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कबीर के दोहे - Kabir Ke Dohe

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह । 


जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥ 

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 


एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदग
ू ी तोय ॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 


कर का मन का डार दे , मन का मनका फेर ॥

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय । 


कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । 


बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

सुख मे सुमिरन ना किया, द:ु ख में करते याद । 


कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । 


मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

धीरे -धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 


माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

ु को कहते और । 
कबीरा ते नर अँध है , गरु
हरि रूठे गरु
ु ठौर है , गरु
ु रूठे नहीं ठौर ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 


आशा तष्ृ णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 


हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

दःु ख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।


जो सुख में समि
ु रन करे दःु ख काहे को होय ॥

सख ु रन ना किया, द:ु ख में किया याद । 


ु मे समि
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
ू । 
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लट
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 


मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

धीरे -धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 


माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।


पंथी को छाया नही फल लागे अति दरू ॥

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 


एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥

कबीरा सोया क्या करे , उठि न भजे भगवान । 


जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहे गी म्यान ॥

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । 


यह आपा तो ड़ाल दे , दया करे सब कोय ॥

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । 
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । 


भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सभ


ु ाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा दे ई उडाय॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।


तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसल
ु ॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।


तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।


धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब दे य॥
 

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रहीम के दोहे - Raheem Ke Dohe

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। 


रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥

दे नहार कोउ और है , भेजत सो दिन रै न। 


लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥

ु किल परी, गाढ़े दोऊ काम। 


अब रहीम मस
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया।


जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया॥

छमा बड़न को चाहिये , छोटन को उत्पात।


कह ‘रहीम’ हरि का घट्यौ, जो भग
ृ ु मारी लात॥

तरुवर फल नहिं खात है , सरवर पियहि न पान।


कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय। 


रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय॥

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। 


चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

जे गरीब सों हित करै , धनि रहीम वे लोग। 


कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥

जो बड़ेन को लघु कहे , नहिं रहीम घटि जांहि। 


गिरिधर मुरलीधर कहे , कछु दख
ु मानत नांहि॥

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।


रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार। 
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मक्
ु ताहार॥
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दध
ू को, मथे न माखन होय॥

आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।


ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु दे हि॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।


जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥

रहिमन दे ख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।


जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥

माली आवत दे ख के, कलियन करे पुकारि।


फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥

रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।


उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।


हित अनहित या जगत में , जानि परत सब कोय॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।


पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दरू ॥

रहिमन चप
ु हो बैठिये, दे खि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं , बनत न लगिहैं दे र॥

बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।


औरन को सीतल करै , आपहु सीतल होय॥

मन मोती अरु दध
ू रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।


बाँटनवारे को लगै, ज्यौं में हदी को रं ग॥

रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।


काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़,े जुड़े गाँठ परि जाय॥
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे , मोती, मानष
ु , चन
ू ॥

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