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सूरदास के भ्रमरगीत के पद पाठ व्याख्या

पहला पद

ऊधौ , तुम हौ अति बड़भागी ।


अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ , दृष्टि न रूप परागी ।
‘ सूरदास ‘ अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यौं पागी ||
शब्दार्थ
ऊधौ – उद्धव ( री कृष्ण के सखा / मित्र )
रीरी
हौ – हो
अति – बहुत , अधिकता , जिसको करने में मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण किया गया हो , सीमा से
अधिक किया गया
बड़भागी – भाग्यवान , ख़ुनसीब
अपरस – अछूता , जिसे किसी ने छुआ न हो , अस्पृय श्य , अनासक्त , अलिप्त
सनेह – स्नेह
तगा – धागा / बंधन
नाहिन – नहीं
अनुरागी – प्रेम से भरा हुआ , अनुराग करने वाला , प्रेमी , भक्त , आसक्त
पुरइनि पात – कमल का पत्ता
दागी – दाग , धब्बा
ज्यौं – जैसे
माहँ – बीच में
गागरि – मटका
ताकौं – उसको
प्रीति नदी – प्रेम की नदी
पाउँ – पैर
बोरयौ – डुबोया
दृष्टि – नज़र , निगाह
परागी – मुग्ध होना
अबला – बेचारी नारी , जिसमें बल न हो , असहाय , कमज़ोर
भोरी – भोली
गुर चाँटी ज्यौं पागी – जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है
नोट – प्रस्तुत पद सूरदास जी द्वारा रचित सूरसागर के भ्रमरगीत से लिया गया हैं। प्रस्तुत पद में
सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस
नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे , तो
गोपियाँ उद्धव को भाग्य लीलीशाबताती हैं क्योंकि श्री कृष्ण के वापिस न आने पर जितना प्रभाव उन पर
पड़ा है उद्धव उससे कोसों दूर है।
व्याख्या – प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात री रीरीकृष्ण के मित्र से व्यंग करते हुए कह रही
हैं कि हे उद्धव ! तुम बहुत भाग्य ली हो, जो अभी तक श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के
बंधन से तुम अब तक अछूते हो और न ही तुम्हारे मन में श्रीकृ ष्ण के प्रति कोई प्रेम – भाव उत्पन्न
हुआ है । गोपियाँ उद्धव की तुलना कमल के पत्तों व तेल के मटके के साथ करती हुई कहती हैं कि
जिस प्रकार कमल के पत्ते हमे शजल के अंदर ही रहते हैं , लेकिन उन पर जल के कारण कोई
दाग दिखाई नहीं देता अर्थात् वे जल के प्रभाव से अछूती रहती हैं और इसके अतिरिक्त जिस
प्रकार तेल से भरी हुई मटकी पानी के मध्य में रहने पर भी उसमें रखा हुआ तेल पानी के प्रभाव
से अप्रभावित रहता है , उसी प्रकार श्री कृष्ण के साथ रहने पर भी तुम्हारे ऊपर उनके प्रेम का
कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उद्धव ने कृष्ण के प्रेम – रूपी
दरिया या नदी में कभी पाँव नहीं रखा और न ही कभी उनके रूप – सौंदर्य पर मुग्ध हुए। यही कारण है
कि गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली समझती हैं , जबकि वे खुद को अभागिन अबला नारी समझती हैं , जिस
प्रकार चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं , ठीक उसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृ ष्ण के प्रेम में उलझ
गई हैं , उनके मोहपाश में लिपट गई हैं।
भावार्थ – प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात श्री कृष्ण के मित्र से व्यंग कर रही हैं वे उद्धव
को भाग्य ली लीशाकहती हैं क्योंकि वे श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से अछूते
रहे हैं जबकि गोपियाँ श्री कृष्ण के मोहजाल में सी फस गई हैं जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपक
जाती हैं।
दूसरा पद
मन की मन ही माँझ रही ।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीं परत कही ।
अवधि अधार आस आवन की , तन मन बिथा सही ।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि , बिरहिनि बिरह दही ।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं , उत तैं धार बही ।
‘ सूरदास ’ अब धीर धरहिं क्यौं , मरजादा न लही ।
शब्दार्थ
माँझ – अंदर ही
जाइ – जा कर
अवधि – समय
अधार – आधार , अवलंब , सहारा , नींव
आस – आ श, किसी कार्य या बात के पूर्ण हो जाने की उम्मीद , इच्छा , विवास सश्वा, उम्मीद , संभावना
आवन – आने की
बिथा – व्यथा , मानसिक या शारीरिक क्लेश , पीड़ा , वेदना , चिंता , कष्ट
जोग सँदेसनि – योग के संदे% शको
बिरहिनि – वियोग में जीने वाली
बिरह दही – विरह की आग में जल रही हैं
हुती – थीं
गुहारि – रक्षा के लिए पुकारना
जितहि तैं – जहाँ से
उत तैं- उधर से
धार – योग की धारा
धीर – धैर्य
धरहिं – धारण करें / रखें
मरजादा – मर्यादा
लही – रही
नोट – जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि
वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं और उनकी विरह की व्यथा
और बढ़ गई।
व्याख्या – जब श्री कृष्ण के मथुरा वापस नहीं आने का संदेश गोपियाँ सुनती हैं तो गोपियाँ उद्धव
से अपनी पीड़ा बताते हुए कह रही हैं कि हमारे मन की इच्छाएँ हमारे मन में ही रह गईं ,
क्योंकि हम श्री कृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि हम उनसे प्रेम करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है
कि श्री कृष्ण के गोकुल छोड़ कर चले जाने के उपरांत, उनके मन में स्थित श्री कृष्ण के प्रति प्रेम
– भावना मन में ही रह गई है। वे उद्धव से शिकायत करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! अब तुम ही
बताओ कि हम अपनी यह व्यथा / यह पीड़ा किसे जाकर कहें ? उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। अब
तक श्री कृष्ण के आने की आ शही हमारे जीने का आधार थी। अर्थात वे अब तक इसी कारण जी रहीं
थी कि श्री कृष्ण जल्द ही वापिस आ जाएंगे और वे सिर्फ़ इसी आ शसे अपने तन – मन की पीड़ा को
सह रही थीं कि जब श्री कृष्ण वापस लौटेंगे , तो वे अपने प्रेम को कृष्ण के समक्ष व्यक्त करेंगी।
परन्तु जब उन्हें श्री कृष्ण का जोग अर्थात् योग – संदेश मिला , जिसमें उन्हें पता चला कि वे अब
लौटकर नहीं आएंगे , तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं , जिस कारण उनकी विरह की
व्यथा और बढ़ गई। अब तो उनके विरह सहने का सहारा भी उनसे छिन गया अर्थात अब श्री कृष्ण वापस
लौटकर नहीं आने वाले हैं और इसी कारण अब उनकी प्रेम – भावना कभी संतुष्ट होने वाली नहीं
है। वे जहाँ से भी श्री कृष्ण के विरह की ज्वाला से अपनी रक्षा करने के लिए सहारा चाह रही थीं ,
उधर से ही योग की धारा बहती चली आ रही है । उन्हें सा प्रतीत हो रहा है कि अब वह हमे शके
लिए श्री कृष्ण से बिछड़ चुकी हैं और किसी कारणवश गोपियों के अंदर जो धैर्य बसा हुआ था, अब वह
टूट चुका है। इसी वजह से गोपियाँ वियोग में कह रही हैं कि श्री कृष्ण ने सारी लोक – मर्यादा का
उल्लंघन किया है , उन्होंने हमें धोखा दिया है। तो भला हम धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं ?
भावार्थ – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की अभिलाषाएँ उनके मन में ही
रह गईं , क्योंकि वे श्री कृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि वे उनसे प्रेम करती हैं । अब वे अपनी यह
व्यथा किसे जाकर कहें ? क्योंकि श्री कृष्ण के आने की आ शके आधार पर उन्होंने अपने तन – मन
के दुःखों को सहन किया था। अब उनके द्वारा भेजे गए जोग अर्थात् योग के संदेश को सुनकर वे
विरह की ज्वाला में जल रही हैं। और कहती हैं कि अब जब श्रीकृ ष्ण ने ही सभी मर्यादाओं का त्याग
कर दिया , तो भला वे धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं ? कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियाँ श्री
कृष्ण के मोह में इतनी बांध चुकी हैं कि अब वे श्री कृष्ण से दूर रह कर जीवन जीना असंभव मानती
हैं।
तीसरा पद
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तौ ‘ सूर ’ तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी ।।
शब्दार्थ
हरि – श्री कृष्ण
हारिल – ऐसा पक्षी , जो अपने पैरों में लकड़ी दबाए रहता है
लकरी – लकड़ी
क्रम – कार्य
नंद – नंदन – नंद का पुत्र अर्थात श्री कृष्ण
उर – हृदय
दृढ़ – मज़बूती से / दृढ़तापूर्वक
पकरी- पकड़ी
जागत – जागना
सोवत – सोना
दिवस – दिन
निसि – रात
जक री – रटती रहती हैं
जोग – योग का संदेश
करुई – कड़वी
ककरी – ककड़ी / खीरा
सु – वह
ब्याधि – रोग
तिनहिं – उनको
मन चकरी – जिनका मन स्थिर नहीं रहता
नोट – सूरदास जी के इस पद में गोपियाँ उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण के
प्रति अटूट प्रेम है , जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। बल्कि इससे उनका
प्रेम और भी दृढ़ हो जाएगा।
व्याख्या – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमारे श्री कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी
की लकड़ी के समान हैं। जिस तरह हारिल पक्षी अपने पंजों में लकड़ी को बड़ी ही ढृढ़ता से
पकड़े रहता है , उसे कहीं भी गिरने नहीं देता , उसी प्रकार हमने भी मन , वचन और कर्म से नंद
पुत्र श्री कृष्ण को अपने ह्रदय के प्रेम – रूपी पंजों से बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़ा हुआ है अर्थात
दृढ़तापूर्वक अपने हृदय में बसाया हुआ है। हम तो जागते सोते , सपने में और दिन – रात कान्हा
– कान्हा रटती रहती हैं। इसी के कारण हमें तो जोग का नाम सुनते ही ऐसा लगता है , जैसे मुँह
में कड़वी ककड़ी चली गई हो। योग रूपी जिस बीमारी को तुम हमारे लिए लाए हो , उसे हमने न तो
पहले कभी देखा है , न उसके बारे में सुना है और न ही इसका कभी व्यवहार करके देखा है।
सूरदास गोपियों के माध्यम से कहते हैं कि इस जोग को तो तुम उन्हीं को जाकर सौंप दो , जिनका
मन चकरी के समान चंचल है। अर्थात हमारा मन तो स्थिर है , वह तो सदैव श्री कृष्ण के प्रेम में
ही रमा रहता है। हमारे ऊपर तुम्हारे इस संदेश का कोई असर नहीं पड़ने वाला है।
भावार्थ – सूरदास जी के इन पदों में गोपियां उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण
के प्रति अटूट प्रेम है , जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। उनके ऊपर
उद्धव के द्वारा लाए गए संदेश का कुछ असर होने वाला नहीं है। इसलिए उन्हें इस योग – संदेश
की कोई आवयकता कता नहीं है। यह संदेश उन्हें सुनाओ , जिनका मन पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में
श्य
डूबा नहीं और शायद वे यह संदेश सुनकर विचलित हो जाएँ। पर उनके ऊपर उद्धव के इस संदेश का
कोई असर नहीं पड़ने वाला है। क्योंकि उनका श्री कृष्ण के प्रति प्रेम अटूट है।
चौथा पद
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही , अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए ।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग – सँदेस पठाए ।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए ।
अब अपनै मन फेर पाइहैं , चलत जु हुते चुराए ।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन , जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहै ‘ सूर ’ , जो प्रजा न जाहिं सताए ।।
शब्दार्थ
पढ़ि आए – पढ़कर / सीखकर आए
मधुकर – भौरा , गोपियों द्वारा उद्धव के लिए प्रयुक्त संबोधन
पाए – प्राप्त करना
पठाए – भेजा
आगे के – पहले के
पर हित- दूसरों की भलाई के लिए
डोलत धाए – घूमते – फिरते थे
फेर – फिर से
पाइहैं – चाहिए
हुते – थे
आपुन – अपनों पर
अनीति – अन्याय
नोट – इस पद में गोपियाँ उद्धव को ताना मारती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। जिसके
कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं और अंत में गोपियों द्वारा उद्धव को राजधर्म ( प्रजा का
हित ) याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधर्मिता को दर् तार्शा
ताहै।
व्याख्या – इस पद में गोपियाँ व्यंग्यपूर्वक उद्धव से कहती हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़
लिया है। जो कि मधुकर अर्थात उद्धव के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को
माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। श्री कृष्ण पहले से ही बहुत चतुर चालाक थे , अब मथुरा
पहुँचकर शायद उन्होंने राजनीति शास्त्र भी पढ़ लिया है , जिस के कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो
गए हैं , जो उन्होंने तुम्हारे द्वारा जोग ( योग ) का संदेश भेजा है । हे उद्धव ! पहले के लोग
बहुत भले थे , जो दूसरों की भलाई करने के लिए दौड़े चले आते थे। यहाँ गोपियाँ श्री कृष्ण की ओर
संकेत कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अब श्री कृष्ण बदल गए हैं। गोपियाँ कहती हैं कि
मथुरा जाते समय हमारा मन श्री कृष्ण अपने साथ ले गए थे , जो अब हमें वापस चाहिए। वे तो
दूसरों को अन्याय से बचाते हैं , फिर हमारे लिए योग का संदेश भेजकर हम पर अन्याय क्यों कर
रहे हैं ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा
के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए अथवा न ही सताना चाहिए। इसलिए श्री कृष्ण को योग का संदेश
न के लिए आना चाहिए।
वापस लेकर स्वयं दर्नर्श
भावार्थ :- प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार
गोपियाँ श्री कृष्ण के वियोग में खुद को दिलासा दे रही हैं। सूरदास गोपियों के माध्यम से कह रहे
हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर (उद्धव) के द्वारा सब समाचार प्राप्त
कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। राजधर्म तो यही कहता है
कि राजा को प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए और न ही सताना चाहिए। इसलिए गोपियाँ चाहती
न के लिए आना चाहिए।
हैं कि श्री कृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्नर्श

रा
राम लक्ष्मण परराममशुसंवाद पाठ व्याख्या
चौपाई 1
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरिकरनी करि करिअ लराई ।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अवमाने ।
बहु धनुही तोरी लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।
दोहा
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार ।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ||
शब्दार्थ
संभु – शंभु अथवा शिव
धनु – धनुष
भंजनिहारा – भंग करने वाला , तोड़ने वाला , नष्ट करने वाला
होइहि – ही होगा
केउ – कोई
आयेसु – आज्ञा
काह – क्या
कहिअ – कहते
किन – क्यों नहीं
मोही – मुझे
रिसाइ – क्रोध करना
कोही – क्रोधी
अरिकरनी – शत्रु का काम
लराई – लड़ाई
जेहि – जिसने
तोरा – तोड़ा
सहसबाहु – सहस्त्रबाहु , हजार भुजाओं वाला
सम – समान
सो – वह
रिपु – शत्रु
बिलगाउ – अलग होना
बिहाइ – छोड़कर
जैहहिं – जाएँगे
अवमाने – अपमान करना
लरिकाईं – बचपन में
कबहुँ – कभी
असि – ऐसा
रिस – क्रोध
कीन्हि – किया
गोसाईं – स्वामी / महाराज
येहि – इस
भृगुकुलकेतू – भृगुकुल की पताका अर्थात् परराम रामशु
नृपबालक – राजपुत्र / राजा का बेटा
त्रिपुरारि – शिव जी
बिदित – जानता है
सकल – सारा
नोट – इस काव्यांश में तुलसीदास जी ने उस वाक्य का वर्णन किया है जहाँ श्री राम के द्वारा शिव
धनुष को तोड़ देने पर परराम रामशुजी क्रोधित हो जाते हैं। परराम
रामशुजी इतने क्रोधित हो जाते हैं कि
धनुष तोड़ने वाले को अपना शत्रु तक मान लेते हैं। परराम रामशुजी को इतना अधिक क्रोध करता देख
कर अनजाने में ही लक्ष्मण जी उनका उपहास करने लगते हैं। जिस पर परराम रा मशुजी और अधिक
क्रोधित हो जाते हैं।
व्याख्या – श्री राम जी के द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने के कारण जब परराम रामशुजी क्रोधित हो जाते
हैं तब उन के क्रोध को देखकर जब जनक के दरबार में सभी लोग भयभीत हो गए तो श्री राम ने आगे
बढ़कर परराम रामशुजी से कहा कि हे नाथ ! भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही
होगा। आप की क्या आज्ञा है , आप मुझसे क्यों नहीं कहते ? राम के वचन सुनकर क्रोधित परराम रामशु
जी बोले – सेवक वह कहलाता है , जो सेवा का कार्य करता है। शत्रुता का काम करके तो लड़ाई ही
मोल ली जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आप किसी को कष्ट दे कर उसको खु शनहीं दे सकते।
हे राम ! मेरी बात सुनो , जिसने भगवान शिव जी के इस धनुष को तोड़ा है , वह सहस्रबाहु के समान
मेरा शत्रु है। अर्थात जिसने भी भगवान् शिव के धनुष को तोड़ा है , उसकी चाहे हज़ार भुजाएँ हों वह
फिर भी मेरा शत्रु है। फिर वो राजसभा की तरफ देखते हुए कहते हैं कि जिसने भी शिव धनुष तोड़ा है
वह व्यक्ति खुद बखुद इस समाज से अलग हो जाए , नहीं तो यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे।
रा
परराम मशुजी के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराए और पररामरामशुजी का अपमान
करते हुए बोले – हे गोसाईं ( संत ) ! बचपन में हमने ऐसे छोटे – छोटे बहुत से धनुष तोड़ डाले
थे , किंतु ऐसा क्रोध तो कभी किसी ने नहीं किया , जिस प्रकार आप कर रहे हैं। इसी धनुष पर आपकी
इतनी ममता क्यों है ?
लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातें सुनकर पररामरामशुजी क्रोधित स्वर में बोले – अरे राजा के पुत्र !
मृत्यु के वश में होने से तुझे यह भी होश नहीं कि तू क्या बोल रहा है ? तू सँभल कर नहीं बोल पा
रहा है । समस्त विव श्वमें विख्यात भगवान शिव का यह धनुष क्या तुझे बचपन में तोड़े हुए धनुषों के
समान ही दिखाई देता है ?
भावार्थ – इस चौपाई में परराम रामशुजी के क्रोध को दिखाया गया है। जो अपने आराध्य भगवान् शिव के
धनुष के टूटने से अत्यंत दुखी हैं और धनुष को तोड़ने वाले को अपने शत्रु की तरह देख रहे हैं।
चौपाई 2
लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।
का छति लाभु जून धनु तोरें । देखा राम नयन के भोरें ।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।।
बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही । ।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ।।
दोहा
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।
शब्दार्थ
हसि – हँसकर
हमरे – मेरे
सुनहु – सुनो
छति – क्षति / नुकसान
जून – पुराना
तोरें – तोड़ने में
भोरें – धोखे में
छुअत टूट – छूते ही टूट गया
रघुपतिहु – राम का
दोसू – दोष / गलती
बिनु – बिना
काज – कारण
रोसु – क्रोध
चितै – देखकर
परसु – फरसा
सठ – दुष्ट
सुनेहि – सुना है
सुभाउ – स्वभाव
बधौं – वध करता हूँ
तोही – तुझे
अति कोही – बहुत अधिक क्रोधित
बिस्वबिदित – दुनिया में प्रसिद्ध
द्रोही – घोर क्षत्रु
भुजबल – भुजाओं के बल से
कीन्ही – कई बार
भूप – राजा
बिपुल – बहुत
महिदेवन्ह – ब्राह्मणों को
छेदनिहारा – काट डाला
बिलोकु – देखकर
महीपकुमारा – राजकुमार
गर्भन्ह – गर्भ के
अर्भक – बच्चा
दलन – कुचलने वाला
अति घोर – अत्यधिक भयंकर
नोट – इस काव्यांश में तुलसीदास वर्णन कर रहे हैं कि जब परराम रा मशुजी को अत्यधिक क्रोध करता
देख लक्ष्मण जी उनका और ज्यादा मजाक बनाने लगते हैं जिस कारण परराम रा
मशुजी इतने अधिक
क्रोधित हो जाते हैं कि वे अपना परिचय अत्यधिक क्रोधी स्वभाव वाले व्यक्ति के रूप में देते
हैं और बताते हैं कि वे पूरे विव श्वमें क्षत्रिय कुल के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हैं।

व्याख्या – परराम
रा
मशुजी का शिव धनुष की ओर इतना प्रेम देख कर और उसके टूट जाने पर अत्यधिक
क्रोधित होता हुआ देख कर लक्ष्मण जी हँसकर परराम मशुजी से बोले कि हे देव ! सुनिए , मेरी समझ
रा
के अनुसार तो सभी धनुष एक समान ही होते हैं ।
लक्ष्मण श्रीराम की ओर देखकर बोले कि इस धनुष के टूटने से क्या लाभ है तथा क्या हानि , यह बात
मेरी समझ में नहीं आ रही है। श्री राम जी ने तो इसे केवल छुआ था , लेकिन यह धनुष तो छूते ही
टूट गया । फिर इसमें श्री राम जी का क्या दोष है ? मुनिवर ! आप तो बिना किसी कारण के क्रोध कर रहे
हैं ? कहने का तात्पर्य यह है कि लक्ष्मण जी परराम रा मशुजी के क्रोध को बेमतलब का मान रहे थे
क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि उस धनुष के साथ परराम रामशुजी के क्या भाव जुड़े थे।
लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परराम रामशुजी का क्रोध और बढ़ गया और वह अपने फरसे
की ओर देखकर बोले कि अरे दुष्ट ! क्या तूने मेरे स्वभाव के विषय में नहीं सुना है ? मैं
केवल बालक समझकर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। अरे मूर्ख ! क्या तू मुझे केवल एक मुनि समझता
है ? मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति हूँ ।मैं पूरे विव श्वमें क्षत्रिय कुल
के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
मैंने अपनी इन्हीं भुजाओं के बल से पृथ्वी को कई बार राजाओं से रहित करके उसे ब्राह्मणों को
दान में दे दिया था। हे राजकुमार ! मेरे इस फरसे को देख , जिससे मैंने सहस्रबाहु अर्थात
हजारों लोगों की भुजाओं को काट डाला था ।
अरे राजा के बालक लक्ष्मण ! तू मुझसे भिड़कर अपने माता – पिता को चिंता में मत डाल अर्थात
अपनी मौत को न बुला । मेरा फरसा बहुत भयंकर है । यह गर्भ में पल रहे बच्चों का भी नाश कर
डालता है अर्थात मेरे फरसे की गर्जना सुनकर गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है। कहने
का तात्पर्य यह है कि परराम रामशुजी लक्ष्मण जी को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें जब
क्रोध आता है तो वे किसी बालक को भी मारने से नहीं हिचकिचाते।
भावार्थ – इस चौपाई में पररामरा
मशुजी लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर अत्यधिक क्रोधित
हो जाते हैं। किन्तु वे लक्ष्मण जी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते थे जिस कारण वे लक्ष्मण जी
को अपने क्रोध का परिचय देते हुए कहते हैं कि उनका फरसा बहुत भयंकर है , जो गर्भ में पल
रा
रहे बच्चों का भी नाश कर डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परराममशुजी केवल उस व्यक्ति को
सजा देना चाहते थे जिसने उनके आराध्य शिव जी के धनुष को तोड़ा था। वे लक्ष्मण जी को बालक
समझ कर केवल अपने क्रोध का परिचय देते हैं।

चौपाई 3
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ।।
इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी ।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाईं । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।
बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।।
दोहा
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर ।।
शब्दार्थ
बिहसि – हँसकर
मृदु – कोमल
बानी – बोली , वाणी
मुनीसु – महामुनि
महाभट – महान् योद्धा
मानी – मानना
पुनि पुनि – बार बार
कुठारु – फरसा / कुल्हाड़ा
पहारू – पहाड़
इहाँ – यहाँ
कुम्हड़बतिआ – सीताफल / कुम्हड़ा का छोटा फल
तरजनी – अँगूठे के पास की अँगुली
सरासन – धनुष
बाना – बाण
भृगुसुत – भृगुवं श
सहौं – सहन करना
सुर – देवता
महिसुर – ब्राह्मण
हरिजन – ईवर रवभक्त
अरु – और
गाईं – गाय
सुराई – वीरता दिखाना
बधें – वध करने से , मारने से
अपकीरति – अपयश
मारतहू – मार दो
पा – पैर
परिअ – पड़ना
कोटि – करोड़
कुलिस – वज्र / कठोर
कहेउँ – कह दिया हो
छमहु – क्षमा करना
धीर – धैर्यवान
सरोष – क्रोध में भरकर
गिरा – वाणी
नोट – इस काव्यांश में पररामरामशुजी के क्रोधित वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी द्वारा अत्यंत कोमल
वाणी में हँसकर उनको प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि वे उनको भृगुवं शसमझकर और आपके
कंधे पर जनेऊ देखकर अपने क्रोध को सहन कर रहे हैं। उनका तो एक – एक वचन ही करोड़ों
वज्रों के समान कठोर है। उन्होंने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष धारण किया हुआ है। इन वचनों
को सुनकर पररामरामशुजी और अधिक क्रोधित हो जाते हैं।
व्याख्या – परराम
रामशुजी के क्रोध से भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी बहुत ही अधिक कोमल वाणी में
हँसकर उनसे बोले कि हे मुनिवर ! आप तो अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं और बार –
बार मुझे अपना फरसा दिखाते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आप फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते
हैं , परंतु हे मुनिवर ! यहाँ पर कोई भी सीता फल अर्थात कुम्हड़े के छोटे फल के समान नहीं हैं
, जो तर्जनी उँगली को देखते ही मर जाएँ। ( यहाँ लक्षमण जी ने , तर्जनी उँगली को देखते ही मर
जाएँ , ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि परराम रामशुजी ने क्रोध में अपनी तर्जनी उँगली दिखा कर कहा था
कि अगर वह व्यक्ति सभा से अलग नहीं हो जाता अर्थात उनके सामने नहीं आ जाता जिसने उनके
आराध्य शिव जी का धनुष तोड़ा है तो वे वहाँ सभा में उपस्थित सभी राजाओं का वध कर देंगे )
मुनि जी ! मैंने आपके हाथ में फरसा और धनुष – बाण देखकर ही अभिमानपूर्वक आपसे कुछ कहा
था। कहने का तात्पर्य यह है कि एक क्षत्रिय ही दूसरे क्षत्रिय से अभिमान पूर्वक कुछ कह सकता
है। जनेऊ से तो आप एक भृगुवंशी ब्राह्मण जान पड़ते हैं इन्हें देखकर ही , जो कुछ भी आपने कहा
उसे सहन कर अपने क्रोध को रोक रहा हूँ। हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता , ब्राह्मण ,
भगवान के भक्त और गाय , इन सभी पर वीरता नहीं दिखाया करते , क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता
है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति अथवा अपयश ( बदनामी ) होता है । इसीलिए आप मारें तो भी ,
हमें आपके पैर पकड़ने चाहिए। हे महामुनि ! आपका तो एक – एक वचन ही करोड़ों वज्रों के
समान कठोर है। आपने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष – बाण धारण किया हुआ है।
आपके धनुष बाण और कुठार (फरसे) को देखकर अगर मैंने कुछ अनुचित कह दिया हो तो हे मुनिवर !
आप मुझे क्षमा कीजिए। लक्ष्मण के यह व्यंग्य – वचन सुनकर भृगुवंशी परराम रामशुक्रोध में आकर
गंभीर स्वर में बोलने लगे।
भावार्थ – परराम रा मशुजी को अत्यधिक क्रोधित हो कर अपने क्रोधित व्यवहार के बारे में बताते हुए
देख कर लक्ष्मण जी इनका और अधिक अपमान करने लगे और उनके बताए तर्कों का खंडन करने
लगे। लक्ष्मण जी के ऐसा करने के कारण परराम रामशुजी और अधिक क्रोधित हो गए।
चौपाई 4
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु | कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।
भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।
कालकवलु होइहि छन माहीं । कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ।।
दोहा
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ।।
शब्दार्थ
कौसिक – विवामित्रमि त् रश्वा
सुनहु – सुनिए
मंद – मुर्ख , कुबुद्धि
येहु – यह
कुटिलु – दुष्ट
कालबस – मृत्यु के व भूत भूतशी
घालकु – घातक
भानुबंस – सूर्यवं श
राकेस कलंकू – चंद्रमा का कलंक
निपट – पूरी तरह
निरंकुसु – जिस पर किसी का वश न चले
अबुधु – नासमझ
असंकू – शंकारहित
कालकवलु – काल का ग्रसित / मृत
छन माहीं – क्षण भर में
खोरि – दोष
हटकहु – रोको
उबारा – बचाना
सुजसु – सुयश / सुकीर्ति
अछत – आपके रहते हुए
बरनै – वर्णन
पारा – दुसरा
करनी – काम
बरनी – वर्णन किया
दुसह – असह्य
बीरब्रती – वीरता का व्रत धारण करने वाला
अछोभा – क्षोभरहित
गारी – गाली
सूर – शूरवीर
समर – युद्ध
रन – युद्ध
कथहिं प्रतापु – प्रताप की डींग मारना
नोट – इन चौपाइयों में लक्ष्मण जी की व्यंग भरी बातों को सुन कर परराम रामशुजी विवामित्र
मित्रश्वा
जी को
उन्हें समझाने को कहते है और साथ – ही – साथ यह भी कहते हैं कि अगर लक्ष्मण जी चुप नहीं
हुए तो इसके परिणाम का दोष उन्हें न दिया जाए। परन्तु लक्ष्मण जी इसके बावजूद भी परराम रामशुजी पर
व्यंग्य कसते जाते हैं।
व्याख्या – लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर पररामरामशुजी को और क्रोध आ गया और वह
विवामित्रमित्रश्वा मित्
से बोले कि हे विवामित्र ! यह बालक ( लक्ष्मण ) बहुत कुबुद्धि और कुटिल लगता है।
रश्वा
और यह काल (मृत्यु ) के वश में होकर अपने ही कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवं शबालक
चंद्रमा पर लगे हुए कलंक के समान है। यह बालक मूर्ख , उदंण्ड , निडर है और इसे भविष्य का भान
तक नहीं है।
अभी यह क्षणभर में काल का ग्रास हो जाएगा अर्थात् मैं क्षणभर में इसे मार डालूँगा। मैं अभी
से यह बात कह रहा हूँ , बाद में मुझे दोष मत दीजिएगा। यदि तुम इस बालक को बचाना चाहते हो तो ,
इसे मेरे प्रताप , बल और क्रोध के बारे में बता कर अधिक बोलने से मना कर दीजिए।
लक्ष्मण जी इतने पर भी नहीं माने और परराम मशुको क्रोध दिलाते हुए बोले कि हे मुनिवर ! आपका
रा
सुयश आपके रहते हुए दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आप तो अपने ही मुँह से अपनी करनी और
अपने विषय में अनेक बार अनेक प्रकार से वर्णन कर चुके हैं।
यदि इतना सब कुछ कहने के बाद भी आपको संतोष नहीं हुआ हो , तो कुछ और कह दीजिए। अपने क्रोध
को रोककर असह्य दुःख को सहन मत कीजिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले , धैर्यवान और
क्षोभरहित हैं , आपको गाली देना शोभा नहीं देता।
जो शूरवीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते , बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता को
सिद्ध करते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर भी अपने प्रताप की व्यर्थ बातें करने वाला
कायर ही हो सकता है। अर्थात युद्ध में अपने शत्रु को सामने देखकर अपनी झूठी प्र सा साशंतो कायर
करते हैं।
भावार्थ – लक्ष्मण जी जब परराम रामशुजी का अपमान किए जा रहे थे तब परराम रा
मशुजी ने लक्ष्मण जी को
शांत करवाने के लिए विवामित्रमि त् जी को कहा , क्योंकि परराम
रश्वा रामशुजी नहीं चाहते थे कि वे क्रोध में
कुछ अनर्थ कर दें। किन्तु लक्ष्मण जी परराम रा मशुजी पर व्यंग्य करते जा रहे थे। इस चौपाई से
हमें यह भी ज्ञात होता है कि परराम रा
मशुजी का क्रोधित व्यवहार सम्पूर्ण संसार में विख्यात था
किन्तु लक्ष्मण जी इससे अनजान थे और वे अनजाने में ही परराम रामशुजी के साथ ऐसा व्यवहार कर
रहे थे।
चौपाई 5
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ।।
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेड कर घोरा ।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब येहु मरनिहार भा साँचा ।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।।
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ।।
न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ।।
दोहा
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ।।
शब्दार्थ
कालु – काल / मृत्यु
हाँक – आवाज़ लगाना
जनु – जैसे
लावा – लगाना
सुधारि – सुधारकर
कर – हाथ
देइ – देना
दोसु – दोष
कटुबादी – कड़वे वचन बोलने वाला
बधजोगू – मारने योग्य , वध के योग्य
बाँचा – बचाया
मरनिहार – मरने वाला
साँचा – सच में ही
छमिअ – क्षमा करना
गनहिं – गिनना
खर – दुष्ट
अकरुन – जिसमें दया और करुणा न हो
कोही – क्रोधी
गुरहि – गुरु के
उरिन – ॠण से मुक्त
श्रमथोरे – थोड़े परिरममश्रसे
गाधिसूनु – गाधि के पुत्र अर्थात् विवामित्र
मित्रश्वा
हरियरे – हरा ही हरा
अयमय – लोहे की बनी हुई
खाँड़ – तलवार
ऊखमय – गन्ने से बनी हुई
अजहुँ – अब भी
नोट – इस चौपाई में तुलसीदास जी वर्णन कर रहे हैं कि जब लक्ष्मण जी परराम रा मशुजी के क्रोध से
नहीं डर रहे थे तो परराम रा
मशुजी सभी से कहते हैं कि अभी तक वे लक्ष्मण जी को बालक समझ कर
माफ कर रहे थे , परन्तु अब वे और सहन नहीं कर सकते। अब कोई उन्हें दोष न दें। परराम रामशुजी
मि
के ऐसे वचन सुनकर विवामित्रत्रश्वा रा
जी मन ही मन परराम मशुजी का अज्ञानियों की तरह व्यवहार देख कर
हँसने लगे।
व्याख्या – लक्ष्मण जी परराम
रामशुजी के वचनों को सुनकर उन से बोले कि ऐसा लग रहा है मानो आप तो
काल ( यमराज ) को आवाज लगाकर बार-बार मेरे लिए बुला रहे हो। लक्ष्मण जी के ऐसे कठोर वचन
सुनते ही पररामरा मशुजी का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने अपने भयानक फरसे को घुमाकर अपने हाथ
में ले लिया और बोले अब मुझे कोई दोष नहीं देना। इतने कड़वे वचन बोलने वाला यह बालक
मारे जाने योग्य है। बालक देखकर इसे मैंने बहुत बचाया , लेकिन लगता है कि अब इसकी मृत्यु
निकट आ गई है।
रा
परराम मशुजी को क्रोधित होते देखकर विवामित्रमित् जी बोले हे मुनिवर ! आप इसके अपराध को क्षमा
रश्वा
कर दीजिए क्योंकि साधु लोग तो बालकों के गुण और दोष की गिनती नहीं करते हैं। तब परराम रामशुजी
ने क्रोधित होते हुए कहा मै दयारहित और क्रोधी हूँ कि ये मेरा दुष्ट फरसा है , मैं स्वयं
दयारहित और क्रोधी हूँ , उस पर यह गुरुद्रोही मेरे सामने …….
उत्तर दे रहा हैं फिर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। हे विवामित्र मित् ! सिर्फ तुम्हारे प्रेम
रश्वा
के कारण। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिरममश्रसे गुरु के ऋण से मुक्त हो
जाता।
रा
परराम मशुजी के वचन सुनकर विवामित्रमित्
रश्वा
जी ने मन ही मन में हँसकर सोचा कि मुनि परराम रा
मशुजी को
हरा – ही – हरा सूझ रहा है अर्थात् चारों ओर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को
साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। मुनि अब भी नहीं समझ रहे हैं कि ये दोनों बालक लोहे की
बनी हुई तलवार हैं , गन्ने के रस की नहीं , जो मुँह में लेते ही गल जाएँ अर्थात् राम – लक्ष्मण
सामान्य वीर न होकर बहुत पराक्रमी योद्धा हैं। परराम मशुजी अभी भी इनकी साहस , वीरता व क्षमता से
रा
अनभिज्ञ हैं।
भावार्थ – इस चौपाई से हमें पता चलता है कि लक्ष्मण जी निडर स्वभाव के हैं और परराम
रामशुजी
जो आज तक सभी क्षत्रियों पर विजयी रहे हैं , वे राम – लक्ष्मण को भी एक साधारण क्षत्रिय ही
समझ रहे हैं। जिस कारण विवामित्र मि त्
रश्वा
जी उनकी अज्ञानता पर मन ही मन हँस रहे हैं।
चौपाई 6
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ।।
माता पितहि उरिन भये नीकें । गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा । दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा ।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही । बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े । द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे । रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।।
दोहा
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु ।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ||
शब्दार्थ
सीलु – शील स्वभाव
बिदित – पता है
उरिन – ऋणमुक्त
भये – हो गए
नीकें – भली प्रकार
गुररिनु – गुरु का ऋण
हमरेहि – मेरे ही
ब्यवहरिआ – हिसाब लगाने वाले को
बिप्र – ब्राह्मण
सुभट – बड़े – बड़े योद्धा
द्विजदेवता – ब्राह्मण
सयनहि – आँख के इ रे रेशा
से
नेवारे – मना किया
कृसानु – अग्नि
रघुकुलभानु – रघुवंश के सूर्य श्रीरामचंद्र
नोट – इस चौपाई में तुलसीदास जी वर्णन कर रहे हैं कि जब लक्ष्मण जी किसी भी तरह परराम रामशुजी
के अपमान करने से पीछे नहीं हट रहे थे और परराम रामशुजी को अत्यधिक क्रोध आ रहा था तब श्री
राम जी ने लक्ष्मण जी के वचनों के विपरीत शांत वचनों से परराम रामशुजी से लक्ष्मण जी को क्षमा
करने की विनती करने लगे।
व्याख्या – परराम
रा मशुजी के क्रोध से पूर्ण वचनों को सुन कर लक्ष्मण जी ने पररामरा मशुजी से कहा कि
हे मुनिरेष्ठ ठश्रे! आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता। वह सारे संसार में प्रसिद्ध है। आपने
ष्
अपने माता पिता का ऋण तो चुका ही दिया हैं और अब अपने गुरु का ऋण चुकाने की सोच रहे हैं।
जिसका आपके जी पर बड़ा बोझ है। और अब आप ये बात भी मेरे माथे डालना चाहते हैं। बहुत
दिन बीत गये। इसीलिए उस ऋण में ब्याज बहुत बढ़ गया होगा। बेहतर है कि आप किसी हिसाब करने
वाले को बुला लीजिए। मैं आपका ऋण चुकाने के लिए तुरंत थैली खोल दूंगा। लक्ष्मण जी के
कडुवे वचन सुनकर परराम रामशुजी ने अपना फरसा उठाया और लक्ष्मण जी पर आघात करने को दौड़
पड़े । सारी सभा हाय – हाय पुकारने लगी। इस पर लक्ष्मण जी बोले हे मुनिरेष्ठ ष्ठश्रे! आप मुझे बार
बार फरसा दिखा रहे हैं। हे क्षत्रिय राजाओं के शत्रु ! मैं आपको ब्राह्मण समझ कर बार – बार बचा
रहा हूँ। मुझे लगता है आपको कभी युद्ध के मैदान में वीर योद्धा नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण
देवता ! आप घर में ही अपनी वीरता के कारण फूले – फूले फिर रहे हैं अर्थात् अत्यधिक खुश हो
रहे हैं। लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग यह अनुचित है , यह अनुचित
है ‘ कहकर पुकारने लगे। यह देखकर श्री राम जी ने लक्ष्मण जी को आँखों के इ रे रेशा से रोक दिया।
लक्ष्मण जी के उत्तर पररामरा मशुजी की क्रोधाग्नि में आहुति के सदृश कार्य कर रहे थे। इस
क्रोधाग्नि को बढ़ते देख रघुवं शसूर्य राम , लक्ष्मण जी के वचनों के विपरीत , जल के समान शांत
करने वाले वचनों का प्रयोग करते हुए परराम रामशुजी से लक्ष्मण को क्षमा करने की विनती करने
लगे। लक्ष्मण जी के उत्तरों ने , परराम रामशुजी के क्रोध रूपी अग्नि में आहुति का काम किया।
जिससे उनका क्रोध अत्यधिक बढ़ गया। जब श्री राम ने देखा कि परराम रामशुजी का क्रोध अत्यधिक बढ़
चुका है। अग्नि को शांत करने के लिए जैसे जल की आवयकता कता श्य
होती हैं। वैसे ही क्रोध रूपी
अग्नि को शांत करने के लिए मीठे वचनों की आवयकता कता श्य
होती हैं। श्री राम ने भी वही किया। श्री राम ने
अपने मीठे वचनों से परराम रामशुजी का क्रोध शांत करने का प्रयास किया।
भावार्थ – लक्ष्मण जी के प्रत्येक उत्तर पररामरामशुजी की क्रोधाग्नि में आहुति के कार्य कर रहे
रा
थे। जब श्री राम जी ने ये सब देखा कि परराम मशुजी का क्रोध अत्यधिक बढ़ चुका है। तब अग्नि को
शांत करने के लिए जैसे जल की आवयकता कताश्य
होती हैं। वैसे ही परराम रामशुजी की क्रोध रूपी अग्नि को
शांत करने के लिए श्री राम जी ने मीठे वचनों से परराम रामशुजी का क्रोध शांत करने का प्रयास किया।
भाव यह है कि जितने क्रोधित स्वभाव के लक्ष्मण जी थे उसके बिलकुल विपरीत श्री राम का स्वभाव
अत्यंत शांत था।

आत्मकथ्य पाठ व्याख्या


काव्यांश 1
मधुप गुन – गुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी ,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी ।
इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन – इतिहास
यह लो , करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य – मलिन उपहास
तब भी कहते हो – कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती ।
तुम सुनकर सुख पाओगे , देखोगे – यह गागर रीती ।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –
अपने को समझो , मेरा रस ले अपनी भरने वाले ।
शब्दार्थ
मधुप – भौंरा
घनी – अधिक
अनंत – वि ललशा
नीलिमा – नीला आकाश
असंख्य – जिसकी कोई संख्या न हो , अनगिनत
जीवन – इतिहास – जीवन की कहानी
व्यंग्य – मज़ाक
मलिन – गंदा
उपहास – मज़ाक
दुर्बलता – कमज़ोरी
बीती – गुजरी हुई स्थति या बात , खबर , हाल
गागर रीती – खाली घड़ा ( ऐसा मन जिसमें भाव नहीं है )
नोट – कवि को जब अपनी आत्मकथा लिखने का प्रस्ताव मिला , तब अतीत में घटित सभी धटनाएँ एक
– एक करके उनकी आँखों के सामने आने लगती हैं। इस काव्यांश में कवि अपने मित्रों से
प्रन श्नभी करते हैं कि आखिर वे कवि की आत्मकथा क्यों सुनना चाहते हैं?
व्याख्या – कवि जय कर करशंप्रसाद भौंरे के माध्यम से अपनी कथा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि
हे मन रूपी भौंरे ! गुन – गुनाकर अपनी कौन – सी कहानी कह रहा है ? कहने का तात्पर्य यह है कि जिस
तरह से एक भौंरा फूलों के आसपास गुंजार करते हुए मंड़राता फिरता हैं। ठीक उसी प्रकार आज कवि
का मन रूपी भँवरा भी अतीत की यादों के आसपास गुन – गुना कर गुंजार करते हुए न जाने अपनी कौन सी
कहानी कहना चाह रहा है। कवि आगे कहते हैं कि उनका जीवन रूपी वृक्ष जो कभी सुख व आनंद रुपी
पत्तियों से हरा भरा था। अब वो सभी पत्तियों मुरझा कर एक – एक करके गिर रही हैं। क्योंकि आज
कवि के जीवन की परिस्थितियां बदल चुकी है। उनके जीवन में सुख की जगह दुख और निरा शने ले
ली है। और कवि इस वक्त अपने जीवन रूपी वृक्ष में पतझड़ का सामना कर रहे हैं।
हिंदी साहित्य रूपी इस वि ललशाविस्तार वाले आकाश में न जाने कितने महान् पुरुषों अर्थात लेखकों
के जीवन का इतिहास उनकी आत्मकथा के रूप में मौजूद हैं। उन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि
वह स्वयं अपना मजाक उड़वाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग इन महान लेखकों की
आत्मकथा को पढ़कर उनकी कमियों का मजाक बनाते हैं।
इस कड़वे सत्य को जानते हुए भी कि प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे की दुर्बलताओं और कमजोरियों का
मजाक बनाने में लगा है। फिर भी मित्रों तुम मुझसे यह कहते हो कि मेरे जीवन में जो कमियाँ
हैं , जो मेरे साथ घटित हुआ है , उसे मैं सबके सामने कह डालूँ। फिर कवि अपने दोस्तों से
पूछते हैं कि क्या तुम मेरी कहानी को सुनकर सुख प्राप्त कर सकोगे ? मेरा जीवन रूपी घड़ा एकदम
खाली है , जिसमें कोई भाव नहीं है।
कवि आगे कहते हैं कि अगर मैंने अपनी आत्मकथा में कुछ ऐसा लिख दिया जिसे पढ़कर तुम कही
ऐसा न समझो कि मेरे जीवन रूपी गागर (घड़े) में जो सुख , खु यों योंशि
और आनंद रूपी रस थे । वो सभी
तुमने ही खाली किये हैं। और उन सभी रसों को मेरे जीवन रूपी गागर (घड़े) से लेकर तुमने
अपने जीवन रूपी गागर (घड़े) में भर लिया हों। और मेरा जीवन दुखों से भर दिया हो।
भावार्थ – कवि जय कर
करशंप्रसाद पहले तो अपनी आत्मकथा लिखने को तैयार नहीं थे और तर्क दे
रहे थे कि इस हिंदी साहित्य में न जाने कितने महान् पुरुषों अर्थात लेखकों के जीवन का
इतिहास उनकी आत्मकथा के रूप में मौजूद हैं। लोग इन महान लेखकों की आत्मकथा को पढ़कर
उनकी कमियों का मजाक बनाते हैं। इस कड़वे सत्य को स्वीकार करते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति एक
दूसरे की दुर्बलताओं और कमजोरियों का मजाक बनाने में लगा है। फिर भी कवि अंततः अपनी
आत्मकथा को लिखने के लिए तैयार तो हो जाते हैं किन्तु चेतावनी भी देते हैं कि वे कुछ ऐसा
भी लिख सकते हैं जिसे पढ़कर कही कोई ऐसा न समझे कि उनके जीवन में जो सुख , खुशियों और
आनंद रूपी रस थे , वो उन सभी ने ही खाली किये हैं और कवि का जीवन दुखों से भर दिया है। असल
में यह भी कवि का एक तर्क ही है जिसको दे कर वे अपनी आत्मकथा को लिखने से बचना चाहते
हैं।
काव्यांश 2

यह विडंबना ! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं ।


भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं ।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ , मधुर चाँदनी रातों की ।
अरे खिल – खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की ।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया ।
आलिंगन में आते – आते मुसक्या कर जो भाग गया ।
शब्दार्थ
विडंबना – दुर्भाग्य , कष्टकर स्थिति , निंदा करना
सरलते – सरल मन वाले
प्रवंचना – छल , धोखा , कपट , झूठ , धूर्तता
उज्ज्वल गाथा – सुखभरी कहानी
आलिंगन – बाँहों में भरना
मुसक्या – मुसकुराकर
नोट – कवि यहां पर कहते हैं कि जिस व्यक्ति का स्वभाव जितना ज्यादा सरल होता है उसको लोग
उतना ही ज्यादा धोखा देते हैं। कवि अपने उन प्रपंची मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला
कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते। साथ ही साथ वे अपने निजी पलों को भी दुनिया के सामने नहीं
बताना चाहते। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद कवि अपने जीवन को दुःखमयी समझता है।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि यह तो बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मेरे मित्र मुझे आत्मकथा
लिखने को कह रहे हैं क्योंकि सरल मन वाले की मैं हँसी कैसे उड़ाऊँ। मैं तो अभी तक स्वयं
दूसरों के स्वभाव को समझ नहीं पाया हूँ । मेरे सरल स्वभाव के कारण जीवन में मुझसे जो
गलतियां हुई। कुछ लोगों ने जो मुझे धोखे दिए या मेरे साथ जो छल – प्रपंच किया हैं। उन सभी
के बारे में लिखकर मैं अपना और उनका मजाक नहीं बनाना चाहता हूँ । कहने का तात्पर्य यह है
कि कवि अपने प्रपंची मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते
हैं। इसीलिए कवि अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहते हैं।
कवि अपनी पत्नी के साथ बिताये गये मधुर पलों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि चांदनी रातों
में मैंने अपनी प्रेयसी ( पत्नी ) के साथ एकांत में खिलखिला कर हंसते हुए , उससे प्यार भरी
मीठी बातें करते हुए , जो समय बिताया था। वही मधुर स्मृतियों ही तो अब मेरे जीवन जीने का एक
मात्र सहारा है। उन निजी क्षणों का वर्णन मैं कैसे कर सकता हूँ ? उन आनंद भरे पलों की बातों को
मैं दूसरों के साथ बांटना नहीं चाहता हूँ।
कवि आगे कहते हैं कि मुझे जीवन में वह सुख कहाँ मिला ,जिसका मैं स्वप्न देख रहा था। उस
स्वप्न को देखते – देखते अचानक मेरी आंख खुल गई। मैं जिस सुख की कल्पना कर रहा था। वह
सुख मेरी बाहों में आते-आते , अचानक मुझे धोखा देकर भाग गया। अर्थात कवि ने अपनी पत्नी
के साथ सुखपूर्वक जीवन जीने की जो कल्पना की थी , वह उनकी मृत्यु के साथ ही खत्म हो गयी। और
उनका सारा जीवन दुखों से भर गया।
भावार्थ – कवि अपनी आत्मकथा को न लिखने के और तर्क देते हैं और बताते हैं कि वे अपने
दोखेबाज़ मित्रों की असलियत दुनिया के सामने ला कर , उनको शर्मिंदा नही करना चाहते। और कवि की
पत्नी की मृत्यु युवावस्था में ही हो गई थी। अपनी पत्नी के साथ बिताये मधुर पलों की स्मृतियाँ ही
अब कवि के जीवन जीने का एकमात्र सहारा व मार्गदर्कर्श क हैं। इसीलिए वो अपनी पत्नी के साथ बिताए
हुए उन मधुर पलों को अपनी “उज्ज्वल गाथा ” के रूप में देखते हैं और उन्हें किसी के साथ
बांटना नहीं चाहते हैं।
काव्यांश 3

जिसके अरुण – कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में ।


अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में ।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की ।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की ?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म – कथा ?
अभी समय भी नहीं , थकी सोई है मेरी मौन व्यथा ।
शब्दार्थ
अरुण – कपोलों – लाल गाल
मतवाली – मस्त कर देने वाली
अनुरागिनी – प्रेमभरी
उषा – सुबह
निज – अपना
सुहाग – सुहागिन होने की अवस्था , सधवा-अवस्था , सौभाग्य
मधुमाया – प्रेम से भरी हुई
स्मृति – यादें
पाथेय – सहारा
पथिक – यात्री
पंथा – रास्ता
सीवन – सिलाई
उधेड़ – खोलन , टांके तोड़ना , परत उतारना या उखाड़ना
कंथा – गुदड़ी / अंतर्मन ( जीवन की कहानी या मन के भाव )
मौन – चुप
व्यथा – दुःख
नोट – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपनी पत्नी की सुंदरता का बखान कर रहे हैं। अपनी पत्नी की
सुंदरता की तुलना कवि ने उदित होती सुबह से की है। कवि यहाँ तर्क दे रहे हैं कि अभी उनकी
आत्मकथा लिखने का सही समय नहीं आया है क्योंकि उन्होंने अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि हासिल
नहीं की है और न ही वे अभी अपने दुखों को कुरेदना चाहते हैं।
व्याख्या – कवि अपनी प्रिया के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उसके लाल गालों को
देखकर ऐसा लगता था जैसे उसके लाल गालों की मदहोश कर देने वाली सुंदर छाया में प्रेम
बिखेरती हुई प्रेम भरी सुबह सुहागिन की तरह उदित हो रही हो अर्थात् ऐसा लगता था जैसे सुबह भी
अपनी लालिमा उसी से लिया करती थी । आज मैं उसकी ही यादों का सहारा लेकर अपने जीवन के
रास्ते की थकान दूर करता हूँ अर्थात् उसी की यादें मेरे थके हुए जीवन का सहारा बनीं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के अपनी पत्नी के साथ बिताये क्षण ही अब उनके जीने का
एकमात्र सहारा हैं। इसीलिए कवि उन्हें किसी के साथ बांटना नहीं चाहते हैं। उन्हें सिर्फ
अपने दिल में संजो कर रखना चाहते है।
आगे कवि पूछ रहे हैं कि मेरे अंतरमन रूपी गुदड़ी की सिलाई को उधेड़ कर उसके भीतर तुम क्या
देखना चाहते हो। मेरा जीवन बहुत छोटा सा है। उसकी बड़ी-बड़ी कहानियां मैं कैसे लिखूं।
अर्थात मेरे जीवन की कहानी जानकर तुम क्या करोगे। क्योंकि इस छोटे से जीवन में मैंने
अभी तक सुनाने लायक कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की हैं। जो मैं तुम्हें सुना सकूँ।
कवि आगे कहते हैं कि यह ज्यादा बढ़िया रहेगा कि मैं चुप रहकर , बड़ी शान्ति के साथ , अन्य
लोगों की कहानियों या आत्मकथाओं को सुनूँ। तुम मेरी आत्मकथा सुनकर क्या प्रेरणा प्राप्त कर
सकोगे ? कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के अनुसार उनकी आत्मकथा में ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं
है। या उन्होंने अभी तक ऐसी कोई उपलब्धि हासिल भी नहीं की है जिसे पढ़कर किसी को खु शमिलेगी
या जिसे पढ़ने में किसी की कोई रूचि हो।
कवि यहाँ पर एक तर्क देते हुए कहते हैं कि वैसे भी अभी सही समय नहीं है अपने दुःख भरे
क्षणों को याद करने का क्योंकि उनका दुःख इस समय शांत है। वह अभी थककर सोया है। कवि अपने
दुखद क्षणों को भूलना चाहते है और इस समय वो अपने दुखद अतीत को कुछ समय के लिए भूले हैं।
इसीलिए वो वापस अपने दुखद अतीत को कुरेद कर फिर से दुखी नहीं होना चाहते हैं।
भावार्थ – कवि नहीं चाहते कि कोई भी उनके अंतर्मन में झाँक कर देखे क्योंकि वहाँ तो कवि ने
सिर्फ अपनी मधुर पुरानी यादों को संजो कर रखा है। कवि के अनुसार उनके जीवन में सुख के ऐसे
पल कभी नहीं आए , जिनसे कोई प्रेरित हो सको । इसलिए वे अपने जीवन की कहानी को खोलकर ,
उधेड़कर नहीं दिखाना चाहते। इसीलिए कवि कहते हैं कि उन दुःख भरे क्षणों को , जिन्हें वो
भूले चुके हैं , उन्हें फिर से याद करने के लिए उनसे कोई मत कहो। क्योंकि उनको याद करने
से उनके मन में फिर से हलचल होने लगेगी और वो फिर से दुखी हो जाएंगे। इसीलिए कवि
कहते हैं कि उन्हें आत्मकथा लिखने के लिए मत कहो।
उत्साह पाठ व्याख्या
काव्यांश 1
बादल , गरजो !
घेर घेर घोर गगन , धाराधर ओ !
ललित ललित , काले घुंघराले ,
बाल कल्पना के – से पाले ,
विद्युत छबि उर में , कवि नवजीवन वाले !
वज्र छिपा , नूतन कविता
फिर भर दो –
बादल गरजो !
शब्दार्थ
गरजो – जोरदार गर्जना ( जोरदार आवाज करना )
घेर घेर – पूरी तरह से घेर लेना
घोर – भयङ्कर
गगन – आकाश
धाराधर – बादल
ललित ललित – सुंदर – सुंदर
घुंघराले – गोल – गोल छल्ले का सा आकार
बाल कल्पना – छोटे बच्चों की कल्पनाएँ ( इच्छाएँ )
के – से पाले – की तरह बदलना
विद्युत – बिजली
छबि – चित्र , चलचित्र , प्रतिच्छाया , तसवीर
उर – हृदय , मन , चित्त
नवजीवन – नया जीवन
वज्र – कठोर
नूतन – नया
नोट – उपरोक्त काव्यांश में कवि “ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ” ने उस समय का वर्णन
अत्याधिक खूबसूरती के साथ किया हैं। जब बारिश होने से पहले पूरा आकाश गहरे काले बादलों से
घिर जाता हैं और बार – बार आका ययशी बिजली चमकने लगती है। कवि बादलों से जोर – जोर से
गरजने का निवेदन करते हैं। यहाँ पर कवि ने बादलों के रूप सौंदर्य का वर्णन भी अद्धभुत
तरीके से किया है और उनकी तुलना किसी छोटे बच्चे की कल्पना से की हैं। कवि कहते हैं कि
बादल धरती के सभी प्राणियों को नया जीवन प्रदान करते हैं और यह हमारे अंदर के सोये हुए
साहस को भी जगाते हैं। इस काव्यांश में कवि ने बादलों को उस कवि की भाँति बताया है जो , एक
नई कविता का निर्माण करने वाला है।
व्याख्या – कवि बादलों से जोर – जोर से गरजने का निवेदन करते हुए बादलों से कहते हैं कि
हे बादल ! तुम जोरदार गर्जना अर्थात जोरदार आवाज करो और आकाश को चारों तरफ से , पूरी तरह
से घेर लो यानि इस पूरे आकाश में भयानक रूप से छा जाओ और फिर जोरदार तरीके से बरसो
क्योंकि यह समय शान्त होकर बरसने का नहीं हैं। कवि बादलों के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए
कहते हैं कि सुंदर – सुंदर , काले घुंघराले अर्थात गोल – गोल छल्ले के आकार के समान
बादलों , तुम किसी छोटे बच्चे की कल्पना की तरह हो। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे छोटे
बच्चों की कल्पनाएँ ( इच्छाएँ ) पल – पल बदलती रहती हैं तथा हर पल उनके मन में नई – नई
बातें या कल्पनाएँ जन्म लेती हैं। ठीक उसी प्रकार तुम भी अर्थात बादल भी आकाश में हर पल
अपना रूप यानि आकार बदल रहे हो। कवि आगे बादलों से कहते हैं कि तुम अपने हृदय में बिजली
के समान ऊर्जा वाले विचारों को जन्म दो और फिर उनसे एक नई कविता का सृजन करो। कवि ने
बादलों की तुलना कवि से की है क्योंकि जिस प्रकार बादल धरती के सभी प्राणियों को नया जीवन
प्रदान करते हैं , उसी प्रकार कवि भी हमारे अंदर के सोये हुए साहस को जगाते हैं। कवि बादलों
से निवेदन करते हुए कहते हैं कि बादलों तुम अपनी कविता से निराश , हताश लोगों के मन में
एक नई आ शका संचार कर दो। बादल जोरदार आवाज के साथ गरजो ताकि लोगों में फिर से नया
उत्साह भर जाए।
भावार्थ – इस काव्यांश में कवि बादलों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम जोरदार गर्जना
करो और अपनी गर्जना से सोये हुए लोगों को जागृत करो , उनके अंदर एक नया उत्साह , एक नया
जोश भर दो। कवि बादलों को एक कवि के रूप में देखते हैं जो अपनी कविता से धरती को नवजीवन
देते हैं क्योंकि बादलों के बरसने के साथ ही धरती पर नया जीवन शुरु होता हैं। पानी मिलने
से बीज अंकुरित होते हैं और नये – नये पौधें उगने शुरू हो जाते हैं। धरती हरी – भरी होनी
शुरू हो जाती हैं। लोगों की सोई चेतना भी जागृत होती है।
काव्यांश – 2
विकल विकल , उन्मन थे उन्मन
विव श्वके निदाघ के सकल जन ,
आए अज्ञात दि शसे अनंत के घन !
तप्त धरा , जल से फिर
शीतल कर दो
बादल , गरजो !
शब्दार्थ
विकल – व्याकुल , विह्वल , बेचैन , अधीर
उन्मन – अनमना , उदास , अनमनापन
विव श्व– संसार
निदाघ – गरमी , ताप , वह मौसम या समय जब कड़ी धूप होती है
सकल – सब
जन – लोग
अज्ञात – जो ज्ञात न हो , जिसके बारे में पता न हो
अनंत – जिसका कोई अन्त न हो
घन – मेघ , बादल
तप्त धरा – तपती धरती , गर्म धरती
शीतल – ठंडा , शीत उत्पन्न करने वाला , सर्द , जो ठंडक उत्पन्न करता हो
नोट – उपरोक्त काव्यांश में कवि “ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ” ने तपती गर्मी से बेहाल लोगों
के मन की स्थिति का वर्णन किया है।
व्याख्या – अत्यधिक गर्मी से परे ननशा लोगों के मन की स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं
कि संसार के सभी लोग अत्यधिक गर्मी के कारण बेहाल है , व्याकुल है और अत्यधिक गर्मी के
कारण अब उनका मन कहीं नहीं लग रहा है। अज्ञात दि शसे आये हुए (यहां पर बादलों को अज्ञात
दि शसे आया हुआ इसलिए कहा गया हैं क्योंकि बादलों के आने की कोई निचित तश्चि
दि शनहीं होती
हैं। वो किसी भी दि शसे आ सकते हैं)। और पूरे आकाश पर छाये हुए घने काले बादलों तुम
घनघोर वर्षा कर , तपती धरती को अपने जल से शीतल कर दो। बादलो , तुम जोरदार आवाज के साथ
गरजो और लोगों के मन में नया उत्साह भर दो।
भावार्थ – अत्यधिक गर्मी से परे ननशा
लोग जब धरती पर वर्षा हो जाने के बाद भीषण गर्मी से राहत
पाते हैं , तो उनका मन फिर से नये उत्साह व उमंग से भर जाता है। इसी कारण कवि बादलों से
निवेदन करते हैं कि वो जोरदार बरसात कर धरती को ठंडक दें और लोगों में नया उत्साह भर दे।
अट नहीं रही है पाठ व्याख्या
काव्यांश 1
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
शब्दार्थ
अट – बाधा , रुकावट
आभा – चमक
फागुन – शिशिर ऋतु का दूसरा महीना , माघ के बाद का मास
तन – शरीर
सट – समाना
नोट – होली के वक्त जो मौसम होता है, उसे फागुन कहते हैं। उस समय प्रकृति अपने चरम सौंदर्य
पर होती है और मस्ती से इठलाती है। फागुन के समय पेड़ हरियाली से भर जाते हैं और उन पर
रंग-बिरंगे सुगन्धित फूल उग जाते हैं। इसी कारण जब हवा चलती है, तो फूलों की न ली लीशी
ख़ुशबू
उसमें घुल जाती है। इस हवा में सारे लोगों पर भी मस्ती छा जाती है, वो काबू में नहीं कर पाते
और मस्ती में झूमने लगते हैं।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ‘ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ‘ जी ने फागुन माह में आने
वाली वसंत ऋतु का वर्णन बहुत ही खूबसूरत ढंग से किया है। कवि कहते हैं कि फागुन की आभा
अर्थात सुंदरता इतनी अधिक है कि उस पर से नजर हटाने को मन ही नहीं करता। अर्थात कोई भी
अपने आप को उसका आनंद लेने से रोक नहीं पा रहा है। फागुन की सुंदरता प्रकृति में समा नहीं
पा रही है यानि वसंत ऋतु में प्रकृति बहुत सुंदर लग रही हैं।
भावार्थ – कवि के अनुसार फागुन मास में प्रकृति इतनी सुन्दर नजर आती है कि उस पर से नजर
हटाने को मन ही नहीं करता। फागुन के महीने में प्रकृति में होने वाले बदलावों से सभी प्राणी
बेहद ख़ुश हो जाते हैं। कविता में कवि स्वयं भी बहुत ही खुश लग रहे हैं।
काव्यांश 2
कहीं साँस लेते हो ,
घर – घर भर देते हो ,
उड़ने को नभ में तुम
पर – पर कर देते हो ,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
शब्दार्थ
नभ – आकाश , आसमान
पर – पंख
नोट – फागुन माह में ऐसा लगता हैं मानो प्रकृति एक बार फिर दुल्हन की तरह सज धज कर तैयार हो
गयी हैं क्योंकि वसंत ऋतु के आगमन से सभी पेड़ – पौधे नई – नई कोपलों ( नई कोमल पत्तियों )
व रंग – बिरंगे फूलों से लद जाते हैं। और जब भी हवा चलती हैं तो सारा वातावरण उन फूलों की
मधुर खुशबू से महक उठता हैं।
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ‘ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ‘ जी ने उस समय का वर्णन किया
हैं जब वसंत ऋतु में हर ओर हरियाली और फूलों की खुशबु फैल जाती है। उस समय कवि को ऐसा
लगता हैं मानो जैसे फागुन ख़ुद सांस ले रहा हो और सुगन्धित वातावरण से हर घर को महका रहा
हो। कवि आगे कहते हैं कि कभी – कभी मुझे ऐसा एहसास होता है जैसे तुम ( फागुन माह ) आसमान
में उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ा रहे हो। कवि वसंत ऋतु की सुंदरता पर मोहित हैं। इसीलिए
वो कहते हैं कि मैं अपनी आँखें तुमसे हटाना तो चाहता हूँ लेकिन मेरी आँखें तुम पर से हट
ही नहीं रही हैं।
भावार्थ – इस काव्यांश में कवि कहते हैं कि घर – घर में उगे हुए पेड़ों पर रंग – बिरंगे फूल
खिले हुए हैं। उन फूलों की ख़ुशबू हवा में यूँ बह रही है, मानो फागुन ख़ुद सांस ले रहा हो। इस तरह
फागुन का महीना पूरे वातावरण को आनंद से भर देता है। इसी आनंद में झूमते हुए पक्षी आकाश
में अपने पंख फैला कर उड़ने लगते हैं। यह मनोरम दृय श्य और मस्ती से भरी हवाएं हमारे अंदर
भी हलचल पैदा कर देती हैं। यह दृय श्य हमें इतना अच्छा लगता है कि हम अपनी आँख इससे हटा ही
नहीं पाते। यहाँ पर फागुन माह का मानवीकरण किया गया हैं।
काव्यांश 3
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी , कहीं लाल ,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल ,
पाट – पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।
शब्दार्थ
लदी – भरी
डाल – पेड़ की शाखा
उर – हृदय
मंद – धीमे , धीरे
गंध – खुशबू , सुगंध
पुष्प माल – फूलों की माला
पाट – पाट – जगह – जगह
शोभा श्री – सौन्दर्य से भरपूर
पट – समाना
नोट – पेड़ों पर नए पत्ते निकल आए हैं , जो कई रंगों के हैं। कहीं – कहीं पर कुछ पेड़ों में
लगता है कि धीमी – धीमी खुशबू देने वाले फूलों की माला लटकी हुई है। हर तरफ सुंदरता बिखरी
पड़ी है और वह इतनी अधिक है कि धरा पर समा नहीं रही है।
व्याख्या – वसंत ऋतु में चारों ओर के मनमोहक वातावरण का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि
सभी पेड़ – पौधों की शाखाओं में नये – नये – कोमल पत्ते निकल आते हैं , जिसके कारण चारों
तरफ के पेड़ हरे एवं लाल दिखाई दे रहे हैं क्योंकि पेड़ों पर हरे पत्तों के बीच लाल फूल
उग आते हैं। कवि उस समय की कल्पना करते हुए कहते हैं कि ऐसा लग रहा हैं मानो जैसे प्रकृति
ने अपने हृदय पर रंग – बिरंगी धीमी खुशबू देने वाली कोई सुंदर सी माला पहन रखी हो।
कवि के अनुसार वसंत ऋतु में प्रकृति के कण – कण में अर्थात जगह – जगह इतनी सुंदरता बिखरी
पड़ी है कि अब वह इस पृथ्वी में समा नहीं पा रही है ।
भावार्थ – कवि के अनुसार फागुन मास में प्रकृति की सुन्दरता अत्यधिक बढ़ जाती है। चारों तरफ
पेड़ों पर हरे पत्ते एवं रंग – बिरंगे फूल दिखाई दे रहे हैं और ऐसा लग रहा हैं, मानो पेड़ों
ने कोई सुंदर, रंगबिरंगी माला पहन रखी हो। इस सुगन्धित पुष्प माला की ख़ुशबू कवि को बहुत ही
मनमोहक लग रही है। कवि के अनुसार, फागुन के महीने में यहाँ प्रकृति में होने वाले बदलावों
से सभी प्राणी बेहद ख़ुश हो जाते हैं। कविता में कवि स्वयं भी बहुत ही खुश लग रहे हैं। यहाँ भी
मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया गया हैं।

यह दंतुरित मुस्कान पाठ व्याख्या


काव्यांश – 1
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि – धूसर तुम्हारे ये गात ………
छोङकर तालाब मेरी झोपङी में खिल रहे , जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण ,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
शब्दार्थ
दंतुरित – नन्हें – नन्हें निकलते दाँत
मुस्कान – मुस्कराहट
मृतक – जिस व्यक्ति के प्राण निकल गए हों , जो मर गया हो
धूलि – धूल
धूसर – पीलापन लिए भूरा या मटमैला रंग
गात – शरीर , काया , जिस्म , बदन , देह , तन
जलजात – जो जल में उत्पन्न हो , कमल
परस – स्पर्, छूना
नोट – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने छोटे से बच्चे की मुस्कराहट का अद्धभुत वर्णन कर रहे
हैं। कवि बच्चे की मुस्कराहट को इतना प्रभाव लीलीशा
बताते हैं कि वो किसी भावहीन व्यक्ति में भी
भावनाओं को जगा सकती है और किसी कठोर हृदय व्यक्ति को भी सरल स्वभाव सीखा सकती है।
व्याख्या – कवि अपने छोटे से बच्चे की मन को हरने वाली मुस्कान को सम्बोधित करते हुए कहते
हैं कि तुम्हारी ये छोटे – छोटे दातों वाली मुस्कान इतनी मनमोहक है कि वह किसी मुर्दे अर्थात
मरे हुए व्यक्ति में भी जान डाल सकती हैं। कहने का आशय यह है कि तुम्हारी ये निछललश्छमुस्कान
जीवन की कठिन परिस्थितियों से निराश – हताश हो चुके व्यक्तियों और यहाँ तक कि बेजान व्यक्ति
को भी जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं , अगर कोई तुम्हारी इस छोटे – छोटे दातों वाली मुस्कान को
देख ले तो वह भी एक बार प्रसन्नता से खिल उठे। उसके भी मन में इस दुनिया की ओर आकर्षण
जाग उठे।
आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारे इस धूल से सने हुए नन्हें तन को देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि
मानों कमल के फूल तालाब को छोङकर मेरी झोंपङी में खिल उठते हो। कहने का आशय यह है कि
तुम्हारे धूल से सने नन्हें से तन को निहारने पर मेरा मन कमल के फूल के समान खिल उठा है
अर्थात् प्रसन्न हो गया है।
ऐसा लगता है कि तुम जैसे प्राणवान का स्पर्पाकर ये कठोर चट्टानें पिघल कर जल बन गई होगी।
कहने का आशय यह है कि बच्चे की मधुर मुस्कान देख कर पत्थर जैसे कठोर हृदय वाले मनुष्य का
मन भी पिघलाकर अति कोमल हो जाता है।
भावार्थ – इस कविता में कवि एक ऐसे बच्चे की मधुर मुस्कराहट की सुंदरता का बखान करता है
जिसके अभी एक – दो दाँत ही निकले हैं , अर्थात बच्चा छ: से आठ महीने का है। जब ऐसा बच्चा
अपनी मुसकान बिखेरता है तो इससे मुर्दे में भी जान आ जाती है। छोटे से बच्चे के स्पर्
मात्र भर से ही कठोर से कठोर हृदय वाले व्यक्ति के दिल में भी कोमल भावनाएँ जन्म लेने
लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक छोटे से बच्चे की मुस्कराहट किसी के क्रोधित स्वभाव
को परिवर्तित करने में सक्षम होती है।
काव्यांश – 2
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल ?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?
देखते ही रहोगे अनिमेष !
थक गए हो ?
आँख लूँ मैं फेर ?
शब्दार्थ
कठिन – कठोर
पाषाण – पत्थर
शेफालिका – छह से बारह फुट ऊँचा एक सदाबहार पौधा जिसमें अरहर के समान पाँच-पाँच पत्तियाँ
होती हैं और इसके पूरे शरीर पर छोटे-छोटे रोम पाए जाते हैं , नील सिंधुआर का पौधा , निर्गुंडी
, निलिका
अनिमेष – बिना पलक झपकाए , बिना पलक गिराए हुए , अपलक , एकटक
फेर – हटाना
नोट – इस काव्यांश में कवि अपने स्वभाव में आए परिवर्तन के लिए बच्चे की मुस्कराहट को कारण
बताता है और जब पहली बार देखने के कारण बच्चा अपने पिता यानि कवि को पहचान नहीं पा रहा
था और वह एकटक दृष्टि से कवि को देखे जा रहा था , तब कवि के अंदर पिता का प्रेम उसे न
चाहते हुए भी अपने बच्चे से नज़रें फेरने को कहता है।
व्याख्या – कवि को ऐसा लगता है कि उनके उस छोटे से बच्चे के निछललश्छ
चेहरे में वह जादू है
कि उसको छू लेने से बाँस या बबूल से भी शेफालिका के फूल गिरने लगते हैं। कहने का तात्पर्य
यह है कि जीवन की विपरीत परिस्थितियों के कारण कवि का मन बाँस और बबूल की भाँति शुष्क और कठोर
हो गया था। बच्चे की मधुर मुस्कराहट को देखकर उसका मन अथवा स्वभाव भी पिघल कर शेफालिका के
फूलों की भाँति सरस और सुंदर हो गया है। बच्चा पहली बार अपने पिता ( कवि ) को देख रहा हैं। इस
कारण कवि आगे उस छोटे से बच्चे से कहते हैं कि ऐसा लगता है कि तुम ( छोटा बच्चा ) मुझे (
कवि / पिता ) पहचान नहीं पाये हो क्योंकि बच्चा कवि को अपलक अर्थात बिना पलक झपकाए देख रहा
है। कवि उस बच्चे से कहते हैं कि यदि वह बच्चा इस तरह अपलक कवि को देखते – देखते थक
गया हो तो उसकी सुविधा के लिए कवि उससे आँखें फेर लेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि
बच्चे से उसके पास खङा होकर पूछता है कि तुम मुझे इस तरह लगातार देखते हुए थक गए होंगे।
इसलिए लो मैं तुम पर से अपनी नजर स्वयं हटा लेता हूँ। ताकि बच्चा भी अपनी पलकें झपकाए और
उसे आराम मिले।
भावार्थ – उपरोक्त पंक्तियों में कवि स्वीकार कर रहें हैं कि परिस्थितियों के कारण उनका जो
स्वाभाव बदल गया था , बच्चे की मुस्कराहट ने उनकी सारी परे नियों
नियों शा
को भुला कर उनके कठोर
ह्रदय को फिर से पहले जैसा कर दिया है। इस काव्यांश में हमें एक पिता का अद्धभुत प्रेम भी
देखने को मिलता है। क्योंकि जब बच्चा अपने पिता को पहचानने के लिए उसे एकटक दृष्टि से
देख रहा होता है तब उस बच्चे को इस तरह कोई परे नीनी न हो जाए , वह पिता न चाहते हुए भी अपने
शा
बच्चे से नजर फेरने को भी तैयार हो जाता है।
काव्यांश 3 –
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार ?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्य तुम , माँ भी तुम्हानी धन्य !
चिर प्रवासी मैं इतर , मैं अन्य !
शब्दार्थ
परिचित – जिसका परिचय प्राप्त हो , जिसे जानते हों , जाना – पहचाना हुआ
माध्यम – साधन , ज़रिया , ( मीडियम )
धन्य – प्र सा
साशंया बड़ाई के लायक , परोपकार करने वाला
चिर – जो बहुत दिनों से हो , बहुत दिनों तक चलता रहे , दीर्घ कालव्यापी
प्रवासी – परदेश में रहने वाला व्यक्ति , मूलस्थान छोड़कर अन्य स्थान में बसा व्यक्ति , प्रवास
करने वाला
इतर – अन्य , कोई और , दूसरा , भिन्न
नोट – इस काव्यांश में कवि उस स्थिति का वर्णन कर रहें हैं जब बच्चा लगातार कवि को देखे जा
रहा है और उन्हें पहचानने की को ष्टिशश कर रहा हैं। इसे देखकर कवि बच्चे से कह रहे है कि
उन्हें इस बात का कोई अफसोस नहीं हैं कि पहली बार की मुलाकात में उनकी ठीक से जान पहचान
नहीं हो पा रही हैं। बल्कि मैं तो इस बात से ही खुश हैं कि वे अपने बच्चे से मिल पाए या उसे
देख पाए।
व्याख्या – कवि अपने नन्हें शिशु को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम मुझे पहली बार देख
रहे हो , इसलिए यदि मुझे पहचान भी न पाए तो वह स्वाभाविक ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि
कवि को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं है कि बच्चे से पहली बार में उसकी जान पहचान नहीं हो
पाई है। एक माँ ही बच्चे को जन्म देकर इस धरती पर लाती हैं। इसीलिए कवि कह रहे हैं कि
तुम्हारी माँ के माध्यम से ही आज मैं तुमसे मिल पाया हूँ। अगर तुम्हारी माँ ने माध्यम बनकर
मुझे तुमसे ना मिलाया होता तो , मैं तुम्हें नहीं जान पाता। इसलिए मैं तुम्हारा और तुम्हारी माँ
का आभारी हूँ। और तुम दोनों को दिल से धन्यवाद देता हूँ। अर्थात कवि इस बात के लिए उस बच्चे
की माँ अर्थात अपनी पत्नी और अपने बच्चे का शुक्रिया अदा करना चाहता है कि उनके कारण ही कवि
न करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। तुम्हारी माँ अर्थात कवि की
को भी उस बच्चे के सौंदर्य का दर्नर्श
पत्नी ने ही उन्हें बताया कि वह बच्चा उनकी ही संतान है , नही तो मैं तुम्हारे दाँतों से झलकती
मुस्कान को भी नहीं जान पाता। कवि आगे कहते हैं कि मैं सदा घर से बाहर (अन्य प्रदेश या जगह)
रहता हूँ और बहुत दिनों बाद आज घर आया हूँ। इसलिए मैं तुम्हारे लिए किसी अनजान व्यक्ति की
तरह या किसी मेहमान की तरह ही हूँ। अर्थात कवि तो उस बच्चे के लिए एक अजनबी है , परदेसी
है इसलिए वह खूब समझता है कि उससे उस बच्चे की कोई जान पहचान नहीं है।
भावार्थ – बच्चा लगातार कवि को देखे जा रहा है और उन्हें पहचानने की को ष्टिशश कर रहा हैं। इसे
देखकर कवि बच्चे से कह रहे है कि मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं हैं कि पहली बार की
मुलाकात में हमारी ठीक से जान पहचान नहीं हो पा रही हैं। बल्कि मैं तो इस बात से ही खुश हूँ कि
मैं तुमसे मिल पाया या तुम्हें देख पाया। तुम्हारी माँ भी तुम्हें जन्म देकर और तुम्हारी सुन्दर
रूप – छवि निहारने के कारण धन्य है। दूसरी ओर एक मैं हूँ जो लगातार लम्बी यात्राओं पर रहने
से तुम दोनों से पराया हो गया हूँ। इसीलिए मुझ जैसे अतिथि से तुम्हारा सम्पर्क नहीं रहा अर्थात्
मैं तुम्हारे लिए अनजान ही रहा हूँ। और तुम्हारा इस अतिथि से पहले कोई संबंध रहा भी नहीं यानि
तुमने मुझे पहले कभी देखा भी नहीं।
काव्यांश 4
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही है मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
ओर होती जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बङी ही छविमान !
शब्दार्थ
अतिथि – मेहमान
संपर्क – मिलावट , संयोग , मेल , संबंध , आपसी लगाव , वास्ता , संगति
मधुपर्क – पूजा के लिए बनाया गया दही , घी , जल , चीनी और शहद का मिरणणश्र, पंचामृत , चरणामृत
कनखी – आँख की कोर , दूसरों की निगाह बचाकर किया जाने वाला संकेत , तिरछी निगाह से देखने
की क्रिया , आँख का इ राराशा
आँखें चार – ( मुहावरा ) – प्रेम होना , किसी का आमने सामने होना , नजरों से नजरों का मिलना
छविमान – सुंदर , मनमोहक
नोट – इस काव्यांश में कवि अपना और अपने बच्चे के बीच मेहमानों वाला संपर्क बनने का
कारण स्पष्ट करते हैं और माँ और बच्चे के वात्सल्य को अत्यधिक मनोरम ढंग से प्रस्तुत कर
रहे हैं। और साथ ही साथ बच्चों के नटखट पन को भी दिखने का प्रयास कर रहे हैं।
व्याख्या – कवि अपने आपको किसी मेहमान की तरह बताते हुए कहते हैं कि वे हमे शही काफी
लम्बे समय तक घर से दूर रहते हैं जिस कारण वे न तो अपनी पत्नी से मिल पाए और न ही अपने
बच्चे से , इसीलिए कवि अपने बच्चे से कहते हैं कि मुझ जैसे अतिथि से तुम्हारा सम्पर्क
नहीं रहा अर्थात् मैं तुम्हारे लिए अनजान ही रहा हूँ। यह तो तुम्हार माँ है जो तुम्हें अपनी
उँगलियों से तुम्हें मधुपर्क चढ़ाती रही अर्थात् तुम्हें वात्सल्य भरा प्यार देती रही। कहने का
तात्पर्य यह है कि बच्चा अपनी माँ की उँगली चूस रहा है तो ऐसा लगता है कि उसकी माँ उसे
पंचामृत का पान करा रही है। इस बीच वह बच्चा तिरछी निगाह से कवि को देखता है। तब कवि उसकी
इन हरकतों पर कहते हैं कि अब तुम इतने बङे हो गये हो कि तुम तिरछी नजर से मुझे देखकर
अपना मुँह फेर लेते हो , इस समय भी तुम वही कर रहे हो। इसके बाद जब मेरी आँखें तुम्हारी
आँखों से मिलती है अर्थात् तुम्हारा – मेरा स्नेह प्रकट होता है , तब तुम मुस्कुरा पङते हो। इस
स्थिति में तुम्हारे निकलते हुए दाँतों वाली तुम्हारी मधुर मुस्कान मुझे बहुत सुन्दर लगती है और
मैं तुम्हारी उस मधुर मुस्कान पर मुग्ध हो जाता हूँ।
भावार्थ – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने उस समय का वर्णन किया हैं जब बच्चे के नये-नये
दांत निकलने लगते हैं तो उस वक्त वो हर चीज अपने मुँह में डाल लेते है। माँ की गोद में
बैठकर बच्चा माँ की अंगुलियों को चूस रहा है। उसे देखकर कवि को ऐसा लग रहा है जैसे माँ की
अंगुलियों से निकलने वाले अमृत को पीकर बच्चे की आत्मा तृप्त हो रही हो। बच्चा यह सब करते
हुए बीच – बीच में तिरछी नजरों से कवि को भी देख रहा हैं , जिसे देखकर कवि कहते हैं कि जब
भी तुम तिरछी नजरों से मुझे देखते हो और फिर जब हम दोनों की आंखें मिलती हैं तो तुम
मुस्कुरा उठते हो। तब तुम्हारी ये छोटे – छोटे दांतों वाली निचललश्चमुस्कान मुझे बहुत ही सुंदर
लगती है अर्थात बहुत अधिक मनमोहक लगती है।

फसल पाठ व्याख्या


काव्यांश 1
एक के नहीं ,
दो के नहीं ,
ढ़ेर सारी नदियों के पानी का जादू ;
एक के नहीं ,
दो के नहीं ,
लाख – लाख कोटि – कोटि हाथों के स्पर्की गरिमा ;
एक की नहीं ,
दो की नहीं ,
हजार – हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म ;
शब्दार्थ
ढ़ेर सारी – बहुत अधिक
कोटि – करोड़
स्पर्– छूना
गरिमा – गुरुत्त्व , भारीपन , महत्व , गौरव , गर्व
गुण धर्म – किसी वस्तु में पाई जाने वाली वह वि षशेष बात या तत्व जिसके द्वारा वह दूसरी वस्तु से
अलग मानी जाए
नोट – अलग – अलग नदियों का पानी जब भाप बनकर उड़ता है तो वो आकाश में बादल के रूप में
परिवर्तित हो जाता है। और फिर वही बादल बरस कर धरती पर पानी के रूप में वापस आ जाते हैं।
जिससे फसलों को भरपूर पनपने का मौका मिलता हैं। इसी का वर्णन कवि इन पंक्तियों में कर रहे
हैं।
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि एक या दो नहीं बल्कि अनेक नदियों का पानी
अपना जादुई असर दिखाता है , तब जाकर फसल पैदा होती हैं। आगे कवि कहते है कि एक नहीं दो
नहीं बल्कि लाखों – करोड़ों हाथों के अथक परिरममश्रका परिणाम से एक अच्छी फसल तैयार होती
है। अर्थात हजारों खेतों पर दुनिया भर के लाखों – करोड़ों किसान दिन रात मेहनत करते हैं।
अपनी फसल की देखभाल करते हैं। उसको समय – समय पर खाद , पानी और जरूरी पोषक तत्व देते
हैं। तब जाकर कहीं फसल खेतों पर लहलहा उठती है। अच्छी फसल उगाने के लिए खेतों की
मिट्टी अच्छी होनी चाहिए। इसीलिए कवि कहते हैं कि एक या दो नहीं बल्कि हजारों खेतों की
षताएंभी
उपजाऊ मिट्टी के पोषक तत्व भी इन फसलों के अंदर छुपे हुए हैं। क्योंकि मिट्टी की वि षताएंशे
फसलों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। यानी मिट्टी से मिलने वाले जरूरी पोषक तत्व फसलों
के लिए जरूरी होते हैं और अलग – अलग तरह की फसलों को उगाने के लिए अलग – अलग तरह की
मिट्टी व उसके गुण आवयककश्यहोते हैं।
भावार्थ – उपरोक्त पंक्तियों में कवि फसल को तैयार होने में किन – किन चीज़ों की आवयकता कताश्य
होती है , उनका वर्णन कर रहे हैं। नदियों का पानी जब भाप बनकर उड़ता है तो वो आकाश में
बादल का रूप ले लेता है। और फिर वही बादल वर्षा के रूप में बरस कर धरती पर पानी के रूप में
वापस आ जाता है। जिससे फसलों को अच्छी प्रकार से पनपने का मौका मिलता हैं। करोड़ों
किसानों की रात – दिन की मेहनत से फसल उगती हैं। अच्छी फसल उगाने के लिए खेतों की मिट्टी
षताएंभी फसलों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है।
अच्छी होनी चाहिए। क्योंकि मिट्टी की वि षताएंशे
काव्यांश 2 –
फसल क्या है ?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्की महिमा है
भूरी – काली – संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का !
शब्दार्थ
महिमा – महत्वपूर्ण या महान होने की अवस्था या भाव , महानता , बड़ाई , गौरव , बड़प्पन
भूरी – भूरा रंग
काली – काला रंग
संदली – एक प्रकार का हलका पीला रंग
रूपांतर – रूप में परिवर्तन , किसी वस्तु का बदला रूप , ( ट्रांसफॉरमेशन )
सिमटा – जिसका संकुचन हुआ हो , सिकुड़ा
संकोच – झिझक , हिचकिचाहट , असमंजस
थिरकन – भावों के साथ पैरों को उठाते , गिराते एवं हिलाते हुए नाचने की अवस्था , थिरक
नोट – फसलों को अच्छी तरह से फलने फूलने के लिए क्या – क्या आवयककश्य है उपरोक्त पंक्तियों
में कवि इन्हीं का वर्णन कर रहे हैं। किसान की मेहनत के साथ – साथ पानी भी आवयककश्य है। साथ
षताओं के अनुसार ही फसल पैदा
में मिट्टी का गुणवत्तापूरक भी जरूरी है। क्योंकि मिट्टी की वि षताओंशे
होती है। अलग-अलग तरह की मिट्टी में अलग – अलग तरह के पोषक तत्व व गुण पाए जाते हैं
जिससे अनुसार अलग-अलग तरह की फसलों को पैदा किया जा सकता है। पौधों को बढ़ने के लिए
सूरज की किरणें व कार्बन डाइऑक्साइड गैस भी आवयककश्य है क्योंकि सूरज की रोशनी में ही ये
पौधे मिट्टी से जरूरी पोषक तत्व , पानी व हवा से कार्बन डाइऑक्साइड गैस लेकर अपना भोजन
बनाते हैं। जिसे प्रकाश संले षषण ( Photosynthesis) कहा जाता हैं।
ण श्ले
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि पहले तो प्रन श्नपूछते हैं कि फसल क्या हैं ? फिर उसी
प्रन श्नका उत्तर देते हुए कहते हैं कि नदियों के पानी का जादू फसल के रूप दिखाई देता हैं
क्योंकि बिना पानी के फसल का उगना नामुकिन हैं। करोड़ों किसानों की दिन – रात की मेहनत का
नतीजा फसल के रूप में मिलता हैं। भूरी , काली व खुशबूदार हल्की पीली मिट्टी यानि अलग – अलग
प्रकार की मिट्टी के पोषक तत्व और सूरज की किरणें भी अपना रूप बदल कर इन फसलों के अंदर
समाहित रहती हैं। क्योंकि सूरज की रोशनी और हवा में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड गैस को
अव%षित षि
तशो
कर ही पौधे अपनी पत्तियों के दवारा भोजन बनाते हैं। जिसे कविता में कवि ने सूरज
की किरणों का परिवर्तित रूप और हवा की भावों के साथ पैरों को उठाते , गिराते एवं हिलाते हुए
नाचने का नाम दिया हैं।
भावार्थ – अच्छी तरह से फसलों को फलने फूलने के लिए किसान की मेहनत के साथ – साथ पानी ,
मिट्टी का गुणवत्तापूरक , अलग – अलग तरह की मिट्टी में अलग- अलग तरह के पोषक तत्व , पौधों
को बढ़ने के लिए सूरज की किरणें व कार्बन डाइऑक्साइड गैस आदि की आवयकता कताश्य
होती है।
करोड़ों किसानों की दिन- रात की मेहनत , नदियों के पानी का जादू , भूरी , काली व खुशबूदार मिट्टी
यानि अलग – अलग प्रकार की मिट्टी के पोषक तत्व और सूरज की किरणें भी अपना रूप बदल कर इन
फसलों के अंदर समाहित रहती हैं।

संगतकार पाठ व्याख्या – Sangatkar Explanation


काव्यांश 1 –
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज सुंदर कमजोर कांपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिते दा
दाररश्ते
मुख्य गायक की गरज में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
शब्दार्थ –
मुख्य गायक – मुख्य संगीतकार
चट्टान – पत्थर का बहुत बड़ा और वि ललशा खंड
भारी स्वर – गंभीर आवाज
कमजोर – दुर्बल , निर्बल , अशक्त , शक्तिहीन , ढीला
शिष्य – छात्र
गरज – बहुत गंभीर या घोर शब्द
गूँज – भौरों के गुंजार करने का शब्द , गुंजार , कलरव , प्रतिध्वनि , गुंजार
प्राचीन काल – प्राचीन समय या बहुत पहले बिता हुआ समय
नोट – इन पंक्तियों में कवि ने गायन में मुख्य गायक का साथ देने वाले संगतकार की भूमिका के
महत्त्व का प्रतिपादन किया है। यह कविता मुख्य संगीतकार का साथ देने वाले संगतकार की भूमिका
के ईद – गिर्द घूमती है।
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब मुख्य गायक किसी संगीत सभा में अपना
कोई गीत प्रस्तुत कर रहा होता है तो उसकी भारी व गंभीर आवाज के साथ ही हमें संगतकार ( मुख्य
गायक का साथ देने वाला सह गायक ) की आवाज सुनाई देती है। वह आवाज हल्की – हल्की मगर सुंदर
और मधुर सुनाई देती हैं। कवि उस संगतकार की आवाज सुन कर अंदाजा लगा रहे हैं कि यह
संगतकार मुख्य गायक का छोटा भाई भी हो सकता है या मुख्य गायक का कोई शिष्य भी हो सकता है या
फिर संगीत सीखने के लिए पैदल चलकर मुख्य गायक के पास आने वाला कोई उनका दूर का
रिते दा
दा ररश्ते
भी हो सकता है। और सबसे खास बात यह हैं कि यह संगतकार जब से गायक ने गाना शुरू
किया है तब से उसका साथ देना आया है। यानि शुरू से ही वह संगतकार मुख्य गायक की आवाज में
अपनी आवाज मिलाकर उसके संगीत को और प्रभाव ली लीशा
बनाता आया है।
भावार्थ – इन पंक्तियों के माध्यम से कवि मुख्य संगीतकार का साथ देने वाले संगतकार की ओर
लोगो का ध्यान लाना चाहते हैं। क्योंकि जितना योगदान किसी गायन में मुख्य संगीतकार का होता
है उतना ही योगदान संगतकार का भी होता है। उसकी आवाज भले ही धीमे आती हो , परन्तु उसकी
आवाज में भी मधुरता और सुंदरता होती है। कवि अनुमान लगाते हैं कि वह संगीतकार का कोई भाई
या शिष्य या कोई रिते दा
दा ररश्ते
भी सकता है क्योंकि वह संगीतकार के साथ बहुत समय पहले से ही
संगतकार की भूमिका निभा रहा है।
काव्यांश 2 –
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लॉघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को संभाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था

शब्दार्थ –
अंतरा – मुखड़े को छोड़कर गीत का शेष भाग , गीत की टेक से अगली पंक्तियाँ , गीत के चरण
जटिल – उलझा हुआ , कठिन , दुर्बोध , जो आसानी से सुलझ न सके
तान – संगीत में स्वरों का कलात्मक विस्तार
सरगम – सात सुरों का समूह , स्वर-ग्राम , सप्तक , सातों सुरों के उतार – चढ़ाव या आरोह – अवरोह
का क्रम , किसी गीत या ताल में लगने वाले स्वरों का उच्चारण
लॉघकर – पर करना
अनहद – अनाहत या सीमातीत
स्थायी – हमे शबना रहने वाला , सदा स्थित रहने वाला , नष्ट न होने वाला
समेटना – बिखरी या फैली हुई वस्तु को इकट्ठा करना , बटोरना
नौसिखिया – जिसने कोई काम हाल ही में सीखा हो , जो काम में निपुण न हो , अनाड़ी , अदक्ष
नोट – कविता के इस अंश में कवि संगतकार के उस हुनर के बारे में वर्णन कर रहा है जब मुख्य
संगीतकार अपनी ही धुन में खो जाता है और अपने सुरों से भटकने लग जाता है , तब संगतकार ही
न करते हुए सब कुछ संभाल लेता है।
अपनी खूबियों का प्रदर्नर्श
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कभी – कभी मुख्य गायक किसी गाने का अंतरा
गाने में इतना मगन (तल्लीन) हो जाता हैं कि वह अपने सुरों से ही भटक जाता हैं। यानि असली
सुरों को ही भूल जाता हैं। और अपने ही गीत या ताल में लगने वाले स्वरों के उच्चारण को भूल
जाता है। वह संगीत के उस मोड़ पर आ जाता है जहाँ अंत निकट हो। ऐसी स्थिति में संगतकार , जो
हमे शमुख्य सुरों को पकड़े रहता है। वही उस समय सही सरगम को दुबारा पकड़ने में मुख्य गायक
की मदद कर उसे उस विकट स्थिति से बाहर लाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संगतकार हमे श
मूल स्वरों को ही दोहराता रहता हैं। जब मुख्य गायक गीत गाते हुए सुरों की दुनिया में खो जाता हैं
और अंतरे के सुर – तान की बारीकियों में उलझकर बिखरने लगता हैं व मुख्य सुरों को भूल जाता
हैं । तब वह संगतकार के गाने को सुनकर वापस मुख्य सुर से जुड़ जाता हैं। अर्थात संगतकार , सुर
से भटके हुए मुख्य गायक को वापस सुर पकड़ने में मदद करता हैं। कवि आगे कहते हैं कि उस
समय ऐसा लगता है मानो जैसे कि वह संगतकार मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान संमेटते हुए
उसके साथ आगे बढ़ रहा है। उस समय उस मुख्य गायक को अपना बचपन याद आ जाता है जब वह नया
– नया गाना सीखता था या नौसिखिया था। और उसका गुरु उसको सुरों से भटकने न दे कर सही सुरों पर
बने रहने में उसकी मदद करता था।
भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों से हमें ज्ञात होता है कि संगतकार की भूमिका एक मुख्य संगीतकार
के लिए क्या है। संगतकार हमे शमुख्य गायक के लिए एक मार्गदर्कर्श क का कार्य करता है। जब – जब
भी गायक अपने संगीत की मुख्य लय से भटक जाता है तो संगतकार ही मुख्य सुरों तक वापिस आने
में उसकी सहायता करता है।
काव्यांश 3 –
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला|
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई , उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाँढस बँधता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
शब्दार्थ –
तारसप्तक – संगीत शास्त्र से संबंधित एक विधा , हिंदी साहित्य में प्रयोगवादी कवियों द्वारा
संपादित काव्य – ग्रंथ
प्रेरणा – किसी को किसी कार्य में प्रवृत्त करने की क्रिया या भाव , मन में उत्पन्न होने वाला
प्रोत्साहनपरक भाव-विचार , ( इंस्पिरेशन )
उत्साह – उमंग , जोश , उछाह , हौसला , साहस , हिम्मत , दृढ़ संकल्प
ढाँढस बँधता – तसल्ली देना
राग – किसी ख़ास धुन में बैठाये हुए स्वर का ढाँचा , प्रेम , अनुराग
नोट – उपरोक्त काव्यांश में कवि संगतकार की उन और अधिक बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित
करना चाहते हैं जिनके बारे में हम अनजान हैं। कवि बताना चाहते हैं कि संगतकार हर
मुकिल लश्किघडी में मुख्य गायक का साथ देता है और उसे हर मुसीबत से बाहर निकालता है।
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब कभी मुख्य गायक संगीत शास्त्र से संबंधित
विधा का प्रयोग करके ऊंचे स्वर में गाता है तो उसका गला बैठने लगता है। उससे सुर सँभलते
नहीं हैं। तब गायक को ऐसा लगने लगता है जैसे कि अब उससे आगे गाया नहीं जाएगा। उसके
भीतर निरा शछाने लगती है। उसका मनोबल खत्म होने लगता है। उसकी आवाज कांपने लगती हैं
जिससे उसके मन की निरा शव हता शप्रकट होने लगती है। उस समय मुख्य गायक का हौसला बढ़ाने
वाला व उसके अंदर उत्साह जगाने वाला संगतकार का मधुर स्वर सुनाई देता हैं। उस सुंदर आवाज
को सुनकर मुख्य गायक फिर नए जोश से गाने लगता हैं। कवि आगे कहते हैं कि कभी – कभी
संगतकार मुख्य गायक को यह बताने के लिए भी उसके स्वर में अपना स्वर मिलाता है कि वह
अकेला नहीं है। कोई है जो उसका साथ हर वक्त देता है। और यह भी बताने के लिए कि जो राग या
गाना एक बार गाया जा चुका है। उसे फिर से दोबारा गाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि
कभी – कभी मुख्य गायक अपने द्वारा गायी गई पंक्तियों को दोहराना नहीं चाहता जिस वजह से वह
अपनी लय से भटकने लगता है , तभी मुख्य गायक का साथ देने संगतकार आ जाता है और मुख्य
गायक को हौसला देता है कि जब – जब भी वह डगमगाएगा उसका साथ देने के लिए वह हमे शउसके
साथ है और जो पंक्तियाँ मुख्य गायक गा चूका है उन पंक्तियों को भी दोहराया जा सकता है।
भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों से हमें ज्ञात होता है कि संगतकार की भूमिका मुख्य गायक के जीवन
में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होती है। क्योंकि जब – जब भी मुख्य गायक अपना गीत गाते हुए कोई
गलती करता है या कही कुछ भूल जाता है तो संगतकार उसकी गलतियों को छुपाने के लिए उसके
द्वारा गाई गई पंक्तियों को दोहराता है। इससे मुख्य गायक को सँभलने का मौका मिल जाता है।
काव्यांश 4 –
और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की जो को ष्टिशश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए
शब्दार्थ –
हिचक – हिचकने की क्रिया , हिचकिचाहट , कोई काम करने से पहले मन में होने वाली हलकी
रुकावट , संकोच , झिझक
विफलता – विफल होने की अवस्था या भाव , असफलता , नाकामयाबी
मनुष्यता – इनसानियत , मानवता , दया , बुद्धि आदि , सज्जनता।
नोट – इस काव्यांश में कवि , संगतकार जो हमे शमुख्य गायक के पीछे गाता है , उसकी इस स्थिति
को कम न समझने को कहते हैं कि भले ही संगतकार मुख्य गायक के हमे शपीछे ही गाता है।
परन्तु उसका इस तरह पीछे गाना कोई संगतकार की कमजोरी या असफलता नही माननी चाहिए बल्कि
उसका सम्मान करना चाहिए।
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जब भी संगतकार मुख्य गायक के स्वर में
अपना स्वर मिलता है यानि उसके साथ गाना गाता है तो उसकी आवाज में एक संकोच साफ सुनाई
देता है। और उसकी हमे शयही को ष्टिशश रहती है कि उसकी आवाज मुख्य गायक की आवाज से धीमी
रहे। अर्थात उसका स्वर भूल कर भी मुख्य गायक के स्वर से ऊँचा न हो जाए इसका ध्यान वह बहुत
अच्छे से रखता है। लेकिन हमें इसे संगतकार की कमजोरी या असफलता नही माननी चाहिए
क्योंकि वह मुख्य गायक के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए ऐसा करता है। कहने का
तात्पर्य यह है कि अपना स्वर ऊँचा कर वह मुख्य गायक के सम्मान को ठेस नही पहुँचाना चाहता
है। यह उसका मानवीय गुण हैं।
भावार्थ – उपर्युक्त पंक्तियों का भाव यह है कि संगतकार जान-बूझकर अपने स्वर को मुख्य गायक
के स्वर से ऊँचा नहीं होने देते हैं। यह संगतकार द्वारा अपनी प्रतिभा का त्याग है जो
योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी मुख्य गायक की सफलता में बाधक नहीं बनता है और मानवता का
अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है।

नेता जी का चमा पाठ सार (Netaji ka Chashma Summary)


मा मा
प्रस्तुत पाठ ” नेताजी का चमा श्मा
” कहानी देशभक्ति से जुड़ी हुई है जिसमें कैप्टन चमेश्मे वाले के
माध्यम से देश के उन करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित किया गया है जो इस देश के
निर्माण में अपने – अपने तरीके से सहयोग करते हैं। लेखक बताते हैं कि हालदार साहब को
हर पंद्रहवें दिन उस कस्बे से गुजरना पड़ता था क्योंकि हर पंद्रहवें दिन कंपनी को कोई न कोई
ऐसा काम होता था जिसके कारण हर पंद्रहवें दिन हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते थे। कस्बा
उतना अधिक बड़ा नहीं था , उस कस्बे में वैसे कुछ ही मकान थे जिन्हें पक्का मकान कहा जा
सकता है और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा वहाँ पर केवल एक ही बाजार था। उस कस्बे में दो
स्कूल , एक सीमेंट का छोटा – सा कारखाना , दो ओपन एयर सिनेमाघर , एक दो नगरपालिका ऐ-भी थी।
अब जहाँ नगरपालिका होती है वहाँ पर कुछ – न – कुछ काम भी करती रहती हैं। कभी वहाँ कोई सड़क
पक्की करवा दी जा रही होती थी , कभी कुछ पे बघर बघरशाबनवा दिए जाते थे , कभी कबूतरों के लिए घर
बनवा देते थे तो कभी कवि सभाएँ करवा दी जाती थी। अब लेखक बताते हैं कि कस्बे की उसी
नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्र सनिकसनि कशाअधिकारी ने एक बार ‘ शहर ’ के मुख्य बाजार के
मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की मूर्ति लगवा दी थी। जो कहानी लेखक
हमें सूना रहे हैं वह कहानी भी उसी मूर्ति के बारे में है , बल्कि उसके भी एक छोटे – से
हिस्से के बारे में है। लेखक को पूरी बात तो पता नहीं है , लेकिन उनको यह लगता है कि जो
सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कमी रह गई है उसके बहुत से कारण हो सकते हैं जैसे – जिसने भी
सुभाष चंद्र जी की मूर्ति बनवाई है उसको देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होगी या फिर
अच्छी मूर्ति बनाने के लिए जो खर्चा लगता है और जो उन्हें मूर्ति बनाने के लिए खर्च दिया गया
होगा उस से कहीं बहुत ज्यादा खर्च होने के कारण सही मूर्तिकार को उपलब्ध नहीं करवा पाए होंगे।
या हो सकता है कि काफी समय भाग- दौड़ और लिखा – पत्री में बरबाद कर दिया होगा और बोर्ड के
शासन करने का समय समाप्त होने की घड़ियाँ नजदीक आ गई हों और मूर्ति का निर्माण उससे पहले
करवाना हो जिस कारण किसी स्थानीय कलाकार को ही मौक़ा देने का निचययश्चकर लिया गया होगा, और
अंत में उस कस्बे के एक मात्र हाई स्कूल के एक मात्र ड्राइंग मास्टर को ही यह काम सौंप दिया
गया होगा ( यहाँ लेखक उन ड्रॉइंग मास्टर का नाम मोतीलाल जी मानते हैं क्योंकि मूर्ति के निचे
जिस मूर्तिकार का नाम लिखा गया है वह मोतीलाल है और लेखक ने उस मूर्तिकार को हाई स्कूल का
ड्राइंग मास्टर इसलिए माना है क्योंकि कोई भी मूर्तिकार किसी महान व्यक्ति की मूर्ति बनाते हुए
कोई गलती नहीं करेगा ) और लेखक मानते है कि उन मास्टर जी को यह काम इसलिए सौंपा गया होगा
क्योंकि उन्होंने महीने – भर में मूर्ति बनाकर ‘ पटक देने ’ का विवास सश्वा दिलाया होगा। वह मूर्ति
बहुत सुंदर थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस बहुत सुंदर लग रहे थे। वे बिलकुल बच्चों की तरह निछललश्छ
और कम उम्र वाले लग रहे थे। उनकी वह मूर्ति फ़ौजी वर्दी में बनाई गई थी। जब भी कोई मूर्ति को
देखता था था तो मूर्ति को देखते ही उसे नेता जी सुभाष चंद्र जी के प्रसिद्ध नारे ‘ दिल्ली चलो ’
और ‘ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ’ आदि याद आने लगते थे। इन सभी चीजों को
देखते हुए कहा जा सकता है कि यह मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार ने जिस प्रकार मूर्ति बनाई है
उसकी को ष्टिशशसफल और प्र सा साशंके काबिल है। परन्तु उस मूर्ति में केवल एक चीज़ की कमी थी जो उस
मूर्ति को देखते ही अटपटी लगती थी। और वह कमी थी – सुभाष चंद्र बोस जी की आँखों पर चमा श्मा नहीं
था। ( यह इसलिए कमी थी क्योंकि नेता जी सुभाष चंद्र बोस हमे शचमा श्मा लगाए रहते थे और उनकी
के बहुत अटपटी लग रही थी ) सुभाष चंद्र बोस जी की मूर्ति पर चमा श्मा
मूर्ति बिना चमेश्मे तो था , लेकिन
संगमरमर का नहीं था। क्योंकि जब मूर्ति संगमरमर की है तो चमा श्मा भी उसी का होना चाहिए था लेकिन
षतावाला और असल के चमेश्मे
उस मूर्ति पर एक मामूली सा बिना किसी वि षताशे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति
को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से आगे बड़ रहे थे और चौराहे पर
पान खाने रुके थे तभी उन्होंने इस चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था और यह देख कर
उनके चेहरे पर एक हँसी – मज़ाक भरी मुसकान फैल गई थी। यह सब देख कर उन्होंने कहा था कि
वाह भई ! यह तरीका भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की , लेकिन चमा श्मा असलियत का ! मूर्ति पर असली चमें श्में
को
पहनाने पर हवालदार साहब नागरिकों की देश – भक्ति की सराहना कर रहे हैं क्योंकि वह मूर्ति कोई
आम मूर्ति नहीं थी बल्कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की थी और उस पर एक बहुत ही बड़ी कमी थी कि
उस मूर्ति पर मूर्तिकार चमा श्मा
बनाना भूल गया था जो कहीं न कहीं नेता जी का अपमान स्वरूप देखा जा
सकता है क्योंकि नेता जी ने आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व त्याग दिया था और उनकी छवि
को उनके ही सादृय श्यप्रस्तुत करना हर देशवासी का कर्तव्य है और कस्बे के नागरिकों ने भी अपने
इसी कर्तव्य का निर्वाह करने की को ष्टिशश की थी अतः हवलदार साहब इस घटना को देश भक्ति से जोड़
कर देख रहे हैं। दूसरी बार जब हालदार साहब को किसी काम से कस्बे से गुज़रना था तो उन्हें
नेता जी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कुछ अलग दिखाई दिया। जब पहली बार उन्होंने मूर्ति को
देखा था तब मूर्ति पर मोटे फ्रेम वाला चार कोनों वाला चमा श्मा था , अब तार के फ्रेम वाला गोल चमा श्मा
था। यह सब देख कर हालदार साहब की जिज्ञासा और भी अधिक बड़ गई और इस बार वे उस पान वाले
से बोले जिसकी दूकान पर वे पान खाया करते थे , कि वाह भई ! क्या तरीका है। मूर्ति कपड़े नहीं
बदल सकती लेकिन चमा श्मा तो बदल ही सकती है। हालदार साहब का प्रन श्नसुनकर वह आँखों – ही –
आँखों में हँसा। प्रन श्नका उत्तर देने के लिए उसने पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे अपने
मुँह में भरे हुए पान को थूका और पान खाने के कारण हुई लाल – काली बत्तीसी दिखाकर बोला कि यह
सब कैप्टन चमेश्मेवाला करता है। हालदार साहब उसके उत्तर को समझ नहीं पाए और फिर से पूछने
लगे कि क्या करता है ? पानवाले ने हवलदार साहब को समझाया कि चमा श्मा चेंज कर देता है।
हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए कि पान वाला क्या कहना चाहता है और वे फिर से पूछ बैठते
हैं कि क्या मतलब ? क्यों चेंज कर देता है ? पान वाला फिर समझाते हुए कहता है कि ऐसा समझ लो
कि उसके पास कोई ग्राहक आ गया होगा जिस को चौडे़ चौखट वाला चमा श्मा चाहिए होगा। तो कैप्टन
कहाँ से लाएगा ? क्योंकि वह तो उसने मूर्ति पर रख दिया होगा। तो उस चौडे़ चौखट वाले चमेश्मे को
मूर्ति से निकाल कर उस ग्राहक को दे दिया और मूर्ति पर कोई दूसरा चमा श्मा बिठा दिया। हवलदार साहब
को पान वाले की सारी बातें समझ में आ गई थी लेकिन एक बात अभी भी उसकी समझ में नहीं आई
कि अगर कैप्टन चमेश्मे वाला मूर्ति पर असली चमेश्मे कहाँ गया ?
लगाता है तो नेताजी का वास्तविक चमा श्मा
पीछे मुड़कर पान वाले ने पान की पीक नीचे थूकी और मुसकराता हुआ बोला , कि नेता जी का
वास्तविक अर्थात संगमरमर का चमा श्मा मास्टर यानी मूर्तिकार बनाना भूल गया। पानवाले के लिए यह
एक दिलचस्प बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए बहुत ही हैरान और परे ननशा करने वाली बात थी
कि कोई कैसे इतनी महत्वपूर्ण चीज़ को भूल सकता है। अब हवालदार साहब को अपनी सोची हुई बात
सही लग रही थी कि मूर्ति के नीचे लिखा ‘ मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल ’ सच में ही उस कस्बे का
अध्यापक था। अपने खयालों में खोए – खोए वे पान वाले को उसके पान के पैसे चुकाकर ,
चमे वा की देश – भक्ति के सामने आदर से सर झुकाते हुए जीप की तरफ चले लेकिन कुछ सोच
लेश्मे
वाले
कर रुक गए और पीछे मुडे़ और पानवाले के पास वापिस जाकर पूछा , क्या कैप्टन चमे वालाश्मे
वाला नेताजी
का साथी है ? या आजाद हिन्द फौज का कोई सेवानिवृत सिपाही ? ( ऐसा हवलदार साहब ने इसलिए पूछा
क्योंकि हवलदार साहब के मुताबिक़ आज के समय में नेता जी का इतना ख़याल या इतनी देश – भक्ति
तो किसी ऐसे व्यक्ति की ही हो सकती है जो या तो नेता जी से जुड़ा हुआ हो या आजादी की लड़ाई का
कोई सिपाही हो ) अब तक पानवाला नया पान खाने जा रहा था। अपने हाथ में पान पकड़े हुए पान को
मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को बड़े ध्यान से देखा क्योंकि हवलदार साहब
बहुत जिज्ञासा से कैप्टन चमें वाले के बारे में पूछ रहे थे , फिर उसने वही अपनी लाल – काली
श्में
बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर हवलदार साहब से बोला – नहीं साहब ! वो लँगड़ा फौज में क्या
जाएगा। वह तो एक दम पागल है पागल ! फिर इ रारा करके दिखते हुए बोला कि वो देखो , वो आ रहा
शा
है। आप उसी से बात कर लो। उसकी फोटो – वोटो छपवा दो कहीं , जिससे उसका कोई नाम हो जाए या
जिससे लोग उसे पहचानने लगे। हालदार साहब को पानवाले के द्वारा किसी देशभक्त का इस तरह
मजाक उड़ाया जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। परन्तु जब वे मुड़े तो यह देखकर एकदम हैरान
रह गए कि एक हद से ज्यादा बूढ़ा कमजोर – सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर
लगाए एक हाथ में एक छोटी – सा लकड़ी का संदूक और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे
काला चमा श्मा
बहुत – से चमेश्मे
लिए अभी – अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस
टिका रहा था। उसे देख कर हवलदार साहब को बहुत बुरा लगा और वे सोचने लगे कि इस बेचारे की
दुकान भी नहीं है ! फेरी लगाता है ! हालदार साहब अब और भी ज्यादा सोच में पड़ गए। वे बहुत
कुछ और पूछना चाहते थे ,जैसे इसे कैप्टन क्यों कहते हैं ? क्या यही इसका वास्तविक नाम है ?
लेकिन पानवाले ने पहले ही साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार
नहीं। क्योंकि पानवाले ने कैप्टन की ओर इ रारा शा
करके हवलदार साहब को बता दिया था कि वो
कैप्टन है और अब जो कुछ भी हवलदार साहब को पूछना है वह उसी से जा कर पूछ ले। इसी कारण
अब हवलदार पानवाले से भी कुछ नहीं पूछ सकते थे। हालदार साहब बिना कैप्टन से मिले या कोई
प्रन श्नकिए ही जीप में बैठकर चले गए। अगले दो सालों तक हालदार साहब अपने काम के
सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चमोंश्मों को देखते
रहे। अचानक फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी , कैसा भी चमा श्मा नहीं था। उस दिन
पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं। जिस कारण हवलदार साहब इसका
कारण नहीं जान पाए। उसके अगली बार भी जब हवलदार साहब उस कस्बे से गुजरे तब भी मूर्ति की
आँखों पर चमा श्मा नहीं था। किन्तु आज पान की दूकान खुली हुई थी जिस कारण हालदार साहब ने पान पहले
तो पान खाया और फिर धीरे से पानवाले से पूछा – क्यों भई , क्या बात है ? आज तुम्हारे नेताजी की
आँखों पर चमा श्मा नहीं है ? पानवाला हवलदार साहब की बात सुनकर उदास हो गया। अपनी धोती के
सिरे से अपनी आँखों में आए आँसुओं को पोंछता हुआ बोला कि साहब ! कैप्टन मर गया। जब
हवालदार साहब को कैप्टन के मर जाने के बाद बिना चमेश्मे की नेता जी की मूर्ति देखने को मिलती
तो वे बार – बार सोचते , कि क्या होगा उस राष्ट्र का जो अपने देश की खातिर अपना सब कुछ घर –
गृहस्थी – जवानी – ज़िदगी दाव पर लगा देते हैं और आज की पीढ़ी उन पर हँसती है और वे इसी
मौके को ढूँढ़ती है कि कब उनका किसी तरह फायदा हो। सोच – सोच कर हवालदार साहब दुखी हो गए थे।
पंद्रह दिन बाद जब फिर से अपने काम के सिलसिले में उसी कस्बे से गुज़रे। तब कस्बे में
घुसने से पहले ही उन्हें खयाल आया कि कस्बे के बीचों बिच में नेता जी सुभाष चंद्र बोस की
मूर्ति अवय श्यही विद्यमान होगी , लेकिन उन की आँखों पर चमा श्मा नहीं होगा। क्योंकि जब मास्टर ने
मूर्ति बनाई तब वह बनाना भूल गया। और उसकी इस कमी को कैप्टन पूरी करता था लेकिन अब तो
कैप्टन भी मर गया। अब हवलदार साहब ने सोच लिया था कि आज वे वहाँ रुकेंगे ही नहीं , पान भी
नहीं खाएँगे , यहाँ तक की मूर्ति की तरफ तो देखेंगे भी नहीं , सीधे निकल जाएँगे। उन्होंने अपने
ड्राइवर से भी कह दिया था कि चौराहे पर रुकना नहीं है क्योंकि आज बहुत काम है और पान भी कहीं
आगे खा लेंगे। लेकिन हर बार की आदत के कारण आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति
की तरफ उठ गईं। लेकिन इस बार हवलदार साहब ने कुछ ऐसा देखा कि एक दम से चीखे , रोको ! जीप
अपनी तेजी में थी , ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। जिस कारण रास्ता चलते लोग उन्हें देखने
लगे। अभी जीप सही से रुकी भी नहीं थी कि हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़ – तेज़ कदमों से
मूर्ति की तरफ चल पड़े और उसके ठीक सामने जाकर सावधान अवस्था में खड़े हो गए। मूर्ति की
आँखों पर सरकंडे से बना छोटा – सा चमा श्मा रखा हुआ था , जैसा बच्चे अक्सर खेल – खेल में बना
लेते हैं। यह देख कर हालदार साहब भावुक हो गए। इतनी – छोटी सी बात पर उनकी आँखें भर आईं
थी। (यहाँ अंत में सरकंडे से बने चमेश्मे को नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आंखों पर देख कर
ताहै कि देश – भक्ति उम्र की मोहताज नहीं होती। हवलदार
हवलदार साहब का भावुक होना यह दर् तार्शा
साहब को लगा था कि कैप्टन के जाने के बाद शायद ही कोई नेता जी के चमेश्मे का मूल्य जान पाए
लेकिन जब बच्चों ने नेता जी के चमेश्मे का मूल्य जाना तो हवालदार साहब भावुक हो गए क्योंकि अभी
इस पीढ़ी में भी देश भक्ति जिन्दा है और हमें भी अपनी आने वाली पीढ़ी को आज़ादी के लिए
अपना सर्वस्व त्यागने वाले वीरों की गाथाएँ सुनानी चाहिए और उनका सम्मान करना भी सिखाना
चाहिए। )

बालगोबिन भगत पाठ सार (Balgobin Bhagat Summary)


लेखक बालगोबिन भगत के बारे में बताते हैं कि वे न तो बहुत लम्बे थे और न ही बहुत छोटे
थे बल्कि उनका कद मध्यम था , बालगोबिन भगत का रंग भी गोरा था। बालगोबिन भगत जी को देखने
से प्रतीत होता था कि उनकी उम्र साठ वर्ष से अधिक की ही होगी। क्योंकि उनके सारे बाल पक गए
थे अर्थात उनके सारे बाल सफ़ेद हो गए थे। बालगोबिन भगत कोई लंबी दाढ़ी और बालों का जुड़ा
तो नहीं रखते थे , परन्तु हमे शही उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता था। वे
ज्यादा कपड़े भी नहीं पहनते थे बल्कि बिलकुल कम पहनते थे चाहे कोई भी मौसम क्यों न हो। वे
हमे शही कमर पर केवल एक लंगोटी और सिर में कबीरपंथियों के जैसी कनफटी टोपी पहना करते
थे। केवल जब ठण्ड का मौसम आता या ठण्ड बढ़ जाती तो एक छोटा सा काला कम्बल ऊपर से ओढ़
लेते थे। वे मस्तक पर हमे शरामानंदी चंदन लगाया करते थे जो चमकदार होता था और उसको
लगाने का तरीका भी अनोखा होता था। वे उस चन्दन के टिके को नाक के एक छोर से ही शुरू करते
थे जैसे औरतें अपने टीके को लगाती हैं। वे हमे शही अपने गले में तुलसी की जड़ों की
एक बेडौल बेढंगी से माला बाँधे रहते थे , जो देखने में बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी।
बालगोबिन भगत कोई विरक्त व्यक्ति थे , जिसने सभी भौतिक सुखों का त्याग कर दिया हो। ऐसा बिलकुल
नहीं था , बल्कि वे तो पत्नी और बाल – बच्चों वाले आदमी थे। उनकी पत्नी की तो लेखक को याद
नहीं हैं , परन्तु उनके बेटे और बेटे की पत्नी को तो लेखक ने देखा था। बालगोबिन भगत की
थोड़ी खेतीबारी भी थी और उनका एक अच्छा साफ़ – सुथरा मकान भी था। बालगोबिन भगत कबीर के भक्त
थे , वे कबीर को ‘ साहब ’ मानते थे , उन्हीं के गीतों को हमे शगाते रहते थे और उन्हीं के दिए
या बताए हुए आदे% शपर चलते थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे , उनका व्यवहार छल – कपट से
रहित था। बालगोबिन भगत किसी से भी दो – टूक बात करने में कोई झिझक नहीं करते थे अर्थात
उन्हें जो कहना होता था वे झट से कह देते थे , बालगोबिन भगत किसी से भी बिना बात के कोई
झगड़ा नहीं करते थे। वे किसी की कोई भी चीज़ बिना पूछे उपयोग में नहीं लाते थे , छूना तो बहुत
दूर की बात है। वे इस नियम को कभी – कभी इतनी बारीकी से अपने व्यवहार में लाते कि लोगों को
आचर्य यश्चहोता था कि कोई कैसे इतना नियमों का पालन कर सकता है ! जो कुछ भी वे मेहनत करके
र्
खेती – बाढ़ि करके खेत में आनाज पैदा करते , पहले उसे सिर पर लादकर साहब यानी कबीर के
दरबार में ले जाते और वहाँ से वापिस आ र्वाद र्वा के रूप में जो भी अन्न उन्हें मिलता , उसे घर
दशी
लाते और उसी से अपने घर – परिवार का गुजारा चलाते थे ! बालगोबिन भगत का जिस तरह का
व्यवहार था उन सबके ऊपर लेखक मोहित हो गए थे। उनके मधुर गान – जो वे हमे शही गुनगुनाते
रहते थे , वे लेखक को हमे शसुनने को मिलते थे। जब भी वे कबीर के सीधे – सादे पद
गुनगुनाते थे , तो ऐसा प्रतीत होता था कि उनके कंठ से निकलकर वे पद मानो सजीव हो उठते थे।
आसाढ़ मास में जब सब अपने – अपने कामों में व्यस्त होते हैं तब सबके कानों में एक स्वर
– तरंग की झन – झन की ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह ध्वनि क्या है या यह कौन है जो इस ध्वनि को
उत्पन्न कर रहा है ! यह किसी को पूछने की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि इसके बारे में सभी को पता
है। बालगोबिन भगत का पूरा शरीर कीचड़ में लिपटा हुआ है और वे भी अपने खेत में धान के पौधों
को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक – एक धान के पौधे
को , एक सीध में , खेत में बिठा रही है। उनका गला संगीत के एक – एक शब्द को जुबान पर चढ़ाकर
कुछ शब्दों को ऊपर , स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के
कानों की ओर भेज रहा है ! अर्थात बालगोबिन भगत के संगीत के स्वर चारों ओर गूँज रहे हैं।
बच्चे खेलते हुए जब बालगोबिन भगत का संगीत सुनते हैं तो वे झूम उठते हैं ; खेतों के किनारे पर
खड़ी औरतों के होंठ भी काँप उठते हैं , अर्थात वे भी बालगोबिन भगत के स्वरों के साथ
गुनगुनाने लगती हैं ; हल चलाने वाले लोगों के पैर भी उन स्वरों के ताल से उठने लगते हैं ;
धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम करने वालों की अँगुलियाँ भी एक
अजीब क्रम से चलने लगती हैं ! यह सब दृय श्य देख कर एक ही प्रन श्नमन में उठता है कि बालगोबिन
भगत का यह संगीत है या कोई जादू है ! लेखक भादो महीने की उस अंधेरी आधी रात का वर्णन कर
रहे हैं जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है और चाँद की चाँदनी कहीं नज़र नहीं आ रही है। उस
आधी रात में लेखक बताते हैं कि अभी , कुछ समय पहले ही वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों ने बरसना
बंद किया है। उस समय जब वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों के साथ ही , बादलों की बहुत गंभीर आवाज़
और बिजली की चमचमाहट में किसी ने कुछ नहीं सुना हो , किन्तु अब झींगुरों की झन – झन की ध्वनि
या मेंढकों की टर्र – टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने शोर में नहीं डुबो सकतीं। कहने का
तात्पर्य यह है कि उस आधी रात में भी जब चारों ओर केवल अँधेरा ही अँधेरा था तब भी
बालगोबिन भगत अपने संगीत को हमे शकी तरह गुनगुना रहे थे और बादलों की गंभीर आवाज़ और
बिजली की चमचमाहट से भले ही उनके संगीत को कोई न सुन पाया हो किन्तु झींगुरों या मेंढकों की
ध्वनि उनके संगीत को दबा नहीं सकती। जैसे ही कातिक का महीना आता है वैसे ही बालगोबिन
भगत की सुबह के समय गाए जाने वाले गीत शुरू हो जाया करते थे और वे गीत फागुन महीने तक
चला करते थे। इन महीनों में वे सुबह होते ही उठ जाते थे। किसी को भी यह पता नहीं चल पाता
था कि वे किस वक्त जग जाया करते थे और बालगोबिन भगत हर सुबह नहाने के लिए दो मील दूर नदी
में जाया करते थे। वहाँ से नहा – धोकर जब वे घर लौटते थे तो घर आने से पहले गाँव के
बाहर ही , एक तालाब था , वे उसके ऊँचे हिस्से पर , अपनी खँजड़ी लेकर बैठ जाया करते थे और
अपने गाने गुनगुनाने लगते थे। लेखक अपने बारे में बताते हैं कि वे शुरू से ही देर तक
सोने वाले रहे हैं , परन्तु , एक दिन जब लेखक ने , माघ की उस दाँत किटकिटाने वाली सुबह में
भी , उनका संगीत सूना तो लेखक को ऐसा लगा जैसे वह संगीत लेखक को उस तालाब पर ले गया था।
उस समय आसमान में तारे पूरी तरह से ओझिल नहीं हुए थे। किन्तु हाँ , पूरब में हल्की लालिमा आ
गई थी और उस लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत , बगीचा , घर – सब पर कुहरा छा रहा था।
सारा वातावरण अजीब रहस्य से ढाका हुआ मालूम पड़ता था। वे अपने गाने को गाते – गाते इतने
मस्त हो जाते थे और इतने सुरूर में आ जाते थे , इतने उत्तेजित हो उठते थे कि उनको देख
कर ऐसा मालूम होता था जैसे वे गाना गाते हुए कभी भी खड़े हो जाएँगे। उनका छोटा सा कम्बल तो
बार – बार सिर से नीचे खिसकता जाता था। लेखक बताते है कि उस ठण्ड से वे तो कँपकँपा रहे थे
, परन्तु तारे की छाँव में भी बालगोबिन भगत के माथे पर उनके गाना गाने के परिरममश्रसे आई
पसीने की बिंदु , जब – तब , चमक ही पड़ती थी। लेखक बाल गोबिन भगत के संगीत का गुणगान करते
हुए कहते हैं कि गर्मियों के दिनों में बाल गोबिन भगत की वो संगीत से भरी शाम न जाने कितनी
उमस भरी शाम को ठंडक प्रदान करती थी ! लेखक बताते हैं कि वे अपने घर के आँगन में हर शाम
को आसन जमा कर संगीत गुनगुनाने के लिए बैठ जाया करते थे। गाँव के कुछ लोग जो उनके
संगीत को पसंद करते थे वे भी हर शाम को बाल गोबिन भगत के घर के आँगन में जुट जाया करते
थे। धीरे – धीरे उन लोगों का मन उनके तन पर हावी हो जाता। और लेखक बताते हैं कि यह सब
होते – होते , एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे होते और उनके
साथ ही सबके तन और मन भी नाच उठने को होने लगते। हर शाम को बाल गोबिन भगत का सारा आँगन
नृत्य और संगीत से भरा पूरा प्रतीत होता था ! लेखक बताते हैं कि बाल गोबिन भगत की संगीत –
साधना कितनी अधिक उन्नत है , इसका प्रमाण उस दिन देखा गया जिस दिन उनके बेटे का निधन हो
गया। लेखक बताते हैं कि वह उनकी अकेली औलाद थी , जिसको उन्होंने अधिक लाड़ – प्यार में
पाला था। उनका वह बीटा कुछ सुस्त और नासमझ – सा था , परन्तु इसी कारण से बाल गोबिन भगत उसे
और भी ज्यादा मानते थे। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार
करना चाहिए , क्योंकि जो थोड़े कमअक्ल या नासमझ होते हैं वे दूसरों की निगरानी और मुहब्बत
के ज्यादा हकदार होते हैं। लेखक आगे यह भी बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने बड़ी ही इच्छा
के साथ अपने उस बेटे की शादी कराई थी , उन्हें उनकी बहु बड़ी ही सौभाग्यवान और सु ललशी मिली थी।
उसने घर को पूरी तरह से अपने प्रबंध में लेकर बाल गोबिन भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से
मुक्त कर दिया था। उनका बेटा बीमार है , इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत मिलती थी !
परन्तु लेखक बताते हैं कि भले ही कोई आपके जिन्दा होने पर आपकी खबर भी न लें किन्तु मौत तो
अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक और बाकि सभी ने
सुना कि बाल गोबिन भगत का बेटा मर गया है। जिज्ञासा वश लेखक भी उनके घर गया। लेकिन जो
कुछ लेखक ने वहां पर देखा , उसे देखकर लेखक दंग रह गया। बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे
को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा था। वह कुछ फूल जिनको वे
हमे शही रोपते रहते थे , उन फूलों में से कुछ फूल तोड़कर उन्होंने अपने बेटे की लाश पर
बिखरा दिए थे ; उस पर फूल और तुलसी के पत्ते भी थे। सिरहाने के पास एक चिराग जला रखा था।
और , उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे थे ! वही पुराना स्वर , वही
पुरानी तल्लीनता। घर में पुत्र की पत्नी रो रही थी जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की को ष्टिशश
कर
रही थी। परन्तु , बाल गोबिन भगत गीत गाए जा रहे थे ! हाँ , गाते – गाते कभी – कभी पुत्र की पत्नी
के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। और अपनी बहु को समझाते
हुए कहते कि आत्मा परमात्मा के पास चली गई , विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली , भला इससे
बढ़कर आनंद की कौन ही बात हो सकती है ? यह सब बाते सुनते – सुनते कभी – कभी लेखक सोच में
पड़ जाते थे , कि कहीं बेटे की मौत के कारण वे पागल तो नहीं हो गए हैं। परन्त नहीं , जब
लेखक उनकी कही हुई बातों को ध्यान से सोचते हैं तब उन्हें लगता है कि वह जो कुछ कह रहे थे
उसमें उनका विवास सश्वा बोल रहा था – वह चरम विवास सश्वा
जो हमे शही मृत्यु पर विजयी होता आया है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का परमात्मा से मिलन मोक्ष है और मोक्ष की प्राप्ति आत्मा का
अंतिम लक्ष्य। और जो कोई इस बात को समझ जाए वह मृत्यु से कभी भय नहीं कर सकता।लेखक
बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे के अंतिम – कर्मों में भी कोई दिलचस्पी नहीं
दिखाई ; यहाँ तक की उनके बेटे को आग भी उनकी बहु ने ही दिलाई। किन्तु जैसे ही पितरों अथवा
मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाला धार्मिक कर्मकांड , पिंडदान, अन्नदान आदि का समय पूरा
हुआ , वैसे ही अपनी बहु के भाई को बुलाकर उसे उसके साथ कर दिया , और यह आदेश दिया कि इसकी
दूसरी शादी कर देना। किन्तु उनकी बहु रो – रोकर कहती रही कि वह चली जाएगी तो बुढ़ापे में कौन
बाल गोबिन भगत के लिए भोजन बनाएगा , यदि कभी बीमार पड़े , तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा ?
अर्थात उनकी बहु जानती थी कि अगर वह चली जाएगी तो बाल गोबिन भगत बिलकुल अकेले हो
जाएंगे। वह बाल गोबिन भगतके पैर पड़ती रही कि वह उसे अपने चरणों से अलग न करे !
लेकिन भगत का निर्णय अटल था। उन्होंने अपनी बहस का अंत करते हुए कहा कि वह चली जाए ,
नहीं तो वे ही इस घर को छोड़कर चले जाएंगे। अब इस तरह की बात के आगे बेचारी की क्या
चलती ? कहने का तात्पर्य यह है कि न चाहते हुए भी बाल गोबिन भगत की बहु को उन्हें बुढ़ापे में
अकेले छोड़ कर जाना पड़ा। लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के मुताबिक़ हुई।
वह हर वर्ष गंगा – स्नान करने जाते थे। उनकी स्नान पर उतनी आस्था नहीं होती थी , जितना साधु -
संतों से मिलने और जगाहों को देखने पर होती। अर्थात बाल गोबिन भगत को घूमना – फिरना पसंद
था। वे पैदल ही जाते थे। उनके घर से करीब तीस कोस दुरी पर गंगा थी। लेखक कहते हैं कि साधु
को किसी का सहारा लेने का क्या हक है ? और , गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे ? इसलिए इसी
सोच के कारण , बाल गोबिन भगत घर से खाकर चलते , तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर
खँजड़ी बजाते , गाते और जहाँ प्यास लगती , पानी पी लेते। चार – पाँच दिन आने – जाने में
लगते ; किन्तु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती ! अब बुढ़ापा जरूर आ गया था , परन्तु टेक वही
जवानी वाली थी। परन्तु लेखक बताते हैं कि अंतिम बार जब वे लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने
– पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी , थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु अपने रोज़ के कामों को तो
छोड़ने वाले नहीं थे। वही दोनों समय गीत गुनगुनाना , स्नानध्यान , खेतीबारी देखना। किन्तु अब दिन
प्रतिदिन कमजोर और क्षिण होने लगे थे। उनकी तबियत को देखते हुए लोगों ने उन्हें नहाने –
धोने से मना किया , आराम करने को कहा। किन्तु , वे हँसकर टाल देते रहे। लेखक बाल गोबिन
भगत के आखरी दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उस दिन भी शाम के समय उन्होंने गीत गाए ,
किन्तु उस समय ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कोई तागा टूट गया हो , माला का एक – एक दाना बिखरा हुआ
सा लग रहा था। सुबह में लोगों ने जब गीत नहीं सुना , तब जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे
सिर्फ उनका मांस – त्वचा आदि से ढके हुए शरीर की हड्डियों का ढाँचा पड़ा हुआ था !

लखनवी अंदाज़ पाठ सार (Lakhnavi Andaz Summary)


लेखक अपने सफ़र की शुरुआत का हिस्सा बताते हुए कहते हैं कि लोकल ट्रेन के चलने का समय
हो गया था इसलिए ऐसा लग रहा था जैसे वह लोकल ट्रेन चल पड़ने की हड़बड़ी या बेचैनी में
फूंक मार रही हो। आराम से अगर लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास में जाना हो तो उसके लिए कीमत
भी अधिक लगती है। लेखक को बहुत दूर तो जाना नहीं था। लेकिन लेखक ने टिकट सेकंड क्लास का
ही ले लिया ताकि वे अपनी नयी कहानी के संबंध में सोच सके और खिड़की से प्राकृतिक दृय श्य का
नज़ारा भी ले सकें , इसलिए भीड़ से बचकर , शोरगुल से रहित ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो , लेखक ने
चुना। लेखक जिस लोकल ट्रेन से जाना चाहता था , किसी कारण थोड़ी देरी होने के कारण लेखक
से वह गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर , लेखक ज़रा दौड़कर
उसमें चढ़ गए। लेखक ने अंदाज़ा लगाया था कि लोकल ट्रेन का वह सेकंड क्लास का छोटा डिब्बा
खाली होगा परन्तु लेखक के अंदाज़े के विपरीत वह डिब्बा खाली नहीं था। उस डिब्बे के एक बर्थ
पर लखनऊ के नवाबी परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक सज्जन व्यक्ति बहुत सुविधा से पालथी
मार कर बैठे हुए थे। उन सज्जन ने अपने सामने दो ताज़े – चिकने खीरे तौलिए पर रखे हुए थे।
लेखक के उस डिब्बे में अचानक से कूद जाने के कारण उन सज्जन के ध्यान में बाधा या
अड़चन पड़ गई थी , जिस कारण उन सज्जन की नाराज़गी साफ़ दिखाई दे रही थी। लेखक उन सज्जन की
नाराज़गी को देख कर सोचने लगे कि , हो सकता है , वे सज्जन भी किसी कहानी के लिए कुछ सोच
रहे हों या ऐसा भी हो सकता है कि लेखक ने उन सज्जन को खीरे – जैसी तुच्छ वस्तु का शौक करते
देख लिया था और इसी हिचकिचाहट के कारण वे नाराज़गी में हों। उन नवाब साहब ने लेखक के
साथ सफ़र करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई ख़ु शजाहिर नहीं की। लेखक भी बिना नवाब की ओर
देखते हुए उनके सामने की सीट पर जा कर बैठ गए। लेखक की पुरानी आदत है कि जब भी वे खाली
बैठे होते हैं अर्थात कोई काम नहीं कर रहे होते हैं , तब वे हमे शही कुछ न कुछ सोचते
रहते हैं और अभी भी वे उस सेकंड क्लास की बर्थ पर उस नवाब के सामने खाली ही बैठे थे , तो
वे उस नवाब साहब के बारे में सोचने लगे। लेखक उस नवाब साहब के बारे में अंदाजा लगाने
लगे कि उन नवाब साहब को किस तरह की परे नीनी शा
और हिचकिचाहट हो रही होगी। लेखक सोचने लगे
कि हो सकता है कि , नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा करने के अंदाजे से और बचत करने
के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया होगा और अब उनको यह सहन नहीं हो रहा होगा कि
शहर का कोई सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति उन्हें इस तरह बीच वाले दर्जे में सफर करता देखे
, कहने का तात्पर्य यह है कि नवाब लोग हमे शप्रथम दर्ज़े में ही सफर करते थे और उन नवाब
साहब को लेखक ने दूसरे दर्ज़े में सफ़र करते देख लिया था तो लेखक के अनुसार हो सकता है
कि इस कारण उनको हिचकिचाहट हो रही हो। या फिर हो सकता है कि अकेले सफर में वक्त काटने
के लिए ही उन नवाब साहब ने खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति अर्थात
लेखक के सामने खीरा कैसे खाएँ , यह सोच कर ही शायद उन्हें परे नीनी हो रही हो ? लेखक बताते
शा
हैं कि वे नवाब साहब के सामने वाली बर्थ पर आँखें झुकाए तो बैठे थे किन्तु वे आँखों के
कोनों से अर्थात तिरछी नजरों से छुप कर नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर
तक तो गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर वर्तमान स्थिति पर गौर करते रहे थे , अचानक से ही
नवाब साहब ने लेखक को पूछा कि क्या लेखक भी खीरे खाना पसंद करेंगे ? इस तरह अचानक से
नवाब साहब के व्यवहार में हुआ परिवर्तन लेखक को कुछ अच्छा नहीं लगा। नवाब साहब के खीरे के
शौक को लेखक ने देख लिया था और खीरा एक साधारण वस्तु माना जाता है , जिस कारण नावाब साहब
हिचकिचाने लगे थे और लेखक को लग रहा था कि इसी हिचकिचाहट को छुपाने के लिए और साधारण
वस्तु का शौक रखने के कारण वे लेखक से खीरा खाने के बारे में पूछ रहे हैं। लेखक ने भी
नवाब साहब को शुक्रिया कहते हुए और सम्मान में किबला शब्द से सम्मानित करते हुए जवाब दिया कि
वे ही अपना खीरे को खाने का शौक पूरा करें। लेखक का जवाब सुन कर नवाब साहब ने फिर एक पल
खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर किया और दृढ़ निचययश्चसे खीरों के नीचे रखा तौलिया झाड़ा
और अपने सामने बिछा लिया। फिर अपनी सीट के नीचे रखा हुआ लोटा उठाया और दोनों खीरों को
खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ कर सूखा लिया। फिर अपनी जेब से एक चाकू निकाला।
दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें चाकू से गोदकर उनका झाग निकाला , जिस तरह से हम भी खीरे
खाने से पहले काटते हैं। यह सब करने के बाद फिर खीरों को बहुत सावधानी से छीलकर लंबाई में
टुकड़े करते हुए बड़े तरीक़े से तौलिए पर सजाते गए। लेखक हम सभी पाठकों को लखनऊ
स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका बताते हुए कहते हैं कि हम
सभी लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका तो जानते ही हैं।
वे अपने ग्राहक के लिए जीरा – मिला नमक और पिसी हुई लाल मिर्च को कागज़ आदि में वि षशे ष
प्रकार से लपेट कर ग्राहक के सामने प्रस्तुत कर देते हैं। नवाब साहब ने भी उसी तरह से बहुत
ही तरीके से खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेर
दी। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब की हर एक क्रिया – प्रक्रिया और उनके जबड़ों की कंपन से
यह स्पष्ट था कि उन खीरों को काटने और उस पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेरने
की सारी प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रस का स्वाद लेना की कल्पना मात्र से ही जल से भर गया
था। जिस तरह जब हम अपनी पसंदीदा खाने की किसी चीज़ को देखते हैं तो हमारे मुँह में पानी आ
जाता है उसी तरह नवाब साहब के मुँह में भी खीरों को खाने के लिए तैयार करते समय पानी भर आया
था। लेखक आँखों के कोनों से अर्थात तिरछी नज़रों से नवाब साहब को यह सब करते हुए देखकर
सोच रहे थे , नवाब साहब ने सेकंड क्लास का टिकट ही इस ख़याल से लिया होगा ताकि कोई उनको
खीरा खाते न देख लें लेकिन अब लेखक के ही सामने इस तरह खीरे को खाने के लिए तैयार करते
समय अपना स्वभाविक व्यवहार कर रहे हैं। अपना काम कर लेने के बाद नवाब साहब ने फिर एक
बार लेखक की ओर देख लिया और फिर उनसे एक बार खीरा खाने के लिए पूछ लिया , और साथ – ही –
साथ उन खीरों की खासियत बताते हुए कहते हैं कि वे खीरे लखनऊ के सबसे प्रिय खीरें हैं। लेखक
बताते हैं कि नमक – मिर्च छिड़क दिए जाने से उन ताज़े खीरे की पानी से भरे लम्बे – लम्बे
टुकड़ों को देख कर उनके मुँह में पानी ज़रूर आ रहा था , लेकिन लेखक पहले ही इनकार कर चुके
थे , जिस कारण लेखक ने अपना आत्मसम्मान बचाना ही उचित समझा , और उन्होंने नवाब साहब को
शुक्रिया देते हुए उत्तर दिया कि इस वक्त उन्हें खीरे खाने की इच्छा महसूस नहीं हो रही है , और साथ ही
साथ लेखक ने अपनी पाचन शक्ति कमज़ोर होने का बहाना बनाते हुए नवाब साहब को ही खीरे खाने को
कहा। लेखक का जबाव पाते ही नवाब साहब ने लालसा भरी आँखों से नमक – मिर्च के संयोग से
चमकती खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों की ओर देखा। फिर खिड़की के बाहर देखकर एक लम्बी साँस
ली। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब ने खीरे के एक टुकड़े को उठाया और अपने होंठों तक ले
गए , फिर उस टुकड़े को सूँघा , नवाब साहब केवल खीरे को सूँघ कर उसके स्वाद का अंदाजा लगा रहे
थे। खीरे के स्वाद के अंदाज़े से नवाब साहब के मुँह में भर आए पानी का घूँट उनके गले से
निचे उतर गया। यह सब करने के बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़े को बिना खाए ही खिड़की से बाहर
छोड़ दिया। नवाब साहब ने खीरे के सभी टुकड़ों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से अपने हाथ
और होंठ पोंछ लिए और बड़े ही गर्व से आँखों में खुशी लिए लेखक की ओर देख लिया , ऐसा लग
रहा था मानो वे लेखक से कह रहे हों कि यह है खानदानी रईसों का तरीका। नवाब साहब ने जो खीरे की
तैयारी और इस्तेमाल किया था उससे वे थक गए थे और थककर अपनी बर्थ में लेट गए। लेखक
सोच रहे थे कि जिस तरह नवाब साहब ने खीरे का इस्तेमाल किया उससे केवल खीरे के स्वाद और
खुशबू का अंदाजा ही लगाया जा सकता है , उससे पेट की भूख शांत नहीं हो सकती। परन्तु नवाब साहब
की ओर से ऊँचे डकार का शब्द ऐसे सुनाई दिया , जैसे उनका पेट भर गया हो। और नवाब साहब ने
लेखक की ओर देखकर कहा कि खीरा होता तो बहुत स्वादिष्ट है लेकिन जल्दी पचने वाला नहीं होता ,
और साथ – ही – साथ बेचारे बदनसीब पेट पर बोझ डाल देता है। नवाब साहब की ऐसी बातें सुन कर
लेखक कहते हैं कि उनके ज्ञान – चक्षु खुल गए अर्थात लेखक को जो बात समझ नहीं आ रही थी
अब समझ में आ रही थी ! नवाब साहब की बात सुन कर लेखक ने मन ही मन कहा कि ये हैं नयी
कहानी के लेखक ! क्योंकि लेखक के अनुसार अगर खीरे की सुगंध और स्वाद का केवल अंदाज़ा लगा
कर ही पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार , बिना किसी घटना और पात्रों के , लेखक
के केवल इच्छा करने से ही ‘ नयी कहानी ’ क्यों नहीं बन सकती?

एक कहानी यह भी पाठ सार (Ek Kahani Yeh Bhi Summary)


लेखिका बताती हैं कि उनका जन्म भले ही मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ हो , लेकिन
लेखिका को अपने और अपने परिवार के बारे में जो भी याद है वह उनको उनके जन्म – स्थान से
नहीं बल्कि जहाँ वें रहती थी वहीं से उनको सब याद है। जिस मकान में लेखिका बचपन में रहती
थीं वह दो – मंज़िला मकान था। उस मकान की ऊपरी मंज़िल में लेखिका के पिताजी का साम्राज्य
था। उनके पिता जी अपने कमरे में बहुत ही अधिक बेतरतीब ढंग से फैली – बिखरी हुई पुस्तकों –
पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर कुछ सुनकर कुछ लेख या
अनुलेखन लिखते रहते थे। अपनी माँ के बारे में बताते हुए लेखिका कहती कि उनकी माँ
लेखिका और लेखिका के सभी भाई – बहिनों के साथ रहती थीं। वह सवेरे से शाम तक लेखिका और
लेखिका के परिवार की इच्छाओं और लेखिका के पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए
हमे शआतुर रहती थीं। अजमेर से पहले उनके पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनका बहुत अधिक
सम्मान और इज़्ज़त की जाती थी , उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी और उनका नाम था। उनके पिता जी केवल
शिक्षा के उपदेश ही नहीं देते थे , बल्कि उन दिनों वे आठ – आठ , दस – दस विद्यार्थियों को अपने
घर रखकर पढ़ाया करते थे , और उन विद्यार्थियों में से कई तो बाद में ऊँचे – ऊँचे पदों पर
पहुँचे। लेखिका अपने पिता जी के दो व्यक्तित्व हमें बताती हैं। वे कहती हैं कि एक ओर तो
उनके पिता जी बेहद कोमल और संवेदन ललशी व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और स्वयं को
दूसरों से बढ़कर समझने वाले अर्थात घमंडी व्यक्ति थे। लेखिका के पिता जी को उनके काम में
बहुत अधिक नुक्सान हो गया था , इस आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे , जहाँ
उन्होंने अपने अकेले के बल – बूते और हौसले से विषय पर आधारित अंग्रेज़ी – हिंदी
शब्दकोश के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। उस समय यह अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश अपनी
तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। लेखिका बताती हैं कि इस शब्दकोश ने उनके पिता जी को नाम
और सम्मान तो बहुत दिया , परन्तु इससे उनको कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली। धीरे – धीरे
लेखिका के पिता जी अपनी आर्थिक स्थिति से परे ननशा हो कर अपने स्वभाव के सभी उपयोगी पहलु
खोते जा रहे थे। लेखिका के पिता जी को हमे शउन्नति के शिखर पर रहने की इच्छा थी परन्तु अपनी
गिरती आर्थिक स्थिति के कारण और सफलता से असफलता की ओर खिसकने के कारण आए ग़ुस्से को
वे अपनी पत्नी अर्थात लेखिका की माँ पर निकाला करते थे। लेखिका के पिता पहले सभी पर
करते थे परन्तु अपनों से धोखा खाने के बाद कभी – कभी लेखिका के पिता कुछ बातों पर
विवास सश्वा
अपने ही परिवार के लोगों पर भी संदेह करने लग गए थे। लेखका अपने पिता जी के बारे में
इसलिए बता रही हैं ताकि वे यह समझ सकें कि उनके पिता जी की कौन – कौन से अच्छाइयाँ और
बुराइयाँ लेखिका के अंदर भी आ गई हैं। लेखिका बताती हैं कि आज भी जब कोई उनका परिचय
करवाते समय जब कुछ वि षताशे षतालगाकर लेखिका की लेखक संबंधी महत्वपूर्ण सफलताओं का ज़िक्र
करने लगता है तो लेखिका झिझक और हिचकिचाहट से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने – गड़ने को
हो जाती हैं। इसका कारण बताते हुए लेखिका कहती हैं कि शायद अचेतन मन में किसी पर्त के
नीचे अब भी कोई हीन – भावना दबी हुई है जिसके चलते लेखिका को अपनी किसी भी उपलब्धि पर
भरोसा नहीं हो पता है। सब कुछ लेखिका को ऐसा लगता है जैसे सब कुछ लेखिका को किस्मत से
मिल गया है। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी – न – किसी बात पर हमे श
लेखिका की टक्कर ही चलती रही , वे तो न जाने कितने रूपों में लेखिका में हैं। लेखिका
अपने अंदर अपने पिता जी के कई स्वभावों को अनुभव करती हैं। लेखिका यह समझाना चाहती हैं
कि हमारे अतीत की झलक हमारे साथ किसी न किसी रूप में साथ रहती ही है। लेखिका अपनी माँ के
बारे में बताते हुए कहती हैं कि उनकी माँ उनके पिता के ठीक विपरीत थीं अर्थात लेखिका के
पिता जी का जैसा स्वाभाव था लेखिका की माँ का स्वभाव उसका बिलकुल उल्टा था। अपनी माँ के
धैर्य , शांति और सब्र की तुलना लेखिका धरती से करती हैं और कहती हैं कि उनकी माँ में धरती
से भी ज्यादा सहनशक्ति थी। उनकी माँ उनके पिता जी के हर अत्याचार और कठोर व्यवहार को इस
तरह स्वीकार करती थी जैसे वे उनके इस तरह के व्यवहार को प्राप्त करने के योग्य हो और
लेखिका की माँ अपने बच्चों की हर फ़रमाइश और ज़िद को चाहे वो फ़रमाइश सही हो या नहीं , अपना
फर्ज समझकर बडे़ सरल और साधारण भाव से स्वीकार करती थीं। भले ही लेखिका और उनके भाई
– बहिनों का सारा लगाव उनकी माँ के साथ था लेकिन उनका त्याग , उनकी सहन लता लता शी
और
क्षमा लतालता शी
लेखिका अपने व्यवहार में शामिल नहीं कर सकीं । लेखिका अपने बारे में बताती हुई
कहती हैं कि वे पाँच भाई – बहिनों में सबसे छोटी थी। जब लेखिका की सबसे बड़ी बहन की शादी
हुई उस समय लेखिका की उम्र सात साल की थी और उसकी एक याद ही लेखिका के मन में है और वह
याद अस्पष्ट – सी ही थी , लेकिन लेखिका से दो साल बड़ी बहन सु ला लाशी
और लेखिका ने घर के
बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले थे। इन खेलों में सतोलिया , लँगड़ी – टाँग , पकड़म –
पकड़ाई , काली – टीलो और पास – पड़ोस की सहेलियों के साथ कमरों में गुड्डे – गुड़ियों के
ब्याह रचाना आदि। वैसे तो खेलने को लेखिका और उनकी बहन ने भाइयों के साथ गिल्ली – डंडा भी
खेला और पतंग उड़ाने , काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया , लेकिन जहाँ लेखिका के
भाइयों के खेल की गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और लेखिका और उनकी
बहन के खेल की गतिविधियों की सीमा घर के अंदर तक ही थी। परन्तु उस जमाने की एक अच्छी बात
यह थी कि उस ज़माने में एक घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे
मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी ,
बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। लेखिका पुराने समय के ‘ पड़ोस – कल्चर ’ को आज के
फ़्लैट सिस्टम से बहुत अधिक अच्छा और सुरक्षित मानती हैं। लेखिका ने अपने द्वारा लिखी
कहानियों में जिन भी किरदारों को लिया वो सभी किरदार लेखिका के आस – पास के लोगों से ही
प्रेरित थे। बस इन सभी लोगों को देखते – सुनते , इनके बीच ही लेखिका बड़ी हुई थी लेकिन
इनकी छाप लेखिका के मन पर कितनी गहरी थी , इस बात का अनुभव या ख़याल तो लेखिका को
कहानियाँ लिखते समय हुआ। इस बात का एहसास लेखिका को और एक घटना से हुआ जब बहुत वर्ष
बीत जाने के बाद या उनके अपनी जन्मभूमि से दूर होने के बाद भी उन सभी लोगों की भाव – भंगिमा
, भाषा , किसी को भी समय ने धुँधला नहीं किया था और बिना किसी वि षशे
ष प्रयास के बडे़ सहज भाव
से वे लेखिका की कहानियों में उतरते चले गए थे। अर्थात लेखिका बहुत आसानी से उन लोगों
के व्यक्तित्व को आज भी अपनी कहानियों में लिख पाती थी। जब लेखिका अपनी कृति ‘ महाभोज ’ को
लिख रही थीं तब उनके पात्र के लिए जो किरदार वो लिखना चाह रही थी वह पात्र लेखिका के बचपन
के मोहल्ले में रहने वाले दा साहब से हूबहू मेल खा रहा था या कहा जा सकता है कि दा साहब को
ध्यान में रख कर ही ‘ महाभोज ’ के किरदार का वर्णन लेखिका ने किया होगा। लिखिका के परिवार
में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य नितांत आवयककश्य अर्थात कंपल्सरी योग्यता जो थी , वह थी
लड़की की उम्र सोलह वर्ष हो जानी चाहिए और शिक्षा में उसने दसवीं पास कर ली हो। सन् ’ 44 में
लेखिका से बड़ी बहन सु ला लाशी
ने यह योग्यता प्राप्त कर ली थी और उनकी शादी कर दी गई और वह शादी
करके कोलकाता चली गई। लेखिका के दोनों बड़े भाई भी अपनी आगे पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर
चले गए। जब तक लेखिका अपने भाई – बहनों के साथ थी तब तक वे उनके साथ ही अपने आप को
हर कार्य में अनुभव करती थीं लेकिन जैसे ही लेखिका की बहनों की शादी हो गई और लेखिका के
भाई भी पढ़ाई करने के लिए लेखिका से दूर हो गए वैसे ही लेखिका ने अपने आप को एक प्रकार
से स्वतंत्र अनुभव किया और यह लेखिका के लिए बिलकुल नया था। सभी बच्चों के दूर चले जाने
के बाद लेखिका के पिता जी का ध्यान भी पहली बार लेखिका पर केंद्रित हुआ। लेखिका बताती हैं
कि लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ – साथ सलीकेदार गृहिणी और हर काम को श्रेष्ठ
तरीके से ने में योग्य , खाना बनाने की कला में निपुण बनाने के उपाय सिखाए जाते थे ,
लेखिका के पिता जी इस बात पर बार – बार ज़ोर देते रहते थे , कि लेखिका रसोई से दूर ही रहे।
लेखिका के पिता जी का मानना था कि अगर लडकियां केवल रसोई में ही रहेंगी तो भले ही वे
अच्छी गृहणी के हर कार्य में निपुण हो जाएँ पर उनके अंदर के सभी गुण और योग्यताएँ समाप्त हो
जाती हैं और वे एक छोटे से दायरे तक ही सिमित रह जाती हैं। लेखिका के घर में आए दिन
विविध प्रकार की राजनैतिक पार्टियों के लिए लोगों के समूह इकट्ठे होते ही रहते थे और
जमकर वाद – विवाद भी होते रहते थे। किसी भी बात पर वाद – विवाद करना लेखिका के पिता जी का
सबसे मनपसंद शौक था। वे चाहते थे कि लेखिका भी वहीं बैठे , वहाँ हो रहे वाद – विवादों को
सुनें और यह जाने कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। लेखिका को विभिन्न राजनैतिक
पार्टियों की नीतियाँ , उनके आपसी अनबन या बिगाड़ या मतभेदों की तो दूर – दूर तक कोई समझ ही
नहीं थी। परन्तु लेखिका जब क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के बारे में सुनती थी तो उनका मन
उदास हो जाता था। दसवीं कक्षा तक हालत यह थी कि लेखिका बिना किसी खास समझ के घर में होने
वाले वाद – विवादों को सुनती थी और बिना चुनाव किए , बिना लेखक के महत्व से समझते हुए
किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् 1945 में जैसे ही दसवीं पास करके लेखिका ‘ फर्स्ट इयर ’ में
आई , तो हिंदी की महिला प्राध्यापक शीला अग्रवाल जी से उनका परिचय हुआ। लेखिका को किसी विषय
का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान जो होता है वह सीखा , वह था सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल। शीला अग्रवाल
जी ने लेखिका को सही ढंग से साहित्य का ज्ञान दिया। शिला अग्रवाल जी खुद चुन – चुनकर लेखिका
को किताबें देती थी। और पढ़ी हुई किताबों पर वाद – विवाद भी करती थी , जहाँ पहले लेखिका
केवल कुछ गिने – चुने लेखकों के बारे में जानती थी अब उन लेखकों की संख्या काफी बड़ गई
थी। उस समय जैनेंद्र जी का ‘ सुनीता ’ नाम का उपन्यास लेखिका को बहुत अच्छा लगा था , अज्ञेय
जी का उपन्यास ‘ शेखर : एक जीवनी ’ लेखिका ने पढ़ा ज़रूर था परन्तु उस समय वह लेखिका की समझ
की सीमा के दायरे में समा नहीं पाया था। लेखिका को साहित्य की काफी समझ हो गई थी जिस कारण
लेखिका किसी भी लेखक की कृति को पढ़ने पर उस कृति पर प्रन श्नभी उठा पा रही थी। शीला अग्रवाल जी
ने उनके साहित्य के दायरे को बढ़ाया ही था और साथ – ही – साथ लेखिका को घर की चारदीवारी के
बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने – समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था ,
लेखिका जहाँ केवल पहले अपने घर में होने वाले वाद – विवादों को सुनती थी अब शिला अग्रवाल
जी की सलाहों से वे उन वाद – विवादों में हिस्सा भी लेने लगीं थीं। लेखिका बताती हैं कि सन
1946 – 1947 के दिनों में जो स्थितियाँ देश में बानी हुईं थी , उसमें वैसे भी घर में बैठे
रहना किसी के लिए भी संभव नहीं था। उन दिनों सुबह सवेरे – घुमाना , चलाना , हड़तालें , जुलूस ,
भाषण हर शहर का केवल यही चरित्र था और पूरे दमखम अर्थात ताकत और जोश – खरोश के साथ इन
सबसे जुड़ना उन दिनों हर युवा का एक प्रकार से अत्यधिक प्रेम बन चूका था। लेखिका अपने बारे
में कहती हैं कि वे भी युवा थी और शीला अग्रवाल जी की जोश से भरी हुई बातों ने लेखिका की रगों
में बहते खून को लावे में बदल दिया था। लेखिका के पिता जी ने जो आज़ादी लेखिका को दी थी ,
उस आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में लेखिका घर में आए लोगों के बीच उठे –
बैठे , स्थितियों को जाने – समझें। लेकिन हाथ उठा – उठाकर नारे लगाती , हड़तालें करवाती ,
लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दात श्त करना
उनके लिए मुकिल लश्कि हो रहा था तो अपने पिता जी द्वारा दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना
लेखिका के लिए। लेखिका बताती हैं कि जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे नियम या
आज्ञा जिसमें किसी बात की मनाही हो , सारी कार्य या बात के वर्जित होने की अवस्था या प्रतिबंध
और सारा भय कैसे नष्ट हो जाता है , यह लेखिका ने तभी जाना। क्योंकि ये वो समय था जब
लेखिका अपने पिता जी की आज्ञा न मान कर आंदोलन में बड़ चढ़ कर भाग ले रही थीं। अपने
क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला लेखिका का उस समय
शुरू हुआ था वह लेखिका की राजेंद्र से शादी होने तक चलता ही रहा। लेखिका कहती हैं कि प्र सा साशं
की इच्छा अथवा बड़ाई की इच्छा बल्कि यदि कहा जाए कि किसी चीज़ को किसी भी प्रकार पाने की
अनियंत्रित इच्छा या चाहत अथवा किसी चीज़ की प्राप्ति की प्रबल इच्छा , लेखिका के पिता जी की
सबसे बड़ी कमज़ोरी थी और लेखिका के पिता जी के जीवन का अक्ष यह उसूल अथवा प्रिंसिपल था
कि व्यक्ति को कुछ असाधारण या अद्भुत बन कर जीना चाहिए और कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज
में उसका नाम हो , सम्मान हो , प्रतिष्ठा या इज़्ज़त हो , वर्चस्व या आधिपत्य हो। लेखिका बताती
हैं कि इन सिद्धांतों के कारण ही लेखिका एक – दो बार अपने पिता जी के क्रोध से बच गई थी।
क्योंकि लेखिका भले ही उनकी बातों को न मान कर आंदोलनों में हिस्सा ले रहीं थी परन्तु इससे
लेखिका का मान समाज में बड़ रहा था। लेखिका का रवैया जिस तरह का था उनके कॉलिज के
सना
प्रिंसिपल के अनुसार वह अनु सनात्मकत्मकशाबिलकुल नहीं था। और लेखिका को कोई सज़ा क्यों नहीं
देनी चाहिए इसका कारण बताने के लिए लेखिका के पिता जी को कॉलेज बुलाया गया था। पत्र पढ़ते
ही लेखिका के पिता जी आग – बबूला हो गए। उनके पिता जी गुस्से से हता शहुए ही कॉलेज गए थे।
लेखिका को यह अंदाजा था कि जब लेखिका के पिता जी घर लौटकर आएँगे तो उनका कैसे प्रकोप
लेखिका पर बरसना था , इसी लिए लेखिका अपने पिता जी के आने से पहले ही पड़ोस की एक मित्र
के यहाँ जाकर बैठ गई। लेखिका ने अपनी माँ को कह दिया था कि जब पिता जी लौटकर आएँ और
उनके मन में दबा हुआ क्रोध अथवा शिकायत कुछ निकल जाए , तब लेखिका को बुलाना। लेकिन जब
लेखिका की माँ ने आकर लेखिका से कहा कि लेखिका के पिता जी कॉलेज से आकर तो खुश ही हैं
, वह घर चल सकती है , यह सुन कर लेखिका को तो विवास सश्वा नहीं हुआ। लेखिका के पिता जी ने
लेखिका को आते देख कहना शुरू किया कि सारे कॉलिज की लड़कियों पर लेखिका का दबदबा है।
सारा कॉलिज लेखिका और उनकी तीन साथियों के इ रे रेशापर चल रहा है ? अध्यापक लोग किसी तरह
डरा – धमकाकर , डाँट – डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर लेखिका और उनकी
साथी एक इ रारा शा
कर दें कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा
होकर नारे लगाने लगती हैं। कहाँ तो जाते समय उनके पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे
और कहाँ प्रिंसिपल को बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है। एक और घटना का
वर्णन करते हुए कहती हैं कि एक शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी – वर्ग मुख्य बाजार के चौराहे
पर इकट्ठा हुआ और फिर वहाँ पर भाषणबाज़ी शुरू हुई। जब वे मुख्य बाजार के चौराहे पर भाषण दे
रहीं थी तब लेखिका के पिता जी के इस बहुत ही रुढ़िवादी या पुराने ख़याल या विचारों के एक मित्र
ने लेखिका को भाषण देते हुए देख लिया और लेखिका के पिता जी लेखिका पर विवास सश्वा करने
लगे थे , इसी विवास सश्वाको तोड़ने का काम लेखिका के पिता जी के उन मित्र ने लेखिका के घर आ
कर लेखिका के पिता जी से लेखिका की शिकायत करते हुए कहा कि लेखिका अर्थात मन्नू की तो मत
मारी गई है पर लेखिका के पिता जी अर्थात भंडारी जी को क्या हुआ है ? यह सब तो ठीक है कि
लेखिका के पिता जी ने अपनी लड़कियों को आज़ादी दी है , लेकिन लेखिका के पिता जी के मित्र
लेखिका के पिता जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि लेखिका न जाने कैसे – कैसे उलटे –
सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती , हुड़दंग मचाती फिर रही है। क्या उनके और लेखिका के
पिता जी के घरों की लड़कियों को यह सब शोभा देता है ? कोई मान – मर्यादा , इज़्ज़त – आबरू का
खयाल भी रह गया है लेखिका के पिता जी को या नहीं ? लेखिका को इन सारी बातों की कोई ख़बर ही
नहीं थी कि उनके घर पर दिन में क्या – क्या हुआ है। रात होने पर लेखिका जब घर लौटी तो
लेखिका ने देखा कि उस समय घर पर डॉ. अंबालाल जी बैठे थे , जो लेखिका के पिता जी के एक
बहुत ही अंतरंग और अभिन्न मित्र के साथ – साथ अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित
व्यक्ति भी थे। लेखिका को देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजो शसे लेखिका का स्वागत किया और
कहा कि वे तो चौपड़ पर लेखिका का भाषण सुनते ही सीधा लेखिका के पिता जी भंडारी जी को बधाई
देने चले आए। उन्होंने कहा कि उन्हें लेखिका पर गर्व है। जब लेखिका घर के भीतर गई तो
लेखिका की माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात लेखिका को बताई तो लेखिका ने राहत की साँस ली।
क्योंकि अगर डॉ. अंबालाल जी आज लेखिका के घर नहीं आते तो लेखिका के पिता जी लेखिका का
घर से बाहर निकलना बंद करवा देते। लेखिका को ऐसा लगता है कि उस समय डॉक्टर साहब ने जो
साशंकी थी शायद लेखिका उस लायक नहीं थी। परन्तु लेखिका अपने पिता जी के बारे में
इतनी प्र सा
बताती हैं कि उनके पिता जी कितनी तरह के एक ही समय में परस्पर विरोधी स्थितियाँ के बीच
जीते थे। एक ओर अपने आप को सबसे अलग बनने और दूसरों को भी सबसे अलग बनाने की प्रबल
इच्छा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सावधानी। पर क्या यह दोनों चीज़ें
संभव है ? क्या लेखिका के पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो
रास्ता ही टकराहट का है ? लेखिका कहती हैं कि सन् 1947 के मई महीने में शीला अग्रवाल जी को
कॉलिज वालों ने लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनु सन सनशा
बिगाड़ने के आरोप में नोटिस थमा
दिया। इस बात को लेकर कोई हुड़दंग न मचे , इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके
लेखिका और उनकी साथी छात्राओं का कॉलेज में प्रवेश करना बंद कर दिया। परन्तु लेखिका और
उनकी साथियों ने हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर
थर्ड इयर खोलना पड़ा। लेखिका और बाकी साथियों को जीत की खुशी तो थी , पर उनके सामने इससे भी
खड़ी बहुत – बहुत बड़ी खुशी थी जिसके के सामने यह खुशी कम पड़ गई। और वह ख़ु शथी शताब्दी की
सबसे बड़ी उपलब्धि 15 अगस्त 1947 अर्थात आज़ादी की खुशी।

नौबतखाने में इबादत पाठ सार (Naubatkhane Mein Ibadat


Summary)
लेखक सन् 1916 से 1922 के आसपास की का शका वर्णन करते हुए कहते हैं कि का शका एक
प्रसिद्ध घाट जो मान्यतानुसार पाँच नदियों का संगमस्थान है जिसे पंचगंगा भी कहा जाता है ,
उसके घाट पर बालाजी मंदिर स्थित है। उस मंदिर ने एक बहुत बड़ा दरवाज़ा या फाटक है। उस
दरवाज़े के पास वह स्थान है जहाँ नक्कारे या नगाड़े बजते हैं और उस स्थान से हर समय
मंगलध्वनि अर्थात मांगलिक अवसरों या उत्सव आदि में होने वाली ध्वनि या मंगलगीत सुनाई
पड़ते रहते हैं। अमीरुद्दीन अभी सिर्फ छः साल का है और उसका बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का है।
अमीरुद्दीन भले ही इस उम्र में संगीत के बारे में कुछ नहीं जानते परन्तु उनके मामा आदि
संगीत की अच्छी समझ रखते हैं। वे बहुत ही अच्छी शहनाई बजाते हैं और देश भर में प्रसिद्ध
हैं। उनकी आजीविका के लिए बाला जी मंदिर उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। हर दिन की शुरुआत
उसी मंदिर की दहलीज़ पर होती है। अमीरुद्दीन के अब्बाजान अर्थात पिता भी यहीं मंदिर के
दरवाज़े पर शहनाई बजाते रहते हैं।अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के एक गाँव डुमराँव में हुआ था ,
और अमीरुद्दीन का परिवार एक संगीत प्रेमी परिवार था। अमीरुद्दीन 5 – 6 वर्ष तक तो डुमराँव में
ही रहे परन्तु उसके बाद वह नाना के घर अर्थात ननिहाल , जो की का शमें था , वहाँ आ गए थे।
शहनाई और डुमराँव एक – दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है।
रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड , नरकट जो की एक घास है
जिसके पौधे का तना खोखला गाँठ वाला होता है , उससे बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन
नदी के किनारों पर पाई जाती है। इसलिए इस समय डुमराँव की इतनी ही उपयोगिता है , जिसके कारण
शहनाई जैसा वाद्य बजता है। बिस्मिल्ला खाँ के परिवार में उनके परदादा के समय से सभी उस्ताद
रहे हैं। लेखक उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब अमीरुद्दीन अर्थात बिस्मिल्ला खाँ की उम्र 14
साल की थी। का शभी वही है जो उस समय थी। वही पुराना बालाजी का मंदिर हैं जहाँ बिस्मिल्ला खाँ
को नौबतखाने अपने संगीत के अभ्यास के लिए जाना पड़ता था। मगर बालाजी मंदिर तक जाने का
एक रास्ता था , यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर के पास से होकर जाता था। इस रास्ते से
अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता था। रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर से भी हमे शकोई न कोई
संगीत सुनाई पड़ता रहता था और रसूलन और बतूलन जब गाती थी तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती थी।
अमीरुद्दीन अथवा बिस्मिल्ला खाँ के अनुसार रसूलनबाई और बतूलनबाई के द्वारा ही उन्हें संगीत का
आरंभिक ज्ञान प्राप्त हुआ है। लेखक बताते हैं कि वैदिक अर्थात वेद संबंधी इतिहास में
शहनाई का कोई वर्णन नहीं मिलता है। इसे संगीत शास्त्रों के अनुसार ‘ सुषिर – वाद्यों ’ अर्थात संगीत
में वह यंत्र जो वायु के जोर से बजता है , में गिना जाता है। अरब देश में फूँककर बजाए जाने
वाले वाद्य जिसमें नाड़ी अर्थात नरकट या रीड होती है , को ‘ नय ’ बोलते हैं और शहनाई को ‘ शाहेनय
’ अर्थात् ‘ सुषिर वाद्यों में शाह की उपाधि् दी गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि शहनाई को वायु के
जोर से बजने वाले सभी यंत्रों में बाद हहशा या सुलतान कहा गया है। अवध के पारंपरिक
लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार – बार मिलता है। कल्याण और शुभ -आनंद का
वातावरण या माहौल की स्थापना करने वाला यह वाद्य अवध के पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में
भी मांगलिक विधि् – विधनों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है। शहनाई को केवल शुभ कार्य या कल्याण
अवसरों पर ही बजाय जाता है। बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी वर्ष के होने पर भी यह मानते हैं कि
उनको अभी भी संगीत की पूर्ण जानकारी नहीं है। वे ईश्वर से अपने संगीत की समृद्धि के लिए वरदान
मांगते रहते थे। बिस्मिल्ला खाँ को यह भरोसा है कि कभी न कभी ईश्वर उन पर यूँ ही दयालु व् दयावान
होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर बिस्मिल्ला खाँ की ओर उछालेगा , और फिर कहेगा कि
ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी इच्छा को पूरी। बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ
जिस एक मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है , वह है मुहर्रम। मुहर्रम के बारे में बताते हुए लेखक
कहते हैं कि मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके
कुछ वंशजों के प्रति अपना शोक दर् तेर्शातेहैं। यह शोक कोई एक दिन का नहीं होता बल्कि पूरे दस
दिनों का शोक होता है। बिस्मिल्ला खाँ बताते हैं कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों
में न तो शहनाई बजाता है , न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शामिल भी होता है। आठवीं तारीख
उनके लिए खास महत्त्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में
फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए , मृतक के लिए शोक मनाते हुए जाते
हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग – रागिनियों को अदा करना या बजाने का इस दिन निषेध् होता
है। सभी शिया मुसलमानों की आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों के शहीद होने पर नम
रहती हैं। इन दस दिनों में मातम या शोक मनाया जाता है। हज़ारों आँखें नम होती है। हज़ार
वर्ष की परंपरा फिर से जीवित होती है। मुहर्रम समाप्त होता है। एक बड़े कलाकार का साधारण
मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ
जैसे बड़े कलाकार भी अपने रीती – रिवाजों को शिदद्त से निभाते हैं। मुहर्रम के दुखी व् गमगीन
वातावरण से अलग , कभी – कभी आराम व् शान्ति के पलों में बिस्मिल्ला खाँ अपनी जवानी के दिनों को
याद करते हैं। वे अपने संगीत के रियाज़ को कम , बचपन के उन दिनों के अपने पागलपन या
लगन अधिक याद करते हैं। वे अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम , बल्कि उनसे कहीं अधिक
पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद
करते हैं। सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं। अमीरुद्दीन जब सिर्फ चार साल का रहा होगा तब
वह छुपकर अपने नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था , रियाज़ के बाद जब उसके नाना अपनी जगह से
उठकर चले जाते थे तब अमीरुद्दीन नाना की जगह पर जाकर उनकी ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की
भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता अर्थात जिस शहनाई को उसके नाना बजा रहे थे , अमीरुद्दीन
उसी शहनाई को खोजता था और उन ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से एक – एक शहनाई को बजाता और
फ़ेंक कर खारिज़ करता जाता था , क्योंकि उसे कोई भी शहनाई उस तरह बजती हुई प्रतीत नहीं होती थी
जैसे उसके नाना बजाते थे और वह सोचता था कि लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते
हैं। फिल्में देखने का शौक अमीरुद्दीन को बचपन से था। उस समय थर्ड क्लास के लिए छः पैसे
का टिकट मिलता था। अमीरुद्दीन दो पैसे मामू से , दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता
था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट को लिया करता था। जैसे ही सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म
सिनेमाहाल में आती थी , वैसे ही अमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर फ़िल्म देखने चल पड़ता था। वह
कमाई उसे बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से होती थी। और उसकी कमाई थी – एक अठन्नी
पारिरमिक मिकश्रअथवा मज़दूरी। इतनी कम कमाई होने पर भी अमीरुद्दीन को यह ज़बरदस्त शौक चढ़ा हुआ
था कि सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म नहीं छूटनी चाहिए और कुलसुम की दे शघी वाली दुकान भी
अमीरुद्दीन की पसंदीदा जगह थी। वहाँ की संगीतमय कचौड़ी उसकी पसंदीदा थी। संगीतमय कचौड़ी
इस लिए कहा गया है क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी , उस समय छन्न से
उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सारे उतार – चढ़ाव दिख जाते थे। लेखक कहते हैं कि
राम जाने , कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना जरूर है कि अपने बिस्मिल्ला खाँ साहब
रिया शऔर स्वादी दोनों रहे हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ
लग चुकी है। लेखक बताते हैं कि का शएक ऐसा शहर है जहाँ संगीत कार्यक्रमों की एक प्राचीन
एवं अद्धभुत परंपरा है। अपने मजहब के प्रति सबसे अधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की
ना
श्रद्धा का शविवनाथ थश्वजी के प्रति भी अनंत अथवा बहुत अधिक है। इसका परिचय इस घटना से मिल
जाता है कि वे जब भी का शसे बाहर रहते थे तब विवनाथ नाथश्वव बालाजी मंदिर की दि शकी ओर मुँह
करके बैठते थे भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही , मगर विवनाथ नाथश्वव बालाजी मंदिर की दि शकी
ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता था अर्थात वे अपना रोज का रियाज़ विवनाथ नाथश्वव बालाजी मंदिर
की दि शकी ओर मुँह करके ही करते थे। और उनके अंदर की आस्था रीड के माध्यम से बजती थी।
बिस्मिल्ला खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती है तब वे दूसरी रीड का
इस्तेमाल कर लिया करते थे। बिस्मिल्ला खाँ साहब का का शसे दिल का रिता श्ता था जो उनके अनुसार
जीते – जी कभी समाप्त नहीं हो सकता था। उनके लिए का शकिसी स्वर्ग से कम नहीं थी। लेखक
कहते हैं कि का शसंस्कृति की पाठ ला लाशा
है। शास्त्रों में का शआनंदकानन के नाम से सम्मानित है।
लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ की दृष्टि से क शको सबसे अलग दर् यार्शा याहै। लेखक कहते हैं कि आप
का शमें संगीत को भक्ति से , भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से , कजरी को चैती से ,
विवनाथनाथश्वको वि लाक्षी
लाक्षी से , बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते। प्रायः
शा
या अधिकतर कार्यक्रमों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है कि ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ
कहने से उनका मतलब होता है – बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई से उनका का तात्पर्य होता है –
बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। और हाथ से उनका अभिप्राय केवल इतना भर होता है कि बिस्मिल्ला खाँ की
फूँक और शहनाई की जादुई आवाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ ने
अपनी मेहनत और लगन से शहनाई को सभी के मध्य प्रसिद्ध किया। एक दिन बिस्मिल्ला खाँ के एक
शिष्य ने डरते – डरते बिस्मिल्ला खाँ साहब को टोका कि बाबा ! आप यह क्या करते हैं , इतनी
प्रतिष्ठा है आपकी , कितना मान – सम्मान है। अब तो आपको भारत सरकार का सर्वोच्च सम्मान
अर्थात भारतरत्न भी मिल चुका है , यह फटी धोती न पहना करें। अच्छा नहीं लगता , जब भी कोई
आता है आप इसी फटी धोती में सबसे मिलते हैं। ” उस शिष्य की बात सुनकर बिस्मिल्ला खाँ साहब
मुसकराए। दुलार व् वात्सल्य से भरकर उस शिष्य से बोले कि ये जो भारतरत्न उनको मिला है न यह
शहनाई पर मिला है , उनकी लंगोटी पर नहीं। अगर वे भी सब लोगों की तरह बनावटी शृंगार देखते
रहते , तो पूरी उमर ही बीत जाती , और शहनाई की तो फिर बात ही छोड़ो। तब क्या वे खाक रियाज़ कर
पाते। परन्तु वे बाद में अपनी शिष्या की बात मानते हुए उससे कहते हैं कि ठीक है बिटिया , आगे
से वे फटी हुई लंगोट नहीं पहनेंगे , मगर वे साथ – ही – साथ यह भी कहते हैं कि वे मालिक
अर्थात ईश्वर से यही दुआ करते है कि ईश्वर उन्हें कभी फटा सुर न बख् ।।ख्लंगोटी
शें का क्या है , आज फटी
है , तो कल सी जाएगी। लेखक सन् 2000 की बात करते है कि पक्का महाल जो की का शविवनाथ नाथश्वसे
लगा हुआ अधिकतम इलाका है , वहाँ से मलाई बरफ बेचने वाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी
कमी खलती है। क्योंकि उन्हें वह मलाई बरफ बहुत पसंद थी। और अब के दे शघी में उन्हें वह
पहले जैसे बात भी नहीं लगती और अब कचौड़ी – जलेबी में भी वह पहले जैसा स्वाद नहीं
मिलता। खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से इन सब की कमी खलती है। अब के समय में संगीत के लिए
गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। खाँ साहब इस बात पर अफसोस जताते थे। उनके समय में
कई – कई घंटों संगीत का अभ्यास किया जाता था परन्तु अब घंटों रियाज़ को कौन पूछता है ?
बिस्मिल्ला खाँ यह सब देख कर हैरान थे। वे यही सोचते रहते थे की कहाँ वह कजली , चैती और
अदब का जमाना ? कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब का ज़माना अब बदल गया था और
यह बदलाव उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था , वे अपने जमाने की चीजों को याद करते थे।लेखक
बताते हैं कि का शएक ऐसी जगह है जो सचमुच किसी को भी हैरान कर सकती है – पक्का महाल से
जैसे मलाई बरफ गायब हो गया , संगीत , साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ भी गायब हो
गईं। अर्थात बहुत सी ऐसी चीज़े हैं जो प्राचीन का शसे आते – आते गायब हो गई हैं और एक
सच्चे सुर के योगी अथवा तपस्वी और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी बहुत
कमी खलती है। का शमें जिस तरह बाबा विवनाथ नाथश्वऔर बिस्मिला खाँ एक – दूसरे के पूरक रहे हैं ,
उसी तरह मुहर्रम – ताजिया और होली – अबीर , गुलाल की गंगा – जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के
पूरक रहे हैं। अर्थात का शको आप किसी मजहब , रंग , खान – पान , त्योहारों आदि के आधार पर
नहीं बाँट सकते। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन
जाएगा। फिर भी अब तक जो सिर्फ का शमें बचा हुआ है , वह है – का शआज भी संगीत के स्वर पर
जगती है और ढोलक , तबले , मृदंग आदि बजाते समय उस पर हथेली से किया जाने वाला आघात पर
सोती है। अर्थात संगीत से ही का शकी सुबह होती है और संगीत से ही का शकी शाम ढलती है। का श
में मृत्यु को भी शुभ माना गया है। का शआनंदकानन है। सबसे बड़ी बात यह है कि का शके पास
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला कीमती हीरा रहा है जो हमे शसे
दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है। लेखक बताते
हैं कि भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विवविद्यालयों विद्या
लयोंश्वकी मान या प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली
उपाधियों से सम्मानित व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं ,
बल्कि अपनी कभी न समाप्त होने वाली संगीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमे श
संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी – पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत
प्रेमियों की हार्दिक सभा से विदा हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी
बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की अपनी इच्छा को अपने भीतर जिंदा
रखा। अर्थात बिस्मिल्ला खाँ साहब अपने आखरी समय तक भी यही कहते थे कि उन्हें अभी संगीत
की पूर्ण जानकारी नहीं है।

संस्कृति पाठ सार(Sanskruti Summary)


लेखक कहते हैं कि हम अपने जीवन में बहुत से शब्दों का प्रयोग करते हैं कुछ हमें समझ में
आते हैं और कुछ समझ में नहीं आते। ऐसे ही दो शब्द हैं – सभ्यता और संस्कृति । ऐसे तो लगता है
कि हम इन दोनों शब्दों के अर्थ जानते हैं परन्तु इन दो शब्दों के साथ जब अनेक वि षणशेषण लग जाते
हैं , उदाहरण के लिए जैसे भौतिक – सभ्यता और आध्यात्मिक – सभ्यता , तब दोनों शब्दों का जो
थोड़ा बहुत अर्थ पहले समझ में आया रहता है , वह भी इन वि षणोंशे षणों के कारण गलत – सलत हो जाता
है। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि क्या सभ्यता और संस्कृति एक ही चीज़ है अथवा दो
वस्तुएँ है ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अंतर है ? लेखक उस समय के बारे में सोचने को कह
रहे हैं जब मनुष्य ने आग का आविष्कार नहीं किया था। लेखक इसलिए कल्पना करने को कह रहे
हैं क्योंकि आज तो घर – घर चूल्हा जलता है। अर्थात आज तो हर घर में आग का प्रयोग होता है।
परन्तु लेखक हमें सोचने के लिए कहते हैं कि सोचिए जिस आदमी ने पहली बार आग का
आविष्कार किया होगा , वह कितना बड़ा आविष्कर्ता अर्थात कितना बड़ा आविष्कार करने वाला
व्यक्ति होगा। क्योंकि आग के आविष्कार के बाद मनुष्य अधिक सरल जीवन जी पाया और अधिक सभ्य
भी बन पाया। अथवा लेखक हमें उस समय की कल्पना करने के लिए भी कहते हैं जब मानव को सुई
– धागे के बारे में कुछ भी पता नहीं था , जिस मनुष्य के दिमाग में पहली बार यह बात आई होगी
कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और उस छेद में धागा पिरोकर
कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं , वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा। इन
दोनों उदाहरणों में दो चीज़े हैं ; पहले उदाहरण में एक चीज़ है किसी व्यक्ति वि षशे ष की आग का
आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है आग का आविष्कार। इसी प्रकार दूसरे सुई – धागे
के उदाहरण में एक चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है सुई –
धागे का आविष्कार। लेखक कहते हैं कि जिस योग्यता अथवा जिस प्रेरणा या उमंग के बल पर
आग का व सुई – धागे का आविष्कार हुआ है , वह किसी व्यक्ति वि षशे ष की संस्कृति कही जाती है ; और
उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ , अथवा जो चीज़ उस व्यक्ति ने अपने तथा दूसरों के लिए
आविष्कृत की है , उसका नाम है सभ्यता। जिस व्यक्ति में पहली चीज़ , अर्थात योग्यता जितनी
अधिक व स्वच्छ मात्रा में होगी , वह व्यक्ति उतना ही अधिक स्वच्छ आविष्कर्ता होगा। एक संस्कृत
व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है , किन्तु उसकी संतान या उसकी आने वाली पीढ़ी को वह चीज़
बिना को ष्टिशश
के स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी
न किया या आविष्कार किया , वह व्यक्ति ही वास्तविक या यथार्थ संस्कृत व्यक्ति है
भी नए तथ्य का दर्नर्श
और उसकी संतान अपने पूर्वज की ही तरह सभ्य अथवा शिष्ट भले ही बन जाए , किन्तु उसे संस्कृत
नहीं कहलाया जा सकता। और अच्छे से समझाने के लिए लेखक एक वर्तमान समय का उदाहरण
लेते है कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण अर्थात ग्रैविटेशन के सिद्धांत का आविष्कार किया। इसलिए
वह संस्कृत मानव था। आज के विद्यार्थी को भले ही गुर्त्वाकर्षण के साथ – साथ कई सिद्धांत और
बातें पता हों लेकिन ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की
अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सकते है पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते। आग का
आविष्कार करने के लिए पेट की भूख कारण रही होगी जिस कारण अच्छा भोजन पका के खाने की इच्छा
ही आग के आविष्कार का कारण रही होगी। ठण्ड के मौसम में शरीर को बचाने के लिए कपड़ों को
जोड़ने और गर्मी के मौसम में शरीर को सजाने के लिए कपड़ों को अलग – अलग तरीके से
जोड़ने के लिए सुई – धागे का आविष्कार किया गया होगा। अब लेखक कल्पना करने के लिए कहते
हैं कि उस आदमी की जिसका पेट भरा हुआ है , जिसका शरीर ढँका हुआ है , लेकिन जब वह खुले आकाश
के नीचे सोया हुआ रात के समय आकाश में जगमगाते हुए तारों को देखता है , तो उसको केवल
इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परे ननशा होता रहता है कि आखिर यह मोतियों
से भरी बड़ी थाली क्या है ? लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि केवल पेट को भरने और शरीर
को ढँकने की इच्छा ही मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति का पेट भरा हुआ
हो और जिसका शरीर ढँका हुआ हो , फिर भी जो खाली नहीं बैठ सकता , वही असल में संस्कृत व्यक्ति
है। लेखक बताते हैं कि हमारी सभ्यता का एक बहुत बड़ा भाग हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही
मिला है , जिनकी बुद्धि पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है , किन्तु हमारी सभ्यता का
कुछ हिस्सा हमें ऐसे विद्वान , बुद्धिमान अथवा चिंतन – मनन करने वाले व्यक्तियों से भी मिला है
जिन्होंने तथ्य – वि षशे
ष को किसी भौतिक प्रेरणा के वश में होकर या सम्मोहित हो कर नहीं , बल्कि
उनके अपने अंदर की सहज या सरल संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। और रात के तारों को
देखकर न सो सकने वाला विद्वान मनुष्य ही हमारे आज के ज्ञान को हम तक पहुंचाने वाला पहला
व्यक्ति था। दूसरे के मुँह में रोटी का एक टुकड़ा डालने के लिए जो अपने मुँह के रोटी के
टुकड़े को छोड़ देना , एक रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए माता के बैठे रहने , लेनिन
द्वारा अपनी डबल रोटी के सूखे टुकड़े को स्वयं न खाकर दूसरों को खिलाना , संसार के मज़दूरों को
सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता देना और
सिद्धार्थ का अपना घर केवल इसलिए त्याग देना कि प्रबल वासना के व भूत भूतशीलड़ती – कटती मानवता
सुख से रह सके। ऐसी भावनाएँ व्यक्ति में कहाँ से उत्पन्न होती हैं। जो भी योग्यता दूसरों के
कल्याण को ध्यान में रखते हुए कोई आविष्कार करवाती है या किसी नए तथ्य की जानकारी उपलब्ध
करवाती है वह संस्कृति है। तो सभ्यता क्या है ? तो इसका उत्तर है कि सभ्यता , संस्कृति का परिणाम
है। संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी। यदि
कल्याण भावना से कोई आविष्कार किया गया है तो वह संस्कृति है परन्तु यदि कल्याण की भावना
निहित नहीं है तो वह असंस्कृति ही होगी। मानव ने जब – जब बुद्धि , समझ अथवा विवेक और दोस्ती
न किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है , जिसकी
या मित्रता के भाव से किसी नए तथ्य का दर्नर्श
रक्षा के लिए दलबंदियों की ज़रूरत है। जिस तथ्य का आविष्कार सभी के कल्याण के लिए किया गया
हो उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हथियार या दल – बल की आवयकता कता श्य
नहीं होती। लेखक
समझाते हैं कि मानव संस्कृति को विभाजित नहीं किया जा सकता , यह कोई बाँटे जाने वाली वस्तु
नहीं है और मानव संस्कृति में जितना भाग कल्याण का है , वह अकल्याणकर की तुलना में ज्यादा
सर्वोत्तम और उत्कृष्ट ही नहीं बल्कि स्थायी अर्थात हमे शबना रहने वाला भी है। कहने का
तात्पर्य यह है कि कल्याण का अंश कभी नष्ट नहीं होता और न ही कोई नष्ट करता है।

माता का आंचल” के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल “माता का अंचल” शिवपूजन सहाय
के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास “देहाती दुनिया” का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग)
हैं।
इस कहानी में लेखक ने माता पिता के वात्सल्य , दुलार व प्रेम , अपने ब च प न, ग्रामीण जीवन
तथा ग्रामीण बच्चों द्वारा खेले जाने वाले विभिन्न खेलों का बड़े सुंदर तरीके से वर्णन
किया है। साथ में बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी
में बड़े खूबसूरत तरीके से इस्तेमाल किया गया है।
यह कहानी मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नन्हे बच्चे
यां
को सारी दुनिया की खु यां , सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ मां के आंचल तले ही
शि
मिलती है।
कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह से होती हैं।
शिवपूजन सहाय के बचपन का नाम “तारकेवरनाथरना ” था मगर घर में उन्हें “भोलानाथ”
थश्व
कहकर पुकारा जाता था। भोलानाथ अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहते थे।
बचपन में भोलानाथ का अधिकतर समय अपने पिता के सानिध्य में ही गुजरता था। वो
अपने पिता के साथ ही सोते , उनके साथ ही जल्दी सुबह उठकर स्नान करते और अपने
पिता के साथ ही भगवान की पूजा अर्चना करते थे।
वो अपने बाबूजी से अपने माथे पर तिलक लगवाकर खूब खुश होते और जब भी भोलानाथ
के पिताजी रामायण का पाठ करते , तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे
का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती
तो , वो थोड़ा शर्माकर , थोड़ा मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके
पिता भी मुस्कुरा उठते थे।
पूजा अर्चना करने के बाद भोलानाथ राम नाम लिखी कागज की पर्चियों में छोटी -छोटी
आटे की गोलियां रखकर अपने बाबूजी के कंधे में बैठकर गंगा जी के पास जाते और
फिर उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।
उसके बाद वो अपने बाबूजी के साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की मां उन्हें
अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ
भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार
करती , तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती

उस वक्त भोलानाथ बहुत छोटे थे। इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। इस पर बाबूजी
भोलानाथ की मां से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की मां उनके बालों को अच्छे
से सवाँर कर , उनकी एक अच्छी सी गुँथ बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और
साथ में भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना कर उन्हें “कन्हैया” जैसा बना देती थी।
भोलानाथ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खूब मौजमस्ती और तमा श'करते। इन तमा% श
में तरह-तरह के नाटक शामिल होते थे। कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन
जाता तो , कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती।
और उसी रंगमंच पर सरकंडे के खंभों पर कागज की चांदनी बनाकर उनमें मिट्टी या
अन्य चीजों से बनी मिठाइयों की दुकान लग जाती जिसमें लड्डू , बता श', जलेबियां आदि सजा
दिये जाते थे। और फिर जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने पैसों से बच्चे उन
मिठाइयों को खरीदने का नाटक करते थे। भोलानाथ के बाबूजी भी कभी-कभी वहां से
खरीदारी कर लेते थे।
से ही नाटक में कभी घरोंदा बना दिया जाता था जिसमें घर की पूरी सामग्री रखी हुई नजर आती
थी। तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई
जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर
देख लेते तो , सब बच्चे हंसते हुए वहां से भाग जाते थे।
बाबूजी भी बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। बाबूजी बच्चों से
में जानबूझ कर हार जाते थे । बस इसी हँसी – खु शमें भोलानाथ का पूरा बचपन मजे
कुती श्ती
से बीत रहा था।
एक दिन की बात है सारे बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से
आंधी आई। बादलों से पूरा आकाश ढक गया और देखते ही देखते खूब जम कर बारिश
होने लगी। काफी देर बाद बारिश बंद हुई तो बाग के आसपास बिच्छू निकल आए जिन्हें
देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे।
संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने
उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को
चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से खदेड़ा और सीधे पाठशाला चले
गए। पाठशाला में उनकी शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़
लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को
भी जमकर मार पड़ी।
जब बाबूजी तक यह खबर पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला आए। जैसे ही भोलानाथ ने अपने
बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का
कंधा अपने आंसुओं से भिगा दिया। गुरूजी की मान मिनती कर बाबूजी भोलानाथ को घर
ले आये।
भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे लेकिन जैसे ही रास्ते में
उन्होंने अपनी मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल
हो गए। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की को ष्टिशशकर रही थी। भोलानाथ भी
चिड़ियों को पकड़ने लगे। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी। पर उन्होंने एक चूहे के
बिल में पानी डालना शुरू कर दिया।
उस बिल से चूहा तो नहीं निकला लेकिन सांप जरूर निकल आया। सांप को देखते ही सारे
बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे और गिरते-पड़ते जैसे-
तैसे घर पहुंचे। सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। लेकिन भोलानाथ जो अधिकतर
समय अपने बाबूजी के साथ बिताते थे , उस समय बाबूजी के पास न जाकर सीधे अंदर
अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए।
डर से काँपते हुए भोलानाथ को देखकर मां घबरा गई । माँ ने भोलानाथ के जख्मों की धूल
को साफ कर उसमें हल्दी का लेप लगाया। डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता
के मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी मां का आंचल ज्यादा सुरक्षित व
महफूज लगने लगा ।

माता का आंचल” के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल “माता का अंचल” शिवपूजन सहाय
के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास “देहाती दुनिया” का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग)
हैं।
इस कहानी में लेखक ने माता पिता के वात्सल्य , दुलार व प्रेम , अपने बचपन, ग्रामीण जीवन
तथा ग्रामीण बच्चों द्वारा खेले जाने वाले विभिन्न खेलों का बड़े सुंदर तरीके से वर्णन
किया है। साथ में बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी
में बड़े खूबसूरत तरीके से इस्तेमाल किया गया है।
यह कहानी मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नन्हे बच्चे
यां
को सारी दुनिया की खु यां , सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ मां के आंचल तले ही
शि
मिलती है।
कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह से होती हैं।
शिवपूजन सहाय के बचपन का नाम “तारकेवरनाथ रना ” था मगर घर में उन्हें “भोलानाथ”
थश्व
कहकर पुकारा जाता था। भोलानाथ अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहते थे।
बचपन में भोलानाथ का अधिकतर समय अपने पिता के सानिध्य में ही गुजरता था। वो
अपने पिता के साथ ही सोते , उनके साथ ही जल्दी सुबह उठकर स्नान करते और अपने
पिता के साथ ही भगवान की पूजा अर्चना करते थे।
वो अपने बाबूजी से अपने माथे पर तिलक लगवाकर खूब खुश होते और जब भी भोलानाथ
के पिताजी रामायण का पाठ करते , तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे
का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती
तो , वो थोड़ा शर्माकर , थोड़ा मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके
पिता भी मुस्कुरा उठते थे।
पूजा अर्चना करने के बाद भोलानाथ राम नाम लिखी कागज की पर्चियों में छोटी -छोटी
आटे की गोलियां रखकर अपने बाबूजी के कंधे में बैठकर गंगा जी के पास जाते और
फिर उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।
उसके बाद वो अपने बाबूजी के साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की मां उन्हें
अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ
भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार
करती , तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती

उस वक्त भोलानाथ बहुत छोटे थे। इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। इस पर बाबूजी
भोलानाथ की मां से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की मां उनके बालों को अच्छे
से सवाँर कर , उनकी एक अच्छी सी गुँथ बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और
साथ में भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना कर उन्हें “कन्हैया” जैसा बना देती थी।
भोलानाथ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खूब मौजमस्ती और तमा श'करते। इन तमा% श
में तरह-तरह के नाटक शामिल होते थे। कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन
जाता तो , कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती।
और उसी रंगमंच पर सरकंडे के खंभों पर कागज की चांदनी बनाकर उनमें मिट्टी या
अन्य चीजों से बनी मिठाइयों की दुकान लग जाती जिसमें लड्डू , बता श', जलेबियां आदि सजा
दिये जाते थे। और फिर जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने पैसों से बच्चे उन
मिठाइयों को खरीदने का नाटक करते थे। भोलानाथ के बाबूजी भी कभी-कभी वहां से
खरीदारी कर लेते थे।
ऐसे ही नाटक में कभी घरोंदा बना दिया जाता था जिसमें घर की पूरी सामग्री रखी हुई नजर आती
थी। तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई
जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर
देख लेते तो , सब बच्चे हंसते हुए वहां से भाग जाते थे।
बाबूजी भी बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। बाबूजी बच्चों से
में जानबूझ कर हार जाते थे । बस इसी हँसी – खु शमें भोलानाथ का पूरा बचपन मजे
कुती श्ती
से बीत रहा था।
एक दिन की बात है सारे बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से
आंधी आई। बादलों से पूरा आकाश ढक गया और देखते ही देखते खूब जम कर बारिश
होने लगी। काफी देर बाद बारिश बंद हुई तो बाग के आसपास बिच्छू निकल आए जिन्हें
देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे।
संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने
उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को
चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से खदेड़ा और सीधे पाठशाला चले
गए। पाठशाला में उनकी शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़
लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को
भी जमकर मार पड़ी।
जब बाबूजी तक यह खबर पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला आए। जैसे ही भोलानाथ ने अपने
बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का
कंधा अपने आंसुओं से भिगा दिया। गुरूजी की मान मिनती कर बाबूजी भोलानाथ को घर
ले आये।
भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे लेकिन जैसे ही रास्ते में
उन्होंने अपनी मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल
हो गए। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की को ष्टिशश
कर रही थी। भोलानाथ भी
चिड़ियों को पकड़ने लगे। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी। पर उन्होंने एक चूहे के
बिल में पानी डालना शुरू कर दिया।
उस बिल से चूहा तो नहीं निकला लेकिन सांप जरूर निकल आया। सांप को देखते ही सारे
बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे और गिरते-पड़ते जैसे-
तैसे घर पहुंचे। सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। लेकिन भोलानाथ जो अधिकतर
समय अपने बाबूजी के साथ बिताते थे , उस समय बाबूजी के पास न जाकर सीधे अंदर
अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए।
डर से काँपते हुए भोलानाथ को देखकर मां घबरा गई । माँ ने भोलानाथ के जख्मों की धूल
को साफ कर उसमें हल्दी का लेप लगाया। डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता
के मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी मां का आंचल ज्यादा सुरक्षित व
महफूज लगने लगा ।

माता का आंचल” के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल “माता का अंचल” शिवपूजन सहाय
के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास “देहाती दुनिया” का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग)
हैं।
इस कहानी में लेखक ने माता पिता के वात्सल्य , दुलार व प्रेम , अपने बचपन, ग्रामीण जीवन
तथा ग्रामीण बच्चों द्वारा खेले जाने वाले विभिन्न खेलों का बड़े सुंदर तरीके से वर्णन
किया है। साथ में बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी
में बड़े खूबसूरत तरीके से इस्तेमाल किया गया है।
यह कहानी मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नन्हे बच्चे
यां
को सारी दुनिया की खु यां , सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ मां के आंचल तले ही
शि
मिलती है।
कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह से होती हैं।
शिवपूजन सहाय के बचपन का नाम “तारकेवरनाथ रना ” था मगर घर में उन्हें “भोलानाथ”
थश्व
कहकर पुकारा जाता था। भोलानाथ अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहते थे।
बचपन में भोलानाथ का अधिकतर समय अपने पिता के सानिध्य में ही गुजरता था। वो
अपने पिता के साथ ही सोते , उनके साथ ही जल्दी सुबह उठकर स्नान करते और अपने
पिता के साथ ही भगवान की पूजा अर्चना करते थे।
वो अपने बाबूजी से अपने माथे पर तिलक लगवाकर खूब खुश होते और जब भी भोलानाथ
के पिताजी रामायण का पाठ करते , तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे
का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती
तो , वो थोड़ा शर्माकर , थोड़ा मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके
पिता भी मुस्कुरा उठते थे।
पूजा अर्चना करने के बाद भोलानाथ राम नाम लिखी कागज की पर्चियों में छोटी -छोटी
आटे की गोलियां रखकर अपने बाबूजी के कंधे में बैठकर गंगा जी के पास जाते और
फिर उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।
उसके बाद वो अपने बाबूजी के साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की मां उन्हें
अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ
भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार
करती , तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती

उस वक्त भोलानाथ बहुत छोटे थे। इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। इस पर बाबूजी
भोलानाथ की मां से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की मां उनके बालों को अच्छे
से सवाँर कर , उनकी एक अच्छी सी गुँथ बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और
साथ में भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना कर उन्हें “कन्हैया” जैसा बना देती थी।
भोलानाथ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खूब मौजमस्ती और तमा श'करते। इन तमा% श
में तरह-तरह के नाटक शामिल होते थे। कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन
जाता तो , कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती।
और उसी रंगमंच पर सरकंडे के खंभों पर कागज की चांदनी बनाकर उनमें मिट्टी या
अन्य चीजों से बनी मिठाइयों की दुकान लग जाती जिसमें लड्डू , बता श', जलेबियां आदि सजा
दिये जाते थे। और फिर जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने पैसों से बच्चे उन
मिठाइयों को खरीदने का नाटक करते थे। भोलानाथ के बाबूजी भी कभी-कभी वहां से
खरीदारी कर लेते थे।
ऐसे ही नाटक में कभी घरोंदा बना दिया जाता था जिसमें घर की पूरी सामग्री रखी हुई नजर आती
थी। तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई
जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर
देख लेते तो , सब बच्चे हंसते हुए वहां से भाग जाते थे।
बाबूजी भी बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। बाबूजी बच्चों से
में जानबूझ कर हार जाते थे । बस इसी हँसी – खु शमें भोलानाथ का पूरा बचपन मजे
कुती श्ती
से बीत रहा था।
एक दिन की बात है सारे बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से
आंधी आई। बादलों से पूरा आकाश ढक गया और देखते ही देखते खूब जम कर बारिश
होने लगी। काफी देर बाद बारिश बंद हुई तो बाग के आसपास बिच्छू निकल आए जिन्हें
देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे।
संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने
उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को
चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से खदेड़ा और सीधे पाठशाला चले
गए। पाठशाला में उनकी शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़
लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को
भी जमकर मार पड़ी।
जब बाबूजी तक यह खबर पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला आए। जैसे ही भोलानाथ ने अपने
बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का
कंधा अपने आंसुओं से भिगा दिया। गुरूजी की मान मिनती कर बाबूजी भोलानाथ को घर
ले आये।
भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे लेकिन जैसे ही रास्ते में
उन्होंने अपनी मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल
हो गए। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की को ष्टिशशकर रही थी। भोलानाथ भी
चिड़ियों को पकड़ने लगे। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी। पर उन्होंने एक चूहे के
बिल में पानी डालना शुरू कर दिया।
उस बिल से चूहा तो नहीं निकला लेकिन सांप जरूर निकल आया। सांप को देखते ही सारे
बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे और गिरते-पड़ते जैसे-
तैसे घर पहुंचे। सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। लेकिन भोलानाथ जो अधिकतर
समय अपने बाबूजी के साथ बिताते थे , उस समय बाबूजी के पास न जाकर सीधे अंदर
अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए।
डर से काँपते हुए भोलानाथ को देखकर मां घबरा गई । माँ ने भोलानाथ के जख्मों की धूल
को साफ कर उसमें हल्दी का लेप लगाया। डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता
के मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी मां का आंचल ज्यादा सुरक्षित व
महफूज लगने लगा ।

पाठ का सार
लिखने का न नन : अत्यंत कठिन
प्र

‘ मैं क्यों लिखता हूँ ? ‘ लेखक के अनुसार यह न नन बड़ा सरल प्रतीत होता है , पर
प्र
यह बड़ा कठिन भी है । इसका सच्चा तथा वास्तविक उत्तर लेखक के आंतरिक
जीवन से संबंध रखता है । उन सबको संक्षेप में कुछ वाक्यों में बाँध देना
आसान नहीं है ।

लिखने का असली कारण

लेखक को ‘ मैं क्यों लिखता हूँ ? ‘ प्रश्न का एक उत्तर तो यह लगता है कि वह


स्वयं जानना चाहता है कि वह किसलिए लिखता है । उसे बिना लिखे हुए इस प्रश्न
का उत्तर नहीं मिल सकता । लिखकर ही वह उस आंतरिक प्रेरणा को विवता को पहचानता
है , जिसके कारण उसने लिखा । उसे लगता है कि वह उस आंतरिक विवता से
मुक्ति पाने के लिए , तटस्थ ( अलग ) होकर उसे देखने और पहचान लेने के लिए
लिखता है ।

सभी लेखक कृतिकार नहीं

लेखक को सा लगता है कि सभी लेखक कृतिकार नहीं होते तथा उनके सभी
लेखन कृति भी नहीं होते । यह तथ्य भी सही है कि कुछ लेखक ख्याति मिल जाने
के बाद बाहरी विवता से भी लिखते हैं । बाहरी विवता संपादकों का आग्रह
प्रकाशक का तकाजा , आर्थिक आवयकता
कता
य यआदि के रूप में हो सकती है ।

सनशा
लेखक का स्वभाव औ र अनु सन

लेखन में कृतिकार के स्वभाव और आत्मानु सन का बहुत महत्त्व है । कुछ


लेखक इतने आलसी होते हैं कि बिना बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते ; जैसे
प्रातः काल नींद खुल जाने पर भी कोई बिछौने ( बिस्तर ) पर तब तक पड़ा रहता है ,
जब तक घड़ी का अलार्म न बज जाए ।
लेखक की भीतरी विवता

लेखक की भीतरी विवता का वर्णन करना बड़ा कठिन है । लेखक विज्ञान का


विद्यार्थी रहा है और उसकी नियमित क्षा भी विज्ञान विषय में ही हुई है । अणु
का सैद्धांतिक ज्ञान लेखक को पहले से ही था , परंतु जब हिरो मा में अणु बम
गिरा , तब लेखक ने उससे संबंधित खबरें पढ़ीं , साथ ही उसके परवर्ती प्रभावों का
विवरण भी पढ़ा । विज्ञान के इस दुरुपयोग के प्रति बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था ।
लेखक ने इसके बारे में लेख आदि में कुछ लिखा भी , पर अनुभूति के स्तर पर
जो विवता होती है , वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है ।

हिरोमा के प्रभावितों से साक्षात्कार

एक बार लेखक को जापान जाने का अवसर मिला । वहाँ जाकर उसने हिरो मा और
उस अस्पताल को भी देखा , जहाँ रेडियम पदार्थ से आहत लोग वर्षों से कष्ट पा
रहे थे । इस प्रकार उसे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ । उसे लगा कि कृतिकार के लिए अनुभव
से अनुभूति गहरी चीज़ है । यही कारण है कि हिरो मा में सब देखकर भी उसने
तत्काल कुछ नहीं लिखा । फिर एक दिन उसने वहीं सड़क पर घूमते हुए देखा कि
एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है । उसकी समझ में आया कि
विस्फोट के समय कोई व्यक्ति वहाँ खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए
रेडियोधर्मी पदार्थ की किरणें उसमें रुद्ध हो गई होंगी और उन किरणों ने उसे
भाप बनाकर उड़ा दिया होगा । इसी कारण पत्थर का वह छाया वाला अं झुलसने से
बन गया होगा । यह देखकर उसे लगा कि समूची ट्रेजडी ( दुःखद घटना ) जैसे
पत्थर पर लिखी गई है ।

लेखक का आश्चर्य

उस छाया को देखकर लेखक को जैसे एक थप्पड़ – सा लगा । उसी क्षण अणु


विस्फोट जैसे उसकी अनुभूति में आ गया और वह स्वयं हिरो मा के विस्फोट का
भोक्ता बन गया । अचानक एक दिन उसने भारत आकर हिरो मा पर एक कविता लिखी
। यह कविता अच्छी हैं या बुरी , इससे लेखक को मतलब नहीं है । उसके लिए
तो वह अनुभूतिजन्य सत्य है , जिससे वह यह जान गया कि कोई रचनाकार रचना
क्यों करता है ।

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