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International Refereed, Blind Peer-Reviewed Multidisciplinary & Open Access Research Journal
Issue: 5 | Vol.: 8 | Special Issue: April 2021 | Pages: 47–50 | RRSSH | ISSN: 2348 – 3318 |

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vpZuk “kekZ
vflLVsaV izksQslj] ;ksx foKku foHkkx
egkRek xkW/kh fp=dwV xzkeksn;] fo”ofo|ky;] fp=dwV

Received : 11/02/2021 1st BPR : 22/02/2021 2nd BPR : 11/03/2021 Accepted : 20/03/2021

Abstract
dq.Mfyuh tkxjÆ ds egRo ;ksx’kkL=ksa esa ftruh ppkZ gqbZ gS mruh vkSj fdlh lk/kuk ds lEcU/k esa lkoZHkkSe Lrj ij ugha feyrhA
mlds fo/kkuksa vkSj foojÆksa esa rks FkksM+k cgqr vUrj gS] ij ;g ekU;rk loZfofnr gS fdUrq vkUrfjd vkfRed ’kfDr;ksa dks izlqfIr ls
tkx`fr esa cnyus&tkx`r dks izp.M cukus esa dq.Mfyuh tkxjÆ izfdz;k ls vlk/kkjÆ lgk;rk feyrh gSA मनु य के अ दर िछपी हई
अलौिकक शि को कु डिलनी कहा गया है । कु डिलनी वह िद य शि है िजससे जगत मे जीव क$ %ृि' होती है। कु डिलनी सप( क$ तरह साढ़े
तीन फे रे लेकर मे+द ड के सबसे िनचले भाग म/ ewyk/kkj च0 म/ सुषु2 अव3था म/ पड़ी हई है । ewyk/kkj म/ सुषु2 पड़ी हई कु डिलनी शि जा6त
होकर सुषु7ना म/ 8वेश करती है तब यह शि अपने 3पश( से 3वािध:ान च0, मिणपुर च0, अनाहत च0, fo’kqf) pdz तथा आ>ा च0 को जा6त
करते हए मि3त क म/ ि3थित सह@ार च0 म/ पहं च कर iwणBता 8दान करती है इसी ि0या को iw.kZ कु डिलनी जागरण कहा जाता है ।
Keywords: ;ksx xzaFk] dq.Mfyuh “kfDr ,oa tkxj.kA

izLrkouk
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gS] ftlds vanj czãk.M dh leLr “kfDr;kWa lekfgr gSA vxj mfpr “kCnksa esa dgs rks euq’; ds vanj gh lkjk
czãk.M lek;k gqvk gSA vkt ls gtkjksa lky igys xq: f”k’; ijEijk ds vuqlkj xq: vius f”k’;ksa dh dq.Mfyuh
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cu dj lekt dY;k.k rFkk tufgr esa bu ”kfä;ksa dk ln~mi;ksx fd;k djrs FksA
कु डिलनी योग का वण( न अनेक 6 थD- योग विश:, तेज िबं दपू िनषद्, योग चड़ू ामिण, िशव पुराण, देवी भागवत्, शाि डHयोपिनषद्,
मुि कोपिनषद्, हठयोग सं िहता, कु लाण( व त J, योिगनी त J, घेरडंसं िहता, कठ %ुित Lयान िबं दूपिनषद्, MN- यामल त J, योग कु डिलनी
उपिनषद् आिद 6 थD म/ इस िवPा के िविभ न पहलुओ ं पर 8कार डाला गया है। िफर भी वह सवाBगीण नहR हैA 6 थD म/ इस गूढ़ िवPा पर 8ायः सं
केत
ही िकये गये हT । इस ढं ग से नहR िलखा गया है िक उस उHलेख के सहारे कोई अजनबी यि साधना करके सफलता 8ा2 कर सके A पाJता यु
अिधकारी साधक और अनुभवी सुयोXय माग( दश( क क$ आवYयकता को Lयान म/ रखते हए ही ऐसा िकया गया है ।

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le; izkÆ dh ’kwU; inoh ¼lqÔEuk½] jktiFk ¼lM+d½ ds leku gks tkrh gS] fpRr foÔ;ksa ls jfgr gks tkrk gS vkSj e`R;q dk Hk; feV
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ftldh dq.Mfyuh ’kfä tkx`r gks tk, mls cM+k HkkX;’kkyh ekuuk pkfg,A
´घेर ड संिहता´ म कु डिलनी को ही आ मशि या िद य शि परम देवता कहा गया है-
मूलाधारे आ मशि : कु डली परदेवता ।
शिमता भुजगाकारा, साध)ि*बलयाि,वता ।।
अथा( त मूलाधार (नािभ के पास) म/ परम देवी आ]माशि कु डिलनी तीन बलय वाली सिप( णी के समान कु डल मारकर सो रही है ।
महाकु डिलनी -ो : पर./ 0व1िपणी ।
श3द./मयी देवी एकाऽनेका6राकृ ित: ।।
अथा( त कु डिलनी शि परम ^_ा 3व+िपणी, महादेवी, 8ाण 3व+िपणी तथा एक और अनेक अ`रD के मं JD क$ आकृ ित म/ माला के समान
जुड़ी हई बतायी जाती है ।
क,दो8व) कु डली शि : सु9ा मो6ाय योिगनाम् ।
ब,धनाय च मूढ़ानां य0तां वेित से योिगिवत् ।।
अथा( त क द के ऊपर कु डिलनी शि अवि3थत है । यह कु डिलनी शि सोई हई अव3था म/ होती है। इस कु डिलनी शि के bारा ही
योिगजनD को मो` 8ा2 होता है । सुख के ब धन का कारण भी कु डिलनी है । जो कु डिलनी शि को अनुभव पूण( +प से कर पाता है, वही सcचा
योगी होता है ।
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Ks;k ’kfD=a; fo"ÆksfuZHkk LoÆZ HkkLdjkAA f’ko lafgrk
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nhfIroku gSA
mifuÔnksa ds vuqlkj %
उपिनषद् म कु डिलनी शि के 0व1प का वण)न-
मूलाधार0य वहवया म तेजोम8ये यवि0थता ।
जीवशि : कु डला@या -ाणाकारण तैजसी ।।
अथा( त कु डिलनी मूलाधार च0 म/ ि3थत आ]माXनी तेज के मLय म/ ि3थत है । वह जीव ही जीवनी शि है। तेज और 8ाणाकार है ।
ि*िशख.ा/णोपिनषद् के अनुसार : योगाdयास bारा 8ाण वायु तथा अिXन से 8दी2 यह महासती कु डिलनी ऊपर उठकर eदयाकाश म/ पहं चती
है और वहां अ]य त 8काशपूण( नाग के +प म/ 3फु fरत होती है ।
8यानिब,दूपिनषद् के अनुसार : िजस माग( से ^_3थान तक सुगमता से जाया जा सकता है, उस माग( का bार परमेgरी कु डिलनी अपने मुहंसे
ढंके सोयी हई है । अिXन तथा मन 8ेfरत 8ाणवायु के सि7मिलत योग से वह जागृत होती है और जैसे सुई के साथ धागा जाता है, उसी 8कार 8ाणवायु
के साथ वह कु डिलनी सुषु7ना पथ के ऊपर जाती है । जैसे कुं जी से हठात् bार खोल िदया जाता है, वैसे ही योगी कु डिलनी शि से मो`bार को
भेदते हT ।
योगकुं डCयुपिनषद् के अनुसार : अिXन और 8ाणवायु दोनD के आघात से सु2ा कु डिलनी जाग पड़ता है और ^_6ि थ, िव णु6ि थ, MN6ि थ तथा
षट् च0 का भेदन करती हई सहiार कमल म/ जा पहं चती है। वहांयह शि िशव के साथ िमलकर आन द क$ ि3थित म/ िनवास करती है। वही %े:
परा ि3थित है यही मो` का कारण है ।
योग कु डCयुपिनषद् के अनुसार : 8ाण और अपान के सं योग से महाअिXन दीि2वान होती है और कुं डिलनी जगती है । 8ाणवायु म/ तीjता आने से
अिXन भी तीj होती जाती है और अपना `ेJ िव3तार करती है ।
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Ikk’pkR; मनीषी ‘कु डिलनी शि ’ को ^lisZ.V ikoj* के नाम से अिभिहत करते हT । उनके मत से यह सपा( कार कु डिलनी शरीर क$ अद7य ऊजा(
शि है ।
• आथ)र अवेलन ने अपनी पु3तक ‘िद सपm ट पावर’ म/ िलखा है- ^कु डिलनी एक सं 6हीत शि है । यह यि'-शरीर म/ उस िवg-महाशि क$
8ितिनिध है, जो िवg को उ]प न एवं धारण करती है* ।
• सर जान कु डरफ ने डॉ. रेले के ‘िद िम3टीfरयस कु डिलनी’ नामक 6 थ क$ भूिमका म/ िलखा है- ‘कु डिलनी एक बोगस नव( है, यह नहR कहा
जा सकता वा3तव म/ वह एक बड़ी सं 6हीत शि है ।’ वे अपने ‘शि और शा ’ नामक 6 थ म/ िलखते हT, ‘शि दो +प धारण करती है—
एक ि3थर अथवा सं 6हीत (कु डिलनी) और दूसरा कत( यशील जैसे 8ाण ।
• मै डम 3लैवेट्स क$ ने अपनी पु3तक- ‘िद वायेस ऑफ िद साइले स’ म/ िलखा है ‘कु डिलनी सपा( कार अथवा वलयाि वता शि है । यह
सुषु7ना के भीतर Lविन तरंगD क$ भाँित छHलेदार सिक(ल बनाती हई बहती है तथा योगाdयासी के शरीर म/ िविभ न च0D को पार करती हई
0मशः ‘सहiार’ क$ ओर बढ़ती हई उसम/ 8च ड शि का सं चार करती है । व3तुतः यह एक वैPुितक अिXनमय गु2 शि है - इसक$ गित
8काश क$ गित से भी अिधक तीj है* ।
• िम0टर हडसन के अनुसार- ‘मनु य के सूsम शरीर म/, 3थूल शरीर के 8मुख अं गD से स7बt च0ाकार घूमने वाले 6 शि के N है । उ हR म/
गुदा bार तथा जननेि Nय के बीच एक ‘बेिसक फोस( से टर’ है िजसके अ तराल म/ सपा( कार अिXन रहती है । यही कु डिलनी शि है । यह
सुषु7ना के मLय म/ होकर ऊपर क$ ओर जाती है तथा एक-एक च0 को जगाती हई चलती है, िजससे वे खुल जाते हT । उस समय यि को
अनोखी अनुभूितयाँ होती हT और वह अपने भीतर 8च ड शि और अपfरिमत आन द का अनुभव करता है । इस iोत3थ शि 8वाह के
उदाvीकरण का नाम ही कु डिलनी शि का 8जागरण है* ।

कु डिलनी शि और भारतीय मनीिषयG का मत-


• 0वामी िववेकान,द अपनी पु3तक ‘राजयोग’ म/ िलखते हT - ‘िजस के N म/ सब जीव मनोभाव सं 6हीत रहते हT उसे मूलाधार च0 कहा जाता है
तथा कमw क$ जो शि कु डिलनी रहती है वही कु डिलनी कही जाती है, इसक$ शि अपार है ।’
• परम स,त HानेIर जी महाराज ने ‘>ानेgरी’ नामक अपने गीता भा य के छठे अLयाय म/ समझाते हए िलखा है िक - ‘हम िजस रह3य का
वण( न कर रहे हT, वह गीता म/ 8]य` +प से नहR है, यह नाथ-प थ का रह3य है, पर तु इस िवषय म/ मम( >D के िलए यह रह3य 8कट िकया जा
रहा है िक िजस 8कार कु मकुं म म/ नहलाया हआ बालक अपनी देह क$ िगडु ली बनाकर सोता है, उसी 8कार कु डिलनी अपनी देह को साढ़े
तीन लपेटD म/ िसमेटकर नीचे क$ ओर मुहँ िकए नािगन-सी सोई रहती है । जब कोई योगी उसे जगाता है तो जीव 3वयंही िनज +प को
पाकर आनि दत हो जाता है ।’
‘परमाथ( साधन’ 6 थ म/ कु डिलनी-योग ही एक ऐसा साधन बताया गया है । िजससे सूsम के साथ साधक के 3थूल शरीर का भी >ान होता है
तथा उसे आLयाि]मक लाभ के साथ ही भौितक-लाभ भी 8ा2 होते हT।
कु डिलनी के जागरण क$ ि3थित का वण( न करते हए %ी >ानेgर जी महाराज आगे कहते हTA ‘कु डिलनी’ जब जागती है तब बड़े वेग के साथ
झटका देकर ऊपर क$ ओर अपना मुहँ फै लाती है, तब ऐसा 8तीत होता है जैसे वह बहत िदनD क$ भूखी हो और अब जगने के साथ ही वह खाने के
िलए अधीर हो उठी है । वह अपने 3थान से नहR हटती, पर तु शरीर म/ पृyवी तथा जल के जो भाग हT, उन सबको चट कर जाती है । उदाहरणाथ(
हथेिलयD और पैरD के तलुवD का शोधन करके उनका र , माँस आिद खाकर ऊपर के भागD को भेदती है तथा अं ग-8]यं
ग क$ सि धयD को छान
डालती है । नखD का सzव भी िनकाल लेती है । ]वचा को धोकर तथा प{छकर 3वcछ करती है और उसे अि3थ पं जर से सटाए रखती है । पृyवी और
जल-इन भूतD को खा चुकने पर वह पूण(तया तृ2 होती है और तब शा त होकर सुषु7ना के समीप रहती है । तब तृि2ज य समाधान 8ा2 होने से
उसके मुख से जो गरल िनकलता है, उसी गरल+प अमृत को पाकर 8ाणवायु जीता है ।
कु डिलनी के सुषु7ना म/ 8वेश करने पर ऊपर क$ ओर जो च Nाe``r dq.Mfyuh के मुख म/ िगरता है । कु डिलनी bारा वह रस सवाBग म/
भर जाता है और 8ाणवायु जहाँ का तहाँ ि3थर हो जाता है। उस समय शरीर पर ]वचा क$ जो सूखी-सी पपड़ी रहती है वह भूसे क$ तरह िनकल
जाती है। तब शरीर क$ काि त के शर के रं ग क$ अथवा र]न +प-बीज के कDपल-सी िदखती है और ऐसा लगता है जैसे - सायं काल के आकाश से
लाल रं ग क$ लाली िनकाल कर उससे वह शरीर बनाया गया हो । जब कु डिलनी च Nामृत पान करती है, तब ऐसी देह-काि त होती है और तब उस
देह से यमराज भी काँपते हT । उस योगी क$ देह का 8]येक अंग नया और काि तमय बन जाता है, यहR उसे लिघमा आिद िसिtयाँ 8ा2 होती हT ।
पृyवी और जल के अं श न रहने के कारण ऐसे योगी का शरीर वायु जैसा हHका हो जाता है । तब वह सागर पार क$ व3तु को देखने, 3वग( म/ होने वाले
िवचारD को सुनने तथा चRटी के मन क$ बात को भी जान लेने म/ पूण(तः समथ( हो जाता है । वह वायु+प घोड़े पर सवार होकर पैरD को िबना िभगोए
जल पर चलने म/ समथ( होता है, ऐसी अनेक िसिtयाँ उसे 8ा2 होती हT ।
fu’d’kZ
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