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दल आशनां है

राजहंस
रिव पॉके ट बु स
उप यास : दल आशनां है
लेखक : राजहंस
© : काशकाधीन
िडिजटल © : बुकमदारी
तुत उप यास के सभी पा एवं घटनाय का पिनक ह। कसी जीिवत अथवा मृत ि
से इनका कतई कोई स ब ध नह है। समानता संयोग से हो सकती है। उप यास का उ े य
मा मनोरं जन है। ूफ संशोधन काय य िप पूण यो यता व सावधानीपूवक कया गया है,
तथािप मानवीय ु ट रह सकती है, अत: कसी भी त य स ब धी ु ट के िलए लेखक,
काशक व मु क उ रदायी नह ह गे। कसी भी कानूनी िववाद का िनपटारा याय े
मेरठ म होगा।
दल आशनां है
एक
समझ म नह आ रहा क कहां से म अपनी इस कहानी क शु आत क ं । अपने ज म से या
अपनी क मत के उस च से, िजसने मेरे जीवन म एकाएक कई ाि तकारी बदलाव ला
डाले। हंसती-खेलती जंदगी को अचानक ही तेज अंधड़ म धके ल दया। म जैसा भी था,
तब कम-से-कम खुश था। दुिनया म एक तो श स था जो मेरी खुशी व गम म मेरे साथ था।
मुझे एक माली क मािन द स चकर मुझे एक खूब फलदायक, छायादार वृ बनाना ही
िजसका मु य मकसद था। जो अपने ही हाथ आटा गूंथते थे। यार से रो टयां पकाते थे
और जैसी बनती थ , मेरे साथ बैठकर खाते थे।
हाँ!
वो मेरे पापा थे।
सारे जहां म मेरे इकलौते र तेदार! या म क ं क मेरा संसार—तो मानता — ं सटीक
रहेगा। उनके अलावा कु छ था ही नह संसार म मेरा। माँ का तो पता ही नह था तब कै सी
होती है! तब सुना ज र था क ब क माँ भी आ करती है। मेरे अलावा और सब ब
क भी माँ थी ब ती म। कभी-कभी टीस भी उभरती थी क तु उस टीस को पापा के यार
का मरहम हमेशा ही शा त कर दया करता था। मुझे कभी इस बात का मलाल नह था क
मेरे पापा के अलावा मेरा इस जहान म कोई नह है।
आह!
जािलम क मत ने उ ह भी मुझसे छीन िलया था, जब म के वल बारह वष का था। म कभी
भी उस दन को नह भूल सकता।
उस दन....।
दो
टन....टन....टन....!
घ टी क आवाज ने छु ी होने क घोषणा क ।
हमारी ब ती के युिनसिप टी कू ल के छा के िलए वो आजादी क घोषणा थी। उस
आजादी क चमक तब, जब वे अपना ब ता उठाकर लास से बाहर िनकला करते ह, आप
आसानी से उन सबके मासूम चेहर पर देख सकते ह।
कू ल के गेट पर अगर कोई उस व खड़ा होकर देखे तो सा ात् वानर सेना के दशन ह गे,
जो आपस म हंसती-िखलिखलाती जैसे-तैसे हाल म अपने ब त को संभाले बाहर क तरफ
बढ़ती है।
म अपने दो त क लू के साथ दरवाजे से बाहर िनकला ही था क मने बाहर अपने पड़ोस के
ताऊ के बेटे को दरवाजे पर ही खड़े पाया। राजू भैया मुझसे छः साल बड़े ह।
“शामू।” उ ह ने जब मुझे पुकारा तो मेरा यान उनक तरफ गया था।
उ ह ने मुझे पुकारा ही था क झपटकर वे मेरे करीब भी आ गये।
उस दन कु छ यादा ही गंभीर थे वो।
तुर त ही उ ह ने मेरी कलाई पकड़ी और कहा—“चलो।”
म उनके साथ िघसटता-सा चल दया। पीठ पर लदे ब ते का कोई यान नह । उनके उस
अजीब से वहार ने मेरा दल बैठाकर रख दया।
“राजू भैया”—उनक चाल के साथ लगभग भागते ए मने घबराए वर म पूछा—“ या
बात है?”
मगर उ ह ने कोई जवाब नह दया।
मेरे कई बार पूछने के बाद उ ह ने के वल इतना ही कहा था—“तुझे साहब बुला रहे ह।”
वो मुझे जहां ले गये, म उस बंगले को अ छी तरह पहचानता था।
मेरे पापा उसी बंगले म माली क नौकरी करते थे। कई बार म वहां जा चुका था। य द क ं
म अ सर वहां जाता रहता था—तो गलत न होगा।
मने जब बंगले के गेट पर कदम रखा तो वहां पर मने अजीब-सा स ाटा ा महसूस
कया। रोज तो गेटक पर मेरे वहां प च
ं ते ही कहा करता था—“आ गए याम बाबू!”
उस दन उसने कु छ नह कहा। बस सहानुभूितपूण नजर से मुझे देखता रह गया।
म अ दर गया।
अ दर लॉन म पापा मुझे दखाई नह दए। िमला तो के वल स ाटा ही। अजीब-सी
खामोशी।
वो मुझे बंगले के अ दर ले गया।
जब हम दोन ने अ दर ाइं ग हॉल म कदम रखा तो वहां बंगले के सभी लोग को इक ा
पाया। राजू भैया के म मी-पापा भी वह थे। मगर पापा उनके बीच मुझे नजर नह आये।
तभी!
उनके म य सफे द कपड़े से ढक एक लाश पर मेरी िनगाह जा ठहरी।
लाश!
मने देखा, मेरी ताई जी लाश के पास बैठी रो रही थ ।
मेरा दल जोर से धड़का।
कपड़े से ढक सबके बीच रखी लाश को देखकर जाने य मेरा दल बेकाबू हो उठा। मन म
अचानक ही कई बुरी शंका ने ज म ले िलया।
उन शंका को बढ़ावा ताई का रोना, पापा का उनके बीच न होना और उन सबक नजर
दे रही थ । हर नजर म सहानुभूित।
मेरी नजर कोमल पर गई।
वो भी अपनी म मी का हाथ थाम एकदम चुप, सहमी-सी खड़ी थी। वो सात साल क थी।
बड़ी शैतान। उस दन वो भी एकदम खामोश थी। अपनी काली-काली आंख म अजीब से
भाव समेटे मुझे देख रही थी। मगर उनम सहानुभूित नह थी।
मेरा यान लाश क तरफ गया।
एक अजीब-सा भाव मुझे तब बरबस ही उस लाश तक ले गया।
म धड़कते दल से लाश के पास बैठ गया।
मने धीरे से लाश के चेहरे से कपड़ा हटाया।
उफ् !
एकाएक मानो मेरे चार तरफ िबजिलयां कड़क । वजूद पर व पात आ। मेरे क ठ से
चीख िनकल गई।
ओह! पापा ही थे वे।
उनका चेहरा खून से लथपथ था।
म होश खोकर उनके सीने से िलपट गया। आंख से अिवरल धाराएं बह िनकल । उस दन
पापा का सीना अ य दन क मािन द कठोर नह था।
मेरे आंसू उस सफे द चादर को िभगोते रहे। मगर पापा के िज म म कोई हलचल नह ई।
वो उसी कार अचल पड़े रहे। उठते कै से? वे तो वहां थे ही नह । नह तो मेरा रोना पापा
बदा त कर सकते थे भला!
कु छ ही देर बाद पापा क लाश पर से मुझे राजू भैया ने हटा िलया। म भैया से िलपट कर
खूब रोया। वे आंसू जो पहले पापा क िपलिपली छाती पर िबछी चादर को िभगो रहे थे,
तब भैया क शट को गीला करने लगे।
ताई-ताऊ लाश को घर ले आए।
पापा क िचता को मने अपने हाथ से अि दी । म िजस हाथ से पापा के हाथ थामकर
सड़क पर चलता था, उसी हाथ म ताऊ ने मशाल थमाई थी। उस शाम पापा क िचता के
साथ मेरा संसार जलकर खाक हो गया।
याकम से लौटने के बाद ताई जी मुझे अपने घर ले ग । शाम को उ ह ने मुझे खाना
िखलाना चाहा, ले कन मने इं कार कर दया।
कै से खाता! भूख तो ख म ही हो चुक थी। सुबह कू ल जाने से पहले मने पापा के हाथ से
बना डेढ़ परांठा खाया था चाय के साथ। रोज जब म कू ल से आता था तो आते ही खाने
पर टू ट पड़ता था। ब ता फकते ही पहले म घर म रखे खाने क तरफ भागता था। छु ी के
व भी मुझे उस दन जोर क भूख लगी थी। मगर पापा क लाश देखकर सब ख म हो
गया।
खैर!
ताई जी ने मुझे िखला ही दया।
मने उनके जबरद ती करने पर, असीम ेम के आगे झुककर, मन को कु चलकर एक रोटी
हलक से नीचे धके ली—बस धके ली ही। हर िनवाला हलक म उतरने के बजाए बाहर
िनकलने को त पर था।
रात को म वह सोया।
तीन
सुबह!
उस दन क सुबह म भी सम त संसार के िलए हर रोज जैसी फु लता थी। ताजगी थी।
उ लास था। उस दन भी िचिड़यां मधुर वर म चहचहाई थ । हवा म सुहानापन था।
ले कन वो सब मने महसूस नह कया। म कू ल नह गया।
कै से जाता?
और जाता कतने दन? उस महीने भर तक िजसक फ स पापा जमा कर चुके थे, उससे
आगे कौन था, जो मुझे पढ़ाता? आगे तो मुझे ही अपना पेट भरने का इ तजाम करना था।
तीसरे दन म अपने घर म रोज क तरह उदास था। एका त िमला तो दल वतः ही रो
दया। आंख से आंसू छलक पड़े।
ऐसा ही होता है। जब इं सान त हा होता है, तो हमेशा उसे अपने उस साथी क याद
सताती है, जो उसक त हाई बांटता हो, िजसका साथ पाकर उसे सुकून का अहसास हो।
कड़वी-से-कड़वी बात िजसका साथ भुला दया करता हो। बचपन म सामा यतः वो
शि सयत मां होती है। जो थान जवानी म खाली होकर तमाम उ जीवन-साथी ारा
भर दया जाता है। मेरे साथ जुदा हालात थे, सो उस थान को पापा ने भर रखा था। अब
वो साया भी कठोर ई र ने मुझसे छीन िलया था।
तभी अचानक!
कसी कार के कने क आवाज मेरे कान म पड़ी। ठीक दरवाजे के सामने आकर कसी
कार के इं जन क घरघराहट म खामोशी आई थी। मेरे दल म उ सुकता जागी। लगा क
जैसे कोई मुझी से िमलने आया हो। इस अहसास ने मेरी उ सुकता को और बढ़ा दया था।
मगर चाहकर भी न उठ सका खाट पर से।
सच!
कु छ ही सैक ड बाद दरवाजे पर मुझे कसी क आमद का अहसास आ।
मने उधर देखा।
देखा तो च कत रह गया म। रोना भूलकर म बस उ ह देखता रहा गया।
वे पापा के मािलक क हैयालाल भागव, उनक प ी ेमलता भागव, और साथ म आई थी
कोमल! कोमल भागव।
उनका मागदशन करते ए राजू भैया ही अ दर लाए थे उ ह।
म खुद-ब-खुद खाट पर से उठकर खड़ा हो गया था।
चार मेरे पास आ गए।
िमसेज भागव ने अपना ेहपूण हाथ मेरे िसर पर टका कर बड़े यार से पूछा—“कै से हो
शामू?”
“ज....जी ठीक ।ं ” म अपने दल म उभरी उस वेदना को वह दफन करके बोला। कु छ
ऐसा ही द तूर इस दुिनया का है—इं सान चाहे िजतना भी तकलीफ म हो, कसी के पूछे
जाने पर क वो कै सा है उसे कहना ही पड़ता है—ठीक ।ं कम-से-कम म भी उस द तूर से
वा कफ हो गया था। उसी कारण शायद मने कहा था—“ठीक ।ं ”
“तुम तो रो रहे हो।” एकाएक बीच म कोमल बोल पड़ी।
“म....म कहां रो रहा ।ं ” एकाएक म बौखला गया। उस मासूम ब ी से मुझे उस व ऐसी
उ मीद नह थी।
“पर आंसू तो आये ह।” तपाक से उसने कहा।
तब मुझे वा तिवकता का अहसास आ।
चटपट आंसू पौछे और उसक तरफ देखा। मुझे देखकर उसके मासूम गोल मुखड़े पर
मु कान खेल गई।
कतनी िनमल और मासूम थी उसक मु कान!
“हम तु ह लेने आये ह बेटे।” तब िमसेज भागव ने कहा—“अब तुम हमारे साथ रहोगे।”
“म....मेम साहब।” समझ म नह आया म या क ?ं कस कार म अपनी ित या
जािहर क ं ? दल म अजीब-सा वारभाटा उठा था उस व ।
दमाग िनि य हो गया। दमाग क धमिनयां सु हो गयी थ । एक गुबार-सा मेरे सीने म
से उस व उठा और वो मेरे गले म जा अटका।
“तु ह कोई एतराज है बेटे....?” फर ेहपूण वर म मेम साहब ने कहा तो गुबार जाने
य कम आ। शायद वो उनके ेम का जादू था या कु छ और।
मगर जवाब म तब भी नह दे सका।
फर वे मुझे लेकर खाट पर बैठ ग । साहब ने बैठने का कोई उप म नह कया। वे जैसे
आए थे, वैसे ही खड़े रहे।
मेम साहब ने यार से मेरे क ध पर अपनी बांह फै लाकर मुझे अपने करीब बैठा िलया।
“देखो शामू!” मम व भरे अ दाज म वो बोल —“तुम यहां पर अके ले रहते हो। हमारे घर
म रहोगे तो हम तु हारी पढ़ाई आगे जारी रख सकते ह। तुम ब त पढ़ना चाहते हो ना!
तु हारे पापा भी यही चाहते थे। तुम वहां रहना और खूब पढ़ना। अ छा, मने तु हारी ताई
जी से बात कर ली है।”
म या कहता!
उस व तो मेरी हालत सड़क पर पड़े प थर क सी थी, िजधर ठोकर मारकर धके ल दया,
लुढ़कता चला गया। मेरे कहने सुनने का कसी पर भी फक या पड़ना था। लुढ़कते प थर
क पुकार सुनता ही कौन है! वो पूरी तरह िनयित के और लुढ़काने वाले पर िनभर रहता
है।
ताई ने ठोकर मारी और म मेम साहब के साथ हो िलया। कु छ भी था, मेम साहब के लहजे
म उस व कं िचत मा भी अहसान वाला भाव मुझे नजर न आया था, महसूस न आ
था। उसी कारण दल म तब खास मलाल भी न जागा था।
पता नह ताई और मेम साहब म या बात ई ह गी। वो मेरी सगे र ते म भी नह थ ।
फर भी उनके लहजे म मने मम व ही महसूस कया, जब भी वे मेरे सामने आ ।
और....!
मने अपना सामान समेट िलया।
सामान....! सामान था ही या? कु छ कपड़े। एक जोड़ी जूते। च पल मने पहन रखी थ ।
और कताब। बाक कसी सामान क कोई ज रत नह थी। खाना मेम साहब देत ही।
िब तर वह िमलता, जहां जा रहा था। वहां एक नह कई छत थ । कह भी म िसमट
सकता था। चलते व मेम साहब ने आ ासन दया क वो घर सदा मेरा रहेगा। जब चा ं
वहां आ सकता ।ं देखभाल ताई करती रहेगी।
दोपहर को जब म अपना सामान उठाकर घर से बाहर आया तो मुह ले क कई औरत
बाहर थ । ताई जी भी उ ह म थ ।
मेरे बाहर िनकलते ही वह मेरे पास आ ।
“शामू।” ममता भरे वर म उ ह ने कहा—“मेरे ब े! ताई को मत भूल जाना। कभी-कभी
आते रहना।”
“जी, ताई जी।” बस इतना ही कह सका म।
“देख, मेम साहब तु ह पढ़ाने के िलए ले जा रही ह। खूब मन लगाकर पढ़ना।”
“जी।”
“अपना घर देखने आते रहना।”
“जी ताई जी।”
फर उ ह ने मुझे मेरे माथे पर यार कया।
मकान का ताला लगाकर ताली मुझे स प दी गई।
“इसे संभालकर रखना।” मेम साहब ने िहदायत दी—“कह खो मत देना।”
सामान िड म ाइवर ने रखा।
जब उसने िड ब द कर दी और वो अपनी ाइ वंग सीट पर जाकर बैठ गया तो हम
पैसे जर सीट क तरफ बढ़े।
सबसे पहले मेम साहब ने अपनी तरफ से कोमल को अ दर बैठाया। दूसरी तरफ से साहब
बैठे। उ ह के साथ मेम साहब भी कार म समा ग ।
जानते ए भी क मुझे भी वह बैठना है, चाहकर भी म अपने कदम कार क तरफ न बढ़ा
सका था।
जाने य ?
दल म एकाएक ही अपराध भाव जाग उठा। मानो म कोई जुम करने जा रहा होऊं! अपने
मािलक के साथ उनक बगल म, उ ह क कार क पैसे जर सीट पर....।
मान म कोई िघनौना अपराध कर रहा ।ं
“अरे , शामू।” तभी मेरे कान म मेम साहब का वर पड़ा—“आओ ना!”
मुझे झटका-सा लगा।
म अपराध भावना म जकड़ा-सा अ दर जा बैठा।
मेम साहब ने िखड़क ब द कर दी।
उसी के साथ कार का इं जन टाट हो गया। पूरी कार म म द क पन उभरा। िजसे मने अपने
पैर म महसूस कया था। वो अजीब-सा अहसास था, जो म महसूस कर रहा था। तब
पहला अवसर ही तो था जब म कसी कार म बैठा था। वो एक वातानुकूिलत कार थी।
ठ डी कार।
बंगले के नीचे का एक कमरा मुझे दे दया गया।
म जानता था क वो हमेशा ब द रहता था। ब त कम उसे खोला जाता था। इतने बड़े
बंगले म के वल दो ही कमरे योग म लाए जाते थे। एक कमरा साहब और मेम साहब का
शयनक था। दूसरे म आया सोती थी, िजसके साथ म कोमल को सुलाया जाता था। वैसे
आया को महीने म बीस ही दन कोमल के साथ सोना होता था। कोमल जब दल करता
शाम को ही अपनी म मी के कमरे म डेरा जमा लेती थी। उसे कोई रोक-टोक नह थी।
खुद मेमसाहब मुझे उस कमरे म ले ग ।
“ये तु हारा कमरा है।” उ ह ने बताया—“तुम इसम रहा करना।”
“म!”
“हां तुम!” वो बोल —“तुम इसी म सोया करोगे।”
“म अके ला!”
“नह । बाबू भी इसी म सोया करे गा रात को—ता क तु ह डर न लगे।”
बाबू!
म उसे जानता था। बाबूराम भ सले। घर का रसोइया।
वो रसोई म ही सोया करता था।
उ चालीस बरस।
चार
साहब क उ ब ीस वष थी। मेम साहब क उ स ाइस साल थी।
आठ साल पहले वे दोन प रणय सू म बंधे थे। उस व साहब क उ चौबीस साल थी
और मेम साहब तब उ ीस क थ । एक साल बाद ही कोमल गोद म आ गई थी। कोमल
आई तो उसक कलका रय ने उनका आंगन गुलजार कर दया। भागव द पि खुश थे।
तय कया—जब तक कोमल तीन साल क नह हो जाती, दूसरे ब े के बारे म िवचार तक
नह करगे। सुना तो ये था क ये इ छा मेम साहब ने जािहर क थी, िजसको भागव साहब
ने पूरा समथन दया, ता क ब ी के लाड़ म कोई कमी न रह सके ।
और पूरा अमल भी कया।
कोमल जब साढ़े तीन साल क थी, उस व पुनः मेम साहब क कोख म नए अंश ने
पनपना शु कया। ले कन क मत म उसका आना नह बदा था। एक दन मेम साहब का
वो गभ िगर गया। या आ था? कै से आ था? ये तो मुझे पता नह चला—हां डा टर ने
उ ह गाज िगरा देने वाली खबर दी।
मेम साहब क कोख फर हरी नह हो सकती थी।
रपोट म साफ िलखा था—जमीन अब पौधा उगाने लायक नह रही। बाबू ने बताया था
— क मेम साहब के पेट म बेटे का ूण था। मेम साहब को वो ती शॉक लगा था।
काफ दन बाद मेमसाहब संभल ।
साहब ने उ ह संभलने म काफ मदद क थी। वे कोमल से पूरी तरह स तु थे। अपने सारे
अरमान को उ ह ने कोमल क प रिध म ही समेट िलया।
वह मुझे पापा क मौत के बारे म भी पता चला।
बाबू ने ही बताया।
पापा उस दन मेम साहब के भेजने पर बाजार सामान खरीदने गये थे।
वे बाजार से स जी खरीदकर आ ही रहे थे.... क एक अिनयि त कार फु टपाथ पर आ
चढ़ी। उस कार का ेक फे ल हो गया था। पापा उसक चपेट म आ गए। फु टपाथ पर िगरे
तो पिहए उनक छाती पर उतर गए।
पापा ने वह दम तोड़ दया था।
¶¶
पांच
म पहले क तरह कू ल जाने लगा।
कू ल म अ यापक ने भी मुझसे सहानुभूित दशायी। खुश क मती से पहले भी मने कभी
कसी अ यापक को िशकायत का मौका नह दया था। तब मेरी उस ासदी ने सबके दल
म मेरे िलए सहानुभूित भर दी।
खासकर राव सर के !
राव सर पहले भी मुझे यार करते थे। उनका यार अब कु छ और बढ़ गया। वे पहले पापा
से कहा भी करते थे—“देखना बादाम साहब, आपका याम आगे चलकर आपका नाम
ज र रोशन करे गा।”
पापा के गुजरने के बाद!
एक दन कू ल क छु ी के बाद उ ह ने मुझे रोक िलया।
“अब तुम कसके साथ रहते हो, याम?” उ ह ने बड़े यार से पूछा।
“जी, साहब के साथ।”
“साहब—कौन साहब?”
“पापा उनके वहां काम करते थे।” मने बताया—“वे ही मुझे अपने घर ले गए।”
“कु छ काम करवाते ह?”
“नह । बस, बगीचे क देखभाल का काम करने को कहा है।”
“ओह! तुम ठीक तो हो?”
“हां।”
“वहां कोई परे शानी तो नह ?”
“जी नह ।”
“अगर कोई परे शानी हो तो मुझे बताना।” उ ह ने बड़े यार से मेरे िसर पर ेहभरा हाथ
फे रते ए कहा—“तुम मन लगाकर पढ़ना। कापी- कताब क या फ स क कोई परे शानी
हो तो िच ता मत करना। तुम बस सारा यान अपनी पढ़ाई पर रखना।”
म खामोश रहा।
“देखो बेटे।” उ ह ने कहना जारी रखा—“जैसा तु हारे साथ म आ है, वैसा ब त के साथ
हो जाता है। ऐसे कई लोग ह जो िबना कसी सहारे के आगे बढ़कर ऊपर बुलंदी तक प च ं े
ह। उसके पीछे कारण हमेशा उनक लगन ही रही है। जानते हो, शा ी जी के पापा भी
उ ह बचपन म छोड़कर गुजर गए थे। वो तैरकर नदी पार करके कू ल जाते थे। तु ह पता
है, वे भारत के धानमं ी बने थे। तुम भी मेहनत करना। और देखो, कभी हार मत
मानना।”
और भी कई बात समझा ।
म खामोशी से सब सुनता रहा।
मेरी झुक ई गदन ऊपर न उठ सक । उन कान म घुमा- फराकर वे ही श द पहले भी
अनेक बार पड़ चुके थे। सबका लहजा एक-सा था। सबने सहानुभूित ही दखाई। ले कन वो
यार कह न था, िजसका म तलबगार था। वो यार या तो पापा से िमला था या
मेमसाहब से िमला था, या कोमल से।
कोमल का यार जुदा था।
एकदम मासूम....।
भोला! िन छल।
म जब अके ला होता था, तो पापा को याद करके रो पड़ता था। दल अपने आप ही िससक
भर उठता था। आंख अपने आप ही बरस पड़ती थ ।
ऐसा सामा यतः दोपहरी म आ करता था, जब मेमसाहब और घर के सारे नौकर सो
जाया करते थे। म जागता था। अपने कमरे म खामोशी के साथ रोया करता था। सबसे
पहले दन जब वो मेरे साथ आई तो म िब तर म लेटा खामोश दन के साथ आंसू बहा रहा
था।
तभी एक बेहद कोमल पश ने मुझे च का दया।
मने झटके से अपना चेहरा घुमाकर उस तरफ देखा। वो कोमल थी। पता नह कब वो चुपके
से वहां आ गई थी। मेरा यान उसके पैर पर गया तो देखा, उसके छोटे-छोटे पैर म च पल
नह थ ।
“तुम रो रहे हो?” महीन वर म उसने पूछा।
“न....नह तो।” म बौखला उठा। मानो उसने मेरी चोरी पकड़ ली हो—“कहां रो रहा ।ं ”
“रो तो रे हो।”
तुर त मेरा हाथ अपनी आंख पर चला गया।
सचमुच!
मेरी पलक ही नह गाल भी भीगे ए थे। मेरी हालत देखकर वो बरबस ही मु करा दी।
उसके सुख ह ठ पर उभरी वो मु कान हर बार मेरे मन के िवषाद को आधा कर दया
करती थी।
“तु ह पापा क याद आ रही है?” उसने मासूिमयत से पूछा।
मने कु छ जवाब नह दया।
बस, उसक मु कान के साथ मु कु रा दया। जाने कस भावना से े रत होकर उसने मेरा
एक हाथ अपने हाथ म ले िलया।
“तुम यहां या कर रही हो?” मने सारी बात बदलकर उससे पूछा।
“मुझे न द नह आ री थी।”
“ य ?”
“बस, नह आ री थी।”
“मेमसाहब या कर रही ह?”
“सो री ह।”
“तुम भी जाकर सो जाओ।”
“नह । मुझे न द नह आरी। चलो खेलते ह।” उसने मेरा हाथ बाहर क तरफ ख चा।
मने इं कार कया। ले कन वो नह मानी। जबरद ती वो ख चकर मुझे ाइं ग म म ले गई।
और हम लूडो खेलने लगे।
मेमसाहब जागकर आ तो उ ह ने कोमल पर गु सा कया।
कोमल जरा भी नह डरी। उनके डांटने से पहले ही उसने उ ह बता दया—“म मी, ये रो
रे थे।”
मेमसाहब नम पड़ ग ।
क तु उस गलती को छोड़ नह दया। उ ह ने हम दोन को समझाया क दोपहर को अ छे
ब े खेला नह करते। वे आराम करते ह। मुझे भी यार से रोने को मना कया। उ ह ने
कोमल को अपनी गोद म बैठा रखा था। जब उ ह ने यार से उसके गाल पर मातृ वपूण
चु बन अं कत कया तो मेरे मन म मां क तृ णा वतः ही जाग उठी।
उस तृ णा को उ ह ने उसी व शांत कर दया। मुझे भी अपने पास बैठा िलया।
मां के यार म उ ह ने कोई कमी नह क ।
उनका यार िजतना कोमल के िलए होता था, उतना ही यार वे मुझे दे रही थ । शायद वे
मुझम अपने अज म बेटे क छाया देखती थ । या वो उनक दयानतदारी थी। शायद उनके
अ दर बैठा वो मां का दल ही उ ह िववश कर रहा था वो सब करने के िलए। जब भी वे
कोमल को जूस बनाकर िपलाती थ , तो एक िगलास मुझे भी देती थ । कू ल म जब म
जाता, उसी व कोमल भी कू ल जाती थी। हम वे एक साथ ना ता करात । कू ल से आते
ही खाना िखलाती थ ।
एक दन!
शाम का समय था।
मेमसाहब हमारे िलए मगो शेक बनाकर लाई थ । हम दोन को िगलास थमाने के बाद
मेमसाहब ने मुझे कहा—“ याम!”
उस व मने िगलास अपने होठ से लगा रखा था। सो, हां क जगह या हमेशा क तरह
‘मेमसाहब’ क जगह के वल क
ं ार ही मेरे ब द होठ से िनकला।
“तु हारे मा टर ने इस बार फ स नह मांगी।” उ ह ने कहा।
मुझे याद आया।
डेढ़ महीना बीत गया था।
और हर बार तो मा टर जी महीना पूरा होते ही पूछा करते थे। उस बार डेढ़ महीने तक
उ ह याद नह आई।
“नह तो मेम साहब।” मेरा वर च कत था।
“महीना भर तो हो गया होगा?”
“हां, महीना तो हो गया। डेढ़ महीना हो गया।”
“फ स कतनी जाती है तु हारी?”
मने बताई।
“कल जब कू ल जाओ तो ले जाना।” उ ह ने कहा—“कल याद करके ले जाना।”
“जी मेम साहब।”
“ कसी कापी कताब क ज रत हो तो बता देना। हम ला दगे।”
“ठीक है।”—मने गदन िहलायी।
इस सबके बावजूद भी साहब यािन क हैयालाल भागव को म शायद पसंद नह था।
मेमसाहब का मेरे ित वो लाड़ उ ह बेकार नजर आता था। य क म उनका अपना बेटा
नह था, म उनके नौकर का बेटा था! िजसको तीन व का खाना देकर, आसरा देकर, वे
अहसान कर रहे थे। वे नह चाहते थे क म अपनी औकात से बाहर िनकलूं। बाबू ने बताया
था—वे नौकर से यादा मेलजोल बढ़ाना पसंद नह करते थे।
वहार से भी वे काफ रजव थे।
सुबह तैयार होकर अपने द तर िनकल जाते थे और शाम को आते थे। तो कभी अंधेरे म
आते थे। कभी-कभी हमारे सो जाने पर आते थे। ऐसा कम ही होता था जब वे ज दी आ
जाते थे। मगर िजतना भी व वे घर म रहते थे, उस व वे कोमल पर अपना यार
उड़ेलने म कोई कमी नह करते थे। उसके साथ खूब खेलते थे। उसे और मेम साहब को
लेकर बाहर जाते थे। कोमल कोई फरमाइश रखे और वे पूरा न कर? अस भव था। िजस
बात का वादा करते, उसी व पूरा कर देते।
कोमल क हर अदा उ ह पसंद थी।
एक हरकत थी उसक जो उ ह हमेशा नागवार गुजरा करती थी—वो थी मेरे साथ खेलना।
मेरे करीब रहना।
शाम को अगर हम एक साथ खेलते उ ह िमल जाते थे तो उनका पारा एकाएक ऊपर चढ़
जाता।
कहर मुझ पर ही बरपता।
अगर वे एक बार मेरी तरफ आ ेय ने से देख मा लेते थे तो वैसे ही म कांप जाता था।
एक बार अगर वे मुझे जोर से पुकार लेते थे तो मेरी हवा तुर त टाइट हो जाया करती थी।
वे तुर त मुझे बाहर बगीचे म नौकर के साथ पौध क देखभाल के िलए भगा देते थे।
सामा यतः म शाम को उस काम म लगा ही रहता था। घर के छोटे-मोटे काम नौकर क
जगह म ही कया करता था।
म खुश था।
मेरे मन का िवषाद अपने आप ही व के साथ ख म हो गया था। कु छ टीस थी जो एका त
म दल के कोने म अपना िसर उठाया करती थी। वो समा तो नह ई थी, हां, काफ हद
तक उसक वेदना कम हो गई थी। व ही एक ऐसा मरहम होता है, जो बड़े-से-बड़े घाव
को भरकर उसे ठीक कर देता है। उसी मरहम ने मुझ पर भी अपना असर दखाया।
व अपनी गित से गुजरता था।
यूं ही साल भर गुजर गया।
मेरा सातव का वा षक परी ा प रणाम आया। म हमेशा क भांित अ वल आया। कोमल
के वल पास ई थी, थड लास म। वो फोथ म आ गई। म क ा आठ म।
मेरे अ वल आने पर सब ने मुझे बधाइयां द । मेमसाहब ने भी मुझे बधाई दी। कोमल बस
मुझे देख रही थी। उसक बड़ी-बड़ी आंख म सदा-सी वही मासूिमयत थी। और या था
हमेशा क भांित, म समझ न सका।
उस दन!
शाम को।
पहली बार साहब के होठ पर मेरे नाम क मु कान जागी। मेरे अ वल आने क खबर जब
मेमसाहब ने उ ह दी तो वो खुश ए।
“इधर आओ।” पहली बार उ ह ने यार से मुझे अपनी तरफ बुलाया।
मगर मेरी िह मत उनक तरफ कदम बढ़ाने क नह हो रही थी। एक अजीब-सा भय था
जो एक शूल क मािन द मेरे दल म पेव त हो गया था, जो िनकाले नह िनकल रहा था।
कदम मानो फश पर िचपककर रह गए।
“अरे , इधर आओ भई।” उ ह ने मुझे पुकारा।
बामुि कल मेरे कदम िहले।
िहले भी इस कार जैसे मेरे लोहे के पैर चु बक के फश के स पक म ह । हर कदम को आगे
बढ़ाने के िलए काफ शि का योग करना पड़ रहा था।
सोफे पर बैठकर उ ह ने मेरी दोन बाजु को पकड़ िलया।
“तो तुम फ ट आए हो!” दोन बाजु को जरा भ चते ए उ ह ने कहा।
“ज....जी।”
“ कतने न बर आए ह तु हारे ।”
मने िहच कचाते ए बताए।
“शाबास!” उ ह ने खुश होकर मेरी पीठ ठोक —“गुड! ब त अ छे।”
म कु छ नह कह सका।
जो भी हो, उस व मुझे ऐसा अहसास आ मानो यासे मयूर क च च म बरसात के पानी
क बूंद िगरी ह । दय को तृि का अहसास आ।
साथ म उ ह ने आ ासन भी दया—“खूब मन लगाकर पढ़ो। अगर ऐसे ही तुमने इं टर भी
पास कया तो हम तु ह अपनी क पनी म नौकरी दे दगे।”
उस आ ासन क भी मेरे िलए बड़ी क मत थी।
आज तक जो मुझे दया गया था, मेमसाहब ने दया। वो भले ही उनक कमाई का दया
था। तब पहली बार साहब ने कु छ खुद दया था—शाबासी और नौकरी का आ ासन।
उसी शाम को, वो ज दी आ गए थे। शायद मेमसाहब ने उ ह ज दी बुलाया था। वे दोन
बाजार गए।
बाजार से मेरे िलए भी एक जोड़ी जूते और कपड़े लाए थे। वे मेम साहब ने अपने हाथ से
मुझे दये। मगर उस रात पहली बार उस सामान म मने साहब के यार क खु बू महसूस
क।
¶¶
छ:
फर!
छु यां!
समय आराम से गुजर रहा था। मेरी जंदगी अब धीरे -धीरे एक खुशनुमा मौसम-सी होती
जा रही थी। मुझे अपने वागत म बहार आने क उ मीद नजर आने लगी थी। लगने लगा
था—बहार बस कु छ ही दूर बाह फै लाए मेरे वागत म इं तजार कर रही है। म कोमल का
हाथ थाम उसक शरारत को सहता, उस बहार क तरफ बढ़ रहा था।
क तु आह!
गलत था म।
अभी बहार कहां?
अभी तो एक मेजर ट नग वा ट आना था मेरी िज दगी म! एक खतरनाक मोड़! िजसने
मेरी जंदगी म के वल एक ही पल म ाि तकारी प रवतन ला दया।
यकायक जंदगी बद् से ब तर हो गयी।
पहले बस म अनाथ था। अब बेसहारा भी हो गया। बेघर हो गया।
उस दन को म तमाम उ नह भूल सकता।
रिववार का दन!
हां, वो रिववार का दन था। वह सुबह हर दन क तरह फू त से भरी थी। हम घूमने गए।
ना ता कया। साहब को अपने द तर नह जाना था।
यारह बजे।
मेमसाहब सजी-धजी अपने बैड म से िनकलकर सी ढ़य से उतरकर ाइं ग हॉल म आ
ग । साहब भी उ ह के साथ शानदार कपड़े पहने ऊपर से उतरकर आए।
“ याम!” मेम साहब ने मुझे पुकारा।
म उस व ाइं गहॉल म ही था। सो के वल उनक तरफ मुखाितब होकर ही काम चल गया
—“जी मेम साहब।”
“देखो, हम बाहर जा रहे ह। रात तक आ आएंग।े ”
“जी मेमसाहब।”
“तुम कोमल का याल रखना।”
“जी अ छा।”
“उसे यादा शैतानी मत करने देना। तुम भी आराम से रहना।”
मने के वल िसर झुकाकर ‘जी’ कहा।
मेमसाहब को मुझ पर पूरा िव ास था। इस एक साल के समय म वो मुझ पर आंख ब द
करके िव ास करने लगी थ । ऐसा पहले भी कई बार हो चुका था, जब वे घर और कोमल
को मेरे हवाले करके घ टे-दो घ टे के िलए बाहर चली जाया करती थ । वैसे भी घर म
नौकर रहता ही था।
मेरा साथी माली के वल शाम को आया करता था।
“दोपहर को खाना खा लेना।” उ ह ने मुझे िहदायत दी—“शाम को बाबू से जूस
िनकलवाकर दोन पी लेना। भूलना मत।”
मने ‘जी’ क हामी भर दी।
उ ह ने सोफे पर बैठी कोमल के गाल पर ममता भरा चु बन अं कत कया—“म जाऊं?”
उसका िसर सहलाते ए पूछा।
“मेरे िलए या लाओगी?” तपाक से कोमल ने पूछा।
“ या लाऊं?”
“मेरे िलए नया गेम लेकर आना।”
“ठीक है। अगर हम लेट हो जाएं तो तुम चु पी से िब तर म सो जाना।”
“आया तो नह है।”
“तुम हमारे बैड म म सोना। हम आ जायगे।”
“देर से आओगे?”
“नह ।” उ ह ने साहब क तरफ एक नजर देखा—“हम देर नह करगे।”
“तो म भी तभी सोऊंगी।”
“मने कहा ना!” मेमसाहब जरा स त हो ग —“अगर हम लेट हो जाएं तो तुम सो जाना।
ओके ?”
कोमल ने के वल गदन िहला दी।
“हम ज दी आएंग।े ” कहकर उ ह ने ममता से भरा एक चु बन उसके नाजुक गाल पर
अं कत कया और ‘बाय’ करके चली ग ।
ाइवर उस दन छु ी पर था। इसी कारण कार साहब ने ही पा कग म से िनकाली थी। वे
ही कार चलाकर ले गए।
मुझे पता था वे रात के यारह बजे के बाद ही घर म आएंग।े कोमल भी जानती थी। हमेशा
जब भी वे स डे को िनकलते थे और कोमल को साथ नह ले जाते थे तो उसी व पर आया
करते थे। तब तक कोमल सो जाया करती थी। उसे दस बजे तक सो जाने क स त िहदायत
थी। वे हमेशा िडनर बाहर लेते थे उस दन।
वैसे ऐसा कभी नह आ जब कोमल ने कु छ भी मंगाया हो और वे न लाए ह ।
सोमवार को कोमल मुझे वो सामान दखाया करती थी जो उसके म मी-पापा िपछली रात
लाते थे।
दन तो बड़े मजे म कटा।
रोज क मािन द—नह —उस दन रोज से भी यादा वत ता हम िमली। कोमल
दोपहर को तो सो गई ले कन बाक व हम खूब खेल।े शाम को पानी के पाइप से लॉन म
खेल।े उस खेल क शु आत कोमल ने ही क थी, जब म यारी के पौध म खुरपी चला रहा
था। अचानक कोमल ने पीछे से पानी का पाइप लाकर धार मेरे ऊपर कर दी।
पानी क मोटी धार मेरी पीठ से टकराई तो मने च ककर पीछे मुड़कर देखा। मेरे मुड़ते ही
धार जरा और ऊपर ई और सीधे मेरे िसर पर आकर पड़ने लगी।
म भीगता चला गया।
मुझे भीगता देखकर कोमल िखलिखलाकर हंस पड़ी।
मने गु से म खुरपी वह पटक और उसक तरफ भागा।
उसने तुर त पाइप को मेरे चेहरे पर मारना शु कर दया। ले कन म बचकर भागता आ
उसके पास प च ं गया। उसके हाथ से पाइप छीनकर मने उसे िभगोना शु कर दया।
खासा ड़दंग मच गया वहां।
काफ देर तक हम खेलते रहे।
फर हमने अपने-अपने कपड़े अपने कमर म जाकर बदल कर दूसरे कपड़े पहन िलए। मने
उसी व वे कपड़े सुखा दए। कोमल ने कपड़े बाथ म क बा टी म ही डालकर छोड़ दए
थे।
रात!
िडनर के बाद हम कु छ देर तक ाइं ग हॉल म ही रहे, उसके बाद म अपने कमरे म चला
गया। कोमल अपने म मी-पापा के बैड म म चली गई। म जानता था कु छ देर टी.वी.
देखने के बाद वह सो जाने वाली थी।
बाबू रसोई म काम िनबटा रहा था।
म बोर होने लगा तो अपनी पुरानी कताब को पढ़ने लगा। मेरी आदत भी ऐसी ही थी।
पता नह या लगाव था मुझे कताब से.... क अगर म जरा भी होऊं तो कताब को
खोल-खोलकर देखने लगता था। ये आदत आज भी बद तूर जारी है। मैनेजमट क कोई नई
कताब आए और म न खरीदू,ं ये कम ही होता था। तब मेरे पास इतने टै डड क कताब
तो थ नह , जो पुरानी कोस और जनरल नॉलेज क थ , उ ह म से एक जनरल नॉलेज क
कताब िनकालकर उसे पढ़ना शु कर दया।
तब म कु छ पृ ही पढ़ पाया था।
तभी अचानक आहट सुनकर मेरा यान दरवाजे क तरफ गया।
वो कोमल थी।
“तुम!” उसे देखते ही मेरे होठ से िनकला।
वो खामोशी से मेरे पास आई।
“तुम सो नह ?” मने पूछा।
“न द नह आ री।”
“ य ?”
“ दन म खूब सोई थी ना....।”
“ले कन रात ब त हो गयी है। तुम सो जाओ।”
“अभी तो साढ़े नौ बजे ह।”
“ले कन तु ह सो जाना चािहए।”
“सो जाऊंगी। जब न द नी आ रही, तो म या क ं ?”
म चुप रह गया।
“मेरा मन नह लग रहा है।” उसने कहा—“चलो, तुम मेरे साथ टी.वी. देखो।”
“ले कन....।”
“चलो भी।”
मने इं कार कर दया।
टी.वी. साहब और मेमसाहब के बैड म म रखा था। और म कभी भी उस बैड म म नह
जाया करता था। वहां या, म तो कभी सी ढ़य से ऊपर कसी भी कमरे म नह गया। न
ही इजाजत थी।
साहब को पता चल गया तो?
वे तो मेरी खाल ख च लेत।े
“चलो भी....।” उसने मेरा हाथ पकड़कर िजद क तो मने स ती से इं कार कर दया।
पहली बार मने कोमल के साथ कु छ भी इस तरह स ती से कहा था। उसका चेहरा उतर
गया।
“तुम जाकर अके ली टी.वी. देखो।” मने उसका उतरा चेहरा देखकर िपघले वर म कहा
—“म पढ़ रहा ।ं ”
“अब तो छु यां ह।” वो तुनक पड़ी—“आज आया भी नह है। यहां मेरा मन नह लग रहा
है। तुम भी साथ रहने से मना करते हो। म या क ं ?”
“जाकर टी.वी. देखो।”
मगर!
खूब समझाने पर भी वो नह मानी। झक मारने पर भी नह मानी। िजद पर अड़ गई तो
अड़ गई।
ऐसी ही थी वो।
मुझे ही मानना पड़ा।
मित मारी थी जो मान गया!
पता नह य म उसके साथ चला गया। वो शायद कोमल का वो यार ही था जो मुझे
झुकने पर मजबूर कर गया।
टी.वी. पर कोई सी रयल चल रहा था।
हम उसे देखने लगे। अ दर जाते ही वो फु दककर िब तर पर जा चढ़ी। म साइड म रखी
टेबल पर िसमटा-सा बैठ गया।
“अरे , वहां य बैठे हो?” मुझे देखकर वो बोल उठी—“यहां आकर बैठो ना।”
“नह , म यह ठीक ।ं ” म सकु चाया।
“तुम आते हो या नह ।” उसने अपनी आंख दखाय ।
म सकु चाता-सा िब तर के कोने पर जा बैठा।
और बैठा तो च का।
आह! कतना गुदगुदा था िब तर। मेरा धड़ कई इं च ग े म धंस गया।
“अरे !” बेसा ता ही मेरे होठ से िनकला—“ये तो बड़ा गुदगुदा है।”
“हां....! तु हारा ऐसा नह है?”
“नह ।”
“मेरा तो ऐसा ही है।” कोमल ने कहा—“म तो ऊपर खूब उछलती .ं ...।” और उठकर खुद
उछलने लगी—“देखो!”
“अरे -अरे ।” म घबरा उठा। पता नह य वो डर उस व मेरे मन म पैदा आ, म नह
जानता था। शायद इस कारण क पहली बार इतना क मती, गुदगुदा ग ा मने देखा था। म
उस पर बैठा था ना, उस कमरे म म था, िजसका जरा-सा भी नुकसान मेरे िसर आता।
शायद इसी कारण मेरे होठ से िनकला—“कू दो मत। खराब हो जायेगा।”
“अरे , कु छ नह होता। म तो रोज उछलती ।ं ” वो बद तूर उछलती ई बोली—“आओ,
तुम भी आओ ना। तुम भी उछलो।”
“न....नह , म नह ।” मने जोर से हाथ िहलाकर घबराते वर म इं कार कर दया।
“ य ?”
“खराब हो जाएगा।” पुनः वही जवाब। और कोई जवाब उस व मेरे पास था तो नह ।
वो कु छ कहना ही चाहती थी क अचानक उसका यान िसरहाने क तरफ वाली दीवार
पर गया तो बेसा ता ही उसके होठ से िनकल पड़ा—“अरे , ये तो ितरछी है।”
उसक िनगाह का अनुकरण करती मेरी नजर भी दीवार पर लगी पे टंग पर ग जो
वा तव म ितरछी थी। इतनी अिधक नह थी क तुर त देखकर पहचानी जा सके । ले कन
जाने कै से उस ण णयरत जोड़े क प टंग को एक नजर देखकर ही कोमल ने पहचान
िलया क वो ितरछी थी।
उसने अपना माथा पीट िलया।
और तुर त ही वो बेड क पु त पर चढ़ गई। पंज के बल ऊपर उठकर वो उस प टंग को
ठीक करने का यास करने लगी।
वो प टंग कु छ ऊंचाई पर थी, सो बड़ी मश त करने पर उसके छोटे-छोटे हाथ के वल उसके
पास तक प च ं सके । वो और ऊपर उठी। उचकने के च र म उसका वजन पूरी तरह उसके
पंज पर आ गया।
वो जरा लड़खड़ाई।
“अरे , िगर जाओगी।” उसे लड़खड़ाते देखकर म बेसा ता ही कह उठा।
मगर वो!
उसे मेरी बात क या परवाह थी! वो अपना यास करती रही। एक बार फर वो
लड़खड़ाई।
म झटके से उठ कर खड़ा हो गया।
अब उसके हाथ त वीर तक प च
ं गये थे। वो उस त वीर को सीधी करने लगी। इसके िलए
उसे और ऊपर उचकना पड़ा।
तभी वो लड़खड़ाई।
इस बार वो अपना बैले स न बना सक और उसका शरीर हवा म लहरा उठा। होठ से
घुटी-घुटी चीख िनकलकर रह गई।
म िब तर पर लपककर चढ़ गया। उसे मने ऊपर ही अपनी बाह का सहारा देकर संभालना
चाहा, मगर देर हो चुक थी तब तक। म अपनी कोिशश के बावजूद भी उसे संभाल न
सका।
म भी अपनी चीख को न रोक सका जो अ य त धीमी थी।
और!
हम दोन ग े पर जोर से िगरे । दोन शरीर एक दूसरे म गुंथे कई इं च तक ग े म धंस गए
थे। उसके होठ मेरे होठ से टकराए। बाल ने हम दोन के चेहर को ढक िलया।
पहली बार!
हां, वो पहली बार ही था जब मने अपने समूचे िज म म वो अजीब-सी सनसनाहट रगती
महसूस क । मने अजीब से अंदाज म उसको अपने साथ भ च रखा था। उसने अपनी छोटी-
छोटी बाह मेरी गदन से लपेट रखी थ ।
सबकु छ थम गया था जैस!े
वो खुद एक िहरनी क मािन द घबराई ई थी। बुरी तरह एक लता क मािन द वो मुझसे
िलपट कर रह गई थी।
“कोमल!”
उसी व कहरभरा वर हम दोन के कान म पड़ा तो हम उछलकर रह गए। मेरा दल
झटके से हलक म जा अटका।
कोमल मुझसे तुर त अलग िछटक गई।
हमने एक साथ दरवाजे क तरफ देखा।
दरवाजे पर!
साहब आग का गोला बने खड़े थे। उनके पास म खड़ मेम साहब च कत!
“हरामजादे!” आग उगलते ए वे फश को र दते ए हमारी तरफ बढ़े—“तेरी ये िह मत!
या कर रहे थे ये?”
“प....पापा!” कोमल ने कु छ बताना चाहा। मगर एक झ ाटेदार थ पड़ उसके गाल पर
पड़ा। साहब जो उसे छू ते भी यार से, सावधानी से थे, उसके गाल पर उ ह ने इतनी
बेरहमी से थ पड़ मारा क उसका चेहरा ग े म जा धंसा।
“सूअर के ब े!” उ ह ने मेरे कु छ भी बताने से पहले ही मेरा िगरे बान पकड़कर िब तर पर
से नीचे ख च िलया—“तेरी ये िह मत! मेरी बेटी के साथ....।”
वा य भी पूरा नह कया।
बस!
फश पर धके लकर जूते क ठोकर मुझ पर बरसाने लगे। जुनून के कारण पागल हो गए थे वे
मानो। मने या कया था....जो इतनी बड़ी सजा मुझे िमल रही थी? मेरी समझ म न आ
सका। समझ म तो तब आता जब होश म होता म। मुझे तो चीखने से ही होश नह था।
दमाग क हर नस जाम हो गई थी।
मुझे उस कार िपटता देखकर मेमसाहब दरवाजे पर से लपककर उनके पास आ ।
“अरे , मार डालोगे या इसे?” उनक बांह पकड़कर उ ह मुझसे अलग हटाने का यास
करती ई वो बोल ।
“हट जा ेमलता!” उ ह एक तरफ धके लते ए वे हंसक लहजे म चीखे—“आज म इसक
जान ले लूंगा।”
और जैसे मेरी जान लेने का इरादा ही उ ह ने बना िलया था। इसी कार वे मुझ पर अपने
जूत क ठोकर बरसा रहे थे।
कोमल भी िब तर पर से उतरकर उनक टांग से ‘पापा-पापा’ करके िलपट गई। उसे भी
उ ह ने जुनूनी अव था म टांग से अलग करके मेमसाहब क तरफ धके ल दया। उ ह ने
उसे डाल से टू टे फू ल क मािन द सहेजकर अपनी बाह म समेट िलया। कोमल उनक गोद
म िलपटकर फफक पड़ी।
“उठ!” साहब ने मेरा िगरहबान ऊपर उठाया और झंझोड़ते ए चीखे—“ या कर रहा था
तू?”
“म....म....।” एक श द तक मेरे होठ से न िनकल सका।
चटाक-से एक झ ाटेदार थ पड़ मेरे गाल पर पड़ा। और फर थ पड़-पर-थ पड़ पड़ते चले
गये।
नीचे से बाबू भागकर ऊपर आया।
“साहब....।” मुझे इस कदर िपटता देखकर बाबू बुरी तरह से िच क
ं ा—“ये या कर रहे ह
आप?”
उसने साहब को रोकना चाहा पर उ ह ने उसे भी परे धके ल दया। बाबू दूर िछटक गया।
तभी साहब ने मेरी कमर पर जोरदार ठोकर मारते ए मुझे भी उसी क तरफ धके ल
दया।
बाबू के अलावा और सहारा कौन था मेरा। म उसी से िलपटकर फफक पड़ा।
“इसे इसी व मेरी आंख के सामने से दूर कर दे बाबू!” साहब ने आग उगली—“नह तो
म इस हरामी क जान ले लूंगा।”
“स....साहब, ब े ने आिखर कया या है?”
“ये हरामी....ये हरामी।” फश र दते वे यमदूत क मािन द मेरी ओर बढ़े—“ये हरामी
हमारी ही बेटी के साथ गंदी हरकत कर रहा था।”
“साहब!” बाबू चीखा।
म स रह गया।
साहब ने एक धमाका-सा कया था।
“चल िनकल साले!” इससे पहले क कु छ मेरी समझ म आ पाता, साहब ने मेरी बांह पकड़ी
और बाबू क गोद से ख चकर खुद ही बाहर क तरफ चल दए।
संभल न सका म।
उनके उस अ यािशत वहार के कारण म फश पर िगर पड़ा। मगर उ ह या? वे मुझे
भूसे से भरे बोरे क मािन द फश पर घसीटते ए बाहर आ गए।
वह पर बस नह कया।
उसी कार घसीटते ए वे मुझे सी ढ़य से नीचे तक लेकर आए। म के वल चीखता रह
गया। उन सी ढ़य के कनार क रगड़ के कारण मेरी एक करवट बुरी तरह िछल गयी थी।
मुझे घसीटते ए वे दरवाजे तक लाए और बाएं हाथ से दरवाजा खोलकर मुझे बाहर धके ल
दया।
“दूर चला जा यहाँ से!” बाहर धके लकर साहब ने मुझे चीखकर चेतावनी दी—“अगर
आस-पास नजर भी आया तो म तेरे टु कड़े-टु कड़े कर दूग
ं ा।”
फर मेरी तरफ मुड़कर देखे बगैर जोर से दरवाजा ब द कर दया।
म िससकता आ उठकर मु य ार क तरफ बढ़ गया।
ार पर आकर मने दरवाजा अ दर से खटखटाया तो गेटक पर सीताराम ने दरवाजा खोल
दया।
“शामू!” मेरी हालत देखकर वो हैरान होकर बोला—“ये या हो गया?”
ले कन मने कोई जवाब नह दया।
म बद तूर िससकता आ गेट से बाहर िनकलकर सड़क पर आ गया। उसे बताता भी या?
और य म उसे बताता? मेरी सुनने वाला था ही कौन?
सीताराम ने मुझे रोकना चाहा, कई बार पुकारा, ले कन उसक आवाज को अनसुनी करके
म स ाटे म डू बी सड़क पर आगे बढ़ता चला गया। बढ़ता चला गया।
¶¶
सात
म कतनी दूर तक पैदल चला, पता नह ।
कन रा त पर चला, कन मोड़ से गुजरा, म नह जानता। बस दूर चला जाना चाहता
था म, दूर ब त दूर।
साहब से ब त दूर।
मेरे कदम तब के , जब सामने समु दर ने आकर मेरा रा ता रोक िलया।
वो अमाव या क रात थी।
हर तरफ अ धकार था। पैना स ाटा! अगर सम दर क लहर को खामोश मान िलया जाए
तो उस व जो भी आवाज थी, बस लहर क आवाज थी।
म धीरे से रे त म बनी सीमे ट क एक बच पर बैठ गया। नयन से आंसू थे क कमब त
कने का नाम नह ले रहे थे। म बच पर बैठा तो िहच कयां भी उस खामोश दन म आ
िमल ।
तब म था, खामोश आकाश था। टम टमाते, आकाश म मोितय से टंके, तारे थे। म द
समीर थी और उस गहन स ाटे म शोर मचाती लहर थ ।
सब मेरे दुख से गमगीन से नजर आए उस व ! सब मुझे अपना दुख बांटने के िलए अ छे
साथी नजर आए। सो, म िश त से रोया उन सब के बीच।
खूब रोया। तब तक रोता रहा, जब तक मेरे आंसू ख म न हो गए। तब तक रोया, जब तक
खुद-ब-खुद मेरा दन समा न हो गया। बैठे-बैठे जब थक गया तो बच पर लेटकर रोया।
और उसी हालत म कब न द ने मुझे चुपके से अपने आगोश म समेट िलया, मुझे पता नह
चला।

सुबह!
जब मेरी आंख खुली तो मेरे रात के कई साथी िवदा ले चुके थे। तारे चले गए, य क सुख
सूरज तब सम दर के सीने पर से उठकर आकाश म अपनी लाली फै ला चुका था। आकाश
क खामोशी ख म हो चुक थी।
रात वाली म द समीर बद तूर बह रही थी। लहर सम दर के सीने से उठकर कनारे पर
कलोल कर रही थ । रे तीले कनारे पर उस व खासी चहल-पहल हो गई थी। छोटे-छोटे
ब े अपने अिभभावक के साथ रे त म खेल रहे थे। कु छ रे त से अपना घर बना रहे थे। एक
बार उसी रे त म कोमल के साथ िमलकर मने भी अपना एक घर बनाया था। वो मेरा कहां
था? वो तो कोमल का था। उसे तो मने बस बनाने म मदद क थी। अब मेरा घर कहां?
आह!
युवक-युवितयां ए सरसाइज कर रहे थे। अ य बच पर कु छ वृ बैठे बितया रहे थे। मने
उठकर अपने हाथ क पीठ को अपनी आंख पर फे रा। और पुनः देखने लगा।
सब अपने म म त थे। खुश थे। बस म अके ला था—जो उदास था। उदास था, य क म
अके ला था।
अके ला!
हां अके ला ही तो! िनतांत अके ला।
सच, कोई भी तो नह था मेरा। होता तो म यूं िपटता! यूं उस घर से बेइ त होकर
िनकाला जाता? कसी ने पूछा तक नह । कु छ कहने तक क मोहलत तक नह दी।
और मेमसाहब!
वो भी तो एक तरफ खड़ी थ । बस एक बार ही तो मुझे छु ड़ाने के िलए वे आगे बढ़ी थ ।
के वल एक बार!
उ ह भी साहब ने कस बेदद से दूर धके ल दया था। उसके बाद वे भी आगे नह बढ़ ।
या वे उ ह रोक पात ?
हो सकता है, वे भी साहब से डर गई ह ? या उनके मन म भी गलतफहमी....।
ओह!
यकायक एक टीस सी मेरे मन म उभरी।
मने तो ऐसा कु छ कया भी नह था। मेरे तो मन म वो िवचार भी न पनपा था।
उसका ही इ जाम!
वेदना तो थी के वल इस बात क क मेमसाहब ने भी िव ास कर िलया। एक बार पूछा
तक नह ।
सब कतनी ज दी पराये हो जाया करते ह!
म वहां से उठकर चुपचाप चल दया।
चल ही दया।
चलता गया। पैर म च र पड़ गया था मानो। एक बार भी मेरे मन म घर वािपस जाने क
इ छा नह जागी। एक बार मेरे याद ज र आया क मेरा अपना घर भी है। ले कन अब
वहां या क ं गा? सबसे नफरत सी हो गई थी।
म एक स ाह तक मु बई म रहा। जैस-े तैसे पेट भरा। टेशन और फु टपाथ पर सोया। कभी
सम दर कनारे सोया। पूरे ह ते म बस दो दन नहाया था म। तेल तो बाल म डालने के
िलए नसीब नह आ था। इसी कारण बाल खु क होकर गु छ म प रव तत हो गए थे।
आठव दन यािन रिववार के दन एक बार फर मुझे उनके दशन ए। उस व शाम को
मने तीन चार कार को साफ करके दो तीन पये कमाये थे और कु छ खाने के िलए दुकान
पर गया था। जाकर खड़ा ही आ था क तभी एक कार सामने से गुजरी।
वो कार.... उस कार को तो म आवाज से ही पहचान सकता था। तब भी मने उसे उसके
इं जन क आवाज से ही पहचाना था।
वो साहब क कार थी।
उसम साहब, मेमसाहब और कोमल पैसे जर सीट पर बैठे थे। कसी ने मुझ पर यान नह
दया। शायद एक नजर कोमल ने अव य देखा था। और देखकर च क भी थी। तभी तो
अपनी म मी से कु छ कहने लगी थी।
मेरा दल नफरत से भरता चला गया।
म तुर त उस दुकान से हट गया। न कु छ खाया और न का।
पुनः चल पड़ा।
वहां से सीधे टेशन प च
ँ ा।
जाने य नफरत सी हो गई थी उस शहर से। म वहां से दूर िनकल जाना चाहता था। ब त
दूर। इतनी दूर क क हैयालाल भागव का चेहरा तक देखने को न िमले। कार म पैसे जर
सीट पर बैठे क हैयालाल भागव को देखकर दल म शूल सा चुभा था। मानो हरे ज म को
कसी जािलम ने कसी नुक ली चीज से कु रे द दया हो।
रे लवे टेशन पर ेन चलने के िलए तैयार थी।
म उसी के सबसे िपछले जनरल ेणी के िड बे म सवार हो गया।
ेन पटरी पर िखसकने लगी।
उसी के साथ मेरे दल म अजीब संतुि के भाव ने ज म िलया। जैसे ज म पर मरहम का
फाहा कसी दयावान ने रख दया था मानो। म वहां से दूर जा रहा था।
और मने मु बई को अलिवदा कह दया।
¶¶
आठ
उसके बाद!
ेन कन- कन टेशन से गुजरी, मुझे याद नह । कई टेशन के बाद वो कसी टेशन पर
कु छ देर के िलए कती थी। कई जगह वो ल बे समय के िलए क , ठीक उसी कार जैसे
कोई घोड़ा गाड़ी ल बी दूरी तय करने के बाद, थोड़ा सु ताने के िलए क जाया करती है।
थोड़ा दाना-पानी लेने के िलए क जाया करती है। सब या ी उसी कार उतरकर आगे क
या ा के िलए दाना पानी लेते। कु छ खाते। म भी उ ह के साथ कु छ खा लेता।
या खा लेता?
कभी ैड पकोड़ा, कभी एक-दो के ले। यही तो सबसे स ता सामान टेशन पर िमला।
इडली महंगी थी और रोटी म खरीद नह सकता था। आधे रा ते म ही मेरी जेब खाली हो
गई। बाक सफर मने पानी पीकर ही गुजारा।
सफर!
सफर या था?
म था, ेन थी, या ी थे, टेशन और ऊँचे-ऊँचे पठार के टीले थे। सागौन के वृ । कह -कह
खाई जैसी गहराइयां जो पेड़ और झाड़ से भरी पड़ी थ । कभी-कभी अजीब सी बदबू जुते
खेत से उठकर मेरे नथुन म घुस जाती। याि य से ही सुना था वो काली िम ी क बदबू
थी।
कतनी न दय के पुल रा ते म आए, िजन पर ेन गड़गड़ाती गुजरी, म न िगन सका।
दन-रात का सफर!
फर आया नई द ली!
मने भी सामा य ान क कताब म पढ़ा था क द ली हमारे भारत क राजधानी है।
राजधानी! ये श द मन म आते ही मेरे मन म अजीब-सा भाव आया। बस दल म अजीब-
सा सुकून था। म उस नामुराद मु बई से दूर आ गया था। दूर—ब त दूर।
हे ई र! मुझे कभी मु बई क तरफ मत ले जाना।
म जनरल कू पे से उतर गया।
टेशन से बाहर िनकलने के िलए बाहर क तरफ बढ़ा ही था क दरवाजे पर टकट चैकर
को देखकर मेरे पैर ठठक गए। म क गया। फर तुर त उस तरफ चल दया िजधर से ेन
ने वेश कया था।
क मत ने साथ दया। वहां दमाग ने भी काम कया और म सकु शल टेशन से बाहर
िनकल गया।
भूख के कारण मेरी आंत सूख चुक थ । ऐसा ही होता है जब इं सान का पेट खाली हो जाए
तो उसे भूख का अहसास होने लगता है। और भूख बढ़ती है। बढ़ती चली जाती है। सहन
करनी मुि कल हो जाती है। ले कन अगर तब भी खाना न िमले तो आंत िसकु ड़ने लगती ह
और भूख समा हो जाती है। जो असर पड़ता है तब पूरे शरीर पर पड़ता है। तब म भी
कमजोरी महसूस कर रहा था। दूसरे , इतना ल बा ेन का सफर। मुझे घुमेरी-सी महसूस
होने लगी।
म ल बा च र काटकर टेशन के बाहर आया था।
बाहर आकर म सी ढ़य पर ही बैठ गया, दोन हाथ से अपना िसर थाम िलया।
उस व मेरा दमाग काम नह कर रहा था। अजनबी शहर, अजनबी लोग, अजनबी
मौसम।
हां, मौसम भी मु बई से एकदम अलग था। वहां पर इतनी गम नह थी। द ली म आकर
मुझे लग रहा था जैसे म चू हे पर रखी पतीली के अ दर बैठा दया गया होऊं। गम से मेरा
बुरा हाल था।
एक अिधकारपूण, ककश वर मेरे कान म पड़ा, तो मने घबराकर अपना चेहरा ऊपर
उठाया।
सामने एक अ य त मोटा, आधा गंजा आदमी खड़ा था। उसका पेट म सरीखा था, िजसके
बीच बीच बंधी बै ट ने उसक पट को वहां रोक रखा था। उस बै ट को भी जरा कसकर
बांधा गया था, ता क ख चने पर भी पट नीचे न िखसक सके ।
“नाम या है तेरा?” उसने ल मार अंदाज म कहा।
“श....श.... याम।” मने फं से वर म कहा—“ याम बालाजी कदम।”
“मराठा है?”
मने मु डी िहलाई।
“यहां या कर रहा है?” अंदाज और कठोर हो उठा।
“ब....बैठा ।ं ”
“कब आया है महारा से?”
“अभी।”
“भागकर आया है?” त दीक करने वाला, खोजपूण अंदाज—“सच बताना।”
“हां।”
“हां या?”
“आया ।ं ” जाने य मने भी अपना लहजा कठोर कर िलया।
“भागकर?”
“हां।”
“ य ?”
उस ‘ य ’ पर मेरी कठोरता क े शीशे क मािन द चकनाचूर हो गई। एकाएक जवाब नह
बना। मेरी गदन खुद-ब-खुद ही झुकती चली गई।
“जवाब य नह देता।” उसने ककश वर म पूछा।
“मेरा कोई नह है।”
“कोई नह है?”
“नह , सब मर गए।”
“और तू यहां भाग आया।”
मने द र हाल म उसक तरफ देखा।
वो कु छ देर तक मेरा िनरी ण करता रहा।
“तुझे भूख लगी है?” उसने खोजपूण वर म पूछा।
“हां।” मेरा लहजा और द र हो गया—“ब त लगी है।”
“एक पया दूग
ं ा। मेरा एक काम कर।”
मने सवािलया िनगाह से उसक तरफ देखा।
“देख, लाइन बड़ी ल बी है।” उसने टकट क िखड़क पर इशारा करके कहा—“म खड़ा
नह हो सकता। तू मेरे िलए एक टकट लेकर आ।”
“कहां का?”
“ब बई स ल।”
ब बई!
शूल-सा चुभा मेरे कलेजे म।
“ठीक है।” मने गदन िहला दी—“ले कन एक पये म पेट भर खाना कहां िमलेगा?”
“तेरा या पेट इतना बड़ा है जो नह भरे गा एक पये म?”
“नह भरे गा। कई दन से भूखा ।ं ” मने ीण वर म कहा।
“भर जाएगा।”
उसने अपना वा य इतने आ मिव ास से कहा था क मेरी जुबान पर ताला पड़ गया। फर
भी म द र िनगाह से उसक तरफ देखता रह गया।
“चल ठीक है।” अ त म उसने अहसान करने वाले लहजे म कहा—“म तुझे भर पेट खाना
िखला दूग
ं ा। ले कन, तू पहले टकट लेकर दे।”
मने मु डी िहलाई।
“पैसे लेकर भाग तो नह जाएगा?” उसने मुझे घूरा।
“कहां भागूंगा?”
फर उसने कु छ नह कहा।
उसने एक टकट के पैसे मुझे दे दए—“ले, जाकर यू म खड़ा हो जा। और म यहां बैठा ।ं ”
उसने कहां इशारा कया, मने नह देखा। बस मु डी िहलाकर हां कर दी।
चुपचाप जाकर लाइन म खड़ा हो गया।
लाइन काफ ल बी थी।
म लाइन म तो खड़ा हो गया, ले कन जाने य मेरी समझ म नह आया क म सही कर
रहा ं या गलत। या वो मुझे खाना िखला भी देगा? कह टकट लेकर मुझे चलता न कर
दे?
या कर लूंगा म उसका? वो इतना ताकतवर था क एक थ पड़ मेरे गाल पर जमाता तो म
वह दुहरा होकर रह जाता। एक तो म उससे ह का, दूसरे भूखा। म अिनि त-सा धीरे -
धीरे आगे को िखसकने लगा। खाना िमलने क पचास फ सदी उ मीद ने एकाएक पेट म
भूख का अहसास कराना आरं भ कर दया था।
तभी वो मोटा उठा।
और ठीक सामने के ले बेचने वाले एक ठे ले के पास प च
ं गया। उसक नजर लगातार मुझसे
िचपक ई थ ।
जाकर उसने के ले िलए और पुनः अपनी सीट पर आ जमा। उसने के ले बच पर रखे तथा
एक-एक करके के ले खाने लगा।
उसे के ले खाता देखकर मेरी भूख और बढ़ गई। मने अपने सूखे होठ पर बेचैनी से जीभ
फराई।
हमारी नजर िमल तो मने अपने खु क गले को तर करती लार को गटककर नीचे को
धके ला।
वो बद तूर के ले को खाता रहा। मेरे देखते-ही-देखते उसने चटपट सारे के ल को पेट म
प चं ाकर िछलके बच के पास बने ड टिबन म फक दए। मेरी हालत देखने के बावजूद भी
उसको जरा भी दया नह आई।
पौने घ टे म मेरा न बर आया।
मने िखड़क म जैसे हाथ डालकर अपनी ब द मु ी खोलकर उतावले वर म कहा—“एक
ब बई। सै ल का।”
टकट िमला।
टकट लेकर म भागकर मोटे के पास प च
ं ा।
“ये लो....।” मने टकट उसक तरफ बढ़ा दया।
उसके टकट पकड़ते ही मने बेताबी से कहा—“खाना?”
“चल।” उसने तुर त कहा।
वा तव म उसने अपना वादा िनभाया और मुझे टेशन से बाहर आकर भरपेट िखलाया।
या िखलाया—चावल और आलू क स जी। एक ही बड़ी लेट म मेरा पेट भर गया।
जब पेट म आग लगी हो तो जीभ का वाद बताने वाले सभी जीवाणु मर जाया करते ह।
इं सान को अगर उस व चार दन का रखा खाना भी दे दो, यासे को ग े म से िनकालकर
कोई पानी दे दो तो वो इं कार नह कर सकता। सो, मने भी डटकर खाया। क ठ तक धके ल-
धके ल कर खाया। पता नह कब िमले फर!
जब तक मने लेट खाली क , मोटा मेरे सामने बैठा मुझे घूरता रहा। उसक नजर मुझे उस
व चुभती-सी महसूस हो रही थ ।
क ब त छीन न ले। या पैसे देने का इरादा न बदल दे।
इसी भय से त म अपना हाथ और तेजी से चला रहा था।
पानी का भरा िगलास यूं ही रखा रहा।
लेट पूरी तरह खाली करने के बाद ही मने उस िगलास पर तव ो दी।
पानी पीने के बाद जब मने िगलास मेज पर रखा तो उसने औपचा रक भाव से पूछा
—“और लेगा?”
मने कु छ कहने के बजाए मु डी ही इं कार म िहलाई।
आ त होकर वो उठ गया।
¶¶
नौ
फर भटकन।
उसके अलावा या कर सकता था म!
उस अजनबी अनजाने शहर म म कहां अपने कदम को रोकता? जहां म कता, अजनबी
िनगाह मुझसे िचपक जात , मानो पूछ रही ह —ऐ, य खड़ा है?
और म बगैर जवाब दए चल देता। उस व कु छ सूझता ही नह था।
शाम तक भटकता रहा।
जाने कतनी जगह बैठा। बैठा तो घूरती िनगाह को शूल क मािन द अपनी ह पर
झेलकर बैठा। िववशता म बैठना पड़ता था। जब थक जाया करता था तो बैठने के िसवाए
और चारा नजर न आता।
शाम को मौसम एकदम शा त हो गया। म खुद उस मौसम म अजीब-सा महसूस करने
लगा।
पता नह या होने वाला था? मौसम अब अपना कौन-सा रं ग दखाने जा रहा था।
तेज हवाएं चलने लग तो मेरी समझ म आया वो तूफान से पहले क शाि त थी। हवा तभी
तो यूं एकाएक थम गई थी।
मुझे िजधर रा ता िमला म भाग उठा। मेरी आंख म धूल भरने लगी। उस धूल भरी आंधी
ने हर तरफ अपना गादलापन फै ला दया था, जैसे पूरे वातावरण म धूल फै ल गई हो।
तभी मुझे एक पाक नजर आया तो म धूल भरी हवा के ती थपेड़ को झेलता पाक के
दरवाजे क तरफ भाग खड़ा आ।
वो एक िवशाल पाक था।
चार तरफ ऊंचे सघन वृ थे। और मैदान म घास उगी ई थी। या रय म पौधे उगे ए
थे। म वह सीमट क बच पर जाकर अपना चेहरा िछपाकर लेट गया। ऊपर से सीमे ट क
छत बनी ई थी जो धूल क आंधी को रोक पाने म पूरी तरह नाकामयाब थी। रोकती भी
कै से भला! आंधी ऊपर से थोड़े ही आ रही थी। वो तो साइड से आ रही थी। और साइड म
कोई दीवार महानगर पािलका वाल ने नह बनवाई थी। उस छत को रोकने के िलए चार
थ ब बनवाए गए थे।
मने सीमे ट क बच क पु त म अपना चेहरा िछपा िलया और अपनी पीठ पर उन हवा
के थपेड़ को झेलने लगा।
तब पहली बार मुझे अपने घर क याद आयी। पापा क याद आई। दल म िछपी वेदना एक
बार फर वारभाटे क मािन द ऊपर को उछाल मारने लगी।
आह!
मेरा अपना घर था। और म यहां इतनी दूर, अजनबी जगह, मौसम के ही नह िज दगी के ,
जमाने के भी उन ती थपेड़ को सहन कर रहा था। हर तरफ अंधकार था। उस अंधकार के
चलते म अके ला मुसा फर। पता नह िनयित मुझे कहां ले जाकर फके गी।
मेरी आंख से आंसु क अिवरल धारा बहने लगी।
और बा रश भी शु हो गई।
बरसात क पछाड़ मेरी पीठ को िभगोने लगी थी। मगर मने चेहरा उठाकर देखने का य
तक न कया क उस व मौसम के या हाल ह? बरसात कतनी तेज है? या मेरे आस-
पास कोई जीव उस पाक म है?
मने हारे िखलाड़ी क भांित खुद को िनयित के हवाले कर दया था।
अब इसी कार जीवन गुजारना था।
वो बा रश कतनी देर तक पड़ती रही, पता नह । मने उसके थपेड़ को कतनी देर तक
सहन कया, इसका म अनुमान न लगा सका।
बरसात ब द ई तो समूचा मौसम अजीब से स ाटे म डू बता चला गया। अपनी भीगी पीठ
क सद मने अपने िज म म रगती महसूस क तो मने करवट ली।
मेरे साथ ही वहां हर बच िघरी ई थी। सब पर कोई न कोई था। मेरी भी बच पर एक
खरप ी सरीखा युवक बैठा आ था। उसी बा रश म जाने कब उसने आकर वहां पर अपना
अिधकार कायम कर िलया था।
“तू यहां नया आया है?” उसने मुझे अपनी तरफ देखते देखा तो खुद ही बोल पड़ा।
“हां।” धीरे से मने कहा।
“घर से भागकर आया है?”
“मेरा घर नह है।”
“ यू?ं ”
“सब मर गए।”
“ र तेदार?”
“नह ह।”
“कहां से आया है?”
मने िहचकते ए बताया—“ब बई से।”
“ब बई से!” वो च का। च कत-सा वो मुझे देखता रह गया, मानो म कोई अजूबा होऊं
—“इतनी दूर से! अके ला आया है?”
“हां।”
“कब आया यहां?”
“आज ही।”
“िबना टकट?”
“हां।”
“टी.टी. ने पकड़ा नह ?”
मने इं कार म गदन िहला दी।
“ या नाम है तेरा?” उसने बड़े गौर से मुझे देखते ए पूछा।
“ याम बाला जी कदम।”
“यहां या करे गा?”
“पता नह !” मने कहा। यहां आने पर मुझे भाषा क कोई खास परे शानी पेश नह आई,
य क मने बचपन से ही हंदी पढ़ी थी और मेरे पापा के मािलक के घर म िह दी म ही
बात क जाती थ ।
“चाय िपएगा?” उसने एकाएक पूछा। उसने कस भावना से पूछा, ये म न जान सका, न ही
परख सका।
इसीिलए मने इं कार कर दया—“मेरे पास पैसे नह ह।”
“चल, म िपलाता ।ं ” उसने मेरा हाथ पकड़कर उठने का उप म कया।
म िहच कचाया। ले कन उसका अनुरोध म टाल न सका।
उसने पाक से बाहर ले जाकर मुझे चाय क एक दुकान पर चाय िपलाई, जहां पर खासी
भीड़ लगी थी। उस युवक ने बताया क वहां पर चाय पीने वाले अिधकतर तु हारी हमारी
ही तरह उस बा रश के मौसम म यहां-वहां िसर िछपाए थे, जो बा रश ब द होने के बाद
उसक सद िमटाने के िलए वहां आये थे। कइय ने वह शराब के अ े प वे खोल दये थे।
“कु छ खाएगा?” चाय के बाद उसने पूछा—“भूख लगी है?”
खाने क याद दलाते ही मेरी दबी भूख जाग उठी।
खाने क इ छा एकाएक उभर आई। क तु मने इं कार कर दया। कह दया—“शाम को ही
खाया था।”
“कहां से?”
“पैसे थे मेरे पास। चावल खाए।”
फर उसने नह पूछा।
पता नह उसने मुझम या देखा जो वो मुझ पर इतना मेहरबान हो गया था। उसक उन
मेहरबािनय को देखकर एकबारगी तो मुझे उससे डर लगने लगा था।
बात डरने वाली भी थी।
एक अजनबी इं सान। अंजानी जगह। कहां म! अके ली जान। अगर वो मेरा कु छ अनुिचत
योग भी करता तो म या कर लेता। कहां से सहायता क गुहार करता या खुद उसका
या िबगाड़ लेता? मेरा दल चाहने लगा था क उससे दूर र ।ं ले कन ऐसा न कर सका।
एक तो मुझे अपनी उन आशंका का कोई धरातल नजर न आ सका। और न म िह मत
जुटा सका क उससे पूछूं या त दीक कर सकूं ? या उससे दूर भागकर जा सकूं ?
भागता तो कहां? जाता तो कधर?
हर चेहरा एक जैसा था। हर इं सान अजनबी।
उसने अपना नाम सु े बताया।
पूरा या असली नाम या था, पता नह । जो भी था वही उसका प रचय था। वही उसक
आईडेि टटी थी।
उसने बताया।
वो मूल िनवासी गािजयाबाद का था। बचपन म ही उसक मां चल बसी थी। वे तीन बहन-
भाई थे, िजनम सबसे बड़ा खुद वो था। बारह साल का। सबसे छोटी थी बहन, जो पांच
साल क थी।
कु छ ही दन बाद उसके िपता ने एक और शादी कर ली। वो नई मां अपने साथ दो ब े
लाई थी, जो छोटे ही थे। शु म तो उसका वहार बड़ा मीठा रहा। फर बाद म जब
बदला तो वो उसे ‘पूतना’ नजर आने लगी। बाप तो उसके हाथ क कठपुतली बन ही चुका
था। जहां वो डोरी ख च दे, उधर ही चल पड़ता।
साल भर तक तो सु े ने उसको सहन कया।
फर जब सहन न आ तो घर छोड़कर भाग िनकला। आने से पहले दन भी शाम को उसने
अपने सौतेले भाई क जमकर िपटाई क थी। उस दन माँ-बाप कह बाहर गए थे।
लौटकर पता चला तो सौतेली मां ने उसको पीटा। बस! सु े के स का पैमाना छलक गया।
घर के अ दर उसे ट का अ ा पड़ा दख गया।
बस!
आव देखा न ताव।
उसक पकड़ से छू टकर अ ा उठाया और सौतेली मां के िसर पर दे मारा। अ ा उसके माथे
के ठीक बीच म लगा था। उसने एक हाथ से अपनी चोट को दबाकर उसे दबोचना चाहा तो
सु े उससे दूर भाग गया।
दरवाजे पर प च
ं कर उसने एक अ य त भ ी गाली अपनी उस सौतेली मां को दी और भाग
िनकला।
तब से उस दन तक उसने वािपस उस घर तो घर, गांव तक म कदम तक न रखा।
पहले वो कसी गांव के कसान के हाथ पड़ा था।
वहां वो दो साल रहा।
काम उसके जानवर क देखभाल करना। खेत म जाकर खाना देना और बोगी म रखकर
चारा घर लाना।
फर वो खेत म भी काम करने लगा।
बदले म उसको रोटी, कपड़ा और मकान िमल गया।
तन वाह के नाम पर कु छ नह । वैसे खच के िलए कभी-कभार दस-बीस पये दे भी दए
जाते थे। कसी खास मौके पर।
उसे वहां से भी भागना पड़ा।
कारण?
वो थी उसक लड़क ।
लड़क !
वहां भी लड़क !
वो बात जब मेरे दमाग म पाक ई तो मेरे दल से आह िनकल गई। वही तो मेरा भी
ब बई से भागने का कारण था।
उसक बात सुनते ही मेरी आंख के सामने कोमल का भोला चेहरा घूम गया। चाहकर भी
म उससे नफरत न कर सका। और फर आग का गोला बने क हैयालाल भागव का चेहरा
आंख के सामने उभर आया।
थ पड़ क चोट ताजा हो आ । ठोकर क याद आते ही िज म म दद क लहर-सी दौड़
पड़ी। दल को कसी ने मानो हाथ म लेकर जोर से भ च दया हो।
पीठ के वे घाव ताजा हो गए जो सी ढ़य पर िघसटते ए बने थे।
कु छ ऐसी ही कहानी सु े क थी। बस जरा-सी हटकर थी उसक कहानी मुझसे।
मने कोई गलती नह क थी। जो आ, अ जाने म आ था। क तु उसने जानबूझकर कया
था। एक दन लड़क क मां ने उ ह रं गह
े ाथ पकड़ िलया।
और बस!
इससे पहले क उसक गदन नपती, वो भाग िनकला।
वहां से भागकर वो एक क वाले का है पर बन गया।
द ली से नेपाल क खूब या ाएं क । उसके बाद वो यहां आ गया। उसक भी क क ट ी
बेचकर भागा था।
तब से वह था।
अब वो र शा चलाता है और पेट पालता है।
“घर क याद नह आती?” मने पूछा।
“नह ।” उसने बताया—“ कसक याद आए?”
“बहन क ! भाई क ! बाबा क ।”
“बहन क याद आती है। बचपन म ब त िखलाता था उसे। उसी से म नानी के घर जाकर
िमल लेता ।ं जब िमलती है तो रोती है वो पगली! ब त यार करती है मुझसे।”
“अब तो बड़ी हो गई होगी?”
“हां, िपताजी उसके िलए लड़का देख रहे ह। पांचव तक उसे पढ़ा भी दया था।” उस व
पहली बार आ ता मने सु े क आंख म देखी। वो कह रहा था—“सौतेली मां उसी से
सारा काम कराती रहती है। पता नह कै से पढ़ने दया उस पूतना ने! उसका बस चलता तो
रात को दूध म स फास क गोिलयां घोलकर हम िपला देती।”
“वो इतनी बुरी है?”
“जब आई थी तो स क जैसी थी। अब दखने म भस जैसी हो गई है। मु ी को ब त मारती
है।”
फर!
बस इधर-उधर क बात।
वो मुझे अपनी ख ी-मीठी दा तान सुनाता रहा। खूब बात ।
देर रात तक हम बात करते रहे। अिधकतर व उसी के क स म गुजर गया या क ं म
उसी का क सा सुनता रहा। वो भी सुनाता रहा।
फर अ त म उसे जैसे याद आया—“एक बात तो बता....।”
मने सवािलया िनगाह से उसक तरफ देखा।
“तू तो मराठा है ना?” उसने भेदकर रख देने वाले लहजे म मुझे घूरते ए पूछा—“तू िह दी
कै से बोल लेता है?”
“ कू ल म िह दी भी पढ़ाई जाती है। मेरे साहब के घर म िह दी बोली जाती थी।”
“तेरे साहब के यहां?”
मने उसे बता दया। उसे ये भी बता दया था क पापा के गुजर जाने के बाद उ ह ने मुझे
सहारा दया था। वे मुझे अपने घर ले गए थे।
“तू वहां से भाग य आया?” उसने पूछा।
फर वही सवाल! िजसका जवाब देना तो दूर, म िजसका सामना तक करना नह चाहता
था। उसने भी वही सवाल कया।
अ दर क वेदना को मने सहन करने का भरपूर य कया।
खैर, जवाब तो देना था। सो मने जवाब दया—“मुझे वहां अ छा नह लगा।”
“ य ?”
“वे ब त मारते थे।” म बड़ा संभलकर झूठ बोला।
“कौन—तेरी मेम साहब?”
“नह -नह । साहब मारते थे।” मने बताया। जब क मेरा खुदा गवाह है क वे जैसे थे,
उ ह ने एक ही बार मुझ पर हाथ उठाया था। तभी मने मु बई छोड़ दी थी।
उसने यादा नह कु रे दा।
वो मेरा पहला दो त बना द ली के अ दर।
वही पाक मेरा ठकाना बन गया। िजसे समता थल कहा जाता है। द ली म द रयागंज
थाना के अ तगत आता है वो पाक।
आपातकाल म वग य संजय गांधी ने कई बड़ी सड़क और पाक का िनमाण कराया था।
उ ह म एक था समता थल।
वो कु छ बना या न बना— कसी को वहां समानता का कु छ दजा िमला या न िमला—
बहरहाल वो नशेिड़य , भंगेिड़य और मै कय का अ ा अव य बन गया। िजसे िसर
िछपाने के िलए ठकाना न िमलता, वो वहां आकर अपना आिशयाना बसाया करता है।
बेघर लोग को सुिवधा के िलए सरकारी मशीनरी क मेहरबानी से सब-कु छ वहां उपल ध
है।
ग मय के मौसम के पेड़ क गहन छाया। कड़ाके क सद म खुले मैदान म िखली धूप और
बरसात के मानसून क बौछार म भीगने से बचने के िलए सीमट क छत रयां सरकार ने
बना रखी ह। उन सबके िनमाण का उ े य भले ही जो रहा हो, अब वे बेघर लोग का
आिशयाना था। वो आिशयाना जहाँ छत रय के अलावा कोई छत नह थी।
मुझे भी वहां आ म िमल गया।
सु े ने कई और लोग से मेरी यारी करा दी। वे सब या तो शराबी थे, या भंगेड़ी या
मै कये। खुद सु े भी सु फा िपया करता था। पास ही बने मं दर म हर शाम को वहां के
बाबा के साथ दम लगाया करता था। उसके और भी भाई-ब धु वहां थे। एक यही बात मुझे
सबसे बुरी लगी। इसी बुराई को उसक इस अ छाई ने ढांप दया क उसने कसी भी नशे
को करने के िलए मुझ पर जोर नह दया।
जाने कस सोच के अ तगत उसने कहा—“तुम इन चीज से दूर रहना।”
तब मेरी समझ म ये तो नह आया क उसके दमाग म कस सोच ने ज म िलया था। तब
के वल ये महसूस कया क इं सान चाहे कु छ भी हो, कतना भी गलत य न हो, गलत राह
पर चल य न रहा हो, उसका य यही रहता है क िजसे वो चाहता है, वो गलत राह
पर न चले।
एक और बात!
इं सान चाहे कतना भी अपन से नफरत करता हो, वो उ ह भुला नह पाता। सु े के साथ
भी वैसा था। यूं तो वो अपने िपता से नफरत करता था। इसिलए नफरत करता था य क
उसने उसके िलए अपनी नई नवेली बीवी का िवरोध नह कया। फर भी वो बात ही
बात म अपने िपता का िज अव य करता था। उस यार को अव य याद करता था जो
उसके पापा ने नई बीवी के आने से पहले उन तीन बहन -भाइय पर उड़ेला था।
¶¶
दस
बगैर छत का ठकाना तो िमल गया। जैसा भी मुझे ठकाना हािसल आ—कु छ भी हो—
उसे पाकर म संतु अव य हो गया। ‘कु छ भी नह ’ के बदले म ‘कु छ ही’ ब त आ करता
है। और कु छ िमल ही गया।
एक और द त मेरे सामने आई। सबसे बड़ी द त रोटी क द त। पेट क आग क
परे शानी।
उसका या कया जाए?
मने भी सु े क तरह र शा चलाने क सोची।
“तू र शा चला लेगा?” सुनते ही सु े च का।
“हां, क लू भी तो चलाता है।” मने आ मिव ास भरे वर म कहा—“वो भी तो मेरे
िजतना है।”
क लू मेरी ही उ का वह बसा लड़का था। उसे मने र शा चलाते देखा था।
“उसे तो आती है।” सु े हंस पड़ा—“तू उसका हिडल भी नह संभाल सकता। और वो तेरे
से दो साल बड़ा है।”
“वो म भी सीख लूंगा।”
“ये तेरे बस का काम नह है। तेरा पेट खराब हो जायेगा। तेरी आंत सूख जाएंगी।”
“तो म या क ं ?” म िनराश हो गया।
मेरी समझ म नह आ रहा था क या क ं ? ले कन कोई ज रया तो जीने के िलए तलाश
करना ही था। कसी-न- कसी तरीके से तो पेट क आग बुझानी ही थी।
सलाह उसी ने दी—“तू ब ली के साथ चला जाया कर।”
“उसके साथ?” मुझे ती झटका लगा।
ब ली कचरे म से पॉिलिथन चुना करता था। उसका प भी हमेशा गलीच जैसा रहता
था, िजसक श ल तक देखकर मेरा मन खराब हो जाया करता था। उससे बात करना तो
दूर, उसके पास भी भटकना मुझे अ छा नह लगता था। जब सु े ने मुझे उसके साथ
पॉिलिथन चुनने के काम के िलए कहा तो मुझे ती शॉक लगा।
िजस काम को सु े मेरे िलए सबसे आसान मानता था वही मेरे िलए सबसे क ठन काम था।
उस कचरे क क पना मा से—िजसम से ब ली पॉिलिथन चुना करता था—मुझे उबकाई
आने लगी। जब म उस काम को करता तो मेरा पता नह या हाल होता।
ले कन सु े को वो काम बड़ा सीधा, आसान और ब ढ़या नजर आ रहा था, मेरे वजूद के
िलहाज से। उसने कहा—“ य , या द त है उसम?”
“वो ग दा काम म क ं गा?” मने झुरझरी लेकर कहा—“मुझसे नह होगा।”
“तो या करे गा तू?”
म चुप।
या जवाब देता। तब म खूब अंधेरे म था। मुझे कहां जाना था, म खुद तय नह कर पा रहा
था।
“बस म ये काम नह क ं गा।” उसके अलावा मुझे कोई जवाब नह सूझा, सो वही मने कह
दया।
“ फर या करे गा?” उसने मुंह बनाया—“भीख मांगेगा?”
“नह ।”
“तो?”
म फर चुप।
जवाब मेरे पास नह था। चुप रहने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नह था।
सुबह ही म िनकल पड़ा।
वही पुराना काम मने ाई कया, िजसम म ब बई म गुजारा चला रहा था।
मने टै सी और कार को साफ कया।
कु छ पैसे आए तो पेट क आग का इं तजाम हो गया। पेट भरकर खाया और काम म जुट
गया।
बस!
रा ता िमला तो म आगे चला गया।
दो दन बाद मने पॉिलश क िड बी और श खरीद िलया।
लोग के जूते पॉिलश करके पेट भरने लगा।
सब ठीक चल िनकला। पेट क आग बुझाने क जो परे शानी वहां कदम रखते व मेरे
सामने थी, बड़ी स िलयत से हल हो गई।
सुख तो नह था ले कन अब िजदंगी म बड़ी शाि त थी, जो मुझे उस व भावी िज दगी म
भी ि थर दखाई देने लगी थी।
ज म भरने लगे थे।
अब कोई मुझसे ये सवाल नह पूछता था क म य ब बई से भाग कर आया था। मेरा
वहां का नया प रचय ‘मराठा’ बन गया था। जो बुलाता मराठा कहकर बुलाता था। याम
कसका नाम था, उससे कसी को सरोकार नह था।
वो समता थल ही मेरा संसार बन गया। वहां मुझे पूरी समानता, भरपूर यार और खूब
सारे अपने िमले। म भी उन सब म िमल गया।
फर भी कु छ लोग थे िजनसे म िमल न सका। मेरा य रहता था क िजतना हो सके , म
उनसे दूर ही र ।ं
ऐसा ही होता है। इं सान क पेट क भूख जब तृ हो जाए तो उसक आ मा क भूख जाग
उठती है। उस दन भी एक ल बे समय के बाद मेरी आ मा क भूख जागी।
शाम के समय जब म अपने बूट पॉिलश के सामान क पेटी अपने गले म लटकाए फु टपाथ
पर चला जा रहा था तो सड़क पर ठया लगाकर एक कताब वाले पर नजर गई।
म ककर खड़ा हो गया।
कई युवा लड़के उससे कताब लेकर देख रहे थे। एक उससे कताब क क मत तय कर रहा
था।
मुझे याद आया।
अभी अिधक दन नह बीते थे जब म भी पढ़ा करता था। अब तो पढ़ाई मेरे जीवन का एक
हसीन सपना-सा बन कर रह गई थी। ू र व क पथरीली च ान म दबी आरजू बन कर
रह गई थी वो पढ़ाई।
म कई पल तक उस ठये पर रखी कताब को देखता रहा। फर आगे बढ़ना चाहा, क तु
मुझे फर ठठक जाना पड़ा।
एक अजीब-सी भूख थी जो मुझे वहां खड़े रहने पर िववश कर रही थी। उस व वो ठया
मुझे पकवान से भरी थाली ही नजर आया। जेब म पैसे भी थे।
लू?ं या ना लूं?
कु छ वैसा ही हाल होता है जब इं सान अंधेरे म खड़ा होता है। उसे न मंिजल का पता होता
है ना रा ते का इ म, तब वो तय ही नह कर पाता है क कदम बढ़ाए या ना बढ़ाए।
कई िमनट तक म उसी कशमकश म उलझा रहा।
अ ततः मेरे कदम ठये क तरफ बढ़ ही गये।
लड़के वहां से जा चुके थे।
“एक कताब देना।” मने ठये वाले के पास जाकर कहा तो उसने मेरी तरफ देखा।
सैक ड भर म उसक नजर मेरे जूते पर इस कार फर गई जैसे मेरा जायजा िलया हो।
“कै सी?” पूछा—“पढ़ने वाली या देखने वाली?”
“देखने वाली?” म चकराया—“देखने वाली कै सी होती है?”
जवाब म उसने ठये पर रखी कताब म से एक कताब को िनकालकर, उसे खोलकर,
पतली-सी एकदम िचकने पृ वाली एक कताब मुझे दखाई।
मने उस कताब पर िनगाह डाली तो म खुद शम से िघरकर रह गया। घबराकर मने ठये
वाले पर िनगाह डाली। वो एकदम सामा य था।
ऊपर छपे अ य त अ ील िच को देखकर अ दर के पृ पलटने क िह मत मुझम नह हो
सक ।
मने वािपस वो कताब वह फक दी। शम ले वर म कहा—“य....ये नह ।”
“कौन सी? और कौन-सी लेगा?” उसने मुझे गौर से देखा।
“जी.के . क ।” मने ज दी से बताया। मुझे लगा कह वो मुझे फर दूसरी वैसी ही कताब न
थमा दे।
“तो ले ले।” उसने कहा—“रखी तो है।”
ले कन मेरी िह मत न पड़ी।
“तुम ही िनकाल दो।” मने कहा—“जी.के . क ।”
खैर!
उसी ने िनकाल कर दखाई।
उसने कताब क क मत पांच पये बताई, पर बाद म वो उसने चार पये म दे दी।
कताब लेकर म मुसीबत से बचा।
मने शाम को जाते व ही खाना खा िलया था। पाक म जाते ही म एक तरफ जाकर बैठ
गया और कताब को पढ़ने लगा। मने कसी से कोई बात नह क ।
भूखे को मानो कई दन बाद खाना िमला हो।
आठ बजे के आस-पास सु े आया।
“अबे तू यहां है?” मेरे पास आकर उसने पूछा—“म तुझे वहां ढू ंढ रहा था। ये या पढ़ रहा
है?”
“ कताब।” मने बताया।
“ये तो नई है। कब लाया?”
“आज ही।”
“ दखा।” उसने मेरी ित या का इं तजार कए बगैर ही कताब मेरे हाथ म से ले ली।
और उसे खोलकर देखने लगा।
कु छ देर तक वो उसके प े पलटता रहा। फर जब कु छ समझ म न आया तो पूछा—“ये
कस चीज क कताब है?”
“जी.के . क ।”
“काहे क ?”
“जनरल नॉलेज। सामा य ान क ।” मने उसे बताया।
“इसका या करे गा?” उसने सलाह दी—“कहानी-शहानी क लाता। उ ह पढ़ने म मजा
आता है।”
“हां, मगर मुझे ये ब ढ़या लगी। ये ब ढ़या है।”
“तू कहां तक पढ़ा है?”
“सातव तक।”
“ फर पढ़ाई य छोड़ दी?”
म खामोश रहा।
मेरी गदन बरबस ही झुकती चली गई।
“म वहां से आ गया था।” मने बताया।
“वहां पढ़ता था?”
“हां, मेमसाहब पढ़ाती थ ।”
“अ छा! फर तो वे ब त अ छी थ ।”
“हां, वे मुझे ब त यार करती थ । पापा के मर जाने के बाद उ ह ने मुझे पढ़ाना शु
कया था। वे ही मुझे अपने घर ले गई थ । जब म फ ट आया था तो उ ह ने ही मुझे नए
कपड़े लाकर दए थे।”
“तू होिशयार था?”
“हां, म हर बार फ ट आता था।” मने आह भरी।
उस आह का असर मने सु े पर भी प महसूस कया था।
मौसम बदला।
बरसात! उसके बाद स दयां आ ग ।
जैसा क सबको पता ही है द ली क सद । िजस कार यहां क गम इं सान को तपा देने
वाली होती है, उसी कार सद भी जमा देने वाली होती है।
सु े के साथ मने भी बाजार से जाकर अ टू बर म ही एक क बल, दरी और कु छ ऊनी कपड़े
खरीद िलए।
बाक सब सामा य था।
जब भी मौका िमलता म कताब लेकर पढ़ने लगता। ले कन उस दन के बाद म उस ठये
वाले के पास कभी नह गया। वह पर बाजार म एक और कताब क प दुकान थी।
वह पर म जाकर कताब लाने लगा।
¶¶
यारह
दस बर!
शाम का व था।
म कताब लेने के िलए अपनी उसी दुकान पर प च ं ा जहां से म लाया करता था। दुकान पर
भीड़ थी। सो मुझे कताब लेने के िलए खड़ा रहना पड़ा।
भीड़ हटते ही मने कताब खरीद ली।
बड़ी अजीब-सी आदत है मुझम—म िजस कताब को खरीदता ,ं उसके हाथ म आते ही म
तुर त उसे खोलकर उसके प को पलटना आर भ कर देता ।ं और जब तक उसके एक-
एक प े को पलटकर उस पर िनगाह न दौड़ा लूं, तब तक मुझे चैन नह आता। सो मने
कताब ली और उसके प को पलटता आ फु टपाथ पर चल दया।
शाम का व था, सो ठ ड बढ़ने लगी थी। साथ ही धुंध भी वातावरण म अपना साया
फै लाने लगी थी।
म म त चाल म कताब म डू बा आगे बढ़ा जा रहा था। आस-पास का यान नह ।
सड़क पर कार मुझे हवा-सी देत मेरे पास से गुजर जात । मगर वे मेरा यान भंग न कर
पात । वो अलग बात है क उनक ठ डी हवा कभी-कभी मेरे बदन को पश करके उसम
कं पकं पाहट पैदा कर देती थी।
म दुकान से दो सौ मीटर का फासला तय कर चुका था क म अचानक च का।
कोई यकायक ठीक सामने से आकर मुझसे टकराया और म हड़बड़ाकर रह गया। उसी
बौखलाहट म मेरी कताब मेरे हाथ से िनकलकर फड़फड़ाती ई सड़क पर जा िगरी।
उसी व एक कार वहां से गुजरी और उसका पिहया उसे कु चलता आ आगे बढ़ गया। म
इस कार चीखा मानो मेरी गोद से िनकलकर मेरा ब ा उस सड़क पर जा िगरा हो और
उसे वो कार कु चलती ई आग िनकल गई हो।
कार के आगे िनकलते ही म अपनी कताब क तरफ लपका।
मेरे साथ टकराकर वो मासूम-सी ब ी भी उसी तरफ झपटी, िजस पर मेरा यान बाद म
गया।
और जब यान गया तो म कताब को भूल गया था।
एक बार फर म च ककर रह गया।
आंधी क मािन द एक कार उसक तरफ उसे अपनी चपेट म लेने के िलए लपक जा रही
थी।
वो बेखबर!
सड़क पर भागी जा रही थी।
कार को उसक तरफ यूं लपकता देखकर दूर से आते उसके िपता भी चीख कर रह गए।
िववशता भरी चीख थी वह! जो पीछे से मेरे कान म पड़ी थी।
म हवा के झ के क मािन द ब ी क तरफ भागा और कार के ठीक सामने से उसे नाजुक
फू ल क मािन द उठाकर अपनी बाह म भर िलया।
म सीधा हो भी नह पाया था ठीक से— क कार क साइड मेरी कमर पर टकराई और
ब ी मेरी पकड़ से िनकलकर गद क मािन द दूर जा िगरी।
कार आगे िनकल गई।
म अपना बैलस खोकर घूमता आ सड़क पर जा िगरा। मेरी आंख के सामने सारी सृि
घूमकर रह गई। सड़क पर िगरते ही मेरा हाथ मुड़ गया और वेदना के कारण म कराह
उठा।
मने उठने के िलए जैसे चेहरा ऊपर उठाना चाहा—
उ फ!
दहशत के कारण मेरी आंख फटी-क -फटी रह ग ।
एक बार फर मेरे हलक से ची कार िनकलते-िनकलते रह गई। दहशत के कारण दमाग क
नस जाम हो ग । समूचा िज म मानो लकवा त हो गया।
एक और कार मेरी ओर लपक थी।
वो मेरे शरीर पर चढ़ी तो म हलक फाड़कर चीख पड़ा। पिहया मेरे पेट पर चढ़ा था। और
म उस दय िवदारक चीख के साथ अपनी चेतना खोता चला गया।
लगा सब ख म!
म ख म और मेरी जंदगी ख म!
म कतनी देर तक बेहोश रहा, पता नह ।
जब होश आया तो खुद को एक अ य त नम गुदगुदे िब तर पर पड़े पाया। मेरे हाथ म
ला टर बंधा था। मेरे माथे पर प ी बंधी थी।
और मेरे सामने उस मासूम ब ी का मु कु राता चेहरा था—िजसके माथे पर बै डेज िचपक
थी।
कई पल तक मेरी समझ म कु छ नह आया।
म सड़क पर से उस कार के पिहए के नीचे से वहां कै से आ गया? म तो समझा था क म
मरने जा रहा ।ं म तो मर चुका था। ले कन म जंदा था। सलामत था, और उस नम
िब तर म पड़ा आ था।
म वहां कै से आया?
तभी मेरी नजर उस एक और जाने-पहचाने चेहरे पर पड़ी। वो चेहरा उस ब ी के िपता का
था। एक अ य चेहरा उसके साइड म था। एक औरत का चेहरा।
वो मुझे कु छ अिधक ही अधीर नजर आ । मेरे होश म आते ही उनक अधीरता का अ त
आर भ हो गया।
“अब तुम कै से हो बेटे?” उ ह ने पूछा।
“ज....जी....।” म जरा िहला तो मेरी पीठ म दद का अहसास आ और बरबस ही मेरे क ठ
से कराह फू ट पड़ी—“आह!”
“िहलो मत।” तभी ब ी के िपता ने कहा—“तु हारी पीठ म भी चोट आयी है।”
म शांत लेट गया।
“अब कै से हो बेटे?” उ ह ने पुनः पूछा।
“ठीक ।ं ” ीण वर म मने कहा। और उस ब ी के चेहरे पर िनगाह डाली तो मुझे अपनी
तरफ देखता देखकर वो मु कु रा उठी।
एकदम मासूम मु कान!
उसे देखकर मुझे बरबस ही कोमल क याद आ गई।
वैसी ही िन छल और मासूम सी उसक मु कान थी। वैसा ही भोला मुखड़ा। हां, बाल
ज र जरा घुंघराले थे। उ म भी वो कोमल से कम-से-कम तीन वष छोटी थी।
“तुमने हम पर कतना बड़ा अहसान कया है....तुम ये नह जानते बेटे।” मेरा हाथ अपने
कोमल हाथ म लेकर उस औरत ने भराये वर म, अहसान भरे अंदाज म कहा—“अगर
तुम न होते तो हमारे घर क इकलौती िचराग आज हमारे साथ न होती। हम तु हारा
उपकार कभी नह भूल सकते।”
मेरी समझ न आ सका क म या जवाब दू.ं ...या या ित या जािहर क ं ?
बस, खामोश ही रह गया। ये तो म पहले ही समझ चुका था क वो उसक मां थी। उस
वा य ने इस बात क पुि भी कर दी।
“तुम घबराओ मत।” ब ी के िपता ने कहा—“तु हारे हाथ म ै चर है। बाक कु छ खास
चोट नह थ । कार के टायर से तु हारा एक पहलू भर िछल गया है। अगर कार वाले ने ेक
न लगा िलए होते तो....।” उनका लहजा अ य त गंभीर हो गया—“तुमने मेरी ब ी के
िलए अपनी जान जोिखम म डाल दी। समझ नह आता कै से म शु या अदा क ं ? तुम
हमारे िलए फ र ता हो बेटे। तु हारे ही कारण हमारी चंचल हमारे साथ है।”
“मामा....ब ी ही इतनी यारी है क....” उस व मेरी जुबान पर आया और मने कह
दया। आगे के श द मेरी समझ म नह आए तो कह न सका।
उ ह ने मेरी तरफ इस कार देखा मानो म कह दूसरी कसी स यता से आया ।ं
वा तव म ऐसा ही था। म तुर त समझ गया था क वे मेरे कहने के कारण देख रहे थे।
दरअसल द ली और आस-पास के ए रया म कसी भी सामने आने वाले अप रिचत इं सान
को ‘अंकल’ कहकर पुकारा जाता है, जब क महारा म ‘मामा’ कहते ह।
“तुम रहते कहां हो बेटे?” उ ह ने पूछा।
म खामोश रह गया।
दल के अ दर दबी वेदना ने पुनः अपना िसर उठाया। मगर मने उसे अ दर ही ज त कर
लेना ठीक समझा।
“तुम हम अपना पता दे दो, ता क हम तु हारे घर पर खबर कर द।” वे आगे बोले
—“तु हारे प रवार वाले परे शान ह गे।”
“मेरा कोई प रवार नह है, मामा।” मने धीरे से कहा।
“तो तुम रहते कहां हो?”
म खामोश!
समझ म नह आया या बताऊं? कहां अपना ठकाना म उ ह बताऊं?
आिखर मने सच ही बताया—“म समता थल पर रहता ।ं ”
“समता थल!”
“पाक है एक वो।”
वे तुर त समझ गए।
वहां से वो थान यादा दूर नह था जहां वो दुघटना घटी थी।
“तुम वहां रहते हो?” उ ह ने मुझे अिव ास भरे भाव से देखा।
म धीरे से हामी भर दी।
“ या करते हो?” उ ह ने पूछा।
“बूट पॉिलश।”
“कब से यहां हो?”
“छः महीने से।”
“आए कहां से हो?”
“ब बई से।”
“भागकर?”
“हां।” मने संयत वर म बताया। अब उन सवाल के सही-सही जवाब देने के िलए म
तैयार हो चुका था। समता थल के माहौल म छः महीने रहकर म खासा िनडर हो गया
था।
“प रवार म सच म कोई नह है?” उ ह ने मुझे गौर से देखा, जैसे वे मेरी स ाई क जांच
कर रहे ह ।
“नह ।” मने बताया—“पापा थे। अब नह रहे।”
“वे कब गुजरे ?”
मने बताया।
“उसके बाद तुम कहां रहे?”
वो भी मने बताया।
“ फर वहां से य भाग आए?”
म खामोश।
वही सवाल िजसका म कभी सामना नह करना चाहता था। िजसका जवाब तक म अपनी
जुबान पर लाने से कतराता था।
खैर!
मने रे डीमेड झूठ बोला—“मन नह लगा।”
“ य ? मािलक तंग करता था?”
पुनः खामोश रह गया म।
वहां मुझसे झूठ बोलते न बना।
“न....नह ऐसी बात नह थी।” मने बड़े संभलकर कहा।
“ फर? तुम य आ गए वहां से?”
“बस मन नह लगा।” कहने के बाद मने उनके चेहरे पर अिव ास के भाव प देख।े म
जानता था क वे यूं भी मेरा इतनी आसानी से िव ास करने वाले नह थे। इसी कारण म
जो कह रहा था, साफ-साफ कह रहा था।
“यहां आये कै से?” उ होने पूछा।
“ ेन से।”
“ ेन से?”
“हां, ेन से। ेन म बैठकर।”
“ टकट िलया था?”
“नह ।”
फर उ ह ने कोई सवाल नह कया। वे देर तक बद तूर मुझे देखते रहे और फर बोले
—“तुम जब तक ठीक नह हो जाते, यह रहो।”
म कोई जवाब न दे सका।
रात का िडनर वह कमरे म आ गया।
िडनर के बाद काफ देर तक उस घर क माल कन मेरे पास बैठी रह और बात करती
रह । उ ह ने मेरे बारे म पूछा। मने उ ह िजतना हो सका, बता दया। ये भी बता दया क
मु बई क ब ती म मेरा अपना घर भी है।
“उस घर को छोड़ते व बुरा नह लगा?” उ ह ने पूछा।
“नह ।”
“प रवार म और कोई नह है?”
“नह । हम तुलजापुर के थे। पापा ब बई आ गए थे। जो र तेदार ह, तुलजापुर म ह।”
“उनके पास गए हो कभी?”
“कई बार।”
“ फर ब बई से यहां य चले गए? वहां य नह चले गए।”
“मुझे अ छा नह लगा।”
“वहां कोई सगा नह है?”
“नह ! पापा ने बताया क उनके एक भाई थे। बचपन म ही वे मर गए थे।”
“यहां गुजारा कै से करते हो?” उ ह ने िवषय बदलकर पूछा।
“बूट पॉिलश करके ।”
“उससे काम चल जाता है?”
“हां।”
“पाक म तो बड़ी परे शानी होती होगी?”
“होती है। मगर घर नह तो कहां र ?ं ”
बस!
बाक सब इधर-उधर क बात।
नौ बजे के बाद वे चली ग ।
नौकर दूध लेकर आया और दवाइयां िखलाकर चला गया।
म देर रात तक जागता रहा। सोचता रहा, बस सोचता रहा।
ऐसा ही होता है। इं सान जब कह अजनबी जगह पर जाता है तो उस जगह अपनी याएं
सामा य तरीके से कर ही नह पाता।
सामा यतः वो देर से, बड़ी मुि कल से सो पाता है। और सुबह ज दी ही जाग जाता है।
वैसी अजीब थी मेरी क मत!
ब बई म था तो वैसा ही घर था। यहां भी वैसा ही घर था। वैसे ही द पि । वैसी ही मासूम
ब ी। यहां पर फक था तो के वल इतना था क यहां ब ी के िपता—क हैयालाल भागव—
न वभाव वाले थे—शायद इस कारण क मने उनक ब ी क जान अपनी जान पर
खेलकर बचाई थी। मासूम ब ी िजसका नाम चंचल था—कोमल से तीन वष छोटी थी।
वैसी ही एक मां भी थी जो अपने कलेजे के टु कड़े को बेइ तहा यार करती थी। उसक
आंख म भी ममता का सागर लहराता मने देखा।
यही सब मेरे दल को कु रे द गया।
आह!
ऐसे ही घर से बेइ त होकर म िनकाला गया था। िजस स मान से वहां पनाह दी गई थी,
उससे भी बेदद से ठु करा दया गया। अपने जुम का इकबाल और ना इ कार तक करने का
मौका दया गया। कोई सफाई नह मांगी गई।
उन सब बात के याद आते ही मेरा मन वहां से उचट गया। वो नम िब तर िजस पर म लेटा
आ था, तब मुझे शूल भरी शैया तीत हो रहा था।
दल म आया वहां से उठकर तुर त भाग लू।ं एक-एक पल वहां मुझे पहाड़-सा तीत हो
रहा था। ले कन म अब वहां से यूं जा भी नह सकता था।
कै से िनकलता बाहर?
दरवाजा तो ब द था। नौकर और घर के सद य सो चुके थे।
मेरा वजूद अजीब-सी कशमकश म झूलने लगा।
उसी कशमकश म कब मुझे न द आ गई, पता नह चला।
सुबह भी मेरी न द ज दी ही खुल गई।
आंख खोलकर मने ब ब को जलता देखा तो म एक अजीब-सी लािन से त हो गया।
रात को जब म जाग रहा था तो मुझे जागता देखकर नौकर उस ब ब को जलता ही छोड़
गया था। मुझे सोने से पहले ब द कर देना था, ले कन म अपनी कशमकश म उलझा जाने
कब सो गया क मुझे उसके िलए यान ही नह रहा।
घर के मािलक को पता चलेगा तो या सोचेगा?
नौकर चाय िब तर पर ही ले आया।
उसी ने दन चढ़े वो ब ब ब द कया।
ना ता मने उ ह के साथ टेिबल पर कया। म बड़े आराम से उठकर चल सकता था। आ-जा
सकता था।
घर के मािलक चले गए।
चंचल भी कू ल चली गई।
और म....।
अपने िब तर पर बैठा रात वाली कशमकश से जूझ रहा था। वहां ठहरना जाने य मुझे
लािन का अहसास करा रहा था।
काफ देर तक म यूं ही जूझता रहा। फर मेरा यान वह कमरे के कोने म रखी अपनी बूट-
पॉिलश क पेटी पर गया। म उठकर अपनी पेटी के करीब आया।
उसे जाकर खोलकर देखा तो पाया सारा सामान उसी म बद तूर रखा था। एक चीज का
यूज था उन सामान म—वो कताब जो मने िपछली शाम खरीदी थी। वही कु चली कताब
ब द अव था म पेटी के सामान के ऊपर रखी थी। मेरी अ य कताब जो मने पहले से खरीद
रखी थ , उसी म नीचे थ ।
मने पेटी को ब द कया और खड़ा हो गया।
अपने सलामत हाथ से मने उस पेटी क तनी को पकड़कर उसे उठाकर अपने क धे पर
लटका िलया और बाहर क तरफ बढ़ गया।
म जब दरवाजे से बाहर िनकला तो ाइं गहॉल म नौकरानी सफाई का काम कर रही थी।
एक बार उसने मेरी तरफ नजर उठाकर देखा ज र, ले कन कु छ नह बोली। पुनः अपने
काम म जुट गई।
मने भी उस पर तव ो नह दी। और चुपचाप बाहर क तरफ बढ़ गया।
मने तब आधा ाइं गहॉल ही पार कया था क पीछे से उभरी पुकार ने मेरे कदम म
बेिड़यां डाल द । कदम ऐसे क गये क आगे को िहले तक नह । मुझे घर क माल कन ने
ही पीछे से पुकारा था।
म घूमा तो देखा वे रसोई के दरवाजे पर खड़ी थ ।
“कहां जा रहे हो?” उनका वर अ य त गंभीर था।
“ज....जी म जा रहा ।ं ”
“कहां जा रहे हो?”
“ज....जहां से आया था।” मने संभलकर कहा।
वे अपने हाथ को एक छोटे-से माल से प छती ई मेरे पास आ ।
“यहां कु छ परे शानी है तु ह?” मेरे पास आकर उ ह ने पूछा।
“ज....जी नह ।”
“ फर—जा य रहे हो?”
मुझे यकायक सटीक जवाब न सूझा। या जवाब दू,ं मेरी समझ म न आया। सो मेरी गदन
झुक गई।
“इधर आओ।” इस बार उनका लहजा अ य त कोमल था। वे मेरी बांह पकड़कर सोफे के
पास ले ग —“बैठो।” मुझे बड़े यार से सोफे पर बैठाया।
साथ ही मेरी पेटी भी खुद अपने हाथ से उतारकर एक तरफ रख दी।
“सच बोलो।” फर उ ह ने बेहद यार से मेरे बाल को सहलाते ए नम लहजे म पूछा
—“कोई तकलीफ है यहां तु ह?”
“नह ।”
“ फर जाना य चाहते हो? वो भी इस तरह, चुपके से! कोई यूं जाता है भला?”
“जी, यहां मेरा मन नह लग रहा।”
“मन य नह लग रहा? यहां अके ले हो—इसीिलए?”
मुझे तब भी जवाब न सूझा।
म चुप रह गया।
“देखो बेटे।” उ ह ने मुझे यार से कहा—“जब तक तुम ठीक नह हो जाते, तुम यह रहो।
तु ह यहां कोई तकलीफ नह होगी। अगर कोई तकलीफ हो तो हम अपना समझकर बता
देना।”
म िन र हो गया।
“तु हारे एक हाथ म े चर है।” वे कहती रह —“अभी तो तुम कु छ काम कर भी नह
सकते। वहां पर परे शान ही रहोगे। तु ह आराम करना चािहए। महीने भर बाद तु हारा
ला टर काट दया जायेगा। उसके बाद तुम चले जाना....ठीक है?”
मने मशीनी अंदाज म गदन िहला दी।
“शाबास!” उ ह ने उ साह से मेरे बाल म हाथ फर दया।
“म एक बार वहां घूमकर आना चाहता ।ं ” एक अ पिवराम के बाद मने कहा—“वे मेरे
बारे म परे शान ह गे।”
“कौन?”
“मेरे दो त।”
“ठीक है। शाम को ाइवर के साथ चले जाना।”
मने गदन िहला दी।
“अब इस तरह घर से बाहर कदम मत रखना।” तभी उनका लहजा कठोर हो गया, आ ा
देने वाला हो गया, जो मुझे जरा भी बुरा नह लगा। य क उस कठोरता म भी मम व क
िमठास थी अ दर। ठीक ना रयल क मािन द जो बाहर से कठोर होता है, ले कन िजसके
अ दर अ य त मीठी िगरी आ करती है।
दूिधया िगरी।
¶¶
बारह
फर म उनक अव ा न कर सका।
इसका मतलब ये नह क मेरे अ दर का ख म हो गया था या कम हो गया था। नह ,
िब कु ल नह । यूं ही बरकरार था।
म बड़ी देर तक िब तर पर बैठा रहा।
बाद म जब लेट गया तो भी म कोई कमी नह आई।
जब उससे जूझते-जूझते म खुद को कमजोर महसूस करने लगा तो अपनी कताब िनकाल
ली। और उसे खोलकर पढ़ना आर भ कर दया।
अ दर से उसके काफ पृ पिहए के नीचे कु चले जाने के कारण फट गए थे। फर भी जो प े
सलामत थे, मने उ ह म वयं को डु बो दया।
उससे बेहतरीन तरीका उस व मेरे पास उस से जीतने का नह था। िजसम म पूरी
तरह कामयाब रहा। कम-से-कम तब तक जब तक म कताब पढ़ता रहा।
शाम को माल कन के कहे पर ही ाइवर मुझे समता थल पर ले गया।
जब हम समता थल पर प च ं े तो चार तरफ वातावरण म धुंध फै ल चुक थी। सड़क पर
लगी ीट लाइट जल चुक थ । मने ाइवर से कहकर कार को पाक के सामने बनी चाय
क दुकान के पास कवाया।
ाइवर ने खुद उतरकर मेरी तरफ का दरवाजा खोलकर मुझे उतारा।
म जब कार से उतरा तो कई लोग क आंख च कत भाव से मुझे देखती रह ग । कई लोग
थे जो मुझे जानते थे। वे भी वह रहते थे। ले कन मेरा उनसे कोई स पक नह था। न ही
मने उनसे कु छ कहा, न उनम से कसी ने पूछा।
चाय क उस दुकान पर मुझे सु े नह िमला। मुझे पता था वो उसके अलावा कहां िमलेगा।
म ाइवर को वह ठहराकर कार के पास मेरा इं तजार करने को कहकर पाक के अ दर क
तरफ बढ़ गया।
म पाक के अ दर बने मं दर म प च
ं ा तो सु े वहां पर िमल गया। सु े क िचलम उस व
उसके हाथ म थी। और वो कश लगाकर मुंह तथा नाक से उसका कसैला धुंआ उगल रहा
था।
उसक िनगाह मुझ पर पड़ी तो वो च का।
“अबे तू!” उसके होठ से िनकला।
उसने फटाफट िचलम अपने एक साथी को थमाई और उठकर मेरी तरफ लपका।
म मं दर के गेट से कु छ अ दर ही प च
ं ा था क वो मेरे पास प च
ं गया।
“कहां था तू अब तक?” मेरे हाथ पर ला टर देखकर वो कु छ हड़बड़ा गया था—“और ये
हाथ कै से तुड़वा िलया?”
“बस, चोट लग गई।”
“कहां लग गई? कसी से लफड़ा हो गया था या?”
“नह ।”
“ फर?”
“आ जा, बताता ।ं ”
म सु े को लेकर बाहर आ गया।
“चल वहां बैठते ह।” मने एक तरफ बनी सीमे ट क बच क ओर इशारा कया। ले कन
उसने इं कार करते ए कहा—“चल बाहर बैठते ह। वह बात करगे।”
मने इं कार नह कया।
हम फर उसी चाय क दुकान पर आ गए। हमने वहां जाकर ाइवर को भी अपने पास ही
बुला िलया। एक चाय सु े ने उसके िलए भी बोल दी।
चाय आने म यादा देर नह लगी।
“अब बता।” चाय का िगलास उठाकर चु क लेकर सु े ने पूछना शु कया—“कहां था
तू? ये कौन है?”
मने उसे सब बताया।
हमारे साथ बैठा ाइवर एक तरीके से तट थ ही था। हमारी कसी बात से कोई सरोकार
नह था।
“कह और तो खास चोट तो नह आई तुझे।” चंितत वर म सु े ने पूछा।
“नह ....खास नह । एक पहलू जरा िछल गया है।”
“ओह! तुझे या ज रत थी यूं जान से खेलने क ।”
“ब ी को कु छ हो जाता तो?” मने धीरे से कहा।
सु े होठ भ चकर रह गया।
“ये उ ह का ाइवर है।” सु े ने पुि करने वाले अंदाज म पूछा।
“हां।”
“अब तू वह रहेगा?”
“वे ऐसा ही कहते ह।” मने बताया—“कहते ह जब तक म ठीक न होऊं, वह र ।ं ”
“तो रह ले।”
“पर....।”
“ द त या है। आराम से रह। वहां तेरा इलाज भी ब ढ़या हो जाएगा।”
म अ दर से ब धन म जकड़-सा गया। मुझे उ मीद थी क सु े वहां रहने के िलए इं कार
करे गा। ले कन वो खुद कह रहा था क म रह लू।ं उसे म अपने मन क उस गांठ को उजागर
कै से करता। और कर भी देता तो कोई फायदा होने वाला नह था।
सो!
म चुप रहा।
“मुझे अ छा नह लग रहा।” एक ल बे िवराम के बाद मने कहा—“पता नह वे या
सोचते ह?”
“उनको या सोचना है? वे रख रहे ह तो रख रहे ह। इसम तुझे ही फायदा है। इसम वे बुरा
या सोच रहे ह?”
म फर लाजवाब!
कशमकश!
मने खामोशी से चाय का घूंट भरा।
उसने भी मुझे वह रहने क सलाह दी। उसके अनुसार वो सब मेरे िलए अ छा था। वे लोग
अ छे दल के मािलक थे। हीरा इं सान थे। देवता समान थे। मुझे उस मौके को हाथ से नह
गंवाना चािहए।
अ त म!
सु े ने कहा—“अगर वो तुझे वहां कु छ काम भी करने को कह तो कर लेना। नौकर भी रख
तो रह लेना।”
म कसमसाकर रह गया।
एकबारगी तो मेरे दल म आया क म वह सु े के पास ठहर जाऊं। क तु िह मत न कर
सका।
कारण!
इसके पीछे एक नह , कई कारण एक साथ याशील ए।
एक तो उस औरत क अव ा करने क िह मत मुझम न ई। दूसरी, मेरी कताब और
पॉिलश क पेटी वह पर थ , िजसे वहां से म न लाया था। तीसरे , इस कार कना मुझे
धोखा देने जैसा लगा, जो मेरी कमजोरी उजागर करता था।
इन सब कारण म सबसे अिधक शि शाली कारण कौन-सा था, म ये तय न कर सका।
खैर, जो भी हो। अपने अ दर क कशमकश से जूझता आ म वािपस कार म जा बैठा।
िडनर के व तक हम घर प च
ं चुके थे।
वा तव म वहां मुझे कोई तकलीफ नह ई।
शु आत के दो-चार दन तक तो मुझे गहन अजनबीपन का अहसास आ, ले कन बाद म
म काफ हद तक सामा य हो गया।
सामा य हो जाने के बावजूद भी मेरा संकोच हर ल हा मुझे जकड़े रहता। अिधकतम समय
मेरा उसी कमरे म बीतता था जो मुझे दया गया था।
नौकर या नौकरानी ने आकर पानी के िलए अगर पूछ िलया और उस व अगर मुझे इ छा
ई तो मने हां कर दी।
उसके बाद अगर मुझे यास लगी भी तो म कसी को एक िगलास पानी के िलए कहने क
िह मत न जुटा पाता। ऐसा ब त कम होता था क म खुद उठकर बाहर ाइं ग हॉल या
लॉन म चला जाता था। खाली व म म कताब पढ़ता रहता था।
इसका मतलब ये नह क मेरी कसी से बात नह हो पाती थ । नौकर से मेरी अ छी पटने
लगी थी। खाली व म हम खूब बात करते थे। माल कन से भी काफ बात होती थ । वे
शाम को लॉन म मुझे बुला लेती थ ।
चूं क तब मेरे पास के वल दो जोड़े कपड़े थे। उ ह ने एक और जोड़ा कपड़े मुझे ला दए। दो
वेटर भी ला दए।
लाकर दए तो म उनके अहसान के बोझ तले दब-सा गया।
इस सबके बावजूद म चंचल से जरा दूर ही रहता था।
इसी कार महीना भर गुजर गया और मेरे हाथ का ला टर कट गया।
¶¶
तेरह
उसी रात!
िडनर लेने के बाद म अपने िब तर म लेटा आ था। सोच रहा था क सुबह मुझे वहां से
चले जाना था।
दरवाजे पर उभरी आहट मेरे कान म पड़ी तो मने चेहरा उठाकर देखा।
घर के मािलक को अपने कमरे म आता देखकर म तुर त उठकर बैठ गया।
“अ....साहब आप?” बरबस ही मेरे होठ से िनकला।
“कै से हो याम?” उ ह ने मेरे पास आकर पूछा।
“ठीक ।ं ”
वे िब तर पर ही आकर बैठ गये। मने अपने िब तर पर फै ले पैर को िसकोड़ िलया।
उनके बैठने के बाद कु छ देर के िलए कमरे म खामोशी का माहौल ा रहा।
“तो तुम कल चले जाओगे?” उ ह ने खामोशी को भंग करते ए कहा।
“हां।”
“वहां या करोगे?”
“बूट पॉिलश।”
“ य ना तुम यह रहो? यहां हम तु ह काम भी दे दगे। वहां से तुम यहां ठीक रहोगे।”
म खामोश रह गया।
हां या ना?
तुर त मुझे जवाब न सूझा।
“कब तक तुम इस तरह भटकते रहोगे?” उ ह ने कहा—“सड़क पर यूं िजदंगी थोड़े ही
कटती है। आदमी को अपना ठकाना बनाना चािहए। यहां रहकर तुम चाहो तो पढ़ भी
सकते हो।”
मने झटके से उनक तरफ देखा।
मेरी च काहट देखकर उनके होठ पर बरबस ही मु कान खेल गई।
“तु ह पढ़ना ब त अ छा लगता है ना?” मु कु राकर उ ह ने यूं कहा जैसे मेरी न ज पकड़
ली हो।
वा तव म उ ह ने हाथ मेरी न ज पर ही रखा था।
मने धीरे -से कहा—“हां।”
“तो तुम यह रहना।” उ ह ने कहा—“हम तु ह पढ़ायगे। मधु बता रही थी क तुम इस
कमरे म पड़े ए पढ़ते रहते हो।”
म कु छ नह बोला।
पता नह उ ह ने मुझे कब पढ़ता देख िलया था। म तो के वल उस व पढ़ता था जब म
अके ला रहता था। हो सकता है नौकर ने उ ह बताया हो और माल कन ने मािलक को।
“एक बात सच बताना।” उ ह ने कु छ त दीक करने वाले लहजे म पूछा—“तुम ब बई से
आ य गए?”
इस बार उ ह ने मेरी दुखती नस पर हाथ रखा था। मेरे उस ज म म नुक ली व तु डाल दी
थी, िजसे म कसी को भी दखाना नह चाहता था। अ दर उभरी टीस के कारण म तड़प
कर रह गया। वेदना क कु छ बूंद गहन सागर से छलककर मेरे चेहरे पर भी उभर ।
एक गु बार-सा यकायक मेरे सीने से उठकर मेरे क ठ म जा अटका।
“उ....उसम मेरी कोई गलती नह थी साहब!” म बड़ी मुि कल से कह सका। चाहकर भी
उस व म झूठ न बोल सका।
“ आ या था?”
एक बार फर गु बार मेरे हलक म आकर अटक गया।
बड़ी मुि कल से मने उसे अ दर धके ला और कहना आर भ कया।
पूरी घटना मने उ ह सच-सच बता दी।
बताते व अ दर ही अ दर मेरा कलेजा थरा रहा था। मुझे जरा भी उ मीद नह थी क वे
मेरा िव ास करगे भी। ले कन मने बताया। सच-सच बताया। एक गहरा दद अपने जहन
म दबाकर वो स ाई उनके सामने मने बयान क । िजसको बताते-बताते वेदना का सागर
मेरी आंख से छलककर कोर के बांध तोड़ता आ गाल पर बह चला।
बड़ी गंभीरता से उ ह ने वो दा तान सुनी।
जब मेरी दा तान को िवराम लगा तो कमरे म स ाटा ा हो गया।
वो मुझे गौर से देखते रहे, मानो मेरी वेदना के गहन सम दर क गहराई को मापना चाहते
थे।
“तुमने उ ह स ाई नह बताई?” उ ह ने स ाटे को भंग करते ए पूछा।
“उ ह ने मुझे मौका ही नह दया।” मने मुि कल से बताया—“बस िपटाई शु कर
दी....और घर से िनकाल दया।”
“और तुम वहां से भाग आए?”
“ या करता और....?”
“अपने घर जा सकते थे।”
मुझसे जवाब न बना।
अपने वजूद म समाई उस नफरत को श द म म कै से बयान करता? उसके िलए चाहकर
भी म श द न तलाश कर सका।
उ ह ने भी मुझे और नह कु रे दा।
अ त म उ ह ने कहा—“अब तुम यह रहोगे। हम तु ह यह कू ल म एडिमशन दलवा
दगे।”
उसके बाद देर रात तक हम बात करते रहे।
वो ब त िमलनसार इं सान थे। उनके साथ बात करते व मुझे अहसास ही नह हो रहा था
क म अपने िपता क उ के आदमी से बात कर रहा ।ं
¶¶
चौदह
रतन िम ल था उनका नाम।
मधु िम ल प ी और चंचल िम ल उनक उस बेटी का नाम था, िजसको बचाने म मुझे
चोट आई थ ।
रतन िम ल द ली के एक उ ोगपित थे, िजनक चार चीनी िमल आस-पास के े म
थ । दो कॉटन िमल और एक दवाई फै टरी मु बई, पुणे ल टर म भी थी। वहां वे
अिधकतर अपने हैलीकॉ टर से जाया करते थे।
उनक शादी पांच साल पहले ई थी और एक साल बाद चंचल उनक गोद म आ गई थी।
चंचल के आने के बाद मधु िम ल क गोद य नह भरी, ये म नह जानता। बाद म पता
चला क कु छ दन बाद ही कसी कारण उनका कोई ए सीडे ट आ था िजसम रतन
िम ल को डा टर ने बाप बनने क ताकत से मह म घोिषत कर दया था। ले कन
दा प य जीवन का सुख उनका य -का- य बरकरार था। प रवार खुश था।
रतन िम ल क स पि उनक पैतृक स पि थी, िजसम उ ह ने दवाई क फै ी और
एक कॉटन िमल का इजाफा कर िलया था। मां-बाप को गुजरे कई वष बीत चुके थे।
ये तो म नह जानता क उ ह ने मुझ पर इतनी मेहरबानी य क थी। उनको बेटे क चाह
थी या मुझम उ ह ने कु छ ऐसा देखा जो उ ह भािवत कर गया था। या, मने उनके घर के
इकलौते िचराग को अपनी जान पर खेलकर बुझने से बचाया था! या एक साथ इन सभी
कारण के कारण।
बहरहाल!
अपना एक नौकर साथ भेजकर उ ह ने मुझे मु बई भेजा, ता क म उस कू ल से अपना
ांसफर स ट फके ट ले आ सकूं ।
दल तो तैयार नह था। फर भी म गया।
वो पहला मौका था जब म हवाई जहाज म बैठा था। तब तक हवाई जहाज क सवारी मेरे
िलए मा क पना थी, जो िनकट भिव य म भी कभी साकार होती नजर न आती थी।
अजीब-सा कु तूहल था मेरे मन म उस व जब म नौकर के साथ हवाई अ े पर प च
ं ा। सब
कु छ नई दुिनया जैसा था। सपन के साकार होने जैसा था।
और जब म हवाई जहाज क इकॉनािमकल लास म जाकर अपनी सीट पर बैठा तो मेरा
दल मेरी पसिलय पर धाड़-धाड़ करके बज रहा था। म कभी अपने साथ आए मािलक के
नौकर क तरफ देखता जो अ य त सामा य था। कभी अगल-बगल क सीट पर बैठी
सवा रय को। सब एकदम सामा य थे।
अजीब-सा कु तूहल था मेरे दल म—महज इस क पना को लेकर क जब जहाज जमीन के
सीने से उड़ान भरे गा तो कै सा लगेगा।
बै ट बांधने का आदेश िमलने पर हमने बै ट बांध ली।
जमीन का सीना र दता आ जहाज कु छ दूर दौड़कर हवा म उठा तो सबके शरीर को
ह का-सा झटका लगा।
वो मेरी पहली रोमांचकारी हवाई उड़ान थी, िजसका अ त कु छ ही देर म हो गया—जब
कसी ने गैस का गोला छोड़ा और ती बदबू मेरी नाक से टकराई। जाने कसका हाजमा
खराब था!
हवाई उड़ान क सबसे बड़ी बुराई ये है क य द उड़ान म कसी ने बदबूदार गैस छोड़ दी
तो उसक बदबू सबको उस उड़ान म सहन करनी होगी, य क अ दर क गैस आसानी से
बाहर नह िनकल पाती।
हालां क अब अमे रका ने आधुिनक िवमान का मॉडल इन हालात को यान म रखकर
बनाया है। उसम ये द त नह आती।
कू ल म म सीधा राव सर के पास प च
ं ा।
उस व वे लास म ब को पढ़ा रहे थे। चपरासी से पूछकर म लास म ही प च
ं गया।
मुझे यूं लास के दरवाजे पर देखकर वे स त आ य से िखल उठे । बेसा ता ही उनके होठ
से िनकला—“ याम!”
“म अ दर आ जाऊं, सर।” मने मराठी म कहा।
“हां....हां आओ।” वे भी मराठी म ही बोले।
म अ दर प च
ं गया तो उ ह ने पूछा—“कहां चले गए थे? पढ़ाई छोड़ दी या?”
“नह सर।” मने कहा—“म अपनी टी.सी. लेने आया ।ं ”
“टी.सी.— य ?”
“म एडिमशन ले रहा ।ं ”
“कहां?”
“दूसरे कू ल म।”
“कौन-से कू ल म?”
उसका जवाब मने नह दया। जवाब देता भी तब जब वो जवाब मेरे पास होता। उसके
अलावा म कु छ बताना नह चाहता था। उ ह ने पूछा क म कहां रहा इतने दन? ले कन
मने झूठ बोल दया। कह दया—“यह था सर।”
“यह ?” उ ह ने मुझे गौर से देखा मानो उ ह िव ास न हो रहा हो।
“जी। यह ।”
फर वे मुझे धानाचाय के कमरे म ले गये।
धानाचाय ने मुझे मेरा ांसफर स ट फके ट दे दया।
उसके बाद म काफ देर तक अपने पुराने दो त से िमलता रहा। फर हम वहां से िवदा हो
गए।
हवाई जहाज से ही हम वािपस द ली आए।
दूसरी उड़ान म पहले वाला रोमांच न था।
द ली के एक का वे ट कू ल म मेरा एडिमशन करा दया गया।
उसी कू ल म चंचल भी पढ़ती थी।
सब नया-नया सा था।
मने एक नए संसार म कदम रख िलया था जैस।े
वो कू ल मेरे पुराने कू ल से कई गुना शानदार था। ऊंची इमारत िज ह सुयो य
अिभय ता ने अपनी देख-रे ख म बनवाया था। बाहर हरी घास का लॉन था, जहां चार
तरफ खूबसूरत फू ल से भरी या रयां बनी ई थ ।
एक तरफ जहां हमारे धानाचाय के कमरे तक म एक पंखा नह था, वहां एक ही क ा म
कई-कई पंखे चलते रहते थे। हर ब ा अं ेजी म बात करता था।
उन सबके बीच म पागल-सा नजर आता था।
अं ेजी क कु छ कताब मने कोस म तो पढ़ी थ ले कन म इतनी अं ेजी नह जानता था
क उ ह समझ सकता और जवाब दे सकता।
ये परे शानी मने माल कन से बताई तो वे िखलिखलाकर हंस द ।
मुझे लगा जैसे वे मेरी उस कमजोरी का मजाक उड़ा रही ह । म कसमसाकर रह गया। मेरी
समझ म नह आया क म कै से उ ह समझाऊं।
“तो तु ह अं ेजी समझ नह आती।” उ ह ने हंसते ए कहा।
म जवाब न दे सका।
अपराध-भाव ने उस व मेरे वजूद को यूं जकड़ा क म चाहकर भी जवाब न दे सका।
“ठीक है।” उ ह ने कहा—“हम इसका इं तजाम कर दगे।”
मुझे राहत िमली।
“कल से हम तु ह अं ेजी क को चंग दलानी शु कर दगे।” उ ह ने मेरी सम या का
समाधान करने वाले लहजे म कहा—“तुम मेहनत से पढ़ाई करना। तुम कु छ ही दन म
अं ेजी म परफै ट हो जाओगे।”
मने गदन िहलाई।
“और कोई तो परे शानी नह है।” उ ह ने पूछा।
“नह ।”
“ फर ठीक है।”
वा तव म।
अगले ही दन तो नह , ले कन चौथे दन से मुझे पढ़ाने के िलए एक अं ेजी का अ यापक
घर आने लगा। एक अ यापक चंचल को भी घर म पढ़ाने के िलए आता था।
घर म मुझसे यादा काम नह िलया जाता था। घर का सारा काम नौकर ही करते थे। म
या तो कू ल का काम िनबटाता रहता था, या अं ेजी म उलझा रहता था। चंचल मेरे पास
आने क कोिशश करती थी ले कन म उसक तरफ से रजव रहता था। हर व डर रहता
था क कह वे गलत न समझ बैठ। घर छू टे तो गम नह था, ले कन वो दाग म कतई सहन
नह कर सकता था, जो एक बार लग चुका था। फर भी मेरा मन करता था क उस
यारी-सी गुिड़या को गोद म लेकर िखलाऊं, अपनी पॉ कट मनी से उसके िलए सामान
लाकर दू।ं
चार साल क वो गुिड़या थी ही इतनी यारी क हर कसी का दल उसे िखलाने के िलए
ही मचल उठता था।
पड़ोस म और ब े भी थे। वे भी खूबसूरत थे। ले कन उस गुिड़या जैसा कोई नह था। चंचल
क आवाज....जुबान िहलाती थी तो क ठ से िचिड़या क सी चहक गूंजती थी। वही सब
मुझे उसे िखलाने को े रत करता।
“ याम!”
मेरे कान म माल कन क पुकार पड़ी तो अपनी शट के बटन बंद करते-करते मने
हड़बड़ाकर ऊंची आवाज म कहा—“अ....आया मेम साहब।”
और फर ज दी-ज दी शट के बटन बंद करके अपने भीगे बाल म कं घी करके म अपने
कमरे से बाहर िनकला।
बाहर!
ाइं गहॉल म सोफे पर चंचल, माल कन के साथ थाली सजाए मेरा इं तजार कर रही थ ।
मेज पर रखी थाली पर मेरी नजर पड़ी तो झटका-सा लगा मुझ।े
वो र ाब धन का दन था।
उस बारे म तो मने सोचा तक नह था।
मने माल कन क तरफ देखा तो वे हौले से मु करा द । मानो मुझे सर ाइज दे रही ह
—“इधर आओ।”
म उनके पास प च
ं ा।
फर उनके कहने पर सोफे पर बैठ गया।
उ ह ने सजी थाली चंचल के न ह-न ह हाथ म थमा दी—“भैया को राखी बांधो।”
भैया!
यह श द कान म पड़ा तो जहन म उतरकर अजीब सी तृि का अहसास कराया। एक
बोझ-सा दल पर से ह का आ। उस व मानो मेरे ऊपर लगे दाग पर कसी ने िनमल
जल क अिवरल बौछार कर दी थी....और वो दाग धुलता नजर आया। मने महसूस कया
—उनका मन मेरी तरफ से कतना साफ था।
चंचल ने मेरे माथे पर टीका कया।
और फर न ह-न ह हाथ से मेरी कलाई पर राखी बांध दी।
राखी बंधते ही मेरा हाथ मेरी जेब पर गया तो पाया वो उस व खाली थी। एक पल के
िलए म चकराकर रह गया। उसे या दू?ं
फर मने माल कन क तरफ नजर उठाकर देखा तो उ ह अपना पस खोलते पाया।
मुझे उसी पल याद आया क मेरे पैसे मेरे कमरे क अलमारी म थे।
“म अभी आया....।” कहकर म ज दी से उठकर खड़ा हो गया।
मुझे यूं खड़ा होता देखकर उनके चेहरे पर उलझन के भाव उभरे और जब म चल दया तो
पीछे से उ ह ने टोका भी—“अरे , कहां जा रहे हो।”
क तु उनक बात पर यान देने क बजाए म अपने कमरे क दशा म लपका। वे मुझे
पुकारती ही रह ग ।
मने कमरे म जाकर अपनी अलमारी खोलकर उसम से पैसे िनकाले। कु ल अड़तालीस पये
थे मेरे पास। मेरी समझ म नह आया क कतने पैसे चंचल को दू।ं
ऐसे मौके पर नेग का कु छ रवाज होता है। म ये तय न कर सका था क अड़तालीस से कम,
अिधक कतने का नेग शु करा जाता है।
“पूरे दे दू?ं ”
मन म आया।
फर....कह ये गलत न हो? सोचकर मने उ ह देने का िवचार याग दया।
काश दो पये और होते!
एकबारगी मन म उठा। ले कन पये पैदा करने वाला जादू का ड डा तो तब मेरे पास था
नह जो दो और पये पैदा करके पूरे पचास या एक और पैदा करके इ यावन तैयार कर
लेता।
खैर!
म सारे पैसे लेकर बाहर आ गया।
दोन मां-बेटी बेस ी से, चेहर पर उलझन, आंख म सवाल िलए मेरा इं तजार कर रही
थ।
म चंचल के पास प च
ं ा।
वो वह सोफे पर बैठी अपनी चमकदार आंख से मेरी तरफ देख रही थी।
तब म सोफे पर नह बैठा।
उसके सामने ही फश पर घुटन के बल बैठ गया।
माल कन कु छ नह बोल । शायद वो समझ गई थ क म य वहां से चला गया था। वो
देखना चाहती थ क म या करना चाहता था।
मने अपनी सीने क जेब म हाथ डालकर पैसे िनकाले और उनम से इ स पये िनकालकर
चंचल के न ह हाथ पर रख दए।
उसने उन पैस को अपनी मु ी म ब द कर िलया। आंख क चमक बढ़ी और पतले-पतले
होठ भोली मु कान के साथ फै ल गए।
“थ यू भैया।” िचिड़या चहक ।
“खुश!” म भी हौले-से मु कु राया।
उसने अपनी गदन िहलाई।
और फर मने उसे गोद म उठा िलया।
दल म आया दल खोलकर हंसूं। खूब िखलिखलाकर हंसूं। और तब तक हंसता र ं जब तक
क दल म उठा वो खुशी का वर थम न जाए। सारे जहान क खुिशयां यकायक कु दरत ने
मेरे दामन म डाल दी थ ।
उसी व मेरे क धे पर माल कन का अ य त कोमल पश आ तो मने उनक तरफ देखा।
“अब तो मुझे म मी कहा करोगे ना?” आ -सा, नम वर उनके होठ से िनकला था—जो
मेरे सपन के रा ते मेरी ह को सराबोर करता चला गया।
आह!
एक याचना-सी थी उनके लहजे म।
नयन म ममता का छलकता सागर बाहर उमड़ पड़ने को बेताब नजर आ रहा था।
मेरे दल म उमड़ते वार ने भी एक ती उछाल भरी और बाहर छलककर मेरी आंख क
कोर का बांध तोड़कर गाल पर बहने लगा।
मेरे थरथराते होठ से िनकला—“म मी!”
मां को सारे जहान क खुिशयां नसीब हो ग मानो।
वो चमक मने पहली बार उन आंख म अपने िलए देखी। इतना वा स य क मेरा वजूद
नख िशखांत उसम सराबोर होता चला गया।
¶¶
प ह

और वे मेरे मािलक-माल कन से मेरे म मी-पापा बन गए। चंचल के प म मुझे एक
यारी-सी गुिड़या जैसी बहन िमल गई।
कहां म दर-दर भटकता, आवारा, गली म कु े जैसा भटकन भरा जीवन द ली क सड़क
पर गुजार रहा था। और कहां एकाएक ही क मत ने मुझे वो सब ब श दया था।
अब कोई रोक-टोक नह थी। म खाली व म चंचल के साथ खूब खेला करता था। अपनी
पॉके ट मनी म से कु छ-न-कु छ उसके िलए यदा-कदा लाता रहता था। ना ते क टेिबल पर
भी हमारी शैतािनयां ब द नह होती थ । हमारी िखलिखलाहट से बंगला गुलजार हो
जाता।
फर जब म चंचल के थान पर कोमल का िवचार अपने मन म लाया तो म कोमल के ित
वो भाव न ला सका जो मेरे मन म तब चंचल के िलए थे। म चाहकर भी कोई र ता
कोमल के साथ अपने मन म कायम न कर सका।
य?
या था वो? यार?
या कु छ और?
वे अजीब-सी तरं ग थ जो मेरे समूचे िज म म कोमल का याल आने पर उठ जाया करती
थ । बड़ी मादक-सी िमठास म अपने वजूद म घुलती महसूस करता था, जब उस दुघटना
को याद करता था। ले कन तुर त थ पड़ और लात क चोट सारी मादकता म कड़वाहट
घोल देती थ ।
फर भी दल करता कसी कार उसका दीदार हो जाए।
पता नह कै सी होगी वो?
मेरे बारे म जाने या सोचती होगी?
कु छ दन के िलए मेरा कताब खरीदने का शौक थम-सा गया था। कू ल के काम से ही
फु सत नह िमलती थी। नए कू ल क िह दी के अलावा सारी कताब ही अं ेजी म थ । और
म पहले ही कह चुका ं क तब से पहले अं ेजी िवषय के अलावा मने कोई और कताब
अंगेजी म नह पढ़ी थी। सब मराठी म पढ़ा था। चूं क मराठी भी देवनागरी िलिप म ही
िलखी जाती है और क हैयालाल भागव के यहां भी सब बात िह दी म ही होती थ , सो
िह दी पढ़ना और बोलना मेरे िलए क ठन नह था।
क तु अं ेजी!
वो मेरे िलए काला अ र भस बराबर भले ही न था, ले कन इतनी आसान न थी क उसे
पढ़ व समझ सकता।
इसी कारण मुझे उस व पढ़ाई म अित र मेहनत करनी पड़ रही थी।
उसके अलावा जो व होता, म चंचल के साथ खेलने म िबता देता।
अपनी कमजोर अं ेजी के कारण म शु म लास के लड़क के मजाक का पा बना रहा।
शु आत म अ यापक ने भी मुझ पर इतना दबाव नह बनाया। शायद पापा उ ह मेरी
परे शानी के बारे म समझा आए थे।
रतन िम ल को अब म र ा-ब धन के बाद से पापा कहकर संबोिधत करने लगा था।
इसी कार....।
बड़ी मुि कल से म आठव क अधवा षक परी ा पास कर सका। वा षक म म आसानी से
कताब समझने व सवाल के जवाब देने लगा। वा षक प रणाम अ छा आया।
और फर!
पढ़ाई के े म मने मुड़कर नह देखा।
एक साल म अं ेजी क बाधा ख म हो गई थी। अब मुझे बस कताब को कवर करना था।
म अपनी पॉके ट मनी म से ही अपने िलए कताब ला-लाकर पढ़ने लगा।
लास म भी मेरी ि थित सुधरने लगी।
कु छ दो त भी बने।
लड़ कयां भी मेरी तरफ आक षत हो जाया करती थ , य क मेरा काम हमेशा ही पूरा
रहता था। अ यापक भी मेरी ओर यान देने लगे।
म कू ल म काफ रजव कृ ित का लड़का माना जाता था। कई दो त होने के बावजूद भी
म अिधक लड़क के साथ दो ती नह पालता था। वह मेरा अ य त अ तरं ग िम बना
करण....करण नाथ।
वो एकदम मेरी िवपरीत कृ ित का लड़का था। हमेशा म त रहता था। उसका कह होने
का मतलब ही वहां पर रौनक होना था। वो कसी मह फल म हो और ठहाके न लग, ऐसा
आज तक नह आ। ले कन पढ़ाई के मामले म ब दा एकदम चौकस जीव था। खेलकू द का
प ा शौक न। बा के टबॉल का तो महारथी था वो। बॉल उसके हाथ म आई तो सीधी
बॉ के ट म ही जाकर िगरती थी। ब दे ने दसव म ही दो गल े ड पाल रखी थ । उसी के
सहारे से एक दो बार मने भी लड़ कय से बात क । ले कन मुझे जाने य लड़ कय का
साथ जरा भी रास न आता था। अगर कै पस म कह बैठा वो कसी लड़क से बितया रहा
होता तो म उससे दूर ही रहता।
वो पूछता भी—“यार, मुझे लड़ कय से या ा लम है?”
“कु छ नह ।” म मु कु रा देता।
“तो तू उनसे इतना दूर य रहता है?”
“मुझे अ छा नह लगता है।”
“अजीब लड़का है यार तू भी!”
और म बस मु करा देता।
उसका दल तो साफ शीशे के समान था, जहां कोई त वीर फट नह ई थी। अब तक
उसके दल का े म तो खाली था।
ले कन मेरा दल।
पता नह कब चुपके से वहां ‘उसने’ क जा जमा िलया था। उसक कभी याद तो नह आती
थी, उस त वीर पर भी धूल क परत जमती जा रही थ । ले कन वो जगह खाली नह थी।
ऐसा नह था क उस जगह को भरने क कोिशश नह क गई।
उसका नाम र ा था।
हमारे पड़ोस म रहती थी। उसके िपता िडि क जज थे।
काफ दन से उसे म अपनी तरफ को आक षत होता देख रहा था। कई बार उसने इशार
म कहा ले कन म जानकर अंजान बना रहा।
कारण!
जब र ता ही नह रखना तो यान ही य दू?ं
ले कन वो नह मानी।
आिखर घात लगा ही ली।
¶¶
सोलह
दसव क परी ाएं ख म हो चुक थ ।
फर फु सत-ही-फु सत थी। म पूरी तरह खाली था।
मेरा अिधकतर व बाहर लॉन म पौध म बीता करता था। या रय क िनराई, गुड़ाई
और पौध क छंटाई, संचाई यही सब।
म चाहता था क हमारा लॉन सबसे खूबसूरत नजर आए।
मने म मी से कहकर कई कार के पौधे भी मंगवा िलए और लगा दए। बागवानी के िलए
मने एक कताब भी खरीद ली, ता क और अ छा काम हो।
उसके अलावा या तो म कोई अ य काम करता रहता था अथवा अपने कमरे म कसी
कताब को पढ़ता रहता था।
उस दन भी म अपने कमरे म बैठा कताब ही पढ़ रहा था।
दोपहर का व था। और चंचल तब तक कू ल से नह आई थी। म मी कसी काम म रसोई
म तथ।
तब वो आई।
उसने भी तभी दसव क परी ाएं दी थ , सो वो भी थी।
“हाय!” दरवाजे पर आते ही वो चहक ।
मने नजर उठाकर उसक तरफ देखा तो मेरी हवा टाइट हो गई। उसका अंदाज मेरे
मि त क पर चोट कर गया।
म कु छ बोला नह ।
मेरे कसी भी जवाब का इं तजार कए बगैर वो अ दर आकर मेरे िब तर के एक छोर पर
बैठ गई।
“ या कर रहे हो?” मेरी तरफ देखकर वो मु कु राई।
“पढ़ रहा ।ं ” म भावहीन वर म बोला—“तुम यहां कै से आ ग ?”
“बोर हो रही थी....सोचा तुमसे िमल लू।ं ” उसने अथपूण वर म कहा, मानो मुझे कु छ
समझाना चाहती हो।
म कु ढ़कर रह गया।
‘बोर हो रही थ तो म ही िमला था हलाल करने को?’ मन ही मन म कलपा—‘कह और
दांव चलात मेरी मां!’
ले कन मने य तः कहा—“कु छ काम था?”
जबरन मु कु राया भी।
“नह , बस टाइम पास करने आ गई।” उसने लापरवाही से कहा।
दल म आया कह दू—
ं ‘तुझे मेरा ही टाइम फालतू दखाई दया।’
ले कन य तः मने सामा य रहकर कहा—“तुम कु छ काम नह कर सकती थ ?”
“ या करती!” उसने होठ िबचकाए—“ए जाम तो ख म हो गए ह। और या क ं ?”
म समझ न सका उस बला को कै से टालू?ं
“देखूं या पढ़ रहे हो?” उसने मेरे हाथ से कताब झपट ली। म हकबकाया-सा उसका
चेहरा देखता रह गया। उसने कताब को खोलकर उसे उलटना-पलटना शु कर दया।
कु छ देर तक वो पृ को पलटते रही, फर उसने चेहरा उठाकर मेरी तरफ देखा।
“तुम पढ़ाई से बोर नह होते, याम।” उसने मुंह बनाकर कहा।
“नह तो।”
“सच, म तो बोर हो जाती ।ं मेरा तो पढ़ाई म िब कु ल दल नह लगता।”
“लगाया करो।” मने सलाह दी।
“कै से लगाऊं? हर व तो तु हारे पास रहता है।” उसने तपाक से कहा। मानो उसे इसी
िसचुएशन का इं तजार हो।
जब क मेरी हवा शंट हो गई।
हालत उस चूहे जैसी िजसके ठीक सामने िब ली घात लगाकर बैठी होती है। झपटने को
तैयार। जाने कब झप ा मारे और आकर दबोच ले।
“म....म इन च र म नह पड़ता।” मने अपना बचाव करने वाले अंदाज म कहा—“इन
बात के िलए मेरे पास व नह है।”
“ या म अ छी नह लगती?” उसने मुंह फु लाकर यूं कहा मानो जैसे उसे ती आघात
प च
ं ा हो—“म अ छी नह ?ं ”
“हो। अ छी हो।” म बात पलटकर बोला—“ले कन म इन फालतू बात को पसंद नह
करता।”
“ य ?”
“बस ऐसे ही।”
“ले कन तुम मुझे ब त अ छे लगते हो।” उसने बेबाक से मेरी पीठ पर हाथ रख दया और
ऊपर से नीचे तक फराने लगी—“सच याम! म तु ह ब त यार करती ।ं ”
मेरा शरीर सनसनाकर रह गया।
वो तो गले पड़ने का प ा इरादा बनाकर आई थी।
अब कमब त गले म बांह न डाल दे। और अगर म मी ने देख िलया तो उसी व मुझे िसर
के बल खड़ा कर दगी।
या क ं ?
कु छ तो करना ही था।
सो मने उसका हाथ पकड़कर एक तरफ कर दया।
“देखो, म इन बात को पसंद नह करता।” अपना लहजा कठोर करके म कह उठा—“यहां
फालतू म मेरा दमाग खराब मत करो! अब तुम अपने घर जाओ।”
“ याम, म तु ह ब त यार करती ।ं ” वो दीवानावार अंदाज म बोली तो म भ ाकर रह
गया।
जबड़े कस गए मेरे।
“अब तुम जाती हो या नह ?” म दांत पीसकर बोला।
“नह !” वो अड़ गई।
मेरी कठोरता का बुलबुला पक् से फू ट गया।
उ साह क हवा फ स से िनकल गई।
अब या क ं ?
“देखो, म म मी से कह दूग
ं ा।” म हड़बड़ी म कह गया।
िखलिखलाकर हंस पड़ी र ा।
मेरा अंदाज! िजस पर खुद मेरा यान बाद म गया तो म झप गया। कस कदर बौखला
गया था म। आवाज म ऐसी िमिमआहट थी मानो मुझे िजबह कया जाने वाला हो!
उसक िखलिखलाहट मेरे कान म िपघले शीशे क मािन द उतरती चली गई।
“अरे र ा....।” उसी व दरवाजे पर म मी क आवाज ने सारा यान एक साथ अपनी
तरफ ख चा—“बड़ी जोर-जोर से हंस रही हो। या बात है?”
मने राहत क सांस ली। ठीक उस अंदाज म जैसे खुदाई फ र ते के प म म मी का वहां
आगमन आ हो।
“आंटी....कु छ नह ।” बड़ी ठीठ थी वो। जरा भी खौफ न खाया और बोली—“ याम ने अभी
एक ब त ब ढ़या चुटकु ला सुनाया है।”
“अ छा!” म मी च कत—“कौन-सा चुटकु ला? हम भी तो बता।”
गड़बड़ा गई वो।
उसक हंसी पर यूं ेक लगा मानो म मी ने ि वच ऑफ कर दया हो।
दल मेरा भी धड़का।
“व....वो....।” उसने बात बदली—“स....सच म ब त ब ढ़या चुटकु ला सुनाया था।”
अ पिवराम लगा। फर तपाक से बोली—“ये....ये ही अ छा सुनाता है। याम, तुम ही
सुनाओ ना आंटी को....।”
“म....म।” अब म हड़बड़ाया।
क ब त ने मुसीबत मेरे म थे मढ़कर फटाक से छु टकारा पा िलया और फं सा दया मुझ।े
“म....म या सुनाऊं?” म चकराया। बड़े संभलकर कहा—“तुम ही सुना दो। तु ह यादा
हंसी आ रही है।”
“ले कन वो तु हारी जुबान से अ छा लगता है।”
“म चुटकु ले बार-बार नह सुनाता।” म सपाट लहजे म कह उठा।
“आज सुना दो।” उसने तुर त उठने का उप म कया— “अ छा, आंटी म चलती ।ं ”
“ य .... या आ?”
“म मी इं तजार कर रही ह गी। शाम को आऊंगी।”
‘ज दी दफा हो....और भगवान करे घर जाते ही तुझे वायरल या मले रया हो जाए।
और वो तूफानी लड़क बगैर कु छ कहे कु लांच भरती ई दरवाजे के पार िनकल गई।
मने अपना िसर थाम िलया। बेसा ता ही मेरे होठ से िनकला—“हे भगवान!”
म मी भी िब तर पर बैठ ग ।
“ या आ?” उनका वर मेरे कान म पड़ा, तो मने अपना चेहरा ऊपर उठाया।
वो मेरी ही तरफ देख रही थ ।
“म मी, या इसका आना ब द नह हो सकता?” मने बड़े दयनीय वर म कहा।
“ य ? या आ?”
“ये बड़ा दमाग चाटती है।”
“पड़ोसी है। एडजे ट तो करना पड़ेगा।” वे हंस —“उसे या घर से भगाया जा सकता है।”
“मगर ये ज र मेरा दमाग खराब कर देगी।”
“कु छ नह होगा।” उ ह ने इि मनान से कहा।
उनके लहजे पर म जरा च का। उनके अधर पर िथरकती मु कान का मतलब समझकर म
झटका-सा खाकर रह गया।
या वे सब सुन रही थ ?
फर मने राहत क सांस भी ली क उनके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नह था िजससे मुझे
खतरे का जरा भी अहसास होता।
एक बात!
एक त य मने हमेशा नोट कया है क म मी क पैनी िनगाह मेरी गितिविधय पर टक
रहती थ । कई बार म बड़ी देर रात तक पढ़ता रहता था तो सुबह मुझे नह जगाया जाता
था। उस दन मेरा ना ता मेरे खुद ही उठ जाने पर मुझे दया जाता था।
शायद उस व भी उ ह ने र ा को नोट कया हो और र ा के अ दर आते ही वे भी प च

गई ह ।
खैर!
जो भी हो!
म उस तूफानी लड़क से सतक हो गया। उसके बाद उसका घर म तो आना ब द नह आ,
ले कन म उसके साथ अके ला कभी नह बैठा। अगर म कभी अपने बैड म म बैठा पढ़ रहा
होता था और वो आ जाती थी तो उसके कहने के बावजूद भी म कताब छोड़कर उसे लेकर
ाइं ग हॉल म प च
ं जाता था।
धीरे -धीरे उसका आना कम हो गया।
रज ट अया!
म बयानवे ितशत अंक लेकर पास आ।
पापा को जब मने अपनी माकशीट दखाई तो उ ह ने मेरी पीठ थपथपाई। मेरी सफलता
क झलक सबके चेहर पर दखाई दी।
उसी शाम को र ा का प रवार भी आया।
र ा क आंख हीर क मािन द चमक रही थ , जैसे वो सफलता उसी क थी। जब क उसके
खुद के अंक इकह र ितशत थे। बड़े उ साह से उसने मुझे मुबारकबाद दी। उसके पापा ने
मुझे शाबाशी दी। उस रात हमारा िडनर उनके घर पर ही रहा।
कू ल फर खुले।
व पंख लगाकर तेजी से उड़ने लगा।
और दो वष का व फा गुजर गया।
मने इं टरमीिडएट भी न बे ितशत से पास कर ली।
¶¶
स ह
उसी शाम!
िडनर के बाद पापा ने मुझे अपने पास बुलाया।
“अब या इरादा है?” उ ह ने मुझे अपने पास बैठाकर पूछा।
“जी....म िबजनेस टडी करना चाहता ।ं ” मने धीरे से कहा।
“िबजनेस म आना चाहते हो?”
“हां।”
“कोई कॉिलज सोचा है?”
“अभी तो नह ।” मने कहा—“ द ली म कई अ छे कॉलेज ह।”
“करण कहां एडिमशन ले रहा है?”
“वो कह रहा था उसके पापा उसे लंदन भेजना चाहते ह।”
“अ छी बात है।” उ ह ने तुर त िनणया मक वर म कहा—“तुम भी लंदन चले जाओ।
वहां अ छी पढ़ाई है।”
“हां। ले कन इतनी दूर....।”
“ या परे शानी है! वहां भी जाओ।” वे बोले—“बाहर कह जाओगे तो नया ए सपी रयंस
ही िमलेगा।”
उनके तक के आगे मुझे नतम तक होना पड़ा।
“दुिनया देखो, बेटे।” उ ह ने उ साहवधन करने वाले अंदाज म कहा—“कु छ ए जाय भी
कया करो, अपने काम म से कु छ व िनकालकर।”
और वा तव म....।
मुझे िबजनेस टडीज के िलए लंदन भेज दया गया।
तीन साल क पढ़ाई पूरी करके म वािपस लौटा तो पता चला र ा का र ता तय हो चुका
था।
ये खबर म मी ने मुझे दी तो म च के बगैर न रह सका—“ या सच! कब?”
“सगाई हो चुक है। शादी प ह दन बाद है।” म मी ने बताया।
“दू हा कौन है?”
“कोई नया भत आ आई.पी.एस. है। कु छ ही दन ए उसने चाज संभाला है। जौनपुर म
है अब।”
“अ छा।” म रोमांिचत अंदाज म बोला—“ये तो बड़ी क मत वाली िनकली।”
“हां। उसके पापा के कसी वा कफकार का बेटा है। मने देखा है, देखने म सजीला है,
खूबसूरत है।”
“चलो, बला टली।” बेसा ता ही म बुदबुदा उठा।
वो बुदबुदाहट शायद म मी के कान म भी पड़ गई थी, सो वे भी मु कु राए बगैर न रह
सक । मने अपने पास बैठी चंचल को देखा, वो भी मु कु रा रही थी।
“उसने भी आपको बड़ा परे शान कया है भैया।” अपनी एक बांह मेरे कं धे पर फै लाकर
रखते ए उसने कहा—“अब तो आपको चैन क सांस आ रही होगी।”
“मुझे या परे शान करे गी वो!” म उसके िसर पर चपत लगाकर कह उठा—“अब तो उसे
परे शान होना है। जब हर महीने िब तर गोल करके तबादल म भटके गी तो सारी अकड़
िनकल जाएगी।”
“आई.पी.एस. िमलना मजाक बात नह है।”
“तो तेरे िलए भी आई.पी.एस. देख दगे।” म तपाक से बोला।
“मने अपनी बात कब क है।” चंचल ने बात काटकर कहा—“म वो उसक बात कर रही
थी।”
“तो अपनी बात कर ले! अब बता कौन ढू ंढ तेरे िलए।”
“म तो अभी ब ी ।ं ”
“बात तो बड़ी करती है। ब े इतनी बात कहां करते ह, बता?”
“ब े ही तो बात करते ह।” वो हारने वाल म से कहां थी। म भी कभी-कभी उसके सामने
लाजवाब रह जाया करता था। जब क वो मुझसे छः वष छोटी थी।
“हां, ब े तेरी जैसी ही बात करते ह।” मने एक और चपत उसके िसर पर जमाई।
“म जरा पेशल ।ं ” वो इठलाकर बोली।
अब मुझे उ मीद नह थी क र ा हमारे घर आसानी से ख करे गी भी। और अगर ख
करे गी भी, तो मेरी तरफ आने से रही। सामा यतः शादी के व के आस-पास, लड़ कय को
घर के बाहर कम िनकलने दया जाता है।
ले कन वो आई!
और मेरे पास आई।
उसी शाम!
जब वो आई तो तब भी म अपने कमरे म ही था। लगभग साढ़े चार बजे का व था वो।
“अरे तुम!” उसे देखकर म च का।
वो अ दर आ गई।
“आओ बैठो।” मने उसे पास म पड़ी कु स क तरफ इशारा करके कहा। मने उसको बाहर ले
लाने क ज रत नह समझी। अब वो क ब त गले पड़ने से रही।
सो, उसके बैठ जाने पर मने पूछा—“कै सी हो?”
“ठीक ।ं ” उसने गंभीरता से जवाब दया।
“कु छ सी रयस नजर आ रही हो।” उसक गंभीरता का मजा लेते ए मने कहा। पहली बार
वो मुझे इतनी गंभीर नजर आई थी—“कु छ खास बात?”
“नह ! सब ठीक है।”
“सुना है, तु हारी शादी होने जा रही है।” मने पूछा।
वो और गंभीर हो गई।
उसक पलक धीरे -से झुक ग । होठ िहले—“हां....! वे आई.पी.एस. ह।”
“अ छा है।” म उ साह से बोला—“मुबारक हो।”
उसने कोई ित या जािहर नह क । पूववत् रही।
“ य ....खुश नह हो?” म उसके चेहरे को गौर से देखता आ बोला—“लड़का पसंद नह
आया? लड़का तो अ छा है। अफसर है, तुम सुखी रहोगी।
“कहां! ये भी कोई िज दगी है।” उसने मुंह बनाकर कहा—“हर तीसरे महीने ांसफर होता
है। और पता नह कहां! पानी भी ठीक िमलता है या नह । बनजार जैसी िज दगी बन
जाएगी।”
“तो तु ह कै सा लड़का चािहए?” म हंसकर रह गया।
“तु ह पता है।” उसने बेबाक से कहा।
म चुप रह गया।
उसका इशारा सीधा मेरी तरफ था।
मुझे लगा मने उसे ाइं ग म म न ले जाकर बड़ी गलती क थी। पर तु अब या हो सकता
था।
कमरे म एकाएक मौन ा हो गया।
कु छ पल के मौन के प ात् उसने कहा—“मने म मी से तु हारे बारे म बात क थी।”
म च का।
“म मी तो तैयार थ ।” वो कहती रही—“उ ह तुम ब त पसंद हो। वे तो तु हारे िलए कु छ
साल तक इं तजार करने के िलए भी तैयार थ । पर पापा ने इं कार कर दया। कहते ह तुम
अनाथ हो। और या भरोसा क ये तु ह अपना बेटा बनाकर ही रख? िनकाल भी सकते
ह।”
स ाटे म रह गया म।
एकाएक ही जैसे उसने मेरा दल अपनी मु ी म कसकर भ च दया था। ज म को नुक ले
हिथयार से बुरी तरह कु रे दकर रख दया था।
वो चुप तो हो गई मगर मुझे लगा मानो खामोश रहकर भी वो ब त कु छ कह रही थी।
मानो मुझे मेरी औकात याद दला रही थी।
म अनाथ था।
वो श द बार-बार हथौड़े क मािन द मेरी चेतना पर चोट कये जा रहा था....अनाथ!
मेरी जुबान से श द न फू ट सका। जुबान पर मानो लकवा मार गया था।
मुझे अपना वजूद ही अपंग महसूस होने लगा था। इस कदर िववश— क अपनी ित या
तक जािहर न कर सका। बस एक पाषाण ितमा क मािन द अ दर का तूफान और वेदना
पीता खड़ा रह गया।
“ याम! मुझे कोई िगला नह क तुम मुझे नह चाहते।” वो कहती रही—“म कसी दूसरे
क होने जा रही ।ं बस एक बार बता दो क आिखर ऐसी या कमी है मुझम क तुम मुझे
यार नह करते।”
मेरे होठ से बोल न फू टा।
फर मने िह मत बटोर कर अपने होठ खोल ही दये—“म कसी को पहले ही चाहता था।”
ती शॉक लगा उसे।
झटका खाई-सी वो कई पल तक च कत-सी मुझे देखती रही। फर धीरे -धीरे उसके
खूबसूरत चेहरे पर वेदना का सागर िसमटने लगा। जब वो सागर छलका तो नयन से वो
जल ोत िनकलकर गाल पर बह िनकला। वो होठ काटकर रह गई, जैसे अ दर कटते
कलेजे का दद दबा रही हो।
“क....कौन है वो ख....खुशनसीब?” अधर कांपे तो उनसे आ और पीिड़त वर खा रज
आ—“उसके बारे म नह बताओगे?”
“ या बताऊं उसके बारे म? वो तो ब त दूर है। उसका भी ऐसा ही घर है।”
“कहां?”
“ब बई म।”
“नाम जान सकती ं उसका।” उसने आंसु को पीते ए पूछा।
“कोमल।” मने कह दया—“कोमल भागव।”
“खूबसूरत नाम है।” वही अंदाज—“खुद भी वैसी ही खूबसूरत है?”
“ब त। उससे भी यादा। उससे भी कह यादा।”
“म....मुबारक हो।”
इस बार उसक आवाज म वेदना का चरम मने महसूस कया। ले कन उस वेदना म ई या
अथवा नफरत जैसी कोई चीज म चाहकर भी न खोज सका।
वो चली गई।
चली तो गई ले कन मेरे ज म को इस कदर कु रे द गई क म िबना पानी मछली क तरह
तड़पकर रह गया।
क ब त अपना सारा बवाल एक ही बार म लेकर चली गई थी।
रात का िडनर तो मने कया ले कन वो म बड़ी मुि कल से कर सका। बामुि कल मने दो
रो टयां उदर म धके ल । पुनः अपने कमरे म चला गया।
न द का नामोिनशान तक नह ।
जब सारा वजूद वेदना से छटपटा रहा हो तो न द कहां, चैन कहां। तब तो तड़प आ करती
है।
म देर रात तक जागता रहा।
सोने का भरपूर य कया। कोिशश भी क म सब भूल जाऊं। क तु असफल रहा।
आधी रात के बाद तक जब न द न आई तो मने उठकर कताब खोल ली।
सुबह!
सुबह भी म ज दी उठ गया।
उठते ही म जॉ गंग करने िनकल गया और आया तो म मी ना ता तैयार कर रही थ ।
तैयार होकर जब म ना ते क टेिबल पर प च
ं ा तो म मी चंचल को ना ता परोस रही थ ।
पापा को ना ता दया जा चुका था।
मने प च
ं ते ही पापा को गुड मा नग क और कु स पर कािबज हो गया।
म मी चंचल को ना ता परोसकर मेरी तरफ आ ग ।
मुझे ना ता परोसते व उनका यान मेरे चेहरे पर गया तो वे च क —“तु हारी आंख
य लाल ह याम? रात म सोए नह थे?”
“न....नह तो।” हड़बड़ा गया म—“ऐसी बात नह है।”
“ फर? तबीयत तो ठीक है तेरी?” और बाकायदा अपने नम हाथ से मेरा गला और माथा
भी छू कर देखा।
“नह म मी।” म हंस दया—“ऐसी कोई बात नह है। बस न द नह आई।”
मने चंचल क तरफ देखा तो वो चुपचाप अपना ना ता कर रही थी। ना ता करते ही उसे
कू ल जाना था।
पापा ने भी पूछा। ले कन म बात टाल गया।
अजीब-सी बात है।
एक चीज पर िजस पर हमारा अिधकार होता है या िजस पर हमारा नाम िलखा होता है,
उसे हम चाह िजतना नजर दाज कर ल, चाह कतनी ही उपे ा हम उसक करते रह—
अगर वो दूसरे के अिधकार म जाने लगे तो हम उसके बारे म सोचने पर िववश हो जाया
करते ह।
र ा जैसी भी हो, वो उस ल ह तक मुझे तहे दल से चाहती थी। मेरी इतनी उपे ा के
बावजूद भी उसका यार मेरे िलए कम नह आ था। कारण या था, पता नह । ले कन
अगर कु ल िमलाकर देखा जाए तो वा तव म वो इतनी बुरी लड़क नह थी। वो भटक ई
थी, इसी कारण म मी ने उसे कभी चंचल से दूर नह कया। न अपने घर आने से रोका था,
न चंचल को उसके घर जाने से रोका था। पड़ौसी के तौर उनसे हमारे पा रवा रक स ब ध
थे। ले कन उसम कई बुरी आदत भी थ —बगैर मतलब क बकवास। हर बात को मजाक म
उड़ा देना और सबसे बुरी आदत मेरे गले पड़ने क कोिशश।
वो शायद इसिलए मुझे बुरी लगती थी क म लड़ कय से दूर रहना पसंद करता था।
ले कन उस दन पहली बार म उसके बारे म सोचने पर िववश आ। पहली बार मने उसक
अ छी बात पर यान देने का य कया। और जब यान दया तो वा तव म उसम मुझे
ब त-सी अ छाइयां नजर आने लग ।
वो भी तो खासी खूबसूरत थी।
जरा बचकाना आदत थ उसम। ले कन सुसं कृ त थी वो। एक जो सबसे बड़ी बात थी वो
मुझे बेइंतहा चाहती थी।
चाहने वाले क कसे ज रत नह होती! कोई चाहे िजतना भी दावा कर ले, खुद को
कतना भी कठोर दशा ले, ले कन हर आदमी को एक मौह बत भरे दल के मािलक, खुद
पर िनसार हो जाने वाले, साथी क ज रत आ ही करती है।
उस दन पहली बार मने र ा क तुलना कोमल से क । तब पलड़ा र ा का ही भारी रहा।
र ा मेरे अ य त करीब थी। मुझे बेइंतहा चाहती थी। तब तक भी चाहती थी जब क वो
दूसरे क अमानत थी। उसम इतनी िह मत थी क मेरे बारे म अपनी म मी से बात कर
सकती थी।
और कोमल!
वो मुझसे दूर थी।
इतनी दूर क म तब चाहकर भी उसके करीब नह जा सकता था।
वो भी तो अब बड़ी हो चुक होगी। हो सकता है उसक शादी क सुगबुगाहट भी आरं भ हो
गई हो। न भी ई हो तो कु छ साल म हो ही जानी है।
तब मुझे लगा र ा को खोकर मने एक बड़ा अवसर गंवा दया।
फर!
उसी व मेरी िवचारधारा म बदलाव आया।
म र ा के बारे म य सोच रहा ?ं या िसफ इसी कारण क वो मुझे चाहती थी, चाहती
है? वो तो मेरी है ही नह । जब वो मुझे िमलती ही नह तो सोचना कै सा? पहले भी या
वो मुझे िमल ही जानी थी? ना....कभी नह । उसके पापा ऐसा कभी नह होने देते।
तभी मेरा यान कोमल पर गया।
कतनी आसानी से मने र ा से कह दया क म कोमल से यार करता ।ं वो बात जो म
खुद से कहते डरता था, कतनी आसानी से मेरी जुबान पर आ गई।
तभी! मेरे िवचार म िव पड़ा।
मेरे माथे को कसी ने पश कया था। मने देखा वो चंचल थी जो जाने कब मेरे अ य त
करीब आकर खड़ी हो गई थी।
“अरे चंचल!” मेरे होठ से िनकला।
“ या सोच रहे हो भैया?” चंचल का लहजा अ य त गंभीर था। उस दन पहली बार वो
इतनी गंभीर नजर आई मुझ।े
“नह तो, कु छ नह ।” म मु कु रा दया—“बैठ। बड़ी सी रयस नजर आ रही है।”
वो मेरे पास पड़ी कु स पर बैठ गई।
“ या बात है?” उसके िसर पर हाथ फे रकर मने उससे बड़े यार भरे लहजे म पूछा—“कु छ
टशन है या?”
उसने गदन झुका ली।
मेरा माथा ठनका।
वा तव म!
कु छ बात ज र थी।
कु छ वैसी बात िजसे कहते वो िहचक रही थी। िजसे कहने के िलए उसे अपनी िह मत
बटोरकर कहने क आव यकता महसूस हो रही थी।
“ए....एक बात पूछूं भैया?” िह मत बटोर कर उसने पूछ ही िलया।
“पूछ!”
“ या आप सच म मेरे भैया नह ह?” मुझे घूरते ए उसने पूछा।
चकरा गया म।
तेज झटका लगा मुझे ये सोचकर क उसने हमारी बात िपछली शाम सुन ली थ । म उसके
चेहरे को देखता रह गया।
“सच बताइये भैया।” उसक आवाज भरा उठी—“सच-सच बताना। आप या सच म मेरे
भैया नह ह?”
“कौन कहता है?” अपने आप पर काबू पाकर मने पूछा।
“र ा कहती है।” उसने रोषभरे वर म कहा—“मने भी कल उससे पूछा था। पता है, म
उससे कतना लड़ी?”
“ य ?”
“ य या? वो मेरे भाई को पराया कह रही थी। सच बताइए भैया, वो झूठ बोल रही थी
ना?”
“तुझे या लगता है?” म हौले से मु कु राया।
“मुझे पता है वो झूठ बोल रही है।” आवाज म वही रोष था—“उसे पता था म सब सुन
रही ।ं ”
“जब पता है तो तू परे शान य हो रही है?” मने आदतानुसार ही उसके िसर पर चपत
लगाई—“इन सब बात को यान से िनकाल दे।”
“म आपक जुबान से सुनना चाहती ।ं ”
“ या सुनना चाहती है?” म हंस पड़ा—“यही क म तेरा भाई नह ?ं ”
“नह —म सच सुनना चाहती ।ं ”
“अगर म क ं क म तेरा भाई नह ं तो....?”
“तो तो....।” वो गड़बड़ा गई। फर मचलकर बोली—“आप सब बताइये ना। आप या सच
म मेरे भैया नह ह?”
मुझे गंभीर हो जाना पड़ा।
उस बात को जानकर चंचल मानिसक प से काफ हद तक िड टब हो गई थी। उसके दल
को गहरी ठे स लगी थी। उस व उसे जो भी बताना था, बड़ी सावधानी से बताना था।
और पूरी तरह संतु भी करना था।
म कई पल तक उसके चेहरे को देखता आ उसके जहन म हो रही उथल-पुथल क
च डता को भांपता रहा। साथ ही ये भी तय करने का य करता रहा क उसे सच कै से
बताऊं? उसे कस कार त य से प रिचत कराकर वा तिवकता समझाऊं, य क उस व
उसे सब समझाना अ य त आव यक था।
खैर!
मने िनणय िलया। फल व प मेरे होठ िहले—“देख, मेरी बात गौर से सुन।”
उसने मुझ पर गौर दया।
“म तेरा भाई ं या नह , इससे कोई फक नह पड़ता।” बड़ी सावधानी से मने कहना शु
कया—“बहन-भाई बनने के िलए ज री नह होता क एक ही मां के पेट से पैदा ए ह ।
म बस इतना जानता ं क इस दुिनया म के वल तू मेरी इकलौती बहन है।”
“इसका मतलब आप मेरे भैया नह ह?” वही रट।
“मने कहा ना!” संभलकर कहा मने—“ या बहन-भाई बनने के िलए एक ही मां के पेट से
पैदा होना ज री होता है? या म वैसे ही तेरा भाई नह हो सकता?”
“तो वो ऐसा य कहती है?”
“पागल है वो!” मने उसका कपोल थपथपा दया—“उसक बात पर यान मत दे। ऐसी
बात पर परे शान नह आ करते।”
“आप भी तो परे शान ह। रात को सोए तक नह ।”
म गड़बड़ा गया। वो मेरी हालत ताड़ चुक थी। मने तुर त अपने आपको संभाल िलया और
कहा—“नह , वो बात नह है। दरअसल रात को वैसे ही न द नह आई थी। बड़े दन बाद
घर वािपस आया ं ना....इसिलए देर तक जागता रहा।”
“झूठ!” उसने कड़े श द म कहा—“आप झूठ कह रहे ह।”
“ब त बड़ी हो गई है तू।” म उसका अंदाज देखकर मु करा उठा—“तू अब झूठ भी पकड़ने
लगी?”
“इतनी बड़ी तो हो गई ।ं ”
म उसका चेहरा देखता रह गया।
वा तव म उसक मासूिमयत म गंभीरता का समावेश भी होने लगा था।
“आप कह से भी आये ह भैया....” एक िवराम के प ात् वो कहती चली गई—“मुझे इस
बात से कोई मतलब नह । म बस इतना जानती ं क आप मेरे भैया ह। वो कौन होती है ये
तय करने वाली क आप मेरे भैया नह ह? उसक िह मत कै से हो गई ऐसी?” फर उसने
मेरी बात पकड़कर कहा—“आप मेरे भैया ह ना?” साथ ही उसका गला भरा उठा था।
मेरा गला भी भर आया।
उसे रोता देखकर म खुद को भी भावना के बहाव म बहने से न रोक सका—“हां !ं तेरा
भाई ं म।”
“आप या समझते थे....म ये जानकर आपको अपना भाई मानने से इं कार कर देती?” वो
कहती चली गई—“इतनी पागल ं या म जो इतने अ छे भैया को ठु करा देती? एक ही
तो भाई ह मेरे।” और फर वह मेरे कं धे पर िसर टकाकर रो पड़ी।
बड़ी मुि कल से मने खुद को संभाला।
या रब! कै सी बहन दी!
इतना यार करने वाली बहन क उस पर कु रबान होने को जी चाहता है।
बड़ी देर तक वो मेरे कं धे पर िसर रखे रोती रही।
फर जब सां वना देने पर, समझाने पर उसक लाई को िवराम लगा तो मने पूछा
—“ या कह रही थी र ा?”
“कु छ नह ।” उसने संयत वर म बताया—“यही कह रही थी....।”
“उसे यादा तो भला-बुरा कु छ नह कह दया?”
“नह । बस अब वो यहां नह आयेगी।”
“तुझे पता है वो तुझसे कतनी बड़ी है।” मने उसे यार से डांट दया—“उसके साथ
ब तमीजी या ठीक थी?”
“ब तमीजी कहां करती ।ं हमेशा ‘आप’ कहती ।ं ”
“और आज?”
“उसी ने तो गु सा दलाया। मेरे भैया को पराया कर रही थी। और अब कौन-सा वो सुन
रही होगी।”
“पगली!” मने उसके िसर पर चपत जमाई।
इस कार माहौल का बोिझलपन समा हो गया।
“भैया, ये कोमल कौन है?” मौका िमलते ही उसने पूछ िलया।
“क....कोमल? ये कौन है?”
“वही तो पूछ रही ।ं ”
“कोई नह है।” मने िनणया मक वर म कहा।
“है तो!” उसने मेरे उ र पर चोट करते ए िवरोध भरे अंदाज म कहा—“ब बई म रहती
है।”
“ऐसा कु छ नह है।”
“तो र ा से ऐसा य कहा?”
“वो तो मने वैसे ही कह दया था।”
वो मुझे घूरती रह गई।
कई पल तक घूरती रही। फर उसने कहा—“मुझे नह बताओगे?”
कु छ ऐसा ही था उसका अंदाज क म अपनी हंसी पर अंकुश न लगा सका।
हंसकर रह गया म।
“जहां म पहले रहता था, वह रहती थी वो भी।” मने जरा-सा गोल जवाब दया—“मुझसे
कई साल छोटी थी।”
“वो भी आपसे यार करती थी?”
“नह ।”
और फर इसी कार क बात होती रह ।
म उसे िवषय बदलकर कॉलेज के बारे म बताता रहा।
तभी मने ये भी जान िलया क उसने म मी से इस बारे म कु छ नह बताया था।
¶¶
अ ारह
म आगे पढ़ने नह गया।
करण को उसके पापा ने मा टर िड ी के िलए फर लंदन भेज दया। पापा भी मुझे भेजना
चाहते थे, ले कन मने ही इं कार कर दया।
सो—पापा ने मुझे अपने साथ रखना आर भ कर दया।
उसके बाद र ा ने वा तव म हमारे घर का ख नह कया। शादी म हमारे पास िनमं ण
आया था। पड़ोसी होने के नाते हम सप रवार शादी म शािमल ए।
शादी म ही मने र ा के दू हे को देखा। वो खासा व थ और खूबसूरत युवक था।
मने छु य म ही पापा का ऑ फस वाइन कर िलया था।
अ टू बर का महीना था।
मने देखा—पापा अपने के िबन म कु छ परे शान बैठे थे।
“पापा, आप परे शान ह?” मने उनसे पूछा।
“नह ....कु छ खास नह ।” उ ह ने बात टाल दी।
ले कन मुझे सुकून नह िमला।
और मुझे पता भी चल गया।
सच!
वो सम या िवकट ही थी।
पेराई का व करीब आ रहा था और िबजली िवभाग वाले िबजली देने के िलए तैयार नह
थे।
कारण.... र त!
“मे आई कम इन पापा।” मने पापा के के िबन के ार पर जाकर कहा तो पापा ने चेहरा
फाइल म से ऊपर उठाकर मेरी तरफ देखा।
“ओह याम!” सीधे होते ए वे बोले—“कम इन।”
म अ दर दािखल हो गया।
“कु छ काम था?” कु स क पु त पर अपनी पीठ टकाते ए पेन को फाइल के ऊपर रखकर
पूछा उ ह ने।
“पापा, म कु छ कहना चाहता था....।” मने िहचकते ए कहा।
“हां बैठो!”
उनके कहने पर म बैठ गया।
“हां, कहो।” उ ह ने मेरी ओर तव ो दी—“ या कहना चाहते थे?”
“पापा, मुझे पता चला है क, “िह मत बटोर कर मने भूिमका बांध कर कहना आरं भ कया
—“िबजली िवभाग ने िबजली देने से इं कार कर दया है।”
“तुम इस बारे म मत सोचो।” उ ह ने बात बीच म ही समा कर दी—“उसे हम देख लगे।”
मानो उ साह से भरे गु बारे म मोटा छेद कर दया गया हो। सारी हवा फ स-से िनकल
गई।
ले कन मने भी िह मत नह हारी—“पापा, म कु छ और कहना चाहता ।ं ”
“ या कहना चाहते हो, कहो?”
“वे कतनी र त मांग रहे ह?”
उ ह ने बताया।
“हर साल लेते ह?” मने पूछा।
“तुम इस बारे म मत सोचो।” उ ह ने फर बात समा कर देनी चाही—“ये हमारा काम
है। ये तो इनका हर साल का ामा है।”
“तो य न हम अपनी ही िबजली पैदा कर?” म ज दी से कह उठा—इस बात को सोचकर
क कह वे मुझे चलता न कर द।
वे च कत होकर मुझे देखते रह गये।
उनक नजर मुझे अपना वजूद भेदती महसूस होने लग तो मने बेचैनी से पहलू बदला।
मुझे उनसे नजर िमलाने क िह मत नह ई।
“ या कहना चाहते हो तुम?” उनका वर मेरे कान म पड़ा तो मने अपना चेहरा उठाकर
उनक तरफ देखा।
वे बद तूर मेरी ओर देख रहे थे।
“व....वो म कहना चाहता था क....।” मने संभलकर कहना आरं भ कया—“िमल से जो
खोई िनकलती है, उसे हम हर बार कोिड़य के भाव बेच देते ह। अगर हम िबजली उ पादन
करना शु कर द तो वही खोई धन के प म काम आ जाया करे गी। हर साल िबजली का
झंझट भी ख म हो जाया करे गा।”
“ये ोजे ट तो मंहगा होगा।”
“कोई खास नह । और या ज रत है हम अपना पैसा लगाने क ? सरकार से लोन ले लगे।
उसम इतनी िबजली पैदा होगी क क पनी के अलावा हम कॉलोनी और बाहर भी िबजली
स लाई कर सकते ह। आस-पास के इलाके से िबल का जो पैसा आएगा, उससे लोन चुका
दगे।”
मने देखा उनक िच उस योजना म जागने लगी थी। वे सतक होकर मेरी बात सुनने लगे
थे।
“जरा खुलकर बताओ।” उ ह ने कहा।
मने उ ह खुलकर बताना आरं भ कर दया।
उ ह ने मेरी बात बड़े यान से सुन ।
हालां क उस व मने ोजे ट के बारे म कु छ तयशुदा लान तैयार नह कया था, ले कन
िजतना म जानता था, मने उतना बयान कर दया। एक-एक वाइं ट प करने म कोई
कसर बाक न रखी थी।
बात समा ई।
वे उस पर िवचार करने लगे।
“ठीक है।” फर उ ह ने िनणय सुनाया—“बोड ऑफ डायरे टस क मी टंग रख लेते ह। इस
प रयोजना को उनके सामने तुम खुद रखोगे। ये ोजे ट भी तुम खुद है डल करोगे।”
“जी....।” मने धड़कते दल से कहा।
वो पहला व था जब मने बोड ऑफ डायरे टस क मी टंग को संबोिधत कया। कसी भी
मंच पर खड़े होकर कु छ कहने का वो मेरा पहला मौका था।
शु म काफ िझझक मन म थी।
जब मने कहना आरं भ कया था तो मेरा दल पसिलय पर िसर पटक रहा था। फर धीरे -
धीरे म सामा य हो गया।
मी टंग से पहले मने उस प रयोजना के बारे म और जानकारी इक ी कर ली थी।
मेरे ताव का सबने वागत कया।
अ त म िनणय िलया गया—उस प रयोजना को मुझे ही है डल करना था। उसक बागडोर
मुझे स पने का ही फै सला िलया गया।
मी टंग समा हो गई।
हम पापा के के िबन म बैठे थे।
के वल हम दोन —म और पापा।
“अब या कर?” पापा ने असली मु ा उठाया—“अभी तो पेराई करानी ही है।”
“अभी तो समझौता कर लेते ह।” मने सलाह दी—“अगर वे नह मानते ह तो जनरे टर से
काम चलाएंग।े वे योरली तैयार हो जाएंग।े ”
“देखते ह....।”
¶¶
उ ीस
अगले ही वष।
यािन पेराई का सीजन समा होते ही उस प रयोजना पर काम आरं भ हो गया। उसम
हमने अपना खुद का पैसा ना के बराबर ही लगाया था। लोन क सारी औपचा रकताएं
पेराई के दौरान ही पूरी कर ली गई थ ।
मेरे ुप म मने अपने साथ कई और तजुबकार लोग को रख िलया।
मुझे कसी द त का सामना नह करना पड़ा।
काम तेजी से चला और साल भर म ोजे ट पूरा हो गया।
अगली पेराई!
हमारा ोजे ट पूरा हो चुका था।
वो पेराई अपनी ही िबजली से शु क जानी थी। इसी के उपल य म पापा ने घर म पाट
रखी।
इस पाट का आकषण म ही था य क उस ोजे ट का ताव लाने से लेकर उसे शु
कराने और पूरा कराने का काम मने ही कया था।
पाट का िनमं ण र ा के प रवार को भी दया गया।
र ा के म मी-पापा आए भी थे।
कई और लड़ कय क नजर मने खुद से िचपक महसूस क । ले कन मने उन पर यान नह
दया।
पाट अपने शबाब पर थी।
उस व !
“साहेबान!” पापा ने सबका यान अपनी ओर ख चा।
अपने हाथ म जाम िलए सबने पापा क तरफ यान दया।
“आज खुशी का मौका म आप सबके साथ बांटना चाहता ।ं ” पापा ने कहा—“साथ म म,
रतन िम ल, आप सबको अपने उ रािधकारी से भी मुलाकात करा देना अपना फज
समझता ।ं ” उ ह ने मेरे क धे पर हाथ रखते ए आगे कहा—“म याम कु मार िम ल को
अपना उ रािधकारी घोिषत करता ।ं मेरी स पूण जायदाद पर मेरा बेटा होने के नाते,
इसका बराबर का अिधकार होगा।”
स ाटे म खड़ा रह गया म!
एकाएक ही उ ह ने मुझे खाक से फलक पर बैठा दया था।
गला भर आया मेरा, जब तािलय क गड़गड़ाहट मेरे कान म पड़ी।
मने पापा क तरफ देखा।
मुझसे नजर िमलते ही वे मु कु रा दए। मेरी हालत से वे पूरी तरह वा कफ थे। शायद इसी
कारण उ ह ने आंख -ही-आंख म मुझे सां वना दी।
मने चंचल क ओर देखा।
मुझसे नजर िमलते ही वो मु कु रा दी।
र ा के पापा कु छ च कत नजर आए।
च कत होना भी लािजमी था उनका। जो ये क पना करते थे क मुझे कसी भी व उस
घर से ध े मारकर िनकाल दया जाएगा, उसी घर का मुझे उ रािधकारी घोिषत कर
दया गया था।
“पापा, या ये ठीक है?” पाट के बाद म पापा से िमला।
हमारी मुलाकात टडी म ई थी।
पापा एकदम सामा य थे, मानो कु छ आ ही न हो।
“ या ठीक नह है?” सामा य अंदाज। शा त वर।
“वो घोषणा....जो आपने पाट म क थी।”
“उसम गलत या है?”
म जवाब न दे सका।
बस हाथ बांधे खड़ा रहा।
कै से कहता क मुझे खाक से उठाकर फलक पर बैठाकर कतना बड़ा अहसान उ ह ने कया
है। इतना बड़ा अहसान क म उनका गुलाम सा हो गया था।
इतनी इ त!
“भई हम या करना है, या नह , हम अ छी तरह जानते ह।” उ ह ने कहा—“इसम तय
करने वाले तुम कौन होते हो?”
“मगर पापा, ये ज दी नह थी?”
“कु छ ज दी नह है। मने सब सोच-समझकर कया है।”
म खामोश रहा।
टडी म स ाटा ा हो गया।
“देखो, हम एक बेटे क ज रत थी।” कु छ देर बाद उ ह ने उस गहन स ाटे को भंग करते
ए कहा—“बेटी या है....वो तो पराया धन है! कल उसे चले ही जाना है। सारे फज तो
तु ह को पूरे करने ह। जो काम हम बाद म करना था....अब कर दया।”
म िवतक न कर सका।
वो काम जो उनके िलए अ य त छोटा था, वो मेरे िलए कतनी अहिमयत रखता था, ये म
ही जानता था।
उ ह ने मुझे समझाया क म उन बात पर यान न देकर अपने काम पर यान दू।ं
ले कन!
एक और चोर दल म िछपा मुझे परे शान कए जा रहा था, वो ये सवाल था क चंचल या
सोचेगी?
सही भी था।
जो कु छ भी था, चंचल का ही था।
इस त य म कु छ शक नह था क एक भाई के तौर पर वो मुझे बेइ तहा यार करती थी।
इसका सुबूत र ा के साथ ब तमीजी करके मुझे दे चुक थी। हालां क कम ही उ मीद थी
क कु छ भी वैसी नकारा मक ि थित आती, फर भी दमाग म बेचैनी उठी ही।
वही बेचैनी मुझे पापा तक ले गई थी िजसे म करने क िह मत न कर सका।
फर मने ये सोचकर क अगर वैसा कु छ होता है तो सब चंचल को देकर अलग हट जाऊंगा
—मने खुद को तस ली दी।
इसी से मुझे सुकन भी िमला।
¶¶
बीस
7 अ ैल 1992!
उस तारीख को म कभी नह भूल सकता।
ये वही तारीख थी जब मेरी क मत ने फर से गोल च र काटा था।
व —दोपहर बाद था।
लंच के बाद।
म अपने के िबन म बैठा क यूटर पर एकाउ स चैक कर रहा था।
तभी चपरासी ने आकर मुझे सूिचत कया—“आपको बड़े साहब ने अपने के िबन म बुलाया
है।”
“म आ रहा ।ं ”
मने कहकर क -बोड पर अंगुिलयां िथरकानी आरं भ कर द ।
फाइल ब द करके मने आनन-फानन म कु स छोड़ दी और बाहर िनकल गया।
“मे आई कम इन पापा।” उनके के िबन के दरवाजे पर जाकर मने कहा।
“आ जाओ।” पापा ने फाइल पर से चेहरा उठाया और कहा।
म अ दर प च
ं गया।
और उनके इशारे पर बैठ भी गया।
पापा फाइल म उलझे रहे, फर उस पर अपने साइन घसीटकर उ ह ने उसे ब द कर दया।
फर वे मेरी तरफ मुखाितब ए।
“मने फै सला िलया है क तु ह मु बई भेज दया जाए।” उ ह ने धमाका-सा कया।
ती झटका लगा मुझ।े
वो श द मेरी चेतना पर हथौड़े क मािन द टकराया था।
ब बई!
फर से ब बई!!
“तुम वहां जाकर वहां क क पनीज को संभालो।” उ ह ने िनणया मक वर म कहा
—“तु ह वहां उन सब क पनीज का मैने जंग डायरे टर बनाकर भेजा जा रहा है।”
म या कहता?
इं कार करने का तो सवाल ही नह उठता।
“कब जाना है पापा?” मने पूछा।
“कल ही िनकल जाओ।” उ ह ने कहा—“म लेन क टकट बुक करा दूग
ं ा।”
“नह पापा।” म कह उठा—“म ेन से जाऊंगा।”
“ ेन म इतना समय लगाने क ज रत या है?” वे चकराए वर म बोले—“ लेन से
जाओ।”
“नह , म ेन से ही जाऊंगा पापा!”
“जैसा तुम ठीक समझो।” उ ह ने कोई िवरोध नह कया।
और म ेन से ही गया।
ेन म भी मने जनरल का ही टकट िलया।
जब म िड बे म चढ़ा तो यारह साल पुरानी याद ताजा हो गई।
वही फ वाली सीट िजन पर बैठकर म इतना ल बा सफर तय करके ब बई से द ली
आया था।
मने अपने साथ कोई सामान नह िलया। जेब म भी कु छ ही पये रखे थे। सब सामान मने
लगेज म भेज दया था।
ि हिसल के बाद ेन पटरी पर फसलने लगी।
दल म अजीब-सा कु तूहल था!
मु त के बाद म अपनी ज मभूिम पर वािपस जा रहा था। वहां उन यारह वष म कतने
ही प रवतन आ गए ह गे! सब बदल गया होगा। और कोमल भी अब तो जवान हो गई
होगी। क हैया लाल भागव अब अधेड़ हो गये ह गे। कम-से-कम कनौितयां तो सफे द पड़ ही
गई ह गी।
और मेम साहब!
उनक आंख के नीचे भी पपोटे जरा फू ल गए ह गे।
कोमल अब कै सी लगती होगी?
अब तो बाल भी ल बे-ल बे रखने लगी होगी।
हो सकता है उसक शादी....।
यह दल जोर से धड़का।
अ दर का कु तूहल यकायक तड़प म त दील होता चला गया।
उसका अहसास करते ही मुझे अपने आपसे अजीब-सी लािन महसूस ई।
य सोच रहा ं म उसके बारे म?
उसी के कारण तो म वहां से बदनाम होकर िनकला था।
उसम उसक या गलती थी?
उसने तो अपने पापा से कहने क कोिशश भी क थी।
इ ह उधेड़बुन म सफर कटता रहा।
सफर म कई दलच प आदमी िमले।
ेन के ल बे सफर म सबसे बड़ी खािसयत ये आ करती है क आसपास क बथ पर बैठे
लोग से ऐसी दो ती हो जाया करती है मानो बरस से जानते ह ।
मेरे ही सामने िबहा रय का एक ुप बैठा था। ेन के कु छ टेशन पार करने के बाद ही
उ ह ने अपनी तान छेड़ दी।
सफर म रं ग भरने लगा।
ब बई!
चौबीस घ टे के सफर के बाद शाम को पांच बजे के व ेन मु बई प च
ं ी।
म टेशन पर उतरा तो बरबस ही मेरी नजर टेशन पर घूम ग । देखना चाहता था— क
उन यारह वष म वहां कतने प रवतन ए थे। ले कन अ दर कु छ खास त दीली मने नोट
नह क ।
म टेशन से बाहर आ गया।
वहां पर कु छ अित र िनमाण नजर आया।
कई दुकान का ढांचा बदल चुका था।
बाहर खड़ा कु छ देर तक म आस-पास का मुआयना करता रहा।
फर म ऑटो क तरफ बढ़ गया।
मने ऑटो कया और उसम सवार हो गया।
ऑटोवाले ने ऑटो टाट करके आगे बढ़ा दया।
मु बई क सड़क।
यारह वष म कतना बदलाव आ गया था वहां!
जहां मैदान थे वहां इमारत और शॉ पंग क ले स खड़े कर दए गए थे।
वहां क फज़ा तक म मने खासा नयापन महसूस कया। हवा तक क खुशबू म काफ
अ तर आ गया था।
घर प च
ं ते ही मने कु छ देर आराम कया।
ै श होकर मने कार िनकाली और िनकल पड़ा।
वही सड़क!
इ ह सड़क पर म यारह साल पहले ह त तक कु े क मािन द भटकता रहा था। कई
बार मु बई पुिलस के कां टेिबल ने मुझे ठोकर मारकर सोते से जगाया था। कतनी ही बार
मुझे दु कार सुनने को िमली थी।
उ ह सड़क पर मने कार साफ क थी।
उ ह सड़क पर चलते लोग क बूट-पॉिलश करके मने अपने पेट क आग बुझाई थी।
म देर रात तक मु बई क सड़क पर भटकता रहा।
पता नह य?
उस भटकन म जो भी लड़क मेरे आस-पास से गुजरती थी, बरबस ही मेरी नजर उसके
चेहरे पर िचपक जाती थी— फर म खुद ही आगे देखने लगता था।
ऐसे कई चेहरे भी सामने आए, िजनम मुझे कोमल क झलक महसूस ई।
हर बार दल धड़का।
सांस थम ।
ले कन अगले ही पल मुझे अहसास होता—म गलत था।
वो कोमल नह थी। शायद वो कोमल नह थी।
तभी एक और बात ने मेरे दमाग पर चोट क ।
वो या सड़क पर खड़ी िमलेगी?
वो तो कार से बाहर कदम ही तब रखती होगी जब उसे ज रत होती होगी।
ये बात याद आते ही मुझे अपनी सोच पर तरस आने लगा।
और फर....।
मने कार का ख मोड़ दया।
कार जब उनके बंगले के सामने से गुजरी, मने देखा िवशाल गेट पर सीताराम ही मु तैदी से
तैनात अपनी ूटी को अंजाम दे रहा था। अब तो वो पहले से डबल हो गया था।
सामने से गुजरते व िजतना हो सका मने अ दर तक झांकने क कोिशश क । ले कन म
कसी क झलक न पा सका। वहां से गुजरते व जाने य एक बार फर मेरी धड़कन तेज
हो गई थ । दल बुरी तरह आ दोिलत सा हो उठा था।
बामुि कल वो शा त आ।
शा त!
शा त आ कहना तो म मानता ं सही नह होगा। हां, वो पूरी तरह न सही, ले कन कु छ
हद तक, फर काफ हद तक काबू म अव य आ गया था।
म दस बजे तक यूं ही सड़क पर कार दौड़ाता रहा। फर मने कार बीच क तरफ मोड़ दी।
बीच!
वहां सब वैसा ही था।
कोई प रवतन नह ।
वो रात भी अंधेरी रात ही थी। अमाव या क रात तो वह नह थी, उसके आस-पास क ही
कोई रात थी वो।
सामने ठाठ मारता समंदर।
उसके सीने पर िखलंदड़ी करती, शोर मचाती ई उसक लहर।
िनशा के आंचल म टंके िझलिमलाते िसतारे जो दूर सम दर के ि ितज तक फै ले ए थे।
मने कार बीच पर ही उतार ली थी।
उससे िनकलकर मने पहले उसे लॉक कया और पास ही पड़ी बच पर पसर गया।
बड़ा सुकून था वहां।
वह तो एक रात िससकते ए मने गुजारी थी।
समु ी समीर िज म से टकराकर मानो मुझे सहला रही थी।
मने बच क पु त पर अपनी बाह फै लाकर अपना िसर टका दया और आंख ब द कर ल ।
ल बी-ल बी सांस लेने लगा। दमाग रलै स कर िलया मानो मु त बाद शरीर और
दमाग आराम करना चाहता था।
सच!
मु त बाद सुकून का अहसास आ था।
¶¶
इ स
वो रात मने वह गुजारी थी।
पता नह न द ने कब आकर मुझे दबोच िलया। जब आंख खोल तो सुबह हो चुक थी।
आग का गोला बना सूरज सम दर के आगोश म से बाहर िनकलकर आसमान के सीने पर
चढ़ने लगा था।
मेरे आस-पास काफ लोग इक े हो चुके थे।
सब अपने काम म त थे।
मने वो बच छोड़ दी और कार क तरफ बढ़ गया।
म फर सीधा घर प च
ं ा।
कार को मने दरवाजे पर ही छोड़ दया, य क तैयार होकर ना ता करके मुझे सीधे
ऑ फस ही जाना था।
म अ दर प च
ं ा तो बंगले का के यरटेकर मुझे ाइं गहॉल म ही िमल गया।
“आप कहां चले गये थे साहब?” उसने पूछा—“हम सारी रात आपका इं तजार करते रहे।”
“एक दो त के घर चला गया था। रात को उसी के पास देर हो गई थी, सो वह क गया
था।”
“मेम साहब का फोन आया था।”
“ओह!” तभी मुझे याद आया—
म मी ने कहा था—प च
ं ते ही फोन करना। ले कन म भूलकर सड़क क खाक छानने
िनकल गया था।
मने पूछा—“कु छ कह रही थ म मी?”
“आपको पूछ रही थ ।”
“तुमने या बताया?”
“मने बताया क....।” उसने संभलकर कहा—“आप आ तो गए ह। आते ही कह चले गये
ह।”
मने क
ं ारा भरा।
“तीन बार उनका फोन आया था।” उसने बताया।
“म अभी बात कर लूंगा।” म कहकर आगे बढ़ गया—“तुम ना ता तैयार करो। मुझे अभी
ऑ फस जाना है।”
वो ‘जी साहब’ कहकर रसोई क तरफ बढ़ गया।
मेरा बैड म मुझे शाम को ही बता दया गया था।
अपने बैड म म प च
ं ते ही सबसे पहले मने घर फोन कया।
फोन म मी ने ही अटै ड कया।
“म मी, म याम बोल रहा ।ं ” उनक तरफ से हैलो सुनते ही म कह उठा।
“ याम, कहां चला गया था तू?” म मी का वर उभरा—“मने कल तीन बार फोन कया
था।”
“हां, बताया। वो....म िनकल गया था जरा।”
“कहां?”
“बस ऐसे ही, एक दो त के पास।”
“आया कब था?”
“अभी आया ।ं बस ऑ फस के िलए िनकलने क तैयारी कर रहा ।ं ”
“आज य वाइन कर रहा है। आराम से कल-वल को जाना। इतने दन बाद बु बई
प च
ं ा है। कु छ देख! यार दो त से िमल।”
“वो तो म िमलता ही र ग
ं ा।” मने बात टाली—“पहले कु छ काम समझ िलया जाए। रात
को उनके पास ही था।”
“ फर भी....आज आराम कर।”
“वो तो करता ही र ग
ं ा म मी।” म हंस पड़ा।
“हां, वो तो मुझे पता है।” म मी का वर—“फोन करता रहना।”
“करता र ग
ं ा।”
“और हर व काम म ही मत उलझा रहा करना। खाने पीने का भी यान रखना।”
और कई िहदायत!
अपना यान रखना। व पर सोना। ठीक व पर ऑ फस से आ जाया करना।
ओह ये माएं!
म यान से उनक बात सुनता रहा और फर रसीवर रख दया।
उसके बाद म ऑ फस िनकल गया।
ऑ फस म पापा से बात । उ ह ने भी मेरी कु शल- ेम ली।
कु छ ऑ फिशयल िहदायत।
त प ात् उ ह ने स पक-िव छेद कर दया।
शाम को म ऑ फस से ज दी आ गया।
उस शाम मने अपने पुराने असली घर का ख कया।
ब ती म भी काफ त दीिलयां आ गई थ ।
कार म खुद ाइव करता आ प च
ं ा था।
पूरा घर भूत बंगला बन गया होगा उन दस साल म। दरवाजे पर पड़े ताले पर भी जंग लग
गया होगा। उसे तो अब तोड़ना ही पड़ेगा। चाबी तो क हैयालाल भागव के घर म ही छू ट
गई थी। वो जाने कहां पड़ी होगी?
मने अपनी कार अपने घर के सामने रोक दी।
म जब कार से उतरा तो कई िनगाह मुझ पर टक ग ।
अिधकतर चेहरे अनजाने से नजर आ रहे थे।
म कार से उतरकर ताई को खोजने लगा। ले कन मुझे ताई बाहर नजर नह आई। फर मने
अपने घर के दरवाजे पर िनगाह डाली तो म चकरा गया।
दरवाजे पर ताला नह था।
मेरा माथा ठनका।
मने कार का दरवाजा ब द कया और अपने घर क तरफ बढ़ गया।
दरवाजे पर जाकर मने कु डी खटखटाई।
कु छ देर म दरवाजा खुला।
दरवाजा खोलने वाली कोई अ ाइस वष य मराठी औरत थी। मने उसे पहचानने क
कोिशश क । ले कन पहचान न सका। फर जब यान उसके पेट पर गया तो पाया वो
उ मीद से थी।
“किहए!” उसने मुझे दरवाजे पर देखकर शं कत से वर म पूछा—“ कससे िमलना है?”
“यहां तो शायद बालाजी कदम रहते थे?” मने संभलकर पूछा।
“नह तो, यहां हम रहते ह।”
“कब से?”
“कई साल से।”
“ताई कहां है?”
“ताई?” वो जरा उलझी।
मने बताया तो समझी।
“मां जी तो घर पर ही ह गी।” उसने बताया।
“आप राजू क वाइफ ह ना।” म सारा मामला समझ तो चुका ही था, ले कन फर भी मने
पुि करने वाले अंदाज म पूछ ही िलया।
“ह....हां।”
“अब कहां है वो?”
“काम पर गए ह।”
“और ताई! वे पुराने घर म ही ह।”
“हां।”
फर मने और पूछताछ नह क ।
खट् ....खट् ....खट् !
मने ताई के दरवाजे क कु डी खटखटाई।
कु छ ही देर म दरवाजा खुला।
दरवाजा खोलने वाली ताई ही थी।
दरवाजे पर मुझे देखकर यकायक ताई च क -सी, फर तुर त ही संभल गई। इस कार वो
मुझे देखती रह गई जैसे उसे मेरा वहां होने का िव ास नह हो रहा हो।
कु छ देर तक वो मुझे पहचानने का य करती रही।
फर!
“ कससे िमलना है?” उ ह ने पूछा।
“कै सी हो ताई जी....।” म अथपूण लहजे म मु कु रा उठा।
उन पर यािशत असर पड़ा।
एक बार फर वे हौले से च क ।
उस बार नजर और पैनी होकर मेरे चेहरे पर िचपक ग । पहचानने क कोिशश।
फर धीरे -से कु छ रोमांिचत अंदाज म ताई के होठ से फू ट पड़ा—“श्....शामू।”
मेरी मु कान गहरी हो गई। फर वही गहरी मु कान खुद-ब-खुद ह क -सी समथपूण हंसी
म त दील हो गई।
“तू कब आया रे ?” अंदाज वही—“कहां था तू अब तक?”
“ताई, अ दर आने के िलए नह कहोगी?” म उनक बात को काटकर कह उठा।
“ह....हां....हां।” वो सकपका —“अ....आ....आ ना, अ दर आ।”
उ ह ने त परता से रा ता छोड़ दया।
मेरे तन पर शानदार कपड़ को देखकर वे काफ भािवत-सी नजर आ रही थ । साथ ही यूं
अ यािशत प से मेरे आगमन ने कु छ हलकान भी कर दया था उ ह।
वे मुझे अ दर ले ग ।
हड़बड़ी भरे अंदाज म उ ह ने अ दर पड़ी खाट के िब तर को झाड़-प छकर बैठने को कहा।
म खाट पर बैठ गया।
मेरे बैठने के बाद उ ह ने मेरी कु शल- ेम ली।
“घर म राजू कब से रह रहा है?” म मु य मु े पर आते ए बोला।
“वो....तेरा तो कु छ पता नह था।” ताई ने संभलकर बड़े ही नपे-तुले श द म कहना शु
कया—“तू साहब के यहां से भी कह चला गया था। घर यूं ही पड़ा था। सोचा क—घर म
कोई रहेगा तो साफ-सफाई भी होती रहेगी। इसीिलए शादी के बाद राजू को उसी घर म
भेज दया था।” फर तुर त ही वे कह उठ —“तेरे ताऊ भी आते ही ह गे।”
ताई के श द म िछपे आशय को म पूरी तरह से समझ गया। म कु छ नह बोला, ले कन ये
ज र तय कर िलया था क ताऊ जी से िमलकर ही जाऊंगा।
ताई ने मेरे िलए चाय बनानी शु कर दी।
यादा इं तजार नह करना पड़ा।
जब तक चाय बनकर तैयार ई, तब तक ताऊ जी भी आ गए। राजू भैया भी आ गए।
ताई ने तीन को ही चाय दी। उ ह जैसे पहले ही पता था क ताऊ जी और राजू भैया आने
वाले ह। या फर उ ह के वल ताऊ जी के आने क जानकारी थी। अपने िह से क चाय
उ ह ने राजू भैया को दे दी थी।
राजू भैया म मने सबसे यादा प रवतन देखे।
उनका चेहरा पहले से भी खुरदरा हो गया था। मूंछ भी पहले से अिधक भरी ई थ । बदन
पहले से यादा भारी हो गया था। अंदाज पहले से अिधक पैना हो गया था।
वही आ िजसका म पहले ही अनुमान लगा चुका था।
मेरे बात शु करते ही उ ह ने अपना रं ग दया।
“बेटा, घर तो तेरा ही है।” ताऊ जी ने कहा—“जब तू चाहे आ जा। हम उसी व घर
खाली कर दगे ले कन.....कागजात भी तो ह गे।”
“कागज ले आ और घर ले ले।” आगे क बात राजू भैया ने पूरी क ।
म उन दोन के चेहर को देखता रह गया।
बड़े आ मिव ास भरे लहजे म कहा था उ ह ने।
“कागज तो उसी घर म ह गे।” मने कहा।
“ह गे।” राजू भैया ने बड़ी धूतता से कहा—“वह रखे ह गे जहां चाचा ने रखे ह गे। तू देख
लेना।”
“ओह!” मेरे होठ से िनकला।
इसका मतलब कागजात को गायब कया जा चुका था। एक यही कारण था िजसके कारण
उनम इतना आ मिव ास पैदा हो गया था।
उन दोन को देखकर म सोच रहा था क इं सान अ दर से और बाहर से कतना जुदा आ
करता है। यारह साल पहले जब पापा गुजरे थे—तब वे मुझ पर कतना यार उं ड़ेला करते
थे। राजू भैया ऐसा चाहते थे जैसे म उनका सगा होऊं।
और अब!
मेरे दूर होते ही मेरी छत पर क जा जमा िलया। अब उनके तेवर क र दु मन और लड़ने
को तैयार लड़ाका जैसे थे।
मने कु छ कायवाही करने को कहा नह और वे आ गए मैदान म।
जब क मेरा वैसा कोई इरादा नह था।
इरादा तो तब होता ना जब मेरी उस घर को हािसल करने म कोई िच होती।
म तो वैसे ही उसे उ ह के हवाले करने के िलए ही सोचकर आया था। ले कन वो बात
दूसरी थी। अपने हाथ से कु छ देना और कसी के ारा जबरद ती क जा कर लेने म काफ
फक आ करता है।
दल म तो आया म उनका िगरे हबान पकड़कर घर से बाहर कर दू।ं ले कन म अ दर के
गु से को सफाई से दबाकर शा त बैठ गया।
इस स ब ध म पहले पापा से बात कर लेना ही मने ठीक समझा। कोई भी ए शन लेना
उ ह क सलाह से मुझे ठीक लगा।
“छोड़ो।” पापा का जवाब था—“तु ह या वहां रहना है?”
“ले कन पापा, ये ठीक थोड़े ही है।” मने उ िे लत हालत म कहा—“उ ह ने ये सब धोखे से
कया।”
“ऐसा ही होता है।” पापा क इि मनान भरी हंसी मेरे कान म पड़ी—“हर इं सान मौके का
फायदा उठाया करता है। उ ह एक मौका िमला, उ ह ने उसे कै श कर िलया।”
“बड़ी अकड़ दखा रहे थे वे।” मने दबे वर म कहा—“कह रहे थे कागज ले आओ और
क जा ले लो।”
“कागज गायब कर दए ह गे उन लोग ने?”
“हां, वे घर म ही थे।”
“इससे कु छ नह होता।” उनका वर लापरवाही से भरा था—“पर जब वहां रहना ही नह
है तो कोई भी कायवाही करने का फायदा ही या है? तु हारा घर तो है।”
म ितवाद न कर सका।
मुझे पापा से इसी जवाब क उ मीद थी।
“अब या क ं ?” मने बात को ख म करते ए औपचा रकतावश पूछा।
“भूल जाओ!” वही लापरवाही भरा अंदाज—“बात पर िम ी डाल दो और म त रहो।”
“ठीक है।” मने आ ापालक ब े क मािन द कहा।
“हां, तुमसे एक बात करनी थी।” पापा ने कु छ ज दी म कहा। शायद उ ह मेरी तरफ से
संपक िव छेद करने का अंदशे ा हो गया था।
“जी, किहए।”
“वमा से मेरी बात ई थी। लड़क खूबसूरत भी है। इसी साल एम.ए. कया है।”
“नह पापा।” मने अ िच से कहा—“म अभी शादी नह करना चाहता। लीज, अभी कोई
बात आगे मत बढ़ाइए।”
“भई, एक बार लड़क देख लो। उसके बाद सोचते रहगे।”
“पापा, अभी म शादी करना ही नह चाहता।”
“बखुरदार, हमारी समझ म नह आता या हो तुम? जब हम तु हारी उ म थे तो बीवी
तलाश करने के िलए ऑ फस के बजाए सड़क पर जाया करते थे। और तुम हो क काम का
ही पीछा नह छोड़ते।”
“पापा, फर म मी कहां िमल ।” म भी शरारत से बोला।
“वो तो पहले ही जवाहर लाल नेह यूिनव सटी के गेट पर मेरा वेट कर रही थ ।”
म हंसकर रह गया।
“कोई हो तो बता देना।” उ ह ने तुर त बात बदलकर कहा।
“नह , वैसी कोई नह है।” मने हंसी म ेक लगाकर कहा।
“और वो ब बई वाली?” शरारतभरा वर।
मुझे झटका लगा।
म यूं सकपका गया मानो उ ह ने मेरे मन का चोर पकड़ िलया हो।
उ ह कै से पता?
या चंचल ने उ ह बता दया?
नह ! मुि कल है।
“न....नह पापा।” मने बड़े संयत वर म अ दर क गड़बड़ाहट को दबाकर कहा—“ऐसा
कु छ नह है।”
“ फर?”
“ फर या?”
“तो वमा साहब से हां कर दू?ं ”
“नह पापा, लीज।” मने गहन अ िच से कहा—“अभी म इस च र म पड़ना नह
चाहता।”
“ठीक है, मत पड़ो। म लड़क क त वीर भेज रहा ।ं तुम उसे एक नजर देख लो। उसके
बाद फै सला करते रहना।”
“ठीक है, ओके ।” मने बवाल काटने वाले अंदाज म कहा।
फर यादा बात नह ।
संतु होकर पापा ने स पक-िव छेद कर दया।
मने भी यूं फोन रख दया मानो बला टली हो।
पापा को इस बारे म कै से पता चला?
यही सवाल शाम तक मेरे दमाग को लगातार कचोटे जा रहा था। उसी कारण म ऑ फस
म भी ठीक से काम न कर सका।
शाम को ही मेरी बात चंचल से ई।
“नह तो।” मेरे पूछने पर चंचल ने बताया—“मने तो पापा से कु छ नह बताया।”
“म मी से भी नह ?”
“नह । इस बारे म तो कभी कसी से कोई बात नह ई।”
“प ा?”
“हां प ा।”
“ फर पापा को इसका पता कै से चल गया?”
“कु छ कह रहे थे पापा?”
“नह तो।” मने टाला—“कु छ खास नह । उ ह ने ऐसी ही एक बात क थी।”
चंचल खामोश रही।
“भाभी से मुलाकात ई?” तभी उसने पूछा।
“नह ।”
“देखा भी नह ?”
“नह ?”
“ य ?” च काहट भरा वर।
“ य या?”
“आप सच म नह िमले?” चंचल ने अिव ास भरे वर म कहा।
“नह , सच म नह ।” म मु कु राया।
फर चंचल ने कहा—“पापा ने आपके िलए एक त वीर भेजी है।”
“अ छा.....तूने देखी?”
“हां, ब त खूबसूरत है।”
“तुझे अ छी लगी?”
“मेरे अ छी लगने से या होता है?” उसने तुर त ही जवाब दया—“देखना तो आपको
है।”
“देखूंगा।” मने बस इतना ही कहा।
¶¶
बाईस
काफ सोचने पर भी म अपने सवाल का सटीक जवाब न पा सका। इस बारे म चंचल ने
पापा को कु छ नह बताया था। न ही म मी से कु छ बात ई।
हो सकता है चंचल ने इस बारे म म मी से बात क हो और भूल गई हो।
हो सकता है वैसा आ हो।
उसके अलावा तो खुद मने दस साल पहले पापा से अपने बारे म बताया था। उस दुघटना
के बारे म बताया था।
या पापा को तभी शक हो गया था?
नह ! मेरे दमाग ने ितवाद कया। ऐसा नह हो सकता। अगर ऐसा होता तो वे मुझे
अपने घर म पनाह य देते?
खैर!
मने इन बात को दमाग से खुरचकर अपना यान काम पर के ि त करने का य कया।
उसम मने पूरी सफलता भी हािसल कर ली। ऑ फस म जाने के बाद ऑ फिशयल बात के
अलावा कसी अ य बात पर मेरा यान नह जाता था। मने बड़ी स िलयत से ऑ फस को
संभाल िलया।
फर भी जब म शाम को ऑ फस से िनकलता था तो कार को उधर से लेकर ज र गुजरता
था। इस उ मीद के साथ क शायद एक झलक देखने को िमल जाय।
ले कन िनराशा ही हाथ आती।
हर बार सीताराम गेट पर खड़ा मुंह िचढ़ाता-सा नजर आता। मुझे हर बार गेट ब द
िमलता।
एक दन आरजू पूरी नजर होती नजर आई।
उस दन गेट खुला आ था। उसम से एक कार बाहर िनकली जो चार-पांच साल पुराने
मॉडल क थी। क तु उसम बैठी लड़क को भी म ठीक से न देख सका।
म यासा-सा रह गया।
द ली से त वीर भी आ गई।
त वीर मुझे ऑ फस म ही िमली थी। पापा ने वो वह पो ट क थी।
मने तब िलफाफे से त वीर िनकालकर देखी तो पाया वा तव म लड़क खूबसूरत थी।
गोरे रं ग क उस लड़क के नयन-न श काफ तीखे थे।
गहरी आंख! कमानीदार भव। चेहरे पर न मेकअप, न कोई बनावटी भाव।
एकदम सादा ।
त वीर देखकर मुझे लगा शायद म मी-पापा को मेरी पसंद का पूरा अहसास था। वे जानते
थे क म कस तरह क लड़क क क पना कया करता था।
उस त वीर म वो सब गुण मुझे साफ नजर आए जो म पसंद करता था। ले कन चाहकर भी
म उस त वीर को उस े म म फट न कर सका, जहां अभी त वीर तो फट नह ई थी,
क तु वहां एक नाम अव य िलखा था।
कोमल!
शाम को म िडनर लेकर िनबटा ही था क घर के ाइं गहॉल म रखा फोन घनघना उठा।
फोन क ल बी घ टी सुनकर ही मने अनुमान लगा िलया था क फोन ज र द ली से
होगा।
फोन द ली से ही था।
फोन रसीव करके के यरटेकर ने बताया—“मेम साहब ह। आपसे बात करना चाहती ह।”
म फोन के पास प च
ं ा।
रसीवर उठाकर कान से लगाकर मने कहा—“हैलो म मी! गुड इव नंग।”
“कै सा है तू?”
“ठीक ं म मी।”
“ या कर रहा था? िडनर ले िलया?”
“अभी िलया है।”
“सुन, त वीर भेजी थी हमने। प च
ं गई?” वे तुर त ही मकसद पर आ ग ।
“हां, दोपहर को ही िमल गई थी।”
“देखी तूने?”
“हां।”
“कै सी लगी?”
“ठीक है।”
“तो हां कर द वमा जी से?” ह षत वर।
म खामोश।
समझ न आ सका या क ?ं
“नह ।” मने तुर त िनणय िलया—“अभी नह ।”
“ य ?” च का आ वर।
“अभी म शादी नह करना चाहता म मी।” मने अ िच से कहा—“म अभी िबजनेस और
बढ़ाना चाहता ।ं ”
“ य ? ये या कम है?”
“नह । फर भी....कु छ तो करना चािहए। अभी कौन-सी शादी क उ िनकली जा रही
है।”
“उ नह िनकली जा रही—ले कन शादी करनी तो है ही ना? लड़क भी इतनी अ छी
िमल रही है।”
अब म या कहता?
वे तो उसे मेरे िलए पसंद कए बैठे थे।
म मी क कसी बात का सीधे इं कार करना भी तो मेरे वश म नह था।
या क ं ?
म उलझ गया।
यूं ही कई पल तक उलझा रहा।
“ठीक है।” अ ततः मने कहा—“म सोचकर बताऊंगा।”
“हां सोच ले। ऐसा कर—कब आ रहा है यहां?”
“कब आऊं? कु छ काम था?”
“आकर देख ही जो ले। उसके बाद सोचते रहना।” वे उ मीद से बोल ।
“अभी तो नह ।” मने कहा—“अभी तो ऑ फस म काम है।”
“तो अगले ह ते आ जा।” उ ह ने आ ा दी।
“ठीक है।” मने कह दया।
कोई उ साह नह था।
मने रसीवर रखा और अपने कमरे क तरफ बढ़ गया।
¶¶
तेइस
“मे आई कम इन, सर।”
अ य त मधुर जलतरं ग-सा सुरीला सुकोमल वर मेरे कान म पड़ा। क यूटर के क -बोड
पर िथरकत अंगुिलयां यकायक थम-सी ग । कान के रा ते शहद क चा ी-सी मेरे दल
पर उतरती चली गई।
मने नजर उठाकर दरवाजे क तरफ देखा तो मेरा दल ध -से रह गया।
मेरे समूचे वजूद को मानो एक अ जानी शि ने आकर यकायक अपने घेरे म ले िलया जैसे।
अ य त साधारण कपड़े। ले कन बला-सी हसीन थी वह। मान वग क अ सरा कु ता-
सलवार पहनकर जमीन पर उतरकर मेरे ऑ फस म आ खड़ी ई थी।
साढ़े पांच फु ट ल बा कद। गोरा रं ग! मानो ा ने चुटक भर िस दूर म खन म िमलाकर
उसक सांचे म ढली काया पर मल दया हो। सुराहीदार गदन! गुलाब-सी पंखुड़ी सरीखे
गुलाबी लब।
एक अजीब-से स मोहन म जकड़ा म उसे देखता रह गया।
वो वही तो थी!
वही िजसक एक झलक पाने के िलए मने जाने कतनी सड़क क खाक छानी थी। कतनी
बार उसके ार पर गया....और यासा लौटा।
वही तो!
कोमल....कोमल भागव।
उसके इ तकबाल म म खुद-ब-खुद खड़ा हो गया।
“मे आई कम इन, सर।”
पुनः मेरे कान म शहद घुला तो मेरा स मोहन टू टा।
अपनी व तुि थित का अहसास होते ही म सकपका कर रह गया।
“ओह यस....कम इन....।” म तुर त कु स पर कािबज हो गया।
जाने य मेरा दल बेकाबू हो चला था। बामुि कल मने उसे संभाला।
वो अ दर आई तो मने उसे बैठने का इशारा कया—“ लीज, िसट डाउन।”
वो खामोशी से बैठ गई।
मेरा दल पसिलय से िसर पटक रहा था।
“किहए।” म इतना ही कह सका।
“सर, आपने सैके ी के िलए अखबार म इि तहार दया था।” बड़े संयत और गंभीर वर म
उसने कहा। और अपने उ त व म दबी फाइल मेरी तरफ बढ़ा दी—“सर, ये मेरा
बायोडाटा है।”
मने फाइल ले ली।
उसे खोलकर मने पढ़ना शु कया। या यूं क ं क पढ़ने का य करने लगा तो सही
होगा। उसे म पढ़ तो तभी पाता ना जब म अपने बेकाबू दल पर कु छ काबू पा लेता। उस
व तो अपने अ दर क हलचल को अ दर ही ज त कर लेना, उसे अपने चेहरे पर न
छलकने देना ही मेरे िलए क ठन काम था। उसी य म मने अपनी नजर फाइल पर
टकाकर अपनी पीठ कु स क पु त पर सटा ली।
म आराम क अव था म आ गया।
सबसे ऊपर रखी मै क क माकशीट पर मने उसका नाम—कोमल भागव, पु ी ी
क हैयालाल भागव—पढ़ा तो उसके कोमल ही होने क त दीक हो गई।
बड़े भागीरथ य के बाद मने अपने दल पर काबू पाया तो महसूस कया क तब तक
ऑ फस म पैना स ाटा ा हो चुका था। ऑ फस म लगे एयरक डीशनर क ‘शू-ं शू’ं क
आवाज हम दोन के कान म साफ पड़ रही थी।
मने फाइल के डा यूमे स को देखना आरं भ कर दया।
“हां तो िमस!” मने कहना शु कया—“िमस कोमल भागव। कहां तक पढ़ी िलखी ह
आप?”
“जी.... ेजुएशन क है। फ ट ईयर।”
“ कस स जे ट से?”
“इकॉनािम स ऑनर। मु बई यूिनव सटी से।”
“ब बई के बारे म कु छ जानती ह आप?” मने उसक जानकारी परखने वाले अंदाज म
कहा।
उसने मुझे ब बई के बारे म बताया।
मने उससे भारतीय अथ व था और आ थक दशा के बारे म कु छ सवाल कए, िजनके
उसने संतुि पूण दये।
कु छ सवाल उसक ाली फके शन के स ब ध म।
“आप फाइनल नह कर रह ?” अ त म मने उसके ि गत जीवन म जरा-सा झांकने का
य कया।
“नो सर।” उसने कहा—“पापा चाहते ह। ले कन अब म ही पढ़ना नह चाहती। इस साल
मने ाप कया है।”
“आगे?”
“इरादा तो है। अगले वष िवचार क ं गी।”
“ य ?”
“म अब जॉब करना चाहती ।ं ”
“घर म कौन-कौन है?”
“पापा और म।”
“आपक म मी?”
इस सवाल पर उसक गंभीरता म कु छ और इजाफा हो गया। गंभीरता से उसने अपनी
गदन जरा झुका ली।
एक अनजानी बुरी आशंका ने मेरे दल म भी िसर उठाया।
“उ ह गुजरे नौ साल हो गये ह।” उसने धीरे -से बताया। आवाज मानो सागर के तल को
पश करके बाहर िनकली थी।
मुझे ध ा-सा लगा।
मगर मने उस बार बड़ी द ता से वयं पर काबू पा िलया। हर भाव को बेहद सफलता से
अ दर ही ज त कर िलया।
“ या आ था उ ह?” मने गंभीर वर म पूछा।
“ लड कसर।” उसके होठ सीिमत अंदाज म खुल।े
“सॉरी।” मने संवेदना कट करते ए कहा।
कु छ खामोशी।
मने एक बार फर अपनी पीठ कु स क पु त पर टका दी और झ के खाने लगा।
त प ात् मने उसके बायोडाटा पर यान दया।
मने उसक माकशीट िनकालकर अपने हाथ म ले ली और पूछा—“आपके िपता का नाम
ी क हैयालाल भागव िलखा है आपक माकशीट म।”
“जी।” गुलाबी पंखुिड़यां हौले से िहल ।
“ये तो शायद ब बई के कोई इ ड ीएिल ट ह?”
“जी। अब हमारी क पिनयां नह ह। वे ब द हो चुक ह।”
“कब से?”
“दो साल हो गए।” उसने बताया—“एक क पनी हमारी िनजी थी। दूसरी क पनी म शेयस
थे। तीन साल पहले शेयर हो डस ने घाटे के कारण अपने शेयस वािपस ले िलए थे।”
“ओह!” मेरे होठ से के वल इतना ही िनकला।
यािन मेरे जाने के बाद उ ह बड़ी ासदी का सामना करना पड़ा।
उस ासदी के बारे म जानकर मुझे पहले पल अजीब-सी संतुि का अहसास आ।
क हैयालाल भागव क द र हालत क क पना करके मुझे असीम शाि त क अनुभिू त ई।
क तु अगले ही पल कोमल क परे शानी का यान जाते ही मुझे अपनी गलती का अहसास
आ। कु छ देर पहले दल पर कािबज संतुि के थान पर, अपनी तु छ सोच के ित घृणा
आती चली गई।
“अ....आप कल वाइन कर सकती ह।” मने इं टर ू का अ त करना बेहतर समझा—“कल
ही आप अपना अ वाइं टमे ट लेटर यह से आकर लेकर वाइन कर ल।”
“थ यू सर।” खूबसूरत मुखड़े पर जरा खुशी दमक तो मुझे लगा मानो चांद और चमक
उठा था।
मने उसक फाइल उसे लौटा दी।
“आप कल सुबह दस बजे आ जाइए।” मने अ त म कहा—“आते ही सीधे मेरे के िबन म
आना और अपना लेटर रसीव कर लेना।”
“थ यू। थ यू वैरी मच सर।” उसने कु स छोड़ दी।
वो चली गई!
उसके दरवाजे से बाहर िनकलते ही मने कु स क पु त पर अपना िसर टका िलया। आंख
ब द करके ल बी-ल बी सांस लेने लगा।
आजादी िमलते ही दल म दबे सम दर म मानो वार-भाटा आ गया था। लहर मेरे सीने
क दीवार पर िसर पटकने लगी थ । दमाग भी उ िे लत होकर काबू से बाहर हो चला
था। उ ह को वश म करने के िलए और उस वेग को सहन करने के िलए म ल बी-ल बी
सांस ले रहा था।
मेरे पीछे कै सा कायापलट हो गया था वहां।
वो लड़क जो अपनी वािहश को अपने इशार पर पूरा कराया करती थी—वो आज घर
से िनकलकर सड़क क खाक छान रही थी नौकरी के िलए? वो रोजी क तलाश म मेरे
ऑ फस म कु छ देर पहले आई थी।
वो लड़क —िजसक िखलिखलाहट से बंगला गुलजार रहा करता था—अब कतनी गंभीर
हो गई थी!
वो उसक युवाव था क गंभीरता थी या उसके उन नाजुक कं ध पर पड़े भार का अहसास।
वो खािलस जवानी क गंभीरता तो नह थी—िज मेदारी का अहसास भी था।
बचपन क चपलता को जैसे व ने ब त सारी परत के नीचे दबा दया हो।
उसक उस झलक ने यासे के क ठ म पानी क बूंद का काम कया। दबी यास और
च ड हो उठी।
काश! कु छ देर और क जाती वो। कु छ देर वो सामने खामोश बैठी रहती।
काश! कु छ देर और उसका दीदार करने का मौका िमल जाता।
क तु तभी सुकून का यह अहसास आ क अब म जल ोत के करीब था।
वो कल भी आएगी।
मने आंख खोल द और मेज पर रखे िगलास का पानी िपया।
उसके बाद मने मैनेजर को बुलाया।
मैनेजर आया।
“िम टर शे ी।” उसके बैठ जाने पर मने उससे पूछा—“एक क पनी थी यहां—इ डो-हबल
इ ड ी के नाम से।”
“यस सर। अब वो ब द पड़ी है।”
“ य ?” मेरी भव िसकु ड़ —“च र या है इनका?”
“ये नीलामी पर ह।”
“ या?” म च का—“कब?”
“नीलामी परस होगी। भागव साहब का घर भी नीलामी पर है।”
“ ॉ लम या थी?”
“शराब, और या!” मैनेजर ने बताया—“अपने व म ये क पिनयां सबसे तेजी से
उभरती क पिनयां थ । ले कन भागव साहब क प ी के गुजर जाने के बाद उ ह शराब क
लत पड़ गई। ऊपर से वे रे स भी खेलने लगे।”
“ फर?”
“लगभग चार साल होने को ह, एक रात शराब के नशे म कार का ए सीडे ट कर बैठे। जान
तो बड़ी मुि कल से बची, पर वे फर पैर पर खड़े नह हो सके । अब वे हील चेयर ख च
रहे ह।”
“अब कहां ह वे?”
“ह ते भर पहले तक तो यह थे। अब शायद घर खाली कर दया हो।”
मने क
ं ारा भरा—“तो नीलामी परस है....।”
“यस सर।”
“कहां है नीलामी?”
“बंगले पर ही होगी।”
“अभी भी क पनी के ा ड क साख म कु छ दम है?” मने पता करने के अंदाज म पूछा।
“है सर।” मेरा मतलब भांपकर उसने अथपूण लहजे म कहा—“ये अपने टाइम म माकट म
ब त अ छी साख रखती थ । उ मीद है बोली काफ ऊंची जाए।”
म क
ं ारा भरकर रह गया।
“वो तो इनका चेयरमैन नाकारा हो गया था।” मैनेजर ने अपनी बात जारी रखी—“नह
तो आज ये क पनी टॉप पर होती।”
मने एक और क
ं ारा भरा।
“ठीक है।” मैने िनणया मक वर म कहा—“आप एक काम क िजए, कोमल भागव के नाम
एक अपाइं टमे ट लेटर तैयार करवाकर लक से मेरी मेज पर िभजवा दीिजए।”
“यस सर।” कहते ए उसने उठने का उप म कया।
मैनेजर के जाते ही मने एयरपोट पर स पक थािपत कया। और पता करने का य
कया क या शाम को द ली जाने वाली लाइट म कोई सीट खाली है।
बड़ी स िलयत से उस लाइट म मुझे सीट िमल गई और मने एक टकट द ली का बुक
करा िलया।
“अरे याम!” म मी ने मुझे जब दरवाजे पर देखा तो वो च कत रह ग —“तू यहां?”
चंचल तो खुशी से कलकारी मारती ई सोफे पर से उछलकर भागती ई मेरी बाह म
समा गई। उस व वे दोन हॉल म बैठी टी.वी. ो ाम देख रही थ ।
“कै सी है?” मने यार से चंचल का िसर सहला दया।
“ठीक ।ं ” उसने अलम त अंदाज म कहा—“आप कै से आए?”
“ ी- हीलर से।”
“ य ? कार नह मंगवा सकता था?” म मी ने मुझे डांटा।
“ या ज रत थी?” म लापरवाही से हंस दया—“और बगैर मतलब व बबाद होता।”
हम सोफे पर बैठ गए।
चंचल मेरे ही पास मुझसे िचपक बैठी थी।
मेरे बैठते ही वह उ क ठा से फु सफु साई—“भाभी िमल ?”
मने झटके से उसक तरफ देखा।
वो शरारत से मेरी तरफ देख रही थी।
“नह ।” मने जवाब दया—“अभी नह ।”
“ य ?”
म जवाब नह दे सका।
“ या खुसर-फु सर हो रही है भाई-बहन म?” तभी म मी क आवाज ने हमारा यान
अपनी तरफ ख चा—“आते ही शु हो गए दोन ।”
“क....कु छ नह म मी।” चंचल सकपकाकर कह उठी—“भाभी के बारे म पूछ रही थी।”
म चकरा गया।
बेड़ागक!
पागल लड़क ने तुर त बक दया था।
“हां, कु छ सोचा तून?े ” म मी ने याद आते ही पूछा।
“मने! नह अभी नह ।” मने जवाब दया। साथ ही बाल-बाल बच जाने के अहसास से मने
अ दर-ही-अ दर राहत क मील ल बी सांस ली।
“ य ?”
“बस व नह िमला।” मने िववशता जािहर क —“सोच भी लूंगा। अभी या ज दी है।”
“यहां कसी काम से आया था?”
“हां।” मने बताया—“एक काम था—पापा से िबजनेस के बारे म।”
“कु छ ा लम है?”
“नह , कु छ ा लम नह है।”
“ फर?”
“थोड़ा िड कशन करना था बस।” मने कहा—“कब आएंगे पापा?”
“आते ही ह गे। आजकल इसी व आ रहे ह।”
हम यादा इं तजार नह करना पड़ा।
िडनर का व होने ही वाला था और िडनर के व पर ही पापा आ गए।
िडनर के बाद मने पापा से इस बारे म बात क तो पापा ने पूछा—“क पनीज कसक ह?”
“क हैयालाल भागव क ।” मने गदन झुकाकर दबे वर म कहा।
“क हैयालाल भागव?” पापा के माथे पर सोचपूण अंदाज म बल पड़ गया—“ये नाम तो
सुना-सा लगता है।”
उनक नजर मेरे चेहरे पर िचपक ग ।
“ये तो शायद वही ह....।” उनके दमाग म जैसे कु छ पाक आ था—“जहां तु हारे पापा
नौकरी करते थे।”
“जी।”
“ओह!” बेसा ता ही उनके होठ से िनकला—“ओह!”
म उनके सामने यूं ही बैठा रहा।
उनक भेदती नजर को अपने िज म का ए सरे लेती-सी महसूस करके मेरी गदन और झुक
गई।
उ ह ने कु छ सोचते ए क
ं ारा लेकर कोई पैरा ाफ बदला जैस।े
“तो तुम उ ह खरीदना चाहते हो?” उ ह ने वहां छा गई गहन शाि त को अपनी गंभीर
आवाज से भंग कया।
“उसम हम काफ फायदा होगा पापा!” मने सफाई दी—“वो क पनीज माकट म अ छी
साख रखती ह। ाड ट वही रखगे, बस एडवरटाइजमे ट म कु छ खच करना पड़ेगा।
आजकल पापा, माकट म आयुव दक दवाइय और दूसरे ाड स भी अपना पैर जमा रहे
ह। ये क पनीज वैसे भी अपना दबदबा बनाए ए ह। अगर दोन क पनीज हम िमल जाएं
तो हम इससे काफ फायदा होगा।”
पापा मेरे ताव पर िवचार करते नजर आये।
“ठीक है, खरीद लो।” ब त ज दी उ ह ने फै सला सुना दया।
“आप....।”
“नह , वहां तुम ही जाओ।” उ ह ने िनणया मक वर म कहा—“तुम खुद ही उनक बोली
लगा लेना।”
“ कतने तक क बोली लगा दू?ं ”
“ये तुम खुद देखना। उनके बारे म म तो कु छ जानता नह ।ं तुम खुद देखो, या करना है
उनका।”
“ठीक है।”
“वैसे तु ह इसक जानकारी कै से िमली थी?”
“आज ही सुबह भागव साहब क लड़क मेरे ऑ फस म आई थी।” मने दबे वर म बताया।
“ये सब उसी ने बताया?” उ ह ने मुझे भेदकर रख देने वाले अंदाज म कहा।
“नह । वो वहां जॉब के िलए आई थी। उसके इं टर ू म मने बस इतना जाना था क वे
क पनीज उनक नह रह । अब वे ब द पड़ी ह। उसके चले जाने के बाद मने मैनेजर से
पूछा। उसी ने सब बताया।”
“लड़क कस पो ट के िलए आई थी?”
“सैके ी के िलए।”
“तो रख लो उसे।” उ ह ने अथपूण लहजे म कहा।
“रख िलया।” म भी मु कु राया—“कल वो वाइन कर रही है।”
उनक मु कान और गहरी हो गई।
वा तव म पापा मुझसे काफ हद तक क थे। उस व वे मेरे मन क बात समझ भी रहे
थे। और म पूरी तरह जानता था क वे मेरे मन म हो रही उथल-पुथल को महसूस भी कर
रहे थे।
सो, मने मौका लपक लेना ठीक समझा और कह दया—“घर भी नीलाम हो रहा है,
पापा।”
“वो हाथ से नह िनकलना चािहए।” उ ह ने मुझे अपना प समथन दे दया।
पापा का खुला समथन िमलने से म झूम उठा।
उस रात कु छ यादा ही ह कापन म अपने मन म महसूस कर रहा था। सारा वातावरण
सुखद संगीत से भर गया था जैस।े हर आवाज म स ता क िमठास मुझे महसूस हो रही
थी।
म िब तर म पड़ा देर रात तक जागता रहा।
उसी रात पहली बार मुझे िब तर म त कये के अलावा और कसी और के होने का अहसास
आ। मेरी बाह भी मचल । जब म जागा तो पाया ‘उसे’ समझकर मने त कये को अपने
अंक म दबोच रखा था।
अपनी नादानी का अहसास होते ही म खुद पर ही मु कु राकर रह गया।
आह!
कतना सुखद अहसास था वह!
या था वह.... यार?
या कु छ और?
सुबह म कु छ देर से उठा तो उठते ही बाथ म क तरफ भागा। म सुबह दस बजे से पहले
ही मु बई म अपने ऑ फस म तुत हो जाना चाहता था, ता क उसे मेरा जरा भी इं तजार
न करना पड़े।
सच क ं तो उसे कहां इं तजार था मेरा?
इं तजार तो खुद मुझे था। म खुद उसके दीदार को उतावला आ जा रहा था। एक-एक पल
मेरे िलए पहाड़ क तरह सािबत हो रहा था उठने के बाद।
म फटाफट तैयार होकर बाहर िनकला तो म मी ना ता लगा रही थ ।
“अ छा, म मी म जा रहा ।ं ” म उनका ना ता लगाना नजरअंदाज करता आ तेजी से
आगे बढ़ा ले कन उ ह ने जब मुझे ककर ना ता करने के िलए कहा तो म ठठककर रह
गया, मानो उ ह ने यकायक मेरे पैर म बेिड़यां डाल दी ह ।
“म मी, मुझे लाइट पकड़नी है।” मने तता से कहा।
“तो या आ?” उ ह ने कहा—“ना ता करने म कतनी देर लगती है। ना ता करके
जाना....।”
मुझे कना ही पड़ा।
य न कता। अभी तो लाइट म भी एक घ टे का व था। एयरपोट पर प च ं ने म
मुि कल से आधा घ टा लगना था। वहां ना ता तैयार था और उसे करने म मुि कल से दस
िमनट का व लगता।
तब जब क म मी ना ता लगा रही थ , साथ म उ ह ने मुझे कहा भी था, तो म उनक
आ ा टाल कै से सकता था। वहां मेरे मन का चोर भी याशील था—कह म मी मेरे
उतावलेपन को भांप न ल। पापा को तो वैसे भी पता चल ही चुका था क आज उसे मेरे
ऑ फस म वाइन करना था।
म दरवाजे क तरफ बढ़ने क बजाय सीधा ना ते क टेबल पर प च
ं ा और चेयर पर
कािबज हो गया।
पापा और चंचल भी आ गए।
ना ता बड़े शा त माहौल म आ।
मने भी अपने अ दर क अशाि त और उतावलेपन को दबाकर बड़े सलीके से ना ता कया।
“हां, तो कब आ रहे हो वािपस?” ना ते के बीच पापा ने पूछा।
“ य पापा?”
“भई, हम वमा जी को जवाब देना है।”
तभी मुझे याद आया, वे तो यहां मेरे िलए लड़क पसंद कये बैठे थे।
“पापा, म अभी शादी नह करना चाहता।” मने प कहा।
“तो कब करे गा?”
“म अभी कु छ दन और कना चाहता ।ं अभी ज दी या है पापा?”
“ठीक है, हम उ ह कने के िलए कह देते ह।” पापा ने तुर त ही कहा—“कब तक कने के
िलए कह?”
“कम-से-कम दो साल।”
“दो साल!” म मी च क —“इतने दन बाद शादी करे गा तू? वे क सकगे इतने दन?”
“तो शादी मना कर दीिजए।” मने क धे उचका दए।
म मी मेरा चेहरा देखती रह ग ।
उ ह वैसे मुझ पर िव ास नह हो रहा था।
उसी व मुझे भी अपनी गलती का िश त से अहसास आ िजसके प रणाम व प म
सकपकाकर रह गया। न चाहते ए भी अपराध भाव से मेरी गदन झुकती चली गई।
जंदगी म पहली बार मने यूं उ ह टका-सा जवाब दया था।
मने िह मत करके पापा क ित या देखी तो पापा को ही नह , चंचल को भी हैरानी से
अपनी तरफ देखते पाया।
“तुम ऐसा करो।” पापा ने बात को ख म करने वाले अंदाज म कहा—“तुम एक बार लड़क
देख लो। उसके बाद फै सला कर लेना।”
“ठीक है पापा।” मने दबे वर म कहा। मेरी आवाज जैसे कई जगह अव रा ते को पार
करके मेरे हलक से िनकली थी।
उबाल खाता दूध पानी क छ ट पड़ जाने पर िजस कार ठ डा पड़कर बैठ जाया करता है,
उसी कार मेरी सारी फु लता, सारा उ लास ठ डा पड़ चुका था।
ना ते के बाद जब म घर से चला तो मेरे मन पर एक अजीब-सा बोझ था, जो वा तव म
मुझे अपनी गलती का अहसास करा रहा था। हालां क वो इतनी बड़ी गलती नह थी,
क तु उसका असर मुझ पर काफ बड़ा था। होता भी य न, जंदगी म पहली बार मने
वैसा कया था।
ना ता करके भी म कु छ देर वहां का।
उनक बात रखने के िलए ही मने तब लड़क देखने के िलए आने का वादा भी कर िलया।
मने अगले स डे का दन िनधा रत कर दया।
वैसे म मी का मूड एकदम सामा य था। ना ते के बाद वे पूरी तरह सामा य थ ।
एयरपोट पर प च
ं कर मुझे फर उसी बेचैनी का अहसास आ।
वही जानी-पहचानी बेचैनी।
एयरपोट से म सीधा ऑ फस प च
ं ा।
जब म ऑ फस म दािखल आ तो पौने दस बज रहे थे। अपने के िबन म कदम रखते ही
सबसे पहले मने ये मालूम कया क—वो आई तो नह ?
पता चला, अभी नह आई थी।
मुझे जरा राहत िमली। यािन वो आने वाली थी।
म कु स पर कािबज हो गया।
मने मेज पर नजर डाली तो उसका अपाइं टमे ट लेटर वह रखा पाया जहां छोड़ा गया था।
मने इि मनान से मैनेजर से फाइल मंगा ली जो क िपछले दन क पलीट करने के िलए मने
उसे दी थी।
म अपने काम म लग गया।
व क सुई अपनी गित से आगे िखसक रही थी। और म बड़े इि मनान से अपना काम कर
रहा था।
ले कन मुक मल इि मनान कहां?
ठहरे ए पानी म तो कं कड़ उसी व पड़ चुका था जब मने ब बई आने क खबर सुनी थी।
शु आत के िमनट म तो मेरे इि मनान म कसी कार क कोई दखल न ई, ले कन जब
पांच िमनट रह गए तो दल कु छ उ िे लत होने लगा। कान और सतक हो गए उस मधुर
तरं ग को सुनने के िलए। जाने कब वो दरवाजे पर बज उठे ।
दस बज गए।
ले कन मेरे कान म वो मधुर संगीत न पड़ा।
म बद तूर अपना काम करता रहा।
घड़ी क सुई िन व अपनी र तार से आगे क तरफ िखसकती रही।
पांच िमनट गुजरे तो म कु छ बेचैन हो गया।
कहां रह गई वो?
फर खुद ही मने खुद को तस ली दी।
आ जाएगी। अभी तो पांच िमनट ही ए ह। हो सकता है े फक म फं स गई हो....। ब बई
म कु छ कम भीड़ है!
मने फाइल ब द करके रख दी।
कु स क पु त पर िसर टकाकर आंख ब द कर ल ।
अब बस उसका इ तजार था। उसके दीदार क तलब थी जो अब पल- ितपल बढ़ती चली
जा रही थी।
कु छ ही देर म मेरी हालत उस चकोर-सी हो गई िजसका चांद रात हो जाने के बावजूद भी
बादल म िछपा था। उन बादल का अ त कहां था....पता नह । उन इं तजार के ल ह क
ल बाई कहां तक थी, उसका भी कु छ पता नह था।
पल-पल पहाड़-सा तीत होने लगा था।
कान दरवाजे पर।
बस उसका....उसी का इं तजार था।
उस पैने स ाटे म दीवार पर टंगी घड़ी क सुई क टक- टक क आवाज मेरे कान के रा ते
घुसकर मेरे दमाग तक पर चोट करने लगी थी। दल तक पर उसका असर भयंकर प से
होने लगा था।
और फर!
“मे आई कम इन सर?” क मधुर तरं ग मेरे कान म दस बजकर अ ारह िमनट पर पड़ी।
कतनी िश त से इं तजार करते थे, सा दक।
आप आए तो आए, पर जरा देर से आए।।
मने झटके से आंख खोल द ।
पहली िनगाह घड़ी पर, दूसरी दरवाजे पर डाली।
वही थी।
चकोर को चांद का दीदार आ मानो।
“यस।” मुझे खुद अपना वर तक अजनबी लगा उस ल हा, जब मेरा सारा वजूद उसक
तरफ खंचा आ था—“कम इन।”
वो उस व भी वही फाइल अपने व म दबाए ए थी। वह अ दर आ गई।
“कहां थ तुम?” अपनी बेचैनी को कठोरता म बदलकर मने कहा—“जानती हो, दस बजे
आना था।”
“सर, े फक म फं स गई थी।” उसने फं से वर म कहा।
“ओह!” मेरे होठ से िनकला।
वही िनकला जो अंदश
े ा था।
मने अपना लहजा न करते ए उसे बैठने का इशारा कया—“ लीज िसट डाऊन।”
वो अपने संगमरमरी मुखड़े पर अपराध भाव िलए मेरे सामने कु स पर बैठ गई।
म उसे देखता रह गया।
कतनी गंभीर हो गई थी वह अब!
“एक बात म तु ह पहली ही बार म समझा देना ठीक समझता ।ं ” म गंभीर वर म कहने
लगा—“इस ऑ फस क सबसे पहली ज रत पं चुअिलटी है। आप अगर पं चुअल नह
रह सकत तो आपक यहां कोई ज रत नह ।”
उसने गदन झुका ली।
म कु छ पल िवराम लेकर उसे देखता रहा। फर मने होठ खोले—“तुम समझ रही हो ना?”
“यस सर।” उसने धीरे से कहा।
“आज पहला दन था, पहली गलती थी। ले कन आगे से इसका यान रखना।”
“यस सर।” वही अंदाज—“म यान रखूंगी। आपको िशकायत का कोई मौका नह िमलेगा,
सर।”
मने उसका अपाइं टमे ट लेटर उठाकर उसक तरफ बढ़ा दया—“ये तु हारा अ वाइं टमे ट
लेटर।”
उसने अ वाइं टमे ट लेटर ले िलया। तब मने उसके हाथ को देखा तो पाया वो नेल पािलश
नह लगाये थी।
हां, और लड़ कय क तरह उसने भी अपने नाखून बढ़ा रखे थे।
¶¶
चौबीस
अगले दन!
नीलामी का व यारह बजे रखा गया था। म पहले ऑ फस गया। कोमल वह थी। मने
उसे अपने के िबन म बुलाकर कु छ आव यक िहदायत द । उसके बाद म नीलामी म शरीक
होने के िलए चल पड़ा। उस स ब ध म मने उससे कोई बात नह क ।
ठीक यारह बजे म बंगले के दरवाजे पर प च
ं ा।
सीताराम तब भी वह तैनात था।
दरवाजा खुला आ ही था इसिलए मुझे कार अ दर ले जाने के िलए उसे कु छ कहने क
आव यकता नह पड़ी। फर भी मुझे दरवाजे पर कार क पीड ज र कम कर देनी पड़ी।
तब सीताराम क नजर मेरे चेहरे पर पड़ तो वो मुझे देखता ही रह गया। नजर एक बार
मेरे चेहरे से िचपक तो िचपक ही रह ग ।
उसक नजर मेरे चेहरे को भेदती-सी महसूस मुझ।े
दल ध -से रह गया।
म चाहकर भी उसका सामना न कर सका। इसी कारण मने अपना यान ाइ वंग पर
लगाया। कार अ दर ले गया।
अ दर!
नीलामी शु होने वाली थी। क पनीज को खरीदने क इ छा रखने वाले लगभग सभी
उ ोगपित वहां आ चुके थे।
म भी उसी भीड़ म शािमल हो गया।
वह एक तरफ मंच से कु छ दूर हील चेयर पर बैठे क हैयालाल भागव नजर आए।
एक िववश, कमजोरे , टू टे ए इं सान।
उ ह देखकर मुझे लगा जैसे मेरे दल को कसी िनमम इं सान ने बेरहमी से मु ी म पकड़कर
भ च िलया हो। म अ दर-ही-अ दर तड़पकर रह गया। बाबू भी उ ह के साथ था।
पाठक को पुनः याद दला दूं क बाबू, क हैयालाल भागव का नौकर (रसोइया) था।
बाबू उनक चेयर के ह थ को पकड़े मु तैदी से खड़ा था जब क क हैयालाल भागव क
गदन यूं झुक ई थी मानो उनके बंगले और क पनीज क नह , बि क उ ह क बोली
लगाई जाने वाली थी।
“साहेबान!” मंच पर खड़े संयोजक ने हमारा यान अपनी तरफ आक षत करते ए कहा
—“आज आप लोग के िलए एक सुनहरा मौका है, जो इस नीलामी म आप शरीक ए।
साहेबान! िजन क पिनय क आज नीलामी होने जा रही है, वे आयुव दक जगत म अपना
अलग मुकाम रखती थ । ये िजसके हाथ लगगी, समिझए उ ह कौिड़य के दाम म खजाने
क चाबी िमल गई। इसीिलए साहेबान! सोच-समझकर बोली लगाइएगा। इन दोन
क पिनय क कम-से-कम क मत साढ़े सात करोड़ पये रखी गई है। तो साहेबान, तो
पहली बोली साढ़े सात करोड़! आगे क बोली आप लगाइए।”
“आठ करोड़।”
भीड़ म से कसी ने कहा।
“साढ़े आठ करोड़।” दूसरी बोली लगी।
म एक तरफ खामोश खड़ा रहा। बोली लगाने का कोई उप म नह कया। म सबसे
आिखरी बोली लगाना चाहता था।
“नौ करोड़।”
“सवा नौ करोड़।”
फर दस, यारह और बारह को पार करती बोली पर सवा तेरह करोड़ पर िवराम लग
गया।
“हां, साहेबान! सवा तेरह करोड़।” संयोजक ने आवाज लगाई—“सवा तेरह करोड़ से ऊपर
है कोई?”
कोई जवाब नह ।
संयोजक ने िगनती शु क —“सवा तेरह करोड़ एक....सवा तेरह करोड़ दो....और....।”
“चौदह करोड़।” मने अि तम बोली लगा दी।
ले कन उ ह साहब ने सवा चौदह करोड़ क बोली लगा कर मुझे रोकने का यास कया।
मने साढ़े चौदह करोड़ क बोली लगाकर उ ह पीछे धके ल दया।
वो िनणायक बोली सािबत ई।
उन साहब ने तब मेरा रा ता रोकने क कोई कोिशश नह क ।
इस कार दोन क पनी मेरी हो ग ।
फर बंगले का न बर आया।
उसक सबसे कम बोली दो करोड़ रखी गई थी, जो मने ही पांच करोड़ म खरीद िलया।
जब बंगला मेरा आ तो दल को वैसी ही तस ली िमली जैसे वा तव म मने कोई खजाना
पा िलया हो। कोई हारी ई बाजी जीत ली हो। आ ेिलया के हाथ से के ट व ड-कप
छीन िलया हो। या संयु रा य अमे रका पर पताका फहरा दी हो।
मने खबर पापा को दी तो उ ह ने स ता जािहर क ।
“अब आगे या लान या है तु हारा?” पापा ने अ त म पूछा।
“वो तो आपको म पहले ही बता चुका ,ं पापा।” मने उ ह बताया—“ ॉड स के ेड नेम
वही रखगे। उनका फामूला भी वही रखगे। बस रै फर म जरा सी त दीली कर दगे।”
“तो उ ह ुप से अलग रखोगे?”
“नह । ुप म ही िमलाकर रखगे। म सोच रहा ं क कु छ और ॉड स लांच कए जाएं
तो कै सा रहे?”
“मतलब?”
“एक हबल टू थपे ट लांच कर देते ह फलहाल।”
“जैसा तुम ठीक समझो।”
“पापा, इसके िलए एक मी टंग य न रख ल।” मने ताव रखा—“एक बोड ऑफ
डॉयरे टस क मी टंग रख लेते ह, ता क लान म कु छ संभािवत त दीिलयां करने क
ज रत भी पड़े तो वो हो सक।”
“रख लेते ह। तुम नए घर म कब िश ट कर रहे हो?”
“कर लूंगा....जब आप चाहगे।”
“इसम हमारा या रोल है, भई!” पापा क हंसी मेरे कान म पड़ी—“तुम जब चाहो
िश ट हो जाओ। तु हारा घर है।”
पापा चाहते थे क उस घर को म अपने नाम से रिज टड करा लू।ं ले कन मने इं कार कर
दया। वो घर भी मने पापा के नाम से ही रिज टड कराया।
हां, एक और बात!
जो परे शानी मुझे अपने सामने पहाड़-सी खड़ी नजर आ रही थी, उसका हल बेहद आसानी
से िनकल गया। म इं तजार करता रहा, ले कन न म मी ने, न ही पापा ने मुझे फर उस
लड़क को देखने के बारे म कोई बात क ।
तीसरे ही दन पापा ने उन क पनीज को खरीदने क खुशी म द ली म पाट रखी थी। उस
पाट का भी हीरो म ही था। उसम वो लड़क आई थी। वमा जी को तो म पहले ही जानता
था।
एक बार उस लड़क से भी ह का-सा प रचय आ।
उसके बारे म अगर सच-सच क ं तो मुझे उसम ऐसी कोई कमी नजर नह आई जो म
बयान कर सकता। वो हर तरह से स तुिलत लड़क थी। मुझसे भािवत भी नजर आई।
ले कन वो मुझे कोमल क खूबसूरती के और उसके उस गहन आकषण के आगे कह टकती
नजर न आ सक । म उससे भािवत आ ज र, ले कन उसका होने या उसे अपना बनाने
का िवचार भी मेरे मन म न आ सका।
य?
बुराई तो नह क ं गा। ये तो पहले ही बता भी चुका ं क बुराई करने लायक म उसम तब
कु छ खोज भी न सका। वो भले ही कु दन थी और शायद वो कु दन ही थी िजसक चमक
मुझे नजर न आ सक , िजसके आकषण म म न बंध सका। लोहा तो चु बक से ही िचपका
करता है ना! य क वो उसी का होता है।
एक बात जो मुझे सोचने पर िववश कर गई, वो ये थी क अगर म मी ने पूछा तो उ ह या
जवाब दूग
ं ा? या कमी बताऊंगा?
या कहता....?
ये क उसक आवाज म वो संगीत नह था जो कोमल के क ठ से फू टता था? या उसम वो
आकषण नह था जो कोमल म था? या ये कहता क उसके चेहरे का न शा कोमल से कम
तीखा था? या उसक आंख कोमल िजतनी गहरी नह थ क िजनम डू ब जाने को मेरा जी
चाहता था या म उनम डू बने को उतावला था जब क उसक आंख क तरफ तो मने यान
ही नह दया। य म उधर यान देता—जब म झील के कनारे ही बैठा था। या म उनसे
ये कहता क उसके िज म म कोमल िजतनी स धी खु बू नह थी जो वष पहले मेरी रग-
रग म समा चुक थी।
खैर!
गनीमत रही क उस बारे म कसी ने कोई बात नह क । जरा-सा िज म मी ने कया भी,
तो मेरे कह देने पर क अभी म शादी नह करना चाहता—वे खामोश रह ग । मेरे फै सले
का कोई िवपरीत असर मुझे उनके लहजे म नजर न आ सका।
फर कोई बात नह ई।
¶¶
प ीस
एक छोटे से धा मक अनु ान के बाद मने उस घर म गृह वेश कर िलया। अनु ान एक
दन पहले आ था। उसी दन पापा-म मी और चंचल द ली वापस चले गये।
उस दन!
मने जब दरवाजा खोलकर ाइं गहॉल म कदम रखा तो पूरे बंगले म मरघट जैसा स ाटा
छाया आ था। मेरा वो कदम ही जो मने चौखट के अ दर रखा—बंगले क दरो-दीवार से
टकराकर मेरे कान म पड़ा।
ठीक सामने सी ढ़यां थ ।
उन पर मेरी नजर पड़ी तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे न ह से दल को कसी ने मु ी म
कसकर भ च दया हो। िज म तक म एक दबी वेदना-सी जाग उठी।
वष पुरानी दुघटना मेरी आंख के सामने चलिच क मािन द साकार हो गई।
उ ह सी ढ़य पर भूसे से भरे बोरे क मािन द मुझे ख चते ए उस दरवाजे के बाहर
धके ला था क हैया लाल भागव ने। मेरी चीख मेरे कान म गूंज उठ —मानो कसी ने उ ह
टेप रकाडर म कै द करके मुझे सुनाना आरं भ कर दया हो।
मेरे कदम जैसे वह िचपककर रह गए थे। चाहकर भी म उ ह अ दर बढ़ाने क िह मत न
कर सका। उस दूसरे कदम को उठाने के िलए मुझे अपने स पूण िज म क शि समेटकर
लगानी पड़ी थी। सच! कतना मुि कल था वो मेरे िलए—ये तो म ही जानता ।ं
म अ दर बढ़ गया।
एक चु बक-सी थी—जो फर मुझे उस तरफ ख चे जा रही थी। म एक आकषण म बंधा-सा
सी ढ़य क तरफ खंचता चला गया।
मेरी िच लाहट बद तूर मेरे कान म गूंज रही थ । दल बद तूर उस वेदना से छटपटा रहा
था।
म खंचा-सा ऊपर प च
ं ा।
उस बैड म का दरवाजा ब द था।
मने उसे खोला तो अ दर सामने ही िब तर िबछा पाया।
बैड बदला जा चुका था।
वहां अब वो िब तर नह था। ले कन जो था, उसी जगह पर था। एकदम उसी िसचुएशन
म। वो मन स प टंग तब भी वह लगी थी।
वो वही बैड म था जहां मेरे माथे पर इतनी बड़ी तोहमत लगी थी।
वो जूत क ठोकर....थ पड़ क आवाज....! मेरी ची कार। कोमल का दन!
एक बार फर मेरा समूचा वजूद उससे भी ती वेदना से भरता चला गया। दल बुरी तरह
तड़पकर रह गया मेरा।
बरबस ही मेरा एक हाथ चेहरे पर गया तो पाया मेरी आंख गीली थ । मने झटपट उ ह
प छा, इस डर से जैसे कोई देख न ले।
म दरवाजे पर से अ दर बढ़ गया।
म बालकनी म गया और बाहर का नजारा करने लगा। वो नजारा करना अगर सच क ,ं तो
महज एक बहाना था। दल से उमड़कर आंख तक म झलक आए उस ती वारभाटे को
रोकने का य था, जो एक मुि कल य था।
म उसम कामयाब तो रहा, ले कन आ मुि कल से ही।
म वहां से वािपस िनकला तो कमरे के दरवाजे पर प च
ं ते ही म च क गया। झटका-सा
लगा मुझ।े म यूं हड़बड़ाया जैसे एक चोर कोतवाल को सामने देखकर हड़बड़ा जाया करता
है।
ाइं गहाल म ही कोमल खड़ी थी।
शु था वो मेरी तरफ नह देख रही थी। मने बड़ी ही द ता से खुद को संभाल िलया।
“कोमल!” मने वह से उसे पुकारा। तब मुझे अपनी ही आवाज अजनबी-सी नजर आई
—“तुम यहां?”
वो मेरी तरफ घूमी।
उसका पस देखकर मने उसी व अनुमान लगा िलया था क वो मेरे ही पीछे ऑ फस से
वहां आई थी। साथ ही याद आया क उसने पूछा भी था क म घर म कब िश ट कर रहा
।ं तब मने बताया था क म शाम को वह जाऊंगा।
तब मने सोचा तक नह था क वो भी वहां आने के िलए पूछ रही थी।
म सी ढ़य से होता आ नीचे आ गया।
“तुम यहां कै से?” मने नीचे आकर पूछा। तब म अपने वर को सामा य कर चुका था। मेरी
आवाज म तब कोई अजनबीपन या कं पकं पाहट नह थी।
“सर, एक सहयोग चािहए था आपका।” उसने जरा िहचकते ए कहा—“अगर आपको
कोई परे शानी न हो तो म यहां से एक त वीर ले जाना चाहती .ं ...।”
उसने नजर उठाकर सी ढ़य क तरफ देखा।
उसक नजर का अनुसरण करके मने भी उस ओर देखा तो मेरी नजर मेमसाहब क माला
चढ़ी त वीर पर जा िचपक , जो सी ढ़य के ऊपर सामने दीवार पर टंगी थी।
उसे देखकर मेरा मन भर आया।
“वो त वीर....।” मने धीरे -से पूछा।
“मेरी म मी क है।” कोमल ने बताया।
“ओह!” मेरे होठ से िनकला—“ओह!”
मने कोमल क तरफ देखा।
शायद उसका मन भी भर आया था। अगर भर आया था तो अपने भाव को अ दर ही ज त
कर जाने म काफ द ता उसने भी हािसल कर ली थी।
“सर, अगर आप इजाजत द तो अपनी म मी क त वीर को म अपने साथ ले जाना चाहती
।ं ” उसने अपनी मंशा पुनः जािहर क ।
“हां....हां.... य नह ।” म कह उठा—“शौक से ले जाओ। द त वाली या बात है—
तु हारा ही घर है।”
फर तुर त ही सटपटाकर रह गया।
वो भी जरा सकपकाई। सकपकाकर उसने अपनी गदन झुकाकर नाखून को देखना आरं भ
कर दया।
उसी व मुझे अहसास आ—कह मने झ क म कु छ यादा तो नह कह दया।
“तो सर, म ले जाऊं।” उसने जैसे समापन करना चाहा।
“हां.... योर।” यकायक म ठठका—“ले जाना! ज दी या है? जब आ गई हो तो....मुझे
अपना घर नह दखाओगी?”
“जी....।”
“घर म कोई काम है?”
“नह सर। ऐसी कोई बात नह है।”
“तो कसी से िमलना होगा?” मने उसके चेहरे पर नजर गड़ा द ।
“नो सर! घर ही जाना था।”
“तो को ना कु छ देर। अपना घर नह दखाओगी?”
वो जरा िहचक ।
तभी मेरा नौकर कचन म से िनकलकर बाहर आ गया।
“साहब, आपका सामान कस कमरे म रखूं?” उसने पूछा।
“तुम पहले दो कॉफ तैयार करके लाओ।” मने उसे आदेश दया। उस व कोमल को
रोकने का यही रा ता मुझे नजर आया—“तब तक हम घर देख लेते ह।”
“जी साहब।” वो चला गया।
उसने कोई ितवाद नह कया। वो सहष तो नह , क तु सहज ही मान गई। शायद
इसिलए क तब म उसका बॉस था और उसक नौकरी नई-नई लगी थी।
गुलाब सरीखी पंखुिड़यां िहल —“ओके सर।”
म उसे लेकर ऊपर नह गया य क जब वो आई थी तो म ऊपर ही था, और वो मुझे वहां
देख चुक थी। म नह चाहता था क वो जाने या उसे अहसास भी हो क उसी कमरे को
देखने के िलए म सीधा ऊपर क ओर चु बक क तरह खंचा चला गया था।
सो, मने उसे ाउ ड लोर ही दखाने के िलए कहा।
एक-एक करके उसने मुझे कमरे दखाने शु कर दए।
हम उस कमरे म भी प च ं े जो कभी मेरा और बाबू का आ करता था। या क ं कु छ दन के
िलए मेरा भी रहा था।
“ये कमरा....” उसम कदम रखने पर मने उसका जायजा लेते ए पूछा—“कौन रहता था
इसम?”
“हमारा नौकर रहता था....बाबू।”
तभी मेरी नजर उस ब द अलमारी पर पड़ी जो मेरी आ करती थी। िजसम म अपनी
कताब रखता था।
“वो अलमारी ब द य है?” मने पूछा।
“वो खाली अलमारी है।” उसने बताया।
चोट-सी लगी मेरे दल को।
यािन मेरे बाद उ ह ने उन कताब को िनकालकर र ी वाले को दे दया था।
उसके बाद हम आगे बढ़ गये।
त प ात् हम िनकलकर गाडन म प च
ं ।े
वहां मुझे सुखद अनुभूित ई।
मेरे ारा लगाया गया मौल ी का पौधा अब वृ का आकार ले चुका था। चार तरफ लगी
हरी-पीली पि य वाली ूश टा हेज, मुझे याद है, वो पापा ने ही मेमसाहब के कहने पर
लगाई थी। या रय म के वड़ा, कािमनी, चमेली और कणफू ल के पौधे पानी क कमी के
कारण जरा कु हला गए थे। दीवार के पास रखे गमल म रसेिलय पटाए के पौधे भी फू ल
से आ छा दत होने के बावजूद कु हला गए थे।
“बगीचा काफ खूबसूरत है।” म तारीफ कए बगैर रह न सका—“माबलस! कौन करता
था देखभाल इसक ?”
“अभी तो म ही करती थी, सर।”
“गुड! फू ल का बड़ा शौक है शायद तु ह।” म आस-पास अ य पौध पर िनगाह डालता
आ बोला। यादातर सदाबहार पौधे थे।
“कु छ खास नह , सर।” उसने सीिमत अंदाज म कहा—“बस फू ल अ छे लगते ह। ये
मु कराते रहते ह।”
यूं ही टहलते-टहलते हम हेज के पास प च
ं ।े
मेरी नजर हेज क पि य पर पड़ी तो म जरा ठठककर रह गया। उन पर बनी सफे द
पतली धा रय को देखकर ही मेरे कदम थम थे—“ये या रोग लगा रखा है इन पर?”
“सर, समझ म नह आ रहा या क ं इनका?”
“कोई दवाई डाली इन पर?”
उसने बताई।
“इन पर ाइमे ान का िछड़काव करना था।” मने उसे सलाह दी—“ये लीफ माइनर नाम
का क ड़ा होता है।”
उसने कु छ नह कहा।
या कहती वो! अब तो वो सब उसका था ही नह ।
“आपको बागवानी क काफ अ छी नॉिलज है, सर।” उसने धीरे से कहा।
“एक ही शौक है मेरा।” म मु कु राया—“मुझे फू ल और पौध से ब त यार है।”
तभी नौकर काफ लेकर वह आ गया।
गाडन म ही कु सयां डाल दी गई थ । मने नौकर को सब काम रोककर पौध म पानी देने
का आदेश दया।
फर हम कॉफ पीने लगे।
कोमल के चले जाने के बाद मने बंगले के ऊपर का िह सा देखा। वो ही वो पोशन था
िजससे म सबसे कम वा कफ था। जब म वहां रहता था तब भी म वहां नह गया था और
जब गया था तो आह! मुझे ठोकर मारकर उस घर से िनकाल दया गया था।
अजीब-सी टीस लेकर आती थी वो िघनौनी याद।
िडनर के बाद म अपने कमरे म चला गया। मने अपना कमरा ऊपर वाले लोर पर ठीक
करवाया था। ले कन उस नामुराद कमरे को मने फर देखना तक गंवारा न कया।
मुझे उस टीस के कारण न द न आ सक ।
म देर रात तक पढ़ता रहा। देर रात तक कताब म डू बने का य कया। क तु उस दन
म कताब म भी न डू ब सका।
म जागता रहा।
सारी रात यूं ही जागते कटी।
सुबह....।
मने कोमल को बुलाया। बुलाया उसे एक िड टेशन के बहाने था। और वो आई।
मने उसे बैठने के िलए कहा।
वो बैठ गई।
“एक बात बताओ।” िड टेशन के थान पर मने उससे पूछना आरं भ कया—“आजकल तुम
कहां रह रही हो?”
“जी, हमने एक घर कराए पर ले रखा है।”
“कहां?”
“बाबू के पास ही। वो हम अपने घर ले गया था....अगले दन हम वहां घर िमल गया....।
हमने उसे कराए पर ले िलया।”
“ओह! कराया कतना है?”
उसने बताया।
“अ छा सुनो....।” मने मु े पर आते ए कहना शु कया—“तुम चाहो तो....देखो मेरा
प रवार तो यहां रहता नह है। घर या एक हॉ टल-सा है। तुम और तु हारे पापा चाह
तो....घर आबाद सा लगेगा।”
वो खामोश बैठी रही।
उसने गदन झुका ली। उस संगमरमरी मुखड़े पर कोई भाव न आए।
“तुम या सोच रही हो?” उसे खामोश देखकर मने पूछा।
“म या क ं सर....।”
“ य ?”
“इसका फै सला तो पापा ही कर सकते ह?”
“ठीक है, तुम अपने पापा से िड कस कर लेना।” साथ ही दल म आया क कह दूं या तुम
चाहो तो म चलकर खुद उनसे बात कर लू।ं
मगर कह न सका।
िह मत ही नह ई। म चाहकर भी वो कहने का ह सला न जुटा सका। उनका सामना करने
क ताकत मुझम नह थी।
“सर, आपने कसी काम के िलए बुलाया था।” उसने मुझे जैसे याद दलाना चाहा।
मुझे यकायक याद आया—“ह....हां....हां िड टेशन। उसी के िलए बुलाया था
मने....िलखो।”
उसने डायरी खोलकर पैन संभाल िलया।
अगले दन मने उससे पूछा।
उसने इं कार कर दया।
मने उसक तन वाह म हाऊस अलाउ स क उतनी रकम बढ़ा दी थी, िजतनी क वो
कराए क अदा कया करती थी।
वो इसके िलए इं कार न कर सक । कै से करती वो भला—आिखर म उसका बॉस था।
इस कार मने उनक खु ारी पर कोई चोट भी नह क । मुझे सुकून था।
¶¶
छ बीस
फर म अपने काम म जुट गया।
लंच म हमेशा टाफ मे बस के साथ ही करता था, जो उनके बीच मेरी इ त बढ़ा रहा था।
यूं तो यह एक सामा य बात थी ले कन उसका सबसे बड़ा फायदा मुझे ये हो रहा था क
कु छ देर के िलए ही सही, कोमल मेरे सामने ही रहा करती थी। खाना खाने म वो बड़ी लो
थी।
चूं क नई-नई क पिनयां शु करनी थ , सो काम भी यकायक बढ़ गया था। मेरा अिधकतर
व या तो ऑ फस म गुजरता था या मी टं स म। सारी मी टं स क िडटेल कोमल तैयार
करती थी। एक बार मने उसे अपने पास बुलाकर उन क पिनय के बारे म जानकारी इक ी
क।
एक शाम....।
मने उसे कु छ देर कने के िलए कहा। उस दन दरअसल काम कु छ अिधक ही था और मुझे
कु छ िड टेशन देनी थ ।
वो क गई।
म अपने काम म जुट गया।
व कस कार अपनी गित से आगे िखसकता रहा, मुझे पता ही नह चला।
जब मुझे कोई िड टेशन देने क ज रत नह रह गयी तो वहां कोमल क मौजूदगी मेरे
जहन म पूरी तरह से मर चुक थी।
मने आिखरी फाइल िनबटाकर ब द क और उसे रखकर खड़ा हो गया।
मने घड़ी देखी—सवा यारह हो चुके थे।
म अपने के िबन से बाहर िनकल गया।
म जैसे ही के िबन से बाहर िनकला तो अपने पास वाले के िबन पर यान जाते ही च का।
मुझे झटका-सा लगा।
मुझे याद आया क उसे मने ही कने के िलए कहा था।
मने के िबन के दरवाजे क तरफ कदम बढ़ा दए।
जैसे ही मने दरवाजा खोला तो वो जरा च क । उसने मेरी आहट पाकर अपनी आंख खोल
द । वो बुरी तरह बोर होकर कु स क पु त पर पीठ टकाकर आंख मूंदे पड़ी थी।
“कोमल!” मने पूछा—“तुम ग नह अभी तक?”
“सर, आपने ही तो कने के िलए कहा था।” उसने कहा तो उसक आवाज क मासूिमयत
मेरे अ दर उतरती चली गई। कतनी मु त के बाद वो मासूिमयत मुझे उसके चेहरे पर
नजर आई।
पहले तब आई थी—जब साहब यािन उसके पापा ने उसक गलती पर डांटा था तो वो
गदन झुकाकर खड़ी थी।
आह! अब उसका आधा अंश भी इस मासूिमयत म नह रहा था। वैसे रहता भी कै से—वह
खुद भी मै योर हो गई थी।
म उसके मुखड़े को देखता रह गया।
मुझे यूं देखता देखकर, उसने अपनी पलक, फर गदन ही झुका ली।
मुझे भी अपनी गलती का अहसास आ।
“म....मने तो कहा था क कु छ देर ककर जाना।” संभलकर मने कहा—“इतनी देर तक
कने क या ज रत थी?”
“सर, आपने कहा था—काम िनकल सकता है।”
“हां, तो एक बार पूछ लेना था।”
वो कु छ न कह सक ।
उसके अधर म ह का-सा क पन पैदा आ और थम गया।
“चलो, म तु ह तु हारे घर ाप कर दू।ं ” मने िनणया मक वर म कहा—“वैसे भी लेट हो
गया .ं ...।”
“न....नह सर म िनकल जाऊंगी।”
“कै से जाओगी? और इतनी रात को तु हारा अके ला जाना भी ठीक नह ।”
“मेरे पास मोपेड है, सर।”
“ओह!” म आगे कु छ न कह सका।
मुझे लगा जैसे हाथ म आती व ड कप क ाफ यकायक फसल गई हो। अरमान पर
पानी फर गया हो।
“ठीक है....तो िनकलो।” मने बस इतना ही कहा।
हम एक साथ बाहर िनकले।
बाहर सड़क लगभग सुनसान थी। इ ा-दु ा वाहन ही वहां से गुजर रहा था।
“तुम इस व अके ली जाओगी?” मने पुनः कहा।
“हां, सर।”
“मेरी मानो तो कल यहां से मोपेड पर चली जाना। अब म तु ह ाप कर देता ।ं इस तरह
देर से घर जाना....।”
“सर, आप तकलीफ मत क िजए।”
“इसम तकलीफ वाली या बात है? थोड़ी देर और सही।”
वो सोचने लगी।
च द ल ह क खामोशी के बाद उसने िहचकते ए हां कर दी।
“म कार लेकर आता ।ं ” मने त भाव से कहा और कार पा कग क तरफ चल दया।
मने कार िनकाली और वो पैसजर सीट पर बैठ गई।
सफर बेहद स ाटे जैसे माहौल म कटा।
कार म जैसे कोई था ही नह । मने अपने सामने लगे बैक ू िमरर को उसक नजर बचाकर
इस कार कर िलया था क उसका अ स उसम झांकता नजर आ रहा था।
बार-बार मेरी िनगाह उस तरफ बढ़ रही थ ।
बीस िमनट का सफर....।
वो, म और गहन खामोशी!
कई बार ल ज होठ तक आकर अ दर घुट गया। जाने य म समझ ही न पा रहा था क
बात कहां से शु क ं ? या बात क ं ?
सच! कु छ ऐसा ही होता है जब इं सान कु छ बात करना चाहे तो श द लोग के हलक म
लीन होकर रह जाया करते ह।
ठीक वैसा ही आ था तब भी।
म कु छ कहना चाहता था, उसे सुनना चाहता था, उसे जानना चाहता था ले कन.... या?
दमाग कु द हो गया।
वो एकदम खामोश बाहर देखती िखड़क के करीब बैठी थी। उसे जैसे अहसास ही न था क
कोई और भी वहां, उसके साथ उस सफर म था।
कार उस ब ती म प च
ं गई।
उसके बताए मकान के सामने मने कार के ेक लगा दए।
वो कार से उतर गई।
“सर, अ दर आइए ना।” उसने दरवाजा ब द करके कहा।
“नह , आज नह ।” मने मु कु राकर कहा—“ फर कभी।”
“सर, जब आ ही गए ह तो एक कप काफ पी कर जाइएगा।”
“नह । थ स।” म कह उठा—“कॉफ उधार रही। आगे कभी फर बुलाओगी तो ज र
आऊंगा।”
“म तो अभी बुला रही ं सर।” वो हंसी।
“अब तो नह ।” मने हंसी म उसका साथ दया—“अब तो वैसे भी लेट हो गया ।ं कल
ऑ फस भी जाना है। तुम जाकर आराम करो।”
“ओके सर! थ स।”
“योर वैलकम।”
वो अपने घर क तरफ बढ़ गई।
म वह बैठा उसे जाता देखता रहा और जब वो अपने घर के दरवाजे के पास प च
ं गई तो
मने कार बैक करनी शु कर दी।
¶¶
स ाइस
वो दस बर के महीने का अि तम स ाह चल रहा था। म अपने के िबन म बैठा त लीनता से
अपने काम म जुटा था क मेरा मोबाइल बज उठा।
मने उठाकर न पर न बर देखा तो घर का न बर था।
“हैलो।” मने उसे कान से लगाकर कहा तो पाया फोन म मी ने ही कया था। म िखल उठा
—“म मी, नम ते।”
“कै सा है?”
“ठीक ं म मी।” मने कहा—“आप कै सी ह?”
“म तो ठीक ।ं तू सुना.... या कर रहा है।”
“ऑ फस म ,ं म मी काम कर रहा ।ं ”
“हम तो तू भूल ही गया है वहां जाकर....।”
“नह , म मी....वो बात नह है।” म हंसा—“दरअसल काम जरा बढ़ गया है तो यान नह
गया। अभी परस -तरस ही तो फोन कया था।”
“कल य नह ? प ा पता है, आज भी तू करने वाला नह था।”
“सॉरी म मी।”
“सॉरी के ब े! इतना काम मत कया कर। कु छ आराम भी कया कर।”
“ यादा काम करता ही कहां ं म मी। अब जब काम बढ़ गया है तो या क ं ?”
“हां....हां बस कर। मुझे पता है काम िनकालना तुझे कतनी अ छी तरह आता है। खाना-
पीना तो ठीक कर रहा है ना।”
“जी म मी।” तभी मेरे याद आया—“म मी, चंचल कहां है?”
“यह है। छु यां चल रही ह। हर व टी.वी. देखती रहती है।”
“तो उसे यहां य नह भेज देत । दो-चार दन यहां मु बई घूम लेगी।”
“हां....वो कह तो रही थी।”
“तो आप दोन ही आ जाइए ना।”
“नह , म तो नह आ पाऊंगी। ले....आ गई वो, बात कर ले।”
“उसे रसीवर दीिजए जरा।”
लाइन पर चु पी छा गई।
कु छ देर क खामोशी के बाद चंचल क महीन आवाज मेरे कान म पड़ी—“नम ते भैया।”
“नम ते।” म बोला—“कै सी है तू?”
“ठीक ं भैया।”
“छु यां चल रही ह।”
“हां।”
“ या कर रही है छु य म?”
“ या क ं ? थोड़ा-सा ही तो होमवक िमला था, वो तो क पलीट कर िलया। अब....।”
“अब टी.वी. देखती रहती है।”
“म मी ने िशकायत लगाई होगी ना।”
जवाब म म हंस पड़ा।
“कु छ दन के िलए यहां आ जा ना....।” म हंसते ए बोला—“यहां ठ ड भी काफ कम है
और घूम भी लेना।”
“म मी से पूछना पड़ेगा।”
“तू उसक िच ता मत कर।” मने आ ासन दया—“वो म कर चुका ।ं तू बस आने क
तैयारी कर।”
“ठीक है। एक शत पर”—तुर त ही उसने अपनी शत बीच म टपका दी।
“बोल वो भी।”
“आपको तब तक छु ी लेनी पड़ेगी जब तक म वहां पर र ।ं ”
“थोड़ी रयायत नह िमल सकती?”
“नेवर, नो रयायत।” उसने तानाशाह वाले अंदाज म कहा—“हां तो हां।”
“चल, आ तो जा।” म उसके अंदाज पर बेसा ता ही हंस पड़ा।
“एक और शत।”
“बोल। वो भी बोल दे।” म कु स क पु त पर पीठ टकाकर बोर होते ए बोला।
“भाभी िमल !” यकायक वो राज भरे वर म कह उठी।
म च का—“भाभी!”
“िमली या नह ?” उसका वर उस बार जरा सतक था—“सच बताना।”
“म मी कहां है?” यकायक ही मने पूछा—इस शक म घुलकर क कह म मी ने सुन न
िलया हो।
“उनक फ मत करो।” उसने लापरवाही से कहा—“वे कचन म ह।” तुर त ही वर म
उतावलापन आ गया—“अब बताओ....हां या ना।”
“हां।” मने राहत क सांस लेकर कहा।
“िमले?”
“हां।”
“यस!” उसने जोशीले अंदाज म कहा—मानो इि डया ने ाजील पर गोल दाग दया हो
—“बात ई?”
“नह ।”
“ य ?”
अब उसे ‘ य ’ का या जवाब देता।
कु छ पल के िलए मेरा दमाग चकरा गया। खामोश होकर म जवाब सोच ही रहा था क
वो कह उठी—“कब िमले उनसे?”
“कु छ ही दन ए।”
“ओके ! मेरे वहां आते ही उनसे िमलवाना पड़ेगा। सबसे पहले।”
“अरे ले कन....।” म चकराया।
“कोई सफाई नह ।” तानाशाही वर—“हां....हां....हां।”
“ओके डन।”
“यस।” पुनः वही जोरदार वर। इस बार उससे भी यादा मानो उस बार फु टबाल व ड
कप ही जीत िलया हो।
“तो कब आ रही है?”
“कल आ जाऊं?”
“ले कन एक शत है।”
“कोई शत नह , कोई रयायत नह । नो ऑ फिशयल वक। आपको खुद मु बई दखानी
होगी।”
“अरे , पहले शत तो सुन ले।”
“सुनाइये।” उसका वर गहन औपचा रकता भरा था य क उसे पता था क अगर उसे
शत पसंद नह आई तो वो उसे तुर त रजे ट कर सकती थी, जब क मुझे उसक शत
माननी ही थी।
“तू उसके साथ कोई शैतानी नह करे गी।”
“ठीक है।”
“उसे आते ही कु छ जािहर नह होने देना।”
“दो ती तो कर सकती ।ं ”
“कर लेना—ले कन कहना कु छ नह है।”
“वादा!” उसने शराफत से हामी भर दी।
“तो ठीक है। आते ही उससे िमलवाता ।ं कल कब आ रही है?”
“ये म मी बताएंगी।”
“तो चल फोन दे उ ह।”
“अभी बुलाती ।ं ”
म मी फोन पर आ ग । और तय हो गया क अगले दन शाम को उसे एयरपोट पर लेने
प च
ं जाऊं।
“िमस कोमल!” मने शाम के व इं टरकॉम पर कोमल को याद कया।
“यस सर।” उसका सुरीला वर मेरे कान म पड़ा।
“जरा मेरे के िबन म आओ।”
कु छ ही देर म वो हािजर हो गई।
“इस व कु छ खास काम कर रही हो?” उसके आने के बाद मने पूछा।
“सर, आपने ही कु छ िड टेशन दी थी। वे लेटस तैयार कर रही थी।”
“छोड़ो उस काम को।” म आदेशा मक लहजे म कह उठा—“तुम इसी व एयरपोट पर
जाओ। चंचल द ली से आ रही है। तुम उसे रसीव करके घर ले जाओ।”
“सर, आप नह जाएंग?े ”
“नह , मुझे कसी से िमलना है। वापसी पर म घर ही प च
ं जाऊंगा।”
“जी।” उसने सहमित म िसर िहलाया। तभी वो जरा ठठक —“म उ ह पहचानूंगी कै से
सर?”
“अरे हां....हां।” म भी यकायक चकरा गया था।
वो नई ा लम।
ले कन उसका हल चुट कय म िनकल गया।
याद आते ही मने अपना पस िनकाला और उसम से त वीर बरामद करके कोमल क तरफ
बढ़ा दी—“ये उसक त वीर है!”
उसने त वीर गौर से देखी।
“सर, ये....।” त वीर को गौर से देखती ई वो बोली।
उसको भांपकर मने उसका जवाब बीच म ही दे दया—“मेरी छोटी बहन है।”
“ओह!”
“अगर वो पूछे तो कह देना िबजी ।ं ज दी ही घर प च
ं रहा ।ं जब तक म ना प च
ं ,ूं तुम
वहां से जाना मत।”
“यस सर।” उसने आ ाकारी वर म कहा।
“तुम अब जाओ। नीचे ाइवर होगा, उसे कह देना, वो तु ह वहां ले जायेगा।”
“जी ठीक है।”
वो चली गई।
म अपनी फाइल पर झुक गया।
मने लाइट आने के सटीक व पर एयरपोट से लाइट क आमद क पुि क तो पाया
क लाइट एकदम सटीक व पर ही थी।
मेरा तब थोड़ा-सा और काम था, म उसे िनबटाने म जुट गया। एकदम उ ह के साथ घर
प चं ना भी ठीक नह था। कोमल को शक न हो जाए।
प ह िमनट म काम िनबट गया और म फाइल एक तरफ सरकाकर कु स पर से खड़ा हो
गया।
म जब घर प च
ं ा तो उन दोन को ाइं गहॉल म बैठे पाया।
मेरे हाल म कदम रखते ही चंचल सोफे पर से दौड़कर मेरे सीने से लग गई। मने भी हंसते
ए उसे अपनी बाह म समेट िलया। एक हाथ से उसक पीठ पर थपक दी।
“कहां रह गए थे आप?” सीने पर से चेहरा हटाते ही उसने िशकायत क —या यूं क ं
डांटना शु कर दया तो उिचत रहेगा—“मुझे लेने य नह आए?”
“जरा-सा काम िनकल आया था।” म मु कु राया।
“काम बहन से भी इ पोटट है।”
“अरे नह ! देख, आ तो गया।”
“हां, काम छोड़कर तो नह आए ह गे।” उसने मुझे घूरा।
जवाब म म के वल हंसकर रह गया।
“चल, अ दर चल।” और उसे म लेकर अ दर क तरफ बढ़ गया।
फर उसने कु छ नह कहा।
कोमल अपने थान पर से खड़ी हो गई थी।
“कब आए तुम लोग?” मने सवाल कोमल से ही कया।
“जी, बस अभी आए।” कोमल ने बताया—“कु छ देर पहले ही आए ह।”
“नौकर कहां है? कु छ चाय-पानी नह बन रही।”
“जी, यहां तो कोई नह है।”
“ओह!” म सोच म पड़ गया।
म सोफे पर पसर गया।
“ लीज! आप कॉफ बना कर िपला द....।” मने याचनापूण वर म कहा—“अगर तु ह
द त ना हो तो....।”
“म बना लाती ,ं सर।” उसने गदन झुकाकर कहा।
“बड़ी मेहरबानी होगी तु हारी।”
उसने कु छ न कहा और कचन क तरफ बढ़ गई। उसे कचन का रा ता बताने क ज रत
नह पड़ी।
चंचल मेरे ही पास बैठ गई।
“सफर कै सा रहा तेरा?” उसक तरफ मुखाितब होकर मने पूछा।
“ठीक रहा।”
“कोई द त?”
“नह ।”
“ के गी कतने दन?”
“दो-तीन दन बाद म मी आएंगी, उ ह के साथ जाना है।”
“अ छा बता, कहां-कहां घूमने का ो ाम तैयार करके आई है तू?”
“सबसे पहले भाभी के पास।” वो यकायक कह उठी।
“भाभी!” म च का।
फर मु कु रा दया।
मुझे पता था वो आते ही यही सवाल पूछने वाली थी।
उसके चेहरे का उतावलापन देखकर मेरी मु कान बेसा ता ही गहरी और गहरी होती चली
गई।
“ य ? िमल नह या उससे अभी तक?” मने उसी आकषक मु कान के साथ कहा।
“हां, जैसे आपने िमला दया हो?”
“इतनी देर से उसी के तो साथ थ ।”
“ कसके साथ?” वो च क ।
“तुझे कोमल ने अपना नाम नह बताया?”
“कोमल!” वो और जोर से च क ।
बेसा ता ही उसका चेहरा कचन क ओर घूम गया—मानो दीवार भेदकर अ दर खड़ी
काम करती कोमल को देखने का य कर रही हो।
“ये!” उसने रोमांिचत-से वर म कहा।
“मने कहा था ना....।” म शरारत से बोला—“उसके हाथ क कॉफ िपलवाऊंगा।”
वो रोमांच के भाव िलए टेचू क मािन द बैठी मेरा चेहरा देखती रह गई।
“ये ह भाभी!” उसने रोमांिचत वर म यूं पूछा मानो उसे िव ास न हो रहा हो।
मने अपना िसर िहलाकर सहमित कट क ।
“म अभी आई।” वो कू दकर सोफे पर से उठी और कचन क तरफ भागी।
“ऐ!” म बौखलाकर उठा और उसके पीछे लपका। मुझे लगा अब वो लड़क ज र कु छ
गड़बड़ कर बैठेगी—“ क तो जरा।”
मगर वो कने वाली कहां थी?
लपककर कचन म जा समाई।
म दरवाजे से कु छ फ ट दूर ही ठठककर रह गया।
बुरी तरह बेचैन हो गया था म।
अगर कोमल को मेरी उस शरारत का पता चल जाता तो या सोचती?
क तु शु था।
बड़े ही ाि तकारी ढंग से वयं पर काबू पाकर उसने बेहद द ता से अपने रोमांच को
अ दर ज त कर िलया।
“लाइए, म आपक हे प क ं ....।” वो कह रही थी।
कोमल तब कॉफ के िलए कप सफ म धोकर े म रख रही थी।
म इि मनान से वािपस आ गया।
सोफे पर पसर गया।
आंख ब द करके इि मनान क सांस ली।
“आपने बताया य नह ?” उसके जाते ही उसने िशकायत भरे लहजे म पूछा।
“ या?” म हौले से मु कु राया।
“यही क भाभी को आपने अपनी से े ी बना रखा है।”
“मने कहां बना रखा है! वो तो खुद बनी ई है।”
“अ छा!”
“और या? वो ही मेरे पास आई थी जॉब के िलए।”
“कब आई थी?”
तब मने सच बता दया।
जलकर रह गई वो।
“और आप अब बता रहे ह?” उसने गु से से कहा।
म हंसकर रह गया। आदतानुसार उसके िसर पर एक चपत भी लगा दी।
उसे शांत होने म यादा देर नह लगी।
शा त होते ही मने पूछा—“बता, कै सी लगी तुझे तेरी भाभी?”
“अ छी है।”
“बस, अ छी है?” मने उस घूरा।
“सच, ब त अ छी है।” तुर त ही शरारत से कह उठी—“र ा से तो अ छी है। कहो तो
म मी से बात क ं ?”
“नह , अभी कु छ बात मत करना।”
“ य ?”
“बस, अभी कु छ नह ।”
“ य , अभी उससे कोई बात नह ई?”
“नह ।”
“इतने दन म आप इतनी-सी बात नह कर सके ?”
“अभी कु छ नह करना। पहले उन क पिनय को ठीक से टैबल कर लूं, तब कु छ सोचूंगा।
और तू भी म मी को मत बता देना।”
“ठीक है, नह बताऊंगी। ले कन आपको मेरा एक काम करना ही पड़ेगा।”
“ लैकमेल कर रही है?” मने उसक तरफ आंख फे र ।
“िब कु ल नह । हाइटमेल कर रही ।ं ”
“बता, या करना है?” मने गहरी सांस ली।
“जब तक म यहां र ,ं उ ह मेरे पास रखना है। मुझे यहां घुमाने क िज मेदारी आप उ ह
स पगे।”
मने वैसा ही कया।
इस बारे म द त वाली खास बात नह थी।
मने कोमल को बुलाया।
“यस सर।” उसने आकर हमेशा क तरह गंभीर लहजे म कहा।
“बैठो।” मने उसे बैठने का इशारा कया।
वो बैठ गई।
मने अपने सामने रखी फाइल के बीच म पैन रखकर उसे ब द करके अपनी पीठ रलै स
होने वाले अंदाज म कु स क पु त पर टका दी।
“तु ह जरा-सा अलग काम दे रहा ।ं ” मने कहना शु कया, तो वो कु छ सतक हो गई।
होठ से कोई श द न फू टा। अलब ा नजर मुझ पर अव य जम ग —“तु ह पता ही है
आजकल म िबजी चल रहा .ं ...।” एक अ पिवराम के बाद मने कहा—“यहां ऑ फस म
काफ काम बढ़ा आ है। चंचल—मेरी बहन—यहां कु छ दन के िलए आई है। सद क
छु ी भी कट जाएंगी और यहां का मौसम ठीक भी है। वो मु बई घूमने क िजद कर रही
है।”
मने िवराम िलया।
वो कु छ बोले बगैर ही मेरा आदेश सुनने के िलए नजर आई।
“तुम ऐसा करो....।” मने उसे कहा—“तुम उसे थोड़ी-सी क पनी दो। उसे मु बई घुमा दो।”
“सर म....।” वो च क ।
“हां, य कोई द त है?”
“न....नो सर। मगर यहां का काम....।”
“यहां और भी कमचारी ह। संभाल लगे। तुम ये काम करो, बस।”
“जी।”
“तुम अभी घर चली जाओ—वो वहां अके ली होगी।”
“ठीक है सर!” उसने उठने का उप म कया।
वो चली गई।
मने उसके िनकलते ही चंचल को फोन पर उसे बता दया क वो आ रही है।
चंचल खुश!
तब उसने मेरा साथ मांगने क भी िजद नह क ।
उससे मुझे ये तो फायदा आ क मुझे अपना वो व आराम से अपने काम म लगाने के
िलए िमल गया। म चंचल क ओर से बे फ होकर अपना काम कर सकता था। वो तब
कोमल के हवाले थी।
मगर!
एक नुकसान भी आ।
तब मुझे कोमल का दीदार भी मुहाल हो जाना था। चंचल ने पहले ही कह दया था क
अके ले घर म वो नह रहेगी। पहले दन वो शॉ पंग करने गई। अगले दन उसने मु बई
घूमी। और म....।
म जैसे यासा-सा रहा।
हालां क उसने मुझे भी साथ चलने को कहा। मगर मने तता का बहाना बनाकर टाल
दया। सच तो ये है जब इं सान के मन कोई चोर िछपा हो तो वो हर कदम संभालकर
रखता है। चंचल को तो सब पता था और म उसके साथ जाकर उसके सामने अपना
उतावलापन नह दशाना चाहता था।
चौथे दन म मी आ ग ।
तब उनके साथ पापा भी आए थे।
अगले दन ही शाम को वे चले गए। पापा उस दन सारा दन ऑ फस म रहे।
म मी ने वहां से कु छ शॉ पंग क थी। उस दन भी चंचल ने कोमल को अपने साथ
िचपकाए रखा।
म और कोमल ही उ ह एयरपोट छोड़ने गए।
अ छा मौका था।
जंदगी म पहली बार हम यूं अके ले ऑ फस से बाहर िनकले थे।
मने कार बीच क तरफ मोड़ दी।
“सर, अभी भी कह चलना है?” उसने रा ता बदलता देखकर यकायक च ककर कहा।
“नह , बस कह चलकर बैठते ह। तु ह घर म कोई खास काम तो नह ?”
“जी....नह ।”
म इि मनान से कार चलाता रहा।
कार को मने बीच पर उतार दया।
मने कार से उतरकर खुद उसक तरफ का दरवाजा खोला।
वहां उस व खामोशी थी।
सूरज अपनी ता बई छटाएं आसमान म िबखेरता आ दूर सम दर म जैसे समाने का य
कर रहा था।
मने बच के पास जाकर अपना कोट उतारकर बच क पु त पर टका दया। वो तब भी
खड़ी ही थी। मेरे कहने पर वो बच के दूसरे कोने पर धीरे -से बैठ गई।
म भी बैठ गया।
ठ डी-ठ डी हवाएं हमारे िज म को सहलाती ई मुझे पुल कत कर रही थ । जब क कोमल
का िज म मुझे कु छ सनसनाता-सा महसूस आ।
“ठ ड लग रही है?” मने पूछा।
“नह , सर।” उसने धीरे -से कहा—“म ठीक ।ं मुझे ये ठ डी हवाएं अ छी लगती ह।”
म फर कु छ न कह सका।
उसने अपनी दोन बाह को अपने व पर समेटकर बांध िलया था। नजर सामने सम दर
पर टक थ —उसके सीने म समाते सूरज पर।
कई पल तक मुझे ये न सूझा क या बात क ं ?
“हमारी बहन कै सी लगी तु ह?” शु म यही वा य मुझे सूझा, सो कह दया।
“ब त अ छी है, सर।”
“ब त शैतान है।” म धीरे -से हंसा—“तु ह तंग तो नह कया?”
“नो सर। वो तो बड़ी यारी है।”
“चलो अ छा आ, तु ह तंग नह कया।” म पुनः हंसा। उस बार मुझे लगा म बेमतलब क
बात पर हंस रहा ।ं या हद से यादा हंस रहा ।ं म बोला—“घर म वो तो हम सबक
नाक म दम करके रख देती है। तुमने तो देखा ही होगा, मेरे आते ही वो कै से मुझसे िलपट
गई थी।”
“आप भी यार करते ह उ ह?”
“ब त। एक ही तो बहन है!” म अ य त यार से लबरे ज वर म कह उठा।
“आपसे तो काफ छोटी है वो?”
म गड़बड़ा गया।
झटका-सा लगा मुझ।े पल भर के िलए म समझ न सका क उसके उस वा य का मतलब
या था? मगर पल ही भर म समझ गया। या मेरे मन के चोर ने गड़बड़ा दया था मुझे।
वो इतनी छोटी थी भी। उस पर सवाल उठना भी तो सामा य बात थी।
“हां, आठ साल छोटी है।” म अपने होठ पर अ य त जीवंत मु कान लाने म कामयाब हो
गया था—“बड़ी म त के बाद िमली है!”
“तभी इतना यार करते ह उससे।” उसके उस वा य ने मेरे मन क सारी शंका को सम दर
के बुलबुल क तरह हटा दया।
“हां।” म बोला—“इतना क उसके नाम पर अपना सब कु छ कु बान कर दू।ं ”
वो कु छ न बोली।
“तुम इतनी सी रयस य हो कोमल?” मने उसका चेहरा गौर से देखते ए आिखर वो
सवाल पूछ ही िलया जो मेरे मन म ल बे समय से शूल क मािन द चुभ रहा था।
“जी।” वो च क —“म सी रयस ?ं ”
“हां, मने ऑ फस म हमेशा तु ह सी रयस देखा है।”
“नह सर।” वो मु कु रा दी—“ऐसी कोई बात नह है।”
“तु ह तकलीफ नह होती?”
“कै सी तकलीफ?”
“तुम पहले अमीर थ । खुद क क पनी थ , बंगला था और अब....।”
“व को कौन बदल सकता है, सर।” उसने अित सामा य वर म कहा।
फर....।
हम यूं ही देर तक बात करते रहे।
बाद म चलते व मने उसको िडनर के िलए इ वाइट कया। ले कन उसने इं कार कर
दया।
“सर, म इतनी देर से घर नह जाती ।ं ” उसने बेहद त भाव से कहा—“घर म पापा
परे शान ह गे।”
म कोई जोर न दे सका।
साहब का नाम बीच म आते ही जाने य मेरी हवा टाइट हो जाती थी।
म या कर सकता था!
“हम वहां यादा देर नह लगे।” फर भी मने कहा।
“सर, दरअसल पापा को अ छा नह लगेगा।” उसने िववश भाव से कहा—“वैसे भी देर हो
गई है। उ ह अ छा नह लगता क म देर से घर आऊं।”
“ओह!” म और ब ध गया।
उसने गदन झुका ली।
“चलो, म तु ह घर ाप कर दू।ं ” म अपनी कार क ओर बढ़ता आ बोला।
वो भी मेरे पीछे चल दी।
हम उसी तरह बैठे। म ाइ वंग सीट पर और वो पैसजर सीट पर।
रा ते म उसने याद दलाया क उसक मोपेड घर पर खड़ी थी। सो म उसे घर ही ले गया।
वहां से उसने अपनी मोपेड उठा ली।
घर प च
ं ा तो जैसे बहार गुजर चुक थी।
घर एकदम सूना था। सब शांत!
नौकर ने खाने को पूछा। ले कन मने ही इं कार कर दया और सीधा अपने कमरे म जा
समाया।
सच!
उस दन िश त से अहसास आ क जब एक यासा तलाब के पास जाता है तो कस कदर
ाि तकारी अंदाज म उसक यास बढ़ जाया करती है। उस यास क तड़प कै सी जानलेवा
होती है, तब जाना।
आज वो कतने करीब आ गई थी मेरे।
मने पहली बार उसके िज म क स धी खुशबू को अपने नथुन म महसूस कया था।
ओह! कतना मादक अहसास था वह। वजूद के शांत तार पर सुकोमल पश-सा आ।
साज बजे।
उसका कांपता िज म। थरथराते लब जैसे ताजा िखले गुलाब क गुलाबी पंखुिड़यां। कतनी
मासूम लग रही थी वो उस व , जब उसने सद हवा म अपनी बाह को अपने व पर
समेट िलया था!
कतनी मु त के बाद मासूिमयत उस मुखड़े पर यूं झलक थी। उसी मासूिमयत का तो
दीवाना था म। चांद क िनमल चांदनी का जैसे चकोर दीवाना। एकदम देखने को जी
चाहता था। बस देखने को जी चाहता था। साथ ही उसे महसूस करने क लालसा जाग
उठती थी।
या वो मेरी नह हो सकती?
दल म आया।
कै से होगी?
या साहब यािन क हैयालाल भागव उसका हाथ मेरे हाथ म दगे?
कोमल ने तो मुझे नह पहचाना। जब म गया था, तब तो मासूम अबोध ब ी थी वह। मेरी
याद शायद उसके मानस पटल पर से धूिमल हो गई ह । धूिमल या हो गई ह गी—अब
तो िमट ही गई थ शायद।
मगर....क हैयालाल भागव।
उनका अहसास करते ही ह नखिशखांत तरस कर रह गई। वे कहां भूल गए ह गे मुझे।
इतने साल बाद भी अगर पहचान िलया तो....?
थ पड़ और ठोकर क आवाज कान म यूं गूंजने लग जैसे बस अभी वो सब आ हो।
उनका भभकता चेहरा। सुख आंख, दहकता वजूद।
बस!
ती वेदना मेरे दल म भरती चली गई। तन म दबी-सी पीड़ा घाव से फू ट पड़ी। िब तर
जैसे खुरदुरी िशला म त दील हो गया हो।
आरजू और वेदना म र साकशी हो रही थी जैसे। कै सा िववश-सा हो गया था म!
मेरी आरजू, मेरी बरस क तप या जैसे मेरे सामने थी। म इस लायक भी था क उसे
हािसल कर सकता था। म चाहता भी था हािसल कर लूं। ले कन....कै से?
एक ही डर!
अगर पहचान िलया तो?
कोमल भी तो उसी बाप क बेटी है। तब तो वो एक ोताि वनी से फू टी जलधारा के जल
क भांित िनमल दय क माल कन थी। अबोध थी। मासूम थी। तब म उसका नौकर कहां
था—साथी था।
साथी!
कै सा साथी?
उसका एकांत बांटने वाला साथी। वो साथी—जो उसका मनोरं जन करता था।
मनोरं जन!
सच!
और या था वह?
मेरी कताब छीनना। शरारत। अपने िह से का खाना। जब दोपहर म न द नह आती थी
तो मेरे पास आती थी।
सब व काटने का ज रया ही तो था।
और अब....।
अब तो उसम क हैयालाल भागव के सारे गुण आ गए ह गे। आिखर उ ह ने तो पाला है
उसे!
माना वो मेरी हो गई—बाद म अगर उसे पता भी चल गया तो या दल से वो मुझे
वीकार कर सके गी?
कर सके गी?
शायद नह !
शायद हां....िववश होकर। बंधन म बंधकर। शायद इस कारण य क वो मेरी हो चुक
होगी। सात फे र के बंधन को यूं तोड़ा जाता है भला!
फर भी एक दरार तो र ते म आ ही जाएगी। वो दरार जो कम-से-कम इस ज म म तो
भरने से रही।
अब क हैयालाल और कोमल म अंतर ही या रह गया था? वो भी तो वैसी ही गंभीर हो
गई थी। एकदम रजव! मेरे िडनर के ताव को कै से ठु करा दया था? कतना याल था
पापा का! ‘उ ह अ छा नह लगेगा।’ घर ज दी जाना था।
¶¶
अ ाइस
रात कशमकश म, करवट बदलते गुजरी।
वही नह —आगे क भी अनेक रात यूं ही करवट बदलते ए गुजर । दल म अजीब-सी
कसक पैदा हो गई थी। ठीक उस मु त से भूखे इं सान क मािन द िजसे मनपसंद भोजन
िमल गया था ले कन वो न उसे छू सकता था, न खा सकता था। और उसक स धी खुशबू
मन म सम दर क हवा के झ के क मािन द पश करके वहां ती लहर पैदा कर रही थी।
और एक दन!
ओह! सम दर म वारभाटा भी आया।
सात जुलाई!
मानसून अ ाइस जून को ही मु बई म वेश करके एक बार बरस चुका था। और कहते ह
ना मु बई क बरसात का कोई भरोसा नह । बादल कब िघर आएं और कब नगरी को
िभगोने लग, पता नह चलता।
उस शाम मने कु छ देर कोमल को कने को कहा और वह क गई। ऑ फस म कु छ अिधक
काम था, सो कु छ लोग को मने कने को कह दया।
सात बजे कोमल वहां से िनकली।
और सवा सात बजे खुद म।
म िनकला तो बा रश जोर से पड़ रही थी। मने अपनी कार क पीड यादा नह रखी।
सड़क पर हालां क े फक अिधक था भी नह । ना रहता था कभी। कोई एक आध इ ा-
दु ा वाहन वहां से गुजर रहा था। व काटने के िलए मने जगजीत क गजल यूिजक
िस टम म चालू कर थी।
तभी!
वो एक अ य त सुनसान मोड़ था, जहां नजर पड़ते ही जोरदार झटका लगा था।
ओह! कै सा दल को दहला देने वाला दृ य था वह!
कई पल तक तो मुझे अपनी आंख पर िव ास नह आ।
कोमल बदहवास गुहार करती मोड़ पर से यकायक कट ई थी। शान पर से चुनरी जाने
कहां गायब थी। सारा शरीर बरसात म भीगा आ। मानो लय आ गई हो।
मेरे पैर बेसा ता ही पैडल पर जमते चले गए।
कार के पिहए सड़क पर जाम हो गए।
“कोमल!” बदहवास म भी हो गया था। उसे पुकारता आ म दरवाजा खोलकर सड़क पर
उसक तरफ लपका।
मगर!
कोमल को अपना होश कहां था। िहरनी के पीछे जैसे शेर का झु ड आ रहा था। और
बेचारी िनरीह िहरनी उस सुनसान उजाड़ जंगल म खुद को बचाने को भाग रही थी।
म तेजी से उसे पुकारता आ उसक तरफ लपका।
वो मुझे नजरअंदाज करके गुजर ही जाती—अगर म खुद उसक बांह पकड़कर उसे ख च न
लेता।
एक मम पश दन उसके होठ से फू टा ले कन तुर त ही जब उसक नजर मेरे चेहरे पर
पड़ी तो वो एकदम जाम सी हो गई। िव फा रत आंख से मुझे देखती रह गई। और
फर....अगले ही पल वो मेरे सीने से लता क मािन द िलपटकर फफक पड़ी।
एक जानी पहचानी सनसनाहट मेरे वजूद म िव ुत तरं ग क मािन द दौड़कर रह गई।
मने भी उसे अपनी बाह म समेट िलया।
उसके आंसू अिवरल धारा के प म मेरे भीगे कोट के सीने पर िभगोते चले जा रहे थे।
ले कन गीला हो रहा था मेरा वजूद!
“कोमल!” मने उसे खुद से अलग करने का ह का सा य कया। ले कन वृ से टू टी शाख
को सहारा िमला था जैसे। वो मेरी बाह म और िसमट गई।
तभी मेरा यान सामने क तरफ गया।
वे दो टपोरी थे जो मोड़ पर कट ए थे।
एक म सरीखा। दूसरा छः फ टा, इलैि क पोल क तरह ल बा।
वे दोन भी ऊपर से नीचे तक बा रश म भीग रहे थे।
मुझे देखते ही उन दोन के होठ पर ू र मु कान पैदा हो गई—जब क मेरी मांसपेिशय म
तनाव उ प हो गया।
ले कन म कोई पंगा नह खड़ा करना चाहता था—सो म कोमल को यूं थामे पलट गया
—“चलो कोमल।”
तब तक कोमल का डर भी समा हो गया था और उसे अपनी हालत का कु छ हद तक
आभास भी हो चुका था। वो मेरे सीने से अलग हट गई। मने उसके कं धे को थाम िलया और
अपनी कार क तरफ बढ़ गया। कोमल ने एक बार भयभीत नजर से उधर देखा और मेरे
साथ चल दी।
म उसे लेकर कु छ ही कदम चल पाया था क....।
“ऐ शाणे!” ककश वर मेरे कान म पड़ा—“इस पीस को लेकर कधर जा रे ला है रे तू?”
म कु छ कहे बगैर आगे बढ़ता रहा और कोमल को कार के पास ले गया।
“चलो, कार म बैठो तुम।” मने अपनी कार क पैसजर सीट का दरवाजा खोलकर उसे
अ दर बैठाने का उप म कया।
कोमल अ दर बैठने लगी।
बैठने का उप म करते ए ही अचानक कोमल का यान मेरी पीठ क तरफ गया तो भय
से उसक आंख फटी-क -फटी रह गय । उसक हालत देखकर मने भी चकराकर पीछे देखा
तो पाया दोन टपोरी चाकू िनकाल चुके थे।
वे हमारी तरफ ही बढ़ रहे थे।
मने कोमल को अ दर बैठाकर दरवाजा ब द कर दया।
वे मेरे करीब आ चुके थे।
“साले!” ल बू ने सीधा मेरा िगरे बान पकड़ा और एक झ ाटेदार थ पड़ मेरे गाल पर जमा
दया।
भ ाकर रह गया म।
आगे उसने या कहा था, म न सुन सका। हां, पूरा वजूद जैसे आग के घेरे म आकर तप गया
था जैसे।
वो मुझे अलग ख चता चाहता था ले कन बदले म मेरा पंजा उसके चाकू वाले हाथ क
कलाई पर जमता चला गया—िजसे मने फु त से उमेठ दया। पहले कभी यूं कसी से
उलझा नह था, ले कन तब ह सला कहां से आ गया, पता नह । बस िभड़ गया तो िभड़
गया।
ल बू कराहा तो मने उसे परे धके ल दया। वो छपाक से पानी म जा िगरा।
म मोटे क तरफ घूमा—वो कोमल को कार से िनकालने के िलए िखड़क खोलने का य
कर रहा था। मने उसका िगरे बान पीछे से पकड़ा और उसका िसर कार क छत पर दे
मारा। उसका चाकू भी पानी म फसल गया।
म मोटे से गुंथ गया।
मोटा कम फु त ला नह था। उसे काबू करना मेरे िलए काफ मुि कल काम था। तभी लंबू
भी आ गया।
मने मोटे क गदन पर लटककर दोन लात एक साथ लंबू को जमा द । वो पानी म दोहरा
हो गया।
म भी मोटे से उलझा आ जोर से पानी से भरी सड़क पर जा िगरा।
हम दोन दूर तक पानी म लुढ़कते चले गए।
फर ज दी से मोटा भी संभल गया और म भी। लंबू भी आ गया। उसके बाद जैसे वहां व ड
रे लंग शु हो गई। और मेरी हालत खराब होने लगी। यह वाभािवक भी था। आिखर वे
दोन उस काम म ए सपट थे और म पूरी तरह से नाकारा था। बस, कलम चलाई थी।
अब मुझे लगा म गया काम से।
यादा देर तक उनका सामना करना मेरे बस क बात थी भी नह । समझ म नह आ रहा
था या कया जाय?
तभी!
चम कार आ था जैसे वहां।
भड़ाक-से जोर क चोट मोटे के िसर पर पड़ी।
मोटा चीखता आ नीचे आ िगरा।
मारे खुशी से मेरा मन मयूर-सा नाच उठा।
वो कोमल का कारनामा था। गजब के साहस का प रचय उसने आड़े व म दया था। मेरी
रग म नई शि का संचार आ था जैसे।
बस, फर या था!
मने लंबू को जोर से पटक दया और लपककर कोमल के हाथ म से डंडा छीन िलया। िपल
पड़ा म उन दोन पर।
ड डा मेरे िलए अ छा हिथयार सािबत आ।
कु छ ही देर म उन दोन टपो रय के पैर उखड़ गए और उ ह ने जान बचाकर भागने म ही
भलाई समझी। कोमल को कोई संघष न करना पड़ा। ड डा िमल जाने के बाद सारा काम
बड़ी आसानी से मने कर दया। उ ह भागता पाकर मेरा ह सला और बढ़ा तो मने उनका
कु छ दूरी तक पीछा भी कया।
फर वापस आ गया।
कोमल वह खड़ी थी।
बा रश का जैसे उसे इ म ही नह था।
तब पहली बार मने उसे यान से देखा।
देखा—तो बस देखता रह गया।
पानी ने उसके कपड़ को िभगोकर उसके तन से यूं िचपका दया था जैसे वे उसके िज म का
ही एक िह सा ह । स दय कै सा िनखर गया था उसका! सांचे म ढला-सा बदन जैसे कसी
कलाकार ने संगमरमरी चटटान को बारीक से तराशकर उसे युवती का प दे दया हो।
ऊपर से िगरते पानी क सद महसूस करते ए उसने अपने दोन हाथ अपने व पर समेट
िलए।
तभी म भी हड़बड़ाया।
उसक पलक के झुकने का अंदाज! मुझे लगा जैसे उसने मेरी चोरी पकड़ ली हो। अपने उस
कृ य पर म भी जरा झप गया।
या सोच रही होगी वो....।
मने उसक झप को भी महसूस कया तो मेरा यान बरबस ही अपनी भीगे कोट पर चला
गया। मने तुर त कोट के बटन को खोलना शु कर दया।
म कोट उतारकर उसके पास प चं ा तो वो अपने ही थान पर और िसकु ड़ गई। मने साइड
म जाकर अपना कोट उसके कं ध पर टकाकर धीरे से कहा—“तुम इसे पहन लो।”
उसने पलक उठाकर हौले से मेरी तरफ देखा।
“कोट पहन लो।” मने पुनः कहा तो उसने उसे पहन िलया।
“चलो घर चलते ह।” मने कार क तरफ बढ़ते ए त भाव से कहा और आगे बढ़कर
पैसजर सीट क तरफ का दरवाजा खोल दया।
घूमकर देखा तो पाया वो वह िसकु ड़ी-सी खड़ी मुझे देख रही थी। कु छ भाव था उसक उन
काली कजरारी आंख म िजसे म समझ न सका। मने पुनः कहा—“आओ कोमल....।”
वो वहां से िहली।
वो मेरे पास आ गई तो उन आंख का भाव जैसे मेरे दमाग म पाक आ—“अरे , मोपेड
कहां है तु हारी?”
“उसे मने ठीक करवाने वाले के यहां खड़ा कर दया।”
“ओह!” म समझा—“चलो बैठो।”
“म....मेरी चुनरी।” मुि कल से उसके होठ से िनकल पाया था वो श द।
मुझे झटका-सा लगा।
“म....म लेकर आता ।ं ” मने तुर त खुद को काबू कया और उससे कु छ कहे या पूछे बगैर
उसी दशा म बढ़ गया, िजस ओर से वो भागती ई आई थी।
मुझे कसी दु ारी का सामना नह करना पड़ा य क वो मोड़ पार करते ही कु छ दूरी पर
ही एक घर क फस क ि ल पर िचपक नजर आ गई थी। मने सावधानी से उसे उतारा तो
कु छ दूरी पर मुझे कोमल क एक सै डल नजर आ गई। दूसरी सै डल उससे कु छ ही दूरी
पर पड़ी थी।
मने उसे भी उठा िलया।
म वािपस आया तो कोमल पैसजर सीट पर जम चुक थी। मने सै डल को उसके कदम म
डाल दया और चुनरी उसक तरफ बढ़ा दी।
म ाइ वंग सीट पर जम गया।
रा ते म मने उससे पूछा—“ये सब कै से आ?”
“म रा ते म ही थी.... क मेरी मोपेड ब द हो गई।” उसने धीमी आवाज म कार के अ दर
क खामोशी के बीच बताना शु कया—“पास के ही गैराज म मने मोपेड को छोड़ दया
और टॉप पर बस या टै सी का इं तजार करने लगी....। ये वह से मेरे पीछे पड़ गए थे....।”
उसके बाद सारा रा ता पैनी खामोशी के बीच कटा।
वो पहला मौका था जब म कोमल के घर गया। उस नए मकान म—जो कोमल के पुराने
मकान क तुलना म कई गुना छोटा था और सामान उसम ब त ही सीिमत था।
दरवाजा क हैयालाल भागव ने ही खोला था।
“अरे !” कोमल को देखकर बरबस ही उनके होठ से फू ट पड़ा—“कोमल! ये या आ?”
मेरा दल जोर से उछला।
“प....पापा, रा ते म मोपेड खराब हो गई थी।” उसने बताया, साथ ही मेरा प रचय भी
कराया—“वे मेरे बॉस ह पापा....इ ह ने मुझे िल ट दी।”
मने हाथ जोड़कर नम ते क तो उ ह ने मुझे आशीष दया। फर खुद दरवाजे से अपनी
चेयर को पीछे ख चते ए उ ह ने हम अ दर आमंि त कया—“अ दर आओ, बेटा।”
हम अ दर चले गये।
“सर, आप कपड़े बदल लीिजए।” कोमल ने कहा—“म ेस करके उ ह सुखा देती ।ं सद
लग जाएगी।”
“कोई ज रत नह है। तुम परे शान मत होओ। घर का रा ता यादा ल बा नह है। म पांच
िमनट म ही वहां प च
ं जाऊंगा।”
“म कॉफ लाती ।ं ”
और मुझे बैठना ही पड़ा।
कोमल कु छ ही देर म दो कप कॉफ बना लाई। उस व भी वो उ ह कपड़ म थी।
“तुमने कपड़े नह बदले।” म कप थामते व उसे देखकर च का—“कॉफ तो बाद म भी
बन सकती थी....तु ह सद लग गई तो लेने-के -देने पड़ जाएंग।े ”
“बस, अब बदल लेती ं सर।”
“जाओ....कपड़े बदलो ज दी।”
वो पास वाले कमरे म चली गई।
म उसे जाता देखता रह गया। कै सी थी वो लड़क !
“पगली है वो!” क हैयालाल भागव का वर मेरे कान म पड़ा तो मेरी त ा भंग ई। मने
च ककर उनक तरफ देखा। वे कह रहे थे—“िजस काम को करना चाहती है, पहले उसे ही
करती है।”
“शायद ब त लाडली है।” म संभलकर बोला।
“हां, िबन मां क ब ी है। छः साल क थी जब इसक मां इसे छोड़कर चली गई थी। अब
काम भी करती है और मुझे भी संभालती है।”
म कु छ न कह सका।
खामोश रह गया।
“ ेजुएशन म एडिमशन दलाया था....।” अपनी ही बात को वो कहते रहे—“पढ़ने का इसे
शौक था। मेरा िबजनेस संभालना चाहती थी....। ले कन अब पढ़ाई छोड़कर जॉब करने
लगी। म कहता ं तो मानती ही नह ।”
“आपसे ब त यार करती है।”
“हां....मगर या ऐसे ही िजदंगी कटती है? सोचता ं कोई ठीक-सा लड़का िमल जाए तो
इसके हाथ पीले कर दू.ं ...।”
झटका-सा लगा मुझ।े
यकायक मेरे कांच के आिशयाने पर कोई प थर िगरा जैसे! और वो छनाक से चकनाचूर
होकर िबखर गया—मुि कल से म अपने हाथ म थमे कप को थामे रख सका।
“क....कोई लड़का है नजर म?” मने खुद को काबू करके पूछा।
“नह , अभी तो नह । समझ म नह आता क इस ब ी के नसीब म या होगा....।”
“लड़क तो ठीक है। लड़का भी अ छा िमल जाएगा।”
तभी दरवाजा खुला और कोमल बाहर िनकली।
वो कपड़े बदल चुक थी। भीगे बाल को उसने तौिलए म लपेट रखा था।
“सर, आप भी....।” उसने कहना चाहा मगर मने अित त भाव से कॉफ का आिखरी घूंट
भरकर कप वह जमीन पर रखते ए कहा—“बस, अब म चलूंगा।”
खड़ा भी हो गया।
“बा रश म आप बुरी तरह भीग चुके ह, सर।” उसने कहा।
“कोई बात नह ।” मने लापरवाही से कहा—“तुम मेरा कोट ले आओ। म चलता ।ं ”
म वहां कना भी नह चाहता था।
ठहरे ए जल म जैसे कं कड़ पड़ गया था और उसक नजर दय के कोर को धीरे -धीरे
पश करके रे त को काट रही थ । एक अजीब-सी बेचैनी मेरे वजूद पर कािबज होती जा
रही थी। िजसका कोई अ त मुझे नजर न आ रहा था।
कोमल कोट ले आई।
“अगर तबीयत ठीक रहे, तो ही कल ऑ फस आना।” अ त म मने कोमल को िहदायत दी
—“तुम काफ देर तक भीगती रही थ ।”
“जी....।” बस इतना ही कहा उसने।
¶¶
उ तीस
इ क!
बड़ी अजीब-सी िम ी है ये!
क ब त होता है तो हो ही जाता है। उससे भी—िजसके बारे म हम जानते ह क हम उसे
कभी भी हािसल नह कर सकते। हम जानते ह क उसे हािसल करना हमारी औकात से
बाहर है— फर भी उसके िवछोह क क पना मा हमारे वजूद को िहलाकर रख देती है।
चांद से दूर चकोर जानता है क उसे वो हािसल नह कर सकता—ले कन रात भर एकटक
—एक तप वी क मािन द—उसे देखता रहता है। चांद जरा सा बादल म िछपा नह क
तड़प उठता है....यही तो इ क है। दीवानगी है।
वो सारी रात जागते ए कटी।
पता नह कतने दन तक कोमल यूं मेरे करीब थी। चकोर क तरह। इतना तो सुकून था
क वो अभी सामने थी।
चकोर और मुझम एक बड़ा अ तर था।
चकोर का चांद महीने म एक रात के िलए गायब होता है अमाव या क रात को। और मेरा
चांद तो इस बार गायब होगा तो बस....गायब ही हो जाएगा।
अब म उसे हािसल करना चाहता था। कसी क क मत पर हािसल करना चाहता था।
या वो मेरी हो सके गी?
य ना पोज कया जाए?
वो मानेगी?
य नह मानेगी? या कमी है मुझम? सब कु छ तो है मेरे पास?
ले कन मेरी औकात!
या है मेरी औकात?
मेरा तो कु छ भी नह है। जो है पापा-म मी का और चंचल का है। और मेरा भी है तो? था
तो कोमल का नौकर ही ना!
कु छ नह होता यार।
जब कोमल को अब तक पता नह चला तो आगे या पता चलेगा? अब तो म पापा-म मी
का ही बेटा ं ना.... याम िम ल।
मु बई और यहां रहने वाल से मेरी या र तेदारी है?
बस!
कल ाई करता ।ं
और मने तय ही कर िलया।
या क ग
ं ा उससे?
एक और नया सवाल!
म और उलझ गया।
यूं ही सारी रात भूिमका तैयार करने म गुजारी।
“कोमल!” मने अपने के िबन म से ही उसे इं टरकॉम पर बुलाया।
“यस सर।” उसका सुरीला वर मेरे कान म पड़ा तो जाने य मेरा दल धड़का। सांस
क लय जरा-सी गड़बड़ाई।
“ या कर रही हो?” मने खुद को काबू म रखकर पूछा।
“सर, कु छ काम था?”
“हां, यहां आओ।” मने उसके जवाब का इं तजार कए बगैर ही स पक िव छेद कर दया।
वो बस आने ही वाली थी।
मेरा दल बेकाबू हो चला था। मने फटाफट अपने बाल पर हाथ मारा। टाई को कसा। कोट
के खुले बटन को ब द करके पोिजशन लेने वाले अंदाज म बैठ गया।
अजीब-सी हलचल मेरे दल म थी।
ती स पस!
वैसा स पस तो मेरे दमाग म कसी अित रोमांचकारी क से को पढ़ते व भी नह पैदा
आ था। पता नह कै सी रए ट करे गी?
मने खुद को त दशाने के िलए मेज पर रखी फाइल म से एक फाइल उठाकर खोल दी।
“मे आई कम इन सर।” तभी मेरे कान म कोमल का सदा क भांित गंभीर वर उभरा।
“य....यस कम इन।” मने रवा वंग चेयर पर अपनी पु त को दरवाजे क तरफ घुमा
दया।
यकायक जैसे जंग के िलए िनकले यो ा के कदम रण- े म पड़े और ह सले प त हो गए।
वो अ दर आ गई।
मने अपनी टाई पुनः दु त क ।
सामना तो करना ही था। म फाइल ब द करता आ घूमा—“बैठो।”
वो बैठ गई।
उसने अपने व म एक फाइल दबा रखी थी। बैठते व वह फाइल उसने अपनी गोद म
रख ली।
के िबन म स ाटा-सा छा गया जैसे।
सब एकदम खामोश।
सारी रात जो सोचा था—पल भर म ही वॉश आऊट हो गया था। एक श द तक न बचा था
वहां।
कु छ तो कहना ही था।
“तुमने अपना काम िनबटा िलया।” मने शु कया।
“यस सर।” उसने कहा—“एक िड टेशन बची है।”
“गुड!”
खामोशी।
मेरी बेचैनी और बढ़ गई। दमाग कु द हो गया। समझ म न आया या कहा जाए।
“कब तक िनबटा लोगी?” म आगे बढ़ा।
“उसे िनबटा ही रही थी। उसे आधा टाइप कया है। पांच िमनट म पूरा कर लूंगी।”
“ठीक है, करके लाओ।” मने टॉिपक लोज करना ठीक समझा।
और या कहता!
अब तो उसका सामना करना भी मुझे बड़ा ही मुि कल नजर आ रहा था।
“म चलूं सर।” उसने उठने का उप म कया।
“या....या।” म फु त से बोला—“तुम फर आना।”
वो उठने लगी।
“ये फाइल।” मने उसके हाथ म थमी फाइल क तरफ इशारा कया तो उसने फाइल मेरी
तरफ बढ़ा दी—“सर, ये क पलीट है।”
मने वो फाइल ले ली।
वो फाइल देकर जैसे ही घूमी तो मेरा यान उसक हालत पर गया। म च का। टोका
—“कोमल!”
“यस सर!” उसने ठठककर पूछा।
“तुम ठीक हो?”
“यस सर।”
“शायद कल क बा रश असर कर गई है तुम पर।”
“नह सर, म ठीक ।ं ”
“अभी घर जाओ।” मने आदेशा मक वर म कहा—“इसी व यहां से घर प च
ं ो....और
दवाई लेकर आराम करो।”
“सर, इतनी ा लम नह है।” उसने धीरे से कहा।
“शटअप!” मेरा लहजा तुर त स त हो गया—“िजतना कहा, उतना करो। घर जाओ अभी।
ये वायरल है, बढ़ गया तो ा लम हो जाएगी। कई दन तक कु छ काम नह कर सकोगी
तुम। म बाद म बात क ं गा तुमसे।”
फर वो मेरी म िखलाफ न कर सक ।
वो चली गई।
बचपन म भी वो पहली बा रश म जाकर भीगती थी और वायरल का िशकार होकर कई
दन तक मेमसाहब को परे शान करती थी। इस बा रश म भी वो भीगे बगैर न रही
थी....नतीजा सामने था।
मगर मेरी बात!
वो बात अधूरी ही रह गई थी।
अब या हो सकता था....इं तजार?
वो मौका तो हाथ से िनकल ही चुका था। उसके बाहर जाते ही मने कु स क पु त पर पीठ
टकाकर आंख मूंद ल और गहरी सांस लेने लगा। रलै स होने का य करने लगा।
शु था वो अगले दन ही आ गई।
इस बार तो मौका छोडू ग
ं ा ही नह —मने तय कर िलया। एक बार फर उन श द क
रहसल क । टाई दु त क । कोट का खुला बटन ब द कया और कोमल को बुला िलया।
वो आई।
“कल वाला काम पूरा हो गया?” मने पूछा।
“यस सर।” उसने फाइल मेरी तरफ बढ़ा दी।
मने फाइल ले ली।
म इस बार काफ संयत था।
“तुम ठीक हो?” मने उसका चेहरा गौर से देखते ए पूछा।
“यस सर।” उसने जाने य पलक झुका ल ।
“अब जुकाम तो नह ।”
“नो सर।”
“बा रश से बचा करो।”
“जी।”
खामोशी!
उसी मकसद क तरफ बढ़ते-बढ़ते ही एकाएक मेरे ह सले जरा ढीले पड़े।
मगर!
म कमजोर नह पड़ना चाहता था—“मुझे....म तुमसे कु छ बात करना चाहता ।ं ”
अित गंभीर हो गया था म।
के िबन का वातावरण शांत।
इस कदर शांत क वहां क खामोशी के बीच एयरक डीशनर क आवाज प हमारे कान
म पड़ रही थी। और अगर ए.सी. को चुप कर दया जाये तो बगैर कसी भी यं के मेरे
दल क धड़कन को साफ सुना जा सकता था।
मने पानी का िगलास उठाकर उसम कु छ घूंट पीकर उसे यथा थान रखा और कोमल के
चेहरे पर नजर डाली।
वो भी खामोश थी।
नजर झुक । जैसे उसे मेरे टॉिपक का अंदश
े ा हो।
“देखो, जबरद ती नह है।” मने अपनी आवाज पर काबू कायम रखते ए बद तूर कहना
शु कया—“अगर तु ह सही लगे तो हां कर देना नह तो....ओ.के ., कोई बात नह । लीज
बुरा मत मानना।”
उसक पलक और झुक ग ।
खामोशी!
मने िगलास उठाकर पुनः पानी के घूंट भरे । िगलास यथा थान टकाया और मेज पर
कोहिनयां टकाकर कु छ आगे को झुकता आ बोला—“कोमल, म तुमसे शादी करना
चाहता ।ं ”
संगमरमरी मुखड़े पर गुलाल फै ल गया जैसे। एकाएक ही दोन कपोल गुलाबी होते चले
गये।
कु छ नवसनैस-सी उस पर हावी होती मुझे नजर आई। उसी के प रणाम व प अपनी
चुनरी का कोना वो अपनी अंगुली पर लपेटने लगी।
गुलाबी पखुिड़यां सरीखे होठ थरथराए—मानो कु छ कहना चाहते ह , पर न कह सके ह ।
श द पर मानो हया, या संकोच ने अंकुश लगा दया हो।
मुझे लगा—वो कु छ जवाब नह दे पाएगी—सो मने ि थित को संभालने का य कया
—“देखो, तुम मेरी एक ए पलाई हो। ले कन इस बारे म कोई ेशर तुम पर नह डाल रहा।
तु हारा अपना मामला है, ि गत मैटर है। चाहो तो हां कर देना। चाहो तो....। िव ास
करो, तु हारे जवाब का कोई असर तु हारी जॉब पर नह पड़ने वाला। तुम एक अ छी
लड़क हो। तु ह देखकर लगता है क तुम मेरी जंदगी म आकर मुझे संभाल सकती हो।”
तब पहली बार उसने पलक का आवरण ऊपर को हटाया।
मगर मुझसे नजर िमलते ही आवरण पुनः उन काली कजरारी आंख पर िगरा िलया।
“तुमने कु छ जवाब नह दया।” मेरी धड़कन कु छ बढ़ गई थ ।
“म....म या क ं सर।” पंखुिड़यां धीरे -से थरथरा तो क ठ से फं सा-फं सा-सा वर उभरा।
“मतलब?”
“ये फै सला तो पापा ही कर सकते ह।”
झटका-सा लगा मुझ।े
वही तो सबसे बड़ी दीवार थी।
“इसम तु हारी कोई राय नह है?” मने उसका चेहरा गौर से देखते ए भाव को पढ़ने
करने का यास कया।
“जी, मेरे पापा कभी गलत फै सले नह करते।” मानो पूरे िववाद का अ त हो गया हो।
म बस क
ं ारा भरकर रह गया।
रा ते ब द!
“म चलूं सर।” उसने उठने का उप म कया।
“हां।” यं वत-सा मेरे होठ से िनकला। फर तुर त ही म च का। हड़बड़ाकर मने उसे टोका
—“र.... को जरा। कु छ देर बैठो।”
वो ठठक ।
उसके चेहरे पर तब भी सुख कायम थी।
“थोड़ा को।” मने सामा य भाव से कहा—“तुम पहले जरा रलै स हो लो। कोई टशन
नह ।”
मने उसे कु छ देर बाद ही एक िगलास पानी िपलाने के बाद के िबन से भेजा।
खुद मेरा हाल बुरा था। उसके बाहर जाते ही मने जोर से फे फड़ क हवा को बाहर मुंह के
रा ते िनकाला और कु स पर....यूं पसर गया मानो म कोई ल बी सैर करके वहां बैठा होऊं।
मेरा क ठ अ दर तक यूं सूख गया था जैसे िज म क सारी हवा उसी के साथ बाहर िनकल
गई हो।
मने िगलास से बाक पानी को एक सांस म हलक से नीचे उतारकर चपरासी को पानी का
िगलास पुनः भरकर लाने के िलए बुला िलया।
और जैसे रा ते ब द हो चुके थे।
कोमल का कोई जवाब नह था। मुझे वो अधर म लटकाकर चली गई थी। एक बात तो तय
थी— क उसके मन म मेरे िलए वैसा कोई मैल नह था। और शायद दल भी पूरी तरह
कोरा था। शायद कोई और नाम तब तक उसके दल पर नह िलखा था।
वो मेरे िलए सुकून क बात थी।
ले कन!
सुकून कहां?
अधर म अटके प े को सुकून कहां?
म शाम को ऑ फस से िनकलकर देर तक मु बई क सड़क पर रॉ स रायस को दौड़ाता
रहा। ठीक िडनर के व पर म घर प च
ं ा।
घर प च
ं कर मुझे िडनर तैयार ही िमला।
िडनर करने के बाद म म म चला गया। क तु जब चैन न िमला तो पुनः रॉ स राय स
िनकाल ली और चल पड़ा।
एक ामीण कहावत है—िगरिगट क दौड़ िबटोड़े तक। द ली म ही सु े क जुबानी सुनी
थी ये।
या कह—मु ला क दौड़ मि जद तक....और मेरी दौड़ बीच तक।
दल क भी अजीब-सी तासीर है।
कोई चीज िजसे वो बेइ तहा चाहता है और अगर वो उसके पास है तो सुकून से रहता है।
वो चाहे अपनी हो या पराई—बस उसका दीदार होता रहना चािहए। अगर वो चीज दूर
हो तो उसका दीदार करने को तरसता है। और अगर वो पास आकर दूर जाए तो हर हाल
म वो उसे हािसल करने को तड़प उठता है। वो सामने खड़े पहाड़ म उन जगह पर भी
क दराएं खोजने का य करने लगता है जहां पर उसे ब द रा ते भी साफ नजर आ रहे
होते ह।
शायद यही तड़प उसे गलितयां करने के िलए िववश करती है। यही तड़प शायद जुम क
जड़ आ करती है।
बीच!
एकदम शांत!
लहर का कलरव मधुर संगीत बनकर फजां को संगीतमय बना रहा था और नम मखमली
समीर िज म को पश करके सोई तरं ग को जगा रही थी जैसे।
दूर तक जैसे सम दर पर चांदी का वक िबखेर दया गया था। और आसमान म स पूण चांद
मानो तार क सभा का ितिनिध व कर रहा हो।
ऐसे वातावरण म कसे सुकून नह िमलेगा भला!
मने कोट उतारकर सीमे ट क बच क पु त पर डालकर उस पर िसर टका िलया। आंख
मूंदकर गहरी-गहरी सांस लेने लगा।
वो वहां के वातावरण का ही असर था क मुझे कु छ ही पल म सुकून का अहसास हो गया।
दबाव म कमी आई। और म खुद को फजां के उसी बहाव म बहा देने का य करने लगा।
यह गलती कर बैठा म।
इं सान का पैर उसी व फसलता है जब वो अपनी गित को कदम संभलने से पहले ही बढ़ा
देता है। मने भी वही गलती क और फसल गया।
दमाग जरा-सा शांत आ तो अपने ल य क तरफ दौड़ पड़ा। कोमल क तरफ दौड़ पड़ा।
मन पुनः पवत म क दरा तलाशने लगा।
अंधेरे म आशा क एक करण खोजने का य करने लगा। वजूद क बेचैनी पुनः िसर
उठाने लगी। सम दर के पास होने के बावजूद भी यास-सी जाग उठी थी।
और फर!
तपते रे िग तान म जैसे एक घना छायादार वृ नजर आया। उसक शीतल छाया का
कोमल अहसास मन क वेदना पर जैसे मरहम के फोये क मािन द पश आ।
मने तुर त आंख खोल द ।
हाथ खुद-ब-खुद जेब पर चला गया जहां मेरा मोबाइल रखा था।
मने उसे िनकालकर घर का न बर डायल कया।
“हैलो!” फोन घर के नौकर मंजू ने अटै ड कया था।
“काका, म बोल रहा ।ं ” मने कहा—“पापा ह घर पर?”
“हां, बचवा ह। खाना खा रहे ह।”
“ठीक है, म बाद म फोन करता ।ं ”
“अरे , को बचवा, साहब बात करने को आ रहे ह।”
म खामोश रहा।
मुझे पता था गंगू इं मे ट को उठाकर पापा के पास ही ले गया होगा।
कु छ पल बाद!
“हैलो याम।” पापा का खुशी भरा वर।
“नम ते पापा।”
“नम ते। कै से हो? कहां हो?”
“यह ं पापा।”
“यह कहां भई? आवाज तो सम दर क लहर क आ रही है।”
“ज....जी बस, थोड़ा रलै स होने को आ गया था इधर।”
“अके ले हो या कोई साथ है बखुरदार?”
“अके ला ,ं पापा।” उनका इशारा समझकर म धीरे -से मु कु रा दया।
“कु छ काम था?” वर जरा गंभीर था।
“पापा, दरअसल, म आपसे कु छ बात करना चाहता था।”
“हां, कहो।”
म खामोश रह गया।
समझ न आ सका या क ?ं कहां से बात शु क ं ?
“भई, पैरा ाफ बदलने म इतनी देर लगा रहे हो तो बात कै से कहोगे?” पापा के वर ने
मुझे च काया—“बात या है?”
“पापा, म आपसे एक बात करना चाहता ?ं ”
“तो करो ना....इतनी देर य लगा रहे हो?”
“पापा—म श....शादी करना चाहता ।ं ”
“शाबाश! यािन मोचा फतह।” पापा का हष से भरा वर उभरा।
“नह पापा!”
“मतलब?” उबलते दूध पर मानो पानी के कु छ छ टे पड़े—“उससे बात नह ई?”
“ ई पापा—आज ही ई।”
“तो या कहा उसने? इं कार कर दया?”
“नह पापा।”
“ फर?”
“वो चाहती है क म इस बारे म साहब से बात क ं ?”
“साहब?”
“उसके पापा।”
“ओह, तो बात कर लो।”
“म क ं पापा?”
“ या हज है! कर लो।”
“पापा! यहां आ जाइए ना।” मने जरा िवनीत वर म कहा।
“ठीक है। हम आ जाते ह।”
“कब आ रहे ह आप?” दल म सुकून उभरा।
“तो स डे को आ जाएं हम?”
“स डे परस है पापा।”
“ठीक है। म तु हारी म मी को लेकर स डे को आ जाता ।ं ”
¶¶
तीस
रिववार क सुबह ही पापा-म मी आ गए। चंचल भी उनके साथ थी। वो कु छ यादा ही
उ सािहत नजर आ रही थी। चेहरा ऐसे िखला आ था जैसे उसक कोई बड़ी तम ा पूरी
होने जा रही थी।
एयरपोट पर वो मुझे देखते ही जोर से चहक और मेरे पास आते ही मेरी बांह थामकर
उससे िचपक गई।
कार म भी वो मेरे साथ ही बैठी। दूसरी कार म पापा-म मी बैठे।
“बात कर ली उनसे?” उ सािहत और उतावले वर म उसने पूछा।
“हां।”
“ या बात ई, बताओ।”
“कु छ बात नह ई।”
“झूठ!” वो अड़ गई—“कु छ तो कहा होगा उ ह ने?”
“िव ास करो, अभी कोई बात नह ई।” मने उसे हंसकर िव ास दलाने का य कया
—“अभी कु छ भी तय नह आ है। पापा-म मी को इसीिलए तो बुलाया है।”
“यहां तो आप झूठ बोल रहे ह।” वो मानने को जरा भी तैयार नह ई—“उनसे कु छ तो
बात ई होगी—तभी तो आपने पापा से बात क थी परस ।”
“हां बाबा ई थी।” आिखर मुझे वीकार करना ही पड़ा। जानता था क वो आसानी से
मेरा पीछा छोड़ने वाली नह थी। एक बार बात क पूंछ पकड़ ली, बस पकड़ ली। छोड़ने
का सवाल ही नह उठता था।
“यस!” उ साह से ऐसे बोली जैसे ाजील पर गोल दाग दया हो—“मने कहा था
ना....बोलो या कहा उ ह ने?”
“कु छ नह ।”
“कु छ भी नह !” वो अचरज से मेरा मुंह देखने लगी।
“हां....हां, कु छ भी नह । कहा, पापा से बात करो।”
“हां नह बोली?”
“नह ।”
“खूब शमा तो गई होगी। चेहरा गुलाब क तरह एकदम लाल हो गया होगा।”
“नह ।”
“ऐसा कै से हो सकता है?” वह च कत हो उठी—“जब मने पूछा था, तो वैसा हो गया था।”
“ या?” म च का। मेरी नजर चंचल के चेहरे पर जम गई थ ।
मेरी नजर को महसूस करते ही वो सकपकाकर रह गई।
“तूने इस बारे म बात क थी?” मने उसे घूरा।
“व....वो....म....म....।” अपनी गलती पकड़ी जाने पर उससे जवाब न बन सका। उ साह
और रोमांच भूत क तरह गायब हो गया।
खैर!
तुर त ही वो संभल गई। बोली—“हां, मने बात क थी।”
“कब?”
“जब म आई थी।”
“साफ-साफ बात क थी तून?े ”
“नह ....नह । बस मन क थाह ली थी। मने तो वैसे ही कहा था क अगर मेरा बस चले तो
उ ह भाभी बना लूं।”
“और उसने?” मेरा दल धड़का—“उसने या कहा था?”
“बस....शरमा गई थी। बोली....धत्!” साथ ही एक चपत मेरे कं धे पर जमाई, जैसे कोमल
ने उसे जमा दी होगी।
“ये चपत भी जमाई थी।”
“हां, मगर यार से।”
“और कु छ कहा था?”
“मने आगे कु छ पूछा ही नह था।”
“म मी को तो नह बताया?”
“आपने मना नह कया था।” वो आ ाकारी ब ी क तरह बोली।
फर उसके बाद....।
चंचल सारे रा ते मेरे कान खाती रही।
म उसक सुनता रहा। तब तक सुनता रहा, जब तक घर न आ गया।
घर से हम कोमल क खोली म गए।
दरवाजा खटखटाने पर कोमल ने ही दरवाजा खोला। सबसे आगे चंचल खड़ी थी। कोमल
को देखते ही वो चहक —“हाय कोमल!”
“चंचल तुम!” कोमल भी िखल उठी। फर जब उसक नजर हम सब पर पड़ी तो वो
सकपका कर रह गई। तुर त ही संभलकर उसने हम सबका अिभवादन कया—“अ....आप
लोग....अ दर आइए....।”
हम अ दर प च
ं े।
क हैयालाल भागव हमारी यूं आमद से खासे च कत थे।
कोमल हम बैठाकर हमारे िलए कॉफ बनाने म जुट गई। चंचल एक बार ‘ए स यूज मी’
क औपचा रकता पूरी करके िहरनी क मािन द वहां से कु लांचे भरती ई कोमल के पास
प च
ं गई।
क हैयालाल भागव संभल चुके थे।
“किहए िम ल साहब!” वे मु े पर आए—“आज आपको इस गरीब क याद कै से आ गई?
आज कै से आपने गरीब क कु टया म आने का क कया?”
“भागव साहब, हमेशा यासा कु एं के पास जाया करता है।” पापा ने मु कु राते ए बेहद
न वर म कहा—“हमारी कु छ ज रत थी—सो आपके पास चले आए।”
“म....म समझा नह ।” वे कु छ उलझे।
“दरअसल भागव साहब, हम आपसे एक बड़ी क मती चीज मांगने आए ह। और बड़ी
उ मीद लगाकर आपके पास आए ह।”
“आप श म दा कर रहे ह िम ल साहब।” क हैयालाल भागव का लहजा यकायक िनरीह
इं सान जैसा हो गया—“भला हमारे पास ऐसी या क मती चीज हो सकती है जो हम
आपको दे सक?”
“भाई साहब!” म मी बोल —“आपक इसी कु टया म तो हमारे घर क रोशनी िछपी ई
है।” ककर तुर त ही उ ह ने असली बात कह दी थी—“भाई साहब, हम आपके यहां
अपनी ब का हाथ मांगने आये ह।”
“जी....।” क हैयालाल भागव अचकचा गए।
यकायक उनक हालत म ाि तकारी बदलाव आया। अ दर से िनकली खुशी क काि त
और यूं अचानक िमली मन मा फक मुराद क बौखलाहट मािन द चेहरे पर िबखरकर रह
गई। िमली-जुली ित या। खुशी ने क ठ तक अव हो गया।
“देिखए भागव साहब....।” पापा ने म मी के खामोश होते ही कहा—“ लीज, इं कार मत
क िजएगा।”
“क....कै सी बात करते ह, िम ल साहब।” अव क ठ से उनके होठ से वर िनकला
—“अ....आप तो मेरे घर पर भगवान बनकर आए ह। समझ म नह आता इस खुशी को म
कै से संभालूं....? उजाला तो आप मेरी ब ी क जंदगी म करने आए ह।”
तभी कोमल चाय लेकर आ गई।
चंचल उसी के साथ मु कु राती ई चली आ रही थी। शायद उसी क कार तानी थी क उस
व कोमल के िसर पर चुनरी का प लू रखा आ था। पलक पर मानो कु छ वजन टक
गया था क वो आंख पर झुक ई थ । चुनरी भी माथे पर कु छ आगे को सरक ई।
चंचल शरारत कर चुक थी शायद। वो उसे सब बता चुक थी।
चाय क े हमारे सामने रखते व भी उसक पलक ऊपर नह उठी थ । चेहरे पर हया क
छाप प नजर आ रही थी।
उसने चाय पहले पापा-म मी को दी। फर अपने पापा को। उसके बाद मुझे। अ त म चंचल
को।
म मी के कहने पर खुद अपने िलए भी चाय बनाई।
म मी-पापा पूरी तैयारी के साथ वहां आए थे।
चाय के तुर त बाद ही मेरे हाथ से कोमल को अंगूठी पहनवा दी गई। र म बड़े सादा
तरीके से ई। बस, बाबू उस व वहां मौजूद था, जो िमठाइयां खुद बाजार से लेकर आया
था।
उस व !
वो मेरी नजर क दीवानगी ही थी या वा तव म उस व उसका प इतना िनखर आया
था क मेरी नजर उसके चेहरे से हटने का नाम न ले रही थ ।
धूप म कु हलाए फू ल को जैसे ताजे पानी म िभगोकर ताजगी िमल गई थी।
सोमवार को ऑ फस म मने हलचल महसूस क ।
जब म कोमल के करीब से गुजरा तो वो जरा-सी सकपका गई थी। उसक सहेली टैनो
उससे कु छ चुहलबाजी कर रही थी, जो मेरे उधर से गुजरते ही एकाएक क गई थी।
ऑ फस का माहौल काफ बदला आ था।
लंच!
लंच म मेरे दािहने तरफ कु स पर कसी ने बैठने का यास न कया—जैसे वो रजव हो
गई हो। अ त म कोमल आई। पहले वो अपनी पुरानी जगह को खोजने का य करने
लगी, फर िहच कचाती-सी उसी कु स पर आकर बैठ गई जो उसके नाम रजव करके छोड़
दी गई थी।
लंच खामोशी से आ।
लंच म ही मने चपरासी से कहकर पूरे टाफ को िमठाइयां बंटवा द ।
उसके बाद बधाइय का तांता लगा।
सब जैसे मेरे मुंह से ही वो बात सुनना चाहते थे।
कोमल क पलक शम से झुक ईथ।
शाम!
शाम के समय मने उसे कु छ नह कहा।
अगले दन शाम मने उसे रोक िलया—“तु ह कह ज दी घर नह तो जाना।”
“नह ....। कु छ काम था?”
“हां, बस ऐसे ही....।”
वो कु छ नह बोली।
बस, खामोश, पलक झुकाए, गदन नीची कए। मेरे कु छ कहने का इं तजार करती रही।
“म कु छ बात करना चाहता ं तुमसे....।” मने धीरे -से कहा—“ य ना कह बाहर चलते
ह।”
उसने पलक उठाकर मेरी तरफ देखा, मानो पूछ रही हो....कहां?
“कह भी, रे टोरे ट, पाक या बीच पर।” मने भी जैसे सवाल का जवाब दया—“कु छ देर
बैठकर बात करगे।”
“जी....ठीक है।” शु था उसने तब अपने पापा को बीच म नह डाला, खुद आसानी से
तैयार हो गई।
म सबसे पहले उसे पास ही रे टोरे ट म ले गया। वहां हमने ह का ना ता कया। कॉफ पी।
उसके बाद म उसे बीच पर ले गया।
वही कनारा, वही बच।
सूरज अपनी दन भर क लगातार या ा के बाद थककर अपनी ता बई छटाएं दशा म
िबखेरता धीरे -धीरे आसमान से सम दर के सीने पर समाने का य कर रहा था जैसे।
समु ी समीर हम दोन के ही शरीर को पश करती ई एक अजीब-सी तरं ग पैदा कर
रही थी।
“बैठो।” मने उसे बैठने का इशारा कया।
वो बैठ गई।
म भी बैठ गया।
हवा म पहली मुलाकात के व क जैसी सद नह थी। अब क बार हवा का िमजाज
काफ शांत था।
म दूर ि ितज म सम दर म उतरते सूरज को कु छ पल तक एकटक देखता रहा, या क ं क
देखते ए बात को शु करने क भूिमका बांधता रहा। समझ न सका कहां से बात शु
क ं ? साथ ही कोमल क रए शंस के बारे म भी िवचार करता रहा।
म उस तरीके से बात शु करना चाहता था क कोमल उ ह सहजता से समझ सके ।
मने चेहरा घुमाकर कोमल क ओर देखा।
वो खामोश।
एकदम खामोश। जैसे मेरे शु करने का इं तजार कर रही थी।
“कोमल! देखो, म तुमसे कु छ कहना चाहता ।ं ” मने भूिमका बांधनी शु क —“मेरी
बात को समझना और जो भी म पूछूं, सच बताना।”
चुप!
कोई ित या नह ।
“देखो कोमल!” एक िवराम लेकर मने कहना शु कया— “ए चुली मुझे लड़ कय क
साइकॉलजी क जरा भी जानकारी नह है।” कहते ए म हौले से अपनी ही बात पर
मु कु राया। हौले से हंसा भी—“तुम मुझे अ छी लग और पोज़ कर दया। तु हारे घर
र ता भी लेकर चला गया। तु हारे पापा भी तुर त मान गए....इस बीच कोई बात तुमसे
नह ई। बस तुमसे शादी के बारे म पूछा और तुमने बात अपने पापा पर टाल दी।”
मने नजर भरकर कोमल को देखा।
उसके चेहरे पर कु छ भाव जागे। कौन-से भाव? म न समझ सका।
अ दर से वो खामोश थी।
“कोमल! शादी एक बड़ा मह वपूण ब धन है।” मने कु छ ककर आगे कहा—“म नह
चाहता क शादी के बाद कोई भी ॉ लम आए....मेरा मतलब है.... या तुम इस फै सले से
खुश हो?”
उसने एकाएक चेहरा उठाकर मेरी तरफ देखा—“सर, म कु छ समझी नह ....।” होठ से
वर िनकला।
“देखो कोमल, जब मने तु ह पोज कया था, तब म तु हारा बॉस था।” मने अपनी बात
को प करते ए कहना शु कया—“उस व तु हारे मन म या था, नह जानता। हो
सकता है तुमने मुझे पास ऑन करना चाहा हो या....। फर जब तु हारे घर पर बात ई तो
तु हारे पापा ने तुर त हां कर दी। तुमसे कोई िड कशन नह आ। उसी व रं ग भी तु ह
पहनवा दी गई। तुम खामोश थ । कोमल, म तु हारा बॉस या होने वाला पित बनकर बात
नह कर रहा ं यहां पर, समझ लो म एक दो त ं तु हारा। कोई भी बात तु हारे मन म
हो तो कह दो....।”
म उसके जवाब का इ तजार करने लगा।
सूरज पूरी तरह सम दर के सीने म समा चुका था। कनारे पर अठखेिलयां करती लहर
हमारे पैर को पश करने लग । कोमल ने सैि डल पहन रखी थ , मने जूते पहन रखे थे।
लहर क एक उछाल ने मेरे मोज को िभगो दया।
वातावरण भी सलेटी रं गत अंगीकार करता जा रहा था।
कोमल चुप थी।
“तुमने जवाब नह दया?” मने कोमल को याद दलाने का या क ं ो सािहत करने का
य कया।
“न बर एक तो सर, मेरे पापा कोई भी फै सले गलत नह करते।” उसने एकदम प वर
म कहा—“वो जो करते ह मेरे भले के िलए करते है। दूसरी बात, मेरे पापा का हर फै सला
मेरे िलए सबकु छ है। म पापा के फै सले के अगे ट कु छ नह कर सकती।”
“कह ऐसा तो नह क कोई और तु हारी िज दगी म....।”
“ऐसा कु छ नह है, सर।” बीच म ही उसने कहा।
“यािन सब पापा क खुशी के िलए कर रही हो।” म जरा आ त वर म, मजा कया लहजे
म बोला।
“मेरे पापा ब त अ छे ह, सर।” वो मु कु राई।
फर मने कोई जोर उस पर नह दया।
सामा य बात ।
“ऑ फस म इस बारे म कै से पता चला?” मने उससे पूछा।
“सुबह ही मेरी अंगुली म नई अंगूठी देखकर शोभा पूछ बैठी थी।” उसने बताया—“मने
उसे बता दया। उस टु िपड क ब ी ने तुर त सबको बता दया।”
“तु ह फर खूब परे शान कया होगा लड़ कय ने?”
“नह । बस शोभा ही मुझसे बात करती है।”
“बाक नह करत ?”
“करती तो ह, पर यादा मजाक नह कर पात । मुझे वो सब अ छा भी नह लगता।”
“ले कन तु ह मेरे साथ तो सोबर बनकर रहना ब द करना पड़ेगा।” म गहरी आंख से उसे
देखता आ बोला—“म कभी नह चा ग ं ा क तुम यूं गंभीर रहो।”
“तो फर या चाहते ह आप?”
“म चाहता ं क तुम हमेशा िखलिखलाती रहा करो।” म बोला—“एकदम म त। खुश।”
“आप भी तो सी रयस ह सर।”
“ऑ फस म रहता ं बस।” म हंसकर रह गया—“घर म उतना गंभीर नह रहता।”
वो तब कु छ खुलकर बात करने लगी थी। म वही तो चाहता था।
“सर, आपने तो पूछ िलया....।” पीछे वो भी नह रही—“आप क जंदगी म भी या पहले
कोई....।”
“नह , िब कु ल नह । अगर आती तो या म लड़ कय के मामले म इतना ब ा रहता।”
“ या कोई भी नह आई?” जरा च कत।
“हां, थी एक।” मुझे बरबस ही र ा क याद आ गई—“टै थ म ही मेरे पीछे पड़ गई थी।”
“कै सी थी वो?”
“अ छी थी।”
“तो उससे शादी य नह क ?”
“उससे शादी!” बरबस ही मेरे होठ से फू ट पड़ा—“लड़क नह तूफान थी वो। मुझे तो वैसे
ही उससे डर लगता था....अब उसक शादी हो गई है। आई.ए.एस. है उसका हसबै ड।”
“अ छा।”
“हां, उसके पापा क पहचान म था कोई....।” मने बताया—“पर शादी के कु छ दन पहले
तक भी मेरे पीछे पड़ी थी।”
तभी उसे जैसे व का अहसास आ।
आसमान म तार क सभा के साथ आधा चांद पधार चुका था। लहर दूर तक जैसे धवल
चादर से ढक दी गई थ ।
“सर।” उसने व क याद दलाने का य कया—“ब त देर हो गई....। अब चलना
चािहए।”
साथ ही उठने का उप म कया।
मने तुर त उसका हाथ थाम िलया।
उसके तन म क पन को उसके हाथ पर मने प महसूस कया। उसने हाथ छु ड़ाने का
कमजोर-सा य कया, मगर मेरी पकड़ कस गई—“कु छ देर को ना!”
“नह सर।” शांत ले कन जरा प वर—“घर पर पापा भी इं तजार कर रहे ह गे....।”
मने कु छ देर कने को कहा, वो न मानी।
आिखर मुझे ही उठना पड़ा।
फर हमने िडनर होटल म िलया। उसने बाद ऑ फस से ही मोपेड उठाई।
¶¶

इ तीस
वो चूं क बरसात का मौसम था, सो तब शादी तो हो नह सकती थी।
कारण!
िह दू माईथॉलजी के अनुसार आसाढ़ मास क बद कया नवमी म िह दू देवता गण सो
जाया करते ह और का तक मास क बोिधनी एकादशी को देव उठान होता है। तब सम त
देवता गण जागते ह। का तक क पू णमा के बाद ही इस कार के शुभ आयोजन स प
कया जाते ह।
और वो महीना भादो का था।
कोई गम नह । अब तो म यूं ही तमाम उ उसका इं तजार कर सकता था।
वैसे सच क ं तो वो इ तजार था जरा क ठन ही।
अब उसे अपने करीब महसूस करने क चाहत और ती हो गई थी। उसक स धी
खुशबू....उसके िज म का मखमली अहसास, उन काली कजरारी आंख क
गहराई....िथरकते अधर का कं पन....जब वो हौले से मु कु राया करती थी।
वो सब तो यूं भी अब मेरे ही थे, फर भी....उतावलापन-सा था।
एक बार उतावलापन काबू से बाहर आ भी।
उस आयोजन के बाद ऑ फस म उसे कु छ अिधक ही रे पांस िमलने लगा था। हमारा
मैनेजर भी तब से िमस कोमल के बजाय ‘मैडम’ कहने लगा था।
हर कसी के िलए वो उनक मैडम ही थी। जो महज कु छ औपचा रकतावश वहां उस छोटे-
से पद पर कायरत थी। ले कन उसके वहार म कोई खास प रवतन नह आया। रजव तो
वो पहले से ही थी।
तब जरा-सी और रजव हो गई। मगर वहार म वही न ता बरकरार थी। या क ं
गंभीरता से भरी न ता।
एक शाम मने उसे रोक िलया।
वो क ।
बाहर िडनर िलया और बीच चले गए।
एकांत और सुहावना मौसम। मनपसंद साथी। िजसक बरस से चाह थी। ज बात बेकाबू
होते भी य न! और अब तो दू रयां भी काफ िसमट चुक थ ।
काफ देर तक हम बात करते रहे। सूय क िवदाई तो उसी व हो चुक थी जब हम
ऑ फस से िनकले थे। तब पू णमा का चांद आसमान के सीने पर अपनी पूरी जवानी के
साथ म यम गित से धरा का अवलोकन करता-सा रग रहा था।
कब साढ़े नौ बज गए पता न चला।
“सर, अब घर चलना चािहए।” उसने घड़ी म देखकर मुझे व का अहसास कराया
—“काफ देर हो चुक है।”
वो उठकर खड़ी हो गई।
“सुनो....।” मने तुर त उसका हाथ थाम िलया।
वो घूमी। या क ं बस अपना धड़ घुमाकर मेरी तरफ देखा।
“ को जरा।” मने उठते ए कहा—“कु छ देर और को। अभी चलते ह।”
म उसके करीब प च
ं ा।
“ब त देर हो चुक है।”
“ यादा देर भी नह ई है। दस िमनट म म ाप कर दूगं ा।” म उसके एकदम करीब चला
गया। उसके मुखड़े को अपनी हथेिलय के बीच लेते ए म धीरे -से बोला—“बस कु छ देर
को....।”
एकाएक जैसे उसक सांस थम ग ।
दोन अधर यूं थरथराए मानो गुलाब क पंखुिड़य को हवा के झ के ने पश कया हो।
मने अपने दािहने हाथ क तजनी अंगुली से उसके कपोल पर झूलती ई लट को हटाकर
उसके कान पर समेट दया। उसने पलक झुका ल ।
म थोड़ा और आगे िखसका।
उसक सांस ती ता से चलनी शु तो लय पूरी तरह िबगड़ चुक थी।
मने हौले से उसके माथे को चूमा। एकदम कोमल पश—जैसे चेहरा मैला न हो जाए।
दूसरी बार उसके कपोल क तरफ होठ को बढ़ाना चाहा तो उसक कला मक अंगुिलयां
बीच म दीवार बनकर अड़ ग ।
“नह सर!” उसका वर अ यािशत प से कठोर हो गया था—“ लीज।”
म ठठक गया।
म उसके चेहरे को देखता रह गया। वहां से पहले वाले भाव पूरी तरह पुछ चुके थे।
“सर, ये सब अभी ठीक नह है....।” उसके अधर िहले।
“ या ठीक नह है?” म जान-बूझकर अनजान बना।
वो कु छ न कह सक ।
चेहरे पर दृढ़ता के भाव के बदले हया क छाया फै ल गई। अधर कांपे। पलक थरथराकर
पुनः कसी बोझ से दबी-सी नीचे को झुक ग —“अभी शादी होने म ब त व है....।”
“बस कु छ महीने ही तो....।”
“ फर भी....अभी वैसा कु छ नह ।”
“ या?”
खामोश!
उसक हालत देखकर वा तव म बड़ा मजा आ रहा था मुझे। मौसम का जादू उतर चुका
था। अब म पूरी तरह से मजाक के मूड म था। बेसा ता ही मेरे होठ पर मु कान खेल गई।
“मेरी तरफ देखो....।” मने धीरे से कहा।
अपनी हथेिलय के बीच दबे उसके चेहरे को धीरे से ऊपर उठाया। पलक का आवरण
थरथराकर ऊपर िसमटा।
“िव ास करो!” मने धीरे से कहा—“मेरा भी वैसा इरादा नह था।”
“ फर?”
“बस, तु ह महसूस करने को दल बेकाबू हो गया था। जब इतना इं तजार कया है तो थोड़ा
और सही....।”
वो कु छ न कह सक ।
“देखना चाहता था....वो जादूगरनी मेरे करीब िसमटकर कै सी लगती है....।” म अपना
चेहरा उसके चेहरे के अित करीब ले जाकर बोला—“िजसने मुझे अपना इतना दीवाना
बनाकर रख दया।”
“अ छा!” वो भी मु कराई।
मने उसक कमर म बांह िपरोकर उसे खुद से सटा िलया तो एक कटी डाल क मािन द मेरे
सीने से सट गई। म उसके कान म धीरे से फु सफु साया—“मेरा िव ास करो....।” और उसे
अपने अंक म समेट िलया।
मने आसमान क तरफ देखा।
चांद भी जैसे हम मौका देता आ गगन पर फै ली बड़ी सी बदली म समाता चला गया और
वहां अंधकार फै ल गया।
सम दर क शरारती लहर जोर से फर-फर करती ई हमारे कदम को िभगोती ई चली
ग । गम तवे पर जैसे पानी के छ टे पड़े और उनका छनाका कोमल के पूरे बदन पर
नखिशखांत दौड़ता चला गया, िजसका असर मुझ पर भी आ।
“अब इं तजार नह होता।” मने धीरे से उसके कान म कहा।
“वो तो करना होगा।” चेहरा मेरे सीने म ही िछपाए ए कहा उसने—“बस कु छ दन
और.... फर हर रात हमारी होगी।”
और मने उसक उस भावना का पूरा आदर भी कया। उसके बाद फर हम वहां अिधक देर
नह के ।
¶¶
ब ीस
इं तजार इतना ल बा भी नह था क काटे न कटता। काम पर मन लगाया और व तेजी से
आगे बढ़ा।
वो व भी आ ही गया।
का तक म ही पंिडत को बुलवाकर पापा ने शादी क तारीख िनकलवा दी। गंगा ान से
सातव दन ही शादी क ितिथ तय कर दी गई।
शादी के आयोजन के बारे म िवचार कया जाने लगा।
इस बारे म मने पापा से बात क । वो बात पापा क समझ म भी आई। वा तव म वैसा ही
कु छ पापा भी सोच रहे थे। वे मुझसे सहमत हो गए।
हम दोन ही कोमल के पापा से िमलने गए। कोमल घर पर ही थी।
हमारे िलए वो कॉफ बनाकर लाई।
“शादी क तारीख तो िनकल ही गई है....।” शु आत पापा ने ही क —“कु छ उसी
िसलिसले म हम आपसे बात करना चाहते ह।”
“जो कहना चाहते ह, िनसंकोच कह दीिजए िम ल साहब!” क हैयालाल भागव बोले।
“भागव साहब!” पापा ने कहा—“शादी का मामला है। हम चाहते ह क....अगर आप चाह
तो शादी का सारा आयोजन द ली म हो।”
“िम ल साहब!” बड़ी न ता से क हैयालाल भागव ने कहा—“जैसा आप चाह, वैसा ही
हो जाएगा। िब टया आपक है, िजस तरह से चाह, आप िवदा करके ले जाइएगा। वैसे
बारात तो यहां भी आ सकती है....।”
“हम सोच रहे थे क य ना सारा अरजमे ट हम एक ही जगह कर ल। उससे
स िलयत....।”
“िम ल साहब!” बीच म ही भागव साहब कह उठे । होठ पर गव ली मु कान थी—“म
एक बेटी का बाप .ं ...और बे टयां अपने घर से िवदा क जाती ह।”
“म समझता ,ं भागव साहब।” गंभीरता से पापा ने कहा।
“िम ल साहब!” भागव साहब कह रहे थे—“दरअसल व ने ख मोड़ दया, कु छ
गलितयां मने भी क थ । क पिनयां ही तो चली ग —मगर म आज भी इतनी हैिसयत
रखता ं क घर आए मेहमान क इ त कर सकूं ।”
पापा उनके चेहरे को देखते रह गए।
और म....।
मुझे लगा—र सी जल गई, पर उसका बल नह गया। गव य का य था।
“िम ल साहब!” वे आगे कहते चले गए—“आप तो खुद भी एक िब टया के िपता ह।
इतना तो आप भी जानते ह क बेटी का कज सबसे बड़ा कज आ करता है। ऐसा कौन-सा
बाप होगा जो अपनी बेटी क अमानत म खयानत करे गा....।” वो आगे बोले—“आप
बेिहचक बारात ला सकते ह। िव ास क िजए, आपका एक भी मेहमान मेरे ार से भूखा-
यासा नह जाएगा....आगे आपक मज है। चाह तो द ली म सारा आयोजन कराया जा
सकता है। बस द त इस बात क है क र म को पूरा करने के िलए मेरा पा रवा रक कोई
र तेवाला नह है। शादी के दन से पहले भी कु छ र म लड़क क सहेिलय और
र तेदार के ारा कराई जाती ह। पूरा प रवार तो वहां पर िश ट नह कया जा
सकता....उसके अलावा और कोई इ छा हो तो लीज बता दीिजएगा।”
पापा खामोश हो गए।
सही तो भागव साहब भी थे। पहली बार खुद मुझे भी उनका ि व कु छ भावशाली
महसूस आ। दूसरी ओर उनका गव और द भ य -का- य नजर आया। हो सकता है उस
इं सान ने अपने द भ क र ा के िलए वैसे इं तजाम पहले ही कर रखे ह ।
और कहावत तो िस है ही— जंदा हाथी लाख का, मरा सवा लाख का। सम दर का
पानी सूख भी जाय तो भी वो कई तलाब से यादा पानी अपनी पोखर म िछपाए रहता
है।
शायद वैसा ही कु छ पानी उ ह ने भी अपनी पोखर म िछपा रखा हो।
“बस भागव साहब, हमारी बारात क इ त आपके ार पर हो जाए, उससे यादा हम भी
कु छ नह चािहए।” अ ततः पापा कह उठे —“आपक बेटी क क मत से हमारे पास सब
कु छ है। बस वो आकर घर संभाल ले, यही इ छा है। हां....ये बात पहले बता देते ह अगर
आप हम िम ी भी उठाकर दगे तो छोड़गे िब कु ल नह , चादर के प ले म बांधकर ले
जायगे।” कहकर पापा अपनी सदाबहार मु हंसी हंस दए।
क हैयालाल भागव साहब ने भी उनका साथ दया। उनक हंसी काफ संतुिलत थी।
उसके बाद सामा य बात होती रह । पापा ने कह दया क बारात हमारी तरफ से ब त ही
छोटी आएगी। बस यारह लोग क ।
“जी....म कु छ कहना चाहता ।ं ” मने िहचकते ए बीच म कहा।
“हां....हां कहो, भई। तुम भी कु छ कहो।” पापा ने खुश दली से कहा।
“म कहना चाहता ं क....।” मने अपने श द पर अिधकार पाते ए संभलकर कहा
—“आप हमारे बड़े ह। बड़ का साया साथ रहे तो छोट को स िलयत रहती है। शादी के
बाद आप भी हमारे साथ रह तो....।”
“बेटे, म तो सोच रहा ं क कोमल को िवदा करके काशी िनकल जाऊं....।” उ ह ने कहा
—“बुढ़ापा भगवान के चरण म कटे, इससे अ छा या होगा....। य िम ल साहब?”
“साहब, इस बारे म म कु छ नह कह सकता।” पापा साफ बच िनकले—“अगर आपका
बेटा ऐसा चाहता है तो इसम बुरा या है?”
उ ह ने हम खाने के बाद ही िवदा कया।
लंच कोमल ने ही बनाया था। खाना िस पल था, मगर सलीके से बनाया गया था।
अपनी कु स को घसीटते ए क हैयालाल भागव हम दरवाजे तक छोड़ने आए।
कार दरवाजे के ठीक सामने ही खड़ी थी।
“देखा पापा!” मने कार म पैसजर सीट पर कािबज होते ए कहा—“र सी जल गई, पर
बल नह गया।”
“वो बात नह है बेटे....।” पापा मु कु रा दए।
“और या है?” म बेसा ता बोल उठा।
“वो एक बेटी के बाप ह।” पापा ने कहा—“अपनी ि गत जंदगी म वो भले ही कु छ रहे
ह , पर वो ह तो एक बेटी के बाप ही ना! कु छ तो उ ह ने कर ही रखा होगा....।”
म कु छ न कह सका।
पापा ने यूं सही भी कहा था। वो वा तव म एक बेटी के िपता ही थे। ये तो म भी मानता था
क वो कोमल को बेइ तहा यार करते थे। बचपन म भी फू ल क तरह सहेजकर रखा करते
थे। जरा-सी छ क आई नह और तुर त फै िमली डा टर को फोन खड़का दया। मगर और
के िलए वे बस एक मािलक थे। िसफ एक दौलत के द भ से भरे इं सान! िजनको अपने ारा
खच कए अपने हर पैसे क उससे यादा क मत चािहए होती थी। िजनक जंदगी म
नौकर, बस नौकर ही थे।
¶¶
ततीस
शादी बड़े साधारण तरीक से ई।
बारात द ली से गई थी—िजसम के वल िगने ए यारह बाराती थे।
मने करण को भी शादी म बुलाया था। तब वो पढ़ाई पूरी करके अपने पापा के साथ
िबजनेस म हाथ बंटाने लगा था। मेरी चूं क िबजनेस म ए ी उससे पहले हो चुक थी, सो
मेरा उस मामले म मोशन था। म, वत प से, एक एम.डी. था। जब क वो अपने
पापा के साथ ही िचपका आ था। उसने फाइनांस म मा टर िड ी ली थी, तब वो िबजनेस
से जुड़ा था। उसने बताया क उसके िलए भी वैसे ही आयोजन क तैयारी उसके घर म चल
रही थी।
खैर!
बात मेरी शादी क थी। अपनी ओर से मने तो अपने टाफ को उस आयोजन म इवाइट
नह कया था, पर कोमल ने लगभग सारा ही टाफ बुलाया था।
कसी ने कहा भी ठीक है—व और मौक के साथ इं सान का वहार हमेशा बदल जाया
करता है। वही टाफ क लड़ कय के साथ भी आ। उस दन से पहले तो म ऑ फस म
उनका पं चुअल बॉस आ करता था, भले ही काम के अलावा म उनके साथ कतना भी
िलबरल था। मगर उस दन तो म उनका जीजू बन चुका था। और जीजू के साथ ठठोली
करना तो सािलय का सामािजक, नैितक और ज मिस अिधकार आ करता था। ऐसे
मौके को भला हाथ से कौन जाने देता है! हमारी तरफ से तो कं ग करण था ही। सारा
आयोजन बड़े सुखद माहौल म बीता।
शाम को कोमल को िवदा कराके हम द ली ले आए। अपनी तरफ से क हैयालाल भागव ने
शादी के आयोजन का इं तजाम खासा अ छा कर रखा था। वो सब बाराितय और
घराितय को परोसा गया, जो अपने तर पर शानदार और सलीके दार कहा जाता है। यूं
बारात के िलए म डप अरज कर िलया गया था।
अगले दन शाम को रसे शन आ। उसम हमने सब नातेदार और पहचान वाल को
बुलाया। टाफ के मु य लोग को भी द ली से तभी बुलाया गया।
रसे शन के बाद म दो त म मशगूल हो गया।
“लो भाई!” शु आत करण ने ही क —“इसक भी नथ उतराई का व आ ही गया।”
सब हंस।े म भी कली हंसा। यार म तो ये सब चलता ही है। हम तब एक तरफ टेिबल के
िगद बैठे। सबके सामने लैक लेबल खुली ई थी। म उनसे जरा अलग था, सो साथ देने के
िलए मेरे हाथ म कोक का याला था।
“वैस,े वैसा तो पहले भी हो चुका होगा।” एक ने हंसी के बीच ही कु रे दते ए पूछा
—“आिखर इतने दन से तु हारी सैके ी थी। मामला तो काफ पहले तय हो गया था....।”
“नह , ऐसा कु छ नह आ।”
उसने िव ास न कया, मगर करण ने मेरा पूरा िव ास कया—“म कह सकता ,ं प ा
वैसा तो कु छ नह आ होगा....हमारा ये यार है भी वैसा ही भोला भ डारी। एक बार
उसने कहा होगा— लीज अभी थोड़ा इं तजार कर लीिजए ना....। कु छ दन क ही तो बात
है....। और ये मान गया होगा।”
सब हंस।े
म बस मु कु राकर रह गया। करण वा तव म मुझे अ छी तरह जानता था।
तभी म मी आ ग ।
“ याम!” उ ह ने आकर कहा—“जाओ बेटे, ब त देर हो गई है। ब इं तजार कर रही
होगी....।”
“बस अभी जा रहा ।ं ” मने कहते ए अपना पैर उठाते ए कहा। वे वहां यादा देर नह
क । कहकर तुर त ही चली ग ।
मने भी अपना कोक का िगलास होठ तक बढ़ाना चाहा।
“अरे क!” करण ने टोका—“ क जरा....।”
“ या है?”
उसने तुर त बोतल क शराब मेरे आधे खाली पैग म उड़ेल दी—“ले बेटा, थोड़ा-सा अमृत
पीता जा—ये आड़े व म काम आता है।”
“अरे , म अपनी बीवी के पास जा रहा —
ं जंग लड़ने नह जा रहा ।ं ”
“बेटा, यहां जंग से भी यादा जोश क ज रत आ करती है।” करण पूरा शैतान था
—“वहां हमेशा पूरी तैयारी के साथ जाना चािहए।”
और सबने वो पैग िपलवा ही दया। मुंह क बदबू के िलए इं तजाम करण हमेशा अपनी जेब
म रखता था। दो इलायची उसने मेरे हाथ म थमा द —“ले, इ ह चबा ले....भनक नह
आएगी। उसे पता भी नह चलेगा।”
यूं तो करण का पीना-िपलाना घर वाल को पता नह था—मगर पीने के बाद वो कभी
अपने पापा का सामना नह करता था। घर भी जाता तो इलायची मुंह म डाल लेता था।
कभी भी इतनी नह लेता था क पैर या जुबान म लड़खड़ाहट पैदा होती।
¶¶
च तीस
मने धीरे से अपने कमरे के दरवाजे को धके ला तो दोन प ले धीमी-सी आवाज से खुल गए।
मने खामोशी से अ दर वेश कया। दरवाजा ब द करके कु डी चढ़ा दी और घूमा।
ठीक सामने िब तर लगाया गया था।
िब तर को चार तरफ से सजाये फू ल क माला ने लता क मािन द कवर कर रखा
था। एक मादक और भीनी खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था। िब तर के पास ही एक ढका
आ लोटा रखा था िजसम म मी दूध रख गई ह गी।
क मत इं सान को कतने रं ग दखाती है!
चौदह साल पहले....।
कोमल ही वही लड़क थी िजसको म िगरती को संभाल रहा था। उसे बाह म स भालने
को—मेरी गंदी नीयत का आरोप लगाकर मुझे कु े क तरह ठोकर मारकर उसके घर से
धके ल दया गया था। वो ज म, जो मेरी ह पर कोमल के उस घम डी बाप ने दए थे—
िजन पर द ली म आकर मरहम लगा था—तब जाने य अपने ही आप हरे हो गए।
मने एक गहरी सांस ली और िब तर क तरफ बढ़ गया।
आज वही मासूम ब ी, प रप कली के प म फू ल बनने के इं तजार म मेरा इं तजार कर
रही थी। उसी के िपता ने उसका हाथ....या यूं क ं क उसे सव व प से मेरे हवाले कर
दया था।
म िब तर के पास प च
ं ा।
भीनी-भीनी मादक खु बू के बीच कमरे म....।
मने धीरे से फू ल क लिड़य को हटाया तो लाल जोड़े म मंद कं पन-सा आ, जैसे उसके
अ दर कु छ िसमटा था।
म िब तर के कोने पर बैठ गया और अपने जूते उतारकर उस पर ऊपर सरक गया।
घूंघट तब भी व तक सरका आ था। गदन यूं झुक ई, जैसे खुद को सम पत कर रही
हो।
म हौले से मु कु राया—“मैडम, अब तक तो दूरी बनाकर इं तजार कराया करती थ —अब
ये पदा कसिलए सरका रखा है?”
“पदा ही तो है।” घूंघट म से धीमी-सी आवाज आई—“खुद ही हटा लीिजए।”
“ये कै सा इं साफ है? पहले खुद ही दू रयां बनाई थ —अब कायदे से तो आपको ही दीवार
हटानी चािहएं। अब भी हम ही पहल कर?”
“पहल आपने क कब है। इं तजार तो म ही आपका यहां बैठी कर रही थी....।” श द जैसे
व क रौ म जुबान से फसले थे। फसल तो गए ले कन घूंघट म ही कं पन आ, जैसे लाज
क लहर घूंघट म उठी ह ।
म उस मौके को गंवाना नह चाहता था।
मने तुर त घूंघट उलट दया।
वा तव म!
हया क गुलाबी सुख गाल पर यूं िबखर गई थी जैसे कसी ने वहां गुलाल मल दया हो।
पलक और झुक ग ।
गदन मान कसी बोझ से दब गई थी।
मने अपना दािहना हाथ आगे बढ़ाकर उसक ठु ी को पकड़ना चाहा....वहां ह का-सा
पश कया तो च क पड़ा—“अरे !”
तुर त उसके गाल को, हाथ को, माथे को, गले को छु आ तो पाया वे भी गम थे।
“तु ह तो बुखार है....।” म कु छ परे शान हो गया।
उसने पलक का आवरण हटाकर मेरी तरफ देखा। वो एकदम सामा य थी।
“बुखार कब से है तु ह?” मने पूछा।
“जी, म ठीक ।ं ” बस उतना ही कहा उसने।
“मगर शरीर तो गम है तु हारा....।”
“बस, ह क -सी ॉ लम है।” कतनी मासूम लग रही थी वह—“म मी ने टेबलेट दे दी है।”
“ओह!” मेरी परे शानी कम हो गई—“तुमने उ ह बता दया था।”
“हां....वो कह रही थ क जरा-सी थकान है। शादी के फं शन म काफ बुरा हाल रहता है,
उसी क ये थकान होती है।”
“हां।” मेरे होठ से िनकला।
उसने सही कहा था।
खैर, दू हा तो कु छ आजाद भी रहता है, ले कन दु हन तो जैसे बंध जाती है। ऊपर से शादी
के गम कपड़ क आपा-धापी। कई-कई स े का बदलाव....। थकान होना तो लािजमी है।
“तो मैडम थक गई ह?” म मु कु रा दया।
“नह , कु छ खास नह ।” उसने गदन झुकाकर धीरे -से कहा।
“अ छा।” म थोड़ा उसके करीब िखसक गया।
उसक पलक पर बोझ बढ़ गया।
सच तो ये था क मेरा उतावला बनने का कोई इरादा नह था। सारी रात बाक थी। और
वो ही व था, उसके बाद हर रात हमारी अपनी थी, हर दन पर हमारा अिधकार था।
और फर कसी ने कहा है ना....कु दरती पका फल मीठा आ करता है।
शादी क थकान, फं शन और टाफ क लड़ कय तथा उसक सहेिलय क , मेरे साथ
चुहलबािजयां....हम अ छा बहाना िमल गया था।
मेरे दो त करण ने भी कोमल क नजर म अपनी उपि थित अ छी दज करा दी थी।
व धीरे -धीरे फसल रहा था।
कब हम अलग-अलग एक दूसरे के करीब सरक आए। मेरी पीठ िब तर क पु त पर जा
टक और कोमल का िसर मेरे कं धे पर। न द तो मेरी आंख से कोस दूर थी।
फर मुझे कोमल के अंदाज म न द क खुमारी का अहसास आ।
मने घड़ी देखी।
च का—“अरे , सवा तीन बज गए। व का पता ही नह चला।”
“म....म कपड़े बदल लूं।” उसे होश-सा आया।
साथ ही उसने उठने का उप म कया तो मने तुर त उसका हाथ थाम िलया। बस धीरे -से
ख चा जैसे पतंग क डोर को ख चा हो। और वह फू ल क लता क तरह मेरे सीने से आ
सटी। मने उसे अपनी बांह म समेट िलया। धीरे -से उसके कान म फु सफु साया—“इसक
कोई ज रत नह ।”
उसने धीरे से अपना चेहरा ऊपर उठाया। मने अपनी दोन हथेिलय म भरकर उसक
आंख म झांका, जहां समपण ही समपण था।
“अब तो रात हमारी हो चुक है....।” म मु कु राया।
लब थराथराए, पलक झुक । और मने उसक पीठ पर हाथ ले जाकर उसके गले के हार को
बंधन-मु करना आरं भ कर दया।
बंधन खुले। और हार व पर फसलता आ हमारी गोद म जा िगरा।
हमने बस कदम बढ़ाए। लहर हम खुद ही ख चती, डु बोती, तैराती आनंद के उस ीप क
ओर ले चल जहां हर युगल एक-दूसरे का हाथ थाम वि ल संसार क सैर करता है।
कोमल चार बजे के बाद सोई।
और म....।
म उसे अपनी बांह म समेटे खामोशी से लेटा रहा। जरा-भी िहलना कोमल क न द म
खलल डाल सकता था। सो अपने अंदर उभरी उस बेचैनी को यूं ही दबाए खामोशी से पड़ा
रहा।
पता है दो त , जब एक इं सान सबकु छ हािसल कर ले, सब कु छ हािसल कर लेने के बाद
उसका यान अपने अतीत क तरफ जाया करता है। अपने साथ बीती बात और अपनी
खुद क किमय और अ छाइय को वो याद करना शु कर देता है।
वो तब िवचार करता है क उसने या खोया, या हािसल कया। जो कु छ कया, वो
कतना सही था, कतना गलत था! उस पर उसका कतना हक था।
अब सब कु छ मेरे पास था।
मां-बाप, बहन, वो खूबसूरत बीवी, िजसका पता नह कब से म दीवानगी क हद तक
दीवाना।
मेरे आगोश म थककर, एक मासूम ब ी क तरह िसमटी कोमल वही लड़क थी, िजसका
कभी म नौकर आ करता था। िजसक मेहरबािनय पर मेरी मु कान िनभर रहा करती
थी। िजसके िपता के फके ए टु कड़ पर म अपने दन गुजार रहा था। जो मेरे साथ यूं
शरारत कया करती थी, जैसे कोई अपने घर म पाले ए पालतू जानवर के साथ अपना
मन बहलाया करता है।
एक दन वह भी था जब म उसे—िगरती को—संभाल रहा था और मुझे गुनाहगार करार
देकर, ठोकर मारकर घर से बाहर धके ल दया गया था।
अगर उ ह कभी मेरी असिलयत क जानकारी हो गई तो....।
यही मेरे वजूद पर जोरदार चोट थी।
पापा ने हनीमून के बारे म पूछा।
“कह नह पापा।” मने इं कार कर दया।
“ य भई!” पापा च के —“शादी क पहली रात को ही झगड़ा हो गया है या?”
“नह पापा।” म झपी-सी हंसी हंसा—“वो बात नह है।”
“तो बखुरदार, परे शानी या है?”
“कोई परे शानी नह है। पापा! ए चुअली, म सोच रहा था क अभी नई क पनीज माकट
म टैबिलश नह ई ह। मुझे लगता है उन पर ढील देना या कु छ दन का हो ड हटना,
शायद नुकसानदायक हो सकता है।”
“बेटा, क पनीज तो उ भर टैबिलश होती रहती ह। शादी तो एक ही बार होती है।”
पापा ने ेह से कहा—“तुम िनकल जाओ। महीना-दो महीना पे रस-वे रस, अमे रका हो
आओ। उसके बाद काम पर यान देना। थोड़ा ऐश लेना भी सीखो।”
“पापा! ए जाय तो काम के पी रयड म भी कया जा सकता है।”
“बेटा, कया तो सब कु छ जा सकता है, ले कन नई-नई शादी ई है। कु छ व ब को भी
दो।”
“वो सब समझती है पापा। मेरे साथ काफ दन से काम कर रही है।”
पापा कु छ न बोले।
उ ह ने यार से ह का-सा फोस करने का य कया, ले कन म न माना। मन था भी नह ।
¶¶
पतीस
म लगभग एक स ाह द ली म रहा।
सामा य प से सुनने म आता है क मेरे जैसे बेटे को आ यदाता के करीबी प रवार वाल
क तरफ से सही रे पांस नह िमलता। सबके िलए वो उपेि त-सा रहता है, ले कन मेरे
साथ वैसा नह आ। या तो पापा के ही ि व का भाव था या कु छ और, या हो सकता
है क कु छ दल म वैसा कु छ हो भी, जो कभी सामने न आया। ब त कम लोग वैसा भाव
िलए सामने आए, िज ह मने ये सोचकर हमेशा नजरअंदाज कर दया था क ऐसा तो हर
प रवार म होता है। अगर म उनका स ा असली बेटा भी होता, तो भी मेरे कई िवरोधी
वहां होते ही। ये तो घर-घर का क सा है। दूसरे , उनसे िनबटना मेरा नह , पापा का काम
है।
पूरा ह ता तो दावत और घूमने- फरने म ही चला गया। बाहर से आते ही चंचल उससे
िचपक जाती।
घर के बाहर के अलावा कोमल का साथ मुझे रात को िडनर के बाद ही तब िमलता जब
हम अपने बैड म म होते।
तीसरे दन िडनर पर हमारे पड़ौसी जज साहब थे।
यािन र ा के पापा ने हम इ वाइट कया। म मी ने बाखुशी इजाजत दे थी। तब र ा भी
आई ई थी। अब वो दो ब क मां बन चुक थी। दोन बेटे ही थे। दूसरा गोद म
था....कु छ महीन का।
वो खुद भी अब जरा मोटी हो गई। पहले वाली तूफान मेल अब बूढ़ी गंगा क तरह शांत हो
गई थी। उसके वहार से पता चल रहा था क वो अपने पित के साथ खुश और संतु थी।
उसने कोमल को ‘मै रज कट’ नाम क एक कताब भी दी। घर म िडनर के बाद कोमल से
देर तक बात करती रही।
बैड म म मने कोमल को बताया क र ा वही तूफान मेल थी। देर रात तक हम र ा के
बारे म बात करते रहे। र ा के बदले वहार ने मुझे खासा भािवत कया। म भी उसक
टीन एज म क गई हरकत के बारे म बताता रहा।
अगले स ाह हम द ली से मु बई के िलए रवाना हो गए। सुबह क लाइट से हम मु बई
के िलए रवाना हो गए। कोमल को उसके पापा के पास छोड़कर म वहां से अपने ऑ फस
प च ं गया। तब काम म एक नई ताजगी और बदन म फू त का संचार महसूस कर रहा था
म।
म ऑ फस म प च ं ा तो मेरे के िबन म टेिबल पर फाइल का ढेर रखा आ था। काफ काम
वहां इक ा हो चुका था।
म काम म जुट गया।
लंच का टाइम कब गुजर गया, पता ही नह चला।
चपरासी खुद ही के िबन म ऑरज जूस का िगलास रख गया, य क वो जानता था क
कसी भी प रि थितवश य द म लंच नह करता था तो ढाई बजे के आस-पास ऑरज जूस
ले िलया करता था। चार बजे के करीब मुझे होश आया।
मने घर फोन करके पता कया क कोमल आ चुक थी।
कॉल उसी ने रसीव क थी। क हैयालाल भागव भी उसी के साथ आ गए थे। म उसे वहां
छोड़ते व िहदायत देकर आया था। वे घर कु छ देर पहले ही प च
ं े थे।
“आप वहां से कब िनकल रहे ह?” कोमल ने पूछा।
“अभी तो काम है, िडनर तक आ पाऊँगा।”
“जी।”
“अगर म लेट हो जाऊं तो तुम लोग िडनर ले लेना। यहां काफ काम इक ा आ रखा है।”
“म पापा को िडनर करा दूग
ं ी।”
आ वही।
मुझे देर हो ही गई।
सवा नौ बजे म आ फस से िनकला।
साढ़े नौ बजे के बाद म घर प च
ं ा। कोमल ाइं ग हॉल म ही सजी-धजी मेरा इं तजार कर
रही थी। कार दरवाजे पर कते ही वो ार पर आ गई। कु शल गृहणी क तरह उसने मेरा
ीफके स ले िलया।
“िडनर ले िलया तुमने?” डाइं ग म म आते व मने धीरे से पूछा।
“हाँ, पापा को िडनर करा दया।”
“सब नौकर कहां ह?” घर क खामोशी को महसूस करके मने आस-पास देखते ए पूछा।
“मने उ ह उनके ाटर म भेज दया है।” वो सी ढ़य क तरफ बढ़ती ई बोली।
म जरा च का।
“ऊपर कहां जा रही हो?” मने पूछा।
“बैड म तो उधर है....।” साथ ही अपने बैड म क तरफ इशारा करके पूछा।
“अब हमारा बैड म वहां नह है। मने उसे ऊपर िश ट कर दया है।”
“ओह!”
म कु छ न बोला। चुपचाप उसे फॉलो कया। सी ढ़यां पार करके कोमल जैसे ही घूमी तो म
च का।
वो उसी बैड म क तरफ मुड़ी थी। ज म पर नम हवा लगी जैसे। मगर मने कदम को
रोका नह । आगे बढ़ता गया।
उसने बैड म म वेश कया।
म उसके पीछे ही दािखल आ।
सब वैसा ही था।
हर सामान वही था, जहां चौदह वष पहले रखा आ था। ब त कम त दीिलयां वहां लाई
गई थ ।
बस सामान बदल गए थे। पुराने सामान के थान पर नए सामान रखे ए थे।
बैड वही था, बस पुराना िब तर िनकालकर वहां वो नया िब तर िबछा दया गया था, जो
कोमल के पापा ने शादी के व तोहफे म दया था। बाक सामान भी शादी के ही थे।
टी.वी. भी यथा थान ही था। क तु पुराने 21 इं च के टी.वी. के बजाए और बड़ा एल.जी.
का लैट न टेलीिवजन वहां रखा आ था। वो मेरा पसनल टी.वी. था।
हां, एक चीज थी जो न बदली गई थी, न ही उसका थान बदला गया था।
िब तर क पु त के ऊपर दीवार पर लगी वो णयरत जोड़े क त वीर।
तब भी वो त वीर वैसी ही थी जैसी क चौदह वष पहले थी। उसके आयल पट तब भी वैसे
ही चमकदार थे।
उसे देखकर एक टीस सी उभरी मन म।
“आप चज कर लीिजए।” कोमल ने धीरे से कहा और त भाव से दरवाजे क तरफ मुड़
गई—“म िडनर लेकर आती ।ं ”
म कु छ न बोला।
वो चली गई।
म तब भी उस त वीर को देख रहा था।
पुरानी याद खुद-ब-खुद ताजी हो ग । वो दृ य चलिच क मािन द मेरी आंख के सामने
घूम गया.... फर वो चोट....वो तोहमत।
ओह!
ज म को नुक ली व तु से जैसे कु रे द दया गया था। मेरा पंजा मु ी के प म कसता चला
गया।
उसी पल पीछे से आहट ई तो मने खुद को संभाल िलया। मु ी का कसाव कम आ।
“आपने चज नह कया अभी तक?” मुझे देखकर पीछे से वो बोली—“ या देख रहे हो इस
त वीर म?”
“जब म आया था, तब भी ये त वीर यह लगी ई थी।” म उसे देखता आ सामा य वर
म बोला—“काफ अ छी त वीर है ये! कतनी पुरानी है?”
“चौदह साल पहले पापा ने ये यहां लाकर लगाई थी।”
“काफ पुरानी है। प स पर भी व का कोई असर नह पड़ा।” म जरा च कते लहजे म कह
उठा—“उस टाइम तो काफ क मती रही होगी।”
“हां, शायद। पापा कसी आट गैलरी से लाए थे।”
“काफ अ छी पे टंग है।” मने तारीफ क —“तु हारे पापा को जब पसंद है तो इसे उ ह
के कमरे म ही लगवाना चािहए था।”
“मने पूछा नह ।”
मने उस बारे म कोई बात नह क । मने बस कोट उतारकर िब तर क पु त पर डाल दया
और बाजू चढ़ाता आ हाथ-मुंह धोने के िलए बाथ म म समा गया।
कु छ देर म िनकला तो कोमल ने कोट वहां से हटा दया था।
हमने एक साथ खाना खाया।
कोमल बतन समेट कर रसोई म चली गई।
म उठकर कपड़े बदलने चला गया।
कोमल का रसोई म कु छ काम नह था। कु छ ही देर म वो वािपस आ गई।
दरवाजा लॉक करके उसने कपड़े बदले। अब कपड़ को बदलने के िलए कसी पद क
ज रत नह रह गई थी। आईने के सामने खड़े होकर उसने सारे कपड़े बदलकर अपने बाल
को खोल दया।
ह का-सा श उन पर फराकर उलझी लट को सुलझाकर उ ह जूड़े क श ल देकर एक
ढीला-सा जूड़ा अपनी गरदन पर बांध िलया।
म चुपचाप टी.वी. देख रहा था।
कोमल िब तर क तरफ बढ़ी।
िब तर के पास आते ही जैसे ही उसने बैठने का उप म कया, च क —“अरे !”
मने भी च ककर उसक तरफ देखा।
“ या आ?” मने पूछा।
“कु छ नह !” वो सामा य अंदाज म बोली—“प टंग जरा ितरछी है।” कहकर उसने तुर त
लीपस उतारे और िब तर पर चढ़ गई। तुर त िब तर क पु त पर भी चढ़ गई।
उसे िब तर क पु त पर चढ़ती देखकर म धीरे -से मु कु राकर रह गया। मुझे उसका बचपन
याद आ गया।
वो प टंग को ठीक करने का उप म करने लगी।
च का म!
पु त पर वो यूं के यरलैस अंदाज म खड़ी थी क उसका व दीवार से लगभग सट ही रहा
था—मगर प टंग को सीधा करने के च र म वो जरा पीछे िखसक ।
प टंग वा तव म ितरछी ही थी।
वो उसे सीधी करने लगी।
“अरे ....अरे ।” मेरे होठ से फू टा।
वो जरा लड़खड़ाई थी।
तुरंत संभली। व दीवार से सट गया तो उसे कु छ असुिवधा ई।
उसने अपना एक पैर पीछे को सरकाया और धड़ को पीछे ख चा। हाथ से दोन कोन को
पकड़कर उसे सीधा करने लगी।
“अरे , िगरोगी या?” म घबराकर कह उठा।
म सतक हो गया।
म उठने ही लगा था क....
वो जोर से लड़खड़ाई। होठ से घुटी-घुटी सी चीख खा रज होकर रह गई। शरीर हवा म
लड़खड़ाया।
“अरे !” कहता आ म तुर त उठा। बांहे पसार द और उसे हवा म थामने का य कया।
मगर न संभाल सका।
कु छ म हड़बड़ाया आ था, अपना बैलस न बना सका था। उसका झ क भी कु छ तेज ही
था।
हम जोर से ग े पर िगरे ।
मेरा शरीर ग े म अ दर को धंसता चला गया।
वो मेरे ऊपर थी। ठीक ऊपर।
मखमली बाह का हार उसने घबराकर मेरी गदन के िगद कर दया था। जूड़ा तो हवा म
ही झटका खाकर खुल गया था। जु फ ने बदिलय क तरह हम दोन के चेहर को ढक
िलया।
गुदाज व मेरे व पर िपसा तो जानी-पहचानी तरं ग पैदा होती चली ग । उसने मुझे
और जोर से अपने आप से भ च िलया। मेरा भी कसाव उसक कमर पर बढ़ गया।
होश तो जाने कहां गुम थे।
कोमल तो िहरनी क तरह अपना चेहरा मेरे चेहरे के बगल म िछपाए पड़ी थी।
फर....।
आिह ता-आिह ता हम होश आया।
उसने भी अपना चेहरा ऊपर उठाकर धीरे -से अपनी एक बांह मेरी गदन के नीचे से ख ची
और अपने बाल को अपनी पीठ पर समेट कर माथा मेरे माथे पर टका दया—मानो
सहारा ले रही हो। पलक मूंद ल ।
सांस उसक भी उखड़ी ई थ ।
फर वो साइड म लुढ़क गई। मेरा एक हाथ उसक कमर के नीचे दब गया था िजसे मने
आजाद करने का उप म नह कया। खुद को रलै स कर लेने वाले अंदाज म दूसरा हाथ
भी ग े पर फै लाकर सीधा पड़ा रहा। सांस दु त करने का य करने लगा।
नजर प टंग पर ग ।
वो तब और ितरछी हो गई थी।
म मु कु रा उठा।
कोमल क तरफ गदन घुमाकर पूछा—“चोट तो नह आई?”
“नह ।” संि जवाब।
मने उसक कमर के नीचे दबे हाथ को बाहर िनकालने का य कया तो उसने स िलयत
दे दी।
मने हाथ बाहर ख चा।
“चलो, म ठीक करता ं उसे।” म उठने लगा तो उसने लेटे-लेटे ही हंसकर कहा—“म
आपको संभाल नह पाऊंगी। िगर गए तो कहना मत....।”
“उसक ज रत नह पड़ेगी।” मने उठते ए कहा।
खड़ा होकर मने पु त पर चढ़े बगैर ही प टंग के दोन िनचले कोन को पकड़ा और उसे
सीधा कर दया। बोला—“देखो, हो गई ठीक।”
“थोड़ी और दािहने तरफ उठाओ।” उसने पीछे से कहा।
मने कया।
“नह ....बस....थोड़ा नीचे।”
मने कया।
“ यादा कर दी। ह का-सा, बस।” संतुि पूण वर था—“अब हटो जरा।”
म हट गया।
उसने यान से देखा।
“अभी बाय तरफ झुक ई है।” उसने कहा—“एकदम जरा-सी ऊपर करना....बस।”
मने िनदश का पालन कया।
उस बार प टंग एकदम सही थी। कोमल ने तब संतु होकर कहा—“अब ठीक है।”
“ यान से देख लो।” म मजाक भरे वर म बोला—“ठीक से देख-भाल कर लो। कह ऐसा
ना हो क बाद म तु ह ितरछी नजर आ जाए और तुम पु त पर चढ़कर ठीक करने लगो।
अगर मेरे पीछे िगर पड़ तो चोट भी लग सकती है।”
“नह , अब ठीक है।”
म पुनः उसक के बगल म यूं ही लेट गया। एकदम सटकर। चेहरा उसके चेहरे के पास ले
जाकर बोला—“अब इनाम....।”
“अभी?”
“ य ?” म मु कु राया।
“अभी-अभी तो खाना खाया है....।”
“अ छा ही तो है, वो भी पच जायेगा।” मने उस पर झुकते ए कहा।
“नह , अभी नह ।” उसने मेरे होठ पर अंगुली टकाते ए मुझे रोकने का य करते ए
कहा—“अभी पापा जाग रहे ह गे।”
मेरा मन कसैला हो गया।
कबाब म ह ी!
“जाग भी रहे ह गे तो या?” मने य तः उसी रोमां टक अंदाज म कहा—“उन तक या
हमारी आवाज प च ं जाएंगी। वे तो ाउ ड लोर पर ह।”
“ फर भी....।”
“ फर भी या? इस उ म तो न द भी कम ही आती है। तो या हम सारी रात इं तजार
करते रहगे।” कहकर मने उसे दबोच िलया।
चूिड़यां जोर से खनक ।
वातावरण म संगीत-सा उ प आ था।
¶¶
छ ीस
कोमल ने कु शल गृहणी क तरह घर को संभाल िलया। मेरे सारे काम वो खुद ही करती थी।
हनीमून पर तो हम गए नह थे।
हर लड़क के अपने अरमान होते ह। हो सकता है क उसके मन म भी वैसा कु छ ही हो।
इसी गज से मने तकरीबन प ह-बीस दन बाद म िब तर म कोमल से पूछा भी
—“कोमल!”
“ ऽं ऽऽ।” मेरे सीने पर िसर टकाए आंख ब द कए उसने क
ं ारा भरा।
“हनीमून पर नह गए, इसका बुरा तो नह लगा तु ह?”
“बुरा!” उसने चेहरा ऊपर उठाया—“इसम बुरा लगने वाली या बात है?”
“ये तो तु ह पता ही है क....।” म गंभीरता से कह रहा था—“ये ुप जो मने नया िलया है,
उसे अभी माकट म टेबिलश करना है। काम भी बढ़ा आ ही है। अगर हम महीना भर
बाहर रहते ह तो वक काफ दन पीछे िखसक जाएगा।”
“मने इस बारे म कोई बात तो नह क ?”
“ फर भी चाहो तो हम दो-चार दन के िलए छु ी मना सकते ह।”
“मज है आपक !” वो हंसकर रह गई—“वैसे छु ी ना करने से आपको यादा मेहनत
करनी पड़ती है। मेरा या है! रात म तुम चाहे िजतना जगाए रखो, म तो दन म आराम से
सो लेती ।ं ऑ फस आपको जाना होता है, मुझे नह । वहां आपको न द आती हो....तो म
नह जानती।”
अब वो काफ बेतक लुफ हो गई थी मुझसे।
पहले क तरह मेरे करीब जाते ही, मेरे करीब प च
ं ते ही छु ई-मुई क तरह थरथराकर नह
रह जाती थी—बि क ताजा फू ल क तरह िखल उठती थी।
वैसे सच ही कहा है कसी ने—औरत एक पेचीदा िम ी से कम नह होती। आपको हर
जगह उसका एक अलग प नजर आता है।
शादी से पहले!
मने जब भी उसके करीब जाने का यास कया तो हर बार यूं पीछे हट जाती थी, मानो
मलमल क साफ चादर पर दाग लग जाएगा। मेरी तरफ से एकदम रजव। तब म सोचता
था क कह ऐसा तो नह क उसक मुझम िच ही न हो।
फर शादी क रात!
मुझे कोई खास य नह करना पड़ा। बस यूं समझो क झोली फै लाई....और डाल से टू टे
फल क तरह वो उसम आ िगरी। कोई िवरोध नह । बस समपण था।
और अब....।
शादी को महीना बीत चुका था जब।
सुबह के व वो मुझे यूं यार से जगाती और तैयार करने म मदद करती जैसे मां अपने ब े
को कू ल के िलए तैयार करके भेजती है। ना ता अपने हाथ से कराती, कह म कु छ कम न
ले सकूं । तब वो जैसे िज मेदार औरत होती थी।
म भी शाम को उसे शाम के ो ाम के बारे म बताने के िलए रोज फोन करता और बता
देता क म कब वािपस आ रहा ।ं उस व वो सामा यतः अपने बैड म म या बाथ म म
होती थी। तैयार होती ई। तभी वो िडनर क फरमाइश के बारे म भी पूछ िलया करती
थी। मेरा जवाब एक ही रहता था—कु छ भी बना लो।
रात म।
िब तर म उसका बाहर से सवथा नया प होता था। दरवाजा ब द होने के बाद.... यासी
मछली को जैसे रे त म से उठाकर सम दर म डाल दया जाता था। वो हर टॉिपक पर
खुलकर िड कस कर िलया करती थी। अपने पसनल मैटर पर भी जरा संकुिचत अंदाज म
मेरे साथ बात कर लेती थी।
मेरी शरारत उसके िलए पीड़ादायक होने के बजाए आन ददायक आ करती थ । अब
कु छ-कु छ उन हरकत क तरफ भी इशारे करने लगी थी जो उसे खासतौर पर पसंद थ ।
उन हरकत का ह का-सा जवाब भी देती थी।
कु ल िमलाकर, हमम अ छी अ डर ट डंग पैदा होती जा रही थी।
क तु....।
सच तो ये था क मुझम वैसा कोई उतावलापन न था। वो सब मेरे िलए एक फामि टी ही
था। ये अलग बात है क सम दर म कदम रखने के बाद म लहर के ख के साथ आसानी से
बहने लगता था।
कु छ ऐसी ही किशश थी कोमल म।
एक डर-सा था मन म!
दो तो, एक इं सान बड़ी मेहनत से इतने सारे अरमान के साथ कांच का आिशयाना बनाता
है। और व के ारा फका गया एक छोटा-सा प थर उससे टकराकर उसे चकनाचूर कर
देता है। वो प थर कस दशा से, कब, उस आिशयाने पर पड़ने वाला होता है, इं सान का
ब ा नह जानता।
अभी तो मेरा आिशयाना बनकर ही िनबटा था। वो क ा था तब तक। पता नह या
ित या होगी कोमल क —तब जब उसे पता चलेगा क म कौन ।ं कु छ भी हो—वो ये
तो िस कर ही चुक थी क वो पूरी तरह से क हैयालाल भागव क बेटी थी।
म जब भी घर म कदम रखता था और सामने क हैयालाल भागव आते तो पुराने ज म
ताजे हो जाते थे। मेरा बैड म....िब तर के ऊपर लगी वो प टंग....सब पुरानी याद को
ताजा करते रहते। उ ह याद को ताजा करने के िलए ही तो म उस कमरे क तरफ ख
तक न करता था। अब तो ज म को हरा करने वाले दो-दो मु े उस घर म मुझसे जुड़ चुके
थे। पहली रात भी कोमल क प टंग ठीक करने वाली घटना ने उस सब क शु आत कर दी
थी। कोमल का वहार घर के नौकर के साथ एकदम रजव था। बाबूराम के साथ, जो
क हैयालाल भागव के साथ ही वहां आ गया था, वैसा ही रजव जैसा क क हैयालाल
भागव का आ करता था।
काम के मामले म वो नौकर के साथ स त थी। जरा भी कोताही उसे पसंद न थी।
दस बर म चंचल द ली से वहां आ गई।
हालां क अब वो इं टरमीिडएट म आ गई थी, सो म मी ने ना-नुकुर क , जो क मेरे जरा-सा
ही र े ट करने पर हां म बदल गई थी। इस शत पर क उसे वहां पर ठीक से पढ़ना
पड़ेगा। मने वायदा कर िलया था।
चंचल भी वायदा करके आई।
कोमल को चंचल के प म अ छी साथी िमल गई थी।
पहली ही मुलाकात म र ा से भी कोमल क अ छी दो ती हो गई थी। प ह-बीस दन म
वे फोन पर बात कर िलया करती थ ।
चंचल भी आकर चली गई।
वो रिववार का दन था।
शाम के व म ाइं गहॉल म बैठा फाइल म उलझा आ था। कोमल उसी व मेरे और
अपने िलए कॉफ बनाकर लाई थी। कोमल के पापा भी तब हमारे साथ ही थे।
“साहब!” नौकरानी ने आकर याचनापूण लहजे म मुझे संबोिधत कया।
“हां कहो।” मने फाइल टेबल पर रख दी थी, कप को उठाते ए उस पर तव ो दी—“कु छ
कहना था तु ह?”
“साहब जी, कु छ दन इदर काम पर नह आ सकती ।ं ”
“ य , या आ?” मेरे कु छ कहने से पूव ही कोमल कह उठी।
“मेरा मरद बोत बीमार है मेम साहब।”
“ या आ उसे?” मने पूछा।
“ या होगा साहब! दा बोत पीता है। वो ईच कारण है। डा टर बोला उसका पेट खराब
होएला है।”
“ कतने दन क छु ी चािहए?” मने न ता से उस पर तरस खाते ए पूछा।
“साहब, दो-चार दन तो लगेगा ही....।”
“तब यहां का काम कौन करे गा?” कोमल का वर एकदम सपाट था।
नौकरानी चुप हो गई।
गदन िववशता और याचनापूण अंदाज म झुक गई।
“तु हारा काम तो यहां बस घ टे भर का सुबह के व होता है।” कोमल बोली—“और
शाम को आकर रसोई के बतन साफ करने होते ह। इतनी देर तो तुम एडजे ट कर सकती
हो।”
“पर मेम साहब, मेरा मरद बोत बीमार है....अब....।”
“हर व तो तुम उसके िसहराने से िचपक नह रहोगी! ब े कतने ह?”
“ज....जी चार।”
“ कतने बड़े ह?”
“बड़ा सात बरस का है।”
“छोटा?”
“एक बरस का।”
“उन ब क देखभाल कै से करती हो?”
“उ ह तो मेरा मरद ही संभालता है।”
कोमल जरा चुप हो गई।
कोमल का वो कठोर रवैया मेरी उ मीद के पूरी तरह िवपरीत था। दल को चोट-सी लगी।
कु छ सोचकर उसने कहा—“तु हारी गैरहािजरी म वहां करना ही या होता होगा? पानी-
वानी तो उसे ब े भी दे सकते ह।”
“पण मेम साहब, उसक हालत एकदम िबगड़ गई तो....।” उसका लहजा अनुनयपूण था।
आंख म याचना तरलता के प म उभर आई थी—“उसे मेरे को इच तो संभालना होता है
ना।”
“अ छा ठीक है।” म कह ही उठा। बामुि कल म कोमल के ित अपनी कड़वाहट को दबा
सका—“तुम ऐसा करो, अपने पित पर यान दो। काम पर भी तुम आराम से उसक हालत
सुधरने के बाद आ जाना।”
“मगर यहां काम कौन करे गा?” कोमल का लहजा जरा िवरोध भरा था—“इतने बड़े घर
क सफाई म अके ली कै से कर सकूं गी? वो मेरे बस का काम नह है....।”
“तुम कु छ एडज टमे ट कर लेना।”
“म या एडज टमै ट क ं ?”
“तुम कर लेना।”
कोमल का लहजा उस बार पूरी तरह से िव ोहपूण था—“काम करने वाले या बाजार म
िमलते ह जो जाकर वहां से ले आऊं?”
“तुम जाओ, अपना काम करो।” मने नौकरानी को वहां से हटा देना उिचत समझा—“दो-
एक दन बाद हालात क खबर कर देना।”
नौकरानी कृ त भाव से गदन झुकाकर कचन म जा घुसी।
कोमल के चेहरे पर तब भी तनाव था। मने उसक जरा भी परवाह कए बगैर ही कॉफ क
चु क लेनी शु कर दी।
ले कन तनाव....।
तनाव तो उ प हो चुका था।
न....न, औरत क बुराई नह कर रहा ।ं ले कन कु छ अलग ही होता है उनका च र ।
जब औरत का पित पर वश न चले तो वो अपना गु सा या तो रसोई म खाने पर उतारती
है या फर िब तर म अनशन पर उतर आती है। सही भी है, भले ही औरत कतनी ही
मॉडन हो गई हो, ले कन उसका राज रसोई और िब तर म रहता ही रहता है।
खैर!
खाने पर तो कोमल ने रहम कया।
ले कन िब तर म।
रोज क तरह कोमल रसोई के छोटे-मोटे काम को िनबटाकर साढ़े नौ बजे के बाद बैड म
म आई।
म उस व मनेजमट क नई कताब पढ़ रहा था। आकर उसने रोज क तरह दरवाजा
लॉक करके अपने कपड़े बदले, बाल को खोलकर श कया और उनका ढीला-सा जूड़ा
बनाकर वो िब तर म आ गई।
सामा यतः वो रोज ही खामोश रहा करती थी उस दौरान। ले कन तब भी खामोशी म कु छ
अजनबीपन-सा था। कु छ पैना स ाटा-सा।
वो खामोशी मेरे वजूद पर चोट कर रही थी।
िब तर पर पैर ऊपर करके वो मेरे करीब बैठ गई तो मने उसक कमर म डालकर उसे
अपने करीब ख च िलया।
वो मुझसे सट गई, कोई िवरोध भी नह कया, ले कन खुद मुझे लगा जैसे मने कसी ठ डी
पाषाण ितमा को ख चकर अपने पहलू म समेट लेने का य कया हो।
एक और चोट मेरे वजूद पर पड़ी।
“बड़े खतरनाक तेवर नजर आ रहे ह आज मैडम के ....।” म फर भी संभलकर बोला,
मु कु राया भी—“ या आज रात क ल कर देने का इरादा है?”
वो चुप ही रही।
यूं ही सटी रही।
मने उसे पहलू म भ च िलया और कताब को िब तर क पु त पर रखकर उस पर यान
दया।
“बड़ी नाराज हो।” मने अपनी मु कान म जरा भी कमी नह आने दी।
“म कौन होती ं नाराज होने वाली!” वही पुराना िघसा-िपटा डॉयलॉग।
“ फर मैडम का मूड आज इतना इस कदर उखड़ा आ य है?”
“नह तो....।”
“कमाल है! फर आज हमारी नूरजहां के चेहरे का नूर कधर गायब है। मैडम जी, कम-से-
कम हमारी तो फ क िजए! हमारी जंदगी का नूर तो आपसे बरकरार है।” म, जो जबान
पर चढ़ा, वो श द कहता रहा। हालां क खुद मेरे भी उन रे डीमेड डायलॉ स म मोह बत का
असर न था।
मगर उनका जादू कोमल पर चल ज र गया।
वो मु कराई।
कु छ मशीनी अंदाज म ज र मु कु राई, मगर गुलाबी होठ िथरके ज र। मुझे सुकून ज र
िमला।
“िबजनेस छोड़कर शायरी कब से करने लगे ह आप?” जरा शरारतपूण और मजा कया,
तनाव से कु छ हद तक मु था उसका लहजा।
“खूबसूरत शायरी जब पहलू म हो, तो कौन क ब त शायर न होगा।”
“अ छा! ऐसी शायरी पहले तो कभी नह क ।”
“मैडम का मूड सुधारने के िलए कु छ तो करना ही था आिखर। सुना था औरत को शायरी
यादा पसंद आया करती है।”
वो कु छ न बोली।
म भी गंभीर हो गया।
“देखो, कोमल।” म गंभीर अंदाज म उसे समझाने वाले अंदाज म कहता चला गया—“तुम
बगैर मतलब नाराज हो रही हो। यार, वो नौकरानी भी तो इं सान ही है। बेचारी पता नह
कन प रि थितय म घर म बतन साफ कर रही है। आज अगर उसके साथ कोई िवपरीत
हालात ह, तो इसका मतलब ये नह क हम उसके साथ कोऑपरे ट न कर और उसे हमने
खरीद थोड़े ही रखा है....।”
“म इन लोग का िव ास नह करती। ये लोग इस तरह के बहाने बनाकर पैसा ठने क
कोिशश करते ह। आपको पता है, ये चोरी से मेरा सट लगाया करती है?”
“तो या आ!” म हंस दया—“रसोई म खुद चाय बनाकर भी तो पीती है। इन छोटी-
छोटी बात पर यान मत दया करो।”
उसने कु छ नह कहा।
क तु उसके लहजे ने साफ बता दया क वो एक ितशत भी मेरे से सहमत नह थी।
मने भी मु ा अिधक नह ख चा। सच तो ये है क अपने बैड म म म तनाव को नह आने
देना चाहता था।
कु छ भी हो....।
आिखर तनाव तो बीच म आ चुका था। हालां क न उसने अपना रोष अथवा िवरोध जािहर
कया, न मने अपने मन म उठे उसके वहार के ित भाव को जािहर होने दया।
वो अपना काम खामोशी से कर रही थी।
खामोशी!
यही तो मेरी शंका को हवा दे रही थी।
तब तो कु छ न टू टा। यूं कहा जाय तो एक प थर ज र मेरे आिशयाने क तरफ बढ़ा था, जो
दीवार से टकराए बगैर आंगन क िम ी पर जा िगरा था।
मगर मेरी शंका ज र बढ़ गई थी।
¶¶
सतीस
नौकरानी आठव दन काम पर वािपस आ गई। उस दन भी रिववार था।
म घर पर ही था।
“ठीक ह अब तु हारे पित?” मने उससे उस व पूछा, जब वो रसोई का काम िनबटाकर
बाहर िनकली।
“हां, साहब।”
“शराब ब द करने को माना या नह ?”
“नह मानता।” कड़वा मुंह बनाकर वो कह उठी—“म बोत समझाई उसको, पण वो है क
मानता ईच नह ।”
“उसे समझाने क कोिशश करो। आज नह तो कल समझ जाएगा।”
“म बोत समझाई साहब। कई बार तो रात को सोने तक नेई दया। त बी तो बोला, शराब
नई िपएगा। पण शाम म देखा तो साला पीकर घर म आया।”
“तु ह शम नह आती अपने पित को गाली देते ए?” कोमल ने जले वर म कहा।
“वो वी तो देता है मेरे को गाली। वो ईच नेई मानता तो म या क ं ?”
“तुम भी उ टे गाली देती हो।”
“उसके सामने थोड़े देती ।ं ” वो तुर त बोली।
“अ छा, काम िनबटा िलया?” कोमल ने बात बदली।
“जी मेम साहब।”
“अब तो कोई ा लम नह है तु हारे पित को? ठीक है वो?”
उसने मु डी मराठी टाइल म दाएं-बाएं को िहलाई—“अ बी पानी-वानी खुद लेकर पी
लेता है।”
“उसका याल रखना।” मने कहा—“और अगर कोई ज रत हो तो बता देना।”
उसने उसी अंदाज म मु डी िहलाई।
र ते म कसी कार क कड़वाहट न आई थी। क तु दा प य जीवन के ित मेरा उ साह
काफ हद तक और कम हो चुका था।
बस जैसे औपचा रकता थी।
दमाग म िवचार भी आया— य न उसे म अपनी असिलयत बयान कर दू।ं
या कहेगी वो?
छोड़ देगी?
नह !
ऐसा कदम तो वो उठायेगी नह । इतनी नासमझ तो नह है वो। बस प रवार म—
आिशयाना बसने से पहले ही—दरार आ जायेगी।
और म वो दरार नह चाहता था।
ऑ फस म घ ट -घ ट तक म कु स क पु त पर िसर टकाए आंख को मूंदे िवचार करता
रहता था। दल और दमाग जमकर मैराथन दौड़ते—मगर मंिजल कह भी नजर न आ
सक ।
हर ओर वीरान!
अंधेरा ही अंधेरा!
कोई समाधान तो या ऐसा ‘लाइट हाऊस’ तक न नजर आ सका जो मुझे दशा िनदश दे
सकता।
ऑ फस का काम भी धीमा पड़ गया था।
¶¶
अड़तीस
म उस शाम को कु छ ज दी ही ऑ फस से आ गया।
दरअसल उस दन ऑ फस म मने महसूस कया क म अपने तनाव के कारण कोमल को
नजरअंदाज करने लगा था। मुझे बुरा लगा था।
सो, मने सोचा य न शाम बाहर िडनर पर कसी रोमां टक-सी जगह पर िबताई जाए।
जहां म होऊं और िसफ वो हो।
उसी कारण मने ऑ फस ज दी ही छोड़ दया।
ह का-सा सर ाइज भी उसे देना चाहता था।
म घर पर प च
ं ा।
शाम को फोन भी नह कया, य क सीधा घर तो आना ही था।
मने कार को गैराज म पाक कया और अपना ीफके स उठाकर घर म दािखल आ।
ाइं गहाल म मुझे कोई नजर न आया।
वहां सामा य-सा स ाटा छाया आ था। मने अ दर कदम बढ़ाए तो अपनी प चाप मेरे
कान म पड़ी।
“कहां गए सब?” मने बुदबुदाए अंदाज म कहा।
भागव साहब तो अपने कमरे म या िपछले लॉन म ह गे। शायद मैडम जी अपने कमरे म
ह।
इसी व म घर फोन करता तो वो या तो बाथ म म आ करती थी या े संग टेबल के
सामने खड़ी संगार कर रही होती थी। वो कह और यािन नीचे ाइं गहॉल म अथवा घर
के दूसरे िह से म कम ही आ करती थी उस व ।
शायद कमरे म थी।
म मु कु रा दया।
म तेजी से सी ढ़य क तरफ बढ़ गया।
सी ढ़य पर चढ़कर म जैसे ही ऊपर प च
ं ा—
अ दर से कु छ आवाज आ रही थ ।
म जरा च का।
ठठका। फर आगे बढ़ गया। मुझे लगा कोमल कसी पर भड़क रही थी।
म दरवाजे के पास प च
ं ा।
“तु हारी िह मत कै से हो गई मेरे सामान को यूज करने क ?” वो नौकरानी पर भड़क रही
थी—“जब सजने-संवरने का इतना ही शौक है तो य नह खरीदकर लात इन सामान
को? हैिसयत भी है तु हारी?”
हैिसयत!
चोट लगी मुझे।
कोट क जेब म घुसे हाथ क अंगुिलयां ईव नंग शो के टकट को समेटती ई मु ी क
श ल म कसती चली ग ।
म वह खड़ा रहा।
नौकरानी एक अपराधी क मािन द वहां उसके सामने िसर झुकाए खड़ी थी।
“पता है तुम छोटे लोग के साथ द त या है?” वो कड़वे लहजे म कहती चली जा रही
थी—“तुम जरा से ऊपर या उठ गए, अपनी औकात को भूलकर बड़े-बड़े वाब देखने
लगते हो। अपनी असिलयत भूलकर तुम लोग नकल करने लग जाते हो हमारी।”
एक और चोट
अब मुझे वहां खड़ा रहना मुि कल महसूस होने लगा था।
सो, म आगे बढ़ा।
धीरे -से गला खंखारने वाले अंदाज म खांसकर अपनी उपि थित का अहसास कराया।
उन दोन ने च ककर मेरी तरफ देखा।
“आप!” कोमल के होठ से बस इतना ही फू ट सका था।
नौकरानी क जुबान को जैसे लकवा मार गया था।
“तुम जाओ।” मने नौकरानी को राहत दी।
उसे सचमुच राहत िमली।
वो मेरे करीब से गुजरी तो उसके बदन से उठती सट क खुशबू ने मेरे नथुन म घुसकर मुझे
कोमल के गु से का कारण बयान कर दया। उस दन फर उसने कोमल का सट यूज कया
था।
“ या बात है?” मने अ जान बनते ए पूछा।
“कु छ नह ।” अपने गु से को दबाती ई वो कह उठी—“इतनी बार समझा चुक ,ं मानती
ही नह । ढीठ है ये एकदम!”
“अरे , आ या, ये तो बताओ।”
“आज फर उसने मेरा सट यूज कया।” कोमल ने बताया।
“इसीिलए तुम उसे इतना डांट रही थ ?”
“आज तो सट यूज कर रही थी, कल कु छ और बड़ा नुकसान कर सकती है। आप जानते नह
ह इन छोटे लोग को।” अपने ही लो म वो कहती जा रही थी—“जरा-सी छू ट या िमल
गई, अपनी हैिसयत को भूलकर िसर पर चढ़ जाते ह ये।”
मुझे लगा जैसे कसी ने मेरे दल को हाथ म लेकर िनचोड़ने वाले अ दाज म भ च दया हो।
िववश!
ती वेदना अ दर उभरी।
“इनसे िजतनी दूरी बनाकर रखी जाए, उतना ही फायदा है।” वो कहती जा रही थी—“म
इ ह कभी मुंह लगाना पसंद नह करती....।”
मने ीफके स वह िब तर के पास रख दया और अपनी टाई को ढीला करने का उप म
कया।
कोमल रोज क तरह आगे न बढ़ी।
तब!
पहली बार मेरा यान उसके तमतमाए चेहरे से हटकर उसके पूरे बदन पर गया।
अपने बदन पर तौिलया लपेटकर उसे अपने व पर अपने दाएं हाथ से थामे खड़ी थी वो।
वो शायद तभी बाथ म से िनकली थी और नौकरानी को सट यूज करते देख िलया था।
बस बरस पड़ी उस पर।
टाई को उतारकर मने िब तर पर डाल दया और कोट उतारकर उसे िब तर पर आवारा
डालते ए म हाथ-मुंह धोने के िलए बाथ म क तरफ बढ़ गया।
मने बाथ म म जाकर दरवाजा ब द करने का कोई उप म नह कया, य क म जानता
था क हमारे बीच दीवार क ओट तो थी ही।
म बाथ म से बाहर िनकला तो कोमल तौिलए से छु टकारा पाकर तब कपड़ म कै द हो
रही थी। उस व उसके तन पर गुलाबी रं ग का लाऊज और पेटीकोट था। हाथ पीछे
करके वो लाऊज के क लगाने म त थी।
म मुंह पौछकर तौिलया िब तर पर आवारा फककर उसक तरफ बढ़ गया।
“है प क ं ?” औपचा रक-सी मु कान मेरे होठ पर रगी थी। म उसके ठीक पीछे जाकर
का था।
“ये भी पूछने वाली बात है।” वो बेतक लुफ अंदाज म मु कु राई। साथ ही दोन हाथ को
पीठ पर से हटाकर लटका िलया।
मने एक-एक करके लाऊज के क को ब द कया—“ठीक है?”
“थक यू।”
बदले म मने उसे बाह म भर िलया।
“काफ मूड म ह आज जनाब....।” वो हौले से मु कु राई। पकड़ से अलग होने का जरा भी
उप म नह कया।
“नह तो....।” म सामा य था—“एज यूजुअल।”
“ले कन तेवर तो कु छ और ही कह रहे ह।”
“ या कह रहे है?”
“कह रहे ह या तो आज ऑ फस म काम नह था....या साहब आज कोई इरादा बनाकर
ऑ फस से िनकले ह।”
“बात तो ठीक है।” मने छु पाया भी नह —“इरादा तो है।” बाह का कसाव जरा तंग कर
दया।
“इरादा बताने का क करगे ीमान जी।”
“गैस करो।”
“अभी िडनर पर तो जाया नह जा सकता बाहर....।” वो सामा य लहजे म बोली—“बाक
या इरादे ह, आप खुद ही बता दीिजए।”
“ य न फ म देखने चला जाए।”
“अ छा!”
“ टकट तो लाया ।ं ” कहते व मेरी आवाज म न तो उ साह था, न उसको रोमांिचत
करने का जरा भी य था। बस यूं किहए, महज वही फज क औपचा रकता थी जो मेरे
क ध पर शादी के व आ गया। उसे खुिशयां तो देनी ही थ ।
“आज ये बात दमाग म कै से आ गई?” उसने जरा हैरानी से पूछा।
“बस आ गई बात दमाग म....। दरअसल बात या है, म आ फस म काम कर रहा था।
तु ह फोन करने क बात पर यान आया, य न जान को छोटा-सा सर ाइज दे दया
जाए। इसीिलए सोचा—रात तो आपके नाम रहती ही है। शाम और आपके नाम कर द।”
“तो ये बात है....।”
“है तो।”
“तो अब साहब जी हम अपने बा पाश से शराफत के साथ आजाद करने का क करगे
जरा। आप शायद भूल रहे ह क म तैयार हो रही थी।”
“ओके मैडम।” म खुश दली से बोला—“ये तो तुर त करना पड़ेगा। य क अगर देर हो गई
तो हम शाम का नह , रात का शो देखना पड़ेगा।”
“वो य ?”
“ य क मने देखा है सजने म आप घ टे भर से कम समय नह लेत ।”
उसने कु छ नह कहा।
मने शराफत से ही उसे आजाद कर दया था।
ईव नंग शो देखने के बाद हमने बाहर िडनर िलया और बीच पर चले गए।
वही जगत!
एका त माहौल!
क तु मेरे मन म तब जरा भी शरारत न थी। म गंभीर था। फर भी उसे अपने पास अव य
रखा था। उसका एक हाथ थाम दूसरा हाथ उसक अंगुिलय म पड़ी अंगूठी से िखलवाड़
कर रहा था।
“कोमल!” मने उस खामोश वातावरण म उसे पुकारा।
“ ऽं ऽऽ!”
“तुम नौकर के साथ इतनी स त य हो?”
“मतलब?” व टू टा।
उसने चेहरा घुमाकर मेरी तरफ देखा। वो कौन-सी रात थी ये नह जानता। अमाव या तो
नह थी। अमाव या के आस-पास क कोई रात थी वह।
आसमान म चांद आधे से भी काफ कम था।
इतनी साफ रोशनी वहां फै ली ई नह थी। म उसके भाव को बारीक से न पढ़ सका।
“म तु ह देखता ं क तुम नौकर के साथ हमेशा स ती से पेश आती हो।” कोमल से म कह
रहा था—“उनक जरा-सी गलती पर तुम यूं भड़क उठती हो जैसे कोई गुनाह कर दया हो
उ ह ने। कोमल, नौकर भी इं सान होते ह। गलितयां तो यार इं सान से होती ह। फर उनको
यूं जानवर क तरह टाचर करने क ज रत ही या है।”
“ऐसी कोई बात नह है।” उसने बड़े सीिमत और गंभीर अंदाज म कहा।
“कै से नह है? म देखता ं तु ह।”
“इतनी तो स ती नह बरतती....।”
“आज जो नौकरानी के साथ वहार कर रही थ ।” मेरे वर म रोष उभर आया—“वो
कु छ कम था या?”
“उसने गलती ही ऐसी क थी।” सपाट वर।
“मानता ं गलती क थी, उसका मन करता है वैसा कु छ करने को। और सट ही तो यूज
कया था। रसोई म जब अपनी मज का खा लेती है, तो वैसे ही तो वो भी यूज कया था।
उसे उसक औकात के बारे म कहने क या ज रत थी?”
कोमल खामोश रही।
कु छ देर तक वो कु छ सोचती रही।
“ याम!” उसका लहजा गंभीर और बद तूर सपाट था—“मेरे पापा ने हमेशा मुझे िसखाया
है क नौकर के साथ संतुिलत और रजव वहार करो। जब तक नौकर को उनक
हैिसयत क जानकारी रहती है, वे आपक इ त करते ह। वे शु म छोटी गलितयां करते
ह और बाद म अगर उ ह छू ट िमल जाए तो कसी भी हद तक जाने से नह चूकते।”
“सभी नौकर तो ऐसे नह होते।”
“ले कन लगभग सभी ऐसे होते ह। उ ह बस मौका चािहए होता है।”
“कभी तु ह कोई नौकर पसंद आया है भी या नह ?”
“उनके करीब जाऊंगी तो पसंद आएगा ना!”
“तुम कभी कसी के करीब ग ही नह ।” म जरा च कत था। यािन वो मुझे भूल चुक थी।
मने आ य और आहत भाव से उसक तरफ देखा—“तु ह आज तक कोई नौकर अ छा
नह लगा?”
वो जरा खामोश रही—जैसे याद कर रही हो। मुझे लगा जैसे याद कर रही हो।
“हां, था एक....।” उसके होठ से गंभीर वर बाहर फू टा।
“अ छा!” मेरा दल धड़का—“कौन था?”
“शामू नाम था उसका।”
“अ छा!” मुरझाए फू ल को जैसे बसंत क कोमल हवा का पश आ।
“हां, ब त अ छा लगता था। तब तो ब ी थी म। वो मुझसे कई साल बड़ा था।”
“कै सा था वो?” यासे को पानी क बूंद नसीब ई तो यास म इजाफा हो गया। एक
अजीब-सी उ सुकता मेरे मन म जाग उठी।
खामोश!
मेरे दल क उ सुकता म और भी इजाफा हो गया। धड़कन क लय िबगड़ने लगी।
उसके होठ खुल।े
एकदम गंभीर वर—“अब म उसे याद नह करना चाहती।”
झटका लगा मुझे।
एकदम सपाट और गंभीर, कु छ आहत-सा लहजा था उसका।
“ य ?” मने झटका खाए अंदाज म, धड़कते दल से पूछा—“ या कया था उसने?”
चुप।
सागर क लहर का कलरव जैसे गंभीर संगीत के वर म त दील हो गया था।
कोमल ने अपना नाजुक हाथ मेरे हाथ के बीच से ख चकर दूसरे हाथ से जोड़कर अपने
घुटन म दबा दया।
“उस व म ब ी थी....।” उसने कहा—“मुझे तब सही गलत क तमीज नह थी। ले कन
पापा ने बताया क वो मेरे साथ....।”
उसने श द पर अंकुश लगा दया।
कु छ इस अंदाज म जैसे आगे कु छ भी कहने क आव यकता न हो।
और आव यकता तो थी भी नह ।
छनाक—!
आिखर प थर आिशयाने पर आन ही पड़ा था। एक साथ अनेक दरार आिशयाने क
दीवार म पड़ चुक थ । सब टू ट चुका था। बस िबखरना बाक था। उसके िलए बस एक
ह के से ध े क आव यकता थी।
“ फर या आ?” मने धीरे से पूछा।
“पापा ने उसे घर से िनकाल दया।”
अब तो कु छ कहने-सुनने को बाक रहा भी नह था।
फर भी मने पूछा—“तु ह लगता है क वो गलत था?”
“तब तो मुझे गलत-सही का पता ही नह था। कु छ गलत होने से पहले ही पापा आ गए थे।
उ ह ने उसे घर से िनकाल दया। मुझे भी थ पड़ लगाए थे।”
काफ मुि कल था वो सब—ले कन मने अपने अ दर उठे तूफान को दबा ही िलया।
आगे भी उस तूफान को यूं ही ज त कए रहना था।
क तु!
कहते ह ना हर चीज अपना असर इं सान क जंदगी पर डालती ही है। उसका असर मुझ
पर भी पड़ा। सबसे पहले असर—दा प य जीवन क लगभग हर वािहश ने दम तोड़
दया। बस, जो हो रहा था, औपचा रकता वश, फज समझकर कर रहा था। नह चाहता
था कड़वाहट मेरे अ दर से बाहर िनकलकर और के —खासकर उन लोग के —गले तक
जाकर उनका वाद खराब कर दे। नह चाहता था क मेरे कसी भी अपने या पराए को
उस दूरी का पता चले।
दूरी का कारण?
कारण या सामने रखता?
और दूरी बस मेरे ही तो मन म थी। वो तो कोमल तक के अहसास म नह प च
ं सक थी।
उसे अहसास भी तो तभी होता ना जब म अहसास होने देता। म उसे हर स ाह बाहर
िडनर पर ले जाता था। हमारी वो शाम हमारी अपनी रहती थी या क ं तो मेरी शाम
उसक रहती थी।
एक और प रवतन मेरे वहार म आया।
वो ये था क म काम पर कु छ अिधक ही यान दे रहा था। वो कोई कारण न था जो दूरी का
अहसास कराता। मेरे पास ब त से काम थे।
ॉड ट नए थे।
क पनीज नई शु क थ । साधारण-सी बात है—हर ॉड ट का एडवरटाइजमै ट और
अ य ब त से काम। वे काम म क पनी के अिधका रय से कराते ए भी, अपनी ही देखरे ख
म करता रहा था। अब कोई औिच य भी नह था बीवी के प लू म घुसे रहने का हर शाम।
शादी को भी कई महीने गुजर चुके थे।
ऑ फस म जमकर देर रात तक काम करता था। िजस दन यादा अपसैट हो जाता था, तो
अिधक काम करता था और देर रात को जाकर सीधा सो जाता था। कोमल तब मुझे
िड टब करने के बजाए बस खाना िखलाकर आजाद कर देती थी। बस, सोते व मेरे गले
म बांह िपरोकर मुझसे सटकर सो जाया करती थी। वैसे मने कभी उसक इ छा का भी
अनादर नह करना चाहा।
¶¶
उनतालीस
“सुिनए!” सुबह के व मेरी टाई को ठीक करती ई कोमल ने टोका।
“हां।” बस इतना ही बोला म।
“आज आप कु छ ज दी आ जाएंगे या?”
“ य ?”
“म मी क बरसी है आज।”
“अ छा!” मुझे अ दर से कु छ दुःखता-सा महसूस आ।
“कु छ सोच रखा है आज?”
“नह —शाम को बस उ ह याद करगे।”
“तुमने पहले नह बताया?” मने कहा—“अगर पहले बतात तो हवन रखता लेते....।”
“नह , हम हर बार साधारण ो ाम ही रखते ह। बस उ ह याद करते ह। त वीर क माला
बदलते ह। पापा यादा कु छ पसंद नह करते।”
“हवन तो ठीक है....।”
“पहले हवन कराते थे।” उसने बताया—“अब कई साल से सुबह के व हवन नह
कराते।”
“इस बार तो व गुजर गया।” मने उसे िहदायत देते ए कहा—“अगली बार से हर बार
हवन कराया करगे। तुम याद दला दया करना।”
“जी....।”
उसने धुला आ नया माल मेरी जेब म रख दया।
तब शादी के बाद पहली बार इतनी िश त से मुझे मेम साहब क ....कोमल क म मी क
याद आई।
वो इकलौती श स ही थ जो मुझे अपनी नजर आती थ । उनके यार म कोई अहसान न
था। उनक हर बात म ममता टपकती थी। मां नजर आने लगी थी उनके चेहरे म।
कतना िनमल दल था उनका!
जब द ली से मु बई के िलए चला था तो दो ही लोग से िमलने क आरजू मन म जागी
थी। एक कोमल। दूसरी मेम साहब।
कोमल िमली। ले कन अब वो कोमल कहां रही थी! अब वो काफ बदल चुक थी।
िजसके महज दीदार के िलए म इतनी बुरी तरह तरसा करता था, िजसके करीब जाने पर,
हािसल करने को बेचैन रहता था। उसे हािसल करने के बाद जैसे उबलते दूध पर पानी के
छ टे पड़ गए।
या क ं जलती आग पर बरसात हो गई। बस सुलग रहा था म!
अब तो आिशयाने के िबखरने का डर ही सताता रहता था हर पल। कोमल का यार महज
िज मेदारी बनकर रह गया था।
मेम साहब!
उनम बदलने क जरा भी गुंजाइश न थी।
फर....।
हो सकता है बदल गई ह ।
उस घटना ने कोमल को भी तो बदल दया था।
और अगर उनके मन म मेरे िलए जरा-सी भी सहानुभूित अथवा यार होता, तो जरा भी
मुझ पर िव ास करत तो या मुझे बचाने का य न करत ?
दल म वही टीस ती ता से उभरी—जो उस व उभरी थी—जब कोमल के मन क
स ाई का पता चला था।
उस दन भी काम कम ही हो पाया था।
चार बजे।
मेरा मोबाइल बज उठा।
उस व म कु स क पु त पर िसर टकाए, आंख ब द करके , उसी ज ोजहद म जूझ रहा
था।
मेरा यान टू टा जैसे।
मने मोबाइल जेब से िनकालकर उसक न पर नजर डाली।
घर का न बर था वहां।
“हैलो!” मने उसको ऑन करके कान से लगाया।
“हैलो!” वर कोमल का ही था—“म बोल रही ।ं ”
“हां, कहो।”
“आप कस व िनकल रहे हो?”
“ कस व घर पर प च
ं जाऊं?”
“बस, शाम को सही व पर आ जाइएगा। सात बजे तक।”
“म आ जाऊंगा।”
“ऑ फस म कोई खास काम तो नह है?”
“नह , कु छ खास नह है।” मने इतना ही कहा—“म समय पर आ जाऊंगा।”
“ठीक है।”
शाम को म सात बजे ही घर पर प च
ं गया।
कोमल के पूव िनधा रत काय मानुसार सब एकदम साधारण था। बस खाने म खीर का
इजाफा आ। वो भी मीठे के तौर पर।
हम सब उस व गंभीर थे—जब पुरानी माला उतारकर त वीर पर नई माला चढ़ाई गई।
रात को....।
कोमल और म!
ब द कमरा। तनहाई। ले कन हम गंभीर थे।
“कोमल!” मने खामोशी को धीमे वर म भंग कया।
उसने बस क
ं ारा भरा।
“त वीर म तु हारी म मी कतनी अ छी लग रही ह ना।” मने बात छेड़ी। कु छ इस अंदाज
म जैसे कोमल को टटोलना चाहता होऊं।
“हां, वो थ ही इतनी यारी।”
“लगता है तु हारे पापा भी उ ह ब त यार करते थे।”
“हां, ब त यार करते थे वे उ ह।”
“उनके चेहरे पर कै सी चमक है ना त वीर म....।”
“हां, ब त अ छी औरत थ वो। सबसे ब त यार करती थ । उनका दल सम दर था।
नौकर तक को वे बराबर का दजा देती थ ।”
“अ छा!”
“हां, सब नौकर भी उनक ब त इ त करते थे।”
“तु हारे पापा क नह करते थे?”
“करते थे। पर उनक यादा करते थे।”
“ओह!”
“उसे भी वही लेकर आई थ ?”
“ कसे?” जानकर भी म अंजान बन गया—उसी बात को तो म सुनना चाहता था। शु था
उसने तुर त बक दया था। यही औरत क सबसे बड़ी खािसयत होती है। तुर त बक देती
है। बस बात पेट से िनकलकर हलक तक प च
ं जाए। जुबान से बाहर तो अपने आप फू ट
पड़ती है।
“उसी को....।” उसने कड़वे और गंभीर वर म कहा—“शामू को!”
“वही लड़का िजसने तु हारे साथ....।” मने याद करने वाले लहजे म कहा, क तु वा य
बीच म ही छोड़ दया।
उसने गदन झुका ली।
धीरे -से बोली—“हां।”
“उसे वे कहां से लेकर आई थ ?” मने पूछा।
“उसके घर से।”
“घर से?”
“हां, उसका बाप हमारे यहां नौकर था। वो मर गया था ए सीडे ट से। और कोई उसका था
नह प रवार म। म मी उसे घर ले आ ।”
“और उसने तु हारे अहसान का ये िसला दया?”
उसने कु छ नह कहा।
चेहरे पर नफरत के खामोशी भरे भाव ही उभरकर रह गए।
“तु हारी म मी क या रए शन थी उसके उस ए शन के बारे म।” मने पूछा।
“वही जो सबक थी।”
मुझे लगा जैसे मेरा दल कसी ने पैर तले कु चल दया था।
उ मीद से कु छ जुदा नह आ था।
बस यूं किहए क शंका क तेज हवा म आशा का दीपक संघष करते-करते बुझ ही गया।
पता नह य तब पहली बार मने अपने आपको िववश पाया। ठीक उस मुज रम क तरह
जो जज के सामने अदालत म खड़ा था और उसका कोई वक ल तक न था।
और जज भी वही—जो खुद मुझे उस कटघरे म लेकर आई थी।
उसके फै सले क अव ा करने क िह मत भी नह थी मुझम।
¶¶
चालीस
वजूद का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा था।
अब अ दर क वेदना को सहन करना बड़ा मुि कल नजर आने लगा था।
ले कन डर लगता था।
िजसे इतनी इबादत के बाद पाया—उसे एक पल म खो देने का वाब ही िज दगी को
फना कर देने जैसा था।
कु छ भी हालत थी, उसके मन म अब भले ही कु छ भी था, ले कन वो थी तो अपनी ही ना।
उसे कु छ भी बता देने का मतलब ही सब कु छ ख म कर देना था—जो क म कसी भी
क मत पर नह चाहता था।
और....।
सब कु छ जानकर वो अपने आपसे िघ महसूस करने लगी, तो?
ऐसा तो नह हो सकता।
इतनी क ी शि सयत क तो माल कन नह है वो!
हो सकता है समझौता कर ले।
अब उसके पास दो ही तो रा ते बाक बचे थे—या तो समझौता या मुझे छोड़ देना।
या वो छोड़ देगी?
और छोड़ देगी तो कहां जाएगी? और लोग को या जवाब देगी?
तभी....।
ओह! जैसे दो करं टयु तार आपस म टकराए।
मेरे दमाग म ती पा कग पैदा ई।
कह कोमल को खुद ही पता चला गया तो? तब या होगा।
मेरा वजूद कांप कर रह गया।
सही भी तो था।
स ाई को सात पद म भी य द िछपा दया जाए तो भी वो िछपी नह रह पाती। कभी-न-
कभी मौका पाकर वो सामने प हो ही जाती है।
और परदे तो बीच म थे ही नह । सारे पद तो तभी हट चुके थे, जब कोमल मेरी िजदंगी म
शािमल हो गई थी।
भेद खुलने के कई तरीके भी तो ह।
कभी चंचल के मुंह से िनकल गया तो?
र ा के मुंह से भी तो िनकल सकता है। या कसी और तरीके से उसे पता चल सकता है।
उस व तो कोमल के मन म यादा कड़वाहट पैदा होगी।
या क ं ?
खुद ही उसे सब बता दू?ं
एक वही तरीका बचा था।
ये तो तय था क अभी वो कु छ भी नह जानती थी।
ना वो चंचल के इतने करीब रही, न ही र ा के । र ा भी तो तभी कु छ बताएगी ना जब
वैसी कोई बात उठे गी।
वैसी बात तो फु सत म ही उठा करती है। ल बे वातालाप म उठ सकती है।
कु ल िमलाकर वही रा ता बचा था मेरे पास कोमल क कड़वाहट कम करने का—अपने
ित गलतफहमी को ख म करने का।
उसे खुद ही सब बता दू।ं
कहां से शु क ं गा?
ये सवाल एक बार दमाग म उभरा तो मेरा िवचार गड़बड़ा गया।
मेरे िलए तो वो कयामत क घड़ी थी मानो! उसी ल हा फै सला होना था मेरी क मत का।
पता नह या फै सला करे गी वो?
कोई रा ता िनकालना था—िजससे वो सारी बात को आसानी से समझ सके । उसे कम-से-
कम चोट पड़े।
व जैसे-जैसे आगे फसलता जा रहा था—मेरे मन क उलझन बढ़ती जा रही थी।
कशमकश म सारा वजूद उलझकर रह गया।
दमाग जाम!
चार बजे।
फर साढ़े चार बज गए।
कशमकश म और इजाफा हो गया।
पांच बज गए।
तब मुझे कु छ होश आया।
मुझे जैसे अपनी ूटी याद आई।
वैसे ज री नह था क घर पर म ही फोन क ं । सामा यतः वही फोन कया करती थी।
ले कन उस दन मने फोन कया।
मने जेब से मोबाइल िनकालकर कोमल के मोबाइल का न बर डायल कया।
मोबाइल बजता रहा।
कॉल रसीव क गई।
“हैलो!” कोमल का वर उभरा।
“हैलो जान।” अपने दमाग से सारी कशमकश को खुरचते ए म खुश दली से मु कु राया।
“हैलो!” उसका लहजा भी खुशगवार हो गया—“तो आप ह।”
“हां, ह तो हम ही।”
“याद आ गई हमारी....।”
“ या कर रही हो?”
“आपसे मतलब!” शरारतभरा वर।
साथ ही पानी के छलकने क आवाज मेरे कान म पड़ी।
म समझ गया। पानी उसी ने शरारत से छलकाया था।
वो बाथटब म थी उस व ।
“मतलब हम नह होगा तो और कसे होगा?” मने भी अपना लहजा उसके लहजे से मैच
करने का य कया। जाने कौन-सी भावना थी मन म क उस व अपने जहन पर
कािबज गंभीरता को इजहार होने देना म पसंद न कर रहा था। था भी वैसे गलत ही। व
से पहले उसे वैसा अहसास कराने का औिच य भी या था।
“वो य भला?” वो हंसी—“आपको इस व या मतलब होना था भला?”
“ य ? इस व जब जान टब म है तो हम गम नह लग रही होगी।”
“ऑ फस म तो ए.सी. लगा आ है।”
“हां, लगा तो आ है ले कन....।”
“ले कन या?”
“तु ह नह लग रहा आज गम कु छ यादा ही है?”
“तो आकर आप भी नहा लीिजएगा।” वो हंसी।
“तब तक गम रहेगी ही कहां? मौसम तो गम अब है।”
“तो कब आ रहे हो?”
“कहो तो अभी आ जाऊं?” म शरारत से बोला।
“आ जाओ। तब तक म बाथ म खाली कर दूग
ं ी। आते ही नहा लेना।” वो पूववत हंसी।
“फायदा या?” म इस अंदाज म बोला जैसे खुद से ही बड़बड़ाया होऊं, असल म सुनाया
उसे ही था— फर बात बदलकर बोला—“वैसे भी यहां काफ काम है।”
“अ छा!”
“हां, उसी म उलझा आ था।”
“तो कब हो रहे हो?”
“कु छ तय नह ।” शायद वो दमाग क उलझन थी जो उस वा य के प म होठ से फू टी
थी।
“ य ?”
“बताया ना काम कु छ बढ़ा आ है। वैसे कोिशश क ं गा ज दी िनकलूं।”
“िडनर तक तो आ जाओगे ना?”
“पता नह ।” म गंभीर हो गया। फर तुर त ही ाि तकारी अंदाज म अपना लहजा बदलते
ए म बोला—“ले कन दस बजे तक आ जाऊंगा।”
“म इं तजार क ं गी।”
ऑ फस का टाफ जा चुका था।
वहां मेरे और चपरासी के अलावा कोई नह रह गया था।
दमाग जैसे जाम हो गया था।
वो फै सले क घड़ी थी।
दल और दमाग के बीच का ।
वजूद उस म ि शंकु बनकर रह गया था जैस।े
िडनर का व हो गया।
“साहब!” चपरासी ने आकर दरवाजे पर पुकारा।
“हां।” मेरा यान टू टा जैसे। मने िसर को कु स क पु त से उठाकर के िबन के दरवाजे पर
देखा।
“आज घर नह जायगे।”
“ह....हां....हां। बस िनकलने ही वाला ।ं टाइम भी काफ हो गया है।”
उसने कु छ न कहा।
मने फाइल पर रखे पैन को ब द करके जेब के हवाले कया और उठकर खड़ा हो गया। कोट
कु स क पु त पर से उतारकर उसे पहनता आ के िबन के दरवाजे क तरफ बढ़ गया
—“तुम ऑ फस ब द कर दो।”
रा ता इतना ल बा नह था।
ले कन आधे रा ते म ही मेरा मन बदल गया।
न चाहते ए भी कार को मने सीधे ले जाने के बजाए उसका ख दािहने मोड़ दया। मेरे
बजाए जैसे कसी मशीन ने काम कया था।
और फर!
जाने कतना व गुजर गया।
म यूं ही कार को मु बई क सड़क पर दौड़ाता रहा। पै ोल फूं कता रहा, पिहए िघसता
रहा।
से जैसे म दूर भाग जाना चाहता था। उससे ब त दूर! ता क वो मेरा पीछा न कर
सके ।
जब मन म रहेगा तो म अपनी बात को उसके सामने रख कै से सकूं गा? जो म कहना
चाहता ,ं वो कह कै से सकूं गा? उसे समझा कै से पाऊंगा?
और अगर—उस पर िवपरीत असर आ तो उस असर का समाधान कै से कर सकूं गा?
उसके िलए तो सबसे पहले ज री है क दमाग ि थर हो, मन म न हो, और वजूद—
दलो- दमाग क कशमकश म ि शंकु न बना आ हो।
साढ़े नौ बज गए।
मगर सब य -का- य था।
आिखर मने कार का ख बीच क तरफ मोड़ दया।
अब वह सुकून िमलने क जरा-सी आशा थी।
मने कार बीच पर उतारकर खड़ी ही क थी क मेरा मोबाइल बज उठा।
कार का इं जन ब द करते ए मने जब से मोबाइल िनकालने का उप म कया।
न पर देखा।
कोमल के ही मोबाइल का न बर था।
“हैलो।” उसे ऑन करके मने कहा।
“हैलो जनाब!”
“जान।”
“कहां हो साहब?”
“ऑ फस म ही ।ं ”
“वािपस कब आ रहे हो?”
“अभी कु छ देर और लगेगी....।” मने सामा य वर म कहा—“थोड़ा-सा काम अभी और
बाक है।”
“ कतनी देर लगेगी?”
“बस आध-पौन घ टा।”
“इतना टाइम?”
“नह , ब त टाइम नह लगेगा। यहां काम ही बस दस-प ह िमनट का है। हो सकता है
कु छ और व भी लग जाए। और प ह िमनट का सफर।”
“साढ़े दस तक आ रहे हो ना?”
“हां, साढ़े दस बजे प ा।”
“देखते ह।” उधर से ठ डी सांस ली गई जैसे।
“िडनर ले िलया?”
“आपके बगैर िलया है कभी?”
“तो म िनकल रहा ं बस....।” मने त परता से कहा।
उसके बाद म वा तव म वहां नह का।
मोबाइल ऑफ करके उसे जेब म डालते ए मने पुनः कार टाट कर ली।
प ह िमनट का सफर।
हालां क अगर सीधा चला जाता तो बीच पर से कार ारा घर तक का सफर के वल पांच
िमनट के आस-पास का ही था। ले कन चूं क मुझे ये िस करना था क म ऑ फस से वहां
प च
ं ा था, सो म जरा ल बे रा ते का घेरा काटकर घर गया।
जब म घर प चं ा तो दस बज चुके थे और कार पाक करने के बाद अ दर तक जाने म मुझे
पांच िमनट का और व लग गया।
सब अपने-अपने कमर म जा चुके थे।
कोमल ने रोज क तरह मेरा वागत कया।
हाथ-मुंह धोकर जब तक मने कपड़े बदले, तब तक वो खाना ले आई।
खाना ह का ही था हमेशा क तरह।
जब भी म इस कार अिधक लेट हो जाया करता ं तो ऐसे ही ह का खाना परोसती है,
ता क पचने म आसानी रहे।
दोन ने िमलकर खाना खाया।
खाने के बाद उसने बतन समेटे और उ ह रखने के िलए रसोई म चली गई।
म िब तर क पु त पर पीठ टकाकर बैठ गया और रमोट उठाकर टी.वी. के चैनल बदलने
लगा।
कु छ पल के िलए अ दर ज त हो गई उलझन पुनः िसर उठाने लगी।
मेरा हौसला कमजोर पड़ने लगा।
आकर कोमल ने दरवाजा ब द कया और साड़ी उतारने लगी। रोज का वही टीन था
उसका।
मने उस पर यान देना कोई ज री नह समझा।
कपड़े बदल चुक तो मने उस पर यान दया या क ं उसक तरफ देखा।
उस रात उसने पंक कलर क िस क नाइटी पहनी ई थी।
इसका मतलब शाम के व मोबाइल क वातालाप का उस पर पूरा असर था। िजस रात
वो खास मूड म आ करती थी, िस क क उसी पंक नाइटी को पहनकर आया करती थी।
आते ही मने उसे अपने करीब ख च िलया। उस रात मेरे अंदाज म जरा भी दा प य जीवन
का उतावलापन न था, बस भाव था तो ऐसा मानो उसके बाद िबछड़ जाने वाले ह । दल
म यार का सागर जोर-जोर से िहलोर ले रहा था। दल म आ रहा था क उस रात सारा
सागर उस पर उड़ेलकर उसे नखिशखांत सराबोर कर दूं और खुद भी जी भरकर उसके
साथ भीगता र ।ं
बामुि कल मने खुद को काबू कया।
शु आत हमने सामा य बात से क ।
उसने नौकरानी क कु छ िशकायत क । कु छ दन का टीन बताया। उसी दन र ा से भी
उसने बात क थी।
मेरी उसक बात म कोई िच नह थी।
म बस उसे अपने अंक म समेटे खामोशी से उसक बात सुनता रहा। दल को अजीब-सा
सुकून िमल रहा था। अ दर िहलोर मारता सागर अब क ठ तक आने लगा था।
अचानक म च का।
उसके दािहने पैर का अंगूठा मेरे पैर को पश करता, तलुए को टटोलता, ऊपर िप डली क
ओर िखसका था।
मेरे मन म तरं ग जाग ।
मने चेहरा उठाकर कोमल के चेहरे को देखा।
उसक आंख म मूक आमं ण था।
“काफ देर हो गई है....।” उसने धीरे -से कहा।
म पुनः च का।
व के अहसास ने मुझे च काकर रख दया था। साढ़े यारह से भी आगे का व था।
मने उसके अधर पर एक ह का-सा चु बन अं कत कया और बोला—“म तुमसे कु छ बात
करना चाहता ,ं कोमल।”
“अब तक या बात नह कर रहे थे?”
“म कहां कु छ कह रहा था।” म जबरन मु कु राया, मानो मु कु राना ज री है—“अब तक
तो तुम ही कह रही थ ।”
“जो कु छ कहना चाहते ह....।” उसका अंगूठा उसी कार मेरी िप डली पर सरसरा रहा था
—“वो अब याद आ रहा है?”
“कोमल, तु ह पता है तु हारा वो नौकर शामू....।” म कसी बात म उलझे बगैर अपनी
बात को हर हाल म कह ही देना चाहता था—“वो आजकल कहां है?”
कोमल के चेहरे पर ाि तकारी अंदाज म नागवारी के भाव उभरे ।
“ य ?” फर भी वो बरबस ही कु छ शरारती-से लहजे म मु कु रा उठी—“उसे उसक सजा
देने का इरादा है या?”
म कु छ न बोला।
बस कु छ पल उसके भाव को पढ़ने का य करता रहा।
“अगर वो तु हारे सामने आ जाए तो तुम या करोगी?” मने आगे कहा—“तुम सजा दोगी
उसे?”
“आज आप कौन-सा टॉिपक लेकर बैठ गए।” वो साफ-साफ नागवार लहजे म बोली
—“अब इस व या सूझ गया आपको?”
“कोमल, म तुमसे सी रयसली पूछ रहा ।ं ”
“वो आए सामने—तब ना!”
“तो तुम नह जानत क वो कहां गया था?”
“नह ।” सपाट लहजा।
“वो यहां से द ली चला गया था कोमल।” म अपने दल क थरथराहट को काबू म रखकर
कह उठा—“वो यहां से कु छ ही दन बाद द ली चला गया था।”
कोमल!
च कत-सी मेरे चेहरे को देखती रह गई।
होठ से बोल न फू ट सका उसके ।
“वो कु छ दन यहां रहा ज र....ले कन उसका मन यहां से उचट चुका था।” म उसी रौ म
लगातार कहता जा रहा था—“यहां से तो बस वो ेन म यूं ही यहां से दूर जाने के िलए
लटक गया था, ले कन क मत ने उसे द ली ले जाकर पटक दया।” म पलभर के िलए
का। कोमल के भाव को जरा पढ़ा और आगे बढ़ गया—“वहां कु छ दन तक वो कु क
तरह दर-दर भटकता रहा। ठकाना तो िमल गया था ले कन न तो वहां छत थी न सहारा!
बस, बूट पॉिलश करके वो अपना पेट पालता रहा। एक अ छा यार भी िमल गया था....।
फर एक दन क मत ने अपना खेल खेला और उसक जंदगी बदल गई। लगा तो उसे था
जैसे जंदगी ही ख म हो गई हो। ले कन असल म वो उसक उस गरीब क जंदगी का
ट नग वाइं ट था।” मने ककर एक गहरी सांस ली—“तब उसे वहां मां-बाप भी िमले
और एक यारी-सी बहन भी िमल गई। एकदम गुिड़या-सी थी वह। बाद म उ ह ने उसे
अपना उ रािधकारी भी घोिषत कर दया। अब वो मु बई म है।”
कहकर म खामोश हो गया।
मानो आगे कु छ भी कहने को बाक न बचा था।
कोमल चुप!
एकदम खामोश।
उसके होठ से श द तक न फू ट सका।
वो एकटक बस मेरे चेहरे को देख रही थी।
वो सब समझ चुक थी। उसे समझाने के िलए अब कु छ भी आगे कहना आव यक नह रह
गया था।
“ क मत का खेल कतना िनराला है ना, कोमल!” म अपनी ही रौ म कह उठा—“यही
कमरा था वो, यही घर और यही िब तर....जब तु ह िगरती को संभालने के य को ही
मेरा गुनाह मानकर तु हारे पापा ने मुझे ठोकर मारकर मुझे इस घर से बाहर धके ल दया
था। और आज....आज ये सारी क पिनयां मेरी ह। िजनक दौलत के कारण तु हारे पापा ने
गरीब पर कभी तरस न खाया। ये बंगला भी मेरा है, िजसम म तुम लोग क मेहरबािनय
पर जंदा रह रहा था। ये िब तर....वही अिधकार देकर तु ह तु हारे पापा ने मेरे हवाले
कया था।”
कोमल के चेहरे पर कई भाव आए और गए।
मूक!
अ दर-ही-अ दर वो अनेक भाव को जैसे ज त करने का य कर रही थी।
आगे तो मेरी समझ म नह आ सका क म या क ?ं
अब म उसक बात को सुनना चाहता था। पता नह या पक रहा था उसके मन म—म
जानना चाहता था।
वो कई िमनट तक खामोश रही।
कमरे म बोिझल-सा स ाटा ा हो गया था।
“तो आपने इसी कारण मुझसे शादी क थी।” उसके होठ िहले तो सपाट वर िनकला।
म जवाब न दे सका।
“आपने या सोचकर मुझे पोज कया था?” उसने तुर त पूछा।
लहजा पूववत सपाट।
“म तु ह खोना नह चाहता था।” म क ठन लहजे म मुि कल से कह पाया—“म तु ह हर
हाल म हािसल करना चाहता था।”
उसके भाव म कोई प रवतन न आ सका।
एकदम अ यािशत था उसका वो ए शन।
उसने तुर त मेरी बाह के घेरे-से खुद को आजाद कया और करवट बदल ली।
मेरा दल कटकर रह गया।
वजूद ती वेदना से कराह उठा।
शरीर जम-सा गया मेरा।
आिखर टू ट ही गया मेरा वो कांच का बना आिशयाना!
कै सी िवड बना थी वह?
वो प थर भी व ने नह —खुद मने ही उसके ऊपर डाला था।
म कु छ देर तक उसे यूं ही देखता रहा।
कु छ देर पहले कतनी उतावली थी वो मेरे िलए—और अगले ही पल यूं मुंह फे र िलया
मानो मुझे जानती तक न हो।
सफाई तक देने का मौका नह दया।
कम-से-कम ये तो पूछा होता क म उसे हािसल य करना चाहता था।
एक बार मेरी आंख म झांककर मेरा यार तो मापने का य करती।
कतनी प थर दल थी वह!
िब कु ल अपने बाप पर गई थी।
सफाई का कोई मौका नह ।
सीधी-सीधी सजा!
जािलम ने एक बार चेहरा घुमाकर भी नह देखा।
मने उसका कं धा पश करने के िलए हाथ बढ़ाया, ले कन हाथ कं धे के ऊपर जाकर ही क
गया।
उसे छू ने तक क िह मत न कर सका।
आिखर मने भी करवट बदल ली और सोने का य करने लगा।
महज य ही कर सका।
न द का तो दूर तक नामोिनशान न था।
न द उससे भी कोस दूर थी।
लगभग आधे घ टे बाद उसने अपना हाथ बढ़ाकर टेबल लै प ब द कर दया।
सुबह!
मेरी आंख उस व खुल जब सूरज क िनमल धूप मेरे चेहरे पर पड़ी और करण क
रे शम-सी चुभन मने अपनी पलक पर महसूस क तो म जाग गया।
मने चेहरा घुमाकर देखा।
मेरा पहलू खाली था।
वो कोई नई बात नह थी। रोज ही जब म जागता था तो कोमल िब तर छोड़ चुक होती
थी।
उस सुबह मुझे अपने बदन म जरा-सी भी ताजगी का अहसास नह आ। पलक िचपिचपी-
सी थ , मानो सारी रात कसी सावन क फु हार म भीगती रही ह ।
मने त कए पर से चेहरा उठाया।
देखा!
शु था त कया भीगा आ नह था। एक बड़ा छोटा-सा गोला ठीक मेरी आंख के नीचे बना
था शायद, जो जरा-सी बूंद सावन क उन फु हार म से, पलक का आवरण पार करके
बाहर िनकली थी, उसे त कए ने स िलयत से ज त कर िलया था।
मने वो त कया उलटा करके रख दया।
उठकर बैठ गया।
पीठ िब तर क पु त पर टका ली थी।
कु छ ही देर बाद कोमल आ गई।
वो रोज क तरह चाय लेकर आई थी।
चेहरे पर उस रोज ित दन जैसी ताजगी और फु लता नह थी।
चेहरा सपाट।
सुबह क चाय महज औपचा रकता ही रह गई थी जैसे।
गनीमत थी क वो चाय उसने रोज क तरह मेरे साथ पी।
कु छ न बोली।
“म चाहता ं क अभी ये बात इस कमरे से बाहर न िनकले।” मने धीरे -से चाय पीते ए
कहा।
“और या चाहते ह आप?” सपाट वर।
म कु छ न कह सका।
चाय के बाद वो बतन समेटकर चली गई।
इकतािलस
ना ते क टेिबल पर।
रोज क तरह हम कोमल ही ना ता परोस रही थी। म और क हैयालाल भागव ना ता कर
रहे थे।
“बेटे!” भागव साहब ने मुझे टोका—“आज तुम कु छ थके ए से नजर आ रहे हो। तु हारी
तिबयत तो ठीक है।”
मने ेड को दांत से काटते ए च क कर उनक तरफ देखा।
उ ह ने मेरी परे शानी नोट कर ली थी शायद।
“नह तो....।” मने एकदम सामा य वर म कहा—“ऐसी कोई बात नह है।”
“लग तो ऐसे ही रहे हो।” उ ह ने मुझे गौर से देखा।
“व....वो या है क रात जरा देर तक काम कया था। देर से सोने के कारण ह क -सी
थकान महसूस हो रही है।”
“इतना काम मत कया करो बेटे।” उ ह ने बुजुगवार लहजे म कहा—“कु छ आराम भी
कया करो।”
“जी, बस रात कु छ अिधक काम था।” मने बात टालने क कोिशश क ।
“वो तो ठीक है।”
“पापा, इ ह समझाने का कोई फायदा नह है।” वो आगे कु छ कह पाते क कोमल बीच म
ही बोल पड़ी। वो उस व उ ह के पीछे खड़ी थी। इस कार मेरे सामने थी। उसका चेहरा
लेट क तरह सपाट था—“कहा उ ह जाता है जो कसी क सुनते ह। आप ना ता
क िजए।”
इस कार बात ख म हो गई।
क हैयालाल भागव काफ हद तक कोमल क बात को मानते थे। उ ह ने खुद आगे बात तो
नह बढ़ाई, बस उसे इतना ही कहा—“तुम भी इसका यान रखा करो।”
“जी।” उसने मेरी तरफ देखते ए धीरे -से कहा।
अब?
अब या कया जाय?
आिशयाना टू ट तो चुका ही था।
म कोमल को तब भी खोना नह चाहता था। ऐसा कोई तो रा ता होगा था िजसके ज रए
म कोमल को वािपस हािसल कर सकता था।
मगर सारे रा ते ब द थे।
दीवार अब सामने यूं नजर आ रही थ जैसे सामने िहमालय आकर खड़ा हो गया था। उसके
दूसरी तरफ कोमल खड़ी थी।
हमारे बीच आई दीवार के बीच क दराएं तलाशने म दो दन बीत गए।
दोपहर का लंच म भूल ही गया।
चपरासी ने हमेशा क तरह ही लंच के बाद जूस लाकर दे दया।
कोई क दरा मुझे नजर न आ सक ।
और शाम को!
न मने घर फोन कया, न उस शाम कोमल का फोन आया।
घर जाने का िब कु ल मूड न था।
व काटने का अ छा तरीका था।
म फाइल म उलझ गया।
चपरासी को मने नौ बजे घर भेज दया।
ताला म खुद ब द कर देता था—जब म रात को अिनि त समय के िलए कता था।
साढ़े बारह बजे मुझे थकावट का अहसास होने लगा।
फाइल को समेटकर म ऑ फस से िनकला, तो पौने एक बजे म कार म बैठा।
एक बजे म घर प च
ं ा।
कोमल तब भी जाग रही थी।
वो मेरे वहां प च
ं ने पर ही जागी थी। उसक आंख म छाई खुमारी ने इस बात क साफ
चुगली क थी क वो मेरे प च ं ने से पहले सो रही थी। लट माथे पर लटक ई थ ।
“खाना लेकर आऊं?” कोमल ने औपचा रकता से पूछा।
“तुमने खाना नह खाया अब तक?” मने उसे गौर से देखते ए पूछा। उसक आवाज म
औपचा रकता महसूस करने के बावजूद भी मुझे जरा-सा आ य आ था।
“खा िलया।” उसने सपाट वर म कहा।
“कब खाया?”
“नौ बजे। पता नह कस व आते तुम!”
“काम म लग गया तो व का पता ही नह चला।”
“फोन करके बता देत।े ”
मने कु छ न कहा।
फोन करने क जैसे मेरी िज मेदारी थी, जब देर हो गई थी तो वो भी तो फोन करके पूछ
सकती थी! मेरा मन कड़वा हो गया।
मने फटाफट कपड़े बदले और िब तर पर जा लेटा।
उसे तो कपड़े बदलने थे नह । बस, गाउन से िनजात पाई और वो भी िब तर म आ गई।
म सोने का य करने लगा।
एक घ टे बाद ही मुझे अपनी भारी भूल का अहसास होने लगा।
मुझे भूख का अहसास होने लगा।
दन तो कट गया था। और चपरासी ने आरज जूस िपला भी दया था। जब म घर आया तो
अब भूख लग रही थी। ले कन कोमल के उस रवैये के कारण मने खाने से इं कार कर दया।
अब तनाव के कारण उतना तो रोगी म न बना था क भूख- यास ख म हो जाती। या
उसका अहसास ख म हो जाता।
सवा दो बजे म महसूस करने लगा क खाने पर हेकड़ी दखाकर मने ब त बड़ी गलती कर
दी थी। पहले तो चूहे पेट म उछल-कू द कर रहे थे। वे तब अंतिड़य को न च-न चकर खाने
लगे थे।
मेरी बेचैनी बढ़ने लगी।
कोमल ि थर थी।
मने अपनी पीठ के पीछे कोई हलचल महसूस न क ।
वो शायद सो चुक थी।
मने करवट बदली।
कोमल ि थर थी।
बेचैनी के कारण मेरा बुरा हाल था। मेरी नजर कोमल क पीठ पर जमी ई थ । उसक
हलचल को रीड करना चाहता था म।
म उसे देखता रहा।
कोई हलचल नह । वो ि थर थी।
मने करवट बदल ली।
भूख क बेचैनी।
पांच िमनट बाद ही मने पुनः करवट बदली।
फर!
कु छ िमनट के अ तराल म म करवट बदलने लगा।
पौने तीन बज चुके थे।
लै प जला तो म च का।
वो उठी और उठकर गाऊन पहनने लगी।
मने कु छ न कहा।
वो चली गई।
कु छ देर बाद लौटी तो खाना लेकर आई थी—“लो, खाना खा लो....।” मुझे झटका-सा
लगा।
मने चेहरा घुमाकर देखा।
उसका लहजा एकदम सपाट था।
पता नह य उस पल मने अपने आपको उसके सामने छोटा महसूस कया।
दमाग जाम-सा होकर रह गया मेरा। होठ से श द तक न फू ट सका। उसने मेरी उस व
भी सबसे कमजोर रग पर अंगुली रखी थी।
शायद मेरी करवट के कारण उसक न द उचट गई थी। उसका कारण समझने म उसे जरा
भी देर न लगी थी।
“अब जब भूखे रहने क आदत नह है तो खाने पर ोध दखाने क ज रत ही या थी?”
उसका लहजा ती ं य से भरा था।
मेरे वजूद से जैसे तेजाब क बौछार टकराई थ ।
ितलिमलाकर रह गया म।
भूख गायब।
“तु ह पता है म जाग य रहा ?ं ” मने कठोर वर म, उसे घूरते ए कहा।
वो जरा हड़बड़ाई।
उसे शायद मेरे उस जवाब क उ मीद न थी। उसे भी झटका लगा था।
“तो फर इस तरह िब तर पर करवट य बदल रहे हो?” वो भी झुकने वाली कहां थी
—“खुद को न द नह आ रही थी तो इतना तो याल करो, कोई और भी है िब तर म।”
“सारा दन घर म ही रहती हो। दन म सो लेना।” वैसे दल म आया था क त कया उठाऊं
और फश पर जा लेटूं। पर म य लेटूं?
वो भ ाकर रह गई।
उसने खाने क लेट मेज पर रखी और त कया उठाकर फश पर पटक दया।
खुद गाऊन उतारने का उप म कया। म उसका इरादा समझ गया।
“तुम यह लेटो।” म अपने गु से पर काबू पाकर बोला—“म सो जाता ं वहां।”
“कोई ज रत नह है।” उसने अकड़कर कहा।
“बचपना छोड़ो और चुपचाप िब तर म आ जाओ।” म उस बार अिधकारपूण वर म बोला
था—“कोई ज रत नह है रात के इस पहर म ामा करने क । तु ह अगर परे शानी हो
रही हो तो म लेट जाता ं वहां।”
वो कु छ न बोली।
आिखर मूक समझौता हो ही गया।
वो त कया उठाकर िब तर म आ ही गई।
मुझे फश पर लेटने क ज रत न पड़ी।
बड़ी िज ी िनकली वो तो....।
तभी मुझे शादी-शुदा जोड़े से जुड़ी कहावत याद आ गई—
शादी क पहली रात बीवी च मुखी लगती है, शादी के कु छ दन बात सूयमुखी और उसके
कु छ दन बाद वो वालामुखी बन जाती है।
वैसे ही कोमल।
शादी से पहले—वो ठ डी राख म िलपटी एक चंगारी-सी नजर आती थी।
शादी क रात—आवरण हटने लगा था और वो चांद क तरह दमक उठी थी। फर धीरे -
धीरे वो दमक तिपश बनने लगी।
उस रात—कोमल का साफ-साफ सूयमुखी वाला प सामने आया था।
अब पता नह वो कब वालामुखी के प म फू ट पड़े।
अब मुझे उसका इं तजार था।
¶¶
बयालीस
दूरी बढ़ती ही जा रही थी।
र ता महज एक बंधन-सा बन गया था िजसम मोटी गांठ बन चुक थी। गांठ भी ऐसी क
खुलने का नाम न ले रही थी। वो गांठ ऐसी उलझी क न सुलझाते बने, न कसी सुलझे को
दखाते बने।
हालां क एक सुबह मने महसूस कर भी िलया क हमारे बीच क उस गांठ का अहसास
क हैयालाल भागव को भी हो गया था। क तु वे खामोश थे।
हम दोन िमयां-बीवी के बीच के िववाद म पड़ना नह चाहते थे शायद वे।
म ऑ फस म बैठा काम कर रहा था।
वो रात के नौ बजे का समय था क मेरा मोबाइल बज उठा।
मने बाएं हाथ से मोबाइल िनकाला।
न पर नजर डाली तो सतक और अदब से कु स पर बैठ गया।
वो म मी के मोबाइल का न बर था।
फाइल पर िघसटता आ पैन थम गया।
पैन को फाइल पर ही छोड़कर मने मोबाइल बाएं से दािहने हाथ म ांसफर कया और
कॉल रसीव क ।
“हैलो!” बाअदब बोला म।
“कहां है याम?” म मी का वर उभरा।
“जी, ऑ फस म ।ं ”
“हां, घर पर फोन कया था मने। यहां ऑ फस म या कर रहा है?”
“थोड़ा-सा काम था म मी। इसीिलए आज कु छ देर के िलए क गया था।”
“ये तेरी कु छ देर है? पता है या टाइम आ है? और तू कह रहा है कु छ देर ई है?”
“म िनकल ही रहा था।” मने त परता से कहा।
साथ ही फाइल भी ब द कर दी थी। पैन को बाएं हाथ से ब द करते ए म बोला—“घर म
कोमल से बात ई?”
“हां, उसी ने फोन उठाया था।”
“ या बात ई सास-ब म?” म जरा सतक लहजे म बोला—“ या िशकायत लगाई मैडम
ने हमारी?”
“वो बेचारी या िशकायत करे गी।” म मी का उतावली भरा वर उभरा—“एक तू ही है
जो उसे छोड़कर ऑ फस म घुसा बैठा है। कमब त! उसका भी याल कया कर कु छ।”
“हर ह ते तो उसे घुमाने ले जाता ।ं ”
“ कतनी देर के िलए? बाक दन उसे देर रात तक इं तजार कराकर सारी कसर पूरी कर
लेता है।”
“इसका मतलब प ा उसने आपसे मेरी िशकायत क है!” म खोखली हंसी हंस दया, उस
अपराधी क तरह िजसके सामने सीधा जज आकर खड़ा हो गया हो। साथ ही सोच भी रहा
था क ब त कै सी जादूगरनी थी....म मी पर जादू कर रखा है। कै सी तरफदारी कर रही थ
वे उसक । उसने कु छ भोली-भाली, िचकनी चुपड़ी बात क ह गी और म मी कहने लग
उसे गाय।
गाय....।
या घायल शेरनी?
म मी क आवाज मेरे कान म पड़ी—“तू ऐसा कर....उसे लेकर कु छ दन के िलए यहां आ
जा। चंचल भी तुम दोन को याद कर रही है।”
“म मी, मेरा आना तो मुि कल है....।” म बड़ा संभलकर खेदपूण वर म बोला। फर तुर त
ही बात रखता आ कह उठा—“ऐसा करता ं क कोमल को म कल भेज देता ।ं ”
“इतना काम मत कया कर। अरे , अभी से तेरा ये हाल है तो आगे या करे गा तू! पहले हर
व काम म लगा रहता था तो सोचती थी शादी के बाद सुधर जाएगा। अब कम-से-कम
ब का तो याल कया कर।”
“म मी....।” म िववश।
या कहता!
कै सी ममता थी उनके वर म। म िन र रह गया।
सच तो ये था क शादी से पहले मेरे भी वैसे ही सपने थे।
सपने!
पर तु सपने साकार थोड़े ही होते ह।
“अ छा, तू कल यहां आ जा।” उनका वर आदेशा मक था।
“म मी लीज।” मने याचना क —“कल तो नामुम कन है। दो दन फु सत नह है।”
“तो कब आ रहा है?”
“म कल ही कोमल को शाम क लाइट से द ली रवाना कर देता ।ं आप उसे वहां
रसीव कर लीिजए।”
“और तू कब आ रहा है?”
“म दो-तीन दन बाद आ जाता ।ं ”
“अ छा ठीक है।” उनका लहजा नम पड़ा। वे जानती थ क उनसे कया वादा म कभी भी
नह तोड़ता। “उसे म और चंचल रसीव कर लगे।”
“चंचल कहां है?”
“कहां होगी! होगी लॉन म फ वारे के पास बैठी....कोई कॉिम स पढ़ रही होगी।”
“ या उसने कॉिम स पढ़ना ब द नह कया अभी तक?”
“नह , तुम दोन एक से ही थे। सुनते कब हो मेरी?” उलाहना भरा वर म।
“उसे फोन दीिजए जरा।”
“हो ड कर....बुलाती ।ं ”
मुझे यादा देर इं तजार नह करना पड़ा।
चंचल का फु लतापूण वर मेरे कान म पड़ा—“हैलो भैया।”
“हैलो।” म उ साह से बोला—“ या कर रही थी?”
“कॉिम स पढ़ रही थी।”
“अरे , कब बड़ी होगी तू?”
“पता नह ! मुझे तो बचपना ही अ छा लग रहा है....आप कहां से बोल रहे ह।”
“ऑ फस म ।ं ”
“ऑ फस म इस व ?”
“बस.....िनकलने वाला ही था घर के िलए।”
“भाभी कै सी ह?”
“ठीक ह।”
“यहां कब लेकर आ रहे हो उ ह?”
“कल।”
“सच!” उसने खुशी से कलकारी मारी—“कल आ रहे हो ना....।”
“हां....उसे कल भेज रहा ।ं ”
“भेज रहे हो मतलब?”
“मतलब कु छ नह है। म दो-तीन दन के बाद आ रहा ।ं ”
“उ ह लेने के िलए?”
“कु छ दन कूं गा भी।”
“ योर?”
“ योर।” मने िव ास दलाया। फर तुर त ही बोला—“म मी कहां ह?”
“ कचन म।”
“एक बात सुन।” मने उससे उसी अंदाज म कहा—“ यान से सुन।”
“सुनाइए।”
“तेरी भाभी वहां तेरे साथ रह तो उसे परे शान मत करना।”
“ य ?”
“कु छ खास नह है।” मने बात टाली—“बस िजतना क ं उतना सुन और वही करना।”
“झगड़ा आ है?”
“हां। पर कु छ खास नह । जरा-सी नाराज है वो।”
“इतनी ज दी झगड़ा भी हो गया?”
“मने कहा ना वैसी कोई बात नह है। तू बस उसे परे शान मत करना।”
“ठीक है।”
“म मी को कु छ मत बताना।”
उसने हामी भर ली।
चंचल मेरे िव ास वाली लड़क थी। मेरी बात को अ दर ही अ दर रखती थी। कभी भी
उगलती नह थी।
“तुम द ली जा रही हो।” मने कोमल को सूचना देने वाले अंदाज म अपनी टाई खोलते
व कहा—“म मी का फोन आया था। कह रही थ क तुम कु छ दन वहां रहो। वे लोग
बड़ा याद करते ह तु ह।”
“आडर दे रहे हो या सलाह दे रहे हो?” िब तर म पि का के प को उलटती ई वो
ढीठता से बोली।
“म कौन होता ं तु ह आडर देने वाला?” मने कोट के बटन खोलते ए कहा—“तु ह म
के वल बता रहा ।ं म मी का फोन आया था। उ ह ने तु ह वहां भेजने के िलए कहा था।
मने हां कर दी। नह जाना चाहती हो तो उ ह सुबह फोन करके मना कर देना।”
“आप भी चल रहे ह?” सपाट लहजा।
“नह ।” कोट उतारकर मने उसके िब तर पर डाल दया जो उसके घुटन पर िगरा था। शट
के बटन को खोलता आ म बोला—“मने कु छ दन बाद आने के िलए कह दया है
फलहाल। बाद म म कु छ भी बहाना करके क जाऊंगा। बस तु ह लेने आऊंगा।”
उसने कु छ नह कहा।
“ फलहाल ये ही सही है।” मने अलमारी से कु ता िनकालकर उसे पहनते ए कहा—“इस
तरह तनाव बढ़ेगा ही। मुझे पता है तुम भी कम तनाव म नह हो। वहां चंचल है, मन
अ छा बहल जाएगा।”
हमारे बीच और कोई बात नह ई।
मने कपड़े बदले।
उतारे ए कपड़ को अलमारी म रखा और िब तर पर प च
ं गया।
अब म अपने कपड़ को खुद ही अलमारी म रखता था।
अगले दन शाम क लाइट से खुद मने उसे एअरपोट पर ाप कया।
दोन एकदम खामोश थे।
लॉज म हम दोन लाइट के जाने क घोषणा का इं तजार करने के िलए खड़े थे, ता क
याि य को बुलाया जाए और या ी हवाई जहाज म जाकर बैठ सक।
“कोमल।” मने ही ठहरे ए पानी म प थर फका।
“ ऽं ऽऽ।” उसके चेहरे के भाव म हलचल ई।
“वहां जा रही हो तो एक बात का पूरी तरह से याल रखना।” इस बार मेरे चेहरे म जरा
भी नम नह थी। एक-एक श द पूरी तरह िहदायत भरा था—“वहां कसी को भी हमारे
बीच क खटास का शक तक न होने पाए....तुम समझ रही हो ना?” मने गौर से उसके
चेहरे को देखा।
“ ऽं ऽऽ।”
“वैसे मने चंचल को जरा-सा हंट दया है। वो खुद कसी से कु छ भी नह बताएगी।”
“उसे सब कु छ बता दया?”
“नह । बस बताया है क तुम मुझसे नाराज हो और वो तु ह परे शान न करे ।”
तभी घोषणा होने लगी।
याि य के िलए लेन तैयार खड़ा था। अब उ ह बुलाया जा रहा था।
और वो चल दी।
म वह खड़ा उसे जाता देखता रहा।
उसक चाल म जरा भी ह कापन न था। न कह ठठक । न गदन यूं झुक ई क जैसे कु छ
सोच रही हो।
वो सीधे रा ते आगे बढ़ी जा रही थी।
और म!
एक आस दल म जगाए वह खड़ा रहा।
शायद वो ठठके । शायद एक बार मुड़कर मेरी तरफ देखे।
मगर!
बड़ी जािलम थी वह।
अपने रा ते आगे बढ़ती रही—मानो उसे इस बात का अहसास तक न हो क कोई उसक
पीठ पीछे उसक एक नजर के िलए तरस रहा है।
वो यूं ही दरवाजा पार कर गई।
फर म वहां या करता?
मुड़ गया वािपस।
जान जैसे िज म से जुदा होकर दूर जा रही थी।
कदम म जैसे ताकत ही नह बची थी।
मुि कल से म कार तक प च
ं पाया।
उस दन म वहां से सीधा घर प च
ं ा।
जानकारी तो क हैयालाल भागव को भी थी— फर भी औपचा रकतावश म उनके कमरे म
गया। तब िडनर म काफ समय बचा आ था।
“कोमल शायद एक ह ते म लौटे।” मने उनके पास बैठते ए शांत वर म कहा।
“हां, वो बता रही थी।”
“आपको िच ता करने क कोई ज रत नह है। िजस चीज क जरा भी ज रत पड़े या मेरी
ज रत हो तो तुर त मुझे बुला लीिजएगा।”
जैसा क म पहले ही बता चुका ं क िडनर म अभी काफ समय था।
सो, हम लॉन म आ बैठे।
कोमल ने लॉन को संवारने म कोई कसर बाक न छोड़ी थी। मेरे ारा वहां लगाए गये
यादातर पौधे यथा थान थे। ये सब म आकर पहले ही दन देख चुका था।
लॉन म ही हमने कॉफ का एक-एक याला िलया। एक तरीके से हम दोन उस व एक ही
नाव के सवार थे।
उ ह संभालने वाली उनक हर ज रत को पूरी करने वाली कोमल थी।
मेरी तो ज रत ही कोमल थी।
हम दोन ही वहां कोमल क कमी को महसूस कर रहे थे।
िडनर आ।
कई दन बाद मने डाय नंग टेबल पर िडनर कया था। बाबू हम सव कर रहा था।
खाने म वो मजा न था।
िडनर के बाद म अपने बैड म म जा घुसा।
सूना बैड म।
के वल वहां ही नह —अब तो मेरे मन म भी गहरा स ाटा छा गया था।
सब कु छ उजड़ा-उजड़ा-सा नजर आ रहा था।
बोिझल मन से म कपड़े बदलने लगा था।
टाई उतारकर मने हमेशा क तरह ही िब तर पर डाल दी।
कोट के बटन खोलते व मेरा यान खुद-ब-खुद ही िब तर क पु त के ऊपर लगी त वीर
पर गया।
मेरी नजर उस पर िचपककर रह ग ।
वही तो असली जड़ थी।
म उसे खड़ा देखता रहा। उस दन मेरे मन म उसे देखकर नफरत का एक अंश भी पैदा न
आ।
कु छ भी था—उसी के कारण ही तो अब कोमल मेरी थी। उसी के कारण म आज के मौजूदा
मुकाम पर प च
ं ा था।
अगर वो घटना न घटती तो या होता?
इसी घर म नौकरी करता रहता....आगे बढ़ता तो भागव साहब क कसी क पनी म
सुपरवाइजर बन जाता....बस यही तो हद थी मेरी।
तब कोमल को हािसल करना तो दूर—म उसके करीब तक न जा पाता। क पनी म नौकरी
देने के बाद वे सबसे पहला काम ही ये करते क मुझे उस घर से अपना सामान समेट लेने
का आदेश देते और म या तो अपनी ब ती म उसी मकान म चला जाता या उससे कु छ
अ छे मकान म जाकर बस जाता।
उससे आगे तो कु छ भी होना मुि कल था। या क ं नामुम कन था।
मने गहरी सांस ली।
कोट उतारकर मने िब तर पर डाल दया।
कोट िब तर पर पड़ा तो मुझे कोमल क याद आ गई। कई बार उसे परे शान करने के िलए
म कोट उतारकर लापरवाही से उसके घुटन या जांघ पर डाल दया करता था। मगर प ी
थी क बोलना तो दूर, नजर उठाकर तक न देखती थी। हां, पैर पर पैर ज र चढ़ा लेती
थी। उसे पता था क उठाकर म ही रखूंगा।
मने शट उतारनी आरं भ कर दी।
कपड़े बदले।
िब तर म चला गया।
कतनी अजीब-सी बात है ना! एक इं सान चाहे तो सारी जंदगी उजाड़ मैदान म गुजार
दे। मगर उसे कु छ ही ल ह के िलए साथी िमले तो उसका साथ छू टने के बाद उसक बड़ी
िश त से ज रत महसूस करने लगता है।
रात जैसे ठहर गई थी एक बजे के बाद!
एक बजे तक तो म पढ़ता रहा और टी.वी. देखता रहा। कभी गाने तो कभी यूज।
फर उसे ब द कर दया।
बस रात ठहर गई मानो।
“ये ल हा तेरी जुदाई का, काटे नह कटता, सा दक,
जंदगी कै से कटेगी, ये तू आकर बता दे मुझे।”
और अब बचा या था?
बस काम!
फर भी मने अपने शे ूल म एक बदलाव ज र कया। सुबह का ना ता तो म टेबल पर
ही करता था। अब िडनर भी म घर म आकर ही करता था।
वो जैसे मेरी ूटी बन गया था।
मने कोमल क कमी घर म बड़ी िश त से महसूस क थी। और जानता था क उसका असर
भागव साहब पर पड़ेगा ही।
सो म िडनर से पहले ही ऑ फस छोड़ देता था और िडनर पर उनके साथ रहता था।
िडनर के बाद हम लॉन म एक-एक याला कॉफ का लेते थे।
बात बड़ी सीिमत होती थ ।
वैसे हमारे पास ि गत जीवन से हटकर वसाियक पहलू पर िड कस करने का अ छा
मैटी रयल था। िजन क पनीज को म अब माकट म दोबारा टैबिलश कर रहा था, वे उ ह
क थ । उ ह ने ही उ ह तबा दलाया था। वे माकट के बारे म काफ कु छ जानते थे।
ॉड ट लांच कए जा चुके थे। धीरे -धीरे वे माकट भी पकड़ते जा रहे थे। मंथली टनओवर
भी धीमी के बजाए तेजी से बढ़ रहा था।
क हैयालाल भागव से मुझे काफ कु छ ऐसा पता चला जो म नह जानता था।
नौ बजे के बाद ही वे अपने कमरे म चले जाते थे।
म अपने कमरे म।
रात तो जैसे मेरी दु मन बनी ई थ ।
कमब त काटे न कटती थ ।
बस एक ही बात....।
कोमल को कै से समझाऊं? वो तो समझने के िलए ही तैयार न थी!
अब तो उससे डर-सा लगने लगा था।
जब न द नह आती थी और दमाग भी उस कशकमश से तंग आ जाता था तो म या तो
फाइल म उलझ जाता था या कसी मैनेजमट क कताब म डू बने का य करता था।
इस कार।
बामुि कल कु छ घ ट क न द ले पाता था म।
पांचव दन म मी का फोन आया था। मने बहाना करके वहां जाने से इं कार कर दया।
पहली बार मने अव ा क थी म मी के कसी आदेश क ।
दस दन का अ तराल गुजर चुका था।
शायद म पहले भी बता चुका ं क मानसून आने का व भूगोलवे ा के ारा एक
जुलाई माना गया है। एक जुलाई को मानसून क पहली शाखा अरब सागर म ए टर करती
है।
और वो दन जून के आिखरी दन थे।
कु छ छु टपुट बदिलयां दो बार मु बई को आकर िभगो चुक थ ।
उस दन!
धीरे -धीरे उन दन म एकदम टू ट चुका था। एक-एक दन लगातार ताकत घटते-घटते उस
दन मुझे लग रहा क मानो मेरे िज म क ताकत मेरे िज म से िनकल चुक है।
शाम के व म मी का फोन आया।
म तब ऑ फस म ही था।
पांच बच चुके थे।
“तो कब आ रहा है तू?” उनका वही सवाल।
“आ जाऊंगा, म मी।” मने अपनी आवाज म जीवंतता का समावेश लाते ए कहा—“ब
तो आपक आपके पास ही है ना।”
“अरे , तेरा झगड़ा तो नह हो गया ब से?”
“झ....झगड़ा।” म बौखला गया—“न....नह तो।”
“तो तू उसे यहां छोड़े वहां य पड़ा है?”
“म मी!” म संभला—“आपको भी बस....आपक गाय जैसी ब कसी से झगड़ सकती है
या भला? और हम झगड़ा कस मु े पर कर सकते ह।”
“ फर या बात है?”
“बात कु छ नह है। दरअसल मेरी तिबयत कु छ िबगड़ गई थी।”
“दवाई ली तून?े ”
“हां, दवाई ले ली है। फलहाल म ठीक ।ं ”
“तो कब आ रहा तू?”
“कल तो नह । परस आ जाता ।ं ”
“ के गा ना?”
“हां....उतने ही दन कूं गा िजतने दन आप वहां कने के िलए कहगी।” म हंसा—“जब
तक आप मुझे खुद वहां से आने के िलए नह कहगी, तब तक म नह आऊंगा।”
“मने तुझे यहां से जाने के िलए कहां ही कब है?”
“पापा ने तो भेजा है।”
“तेरे पापा को िबजनेस का ही याल रहता है तेरी तरह। देखना, कु छ दन बाद ही म तुम
दोन को यहां बुलवा लूंगी।”
“रसोई से मन हट गया म मी ब के आते ही।” मने मजाक क —“वो रसोई म काम कर
रही होगी आजकल।”
“हां, िडनर वही तैयार करती है।”
“अ छा चंचल कहां है?”
“दोन ही चंचल के कमरे म ह।” वे बोल । ठठक कर उ ह ने कहा—“सुन, अब तू ठीक तो
है ना?”
“हां, ठीक ं म मी।”
“तेरी आवाज कु छ कमजोर-सी लग रही है।”
“वैसी कोई बात नह है।” म जीवंत हंसी हंसने का य करता आ बोला—“आप
िव ास क िजए, अब म िब कु ल ठीक ।ं ”
“ले कन तेरी आवाज....।”
“आप मा के साथ यही ा लम होती है। ब ा बाहर से आए तो दुबला नजर आने लगता
है। झूठ से भी तिबयत खराब ई बता दे तो आवाज कमजोर महसूस होने लगती है।” और
मने तिबयत के बारे म झूठ ही तो कहा था क म बीमार था। म बात बदलकर बोला—“म
उन लोग से भी बात कर लूं अब?”
“हां....हां....कर ले।”
वहां से स पक िव छेद कर दया गया।
मने चंचल के कमरे म स पक थािपत कया।
मेरी आवाज सुनते ही चंचल चहक —“हैलो भैया!”
“हैलो।” म बोला—“ या कर रही थी?”
“आपके बारे म ही बात कर रही थी।”
“कोमल भी तेरे पास है ना।”
“हां, अभी रसोई तक गई ह बस, आती ही ह गी।”
“अ छा, एक बात बता।”
“पूिछए।”
“कोमल वहां कै सा वहार कर रही है?”
“एकदम फै टाि टक। एकदम आदश ब वाला। रसोई पर भी आधा क जा जमा रखा है।”
“आधा?”
“एक टाइम खाना बनाती ह। और शाम के टाइम कॉफ और सुबह ना ता भी खुद बनाती
ह।”
“तो म मी को शक कै से हो गया?” म जैसे खुद से ही बोला।
“कै सा शक?”
“हमारे झगड़े का।”
“वो तो वैसे ही कह दया होगा। परस भाभी ने भी वैसे ही कह दया था। फर खुद ही
मान भी ग ।”
“तूने इस बारे म उससे कु छ बात क ?” म कु छ गहराई से सोचते ए बोला।
“भाभी से?”
“हां।”
“क तो थी। उ ह ने तो मुझे डांट दया।”
“ या?” झटका लगा मुझे। साथ ही गु सा भी आया....वहां भी बाज नह आई।
कोई चंचल से जरा भी ब तमीजी से बात करे तो म कै से बदा त कर सकता ।ं
“अरे , वैसे नह डांटा।” उसने शायद मेरा गु सा भांप िलया था। तुर त ही उसने मुझे संतु
कया—“उ ह ने तो बस इतना कहा था क म इन बात म न पडू ।ं ये आप दोन का आपस
का मामला है।”
“डांटकर कहा था?”
“गु से वाली डांट थोड़े ही ना! अिधकार वाली डांट से।”
“ओह!” म भी संतु हो गया।
“लो....भाभी आ ग ।” तभी उसने सूचना दी मानो—“बात करगे?”
“हां, उसे रसीवर दे।”
उसने कोमल को कु छ पल बाद रसीवर दे दया।
तब शायद कोमल दरवाजे पर ही थी, जब चंचल ने मुझे सूिचत कया था।
उस तक प च
ं ने म उसे कु छ पल का समय लगा होगा।
“हैलो।” कोमल का वर उभरा।
“कोमल!” मने अजीब-सी गंभीरता अपने वजूद पर कािबज होती महसूस क ।

ं ारा बस।
“कै सी हो?” मने पूछा।
“ठीक .ं ...आप कै से ह?”
“ठीक ं म भी।”
“म मी कह रही थ क आपक तिबयत कु छ खराब है।”
“नह , वो बात नह ह।” मने अपने वर को पूरी तरह सामा य रखने का य करते ए
कहा—“वो दरअसल िपछले दन न आने का कारण पूछ रही थ । और बहाना समझ म
नह आया तो कह दया क उन दन म जरा बीमार था।”
“ओह!”
फर चु पी।
त प ात् पूछा गया—“पापा कै से ह?”
“वे ठीक ह।” मने बताया—“एकदम रलै स ह।”
“दवाइयां व पर ले रहे ह।”
“हां। उनक फ मत करो।” मने उसे दलासा दी—“उ ह कोई तकलीफ नह है।”
“म मी कर रही थ क आप परस आ रहे ह।”
“हां।”
“मुझे लेने के िलए?”
“ये तो म मी ही तय करगी। वैसे म कु छ दन वहां कूं गा।”
“ठीक।”
“म मी को कु छ शक है क हमारे बीच झगड़ा या िववाद जैसा कु छ है।”
“नह । वैसा कु छ नह है।”
“अभी होना भी नह चािहए।”
“कब तक?”
म जवाब न दे सका।
मने रसीवर रख दया।
मेरे शरीर म जान जैसे बची ही नह थी।
मने कु स क पु त पर िसर टकाया और गहरी-गहरी सांस लेने लगा।
ओह कोमल....।
यार! तेरी जुदाई ने या हालत बना दी है मेरी।
वजूद ने उसे कई बार पुकारा। कई बार मने उसे आवाज दी। मगर उसका जवाब तो आना
नह था। म जानता था।
म पुनः काम म जुट गया।
बस यही ज रया था अपने वजूद क वेदना को कम करने का।
िडनर का व हो गया।
मने घड़ी देखी और व का अहसास करके उठने का उप म कया तो टांग क ताकत ने
जवाब दे दया।
म पुनः कु स पर ढेर हो गया।
मने उसी व घर जाने का इरादा मु तवी कर दया।
मने घर फोन करके क हैयालाल भागव से कह दया क म िडनर पर नह आ रहा .ं ...जरा
देर से लौट सकूं गा।
और बस फोन पर रसीवर रख दया।
कु स क पु त पर िसर टकाकर म गहरी-गहरी सांस लेने लगा। अपने िज म क ताकत को
समेटने का य करता रहा।
मगर हर रग थी क एक ही नाम को पुकार रही थी—
कोमल!
कोमल!!
और िसफ कोमल!!!
आह! मगर कोमल वहां कहां थी।
आंख खोल और पुनः फाइल पर िचपक गया।
दस बजे के बाद मुझे लगने लगा क अब काम करना मेरे वश से बाहर है। सो मने क ठनाई
से कु स छोड़ दी।
एक मन तो आ क वह पर पसरकर सो जाऊं। ले कन म वहां कना ठीक नह समझता
था।
सो म ऑ फस से िनकल िलया।
कार म बैठा तो बूंदा-बांदी शु हो चुक थी।
मु बई क बरसात का पता कसे रहता है। वैसे भी वो बरसात के आने का व था।
बादल का कोई टु कड़ा आ गया होगा।
मने कार घर क तरफ दौड़ा दी।
मगर बीच रा ते म ही मेरा मन उचट गया। मने रा ता बदल दया।
शरीर अब साथ देना ब द करने लगा था। सब बेकार-सा नजर आने लगा।
मुझे लगने लगा क शरीर ने कार चलाने क भी शि खो दी है तो मने कार रोक दी।
बूंदा-बांदी रा ते म ही ब द हो चुक थी। बादल तब भी छाए ए थे।
मने कार का दरवाजा खोला और कार के बोनट पर जा लेटा।
गीला बोनट शरीर पर पश आ तो ती झुरझरी मेरे तन म दौड़ गई।
मगर म तुर त ही सामा य हो गया।
तभी मेरा मोबाइल बज उठा।
मने न बर देखा।
घर का न बर था न पर।
बाबू का फोन होगा। पूछना चाहता होगा क म कब आ रहा ।ं
मने बगैर बात कए ही फोन काट दया।
मोबाइल जेब म डालकर िसर िव ड न पर टकाकर आंख ब द कर ल ।
मोबाइल ने पुनः मुझे पुकारा।
घर का ही न बर था।
मने तब भी उसे काट दया।
और जेब म रख दया।
बदली बरसने लगी।
बूंद मेरे िज म से टकरा तो मान गम तवे पर पानी के छ टे मार दए ह कसी ने।
छनाका-सा मेरे समूचे तन पर िबजली क सी गित से दौड़ गया।
मेरा मोबाइल पुनः बज उठा।
इस बार भी मने उस पर यान नह दया।
मोबाइल बेहयाई से मुझे पुकारता रहा। मगर मने न सुना।
सुनने लायक म रह भी कहां गया था।
ओह!
ये या?
मेरा शरीर अकड़ने लगा था कु छ ही देर म। म बुरी तरह कांपने लगा था।
और फर....।
म इस लायक भी न रह सका क बोनट पर अपना बैलस बनाए रख सकूं । म लुढ़क गया।
छपाक से मेरा शरीर भीगी सड़क से टकराया और....।
“आह कोमल!” बस इतना ही मेरे होठ से िनकल सका।
मेरी चेतना मेरा साथ छोड़ गई।
मानो मेरी कायनात िमट गई हो।
¶¶
ततालीस
अलाम बजा था वह।
मेरी चेतना टू टी। म समझ न पाया क वो सब या हो रहा था?
मेरे पहलू म मुझसे िचपके बदन म हलचल ई तो बेसा ता ही मेरी पकड़ उस पर जोर से
कस गई। होठ से तड़प भरा वर िनकला—“न....नह कोमल.... लीज छोड़कर मत
जाओ।”
“छोड़कर कहां जा रही ।ं ” कान म लाड़भरा वर पड़ा—“बस उठ ही तो रही .ं ...।
सुबह हो गई।”
म च का।
वो वा तव म ऊपर को सरक थी। हाथ रजाई से बाहर िनकाला और अलाम ब द कर
दया।
दमाग ने काम करना शु कया तो और बुरी तरह चकरा गया म।
उ फ!
या गोरखधंधा था वो सब?
अभी तो जैसे मेरी कायनात िमटी थी और अब.... या सचमुच वो हक कत थी या सपना?
कोमल ही तो थी मेरे पहलू म।
उसके गुदाज िज म के पश से मने महसूस कर िलया था क रजाई के अ दर हम दोन के
तन पर एक रे शा तक न था।
“कम से कम पकड़ तो ढीली कर दीिजए।” उसने कान म फु सफु साते ए अपनी वेदना पर
काबू पाते ए कहा—“ या हि य को चटखाने का इरादा है।”
मने पकड़ ढीली कर दी। मगर ढीली ही क ।
पूरी तरह छोड़ा नह ।
वो जरा ऊपर को िखसक तो शरीर के पश से मेरे बदन म सारं गी सी बज उठी। उसक
सांस मेरी नाक के पास टकरा रही थ । कला मक अंगुिलयां मेरे िसर के बाल म घुसकर
उ ह सहलाने लगी थ ।
“अ....आई लव यू कोमल।” म तब भी अपने आप म ही खोया था जैसे।
“ कतनी बार कहोगे....!” वो वि ल वर म मेरे कान म फु सफु साई—“सारी रात यही
तो सुनती आ रही ।ं ”
म खामोश।
म उसे यूं ही महसूस करता रहना चाहता था। कु छ सोचना नह चाहता था म।
“बस अब मुझे उठना है....।” वो मेरी बांह म हौले से कसकसाई—“छोड़ो मुझे।”
मने आंख खोल द ।
रजाई का िसरा उसने हमारे चेहर पर से हटा दया था।
मने देखा।
उसक आंख लाल थ ।
रात भी जागती रही थी वो शायद....या खूब रोई थी।
“तुम यहां कै से?” मने पूछा।
“म तो कल शाम ही यहां आ गई थी।” उसने बताया—“आपसे फोन पर बात करते व
मुझे आपक आवाज से लगा आपक तिबयत ब त यादा खराब है—सो तुर त लाइट
पकड़कर यहां के िलए रवाना हो गई।”
“म मी ने रोका नह ?”
“रोकत य ? उनके बेटे के िलए ही तो आ रही थी।”
“यहां कस व प च
ं तुम?”
“िडनर के व । तभी बाबू आपसे बात करके हटा था। उसने बताया—“मने सोचा आपको
सर ाइज देती ।ं ले कन यहां आपने ही....।” उसका गला भर आया—“जब इतनी तेज
बुखार था तो ज रत या थी यूं बा रश म भीगने क ? या करती म आपके बगैर? कै से
जीती?”
म उसके चेहरे को देखता रह गया।
या मुझे सचमुच बुखार था?
“ या आ था मुझे?” मने पूछा।
“बुखार था आपको। पानी म देर तक भीगने के कारण शरीर क गम बाहर िनकल गई थी
आपके ....।”
“तुमने मुझे ढू ंढा कै से?”
“मने आपको फोन करने क कोिशश क । हर बार आपने काट दया। उधर बा रश शु हो
गई थी। मने ऑ फस भी फोन कया था। वहां कसी ने फोन उठाया ही नह था....तो म
समझी क आप बीच पर गए ह गे। वहां गई तो आप वहां भी नह िमले। घर फोन
कया....आप घर भी नह प च ं े थे। मने आपको सड़क पर देखना शु कर दया....तो आप
सड़क पर कार के पास बेहोश पड़े िमले। आप सु पड़े ए थे। म आपको घर लाई। डा टर
को बुलाया....तो उ ह ने बताया क आपक बॉडी क हीट ख म हो चुक थी। काफ देर
तक हम....म और बाबू आपके हाथ पैर को मसलते रहे। बाद म जब काम न चला तो....।”
“जब काम न चला तो?”
“देख रहे हो....हम अब भी उसी हालत म ह।” वो लजाते ए बोली।
म समझ गया।
मने भी उसी क तरह उसके खुले बाल को अपनी अंगुिलय से सहलाना आरं भ कर दया।
धीरे से िखसककर अपना माथा उसके माथे पर सटाकर यूं आंख मूंद ल मानो टू टती
जंदगी को भारी सहारा व सुकून िमला हो।
“इतना यार करती हो....।” हमारी सांस एक-दूसरे क सांस म घुल रही थ ।
“ब त....।” उस पर असर आ था।
“मगर अहसास तो नह होने दया।”
“अहसास होने नह दया या आपने अहसास नह कया।”
“तो फर इतना दूर य भागती थ ? शादी के बाद इतना परे शान य कया?”
“तो या िमलते ही लपककर आपक बाह म चली आती? और शादी के बाद आपने कब
मुझ पर अपना अिधकार बनाने क कोिशश क ? शादी क पहली रात—िजसका सबको
इतना बेताबी से इं तजार रहता है—उस रात ही कौन-सा आप खुश थे। िजन दीवार को
हटाने के िलए सब इतना उतावलापन दखाया करते ह, उ ह हटाने के िलए आपने उस
रात सवा तीन बजे तक का समय िलया। तब भी म अगर कपड़े बदलने के िलए न उठती तो
आप कौन-सा पहल करते? पहल तो एक तरीके -से मने ही क थी। अगर म ही डाल से टू टे
फू ल क तरह तब आपक बाह म न िगरती तो या तब आप कु छ पहल कर पाते?”
“तुम गलत समझ रही हो। तब म बस इतना ही चाहता था क सब बराबरी से....सहमित
से हो। वो कहते ह ना—सहज पके सो मीठा होए।”
“वैरी गुड!” वो हंसी—“जो लड़क उ ीस साल से पकती रही हो, उसे पकाने के िलए उस
रात इतना व और लगना था? और य द मेरी असहमित होती तो या तब म आपके साथ
उस सेज पर बैठी होती? जो फल अपनी शाख से टू टकर आपके आगोश म िगर गया हो,
या वो फल क ा होगा?”
म जवाब न दे सका।
उसके तक मेरी जुबान पर ताला लगा गए।
“खैर, छोिड़ए इन सब बात को।” खुद ही उसने उन सब बात को कनारे कर दया
—“उस रात हर आदमी गहरी न द लेता है और आप सारी रात बेचैनी से जागते रहे। अगर
आपके मन म डर न होता तो आप जागते उस तरह?”
“तु ह पता था?”
“और पता न होता? या इतनी अ ल से पैदल ं क िजसके सीने म िसमटकर सो रही ,ं
उसी के मन क बेचैनी महसूस न कर सकूं ?”
“यािन तुम भी जाग रही थ ....।”
“ऐसे म न द कब आती है?”
म पुनः चुप।
“आप अगर शादी के बारे म शं कत न होते तो या हनीमून पर न जाते?” वो आगे कह
उठी—“और पापा से इतनी दूरी य बनाते? ऐसे कतने मौके बता सकते ह जब आपने
मुझ पर अपना अिधकार जताने क कोिशश क ? हमेशा मुझे अपने पुराने मािलक क बेटी
क नजर से देखा—बीवी समझा कभी?”
“ या तुमने मुझे पहचान िलया था?” मेरे होठ से अजीब-सा रोमांच भरा वर िनकला।
“हां, एक नजर म ही। तभी—जब म आपके पास ऑ फस म इं टर ू देने गई थी। और ये भी
पहचान गई थी— क आपने भी मुझे पहचान िलया है।”
“तुमने मुझे पहचाना कै से?”
“िजसक त वीर बचपन से आंख म बसी हो—वो दस या बीस साल के बाद भी सामने
आए तो आंख उसे पहचानने म गलती नह करत । अपनी पहचान का माण तो आपने
तभी दे दया था जब आप मेरे प रवार के बारे म कु रे द-कु रे दकर पूछ रहे थे। और जब
म मी क खबर आपको मने दी थी तो तेज झटका लगा था आपको। अगर आप—आप न
होते तो वैसा झटका य लगता?”
“बड़ी तेज नजर है तु हारी?”
वो हौले से मु कु रा कर रह गई।
“इसका मतलब तु हारे मन म शु से ही कोई भी कड़वाहट मेरे ित नह थी?” म उसे
गौर से देखता आ बोला।
“कड़वाहट तो कसी के मन म भी नह थी। सारी गलत फहमी तभी ख म हो गई थी—जब
आप घर से िनकले थे।”
“ या?” म च का।
“हां, सब तभी ख म हो गया था।” उसने बताया।
“कै से?”
उसने घटना- म बयान कया।
जब पापा आपको ख चकर बाहर ले गए तो म मी ने मुझे अपनी बांह म समेट रखा था। म
बुरी तरह फफकती ई म मी से आपको बचाने क गुहार कर रही थी—मगर म मी ने
पहले मुझे संभालने पर यान दया।
जब पापा आ गए तो म और जोर से रो पड़ी।
तब तक म भी उनके मन क गलतफहमी को न समझ सक थी।
म मी ने पूछा तो मने रोते व सारी बात बता दी। इस प टंग को भी दखाया—ये तब
मेरा बैलस िबगड़ जाने के कारण और ितरछी हो गई थी।
“म मी, उ ह ने मुझे िगरने से बचाया था....।” म एक ही रट लगाए थी—“पापा ने उ ह
घर से य िनकाल दया?”
म मी तुर त समझ ग । पापा को मगर तब भी मेरी मासूिमयत पर ही िव ास था। आप
पर वे िव ास न कर सके ।
म मी ने मुझे दलासा दी क वे आपको वािपस ले आएंगी।
पापा तो यही बात कह रहे थे क आप वहां उस बैड म म गए य ? या ज रत थी
आपको वहां आने क ?
खैर, म मी ने पापा को समझाया।
पापा अगले दन आपके घर गए।
आप वहां नह गए थे। वे िनराश होकर लौटे।
म खाना-पीना ब द कर चुक थी। तब मने पापा से बात करनी ब द कर रखी थी। बस
म मी के पास ही रहती थी। पापा अगर मेरे पास भी आते थे तो म अपना चेहरा म मी क
गोद म िछपा लेती।
पापा परे शान हो गए।
वे दोबारा आपके घर गए। इसी उ मीद के साथ क शायद आप वहां प च
ं गए ह । ले कन
पापा को तब भी िनराश होकर ही आना पड़ा। फर उ ह ने आपको मु बई क सड़क पर
खोजने क कोिशश क ।
ऑ फस से िनकलकर वे एक ही काम करते थे—वो था आपको खोजना।
मगर आप नह िमले।
एक ह ते बाद हम पापा के साथ उनके दो त के यहां गए। मने आपको रा ते म देख िलया।
म मी को बताया तो शु म पापा ने मेरा म समझा। फर म मी के कहने पर कार रोक ।
वहां जाकर पूछा भी—जहां मने आपको देख था। वहां आपके होने क पुि हो गई।
मगर आप वहां से भाग गए थे।
पापा बड़े पछताए।
और फर—उसके बाद कभी भी आप वहां नजर न आए। मु बई म ही आप कह दखाई न
दए।
उसके बाद मने आपक सारी कताब अपने कमरे म रखवा ल । आपके हाथ से लॉन म
लगाए पौध को वहां से हटाने न दया। आपने देखा होगा लॉन वैसा ही है जैसा आप
छोड़कर गए थे। म पापा से नफरत करने लगी थी याम....। उनसे ब त नफरत करती थी।
फर म मी मुझे छोड़कर चली ग ।
पापा ने उनक बीमारी के दौरान से ही मुझे संभाला। उसके बाद तो उ ह ने मां और बाप
दोन का फज िनभाया। जैसे-जैसे म बड़ी होने लगी तो म पापा को समझने लगी।
सच क ं तो मुझे लगने लगा था क पापा जो हमारे बीच दू रयां पैदा करना चाहते थे, वो
सब सही था। िजस बात को हम बचपन म न समझ सके , वे उसे समझ रहे थे। और कौन
बाप चाहता है क उसक बेटी क ी उ म कसी के यार म पड़े। याम! वो पापा क
नफरत नह थी—तुमसे मेरे ित के यर क भावना थी। और याम—अगर वे गरीब या
अपने नौकर से यूं नफरत करते थे तो आपको घर य लाते? घर पर म मी क इतनी थोड़े
ही चलती थी क वे पापा का िवरोध कर सकत । बाबू उनसे आज तक संतु य है?
उसक तन वाह पापा ने इतनी नह बढ़ाई मगर वो पापा के साथ है— य क पापा ने
उसके हर बुरे व म उसक सहायता क , उस बुरे व म दी सहायता का कह िज तक
न कया। अगर वे आपसे नफरत करते तो आपको पहचानने के बावजूद भी मेरा हाथ
आपके हाथ म य देते?
पापा िब कु ल नह चाहते थे क म जॉब क ं । उ ह ने मेरे और अपने खच के िलए पैसा
बचा रखा था।
जब आपने क पनीज खरीदी थ तो आपको काफ हद तक पहचान गए थे। फर जब आप
मुझे छोड़ने घर आए तो पापा ने मुझसे आपका नाम पूछा।
मने आपका नाम बताया तो वे समझ गए।
पता है या पूछा था उ ह ने?
उ ह ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा क या म आपसे शादी करना चाहती ?ं
तब मने कोई जवाब नह दया। फर भी वे बगैर कहे ही समझ गए।
िजस दन आपके म मी-पापा घर पर शादी का ताव लेकर आए थे तो वे ब त खुश थे।
उनके मन से जैसे ब त बड़ा बोझ हटा था।
“ले कन याम—मेरे मन म एक डर-सा था।” कोमल कु छ पल क खामोशी के बाद आगे
बोली—“डर लग रहा था कह आपके मन म मेरे और मेरे प रवार के ित नफरत तो नह ।
कह आप हमसे बदला लेना तो नह चाहते। कु छ दन बाद आपके वहार के कारण शंका
काफ हद तक कम हो गई। शादी के तुर त बाद र ा से बात करके ये भी पता चल गया क
आप मुझे कतना यार करते ह।”
“ या?” म च का—“र ा ने तु ह सब बता दया था? ले कन उसने तु ह पहचाना कै से?”
“पहचाना तो तब था जब मने उसे अपना नाम बताया। तब उसने बताया क आप मुझे
ब त यार करते थे। मने उसे नह कु रे दा य क वो समझ रही थी क शादी हम दोन क
सहमित से ई थी। और हम दोन क सारी बात पूरी तरह साफ हो गई थ । उसका इतना
ही बताना क आप मु बई क कसी कोमल को बेइंितहा चाहते थे। उसी कोमल के कारण
आपने इतना अ छा र ता ठु करा दया। उसका पोज भी ठु करा दया।”
“उसने ये भी बताया था क उसने मुझे कभी पोज कया था?” म च कत।
“हां, दल क ब त अ छी है वो। उसका मन आपक तरफ से साफ था।”
“जब तुम इतना सब जानती थ तो ज रत या थी इतना ामा करने क ?” मने नाराजगी
से कहा।
“और या करती?” वो बोली—“आपके मन म िछपी शंका को बाहर िनकालने का एक
यही तरीका नजर आया।”
“सीधी बात भी तो कर सकती थ ?”
“उससे फायदा या होना था। कु छ बात का हल सीधी बात से नह िनकलता। म ये भी तो
देखना चाहती थी क मेरे याम म दम कतना है।”
“दम!”
“और या! बस यार करना जानते ह आप—अिधकार जताना िब कु ल नह जानते।”
“तुमने मौका कब दया? उस दन बात शु क तो पूरी बात सुने बगैर ही पीठ फे र ली थी
तुमने—।” मने बात को समझने के बावजूद भी तक-िवतक कया।
“पीठ ही तो फे री थी। म कौन-सा दूर चली गई थी? आप अिधकार समझते तो मुझे यूं
करवट य बदलने दी? तभी नह कह सकते थे क आप मुझसे यार करते थे—िजस बारे
म आपको लग रहा था मुझे गलतफहमी है—वो गलतफहमी दूर करना भी तो आपका काम
ही था?”
आिखर वीकार कर ही उठा म—“ये तो तय है क यार के मामले म एकदम गधा ं म।
पर जािलम तुम भी कम नह हो। जान ही िनकालकर रख दी थी मेरी।”
“ये नह पता मेरा या हाल आ था....।” उसके वर म वजूद का दद झलक आया था
—“पता है कतनी बेचैनी से मने अपना व काटा है आपसे दूर रहकर? ऊपर से तो
सामा य रही। अ दर ही अ दर कस कदर कट रही थी....म ही जानती ।ं फर जब आपको
वहां सड़क पर बेहोश पड़े पाया तो....म तो मर ही गई थी तब....।”
“और अब?”
“अब?” उसके होठ िथरके ।
“अब कै सा लग रहा है?”
जवाब म उसने मेरे गाल पर ह का-सा चु बन अं कत कर दया—“ यार आ रहा है।”
“तुम तो कह रही थ पका आ फल हो तुम!” मने तुर त मौका लपका—“इतना पकने के
बाद भी ये नह जानत क यार गाल पर नह , होठ पर कया जाता है।”
“अ छा!” वो शरारत से मु कु राई।
“कायदा तो यही है।”
उसने कायदे का पालन कया।
फर म उसे छोड़ने वाला कहां था।
उसने थोड़ा िवरोध कया। ठीक वैसा िवरोध मानो शाख से टू टा फल कसी क पनाह म
आने के िलए हवा म झुकने लगता है। न िवरोध—मगर इस लांछन से भी बचता है क वो
खुद उस आगोश म िगरा था।
वो भी झूमकर बरसी। आिखर वो भी तो एक पखवाड़े से अिधक दन से यासी थी। उसने
मुझे नखिशखांत िभगोने म कोई कसर बाक न रखी।
वो हमारा पहला—सुबह के व का—सबसे ल बा और ऊजा भरा दा प य था।
—समा —

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