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Department of Kayachikitsa

M.M.M GOVT. AYURVED COLLEGE,


UDAIPUR

CHANCROID

GUIDED BY –
Dr. Ravi Sharma (H.O.D & Prof.) Presented by –
Dr. SUNITA
Dr. Indumati Sharma (Asso. Prof.)
CHANCROID
 Chancroid is an STI causing painful genital sores and
inguinal lymphadenopathy that may progress to abscess
(bubo) formation.
 Causative organism is a Gram-negative bacterium
Haemophilus ducreyi.(982 golwalla)
 Incubation period 4-7 days
 Lesions start as a tender papule that develops into
pustule, then an ulcer. The classical ulcer has a ragged,
undermined edge with a grey or yellow base that bleeds
when touched. Lesions may be single or multiple
 Sites –
• Prepuce
• coronal sulcus, frenum and glans in men
• labia minora and fourchette in women.
• Ulcers of vaginal wall and cervix may occur.
• Extragenital lesions are rare
TYPES

 Giant chancroid – Large ulcer due to extension of single ulcer

 Phagedenic ulcer – Large, destructive ulcer with necrosis of tissue from


secondary infection
 Papular chancroid begins as an ulcer but later becomes raised around its edges.
 Transient chancroid – Small ulcer that resolves spontaneously in a few days.
It may be followed by acute regional lymphadenitis.
 Follicular chancroid – Originates in the follicle and may be seen on vulva and
on hairy areas of genitals
Diagnosis

 (1) Smear– Gram stain material from ulcers may show Gram-negative
coccobacilli in a ‘school of fish’ or ‘railroad track’ appearance.

 (2) Culture – Sensitivity is only about 75% and requires more than one culture
media.
 Non-culture diagnostic tests – (a) DNA amplification technique.
Polymerase chain reaction (PCR) tests are the most sensitive method.
Serological tests are unable to differentiate between old and new
infections.
 (b) Antigen detection using immunofluorescence techniques on smears
from genital ulcers and bubo aspirates.

 © Histology – Superficial necrosis with large number of neutrophils,


plasma cells, lymphocytes and fibroblasts
 Treatment -A
● Local treatment
● Local hygiene.
● Phimosis should be treated surgically.
●Fluctuant bubo should be aspirated. Do not inciseand drain.
■ B. Systemic therapy □ Azithromycin 1g orally as a single dose.
□ Ceftriaxone 250 mg I.M. once only.
□ Ciprofloxacin 500 mg bid for 3 days.
□ Erythromycin 500 mg qid for 7 days.
□ NSAIDs for pain
□ Healing of ulcers is usually after 7–14 days.
उपदंश

 तत्रातिमैथुनादतिब्रह्मचर्य्याद्वा तथाऽतिब्रह्मचारिणीं चिरोत्सृष्टां रजस्वलां दीर्घरोमां कर्क शरोमां


सङ्गीर्णरोमांनिगूढरोमामल्पद्वारां महाद्वारामप्रियामकामाम् चौक्ष्यसलिलप्रक्षालित योनिमप्रक् क्षालितयोनि
यो निरोगोपसृष्टां स्वभावतो वा दुष्टयोनिं वियोनिं वा नारीमत्यर्थमुपसेवमानस्य तथा
करजदशनविषशूकनिपातनाद्वन्धनाद्धस्ता-
भिघाताच्चतुष्पदीगमनादचौक्ष्यसलिलप्रक्षालनादवपीडनाच्छु क्रमूत्रवेगविधारणान्मैथुनान्ते
वाऽप्रक्षालनादिभिमेढ्र मागम्य प्रकु पिता दोषाः क्षते अक्षते वा श्वयथुमुपजनयन्ति, तमुपदंशमित्याचक्षते
||
 अधिक मैथुन से, अधिक ब्रह्मचर्य से एवं अधिक दिनों तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण की हुई, रजोधर्म से युक्त, बड़े रोमवाली, रूखे
लोमवाली, सङ्कीर्ण (अधिक) रोमवाली, योनि में रोम जिसके हो, अल्प या समुचित योनिद्वार वाली, महा (विस्तृत) योनिद्वार
वाली प्रिय न लगने वाली, मैथुन कराने की अनिच्छा वाली, खराब जल से जिसने योनि प्रक्षालित की हो अथवा जिसकी योनि
प्रक्षालित न की हो, योनिरोगों से व्याप्त, स्वभाव से ही जिसकी योनि दुष्ट हो, जिसकी योनि विकृ त या दूषित हो ऐसी स्त्री के
साथ अत्यधिक मैथुन करने वाले मनुष्य के तथा नख दाँत (दर्शन), विष और शूक लगने से, लिङ्ग को बाँधने से, हस्तमैथुन के
समय आघात लगने से, चतुष्पद वाली पशु-जाति की स्त्री के साथ मैथुन करने (Beartility) से, खराब जल से लिङ्ग को
धोने से तथा उसका पीड़न करने से, शुक्र और मूत्र के वेग को रोकने से तथा मैथुन के अन्त में शिश्न को नहीं धोने आदि अनेक
कारणों से प्रकु पित हुए वातादि दोष क्षत (व्रणयुक्त) या अक्षत हुए शिश्न में आकर शोध उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रकर उत्पन्न हुए
रोग को उपदंश कहते हैं ।
स पञ्चविधस्त्रिभिर्दोषैः पृथक् समस्तैरसुजा च ।।११।।
 वातज
 पित्तज
 कफज
 सन्निपातज
 रक्तज
 तत्र वातिके पारुष्यं त्वक्परिपुटनं स्तब्धमेढ्र ता परुषशोफता विविधाश्च वातवेदनाः ।
- वातिक उपदंश के कर्क शता
- त्वचा में दरारे पड़ना, शिश्न में स्तब्धता, रुक्ष
शोथ तथा अनेक प्रकार की वातिक पीडाए होती है |

 पैत्तिके ज्वरःश्वयथुः पक्वोदुम्बरसंकाशस्तीव्रदाहः क्षिप्रपाकः पित्तवेदनाश्च ।


- पैत्तिके उपदंश के ज्वर
- शिश्न में सूजन तथा पके हुए गूलरफल के समान उसका रंग
- तीव्र जलन, शीघ्र पाक तथा पैत्तिके वेदनाये होती है |
 श्लेष्मिके श्वयथुः कण्डू मान् कठिनः स्निग्धः श्लेष्मवेदनाश्च ।
- श्लेष्मिक उपदंश शिश्न में शोथ
- खुजली, कठोरता
- स्निग्धता तथा कफ की वेदनाये
 रक्तजे कृ ष्णस्फोटप्रादुर्भावोऽत्यर्थमसृक्प्रवृतिः पित्तलिड्गान्यत्यर्थ ज्वरदाहौ शोषश्च याप्यश्चैव कदाचित् ।
- कृ ष्ण वर्ण के स्फोट की उत्पति, अत्यधिक रक्त का स्राव,
- ज्वर, दाह, मुख शोष, कभी –कभी याप्य होता है |

 सर्वजे सर्वलिंगदर्शनमवदरणं च शेफसः कृ मिप्रादुर्भावो मरणं चेति ।(सु.नि.12)


चिकित्सा -

 उपदंशेषु साध्येषु स्निग्धस्विन्नस्य देहिनः । सिरां विध्येन्मेोतुमध्ये पातयेद्वा


जलौकसः । । २५।
 उपदेश में सामान्य चिकित्सा-साध्य उपदंशो में स्नेहन और स्वेदन से युक्त रोगी के शिश्न-मध्य में शिरावेध के द्वारा
- अथवा जोक लगाकर रक्तमोक्षण करना चाहिये

हरेदुभयतश्चापि दोषानत्यर्थमुच्छृ तान् |


सद्योऽपहतदोषस्य रुक्शोफावुपशाम्यतः ।।२६।। यदि वा दुर्बलो जन्तुर्न वा
प्राप्तं विरेचनम् । निरूहेण हरेत्तस्य दोषानत्यर्थमुच्छ्रि तान् ।। २७ ।।
अत्यधिक बढ़े हुए दोषों को उभयमार्ग (वमन तथा विरेचन) के द्वारा दूर करना चाहिये। दोषों के दूर हो जाने पर रोगी की वेदना और शोथ शीघ्र शान्त हो जाते
है। रोगी यदि दुर्बल या विरेचन के अयोग्य हो तो अत्यन्त बढ़े हुए दोषों को निरूहवस्ति के द्वारा दूर करना चाहिये ।। २६-२७॥
वातज उपदंश

 प्रपौण्डरीकयष्टयाह्ववर्षाभुकु ष्ठदारुभिः |
सरलागुरुरास्नाभिर्वातजं संप्रलेपयेत् ।। २८ ।। निचुलैरण्डबीजानि
यवगोधूमसक्तवः । एतैश्च वातजं स्निग्धैः सुखोष्णैः
संप्रलेपयेत् । प्रपौण्डरीकपूर्वेश्च द्रव्यैः सेकः प्रशस्यते ।। २९ ।।
 वातज उपदंशचिकित्सा—- पुण्डेरी, मुलेठी, पुनर्नवा, कू ठ, देवदारु, निशोथ, अगर और रास्ता के कल्क का लेप |
 वेत, एरण्डबीज, जौ, गेहूं और लाजसतु का स्निग्ध, सहने योग्य, उष्ण लेप वात उपदंश में लगावे तथा पूर्वोक्त पुण्डेरी आदि द्रव्यों
के क्वाथ से परिषेक करे ।
पित्तज उपदंश

 गैरिकाञ्जनयष्टयाह्वसारिवोशीरपद्मकै । सचन्दनोत्पलैःस्निग्धैःपैत्तिकं संप्रलेपयेत्


। पद्मोत्पलमृणालैश्च ससर्जार्जुनवेतसैः ।। ३१ ।।
सर्पिः स्निग्धैः समधुकैः पैत्तिकं संप्रलेपयेत् ।
सेचयेच्च घृतक्षीरशर्क रेक्षुमधूदकैः । अथवाऽपि सुशीतेन
कषायेण वटादिना ||३२||
 गेरू, रसोत, मुलेठी, सारिवा, खस, पद्माख, चन्दन और कमल के कल्क को स्निग्ध करके पित्तज उपदंश में लेप लगाना चाहिये।
 लालकमल, नीलोफर, कमल नाल, सर्जक (शालभेद), अर्जुन, बेत और मुलेठी के कल्क में घृत मिलाकर, पित्तज उपदंश में लेप करना
चाहिये।
 घी, दूध, शर्बत, गन्ने का रस और मधुयुक्त जल के द्वारा अथवा वटादिवर्ग (क्षीरिवृक्ष) के शीतल कषाय से परिषेक करना चाहिये ।। ३०-
३२।।
कफज उपदंश

 सालाश्वकर्णाजकर्णघवत्वग्भिः कफोत्थितम् ।। ३३ ।।
सुरापिष्टाभिरुष्णाभिःसतैलाभिः प्रलेपयेत्।
रजन्यतिविषामुस्तासुरासुरदारुभिः 11३४ सपत्रपाठापत्तूरैरथ वा
संप्रलेपयेत् । सुरसारग्वधाद्योच क्वाथाभ्यां परिषेचयेत् ।।
३५ ।।
 शाल, अश्व कर्ण अजकर्ण और धव की छाल को सुरा से पीस कर, तेल मिला, उष्ण करके , कफज उपदेश में लेप लगाना चाहिये।
अथवा हल्दी, अतीस, नागरमोथा, निशोथ , देवदारु, तमालपत्र, पाठा और पतंग के कल्क का लेप तथा सुरसादिगण और
आरग्वधादिगण के क्वाथ से परिषेक करना चाहिये ।
अवस्था भेद से चिकित्सा

 आम उपदंश – संशोधन, आलेप, परिषेक, रक्तमोक्षण


 पाक उपदंश – शस्त्र क्रिया
- लेप = घृत , मधु मिश्रित तिल कलक का लेप
- प्रक्षालन = कनेर, चमेली, अमलतास, अरणी, आक के पत्तो का क्वाथ |
 योग – जम्ब्वादी योग (प्रक्षालन) (जामुन, आम, चमेली, नीम, बेर, बेल, पलाश, क्षीरी वृक्षों की छाल, त्रिफला का
क्वाथ इत्यादी |( सु. चि. २० )
 पटोलादी क्वाथ- परवल, नीम, त्रिफला, गिलोय, आसन = पान
 प्रपौण्डरीकादि लेप – प्रपौण्डरीक, मुलेठी, रास्ना, कू ट, पुनर्नवा, सरला कल्क में घृत मिलाकर लेप (पित्तज उपदंश)
 गैरिकादि लेप- गेरू, रसोंत, मजीठ, मुलेठी, खस, चंदन, नील कमल कल्क में घृत मिलाकर लेप (पित्तज उपदंश)
 निम्बादी चूर्ण- नीम, अर्जुन, पीपर, कदम्ब, शाल, जामुन, वट, गूलर, वें के क्वाथ से सेंचन करना, कल्क का लेप
 त्रिफला क्वाथ प्रक्षालनं
 त्रिफला मसी प्रयोग
 भुनिम्बादी घृत- चिरायता, नीम, त्रिफला, परवल, करंज, चमेली, खदिर, असन,
 करंजादय घृत – करंज, नीम, अर्जुन, शाल, जम्बू, वटादि (चक्रदत्त उपदंश चिकित्सा पेज no. 272-273)
 रसशेखर- पारद, अफीम, हिंगुल, जायफल, जावित्री, पारसीक अजवाइन (2 वटी संध्या के समय
)
 रसगुग्गुलू – पारद, शर्क रा, गुग्गुलु, (3-3 वटी )
 वरादी गुग्गुलु – त्रिफला, नीम, अर्जुन, खदिर, असन, अडू सा, गुग्गुलु (1-1 वटी) (भै.र.52)

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