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महत्त्वपूणण बातें

[दुुःखोंका नाश कै से हो ?' -श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर]

→ भगवान् के िवषय का यथाथण ज्ञान ही तप है । भगवान् कहते हैं इस प्रकार मुझे जानकर बहुत लोग भजन करके तर गये । → भगवान् का यह कानून है कक जो मुझे भजता है उसे मैं भजता हूँ । िजसे मैं भजूूँ उसके उद्धार में क्या शंका है ? मेरी तो सामर्थयण है मैं िजसे चाहूँ वह मेरे पास आ सकता है, किर उसके उद्धार होने में क्या शंका है ? → संसार में लोग िजसे मूल्यवान समझते हैं उसे ही याद करते हैं । → अंगदने हनुमानजी से कहा कक समय-समय पर भगवान् को मेरी याद कदलाते रहना । िजसे भगवान् याद करते हैं उनका बडा भारी भाग्य है । → भरद्वाज मुिन ने कहा कक हे भरत ! सारी दुिनया भगवान् को भजती है और तुम्हे भगवान् भजते हैं ।

→ कारक पुरुष का जन्म भी कदव्य है, ककन्तु भगवान् से कु छ अन्तर है । भगवान् की तरह पूणण स्वतन्रता नहीं है, उनकी पूणण शिि नहीं है । संसार में उनका जन्म प्रादुभाणव की तरह भी हो सकता है, जन्म लेकर वे क्लेश नहीं पाते हैं । जैसे भगवान् का आना संसार के िहत के िलये होता है उसी प्रकार कारक पुरुषका भगवान् कीआज्ञा से ही आना होता है । → मनुष्य की अपेक्षा ज्ञानीका कमण कदव्य है, पर जन्म कदव्य नहीं है । उनके कमण में भी प्राय: सारी बात आ जाती है । िसिद्ध आकद ज्ञानी में नहीं होती, यह कोई िनयम नहीं है । → अन्तकाल के समय भगवान् के भजन का प्रभाव यह बतलाया गया है कक उससे कल्याण हो जाता है । उसी प्रकार भगवान् के हाथ से मरने से मुिि हो जाती है। → चाहे भगवान् का भजन करता हुआ जाय, चाहे नाम-जप करता हुआ जात, चाहे सत्संग करता हुआ जाय । इनमें चाहे जैसे ही जाय, उसका कल्याण जो जायगा । → एक महापुरुष का भी अन्तकाल में दशणन हो जाय तो उन्हें थोडा बहुत जानने से मुिि हो सकती है । → आप अपनी शिि के अनुसार भगवान् को कहाूँ चाहते हैं ? अन्य सब काम छोडकर भगवान् में मन लगा दें ।

→ हम अपनी सारी शिि का प्रयोग कहाूँ करते हैं, सारी शिि का प्रयोग करने के बाद किर िवलम्ब का क्या काम है ? → भगवान् से यकद िवशेष प्रेम है तो औरों से प्रेम क्यों ? " अव्यिभचाररणी " भिि करनी चािहये । → आपने यह िनश्चय कर िलया कक हमारी सांसाररक वस्तुओं की रक्षा भगवान् कर रहे हैं; ककन्तु भगवान् का िचन्तन नहीं छोडना चािहये, शरीर की किया चाहे हो, चाहे मत हो । → भगवान् कहते हैं तू के वल एक मुझको ही भज । → मनुष्य भगवान् के िमलने में मनसे िजतनी छू ट चाहता है उतनी ही देर होती है । धीरे -धीरे पहुूँच तो जायगा पर देर लगेगी । िहम्मतवाला तो बहुत ही जल्दी पहुूँच जायगा, कम िहम्मतवाला रोता-रोता जायेगा । → भििसिहत िनष्काम कमण के मागणको जानना कोई करिन बात नहीं है । जो आदमी यह समझ जाय कक इसमें अपना बहुत ज्यादा लाभ है किर उस आदमी को भारी थोडे ही लगेगा । अपना िमर कहता है कक इसमें इतना लाभ है, मेरे पर िवश्वास करके काम कर लो तो क्या िवलम्ब है । यकद लाभ नहीं भी दीखे, चाहे जीवन नष्ट हो जाय, उसकी कु छ भी परवाह नहीं करे । के वल िवश्वास करके

अच्छे पुरुषों के बताये हुए मागण के अनुसार ही चलने कक चेष्टा करे , उसमें कु छ भी िवचार नहीं करे । → परमात्मा कक प्रािि तो बहुत ही सहज है । → आपको परोपकार में जो कु छ खचण करना हो खुले हाथ से खचण करें , ककन्तु आप लोगों से धन खचण नहीं हो तो यह िियों की तरहकी मुखणता है । आपके पास एक चादर है, दूसरा कोई माूँगे तो बहुत आदर और प्रसन्नता से दे दें । उसकी चीज उसे प्रसन्नता से सम्हला दें तो अपनी जोिखम िमटी । इसमें गरीब-अमीर की बात नहीं है । आपके पास जो कु छ हो उसमें उदारता का भाव रखें ।राजा रिन्तदेव का उदाहरण देखें । आपके पास कु छ भी नहीं हो तो आये हुए से मीिा बोलें, जल िपला दें । इसमें रुपयों की प्रधानता नहीं है । तन, मन की प्रधानता है । कोई एक आदमी पाूँच कदन शरीर से काम करे और एक आदमी पाूँच सौ रुपया दे, पाूँच कदन के समय के बराबर रुपया नहीं है । हमारा लक्ष्य तन, मनसे है, रुपयों से नहीं है, क्योंकक धनवान् तो बहुत थोडे िमलते हैं ।

→ बहुत आदमी कहते हैं कक हम मान बडाई चाहते तो नहीं है, पर आकर प्राि हो जाय तब क्या करें ?मैं तो यह बात नहीं मानता । दूसरे व्यिि हमारे ककये हुए अच्छे काम की बडाई करके हमारी प्रितष्ठा बढाते हैं । बडाई-प्रितष्ठा को स्वीकार नहीं करना चािहये । जो काम हो गया उसको प्रकािशत करने से क्या लाभ है, प्रकािशत करनेका उद्देश्य कह कर अपनी बडाई करनी है । → आप सूक्ष्मता से सोचेंगे तो अपने उत्तम कृ त्य को प्रकट ककये िबना आप रह नहीं सकते । अपने बुरे कृ त्यों को िछपाने की आप बहुत चेष्टा करते हैं । → उद्देश्य तो आपका बहुत ही खोटा है । परमात्मा की दया की बात अलग है । यकद उद्देश्य अच्छा होता तो उद्धार में िवलम्ब का क्या काम है ? खोटा उद्देश्य१-दम्भ पाखण्ड- भजन-ध्यान कर रहा है, कभी आलस्य आ रहा है, कभी माला हाथ से िगर रही है । पर लोग आ जाते हैं तो सावधान होकर बैि जाता है । यह िछपाव रखने का क्या मतलब है ? पापों को िछपाना ।

२- बडाई का दोष साधन की अंितम िस्थित तक रहता है । यकद परमात्मा की प्रािि की इच्छा हो तो दम्भ-पाखण्ड, मान-बडाई कक इच्छा को तुरंत छोड दो । कीर्तत को कलंक की तरह समझना चाहीये । उसे िबलकु ल ना सहे, कोई बडाई कर दे तो भीतर-भीतर कदल से रोवे । → प्रश्न- साधन नहीं होता ? उत्तर- भगवान् के उपदेश का रहस्य समझना चािहये । साधन नहीं होने में श्रद्धा की कमी है । संसार समुद्र की तरह है । समुद्र में कोई िगर जाय और उसके कोई भी चीज हाथ आ जाय, वह उसको नहीं छोडता । जैसे पानी में डू बता हुआ आदमी व्याकु ल हो जाता है, वैसी व्याकु लता होने से कल्याण होता है । डू बते समय रस्सा हाथ लग जाय उसे वह कै से छोडे । यकद कोई आदमी छोडे तो उसे डू बने का दुुःख मालूम नहीं है । उपाय समझने के बाद तो छोड ही नहीं सकता । → भगवान् खेवनहार है, अथाह संसार समुद्र में डू बते हुए के हाथ रस्सा लग जाय तो वह रस्से को कै से छोड सकता है । → साधन तेज या तो प्रेम या भय से होता है । → तुम साधन नहीं कर रहे हो, तुम्हारी क्या दशा होगी ?

→ जब-जब वृथा िचन्तन हो तब सोचना चािहये कक तू साूँप-िबच्छु को पकडकर क्यों मर रहा है ? तेरी क्या दशा होगी ? लाखों जीवों कक क्या दशा हो रही है ? → प्रथम तो मनुष्य जन्म िमलना करिन है, यकद िमल जाय तो कौनसे देश में जन्म हो, किर धार्तमक देश में जन्म होना करिन है, किर उत्तम कु ल या उत्तम सत्संग िमलना बहुत ही करिन है । → अपना यह काम ( भगवत्प्रािि ) बन गया तो अपना सारा काम हो गया, यकद यह काम नहीं हुआ तो और सारा काम िमटटी है । यकद परमात्मा के तत्व को जा िलया किर पीछे कु छ भी हो कु छ िचन्ता नहीं है । आपने कलकत्ता में सौ मकान बनवा िलये, पर कल आप मर गये तो वे मकान आपके क्या काम आये । → आपने जन्म भर धन इकठ्ठा ककया और मर गये तो धन आपके क्या काम आया ? आपने तो कु ली का काम ककया । → अपने तो यह काम (भगवत्प्रािि) करना है और सारे काम चाहे िमटटी में िमल जायूँ, पर अपने तो यह काम अवश्य ही करना है । → पहले लाखों बार अपना मनुष्य जन्म हुआ होगा, यकद पहले परमात्मा को जान लेते तो अपना जन्म क्यों होता ।

→ करोडों मनुष्यों में ककसी एक को परमात्मा की प्रािि होती है । जीव तो करोडों का भी करोडों गुना है, पर उनकी मुिि नहीं होती । िहसाब लगाय जाय तो युगोंसे ही कभी मनुष्य शरीर िमलता है । देखो क्या दशा हो रही है, सोचना चािहये । यह सब बात समझकर साधन के िलये उत्तेजना होनी चािहये । → अपना सवणस्व भले ही चला जाय, िजस ककसी प्रकार ईश्वर से प्रेम करना चािहये । एकान्त में साधन के िलये खूब रोये । हे प्रभु ! मेरे पास कोई उपाय नहीं है, आप करें गे तो िीक होगा । हे नाथ ! मैं क्या कर, यह संसार मेरा िपण्ड नहीं छोडता । ूँ → सांसाररक उन्नित देखकर लोग प्रसन्न हो रहे हैं; ककन्तु साधन न होने के कारण घर जल रहा है । इस बात को समझकर सच्चे हृदय से परमेश्वर से खूब प्राथणना करें । → सारे उपाय कर िलये, ककन्तु ककसी प्रकार काम नहीं बना । भगवान् के आगे रोये कक मुझे तो कोई भी रास्ता नहीं कदखता । मेरा यह समय बीत जायेगा तो मेरी दुदशा होगी । ण गीता २ ।७ इसिलये कायरतारप दोषसे उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धमण के िवषय में मोिहतिचत हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कक जो साधन िनिश्चत कल्याणकारक हो, वह मेरे िलये किहये; क्योंकक मैं

आपका िशष्य हूँ, इसिलये आपके शरण हुए मुझको िशक्षा दीिजये । यह श्लोक बराबर पढ़कर रोये, खुशामद करे तो उनकी करे । रोये तो उनके आगे रोये । जो उनकी शरण हो जाता है, प्रभु उसका त्याग नहीं करते । जाकर शरण पड जाय और कु छ नहीं माूँगे तो उसकी सुनवायी होती है । इस प्रकार परमात्मा के पीछे पड जाय तो भगवान् को उसका सुधार करना ही पडेगा । उनका िपण्ड न छोडे, उनके िसवाय दूसरी बात न माूँगे । मर जायगा तो कहाूँ-कहाूँ भटकना पडेगा । साधन की चाह होनी चािहये । → िजसका काम परमात्मा िबना नहीं चलता, उसें परमात्मा ही िमलेंगे ।

→ जब भगवान् के िबना काम नहीं चलता तब भगवान् को आना ही पडता है । → चाहे सब नाराज हो जायूँ पर भगवान् को नाराज करने से काम नहीं चलता । → एक तरि परमेश्वर तथा एक तरि यह संसार, किर भगवान् को कै से छोडोगे ।

→ समलोष्टाश्मकांचन । यह बात भगवान् कह रहे हैं तब हमें यह बात तो माननी ही चािहये । लोभ त्यागकर उत्तम व्यवहार करो । → रुपया त्यागने से भगवान् िमलते हैं । रुपया अपने पास थोडा है तो और भी इकठ्ठा हो जायगा, ककन्तु यह रुपया हमारे क्या काम आयेगा ? इसके त्याग से भगवान् िमलते हैं जो सदा काम आनेवाले हैं । → िजसके त्याग से भगवान् िमलें, िजसकी कु छ कीमत नहीं है, ऐसा समझकर इस चीज को छोड दो । → भगवान् के िलये समय कदया । उनके िलये झूि नहीं बोले ।

→ एक तरि लाख रुपया है, एक तरि भगवान् के नामका उच्चारण है । नामका जप क्यों करें ? इससे भगवान् िमलते हैं ।

→ िनष्काम भाव से व्यवहार करने से भगवान् िमलते हैं ।

→ िनष्काम कमण से भगवान् िमलते हैं, यह बात समझमें आ जाय तब कमण करनेमें भजनसे भी अिधक प्रसन्नता होगी । यह काम िवश्वास करके करो तो इससे बहुत लाभ होगा । एक बार इसमें िवश्वास करके काम करनेमें प्रसन्नता रहती है । → ऊचे दजे के साधक और भि के िलये कमण भार रप नहीं है । ूँ उनको तो कमण करने में प्रसन्नता ही होती है, जैसे-भजन ध्यान करने में प्रसन्नता रहती है, इसी प्रकार कमण करने में प्रसन्नता रहती है ।

→ आिखर में िवजय तो अपनी ही होनी हैं, क्योंकक अपनी सहायता भगवान् करने वाले हैं । अपने तो भगवान् तो साथी है, इसिलये इन काम-िोध को मारना चािहये ।

→ प्रभु की अपने पर बडी भारी दया है ।

→ भगवान् हमारे पर बहुत प्रसन्न है । प्रसन्नता ककस बात की है कक भगवान् हमपर बहुत प्रसन्न हैं, दूसरी प्रसन्नता इस बात की है कक भगवान् की याद हमें भगवान् ने हर समय दी है । → अपना कल्याण होने में कु छ शंका नहीं है । अपना तो उद्धार होगा ही, उनकी दयाके सामने यह कौन बडी बात है ।

→ उनकी दया को याद करके क्षण-क्षण में मुग्ध होता रहे ।

→ खूब बेपरवाह रहे । िबना हुए भी आनन्द माने । समझे आनन्द का भंडार भरा पडा है । परमात्मा आनन्दमय हैं, मैं भी आनंदमय हूँ । → भगवान् की िवस्मृितका पश्चाताप बहुत अच्छा है, परन्तु असली पश्चाताप वह है, िजसमें उनको कभी भूले ही नहीं ।

→ पचास आदमी एक बातको िीक है िबना समझे िलखते गए तो क्या हुआ ? उसका क्या मूल्य है ? जो रहस्य समझकर िलखता है वही िीक है । → स्रोिरय-ब्रह्मिनष्ठ बतावे वही धमण है । दस हजार लोग बतावें वह धमण नहीं है । → कोई भी संकल्प आये उसको आदर नहीं देना चािहये ।

→ दोषको छोडकर गुणों को ग्रहण करे । दोषों को छोडना कोई करिन नहीं है । → भगवान की प्रािि तो अपने हाथ की बात है । अपने घर कोई भोजन करने आये तो उसे भगवान् समझकर भोजन कराओ । → सब जगह परमात्मा को देखता रहे । स्वाथण को छोडकर सबको आराम पहुूँचाना ही भगवान् की पूजा है ।

→ साधक के िलये एक गीता ही है, उसके िवपरीत हो, उसका झंझट छोड दो । गीता के अनुकूल हो उस शाि ही मानना चािहये । → इतना समय बीत गया, मृत्यु िनकट आ रही है । परमात्मा की प्रािि को छोडकर इन सबमें अपना समय िबता दोगे तो बडी हािन होगी । इन सब बातों को छोडकर परमात्मा की प्रािि करनी चािहये । → एक जन्म के थोडे समयमें भी भगवान् की प्रािि हो सकती है ।

→ भगवान् कणण को छलने वाले थे, तब भी कणण बोला मैं तो राज्य दुयोधन को दूगा । यकद वह भगवान् की बात मानकर पाण्डवोंसे ूँ िमल जाता तो यह घूस खाना था ।

→ अपने तो यह करो कक सभी जगह साथ रहें, हररकथा होती ही रहे । खूब भजन-ध्यान करें , खूब सत्संग करें और साथ ही रहें । गीता ५।२६ को याद रखते हुए परमात्मा के िलये शरीर को िमट्टी में िमला दें ।

→ प्रश्न प्रेम ककस तरह हो ?

उत्तर-१ थोडे से प्रेम के िलये प्राणों को भी कु छ नहीं समझे, चाहे सवणस्व चला जाय प्रेम नहीं छू टना चािहये । ईश्वर के प्रेममें बाधा पडे तो प्राण कक भी कु छ परवाह नहीं करनी चािहये । २ ईश्वर प्रेम ऐसा है कक उसके सामने सारी दुिनया की सम्पित भी ितनके के बराबर नहीं है । ३ रत्नों के िलये पत्थर त्यागने में कु छ करिनता नहीं है । इसी तरह रत्नों की जगह प्रेम को समझे । ४ भले ही सवणस्व चला जाय प्रेम के िलये ककसी चीज की परवाह न करे ।

५ थोडी प्रेम की बात भी लो, िनष्काम कमण की बात भी लो ।

६ एक कोई वैध है ककसी रोगी की सेवा कर रहा है, उसके नौकर ने समझा कदया कक माूँगने पर ४/- िमलेगा, नहीं माूँगने पर ४०/देगा, देने पर भी कु छ नहीं लेनेवाले का दास हो जाता है । इस तत्वको समझनेवाले के िलये रुपयोंके त्यागमें कु छ कष्ट नहीं होता । इस प्रकार कमण करने से भगवान् िमलेंग, भगवान् के समान कु छ े नहीं है । ७ कहाूँ तो भगवान् का प्रेम और कहाूँ संसार के कं कड-पत्थर । → मान लो मैंने आपको पचास हजार रपये भेजे और कहा कक िजन लोगों को दुखी देखो, उनके घरमें समान पहुंचा कदया करो ।दुखी अनाथ को रुपया बाूँटो, इससे उन्हें प्रसन्नता होगी । इसमें आपके क्या आपित्त आई, बिल्क लाभ है, इससे मािलक बहुत प्रसन्न होते हैं । इसी प्रकार आपके पास जो चीज है, वह मािलककी है ऐसी मान लेने पर कष्ट क्यों होगा, परन्तु आप लोग कहते तो मािलककी, पर उसे अपनी मान रखी है ।

अपने पास जो पूूँजी है वह मािलक की है । यह बात समझमें आ जाय, तब तो कु छ करिनता नहीं है । समलोष्टाश्मकांचनुः हो जाय, किर तो बात ही न्यारी है । → एक आदमी कह दे कक हमारे तो झूि िबना काम नहीं चलेगा तो उसके तो झूि ही रहेगा । → अपने कल्याण मे कोई शंका की बात नहीं है । इस बातको याद करके िनिश्चन्त एवं िनभणय रहे । इस बातको लोहे की लकीर की तरह समझनी चािहये कक उनकी हमारे पर बडी भारी दया है ।

→ भगवान् की स्मृित होती है, उनकी तरि हमारी वृित्त जाती है यह अपने कल्याण में हेतु है । → कदयासलाई में अिि की तरह भगवान् को सब जगह प्रत्यक्ष देखना चािहये ।

→ त्याग के भाव को हर समय याद रखो ।

→ आपलोग पाूँच-सात व्यिि मेरे मन के माकिक काम कर लेन तो दूध की तरह उिान आ जाय, किर देखो ।

→ गीता १८ । ४६ हर समय याद रखना चािहये ।

→ भगवान् की दया के िलये यह युिि है कक अपना जो कु छ समय भगवान् के काम में बीतता है वह दया है । उसे ज्यों-ज्यों समझोगे त्यों-त्यों अच्छा काम बनता जायगा ।

→ यह िनयम है कक हम भगवान् कक अपनेपर िजतनी दया समझेंगे उतना ही अपना साधन बढेगा । → भगवान् हम पर प्रसन्न है, यह आप मान लेन, इसमें आपका क्या लगता है । खूब प्रसन्न रहना चािहये कक भगवान् मेरेपर प्रसन्न है और अपने प्रसन्नता होने की जड है भगवान् की प्रसन्नता । → आपलोग बराबर देखते हैं, मैं ककसीको भी मिन्दर बनाने के िलये नहीं कहता हूँ । मैं मिन्दर को मानता हूँ, मूर्ततपूजक हूँ तो भी

मिन्दर के िलये नहीं कहता । यह कहता हूँ कक घरपर पूजा करो । अपने घरमें पूजा करने से पूरा घर पूजा करने लग जाता है । मिन्दर की आय का पैसा प्राय: िीक काम में नहीं लगता । पुजारी प्राय: सौमेंसे पूँचानबे आचारणहीन लोग हैं । → आप अपने काम को भी िनष्काम बना सकते हैं । िनष्कामकमण की दो बातें प्रधान हैं---

आसिि का त्याग, स्वाथण का त्याग ।

→ रुपया नहीं चाहकर मान बडाई चाहना भी तो िल चाहना ही है । → आमदनी से प्रसन्न क्यों होते हो ? यकद िल की इच्छा नहीं हो तो प्रसन्नता नहीं होगी ।

→ हािन-लाभ में जो हषण शोक है वही चोर है ।

→ यकद कोई ऐसा समझे कक रुपया ज्यादा पैदा होने से मैं प्रसन्न होऊगा तो मैं भी उनकी दृिष्ट में एक तुच्छ आदमी हो गया । ूँ

→ प्रेसमें घाटा लगे तो प्रसन्नता होनी चािहये कक इससे लोगोंकी सेवा हो गयी ।

→ भगवानका तथा महापुरुषोंका तत्व भी नहीं जाने तो उसके नुक्सान हो रहा है ।

→ भगवान् की अपने पर बडी भारी दया समझनी चािहये । इससे बहुत लाभ है प्रसन्नता होगी । → भगवान् हमारेपर बहुत प्रसन्न है, भगवान् की प्रसन्नता को देखदेखकर बहुत प्रसन्न होता रहे ।

→ जहाूँ नेर जायूँ तथा मन जायूँ, उस जगह भगवान् को देखो । → दूसरे के दान को ग्रहण के दान के समान समझना चािहये ।

→ िजसे पराया धन प्यारा लगता है, उसका पतन हो जाता है । जैसे परायी िी पर ख़राब िनयत होने से पतन हो जाता है । → िजसकी वृित्त भी दूसरी िी पर ख़राब हो जाती है, उसका पतन हो जाता है । → िजनकी दूसरे के धन-िी पर खराब िनयत है, उनको भगवान् की प्रािि कै से होगी ।

→ यह बात सोचकर दूसरे के हक़ पर बहुत ज्यादा ग्लानी रखनी चािहये । दूसरे का हक़ मारा, के वल उतना ही धन ख़राब नहीं होगा । वह हमारे धन को भी ख़राब बना देगा । यकद दूसरे का हक़ भूलसे आ जाय तो उसे किर उसी जगह पहुूँचा देना चािहये ।

→ हम लोगोंका न तो धमण पर िवश्वास है और न ईश्वर पर िवश्वास है ।

→ पैसे के लोभके िवषय में जरा-सी भी ररयायत करनी ही नहीं चािहये, यह ररयायत डू बने वाली है । बहुत कडाई रखेंगे तो एक रपये में चार आनाभर दोष आयेगा ही । → कपट से बचोगे तो पापसे बचोगे ।

→ झूि से बचोगे तो नरक से बचोगे । िजतना सत्य बोलोगे उतना मुिि के िनकट पहुूँचोगे ।

→ िनष्काम के तत्व को नहीं समझने तक ही करिनाई है, तत्व समझने के बाद कु छ भी करिनाई नहीं है । → िलप्सा और दीनता को छोडकर की हुई वीरता ही वीरता है ।

→ उद्दण्डता को छोडकर की हुई वीरता ही वीरता है ।

→ कायरता को छोडकर की हुई दया ही असली दया है ।

→ दयाका नाम करुणा भी है यह गुण है ।

→ कायरता की वाचक दया अवगुण है ।

→ एक तरि लाख रुपया चला जाय तब भी रित्तमार भी प्रेममें कलंक लगे, ऐसा काम नहीं करना चािहये ।

→ सबसे आवश्यक बात---* थोडे से धमण के िलये भी प्राण कोई चीज नहीं समझना चािहये । * थोडेसे भी भजन के िलये प्राणों कक परवाह नहीं करनी चािहये । * प्राणोंके िलये ईश्वर के प्रेम में थोडा भी कलंक नहीं लगाना चािहये ।

* िजस कामसे भगवान् नाराज होते हों या भगवान् के प्रेममें थोडी भी बाधा आती हो, उस जगह प्राणों की परवाह नहीं करनी चािहये । * धमण एक बडी चीज है, इसके सामने रुपया कु छ चीज नहीं है । इससे हलकी बातें यह है---* यकद आप धनको कु छ चीज समझते है और धमण की आवश्यकता भी समझते हैं तो प्रारब्ध पर िवश्वास रखकर धमण को न छोडें, आपके प्रारब्ध मे िजतना रुपया होगा उतना रुपया िमल जायगा । * ईश्वर के क्षणभर के प्रेम से, करोड रुपयोंकी भी तुलना नहीं है । अपने प्रारब्ध में िलखा होगा उतना रुपया तो आएगा ही । * आपका यकद प्रारब्ध पर भी िवश्वास नहीं है तो भी आप रुपयों के िलये धमणको मत छोडें ।

* थोडी देर के िलये सोच िलया जाय कक चोर-डाकु ओं के धन आता कदखता है, उस तरह हमारे भी धन आयेगा ।इस प्रकार मानना भी हािन है । चोरी झूि को आप कै सा समझाते हैं ? मैं तो बहुत बुरा समझता हूँ । आपको यह छोडने चािहये । * िवचार करें हम ककसके दास हुए । हमने छदाम के बराबर भी ईश्वर को नहीं समझा । * आप रे ल में यारा करें ; ककन्तु भाडा नहीं दें तो चोरी ही हुई, इसमें कोई शंका नहीं है । * दूसरे के हक़ को मारना पाप है । → प्रत्यक्ष में भी आपको पाप से जय नहीं होगी । लोक में भी सच्चाई से व्यवहार करनेवाला जैसा चलेगा, ऐसा दूसरा नहीं चलेगा । जैसे अंग्रेजों ने स्वाथण से सच्चाई ककया तो उनको लाभ िमला । उनकी उस ईमानदारी व्यापारी की इज्जत थी । उनकी धमणबुिद्ध नहीं थी ।

→ वजनके लेन-देन में सबसें बकढ़या बात यह है कक लेनेमें एक पैसा भर कम लेना और देने के समय एक पैसा भर अिधक देना । दूसरा नम्बर यह है कक पूरा लेवे और पूरा देवे । → देते समय कम देना लेते समय अिधक लेनेवाले की िनयत में धोखा है । → संयम का महत्त्व जाननेसे आपको बहुत लाभ होता है । ऐसे ही मनका संयम करे । मनका तीन दोष है, मनको तीन प्रकार से िनयिन्रत करना हैकम से कम पहले मन को पापों से रोकना चािहये । दोन नम्बर भोगोंसे मनको संयम करना चािहये । भोगोंका संयम यानी भोगोंका हाथ से त्याग करना या भोगोंकी ओर मन, इिन्द्रयोंको जाने से रोकना तथा भोगों से वैराग्य करना । न्याययुि और अन्याययुि भोगों पर वृित्त न स्वप्न में हो, न जाग्रत में हो । यकद जाग्रत में अथवा स्वप्न में भी हमारा मन जाता है तो संयम में कमी है । तीसरे मनको िवक्षेप दोषसे बचाना चािहये । मन की चंचलता को रोकना चािहये ।

→ जाग्रत में चोरी नहीं करते; ककन्तु स्वप्न में चोरी करते हो तो जाग्रत में भी चोरी घट सकती है ।

→ ककसी वैश्य को पूछो कभी स्वप्न में ब्रह्मपुरी में भोजन करने तथा मांस खाने का स्वप्न आता है क्या ? नहीं आता है तो समझना चािहये उससे वैराग्य है । → जबतक स्वप्न में बुरा भाव आते तब तक कमी है ।

→ जब तक मन वश में नहीं हो तब तक परमात्मा की प्रािि होनी करिन है । भगवान् कहते हैं--असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इित मे मित: । वश्यात्मना तू यतता शक्योऽवािुमुपायतुः ।।(गीता ६।३६)

िजसका मन वश में ककया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में ककये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधन से उसका प्राि होना सहज है—यह मेरा मत है ।

→ खूब तत्पर रहकर साधन करना चािहये ।

→ एक बात याद रखने की है । िनत्य पन्द्रह-बीस िमनट िवचार करना चािहये कक मैं जो कु छ कर रहा हूँ वह िीक है या नहीं, इसमें क्या-क्या रुटी है, रुटी के िलये िनत्य प्रित कमर कसकर सुधार करने कक चेष्टा करनी चािहये । → सबमें सार बात यह है कक भगवान् की स्मृित बराबर करनी चािहये । चाहे और सारे काम िबगड जायूँ भगवान् को नहीं भूलना चािहये । → मान-बडाई-प्रितष्ठासे बचना चािहये, यह तो डु बाने वाले हैं । जीव स्वाभािवक ही इनको चाहता है पर इनसे बचना ही चािहये ।

→ हर एक व्यिि में यह गुण होना चािहये—वीरता, धीरता, गम्भीरता, िनर्तवकारता ।

→ बीमारी हो जाय तो खूब प्रसन्न रहना चािहये । हिथयार नहीं डालना चािहये, इस िवषय में शूरवीर रहना चािहये ।

→ हमें तो यह पढाई करनी है कक िजतनी प्रितकू लता आये उसमें सम रहें । समता िजतनी ज्यादा होगी, उतनी ही जल्दी भगवान् की प्रािि होगी । यह तो मामूली बात है, इस बातकी थोडी-सी सम्हाल रखनेसे आदमी के उद्वेग नहीं हो सकता । → िजसके दशणन में ककतना आनन्द आये िजसको देखकर पशु भी मोिहत हो जाय, करोडों ब्रह्मांडो की सुन्दरता को इकठ्ठा ककया जाय, वह सुन्दरता उनके एक बाल के समान भी नहीं है । उनके प्रेम के सामने वह अपने प्राणों को एक ितनके के बराबर नहीं समझता । उनके दशणन में ऐसा अमृत है िजसकी मिहमा गणेश, महेश भी नहीं गा सकते । उन प्रभु के प्रभाव को कौन कह सकता है ? ऐसे प्रभावशाली िमलने के िलये तैयार है । ये यथा मां प्रपध्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वतमाणनुवतणन्ते मनुष्या: पाथण सवणश: ।। (गीता ४।११)

हे अजुणन ! जो भि मुझे िजस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ , क्योंकक सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मागण का अनुसरण करते हैं । इसमें िवश्वास करने वाला पुरुष प्रभु को छोडकर कै से दुसरे को भज सकता है । यो मामेवमसंमूढो जानाित पुरषोत्तमम् । स सवणिवद्भजित मा सवणभावेन भारत ।। हे भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सवणज्ञ पुरुष सब प्रकार से िनरन्तर मुझ वासुदव े परमेश्वर को ही भजता है ।भगवान् कहते हैं जो मुझे सबसें उत्तम समझ जाता है वह मेरे तत्व को जानने वाला पुरुष है । ऐसे मुझको जो जान गया वह सबको जान गया, वह क्या मुझको छोडकर दूसरे को भज सकता है । जो मुझको जान जाता है वह सवोभाव से मेरे को ही भजता है । वह मेरे िसवाय और दूसरे ककसी को भज नहीं सकता । → माला िे र रहे हैं, ध्यान जूते की तरि है, अभी तक तो आप नाम को एक जूते िजतना आदर नहीं देते । नाम के महत्त्व की बात तो कान में ही रही । भगवान् के घर गलती नहीं है । → आपका हजार रुपया जा रहा है और थोडा सा झूि बोलने से वह बच सकता है, उस समय आप हजार रुपयों को लात मार दें तब भगवान् की आूँख खुलेगी ।

→ धमण में मामूली हािन आ जाय, आप उस काम के िनकट जा रहे हो तो वह भगवान् की भिि कै सी । → कोई आदमी मेरे िवरुद्ध काम कर रहा है, क्या वह मेरा सेवक या भि है । चाहे थोडा ही िवरुद्ध है । → इस बात के िलये तैयार रहो कक चाहे जो हो जाय भगवान् के िवरुद्ध नहीं चलूगा । ूँ → काम, िोध, लोभ नरक के यह तीन द्वार बतलाये गये हैं । पहले नरक के इन तीन द्वारों को बंद करो और बातें बाद में करें गे । → ककसी में थोडा ककसी में अिधक सबमें दोष भरा पडा है । कोई ऐसा व्यिि नहीं कदखता िजसमें दोष नहीं हो । → यह बात कहने की तो नहीं है पर कहता हूँ कक गीता के पाि में िजतना लाभ है, उतना कथा में नहीं है । गीताजी के मनन में िजतना लाभ है उतना पाि में नहीं है । → ध्यान देकर सोचेंगे तो पल-पल में मालूम हो जाएगा कक हमारा ककतना प्रेम है, ककतनी श्रद्धा है । → िजस बात को आप से मैं कहूँ, उसको आप करलें । यकद मेरी बात आपके नहीं जंचे किर भी मेरे मन के अनुसार बहुत प्रसन्नता से कर

लें तो यह श्रद्धा की बात है । िबना मन के जबरदस्ती काम करना श्रद्धा की बात थोडे ही है । → भगवान् शीघ्र कै से िमले वह उपाय बतलाये ? कोई आपको गाली दे तो सुन िलया करो, बुरा मत माना करो । शुिाचायणजी भृगु जी के पास गये तो उन्होंने कहा तप करो । तप करने से उन्हें भगवान् िमल गये । → सब िवघ्न भगवान् के स्मरण से नष्ट हो जाते हैं, ऐसा शाि कहते हैं--जब ही नाम िहरदे धरयो भयो पाप को नाश । जैसे िचनगी अििकी परी पुराने घास ।। ****** अिप चेत्सदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्युः सम्यग्व्यविसतो िह स:।। िक्षप्रं भवित धमाणत्मा शस्र्वच्छान्न्त िनगच्छित । कौन्तेय प्रित जानीिह न मे भि: प्रणश्यित ।।(गीता ९।३०३१)

यकद कोई अितशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भि होकर मुझको भजता है तो वह साधू ही मानने योग्य है; क्योंकक वह यथाथण िनश्चयवाला है । अथाणत उसने भली भांित िनश्चय कर िलया है कक परमेश्वर के भजन के समान अन्य कु छ भी नहीं है । वह शीघ्र ही धमाणत्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शांित को प्राि होता है । हे अजुणन ! तू िनश्चयपूवणक सत्य जान कक मेरा भि नष्ट नहीं होता । → भजनको िजतना मूल्यवान समझकर करें गे उतना ही मूल्यवान होगा । जैसे कोई बेटे के िलये भजन करता है उसके िलये रुपया मूल्य हो गया तथा कोई पाप नाश के िलये करता है उसके िलये पापों का नाश मूल्य हुआ । प्रभुमें प्रेम के िलये करे तो प्रेम होगा, प्रेम होगा तो भगवान् िमलेंगे । प्रेम का मूल्य भगवान् होते हैं या यूूँ कह सकते हैं भगवान् का मूल्य प्रेम है । → भगवान् के िमलने के बाद भी भजन करते हैं, उन्हें कोई भी आवश्यकता नहीं है तो भी भजन करते हैं । कोई पूछे उनके िलये क्या कतणव्य है ? िजस भजन से भगवान् िमलते हैं, ऐसे भजन को वो कै से छोड सकते हैं । इसके समान उनके िलये क्या होगा । → एक तरि सारा संसार सोने से भर कदया जाय और एक तरि भगवान् का एक नाम तो वह सोना नामका मूल्य हो सकता है क्या

? स्वप्नके राज्य का एक कौडी भी मूल्य नहीं है, भगवान् के नाम का मूल्य नहीं हो सकता । → िजस प्रकार जुगनू का प्रकाश सूयण के सामने ककसी भी िगनती में नहीं है, उसी प्रकार िरलोकी के जीवों का सारा सुख भगवत्प्रािि के सुखके सामने कु छ भी नहीं है । जब मनुष्य ऐसे परमात्मा को छोडकर भोगों के िलये पाप कर रहे हैं, वह परमात्मा के भजन के प्रभाव को क्या जाने ? जो परमात्मा के भजन को छोडता है वह परमात्मा के प्रभाव को जानता ही नहीं । जानता तो उसमें यह अवगुण कै से रहता ? यकद वह भगवान् के भजन को, सत्य को शरीर के भोगों के िलये छोडता है तो उसने परमात्मा के प्रभाव को क्या जाना ? → भजन को िजतना मूल्यवान समझाते हैं उतना ही मूल्य िमलता है । वास्तव में वह िगा रहा है । हम लोगों द्वारा पाप भी होता रहे और हम लोग भजन भी करते रहे तो प्रभाव कहाूँ समझा । → अमूल्य वस्तु का मूल्य लगाना ही मूखणता है, उसको भगवान् भगवानको िमले िबना संतोष कै से होता । मैं आिशक तेरे रप पर िबन िमले सब्र नहीं होता ।

→ हे नाथ ! आपकी दया के प्रताप से इस िपशािचनी मायाकी सामर्थयण नहीं है जो मुझे िं सा सके । जब आपके चरणों का आसरा है तब मुझे माया क्या लुभा सकती है ? जो प्रभु के प्रभाव को पूणणरप से जान गया, ककसकी सामर्थयण है जो उसे लुभा सके । माया उसकी चेरी हो जाती है, इसके रहस्य को जो थोडा भी समझ जाता है, वह भोगों को क्यों भोगेगा ।

→ जप-ध्यानमें जो स्िु रणा होती है वह जप-ध्यान से ही कटेगी तथा वैराग्य से भी कटेगी; क्योंकक स्िु रणा प्रायुः आसििसे ही होती है, वह स्िु रणा वैराग्य से कट जायगी, आदतकी स्िु रणा भजन-ध्यान से स्वतुः ही नष्ट हो जायगी । परमात्मा के स्वरपका ध्यान, नामका जप, प्राणायाम इन सबसे स्िु रणा नष्ट होगी । → अिवद्या दुुःख को पैदा करनेवाली होने से क्लेशदायक है । → सबसें िमरता क्यों करनी चािहये ? महान पुरुष सबके साथ प्रेम करने के िलये कहते हैं । अज्ञानी पापी के साथ प्रेम करें गे तो िूँ सने का भय है । महापुरुष ही यकद पािपयों की उपेक्षा करें गे तो किर उनकी संभाल कौन करे गा ? गीतामें `सवणभूतानाम् मैरुः` या पद आये हैं ।

→ नीच पुरुषों कक उपेक्षा ककस तरह करनी चािहये ? जैसे आपके िमरके प्लेगकी बीमारी हो गयी तो उससे दुरसे यािन बीमारी से डरते हुये उसका इलाज कराये । िजन पुरुषों में दुराचार है, िजनके मानिसक बीमारी है, उनका रोग िमटे ऐसी चेष्टा करनी चािहये । → िजसमें िवद्वता का अिभमान है वह ज्यादा दया का पार है । → परमात्मा की प्रािि होनेके बाद अभय हो जाता है यह बात तो िीक है, पर उनके िनकर पहुूँचनेपर भी अभय हो जाता है । → अभय पद कै से प्राि होता है ? अन्त:करण की शुिद्ध होने से िनभणय हो जाता है । जैसे रािर में कोई सोया हुआ है, वह स्वप्न में बाघ आया हुआ देखकर बडाभारी भयभीत हो रहा है, कलेजा धक् धक् कर रहा है । स्वप्न में बाघ से डरकर यह दशा हुई, जाग्रत होने पर अब वह बात नहीं है । → ध्यान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, साधक िनभणय हो जाता है । आलस्य एवं स्िु रणा के कारण ध्यान नहीं होता । → प्रश्न---सत्संग करते हैं, गीता भी देखते हैं, पर आूँख तो नहीं खुली ?

उत्तर---पाि तो करते हो आूँख मीचे हुए, सोये हुए, इससे क्या लाभ हो । पाि तो करते हो उसके अथण का पता नहीं है उसके िबना क्या हो ? िजसने आत्मा का कल्याण नहीं ककया उसको िधक्कार है । लाख काम छोडकर, करोड काम छोड कर िजस काम में परमात्मा की प्रािि हो वही काम पहले करना चािहये । → कु पर्थय करके आदमी मर सकता है । औषिध िबना कोई नहीं मर सकता । इसमें िवश्वास का काम है । शाििवरुद्ध, धमणिवरुद्ध कोई औषिध नहीं लेनी चािहये । िवदेशी कोई चीज काम में नहीं लेनी चािहये । सबसे ख़राब चीज िवदेशी औषिध है । इससे अपना सवणनाश हो गया । मृत्यु से कोई औषिध नहीं बचा सकती । तीसरी बात यह है कक देशी औषिध उपयोग में ली जाय उससे अपना िजतना लाभ है उतना ककसी से नहीं है । → उत्तम कमण तो करने से होगा, उसमें प्रभु की दया समझनी चािहये । बुरा काम हो उसमें अपनी आसिि का दोष समझना चािहये । → उत्तम कमण करने में स्वतंरता है, इसमें भगवान् पूरी सहायता देता हैं । अच्छे कमणमें कु संग तथा बुरी आदत बाधा देते हैं । → गोद लेकर अपना लडका बना लेना शाि के िवरुद्ध नहीं है । पर वतणमान में देखा जाय तो ककसी को डू बना हो तो गले में पत्थर

बाूँधकर डू बना है । यकद आपके पास धन हो तो अच्छे काम में लगा देना चािहये । → गायरी-मन्र में ऊचे-से-ऊचे दजे कक भिि है । हे नाथ ! हमें ूँ ूँ सद्बुिद्ध दें िजसके द्वारा आपमें ही मेरा अनन्य प्रेम हो । गायरीमन्र का अथण भगवान् का स्वरुप ही है । → सारे संसार में भगवान् व्यापक कै से हैं ? जैसे दसवें अध्याय में कदखाया गया है कक लोगों में जो िवशेषता है वह सब मेरी है । जैसे भगवान् ने यक्ष के रप में प्रकट होकर अिि तथा वायु के अिभमान को गला कदया । इसी प्रकार सारे संसार में िजसमें जो कु छ तेज बल है वह मेरा बल है । दसवें अध्याय में भगवान् ने अपनी साधारण िवभूितयाूँ बतलायीं, पर अजुणन तो आपका पूणण भि है । उसें तो ऊचे दजे कक भिि बतानी चािहये । िवभूितयों के वणणन में आकद ूँ एवं अन्तका श्लोक बहुत महत्व का है । िवभूितयों का सार भगवान् इस प्रकार बतलातें हैंअहमात्मा गुडाके श सवणभूताशयिस्थतुः । अहमाकदश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।(गीता१०।२०) हे अजुणन ! मैं सब भूतों के हृदयमें िस्थत सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूणण भूतोंका आकद, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ ।

यच्चािप

सवणभूतानां

बीजं

तदहमजुणन ।

च तदिस्त िवना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।। (गीता १०।३९) हे अजुणन ! जो सब भूतों कक उत्पित का कारण है, वह भी मैं ही हूँ; क्योंकक ऐसा चार और आचार कोई भी भुत नहीं है, जो मुझसे रिहत हो । अब आगे भगवान् के योग की बात कहते हैं । यावन्मार संसारको तू मेरे तेजके अंश से उत्पन्न हुआ जान । हे अजुणन ! इस बहुत जानने से तुझे क्या प्रयोजन है ? यह सब संसार मेरे एक अंशसे व्याि है । वास्तव में जो अपररवतणनीय वस्तु है वह मैं हूँ, आकाश में शब्दके रपमें मुझे देख । मंकदर में जो मूर्तत है उसमें आप ईश्वर कक भावना करते हैं इसी प्रकार जलमें मैं रस हूँ । यािन इसमें मेरी भावना कर । सब जगह तू मुझे देख । प्रभु के तत्व को जानने के बाद सब जगह प्रभु कदखने लग जाते हैं । → गोिपयों का जहाूँ-जहाूँ मन जाता था, पान में, पत्ते में, सब जगह भगवान् कृ ष्ण को देखती थीं । जहाूँ पर भी मन जाय वही ूँ पर वही कदखते थे । सो अनन्य जाके अिस मित न टरइ हनुमन्त । मैं सेवक सचराचर रप रािश भगवन्त ।।

िसयाराम मय सब जग जानी । करऊ प्रनाम जोरर जुग पानी ।। ूँ आप लोग मुझे अच्छा समझकर मेरे पास आये, मैं आप लोगों कक पूर्तत नहीं कर सका, िजससे मेरेपर भार ही रहा । आप लोग मेरे पर श्रद्धा करते हैं, प्रेम करते हैं, मैं आपलोगों के प्रेमके अनुसार कु छ भी नहीं कर पाया । → अितिथ वही समझा जाता है िजसके आने कक कोई ितिथ न हो । िभखारी अपने घर पर िनत्य आकर डेरा डाल दे, वह न तो अितिथ है न अभ्यागत है । राजा सबके अितिथ है । मुख्य अितिथ तो अपने समान जाितवाला, ऊची जाितवाला है, ूँ राजा तो अितिथ है ही । प्रधान तो ये ही अितिथ है । अपने घर पर आये हुये ब्रह्मचारी, िभक्षु भी वैसे ही अितिथ है, गृहस्थ का कतणव्य है उनका आदर-सत्कार करे । → उत्तम गुण ककसी में आयें तो उनका आदर करे । जैसे अपने घर में आनेवाले का आदर ककया जाता है, उसी तरह इसका िवशेष आदर करना चािहये, िजतना अिधक आदर करें गे उतना ही ज्यादा बढेगा ।

→ हमारे बेटे, पोते कमाने लायक हो गये, वह खचण भेजने लग जायूँ तो भी िीक है, इसमें कोई दोष नहीं है—यह आधार भी िबलकु ल नहीं रखना चािहये । → ककसी बातकी परवाह नहीं रखे, परवाह ही मुिि में बाधा देनेवाली है । शरीर चाहे न रहे इसकी भी परवाह नहीं रखे । गाकिल होना उत्तम नहीं है, गिलत मुखता है, कायरता उत्तम नहीं ण है, सहनशीलता उत्तम है । उद्दण्डता खराब है, वीरता रहते हुए उद्दण्डता नहीं होनी चािहये ।

→ अपेक्षारिहत होना चािहये, अपेक्षारिहत होनेसे सब काम हो सकता है, िनरपेक्षता का आश्रय लेना भी गुि रप से आश्रय लेना है । िमर की चीजको अपना मानना तथा अपनी चीज को िमरका मानना यह िमरता भी पदाथों के हेतु से है ।

→ ककसी भी आदमी को शरीर-िनवाणह की इच्छा के िलये ककसी का आसरा नहीं रखना चािहये । इसके िलये प्रारब्ध बना हुआ है । जीवन-िनवाणह के िलये िवशेष व्याकु लता हो तो कु त्तों का दशणन कर ले । वे भी जीवन व्यतीत करते हैं, किर आप िचन्ता करते हैं,

ककतनी मुखणता है । भगवान् का नाम िवश्वम्भर है वह पापी, नीच, दुष्ट सभी का भरण-पोषण करते हैं । → कोई दुिनयां में ढढढोरा पीटकर धमण-पालन करता है उसमें अिधकांश तो ढोंग है नहीं तो मान-बडाई की इच्छा है । अच्छे पुरुषोंको ढढढोरा पीटकर कमण करने में क्या हेतु है । एक राजा का दृष्टान्त---एक राजा को ज्ञान हुआ तब उन्होंने नगरमें डु डी िपटाई ं और लोगों से पूछा कक मुझे एक अमूल्य वस्तु िमली है, उसे मैं कै से रखू, कई लोगों ने कई प्रकार के उत्तर कदये । एक महात्मा बिनया ूँ बोला अमोलक वस्तु िमली है तो हल्ला क्यों मचाते हैं । किर राजा उसके पास गया, बहुत बातें हुई, अंत में राजा बोला कु छ माूँगो । तब वह बोला ना भिवष्य में आप मेरे पास आये और न मुझे बुलायें । राजा चुप हो गया । राजा बोला हम लोगों का समय-समय पर िमलन हो तो लाभ ही होगा । उसने उत्तर कदया हम दोनों लोगों को ककसी चीज की आवश्यकता नहीं है, इसिलये िमलने में क्या लाभ है ?

→ मनुष्य को मान-बडाई कक तरि से बेपरवाह रहना चािहये, इस प्रकार बेपरवाह रहकर संसार में िवचारे । इस बेपरवाही की भी बेपरवाह करके िवचरना महात्मा का काम है ।

→ सब जगह बेपरवाही करता जाय, पर गिलत न हो जाय । कतणव्य की तरि से बेपरवाह होने को ही गिलत कहते हैं । यह नहीं करनी चािहये । आत्मा के उद्धार का कायण, शािानुकूल कायणमें बेपरवाह नहीं होना चािहये ।

→ परमात्मा का नामजप करने के िलये, अनन्य भिि करने के िलये मनुष्य जन्म िमला है, इसमें गिलत िबलकु ल नहीं करनी चािहये । एक कालमें एक देशमें एक शब्द उच्चारण ककया गया पर लोग अपनी-अपनी भावनासे उससे लाभ-हािन उिाते हैं ।

→ `नमो भगवते वासुदवाय` `नम: िशवाय` ओंकार छोडकर जप े करने में ककसीके कु छ भी आपित्त नहीं है । कोई भी जप कर सकता है- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।। इसको चाहे जैसे जपो, कोई आपित्त नहीं है । इसी प्रकार पिवर गायरी को शुद्ध पिवर होकर जप सकते हैं । पिवर स्थान में गायरी का जप, बाकी समय में िजसको जो िप्रय हो उसका जप करे , इनके महत्त्व-प्रभाव में कोई कम-बेसी नहीं हैं है ।

→ जो मनुष्य िनत्य प्रित १००० गायरी जपते हैं, वह सब पापों से छू ट जाते हैं । ऋिषके श में यह बात जोर देकर इसिलये कही है, ताकक यहाूँ तो िजतने कदन रहें उतने कदन तो अवश्य इतना जप करे । उत्तम बात तो यह है कक एकान्तमें िजतना समय िमले उसका अथणसिहत जप करें ।

→ इस िवषय में यह अिभमान नहीं आना चािहये कक मैं श्रेष्ठ हूँ, यह भाव आने से दम्भ-पाखण्ड आ जाता है, िजससे साधक डू ब जाता है । यह भावना अच्छी नहीं है ।

→ अपने उत्तम काम को प्रकािशत नहीं करना चािहये कक अमुक काम में मैंने दो हजार रपये लगा कदये । आगे जाकर धोखा िमलेगा क्योंकक लोग जान जायेंगे कक यह बडाई के िलये काम करता है । प्रभु जब मान-बडाई , प्रितष्ठा का दास जान लेते हैं तब नहीं आते । प्रभु के सामने प्राथणना करनी चािहये कक यह मेरा मान-बडाईप्रितष्ठा का जो भाव है उसे आप िमटा दीिजये ।

→ वास्तवमें सच्चे मन से भगवान् के सामने रोये, हे नाथ ! आपके िलये कोई बडी बात नहीं है, आप एक क्षण में उद्धार कर सकते हैं,

के वल आपमें प्रेम हो । मैं कहलाता तो आपका दास हूँ और हूँ िवषयों का दास । → हम मनसे िजस बात को नहीं चाहेंगे, उसमें हमारी पूणण घृणा हो जायेगी ।

→ हम मान-बडाई सुनने के िलये कान लगा देते हैं । वास्तव में परमात्मा से िमलने की इच्छा हो तो उनसे प्राथणना करनी चािहये । → मकोडे की तरह हम लोग मर जायेंगे, हमारा ककसी से कु छ सम्बन्ध नहीं है । थोडी बुिद्धवाला मनुष्य भी हािन के पास नहीं िटके गा, मान-बडाई को िबलकु ल नहीं चाहेगा । → गद्गद वाणी से िू ट -िू टकर रोना चािहये । हे नाथ ! मुझ डू बते हुए को बचने वाला आपके िसवाय और कोई भी नहीं है । उस सच्चे रोने से उसी समय से आपकी चाल बदल जायेगी । → द्रौपदी ने आतण होकर पुकारा, द्रौपदी समझती है हमारा कोई भी नहीं है, तब पुकारती है, हे द्वारकापित ! दीनबन्धो ! हम लोग प्रभु

के िलये रोयेंगे तो प्रभु अवश्य िमलेंगे । हृदय िनमणल हो जायगा, तब प्रभु अवश्य दशणन देंगे ।

→ रुपयों कक परवाह नहीं रखनी चािहये, यह तात्पयण नहीं है कक रपये िें क दो । अच्छे काम में रुपया लगाया जाय तो िीक है ।

→ जैसे आपने लाख रुपया लगा कदया तो आपके इतने रुपयों का तो झंझट तो िमट गया । इस प्रकार करने में कोई आपित्त नहीं है । यह कच्ची भीती है । चाहे िजस जगह डू ब जाय । मेरे शरीर का भरणपोषण कै से होगा, यही भाव महान भयको देने वाला है । जब तक यह संकल्प आत्मा में है तबतक यही जन्म देनेवाला है । जब यह संकल्प िमट जाय तो क्या परवाह है । सब कु छ नष्ट हो जाय तो भी कु छ परवाह नहीं है । → जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, रोग इनमें दुुःखरपी दोषको देखने से वैराग्य पैदा होता है--इिन्द्रयाथेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्यािधदुुःखदोषानुदशणनम् ।। (गीता १३ । ८ )

→ यह परमात्मा की प्राििका साधन है--दो बातन को भूल मत जो चाहत कल्यान । नारायण एक मौत को दूजे श्रीभगवान ।। → संसार के िजतने िवषय भोग हैं उनमें हमलोग रमते रहें तो वही बात आती है कक जीवोंमें और हममें क्या भेद है । येषां न िवधा न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धमण: । ते मत्यणलोके भुिव भारभूता मनुष्यरपेण मृगाश्र्चरिन्त ।। िजनमें िवधा, तप, दान, ज्ञान(िववेक), अच्छे आचरण, सद्गुण नहीं एवं धमणके प्रित श्रद्धा नहीं है वे मनुष्य ही कहने योग्य नहीं हैं, ऐसे लोग तो पृर्थवी के िलये भार रप ही है, मनुष्य के रप में पशु ही है । → अच्छे पुरुष कहते हैं कक मनुष्य का शरीर पाकर जो कतणव्य का पालन करते हैं उन्हीं को धन्यवाद है । → प्रभुकी शरण होने के बाद उसके हृदय में कोई िचन्ता रहती ही नहीं । → आप अपने कतणव्य का पालन नहीं करते हैं तभी दुुःख की बाढ़ है । आपका जो समय बीतता है उससे आपकी आत्मा को संतोष नहीं है । मनसे उन प्रभु की शरण होना चािहये । उनकी शरण होने के

समान संसार की ककसी वस्तु को कु छ नहीं समझना चािहये । भगवान् कहते हैं कक जो मेरी शरण होता है उसका योगक्षेम मैं चलाता हूँ--अनन्यािश्चन्तयन्तो मां ये जना: पयुणपासते । तेषां िनत्यािभयुिानां योगक्षेमं वहाम्यम् ।। (गीता ९ ।२२ ) → भगवान् कृ ष्ण भी स्वांग लाया करते थे । भीष्म को मारने के िलये भाग रहे हैं । भगवान् राम भी १४००० राक्षसों को िोध करके मार रहे हैं, ऐसी बात नहीं है वे तो लीला कर रहे हैं । → हम लोगों के समझमें नहीं आता है उसका कारण हम में भिि नहीं है । भिि से हमको भी कदख सकते हैं, जैसे प्रह्लाद को पत्थर में भगवान् कदख रहे हैं । जो भाव प्रह्लाद का समझ में आता है, वही भाव अजुणन का संसार में देखने में आता है । हम लोगों को भी संसार में इस प्रकार का भाव करना चािहये कक प्रभु संसार में िवराजमान हैं, ऐसे भाव से मन मुग्ध हो जायेगा । → हर समय प्रभुकी शरण हो जाना चािहये । प्रभुकी गोद में सो जाना चािहये कक हे प्रभु तेरी शरण में पडा हूँ ।

→ प्रभुकी शरण होकर िनश्चय कर लेना चािहये कक कोई भय नहीं है, कोई िचन्ता नहीं है । हमें कोई िचन्ता नहीं होनी चािहये, क्योंकक भगवान् की शरण होनेके बाद िचन्ता क्यों ?

→ इिन्द्रयाूँ िवषयों में रम रही हैं,उनमें आनन्द आ रहा है, इसिलये इिन्द्रयाूँ, मन उन्हें छोडना नहीं चाहते । यही कारण है कक हम िवषयों को नहीं त्याग पाते । िवचारना चािहये किर मनुष्यों और पशुओं में अन्तर क्या ही क्या है । पशु खाते हैं हम भी खाते हैं, जैसे पशुओं का भोजन है वैसा ही हमारा भोजन है । यह स्वाद तो हम असंख्य जन्मों में जायेंगे तो भी िमलेगा ।

→ हमलोग मरने के बाद ककस योनी में जायेंगे यह पता नहीं है । हमको िवचार करना चािहये कक मनुष्य पररिमत है जीव अनन्त हैं । यह बात समझकर भी गिलत क्यों है ?

→ हमलोग ककसी कारण से साधन नहीं कर पायेंगे तो कै सी हालत होगी । यह जो मैथुन का आनन्द है इसके िहसाब से तो कु त्ते हमारे से अच्छे हुए ।

→ िवचार करके देखो हमें जो सुख िमिाई में िमलता है, वह सुख तो िवष्ठा के कीडों को भी िवष्ठा में िमलता है । →मनुष्य शरीर पाकर कल्याण नहीं ककया तथा भगवान् को प्राि नहीं ककया तो बडी दुगणित होगी । → िजस प्रकार आप लोग समय िबता रहे हैं , उस प्रकार अन्तकाल आ जायगा तो किर सदा के िलये रोते रह जायेंगे ।

→ संसार में अनन्त बार प्रलय हो गयी, हम लोग सदा से चले आते हैं, अब तक हमारा उद्धार नहीं हुआ । इस प्रकार आते-जाते हमारी हालत क्या होगी ।

→ पूवण में हम लोग ककतनी बार मनुष्य हुए हैं, कु छ पता नहीं है । उसका जन्म लेना सिल है जो िजस काम के िलये आया है उसे कर चुका हो ।

→ परमात्मा की प्रािि का सारे जीवों को अिधकार है । और जगह इसकी गुंजाईश नहीं है, इसिलये मनुष्य पर लागू पडती है । िजसे मनुष्य की योनी िमली है उसे भगवान् ने मौका कदया है । भगवान् कहते हैं—मुझमे मन लगनेवाले का मैं शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ । यह संसार मृत्यु का समुद्र है । जैसे जलके कणों की गणना नहीं हैं, वैसे ही जीवों की गणना नहीं है ।(गीता १२।७)

→ भगवान् में िचत्त को न लगाकर भोगों में मन लगाने में कारण एक तो मूढ़ता है, एक अिवश्वास है । लोग उन्मत्त से हो रहे है, इसिलये लोगों कक दुदशा हो रही है । ण

* दूसरों का परम िहत हो, गीता का अभ्यास, भजन,ध्यान, ये बातें िनष्काम भाव से हों । इनसे बहुत अिधक, बहुत शीघ्र लाभ होगा । आपलोगों में िनष्काम भाव कक कमी है । * सकाम भाव के कु छ उदाहरण इस प्रकार है---१ भला करने वाले का भला करना ।

२ उसका भला करना िजससें आप बदले में अपना स्वाथण िसद्ध कर रहे हैं । ३ भिवष्य में उससे कु छ आशा रखना । ४ परोपकार करने से लोकमें अपनी प्रशंसा होगी, मान-बडाईप्रितष्ठा िमलेगी । ५ हम ककसी का भी भला करें गे तो परमात्मा हमारा भला करें गे । ६ अच्छा काम करके दूसरों को िगनाते तो नहीं हैं, पर दुसरे आदमी आपकी बडाई कर दें तो आप उससे प्रसन्न हो जायूँ तो यह भी सकामभाव हुआ । ७ चाहे िजस प्रकारसे लाभ उिा िलया सब सकाम है । * सबसे ऊची बात यह है कक यह जो भी कु छ काम हुआ है वह ूँ भगवान् का ही है । किपुतली को जमूरा जमूरा जैसे नचाता है, वह उसी प्रकार नाचती है, इसी प्रकार स्वयंको भगवान् कक किपुतली समझ लेवें । किपुतली का तमाशा कदखाने वाले कक जगह भगवान् को कर दें और स्वयं किपुतली कक जगह हो जायूँ ।

* भगवान् हमें िनिमत्त बनाकर काम करा रहे हैं, हमारी क्या सामर्थयण है । अपने को ककसी भी प्रकार भी अच्छे काममें हेतु नहीं माने, इसका नाम िनष्काम है । * साधन के िलये जोश पैदा हो इस िवषय में कडी आलोचना करने के िलये ककतने भाइयों कक राय है । कडी आलोचना लाभदायक भी होती है, कहीं-कहीं नुकसानदायक है । ककसी आदमी को लेकर कहा जाय तो उस जगह अिधक अंश में हािन होती है । अिधकांश में लाभ है । अपने अवगुणों को सुनकर प्रसन्नता हो ऐसा व्यिि लाखों-करोडो में कोई एक ही होता है । प्राय: हम लोगों को अवगुण तो िनकालना ही नहीं है । िवचार के द्वारा चाहते हैं कक अपने आप ही िनकल जाय । पदाणिास न हो और अवगुण िनकल जाय । * बहुत लोग ऐसा मानते हैं कक अन्तकाल में जप करते हुए जाने से कल्याण हो जायगा; परन्तु अन्तकाल में याद आने के िलये जैसा साधन चािहये उसकी तरि ख्याल ककया जाय तो अन्धेर है । * यकद खूब सोचकर देखा जाय तो यह मालूम देता है कक हमलोगों ने राजसी-तामसी सुखको परमेश्वर से बढ़कर समझ रखा है । इसे

त्यागकर यकद परमेश्वर सुख समझ में आ जाय तो चाहे लाख काम िबगडो कु छ िचन्ता नहीं है । * रुपयों में आपने मन इस प्रकार लगा कदया है कक उसे आप छोडना नहीं चाहते, परमात्मदेव कक प्रािि का महत्त्व कु छ नहीं समझते, यकद समझते तो रुपयों को कु छ भी महत्त्व नहीं देते । मनइिन्द्रयों का संयम करके उन्हें परमात्मा कक तरि लगाना चािहये । * मन-इिन्द्रयों को वश में करने का उपाय- संसार में दोषदृिष्ट और दुुःखदृिष्ट करनी चािहये, मन, इिन्द्रयाूँ, और बुिद्ध का संयम करना चािहये तथा इिन्द्रयों और मन को िवषयों से हटाकर परमेश्वर में लगाना चािहये । दूसरा उपाय यह है-प्रेम के द्वारा भी इिन्द्रयाूँ परमेश्वर में तन्मय हो सकती है । वह प्रेमका मागण ऐसा है उससे सारी इिन्द्रयाूँ प्रेममें मुग्ध हो जाती है । * परमात्मा के नाम, रप, गुण, लीलाका िचन्तन करने से संसार के सारे भोग रसहीन हो जाते हैं । उनमें एक आकषणण शिि है । जबतक वह ध्यान नहीं होता है तभी तक उसके िलये चेष्टा नहीं होती है

* या तो भिि के िलये कोिशश करनी चािहये या संयम-द्वारा इिन्द्रयोंको वशमें करनेकी कोिशश करनी चािहये । → रागद्वेषरपी द्वंद्व मोह से उत्पन्न होता है, िजतने द्वंद्व है उनसे सारे प्राणी मोिहत हो रहे हैं, उनकी बुिद्ध भ्रष्ट हो रही है । → जैसे िी का िववाह एक बार होता है, इसी तरह करोडों जन्मोंमें एक बार मनुष्य जन्म िमलता है । → समयको अमूल्य समझना चािहये, एक पल भी वृथा नहीं खोना चािहये । साधन ही अपना जीवन है, अपना प्राण है । → िनरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणों को अपणण करनेवाले भिजन मेरी भिि की चचाण के द्वारा आपसमें मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सिहत मेरा कथन करते हुए ही िनरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदव में ही िनरन्तर रमण करते े हैं । उन िनरन्तर मेरे ध्यान आकद में लगे हुए और प्रीितपूवणक भजने वाले भिों को मैं वह तत्वज्ञान योग देता हूँ, िजससे वे मुझको ही प्राि होते हैं । गीता १०।९-१० को समझकर उसके अनुसार साधन करना चािहये ।

→ स्वाद, शौकीनी, ऐश, आराम इनमें कौन बलवान है, प्रधान है । स्वाद-आराम दोनों ही बलवान हैं । बलवान तो स्वाद है पर आराम का त्याग बहुत करिन है । ककसी प्रकार से शरीर का आराम नहीं चाहे तो बहुत शीघ्र सुधार हो सकता है । आराम रात-कदन मनुष्य को जकड कर रखता है । स्वाद का काम बहुत थोडे समय पडता है । आराम में `आ` `राम` करने से जल्दी सुधार हो सकता है । पदच्छेद करने से ही असली आराम िमलेगा । परमात्मा के स्वरुप में जो िवश्राम है वही आराम है । → मनके भीतर दो ही उपािध है आलस्य और िवक्षेप, और िजतनी उपािध बतलाई गयी है वह सब गौण है । → मूढ़वृित्त कहो या िनद्रा कहो एक ही बात है । िवक्षेप, चंचलता, व्यथण बैटन का िचन्तन, जब-जब मन दूसरी जगह जाय तब-तन इसे िवचार के द्वारा वहाूँ से हटाये । जब-जब मन जाय तब-तन सम्हाल करे । मन ज्यादा दो ही जगह िमलेगा या तो स्वाथण में या प्रमाद में । व्यथण चेष्टा का नाम प्रमाद है । स्वाथण से भोग है । स्वाथण शरीर, िी या भोगों के संग्रह में िमलेगा । प्रमाद-व्यथण चेष्टा । ककसी गधे को याद कर िलया, ककसी िवदेश

को याद कर िलया, िजससे अपना सम्बन्ध नहीं है । वह तो तुरंत हटाया जा सकता है । मनको इस प्रकार समझाना चािहये कक इसमें अपना कोई भी कायण नहीं है । तू ककसी भी चीज में चला जाता है िजससे तेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । लेना-देना भी नहीं है । ककसीका गुण-अवगुण देखने लग गया । इस प्रकार िवचार करने से तुरंत सुधार हो सकता है । नींद आये तो खडा हो जाय या आसन द्वारा उसे रोके । → यह भोग तो सारी योिनयों में हैं । अपने जीवनको इसमें क्यों नष्ट कर रहे हो ? यह आनन्द भगवान् के आनन्द के सामने एक बूंद के बराबर भी नहीं है । → गीता का अभ्यास स्वयं करना चािहये और लोगों से कहना चािहये ताकक सब भाई इससे लाभ उिायें । स्वयं भी उिाये और लोग भी उिायें । → सब जीवोंका परम िहत हो---यह भाव बहुत लाभ पहुूँचाने वाला है । → श्रीजयदयालजी गोयन्दका - सेिजी
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! [ पुस्तक 'दुुःखोंका नाश कै से हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]

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