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दाटिदोत्रम्।
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॥ आओगणेशाय नमः ॥
॥ अथ रालिहोत्रं छिख्यते ॥
न मोक
[अथ वर्णः ] |
सितो रक्तस्तथा पीतः सारङ्गः पिङ्ग एव च ।
नीः कृष्णोऽथ सर्वषां तः श्रेष्ठतमः स्मृतः ॥ १॥
शवेतः कपिरुकाकारो नीरो दुवोमरसंनिभः ।
छृष्णो जम्बुफलाकारः शाखज्ञैः समुदाहृतः । २॥
श्वेताभः श्वेतपादश्च तथा स्याच्छ्रवेतरोचनः । 5
चक्रवाकः स विज्ञेयो राजार्हो वाजिसत्तमः ॥ ३॥
सर्वश्वेतो . हयो यस्तु भवेच्छरयामैकव(क)णेकः ।
स वाजी रजयोग्यः स्यच्छथामब(क)णेः प्रकीर्तितः ॥ ४ ॥
चत्वारोऽप्यसिताः पादाः स्वैवणैस्य वाजिनः ।
अयोम्यो भूपतेर्नित्यं यमरूपः प्रकीर्तितः ॥ ५ ॥ 10
यस्य पादाः सिताः सव पुच्छं वं्षस्तथेव च ।
मूधौ भारं सितं यस्य त॑ विदयावृष्टमङ्गरम् । ६ ॥
यस्य पादाः सिताः सर्व तथा वक्त्रे च मध्यमः ।
कृत्याणपद्नकः प्रोक्तः सवेकस्याणकारकः ॥ ७ |
[ इति वर्णः ]॥
1 = ^6*५ 3.2. 5 = 4४८ 3.9.
2 = 25५० 3.5, 8, कपिल आद्धयातो {0‡ | 6 = ‰€१५. 3.10.
केपिलकाकारो. 7 = ‰,5९० 3.13. 23 व्रश्रो {०२ वकेतर, 448:
3 = ^6४0 3.6, कल्याणं पष्ठकः {00 कद्याणपश्चकः, ए सर्वर
4 = ६९८ 3.7, 49/17 ग्व्णकः {०१ ण्डणेक्रः,| =कल्याणकारकः, ^ कवे कस्याणकारकाः
02,./0 द्यामवर्णः {०४ ईयामकणेः, {० धर्वकस्याणकारकः
२ रारिहोत्रम्
अथावर्तलक्चणम् |
15 नासिकाग्रे रटरटानरे श्ये कण्ठे च मस्तके ।
आवां यस्य जायन्ते धन्यः ख तुरगोत्तमः ।॥ ८ ॥
हृदि स्कन्धे गङे चैव कटिदेरो तथेव च|
नाभो इक्षौ च पान्त मध्यमास्ते प्रकीर्तिताः ।। ९ ॥
रुराटेऽश्वस्य चावर्तो यस्यैकः संप्रजायते ।
20 स करोयश्रसंघातान्स्वामिनः सूयेसंक्िकः । १० ॥
त्रयो यस्य छरारस्था आवतो अधरोत्तराः ।
त्रिकूटः स च विज्ञेयो वाजिच्रद्धिकरः परः ।॥ ११ ॥
यस्य रुरटे अधरर्ध्वस्थाछ्रय आवती भवन्ति स त्रिकूट इति कथ्यते ।
परः श्रेष्ठो वाजिनां वृद्धिं करोति ॥ ११॥
25 अनेनैव प्रकारेण त्रयो प्रीवासमाभ्िताः 1
जयावतोस्तु विज्ञेया वाजीरोऽयं चृपोचितः ।! १२॥
यस्य म्रीवायां त्रय आवर्ताः सन्ति स वाजीराः वाजिराजा (जः) राजयोग्यः || १२ ।।
एको वापि कपोरुस्थो यस्यावतेः प्रयते ।
रथी(थि)नां च तुरङ्गाणां स इच्छेस्स्वामिनारनम् | ९३ ॥
30 यस्य कपोटे भ्रमरो भवति स वाजी स्वामिनारानं वाञ्छति |! १३ ॥।
गह्ावर्तो भवेद्यस्य वाजिनो दक्षिणाश्रयः ।
स करोति महासोख्यं स्वामिनः दिवसंन्निकः ।। १४ ॥।
यस्य दक्षिणगङ्छाध्रित आवतः स्यात्स रिवसंक्गिकः । स्वामिनो महासौख्यं करोति ॥ १४॥
तद्भदामाश्चयः क्रूरः प्रकरोति धन्यम् ।। १५ ॥
35 यस्य वामगद्ध ्रमरः स क्रूरो मवति } स्वामिगृहे धनक्षयं करोति ॥ १५९॥
8 = ^ 5८० 4.4. 82 तुरन्नात्तसः ६०४ तुरगोत्तमः. | 12 = ^ 5८ 4.10. 81 07018 06 ‰108€
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अथावतैरश्चणम् 1
कणेमूरे यदावर्त; स्कन्धमूरे तथापरः ।
विजयास्यावुभौ तौ तु युद्धकारे जयप्रद्रौ ।। १६ ॥
यस्य कर्णपूरे आवर्तः स्कन्धमूठे च तौ विजयावर्तौ संग्रामे विजयकारिणौ मवतः ॥ १६॥
स्कन्धपार््ै यदावते एको वा यदि वा त्रयः |
चक्रवर्ती स विज्ञेयो वाजी भूपारमन्द्रि । १७ ॥ 40
यस्य स्कन्धपाश्व एक आवर्तः अथ वां जयः स वाजी चक्रवर्तीं कथ्यते।
भूपमन्दिरे ्राह्य उत्तमः ॥ १७॥
कण्ठे यस्य महावर्तो यस्यश्चस्य प्रजायते |
चिन्तामणिः स विज्ञेयश्चिन्तिताथविवरद्धिदः ।॥ १८ ॥
यस्यावर्तो भवेदयुक्तः कश्चान्ते वाजिनोऽद्चुभः । ` 45
स नूनं मृत्युमाप्नोति द्रौ वा स्वस्वामिनारनौ ।॥ १९॥
यस्य कक्षान्ते बाहुमूले एक आवर्तैः स वाजी म्रियते चिरं न जीवति । यदि
ढौ भ्रमरौ वामदक्षिणङुक्षागतौ भवतः तौ महारिषटौ स्वामिनो मृत्यु कुरुतः ॥ १९ ॥
जानुदेदये यदावर्तो वाजिनः संप्रजायते ।
प्रवासतमरणं ब्रूते स भवः छेराकारकः ॥ २० ॥ 50
यस्य जानुप्रदेरे आवतः स वाहः स्वामिनः संम्रामादौ मरणं कारयति ॥ २०॥
॥ अथश्वप्रमाणम् |
26. 22 स्तनि {0 स्तनी. ३, समानवणौ {०२ {०7 स्तु रण°, 22 °वेदि० ०: ग्वेदीर.
समानव्ो. 82 "करणि दिखुरि 20 °कर्णी |28 = 46४५ 6.7. 282 ०11४5 अथ. 2.47 सक्ता
दिरी. {01 सप्त 2840 ग्रोतौ ०" मक्त.
27. ए, निस्तं श {०८ निचि. ^ प्रसाद्० ६07 |29 = ^€ 6.8. 1 प्र्टवंदो ६0? पृष्ठवंशे. 22
प्रासाद०. 21.27 वेदि 0" वेदी°. 22 °विंशस्तथा {07 विरत्तथा.
24485 ते सर्वेऽपि महीयते प्रतिदिनं सौख्या- |30 = ^&०८ 6.9. ^> चतुरङ्गुला, 82 चतुर-
थेकीतिप्रदः। 116 9८८९ 27 15 ००१४६९॥् गरलः {07 चतुरह्गुखा,.
१० 211 1458. 81 ०००४७ 6 7056५ 31 = 2६१८ 6.10. ‰ षोडषो°{01 षोडशो०. ^
8 शारिहोन्रम्
मणिबन्धं चैव खुसश्च चतुरद्गुखः
100 अरीत्यङ्गुरु उत्सेधो दर्ये च द्विरातद्यम् ।। ३२ ॥
एतत्क्रमेण गात्रस्य प्रमाणं वाजिनाभिति ॥
आस्य अजो केराकरकाटिकाश्च
दीर्ध चतुष्कं तुरगस्य शस्तम् ।
तथोन्नते घ्राणपुटं रुखाटं
105 दाफाश्च तज्ज्ञाश्चरणा वदन्ति । ३३ ॥
मुखं मुजो केदाः कटी दीघौः शोभनाः । नासिका ख्लाटं खुरः पादां
उनताः श्रेष्ठाः ॥ ३२३ ॥
ओष्ठौ च जिह्वा स्वथ तालुकं च
मेद च रक्तं भद हयस्य ।
110 रुघूनि बन्धश्च मणेस्तु कोष्ठ
श्रोत्राणि सवांणि तथैव पुच्छम् 1! ३४ ॥
[ इति अश्वप्रमाणम् | ॥
[ अथ वेगः 1 ॥
गुणानामिह सर्वेषां गुणो वेगो मयोदितः ।
तस्मात्सवैप्रयत्नेन वेगो वै वायुरुक्षणम् !। ३५ ॥
अवाहिता विनदन्ति विनदयन्त्यतिवाहिताः ।
115 अश्वानां वाहनं पथ्यं सादरा च मोरा(क्ष)णम् | ३६ ॥
अधमा मध्यमास्ते तु मध्यमाश्च तथोत्तमाः ।
उत्तमाग्योत्तमा भूयो वाह्यमानास्तुरङ्गमाः । ३७ ॥
आरोहणं हये शरेष्ठं तर्मिञ्श्ेष्ठं प्रतिष्ठितम् ।
आरोदणविहीनस्य र्ण चप्यरुक्षणम् ॥ ३८ ॥
32 = ^ €%८ 6.11. ^ खुराशचतुरङ्गलाः {01 |34 = 25५८ 6.15. 6 अष्टौ {0 ओष्टो. + लधु
खुराख चतुरङ्गलाः. 21उदछेधों {०८ उत्सेधो 07 रुध. ^ 81.57 को ० कोष्ठं 2 2,.7)
81.21 -८०त इदमङ्गप्रमाणमिति € पुछं {०८ पुच्छं
32 3580 == 6.5८ 7.1.
33 = & 6१८ 6.14. ए, तथोन्नता {० तथोन्नते, |36 = ^ ८ 7.3.
4 7 तदूज्ञाः, 22 तच््ाः {०८ तज्ज्ञाः, ए81 | 37 = ^.5४८ 7.4.
०1४8 ८०८ 7०७८. ^ केशः {07 केशाः. । 38 = & 5९८ 7.5.
अथोरीहणम् >७
गन्धो बणे: स्वरः सत्वं छायावर्तो गतिस्तथा | 120
स्थानकं चैवमत्राहुहेयरुश्चणमष्टधा । ३९ ॥
रूपावता गतिदखछाया सत्तं बणैः स्वरो बलम् ।
जवहीनस्य वाहस्य सवेमेतच्निरथेकम् ॥ ४० ॥
अष्टाभिगुणे्युक्तोऽपि वाजी, एवेन वेगयुणेन रहितो न किचित् । तस्माद्वेग
एव प्रधानः || ४० ॥ 125
गतेधेन्यतसे वर्णो बणीद्धन्यतरः स्वरः ।
स्वराद्न्यतरं सत्वं सर्वं सचे प्रतिष्ठितम् ।॥ ४१॥
छघुर्वं माव्दोषेण पिव्रदोषेण जायते ( जाडथयता ) ।
दौबेस्यं स्वामिदोषेण स्वदोषो नास्ति वाजिनः ॥ ४२॥
जवो हि सपः प्रथम विभूषणं 130
त्रपाञ्गनायाः छराता तपस्विनाम् ।
श्रुतं द्विजानां धनिनामगवेता
पराक्रमः शाख्जबरोपजीविनाम् ।। ४३ ॥
वक्षोजैदैरिणाधिपपरतिनिभैव्यघ्रोपमेबाहुभि-
ररवर्तेश्च शुभैः प्रधानङ्करुजाः सुम्रगब(सस्तिग्ध)वणैप्रभाः । 145
उष्टाक्षाः भ्रियद्दौनाश्च सुभगाः ासैः सुगन्येश्च ये
धन्यास्ते जयराज्यवित्तसुखदाः संनाहिका भूपतेः ।॥ ४४ ॥
एवमुक्तरक्षणा राजवाहनयोग्या नान्ये ।। ४४ ॥
[ इति वेगः ] ॥
[ अथारोहणम् ] ॥
` ऊरू सिरौ यस्य चरो च पादौ
तरिकोन्नतः सिंहसमानचित्तः | 140
स वाजिवाहः कथितः प्रिथिव्यां
दोषा नरा भारवहा हि याने । ४५ ॥
कुपिते पुच्छसंस्थाने भ्रान्ते जायुद्रये तथा ।
सवेथा प्राप्दण्डस्य दण्डमेवं निपातयेत् ॥ ४६ ॥
पिमो
40 = ^ €१५८ 4.6. 42821) गतिः छाया {07 गति- |44 = ^ ६४८ 7.13.
छाया. 21 0०1४७ ध1€ 71086. 82 "वित. {07 भवितत. 41) संज्ञादिका {07
41 = 2.56 7.7. ^ 87; सव॑सत्तवे 07 सवै सत्त्वे. संनाहिका.
42 = ^ 6८ 7.8. 45 = 8.4. 22 उरू {०४ ऊरू. ^ नारा {० नरा.
43 = & 57५ 7.9. 4 बिभूषणं 07 विभूषणं ,8: |46 = ^६९८ 8.11. 481.27) पु {07 पुच्छ.
श्रता {01 श्चुत. 22 पमराप्तदण्डाश्च {0 प्राप्तदण्डस्य.
८ शारिषदोत्रध्
145 अश्थाने ताडितो वाजी बहुन्दोषान्प्रकाशचयेत् ।
तावद्भवन्ति ते दोषा यावज्जीवत्यसौ हयः ।॥ ४७ ॥
अद्ण्डो न गुणान्छयात्तस्मादण्डं प्रधारयेत् ।
वाद्यो बुद्धस्तथा रोगी दत्तखेहो महाबरः ।। ४८ ॥
सवोतिरिक्तकोषश्च गर्विणी न च वादयेत् ।
150 अतिश्रान्तोऽतिचरद्धश्च निःस्नेदोऽतिकिरोरकः 11 ४९ ॥
रिरामोक्षे कृते तेषां प्राणदयनिमेवेदू
धुवम् ।
धनुर्यादश्च प्रोक्तं वाजिनां मण्डर कऋमत् । ५० ॥।
सर्म च विपुर चैव किंचित्पांशुसमन्वितम् ।
एकान्ते वाजिने(विजने)चैव रङ्गभूमिं हर्य नयेत् ।॥ ५१ ॥
155 सार्द्रं च कठिनां चैव पाषाणोदकगतेकाम् ।
तृणकाष्ठसमायुष्तां रङ्गभूमिं विवजेयेत् ।॥ ५२ ॥
विण्मूत्रं कारयेद्शं कोडाकोाद्रयान्तरे ।
उदकं पाययेत्कामाद् धासपु( मु )@ च जीयेते ॥ ५३ ॥।
रक्तपित्तविकारे च दातव्यं शकंरोदकम् ।
160 जीवनं वातपित्तन्नं वृष्यं बरुमरं ततः ॥ ५४ ॥
क्षीरं चृतसमायुक्तं वारे क्षीतं तुरंगमः ।
पीत्वा परियजदोषान्भरमभाराध्वसभवान् ।! ५५५ ||
सायं कर्यै परथिवी निहन्ति
हेषन्ति ये स्वामिगुख निरीक्ष्य ।
165 प्रदक्षिणावतेविकीणेपुच्छा
जयाव्हास्ते समर चपाणाम्।। ५६ ॥
[ इत्यारोहणम् | ॥
4 = ^ 5४५ 8.13. & अस्थान्ये {० अस्थाने. |51 = 5४८ 9.236५ ४०५ 2420. 422 वाजिनं
48८५ = & ऽ९८ 8.22. &87 बाल्ये {07 {० विजने
बास्यो 52 = &5?८ 2400 804 2529. ^ विवजेयेत्
4929 = 8.2329. ^ सवातिरिक्तकाष्ट्व, ए; {0 भिवजंयेत्,
कोषटश्च {०9 सवांतिरिक्तकोटश्च. 81 गुर्विणी |53 = ^+§प५ 2500 9०4 2629. ए: विण्सुचरं
{0 गुर्विणीं, 6. "धश्च {गः श्वृद्धश्च, ^+2॥ 107 विण्मूर्रं
निस्नेदो {० निःस्नेहो 54 = &§$० 9.34 ५५ ४०५ 35४9.
50०५५ = 45०८ 9.1५. &7> मवेश्वव, 81. भवेत् |55 = ^5५ 9.36
भ्रुवं {०८ भवेदुन्ुवं 56 = & 5४५ 9.39. 41.37 पुखा {91 पुच्छा,
अथं केष्मर्करु्चणम् ९,
[ अथ छेष्मरक्तखक्षणम् ` ॥
भाषाटस्मये प्राप्रे ैरमोक्ष( क्षे)ण करस्नशः ।
तस्मारसंरोधयेद्रक्तं वाजिनो दोषसंभवम् ।। ५७ ॥
यदि रक्ताधिको वाजी शष्पमश्ाति कााचेत् |
रक्तारसंजायते पित्तं पित्तान्नारमवाप्ठुयात् ।! ५८ ॥ 170
रक्तदीनो यदा शष्पं रक्छोऽन्नाति तुररगमः ।
तदा वार्यं परं प्राप्य सद्यो नाशमवाप्लंयात् ।। ५९ ॥
रक्तपिन्तप्रकोपेन यदा संपीडयते हयः ।
तदा कण्डूः समासाद्य घषेयेदसततं वपुः | &० ॥
छायां वाञ्छति यत्नेन विदेषेण जलखश्रयम् । 175
मुहबोज्छति पानीयं रक्तपित्तातुरो हयः ।। & ९ ॥
शिरामोक्षं विधायास्य दद्यारकटुकं गुडम् ।
ततः शुद्धिमवाप्याथ नीरोगः संभ्रजायते ।। ६२ ॥)
श्ेष्मरक्तमकोपेन यदा संपीडथते हयः
अधोवक्त्री भवेन्नित्यं कासते"च युद्धसोहुः ।॥ ६३॥ 180
आहारं न च गृह्णाति नोत्साहं रुते यदा ।
नासाम्रेण क्िपेत्तोयं वदह्धिमातपमिच्छति । ६४ ॥
क्िसमोश्चं विधायास्य ददयाच्छ्ण्छ्या समन्वितम् ।
धृतं शुडसमायुक्तं येनारोग्यं प्रपद्यते । ६५ ॥।
द्रेमता ।
नेत्रप्रान्तेऽश्चुपातेन कण्डूस्तस्यो 185
स हि मृ्युमवाप्रोति षण्मासाभ्यन्तरे हयः ।। ६& ॥
यस्य नेत्रान्तेऽश्रनिन्दुधारापर्वी निपतति तस्योदरमध्ये कण्ड्स्त्पनेति ज्ञेयम् |
तस्य चिकित्सा नास्ति । स षण्मासमध्ये निपतेत् | ६६ ॥
57 = ^ 5५ 10.3५0 ४०५ 427. ^ए2> शरा- च्यते {0८ संपाच्यते. 22 अधोवगत्रो {०
मोस्लण ६०४ शिरामोक्षेण. अघोवक्त्रौ. 28}. ०५५ इद् चेष्मरन्त-
58 = & 5४५ 10.566 29१ 68४7. नो खक्षण 2६८४ 63.
59 = 5४० 10.700 ०५ 880. ¢ 82 रकन |64 = ^&०५ 10.150 9०१ 16०4. 8.7 क्षिप-
{0४ रक्तदीनो, तोयं {०४ क्षिपेत्तोयं. 21 इति, 82 इस्छति
60 = 4.8८ 10.964 276५ 10290. 413 कण्डू , {97 इच्छति,
22 कण्डं {01 कण्ड्.
61 = ^ 6५८ 10.106 274 1129. 65 = 457० 10.17
62 = 65९० 10.12. 82 लिरोमोक्षं {0 रिरा- |66 = 45४८ 10.18. 41) कण्डुः 0४ कण्डुः, ए4
मोक्षं. 8» निरोगः {० नीरोगः. 07015 ४106 7086. 488> निपतयेत्
63 = ^ §१५ 10.147 ३०१ 1527. &.ए2 सेपि- {07 निपतेत्
१० शाकिहोत्म्
शरण्या युतं गोक्षुरकं धृतं च
190 दयामावचादिष्गुयुता च यष्टिः |
कफप्रणाश्चाय विनिर्भितोऽ्यं
पिण्डः प्रसिद्धश्य कषोदयेञ ।॥ &७ ॥
कुश्षिद्रये श्रतं तीन्रं यहुः श्वासं च मुक्ति ।
नैकत्र रमते स्थातु हेषते च निरगैटम् ।॥ ६८ ॥
195 वातरक्तार्दिते तस्मिञ्दिरामोक्चं विधाय च।
घृतयुक्तं रोहःचृर्णं दद्यादश्चिकित्सकः ।। ६९ ॥
संनिपातोत्थरक्तेन यदा संपीडयते हयः |
तदा वेपथुमाप्रोति कासते च निरगेखम् । ७० ॥
निद्रारुस्याम्निमान्द्यानि पुरीषं च मुहुः स्रजत्।
200 कणेयोः पतने चेव वक्त्रे खरखविमोश्चणम् । ७१ ॥
तदा संरोधयेद्रक्तं तता रुङ्घनमहति ।
यावहोषस्य निनोदाः स्तोकोदकल्रतादानः ॥ ७२ ॥
क
चिदुष्णं कचिच्छीतं कचिद्धेषजरसंयुतम् ।
चिकित्सायुत्तितत्त्वज्ञेवीरि वार्य न कर्दिचतु | ५३ ॥
205 शिरीषं श्रीफरं वाम्लबवेतस चैव बद्धिमाक् ।
मन्दाग्नि वायुदोषं च वाजिनां शमयेदूघुवम् ।। ७४ ॥
नीरुपीते च नेत्रान्ते भवेतां वाजिनः कचित् ।
स निवौणमवाप्रोति त्रिभिमासेरसेदायम् ॥ ७५ ॥
67 = ^€ 10.19. , |73 = 5८ 10.2५५ ४०१ 2920. ^ रितं {ण
68 = ^§१८ 10.200 ००१ 219. 47 घतं रीतं. 81 °तद्ध्ञेः {07 तत्वज्ञ
{0८ धरत, 74 = 6.5८ 10.306 १४५ 3128. 42,13
69. ^ °रक्ताद्विते, 8१ °रक्ताददिते ६०" °रक्तार्दिते हिरीष, 2 शिरि(ष) ०" शिरीषं. ^
70 = &§८ 10.256 ४०त 2628. एः) दृद्धमाक्, 81 इद्धिमाग, (2) {० बइद्धिमाक.
निरमं {9८ निरगैल. 481 20८2) मन्दाभि ६८ मन्दा्चि. ^
71 = ^€४५ 10.266 2०॥ 2728. 22 वपुष रामयेध्ुवं, 1 दामयेस्रवं 07 शमयेदु ध्रवं
{07 पुरीष. 81 मुहु 101 सुहु. 32 वर्त्रं {07 |75 = &§०८ 10 34८. 22 निरपिते {0८
वक्त्रे. 5827 काटखा० {०7 रालः नीलपीते. ^ आप्रोति, 21 अवाऽप्ोति {0
72 = & 8१८ 10.2700 2४१ 2820. ^ सष्टसि अवाप्रोति. ^.) अस्तंरायः ६०८
{0 अहते. ^ “टक °{० (दक असंशयम्.
अथ रक्तमोक्षणम् ११
जिह्वायां जायते निन्दुरकस्माद्यस्य वाजिनः ।
छरष्णस्तु जीवते मासं स वाजी नात्र संदायः ॥ ७६ ॥ 210
यस्य जिह्वायां कष्णविन्दुर्द्यते तस्य मासमात्रेण मृत्युः । ७६ ॥
पद्वभिर्नीरर्वरतैश्च षड्ूमियैजनिभेस्तथा ।
सप्तभिः पाटखकरिमवभिः पीतसंनेमैः । ७७ ॥
जिह्वायां नीखचिन्दुभिः पञ्चमासं जीवितम्| वज्व्णैहरकवर्णैः [ षण्मासं |
जीवितम् | पाटख्वर्णैः । श्चतरक्तस्तु पाटः । तदाकारः [ स्तमासम् ] 1! 15
पीते [ वमासं ] जीवितं नाधिकमिति ॥ ७७ ॥
यस्य श्वासो भवेदुष्णः शरीरं पुरुकाङ्कितम् 1
जहा च कटिनाकारा मासषट्कं न जीवति ॥ ७८ ॥
यस्य नेत्रे हारिद्रामे स्यातां बातादिभिस्तथा ।
तस्यायुः सप्रमासाख्यं मुनिभिः परिकीर्तितम् ।। ७९ ॥ 220
यस्यैकं रोचनं नीरं हती रक्तसंनिभम् ।
वातपित्तादितो मासैनेवभिगरेत्युमि( म )च्छति ॥ ८० ॥
[ इति @ष्मरक्तलक्षणम् । ॥
[ अथ रक्तमोक्षणम् | ॥
दिसप्ततिसहस्राणि नाडीनां संभवन्ति च ।
वाजिनामिह सर्वेषां यासु रक्तं व्यवस्थितम् । ८१ ॥
तासां निरमोचनाथोय द्वाराण्यष्टौ वदाम्यहम् । 225
अश्वदारोरे नाडीसंख्या ७२००० | तासु दाराण्यष्टौ । तानि कथ्यन्ते ॥ ८१ |
१
गणरशश्गोरोे
76 = ^ §४० 10.36. 5, जिवते यासं {०४ जीवते |78 = ^ ० 10.40. 1.2 करटिणाकारा {०
मासं. 81 ०००४७ € "056. 821 दशयते कठिनाकारा. 82 मासष {07 मासषट्कं.
{01 दश्यते. । 79 = ^ 5४८ 10.45. 4 परिकीरत्तीतं, 7 परि-
77 = ^ §९८ 38239270. ‰.821) षड्भी {० कीत्िर्तं, 22 परिकिर्तितं ०" परिकीर्तितं.
षड्गि०. 8» पादला० {०८ पाटला०. पित |80 = ^&०८ 10.47. 4281 -संन्निमं 707 ससंनिर्भ.
{०४८ पातर. 8१ 01018 ८ € 77056. 41) 42, रहितो {० गदितो. ^.) इछति
मास ८५ जीवित. 4851 मसि ^ जीवितं, ( एश्ती ) {०८ ऋ्छति.
मास «७, मास ९. ०" षण्मासं, सप्तमास्षं 294 |81 = ^ €१८ 11.181 0111056 € 1086, & 7
नवमास्ं 76866४१6]. 0703६ संख्या,
१२ शरितम
| अथ त्हतुचया ॥
तत्र प्रथमे वषोकारुचिकिस्सा ॥ 255
अथातः संप्रवक्ष्यामि ऋतुचयोस्तु वाजिनम् ।
न प्राज्ञो वाहयेदश् प्राबरट्कारे कथचन ।। ९२॥
करूप दकं समानीय पाययेद्गृह एव हि ।
अभ्यङ्गः कटुतेेन निवांतस्थानबन्धनम् ॥
एकाहान्तसिते ददयाहवणं च विचश्चणः ॥। ९३ ॥ 260
|} इति वर्ष्ाकारचिकित्सा |
|| अथ रारत्कार्चिकित्छा ॥
ततः शरदमासाद्य बहुक्षीरसमन्वितम् ।
रास्तं श्वीरोदनं चेव पलाष्टपारसंस्यया ॥ ५४ ॥
घृतं वा यदि वा तैं पानं दव्याष्िचक्षणः ।
बाहयेचच शनैर्निस्ये सवेदोषप्ररान्तये ॥ ९५ ॥
90. 2, पिति° {97 पित्त, 83 सर्ववणी १०२ सर्व- | =अय ऋतुचयौ. ‰8ग> ०४ तन्न. 81 पथम
वर्ण. ^8, 7 श्छोणितं {०7 “च्छोणितं. {० परथमं,
ए. सान्निपातकं {०7 सांनिपातिक, 92 = ^६९८ 11.238,
9{ = &6५० 11.20 20 2188. ^ दद्या {०८ |9३ = 46१८ 11.24 87 2520, 8! ०01४5
दद्यात्. 82 गोमुत्र {0 गोमूत्र ४ एकान्ति दद्याष्टवणं च विचक्षणः. 8 ।
हरीतकी 1०४ हरीतकी. 2 ०0)1४ १6 हति वषोकालः {०८ इति वषोकाटचिर्गिःघा,.
7086. 47 तिश्युतोष्य {07 विशोध्य, 22 ।94 ^ &१५ 11.29 421. क्षीरोदनं {01
=
०गुतरेणं {०7 भ्ूत्रेण, 2, आडु() ०1 आहे, क्षीरोकनं .
2, गोमुत्र {० गोमूत्र, 68.70 ०१६।५5. 21 शर्तं ०: वृतं. 428) दातः {07 दिः,
१४ शारिष्टोत्रम्
265 अथ वा कथितं दुग्धं पाययेच्च सरा्करम् ।
निरागमे विशेषेण चान्यन्मधुरवस्तु च ।। ९६ ॥।
, उदक च रघु प्रोक्तं यवसक्ु(करतू)श्च दापयेन् ।
म॒क्ष्टः कोमलखास्तच्र वारणीयाः प्रयत्नतः ॥ ९७ ॥
घतं विरोषतो दद्यादश्चानां प्राक्सम्रद्धये ॥
|| इति शरत्कारुचिकित्सा ॥
|| अथ हेमन्तः [ “न्तकार्चिकित्सा | ॥
270 तती हेमन्तमासाद्य निवीते बन्धयेद्धयान्।
माषोत्थ यवस ददयास्पानीर्य च यथेच्छया |} ९८ ॥
घतं वा यदि वा तैकं पानं दद्याद्विचक्षणः ।
वाहये दानैर्नित्यं सवदोषप्ररान्तये ॥ ९९ ॥
| इति हेमन्तः [ “न्तकाटचिकिंत्सा | ॥
| अथ रिदिरः [ रकारुचिकित्सा | ॥
ततः शिशिरमासाद्य दान्तेटं च वाजिनाम् ।
275 पराष्टकमप्रमाणेन यावहिनात्रेसप्रकम् ।। १०० ॥
यवोरथं यवसं दव्यादेकविश्चयद्ानि च ।
यवाभावे तु चणकान्दद्यादश्चेषु निकषः ।। १०९ ॥
यवाभावे मसूराश्च शुष्का्रस्तेररसंयुतान् । -
यवसं वा तदुर्थं तैर्नयिगो जायते हयः ॥ १०२॥
280 जौषधानां च सर्वेषां काथानां न॑स्यकमेणाम् ।
तैकानां च घृतानां च यवसं यवसंभवम्।। १०३॥
97. 6 8,--7) सुकुष्टा ०" सुङृघ्यः. 8) दद्यात् |100 = 45० 11.9. 8» नतैरं {०४ ण्तेङ,
शवानां ६0" ददयाद्-घानां 101 = 46१८ 11.10. 4, -7> यवोत्थ° {0
9६ = ^+6८ 11.7. ए हयात 0" हयान् यवोच्थं
5 81.77 माषोत्थ {07 साषोत्थ ^ 81.20 |102 = 4६१५ 10.11. 58; 21) दुष्काद्रान् तेलक
यथया ६०४ यथेच्छया {0४ खुष्काद्रास्तेख
99 == 6.6८ 11.8 ( 4. 8६21122 95). 42837 | 103 = 46४८ 11.12. 6287) तस्य°{07 नस्यम,
दतै; ६० शनेः, 81 धृतानां ६०८ धृतानां,
अथ शिरिरकारुचिकित्सा १५
पवतानां यथा मेरुरायुधानां च वज्जकम् ।
तथा सर्वोपचयोणां सेः शरेष्ठा यवाः स्मृताः । १०४ ॥
यथोदितो दिनमणिर्निःशेषं तिमिरं हरेत् ।
तथा रारीरजान्दोषान्यवाः सेररन्ति वै । १०५ ॥ 285
यस्य दत्ता यवा भोज्ये हिदिरे समुपस्थिते ।
अ
क्रियापि क्रिया जाता पच्चतुजनिता हये ॥ १०६ ॥
परीक्षाग्नि्यथा हेमः स्नेहस्य च प्रतिक्िया ।
हयस्यापि च तद्र परीक्षा यवभक्षणे ॥ १०७ ॥
अस्पेनापि हि छिद्रेण यथा नरयति नजर । 290
स्वे दोषाः प्रणरयन्ति स्तोकैरपि यवेहेये ।॥ १०८]
इति ज्ञात्वा प्रयत्नेन यवान्दद्यात्त वाजिषु |
प्राणदूस्ते यतो ज्ञेयाः सवैव्याधिविनाशकाः ।। १०९ ॥
अश्योऽभाति यवानाद्रोन्डुष्कान्वा स्वेच्छया सदा ।
न तस्य जायते रोगो यवमक्षुप्रभावतः । ११०॥ 295
न विहुचिर्विद्यूं च न च पीहा न च क्रमिः।
न च रक्तप्रकोप्थ न च वातादिधातवः। १११॥
योऽभाति यवसं यावद्भयः शिशिर आगते ।
मकष्टभोजने वाजी पुष्टं शरदि गच्छति ।। ११२॥
अप्राप्तो तु युङ्ष्टानां मुद्र देया विवेकिना । ११२ ॥ 300
॥ इति शिशिरः [ `रकारुचिकफित्छा ] |
[न हि (५3
104 = ‰&०० 11.13. ‰857 सवैपि चयोर्णा, |109 = ‰5४० 11.359 ४०१ 6०५. 8» दद्यातु
2, स्वषु चर्ये {० सवोपचयाणां. 2; सध्ये {07 दद्यात
० सपे 110 = ^ 6१८ 11.37
105 = ^+ऽ४८ 11.15. । 111 = व 11.48 81 ०115 1115 5{8022
५ ४ शिशिरे 42820 पीहा {07 फहा.
106 = 14. 2. शा शिरे. ए, कमी 01 त्रम
‰&०० 11.17. 82 शरिरे £०7 िदिरे र 2
‰820 वावादि° ० वातादि०. 8, 1८248
107 = & 5४० 11.32. ^ 8 1.2परिक्षा {०प्परीक्षा {€ ऽ€6००५ 1:०€ 28 8251
81 अरः 0८ आत्रः, 42820 यथो 0 यथा. |112 48273 याच {97 यावतत्, 421.> गछति
4. परिक्षा 0" परीक्षा {07 गच्छति
108 = ^ &४५ 11.34. र्न् 48१८ 11.4229,
१६ शारिरम्
॥ अथ वसन्तः [ ^न्तकारुचिकिंत्सा ] ॥
ऋतौ वसन्ते संप्राप्ते बाहयेत्सततं हयम् ।
सनिम्बरूबणं द्यत्तैरं र्वणमेव च । ११३॥
वसन्तसमये योऽधः स्थने तिष्ठति, बन्धने ।
तस्योत्साहभ्णाराः स्यादारूस्यं जायते तथा ॥ ९११४ ॥
305 तस्मात्सेप्रयत्नेन वसन्ते वाहयेद्धयप् ॥
| इति वसन्तः [ “न्तकालचिकित्सा | ॥
| अथ ग्रीष्मर्व॑ः [ ओरीष्मकारचिकेत्सा | ॥
म्रष्मकारे तु संप्रा पूर्व(दूबी)मोज्यं प्रशस्यते ।
वाजिनामिह ˆसर्वषां घमेतापोपदान्तये ।॥ ११५ ॥
ध्रतपानं विरेषेण सुच्छाया निबन्धनम् ।
रक्तसाव्ध गात्रेषु घासं वा घृतसंयुतम् । ११६ ॥
310 पुनश्च पायेत्तोयानि सीतरानि च वाजिनः ॥ ११७ ॥
[ इतिं ग्रीष्मकार्चिकित्सा | ॥
॥ इति षटू कतवः | [ इति ऋतुचयौ ] |
[ अथ नस्य: ] |]
पिप्पली सैन्धवं चैव नागरं च गुडान्वितम् ।
भ्रातद्तं तुरङ्गाणां नस्यं शछेष्मविनादरनम् ॥ ११८ ॥
पयुषितं
(4
तोयः प्रातर्दत्तं च केवलम् ।
अश्वानां च नराणां च च्चुष्यं बरुबधनम् ।॥ ११९ ॥
113 = ^+९८ 11.50. 22 सभिख ६07 सनिम्ब {०८ घृत. 437) तोयानि पाययेत् {० पाये-
114 = & 5१८ 11.52. & श्त्साहः {01 त्साह तोयानि
द) स्यात् आर्स्यं {० स्यादालरस्यं. |117. 3; षड्तवः {०४ षट तव
{14६ = & ६०५ 11.53५. 8 1. भीष्मकः |118 = ^ ६५८ 12 2. 42, पिप्पलि, 8, पिःपटी
{०४ ग्रीष्म. 0 पिर {० पिप्पली. 28 दत्तं + दत्तं.
115 = 88८ 11.54. 23) घसः 01 चर. {0 दन
116 => 26९५ 11.55. 4.231.27 सुहछायाचु{01 | 119 = ^ ६%८ 12.13, ^ इन्त ६0८ दतं, ^ वल-
च्छाया, 21 %श्रावः {0 लावः. 8, धत" दधन, 81.70 बलवरधन ६0 बलवर्धनं
अथ पिण्डः १७
[ अथ पिण्डः |॥
कङ्कोरं केतकी द्राक्षा शकरा मधुयष्टिका ।
दत्तोऽयं सश्तः पिण्डः पुष्टं नयति वाजिनाम् ।। १२३ ॥
मरस्यमांसेन संयुक्तं माषचूर्ण घृतष्टुतम् ।
बरृहीनस्य वाहस्य पिण्डोऽयं बर्वधेनः । १२४६ ॥
त्रिफला कटुका मुस्ता विडङ्गानि च वचित्रकुप् । 325
सद।रुस्यसमेतानां वाजिनां पिण्ड आर्तितुत् 1 १२५ ॥
सेन्यवं नागरे इयास। ग८ गु )डची चित्रस्ैपाः ।
तथाम्ख्वेतसं सपे: पिण्डोऽयं शट्नाशनः । १२६ ।।
सोकचंरं हरिद्रा च पिप्पली चेन्द्रवारुणिः ।
मूत्रछच््ै प्रशंसन्ति पिण्डोऽयं वाजिनां हितः ।॥ १२५ 330
केसरं पद्मतारं च श्रीपर्णी बदरीफलम् ।
रत्वैकन्न हये दत्तः पिण्डोऽ्यं विषनाङनः । १२८ ॥
[ इति पिण्डः ||
= ^ &८ 12.17. & पादौनं {०7 पादोनं. ¬ |124 = &€४८ 1 3.5. ^ मासेन ६०7 "मांसेन.
अधका ६6८ अथ का. 2.81 2 1) बल्वद्धनः {07 चरूचयेनः $
= ‰ §०८ 12.23. 125 = 45४० 12.9. &. चीच्रकं {० चित्रकं,
483 7 आर्तिनुत्् ०" आरतिनुत्.
‰&€०९ 12.24. „ „ | 126 = 466 12.11.
|
=. ध प
ह 0८ कषा $ घ्ुखप्रदरः
127 = ^ &४५८ 13.30. 81 (9६६८ ९०८६, )
६ चन्द्र^ व्ये ० २. , छ
०५ सुषडपरदं, 2 चन्द्र {0 त्र." 431 9, षे {०४
ससैन्धवम्
एषा विजखिका नाम हयानां परमोषधम् ।
कृदाङ्गानां सदा देयं हन्ति कोष्ठगतान्क्रमीन् ।। १३७ ॥\ 353
महाबलो महोत्सादो व्याधिहीनो भवेद्यः ।
बर प्रवधेते तेषां ये च बुद्धाश्च वाजिनः \ १३८ ॥
रुण्ठी, पिपरी, ज्रि, मेथी, वेखण्ड, रौपा, अजमोद, मोहन्या, सषेप,
कदू, अतिविष, छिव, इन्द्रजप, विडद्ग-इमान्यौपधानि समभागानि । खड
नस्य ददा मागाः । कान्िकध्रतकटतैकतिरुसेन्धवयुक्तमजामांसमेकत्र कुहयित्वा 360
सरसभाण्डे निक्षिप्य घान्यभृत्कोष्टिकायां ददा दिनानि स्थापयेत् | पश्चातिष्डा
देयः ! चतुरा र ›सीतिवातानां निनीरौ करोति । पित्तश्प्माधिमान्यादिदोषाना-
दायेत् ब्पुष्टिं च करोति ॥
137. ^+27> कृन्चाद्ननां 1०" कृशाद्गानां. ए1.2 |पदायां अरवासरान्वितायां पुस्तकमिर्द श्ालिदो-
कृमीन् ६०५ कमीन् त्राभिधानं समाप्मिति । श्रीप्रसं( स ) नोऽस्तु ॥
{३8. 82 भवेत्धयः {० मवेद्धयः. ^ 8) प्रचद्धतं | 81 इति श्री मोजराजविरचिते शाटिदोत्राश्च-
0" प्रवधेते 81 ०718 406 2"08€. ¢ | परक्षापुस्तक् समाप्तम् ॥ छ ॥ सवत् १९१३
पीपरि, 82 पप्परी, 7 पिपरि ०7 पिपरी. |फाटयु( स्यु }न शुक्त ७ भौमवारे सुकवीप्युपनास्ना
& वेषण्ड {07 वेखण्ड. 52 अजमोंद् {071 | खक््सणसुते गोपाङे नारदी ॥ रैक १७५७८ } छ |
अजमोदा. 82 कट् {०7 कड. 22 अतविष | 82 इति श्रीमो जराजयिरचिते शाकिद्ोत्र(ञ)
{०४ अतिविष. 8 दशं भागः ६०८ दराभागाः. |अशधर्पार( र ।क्नापुस्तक( कं )समाप्त (पं) ॥ छ ॥
& 07165 °तिल, ^+ °रारिति० {0८ | छ ५ छ॥।
"रारीति०. 22°पुष्ठि ०" °्पुष्टि.& 001४5 च. | 7 इति मोजराजविरणचिते साचिद्टोत्र( त्र ) अ-घ-
^ इति मोजराजविरचित दाखिदहोत्रं समाप्तम् । |परीक्षाचे ( कषायाः ) पुस्तक (कं } समाप्ताः (स्र) ॥
श्ुभभस्तु 1 कल्याणमस्तु । संवत् १८६४ दके १७३ ० दुर्भ भवतु ॥ केस्याणमस्तु \ श्रीरस्तु ॥ भन्थ
म्रवत्ते( ते }मान्ये (ने) आषाढमाभं कृष्णपक्षे मत्ति- |(न्थः) समाप्तोऽयम् । ठ ॥ श्री ।।
२० शाकिहोत्रम्
^ एए श 1
पप5 20 त०प्च्भ05 2 लगाणएवा1807 ग दक (ल्द प १16
६€६ ° 6 &प2८1४1६51६ ० वश. 106 १2८180६ 1626105 28 {0घफोतं 77
ए पापपाप्णाहथ्च्यप 2 पल 188. प122ल्त् 10४ धा हतात्ठप ग एणपतमभच्प
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४८६७ ( {07 "€ वल{[ल्व अपवद् ग ताञ 906, 866 € उप्रध्उवपटधमाः ).
सालिदोत्र अश्वचिफिरिसित
॥
रक्तपित्तविकारे च रक्तपित्तखमीरोत्थ
दातव्यं शरक॑रोदकम् । दातव्यं शरकरोदकम् | 9.34 ५4
जीवनं वातपित्तघ्न जीवनं वातपित्त
वृष्यं बलमर ततः || 54 वृष्यं बलस्यतमं ततः } 9.35 ०१
क्षीरं शूतसमायुक्तं स्वच्छाक्तं च धतं श्चीरं
वारि रीतं तुरगमः। वाशयुक्तं तुरंगमः)
पित्वा परिव्यजदोषन् पीत्वा हिं नि्हरेदोषान्
श्रममाराध्वसेमवान् | 55 श्रममाराध्वसश्रवान् | 9.36
सायं करेय परथिवी निहन्ति संध्याद्घ्रघातेन मरही निहन्ति
हेषन्ति ये स्वामिगयुखं निरीक्ष्य । षन्ति ये स्वामिमुखं निरीक्ष्य |
प्रदक्षिणावतंविकी्णपुच्छ पदशक्िणावतविकीर्णपुच्छा
जयावहास्ते समरे इपाणाम् | 56 जयावदहास्ते मरे खपणाम् ॥ 9.39
आषाटखम्ये प्रासे आघाटसमये प्राप्ते
शिरामोक्चेण करस्नद्यः | दिरामोक्षेण कर्स्न | 10.3 ५५
तस्मात्सरोधयेद्रक्त तेन संशोध्यते रक्तं
वाजिनो दोषसेभवम् | 57 वाजिनां दोषसंमवम् ]} 10.4 ०0
यदि रक्ताधिको वाजी यदि रक्ताधिको वाजी
दाष्पमश्ाति कर्दिचित् । खस्यमश्नातिः कर्हिचित् 1 10.5 ०
र्ात्सयजायते पित्त रक्तात्संजायते पित्त
पित्तान्नाशमवाप्तुयात् || 58 ततो” नाशमवाप्नुयात् ॥ 10.6 ०१
रक्तपित्तप्रकोपेन पित्तरक्तप्रकोपेण
यदा संपीञ्यते इयः यदा संपीञ्यते हयः । 109 ०0
तदा कण्डूः समासाद्य तदा कण्डूतिमासाद्य
घर्षयेत्सततं कपु; } 60 कृषते सततं बपुः ।
छायां वाञ्छति यत्नेन छायां वाञ्छति यत्नेन
करोषेण जलाश्रयम् | विशेषेण जलाश्रयम् | 10.10
मुहबौज्छति पानीयं मुहुबौञ्छति पानीय-
रक्तपित्ताठुरो हयः ॥ 61 माह्ार च विदेषतः | 10.11 ००
75. अध, क-शिरामोक्षं च कारयेत्+ 78. अध. कदस्य नान्नादव ।
76. अश्व. ख-तस्म (्संशो घयेदरक्त ।
7. अध. क~ततो । 29. अश्व. ख~पित्तात् ।
^+ 1 २९
86. मनश. ख-संनिपतेन रकेन । 90. अश्च. क-नीरुपीतेऽथ नेन्नाणां स्यातां चेद्ा-
87. अश्च. ख-तदा । ध
जिनः क्रचिन् ।
विक्लोधनं । 91. य॒. क.-नीरुपीते च नेत्रान्ते त्रिभिमोसेचेपुः>-
88. अश्व. क~ततो मख्वि त
89. अश्व. क-चकतरे । 92. यु. क.-यदि।. ।
^+ धरा 1 ३१
पञ्चभिर्नीखवर्णै
श्च पचमिर्नीलवर्णश्च
प्डूमिर्व्रनिमैस्तथा । पड्भिर्व्रसमाक्ृतिः |
सखसमिः पाटलाकरि-> सपभिः पारखाकारो ! 10.38 2००
नवभिः पीतसंनिभेः || 77 नवभिश्च इरिद्राभो । 10.39 2
यस्य श्वासो म्बेदुष्णः यस्य श्वासो भवेदुष्णः
दारीरं पुखकाङ्कितम् । शारीरं पुलकाङ्कितम्" ।
जिका च कठिनाकारा' जिका हिमकराकारा
मासघट्कं न जीवति% | 78 मासषटूकं ख जीवति ॥ 10.40
यस्य नेन हरिद्रामे यस्य नेत्रे हरिद्राभे
स्यातां वातादिमिस्तथा 103 ॥ स्यातां पित्तार्दितेस्य च ।
तस्यायुः सप्तमासाख्यं तस्यायुः सस्षमासाख्यं
मुनिभिः परिकीर्तितम्“ | ‰9 मुनिभिः परिकीर्तितम् ॥ 10.45
यस्यैकं छोचनं नी" यस्यैकं छोचनं नीरं
दितीय रक्तसनिमम् । द्वितीयं रक्तसंनिमम् |
वातपित्तार्दितो म्ते- द्यते स च बिक्ञेयः
नैवभिमरत्युम च्छति ॥ 80 पित्ताटयो मासखजीवकः ॥ 10.47
दि“श्वसतिसहख्ाणि द्ाससतिसहखाणि
107 नाडीनां हि भवन्तिच।
नाडीनां समवन्ति च ।
बाजिनामिह स्वेषां वाजिनामिह सर्वेषां
यासु'°र
क्तंव्यवस्थितम् |} 81 वायुरक्तं व्यवस्थितम् || 11.1
१०9
ताखां निर्मोगचिना्थाय ताखां निर्मोचनार्थाय
द्वाराण्यष्टौ वदाम्यहम् । 81 < द्वाराण्यष्टौ वदाम्यहम् } 11.2
9३. यु. क.-मासेकं वितं
जी तच्र ! 102. यु. क.-मासषटूकं स जीवति ।
94. यु. क.-नीलवर्भे च । ॥ 103. यु. कयस्य वातार्दितस्य च।
95. यु. क -बश्च( क-वक्र }समाकृत् । 104. यु. क.-तस्यायुः सप्मासीयं बहुवर्णे तथा
96. अश्व. क-वज्रसमप्रमः। दिनैः।
द
97. यु. क.-पाटराकारे । 105. य. क.-हौीनं।
५8. यु. क.-नवमिश्च हरिद्रामे ।
भ
8.3
दढ शारिषदोत्रम्
[
द्विपञ्चारशस्प्रमाणेन द्विपञ्चारादमाण वा
श्रेष्ठं तन्नस्यमुच्यते । भ्रष्ट तन्नस्यसुच्यते ।
पादोनं मध्यमं तत्र पादोन मध्यमं तज
षडूर्विंरात्यथ वाधमम् ||. 120 षड््विंशत्यां ^ तथाधमम् ॥ 12.17
1. अश्व.-वाजिनः। 8. अश्.-भाण्डजाश्वोत्तमांसाश्च।
2. अध -समन्ततः। 9. अश्चव.-गोहराः।
3. अश -इन्द्रादेश्षार्कृतं सवै भवतां पक्षपातनं |10. यु. क.-{ क )साष्ववासाश्च, अश्व.-शाषराश्वैव
( ख-मया वत्साः कृतं वः पक्षभेदनं ) | (क-सबरांसाश्च )।
4. अश्च.-कनीयांसः । 11. अश्च.-सिन्धुपाराः।
5, अध.- ताजिकाः । 12. अश्व.-नीचनीचाश्च ते स्मृताः|
6. अ-घ.-खुरशाणाशच ! 13. अध.-उद्कमगजास्तथा ।
व. अश्च.-उक्तराः (ख-तुषाराः) । 14. अशध.-द्विजातीयाः ( ख-द्विजा ज्ञेयाः )।
2९
४५ शारिष्ीत्रप्
15 प्रमज्ञनभवा"” वैद्या सगजा श्ुद्रजतियः"
पुष्पगन्धि्मवेद्धिमः"" क्षत्नियोऽगुर्गन्धिकः"° || ३५ ||
घतगन्धो भवेद्रेष्यो* मीनामोदी च द्युद्रकः |
विवेकी सघृणो विप्रस्तेजस्वी क्षत्रियो व(ब )ली | ३१॥
कोष्णभावोः भवेद्वैद्यः" यद्रो निःखच्वको भवेत्
20 विप्राद्या वाहनाः सर्वे चयो भूमिपतेः सदाः ।
ग्रुद्रजातिं वुरंगं ठ न स्प्ररान्ति नरेश्वराः | ३२॥
210 £< 7४§६ 1116 178€1४5-
यदाह् नकुखः-
सप्तवर्ण भवन्तीह“ सर्वेषां वाजिनां श्रवम् |
तानह कीर्तयिष्यामि मेदेजाताननेकधा | ३८ ॥
{€ 1106 2 17867६४5
25 श्वेतः कुन्देन्दुसंकारो रक्तः कोयुम्भसंनिमः
हरिद्राखटशः पीतः सारङ्गः कदरः स्तः ॥ ४० ॥
2 {€ 1106 41086€८8-
दन्तेषु व्यञ्जनं यद्व(य)त् तेन जेयो वयःक्रमः ॥ ४२ ॥
तद्यथा--
कालिका हरिणी शङ्का काचा मक्षिकया सह ।
30 राद्धो मूषल्के चैव दन्तानां चर्तां( वा ,) तथा ।
इत्यष्टौ ग्यज्ञनान्याहूुरथेषां कक्षणं श्णु ॥ ४३ ॥
न्च॒तुसिर्वत्सरेदन्ताश्चत्वारः परिकीर्विताः
पश्चाधिश्च षडिव्येवं जायन्ते त्वथ कालिकाः | ४८४ ॥
८
15. अश्.-समीरप्रमवाः (ख-प्रभज्नोद्धवाः ) 1 ! 22. अशधछ.-निःसततवकातरः ( क- कारकः)
16. अश्व.-एणोद्धकाश्च सद्रजाः । 23. अध.-विपराहां वाजिनः सर्वे क्षत्रियो भूपतेः
17. अश्व.-पुष्पगन्धः सदा विप्रः (ख-पुष्पगन्ध- ( ख-तजयो भूमपतेः ) खदा ।
समः) । 24. अ्च.-वर्णाः सप्त भवन्तीह (क- वणी मवन्ति
18. अ-ध.-अगु रगन्धकः । येऽपीह् )।
19. अन्व.- सद्ा वैश्यो । 25. अध.-शेतः प्रालेयक्षंकाशो रकः कुक्कुम-
20. य. क. ( ख }-केोष्णभावे । संनिभः। यु. क. (ख ) कुन्देन्दु्निभः
21. अ्च-दुष्टमावस्तथा वेइयः। 26. अश्व.-कालिकान्ये भवन्ति च।
^
एटिभपा
गर ॥ ४१
०
63. अश्व.-करिदेश े आसने संस्थि तश्च ( क-व्यापि- : काष्टा अष्टखष्वक्षरं तथा।
तोऽपि स्थितो यः), 71. अध. तमश्सुत्तर्मं ।
64. अश्व-यु. क. ( ख }-स्थानदण्डाचपाती । 72. यु. क. (क ) महाजरर ।
65. अघ.-° योक्ता. 73. अश्च.--भाराध्वानं जवं व्यजेत्।
66. अश्च.-मान्यते (क-पूज्यते )।
67. यु.य,. (क )-रक्तकण्टे । 24, अश्वु--कार्येणेव महान् किंचिद् य॒ज्यो नभसि
68. अ-ध.-ववत्रे स्कन्धे सुखे कष्ठे गात्रे सक्थौ च कात्तिक । |
ताडयेत् । 75. अश्च.- योगे।
69. अनश्व.-चोन्मागेगामिनं । 76. यु. क. (क)-ज्िग्धा ..... कणेपुच्छो दीघौस्य
70. अशध.-हस्तश्च तैच्चतुिशैः कायक तैश्वतु्युणेः। त्रिनयनकेराप्रष्ठवशाः।
4 एप 1 ५८५
115 तद्यथा--
ये श॒क्काः सुविमरूपुष्पगन्धका वा
छद्धाङ्गाः सखधणसदुष्णमोजिनो वा ।
अकरदाः समरगता भुर च पुष्टा-
स्ते विप्राः क्षितिपतिवाहनेऽतियोम्याः | १३५ ॥
120 ये रक्ताः सदृगुरुगन्धयोऽदहता वा
सरुषा बहुतरमोजिनो बलाल्याः ।
अश्रान्ताः सकख्युणम्रहाः प्रवीणा (णा)
चिन्चेया विधिकरजातजातयस्ते | १३६ ॥
ये पीताः खड घुतगन्धयोऽपिं ये बा
125 येऽक्रद्ः कथमपि गन्धरोषशाछ्िनो ये । १३७ ॥
वद्धा वा बरहुतरनादघोघणा वा
विज्ेया पवर वैश्यजातयस्ते ]
ये कृष्णाः सरुषासगन्धयोऽपि ये
वान्यथा बहरुतरताडनैरपीमे ॥ १३८ ॥
130 क्षीणाङ्गा ठश्ुतनयोऽपि वेरादीना-
स्ते्यद्राः क्षितिपतिना भरद्यं विहेयाः ।
एतन्न एकैकमेव रक्षणं न सासुदायिकम् | १३९ ॥
लक्चषणद्वयसम्बन्धादद्धिजातिः स्याचुरंगमः ।
चठुरुश्चणयुक्तस्व दूरे त्याज्यो हयाधमः | १४० ॥
४६ शाशिषहित्रम्
135 अन्य्र तु|
साच्विका सजसाश्वेति ताप्साश्वेति ते हयाः || १४१ ॥
ये द्वण भदावेगयुक्ता अश्रान्तिभाजो बहुभोगिनश्च ]
अक्रोधरीलाः समरेऽतिरष्टास्ते साच्विका मूप ठरंगमाः स्युः ॥ १४२॥
ये रक्तवर्णा गुरवेगरोषाः कषातिघातं7 न हि ये सहन्ते ।
140 येऽमी बराल्याः खलं दीषदेहास्ते राजखा भूप ठरंगमाः स्युः ॥ १४३ ॥
ये कृष्ण ब्णीस्तनुरोषवेगा अस्पारिनो ठक्षणर्क्षिताश ।
ये दर्वाः सर्वगुणेबिहीनास्ते तामखा मूष ठरंगमाधमाः | १४४ ॥
दरयोर्कक्षणसम्बन्ाद्द्वियुणो वाजेमध्यमः ।
त्रयाणां गुणसम्बन्धालतियुणो वाजिर्निन्दितः ॥ १४५ ॥
145 परादारसंहितायां वु-
पुथिवि ८ बी ) वायुतेजःखैः पञ्चभिस्वुरगाध्ितैः ।
उल्बणे: पञ्चधा मेदाः परारारमता यथा | १४६ ॥
ये स्थूलाः श्रमसहदेहरूपमाज-
श्वाङ्कान्ता बहुतर भोजनाश्च दीर्घाः ।
150 अकरद्धाः समरगतास्तु रोषभाजो
भोमास्ते धनगुरुष्धैरस्वरास्ठ ॥ १४७ ॥
ये ®@थाङ्गास्तनुबखाः श्रमखहकठेवराः ।
अक्रोधवेगाः स स्वभा (ङ्गा) आप्यास्ते तुरगाधमाः ॥ १४८ ॥
ये बातवेगप्रतिमोग्रवेगाः छष्का मृडं दीधैकरेवराश्च ।
155 अश्रान्तिमाजो बहुदूरगाश्च ते वायवा वाजिवराः प्रदिष्टाः ॥ १४९ ॥
ये क्रोधी भ्रशवेगयुक्ता मुक्ता दिनात्करोशगतं जजन्ति ।
ते तैजसाः पुण्यवतां प्रदेशे भवन्ति पुण्यैरपि वते मिरखुन्ति ॥ १५० ॥
एको यदा तैनससंक्षकोऽश्वः किं कार्यमन्यतुरगस्तुरगाघमेस्वु ।
छद यदा हीरकखण्डमेकं किं कार्वमन्धैर्मणििर्विचिन्ैः ॥ १५१ ॥
160 उरष्डुस्य ये बाजिवरा ब्रजन्ति कृद भशं ेगखमन्विताश्च ।
ये एङ्षयन्तः परिखा्भपारां ते गागनाः पुण्यतमाः प्रदिशाः ॥ १५२ ॥
27. यु. #, (क)-कलामिधातम् ।
^ ८८6 ग ७
द्रयोर्कक्षणसम्बन्धात्तरगः स्यादद्धिमोतिकः ।
स्वजातिगुणमतानां हयानां वाहनं छमम् ॥ १५३ ॥
असञ्जातिगुणादीनां बाहनं इ्ेदकारिणम् ।
165 एषां चिकित्खा न प्रोक्ता प्रन्थविस्तारखंमवात् | १५४ ॥
राखिदोच्ादिविक्ञानात्तादिजञेयं यथोत्तरम् ।
असंमवेग्धहि दष्टाश्च बाहयेदिति चेत्तदा ॥ १५५ ॥
तिर खकाञ्चनं द्द्याछछवणे वा गुडान्वितम् ।
रेवन्तं” पूजयेद्धापि निज निैन्थयेत्तदा ।
170 दद्यात्ताम्रपलं वापि, अमावे सव॑क्सणः १५६ ॥
एवमन्यज्ापि ।
काञ्चने रजतं ताम्रं कोहमेतव्यथाक्रमम् |
बह्मादिजातिदोषाणां देयमेतस्प्र्ान्तये ॥ १५७ ||
अभावेऽपि च सर्वेषां ताप्रेण स्यासप्रतिक्रिया | १५८ ॥
-210. कष्णस्तु जीवसे मासं । अश्व. 1€205 कच्छ च जीवत मास. {11€ ०८५
कषण 18 97 2१८८६१५८ वप्या किण चिन्द्ु 17 11५€ 209. {106 086 8858
{011०1०8 ६0२5 ९८756 7031६ €5 ६116 3462 ©1687. 1६ €45 यस्य॒ जिद्धायां कष्ण-
जिन्दुर्स्यते तस्य माससाप्रेण दस्युः । 50 € 18९€ +€ {6८६८१ ध€ 7162670 9 अश्व.
जीवते 15 ०५९०५ {०7 जीवति {07 {€ 59 € ०६ € १४९.
--277. दयाद्श्वेषु चिद्यच्चः। 1,0८2६1
४८ 15 ए5€व {7 € 5€०8€ ई ५०६४१४९.
--279. यवसं वा तदुत्थं तैर्नोसेगो जायते इयः। ऽप दयात् 19 ^< ०8६
€18४86.
--281. वेना च चूतानां च यवसं यवरससभम्व ।. (116 2790० ४८8166 ० यव {07
†0& ० € 210071510005627 21 ०६868 15 468८7106 17 ४6 4582826. ऽपर
अं ६० 719 ४ € 70€81110ष्टु ० € 25825 व ८१४८ लुल्ध्यः.
-289. परीक्षा यचमश्षणे । {06 ६० 8101185 ०86 1 चाल १€756€ -ल्वृण+6
यचभश्चम 0 € 0 पवधरड ९886 €077€580प्रप एद ८० अनि 284 व्रत्या.
--291, सखै दोषाः मणदयन्ति स्तेकेरपि यदैैये 1. {11€ ©०गप 0927180 प 04 > ०२६
1६ 41864568 18 710४ 2 820. ००६. 1060 ४९, 006 € €८६५ ६०८ फ ०त यव
१ 1705 ०६या 9 प्ष्टणद् 6071689० 19 ० निद्रेण वप्त धा फण्प्त् दाष उप
101012६1४& 8178 प्र{7 60716 ए800त10ह ६० नोः.
--292. य वान्दद्यात्तु काजिषु । [.0८2६१९€ 18 ४७५८ {07 ५०६१९.
--306. दूर्वाभोञ्यं मश्चस्यते। ^ 11 ६४€ 1५158. ८6२ पत्र भोज्य, एप 1६ १०६७ ००६
79216 97 86056. (€ १८2१३४६ दूक मोञ्यं 13 8८९ ए8०८४९त एष अश्व.
--310. पुनश्च पायेत्तोयानि । २९२५ पाययेत्तोथानि. (€ 1058 0 0506 य प
पाययेत् ;5 €8€८४९॥् ००2 1$ {० ध116 521६€ ° 79€४८6.
--312. मतदंच दुरगाणं । @€71६४४८ 15 ८5६ {07 ५211९&.
--332. र्यैक्छन्र हये दत्तः । [,0०८०६९€ 15 ८86५ {67 १०६१५४७.
--333-337. (111८ १€४8€ {88 ६९7 2५85. {८ 18 ए058101€ ६० € ॐत ४0€
8६ ६० 11068 35 {0770198 ०9€ $€४56 ०० {€ 16022191 ४75€€ 11768 28
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माष #, & 8071 01 ६16९ एवा ( ए11886. । ९८06112 21068, 350.
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323. शतदष्प। ^. 476 90१, ०६०८९५६.
माषोत्थं #. 27061 ०३५€ ० 06408 271, प्रा 502. 26८९८ शापा 79१६8
मुङुष्ट 1, 3 8{€6188 0 062, 268. | 1005, 67111 86८५3, 349.
मुद्र ४. 128601४8 1४080 ( 80 ध सकरा {^ "0० 07 ८६616 5णष्टभः,321.
1817६ 47 1४8 6973 ); 300. शिरीष 2. ४€ 30 कला 01 41012212 1609866
मुस्ता 1. 8 877€८168 ° &7288. (प ए6ाए्$ 8. ` 4646148 1610606, = 4श्छाे
5171888; 205 ( |
२०००९ प5, 319.
एण्लाण ©78- दण्डा #. ५८१ 210०86८, ७1706 ०
मेथिका † (8००6119
€<, 348. 71216, 183.
इयमा †. पष. ०1 ‰811005 [1205, 190.
यव 2. 08716, पतता) 062धे8प्रल प्फ, श्रीपणी + (पलाफव ¢प०0ा 62, 331.
283 1
यवस #. 2. 21288, {000€7; 4611826, 1 पथा पणय त 8660.
279. | 81885102 व11{068्18. 81. 1198-
यवसक्तु #. 27167028, 267. 8
¦1. 16 पआण०5६87त् 01 पप्5{षात
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यशि #. 14०7166, (€ः०व€ण्ता
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का का एष 01110 0000 80०44 पर
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भणि #. 159 "वातकेगश्रत्तिमोथकेय 17/9. "श्रमसहदेरूपमाज् 11/94.
"मधुज्ारः 7. 83 154 148
मधुमक्षिका /. 83 "वायक #. 155 न्कुथाङ् 21112. 152
सात्र /^. 96 *विधिकरजातजाति /^, {23 संरुष्ट #1. 121
नसूषशटक ४४, 30 #*"विभ्रं #. 16 *"सकर्गुणय्मह 1201. 122
श्ुगज्ञ 2. {3 +वित्मिश्च वणकः 110. 50 *"सकाञ्चन 21. 168
एकवण 4/४, 139 विधैकछिन् 1४. 18 सघ॒ण 1. 18
रक्तो 1/7. 118 *'चेशदह(न #४. 130 *"सथुणसदुष्णभोजिन् शरध.
श्जत . 172 #चैरय #. 15 114
रविं #, 88 #्चेरयजाति %, 127 +सदुरुगणश्धि 219, 120
¶राजजदुर 2, 9 इय न् 21. 21 सपक्ष 2. 1
भ्राजसे ४, 136 द्योम चारिन् #, 1 #£ससमीरभथमव 20. 13
शेखरा /. 70 ¶^"दाङ्क 1४. 30 *+सास्विक 1. 136
+शवत् 27९. 7. 169 द्रानि 1. 88 *"साध्यवास 2. 10
भरोधमजु 1/7. 150 दारिहोन्र 2. 3 साञ्ुदाविक 297. 132
^॥छक्षणरश्षित #.#. 141 भ्शाखिष्टोन्रादितिज्ञान #. सिम्धुदार 2. 110
षछघुतलु १. 130 166
+ठलघुतररोमक 11. 116 ह्युप्ति ^. 55
*"लद्धयत् 07८. #. 161 शद्धा /^. 29 स्थुल 9/8. 148
खर्वेण +, 168 भसिग्धाङ्क 00. 105
रह 2. 172 छदडवभं 1. 137
#. 81
*"वञ्चान्निसदश् 2/४. 101 +*इुद्धाङ् 111. 117 स्वस्माङ्ख 177. 153
भ्वाह्नजात 2. 12 इुष्क 12/. 154 "हयदह्दयगीतक्ष "91. 91
वह्किसस्मव 2. 14 ~ शद्रक #. 1 *हयाघधम #%. 134
*वाच्िनीन्दत 0.0. 144 शडादरजाति 2. 15 *हरिणी †. 29
भवा्जिमभ्यस 1. 143 +श्रमसहकरवर 2४४. 152 *हीरकखण्ड 22. 159
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3 10" जयश्रदरो € जयप्रद
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