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1-ऊधौ, तुम हौ अति ------------ गुर चाँटी ज्यौं पागी।।

व्याख्या: इन छंदों में गोपिया उद्धव से अपने मन की व्यथा कह रही है और साथ ही उद्धव पर कटाक्ष भी कर रही है। उनके अनुसार उद्धव अत्यंत
भाग्यशाली है जो कृ ष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में मोहित नहीं हुए। वे कृ ष्ण के प्रेम से उस तरह अछू ते हैं जैसे कमल के पत्ते जल के भीतर रहकर
भी जल से अछू ते रहते हैं। जिस तरह तेल में डु बाई हुई गगरी को जल स्पर्श नहीं कर पाता उसी तरह उद्धव पर भी कृ ष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं
हुआ है। गोपियों के अनुसार उद्धव तो प्रेम की नदी के पास रहकर भी उस में डु बकी नहीं लगाते हैं। उनका मन तो कृ ष्ण रूपी सागर को देखकर भी
मोहित नहीं होता। लेकिन हम (गोपियां) तो भोली और अबला है जो कृ ष्ण के प्रेम में इस तरह से लिपट गई है। जैसे गुड़ से चीटियां लिपट जाती है
और वही प्राण त्याग देती है।

2.मन की मन ही माँझ रही। --------------अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।


व्याख्या: इस छंद में गोपियां अपने मन की पीड़ा का वर्णन उद्धव से कर रही है। गोपियों का कहना है कि वें अपने मन की व्यथा को व्यक्त तो करना
चाहती है। लेकिन किसी दूसरे के सामने कह नहीं पाती और उसे मन में ही दबाने की कोशिश करती रहती है। पहले तो उन्होंने कृ ष्ण के इंतजार में प्रेम
पीड़ा को सहा। लेकिन उन्हें यह विश्वास था कि कृ ष्ण उनसे मिलने जरूर आएंगे परंतु कृ ष्ण ने खुद ना आकर अपने स्थान पर उद्धव को भेज दिया।
जिसने उनकी विरह अग्नि को और प्रज्वलित कर दिया है। कृ ष्ण के वियोग में अब उनकी आंखों से प्रबल अश्रु धारा बहने लगते हैं। अब धैर्य रखें क्या
फायदा जब कृ ष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया।

3.हमारैं हरि हारिल की लकरी।


------------- जिनके मन चकरी।
व्याख्या: गोपियां उद्धव से कहती है कि उनकी दशा हारिल पक्षी की तरह हो गई है। जिसे लकड़ी से इतना मोह होता है की वह सदैव एक पंजे पर
लकड़ी को पकड़े हुए रहता है। ठीक उसी प्रकार उन्होंने भी नंद के नंदन के प्रेम की लकड़ी को अपने हृदय से लगाकर पकड़ा हुआ है। जिसे वह सोते
जागते, दिन या रात हमेशा अपने पास ही रखती हैं अर्थात हमेशा कृ ष्ण के प्रेम में रत है। इसलिए उन्हें उद्धव द्वारा दिया गया योग का ज्ञान एक कड़वी
ककड़ी के समान लगता है। क्योंकि योग मन को एकाग्र करने के लिए उपयोगी सिद्ध होता है परंतु गोपियों का मन तो पहले से ही कृ ष्ण के प्रेम में रत है।
इसलिए उन्हें योग के उपदेश की आवश्यकता नहीं है।

4.हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।


----------समुझी बात जो प्रजा न जाहिं सताए।।

व्याख्या: गोपियों को लगता है कि श्री कृ ष्ण ने अब राजनीति भी पढ़ ली है अर्थात वह चतुराई से काम कर रहे हैं। इसीलिए उन्होंने अपना संदेश स्वयं
ना आकर उद्धव के द्वारा भेज दिया ताकि वह गोपियों का सारा हाल जान पाए। गोपियों के अनुसार श्री कृ ष्ण पहले से ही बहुत चतुर थे। लेकिन अब तो
लगता है कि उन्होंने कोई गुरु ग्रंथ ही पढ़ लिया है। इसीलिए उन्होंने बहुत बुद्धिमानी के साथ उद्धव के द्वारा उन्हें योग का संदेश भेजा है। गोपियों को
लगता है कि अब उन्हें कृ ष्ण से अपना मन फे र लेना चाहिए क्योंकि कृ ष्ण अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे अर्थात कृ ष्ण अब गोपियों से प्यार नहीं करते।
क्योंकि अगर वह भी उनसे प्यार करते होते तो उद्धव को ना भेज कर स्वयं आते। गोपियों को लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है क्योंकि राज
धर्म के अनुसार तो राजा को कभी भी प्रजा को सताना नहीं चाहिए।

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