष वह इसी ेणी
म फल आ था। प रणाम व प वह और उसका छोटा भाई दोन एक ही ेणी म पढ़ते थे।
जयदेव श म और लंबाई म ेणी क िव ािथय म सबसे अिधक था। वह उठ खड़ा आ और पूछने लगा,
‘‘पर मा टरजी! अं ेज म या बुराई ह?’’ लड़क हस पड़। उनक हसने का कारण था डी.ए.वी. कल का
वातावरण। उस समय पंजाब म आयसमाज और आयसमाज का डी.ए.वी. कल तथा कॉिलज देशभ
िसखानेवाली सं थाएँ समझी जाती थ ।
परतु मा टरजी ने जयदेव को उ र म देशभ क वह िश ा दी, िजसको म आज तक नह भूल सका।
मा टरजी ने पूछा, ‘‘जयदेव! कहाँ रहते हो?’’
जयदेव अभी भी खड़ा था। वह बोला, ‘‘मुह े स थाँ म।’’
‘‘िकसक मकान म रहते हो?’’
‘‘अपने मकान म।’’
‘‘वह मकान तु हारा य ह?’’
‘‘मेर बाप-दादा का ह।’’
‘‘यिद उसम कोई दूसरा घुस आए तो या करोगे?’’
‘‘हम सब घरवाले उसको ध मार-मारकर िनकाल दगे।’’
‘‘तो जयदेव, यही बात िहदु तान क ह। यह देश हमारा घर ह। हमार बाप-दादा सिदय से यहाँ रहते आए ह।
और ये गोर-िफरगी छह हजार मील से आकर इसम घुसकर बैठ गए ह। इसी कारण हम सब िमलकर उनको ध
दे-देकर िनकाल रह ह।’’
जयदेव या समझा और या नह समझा, यह तो म नह जानता, परतु मेर म त क म बात प थी। मने ही तो
कहा था, ‘िहदी ह हम, वतन ह िहदो ताँ हमारा।’ और मा टरजी ने मेरी बात का समथन िकया था।
कल म देश से ेम क िश ा वामी दयानंदजी क िश ा का एक अंग थी। उन िदन उनक मृित म चलाया
जा रहा कल और कॉिलज उनक बात का काय- प ही था। मेरा राजनीित का आरभ वह से आ।
वैसे डी.ए.वी. कल और कॉिलज वामी दयानंद क मृित म खोले गए, यह ठीक ह िक आयसमाज और
इसक अधीन सब सं थाएँ देश- ेम और ान क वतं ता क पोषक मानी जाती थ । और वे सं थाएँ जो िहदू
समाज म सुधार क थान पर ि़ढवािदता बनाए रखने का चार करती थ , वे सरकार-भ समझी जाती थ । इनम
अपवाद कह -कह ही थे।
म अपने सं मरण क बात कह रहा । िजस िदन कल से यह ेरणा लेकर िक अगले िदन लाला
लाजपतरायजी का या यान सुनने क िलए जाना ह, घर प चा और सायंकाल अपने बड़ भाई लाला ल मणदासजी
से कहा तो वह बोले, ‘‘हम सब या यान सुनने चल रह ह।’’
हम सबक िवशेष अथ थे।
मोह े म आठ-दस क लगभग ऐसे युवक थे, जो वयं को पढ़-िलखे मानते थे। वैसे उनक िश ा आठव और
दसव ेणी तक ही थी। मेर बड़ भाई भी िमडल फल थे। मोह े म सबसे अिधक पढ़-िलखे थे लाला बूटाराम। वे
‘इटर’ पास थे अथा एफ.ए. (बारहव ेणी तक) पढ़ थे। वह उन िदन ईसाई कल म अं ेजी पढ़ाते थे। एक
अ य साहब थे। वे थे लाला रामदास वक ल। वह भी एफ.ए. पास कर मुखतार क परी ा उ ीण कर कचहरी जाने
लगे थे और समय पाकर अ यास क कारण वक ल का लाइसस पा गए थे।
ये दोन पढ़-िलखे य मोह े क अ य नौकरी-पेशा लोग से अपने को पृथक समझते थे। इनम लाला
बूटाराम तो कभी-कभार दूसर क संगित म आ भी जाते थे। वक ल रामदास अपने को सवथा पृथक समझते थे।
इन कम पढ़-िलखे नौकरी-पेशा लोग क एक गो ी होती थी। ये ित सायंकाल िपताजी क दुकान पर िमला
करते थे।
म स 1902 से 1907 तक क बात कह रहा । उन िदन िपताजी क दुकान का काम ायः दीपक जले
समा हो जाता था। उनक अ ारी क दुकान थी और साथ ही िचिक सा-काय होता था।
दीपक जलने क उपरांत ाहक ायः नह आते थे। दुकान क बाहर दो बच, एक खाट और एक-दो टल रख
िदए जाते थे और भाई साहब क साथी, मोह े क पढ़-िलखे नौकरी-पेशा लोग वहाँ एक हो जाते थे। एक य
दैिनक अथवा सा ािहक उदू का प पढ़कर सुनाया करता और अ य लोग सुना करते थे। पढ़नेवाले ायः लाला
बालकराम होते थे। वह दसव जमायत पास थे और ‘लाहौर बक’ म नौकरी करते थे।
िकसी िदन कोई िवशेष समाचार होता तो सड़क पर चलते-चलते लोग भी खड़ होकर सुनने लगते थे।
मेरी राजनीितक िश ा क दूसरी पाठशाला यही थी। उस िदन भाई साहब ने जब कहा, हम सब चलगे तो उनका
अिभ ाय इसी गो ी क सद य से था।
उस सायंकाल ‘पैसा अखबार’ समाचार-प पढ़ा गया। यह समाचार था िक बंगाल क वदेशी सभा ने यह
फसला िकया ह िक पूर देश म रिववार क िदन सभाएँ क जाएँ, िजनम यह ताव पास िकया जाए िक हम िवदेशी
माल नह लगे और वदेशी माल खरीदा करगे।
उस िदन क गो ी म भाई साहब ने कहा िक हम सब लोग को लंगे मंडी, लोह क तालाब क मैदान म लाला
लाजपतराय का या यान सुनने चलना चािहए।
इस वदेशी आंदोलन क भी एक पृ भूिम थी। वैसे तो वदेशी माल न खरीदने का आंदोलन देश म िचरकाल
से चल रहा था। वामी दयानंद, वामी िववेकानंद, बालगंगाधर ितलक इ यािद नेता लोग इसक िलए आ ह कर
चुक थे। परतु उन िदन इस आंदोलन म उ ता आने का कारण यह था िक कछ लोग ने िवदेशी सरकार को यहाँ से
िनकाल बाहर करने का उपाय यह बताया था िक अं ेज िहदु तान म यापार करने आए थे और यापार म सुिवधा
ा क िलए ही यहाँ रा य जमा बैठ ह। इस कारण यिद इनको यहाँ यापार करने म सुिवधा नह रहगी तो ये
वयमेव देश छोड़कर चले जाएँगे।
ि िटश सरकार को िनकालने क इस योजना को बल िमला था बंगाल-िवभाजन क कारण। बंगाल-िवभाजन म
सरकार को या लाभ था, यह तो प नह ह, परतु जनता को यह समझ म आया था िक अं ेजी सरकार का
िवरोध देश म रहनेवाले ायः िहदू ही करते ह। अं ेजी सरकार िहदु क िव थी और बंगाल-िवभाजन बंगाल
क धनी-मानी िहदु को हािन प चाने क िलए था। मुसलमान नेता बंगाल-िवभाजन का समथन कर रह थे और
िहदू बंगाली िहदु क नेतृ व म इसका िवरोध कर रह थे।
वा तव म त कालीन वायसराय लॉड कजन क नीित का यह एक अंग था। इस कारण आंदोलन क िवरोध म
अं ेजी सरकार को देश से भगा देने क िलए वदेशी आंदोलन जोर पकड़ रहा था।
अगले िदन हमार मोह े क गो ी क ायः सद य ‘लगे मंडी’ क मैदान म जा प चे। मेर भाई साहब मुझे भी
साथ ले गए थे। इस सभा म पंिडत िव णु िदगंबर ने वंदे मातर गीत गाया।
पंिडत िव णु िदगंबर भारत क िस संगीतकार म ए ह। वे रहनेवाले तो महारा क थे, परतु उ ह ने दो
संगीत िव ालय खोले ए थे। एक मुंबई म और दूसरा लाहौर म। िजस मैदान म यह जलसा हो रहा था, उसक
समीप ही एक मकान म इनका उन िदन गंधव महािव ालय क नाम से संगीत िव ालय चलता था और ी िव णु
िदगंबरजी ने ही इस सभा म ‘वंदे मातर ’ गीत गाया था। इस गीत क िवषय म मुझे ान था। बंिकमचं क
उप यास ‘आनंदमठ’ का अनुवाद उदू म छप चुका था और िपताजी क दुकान पर कई िदन तक इस उप यास का
संपूण पाठ हो चुका था। उसम ‘सुजलां सुफलां...’ इ यािद गीत क याित का ान मुझे था। समाचार-प म यह
िव यात हो चुका था िक बंगाल म इस गीत को रा ीय गीत माना जाता ह।
लाला लाजपतरायजी क या यान क पूव पंिडत िव णु िदगंबरजी ने गीत गाया और सभा क सब लोग ने खड़
होकर इस गीत को ऐसे ही सुना मानो भगवा क आरती उतारी जा रही ह।
गीत क उपरांत लाला लाजपतरायजी का या यान आ। लालाजी ने बड़ गव से कहा था िक वह िहदू ह। उनका
कहना था िक य िप सब ओर से लोग िहदू क िनंदा करते ह, इस पर भी वह िहदू ह, िहदू रहगे, िहदू क प म ही
मरगे। इसक साथ ही उ ह ने एक प ी क कथा सुना दी।
िकसी वृ को आग लगी थी। उस पर एक तोता बैठा था। वह वृ से उड़कर नह जा रहा था। िकसी राही ने
उसे कहा, ‘‘भले प ी! उड़ जाओ। तु हार पास पंख ह, तुम उड़ सकते हो। वृ को आग लगी ह। बैठ रह तो जल
जाओगे।’’
पंछी ने क ण वर म उ र िदया—
फल खाए इस वृ क गंदे क ने पात।
धम हमारा ह यही, जल इसी क साथ॥
इस पर भी लाला लाजपतराय क यह घोषणा कवल मनो ार ही थी और मनो ार बु शील य क िलए
कछ भी अ त व नह रखते।
लाजपतरायजी का या यान सुनना मेर िलए नवीन बात नह थी। आयसमाज क स संग म लालाजी का
या यान पहले सुन चुका था।
मुझे उस िदन क ‘लंगे मंडी’ वाली सभा क तीन बात ही प प से मरण ह। मैदान खचाखच भरा आ
था। सभा म ‘वंदे मातर ’ गीत लोग ने ऐसे सुना था मानो भगवा क आरती उतारी गई हो और तीसरी बात थी
लालाजी का या यान। लालाजी ने अपनी घंटी क भाँित तेज तथा प आवाज म कहा था, ‘‘इन बिनय क
कौम ारा अपने देश को लूटने से बचाने का एक ही उपाय ह, अं ेजी माल का बिह कार करो।’’
मेरी राजनीितक िश ा क यह मृित अिमट प से मेर म त क म अंिकत ह। म इस वदेशी आंदोलन से
राजनीित और अथ यव था म संबंध क थम झलक पा गया था।
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कचहरी क वरांड म
िकसी फौजदारी क मुकदमे म गवाही देने क िलए म कचहरी गया आ था और जैसा िक साधारणतया होता ह,
मुझे अपनी बारी क ती ा करनी पड़ी।
मुझे यारह बजे प चने क आ ा ई थी और जब म िन त समय पर वहाँ प चा, तो मने देखा िक मिज ट
महाशय अभी पधार ही नह थे। इससे तो म थोड़ा ही खीजा, िकतु जब मने अिभयोग-सूची म अपनेवाले अिभयोग
को सबसे अंत म पाया, तो म उ न हो उठा। म इसका कारण जानने म भी असमथ था िक मुझे ऐसे समय
उप थत होने क िलए य कहा गया ह, िजस समय िक मिज ट वयं ही उप थत नह हो सकता। म न तो
अिभयु था और न ही उसका गवाह। म तो पुिलस का गवाह था। इसिलए मुझे इस पर िव मय हो रहा था िक
अिधका रय क अिनपुणता का दंड मुझे िदया जा रहा ह। कम-से-कम कोट क को चािहए था िक वह
अिभयोग को दो भाग म िवभ कर एक भाग से संबंिधत य य को अपरा -भोजन क पूव और दूसर भाग क
य य को उसक उपरांत बुलाता।
मिज ट महाशय 12.30 पर पधार, 1 बजे उ ह ने काम आरभ िकया और 1.30 पर वे म या -भोजन क िलए
चल िदए। जो कोट इ पे टर हमार अिभयोग का काय कर रहा था, उसने बताया िक हमारी बारी लगभग 4 बजे
तक आएगी। म तो ोध से काँप रहा था। म पहली बार कचहरी आया था और यह समझने म सवथा असमथ था
िक इस कार समय क िनमम ह या य ? इ पे टर मेरी भावना समझ गया, इससे पूछने लगा, ‘‘पहली बार ही
कचहरी आए ह?’’
‘‘जी, िकतु या यहाँ सदा ऐसा ही होता ह?’’
‘‘जी, अिधकतर ऐसा ही होता ह। बात यह ह िक आदमी होते ह और उ ह अनेक काय भी करने पड़ते ह।’’
मने कवल इतना ही कहा, ‘‘मुझे एक ब त ही मह वपूण काय करना था।’’
उस समय एक वृ स न वहाँ से जा रह थे। उ ह देखकर कोट इ पे टर क आँख चमक और वह मुझसे
पूछने लगा, ‘‘िम टर नाथ, या आप इस य को जानते ह?’’ िफर वह वयं ही कहने लगा, ‘‘आप िकस
कार जान सकते ह? आप तो पहली बार ही कचहरी आए ह। म आपका इनसे प रचय कराऊगा और मुझे
िव ास ह िक आप इ ह ब त पसंद करगे।’’
तब तक उसने उस य को पुकारा, ‘लालाजी!’
वह य घूमा और देखकर हमार समीप आ गया। कोट इ पे टर ने मेरा प रचय कराते ए कहा, ‘‘लालाजी,
यह ह िचरजीलालजी क पु अमरनाथजी। यह आपसे प रचय उ प करने क िलए उ सुक ह।’’ िफर मेरी ओर
घूमकर कहने लगा, ‘‘आप देखगे िक लालाजी ब त ही िदलच प और उपयोगी य ह।’’
यह कहकर मुझे लालाजी क सुपुद कर कोट इ पे टर चला गया। लालाजी ने एक ण मुझे िसर से पैर तक
देखकर कहा, ‘‘मेरा खयाल ह िक म तु ह जानता । आपक िपताजी मेर परम िम थे। तु हार चाचा क साथवाले
कस म मने उनक सहायता क थी। उस समय तुम तो ब त छोट ही थे।’’
मने उस बड़ अिभयोग क िवषय म सुन रखा था, िजसे संपि का ितगुना धन यय करने पर मेर िपताजी ने जीता
था। मुझे िपताजी ने रामर खामल क िवषय म भी बताया था, िजसने अिभयोग जीतने क िलए उनक प म झूठी
गवािहय का बंध कर िदया था। इसिलए मने उनसे पूछा, ‘‘ या आप ी रामर खामल ह?’’
‘‘हाँ,’’ उसने मेरी पहचान पर संतोष य करते ए उ र िदया, ‘‘ऐसा तीत होता ह, तु हार िपता ने मेर िवषय
म तु ह बता रखा ह।’’
‘‘जी हाँ, वे आपक सहायता क िलए तो आभारी थे, परतु म समझता िक उस अिभयोग ने उ ह समा कर
िदया। अपनी आयु क सव म दस वष उ ह ने कचह रय म न कर िदए और जीतने पर जो लाभ उ ह आ,
उसका ितगुना धन वे उस कस पर यय कर चुक थे।’’
‘‘यह स य ह, िकतु सभी अिभयोग म लगभग ऐसा ही होता ह। यहाँ कचह रय म साधारण सी चीज क िलए
आपको ब त अिधक यय करना पड़ता ह। याय यहाँ उस मू य पर िबकता ह, जो ायः अ याय िस हो जाता
ह।’’
‘‘लेिकन इसक िलए उ रदायी कौन ह? या अिभयो ा को इसक िलए दोषी नह ठहराया जा सकता? वे
य मुकदमेबाजी म िच लेते ह?’’
‘‘सवदा ऐसा नह होता। अपने िवगत बीस वष क अनुभव से मेरी यह धारणा ढ़ हो गई ह िक इस सभी िवपि
क जड़ वक ल लोग ह। इन लोग ने सारी थित ऐसी उलझा दी ह िक कोई साधारण य िबना वक ल क
सहायता क कचहरी म अपना अिभयोग तुत ही नह कर सकता। कचहरी अब देश क सवसाधारण य क
िलए सावजिनक सं थान नह रही। साधारण य और याय क म य वक ल एक ऐसी दीवार क भाँित खड़ा हो
गया ह, िजसे लाँघने म ब त साधन और समय का अप यय करना पड़ता ह।’’
‘‘लालाजी, तो या आप वक ल-वग को सवथा समा करना चाहते ह?’’
‘‘िबलकल, वक ल तो ब त ही भयानक जीव ह। अपने मुव ल क जीत क िलए उसको सब कार क
य न करने पड़ते ह। यह तभी संभव ह िक जब िवप ी क कस म से झूठ अथवा स े दोष ढढ़ जाएँ और अपने
मुव ल क दोष िछपाए जाएँ।’’
‘‘उिचत तो यही ह िक मिज ट और जज को कानून का पूरा ान चािहए, िजससे िक उनक िनणय पूणतया
कानून पर आधा रत ह । य को किठनाई हो, वह कचहरी म जाकर सरल एवं प म अपनी बात रखे और
मिज ट क अथवा जज क स मुख ही उसक व य को कोई क अंिकत कर ले। तब यायकता उस य
को बुलाए, िजसक िव िशकायत क गई हो और उसका व य भी सुने। तदनंतर िवषय से संबंिधत साि य
को बुलाकर िफर अपना िनणय दे। इसम वक ल क िलए कोई थान नह ह। मिज ट अथवा जज वयं अिभयोग
का िनणय कर सकता ह।’’
‘‘लेिकन लालाजी,’’ मने कहा, ‘‘कवल एक य का ही िनणायक होना तो अिधक संदेहा पद हो सकता ह।
वक ल क होने से कम-से-कम दो य और ऐसे हो जाते ह, जो कानूनी ि कोण से िवचार करने म यायकता
क सहायता कर सकते ह।’’
‘‘एक अिभयोग म एकािधक यायकता ारा िवचार करने क िवषय म तो म कछ नह कह रहा। मेरा कहना
तो यह ह िक िकसी प िवशेष ारा िकराए पर िकया गया वक ल यायकता क िनणय म कदािप सहायक नह हो
सकता। िवपरीत इसक अिधकांशतया वक ल याय क माग म बाधक ही होता ह।’’
‘‘म आपको अपने उस कस क बार म बताता , िजसम मेरा आधा जीवन और पूरी श न हो गई ह।’’
बात करते-करते हम एक हलवाई क दुकान क समीप प च गए थे। मने लालाजी को कछ पीने क िलए कहा,
तो उ ह ने सहष वीकार कर िलया और िफर अपनी बात बताने लगे, ‘‘मेरी आयु उस समय बीस वष क थी, जब
म एक दीवानी मुकदमे म फस गया। मेरा बड़ा भाई, िजसे िपताजी ने दस वष पूव अलग कर िदया था और जो
बंगाल क िकसी नगर म यापार करता था, िपताजी क मृ यु पर आया। म शोक म था और वह दस वष बाद आया
था। वाभािवकतया मने उसे अपने साथ रहने िदया। मने सोचा, कछ िदन म ही वह चला जाएगा, िकतु िपताजी क
मृ यु से संबंिधत सार रीित- रवाज पूण हो जाने पर भी मेर भाई ने जाने का नाम नह िलया। एक िदन रात क समय
उसने मकान क सभी कमर और दुकान को ताला लगा िदया। िजस कमर म म सो रहा था, ातःकाल कवल वही
मेर योग क िलए छटा आ था। दूसर िदन उसने संपि क िवभाजन क िलए यायालय म अरजी दे दी।
‘‘मने य न िकया िक उससे वयं बातचीत कर अथवा िकसी म य थ ारा मामले को सुलझाया जाए, िकतु
उसक वक ल ने उसको समझा िदया था िक म य थ य तो त य से प रिचत होने क कारण उसक प म
िनणय नह दे सकता, जबिक कचहरी म होने क कारण उसक प भी सभी कछ गवािहय क बात और वक ल क
जज को समझाने क ढग एवं िनपुणता पर िनभर करता ह।
‘‘ यायाधीश को यह ारिभक बात समझने म दो वष लग गए िक अिभयो ा कौन ह और उसक थित या
ह। मेरा भाई, उसक प नी और पु अिभयो ा थे, िजनका ितिनिध व पृथक-पृथक वक ल ारा होता था।
अ पवय क होने क कारण मेर भतीजे का ितिनिध व एक संर क भी करता था, जो िक मेरा भाई नह था।
‘‘अिभयोग क ारिभक थित म तो म वयं ही उसक देखभाल करता रहा। एक अवसर पर जबिक िकसी-न-
िकसी बहाने अिभयोग क ितिथ बार-बार टलती रही, तो मने ोध म यह िलखकर दे िदया, ‘एक वष से अिधक हो
गया ह, िकतु कोट अभी तक यह नह समझ सका िक कौन-कौन अिभयो ा ह और कौन-कौन उनका ितिनिध व
करते ह। यिद इस कार काय होता रहा, तब तो म समझता िक मेरी मृ यु क बाद ही संभवतया िनणय हो सक।’
‘‘ यायालय ने मेर व य पर आपि उठाई और मुझे धमक दी गई िक मेर िव यायालय म मानहािन का
अिभयोग दायर िकया जाएगा। य िप मेर व य म ऐसी कोई बात नह थी, िकतु मेर भाई क वक ल ने आपि
उठाई और मुझे अपने उस तथाकिथत दोष क िलए मा-याचना करनी पड़ी। तब मुझे भी वक ल रखना ही पड़ा।
‘‘अिभयोग टलता रहा और अंत म हाईकोट क यह िनणय करने तक िक िपताजी क मृ यु क समय मेर बड़ भाई
का उसक संपि म िकिच भी अिधकार नह था, सात वष लग गए, िकतु यह इसका अंत नह हो गया। िजस
संपि पर मेर भाई ने अपना अिधकार कर िलया था, उसे छड़ाने म एक वष और न आ।
‘‘इस सबका प रणाम यह आ िक मेरा भाई िभखारी बन गया और मेरा मकान खाली करने क कछ ही समय
बाद उसका देहांत हो गया। उसक लड़क क िश ा इस कारण ठीक कार से नह हो सक , य िक उसक संपि
क और भी लेनदार थे। इस समय वह बेचारा एक साधारण सी दुकान पर तीस पए क नौकरी कर रहा ह, मेर
भाई क प नी अपने पड़ोिसय क घर म काम करक अपना गुजारा कर रही ह।
‘‘मने भी मुकदमा लड़ने क िलए इतना कज िलया िक उसको चुकाने क िलए मुझे वह सब संपि बेचनी पड़ी।
‘‘इससे भी अिधक बुरा यह आ िक मुझे कचहरी म आकर वक ल क बहस सुनने का च का लग गया ह—
और म िकसी भी य क कस म िच लेने लगता । ईमानदारी क ित मेरा िव ास िमट गया ह। कभी-कभी
मुझे झूठी गवाही देने पर कछ पए िमल जाया करते ह।’’ अब तक हम ठडाई पी चुक थे। वह अपने रा ते चला
गया और म वापस कचहरी क वरांड म आकर उसक बात पर िवचार करता आ अपने कस क बारी क ती ा
करने लगा।
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िन पृह
अहकार बलं दप कामं ोधं प र ह ।
िवमु य िनममः शा तो भूयाय क पते॥
वामीजी महाराज उस िदन गीता क उ ोक क या या कर रह थे। वह कह रह थे, ‘‘पु -कल , धन-
संप , मानापमान ये सब मनु य को इस संसार म बाँधते ह और संसार दुःख का घर ह। दुःख से छटकारा पाने क
िलए येक ाणी क आ मा याकल रहती ह।
‘‘संत-जन इनसे दूर रहकर ही परम सुख क ा करते ह। भगवा ने अपने अमर वचनामृत म कहा, अहकार,
बल, अिभमान, कामना तथा ोध को छोड़कर जो य ममता-रिहत शांत रहता ह, वह म लीन होने क
यो य माना जाता ह।’’
इस कार इसी लय म ी वामीजी महाराज याग क िवचार का ितपादन करते ए लगभग एक घंट तक
वचन करते रह। ोतागण, सभी ी-पु ष वामीजी क वचन क मधुर शैली, समय-समय पर पुराणािद ंथ क
कथानक से सुस त और भ जन क वा य से अलंकत इसको मं -मु ध होकर सुनते रह।
हजरत ईसा ने गलीिलय क झील क रतीले िकनार पर धान िबखेरते ए कहा था, ‘‘बीज डालना मेरा काम ह,
कौन सा बीज जमता ह और कौन सा नह , यह भु क हाथ म ह। वहाँ कोई सौ बीज म से एक जमा होगा, परतु
मानव-मन तो उससे भी कई गुणा अिधक ऊसर ह। इस पर तो लाख म से एक ही जड़ पकड़ता ह।’’
इस पर भी साधु-जन तो िवचार- पी बीज िबखेरते रहते ह और वे इस बात क िचंता नह करते िक िवचार
िकसक मन म अंक रत होता ह और िकसक मन म जाकर गल जाता ह।
लाख म एक क मन म ही यह फलता ह। इन लाख म एक इस कथा म बैठा आ था, रामसहाय, जो एक
छोटी सी दुकान का मािलक था, इस तीर का िनशाना बन गया।
वह कथा से उठा और लगा बु चलाने। घर जाते ए वह िवचार कर रहा था, पु -कल , धन-संप ,
मानापमान ये सब मनु य को इस संसार म बाँधते ह और संसार दुःख का घर ह। वामीजी क उ श द पूण माग
भर उसक कान म िननाद कर रह थे और उसक पग चलते-चलते क जाते थे। वह मन म िवचार कर रहा था िक
यिद यह स य ह, तो वह िकधर जा रहा ह। वामीजी अस य भाषण तो कर नह सकते और िफर उ ह ने तो भगवा
क वचन म से ही यह बात कही थी। यह बात अस य नह हो सकती।
तो िफर वह घर जाकर ही या करगा? वहाँ उसक प नी ह, उसका नवजात िशशु ह। घर प चकर अ पाहार
कर वह दुकान पर जाएगा, वहाँ या ह, धन-संप का ोत ह।
इस िवचार से वह काँप उठा और उसक पग आगे बढ़ते ए क गए। वह अिन त मन था। दुःख क सागर म
डबने क िलए घर को भागा जाता सा अनुभव कर रहा था।
वह लौट पड़ा। उसका घर का जीवन कछ सुखी सा भी नह था। छोट से कारोबार से ब त कम उपल ध होता
था। इतने से उसक युवा ी संतु नह हो सकती थी। वह चंचल, नवयुग क लड़क थी। व ाभूषण, नाटक,
तमाशे, चाट-पकौड़ी, सैर-सपाट, अिभ ाय यह िक येक कार क सुख-सुिवधा क िलए लालाियत रहती थी।
इतना चाहती थी, जो उसका पित अपनी छोटी सी दुकान से ा नह कर सकता था।
कर सकना संभव भी नह था। रामसहाय िन य ातःकाल ानािद से िनवृ हो एक घंटा पूजा-पाठ, एक घंटा
कथा-क तन, िफर अ पाहार और ी म ऋतु म नौ बजे तथा शीतकाल म दस बजे दुकान पर जाकर बैठ सकता
था। म या को भोजन करने घर पर जाना होता था। उसक प नी उसक साथ बैठकर भोजन करने क इ छा िकया
करती थी और सायंकाल वह सूया त होने पर घर आ जाया करता था। इस कार दुकान चल सकना किठन था
और वह ब त कम आय दे रही थी। उसक प नी चंचल कित क होने क कारण इतने से संतु नह थी।
िन य वह अपनी पड़ोसी य क व ाभूषण तथा रहन-सहन अथवा उनक क पितय क साथ नाटक-िसनेमा
अथवा बाजार म घूमने जाने क बात कहा करती थी। वह वयं दुःखी होती थी और अपने पित को भी दुःखी िकया
करती थी।
भगवा ने उसक िववाह क एक वष क भीतर ही उसक गोद भर दी थी और अब तो ब े क िलए भी
अनेकानेक माँग उप थत होने लगी थ । पित यह सबकछ दुःख का सागर समझने लगा था और वामीजी ने इनक
सं ह का याग कर िनम ही हो, शांत होने से -भूयाय ( ा करने क यो य) होना बताया था। वामीजी ने
यह भी बताया था िक को ा आ पु ष िकसी व तु क चाहना नह करता।
रामसहाय घर जाने क अपे ा ह र ार क ओर चल पड़ा। उसने सब क चाहना छोड़ दी और शांत िच हो
साधु होने क इ छा से िकसी यो य गु क खोज करने लगा।
उसे एक गु िमल गए। वह िन य सायंकाल भरत मंिदर म कथा िकया करते थे। कलाश आ मवास कर रह थे
और कथा क समय क अित र िकसी अ य समय म लोग से िमला भी नह करते थे।
रामसहाय भी सायं कथा क समय ही िमलने क िलए गया था। कथा समा होने पर वह वामीजी क चरण
पकड़ बैठा। वामीजी ने उसे देख पूछा, ‘‘ या चाहते हो?’’
‘‘सं यास क दी ा।’’
‘‘ या करोगे दी ा लेकर?’’
‘‘इस दुःखमय संसार से मु होने क चे ा करना चाहता ।’’
‘‘िवचार शुभ ह, पर इसक िलए सं यास क या आव यकता ह?’’
‘‘संसार से संबंध-िव छद करने क िलए।’’
‘‘भगवे पहनने से संबंध-िव छद हो जाएगा या?’’
‘‘आपने भी तो पहना ह, महाराज।’’
‘‘भ , भगवा पहनने से सं यासी नह आ, अिपतु सं यास ा हो जाने पर भगवा पहनना पड़ा ह। पहले
वैरा य हण करो, सं यास क दी ा वयमेव ा हो जाएगी।’’
रामसहाय क मन म काश हो गया। वह पाँव छोड़, हाथ जोड़ खड़ा हो गया।
महा मा ने पूछा, ‘‘हाँ, या िवचार ह?’’
‘‘म माग पा गया भगव !’’
‘‘परमा मा तु हारा क याण कर।’’
रामसहाय सोचता था िक वैरा य तो उसको ा हो गया ह। न आ होता, तो अपनी सुंदर प नी और ि य पु
को छोड़कर कसे आ सकता था। वह वैरा य- ा िनम ही हो चुका ह। अतः सं यास तो अब उसको वयं ही ा
होना चािहए।
मंिदर से िनकल वह गंगा-तट क ओर एकांत म चला गया।
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रामसहाय क प नी चंचल अपने पित क िदन चढ़ने तक कथा-क तन म य त रहने पर िचढ़ा करती थी। उसका
उससे यह िगला रहता था िक वह दुकान पर ब त िवलंब से जाता ह। अ ािद क दुकान पर तो ातः-सायं ही
िब होती ह और दोन समय वह साधु-संत क संगित म यतीत करता था। म या क समय तो सब लोग खा-
पीकर काम-धंधे म लग जाते ह। भला कौन आएगा उस समय माल खरीदने क िलए?
िन य झगड़ा होता था। आज िदन क यारह बजे तक उसका पित नह आया, तो वह यह अनुमान करने लगी िक
वह अव य िकसी अ य साधु क सेवा म बैठा होगा। इससे वह आग-बबूला हो रही थी। वह आज घर पर ही
महाभारत करने क तैयारी कर रही थी।
परतु महाभारत क यु क िलए िवप ी आया ही नह । ोध क पा क अनुप थित म शनैः-शनैः वह वयं ही
शांत होने लगा। इतने म ब े ने भूख से याकल हो दूध क िलए रोना शु कर िदया, तो उसने उसको दूध िपलाना
आरभ कर िदया। ब ा छह मास का हो गया था। अब बाजारी दूध पीने लग गया था। माँ अपने वा य का िवचार
कर अपना दूध देना बंद कर चुक थी। ब ा दूध पीकर सो गया, तो उसने सामने मेज पर रखी टाइमपीस म समय
देखा। बारह बज रह थे। रामसहाय आया य नह , यह अब उसक िलए िचंता का िवषय हो गया था।
बारह क बाद एक, िफर दो, तीन, इसी कार सायंकाल हो गया। ब ा रोता, तो कभी उसको दूध दे देती और
कभी उसक िपता क िन ुरता का िवचार कर उसको पीटकर चुप कराने का य न करती।
अगले िदन ातःकाल वह उस मंिदर म जा प ची, जहाँ उसका पित कथा सुनने क िलए जाया करता था। वहाँ
कथा करनेवाले वामीजी से तथा अंत म कथा सुननेवाल से पूछने पर चंचल को पता लगा िक उसका पित िपछले
िदन कथा सुनने आया था और यहाँ से घर लौट गया था। िकसी ने उसको यह भी बताया िक उसने उसको ह र ार
क ओर जानेवाली गाड़ी म बैठ देखा था।
िजसने उसको यह सूचना दी थी, वह उस िदन अपने िकसी संबंधी को ह र ार क िलए बैठाने गया था और
उसने रामसहाय को गाड़ी क तीसरी ेणी क िड बे म बैठ देखा था।
चंचल का माथा ठनका और वह इस नई प र थित म िवचार करने लगी। िदन-पर-िदन यतीत होते गए और वह
अपने आभूषण बेचकर गुजारा करने लगी। उसक संबंधी उसक पास आ-आकर रामसहाय क कह न िमलने क
सूचना देकर चलते बनते।
जब एक-एक कर आभूषण चंचल क संदूकची म से िनकलकर सराफ क ितजोरी म जाने लगा, और उससे
ा धन शरीर क भरण-पोषण पर यय होने लगा तो चंचल क िचंता बढ़ने लगी।
रामसहाय को घर से गए एक वष हो गया था। चंचल उलट माग पर चल पड़ी थी। वह पित का िवयोग, धन क
यूनता और संर ण क अभाव को सहन नह कर सक । एक मनचला िमल गया। वह उसक आव यकता क
पूित करने लगा।
यह पड़ोस का ही एक संप सौदागर कामता साद था और पहले चोरी-चोरी िफर य म उसको सहायता
देने लगा। इस कार कछ काल तक िनरास -भाव से सहायता करने क बाद वह सहायता का ितकार पाने क
िलए उसक घर म जा प चा, और चंचल से सहानुभूित कट करते ए अपनी सहायता का साद पा गया।
कछ समय तक यह काय चोरी-चोरी चलता रहा। एक िदन इसका प रणाम भी सम आ गया। चंचल ने कहा,
‘‘लालाजी, मुझको गभ ठहर गया ह।’’
‘‘यह तो होना ही था।’’
‘‘तो अब या होगा?’’
‘‘दो म से एक बात हो सकती ह।’’
‘‘ या?’’
‘‘तुम ह र ार चली जाओ। वहाँ तुम जैसी औरत बे-बाप क ब े पैदा करने क िलए जाया करती ह। खचा म दे
दूँगा। ब ा होने क बाद उसको िकसी अ पताल क बाहर कपड़ म लपेटकर फक आना, िफर लौट आना। ई र
ने चाहा, तो तु हारा प-रग वैसा ही बना रहगा, जैसा अब ह।’’
‘‘तो अपने ब े को अप रिचत य य क हाथ म छोड़ आऊ?’’
‘‘कौन िकसका अपना ह? ज म से पहले तो ब े ने बाप को देखा नह , न ही बाप ने ब े को। तुम भी उसक
िवषय म या जानती हो? छोड़ो इस झूठी मोह-माया को। देखो, भगवा ने िकतनी सुंदर बात कही ह—
िनराशीयतिच ा मा य सव प र हः।
शारीर कवलं कम कव ा नोित िक बष ।।
‘‘अथा अपने िच को जीतकर, सब संिचत पदाथ को छोड़कर, आशा रिहत होकर कवल शरीर-संबंधी कम
को करते ए पाप को ा नह ह गे।
‘‘इसिलए म कहता िक शरीर का धम हमने पालन िकया ह। अब तो मोह, ममता, आशा और संिचत सबकछ
छोड़कर िनवाह करो। ऐसा करते ए तुम िकसी कार क भी पाप को ा नह होगी। पाप तो ा व तु म
आस से उ प होता ह।’’
‘‘ब त किठन ह, लालाजी!’’
‘‘तो िफर दूसरी बात करो।’’
‘‘ या?’’
‘‘ब ा जब पैदा हो जाए तो उसको गंगाजी क अपण कर आ जाना।’’
‘‘तो यह पाप नह होगा या?’’
‘‘शारी रक कम करते ए मोह, ममता तथा धन-संप , पु -कल म आस का याग कर देने से पाप नह
लगता।’’
चंचल देख रही थी िक यह बात गलत ह। भला एक जीव क ह या िकस कार पु य का काय हो सकती ह?
और वह भी शरीर क सुख क िलए, परतु मानव-मन ह। वह जीवन का वाद लेने क िलए बहाना ढढ़ा करता ह।
अतः मन क दुबलता को े बतानेवाले वा य और माण पाकर वह मान गई।
समय आने पर चंचल ह र ार चली गई और वहाँ एक पंड क सहायता से अपने ब े को िठकाने लगा वापस
आ गई। पंड ने ब े क ह या नह क थी। उसको भी लाला ने गीता का उ ोक सुनाया था, परतु उसक मन
ने यह जीवन-मीमांसा वीकार नह क और ब े को एक िवधवा ा णी को पालन-पोषण क िलए देने क बात
हो गई, तो उसने लाला से िलया पाँच सौ पया उस िवधवा को दे िदया और ब े का पालन-पोषण होने लगा।
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पंडा लालाजी को जानता था और एक वष क प ा आकर बोला, ‘‘ब ा एक ी क पास पल रहा ह।
िपछला पाँच सौ पया खच हो गया ह। अगले वष क िलए खचा दे दीिजए।’’
‘‘कौन सा ब ा?’’ लालाजी का न था।
‘‘चंचल देवी क गभ से उ प ब ा।’’
‘‘तो चंचल से माँगो उसका खचा।’’
‘‘म उसको नह जातना। मने तो काय आपक िलए िकया था। यिद आप इतना कछ नह दगे, तो वह िवधवा सब
बात कोट म बताकर खच क माँग करगी।’’
िववश लालाजी को धन देना पड़ा। कदािच लाला कामता साद िवधवा को कोट म जाने क धमक दे देता,
यिद चंचल क िफर िदन न चढ़ गए होते। उसको अनुभव हो रहा था िक इसे पुनः इसी पंड और उस िवधवा क
आव यकता पड़गी। इस पर भी वह अब चंचल क ब क पालना घर पर ही करने का िवचार कर रहा था।
इस कार एक क बाद दूसरा और दूसर क बाद तीसरा ब ा हो गया। रामसहाय को गए सात वष हो गए थे।
मोह े म चंचल क साथ लाला कामता साद क संबंध क बात िव यात हो चुक थी। लाला से उसक तीन ब
क बात भी सबको िविदत थी। चंचल क ित मोह े और र तेदार का आवेग आकर जा भी चुका था। उससे
अब सबक सामा य संबंध बनने लगे थे। चंचल क माता-िपता भी अब उसको दया क पा मानने लगे थे।
चंचल कभी अपने मन म आ म लािन अनुभव करती थी तो कामता साद क जीवन-मीमांसा उसम पुनः साहस
का संचार कर देती।
कामता साद तो अपना यवहार भगवा क इस कथन पर आधा रत मानता था—
य वा कमफलं संगं िन यतृ ो िनरा यः।
कम यिभ वृ ोऽिप नैव िक करोित सः।।
वह चंचल को इसका अथ इस कार सुना िदया करता था, जो कोई भी काम करो उसक फल क आशा को
यागकर ही करो। सदा स रहो और िबना िकसी क भरोसे रहकर कम करो, तो मानो तुम कछ भी नह कर रह।
इस कारण चंचल समझने लगती थी िक उसने कछ नह िकया। न पाप, न पु य।
कभी मोह -े टोले वाली याँ उससे पूछत , ‘‘क याण क िपता का कछ पता चला िक नह ?’’
‘‘िकसी से सुना था िक वह ब ीनारायण क माग पर जोशी मठ म वामी शंकराचायजी क आ म म रहता ह।’’
‘‘कभी इ छा नह होती िमलने क ?’’
‘‘िकसी भी बात क इ छा करना तो अपने को संसार से बाँधना ह। संसार से बँधने का अथ ह, इसक दुःख का
अनुभव करना। म तो सुख-दुःख से पर ।’’
‘‘तो या ये ब े िबना सुख क ा क िमल गए ह?’’
‘‘यह तो शरीर का कम ह। यह होता रहता ह। जैसे शरीर क अ य काय होते रहते ह।’’
न करने वािलयाँ हस पड़त और बात समा हो जाती ह। अब चंचल देवी गीता और वेदांत क या या
िकया करती थी। सब माया ह, यह उसका वाभािवक कथन हो गया था। क याण, रामसहाय का लड़का और
राम, शैला तथा याम कामता साद क ब े अब बड़ हो रह थे। वे सब अपने को कामता साद क संतान मानते
थे। लाला का यवहार चार क साथ एक समान ही रहता था। उसने वयं कभी उनको एक पैसा भी नह िदया था।
न ब को उससे कछ भी माँगने का अ यास था। चंचल को ही लाला से िनवाह क िलए धन िमलता था और
उससे वह अपने ब क आव यकताएँ पूण िकया करती थी।
सबसे छोटा याम अब पाँच वष का हो गया था। क याण यारह वष का था। माँ अपने चार ब को लेकर
ह र ार गई ई थी। इन िदन घाट पर एक साधु कथा िकया करता था। उस साधु क िवषय म यह िव यात था िक
वह कोई िव य ह और सायंकाल उसक वचन को सुनने क िलए अपार भीड़ एकि त हो जाया करती
थी।
चंचल ह र ार प ची, तो पहले िदन उसक एक सखी ने साधु ानंद क िवषय म उसको बताया। वह उसक
प रिचत िवधवा थी, जो बारह मास वह रहा करती थी। उसका नाम था कवली। उसको पता चला िक चंचल आई
ह, तो वह उससे िमलने क िलए चली गई।
‘‘तो चंचल बिहन आ गई हो?’’
‘‘हाँ बिहन! या समाचार ह?’’
‘‘सब कशल ह। कभी-कभी तो ह र ार सूना तीत होने लगता ह, परतु आजकल तो यहाँ भी रस आने लगा
ह।’’
‘‘ या रस आने लगा ह?’’
‘‘एक प चे ए महा मा आए ए ह और िन य सायंकाल घाट पर अपनी मधुर भाषा म सुलझे ए िवचार बताया
करते ह। सह क सं या म नर-नारी उनक ओज तथा भावपूण भाव को सुनने वहाँ जाया करते ह।’’
‘‘ये साधु लोग, िजनक जीवन का आधे से अिधक भाग तो रहता ही नह , भला या उपदेश दे सकते ह?’’
‘‘बिहन, यह तो वयं सुनने तथा रस हण करने क बात ह। आम का वाद वाणी से वणन नह िकया जा
सकता। इसका तो आ वादन ही िकया जा सकता ह। तभी उसका प रचय िमलता ह। बिहन, आज चलो, यह
मानव-ज म कतक य हो जाएगा।’’
चंचल क मन म उ सुकता जाग पड़ी और उसी सायंकाल वह घाट पर जा प ची। वामीजी महाराज एक त ते
पर बैठ थे। पया सं या म लोग उनका वचन सुनने क िलए त त क चार ओर बैठ ए थे। अभी क तन हो रहा
था।
चंचल भी वहाँ प ची और सबक पीछ जाकर बैठ गई। वह बैठते ही पहचान गई िक वामी ानंद उसका पित
रामसहाय ही था। पहले से वह बदल अव य गया था। गृह थ जीवन म उसक शरीर और आँख म चंचलता रहा
करती थी। अब वह िन ल, शांत और गंभीर था। इस समय उसक मुख पर अलौिकक ओज भी था और चंचल
अनुभव कर रही थी िक वह उसका ओज सहन नह कर सकती। उसका दय धक-धक कर रहा था और वह ऐसा
अनुभव कर रही थी िक उसक नीचे से भूिम िखसक रही ह।
चंचल क मन म अनेकानेक िवचार उ प हो रह थे। वह िवचार कर रही थी िक या उसने भी उसको देखा
होगा
कदािच नह । चंचल क मन ने उ र िदया, य िक वह तो आँख मूँदे बैठा ह।
तो या वह उठकर वापस चली जाए?
परतु इस कार तो वह देखी जा सकती ह, य िक कोई भी उठकर जा नह रहा था।
तो वह भीड़ म िछपी बैठी रह?
यही ठीक होगा िक सब लोग जब उठ पड़, तो वह भीड़ म से चुपचाप िनकल जाएगी।
इस कार मन क चंचलता को थपिकयाँ दे-देकर वह चुपचाप गरदन झुकाए वहाँ बैठी रही। उसका मन तो
अपने अतीत पर िवचार करने लगा था। वह िवचार कर रहा था िक आरभ म कामता साद से संबंध िकतना मधुर
था और समाज म िकतना िनंदनीय बन गया था, परतु अब समय यतीत हो जाने पर सांसा रक सुख क लालसा तो
कम हो रही ह और एक अ य कार का िववेक उसक मन म बैठने लगा था। साथ ही उसको भय लग रहा था िक
लाला क इि य म शैिथ य आने पर उसक उदारता और ान- यान क वृि भी कह िशिथल न होने लगे।
परतु वह िवचार करती थी िक यिद यह सामने बैठा ान- यान क बात करनेवाला साधु वा तिवक ान
रखनेवाला होता तो यह उस अबला को िन सहाय छोड़ अपना क याण करने न चल पड़ता।
वामीजी क भाषण म रोचकता अिधक होने से तथा उसम यु और भाव होने पर लोग सुनने म म न थे।
वचन म संसार िम या और कवल ही स य पर बल नह िदया जा रहा था, अिपतु सदाचार पर अिधक बल
था।
चंचल यह सबकछ सुनते ए भी नह सुन रही थी। उसका मन वामीजी से बात करने अथवा न करने क िवषय
पर िवचार कर रहा था। वह वामीजी क िनवास- थान का पता करने क इ छा करने लगी थी, परतु सोचती थी िक
उनसे िमलकर या करगी? अब उससे उनका या संबंध रह गया ह? वह सभी सांसा रक बात से अलग हो गया
था।
कथा समा ई और कह -कह कोई श द सुनने क अित र वह न कछ सुन सक और न समझ सक ।
उसक अपने मन म भारी शोक उ प हो रहा था और िविभ कार क भाव उठ रह थे। उसक ित घृणा से
लेकर आदर और ा क भावना क भीतर पड़ी वह लहर म लहरानेवाली नौका क भाँित कभी इधर और
कभी उधर भटकने लगी।
गंगाजी क आरती ई और लोग उठ पड़। वह भी भीड़ म उठी और यह समझकर िक उसको िकसी ने न देखा
और न पहचाना ह, वह वहाँ से आ गई। इस पर भी वह अपने मन क अव था को समझ नह सकती थी।
मन म यह िन य कर िक वह अब वामीजी क कथा सुनने नह आएगी, घर को लौट गई। उसक ब े उसक
साथ ही थे। क याण अब सबक देखभाल कर सकता था। आजकल कल क छ याँ थ और ह र ार म वे
वतं तापूवक घूम सकते थे।
लाला कामता साद और चंचल दोन को ही ब से मोह नह था। ब को भी उनसे िकसी कार का लगाव
नह था। उनको खाने-पीने को िमल जाता था। इतने से ही वे संतु थे।
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अगले िदन चंचल क सहली कवली उससे िमलने को आई। उसने पूछा, ‘‘कल कथा सुनने क िलए गई थ ?’’
‘‘हाँ, गई थी।’’
‘‘म तो कल जा नह सक । िकस िवषय पर कथा थी?’’
‘‘कथा थी...यही िक संसार माया ह।...नह ...मनु य का कत य...नह च र क...हाँ कछ।...कई बात कही
थ ।’’
कवली हस पड़ी। उसने िव मय कट करते ए पूछा, ‘‘ या हो गया ह तुमको आज? तुम तो ऐसी नह थ ?’’
‘‘कसी?’’
‘‘कथा म जाओ और िच कह अ य थान पर रहा हो।’’
‘‘अ य कहाँ रह सकता था?’’
‘‘परतु कथा म तो नह था। या म गलत कह रही ? उस िदन वामी िवशु ानंद का वचन सुनकर आई थ ,
तो तुमने अ रशः सुना िदया था।’’
आिखर चंचल को मानना पड़ा, ‘‘हाँ, कल मन कछ िख था। मने कथा सुनी ही नह । डढ़ घंटा वहाँ बैठी और
चली आई।’’
‘‘िख य हो रहा था? तुम तो ब त ान क बात जानती और िकया करती हो।’’
‘‘कल मन मिलन हो गया था, िकसी क याद आ गई थी और उसक ित मन क भावनाएँ उभर आई थ ।
भावना क आँधी म वामीजी क बात सुनती तो रही, परतु समझी कछ नह ।’’
‘‘आज चलोगी?’’
‘‘नह , अब म वहाँ नह जाऊगी।’’
‘‘ य ?’’
‘‘पुनः मन क शांित िवलीन हो जाएगी।’’
‘‘तो वामीजी को देख लेने से मन अशांत हो उठता ह?’’
चंचल ने कछ उ र नह िदया। कवली उसक मुख पर परशानी देख िव मय कर रही थी। एकाएक उसक मन म
कछ िवचार आया। उसने चंचल क गले म बाँह डाल पूछा, ‘‘उनक मोह म तो नह फस गई?’’
चंचल क मुख से अनायास ही िनकल गया, ‘‘फस गई थी, परतु वह बात ब त पुरानी हो गई, जब वह साधु नह
थे।’’
‘‘तो यह मोह-ममता उनको देख जाग पड़ी थी।’’
‘‘अपने मन क थित को मोह-ममता तो नह कह सकती। वे मेर िववािहत पित थे। मेरा बड़ा लड़का इनका ही
ह। मेरी आव यकता को पूण न कर सकने क कारण ये घर से भाग आए थे। म अिकचन हो गई और पेट भरने
क िलए ब े उ प करने लगी। अब याम क बाद ब े नह हो रह। इस पर भी संबंध तो चल रहा ह।’’
कवली अपनी सहली का वृ ांत सुनकर अवाक बैठी रही, िफर बोली, ‘‘तो उ ह देखकर िच अशांत हो जाता ह
या?’’
‘‘ब त, कभी ोध, कभी संतोष, कभी दुःख, कभी हष, कभी मोह, कभी लािन, ऐसे ं म फस जाती ।
िजतनी देर तक वहाँ रही, इस कार क पर पर-िवरोधी भावना म िहलोर ले रही थी और कथा का एक श द भी
समझ नह सक ।’’
‘‘तो तुम िन य नह कर सकत िक मन या चाहता ह?’’
‘‘नह , अभी भी नह । म समझती िक वह महापापी ह, जो अपनी युवा प नी और िशशु पु को असहाय
छोड़कर भाग गया ह, िफर वह िवचार करती िक अ छा ही आ ह। याम क िपता मेरी सब कार क
आव यकताएँ पूण कर रह ह और वह तो इतना भी कर नह सकता था।
‘‘कभी िवचार करती थी िक पर-पु ष क प नी बन पाप क भािगनी बन गई , िफर िवचार करने पर समझती
िक म ानवान हो गई । शारी रक कम म पाप-पु य मानना छोड़ बैठी और मन से म इन कम से अिल
रहती । म अपनी अव था ऐसी समझती जैसी भगवा ने कही ह—
न मां कमािण िल प त न मे कम फले पृहा।
‘‘जब यह िवचार करती तो उसक मुझे छोड़कर जाने को वरदान मानने लगती । कभी अपनी उस एक वष
क अव था का मरण कर दुःखी होती , जो उसक मुझे छोड़ जाने क बाद ई थी, परतु उसक बाद क वष क
याद आती ह, तो उसका ध यवाद करती । म अब सहज सुख ा कर रही ।
कवली ने िसर िहलाते ए कह िदया, ‘‘बिहन, मन क यह अव था तो ब त ही िवकट ह, इसम शांित कहाँ
िमलेगी?’’
‘‘य न कर रही ।’’
‘‘असंभव ह। जब तक मन म मथनी चलती रहगी, ोभ उठता रहगा और ोभ अशांित का ही दूसरा नाम ह।’’
‘‘तो मथनी चलना कसे बंद हो?’’
‘‘इसक कई तरीक ह। दुखी संसारी म का सेवन करते ह। कछ लोग खेल-तमाशे देख मन बहलाया करते ह।
कछ ऐसे भी ह, जो धम-कम, ान- यान म िच लगाते ह। कई साधु लोग चरस पीकर इस ोभ को शांत करते
ह।’’
‘‘म तो इनम से कोई भी उपाय नह कर सकती?’’
‘‘तो िफर म कोई अ य उपाय जानती भी नह ।’’
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चंचल उस िदन कथा सुनने क िलए नह आई, परतु कथा क सब समय वह ब त स त बेचैनी अनुभव कर रही
थी। घर बैठ ए भी वह अपने िच को शांत नह रख सक । वह कभी िवचार करती थी िक उससे जाकर लड़
पड़। कभी सोचती थी िक उसक पाँव पकड़कर अपने मन म उसक ित बुर िवचार क िलए मा माँग ले। कभी
वह जाने लगती, िकतु िफर अपने को पागल समझ पुनः चटाई पर लेट जाती। लेट-लेट उसको भूिम चुभने लगती,
तो वह उठ घर से बाहर िनकलने का य न करती और मन पर िनयं ण कर वापस आ जाती और अपने आपको
कोसने लगती।
कथा सायंकाल सात बजे समा होती थी। घड़ी म सात बजे और वह अपने मन को रोक नह सक । घर से
िनकल पड़ी। वह मन म आशा-िनराशा से भरी ई चली जा रही थी। वह आशा कर रही थी िक कथा समा हो
चुक होगी और वामीजी कथा कर वहाँ से जा चुक ह गे। वह िनराशा इस कारण अनुभव कर रही थी िक वयं को
वह घर पर थर रखने म असफल िस ई थी।
न चाहते ए भी वह कथा- थान क ओर जा रही थी। य ? यह वह नह जानती थी। अपने इस यथ क भाग-
दौड़ पर वह िव मय करती थी, परतु कछ न समझते ए भी भागती चली जा रही थी।
कथा- थान पर भीड़ एक थी। इसका अथ वह समझ गई िक वामीजी अभी गए नह । वह क , परतु िफर
चल पड़ी। वह भीड़ म प ची और उसम से अपना माग बनाते ए वामीजी क पास जा खड़ी ई। वामीजी
कवली से बात कर रह थे। चंचल वहाँ प ची और उसने वामीजी क पाँव पकड़ िलये। अँधेर म वामीजी ने
उसको पहचाना नह । वह बोले, ‘‘माँ! बस करो, भगवा तु हारा भला कर। उठो! अपने पित क पाँव का पश
करो, तु हारा क याण होगा।’’
कवली ने तो चंचल क आते ही उसको पहचान िलया था। इस कारण वामीजी का आशीवाद सुन वह हस पड़ी।
उसने चंचल क बाँह पकड़कर उठाते ए कहा, ‘‘महाराज, यह तो चंचल ह।’’
‘‘चंचल, कौन चंचल?’’
कवली ने चंचल को उठाया तो वह आँख से आँसू टपकाते ए सामने खड़ी हो गई।
वामीजी ने उसे देखा और आ यचिकत हो कहने लगे, ‘‘तुम! यहाँ या कर रही हो?’’
कवली और चंचल ही इस समागम का अथ समझती थ । अ य सब उप थत भ -जन तो टकर-टकर मुख देख
रह थे।
‘‘ब त दुःखी हो?’’ उसक आँसू देख वामीजी ने पूछा।
‘‘महाराज,’’ कवली ने कहा, ‘‘यह आपक दशन करना चाहती थी।’’
‘‘तो हो गए दशन?’’
मन म डोलनेवाले उ ार क कारण चंचल बोलने म सवथा असमथ हो रही थी। वह चुप थी। कवली ने उ र
िदया, ‘‘भगव ! यह कल म या क भोजन का िनमं ण दे रही ह।’’
‘‘कल नह ,’’ वामीजी ने गंभीर िवचारम न होते ए कहा, ‘‘भोजन करने क िलए वे छा से और विन त
िदन आऊगा।’’
‘‘तो कब तक ती ा कर?’’
‘‘जब तक आ न जाऊ।’’
यह कह वामीजी चल िदए। कवली और चंचल पीछ खड़ी रह गई। सब न भरी ि से इन य क ओर
देख रह थे। कवली ने चंचल क बाँह पकड़ी और उसे घर क ओर ले गई। घर प च उसने उसको ठडा जल
िपलाया और आराम से बैठाकर पूछा, ‘‘यह तुमने या कर िदया ह?’’
‘‘म वयं पर िनयं ण नह रख सक । मने ब त य न िकया था िक वहाँ न जाऊ, परतु ऐसा तीत आ िक कोई
पकड़कर बलपूवक ले जा रहा ह।’’
‘‘यह वासना थी।’’
‘‘नह , कवली, वासना नह थी। म इस िवषय म तृ ।’’
‘‘तो या था?’’
‘‘समझ नह सक ।’’
कवली ने समझा िक यह कामना ह। यह ान- यान, अनास और िनरा य का उपदेश देनेवाली या तो अपनी
अंतरा मा क बात जानती नह अथवा जानती ह, तो बताती नह । बताते ए ल ा का अनुभव करती ह।
बात आगे नह चल सक । क याण इ यािद ब े आ गए थे। वे अपने मण म ई सामा य घटना क बात
सुनाने लगे थे। कवली ने उससे कहा, ‘‘कल तुम मेर साथ चलना, म कथा क समय लेने क िलए आऊगी।’’
चंचल ने अपनी मौन अनुमित य क , तो कवली उठकर वहाँ से चली गई। चंचल का मन कह रहा था िक
उसका पित अगले िदन भोजन करने क िलए आएगा, परतु आएगा कसे? उसको तो उसक थान का ान ही नह
ह। मन क आशा और िनराशा म डोलते ए वह ती ा करती रही।
चंचल को िवचार करने पर यह समझ म आया िक वह उसको टरका गया ह। उसने िनमं ण तो अ वीकार िकया
नह , परतु उसने उसक िनवास- थान का पता भी तो नह पूछा। इस पर भी वह अनेकानेक यंजन बना रही थी। वह
बनाती जाती थी और अपने मन पर िव मय भी करती जाती थी।
क याण मकान क योढ़ी पर बैठा सड़क पर आने-जानेवाल को देख रहा था। यह उसका अिति य काय था।
उसक भाई-बिहन ऊपर कमर म बैठ ताश खेल रह थे। चंचल रसोईघर म पाँच-छह कार का साग बना अब पूड़ी
िनकालने लगी थी।
मकान क नीचे नारायण ह र का श द आ। चंचल क हाथ से पौनी िगर गई। वह चौक ी हो ार क ओर
देखने लगी। िफर अपनी मूखता पर मुसकरा पौनी उठा कड़ाही म पूड़ी डालने लगी। तभी क याण ने सीि़ढय से
आवाज देते ए पूछा, ‘‘माँ, साधु बाबा को रोटी दोगी?’’
‘‘हाँ, ले जाओ।’’
चंचल ने समझा िक जब इतना कछ बनाया ह तो िकसी को तो िखलाना ही होगा।
‘‘माँ, वह तो यह खाएगा। हाथ धुलाकर खाने क िलए बैठाऊ?’’
‘‘हाँ।’’
चंचल ने रसोईघर से बाहर क याण क ओर देखा तो उसक पीछ वामी ानंद खड़ा था।
‘‘तो आप आ गए?’’
‘‘हाँ, अपना वचन पालन करने क िलए।’’
‘‘बैिठए।’’
क याण उसको उस कमर म ले गया, जहाँ उसक भाई-बिहन ताश खेल रह थे। क याण ने आसन िबछा िदया
था। वामीजी को बैठा िदया और हाथ धुलाने क िलए पानी ले आया। वामीजी ने हाथ धोते ए उससे पूछा, ‘‘ या
नाम ह तु हारा?’’
‘‘क याण।’’
‘‘और इनक?’’ वामीजी ने अ य ब क ओर संकत करते ए पूछा।
‘‘यह मेरा भाई राम, यह बिहन शैला और यह सबसे छोटा और माँ का लाडला याम ह।’’
‘‘और तु हार िपता?’’
‘‘वे हमार साथ नह आए। कहते ह िक यिद कमाऊगा नह , तो तुम सब को िखलाऊगा कहाँ से।’’
‘‘वे घर पर ही रहते ह अथवा दुकान पर?’’
इस समय चंचल एक बड़ से थाल म सभी यंजन लगाकर ले आई।
‘‘देवी, मुझे बैल समझा ह, जो इतना कछ उठा लाई हो।’’
‘‘िजतना इ छा हो खाइए, शेष हम पािपय क िलए छोड़ दीिजए।’’
वामीजी ने चार पूड़ी और साग का कटोरा उठा िलया। अपना अँगोछा िबछा उस पर पूि़डयाँ रख और भोजन
करने लगे। खाते ए बोले, ‘‘यह जानकर िक तुम सुखी हो, संतोष आ ह। मुझको कभी थोड़ा सा प ा ाप आ
करता था, इससे मेरा यान भंग हो जाता था। अब उस िचंता से भी मु हो उ ित म लीन हो सकगा।’’
चंचल का मुख बंद था। वह मं मु ध क भाँित वामीजी क मुख को देख रही थी।
वामीजी ने कहा, ‘‘कभी समय िनकालकर पर परमे र का भी िचंतन कर िलया करो। वही तुमको इस
संसार- पी क चड़ से िनकालने म समथ ह।’’
चंचल मौन थी। वामीजी ने िफर कहा, ‘‘इन ब क िपता से कहना िक म उसका अित कत , वह जो भी
हो, भगवा उसका भला करगा। मेरी कामना छोड़ दो। म वयं नह जानता िक कहाँ र गा। यह सं यासी का धम
ह।’’
‘‘महाराज,’’ आिखर चंचल क मुख से िनकला, ‘‘धम तो कम का सूचक ह। कम हमको संसार म बाँधता ह।’’
‘‘बाँधना िकसी कार भी बुरा नह । िवचारणीय तो यह ह िक िकसक साथ बँधा जाए। उसक साथ बँधो, िजसक
साथ बँधे रहने क साम य हो। सबसे े बंधन भगवा ीह र का ह। साम य हो, तो उसका अवलंबन लो।’’
‘‘और िन पृहता?’’
‘‘यह वागाडबर ह। पृहा आ मा का गुण ह। गुण गुणी क साथ सदा बना रहता ह। गुणिवहीन गुणी कह देखा
नह जाता, परतु पृहा भगवा से ही रखनी चािहए। और भगवा का कथन ह—
िन पृहः सवकामे यो यु इ यु यते सदा।
‘‘यह ठीक नह , अथवा यह वा य अधूरा ह। कामना का िव ेषण सांसा रक होना चािहए।’’
वामीजी ने चार पूि़डयाँ समा क , लोट से जल िपया और ‘ह र ’ कहकर उठ पड़।
‘‘अब िफर?’’ चंचल ने पूछा।
‘‘नह जानता। सब भगविद छा क अधीन ह।’’
‘‘वह सीि़ढयाँ उतर गया।’’
सायंकाल वामी ानंद घाट पर कथा करने क िलए नह आए। यह कोई नह जानता था िक वामीजी य
नह आए और कहाँ ह गे इस समय।
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व प जाँच
याियक व प जाँच क सुिवधा का अिभ ाय ह िक यायालियक काय क शी संप ता। िकतु शी ता म
कभी याय क अपे ा अ याय भी हो जाता ह। इसका यहाँ एक रोचक उदाहरण, जो मेर िम ने मुझे सुनाया था,
पाठक क मनोरजन क िलए िदया जा रहा ह। िववरण इस कार ह—
एक िदन म अपने िचिक सालय म बैठा आ था िक मेरा िम ीनाथ आया और कहने लगा, ‘‘वै जी, याय
क वेदी पर पचास पए और दो िदन का समय यथ गँवाकर आ रहा ।’’
‘‘ य , या आ?’’ मने सा य पूछा, ‘‘लगभग दो स ाह ए, म अपने ातःकालीन मण से वापस आ रहा
था। जब म अपने कचे क मोड़ पर प चा, तो मने देखा िक एक िफक कां टबल मेर एक िम पु षो म को
पकड़ ए ह। अपनी साइिकल थामे पु षो म कां टबल क बगल म खड़ा था। उसको इस कार किठनाई म पड़ा
देख म उसक पास गया और उससे इसक िवषय म पूछने लगा।
‘‘कां टबल कहने लगा, ‘ िफक क िनयम का उ ंघन करने क अपराध म मने इनका चालान िकया ह। यिद
यह कोई अपना जमानती तुत नह कर पाएँगे, तो म इनको कोतवाली ले जाऊगा।’
‘‘मने इसक िलए वयं को तुत िकया, तो पु षो म क साथ उस कां टबल ने मेरा नाम भी अपनी डायरी म
िलख िलया, िफर उसने हम दोन से ह ता र कराए और तब वह पु षो म से कहने लगा, ‘अगले शु वार को 11
बजे कचहरी म उप थत हो जाना।’ इस कार पु षो म को उससे मु िमली।
‘‘िन त ितिथ को मने पु षो म को कचहरी म उप थत होने क िवषय म मरण कराया। उसने बताया,
‘मुझको मरण ह और जैसा िक चालान क कस म होता ह, तदनुसार वह जुरमाना देने क िलए कछ पए भी साथ
ले जा रहा ह।’
‘‘लगभग 12 बजे म भी उस िदन कचहरी जा प चा। म िन त पेण जानना चाहता था िक वह कचहरी गया
ह अथवा नह । आवागमन क िनयम का उ ंघन करनेवाले सब लोग को भीतर बुलाकर उन पर जुरमाना िकया
गया, िकतु पु षो म का नाम ही नह पुकारा गया। म िनवारण क िलए मने जब कोट- क से पूछा िक
पु षो म को िकतना जुरमाना आ ह, तो उसने सूची देखकर बताया, यहाँ पु षो म नाम क िकसी य का नाम
नह ह, िजस पर जुरमाना िकया गया हो। मने सोचा िक कां टबल नाम िलखना भूल गया होगा, अतः इस मामले
को समा समझ हम दोन लौट आए।
‘‘हम दोन अपने मन म यह संतोष करते ए लौट िक कम-से-कम वे दो पए तो बचाए ह, जो उन िदन इन
चालान म सामा यतया जुरमाने क देने होते थे।
‘‘इसक एक स ाह बाद मुझे यह देखकर आ य आ िक कोई पुिलस का िसपाही मेरा दरवाजा खटखटा रहा
ह। मने बाहर आकर इसका कारण जानना चाहा। उसने कहा, ‘आपक िगर तारी क वारट ह।’ मने इसका कारण
पूछा, तो उसने बताया िक ‘आवागमन क िनयम का उ ंघन करने क अपराध म आपका चालान िकया गया था,
िकतु िन त ितिथ को आप यायालय म उप थत नह ए।’ यह सुनकर तो म आ यचिकत रह गया। मने
कां टबल से कहा िक कह तुम भूल तो नह कर रह। उसने वारट िदखा िदया, िजस पर प मेरा नाम और पता
िलखा आ था। मेर िलए इसक अित र अ य कोई उपाय नह रह गया था िक म अपने िकसी पड़ोसी को
बुलाकर जमानत िदलवाऊ। जमानत क बाद मने वारट पर ह ता र िकए और वारट को अपना मान रख िलया।
‘‘िन त ितिथ पर म िसटी मिज ट क कचहरी म उप थत हो गया। कोट- क से मने अपने िगर तारी क
वारट क िवषय म जानना चाहा। उसने मुझे उस िदन क कस क सूची िदखा दी। उसम पु षो म का नाम सा ी
क प म था। मेरा नाम उसम अपराधी क थान पर था। म तुरत थित समझ गया िक उस िदन कस क िलए
िसपाही ने गलत रपोट कर दी होगी। अिभयु क थान पर पु षो म क नाम क अपे ा मेरा नाम रख िदया ह
और मेरा नाम पुकार जाने पर मेरी अनुप थित म मेर वारट िनकाले गए ह।
‘‘मिज ट क आने पर जब मेरा नाम पुकारा गया तो म सामने खड़ा हो गया।
मिज ट बोला, ‘‘िम टर नाथ!’’
‘‘मने कहा, ‘जी जूर!’
‘‘िफर मेर िखलाफ लगाए गए आरोप को पढ़कर उसने मुझसे पूछा, ‘आप उस िदन कचहरी म उप थत य
नह ए?’
‘‘ ‘ य िक म अिभयु नह था, मेरा नाम गलती से अिभयोग-सूची म रखा गया था।’
‘‘ ‘नह , ऐसा नह हो सकता। िबना िकसी बात क आपका चालान करने म िसपाही का या उ े य हो सकता
ह?’
‘‘ ‘जनाब...’
‘‘म कहना चाहता था िक पुिलसमैन ने या भूल क ह, िकतु मिज ट बीच म ही बोल पड़ा, ‘आप उस िदन
कोट म हािजर नह ए, इस कारण आपको 50 पए और आवागमन क िनयम का उ ंघन करने क 2 पए
जुरमाना िकया जाता ह।’
‘‘मने ितरोध िकया, ‘लेिकन जूर!...’
‘‘मिज ट ने मुझे िफर बीच म टोककर गु से म कहा, ‘जाओ, जुरमाना जमा करो, नह तो चालान का जुरमाना
बढ़ाकर 50 पए कर दूँगा।’
‘‘इतना कहकर वह तुरत दूसरा अिभयोग चालू करने क िलए अपने क क ओर मुड़ा।
‘‘ क ने जोर से पुकारा, ‘रहीम श ताँगावाला।’
‘‘सो वै जी! ‘हमार ायल’ क बिलवेदी पर पचास पए और जीवन क दो िदन वाहा कर आया ।’’
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आिखरी िक त
लगभग बीस वष पूव गाँव क ही मसिजद म रामधन को िहदू से मुसलमान बनाकर उसका नाम दीनमुह मद रख
िदया गया। पड़ोसी क लड़क क काली चमक ली आँख इसम कारण थ । लड़क क िपता ने रामधन को एक रात
क अँधेर म उस लड़क को आिलंगन और चुंबन करते देखा, तो उसको इसलाम वीकार करने क िलए िववश
िकया, अ यथा धमक दे दी िक उसको भयंकर प रणाम भुगतने पड़गे। इस कार उसने अपनी िवधवा माता तथा
छोट भाई को छोड़, गाँव क मसिजद म इसलाम धम म शरण ले ली तथा फाितमा क पित क प म नू ीन क
घर का अंग बन गया।
इसलाम हण करने पर भी उसका अपनी माता तथा भाई क ित ेम कम न आ, िकतु अपना मुख उ ह
िदखाते ए वह ब त डरता था। इस पर भी फाितमा से िनकाह से पूव अपनी माता से िमलकर उसका आशीवाद
हण करने क ती भावना को वह दबा नह सका। िनकाह रात को पढ़ा जानेवाला था और रात क अँिधयार म
अवसर पाकर वह अपने सुर क घर से िखसक गया। अपनी माँ क पास प च, उसक पैर पकड़कर वह फट-
फटकर रोने लगा। माँ भी इस सबका कारण जानती थी और अ यंत दुःखी थी, िकतु कोई रा ता न पा सकने क
कारण शांत थी। वह जानती थी िक यिद रामू फाितमा से िववाह अ वीकार कर देता ह, तो नू ीन रामू को और
अवसर िमला, तो उसक छोट भाई को भी मार डालेगा और फाितमा से िववाह करने क िलए उसका मुसलमान
बनना ज री था। यह तो उसक म त क म कभी नह आया था िक उसक संतान अथवा उसक लड़क क संतान
गोह यारी और गोमांस-भ क बन सकगी। य ही उसक मन म यह िवचार उठा, उसने रामू क ओर से मुख फरते
ए कहा, ‘‘तुम मुझसे या चाहते हो?’’
अपनी माँ क इस कार क यवहार को देखकर उसे ध ा लगा। उसे माँ से ब त यार था। नीचे जमीन क
ओर देखते ए वह बोला, ‘‘माँ, म िववाह से पूव तु हारा आशीवाद लेने क िलए आया ।’’
इसम माँ का दय कछ िपघला, परतु यह िवचार िक वह गो-भ क बन रहा ह, अभी भी उसे परशान कर रहा
था। उसने कहा, ‘‘कवल एक शत पर म आशीवाद दे सकती ।’’
‘‘ या?’’
‘‘तुम गऊ क ह या नह करोगे और गोमांस-भ ण नह करोगे।’’
‘‘म वचन देता ।’’
‘‘तो ठीक ह। जाओ, ई र तु हारा क याण कर।’’
रामू ने अपना वचन िनभाया और माँ का आशीवाद भी िन फल नह आ। ई र क कपा से वह धनी होने क
साथ-साथ गाँव का मुिखया भी हो गया और चार सुंदर पु भी उसक हो गए। इस कार बीस वसंत और पतझड़
आए और गए। उसका सबसे बड़ा लड़का रहमान इस समय उ ीस वष का था और सबसे छोटा बारह वष का।
अंदर से दीनमुह मद िहदू ही रहा, िकतु बाहर से तो वह मुसलमान क अित र अ य कछ हो भी नह सकता
था। िजस िदन बला उसे मुसलमान बनाया गया था, उसक बाद वह कभी मसिजद म नह गया और जब कभी भी
वह िशवमंिदर क सामने से गुजरता, वह िसर नवाना न भूलता था। उसक धनी होने क कारण उसका आदर होता था
और िकसी कार जाित-पाँित का भेदभाव िकए िबना गाँव क सभी लोग उसक शरण म आते थे।
दीनमुह मद का छोटा भाई िशवधनी भी फला-फला। वह कलक ा चला गया और वहाँ जाकर उसने खूब धन
कमाया। पाँच वष कलक ा म रहने क बाद वह वापस अपने गाँव म आ गया। उसने शादी क और गाँव क म य
म एक सुंदर मकान बनवाया। उसने बड़-बड़ खेत खरीदे और उनक जुताई आिद क िलए बड़ी-बड़ी मशीन मोल
ले ल । बाढ़ क जल क भाँित पैसा आ रहा था। सारा गाँव उसक खेत, मशीन तथा अ य यव था क चचा करता
था। गाँव का काय शांित एवं सु यव था से चल रहा था।
परतु गाँव क बाहर का संसार शांित से नह चल रहा था। तीय िव यु आरभ आ और जापान तथा
जमनी क िनतांत पराजय क साथ उसका अंत हो गया। बतािनया क सरकार को भारत सरकार को जनतांि क
रा य बनाना लाभ द तीत आ। इससे वे लोग, जो अब तक सरकार ारा रि त थे तथा भारत क उ ित म
बाधक बनने क िलए ो साहन पा रह थे, सचेत हो गए। ि िटश सरकार क ओर से िज ह सुिवधा और स मान
ा था, उनक पाँव तले से मानो धरती िखसकने लगी। जनतं का अिभ ाय सबक िलए समान अवसर सुिवधा
ा करना, सभी को जीवन क िलए समान संघष करना था।
उिचत अथवा अनुिचत िकसी कार से हो, मुसलमान समझते थे िक उनको ि िटश सरकार का संर ण ा ह।
इस कारण इस समान अवसर क बात सुनकर वे िचंितत हो गए। जब तक उनको पृथक े नह िमल जाता, जहाँ
िक वे उसी सुिवधापूवक रह सक, जैसे ि िटश सरकार क अधीन रहते थे, तब तक वे जनतं क थापना न होने
देने क िलए कत-संक प हो गए। जनतांि क णाली म अनुिचत सुिवधा क ा संभव नह थी। अतः देश क
सम त मुसलमान इससे िचंितत हो गए। पािक तान उनका नारा बना और मसिजद उनक गित क पालना बन ।
मसिजद म मु ा लोग मुसलमान क कान म पािक तान का मं फकते ए अं ेज को अपनी माँग पूरी करने क
िलए कहने लगे।
इन बात का गाँव क वातावरण पर भी गहरा भाव पड़ा। पुराने मुतव ी क थान पर गाँव क मसिजद म
िद ी से एक मु ा आकर नमाज पढ़ाने लगा।
मसिजद क अंदरवाली काररवाई बाहर क य क िलए सदा गु ही रहती ह। बाहर कोई भी मुसलमान
उसक चचा नह करता, िवशेषतया गैर-मुसिलम क साथ।
िकसी कार से बात िनकल गई और यह गाँववाल का साधारण चचा का िवषय बन गया िक मु ा उनको
पढ़ाता ह िक वे गाँव क म य म गाय काटने तथा मसिजद क स मुख बाजे न बजने क अिधकार पर ढ़ रह,
य िक िहदु को ये दोन बात वीकार नह , इसिलए मु ा ने समझा िदया िक पािक तान का बनना आव यक ह
और गाँव क मुसलमान ने इस पर अपनी सहमित जता दी। मुसलमान ने कभी अिहसा पर िव ास नह िदखाया
और इसिलए अपने ल य क िस क िलए बल का योग करने म चूक भी नह । उ ह ने िन य िकया िक इस
गाँव म भी इसी कार िकया जाएगा।
िशवधनी क लड़का उ प आ था और इस संग म उसक घर खुिशयाँ मनाई जा रही थ । लड़क क ज म क
यारहव िदन सार गाँव को भोजन का िनमं ण िदया। उसने समीप क नगर से िदन भर बजाने क िलए बड और रात
को आितशबाजी चलाने का बंध कर रखा था। मु ा ने इस पर आपि उठाई। अपने सहायक क साथ मु ा
गाँव क मुिखया क पास जाकर उसे िशवधनी को समझाने क िलए कह आया। िशवधनी क कलक ा से लौटने क
बाद रामू, जो अब दीनमुह मद था, पहली बार अपने छोट भाई क सामने गया और उसने गाँव क मु ा और
मुसलमान क भावना क िवषय म बताया। िशवधनी अपने भाई क ही मुख से ऐसी बात सुनकर, जो िक गाँव क
नीित क अनुकल नह थी, िककत यिवमूढ़ सा रह गया। उसने पूछा, ‘‘बड य नह बजाना चािहए?’’
‘‘मुसलमान चाहते ह िक गाँव म मसिजद क होने पर बाजा न बजाया जाए।’’
‘‘पर ऐसा तो यहाँ सदा होता आया ह, मेर िववाह क अवसर पर इस कार क कोई आपि नह उठाई गई
थी।’’
‘‘िशव, जमाना बदल गया ह। मुसलमान अपनी इ छा को पूरी होते देखना चाहते ह।’’
‘‘ठीक ह, िकतु हमारी इ छा का या होगा? मेरी इ छा और मनु य का अिधकार िक अपने घर म वह जो
चाह कर?’’
‘‘एक य क सुिवधा से मसिजद क पिव ता अिधक आव यक ह।’’
‘‘पर मेर घर पर बाजा बजने से मसिजद क पिव ता िकस कार हो जाएगी?’’
‘‘बाजे क विन मसिजद तक प चेगी, उससे जो वहाँ नमाज पढ़ने जाते ह, वे नमाज नह पढ़ पाएँगे।’’
‘‘मेर यहाँ समारोह तो बुधवार को ह, जुमे क िदन नह ।’’
‘‘इससे या फरक पड़ता ह? लोग िन य ही नमाज पढ़ने जाते ह।’’
‘‘पर वे सारा िदन तो वहाँ नमाज नह पढ़ते?’’
‘‘तो तुम नमाज पढ़ने क समय बाजा बंद करवा देना।’’
‘‘यिद आप ऐसा कहते ह, तो म बंद करवा दूँगा। य िप म इसे अपने अिधकार का हनन समझता । मेरी समझ
म नह आता िक जीवन म एक-दो बार भी इस साधारण प म मुझे अपने घर पर खुिशयाँ य नह मनाने दी
जात । या उस कवल एक िदन क िलए वे नमाजी िकसी अ य मसिजद म नह जा सकते।’’
‘‘िशव,’’ उसक बड़ भाई, जो िक अपने छोट भाई क तक को समझ गया था, ने कहा, ‘‘यह तु हार और मेर
िनणय करने क बात नह ह िक दूसर या कर अथवा या न कर। म तो कवल तुमसे यह कहने क िलए आया था
िक मुसलमान लोग नमाज क समय बड बजना पसंद नह करगे। यिद तुमने िफर भी बाजा बजवाया तो उसका
प रणाम भी तु ह भुगतना होगा।’’
िशवधनी का िदल इससे ख ा हो गया। गाँव क मुिखया क धमक और आदेश वह समझ न पाया। कवल एक
मास पूव ही तो इमामदीन क लड़क क बारात मसिजद क सामने से िनकली थी और उसम गाँव का बड भी बज
रहा था, िकतु उस समय िकसी ने ऐसी आपि नह उठाई। जो हो, उसने िन य िकया अपने वचनानुसार वह
नमाज क समय बड कवा देगा।
बुधवार क िदन, िजस िदन समारोह था, दीनमुह मद ने अपने बड़ लड़क रहमान को एक बड़ा सा चाक तेज
करते ए देखा। लड़क ने जब देखा िक उसका बाप उधर आ रहा ह, तो उसने चाक िछपाने का य न िकया, िकतु
वह ऐसा नह कर सका। बाप ने पहले ही उसक चमक देख ली थी। उसने लड़क से पूछा, ‘‘तुम या कर रह
हो?’’
लड़क ने त यहीन उ र देते ए कहा, ‘‘कछ नह ।’’
बाप को उस समय आव यक काम से लगभग दो मील दूर पर थत एक गाँव म ठहर ए तहसीलदार क पास
जाना था, इसिलए वह चला गया और लड़क ने अपने काम म मन लगाया।
दीनमुह मद जब तहसीलदार क पास से लौट रहा था, तो उसे मरण हो आया िक उसको िशवधनी क िनमं ण
पर जाना ह। इसिलए वह उसक घर क ओर चल िदया।
ब त से लोग िशवधनी क घर क बाहर एक थे और खूब कोलाहल हो रहा था। दीनमुह मद ने अनुभव िकया
िक मानो येक य अपने पूर बल से बोल रहा ह। सहसा उसे यान आया िक कह बड क कारण कोई झगड़ा
न हो गया हो। य िप उसने अपने भाई से कहा था िक नमाज क समय वह बड कवा दे। अतः वह ज दी से उस
ओर चलने लगा। इसी समय उसे अपने लड़क का चाक तेज करना भी मरण हो आया। वह जानता था िक रहमान
िनयिमत पेण मसिजद म जाता ह और मु ा वहाँ लोग को बड क िव भड़काया करता था। इससे उसको
िचंता लग गई और उसका मन कशंका से भर गया। अपने कदम तेज कर वह वहाँ प चा िकतु तब तक दुघटना
हो चुक थी।
लगभग 11 बजे ातः बड बजाना शु आ। युवक-समूह क लाठी और चाक से सुस त होकर िनकलने
क िलए यह सूचना ही थी। गाँव क लगभग सभी िति त जन िशवधनी क घर उप थत थे और उ ह ने देखा िक
श -स त युवक का दल तूफान क भाँित उनक ओर आ रहा ह। सभी उठकर खड़ हो गए। वे जानना चाहते
थे िक उनक इस ोध का कारण या ह। रहमान उस समूह क आगे-आगे था। उ म क भाँित वह अपना चाक
घुमा रहा था। िशवधनी क मकान क आगे एकि त लोग म से कछ लोग उठकर उनक ओर जा हाथ खड़ा कर
शांत रहने का संकत करने लगे। रहमान और उसक सहयोगी मु ा क उपदेश को सुनकर ऐसे हो गए थे
िक वे कोई भी कारण सुनने क िलए तैयार नह थे। जो आदमी उ ह शांत कराने क िलए आया था, रहमान ने उसक
छरा घ पने का य न िकया। आदमी पीछ हट गया। इस कार उसने वयं को बचा िलया। इससे तो िशवधनी क घर
पर एकि त लोग म भी ोधा न भड़क उठी और कछ लोग रहमान तथा उसक सािथय से िनपटने क िलए आगे
आ गए। दोन दल म गु थम-गु था होने लगी। लाठी, छरी, चाक, फावड़ा आिद-आिद िजसक हाथ म जो था,
उससे वह काम लेने लगा। दोन दल म य घायल हो रह थे और मर रह थे।
िशवधनी क घर पर एक लोग लड़ने क िलए तैयार होकर नह आए थे। इस कारण वे भागने लगे। इस समय
दीनमुह मद वहाँ प च गया। उसने देखा िक आहत क खून से लथपथ उसका बड़ा लड़का रहमान तेजी से उसक
भाई क जनानखाने क ओर जा रहा ह। वह उसक क सत वृि समझ गया। उसक मन म यह िवचार िबजली क
तरह क धा िक रहमान मिहला पर आ मण करने गया ह। अतः वह भी तेजी से उसक पीछ भागा।
िशवधनी अपने हाथ म लाठी लेकर जनानखाने क दरवाजे पर खड़ा था। कमर क भीतर उसक माँ और ण
प नी थी। शेष सभी औरत िपछले ार से भाग गई थ । अब तक िशव ने एक आ ामक को अपनी लाठी से
घायल कर िदया था और अब दूसर को घायल करने क िलए जब उसने लाठी उठाई, तो सामने खड़ य को
पहचानकर वह क गया। उसने लाठी नीचे क और कहने लगा, ‘‘रहमान, म तु हारा चाचा और भीतर तु हारी
चाची ह।’’
ण भर क िलए रहमान का और अपने चाचा को देखकर बोला, ‘‘चाचा? नह , तुम कािफर हो।’’ और
अपना चाक उठाकर वह उस पर झपटा। इतने म िशव क माँ बीच-बचाव करने उन दोन क बीच आ गई और
चाक उसक छाती को चीरता आ उसक दय क टकड़ कर गया। बुि़ढया दोन क पैर म लुढ़क पड़ी। अपने
चाचा पर दूसरा वार करने क िलए रहमान चाक िनकालना चाहता था। इतने म दीनमुह मद वहाँ पर प च गया और
अपनी माँ को खून से लथपथ जमीन पर पड़ी और अपने लड़क को चाक ख चते देख वह ोध से भड़क उठा।
अपनी माँ क ित उसे ब त ेह था और बचपन म उसक िलए उसक माँ ने जो क सह थे, उ ह वह भूला नह
था। उसने रहमान क गरदन पकड़ ली और िच ाकर कहने लगा, ‘‘धूत! िपशाच!’’
िशवधनी क , जो बाप-बेट को गु थम-गु था देख िवमूढ़ सा खड़ा था, अचानक ि उन लोग पर पड़ी, जो
श -स त हो घर म घुसकर जनानखाने क ओर बढ़ रह थे। अपनी प नी तथा नवजात िशशु क र ा का िवचार
मन म आते ही उसने उन लोग को मारने क िलए लाठी उठाई। उसक लाठी ने दो का काम तमाम िकया और शेष
भाग गए। उसक पीछ दोन बाप-बेट अभी भी लड़ रह थे। रहमान क गरदन उसक बाप क हाथ से छट गई थी
और वह पास पड़ ए चाक क ओर प चने का असफल य न कर रहा था। रहमान जवान था। उसका िपता
थकान अनुभव करने लगा था। वह उसे चाक से दूर रखने का भरसक य न कर रहा था, िकतु शनैः-शनैः लड़का
उस ओर बढ़ता ही जाता था। अगले ही ण वह चाक तक प चकर उसे उठा, पता नह अपने िपता पर ही वार
कर देता िक िशवधनी क प नी बाहर आई, उसने चाक उठाया और िफर अंदर चली गई।
तब तक िशवधनी को भी बाहर क आ ामक से अवकाश िमल गया था। उसने पीछ मुड़कर देखा तो बाप-बेटा
दोन लड़ रह थे। उसने अपनी लाठी जमीन पर पटक और उन दोन को छड़ाने का य न करने लगा। उसे भी इसम
सफलता न िमलती यिद बाप पूणतया थक न गया होता और लड़का वहाँ से भाग न जाता। य ही उन दोन को
छड़ाने म सफलता िमली, रहमान घर से भाग गया।
इस लड़ाई म दीनमुह मद को कई चोट आई थ । िशवधनी ने उसे जमीन से उठाकर बैठाया और उसक चोट पर
लगी धूल साफ करने लगा। समीप ही उसने मृत माता का शव पड़ा देखा, तो उसका दय भर आया। अ ुपू रत
नयन से वह बोला, ‘‘दादा, म तु ह घर छोड़ आऊ अथवा तुम अकले चले जाओगे?’’
दीनमुह मद क गरदन झुक गई और उसक आँख म आँसू बहने लगे। उसको अपनी भावना पर िनयं ण
करना किठन हो गया और वह रो पड़ा। मृत माँ क पैर पकड़कर वह कहने लगा, ‘‘माँ, म पापी , मुझे शाप दो, म
ही पापी ।’’
पुिलस ने मसिजद म िछपे रहमान को पकड़ िलया। लंबी-चौड़ी जाँच-पड़ताल क बाद दो अ य सािथय क साथ
रहमान पर धारा 303, 302, 307 तथा इसी कार क अ य अनेक धारा क अंतगत अिभयोग चलाया गया।
अिभयोग म िवशेष जान नह थी, य िक कोई भी आँख -देखा गवाह पुिलस को िमल नह पाया था। सभी लोग
रहमान क िपता क कारण डरते थे। वे जानते थे िक दीनमुह मद ने वयं सबकछ अपनी आँख से देखा ह। यिद
वह पुिलस क सहायता क िलए आगे नह आ रहा, तो कोई अ य य आगे आए?
पुिलस ने िशवधनी को, िजसक घर पर यह दुघटना ई थी, नह छोड़ा। उसको अदालत क सामने गवाही देने क
िलए बुलाया गया। िजस िदन उसे गवाही देने क िलए जाना था, उसक पहली रात को फाितमा िशवधनी क घर पर
आई और उसने उसक प नी क पैर म िसर रख िदया। िशवधनी क प नी अपने छोट ब े को दूध िपला रही थी
और वह वह समीप बैठा था। ऐसे समय अपने लड़क क जीवन-र ा क िलए फाितमा ने जो िवनती क , वह
िशवधनी क दय म घर कर गई। आँसू भरी आँख से उसने कहा, ‘‘भाभी, तुम मुझसे या कहलवाना चाहती
हो?’’
‘‘कोई भी बात, िजससे िक रहमान छट जाए।’’
‘‘ब त अ छा,’’ उसने गहरा साँस लेते ए कहा, ‘‘म वही क गा, जो तुम चाहती हो।’’
अिभयोग म िशवधनी क मु य गवाही थी। उसने मिज ट को बताया, ‘‘म घर क भीतर जनानखाने क र ा
कर रहा था। मने रहमान को वहाँ नह देखा। मेर खयाल म न तो वह गुंड क अगवाई कर रहा था और न ही मेर
मकान म घुसा।’’ उसने आगे कहा, ‘‘म उस समय परशान हो गया था। कोई मेर मकान म घुसा था, मने शायद
उसे लाठी मारी और वह उससे मर गया। मने उस समय पहचाना नह । म नह समझता िक वह रहमान था।’’
िशवधनी क गवाही से पुिलस का कस िबलकल सारहीन हो गया था और ोसी यूटर कस वापस लेने क सोच
रहा था। इस समय दीनमुह मद कचहरी क कमर क अंदर घुसकर मिज ट से बोला, ‘‘म इस कस म गवाही देना
चाहता ।’’
‘‘आपने इसक िलए पुिलसवाल से संपक थािपत य नह िकया?’’
‘‘पुिलस ने मुझे नह खोजा। यह तो पुिलस बताएगी िक मुझ जैसा आँख देखा गवाह िव मान होने पर भी पुिलस
ने मुझसे पूछताछ य नह क ? म सोचता िक गाँव का मुिखया होने क नाते मेरा यह कत य ह िक घटना क
सभी बात प हो जाएँ, कोई चीज िछपी न रह सक।’’
तब उसने रहमान क चाक तेज करने, उसक माँ को मारने और िफर उसे ही मारने का य न करने क पूरी
कहानी सुना दी। अंत म उसने बताया, ‘‘रहमान मेरा लड़का ह। कछ भी हो, वह ह यारा ह।’’
उसने मु ा क िवषय म भी बताया िकतु वह तब तक गाँव छोड़कर भाग गया था और उसका पता नह चला।
उस िदन शाम को दीनमुह मद ने अपनी प नी से कहा, ‘‘आज मने तु हार ेम क मू य क आिखरी िक त चुका
दी ह।’’
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उ माद क चिक सा
यह घटना वाराणसी क ह। महा मा परमानंद योगी क प म यात थे। यह याित कानोकान फल रही थी।
उनक िवषय म यह कहा जा रहा था िक वह योगी ह और िस ा िकए ए ह।
वह या यान भी योग, यान तथा तप या पर ही िदया करते थे। पिव गंगा क तट पर दशा मेध घाट पर खड़
ए वह अपने भ को बताया करते थे िक एक योगी चाह तो पृ वी को भी अपनी धुरी से उलट सकता ह। वह
चाह तो आकाश म सूय को बाँध सकता ह। इतनी बड़ी बात पर उनक भ िव ास भी करते थे। ऐसा कहा जाता
था िक वामीजी चिकत कर देनेवाले चम कार कर चुक ह। याित इतनी अिधक थी िक िन य क या यान क
अनंतर सह क सं या म नर-नारी, बाल-वृ उनका आशीवाद लेने आ जाया करते थे। याँ अपने ण ब
क िलए वा य माँगने आती थ । धनी-मानी दीघायु क िलए याचना करते थे और िनधन धन-धा य क िलए।
महा माजी का जीवन-वृ तो वाराणसी भर म ात था। वे िबहार क एक संप जम दार क इकलौते पु थे, नाम
था अशोक। ब त ही लाड़- यार म उनका लालन-पालन आ था। छोटी अव था म ही िववाह हो गया। प नी अभी
पित क घर म नह आई थी िक अशोक ने एक तपसी बाबा क कथा सुनी। यह कहा जा रहा था िक वह
इ छानुसार आकाश म उड़ सकता ह, भूिम क भीतर क रह य को जान सकता ह, जो कहता ह, हो जाता ह। इस
कथा ने बालक अशोक क मन पर इतना भाव जमाया िक वह तपसी बाबा क दशन क लालसा करने लगा और
एक िदन उससे िमलकर योग और िस ा करने क िलए घर से िनकल गया। प नी, धन-संप , वह समझता
था, िस क प ा तो उसक पाँव म लोट-पोट होने लगगी। उसक मन म ब त बड़ी-बड़ी मह वाकां ाएँ थ
और वह समझता था िक िस - ा करने पर वे सहज म ही पूरी हो जाएँगी।
तपसी बाबा तो िमले नह , परतु अनेकानेक साधु िहमालय क कदरा म िमले और उ ह ने उसको आशीवाद दे
िदया तथा योग का माग बता िदया। वह थान- थान पर, जहाँ िकसी िस का समाचार िमलता, जा प चता और
जो कछ उससे िमलता, ा तथा भ से हण कर, उस पर अ यास करने लगता।
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वष-पर-वष यतीत होते गए और अशोक, जो तब तक महा मा परमानंद बन चुका था, भारतभूिम क कोने-कोने
म मण कर चुका था। उसने योग क िवषय म कछ सीखा भी था, कछ कह से, कछ कह से और अ यास भी
िकया था। वह समािध थ हो जाने क ि या का अ यास करने लगा था। इस पर भी उस अव था से कह दूर था,
िजसक आकां ा लेकर घर से िनकला था।
अब उसे िनराशा और अ िच होने लगी। वह जीवन यथ गया समझने लगा था। िजतनी आशा से वह घर से
िनकला था, उसक अनुमान म िनराशा ही ई थी। एक िदन वह उ रकाशी म गंगा क तट पर िख मन एक प थर
पर बैठा था और अपने पयटन पर सोच रहा था और उस यथ गए जीवन पर प ा ाप कर रहा था। वह अपने
को अ यंत ांत अनुभव कर रहा था।
इस समय वह पतीस वष का युवक था, ह ा-क ा, चय क ओज से प रपूण, परतु िनराशा से िशिथल।
एकाएक उसको कछ ऐसा तीत आ िक उसक सामने कोई अित काशमान व तु गंगा क जल से िनकल रही ह।
उस आलोक म से कछ आकार बनता िदखाई देने लगा। धीर-धीर उसे उस काश-पुंज म शंख-च , जटाधारी
भगवा िव णु का आकार बनता िदखाई देने लगा। वह सतक हो भगवा क मूित पर मु ध इस सबकछ का अथ
समझने का य न करने लगा। भगवा क सुंदर िच ाकषक काशमय िव ह पर वह अपने आपको भूल गया।
उसका शोक और उसक िनराशा िवलीन हो गई और वह आशा वत भगवा क ओर देखने लगा। काश इतना
अिधक था िक आँख खुलती नह थ , परतु वह अनुभव कर रहा िक सबकछ देख रहा ह। अपने को, गंगातट को,
काशवान, परतु वेग से बहती ई गंगा क धारा को और उसक ऊपर खड़ी भगवा क मूित को। भगवा उसक
समीप प चे और उसक िसर क ऊपर हाथ रखकर उसको आशीवाद देने लगे। भगवा क ह ठ फड़क नह रह थे,
परतु वह सुन रहा था, भगवा कह रह थे, ‘‘जो चाहते थे, पा गए हो। तुम िस हो, योगी हो। संसार तु हारा ह।’’
परमानंद इस आशीवाद से ग द हो गया और कत ता से भरा झुककर णाम करने लगा। वह भूिम पर लुढ़क
गया और अचेत होकर भूिम पर पड़ा रहा।
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उसको चेतनता ई। वह एक साधु क आ म म पड़ा था। सब उसको जीिवत देख स थे और जब उसने
देखनेवाल को बताया िक भगवा क दशन और आशीवाद ा कर चुका ह, तो सब मुसकराते ए उसक ओर
देखने लगे।
वह अपने म अ ुत श का संचार पाता था। उसने अपने शारी रक बल क परी ा भी क । वे प थर, िजसको
दस-दस मनु य भी किठनाई से उलट सकते थे, वह थोड़ य न से ही उठाने लगा था। उसम वाचालता भी बढ़ गई
थी। वह कई-कई िदन िबना सोए, िबना खाए-पीए िनरतर चलता दीख चुका था।
ह र ार म तो उसको यह भी समझ आया िक लोग उसको देखने, उसक चरण- पश करने और उसका
आशीवाद ा करने पं याँ बाँध आने लगे ह। वे छा से ही लोग उसक सेवा-शु ूषा तथा उसक दशन को
आई भीड़ का बंध करने क िलए एक हो जाते थे।
वहाँ एक घटना घटी। कछ लोग एक लड़क क मृत शव को मशान घाट िलये जा रह थे। महा मा गंगाघाट क
ओर जा रह थे। उनक भ जन उनक साथ थे। महा माजी ने अरथी को देखा और एक भ क ओर देखकर कह
िदया, ‘‘यह तो जीिवत ह। ये जीिवत को ही जलाने क िलये जा रह ह।’’
भ ने यह बात मृतक क संबंिधय को कही, तो वे सब िककत यिवमूढ़ क भाँित देखने लगे। अरथी रोक दी
गई। डॉ टर बुलाया गया और लड़का जीिवत घोिषत हो गया। इस समय तक महा मा परमानंद तो घाट पर जा
प चे थे। लोग, िजसने सुना, भागे-भागे वामीजी क दशन को आने लगे। लोग ने, आशीवाद ा करनेवाल ने
और अनेकानेक न करनेवाल ने महा माजी को इतना तंग कर िदया िक वे ह र ार छोड़ भाग खड़ ए, परतु
उनक याित उनसे आगे-ही-आगे जा रही थी।
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जब वे वाराणसी प चे, वे िस योगी, ई र तक प चे ए महा मा िस हो चुक थे। महा मा परमानंद भी
अब अपने को भगवा क वर से यु एक असीम श का वामी समझने लगे थे। अब वह अपना आशीवाद
अनायास ही देते रहते थे। िकस-िकसको उनका आशीवाद फलता था, कहना किठन ह, परतु उनक याित
उ रो र बढ़ रही थी।
एक िदन वामीजी दशा मेध घाट पर अपना वचन देकर लौट रह थे िक बाजार म दो साँड़ लड़ते िदखाई
िदए। एक ेत रग का था तथा दूसरा क ण वण का। दोन क स ग पर पर जुड़ ए थे और वे एक-दूसर को
धकल रह थे। ेत साँड़ बलवान था और क ण लगभग पीछ हट रहा था। एकाएक ेत साँड़ का पाँव िफसला।
वह िगरा और क ण ने उ सािहत हो, उस पर आ मण करने क िलए भाँ-भाँ क गजना क ।
ेत साँड़ उठा और अपने बल पर िव ास से भरा आ पुनः िभड़ जाने क िलए फ कार मारने लगा।
इस समय वामीजी को एक चम कार िदखाने क सूझी। वे दोन क बीच म खड़ हो गए और उ वर म कहने
लगे, ‘‘अर मूख , बस करो। लड़ना ठीक नह । देखो, म कहता , शांत हो जाओ।’’
ेत और क ण दोन साँड़ ने समझा िक यह कोई तीसरा साँड़ उनम आ खड़ा आ ह। दोन ने सोचा िक यह
उनसे दुबल ह। दोन अपना ोध िनकालने क िलए उस पर िपल पड़। एक ण क िलए तो वामीजी ने दोन क
स ग पकड़ उनको रोकने का य न िकया, परतु अगले ण ेत साँड़ ने महा माजी को स ग पर उठा और उनको
घायल कर हवा म उछाल िदया।
महा माजी घायल र से लथपथ अचेताव था म अ पताल म प चा िदए गए। कई िदन क प ा उनक सं ा
लौटी। उनक दो पसिलयाँ टट गई थ और पल तर लगा िदया गया था। उनको ठीक होने म दो मास लग गए।
पहले भ को वामीजी तक जाने क वीकित नह थी। वामीजी, जो अपनी श क सीमा देख चुक थे
और िजनका अिभमान अपने िस - ा योगी होने का िवलीन हो चुका था, ल त हो भ को मुख िदखाने से
इनकार करते थे।
एक िदन अ पताल क डॉ टर ने कह िदया, ‘‘महाराज, आपक भ दशन क िलए एक ब त बड़ी सं या म
बाहर खड़ ह। अब तो आप सब कार से व थ ह। आप उनसे िमल सकते ह।’’
महा माजी ने ण भर िवचार िकया और तब कहा, ‘‘उनसे कहो, म बाहर ही आता ।’’
डॉ टर कहने गया, तो वामीजी ने अपना कमंडल तथा डोरी उठाई और अ पताल क िपछवाड़ क ओर चल
पड़। नस और नौकर ने समझा िक लघुशंकािद क िलए जा रह ह, परतु वे गए और लापता हो गए।
दशनािभलाषी खड़-खड़ ती ा म उकता रह थे और महा माजी िबहार, अपने िपता क गाँव क ओर जा रह थे।
उनका पागलपन जा चुका था और वह पंिडत बालक क भाँित सुधर गए, अनुभव करने लगे थे।
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सूखी लकड़ी
‘‘ऐसी अव था म तुम सरकारी नौकरी म िकसिलए आए हो?’’
‘‘िनयु करनेवाले बोड ने मुझे बीच यािशय म से चुना था और िनयु -प िदया था।’’
‘‘परतु तुमने ‘सिवस ल’ क पाबंदी नह क ?’’
‘‘ जूर! यही तो पूछ रहा िक िकस ‘ ल’ क पाबंदी नह क ?’’
‘‘तुम ख र पहनकर काम पर आते हो।’’
‘‘यह िकसी भी ‘ ल’ म नह िलखा आ िक या पहनकर काम म आना चािहए।’’
ांतीय सरकारी िनमाण िवभाग म एक सुप रटडट अपने अधीन एक क को डाँट क भाव म पूछ रहा था और
क आदरपूवक सामने खड़ा अपनी सफाई दे रहा था।
स 1922 क िदन थे। गांधीजी ने हाथ म कते सूत से हाथ का बुना कपड़ा योग करने क िलए सब
िहदु तािनय को कहा था। देश म आधी क भाँित यह बात फल गई थी। और मनोहरलाल, जो कछ िदन पहले
पाँव से िसर तक अं ेजी ढग क कपड़ पहन कायालय म आया करता था, अब ख र क व पहनकर आने
लगा था। वह िसर पर ख र क पगड़ी, बंद गले का कोट, ख र का करता और पायजामा पहनने लगा था।
पहले ही िदन जब वह ख र क पोशाक म कायालय म आया था तो उसका चीफ इजीिनयर से आमना-
सामना हो गया था। मनोहरलाल ने ‘गुड मॉिनग’ क तो चीफ इजीिनयर िम टर डी.ई. वुड उसे देख जल-भुन सा
गया था। उसक ि म गांधी एक महा िव ोही था और ख र क पोशाक को वह िव ोिहय क ‘यूिनफॉम’
समझता था। सदा क िवपरीत उसने ‘गुड मॉिनग’ का ितवादन नह िकया और मनोहरलाल क अवहलना करता
आ जहाँ जा रहा था, चला गया। इस घटना को ए अभी स ाह भी नह आ था िक सुप रटडट िम टर पी.
न ला ने मनोहरलाल को अपने सामने खड़ा कर कहा था, ‘‘तु हारा नेकटाई-कॉलर कहाँ गया ह?’’
न ला मनोहरलाल क सुर का िम था और उसने भी मनोहरलाल क िनयु म योगदान िकया था।
मनोहरलाल ने भी यही समझा था िक िम टर न ला प नी क िपता क नाते ही यह बात कह रहा ह। इस कारण
उसने भी उसी भाव म उ र िदया, ‘‘गांधीजी क आँधी म उड़ गए ह।’’
इस उ र से िचढ़कर न ला ने कहा था िक वह सरकारी नौकरी म िकसिलए आया ह? जब मनोहरलाल ने
कहा िक उसने िकसी भी ‘सिवस ल’ का उ ंघन नह िकया तो न ला ने कहा, ‘‘बड़ साहब अभी-अभी कह
रह थे िक मनोहरलाल को ‘िडसिमस’ करना पड़गा।’’
इस बात पर मनोहरलाल क मन म िचंता होने लगी थी, परतु शी ही उसने सावधान होकर कहा, ‘‘यह
‘िडसिमसल’ अकारण होगी।’’
‘‘म लाला नानकचंदजी को आज िमलने जाऊगा। यिद तुम भी वहाँ आ सको तो ठीक रहगा।’’
‘‘जी, आ जाऊगा।’’
‘‘ठीक ह। जाओ, काम करो।’’
नानकचंद मनोहरलाल क सुर का नाम था। यह सुन एक ण क िलए ही मनोहरलाल क मुख पर िचंता क
रखाएँ ि गोचर ई, परतु अगले ही ण वह व थिच हो अपनी ‘सीट’ पर जा बैठा और काम करने लगा।
मनोहरलाल घर गया तो प नी से बोला, ‘‘म तु हार िपताजी से िमलने जा रहा ।’’
‘‘कछ काम ह या?’’
‘‘तुम िम टर न ला को जानती हो न? वह तु हार िपताजी से मेरी िशकायत करने जा रह ह और वह िशकायत
मेर मुख पर करना चाहते ह।’’
‘‘ या िकया ह आपने, जो वह िशकायत करने जा रह ह?’’
‘‘मने ख र पहनना आरभ कर िदया ह और बड़ साहब को यह बुरा तीत आ ह।’’
‘‘वह कौन ह?’’
‘‘एक अं ेज ह। अपने देश म ‘टोरी पाट ’ से संबंध रखता ह।’’
‘‘तो आपको िपताजी को बीच म लाने क या आव यकता ह? आप कल से अपनी पहली पोशाक पहन
द तर म जा सकते ह।’’
‘‘नह शकतला। नौकरी क कायदे-कानून म कह यह नह िलखा िक म कसे कपड़ पहनकर द तर म
जाऊगा।’’
‘‘अथा आप अ का क जंगल क भाँित नंगे भी द तर म जा सकते ह?’’
‘‘यह ख र क कपड़ जो ह। इनक पहनने से म नंगा नह हो रहा।’’
‘‘तो िफर?’’
‘‘म िपताजी क घर जा रहा ।’’
‘‘म भी साथ चलूँगी।’’
‘‘चल सकती हो।’’
दोन घर से पैदल ही शकतला क िपता क घर म जा प चे। मनोहरलाल का डढ़ वष क वयस का एक
लड़का भी था। वे उसे भी साथ ले गए थे।
वहाँ न ला पहले ही शकतला क िपता क पास बैठा बतला रहा था। मनोहरलाल को बैठक-घर म आते देख
शकतला क िपता ने कह िदया, ‘‘यह लो, मनोहरलालजी आ गए ह।’’
‘‘म तो आपसे कहने आया िक इसे समझाना चािहए। नह तो यह ‘िडसिमस’ कर िदया जाएगा और पुनः
इसे सरकारी नौकरी नह िमलेगी।’’ नानकचंद वयं भी एकाउटट जनरल क कायालय म काम करता था। इस पर
भी वह परमा मा पर भरोसा रखनेवाला य था। इस कारण वह दामाद क नौकरी छटने क िवषय म िचंितत
नह था।
मनोहरलाल ने दोन बड़ को हाथ जोड़ नम ते क और उनक स मुख बैठ गया।
नानकचंद ने ही बात आरभ क । उ ह ने कहा, ‘‘न ला साहब तु हारी िशकायत कर रह ह।’’
‘‘िपताजी, इनको बड़ साहब को कहना चािहए था िक ख र पहनने से कोई नौकरी क अयो य नह हो जाता।
इ ह ने साहब को ठीक बात बताई नह और मुझे कायालय म ही डाँटने लगे थे।’’
उ र न ला ने िदया, ‘‘देखो बरखुरदार! यिद म यह बात कहता तो कदािच तुमसे पहले म ही बखा त कर
िदया जाता।’’
‘‘तो ख र पहनना और साथ ही ख र का ‘सिवस ल’ क िखलाफ न होना, कहना भी मना ह?’’
‘‘हाँ, आजकल तो यही हो रहा ह। यिद नौकरी करनी ह तो कल कोट, पतलून, नेकटाई इ यािद पहनकर
आना। नह तो ठीक नह होगा।’’
‘‘परतु हजूर!’’ मनोहरलाल ने घर पर भी उसी भाषा म संबोधन िकया, िजस भाषा म वह कायालय म िकया
करता था, ‘‘म कछ भी कसूर नह कर रहा। म तो अब इसी पोशाक म जाऊगा।’’
िम टर न ला ने अब नानकचंद को कहा, ‘‘लड़क को समझाइए। इसे बता दीिजए िक कोमल घास को, जो
हवा से झुक जाती ह, हवा उखाड़ नह सकती। परतु वृ क सूखी शाखाएँ आँधी से टट भूिम पर िगर िम ी
चाटने लगती ह।’’
‘‘और िफर यह तो अभी शाखा भी नह । एक सूखी छड़ी ही ह। थोड़ से दबाव म ही टट जाएगी।’’
इतना कह न ला नानकचंद को नम ते कह चल िदया। उसका िवचार था िक पृथक म सुर दामाद को
समझाएगा तो वह समझ जाएगा।
न ला क चले जाने क उपरांत शकतला और उसक माँ भी वहाँ आ गई। नानकचंद ने लड़क को बताया,
‘‘मनोहरलाल को न ला सूखी लकड़ी कह गया ह। इसका मतलब ह िक सरकार क दबाव क नीचे यह टट
जाएगी। वह इसे कोमल घास बन जाने क िलए कह गया ह।’’
अब शकतला ने कहा, ‘‘िपताजी! आप इनको ठीक-ठीक स मित दीिजए।’’
‘‘ठीक बात तो यह ही िवचार कर सकता ह। सूखी लकड़ी टट भी सकती ह और यिद कशलता से चलाई जाए
तो दूसर का िसर भी फोड़ सकती ह और कोमल घास...’’ नानकचंद कहता-कहता क गया।
बात मनोहरलाल ने पूरी कर दी। उसने कहा, ‘‘िपताजी! कोमल घास दूसर क पाँव-तले दबती रहती ह। म
संसार क ठोकर खाने क िलए नह बना।’’
‘‘तो अब गली-गली, बाजार-बाजार म ितरगा हाथ म िलये ए महा मा गांधी क जय बुलाते िफरोगे?’’
‘‘नह िपताजी! म कल कायालय जाऊगा।’’
‘‘यह ख र पहने ए ही?’’
‘‘यह मेर िनज क िवचार करने क बात ह।’’
‘‘तो ‘िडसिमस’ कर िदए जाओगे।’’
‘‘तो म घर लौट आऊगा।’’
‘‘यही तो पूछ रहा । कां ेस का काम करोगे?’’
‘‘िवचार क गा।’’
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मनोहरलाल को एक िदन नोिटस िमल गया। िलखा था—
‘‘तुमको नौकरी से बखा त िकया जाता ह। तु हार काम म ब त गलितयाँ होती ह और तु ह काम क अयो य
समझा गया ह।’’
मनोहरलाल को नोिटस िमला तो उसने पढ़ा और िम टर न ला क मेज पर जा खड़ा आ। जब न ला ने
उसक ओर न भरी ि से देखा, तो मनोहरलाल ने कहा, ‘‘मेरी ‘सिवस बुक’ पर यह गलत बात िकसने
िलखी ह?’’
‘‘िकसी ने भी िलखी हो। यह तो होना ही था। अब अपने साथी को ‘चाज’ दो और छ ी करो। महीने क
पहली तारीख को आ अपना शेष वेतन ले जाना।’’
मनोहरलाल समझ गया िक उसक काम म गलितय क बात न ला ने िलखी ह। कदािच उससे बलपूवक
िलखाई गई ह। और वह नरम घास क भाँित झुक गया ह। अब उसे यह बात समझ आई तो वह अपनी मेज पर
बैठ अपने साथी को चािबयाँ और फाइल दे ‘चाज’ लेने का िलखवा, जेब म डाल, घर को चल िदया।
समय से पूव घर पर प चा तो प नी मुख देखते ही समझ गई िक काम से छ ी हो गई ह। मनोहरलाल क घर
क बैठक म बैठते ही वह उठी और रसोईघर से िगलास म ठडा जल लेकर आ गई। उसे पानी लाते देख
मनोहरलाल हस पड़ा और बोला, ‘‘तो यह मेर इस कारनामे पर इनाम दे रही हो?’’
‘‘यह समय चाय पीने का तो ह नह , अ यथा चाय ले आती।’’
‘‘तो सुनो! न ला ने मेरी ‘सिवस फाइल’ पर मेर काम म भूल क िशकायत िलखी ह और उसी क आधार पर
मेरी छ ी कर दी गई ह।’’
‘‘छोि़डए इस बात को। अब बताइए, या क रएगा। म समझती िक घर पर पड़ सामान से दो महीने का
रोटी-पानी चल जाएगा।’’
‘‘म कल से काम पर जाऊगा।’’
‘‘ठीक ह। मुझे बताइए, म या क ?’’
‘‘तुम वही करो जो पहले करती थ ।’’
‘‘ या करती थी?’’
‘‘रोटी, पानी और...और...’’ वह कह नह सका और ेम भरी ि से प नी क ओर देखने लगा।
‘‘नह , अब नह । जब तक आप वेतन-िजतना मेर हाथ पर लाकर नह रख देते, एक मु ा ही रहगा।’’
‘‘िकतना देता था?’’
मनोहरलाल जानता था िक वह सवा सौ वेतन सबका सब शकतला को दे देता था और वह उसे एक पया
िन य पॉकट-खचा देती थी। शेष सब यय वह ही करती थी। घर िपता क संपि म से िमला आ था। शेष एक
सौ पए म से सब यय कर बीस-तीस बच जाते थे और वे व बनाने म यय होते थे।
अगले िदन मनोहरलाल ने साइकल ली और घर से िनकल गया। वह दो बजे क लगभग वापस आया। भोजन
िकया और सो गया। यह िन य का काम हो गया िक वह ातः पाँच बजे घर से जाता था। आठ-साढ़ आठ बजे
लौटता था। पुनः अ पाहर ले वह चला जाता था और म या ो र घर आता था। महीने क उपरांत उसने एक सौ
दस पए ही शकतला को िदए।
‘‘बस?’’
‘‘दस तारीख से द तर से छ ी ई थी। दस िदन का वेतन तो िमलेगा और इस महीने म इतना ही पैदा कर
सका ।’’
‘‘िकस काम से पैदा िकया ह?’’
‘‘इसक जानने क भी ज रत ह या? म समझता नह । इतना बता सकता िक यह चोरी नह िकए।
मेहनत से पैदा िकए ह।’’
‘‘मेर िलए इतना जानना ही पया ह।’’ शकतला मुसकराती ई पित का मुख देखती रही।
समय यतीत होने लगा। दो-तीन महीने म मािसक आय ढाई सौ से ऊपर हो गई। परतु मनोहरलाल का
काय म बदल गया। अब वह ातः पाँच बजे क थान पर एक बार ही आठ बजे जाने लगा था और मा या
क भोजन क समय आता था। भोजन कर आधा घंटा िव ाम कर वह पुनः चला जाता था और सायं आठ बजे
आता था। इस काय म क बदलने से वह घर पर तीन सौ पया महीना देने लगा था। नौकरी छट एक वष हो
चुका था।
एक वष क उपरांत उसने प नी को बताया, ‘‘मने दुकान कर ली ह।’’
‘‘स य? िकस व तु क ?’’
‘‘पु तक बेचता । पहले समाचार-प लोग क घर म देता था। तदनंतर उसक िलए एक पुरिबया नौकर
रखकर वयं पु तक बेचने लगा था। एक हाथ रड़ी पर थान- थान पर घूम-घूमकर बेचता था। अब िपछले महीने
से एक दुकान ले ली ह।’’
‘‘ पया कहाँ से िलया ह?’’
‘‘देखो शकतला! सरकारी नौकरी से िनकाले जाते समय मेरी बचत इ यािद क तीन सौ पए एक साथ िमले
थे। उसम से एक रड़ी ली और शेष पया एक पु तक-िव ता क पास जमा कर िदया। उससे पु तक िब क
िलए लेकर रड़ी पर लगाकर बाजार म बेचने लगा था। समाचार-प भी वही ले देता था। िजतनी आय महीने म
होती थी, उसम से पहले चार आना पया, पीछ आठ आना पूँजी म जमा करता रहा । अब एक दुकान ले ली
ह। और अपनी पूँजी से उसम पु तक भरने लगा ।...
‘‘अब तुमसे एक नया लेन-देन का िहसाब क गा।’’
‘‘ या?’’
‘‘िन य क लाभ म से पचास ितशत िन य िदया क गा।’’
‘‘अब तो आपक िदए म से एक वष म मेर पास भी एक सह क लगभग जमा हो गया ह।’’
‘‘जो िजसक भाग का आता ह, वह उसको िमलना चािहए।’’
अब समाचार-प बेचनेवाले पुरिबया क अित र दुकान क िलए एक नौकर भी रखना पड़ा। कभी उसे दुकान
पर िबठाता था। और वयं रड़ी पर पु तक बेचता था और कभी वयं दुकान पर बैठता था और रड़ी पर नौकर
को भेज देता था। पाँच से बीस पए िन य तक कभी िकतना कभी िकतना घर पर देता था।
नौकरी छट पाँच वष हो चुक थे। शकतला क एक लड़का और हो चुका था। पहला लड़का अ ण कल म
भरती हो गया था।
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शकतला क छोट भाई का िववाह था। िनमं ण देने शकतला क माँ और िपता आए। मनोहरलाल घर पर ही
था। जब नानकचंद ने िनमं ण-प दामाद क हाथ म िदया तो मनोहरलाल ने काड पर समय देख कह िदया,
‘‘िपताजी! आ सकगा।’’
‘‘तुम कभी िमलने भी नह आते?’’ भगवती, शकतला क माँ ने कह िदया।
‘‘माँजी! मािलक छ ी नह देता। जब तक काम करता-करता थक नह जाता, वह छोड़ता नह और तब थका
आ घर पर आ सो जाता ।’’
‘‘कौन मािलक ह तु हारा? मने तो सुना था िक तुम अपना काम करने लगे हो।’’
‘‘हाँ, माताजी! परतु उसम भी एक मािलक ह और वह ही ब त तंग करता ह।’’
‘‘कौन मािलक ह उसम?’’
‘‘अपना मन ह। मेरी दुकान पर तीन नौकर ह। म मािलक । िजस कार म अपने से काम लेता , वैसा ही तो
नौकर से ले सकता । इसिलए हम चार जब तक काम करते-करते थक नह जाते, घर को नह जाते।’’
इस पर नानकचंद ने पूछ िलया, ‘‘वे नौकर नाराज नह होते?’’
‘‘उ ह वेतन क साथ िब पर कमीशन भी देता । इस कारण वे काम करते ह और थकते नह । वे िब
बढ़ाने क नए-नए तरीक बरतते रहते ह। उनको कमीशन रात को ही दे देता और म भी अपना वेतन रात को
लाकर शकतला को दे देता ।’’
नानकचंद मुख देखता रह गया। तदनंतर िवचार कर पूछने लगा, ‘‘और िकसी िदन छ ी नह करते?’’
‘‘स ाह म एक िदन बाजार बंद करने का िवचार कर रह ह, परतु बाजारवाले मेढक क पंसेरी ह। इक होते
ही नह ।’’
िववाह क िदन वह ससुराल म गया। शकतला ने जरीदार जंपर और साड़ी पहने ए थे। उसक सडल भी ब त
बि़ढया सुनहरी रग क थे। वह िववाहवाले लड़क क बहन लग रही थी। मनोहरलाल भी पतलून, कोट, नेकटाई
और कॉलर पहने ए था। िसर पर रशमी पगड़ी बाँधे ए था।
पित-प नी जब ससुराल प चे तो िम टर न ला भी वहाँ खड़ा िम से बात कर रहा था। उसने मनोहरलाल
और शकतला को वहाँ खड़ लोग से बि़ढया व पहने आते देखा तो चिकत रह गया।
मकान क बाहर शािमयाना लगा था और बारात क साथ जानेवाले लोग उसक नीचे एक हो रह थे। िम टर
न ला ने आगे बढ़ मनोहरलाल से हाथ िमलाते ए पूछ िलया, ‘‘हलो! वह ख र का सूट कहाँ गया ह?’’
‘‘वह भी ह। परतु आज यह भी पहन िलया ह।’’
‘‘तो समझ गए हो?’’
‘‘ या समझ गया ?’’
‘‘यही िक तुमने भूल क थी। बताओ, अब कहाँ काम करते हो?’’
‘‘एक दुकान पर काम करता ।’’
‘‘वो िदमाग ठीक हो गया?’’
‘‘जी।’’
‘‘ई र का ध यवाद ह। ज दी ही समझ आ गई ह। म तो पहले ही कहता था िक कोमल घास बन जाओ।’’
‘‘सर! तो अब भी वही सूखी लकड़ी ही। अंतर यह आया ह िक यह नया मािलक लकड़ी क गुण को
पहचानता ह और लकड़ी से काम लेता ह।’’
‘‘कौन ह वह मािलक?’’
‘‘ जूर! कभी दुकान पर आएँ। आपक उनसे भट करा दूँगा।’’
‘‘आऊगा। िकस दुकान पर काम करते हो?’’
‘‘सन राइज बुक िडपो। अनारकली बाजार।’’
‘‘ या वेतन देते ह?’’
‘‘इतना िक यह सूट खरीद सकता और शकतला को भी देखा ह? उसक साड़ी को देखा ह?’’
‘‘ब त चमक रही थी! िकतने क खरीदी ह?’’
‘‘उसने बताया नह ।’’
इस समय नानकचंद गुलाबी पगड़ी बाँधे ए आ गया और दामाद से बोला, ‘‘मनोहर! ज दी करो। बारात
चलने का समय हो गया ह। मेर साथ इधर आओ।’’
न ला साहब से अिधक बात नह हो सक ।
िववाह क कई िदन उपरांत एक िदन न ला अनारकली बाजार म से जा रहा था िक उसक ि ‘सन राइज
बुक िडपो’ क बोड पर जा पड़ी। उसे मरण आ गया िक नानकचंद का दामाद मनोहरलाल इस दुकान पर काम
करता ह। वह उससे िमलने दुकान म जा प चा। मनोहरलाल एक कोने म मेज-करसी लगाए बैठा था और नौकर
ाहक को पु तक िदखा रहा था। मनोहरलाल अपने सामने िकसी िहसाब रखने क िकताब पर कछ िलख रहा
था। िम टर न ला ने दुकान म य ही वेश िकया तो एक नौकर आगे आ पूछने लगा, ‘‘िकस िवषय क पु तक
चािहए?’’
न ला हस पड़ा और बोला, ‘‘मुझे यह यसन नह ह।’’ और वह मनोहरलाल क मेज क ओर बढ़ा। मेज क
समीप प च उसने कहा, ‘‘मनोहर! तो यह ह तु हारी ‘सनराइज बुक िडपो?’ ’’
न ला क आवाज सुन मनोहर ने उठ हाथ जोड़ नम ते कही और अपने समीप रखी करसी पर बैठने क िलए
कहने लगा।
न ला ने करसी पर बैठते ए कहा, ‘‘म बाजार से गुजर रहा था। वैसे दुकान तो म वष से देख रहा परतु
आज देखी तो तु हारी याद आई और तु हार मािलक को देखने चला आया।’’
‘‘कछ काम ह उससे?’’
‘‘म देखना चाहता िक कौन ह वह, जो सूखी लकड़ी को पसंद करता ह?’’
मनोहरलाल हस पड़ा। हसते ए बोला, ‘‘आप मेर िपता-तु य ह। इससे आपसे बहस नह कर सकता। इस पर
भी एक छड़ी तो आपने भी हाथ म पकड़ी ई ह। कोमल घास को पकड़ आप य घूमते?’’
‘‘यह तो बुढ़ापे म सहार क िलए पकड़ ली ह। इस समय म पचपन वष का हो गया और लकड़ी का सहारा
सुखकारक तीत होता ह।’’
‘‘यही बात मेर मािलक क ह। उसे भी एक लकड़ी का सहारा सुखकारक तीत आ ह और उसने सरकारी
कायालय से बाहर फक ई सूखी लकड़ी उठा ली ह और उसे अपना सहारा बना िलया ह।’’
‘‘हाँ! लकड़ी भी तो काम देती ही ह, मगर कोई काम लेनेवाला हो तब।’’
‘‘जी, मगर घास से कोई काम नह लेता। उसे र दते ए लोग सैर करते ह और अब बताइए, आप चाय लगे
अथवा कॉफ ?’’
न ला हस पड़ा। वह बोला, ‘‘म तो इस दुकान क मािलक से िमलने आया था।’’
‘‘वही तो आपसे चाय पूछ रहा ह।’’
‘‘ या मतलब? दुकान क मािलक तुम हो?’’
‘‘जी। यह आपक ही दुकान ह।’’
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शरीफ आदमी
‘‘सार वतजी! देिखए, इस शरीफ आदमी क बात सुन लीिजए और इसका कछ भला कर दीिजए।’’
यह कहनेवाला िनगम क िनमाण िवभाग का सुप रटडट रघुनंदन अ वाल था और उसने यह आ ह िकया था
नगर िनगम क चीफ इजीिनयर क पी.ए. जयदेव सार वत से।
जयदेव सार वत का नगरपािलका क आ यंत रक बंध करनेवाले से इजीिनयर भाशंकर सार वत क माँग पर
िक उसे कोई ईमानदार शरीफ य पी.ए. क प म काय करने क िलए चािहए, थानांतरण कर िदया गया था
और उ िसफा रश िनमाण िवभाग क सुप रटडट ने सार वत क आने पर पहली बार ही क थी। उसे इस िवभाग
म आए अभी पं ह िदन ही ए थे।
उ वा ालाप क एक िदन पूव ही नगर म एक क युिनटी हॉल क िनमाण तथा फन चर लगाने क िलए ‘टडर’
आए थे और वे ‘टडर’ इजीिनयर साहब क पी.ए. क प रर ा म थे। टडर अगले िदन खुलनेवाले थे।
जयदेव ने उस य को देखा, िजसक िवभाग क सुप रटडट ने िसफ रश क थी। एक िसर से पाँव तक
ख रधारी—टोपी, करता और धोती—सब दूध-समान ेत, पहने य को देख जयदेव ने सामने रखी करसी पर
बैठने को कह िदया। सुप रटडट अपनी बात कह अपनी मेज पर चला गया।
जयदेव इजीिनयर साहब क कमर म था और इजीिनयर साहब वहाँ नह थे। जयदेव क संकत करने पर वह
ख रधारी करसी को मेज क सामने से िखसकाकर जयदेव क समीप लाकर बैठ गया और अपनी इस हरकत क
सफाई म बोला, ‘‘म तिनक ऊचा सुनता । इस कारण समीप आ गया , िजससे आपको क न हो।’’
जयदेव को इस य का करसी समीप ले जाना ठीक तीत नह आ। परतु कारण सुन आ त हो पूछने
लगा, ‘‘आपका शुभ नाम?’’
इस न का उ र देने क थान पर ख रधारी ने कहा, ‘‘म आपसे एक िनवेदन करने आया ।’’
‘‘हाँ, फरमाइए।’’
‘‘म आपको इपी रयल म सायं पाँच बजे चाय का िनमं ण दे रहा और इसी क मान लेने क आपक सम
िसफा रश क गई ह।’’
‘‘चाय का िनमं ण वीकार करने क िलए तो अ वाल साहब को क देने क आव यकता नह थी। वह तो
मान जाता, परतु यह तो पूछा ही जाएगा िक आमंि त करनेवाले कौन भ पु ष ह और िकस उपल य म यह
िनमं ण ह?’’
‘‘हाँ, यह तो बता ही रहा । म सेठ सदाशंकर भुटानी और इस िनमं ण का उपल य तो चाय पीते ए ही
वणन क गा। पंिडतजी, वहाँ का काय म अित रोचक ह। श द म वणन नह िकया जा सकता।’’
‘‘और कौन-कौन से लोग वहाँ आमंि त ह?’’
‘‘हाथ कगन को आरसी या! आइएगा तो वयं क देख लीिजएगा। आप िनमं ण वीकार क रए और म
आपका अिधक समय न लेते ए आपसे छ ी लूँगा।’’
जयदेव अभी िवचार ही कर रहा था िक इस कार क िनमं ण को वीकार कर अथवा न, िक सेठ ने कह िदया,
‘‘ध यवाद ह। म आपक ती ा होटल क पोच म पाँच बजे करता आ िमलूँगा। अ य आनेवाल का भी वागत
करना ह।’’
इतना कह भुटानी हाथ जोड़ नम ते कह िवदा माँगते ए खड़ा हो गया। जयदेव ने खड़ होकर हाथ िमलाते ए
कहा, ‘‘यिद इजीिनयर साहब ने कोई आव यक काम न बताया तो आने का य न क गा।’’
भुटानी ने ध यवाद िकया और कमर से िनकल गया। सार वत िवचार कर रहा था िक यह बहरा तो तीत नह
होता था। परतु चाय पाट पर िनमं ण िकस उपल य म ह और उसक साथ इसका या संबंध ह? इसम कछ भी न
समझते ए वह इस बात क िलए अपने को चतुर मान रहा था िक उसने वचन नह िदया। अपने कथन म बचाव
का माग रख िलया ह।
इजीिनयर साहब चार बजे कायालय म आए और बोले, ‘‘िम टर जयदेव! कल साढ़ नौ बजे से पहले आ जाना।
टडर खुलगे और तु ह टडर को लेकर वहाँ उप थत रहना चािहए।’’
‘‘जी, म उप थत हो जाऊगा।’’
इतना कह इजीिनयर साहब चल िदए और जयदेव िवचार करने लगा िक वह चाय पर जाए अथवा न जाए?
जयदेव कभी इपी रयल होटल म गया नह था और जा सकता भी नह था। वह वहाँ यय करने क िलए दाम
नह रखता था। इससे मन म इतने उ ेणी क होटल को भीतर से देखने क उ सुकता को दबा नह सका और
सवा चार बजे कायालय से िनकल, बस म सवार हो, होटल इपी रयल क सामने जा उतरा। अभी िनयत समय म
पं ह िमनट शेष थे। वह समय से पहले अपने दशन भुटानी साहब को देना नह चाहता था; इस कारण सड़क पर
टहलता आ समय यतीत करता रहा। जब उसक कलाई पर घड़ी म चार बजकर पचपन िमनट ए तो वह होटल
क ओर चला और होटल क योढ़ी पर पाँच बजने म एक िमनट रहते प च गया।
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भुटानी वहाँ अकला खड़ा था। वह जयदेव को देख उसक ओर बढ़कर हाथ िमलाते ए नम कार कर बोला,
‘‘ब त-ब त ध यवाद ह। आइए, म आपको भीतर थान पर बैठा आऊ। म एक अ य य क ती ा म ।
उसक िलए पुनः आ जाऊगा।’’
भुटानी सार वत को लेकर भीतर ‘ रसे शन हॉल’ म चला गया। भुटानी उसे हॉल क एक कोने म ले गया और
एक मेज पर वे दोन जा बैठ। वहाँ एक लड़क पहले ही बैठी थी। जयदेव को उस लड़क से प रचय कराते ए
भुटानी ने कहा, ‘‘ िमला! तुम तो इनको जानती ही हो। यह यहाँ बैठगे। म तिनक देसाई साहब को देखता ।’’
मेज पर कक, पे टरी, देसी िमठाई, सडिवचेज इ यािद खाने का सामान लगा आ था। चाय क िलए याले भी
लगे थे। दूध-चीनी भी रखी थी। कवल चाय का ‘पॉट’ नह था।
जयदेव ने देखा, चार करिसयाँ थ । इससे उसे अनुमान लगाने म देर नह लगी िक कवल एक अ य य
आनेवाला ह। दो तो वहाँ थे ही—वह वयं और िमला। सेठ भुटानी बाहर चौथे य क ती ा म गया था।
जयदेव लड़क और अपने म एक करसी छोड़ बैठ गया, परतु वह लड़क उठ उसक समीप क करसी पर आ
बैठी और बोली, ‘‘आपका ब त-ब त ध यवाद ह िक आपने िनमं ण वीकार कर िलया ह।’’
‘‘भुटानी साहब ने कहा िक आप मुझे जानती ह?’’
‘‘ब त भली-भाँित।’’
‘‘परतु मने आपको पहले कभी नह देखा?’’
‘‘इसीिलए तो ध यवाद करती िक आज तो आप देखने आए ह। म तो आपको कॉलेज म देखती रहती थी।’’
जयदेव मुसकराया और बोला, ‘‘परतु कॉलेज म तो चार हजार िव ाथ पढ़ते थे?’’
‘‘हाँ!’’ िमला ने बात बीच म टोककर कहा, ‘‘कछ आपम िवशेषता थी, िजससे मेरी ि आप पर िटक थी।
िपछले मास मने बी.ए. पास िकया ह और सेठजी मेरा िववाह करने का िवचार कर रह ह। इस कारण मने आपको
चाय पर आमंि त करने का ताव िकया ह।’’
जयदेव कॉलेज म देखी लड़िकय क प-रग को मरण करने लगा था। वह मरण नह कर सका था िक इस
प-रािश क लड़क उसने कभी देखी थी।
जयदेव को िवचार म िनम न देख िमला ने कहा, ‘‘सेठजी ने एक अ य को आपक ित पधा क िलए बुलाया
ह और वह भी आपक भाँित नह जानता ह िक कोई अ य भी आ रहा ह।’’
‘‘पर म तो यह भी नह जानता था िक यहाँ आपक दशन ह गे।’’
‘‘इससे कछ हािन नह ई। अब तो आप जान ही गए ह और चाय का उ े य भी जान गए ह। सेठजी क मन
म वह दूसर साहब बसे ह और मेर मन म...’’ लड़क कहते-कहते क गई। बेयरा आया था और जानना चाहता
था िक चाय लाए अथवा अभी ठहर।
िमला ने हाथ क संकत से चाय लाने क िलए कह जयदेव से कहा, ‘‘मुझे उसम िच नह ह। इस कारण म
समझती िक हम तो चाय पीनी चािहए।’’
‘‘पर सेठजी?’’
‘‘वह अपनी ‘ यूटी’ िनभा रह ह। वह देसाई साहब को लेकर ही आएँगे।’’
जयदेव अिववािहत था। उसक माता-िपता इलाहाबाद म रहते थे और उसे कह रह थे िक उसे दस-बारह हजार
पया शी ाितशी एक करना चािहए, िजससे वे उसक िववाह का बंध कर सक। वह मन म क पना कर रहा
था िक इसक साथ िववाह से पहले िकतने दाम क आभूषण तथा व बनवाने पड़गे?
उसे पुनः िवचारम न देख िमला ने कहा, ‘‘हम तो अपना पेट भर। देसाई आएगा तो हम पेट भर चुक ह गे। तब
हम बैठ रहगे। ब त मजा रहगा।’’
इतना कह वह पे टरी को काँट से काटकर मुख म डालने लगी।
जयदेव ने कहा भी, ‘‘भुटानी साहब क ती ा कर लेते तो ठीक होता।’’
‘‘देसाई-भुटानी एक-दूसर का साथ दगे और हम उनको खाता देखगे।’’ इतना कहते-कहते िमला हस पड़ी।
जयदेव ने उसक मु ासम ेत दाँत देखे तो मु ध हो उसक मुख पर देखने लगा।
िमला ने कहा, ‘‘खाइए!’’
जयदेव क भी मुख म लार टपक रही थी और उसने भी हाथ उठा रसगु पर चलाना आरभ िकया। वह िवचार
कर रहा था िक उसे नौकर ए एक वष हो चुका ह और एक वष म वह दो सह से कम ही बचा सका ह। अतः
माँ क माँग क अनुसार वह पाँच-छह वष म दस-बारह सह पया एक कर सकगा। यह जानने क िलए यह
लड़क उसे िकतना धनी समझती ह, उसने कहा, ‘‘परतु िववाह म आिथक थित का भी तो यान रखना
आव यक ह?’’
‘‘भुटानीजी क आिथक थित ऐसी ह िक आपको आठ घंट िन य क च पीसने से छ ी िमल सकगी।’’
‘‘तो िकतने घंट िन य च पीसने से काम चल सकगा?’’
‘‘च नह पीसनी होगी। रा य करना होगा। जब तक भुटानी साहब जीिवत ह, खाना, पीना और मौज उड़ाना
होगा। वह अभी ब त वष तक जीएँग।े तब तक हम इतना जमा कर लगे िक जीवन भर च पीसनी नह
पड़गी।’’
‘‘परतु म तो ब त ही िनधन माता-िपता का लड़का ।’’
‘‘यह सब मुझे ात ह।’’
‘‘ओह, तो ब त देर से मेर पीछ लगी ह!’’
‘‘हाँ। और चाहती िक अब आप मेर पीछ लग जाएँ।’’
दोन चाय पी रह थे और ‘सडिवचस’ मुख म डाल घोल-घोल भीतर िनगल रह थे। जयदेव मन म एक िवशेष
कार क गुदगुदी अनुभव कर रहा था। जब वह दूसर य क आने क भय से ती ा करने लगा था। वह िवचार
कर रहा था िक कह िक मत बनती-बनती िबगड़ न जाए।
वे खा-पीकर पेट भर चुक थे िक भुटानी मुख पर परशानी क ल ण कट करता आ आया और बोला,
‘‘िम टर सार वत! मा करगे, आपको ब त देर तक ती ा करनी पड़ी ह।’’
जयदेव मुसकराता आ भुटानी क मुख पर देख रहा था। उ र िमला ने िदया, ‘‘दादा! हम तो पेट भर चुक ह।
आप बैिठए, म चाय बना देती ।’’
इस पर भुटानी दीघ ास ले बैठ गया। िमला ने भुटानी क िलए चाय बनाते ए कहा, ‘‘मने इनसे चाय का
उ े य वणन कर िदया ह और यह मेर िवचार से सहमत ह।’’
‘‘ या सहमित कर ली ह?’’
‘‘देसाई, ‘शंिटड आउट’ ह।’’
‘‘ओह!’’
‘‘हाँ, दादा!’’
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जब भुटानी पेट भर चुका और तीन याले चाय ले चुका तो बैरा लेट उठाकर ले गया। भुटानी ने कहा, ‘‘म यहाँ
से आपको अपने घर ले चलूँगा और िमला को चािहए िक आपको अपना प रचय भली-भाँित दे सक।’’
िबल िमला ने िदया। तीन आदमी क खाने का प ीस पए िबल आया और िमला ने अपने पस से तीन दस-
दस क नोट िनकाल म रख िदए और वह उठ पड़ी, अथा पाँच पए ‘िटप’ दी थी। जयदेव अवाक मुख देखता
रह गया।
तीन एक अमे रकन मोटरगाड़ी म सवार हो जोरबाग को चल िदए। वहाँ एक दोमंिजली कोठी म जाकर मोटर
ठहरी। सेठजी, जो िपछली सीट पर िमला क साथ बैठ थे, गाड़ी से उतर और आगे क सीट का दरवाजा खोल,
जयदेव को उतर, कोठी म चलने का िनमं ण देने लगे।
िमला तो उतर सीधी नीचे क मंिजल पर एक कमर म चली गई थी। सेठजी उसक पीछ-पीछ उसी कमर का
दरवाजा खोल जयदेव को भीतर जाने का िनमं ण देने लगा। जयदेव भीतर गया तो सेठजी ने ार बंद करने से
पहले कह िदया, ‘‘आप अपना प रचय बढ़ाएँ। मने ाइवर को कह िदया ह िक वह आपको गाड़ी म आपक
‘लॉज’ म छोड़ आएगा।’’
जयदेव का म त क चकरा रहा था। अक मा वह अपने को आकाश म उड़ता अनुभव कर रहा था। ार बंद
होते ही िमला ने देव का हाथ पकड़ सोफा पर िबठाकर कहा, ‘‘अब बताइए, आप इस कमर म आकर रहना
चाहगे अथवा ऐसा ही नया ‘लॉज’ बनवाना होगा?’’
‘‘मेरा म त क च र खा रहा ह।’’ जयदेव ने कहा, ‘‘म समझ नह रहा िक या क ।’’
‘‘तो ठीक ह। आपको कहने क आव यकता नह । म अब वयं िन य कर लूँगी।’’
जयदेव देखता रहा। कमर म कालीन िबछा था, दीवार पर गांधीजी, जवाहरलाल तथा अ य महापु ष क िच
लगे थे। सोफासैट था, सटर टबल और कछ अ य करिसयाँ थ । कमरा वातानुकिलत था। कमर म एक मेज और
उसक ऊपर शै फ म कछ पु तक थ ।
िमला बता रही थी, ‘‘यह मेरा ‘िसिटग म’ ह और वह मेरी पढ़ाई करने क मेज ह। और आइए, इधर मेरा
‘बेड- म’ ह।’’
जयदेव एक कमारी क ‘बेड- म’ म जाने म संकोच अनुभव कर रहा था। उसे िझझकते देख िमला ने उसक
बाँह म बाँह डाली और कमर म ले गई।
ब त सुंदर कमरा था। फल, बूट और िच छत पर बने थे। यह कमरा भी वातानुकिलत था। इस कमर म भी
कालीन िबछा था। उसपर एक पलंग लगा था। िमला ने कहा, ‘‘जब आपने यहाँ आना होगा तो एक ‘बेड’ और
लग जाएगा।’’
जयदेव लालसा भरी ि से िमला क ओर देख रहा था। िमला वैसे ही बाँह म बाँह डाले ए जयदेव को
‘बेड- म’ से बाहर ले जाते ए बोली, ‘‘अभी नह । बताइए, कब तक िववाह का बंध होगा?’’
‘‘जब कहो।’’ जयदेव कहनेवाला था िक वह तो तुरत ही िववाह करने को तैयार ह, परतु बात िमला ने बीच म
ही काटकर कह िदया, ‘‘तो ठीक ह, अपने माता-िपता को बुला लीिजए। िफर िववाह हो जाएगा।’’
जयदेव ने धीरज धारण करते ए कहा, ‘‘म कल क डाक से िलख दूँगा।’’
‘‘देिखए, म कल आपक ‘गेलॉड’ क बाहर पाँच बजे सायंकाल ती ा क गी। तब आप बताइएगा िक अपनी
माँ को मेर िवषय म या िलखा ह।’’
अगले चौबीस घंट जयदेव क ऐसे यतीत ए जैसे िक वह शराब क नशे म ह। उस िदन वह इ छा कर रहा था
िक चीफ इजीिनयर ज दी चला जाए तो वह ‘गेलॉड’ पर समय पर प च सक। उसको यह जान अित स ता ई
िक इजीिनयर साहब अपने एक िम क साथ मेरठ गए ह। अतः इस िदन भी सवा चार बजे तक अपना काम समेट
सेफ को ताला लगा ‘गेलॉड’ को चल पड़ा। आज भी वह पं ह िमनट समय से पूव प चा था और वह िमला क
ती ा करने लगा था। आज उसे र तराँ क ार पर ती ा करने म संकोच अनुभव नह आ।
ठीक पाँच बजे सेठ भुटानी क गाड़ी म िमला आई। सेठ साहब साथ नह थे। उसे अकली देख जयदेव को
ब त स ता ई। आज वह उससे हाथ िमला भीतर चला गया। इनक िलए एक कोने म मेज ‘ रजव’ थी। दोन
वहाँ जा बैठ। बैठते ए जयदेव ने पूछा, ‘‘सेठ साहब नह आए?’’
‘‘आज उनक तबीयत ठीक नह थी। वह घर से नह िनकल रह।’’
जयदेव िमला से ठसकर बैठा था और िमला आपि नह कर रही थी। इस पश से वह पूण शरीर म झुनझुनी
अनुभव कर रहा था। जब िमला ने कहा िक सेठजी क तबीयत ठीक नह ह तो जयदेव ने िचंता य करते ए
पूछा, ‘‘ या क ह?’’
‘‘उनका ‘टडर’ वीकार नह आ न!’’
‘‘कौन सा टडर?’’
‘‘वह क युिनटी हॉलवाला। साढ़ पाँच लाख का काम था और वह इसम से नकद चालीस पैदा करनेवाले थे।’’
‘‘परतु जहाँ तक मुझे ात ह ‘टडर’ तो भुटानी साहब का ही वीकार आ ह।’’
‘‘नह जी। आज म या इजीिनयर साहब का टलीफोन आया था िक कोई सुमानी ह, उनका ‘टडर’ वीकार
आ ह।’’
जयदेव िवचार करने लगा था िक यह कसे हो सकता ह? वह जानता था िक ‘टडर’ भुटानीजी का वीकार आ
ह और इजीिनयर साहब तो यारह बजे क मेरठ गए ए ह। इस कारण उसने िन या मक भाव म कहा, ‘‘जी
नह । िकसी ने गलत टलीफोन कर िदया ह। म जानता िक भुटानीजी का ‘टडर’ वीकार आ ह।’’
‘‘परतु वह तो िजस समय से टलीफोन सुना ह, पलंग पर लेट ए ह। उठकर बैठने पर उनका िदल धड़कने
लगता ह।’’
‘‘तो चाय क उपरांत म आपक मकान पर चलूँगा और उनको आ ासन िदलाऊगा।’’
‘‘इस कार नह । यिद संभव हो सक तो उनको ‘टडर’ कागज, िजनक नीचे चीफ साहब क ह ता र ह ,
िदखाने से िव ास कर सकगे।’’
इस पर जयदेव गंभीर िवचार म पड़ गया। िफर कछ िवचार कर उसने घड़ी देखी। उस चाय को वह, िजसक
चु कयाँ ले रहा था, छोड़ उठ खड़ा अ और बोला, ‘‘यह हो सकता ह। अभी सवा पाँच बजे ह। यिद आप गाड़ी
द तो म ‘टडर’ क कागजात लाकर िदखा सकता । चपरासी छह बजे तक कायालय म रहता ह।’’
‘‘तो ज दी क रए। म आपक यहाँ ही ती ा क गी।’’
जयदेव भागता आ बाहर िनकला और सेठ साहब क गाड़ी म कॉरपोरशन क कायालय म चला गया।
िमला आराम से चाय और कछ खा-पीकर तथा दाम देकर र तराँ क बाहर आ खड़ी ई। ठीक छह बजे
जयदेव हाथ म एक बड़ा सा िलफाफा िलये ए आ प चा।
िमला ने िलफाफा देख िलया। इससे गाड़ी क आते ही वह लपककर गाड़ी म चढ़ गई और उसक गाड़ी म
बैठते ही गाड़ी जोरबाग क ओर चल पड़ी।
माग म िमला ने पूछा, ‘‘आपने चाय तो पी ही नह ?’’
‘‘म कायालय बंद होने से पहले वहाँ जाना चाहता था। समय ब त कम था।’’
‘‘तो कोठी पर आपक िलए चाय बनवा दूँगी। सेठजी आपक ब त ही कत रहगे।’’
‘‘पता नह िकसने टलीफोन कर िदया था।’’
‘‘कछ भी हो। कागज देखकर उनको तस ी हो जाएगी।’’
कोठी पर प च िमला ने जयदेव को अपने कमर म िबठाया और ‘टडर’ वाला िलफाफा ले वह सेठजी क
‘बेड- म’ को जाती ई बोली, ‘‘म सेठजी को िदखाकर अभी आती । तब तक बैरा को चाय लाने क िलए कह
देती ।’’
िमला गई तो आधे िमनट म ही लौट आई। िलफाफा उसक हाथ म नह था। जयदेव ने पूछा, ‘‘वह
िलफाफा?’’
‘‘सेठ साहब कपड़ पहन वयं आ रह ह और आपका ध यवाद भी करगे। तब तक म चाय क िलए कह आई
।’’
पाँच िमनट लग गए चाय आने म। इस समय तक िमला क पूछने पर जयदेव ने बताया, ‘‘मने माताजी को
इलाहाबाद म िलख िदया ह और उनको िलखा ह िक िपताजी को लेकर यहाँ चले आएँ।’’
‘‘ब त अ छा िकया ह। कब तक आ सकगी?’’
‘‘एक स ाह तो लग ही जाएगा।’’
‘‘इतने िदन? आपने तार य नह भेज िदया?’’
‘‘आपक िवषय म या या से िलखना चाहता था। वह तार म संभव नह था।’’
‘‘अथा अभी तप या करनी पड़गी?’’
चाय आई तो पीने लगे। इस समय सेठ भुटानी भी आ गया। वह िलफाफा ले आया था। जयदेव ने देखा िक
‘टडर’ क तीन ितयाँ बीच म थ । उसने ‘टडर’ अपने पास समीप सोफा पर रख िलया और सेठ साहब को अपने
पास बैठा पूछने लगा, ‘‘तो अब आपको तस ी हो गई ह?’’
‘‘हाँ, आपका ब त ध यवाद ह। म तो मर चला था। बात यह ह िक इस पर म दस हजार पया पहले ही यय
कर चुका ।’’
‘‘स य?’’
‘‘हाँ, पर छोड़ो इस बात को। सब यय िकया आ वसूल हो जाएगा।’’
तीन चाय पीने लगे। चाय समा ई और िमला जयदेव को मोटर तक छोड़ने आई और पूछने लगी,
‘‘कायालय जाइएगा अथवा घर पर?’’
‘‘म अब घर जाऊगा।’’
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जयदेव पूछना भूल गया था िक अब वह िमला से कहाँ िमल सकगा। अतः अगले िदन वह िमला क टलीफोन
क ती ा करता रहा। टलीफोन नह आया। िमला क सूचना क िबना तीन िदन यतीत हो गए। उस िदन उसक
माताजी का प आया। उसम िलखा था—
‘‘जयदेव!
तु हार प से पूरा-पूरा वृ ांत नह िमला। लड़क का िच और जाित-िबरादरी िलख भेजो। वह ब त धनी क
लड़क ह, इससे वह िववाह क यो य कसे हो गई? उ र आने पर िद ी आने का काय म िलखूँगी।’’
यह प िमला तो जयदेव िमला क खोज म चल पड़ा। वह भुटानी क मकान पर प चा तो ार पर खड़ एक
य ने पूछा, ‘‘िकससे िमलने आए हो?’’
‘‘िम टर भुटानी से।’’
‘‘वह बंबई गए ह।’’
‘‘और िमला देवी?’’
‘‘ िमला देवी तो यहाँ कोई नह ।’’
‘‘सेठजी क लड़क ह न?’’
‘‘सेठजी क कोई लड़क नह ।’’
जयदेव भ च ा हो मुख देखता रह गया। उसने पूछ िलया, ‘‘भुटानी साहब कब तक आनेवाले ह?’’
‘‘एक स ाह तक आएँगे।’’
जयदेव कछ न समझता आ वहाँ से लौट आया। उसने अपनी माताजी क प का उ र नह िदया। वह भुटानी
से िमलना चाहता था। एक स ाह यतीत होने पर वह भुटानी क घर पर प चा तो भुटानीजी से घर ही भट हो गई।
भुटानी अपनी मोटर म सवार हो कह जा रहा था। सार वत को कोठी म वेश करते देख वह गाड़ी- ार खोल
नीचे उतर आया। भुटानी ने जयदेव से हाथ िमला अिभवादन करते ए कहा, ‘‘आइए, सार वतजी। कसे आए
ह?’’
‘‘कछ आपसे काम था।’’
‘‘हाँ, बताओ!’’
‘‘यहाँ पर ही?’’
‘‘नह । गाड़ी म आ जाओ। म कनॉट सरकस क ओर जा रहा । तु ह वहाँ कह उतार दूँगा और तु हारी बात
भी सुन लूँगा।’’
जयदेव क मन म कछ शांित ई। िपछले स ाह भर वह कई कार क संशय से उ पीि़डत मन म अशांित
अनुभव कर रहा था। वह सेठजी क समीप गाड़ी म बैठ गया। जब गाड़ी चल पड़ी तो जयदेव ने पूछ िलया,
‘‘ िमला आपक या लगती ह?’’
‘‘मेर एक िम क लड़क ह। बस िद ी म कछ िदन क िलए आई ई थी। अब अपने िपता क पास बंबई
चली गई ह।’’
‘‘वह मुझसे िववाह करने क बात कह रही थी।’’
‘‘हो सकता ह। वह कइय से िववाह का ताव कर चुक ह। यह उसक मनोरजन का ढग ह।’’
‘‘परतु आपने मुझे उस िदन इपी रयल होटल म िकसिलए चाय पर बुलाया था?’’
‘‘वह िमला क कहने पर ही था।’’
‘‘म तो उसे जानता नह था।’’
‘‘मगर वह तो आपको जानती तीत होती थी। िमला ने मुझे कहा था िक जयदेव सार वत, जो चीफ इजीिनयर
क पी.ए. ह, क साथ चाय पीने को जी चाहता ह। म आपको बुला लाया था।’’
‘‘तो यह सब व न था?’’
‘‘हाँ, यह जग व ना ह। ऐसा ही हमार ऋिष-मुिन कहते ह।’’
जयदेव मौन हो गया। उसक मन क महल धराशायी हो चुक थे। गाड़ी अभी िवजय चौक म ही प ची थी िक
उसने कह िदया, ‘‘मुझे यहाँ उतार दीिजएगा।’’
अगले िदन वह कायालय म सुप रटडट से जाकर कहने लगा, ‘‘कछ िदन ए िक आपने एक शरीफ आदमी क
सहायता करने क िलए कहा था।’’
सुप रटडट भूल गया था। इस पर जयदेव ने सेठ साहब क पोशाक और िलया वणन कर िदया। इस पर
सुप रटडट िम टर अ वाल को मरण आ गया। उसने कहा, ‘‘सार वत! िम टर भुटानी क िवषय म कह रह ह?’’
‘‘हाँ, सर!’’
‘‘तो उसका या आ?’’
‘‘आपने कहा था िक वह शरीफ आदमी ह।’’
‘‘तो या वह नह था?’’
‘‘मुझे तो वह महाबदमाश मालूम आ ह।’’
‘‘तो तुम मेर कहने का मतलब या समझते थे, सार वतजी? धनी शरीफ होते ह। इनम कछ बदमाश भी होते ह।
उ ह शरीफ बदमाश कहते ह।’’
जयदेव ने बताया नह िक उसने या बदमाशी क ह। रघुनंदन अ वाल ने भी पूछा नह और कह िदया, ‘‘हम
गरीब लोग तो शरीफ हो नह सकते। यिद अपने साथ ब त ही रयायत क तो इतना कह सकता िक हम
सरलिच ह। य िप दूसर हम मूख समझते ह।’’
सार वत इजीिनयर साहब क कमर म चला गया। वहाँ वे अपनी मेज पर भुटानी क ‘टडर’ क दो ितयाँ सामने
रख दोन म मुकाबला कर रहा था। एक ित तो ठकदार भुटानी को भेज दी गई थी।
जयदेव अपनी मेज पर बैठने लगा तो इजीिनयर साहब ने जयदेव को बुलाकर पूछा, ‘‘तिनक देखो। ‘टडर ’ क
नीचे यह पं पहले भी थी या?’’
जयदेव ने देखा िक ‘टडर’ टाइप िकया आ था और उसी मशीन और रग म यह पं नई टाइप क ई थी।
उसने भी ‘टडर’ वीकित से पहले देखा था। वहाँ यह पं पहले नह थी। उसम िलखा था िक उ ‘रट ’ से
महगाई क कारण प ीस ितशत अिधक ह गे।
इसका मतलब था िक सवा लाख पए क लगभग ‘टडर’ क रािश बढ़ गई थी।
जयदेव को समझ आ गया िक शरीफ आदमी ने उसे िकसिलए चाय िपलाई थी। उसक पाँव तले से जमीन
िखसकती ई तीत हो रही थी। इस पर भी उसने िदल कड़ा कर कहा, ‘‘सर, टाइप इ यािद क छपाई- याही तो
वैसी ही तीत होती ह।’’
इजीिनयर ने ‘टडर’ लपेट िलफाफ म बंद कर अपनी मेज क दराज म रख िलये। उसने कह िदया, ‘‘समझ नह
आ रहा था िक ‘टडर’ वीकार करते समय यह मेरी ि म य नह आया।’’
जयदेव का िदल धक-धक धड़क रहा था। परतु वह अपनी मूखता को वीकार नह कर सका।
q
बेकार
‘‘बरखुरदार! आजकल या काम करते हो?’’
‘‘चाचाजी, क ीय किष िवभाग म नौकर हो गया ।’’
‘‘ या वेतन िमल जाता ह?’’
‘‘महगाई-भ ा इ यािद डालकर साढ़ चार सौ िमल जाता ह।’’
‘‘ब त कम ह।’’
‘‘चाचाजी, अभी नौकर ए भी तो छह मास ही ए ह!’’
‘‘तो तर होने क आशा ह?’’
लड़क ने उ र देने क थान पर मुसकरा िदया। न पूछनेवाला लड़क का पड़ोसी लाला रामशरण था। वह
वयं तो दरीबे म दुकान करता था। उसक लड़क हायर सेकडरी पास कर टाइिपंग सीख ‘भागीरथ पैलेस’ म
नौकरी करने लगी थी और िपता को उसक िववाह क िचंता लगने लगी थी।
लड़क का नाम राधारमण था। एक िवधवा माँ का पु िपता क संपि क आय से िनवाह करता आ बी.ए.
पास कर नौकरी ढढ़ रहा था। रामशरण क पूछने पर िक तर होने क आशा ह, लड़क क मुसकराने ने रामशरण
क मन पर ब त अ छा भाव उ प िकया था।
राधारमण ायः समाचार-प म ‘वांटड’ क तंभ पढ़ने िद ी प लक लाइ ेरी म जाया करता था। और आज
भी वह वहाँ ही जा रहा था। उसे रामशरण क पूछताछ कवल पड़ोसी होने क नाते ही समझ आई थी। अतः वह
उसको िव मरण कर अपने िन य क काम पर चल िदया था।
इसक दो िदन पीछ क बात ह िक राधारमण म या ो र पाँच बजे घर आया तो रामशरण क प नी सुमन उसक
माता से घुल-िमलकर बात करती िदखाई दी। यह तो पहले भी कई बार आ करता था। जब राधारमण आया तो
सुमन ने मुसकराकर राधारमण क ओर देखा। राधारमण ने हाथ जोड़कर कह िदया, ‘‘मौसी, नम ते!’’
‘‘जीते रहो बेटा!’’ सुमन ने आशीवाद दे िदया। माँ ने पु को आया देखा तो समीप बैठी सुमन को कछ कहा
और उसे िवदा कर िदया। जब पड़ोसन चली गई तो माँ लड़क क िलए चाय बनाने रसोईघर म चली गई। राधारमण
ने बाजार क कपड़ बदले और धोती-करता पहन अपने कमर म जा एक उप यास पढ़ने लगा।
माँ म चाय बनाकर लाई तो पु क सामने रख उसक समीप ही करसी पर बैठ गई। माँ ने अपने िलए और पु
क िलए चाय बनाई। जब दोन पीने लगे तो माँ ने कहा, ‘‘रमण! तुम मेर सामने भी झूठ बोलने लगे हो?’’
‘‘नह माँ! मने तु हार सामने कभी झूठ नह बोला। कभी भूल से कोई बात मुख से िनकल गई हो तो बताओ।
मा माँग लूँगा।’’
‘‘तु हारी नौकरी लग गई ह या?’’
‘‘नह तो। माँ, नौकरी लग जाती तो सबसे पहले ल तु ह ही िखलाता।’’
‘‘बहन सुमन बता रही थी िक तुम सरकारी द तर म साढ़ चार सौ पया महीना पाते हो?’’
राधारमण क हसी िनकल गई। िफर गंभीर हो बोला, ‘‘माँ! साढ़ चार सौ क नौकरी तो मेरी बचपन से ही लगी
ई ह। बंगाली माकटवाले ाटर का िकराया इतना तो आता ह।’’
‘‘तो यह नौकरी ह?’’
‘‘हाँ, माँ! दो िदन ए िक चाचा रामशरण पूछने लगे तो मने यही बताया था िक साढ़ चार सौ वेतन िमल जाता
ह।’’
‘‘पर िवमला क माँ तो अपनी लड़क क सगाई क बात करने आई थी। वह कह रही थी िक िवमला तीन सौ
वेतन पाती ह। दोन का िमलकर अ छी कार िनवाह हो जाएगा।’’
‘‘म समझ नह सक थी िक तुम इतना बड़ा झूठ कसे बोल सकते हो। इस पर भी मने तु हारी नौकरी क बात
को गलत तो नह कहा। मेर चुप रहने पर वह िवमला क िवषय म बताने लगी थी।’’
राधारमण ने चाय क एक चु क लगाकर कहा, ‘‘माँ! वेतन तो म पाता ही । यह वेतन िपताजी ने लगाया आ
ह। हाँ, जब मुझे नौकरी िमल जाएगी तो उतनी मेरी उ ित हो जाएगी। इस उ ित क िलए ही य न कर रहा ।’’
‘‘तो सगाई मान जाऊ?’’
‘‘हाँ, माँ! िववाह होते ही मेरी तीन सौ पया उ ित हो जाएगी।’’
माँ को यह धोखाधड़ी पसंद न आई। परतु घर म ब तीन सौ पया महीना और साथ िद -दाज का लोभन।
यह सब िवचार कर वह दुिवधा म फस गई। इसी परशानी म वह चाय पीना भूल गई और पु का मुख देखने लगी।
राधारमण ने कहा, ‘‘माँ! मान जाओ। म य न तो कर ही रहा । आिखर तो नौकरी िमलेगी ही। कब तक िक मत
क बे खी बनी रहगी? या जाने िवमला क भा य से ही िकसी कार क नौकरी िमल जाए?’’
माँ ने अपने मुख से कभी नह कहा िक उसका पु कहाँ नौकर ह और िकतना वेतन पाता ह। यह तो रामशरण
और उसक प नी सुमन ही जाित-िबरादरी म कह रह थे िक लड़का भारत सरकार क किष कायालय म नौकरी
करता ह और राधारमण क माँ लड़क का िववाह ब त धूमधाम से करनेवाली ह।
जब राधारमण अभी छोटा था तब मकान का भाड़ा डढ़ सौ पया था। उस डढ़ सौ म से भी राधारमण क माँ
चालीस-पचास बचा लेती थी। जब मकान क भाड़ बढ़ने लगे तो राधारमण क भी पर िनकलने लगे और घर का
यय भी बढ़ने लगा। अब मकान से आय साढ़ चार सौ पए होती थी और सब यय हो जाता था।
एक बात वह ई िक मकान म रहनेवाले िकराएदार का िद ी से बाहर तबादला हो गया और उसने मकान
मािलक राधारमण को कह िदया िक वह महीने क तीस तारीख को मकान खाली कर देगा। राधारमण ने िहदु तान
टाइ स क ‘ट-लेट’ क तंभ म मकान खाली का िव ापन दे िदया। उसने अपना पता देने क थान पर एक नंबर ही
िदया। अब जो मकान िकराए पर लेने आता तो वह उससे पाँच हजार पगड़ी माँग लेता।
मकान का एक ज रतमंद िमल गया। पाँच हजार पगड़ी आई तो राधारमण ने िववाह क ितिथ िन त कर ली।
दोन ओर तैयारी होने लगी। परतु काठ क हि़डया आग पर रखने से जलने लगी। राधारमण ारा बोला झूठ कट
होने लगा।
िववाह क एक िदन पूव रामशरण को पता चला िक राधारमण तो अभी तक बेकार ह। वह भागा-भागा राधारमण
क पास प चा और पूछने लगा, ‘‘बेटा रमण! किष िवभाग का एक आदमी बताता था िक तुम वहाँ नौकरी नह
करते?’’
राधारमण ने बहस म पड़ने क थान पर यह कह िदया, ‘‘चाचाजी, हाथ कगन को आरसी या! इस पहली
तारीख को लड़क से पूछ लीिजएगा। म साढ़ चार सौ पया उसक हाथ म रख दूँगा तब तो िव ास हो सकगा?’’
रामशरण मुख देखता रह गया। िववाह महीने क प ीस तारीख को िनयत था। इस कारण रामशरण परशानी
अनुभव कर रहा था। िववाह क िनमं ण-प भेजे जा चुक थे। बारात क वागत और भोजन क िलए हलवाई, तंब-ू
कनात वाले तथा ॉकरी और िखलाने-िपलानेवाले सब िन त हो चुक थे।
रामशरण अनुभव कर रहा था िक वह इतनी दूर तक जा चुका ह िक अब लौट नह सकता। इस कारण राधारमण
ने आ ासन पा चुप कर रहा। उसने यह सूचना अपनी प नी को भी नह दी और िववाह क तैया रयाँ होती रह ।
िववाह आ। खूब खाना-पीना आ और रामशरण ने अपनी इकलौती लड़क को िदल खोलकर िद -दाज िदया।
राधारमण क माँ तो लड़क को भली-भाँित जानती थी और उससे ेह रखती थी। इस कारण उसने यही समझा
िक एक पड़ोसी क लड़क घर म रहने क िलए आ गई ह। अंतर पड़ा था राधारमण को और िवमला को। दोन ने
िववािहत जीवन हष ास क साथ आरभ िकया था। िवमला ने अपने काम से पं ह िदन का अवकाश ले रखा था
और उसम से पाँच िदन यतीत हो चुक थे। िववाह से पूव पाँच िदन तक वह घर म ही रही थी।
सुहागरात ई और वर-वधू अगले िदन ातःकाल अ यंत स वदन सोकर उठ तो िवमला ने पित से पूछ िलया,
‘‘िकतने िदन क छ ी पर ह आप?’’
‘‘अभी तो छ ी ही ह। पहली तारीख को वेतन लेने जाऊगा। तब कछ िदन क छ ी और माँग लूँगा।’’
‘‘म चाहती थी िक एक स ाह क िलए कह बाहर घूम आएँ।’’
‘‘तो ‘हनीमून ि प’ क अिभलाषा ह?’’
‘‘म नह जानती िक वह या होता ह। मुझे एक वष हो गया ह नौकरी करते ए। िदनानुिदन एक ही काम करते
ए िच ऊब गया ह। तिनक जीवन म प रवतन आ जाएगा।’’
‘‘तब तो और छ ी क िलए घर से ही यािचका भेज देता ।’’
‘‘हाँ, यही कह रही ।’’
‘‘माँ से पूछना पड़गा।’’ राधारमण ने कहा।
‘‘पूछने क या आव यकता ह? उनको भी साथ लेते चल।’’
‘‘तो यह ‘हनीमून’ नह होगा।’’
‘‘हमारी ‘गो डन नाइट’ तो हो गई ह। म ‘हनीमून’ क इ छा नह कर रही। म तो आपक माँ को साथ रखने म
क याण मानती ।’’
‘‘तो तुम ही माताजी से कहो।’’
िवमला ने एक ण तक िवचार िकया और ह र ार, ऋिषकश, देहरादून तथा मसूरी क सैर का काय म
बनाकर पलंग से उठी और अपनी सास क पास चली गई। वह ान कर बैठक-घर म एक कोने म बैठी ई राम-
नाम क माला जप रही थी। परमा मा का नाम लेते ए वह िवचार कर रही थी िक राधारमण का झूठ कट आ तो
या होगा? या पित-प नी म झगड़ा हो जाएगा और िववाह क दो-चार िदन उपरांत ही तलाक क योजना बनने
लगेगी?
इस समय िवमला माताजी क सामने आ बैठी। सास का यान टटा तो उसने आँख खोली और पूछने लगी,
‘‘जाग पड़ी हो बेटी? बताओ रात कसी बीती ह? न द आई अथवा नह ?’’
‘‘माँजी! ब त आनंद क रात यतीत ई। आपक पु का ब त ही ध यवाद ह। उ ह ने मुझे रात यह अँगूठी दी
ह।’’
िवमला ने अपनी अंगुली पर अँगूठी पहनी िदखा दी। माँ तो इस िवषय म जानती थी। उसने ही अपनी अँगूठी
तुड़वाकर िवमला क अंगुली क नाप क बनवा दी थी। अपने एक हार म से मिन उतरवाकर अँगूठी म लगवा दी
थी। इस पर भी माँ ने अँगूठी ऐसे देखी जैसे िक मानो यह पहली बार देख रही ह।
राधारमण क माँ कती ने अँगूठी को और ब क हाथ को चूम िलया और कहा, ‘‘बैठो। जीवन भर ऐसी रात का
भोग िमलता रह। यही अब बैठी परमा मा से ाथना कर रही थी।’’
िवमला ने अपने मन क बात कह दी। उसने कहा, ‘‘मेरा यह ताव ह िक हम, मेरा मतलब ह िक आप एक
स ाह क िलए िद ी से बाहर घूमने चल।’’
‘‘मेरी या आव यकता ह? तुम दोन चले जाओ।’’
‘‘नह माँजी! मुझे अकले उनक साथ जाते भय और संकोच होता ह।’’
‘‘म रमण से कह दूँगी। वह तुमसे ब त ेमपूवक रहगा।’’
‘‘पर माँजी, मेरी इ छा ह िक आप भी चल।’’
कती मानी तो उसी िदन कती, राधारमण और िवमला ह र ार क िलए बस- टड को चल पड़।
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वापस आते समय रल से लौटना आ और िवमला क नौकरी पर जाने से एक िदन पूव दंपती और कती
ातःकाल मकान पर प च गए।
म या क समय िवमला क माता-िपता लड़क और दामाद से िमलने आए। सुमन ने उलाहना देते ए पूछ
िलया, ‘‘कहाँ चले गए थे तुम सब?’’
‘‘हनीमून मनाने गए थे।’’ िवमला ने कहा।
‘‘हम बताकर भी नह गए?’’ रामशरण ने कह िदया।
‘‘तो िववाह क उपरांत भी आपसे पूछने क आव यकता थी?’’ िवमला ने मुसकराते ए पूछ िलया, ‘‘म तो
समझी थी िक अब म खुद मु तार हो गई ।’’
रामशरण हस पड़ा। इस समय उसे राधारमण क वेतन क बात मरण आ गई। उसने पूछा, ‘‘तु हार घरवाले का
वेतन तो अभी आया नह होगा?’’
‘‘वह वेतन लेने कायालय म गए ह।’’
‘‘तो वह कह नौकरी करता ह?’’
इस पर िवमला क हसी िनकल गई। उसने हसते ए कहा, ‘‘िपताजी, िववाह से पहले वह अपनी माताजी क
नौकरी करते थे। अब वह मेरी नौकरी करते ह।’’
‘‘और तुमसे वेतन पाते ह? या वेतन दे रही हो उसको?’’
‘‘अभी िदया नह , मगर तीन सौ पया तो देना ही पड़गा। कल अपनी फम म काम पर जाऊगी और वहाँ से
वेतन लेकर उनको दे दूँगी।’’
‘‘तो यह ठीक ह िक माँ-पु दोन ने हम धोखा िदया ह?’’ रामशरण ने पूछा।
‘‘धोखा कसा?’’
‘‘राधारमण ने मुझे कहा था िक वह सरकारी किष िवभाग म नौकरी करता ह और साढ़ चार सौ वेतन पाता ह।’’
‘‘तो यह उ ह ने आपको कहा था?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘तो म पता क गी िक उनका इस बात से या मतलब था। पर िपताजी, मुझे तो िविदत था िक वह नौकरी नह
करते। इस पर भी उनको साढ़ चार सौ पया महीना एक मकान का भाड़ा िमलता ह।’’
‘‘तो तु ह पता था िक वह बेकार ह?’’
‘‘हाँ, िपताजी!’’
‘‘तुम बताती तो िववाह नह होता।’’
‘‘वह कसे क सकता था? िववाह, ज म और मरण तो भा य से होते ह। िजस िदन सगाई ई थी, म उसी िदन
जानती थी िक मेरा भा य मुझे यहाँ ख चकर ला रहा ह।’’
‘‘तो िनवाह कसे होगा?’’
‘‘हो जाएगा।’’
‘‘ब े भी ह गे तो या करोगी?’’ माँ ने पूछ िलया।
‘‘जब ह गे तब देख लगे। म तो यह समझी िक जमाना बदल रहा ह। कभी पु ष घर से बाहर का काम करते
थे और याँ घर का काम करती थ । आजकल क पढ़-िलखे कहा करते ह िक िहदु तान म पचास ितशत जनता
बेकार रहती ह। उनका अिभ ाय था िक िहदु तान क याँ बेकार ह। अब हम, मेरा अिभ ाय ह य ने काम
करना आरभ कर िदया ह और पु ष को नौकरी नह िमलती और वे बेकार रहने लगे ह। इस कारण मने यह िवचार
िकया ह िक म घर से बाहर का काम क गी तो वह घर क भीतर का काम करगे।’’
रामशरण हस पड़ा और बोला, ‘‘मतलब यह िक अब तु हार ब का टी-पेशाब वह साफ िकया करगा और
उनको ब ागाड़ी म िबठा घुमाने वह ले जाया करगा?’’
‘‘ या हज ह?’’
इस समय राधारमण आ गया। वह अपने सास- सुर को आया देख बैठक-घर म उनक पास आ गया और हाथ
जोड़ नम ते कर उनका सुख-समाचार पूछने लगा।
रामशरण ने उसक आते ही पूछ िलया, ‘‘तो ले आए हो वेतन?’’
‘‘हाँ, िपताजी! पहली तारीख क उपरांत आज ही कायालय म गया था और वेतन ले आया ।’’ यह कहकर
उसने जेब से चार सौ-सौ क नोट और पाँच दस-दस क नोट िनकाल िवमला क हाथ पर रख िदए।
िवमला मुसकरा रही थी। राधारमण ने मुख गंभीर बनाया आ था। रामशरण ने कह िदया, ‘‘तुम माँ-पु दोन ठग
हो।’’
‘‘चाचाजी! माँ क िवषय म नह जानता िक उसने या ठगी क ह। जहाँ तक मेरा न ह तो मने जो कहा था,
वह आपक स मुख यह पया िवमला को देकर िस कर िदया ह।’’
‘‘पर तुम सरकारी नौकर हो या?’’
‘‘हाँ, चाचा जी! मने िवमला को बता िदया ह िक पहले िकस सरकार क नौकरी करता था। और अब िकस
सरकार क करने लगा ।’’
‘‘म तो िवमला को क गा िक अपना सबकछ लेकर यह घर छोड़ दे।’’
‘‘ य ?’’ िवमला ने पूछ िलया।
‘‘इ ह ने मुझे धोखा िदया ह।’’
राधारमण उठ खड़ा आ और बैठक-घर से िनकलने लगा तो सुमन ने पूछ िलया, ‘‘रमण बेटा! कहाँ जा रह
हो?’’
राधारमण जाता-जाता क गया और लौटकर अपनी सास क सामने खड़ा हो गया। रामशरण उसक ओर माथे
पर योरी चढ़ाए देख रहा था। रमण ने िवमला क माँ को जवाब दे िदया। म समझा था िक चाचाजी िवमला से
पूछकर ही मेरी नौकरी छड़ा रह ह। इसिलए सेवामु हो जा रहा था।’’
‘‘पर मने कछ नह कहा।’’ िवमला ने कहा।
‘‘तब ठीक ह। म समझा था िक तुम जा रही हो और म िफर बेकार हो रहा ।’’
िवमला ने कहा, ‘‘जी नह , आप बैिठए। हमारा समझौता हो चुका ह। आप बैिठए।’’
लड़क क बात सुन रामशरण उठ खड़ा आ। सुमन चाहती तो नह थी, परतु अपने पित को उठा देख वयं भी
उठ पड़ी और दोन मकान से नीचे उतर गए।
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जब रामशरण और सुमन मकान से नीचे उतर गए तो राधारमण क माँ बैठक-घर म आ गई। उसने आते ही
कहा, ‘‘बेटा! म समझती िक तु ह शी ही कोई नौकरी ढढ़नी चािहए।’’
‘‘माँ! य न तो कर रहा , मगर िवमला कहती ह िक मुझे नौकरी िमली तो उसक नौकरी छट जाएगी।’’
‘‘तो यह ठीक ही होगा।’’ रमण क माँ ने कहा, ‘‘नौकरी पु ष ही करते ह। याँ तो रानी बन घूमा करती ह।’’
‘‘माँ! देश म नौक रय क सं या तो सीिमत ही ह। जब से लड़िकयाँ बी.ए., एम.ए. कर नौकरी करने लगी ह,
तब से लड़क अिधक और अिधक बेकार होने लगे ह। इसी कारण मने और िवमला ने यह िन य िकया ह िक
दोन म से एक ही नौकरी करगा, िजससे िक दूसर क िलए थान र रह।’’
‘‘िवमला!’’ अब कती ने िवमला को संबोिधत करते ए कहा, ‘‘तुम अपनी माताजी को समझा दो। उनको
नाराज होने क आव यकता नह । यिद तुम नौकरी नह करती, तो अव य रमण को कह -न-कह नौकरी िमल
चुक होती।’’
िवमला हस पड़ी और बोली, ‘‘म आज सायंकाल जाकर उनको यह समझाऊगी।’’
रामशरण और सुमन म घर जाकर झगड़ा होने लगा। रामशरण ने अपनी प नी को कहा, ‘‘तुमने लड़क को इतनी
अ भी नह िसखाई िक इन धूत को खरी-खरी सुना सकती?’’
सुमन ने कछ िवचारकर कहा, ‘‘जहाँ तक मुझे मरण ह, रमण क माँ ने कभी मुख से नह कहा िक उसका
लड़का नौकरी करता ह। वह वयं इस धोखाधड़ी से तट थ ही रही ह।’’
‘‘परतु राधारमण ने तो मुझे कहा था िक वह नौकर ह?’’
‘‘हाँ, आपने बताया था, परतु यह तो हम उस समय जाँच करनी चािहए थी। अब यह मामला पित-प नी क बीच
का हो गया ह। इसम िकसी बाहरी य को ह त ेप नह करना चािहए।’’
‘‘लड़क पित क मोह म फस गई तीत होती ह।’’
‘‘यह तो ब त अ छा आ ह। ऐसा होना ही चािहए। म भी तो आपक मोह म फसी ई िपछले बाईस वष से
आपक पास पड़ी । इसे म बुरी बात नह समझती। म तो यह समझी िक िववाह और नौकरी का संबंध नह ह।
जब मेरा आपसे िववाह आ था तो आप नौकरी कहाँ करते थे?’’
‘‘नौकरी? म तो िपताजी क साथ दुकान पर बैठता था।’’
‘‘यही तो िवमला ने बताया िक िववाह से पहले रमण माँ क साथ घर पर रहता था और अब वह िवमला क साथ
घर पर रहता ह। आप दुकान क नौकरी करते थे और वह घर क नौकरी करता ह। िववाह आपका भी आ था
और उसका भी हो गया ह।’’
इस घटना को छह मास यतीत हो चुक थे। रामशरण और सुमन लड़क तथा दामाद से िमलने नह गए।
एक िदन ातःकाल िवमला माँ से िमलने आई। रामशरण दुकान पर जाने क तैयारी कर रहा था। माँ लड़क क
बढ़ रह पेट से समझ गई िक वह गभवती ह। माँ ने लड़क को िबठाया और कहा, ‘‘तुमको हमारी याद आई ह।
परमा मा का ध यवाद करना चािहए।’’
‘‘पर तुम भी तो कभी िमलने नह आई, माँ, आज म आपको एक समाचार सुनाने आई ।’’
‘‘हाँ, तो बताओ?’’ माँ ने पूछ िलया।
‘‘माँ! अब मने और आपक दामाद ने अदला-बदली कर ली ह।’’
‘‘ या अदला-बदली कर ली ह?’’ समीप खड़ रामशरण ने पूछ िलया।
‘‘िपताजी! यही िक अब आज से वह घर से बाहर का काम करगे और म घर क भीतर का काम क गी।’’
‘‘तो वह अब नौकरी करगा?’’
‘‘जी। यही तो कह रही । उनको ओखला म एक फ टरी म मैनेजर क प म नौकरी िमल गई ह। और मने
अपने काम से यागप दे िदया ह। आज काम से अवकाश पाया तो पहला काम यही िकया ह िक आप लोग से
िमलने चली आई ।’’
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बँटवारा
कमिसंह ब त वृ हो चुका था। उसक आँख क बरौिनयाँ सफद हो गई थ । कमर टढ़ी, गरदन झूलती ई,
टाँग लड़खड़ाती ई और दाँत न होने से बोलने म श द भी अ प िनकलते थे।
‘‘बाबा, िकतनी उमर होगी तु हारी?’’ कमिसंह क पोते का लड़का खाट क पास बैठा पूछ रहा था। लड़का दस
साल का था। उसका नाम था सोहन िसंह।
‘‘कौन पूछ रहा ह?’’ कमिसंह ने िवचार , िजनम वह अब कभी-कभी मगन हो जाया करता था और अपनी
वतमान अव था को भूल जाया करता था, से िनकलते ए पूछा।
‘‘सोहन बाबा,’’ कमिसंह क घर क सब ाणी जानते थे िक उसक आँख क योित समा हो चुक थी।
सुनाई भी ब त कम देने लगा था। इससे वह उसको अपना नाम और वह भी ऊची आवाज म बताया करते थे।
सोहन ने भी ऐसे ही कहा।
‘‘अ छा, सोहन हो? कहाँ गया ह तु हारा बाप?’’
‘‘खेत पर गया ह बाबा।’’
‘‘और तु हारी दादी तथा माँ?’’
‘‘पड़ोिसय क घर गाने पर गई ह।’’
‘‘वहाँ पर या ह?’’
‘‘नानक का िववाह ह।’’
‘‘तो जाओ, उनको कहो, ज दी घर म आ जाएँ। यहाँ भी आज गाना होनेवाला ह।’’
‘‘गाना! य , या ह यहाँ?’’
‘‘आज मेरा भी िववाह होने वाला ह’’
‘‘िववाह!’’ सोहन िखलिखलाकर हस पड़ा, ‘‘बाबा! िकससे िववाह कराओगे?’’
‘‘तु हारी परदादी से। कभी देखा ह उसको?’’
सोहन को इन बेिसर-पैर क बात से भय लग गया। उसक परदादी क मृ यु तो उसक बाप क पैदा होने से
पहले ही हो चुक थी। इससे वह भागा आ पड़ोिसय क घर माँ और दादी को बुलाने चला गया।
कमिसंह क आयु पचानबे से ऊपर हो चुक थी। उसक तीन लड़क और एक लड़क थी। लड़क सबसे छोटी
थी और उसका िववाह अमृतसर म एक तहसीलदार क लड़क से आ था। कमिसंह क लड़क म से सबसे छोट
लड़क मदनिसंह का देहांत हो गया था और दूसर दो लड़क बाप से लड़कर पृथक हो चुक थे। उ ह ने बूढ़ बाप म
अपनी िवधवा पतो और उसक एक लड़क िबहारी िसंह क ित अिधक ेह देख पृथक हो जाना ही ठीक समझा
था। लड़क क देहांत क समय कमिसंह क आयु साठ वष क थी।
जब दूसर लड़क सुखन िसंह और म खन िसंह, िजनक घर भी लड़क-लड़िकयाँ उ प हो चुक थे, पृथक होने
लगे तो, बाप से जायदाद म िह सा-प ी माँगने लगे। तब कमिसंह ने साफ कह िदया, ‘‘कछ भी नह िमलेगा।
अपना कमाओ और खाओ।’’ लड़क अपने िपता क वभाव और िवचार को जानते थे। इस कारण दोन ने अपने
पृथक-पृथक खेत ले िलये थे और बाप क इनकार करने पर िबना कछ िलये ही अलग-अलग खेती-बाड़ी करने लगे
और अपने पृथक-पृथक मकान बनाकर रहने लगे।
सुखन िसंह और म खन िसंह क औरत बँटवार क िलए झगड़ा करने क राय देत , परतु दोन भाइय ने वृ
बाप को तंग करने का िवचार छोड़ अपनी प नय को ही समझा िदया िक आिखर बूढ़ा मरगा। जमीन छाती पर
रखकर ले जा नह सकगा। उनका िवचार था िक अिधक-से-अिधक दस वष तक और िजएगा।
कमिसंह को कोई ऐब तो था नह । न तो वह शराब पीता था, न ही िकसी अ य कार क िफजूलखच । वह
अ का धनी और गाँठ का प ा था। सौ एकड़ भूिम पर लाठी िलये घूमता था और तीन हजार मन गे तथा
अ य अनाज उ प कर िलया करता था। घर पर गाय-भस पलती थ और घर क समीपवाले कएँ क पास साग-
स जी पैदा होती थी। कवल कपड़ा और नमक-िमच बाजार से लेना पड़ता था।
इस कारण धन एक हो रहा था। परमा मा ने सुखन िसंह और म खन िसंह का भा य भी उ ल कर िदया था।
धीर-धीर वे दोन भी अमीर हो रह थे।
कमिसंह का अपने लड़क से ेष नह था। वह उनक सहायता क िलए भी सदैव त पर रहता था। कवल वह
अपनी जायदाद को अपने जीवन-काल म बाँटना नह चाहता था। उसका यह िवचार था िक जब तक वह भूिम और
धन का मािलक ह, तब तक पोते, पोितयाँ सब उसक सेवा करगे, कहा मानगे और उसक मरने पर भी उसक
आ मा क िलए ाथना करगे। यिद उसने सबकछ बाँट िदया, तो उसको पानी िपलानेवाला भी कोई नह रहगा।
यह बात ब त सीमा तक ठीक थी। सायंकाल जब वह खेत से लौटकर आता, तो उसक वगवासी पु क ब
और लड़का तो उसक सेवा करते ही थे। साथ ही अब उसक बड़ लड़क क ब एँ और पु भी आते और उसक
पाँव दबा जाते थे। कमिसंह भी ऋतु क अनुसार कभी िप याँ, कभी बूँदी क ल , कभी पेड़ और कभी बरफ
बनवा रखता था और जो उसक पास आता, उसको खाने क िलए देता था। कभी उसक पु और पोते कहते भी,
‘‘बाबा, अपने जीते-जीते सब बाँट जाओ, नह तो पीछ झगड़ा होगा?’’
‘‘सुखन,’’ वह कह िदया करता, ‘‘अपनी भावज पर िव ास रखो। वह देवी ह।’’
इस पर भी जब िकसी पोते अथवा िकसी पोती का िववाह होना होता, वह सब खचा अपने पास से करता था।
इस कार प रवार का काय चलता जाता था। मदन िसंह क मृ यु क समय उसका लड़का िबहारी िसंह पाँच वष
का था और कमिसंह अपने लड़क क ब क शोक को कम करने क िलए िबहारी िसंह से िवशेष यार करता था।
उसक सब आव यकता को पूण करता था। मदन िसंह क ब भी कमिसंह क ऐसी सेवा करती थी, मानो
उसक लड़क ही हो।
:2:
िबहारी िसंह जब बड़ा आ, तो उसका िववाह कर िदया गया। ब त ही सुंदर और सुघड़ ब घर म आई। वह
जालंधर शहर क रहनेवाले एक दुकानदार क लड़क थी। नाम था जसवीर कौर। इससे पहले घर क सब ब एँ
गाँव क अथवा िकसान क लड़िकयाँ ही थ । जसवीर कौर पहली ब थी, जो नगर क रहनेवाली थी और साथ
ही कल क नौव ेणी तक पढ़ी भी थी।
उसने आते ही अपने कपड़, आभूषण और िजस पर भी उसका हाथ जाता, अपने अिधकार म करने आरभ कर
िदए। कमिसंह को उस पर संदेह आ, तो उसने अपने वगवासी लड़क क सुंदरी ब को बुलाकर कहा, ‘‘बेटा
सुंदरी, मेरी जेब म से रजगारी गायब होने लगी ह। कल म दस का नोट लेकर एक धोती का दाम देने क िलए गया
था, उसम से चौदह आने मेरी जेब म थे। आज एक पैसा भी नह ।’’
‘‘भापा! मने नह िलये।’’
‘‘यह म जानता । तुमको इस घर म आए अ ाईस वष हो चुक ह। एक पैसे का हर-फर नह आ। अब यह
नगर क छोकरी आई ह। इससे सावधान रहना चािहए।’’
बात िबहारी िसंह क कान म प ची, तो वह अगले िदन भापा क पास चौदह आने लेकर आ गया। उसने बाबा क
पाँव पकड़ और अपनी ब क िलए मा माँगी। उसने कहा, ‘‘बाबा, वह शहर क रहनेवाली देहाितय क चलन
को नह जानती। मने उसको समझा िदया ह और अब वह ऐसा नह करगी।’’
‘‘देखो िबहारी, अगर िफर तु हारी ब ने ऐसा िकया तो तुमको भी तु हारी बीवी क साथ नगर भेज दूँगा। वहाँ पर
जाकर कमाना और खाना।’’
‘‘बाबा! वह कहती ह िक आपक दोन पु ने पृथक-पृथक होने से पहले ही अपने-अपने खेत खरीद िलये थे। वे
कहाँ से लेकर खरीदे थे? वह भी अपने िलए पृथक खेत खरीदने क िलए पया इक ा करने लगी थी।’’
‘‘तो उसको कह दो िक वे दोन अपने ससुराल से पया लाए थे। ससुराल का पया उ ह ने खेत खरीदने म
लगा िदया था। उन खेत पर वे मेहनत-मजदूरी करते थे और वहाँ क कमाई िफर खेत पर ही लगाते जाते थे। चार-
पाँच सौ पए से आरभ कर अब वे पचास-पचास एकड़ भूिम क मािलक हो गए ह। जसवीर भी अपने आभूषण
बेचकर भूिम खरीद सकती ह। साथ ही तुम भूिम पर मेहनत कर धन पैदा कर सकते हो।’’
‘‘पर बाबा, तब बीस से तीस पए म एक बीघा भूिम िमल जाती थी, पर अब तो एक बीघा का मू य भी पाँच
सौ पए से ऊपर हो गया ह।’’
‘‘ठीक ह। तब सोने का मू य बारह से पं ह पए तोला होता था, अब उसका मू य अ सी पए तोला ह।
िबहारी, तु हार ससुर ने जो िदया ह, सब मुझको मालूम ह और उसम से सबकछ तु हारी ब ने संदूक म बंद कर
रखा ह।’’
जसवीर कौर समझ गई िक बूढ़ा इस कार से काबू म नह आएगा। उसने दूसरा ढग रचा। उसने उस ताले क
दोहरी चाबी बनवाई, जो उस कोठरी म लगा था, िजसम पूण घर क संपि रखी जाती थी। ताली क मोम पर छाप
लगा उसने अपने छोट भाई क हाथ शहर भेज दी और वहाँ से चाबी बनकर आ गई।
गरमी क ऋतु म जब घर क सभी ाणी घर क छत पर सोते थे, एक रात जसवीर नीचे आई और ताला
खोलकर तोशेखाने क तलाशी लेने लगी। एक लोह का संदूक था। उसको भी एक ताला लगा था। उस ताले क
चाबी उसने कभी नह देखी थी। उसे कमिसंह सदा अपनी कमर से बाँधकर सोता था। अतः सब प र म यथ गया।
इस पर भी जसवीर कौर ने अपने ससुर क पूण चल-संपि उड़ाने का िवचार छोड़ा नह । वह उस चाबी पर
अिधकार पाने का अवसर ढढ़ने लगी। वह अवसर तब िमला, जब जसवीर क एक लड़क और िफर एक लड़का
भी होकर आठ वष का हो गया था। तब तक कमिसंह क ि दुबल हो चुक थी और हाथ-पाँव भी िशिथल पड़ने
लगे थे। अब वह खाट क साथ लग गया था। कवल शौच आिद क िलए ही उठता-बैठता था।
अभी भी पोते-परपोते आते थे और कमिसंह क पाँव दबा जाते थे। कोई आकर उसक कपड़ धो देता और कोई
उसको नहला जाता, तो कोई खाना आिद िखला जाता था। इसी सेवा क लोभ म वह संपि को बाँटता नह था।
एक िदन अवसर िमला और चाबी जसवीर कौर क हाथ लग गई। बूढ़ा जब सोने क िलए बाहर गया, तो उसक
कमर से चाबी िगर पड़ी। उसे पता नह चल सका। जसवीर कौर ने चाबी उठा ली। िकसी ने देखा भी नह । उसने
कोठरी खोली और िफर संदूक भी खोल िलया। सोना, चाँदी, नोट देख।े तो जसवीर कौर िकतनी ही देर तक मु ध हो
देखती रह गई। िफर उसने अपनी चादर का आँचल िबछा िदया और िजतना उसम बाँध सकती थी, बाँधकर अपने
कमर म ले गई। तदुपरांत उसने संदूक और कोठरी को बंद कर संदूक क ताली वह भापा क खाट पर रख दी,
जहाँ वह िगरी थी।
चाबी रख वह अपने कमर म चोरी का सामान संदूक म बंद कर रही थी िक िबहारी िसंह क न द खुल गई और
वह अपने कमर म दीपक का काश देख, झाँककर सबकछ समझ गया। उसक मन म आया िक बीवी को
पकड़कर और ध देकर घर से िनकाल दे, परतु उसको अपने ब क माँ पर दया आ गई। उसने कमर क
बाहर खड़-खड़ ही योजना बना ली और लौट गया। मकान क छत पर उसक सोने क िलए जाने क आधा घंटा
प ा जसवीर कौर ऊपर आई।
अगले िदन िबहारी िसंह ने, जब जसवीर कौर सो रही थी, उसक संदूक क , िजसम सोना, चाँदी और नोट
िछपाकर रखे थे, चाबी ली। उसने सब व तुएँ िनकाल ल और लगभग उतने ही वजन क ईट क ककड़ आिद
संदूक म भर िदए।
वह सब सामान िबहारी िसंह ने एक गठरी म बंद कर अपनी माँ क संदूक म रख िदया। माँ क संदूक को ताला
नह लगता था। उसक माँ को अपने चार कपड़ को ताला लगाने क आव यकता भी अनुभव नह होती थी।
अगले िदन जसवीर कौर का भाई आया, तो जसवीर कौर ने अपना संदूक उठवाकर जालंधर भेज िदया और
कहला भेजा िक जब वह आएगी, तो वयं ही उसे खोलेगी। उसक अनुप थित म उस संदूक क र ा क जाए।
जसवीर कौर क भाई ने संदूक क भारीपन का अनुभव कर पूछ िलया, ‘‘बिहन, या ह इसम?’’
‘‘इसम मेर आभूषण ह। यान रखना।’’
:3:
सुंदरी ने अपना संदूक खोला, तो उसम आभूषण, सोना-चाँदी और नोट क बंडल देख वह घबरा गई। उसने
कभी इतना धन देखा नह था। वह िकतनी ही देर तक तो उस सबको देख-देख समझने का य न करती रही िक वह
सब कहाँ से आ गया। जब कछ समझ नह सक , तो अपने लड़क िबहारी िसंह क खेत से लौटने क ती ा
करने लगी। जसवीर रोटी बना रही थी। सोहन और गुरनाम कौर रसोईघर म बैठ खाना खा रह थे। बाहर कमिसंह से
िमलने क िलए सुखन िसंह और उसक प नी आई ई थी। कछ ब े भी अपने बाबा क पास बैठ उसक बात सुन
रह थे।
सुंदरी ने िबहारी को, जब वह वापस घर आ गया, इशार से भीतर बुलाकर अपने संदूक म रखी ई व तुएँ
िदखाई, तो िबहारी िसंह ने सब बात अपनी माँ को बता दी। उसने यह भी बताया, ‘‘माँ, सोहन क माँ ने िकसी भाँित
ताला खोला ह और यह सब बाबा क कोठरी से िनकाल िलया ह।’’
‘‘तुम कसे जानते हो यह?’’
‘‘जब से बाबा क नजर दुबल ई ह, म ही संदूक म रखता-िनकालता । इन आभूषण को म भली-भाँित
पहचानता । यह सोने क डली म िपछले वष गे बेचकर अमृतसर से लाया था।’’
‘‘तो इसका म या क ? तुमने मेर संदूक म य रख िदया ह यह सब?’’
‘‘माँ, म िवचार कर रहा था िक िजस िदन बाबा कछ भीतर रखने को अथवा भीतर से िनकालने को चाबी दगे,
तब म यह सबकछ चुपचाप भीतर रख दूँगा। मुझे जसवीर कौर से झगड़ा करना ठीक तीत नह आ। वह मूख ह,
परतु मुझसे अिधक पढ़ी ह। म जब उसको कछ समझाने लगता , तो समझा नह पाता।’’
‘‘अ छा, तो म इस क को ताला लगा दू।ँ मुझको भय ह िक कह तु हारी ब को संदेह हो गया, तो वह यहाँ
से भी चुरा लेगी।’’
‘‘माँ, यिद ताला लगाया, तो वह संदेह करने लगेगी। मेरा िवचार ह िक तुम तिनक सतक रहना। बिनया सौ मन
मकई क दाम देने क िलए आएगा, तब म बाबा से चाबी मागूँगा। उसी समय यह सब भी वह पर रख दूँगा।’’
अवसर िमलते ही सारा सामान रख िदया गया। कमिसंह कछ िदन से कह रहा था िक उसक पाँव ठड रहने लगे
ह। आज म या ो र उसने एकाएक सोहन को कहा, ‘‘जाओ, माँ और दादी को बुला लाओ।’’ सोहन भागा-भागा
गया और माँ और दादी को बुला लाया। सुंदरी ने आते ही पूछा, ‘‘भापा, या बात ह?’’
कमिसंह हसा और बोला, ‘‘अपने ये को बुलवा लो। िबहारी को भी बुला लो। म समझता िक चलने का
समय आ गया ह।’’
‘‘नह बाबा,’’ जसवीर ने कहा, ‘‘अभी तो वाह गु क कपा ह। वैसे ही आपको कछ भरम हो गया ह।’’
‘‘नह , जसवीर, बैठ जाओ और जपजी साहब का पाठ करो।’’
जसवीर कौर भीतर चली गई। हाथ-मुँह धो, चटाई ले आई और चटाई को बाबा क खाट क पास िबछा जपजी
साहब क पु तक िनकालकर पाठ करने लगी।
‘‘एक कार। सत नाम। कता पु ष िनभ िनवर। अकालमूत अजनीसई भंग गु साद जप आिद सच जुगािद
सच।’’
जसवीर कौर पढ़ ही रही थी िक सोहन अपने बाबा क भाइय और अपने िपता को बुला लाया।
जब तक जसवीर कौर पढ़ती रही, सब चुपचाप बाबा क खाट क चार ओर बैठ रह। कमिसंह को उठाकर खाट
पर बैठा िदया गया था। सुखन िसंह अपने िपता क पीठ क पीछ बैठ उसको आ य देकर बैठा था। कमिसंह शांत-
भाव से सुन रहा था। जसवीर कौर आगे पढ़ रही थी—
‘‘जात पाहारा धीरज सुिनआर।
महरिण मत वेद हिथयार॥
भउ खला अगान तपताउ।
भांडा भाउ अमृत ितत ढाल॥
घि़डए सबद सच टकसाल।
िजन कउ नदर कम ितन काट।।
नानक नदर नदर िनहाल॥’’
अब सब ‘वाह गु ’, ‘वाह गु ’ कहने लगे। इस समय कमिसंह ने कछ कहा। जब उसक ह ठ फड़क, तो सब
चुप हो गए। सुखन िसंह, जो उसक पीछ उसको ढासना देकर बैठा था, कान क समीप मुख कर बोला, ‘‘भापा!’’
कमिसंह ने कहा, ‘‘सुखन!’’
‘‘हाँ, भापा।’’
‘‘म खन को बुलाओ।’’
‘‘यह बैठा ह!’’
‘‘िबहारी!’’
‘‘बैठा भापा!’’
‘‘सुनो, मेरी जेब से चाबी िनकाल लो। देखो, धम पर अड़ रहना।’’
एक ण तक चुप रहने क बाद कमिसंह ने कहा, ‘‘जसवीर कौर!’’
‘‘हाँ, बाबा।’’
‘‘इस समय सबकछ यहाँ ही रह गया ह। सुन रही हो।’’
‘‘हाँ, बाबा।’’
‘‘दया, धम, दान और मा ही साथ जा रह ह। समझी हो?’’
‘‘हाँ, बाबा।’’ उसक मुख का रग पीला पड़ रहा था।
कमिसंह ने कहा, ‘‘देखो, लड़ना नह । वाह गु तुम सबको बु दे।’’ इसक साथ ही कमिसंह क गरदन
लुढ़क गई।
:4:
सुखन ने बाबा क जेब से चाबी ले सुंदरी को दे दी। वह नह चाहता था िक बँटवार से पहले चाबी उसक पास
रह।
बाबा क अरथी बड़ी धूमधाम से उठी, बाजे बजे, अरथी पर झंिडयाँ और गोले लगाए गए। फल-मखाने और
छआर िनछावर िकए गए। आगे-आगे क तन-मंडली थी। पीछ-पीछ औरत शबद गा रही थ । सारा गाँव बूढ़ क
अरथी क साथ था। गाँव क िसख क अित र िहदू भी रहते थे। अरथी मशान क बाहर प ची तो िहदू ने कह
िदया, ‘‘बोलोई राम!’’ अ य लोग इस पर बोल उठ, ‘‘राम भज राम!’’ एक िसख ने कह िदया, ‘‘शोर न मचाओ।
क तन सुनो!’’
सं कार आ। कड़ाह- साद बाँटा गाया। सबने खाया और सत ी अकाल क अिभवादन क प ा सब घर
लौट। घर पर ंथ साहब का पाठ रखाया गया और तेरहव िदन पाठ का भोग पड़ा। उस िदन भोज आ। सार
प रवार और गाँव क सब लोग को भोज िखलाया गया।
उस िदन सायंकाल प रवार क सब लोग घर म एकि त ए। कमिसंह क लड़क कलवंती अपने घरवाले सरदार
समुंदर िसंह और अपने लड़क, उसक ब और पोत क साथ आई थी।
सुखन िसंह सबसे बड़ा था। उसने सबक सामने अपनी छोटी भाभी को संबोिधत कर पूछा, ‘‘भाभी, हम सब
अपनी जायदाद म िह सा लेने आए ह। या ह भापा क पास।’’
‘‘भैया,’’ सुंदरी ने कहा, ‘‘म सौगंधपूवक कहती िक मने आज तक नह देखा िक उनक पास या ह और
िकतना ह। हाँ, िबहारी ज र उसम रखने और िनकालने जाता ह। भापा क चाबी आपने मुझको दी थी। वह यह ह।
अब आप ही देख लो।’’
‘‘ य िबहारी, या ह और कहाँ ह?’’
‘‘तायाजी, सबकछ ठीक ह। आप सबकछ पहले िवचार कर ल िक िकस-िकस को या- या और िकतना-
िकतना लेना ह।’’
‘‘हाँ, िबहारी ठीक कहता ह। कछ तो ह ही। भूिम भी ह। िकस कार बँटवारा होगा, यह िलख-पढ़ लो। तब जो
कछ नकद िनकले और जो कछ भूिम का दाम लगे, सब जमा कर लो, िफर िलखे क अनुसार सबको िमल जाए।’’
इस पर िह सेदार क नाम िलखे जाने लगे। समुंदर िसंह ने पूण जायदाद क चार िह से करने चाह।
‘‘चौथा िकसका?’’ म खन िसंह ने पूछ िलया।
‘‘तु हारी बिहन का।’’
सब चुप रह। कलवंती ने जब से उसका िववाह आ था, एक िदन भी अपना मुख गाँव म आकर नह िदखाया
था। सोहन ने शांित को भंग करते ए कह िदया, ‘‘बाबा, म बताऊ?’’
‘‘ या बताओगे?’’
‘‘घर क ब -े बूढ़, मद-औरत सब िमलाकर हम सब पतीस बंदे ह। जो कछ नकद हो उसक पतीस िह से कर
िदए जाएँ।’’
‘‘ओ सोहनू, यह धम-शा तुझको िकसने िसखाया ह?’’ सरदार समुंदर िसंह का िवचार था िक जसवीर कौर ने
ही उसको िसखाया होगा, इससे उसने पूछ िलया।
सोहन िसंह ने कह िदया, ‘‘एक िदन बाबा मुझको यह सब बता रह थे। वह सबक िगनती करक बोले िक हम
सब पतीस बंदे ह। सबको बराबर-बराबर िमलना चािहए। सबने ही उनक बराबर सेवा क ह। नकदी सब उनक
कमाई ह। वह सबम बाँट दी जाए। भूिम उनक िपताजी क ह, इसक तीन िह से िकए जाएँ।’’
इस बात को सुना तो सबने कह िदया, ‘‘बाबा क इ छा पूण क जाए।’’ इस कार सबसे कम भाग िमलनेवाला
था मदन िसंह क प रवार को। वे कवल पाँच ाणी थे। इनक तुलना म सुखन िसंह क घर क चौदह ाणी थे और
म खन िसंह क घर क सोलह थे। इस पर सुखन िसंह ने अपनी भाभी सुंदरी से पूछ िलया, ‘‘भाभी, या कहती हो
तुम?’’
सुंदरी ने दीघ िन ास छोड़कर कहा, ‘‘जब भापा क यह इ छा ह, तो म कसे अ वीकार कर सकती ? तुम
सब जो कछ भी दोगे, म बड़ का आशीवाद समझकर ले लूँगी।’’
सुखन िसंह को उसक िपता ने एक बार कहा था, ‘‘अपनी भाभी पर िव ास रखो। वह देवी ह।’’ आज उसक
समझ म आया िक भापा स य कहता था। उसने कह िदया, ‘‘भाभी, म जानता िक तुमको हािन हो रही ह। इस पर
भी यह िव ास रखो िक वाह गु सब ठीक करगा। भापा क इ छा का पालन होने दो।’’
‘‘कसे पालन होने द। इन पतीस म मेरी और मेर ब क िगनती नह ह।’’
‘‘परतु तुम हो कौन?’’ सोहन ने कह िदया, ‘‘तुमको कभी देखा नह । कभी तु हारी बात तक सुनी नह ।’’
‘‘म तु हार बाबा का बहनोई । जानते हो? सरकार ने कानून बना िदया ह िक लड़क का लड़क क बराबर
िह सा होता ह।’’
इस पर म खन िसंह क प नी ने कह िटया, ‘‘बिहन कलवंती अपने पित क ही बुजुग क जायदाद म से लेगी।
हमको अपनी जायदाद म से लेने दो।’’
समुंदर िसंह ने खड़ होकर कह िदया, ‘‘देखो, म अभी थाने म रपट िलखाने क िलए जाता । िकसी ने मेरी
अनुप थित म तोशाखाना खोला तो हथकड़ी लगवा दूँगा। कलवंती, तुम यह बैठना, म जा रहा ।’’
सुखन िसंह इस झगड़ से बाप क और प रवार क बदनामी समझता था। इसिलए उसने हाथ जोड़कर समुंदर
िसंह क िम त-खुशामद करना आरभ कर दी। उसने कहा, ‘‘जीजा, आप बैिठए। बताइए, आप या चाहते ह?’’
‘‘मने बताया िक जायदाद क चार भाग होने चािहए। उसक प ा अपने िह से म से अपने लड़क-लड़िकय
को िदया जाए। ब े तो जने तु हारी बीबी और िह सा जाए मेरा? ऐसे नह हो सकता।’’
म खन िसंह क प नी को इस कटा पर ोध चढ़ आया। उसने कह िदया, ‘‘म सब फककर वाहा कर दूँगी,
पर इस हमार ब क िगनती करनेवाले को पाई भी नह लेने दूँगी। भापा क जीवन-काल म तो एक िदन भी नह
आए और अब आए ह जायदाद क मािलक बनकर।’’
‘‘जाओ बिहन, चुपचाप चली जाओ, नह तो फौजदारी हो जाएगी।’’
समुंदर िसंह उठकर घर से िनकल गया। सब यह समझते थे िक वह थानेदार को बुलाने गया ह। इस पर सब
सुंदरी का मुख देखने लगे। चाबी अभी भी सुंदरी क पास थी। सुंदरी ने अपने जेठ से कह िदया, ‘‘भैया, आज यह
बँटवारा नह होगा। इससे आज सब आराम करो। कल िकसी को बीच म सरपंच डाल लेना और उसक कह
मुतािबक बँटवारा कर लेना।’’
म खन िसंह ने पूछा, ‘‘भाभी, तुम जायदाद म समुंदर िसंह का िह सा समझती हो?’’
‘‘भैया, यह मेर समझने क बात नह । बात आपक और आपक बिहन तथा बहनोई क समझाने क ह। उसको
समझाने का एक ही तरीका ह। िकसी को पंच बनाकर उसक फसले पर फल चढ़ाओ।’’
‘‘मेरी तो राय ह िक संदूक खोलकर सबको िनकालकर उसक आने से पहले ही बाँट िलया जाए।’’
‘‘यह तो पाप हो जाएगा। ऐसा आप नह कर सकोगे। पहले मेरी ह या करनी होगी, तब कोठरी का ताला
खुलेगा।’’
सुखन िसंह ने बात सँभाली। उसने म खन िसंह से कहा, ‘‘भाभी ठीक कहती ह। झगड़ा कर कचहरी म व
और पया बरबाद करने क या ज रत ह?’’
‘‘पर भापा, जमीन भी बाँटी जाएगी या?’’
‘‘हाँ, नह तो सरकार तीस एकड़ से अिधक लेने का कानून बना रही ह।’’
इस पर दोन भाई उठकर बाहर चले गए। प रवार क याँ और शेष मद कोठरी क बाहर लेट रह। सुंदरी
उठकर अपने कमर म चली गई। उस समय जसवीर कौर अपनी सास क पास आ प ची और बोली, ‘‘माताजी,
आप य झगड़ा मोल लेती ह। चाबी अपने जेठ क सामने रख द। भगवा जाने बीच म कछ ह भी या नह ?’’
सुंदरी क समझ म आ गया िक जसवीर कौर य ऐसा कह रही ह। वह सोचती थी िक जसवीर को अभी भी
िव ास ह िक भीतर कछ नह और सबकछ वह िनकालकर ले जा चुक ह। इससे वह मुसकरा दी और बोली,
‘‘ब , भगवा और धम भी कछ ह या नह ? सार प रवार क अमानत म िकस-िकस को दे दू?ँ ’’
जसवीर कौर यह सुनकर उठी और बाहर चली गई। िबहारी िसंह आया, तो उसने माँ को एक दूसरी ही बात कह
दी। उसने कहा, ‘‘यह सोहन ने सब गड़बड़ कर दी ह। अब उसक यह कहने पर िक बाबा क यही इ छा थी,
हमको सबसे अिधक हािन रहगी।’’
‘‘बेटा, म तो कछ जानती नह । मेर िलए तो वह पू य थे। इससे म उनक बात पर फल चढ़ाए िबना नह रह
सकती। रही हािन-लाभ क बात। धन भु क माया ह। सबक पास समान नह होता। न ही यह सदा रहता ह।
िजतना अपने इन दो हाथ से कमाया जा सकता ह, उस पर ही संतोष करना चािहए।’’
‘‘म तो समझता िक मने वह सबकछ िफर बीच म ही रखकर भूल क ह।’’
‘‘पर म समझती िक तुमने अमानत को ठीक जगह प चाकर धम का काम िकया ह।’’
जसवीर कौर पहले तो अपने सबकछ ले जाने पर ब त स थी, परतु िफर अपनी करतूत का भेद खुल जाने
क भय से खाट पर लेट रही। वह कभी सोचती थी िक उसने ठीक ही िकया ह, जो सबकछ पहले िनकालकर ले
गई, िफर सोचती िक जब घरवाल को पता चलेगा िक अंदर तो कछ भी नह , तो खूब हो-ह ा होगा। यह भी
संभव ह िक ह याएँ हो जाएँ। इस संभावना पर भयभीत हो वह अपने िकए पर प ा ाप करने लगी।
:5:
समुंदर िसंह थानेदार क पास गया, तो वह गाँव क सरपंच को लेकर उसक साथ चल पड़ा। घर प चा, तो देखा
िक प रवार क सब ाणी कोठरी क बाहर बैठ थे। कोठरी को ताला लगा था। सरपंच ने एक ऊची चौक पर
बैठकर पूछा, ‘‘ या झगड़ा ह?’’
सुखन िसंह ने अपनी बात कह दी। इस पर समुंदर िसंह ने कह िदया, ‘‘कमिसंह ने मरने क समय सुखन िसंह को
चाबी देते ए कहा था, ‘धम पर खड़ रहना,’ परतु अब ये लोग धम से बदल रह ह।’’
सरपंच ने पूछा, ‘‘ य म खन िसंह, या यह सरदार ठीक कहता ह?’’
‘‘जी हाँ, यह ठीक कहता ह।’’
‘‘तो िफर झगड़ा या? तुम सब समझदार हो। धम पर खड़ रहो और अपना-अपना िह सा ले लो।’’
समुंदर िसंह ने कह िदया, ‘‘ये जायदाद क पतीस िह से करना चाहते ह और बाल-वृ सबको बराबर-बराबर
िह सा देना चाहते ह।’’
‘‘ य ?’’
‘‘इसिलए,’’ सोहन ने िफर आगे बढ़कर कह िदया ‘‘िक बाबा ने एक िदन कहा था िक नकदी सब मेरी कमाई
ह। यह म उन सबको देता , िज ह ने मेरी सेवा क ह। बाबा ने पतीस क िगनती करक कहा था िक सबने मेरी
सेवा क ह, सबको ही बराबर-बराबर िह सा िमलना चािहए। भूिम क िवषय म बाबा ने कहा था िक यह उनक
िपता क ह। इसिलए इसक तीन िह से कर उनक तीन बेट को दी जाएगी।’’
‘‘यह तुम स य कहते हो?’’
‘‘हाँ चौधरीजी, म गु महाराज क सौगंध खाकर कहता िक बाबा ने यही कहा था।’’
‘‘तुम िकसक बेट हो?’’
‘‘िबहारी िसंह का।’’
‘‘िकतने भाई-बिहन हो?’’
‘‘हम दो ही ह। मेरी एक बिहन ह।’’
‘‘तो तुमको तो कछ भी नह िमलेगा।’’
‘‘पर चौधरी, यह धम क बात हो रही ह, िमलने-िमलाने क नह ।’’
जसवीर इस समय सबसे पीछ खड़ी रो रही थी। चौधरी ने उसको देखा तो पूछा िलया, ‘‘तुम य रोती हो?’’
उ र समुंदर िसंह ने दे िदया, ‘‘यह सोहन इसी का बेटा ह और इसक कहने से इस बेचारी को सबसे कम
िमलेगा। सुखन क घर क चौदह ाणी ह। म खन क सोलह ह और इसक घर क कवल पाँच। इसिलए यह रोती
ह।’’
‘‘और तुम कौन हो।?’’
‘‘म कमिसंह का दामाद । मेरी प नी कलवंती का बँटवार म कह िज ही नह ।’’
‘‘अ छा, कल पंचायत होगी और फसला होगा। चाबी िकसक पास ह?’’
‘‘भाभी सुंदरी क पास।’’
‘‘चाबी मुझको दे दो। कल सब पंच क सामने कोठरी खोली जाएगी।’’
सुंदरी ने कोठरी और संदूक क दोन चािबयाँ सरपंच को दे द । थानेदार ने एक िसपाही को वहाँ बैठा िदया,
िजससे फौजदारी न हो जाए।
अगले िदन गाँव क पंचायत बैठी। सबसे पहले सुंदरी क बयान ए, िफर समुंदर िसंह ने अपनी माँग उप थत
कर दी। उसने कहा िक सब चल और अचल संपि क चार भाग होने चािहए। तीन तो कमिसंह क पु क िलए
और एक उनक पु ी क िलए।
इसक प ा सुखन िसंह और म खन िसंह क बयान ए। िबहारी िसंह क भी बयान ए। िबहारी िसंह ने कवल
इतना कह िदया, ‘‘धम जो कहता ह, वह मुझको मंजूर ह।’’
इसक बाद पंचायत ने सबको बाहर िनकाल िदया और पंचायत म ब त वाद-िववाद क बाद फसला आ।
फसला सुनाते ए सरपंच ने कहा—
‘‘पंच ने सोहन क बयान को स ा माना ह। इसिलए धम यह ह िक चल संपि क पतीस भाग िकए जाएँ। मद-
औरत, बाल-वृ सबको एक-एक िह सा िदया जाए। वगवासी जीव का कहना था िक ये पतीस ही उसक सेवा
करते रह ह और इनको ही उसक जायदाद का िह सा िदया जाए। इनम कलवंती अथवा उसक ब का कोई हक
नह ह।
‘‘शेष रही जमीन क बात। धम से तो तीन िह से बनते ह। कानून से चार। हम कानून से धम ऊचा मानते ह। इस
कारण हमारा फसला ह िक तीन िह से ही तीन भाइय को िमल। धम से लड़क का कोई िह सा नह बनता। इस
पर भी यिद कलवंती धम पर फल नह चढ़ाती, तो वह अदालत म जा सकती ह।’’
इसक बाद समुंदर िसंह ने कह िदया, ‘‘म पंचायत क फसले क जजी म अपील क गा। इसक िलए कछ खुद-
बुद न िकया जाए।’’
इस पर सरपंच ने आ ा दे दी िक पंच क सामने सब व तु क सूची बन जाए और उन व तु को िकसी क
पास अमानत क प म रख िदया जाए।
ऐसा ही िकया गया। पूण संपि सोना-चाँदी और नकदी तौली और िगनी गई। साथ ही उसक सूची बनाकर
सबक ह ता र करा िलये गए। सब सामान सुंदरी क हवाले कर उससे रसीद बनवा ली गई। सरपंच ने पंचायत का
फसला िलखकर नीचे िलख िदया िक तीन महीने म िजसे अपील करनी हो, कर दे अथवा यही फसला प ा होगा।
जब सब िवदा हो गए, तो जसवीर कौर ने अपने पित से कहा, ‘‘आपने जमीन पर जो मेहनत क और खून-
पसीना एक िकया, तो आपको उसका या िमला?’’
‘‘मुझको धम का फल िमलेगा।’’
‘‘म यह धम-कम यथ क बात मानती । मुझको पहले ही इस बात क आशा थी िक हमको कछ भी नह
िमलेगा। हमारी मेहनत और सेवा सब हराम म जाएगी। इसिलए मने भी अपना धम-पालन िकया ह। अपनी मेहनत
का फल मने पहले ही िनकाल िलया ह।’’
जसवीर कौर का िवचार था िक उस िदन ज दी-ज दी म उसने ब त-कछ पीछ भी छोड़ िदया ह। इस पर भी
उसक मन म संतोप था िक उसने ब त कछ, अपने भाग का पहले ही िनकाल िलया ह। अब उसने अपनी
कारगुजारी अपने पित को भी बता दी।
िबहारी ने पहले तो यह उिचत समझा िक यह भी अपनी कारगुजारी बता दे, परतु िफर कछ िवचारकर उसने पूछा,
‘‘स य?’’
‘‘जी हाँ! म आपक तरह बु ू नह ।’’
‘‘एक िदन चलकर िदखाओ तो सही िक िकतना ले गई थ ?’’
समय पाकर जसवीर कौर अपने पित को लेकर अपने बाप क घर गई और संदूक िनकालकर ताली खोल देखने
लगी, तो भ च हो देखती रह गई। िबहारी िसंह उसक पीछ खड़ा था। उसने अपने मन क बात िछपाते ए पूछ
िलया, ‘‘जसवीर, य , या आ?’’
‘‘िकसी ने सोना-चाँदी सब िनकाल िलया ह और ककड़ आिद भर िदए ह।’’
‘‘िकसने भर िदए ह?’’
‘‘मेर िपताजी ने ही ऐसा िकया होगा।’’
‘‘मेरा मन कछ और ही कहता ह।’’
‘‘ या?’’
‘‘यही िक परमा मा ने तु हार इस काम को अधम समझा और सोने-चाँदी क थान पर ये ककड़-प थर भर िदए
ह।’’
‘‘यह सब बकवास ह। कहाँ ह परमा मा, जो ऐसा कर सकता ह। यह तो िन य ही मेर माँ-बाप क करतूत
ह।’’
‘‘नह जसवीर, यह परमा मा क ही बात ह।’’
इस पर जसवीर और उसक िपता बलवंत िसंह म ब त झगड़ा आ और बाप-बेटी म सदा क िलए लड़ाई हो
गई।
िबहारी िसंह क मन म एक बार तो आया िक वह सबकछ बता दे, परतु उस बेईमान बेटी का बाप क साथ
झगड़ा ठीक ही तीत आ और वह चुप रहा।
वे दोन उलट पाँव अपने गाँव को लौट आए। िबहारी िसंह ने माग म जसवीर को बता िदया था िक माल चुराने
क िवषय म वह िकसी को भी न बताए।
घर प च उसने अपनी बुआ को घर बैठी माँ से बात करते देखा तो पूछा, ‘‘बुआ, या आ ह, िकसिलए आई
हो?’’
उ र सुंदरी ने िदया, ‘‘बुआ कहती ह िक इनको घर से िनकाल िदया गया ह।’’
‘‘ य ?’’
कलवंती ने कह िदया, ‘‘वे अपील िलखवाकर लाए थे और कहने लगे िक म ह ता र कर दूँ। मने इनकार
िकया, तो मार-मारकर घर से िनकाल िदया ह।’’
‘‘पर बुआ, तुमने इनकार य िकया?’’
‘‘सरपंच कहता था िक धम से लड़क का भाग नह होता। मने यही सोचा िक अब इस बूढ़ी अव था म भला
धम क बात को य छो ?ँ इसिलए मने ह ता र नह िकए।’’
िबहारी िसंह भ च ा हो बुआ का मुख देखता रह गया।
तीन महीने बाद जब अपील क िमयाद बीत गई, तो बँटवारा होने लगा। सुखन िसंह ने कह िदया, ‘‘भाई! धम से
तो ठीक हो रहा ह, परतु बिहन क बिल धम पर चढ़ानी अ छी तीत नह होती। इसिलए मेरा िवचार ह िक समुंदर
िसंह क कह अनुसार बँटवारा कर उसका िह सा उसको दे िदया जाए।’’
सुंदरी ने कहा, ‘‘भैया, सोच लो, ब त हािन हो जाएगी तुम दोन को?’’
‘‘मने सब िवचार कर िलया ह भाभी, य म खन, या कहते हो?’’
‘‘भापा, बिहन का सुहाग कायम रह, म यही चाहता ।’’
‘‘परतु भापा,’’ िबहारी ने कह िदया, ‘‘मुझको अकारण लाभ होगा।’’
‘‘तो हो जाए। समुंदर िसंह तो स हो जाएगा।’’
‘‘परतु धम कहाँ गया?’’
‘‘बिहन क अपने पित से सुलह होगी। यह या कम धम क बात ह?’’
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वाणी क शुचता
सरदार सोहन िसंह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था—
असंख कड़यार कड़ िफराह।
असंख मले छ मल भख खाह॥
असंख िनंदक िसर कर भार।
नानक नीच कह िवचार॥
वा रया न जावे इक बार।
जो तुध भावे साई भली कार।
तू सदा सलामत िनरकार॥
इस समय साथ क कमर से जोर-जोर से रिडयो बजने का श द आने लगा। सोहन िसंह का यान भंग आ।
उसक मुख म था ‘जो तुध भावे साई भली कार’ और उसक कान म गूँजने लगा—
अकाशी घु मण तार।
ते बाबे दी नूं घुंड िबच अिखयाँ मार।
ओ घुंड िबच अिखयाँ मार ते घुंड िबच अिखयाँ मार॥
ब त से लोग िमलकर गा रह थे। कदािच भंगड़ा नाच िकया जा रहा था। सोहन िसंह ने मन कड़ा कर एक बार
पुनः पाठ म यान लगाने का य न िकया और उसने पढ़ा—
असंख नां असंख था।
अंगम अंगम असंख लोई॥
परतु रिडयो कक रहा था—
हथ िबच कगन छनक
ते बाबे दी नूं िदयाँ उगला करन इशार॥
ओ उगला करन इशार ओ उगला करन इशार॥
ते घुंड िबच अिखयाँ मार॥
सोहन िसंह ने पाठ छोड़ िदया और उठकर कमर से िनकल आया। सोहन िसंह का लड़का िविच िसंह कोठी क
बरामदे म सो रहा था। आठ बज रह थे। सूय िसर पर आ गया था। रिडयो क कक उसक न द खराब कर रही थी।
उसने करवट ली और तिकए को िसर क नीचे से िनकाल कान पर रख रिडयो क शोर को न द खराब करने से
रोकना चाहा, परतु रिडयो पूर जोर से बज रहा था।
आिखर िविच िसंह से नह रहा गया। उसने लेट-लेट ही आवाज दे दी, ‘‘ओ, बदमाश दे ब े! बंद कर!’’
रिडयो बजा रहा था िविच िसंह का लड़का सुरजीत। वह छह वष क आयु का बालक था। लड़क ने िपता क
डाँट नह सुनी। वह गाना सुनने म लीन था। लड़क क पास खड़ी उसक बिहन मोिहनी सुर-ताल-लय क साथ नाच
रही थी।
सुरजीत का बाबा सोहन िसंह अपने लड़क क परशानी पर मुसकरा रहा था। धूप िविच िसंह क मुख पर पड़
रही थी, परतु वह अभी और सोने क इ छा कर रहा था।
इस समय िविच िसंह क प नी हाथ म एक याला चाय िलये ए वहाँ आ प ची। यह उसक पित क बेड टी
थी। िविच ने मुख मोड़कर अपनी प नी से कह िदया, ‘‘ओ सूर दे पु र नू कौ, बंद कर दे।’’
सोहन िसंह क हसी िनकल गई। हसते ए उसने अपनी पतो से कहा, ‘‘यह तो अभी नह िपएगा। मुझको दे
दो। जरा भीतर जाकर सुनो तो, सूअर का ब ा या सुन रहा ह।’’
सोहनी ने याला सोहन िसंह क हाथ पकड़ा िदया और गाने क तरफ यान कर सुनने लगी।
रिडयो गा रहा था—
बाबे दी नूं घुंड िबच अँिखयाँ मार।
सोहनी क मुख पर ल ा क लाली दौड़ गई। वह आँख नीचे िकए रसोईघर से चाय का एक और याला लेने
चली गई।

:2:
‘‘बेटा सुरजीत,’’ सोहन िसंह ने दोपहर क भोजन क समय अपने पोते से पूछ िलया, ‘‘रिडयो या गा रहा था?’’
रिववार का िदन था। िविच िसंह द तर नह गया था। सोहन िसंह तो रटायड सैिनक था। वह घर ही रहता था।
भोजन क मेज पर िपता, पु , पौ और ब क माँ बैठ थे। बाबा क न का उतर पोती मोिहनी ने दे िदया। वह
चार वष क बािलका अभी तोतली भाषा म ही बात करती थी। उसने स वदन बाबा को बताया, ‘‘घुंद िवत
अखाँ मार।’’
सब हसने लगे। सोहनी क आँख अपनी लेट क ओर झुक ही रह गई और उसक गाल आँख तक लाल हो रह
थे।
‘‘अखाँ िकस तराँ मारदे ने?’’ िविच ने ब ी से लाड़ क साथ पूछ िलया।
‘‘ऐस तराँ।’’ मोिहनी ने तोतली भाषा म कहते ए एक आँख म चकर िदखा िदया।
सोहन िसंह ने एक दीघ िन ास छोड़ा और कह िदया, ‘‘जमाना ब त तेजी से बदल रहा ह, िविच ।’’
‘‘हाँ, भापा, अब पूतिनक चाँद और मंगल तक जाने लगे ह।’’
‘‘और यह हमारी ब ी तो इस छोटी सी उ म ही शिन तक प च गई।’’
िविच इस यं य को समझ नह सका और हसने लगा। हसकर कहने लगा, ‘‘भापा, ब त यारी लगती ह।’’
‘‘िविच ! तुम अपनी माँ को इससे भी यार लगते थे, परतु अब वह बेचारी वग म बैठी तुमको आठ बजे तक
िब तर म करवट लेते देख रोती होगी।’’
‘‘ य ?’’
‘‘िवचार करती होगी िक वह गुलाब क फल सा सुकमार िविच , िजसको वह चूमती-चूमती थकती नह थी,
अब उसको कभी याद भी नह करता।’’
‘‘भापा, वह जानती ह िक म उसको रोज याद करता ।’’
‘‘अ छा, भला, कसे याद करते हो?’’
‘‘सोहनी जैसी सुंदर प नी ले देने क िलए। जब-जब म उसक ओर देखता , मेरा दय माँ क ित कत ता से
भर जाता ह।’’
‘‘इससे वह स नह हो सकती। म समझता िक वह रोती होगी यह देख-देखकर िक िविच , जो पैदा होने
पर तो मानव था, भगवा का प था, अब संसार पी क चड़ म लोट-पोट होनेवाला सूअर ही िनकला ह।’’
‘‘भापा, म सूअर नह ।’’ िविच ने तमककर कहा।
‘‘बेटा, मेरी तो आँख दुबल पड़ गई ह। मुझको तो मनु य और सूअर म अंतर िदखाई पड़ता नह । इस पर भी
कोई कह रहा था िक िविच सूअर क भाँित फ-फ करता आ सोहनी क पलंग क चार ओर च र काटा करता
ह और सुबह आठ बजे तक न द म खरम त पड़ा रहता ह।
‘‘भगवा भला कर सरकार का। द तर म बाबु क सं या ब त अिधक हो गई ह। द तर म चपरासी दस
बजे प चते ह और बाबू यारह बजे। िविच जैसे सूअर को भी वहाँ करसी िमलती ह और वह फ-फ◌ू करता
आ अफसर क गुणगान करता ह।’’
‘‘भापा, यह तो मेरा ब त अपमान िकया जा रहा ह?’’
‘‘तो उससे पूछो, िजसने कहा। म तो सुननेवाला ।’’
:3:
‘‘समझे ह, भापाजी या कह रह थे?’’ सोहनी ने एकांत म अपने पित से पूछ ही िलया।
‘‘ या क , ह िपताजी। कोई और होता तो लात मारकर घर से िनकाल देता।’’
‘‘ य ?’’
‘‘मुझको सूअर जो कहा ह।’’
‘‘जी नह , उ ह ने नह कहा। उ ह ने तो िकसी को कहते सुना ह।’’
‘‘कौन बदमाश का ब ा कहता ह यह?’’
सोहनी ने पित क मुख पर हाथ रखते ए उसको चुप कराते ए कहा, ‘‘आप बात-बात पर गाली देते ह। यही तो
भापाजी कह रह थे। देखो जी, आज सुबह आप सुरजीत को गाली दे रह थे, ‘सूअर का ब ा।’ ब ा वह आपका
ह। आपने अपने को वयं ही सूअर कहा था।’’
‘‘ओह, तो यह बात ह।’’
‘‘और अब आप, आपको सूअर कहनेवाले क अथा अपने आपको बदमाश का ब ा कहने लगे। मतलब यह
ह िक भापाजी को बदमाश कह रह ह।
‘‘पर मने सुरजीत को सूअर का ब ा कहा था या?’’
‘‘हाँ, न द म, मगर अब अपने को बदमाश का ब ा तो जागते ए ही कह रह ह। न द म तो अंतरा मा बोलती
ह, तो इसका अिभ ाय यह आ िक आपक अंतरा मा आपको सूअर कहती ह।’’
‘‘तो तुम भी मुझको गाली देने लगी हो?’’
‘‘जी नह , म तो आपक अंतरा मा क बात कह रही ।’’
:4:
िविच िसंह घबराया आ िपताजी क कमर म जा उनक चरण पकड़ बैठा। सोहन िसंह ने पूछा, ‘‘ या ह?
िविच , या हो गया ह?’’
‘‘भापा, सोहनी ने मुझको समझा िदया ह िक म ही वह गधे का ब ा , जो अपने पु को सूअर का ब ा कह
रहा था?’’
सोहन िसंह हस पड़ा और बोला, ‘‘तुमने अब ठीक बात कही ह। तु हार गधे बाप ने तुमको कछ भी अ क
बात नह िसखाई। तुमको सोहनी से यह भी पूछना चािहए था िक सुरजीत रिडयो म या सुन रहा था?’’
‘‘ या सुन रहा था, भापा?’’
‘‘रिडयो गा रहा था, ‘बाबे दी नूं घुंड िबच अिखयाँ मार।’ सोहनी को पूछना, िकतना मजा आया था उसको
सुनकर।’’
‘‘भापा, यह रिडयोवाल का दोष नह । यह तो लोकगीत ह।’’
‘‘खाक ह। कोई बदमाश, गँवार, अनपढ़ कह अपने िवकत मन क या या गाता होगा और रिडयोवाल ने
उसको संतवाणी समझ ककना आरभ कर िदया।’’
‘‘देखो िविच , सुबह उठ सुखमनी का पाठ िकया करो, जपुजी का जाप करो। तब तु हारी समझ म आएगा, यह
लोकगीत नह , बदमाश का गीत ह। अिधकांश लोग ऐसा नह गाते।’’
‘‘पर भापा, इन रिडयोवाल को कौन समझाएगा?’’
समझाने क ज रत नह । तुमको अपनी बु ठीक करने क ज रत ह। बु ठीक होगी, तो न तो रिडयो
बजेगा, न ही गधे का ब ा अपने पु को सूअर का ब ा कहगा।’’
q
अिल
क णिकशोर लाहौर क एक कॉलेज म अं ेजी का ा यापक था। सािह यक अिभ िचवाले अ य य य क
भाँित ही क णिकशोर भी व न-लोक म िवचरण िकया करता था। वह कहािनयाँ िलखकर पि का म कािशत
करवाता। उसक कहािनय क खूब माँग थी। वह आ यकारक च र क िच ण क िलए िस था। िजस
कार उसका अपनी लेखनी पर अिधकार था, वैसी ही उसक वाणी भी थी और जब कभी उसको अपने मन-भावने
लेखक क िवषय पर बोलने का अवसर िमलता, तब वह उस लेखक क मु य-मु य च र का िच ण
िव तारपूवक करता।
एक िदन कािलदास क शकतला का िच ण उसने अपनी क ा म ारभ िकया। िनमीिलत-नयन वह बोलता ही
गया। उसक ारा िकया गया शकतला क सुंदरता का वणन ब त ही रोचक था। उसने िशख से लेकर नख तक
शकतला क स दय का वणन िकया। इस वणन म पया समय यतीत हो गया, िकतु उसक वाणी म इतना माधुय
और इतनी रोचकता थी िक पी रयड क घंटी बजने पर भी िकसी छा ने उसका यान इस ओर आक नह
िकया। वह वयं तो मानो अ यापन-क ा म था ही नह । उस समय उसका म त क, सह वष पीछ
ागैितहािसक युग म, जबिक कमा रकाएँ िनभय होकर सघन वन म मण िकया करती थ और जब दाशिनक-गण
नगर क अपे ा व य-जीवन को ाथिमकता देते थे, िवचरण कर रहा था। उसने अपने म त क म एक आ म-
क या का िच अंिकत कर िलया था और अब क पना क उड़ान भरता आ वह उसका िच ण कर रहा था।
यथासमय उसका िच ण पूण आ और ोता-छा क साथ-साथ वह वयं भी िनमीिलत ने से वयं-िनिमत
य का अवलोकन करने लगा। वह य इतना आनंददायक था िक कछ ण क िलए वह मु छना-लोक म
िवचरण करने लगा। छा भी इतने मं मु ध से हो गए थे िक अपने-अपने थान पर मानो उ ह थर कर िदया गया
हो, इस कार वे िन ल बैठ ए थे। कछ ही ण म क णिकशोर ने अपने ने को खोला और अ यापन-क ा
एवं छा क वहाँ पर उप थित से उसक म त क म अंिकत वह का पिनक य ितरोिहत होने लगा। वह अपनी
साधारण थित म आ गया और अपने स मुख बैठ छा से उसने पूछा, ‘‘ या समय आ ह?’’
‘‘दो पी रयड बीत गए ह।’’
‘‘ओह, मुझे खेद ह िक मने ब त समय ले िलया। अब आप जा सकते ह।’’
इस कार छा शांितपूवक क ा से बाहर हो गए और क णिकशोर अ यापक-क म चला गया।
ठीक इसक दूसर िदन उसको एक प ा आ। इसे पढ़ने पर वह िविच थित म पड़ गया। उसने उस प
को बार-बार पढ़ा, मानो उसम से वह कछ ढढ़ना चाहता हो, िकतु पाने म असमथ रहा। प कोई ब त लंबा नह
था। उसम कछ ही पं याँ थ , जो इस कार थ —
महोदय,
कल का आपका शकतला का वणन िन त ही मेरा वणन था। म देख रही थी िक आपक आँख अ -
िनमीिलत थ और उनक पुतिलयाँ मुझ पर कि त थ । िन संशय आपने नख से िशख तक मेरा ही वणन िकया ह
और यह बात तो मुझ पर तब और भी प हो गई, जब आपने िचबुक पर ितल का उ ेख िकया। िन त ही
वह ितल आपने मेरी िचबुक पर देखा था।
आपक या या इतनी िव तृत थी और इस कार िव तृत क गई थी िक मुझे इसम संदेह ही नह रहा िक आप
मुझसे ेम करते ह। यिद ऐसा ह, जैसा िक मेरा िव ास ह, तो म आपको चेतावनी देती िक भिव य म आप
सावधान रह। इसका प रणाम ब त ही बुरा भी हो सकता ह।
—आपक
आप भली कार जानते ह।
अनेक बार इस प को पढ़ने क अनंतर ोफसर ने उसको मोड़कर अपने कोट क ऊपरी जेब म रख िलया।
उसका अनुमान था िक क ा म कोई इस कार क छा ा होगी, िजसक िचबुक पर ितल होगा और िकसी शरारती
छा ने उन दोन क िख ी उड़ने क िलए यह दु क य िकया होगा। वह जानना चाहता था िक या वा तव म
कोई ऐसी छा ा ह भी िक नह । उस िदन क ा म पढ़ाते ए उसक ि ऐसी छा ा क खोज करती रही थी,
िजसक िचबुक पर ितल हो। सौभा य से थम पं म ही बैठी ई एक ऐसी छा ा पर उसक ि अटक गई।
सहसा उसक म त क म एक िवचार आया और उसने छा से कहा िक कल वे ‘मेरा ि य लेखक’ इस शीषक
से एक िनबंध िलखकर लाएँ।
इस कार दूसर िदन उसने घर पर संशोधनाथ ले जाने क िलए सबक कॉिपयाँ एकि त क । इसम उसने उस
छा ा क कॉपी िवशेष यान से रखी, िजसक िचबुक पर उसने ितल देखा था। उसे यह देखकर िव मय आ िक
कॉपी देते समय वह छा ा काँप रही थी। कॉिपयाँ एकि त करने क बाद उसने छा से कहा िक उनम से कछ
िनबंध को वह कल क ा म अपनी समालोचना क साथ तुत करगा।
घर पर जाकर उसने इस रह यमय प का लेख और उस छा ा क लेख को िमलाया। उसने देखा िक दोन म
समानता ह। इतनी समानता संदेह क िलए कारण ही नह रह गया था। इससे भी बढ़कर िव मय क बात यह थी िक
उस छा ा का नाम भी शकतला था, िजसे उसने कॉपी क आवरण पर िलखा आ देखा। इससे यह प हो गया
िक प छा ा ने वयं ही िलखा ह। इससे ोफसर ने यही अनुमान लगाया िक वह छा ा वयं को ब त सुंदर
समझती ह, जबिक उसक यह धारणा ांत ह। वह ोफसर क ‘ व नलोक क शकतला’ नह हो सकती थी।
अगले िदन पूव िन यानुसार उसने अपनी समालोचना क साथ कछ िनबंध को क ा म पढ़कर सुनाया। उसम
शकतला का िनबंध भी सुनाया और उसक इतनी कट आलोचना क िक शकतला क आँख म आँसू भर आए।
ोफसर ने भी उन आँसु को देखा और इससे उसक िवचार कछ और ही बन गए। उसने अनुमान लगाया िक वह
छा ा समझती होगी, य िक म उससे यार करता , अतः म क ा म उसक िनबंध क भू र-भू र शंसा क गा,
िकतु अब उसक िवपरीत बात देखकर उसे आघात प चा ह और उसक प रणाम व प उसक आँख म आँसू भर
आए ह। इससे ोफसर ने अनुमान लगाया िक वह छा ा वयं उसे यार करती होगी और उसक िवचार को
उकसाने क िलए ही उसने वह प भेजा होगा। अब ये आँसू उसक िनराशा क सूचक ह।
जब उसने अपने मन म इस िवषय पर इस कार िवचार िकया तो उसको सां वना िमली। कछ भी हो, वह उसको
यार नह कर सकता था, य िक वह उसक व न क रानी नह थी।
उसी िदन सायंकाल जब वह कॉलेज से घर जा रहा था, उसने देखा िक उसी माग से वह लड़क अकली जा रही
ह। उसने अपनी साइिकल कछ तेज क और जब वह उसक िनकट प च गया, तो उससे बोला, ‘‘शकतला, यह
लो तु हारा प ।’’
शकतला ने िव मय से उसक ओर देखा और कहने लगी, ‘‘कौन सा प ? म इस िवषय म कछ नह जानती।’’
‘‘कमारीजी, अस य भाषण मत क िजए। यह प वापस लीिजए और यह भी जान लीिजए िक आपको यह ांित
हो गई थी िक आप मेरी शकतला का उदाहरण हो सकती ह, पर मने तु हार िवषय म कभी इसक अित र अ य
कोई िवचार ही नह िकया िक तुम कवल मेरी िश या हो।’’
शकतला अभी भी िव फा रत ने से उसे िनहार रही थी।
उसको अ यमन क-सी पा ोफसर ने पुनः कहा, ‘‘म समझता िक इससे तु ह िनराशा ई ह, यह इसिलए िक
तुम मुझसे कछ अनपेि त क अपे ा करती थी। तु ह चािहए िक एक सुशील छा ा क भाँित अपने अिभभावक
क आ ाका रणी रहो। ई र तु हारा भला कर।’’
इतना कह उसने वह प उसक स मुख फका और अपनी साइिकल पर सवार होकर आगे बढ़ गया।
शकतला ने प उठाया। अपनी तु छता का अनुभव कर उसक टकड़-टकड़ कर सड़क पर फक िदए।
ोफसर िकशोर अपनी साइिकल पर घर क ओर जाता आ गुनगुना रहा था—
‘‘उ मु िवहग क नाई, र म भी,
अिल , इस भव-बंधन से।’’
q
यथाथवाद
‘‘ ीमानजी, यह चलेगी नह ।’’
‘‘ य ?’’
‘‘इसम यथाथता का अभाव ह।’’
‘‘वह या होती ह?’’
‘‘जो जैसा ह, उसका वैसा ही वणन करना।’’
‘‘परतु स य या ह?’’
‘‘देिखए बाबू साहब, आप पढ़-िलखे ह। कछ लोग आपको िव ा भी कहते ह। आपक िलखी रचनाएँ पढ़ी
भी अव य जाती ह, परतु वे सदा यथाथ से दूर होती ह। अब आप पूछते ह िक कसे? म भला कसे बता सकता ?
म तो न लेखक , न ही िव ा । यिद आप इस िवषय म जानना चाहते ह तो डॉ टर िदनेशजी से िमल लीिजए। वे
पी-एच.डी. इन इगिलश िल चर ह। उ ह ने सािह य-समालोचना पर कई ंथ िलखे ह।’’
‘‘परतु उप यास तो उ ह ने कोई िलखा नह । कम-से-कम मेर ान म नह ह।’’
‘‘पं ह वष पूव एक िलखा तो था। हमने ही उसे कािशत िकया था।’’
‘‘ या नाम ह उस उप यास का?’’
‘‘िन णात।’’
‘‘अ छा, सुना नह ।’’
‘‘ थम सं करण दो सह ितय का छपवाया था। उन िदन हमारा काम भी कछ ढीला था। हमारा िब का
बंध इतना अ छा नह था और डॉ टर साहब भी तब इस पदवी पर नह थे, िजस पर िक आज ह। वह सं करण
अभी तक समा नह आ। इस वष क आरभ म टॉक लेने पर देखा िक एक सौ से अिधक ितयाँ पड़ी ह।’’
‘‘तो इस वष तो उनक िब ई होगी। अब तो पचास से अिधक आपक एजट देश भर म घूमते ह।’’
‘‘परतु उस पु तक को िलखे अब पं ह वष हो गए ह। तब क यथाथ और आज क यथाथ म अंतर आ गया ह।
देश ने भारी उ ित क ह। इसिलए उनका वह यथाथ वणन आज अयथाथ हो गया ह।’’
वा ालाप हो रहा था एक लेखक और एक काशक म। लेखक थे कवल और काशक थे मैसस नॉदन इिडया
प लशस ाइवेट िलिमटड। कवल एक उप यास िलखकर लाया था और इस काशन सं था क यव थापक से
इसक काशन क िलए कह रहा था। इस पर उ वा ालाप आ था।
लेखक क यह थम रचना नह थ । कई पु तक पहले िनकल चुक थ , परतु उनका काशक एक पूँजी-िवहीन
दुकानदार था। एक तो उस काशक का अपना छोटा सा ेस था, िजसम एक िडल मशीन लगी थी। उसी मशीन
पर छपाई का अ य काय भी होता था। पु तक तो ेस म खाली समय म छप जाया करती थी। तीन सौ पृ क
एक पु तक क छपने म छह मास लग जाना साधारण बात थी, िफर धनाभाव क कारण कभी पु तक का सं करण
समा हो जाता, तो नए सं करण क िलए कागज खरीदने म साल लग जाते।
कवल क मन म िवचार आया िक िकसी पैसेवाले काशक क पास जाए तो अ छा रहगा। उसक उप यास क
शंसक म से ीमती शकतला कह िकसी सभा म उससे िमल , तो कहने लग िक वह अपनी पु तक नॉदन
इिडया प लशस को य नह देते?
कवल ने कहा, ‘‘वे ब त बड़ आदमी ह। मेरा उनसे प रचय नह ह।’’
‘‘इसम प रचय क या बात ह? म मैनेजर को कह दूँगी, आप जैसे िलखनेवाले क िलए वे ही काशक उपयु
हो सकते ह।’’
‘‘आप प रचय-प दे दीिजए। मेर पास इस समय भी एक उप यास क पांडिलिप तैयार ह।’’
‘‘प रचय-प क आव यकता नह । कल िकसी समय आप उसक मैनेजर क णकांत से िमल लीिजए। आप
जाएँगे तो आपको पता चल जाएगा िक आपक िवषय म कहा जा चुका ह।’’
कवल को इस कार जाने म संकोच होता था। वह उलटी खोपड़ी का य था। संसार म सवथा िवल ण और
मानापमान क िवषय म दूसर से िभ िवचार रखनेवाला। वह समझता था िक उसक पु तक क अ छी िब
होती ह, अतः उसका काशक क पास जाकर ाथना करना तो अपनी कला का अपमान कराना ह।
इस पर भी इस िवचार से िक कदािच उसक याित अभी उतनी नह ई, िजतनी काशक को आकिषत करने
क िलए चािहए। अतः उसको अभी काशक क पास जाकर य न करना ही चािहए। इससे वह शकतला देवी से
ो साहन पा क णकांत क पास जा प चा।
यह ठीक था िक यव थापक महोदय ने कवल का नाम सुनकर कहा था, ‘‘आपक िवषय म शकतलाजी ने
कहा था।’’
इससे उ सािहत हो कवल ने अपनी नवीन कित ‘सोमरस’ क छपवाने क बात कर दी और यव थापक महोदय
ने उ वा ालाप आरभ कर िदया।
:2:
कवल ने जब यह सुना िक एक लेखक, िजसका िलखा आ उप यास पं ह वष म अ भु यमान (ओबसोलीट)
हो जाता ह, तो वह िवचार करने लगा था िक ऐसा लेखक दूसर को यथाथ से दूर कहकर उनक कसे िनंदा कर
सकता ह। उसका यथाथ इतनी ज दी अयथाथ हो रहा ह िक यथाथ हो सकता ही नह ।
इस िवचार क आते ही उसक मन म लािन ई। उसने अपनी पु तक क पांडिलिप उठाई और उठते ए कहने
लगा, ‘‘ मा कर, आपका इतना समय यथ म गँवाया ह। अ छा, नम कार!’’
वह जाने क िलए घूमा, तो यव थापक ने कहा, ‘‘कवलजी, सुिनए तो!’’
कवल घूमकर खड़ा हो गया। बैठा िफर भी नह । क णकांत कहने लगा, ‘‘म समझता िक शकतलाजी क
कहने का मान रखने क िलए हम आपका एक उप यास तो कािशत कर ही देना चािहए।’’
‘‘देिखए, आप तो इस िलिमटड कपनी क मैनेजर-मा ह। आपको कपनी क धन को िसफा रशी लोग क कहने
पर यथ नह गँवाना चािहए। मेरी राय मािनए, डॉ टर िदनेशजी से कोई नया उप यास िलखवाकर कािशत क रए।
उनसे किहए िक उनका पहला यथाथ तो अयथाथ हो गया ह। अब िकसी नवीन यथाथ पर एक उप यास िलख
द।’’
‘‘आपका शकतलाजी से कसा प रचय ह?’’
‘‘ या मतलब!’’ कवल ने सतक हो पूछा। उसको ऐसा न ब त ही भ ा तीत आ था। िकसी पु ष से यह
पूछना िक अमुक ी से उसका कसा प रचय ह, एक अनगल बात थी। इस पर भी उसने अपनी और शकतला क
सफाई देना उिचत समझा।
क णकांत तो अपने न म िकसी कार का अनौिच य नह देख सका। इस कारण मुसकराता आ कवल क
मुख क ओर देखता रहा। कवल ने ही कहा, ‘‘म उनक िवषय म कछ नह जानता। वह कल िकसी सभा म
अ य ा थ और म ोता। सभा क संयोजक ने सभा क उपरांत उनसे मेरा प रचय कराया, तो बात -ही-बात म
उ ह ने मुझको आपसे िमलने क िलए कहा था। इससे अिधक म उनको नह जानता।’’
क णकांत ने अपने न का कारण बताते ए कहा, ‘‘मने तो इसिलए पूछा था िक या आप यह जानते ह
अथवा नह िक वे हमारी काशन सं था क अिधपितय म से एक ह।’’
‘‘ओह, तब तो आपको यह सबकछ, जो आपने डॉ टर िदनेश क िवषय म अपनी स मित बताई ह, उनको
बताना चािहए थी। इससे उनको आपक इतने महापु ष से प रचय का ान हो जाता। अ छा, अब मुझे आ ा
दीिजए। मुझे एक अ य थान पर भी जाना ह।’’
क णकांत अभी िवचार ही कर रहा था िक वह इसको कवल क िवनय-भावना समझे अथवा अिभमानयु
कथन, िक कवल दुकान से बाहर िनकल गया। दो ही िमनट म पुनः कवल को शकतला देवी क साथ भीतर आते
देख वह और भी अिधक परशानी अनुभव करने लगा था। वह सोच रहा था िक उसका डॉ टर िदनेश क इस
याित- ा लेखक क िवषय म पूण स मित बतानी पड़गी।
‘‘क णजी,’’ शकतला ने मैनेजर क सामने बैठते ए कहा, ‘‘आपने कवलजी क नवीन कित देख ली ह।’’
‘‘जी नह , देखी तो नह ।’’
‘‘आपने इनक कोई कािशत पु तक पढ़ी ह?’
‘‘उप यास पढ़ने क िलए मुझे अवकाश ही कहाँ िमलता ह!’’
‘‘तो िफर आपने इनक पु तक छापने से एकदम इनकार य कर िदया ह?’
‘‘कछ िदन ए इनका उ ेख डॉ टर िदनेशजी क साथ आ था और उनक बात मुझको मरण थी। मने वही
बात इनको बता दी ह। इससे यह होकर चल िदए।’’
‘‘तो यह बात ह। लेिकन डॉ टर िदनेश कब से उप यासकार बने ह?’’
‘‘समालोचक तो वे चोटी क माने जाते ह।’’
‘‘इनक िवषय म उ ह ने या समालोचना क ह?’’
‘‘वे कहते थे िक कवलजी यथाथवादी नह ह। यह आदशवादी ह। यह कलाकार नह ह, उपदेशक ह। ये
भाषािव नह ह, यह बाजा भाषा िलखते ह।’’
इस स मित को सुन लाल मुख शकतला चुप रही। वह डॉ टर िदनेश को भलीभाँित जानती थी। कॉलेज म वह
उससे पढ़ती रही थ । इससे वह कवलजी क िवषय म उससे िमलने का िवचार करने लगी थ ।
शकतला को चुप देख क णकांत ने अपनी सफाई देते ए कहा, ‘‘मुझे इस कपनी म धन लगानेवाल क हािन-
लाभ का िवचार तो करना ही चािहए। कपनी क याित का भी यान रखना पड़ता ह।’’
शकतला ने क णकांत से तो कछ नह कहा। उसने कवल क हाथ से पांडिलिप लेकर कहा, ‘‘आइए मेर साथ।
म इस िवषय म कछ खोज करना चाहती ।’’
दोन उठकर दुकान से बाहर आ गए।
:3:
कवल शकतला क खोज का अथ समझ नह पाया। इस कारण दुकान से बाहर आ, वह न भरी ि से
शकतला क ओर देखने लगा।
शकतला अपनी मोटरकार म आई थी। उसने मोटर दुकान क पास खड़ी ही क थी िक अपनी पु तक क
पांडिलिप बगल म दबाए कवल दुकान से बाहर िनकल रहा था। कवल ने शकतला को देखा, तो नम कार िकया।
शकतला ने समझा िक मैनेजर भीतर नह होगा, इस कारण यह िनराश लौट रहा ह। उसने पूछा, ‘‘कवलजी! मैनेजर
नह ह या भीतर?’’
‘‘ह।’’
‘‘आपको िमले नह ?’’
‘‘िमले तो ह, िकतु उ ह ने पांडिलिप अ वीकार कर दी ह।’’
‘‘ य ?’’
‘‘यह अब आप पता कर लीिजए। मुझसे तो स य िछपा भी सकते ह।’’
एक ण तक िवचार करने क बाद शकतला ने कहा, ‘‘आप आइए, म भी तो समझ लूँ िक या मतलब ह
उनका।’’
‘‘ यथ ह।’’
‘‘कवलजी! आइए तो।’’
शकतला ने पांडिलिप अपने हाथ म पकड़ ली और दुकान म चली गई। िववश कवल को भी पुनः दुकान म
जाना पड़ा। अब जब वे बाहर आए तो कवल गंभीर िवचार-म न था और शकतला ोध से लाल हो रही थी। उसने
कहा, ‘‘गाड़ी म बैठ जाइए, म डॉ टर िदनेश से िमलने क िलए जा रही ।’’
‘‘आप यथ म ही अपना समय और पे ोल यय कर रही ह। मुझे तो अपनी यो यता पर ही संदेह होने लग गया
ह।’’
‘‘जरा म देखना चाहती िक मेर ोफसर आपक िवषय म या और य कहना चाहते ह?’’
‘‘तो आप जाइए। मुझे तो इसम कछ सार तीत नह होता।’’
‘‘आप डॉ टर िदनेश से प रिचत ह।’’
‘‘म तो उनको पहचानता नह ।’’
‘‘तो वे भी आपको नह जानते ह गे। इस कारण आपका नाम नह बताऊगी। आप भी कवलजी से अप रिचत
य बन जाइएगा। अपनी उप थित म अपने िवषय म कही जानेवाली बात का आनंद भी लीिजएगा।’’
कवल ने आपि नह क । शकतला वयं कार चला रही थी। कवल को लेकर यूिनविसटी ए ेव म डॉ टर
िदनेश क कोठी पर जा प ची। वह जानती थी िक शिनवार क िदन डॉ टर घर पर ही होता ह। शकतला क कार
कते ही डॉ टर बरामदे म आ गए।
‘‘आओ, शकतला, कसे आना आ?’’
‘‘आज तो म यापार-संबंधी बात करने क िलए आई । आपने वचन िदया था िक ‘आधुिनक अं ेजी क
किवता पर समी ा’ नामक पु तक हमारी कपनी को दगे। सुना ह, वह तैयार ह, म उसक पांडिलिप लेने क िलए
आई ।’’
‘‘मेरी शत तो आपको िविदत ही ह। म बीस ितशत रॉय टी लेता और वह भी पूण पु तक का अि म ही।’’
‘‘िकतने पृ क पु तक होगी?’’
‘‘साढ़ चार सौ पृ क ।’’
‘‘इसका मू य तीस पए हो जाएगा।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘दो सह ितय क रॉय टी ई बारह हजार।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘आप आधा अि म ले लीिजए और आधा एक वष बाद।’’
‘‘नह , मुझे अ य काशक अि म देने क िलए तैयार ह, म उनसे अिधक क माँग कर रहा ।’’
‘‘तो हमसे भी अिधक ही लगे।’’
‘‘नह , आप मेरी छा ा रही ह। इस कारण आपसे सौदेबाजी नह क गा। आप बारह हजार क चैक क साथ
अनुबंध िलखकर भेज दीिजए।’’
‘‘पु तक कब िमलेगी?’’
‘‘एक-आध स ाह का काम और ह। पया िमल जाने से शी समा करने म उ साह बढ़गा।’’
‘‘अ छा, एक बात और ह, आपने कवल नामक िहदी क उप यासकार का नाम सुना ह?’’
‘‘हाँ, सुना ह।’’
‘‘उसने एक पु तक हमार पास काशन क िलए भेजी ह।’’
‘‘ या नाम ह?’’
‘‘सोमरस।’’
‘‘यह भी भला कोई नाम ह? यह िकसी आयुवद क ंथ का नाम तो हो सकता ह, उप यास का नह ।’’
शकतला मुसकराकर पूछने लगी, ‘‘आपने कभी कवल का कोई उप यास पढ़ा ह?’’
‘‘मेर पास सोमरस पीने क िलए समय नह ह। न ही उसक आव यकता ह।’’
‘‘तब तो आपको यथ ही क िदया ह। म समझती थी िक उसक िवषय म आप कछ जानते ह गे। देिखए,
इसक एक रचना ‘संत समाज’ तो िपछले पाँच वष म हमारी दुकान से दो हजार से ऊपर िबक चुक ह और अभी
भी सार देश क दुकानदार से माँग आ रही ह।’’
‘‘पाठक म िकसी उप यास क माँग उसक े ता का माण नह होता।’’
‘‘तो िकसी व तु क े ता का या माण ह?’’
‘‘जब कोई िव ा उसक िसफा रश कर?’’
‘‘और िव ा क िव ा का या माण ह?’’
‘‘वाह, यह भी कोई बताने क बात ह!’’
‘‘परतु िव िव ालय क एक ा यापक क पास तो समय नह ह इस याित- ा लेखक क िवषय म कछ
जानना चाह।’’
डॉ टर हस पड़ा। कहने लगा, ‘‘यह मेर िवषय म कहने लग गई हो।’’
‘‘हाँ और नह भी। आप इसक िवषय म कछ तो जानते ह, परतु अनेक ऐसे ह, जो उतना भी नह जानते।’’
‘‘म या जानता ।’’
‘‘यही िक आप जानते ह िक आप कछ नह जानते।’’
दोन हसने लगे। डॉ टर ने झपते ए पूछा, ‘‘तो न जानना भी िकसी कार का जानना होता ह।’’
‘‘हाँ, जब भ परमा मा क िवषय म यह कहता ह िक वह अवणनीय ह, तो वह ानवान समझा जाता ह। इस
कार भ अपने ान क सीमा का वणन करता ह।’’
‘‘ऐसी बात नह । म कवल क िवषय म जानता । वह न तो उप यासकार ह, न ही कलाकार, वह यथाथवादी
नह । आदशवादी ह और यह बात उप यासकार का दोष माना जाता ह, गुण नह ।’’
‘‘यह आपको िकसने बताई ह?’’
‘‘िकसिलए पूछती ह?’’
‘‘देिखए, यहाँ कवल तो बैठा नह , जो िकसी पर मानहािन का दावा कर दे। म तो उसक िवषय म िकसी िव ा
का मत जानने क िलए चली थी। इसी कारण आपसे पूछ रही । अब उस मत को जानकर स हो गई ,
िजसको आप अपने से अिधक िव ा मानते ह और िजसक मत से आपने कवल को अयो य मानने म संकोच
नह िकया, परतु वे महापु ष ह कौन?’’
इस कार िकसी को अपने से अिधक िव ा समझा जाना डॉ टर साहब को अभी नह था, परतु वह यह भी
कहना नह चाहता था िक उसने अपनी स मित िकसी ऐर-गैर न थू-खैर क मुख से सुनकर बनाई ह। इस कारण
िकसी बड़ आदमी का नाम लेना चाहता था, परतु िकसका नाम ले? एकाएक डॉ टर साहब को एक बात सूझी।
कछ िदन पहले ही उसक क णकांत से कवल क िवषय म बात ई थी और वह कवल क िवषय म कछ ऐसे ही
िवचार रखता था। एक बड़ी काशन-सं था क मु य यव थापक का नाम ले देना डॉ टर साहब को पसंद आया।
उसने कहा, ‘‘एक तो क णकांत ही ह। वह अथशा म एम.ए. ह। उसक भी ऐसी स मित ह।’’
‘‘अ छा, वह ऐसा कहते थे? स य ही ब त यो य य ह वह। तब तो मानना ही पड़गा। अ छा, डॉ टर
साहब, बारह हजार का चेक कल ही िमल जाएगा। पु तक हमारी रही।’’
बारह हजार का नाम सुन डॉ टर साहब कछ नरम से पड़ गए और कहने लगे, ‘‘कछ चाय वगैरह नह िपयोगी,
शकतला?’’
‘‘चाय तो हम पीकर ही चले थे, भोजन अब घर जाकर कर लगे।’’
‘‘आपने इनका प रचय तो कराया ही नह ।’’
‘‘ये मेर दूर क कोई र तेदार ह। िद ी देखने आए ए ह।’’
इस कार ये दोन वहाँ से िवदा ए। शकतला ने मोटर म बैठ, हसते ए कहा, ‘‘अब आपको कहाँ जाना ह?’’
‘‘मुझे घर ही जाना ह। आप ट सी- टड पर मुझे छोड़ दीिजए।’’
‘‘म इिडया गेट क ओर जा रही । आपको लालिकले पर छोड़ दूँगी।’’
‘‘ठीक ह।’’
दोन शांत भाव से जा रह थे।
लालिकले क समीप प चकर शकतला ने गाड़ी खड़ी कर दी। कवल गाड़ी से उतरा और उसने शकतला से
अपनी पांडिलिप माँगी। शकतला ने पूछा, ‘‘ य , छपवानी नह ह?’’
‘‘जी नह , म कोई अिव ा काशक ढढ़ना चा गा, परतु म इससे पूव डॉ टर साहब क कोई कलापूण कित
पढ़कर ानवान बनना चाहता ।’’
‘‘बात यह ह कवलजी, मेरी खोज अभी समा नह ई। मुझे अपनी सूझबूझ पर अभी भी संदेह नह ह। म अभी
और य न क गी।’’
‘‘आप अपना मू यवान समय इस तु छ सी बात क िलए यय कर घाट म ही रहगी। मुझे यह दे दीिजए। म अब
समालोचनाएँ ही िलखा क गा। उप यास िलखना बंद कर दूँगा।’’
शकतला मुसकराई और बोली, ‘‘कदािच बारह हजार क रािश सुन मुख से लार टपकने लगी ह?’’
‘‘जी नह , म जानता िक बारह हजार आपक कपनी नह दे रही। यह तो भारत भर क पु तकालय डॉ टर
साहब क पु तक खरीदकर दगे। यह उनक पदवी उनको िदला रही ह।’’
‘‘हाँ, यह तो ह ही। डॉ टर साहब क याित ही उनको इतनी बड़ी रॉय टी िदलवा रही ह।’’
‘‘वा तव म म समालोचना इस कारण िलखने का िवचार नह कर रहा िक उससे मुझे कछ धन िमलेगा। मेरा इस
कार क पु तक िलखने का िवचार इस कारण ह िक मेरी भी पु तक िबना पढ़ शंसा क पा बन सकगी।’’
शकतला हस पड़ी। उसने पांडिलिप वापस नह दी और मोटर लेकर चली गई।
:4:
इस घटना क कई िदन बाद एक सभा म शकतला क कवल से पुनः भट ई। सभा क उपरांत कवल वहाँ से
भाग जाना चाहता था। उसको अपनी पु तक अ वीकार िकए जाने क अि य श द सुनने म िच नह थी, परतु
शकतला ने कवल का माग रोक िलया। कहने लगी, ‘‘कवलजी, ब त ज दी म ह या?’’
‘‘जी नह , ज दी म तो नह , िकतु म सोचता था िक आपका समय यथ म य न क । यथाथता यह ह
िक म आजकल अपने ानव न म लीन और इस कारण अपने जीवन का एक-एक ण भी मू यवान अनुभव
करने लगा ।’’
‘‘म आपसे िमलने का िवचार कर रही थी। एक तो आपक घर का पता मालूम नह था और दूसर आपक
मू यवान समय का िवचार आ रहा था। खैर, अब तो आप िमल ही गए ह। इतना समय तो आपका जा ही चुका ह।
उसका कछ लाभ तो आपको हो ही जाना चािहए। आइए, िकसी थान पर बैठकर बात करगे।’’
िश ाचार क नाते कवल और अिधक इनकार नह कर सका। उसने कवल इतना कहा, ‘‘म तो आपक मू यवान
समय क ही बात सोच रहा था।’’
‘‘आप आइए भी।’’
कवल को मोटर म बैठाकर वह उसे वजस म ले गई। वहाँ एक कोने म बैठकर उसने चाय का ऑडर दे िदया।
जब बैरा ऑडर लेकर चला गया, तो शकतला ने पूछा, ‘‘आजकल या िलख रह ह?’’
‘‘अभी तो कछ नह िलख रहा। आपको बताया तो ह िक आजकल ानव न का शौक सवार आ ह। कछ
कला, यथाथ और भाषा क िवषय म जानकारी ा कर रहा । म समझता िक वतमान युग म इस युग क
जानकारी ा िकए िबना कछ िलखना मेरी धृ ता ही थी। अब तो इस ान क काश म ही िलखूँगा।’’
‘‘तो कछ समझे ह िक नह अब तक?’’
‘‘हाँ, यथाथ और भाषा क िवषय म तो कछ-कछ धारणा बन गई ह। इस धारणा से म अपना लेखन-काय
िनभ कता से चला सकगा।’’
‘‘म समझती िक आप यह सबकछ न कर, तो ही अ छा ह, अ यथा आप अपनी शैली को ही िबगाड़ लगे।’’
‘‘देिखए, मेरी एक धारणा यह ह िक येक य क अपनी सूझबूझ होती ह। उसको उस पर ही िनभर रहना
चािहए। यह तो ठीक ह िक उस सूझबूझ का माजन होता रह, िजससे िक वह सूझबूझ िनरतर उ ल, व छ और
सरल बनती जाए। यिद कोई िकसी दूसर क सूझबूझ पर अपना जीवन चलाने लगा तो उसक दशा उस िकसान
बाप-बेट क तरह होगी, जो गधे को खाली िलये जा रह थे। बाप-बेटा नीचे और गधा उनक कधे पर हो जाएगा।
‘‘मने आपक ‘सोमरस’ क पांडिलिप पढ़ी ह और ब त पसंद क ह। उसम मुझे यथाथ क ही दशन ए ह।
उसको पढ़कर म अनुभव कर सक िक आपक रचनाएँ य सवि य ह। जनसाधारण िजसको यथाथ समझता ह,
उसी सरल भाषा और सुगम शैली म म आपक कितयाँ देखती ।
‘‘यिद आप उस सरलता, प ता और सहज शैली को छोड़, िकसी महापंिडत क िच का अनुसरण करगे तो
िव ास रिखए िक आप जन-जन से दूर होते चले जाएँग।े आपक गणना महापंिडत म तो हो जाएगी, परतु आपक
पु तक िफर पु तकालय क आलमा रय क शोभा-मा रह जाएँगी।’’
‘‘इससे हािन िकसक होगी?’’
‘‘जनता क । जो यथाथ जानने क लालसा रखती ह और उसको वह उन महापंिडत क ंथ म िमलता नह ।
‘‘आपने अपनी इस नई रचना म िलखा ह—इन महल-अटा रय क िवषय म िलखूँ अथवा उनम रहनेवाल क
िवषय म? बताओ ि ये! िकसक िवषय म जानना चाहती हो?
‘‘आपका नायक अपनी देहाितन प नी को प िलख रहा ह और उसको नई िद ी क िवषय म िलख रहा ह।
आगे चलकर आपक पु तक का नायक िलखता ह—महल क िवषय म जानकर या करोगी? वे तो ण-भंगुर ह।
साथ ही तु हार पित को अ ा य ह। उनम रहनेवाली क किटलता, नृशंसता, अनगलता, िम या ि और पशुता तो
ऐसी ह, जो तु हार पित क प च क प रिध म ह। उनक िवषय म जानना चाहो, तो िलख सकता । परतु ि ये,
या तुम चाहती हो िक म इस गंदगी को टटोलते ए इसम िल हो जाऊ? यिद इस गंदगी म िल हो गया, तो
इस मिलनता से मु होने क िलए कई ज म भी पया नह ह गे।
‘‘म िवचार करती थी िक इससे अिधक यथाथ का दशन और या हो सकता ह।’’
बैरा चाय ले आया था। कवल उसक अपनी पु तक क उ रण सुनाते ए सुन रहा था। उसको कछ ऐसा तीत
आ िक शकतला ने उसका अ र-अ र मरण कर रखा ह।
बैरा चाय रख गया तो शकतला ने बात बदलकर कहा, ‘‘मने आपक कित अपनी कपनी से कािशत करने का
बंध कर िदया ह।’’
‘‘परतु...’’
कवल ने कहने का य न िकया, पर शकतला ने बात बीच म ही टोककर कह िदया, ‘‘आप क णकांत क िवषय
म कह रह ह न? कपनी क मािलक क उनसे एक मीिटग म बातचीत ई थी। वे बेचार इस िवषय म कछ ान
नह रखते। उनक ान का ोत तो कोई कामरड बंसल था। उसने ही उनक म त क म कछ कड़ा-करकट भर
िदया था।’’
‘‘वे जब आपक रचना म कला का अभाव बताने लगे, तो मने उनसे पूछ िलया—कला िकस िचि़डया का
नाम ह?
‘‘वे कहने लगे, कला...कला तो कला को ही कहते ह।
‘‘पाँच संचालक यह सुनकर हस पड़। वह बेचारा घबरा गया। मने कहा, ‘गधा या होता ह?’ इस न का
उ र ‘गधा गधा होता ह’ नह हो सकता। जब उसने देखा िक उसक अपनी ित ा ीण होने लगी ह, तो उसने
कहा, कला वह ह, जो वा तिवकता से दूर, परतु लुभायमान हो। इस पर तो पुनः हसी फट पड़ी। हमार एक
प ीदार तो उसक इस िववेचना से होकर कहने लगे िक या गधा मैनेजर रखा आ ह।
‘‘इस पर मैनेजर ने कहा िक वह यह बात अ रशः डॉ टर िदनेश एम.ए., डी.िल , कि ज, ा यापक िद ी
िव िव ालय, रा पित ारा स मािनत और िहदी िवभाग क अ य क कही ई दोहरा रहा ह।
‘‘इस पर मने कह िदया िक वे तो कहते थे िक उनक कवल क िवषय म जो धारणा बनी ह, यह आपक
कथनानुसार ही बनी ह। इसम अचंभे क बात तो यह ह िक आपने कवलजी क एक भी रचना पढ़ी नह ह और
िफर कला क ये मूखतापूण ल ण डॉ टर िदनेश क नह ह, कदािच ये भी आपने कला क ान क अभाव म
डॉ टर िदनेश का नाम लेकर कह िदए ह।
‘‘िफर वह कहने लगा िक उसका एक िम बंसल ह। वह ब त उप यास पढ़ा करता ह। उसने ही कहा था िक
कवल जैसा शु क लेखक जनता को ठग रहा ह। उस र -शोषक को माकट से बाहर कर देने से लोक क याण ही
होगा।
‘‘मने कहा, तब तो कामरड बंसल से पता करना चािहए िक उसका यह ान िकस आधार पर बना ह। संभव ह,
उसका ान भी सुना-सुनाया होगा।
‘‘तब हमार एक नए संचालक बोले, ‘शकतलाजी, छोि़डए इस बात को। म जानता िक कामरड लोग क
स मित िकस आधार पर और कहाँ से बनती ह। इन कामरड क ‘पोिलट यूरो’ नाम क एक सं था ह। वह सं था
येक िवचार, येक लेख, येक नेता, येक रीित- रवाज, अिभ ाय ह िक संसार क येक गितिविध क िवषय
म यह देखकर अपनी स मित िनधा रत करती ह िक उससे क युिन म को हािन होती ह अथवा लाभ? क युिन म
क जो िवरोधी बात होती ह, उनक िनंदा कर दी जाती ह और जो उसक अनुकल होती ह, उसक शंसा। यह
स मित देश भर क कामरड म सा रत कर दी जाती ह और सब तोते क भाँित उसको दोहरा िदया करते ह।
‘‘उ ह ने कहा िक उ ह िव ास ह िक कामरड बंसल ने कवल क िकसी भी रचना क कभी दशन भी नह िकए
ह गे। इस पर भी उसक पु तक क कछ िछतर वा य उ ह ने कठ थ िकए ह गे, िजससे उसक िनंदा स माण
िस कर सक।
‘‘यह सुन क णकांत का मुख मिलन हो गया और वह कहने लगा िक यह सबकछ स य हो सकता ह। इस पर
भी उसका तो यह कहना ह िक भारत क पचास हजार वेतनधारी कामरड कवलजी क िव चार कर रह ह,
इसिलए उनक पु तक छापते ए हम अपनी कपनी क िहतािहत का िवचार तो करना चािहए। यह कपनी ह और
लाभ क िलए खोली गई ह। इसिलए हम हािन का काम नह करना चािहए।
‘‘इस पर तो पाँच संचालक उससे हो गए। उ ह ने आपक रचना वीकार कर ली ह। यह िन य िकया
गया ह िक पु तक क तीन हजार ितयाँ छपवाई जाएँ और आपको दो सह पया रॉय टी क प म अि म दे
िदया जाए।’’
कवल ने िचंता य करते ए कहा, ‘‘शकतलाजी, यह आपने या कर िदया? आपका क णकांत यिद
वेतनभोगी क युिन ट नह ह, तो िन य जािनए िक वह फलो वलर अव य ह। आपक दुकान को वह इसम घाटा
करा देगा।’’
‘‘उससे हम िदवािलए नह हो जाएँग।े ’’
‘‘परतु मेर कारण आपक हािन तो मेर दुःख का कारण बन जाएगी।’’
‘‘आप िचंता न कर। यिद क ण ने कछ भी गड़बड़ क , तो उसको दूध क म खी क भाँित िनकालकर फक
िदया जाएगा।’’
‘‘देख लीिजए, म तो यही स मित दूँगा िक आप डॉ टर िदनेश-जैस क पु तक को ही कािशत कर। उनक
नपे-तुले ाहक ह। सब सरकारी पु तकालय म उनक पु तक क िलए थान और पया ह।’’
चाय पीते ए शकतला ने बात बदलकर कहा, ‘‘आपक सफलता का रह य या ह?’’
‘‘म तो वयं को अभी सफल समझता नह । म सफल होने का य न कर रहा ।’’
शकतला समझ गई। उसने कहा, ‘‘म आपको बधाई देती िक आप सफलता क वा तिवक रह य को समझते
ह और उसक िलए य नशील ह।’’
q
बेसुर वर
रमेश ब त ही उदार और उ त िवचार वाला युवक था। उसने िववाह तभी िकया, जब उसने अनुभव िकया िक
अब वह अपने प रवार का भली कार भरण-पोषण कर सकता ह। उसने अपनी प नी का चयन भी अपनी
इ छानुसार िकया। वह वयं रलवे िवभाग म िड टी िफक ऑिफसर था और िजस क या का उसने चयन िकया
था, वह रलवे कमचा रय क क या िव ालय म अ यािपका थी। उस लड़क का नाम था नीला जोसफ। नाम से
ही प ह िक वह भारतीय ईसाई थी।
िववाह से पूव दोन ने िनणय िकया था िक दोन अपने-अपने सं दाय पर थर रहगे और कोई भी एक-दूसर क
सं दाय और जीवन-मीमांसा क िवषय म कछ नह कहगा। वा तव म रमेश िकसी भी पंथ का अनुयायी नह था
और इस कारण वह अपनी प नी क ईसाई-पंिथक यवहार म असीम आ था पर हसी करता था। नीला जब भोजन
करने बैठती, तो भोजन ारभ करने से पूव कछ ण तक वह आँख मूँदकर ह ठ म कछ बुदबुदाया करती। रमेश
को इससे हसी आया करती थी। नीला िनयिमत- पेण िगरजाघर भी जाया करती थी। इस पर भी वे दोन पर पर
ब त यार से रहते थे। इस कार वे स थे।
िववािहत जीवन क दो वष बाद उनक घर म थम संतित ई, यह क या थी। जीवन का थम िववाद आ
इसक नामकरण पर। नीला चाहती थी िक उसका नाम रोजी रखा जाए और रमेश का चयन था लिलता।
नीला ने पूछा, ‘‘रोजी नाम रखने म तु ह आपि य ह?’’
‘‘इसिलए िक यह श द अं ेजी का ह और हम भारतीय ह।’’
‘‘िकतु भारत क कोई भाषा तो ह नह ?’’
‘‘वाह, ह य नह ? देखो, सभी भारतीय भाषा का आधार सं कत ह, अतः सं कत ही भारत क भाषा कही
जाती ह।’’
‘‘म सं कत नह जानती।’’
‘‘कोई बात नह । हम िन य ही उसक प का या यान करते रहते ह। लिलता उसी भाषा का श द ह।’’
‘‘िफर भी मुझे रोजी नाम ब त पसंद ह।’’
‘‘और मुझे लिलता।’’
‘‘देिखए, हमने िववाह क पूव िनणय िकया था िक हम एक-दूसर क मामल म कोई दखल नह दगे।’’
‘‘यह तो ठीक ह। म तु हार िकसी भी मामले म दखल नह दे रहा, परतु लड़क तो मेरी भी उतनी ही ह, िजतनी
तु हारी।’’
इस कार अंत म यही िनणय आ िक नीला उसे रोजी नाम से पुकार सकती ह और रमेश लिलता क नाम से।
रमेश समझता था िक यह पंिथक िवजय नह । यह तो जातीय बात ह।
दूसर ब े क नामकरण क अवसर पर भी ऐसा ही आ। क या क ज म क दो वष प ा उनक घर म एक
पु उ प आ। िपता ने उसका नाम सुरश रखा और माता ने जॉन।
इससे भी बड़ा झगड़ा ब क सव थम कल भेजने पर आ। रमेश चाहता था िक लिलता को िकसी िहदी
कल म भेजा जाए और नीला ब को अं ेजी कल म भेजना चाहती थी। नामकरण क भाँित यह बात इतनी
सरल नह थी। ब क िश ा पर ही उनक जीवन का आधार होता ह और नीला इस िवषय म मान नह सक ।
उसने कहा, ‘‘म नह चाहती िक मेरी ब ी दास-जाित क भाषा तथा चलन सीखने म अपने समय का अप यय
कर।’’
यह तो रमेश क िलए भी सहन करना किठन हो गया। उसने कहा, ‘‘इसका अिभ ाय तो यह आ िक तुमने
एक दास-जाित क य क साथ िववाह िकया ह? िकसी दास से ेम करना अथवा उसक ारा ेम िकया
जाना तो बड़ी ल ा पद बात ह?’’
‘‘िकतु तुम तो हर समय मुझसे अं ेजी म ही बात करते हो।’’
‘‘कछ भी हो। म िहदु तानी और चाहता भी यह िक मेरी संतान भी वैसी बने। तुम वयं को भारतीय से
कछ उ समझती हो और यह अ छा होता िक तुम अपने से िन ेणी क य से िववाह न करत ।’’
‘‘िकतु म तो तुमसे यार करती थी और अब भी उसी तरह यार करती । कोई अपने से िन ेणी क य
को यार य नह कर सकता? मने तो तु ह हर कार से अपने बराबर ही समझा ह। यह तो हमार ब क
भिव य क बात ह। तुम उ ह कसा बनाना चाहते हो। मेरी तो इस िवषय म आकां ा ह िक वे डॉ टर बन, ोफसर
बन, इजीिनयर बन या कम-से-कम िकसी सरकारी िवभाग म ऊचे पद पर तो अव य ही िति त ह ।’’
‘‘जो तु हारी आकां ा ह, म उसका िवरोध नह करता। म कवल यह चाहता िक मेरी संतित को यावसाियक
िश ा क अित र भारतीय सं कित, स यता एवं जीवन मीमांसा का िश ण भी भली-भाँित ा हो, िकतु िजस
कार तुम चाहती हो, वैसे यह संभव नह ह।’’
इस कार दोन िकसी बात पर सहमत नह हो सक। इस किठनाई से िनकलने का एक ही माग रह गया िक
प नी को वंत ता दी जाए िक वह लड़क को िजस कार चाह बनाए और पित लड़क को जैसा बनाना चाह बना
ले। इस कार घर म दो धड़ बन गए। एक का झुकाव भारतीयता क ओर था और दूसर का पा ा य स यता क
ओर।
रमेश का सदा यही य न रहता था िक दोन म िकसी कार समझौता हो जाए, िकतु नीला क म त क म यह
बात समाती ही नह थी िक प मी जीवन-मीमांसा म कोई सुधार भी हो सकता ह।
इस कार वष बीतते गए और इसक साथ दो धड़ क खाई भी बढ़ती ही गई, िकतु इस पर भी पित-प नी को
जो चीज साथ रखे ए थी, वह था उनका ता य और यौन-आकषण, और यह भी शी ता से कम होता जा रहा
था। अंत म एक िदन वह अपेि त संकट भी आ उप थत आ।
लिलता क आयु इ स वष क हो गई थी और अ या य ईसाई क या क भाँित वह भी ‘ टनो ाफर’ बन
गई। उसको रलवे क ऑिडटर जनरल क पी.ए. क नौकरी िमल गई और िनरतर उसक साथ िनरी ण व वास
पर रहने लगी।
सुरश ने बी.ए. करने क बाद इजीिनय रग कॉलेज म वेश ले िलया था। एक िदन सहसा वह घर आया और
रोजी क िवषय म अपनी माँ से पूछने लगा, ‘‘माँ, जानती हो लिलता कहाँ ह?’’
‘‘हाँ, वह अपने अफसर क साथ वास पर ह।’’
‘‘िकतु वह तो यह इसी नगर म ह!’’
इससे उसक माँ को कछ िचंता ई। उसने ऑिडटर जनरल को फोन कर अपनी लड़क क बार म जानना
चाहा। वहाँ से उ र िमला िक िपछले चार िदन से वह लापता ह। नीला ने जब उसे यह कहा िक चार िदन पूव वह
यह कहकर घर से चली थी िक वह वास पर जा रही ह, तो उस ऑिफसर ने बताया िक एक स ाह से तो वह
कह गया ही नह । तब नीला ने अपने लड़क से पूछा िक उसको वह िकस कार िविदत आ िक लड़क अपने
काम पर नह गई ह।
लड़क ने बताया िक उसने उसको िकसी अप रिचत य क साथ रलवे टशन पर देखा ह।
जब रमेश को इस थित से अवगत िकया गया, तो वह कवल हस िदया और उसने सुरश को कहा, ‘‘सुरश,
तु ह लिलता क िवषय म िचंता करने क आव यकता नह । म जानता िक या होनेवाला ह। म चाहता िक
तुम अपनी बिहन का िवचार छोड़ वयं भ पु ष बनो।’’
नीला ने जब रमेश से कहा िक लिलता क िवषय म पता लगाया जाए तो उसने कह िदया, ‘‘यह सब यथ ह,
उसको िश ा ही इस कार क िमली ह िक िजससे वह व छद हो िवचरण कर। मुझे यह भी िव ास ह िक वह
वापस आ जाएगी।’’
बात यह पर समा हो गई। रोजी जब वापस आई तो उसक पाँच मास का गभ था। माँ िन य नह कर सक
िक या कर और लड़क चुपचाप अपने कमर म रहने लगी।
िपता को जब पता चला िक लड़क वापस आ गई ह, तो उसने उस मकान म रहना उिचत नह समझा। वह
सुरश और दो अ य ब को साथ लेकर दूसर मकान म रहने चला गया। नीला इससे ब त उ ेिजत ई और
प ीकरण क िलए रमेश क पास जा प ची।
रमेश ने कहा, ‘‘म अपने ब क मन म यह बात नह बैठने देना चाहता िक मेरी ि म भी लिलता का
ि या-कलाप उिचत ही ह।’’
‘‘िकतु अब उसका या होगा?’
‘‘कछ नह । उसक ब ा होगा और वह उसका पालन-पोषण करगी।’’
‘‘ या तु हार मन म उसक ित कोई सहानुभूित नह ह। म तो समझती िक उसका बिह कार करने क अपे ा
इस समय उसक पास रहकर उसको सां वना दे, यार से उिचत माग पर लाना अिधक उपयु होगा।’’
‘‘म तो उसको अभी भी यार करता और अपने मन म उसक िलए गहन सहानुभूित भी रखता , िकतु इसक
साथ ही कवल उसक िलए अपने अ य ब से ेह नह तोड़ सकता। उनक मन म यह धारणा बैठाना भी मूखता
होगी िक वे स य जीवन क अपे ा लिलता क ि या-कलाप क पुनरावृि कर अपने अिभभावक क अिधक
सहानुभूित ा कर सकते ह।’’
‘‘मेरी समझ म तो तु हारी बात आई नह । तुमने यह कसे कह िदया िक इस िवपि क समय लिलता से
सहानुभूित रखने से अ य ब क ित तु हारा यार कम हो जाएगा।’’
‘‘तुम समझ नह सकत , नीला, तु हारी िश ा िकसी िहदु तानी क भाँित नह ई। मेर म त क म सदा राम का
सीता को वन म भेजने का उदाहरण रहता ह। िहदु ने राम क उस कत य पर कभी यह नह कहा िक इससे
सीता क ित राम का ेम और सहानुभूित ीण हो गई थी। य क अपे ा समि का िहत सवदा मह वपूण
माना जाता ह।’’
‘‘यह बबरता ह। हम उस ागैितहािसक युग म तो नह रहते?’’
रमेश और नीला क सह-अ त व का यह अंत था। दोन अलग रहने लगे। सबसे छोटी लड़क रानी ने अपने
िपता से पूछा, ‘‘िपताजी, माँ चली य गई?’’
‘‘ य िक वह कवल व न और माया थी।’’
जीवन म बाँधनेवाली श यौन-आकषण क अित र कछ और ह। उसक िबना वर बेसुर ही रहते ह।
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या उसक मृ यु हो गई
अ दुल करीम, जो िक बचपन से ही पूव अ का म नैरोबी म रहता था, स 1938 म बंबई वापस आया। वह
अपने िपता क साथ अ का गया था। उस समय उसक आयु पाँच वष क थी। उसका िपता भारत म िदवाला
िनकाल अपनी िक मत आजमाने क िलए वहाँ गया था।
अ दुल करीम अभी छोटा ही था िक उसक माता-िपता का देहांत हो गया था। उसने बंबई क एक संप ‘खोजा’
प रवार क क या से िववाह िकया, िजससे उसक दो पु ए। स 1938 म उसक सुर का देहावसान आ, तो
उसक प नी, सास तथा अ या य र तेदार क जोर देने पर उसने अपना अ का का यापार बंद कर िदया और
सारी संपि को एक कर वह पूँजी क प म लेकर बंबई आ गया।
बंबई आकर उसने अपने सुर क यापार को आगे बढ़ाया और उसम अपनी भी पूँजी लगाकर वह ब त बड़ा
सरकारी ठकदार बन गया।
य - य काय बढ़ता गया य - य संपि म भी वृ ई और उसक साथ ही अ दुल करीम का लालच बढ़ता
गया। सौभा य से स 1939 म उसक नाना का अपने ाम म देहावसान आ, तो वह भी उसक िलए थोड़ी-ब त
संपि छोड़ गया। उस पर अिधकार करने क िलए अ दुल करीम उनक गाँव गया। वहाँ जाकर उसे िविदत आ
िक उसक नाना ने कई वष पूव समीप क क बे क िकसी य क पास लगभग 700 पए म कछ जमीन बेची
थी और उसक उजरदारी करने क िलए अभी समय ह।
यह भूिम पाँच य य ने िमलकर खरीदी थी और अब तक उ ह ने उस पर सुंदर भवन भी िनमाण कर िलये थे।
इस कार कल िमलाकर वह भूिम अब दस लाख क बन गई थी। अ दुल करीम वहाँ गया, तो उस संपि को देख
उसक मुख म पानी भर आया। उसने िन य कर िलया िक उस संपि पर वह अपने अिधकार का अिभयोग तुत
करगा।
मुसिलम उ रािधकार कानून क अनुसार पु ी का पु भी अपने नाना क संपि का उ रािधकारी माना जाता ह।
िजस समय भूिम बेची गई थी, उस समय अ दुल करीम जीिवत था, इसिलए उसक संरि का क प म सेल-डीड
म उसक माता क ह ता र होने आव यक थे, िकतु खरीदार म से कोई भी नह जानता था िक वृ का कोई
नातेदार जीिवत ह। इस कार वह सेल-डीड अपूण समझा गया।
जब खरीदार को इस िवषय का ान आ, तो उ ह ने कानूनी सलाह ली। तब उ ह िविदत आ िक इसम उनका
प दुबल ह, अतः उ ह ने अ दुल करीम से ही समझौता करने का य न िकया। अिभयोग वापस करने क िलए
उ ह ने िमलकर अ दुल करीम को दस हजार पए देने चाह, िकतु उसने वीकार नह िकए। उसका यह कहना िक
भूिम क िब वैधािनक ढग से नह ई ह, अतः उनको चािहए िक उस भूिम पर बने भवन को वहाँ से उठा ल।
इस कार दो वष तक अिभयोग चलता रहा, िकतु िकसी कार का िनणय न हो सका।
अ दुल करीम ने थानीय वक ल को अपनी ओर से कचहरी म उप थत होने क अिधकार दे रखे थे। वह वयं
भी यदा-कदा उप थत हो जाता था।
यह लगभग स 1942 क बात होगी िक उन ितवािदय ने यह अनुभव िकया िक मुकदमा टलता जा रहा ह
और उससे उनका पया धन यय हो रहा ह। अतः सबने िन य िकया िक अिभयोग को वापस लेने क िलए
अ दुल करीम को पचास हजार पए दे िदए जाएँ। उसक स मुख यह ताव उस समय तुत करने का िनणय
आ, जब अगली पेशी पर, अ दुल करीम वहाँ आनेवाला था।
अगली पेशी क िदन अिभयोग क सुनवाई क िलए दोन प क वक ल कचहरी क बॉर- म म बैठ थे िक
ितवािदय म से िकसी ने वादी क वक ल से पूछा, ‘‘आज अ दुल करीम बंबई से आया ह या?’’
‘‘मुझे पता नह ।’’ अ दुल करीम क वक ल ने उ र िदया।
‘‘ या वह आज य गत प म कचहरी म उप थत होगा?’’
‘‘म कछ नह कह सकता।’’
‘‘ या वह वा तव म जीिवत भी ह?’’ एक अ य ितवादी ने हसी-हसी म वक ल से पूछ िलया।
‘‘ या?’’ आ यचिकत हो वक ल ने पूछा।
उस य ने बात को बढ़ावा देते ए कहा, ‘‘कोई मुझसे कह रहा था िक िपछले स ाह अ दुल करीम क
बंबई म मृ यु हो गई ह।’’
कवल हसी म कह गए उ वा य से ितवािदय क वक ल म से एक क म त क म यह िवचार आया िक
कम-से-कम इससे कछ समय क िलए अिभयोग थिगत िकया जा सकता ह। अतः जब अिभयोग सुनने का समय
आया, उसने अपनी आपि तुत करते ए कहा िक यह अफवाह ह िक वादी क मृ यु हो गई ह। अतः उसक
वक ल जब तक शपथपूवक यह िलखकर नह दे देते िक वादी जीिवत ह, तब तक काररवाई आगे नह बढ़ाई जा
सकती।
वादी का वक ल शपथपूवक िलखने क िलए उ त नह आ। यायाधीश ने यह अनुभव िकया िक वादी का
वक ल इस िवषय म अिन त-मन ह, तो उसने अिभयोग को आगामी ितिथ क िलए थिगत कर िदया और वादी
क वक ल को कह िदया गया िक आगामी ितिथ पर वह वादी को य गत प म तुत कर। यायाधीश ने 15
िदन बाद क तारीख िनधा रत कर दी।
वादी क वक ल ने अ दुल करीम को तार ारा इस िवषय म सूचना भेज दी। उसको सावधान कर िदया िक
आगामी ितिथ पर वह अिनवायतया य गत प म कचहरी म उप थत हो जाए।
अ दुल करीम ने म य भारत, म ास, ावणकोर-कोचीन आिद िविभ थान पर अनेक ठक ले रखे थे और
समय-समय पर अपने काय क िनरी ण क िलए उसे इन थान पर जाना पड़ता था।
अ दुल करीम क सहायक को जब वक ल का तार िमला, तो उसने वह रिज ी ारा िलफाफ म बंद कर वहाँ
भेज िदया, जहाँ अ दुल करीम क होने क संभावना थी, िकतु रिज ी क प चने से पूव ही दुभा यवश अ दुल
करीम वहाँ से अ य चला गया था। वहाँ िबना खुले वह प िफर अ दुल करीम को री-डायर ट कर िदया गया।
प रणाम यह आ िक िन त समय तक अ दुल करीम को वक ल क सूचना का तार नह िमला और वह
कचहरी म उप थत न हो सका।
जज ने वादी क वक ल से पूछा, ‘‘ या अपने ‘ ाइट’ को कोट क आ ा से अवगत कर िदया था?’’
‘‘जी जूर, मने उसको तार भेज िदया था, िजसक रसीद यह ह।’’ उसने तार क रसीद तुत कर दी।
‘‘ या आपको इसका उ र ा आ ह?’’
‘‘नह ीमा ।’’
‘‘ या आप जानते ह िक उसक मृ यु नह ई?’’
‘‘म कछ नह कह सकता।’’
इस पर जज कहने लगा, ‘‘इस प र थित म अिभयोग क काररवाई आगे नह चलाई जा सकती। वादी क
जीिवत होने का माण तुत करना आपका ही कत य ह।’’
‘‘जनाब, कपा कर मुझे कछ समय और दे दीिजए। यिद वह जीिवत आ, तो आगामी ितिथ पर म उसे
यायालय म उप थत कर दूँगा।’’
इस कार 15 िदन का समय और दे िदया गया, िकतु अ दुल करीम म ास, ावणकोर, म य भारत क िक ह
थान म अपने कायिनरी ण क िलए मण कर रहा था। अतः इस बार भी उसको वक ल क सूचना िक उसको
य गत प म कचहरी म अिनवायतया उप थत होना ह, नह िमली। यह सूचना उसको िन त ितिथ क ठीक
एक िदन बाद ा ई।
आगामी ितिथ पर भी जब अ दुल करीम वयं कचहरी म उप थत नह हो सका, तो ितवािदय क वक ल ने
जोरदार श द म कह िदया िक इस थित म अिभयोग को िकसी कार भी आगे नह चलाया जा सकता।
अब यायाधीश क िलए और कोई चारा नह रहा और उसको िनणय देना पड़ा िक वादी मर चुका ह।
जब यह सूचना अ दुल करीम क पास प ची, तो उसने जज क उ िनणय क िव अपील दायर करने क
िलए अपने वक ल को कह िदया। अपील सेशन कोट म दायर हो गई, परतु वीकार नह ई।
हाईकोट म अपील क गई और वहाँ भी उसको अ वीकार िकया गया। इन दोन कचह रय म िस करने क
बात यह थी िक यह अपील करनेवाला अ दुल करीम या वही आदमी ह, जो मुकदमा चलानेवाला था और या
यह वही अ दुल करीम ह, िजसक नाना ने यह भूिम बेची थी और िजसक िवषय म मुकदमा चला रहा था। हाईकोट
का िनणय था िक नया मुकदमा दायर िकया जा सकता ह, यिद उ बात िस हो जाए। इसको िस करने क
िलए छोटी कचहरी म नए िसर से ाथना-प देना चािहए।
अ दुल करीम ने यह िवचार िकया िक यिद वह अपने आपको अपने नाना का दुिहता िस करने क िलए गाँव
क और बंबई तथा अ का क सा ी भी उप थत कर दे, तो नया मुकदमा करने का समय नह था। पहले ही
मुकदमा करने क अविध यतीत हो चुक थी। अतः अ दुल करीम को संतोष करना पड़ा और कानून से वह मृत
ही घोिषत रहा।
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गुिड़या रानी
उ िश ा हण कर लेने पर भी हरीशचं सादा और सदाचारी य था। ख र क धोती, करता तथा साधारण
च पल म वह िबलकल ही सामा य तथा सरल वभाव तीत होता था। वह अनेक समाचार-प का संवाददाता था
तथा लेखन-काय से अपनी आजीिवका चला रहा था।
एक िदन, जब वह िकसी िस य क प कार-स मेलन से वापस घर आया, तो उसक िपता ने उसे एक
खुला प िदया, िजसका हरीश से संबंिधत अंश इस कार था—
आपने मुझे अपने पु हरीश क िवषय म िलखा ह। उसक िवषय म जो जाँच मने क ह, वह काफ संतोषजनक
ह, िकतु लड़क क वीकित क िबना म कछ िनणय नह कर सकता। वह, आप जानते ही ह िक ेजुएट ह और
बु मती भी ह। म चाहता भी िक अपने िवषय म वह वयं ही िनणय ले। अतः यिद एक-आध िदन क िलए
हरीश यहाँ आ जाए, तो कोई िनणय िकया जा सकता ह।
‘‘तो िपताजी,’’ हरीश ने कहा, ‘‘आप यह चाहते ह िक म वहाँ जाकर उसक स मुख अपना दशन क ?’’
‘‘इसम दशन क या बात ह? तु ह भी तो लड़क को य देखने का अवसर िमलेगा और तुम भी िनणय
कर सकोगे।’’
‘‘परतु मुझम इतनी बु कहाँ ह िक एक-दो िदन उसे देखकर उसक िवषय म कोई अनुमान लगा सक।’’
‘‘अपनी बु क िवषय म इतना हीन िवचार मत करो। मुझे तुम पर और तु हारी बु पर भरोसा ह।’’
इस कार अपनी होनेवाली दुलिहन शकतला क िपता मोहनलाल क नाम अपने िपता का प लेकर हरीशचं
लाहौर जा प चा। माग म गाड़ी म बैठा रात भर वह िकसी लड़क से िबना पूव-प रचय क िमलने क कहानी
घड़ता रहा।
कभी-कभी अनपेि त घटनाएँ भी घिटत हो जाती ह। लाहौर प चकर वह एक होटल म ठहर गया। नहा-धो तथा
ना ता ले वह अनारकली बाजार म कछ खरीदारी करने क िलए िनकल गया। उसे एक रशमी माल चािहए था,
इसक िलए वह ख र भंडार जा प चा। उसे रशम िवभाग म भेज िदया गया।
उस समय वहाँ दो लड़िकयाँ रशमी साड़ी देख रही थ । से समैन उनको िदखा रहा था। हरीश वहाँ प च चुपचाप
अपनी बारी क ती ा म खड़ा हो गया। से समैन उन लड़िकय म य त था। इस कारण हरीश को उन लड़िकय
क िवषय म सोच-िवचार का अवसर िमल गया। उनम से एक लड़क ब त बनी-ठनी थी और बड़ी आ मीयता क
साथ उस से समैन क िदखाई व तु का िनरी ण कर रही थी। साि़डय का एक बड़ा ढर वहाँ लग गया था। हरीश
को कछ ज दी तो थी नह , इस कारण वह धैयपूवक खड़ा रहा। से समैन ने जब देखा िक लड़िकयाँ कछ ले तो
रही नह , तो वह हरीश से पूछने क िलए मुड़ा, परतु उसी समय उस बनी-ठनी गुि़डया ने सािधकार उसको उस ओर
यान न देने िदया। हरीश ने ती ा करना वीकार कर िलया और इस कार उसे िकसी आधुिनक लड़क को
भली-भाँित जाँचने का अवसर िमल गया।
आधे घंट से अिधक वह लड़क वहाँ रही और िबना कछ खरीदे चली गई। हरीश को इतने समय ती ा करनी
पड़ी। इतनी देर तक उसक ओर यान न दे सकने क असमथता य करता आ से समैन बोला, ‘‘हमारी
थित बड़ी िविच ह। इ ह हम मना भी नह कर सकते थे। यिद म बीच म आपक ओर मुड़ जाता, तो िन य ही
मेरी िशकायत लेकर मैनेजर क पास प च जात । अ छा, बताइए, आपक या सेवा क ?’’
‘‘मुझे दो रशमी माल चािहए, िकतु आप इसे तो जानते ही ह गे। वह आपसे बड़ी आ मीयता क साथ बात कर
रही थी।’’
‘‘कोई िवशेष प रचय नह ह। से समैन ने माल का िड बा खोल माल िनकालकर िदखाते ए कहा, ‘‘वह
लाहौर क यात वक ल मोहनलाल क लड़क ह।’’
‘‘ओह!’’ आ यचिकत सा हरीश बोला। वह जैसा सोचता था, घटना वैसी घिटत हो गई, पर यह लड़क वह
नह थी, िजसक अपने मंगेतर क प म वह क पना करता आया था। से समैन ने जब ाहक को िवचार-म न
देखा, तो उसक मुख पर मुसकान िखल गई। उसने कहा, ‘‘शायद आप मोहनलाल वक ल को जानते ह?’’
‘‘जी,’’ हरीश ने कहा, ‘‘िकतु इस लड़क को देखकर मुझे िड ी क काटन क गुि़डया रानी का मरण हो
आया था। इसने इतना ंगार कर रखा था िक वह कोई मानुषी क या होगी, म िवचार भी नह कर सकता था।’’
अब से समैन क मुसकराहट और बढ़ गई। हरीश ने माल छाँट, उ ह बँधवाया और मू य चुकाकर वह उस
लड़क क साथ अपने भिव य क िवषय म बड़ी गहनता से िवचार करता आ भंडार से बाहर िनकल गया।
अपनी प नी का वह िच िक वह सुंदर एवं शांितमय होगी, िवलीन होकर एक अनोखा िच उस लड़क क
हाथ-म-हाथ डालकर िसनेमा तथा रसकोस आिद म जाने का, उसक स मुख आ गया। इससे तो वह काँप सा उठा
और इस पर िवचार करने क िलए वह अपने होटल म आ गया। यहाँ बैठ उसने उस लड़क तथा से समैन क बीच
आ पूण वा ालाप मरण िकया, तो उसने िन य िकया िक उसका िनणय इस लड़क क प म नह हो सकता।
वह सुंदर हो सकती ह, िकतु इसका िन य भी तभी हो सकता था, जब वह अपना सारा ज, पाउडर, काजल
इ यािद ंगार- साधन को यागकर उसक स मुख आए। इसम संदेह नह िक उसने फशन क अनु प व पहन
रखे थे, पर यह तो अयो यता का माण था। से समैन से उसक सारी बातचीत िनरथक सी थी। उसने अपना,
उसका और से समैन का समय ही न िकया था।
िकतु उसे तो मोहनलाल को अपने िपता का प देना और लड़क क स मुख वयं का िदखावा करना था। इस
पर भी अब उसम वह घबराहट नह रही थी, जो लड़क देखने से पूव थी। अपने म त क म उसने अपना काय
करने का िन य कर िलया था।
शाम क समय वह वक ल साहब क कायालय म जा प चा और उनको अपने िपता का प उसने दे िदया।
वक ल साहब ने प पढ़ा और िफर िसर से पैर तक हरीश को देखा। गहन िनरी ण कर वह बोले, ‘‘तो आप ह
हरीशचं । बड़ी स ता ई तुमको देखकर, बैठो-बैठो!’’ एक करसी क ओर संकत करते ए उ ह ने घंटी का
बटन दबाया। घंटी बजी और चपरासी भीतर आ गया। वक ल साहब बोले, ‘‘देखो, इनको भीतर ले जाओ और
माँजी से कहना यह िद ी से आए ह। म ज दी ही आ रहा ।’’
इस कार हरीश कायालय से कोठी म ले जाया गया। शकतला क माँ तो घर नह थी, िकतु वह वयं पैर म
क स बाँधकर टिनस याड म किटग कर रही थी।
अब िव मय करने क बारी शकतला क थी। वह यह समझने म असमथ थी िक िजस नौजवान को उसने ख र
भंडार म अपनी ओर घूरते ए देखा था, उसे उनका चपरासी कोठी क अंदर य ले आया ह? अपने िवचार से
उसने उसे आधे घंट से अिधक ख र भंडार म ती ा करवाकर उसको दंड िदया था। किटग करती ई वह
टिनस याड क उस कोने तक आई, जहाँ से चपरासी समीप पड़ता था और चपरासी से उसने उसक वहाँ आने का
कारण पूछा।
चपरासी ने पहले तो सलाम िकया और िफर कहा, ‘‘यह बाबू िद ी से आए ह और वक ल साहब ने इनको
माँजी क पास ले जाने को कहा ह।’’
सुनते ही शकतला क म त क म िवचार आ गया िक वह कौन हो सकता ह और िफर ातःकाल क अपने
यवहार को मरण कर वह ल त सी हो गई। उसने पैर से क स िनकाले और उसक समीप आकर बोली,
‘‘माँ तो घर पर नह ह। या म आपका नाम जान सकती ।’’
‘‘हरीशचं ।’’ सं ेप म उसने बताया।
‘‘ओह!’’ मुसकराते ए शकतला ने कहा, ‘‘अंदर आइए, मुझे पता ह, आप प कार ह। या म आपक िलए
चाय मँगवाऊ?’’
भीतर ाइग- म म वे प चे, तो चपरासी चला गया। शकतला ने नौकर को बुलाकर चाय लाने का आदेश िदया
और हरीश से एक सोफ पर बैठने का आ ह करने लगी। जब दोन बैठ गए, तो हरीश ने पूछ िलया, ‘‘तो आप
मुझे और मेर यहाँ आने क कारण क िवषय म जानती ह?’’
‘‘जी हाँ, िपताजी ने मुझे सबकछ बता रखा ह, परतु आपको तो सीधा यहाँ आना था। कहाँ ठहर ह आप?’’
‘‘म टडड म ठहरा । या म जान सकता िक मेर िवषय म िनणय करने म आपको िकतना समय लगेगा?’’
‘‘मने तो िनणय कर िलया ह। म समझती िक म आपक साथ ब त खुश र गी। कवल अपनी पोशाक आिद म
आपको कछ बदलाव लाना होगा।’’
‘‘आप शी िनणय करनेवाली ह। म समझता िक शी ता म िकए गए िनणय म भूल हो जाने क संभावना
रहती ह।’’
‘‘परतु मने कोई शी ता नह क । म सौभा यशाली िक आधे घंट से अिधक मुझे आपका अ ययन करने का
अवसर िमला ह। जब म उस मूख दुकानदार से बात कर रही थी, तब या आप मुझे पहचानते थे?’’
‘‘नह , जब तक आप चली नह गई, तब तक नह ।’’
‘‘तब उस गधे ने ही आपको मेर िवषय म बताया होगा।’’
‘‘हाँ, िकसी कार मने जान िलया और िजस लड़क से मेर िववाह क बात चल रही ह, उसक िवषय म
जानकर मुझे भारी िनराशा ई ह।’’
‘‘उसने या बताया ह?’’
‘‘उसने तो कवल आपक िपताजी का नाम ही बताया था, अ य कछ नह । शेष मने वयं ही उस आधे घंट म
आपका िनरी ण कर जान िलया ह।’’
‘‘ओह! या देखा था आपने?’’ यह कहते-कहते शकतला का मुख िववण हो गया।
कछ भी िवचिलत न होते ए शांित से हरीश ने उ र िदया, ‘‘मने अनुभव िकया िक आप घमंडी ह, अहकारी ह,
भड़क ली और अ ानी लड़क ह। जैसे आपने अपने मुख क क पता को िछपाने क िलए ज तथा पाउडर और
पीले ह ठ को िछपाने क िलए िलप टक का योग िकया आ था, ठीक वैसे ही आप अपने म त क क िवकित
को िछपाने क िलए िश ाचार का आ य ले रही ह।’’
इस कार इससे पूव शकतला को उसक मुख पर कहनेवाला कोई नह िमला था। अपने माता-िपता क वह
लाडली संतान थी और उसक येक इ छा क पूित कानून पालन करने क समान थी। आज पहली बार उस पर
कटा करनेवाला कोई िमला था।
वह अभी सोच ही नह पाई थी िक िकस कार हरीश क यं य का उ र दे िक हरीश उठा और बोला, ‘‘म
आपको पसंद नह कर सकता।’’ इतना कह वह कोठी से बाहर चला गया। शकतला का मुख पीला पड़ गया था।
q
अपनी डफली
देश क वाथ लोग क भाँित घर म य क थित होती ह। ायः याँ ही ब त सी घरलू अशांित क िलए
उ रदायी िस होती ह। िकसी बड़ जम दारी क भाँित अपने पित क संपि पर पूणािधकार थािपत करने क िलए
वे यु याँ यु करती ह। लड़ाओ और मौज करो, इस िस ांत का इस िनिम साधारणतया योग िकया जाता
ह।
िनमला जब थम बार अपनी ससुराल आई, तो उसने भी ठीक वैसा ही िकया। िववाह क बाद पहली मधुर राि
यतीत करने क उपरांत कशव नह चाहता था िक ऐसा कोई संग छड़ा जाए, िजसम पर पर िवरोध हो, परतु
िनमल अ यंत सावधान थी।
उसने अपने पित क बड़ भाई का ब त बड़ा प रवार देख मन म िन य कर िलया िक इस महासमु म बूँद
बनकर वह नह रहगी। वह अपने पित क व तु का िनरी ण करने लगी। वे सं या म ब त कम थ । दो-चार
फटी कमीज, दो पट और एक कोट। जो य कई वष से तीन सौ पए मािसक वेतन पा रहा हो, उसक व
का यह हाल? और िफर पित क ंगार क व तु म एक शेिवंग श, कप-सोप तथा एक जापानी ब त ही पुराना
से टी-रजर। अपने पित क ऐसी दयनीय थित को देख िनमला को यह िनणय करने म िवलंब नह लगा िक
उसका पित अपनी सारी आय अपने भाई क प रवार पर बरबाद कर रहा ह। उसने अपने पित से पूछा, ‘‘शादी से
पहले, जो नेवी- यू सूट आप पहनते थे, वह कहाँ ह?’’
‘‘अर, उसक बार म तुम य िचंता करती हो? मने वह उस य को दे िदया ह, िजसको उसक आव यकता
थी।’’
‘‘तो अब आप या पहनगे?’’
‘‘यह नया सूट, जो तु हार िपताजी ने मुझको िदया ह।’’
‘‘ओ हो, और उस धन का या आ, जो आप इतने वष से कमा रह ह? बक म िकतना जमा िकया ह?’’
‘‘ ीमतीजी, म आज तक बक म घुसा ही नह , जमा या करवाऊगा? वा तव म मुझे िहसाब-िकताब रखने क
आदत नह , िकतु तु ह इस सबक िचंता य हो रही ह? िवशेषतया उस समय जबिक हमार पास अ य ब त सी
आनंददायक बात करने क िलए पड़ी ह।’’ कशव ने िनमला को जरा अपने समीप ख चते ए कहा।
िनमला ने कशव क ख चने का िवरोध नह िकया, परतु साथ ही कह िदया, ‘‘यह तो ठीक ह, परतु म चाहती
िक ये आनंद क घि़डयाँ िदन म और वे िदन वष म प रणत ह ।’’
‘‘वह तो होगा ही।’’ इतना कह कशव ने कसकर उसका आिलंगन कर िलया। जब उसक पकड़ कछ ढीली
पड़ी, तो िनमला ने अवसर देख पुनः कहा, ‘‘पर धन क िबना जीवन नह चल सकता।’’
‘‘अर, छोड़ो इन छोटी-छोटी बात को। इनसे हम अपना मन खराब नह करना चािहए।’’
कशव धन-संपि क इन गंभीर बात क अपे ा मधुर बात करने पर तुला था। िनमला ने भी अब समझा िक
आज क िलए इतना पया ह। अतः उसने संग आगे नह बढ़ाया।
थोड़ ही िदन म उसने समझ िलया िक उसका पित ब त ही िफजूल-खच ह। अगले महीने क पहली ितिथ को
उसने अपने तीन सौ पए वेतन का िहसाब अपनी प नी को बता िदया। उसने कहा, ‘‘सौ पए घर क खच क
िलए, पचास पए तु हार पॉकट खच क िलए और डढ़ सौ पए मेर अपने योग क िलए।’’
िकतु यह िवतरण िनमला को नह भाया। वह सभी मु का िव तृत िववरण चाहती थी। कशव क पास भी
िछपाने को कछ नह था। उसने कहा, ‘‘भोजन, िनवास, आित य आिद का खच सौ पए म चलेगा, िजसका
बंधन भाभी करगी।’’
‘‘भाभी य ? म य नह ?’’
‘‘हाँ, तु ह उनक सहायता करनी चािहए।’’
‘‘जैसे बड़ बाबू क अधीन छोटा बाबू रहता ह?’’
‘‘तुम इसे ऐसा भी समझ सकती हो।’’
‘‘लेिकन सौ पए तो इसक िलए ब त अिधक ह। हम दो जने इतना तो नह खा जाते।’’
‘‘मेरी यारी िनमल, हम दो नह दस ह।’’
‘‘दस! आपक कहने का अिभ ाय यह ह िक आपक भाई, उनक प नी और उनक सब ब ?े ’’
‘‘हाँ!’’
‘‘तो या उन सबक परव रश का दािय व हम पर ह?’’
‘‘नह , हम सबका पार प रक दािय व ह।’’
‘‘परतु म इसम कोई कारण नह पाती िक हम उन पर कछ यय कर?’’
‘‘िकसी क ित कत ता कट करने क िलए कारण ढढ़ना छोटी बात ह। येक बात पर तक करना बु म ा
नह । ब े को ज म देने क बाद माँ य उसको दूध िपलाती ह? माँ य उस ब े क िलए अपना जीवन-दान
कर?’’
‘‘माँ अपने ब े को यार करती ह और इसक िलए जो याग करना पड़ता ह, वह चाह िकतना भी बड़ा हो,
उसका िवचार नह करती।’’
‘‘म अपने भाई और उनक ब को यार करता । या यह पया कारण नह िक म उनक खुशी म कछ
योगदान क ?’’
िनमला जब तक म हार गई, तो अपने उ े य-िस क िलए उसने अपना दूसरा ढग अपनाया।
शादी ए अभी चार मास ही ए थे िक िनमला का अपनी जेठानी से झगड़ा रहने लगा। एक िदन राि क समय
वह अपने पित से कलोल कर रही थी। पित से कोई बात मनवाने का यह उपयु अवसर होता ह, इसका िवचार
कर िनमला ने कह िदया, ‘‘ या आप यह चाहते ह िक म दूसर क गुलाम बनकर र ? आपक भाभी तथा उनक
ब क सेवा करते-करते म थक गई । या हम िकसी ऐसे थान पर नह रह सकते, िजसे हम अपना घर कह
सक और जो पूणतया हमारा हो, यहाँ तक िक उसम कोई झाँक भी न सक।’’
‘‘तु हारा कहने का अिभ ाय यह ह िक म अपने भैया को छोड़ दूँ।’’ कशव ने सचेत होकर पूछा।
‘‘ठीक ह िक उनको कछ आिथक सहायता क आव यकता रहती ह। म इसम कोई आपि नह करती, िकतु
वतं ता तो सबका ज म-िस अिधकार ह और मुझे भी तो यह चािहए।’’
‘‘िनमला, तु हारी इस बात से म सहमत , परतु अपने सािथय क सेवा करना भी येक मनु य का कत य
ह।’’
‘‘ठीक ह और यिद आप पृथक मकान ले देते ह, तब भी तो हम उनक कछ सेवा कर सकते ह। म वचन देती
िक आपक सभी संबंिधय क साथ मेरा यवहार मै ीपूण रहगा। देिखए, िकतना आनंददायक होगा पृथक रहना।
आप मेर िलए ह गे और म आपक िलए। अ य कोई य बीच म दखल देनेवाला नह होगा।’’
यह कोई तक नह था, अिपतु िनवेदन था। एक ी क उ कट अिभलाषा थी, िजसका िवरोध कशव नह कर
सका। अगले िदन ही उसने अपने भैया से पृथक म कह िदया, ‘‘म पृथक मकान म रहना चाहता ।’’
‘‘ य ?’’ भैया का न था।
‘‘िनमला ऐसा चाहती ह और म उसक इस छोटी सी माँग को ठकराना नह चाहता। भैया, आपको िचंता करने
क आव यकता नह ह। घर क खच म मेरा सहयोग पूवव रहगा।’’
‘‘नह , यिद तुम प रवार से पृथक हो जाओगे, तो िफर ऐसा नह होगा।’’
‘‘पर भैया, यह तो म अपने ेहवश देता । आप य इनकार करते ह? आपक मुझ पर ब त से एहसान ह।’’
बड़ा भाई ढ़-िन यी था। उसने कहा, ‘‘जब तक हम संयु प रवार क भाँित रहते ह, तब तक मेर और
तु हार धन म कोई अंतर नह था, य िक हमारा िहत संयु था। अब पृथक-पृथक रहने पर सबकछ बदल जाएगा।
तु हारा मुझे कछ देना न तो तु हारी प नी को भला तीत होगा और न ही कछ लेना मेरी प नी को।’’
‘‘िकतु भैया, इन य को बीच म लाने क या आव यकता ह? हम इसे कवल अपने तक ही सीिमत रख।’’
‘‘नह , म तु हारी भाभी से िछपाकर कछ नह रखता और न ही तु ह सुझाव दूँगा िक तुम अपनी प नी से कछ
िछपाकर रखो।’’
प रवार िवभ हो गया। इससे िनमला अ यंत स थी, परतु उसक स ता क सीमा नह रही, जब कशव ने
उसको यह बताया िक भैया ने उसक सहायता लेने से इनकार कर िदया ह।
कशव का भाई माधव अ यंत िनधन था। एक फम म साधारण सा क था और वेतन- व प उसे कवल डढ़
सौ पए मािसक िमलते थे। घर म छह ब े थे तथा उनक पालन-पोषण एवं उनक िश ा क िलए यह रािश
अ यंत अ प थी। इस पर भी येन-कन कारण वह जीवन क गाड़ी चलाने लगा। उसने ढ़ िन य िकया और
अपनी जीवन क गाड़ी को नया मोड़ िदया। अपने सबसे बड़ लड़क को, जो कॉलेज म िश ा ा कर रहा था,
उसने कह िदया िक आगे पढ़ना ह तो साथ-साथ अजन कर। दूसर लड़क ने िपछले वष मैि क क परी ा उ ीण
क थी तथा आगे कॉलेज म वेश लेने क सोच रहा था। उसने उसक िश ा-समा क घोषणा कर दी और
उसको एक कारखाने म काम सीखने पर लगा िदया। छोट तीन ब क िश ा उसने चालू रखी। सबसे छोटा
लड़का तीन वष का ही था।
समय यतीत होता गया। सबसे बड़ा लड़का अब दुकानदार बन गया था। उसने दलाली का काम शु िकया था
और अपनी थोड़ी सी पूँजी बचाकर एक िकराने क दुकान खोल ली थी। दो वष म ही उसक दुकान चल िनकली
थी और वह इस समय लगभग दो सौ पए मािसक अपने िपता क आय म वृ करने लगा था। छोट भाई ने
कारखाने म काम सीखकर अपने बड़ भाई क सहायता से अपनी एक छोटी सी दुकान खोल ली थी। इस कार
बड़ भाई क थित अब सामा य हो गई थी।
दूसरी ओर इन दो वष म कशव क प नी क दो ब े हो चुक थे। और उसक िलए यह संभव नह था िक
उनक भली-भाँित देखभाल कर तथा घर का सारा काम भी कर। कशव ने घर क काम क िलए एक क बाद एक
कई नौकर रखे, िकतु नौकर अपनी मरजी क अनुसार काम करते थे, चाह काम मािलक को पसंद आए, चाह न
आए। कभी उनको डाँटा नह , अगले िदन उसने खाना खराब बना िदया, ॉकरी क दो-चार पीस तोड़ िदए। ब
को िखलाने क िलए कहा जाता, तो वह उनक पैर म इतने जोर से चुटक काटता िक वे िच ा उठते और िववश
होकर उ ह माँ को ही सँभालना पड़ता। घर म घी-चीनी तथा अनाज आिद का तो िहसाब ही नह रहा था।
िनमला का वा य भी िनरतर िगर रहा था। उसक गभ म इस समय तृतीय संतान थी। इस बार उसने गभपात
कराने का िन य कर िलया। इसक िलए वह कई डॉ टर क पास गई, िकतु कोई स मािनत डॉ टर इस िवषय म
उसक सहायता क िलए तैयार नह आ। िववश होकर इसक िलए उसे एक अिशि त िचिक सक क सहायता
लेनी पड़ी। गभपात तो हो गया, िकतु िनमला ने िब तरा पकड़ िलया। उसको िनरतर र रहने लगा। डॉ टर को
संदेह हो गया िक टी.बी. न हो गई हो।
इस सबसे कशव ब त िचंितत रहने लगा और इसका प रणाम यह आ िक द तर क काम म वह यान न दे
सका। उसक अिधकारी-गण उससे अ स रहने लगे। िपछले िदन उसे आशा थी िक उसक पदो ित हो जाएगी,
परतु अब वह आशा भी िवलीन हो गई।
घर पर काम ब त बढ़ गया, तो नौकर भाग गया। अब कशव को घर का ब त सा काम वयं करना पड़ता।
िनमला क िलए दवाई आिद लाना, उसक टहल-सेवा तथा िफर द तर का काम।
िनमला क िलए तो उसने एक नस का बंध कर िदया, परतु उस नस को 6 पए ितिदन वेतन देना तय आ।
इस कार आधा से अिधक वेतन तो नस क ऊपर ही यय होने लगा था, शेष म दवा आिद तथा खाना-पीना एक
सम या बन गई।
यह यव था अिधक काल क िलए चल सकनी असंभव थी। य िप कशव घर का ब त सा काम वयं करता
था, इस पर भी िनमला को आराम नह िमल पा रहा था। ब क ऊपर तो वही नजर रख सकती थी। इस कार
जीवन से िनराश हो, ब त ही दुःखी अव था म वह अपने भाई से िमलने जा प चा। भाई क हाल-चाल पूछने पर
कशव ने घर का सारा वृ ांत कह सुनाया और िफर कहा, ‘‘यिद इसी कार चलता रहा, तो ऑिफस से िड चाज
नोिटस िमल जाएगा और िफर सारा प रवार भूखा ही मरगा।’’
‘‘यह सुनकर मुझे ब त ही दुःख आ ह, कशव।’’ भाई ने कवल इतना कहा।
कशव को अपने भाई क वह िनराशा मरण हो आई, जब उसने उनसे कहा था िक प रवार से पृथक होना
चाहता ह। उस समय भाई को उसक सहायता क आव यकता थी, परतु उसक पृथक हो जाने से भाई ने सहायता
लेने से इनकार कर िदया। अब कशव को सहायता क आव यकता थी, परतु तब क अव था का मरण कर वह
माँग नह सका और कछ देर बैठकर घर वापस चला आया।
अगले िदन जब वह ऑिफस से वापस आया, तो उसने देखा िक उसक भतीजी कांता आई ई ह। कशव ने पूछ
िलया, ‘‘कहो कांता, या हाल ह?’’
‘‘सब ठीक ह चाचाजी।’’ न ता से कांता ने उ र िदया।
कशव ने देखा, आज घर क सफाई भली-भाँित ई पड़ी ह, बरतन तथा रसोई साफ पड़ी ह और उसक िलए
चाय भी तैयार ह। आज चार मास बाद उसे शाम क चाय का वाद आया था। उसने अपनी प नी से पूछा,
‘‘िनमला, तु हारा या हाल ह?’’
‘‘जैसा हमेशा रहता ह। नस छ ी माँगने लगी, तो म ब त परशान ई। उसक िबना मेरा काम िकस कार
चलेगा, म यही सोच रही थी िक इतने म कांता आ गई और कहने लगी िक वह आज िदन भर यह रहगी। मने नस
को छ ी दे दी। कांता तो अब होिशयार हो गई ह। इसने नस से कह अ छी तरह मेरी सेवा क ह।’’
कशव क आ य का िठकाना नह रहा, जब कांता का छोटा भाई मोहन भी आ गया और ब से खेलने लगा।
वह उनको लेकर समीप क एक पाक म चला गया। रात कांता भोजन बनाने क बाद घर चली गई, परतु मोहन वह
रह गया। ातः उसने चाचा से स जी आिद तथा चाची से दवाई आिद लाने क िवषय म पूछ िलया।
खाना बनाने तथा घर का बंध करने क िलए कांता भी ातः आ गई। इस कार स ाह भर चलता रहा। जब
कशव को िव ास हो गया िक कांता ितिदन आती रहगी, तो उसने नस क छ ी कर दी। इस पर भी एक बात
कशव समझ नह सका िक कांता ने भी उनक घर पर भोजन नह िकया, न ही मोहन ने िकसी व तु को छआ।
कशव ने कई बार कहा िक वह भोजन यह कर ले, परतु कांता सदैव टालती रहती।
िनमला क वा य म सुधार होने लगा था और एक मास म उसका र जाता रहा। अब वह बैठकर थोड़ा-ब त
काम करने लगी थी। एक िदन िनमला ने कांता से ब त आ ह िकया िक आज वह भोजन उनक साथ ही खाए। इस
पर कांता ने कह िदया, ‘‘चाची, मुझको िबलकल भूख नह ह।’’
‘‘कांता, मेरी खुशी क िलए ही थोड़ा सा खा लो।’’
‘‘िकतु म खा नह सकती। मुझे िबलकल भूख नह ह।’’
‘‘ य ?’’
‘‘यह तो मुझको भी पता नह ।’’
‘‘तो तुम यहाँ य आती हो?’’
‘‘िजससे आपक कछ सहायता कर सक।’’
कशव भी इनक बात सुन रहा था और वह वयं को इनसे अिल न रख सका। उसने पूछा, ‘‘कांता, या
तु हारी माताजी ने तु ह यहाँ काम करने क िलए भेजा ह?’’
‘‘नह तो, म वयं ही आती । एक िदन आप िपताजी को अपनी किठनाई बता रह थे, तो मेर िदल म चाची क
सहायता करने क बात आई। अगले िदन मने िपताजी से पूछ िलया। उ ह ने माताजी क ओर संकत िकया। माताजी
ने मुझे यहाँ आने क वीकित दे दी और म यहाँ आने लगी। मुझे स ता ह िक चाची अब व थ हो रही ह।’’
‘‘िकतु तु ह यह िकसने कहा ह िक तुम यहाँ खाना मत खाया करो। म समझता , यह तु हारा एक कार से ढ़
िन य ह िक तुम हमारी कोई व तु नह लोगी।’’
कांता ने इसका कछ उ र नह िदया। चु पी का अथ प था। कशव सब समझ गया। िनमला को भी डक सा
लगा। वह कांता से कहनेवाली थी िक अब उसक आने क आव यकता नह , परतु घर क थित तथा अपनी
असमथता देख वह मौन रही।
उस रात कशव ने िनमला से पूछा, ‘‘ या तु ह उस बात पर ल ा क अनुभूित नह होती, जो तुमने मेर भाई क
साथ करवाई?’’
‘‘ य , मने या करवाया था?’’
‘‘तुमने मुझसे उनक सहायता बंद करवाई, जबिक उस समय उनको इसक अ यंत आव यकता थी। प रणाम
यह आ िक सुंदर को तुरत कॉलेज छोड़कर दुकान करनी पड़ी।’’
‘‘मने आपको उनक आिथक सहायता करने से मना नह िकया था। यह तो उ ह ने वयं अ वीकार क थी।’’
‘‘नह , हमने इसक िलए उ ह िववश कर िदया था। सुनो, अब मने िन य िकया ह िक म वहाँ जाकर भैया तथा
भाभी क चरण म िसर रखकर मा माँगूँगा और उनसे याचना क गा िक दोन प रवार पुनः एक हो जाएँ। यह
ठीक ह िक उन िदन तु ह भाभी से अिधक काम करना पड़ता था, परतु युवा होने क कारण तुम यह कर सकती
थ , उसी कार जैसे कांता अब यहाँ करती रही ह। इस कार काम करना िकसी क ित एहसान करना नह होता।
िकसी सं था क भाँित एक संयु प रवार म िकसी से सहायता ा करने क िलए वयं भी उनक सहायता करने
िलए त पर रहना चािहए।’’
िनमला को अपने ि यजन क समीप रहने से ा सुिवधा का भास तो हो गया था, परतु वह यह नह समझ पाई
थी िक कवल एक घटना िकस कार संयु प रवार क औिच य को िस कर सकती ह। उसने कहा, ‘‘हम
दुभा यशाली थे, िज ह िकसी क सहायता क आव यकता पड़ी, िकतु ऐसा कोई िनयम तो नह िक सबक साथ
ऐसा ही होगा। हमारा दुभा य यह िस नह करता िक बड़ प रवार क आव यकता रहती ह।’’
‘‘िकतु िनमला, हमारा दुभा य इस बात का सीधा प रणाम नह ह, य िक हमारा कोई ऐसा सहायक नह था, जो
िक समय पर काम आए। चोर िन य ही िकसी क घर सध नह लगाते। इस पर भी पुिलस को सदा और सब थान
पर सचेत रखा जाता ह। आग लगने क घटनाएँ िन य और सदा नह होत , परतु आग बुझानेवाले दमकल सदा
तैयार रखे जाते ह। भावी दु प रणाम को रोकने क िलए सदा सुर ा मक उपाय यवहार म लाए जाते ह। ब त से
लोग का एक साथ एक प रवार क प म रहना ऐसी संभािवत िवपि से, जैसी हम पर आन पड़ी थी, चौकस
रहने का य न ह।
‘‘िनमला, तु ह बताओ, जो सेवा कांता और मोहन कवल ेहवश करते रहते ह, वह या िकसी भी मू य पर
िमल सकती थी?’’
‘‘िकतु हमारी वैय क वतं ता का या होगा?’’ िनमला ने िन र होते ए अब यह न कर डाला।
‘‘वह सदैव तु हार पास रहगी, यिद तुमम उसको बनाए रखने क यो यता होगी। अयो य क वैय क वतं ता
उनक अिहत म ही होती ह।’’
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तलाक
‘‘तो जाती य नह यायालय म?’’
‘‘वहाँ या करने क िलए जाऊ?’’
‘‘मुझे तलाक देने।’’
‘‘ य दूँ तलाक?’’
‘‘म दुराचारी , म तु ह खचा नह देता, तु हार ब े को िमठाई लाकर नह देता और भी जो-जो कछ तुम
चाहती हो, उस सबक िलए।’’
ऐसी चुनौती सुनकर तो सदारानी टकर-टकर मुख देखती रह गई। उसका पित सुर मोहन मुसकराते ए अपनी
आरामकरसी पर बैठा था। िसगार का कश लगा धुआँ छोड़ते ए और छत क ओर देखते ए वह बोला, ‘‘ या
मजे म कह िदया, मत लाया करो इन लड़िकय को घर म। घर म न लाऊ, तो कहाँ ले जाऊ?’’
‘‘म तो यह कह रही थी िक आप मेर खाने-पीने और व ािद क िलए तो कछ देते नह और जब ये लड़िकयाँ
आती ह, तो घर म लहर-बहर लग जाती ह।’’
‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो, पर म िवचार करता िक तुमको म य दूँ? दो लकि़डयाँ जलाकर उसक चार
च र काट लेने से या म तु हारा देनदार हो गया ?’’
‘‘आप इस बेट क बाप ह। इस पर ही दया कर इसक माँ को कछ दे िदया कर। म अपनी सौगंध खाकर कहती
िक कल से एक भी दाना मेर पेट म नह गया।’’
‘‘दाने तो मेर पास ब त ह, पर तु ह य खाने को दूँ? तुम अपना िठकाना कह अ य य नह बना लेत ? घर
छोड़ोगी, तो िफर तुमको दूसरी लड़िकय क यहाँ आते और खाते-पीते देख दुःख नह होगा।’’
‘‘पर जाऊ कहाँ?’’
‘‘अपने बाप क घर जा सकती हो।’’
‘‘और यह ब ा?’’
‘‘इसक मुझे आव यकता नह ।’’
‘‘तो िववाह य िकया था?’’
‘‘प नी पाने क िलए िकया था, िकतु यह तो अपने आप िबना इ छा िकए ही आ प चा ह।’’
अपने पित क इस जीवन-मीमांसा का उ र प नी नह दे सक । सुर उसको कई बार कह चुका था िक उसे वह
पसंद नह ह और जहाँ उसक स ग समाएँ, वह जा सकती ह। आज उसने यह भी कह िदया था िक भारत सरकार
क कपा से उसक िलए अपने इस नालायक पित को छोड़ देने का माग श त हो चुका ह।
सुर अपने काम पर जाने क िलए तैयार था और उसक प नी अपने खाने-पीने क िलए उससे पैसे माँगने आई
थी। उस समय उनम उ वा ालाप आ था। सुर मोहन जाने लगा, तो उसे एक बात मरण हो आई। उसने
कहा, ‘‘अ छा, एक काम करो। म तुमको पचास पए देता । इन पय म तुम चार य य क खाने क िलए
सामान तैयार करना। एक बोतल ह क , दो मुग, नान, याज, टमाटर, खीरा, चुकदर क सलाद, मेज पर सफद
चादर और पलंग पर धुला िब तर, कछ फल इ यािद भी। बताओ कर सकोगी?’’
‘‘चार म कौन-कौन होगा?’’
‘‘म, सरोज, मनोज और चौथी तुम।’’
‘‘दोन , एक साथ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘परतु पचास पए पूर हो जाएँगे या?’’
‘‘देखो, पतीस क बोतल, दस पए क दो मुग, एक पया सलाद क िलए, घी-िमच, नमक-मसाला आिद क
िलए चार पए।’’
‘‘और इस समय पेट भरने क िलए? यिद कछ खाऊगी नह , तो यह सब तैयार कसे क गी?’’
‘‘अ छा, पाँच पए और ले लो, परतु देखो, िहसाब देना होगा?’’
सदारानी चुप रही। सुर ने पचपन पए उसक स मुख फक और सीि़ढय से नीचे उतर गया।
सदारानी ने िपछले मास एक चूड़ी बेचकर मास भर िनवाह िकया था। इस बार वह दूसरी चूड़ी बेचनेवाली थी,
जबिक उसक मन म िवचार आया िक जीवन ब त लंबा ह। इस कार कब तक चलेगा और जब सब चूि़डयाँ
िबक जाएँगी और पितदेव को पता चलेगा, तो वह चोरी करने का आरोप लगा सकता ह। तब वह िकस-िकस को
बताती िफरगी िक उसने अपना पेट भरने तथा ब े क दूध क िलए यह सब िकया था। आज वह अपने पित को
बतानेवाली थी िक वह चूि़डयाँ बेचकर अपने खाने का सामान खरीद रही ह। उसक ऐसा कहने क पूव ही तलाक
क बात चल पड़ी थी और िफर सरोज, मनोज क आने का ताव हो गया।
जब उसक पित ने उसक सामने पचपन पए फक तो उसने उठाए नह । सुर मोहन नीचे उतर गया तो उसने
पए उठाए और िगन डाले। अब वह िवचार करने लगी िक या वह इन पय से अपने पित क भोग-िवलास का
बंध कर? एक बार पहले भी उसने ऐसा िकया था। तब उसक मन म यह भावना थी िक वह अपने खाना बनाने
तथा दावत का बंध करने म यो यता िदखाकर अपने पित को स कर लेगी, परतु ऐसा आ नह । उसने पुनः
ऐसा करने से इनकार कर िदया था। ायः स ाह म एक बार उसका पित इस कार क दावत िकया करता था
और पीछ कई बार, जब सदारानी ने इस कार क दावत क बंध करने से इनकार कर िदया, तो उसने घर का
सब खच बंद कर िदया और जब भी वे लड़िकयाँ आत , तो वह िकसी होटलवाले से बंध करवा लेता और पचास
क थान पर स र-पचह र यय कर देता। इस कार अिधक यय होने पर वह और भी िचढ़ जाता और घरखच
न देने क िलए उसका संक प ढ़ होता जाता।
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सदारानी ने अपने मन म िन य िकया िक वह अपने पित क इस कार क भोग-िवलास क बंिधका नह
बनेगी। आज जब सुर मोहन ने उसको पए िदए, तो उसने इनकार नह िकया। वह चुप रही। उसक पित ने इसको
वीकित मान िलया और िनश्ंि◌चत हो अपने कायालय चला गया।
सदारानी ने पए उठाए तो इस िन य क साथ िक वह अब इस घर को छोड़ देगी। उसक िपता लखनऊ म
रहते थे। ब त साधारण वृि क य थे और एक ब त बड़ प रवार क बोझ क कारण वह लड़क क सहायता
करने म असमथ थे। यिद सदारानी अभी तक वहाँ नह गई थी, तो इसी कारण िक वह उनक दुःख का कारण
बनना नह चाहती थी।
परतु जब पानी नाक से भी ऊपर आ गया, तो डबने से बचने क िलए अंितम उपाय यही तीत आ और वह
लखनऊ जाने क िलए तैयार हो गई।
जब जाने का िवचार प ा आ, तो यह समझकर िक वह जीवन भर क िलए जा रही ह, उसने अपने सब
आभूषण एकि त िकए, उ ह अपने तथा ब े क कपड़ क साथ संदूक म रखा और ताँगे म बैठ टशन जा प ची।
िदन क यारह बजे शाहजहाँपुर से गाड़ी म बैठकर साढ़ सात बजे सायं वह अपने िपता क घर जा प ची।
सदारानी का िपता अपने कायालय से आकर पड़ोस क दो ब को पढ़ाने क िलए जाया करता था। वह वहाँ
गया आ था। उसका भाई बी.ए. म पढ़ रहा था। वह भी आठव क ा क एक छा को पढ़ाया करता था। उसक
चार और बहन-भाई तथा उसक माँ उस समय घर पर थे। लड़क को िबना िकसी कार क सूचना िदए आती देख
माँ मुख देखती रह गई। उसक भाई-बहन भी उसको िव मय से देख रह थे।
पावती ने पूछा, ‘‘सदा, या बात ह, इस कार िकस कारण आई हो?’’
‘‘माँ, म पित का घर छोड़ आई । िपताजी कहाँ ह?’’
‘‘वे पढ़ाने गए ह, आते ही ह गे।’’
‘‘और िवनोद?’’
‘‘वह भी पढ़ाने गया ह। आजकल महगाई इतनी बढ़ गई ह िक एक आदमी क कमाई एक क िलए ही पया
नह होती।’’
सदारानी ने अपना संदूक माँ क कमर म रख िदया और अपने सबसे छोट भाई जगदीश को बाजार भेजकर ब े
क िलए दूध मँगवाया।
पावती िवचार कर रही थी िक यह एक और बोझ िसर पर आ पड़ा ह। भगवा जाने या कर आई ह, जो
एकाएक इस कार आ धमक ह। छह मास पूव आई थी, उस समय भी अपने पित क यवहार से संतु नह थी,
परतु वहाँ से सदा क िलए चले आने का तो उस समय कोई िवचार था ही नह ।
पावती रात का खाना बना रही थी। अतः अनुमान से उसने एक य क िलए और आटा छान िलया। एक
चतुर गृिहणी क भाँित इस महगाई क युग म वह एक दाना भी यथ गँवाना नह चाहती थी।
बाजार से दूध आया, तो गरम कर ब े को िदया गया। वह दूध पीकर सो गया। सदारानी ने अड़तालीस घंट से
भोजन नह िकया था। अब वह उ सुकता से रोटी बनने क ती ा कर रही थी। इस कारण वह उठी और माँ से
बोली, ‘‘माँ, हटो तो, आज म पका देती ।’’
सदारानी का िपता जब पढ़ाकर आया, उसने अपनी बेटी को रसोई म रोटी सकते देखा, तो अपनी प नी को पृथक
ले जाकर पूछने लगा, ‘‘कसे आई ह सदा?’’
‘‘मालूम होता ह, पित से लड़कर आई ह।’’
‘‘लड़कर आना तो िविच नह हो सकता। भय तो इस बात का ह िक कह घर से िनकाल न दी गई हो?’’
‘‘यह आप ही उससे पूछ लीिजए। मुझे तो ब त ही बुरी बात सुननी न पड़ जाए, इससे भय लगता ह।’’
‘‘ या बुरी बात हो सकती ह?’’
‘‘लड़क पर कोई झूठा-स ा आरोप न लग गया हो और घरवाले ने ध दे-देकर िनकाल िदया हो।’’
‘‘अ छा, ब े सो जाएँ, तो बात करगे। उनक सामने इस कार क बात ठीक नह ह गी।’’
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रात क भोजनोपरांत सदारानी ने अपनी पूण बात अपने माता-िपता को सुना दी। सब छोट ब े अपनी-अपनी
पढ़ाई कर रह थे। कवल िवनोद उनक पास बैठा सुन रहा था। वह अब घर क सम या को सुन, समझकर उनम
सहायता िकया करता था। िपता ने उसको सदा क बात सुनने क िलए बुला िलया था।
‘‘तो अब या करोगी?’’
‘‘वहाँ अकली रहती तो यथ म बदनाम हो जाती, इस कारण यहाँ चली आई ।’’
‘‘ये पाँच आभूषण पूण जीवन भर साथ दे सकगे या? तुम जानती ही हो िक म तु हारी अिधक सहायता नह कर
सकता। यहाँ तो सब स ान ाणी मेहनत करते ह और जीवन चलाते ह। सबक य न करने पर भी पेट पूरा नह
भरता।’’
‘‘िपताजी, म यह सब जानती । यह जानती ई भी म यहाँ आई । आप पर बोझ बनने क िलए नह । म भी
जीवनयापन क िलए कछ-न-कछ क गी।’’
िवनोद कहने लगा, ‘‘पर बिहन, जीजाजी ने ठीक ही तो कहा था िक उनको तलाक दे सकती हो?’’
‘‘दे तो सकती , परतु म देना नह चाहती।’’
‘‘ य ?’’
‘‘िवनोद, तुम समझ नह सकोगे। म अब दूसरा िववाह नह क गी। जब िववाह ही नह करना, तो तलाक देने
से या लाभ होगा? एक बार तलाक हो जाने क बाद पुनः सुलह क िलए कोई थान ही नह रह जाता।’’
‘‘परतु तुम इस कार िकतने िदन तक जीवन चला सकोगी?’’
सदारानी इस न पर मुख देखती रह गई। इसका उ र जानती तो थी, परतु भिव य क िवषय म कछ भी कहने
और उसम िकसी कार का दावा करने का उसम साहस नह था। तो भी वतमान पर ही अपना यान कि त करते
ए उसने कहा, ‘‘िवनोद, धन-वैभव और अिकचनता का संबंध िववाह करने अथवा न करने क साथ नह ह। तुम
लोग भी तो जीवन-संघष कर रह हो। यहाँ तो माता-िपता म झगड़ा नह । दोन पर पर ेम से रहते ह।’’
‘‘पर बिहन, हम तो आशा करते ह िक कछ ही वष म हमारी थित बदल जाएगी। दो वष म म बी.ए. कर लूँगा
और िफर मोहन और जगदीश भी तैयार हो जाएँग।े सब िमलकर रहगे, तो घर म संप ता हो जाएगी।’’
‘‘यह आशा ही तो मनु य क जीवन का आ य ह। इसी क भरोसे तो मनु य दुगम-से-दुगम किठनाइयाँ पार करने
क मता ा करता ह। िवनोद, यह मुझम भी िव मान ह। िपताजी ने कछ पढ़ा िदया था, उसक भरोसे म
जीवनयापन तथा आगे उ ित करने क आशा रखती । म भी तु हारी भाँित आशा कर रही िक यह ब ा बड़ा
होगा, पढ़-िलखकर िव ा बनेगा और िफर घर म संप ता का आगमन होगा।’’
‘‘और तब तक तुम बूढ़ी हो जाओगी।’’
‘‘तो िफर या आ? यह तो सुखी हो जाएगा। उसक सुख-सुिवधा से मेर मन को तुि होगी।’’
‘‘ या तुि होगी?’’
‘‘यही िक मने अपने प र म से अपने पु को संसार म िसर ऊचा करने क िलए अवसर उपल ध कराया ह।
िवनोद! गरीबी और अमीरी क बात िववाह से संबंिधत नह ह। इसका संबंध भा य और पु षाथ से ह।’’
‘‘ य िपताजी,’’ िवनोद ने िन र होते ए और अपने िपता क बात को आगे ले चलने क िलए पूछा, ‘‘आप
या समझते ह?’’
‘‘बेटा, सदारानी ठीक कहती ह। िववाह क साथ दा र य चला ही जाएगा, यह िन त नह । यह भा य क बात
ह, परतु िववाह तो िकसी अ य बात क िलए िकया जाता ह। बड़-बड़ ऋिष-महिष भी अपनी इि य पर िनयं ण
नह रख सकते, इस कारण समाज ने इस िनयं ण म सुिवधा क िलए ही िववाह- था बनाई ह। म तो सदारानी को
इस िदशा म िवचार करने क बात कह रहा । या वह जीवन को अकली चला सकगी?’’
यह िफर भिव य म होनेवाली संभावना क ओर संकत था। सदारानी ने यथ का अिभमान और शौय िदखाने क
अपे ा कहा, ‘‘िपताजी! आप बड़ का आशीवाद और संर ण ा होता रहा, तो वह दु तर सागर भी पार हो ही
जाएगा। कौन य ह, जो भिव य क संभािवत भय से िसत वतमान को िवकत करने का य न करगा। इस कार
िवचार करना भी म ठीक नह समझती। मुझको य न करने दीिजए और कह माग से िवचिलत होने लगूँ तो आप
सचेत कर दीिजए।’’
िवनोद ने पुनः वा ालाप म ह त ेप करते ए कहा, ‘‘परतु इस दुघटना का पूण बोझ और क तो तुम कवल
अपने ही कध पर उठाने क योजना बना रही हो। उस दु को या दंड िमलेगा? उसे तो तुमने वतं ता से गुलछर
उड़ाने क िलए मैदान खाली छोड़ िदया ह?’’
‘‘भैया, म उनक िवषय म नह सोच रही। मेरी अनुप थित म वे आनंद म ह गे अथवा दुःख म, म िवचार कर
िचंता करने क थित म नह । म उनक सुख-सुिवधा म सहायक होने क थित म भी नह । म तो अपने
िवषय म ही िवचार और उपाय कर सकती ।’’
‘‘म तो चाहता िक कोट म तलाक क ाथना कर दी जाए और य न िकया जाए िक ब े क पालन-पोषण क
िलए उनसे खचा िमल जाए।’’
उसक िपता ने कहा, ‘‘इस ि या म कम-से-कम एक वष लग जाएगा। उसम सदारानी को अपने पित क
दु र होने क कहानी सुनानी पड़गी। साथ ही कवल सुनाने से तो काम बनेगा नह । अपने कथन क िलए माण
और सा ी भी तुत करने ह गे। म समझता िक मुकदमेबाजी म यथ का धन और श का यय नह करना
चािहए। यिद सदारानी को तलाक क बाद भी िववाह नह करना ह, तो िफर इस सब झंझट क आव यकता ही या
ह?’’
‘‘परतु िपताजी, जीजाजी को िश ा िकस कार िमलेगी?’’
‘‘िश ा तो उसका िश क ही उसको देगा। सदारानी को मने उसका िश क बनाकर नह भेजा था। िवनोद, एक
बात और समझ लो। तलाक देने से जो दंड िमलता ह, वह पित को नह , वर प नी को िमलता ह। इस अव था म
तो सुर मोहन को अपनी प नी को तंग करने अथवा मारने-पीटने का पुर कार िमलेगा। नह , मेरी स मित म तलाक
क िलए आज क काय म म झगड़ा करना लाभ क बात नह ।’’
‘‘परतु तलाक का कानून बनानेवाल का तो यह कहना ह िक य क सुख-व न क िलए इसका िनमाण
िकया गया ह।’’
‘‘कहते ह गे, परतु अनुभव तो इसक िवपरीत ही माण तुत कर रहा ह।’’
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सुर मोहन क िम ता अपने ही कायालय म काम करनेवाली दो लड़िकय से हो गई थी। पहले तो वह एक-एक
से पृथक-पृथक संबंध रखता था। बाद म जब उन लड़िकय को पता चल गया, तो िफर दोन से इक ा यवहार
रखने लगा। उनको बारी-बारी से िनमं ण देता था। जब सदारानी को उसक उनसे अनुिचत संबंध का ान आ, तो
वह उनको घर पर लाने लगा। समय यतीत होता गया और सुर मोहन अपने िवकत माग पर आगे बढ़ता चला
गया।
प नी से उसक तनातनी रहने लगी और उसने उसको खचा देना बंद कर िदया। जब थित अस हो गई, तो
घर म ताला लगा सदारानी अपने िपता क घर चली गई।
उस िदन सुर मोहन ने सरोज और मनोज दोन को एक साथ ही रात क भोजन पर आमंि त िकया था। वह
पैसेवाला आदमी था। तीन ही अपने-अपने उ े य म लीन थे। सुर सुख भोग म और लड़िकयाँ उसका धन-
शोषण म।
सायंकाल अपने कायालय से उठ सुर मोहन िकसी िन त र तराँ म उनम से एक से िमलता था। वहाँ चाय
पीकर ायः िसनेमा देखने क िलए चला जाता था। तदनंतर िकसी अ य र तराँ म भोजन क िलए जाया करता था,
िफर घर पर ले आता और रात भर घर म रख ातः वापस उसक घर भेज िदया करता था।
आज क काय म म कछ अंतर था। दोन को एक साथ आमंि त िकया गया था। िसनेमा से वह उनको सीधा
घर पर लानेवाला था। भोजन का बंध घर पर ही था, परतु रात क साढ़ नौ बजे जब वह घर पर आया, तो मकान
को ताला लगा देख वह भ च ा हो गया।
ताला ब त मजबूत था, उसे तोड़ने म किठनाई ई। आधे घंट से अिधक तो ताला तोड़ने म लग गया। अंदर
जाकर उसने देखा िक भोजन क तो कह िच तक नह थे और साथ ही उसक प नी क व तथा आभूषण का
संदूक भी खाली पड़ा था।
अब सुर मोहन देख रहा था िक घर म से या- या गया ह तो बड़ी लड़क सरोज ने पूछ िलया, ‘‘ या आ
ह?’’
‘‘देवीजी सबकछ लेकर भाग गई ह।’’
‘‘सबकछ से या मतलब?’’
‘‘अपने व ाभूषण और...और न जाने या- या!’’
‘‘आपक पतलून-कोट तो नह ले गई?’’
सुर मोहन ने मुसकराते ए कहा, ‘‘नह ।’’
‘‘और आपका पस?’’ मनोज ने पूछा।
‘‘नह , वह भी ह।’’
‘‘आपक चैक-बुक?’’
मेज का दराज खोल सुर ने कहा, ‘‘वह भी ह।’’
‘‘तो िफर िचंता क कोई बात नह ।’’ सरोज ने स ता य करते ए कहा।
मनोज कहने लगी, ‘‘मुझे तो भूख लगी ह।’’
सरोज कहने लगी, ‘‘हाँ, अब बताइए, खाना कहाँ होगा। दस बजे तो होटल बंद हो जाते ह।’’
‘‘म बाजार जाता , यिद कछ िमल गया तो ले आऊगा।’’
‘‘यिद कछ न िमला तो या होगा?’’
‘‘कछ नह , ठडा पानी पीकर सो जाएँग।े ’’
यह कह वह मकान क नीचे उतर गया। ायः सभी दुकान बंद हो चुक थ । एक भिटया रन क दुकान खुली थी।
वह ब त ातःकाल रल क वकशॉप को जानेवाल क िलए चबेना भून रही थी। सुर मोहन उसक दुकान पर
खड़ा हो गया। वह िव मय म बाबू क ओर देखकर पूछने लगी, ‘‘ या चािहए बाबू?’’
‘‘चार आने का चबेना दे दो।’’
भिटया रन ने आधा सेर चने-मूँग इ यािद तौलकर दे िदए। सुर मोहन ने उ ह माल म बाँधा और घर आ गया।
जब उसने माल खोलकर लड़िकय को िदखाया, तो सरोज क मुख से िनकला, ‘‘सब मजा िकरिकरा हो गया।
म तो घर जाती । माँ को क गी, तो खाना िमल जाएगा।’’
मनोज ने भी उठते ए कहा, ‘‘हमको दीिजए, जो देना चाहते ह। म भी जाऊगी।’’
‘‘म तो िमठाई लेने क िलए गया था। िकसी हलवाई क दुकान खुली ही नह थी। म या करता?’’
‘‘करना या ह, आप चबेना खाइए और सो जाइए। हमसे तो इसे चबाकर रात भर गुजर नह हो सकती।’’
मनोज ने पुनः सुर से कहा, ‘‘मुझे तो िवदा क रए, न द आने लगी ह।’’
‘‘ या िवदाई दे दू?ँ ’’
‘‘साधारण प से हमको पचास पए िमलनेवाले थे। इस िवशेष प र थित म तो हम पचह र से कम नह
लगी।’’
‘‘पचह र?’’
‘‘हाँ, आज खाने-पीने को कछ नह िमला न?’’
‘‘िजतना तुमको क आ ह, उतना तो म तु हार मनोरजन पर यय कर चुका ।’’
‘‘बात यह ह िक हमार क का नाप-तौल आपक पास नह ह। यह तो हम जानती ह िक इस कार पूण शाम
को आवारागद क बाद सूखे चने सामने देखने पर या दशा होती ह मन क ?’’
‘‘परतु इसम मेरा तो कोई दोष नह ह?’’
‘‘तो हमारा दोष ह?’’
‘‘नह , यह भा य क बात ह। जैसे म सहन कर रहा , वैसे ही तुम लोग को भी करना चािहए।’’
मनोज यह सुन ोध से जल-भुन उठी। उसने कहा, ‘‘भले इनसान क भाँित हमार पए हमको दे दो। नह तो
ठीक नह होगा। िपछले एक घंट म जो क हमको आ ह, उसका कोई पारावार ह भी?’’
अब सुर ने ोध दरशाते ए कहा, ‘‘ऐ छोकरी! ह ा य करती ह? चुपचाप नीचे उतर जाओ। तुम मेरी
िववािहता नह हो। झगड़ा कर तु ह कछ नह िमलेगा। चुपचाप चली जाओ यहाँ से।’’
सरोज अभी भी िम त-खुशामद से जो िमले, ले लेने क िलए तैयार थी, परतु मनोज तो ोध क घोड़ पर सवार
थी। उसने सरोज क बाँह -म-बाँह डाली और उसको मकान क सीि़ढय क ओर ख चते ए कहा, ‘‘छोड़ो, इस
कमीने को। हमारी तुलना अपनी प नी से कर रहा ह। यह गधा तो प नी और ेिमका म अंतर ही नह जानता।’’
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सदारानी को छोट ब क यूशन पाने म दस-बारह िदन लग गए, परतु भा य क बात थी, जब यूशन िमली
तो कई वष क िलए काम िमल गया। राजा अंिबका साद क चार लड़िकयाँ थ । तीन तो कल जाती थ । एक
अभी छोटी ही थी। चार -क -चार ही सदारानी क देख-रख म रख दी गई और उसको छह मास क काय क
परी ा क उपरांत का काम प ा करने क आशा िदलाई गई।
सदारानी को अपने िपता क घर आए दो वष हो चुक थे। न तो इसक सूचना अपने पित को भेजी थी और न ही
उसक पित ने उसक िवषय म जानने का य न िकया था। सदारानी ने अपना पूण मन अपने संर ण म रखे गए ब
पर लगा िदया था। ातः ही अपने ब े को िखला-िपलाकर वह राजा साहब क कोठी पर चली जाती। तीन बड़ी
लड़िकयाँ गंगा, यमुना और गोदावरी तो कल क पाँचव , तीसरी और दूसरी ेणी म पढ़ती थ । वे ायः सदारानी
क आने से पूव उठ ानािद कर कल जाने क िलए तैयार हो जाया करती थ । वह उनको व पहना पु तक
देख, िविधव उनक थैल म रख और उनको ले कल छोड़ने क िलए चली जाती। यह उसका काम था िक
लड़िकय क अ यािपका से िमलकर उनक िवषय म कोई सूचना हो तो घर पर ले आया कर।
घर प चकर सबसे छोटी लड़क को, जो इस समय तीन वष क थी, ानािद करा, व पहना, उसको
अ पाहार कराती। रानी नीलमिण तो ायः ण ही रहा करती थी। वह ब क देखभाल नह कर सकती थी।
इसिलए ब का सब काम सदारानी को ही करना पड़ता था।
इस काल म सदारानी क यवहार और ब क स ता से नीलमिण संतु हो गई थी। अब तक नीलमिण को
सदारानी क इितहास का भी ान हो गया और वह उसको अपना ब ा भी वह ले आने क िलए कहा करती थी।
इस समय तक यह उसका वभाव बन गया था और सदारानी अपने पित क िव अपनी भावना को िव मरण
कर चुक थी। न तो उसको अपने उस काल क बात मरण कर उस पर िवचार करने का अवकाश था और न ही
वह उस यथ क जीवन पर िवचार करने क आव यकता समझती थी।
परतु जीवन एक सार नह चल सका। एक िदन उसने राजा साहब क घर जाते ए अनुभव िकया िक कोई
य साइिकल- र शा पर उसक पीछ-पीछ आ रहा ह। वह वयं भी र शा पर ही थी। उसे संदेह आ, तो उसने
घूमकर पीछ देखा। पीछ वाली र शा म सुर मोहन बैठा आ था।
सदारानी म यह भाव बना िक उसने उसे देखा ही नह , वह आगे चलती गई। इस पर भी मन-ही-मन वह भय
अनुभव करने लगी थी। वह उसक इस कार पीछा करने का अथ नह समझ पा रही थी। नह जानती थी िक वह
या करने आया ह और या कर सकता ह।
इसी उधेड़-बुन म वह राजा साहब क कोठी पर प च गई। उसका र शा कोठी क अंदर गया तो उसने पुनः
घूमकर देखा। सुर मोहन का र शा चौक दार ने ार पर रोक िलया था। इससे उसको कछ सां वना ई। अपने
र शेवाले को पैसे दे सदारानी भीतर चली गई।
भीतर जाकर उसने नीलमिण को ार पर रोक गए र शा क बार म बता िदया। वह कहने लगी िक उसका पित
उसका पीछा करता आ यहाँ तक आया ह, भगवा जाने उसक मन म या ह?
रानी ने कहा, ‘‘तुम अपना काम करो। म पता करती ।’’ उसने घंटी बजा चपरासी को बुलाया और उसको
ार पर भेज वहाँ पर क र शा म बैठ य को बुलाकर बैठक-घर म बैठाने क िलए कह िदया।
ार पर चौक दार ने र शा रोक सुर मोहन से पूछ िलया था, ‘‘िकस काम से आए हो?’’
‘‘यह िकसक कोठी ह?’’ उसने चौक दार से न िकया।
‘‘राजा साहब क ।’’
‘‘अर भाई, कौन राजा साहब?’’
‘‘राजा साहब छतरपुर।’’
‘‘म उस औरत से िमलना चाहता , जो अभी उस र शा म आई ह।’’
‘‘ओह, मा टरायनजी से?’’
‘‘मा टरायन, हाँ, उससे ही।’’
‘‘आप अपना नाम-धाम और काम िलख द, यिद उनको िमलना वीकार होगा, तो भीतर ले जाऊगा।’’
सुर मोहन मुख देखता रह गया। चौक दार उसका माग रोक खड़ा था। उसने जेब टटोलकर एक कागज का
टकड़ा िनकाला और अपना फाउटन-पेन खोल र शा क सीट क सहार िलखने लगा था िक चपरासी ने आकर
चौक दार से कहा, ‘‘इनको आने दो, रानी सािहबा बुला रही ह।’’
चौक दार एक ओर को हट गया और चपरासी ने सुर मोहन से कहा, ‘‘चिलए, आपको रानी सािहबा बुला रही
ह।’’
सुर मोहन का मुख लाल हो गया। उसने अपने ह ठ म कहा, ‘‘रानी सािहबा। सदारानी, रानी सािहबा! या
गड़बड़ ह।’’ िफर कछ िवचार कर चपरासी क साथ चल िदया। र शा वह ार पर खड़ी रही।
उसको ले जाकर कोठी क बैठकघर म बैठा िदया गया। एक ग ेदार करसी पर बैठते ए वह िवचार कर रहा
था िक सदारानी जैसी क प ी को कोई राजा अपनी रानी बना सकता ह या? तभी उसको मरण हो आया िक
वह र शा पर सवार होकर आ रही थी, यिद राजा साहब क ि या होती, तो मोटर म आती-जाती।
सुर मोहन वहाँ ती ा कर रहा था िक बाहर एक मोटर क भर-भर का श द आ। उसने िवचार िकया िक
कौन आया ह। उसने बैठकघर से झाँककर देखा। बाहर कोठी क योढ़ी म खाली मोटर खड़ी थी। उसी समय
सदारानी तीन पु तक क थैले उठाए ए आई। लड़िकयाँ भी साथ म थ । सब मोटर म बैठ और चल द ।
इस य से तो सुर मोहन समझ गया िक उसको भीतर बुलानेवाली सदारानी नह अिपतु राजा साहब क रानी
हो सकती ह। इससे उसका ोध शांत आ और वह उ सुकता से रानी सािहबा क आने क ती ा करने लगा।
परतु उससे िमलने क िलए राजा साहब वयं आए। सूरत-श से ही सुर मोहन समझ गया िक आनेवाला
य इस मकान का वामी ह। साथ ही बैठक क बाहर बैठ चपरासी ने उठकर और झुककर उसको सलाम
िकया था।
राजा साहब बैठक म आए तो अनायास ही सुर मोहन अपने थान से उठा और हाथ जोड़कर नम कार करने
लगा। नम कार करते ए वह वयं ही अपने यवहार पर िव मय कर रहा था। अपने कायालय म तो वह अपने
अधीन थ को िसर िहलाकर अिभवादन करता था और उ ािधका रय का हाथ िमलाकर वागत िकया करता था।
सुर मोहन ने हाथ जोड़ तो राजा साहब ने मुसकराते ए कहा, ‘‘बैिठए।’’
वह बैठ गया।
राजा साहब बैठ और जेब से िसगरटकस िनकालकर सुर मोहन क ओर बढ़ाया। सुर मोहन ने कस म से
िसगरट िनकाली तो राजा साहब ने लाइटर जलाकर आगे कर िदया। उसने िसगरट सुलगाई और एक लंबा कश
लेकर व थिच हो बैठ गया।
‘‘तो आप ीमान सुर मोहन ह?’’
‘‘जी।’’
‘‘सदारानी क पित?’’
‘‘जी।’’
‘‘वह मेर ब क गवनस ह। आप िकसिलए आए ह?’’
‘‘वह मेरी वीकित क िबना नौकरी करने क िलए आ गई ह।’’
‘‘हम उसक जीवन-वृ ांत को जानते ह। आप यह बताइए िक वह बािलग ह या नाबािलग।’’
‘‘उसक आयु इस समय बाईस-तेईस वष क होगी।’’
‘‘इस पर भी आप समझते ह िक अपने जीिवकोपाजन क िलए उसको आपसे पूछना चािहए?’’
‘‘वह मेरी प नी ह।’’
‘‘प नी का अथ तदासी नह होता।’’
‘‘म उसे अपने घर ले जाने क िलए आया ।’’
‘‘वह अभी आती ह, उससे कहना और यिद वह जाना चाहगी, तो एक मास का नोिटस देकर जा सकती ह।
आप यहाँ बैिठए। वह आधे घंट म लौट आएगी।’’
राजा साहब ने घंटी का बटन दबाया, चपरासी भीतर आया तो राजा साहब ने कहा, ‘‘बाबू साहब क िलए चाय
ले आओ।’’
चपरासी क जाने पर उ ह ने सुर मोहन से एक बार िफर कहा, ‘‘सदारानी क आने पर उससे बात करने क बाद
आप मुझको बुला लीिजएगा। उसक जाने क शत मने बता दी ह।’’
सुर मोहन अभी इस िवषय म िवचार ही कर रहा था िक या कह, इतने म राजा साहब उठ और िजस िदशा से
आए थे, उसी ओर चले गए।
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सदारानी आई तो रानी सािहबा से िमल, बैठकघर म चली गई। उससे कहने लगी, ‘‘बोिलए, िकस काय से आए
ह?’’
‘‘तुमको घर वापस ले चलने क िलए।’’
‘‘न तो म आपक इ छा से आई थी और न ही आपक इ छा से जाऊगी।’’
‘‘तो िकस कार चलोगी?’’
‘‘जब मेरा मन करगा।’’
‘‘तु हारा मन कब करगा?’’
‘‘जब वहाँ सुख-सुिवधा िमलने क आशा तीत होगी।’’
‘‘वह कसे तीत होगी?’’
‘‘जब मेर पास इतनी साम य होगी िक म आपका भरण-पालन कर सक।’’
‘‘वह तो कभी नह होगी।’’
‘‘तो म कभी भी नह आऊगी।’’
‘‘तुम मेरी प नी हो।’’
‘‘वे सरोज, मनोज कहाँ गई?’’
‘‘सरोज का तो िववाह हो गया ह, मनोज मुझसे िववाह करने क िलए कह रही ह, िकतु म कर नह सकता।’’
‘‘ य नह कर सकते?’’
‘‘एक पु ष दो याँ नह रख सकता।’’
‘‘एक प नी और एक रखैल तो रख सकता ह?’’
‘‘हाँ, यह कानून से विजत नह ह।’’
‘‘तो आप ऐसे मूखतापूण कानून को मत मािनए।’’
‘‘परतु कानून ने नई प नी रखने क िलए पुरानी को तलाक का िनयम भी तो बनाया ह।’’
‘‘तो आप एक को तलाक दे दीिजए।’’
‘‘म तलाक देने क िलए जाऊगा तो तु हारी िनंदा करनी पड़गी।’’
‘‘तो िफर या करगे?’’
‘‘या तो तुम मेर साथ मेर घर चलकर रहो अथवा मुझे तलाक दे दो।’’
‘‘अभी तो इनम से एक भी बात नह कर सकती। आपक घर जाकर मुझे सुख तो या भोजन िमलने क भी
आशा नह । तलाक देने म मुझे कोई लाभ तीत नह होता। सबसे बड़ी बात यह ह िक म िकस िबना पर तलाक
दूँ।’’
‘‘गुजार क िबना पर।’’
‘‘उसक मुझे अब आव यकता नह ह।’’
‘‘ या िमल जाता ह यहाँ से?’’
‘‘दो समय चाय और अ पाहार। म या का भोजन और एक सौ पया ितमास।’’
‘‘कटक या करता ह?’’
‘‘माँ क पास खेलता रहता ह।’’
‘‘म कोट म ाथना क गा िक कजुगल राइ स मुझको िमलने चािहए।’’
‘‘म वीकार नह क गी।’’
‘‘तब िववाह-िव छद हो जाएगा।’’
‘‘तो कर लीिजए।’’
‘‘पर या आ ह, पहले तो तुम इसी बात क िलए सरोज इ यािद से ई या करती थ ।’’
‘‘हाँ, पर अब उन बात से अ िच हो गई ह।’’
‘‘ य , बूढ़ी हो गई हो।’’
‘‘ऐसी कोई बात नह । कवल िच का क बदल गया ह। कभी िकसी क िच गाने सुनने से हटकर सुंदर य
देखने क हो जाती ह अथवा िकसी क वािद भोजन करने से िच बदलकर वैरा य क होने लगती ह।’’
‘‘यह सब वा जाल ह, बोलो, मेर साथ चलोगी िक नह ?’’
‘‘नह ।’’
‘‘तो बल योग करना पड़गा?’’
‘‘कर सकते ह, पर इतना मरण रखना िक यह राजिनयम क िवपरीत होगा और दंडनीय भी।’’
इस समय राजा साहब वहाँ आ गए। उनक साथ एक ल बंद सेवक भी था। उसे और राजा साहब क माथे पर
चढ़ी यो रय को देखकर सुर मोहन डर गया। वह उठा और नम कार कर बैठक से बाहर िनकल गया। राजा
साहब उसक पीछ-पीछ बाहर आए और सुर मोहन को बुलाकर कोठी क लॉन म ले गए।
‘‘ या यह फौजदारी करने लगे थे न?’’
‘‘जी नह , मेरा मतलब यह नह था, म तो कवल धमका रहा था।’’
‘‘अ छा, जाओ इतना यान रखना िक अब इस औरत क र ा का बंध म क गा।’’
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समय यतीत होता गया और दो वष और िनकल गए। सुर मोहन ने अपना काम लखनऊ म बदल िलया। वहाँ
उसने मनोज को अिववािहता प नी क प म रखा आ था। वह एक िदन उसे छोड़कर भाग गई। अब सुर मोहन
पुनः प नी क खोज करने लगा। यह बात किठन नह थी। िबना िववाह क तो पैसे क बल पर नई प नी िमल सकती
थी, परतु वह अब थर जीवन म िव ास करने लगा था। उसक आयु तीस वष क होने जा रही थी, परतु
अ यिधक भोग-िवलास और म -सेवन से उसका यौवन ढल रहा था। िववाह का िवचार आया, तो वह िफर
सदारानी क खोज म चल पड़ा। इस बार वह उसको उसक िपता क घर पर ही िमला।
रात क समय वह अपने सुर क घर जा प चा। उसने अपने साले से कहा, ‘‘ य िवनोद! बिहन घर पर ह?’’
‘‘ह।’’
‘‘भाई, उसको बुला दो।’’
‘‘वह नीचे नह आएगी, आप ऊपर आ सकते ह।’’
सुर मोहन यही चाहता था। वह ऊपर चला गया। सदारानी अपने ब े को खाना िखला रही थी। सुर मोहन को
ार पर खड़ा देख वह िव मय करने लगी।
‘‘पहचाना ह?’’ सुर मोहन ने पूछा।
‘‘कछ-कछ, थोड़ा अंतर आ गया ह।’’
‘‘हाँ, लखनऊ क जलवायु अनुकल नह आ रही ह।’’
‘‘तो वापस शाहजहाँपुर चले जाइए। अपना काम करते ह, िकसी क नौकरी तो ह नह ।’’
‘‘तुम भी चलोगी?’’
‘‘मुझे लखनऊ का जलवायु अनुकल बैठ रहा ह।’’
‘‘तो मेरी खाितर ही चली चलो।’’
‘‘मनोज भाग गई ह, इसिलए?’’
‘‘तु ह कसे मालूम?’’
‘‘बैठ जाइए। इसे पहचानते ह?’’ उसने ब े क ओर संकत िकया।
‘‘इसका कछ नाम भी रखा ह िक नह ?’’
‘‘हाँ, रखा ह, क याण व प।’’
‘‘नाम तो चुनकर रखा ह।’’
‘‘हाँ, वैसे तो इसक बाप को भी चुनकर ही पसंद िकया था, परतु...’’
‘‘परतु या?’’
‘‘मनोज आई थी और बता गई िक आप...’’
‘‘ या बात ह? बात आधी ही य छोड़ देती हो?’’
‘‘उसने िववाह कर िलया ह।’’
‘‘और अपना लड़का कहाँ रख गई ह?’’
‘‘वह उसक साथ ही ह। उसने अपने पित को समझा िदया ह िक उसको य ा प नी मानकर उसक साथ िववाह
कर और उसक पु को उसक पहले पित का पु माने।’’
‘‘िबना िववाह क ही य ा बन गई ह?’’
‘‘हाँ, कहती थी िक िबना िववाह क िववािहता थी और अब िबना तलाक क य ा बन गई ह।’’
‘‘देिखए, िजस समाज म यह सबकछ हो सकता ह, उसम मने तलाक क आव यकता नह समझी। िववाह देश
क कानून का े हो गया ह। इससे इसका मू य एक ठकदारी क वचन-प क बराबर रह गया ह, कभी वचन-
प क िवपरीत काय आ, तो उसका ितकार पय म आँका जाता ह। जहाँ संतान क माता-िपता का इतना मा
मू य हो, वहाँ उस संबंध क िलए िववाह जैसे आडबर क करने क आव यकता ही या ह और िफर उसको तोड़ने
क िलए मिज ट क स मुख एक वष तक नाक रगड़ने क मुझे आव यकता अनुभव नह ई।’’
‘‘मुझे अब अनुभव हो रहा ह िक तुम ठीक कहती थ ।’’
‘‘आपक कित देख िव ास नह हो रहा।’’
‘‘तो एक बार िफर परी ा कर सकती हो।’’
‘‘और एक कटक और बना लूँ?’’
‘‘हो सकता ह।’’
‘‘एक शत ह।’’
‘‘ या?’’
‘‘कछ पया मुझे पृथक दे दीिजए। म उसक याज से अपना िनवाह क गी। आप पर आिथक पेण िनभर नह
रहना चाहती। जब आप खाना नह दगे, तो पेट म घुटने देकर सोने क आव यकता नह रहगी।’’
‘‘िकतना धन देना होगा?’’
‘‘इतना िक िजसक आय से दो सौ पया मािसक िमलता रह।’’
‘‘तुम मेर घर म आकर भी तो अपनी नौकरी कर सकती हो?’’
‘‘म क गी नह और कदािच कर भी नह सकगी।’’
‘‘सदारानी, सरोज, मनोज...म इस सूची को लंबी बनाना नह चाहता। इसिलए इसे पुनः सदारानी पर ही समा
करना चाहता ।’’
‘‘िवचार कर लीिजए। जब िववाह-धम का संबंध था, तब धम-पालन क िलए ा पर िव ास कर िलया
जाता था। अिधकांश िहदू य म तो इसम धम क सी िन ा अब भी ह, परतु पु ष म लोप हो रही ह। आप म तो
इसको इस कार समझने का कोई िच भी नह िदखाई देता। इसीिलए आपसे गारटी माँग रही ।’’
सुर मोहन िवचार करता आ चला गया।
इसक एक मास बाद सदारानी को एक प िमला और उसक साथ ही उसको हजरतगंज क एक इमारत क
कागजात िमले, िजसक आय ढाई सौ पया मािसक थी।
इसक एक मास बाद सदारानी सुर मोहन क कोठी म चली गई। क याण उसक साथ था।
एक िदन सुर ने उससे पूछा, ‘‘सदा, अब स हो?’’
‘‘ स नह , प नी क पद से िगरकर ठकदार क पदवी पर प च गई । यह पतन ह, इसम स ता कसी?’’
‘‘हाँ, इस पतन से अंग-भंग नह ए, इसका संतोष तो ह ही।’’
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