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पपपपपपपप

पपपप पपपप
कथा-कम

अमृत : 3
अपनी करनी : 12
गैरत की कटार: 22
घमंड का पुतला : 29
िवजय : 37
वफा का खजर: 48
मुबारक बीमारी: 61
वासना की किडयॉँ : 69
पुत-पेम : 81
इजजत का खून: 87
होली की छुटी : 97
नादान दोसत : 113
पितशोध : 118
देवी : 131
खुदी : 133
बडे बाबू : 139
राषट का सेवक: 150
आिखरी तोहफा: 151
काितल : 165

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पपपप

मेरीकाउठती जवानी थी जब मेरा िदल ददर के मजे से पिरिचत हुआ। कुछ िदनो तक शायरी
अभयास करता रहा और धीर-धीरे इस शौक ने तललीनता का रप ले िलया।
सासािरक संबध ं ो से मुंह मोडकर अपनी शायरी की दुिनया मे आ बैठा और तीन ही साल की
मशक ने मेरी कलपना के जौहर खोल िदये। कभी-कभी मेरी शायरी उसतादो के मशहूर कलाम
से टकर खा जाती थी। मेरे कलम ने िकसी उसताद के सामने सर नही झुकाया। मेरी
कलपना एक अपने -आप बढने वाले पौधे की तरह छंद और िपंगल की कैदो से आजाद बढती
रही और ऐसे कलाम का ढंग िनराला था। मैने अपनी शायरी को फारस से बाहर िनकाल कर
योरोप तक पहुँचा िदया। यह मेरा अपना रंग था। इस मैदान मे न मेरा कोई पितदंदी था, न
बराबरी करने वाला बावजूद इस शायरो जैसी तललीनता के मुझे मुशायरो की वाह-वाह और
सुभानअललाह से नफरत थी। हा, कावय-रिसको से िबना अपना नाम बताये हुए अकसर अपनी
शायरी की अचछाइयो और बुराइयो पर बहस िकया करता। तो मुझे शायरी का दावा न था
मगर धीरे-धीरे मेरी शोहरत होने लगी और जब मेरी मसनवी ‘दुिनयाए हुसन’ पकािशत हुई तो
सािहतय की दुिनया मे हल-चल-सी मच गयी। पुराने शायरो ने कावय-ममरजो की पशंसा-
कृपणता मे पोथे के पोथे रंग िदये है मगर मेरा अनुभव इसके िबलकुल िवपरीत था । मुझे
कभी-कभी यह खयाल सताया करता िक मेरे कददानो की यह उदारता दस ू रे किवयो की
लेखनी की दिरदता का पमाण है। यह खयाल हौसला तोउ़़़ व े ाला था। बहरहाल
न , जो
कुछ हुआ, ‘दुिनयाए हुसन’ ने मुझे शायरी का बादशाह बना िदया। मेरा नाम हरेक जबान पर
था। मेरी चचा हर एक अखबार मे थी। शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी। मुझे िदन-रात
शेरो-शायरी के अलावा और कोई काम न था। अकसर बैठे-बैठे राते गुजर जाती और जब
कोई चुभता हुआ शेर कलम से िनकल जाता तो मै खुशी के मारे उछल पडता। मै अब तक
शादी-बयाह की कैदो से आजाद़ था या यो किहए िक मै उसके उन मजो से अपिरिचत था
िजनमे रंज की तलखी भी है और खुशी की नमकीनी भी। अकसर पिशमी सािहतयकारो की
तरह मेरा भी खयाल था िक सािहतय के उनमाद और सौनदयर के उनमाद मे पुराना बैर है। मुझे
अपनी जबान से कहते हुए शिमरनदा होना पडता है िक मुझे अपनी तिबयत पर भरोसा न था।
जब कभी मेरी आँखो मे कोई मोिहनी सूरत घूम जाती तो मेरे िदल-िदमाग पर एक पागलपन-सा
छा जाता। हफतो तक अपने को भूला हुआ-सा रहता। िलखने की तरफ तिबयत िकसी तरह
न झुकती। ऐसे कमजोर िदल मे िसफर एक इशक की जगह थी। इसी डर से मै अपनी रंगीन
तितबयत के िखलाफ आचरण शुद रखने पर मजबूर था। कमल की एक पंखुडी, शयामा के
एक गीत, लहलहाते हुए एक मैदान मे मेरे िलए जादू का-सा आकषरण था मगर िकसी औरत के
िदलफरेब हुसन को मै िचतकार या मूितरकार की बैलौस ऑंखो से नही देख सकता था। सुंदर
सती मेरे िलए एक रंगीन, काितल नािगन थी िजसे देखकर ऑंखे खुश होती है मगर िदल डर
से िसमट जाता है।
खैर, ‘दुिनयाए हुसन’ को पकािशत हुए दो साल गुजर चुके थे। मेरी खयाित बरसात की
उमडी हुई नदी की तरह बढती चली जाती थी। ऐसा मालूम होता था जैसे मैने सािहतय की
दुिनया पर कोई वशीकरण कर िदया है। इसी दौरान मैने फुटकर शेर तो बहुत कहे मगर
दावतो और अिभनंदनपतो की भीड ने मािमरक भावो को उभरने न िदया। पदशरन और खयाित
एक राजनीितज के िलए कोडे का काम दे सकते है, मगर शायर की तिबयत अकेले शाित से
एक कोने के बैठकर ही अपना जौहर िदखालाती है। चुनाचे मै इन रोज-ब-रोज बढती हुई
बेहूदा बातो से गला छुडा कर भागा और पहाड के एक कोने मे जा िछपा। ‘नैरगं ’ ने वही जनम
िलया।

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नै रंग’ के शुर करते हुए ही मुझे एक आशयरजनक और िदल तोडने वाला अनुभव हुआ।
ईशर जाने कयो मेरी अकल और मेरे िचंतन पर पदा पड गया। घंटो तिबयत पर जोर
डालता मगर एक शेर भी ऐसा न िनकलता िक िदल फडके उठे। सूझते भी तो दिरद, िपटे हुए
िवषय, िजनसे मेरी आतमा भागती थी। मै अकसर झुझलाकर उठ बैठता, कागज फाड डालता
और बडी बेिदली की हालत मे सोचने लगता िक कया मेरी कावयशिकत का अंत हो गया, कया
मैने वह खजाना जो पकृित ने मुझे सारी उम के िलए िदया था, इतनी जलदी िमटा िदया। कहा
वह हालत थी िक िवषयो की बहुतायत और नाजुक खयालो की रवानी कलम को दम नही लेने
देती थी। कलपना का पंछी उडता तो आसमान का तारा बन जाता था और कहा अब यह
पसती! यह करण दिरदता! मगर इसका कारण कया है? यह िकस कसूर की सजा है। कारण
और कायर का दस ू रा नाम दुिनया है। जब तक हमको कयो का जवाब न िमले, िदल को िकसी
तरह सब नही होता, यहा तक िक मौत को भी इस कयो का जवाब देना पडता है। आिखर मैने
एक डाकटर से सलाह ली। उसने आम डाकटरो की तरह आब-हवा बदलने की सलाह दी।
मेरी अकल मे भी यह बात आयी िक मुमिकन है नैनीताल की ठंडी आब-हवा से शायरी की आग
ठंडी पड गई हो। छ: महीने तक लगातार घूमता-िफरता रहा। अनेक आकषरक दृशय देखे,
मगर उनसे आतमा पर वह शायराना कैिफयत न छाती थी िक पयाला छलक पडे और खामोश
कलपना खुद ब खुद चहकने लगे। मुझे अपना खोया हुआ लाल न िमला। अब मै िजंदगी से
तंग था। िजंदगी अब मुझे सूखे रेिगसतान जैसी मालूम होती जहा कोई जान नही, ताजगी
नही, िदलचसपी नही। हरदम िदल पर एक मायूसी-सी छायी रहती और िदल खोया-खोया
रहता। िदल मे यह सवाल पैदा होता िक कया वह चार िदन की चादनी खतम हो गयी और
अंधेरा पाख आ गया? आदमी की संगत से बेजार, हमिजंस की सूरत से नफरत, मै एक गुमनाम
कोने मे पडा हुआ िजंदगी के िदन पूरे कर रहा था। पेडो की चोिटयो पर बैठने वाली, मीठे राग
गाने वाली िचिडया कया िपंजरे मे िजंदा रह सकती है? मुमिकन है िक वह दाना खाये, पानी िपये
मगर उसकी इस िजंदगी और मौत मे कोई फकर नही है।
आिखर जब मुझे अपनी शायरी के लौटने की कोई उममीद नही रही, तो मेरे िदल मे यह
इरादा पका हो गया िक अब मेरे िलए शायरी की दुिनया से मर जाना ही बेहतर होगा। मुदा तो
हूँ ही, इस हालत मे अपने को िजंदा समझना बेवकूफी है। आिखर मैने एक रोज कुछ दैिनक
पतो का अपने मरने की खबर दे दी। उसके छपते ही मुलक मे कोहराम मच गया, एक
तहलका पड गया। उस वकत मुझे अपनी लोकिपयता का कुछ अंदाजा हुआ। यह आम पुकार
थी, िक शायरी की दुिनया की िकसती मंझधार मे डू ब गयी। शायरी की महिफल उखड गयी।
पत-पितकाओं मे मेरे जीवन-चिरत पकािशत हुए िजनको पढ कर मुझे उनके एडीटरो की
आिवषकार-बुिद का कायल होना पडा। न तो मै िकसी रईस का बेटा था और न मैने रईसी की
मसनद छोडकर फकीरी अिखतयार की थी। उनकी कलपना वासतिवकता पर छा गयी थी।
मेरे िमतो मे एक साहब ने, िजनहे मुझसे आतमीयता का दावा था, मुझे पीने-िपलाने का पेमी बना
िदया था। वह जब कभी मुझसे िमलते, उनहे मेरी आखे नशे से लाल नजर आती। अगरचे
इसी लेख मे आगे चलकर उनहोने मेरी इस बुरी आदत की बहुत हृदयता से सफाई दी थी
कयोिक रखा-सूखा आदमी ऐसी मसती के शेर नही कह सकता था। ताहम हैरत है िक उनहे
यह सरीहन गलत बात कहने की िहममत कैसे हुई।
खैर, इन गलत-बयािनयो की तो मुझे परवाह न थी। अलबता यह बडी िफक थी, िफक
नही एक पबल िजजासा थी, िक मेरी शायरी पर लोगो की जबान से कया फतवा िनकलता है।
हमारी िजंदगी के कारनामे की सचची दाद मरने के बाद ही िमलती है कयोिक उस वकत वह
खुशामद और बुराइयो से पाक-साफ होती है। मरने वाले की खुशी या रंज की कौन परवाह
करता है। इसीिलए मेरी किवता पर िजतनी आलोचनाऍं िनकली है उसको मैने बहुत ही ठंडे
िदल से पढना शुर िकया। मगर किवता को समझने वाली दृिष की वयापकता और उसके ममर
को समझने वाली रिच का चारो तरफ अकाल-सा मालूम होता था। अिधकाश जौहिरयो ने

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एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस की थी, और इसमे शक नही िक वे पाठक की हैिसयत से
उस शेर के पहलुओं को खूब समझते थे। मगर आलोचक का कही पता न था। नजर की
गहराई गायब थी। समग किवता पर िनगाह डालने वाला किव, गहरे भावो तक पहुँचने वाला
कोई आलोचक िदखाई न िदया।

ए क रोज मै पेतो की दुिनया से िनकलकर घूमता हुआ अजमेर की पिबलक लाइबेरी मे जा
पहुँचा। दोपहर का वकत था। मैने मेज पर झुककर देखा िक कोई नयी रचना हाथ आ
जाये तो िदल बहलाऊँ। यकायक मेरी िनगाह एक सुंदर पत की तरफ गयी िजसका नाम था
‘कलामे अखतर’। जैसे भोला बचचा िखलौने िक तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मैन े
उस िकताब को उठा िलया। उसकी लेिखका िमस आयशा आिरफ थी। िदलचसपी और भी
जयादा हुई। मै इतमीनान से बैठकर उस िकताब को पढने लगा। एक ही पना पढने के बाद
िदलचसपी ने बेताबी की सूरत अिखतयार की। िफर तो मै बेसुधी की दुिनया मे पहुँच गया।
मेरे सामने गोया सूकम अथो की एक नदी लहरे मार रही थी। कलपना की उठान, रिच की
सवचछता, भाषा की नमी। कावय-दृिष ऐसी थी िक हृदय धनय-धनय हो उठता था। मै एक
पैरागाफ पढता, िफर िवचार की ताजगी से पभािवत होकर एक लंबी सॉँस लेता और तब सोचने
लगता, इस िकताब को सरसरी तौर पर पढना असमभव था। यह औरत थी या सुरिच की
देवी। उसके इशारो से मेरा कलाम बहुत कम बचा था मगर जहा उसने मुझे दाद दी थी वहा
सचचाई के मोती बरसा िदये थे। उसके एतराजो मे हमददी और पशंसा मे भिकत था। शायर
के कलाम को दोषो की दृिषयो से नही देखना चािहये। उसने कया नही िकया, यह ठीक
कसौटी नही। बस यही जी चाहता था िक लेिखका के हाथ और कलम चूम लूँ। ‘सफीर’
भोपाल के दफतर से एक पितका पकािशत हुई थी। मेरा पका इरादा हो गया, तीसरे िदन शाम
के वकत मै िमस आयशा के खूबसूरत बंगले के सामने हरी-हरी घास पर टहल रहा था। मै
नौकरानी के साथ एक कमरे मे दािखल हुआ। उसकी सजावट बहुत सादी थी। पहली चीज
पर िनगाहे पडी वह मेरी तसवीर थी जो दीवार पर लटक रही थी। सामने एक आइना रखा
हुआ था। मैने खुदा जाने कयो उसमे अपनी सूरत देखी। मेरा चेहरा पीला और कुमहलाया हुआ
था, बाल उलझे हुए, कपडो पर गदर की एक मोटी तह जमी हुई, परेशानी की िजंदा तसवीर
थी।
उस वकत मुझे अपनी बुरी शकल पर सखत शिमरदं गी हुई। मै सुंदर न सही मगर इस वकत
तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रही थी। अपने िलबास के ठीक होने का यकीन हमे खुशी
देता है। अपने फुहडपन का िजसम पर इतना असर नही होता िजतना िदल पर। हम बुजिदल
और बेहौसला हो जाते है।
मुझे मुिशकल से पाच िमनट गुजरे होगे िक िमस आयशा तशरीफ लायी। सावला रंग था,
चेहरा एक गंभीर घुलावट से चमक रहा था। बडी-बडी नरिगसी आंखो से सदाचार की,
संसकृित की रोशनी झलकती थी। कद मझोले से कुछ कम। अंग -पतयंग छरहरे, सुथरे, ऐसे
हलकी-फुलकी िक जैसे पकृित ने उसे इस भौितक संसार के िलए नही, िकसी कालपिनक
संसार के िलए िसरजा है। कोई िचतकार कला की उससे अचछी तसवीर नही खीच सकता
था।
िमस आयशा ने मेरी तरफ दबी िनगाहो से देखा मगर देखते-देखते उसकी गदरन झुक गयी
और उसके गालो पर लाज की एक हलकी-परछाई नाचती हुई मालूम हुई। जमीन से उठकर
उसकी ऑंखे मेरी तसवीर की तरफ गयी और िफर सामने पदे की तरफ जा पहुँची। शायद
उसकी आड मे िछपना चाहती थी।
िमस आयशा ने मेरी तरफ दबी िनगाहो से देखकर पूछा—आप सवगीय अखतर के दोसतो मे
से है?
मैने िसर नीचा िकये हुए जवाब िदया--मै ही बदनसीब अखतर हूँ।

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आयशा एक बेखुदी के आलम मे कुसी पर से खडी हुई और मेरी तरफ हैरत से देखकर
बोली—‘दुिनयाए हुसन’ के िलखने वाले?
अंधिवशास के िसवा और िकसने इस दुिनया से चले जानेवाले को देखा है? आयशा ने मेरी
तरफ कई बार शक से भरी िनगाहो से देखा। उनमे अब शमर और हया की जगह के बजाय
हैरत समायी हुई थी। मेरे कब से िनकलकर भागने का तो उसे यकीन आ ही नही सकता था,
शायद वह मुझे दीवाना समझ रही थी। उसने िदल मे फैसला िकया िक इस आदमी मरहूम
शायर का कोई करीबी अजीज है। शकल िजस तरह िमल रही थी वह दोनो के एक खानदान
के होने का सबूत थी। मुमिकन है िक भाई हो। वह अचानक सदमे से पागल हो गया है।
शायद उसने मेरी िकताब देखी होगी ओर हाल पूछने के िलए चला आया। अचानक उसे
खयाल गुजरा िक िकसी ने अखबारो को मेरे मरने की झूठी खबर दे दी हो और मुझे उस खबर
को काटने का मौका न िमला हो। इस खयाल से उसकी उलझन दरू हुई, बोली—अखबारो मे
आपके बारे मे एक िनहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मैने जवाब िदया—वह खबर सही थी।
अगर पहले आयशा को मेरे िदवानेपन मे कुछ था तो वह दरू हो गया। आिखर मैने थोडे
लफजो मे अपनी दासतान सुनायी और जब उसको यकीन हो गया िक ‘दुिनयाए हुसन’ का
िलखनेवाला अखतर अपने इनसानी चोले मे है तो उसके चेहरे पर खुशी की एक हलकी सुखी
िदखायी दी और यह हलका रंग बहुत जलद खुददारी और रप-गवर के शोख रंग से िमलकर
कुछ का कुछ हो गया। गािलबन वह शिमरदं ा थी िक कयो उसने अपनी कददानी को हद से
बाहर जाने िदया। कुछ देर की शमीली खामोशी के बाद उसने कहा—मुझे अफसोस है िक
आपको ऐसी मनहूस खबर िनकालने की जररत हुई।
मैने जोश मे भरकर जवाब िदया—आपके कलम की जबान से दाद पाने की कोई सूरत न
थी। इस तनकीद के िलए मै ऐसी-ऐसी कई मौते मर सकता था।
मेरे इस बेधडक अंदाज ने आयशा की जबान को भी िशषाचार और संकोच की कैद से
आजाद िकया, मुसकराकर बोली—मुझे बनावट पसंद नही है। डाकटरो ने कुछ बतलाया नही?
उसकी इस मुसकराहट ने मुझे िदललगी करने पर आमादा िकया, बोला—अब मसीहा के िसवा
इस मजर का इलाज और िकसी के हाथ नही हो सकता।
आयशा इशारा समझ गई, हँसकर बोली—मसीहा चौथे आसमान पर रहते है।
मेरी िहममत ने अब और कदम बढाये---रहो की दुिनया से चौथा आसमान बहुत दरू नही
है।
आयशा के िखले हुए चेहरे से संजीदगी और अजनिबयत का हलका रंग उड गया। ताहम,
मेरे इन बेधडक इशारो को हद से बढते देखकर उसे मेरी जबान पर रोक लगाने के िलए
िकसी कदर खुददारी बरतनी पडी। जब मै कोई घंटे-भर के बाद उस कमरे से िनकला तो
बजाय इसके िक वह मेरी तरफ अपनी अंगेजी तहजीब के मुतािबक हाथ बढाये उसने चोरी-
चोरी मेरी तरफ देखा। फैला हुआ पानी जब िसमटकर िकसी जगह से िनकलता है तो उसका
बहाव तेज और ताकत कई गुना जयादा हो जाती है आयशा की उन िनगाहो मे असमत की
तासीर थी। उनमे िदल मुसकराता था और जजबा नाजता था। आह, उनमे मेरे िलए दावत का
एक पुरजोर पैगाम भरा हुआ था। जब मै मुिसलम होटल मे पहुँचकर इन वाकयात पर गौर
करने लगा तो मै इस नतीजे पर पहुँचा िक गो मै ऊपर से देखने पर यहा अब तक अपिरिचत
था लेिकन भीतरी तौर पर शायद मै उसके िदल के कोने तक पहुँच चुका था।

ज ब मै खाना खाकर पलंग पर लेटा तो बावजूद दो िदन रात-रात-भर जागने के नीद आंखो
से कोसो दरू थी। जजबात की कशमकश मे नीद कहॉँ। आयशा की सूरत, उसकी
खाितरदािरयॉँ और उसकी वह िछपी-िछपी िनगाह िदल मे एकसासो का तूफान-सा बरपा रही
थी उस आिखरी िनगाह ने िदल मे तमनाओं की रम-धूम मचा दी। वह आरजुए ं जो, बहुत

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अरसा हुआ, मर िमटी थी िफर जाग उठी और आरजुओं के साथ कलपना ने भी मुंदी हुई आंखे
खोल दी।
िदल मे जजब़ात और कैिफयात का एक बेचैन करनेवाला जोश महसूस हुआ। यही
आरजुए ं, यही बेचैिनया और यही कोिशशे कलपना के दीपक के िलए तेल है। जजबात की
हरारत ने कलपना को गरमाया। मै कलम लेकर बैठ गया और एक ऐसी नजम िलखी िजसे मै
अपनी सबसे शानदार दौलत समझता हूँ।
मै एक होटल मे रह रहा था, मगर िकसी-न-िकसी हीले से िदन मे कम-से-कम एक बार
जरर उसके दशरन का आनंद उठाता । गो आयशा ने कभी मेरे यहॉँ तक आने की तकलीफ
नही की तो भी मुझे यह यकीन करने के िलए शहादतो की जररत न थीिक वहॉँ िकस कदर
सरगमी से मेरा इंतजार िकया जाता था, मेरे कदमो की पहचानी हुई आहटे पाते ही उसका
चेहरा कैसे कमल की तरह िखल जाता था और आंखो से कामना की िकरणे िनकलने लगती
थी।
यहा छ: महीने गुजर गये। इस जमाने को मेरी िजंदगी की बहार समझना चािहये। मुझे वह
िदन भी याद है जब मै आरजुओं और हसरतो के गम से आजाद था। मगर दिरया की शाितपूणर
रवानी मे िथरकती हुई लहरो की बहार कहा, अब अगर मुहबबत का ददर था तो उसका
पाणदायी मजा भी था। अगर आरजुओं की घुलावट थी तो उनकी उमंग भी थी। आह, मेरी
यह पयासी आंखे उस रप के सोत से िकसी तरह तपत न होती। जब मै अपनी नशे मे डू बी
हुई आंखो से उसे देखता तो मुझे एक आितमक तरावट-सी महसूस होती। मै उसके दीदार के
नशे से बेसुध-सा हो जाता और मेरी रचना-शिकत का तो कुछ हद-िहसाब न था। ऐसा मालूम
होता था िक जैसे िदल मे मीठे भावो का सोता खुल गया था। अपनी किवतव शिकत पर खुद
अचमभा होता था। कलम हाथ मे ली और रचना का सोता-सा बह िनकला। ‘नैरगं ’ मे ऊँची
कलपनाऍं न हो, बडी गूढ बाते न हो, मगर उसका एक-एक शेर पवाह और रस, गमी और
घुलावट की दाद दे रहा है। यह उस दीपक का वरदान है, जो अब मेरे िदल मे जल गया था
और रोशनी दे रहा था। यह उस फुल की महक थी जो मेरे िदल मे िखला हुआ था। मुहबबत
रह की खुराक है। यह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावो को िजंदा कर देती है। मुहबबत
आितमक वरदान है। यह िजंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊँची, मुबारक बरकत है। यही
अकसीर थी िजसकी अनजाने ही मुझे तलाश थी। वह रात कभी नही भूलेगी जब आयशा
दुलन बनी हुई मेरे घर मे आयी। ‘नैरगं ’ उसकी मुबारक िजंदगी की यादगार है। ‘दुिनयाए
हुसन’ एक कली थी, ‘नैरगं ’ िखला हुआ फूल है और उस कली को िखलाने वाली कौन-सी
चीज है? वही िजसकी मुझे अनजाने ही तलाश थी और िजसे मै अब पा गया था।
....उदरू ‘पेम पचीसी’ से

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पपपप पपपप

आ ह, अभागा मै! मेरे कमो के फल ने आज यह िदन िदखाये िक अपमान भी मेरे ऊपर


हंसता है। और यह सब मैने अपने हाथो िकया। शैतान के िसर इलजाम कयो दंू ,
िकसमत को खरी-खोटी कयो सुनाऊँ, होनी का कयो रोऊं? जो कुछ िकया मैने जानते और
बूझते हुए िकया। अभी एक साल गुजरा जब मै भागयशाली था, पितिषत था और समृिद मेरी
चेरी थी। दुिनया की नेमते मेरे सामने हाथ बाधे खडी थी लेिकन आज बदनामी और कंगाली
और शंिमरदगी मेरी दुदरशा पर आंसू बहाती है। मै ऊंचे खानदान का, बहुत पढा-िलखा आदमी
था, फारसी का मुलला, संसकृत का पंिणडत, अंगेजी का गेजुएट। अपने मुंह िमया िमटू कयो बनूं
लेिकन रप भी मुझको िमला था, इतना िक दस ू रे मुझसे ईषया कर सकते थे। गरज एक इंसान
को खुशी के साथ िजंदगी बसर करने के िलए िजतनी अचछी चीजो की जररत हो सकती है
वह सब मुझे हािसल थी। सेहत का यह हाल िक मुझे कभी सरददर की भी िशकायत नही
हुई। िफटन की सैर, दिरया की िदलफरेिबया, पहाड के सुंदर दृशय –उन खुिशयो का िजक ही
तकलीफदेह है। कया मजे की िजंदगी थी!
आह, यहॉँ तक तो अपना ददेिदल सुना सकता हूँ लेिकन इसके आगे िफर होठो पर
खामोशी की मुहर लगी हईु है। एक सती-साधवी, पितपाणा सती और दो गुलाब के फूल-से
बचचे इंसान के िलए िजन खुिशयो, आरजुओं, हौसलो और िदलफरेिबयो का खजाना हो सकते
है वह सब मुझे पापत था। मै इस योगय नही िक उस पितत सती का नाम जबान पर लाऊँ। मै
इस योगय नही िक अपने को उन लडको का बाप कह सकूं। मगर नसीब का कुछ ऐसा खेल
था िक मैने उन िबिहशती नेमतो की कद न की। िजस औरत ने मेरे हुकम और अपनी इचछा मे
कभी कोई भेद नही िकया, जो मेरी सारी बुराइयो के बावजूद कभी िशकायत का एक हफर
जबान पर नही लायी, िजसका गुससा कभी आंखो से आगे नही बढने पाया-गुससा कया था
कुआर की बरखा थी, दो-चार हलकी-हलकी बूंदे पडी और िफर आसमान साफ हो गया—
अपनी दीवानगी के नशे मे मैने उस देवी की कद न की। मैने उसे जलाया, रलाया, तडपाया।
मैने उसके साथ दगा की। आह! जब मै दो-दो बजे रात को घर लौटता था तो मुझे कैसे-कैसे
बहाने सूझते थे, िनत नये हीले गढता था, शायद िवदाथी जीवन मे जब बैणड के मजे से
मदरसे जाने की इजाजत न देते थे, उस वकत भी बुिद इतनी पखर न थी। और कया उस
कमा की देवी को मेरी बातो पर यकीन आता था? वह भोली थी मगर ऐसी नादान न थी। मेरी
खुमार-भरी आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे पेम-पदशरन का रहसय कया उससे िछपा रह
सकता था? लेिकन उसकी रग-रग मे शराफत भरी हुई थी, कोई कमीना खयाल उसकी जबान
पर नही आ सकता था। वह उन बातो का िजक करके या अपने संदेहो को खुले आम
िदखलाकर हमारे पिवत संबध ं मे िखचाव या बदमजगी पैदा करना बहुत अनुिचत समझती
थी। मुझे उसके िवचार, उसके माथे पर िलखे मालूम होते थे। उन बदमजिगयो के मुकाबले
मे उसे जलना और रोना जयादा पसंद था, शायद वह समझती थी िक मेरा नशा खुद-ब-खुद
उतर जाएगा। काश, इस शराफत के बदले उसके सवभाव मे कुछ ओछापन और अनुदारता भी
होती। काश, वह अपने अिधकारो को अपने हाथ मे रखना जानती। काश, वह इतनी सीधी
न होती। काश, अव अपने मन के भावो को िछपाने मे इतनी कुशल न होती। काश, वह इतनी
मकार न होती। लेिकन मेरी मकारी और उसकी मकारी मे िकतना अंतर था, मेरी मकारी
हरामकारी थी, उसकी मकारी आतमबिलदानी।
एक रोज मै अपने काम से फुसरत पाकर शाम के वकत़ मनोरंजन के िलए आनंदवािटका
मे पहुँचा और संगमरमर के हौज पर बैठकर मछिलयो का तमाशा देखने लगा। एकाएक िनगाह
ऊपर उठी तो मैने एक औरत का बेले की झािडयो मे फूल चुनते देखा। उसके कपडे मैले थे
और जवानी की ताजगी और गवर को छोडकर उसके चेहरे मे कोई ऐसी खास बात न थी उसने
मेरी तरफ आंखे उठायी और िफर फूल चुनने मे लग गयी गोया उसने कुछ देखा ही नही।
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उसके इस अंदाज ने, चाहे वह उसकी सरलता ही कयो न रही हो, मेरी वासना को और भी
उदीपत कर िदया। मेरे िलए यह एक नयी बात थी िक कोई औरत इस तरह देखे िक जैसे
उसने नही देखा। मै उठा और धीरे-धीरे, कभी जमीन और कभी आसमान की तरफ ताकते हुए
बेले की झािडयो के पास जाकर खुद भी फूल चुनने लगा। इस िढठाई का नतीजा यह हुआ
िक वह मािलन की लडकी वहा से तेजी के साथ बाग के दस ू रे िहससे मे चली गयी।
उस िदन से मालूम नही वह कौन-सा आकषरण था जो मुझे रोज शाम के वकत
आनंदवािटका की तरफ खीच ले जाता। उसे मुहबबत हरिगज नही कह सकते। अगर मुझे
उस वकत भगवान् न करे, उस लडकी के बारे मे कोई, शोक-समाचार िमलता तो शायद मेरी
आंखो से आंसू भी न िनकले, जोिगया धारण करने की तो चचा ही वयथर है। मै रोज जाता और
नये-नये रप धरकर जाता लेिकन िजस पकृित ने मुझे अचछा रप-रंग िदया था उसी ने मुझे
वाचालता से वंिचत भी कर रखा था। मै रोज जाता और रोज लौट जाता, पेम की मंिजल मे
एक कदम भी आगे न बढ पाता था। हा, इतना अलबता हो गया िक उसे वह पहली-सी
िझझक न रही।
आिखर इस शाितपूणर नीित को सफल बनाने न होते देख मैने एक नयी युिकत सोची। एक
रोज मै अपने साथ अपने शैतान बुलडाग टामी को भी लेता गया। जब शाम हो गयी और वह
मेरे धैयर का नाश करने वाली फूलो से आंचल भरकर अपने घर की ओर चली तो मैने अपने
बुलडाग को धीरे से इशारा कर िदया। बुलडाग उसकी तरफ बाज की तरफ झपटा, फूलमती
ने एक चीख मारी, दो-चार कदम दौडी और जमीन पर िगर पडी। अब मै छडी िहलाता,
बुलडाग की तरफ गुससे-भरी आंखो से देखता और हाय-हाय िचललाता हुआ दौडा और उसे
जोर से दो-तीन डंडे लगाये। िफर मैने िबखरे हुए फूलो को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ
पकडकर िबठा िदया और बहुत लिजजत और दुखी भाव से बोला—यह िकतना बडा बदमाश है,
अब इसे अपने साथ कभी नही लाऊंगा। तुमहे इसने काट तो नही िलया?
फूलमती ने चादर से सर को ढाकते हुए कहा—तुम न आ जाते तो वह मुझे नोच डालता।
मेरे तो जैसे मन-मन-भर मे पैर हो गये थे। मेरा कलेजा तो अभी तक धडक रहा है।
यह तीर लकय पर बैठा, खामोशी की मुहर टू ट गयी, बातचीत का िसलिसला कायम हुआ।
बाध मे एक दरार हो जाने की देर थी, िफर तो मन की उमंगो ने खुद-ब-खुद काम करना शुर
िकया। मैने जैसे-जैसे जाल फैलाये, जैसे-जैसे सवाग रचे, वह रंगीन तिबयत के लोग खूब
जानते है। और यह सब कयो? मुहबबत से नही, िसफर जरा देर िदल को खुश करने के िलए,
िसफर उसके भरे-पूरे शरीर और भोलेपन पर रीझकर। यो मै बहुत नीच पकृित का आदमी नही
हूँ। रप-रंग मे फूलमती का इंदु से मुकाबला न था। वह सुंदरता के साचे मे ढली हुई थी।
किवयो ने सौदयर की जो कसौिटया बनायी है वह सब वहा िदखायी देती थी लेिकन पता नही
कयो मैने फूलमती की धंसी हुई आंखो और फूले हुए गालो और मोटे-मोटे होठो की तरफ अपने
िदल का जयादा िखंचाव देखा। आना-जाना बढा और महीना-भर भी गुजरने न पाया िक मै
उसकी मुहबबत के जाल मे पूरी तरह फंस गया। मुझे अब घर की सादा िजंदगी मे कोई आनंद
न आता था। लेिकन िदल जयो-जयो घर से उचटता जाता था तयो-तयो मै पती के पित पेम का
पदशरन और भी अिधक करता था। मै उसकी फरमाइशो का इंतजार करता रहता और कभी
उसका िदल दुखानेवाली कोई बात मेरी जबान पर न आती। शायद मै अपनी आंतिरक
उदासीनता को िशषाचार के पदे के पीछे िछपाना चाहता था।
धीरे-धीरे िदल की यह कैिफयत भी बदल गयी और बीवी की तरफ से उदासीनता िदखायी
देने लगी। घर मे कपडे नही है लेिकन मुझसे इतना न होता िक पूछ लूं। सच यह है िक मुझे
अब उसकी खाितरदारी करते हुए एक डर-सा मालूम होता था िक कही उसकी खामोशी की
दीवार टू ट न जाय और उसके मन के भाव जबान पर न आ जायं। यहा तक िक मैने िगरसती
की जररतो की तरफ से भी आंखे बंद कर ली। अब मेरा िदल और जान और रपया-पैसा सब
फूलमती के िलए था। मै खुद कभी सुनार की दक ु ान पर न गया था लेिकन आजकल कोई

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मुझे रात गए एक मशहूर सुनार के मकान पर बैठा हुआ देख सकता था। बजाज की दुकान मे
भी मुझे रिच हो गयी।

ए क रोज शाम के वकत रोज की तरह मै आनंदवािटका मे सैर कर रहा था और फूलमती
सोहलो िसंगार िकए, मेरी सुनहरी-रपहली भेटो से लदी हुई, एक रेशमी साडी पहने बाग की
कयािरयो मे फूल तोड रही थी, बिलक यो कहो िक अपनी चुटिकंयो मे मेरे िदल को मसल रही
थी। उसकी छोटी-छोटी आंखे उस वकत नशे के हुसन मे फैल गयी ,थी और उनमे शोखी और
मुसकराहट की झलक नजर आती थी।
अचानक महाराजा साहब भी अपने कुछ दोसतो के साथ मोटर पर सवार आ पहुँचे। मै
उनहे देखते ही अगवानी के िलए दौडा और आदाब बजा लाया। बेचारी फूलमती महाराजा
साहब को पहचानती थी लेिकन उसे एक घने कु ंज के अलावा और कोई िछपने की जगह न
िमल सकी। महाराजा साहब चले तो हौज की तरफ लेिकन मेरा दुभागय उनहे कयारी पर ले
चला िजधर फूलमती िछपी हुई थर-थर काप रही थी।
महाराजा साहब ने उसकी तरफ आशयर से देखा और बोले—यह कौन औरत है ? सब लोग
मेरी ओर पश-भरी आंखो से देखने लगे और मुझे भी उस वकत यही ठीक मालूम हुआ िक
इसका जवाब मै ही दंू वना फूलमती न जाने कया आफत ढा दे। लापरवाही के अंदाज से
बोला—इसी बाग के माली की लडकी है, यहा फूल तोडने आयी होगी।
फूलमती लजजा और भय के मारे जमीन मे धंसी जाती थी। महाराजा साहब ने उसे सर से
पाव तक गौर से देखा और तब संदेहशील भाव से मेरी तरफ देखकर बोले—यह माली की
लडकी है?
मै इसका कया जवाब देता। इसी बीच कमबखत दुजरन माली भी अपनी फटी हुई पाग
संभालता, हाथ मे कुदाल िलए हुए दौडता हुआ आया और सर को घुटनो से िमलाकर महाराज
को पणाम िकया महाराजा ने जरा तेज लहजे मे पूछा—यह तेरी लडकी है?
माली के होश उड गए, कापता हुआ बोला--हुजूर।
महाराज—तेरी तनखवाह कया है?
दुजरन—हुजूर, पाच रपये।
महाराज—यह लडकी कु ंवारी है या बयाही?
दुजरन—हुजूर, अभी कु ंवारी है
महाराज ने गुससे मे कहा—या तो तू चोरी करता है या डाका मारता है वना यह कभी नही
हो सकता िक तेरी लडकी अमीरजादी बनकर रह सके। मुझे इसी वकत इसका जवाब देना
होगा वना मै तुझे पुिलस के सुपुदर कर दँग
ू ा। ऐसे चाल-चलन के आदमी को मै अपने यहा नही
रख सकता।
माली की तो िघगघी बंध गयी और मेरी यह हालत थी िक काटो तो बदन मे लहू नही।
दुिनया अंधेरी मालूम होती थी। मै समझ गया िक आज मेरी शामत सर पर सवार है। वह मुझे
जड से उखाडकर दम लेगी। महाराजा साहब ने माली को जोर से डाटकर पूछा—तू खामोश
कयो है, बोलता कयो नही?
दुजरन फूट-फटकर रोने लगा। जब जरा आवाज सुधरी तो बोला—हुजूर, बाप-दादे से
सरकार का नमक खाता हूँ, अब मेरे बुढापे पर दया कीिजए, यह सब मेरे फूटे नसीबो का फेर
है धमावतार। इस छोकरी ने मेरी नाक कटा दी, कुल का नाम िमटा िदया। अब मै कही मुंह
िदखाने लायक नही हूँ, इसको सब तरह से समझा-बुझाकर हार गए हुजूर, लेिकन मेरी बात
सुनती ही नही तो कया करं। हुजूर माई-बाप है, आपसे कया पदा करं, उसे अब अमीरो के
साथ रहना अचछा लगता है और आजकल के रईसो और अमीरो को कया कहूँ , दीनबंधु सब
जानते है।

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महाराजा साहब ने जरा देर गौर करके पूछा—कया उसका िकसी सरकारी नौकर से संबध

है?
दुजरन ने सर झुकाकर कहा—हुजूर।
महाराज साहब—वह कौन आदमी है, तुमहे उसे बतलाना होगा।
दुजरन—महाराज जब पूछेगे बता दंगू ा, साच को आंच कया।
मैने तो समझा था िक इसी वकत सारा पदाफास हुआ जाता है लेिकन महाराजा साहब ने
अपने दरबार के िकसी मुलािजम की इजजत को इस तरह िमटी मे िमलाना ठीक नही समझा।
वे वहा से टहलते हुए मोटर पर बैठकर महल की तरफ चले।

इ स मनहूस वाकये के एक हफते बाद एक रोज मै दरबार से लौटा तो मुझे अपने घर मे से


एक बूढी औरत बाहर िनकलती हुई िदखाई दी। उसे देखकर मै िठठका। उसे चेहरे पर
बनावटी भोलापन था जो कुटिनयो के चेहरे की खास बात है। मैने उसे डाटकर पूछा-तू कौन
है, यहा कयो आयी है?
बुिढया ने दोनो हाथ उठाकर मेरी बलाये ली और बोली—बेटा, नाराज न हो, गरीब िभखारी
हूँ, मािलिकन का सुहाग भरपुर रहे, उसे जैसा सुनती थी वैसा ही पाया। यह कह कर उसने
जलदी से कदम उठाए और बाहर चली गई। मेरे गुससे का पारा चढा मैने घर जाकर पूछा—
यह कौन औरत थी?
मेरी बीवी ने सर झुकाये धीरे से जवाब िदया—कया जानूं, कोई िभखिरन थी।
मैने कहा, िभखािरनो की सूरत ऐसी नही हुआ करती, यह तो मुझे कुटनी-सी नजर आती
है। साफ-साफ बताओं उसके यहा आने का कया मतलब था।
लेिकन बजाय िक इन संदेह-भरी बातो को सुनकर मेरी बीवी गवर से िसर उठाये और
मेरी तरफ उपेका-भरी आंखो से देखकर अपनी साफिदली का सबूत दे, उसने सर झुकाए हुए
जवाब िदया—मै उसके पेट मे थोडे ही बैठी थी। भीख मागने आयी थी भीख दे दी, िकसी के
िदल का हाल कोई कया जाने !
उसके लहजे और अंदाज से पता चलता था िक वह िजतना जबान से कहती है, उससे
जयादा उसके िदल मे है। झूठा आरोप लगाने की कला मे वह अभी िबलकुल कचची थी वना
ितिरया चिरतर की थाह िकसे िमलती है। मै देख रहा था िक उसके हाथ-पाव थरथरा रहे
है। मैने झपटकर उसका हाथ पकडा और उसके िसर को ऊपर उठाकर बडे गंभीर कोध से
बोला—इंदु , तुम जानती हो िक मुझे तुमहारा िकतना एतबार है लेिकन अगर तुमने इसी वकत़
सारी घटना सच-सच न बता दी तो मै नही कह सकता िक इसका नतीजा कया होगा। तुमहारा
ढंग बतलाता है िक कुछ-न-कुछ दाल मे काला जरर है। यह खूब समझ रखो िक मै अपनी
इजजत को तुमहारी और अपनी जानो से जयादा अजीज समझता हूँ। मेरे िलए यह डू ब मरने
की जगह है िक मै अपनी बीवी से इस तरह की बाते करं, उसकी ओर से मेरे िदल मे संदेह
पैदा हो। मुझे अब जयादा सब की गुंजाइश नही है बोलो कया बात है?
इंदुमती मेरे पैरो पर िगर पडी और रोकर बोली—मेरा कसूर माफ कर दो।
मैने गरजकर कहा—वह कौन सा कसूर है?
इंदमू ित ने संभलकर जवाब िदया—तुम अपने िदल मे इस वकत जो खयाल कर रहे हो उसे
एक पल के िलए भी वहा न रहने दो , वना समझ लो िक आज ही इस िजंदगी का खातमा है।
मुझे नही मालूम था िक तुम मेरे ऊपर जो जुलम िकए है उनहे मैने िकस तरह झेला है और अब
भी सब-कुछ झेलने के िलए तैयार हूँ। मेरा सर तुमहारे पैरो पर है, िजस तरह रखोगे, रहूँगी।
लेिकन आज मुझे मालूम हुआ िक तुम खुद हो वैसा ही दस ू रो को समझते हो। मुझसे भूल
अवशय हुई है लेिकन उस भूल की यह सजा नही िक तुम मुझ पर ऐसे संदेह न करो। मैने
उस औरत की बातो मे आकर अपने सारे घर का िचटा बयान कर िदया। मै समझती थी िक
मुझे ऐसा नही करना चािहये लेिकन कुछ तो उस औरत की हमददी और कुछ मेरे अंदर

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सुलगती हुई आग ने मुझसे यह भूल करवाई और इसके िलए तुम जो सजा दो वह मेरे सर-
आंखो पर।
मेरा गुससा जरा धीमा हुआ। बोला-तुमने उससे कया कहा?
इंदुमित ने िदया—घर का जो कुछ हाल है, तुमहारी बेवफाई , तुमहारी लापरवाही, तुमहारा
घर की जररतो की िफक न रखना। अपनी बेवकूफी का कया कहूँ, मैने उसे यहा तक कह
िदया िक इधर तीन महीने से उनहोने घर के िलए कुछ खचर भी नही िदया और इसकी चोट मेरे
गहनो पर पडी। तुमहे शायद मालूम नही िक इन तीन महीनो मे मेरे साढे चार सौ रपये के
जेवर िबक गये। न मालूम कयो मै उससे यह सब कुछ कह गयी। जब इंसान का िदल जलता
है तो जबान तक उसी आंच आ ही जाती है। मगर मुझसे जो कुछ खता हुई उससे कई गुनी
सखत सजा तुमने मुझे दी है; मेरा बयान लेने का भी सब न हुआ। खैर , तुमहारे िदल की
कैिफयत मुझे मालूम हो गई, तुमहारा िदल मेरी तरफ से साफ नही है, तुमहे मुझपर िवशास नही
रहा वना एक िभखािरन औरत के घर से िनकलने पर तुमहे ऐसे शुबहे कयो होते।
मै सर पर हाथ रखकर बैठ गया। मालूम हो गया िक तबाही के सामान पूरे हुए जाते है।

दू सरे िदन मै जयो ही दफतर मे पहंच
िकया है।
ु ा चोबदार ने आकर कहा-महाराज साहब ने आपको याद

मै तो अपनी िकसमत का फैसला पहले से ही िकये बैठा था। मै खूब समझ गया था िक वह
बुिढया खुिफया पुिलस की कोई मुखिबर है जो मेरे घरेलू मामलो की जाच के िलए तैनात हुई
होगी। कल उसकी िरपोट आयी होगी और आज मेरी तलबी है। खौफ से सहमा हुआ लेिकन
िदल को िकसी तरह संभाले हुए िक जो कुछ सर पर पडेगी देखा जाएगा, अभी से कयो जान
दंू, मै महाराजा की िखदमत मे पहुँचा। वह इस वकत अपने पूजा के कमरे मे अकेले बैठै हुए
थे, कागजो का एक ढेर इधर-उधर फैला हुआ था ओर वह खुद िकसी खयाल मे डू बे हुए थे।
मुझे देखते ही वह मेरी तरफ मुखाितब हुए, उनके चेहरे पर नाराजगी के लकण िदखाई िदये,
बोले कु ंअर शयामिसंह, मुझे बहुत अफसोस है िक तुमहारी बावत मुझे जो बाते मालूम हुई वह
मुझे इस बात के िलए मजबूर करती है िक तुमहारे साथ सखती का बताव िकया जाए। तुम मेरे
पुराने वसीकादार हो और तुमहे यह गौरव कई पीिढयो से पापत है। तुमहारे बुजुगों ने हमारे
खानदान की जान लगाकार सेवाएं की है और उनही के िसले मे यह वसीका िदया गया था
लेिकन तुमने अपनी हरकतो से अपने को इस कृपा के योगय नही रकखा। तुमहे इसिलए
वसीका िमलता था िक तुम अपने खानदान की परविरश करो, अपने लडको को इस योगय
बनाओ िक वह राजय की कुछ िखदमत कर सके, उनहे शारीिरक और नैितक िशका दो तािक
तुमहारी जात से िरयासत की भलाई हो, न िक इसिलए िक तुम इस रपये को बेहूदा ऐशपसती
और हरामकारी मे खचर करो। मुझे इस बात से बहुत तकलीफ होती है िक तुमने अब अपने
बाल-बचचो की परविरश की िजममेदारी से भी अपने को मुकत समझ िलया है। अगर तुमहारा
यही ढंग रहा तो यकीनन वसीकादारो का एक पुराना खानदान िमट जाएगा। इसिलए हाज से
हमने तुमहारा नाम वसीकादारो की फेहिरसत से खािरज कर िदया और तुमहारी जगह तुमहारी
बीवी का नाम दजर िकया गया। वह अपने लडको को पालने -पोसने की िजममेदार है। तुमहारा
नाम िरयासत के मािलयो की फेहिरसत मे िलया जाएगा, तुमने अपने को इसी के योगय िसद
िकया है और मुझे उममीद है िक यह तबादला तुमहे नागवार न होगा। बस, जाओ और मुमिकन
हो तो अपने िकये पर पछताओ।

मु झे कुछ कहने का साहस न हुआ। मैने बहुत धैयरपूवरक अपने िकसमत का यह फैसला सुना
और घर की तरफ चला। लेिकन दो ही चार कदम चला था िक अचानक खचाल आया
िकसके घर जा रहे हो, तुमहारा घर अब कहा है ! मै उलटे कदम लौटा। िजस घर का मै राजा
था वहा दस ू रो का आिशत बनकर मुझसे नही रहा जाएगा और रहा भी जाये तो मुझे रहना

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चािहए। मेरा आचरण िनशय ही अनुिचत था लिकन मेरी नैितक संवदेना अभी इतनी थोथी न
हुई थी। मैने पका इरादा कर िलया िक इसी वकत इस शहर से भाग जाना मुनािसब है वना
बात फैलते ही हमददों और बुरा चेतनेवालो का एक जमघट हालचाल पूछने के िलए आ जाएगा,
दस ू रो की सूखी हमदिदरया सुननी पडेगी िजनके पदे मे खुशी झलकती होगी एक बारख् िसफर
एक बार, मुझे फूलमती का खयाल आया। उसके कारण यह सब दुगरत हो रही है, उससे तो
िमल ही लूं। मगर िदल ने रोका, कया एक वैभवशाली आदमी की जो इजजत होती थी वह अब
मुझे हािसल हो सकती है? हरिगज नही। रप की मणडी मे वफा और मुहबबत के मुकािबले मे
रपया-पैसा जयादा कीमती चीज है। मुमिकन है इस वकत मुझ पर तरस खाकर या किणक
आवेश मे आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये लेिकन या किणक आवेश मे
आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये लेिकन उसे लेकर कहा जाऊँगा, पावो मे
बेिडया डालकर चलना तो ओर भी मुिशकल है। इस तरह सोच-िवचार कर मैने बमबई की राह
ली और अब दो साल से एक िमल मे नौकर हूँ, तनखवाह िसफर इतनी है िक जयो-तयो िजनदगी
का िसलिसला चलता रहे लेिकन ईशर को धनयवाद देता हूँ और इसी को यथेष समझता हूँ।
मै एक बार गुपत रप से अपने घर गया था। फूलमती ने एक दस ू रे रईस से रप का सौदा कर
िलया है, लेिकन मेरी पती ने अपने पबनध-कौशल से घर की हालत खूब संभाल ली है। मैने
अपने मकान को रात के समय लालसा-भरी आंखो से देखा-दरवाजे पर पर दो लालटेने जल
रही थी और बचचे इधर-उधर खेल रहे थे, हर सफाई और सुथरापन िदखायी देता था। मुझे
कुछ अखबारो के देखने से मालूम हुआ िक महीनो तक मेरे पते-िनशान के बारे मे अखबरो मे
इशतहार छपते रहे। लेिकन अब यह सूरत लेकर मै वहा कया जाऊंगा ओर यह कािलख-लगा
मुंह िकसको िदखाऊंगा। अब तो मुझे इसी िगरी-पडी हालत मे िजनदगी के िदन काटने है, चाहे
रोकर काटू ं या हंसकर। मै अपनी हरकतो पर अब बहुत शिमरदं ा हूँ। अफसोस मैने उन नेमतो
की कद न की, उनहे लात से ठोकर मारी, यह उसी की सजा है िक आज मुझे यह िदन देखना
पड रहा है। मै वह परवाना हूँ। मै वह परवाना हूँ िजसकी खाक भी हवा के झोको से नही
बची।
-‘जमाना’, िसतंबर-अकतूबर, १९९४

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पपपप पप पपपपप

िक तनी अफसोसनाक, िकतनी ददरभरी बात है िक वही औरत जो कभी हमारे पहलू मे
बसती थी उसी के पहलू मे चुभने के िलए हमारा तेज खंजर बेचैन हो रहा है।
िजसकी आंखे हमारे िलए अमृत के छलकते हुए पयाले थी वही आंखे हमारे िदल मे आग और
तूफान पैदा करे! रप उसी वकत तक राहत और खुशी देता है जब तक उसके भीतर एक
रहानी नेमत होती है और जब तक उसके अनदर औरत की वफा की रह.हरकत कर रही हो
वना वह एक तकलीफ देने चाली चीज है, जहर और बदबू से भरी हुई, इसी कािबल िक वह
हमारी िनगाहो से दरू रहे और पंजे और नाखून का िशकार बने। एक जमाना वह था िक नईमा
हैदर की आरजुओं की देवी थी, यह समझना मुिशकल था िक कौन तलबगार है और कौन उस
तलब को पूरा करने वाला। एक तरफ पूरी-पूरी िदलजोई थी, दस ू री तरफ पूरी-पूरी रजा। तब
तकदीर ने पासा पलटा। गुलो-बुलबुल मे सुबह की हवा की शरारते शुर हुई। शाम का वकत
था। आसमान पर लाली छायी हुई थी। नईमा उमंग और ताजुगी और शौक से उमडी हुई
कोठे पर आयी। शफक की तरह उसका चेहरा भी उस वकत िखला हुआ था। ऐन उसी वकत
वहा का सूबेदार नािसर अपने हवा की तरह तेज घोडे पर सवार उधर से िनकला, ऊपर िनगाह
उठी तो हुसन का किरशमा नजर आया िक जैसे चाद शफक के हौज मे नहाकर िनकला है।
तेज िनगाह िजगर के पार हुई। कलेजा थामकर रह गया। अपने महल को लौटा, अधमरा,
टू टा हुआ। मुसाहबो ने हकीम की तलाश की और तब राह-रासम पैदा हुई। िफर इशक की
दुशार मंिजलो तय हुई। वफा ओर हया ने बहुत बेरखी िदखायी। मगर मुहबबत के िशकवे और
इशक की कुफ तोडनेवाली धमिकया आिखर जीती। असमत का खलाना लुट गया। उसके
बाद वही हुआ जो हो सकता था। एक तरफ से बदगुमानी, दस ू री तरफ से बनावट और
मकारी। मनमुटाव की नौबत आयी, िफर एक-दस ू रे के िदल को चोट पहुँचाना शुर हुआ। यहा
तक िक िदलो मे मैल पड गयी। एक-दस ू रे के खून के पयासे हो गये। नईमा ने नािसर की
मुहबबत की गोद मे पनाह ली और आज एक महीने की बेचैन इनतजारी के बाद हैदर अपने
जजबात के साथ नंगी तलवार पहलू मे िछपाये अपने िजगर के भडकते हूए शोलो को नईमा के
खून से बुझाने के िलए आया हुआ है।


आ धी रात का वकत था और अंधेरी रात थी। िजस तरह आसमान के हरमसरा मे हुसन
के िसतारे जगमगा रहे थे, उसी तरह नािसर का हरम भी हुसन के दीपो से रोशन था।
नािसर एक हफते से िकसी मोचे पर गया हुआ है इसिलए दरबान गािफल है। उनहोने हैदर को
देखा मगर उनके मुंह सोने -चादी से बनद थे। खवाजासराओं की िनगाह पडी लेिकन वह पहले
ही एहसान के बोझ से दब चुके थे। खवासो और कनीजो ने भी मतलब-भरी िनगाहो से उसका
सवागत िकया और हैदर बदला लेने के नशे मे गुनहगार नईमा के सोने के कमरे मे जा पहुँचा,
जहा की हवा संदल और गुलाब से बसी हुई थी।
कमरे मे एक मोमी िचराग जल रहा था और उसी की भेद-भरी रोशनी मे आराम और
तकललुफ की सजावटे नजर आती थी जो सतीतव जैसी अनमोल चीज के बदले मे खरीदी
गयी थी। वही वैभव और ऐशयर की गोद मे लेटी हईु नईमा सो रही थी।
हैदर ने एक बार नईया को ऑंख भर देखा। वही मोिहनी सूरत थी, वही आकषरक
जावणय और वही इचछाओं को जगानेवाली ताजगी। वही युवती िजसे एक बार देखकर भूलना
असमभव था।
हॉँ, वही नईमा थी, वही गोरी बॉँहे जो कभी उसके गले का हार बनती थी, वही कसतूरी
मे बसे हुए बाल जो कभी कनधो पर लहराते थे, वही फूल जैसे गाल जो उसकी पेम-भरी आंखो
के सामने लाल हो जाते थे। इनही गोरी-गोरी कलाइयो मे उसने अभी-अभी िखली हुई किलयो
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के कंगन पहनाये थे और िजनहे वह वफा के कंगन समझ था। इसकी गले मे उसने फूलो के
हार सजाये थे और उनहे पेम का हार खयाल िकया था। लेिकन उसे कया मालूम था िक फूलो
के हार और किलयो के कंगन के साथ वफा के कंगन और पेम के हार भी मुरझा जायेगे।
हा, यह वही गुलाब के-से होठ है जो कभी उसकी मुहबबत मे फूल की तरह िखल जाते
थे िजनसे मुहबबत की सुहानी महक उडती थी और यह वही सीना है िजसमे कभी उसकी
मुहबबत और वफा का जलवा था, जो कभी उसके मुहबबत का घर था।
मगर िजस फूल मे िदल की महक थी, उसमे दगा के काटे है।

है दर ने तेज कटार पहलू से िनकाली और दबे पाव नईमा की तरफ आया लेिकन उसके हाथ
न उठ सके। िजसके साथ उम-भर िजनदगी की सैर की उसकी गदरन पर छुरी चलाते हुए
उसका हृदय दिवत हो गया। उसकी आंखे भीग गयी, िदल मे हसरत-भरी यादगारो का एक
तूफान-सा तकदीर की कया खूबी है िक िजस पेम का आरमभ ऐसा खुशी से भरपूर हो उसका
अनत इतना पीडाजनक हो। उसके पैर थरथराने लगे। लेिकन सवािभमान ने ललकारा, दीवार
पर लटकी हुई तसवीरे उसकी इस कमजोरी पर मुसकरायी।
मगर कमजोर इरादा हमेशा सवाल और अलील की आड िलया करता है। हैदर के
िदल मे खयाल पैदा हुआ, कया इस मुहबबत के बाब़ को उजाडने का अलजाम मेरे ऊपर नही है?
िजस वकत बदगुमािनयो के अंखुए िनकले, अगर मैने तानो और िधकारो के बजाय मुहबबत से
काम िलया होता तो आज यह िदन न आता। मेरे जुलमो ने मुहबबत और वफा की जड काटी।
औरत कमजोर होती है, िकसी सहारे के बगैर नही रह सकती। िजस औरत ने मुहबबत के मजे
उठाये हो, और उलफात की नाजबरदािरया देखी हो वह तानो और िजललतो की आंच कया सह
सकती है? लेिकन िफर गैरत ने उकसाया, िक जैसे वह धुंधला िचराग भी उसकी कमजोिरयो
पर हंसने लगा।
सवािभमान और तकर मे सवाल-जवाब हो रहा था िक अचानक नईमा ने करवट बदली
ओर अंगडाई ली। हैदर ने फौरन तलवार उठायी, जान के खतरे मे आगा-पीछा कहा? िदल ने
फैसला कर िलया, तलवार अपना काम करनेवाली ही थी िक नईमा ने आंखे खोल दी। मौत
की कटार िसर पर नजर आयी। वह घबराकर उठ बैठी। हैदर को देखा, पिरिसथित समझ मे
आ गयी। बोली-हैदर!

हैदर ने अपनी झेप को गुससे के पदे मे िछपाकर कहा- हा, मै हूँ हैदर!
नईमा िसर झुकाकर हसरत-भरे ढंग से बोली—तुमहारे हाथो मे यह चमकती हुई तलवार
देखकर मेरा कलेजा थरथरा रहा है। तुमही ने मुझे नाजबरदािरयो का आदी बना िदया है।
जरा देर के िलए इस कटार को मेरी ऑंखे से िछपा लो। मै जानती हूँ िक तुम मेरे खून के
पयासे हो, लेिकन मुझे न मालूम था िक तुम इतने बेरहम और संगिदल हो। मैने तुमसे दगा की
है, तुमहारी खतावार हूं लेिकन हैदर, यकीन मानो, अगर मुझे चनद आिखरी बाते कहने का मौका
न िमलता तो शायद मेरी रह को दोजख मे भी यही आरजू रहती। मौत की सजा से पहले
आपने घरवालो से आिखरी मुलाकात की इजाजत होती है। कया तुम मेरे िलए इतनी िरयायत
के भी रवादार न थे? माना िक अब तुम मेरे िलए कोई नही हो मगर िकसी वकत थे और तुम
चाहे अपने िदल मे समझते हो िक मै सब कुछ भूल गयी लेिकन मै मुहबबत को इतनी जलदी
भूल जाने वाली नही हूँ। अपने ही िदल से फैसला करो। तुम मेरी बेवफाइया चाहे भून जाओ
लेिकन मेरी मुहबबत की िदल तोडनेवाली यादगारे नही िमटा सकते। मेरी आिखरी बाते सुन लो
और इस नापाक िजनदगी का िहससा पाक करो। मै साफ-साफ कहती हूँ इस आिखरी वकत मे

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कयो डरं। मेरी कुछ दुगरत हुई है उसके िजममेदार तुम हो। नाराज न होना। अगर तुमहारा
खयाल है िक मै यहा फूलो की सेज पर सोती हूँ तो वह गलत है। मैने औरत की शमर खोकर
उसकी कद जानी है। मै हसीन हूं, नाजुक हूं; दुिनया की नेमते मेरे िलए हािजर है, नािसर मेरी
इचछा का गुलाम है लेिकन मेरे िदल से यह खयाल कभी दरू नही होता िक वह िसफर मेरे हुसन
और अदा का बनदा है। मेरी इजजत उसके िदल मे कभी हो भी नही सकती। कया तुम जानते
हो िक यहा खवासो और दस ू री बीिवयो के मतलब-भरे इशारे मेरे खून और िजगर को नही
लजाते? ओफ्, मैने असमत खोकर असमत की कद जानी है लिकन मै कह चुकी हूं और िफर
कहती हूं, िक इसके तुम िजममेदार हो।
हैदर ने पहलू बदलकर पूछा—कयोकर?
नईमा ने उसी अनदाज से जवाब िदया-तुमने बीवी बनाकर नही, माशूक बनाकर रकखा।
तुमने मुझे नाजुबरदािरयो का आदी बनाया लेिकन फजर का सबक नही पढाया। तुमने कभी न
अपनी बातो से, न कामो से मुझे यह खयाल करने का मौका िदया िक इस मुहबबत की बुिनयाद
फजर पर है, तुमने मुझे हमेशा हुसन और मिसतयो के ितिलसम मे फंसाए रकखा और मुझे
खवािहशो का गुलाम बना िदया। िकसी िकशती पर अगर फजर का मललाह न हो तो िफर उसे
दिरया मे डू ब जाने के िसवा और कोई चारा नही। लेिकन अब बातो से कया हािसल, अब तो
तुमहारी गैरत की कटार मेरे खून की पयासी है ओर यह लो मेरा िसर उसके सामने झुका हुआ
है। हॉँ, मेरी एक आिखरी तमना है, अगर तुमहारी इजाजत पाऊँ तो कहूँ।
यह कहते-कहते नईमा की आंखो मे आंसुओं की बाढ आ गई और हैदर की गैरत
उसके सामने ठहर न सकी। उदास सवर मे बोला—कया कहती हो?
नईमा ने कहा-अचछा इजाजत दी है तो इनकार न करना। मुझे एक बार िफर उन
अचछे िदनो की याद ताजा कर लेने दो जब मौत की कटार नही, मुहबबत के तीर िजगर को
छेदा करते थे, एक बार िफर मुझे अपनी मुहबबत की बाहो मे ले लो। मेरी आिखरी िबनती है,
एक बार िफर अपने हाथो को मेरी गदरन का हार बना दो। भूल जाओ िक मैने तुमहारे साथ दगा
की है, भूल जाओ िक यह िजसम गनदा और नापाक है, मुझे मुहबबत से गले लगा लो और यह
मुझे दे दो। तुमहारे हाथो मे यह अचछी नही मालूम होती। तुमहारे हाथ मेरे ऊपर न उठेगे।
देखो िक एक कमजोर औरत िकस तरह गैरत की कटार को अपने िजगर मे रख लेती है।
यह कहकर नईमा ने हैदर के कमजोर हाथो से वह चमकती हुई तलवार छीन ली और
उसके सीने से िलपट गयी। हैदर िझझका लेिकन वह िसफर ऊपरी िझझक थी। अिभमान
और पितशोध-भावना की दीवार टू ट गयी। दोनो आिलंगन पाश मे बंध गए और दोनो की आंखे
उमड आयी।
नईमा के चेहरे पर एक सुहानी, पाणदाियनी मुसकराहट िदखायी दी और मतवाली आंखो
मे खुशी की लाली झलकने लगी। बोली-आज कैसा मुबारक िदन है िक िदल की सब आरजुए ं
पूरीद होती है लेिकन यह कमबखत आरजुए ं कभी पूरी नही होती। इस सीने से िलपटकर
मुहबबत की शराब के बगैर नही रहा जाता। तुमने मुझे िकतनी बार पेम के पयाले है। उस
सुराही और उस पयाले की याद नही भूलती। आज एक बार िफर उलफत की शराब के दौर
चलने दो, मौत की शराब से पहले उलफत की शराब िपला दो। एक बार िफर मेरे हाथो से
पयाला ले लो। मेरी तरफ उनही पयार की िनगाहो से दंखकर, जो कभी आंखो से न उतरती थी,
पी जाओ। मरती हूं तो खुशी से मरं।
नईमा ने अगर सतीतव खोकर सतीतव का मूलय जाना था, तो हैदर ने भी पेम खोकर
पेम का मूलय जाना था। उस पर इस समय एक मदहोशी छायी हुई थी। लजजा और याचना
और झुका हुआ िसर, यह गुससे और पितशोध के जानी दुशमन है और एक गौरत के नाजुक
हाथो मे तो उनकी काट तेज तलवार को मात कर देती है। अंगूरी शराब के दौर चले और
हैदर ने मसत होकर पयाले पर पयाले खाली करने शुर िकये। उसके जी मे बार-बार आता था
िक नईमा के पैरो पर िसर रख दंू और उस उजडे हुए आिशयाने को आदाब कर दं। ू िफर

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मसती की कैिफयत पैदा हुई और अपनी बातो पर और अपने कामो पर उसे अिखययार न रहा।
वह रोया, िगडिगडाया, िमनते की, यहा तक िक उन दगा के पयालो ने उसका िसर झुका
िदया।

है दर कई घणटे तक बेसुध पडा रहा। वह चौका तो रात बहुत कम बाकी रह गयी थी।
उसने उठना चाहा लेिकन उसके हाथ-पैर रेशम की डोिरयो से मजबूत बंधे हुए थे। उसने
भौचक होकर इधर-उधर देखा। नईमा उसके सामने वही तेज कटार िलये खडी थी। उसके
चेहरे पर एक काितलो जैसी मुसकराहट की लाली थी। फजी माशूक के खूनीपन और
खंजरबाजी के तराने वह बहुत बार गा चुका था मगर इस वकत उसे इस नजजारे से शायराना
लुतफ उठाने का जीवट न था। जान का खतरा, नशे के िलए तुशी से जयादा काितल है।
घबराकर बोला-नईम!
नईमा ने लहजे मे कहा-हा, मै हूं नईमा।
हैदर गुससे से बोला-कया िफर दगा का वार िकया?
नईमा ने जवाब िदया-जब वह मदर िजसे खुदा ने बहादुरी और कूवत का हौसला िदया
है, दगा का वार करता है तो उसे मुझसे यह सवाल करने का कोई हक नही। दगा और फरेब
औरतो के हिथयार है कयोिक औरत कमजोर होती है। लेिकन तुमको मालूम हो गया िक औरत
के नाजुक हाथो मे ये हिथयार कैसी काट करते है। यह देखो-यह आबदार शमशीर है, िजसे
तुम गैरत की कटार कहते थे। अब वह गैरत की कटार मेरे िजगर मे नही, तुमहारे िजगर मे
चुभेगी। हैदर, इनसान थोडा खोकर बहुत कुछ सीखता है। तुमने इजजत और आबर सब
कुछ खोकर भी कुछ न सीखा। तुम मदर थे। नािसर से तुमहारी होड थी। तुमहे उसके
मुकािबले मे अपनी तलवार के जौहर िदखाना था लेिकन तुमने िनराला ढंग अिखतयार िकया
और एक बेकस और पर दगा का वार करना चाहा और अब तुम उसी औरत के समाने िबना
हाथ-पैर के पडे हुए हो। तुमहारी जान िबलकुल मेरी मुटी मे है। मै एक लहमे मे उसे मसल
सकती हूं और अगर मै ऐसा करं तो तुमहे मेरा शुकगुजार होना चािहये कयोिक एक मदर के
िलए गैरत की मौत बेगैरती की िजनदगी से अचछी है। लेिकन मै तुमहारे ऊपर रहम करंगी: मै
तुमहारे साथ फैयाजी का बताव करंगी कयोिक तुम गैरत की मौत पाने के हकदार नही हो।
जो गैरत चनद मीठी बातो और एक पयाला शराब के हाथो िबक जाय वह असली गैरत नही है।
हैदर, तुम िकतने बेवकूफ हो, कया तुम इतना भी नही समझते िक िजस औरत ने अपनी असमत
जैसी अनमोल चीज देकर यह ऐश ओर तकललुफ पाया वह िजनदा रहकर इन नेमतो का सुख
जूटना चाहती है। जब तुम सब कुछ खोकर िजनदगी से तंग नही हो तो मै कुछ पाकर कयो
मौत की खवािहश करं? अब रात बहुत कम रह गयी है। यहा से जान लेकर भागो वना मेरी
िसफािरश भी तुमहे नािसर के गुससे की आग से रन बचा सकेगी। तुमहारी यह गैरत की कटार
मेरे कबजे मे रहेगी और तुमहे याद िदलाती रहेगी िक तुमने इजजत के साथ गैरत भी खो दी।
-‘जमाना’, जुलाई, १९९५

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पपपपप पप पपपपप

शा म हो गयी थी। मै सरयू नदी के िकनारे अपने कैमप मे बैठा हुआ नदी के मजे ले रहा था
िक मेरे फुटबाल ने दबे पाव पास आकर मुझे सलाम िकया िक जैसे वह मुझसे कुछ
कहना चाहता है।
फुटबाल के नाम से िजस पाणी का िजक िकया गया वह मेरा अदरली था। उसे िसफर
एक नजर देखने से यकीन हो जाता था िक यह नाम उसके िलए पूरी तरह उिचत है। वह
िसर से पैर तक आदमी की शकल मे एक गेद था। लमबाई-चौडाई बराबर। उसका भारी-
भरकम पेट, िजसने उस दायरे के बनाने मे खास िहससा िलया था, एक लमबे कमरबनद मे
िलपटा रहता था, शायद इसिलए िक वह इनतहा से आगे न बढ जाए। िजस वकत वह तेजी से
चलता था बिलक यो किहए जुढकता था तो साफ मालूम होता था िक कोई फुटबाल ठोकर
खाकर लुढकता चला आता है। मैने उसकी तरफ देखकर पूछ- कया कहते हो?
इस पर फुटबाल ने ऐसी रोनी सूरत बनायी िक जैसे कही से िपटकर आया है और
बोला-हुजूर, अभी तक यहा रसद का कोई इनतजाम नही हुआ। जमीदार साहब कहते है िक मै
िकसी का नौकर नही हूँ।
मेने इस िनगाह से देखा िक जैसे मै और जयादा नही सुनना चाहता। यह असमभव था
िक मिलसटेट की शान मे जमीदार से ऐसी गुसताखी होती। यह मेरे हािकमाना गुससे को
भडकाने की एक बदतमीज कोिशश थी। मैने पूछा, जमीदार कौन है?
फुटबाल की बॉँछे िखल गयी, बोला-कया कहूँ, कु ंअर सजजनिसंह। हुजूर, बडा ढीठ
आदमी है। रात आयी है और अभी तक हुजूर के सलाम को भी नही आया। घोडो के सामने न
घास है न दाना। लशकर के सब आदमी भूखे बैठे हुए है। िमटी का एक बतरन भी नही भेजा।
मुझे जमीदारो से रात-िदन साबका रहता था मगर यह िशकायत कभी सुनने मे नही
आयी थी। इसके िवपरीत वह मेरी खाितर-तवाजो मे ऐसी जॉँिफशानी से काम लेते थे जो
उनके सवािभमान के िलए ठीक न थी। उसमे िदल खोलकर आितथय-सतकार करने का भाव
तिनक भी न होता था। न उसमे िशषाचार था, न वैभव का पदशरन जो ऐब है। इसके बजाय
वहॉँ बेजा रसूख की िफक और सवाथर की हवस साफ िदखायी देती भी और इस रसूख बनाने
की कीमत कावयोिचत अितशयोिकत के साथ गरीबो से वसूल की जाती थी, िजनका बेकसी के
िसवा और कोई हाथ पकडने वाला नही। उनके बात करने के ढंग मे वह मुलािमयत और
आिजजी बरती जाती थी िजसका सवािभमान से बैर है और अकसर ऐसे मौके आते थे, जब इन
खाितरदािरयो से तंग होकर िदल चाहता था िक काश इन खुशामदी आदिमयो की सूरत न
देखनी पडती।
मगर आज फुटबाल की जबान से यह कैिफयत सुनकर मेरी जो हालत हुई उसने
सािबत कर िदया िक रोज-रोज की खाितरदािरयो और मीठी-मीठी बातो ने मुझ पर असर िकये
िबना नही छोडा था। मै यह हुकम देनेवाला ही था िक कु ंअर सजजनिसंह को हािजर करो िक
एकाएक मुझे खयाल आया िक इन मुफतखोर चपरािसयो के कहने पर एक पितिषत आदमी को
अपमािनत करना नयाय नही है। मैने अदरली से कहा-बिनयो के पास जाओ, नकद दाम देकर
चीजे लाओ और याद रखो िक मेरे पास कोई िशकायत न आये।
अदरली िदल मे मुझे कोसता हुआ चला गया।
मगर मेरे आशयर की कोई सीमा न रही, जब वहा एक हफते तक रहने पर भी कु ंअर
साहब से मेरी भेट न हुई। अपने आदिमयो और लशकरवालो की जबान से कु ंअर साहब की
िढठाई, घमणड और हेकडी की कहािनयॉँ रोलु सुना करता। और मेरे दुिनया देखे हुए पेशकार
ने ऐसे अितिथ-सतकार-शूनय गाव मे पडाव डालने के िलए मुझे कई बार इशारो से समझाने -
बुझाने की कोिशश की। गािलबन मै पहला आदमी था िजससे यह भूल हुई थी और अगर मैने
िजले के नकशे के बदले लशकरवालो से अपने दौरे का पोगाम बनाने मे मदद ली होती तो शायद
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इस अिपय अनुभव की नौबत न आती। लेिकन कुछ अजब बात थी िक कु ंअर साहब को बुरा-
भला कहना मुझ पर उलटा असर डालता था। यहॉँ तक िक मुझे उस अदमी से मुलामात
करने की इचछा पैदा हुई जो सवरशिकतमान् आफसरो से इतना जयादा अलग-थलग रह सकता
है।

सू बह का वकत था, मै गढी मे गढी मे गया। नीचे सरयू नदी लहरे मार रही थी। उस पार
साखू का जंगल था। मीलो तक बादामी रेत, उस पर खरबूज और तरबूज की कयािरयॉँ
थी। पीले-पीले फूलो-से लहराती हुई बगुलो और मुगािबयो के गोल-के-गोल बैठे हुए थे! सूयर
देवता ने जंगलो से िसर िनकाला, लहरे जगमगायी, पानी मे तारे िनकले। बडा सुहाना, आितमक
उललास देनेवाला दृशय था।
मैने खबर करवायी और कु ंअर साहब के दीवानखाने मे दािखल हुआ लमबा-चौडा कमरा
था। फशर िबछा हुआ था। सामने मसनद पर एक बहुत लमबा-तडंगा आदमी बैठा था। सर के
बाल मुडे हुए, गले मे रदाक की माला, लाल-लाल, ऊंचा माथा-पुरषोिचत अिभमान की इससे
अचछी तसवीर नही हो सकती। चेहरे से रोबदाब बरसता था।
कुअंर साहब ने मेरे सलाम को इस अनदाज से िलया िक जैसे वह इसके आदी है।
मसनद से उठकर उनहोने बहुत बडपपन के ढंग से मेरी अगवानी की, खैिरयत पूछी, और इस
तकलीफ के िलए मेरा शुिकया अदा िरने के बाद इतर और पान से मेरी तवाजो की। तब वह
मुझे अपनी उस गढी की सैर कराने चले िजसने िकसी जमाने मे जररर आसफुदौला को िजच
िकया होगा मगर इस वकत बहुत टू टी-फीटी हालत मे थी। यहा के एक-एक रोडे पर कु ंअर
साहब को नाज था। उनके खानदानी बडपपन ओर रोबदाब का िजक उनकी जबान से सुनकर
िवशास न करना असमभव था। बयान करने का ढंग यकीन को मजबूर करता था और वे उन
कहािनयो के िसफर पासबान ही न थे बिलक वह उनके ईमान का िहससा थी। और जहा तक
उनकी शिकत मे था, उनहोने अपनी आन िनभाने मे कभी कसर नही की।
कु ंअर सजजनिसंह खानदानी रईस थे। उनकी वंश-परंपरा यहा-वहा टू टती हुई अनत मे
िकसी महातमा ऋिष से जाकर िमल जाती थी। उनहे तपसया और भिकत और योग का कोई
दावा न था लेिकन इसका गवर उनहे अवशय था िक वे एक ऋिष की सनतान है। पुरखो के
जंगली कारनामे भी उनके िलए गवर का कुछ कम कारण न थे। इितहास मे उनका कही िजक
न हो मगकर खानदानी भाट ने उनहे अमर बनाने मे कोई कसर न रखी थी और अगर शबदो मे
कुछ ताकत है तो यह गढी रोहतास या कािलंजर के िकलो से आगे बढी हुई थी। कम-से-कम
पाचीनता और बबादी के बाह लकणो मे तो उसकी िमसाल मुिशकल से िमल सकती थी,
कयोिक पुराने जमाने मे चाहे उसने मुहासरो और सुरगं ो को हेच समझा हो लेिकन वकत वह
चीिटयो और दीमको के हमलो का भी सामना न कर सकती थी।
कु ंअर सजजनिसंह से मेरी भेट बहुत संिकपत थी लेिकन इस िदलचसप आदमी ने मुझे
हमेशा के िलए अपना भकत बना िलया। बडा समझदार, मामले को समझनेवाला, दरू दशी
आदमी था। आिखर मुझे उसका िबन पैसो का गुलाम बनना था।

ब रसात मे सरयू नदी इस जोर-शोर से चढी िक हजारो गाव बरबाद हो गए, बडे-बडे तनावर
दरखत़ ितनको की तरह बहते चले जाते थे। चारपाइयो पर सोते हुए बचचे -औरते, खूंटो
पर बंधे हुए गाय और बैल उसकी गरजती हुई लहरो मे समा गए। खेतो मे नाच चलती थी।
शहर मे उडती हुई खबरे पहंचु ी। सहायता के पसताव पास हुए। सैकडो ने सहानुभूित
और शौक के अरजेणट तार िजल के बडे साहब की सेवा मे भेजे। टाउनहाल मे कौमी हमददी
की पुरशोर सदाएं उठी और उस हंगामे मे बाढ-पीिडतो की ददरभरी पुकारे दब गयी।
सरकार के कानो मे फिरयाद पहुँची। एक जाच कमीशन तेयार िकया गया। जमीदारो
को हुकम हुआ िक वे कमीशन के सामने अपने नुकसानो को िवसतार से बताये और उसके

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सबूत दे। िशवरामपुर के महाराजा साहब को इस कमीशन का सभापित बनाया गया।
जमीदारो मे रेल-पेल शर हुई। नसीब जागे। नुकसान के तखमीन का फैलला करने मे
कावय-बुिद से काम लेना पडा। सुबह से शाम तक कमीशन के सामने एक जमघट रहता।
आनरेबुल महाराजा सहब को सास लेने की फुरसत न थी दलील और शाहदत का काम बात
बनाने और खुशामद से िलया जाता था। महीनो यही कैिफयत रही। नदी िकनारे के सभी
जमीदार अपने नुकसान की फिरयादे पेश कर गए, अगर कमीशन से िकसी को कोई फायदा
नही पहुँचा तो वह कु ंअर सजजनिसहं थे। उनके सारे मौजे सरयू के िकनारे पर थे और सब
तबाह हो गए थे, गढी की दीवारे भी उसके हमलो से न बच सकी थी, मगर उनकी जबान ने
खुशामद करना सीखा ही न था और यहा उसके बगैर रसाई मुिशकल थी। चुनाचे वह कमीशन
के सामने न आ सके। िमयाद खतम होने पर कमीशन ने िरपोटर पेश की, बाढ मे डू बे हुए
इलाको मे लगान की आम माफी हो गयी। िरपोटर के मुतािबक िसफर सजजनिसंह वह भागयशाली
जमीदार थे। िजनका कोई नुकसान नही हुआ था। कु ंअर साहब ने िरपोटर सुनी, मगर माथे पर
बल न आया। उनके आसामी गढी के सहन मे जमा थे, यह हुकम सुना तो रोने -धोने लगे। तब
कु ंअर साहब उठे और बुलनद आवाजु मे बोले-मेरे इलाके मे भी माफी है। एक कौडी लगान न
िलया जाए। मैने यह वाकया सुना और खुद ब खुद मेरी आंखो से आंसू टपक पडे बेशक यह
वह आदमी है जो हुकूमत और अिखतयार के तूफान मे जड से उखड जाय मगर झुकेगा नही।

व ह िदन भी याद रहेगा जब अयोधया मे हमारे जादू-सा करनेवाले किव शंकर को राषट की
ओर से बधाई देने के िलए शानदार जलसा हुआ। हमारा गौरव, हमारा जोशीला शंकर
योरोप और अमरीका पर अपने कावय का जादू करके वापस आया था अपने कमालो पर घमणड
करनेवाले योरोप ने उसकी पूजा की थी। उसकी भावनाओं ने बाउिनंग और शेली के पेिमयो
को भी अपनी वफा का पाबनद न रहने िदया। उसकी जीवन-सुधा से योरोप के पयासे जी
उठे। सारे सभय संसार ने उसकी कलपना की उडान के आगे िसर झुका िदये। उसने भारत
को योरोप की िनगाहो मे अगर जयादा नही तो यूनान और रोम के पहलू मे िबठा िदया था।
जब तक वह योरोप मे रहा, दैिनक अखबारो के पते उसकी चचा से भरे रहते थे।
यूिनविसरिटयो और िवदानो की सभाओं ने उस पर उपािधयो की मूसलाधार वषा कर दी।
सममान का वह पदक जो योरोपवालो का पयारा सपना और िजनदा आरजू है, वह पदक हमारे
िजनदािदल शंकर के सीने पर शोभा दे रहा था और उसकी वापसी के बाद उनही राषटीय
भावनाओं के पित शदा पकट करने के िलए िहनदोसतान के िदल और िदमाग आयोधया मे जमा
थे।
इसी अयोधया की गोद मे शी रामचंद खेलते थे और यही उनहोने वालमीिक की जाद ू -
भरी लेखनी की पशंसा की थी। उसी अयोधया मे हम अपने मीठे किव शंकर पर अपनी
मुहबबत के फूल चढाने आये थे।
इस राषटीय कतैवय मे सरकारी हुकाम भी बडी उदारतापूवरक हमारे साथ सिममिलत
थे। शंकर ने िशमला और दािजरिलंग के फिरशतो को भी अयोधया मे खीच िलया था। अयोधया
को बहुत अनतजार के बाद यह िदन देखना नसीब हुआ।
िजस वकत शंकर ने उस िवराट पणडाल मे पैर रखा, हमारे हृदय राषटीय गौरव और नशे
से मतवाले हो गये। ऐसा महसूस होता था िक हम उस वकत िकसी अिधक पिवत, अिधक
पकाशवान् दुिनया के बसनेवाले है। एक कण के िलए-अफसोस है िक िसफर एक कण के िलए-
अपनी िगरावट और बबादी का खयाल हमारे िदलो से दरू हो गया। जय-जय की आवाजो ने
हमे इस तरह मसत कर िदया जैसे महुअर नाग को मसत कर देता है।
एडेस पढने का गौरव मुझको पापत हुआ था। सारे पणडाल मे खामोशी छायी हुई थी।
िजस वकत मेरी जबान से यह शबद िनकले-ऐ राषट के नेता! ऐ हमारे आितमक गुर! हम सचची
मुहबबत से तुमहे बधाई देते है और सचची शदा से तुमहारे पैरो पर िसर झुकाते है...यकायक मेरी

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िनगाह उठी और मैने एक हृष-पुष हैकल आदमी को ताललुकेदारो की कतार से उठकर बाहर
जाते देखा। यह कु ंअर सजजन िसंह थे।
मुझे कु ंअर साहब की यह बेमौका हरकत, िजसे अिशषता समझने मे कोई बाधा नही
है, बुरी मालूम हुई। हजारो आंखे उनकी तरफ हैरत से उठी।
जलसे के खतम होते ही मैने पहला काम जो िकया वह कु ंअर साहब से इस चीज के
बारे मे जवाब तलब करना था।
मैने पूछा-कयो साहब आपके पास इस बेमौका हरकत का कया जवाब है?
सजजनिसंह ने गमभीरता से जवाब िदया-आप सुनना चाहे तो जवाब हूँ।
‘‘शौक से फरमाइये।’’
‘‘अचछा तो सुिनये। मै शंकर की किवता का पेमी हूँ। शंकर की इजजत करता हूँ,
शंकर पर गवर करता हूँ, शंकर को अपने और अपनी कौम के ऊपर एहसान करनेवाला
समझता हूँ मगर उसके साथ ही उनहे अपना आधयाितमक गुर मानने या उनके चरणो मे िसर
झुकाने के िलए तैयार नही हूँ।’’
मै आशयर से उसका मुंह ताकता रह गया। यह आदमी नही, घमणड का पुतला है देखे
यह िसर कभी झुकता या नही।

पू रनमासी का पूरा चाद सरयू के सुनहरे फशर पर नाचता था और लहरे खुशी से गलु िमल-
िमलकर गाती थी। फागुन का महीना था, पेडो मे कोपले िनकली थी और कोयल कूकने
लगी थी।
मै अपना दौरा करके सदर लौटता था। रासते मे कु ंअर सजजनिसंह से िमलने का चाव
मुझे उनके घर तक ले गया, जहा अब मै बडी बेतकललुफी से जाता-आता था।
मै शाम के वकत नदी की सैर को चला। वह पाणदाियनी हवा, वह उडती हुई लहरे, वह
गहरी िनसतबधता-सारा दृशय एक आकषरक सुहाना सपना था। चाद के चमकते हुए गीत से
िजस तरह लहरे झूम रही थी, उसी तरह मीठी िचनताओं से िदल उमडा आता था।
मुझे ऊंचे कगार पर एक पेड के नीचे कुछ रोशनी िदखायी दी। मै ऊपर चढा। वहा
बरगद की घनी छाया मे धूनी जल रही थी। उसके सामने एक साधू पैर फैलाये बरगद की एक
मोटी जटा के सहारे लेटे हुए थे। उनका चमकता हुआ चेहरा आग की चमक को लजाता
था। नीले तालाब मे कमल िखला हुआ था।
उनके पैरो के पास एक दस ू रा आदमी बैठा हुआ था। उसकी पीठ मेरी तरफ थी। वह
उस साधू के पेरो पर अपना िसर रखे हुए था। पैरो को चूमता था और आंखो से लगता था।
साधू अपने दोनो हाथ उसके िसर पर रखे हुए थे िक जैसे वासना धैयर और संतोष के आंचल
मे आशय ढू ंढ रही हो। भोला लडका मा-बाप की गोद मे आ बैठा था।
एकाएक वह झुका हुआ सर उठा और मेरी िनगाह उसके चेहरे पर पडी। मुझे सकता-
सा हो गया। यह कु ंअर सजजनिसंह थे। वह सर जो झुकना न जानता था, इस वकत जमीन
छू रहा था।
वह माथा जो एक ऊंचे मंसबदार के सामने न झुका, जो एक पतानी वैभवशाली
महाराज के सामने न झुका, जो एक बडे देशपेमी किव और दाशरिनक के सामने न झूका, इस
वकत एक साधु के कदमो पर िगरा हुआ था। घमणड, वैरागय के सामने िसर झुकाये खडा था।
मेरे िदल मे इस दृशय से भिकत का एक आवेग पैदा हुआ। आंखो के सामने से एक
परदा-सा हटा और कु ंअर सजजन िसंह का आितमक सतर िदखायी िदया। मै कु ंअर साहब की
तरफ से िलपट गया और बोला-मेरे दोसत, मै आज तक तुमहारी आतमा के बडपपन से िबलकुल
बेखबर था। आज तुमने मेरे हुदय पर उसको अंिकत कर िदया िक वैभव और पताप, कमाल
और शोहरत यह सब घिटया चीजे है, भौितक चीजे है। वासनाओ मे िलपटे हुए लोग इस योगय
नही िक हम उनके सामने भिकत से िसर झुकाये, वैरागय और परमातमा से िदल लगाना ही वे

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महान् गुण है िजनकी डयौढी पर बडे-बडे वैभवशाली और पतापी लोगो के िसर भी झुक जाते
है। यही वह ताकत है जो वैभव और पताप को, घमणड की शराब के मतवालो को और जडाऊ
मुकुट को अपने पैरो पर िगरा सकती है। ऐ तपसया के एकानत मे बैठनेवाली आतमाओ! तुम
धनय हो िक घमणड के पुतले भी पैरो की धूल को माथे पर चढाते है।
कु ंअर सजजनिसंह ने मुझे छाती से लगाकर कहा-िमसटर वागले, आज आपने मुझे
सचचे गवर का रप िदखा िदया और मे कह सकता हूँ िक सचचा गवर सचची पाथरना से कम
नही। िवशास मािनये मुझे इस वकत ऐसा मालूम होता है िक गवर मे भी आितमकता को पाया जा
सकता है। आज मेरे िसर मे गवर का जो नशा है, वह कभी नही था।
-‘जमाना’, अगसत, १९९६

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पपपप

श हजादा मसरर की शादी मलका मखमूर से हुई और दोनो आराम से िजनदगी बसर करने
लगे। मसरर ढोर चराता, खेत जोतता, मखमूर खाना पकाती और चरखा चलाती।
दोनो तालाब के िकनारे बैठे हुए मछिलयो का तैरना देखते, लहरो से खेलते, बगीचे मे जाकर
िचिडयो के चहचहे सुनते और फूलो के हार बनाते। न कोई िफक थी, न कोई िचनता थी।
लेिकन बहुत िदन न गुजरने पाये थे उनके जीवन मे एक पिरवतरन आया। दरबार के
सदसयो मे बुलहवस खॉँ नाम का एक फसादी आदमी था। शाह मसरर ने उसे नजर बनद कर
रखा था। वह धीरे-धीरे मलका मखमूर के िमजाज मे इतना दािखल हो गया िक मलका उसके
मशिवरे के बगैर कोई काम न करती। उसने मलका के िलए एक हवाई जहाज बनाया जो
महज इशारे से चलता था। एक सेकेणड मे हजारो मील रोज जाता ओर देखते-देखते ऊपर
की दिू नया की खबर लाता। मलका उस जहाज पर बैठकर योरोप और अमरीका की सैर
करती। बुलहवस उससे कहता, सामाजय को फैलाना बादशाहो का पहला कतरवय है। इस
लमबी-चौडी दुिनया पर कबजा कीिजए, वयापार के साधन बढाइये, िछपी हुई दौलत िनकािलये,
फौजे खडी कीिजए, उनके िलए असत-शसत जुटाइये। दुिनया हौसलामनदो के िलए है। उनही
के कारनामे, उनही की जीते याद की जाती है। मलका उसकी बातो को खूब कान लगाकर
सुनती। उसके िदल मे हौसले का जोश उमडने लगता। यहा तक िक अपना सरल-सनतोषी
जीवन उसे रखा-फीका मालूम होने लगा।
मगर शाह मसरर सनतोष का पुतला था। उसकी िजनदी के वह मुबारक लमहे होते थे
जब वह एकानत के कु ंज मे चुपचाप बैठकर जीवन और उसके कारणो पर िवचार करता और
उसकी िवराटता और आशयों को देखकर शदा के भाव से चीख उठता-आह! मेरी हसती
िकतनी नाचीज है, उसे मलका के मंसूबो और हौसलो से जरा भी िदलचसपी न थी। नतीजा
यह हूआ िक आपस के पयार और सचचाई की जगह सनदेह पैदा हो गये। दरबािरयो मे िगरोह
बनने लगे। जीवन का सनतोष िवदा हो गया। मसरर को इन सब परेशािनयो के िलए जो
उसकी सभयता के रासते मे बाधक होती थी, धीरज न था। वह एक िदन उठा और सलतनत
मलका के सुपुदर करके एक पहाडी इलाके मे जा िछपा। सारा दरबार नयी उमंगो से मतवाला
हो रहा था। िकसी ने बादशाह को रोकने की कोिशश न की। महीनो, वषों हो गये, िकसी को
उनकी खबर न िमली।

म लका मखमूर ने एक बडी फौज खडी की और बुलहवस खा को चढाइयो पर रवाना


िकया। उसने इलाके पर इलाके और मुलक पर मुलक जीतने शुर िकये। सोने -चादी और
हीरे-जवाहरात के अमबार हवाई जहाजो पर लदकर राजधानी को आगे लगे।
लेिकन आशयर की बात यह थी िक इन रोज-ब-रोज बढती हुई तरिकयो से मुलक के
अनदरनी मामलो मे उपदव खडे होने लगे। वह सूबे जो अब हुकम के ताबेदार थे , बगावत के
झणडे करने लगे। कणरिसंह बुनदेला एक फौज लेकर चढ आया। मगर अजब फौज थी, न
कोई हरबे-हिथयार, न तोपे, िसपािहया, के हाथो मे बंदक ू और तीर-तुपुक के बजाय बरबर-
तमबूरे और सारंिगया, बेले, िसतार और ताऊस थे। तोपो की धनगरज सदाओं के दले तबले
और मृदगं की कुमक थी। बम गोलो की जगह जलतरंग, आगरन और आकेसटा था। मलका
मखमूर ने समझा आन की आन मे इस फौज को िततर-िबतर करती हूँ। लेिकन जयो ही उस
की फौज कणरिसंह के मुकािबले मे रवना हुई, लुभावने , आतमा को शािनत पहुँचाने वाले सवरो की
वह बाढ आयी, मीठे और सुहाने गानो की वह बौछार हुई िक मलका की सेना पतथर की मरतो
की तरह आतमिवसमृत होकर खडी रह गयी। एक कण मे िसपािहयो की आंखे नशे मे डू बने
लगी और वह हथेिलया बजा-बजा कर नाचने लगे, सर िहला-िहलाकर उछलने लगे, िफर
सबके सब बेजान लाश की ताह िगर पडे। और िसफर िसपाही ही नही, राजधानी मे भी िजसके
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कानो मे यह आवाजे गयी वह बेहोश हो गया। सारे शहर मे कोई िजनदा आदमी नजर न आता
था। ऐसा मालूम होता था िक पतथर की मूरतो का ितलसम है। मलका अपने जहाज पर बैठी
यह किरशमा देख रही थी। उसने जहाज नीचे उतारा िक देखूं कया माजरा है? पर उन आवाजो
के कान मे पहुँचते ही उसकी भी वही दशा हो गयी। वह हवाई जहाज पर नाचने लगी और
बेहोश होकर िगर पडी। जब कणरिसंह शाही महल के करीब जा पहुँचा और गाने बनद हो गये
तो मलका की आंखे खुजी जैसे िकसी का नशा टू ट जाये। उसने कहा-मै वही गाने सुनूंगी,
वही राग, वही अलाप, वही लुभाने वाले गीत। हाय, वह आवाजे कहो गयी। कुछ परवाह नही,
मेरा राज जाये, पाट जाये, मे वही राग सुनूंगी।
िसपािहयो का नशा भी टू टा। उनहोने उसके सवर िमलाकर कहा-हम वही गीत सुनेगे,
वही पयारे-पयारे मोहक राग। बला से हम िगरफतार होगे, गुलामी की बेिडया पहनेगे, आजादी से
हाथ धोयेगे पर वही राग, वही तराने वही ताने, वही धुने।

सू बेदार लोचनदास को जब कणरिसंह की िवजय का हाल मालूम हुआ तो उसने भी िवदोह
करने की ठानी। अपनी फौज लेकर राजधानी पर चढ दौडा। मलका ने अबकी जान-
तोड मुकाबला करने की ठानी। िसपािहयो को खूब ललकारा ओर उनहे लोचदास के मुकाबले
मे खडा िकया मगर वाह री हमलावन फौज! न कही सवार, न कही पयादे, न तोप, न बनदक ू ,न
हरबे, न हिथयार, िसपािहयो की जगह सुनदर नतरिकयो के गोल थे और िथयेटर के एकटर।
सवारो की जगह भाडो और बहुरिपयो के गोल। मोचो की जगह तीतर और बटेरो के जोड
छू टे हुए थे तो बनदक
ू की जगह सकरस ओर बाइसकोप के खेमे पढे थे। कही हीरे -जवाहरात
अपनी आब-ताब िदखा रहे थे, कही तरह-तरह के चिरनदो-पिरनदो की नुमाइश खुली हईु थी।
मैदान के एक िहससे मे धरती की अजीब-अजीब चीजे, झने और बिफरसतानी चोिटया और बफर
के पहाढ, पेिरस का बाजार, लनदन का एकसचेज या सटन की मंिडया, अफीका के जंगल,
सहारा के रेिगसतान, जापान की गुलकािरया, चीन के दिरयाई शहर, दिकण अमरीका के
आदमखोर, काफ की पिरया, लैपलैणड के सुमूरपोश इनसान और ऐसे सेकडो िविचत आकषरक
दृशय चलते-िफरते िदखायी पडते थे। मलका की फौज यह नजजारा देखते ही बेसुध होगर
उसकी तरफ दौडी। िकसी को सर-पैर का खयाल न रहा। लोगो ने बनदुके फेक दी, तलवारे
और िकरचे उतार फेकी और बेतहाशा इन दृशयो के चारो तरफ जमा हो गये। कोई नाचने
वािलयो की मीठी अदाओं ओर नाजुक चलन पर िदल दे बैठा, कोई िथयेटर के तमाशो पर
रीझा। कुछ लोग तीतरो और बटेरो के जोड देखने लगे और सब के सब िचत-िलिखत-से
मनतमुगध खडे रह गये। मलका अपने हवाई जहाज पर बैठी कभी िथयेटर की तरफ जाती
कभी सकरस की तरफ दौडती, यहा तक िक वह भी बेहोश हो गयी।
लोचनदास जब िवजय करता हुआ शाही महल मे दािखल हो गया तो मलका की आंखे
खुली। उसने कहा-हाय, वह तमाशे कहा गये, वह सुनदर-सुनदर दृशय, वह लुभावने दृशय कहा
गायब हो गये, मेरा राज जाये, पाट जाये लेिकन मै यह सैर जरर देखूँगी। मुझे आज मालूम
हुआ िक िजनदगी मे कया-कया मजे है!
िसपाही भी जागे। उनहोने एक सवर से कहा-हम वही सैर और तमाशे देखेगे, हमे
लडाई-िभडाई से कुछ मतलब नही, हमको आजादी की परवाह नही, हम गुलाम होकर रहेगे,
पैरो मे बेिडया पहनेगे पर इन िदलफरेिबयो के बगैर नही रह सकेगे।

म लका मखमूर को अपनी सलतनत का यह हाल देखकर बहुत दु :ख होता। वह सोचती,


कया इसी तरह सारा देश मेरे हाथ से िनकल जाएगा? अगर शाह मसरर ने यो िकनारा न
कर िलया होता तो सलतनत की यह हालत कभी न होती। कया उनहे यह कैिफयते मालूम न
होगी। यहा से दम-दम की खबरे उनके पास आ जाती है मगर जरा भी जुिमबश नही करते।
िकतने बेरहम है। खैर, जो कुछ सर पर आयेगी सह लूँगी पर उनकी िमनत न करँगी।

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लेिकन जब वह उन आकषरक गानो को सुनती और दशू यो को देखती तो यह दुखदायी
िवचार भूल जाते, उसे अपनी िजनदगी बहुत आननद की मालूम होती।
बुलहवस खा ने िलखा-मै देशमनो से िघर गया हूँ, नफरत अली और कीन खा और
जवालािसंह ने चारो तरफ से हमला शुर कर िदया है। तब तक ओर कुमक न आये, मे मजबूर
हूँ। पर मलका की फौज यह सैर और गाने छोडकर जाने पर राजी न होती थी।
इतने मे दो सूबेदसरो ने िफर बगावत की। िमजा शमीम और रसराजिसंह दोनो एक
होकर राजधानी पर चढे। मलका की फौज मे अब न लजजा थी न वीरता, गाने-बजाने और
सैरै-तमाशे ने उनहे आरामतलब बना िदया था। बडी-बडी मुिशकलो से सज-सजा कर मैदान मे
िनकले। दुशमन की फौज इनतजार करती खडी थी लेिकन न िकसी के पास तलवार थी, न
बनदुक, िसपािहयो के हाथो मे फूलो के खुलदसते थे, िकसी के हाथ मे इतर की शीिशया, िकसी
के हाथ मे गुलाब के फववाहर, कही लवेणडर की बोतले, कही मुशक वगैरह की बहार-सारा
मैदान अतार की दक ू ान बना हुआ था। दसू री तरफ रसराज की सेना थी। उन िसपािहयो के
हाथो मे सोने के तशत थे, जरबफत के खनपेशो से ढके हुए, िकसी मे बफी और मलाई थी,
िकसी मे कोरमे और कबाब, िकसी मे खुबानी और अंगूर, कही कशमीर की नेमते सजी हुई थी,
कही इटली की चटिनयो की बहार थी और कही पुतरगाल और फास की शराबे शीिशयो मे
महक रही थी।
मलका की फौज यह संजीवनी सुगनध सूंघते ही मतवाली हो गयी। लोगो ने हिथयार
फेक िदये और इन सवािदष पदाथें की ओर दौडे, कोई हलुवे पर िगरा, और कोई मलाई पर
टू टा, िकसी ने कोरमे और कबाब पर हाथ बढाये, कोई खुबानी और अंगूर चखने लगा, कोई
कशमीरी मुरबबो पर लपका, सारी फौज िभखमंगो की तरह हाथ फैलाये यह नेमते मागती थी
और बेहद चाव से खाती थी। एक-एक कौर के िलए, एक चमचा फीरनी के िलए, शराब के
एक पयाले के िलए खुशामदे करते थे, नाके रगडते थे, िसजदे करते थे। यहा तक िक सारी
फौज पर एक नशा छा गया, बेदम होकर िगर पडी। मलका भी इटली के मरबबो के सामने
दामन फैला-फैलाकर िमनते करती और कहती थी िक िसफर-एक लुकमा और एक पयाला दो
और मेरा राज लो, पाट लो, मेरा सब कुछ ले लो लेिकन मुझे जी-भर खा-पी लेने दो। यहा
तक िक वह भी बेहोश होकर िगर पडी।

म लका की हालत बेहद ददरनाक थी। उसकी सलतनत का एक छोटा-सा िहससा दुशमनो के
हाथ से बचा था। उसे एक दम के िलए भी इस गुलामी से नजात न िमलती। की कणरिसंह
के दरबार मे हािजर होती, कभी िमजा शमीम की खुशामद करती, इसके बगैर उसे चैन न
आता। हा, जब कभी इस मुसािहबी और िजललत से उसकी तिबयत थक जाती तो वह अकेले
बैठकर घंटो रोती और चाहती िक जाकर शाह मसरर को मना लाऊं। उसे यकीन था िक
उनके आते ही बागी काफूर हो जायेगे पर एक ही कण मे उसकी तिबयत बदल जाती। उसे
अब िकसी हालत पर चैन आता था।
अभी तक बुलहवस खा सवािमभिकत मे फकर न आया था। लेिकन जब उसने सलतनत
की यह कमजोरी देखी तो वह भी बगावत कर बैठा। उसकी आजमाई हुई फौज के मुकाबले मे
मलका की फौज कया ठहरती, पहले ही हमले मे कदम उखड गये। मलका खुद िगरफतार हो
गयी। बुलहवस खा ने उसे एक ितलसमाती कैदखाने मे बंद कर िदया। सेवक वे सवामी बनद
बैठा।
यह कैदखाना इतना लमबा-चौडा था िक कैदी िकतना ही भागने की कोिशश करे,
उसकी चहारदीवारी से बाहर नही िनकल सकता था। वहा सनतरी और पहरेदार न थे लेिकन
वहा की हवा मे एक िखंचाव था। मलका के पैरो मे न बेिडया थी न हाथो मे हथकिडया लेिकन
शरीर का अंग-पतयंग तारो से बंधा हुआ था। वह अपनी इचछा से िहल भी न सकती थी। वह
अब िदन के िदन बैठी हुई जमीन पर िमटी के घरौदे बनाया करती और समझती यह महल है।

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तरह-तरह के सवाग भरती और समझती दुिनया मुझे देखकर लटू हो जाती है। पतथर टुकडो
से अपना शरीर गूंध लेती ओर समझती िक अब हूरे भी मेरे सामने मात है। वह दरखतो से
पूछती, मै िकतनी खूबसूरत हूँ। शाखो पर बैठी िचिडयो से पूछती, हीरे-जवाहरात का ऐसा
गुलबनद तुमने देखा है? िमटी की ठीकरो का अमबार लगाती और आसमान से पूछती, इतनी
दौलत तुमने देखी है?
मालूम नही, इस हालत मे िकतने िदन गुजर गये। िमजा शमीम, लाचनदास वगैरह
हरदम उसे घेरे रहते थे। शायद वह उससे डरते थे। ऐसा न हो, यह शाह मासरर को कोई
संदेशा भेज दे। कैद मे भी उस पर भरोसा न था। यहा तक िक मलका की तिबयत इस कैद
से बेजार हो गयी, वह िनकल भागने की तदबीरे सोचने लगी।
इसी हालत मे एक िदन मलका बैठी सोच रही थी, मै कया हो गई ? जो मेरे इशारो के
गुलाम थे वह अब मेरे मािलक है, मुझे िजस कल चाहते है िबठाते है, जहा चाहते है घुमाते है।
अफसोस, मेने शाह मसरर का कहना न माना, यह उसी की सजा है। काश, एक बार मुझे
िकसी तरह अस कैद से छुकारा िमल जाता तो मै चलकर उनके पैरो पर िसर रख देती और
कहती, लौडी की खता माफ कीिजए। मै खून के आंसु रोती और उनहे मना लाती और िफर
कभी उनके हुकम से इनकार न करती। मैने इस नमकहराम बुलहवस खा की बातो मे पडकर
उनहे िनवािसत कर िदया, मेरी अकल कहॉँ चली गयी थी। यह सोचते-सोचते मलका रोने लगी
िक यकायक उसने देखा, सामने एक िखले हुए मुखडे वाला गमभीर पुरष सादा कपडे खडा
है। मलका ने आशयरचिकत होकर पूछा-आप कौन है? यहा मैने आपको कभी नही देखा।
पुरष-हा, इस कैदखाने मे मै बहुत कम आता हूँ। मेरा काम है िक जब कैिदयो की
तिबयत यहा से बेजार हो तो उनहे यहा से िनकलने मे मदद दं। ू
मलका-आपका नाम?
पुरष-संतोखिसंह।
मलमा-आप मुझे इस कैद से छुटकारा िदला सकते है?
संतोख-हा, मेरा तो काम ही यह है, लेिकन मेरी िहदायतो पर चलना पडेगा।
मलका-मै आपके हुकम से जौ-भर भी इधर-उधर न करंगी, खुदा के िलए मुझे यहा से
जलद से जलद ले चिलए, मै मरते दम तक आपकी शुकगुजार रहूंगी।
संतोख- आप कहा चलना चाहती है?
मलका-मै शाह मसरर के पास जाना चाहती हूँ। आपको मालूम है वह आलकल कहा
है?
संतोख-हा, मालूम है, मै उनका नौकर हूँ। उनही की तरफ से मै इस काम पर तैनात
हूँ?
मलका-तो खुदा के वासते मुझे जलद ले चिलए, मुझे अब यहा एक घडी रहना जी पर
भारी हो रहा है।
संतोख-अचछा तो यह रेशमी कपडे और यह जवाहरात और सोने के जेवन उतारकर
फेक दो। बुलहवस ने इनही जंजीरो से तुमहे जाकड िदया है। मोटे से मोटा कपडा जो िमल
सके पहन लो, इन िमटी के घरौदो को िगरा दो। इतर और गुलाब की शीिशया, साबुन की
बिटया, और यह पाउडर के डबबे सब फेक दो।
मलका ने शीिशयो और पाउडर के तडाक-तडाक पटक िदये, सोने के जेवरो को
उतारकर फेक िदया िक इतने मे बुलहवस खा धाडे मार कर रोता हुआ आकर खडा हुआ और
हाथ बाधकर कहने लगा-दोनो जहानो की मलका, मै आपका नाचीज गुलाम हूँ, आप मुझसे
नाराज है?
मलका ने बदला लेने के अपने जोश मे िमटी के घरौदो को पैरो से ठुकरा िदया, ठीकरो
के अमबार को ठोकरे मारकर िबखेर िदया। बुलहवस के शरीर का एक-एक अंग कट-कटकर
िगरने लगा। वह बेदम होकर जमीन पर िगर पडा और दम के दम मे जहनुम रसीद हुआ।

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संतोखिसंह ने मलका से कहा-देखा तुमन? इस दुशमन को तुम िकतना डरावना समझती थी,
आन की आन मे खाक मे िमल गया।
मलका-काश, मुझे यह िहकमत मालूम होती तो मै कभी की आजाद हो जाती। लेिकन
अभी और भी तो दुशमन है।
संतोख-उनको मारना इससे भी आसान है। चलो कणरिसंह के पास, जयो ही वह अपना
सुर अलापने लगे और मीठी-मीठी बाते करने लगे, कानो पर हाथ रख लो, देखो, अदृशय के पदे
से िफर चीज सामने आती है।
मलका कणरिसंह के दरबार मे पहुँची। उसे देखते ही चारो तरफ से धुपद और ितललाने
के वार होने लगे। िपयानो बजने लगे। मलका ने दोनो कान बनद कर िलये। कणरिसंह के
दरबार मे आग का शोला उठने लगा। सारे दरबारी जलने लगे, कणरिसंह दौडा हुआ आया और
बडे िवनय-पूवरक मलका के पैरो पर िगरकर बोला-हुजूर, अपने इस हमेशा के गुलाम पर रहम
करे। कानो पर से हाथ हटा कर वरा इस गरीब की जान पर बन आयेगी। अब कभी हुजूर
की शान मे यह गुसताखी न होगी।
मलका ने कहा-अचछा, जा तेरी जा-बखशी की। अब कभी बगावत न करना वना जान
से हाथ धोएगा।
कणरिसंह ने संतोखिसंह की तरफ पलय की आंखो से देखकर िसफर इतना
कहा-‘जािलम, तुझे मौत भी नही आयी’ और बेतहाशा िगरता-पडता भागा। सेतोखिसंह ने
मलका से कहा-देखा तुमने, इनको मारना िकतना आसान था? अब चलो लोचनदान के पास।
जयोही वह अपने किरशमे िदखाने लगे, दोनो आंखे बनद कर लेना।
मलका लोचनदास के दरबार मे पहँुची। उसे देखते ही लोचन ने अपनी शिकत का
पदशरन करना शुर िकया। डामे होने लगे, नतरको ने िथरकना शुर िकया। लालो-जमुरदर की
किशतया सामने आने लगी लेिकन मलका ने दोनो आंखे बनद कर ली।
आन की आन मे वह डामे और सकरस और नाचनेवालो के िगरोह खाक मे िमल गये।
लोचनदास के चेहरे पर हवाइया उडने लगी, िनराशापूणर धैयर के साथ िचलला-िचललकर कहने
लगा, यह तमाशा देखो, यह पेिरस के कहवेखाने, यह िमस एिलन का नाच है। देखो, अंगेज
रईस उस पर िकतनी उदारता से सोने और हीरे-जवाहरात िनछावर कर रहे है। िजसने यह
सैर-तमाशे ने देखे उसकी िजनदगी मौत से बदतर। लेिकन मलका ने आंखे न खोली।
तब लोचनदास बदहवास और घबराया हुआ, बेद के दरखत की तरह कापता हुआ
मलका के सामने आ खडा हुआ और हाथ जोडकर बोला-हुजूर, आंखे खोले। अपने इस गुलाम
पर रहम करे, नही तो मेरी जान पर बन जाएगी। गुलाम की गुसतािखया माफ फीरमाये। अब
यह बेअदबी न होगी।
मलका ने कहा-अचछा जा, तेरी जाबखशी की लेिकन खबरदार, अब सर न उठाना नही
तो जहनुम रसीद कर दंगू ी।
लोचनदास यह सुनते ही िगरता-पडता जान लेकर भागा। पीछे िफरकर भी न देखा।
संतोखिसंह ने मलका से कहा-अब चलो िमजा शमीम और रसराज के पास। वहॉँ एक हाथ से
नाक बनद कर लेना और दस ू रे हाथ से खानो के तशत को जमीन पर िगरा देना।
मलका रसराज और शमीम के दरबार मे पहुँची उनहोने जो संतोख को मलका के साथ
देखा तो होश उड गये। िमजा शमीम ने कसतूरी और केसर की लपटे उडाना हुर की।
रसराज सवािदष खानो के तशत सजा-सजाकर मलका के सामने लाने लगा, और उनकी
तारीफ करने लगा-यह पुतरगात की तीन आंच दी हुई शराब है, इसे िपये तो बुडडा भी जवान हो
जाये। यह फास का शैमपेन है, इसे िपये तो मुदा िजनदा हो जाय। यह मथुरा के पेडे है, उनहे
खाये तो सवगर की नेमतो को भूल जाय।
लेिकन मलका ने एक साथ से नाक बनद कर ली और दस ू रे हाथ से उन तशतो को
लमीन पर िगरा िदया और बोतलो को ठोकरे मार-मारकर चूर कर िदया। जयो-जयो उसकी

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ठोकरे पडती थी, दरबार के दरबारी चीख-चीख कर भागते थे। आिखर िमजा शमीम और
रसराज दोनो परेशान और बेहाल, सर से खून जारी, अंग-अंग टू टा हुआ, आकर मलका के
सामने खडे हो गये और िगडिगडाकर बोले-हुजूर, गुलामो पर रहम करे। हुजूर की शान मे जो
गुसतािखया हुई है उनहे मुआफ फरमाये, अब िफर ऐसी बेअदबी न होगी।
मनका ने कहा-रसराज को मै जान से माना चाहती हूँ। उसके कारण मुझे जलील
होना पडा।
लेिकन संतोखिसंह ने मना िकया-नही, इसे जान से न मािरये। इस तरह का सेवक
िमलना किठन है। यह आपके सब सूबेदार अपने काम मे यकता है िसफर इनहे काबू मे रखने
की जररत है।
मलका ने कहा-अचछा जाओ, तुम दोनो की भी जा-बखशी की लेिकन खबरदार, अब
कभी उपदव मत खडा करना वना तुम जानोगे।
दोनो िगरत-पडते भागे, दम के दम मे नजरो से ओझल हो गये।
मलका की िरआया और फौज ने भेटे दी, घर-घर शािदयाने बजने लगे। चारो बागी
सूबेदार शहरपनाह के पास छापा मारने की घात मे बैठ गये लेिकन संतोखिसंह जब िरआया
और फौज को मसिजद मे शुिकए की नमाज अदा करने के िलए ले गया तो बािगयो को कोई
उममीद न रही, वह िनराश होकर चले गये।
जब इन कामो से फुसरत हुई तो मलका ने संतोखिसंह से कहा-मेरे पास अलफाज नही
मे इतनी ताकत है िक मै आपके एहसानो का शुिकया अदा कर सकूँ। आपने मुझे गुलामी
ताकत से छुटकारा िदया। मे आिखरी दम तक आपका जस गाऊंगी। अब शाह मसरर के
पास मुझे ले चिल, मै उनकी सेवा करके अपनी उम बसर करना चाहती हूँ। उनसे मुंह
मोडकर मैने बहुत िजललत और मसीबत झेली। अब अभी उनके कदमो से जुदा न हूँगी।
संतोखिसंह-हा, हा, चिलए मै तैयार हूँ लेिकन मंिजल सखत है, घबराना मत।
मलका ने हवाई जहाज मंगाया। पर संतोखिसंह ने कहा-वहा हवाई जहाज का गुजर
नही है, पेदल पडेगा मलका ने मजबूर होकर जहाज वापस कर िदया और अकेले अपने सवाती
को मनाने चली।
वह िदन-भर भूखी-पयासी पैदल चलती रही। आंखो के सामने अंधेरा छाने लगा, पयास
से गले मे काटे पडने लगे। काटो से पैर छलनी हो गये। उसने अपने मागर-दशरक से पूछा-
अभी िकतनी दरू है?
संतोख-अभी बहुत दरू है। चुपचाप चली आओ। यहा बाते करने से मंिजल खोटी हो
जाती है।
रात हुई, आसमान पर बादल छा गये। सामने एक नदी पडी, िकशती का पता न था।
मलका ने पूछा-िकशती कहा है?
संतोष ने कहा-नदी मे चलना पेडगा, यहा िकशती कहा है।
मलका को डर मालूम हुआ लेिकन वह जान पर खेलकर दिरया मे चल पडी। मालूम
हुआ िक िसफर आंख का धोखा था। वह रेतीली जमीन थी। सारी रात संतोखिसंह ने एक कण
के िलए भी दम न िलया। जब भोर का तारा िनकल आया तो मलका ने रोकर कहा-अभी
िकतनी दरू है, मै तो मरी जाती हूँ। संतोखिसंह ने जवाब िदया-चूपचान चली आओ।
मलका ने िहममत करके िफर कदम बढाये। उसने पका इरादा कर िलया था िक रासते
मे मर ही कयो न जाऊँ पर नाकाम न लौटू ँगी। उस कैद से बचने के िलए वह कडी मुसीबते
झेलने को तैयार थी।
सूरज िनकला, सामने एक पहाड नजर आया िजसकी चोिटया आसमान मे घुसी हुई
थी। संतोखिसंह ने पूछा-इसी पहाडी की सबसे ऊंची चोटी पर शाह मसरर िमलेगे, चढ
सकोगी?
मलका ने धीरज से कहा-हा, चढने की कोिशश करंगी।

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बादशाह से भेट होने की उममीद ने उसके बेजान पैरो मे पर लगा िदए। वह तेजी से
कदम उठाकर पहाडो पर चढने लगी। पहाड के बीचो बीच आत-आते वह थककर बैठ गयी,
उसे गश आ गया। मालूम हुआ िक दम िनकल रहा है। उसने िनराश आंखो से अपने िमत को
देखा। संतोखिसंह ने कहा-एक दफा और िहममत करो, िदल मे खुदा की याद करो मलका ने
खुदा की याद की। उसकी आंखे खुल गयी। वह फुती से उठी और एक ही हलले मे चोटी पर
जा पहुँची। उसने एक ठंडी सास ली। वहा शुद हवा मे सास लेते ही मलका के शरीर मे एक
नयी िजंदगी का अनुभव हुआ। उसका चेहरा दमकने लगा। ऐसा मालूम होने लगा िक मै चाहूँ
तो हवा मे उड सकती हूँ। उसने खुश होकर संतोखिसंह तरफ देखा और आशयर के सागर मे
डू ब गयी। शरीर वही था, पर चेहरा शाह मसरर का था। मलका ने िफर उसकी तरफ
अचरज की आंखो से देखा। संतोखिसंह के शरीर पर से एक बादल का पदा हट गया और
मलका को वहा शाह मशरर बडे नजर आए-वही हलका नीला कुता, वही गेरए रंग की तरह।
उनके मुखमणडल से तेज की काित बरस रही थी, माथा तारो की तरह चमक रहा था।
मलका उनके पैरो पर िगर पडी। शाह मसरर ने उसे सीने से लगा िलया।
-‘जमाना’, अपैल,१९१८

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वफा का खंजर

जयगढ और िवजयगढ दो बहुत ही हरे-भरे, सुसंसकृत, दरू -दरू तक फैले हुए, मजबूत राजय
थे। दोनो ही मे िवदा और कलाद खूब उननत थी। दोनो का धमर एक, रसम-िरवाज एक,
दशरन एक, तरकी का उसूल एक, जीवन मानदणड एक, और जबान मे भी नाम मात का ही
अनतर था। जयगढ के किवयो की किवताओं पर िवजयगढ वाले सर धुनते और िवजयगढी
दाशरिनको के िवचार जयगढ के िलए धमर की तरह थे। जयगढी सुनदिरयो से िवजयगढ के
घर-बार रोशन होते थे और िवजयगढ की देिवया जयगढ मे पुजती थी। तब भी दोनो राजयो मे
ठनी ही नही रहती थी बिलक आपसी फूट और ईषया-देष का बाजार बुरी तरह गमर रहता और
दोनो ही हमेशा एक-दस ू रे के िखलाफ खंजर उठाए थे। जयगढ मे अगर कोई देश को सुधार
िकया जाता तो िवजयगढ मे शोर मच जाता िक हमारी िजंदगी खतरे मे है। इसी तरह तो
िवजयगढ मे कोई वयापािरक उनित िदखायी देती तो जयगढ मे शोर मच जाता था। जयगढ
अगर रेलवे की कोई नई शाख िनकालता तो िवजयगढ उसे अपने िलए काला साप समझता
और िवजयगढ मे कोई नया जहाज तैयार होता तो जयगढ को वह खून पीने वाला घिडयाल
नजर आता था। अगर यह बदुगमािनयॉँ अनपढ या साधारण लोगो मे पैदा होती तो एक बात
थी, मजे की बात यह थी िक यह राग-देष, िवदा और जागृित, वैभव और पताप की धरती मे
पैदा होता था। अिशका और जडता की जमीन उनके िलए ठीक न थी। खास सोच-िवचार
और िनयम-वयवसथा के उपजाऊ केत मे तो इस बीज का बढना कलपना की शिकत को भी मात
कर देता था। ननहा-सा बीज पलक मारते-भर मे ऊंचा-पूरा दखत हो जाता था। कूचे और
बाजारो मे रोने -पीटने की सदाएं गूंजने लगती, देश की समसयाओं मे एक भूचाल-सा आता,
अखबारो के िदल जलाने वाले शबद राजय मे हलचल मचा देते, कही से आवाज आ जाती—
जयगढ, पयारे जयगढ, पिवत के िलए यह किठन परीका का अवसर है। दुशमन ने जो िशका की
वयवसथा तैयार की है, वह हमारे िलए मृतयु का संदेश है। अब जररत और बहुत सखत
जररत है िक हम िहममत बाधे और सािबत कर दे िक जयगढ, अमर जयगढ इन हमलो से
अपनी पाण-रका कर सकता है। नही, उनका मुंह-तोड जवाब दे सकता है। अगर हम इस
वकत न जागे तो जयगढ, पयारा जयगढ, हसती के परदे से हमेशा के िलए िमट जाएगा और
इितहास भी उसे भुला देगा।
दसू री तरफ से आवाज आती—िवजयगढ के बेखबर सोने वालो, हमारे मेहरबान
पडोिसयो ने अपने अखबारो की जबान बनद करने के िलए जो नये कायदे लागू िकये है, उन
पर नाराजगी का इजहार करना हमारा फजर है। उनकी मंशा इसके िसवा और कुछ नही है िक
वहा के मुआमलो से हमको बेखबर रकखा जाए और इस अंधेरे के परदे मे हमारे ऊपर धावे
िकये जाएं, हमारे गलो पर फेरने के िलए नये-नये हिथयार तैयार िकए जाएं, और आिखरकार
हमारा नाम-िनशान िमटा िदया जाए। लेिकन हम अपने दोसतो को जता देना अपना फजर
समझते है िक अगर उनहे शरारत के हिथयारो की ईजाद के कमाल है तो हमे भी उनकी काट
करने मे कमाल है। अगर शैतान उनका मददगार है तो हमको भी ईशर की सहायता पापत है
और अगर अब तक हमारे दोसतो को मालूम नही है तो अब होना चािहए िक ईशर की सहायता
हमेशा शैतान को दबा देती है।

ज यगढ बाकमाल कलावनतो का अखाडा था। शीरी बाई इस अखाडे की सबज परी थी,
उसकी कला की दरू -दरू तक खयाित थी। वह संगीत की राती थी िजसकी डयोढी पर
बडे-बडे नामवर आकर िसर झुकाते थे। चारो तरफ िवजय का डंका बजाकर उसने िवजयगढ
की ओर पसथान िकया, िजससे अब तक उसे अपनी पशंसा का कर न िमला था। उसके आते
ही िवजयगढ मे एक इंकलाब-सा हो गया। राग-देष और अनुिचत गवर हवा से उडने वाली
सूखी पितयो की तरह िततर-िबतर हो गए। सौदयर और राग के बाजार मे धूल उडने लगी,
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िथएटरो और नृतयशालाओं मे वीरानी छा गयी। ऐसा मालूम होता था िक जैसे सारी सृिष पर
जादू छा गया है। शाम होते ही िवजयगढ के धनी-धोरी, जवान-बूढे शीरी बाई की मजािलस की
तरफ दौडते थे। सारा देश शीरी की भिकत के नशे मे डू ब गया।
िवजयगढ के सचेत केतो मे देशवािसयो के इस पागलपन से एक बेचैनी की हालत पैदा
हुई, िसफर यही नही िक उनके देश की दौलत बबाद हो रही थी बिलक उनका राषटीय अिभमान
और तेज भी धूल मे िमल जाता था। जयगढ की एक मामूली नाचनेवाली, चाहे वह िकतनी ही
मीठी अदाओं वाली कयो न हो, िवजयगढ के मनोरंजन का केद बन जाय, यह बहुत बडा अनयाय
था। आपस मे मशिवरे हुए और देश के पुरोिहतो की तरफ से देश के मिनतयो की सेवा मे इस
खास उदेशय से एक िशषमणडल उपिसथत हुआ। िवजयगढ के आमोद-पमोद के कताओं की
ओर से भी आवेदनमत पेश होने लगे। अखबारो ने राषटीय अपमान और दुभागय के तराने
छेडे। साधारण लोगो के हलको मे सवालो की बौछार होने लगी, यहा तक िक वजीर मजबूर हो
गए, शीरी बाई के नाम शाही फरमान पहुँचा—चूंिक तुमहारे रहने से देश मे उपदव होने की
आशंका है इसिलए तुम फौरन िवजयगढ से चली जाओ। मगर यह हुकम अंतराषटीय संबध ं ो,
आपसी इकरारनामे और सभयता के िनयमो के सरासर िखलाफ था। जयगढ के राजदत ू ने ,
जो िवजयगढ मे िनयुकत था, इस आदेश पर आपित की और शीरी बाई ने आिखरकार उसको
मानने से इनकार िकया कयोिक इससे उसकी आजादी और खुदारी और उसके देश के
अिधकारो और अिभमान पर चोट लगती थी।

ज यगढ के कूचे और बाजार खामोश थे। सैर की जगहे खाली। तफरीह और तमाशे
बनद। शाही महल के लमबे-चौडे सहने और जनता के हरे-भरे मैदानो मे आदिमयो की
भीड थी, मगर उनकी जबाने बनद थी और आंखे लाल। चेहरे का भाव कठोर और कुबध,
तयोिरया हुई, माथे पर िशकन, उमडी हुई काली घटा थी, डरावनी, खसमोश, और बाढ को
अपने दामन मे िछपाए हुए।
मगर आम लोगो मे एक बडा हंगामा मचा हुआ था, कोई सुलह का हामी था, कोई लडाई
की माग करता था, कोई समझौते की सलाह देता था, कोई कहता था िक छानबीने करने के
िलए कमीशन बैठाओ। मामला नाजुक थ, मौका तंग, तो भी आपसी बहस-मुबाहसो,
बदगुमािनयो, और एक-दस ू रे पर हमलो का बाजार गमर था। आधी रात गुजर गयी मगर कोई
फैसला न हो सका। पूंजी की संगिठत शिकत, उसकी पहुँच और रोबदाब फैसले की जबान
बनद िकये हुए था।
तीन पहर रात जा चुकी थी, हवा नीद से मतवाली होकर अंगडाइया ले रही थी और
दरखतो की आंख झपकती थी। आकाश के दीपक भी झलमलाने लगे थे , दरबारी कभी दीवारो
की तरफ ताकते थे, कभी छत की तरफ। लेिकन कोई उपाय न सूझता था।
अचानक बाहर से आवाज आयी—युद! युद! सारा शहर इस बुलंद नारे से गंज उठा।
दीवारो ने अपनी खामोश जबान से जवाब िदया—युद! यद!
यह अदृष से आने वाली एक पुकार थी िजसने उस ठहराव मे हरकत पैदा कर दी
थी। अब ठहरी हुई चीजो मे खलबली-सी मच गयी। दरबारी गोया गलफत की नीद से चौक
पडे। जैसे कोई भूली हुई बात याद आते ही उछल पडे। युद मंती सैयद असकरी ने फरमाया
—कया अब भी लोगो को लडाई का ऐलाल करने मे िहचिकचाहट है? आम लोगो की जबान
खुदा का हुकम और उसकी पुकार अभी आपके कानो मे आयी, उसको पूरा करना हमारा फजर
है। हमने आज इस लमबी बैठक मे यह सािबत िकया है िक हम जबान के धनी है, पर जबान
तलवार है, ढाल नही। हमे इस वकत ढाल की जररत है, आइये हम अपने सीनो को ढाल बना
ले और सािबत कर दे िक हममे अभी वह जौहर बाकी है िजसने हमारे बुजुगों का नाम रोशन
िकया। कौमी गैरत िजनदगी की रह है। वह नफे और नुकसान से ऊपर है। वह हणु डी और
रोकड, वसूल और बाकी, तेजी और मनदी की पाबिनदयो से आजाद है। सारी खानो की िछपी

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हुई दौलत, सारी दुिनया की मिणडया, सारी दुिनया के उदोग-धंधे उसके पासंग है। उसे
बचाइये वना आपका यह सारा िनजाम िततर-िबतर हो जाएगा, शीरजा िबखर जाएगा, आप िमट
जाएंगे। पैसे वालो से हमारा सवाल है—कया अब भी आपको जंग के मामले मे िहचिकचाहट
है?
बाहर से सैकडो की आवाजे आयी—जंग! जंग!
एक सेठ साहब ने फरमाया—आप जंग के िलए तैयार है?
असकरी—हमेशा से जयादा।
खवाजा साहब—आपको फतेह का यकीन है?
असकरी—पूरा यकीन है।
दरू -पास ‘जंग’जंग’ की गरजती हुई आवाजो का ताता बंध गया िक जैसे िहमालय के
िकसी अथाह खडड से हथौडो की झनकार आ रही हो। शहर काप उठा, जमीन थराने लगी,
हिथयार बंटने लगे। दरबािरयो ने एक मत लडाई का फैसला िकया। गैरत जो कुछ ने कर
सकती थी, वह अवाम के बारे ने कर िदखाया।

आ ज से तीस साल पहले एक जबदरसत इनकलाब ने जयगढ को िहला डाला था। वषों
तक आपसी लडाइयो का दौर रहा, हजारो खानदान िमट गये। सैकडो कसबे बीरान हो
गये। बाप, बेटे के खून का पयासा था। भाई, भाई की जान का गाहक। जब आिखरकार
आजादी की फतेह हुई तो उसने ताज के िफदाइयो को चुन-चुन कर मारा । मुलक के
कैदखाने देश-भकतो से भर उठे। उनही जॉँबाजो मे एक िमजा मंसूर भी था। उसे कनौज के
िकले मे कैद िकया गया िजसके तीन तरफ ऊंची दीवारे थी। और एक तरफ गंगा नदी। मंसूर
को सारे िदन हथौडे चलान पडते। िसफर शाम को आध घंटे के िलए नमाज की छुटी िमलती
थी। उस वकत मंसूर गंगा के िकनारे आ बैठता और देशभाइयो की हालत पर रोता। वह सारी
राषटीय और सामािजक वयवसथा जो उसके िवचार मे राषटीयता का आवशयक अंग थी, इस
हंगामे की बाढ मे नष हो रही थी। वह एक ठणडी आह भरकर कहता—जयगढ, अब तेरा
खुदा ही रखवाला है, तूने खाक को अकसीर बनाया और अकसीर को खाक। तूने खानदान
की इजजत को, अदब और इखलाग का, इलमो—कमाल को िमटा िदया।, बबाद कर िदया।
अब तेरी बागडोर तेर हाथ मे नही है, चरवाहे तेरे रखवाले और बिनये तेरे दरबारी है। मगर
देख लेना यह हवा है, और चरवाहे और साहूकार एक िदन तुझे खून के आंसू रलायेगे। धन
और वैभव अपना ढंग न छोडेगा, हुकूमत अपना रंग न बदलेगी, लोग चाहे ल जाएं, लेिकन
िनजाम वही रहेगा। यह तेरे नए शुभ िचनतक जो इस वकत िवनय और सतय और नयाय की
मूितरयॉँ बने हूए है, एक िदन वैभव के नशे मे मतवाले होगे, उनकी शिकतया ताज की शिकतयो
से कही जयादा सखत होगी और उनके जुलम कही इससे जयादा तेज।
इनही खयालो मे डू बे हुए मंसूर को अपने वतन की याद आ जाती। घर का नकशा
आंखो के सामने िखंच जाता, मासूम बचचे असकरी की पयारी-पयारी सूरत आंखो मे िफर जाती,
िजसे तकदीर ने मा के लाड-पयार से वंिचत कर िदया था। तब मंसूर एक ठणडी आह खीचकर
खडा होता और अपने बेटे से िमलने की पागल इचछा मे उसका जी चाहता िक गंगा मे कूदकर
पार िनकल जाऊँ।
धीरे-धीरे इस इचछा ने इरादे की सूरत अिखतयार की। गंगा उमडी हुई थी, ओर-छोर
का कही पता नथ । तेज और गरजती हुई लहरे दौडते हुए पहाडो के समान थी। पाट
देखकर सनर मे चकर-सा आ जाता था। मंसूर ने सोचा, नही उतरने दं। ू लेिकन नदी उतरने
के बदले भयानक रोग की तरह बढती जाती थी, यहा तक िक मंसूर को िफर धीरज न रहा,
एक िदन वह रात को उठा और उस पुरशोर लहरो से भरे हुए अंधेरे मे कुछ पडा।
मंसूर सारी रात लहरो के साथ लडता-िभडता रहा, जैसे कोई ननही-सी िचिडया तूफान
मे थपेडे खा रही हो, कभी उनकी गोद मे िछपा हुआ, कभी एक रेले मे दस कदम आगे, कभी

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एक धके मे दस कदम पीछे। िजनदगी की िलखावट की िजनदा िमसाल। जब वह नदी के पार
हुआ तो एक बेजान लाश था, िसफर सास बाकी थी और सास के साथ िमलने की इचछा।
इसके तीसरे िदन मंसूर िवजयगढ जा पहुँचा। एक गोद मे असकरी था और दस ू रे
हाथ मे गरीबी का छोटा-साउ एक बुकचा। वहा उसने अपना नाम िमजा जलाल बताया।
हुिलया भी बदल िलया था, हटा-कटा सजीला जवान था, चेहरे पर शराफत और कुशीलनता
की कािनत झलकती थी; नौकरी के िलए िकसी और िसफािरश की जररत न थी। िसपािहयो
मे दािखल हो गया और पाच ही साल मे अपनी िखदमतो और भरोसे की बदौलत मनदौर के
सरहदी पहाडी िकले का सूबेदार बना िदया गया।
लेिकन िमजा जलाल को वतन की याद हमेशा सताया करती। वह असकरी को गोद
मे ले लेता और कोट पर चढकर उसे जयगढ की वह मुसकराती हुई चरागाहे और मतवाले
झरने और सुथरी बिसतया िदखाता िजनके कंगूरे िकले से नजर आते। उस वकत बेअिखतयार
उसके िजगर से सदर आह िनकल जाती और ऑंखे डबडबा आती। वह असकरी को गले लगा
लेता और कहता—बेटा, वह तुमहार देश है। वही तुमहारा और तुमहारे बुजुगों का घोसला है।
तुमसे हो सके तो उसके एक कोने मे बैठे हुए अपनी उम खतम कर देना, मगर उसकी आन मे
कभी बटा न लगाना। कभी उससे दया मत करना कयोिक तुम उसी िक िमटी और पानी से
पैदा हुए हो और तुमहारे बुजुगों की पाक रहे अब भी वहा मंडला रही है। इस तरह बचपने से
ही असकरी के िदल पर देश की सेवा और पेम अंिकत हो गया था। वह जवान हुआ, तो
जयगढ पर जान देता था। उसकी शान-शौकत पर िनसार, उसके रोबदाब की माला जपने
वाला। उसकी बेहतरी को आगे बढाने के िलए हर वकत़ तैयार। उसके झणडे को नयी अछू ती
धरती मे गाडने का इचछुक। बीस साल का सजीला जवान था, इरादा मजबूत, हौसले बुलनद,
िहममत बडी, फौलादी िजसम, आकर जयगढ की फौज मे दािखल हो गया और इस वकत
जयगढ की फौज का चमकजा सूरज बन हुआ था।

ज यगढ ने अलटीमेटम दे िदया—अगर चौिबस घणटो के अनदर शीरी बाई जयगढ न पहुँची
तो उसकी अगवानी के िलए जयगढ की फौज रवाना होगी।
िवजयगढ ने जवाब िदया—जयगढ की फौज आये, हम उसकी अगवानी के िलए हािजर
है। शीरी बाई जब तक यहा की अदालत से हुकम-उदल ू ी की सजा न पा ले, वह िरहा नही हो
सकती और जयगढ को हमारे अंदरनी मामलो मे दखल देने का कोई हक नही।
असकरी ने मुंहमागी मुराद पायी। खुिफया तौर पर एक दत ू िमजा जलाल के पास
रवाना िकया और खत मे िलखा—
‘आज िवजयगढ से हमारी जंग िछड गयी, अब खुदा ने चाहा तो दुिनया जयगढ की
तलवार का लोहा मान जाएगी। मंसूर का बेटा असकरी फतेह के दरबार का एक अदना
दरबारी बन सकेगा और शायद मेरी वह िदली तमना भी पूरी हो जो हमेशा मेरी रह को
तडपाया करती है। शायद मै िमजा मंसूर को िफर जयगढ की िरयासत मे एक ऊंची जगह पर
बैठे देख सकूं। हम मनदौर मे न बोलेगे और आप भी हमे न छेिडएगा लेिकन अगर खुदा न
खवासता कोई मुसीबत आ ही पडे तो आप मेरी यह मुहर िजस िसपाही या अफसर को िदखा
देगे वह आपकी इजजत करेगा। और आपको मेरे कैमप मे पहुँचा देगा। मुझे यकीन है िक अगर
जररत पडे तो उस जयगढ के िलए जो आपके िलए इतना पयारा है और उस असकरी के
खाितर जो आपके िजगर का टुकडा है, आप थोडी-सी तकलीफ से (मुमिकन है वह रहानी
तकलीफ हो) दरेग न फरमायेगे।’
इसके तीसरे िदन जयगढ की फौज ने िवजयगढ पर हमला िकया और मनदौर से पाच
मील के फासले पर दोनो फौजो का मुकाबला हुआ। िवजयगढ को अपने हवाई जहाजो,
जहरीले गडढो और दरू तक मार करने वाली तोपो का घमणड था। जयगढ को अपनी फौज

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की बहादुरी, जीवट, समझदारी और बुिद का था। िवजयगढ की फौज िनयम और अनुशासन
की गुलाम थी, जयगढ वाले िजममेदारी और तमीज के कायल।
एक महीने तक िदन-रात, मार-काट के माके होता रहे। हमेशा आग और गोलो और
जहरीली हवाओं का तूफान उठा रहता। इनसान थक जाता था, पर कले अथक थी।
जयगिढयो के हौसले पसत हो गये, बार-बार हार पर हार खायी। असकरी को मालूम हुआ िक
िजममेदारी फतेह मे चाहे किरशमे कर िदखाये, पर िशकसत मे मैदान हुकम की पाबनदी ही के
साथ रहता है।
जयगढ के अखबारो ने हमले शुर िकये। असकरी सारी कौम की लानत-मलामत का
िनशाना बन गया। वही असकरी िजस पर जयगढ िफदा होता था सबकी नजरो का काटा हो
गया। अनाथ बचचो के आंसू, िवधवाओं की आहे, घायलो की चीख-पुकार, वयापिरयो की
तबाही, राषट का अपमान—इन सबका कारण वही एक वयिकत असकरी था। कौम की अगुवाई
सोने की राजिसंहासन भले ही हो पर फूलो की मेज वह हरिगज नही।
जब जयगढ की जान बचने की इसके िसवा और कोई सूरत न थी िक िकसी तरह
िवरोधी सेना का समबनध मनदौर के िकले से काट िदया जाय, जो लडाई और रसद के सामान
और यातायात के साधनो का केद था। लडाई किठन थी, बहुत खतरनाक, सफलता की
आशा बहुत कम, असफलता की आशंका जी पर भारी। कामयाबी अगर सूखे धान का पानी
थी तो नाकामी उसकी आग। मगर छुटकारे की और कोई दस ू री तसवीर न थी। असकरी ने
िमजा जलाल को िलखा—
‘पयारे अबबाजान, अपने िपछले खत मे मैने िजस जररत का इशारा िकया था,
बदिकसमती से वह जररत आ पडी। आपका पयारा जयगढ भेिडयो के पंजे मे फंसा हुआ है
और आपका पयारा असकरी नाउममीदो के भंवर मे, दोनो आपकी तरफ आस लगाये ताक रहे
है। आज हमारी आिखरी कोिशश, हम मुखािलफ फौज को मनदौर के िकले से अलग करना
चाहते है। आधी रात के बाद यह माका शुर होगा। आपसे िसफर इतनी दरखवासत है िक अगर
हम सर हथेली पर लेकर िकले के सामने तक पहुँच सके, तो हमे लोहे के दरवाजे से सर
टकराकर वापस न होना पडे। वना आप अपनी कौम की इजजत और अपने बेटे की लाश को
उसी जगह पर तडपते देखेगे और जयगढ आपको कभी मुआफ न करेगा। उससे िकतनी ही
तकलीफ कयो न पहुँची हो मगर आप उसके हको से सुबुकदोश नही हो सकते।’
शाम हो चुकी थी, मैदाने जंग ऐसा नजर आता था िक जैसे जंगल जल गया हो।
िवजयगढी फौज एक खूंरेज माके के बाद खनदको मे आ रही थी, घायल मनदौर के िकले के
असपताल मे पहुँचाये जा रहे थे, तोपे थककर चुप हो गयी थी और बनदक ू े जरा दम ले रही
थी। उसी वकत जयगढी फौज का एक अफसर िवजयगढी वदी पहने हुए असकरी के खेमे से
िनकला, थकी हुई तोपे, सर झुकाये हवाई जहाज, घोडो की लाशे, औंधी पडी हईु हवागािडया,
और सजीव मगर टू टे-फूटे िकले, उसके िलए पदे का काम करने लगे। उनकी आड मे िछपता
हुआ वह िवजयगढी घायलो की कतार मे जा पहुँचा और चुपचाप जमीन पर लेट गया।

आ धी रात गुजर चुकी थी। मनदौर या िकलेदार िमजा जलाल िकले की दीवार पर बैठा
हुआ मैदाने जंग का तमाशा देख रहा था और सोचता था िक ‘असकरी को मुझे ऐसा
खत िलखने की िहममत कयोकर हुई। उसे समझना चािहए था िक िजस शखस़ ने अपने उसूलो
पर अपनी िजनदगी नयौछावर कर दी, देश से िनकाला गया, और गुलामी का तौक गदरन मे
डाला वह अब अपनी िजनदगी के आिखरी दौर मे ऐसा कोई काम न करेगा, िजससे उसको बटा
लगे। अपने उसूलो को न तोडेगा। खुदा के दरबार मे वतन और वतनवाले और बेटा एक भी
साथ न देगा। अपने बुरे-भले की सजा या इनाम आप ही भुगतना पडेगा। िहसाब के रोज
उसे कोई न बचा सकेगा।

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‘तौबा! जयगिढयो से िफर वही बेवकूफी हुई। खामखाह गोलेबारी से दुशमनो को खबर
देने की कया जररत थी? अब इधर से भी जवाब िदया जायेगा और हजारो जाने जाया होगी।
रात के अचानक हमले के माने तो यह है िक दुशमन सर पर आ जाए और कान खबर न हो,
चौतरफा खलबली पड जाय। माना िक मौजूदा हालत मे अपनी हरकतो को पोशीदा रखना
शायद मुिशकल है। इसका इलाज अंधेरे के खनदक से करना चािहये था। मगर आज शायद
उनकी गोलेबारी मामूल से जया तेज है। िवजयगढ की कतारो और तमाम मोचेबिनदयो को
चीरकर बजािहर उनका यहा तक आना तो मुहाल मालूम होता था, लेिकन अगर मान लो आ ही
जाएं तो मुझे कया करना चािहये। इस मामले को तय कयो न कर लूँ? खूब, इसमे तय करने
की बात ही कया है? मेरा रासता साफ है। मै िवजयगढ का नमक खाता हूँ। मै जब बेघरबार,
परेशान और अपने देश से िनकला हुआ था तो िवजयगढ ने मुझे अपने दामन मे पनाह दी और
मेरी िखदमतो का मुनािसब िलहाज िकय। उसकी बदौलत तीस साल तक मेरी िजनदगी
नेकनामी और इजजत से गुजरी। उसके दगा करना हद दजे की नमक-हरामी है। ऐसा गुनाह
िजसकी कोई सजा नही! वह ऊपर शोर हो रहा है। हवाई जहाज होगे, वह गोला िगरा, मगर
खैिरयत हुई, नीचे कोई नही था।
‘मगर कया दगा हर एक हालत मे गुनाह है? ऐसी हालते भी तो है, जब दगा वफा से भी
जयादा अचछी हो जाती है। अपने दुशमन से दगा करना कया गुनाह है? अपनी कौम के दुशमन
से दगा करना कया गुनाह है? िकतने ही काम जो जाती हैिसयत से ऐसे होते है िक उनहे माफ
नही िकया जा सकता, कौमी हैिसयत से नेक काम हो जाते है। वही बेगुनाह का खून जो जाती
हैिसयत से सखत़ सजा के कािबल है, मजहबी हैिसयत से शहादत का दजा पाता है, और कौमी
हैिसयत से देश-पेम का। िकतनी बेरहिमया और जुलम, िकतनी दगाएं और चालबािजया,
कौमी और मजहबी नुकते-िनगाह से िसफर ठीक ही नही, फजों मे दािखल हो जाती है। हाल
की यूरोप की बडी लडाई मे इसकी िकतनी ही िमसाले िमल सकती है। दुिनया का इितहास
ऐसी दगाओं से भरा पडा है। इस नये दौर मे भले और बुरे का जाती एहसास कौमी मसलहत
के सामने कोई हकीकत नही रखता। कौिमयत ने जात को िमटा िदया है। मुमिकन है यही
खुदा की मंशा हो। और उसके दरबार मे भी हमारे कारनामे कौम की कसौटी ही पर परखे
जायं। यह मसला इतना आसान नही है िजतना मै समझता था।
‘िफर आसमान मे शोर हुआ इतना मगर शायद यह इधर की के हवाई जहाज है।
जयगढ वाले बडे दमखम से लड रहे है। इधर वाले दबते नजर आते है। आज यकीनन मैदान
उनही के हाथ मे रहेगा। जान पर खेले हुए है। जयगढी वीरो की बहादुरी मायूसी ही मे खूब
खुलती है। उनकी हार जीत से भी जयादा शानदार होती है। बेशक, असकरी दॉँव-पेच का
उसताद है, िकस खूबसूरती से अपनी फौज का रख िकले के दरवाजे की तरफ फेर िदया।
मगर सखत गलती कर रहे है। अपने हाथो अपनी कब खोद रहे है। सामने का मैदान दुशमन
के िलए खाली िकये देते है। वह चाहे तो िबना रोक-टोक आगे बढ सकता है और सुबह तक
िकये देते है। वह चाहे तो िबना रोक-टोक आगे बढ सकता है। और सुबह तक जयगढ की
सरजमीन मे दािखल हो सकता है। जयगिढयो के िलए वापसी या तो गैरमुमिकन है या
िनहायत खतरनाक। िकले का दरवाजा बहुत मजबूत है। दीवारो की संिधयो से उन पर
बेशुमार बनदकू ो के िनशाने पडेगे। उनका इस आग मे एक घणटा भी ठहरना मुमिकन नही है।
कया इतने देशवािसयो की जाने िसफर एक उसूल पर, िसफर िहसाब के िदन के डर पर, िसफर
अपने इखलाकी एहसास पर कुबान कर दँू? और महज जाने ही कयो? इस फौज की तबाही
जयगढ की तबाही है। कल जयगढ की पाक सरजमीन दुशमन की जीत के नककारो से गूंज
उठेगी। मेरी माएं, बहने और बेिटया हया को जलाकर खाक कर देने वाली हरकतो का िशकार
होगी। सारे मुलक मे कतल और तबाही के हंगामे बरपा होगे। पुरानी अदावत और झगडो के
शोले भडकेगे। किबसतान मे सोयी हुई रहे दुशमन के कदमो से पामाल होगी। वह इमारते जो
हमारे िपछले बडपपन की िजनद िनशािनयॉँ है, वह यादगारे जो हमारे बुजुगों की देन है, जो हमारे

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कारनामो के इितहास, हमारे कमालो का खजाना और हमारी मेहनतो की रोशन गवािहया है,
िजनकी सजावट और खूबी को दुिनया की कौमे सपदा की आंखो से देखती है वह अदर-बबरर,
असभय लशकिरयो का पडाव बनेगी और उनके तबाही के जोश का िशकार। कया अपनी कौम
को उन तबािहयो का िनशाना बनने दं?ू महज इसिलए िक वफा का मेरा उसूल न टू टे?
‘उफ्, यह िकले मे जहरीले गैस कहा से आ गये। िकसी जयगढी जहाज की हरकत
होगी। सर मे चकर-सा आ रहा है। यहा से कुमक भेजी जा रही है। िकले की दीवार के
सूराखो मे भी तोपे चढाई जा रही है। जयगढवाले िकले के सामने आ गये। एक धावे मे वह
हंुमायूं दरवाजे तक आ पहुँचेगे। िवजयगढ वाले इस बाढ को अब नही रोक सकते। जयगढ
वालो के सामने कौन ठहर सकता है? या अललाह, िकसी तरह दरवाजा खुद-ब-खुद खुल
जाता, कोई जयगढी हवाबाज मुझसे जबदरसती कु ंजी छीन लेता। मुझे मार डालता। आह, मेरे
इतने अजीज हम-वतन पयारे भाई आन की आन मे खाक मे िमल जायेगे और मै बेबस हूँ! हाथो
मे जंजीर है, पैरो मे बेिडया। एक-एक रोआं रिससयो से जकडा हुआ है। कयो न इस जंजीर
को तोड दँू, इन बेिडयो के टुकडे-टुकडे कर दंू, और दरवाजे के दोनो बाजू अपने अजीज
फतेह करने वालो की अगवानी के िलए खोल दंू! माना िक यह गुनाह है पर यह मौका गुनाह से
डरने का नही। जहनुम की आग उगलने वाले साप और खून पीन वाले जानवर और लपकते
हुए शोले मेरी रह को जलाये, तडपाये कोई बात नही। अगर महज मेरी रह की तबाही, मेरी
कौम और वतन को मौत के गडढे से बचा सके तो वह मुबारक है। िवजयगढ ने जयादती की
है, उसने महज जयगढ को जलील करने के िलए िसफर उसको भडकाने के िलए शीरी बाई को
शहर-िनकाले को हकु म़ जारी िकया जो सरासर बेजा था। हाय, अफसोस, मैने उसी वकत
इसतीफा न दे िदया और गुलामी की इस कैद से कयो न िनकल गया।
‘हाय गजब, जयगढी फौज खनदको तक पहुँच गयी, या खुदा! इन जाबाजो पर रहम
कर, इनकी मदद कर। कलदार तोपो से कैसे गोले बरस रहे है, गोया आसमान के बेशुमार
तारे टू ट पडते है। अललाह की पनाह, हुमायूं दरवाजे पर गोलो की कैसी चोटे पड रही है।
कान के परदे फटे जाते है। काश दरवाजा टू ट जाता! हाय मेरा असकरी, मेरे िजगर का
टुकडा, वह घोडे पर सवार आ रहा है। कैसा बहादुर, कैसा जाबाज, कैसी पकी िहममत वाला!
आह, मुझ अभागे कलमुंहे की मौत कयो नही आ जाती! मेरे सर पर कोई गोला कयो नही आ
िगरता! हाय, िजस पौधे को अपने िजगर के खून से पाला, जो मेरी पतझड जैसी िजनदगी का
सदाबहार फूल था, जो मेरी अंधेरी रात का िचरा, मेरी िजनदगी की उममीद, मेरी हसती का
दारोमदार, मेरी आरजू की इनतहा था, वह मेरी आंखो के सामने आग के भंवर मे पडा हुआ है,
और मै िहल नही सकता। इस काितल जंजीर को कयोकर तोड दंू? इस बागी िदल को
कयोकर समझाऊं? मुझे मुंह मे कािलख लगाना मंजूर है, मुझे जहनुम की मुसीबते झेलना मंजूर
है, मै सारी दुिनया के गुनाहो का बोझ अपने सर पर लेने को तैयार हूँ, िसफर इस वकत मुझे
गुनाही करने की, वफा के पैमाने को तोडने की, नमकहराम बनने की तौफीक दे! एक लमहे के
िलए मुझे शैतान के हवाले कर दे, मै नमक हराम बनूंगा, दगाबाज बनूंगा पर कौमफरोश नही
बन सकता!
‘आह, जािलम सुरगं े उडाने की तैयारी कर रहे है। िसपहसालार ने हुकम दे िदया। वह
तीन आदमी तहखाने की तरफ चले। िजगर काप रहा है, िजसम काप रहा है। यह आिखरी
मौका है। एक लमहा और, बस िफर अंधेरा है और तबाही। हाय, मेरे ये बेवफा हाथ-पाव अब
भी नही िहलते, जैसे इनहोने मुझसे मुंह मोड िलया हो। यह खून अब भी गरम नही होता।
आह, वह धमाके की आवाज हुई, खुदा की पनाह, जमीन कॉँप उठी, हाय असकरी, असकरी,
रखसत, मेरे पयारे बेटे, रखसत, इस जािलम बेरहम बाप ने तुझे अपनी वफा पर कुबान कर
िदया! मै तेरा बाप न था, तेरा दुशमन था! मैने तेरे गले पर छुरी चलयी। अब धुआं साफ हो
गया। आह वह फौज कहा है जो सैलाब की तरह बढती आती थी और इन दीवारो से टकरा

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रही थी। खनदके लाशो से भरी हुई है और वह िजसका मै दुशमन था, िजसका काितल, वह
बेटा, वह मेरा दुलारा असकरी कहा है, कही नजर नही आता....आह....।’
—‘जमाना’, नवमबर, १९१८

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पपपपपप पपपपपप

रा त के नौ बज गये थे, एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हईु आग फूंकती थी और उसके


गाल आग के कुनदनी रंग मे दहक रहे थ। उसकी बडी-बडी आंखे दरवाजे की तरफ लगी
हुई थी। कभी चौककर आंगन की तरफ ताकती, कभी कमरे की तरफ। िफर आनेवालो की
इस देरी से तयोिरयो पर बल पड जाते और आंखो मे हलका-सा गुससा नजर आता। कमल
पानी मे झकोले खाने लगता।
इसी बीच आनेवालो की आहट िमली। कहर बाहर पडा खराटे ले रहा था। बूढे लाला
हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा-कमबखत, अभी शाम हुई है और अभी से
लमबी तान दी!
नौजवान लाला हिरदास घर मे दािखल हुए—चेहरा बुझा हुआ, िचिनतत। देवकी ने
आकर उनका हाथ पकड िलया और गुससे व पयार की िमली ही हुई आवाज मे बोली—आज
इतनी देर कयो हुई?
दोनो नये िखले हुए फूल थे—एक पर ओस की ताजगी थी, दस ू रा धूप से मुरझाया
हुआ।
हिरदास—हा, आज देर हो गयी, तुम यहा कयो बैठी रही?
देवकी—कया करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठनडा हो जाता।
हिरदास—तुम जरा-से-काम के िलए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया
गरम खाने से।
देवकी—अचछा, कपडे तो उतारो, आज इतनी देर कयो की?
हिरदास—कया बताऊँ, िपताजी ने ऐसा नाक मे दम कर िदया है िक कुछ कहते नही
बनता। इस रोज-रोज की झंझट से तो यही अचछा िक मै कही और नौकरी कर लूं।
लाला हरनामदास एक आटे की चकी के मािलक थे। उनकी जवानी के िदनो मे आस-
पास दस ू री चकी न थी। उनहोने खूब धन कमाया। मगर अब वह हालत न थी। चिकया
कीडे-मकोडो की तरह पैदा हो गयी थी, नयी मशीनो और ईजादो के साथ। उसके काम
करनेवाले भी जोशीले नौजवान थे, मुसतैदी से काम करते थे। इसिलए हरनामदास का
कारखाना रोज िगरता जाता था। बूढे आदिमयो को नयी चीजो से िचढ हो जाती है। वह लाला
हरनामदास को भी थी। वह अपनी पुरानी मशीन ही को चलाते थे, िकसी िकसम की तरकी या
सुधार को पाप समझते थे, मगर अपनी इस मनदी पर कुढा करते थे। हिरदास ने उनकी मजी
के िखलाफ कालेिजयेट िशका पापत की थी और उसका इरादा था िक अपने िपता के कारखाने
को नये उसूलो पर चलाकर आगे बढाये। लेिकन जब वह उनसे िकसी पिरवतरन या सुधार का
िजक करता तो लाला साहब जामे से बाहर हो जाते और बडे गवर से कहते—कालेज मे पढने
से तजुबा नही आता। तुम अभी बचचे हो, इस काम मे मेरे बाल सफेद हो गये है, तुम मुझे
सलाह मत दो। िजस तरह मै कहता हूँ, काम िकये जाओ।
कई बार ऐसे मौके आ चुके थे िक बहुत ही छोटे मसलो मे अपने िपता की मजी के
िखलाफ काम करने के जुमर मे हिरदास को सखत फटकारे पडी थी। इसी वजह से अब वह
इस काम मे कुछ उदासीन हो गया थ और िकसी दस ू रे कारखाने मे िकसमत आजमाना चाहता
था जहा उसे अपने िवचारो को अमली सूरत देने की जयादा सहूलते हािसल हो।
देवकी ने सहानुभूितपूवरक कहा—तुम इस िफक मे कयो जान खपाते हो, जैसे वह कहे,
वैसे ही करो, भला दसू री जगह नौकरी कर लोगे तो वह कया कहेगे? और चाहे वे गुससे के मारे
कुछ न बोले, लेिकन दुिनया तो तुमही को बुरा कहेगी।
देवकी नयी िशका के आभूषण से वंिचत थी। उसने सवाथर का पाठ न पढा था, मगर
उसका पित अपने ‘अलमामेटर’ का एक पितिषत सदसय था। उसे अपनी योगयता पर पूरा
भरोसा था। उस पर नाम कमाने का जोश। इसिलए वह बूढे िपता के पुराने ढरो को देखकर
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धीरज खो बैठता था। अगर अपनी योगयताओं के लाभपद उपयोग की कोिशश के िलए दुिनया
उसे बुरा कहे, तो उसकी परवाह न थी। झुंझलाकर बोला—कुछ मै अमिरत की घिरया
पीकर तो नही आया हूँ िक सारी उम उनके मरने का इंतजार करँ। मूखों की अनुिचत टीका-
िटपपिणयो के डर से कया अपनी उम बरबार कर दंू? मै अपने कुछ हमउमो को जानता हूँ जो
हरिगज मेरी-सी योगयता नही रखते। लेिकन वह मोटर पर हवा खाने िनकलते है , बंगलो मे
रहते है और शान से िजनदगी बसर करते है तो मै कयो हाथ पर हाथ रखे िजनदगी को अमर
समझे बैठा रहूँ! सनतोष और िनसपृहता का युग बीत गया। यह संघषर का युग है। यह मै
जानता हूँ िक िपता का आदर करना मेरा धमर है। मगर िसदातो के मामले मे मै उनसे कया,
िकसी से भी नही दब सकता।
इसी बीच कहार ने आकर कहा—लाला जी थाली मागते है।
लाल हरनामदास िहनदू रसम-िरवाज के बडे पाबनद थे। मगर बुढापे के कारण चौक के
चकर से मुिकत पा चुके थे। पहले कुछ िदनो तक जाडो मे रात को पूिरया न हजम होती थी
इसिलए चपाितया ही अपनी बैठक मे मंगा िलया करते थे। मजबूरी ने वह कराया था जो
हुजजत और दलील के काबू से बाहर था।
हिरदास के िलए भी देवकी ने खाना िनकाला। पहले तो वह हजरत बहुत दुखी नजर
आते थे, लेिकन बघार की खुशबू ने खाने के िलए चाव पैदा कर िदया था। अकसर हम अपनी
आंख और नाक से हाजमे का काम िलया करते है।

ला ला हरनामदास रात को भले-चंगे सोये लेिकन अपने बेटे की गुसतािखया और कुछ अपने
कारबार की सुसती और मनदी उनकी आतमा के िलए भयानक कष का कारण हो गयी
और चाहे इसी उिदगनता का असर हो, चाहे बुढापे का, सुबह होने से पहले उन पर लकवे का
हमला हो गय। जबान बनद हो गयी और चेहरा ऐंठ गया। हिरदास डाकटर के पास दौडा।
डाकटर आये, मरीज को देखा और बोले—डरने की कोई बात नही। सेहत होगी मगर तीन
महीने से कम न लगेगे। िचनताओं के कारण यह हमला हुआ है इसिलए कोिशश करनी चािहये
िक वह आराम से सोये, परेशान न हो और जबान खुल जाने पर भी जहा तक मुमिकन हो,
बोलने से बचे।
बेचारी देवकी बैठी रो रही थी। हिरदास ने आकर उसको सानतवना दी, और िफर
डाकटर के यहा से दवा लाकर दी। थोडी देर मे मरीज को होश आया, इधर-उधर कुछ
खोजती हुई-सी िनगाहो से देखा िक जैसे कुछ कहना चाहते है और िफर इशारे से िलखन के
िलए कागज मागा। हिरदास ने कागज और पेिसल रख दी, तो बूढे लाला साहब ने हाथो को
खूब समहालकर िलख—इनतजाम दीनानाथ के हाथ मे रहे।
ये शबद हिरदास के हृदय मे तीर की तरह लगे। अफसोस! अब भी मुझ पर भरोसा
नही! यानी िक दीनानाथ मेरा मािलक होगा और मै उसका गुलाम बनकर रहूँगा! यह नही होने
का। कागज िलए देवकी के पास आये और बोले—लालाजी ने दीनानाथ को मैनेजर बनाया है,
उनहे मुझ पर इतना एतबार भी नही है, लेिकन मै इस मौके को हाथ से न दंगू ा। उनकी बीमारी
का अफसोस तो जरर है मगर शायद परमातमा ने मुझे अपनी योगयता िदखलाने का यह
अवसर िदया है। और इससे मै जरर फायदा उठाऊँगा। कारखाने के कमरचािरयो ने इस
दुघरटना की खबर सुनी तो बहुत घबराये। उनमे कई िनकममे, बेमसरफ आदमी भरे हुए थे, जो
िसफर खुशामद और िचकनी-चुपडी बातो की रोटी खाते थे। िमसती ने कई दस ू रे कारखानो मे
मरममत का काम उठा िलया था रोज िकसी-न-िकसी बहाने से िखसक जाता था। फायरमैन
और मशीनमैन िदन को झूठ-मूठ चकी की सफाई मे काटते थे और रात के काम करके ओवर
टाइम की मजदरू ी िलया करते थे। दीनानाथ जरर होिशयार और तजुबेकार आदमी था, मगर
उसे भी काम करने के मुकािबले मे ‘जी हा’ रटते रहने मे जयादा मजा आता था। लाला

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हरनामदास मजदरू ी देन मे बहुत हीले-हवाले िकया करते थे और अकसर काट-कपट के भी
आदी थे। इसी को वह कारबार का अचछा उसूल समझाते थे।
हिरदास ने कारखाने मे पहुँचते ही साफ शबदो कह िदय िक तुम लोगो को मेरे वकत मे
जी लगाकर काम करना होगा। मै इसी महीन मे काम देखकर सब की तरकी करंगा। मगर
अब टाल-मटोल का गुजर नही, िजनहे मंजूर न हो वह अपना बोिरया-िबसतर समहाले और िफर
दीनानाथ को बुलाकर कहा-भाई साहब, मुझे खूब मालूम है िक आप होिशयार और सूझ-बूझ
रखनेवाले आदमी है। आपने अब तक यह यहा का जो रंग देखा, वही अिखतयार िकया है।
लेिकन अब मुझे आपके तजुबे और मेहनत की जररत है। पुराने िहसाबो की जाच-पडताल
िकिजए। बाहर से काम मेरा िजममा है लेिकन यहा का इनतजाम आपके सुपुदर है। जो कुछ
नफा होगा, उसमे आपका भी िहससा होगा। मै चाहता हूँ िक दादा की अनुपिसथित मे कुछ
अचछा काम करके िदखाऊँ।
इस मुसतैदी और चुसती का असर बहुत जलद कारखाने मे नजर आने लगा। हिरदास
ने खूब इशतहार बंटवाये। उसका असर यह हुआ िक काम आने लगा। दीनानाथ की मुसतैदी
की बदौलत गाहको को िनयत समय पर और िकफायत से आटा िमलने लगा। पहला महीना
भी खतम न हुआ था िक हिरदास ने नयी मशीन मंगवायी। थोडे अनुभवी आदमी रख िलये , िफर
कया था, सारे शहर मे इस कारखाने की धूम मच गयी। हिरदास गाहको से इतनी अचछी तरह
से पेश आता िक जो एक बार उससे मुआमला करता वह हमेशा के िलए उसका खरीदार बन
जाता। कमरचािरयो के साथ उसका िसदात था—काम सखत और मजदरू ी ठीक। उसके ऊंचे
वयिकततव का भी सपसट पभाव िदखाई पडा। करीब-करीब सभी कारखानो का रंग फीका पड
गया। उसने बहुत ही कम नफे पर ठेले ले िलये। मशीन को दम मारने की मोहलत न थी, रात
और िदन काम होता था। तीसरा महीना खतम होते-होते उस कारखाने की शकल ही बदल
गयी। हाते मे घुसते ही ठेले और गािडयो की भीड नजर आती थी। कारखाने मे बडी चहल-
पहल थी-हर आदमी अपने अपने काम मे लगा हुआ। इसके साथ की पबनध कौशल का यह
वरदान था िक भदी हडबडी और जलदबाजी का कही िनशान न था।

ला ला हरनामदास धीरे-धीरे ठीक होने लगे। एक महीने के बाद वह रककर कुछ बोलने
लगे। डाकटर की सखत ताकीद थी िक उनहे पूरी शािनत की िसथित मे रखा जाय मगर
जब उनकी जबान खुली उनहे एक दम को भी चैन न था। देवकी से कहा करते—सारा
कारबार िमटी मे िमल जाता है। यह लडका मालूम नही कया कर रहा है, सारा काम अपने
हाथ मे ले रखा है। मैने ताकीद कर दी थी िक दीनानाथ को मैनेजर बनाना लेिकन उसने जरा
भी परवाह न की। मेरी सारी उम की कमाई बरबाद हुई जाती है।
देवकी उनको सानतवना देती िक आप इन बातो की आशंका न करे। कारबार बहुत
खूबी से चल रहा है और खूब नफा हो रहा है। पर वह भी इस मामले मे तूल देते हुए डरती
थी िक कही लकवे का िफर हमला न हो जाय। हूं-हा कहकर टालना चाहती थी। हिरदास
जयो ही घर मे आता, लाला जी उस पर सवालो की बौछार कर देते और जब वह टालकर कोई
दसू रा िजक छेड देता तो िबगड जाते और कहते—जािलम, तू जीते जी मेरे गले पर छुरी फेर
रहा है। मेरी पूंजी उडा रहा है। तुझे कया मालूम िक मैने एक-एक कौडी िकस मशकत से
जमा की है। तूने िदल मे ठान ली है िक इस बुढापे मे मुझे गली-गली ठोकर िखलाये, मुझे
कौडी-कौडी का मुहतात बनाये।
हिरदास फटकार का कोई जवाब न देता कयोिक बात से बात बढती है। उसकी चुपपी
से लाला साहब को यकीन हो जाता िक कारखाना तबाह हो गया।
एक रोज देवकी ने हिरदास से कहा—अभी िकतने िदन और इन बातो का लालाजी से
िछपाओगे?

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हिरदास ने जवाब िदया—मै तो चाहता हूँ िक नयी मशीन का रपया अदा हो जाय तो
उनहे ले जाकर सब कुछ िदखा दँ। ू तब तक डाकटर साहब की िहदायत के अनुसार तीन
महीने पूरे भी हो जायेगे।
देवकी—लेिकन इस िछपाने से कया फायदा, जब वे आठो पहर इसी की रट लगाये
रहते है। इससे तो िचनता और बढती ही है, कम नही होती। अससे तो यही अचछा है, िक
उनसे सब कुछ कह िदय जाए।
हिरदास—मेरे कहने का तो उनहे यकीन आ चुका। हा, दीनानाथ कहे तो शायद यकीन
हो
देवकी—अचछा तो कल दीनानाथ को यहा भेज दो। लालाजी उसे देखते ही खुद बुला
लेगे, तुमहे इस रोज-रोज की डाट-फटकर से तो छुटी िमल जाएगी।
हिरदास—अब मुझे इन फटकारो का जरा भी दुख नही होता। मेरी मेहनत और
योगयता का नतीजा आंखो के सामने मौजूद है। जब मैने कारखाना आने हाथ मे िलया था,
आमदनी और खचर का मीजान मुिशकल से बैठता था। आज पाच से का नफा है। तीसरा
महीना खतम होनेवाला है और मै मशीन की आधी कीमत अदा कर चुका। शायद अगले महीने
दो महीने मे पूरी कीमत अदा हो जायेगी। उस वकत से कारखाने का खचर ितगुने से जयादा है
लेिकन आमदनी पंचगुनी हो गयी है। हजरत देखेगे तो आंखे खुल जाएंगी। कहा हाते मे उललू
बोलते थे। एक मेज पर बैठे आप ऊंघा करते थे, एक पर दीनानाथ कान कुरेदा करता था।
िमसती और फायरमैन ताश खेलते थ। बस, दो-चार घणटे चकी चल जाती थी। अब दम
मारने की फुरसत नही है। सारी िजनदगी मे जो कुछ न कर सके वह मैने तीन महीने मे
करके िदखा िदया। इसी तजुबे और काररवाई पर आपको इतना घमणड था। िजतना काम वह
एक महीने मे करते थे उतना मै रोज कर डालता हूँ।
देवकी ने भतसरनापूणर नेतो से देखकर कहा—अपने मुंह िमया िमटू बनना कोई तुमसे
सीख ले! िजस तरह मा अपने बेटे को हमेशा दबु ला ही समझती है, उसी तरह बाप बेटे को
हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता है, बुरा मानने की बात नही है।
हिरदास ने लिजजत होकर सर झुका िलया।
दसू रे रोज दीनानाथ उनको देखने के बहाने से लाला हरनामदास की सेवा मे उपिसथत
हुआ। लालाजी उसे देखते ही तिकये के सहारे उठ बैठे और पागलो की तरह बेचैन होकर
पूछा—कयो, कारबार सब तबाह हो गया िक अभी कुछ कसर बाकी है! तुम लोगो ने मुझे मुदा
समझ िलया है। कभी बात तक न पूछी। कम से कम मुझे ऐसी उममीद न थी। बहू ने मेरी
तीमारदारी ने की होती तो मर ही गया होती
दीनानाथ—आपका कुशल-मंगल रोज बाबू साहब से पूछ िलया करता था। आपने मेरे
साथ जो नेिकया की है, उनहे मै भूल नही सकता। मेरा एक-एक रोआं आपका एहसानमनद है।
मगर इस बीच काम ही कुछ एकस था िक हािजर होने की मोहलत न िमली।
हरनामदास—खैर, कारखाने का कया हाल है? दीवाला होने मे कया कसर बाकी है?
दीनानाथ ने ताजजुब के साथ कहा—यह आपसे िकसने कह िदया िक दीवाला होनेवाला
है? इस अरसे मे कारोबार मे जो तरकी हुई है, वह आप खुद अपनी आंखो से देख लेगे।
हरनामदास वयंगयपूवरक बोले—शायद तुमहारे बाबू साहब ने तुमहारी मनचाही तरकी कर
दी! अचछा अब सवािमभिकत छोडो और साफ बतलाआ। मैने ताकीद कर दी थी िक कारखाने
का इनतजाम तुमहारे हाथ मे रहेगा। मगर शायद हिरदास ने सब कुछ अपने हाथ मे रखा।
दीनानाथ—जी हा, मगर मुझे इसका जरा भी दुख नही। वही रइस काम के िलए ठीक
भी थे। जो कुछ उनहोने कर िदखाया, वह मुझसे हरिगज न हो सकता।
हरनामदास—मुझे यह सुन-सुनकर हैरत होती है। बतलाओ, कया तरकी हुई?
दीनानाथ—तफसील तो बहुत जयादा होगी, मगर थोडे मे यह समझ लीिजए िक पहले
हम लोग िजतना काम एक महीने मे करते थे उतना अब रोज होता है। नयी मशीन आयी थी,

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उसकी आधी, कीमत अदा हो चुकी है। वह अकसर रात को भी चलती है। ठाकुर कमपनी का
पाच हजार मन आटे का ठेका िलया था, वह पूरा होनेवाला है। जगतराम बनवारीलाल से
कमसिरयट का ठेका िलया है। उनहोने हमको पाच सौ बोरे महावार का बयाना िदया है। इसी
तरह और फुटकर काम कई गुना बढ गया है। आमदनी के साथ खचर भी बढे है। कई आदमी
नए रखे गये है, मुलािजमो को मजदरू ी के साथ कमीशन भी िमलता है मगर खािलस नफा पहले
के मुकाबले मे चौगुने के करीब है।
हरनामदास ने बडे धयान से यह बात सुनी। वह गौर से दीनानाथ के चेहरे की तरफ
देख रहे थे। शायद उसके िदन मे पैठकर सचचाई की तह तक पहुँचना चाहते थे। सनदेहपूणर
सवर मे बोले—दीननाथ, तुम कभी मुझसे झूठ नही बोलते थे लेिकन तो भी मुझे इन बातो पर
यकीन नही आता और जब तक अपनी आंखो से देख न लूंगा, यकीन न आयेगा।
दीनानाथ कुछ िनराश होकर िबदा हुआ। उसे आशा थी िक लाला साहब तरकी और
कारगुजारी की बात सुनते ही फूले न समायेगे और मेरी मेहनत की दाद देगे। उस बेचारे को
न मालूम था िक कुछ िदलो मे सनदेह की जड इतनी मजबूत होती है िक सबूत और दलील के
हमले उस पर कुछ असर नही कर सकते। यहा तक िक वह अपनी आंख से देखने को भी
धोखा या ितिलसम समझता है।
दीनानाथ के चले जाने के बाद लाला हरनामदास कुछ देर तक गहरे िवचार मे डू बे रहे
और िफर यकायक कहार से बगघी मंगवायी, लाठी के सहारे बगघी मे आ बैठे और उसे अपने
चकीघर चलने का हुकम िदया।
दोपहर का वकत था। कारखानो के मजदरू खाना खाने के िलए गोल के गोल भागे
चले आते थे मगर हिरदास के कारखाने मे काम जारी था। बगघी हाते मे दािखल हुई , दोनो
तरफ फूलो की कतारे नजर आयी, माली कयािरयो मे पानी दे रहा था। ठेले और गािडयो के
मारे बगघी को िनकलने की जगह न िमलती थी। िजधर िनगाह जाती थी, सफाई और हिरयाली
नजर आती थी।
हिरदास अपने मुहिररर को कुछ खतो का मसौदा िलखा रहा था िक बूढे लाला जी लाठी
टेकते हुए कारखाने मे दािखल हुए। हिरदास फौरन उइ खडा हुआ और उनहे हाथो से सहारा
देते हुए बोला—‘आपने कहला कयो न भेजा िक मै आना चाहता हूँ, पालकी मंगवा देता।
आपको बहुत तकलीफ हुई।’ यह कहकर उसने एक आराम-कुसी बैठने के िलए िखसका
दी। कारखाने के कमरचारी दौडे और उनके चारो तरफ बहुत अदब के साथ खडे हो गये।
हरनामदास कुसी पर बैठ गये और बोरो के छत चूमनेवाले ढेर पर नजर दौडाकर बोले—मालूम
होता है दीनानाथ सच कहता था। मुझे यहा कई नयी सूरते नजर आती है। भला िकतना
काम रोज होता है? भला िकतना काम रोज होता है?
हिरदास—आजकल काम जयादा आ गया था इसिलए कोई पाच सौ मन रोजाना तैयार
हो जाता था लेिकन औसत ढाई सौ मन का रहेगा। मुझे नयी मशीन की कीमत अदा करनी
थी इसिलए अकसर रात को भी काम होता है।
हरनामदास—कुछ कजर लेना पडा?
हिरदास—एक कौडी नही। िसफर मशीन की आधी कीमत बाकी है।
हरनामदास के चेहरे पर इतमीनाना का रंग नजर आया। संदेह ने वह िवशास को जगह
दी। पयार-भरी आंखो से लडके की तरफ देखा और करण सवर मे बोले—बेटा, मैने तुमहार
ऊपर बडा जुलम िकया, मुझे माफ करो। मुझे आदिमयो की पहचान पर बडा घमणड था,
लेिकन मुझे बहुत धोखा हुआ। मुझे अब से बहुत पहले इस काम से हाथ खीच लेना चािहए
था। मैने तुमहे बहुत नुकसान पहुँचाया। यह बीमारी बडी मुबारक है िजसने तुमहारी परख का
मौका िदया और तुमहे िलयाकत िदखाने का। काश, यह हमला पाच साल पहले ही हुआ होता।
ईशर तुमहे खुश रखे और हमेशा उनित दे, यही तुमहारे बूढे बाप का आशीवाद है।
—‘पेम बतीसी’ से

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पपपपप पप पपपपपप

ब हादुर, भागयशाली कािसम मुलतान की लडाई जीतकर घमंउ के नशे से चूर चला आता
था। शाम हो गयी थी, लशकर के लोग आरामगाह की तलाश मे नजरे दौडाते थे, लेिकन
कािसम को अपने नामदार मािलक की िखदमत मे पहंुचन का शौक उडाये िलये आता था।
उन तैयािरयो का खयाल करके जो उसके सवागत के िलए िदलली मे की गयी होगी, उसका
िदल उमंगो से भरपूर हो रहा था। सडके बनदनवारो और झंिडयो से सजी होगी, चौराहो पर
नौबतखाने अपना सुहाना राग अलापेगे, जयोिह मै सरे शहर के अनदर दािखल हूँगा। शहर मे
शोर मच जाएगा, तोपे अगवानी के िलए जोर-शोर से अपनी आवाजे बूलंद करेगी। हवेिलयो के
झरोखो पर शहर की चाद जैसी सुनदर िसतया ऑखे गडाकर मुझे देखेगी और मुझ पर फूलो
की बािरश करेगी। जडाऊ हौदो पर दरबार के लोग मेरी अगवानी को आयेगे। इस शान से
दीवाने खास तक जाने के बद जब मै अपने हुजुर की िखदमत मे पहुँचूँगा तो वह बॉँहे खोले हुए
मुझे सीने से लगाने के िलए उठेगे और मै बडे आदर से उनके पैरो को चूम लूंगा। आह, वह
शुभ घडी कब आयेगी? कािसम मतवाला हो गया, उसने अपने चाव की बेसुधी मे घोडे को एड
लगायी।
कािसम लशकर के पीछे था। घोडा एड लगाते ही आगे बढा, कैिदयो का झुणड पीछे
छू ट गया। घायल िसपािहयो की डोिलया पीछे छू टी, सवारो का दसता पीछे रहा। सवारो के
आगे मुलतान के राजा की बेगमो और मै उनहे और शहजािदयो की पनसे और सुखपाल थे।
इन सवािरयो के आगे-पीछे हिथयारबनद खव़ाजासराओं की एक बडी जमात थी। कािसम
अपने रौ मे घोडा बढाये चला आता था। यकायक उसे एक सजी हुई पालकी मे से दो आंखे
झाकती हुई नजर आयी। कािसंग िठठक गया, उसे मालूम हुआ िक मेरे हाथो के तोते उड गये,
उसे अपने िदल मे एक कंपकंपी, एक कमजोरी और बुिद पर एक उनमाद-सा अनुभव हुआ।
उसका आसन खुद-ब-खुद ढीला पड गया। तनी हईु गदरन झुक गयी। नजरे नीची हुई। वह
दोनो आंखे दो चमकते और नाचते हुए िसतारो की तरह, िजनमे जादू का-सा आकषरण था,
उसके आिदल के गोशे मे बैठी। वह िजधर ताकता था वही दोनो उमंग की रोशनी से चमकते
हुए तारे नजर आते थे। उसे बछी नही लगी, कटार नही लगी, िकसी ने उस पर जादू नही
िकया, मंतर नही िकया, नही उसे अपने िदल मे इस वकत एक मजेदार बेसुधी, ददर की एक
लजजत, मीठी-मीठी-सी एक कैिफयत और एक सुहानी चुभन से भरी हुई रोने की-सी हालत
महसूस हो रही थी। उसका रोने को जी चाहता था, िकसी ददर की पुकार सुनकर शायद वह
रो पडता, बेताब हो जाता। उसका ददर का एहसास जाग उठा था जो इशक की पहली मंिजल
है।
कण-भर बाद उसने हुकम िदया—आज हमारा यही कयाम होगा।

आ धी रात गुजर चुकी थी, लशकर के आदमी मीटी नीद सो रहे थे। चारो तरफ मशाले
जलती थी और ितलासे के जवान जगह-जगह बैठे जमहाइया लेते थे। लेिकन कािसम
की आंखो मे नीद न थी। वह अपने लमबे-चौडे पुरलुतफ खेमे मे बैठा हुआ सोच रहा था—कया
इस जवान औरत को एक नजर देख लेना कोई बडा गुनाह है ? माना िक वह मुलतान के
राजा की शहजादी है और मेरे बादशाह अपने हरम को उससे रोशन करना चाहते है लेिकन
मेरी आरजू तो िसफर इतनी है िक उसे एक िनगाह देख लूँ और वह भी इस तरह िक िकसी
को खबर न हो। बस। और मान लो यह गुनाह भी हो तो मै इस वकत वह गुनाह करँगा।
अभी हजारो बेगुनाहो को इनही हाथो से कतल कर आया हूँ। कया खुदा के दरबार मे गुनाहो की
माफी िसफर इसिलए हो जाएगी िक बादशाह के हुकम से िकये गये? कुछ भी हो, िकसी नाजनीन
को एक नजर देख लेना िकसी की जान लेने से बडा गुनाह नही। कम से कम मै ऐसा नही
समझता।
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कािसम दीनदार नौजवान था। वह देर तक इस काम के नैितक पहलू पर गौर करता
रहा। मुलतान को फतेह करने वाला हीरो दस ू री बाधाओं को कयो खयाल मे लाता?
उसने अपने खेमे से बाहर िनकलकर देखा, बेगमो के खेमे थोडी ही दरू पर गडे हुए
थे। कािसम ने तजान-बूझकर अपना खेमा उसके पास लगाया था। इन खेमो के चारो तरफ
कई मशाले जल रही थी और पाच हबशी खवाजासरा रंगी तलवारे िलये टहल रहे थे। कािसम
आकर मसनद पर लेट गया और सोचने लगा—इन कमबखत़ो को कया नीद न आयेगी? और
चारो तरफ इतनी मशाले कयो जला रकखी है? इनका गुल होना जररी है। इसिलए पुकारा—
मसरर।
-हुजुर, फरमाइए?
-मशाले बुझा दो, मुझे नीद नही आती।
-हुजूर, रात अंधेरी है।
-हा।
-जैसी हुजूर की मजी।
खव़ाजासरा चला गया और एक पल मे सब की सब मशाले गुल हो गयी, अंधेरा छा
गया। थोडी देर मे एक औरत शहजादी के खेमे से िनकलकर पूछा-मसरम, सरकमार पूछती
है, यह मशाले कयो बुझा दी गयी?
मशरम बोला-िसपहदार साहब की मजी। तुम लोग होिशयार रहना, मुझे उनकी िनयत
साफ नही मालूम होती।

का िसम उतसुकता से वयग होकर कभी लेटता था, कभी उठ बैठता था, कभी टहलने
लगता था। बार-बार दरवाजे पर आकर देखता, लेिकन पाचो खव़ाजासरा देवो की तरह
खडे नजर आते थे। कािसम को इस वकत यही धुन थी िक शाहजादी का दशरन कयोकर हो।
अंजाम की िफक, बदनामी का डर और शाही गुससे का खतरा उस पुरजोर खवािहश के नीचे
दब गया था।
घिडयाल ने एक बजाया। कािसम यो चौकं पडा गोया कोई अनहोनी बात हो गयी।
जैसे कचहरी मे बैठा हुआ कोई फिरयाद अपने नाम की पुकार सुनकर चौक पडता है। ओ हो,
तीन घंटो से सुबह हो जाएगी। खेमे उखड जाएगे। लशकर कूच कर देगा। वकत तंग है, अब
देर करने की, िहचकचाने की गुंजाइश नही। कल िदलली पहुँच जायेगे। आरमान िदल मे कयो
रह जाये, िकसी तरह इन हरामखोर खवाजासराओं को चकमा देना चािहए। उसने बाहर िनकल
आवाज दी-मसरर।
--हुजूर, फरमाइए।
--होिशयार हो न?
-हुजूर पलक तक नही झपकी।
-नीद तो आती ही होगी, कैसी ठंडी हवा चल रही है।
-जब हुजूर ही ने अभी तक आराम नही फरमाया तो गुलामो को कयोकर नीद आती।
-मै तुमहे कुछ तकलीफ देना चाहता हूँ।
-किहए।
-तुमहारे साथ पाच आदमी है, उनहे लेकर जरा एक बार लशकर का चकर लगा आओ।
देखो, लोग कया कर रहे है। अकसर िसपाही रात को जुआ खेलते है। बाज आस-पास के
इलाको मे जाकर खरमसती िकया करते है। जरा होिशयारी से काम करना।
मसरर- मगर यहा मैदान खाली हो जाएगा।
कािसम- मे तुमहारे आने तक खबरदार रहूँगा।
मसरर- जो मजी हुजूर।

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कािसम- मैने तुमहे मोतबर समझकर यह िखदमत सुपुदर की है, इसका मुआवजा
इंशाअलला तुमहे साकर से अता होगा।
मसरम ने दबी जबान से कहा-बनदा आपकी यह चाले सब समझता है। इंशाअलला
सरकार से आपको भी इसका इनाम िमलेगा। और तब जोर बोला-आपकी बडी मेहरबानी है।
एक लमहे मे पॉँचो खवाजासरा लशकर की तरफ चले। कािसम ने उनहे जाते देखा।
मैदान साफ हो गया। अब वह बेधडक खेमे मे जा सकता था। लेिकन अब कािसम को मालूम
हुआ िक अनदर जाना इतना आसान नही है िजतना वह समझा था। गुनाह का पहलू उसकी
नजर से ओझल हो गया था। अब िसफर जािहरी मुिशकलो पर िनगाह थी।

का िसम दबे पाव शहजादी के खेमे के पास आया, हालािक दबे पाव आने की जररत न थी।
उस सनाटे मे वह दौडता हुआ चलता तो भी िकसी को खबर न होती। उसने खेमे से
कान लगाकर सुना, िकसी की आहट न िमली। इतमीनान हो गया। तब उसने कमर से चाकू
िनकाला और कापते हुए हाथो से खेमे की दो-तीन रिससया काट डाली। अनदर जाने का
रासता िनकल आया। उसने अनदर की तरफ झाका। एक दीपक जल रहा था। दो बािदया
फशर पर लेटी हुई थी और शहजादी एक मखमली गदे पर सो रही थी। कािसम की िहममत
बढी। वह सरककर अनदर चला गया, और दबे पाव शहजादी के करीब जाकर उसके िदल-
फरेब हुसन का अमृत पीने लगा। उसे अब वह भय न था जो खेमे मे आते वकत हुआ था।
उसने जररत पडने पर अपनी भागने की राह सोच ली थी।
कािसम एक िमनट तक मूरत की तरह खडा शहजादी को देखता रहा। काली-काली
लटे खुलकर उसके गालो को िछपाये हुए थी। गोया काले-काले अकरो मे एक चमकता हुआ
शायराना खयाल िछपा हुआ था। िमटी की अस दुिनया मे यह मजा, यह घुलावट, वह दीिपत
कहा? कािसम की आंखे इस दशृ य के नशे मे चूर हो गयी। उसके िदल पर एक उमंग बढाने
वाला उनमाद सा छा गया, जो नतीजो से नही डरता था। उतकणठा ने इचछा का रप धारण
िकया। उतकणठा मे अिधरता थी और आवेश, इचछा मे एक उनमाद और पीडा का आननद।
उसके िदल मे इस सुनदरी के पैरो पर सर मलने की, उसके सामने रोने की, उसके कदमो पर
जान दे देने की, पेम का िनवेदन करने की , अपने गम का बयान करने की एक लहर-सी उठने
लगी वह वासना के भवंर मे पड गया।

का िसम आध घंटे तक उस रप की रानी के पैरो के पास सर झुकाये सोचता रहा िक उसे
कैसे जगाऊँ। जयो ही वह करवट बदलती वह डर के मारे थरथरा जाता। वह बहादुरी
िजसने मुलतान को जीता था, उसका साथ छोडे देती थी।
एकाएक किसम की िनगाह एक सुनहरे गुलाबपोश पर पडी जो करीब ही एक चौकी पर
रखा हुआ था। उसने गुलाबपोश उठा िलया और खडा सोचता रहा िक शहजादी को जगाऊँ
या न जगाऊँ या न जगाउँ? सेने की डली पडी हुई देखकर हमं उसके उठाने मे आगा-पीछा
होता है, वही इस वकत उसे हो रहा था। आिखरकार उसने कलेजा मजबूत करके शहजादी के
कािनतमान मुखमंणडल पर गुलाब के कई छीटे िदये। दीपक मोितयो की लडी से सज उठा।
शहजादी ने चौकर आंखे खोली और कािसम को सामने खडा देखकर फौरन मुंह पर
नकाब खीच िलया और धीरे से बोली-मसरर।
कािसम ने कहा-मसरर तो यहा नही है, लेिकन मुझे अपना एक अदना जाबाज खािदम
समिझए। जो हुकत होगा उसकी तामील मे बाल बराबर उज न होगा।
शहजादी ने नकाब और खीच िलया और खेमे के एक कोने मे जाकर खडी हो गयी।
कािसम को अपनी वाक्-शिकत का आज पहली बार अनुभव हुआ। वह बहुत कम
बोलने वाला और गमभीर आदमी था। अपने हृउय के भावो को पकट करने मे उसे हमेशा
िझझक होती थी लेिकन इस वकत़ शबद बािरश की बूंदो की तरह उसकी जबान पर आने लगे।

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गहरे पानी के बहाव मे एक ददर का सवर पैदा हो जाता है। बोला-मै जानता हूँ िक मेरी यह
गुसताखी आपकी नाजुक तिबयत पर नागवार गुजरी है। हुजूर, इसकी जो सजा मुनािशब
समझे उसके िलए यह सर झुका हुआ है। आह, मै ही वह बदनसीब, काले िदल का इंसान हूँ
िजसने आपके बुजुगर बाप और पयारे भाईयो के खून से अपना दामन नापाक िकया है। मेरे ही
हाथो मुलतान के हजारो जवान मारे गये, सलतनत तबाह हो गयी, शाही खानदान पर मुसीबत
आयी और आपको यह सयाह िदन देखना पडा। लेिकन इस वकत़ आपका यह मुजिरम आपके
सामने हाथ बाधे हािजर है। आपके एक इशारे पर वह आपके कदमो पर नयोठावर हो जायेगा
और उसकी नापाक िजनदगी से दुिनया पाक हो जायेगी। मुझे आज मालूम हुआ िक बहादुरी के
परदे मे वासना आदमी से कैसे-कैसे पाप करवाती है। यह महज लालच की आग है, राख मे
िछपी हुई िसफर एक काितल जहर है, खुशनुमा शीशे मे बनद! काश मेरी आंखे पहले खुली होती
तो एक नामवर शाही खानदान यो खाक मे न िमल जाता। पर इस मुहबबत की शमा ने, जो
कल शाम को मेरे सीने मे रोशन हुई, इस अंधेरे कोने को रोशनी से भर िदया। यह उन रहानी
जजब़ात का फैज है, जो कल मेरे िदल मे जाग उठे, िजनहोने मुझे लाजच की कैद से आजाद
कर िदया।
इसके बाद कािसम ने अपनी बेकरारी और ददे िदल और िवयोग की पीडा का बहुत ही
करण शदो मे वणरन िकया, यहा तक िक उसके शबदो का भणडार खतम हो गया। अपना हाल
कह सुनाने की लालसा पूरी हो गयी।

ले िकन वह वासना बनदी वहा से िहला नही। उसकी आरजुओं ने एक कदम और आगे
बढाया। मेरी इस रामकहानी का हािसल कया? अगर िसफर ददे िदल ही सुनाना था, तो
िकसी तसवीर को, सुना सकता था। वह तसवीर इससे जयादा धयान से और खामाशी से मेरे
गम की दासतान सुनती। काश, मै भी इस रप की रानी की िमठी आवाज सुनता, वह भी मुझसे
कुछ अपने िदल का हाल कहती, मुझे मालूम होता िक मेरे इस ददर के िकससे का उसके िदल
पर कया असर हुआ। काश, मुझे मालूत होता िक िजस आग मे मै फु ंका जा रहा हूँ, कुछ
उसकी आंच उधर भी पहुँचती है या नही। कौन जाने यह सच हो िक मुहबबत पहले माशूक के
िदल मे पैदा होती है। ऐसा न होता तो वह सब को तोडने वाली िनगाह मुझ पर पडती ही कयो?
आह, इस हुसन की देवी की बातो मे िकतना लुतफ आयेगा। बुलबुल का गाना सुन सकता,
उसकी आवाज िकतनी िदलकश होगी, िकतनी पाकीजा, िकतनी नूरानी, अमृत मे डू बी हुई और
जो कही वह भी मुझसे पयार करती हो तो िफर मुझसे जयादा खुशनसीब दुिनया मे और कौन
होगा?
इस खयाल से कािसम का िदल उछलने लगा। रगो मे एक हरकत-सी महसूस हुई।
इसके बावजूद िक बािदयो के जग जाने और मसरर की वापसी का धडका लगा हुआ था,
आपसी बातचीत की इचछा ने उसे अधीर कर िदया, बोला-हुसन की मलका, यह जखम़ी िदल
आपकी इनायत की नजर की मुसतहक है। कुड उसके हाल पर रहम न कीिजएगा?
शहजादी ने नकाब की ओट से उसकी तरफ ताका और बोली–जो खुद रहम का
मुसतहक हो, वह दस ू रो के साथ कया रहम कर सकता है? कैद मे तडपते हुए पंछी से, िजसके
न बोल है न पर, गाने की उममीद रखना बेकार है। मै जानती हूँ िक कल शाम को िदलली के
जािलम बादशाह के सामने बािदयो की तरह हाथ बाधे खडी हूंगी। मेरी इजजत, मेरे रतबे और
मेरी शान का दारोमदार खानदानी इजजत पर नही बिलक मेरी सूरत पर होगा। नसीब का हक
पूरा हा जायेगा। कौन ऐसा आदमी है जो इस िजनदगी की आरजू रकखेगा? आह, मुलतान की
शहजादी आज एक जािलम, चालबाज, पापी आदमी की वासना का िशकार बनने पर मजबूर
है। जाइए, मुझे मेरे हाल पर छोड दीिजए। मै बदनसीब हूँ, ऐसा न हो िक मेरे साथ आपको भी
शाही गुससे का िशकार बनना पडे। िदल मे िकतनी ही बाते है मगर कयो कहूँ, कया हािसल?
इस भेद का भेद बना रहना ही अचछा है। आपमे सचची बहादुरी और खुदारी है। आप दुिनया मे

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अपना नाम पैदा करेगे, बडे-बडे काम करेगे, खुदा आपके इरादो मे बरकत दे–यही इस आफप
की मारी हुई औरत की दुआ है। मै सचचे िदल से कहती हूँ िक मुझे आपसे कोई िशकायत नही
है। आज मुझे मालूम हुआ िक मुहबबत बैर से िकतनी पाक होती है। वह उस दामन मे मुंह
िछपाने से भी परहेज नही करती जो उसके अजीजो के खून से िलथडा हुआ हो। आह, यह
कमबखत िदल उबला पडता है। अपने काल बनद कर लीिजए, वह अपने आपे मे नही है,
उसकी बाते न सुिनए। िसफर आपसे यही िबनती है िक इस गरीब को भूल न जाइएगा। मेरे
िदल मे उस मीठे सपने की याद हमेशा ताजा रहेगी, हरम की कैद मे यही सपना िदल को
तसकीन देता रहेगा, इस सपने को तोिडए मत। अब खुदा के वासते यहा से जाइए, ऐसा न हो
िक मसरर आ जाए, वह एक जािलम है। मुझे अंदेशा है िक उसने आपको धोखा िदया, अजब
नही िक यही कही छुपा बैठा हो, उससे होिथयार रिहएगा। खुदा हािफज!

का िसम पर एक बेसुधी की सी हालत छा गयी। जैसे आतमा का गीत सुनने के बाद िकसी
योगी की होती है। उसे सपने मे भी जो उममीद न हो सकती थी, वह पूरी हो गयी थी।
गवर से उसकी गदरन की रगे तन गयी, उसे मालूम हुआ िक दुिनया मे मुझसे जयादा भागयशाली
दसू रा नही है। मै चाहूँ तो इस रप की वािटका की बहार लूट सकता हूँ, इस पयाले से मसत
हो सकता हूँ। आह वह िकतनी नशीली, िकतनी मुबारक िजनदगी होती! अब तक कािसम की
मुहबबत गवाले का दध ू थी, पानी से िमली हुई; शहजादी के िदल की तडप ने पानी को जलाकर
सचचाई का रंग पैदा कर िदया। उसके िदल ने कहा-मै इस रप की रानी के िलए कया कुछ
नही कर सकता? कोई ऐसी मुसीबत नही है जो झेल न सकूँ, कोई आग नही, िजसमे कूद न
सकूं, मुझे िकसका डर है! बादशाह का? मै बादशाह का गुलाम नही, उसके सामने हाथ
फैलानेवाला नही, उसका मोहताज नही। मेरे जौहर की हर एक दरबार मे कद हो सकती है।
मै आज इस गूलामी की जंजीर को तोड डालूँगा और उस देश मे जा बसूँगा, जहा बादशाह के
फिरशते भी पर नही मार सकते। हुसन की नेमत पाकर अब मुझे और िकसी चीज की इचछा
नही। अब अपनी आरजुओं का कयो गला घोटू ं? कामनाओं को कयो िनराशा का गास बनने दँू?
उसने उनमाद की-सी िसथित मे कमर से तलवार िनकाली और जोश के साथ बोला–जब तक
मेरे बाजूओ मे दम है, कोई आपकी तरफ आंख उठाकर देख भी नही सकता। चाहे वह िदलली
का बादशाह ही कयो ने हो! मै िदलली के कूचे और बाजार मे खून की नदी बहा दं ुगा, सलतनत
की जडे िहलाउ दुँगा, शाही तखत को उलट-पलट रख दँग ू ा, और कुछ न कर सकूंगा तो मर
िमटू ंगा। पर अपनी आंखो से आपकी याह िजललत न देखूँगा।
शहजादी आिहसता-आिहसता उसके करीब आयी बोली-मुझे आप पर पूरा भरोसा है,
लेिकन आपको मेरी खाितर से जबत और सब करना होगा। आपके िलए मै महलहरा की
तकलीफे और जुलम सब सह लूंगी। आपकी मुहबबत ही मेरी िजनदगी का सहारा होगी। यह
यकीन िक आप मुझे अपनी लौडी समझते है, मुझे हमेशा समहालता रहेगा। कौन जाने तकदीर
हमे िफर िमलाये।
कािसम ने अकडकर कहा-आप िदलली जाये ही कयो! हम सबुह होते-होते भरतपुर
पहुँच सकते है।
शहजादी–मगर िहनदोसतान के बाहर तो नही जा सकते। िदलली की आंख का काटा
बनकर मुमिकन है हम जंगलो और वीरानो मे िजनदगी के िदन काटे पर चैन नसीब न होगा।
असिलयत की तरफ से आंखे न बनद की िजए, खुदा न आपकी बहादुरी दी है, पर तेगे
इसफहानी भी तो पहाड से टकराकर टुट ही जाएगी।
कािसम का जोश कुछ धीमा हुआ। भम का परदा नजरो से हट गया। कलपना की
दुिनया मे बढ-बढकर बाते करना बाते करना आदमी का गुण है। कािसम को अपनी बेबसी
साफ िदखाई पडने लगी। बेशक मेरी यह लनतरािनया मजाक की चीज है। िदलली के शाह
के मुकािबले मे मेरी कया हसती है? उनका एक इशारा मेरी हसती को िमटा सकता है। हसरत-

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भरे लहजे मे बोला-मान लीिजए, हमको जंगलो और बीरानो मे ही िजनदगी के िदन काटने पडे
तो कया? मुहबबत करनेवाले अंधेरे कोने मे भी चमन की सैर का लुफत उठाते है। मुहबबत मे
वह फकीरो और दरवेशो जैसा अलगाव है, जो दुिनया की नेमतो की तरफ आंख उठाकर भी
नही देखता।
शहजादी–मगर मुझ से यह कब मुमिकन है िक अपनी भलाई के िलए आपको इन खतरो मे
डालूँ? मै शाहे िदलली के जुलमो की कहािनया सुन चुकी हूँ, उनहे याद करके रोगेटे खडे हो
जाते है। खुदा वह िदन न लाये िक मेरी वजह से आपका बाल भी बाका हो। आपकी लडाइयो
के चचे, आपकी खैिरयत की खबरे, उस कैद मे मुझको तसकीन और ताकत देगी। मै मुसीबते
झेलूंगी और हंस–हंसकर आग मे जलूँगी और माथे पर बल न आने दँग ू ी। हॉँ, मै शाहे िदलली के
िदल को अपना बनाऊँगी, िसफर आपकी खाितर से तािक आपके िलए मौका पडने पर दो-चार
अचछी बाते कह सकूँ।

ले िकन कािसम अब भी वहा से न िहला। उसकर आरजूए ं उममीद से बढकर पूरी होती जाती
थी, िफर हवस भी उसी अनदाज से बढती जाती थी। उसने सोचा अगर हमारी मुहबबत
की बहार िसफर कुछ लमहो की मेहमान है, तो िफर उन मुबारकबाद लमहो को आगे की िचनता
से कयो बेमजा करे। अगर तकदीर मे इस हुसन की नेमत को पाना नही िलखा है, तो इस मौके
को हाथ से कयो जाने दँ। ू कौन जाने िफर मुलाकात हो या न हो? यह मुहबबत रहे या न रहे?
बोला-शहजादी, अगर आपका यही आिखरी फैसाल है, तो मेरे िलए िसवाय हसरत और मायूसी
के और कया चारा है? दख ू होगा, कुढूंगा, पर सब करंगा। अब एक दम के िलए यहा आकर
मेरे पहलू मे बैठ जाइए तािक इस बेकरार िदल को तसकीन हो। आइए, एक लमहे के िलए भूल
जाएं िक जुदाई की घडी हमारे सर पर खडी है। कौन जाने यह िदन कब आये? शान-शौकत
गरीबो की याद भूला देती है, आइए एक घडी िमलकर बैठे। अपनी जलफो की अमबरी खुशबू से
इस जलती हुई रह को तरावट पहुँचाइए। यह बाहे, गलो की जंजीरे बने जाएं। अपने िबललौर
जैसे हाथो से पेम के पयाले भर-भरकर िपलाइए। सागर के ऐसे दौर चले िक हम छक जाएं!
िदलो पर सुरर को ऐसा गाढा रंग चढे िजस पर जुदाई की तुिशरयो का असर न हो। वह रंगीन
शराब िपलाइए जो इस झुलसी हुई आरजूओं की खेती को सीच दे और यह रह की पयास
हमेशा के िलए बुझ जाए।
मए अगवानी के दौर चलने लगे। शहजादी की िबललौरी हथेली मे सुखर शराब का पयाला ऐसा
मालूम होता था जैसे पानी की िबललौरी सतह पर कमल का फूल िखला हो कािसम दीनो
दुिनया से बेखबर पयाले पर पयाले चढाता जाता था जैसे कोई डाकू लूट के माल पर टू टा हुआ
हो। यहा तक िक उसकी आंखे लाल हो गयी, गदरन झ़ुक गयी, पी-पीकर मदहोश हो गया।
शहजादी की तरफ वसाना-भरी आंखो से ताकता हुआ। बाहे खोले बढा िक घिडयाल ने चार
बजाये और कूच के डंके की िदल छेद देनेवाली आवाजे कान मे आयी। बाहे खुली की खुली
रह गयी। लौिडया उठ बैठी, शहजादी उठ खडी हुई और बदनसीब कािसम िदल की आरजुए ं
िलये खेमे से बाहर िनकला, जैसे तकदीर के फैलादी पंजे ने उसे ढकेलकर बाहर िनकाल िदया
हो। जब अपने खेमे मे आया तो िदल आरजूओं से भरा हुआ था। कुछ देर के बाद आरजुओं ने
हवस का रप भरा और अब बाहर िनकला तो िदल हरसतो से पामाल था, हवस का मकडी-
जाल उसकी रह के िलए लोहे की जंजीरे बना हुआ था।

शा म का सुहाना वक्त था। सुबह की ठणडी-ठणडी हवा से सागर मे धीरे धीरे लहरे उठ
रही थी। बहादुर, िकसमत का धनी कािसम मुलतान के मोचे को सर करके गवर की
मािदरा िपये उसके नशे मे चूर चला आता था। िदलली की सडके बनदनवारो और झंिडयो से
सजी हुई थी। गुलाब और केवडे की खुशब चारो तरफ उड रही थी। जगह-जगह नौबतखाने
अपना सुहाना राग गया। तोपो ने अगवानी की घनगरज सदाए बुलनद की। ऊपर झरोखो मे

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नगर की सुनदिरया िसतारो की तरह चमकने लगी। कािसम पर फूलो की बरखा होने लगी।
वह शाही महल के करीब पहुँचार तो बडे-बडे अमीर-उमरा उसकी अगवानी के िलए कतार
बाधे खडे थे। इस शान से वह दीवाने खास तक पहुँचा। उसका िदमाग इस वकत सातवे
आसमान पर था। चाव-भरी आंखो से ताकता हुआ बादशाह के पास पहुँचा और शाही तखत
को चूम िलया। बादशाह मुसकाराकर तख्त से उतरे और बाहे खोले हुए कािसम को सीने से
लगाने के िलए बढे। कािसम आदर से उनके पैरो को चूमने के िलए झुका िक यकायक उसके
िसर पर एक िबजली-सी िगरी। बादशाह को तेज खंजर उसकी गदरन पर पडा और सर तन से
जुदा होकर अलग जा िगरा। खून के फौवारे बादशाह के कदमो की तरफ, तखत की तरफ
और तख्त के पीछे खडे होने वाले मसरर की तरफ लपके, गोया कोई झललाया हुआ आग का
साप है।
घायल शरीर एक पल मे ठंडा हो गया। मगर दोनो आंखे हसरत की मारी हईु दो मूरतो
की तरह देर तक दीवारो की तरफ ताकती रही। आिखर वह भी बनद हो गयी। हवस ने
अपना काम पूरा कर िदया। अब िसफर हसरत बाकी थी। जो बरसो तक दीवाने खास के
दरोदीवार पर छायी रही और िजसकी झलक अभी तक कािसम के मजार पर घास-फूस की
सूरत मे नजर आती है।
-‘पेम बतीसी’ से

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पपपपप-पपपपप

बा बू चैतनयादास ने अथरशासत खूब पढा था, और केवल पढा ही नही था, उसका यथायोगय
वयाहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गावो मे उनक जमीदारी भी थी, बैक मे भी
कुछ रपये थे। यह सब उसी अथरशासत के जान का फल था। जब कोई खचर सामने आता
तब उनके मन मे सवाभावत: पश होता था-इससे सवयं मेरा उपकार होगा या िकसी अनय पुरष
का? यिद दो मे से िकसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बडी िनदरयता से उस खचर का गला
दबा देते थे। ‘वयथर’ को वे िवष के समाने समझते थे। अथरशासत के िसदनत उनके जीवन-
सतमभ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत थे। बडे का नाम पभुदास था, छोटे का िशवदास। दोनो कालेज
मे पढते थे। उनमे केवल एक शेणी का अनतर था। दोनो ही चुतर, होनहार युवक थे। िकनतु
पभुदास पर िपता का सनेह अिधक था। उसमे सदुतसाह की माता अिधक थी और िपता को
उसकी जात से बडी-बडी आशाएं थी। वे उसे िवदोनित के िलए इंगलैणड भेजना चाहते थे।
उसे बैिरसटर बनाना उनके जीवन की सबसे बडी अिभलाषा थी।

िक नतु कुछ ऐसा संयोग हुआ िक पभादास को बी०ए० की परीका के बाद जवर आने
लगा। डाकटरो की दवा होने लगी। एक मास तक िनतय डाकटर साहब आते रहे, पर
जवर मे कमी न हुई दस ू रे डाकटर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ।
पभुदास िदनो िदन कीण होता चला जाता था। उठने -बैठने की शिकत न थी यहा तक िक
परीका मे पथम शेणी मे उतीणर होने का शुभ-समबाद सुनकर भी उसक चेहरे पर हषर का
कोई िचनहृ न िदखाई िदया । वह सदैव गहरी िचनजा मे डुबा रहाता था । उसे अपना
जीवन बोझ सा जान पडने लगा था । एक रोज चैतनयादास ने डाकटर साहब से पूछा यह
कयाा
ा ा बात है िक दो महीने हो गये और अभी तक दवा कोई असर नही हुआ ?
डाकटर साहब ने सनदेहजनक उतर िदया- मै आपको संशय मे नही डालना चाहता । मेरा
अनुमान है िक यह टयुबरकयुलािसस है ।
चैतनयादास ने वयग होकर कहा – तपेिदक ?
डाकटर - जी हा उसके सभी लकण िदखायी देते है।
चैतनयदास ने अिवशास के भाव से कहा मानो उनहे िवसमयकारी बात सुन पडी हो –
तपेिदक हो गया !
डाकटर ने खेद पकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुपतरीित सेशरीर मे
पवशे करता है।
चैतनयदास – मेरे खानदान मे तो यह रोग िकसी को न था।
डाकटर – समभव है, िमतो से इसके जमर (कीटाणु ) िमले हो।
चैतनयदास कई िमनट तक सोचने के बाद बोले- अब कया करना चािहए ।
डाकटर -दवा करते रिहये । अभी फेफडो तक असर नही हुआ है इनके अचछे होने
की आशा है ।
चैतनयदास – आपके िवचार मे कब तक दवा का असर होगा?
डाकटर – िनशय पूवरक नही कह सकता । लेिकन तीन चार महीने मे वे सवसथ हो
जायेगे । जाडो मे इसरोग का जोर कम हो जाया करता है ।
चैतनयदास – अचछे हो जाने पर ये पढने मे पिरशम कर सकेगे ?
डाकटर – मानिसक पिरशम के योगय तो ये शायद ही हो सके।
चैतनयदास – िकसी सेनेटोिरयम (पहाडी सवासथयालय) मे भेज दँू तो कैसा हो?
डाकटर - बहुत ही उतम ।
चैतनयदास तब ये पूणररीित से सवसथ हो जाएंगे?
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डाकटर - हो सकते है, लेिकन इस रोग को दबा रखने के िलए इनका मानिसक
पिरशम से बचना ही अचछा है।
चैतनयदास नैराशय भाव से बोले – तब तो इनका जीवन ही नष हो गया।

ग मी बीत गयी। बरसात के िदन आये, पभुदास की दशा िदनो िदन िबगडती गई। वह पडे-
पडे बहुधा इस रोग पर की गई बडे बडे डाकटरो की वयाखयाएं पढा करता था। उनके
अनुभवो से अपनी अवसथा की तुलना िकया करता था। उनके अनुभवो स अपनी अवसथा की
तुलना िकया करता । पहले कुछ िदनो तक तो वह अिसथरिचत –सा हो गया था। दो चार
िदन भी दशा संभली रहती तो पुसतके देखने लगता और िवलायत याता की चचा करता । दो
चार िदन भीजवर का पकोप बढ जाता तो जीवन से िनराश हो जाता । िकनतु कई मास
के पशात जब उसे िवशास हो गया िक इसरोग से मुकत होना किठन है तब उसने जीवन
की भी िचनता छोड दी पथयापथय का िवचार न करता , घरवालो की िनगाह बचाकर
औषिधया जमीन पर िगरा देता िमतोके साथ बैठकर जी बहलाता। यिद कोई उससे सवासथय
केिवषय मे कुछ पूछता तोिचढकर मुंह मोड लेता । उसके भावो मे एक शािनतमय उदासीनता
आ गई थी, और बातो मेएक दाशरिनक ममरजता पाई जाती थी । वह लोक रीित और
सामािजक पथाओं पर बडी िनभीकता से आलोचनारंए िकया करता । यदिप बाबू चैतनयदास
के मन मे रह –रहकर शंका उठा करती थी िक जब पिरणाम िविदत ही है तब इस पकार धन
का अपवयय करने से कया लाभ तथािप वेकुछ तो पुत -पेम और कुछ लोक मत के भय से
धैयर के साथ् दवा दपरन करतेक जाते थे ।
जाडे का मौसम था। चैतनयदास पुत के िसरहाने बैठे हुए डाकटर साहब की ओर
पशातमक दृिष से देख रहे थे। जब डाकटर साहब टेमपरचर लेकर (थमामीटर लगाकर )
कुसी पर बैठे तब चैतनयदास ने पूछा- अब तो जाडा आ गया। आपको कुछ अनतर मालूम
होता है ?
डाकटर – िबलकुल नही , बिलक रोग और भी दुससाधय होता जाता है।
चैतनयदास ने कठोर सवर मे पूछा – तब आप लोग कयो मुझे इस भम मे डाले हुए थे
िकजाडे मे अचछे हो जायेगे ? इस पकार दस ू रो की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब
साधने का साधन हो तो हो इसे सजजनताकदािप नही कह सकते।
डाकटर ने नमता से कहा- ऐसी दशाओं मे हम केवल अनुमान कर सकते है। और
अनुमान सदैव सतय नही होते। आपको जेरबारी अवशय हुई पर मै आपको िवशास िदलाता हूं
िक मेरी इचछा आपको भम मे डालने के नही थी ।
िशवादास बडे िदन की छुिटटयो मे आया हुआ था , इसी समय विह कमरे मे आ गया
और डाकटर साहब से बोला – आप िपता जी की किठनाइयो का सवयं अनुमान कर सकते है
। अगर उनकी बात नागवार लगी तो उनहे कमा कीिजएगा ।
चैतनयदास ने छोटे पुत की ओर वातसलय की दृिष से देखकर कहा-तुमहे यहा आने
की जररत थी? मै तुमसे िकतनी बार कह चुका हूँ िक यहॉँआया करो । लेिकन तुमको
सबर ही नही होता ।
िशवादास ने लिजजत होकर कहा- मै अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हो । मै
केवल डाकटर साहब से यह पूछना चाहताथा िक भाई साहब के िलए अब कया करना चािहए

डाकटर साहब ने कहा- अब केवल एकही साधनऔर है इनहे इटली के िकसी
सेनेटािरयम मे भेज देना चािहये ।
जचैतनयदास ने सजग होकर पूछा- िकतना खचर होगा? ‘जयादा स जयादा तीन हजार
। साल भसा रहना होगा?
िनशय है िक वहा से अचछे होकर आवेगे ।

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जी नही यहातो यह भयंकर रोग है साधारण बीमारीयो मे भी कोई बात िनशय रप से
नही कही जा सकती ।‘
इतना खचर करनेपर भी वहा सेजयो के तयो लौटा आये तो?
तो ईशार कीइचछा। आपको यह तसकीन हो जाएगी िक इनके िलए मै जो कुछ कर
सकता था। कर िदया ।
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आ धी रात तक घर मे पभुदास को इटली भेजने के पसतवा पर वाद-िववाद होता
रहा । चैतनयदास का कथन था िक एक संिदगय फल केिलए तीन हजार का
खचर उठाना बुिदमता के पितकूल है। िशवादास फल उनसे सहमत था । िकनतु उसकी
माता इस पसताव का बडी ढृझता के साथ िवरोध कर रही थी । अतं मे माता की िधकारो
का यह फल हुआ िक िशवादास लिजजत होकर उसके पक मे हो गया बाबू साहब अकेले रह
गये । तपेशरी ने तकर से कामिलया । पित केसदभावो को पजविलत करेन की चेषा की ।
धन की नशरात कीलोकोिकतया कही इनं शसतो से िवजय लाभ न हुआ तो अशु बषा करने
लगी । बाबू साहब जल –िबनदुओ क इस शर पहार के सामने न ठहर सके । इन शबदो मे
हार सवीकार की- अचछा भाई रोओं मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेशरी –तो कब ?
‘रपये हाथ मे आने दो ।’
‘तो यह कयो नही कहते िकभेजना ही नही चाहते?’
भेजना चाहता हूँ िकनतु अभी हाथ खाली है। कया तुम नही जानती?’
‘बैक मे तो रपये है? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का पबनध करना ऐसा कया किठन
है?’
चैतनयदास ने पती को ऐसी दृिष से देखा मानो उसे खाजायेगे और एक कण केबाद
बोले – िबलकूल बचचो कीसी बाते करतीहो। इटली मे कोई संजीवनी नही रकखी हुई है जो
तुरनत चमतकार िदखायेगी । जब वहा भी केवल पारबध ही की परीका करनी है तो सावधानी
से कर लेगे । पूवर पूरषो की संिचत जायदाद और रकखहुए रपये मै अिनिशत िहत की आशा
पर बिलदान नही कर सकता।
तपेशरी ने डरते – डरते कहा- आिखर , आधा िहससा तो पभुदास का भी है?
बाबू साहब ितरसकार करते हुए बोले – आधा नही, उसमे मै अपना सवरसव दे देता, जब
उससे कुछ आशा होती , वह खानदान की मयादा मै और ऐशयर बढाता और इस लगाये। हुए
लगाये हुए धन केफलसवरप कुछ कर िदखाता । मै केवल भावुकता के फेर मे पडकर धन
का हास नही कर सकता ।
तपेशीर अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई ।
इस पसताव केछ: महीने बाद िशवदास बी.ए पास होगया। बाबू चैततयदास नेअपनी
जमीदरी केदो आने बनधक रखकर कानून पढने के िनिमत उसे इंगलैड भेजा ।उसे बमबई
तक खुद पहुँचाने गये । वहा से लौटेतो उनके अतं : करण मे सिदचछायो से पिरिमत लाभ
होने की आशा थी उनके लौटने केएक सपताह पीछे अभागा पभुदास अपनी उचच अिभलाषओं
को िलये हुए परलोक िसधारा ।
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चै तनयदास मिणकिणरका घाट पर अपने समबिनधयो केसाथ बैठे िचता – जवाला की ओर


देख रहे थे ।उनके नेतो से अशुधारा पवािहत हो रही थी । पुत –पेम एक कण के िलए
अथर –िसदात पर गािलब हो गयाथा। उस िवरकतावसथा मे उनके मन मे यह कलपना उठ
रही थी । - समभव है, इटली जाकर पभुदास सवसथ हो जाता । हाय! मैने तीन हजार का
मुंह देखा और पुत रत को हाथ से खो िदया। यह कलपना पितकण सजग होती थी और
उनको गलािन, शोक और पशाताप के बाणो से बेध रही थी । रह रहकर उनके हृदय मे बेदना
कीशुल सी उठती थी । उनके अनतर की जवाला उस िचता –जवाला से कम दगधकािरणी न
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थी। अकसमात उनके कानो मे शहनाइयो की आवाज आयी। उनहोने आंख ऊपर उठाई तो
मनुषयो का एक समूह एक अथी के साथ आता हुआ िदखाई िदया। वे सब के सब ढोल
बजाते, गाते, पुषय आिद की वषा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उनहोने अथी उतारी
और िचता बनाने लगे । उनमे से एक युवक आकर चैतनयदास के पास खडा हो गया। बाबू
साहब ने पूछा –िकस मुहलले मे रहते हो?
युवक ने जवाब िदया- हमारा घर देहात मे है । कल शाम को चले थे । ये हमारे
बाप थे । हम लोग यहा कम आते है, पर दादा की अिनतम इचछा थी िक हमे मिणकिणरका
घाट पर ले जाना ।
चैतनयदास -येसब आदमी तुमहारे साथ है?
युवक -हॉँ और लोग पीछे आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहा तक आने
मे सैकडो उठ गयेपर सोचता हूँ िकबूढे िपता की मुिकत तो बन गई । धन और ही िकसिलए

चैतनयदास- उनहे कया बीमारी थी ?
युवक ने बडी सरलता से कहा , मानो वह अपने िकसी िनजी समबनधी से बात कर
रहा हो।- बीमार का िकसी को कुछ पता नही चला। हरदम जवर चढा रहता था। सूखकर
काटा हो गये थे । िचतकूट हिरदार पयाग सभी सथानो मे ले लेकर घूमे । वैदो ने जो कुछ
कहा उसमे कोई कसर नही की।
इतने मे युवक का एक और साथी आ गया। और बोला –साहब , मुंह देखा बात
नही, नारायण लडका दे तो ऐसा दे । इसने रपयो को ठीकरे समझा ।घर की सारी पूंजी
िपता की दवा दार मे सवाहा कर दी । थोडी सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने
आदमी का कया बस है।
युवक ने गदगद सवर से कहा – भैया, रपया पैसा हाथ का मैल है। कहा आता है कहा जाता
है, मुनषय नही िमलता। िजनदगानी है तो कमा खाउंगा। पर मन मे यह लालसा तो नही रह
गयी िक हाय! यह नही िकया, उस वैद के पास नही गया नही तो शायद बच जाते। हम तो
कहते है िक कोई हमारा सारा घर दार िलखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे ।इसी
माया –मोह का नाम िजनदगानी है , नही तो इसमे कया रकखा है? धन से पयारी जान
जान से पयारा ईमान । बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के िलए अपने बस की
कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही िचत अपने को िधकारता ।
नही तो मुझे इस घडी ऐसा जान पडता है िक मेरा उदार एक भारी ऋण से हो गया।
उनकी आतमा सुख और शािनत से रहेगीतो मेरा सब तरह कलयाण ही होगा।
बाबू चैतनयादास िसर झुकाए ये बाते सुन रहे थे ।एक -एक शबद उनके हृदय मे शर
के समान चुभता था। इस उदारता के पकाश मे उनहे अपनी हृदय-हीनता, अपनी
आतमशुनयता अपनी भौितकता अतयनत भयंकर िदखायी देती थी । उनके िचत परइस
घटना का िकतना पभाव पडा यह इसी से अनुमान िकया जा सकता है िक पभुदास के
अनतयेिष संसकार मे उनहोने हजारो रपये खचर कर डाले उनके सनतपत हृदय की शािनत के
िलए अब एकमात यही उपाय रह गया था।
‘सरसवती’ , जून, 1932

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पपपप़ पप पपपप
ने कहािनयो और इितहासो मे तकदीर के उलट फेर की अजीबो- गरीब दासताने पढी है
मै । शाह को िभखमंगा और िभखमंगे को शाह बनते देखा है तकदीर एक िछपा हुआ भेद
है । गािलयो मे टुकडे चुनती हुई औरते सोने के िसंहासन पर बैठ गई और वह ऐशयर के
मतवाले िजनके इशारे पर तकदीर भी िसर झुकाती थी ,आन की शान मे चील कौओं का
िशकार बन गये है।पर मेरे सर पर जो कुछ बीती उसकी नजीर कही नही िमलती आह उन
घटानाओं को आज याद करतीहूं तो रोगटे खडे हो जाते है ।और हैरत होती है । िक
अब तक मै कयो और कयोकर िजनदा हूँ । सौनदयर लालसाओं का सतोत है । मेरे िदल मे
कया लालसाएं न थी पर आह ,िनषू र भागय के हाथो मे िमटी । मै कया जानती थी िक वह
आदमी जो मेरी एक-एक अदा पर कुबान होता था एक िदन मुझे इस तरह जलील और
बबाद करेगा ।
आज तीन
साल हुए जब मैने इस घर मे कदम रकखा उस वकत यह एक हरा भरा चमन था ।मै इस
चमन की बुलबूल थी , हवा मे उडती थीख् डािलयो पर चहकती थी , फूलो पर सोती थी ।
सईद मेरा था। मै सईद की थी । इस संगमरमर के हौज के िकनारे हम मुहबबत के पासे
खेलते थे । - तुम मेरी जान हो। मै उनसे कहती थी –तुम मेरे िदलदार हो । हमारी जायदाद
लमबी चौडी थी। जमाने की कोई िफक,िजनदगी का कोई गम न था । हमारे िलए िजनदगी
सशरीर आननद एक अननत चाह और बहार का ितिलसम थी, िजसमे मुरादे िखलती थी ।
औरा ााखुिशयॉँ हंसती थी जमाना हमारी इचछाओं पर चलने वाला था। आसमान हमारी
भलाई चाहता था। और तकदीर हमारी साथी थी।
एक िदन सईद ने आकर कहा- मेरी जान , मै तुमसे एक िवनती करने आया हूँ ।
देखना इन मुसकराते हुए होठो पर इनकार का हफर न आये । मै चाहता हूँ िक अपनी सारी
िमलिकयत, सारी जायदाद तुमहारे नाम चढवा दँू मेरे िलए तुमहारी मुहबबत काफी है। यही मेरे
िलए सबसे बडी नेमत है मै अपनी हकीकत को िमटा देना चाहता हूँ । चाहता हूँ िक
तुमहारे दरवाजे का फकीर बन करके रहूँ । तुम मेरी नूरजहॉँ बन जाओं ;
मै तुमहारा सलीम बनूंगा , और तुमहारी मूंगे जैसी हथेली के पयालो पर उम बसर करं गा।
मेरी आंखे भर आयी। खुिशंया चोटी पर पहुँचकर आंसु की बूंद बन गयी।
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पर अभी पूरा साल भी न गुजरा था िक मुझे सईद के िमजाज मे कुछ तबदीली नजर
आने लगी । हमारे दरिमयान कोई लडाई-झगडा या बदमजगी न हुई थी मगर अब वह सईद
न था। िजसे एक लमहे के िलए भी मेरी जुदाई दभ ू र थी वह अब रात की रात गयाब रहता
।उसकी आंखो मे पेम की वह उंमग न थी न अनदाजो मे वह पयास ,न िमजाज मे वह गमी।
कुछ िदनो तक इस रखेपन ने मुझे खूब रलाया। मुहबबत के मजे याद आ आकर
तडपा देते । मैने पढा थािक पेम अमर होता है ।कया, वह सतोत इतनी जलदी सूख गया?
आह, नही वह अब िकसी दस ू रे चमन को शादाब करता था। आिखर मै भी सईद से आंखे
चूराने लगी । बेिदली से नही, िसफर इसिलए िक अब मुझे उससे आंखे िमलाने की ताव न
थी।उस देखते ही महुबबत के हजारो किरशमे नजरो केसामने आ जाते और आंखे भर आती
। मेरा िदल अब भी उसकी तरफ िखचंता था कभी – कभी बेअिखतयार जी चाहता िक
उसके पैरो पर िगरं और कहूं –मेरे िदलदार , यह बेरहमी कयो ? कया तुमने मुझसे मुह ं फेर
िलया है । मुझसे कया खता हुई ? लेिकन इस सवािभमान का बुरा हो जो दीवार बनकर रासते
मे खडा हो जाता ।
यहा तक िक धीर-धीरे िदल मे भी मुहबबत की जगह हसद ने ले ली। िनराशा के धैयर ने िदल
को तसकीन दी । मेरे िलए सईद अब बीते हुए बसनत का एक भूला हुआ गीत था। िदल
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की गमी ठणडी हो गयी । पेम का दीपक बुझ गया। यही नही, उसकी इजजत भी मेरे िदल
से रखसत हो गयी। िजस आदमी के पेम के पिवत मिनदर मे मैल भरा हंुआ होवह हरिगज
इस योगय नही िक मै उसके िलए घुलूं और मरं ।
एक रोज शाम के वकत मै अपने कमरे मे पंलग पर पडी एक िकससा पढ रही थी ,
तभी अचानक एक सुनदर सती मेरे कमरे मे आयी। ऐसा मालूम हूआ िक जैसे कमरा जगमगा
उठा ।रप की जयोित ने दरो दीवार को रोशान कर िदया। गोया अभी सफेदी हुईहै उसकी
अलंकृत शोभा, उसका िखला हुआ फूला जैसा लुभावना चेहरा उसकी नशीली िमठास, िकसी
तारीफ करं मुझ पर एक रोब सा छा गया । मेरा रप का घमंड धूल मे िमल गया है। मै
आशयर मे थी िक यह कौन रमणी है और यहा कयोकर आयी। बेअिखतयार उठी िक उससे
िमलूं और पूछूं िक सईद भी मुसकराता हुआ कमरे मे आया मै समझ गयी िक यह रमणी उसकी
पेिमका है। मेरा गवर जाग उठा । मै उठी जरर पर शान से गदरन उठाए हुए आंखो मे हुसन के
रौब की जगह घृणा का भाव आ बैठा । मेरी आंखो मे अब वह रमणी रप की देवी नही
डसने वाली नािगन थी।मै िफर चारपाई पर बैठगई और िकताब खोलकर सामने रख ली- वह
रमणी एक कण तक खडी मेरी तसवीरो को देखती रही तब कमरे से िनकली चलते वकत
उसने एक बार मेरी तरफ देखा उसकी आंखो से अंगारे िनकल रहे थे । िजनकी िकरणो
मे िहंसपितशोध की लाली झलक रही थी । मेरे िदल मे सवाल पैदा हंुआ- सईद इसे यहा
कयो लाया? कया मेरा घमणड तोडने के िलए?
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जा यदाद पर मेरा नाम था पर वह केवल एक,भम था, उस परअिधकार पूरी तरह सईद
का था । नौकर भी उसीको अपना मािलक समझते थे और अकसर मेरे साथ िढठाई
से पेश आते । मै सब केसाथ् िजनदगी केिदन काट रही थी । जब िदल मे उमंगे न रही
तो पीडा कयो होती ?
सावन का महीना था , काली घटा छायी हुई थी , और िरसिझम बूंदे पड रही थी ।
बगीचे पर हसद का अंधेरा और िसहास दराखतोे़़ ़़ प र ज ुंगनुओ कीचमकऐसी
मालूम होती थी । जैसे िक उनके मुंह से िचनगािरयॉँ जैसी आहे िनकल रही है । मै देर
तक हसद का यह तमाशा देखती रही । कीडे एक साथ् चमकते थे और एक साथ् बुझ
जाते थे, गोया रोशानी की बाढेछूट रही है। मुझे भी झूला झूलने और गाने का शौक हुआ।
मौसम की हालते हसंद के मारे हुए िदलो परभरी अपना जादु
कर जाती है । बगीचे मे एक गोल बंगला था। मै उसमे आयी और बरागदे की एक कडी
मे झूला डलवाकर झूलने लगी । मुझे आज मालूम हुआिक िनराशा मे भी एक आधयाितमक
आननद होता है िजसकी हाल उसको नही मालूम िजसकी इचछाई पूणर है । मै चाव से मलार
गान लगी सावन िवरह और शोक का महीना है । गीत मे एक िवयोगी । हृदय की गाथा
की कथा ऐसे ददर भरे शबदो बयान की गयी थी िक बरबस आंखो से आंसू टपकने लगे ।
इतने मे बाहर से एक लालटेन की रोशनी नजर आयी। सईद दोनो चले आ रहेथे ।
हसीना ने मेरे पास आकर कहा-आज यहा नाच रंग की महिफल सजेगी और शराब के दौर
चलेगे।
मैने घृणा से कहा – मुबारक हो ।
हसीना - बारहमासे और मलार कीताने उडेगी सािजनदे आ रहे है ।
मै – शौक से ।
हसीना - तुमहारा सीना हसद से चाक हो जाएगा ।
सईद ने मुझेसे कहा- जुबैदा तुम अपने कमरे मे चली रही जाओ यह इस वकत आपे
मे नही है।
हसीना - ने मेरी तरफ लाल –लाल आखो िनकालकर कहा-मैतुमहे अपने पैरो
कीधूल के बराबर भी नही समझती ।

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मुझे िफर जबत न रहा । अगडकर बोली –और मै कया समझाती हूं एक कुितय,
दुसरो की उगली हुई हिडडयो िचचोडती िफरती है ।
अब सईद के भी तेवर बदले मेरी तरफ भयानक आंखो सेदेखकर बोले- जुबैदा ,
तुमहारे सर पर शैतान तो नही संवार है?
सईद का यह जुमला मेरे िजगर मे चुभ गया, तपड उठी, िजन होठो से हमेशा
मुहबबत और पयार कीबाते सुनी हो उनही से यह जहर िनकले और िबलकुल बेकसूर ! कया मै
ऐसी नाचीज और हकीर हो गयी हूँ िक एक बाजार औरत भी मुझे छेडकर गािलया दे
सकती है। और मेरा जबान खोलना मना! मेरे िदल मेसाल भर से जो बुखार हो रहाथा, वह
उछल पडा ।मै झूले से उतर पडी और सईद की तरफ िशकायता-भरी िनगाहो से देखकर
बोली – शैतान मेरे सर पर सवार हो या तुमहारे सर पर, इसका फैसला तुम खुद कर
सकते हो । सईद , मै तुमको अब तक शरीफ और गैरतवाला समझतीथी, तुम खुद कर
सकते हो । बेवफाई की, इसका मलाला मुझे जरर था , मगर मैने सपनो मे भी यह न सोचा
था िक तुम गैरत से इतने खाली हो िक हया-फरोश औरत के पीछे मुझे इस तरह जलीज
करोगे । इसका बदला तुमहे खुदा से िमलेगा।
हसीना ने तेज होकर कहा- तू मुझे हया फरोश कहतीहै ?
मै- बेशक कहतीहूँ।
सईद –और मै बेगैरत हूँ . ?
मै – बेशक ! बेगैरत ही नही शोबदेबाज , मकार पापी सब कुछ ।यह अलफाज बहुत
िघनावने है लेिकन मेरे गुससे के इजहार के िलए काफी नही ।
मै यह बाते कह रही थी िक यकायक सईद केलमबे तगडे , हटटे कटटे नौकर ने मेरी
दोनो बाहे पकड ली और पलक मारते भर मे हसीना ने झूले की रिससया उतार कर मुझे
बरामदे के एकलोहे केखमभे सेबाध िदया।
इस वकत मेरे िदल मे कया खयाल आ रहे थे । यह याद नही पर मेरी आंखो के
सामने अंधेरा छा गया था । ऐसा मालूम होताथा िक यह तीनो इंसान नही यमदत ू है गूससे की
जगहिदल मे डर समा गयाथा । इस वकत अगर कोई रौबी ताकत मेरे बनधनो को काट
देती , मेरे हाथो मे आबदार खंजर देदेती तो भी तो जमीन पर बैठकर अपनी िजललत और
बेकसी पर आंसु बहाने केिसवा और कुछ न कर सकती। मुझे खयाल आताथािक शायद
खुदा की तरफ से मुझ परयह कहर नािजल हुआ है। शायद मेरी बेनमाजी और बेदीनी की
यह सजा िमल रहा है। मै अपनी िपछली िजनदगी पर िनगाह डाल रही थी िक मुझसे कौन
सी गलती हुई हौ िजसकी यह सजा है। मुझे इस हालत मे छोडकर तीनो सूरते कमरे
मेचली गयी । मैने समझा मेरी सजा खतम हुई लेिकन कया यह सब मुझे यो ही बधा
रकखेगे ? लौिडया मुझे इस हालत मे देख ले तो कया कहे? नही अब मैइस घर मे रहने के
कािबल ही नही ।मै सोच रही थी िक रिससया कयोकर खालूं मगर अफसोस मुझे न मालूम
थािक अभी तक जो मेरी गित हुई है वह आने वाली बेरहिमयो का िसफर बयाना है । मैअब
तक न जानती थीिक वह छोटा आदमी िकतना बेरहम , िकतना काितल है मै अपने िदल से
बहस
े कररही थी िक अपनी इस िजललत मुझ पर कहा तक है अगर मैे
हसीना की उन िदल जलाने वाली बातो को जबाव न देती तो कया यह नौबत ,न आती ?
आती और जरर आती। वहा काली नािगन मुझे डसने का इरादा करके चली ,थी इसिलए
उसने ऐसे िदलदुखाने वाले लहजे मे ही बात शुर की थी । मै गुससे मे आकर उसको लान
तान करँ और उसे मुझे जलील करने का बहाना िमल जाय।
पानी जोरसे बरसने लगा, बौछारो से मेरा सारा शरीर तर हो गया था। सामने गहरा
अंधेरा था। मै कान लगाये सुन रही थी िक अनदर कया िमसकौट हो रही है मगर मेह की
सनसनाहट के कारण आवाजे साफ न सुनायी देती थी । इतने लालटेन िफर से बरामदे
मेआयी और तीनो उरावनी सूरते िफर सामने आकर खडी हो गयी । अब की उस खून परी

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के हाथो मे एक पतली सी कमची थी उसके तेवर देखकर मेरा खून सदर हो गया ।
उसकी आंखो मे एक खून पीने वाली वहशत एक काितल पागलपन िदखाई दे रहा था। मेरी
तरफ शरारत –भरी नजरो सेदेखकर बोली बेगम साहबा ,मै तुमहारी बदजबािनयो का ऐसा
सबक देना चाहती हूं । जो तुमहे सारी उम याद रहे । और मेरे गुर ने बतलाया है िक
कमची सेजयादा देर तक ठहरने वाला और कोई सबक नही होता ।
यह कहकर उस जािलम ने मेरी पीठ पर एक कमची जोर से मारी। मै ितलिमया गयी
मालूम हुआ । िक िकसी ने पीठ परआग की िचरगारी रख दी । मुझेसे जबत न हो सका
मॉँ बाप ने कभी फूल की छडी से भीन मारा था। जोर से चीखे मार मारकर रोने लगी ।
सवािभमान , लजजा सब लुपत हो गयी ।कमची की डरावनी और रौशन असिलयत के सामने
और भावनाएं गायब हो गयी । उन िहनदु देिवयो क िदल शायद लोहे के होते होगे जो
अपनी आन पर आग मे कुद पडती थी । मेरे िदल पर तो इस िदल पर तो इस वकत यही
खयाल छाया हुआ था िक इस मुसीबत से कयोकर छुटकारा हो सईद तसवीर की तरह
खामोश खडा था। मै उसक तरफ फिरयाद कीआंखे से देखकर बडे िवनती केसवर मे बोली
– सईद खुदा क िलए मुझे इस जािलम सेबचाओ ,मै तुमहारे पैरो पडती हूँ ख्, तुम मुझे जहर
दे दो, खंजर से गदरन काट लो लेिकन यह मुसीबत सहने की मुझमे ताब नही ।उन
िदलजोइयो को याद करो, मेरी मुहबबत का याद करो, उसी क सदके इस वकत मुझे इस
अजाब से बचाओ, खुदा तुमहे इसका इनाम देगा ।
सईद इन बातो से कुछ िपंघला। हसीना की तरह डरी हुई आंखो से देखकर बोला-
जरीना मेरे कहने से अब जाने दो । मेरी खाितर से इन पर रहम करो।
जरीना तेर बदल कर बोली- तुमहारी खाितर से सब कुछ कर सकती हूं, गािलया नही
बदाशत कर सकती।
सईद –कया अभी तुमहारे खयाल मे गािलयो की काफी सजा नही हुई?
जरीना- तब तो आपने मेरी इजजत की खूब कद की! मैने रािनयो से िचलमिचया
उठवायी है, यह बेगम साहबा है िकस खयाल मे? मै इसे अगर
कुछ छुरी से काटू ँ तब भजी इसकी बदजबािनयो की काफी सजा न होगी।
सईद-मुझसे अब यह जुलम नही देखा जाता।
जरीना-आंखे बनद कर लो।
सईद- जरीना, गुससा न िदलाओ, मै कहता हूँ, अब इनहे माफ करो।
जरीना ने सईद को ऐसी िहकारत-भरी आंखो से देखा गोया वह उसका गुलाम है।
खुदा जाने उस पर उसने कया मनतर मार िदया था िक उसमे खानदानी गैरत और बडाई ओ
इनसािनयत का जरा भी एहसास बाकी न रहा था। वह शायद उसे गुससे जैसे मदानास जजबे
के कािबल ही न समझती थी। हुिलया पहचानने वाले िकतनी गलती करते है कयोिक िदखायी
कुछ पडता है, अनदर कुछ होता है ! बाहर के ऐसे सुनदर रप के परदे मे इतनी बेरहमी, इतनी
िनषुरता ! कोई शक नही, रप हुिलया पहचानने की िवदा का दुशमन है। बोली – अचछा तो
अब आपको मुझ पर गुससा आने लगा ! कयो न हो, आिखर िनकाह तो आपने बेगम ही से िकया
है। मै तो हया- फरोश कुितया ही ठहरी !
सईद- तुम ताने देती हो और मुझसे यह खून नही देखा जाता।
जरीना – तो यह कमची हाथ मे लो, और इसे िगनकर सौ लगाओ। गुससा उतर
जाएगा, इसका यही इलाज है।
जरीना – िफर वही मजाक।
जरीना- नही, मै मजाक नही करती।
सईद ने कमची लेने को हाथ बढाया मगर मालूम नही जरीना को कया शुबहा पैदा
हुआ, उसने समझा शायद वह क मची को तोड कर फेक देगे। कमची हटा ली और बोली-
अचछा मुझसे यह दगा ! तो लो अब मै ही हाथो की सफाई िदखाती हूँ। यह कहकर उसे बेददर

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ने मुझे बेतहाशा कमिचया मारना शुर की। मै ददर से ऐंठ-ऐंठकर चीख रही थी। उसके पैरो
पडती थी, िमनते करती थी, अपने िकये पर शिमनदा थी, दुआएं देती थी, पीर और पैगमबर का
वासता देती थी, पर उस काितल को जरा भी रहम न आता था। सईद काठ के पुतले की तरह
ददोिसतम का यह नजजारा आंखो से देख रहा था और उसको जोश न आता था। शायद मेरा
बडे-से-बडे दुशमन भी मेरे रोने -धोने पर तरस खाता मेरी पीठ िछलकर लहू-लुहान हो गयी,
जखम पडते थे, हरेक चोट आग के शोले की तरह बदन पर लगती थी। मालूम नही उसने
मुझे िकतने दरे लगाये, यहा तक िक कमची को मुझ पर रहम आ गया, वह फटकर टू ट
गयी। लकडी का कलेजा फट गया मगर इनसान का िदल न िपघला।

मु झे इस तरह जलील और तबाह करके तीनो खबीस रहे वहा से रखसत हो गयी। सईद
के नौकर ने चलते वकत मेरी रिससया खोल दी। मै कहा जाती ? उस घर मे कयोकर
कदम रखती ?
मेरा सारा िजसम नासूर हो रहा था लेिकन िदल नके फफोले उससे कही जयादा जान
लेवा थे। सारा िदल फफोलो से भर उठा था। अचछी भावनाओं के िलए भी जगह बाकी न रही
थी। उस वकत मै िकसी अंधे को कु ंए मे िगरते देखती तो मुझे हंसी आती, िकसी यतीम का
ददरनाक रोना सुनती तो उसका मुंह िचढाती। िदल की हालत मे एक जबदरसत इन् कालाब हो
गया था। मुझे गुससा न था, गम न था, मौत की आरजू न थी, यहा तक िक बदला लेने की
भावना न थी। उस इनतहाई िजललत ने बदला लेने की इचछा को भी खतम कर िदया थरा।
हालािक मै चाहती तो कानूनन सईद को िशकंजे मे ला सकती थी , उसे दाने -दाने के िलए
तरसा सकती थी लेिकन यह बेइजजती, यह बेआबरई, यह पामाली बदले के खयाल के दायरे
से बाहर थी। बस, िसफर एक चेतना बाकी थी और वह अपमान की चेतना थी। मै हमेशा के
िलए जलील हो गयी। कया यह दाग िकसी तरह िमट सकता था ? हरिगज नही। हा, वह
िछपाया जा सकता था और उसकी एक ही सूरत थी िक िजललत के काले गडडे मे िगर पडू ँ
तािक सारे कपडो की िसयाही इस िसयाह दाग को िछपा दे। कया इस घर से िबयाबान अचछा
नही िजसके पेदे मे एक बडा छेद हो गया हो? इस हालत मे यही दलील मुझ पर छा गयी। मैने
अपनी तबाही को और भी मुकममल, अपनी िजललत को और भी गहरा, आने काले चेहरे को
और ळभी काला करने का पका इरादा कर िलया। रात-भर मै वही पडी कभी ददर से
कराहती और कभी इनही खयालात मे उलझती रही। यह घातक इरादा हर कण मजबूत से
और भी मजबूत होता जाता था। घर मे िकसी ने मेरी खबर न ली। पौ फटते ही मै बागीचे से
बाहर िनकल आयी, मालूम नही मेरी लाज-शमर कहा गायब हो गयी थी। जो शखस समुनदर मे
गोते खा चुका हो उसे ताले- तलैयो का कया डर ? मै जो दरो-दीवार से शमाती थी, इस वकत
शहर की गिलयो मे बेधडक चली जा रही थी-चोर कहा, वही जहा िजललत की कद है, जहा
िकसी पर कोई हंसने वाला नही, जहा बदनामी का बाजार सजा हुआ है, जहा हया िबकती है
और शमर लुटती है !
इसके तीसरे िदन रप की मंडी के एक अचछे िहससे मे एक ऊंचे कोठे पर बैठी हुई मै
उस मणडी की सैर कर रही थी। शाम का वकत था, नीचे सडक पर आदिमयो की ऐसी भीड
थी िक कंधे से कंधा िछलता था। आज सावन का मेला था, लोग साफ-सुथरे कपड पहने
कतार की कतार दिरया की तरफ जा रहे थे। हमारे बाजार की बेशकीमती िजनस भी आज
नदी के िकनारे सजी हुई थी। कही हसीनो के झूले थे, कही सावन की मीत, लेिकन मुझे इस
बाजार की सैर दिरया के िकनारे से जयादा पुरलुतफ मालूम होती थी, ऐसा मालूम होता है िक
शहर की और सब सडके बनद हो गयी है, िसफर यही तंग गली खुली हुई है और सब की
िनगाहे कोठो ही की तरफ लगी थी ,गोया वह जमीन पर नही चल रहे है, हवा मे उडना चाहते
है। हा, पढे-िलखे लोगो को मैने इतना बेधडक नही पाया। वह भी घूरते थे मगर कनिखयो
से। अधेड उम के लोग सबसे जयादा बेधडक मालूम होते थे। शायद उनकी मंशा जवानी के

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जोश को जािहर करना था। बाजार कया था एक लमबा-चौडा िथयेटर था, लोग हंसी-िदललगी
करते थे, लुतफ उठाने के िलए नही, हसीनो को सुनाने के िलए। मुंह दस
ू री तरफ था, िनगाह
िकसी दस ू री तरफ। बस, भाडो और नकालो की मजिलस थी।
यकायक सईद की िफंटन नजर आयी। मै रउस पर कई बार सैर कर चुकी थी।
सईद अचछे कपडे पहने अकडा हुआ बैठा था। ऐसा सजीला, बाका जवान सारे शहर मे न था,
चेहरे-मोहरे से मदानापन बरसता था। उसकी आंख एक बारे मेरे कोठे की तरफ उठी और
नीचे झुक गयी। उसके चेहरे पर मुदरनी- सी छा गयी जेसे िकसी जहरीले साप ने काट खाया
हो। उसने कोचवान से कुछ कहा, दम के दम मे िफटन हवा हो गयी। इस वकत उसे
देखकर मुझे जो देषपूणर पसनता हुई, उसके सामने उस जानलेवा ददर की कोई हकीकत न
थी। मैने जलील होकर उसे जलील कर िदया। यक कटार कमिचयो से कही जयादा तेज
थी। उसकी िहममत न थी िक अब मुझसे आंख िमला सके। नही, मैने उसे हरा िदया, उसे
उम-भर के िदलए कैद मे डाल िदया। इस कालकोठरी से अब उसका िनकलना गैर-मुमिकन
था कयोिक उसे अपने खानदान के बडपपन का घमणड था।
दसू रे िदन भोर मे खबर िमली िक िकसी काितल ने िमजा सईद का काम तमाम कर
िदया। उसकी लाश उसीर बागीचे के गोल कमरे मे िमली सीने मे गोली लग गयी थी। नौ बजे
दसू रे खबर सुनायी दी, जरीना को भी िकसी ने रात के वकत़ कतल कर डाला था। उसका
सर तन जुदा कर िदया गया। बाद को जाच-पडताल से मालूम हुआ िक यह दोनो वारदाते
सईद के ही हाथो हुई। उसने पहले जरीना को उसके मकान पर कतल िकया और तब अपने
घर आकर अपने सीने मे गोली मारी। इस मदाना गैरतमनदी ने सईद की मुहबबत मेरे िदल
मे ताजा कर दी।
शाम के वकत़ मै अपने मकान पर पहुँच गयी। अभी मुझे यहा से गये हुए िसफर चार
िदन गुजरे थे मगर ऐसा मालूम होता था िक वषों के बाद आयी हूँ। दरोदीवार पर हसरत
छायी हुई थी। मै।ने घर मे पाव रकखा तो बरबस सईद की मुसकराती हुई सूरत आंखो के
सामने आकर खडी हो गयी-वही मदाना हुसन, वही बाकपन, वही मनुहार की आंखे।
बेअिखतयार मेरी आंखे भर आयी और िदल से एक ठणडी आह िनकल आयी। गम इसका न
था िक सईद ने कयो जान दे दी। नही, उसकी मुजिरमाना बेिहसी और रप के पीछे भागना
इन दोनो बातो को मै मरते दम तक माफ न करं गी। गम यह था िक यह पागलपन उसके सर
मे कयो समाया ? इस वकत िदल की जो कैिफयत है उससे मै समझती हूँ िक कुछ िदनो मे
सईद की बेवफाई और बेरहमी का घाव भर जाएगा, अपनी िजललत की याद भी शायद िमट
जाय, मगर उसकी चनदरोजा मुहबबत का नकश बाकी रहेगा और अब यसही मेरी िजनदगी
का सहारा है।
--उदरू ‘पेम पचीसी’ से

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पपपप पप पपपपपप

व नाकयुलर फाइनल पास करने के बाद मुझे एक पाइमरी सकूल मे जगह विमली, जो मेरे घर
से गयारह मील पर था। हमारे हेडमासटर साहब को छुिटयो मे भी लडको को पढाने की
सनक थी। रात को लडके खाना खाकर सकूल मे आ जाते और हेडमासटर साहब चारपाई पर
लेटकर अपने खराटो से उनहे पढाया करते। जब लडको मे धौल-धपपा शुर हो जाता और
शोर-गुल मचने लगता तब यकायक वह खरगोश की नीद से चौक पडते और लडको को दो-
चार तकाचे लगाकर िफर अपने सपनो के मजे लेने लगते। गयायह-बारह बजे रात तक यही
डामा होता रहता, यहा तक िक लडके नीद से बेकरार होकर वही टाट पर सो जाते। अपैल
मे सलाना इमतहान होनेवाला था, इसिलए जनवरी ही से हाय-तौ बा मची हुई थी। नाइट सकूलो
पर इतनी िरयायत थी िक रात की कलासो मे उनहे न तलब िकया जाता था, मगर छुिटया
िबलकुल न िमलती थी। सोमवती अमावस आयी और िनकल गयी, बसनत आया और चला
गया,िशवराित आयी और गुजर गयी। और इतवारो का तो िजक ही कया है। एक िदन के िलए
कौन इतना बडा सफर करता, इसिलए कई महीनो से मुझे घर जाने का मौका न िमला था।
मगर अबकी मैने पका इरादा कर िलया था िक होली परर जरर घर जाऊंगा, चाहे नौकरी से
हाथ ही कयो न धोने पडे। मैने एक हफते पहले से ही हेडमासटर साहब को अलटीमेटम दे िदया
िक २० माचर को होली की छुटी शुर होगी और बनदा १९ की शाम को रखसत हो जाएगा।
हेडमासटर साहब ने मुझे समझाया िक अभी लडके हो, तुमहे कया मालूम नौकरी िकतनी
मुिशकलो से िमलती है और िकतनी मुिशकपलो से िनभती है, नौकरी पाना उतना मुिशकल नही
िजतना उसको िनभाना। अपैल मे इमतहान होनेवाला है, तीन-चार िदन सकूल बनद रहा तो
बताओ िकतने लडके पास होगे ? साल-भर की सारी मेहनत पर पानी िफर जाएगा िक नही ?
मेरा कहना मानो, इस छुटी मे न जाओ, इमतसहान के बाद जो छुटी पडे उसमे चले जाना।
ईसटर की चार िदन की छुटी होगी, मै एक िदन के िलए भी न रोकूंगा।
मै अपने मोचे पर कायम रहा, समझाने -बुझाने , डराने –धमकाने और जवाब-तलब िकये
जाने के हिथयारो का मुझ पर असर न हुआ। १९ को जयो ही सकूल बनद हुआ, मैने
हेडमासटर साहब को सलाम भी न िकया और चुपके से अपने डेरे पर चला आया। उनहे
सलाम करने जाता तो वह एक न एक काम िनकालकर मुझे रोक लेते- रिजसटर मे फीस की
मीजान लगाते जाओ, औसत हािजरी िनकालते जाओ, लडको की कािपया जमा करके उन पर
संशोधन और तारीख सब पूरी कर दो। गोया यह मेरा आिखरी सफर है और मुझे िजनदगी
के सारे काम अभी खतम कर देने चािहए।
मकान पर आकर मैने चटपट अपनी िकताबो की पोटली उठायी, अपना हलका िलहाफ
कंधे पर रखा और सटेशन के िलए चल पडा। गाडी ५ बजकर ५ िमनट पर जाती थी।
सकूल की घडी हािजरी के वकत हमेशा आध घणटा तेज और छुटी के वकत आधा घणटा
सुसत रहती थी। चार बजे सकूल बनद हुआ था। मेरे खयाल मे सटेशन पहुँचने के िलए काफी
वकत था। िफर भी मुसािफरो को गाडी की तरफ से आम तौर पर जो अनदेशा लगा रहता है ,
और जो घडी हाथ मे होने परर भी और गाडी का वकत ठीक मालूम होने पर भी दरू से
िकसी गाडी की गडगडाहट या सीटी सुनकर कदमो को तेज और िदल को परेशान कर िदया
करता है, वह मुझे भी लगा हुआ था। िकताबो की पोटली भारी थी, उस पर कंधणे पर िलहाफ,
बार-बार हाथ बदल ता और लपका चला जाता था। यहा तक िक सटेशन कोई दो फलाग
से नजर आया। िसगनल डाउन था। मेरी िहममत भी उस िसगनल की तरह डाउन हो गयी,
उम के तकाजे से एक सौ कदम दौडा जरर मगर यह िनराशा की िहममत थी। मेरे देखते-
देखते गाडी आयी, एक िमनट ठहरी और रवाना हो गयी। सकूल की घडी यकीनन आज और
िदनो से भी जयादा सुसत थी।

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अब सटेशन पर जाना बेकार था। दस ू री गाडी गयारह बजे रात को आयगी, मेरे
घरवाले सटेशन पर कोई बारह बजे पुहुँचेगी और वहा से मकान पर जाते-जाते एक बज
जाएगा। इस सनाटे मे रासता चलना भी एक मोचा था िजसे जीतने की मुझमे िहममत न थी।
जी मे तो आया िक चलकर हेडमासटर को आडे हाथो लूं मगरी जबत िकया और चलने के
िलए तैयार हो गया। कुल बारह मील ही तो है, अगर दो मील फी घणटा भी चलूं तो छ: घणटो
मे घर पहुँच सकता हूँ। अभी पॉँच बजे है, जरा कदम बढाता जाऊँ तो दस बजे यकीनन
पहुँच जाऊँगा। अममं और मुनू मेरा इनतजार कर रहे होगे , पहुँचते ही गरम-गरम खाना
िमलेगा। कोलाडे मे गुड पक रहा होगा, वहा से गरम-गरम रस पीने को आ जाएगा और जब
लोग सुनेगे िक मै इतनी दरू पैदल आया हूँ तो उनहे िकतना अचवरज होगा! मैने फौरन गंगा
की तरफ पैर बढाया। यह कसबा नदी के िकनारे था और मेरे गाव की सडक नदी के उस
पार से थी। मुझे इस रासते से जाने का कभी संयोग न हुआ था, मगर इतना सुना था िक
कचची सडक सीधी चली जाती है, परेशानी की कोई बात न थी, दस िमनट मे नाव पार पहुँच
जाएगी और बस फराटे भरता चल दंगू ा। बारह मील कहने को तो होते है , है तो कुल छ:
कोस।
मगर घाट पर पहुँचा तो नाव मे से आधे मुसािफर भी न बैठे थे। मै कूदकर जा बैठा।
खेवे के पैसे भी िनकालकर दे िदये लेिकन नाव है िक वही अचल ठहरी हुई है। मुसािफरो की
संखया काफी नही है, कैसे खुले। लोग तहसील और कचहरी से आते जाते है औ बैठते जाते
है और मै हूँ िक अनदर हीर अनदर भुना जाता हूँ। सूरज नीचे दौडा चला जा रहा है , गोया
मुझसे बाजी लगाये हुए है। अभी सफेद था, िफर पीला होना शुर हुआ और देखते – देखते
लाल हो गया। नदी के उस पार िकितजव पर लटका हुआ, जैसे कोई डोल कुए ं पर लटक रहा
है। हवा मे कुछ खुनकी भी आ गयी, भूख भी मालूम होने लगी। मैने आज धर जाने की खुशी
और हडबडी मे रोिटया न पकायी थी, सोचा था िक शाम को तो घर पहुँच जाऊँगा ,लाओ एक
पैसे के चने लेकर खा लूं। उन दानो ने इतनी देर तक तो साथ िदया ,अब पेट की
पेचीदिगयो मे जाकर न जाने कहा गुम हो गये। मगर कया गम है, रासते मे कया दुकाने न होगी,
दो-चार पैसे की िमठाइया लेकर खा लूंगा।
जब नाव उस िकनारे पहुँची तो सूरज की िसफर अिखरी सास बाकी थी, हालािक नदी
का पाट िबलकुल पेदे मे िचमटकर रह गया था।
मैने पोटली उठायी और तेजी से चला। दोनो तरफ चने के खेते थे िजलनके ऊदे
फूलो पर ओस सका हलका-सा पदा पड चला था। बेअिखत़यार एक खेत मे घुसकर बूट
उखाड िलये और टू ंगता हुआ भागा।

सा
मने बारह मील की मंिजल है, कचचा सुनसान रासता, शाम हो गयी है, मुझे पहली
बार गलती मालूम हुई। लेिकन बचपन के जोश ने कहा, कया बात है, एक-दो
मील तो दौड ही सकते है। बारह को मन मे १७६० से गुणा िकया, बीस हजार गज ही तो
होते है। बारह मील के मुकािबले मे बीस हजार गज कुछ हलके और आसान मालूम हुए।
और जब दो-तीन मील रह जाएगा तब तो एक तरह से अपने गाव ही मे हूंगा, उसका कया
शुमार। िहममत बंध गयी। इके-दुके मुसािफर भी पीछे चले आ रहे थे, और इतमीनान हुआ।
अंधेरा हो गया है, मै लपका जा रहा हूँ। सडक के िकनारे दरू से एक झोपडी नजर
आती है। एक कुपपी जल रही है। जरर िकसी बिनये की दुकान होगी। और कुछ न होगा तो
गुड और चने तो िमल ही जाएंगे। कदम और तेज करता हूँ। झोपडी आती है। उसके सामने
एक कण के िनलए खडा हो जाता हूँ। चार –पॉँच आदमी उकडूं बैठे हुए है , बीच मे एक बोतल
है, हर एक के सामने एक-एक कुलाड। दीवार से िमली हुई ऊंची गदी है, उस पर साहजी बैठे
हुए है, उनके सामने कई बोतले रखी हुई है। जरा और पीछे हटकर एक आदमी कडाही मे
सूखे मटर भून रहा है। उसकी सोधी खुशबू मेरे शरीर मे िबजली की तरह दौड जाती है।

61
बेचैन होकर जेब मे हाथ डालता हूँ और एक पैसा िनकालकर उसकी तरफ चलता हूँ लेिकन
पाव आप ही रक जाते है – यह कलवािरया है।
खोचेवाला पूछता है – कया लोगे ?
मै कहता हूं – कुछ नही।
और आगे बढ जाता हूँ। दुकान भी िमली तो शराब की, गोया दुिनयसा मे इनसान के
िलए शराब रही सबसे जररी चीज है। यह सब आदमी धोबी और चमार होगे, दस ू रा कौन
शराब पीता है, देहात मे। मगर वह मटर का आकषरक सोधापन मेरा पीछा कर रहा है और मै
भागा जा रहा हूँ।
िकताबो की पोटली जी का जंजाल हो गया है, ऐसी इचछा होती है िक इसे यही सडक
पर पटक दं। ू उसका वजन मुिशकल से पाच सेर होगा, मगर इस वकत मुझे मन-भर से जयादा
मालूम हो रही है। शरीर मे कमजोरी महसूस हो रही है। पूरनमासी का चाद पेडो के ऊपर
जा बैठा है और पितयो के बीच से जमीन की तरफ झाक रहा है। मै िबलकुल अकेला जा
रहा हूँ, मगर ददर िबलकुल नही है, भूख ने सारी चेतना को दबा रखा है और खुद उस पर
हावी हो गयी है।
आह हा, यह गुड की खुशबू कहा से आयी ! कही ताजा गुड पक रहा है। कोई गाव
क रीब ही होगा। हा, वह आमो के झुरमुट मे रोशनी नजर आ रही है। लेिकन वहा पैसे-दो
पैसे का गुड बेचेगा और यो मुझसे मागा न जाएगा, मालूम नही लोग कया समझे। आगे बढता
हूँ, मगर जबान से लार टपक रही है गुउ़़़ ़़स े म ु झ े ब डापेमहै।जबकभीिकसीचीज
की दुकान खोलने की सोचता था तो वह हलवाई की दुकान होती थी। िबकी हो या न हो,
िमठाइया तो खाने को िमलेगी। हलवाइयो को देखो, मारे मोटापे के िहल नही सकते। लेिकन
वह बेवकूफ होते है, आरामतलबी के मारे तोद िनकाल लेते है, मै कसरत करता रहूँगा। मगर
गुड की वह धीरज की परीका लेनेवाली, भूख को तेज करनेवाली खूशबू बराबर आ रही है।
मुझे वह घटना याद आती है, जब अममा तीन महीने के िलए अपने मैके या मेरी निनहाल गयी
थी और मैने तीन महीने के एक मन गुड का सफाया कर िदया था। यही गुड के िदन थे।
नाना िबमार थे, अममा को बुला भेजा था। मेरा इमतहान पास था इसिलए मै उनके साथ न जा
सका, मुनू को लेती गयी। जाते वकत उनहोने एक मन गुउ़़ ़ ़़
़़ ल े करउसमटके मे
रखा और उसके मुंह पर सकोरा रखकर िमटी से बनद कर िदया। मुझे सखत ताकीद कर
दी िक मटका न खोलना। मेरे िलए थोडा-सा गुड एक हाडी मे रख िदया था। वह हाडी मैने
एक हफते मे सफाचट कर दी सुबह को दध ू के साथ गुड, रात को िफर दध ू के साथ
गु़उ़य
। हॉँ तक जायज खचर था िजस पर अममा को भी कोई एतराज न हो सकता।
मगर सकूलन से बार-बार पानी पीने के बहाने घर आता और दो-एक िपिणडया िनकालकर खा
लेता- उसकी बजट मे कहा गुंजाइश थी। और मुझे गुड का कुछ ऐसा चसका पड गया िक हर
वकत वही नशा सवार रहता। मेरा घर मे आना गुड के िसर शामत आना था। एक हफते मे
हाडी ने जवाब दे िदया। मगर मटका खोलने की सखत मनाही थी और अममा के धजर आने मे
अभी पौने तीन महीने ब़ाकी थे। एक िदन तो मैने बडी मुिशकल से जैसे -तैसे सब िकया लेिकन
दस ू रे िदन क आह के साथ सब जाता रहा और मटके को बनद कर िदया और संकलप कर
िलया िक इस हाडी को तीन महीने चलाऊंगा। चले या न चले, मै चलाये जाऊंगा। मटके को
वह सात मंिजल समझूंगा िजसे रसतम भी न खोल सका था। मैने मटके की िपिणडयो को
कुछ इस तरह कैची लगकार रखा िक जैसे बाज दुकानदार िदयासलाई की िडिबबया भर देते
है। एक हाडी गुउ़़़ ़ ़़़ख ा ल ी ह ो ज ा न े परभीमटकामुंहोमुंह भराथा।अममाक
पता ही चलेगा, सवाल-जवाब की नौबत कैसे आयेगी। मगर िदल और जान मे वह खीच-तान
शुर हुई िक कया कहूं, और हर बार जीत जबान ही के हाथ रहती। यह दो अंगुल की जीभ
िदल जैसे शहजोर पहलवान को नचा रही थी, जैसे मदारी बनदर को नचाये-उसको, जो
आकाश मे उडता है और सातवे आसमान के मंसूबे बाधता है और अपने जोम मे फरऊन को

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भी कुछ नही समझता। बार-बार इरादा करता, िदन-भर मे पाच िपंिडयो से जयादा न खाऊं
लेिकन यह इरादा शारािबयो की तौबा की तरह घंटे-दो से जयादा न िटकता। अपने को
कोसता, िधकारता-गुड तो खा रहे हो मगरर बरसात मे सारा शरीर सड जाएगा, गंधक का
मलहम लगाये घूमोगे, कोई तुमहारे पास बैठना भी न पसनद करेगा ! कसमे खाता, िवदा की, मा
की, सवगीय िपता की, गऊ की, ईशर की, मगर उनका भी वही हाल होता। दस ू रा हफता खतम
होते-होते हाडी भी खतम हो गयी। उस िदन मै ने बडे भिकतभाव से ईशर से पाथरना की –
भगवान्, यह मेरा चंचल लोभी मन मुझे परेशान कर रहा है, मुझे शिकत दो िक उसको वश मे
रख सकूं। मुझे अषधात की लगाम दो जो उसके मुंह मे डाल दंू ! यह अभागा मुझे अममा से
िपटवाने आै़़ रघ ुडिकया िखलवाने पर तुला हुआ है , तुमही मेरी रका करो तो बच सकता हूँ।
भिकत की िवहलता के मारे मेरी आंखो से दो- चार बूंदे आंसुओं की भी िगरी लेिकन ईशर ने भी
इसकी सुनवायी न की और गुड की बुभुका मुझ पर छायी रही ; यहा तक िक दस ू री हाडी का
मिसरया पढने कीर नौबत आ पहुँची।
संयोग से उनही िदनो तीन िदन की छुटी हुई और मै अममा से िमलने निनहाल गया।
अममा ने पूछा- गुड का मटका देखा है? चीटे तो नही लगे? सीलत तो नही पहुँची? मैने मटको
को देखने की कसम खाकर अपनी ईमानदारी का सबूत िदया। अममा ने मुझे गवर के नेतो से
देखा और मेरे आजा- पालन के पुरसकार- सवरप मुझे एक हाडी िनकाल लेने की इजाजत दे
दी, हा, ताकीद भी करा दी िक मटकं का मुंह अचछी तरह बनद कर देना। अब तो वहा मुझे
एक-एक –िदन एक –एक युग मालूम होने लगा। चौथे िदन घर आते ही मैने पहला काम जो
िकया वह मटका खोलकर हाडी – भर गुड िनकालना था। एकबारगी पाच पीिडया उडा गया
िफर वही गुडबाजी शुर हुई। अब कया गम है, अममा की इजाजत िमल गई थी। सैया भले
कोतवाल, और आठ िदन मे हाडी गायब ! आिखर मैने अपने िदल की कमजोरी से मजबूर
होकर मटके की कोठरी के दरवाजे पर ताला डाल िदया और कु ंजी दीवार की एक मोटी संिध
मे डाल दी। अब देखे तुम कैसे गुड खाते हो। इस संिध मे से कु ंजी िनकालने का मतलब
यह था िक तीन हाथ दीवार खोद डाली जाय और यह िहममत मुझमे न थी। मगर तीन िदन मे
ही मेरे धीरज का पयाला छलक उठा औ इन तीन िदनो मे भी िदल की जो हालत थी वह बयान
से बाहर है। शीरी, यानी मीठे गुड, की कोठरी की तरफ से बार- बार गुजरता और अधीर नेतो
से देखता और हाथ मलकर रह जाता। कई बार ताले को खटखटाया,खीचा, झटके िदये,
मगर जािलम जरा भी न हुमसा। कई बार जाकर उस संिध की जाच -पडताल की, उसमे
झाककर देखा, एक लकडी से उसकी गहराई का अनदाजा लगाने की कोिशश की मगर
उसकी तह न िमली। तिबयत खोई हुई-सी रहती, न खाने -पीने मे कुछ मजा था, न खेलने-
कूदने मे। वासना बार-बार युिकतयो के जारे खाने -पीने मे कुछ मजा था, न खेलने-कूदने मे।
वासना बार-बार युिकतयो के जोर से िदल को कायल करने की कोिशश करती। आिखर गुड
और िकस मज् की दवा है। मे। उसे फेक तो देता नही, खाता ही तो हूँ, कया आज खाया और
कया एक महीनेबाद खाया, इसमे कया फकर है। अममा ने मनाही की है बेशक लेिकन उनहे
ं ं म ु झ े स एक उिचत काम से अलग रखने का कया हक है? अगर वह आज कहे खेलने
मत जाओ या पेड पर मत चढो या तालाब मे तैरने मत जाओ, या िचिडयो के िलए कमपा मत
लगाओ, िततिलया मत पकडो, तो कया मे माने लेता हूँ ? आिखर चौथे िदन वासना की जीत
हुई। मैने तडके उठकर एक कुदाल लेकर दीवार खोदना शुर िकया। संिध थी ही, खोदने मे
जयादा देर न लगी, आध घणटे के घनघोर पिरशम के बाद दीवार से कोई गज-भर लमबा और
तीन इंच मोटा चपपड टू टकर नीचे िगर पडा और संिध की तह मे वह सफलता की कु ंजी पडी
हुई थी, जैसे समुनदर की तह मे मोती की सीप पडी हो। मैने झटपट उसे िनकाला और
फौरन दरवाजा खोला, मटके से गुउ़़़ ़़िन
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भरा और दरवाजा बनद कर िदया। मटके मे इस लूट-पाट से सपष कमी पैदा हो गयी थी।
हजार तरकीबे आजमाने पर भी इसका गढा न भरा। मगर अबकी बार मैने चटोरेपन का

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अममा की वापसी तक खातमा कर देने के िलए कु ंजी को कुए ं मे डाल िदया। िकससा लमबा है
, मैने कैसे ताला तोडा, कैसे गुड िनकाला और मटका खाली हो जाने पर कैसे फोडा और
उसके टुकडे रात को कु ंए मे फेके और अममा आयी तो मैने कैसे रो-रोकर उनसे मटके के
चोरी जाने की कहानी कही, यह बयन करने लगा तो यह घटना जो मै आज िलखने बैठा हूँ
अधूरी रह जाएगी।
चुनाचे इस वकत गुड की उस मीठी खुशबू ने मुझे बेसुध बना िदया। मगर मै सब करके आगे
बढा।
जयो-जयो रात गुजरती थी, शरीर थकान से चूर होता जाता था, यहॉँ तक िक पाव
कापने लगे। कचची सडक पर गािडयो के पिहयो की लीक पड गयी थी। जब कभी लीक मे
पाव चला जाता तो मालूम होता िकसी गहरे गढे मे िगर पडा हूँ। बार-बार जी मे आता, यही
सडक के िकनारे लेट जाऊँ। िकताबो की छोटी-सी पोटली मन-भर की लगती थी। अपने
को कोसता था िक िकताबे लेकर कयो चला। दस ू री जबान का इमतहान देने की तैयारी कर
रहा था। मगर छुिटयो मे एक िदन भी तो िकताब खोलने की नौबत न आयेगी, खामखाह यह
बोझ उठाये चला आता हूँ। ऐसा जी झुंझलाता था िक इस मूखरता के बोझ को वही पटक दँ। ू
आिखर टॉँगो ने चलने से इनकार कर िदया। एक बार मै िगर पडा और और समहलकर उठा
तो पाव थरथरा रहे थे। अब बगैर कुछ खाये पैर उठना दभ ू र था, मगर यहा कया खाऊँ।
बार-बार रोने को जी चाहता था। संयोग से एक ईख का खेत नजर आया, अब मै अपने को न
रोक सका। चाहता था िक खेत मे घुसकर चार-पाच ईख तोड लूँ और मजे से रस चूसता
हुआ चलूँ। रासता भी कट जाएगा और पेट मे कुछ पड भी जाएगा। मगर मेड पर पाव रखा ही
था िक काटो मे उलझ गया। िकसान ने शायद मेड पर काटे िबखेर िदये थे। शायद बेर की
झाडी थी। धोती-कुता सब काटो मे फंसा हुआ , पीछे हटा तो काटो की झाडी साथ-साथ
चली, कपडे छुडाना लगा तो हाथ मे काटे चुभने लगे। जोर से खीचा तो धोती फट गयी।
भूख तो गायब हो गयी, िफक हुई िक इन नयी मुसीबत से कयोकर छुटकारा हो। काटो को
एक जगह से अलग करता तो दस ू री जगह िचमट जाते, झुकता तो शरीर मे चुभते, िकसी को
पुकारँ तो चोरी खुली जाती है, अजीब मुसीबत मे पडा हुआ था। उस वकत मुझे अपनी
हालत पर रोना आ गया , कोई रेिगसतानो की खाक छानने वाला आिशक भी इस तरह काटो
मे फंसा होगा ! बडी मंिशकल से आध घणटे मे गला छू टा मगर धोती और कुते के माथे गयी
,हाथ और पाव छलनी हो गये वह घाते मे । अब एक कदम आगे रखना मुहाल था। मालूम
नही िकतना रासता तय हुआ, िकतना बाकी है, न कोई आदमी न आदमजाद, िकससे पूछूँ।
अपनी हालत पर रोता हुआ जा रहा था। एक बडा गाव नजर आया । बडी खुशी हुई। कोई
न कोई दुकान िमल ही जाएगी। कुछ खा लूँगा और िकसी के सायबान मे पड रहूँगा, सुबह
देखी जाएगी।
मगर देहातो मे लोग सरे-शाम सोने के आदी होते है। एक आदमी कुए ं पर पानी भर रहा
था। उससे पूछा तो उसने बहुत ही िनराशाजनक उतर िदया—अब यहा कुछ न िमलेगा।
बिनये नमक-तेल रखते है। हलवाई की दुकान एक भी नही। कोई शहर थोडे ही है, इतनी
रात तक दुकान खोले कौन बैठा रहे !
मैने उससे बडे िवनती के सवर मे कहा-कही सोने को जगह िमल जाएगी ?
उसने पूछा-कौन हो तुम ? तुमहारी जान – पहचान का यहा कोई नही है ?
‘जान-पहचान का कोई होता तो तुमसे कयो पूछता ?’
‘तो भाई, अनजान आदमी को यहा नही ठहरने देगे । इसी तरह कल एक मुसािफर
आकर ठहरा था, रात को एक घर मे सेध पड गयी, सुबह को मुसािफर का पता न था।’
‘तो कया तुम समझते हो, मै चोर हूँ ?’
‘िकसी के माथे पर तो िलखा नही होता, अनदर का हाल कौन जाने !’

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‘नही ठहराना चाहते न सही, मगर चोर तो न बनाओ। मै जानता यह इतना मनहुस
गाव है तो इधर आता ही कयो ?’
मैने जयादा खुशामद न की, जी जल गया। सडक पर आकर िफर आगे चल पडा।
इस वकत मेरे होश िठकाने न थे। कुछ खबर नही िकस रासते से गाव मे आया था और िकधर
चला जा रहा था। अब मुझे अपने घर पहुँचने की उममीद न थी। रात यो ही भटकते हुए
गुजरेगी, िफर इसका कया गम िक कहा जा रहा हूँ। मालूम नही िकतनी देर तक मेरे िदमाग की
यह हालत रही। अचानक एक खेत मे आग जलती हुई िदखाई पडी िक जैसे आशा का दीपक
हो। जरर वहा कोई आदमी होगा। शायद रात काटने को जगह िमल जाए। कदम तेज िकये
और करीब पहँुचा िक यकायक एक बडा-सा कुता भूँकता हुआ मेरी तरफ दौडा। इतनी
डरावनी आवाज थी िक मै काप उठा। एक पल मे वह मेरे सामने आ गया और मेरी तरफ
लपक-लपककर भूँकने लगा। मेरे हाथो मे िकताबो की पोटली के िसवा और कया था, न कोई
लकडी थी न पतथर , कैसे भगाऊँ, कही बदमाश मेरी टाग पकड ले तो कया करँ ! अंगेजी
नसल का िशकारी कुता मालूम होता था। मै िजतना ही धत्-धत् करता था उतना ही वह
गरजता था। मै खामोश खडा हो गया और पोटली जमीन पर रखकर पाव से जूते िनकाल
िलये, अपनी िहफाजत के िलए कोई हिथयार तो हाथ मे हो ! उसकी तरफ गौर से देख रहा था
िक खतरनाक हद तक मेरे करीब आये तो उसके िसर पर इतने जोर से नालदार जूता मार दंू
िक याद ही तो करे लेिकन शायद उसने मेरी िनयत ताड ली और इस तरह मेरी तरफ झपटा
िक मै काप गया और जूते हाथ से छू टकर जमीन पर िगर पडे। और उसी वकत मैने डरी हुई
आवाज मे पुकारा-अरे खेत मे कोई है, देखो यह कुता मुझे काट रहा है ! ओ महतो, देखो
तुमहारा कुता मुझे काट रहा है।
जवाब िमला—कौन है ?
‘मै हूँ, राहगीर, तुमहारा कुता मुझे काट रहा है।’
‘नही, काटेगा नही , डरो मत। कहा जाना है ?’
‘महमूदनगर।’
‘महमूदनगर का रासता तो तुम पीछे छोड आये, आगे तो नदी है।’
मेरा कलेजा बैठ गया, रआंसा होकर बोला—महमूदनगर का रासता िकतनी दरू छू ट
गया है ?
‘यही कोई तीन मील।’
और एक लहीम-शहीम आदमी हाथ मे लालटन िलये हुए आकर मेरे आमने खडा हो
गया। सर पर हैट था, एक मोटा फौजी ओवरकोट पहने हुए, नीचे िनकर, पाव मे फुलबूट, बडा
लंबा-तडंगा, बडी-बडी मूँछे, गोरा रंग, साकार पुरस-सौनदयर। बोला—तु म तो कोई
सकूल के लडके मालूम होते हो।
‘लडका तो नही हूँ, लडको का मुदिररस हूँ, घर जा रहा हूँ। आज से तीन िदन की छुटी
है।’
‘तो रेल से कयो नही गये ?’
रेल छू ट गयी और दस ू री एक बजे छू टती है।’
‘वह अभी तुमहे िमल जाएगी। बारह का अमल है। चलो मै सटेशन का रासता िदखा
ू ’
दँ।
‘कौन-से सटेशन का ?’
‘भगवनतपुर का।’
‘भगवनतपुर ही से तो मै चला हूँ। वह बहुत पीछे छू ट गया होगा।’
‘िबलकुल नही, तुम भगवनतपुर सटेशन से एक मील के अनदर खडे हो। चलो मै तुमहे
सटेशन का रासता िदखा दँ। ू अभी गाडी िमल जाएगी। लेिकन रहना चाहो तो मेरे झोपडे मे
लेट जाओ। कल चले जाना।’

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अपने ऊपर गुससा आया िक िसर पीट लूं। पाच बजे से तेली के बैल की तरह घूम
रहा हूँ और अभी भगवनतपुर से कुल एक मील आया हूँ। रासता भूल गया। यह घटना भी याद
रहेगी िक चला छ: घणटे और तय िकया एक मील। घर पहुँचने की धुन जैसे और भी दहक
उठी।
बोला—नही , कल तो होली है। मुझे रात को पहुँच जाना चािहए।
‘मगर रासता पहाडी है, ऐसा न हो कोई जानवर िमल जाए। अचछा चलो, मै तुमहे
पहुँचाये देता हूँ, मगर तुमने बडी गलती की , अनजान रासते को पैदल चलना िकतना
खतरनाक है। अचछा चला मै पहुँचाये देता हूँ। खैर, खडे रहो, मै अभी आता हूँ।’
कुता दुम िहलाने लगा और मुझसे दोसती करने का इचछुक जान पडा। दुम िहलाता
हुआ, िसर झुकाये कमा-याचना के रप मे मेरे सामने आकर खडा हुआ। मैने भी बडी उदारता
से उसका अपराध कमा कर िदया और उसके िसर पर हाथ फेरने लगा। कण—भर मे वह
आदमी बनदक ू कंधे पर रखे आ गया और बोला—चलो, मगर अब ऐसी नादानी न करना,
खैिरयत हुई िक मै तुमहे िमल गया। नदी पर पहुँच जाते तो जरर िकसी जानवर से मुठभेड हो
जाती।
मैने पूछा—आप तो कोई अंगेज मालूम होते है मगर आपकी बोली िबलकुल हमारे जैसी
है ?
उसने हंसकर कहा—हा, मेरा बाप अंगेज था, फौजी अफसर। मेरी उम यही गुजरी
है। मेरी मा उसका खाना पकाती थी। मै भी फौज मे रह चुका हूँ। योरोप की लडाई मे गया
था, अब पेशन पाता हूँ। लडाई मे मैने जो दृशय अपनी आंखो से देखे और िजन हालात मे मुझे
िजनदगी बसर करनी पडी और मुझे अपनी इनसािनयत का िजतना खून करना पडा उससे इस
पेशे से मुझे नफरत हो गई और मै पेशन लेकर यहा चला आया । मेरे पापा ने यही एक छोटा-
सा घर बना िलया था। मै यही रहता हूँ और आस-पास के खेतो की रखवाली करता हूँ। यह
गंगा की धाटी है। चारो तरफ पहािडया है। जंगली जानवर बहुत लगते है। सुअर, नीलगाय,
िहरन सारी खेती बबाद कर देते है। मेरा काम है, जानवरो से खेती की िहफाजत करना।
िकसानो से मुझे हल पीछे एक मन गलला िमल जाता है। वह मेरे गुजर-बसर के िलए काफी
होता है। मेरी बुिढया मा अभी िजनदा है। िजस तरह पापा का खाना पकाती थी , उसी तरह
अब मेरा खाना पकाती है। कभी-कभी मेरे पास आया करो, मै तुमहे कसरत करना िसखा दँग ू ा,
साल-भर मे पहलवान हो जाओगे।
मैने पूछा—आप अभी तक कसरत करते है?
वह बोला—हा, दो घणटे रोजाना कसरत करता हूँ। मुगदर और लेिजम का मुझे बहुत
शौक है। मेरा पचासवा साल है, मगर एक सास मे पाच मील दौड सकता हूँ। कसरत न करँ
तो इस जंगल मे रहूँ कैसे। मैने खूब कुिशतया लडी है। अपनी रेजीमेणट मे खूब मजबूत
आदमी था। मगर अब इस फौजी िजनदगी की हालातो पर गौर करता हूँ तो शमर और अफसोस
से मेरा सर झुक जाता है। िकतने ही बेगुनाह मेरी रायफल के िशकार हुए ं मेरा उनहोने कया
नुकसान िकया था ? मेरी उनसे कौन-सी अदावत थी? मुझे तो जमरन और आिसटयन िसपाही
भी वैसे ही सचचे, वैसे ही बहादुर, वैसे ही खुशिमजाज, वेसे ही हमददर मालूम हुए जैसे फास या
इंगलैणड के । हमारी उनसे खूब दोसती हो गयी थी, साथ खेलते थे, साथ बैठते थे, यह खयाल
ही न आता था िक यह लोग हमारे अपने नही है। मगर िफर भी हम एक-दस ू रे के खून के
पयासे थे। िकसिलए ? इसिलए िक बडे-बडे अंगेज सौदागरो को खतरा था िक कही जमरनी
उनका रोजगार न छीन ले। यह सौदागरो का राज है। हमारी फौजे उनही के इशारो पर
नाचनेवाली कठपुतिलया है। जान हम गरीबो की गयी, जेबे गमर हुई मोटे-मोटे सौदागरो की ।
उस वकत हमारी ऐसी खाितर होती थी, ऐसी पीठ ठोकी जाती थी, गोया हम सलतनत के दामाद
है। हमारे ऊपर फूलो की बािरश होती थी, हमे गाईन पािटरया दी जाती थी, हमारी बहादरु ी की
कहािनया रोजाना अखबारो मे तसवीरो के साथ छपती थी। नाजुक-बदल लेिडया और

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शहजािदया हमारे िलए कपडे सीती थी, तरह-तरह के मुरबबे और अचार बना-बना कर भेजती
थी। लेिकन जब सुलह हो गयी तो उनही जाबाजो को कोई टके को भी न पूछता था। िकतनो
ही के अंग भंग हो गये थे, कोई लूला हो गया था, कोई लंगडा,कोई अंधा। उनहे एक टुकडा
रोटी भी देनेवाला कोई न था। मैने िकतनो ही को सडक पर भीख मागते देखा। तब से मुझे
इस पेशे से नफरत हो गयी। मैने यहॉँ आकर यह काम अपने िजममे ले िलया और खुश हूँ।
िसपहिगरी इसिलए है िक उससे गरीबो की जानमाल की िहफाजत हो, इसिलए नही िक
करोडपितयो की बेशुमार दौलत और बढे। यहा मेरी जान हमेशा खतरे मे बनी रहती है। कई
बार मरते-मरते बचा हूँ लेिकन इस काम मे मर भी जाऊँ तो मुझे अफसोस न होगा, कयोिक
मुझे यह तसकीन होगा िक मेरी िजनदगी गरीबो के काम आयी। और यह बेचारे िकसान मेरी
िकतनी खाितर करते है िक तुमसे कया कहूँ। अगर मै बीमर पड जाऊँ और उनहे मालू हो जाए
िक मै उनके शरीर के ताजे खून से अचछा हो जाऊँगा तो िबना िझझके अपना खून दे देगे।
पहले मै बहुत शराब पीता था। मेरी िबरादरी को तो तुम लोग जानते होगे। हममे बहुत जयादा
लोग ऐसे है, िजनको खाना मयससर हो या न हो मगर शराब जरर चािहए। मै भी एक बोतल
शराब रोज पी जाता था। बाप ने काफी पैसे छोडे थे। अगर िकफायत से रहना जानता तो
िजनदगी-भर आराम से पडा रहता। मगर शराब ने सतयानाश कर िदया। उन िदनो मै बडे ठाठ
से रहता था। कालर –टाई लगाये, छैला बना हुआ, नौजवान छोकिरयो से आंखे लडाया करता
था। घुडदौड मे जुआ खेलना, शरीब पीना, कलब मे ताश खेलना और औरतो से िदल बहलाना,
यही मेरी िजनदगी थी । तीन-चार साल मे मैने पचीस-तीस हजार रपये उडा िदये। कौडी
कफन को न रखी। जब पैसे खतम हो गये तो रोजी की िफक हुई। फौज मे भती हो गया।
मगर खुदा का शुक है िक वहा से कुछ सीखकर लौटा यह सचचाई मुझ पर खुल गयी िक
बहादुर का काम जान लेना नही, बिलक जान की िहफाजत करना है।
‘योरोप से आकर एक िदन मै िशकार खेलने लगा और इधर आ गया। देखा, कई
िकसान अपने खेतो के िकनारे उदास खडे है मैने पूछा कया बात है ? तुम लोग कयो इस तरह
उदास खडे हो ? एक आदमी ने कहा—कया करे साहब, िजनदगी से तंग है। न मौत आती है न
पैदावार होती है। सारे जानवर आकर खेत चर जाते है। िकसके घर से लगान चुकाये , कया
महाजन को दे, कया अमलो को दे और कया खुद खाये ? कल इनही खेतो को देखकर िदल की
कली िखल जाती थी, आज इनहे देखकर आंखो मे आंसू आ जाते है जानवरो ने सफाया कर
िदया ।
‘मालूम नही उस वकत मेरे िदल पर िकस देवता या पैगमबर का साया था िक मुझे उन
पर रहम आ गया। मैने कहा—आज से मै तुमहारे खेतो की रखवाली करंगा। कया मजाल िक
कोई जानवर फटक सके । एक दाना जो जाय तो जुमाना दँ। ू बस, उस िदन से आज तक
मेरा यही काम है। आज दस साल हो गये, मैने कभी नागा नही िकया। अपना गुजर भी होता
है और एहसान मुफत िमलता है और सबसे बडी बात यह है िक इस काम से िदल की खुशी
होती है।’
नदी आ गयी। मैने देखा वही घाट है जहा शाम को िकशती पर बैठा था। उस चादनी
मे नदी जडाऊ गहनो से लदी हुई जैसे कोई सुनहरा सपना देख रही हो।
मैने पूछा—आपका नाम कया है ? कभी-कभी आपके दशरन के िलए आया करँगा।
उसने लालटेन उठाकर मेरा चेहरा देखा और बोला –मेरा नाम जैकसन है। िबल
जैकसन। जरर आना। सटेशन के पास िजससे मेरा नाम पूछोगे, मेरा पता बतला देगा।
यह कहकर वह पीछे की तरफ मुडा, मगर यकायक लौट पडा और बोला— मगर तुमहे
यहा सारी रात बैठना पडेगा और तुमहारी अममा घबरा रही होगी। तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ
तो मै तुमहे उस पार पहुँचा दँ।
ू आजकल पानी बहुत कम है, मै तो अकसर तैर आता हूँ।

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मैने एहसान से दबकर कहा—आपने यही कया कम इनायत की है िक मुझे यहा तक
पहुँचा िदया, वना शायद घर पहुँचना नसीब न होता। मै यहा बैठा रहूँगा और सुबह को िकशती
से पार उतर जाऊँगा।
‘वाह, और तुमहारी अममा रोती होगी िक मेरे लाडले पर न जाने कया गुजरी ?’
यह कहकर िमसटर जैकसन ने मुझे झट उठाकर कंधे पर िबठा िलया और इस तरह
बेधडक पानी मे घुसे िक जैसे सूखी जमीन है । मै दोनो हाथो से उनकी गरदन पकडे हूँ , िफर
भी सीना धडक रहा है और रगो मे सनसनी-सी मालूम हो रही है। मगर जैकसन साहब
इतमीनान से चले जा रहे है। पानी घुटने तक आया, िफर कमर तक पहुँचा, ओफफोह सीने तक
पहँुच गया। अब साहब को एक-एक कदम मुिशकल हो रहा है। मेरी जान िनकल रही है।
लहरे उनके गले िलपट रही है मेरे पाव भी चूमने लगी । मेरा जी चाहता है उनसे कहूँ भगवान्
के िलए वापस चिलए, मगर जबान नही खुलती। चेतना ने जैसे इस संकट का सामना करने
के िलए सब दरवाजे बनद कर िलए । डरता हूँ कही जैकसन साहब िफसले तो अपना काम
तमाम है। यह तो तैराक है, िनकल जाएंगे, मै लहरो की खुराक बन जाऊँगा। अफसोस आता
है अपनी बेवकूफी पर िक तैरना कयो न सीख िलया ? यकायक जैकसन ने मुझे दोनो हाथो से
कंधे के ऊपर उठा िलया। हम बीच धार मे पहुँच गये थे। बहाव मे इतनी तेजी थी िक एक-
एक कदम आगे रखने मे एक-एक िमनट लग जाता था। िदन को इस नदी मे िकतनी ही बार
आ चुका था लेिकन रात को और इस मझधार मे वह बहती हुई मौत मालूम होती थी दस –
बारह कदम तक मै जैकसन के दोनो हाथो पर टंगा रहा। िफर पानी उतरने लगा। मै देख न
सका, मगर शायद पानी जैकसन के सर के ऊपर तक आ गया था। इसीिलए उनहोने मुझे
हाथो पर िबठा िलया था। जब गदरन बाहर िनकल आयी तो जोर से हंसकर बोले—लो अब
पहँुच गये।
मैने कहा—आपको आज मेरी वजह से बडी तकलीफ हुई।
जैकसन ने मुझे हाथो से उतारकर िफर कंधे पर िबठाते हुए कहा—और आज मुझे
िजतनी खुशी हुई उतनी आज तक कभी न हुई थी, जमरन कपतान को कतल करके भी नही।
अपनी मॉँ से कहना मुझे दुआ दे।
घाट पर पहुँचकर मै साहब से रखसत हुआ, उनकी सजजनता, िन:सवाथर सेवा, और
अदमय साहस का न िमटने वाला असर िदल पर िलए हुए। मेरे जी मे आया, काश मै भी इस
तरह लोगो के काम आ सकता।
तीन बजे रात को जब मै घर पहुँचा तो होली मे आग लग रही थी। मै सटेशन से दो
मील सरपट दौडता हुआ गया। मालूम नही भूखे शरीर मे दतनी ताकत कहा से आ गयी थी।
अममा मेरी आवाज सुनते ही आंगन मे िनकल आयी और मुझे छाती से लगा िलया और
बोली—इतनी रात कहा कर दी, मै तो साझ से तुमहारी राह देख रही थी, चलो खाना खा लो,
कुछ खाया-िपया है िक नही ?
वह अब सवगर मे है। लेिकन उनका वह मुहबबत–भरा चेहरा मेरी आंखो के सामने है
और वह पयार-भरी आवाज कानो मे गूंज रही है।
िमसटर जैकसन से कई बार िमल चुका हूँ। उसकी सजजनता ने मुझे उसका भकत
बना िदया है। मै उसे इनसान नही फिरशता समझता हूँ।
--‘जादे राह’ से

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पपपपप पपपपप

कशवेशयामाके दोनो
घर मे कािनरस के ऊपर एक िचिडया ने अणडे िदए थे। केशव और उसकी बहन
बडे धयान से िचिडयो को वहा आते-जाते देखा करते । सवेरे दोनो आंखे
मलते कािनरस के सामने पहुँच जाते और िचडा या िचिडया दोनो को वहा बैठा पाते। उनको
देखने मे दोनो बचचो को न मालूम कया मजा िमलता, दधू और जलेबी की भी सुध न रहती थी।
दोनो के िदल मे तरह-तरह के सवाल उठते। अणडे िकतने बडे होगे ? िकस रंग के होगे ?
िकतने होगे ? कया खाते होगे ? उनमे बचचे िकस तरह िनकल आयेगे ? बचचो के पर कैसे
िनकलेगे ? घोसला कैसा है? लेिकन इन बातो का जवाब देने वाला कोई नही। न अममा को
घर के काम-धंधो से फुसरत थी न बाबूजी को पढने -िलखने से । दोनो बचचे आपस ही मे
सवाल-जवाब करके अपने िदल को तसलली दे िलया करते थे।
शयामा कहती—कयो भइया, बचचे िनकलकर फुर से उड जायेगे ?
केशव िवदानो जैसे गवर से कहता—नही री पगली, पहले पर िनकलेगे। बगैर परो के
बेचारे कैसे उडेगे ?
शयामा—बचचो को कया िखलायेगी बेचारी ?
केशव इस पेचीदा सवाल का जवाब कुछ न दे सकता था।
इस तरह तीन-चान िदन गुजर गए। दोनो बचचो की िजजासा िदन-िदन बढती जाती थी
अणडो को देखने के िलए वह अधी हो उठते थे। उनहोने अनुमान लगाया िक अब बचचे जरर
िनकल आये होगे । बचचो के चारो का सवाल अब उनके सामने आ खडा हुआ। िचिडया
बेचारी इतना दाना कहा पायेगी िक सारे बचचो का पेट भरे। गरीब बचचे भूख के मारे चूं-चूं
करके मर जायेगे।
इस मुसीबत का अनदाजा करके दोनो घबरा उठे। दोनो ने फैसला िकया िक कािनरस
पर थोडा-सा दाना रख िदया जाये। शयामा खुश होकर बोली—तब तो िचिडयो को चारे के
िलए कही उडकर न जाना पडेगा न ?
केशव—नही, तब कयो जायेगी ?
शयामा—कयो भइया, बचचो को धूप न लगती होगी?
केशव का धयान इस तकलीफ की तरफ न गया था। बोला—जरर तकलीफ हो रही
होगी। बेचारे पयास के मारे पडफ रहे होगे। ऊपर छाया भी तो कोई नही ।
आिखर यही फैसला हुआ िक घोसले के ऊपर कपडे की छत बना देनी चािहये। पानी
की पयाली और थोडे-से चावल रख देने का पसताव भी सवीकृत हो गया।
दोनो बचचे बडे चाव से काम करने लगे शयामा मॉँ की आंख बचाकर मटके से चावल
िनकाल लायी। केशव ने पतथर की पयाली का तेल चुपके से जमीन पर िगरा िदया और खूब
साफ करके उसमे पानी भरा।
अब चादनी के िलए कपडा कहा से लाए ? िफर ऊपर बगैर छिडयो के कपडा ठहरेगा
कैसे और छिडया खडी होगी कैसे ?
केशव बडी देर तक इसी उधेड-बुन मे रहा। आिखरकार उसने यह मुिशकल भी हल
कर दी। शयामा से बोला—जाकर कूडा फेकने वाली टोकरी उठा लाओ। अममाजी को मत
िदखाना।
शयामा—वह तो बीच मे फटी हुई है। उसमे से धूप न जाएगी ?
केशव ने झुंझलाकर कहा—तू टोकरी तो ला, मै उसका सुराख बनद करने की कोई
िहकमत िनकालूंगा।
शयामा दौडकर टोकरी उठा लायी। केशव ने उसके सुराख मे थोडा –सा कागज ठूँस
िदया और तब टोकरी को एक टहनी से िटकाकर बोला—देख ऐसे ही घोसले पर उसकी आड
दंगू ा। तब कैसे धूप जाएगी?
69
शयामा ने िदल मे सोचा, भइया िकतने चालाक है।

ग मी के िदन थे। बाबूजी दफतर गए हएु थे। अममा दोनो बचचो को कमरे मे सुलाकर खुद
सो गयी थी। लेिकन बचचो की आंखो मे आज नीद कहा ? अममाजी को बहकाने के िलए
दोनो दम रोके आंखे बनद िकए मौके का इनतजार कर रहे थे। जयो ही मालूम हुआ िक अममा
जी अचछी तरह सो गयी, दोनो चुपके से उठे और बहुत धीरे से दरवाजे की िसटकनी खोलकर
बाहर िनकल आये। अणडो की िहफाजत करने की तैयािरया होने लगी। केशव कमरे मे से
एक सटू ल उठा लाया, लेिकन जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी लाकर सटू ल के
नीचे रखी और डरते-डरते सटू ल पर चढा।
शयामा दोनो हाथो से सटू ल पकडे हुए थी। सटुल को चारो टागे बराबर न होने के
कारण िजस तरफ जयादा दबाव पाता था, जरा-सा िहल जाता था। उस वकत केशव को
िकतनी तकलीफ उठानी पडती थी। यह उसी का िदल जानता था। दोनो हाथो से कािनरस
पकड लेता और शयामा को दबी आवाज से डाटता—अचछी तरह पकड, वना उतरकर बहुत
मारँगा। मगर बेचारी शयामा का िदल तो ऊपर कािनरस पर था। बार-बार उसका धयान उधर
चला जाता और हाथ ढीले पड जाते।
केशव ने जयो ही कािनरस पर हाथ रकखा, दोनो िचिडया उड गयी । केशव ने देखा,
कािनरस पर थोडे-से ितनके िबछे हुए है, और उस पर तीन अणडे पडे है। जैसे घोसले उसने
पेडो पर देखे थे, वैसा कोई घोसला नही है। शयामा ने नीचे से पूछा—कै बचचे है भइया?
केशव—तीन अणडे है, अभी बचचे नही िनकले।
शयामा—जरा हमे िदखा दो भइया, िकतने बडे है ?
केशव—िदखा दंगू ा, पहले जरा िचथडे ले आ, नीचे िबछा दँ। ू बेचारे अंडे ितनको पर
पडे है।
शयामा दौडकर अपनी पुरानी धोती फाडकर एक टुकडा लायी। केशव ने झुककर
कपडा ले िलया, उसके कई तह करके उसने एक गदी बनायी और उसे ितनको पर िबछाकर
तीनो अणडे उस पर धीरे से रख िदए।
शयामा ने िफर कहा—हमको भी िदखा दो भइया।
केशव—िदखा दँग ू ा, पहले जरा वह टोकरी दे दो, ऊपर छाया कर दँ।

शयामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली—अब तुम उतर आओ, मै भी तो देखूं।
केशव ने टोकरी को एक टहनी से िटकाकर कहा—जा, दाना और पानी की पयाली ले
आ, मै उतर आऊँ तो िदखा दँग ू ा।
शयामा पयाली और चावल भी लाची । केशव ने टोकरी के नीचे दोनो चीजे रख दी और
आिहसता से उतर आया।
शयामा ने िगडिगडा कर कहा—अब हमको भी चढा दो भइया
केशव—तू िगर पडेगी ।
शयामा—न िगरंगी भइया, तुम नीये से पकडे रहना।
केशव—न भइया, कही तू िगर-िगरा पडी तो अममा जी मेरी चटनी ही कर डालेगी।
कहेगी िक तूने ही चढाया था। कया करेगी देखकर। अब अणडे बडे आराम से है। जब बचचे
िनकलेगे, तो उनको पालेगे।
दोनो िचिडयॉँ बार-बार कािनरस पर आती थी और बगैर बैठे ही उड जाती थी। केशव
ने सोचा, हम लोगो के डर के मारे नही बैठती। सटू ल उठाकर कमरे मे रख आया , चौकी जहा
की थी, वहा रख दी।
शयामा ने आंखो मे आंसू भरकर कहा—तुमने मुझे नही िदखाया, मै अममा जी से कह
दँग
ू ी।
केशव—अममा जी से कहेगी तो बहुत मारँगा, कहे देता हूँ।

70
शयामा—तो तुमने मुझे िदखाया कयो नही ?
केशव—और िगर पडती तो चार सर न हो जाते।
शयामा—हो जाते, हो जाते। देख लेना मै कह दँगू ी।
इतने मे कोठरी का दरवाजा खुला और मा ने धूप से आंखे को बचाते हुए कहा- तुम
दोनो बाहर कब िनकल आए ? मैने कहा था न िक दोपहर को न िनकलना ? िकसने िकवाड
खोला ?
िकवाड केशव ने खोला था, लेिकन शयामा न मा से यह बात नही कही। उसे डर लगा
िक भैया िपट जायेगे। केशव िदल मे काप रहा था िक कही शयामा कह न दे। अणडे न िदखाए
थे, इससे अब उसको शयामा पर िवशास न था शयामा िसफर मुहबबत के मारे चुप थी या इस
कसूर मे िहससेदार होने की वजह से, इसका फैसला नही िकया जा सकता। शायद दोनो ही
बाते थी।
मॉँ ने दोनो को डॉँट-डपटकर िफर कमरे मे बंद कर िदया और आप धीरे-धीरे उनहे
पंखा झलने लगी। अभी िसफर दो बजे थे बाहर तेज लू चल रही थी। अब दोनो बचचो को नीद
आ गयी थी।

चा र बजे यकायक शयामा की नीद खुली। िकवाड खुले हुए थे। वह दौडी हुई कािनरस के
पास आयी और ऊपर की तरफ ताकने लगी । टोकरी का पता न था। संयोग से
उसकी नजर नीचे गयी और वह उलटे पाव दौडती हुई कमरे मे जाकर जोर से बोली—
भइया,अणडे तो नीचे पडे है, बचचे उड गए!
केशव घबराकर उठा और दौडा हुआ बाहर आया तो कया देखता है िक तीनो अणडे
नीचे टू टे पडे है और उनसे को चूने की-सी चीज बाहर िनकल आयी है। पानी की पयाली भी
एक तरफ टू टी पडी है।
उसके चेहरे का रंग उड गया। सहमी हुई आंखो से जमीन की तरफ देखने लगा।
शयामा ने पूछा—बचचे कहा उड गए भइया ?
केशव ने करण सवर मे कहा—अणडे तो फूट गए ।
‘और बचचे कहा गये ?’
केशव—तेरे सर मे। देखती नही है अणडो से उजला-उजला पानी िनकल आया है।
वही दो-चार िदन मे बचचे बन जाते।
मा ने सोटी हाथ मे िलए हुए पूछा—तुम दोनो वहा धूप मे कया कर रहे हो ?
शयामा ने कहा—अममा जी, िचिडया के अणडे टू टे पडे है।
मा ने आकर टू टे हुए अणडो को देखा और गुससे से बोली—तुम लोगो ने अणडो को
छुआ होगा ?
अब तो शयामा को भइया पर जरा भी तरस न आया। उसी ने शायद अणडो को इस
तरह रख िदया िक वह नीचे िगर पडे। इसकी उसे सजा िमलनी चािहएं बोली—इनहोने अणडो
को छेडा था अममा जी।
मा ने केशव से पूछा—कयो रे?
केशव भीगी िबलली बना खडा रहा।
मा—तू वहा पहुँचा कैसे ?
शयामा—चौके पर सटू ल रखकर चढे अममाजी।
केशव—तू सटू ल थामे नही खडी थी ?
शयामा—तुमही ने तो कहा था !
मा—तू इतना बडा हुआ, तुझे अभी इतना भी नही मालूम िक छू ने से िचिडयो के अणडे
गनदे हो जाते है। िचिडया िफर इनहे नही सेती।
शयामा ने डरते-डरते पूछा—तो कया िचिडया ने अणडे िगरा िदए है, अममा जी ?

71
मा—और कया करती। केशव के िसर इसका पाप पडेगा। हाय, हाय, जाने ले ली दुष
ने!
केशव रोनी सूरत बनाकर बोला—मैने तो िसफर अणडो को गदी पर रख िदया था, अममा
जी !
मा को हंसी आ गयी। मगर केशव को कई िदनो तक अपनी गलती पर अफसोस होता
रहा। अणडो की िहफाजत करने के जोश मे उसने उनका सतयानाश कर डाला। इसे याद
करके वह कभी-कभी रो पडता था।
दोनो िचिडया वहा िफर न िदखायी दी।
--‘खाके परवाना’ से

72
पपपपपपपप

मायाताकअपनेरही ितमं िजले मकान की छत पर खडी सडक की ओर उिदगन और अधीर आंखो से


थी और सोच रही थी, वह अब तक आये कयो नही ? कहा देर लगायी ? इसी
गाडी से आने को िलखा था। गाडी तो आ गयी होगी, सटेशन से मुसािफर चले आ रहे है। इस
वकत तो कोई दस ू री गाडी नही आती। शायद असबाब वगैरह रखने मे देर हुई, यार-दोसत
सटेशन पर बधाई देने के िलए पहुँच गये हो, उनसे फुसरत िमलेगी, तब घर की सुध आयेगी !
उनकी जगह मै होती तो सीधे घर आती। दोसतो से कह देती , जनाब, इस वकत मुझे माफ
कीिजए, िफर िमिलएगा। मगर दोसतो मे तो उनकी जान बसती है !
िमसटर वयास लखनऊ के नौजवान मगर अतयंत पितिषत बैिरसटरो मे है। तीन महीने
से वह एक राजीितक मुकदमे की पैरवी करने के िलए सरकार की ओर से लाहौर गए हुए हे।
उनहोने माया को िलखा था—जीत हो गयी। पहली तारीख को मै शाम की मेल मे जरर
पहंचु ूंगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा िदन तैयािरयो मे िबताया। सारा मकान
धुलवाया। कमरो की सजावट के सामान साफ कराये, मोटर धुलवायी। ये तीन महीने उसने
तपसया के काटे थे। मगर अब तक िमसटर वयास नही आये। उसकी छोटी बचची ितलोतमा
आकर उसके पैरो मे िचमट गयी और बोली—अममा, बाबूजी कब आयेगे ?
माया ने उसे गोद मे उठा िलया और चूमकर बोली—आते ही होगे बेटी, गाडी तो कब
की आ गयी।
ितलोतमा—मेरे िलए अचछी गुिडया लाते होगे।
माया ने कुछ जवाब न िदया। इनतजार अब गुससे मे बदलता जाता था। वह सोच रही
थी, िजस तरह मुझे हजरत परेशान कर रहे है, उसी तरह मै भी उनको परेशान करँगी।
घणटे-भर तक बोलूंगी ही नही। आकर सटेशन पर बैठे हुए है ? जलाने मे उनहे मजा आता है ।
यह उनकी पुरानी आदत है। िदल को कया करँ। नही, जी तो यही चाहता है िक जैसे वह
मुझसे बेरखी िदखलाते है, उसी तरह मै भी उनकी बात न पूछूँ।
यकायक एक नौकर ने ऊपर आकर कहा—बहू जी, लाहौर से यह तार आया है।
माया अनदर-ही-अनदर जल उठी। उसे ऐसा मालूम हुआ िक जैसे बडे जोर की हरारत
हो गयी हो। बरबस खयाल आया—िसवाय इसके और कया िलखा होगा िक इस गाडी से न आ
सकूंगा। तार दे देना कौन मुिशकल है। मै भी कयो न तार दे दंू िक मै एक महीने के िलए मैके
जा रही हूँ। नौकर से कहा—तार ले जाकर कमरे मे मेज पर रख दो। मगर िफर कुछ
सोचकर उसने िलफाफा ले िलया और खोला ही था िक कागज हाथ से छू टकर िगर पडा।
िलखा था—िमसटर वयास को आज दस बजे रात िकसी बदमाश ने कतल कर िदया।

क ई महीने बीत गये। मगर खूनी का अब तक पता नही चला। खुिफया पुिलस के
अनुभवी लोग उसका सुराग लगाने की िफक मे परेशान है। खूनी को िगरफतार करा
देनेवाले को बीस हजार रपये इनाम िदये जाने का एलान कर िदया गया है। मगर कोई नतीजा
नही ।
िजस होटल मे िमसटर वयास ठहरे थे, उसी मे एक महीने से माया ठहरी हुई है। उस
कमरे से उसे पयार-सा हो गया है। उसकी सूरत इतनी बदल गयी है िक अब उसे पहचानना
मुिशकल है। मगर उसके चेहरे पर बेकसी या ददर का पीलापन नही कोध की गमी िदखाई
पडती है। उसकी नशीली ऑंखो मे अब खून की पयास है और पितशोध की लपट। उसके
शरीर का एक-एक कण पितशोध की आग से जला जा रहा है। अब यही उसके जीवन का
धयेय, यही उसकी सबसे बडी अिभलाषा है। उसके पेम की सारी िनिध अब यही पितशोध का
आवेग है। िजस पापी ने उसके जीवन का सवरनाश कर िदया उसे अपने सामने तडपते
देखकर ही उसकी आंखे ठणडी होगी। खुिफया पुिलस भय और लोभ, जॉँच और पडताल से
73
काम ले रही है, मगर माया ने अपने लकय पर पहुँचने के िलए एक दस ू रा ही रासता अपनाया
है। िमसटर वयास को पेत-िवदा से लगाव था। उनकी संगित मे माया ने कुछ आरिमभक
अभयास िकया था। उस वकत उसके िलए यह एक मनोरंजन था। मगर अब यही उसके
जीवन का समबल था। वह रोजाना ितलोतमा पर अमल करती और रोज-ब-रोज अभयास
बढाती जाती थी। वह उस िदन का इनतजार कर रही थी जब अपने पित की आतमा को
बुलाकर उससे खूनी का सुराग लगा सकेगी। वह बडी लगन से, बडी एकागिचतता से अपने
काम मे वयसत थी। रात के दस बज गये थे। माया ने कमरे को अंधेरा कर िदया था और
ितलोतमा पर अभयास कर रही थी। यकायक उसे ऐसा मालूम िक कमरे मे कोई िदवय
वयिकततव आया। बुझते हुए दीपक की अंितम झलक की तरह एक रोशनी नजर आयी।
माया ने पूछा—आप कौन है ?
ितलोतमा ने हंसकर कहा—तुम मुझे नही पहचानती ? मै ही तुमहारा मनमोहन हूँ जो
दुिनया मे िमसटर वयास के नाम से मशहूर था।
‘आप खूब आये। मै आपसे खूनी का नाम पूछना चाहती हूँ।’
‘उसका नाम है, ईशरदास।’
‘कहा रहता है ?’
‘शाहजहॉपुर।’
माया ने मुहलले का नाम, मकान का नमबर, सूरत-शकल, सब कुछ िवसतार के साथ
पूछा और कागज पर नोट कर िलया। ितलोतमा जरा देर मे उठ बैठी। जब कमरे मे िफर
रोशनी हुई तो माया का मुरझाया हुआ चेहरा िवजय की पसनता से चमक रहा था। उसके
शरीर मे एक नया जोश लहरे मार रहा था िक जैसे पयास से मरते हुए मुसािफर को पानी िमल
गया हो।
उसी रात को माया ने लाहौर से शाहजहापुर आने का इरादा िकया।

रा त का वकत। पंजाब मेल बडी तेजी से अंधेरे को चीरती हुई चली जा रही थी। माया एक
सेकेणड कलास के कमरे मे बैठी सोच रही थी िक शाहजहॉपुर मे कहा ठहरेगी, कैसे
ईशरदास का मकान तलाशा करेगी और कैसे उससे खून का बदला लेगी। उसके बगल मे
ितलोतमा बेखबर सो रही थी सामने ऊपर के बथर पर एक आदमी नीद मे गािफल पडा हुआ
था।
यकायक गाडी का कमरा खुला और दो आदमी कोट-पतलून पहने हुए कमरे मे
दािखल हुए। दोनो अंगेज थे। एक माया की तरफ बैठा और दस ू रा दस ू री तरफ। माया
िसमटकर बैठ गयी । इन आदिमयो को यो बैठना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ। वह कहना
चाहती थी, आप लोग दस ू री तरफ बैठे, पर वही औरत जो खून का बदला लेने जा रही थी,
सामने यह खतरा देखकर काप उठी। वह दोनो शैतान उसे िसमटते देखकर और भी करीब
आ गये। माया अब वहा न बैठी रह सकी । वह उठकर दस ू रे वथर पर जाना चाहती थी िक
उनमे से एक ने उसका हाथ पकड िलया । माया ने जोर से हाथ छुडाने की कोिशश करके
कहा—तुमहारी शामत तो नही आयी है, छोड दो मेरा हाथ, सुअर ?
इस पर दस ू रे आदमी ने उठकर माया को सीने से िलपटा िलया। और लडखडाती हुई
जबान से बोला—वेल हम तुमका बहुत-सा रपया देगा।
माया ने उसे सारी ताकत से ढकेलने की कोिशश करते हुए कहा—हट जा हरामजादे,
वना अभी तेरा सर तोड दंगू ी।
दसू रा आदमी भी उठ खडा हुआ और दोनो िमलकर माया को बथर पर िलटाने की
कोिशश करने लगे ।यकायक यह खटपट सुनकर ऊपर के बथर पर सोया हुआ आदी चौका
और उन बदमाशो की हरकत देखकर ऊपर से कूद पडा। दोनो गोरे उसे देखकर माया को
छोड उसकी तरफ झपटे और उसे घूंसे मारने लगे। दोनो उस पर ताबडतोडं हमला कर रहे

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थे और वह हाथो से अपने को बचा रहा था। उसे वार करने का कोई मौका न िमलता था।
यकायक उसने उचककर अपने िबसतर मे से एक छू रा िनकाल िदया और आसतीने समेटकर
बोला—तुम दोनो अगर अभी बाहर न चले गये तो मै एक को भी जीता ना छोडुँगा।
दोनो गोरे छुरा देखकर डरे मगर वह भी िनहतथे न थे। एक ने जेब से िरवालवर िनकल
िलया और उसकी नली उस आदमी की तरफ करके बोला-िनकल जाओ, रैसकल !
माया थर-थर काप रही थी िक न जाने कया आफत आने वाली हे । मगर खतरा
हमारी िछपी हुई िहममतो की कु ंजी है। खतरे मे पडकर हम भय की सीमाओं से आगे बढ जाते
है कुछ कर गुजरते है िजस पर हमे खुद हैरत होती है। वही माया जो अब तक थर-थर काप
रही थी, िबलली की तरह कूद कर उस गोरे की तरफ लपकी और उसके हाथ से िरवालवर
खीचकर गाडी के नीचे फेक िदया। गोरे ने िखिसयाकर माया को दात काटना चाहा मगर माया
ने जलदी से हाथ खीच िलया और खतरे की जंजीर के पास जाकर उसे जोर से खीचा।
दसू रा गोरा अब तक िकनारे खडा था। उसके पास कोई हिथयार न था इसिलए वह छुरी के
सामने न आना चाहता था। जब उसने देखा िक माया ने जंजीर खीच ली तो भीतर का
दरवाजा खोलकर भागा। उसका साथी भी उसके पीछे-पीछे भागा। चलते-चलते छुरी वाले
आदमी ने उसे इतने जोर से धका िदया िक वह मुंह के बल िगर पडा। िफर तो उसने इतनी
ठोकरे, इतनी लाते और इतने घुंसे जमाये िक उसके मुंह से खून िनकल पडा। इतने मे गाडी
रक गयी और गाडर लालटेन िलये आता िदखायी िदया।

म गर वह दोनो शैतान गाडी को रकते देख बेतहाशा नीचे कूद पडे और उस अंधेरे मे न जाने
कहा खो गये । गाडर ने भी जयादा छानबीन न की और करता भी तो उस अंधेरे मे पता
लगाना मुिशकल था । दोनो तरफ खडड थे, शायद िकसी नदी के पास थी। वहा दो कया दो
सौ आदमी उस वकत बडी आसानी से िछप सकते थे। दस िमनट तक गाडी खडी रही, िफर
चल पडी।
माया ने मुिकत की सास लेकर कहा—आप आज न होते तो ईशर ही जाने मेरा कया
हाल होता आपके कही चोट तो नही आयी ?
उस आदमी ने छुरे को जेब मे रखते हुए कहा—िबलकुल नही। मै ऐसा बेसुध सोया
हुआ था िक उन बदमाशो के आने की खबर ही न हुई। वना मैने उनहे अनदर पाव ही न रखने
िदया होता । अगले सटेशन पर िरपोटर करँगा।
माया—जी नही, खामखाह की बदनामी और परेशानी होगी। िरपोटर करने से कोई
फायदा नही। ईशर ने आज मेरी आबर रख ली। मेरा कलेजा अभी तक धड-धड कर रहा
है। आप कहा तक चलेगे?
‘मुझे शाहजहॉपुर जाना है।’
‘वही तक तो मुझे भी जाना है। शुभ नाम कया है ? कम से कम अपने उपकारक के
नाम से तो अपिरिचत न रहूँ।
‘मुझे तो ईशरदास कहते है।
‘माया का कलेजा धक् से हो गया। जरर यह वही खूनी है, इसकी शकल-सूरत भी
वही है जो उसे बतलायी गयी थी उसने डरते-डरते पूछा—आपका मकान िकस मुहलले मे है ?
‘.....मे रहता हूँ।
माया का िदल बैठ गया। उसने िखडकी से िसर बाहर िनकालकर एक लमबी सास
ली। हाय ! खूनी िमला भी तो इस हालत मे जब वह उसके एहसान के बोझ से दबी हुई है !
कया उस आदमी को वह खंजर का िनशाना बना सकती है, िजसने बगैर िकसी पिरचय के
िसफर हमददी के जोश मे ऐसे गाढे वकत मे उसकी मदद की ? जान पर खेल गया ? वह एक
अजीब उलझन मे पड गयी । उसने उसके चेहरे की तरफ देखा, शराफत झलक रही थी।
ऐसा आदमी खून कर सकता है, इसमे उसे सनदेह था

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ईशरदास ने पूछा—आप लाहौर से आ रही है न ? शाहजहापुर मे कहा जाइएगा ?
‘अभी तो कही धमरशाला मे ठहरंगी, मकान का इनतजाम करना है।’
ईशरदास ने ताजजुब से पूछा—तो वहा आप िकसी दोसत या िरशतेदार के यहा नही जा
रही है?
‘कोई न कोई िमल ही जाएगा।’
‘यो आपका असली मकान कहा है?’
‘असली मकान पहले लखनऊ था, अब कही नही है। मै बेवा हूँ।’



शर दास ने शाहजहॉँपुर मे माया के िलए एक अचछा मकान तय कर िदया । एक नौकर
भी रख िदया । िदन मे कई बार हाल-चाल पूछने आता। माया िकतना ही चाहती थी िक
उसके एहसान न ले, उससे घिनषता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरौवत और
शरीफ था िक माया मजबूर हो जाती थी।
एक िदन वह कई गमले और फनीचर लेकर आया। कई खूबसूरत तसवीरे भी थी।
माया ने तयौिरया चढाकर कहा—मुझे साज-सामान की िबलकुल जररत नही, आप नाहक
तकलीफ करते है।
ईशरदास ने इस तरह लिजजत होकर िक जैसे उससे कोई भूल हो गयी हो कहा—मेरे
घर मे यह चीजे बेकार पडी थी, लाकर रख दी।
‘मै इन टीम-टाम की चीजो का गुलाम नही बनना चाहती।’
ईशरदास ने डरते-डरते कहा –अगर आपको नागवार हो तो उठवा ले जाऊँ ?
माया ने देखा िक उसकी ऑंखे भर आयी है, मजबूर होकर बोली—अब आप ले आये है
तो रहने दीिजए। मगर आगे से कोई ऐसी चीज न लाइएगा
एक िदन माया का नौकर न आया। माया ने आठ-नौ बजे तक उसकी राह देखी जब
अब भी वह न आया तो उसने जूठे बतरन माजना शुर िकया। उसे कभी अपने हाथ से चौका
–बतरन करने का संयोग न हआ ु था। बार-बार अपनी हालत पर रोना आता था एक िदन वह
था िक उसके घर मे नौकरो की एक पलटन थी, आज उसे अपने हाथो बतरन माजने पड रहे
है। ितलोतमा दौड-दौड कर बडे जोश से काम कर रही थी। उसे कोई िफक न थी। अपने
हाथो से काम करने का, अपने को उपयोगी सािबत करने का ऐसा अचछा मौका पाकर उसकी
खुशी की सीमा न रही । इतने मे ईशरदास आकर खडा हो गया और माया को बतरन माजते
देखकर बोला—यह आप कया कर रही है ? रहने दीिजए, मै अभी एक आदमी को बुलावाये
लाता हूँ। आपने मुझे कयो ने खबर दी, राम-राम, उठ आइये वहा से ।
माया ने लापरवाही से कहा—कोई जररत नही, आप तकलीफ न कीिजए। मै अभी
माजे लेती हूँ।
‘इसकी जररत भी कया, मै एक िमनट मे आता हूँ।’
‘नही, आप िकसी को न लाइए, मै इतने बतरन आसानी से धो लूँगी।’
‘अचछा तो लाइए मै भी कुछ मदद करँ।’
यह कहकर उसने डोल उठा िलया और बाहर से पानी लेने दौडा। पानी लाकर उसने
मंजे हुए बतरनो को धोना शुर िकया।
माया ने उसके हाथ से बतरन छीनने की कोिशश करके कहा—आप मुझे कयो शिमरनदा
करते है ? रहने दीिजए, मै अभी साफ िकये डालती हूँ।
‘आप मुझे शिमरदा करती है या मै आपको शिमरदा कर रहा हूँ? आप यहॉँ मुसािफर है , मै
यहा का रहने वाला हूँ, मेरा धमर है िक आपकी सेवा करँ। आपने एक जयादती तो यह की िक
मुझे जरा भी खबर न दी, अब दस ू री जयादती यह कर रही है। मै इसे बदाशत नही कर
सकता ।’

76
ईशरदास ने जरा देर मे सारे बतरन साफ करके रख िदये। ऐसा मालूम होता था िक
वह ऐसे कामो का आदी है। बतरन धोकर उसने सारे बतरन पानी से भर िदये और तब माथे से
पसीना पोछता हुआ बोला–बाजार से कोई चीज लानी हो तो बतला दीिजए, अभी ला दँ। ू
माया—जी नही, माफ कीिजए, आप अपने घर का रासता लीिजए।
ईशरदास—ितलोतमा, आओ आज तुमहे सैर करा लाये।
माया—जी नही, रहने दीिजएं। इस वकत सैर करने नही जाती।
माया ने यह शबद इतने रखेपन से कहे िक ईशरदास का मुंह उतर गया। उसने दुबारा
कुछ न कहा। चुपके से चला गया। उसके जाने के बाद माया ने सोचा, मैने उसके साथ
िकतनी बेमुरौवती की। रेलगाडी की उस दु :खद घटना के बाद उसके िदल मे बराबर पितशोध
और मनुषयता मे लडाई िछडी हुई थी। अगर ईशरदास उस मौके पर सवगर के एक दत ू की
तरह न आ जाता तो आज उसकी कया हालत होती, यह खयाल करके उसके रोएं खडे हो जाते
थे और ईशादास के िलए उसके िदल की गहराइयो से कृतजता के शबद िनकलते । कया
अपने ऊपर इतना बडा एहसान करने वाले के खून से अपने हाथ रंगेगी ? लेिकन उसी के
हाथो से उसे यह मनहूस िदन भी तो देखना पडा ! उसी के कारण तो उसने रेल का वह सफर
िकया था वना वह अकेले िबना िकसी दोसत या मददगार के सफर ही कयो करती ? उसी के
कारण तो आज वह वैधवय की िवपितया झेल रही है और सारी उम झेलेगी। इन बातो का
खयाल करके उसकी आंखे लाल हो जाती, मुंह से एक गमर आह िनकल जाती और जी चाहता
इसी वकत कटार लेकरचल पडे और उसका काम तमाम कर दे।

आ ज माया ने अिनतम िनशय कर िलया। उसने ईशरदास की दावत की थी। यही उसकी
आिखरी दावत होगी। ईशरदास ने उस पर एहसान जरर िकये है लेिकन दुिनया मे
कोई एहसान, कोई नेकी उस शोक के दाग को िमटा सकती है ? रात के नौ बजे ईशादास
आया तो माया ने अपनी वाणी मे पेम का आवेग भरकर कहा—बैिठए, आपके िलए गमर-गमर
पूिडयॉं िनकाल दँू ?
ईशरदास—कया अभी तक आप मेरे इनतजार मे बैठी हुई है ? नाहक गमी मे परेशान
ह ुई।
माया ने थाली परसकर उसके सामने रखते हुए कहा—मै खाना पकाना नही जानती ?
अगर कोई चीज अचछी न लगे तो माफ कीिजएगा।
ईशरदास ने खूब तारीफ करके एक-एक चीज खायी। ऐसी सवािदष चीजे उसने
अपनी उम मे कभी न खायी थी।
‘आप तो कहती थी मै खाना पकाना नही जानती ?’
‘तो कया मै गलत कहती थी ?’
‘िबलकुल गलत। आपने खुद अपनी गलती सािबत कर दी। ऐसे खसते मैने िजनदगी
मे भी न खाये थे।’
‘आप मुझे बनाते है, अचछा साहब बना लीिजए।’
‘नही, मै बनाता नही, िबलकुल सच कहता हूँ। िकस-कीस चीज की तारीफ करं?
चाहता हूँ िक कोई ऐब िनकालूँ, लेिकन सूझता ही नही। अबकी मै अपने दोसतो की दावत
करंगा तो आपको एक िदन तकलीफ दंगू ा।’
‘हा, शौक से कीिजए, मै हािजर हूँ।’
खाते-खाते दस बज गये। ितलोतमा सो गयी। गली मे भी सनाटा हो गया। ईशरदास
चलने को तैयार हुआ, तो माया बोली—कया आप चले जाएंगे ? कयो न आज यही सो रिहए?
मुझे कुछ डर लग रहा है। आप बाहर के कमरे मे सो रिहएगा, मै अनदर आंगन मे सो रहूँगी

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ईशरदास ने कण-भर सोचकर कहा—अचछी बात है। आपने पहले कभी न कहा िक
आपको इस घर मे डर लगता है वना मै िकसी भरोसे की बुडढी औरत को रात को सोने के
िलए ठीक कर देता ।
ईशरदास ने तो कमरे मे आसन जमाया, माया अनदर खाना खाने गयी। लेिकन आज
उसके गले के नीचे एक कौर भी न उतर सका। उसका िदल जोर-जोर से घडक रहा था।
िदल पर एक डर–सा छाया हुआ था। ईशरदास कही जाग पडा तो ? उसे उस वकत िकतनी
शिमरनदगी होगी !
माया ने कटार को खूब तेज कर रखा था। आज िदन-भर उसे हाथ मे लेकर अभयास
िकया । वह इस तरह वार करेगी िक खाली ही न जाये। अगर ईशरदास जाग ही पडा तो
जानलेवा घाव लगेगा।
जब आधी रात हो गयी और ईशरदास के खराटो की आवाजे कानो मे आने लगी तो
माया कटार लेकर उठी पर उसका सारा शरीर काप रहा था। भय और संकलप, आकषरण और
घृणा एक साथ कभी उसे एक कदम आगे बढा देती, कभी पीछे हटा देती । ऐसा मालूम होता
था िक जैसे सारा मकान, सारा आसमान चकर खा रहा है कमरे की हर एक चीज घूमती हुई
नजर आ रही थी। मगर एक कण मे यह बेचैनी दरू हो गयी और िदल पर डर छा गया। वह
दबे पाव ईशरदास के कमरे तक आयी, िफर उसके कदम वही जम गये। उसकी आंखो से
आंसू बहने लगे। आह, मै िकतनी कमजोर हूँ, िजस आदमी ने मेरा सवरनाश कर िदया, मेरी हरी-
भरी खेती उजाड दी, मेरे लहलहाते हुए उपवन को वीरान कर िदया, मुझे हमेशा के िलए आग
के जलते हुए कु ंडो मे डाल िदया, उससे मै खून का बदला भी नही ले सकती ! वह मेरी ही
बहने थी, जो तलवार और बनदक ू लेकर मैदान मे लडती थी, दहकती हुई िचता मे हंसते-हंसते
बैठ जाती थी। उसे उस वकत ऐसा मालूम हुआ िक िमसटर वयास सामने खडे है और उसे आगे
बढने की पेरणा कर रहे है, कह रहे है, कया तुम मेरे खून का बदला न लोगी ? मेरी आतमा
पितशोध के िलए तडप रही है । कया उसे हमेशा-हमेशा यो ही तडपाती रहोगी ? कया यही
वफा की शतर थी ? इन िवचारो ने माया की भावनाओं को भडका िदया। उसकी आंखे खून की
तरह लाल हो गयी, होठ दातो के नीचे दब गये और कटार के हतथे पर मुटठी बंध गयी। एक
उनमाद-सा छा गया। उसने कमरे के अनदर पैर रखा मगर ईशरदास की आंखे खुल गयी थी।
कमरे मे लालटेन की मिदम रोशनी थी। माया की आहट पाकर वह चौका और िसर उठाकर
देखा तो खून सदर हो गया—माया पलय की मूितर बनी हाथ मे नंगी कटार िलये उसकी तरफ
चली आ रही थी!
वह चारपाई से उठकर खडा हो गया और घबडाकर बोला—कया है बहन ? यह कटार
कयो िलये हुए हो ?
माया ने कहा—यह कटार तुमहारे खून की पयासी है कयोिक तुमने मेरे पित का खून
िकया है।
ईशरदास का चेहरा पीला पड गया । बोला—मैने !
‘हा तुमने , तुमही ने लाहौर मे मेरे पित की हतया की, जब वे एक मुकदमे की पैरवी करने
गये थे। कया तुम इससे इनकार कर सकते हो ?मेरे पित की आतमा ने खुद तुमहारा पता
बतलाया है।’
‘तो तूम िमसटर वयास की बीवी हो?’
‘हा, मै उनकी बदनसीब बीवी हूँ और तुम मेरा सोहाग लूटनेवाले हो ! गो तुमने मेरे
ऊपर एहसान िकये है लेिकन एहसानो से मेरे िदल की आग नही बुझ सकती। वह तुमहारी खून
ही से बुझेगी।’
ईशरदास ने माया की ओर याचना-भरी आंखो से देखकर कहा—अगर आपका यही
फैसला है तो लीिजए यह सर हािजर है। अगर मेरे खून से आपके िदल की आग बुझ जाय तो
मै खुद उसे आपके कदमो पर िगरा दँग ू ा। लेिकन िजस तरह आप मेरे खून से अपनी तलवार

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की पयास बुझाना अपना धमर समझती है उसी तरह मैने भी िमसटर वयास को कतल करना
अपना धमर समझा। आपको मालूम है, वह एक रानीितक मुकदमे की पैरवी करने लाहौर गये
थे। लेिकन िमसटर वयास ने िजस तरह अपनी ऊंची कानूनी िलयाकत का इसतेमाल िकया,
पुिलस को झुठी शहादतो के तैयार करने मे िजस तरह मदद दी, िजस बेरहमी और बेददी से
बेकस और जयादा बेगुनाह नौजवानो को तबाह िकया, उसे मै सह न सकता था। उन िदनो
अदालत मे तमाशाइयो की बेइनता भीड रहती थी। सभी अदालत से िमसटर वयास को कोसते
हुए जाते थे मै तो मुकदमे की हकीकत को जानता था । इस िलए मेरी अनतरातमा िसफर
कोसने और गािलयॉँ देने से शात न हो सकती थी । मै आपसे कया कहूँ । िमसटर वयास ने
आखं खोलकर समझ- बूझकर झूठ को सच सािबत िकया और िकतने ही घरानो को बेिचराग
कर िदया आज िकतनी माए अपने बेटो के िलए खून के आंसू रो रही है, िकतनी ही औरते
रंडापे की आग मे जल रही है। पुिलस िकतनी ही जयादितया करे, हम परवाह नही करते ।
पुिलस से हम इसके िसवा और उममीद नही रखते। उसमे जयादातर जािहल शोहदे लुचचे भरे
हुए है । सरकार ने इस महकमे को कायम ही इसिलए िकया है िक वह िरआया को तंग करे।
मगर वकीलो से हम इनसाफ की उममीद रखते है। हम उनकी इजजत करते है । वे
उचचकोिट के पढे िलखे सजग लोग होते है । जब ऐसे आदिमयो को हम पुिलस के हाथो की
कठपुतली बना हुआ देखते है तो हमारे कोध की सीमा नही रहती मै िमसटर वयास का पशंसक
था। मगर जब मैने उनहे बेगुनाह मुलिजमो से जबरन जुमर का इकबाल कराते देखा तो मुझे
उनसे नफरत हो गयी । गरीब मुलिजम रात िदन भर उलटे लटकाये जाते थे ! िसफर
इसिलए िक वह अपना जुमर, तो उनहोने कभी नही िकया, इकबाल कर ले ! उनकी नाक मे
लाल िमचर का धुआं डाला जाता था ! िमसटर वयास यह सारी जयादाितया िसफर अपनी आंखो से
देखते ही नही थे, बिलक उनही के इशारे पर वह की जाती थी।
माया के चेहरे की कठोरता जाती रही । उसकी जगह जायज गुससे की गमी पैदा हुई
। बोली–इसका आपके के पास कोई सबूत है िक उनहोने मुलिजमो पर ऐसी सिखतया की ?
‘यह सारी बाते आमतौर पर मशहूर थी । लाहौर का बचचा बचचा जानता है। मैने खुद
अपनी आंखो से देखी इसके िसवा मै और कया सबूत दे सकता हूँ उन बेचारो का बस इतना
कसूर था। िक वह िहनदुसतान के सचचे दोसत थे, अपना सारा वकत पजा की िशका और सेवा
मे खचर करते थे। भूखे रहते थे, पजा पर पुिलस हुकाम की सिखतंया न होने देते थे, यही
उनका गुनाह था और इसी गुनाह की सजा िदलाने मे िमसटर वयास पुिलस के दािहने हाथ बने
हुए थे!’
माया के हाथ से खंजर िगर पडा। उसकी आंखो मे आंसू भर आये, बोली मुझे न मालूम था
िक वे ऐसी हरकते भी कर सकते है।
ईशरदास ने कहा- यह न समिझए िक मै आपकी तलवार से डर कर वकील साहब पर
झूठे इलजाम, लगा रहा हूं । मैने कभी िजनदगी की परवाह नही की। मेरे िलए कौन रोने वाला
बैठा हुआ है िजसके िलए िजनदगी की परवाह करँ। अगर आप समझती है िक मैने अनुंिचत
हतया की है तो आप इस तलवार को उठाकर इस िजनदगी का खातमा कर दीिजए, मै जरा भी
न िझझकूगा। अगर आप तलवार न उठा सके तो पुिलस को खबर कर दीिजए, वह बडी
आसानी से मुझे दुिनया से रखसत कर सकती है। सबूत िमल जाना मुिशकल न होगा। मै
खुद पुिलस के सामने जुमर का इकबाल कर लेता मगर मै इसे जुमर नही समझता। अगर एक
जान से सैकडो जाने बच जाएं तो वह खून नही है। मै िसफर इसिलए िजनदा रहना चाहता हूँ
िक शायद िकसी ऐसे ही मौके पर मेरी िफर जररत पडे
माया ने रोते हुए- अगर तुमहारा बयान सही है तो मै अपना, खून माफ करती हूँ तुमने
जो िकया या बेजा िकया इसका फैसला ईशर करेगे। तुमसे मेरी पाथरना है िक मेरे पित के
हाथो जो घर तबाह हुए है। उनका मुझे पता बतला दो, शायद मै उनकी कुछ सेवा कर सकूँ।
-- पेमचालीसा’ से

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पपपप

रा त भीग चुकी थी। मै बरामदे मे खडा था। सामने अमीनुददौला पाकर नीदं मे डू बा खडा
था। िसफर एक औरत एक तिकयादार वेचं पर बैठी हंुई थी। पाकर के बाहर सडक के
िकनारे एक फकीर खडा राहगीरो को दुआएं दे रहा था। खुदा और रसूल का वासता......राम
और भगवान का वासता..... इस अंधे पर रहम करो ।
सडक पर मोटरो ओर सवािरयो का ताता बनद हो चुका था। इके–दुके आदमी नजर
आ जाते थे। फकीर की आवाज जो पहले नकारखाने मे तूती की आवाज थी अब खुले
मैदान की बुलंद पुकार हो रही थी ! एकाएक वह औरत उठी और इधर उधर चौकनी आंखो से
देखकर फकीर के हाथ मे कुछ रख िदया और िफर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ
चली गयी। फकीर के हाथ मे कागज का टुकडा नजर आया िजसे वह बार बार मल रहा था।
कया उस औरत ने यह कागज िदया है ?
यह कया रहसय है ? उसके जानने के कूतूहल से अधीर होकर मै नीचे आया ओर
फेकीर के पास खडा हो गया।
मेरी आहट पाते ही फकीर ने उस कागज के पुजे को दो उंगिलयो से दबाकर मुझे
िदखाया। और पूछा,- बाबा, देखो यह कया चीज है ?
मैने देखा– दस रपये का नोट था ! बोला– दस रपये का नोट है, कहा पाया ?
फकीर ने नोट को अपनी झोली मे रखते हुए कहा-कोई खुदा की बनदी दे गई है।
मैने ओर कुछ ने कहा। उस औरत की तरफ दौडा जो अब अधेरे मे बस एक सपना बनकर
रह गयी थी।
वह कई गिलयो मे होती हुई एक टू टे–फूटे िगरे-पडे मकान के दरवाजे पर रकी, ताला
खोला और अनदर चली गयी।
रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मै लौट आया।
रातभर मेरा जी उसी तरफ लगा रहा। एकदम तडके मै िफर उस गली मे जा पहुचा
। मालूम हुआ वह एक अनाथ िवधवा है।
मैने दरवाजे पर जाकर पुकारा – देवी, मै तुमहारे दशरन करने आया हूँ। औरत बहार
िनकल आयी। गरीबी और बेकसी की िजनदा तसवीर मैने िहचकते हुए कहा- रात आपने फकीर
को..................
देवी ने बात काटते हुए कहा– अजी वह कया बात थी, मुझे वह नोट पडा िमल गया था,
मेरे िकस काम का था।
मैने उस देवी के कदमो पर िसर झुका िदया।
- पेमचालीसा’ से

80
खुदी

मुनीअकेिजस वकत िदलदारनगर मे आयी, उसकी उम पाच साल से जयादा न थी। वह िबलकुल
ली न थी, मा-बाप दोनो न मालूम मर गये या कही परदेस चले गये थे। मुती िसफर
इतना जानती थी िक कभी एक देवी उसे िखलाया करती थी और एक देवता उसे कंधे पर
लेकर खेतो की सैर कराया करता था। पर वह इन बातो का िजक कुछ इस तरह करती थी
िक जैसे उसने सपना देखा हो। सपना था या सचची घटना, इसका उसे जान न था। जब
कोई पूछता तेरे मॉँ-बाप कहा गये ? तो वह बेचारी कोई जवाब देने के बजाय रोने लगती और
यो ही उन सवालो को टालने के िलए एक तरफ हाथ उठाकर कहती—ऊपर। कभी आसमान
की तरफ देखकर कहती—वहा। इस ‘ऊपर’ और ‘वहा’ से उसका कया मतलब था यह
िकसी को मालूम न होता। शायद मुनी को यह खुद भी मालूम न था। बस, एक िदन लोगो ने
उसे एक पेड के नीचे खेलते देखा और इससे जयादा उसकी बाबत िकसी को कुछ पता न
था।
लडकी की सूरत बहुत पयारी थी। जो उसे देखता, मोह जाता। उसे खाने -पीने की
कुछ िफक न रहती। जो कोई बुलाकर कुछ दे देता, वही खा लेती और िफर खेलने लगती।
शकल-सूरज से वह िकसी अचछे घर की लडकी मालूम होती थी। गरीब-से-गरीब घर मे भी
उसके खाने को दो कौर और सोने को एक टाट के टुकडे की कमी न थी। वह सबकी थी,
उसका कोई न था।
इस तरह कुछ िदन बीत गये। मुनी अब कुछ काम करने के कािबल हो गयी। कोई
कहता, जरा जाकर तालाब से यह कपडे तो धो ला। मुनी िबना कुछ कहे-सुने कपडे लेकर
चली जाती। लेिकन रासते मे कोई बुलाकर कहता, बेटी, कुऍं से दो घडे पानी तो खीच ला, तो
वह कपडे वही रखकर घडे लेकर कुऍं की तरफ चल देती। जरा खेत से जाकर थोडा साग
तो ले आ और मुनी घडे वही रखकर साग लेने चली जाती। पानी के इनतजार मे बैठी हुई
औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती। कुऍं पर जाकर देखती है तो घडे रखे हुए है।
वह मुनी को गािलयॉँ देती हुई कहती, आज से इस कलमुँही को कुछ खाने को न दँग ू ी। कपडे
के इनतजार मे बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती और गुससे मे तालाब की
तरफ जाती तो कपडे वही पडे हुए िमलते। तब वह भी उसे गािलयॉँ देकर कहती, आज से
इसको कुछ खाने को न दँग ू ी। इस तरह मुनी को कभी-कभी कुछ खाने को न िमलता और
तब उसे बचपन याद आता, जब वह कुछ काम न करती थी और लोग उसे बुलाकर खाना
िखला देते थे। वह सोचती िकसका काम करँ, िकसका न करँ िजसे जवाब दँू वही नाराज हो
जायेगा। मेरा अपना कौन है, मै तो सब की हूँ। उसे गरीब को यह न मालूम था िक जो सब
का होता है वह िकसी का नही होता। वह िदन िकतने अचछे थे, जब उसे खाने -पीने की और
िकसी की खुशी या नाखुशी की परवाह न थी। दुभागय मे भी बचपन का वह समय चैन का
था।
कुछ िदन और बीते, मुनी जवान हो गयी। अब तक वह औरतो की थी, अब मदो की
हो गयी। वह सारे गॉँव की पेिमका थी पर कोई उसका पेमी न था। सब उससे कहते थे—मै
तुम पर मरता हूँ, तुमहारे िवयोग मे तारे िगनता हूँ, तुम मेरे िदलोजान की मुराद हो, पर उसका
सचचा पेमी कौन है, इसकी उसे खबर न होती थी। कोई उससे यह न कहता था िक तू मेरे
दुख-ददर की शरीक हो जा। सब उससे अपने िदल का घर आबाद करना चाहते थे। सब
उसकी िनगाह पर, एक मिदम-सी मुसकराहट पर कुबान होना चाहते थे; पर कोई उसकी
बाह पकडनेवाला, उसकी लाज रखनेवाला न था। वह सबकी थी, उसकी मुहबबत के दरवाजे
सब पर खुले हुए थे ; पर कोई उस पर अपना ताला न डालता था िजससे मालूम होता िक यह
उसका घर है, और िकसी का नही।

81
वह भोली-भाली लडकी जो एक िदन न जाने कहॉँ से भटककर आ गयी थी, अब गॉँव
की रानी थी। जब वह अपने उतत वको को उभारकर रप-गवर से गदरन उठाये, नजाकत से
लचकती हुई चलती तो मनचले नौजवान िदल थामकर रह जाते, उसके पैरो तले ऑंखे
िबछाते। कौन था जो उसके इशारे पर अपनी जान न िनसार कर देता। वह अनाथ लडकी
िजसे कभी गुिडयॉँ खेलने को न िमली, अब िदलो से खेलती थी। िकसी को मारती थी।
िकसी को िजलाती थी, िकसी को ठुकराती थी, िकसी को थपिकयॉँ देती थी, िकसी से रठती
थी, िकसी को मनाती थी। इस खेल मे उसे कतल और खून का-सा मजा िमलता था। अब
पॉँसा पलट गया था। पहले वह सबकी थी, कोई उसका न था; अब सब उसके थे, वह िकसी
की न थी। उसे िजसे चीज की तलाश थी, वह कही न िमलती थी। िकसी मे वह िहममत न
थी जो उससे कहता, आज से तू मेरी है। उस पर िदल नयौछावर करने वाले बहुतेरे थे , सचचा
साथी एक भी न था। असल मे उन सरिफरो को वह बहुत नीची िनगाह से देखती थी। कोई
उसकी मुहबबत के कािबल नही था। ऐसे पसत-िहममतो को वह िखलौनो से जयादा महतव न
देना चाहती थी, िजनका मारना और िजलाना एक मनोरंजन से अिधक कुछ नही।
िजस वकत़ कोई नौजवान िमठाइयो के थाल और फूलो के हार िलये उसके सामने
खडा हो जाता तो उसका जी चाहता; मुंह नोच लूँ। उसे वह चीजे कालकूट हलाहल जैसी
लगती। उनकी जगह वह रखी रोिटयॉँ चाहती थी, सचचे पेम मे डू बी हुई। गहनो और
अशिफरयो के ढेर उसे िबचछू के डंक जैसे लगते। उनके बदले वह सचची, िदल के भीतर से
िनकली हुई बाते चाहती थी िजनमे पेम की गंध और सचचाई का गीत हो। उसे रहने को महल
िमलते थे, पहनने को रेशम, खाने को एक-से-एक वयंजन, पर उसे इन चीजो की आकाका न
थी। उसे आकाका थी, फूस के झोपडे, मोटे-झोटे सूखे खाने। उसे पाणघातक िसिदयो से
पाणपोषक िनषेध कही जयादा िपय थे, खुली हवा के मुकाबले मे बंद िपंजरा कही जयादा चाहेता
!
एक िदन एक परदेसी गाव मे आ िनकला। बहुत ही कमजोर, दीन-हीन आदमी था।
एक पेड के नीचे सतू खाकर लेटा। एकाएक मुनी उधर से जा िनकली। मुसािफर को
देखकर बोली—कहा जाओगे ?
मुसािफर ने बेरखी से जवाब िदया- जहनुम !
मुनी ने मुसकराकर कहा- कयो, कया दुिनया मे जगह नही ?
‘औरो के िलए होगी, मेरे िलए नही।’
‘िदल पर कोई चोट लगी है ?’
मुसािफर ने जहरीली हंसी हंसकर कहा- बदनसीबो की तकदीर मे और कया है ! रोना-
धोना और डू ब मरना, यही उनकी िजनदगी का खुलासा है। पहली दो मंिजल तो तय कर चुका,
अब तीसरी मंिजल और बाकी है, कोई िदन वह पूरी हो जायेगी; ईशर ने चाहा तो बहुत जलद।
यह एक चोट खाये हुए िदल के शबद थे। जरर उसके पहलू मे िदल है। वना यह ददर
कहा से आता ? मुनी बहुत िदनो से िदल की तलाश कर रही थी बोली—कही और वफा की
तलाश कयो नही करते ?
मुसािफर ने िनराशा के भव से उतर िदया—तेरी तकदीर मे नही, वना मेरा कया बना-
बनाया घोसला उजड जाता ? दौलत मेरे पास नही। रप-रंग मेरे पास नही, िफर वफा की देवी
मुझ पर कयो मेहरबान होने लगी ? पहले समझता था वफा िदल के बदले िमलती है, अब मालूम
हुआ और चीजो की तरह वह भी सोने-चॉँदी से खरीदी जा सकती है।
मुनी को मालूम हुआ, मेरी नजरो ने धोखा खाया था। मुसािफर बहुत काला नही, िसफर
सॉँवला। उसका नाक-नकशा भी उसे आकषरक जान पडा। बोली—नही, यह बात नही, तुमहारा
पहला खयाल ठीक था।

82
यह कहकर मुनी चली गयी। उसके हृदय के भाव उसके संयम से बाहर हो रहे थे।
मुसािफर िकसी खयाल मे डू ब गया। वह इस सुनदरी की बातो पर गौर कर रहा था, कया
सचमुच यहा वफा िमलेगी ? कया यहॉँ भी तकदीर धोखा न देगी ?
मुसािफर ने रात उसी गॉँव मे काटी। वह दस ू रे िदन भी न गया। तीसरे िदन उसने
एक फूस का झोपडा खडा िकया। मुनी ने पूछा—यह झोपडा िकसके िलए बनाते हो ?
मुसािफर ने कहा—िजससे वफा की उममीद है।
‘चले तो न जाओगे?’
‘झोपडा तो रहेगा।’
‘खाली घर मे भूत रहते है।’
‘अपने पयारे का भूत ही पयारा होता है।’
दसू रे िदन मुनी उस झोपडे मे रहने लगी। लोगो को देखकर ताजजुब होता था। मुनी
उस झोपडे मे नही रह सकती। वह उस भोले मुसािफर को जरर द़गा देगी, यह आम खयाल
था, लेिकन मुनी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुनदर िदखायी पडी थी, न इतनी
खुश। उसे एक ऐसा आदमी िमल गया था, िजसके पहलू मे िदल था।
2
ले िकन मुसािफर को दस ू रे िदन यह िचनता हुई िक कही यहा भी वही अभागा िदन न देखना
पडे। रप मे वफा कहॉँ ? उसे याद आया, पहले भी इसी तरह की बाते हुई थी, ऐसी ही
कसम खायी गयी थी, एक दस ू रे से वादे िकए गए थे। मगर उन कचचे धागो को टू टते िकतनी
देर लगी ? वह धागे कया िफर न टू ट जाएंगे ? उसके किणक आननद का समय बहुत जलद बीत
गया और िफर वही िनराशा उसके िदल पर छा गयी। इस मरहम से भी उसके िजगर का
जखम न भरा। तीसरे रोज वह सारे िदन उदास और िचिनतत बैठा रहा और चौथे रोज लापता
हो गया। उसकी यादगार िसफर उसकी फूस की झोपडी रह गयी।
मुनी िदन-भर उसकी राह देखती रही। उसे उममीद थी िक वह जरर आयेगा। लेिकन
महीनो गुजर गये और मुसािफर न लौटा। कोई खत भी न आया। लेिकन मुनी को उममीद थी,
वह जरर आएगा।
साल बीत गया। पेडो मे नयी-नयी कोपले िनकली, फूल िखले, फल लगे, काली घटाएं
आयी, िबजली चमकी, यहा तक िक जाडा भी बीत गया और मुसािफर न लौटा। मगर मुनी को
अब भी उसके आने की उममीद थी; वह जरा भी िचिनतत न थी, भयभीत न थी वह िदन-भर
मजदरू ी करती और शाम को झोपडे मे पड रहती। लेिकन वह झोपडा अब एक सुरिकत िकला
था, जहा िसरिफरो के िनगाह के पाव भी लंगडे हो जाते थे।
एक िदन वह सर पर लकडी का गटा िलए चली आती थी। एक रिसयो ने छेडखानी
की—मुनी, कयो अपने सुकुमार शरीर के साथ यह अनयाय करती हो ? तुमहारी एक कृपा दृिष
पर इस लकडी के बराबर सोना नयौछावर कर सकता हूँ।
मुनी ने बडी घृणा के साथ कहा—तुमहारा सोना तुमहे मुबारक हो, यहा अपनी मेहनत
का भरोसा है।
‘कयो इतना इतराती हो, अब वह लौटकर न आयेगा।’
मुनी ने अपने झोपडे की तरफ इशारा करके कहा—वह गया कहा जो लौटकर आएगा
? मेरा होकर वह िफर कहा जा सकता है ? वह तो मेरे िदल मे बैठा हुआ है !
इसी तरह एक िदन एक और पेमीजन ने कहा—तुमहारे िलए मेरा महल हािजर है। इस
टू ट-े फूटे झोपडे मे कयो पडी हो ?
मुनी ने अिभमान से कहा—इस झोपडे पर एक लाख महल नयौछावर है। यहा मैने वह
चीज पाई है, जो और कही न िमली थी और न िमल सकती है। यह झोपडा नही है, मेरे पयारे
का िदल है !

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इस झोपडे मे मुनी ने सतर साल काटे। मरने के िदन तक उसे मुसािफर के लौटने
की उममीद थी, उसकी आिखरी िनगाहे दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके खरीदारो मे
कुछ तो मर गए, कुछ िजनदा है, मगर िजस िदन से वह एक की हो गयी, उसी िदन से उसके
चेहरे पर दीिपत िदखाई पडी िजसकी तरफ ताकते ही वासना की आंखे अंधी हो जाती। खुदी
जब जाग जाती है तो िदल की कमजोिरया उसके पास आते डरती है।
-‘खाके परवाना’ से

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पपपप पपपप

तीनमै सौआिखरपैसठअपनी
िदन, कई घणटे और कई िमनट की लगातार और अनथक दौड-धूप के बाद
मंिजल पर धड से पहुँच गया। बडे बाबू के दशरन हो गए। िमटी के
गोले ने आग के गोले का चकर पूरा कर िलया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की िलयाकत के
कायल हो गए। इसे रपक न समिझएगा। बडे बाबू मे दोपहर के सूरज की गमी और रोशनी
थी और मै कया और मेरी िबसात कया, एक मुठी खाक। बडे बाबू मुझे देखकर मुसकराये।
हाय, यह बडे लोगो की मुसकराहट, मेरा अधमरा-सा शरीर कापते लगा। जी मे आया बडे बाबू
के कदमो पर िबछ जाऊँ। मै कािफर नही, गािलब का मुरीद नही, जनत के होने पर मुझे पूरा
यकीन है, उतरा ही पूरा िजतना अपने अंधेरे घर पर। लेिकन फिरशते मुझे जनत ले जाने के
िलए आए तो भी यकीनन मुझे वह जबरदसत खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुसकराहट से
हुई। आंखो मे सरसो फूल गई। सारा िदल और िदमाग एक बगीचा बन गया। कलपना ने िमस
के ऊंचे महल बनाने शुर कर िदय। सामने कुिसरयो, पदो और खस की टिटयो से सजा-
सजाया कमरा था। दरवाजे पर उममीदवारो की भीड लगी हुई थी और ईजािनब एक कुसी पर
शान से बैठे हुए सबको उसका िहससा देने वाले खुदा के दुिनयाबी फजर अदा कर रहे थे।
नजर-िमयाज का तूफान बरपा था और मै िकसी तरफ आंख उठाकर न देखता था िक जैसे
मुझे िकसी से कुछ लेना-देना नही।
अचानक एक शेर जैसी गरज ने मेरे बनते हुए महल मे एक भूचाल-सा ला िदया—कया
काम है? हाय रे, ये भोलापन ! इस पर सारी दुिनया के हसीनो का भोलापन और बेपरवाही
िनसार है। इस डयाढी पर माथा रगडते-रगडते तीने सौ पैसठ िदन, कई घणटे और कई िमनट
गुजर गए। चौखट का पतथर िघसकर जमीन से िमल गया। ईद ू िबसाती की दुकान के आधे
िखलौने और गोवदरन हलवाई की आधी दुकान इसी डयौढी की भेट चढ गयी और मुझसे आज
सवाल होता है, कया काम
है !
मगर नही, यह मेरी जयादती है सरासर जुलम। जो िदमाग बडे-बडे मुलकी और माली
तमदुनी मसलो मे िदन-रात लगा रहता है, जो िदमाग डाकूमेटो, सरकुलरो, परवानो, हुकमनामो,
नकशो वगैरह के बोझ से दबा जा रहा हो, उसके नजदीक मुझ जैसे खाक के पुतले की हसती
ही कया। मचछर अपने को चाहे हाथी समझ ले पर बैल के सीग को उसकी कया खबर। मैने
दबी जबान मे कहा—हुजूर की कदमबोसी के िलए हािजर हुआ।
बडे बाबू गरजे—कया काम है?
अबकी बार मेरे रोएं खडे हो गए। खुदा के फजल से लहीम-शहीम आदमी हूँ, िजन
िदनो कालेज मे था, मेरे डील-डौल और मेरी बहादुरी और िदलेरी की धूम थी। हाकी टीम का
कपतान, फुटवाल टीम का नायब कपतान और िककेट का जनरल था। िकतने ही गोरो के
िजसम पर अब भी मेरी बहादुरी के दाग बाकी होगे। मुमिकन है, दो-चार अब भी बैसािखया
िलए चलते या रेगते हो। ‘बमबई कािनकल’ और ‘टाइमस’ मे मेरे गेदो की धूम थी। मगर इस
वकत बाबू साहब की गरज सुनकर मेरा शरीर कापने लगा। कापते हुए बोला—हुजूर की
कदमबोसी के िलए हािजर हुआ।
बडे बाबू ने अपना सलीपरदार पैर मेरी तरफ बढाकर कहा—शौक से लीिजए, यह
कदम हािजर है, िजतने बोसे चाहे लीिजए, बेिहसाब मामले है, मुझसे कसम ले लीिजए जो मै
िगनूँ, जब तक आपका मुंह न थक जाए, िलए जाइए ! मेरे िलए इससे बढकर खुशनसीबी का
कया मौका होगा ? औरो को जो बात बडे जप-तप, बडे संयम-वरत से िमलती है, वह मुझे बैठे-
िबठाये बगैर हड-िफटकरी लगाए हािसल हो गयी। वललाह, हूं मै भी खुशनसीब । आप अपने
दोसत-अहबाब, आतमीय-सवजन जो हो, उन सबको लाये तो और भी अचछा, मेरे यहा सबको
छू ट है !
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हंसी के पदे मे यह जो जुलम बडे बाबू कर रहे थे उस पर शायद अपने िदल मे उनको
नाज हो। इस मनहूस तकदीर का बुरा हो, जो इस दरवाजे का िभखारी बनाए हुए है। जी मे
तो आया िक हजरत के बढे हुए पैर को खीच लूं और आपको िजनदगी-भर के िलए सबक दे दँू
िक बदनसीबो से िदललगी करने का यह मजा है मगर बदनसीबी अगर िदल पर जब न कराये ,
िजललत का अहसास न पैदा करे तो वह बदनसीबी कयो कहलाए। मै भी एक जमाने मे इसी
तरह लोगो को तकलीफ पहुँचाकर हंसता था। उस वकत इन बडे बाबुओं की मेरी िनगाह मे
कोई हसती न थी। िकतने ही बडे बाबुओं को रलाकर छोड िदया। कोई ऐसा पोफेसर न था,
िजसका चेहरा मेरी सूरत देखते ही पीला न पड जाता हो। हजार-हजार रपया पाने वाले
पोफेसरो की मुझसे कोर दबकी थी। ऐसे कलको को मै समझता ही कया था। लेिकन अब वह
जमाना कहा। िदल मे पछताया िक नाहक कदमबोसी का लफज जबान पर लाया। मगर
अपनी बात कहना जररी था। मै पका इरादा करके अया था िक उस डयौढी से आज कुछ
लेकर ही उठूंगा। मेरे धीरज और बडे बाबू के इस तरह जान-बूझकर अनजान बनने मे
रससाकशी थी। दबी जबान से बोला—हुजूर, गेजुएट हूँ।
शुक है, हजार शुक है, बडे बाबू हंसे। जैसे हाडी उबल पडी हो। वह गरज और वह
करखत आवाज न थी। मेरा माथा रगडना आिखर कहा तक असर न करता। शायद असर
को मेरी दुआ से दुशमनी नही। मेरे कान बडी बेकरारी से वे लफज सुनने के िलए बेचैन हो रहे
थे िजनसे मेरी रह को खुशी होगी। मगर आह, िजतनी मायूसी इन कानो को हुई है उतनी
शायद पहाड खोदने वाले फरहाद को भी न हुई होगी। वह मुसकराहट न थी, मेरी तकदीर की
हंसी थी। हुजूर ने फरमाया—बडी खुशी की बात है, मुलक और कौम के िलए इससे जयादा
खुशी की बात और कया हो सकती है। मेरी िदली तमना है, मुलक का हर एक नौजवान गेजुएट
हो जाए। ये गेजुएट िजनदगी के िजस मैदान मे जाय, उस मैदान को तरकी ही देगा—मुलकी,
माली, तमदुनी (मजहबी) गरज िक हर एक िकसम की तहरीक का जनम और तरकी गेजुएटो ही
पर मुनहसर है। अगर मुलक मे गेजुएटो का यह अफसोसनाक अकाल न होता तो असहयोग
की तहरीक कयो इतनी जलदी मुदा हो जाती ! कयो बने हुए रंगे िसयार, दगाबाज जरपसत
लीडरो को डाकेजनी के ऐसे मौके िमलते! तबलीग कयो मुबिललगे अले हुससलाम की इललत
बनती! गेजुएट मे सच और झूठ की परख, िनगाह का फैलाव और जाचने-तोलने की
काबिलयत होना जररी बात है। मेरी आंखे तो गेजुएटो को देखकर नशे के दजे तक खुशी से
भर उठती है। आप भी खुदा के फजल से अपनी िकसम की बहुत अचछी िमसाल है, िबलकुल
आप-टू -डेट। यह शेरवानी तो बरकत एणड को की दुकान की िसली हुई होगी। जूते भी
डासन के है। कयो न हो। आप लोगो ने कौम की िजनदगी के मैयार को बहुत ऊंचा बना िदया
है और अब वह बहुत जलद अपनी मंिजल पर पहँुचेगी। बलैकबडर पेन भी है, वेसट एणड की
िरसटवाच भी है। बेशक अब कौमी बेडे को खवाजा िखजर की जररत भी नही। वह उनकी
िमनत न करेगा।
हाय तकदीर और वाय तकदीर ! अगर जानता िक यह शेरवानी और फाउंटेनपेन और
िरसटवाज यो मजाक का िनशाना बनेगी, तो दोसतो का एहसान कयो लेता। नमाज बखशवाने
आया था, रोजे गले पडे। िकताबो मे पढा था, गरीबी की हुिलया ऐलान है अपनी नाकामी का,
नयौता देना है अपनी िजललत को। तजुबा भी यही कहता था। चीथडे लगाये हुए िभखमंगो को
िकतनी बेददी से दुतकारता हूँ लेिकन जब कोई हजरत सूफी-साफी बने हुए, लमबे-लमबे बाल
कंधो पर िबखेरे, सुनहरा अमामा सर पर बाका-ितरछा शान से बाधे, संदली रंग का नीचा कुता
पहने, कमरे मे आ पहुँचते है तो मजबूर होकर उनकी इजजत करनी पडती है और उनकी
पाकीजगी के बारे मे हजारो शुबहे पैदा होने पर भी छोटी-छोटी रकम जो उनकी नजर की
जाती हे, वह एक दजरन िभखािरयो को अचछा खाना िखलाने के सामान इकटा कर देती।
पुरानी मसल है—भेस से ही भीख िमलती है। पर आज यह बात गलत सािबत हो गयी । अब
बीवी सािहबा की वह तमबीह याद आयी जो उसने चलते वकत दी थी—कयो बेकार अपनी

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बइजजती कराने जा रहे हो। वह साफ समझेगे िक यह मागे-जाचे का ठाठ है। ऐसे रईस होते
तो मेरे दरवाजे पर आते कयो। उस वकत मैने इस तमबीह को बीवी की कमिनगाह और उसका
गंवारपन समझा था। पर अब मालूम हुआ िक गंवािरने भी कभी-कभी सूझ की बाते कहते है।
मगर अब पछताना बेकार है। मैने आिजजी से कहा—हुजूर, कही मेरी भी परविरश फरमाये।
बडे बाबू ने मेरी तरफ इस अनदाज से देखा जैसे मै िकसी दस ू री दुिनया का कोई
जानवर हूँ और बहुत िदलासा देने के लहजे मे बोले—आपकी परविरश खुदा करेगा। वही
सबका रजजाक है, दुिनया जब से शुर हुई तब से तमाम शायर, हकीम और औिलया यही
िसखाते आये है िक खुदा पर भरोसा रख और हम है िक उनकी िहदायत को भूल जाते है।
लिकन खैर, मै आपको नेक सलाह देने मे कंजूसी न करँगा। आप एक अखबार िनकाल
लीिजए। यकीन मािनए इसके िलए बहुत जयादा पढे-िलखे होने की जररत नही और आप तो
खुदा के फजल से गेजुएट है।, सवािदष ितलाओं और सतमभन-बिटयो के नुसखे िलिखए।
ितबबे अकबर मे आपको हजारो नुसखे िमलेगे। लाइबेरी जाकर नकल कर लाइए और अखबार
मे नये नाम से छािपए। कोकशासत तो आपने पढा ही होगा अगर न पढा हो तो एक बार पढ
जाइए और अपने अखबार मे शादी के मजो के तरीके िलिखए। कामेिनदय के नाम िजंतने
जयादा आ सके, बेहतर है िफर देिखए कैसे डाकटर और पोफेसर और िडपटी कलेकटर आपके
भकत हो जाते है। इसका खयाल रहे िक यह काम हकीमाना अनदाज से िकया जाए। बयोपारी
और हकीमाना अनदाज मे थोडा फकर है, बयोपारी िसफर अपनी दवाओं की तारीफ करता है,
हकीम पिरभाषाओं और सूिकतयो को खोलकर अपने लेखो को इलमी रंग देता है। बयोपारी की
तारीफ से लोग िचढते है, हकीम की तारीफ भरोसा िदलाने वाली होती है। अगर इस मामले मे
कुछ समझने -बूझने की जररत हो तो िरसाला ‘दरवेश’ हािजर है अगर इस काम मे आपको
कुछ िदकत मालूम होती हो, तो सवामी शदाननद की िखदमत मे जाकर शुिद पर आमादगी
जािहर कीिजए—िफर देिखए आपकी िकतनी खाितर-तवाजो होती है। इतना समझाये देता हूँ
िक शुिद के िलए फौरन तैयार न हो जाइएगा। पहले िदन तो दो-चार िहनदू धमर की िकताबे
माग लाइयेगा। एक हफते के बाद जाकर कुछ एतराज कीिजएगा। मगर एतराज ऐसे हो
िजनका जवाब आसानी से िदया जा सके इससे सवामीजी को आपकी छान-बीन और जानने की
खवािहश का यकीन हो जायेगा। बस, आपकी चादी है। आप इसके बाद इसलाम की
मुखािलफत पर दो-एक मजमून या मजमूनो का िसलिसला िकसी िहनद ू िरसाले मे िलख देगे तो
आपकी िजनदगी और रोटी का मसला हल हो जाएगा। इससे भी सरल एक नुसखा है—
तबलीगी िमशन मे शरीक हो जाइए, िकसी िहनदू औरत, खासकर नौजवान बेवा, पर डोरे
डािलए। आपको यह देखकर हैरत होगी िक वह िकतनी आसानी से आपसे मुहबबत करने लग
जाती है। आप उसकी अंधेरी िजनदगी के िलए एक मशाल सािबत होगे। वह उज नही करती,
शौक से इसलाम कबूल कर लेगी। बस, अब आप शहीदो मे दािखल हो गए। अगर जरा
एहितयात से काम करते रहे तो आपकी िजनदगी बडे चैन से गुजरेगी। एक ही खेवे मे दीनो-
दुिनया दोनो ही पार है। जनाब लीडर बन जाएंगे वललाह, एक हफते मे आपका शुमार नामी-
गरामी लोगो मे होने लगेगा, दीन के सचचे पैरोकार। हजारो सीधे-सादे मुसलमान आपको दीन
की डू बती हुई िकशती का मललाह समझेगे। िफर खुदा के िसवा और िकसी को खबर न होगी
िक आपके हाथ कया आता है और वह कहा जाता है और खुदा कभी राज नही खोला करता,
यह आप जानते ही है। ताजजुब है िक इन मौको पर आपकी िनगाह कयो नही जाती ! मै तो
बुडढा हो गया और अब कोई नया काम नही सीख सकता, वना इस वकत लीडरो का लीडर
होता।
इस आग की लपट जैसे मजाक ने िजसम मे शोले पैदा कर िदये। आंखो से िचनगािरया
िनकलने लगी। धीरज हाथ से छू टा जा रहा था। मगर कहरे दरवेश बर जाने दरवेश(िभखारी
का गुससा अपनी जान पर) के मुतािबक सर झुकाकर खडा रहा। िजतनी दलीले िदमाग मे
कई िदनो से चुन-चुनकर रखी थी, सब धरी रह गयी। बहुत सोचने पर भी कोई नया पहलू

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धयान मे न आया। यो खुदा के फजल से बेवकूफ या कुनदजेहन नही हूँ, अचछा िदमाग पाया
है। इतने सोच-िवचार से कोई अचछी-सी गजल हो जाती। पर तबीयत ही तो है, न लडी।
इतफाक से जेब मे हाथ डाला तो अचानक याद आ गया िक िसफािरशी खतो का एक पोथा
भी साथ लाया हूँ। रोब का िदमाग पर कया असर पडता है इसका आज तजुबा हो गया।
उममीद से चेहरा फूल की तरह िखल उठा। खतो का पुिलनदा हाथ मे लेकर बोला—हुजूर, यह
चनद खत है इनहे मुलािहजा फरमा ले।
बडे बाबू ने बणडल लेकर मेज पर रख िदया और उस पर एक उडती हुई नजर
डालकर बोले—आपने अब तक इन मोितयो को कयो िछपा रकखा था ?
मेरे िदल मे उममीद की खुशी का एक हंगामा बरपा हो गया। जबान जो बनद थी, खुल
गयी। उमंग से बोला—हुजूर की शान-शौकत ने मुझ पर इतना रोब डाल िदया और कुछ ऐसा
जादू कर िदया िक मुझे इन खतो की याद न रही। हुजूर से मै िबना नमक-िमचर लगाये सच-
सच कहता हूँ िक मैने इनके िलए िकसी तरह की कोिशश या िसफािरश नही पहुँचायी। िकसी
तरह की दौड-भाग नही की।
बडे बाबू ने मुसकराकर कहा—अगर आप इनके िलए जयादा से जयादा दौड-भाग करने
मे भी अपनी ताकत खचर करते तो भी मै आपको इसके िलए बुरा-भला न कहता। आप बेशक
बडे खुशनसीब है िक यह नायाब चीज आपको बेमाग िमल गई, इसे िजनदगी के सफर का
पासपोटर समिझए। वाह, आपको खुदा के फजल से एक एक से एक कददान नसीब हुए। आप
जहीन है, सीधे-सचचे है, बेलौस है, फमाबरदार है। ओफफोह, आपके गुणो की तो कोई इनतहा
ही नही है। कसम खुदा की, आपमे तो तमाम भीतरी और बाहरी कमाल भरे हुए है। आपमे
सूझ-बूझ गमभीरता, सचचाई, चौकसी, कुलीनता, शराफत, बहादुरी, सभी गुण मौजूद है। आप
तो नुमाइश मे रखे जाने के कािबल मालूम होते है िक दुिनया आपको हैरत की िनगाह से देखे
तो दातो तले उंगली दबाये। आज िकसी भले का मुंह देखकर उठा था िक आप जैसे पाकीजा
आदमी के दशरन हुए। यह वे गुण है जो िजनदगी के हर एक मैदान मे आपको शोहरत की चोटी
तक पहुँचा सकते है। सरकारी नौकरी आप जैसे गुिणयो की शान के कािबल नही। आपको
यह कब गवारा होगा। इस दायरे मे आते ही आदमी िबलकुल जानवर बन जाता है। बोिलए,
आप इसे मंजूर कर सकते है ? हरिगज नही।
मैने डरते-डरते कहा—जनाब, जरा इन लफजो को खोलकर समझा दीिजए। आदमी
के जानवर बनजाने से आपकी कया मंशा है?
बडे बाबू ने तयोरी चढाते हुए कहा—या तो कोई पेचीदा बात न थी िजसका मतलब
खोलकर बतलाने की जररत हो। तब तो मुझे बात करने के अपने ढंग मे कुछ तरमीम करनी
पडेगी। इस दायरे के उममीदवारो के िलए सबसे जररी और लािजमी िसफत सूझ-बूझ है। मै
नही कह सकता िक मै जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह इस लफज से अदा होता है या नही।
इसका अंगेजी लफज है इनटुइशन—इशारे के असली मतलब को समझना। मसलन अगर
सरकार बहादुर यानी हािकम िजला को िशकायत हो िक आपके इलाके मे इनकमटैकस कम
वसूल होता है तो आपका फजर है िक उसमे अंधाधुनध इजाफा करे। आमदनी की परवाह न
करे। आमदनी का बढना आपकी सूझबूझ पर मुनहसर है! एक हलकी-सी धमकी काम कर
जाएगी और इनकमटैकस दुगुना-ितगुना हो जाएगा। यकीनन आपको इस तरह अपना जमीर
(अनत:करण) बेचना गवारा न होगा।
मैने समझ िलया िक मेरा इमतहान हो रहा है, आिशको जैसे जोश और सरगमी से बोला
—मै तो इसे जमीर बेचना नही समझता, यह तो नमक का हक है। मेरा जमीर इतना नाजुक
नही है।
बडे बाबू ने मेरी तरफ कददानी की िनगाह से देखकर कहा—शाबाश, मुझे तुमसे ऐसे
ही जवाब की उममीद थी। आप मुझे होनहार मालूम होते है। लेिकन शायद यह दस ू री शतर

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आपको मंजूर न हो। इस दायरे के मुरीदो के िलए दस ू री शतर यह है िक वह अपने को भूल
जाएं। कुछ आया आपकी समझ मे ?
मैने दबी जबान मे कहा—जनाब को तकलीफ तो होगी मगर जरा िफर इसको
खोलकर बतला दीिजए।
बडे बाबू ने तयोिरयो पर बल देते हुए कहा—जनाब, यह बार-बार का समझाना मुझे बुरा
मालूम होता है। मै इससे जयादा आसान तरीके पर खयालो को जािहर नही कर सकता।
अपने को भूल जाना बहुत ही आम मुहावरा है। अपनी खुदी को िमटा देना, अपनी शिखसयत
को फना कर देना, अपनी पसरनािलटी को खतम कर देना। आपकी वजा-कजा से आपके
बोलने , बात करने के ढंग से, आपके तौर-तरीको से आपकी िहिनदयत िमट जानी चािहए।
आपके मजहबी, अखलाकी और तमदुनी असरो का िबलकुल गायब हो जाना जरर है। मुझे
आपके चेहरे से मालूम हो रहा है िक इस समझाने पर भी आप मेरा मतलब नही समझ सके।
सुिनए, आप गािलबन मुसलमान है। शायद आप अपने अकीदो मे बहुत पके भी हो। आप
नमाज और रोजे के पाबनद है?
मैने फख से कहा—मै इन चीजो का उतना ही पाबनद हूँ िजतना कोई मौलवी हो
सकता है। मेरी कोई नमाज कजा नही हुई। िसवाय उन वकतो के जब मै बीमार था।
बडे बाबू ने मुसकराकर कहा—यह तो आपके अचछे अखलाक ही कह देते है। मगर
इस दायरे मे आकर आपको अपने अकीदे और अमल मे बहुत कुछ काट-छात करनी पडेगी।
यहा आपका मजहब मजहिबयत का जामा अिखतयार करेगा। आप भूलकर भी अपनी पेशानी
को िकसी िसजदे मे न झुकाएं, कोई बात नही। आप भूलकर भी जकात के झगडे मे न फूसे ,
कोई बात नही। लेिकन आपको अपने मजहब के नाम पर फिरयाद करने के िलए हमेशा आगे
रहना और दस ू रो को आमादा करना होगा। अगर आपके िजले मे दो िडपटी कलकटर िहनदू है
और मुसलमान िसफर एक, तो आपका फजर होगा िक िहज एकसेलेसी गवनरर की िखदमत मे एक
डेपुटेशन भेजने के िलए कौम के रईसो मे आमादा करे। अगर आपको मालूम हो िक िकसी
मयुिनिसपैिलटी ने कसाइयो को शहर से बाहर दक ू ान रखने की तजवीज पास कर दी है तो
आपका फजर होगा िक कौम के चौधिरयो को उस मयुिनिसपैिलटी का िसर तोडने के िलए
तहरीक करे। आपको सोते-जागते, उठते-बैठते जात-पॉँत का राग अलापना चािहए। मसलन
इमतहान के नतीजो मे अगर आपको मुसलमान िवदािथरयो की संखया मुनािसब से कम नजर
आये तो आपको फौरन चासकर के पास एक गुमनाम खत िलख भेजना होगा िक इस मामले मे
जरर ही सखती से काम िलया गया है। यह सारी बाते उसी इनटुइशनवाली शतर के भीतर आ
जाती है। आपको साफ-साफ शबदो मे या इशारो से यह काम करने से िलए िहदायत न की
जाएगी। सब कुछ आपकी सूझ-सूझ पर मुनहसर होगा। आपमे यह जौहर होगा तो आप एक
िदन जरर ऊंचे ओहदे पर पहुँचेगे। आपको जहा तक मुमिकन हो, अंगेजी मे िलखना और
बोलना पडेगा। इसके बगैर हुकाम आपसे खुश न होगे। लेिकन कौमी जबान की िहमायत और
पचार की सदा आपकी जबान से बराबर िनकलती रहनी चािहए। आप शौक से अखबारो का
चनदा हजम करे, मंगनी की िकताबे पढे चाहे वापसी के वकत िकताब के फट-िचंथ जाने के
कारण आपको माफी ही कयो न मागनी पडे, लेिकन जबान की िहमायत बराबर जोरदार तरीके
से करते रिहए। खुलासा यह िक आपको िजसका खाना उसका गाना होगा। आपको बातो से,
काम से और िदल से अपने मािलक की भलाई मे और मजबूती से उसको जमाये रखने मे लगे
रहना पडेगा। अगर आप यह खयाल करते हो िक मािलक की िखदमत के जिरये कौम की
िखदमत की करं गा तो यह झूठ बात है, पागलपन है, िहमाकत है। आप मेरा मतलब समझ गये
होगे। फरमाइए, आप इस हद तक अपने को भूल सकते है?
मुझे जवाब देने मे जरा देर हुई। सच यह है िक मै भी आदमी हूँ और बीसवी सदी का
आदमी हूँ। मै बहुत जागा हुआ न सही, मगर िबलकुल सोया हुआ भी नही हूँ, मै भी अपने मुलक
और कौम को बुलनदी पर देखना चाहता हूँ। मैने तारीख पढी है और उससे इसी नतीजे पर

89
पहुँचा हूँ िक मजहब दुिनया मे िसफर एक है और उसका नाम है—ददर। मजहब की मौजूदा
सूरत धडेबदं ी के िसवाय और कोई हैिसयत नही रखती। खतने या चोटी से कोई बदल नही
जाता। पूजा के िलए किलसा, मसिजद, मिनदर की मै िबलकुल जररत नही समझता। हॉँ, यह
मानता हूँ िक घमणड और खुदगरजी को दबाये रखने के िलए कुछ करना जररी है। इसिलए
नही िक उससे मुझे जनत िमलेगी या मेरी मुिकत होगी, बिलक िसफर इसिलए िक मुझे दस ू रो के
हक छीनने से नफरत होगी। मुझमे खुदी का खासा जुज मौजूद है। यो अपनी खुशी से किहए
तो आपकी जूितयॉँ सीधी करँ लिकन हुकूमत की बरदाशत नही। महकूम बनना शमरनाक
समझता हूँ। िकसी गरीब को जुलम का िशकार होते देखकर मेरे खून मे गमी पैदा हो जाती
है। िकसी से दबकर रहने से मर जाना बेहतर समझता हूँ। लेिकन खयाल हालतो पर तो
फतह नही पा सकता। रोजी िफक तो सबसे बडी। इतने िदनो के बाद बडे बाबू की िनगाहे
करम को अपनी ओर मुडता देखकर मै इसके िसवा िक अपना िसर झुका दँू , दस ू रा कर ही
कया सकता था। बोला- जनाब, मेरी तरफ से भरोसा रकखे। मािलक की िखदमत मे अपनी
तरफ से कुछ उठा न रकखूँगा।
‘गैरत को फना कर देना होगा।’
‘मंजूर।’
‘शराफत के जजबो को उठाकर ताक पर रख देना होगा।’
‘मंजूर।’
‘मुखिबरी करनी पडेगी?’
‘मंजूर।’
‘तो िबिसमललाह, कल से आपका नाम उममीदवारो की फेहिरसत मे िलख िदया जायेगा
।’
मैने सोचा था कल से कोई जगह िमल जायेगी। इतनी िजललत कबूल करने के बाद
रोजी की िफक से तो आजाद हो जाऊँगा। अब यह हकीकत खुली। बरबस मुंह से िनकला
—और जगह कब तक िमलेगी?
बडे बाबू हंसे, वही िदल दुखानेवाली हंसी िजसमे तौहीन का पहलू खास था—जनाब, मै
कोई जयोितषी नही, कोई फकीर-दरवेश नही, बेहतर है इस सवाल का जवाब आप िकसी
औिलया से पूछे। दसतरखान िबछा देना मेरा काम है। खाना आयेगा और वह आपके हलक मे
जायेगा, यह पेशीनगोई मै नही कर सकता।
मैने मायूसी के साथ कहा—मै तो इससे बडी इनायत का मुनतिजर था।
बडे बाबू कुसी से उठकर बोले—कसम खुदा की, आप परले दजे के कूडमगज आदमी
है। आपके िदमाग मे भूसा भरा है। दसतरखान का आ जाना आप कोई छोटी बात समझते है?
इनतजार का मजा आपकी िनगाह मे कोई चीज ही नही? हालािक इनतजार मे इनसान उमरे
गुजार सकता है। अमलो से आपका पिरचय हो जाएगा। मामले िबठाने , सौदे पटाने के सुनहरे
मौके हाथ आयेगे। हुकाम के लडके पढाइये। अगर गंडे-तावीज का फन सीख लीिजए तो
आपके हक मे बहुत मुफीद हो। कुछ हकीमी भी सीख लीिजए। अचछे होिशयार सुनारो से
दोसती पैदा िकिजए,कयोिक आपको उनसे अकसर काम पडेगा। हुकाम की औरते आप ही के
माफरत अपनी जररते पूरी करायेगी। मगर इन सब लटको से जयादा कारगर एक और लटका
है, अगर वह हुनर आप मे है, तो यकीनन आपके इनतजार की मुदत बहुत कुछ कम हो सकती
है। आप बडे-बडे हािकमो के िलए तफरीह का सामान जुटा सकते है !
बडे बाबू मेरी तरफ कनिखयो से देखकर मुसकराये। तफरीह के सामान से उनका
कया मतलब है, यह मै न समझ सका। मगर पूछते हुए भी डर लगता था िक कही बडे बाबू
िबगड न जाएं और िफर मामला खराब हो जाए। एक बेचैनी की-सी हालत मे जमीन की तरफ
ताकने लगा।

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बडे बाबू ताड तो गये िक इसकी समझ मे मेरी बात न आयी लेिकन अबकी उनकी
तयोिरयो पर बल नही पडे। न ही उनके लहजे मे हमददी की झलक फरमायी—यह तो गैर-
मुमिकन है िकक आपने बाजार की सैर न की हो।
मैने शमाते हुए कहा—नही हुजूर, बनदा इस कूचे को िबलकुल नही जानता।
बडे बाबू—तो आपको इस कूचे की खाक छाननी पडेगी। हािकम भी आंख -कान रखते
है। िदन-भर की िदमागी थकन के बाद सवभावत: रात को उनकी तिबयत तफरीह की तरफ
झुकती है। अगर आप उनके िलए ऑंखो को अचछा लगनेवाले रप और कानो को भानेवाले
संगीत का इनतजाम ससते दामो कर सकते है या कर सके तो...
मैने िकसी कदर तेज होकर कहा—आपका कहने का मतलब यह है िक मुझे रप की
मंडी की दलाली करनी पडेगी ?
बडे बाबू—तो आप तेज कयो होते है, अगर अब तक इतनी छोटी-सी बात आप नही
समझे तो यह मेरा कसूर है या आपकी अकल का !
मेरे िजसम मे आग लग गयी। जी मे आया िक बडे बाबू को जुजुतसू के दो-चार हाथ
िदखाऊँ, मगर घर की बेसरोसामानी का खयाल आ गया। बीवी की इनतजार करती हुई आंखे
और बचचो की भूखी सूरते याद आ गयी। िजललत का एक दिरया हलक से नीचे ढकेलते हुए
बोला—जी नही, मै तेज नही हुआ था। ऐसी बेअदबी मुझसे नही हो सकती। (आंखो मे आंसू
भरकर) जररत ने मेरी गैरत को िमटा िदया है। आप मेरा नाम उममीदवारो मे दजर कर दे।
हालात मुझसे जो कुछ करायेगे वह सब करँगा और मरते दम तक आपका एहसानमनद
रहूँगा।
-‘खाके परवाना’से

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पपपपपपप पप पपपप

रा षट के सेवक ने कहा—देश की मुिकत का एक ही उपाय है और वह है नीचो के साथ


भाईचारे का सुलूक, पिततो के साथ बराबरी को बताव। दुिनया मे सभी भाई है, कोई
नीचा नही, कोई ऊंचा नही।
दुिनया ने जयजयकार की—िकतनी िवशाल दृिष है, िकतना भावुक हृदय !
उसकी सुनदर लडकी इिनदरा ने सुना और िचनता के सागर मे डू ब गयी।
राषट के सेवक ने नीची जात के नौजवान को गले लगाया।
दुिनया ने कहा—यह फिरशता है, पैगमबर है, राषट की नैया का खेवैया है।
इिनदरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राषट का सेवक नीची जात के नौजवान को मंिदर मे ले गया, देवता के दशरन कराये
और कहा—हमारा देवता गरीबी मे है, िजललत मे है ; पसती मे है।
दुिनया ने कहा—कैसे शुद अनत:करण का आदमी है ! कैसा जानी !
इिनदरा ने देखा और मुसकरायी।
इिनदरा राषट के सेवक के पास जाकर बोली— शदेय िपता जी, मै मोहन से बयाह
करना चाहती हूँ।
राषट के सेवक ने पयार की नजरो से देखकर पूछा—मोहन कौन है?
इिनदरा ने उतसाह-भरे सवर मे कहा—मोहन वही नौजवान है, िजसे आपने गले लगाया,
िजसे आप मंिदर मे ले गये, जो सचचा, बहादुर और नेक है।
राषट के सेवक ने पलय की आंखो से उसकी ओर देखा और मुँह फेर िलया।
-‘पेम चालीसा’ से

92
पपपपपप पपपपपप

सा
रे शहर मे िसफर एक ऐसी दुकान थी, जहॉँ िवलायती रेशमी साडी िमल सकती
थी। और सभी दुकानदारो ने िवलायती कपडे पर कागेस की मुहर लगवायी
थी। मगर अमरनाथ की पेिमका की फरमाइश थी, उसको पूरा करना जररी था। वह कई
िदन तक शहर की दुकानोका चकर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेिकन कही
सफल-मनोरथ न हुए और उसके तकाजे बराबर बढते जाते थे। होली आ रही थी। आिखर
वह होली के िदन कौन-सी साडी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जािहर करना
अमरनाथ के पुरषोिचत अिभमान के िलए किठन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे
तोड लाने के िलए भी ततपर हो जाते। आिखर जब कही मकसद पूरा न हुआ , तो उनहोने उसी
खास दुकान पर जाने का इरादा कर िलया। उनहे यह मालूम था िक दुकान पर धरना िदया
जा रहा है। सुबह से शाम तक सवयंसेवक तैनात रहते है और तमाशाइयो की भी हरदम खासी
भीड रहती है। इसिलए उस दुकान मे जाने के िलए एक िवशेष पकार के नैितक साहस की
जररत थी और यह साहस अमरनाथ मे जररत से कम था। पडे-िलखे आदमी थे, राषटीय
भावनाओं से भी अपिरिचत न थे, यथाशिकत सवदेशी चीजे ही इसतेमाल करते थे। मगर इस
मामले मे बहुत कटर न थे। सवदेशी िमल जाय तो बेहतर वना िवदेशी ही सही- इस उसूल के
मानने वाले थे। और खासकर जब उसकी फरमाइश थी तब तो कोई बचाव की सूरत ही न
थी। अपनी जररतो को तो वह शायद कुछ िदनो के िलए टाल भी देते, मगर उसकी फरमाइश
तो मौत की तरह अटल है। उससे मुिकत कहा ! तय कर िलया िक आज साडी जरर
लायेगे। कोई कयो रोके? िकसी को रोकने का कया अिधकर है? माना सवदेशी का इसतेमाल
अचछी बात है लेिकन िकसी को जबदरसती करने का कया हक है? अचछी आजादी की लडाई है
िजसमे वयिकत की आजादी का इतना बेददी से खून हो !
यो िदल को मजबूत करके वह शाम को दुकान पर पहँुचे। देखा तो पॉँच वालिणटयर
िपकेिटंग कर रहे है और दुकान के सामने सडक पर हजारो तमाशाई खडे है। सोचने लगे,
दुकान मे कैसे जाएं। कई बार कलेजा मजबूत िकया और चले मगर बरामदे तक जाते-जाते
िहममत ने जवाब दे िदया।
संयोग से एक जान-पहचान के पिणडतजी िमल गये। उनसे पूछा—कयो भाई, यह
धरना कब तक रहेगा? शाम तो हो गयी।
पिणडतजी ने कहा—इन िसरिफरो को सुबह और शाम से कया मतलब, जब तक दुकान
बनद न हो जाएगी, यहा से न टलेगे। किहए, कुछ खरीदने को इरादा है? आप तो रेशमी कपडा
नही खरीदते?
अमरनाथ ने िववशता की मुदा बनाकर कहा—मै तो नही खरीदता। मगर औरतो की
फरमाइश को कैसे टालूँ।
पिणडतजी ने मुसकराकर कहा—वाह, इससे जयादा आसान तो कोई बात नही। औरतो
को भी चकमा नही दे सकते? सौ हीले-हजार बहाने है।
अमरनाथ—आप ही कोई हीला सोिचए।
पिणडतजी—सोचना कया है, यहॉँ रात-िदन यही िकया करते है। सौ-पचास हीले हमेशा
जेबो मे पडे रहते है। औरत ने कहा, हार बनवा दो। कहा, आज ही लो। दो-चार रोज के बाद
कहा, सुनार माल लेकर चमपत हो गया। यह तो रोज का धनधा है भाई। औरतो का काम
फरमाइश करना है, मदो का काम उसे खूबसूरती से टालना है।
अमरनाथ—आप तो इस कला के पिणडत मालूम होते है !
पिणडतजी—कया करे भाई, आबर तो बचानी ही पडती है। सूखा जवाब दे तो शिमरदगी
अलग हो, िबगडे वह अगल से, समझे, हमारी परवाह ही नही करते। आबर का मामला है।
आप एक काम कीिजए। यह तो आपने कहा ही होगा िक आजकल िपकेिटंग है?
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अमरनाथ—हा, यह तो बहाना कर चुका भाई, मगर वह सुनती ही नही, कहती है, कया
िवलायती कपडे दुिनया से उठ गये, मुझसे चले हो उडने !
पिणडतजी—तो मालूम होता है, कोई धुन की पकी औरत है। अचछा तो मै एक तरकीब
बताऊँ। एक खाली काडर का बकस ले लो, उसमे पुराने कपडे जलाकर भर लो। जाकर कह
देना, मै कपडे िलये आता था, वालिणटयरो ने छीनकर जला िदये। कयो, कैसी रेहगी?
अमरनाथ—कुछ जंचती नही। अजी, बीस एतराज करेगी, कही पदाफाश हो जाय तो
मुफत की शिमरदगी उठानी पडे।
पिणडतजी—तो मालूम हो गया, आप बोदे आदमी है और है भी आप कुछ ऐसे ही। यहॉँ
तो कुछ इस शान से हीले करते है िक सचचाई की भी उसके आगे धुल हो जाय। िजनदगी
यही बहाने करते गुजरी और कभी पकडे न गये। एक तरकीब और है। इसी नमूने का देशी
माल ले जाइए और कह दीिजए िक िवलायती है।
अमरनाथ—देशी और िवलायती की पहचान उनहे मुझसे और आपसे कही जयादा है।
िवलायती
ा पर तो जलद िवालयती
ाक ा यकीन आयेगा नही , देशी की तो बात ही कया है !
एक खदरपोश महाशय पास ही खडे यह बातचीत सुन रहे थे, बोल उठे— ए साहब,
सीधी-सी तो बात है, जाकर साफ कह दीिजए िक मै िवदेशी कपडे न लाऊंगा। अगर िजद
करे तो िदन-भर खाना न खाइये, आप सीधे रासते पर आ जायेगी।
अमरनाथ ने उनकी तरफ कुछ ऐसी िनगाहो से देखा जो कह रही थी, आप इस कूचे
को नही जानते और बोले—यह आप ही कर सकते है, मै नही कर सकता।
खदरपोश—कर तो आप भी सकते है लेिकन करना नही चाहते। यहा तो उन लोगो मे
से है िक अगर िवदेशी दुआ से मुिकत भी िमलती हो तो उसे ठुकरा दे।
अमरनाथ—तो शायद आप घर मे िपकेिटंग करते होगे?
खदरपोश—पहले घर मे करके तब बाहर करते है भाई साहब।
खदरपोश साहब चले गये तो पिणडतजी बोले—यह महाशय तो तीसमारखा से भी तेज
िनकल। अचछा तो एक काम कीिजए। इस दुकान के िपंछवाडे एक दस ू रा दरवाजा है, जरा
अंधेरा हो जाय तो उधर चले जाइएगा, दाये-बाये िकसी की तरफ न देिखएगा।
अमरनाथ ने पिणडतजी को धनयवाद िदया और जब अंधेरा हो गया तो दुकान के
िपछवाडे की तरफ जा पहुँचे। डर रहे थे, कही यहा भी घेरा न पडा हो। लेिकन मैदान खाली
था। लपककर अनदर गये, एक ऊंचे दामो की साडी खरीदी और बाहर िनकले तो एक देवीजी
केसिरया साडी पहने खडी थी। उनको देखकर इनकी रह फना हो गयी, दरवाजे से बाहर
पाव रखने की िहममत नी हुई। एक तरफ देखकर तेजी से िनकल पडे और कोई सौ कदम
भागते हुए चले गये। कम का िलखा, सामने से एक बुिढया लाठी टेकती चली आ रही थी।
आप उससे लड गये। बुिढया िगर पडी और लगी कोसने—अरे अभागे , यह जवानी बहुत िदन
न रहेगी, आंखो मे चबी छा गयी है, धके देता चलता है !
अमरनाथ उसकी खुशामद करने लगे—माफ करो, मुझे रात को कुछ कम िदखाई
पडता है। ऐनक घर भूल आया।
बुिढया का िमजाज ठणडा हुआ, आगे बढी और आप भी चले। एकाएक कानो मे आवाज
आयी, ‘बाबू साहब, जरा ठहिरयेगा’ और वही केसिरया कपडोवाली देवीजी आती हुई िदखायी
दी।
अमरनाथ के पाव बंध गये। इस तरह कलेजा मजबूत करके खडे हो गये जैसे कोई
सकूली लडका मासटर की बेत के सामने खडा होता है।
देवीजी ने पास आकर कहा—आप तो ऐसे भागे िक मै जैसे आपको काट खाऊँगी।
आप जब पढे-िलखे आदमी होकर अपना धमर नही समझते तो दुख होता है। देश की कया
हालत है, लोगो को खदर नही िमलता, आप रेशमी सािडया खरीद रहे है !

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अमरनाथ ने लिजजत होकर कहा—मै सच कहता हूँ देवीजी, मैने अपने िलए नही
खरीदी, एक साहब की फरमाइश थी
देवीजी ने झोली से एक चूडी िलकालकर उनकी तरफ बढाते हुए कहा—ऐसे हीले रोज
ही सुना करती हूँ। या तो आप उसे वापस कर दीिजए या लाइए हाथ मै चूडी पहना दँ।ू
अमरनाथ—शौक से पहना दीिजए। मै उसे बडे गवर से पह
नूँगा। चूडी उस बिलदान का िचह है जो देिवयो के जीवन की िवशेषता है। चूिडया उन देिवयो
के हाथ मे थी िजनके नाम सुनकर आज भी हम आदर से िसर झुकाते है। मै तो उसे शमर की
बात नही समझता। आप अगर और कोई चीज पहनाना चाहे तो वह भी शौक से पहना
दीिजए। नारी पूजा की वसतु है, उपेका की नही। अगर सती, जो कौम को पैदा करती है, चूडी
पहनना अपने िलए गौरव की बात समझती है तो मदो के िलए चूडी पहनाना कयो शमर की बात
हो?
देवीजी को उनकी इस िनलरजजता पर आशयर हुआ मगर वह इतनी आसानी से
अमरनाथ को छोडनेवाली न थी। बोली—आप बातो के शेर मालूम होते है। अगर आप हृदय
से सती को पूजा की वसतु मानते है, तो मेरी यह िवनती कयो नही मान जाते?
अमरनाथ-इसिलए िक यह साडी भी एक सती की फरमाइश है।
देवी-अचछा चिलए, मै आपके साथ चलूँगी, जरा देखूँ आपकी देवी जी िकस सवभाव की
सती है।
अमरनाथ का िदल बैठ गया। बेचारा अभी तक िबना-बयाहा था, इसिलए नही िक
उसकी शादी न होती थी बिलक इसिलए िक शादी को वह एक आजीवन कारावास समझता
था। मगर वह आदमी रिसक सवभाव के थे। शादी से अलग रहकर भी शादी के मजो से
अिपरिचत न थे। िकसी ऐसे पाणी की जररत उनके िलए अिनवायर थी िजस पर वह अपने
पेम को समिपरत कर सके, िजसकी तरावट से वह अपनी रखी-सूखी िजनदगी को तरो-ताजा
कर सके, िजसके पेम की छाया मे वह जरा देर के िलए ठणडक पा सके , िजसके िदल मे वह
अपनी उमडी हुई जवानी की भावनाओं को िबखेरकर उनका उगना देख सके। उनकी नजर ने
मालती को चुना था िजसकी शहर मे घूम थी। इधर डेढ-दो साल से वह इसी खिलहान के
दाने चुना करते थे। देवीजी के आगह ने उनहे थोडी देर के िलए उलझन मे डाल िदया था।
ऐसी शिमरदं गी उनहे िजनदगी मे कभी न हुई थी। बोले-आज तो वह एक नयोते मे गई है, घर मे
न होगी।
देवीजी ने अिवशास से हंसकर कहा-तो मै समझ यह आपकी देवीजी का कुसूर नही,
आपका कुसूर है।
अमरनाथ ने लिजजत होकर कहा-मै आपसे सच कहता हूँ, आज वह घर पर नही।
देवी ने कहा-कल आ जाएंगी?
अमरनाथ बोले-हा, कल आ जाएंगी।
देवी-तो आप यह साडी मुझे दे दीिजए और कल यही आ जाइएगा, मै आपके साथ
चलूँगी। मेरे साथ दो-चार बहने भी होगी।

अ मरनाथ ने िबना िकसी आपित के वह साडी देवीजी को दे दी और बोले-बहुत अचछा, मै


कल आ जाऊँगा। मगर कया आपको मुझ पर िवशास नही है जो साडी की जमानत
जररी है?
देवीजी ने मुसकराकर कहा-सचची बात तो यही है िक मुझे आप पर िवशास नही।
अमरनाथ ने सवािभमानपूवरक कहा- अचछी बात है, आप इसे ले जाएं।
देवी ने कण-भर बाद कहा-शायद आपको बुरा लग रहा हो िक कही साडी गुम न हो
जाए। इसे आप लेते जाइए, मगर कल आइए जरर।

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अमरनाथ सवािभमान के मारे बगैर कुछ कहे घर की तरफ चल िदये, देवीजी ‘लेते
जाइए लेते जाइए’ करती रह गयी।
अमरनाथ घर न जाकर एक खदर की दुकान पर गये और दो सूटो का खदर खरीदा।
िफर अपने दजी के पास ले जाकर बोले-खलीफा, इसे रातो-रात तैयार कर दो, मुहमं ागी
िसलाई दंगू ा।
दजी ने कहा-बाबू साहब , आजकल तो होली की भीड है। होली से पहले तैयार न हो
सकेगे।
अमरनाथ ने आगह करते हुए कहा-मै मुंहमागी िसलाई दंगू ा, मगर कल दोपहर तक िमल
जाए। मुझे कल एक जगह जाना है। अगर दोपहर तक न िमले तो िफर मेरे िकस काम के न
होगे।
दजी ने आधी िसलाई पेशगी ले ली और कल तैयार कर देने का वादा िकया।
अमरनाथ यहा से आशसत होकर मालती की तरफ चले। कदम आगे बढते थे लेिकन
िदल पीछे रहा जाता था। काश, वह उनकी इतनी िवनती सवीकार कर ले िक कल दो घणटे के
िलए उनके वीरान घर को रोशन करे! लेिकन यकीनन वह उनहे खाली हाथ देखकर मुह ं फेर
लेगी, सीधे मुह ं बात नही करेगी, आने का िजक ही कया। एक ही बेमुरौवत है। तो कल आकर
देवीजी से अपनी सारी शमरनाक कहानी बयान कर दँू? उस भोले चेहरे की िनससवाथर उंमग
उनके िदल मे एक हलचल पैदा कर रही थी। उन आंखो मे िकतनी गंभीरता थी, िकतनी
सचची सहानुभूित, िकतनी पिवतता! उसके सीधे-सादे शबदो मे कमर की ऐसी पेरणा थी, िक
अमरनाथ का अपने इिनदय-परायण जीवन पर शमर आ रही थी। अब तक काच के टुकडे को
हीरा समझकर सीने से लगाये हुए थे। आज उनहे मालूम हुआ हीरा िकसे कहते है। उसके
सामने वह टुकडा तुचछ मालूम हो रहा था। मालती की वह जादू-भरी िचतवन, उसकी वह
मीठी अदाएं, उसकी शोिखया और नखरे सब जैसे मुलममा उड जाने के बाद अपनी असली
सूरत मे नजर आ रहे थे और अमरनाथ के िदल मे नफरत पैदा कर रहे थे। वह मालती की
तरफ जा रहे थे, उसके दशरन के िलए नही, बिलक उसके हाथो से अपना िदल छीन लेने के
िलए। पेम का िभखारी आज अपने भीतर एक िविचत अिनचछा का अनुभव कर रहा था। उसे
आशयर हो रहा था िक अब तक वह कयो इतना बेखबर था। वह ितिलसम जो मालती ने वषों के
नाज-नखरे, हाव-भाव से बाधा था, आज िकसी छू -मनतर से तार-तार हो गया था।
मालती ने उनहे खाली हाथ देखकर तयोिरया चढाते हुए कहा-साडी लाये या नही?
अमरनाथ ने उदासीनता के ढंग से जवाब िदया-नही।
मालती ने आशयर से उनकी तरफ देखा-नही! वह उनके मुंह से यह शबद सुनने की
आदी न थी। यहा उसने समपूणर समपरण पाया था। उसका इशारा अमरनाथ के िलए भागय-
िलिप के समान था। बोली-कयो?
अमरनाथ- कयो नही, नही लाये।
मालती- बाजार मे िमली न होगी। तुमहे कयो िमलने लगी, और मेरे िलए।
अमरनाथ-नही साहब, िमली मगर लाया नही।
मालती-आिखर कोई वजह? रपये मुझसे ले जाते।
अमरनाथ-तुम खामखाह जलाती हो। तुमहारे िलए जान देने को मै हािजर रहा।
मालती-तो शायद तुमहे रपये जान से भी जयादा पयारे हो?
अमरनाथ-तुम मुझे बैठने दोगी या नही? अमर मेरी सूरत से नफरत हो तो चला जाऊँ!
मालती-तुमहे आज हो कया गया है, तुम तो इतने तेज िमजाज के न थे?
अमरनाथ-तुम बाते ही ऐसी कर रही हो।
मालती-तो आिखर मेरी चीज कयो नही लाये?

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अमरनाथ ने उसकी तरफ बडे वीर-भाव के साथ देखकर कहा-दुकान पर गया,
िजललत उठायी और साडी लेकर चला तो एक औरत ने छीन ली। मैने कहा, मेरी बीवी की
फरमाइश है तो बोली-मै उनही को दंगू ी, कल तुमहारे घर आऊँगी।
मालती ने शरारत-भरी नजरो से देखते हुए कहा-तो यह किहए आप िदल हथेली पर
िलये िफर रहे थे। एक औरत को देखा और उसके कदमो पर चढा िदया!
अमरनाथ-वह उन औरतो मे नही, जो िदलो की घात मे रहती है।
मालती-तो कोई देवी होगी?
अमरनाथ-मै उसे देवी ही समझता हूँ।
मालती-तो आप उस देवी की पूजा कीिजएगा?
अमरनाथ-मुझ जैसे आवारा नौजवान के िलए उस मिनदर के दरवाजे बनद है।
मालती-बहुत सुनदर होगी?
अमरनाथ-न सुनदर है, न रपवाली, न ऐसी अदाएं कुछ, न मधुर भािषणी, न तनवंगी।
िबलकुल एक मामूली मासूम लडकी है। लेिकन जब मेरे हाथ से उसने साडी छीन ली तो मै
कया कर सकता हूँ। मेरी गैरत ने तो गवारा न िकया िक उसके हाथ से साडी छीन लूँ। तुमही
इनसाफ करो, वह िदल मे कया कहती?
मालती-तो तुमहे इसकी जयादा परवाह है िक वह अपने िदल मे कया कहेगी। मै कया
कहूँगी, इसकी जरा भी परवाह न थी! मेरे हाथ से कोई मदर मेरी कोई चीज छीन ले तो देखूं,
चाहे वह दसू रा कामदेव ही कयो न हो।
अमरनाथ-अब इसे चाहे मेरी कायरता समझो, चाहे िहममत की कमी, चाहे शराफत, मै
उसके हाथ से न छीन सका।
मालती-तो कल वह साडी लेकर आयेगी, कयो?
अमरनाथ-जरर आयेगी।
मालती-तो जाकर मुंह धो आओ। तुम इतने नादान हो, यह मुझे मालूम न था। साडी
देकर चले आये, अब कल वह आपको देने आयेगी! कुछ भंग तो नही खा गये!
अमरनाथ-खैर, इसका इमतहान कल ही हो जाएगा, अभी से कयो बदगुमानी करती हो।
तुम शाम को जरा देर के िलए मेरे घर तक चली चलना।
मालती-िजससे आप कहे िक यह मेरी बीवी है!
अमरनाथ-मुझे कया खबर थी िक वह मेरे घर आने के िलए तैयार हो जाएगी, नही तो
और कोई बहाना कर देता।
मालती-तो आपकी साडी आपको मुबारक हो, मै नही जाती।
अमरनाथ-मै तो रोज तुमहारे घर आता हूँ, तुम एक िदन के िलए भी नही चल सकती?
मालती ने िनषुरता से कहा-अगर मौका आ जाए तो तुम अपने को मेरा शौहर कहलाना
पसनद करोगे? िदल पर हाथ रखकर कहना।
अमरनाथ िदल मे कट गये, बात बनाते हुए बोले-मालती, तुम मेरे साथ अनयाय कर रही
हो। बुरा न मानना, मेरे व तुमहारे बीच पयार और मुहबबत िदखलाने के बावजूद एक दरू ी का
पदा पडा था। हम दोनो एक-दस ू रे की हालत को समझते थे और इस पदे का हटाने की
कोिशश न करते थे। यह पदा हमारे समबनधो की अिनवायर शतर था। हमारे बीच एक
वयापािरक समझौता-सा हो गया। हम दोनो उसकी गहराई मे जाते हुए डरते थे। नही,बिलक मै
डरता था और तुम जान-बूझकर न जाना चाहती थी। अगर मुझे िवशास हो जाता िक तुमहे
जीवन-सहचरी बनाकर मै वह सब कुछ पा जाऊँगा िजसका मै अपने को अिधकारी समझता हूँ
तो मै अब तक कभी का तुमसे इसकी याचना कर चुका होता! लेिकन तुमने कभी मेरे िदल मे
यह िवशास पैदा करने की परवाह न की। मेरे बारे मे तुमहे यह शक है, मै नही कह सकता,
तुमहे यह शक करने का मै ने कोई मौका नही िदया और मै कह सकता हूँ िक मै उससे कही
बेहतर शौहर बन सकता हूँ िजतनी तुम बीवी बन सकती हो। मेरे िलए िसफर एतवार की

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जररत है और तुमहारे िलए जयादा वजनी और जयादा भौितक चीजो की। मेरी सथायी आमदनी
पॉँच सौ से जयादा नही, तुमको इतने मे सनतोष न होगा। मेरे िलए िसफर इस इतमीनान की
जररत है िक तुम मेरी और िसफर मेरी हो। बोलो मंजूर है।
मालती को अमरनाथ पर रहम आ गया। उसकी बातो मे जो सचचाई भरी हुई थी,
उससे वह इनकार न कर सकी। उसे यह भी यकीन हो गया िक अमरनाथ की वफा के पैर
डगमगायेगे नही। उसे अपने ऊपर इतना भरोसा था िक वह उसे रससी से मजबूत जकड
सकती है, लेिकन खुद जकडे जाने पर वह अपने को तैयार न कर सकी। उसकी िजनदगी
मुहबबत की बाजीगरी मे, पेम के पदशरन मे गुजरी थी। वह कभी इस, कभी उस शाख मे
चहकती िफरती थी, बैकेद, आजाद, बेबनद। कया वह िचिडया िपंजरे मे बनद रह सकती है
िजसकी जबान तरह-तरह के मजो की आदी हो गयी हो? कया वह सूखी रोटी से तृपत हो
सकती है? इस अनुभूित ने उसे िपघला िदया। बोली-आज तुम बडा जान बघार रहे हो?
अमरनाथ-मैने तो केवल यथाथर कहा है।
मालती-अचछा मै कल चलूँगी, मगर एक घणटे से जयादा वहा न रहूँगी।
अमरनाथ का िदल शुिकये से भर उठा। बोला-मै तुमहारा बहुत कृतज हूँ मालती। अब
मेरी आबर बच जायेगी। नही तो मेरे िलए घर से िनकलना मुिशकल हो जाता है। अब देखना
यह है िक तुम अपना पाटर िकतनी खूबसूरती से अदा करती हो।
मालती-उसकी तरफ से तुम इतमीनान रखो। बयाह नही िकया मगर बराते देखी है।
मगर मै डरती हूँ कही तुम मुझसे दगा न कर रहे हो। मदों का कया एतबार।
अमरनाथ ने िनशल भाव से कहा-नही मालती, तुमहारा सनदेह िनराधार है। अगर यह
जंजीर पैरो मे डालने की इचछा होती तो कभी का डाल चुका होता। िफर मुझ-से वासना के
बनदो का वहा गुजर ही कहा।

दू सरे िदन अमरनाथ दस बजे ही दजी की दुकान पर जा पहुँचे और िसर पर सवार होकर
कपडे तैयार कराये। िफर घर आकर नये कपडे पहने और मालती को बुलाने चले। वहा
देर हो गयी। उसने ऐसा तनाव-िसंगार िकया िक जैसे आज बहुत बडा मोचा िजतना है।
अमरनाथ ने कहा-वह ऐसी सुनदरी नही है जो तुम इतनी तैयािरयॉँ कर रही हो।
मालती ने बालो मे कंघी करते हुए कहा-तुम इन बातो को नही समझ सकते, चुपचाप
बैठे रहो।
अमरनाथ-लेिकन देर जो हो रही है।
मालती-कोई बात नही।
भय की उस सहज आशंका ने , जो िसतयो की िवशेषता है, मालती को और भी अिधक
सतरक कर िदया था। अब तक उसने कभी अमरनाथ की ओर िवशेष रप से कोई कृपा न की
थी। वह उससे काफी उदासीनता का बताव करती थी। लेिकन कल अमरनाथ की भंिगमा से
उसे एक संकट की सूचना िमल चुकी थी और वह उस संकट का अपनी पूरी शिकत से
मुकाबला करना चाहती थी। शतु को तुचछ और अपदाथर समझना िसतयो क िलए किठन है।
आज अमरनाथ को अपने हाथ से िनकलते वह अपनी पकड को मजबूत कर रही थी। अगर
इस तरह की उसकी चीजे एक-एक करके िनकल गयी तो िफर वह अपनी पितषा कब तक
बनाये रख सकेगी? िजस चीज पर उसका कबजा है उसकी तरफ कोई आंख ही कयो उठाये।
राजा भी तो एक-एक अंगुल जमीन के पीछे जान देता है। वह इस नये िशकारी को हमेशा के
िलए अपने रासते से हटा देना चाहती थी। उसके जादू को तोड देना चाहती थी।
शाम को वह परी जैसी, अपनी नौकरानी और नौकर को साथ लेकर अमरनाथ के घर
चली। अमरनाथ ने सुबह दस बजे तक मदाने घर को जनानेपन का रंग देने मे खचा िकया
था। ऐसी तैयािरया कर रखी थी जैसे कोई अफसर मुआइना करने वाला हो। मालती ने घर
मे पैर रखा तो उसकी सफाई और सजावट देखकर बहुत खुश हुई। जनाने िहससे मे कई

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कुिसरया रखी थी। बोली-अब लाओ अपनी देवीजी को मगर जलद आना। वना मै चली
जाऊँगी।
अमरनाथ लपके हुए िवलायती दुकान पर गये। आज भी धरना था। तमाशाइयो की
वही भीड। वहा देवी जी नही। पीछे की तरफ गये तो देवी जी एक लडकी के साथ उसी भेस
मे खडी थी।
अमरनाथ ने कहा-माफ कीिजएगा, मुझे देर हो गयी। मै आपके वादे की याद िदलाने
आया हूँ।
देवीजी ने कहा-मै तो आपका इनतजार कर रही थी। चलो सुिमता, जरा आपके घर हो
आये। िकतनी देर है?
अमरनाथ-बहुत पास है। एक तागा कर लूंगा।
पनदह िमनट मे अमरनाथ दोनो को िलये घर पहुँचे। मालती ने देवीजी को देखा और
देवीजी ने मालती को। एक िकसी रईस का महल था, आलीशान; दस ू री िकसी फकीर की
कुिटया थी, छोटी-सी तुचछ। रईस के महल मे आडमबर और पदशरन था, फकीर की कुिटया मे
सादगी और सफाई। मालती ने देखा, भोली लडकी है िजसे िकसी तरह सुनदर नही कह
सकते। पर उसके भोलेपन और सादगी मे जो आकषरण था, उससे वह पभािवत हुए िबना न
रह सकी। देवीजी ने भी देखा, एक बनी-संवरी बेधडक और घमणडी औरत है जो िकसी न
िकसी वजह से उस घर मे अजनबी-सी मालूम हो रही है जैसे कोई जंगली जानवर िपंजरे मे
आ गया हो।
अमरनाथ िसर झुकाये मुजिरमो की तरह खडे थे और ईशर से पाथरना कर रहे थे िक
िकसी तरह आज पदा रह जाये।
देवी ने आते ही कहा-बहन, आप भी िसर से पाव तक िवदेशी कपडे पहने हुई है?
मालती ने अमरनाथ की तरफ देखकर कहा-मै िवदेशी और देशी के फेर मे नही
पडती। जो यह लाकर देते है वह पहनती हूँ। लाने वाले है ये, मै थोडे ही बाजार जाती हूँ।
देवी ने िशकायत-भरी आंखो से अमरनाथ की तरफ देखकर कहा-आप तो कहते थे
यह इनकी फरमाइश है, मगर आप ही का कसूर िनकल आया।
मालती-मेरे सामने इनसे कुछ मत कहो। तुम बाजार मे भी दस ू रे मदों से बाते कर
सकती हो, जब वह बाहर चले जायं तो िजतना चाहे कह-सुन लेना। मै अपने कानो से नही
सुनना चाहती।
देवीजी-मै कुछ कहती नही और बहनजी, मै कह ही कया कर सकती हूँ, कोई जबदरसती
तो है नही, बस िवनती कर सकता हूँ।
मालती-इसका मतलब यह है िक इनहे अपने देश की भलाई का जरा भी खयाल नही,
उसका ठेका तुमही ने ले िलया है। पढे-िलखे आदमी है, दस आदमी इजजत करते है, अपना
नफा-नुकसान समझ सकते है। तुमहारी कया िहममत िक उनहे उपदेश देने बैठो, या सबसे
जयादा अकलमनद तुमही हो?
देवीजी-आप मेरा मतलब गलत समझ रही है बहन।
मालती-हॉँ, गलत तो समझूँगी ही, इतनी अकल कहा से लाऊँ िक आपकी बातो का
मतलब समझूँ! खदर की साडी पहल ली, झोली लटका ली, एक िबलला लगा िलया, बस अब
अिखतयार है जहा चाहे आये-जाये, िजससे चाहे हसे-बोले, घर मे कोई पूछता नही तो जेलखाने
का भी कया डर! मै इसे हुडदंगापन समझती हूँ, जो शरीफो की बहू-बेिटयो को शोभा नही
देता।
अमरनाथ िदल मे कटे जा रहे थे। िछपने के िलए िबल ढू ंढ रहे थे। देवी की पेशानी
पर जरा बल न था लेिकन आंखे डबडबा रही थी।

99
अमरनाथ ने मालती से जरा तेज सवर मे कहा-कयो खामखाह िकसी का िदल दुखाती
हो? यह देिवया अपना ऐश-आराम छोडकर यह काम कर रही है, कया तुमहे इसकी िबलकुल
खबर नही?
मालती-रहने दो, बहुत तारीफ न करो। जमाने का रंग ही बदला जा रहा है, मै कया
करँगी और तुम कया करोगे। तुम मदों ने औरतो को घर मे इतनी बुरी तरह कैद िकया िक
आज वे रसम-िरवाज, शमर-हया को छोडकर िनकल आयी है और कुछ िदनो मे तुम लोगो की
हुकूमत का खातमा हुआ जाता है। िवलायती और िवदेशी तो िदखलाने के िलए है, असल मे
यह आजादी की खवािहश है जो तुमहे हािसल है। तुम अगर दो-चार शािदयॉँ कर सकते हो तो
औरत कयो न करे! सचची बात यह है, अगर आंखे है तो अब खोलकर देखो। मुझे वह आजादी
न चािहए। यहा तो लाज ढोते है और मै शमर-हया को अपना िसंगार समझती हूँ।
देवीजी ने अमरनाथ की तरफ फिरयाद की आंखो से देखकर कहा-बहन ने औरतो को
जलील करने की कसम खा ली है। मै बडी-बडी उममीदे लेकर आयी थी, मगर शायद यहा से
नाकाम जाना पडेगा।
अमरनाथ ने वह साडी उसको देते हुए कहा-नही, िबलकुल नाकाम तो आप नही
जायेगी, हा, जैसी कामयाबी की आपको उममीद थी वह न होगी।
मालती ने डपटते हुए कहा-वह मेरी साडी है, तुम उसे नही दे सकते।
अमरनाथ ने शिमरनं दा होते हुए कहा-अचछी बात है, न दंगू ा। देवीजी, ऐसी हालत मे तो
शायद आप मुझे माफ करेगी।
देवीजी चली गयी तो अमरनाथ ने तयोिरयॉँ बदलकर कहा-यह तुमने आज मेरे मुंह मे
कािलख लगा दी। तुम इतनी बदतमीज और बदजबान हो, मुझे मालूम न था।
मालती ने रोषपूणर सवर मे कहा-तो अपनी साडी उसे दे देती? मैने ऐसी कचची गोिलया
नही खेली। अब तो बदतमीज भी हूँ, बदजबान भी, उस िदन इन बुराइयो मे से एक भी न थी
जब मेरी जूितया सीधी करते थे? इस छोकरी ने मोिहनी डाल दी। जैसी रह वैसे फिरशते।
मुबारक हो।
यह कहती हुई मालती बाहर िनकली। उसने समझा था जबान चलाकर और ताकत
से वह उस लडकी को उखाड फेकेगी लेिकन जब मालूम हुआ िक अमरनाथ आसानी से काबू
मे आने वाला नही तो उसने फटकार बताई। इन दामो अगर अमरनाथ िमल सकता था तो
बुरा न था। उससे जयादा कीमत वह उसके िलए दे न सकती थी।
अमरनाथ उसके साथ दरवाजे तक आये जब वह तागे पर बैठी तो िबनती करते हुए
बोले-यह साडी दे दो न मालती, मै तुमहे कल इससे अचछी साडी ला दँग ू ा।
मगर मालती ने रखेपन से कहा-यह साडी तो अब लाख रपये पर भी नही दे सकती।
अमरनाथ ने तयौिरया बदलकर जवाब िदया-अचछी बात है, ले जाओ मगर समझ लो
यह मेरा आिखरी तोहफा है।
मालती ने होठ चढाकर कहा-इसकी परवाह नही। तुमहारे बगैर मै मर नही जाऊँगी,
इसका तुमहे यकीन िदलाती हूँ!
-‘आिखरी तोहफा’ से

100
पपपपपप

जाडोबेवाकीमा रातने अपने


थी। दस बजे ही सडके बनद हो गयी थी और गािलयो मे सनाटा था। बूढी
नौजवान बेटे धमरवीर के सामने थाली परोसते हुए कहा-तुम इतनी रात
तक कहा रहते हो बेटा? रखे-रखे खाना ठंडा हो जाता है। चारो तरफ सोता पड गया। आग
भी तो इतनी नही रहती िक इतनी रात तक बैठी तापती रहूँ।
धमरवीर हृष-पुष, सुनदर नवयुवक था। थाली खीचता हुआ बोला-अभी तो दस भी नही
बजे अममॉँ। यहा के मुदािदल आदमी सरे-शाम ही सो जाएं तो कोई कया करे। योरोप मे लोग
बारह-एक बजे तक सैर-सपाटे करते रहते है। िजनदगी के मजे उठाना कोई उनसे सीख ले।
एक बजे से पहले तो कोई सोता ही नही।
मा ने पूछा-तो आठ-दस बजे सोकर उठते भी होगे।
धमरवीर ने पहलू बचाकर कहा-नही, वह छ: बजे ही उठ बैठते है। हम लोग बहुत सोने
के आदी है। दस से छ: बजे तक, आठ घणटे होते है। चौबीस मे आठ घणटे आदमी सोये तो
काम कया करेगा? यह िबलकुल गलत है िक आदमी को आठ घणटे सोना चािहए। इनसान
िजतना कम सोये, उतना ही अचछा। हमारी सभा ने अपने िनयमो मे दािखल कर िलया है िक
मेमबरो को तीन घणटे से जयादा न सोना चािहए।
मा इस सभा का िजक सुनते-सुनते तंग आ गयी थी। यह न खाओ, वह न खाओ, यह
न पहनो, वह न पहनो, न बयाह करो, न शादी करो, न नौकरी करो, न चाकरी करो, यह सभा
कया लोगो को संनयासी बनाकर छोडेगी? इतना तयाग तो संनयासी ही कर सकता है। तयागी
संनयासी भी तो नही िमलते। उनमे भी जयादातर इिनदयो के गुलाम, नाम के तयागी है। आज
सोने की भी कैद लगा दी। अभी तीन महीने का घूमना खतम हुआ। जाने कहा-कहा मारे
िफरते है। अब बारह बजे खाइए। या कौन जाने रात को खाना ही उडा दे। आपित के सवर
मे बोली-तभी तो यह सूरत िनकल आयी है िक चाहो तो एक-एक हडडी िगन लो। आिखर
सभावाले कोई काम भी करते है या िसफर आदिमयो पर कैदे ही लगाया करते है?
धमरवीर बोला-जो काम तुम करती हो वही हम करते है। तुमहारा उदेशय राषट की सेवा
करना है, हमारा उदेशय भी राषट की सेवा करना है।
बूढी िवधवा आजादी की लडाई मे िदलो-जान से शरीक थी। दस साल पहले उसके
पित ने एक राजदोहातमक भाषण देने के अपराध मे सजा पाई थी। जेल मे उसका सवासथय
िबगड गंया और जेल ही मे उसका सवगरवास हो गया। तब से यह िवधवा बडी सचचाई और
लगन से राषट की सेवा सेवा मे लगी हुई थी। शुर मे उसका नौजवान बेटा भी सवयं सेवको मे
शिमल हो गया था। मगर इधर पाच महीनो से वह इस नयी सभा मे शरीक हो गया और
उसको जोशीले कायरकताओं मे समझा जाता था।
मा ने संदेह के सवर मे पूछा-तो तुमहारी सभा का कोई दफतर है?
‘हा है।’
‘उसमे िकतने मेमबर है?’
‘अभी तो िसफर पचास मेमबर है? वह पचीस आदमी जो कुछ कर सकते है, वह तुमहारे
पचीस हजार भी नही कर सकते। देखो अममा, िकसी से कहना मत वना सबसे पहले मेरी
जान पर आफत आयेगी। मुझे उममीद नही िक िपकेिटंग और जुलूसो से हमे आजादी हािसल हो
सके। यह तो अपनी कमजोरी और बेबसी का साफ एलान है। झंिडया िनकालकर और गीत
गाकर कौमे नही आजाद हुआ करती। यहा के लोग अपनी अकल से काम नही लेते। एक
आदमी ने कहा-यो सवराजय िमल जाएगा। बस, आंखे बनद करके उसके पीछे हो िलए। वह
आदमी गुमराह है और दस ू रो को भी गुमराह कर रहा है। यह लोग िदल मे इस खयाल से खुश
हो ले िक हम आजादी के करीब आते जाते है। मगर मुझे तो काम करने का यह ढंग िबलकुल
खेल-सा मालूम होता है। लडको के रोने -धोने और मचलने पर िखलौने और िमठाइया िमला
101
करती है-वही इन लोगो को िमल जाएगा। असली चीज तो तभी िमलेगी, जब हम उसकी
कीमत देने को तैयार होगे।
मा ने कहा-उसकी कीमत कया हम नही दे रहे है? हमारे लाखो आदमी
जेल नही गये? हमने डंडे नही खाये? हमने अपनी जायदादे नही जबत करायी?
धमरवीर-इससे अंगेजो को कया-कया नुकसान हुआ? वे िहनदुसतान उसी वकत छोडेगे,
जब उनहे यकीन हो जाएगा िक अब वे एक पल-भर भी नही रह सकते। अगर आज
िहनदोसतान के एक हजार अंगेज कतल कर िदए जाएं तो आज ही सवराजय िमल जाए। रस
इसी तरह आजाद हुआ, आयरलैणड भी इसी तरह आजाद हुआ, िहनदोसतान भी इसी तरह
आजाद होगा और कोई तरीका नही। हमे उनका खातमा कर देना है। एक गोरे अफसर के
कतल कर देने से हुकूमत पर िजतना डर छा जाता है, उतना एक हजार जुलूसो से मुमिकन
नही।
मा सर से पाव तक कापं उठी। उसे िवधवा हुए दस साल हो गए थे। यही लडका
उसकी िजंदगी का सहारा है। इसी को सीने से लगाए मेहनत-मजदरू ी करके अपने मुसीबत के
िदन काट रही है। वह इस खयाल से खुश थी िक यह चार पैसे कमायेगा, घर मे बहू आएगी,
एक टुकडा खाऊँगी, और पडी रहूँगी। आरजुओं के पतले-पतले ितनको से उसने ऐ िकशती
बनाई थी। उसी पर बैठकर िजनदगी के दिरया को पार कर रही थी। वह िकशती अब उसे
लहरो मे झकोले खाती हुई मालूम हुई। उसे ऐसा महसूस हुआ िक वह िकशती दिरया मे डू बी
जा रही है। उसने अपने सीने पर हाथ रखकर कहा-बेटा, तुम कैसी बाते कर रहे हो। कया
तुम समझते हो, अंगेजो को कतल कर देने से हम आजाद हो जायेगे? हम अंगेजो के दुशमन
नही। हम इस राजय पणाली के दुशमन है। अगर यह राजय-पणाली हमारे भाई-बनदो के ही
हाथो मे हो-और उसका बहुत बडा िहससा है भी-तो हम उसका भी इसी तरह िवरोध करेगे।
िवदेश मे तो कोई दसू री कौम राज न करती थी, िफर भी रस वालो ने उस हुकूमत का उखाड
फेका तो उसका कारण यही था िक जार पजा की परवाह न करता था। अमीर लोग मजे
उडाते थे, गरीबो को पीसा जाता था। यह बाते तुम मुझसे जयादा जानते हो। वही हाल हमारा
है। देश की समपित िकसी न िकसी बहाने िनकलती चली जाती है और हम गरीब होते जाते
है। हम इस अवैधािनक शासन को बदलना चाहते है। मै तुमहारे पैरो मे पडती हूँ, इस सभा से
अपना नाम कटवा लो। खामखाह आग मे न कूदो। मै अपनी आंखो से यह दृशय नही देखना
चाहती िक तुम अदालत मे खून के जुमर मे लाए जाओ।
धमरवीर पर इस िवनती का कोई असर नही हुआ। बोला-इसका कोई डर नही। हमने
इसके बारे मे काफी एहितयात कर ली है। िगरफतार होना तो बेवकूफी है। हम लोग ऐसी
िहकमत से काम करना चाहते है िक कोई िगरफतार न हो।
मा के चेहरे पर अब डर की जगह शिमरनं दगी की झलक नजर आयी। बोली-यह तो
उससे भी बुरा है। बेगुनाह सजा पाये और काितल चैन से बैठे रहे! यह शमरनाक हरकत है। मै
इसे कमीनापन समझती हूँ। िकसी को िछपकर कतल करना दगाबाजी है, मगर अपने बदले
बेगुनाह भाइयो को फंसा देना देशदोह है। इन बेगुनाहो का खून भी काितल की गदरन पर
होगा।
धमरवीर ने अपनी मा की परेशानी का मजा लेते हुए कहा-अममा, तुम इन बातो को नही
समझती। तुम अपने धरने िदए जाओ, जुलूस िनकाले जाओ। हम जो कुछ करते है, हमे करने
दो। गुनाह और सवाब, पाप और पुणय, धमर और अधरम, यह िनरथरक शबद है। िजस काम का
तुम सापेक समझती हो, उसे मै पुणय समझता हूँ। तुमहे कैसे समझाऊँ िक यह सापेक शबद
है। तुमने भगवदगीता तो पढी है। कृषण भगवान ने साफ कहा है-मारने वाला मै हूँ, िजलाने
वाला मै हूँ, आदमी न िकसी को मार सकता है, न िजला सकता है। िफर कहा रहा तुमहारा
पाप? मुझे इस बात की कयो शमर हो िक मेरे बदले कोई दस ू रा मुजिरम करार िदया गया। यह
वयिकतगत लडाई नही, इंगलैणड की सामूिहक शिकत से युद है। मै मरं या मेरे बदले कोई

102
दसू रा मरे, इसमे कोई अनतर नही। जो आदमी राषट की जयादा सेवा कर सकता है, उसे
जीिवत रहने का जयादा अिधकार है।
मा आशयर से लडके का मुह ं देखने लगी। उससे बहस करना बेकार था। अपनी
दलीलो से वह उसे कायल न कर सकती थी। धमरवीर खाना खाकर उठ गया। मगर वह ऐसी
बैठी रही िक जैसे लकवा मार गया हो। उसने सोचा-कही ऐसा तो नही िक वह िकसी का
कतल कर आया हो। या कतल करने जा रहा हो। इस िवचार से उसके शरीर के कंपकंपी आ
गयी। आम लोगो की तरह हतया और खून के पित घृणा उसके शरीर के कण-कण मे भरी हुई
थी। उसका अपना बेटा खून करे, इससे जयादा लजजा, अपमान, घृणा की बात उसके िलए
और कया हो सकती थी। वह राषट सेवा की उस कसौटी पर जान देती थी जो तयाग,
सदाचार, सचचाई और साफिदली का वरदान है। उसकी आंखो मे राषट का सेवक वह था जो
नीच से नीच पाणी का िदल भी न दुखाये, बिलक जररत पडने पर खुशी से अपने को बिलदान
कर दे। अिहंसा उसकी नैितक भावनाओं का सबसे पधान अंग थी। अगर धमरवीर िकसी
गरीब की िहमायत मे गोली का िनशाना बन जाता तो वह रोती जरर मगर गदरन उठाकर। उसे
गहरा शोक होता, शायद इस शोक मे उसकी जान भी चली जाती। मगर इस शोक मे गवर
िमला हुआ होता। लेिकन वह िकसी का खून कर आये यह एक भयानक पाप था, कलंक था।
लडके को रोके कैसे, यही सवाल उसके सामने था। वह यह नौबत हरिगज न आने देगी िक
उसका बेटा खून के जुमर मे पकडा न जाये। उसे यह बरदाशत था िक उसके जुमर की सजा
बेगुनाहो को िमले। उसे ताजजुब हो रहा था, लडके मे यह पागलपन आया कयोकर? वह खाना
खाने बैठी मगर कौर गले से नीचे न जा सका। कोई जािलम हाथ धमरवीर को उनकी गोद से
छीन लेता है। वह उस हाथ को हटा देना चाहती थी। अपने िजगर के टुकडे को वह एक
कण के िलए भी अलग न करेगी। छाया की तरह उसके पीछे-पीछे रहेगी। िकसकी मजाल है
जो उस लडके को उसकी गोद से छीने!
धमरवीर बाहर के कमरे मे सोया करता था। उसे ऐसा लगा िक कही वह न चला गया
हो। फौरन उसके कमरे मे आयी। धमरवीर के सामने दीवट पर िदया जल रहा था। वह एक
िकताब खोले पढता-पढता सो गया था। िकताब उसके सीने पर पडी थी। मा ने वही बैठकर
अनाथ की तरह बडी सचचाई और िवनय के साथ परमातमा से पाथरना की िक लडके का
हृदय-पिरवतरन कर दे। उसके चेहरे पर अब भी वही भोलापन, वही मासूिमयत थी जो पनदह-
बीस साल पहले नजर आती थी। ककरशता या कठोरता का कोई िचहृन न था। मा की
िसदातपरता एक कण के िलए ममता के आंचल मे िछप गई। मा ने हृदय से बेटे की हािदरक
भावनाओं को देखा। इस नौजवान के िदल मे सेवा की िकतनी उंमग है, कोम का िकतना ददर
है, पीिडतो से िकतनी सहानुभूित है अगर इसमे बूढो की-सी सूझ-बूझ, धीमी चाल और धैयर है
तो इसका कया कारण है। जो वयिकत पाण जैसी िपय वसतु को बिलदान करने के िलए ततपर
हो, उसकी तडप और जलन का कौन अनदाजा कर सकता है। काश यह जोश, यह ददर िहंसा
के पंजे से िनकल सकता तो जागरण की पगित िकतनी तेज हो जाती!
मा की आहट पाकर धमरवीर चौक पडा और िकताब संभालता हुआ बोला-तुम कब आ
गयी अममा? मुझे तो जाने कब नीद आ गयी।
मॉँ ने दीवट को दरू हटाकर कहा-चारपाई के पास िदया रखकर न सोया करो। इससे कभी-
कभी दुघरटनाएं हो जाया करती है। और कया सारी रात पढते ही रहोगे ? आधी रात तो हुई,
आराम से सो जाओ। मै भी यही लेटी जाती हूँ। मुझे अनदर न जाने कयो डर लगता है।
धमरवीर-तो मै एक चारपाई लाकर डाले देता हूँ।
‘नही, मै यही जमीन पर लेट जाती हूँ।’
‘वाह, मै चारपाई पर लेटूँ और तू जमीन पर पडी रहो। तुम चारपाई पर आ जाओ।’
‘चल, मै चारपाई पर लेटूं और तू जमीन पर पडा रहे यह तो नही हो सकता।’
‘मै चारपाई िलये आता हूँ। नही तो मै भी अनदर ही लेटता हूँ। आज आप डरी कयो?’

103
‘तुमहारी बातो ने डरा िदया। तू मुझे भी कयो अपनी सभा मे नही सरीक कर लेता?’
धमरवीर ने कोई जवाब नही िदया। िबसतर और चारपाई उठाकर अनदर वाले कमरे मे
चला। मॉँ आगे-आगे िचराग िदखाती हुई चली। कमरे मे चारपाई डालकर उस पर लेटता हुआ
बोला-अगर मेरी सभा मे शरीक हो जाओ तो कया पूछना। बेचारे कचची-कचची रोिटया खाकर
बीमार हो रहे है। उनहे अचछा खाना िमलने लगेगा। िफर ऐसी िकतनी ही बाते है िजनहे एक
बूढी सती िजतनी आसानी से कर सकती है, नौजवान हरिगज नही कर सकते। मसलन, िकसी
मामले का सुराग लगाना, औरतो मे हमारे िवचारो का पचार करना। मगर तुम िदललगी कर रही
हो!
मा ने गभभीरता से कहा-नही बेटा िदललगी नही कर रही। िदल से कह रही हूँ। मा का
िदल िकतना नाजुक होता है, इसका अनदाजा तुम नही कर सकते। तुमहे इतने बडे खतरे मे
अकेला छोडकर मै घर नही बैठ सकती। जब तक मुझे कुछ नही मालूम था, दस ू री बात थी।
लेिकन अब यह बाते जान लेने के बाद मै तुमसे अलग नही रह सकती। मै हमेशा तुमहारे
बगल मे रहूँगी और अगर कोई ऐसा मौका आया तो तुमसे पहले मै अपने को कुबान करँगी।
मरते वकत तुम मेरे सामने होगे। मेरे िलए यही सबसे बडी खुशी है। यह मत समझो िक मै
नाजुक मौको पर डर जाऊंगी, चीखूंगी, िचललाऊंगी, हरिगज नही। सखत से सखत खतरो के
सामने भी तुम मेरी जबान से एक चीख न सुनोगे। अपने बचचे की िहफाजत के िलए गाय भी
शेरनी बन जाती है।
धमरवीर ने भिकत से िवहृल होकर मा के पैरो को चूम िलया। उसकी दृिष मे वह कभी
इतने आदर और सनेह के योगय न थी।
2
दू सरे ही िदन परीका का अवसर उपिसथत हुआ। यह दो िदन बुिढया ने िरवालवर चलाने के
अभयास मे खचर िकये। पटाखे की आवाज पर कानो पर हाथ रखने वाली, अिहंसा और धमर
की देवी, इतने साहस से िरवालवर चलाती थी और उसका िनशाना इतना अचूक होता था िक
सभा के नौजवानो को भी हैरत होती थी।
पुिलस के सबसे बडे अफसर के नाम मौत का परवाना िनकला और यह काम धमरवीर
के सुपुदर हुआ।
दोनो घर पहुँचे तो मा ने पूछा-कयो बेटा, इस अफसर ने तो कोई ऐसा काम नही िकया
िफर सभा ने कयो उसको चुना?
धमरवीर मा की सरलता पर मुसकराकर बोला-तुम समझती हो हमारी कासटेिबल और
सब-इंसपेकटर और सुपिरणटेणडैणट जो कुछ करते है, अपनी खुशी से करते है? वे लोग िजतने
अतयाचार करते है, उनके यही आदमी िजममेदार है। और िफर हमारे िलए तो इतना ही काफी
है िक वह उस मशीन का एक खास पुजा है जो हमारे राषट को चरम िनदरयता से बबाद कर
रही है। लडाई मे वयिकतगत बातो से कोई पयोजन नही, वहा तो िवरोध पक का सदसय होना
ही सबसे बडा अपराध है।
मा चुप हो गयी। कण-भर बाद डरते-डरते बोली-बेटा, मैने तुमसे कभी कुछ नही
मागा। अब एक सवाल करती हूँ, उसे पूरा करोगे?
धमरवीर ने कहा-यह पूछने की कोई जररत नही अममा, तुम जानती हो मै तुमहारे िकसी
हुकम से इनकार नही कर सकता।
मा-हा बेटा, यह जानती हूँ। इसी वजह से मुझे यह सवाल करने की िहममत हुई। तुम
इस सभा से अलग हो जाओ। देखो, तुमहारी बूढी मा हाथ जोडकर तुमसे यह भीख माग रही
है।
और वह हाथ जोडकर िभखािरन की तरह बेटे के सामने खडी हो गयी। धमरवीर ने
कहकहा मारकर कहा-यह तो तुमने बेढब सवाल िकया, अममा। तुम जानती हो इसका नतीजा
कया होगा? िजनदा लौटकर न आऊँगा। अगर यहा से कही भाग जाऊं तो भी जान नही बच

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सकती। सभा के सब मेमबर ही मेरे खून के पयासे हो जायेगे और मुझे उनकी गोिलयो का
िनशाना बनना पडेगा। तुमने मुझे यह जीवन िदया है, इसे तुमहारे चरणो पर अिपरत कर सकता
हूँ। लेिकन भारतमाता ने तुमहे और मुझे दोनो ही को जीवन िदया है और उसका हक सबसे
बडा है। अगर कोई ऐसा मौका हाथ आ जाय िक मुझे भारतमाता की सेवा के िलए तुमहे कतल
करना पडे तो मै इस अिपय कतरवय से भी मुह ं न मोड सकूंगा। आंखो से आंसू जारी होगे,
लेिकन तलवार तुमहारी गदरन पर होगी। हमारे धमर मे राषट की तुलना मे कोई दसू री चीज नही
ठहर सकती। इसिलए सभा को छोडने का तो सवाल ही नही है। हा, तुमहे डर लगता हो तो
मेरे साथ न जाओ। मै कोई बहाना कर दंगू ा और िकसी दस ू रे कामरेड को साथ ले लूंगा।
अगर तुमहारे िदल मे कमजोरी हो, तो फौरन बतला दो।
मा ने कलेजा मजबूत करके कहा-मैने तुमहारे खयाल से कहा था भइया, वना मुझे कया
डर।
अंधेरी रात के पदें मे इस काम को पूरा करने का फैसला िकया गया था। कोप का
पात रात को कलब से िजस वकत लौटे वही उसकी िजनदगी का िचराग बुझा िदया जाय।
धमरवीर ने दोपहर ही को इस मौके का मुआइना कर िलया और उस खास जगह को चुन िलया
जहा से िनशाना मारेगा। साहब के बंगले के पास करील और करौदे की एक छोटी-सी झाडी
थी। वही उसकी िछपने की जगह होगी। झाडी के बायी तरफ नीची जमीन थी। उसमे बेर
और अमरद के बाग थे। भाग िनकलने का अचछा मौका था।
साहब के कलब जाने का वकत सात और आठ बजे के बीच था, लौटने का वकत गयारह
बजे था। इन दोनो वकतो की बात पकी तरह मालूम कर ली गयी थी। धमरवीर ने तय िकया
िक नौ बजे चलकर उसी करौदेवाली झाडी मे िछपकर बैठ जाय। वही एक मोड भी था। मोड
पर मोटर की चाल कुछ धीमी पड जायेगी। ठीक इसी वकत उसे िरवालवर का िनशाना बना
िलया जाय।
जयो-जयो िदन गुजरता जाता था, बूढी मा का िदल भय से सूखता जाता था। लेिकन
धमरवीर के दैनिं दन आचरण मे तिनक भी अनतर न था। वह िनयत समय पर उठा, नाशता
िकया, सनधया की और अनय िदनो की तरह कुछ देर पढता रहा। दो-चार िमत आ गये। उनके
साथ दो-तीन बािजया शतरंज की खेली। इतमीनान से खाना खाया और अनय् िदनो से कुछ
अिधक। िफर आराम से सो गया, िक जैसे उसे कोई िचनता नही है। मा का िदल उचाट था।
खाने-पीने का तो िजक ही कया, वह मन मारकर एक जगह बैठ भी न सकती थी। पडोस की
औरते हमेशा की तरह आयी। वह िकसी से कुछ न बोली। बदहवास-सी इधर-उधर दौडती
िफरती थी िक जैसे चुिहया िबलली के डर से सुराख ढू ंढती हो। कोई पहाड-सा उसके िसर
पर िगरता था। उसे कही मुिकत नही। कही भाग जाय, ऐसी जगह नही। वे िघसे-िपटे
दाशरिनक िवचार िजनसे अब तक उसे सानतवना िमलती थी-भागय, पुनजरनम, भगवान की मजी-
वे सब इस भयानक िवपित के सामने वयथर जान पडते थे। िजरहबखतर और लोहे की टोपी
तीर-तुपक से रका कर सकते है लेिकन पहाड तो उसे उन सब चीजो के साथ कुचल
डालेगा। उसके िदलो-िदमाग बेकार होते जाते थे। अगर कोई भाव शेष था, तो वह भय था।
मगर शाम होते-होते उसके हृदय पर एक शिनत-सी छा गयी। उसके अनदर एक ताकत पैदा
हुई िजसे मजबूरी की ताकत कह सकते है। िचिडया उस वकत तक फडफडाती रही, जब
तक उड िनकलने की उममीद थी। उसके बाद वह बहेिलये के पंजे और कसाई के छुरे के
िलए तैयार हो गयी। भय की चरम सीमा साहस है।
उसने धमरवीर को पुकारा-बेटा, कुछ आकर खा लो।
धमरवीर अनदर आया। आज िदन-भर मा-बेटे मे एक बात भी न हुई थी। इस वकत मा
ने धमरवीर को देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह संयम िजससे आज उसने िदन-भर
अपने भीतर की बेचैनी को िछपा रखा था, जो अब तक उडे-उडे से िदमाग की शकल मे

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िदखायी दे रही थी, खतरे के पास आ जाने पर िपघल गया था-जैसे कोई बचचा भालू को दरू
से देखकर तो खुशी से तािलया बजाये लेिकन उसके पास आने पर चीख उठे।
दोनो ने एक दस
ू रे की तरफ देखा। दोनो रोने लगे।
मा का िदल खुशी से िखल उठा। उसने आंचल से धमरवीर के आंसू पोछते हुए कहा-
चलो बेटा, यहा से कही भाग चले।
धमरवीर िचनता-मगन खडा था। मा ने िफर कहा-िकसी से कुछ कहने की जररत
नही। यहा से बाहर िनकल जायं िजसमे िकसी को खबर भी न हो। राषट की सेवा करने के
और भी बहुत-से रासते है।
धमरवीर जैसे नीद से जागा, बोला-यह नही हो सकता अममा। कतरवय तो कतरवय है,
उसे पूरा करना पडेगा। चाहे रोकर पूरा करो, चाहे हसंकर। हा, इस खयाल से डर लगता है
िक नतीजा न जाने कया हो। मुमिकन है िनशाना चूक जाये और िगरफतार हो जाऊं या उसकी
गोली का िनशाना बनूं। लेिकन खैर, जो हो, सो हो। मर भी जायेगे तो नाम तो छोड जाएंगे।
कण-भर बाद उसने िफर कहा-इस समय तो कुछ खाने को जी नही चाहता, मा। अब
तैयारी करनी चािहए। तुमहारा जी न चाहता हो तो न चलो, मै अकेला चला जाऊंगा।
मा ने िशकायत के सवर मे कहा-मुझे अपनी जान इतनी पयारी नही है बेटा, मेरी जान तो
तुम हो। तुमहे देखकर जीती थी। तुमहे छोडकर मेरी िजनदगी और मौत दोनो बराबर है, बिलक
मौत िजनदगी से अचछी है।
धमरवीर ने कुछ जवाब न िदया। दोनो अपनी-अपनी तैयािरयो मे लग गये। मा की
तैयारी ही कया थी। एक बार ईशर का धयान िकया, िरवालवर िलया और चलने को तैयार हो
गयी।
धमरवीर का अपनी डायर िलखनी थी। वह डायरी िलखने बैठा तो भावनाओं का एक
सागर-सा उमड पडा। यह पवाह, िवचारो की यह सवत: सफूितर उसके िलए नयी चीज थी।
जैसे िदल मे कही सोता खुल गया हो। इनसान लाफानी है, अमर है, यही उस िवचार-पवाह का
िवषय था। आरभभ एक ददरनाक अलिवदा से हुआ-
‘रखसत! ऐ दुिनया की िदलचिसपयो, रखसत! ऐ िजनदगी की बहारो, रखसत! ऐ मीठे
जखमो, रखसत! देशभाइयो, अपने इस आहत और अभागे सेवक के िलए भगवान से पाथरना
करना! िजनदगी बहुत पयारी चीज है, इसका तजुबा हुआ। आह! वही दुख-ददर के नशतर, वही
हसरते और मायूिसया िजनहोने िजंदगी को कडुवा बना रखा था, इस समय जीवन की सबसे
बडी पूंजी है। यह पभात की सुनहरी िकरनो की वषा, यह शाम की रंगीन हवाएं, यह गली-कूचे,
यह दरो-दीवार िफर देखने को िमलेगे। िजनदगी बिनदशो का नाम है। बिनदशे एक-एक करके
टू ट रही है। िजनदगी का शीराजा िबखरा जा रहा है। ऐ िदल की आजादी! आओ तुमहे
नाउममीदी की कब मे दफन कर दँ। ू भगवान् से यही पाथरना है िक मेरे देशवासी फले-फूले,
मेरा देश लहलहाये। कोई बात नही, हम कया और हमारी हसती ही कया, मगर गुलशन बुलबुलो
से खाली न रहेगा। मेरी अपने भाइयो से इतनी ही िवनती है िक िजस समय आप आजादी के
गीत गाये तो इस गरीब की भलाई से िलए दुआ करके उसे याद कर ले।’
डायरी बनद करके उसने एक लमबी सास खीची और उठ खडा हुआ। कपडे पहनेख्
िरवालवर जेब मे रखा और बोला-अब तो वकत हो गया अममा!
मा ने कुछ जवाब न िदया। घर समहालने की िकसे परवाह थी, जो चीज जहा पडी थी,
वही पडी रही। यहा तक िक िदया भी न बुझाया गया। दोनो खामोश घर से िनकले।–एक
मदानगी के साथ कदम उठाता, दस ू री िचिनतत और शोक-मगन और बेबसी के बोझ से झुकी
हुई। रासते मे भी शबदो का िविनमय न हुआ। दोनो भागय-िलिप की तरह अटल, मौन और
ततपर थे-गदाश तेजसवी, बलवान् पुनीत कमर की पेरणा, पदाश ददर, आवेश और िवनती से
कापता हुआ।

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झाडी मे पहुँचकर दोनो चुपचाप बैठ गये। कोई आध घणटे के बाद साहब की मोटर
िनकली। धमरवीर ने गौर से देखा। मोटर की चाल धीमी थी। साहब और लेडी बैठे थे।
िनशाना अचूक था। धमरवीर ने जेब से िरवालवर िनकाला। मा ने उसका हाथ पकड िलया और
मोटर आगे िनकल आयी।
धमरवीर ने कहा-यह तुमने कया िकया अममा! ऐसा सुनहरा मौका िफर हाथ न आयेगा।
मा ने कहा-मोटर मे मेम भी थी। कही मेम को गोली लग जाती तो?
‘तो कया बात थी। हमारे धमर मे नाग, नािगन और सपोले मे कोई भी अनतर नही।’
मा ने घृणा भरे सवर मे कहा-तो तुमहारा धमर जंगली जानवरो और वहिशयो का है, जो
लडाई के बुिनयादी उसूलो की भी परवाह नही करता। सती हर एक धमर मे िनदोष समझी गयी
है। यहा तक िक वहशी भी उसका आदर करते है।
‘वापसी के समय हरिगज न छोडू ंगा।’
‘मेरे जीते-जी तुम सती पर हाथ नही उठा सकते।’
‘मै इस मामले मे तुमहारी पाबिनदयो का गुलाम नही हो सकता।’
मा ने कुछ जवाब न िदया। इस नामदों जैसी बात से उसकी ममता टुकडे-टुकडे हो
गयी। मुिशकल से बीस िमनट बीते होगे िक वही मोटर दस ू री तरफ से आती िदखायी पडी।
धमरवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला- लो अममा, अबकी बार साहब अकेला
है। तुम भी मेरे साथ िनशाना लगाना।
मा ने लपककर धमरवीर का हाथ पकड िलया और पागलो की तरह जोर लगाकर
उसका िरवालवर छीनने लगा। धमरवीर ने उसको एक धका देकर िगरा िदया और एक कदम
िरवालवर साधा। एक सेकेणड मे मा उठी। उसी वकत गोली चली। मोटर आगे िनकल गयी,
मगर मा जमीन पर तडप रही थी।
धमरवीर िरवालवर फेककर मा के पास गया और घबराकर बोला-अममा, कया हुआ? िफर
यकायक इस शोकभरी घटना की पतीित उसके अनदर चमक उठी-वह अपनी पयारी मा का
काितल है। उसके सवभाव की सारी कठोरता और तेजी और गमी बुझ गयी। आंसुओं की
बढती हुई थरथरी को अनुभव करता हुआ वह नीचे झुका, और मा के चेहरे की तरफ आंसुओं
मे िलपटी हुई शिमरनं दगी से देखकर बोला-यह कया हो गया अममा! हाय, तुम कुछ बोलती कयो
नही! यह कैसे हो गया। अंधेरे मे कुछ नजर भी तो नही आता। कहॉँ गोली लगी, कुछ तो
बताओ। आह! इस बदनसीब के हाथो तुमहारी मौत िलखी थी। िजसको तुमने गोद मे पाला
उसी ने तुमहारा खून िकया। िकसको बुलाऊँ, कोई नजर भी तो नही आता।
मा ने डू बती हुई आवाज मे कहा-मेरा जनम सफल हो गया बेटा। तुमहारे हाथो मेरी िमटी
उठेगी। तुमहारी गोद मे मर रही हूँ। छाती मे घाव लगा है। जयो तुमने गोली चलायी, मै तुमहारे
सामने खडी हो गयी। अब नही बोला जाता, परमातमा तुमहे खुश रखे। मेरी यही दुआ है। मै
और कया करती बेटा। मॉँ की आबर तुमहारे हाथ मे है। मै तो चली।
कण-भर बाद उस अंधेरे सनाटे मे धमरवीर अपनी पयारी मॉँ के नीमजान शरीर को गोद
मे िलये घर चला तो उसके ठंडे तलुओं से अपनी ऑंसू-भरी ऑंखे रगडकर आितमक आहाद से
भरी हुई ददर की टीस अनुभव कर रहा था।

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