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ह या त श ह र औ र ए क न म

लड़क
कहानी सं ह

डॉ. सुभाष जोनवाल


सम पत

उन सबको, िज ह ने हयात शहर को िजया है- थोड़ा कम या


यादा।

हयात शहर और एक न म लड़क ( कहानी सं ह)


© डॉ. सुभाष जोनवाल
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हयात शहर और एक न म लड़क

हयात शहर म आने से पहले म इतना संजीदा िब कु ल भी नह था| होता भी कै से मेरे


पास वो सब कु छ था जो मुझे चािहए था| पहला िनिशथा और दूसरा मेरा डॉ टर बनने
का सपना, जो क िनिशथा क बदौलत था| िनिशथा वह लड़क थी िजसके साथ मैने
जीने - मरने के सपने देखे थे ले कन वो अब बस िनरा वाब बनकर रह गयी थी| वजह-
समाज के बंधन, जाित, गो , िजनके अनुसार हम एक दूजे के िलए नही बने थे| डॉ टरी
क पढ़ाई के िलए मैन स ाट पृ वीराज चौहान मेिडकल कॉलेज, हयात शहर चुना|
हयात शहर म अग त का महीना बड़ा ही खूबसूरत होता है| वजह है यहाँ के मौसम
का िमजाज़| हयात शहर म जहाँ एक छोर पर थोड़ी सी बा रश म नदी-नाले उफान पर आ
जाते ह, तो वह दूसरे छोर पर पिव झील के उस पार दूर तक फै ला सहरा पानी क एक-
एक बूँद को तरसता रहता है| ले कन पुरवई के ठं डे झ के पूरे शहर को नसीब होते ह|
हयात शहर म म सात सावन देख चुका ,ँ पर उस दन मेरी हालत प त थी जब म
यहाँ पहली बार आया था| एक तो अनजान शहर और उपर से रै गंग का डर| दािखले के
बाद कॉलेज म मेरा पहला दन भी कम नह भयानक था| कॉलेज के गेट म एं ी करने से
पहले से मेरा थ पड़ और घूस से वागत हो चुका था| वो रै गंग थी| थोड़ी देर बाद हम
सब छा को एनॉ मी हॉल म इक ा कया गया| एनॉ मी हॉल का नज़ारा और भी डरा
देने वाला था| सामने टेबल पर पाँच-पाँच मुद िलटा रखे थे| साथ ही कु छ पंडे मुद को
ितलक लगाने,माला पहनाने और मं ोचारण म मशगूल थे| अगरबि य का धूआं पूरे हॉल
म फै ला आ था| कु ल िमलाकर वहाँ का माहौल कसी अघोर तं साधना से कम नह था|
िजस तरह से मुद क आवभगत, कमकांड कए जा रहे थे, अगर एवज म कोई मुदा उठ
कर शुकराना अदा कर देता, तो हैरत क बात नह होती|
खैर जैस-े तैसे मेरा पहला दन बीता| पर शाम मेरे िलए और भी बड़ा सदमा िलए
तैयार बैठी थी| मेरे एक दो त िजसके यहाँ मैने कु छ दन कने का फ़ै सला कया था,
उसने अपने यहाँ रखने से मना कर दया था| शायद वो उँ चे दज के लोग थे| उस रात म
अजमेर शरीफ रे लवे टे शन पर मुसा फर खाने म का| पर तीन दन म ही मेरी हालत
ख़ ता हो गयी| होती भी यूँ नह … जब सुबह-सुबह थ पड़ से वागत होता, फर मुद
के बीच पूरा दन बीतता और रात को रे लगािडय क धड़ाधड़ चलती आवाज़ के बीच
सोना जो पड़ता था|
चौथा दन मेरे िलए सुकून देने वाला था| इसक दो वजह थी| पहली ये क मुझे
सेवापुर रामभवन म रहने का ठकाना िमल गया था, दूसरा िवजय- मेरा पी.एम.टी.
टाइम का दो त अब मेरे साथ था| उसने भी मेरे ही कॉलेज म दािखला िलया था| हयात
शहर म अब मेरा मन लगने लगा था पर िनिशथा से अलग होने का ख़ालीपन अब भी
मुझम मौजूद था| िवजय से मेरी कोई भी बात छु पी नह थी| मेरे जेहन के ख़ालीपन को
वो भली-भाँित पढ़ पा रहा था| मेरे मन क नीरसता और िनिशथा के ख़ालीपन को
ह का करने के िलए वो भी अब कोई-न-कोई पतरा आज़माने लगा था| आिख़रकार
उसका पतरा बैठ गया| हमने हर वीकड शहर का एक िह सा घूमने का फ़ै सला कया| म
भी उसके फ़ै सले से सहमत था| हम हयात शहर क हर रग से वा कफ़ होने का मौका जो
िमला था| साल के अंत तक हम शहर के सारे िह से घूम चुके थे पर हम वीराना पसंद
लोग को शहर का कोई िह सा ख़ास पसंद
नह आया था| हाँ, कभी- कभार हम बजरं गगढ़ क पहािड़य पर देर शाम जाकर बैठ
जाया करते| पहाड़ी क तलहटी म शाँत दूर तक फै ली आनासागर झील और चोटी पर
ि थत बजरं गबली के मं दर के घंटे क आवाज़ जहाँ दल को सुकून देने वाली थी तो वह
झील म उठती अशा त लहर िनिशथा के ख़ालीपन को फर से जगा देती|
दन गुजरते गये| अब हमने फ ट एम.बी.बी.एस. अ छे नंबर से पास कर ली थी| रज़ ट
अ छा रहने क खुशी म उस दन हमने शहर का बाहरी िह सा घूमने का फ़ै सला िलया|
इि फाक से हम उस दन हमारे मनमा फ़क जगह िमल गयी थी | पिव झील| शहर के
दि ण म पहाड़ी क तलहटी म| झील के कनारे फै ले सफे द प थर को देख कर मालूम
होता था क वष पहले वहाँ माबल क खदान रही ह गी| झील अभी भी आम लोग क
प चँ से दूर थी| कारण-सामने उँ ची पहाड़ी और उस पार दूर तक फै ले रे त के टीले, जो
झील को अपने आँचल म छु पाए ए थे| झील का पानी इतना साफ था क तली म पड़े
सफे द प थर भी उपर से साफ नज़र आ रहे थे| सहरा के उस पार से टकराकर आती ई
सूरज क करण झील के पानी पर िगरकर जादुई भाव उ प कर रही थी|
पहाड़ी िब कु ल शांत थी| बस इकके -दु े बड़े कं टीले पेड़ और बस नागफिनयाँ ही
नागफिनयाँ| हम और या चािहए था, हम रोज वहाँ आकर डेरा जमा लेते| अब हमारा
वहाँ एक और साथी बन गया था....रे त के सबसे उँ चे टीले पर उगा सूखा रौ झ का पेड़|
िवजय ने उसे "ग़रीब दो त" नाम दया था|
हर बार क तरह उस शाम भी हम पिव झील के उस पार ग़रीब दो त के साथ बैठे
ए थे| मेरी भाव शू य िनगाह सामने पहाड़ी पर जमी ई थी| िवजय ने मुझे ान देना अब
भी नह छोड़ा था| "पाँच साल क बात पाँच दन म नही भूली जाती" हर बार क तरह
मैने यही दलील देकर िसगरे ट का लंबा कश मारकर आसमान मे छोड़ दया| एक पल के
िलए िसगरे ट के धुएँ ने मेरे सामने का सब कु छ धुँधला कर दया था ले कन धुएँ का गुबार
हटते ही मेरे सामने का दृश्य बदल चुका था|
सामने एक लड़क थी, सर पर पानी क मटक िलए| शायद पिव झील के उस पार
कोई कु आँ था|
हयात शहर म हमने लड़ कयाँ तो ब त देखी थी,पर वो.....|इतनी खूबसूरत लड़क मैने
पहले कभी नह देखी थी| लहंगा ला ज भी इतने सलीके से पहने थे क़......| बला क
खूबसूरती थी उसम|
"तु हारी बकरी खो गयी है?....जो पहाड़ी को इतने गौर से देखे जा रहे हो" उसने
अ हड़ सवािलया लहजे म पूंछा|
अचानक मेरा यान टू टा| शायद म अभी भी िनिशथा के शू य मे खोया आ था|
"नह तो!!!!!..बस ऐसे ही पहाड़ी का नज़ारा कर रहे थे | मैने िझझकते ए जवाब
दया| वो मु कु राई और फर मटक िलए वहाँ से चली गयी| एक पल के िलए ही सही.....म
उस व िनिशथा के शू य को भूल गया था| शाम ढले हम वापस लौट आये|
दन गुजरते गये| अब मैन खुद को थोड़ा अ या म क ओर मोड़ िलया था| धीरे -
धीरे िनिशथा का शू य भर चला था| अब म ी-फाइनल एम.बी.बी.एस. म प च ँ गया था|
इन दो साल म म काफ़ कु छ बदल चुका था...म भी...हालात भी|
उस रात म और िवजय दय रोग िवभाग (का डयोलॉजी) म ई.सी.जी. सीखने
गये ए थे| सीिनयर डॉ टर ने हम आइ.सी.यू. म बेड न.14 के पेशट क ई.सी.जी.
िनकालने को कहा| बेड न. 14 के पेशट को देखकर म स रह गया| पेशट कोई और
नह ...पिव झील पर िमली लड़क थी| िवजय ने उसक ई.सी.जी. िनकली| ई.सी.जी
फाइं डंग और भी च काने वाली थी| उसे हाट के वा व क बीमारी थी| शायद उसके वा व
म छेद था|
"नाम या है तु हारा" मैन पूछा|
"अनािमका" उसने जवाब दया| मैन ई.सी.जी. म उसका नाम, बेड न. दज करके
सीिनयर डॉ टर को िभजवा दी|
"तुम पिव झील के पास वाले गाँव म रहती हो ना" मैन पूछ ही िलया
"आपको कै से पता?" उसने पूछा|
दो साल पहले पिव झील के पास वाली पहाड़ी पर हमारी बकरी खो गयी थी|
उसे ढू ँढते-ढू ँढते हम तुमसे टकरा गये थे| तु हारे सर पर पानी क मटक थी तब| उसे
एकदम से हँसी आ गयी| शायद उसे उस दन वाला व कया याद आ गया था| उसके चेहरे
पर वो अ हाड़पन और मासूिमयत अब भी बाक थी|
"तो उस दन...... आप ही थे" उसने चहकते ए कहा|
"पर आप िसगरे ट यूँ पी रहे थे"
"िबना काम क बात बाद म पूछना...अभी तुम आराम करो....तु हारी तबीयत
यादा खराब है" मैन उसे थोड़ा डाँटकर चुप करा दया और बाक मरीज क वाइटल
चा टग म लग गया|
मेरी आँख के सामने अब भी दो साल पहले का अनािमका का सर पर मटक
िलए ए.....दृ य घूम रहा था|
थोड़ी देर बाद म वापस अनािमका के बेड पर आ गया| वो अभी तक सोयी नह थी|
"बॉस अपनी कोई न म सुनाओ ना" पीछे से आवाज़ सुनाई दी|
म हैरान था क ये बॉस कसने कहा य क एक जूिनयर डॉ टर ही अपने सीिनयर डॉ टर
को बॉस कहकर संबोिधत करता है| मैन च ककर चार ओर देखा पर वहाँ अनािमका के
िसवा कोई नह था|
" कसे ढू ँढ रहे हो बॉस" उसने फर पूछा| मेरे आ य का कोई ठकाना नह था|
" तुम मेिडकल टू डट हो? " मैन पूछा
"हाँ" फ ट यीअर म "ँ
"अब बाक बात बाद म पूछना, पहले अपनी कोई अ छी सी न म सुनाओ" उसने
थोड़ा मुँह बनाकर कहा|
"मुझे कोई न म-व म नह आती" मैन तोड़ा स त होकर उससे मुखाितब होते
ए कहा|
"आप झूठ बोल रहे ह ना? ला ट यीअर आपक न म मैन कॉलेज क मेगज़ीन म
पढ़ी थी| ला ट यीअर आपक नज़म क बुकलेट भी पढ़ी थी मैन, अपनी कसी सीिनयर से
लेकर| ब त अ छा िलखते हो आप| " कहते-कहते उसने मेरी तारीफ के पुल बाँध दए|
उसक बात सुनकर एक पल के िलए तो म अपने अतीत म प ँच गया था| फर
खुद को तोड़ा संभलकर -"िलखता ँ नह ....िलखता था| एक अरसा बीत गया िलखे ए|
कलम थामते ए...िलखते ए हाथ काँपते ह अब" कहते-कहते मेरे वर उदासी के समंदर
म डू ब गये|
पर वो कहाँ चुप रहने वाली थी| शायद चुप रहना तो उसने सीखा ही नह था|
"आप जैसे लोग ही अपना फन छोड़ दगे तो हम जैसे दल के मरीज का या होगा|
ले-दे कर ये ही तो चीज़ बचती ह हम जैसे दल के मार के पास, दल बहलाने के िलए| "
उसक आँख म अब भी सवाल थे| म भी अपने अतीत म खो गया था| ऐसा भी व था,
जब न म-ग़ज़ल के साथ मेरी सुबह, मेरी शाम होती थी| और सही तो कह रही थी
वो....एक यही तो उ े य होता है सािह य का, जहाँ िलखने वाला अपना सारा दद,
सारा बोझ कागज के सीने म उतार कर सुकून पाता है तो वह पढ़ने वाला उस सािह य
के आगोश म अपने दद को भुला देता है| मेरे मन म ं मचा आ था| दूसरी ओर मुझे
उसक हालत पर भी तरस आ रहा था| एक तरफ जहाँ उपर वाले ने उसे जहाँ भर क
खूबसूरती अता क थी, तो वह दूसरी ओर उतना ही बेबस भी बना दया था|
"अपने न म िलखना यूँ छोड़ा बॉस" उसका एक और मासूम सा सवाल मेरे
सामने था|
"कु छ सवाल के जवाब नह होते" फर कु छ सोचकर " ज़ंदगी म कभी-कभी कु छ अहम्
फ़ै सले लेना ज़ री हो जाते ह| अगर हम हमेशा अपने अतीत को पकड़कर बैठे रह तो
ज़माने के साथ कदम िमलाकर चल नह पाएँग|े और म अ छे से अपनी पढ़ाई कर तो रहा
"ँ मैन जोड़ कर अपना जवाब पेश कया|
"म आपसे सहमत नह !ँ ! हमारा अतीत कभी हमारे वतमान या भिव य के
आड़े नह आता बि क एक सेतु बनकर हमारा रा ता बनता है| एक कलाकार अपनी कला
के दम पर हर मुि कल से उभर आता है| कला खुदा क नेमत होती है….हर कसी को
नसीब नह होती|"
" और िसगरे ट....यह कौनसा भिव य है आपका? "
उसके पास मेरी हर दलील का जवाब था| मुझे उसक समझ पर हँसी आ रही थी|
भला इतना तो कोई अपना भी अपने बारे म नह सोचता|
रात के तकरीबन दो बज चुके थे|
"अब तुम सो जाओ| रात काफ़ चुक है| इन फालतू बात के बारे म इतना मत
सोचो" मैन उसके हाथ पर ह का सा हाथ रखते ए कहा और उसे चादर ओढ़ा दी|
उसके बाद म और िवजय ज दी सुबह हॉ टल आ गये| पर मेरे मन म अब भी
घमासान मचा आ था| रह-रह कर उसक बात सीने के पार हो रही थी| कह भी तो मेरा
फन मेरे भिव य के बीच नह आया था| म खुद अपने अतीत को बहाना बनाकर खुद से
भाग ही तो रहा था| मेरे अतीत का हर पल आज मुझसे जवाब माँग रहा था| कहते है "सद
आह से सुख खून भी जम जाता है" शायद यही आ था मेरे साथ| पहले िनिशथा... फर
हादसा दर हादसा..म खुद को संभाल ही नह सका| जब अपने हालात से सामना नह कर
पाया तो अपने फन को ही ठु करा आया| ब त मलाल हो रहा था मुझे अपने कए पर|
अगले दन म वापस दय रोग िवभाग गया पर तब तक अनािमका वहाँ से
िडसचाज हो चुक थी|
मुझे अब कह भी चैन नह था| उस शाम म करीब दो साल बाद मं दर गया....अनािमका
क अ छी सेहत के िलए ऊपर वाले से ाथना करने| मं दर जाने का िसलिसला अब रोज
का हो गया था| मेरे हॉि टल के कमरे म अब अगरब ी क ख़ बू महक़ने लगी थी | िसगरे ट
और चाय पर तो जैसे लगाम कस गयी थी|
करीब महीने भर म मैने खुद को पूरी तरह बदल दया था|
एक दन जब म हॉि पटल पो टंग से लौट रहा था तो पीछे से कसी ने मुझे
आवाज़ देकर रोका| मैन पीछे मुड़कर देखा तो अनािमका सामने थी|
"हे!!! कै सी हो?" मैन पूछा| आज वो पहले से काफ़ कमज़ोर लग रही थी
"ठीक ँ ".....ये आपक नज़म क बुकलेट...आपके काम आएगी" वो बुकलेट मेरे
हाथ म थमा कर लौट गयी| आज वो पहले से िब कु ल अलग लग रही थी| िपछली दो
मुलाक़ात म मैने जहाँ उसे अ हाड़पन और चंचलता से सराबोर पाया था, वह आज वो
सादगी क मूरत लग रही थी| इस मुलाकात म उसने एक बार भी नज़र उठाकर नह
देखा था| मुझे उसको "थै क यू" न बोल पाने का अफ़सोस था ले कन अपनी ग़ज़ल ,
नज़म क बुकलेट वापस पाकर मेरी मुि कल आसान हो गयी थी| ये बुकलेट मेरी ग़ज़ल ,
नज़म क उस डायरी क फोटोकॉपी थी िजसे आवेश म म जला चुका था|
अगली सुबह म कटीन पर बैठा चाय पी रहा था| शायद उस दन मुझे अनािमका
का इं तज़ार था| अनािमका ने कॉलेज के दूसरे गेट से एंटर कया और एनॅटमी पोच से होते
ए ऊपर चली गयी| इस बीच जो मेरे िलए ता ुब क बात ई वो ये थी क उसने कॉलेज
क सी ढ़याँ चढ़ने से पहले उ ह छू कर णाम कया कया था| अब मेरे िलए ये रोज का
टीन हो गया था...कॉलेज से आते-जाते उसे ऑ जव करना| म उसक सादगी और
सं कार का कायल हो गया था| यक न नह हो रहा था क....इतनी सादगी, इतनी
शालीनता, इतने सं कार, इतनी चंचलता....िसफ़ एक ही इं सान म, और वो भी उसम िजसे
ये भी नह पता क अगले ही पल उसक धड़कन उसका साथ देगी भी या नह |
ऐसे चलते-चलते सात महीने गुजर गये| मैने खुद को अब पूरी तरह बदल दया
था| कॉलेज से आते-जाते अनािमका से भी मुलाकात हो जाती थी| उसक सेहत अब दन -
दन िगरती जा रही थी| उसके चेहरे पर भी अब पहले सी चमक नह रही थी पर उसक
सादगी और शालीनता य क य बरकरार थी| उसके िलए मेरा मं दर जाकर ाथना
करना अब भी बद तूर जारी था|
उस दन शाम को मं दर से आते व िवजय का मेसेज मेरे फ़ोन पर था|
"अनािमका दय रोग िवभाग म एडिमट है"
िवजय का मेसेज पड़ते ही मेरा मन कसी अनहोनी के डर से संहर गया| िवजय
क मेिडिसन पो टंग का डयोलॉजी म ही लगी ई थी| म दौड़कर का डयोलॉजी प च ँ ा|
िवजय अनािमका क वाइटल-चार टंग म लगा आ था| अनािमका क हालत देखकर मेरा
दल पासीज रहा था| उसका फू ल सा कोमल चेहरा ऐसे पीला पड़ गया था मान खड़ी
फसल को दावा मार गया हो| उसके सुख गुलाबी होठ नीले पड़ गये थे|
"सब ठीक हो जाएगा" मैन उसके हाथ पर हाथ रख सां वना देते ए कहा| मेरे हाथ
के पश से उसके नीले होठ फू ल क पंखुिड़य क तरह िखल उठे |
"न म सुनाओगे? उसने काँपते होठ से धीरे से कहा| उसक आवाज़ म आज एक
अजीब सा ठहराव था|
मेरे दय का दन पलक पर छलक पड़ा| म िन:श द था| एक यही तो चीज़ थी िजसे
म अभी तक वापस हािसल नह कर पाया था| म बुत सा खामोश खड़ा रहा और फर िबना
कु छ बोले वापस हॉ टल लौट आया| आज ना जाने यूँ मेरा ऊपर वाले से लड़ने का मन हो
रहा था| इन सात महीन म मैने िजस गित से खुद को सुधरा था, उसी गित से अनािमका
क सेहत िगरी थी| मेरा दल रो रहा था| पलक से िगर रहे नमक न पानी ने कब का
कपोल को िभगो दया था, मुझे खबर भी नह थी| अनािमका का सारा दद मेरी आँख म
उतर आया| मैन कलम उठाकर अपना सारा दद डायरी के कोरे प े पर उतार दया| हफ़ -
दर- हफ़....िसफ़.... दद – ही - दद.....दद के िसवा कु छ नह | म प े को लेकर का डयो क
ओर दौड़ा| पर अगले ही पल.....वहाँ का दृ य देखकर मेरा शरीर ठं डा पड़ चुका था| बेड
के बाजू म अनािमका क माँ बैठी रो रही थी| अनािमका को सफे द चादर ओढ़ा दी गयी थी|
िवजय डैथ रपोट तैयार कर रहा था|.......और........मेरे हाथ से न म छू ट कर िगर पड़ी
थी|
◆ ◆ ◆
बुत के आँसू - भानगढ़ क िवरह-
गाथा

रावली क पहािड़य से िघरा एक शहर-भानगढ़। सुदरू ि ितज म अपनी सुनहरी


अ करण को समेटता सूरज धरती क गोद म समाने को आतुर था। सुनहरे आसमान
म पंिछय के झु ड अपने बसेर क ओर उड़े चले जा रहे थे। दूर तक फै ली
ह रयाली, के वड़े क खुशबू , ठं डी हवा के झ के और पंिछय के कलरव से वहाँ के
वातावरण म जादुई असर हो रहा था। ऐसे म कसी का भी दय डू ब सकता था, पर इन
सबसे बेखबर उसके माथे पर पसीने क बूंदे चमचमा रही थी। कतना समझाया था उसे
लोग ने क सूया त से पहले ही यहां से लौट जाना, पर न जाने या सनक थी...अतीत क
काल-कोठरी म...खंडहर म ेम कहािनयां तलाश करने क । लाख मनाही के बावजूद भी
वह यहां चला आया। उस राहगीर ने भी तो यही समझाया था - बाबू! यहां भरम का साया
है...सांझ ढलने से पहले ही यहां से लौट जाना। पर वो मूढ़मित, हमेशा क तरह अपनी
सोच पर अटल रहा...नफरत म ेम तलाशने क आदत जो थी उसे। तमाम िमथक के
बावजूद भी उसे यक न था क इस वीराने म उसे, भरम से परे ेम का बीज ज़ र िमलेगा।
धीरे -धीरे पहाड़ी क काली परछाई तलहटी म बसे वीरान शहर को अपने आगोश
म ले रही थी...पर उसक तलाश बद तूर जारी थी...वह कभी बेजान बुत से पूँछता...कभी
ीण हो चुक मीनार से... या तुमने देखा है उसे, िजसे लोग ने भरम कहा है या
फर... ेम। सहसा वो ठठक कर क गया।
ये या...इतने सारे मं दर.. और देवी देवता क एक भी ितमा नह !...यह कै से
मुम कन है।
मं दर क दशा देखकर वह और भी यादा िवचिलत हो उठा। लोग ने वहां
अजीबोगरीब बुत को पूज रखा था।
यह कै से हो सकता है... या एक भरम ई रीय स ा को चुनौती दे सकता है...या
फर यहां ई रीय अंश भरम से हार गया...जीण- ीण हो चुके मं दर क दशा देखकर तो
यही लगता है...पता नह यहाँ का या इितहास रहा होगा...कह वो भरम, वो
िमथक...सच तो नह !
एक के बाद एक ऐसे िवचार उसे िवचिलत कये जा रहे थे। फर भी वह इन सब
को दर कनार कर अपनी तलाश म जुटा था। सुना था, ेम कालजयी होता है...पर
यहाँ... ेम का अंत वीराना तो कदािप नह हो सकता...हो सकता है ेम ने नफ़रत
इि तयार कर ली हो...वैसे भी ेम और नफरत एक िस े के दो पहलु ही तो ह...या फर वो
सब क से कहािनयां, सब िमथक ह |...अगर वो सब िमथक है, तो ये दस मील म फै ला
शहर वीरान य है? इ ह सवाल का जवाब तलाशने के िलए वह इस वीरान म दोपहर
से आँख-आँख झांक रहा था। कई घंटे गुजर चुके थे। अब उसे यास भी सताने लगी थी।
उधर दूसरी ओर थकान से शरीर भी जवाब देने लगा था। उसे इन वीरान खंडहर म रात
िबताने का भय नह था...पर मन के एक कोने म यह डर भी था क कह वह भरम सच
आ तो...। थकान को झंकझोर, िबखरती शि को समेट वह फर से उठा...पर यास के
घोड़े अब सरपट दौड़ रहे थे। उसे अब पानी का ोत तलाशना यादा उिचत लग रहा था।
सूया त हो चुका था। पूरी घाटी के वड़ के फू ल क खुशबू से महक रही थी...च मा
भी अपनी शिशकलाएँ दखाने लगा था। काफ तलाश के बाद उसे एक वछ द बहता आ
िनझर दखाई दया। उसने आ य से चार ओर नज़र घुमाई। उसके चेहरे पर एक हलक
सी मु कान दौड़ गयी। मनमोहक के वड़े क खुशबू...अनवरत बहते ए िनझर क कल-
कल...और बेिहसाब ख़ामोशी...कह लोग ने इसे ही तो भरम क उपमा नह दी...और
ऐसी खामोिशय से तो लोग वैसे ही खौफ खाते ह।
वह अपने ं को परे रख, यास बुझाने झरने के कोर पर उकडू बैठ गया। अंजुिल
भरकर जल उसने अपने मुंह म उढ़ेला ही था क सहसा वह च क पड़ा।...ये या...अनवरत
बहता आ िनझर...और इतना खारा। पर यास तो बुझानी ही थी। उसने जैसे तैसे करके
थोड़ा जल हलक से नीचे उतारा। अगले ही पल उसका पूरा बदन कसी अनजान खौफ से
संहर उठा। जैसे-जैसे पानी हलक से नीचे उतर रहा था, वैसे-वैसे घाटी म िवदीण
िसस कय के वर गहराने लगे थे। साथ ही के वड़े क खुशबू म म होने लगी थी। वह
हड़बड़ा कर उठा। उसने अपने चार ओर देखा, पर वहाँ कोई नह था। िसस कय के वर
ऊपर पहाड़ी से आ रहे थे। साथ ही िनझर का उ म भी उधर ही जान पड़ रहा था। धीरे -
धीरे िसस कयाँ िवदीण कृ दन म बदल चुक थी। िसस कय के बढ़ने के साथ-साथ के वड़े
क खुशबू भी काम होती जा रही थी।
ँ ह!!! कु छ तो है यहां। पर या? उसने मन ही मन सोचा। हाथ-मुंह धोकर वह
िनझर के कनारे - कनारे कृ दन का मूल तलाशने पहाड़ी क ओर चल पड़ा...जैसे-जैसे वह
कृ दन- ोत के समीप आता जा रहा था, वैसे-वैसे झरने का वाह कम होता जा रहा था।
वहाँ जो कु छ भी हो रहा था, उसक समझ से परे था। आिखर िसस कय का जल वाह से
या स ब ध हो सकता है भला!!! कह वह उस भरम का ास तो नह बन गया। रह-
रहकर उसक शंका और ती होती जा रही थी। कृ दन के वर पहाड़ी पर ि थत एक गढ़ी
से आ रहे थे। कृ दन के वर अब और भी यादा क त हो चले थे। उसने गढ़ी के चारो ओर,
अंदर-बाहर तलाश कया। ले कन वहां कोई नह था। अब उसका धैय जवाब देने लगा था।
थक-हार कर वह गढ़ी के क म लगी बुत का सहारा लेकर िनढाल सा बैठ गया। अगले ही
पल वह फर से च क पड़ा। िनझर बुत के पैर से उ िमत हो रहा था। िसस कय के वर
भी बुत से ही आ रहे थे। अब उसे वो क से-कहािनयां, दंतकथाएं सब सच लग रही थी।
उसे अपनी सोच पर ब त पछतावा हो रहा था... क य उसने जान-बूझकर खुद को
जोिखम म डाल िलया। िसस कय के वर उसके दय को चीरते ए िनकल रहे थे। वह
मन-ही-मन ई र से ाथना कर रहा क ज दी से ज दी सवेरा हो जाये, ता क ये ितिल म
टू ट सके । उसक आँख से भी अब आंसू बहने लगे थे। रात का दूसरा पहर ढलान पर था।
झ गुर और चमगादड़ के साथ बीच-बीच म आ रही, िसयार क आँ- आँ क आवाज़े
माहौल को और भी यादा डरावना बना रही थी। उसके िलए एक एक पल वष जैसे बीत
रहे थे। अचानक उसे कु छ सूझा। ऐसे िमलते जुलते वा कये उसने पहले भी सुने थे, िजनमे
काले जादू और वशीकरण से कसी भी िनज व व तु म जान फूं क जा सकती हो। उसने खड़े
होकर गाढ़ी और पूरे शहर को गौर से देखा, पर उसे वहाँ तं साधना जैसा कु छ भी नह
िमला। उसने बुत के चार ओर भी तलाश कया पर वहाँ भी कोई नह था। उसके हाथ-पैर
फू ल रहे थे। एक बुत कै से रो सकती है भला! ये कै से मुम कन है। वो िनढाल होकर बुत के
पैर म िगर पड़ा। उसके आंसुओ ने बुत के पैर को िभगो दया था। अचानक से वह च क
कर वह उछल पड़ा। बुत से आ रही िसस कयाँ एकदम से गायब हो चुक थी, साथ क बुत
के पैर से बह रहा िनझर भी गायब था।
या हो रहा है ये सब? या यही है भरम िजससे सब डरते है? उसका दन फू ट पड़ा।
"हाँ! यही भरम है" उसके कान म एक ह क सी आवाज़ गुंजी। उसने च ककर कर
चार ओर देखा पर वहाँ िसवा उस बुत के कोई नह था। बुत भी ऐसी...मान अभी बोल
पड़ेगी। लग रहा था मानो कोई फ़क र स दय से समािध म लीन हो। बुत के आसपास उगी
घास और झािड़य से तीत होता था क स दय से उ ह कसी ने पश तक नह कया है।
" या ये तुम हो?"उसने कांपते वर म पूंछा।
"हाँ! म ही "ँ
उसके आ य क कोई सीमा नह थी। उसने बुत के होठ पर हाथ फरकर देखा। बुत
के होठ िहल रहे थे।
"तुम कै से बोल सकते हो...मतलब तुम बस एक पाषाण क ितमा हो...वो भी
िनज व"
" माण तु हारे सामने है"
"और वो...खारे पानी का िनझर...वो िवदीण कृ दन?"
“वो...वो आंसू थे...प ाताप के " बुत ने हंसकर कहा।
"और वो कृ दन?"
"हा हा हा...वो राग था... ेमराग"
"म कु छ समझा नह ...कह म कसी ितिल म म तो नह फँ स गया"
"अरे नह नह ...ये कोई ितिल म नह है। ये मा एक ेमी के दय से उठती ई क
है। एक िथत मन का दन, िजसे भूलवश तुम ितिल म समझ बैठे हो। ेम-एक
अनुभूित...एक जीवन...एक या ा...एक ती ा..अपने ि यतम क । स दय पहले इस
वीराने म एक म त-मलंग ने ेम का पाठ पढ़ा था। ेम-एक जूनून...हद से गुजर जाने का।
लोग कहते ह म एक तांि क था ...छिलया था, पर ेम भी तो एक छल ही है...भावना
का। जब ेम दो िवपरीत भावना से गुथ जाता है तो दोन भावनाएं ही आहत होती ह
और वो दोन ही सच होती ह...और दोन ही झूठ। कालांतर म इसे िमथक का दजा दे दया
जाता है...िजसे न तुमने देखा है....न ही उन लोग ने। ेम अ त
ै होता है...सच या िमथक से
परे ।लोग कहते ह...साँझ ढले यहाँ भरम का साया फ़ै ल जाता है...पर ऐसा नह है। वो राग
है- ेमराग।" बुत एक म तकलंदर क तरह ेम धुन पर िथरक रही थी। पूरी घाटी म के वड़े
के फू ल क खुशबू फर से फै लने लगी थी। वो मं मु ध-सा बुत के ेमराग को सुने जा रहा
था।
" ेम क प रपाटी होती है...अपनी ख़शी से यादा अपने ि यतम क ख़शी को मह व
देना...पर आवेग म म इसे भूल गया था...ऐवज म कु दरत ने मुझे स दय तक तड़पने क
सजा दी है। म हर रोज उसे यहां-वहां, सब जगह ढू ंढता ,ँ ता क अपनी गलितय का
ायि त कर सकूँ । सुना था ेम कालजयी होता है ले कन कालांतर म ेम खो गया...शहर
वीरान हो गया...सच िमथक बन गया...और िमथक सच...और म हमेशा हमेशा के
िलए...इस बुत म कै द। बुत एक पागल ेमी तरह िवलाप कर रही थी।
"पर कौन थी वो?"
उसका सवाल सुनकर बुत के वर और भी गहरा गए।
"वो...एक ेयषी थी, अपने ि यतम क । एक साधना थी....एक साधक क । अगर सच
ही जानना है तो इन वीरान घा टय से पूछो...जहां उसक ेमराग गूंजा करती था...इन
खंिडत मुंडरे से पूंछो, जहां से वह िसतार को िनहारा करती थी....इन िव त मीनार से
पूंछ , िजनके सहारे खड़े होकर वह अपने ि यतम के मरण म खोयी रहती थी...हवा म
फै ली इस के वड़े क खुशबू से पूछो, िजससे वह िनत नव ृंगार कया करती थी....उस खारे
िनझर से पूंछो, जो स दय से उसक ती ा म अनवरत बह रहा है।" बुत के वर म
िवरह-वेदना चरम पर प च ं चुक थी। बुत के ेमातीत के क से वीरान घा टय म फर से
गूंजने लगे थे। देखते ही देखते वीरान शहर फर से जीिवत सा हो उठा। उसे भी अपने सभी
सवाल के जवाब िमल चुके थे। बुत के प ाताप के आंसू अब उसके ने से बह रहे थे...और
वो सु िनझर फर से जीिवत हो उठा था।
◆ ◆ ◆
लव आजकल - ए यूिजकल
लव टोरी

म िजस ज़माने क पैदाइश ह, उस ज़माने क रवायत और बं दश को आजकल के


ह हा स प पर " लव ह स" टेटस डालने वाले ब े नह समझ सकते। हमारे ज़माने
म ई फे सबुक, ि वटर, हा स प, माटफोन नह थे। हम पी सी ओ म एक पया
डालकर एक िमनट तक पटर -पटर करने वाले युग म पले बढे ह। तब तक तो वो काळा
कोबरा वाला नो कया 1100 पैदा भी नह आ था। पर उस ज़माने से लेकर आज तक
यार के मामले मे िबलकु ल भी चज नह आया। दल तब भी धड़कते थे…. दल आज भी
धड़कते है। बस ज़माना थोड़ा फॉरवड हो गया है। तब लड़क को दल क बात बताने से
पहले ही वो कसी और क हो चुक होती थी और अब....न ही पूछो तो बेहतर है।
हमारे ज़माने म लड़क क तीन के टेगरी होती थी। कताबी-क ड़ा, लोफर, और
देवदास। लोफर मेरे टाइप के लड़के होते थे। इनक हाल ही म कसी लड़क से आँख चार
ई होती थी। इ हे पहचानना कोई मुि कल काम नह था। ऊँची कॉलर, चौड़ी मोहरी क
पतलून, गले म माल और छ ट वाली शट - ये कु छ ल ण थे, िजनके आधार पर इ हे दूर
से ही देखकर पहचाना जा सकता था।
लड़ कय म टाइप-वाइप का कोई झंझट नह था। वो या तो सीता होती थी या
फर गीता। पर हम सभी लड़ कयां " यार कया तो डरना या" क काजोल ही लगती थी
और हम उनके मुशक डे भाइय से िपटाई का डर हमेशा बना रहता था।
म यानी लोफर- हम तीन दो त थे। रमन कताबी-क ड़ा टाइप का था। देवदास ने एक
दन बात ही बातो म बताया था क क ड़े पर सुबह-सुबह 108 बार हनुमान चालीसा
जाप का असर है। यही वजह है क वो हमेशा कताब म ही धँसा रहता है। देवदास हमारी
मंडली का तीसरा और आिखरी सद य था।यहां उसके वा तिवक नाम के िज़ का कोई
मह व नह है, यूं क जैसे उसके ल खण थे, उस पर यही नाम सूट करता है। उसक
कहानी से मालूम होता था क वह ेम के सात आयाम को पार कर चुका है। शराब,
िसगरे ट, ज़ मी दल वाले गाने और दाशिनकतावादी बात उसक पसनॅिलटी का अहम
िह सा थी।
जैसा क उसने अपने बारे म बताया था, वो पढ़ने म ब त होिशयार था ले कन बारहव
क ा के बोड ए जाम से ठीक तीन दन पहले एक लड़क ने उसे ेम प िलखा था। उस
प के जादुई भाव से वह याद कया आ सब कु छ भूल गया, पर उसने धैय बनाये रखा।
वह हर पेपर म अपनी ेम कहानी के साथ कॉपी जांचने वाले परी क के नाम एक ाथना-
प िलख कर आता क उसे य पास कया जाना चािहए। उसने बताया था क उस ेम
प के जादुई भाव से िसवा अं ेजी के , वह सभी िवषय म अ छे न बर से पास था।
अगर उसने थोड़ा दमाग लगाकर अं ेजी के पेपर म अपनी बात अं ेजी म िलखी होती तो
वह उसम भी पास हो गया होता। उसके बाद उसने पढाई छोड़ दी। वो कहता है क उसने
ेम के िलए याग कया है। उसके अनुसार हम एक मोड़ पर ेम और बाक चीज़ म से
कसी एक को चुनना पड़ता है और उसने भी वही कया था, िजसका उसे कोई अफ़सोस
नह है।
रमन क देवदास से यादा नह पटती थी, पर उसक एक मज़बूरी थी। हमारे गांव म
टीवी िसफ देवदास के घर पर थी। उससे िबगाड़कर हम शि मान, कै टेन ोम और
िच हार देखने से मह म हो सकते थे। िच हार म दखाए जाने वाले पुराने गाने हमारे
िलए कसी ज टल पहेली से कम नह थे क आिखर य नायक-नाियका पहाड़ पर एक
दूसरे का पीछा करते ए गाने के अंत म आ लंगनब हो जाते ह। देवदास ने बताया था क
उनका आ लंगनब होना ेम के जादुई भाव का माण है।
खैर अब वापस से असल कहानी पर आते ह।
म और रमन अब यारव लास म आ गए थे। रमन ने साइं स-मैथ ली और मैन
आट। हमारे होठ के ऊपर क खाली जगह पर भुरभुरी मूंछ उगने लगी थी। हर बार क
तरह उस बुधवार शाम म और रमन देवदास के घर िच हार देखने आये ए थे। पहला
गाना "एक लड़क तो देखा तो ऐसा लगा" था िजसमे नायक नाियका को एक से बढ़कर
एक उपमाय दए जा रहा था। रमन क गान म कोई ख़ास दलच पी नह थी पर पता
नह य मुझे आज गाने कु छ यादा ही अ छे लग रहे थे। गाना ख़ म आ। पर आगे आने
वाले सभी गाने इ ह मनोभाव पर क त थे। मुझे थोड़ी बेचैनी महसूस हो रही थी साथ
ही खुद पर ता ुब भी हो रहा था क मुझे ऐसे गाने कब से पसंद आने लगे। तभी लाइट
चली गयी और हम छत पर आ गए।
"देवदादा! ये यार या होता है? मेरे मुँह से ये सवाल सुनते ही देवदास च क पड़ा।
उसे मेरे मुँह से ऐसे सवाल क उ मीद िबलकु ल भी नह थी।
" यार एक ब त ही ज टल भावना है। मुझे नह लगता क तुम अभी इसे समझने के
िलए तैयार हो। तु ह अभी अपनी पढाई पर यान देना चािहए।" देवदास ने अपनी िसगरे ट
जला ली थी। "वैसे तुम ये य जानना चाहते हो ?" देवदास ने िसगरे ट क रख एक ओर
िझड़कते ए पूछा।
"कु छ नह बस ऐसे ही"
"नह ! तु ह बताना चािहए। एक तजुबदार दो त तु ह अ छी सलाह दे सकता है।"
"परस क बात है दादा। कू ल से लौटते समय हमारी साइ कल पंचर हो गयी
थी। सो हम उसे पैदल ही घसीटकर ला रहे थे।िशवमं दर के पास हम कसी ने पीछे से
आवाज़ दी क हम चाह तो उनक दुकान पर अपनी साइ कल क पंचर िनकलवा सकते ह।
हमने पीछे मुड़कर देखा तो एक लड़क थी। शायद उ म मुझसे एक-दो साल छोटी होगी।
उसने दो चो टयां बना राखी थी। गुलाबी सूट-सलवार म वो ब त ही खूबसूरत लग रही
थी। रमन ने मुझे बताया था क म बस उसे ही देखे जा रहा था।
"तो इसम द त क बात या है। लड़ कयां खूबसूरत ही होती ह।"
"वहाँ से आने के बाद मुझे बस उसी का चेहरा दखाई दे रहा है।"
" ं ह! ये तो गंभीर बात है और जैसा क तु हारी भुरभुरी मूंछ को देखकर म
अंदाज़ा लगा सकता ँ क तुम पर अब जवानी क क पल फू टने लगी ह।" फर कु छ
सोचकर -"मुझे लगता है, तु ह उस लड़क से यार हो गया है। या तुम बार-बार उस
लड़क से िमलने के बारे म सोचने लगे हो या उससे िमलने के िलए बेचैन रहने लगे हो?"
"हाँ देवदादा! कु छ-कु छ ऐसा ही है।" तभी अचानक लाइट आ गयी और टीवी
पर" कतना हस चेहरा कतनी यारी आँख" गाना बजने लगा। गाने को सुनकर हमारी
हंसी छू ट पड़ी।
म अब उसके िलए बेचैन रहने लगा था। हम रोज कसी न कसी बहाने िशवमं दर पर
कते। ऐसे स ाह म तीन-चार बार उसके दशन हो जाते। िजस दन उसके दशन नह होते,
उस दन हम देवदास के साथ मंडली जमाते। तब देवदास और रमन मेरी हालत को सूट
करते ए गाने गाने लगते। उनके गानो को सुनकर मेरी उससे िमलने क हसरत और
यादा बढ़ जाती। मेरी हालत अब बाज़ीगर फ म के काजोल के इं पे टर दो त जैसी हो
गयी थी।
"बताना भी नह आता, छु पाना भी नह आता
हम तुमसे मोहो बत है, जाताना भी नह आता"
ऐसे दो-तीन महीने िनकल चुके थे पर हम उसका नाम तक पता नह कर पाए थे। उस
दन शाम को हम तीन रोज क तरह िशवमं दर के सामने से तेज आवाज़ म गाने गाते ए
गुजर रहे थे।
"हम यार ह तु हारे दलदार ह तु हारे
हमसे िमला करो हमसे िमला करो ….हाँ मने भी यार कया है"
गाने क आवाज़ सुनकर लड़क अपने छोटे भाई के साथ बहार आई।
"काहे ग रया रहे हो। कोनो मर गया का?" लड़क क बात सुनकर हम तीन क
िस ी-िप ी गम हो गई और हम चुपचाप वहाँ से िखसक िलये। आगे पूरे र ते रमन और
देवदास मेरे मज़े लेते रहे।
"यार! भाभी तो िबहा रन है।"
"का आ अगर हमार होने वाली जो िबहा रन है, जब ऊ ससुरा गो बंदा इक
चु मे खाितर यूपी-िबहार दे सकता है तो का हम हमार यार खितर इक िबहारन से शादी
नह कर सकते।" मेरी बात सुनकर वो लोग और जयादा हँसने लगे। मुझे उनक मज़ाक क
फ़ नह थी वरन इस बात क ख़शी थी क मुझे उसका नाम पता चल गया था। उसके
भाई ने उसे "खेलू" कहकर पुकारा था।
अब खेलू को लेकर रोज मेरे मन म िखचड़ी पकने लगी थी। उसके िबहारन होने ने मुझे
पूरी तरह से बदल कर रख दया था। म अब "म से हम" म बदल गया था। उसके ख़याली
पुलाव म दन कब गुजर जाता, पता ही नह चलता। हम रोज रात को सोचा करते क
जब हमारी खेलू से शादी से हो जाएगी ऊ हमार इहाँ चु मा लेगी, उँ हा चु मा लेगी। हम
ऊके कमर के इहाँ गुदगुदी करगे, वो हमार हाथ छु टा के भग जाएगी। जब हम नौकरी पर
चले जायगे, वो खेत -पहाड़ पर हमार खाितर ीदेवी क तरह गाने गायेगी।
"कब आयेगा मेरे बंजारे
तेरी बंजारन र ता देखे" और इ ही याल म रात गुजर जाती।
अब हम बारहव लास म आ चुके थे। एक दन मुिनया ने हम कसी काम से अपने
घर बुलाया था। मुिनया हमारे ए रये क मानी ई ह ती था। वजह-उसक सीडी और
वीसीआर क शॉप। उन दन सीडी और डीवीडी का चलन अपने चरम पर था। जब भी
कोई नयी फ म लगती, मुिनया के ू हम तक प च ं जाती। वैसे मुिनया से हमारी कोई
खास जान-पहचान नह थी, फर भी हम अपनी खटारा साइ कल उठाकर मुिनया के घर
क ओर चल पड़े। वहाँ प च ँ कर देखा तो मुिनया और देवदास म पैक-शैक चल रहे थे और
सामने "तेरे नाम" फ म क सीडी। मेरे प च ं ते ही मुिनया ने सीडी को थोड़ा फॉरवड
करके वो सीन िनकल दया िजसमे राधे िनजला का पीछा करता है। उस सीन को देखकर
हम लग रहा था क हमे भी अपना यार पाने के िलए राधे क तरह कु छ अलग करना
पड़ेगा। इतने म ही देवदास बोल पड़ा-" तेरे िलए एक खुशखबरी है। हमारी होने वाली
भाभी मुिनया क शॉप के सामने टाइ पंग सीखने आती है।" देवदास के मुँह से ये सुनकर
हमारी ख़शी का ठकाना न रहा।
उस दन के बाद से ही हम कू ल के बाद रोज मुिनया क शॉप पर प च ँ जाते। हमारे
प च ं ते ही मुिनया गान क आवाज़ तेज कर देता।
"तेरे नाम.......हमने कया है
जीवन अपना सारा सनम "
गाना सुनकर टाइपराइटर पर हारमोिनयम क तरह िथरकती ई उसक अंगुिलयां थम
जाती। वो चुपके से हमारी ओर देखती और हम शम के मारे दुहरे हो जाते। ये हमारे िलए
अलसायी धूप म ठं डी फु हार िगरने जैसा था। हम कभी-कभी सोचते क जाकर खेलु को सब
कु छ बता द...पर कह उसे इं कार आ तो.... फर कु छ सोचकर हम क जाते। और ये तो
हमारे यार क अधपक चपाती को धीमी आंच पर पकने देने जैसा था, तो हम काहे ज दी
मचाते। थोड़े ही दन म अजय देवगन क नयी फ म " क़यामत"के गाने हमारे सर
चढ़कर बोलने लगे।
"कभी मुझको हंसाये
कभी मुझको लाये
मुझे कतना सताती है
वो लड़क ब त याद आती है"
गाने अब हमारी शि सयत बन चुके थे। पर जब भी हम ऐसे गाने बजाते, हमारी
बेकरारी और बढ़ जाती। लगता जैसे हमरा दल राजदूत के इं जन क तरह फट-फट करता
आ बाहर िनकल आएगा पर हम कं ोल कर लेते। दन म कई दफा खेलु से नज़रे दो-चार
हो जाती पर शाम को हम भी ढलती शाम क तरह त हाई म खो जाते। रात म हम अपने
त कये को ही खेलु मानकर, उससे िलपटकर खेलु के याल म खोये रहते। इन दन
देवदास ने हम कई बार दा , शराब, िसगरे ट ऑफर क थी ले कन पता नह य ...हम पर
सुधरने क धुन सवार हो चुक थी। हमारी तेरे नाम वाली हेयर टाइल भी शालीन सलीके
म बदल चुक थी। हमने अब मुिनया के टु िडओ पर ही काम करना शु कर दया था। ये
सब खेलु क ही बदौलत था। देवदास हमारे यार और हमारे अंदर म आये बदलाव को
सराहता और कहता- यार अ छे-अ छ को िबगाड़ देता है मेरे दो त … पर तुम
िबलकु ल सही कर रहे हो।
उस दन हमारे टु िडओ पर इमरान हा मी का नया गाना बज रहा था-
"भीड़ म त हाई म
दद म वाई म
मुझे तुम याद आते हो
मुझे तुम याद आते हो "
इतने म ही पीछे से एक एक मखमली-सी आवाज़ सुनाई दी। "ये गाने तुम हमारे िलए
बजाते हो ना"
हम च ककर पीछे मुड़े तो देखा खेलु हमारे टू िडयो के सामने खड़ी थी।
"नह नह ....वो हम तो....."हमारे मुंह से यादा कु छ नह िनकला। वो हमारी
शकल देखकर मु कु राये जा रही थी।
"हम आज अपनी साइ कल नह लाये। आप हम िशवमं दर तक ाप कर
दगे... लीज़।"
"हाँ हाँ! य नह ...." हम झट से मुिनया को सब समझा कर घर के िलए िनकल
पड़े। वो हमारी साइ कल के डंडे पर बैठी थी। हमारी साइ कल न न करते ए सरपट
दौड़ रही थी। हमारे हाथ बार-बार साइ कल के हिडल पर उसके हाथ से टकरा रहे थे।
उसका गुलाबी दुप ा हवा म लहराता आ हमारे चेहरे से िलपटता जा रहा था। इन सब ने
हमारे दल के िसतार छेड़ दए थे।
"ये धुंआ-धुंआ सा रहने दो
मुझे दल क बात कहने दो
म पागल दीवाना तेरा
मुझे इ क़ क आग म जलने दो|"
िशवमं दर से थोड़ा पहले ही उसने साइ कल कवा ली और हम पैदल-पैदल चलने लगे।
'िशव मं दर थोड़ा ज दी आ गया ना।"
"हाँ ....तु हारे साथ रा ता कब गुजर गया, पता ही नह चला।"
"एक बात पूंछे तुमसे "
"हाँ पूंछो"
"तुम हमको ब त पसंद करते हो ना"
उसके सवाल से हमारे पूरे बदन म सु दौड़ गयी। हमारा चेहरा पीला पड़ गया।
"इतना यार करते हो तो छु पाते काहे हो"
"हम डर था क कह तु ह इं कार आ तो...." कहते-कहते हमारी गदन झुक गयी।
हम दोन के कदम क गए
"िबलकु ल पागल हो तुम....पर अ छे हो" उसने हमारा हाथ थाम िलया। आज हम
समझ आ रहा था क य फ मी गान म नायक-नाियका एक दूसरे का पीछा करते ए
अ लंगालब हो जाते ह। फर वो िशवमं दर क ओर मुड़ गयी। तभी अचानक हमको कु छ
याद आया और हमने दौड़कर कोई चीज उसके हाथो म थमा दी।
"इसम या है?"
"इसम...हमारे दल क हसरत"
कु छ पल के िलए हम एक दूसरे क आँख म देखते रहे फर हम अपने र ते हो िलए।
उसके िबना हम हरएक कदम बोिझल लग रहा था। अब हम देवदास क यार के जादुई
भाववाली सब बात समझ आ रही थी। हम ये भी समझ आ रहा था क य देवदास
ेमप िमलने पर पढ़ा आ सब कु छ भूल गया होगा। हम अपने ही याल म गम थे क
अचानक कसी ने हम पीछे से अपनी बाह म भर कर हमारे गाल पर चु बन ले। वो खेलु
ही थी। असल म हमने खेलु को KISMI चॉकलेट िग ट क थी।
उस दन के बाद हम अपने काम म और यादा सी रयस हो गए। हम रोज टू िडयो
जाते, मन लगाकर काम करते, थोड़े पैसे बचाकर रखते और थोड़ा टाइम खेलु के िलए भी
िनकल लेते। और िजस दन खेलु से मुलाकात नह होती, उस दन हम ये गाना गुनगुनाते-
"िजस दन तेरी मेरी बात नह होती
दन नह गुजरता, रात नह होती
न य लगदा दल तेरे िबना
न य लगदा दल तेरे िबना"
पर कहते ह ना यार क राह इतनी आसां नह होती। हमारे साथ भी ऐसा ही कु छ
आ। कई दन से खेलु टाइ पंग लासेज म दखाई नह दे रही थी। वहा पूछने पर मालूम
आ क िपछले स ाह से ही उसने लासेज छोड़ दी। अगले दन शाम को देवदास ने पता
करके बताया क वो अपने गाँव चली गयी है और कु छ ही दन म उसक शादी होने वाली
है। स े आिशक़ क िमि कयत ढेर सरे आँसू और चाँद यादे ही तो होती ह। हमारे साथ भी
ऐसा ही कु छ आ था। हमारे सारे सपने रे त के महल क तरह एक ही झटके म िबखर गए
थे। इन दो दन म हमारे िलए हर बात के मायने बदल गए थे। दल पर बोझ लेकर जीना
ब त मुि कल होता है। हम ना तो कसी से िगला कर सकते थे और ना ही कसी को
इलज़ाम दे सकते थे। हम रोज पहले क ही तरह काम करने, कू ल जाने क कोिशश करते
पर अब हम कह भी चैन न था| हम दन भर चुपचाप बैठे रहते। ऐसे मुि कल हालात म
बस देवदास ने हमारा साथ दया। वो हमारे कं धे को थपथपाकर हम हौसला देता। एक
नाकाम आिशक़ के ज़ बात दूसरा आिशक़ ही समझ सकता है। हम रोज उसके साथ ढलते
ए सूरज और अपने घ सल म लौटते प रं द को देखते। देवदास कहता क एक दन ऐसे
ही सबको ढल जाना है, इसीिलए बेहतर है क हम समय के वाह के साथ बहते रह। हम
कभी-कभार देवदास के साथ एक-दो पैक मार लेते। हमारी िज़ दगी अब थोड़ी पटरी पर
आने लगी थी। देवदास ने पता करके बताया क खेलु के माँ-बाप नह थे, वो अपने मामा के
यहाँ रह रही थी। इस बात ने खेलु के िलए हमारे मन से सारी कड़वाहट दूर कर दी।
मौह बत के खेल म आिशक़ यादे क तरह होता है। अगर बाजी उसके हाथ म ई तो वो
बादशाह को भी मात दे सकता है, अगर नह , तो ल कर के साथ तो चलना ही है। एक दन
पता चला क रमन क शादी फ स हो गयी है। हम अब खुद को िबजी रखने का बहाना
िमल गया था। आिखर रमन क शादी का दन भी आ गया। हम अ छे से तैयार होकर
बारात म शािमल हो िलए। देवदास ने शराब का जुगाड़ पहले से कर रखा था। शु क
एक-दो र म के बाद वरमाला क र म शु ई। डीजे पर "आज मेरे यार क शादी है"
गाना चल रहता था और हम नशे म धुत नािगन डांस कर रहे थे। दु हन ने वरमाला दू हे
क ओर बढ़ा दी, पर अगले ही पर हमारा सारा नशा उतर गया। दु हन क सहेिलय क
छीना झपटी म दु हन का घूँघट उघड़ गया था...और दु हन कोई और नह ....खेलु थी। एक
बार तो हमारा मन कया क हम "जीत" वाला सनी देओल बनकर लाश िबछा द….पर
कु छ सोचकर हम साइड हो िलए। आज हमारा गला सूखा जा रहा था, िजसे देवदास क
शराब भी तर नह कर सकती थी। हम समझ नह पा रहे थे क आिखर बेवफाई कसने
क ...रमन ने...खेलु ने....या फर हमारी क मत ने।
ेम या है...एक बरसाती बदली...ज़ री तो नह क वो हर जगह बरसे। उस दन के
बाद से ही हम गांव छोड़कर शहर आ गए। यहां हम “ऊँचे टीले क झील वाले हनुमान
मं दर” म सेवादार का काम िमल गया।
इन सब बात को पं ह साल बीत चुके ह। तब से लेकर आज तक हम रोज शाम टीले
पर बैठे-बैठे झील म उठती लहर को देखते रहत ह। देवदास कहता था क लहर और
ज़ बात म ब त गहरा संबंध होता है। ये बात हम आज तक समझ नह आयी... फर भी
पता नह य , हम यहाँ बैठना अ छा लगता है। इन साल म ब त कु छ बदल चुका है।
देवदास ने शादी कर ली। वो अपने प रवार के साथ खुश है, पर कभी-कभी शराब पीकर
हमारे और खेलु के बारे म ग रयाता रहता है। रमन भी इसी शहर अफसर हो गया है।
कु छ दन से एक बारह साल का छु टकू हमारी ज़मात म शािमल आ है। वो कहता
है...उसक एक ड है...ब त अ छी ड है...गल ड जैसी ड...इ स कॉि लके टेड।“
वो रोज हमसे पूछता है "लोफर! या तुमने भी कसी से यार कया है?"
हम हर बार सोचते ह क उससे कह द "हाँ! हमने भी यार कया था....करते ह....और
करते रहगे। हमारी कहानी भी कु छ-कु छ तु हारे जैसी ही है....इ स कॉि लके टेड|" वो रोज
हमारे पास आते ही अपना फे वरे ट सॉ ग चला देता है-
"म र .ं ...या ना र ं
तुम मुझम कह बाक रहना
मुझे न द आये जो आिखरी
तुम वाब म आते रहना
बस इतना है तुमसे कहना
बस इतना है तुमसे कहना"
और हम रोज उसके चेहरे क ओर देखते रहते ह पर ये नह कह पाते क "तु हारी
शकल हमारी खेलु से ब िमलती है छु टकू ।
◆ ◆ ◆
यार के पंछी

वो इतवार क एक खुशनुमा सुबह थी| इरिवन उस दन भी हमेशा क तरह देरी से उठा|


अचानक उसे याद आया क आज तो उसे लड़क देखने जाना था| वही लड़क , िजसे
उसने एक अख़बार क कतरन से पता लेकर शादी का ताव भेज दया था| वह ज दी से
तैयार होकर स ल रे वे टेशन प च ँ ा ले कन ेन िनकल चुक थी| उसने और यादा देरी न
करते ए पास के बस टड उपनगरीय बस ली और िनकल पड़ा| वह रा ते भर खुद को यही
समझता जा रहा था क उसे प रप वहार करना है| शादी कोई ब का खेल थोड़े ही
है या फर उसे यह डर था क वह अपनी उ से काफ़ छोटा दखता है| अगले दो घंटे म
वह तयशुदा जगह पर प च गया| चौराहे पर लगा घिड़याल बता रहा था क वह पूरे डेढ़
घंटे लेट हो चुका है| वह अपनी लेट लतीफ क आदत के िलए खुद को कोस रहा था|
"ओ ह!! वह सुकोमल िवचार वाली परी मेरे इं तज़ार म मुरझा गयी होगी" उसने मन
ही मन खेद कट कया| चौराहा पार करके उसने अगल-बगल...चार ओर देखा, पर वहाँ
कोई लड़क नह थी| वह िसर झुकाकर िनराश मु ा म फु टपाथ के एक तरफ लगी बच पर
बैठ गया|
कु छ देर तक बैठे रहने के बाद...
" या तुम वही लड़के हो िजसने अख़बार से पता लेकर मुझे शादी का ताव भेजा
था" बगल से एक लड़क क आवाज़ आई|
इरिवन ने गदन घुमाकर देखा तो एक बीस-इ स साल क लड़क सामने थी, जो
अभी अभी सड़क के बाजू म लगे मेपल के पेड़ क ओट से िनकलकर बाहर आयी है| लड़क
ने अपने हाथ काख मे दबा रखे थे| पीठ पर लटके बड़े से बैग क वजह से वो पांच फ ट दो
इं च ली लड़क आगे क ओर झुक जा रही थी| उसके चेहरे पर िमि त भाव थे| थोड़ी खीज
भी, पर उसने संयम बरता आ था|
"हाँ!! म वही लड़का ँ िजसने तु हारे िवचार पढ़कर तु ह खत भेजा था|" इरिवन ने
झुक नज़र से दबी ई ज़बान म कहा|
"िवचार पढ़कर!!! ले कन मैने तो बस इतना िलखा था क मुझे प टंग पसंद है"
लड़क के हावभाव देखकर इरिवन और भी यादा सहम गया था|
"और ये कपड़े......इनको या रात को ही पहन कर सोए थे या?
इरिवन ने सुबह से गौर नह कया था क वो ज दबाज़ी म िबना इ ी कए कपड़े
पहन आया है| उसके कपड़ पर धान के खेत म बनी या रय जैसी सलवट प देखी जा
सकती थी| इरिवन का सर अपराधबोध से और यादा झुक गया था| उसक हालत देखकर
लड़क क हँसी छु ट पड़ी थी|
"तो या मुझे वापस लौट जाना चािहए?"
" म् म!!! तु हारी हाइट पाँच फ ट सात इं च है और दखने म भी ठीक ठाक
हो... म् म....तो सोच सकते ह" लड़क ने बच पर बैठते ए कहा |
लड़क से नकारा मक जवाब न पाकर इरिवन क बाँछे िखल गयी | अब दोन क
नज़र ज़मीन पर टक ई थी| बच पर कु छ देर खामोशी छाई रही| और फर-
" !ँ !! तो अब हम वय क क तरह वहार करना चािहए| तुम जानती हो न हम
जंदगी के बड़े ही अहम मु े पर बात करने वाले ह"- इरिवन ने कहा |
" म् म!!! बात तो सही है तु हारी| पर भला फु टपाथ पर कोई शादी क बात कै से
कर सकता है?
" म् म!!!"
फर दोनो ने तय कया क वो आगे क बात पास वाले जैिवयर पाक म करगे| दोनो
उठे और जेिवयर पाक क ओर चलने लगे| िब कु ल वय क क तरह....िबना कु छ बोले
.....रा ते भर कदम-कदम चले जा रहे थे| सुबह के यारह बज चुके थे| सूरज अभी भी
आसमान से नदारद था| ह क बफबारी और ठं डी हवा ने मौसम को और भी खुशनुमा बना
दया था| करीब दो सौ कदम चलने के बाद जैिवयर पाक आ चुका था| जैिवयर पाक मे
वैसी ही चहल-पहल थी जैसी क बसंत के मौसम म होनी चािहए| मेपल और ओक के पेड़
ने सफे द बफ क चादर ओढ़ रखी थी| झािड़य और सजावटी पौध को कु छ ही दन पहले
तराशा गया था| बीच-बीच मे फू ल क कतार थी जो कू ल जाने लड़ कय क दोहरी
क़तार या करीने से लगी गुलाब के फू ल क क़तार क तरह लगती थी|
कु छ नवदंपि फू ल क ओट म आ लंगंब एक दूसरे को चूम रहे थे| अमीर अँ ेज़
क पि याँ कु को ज़ंज़ीर से बाँधे आस पास टहल रही थी, तो कु छ गो फ के शौक न
अधेड़ गो फ ना खेल पाने को लेकर मौसम को कोस रहे थे| इरिवन को ठं ड ने इतना
परे शान नह कया था, ले कन लड़क के होठ के उपर बफ ने सफे द मूछे ज़ र बना दी थी|
पाक के एक तरफ कोने मे प चकर इरिवन और लड़क आस पास लगी दो अलग-
अलग बच पर िसमटे ए सकु चाये से बैठ गये| दोनो ने एक दूसरे को अजनबीय क तरह
देखा...और शायद आिख़री बार...फु लवारी और मेपल के पेड़ क ओट म आ लंगंब जोड़े
ने दोन के दय को झनकृ त कर दया था| वहाँ चार-पाँच िमनट खामोशी छाई रही|
लड़क अपने दािहने हाथ क अंगुली म एक छ ले को घुमा रही थी तो इरिवन अपने बैग म
रखी कसी चीज़ को बार- बार देख रहा था|
"मेरा मानना है क तुम दोन को एक ही बच पर सटकर बैठना चािहए" पीछे से
एक आवाज़ आई| दोन ने पीछे मुड़कर देखा तो एक बूढ़ा िभखारी अपने फटे मैले थैले म से
कु छ िनकालकर पंिछय को िखलाते ए बड़बड़ा रहा था| इरिवन और लड़क ने फटी ई
आँख से एक दूसरे क ओर देखा और दोन क हँसी छू ट पड़ी| दोन कु छ पल के िलए फर
से खामोश हो गये| नीरस, बो रयत फै लाने वाले गो फ के शौक न अधेड़ अब जा चुके थे पर
उस खामोशी म भी हवा डािलय को झुलाती, झुमाती अपने होने का एहसास करा रही
थी| वैसे कृ ित चुप कहाँ रहती है| पाक म पंछीय क आवाज़ खामोशी के ह के झीने
आवरण पर सलवट िबछा रही थी| मान दबे पाँव यह जता रही हो क तुम यहाँ अके ले
नह हो, हम भी ह तु हारे साथ| इरिवन काफ़ देर से अपने पैर से ज़मीन पर कु छ कु रे दता
रहा | फर कु छ सोच कर वह लड़क क बच पर आ बैठा ले कन बच क तमाम दूरी उनके
दरिमयान मौजूद थी| दोनो एक ही बच के अलग अलग िसर पर बैठे थे|
बात का िसलिसला शु आ|
"म पास वाले क बे के एक म यम दज के कू ल म पढ़ता ,ँ साथ ही एक दवाखाने
पर पाट टाइम जॉब भी करता |ँ |"
"म सट ए लम हाइ कू ल म पढ़ती |ँ मेरा सपना है क म एक बड़ी पटर बनू|ँ "
धीरे -धीरे बात आगे बढ़ने लगी| जंदगी-मौत, देश-समाज, िव ान-फं तासी, दशन-
सािह य, धम-राजनीित,..औपचा रक बात.....अनौपचा रक बात.... न जाने या या......|
"ओ ह जीसस! ये दोन बूढ़े लोग क तरह बात कर रहे ह" पीछे से वापस वही
खरखराती आवाज़ आयी|
"मेरा यक न करो...तुम दोन एक दूसरे के िलए ही बने हो" बूढ़ा िभखारी पंिछय
को दाना चुगाते ए बड़बड़ाये जा रहा था इरिवन को बीच- बीच म आ रही बूढ़े िभखारी
क आवाज़ से िचढ़ हो रही थी| इरिवन ने खेद भरी नज़र से लड़क क ओर देखा| लड़क
को भी वहाँ खलल मालूम पड़ रहा था| इरिवन ने पाक म चार तरफ नज़र घुमाई, ले कन
उसे कह भी एकांत नज़र नही आया| आिख़रकार इरिवन ने उसे नज़रअंदाज़ करते ए
बात का िसलिसला फर से शु कया|
उधर बूढ़ा िभखारी लगातार पंिछय से बात कए जा रहा था|
"आओ मेरे यारे पंिछय ....आओ| तुम भी अपने िह से का दाना चुगो|" िभखारी के
आस-पास सात आठ पंछी इक ा हो गये थे|
"तुम भी आओ नीले चमक ले पंख वाली मैना..तुम भी अपने िह से का दाना चुगो|
ओ भोले पंछी...म तुमसे ही कह रहा .ँ ..तुम संकोच मत करो क तु हारे पंजे क चड़ मे सने
ए ह| आओ..तुम भी अपने िह से का दाना चुगो" बूढ़ा िभखारी एक दूसरे पंछी जो क
मैना जैसा ही दख रहा था, को बुला रहा था|
"हम सब पंछी ह... या आ अगर हमारे पंख अभी दूसरे से छोटे ह!!! कल तु हारे
पंख भी इस नीली चमक ली मैना िजतने ही बड़े ह गे....तो आओ और अपने िह से का
दाना चुगो| "
इरिवन और लड़क भी अब अपनी बात छोड़ उस नज़ारे को देखने लगे थे| शायद
वो दोन उन पंिछय क जगह खुद को महसूस कर रहे थे| बूढ़े क बातो म ेम पंदन
फु रत हो रहे थे| ऐसा लग रहा था मान बूढ़ा िभखारी नादान पंिछय को ेम का पाठ
पढ़ा रहा हो| िभखारी के ेम-पाश म पाक का पूरा कोना स मोिहत आ जा रहा था| छोटे
पँखो वाला पंछी भी अब िबना कसी संकोच के सबके साथ दाना चुगने लगा था|
"तो सुनो मेरे यारे पंिछय ....एक सीख....जो हम सब दाना बटोरने क आपाधापी
म नज़रअंदाज़ कर देते ह… हम यार के पंछी ह.... हम िमलते ह....िबछड़ते ह...पर या
तुमने कभी सोचा है क हम िमलते य ह? या तुमने भी सोचा है चमक ले पंख वाली
मैना?" बूढ़ा िभखारी लगातार पंिछय से बात कए जा रहा था|
"हम िमलते ह.... य क हम िमलना ही था....कभी दो त बनने के िलए...तो कभी
हमसफर...तो कभी... फर से अजनबी बन जाने के िलए|
यारे पंिछय ....यही मकसद है जीवन का| िमलना...िबछड़ना... यार करना|
वेलंटाइन क यह खूबसूरत सुबह तुम सब को अपने आगोश म लेने को आतुर है| खूब यार
करो...मेरे यारे पंिछय " बूढ़े िभखारी के वर गहराते जा रहे थे|
"आमीन" बूढ़े िभखारी ने पंछीय को बचाकु चा दाना डालकर खुदा का शु कया
अदा कया|
भरपेट दाना चुगने के बाद चमक ले पंख वाली मैना और छोटे पंख वाले पंछी ने
एक दूसरे क ओर देखा| दोन ने अपनी च च से एक दूसरे को पश कया और फर दूर उँ चे
आसमान म साथ-साथ उड़ चले| आसमान म तेज़ी से उमड़ते बादल अब जगह-जगह नीले
आसमान को छोड़ ठठक खड़े हो गये| मान पंिछय को रा ता दे रहे ह | इरिवन और
लड़क को पता भी नह चला था क कब वो बच के दोन िसर से िखसककर एक दूसरे से
सटकर बैठ गए थे। दोन क धड़कान का शोर एवम् साँस क महक पूरे पाक म फै ल चुक
थी| दोन ने अब एक दूसरे क ओर देखा और फर शम से नज़र झुका ली| कु छ पल के िलए
वहाँ खामोशी छाई रही| पर इस खामोशी म भी दोन के दल म ेम के िसतार बज रहे
थे| फर उन दोन के बीच खूब सारी बात ई.....फू ल क बात....िततिलय क
बात....सपन क बात....ब क बात.....| ठं डी हवा क र तार कम हो चुक थी| लड़क
के सुनहरे बाल पर ओक के प ेदार साये िगरने लगे थे.... ब एक खूबसूरत प टंग क
तरह| पास के फ वारे से िगर रही पानी क बूँद ने उन दोन को िभगो दया था| शायद बूढ़े
ने फ वारे का ख़ उनक तरफ कर दया था|
दोपहर के दो बज चुके थे| दोन ने अपने-अपने सामान उठा िलये| लड़के के हाथ म
एक हॉली ॉस लटक रहा था तो लड़क के हाथ म एक पीतल का छ ला|
"ओ ह!!! मैन तु हारा नाम तो पूछा ही नह " इरिवन ने कहा
"मेरा नाम!..... म् म फर कु छ सोचकर
"हाय.... म...म िमसेज़ इरिवन" लड़क ने शरमाते ए हाथ इरिवन क ओर बढ़ा
दया|
इरिवन का चेहरा भी खुशी से िखल गया| उसने लड़क क आँख म देखा और
उसका हाथ थाम िलया.. फर दोन चल पड़े, अपनी मंिज़ल क ओर| कु हाँसे भरे आसमान
को चीरकर सूरज भी उनको अलिवदा कहने िनकल आया था|
"अपनी शादी पर बूढ़े कुँ वारो को दावत देना मत भूलना....नादान लड़के " पीछे बूढ़े
िभखारी क खरखराती ई आवाज़ गूँज रही थी||
चाचू नह आएंगे

छोटी-छोटी बात बालसुलभ मन पर कतना गहरा असर डालती ह, ये बात हम


प रप लोग नह समझ सकते। उनके िलए उनक दुिनया बस उनक परीकथा तक ही
सीिमत रहती है। आप मान या न मान, पर ये सच है क ब को भी िम ी के घर द के टू ट
जाने या गु -े गुिड़या क शादी म गुिड़या क िवदाई पर उतना ही दद होता है िजतना क
हम अपने घर के सुनामी म बह जाने या िब टया क िवदाई पर होता है।
मेरी भतीजी...मोनू...हाव-भाव से िबलकु ल मुझ पर गयी है। वो श ल से िजतनी
मासूम है, ह से उतनी ही सुकोमल। शु से ही उसका मुझसे कु छ यादा ही लगाव रहा
है। जब से उसने बोलना सीखा है, तब से लेकर आजतक शायद ही कोई ऐसा दन गुजरा
हो, िजस दन उसने मुझसे बात नह क हो। वो यार से मुझे "चाचू" बुलाती है।जब भी म
घर पर होता ,ँ उसका खाना-पीना, उठना- सोना सब मेरे साथ ही होता है। उसक
परीकथा और मासूिमयत से ब होने का मौका मुझे मेिडकल कॉलेज म आने के बाद
िमला। म ए टीरै गंग क छु य म घर आया आ था। उस रात मूसलाधार बा रश ने
भारी तबाही मचाई थी। खेत क मेड़ पर जगह -जगह धोरे चल गए थे। सुबह होते ही माँ
ने तसला -फावड़ा देकर मुझे भाई के साथ खेत पर भेज दया....खेत क मेड़ को दु त
करने। पर मोनू मेरे साथ न आये,ये कहाँ मुम कन था...वो भी मेरे साथ-साथ खेत पर चली
आयी थी। म उसे साफ़ सी जगह िबठाकर भाई के साथ मेड़ बांधने म लग गया। मोनू भी
गीली िम ी से घर दे बनाने म त हो गयी थी। उसने पास वाले खेत से उसके हमउ
कई ब को भी अपने साथ खेलने के िलए बुला िलया था। करीब आधा घंटा बीत गया
था। तभी अचानक मोनू रोती ई दौड़कर मेरे पास आयी। उसक िघ घी बंधी ई थी। मने
दौड़कर उसे गोद म उठाया।
" या आ िब टू... य रोये आप? मने पूछा
"चाचू ! वहाँ लाल - लाल हाबू ह।" उसने ख मसलते ए कहा। मुझे उसक बात
समझ नह आयी थी।
"चलो ! दखाओ मुझे "
वो मेरी अंगुली पकड़ कर मुझे उस जगह ले गयी,जहाँ वो खेल रही थी। सामने का दृ य
देखकर मेरे चेहरे पर ह क सी मु कान दौड़ गयी। उसके घर दे के आस-पास पांच-छह
बीरब टयाँ टहल रही थी।
"िब टया! ये हाबू नह ह। ये रामजी क डोकरी है...बा रश म िनकलती ह जमीन से।"
"नह चाचू! ये डोकरी नह , हाबू है। डोकरी तो अपने घर के बगल म रहती है....बूढ़ी
सी डोकरी...कल उसने मुझे टॉफ़ भी नह दी।" उसने मुँह बनाते ए कहा। उसक बात
पर मुझे हंसी आ रही थी...और वो अपनी जगह सही भी थी। वो हमारे पड़ोस म रहने
वाली के सर ताई क बात कर रही थी। चार-चार लड़ कय के बाद भी लड़का न होने के
कारण वो अब भी लड़ कय से नफरत करती ह।
“िब टया ये हाबू नह है...देखो! छू कर देखो इ ह " मैन बीरब टी को अपनी हथेली पर
रखकर उसके सामने कर दया।
"मुझे डर लगता है...हाबू काट लेगा" कहते ए वो मेरी पीठ के पीछे िछप गयी।
"नह िब टया! ये काटती नह है। ये भी आपक तरह अ छी गुिड़या है। मने बीरब टी
को हाथ से छू कर उसे दखाया।
"चाचू! हाबू डर गया" उसने ताली पीटते ए कहा। बीरब टी मेरी पश से िसमट कर
गोल हो गयी थी।
"नह िब टया, ये डरी नह है। इसे गुदगुदी ई है। आपके जैसे ही इसे भी गुदगुदी
होती है।अब उसका डर काम होने लगा था। वो कौतुक भरी िनगाह से बीरब टी को देख
रही थी। थोड़ी देर बाद बीरब टी फर से पैर िनकलकर चलने लगी।
"चाचू! हाबू चलने लग गया...हाबू चलने लग गया" कहते ए वो ताली पीट-पीट कर
उछाल रही थी।
"चाचू...म भी हाबू को हाथ लगाऊं?
"ठीक है िब टया, पर यान से...इसे चोट न लगे। और ये हाबू नह है। इसे बा रश
कराने वाले भगवान ने भेजा है।
"ओ ह !!!" वो मेरी बात को अपनी साम यानुसार समझने क कोिशश कर रही थी।
"अब िब टया आप इनके साथ घर घर खेलो।" कहकर म वापस भाई के साथ मेड़
बंधवाने म लग गया। मोनू भी बीरब टीय के साथ खेलने म मशगूल हो गयी। अब उसने
अपने घर दे के आस-पास ब त-सी बीरब टयाँ इक ी कर ली थी। उनको चलते और
िसमटते देख वो ताली पीट-पीट कर हंस रही थी| थोड़ी देर बाद उसने मुझे फर से आवाज़
दी-
"चाचू! गुिड़या क पास काला ल बा-सा हाबू आ गया।" म दौड़कर वहां गया तो देखा
क दो-तीन सह पादी वहाँ आस-पास घूम रही ह।
"िब टू! ये िगजाई है। ये भी नह काटती। पर आप इनके साथ मत खेलना।"
"चाचू! इसके तो रे लगाड़ी क तरह ब त सारे पैर ह । ये रामजी क रे लगाड़ी है
या?" उसक तोतली जबान म उसक बात सुनकर मेरी हंसी छू ट रही थी।
"चाचू! गुिड़या अके ले-अके ले ही खेलती है या? इसके स नह ह?"
"नह िब टया! जब बा रश होती है न, तब बूंद पर बैठकर प रयां आती ह और वो
इनके साथ घर-घर खेलती ह।" तब तक मेड़ का बाक िह सा बँध चूका था। भाई घर चलने
के िलए आवाज़ देने लगे थे।
"अब घर चलते ह िब टया"
"चाचू! म गुिड़या को भी साथ ले चलूँ। म इसे अपने साथ ही सुलाउं गी।"
"नह िब टया! ये भी आपक तरह अपनी म मा के साथ सोती ह। अब इनको बा-
बाय करो|" र ते भर वो मुझे अपनीऔर बीरब टी क बात सुनाती रही। घर आकर वो
मेरी छोटी भतीजी अंजिल को िखलने म लग गयी। अंजिल तब तक़रीबन छह महीने क
रही होगी।
रात को सोने से पहले वह फर से मेरे पास आ गयी।
"चाचू! छोटे बेबी को कौन हंसाता है? म मा बोलती ह अंजी बेबी के सपनो म प रया
आती ह।"
"हाँ िब टया छोटे ब के सपन म प रयाँ आती है। वो उनके गाल को चूमती ह और
उनके मसूड़ म दांत के छोटे-छोटे बीज उगती ह। वो प रयां ही ब को दन भर हँसाती
ह।"
"चाचू फर तो मुझे प रय ने दांत के ब त सारे बीज दए ह गे न!"
"हाँ िब टया !अब आप सो जाओ।"
उस दरिमयान म तक़रीबन पं ह दन घर पर रहा। मोनू दन भर बीरब टय और
अंजिल के साथ खेलती रहती। अब मेरी छु याँ ख़ म हो चुक थी। उस सुबह म वापस से
अजमेर जाने के िलए तैयार हो रहा था पर मोनु वहाँ से नदारद थी। म लेट हो रहा था पर
इतने म मोनू कह से दौड़ती ई आयी।
"कहाँ गए थे िब टू आप? और ये हाथ म या छु पा रखा है अपने?" उसके हाथ म एक
अधखुली मािचस क िडिबया थी। उसने मािचस क िडिबया पूरी खोलकर मेरी सामने रख
दी।उसमे तीन बीरब टयाँ थी।
"चाचू मेरी गुिड़या आपसे बा-बाय कह रही ह।" म एक पल को उसके मासूम चेहरे
को देखता रहा फर उसके माथे को चूमकर अजमेर के िलए िनकल गया। अजमेर आकर म
पढ़ाई म मशगूल हो गया। अब बा रश का मौसम जा चुका था।
एक दन फ़ोन पर-
"चाचू मेरी रामजी क गुिड़या नह िमल रही मुझ।े अपने देखी या?"
"िब टया आपक गुिड़या अब अगले साल आयगी। अगली बा रश म। गुिड़या को
तेज धूप सहन नह होती न इसीिलए।" वो मेरी जवाब से संतु थी। फर हम अपनी बात
म लग गए।
दन गुजरते गए। मोनू अब पांच साल क हो चली थी। भाई ने उसका दािखला
पास के ाइवेट कू ल म करा दया था। वैसे उसने पढ़ना चार साल क उ से ही शु कर
दया था। क..ख.. ग..घ, अ..आ.. इ ..ई , िगनती. ऐ बी सी डी उसने घर पर ही सीख िलए
थे। शु आती महीन म ही हेडमा टर ने उसके पढ़ाई के तर को देखते ए उसे अगली
क ा म अप ेड कर दया था। मेरी भी अब इं टनिशप चल रही थी। हॉि पटल पो टंग क
वजस से मेरा अब पहले क तरह घर जाना नह हो पता था। ऐसे म मोनू हमेशा कसी न
कसी बहाने मुझसे घर आने क िजद करने लगी थी। दस बर म मेरा घर जाना आ।
हमेशा क तरह मोनू मेरे साथ ही सोई। उस दन संडे था। मोनू सुबह ज दी उठ गयी थी।
माँ उस व चाय बनाने म त थी। और म....अभी भी सफर क थकान िमटाने के िलए
अभी भी रजाई म दुबक कर पड़ा था। उस सुबह साल का सबसे तेज़ कोहरा पडा था। थोड़ी
देर बाद मोनू अचि भत सी दौड़कर मेरे पास आयी।
"ओ चाचू! उठ! चाचू उठ ना! आपको कु छ दखाना है..." उसने मेरे मुंह से रजाई
हटाते ए कहा|
" या आ िब टया" मने उन दी आँख खोलते ए कहा।
"चाचू! अपने खेत और पहाड़ को कोई ले गया"
मुझे हंसी आ गयी। वो सही भी थी, कोहरे ने खेत और पहाड़ को ढक िलया था। चाय
पीकर म और मोनू खेत क ओर िनकल पड़े। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे हमारे
खेत दखाई देने लगे थे।
"ओ चाचू! अपने खेत तो यह ह"
"हाँ िब टया!! ये कोहरा है"
"अ छा...पर चाचू ये कोहरा कहाँ से आया?"
उसे ये सब सटीक भाषा म समझा पाना मुि कल था तो मैन उसक परीकथा का सहारा
लेना बेहतर समझा।
"िब टया! जैसे हम लोग लुकािछपी खेलते ह ना , ठीक वैसे ही चंदा मामा और सूरज
दादू भी लुकािछपी खेलते ह। सुबह होने से पहले चंदा मामा आसमान से बादल को
िपघलाकर पहाड़ पर कोहरे के प म िछड़क देते ह। और चंदा मामा उसी कोहरे क ओट
म िछप जाते ह। और फर.....सूरज दादू दन भर चंदा मामा को ढू ंढते ह। शाम होने पर
सूरज दादू भी आसमान म चमक ले िसतारे िछड़क कर पहाड़ क ओट म िछप जात ह...
" फर चंदा मामा सूरज दादू को ढू ंढते है" उसने मेरी बात काटते ए कहा।
"पर चाचू वो हमेशा एक ही खेल खेलते ह, ग दी बात है ना"
"िब टया उनक म मी ने उनको एक ही खेल िसखाया है" मने उसी के लहजे म जवाब
दया।
"ओ ह " मोनू उछल-कू द करती ई मेरे आगे-आगे चल रही थी।
"चाचू ये घास पर पानी कसने िछड़का" उसने घास पर जमी ओस को छू कर पूछा। म
असमंज य म था...इतनी छोटी ब ी को ये सब उसक ही भाषा म कै से समझाऊं। फर
कु छ सोचकर मने कहा- "िब टया जब स दय म कोहरा छाता है तब प रयां आती ह और
सभी प पर ओस िगराकर जाती ह।"
"इससे या होता है?"
"इससे...जहां-जहा ओस िगरती है, वहा फर फू ल िखलने वाली प रयां आती ह। वो
ओस क बूंद को चूमती ह । और फर....बाद म वहाँ फू ल िखलते ह।"
"तो चाचू,अपनी सरस पर फू ल भी प रय ने िखलाएं ह?"
"हाँ िब टया! अपनी सरसो के फू ल भी प रय ने िखलाये ह।"
"चाचू ये प रयां कै सी होती ह?"
"िब टया! प रया िबलकु ल आप क तरह ही होती ह। यारी सी....नटखट...रं ग-िबरं गे
पंख वाली। पीले पंख वाली प रयां पीले फू ल िखलाती ह...लाल पंख वाली लाल फू ल"
मने उसे गोदी म उठाते ए कहा।
"ओह चाचू! आपको तो सबकु छ पता है। फर कु छ सोचकर- फर तो अपनी सरस
और घर के बागीचे म पीले फू ल पीले पंख वाली प रय ने िखलाएं ह न"
"हाँ िब टया" तब तक हमारा चने का का खेत आ चूका था।
"चाचू! ये चने के फू ल गुलाबी पंख वाली प रय ने िखलाएं ह न"
"हाँ िब टया"
"चाचू फर बूटे पर चने कै से लगते ह" उसका अगला आसमानी सवाल फर से तैयार
था।
"िब टया! फू ल वाली प रय के बाद चने के बूटे िजतने मोठे पेट वाली प रयां
आती ह। वो चन के फू ल को चूमती ह ... फर उनमे चने आते ह।"
"ओ ह" अब हम हमारे बड़े खेत क बेर का पेड़ आ चूका था।
“देखो िब टया! अपनी बेरी पर हरे -हरे छोटे बेर लग रह ह न...इनको हरे पेट वाली
प रय ने चूमा है...थोड़े दन बाद पीले और लाल पेट वाली प रयां आएँगी।"
" फर अपनी बेरी के बेर लाल - पीले हो जायगे"
"िबलकु ल सही।"
"चाचू! ये प रय का पेट 'म डक' िजतना मोटा होता है या?" मुझे भी हंसी आ
गयी। उसक परीक पनाएँ अब प रय के पेट के प रमाप पर अटक गयी थी। वो मढक को
म डक बोलती थी।
"हाँ िब टया!....अब घर चल।"
"अरे चाचू! अपना तप घर ही गायब हो गया ।अब हम घर कै से जायगे?"
"अरे ! कह नह गया अपना घर। आप मेरे क ध परबैठो अपन अभी घर प च ँ ते ह।"
मेरे क ध पर बैठे-बैठे वो रा ते भर उलटे-पु टे जुमले मरती रही। अब हमारा घर दखाई
देने लगा था।
घर आकर म अपने काम म लग गया। उसने दोपहर तक सभी घरवाल को फू ल
िखलने, बेर पकने,ओस िगरने आ द सब क याएं समझा दी थी। उस दरिमयान म पांच
दन घर पर रहा। मोनू के साथ वो दन कै से िनकल गए, पता ही नह चला। अब म वापस
अजमेर आ गया था। आते समय उसने पूछा था क चाचू आप कब आओगे। म उसे बेर पकने
तक आने क कहकर 15 तक पहाड़े याद करने का काम देकर आया था ।
पढ़ाई और हॉि पटल पो टंग के चलते दो स ाह से भी यादा समय बीत चुका था।
अब मोनू क स दय क छु यां भी लग चुक थी। समस के दन फ़ोन पर मोनू थी।
"चाचू! मेरी एक...दो..त न.......सात दन क छु यां आयी ह" शायद वो अपनी
उँ गिलय पर िगनकर बता रही थी।"
"अरे वाह िब टया! फर तो आप मुझे 7 ,8 ,9 के पहाड़े याद करके सुनाओगे"
"म नह सुनाऊँ ! पहले आप घर आओ"
"ठीक है मत सुनाना। फर म आपसे बात भी नह क ँ गा " मने ठने के लहजे म
कहा। मुझे पता था था क मोनू मुझसे बात कये िबना नह रह सकती। मने उसे पहाड़े याद
करने के िलए सात दन का टाइम दया था पर उसने दो ही दन म तीन पहाड़े याद करके
सुना दए थे। म हत भ था...साथ ही खुश भी क मेरी िब टया इतनी कु शा है। धीरे -धीरे
पं ह दन और िनकल गए । 11 जनवरी रात को बारह बजे माँ का फ़ोन आया|
"हेलो"
"ले मोनू से बात कर"
"है पी बथ डे चाचू .....म आज रात िबलकु ल भी नह सोई..अब तो हम प े दो त ह
न ...और मने 15 तक पहाड़े भी याद कर िलए|"
"हाँ िब टया....अब हम प े दो त ह"
"चाचू ! आप आ जाओ न...अब तो मेरी पतंग भी टू ट गयी |"
"म ज दी ही आऊंगा िब टया और आपके िलए पतंग भी लाऊंगा... फर हम दोन
पतंग उड़ाएंगे" मने उसका मूड भांपकर थोडा बात का ख मोड़ दया था। उधर वो फ़ोन
पर चहक रही थी।
"चाचू म और अंजी बाबू रोज कं चे खेलते ह। मने आपके िलए हरी , लाल, पीली
प रय जैसे कं चे रख ह ...आप ज दी आओगे न|"
"हाँ िब टया। अपनी बेरी के बेर पकते ही म आ जाऊंगा"
"ठीक है चाचू ....अब गुड़ नाईट"
"गुड़ नाईट िब टया|" ऐसे एक स ाह और गुजर गया। मने चार-पांच दन बाद घर
जाने का मूड बना रखा था। उस दन दोपहर को म हॉि पटल पो टंग के िलए तैयार हो
रहा था तभी फ़ोन क घंटी बजी।फ़ोन पर माँ थी।
"कब आ रहा रे तू"
" य या आ? सब ठीक तो है न?"
"कु छ भी तो ठीक नह है"
"ले कन आ या?"
“तू घर आने क बात पर बार-बार मोनू को गोली देता रहता है...अब रात से बुखार
म तप रही वो" माँ ने ं धे ए गले से बोला।
" या....ले कन कल दन म तो ठीक थी वो...कल शाम को ही तो बात ई है उससे
मेरी ... कतना चहक रही थी वो....इतनी ज दी या आ उसे?"
" या बताऊँ बेटा! तेरे दादाजी के गुजर जाने के बाद तेरे चाचा-चाची रोज आये दन
लड़ाई करते रहते ह। खेत के बंटवारे म बेरी उनके िह से म आयी थी। मोनू रोज बेरी को
देखकर आती थी। कल दोपहर को कह रही थी क दादी अपनी बेरी म अब लाल बेर आने
लग गए...अब चाचू ज दी आ जायगे।
"साफ़- साफ़ बताओ न या आ"
"होना या है....कल छोटी सी बात पर तेरे चाचा ने तैश म आकर खड़े हरे बेरी के
पेड़ को काट डाला। कल शाम को ब त रोई थी वो...और अब... बुखार म एक ही बात
बड़बड़ा रही है...म मी अब चाचू नह आएंगे न...म मी अब चाचू नह आएंगे न" कहते-
कहते माँ का गला भर आया। मेरे हाथ से फ़ोन छू टकर िगर पड़ा था। म अपना बैग उठाकर
घर के िलए िनकल पड़ा । मेरे मन म बस एक ही याल था –अपनी बेरी के बेर पक गए
िब टया|
◆ ◆ ◆
िनिशथा

से ख़ामोशी पसंद नह थी, िबलकु ल भी नही| अपार ऊजा से भरी, बेहद आकषक
उ ि क वािमनी थी िनिशथा| गे ए ँ रं ग क सुगढ़ कद-काठी म ढली अ हड
लड़क | जो भी उसे देखता, बस देखता रह जाता| नैन न भी एकदम तीखे-तराशे
ए, चंचल आँखे ढेरो सवाल िलए| सवाल तो जैसे हमेशा उसके होठ पर ही रहते थे|
उसका ान भी असीिमत था| इसिलए सवाल भी बौि क एवं रोचक होते थे| वैसे बेवकू फ
भरे सवाल क भी कमी नही थी उसके पास| यही वजह थी क वो अजनबी माहौल म भी
आसानी से ढल जाती थी|
म उससे पहली बार अपनी दीदी क शादी म िमला था और वो पागल लड़क
पहली ही मुलाकात म मुझसे उलझ पड़ी थी| उस समय म जयपुर रहकर डॉ टरी क वेश
परी ा क तैयारी कर रहा था| पढाई का दबाव यादा होने क वजह से म अपनी दीदी क
शादी म भी मंडप के दन प च ँ पाया था|
सभी लोग अपने-अपने कामो म त थे | काम क अिधकता के चलते माँ ने मुझे
भी काम पर लगा दया और वो भी िनिशथा के साथ| जब तक म गाँव म रहा, मुझे घर के
सारे काम आते थे पर अब लग रहा था मानो मुझे जंग लग गया है| ऊपर से उस पागल
लड़क क मजा कया हरकत....म फर भी अनमने मन से आटा छानने म लगा रहा| माँ ने
आटे क पूरी बोरी मुझे स प दी थी ...छानने के िलए| म साल भर शहर म रहकर शहरी रं ग
म रं ग-सा गया था| मुझे काम करता देख उसक हँसी नह क रही थी|
“तू तो शहर जाकर िबलकु ल हीरो बन गया रे ” उसने मुझे छेड़ते ए कह| “पहले तो
तू िब कु ल गाँवडेल था”
“तुमको काम करना है या नही“ मने िबगड़ते ए कहा|
“नह करना“
“नह करना तो चल! रा ता नाप अपना| परे शान मत कर मुझ“े
“नही जाती! तू या कर लेगा“
“ठीक है! मत जाओ| पर मुझे अपना काम करने दो“ कहकर म फर से अपने काम म
लग गया|
“ या- या होता है वहां तेरे शहर म“ उसने मुझे फर से उकसाते ए कहा|
“होने-वोने का तो मुझे पता नही..... म वहां िसफ पढाई करने गया ँ और पढाई ही
करता “ँ
“लड़ कयां भी पढती ह गी न तेरे साथ“??
“तू मुझे काम करने देगी या नह “??
“नह करने दूग ं ी......पहले मेरी बात का जवाब दे“ उसने अकड़ते ए कहा|
“नह बता रहा” मने भी उसी के लहजे म उसे जवाब दया|
“ठीक है मत बता| वो उठकर मटकती ई वहां से चली गई और जाते-जाते आटे से
भरी छलनी मेरे िसर पर डाल गई|
मुझे उस पर गु सा आ रहा था पर उसक चुहलबािजयाँ भी मन को भा रही थी| सो
मने उसे कु छ नह कहा....| म चुपचाप आटा छानने म लगा रहा| आधे घंटे म पूरा आटा छन
चुका था पर मेरी हालत भूत से भी बदतर हो चुक थी| उसका िगराया आ आटा अब भी
मेरे बाल से झड रहा था|
सो मने पहले नहाने का फै सला कया और टावल लेने भाभी के पास चला गया|
िनिशथा पहले से ही वहां ग पे हांक रही थी| मेरे जाते ही वह फर से शु हो गई|
“दीदी! इन जनाब को ताक म िबठाकर अगरब ी लगा दो| कोई भी काम तो ढंग से
करना नह आता इनको| मण भर आटा छानते-छानते मेरी तो कामर ही टू ट गई ” वो
कामर के हाथ लगाकर ऐसे अिभनय कर रही थी मानो पूरा आटा उसी ने छाना हो| भाभी
भी उसक बात पर मु कु रा रही थी|
“अब तू यहाँ खड़ा-खड़ा हमारी श ल या देख रहा है.... जा दो िगलास शरबत
बना ला हमारे िलए| देखा नही कतना काम कया है मने
“हाँ देखा है| ब त काम करती है तू” म भी उसे छेड़कर शरबत बनाने चला गया|
थोड़ी देर म म हम तीनो के िलए शरबत बना लाया|
“अरे वाह! तू तो ब त अ छा शरबत बनता है| तेरी वो तो ब त खुश रहेगी तेरे
साथ” कहकर वो फर से िखलिखलाकर हँस पड़ी|
“तू मार खाएगी या मेरे हाथ से” मने िचढ़ते ए कहा|
“ य अपने हाथ को क देते हो साब...बात नह करनी तो मत करो...हम तो चले”
फर वो हँसती हँसती बाहर चली गई|
“कौन है भाभी ये लड़क ”? मने भाभी से पूछा|
“ये! ये मेरी चचेरी बहन है| आज पहली बार अपने घर आई है|”
“छोरी तो ब त तीखी है भाभी ये”
“हाँ! तीखी तो है...पर दल क ब त साफ़ है”
“वो तो म देख ही रहा .ँ ..धेले का काम कया नह और छलनी भर आटा िसर पर
और डाल आई मेरे|”
मेरी बात सुनकर भाभी भी हँस पड़ी| फर म नहाने चला गया| घर के कामो म पूरा
दन कब िनकल गया, मुझे पता भी नही चला|
शाम को खाली बैठा देख िनिशथा फर से मुझे छेड़ने चली आई|
“ओ हीरो! मेहद ँ ी लगा देगा मेरे हाथ म”
“मुझे नह आता मेहद ँ ी लगाना”
“अरे लगा दे ना! भाव यू खा रहा है| दीदी कह रही थी क ब त अ छी मेहद ं ी
लगता है तू”
“ठीक है! लगा दूग ं ा पर पहले ॉिमस कर क आगे से इतनी मजाक नह करे गी”
“ओके ॉिमस एंड सॉरी...अब लगा दे” उसने मेहद ँ ी लगवाने के िलए अपने हाथ मेरे
आगे कर दए|
“अपने हाथो क लक र एक जैसी ह ना”
मने उसके हाथ क तुलना अपने हाथ क लक र से करते ए कहा|
“ह म.... ह तो एक जैसी ही| पर और भी कई लक र है जो तु हे नह दख रही|
“और कौनसी लक र है”?
“वो लक र ह.....समाज क ......रसूख क ...व क ” उसने मेरे बालो म अंगुिलयाँ
फराते ए कहा| उसक बाते मेरे सर के ऊपर से जा रही थी|
“अरे ! मने तु हारा नाम तो पूछा ही नह
“मेरा नाम! मेरा नाम है...िनिशथा....और तु हारा”
“मेरा नाम....पागल....सब इसी नाम से बुलाते ह मुझे” मने मुंह िपचकाते ए कहा|
“सच म पागल हो तुम तो| ओ हीरो! नाम बदल ले अपना वरना कुं वारा ही रह
जायेगा” वो फर से शु हो गई|
“मने मना कया था ना मजाक के िलए”
“सॉरी....अब ज दी से मेहद ँ ी लगा दे...सूखने म भी टाइम लगेगा|
फर कु छ सोचकर-
“म ढू ँढूँगी! एक अ छा सा नाम तु हारे िलए” उसने बड़ी मािनयत से कहा|
उसके एक हाथ म मेहद ं ी लग चुक थी |
“ठीक है पागल! अब म चलती |ँ ”
“अरे क तो सही” मने जबरज ती उसका दूसरा हाथ पकड़कर अपने बाजू म
िबठा िलया| उसने भी अपना हाथ छु ड़ाने क कोई कोिशश नह क |
“ऐ िनिश! याह करे गी मुझसे? मने थोडा मानी होते ए उससे पूछा|
मेरे इस सवाल से वो और भी यादा संजीदा हो गई| वो काफ देर तक मेरे चेहरे
क ओर देखती रही| फर एकदम से - ”कभी आइने म शकल देखी है अपनी...पढने-िलखने
का तो कोई काम है नह , जनाब चले याह रचाने” और बडबडाते-बडबडाते वहां से
उठकर चली गई|
िनिशथा बाहर से िजतनी मजा कया थी, अंदर से उतनी ही गंभीर....उसका
जीवन एक खुली कताब था| उसके बारे म सब को सबकु छ पता रहता था, मगर मुझे वो
हमेशा ही रह यमय लगती| म हमेशा उससे कहता था क िनिश! म तु हे कभी समझ नह
पाउँ गा और वो कहती...” या हािसल कर लोगे मुझे समझकर....म एक रे त क नदी
.ँ ..िसवा रे त के कु छ भी तो नह है मुझमे...िजतना मुझे पाने क कोिशश करोगे, उतनी ही
म तु हांरे हाथ से फसलती जाऊँगी|” म जब भी उसे समझने क कोिशश करता, वो उतना
ही मुझे और उलझा देती! मुझसे उ म तीन साल छोटी थी वो पर मुझसे कह यादा
समझ थी उसे|
कभी-कभी तो लगता था िनिशथा एक मृगमरीिचका है, िजसे म जब भी देखता
,ँ दीवाना आ जाता |ँ कभी-कभी लगता क वो िसफ एक म है, तभी उसक
चुहलबािजयाँ मुझे अपने खयालो से वापस ख च लाती और उसे म एकदम अपने करीब
पाता|
उस रात उसने मुझसे बात भी नह क | मुझे खुद पर गु सा आ रहा था क मने
मजाक करके उसे नाराज कर दया पर शायद नाराज होना तो उसने सीखा ही नही था|
अगली सुबह वो अपने गीले बाल को झड़कारती ई मेरे पास आई|
“ओ पागल! तेरे कये एक नाम सोचा है मने...और वो नाम ह िनिशथ”
“िनिशथ! ये कै सा नाम है? तु हे मतलब भी पता है िनिशथ का?” मने सवािलया
लहजे म पूंछा|
“हाँ! पता है| ये नाम मेरी क मत है...और आज से तुम मेरी क मत के साझेदार
ए”
“ठीक है! मै िनिशथ और तुम मेरी िनिशथा”
ओ हीरो! इतना आगे क मत सोच अभी| तु हे पता भी है कतने पापड़ बेलने
पड़गे मुझे पाने के िलए”
“बेल लूँगा, अगर तूने साथ दया तो”
ओ हीरो! ये आिशक बाद म झाड़ना...पहले मेरे साथ खेत पर चल...दीदी ने एक
काम बताया है और वो मुझे ख चकर अपने साथ ले गई|
रा ते भर वो बस अपनी ही गाती रही फर एकदम से संजीदा होकर –
“िनिशथ! चाहती तो म भी यही ँ क हमेशा तु हारी बनकर र ँ पर तुम मेरी
क मत म हो ही नह .....तुम डॉ टर बनोगे..... कसी डॉ टरनी से याह करोगे.....और
म....वह कहते-कहते फर से चुप हो गई |
“काश म िचिड़या होती.....मेरे भी पंख होते.....जहाँ जी करता..... व छंद उड़ती|
यहाँ....वहां| उस पेड़ क डाली पर हरी टहिनय के झुरमुट म मेरा घ सला होता.....न कोई
लाग-लपेट होती.....न ही कोई बं दश.....बस होती तो िसफ “ म ”|
“अरे ! तुमने वो गाना सुना है या? “म और मेरी आवारगी”
“नह तो” मने जवाब दया
“ओ हीरो! कभी कताब क दुिनया से बाहर िनकलकर भी देखा कर”...और फर
वो वही गाना गुनगुनाने लग गई|
मुझे कभी-कभी लगता क िनिश मानिसक प से बीमार है| नॉमल तो है ही नही|
हमेशा अपने नाम को कोसती रहती.....संगीत तो जैसे उसके रोम-रोम म बसा था| हमेशा
कोई ना कोई गाना उसके होठ पर रहता था| मेरे िलए एक अनबूझ पहेली थी िनिशथा|
“पहाड़ पर वो सुख लाल पलाश देख रहे हो, वो कोई और नह मेरी ही परछाई
है। इसक ही तरह मुझे भी कभी बहार नसीब नह ह गी| काश! म खुशबू
होती....िततिलय के संग खेलती....फू ल के घर म रहती....जो भी मेरे संपक म आता....बस
मुझमे ही खो जाता.... कतना अ छा होता ना”
“ओ पागल छोरी! अब सपनो क दुिनया से बाहर िनकल| भाभी का बताया काम
भी िनपटाना है ....देर हो गई तो माँ डांटेगी....ब त मेहमान है घर पर”
“माँ मुझे य डांटेगी....म तो खुद मेहमान .ँ ...मेहमान से भी कोई काम
करवाता है भला” वो मुझे स जी तोड़ने के काम म लगाकर फर से शु हो गई|
कतना बोलती थी वो| थकती भी नह थी पर उसक यही बात मुझे सबसे यादा
पसंद थी|
“िनिश! तू भी तुडवा न स जी” मने थोडा र े ट करते ए कहा|
“तु हे अपने सवाल का जवाब चािहए ना”
“हाँ चािहए! तो!”
“तो फर स जी तू ही तोड़ेगा, तभी म तेरे सवाल का जवाब दूग ँ ी|”
कतना लैकमेल करती थी वो| मुझे काम पर लगाकर पता नही वो खुद कहाँ
गायब हो गई| म अब स जी तोड़ चुका था| काम पूरा होते ही वो मेरे पास आई और मुझे
पास वाले नीम के पेड़ के नीचे ले गई| उसने अपना दुप ा मेरी आँख पर बाँध दया था|
पेड़ के पास ले जाकर उसने मरी आँख से दुप ा हटा िलया| उसने पेड़ के तने पर
कसी नुक ली चीज से “िनिश” िलखा था|
“ये या है”??
“ये हमारा नाम है....हम दोन का....ना िनिशथा, ना िनिशथ....िसफ “िनिश”
“कभी तुम जब बड़े डॉ टर बनकर यहाँ आओगे....तब याद तो करोगे....कोई
पागल “िनिश” भी थी”| उसक आँख म आंसू थे|
“तुम हमेशा ऐसी नीरस बाते ही य करती हो| म तो नह चाहता तुमसे दूर
होना”
“ले कन मेरे हीरो! मुझे पाने के िलए तु हे पहले डॉ टर बनना पड़ेगा”
“तो कर तो रहा ँ पढाई”
“ऐसे नह ! वादा करना पड़ेगा....अगर डॉ टर नह बन सके तो भूल जाना िनिश
को”
“हाँ िनिश! म बनूँगा डॉ टर...तु हारे िलए....कहते-कहते मेरी आँखे भर आई|
थोड़ी देर बाद हम वापस घर लौट आये|
दीदी क शादी हो गई| सारे मेहमान िवदा हो चुके थे पर िनिशथा कु छ दन के
िलए हमारे घर पर क गई| मेरे कहने पर| उसक चुहलबािजय के बीच वो स ाह कै से
बीत गया, मुझे पता ही नह चला|
उस दन दादाजी ने आहते म अलाव जला रखी थी| िनिश मेरी किजन क
साई कल मांग लायी थी....चलाने के िलए|
“ओ हीरो! मुझे साई कल चलाना िसखा ना”
“नह ! रहने दे....िगर जाएगी”
“तू है ना मुझे सँभालने के िलए” उसने फर से मुझे छेड़ दया| मने उसक
साई कल का हडल पकड़ रखा था और वो पैडल मार रही थी| एक हाथ से उसने मेरा
क धा पकड़ रखा था और वो आहते म गोल-गोल घूम रही थी|
“ले हीरो! अपना याह भी हो गया अब”
“ याह”??
“और नह तो या?? अि के पूरे सात फे रे जो िलए ह....वो भी साई कल
पर”.....और वो फर से हंसने लग गई|
“तो मैडम अब म आपक माँग भी भर दू”ँ ??
“उसके िलए तो डॉ टर बनना पड़ेगा” कहकर वो भाभी के पास भाग गई|
सही तो कहा था उसने...वो साई कल पर अलाव के चार ओर गोल-गोल ही तो
घूम रही थी| अनजाने म ही सही....उस दन हमने सात फे रे भी िलए थे|
उसके साथ हंसते-खेलते दो स ाह से भी यादा समय बीत गया था| अब मुझे
वापस जयपुर आना था| वापस जयपुर आने से पहले म उसके िलए एक माला लेकर आया
था| उसने भी माला मेरे हाथ से पहनी थी|
“ये लो अब मंगलसू भी पहना दया तुमने”
माला पहनते समय भी उसने अपना जुमला मार दया|
“तुम कभी सी रयस भी होती हो या”? मने खीजकर पुछा|
“सी रयस ही तो .ँ ...कह रही ँ न.....डॉ टर बन जाओ बस”....कहकर वो वहां से
चली गई|
म फर से जयपुर आकर अपनी पढाई म त हो गया| िनिशथा एवं उसक बात
पर व क गद जम गई| सब कु छ फर से पहले क तरह सामा य हो गया| पढाई-पढाई म
वो साल भी बीत गया|
अब मुझे आगे क पढाई के िलए कोटा जाना था| उस दन भी िनिशथा का फोन
आया था| उस दन भी उसने डॉ टर बनने क याद दलाकर फोन रख दया| कोटा जाने के
बाद भी मुझे िनिशथा से कया वादा हर व घूमता रहता| मने सालभर जमकर पढाई क |
उस साल मेरा डॉ टरी म चार-चार जगह नंबर पड़ा....पर मने घर के नजदीक “स ाट
पृ वीराज चौहान मेिडकल कोलेज, हयात शहर“ चुना|
मेरे हयात शहर आने से पहले िनिशथा मुझसे िमलने हमारे घर आई थी| शायद
हमारी िज़ दगी क वो आिखरी मुलाकात थी|
“मुझे पूरा यक न था तुम अपना वादा ज़ र पूरा करोगे”
“नह िनिश! तु हांरे िबना म ये सब नही कर पाता”
“अब भी इरादा है मुझसे याह करने का”
िनिश ने मेरा हाथ अपने हाथ म लेकर पुछा| उसक आवाज म अजीब सा ठहराव
था|
“हाँ िनिश!”
“भूल जाओ इन बात को....ये मुम कन नही है”| कतना बदल चुक थी वो अब
तक....वो अ हड़पन, चुहलबािजयाँ पता नह कहाँ खो गई थी| िब कु ल संजीदा हो चुक
थी अब|
उसने दो पल के िलए मेरी आँख म देखा| वही जाने-पहचाने भाव, िज ह म कभी
पढ नह सका था.... फर वो वहां से चली गई और जाते-जाते एक कागज का टु कड़ा मेरे
हाथ म थमा गई|
म बुत सा वही ँ खड़ा रहा| पहली मुलाकात से लेकर अब तक का हर ल हा मेरी
आँख के सामने तैर रहा था|
“मेरे िलए शरबत नह बनाओगे या डॉ टर साब”?? उसने िवदा लेने से पहले
अपनी आिखरी फरमाइश क | उसक आवाज म पहले जैसी चुहलबाजी नह थी.... बस था
तो एक डर....एक दद ....एक ठहराव| उसके बाद िनिशथा चली गई....मेरी िज़ दगी
से...हमेशा-हमेशा के िलए|
उसका वह ख़त...मेरे उन सभी सवाल का जवाब था िजनक वजह से िनिशथा
मुझे मेशा एक पहेली लगती थी|
िनिशथ ,
मुझे पूरा यक न था...तुम अपना वादा ज र पूरा करोगे....म भी यही चाहती
थी क तुम डॉ टर बनो....अपने िलए....अपने घर वालो के िलए....तु हारी डॉ टरी मेरे
यार का तोहफा है| म कहती थी न क मेरा नाम मेरी क मत है| िनिशथ......
मतलब......म यराि का वह सं मण काल जब एक ितिथ दूसरी ितिथ म बदलती है....पर
मेरे िलए यह सं मण काल दो ज म का है| पता नह कसने ये समाज बनाया....धम
बनाया....जाितयां बनाय ....इससे भी जी नह भरा तो गो बना दए....िजनके िहसाब से
हम एक दुसरे के कभी नही हो सकते..... कम से कम इस ज म तो नह .....तु हारी वो माला
हमेशा मेरे गले म मंगलसू बनकर रहेगी....हमने अि के सात फे रे िलए ह....कहने म यह
मजाक लगे....पर मेरे िलए तो िसफ वही सच है| यह ज म तो मेरे िलए एक
अिभशाप....एक बोझ है...िजसे मुझे ढोना ही पड़ेगा|
सुनो! तुम अगले ज म म मेरे िनिशथ ही बनना....और म
बनूँगी....तु हारी....िसफ तु हारी....म इं तजार क ँ गी तु हारा....तुम आओगे ना....मेरी
मांग भरने....म राह देखूंगी तु हारी|
हर ज म म िनिशथा ही बनू,ँ इतनी भी बदनसीब नह ँ म|
◆ ◆ ◆
हयात शहर

को ईऔरभीहोते
शहर िसफ एक शहर नह होता। उसम कु छ खुशबुएँ होती ह, कु छ याद होती ह
ह कु छ रं ग . िज़ दगी के । हयात शहर -मेरी याद का शहर। हयात शहर
मेरे िलए हमेशा से ही मेरी मेहबूबा क तरह रहा है। म हयात शहर क सात ऋतु का
सा ी रहा ँ पर पीछे मुड़कर देखता ँ तो लगता है मान स दयाँ बीत गयी ह । ये बयानी
िसफ मेरी ही नह बि क उन तमाम फ ड़ िमज़ाज यायावर क भी है िज ह ने हयात
शहर को िजया है - थोड़ा या यादा। हयात शहर आज भी एक दलकश न म क तरह
मेरी शि सयत के प पर ज़ंदा है। कई बार तो लगता है क हयात शहर एक बेजान
िम ी क टु कड़ा न होकर हाड.माँस का साँस लेता पुतला है। िच ती दरगाह और तीथराज
उसके दो सुडोल उरोज़ ह तो स ाट का कला उसका ताज। आनासरोवर उसका पेड़ है तो
हम उस पर रगने वाले परजीवी।
उस दन हमारी कार स कट हाउस के सामने क । मेरे साथ मेरा NRI ू था जो
साझा सां कृ ितक िवरासत िवषय पर अ ययन के िलए हयात शहर आया आ था। चेक-
इन फॉमिलटीज के बाद हम अपने - अपने कमर म चले गए। थोड़ी देर बाद मेरे कमरे के
दरवाजे पर द तक ई। दरवाजे पर चौक दार था, िजसे मैन ही बुलवा भेजा था। हम
दोन बात करते -करते स कट हाउस के िपछले िह से म आ गए। यहाँ से पूरे शहर का
नज़ारा देखा जा सकता था।
उस दन क खूबसूरत शाम हयात शहर को अलिवदा कहने जा रही थी। अनमना-
सा सूरज भी लाल-पीला होकर नाग पहाड़ क ओट म िछपने जा रहा था। ढलती शाम और
नाग पहाड़ क परछाई आना-सरोवर म िसमटती जा रही थी। धूसर बगुले और तरह -
तरह के वासी प ी सरोवर के उथले पानी म अपनी उपि थित दज करा रहे थे।
“यहाँ हमेशा ऐसा ही नज़ारा रहता है?” मने चौक दार से पूँछा।
“हाँ साहेब। जैसे - जैसे शाम ढलती है वैसे - वैसे यहाँ का नज़ारा जवाँ होने लगता है।
ये पंछी भी हमारी तरह दूर देश से सवाली बनकर यहाँ आते ह और फर अपने देश लौट
जाते ह। कु छ हमेशा के िलए यह के होकर रह जाते ह। हर शाम सरोवर कनारे चौपाटी
सजती है। बड़ा ही खूबसूरत शहर है हमारा” चौक दार ने अपनी बात पूरी क ।
“वैसे म यहाँ पहले भी कई बार आ चूका ।ँ सब कु छ देखने - घूमने के बाद भी
लगता है जैसे कु छ छू ट गया है। पता नह ऐसा या जादू है यहाँ क फ़ज़ा म, क हर बार
खंचा चला आता ”ँ
“यहाँ आने पर सबको ऐसा ही लगता है साहेब।“ चौक दार अपने कोट क जेब से
एक िविज टंग काड िनकालता है।
“इनसे िमिलएगा साहेब। बड़ी ही दलच प औरत है। इनसे बेहतर गाइड नह
िमलेगा आपको शहर म"
चौक दार ने काड मेरे हाथ म थमा दया। काड पर बेगम जान िलखा आ था। साथ ही
एक मोबाइल न बर भी।
“ ेट|” मने काड अपने वॉलेट म रख िलया। आसमान म िसतारे अपनी
धमाचौकड़ी मचने आ चुके थे। शहर ने शाम क लाल चुनरी उतारकर रं गीन रोशनी क
काली चादर ओढ़ ली थी।
अगली सुबह म चौक दार के बताये पते पर िनकल पड़ा। िच ती माकट क तंग
गिलयां मेरे िलए अजनबी नह थी। काफ पूछताछ के बाद म एक तीन मंिज़ला हवेलीनुमा
ईमारत पर प च ं ा। िच ती बाजार सजने लगा था। दुकानवाले ज़ायरीन को फू ल और
चदर खरीदने के िलए आवाज़ दे रहे थे। गुलाब के फू ल क खुशबू और इ क महक ने
ग दी नािलय क बदबू को ढक िलया था। हवेली के दरवाजे पर खड़े गाड को चौक दार
क दी ई पच दखाकर म सी ढ़य से ऊपर बढ़ गया। सी ढ़यां तीसरी मंिजल पर एक बड़े
से बरामदे म ख़ म होती थी। हाल क सजावट और न ाशी मुगिलया अंदाज़ म क गयी
थी। सभी कोन और झरोख के चर ओर बूटेनुमा अरबी म आयत उके री ई थी। फश पर
एक लाल ईरानी कालीन िबछी ई थी जो बेगम जान के शाही अंदाज़ को बयाँ करती थी।
सामने बालकनी म एक पतीस.चालीस साल क औरत कसी से फोन पर बात करने म
मशगूल थी। उसने हाथ से मुझे सोफे पर बैठने का इशारा कया। सोफे के बाज़ू म रकॉडर
पर बेगम अ तर क ठु मरी बज रही थी।
थोड़ी देर बाद वो मेरे सामने के सोफे पर आकर बैठ गयी।
“कोई तकलीफ तो नह ई यहाँ तक प च ँ ने म”
“जी यादा नह ! बस एक जगह फसलकर क चड म िगरने से बाल - बाल बचा
और र ते भर माल नाक से नह हटा” मेर जवाब सुनकर उसे हंसी आ गयी।
“आप ही बेगम जान ह? मने सकु चाते ए पूछा।
“कोई शक?” वो हंसने लगती है|
वो नौकर को इशार म कु छ बताती है। थोड़ी देर बाद नौकर त तरी म चाय, कु छ
फल और दो जाम सजाकर ले आता है।
“जी म शराब नह पीता।”
“तक लुफ न क िजये। यहाँ सब चलता है।”
एक बारगी तो मुझे लगा क म शायद कसी गलत पते पर आ गया।
“अ दुल चचा देखना शोएब आया क नह ” बेगम जान नौकर को आवाज देती
है। नौकर बालकनी म जाकर नीचे खड़ी मोटर साइ कल को देखता है।
“गाड़ी अभी तक तो नह आयी बेगम।”
“ठीक है उसके आने तक आप अ बा का याल रिखयेगा।”
“जी बेगम।” नौकर, शायद उसी का नाम अ दुल है, सीढ़ीय से ऊपरी माले पर
जाता है। वहाँ से कसी के खाँसने क आवाजे आ रही थी।
“खलल के िलए माफ चाहती ।ँ कु छ दन से अ बा जान के आधे शरीर म कोई
हरकत नह ह। शोएब उनक तीमारदारी करता है। आज शायद आने म लेट हो गया। खैर
छोिडए, आप बताइए। हयात शहर म दलच पी क कोई ख़ास वजह?”
“कोई वजह नह है। बस यहाँ बार-बार आना अ छा लगता है”
“ठीक है। दो घंटे बाद हमारी गाड़ी आपको स कट हाउस प च ँ जाएगी। तब
तक आप भी तैयार हो लीिजये|” सुबह दस बजे हमारा ू मण के िलये िनकल पड़ा।
रिजया बेगम भी हमारे साथ थी। हमारी गाड़ी नागपहाड़ के घुमावदार रा त पर सरपट
दौड़ी जा रही थी।
“ये नाग जैसा फल उठाये पहाड़ देख रहे हो, यह नाग पहाड़ है। कहते ह इसी
पहाड़ क एक क दरा म गु विश ने वष तक तप कया था। स दय पहले जब लुटेरे
गौरी ने िह दु तान पर आ मण कया था, तब स ाट ने कु छ दन इसी क दरा म िछपकर
िबताये थे” बेगम जान पहाड़ पर एक गुफा क ओर इशारा करते ए बताती है। सड़क के
दोन तरफ घना जंगल था। बंदर, लंगूर सड़क के ऊपर तक फै ले पेड़ पर उछल-कू द कर रहे
थे। तकरीबन आधे घ टे बाद हमारी गाड़ी एक सूखे से तालाब पर क । सड़क के दूसरी
ओर सरोवर क ओर इशारा करते ए, भीमताल िलखा आ था। टू टी ई छत रय को
पार करते ए हम घाट पर प च ँ े।
“ये बूढ़ा सरोवर है। बूढ़ा इसिलये क अब यहाँ कोई नह आता। पानी सूखने के
बाद सब इसे छोड़ नये सरोवर क ओर मुड़ गये। ठीक वैसे ही जैसे शादी के बाद ब े माँ-
बाप को छोड़ कर बीवी के साथ त हो जाते है। कहते है गुमनामी के दन म पाँडव यहाँ
अपनी यास बुझाते थे।”
एक मुि लम औरत का दूसरे मजहब क इतनी गहरी जानकारी रखना दल-
च प था। शाम को रे तीले धोर के बीच के प फायर का ो ाम था। दूसरे गाइड ने मेरे
साथी ू के िलये नशे का ब दोब त कर दया था। सभी नाच-गाने म त थे। बेगम जान
ने अपने कसी जानकार को वहाँ बुलवा िलया था। उसका घर तारागढ़ पहाड़ पर था।
बेगम जान मेरे िलये दलच पी का िवषय थी सो म भी उसके साथ िनकल पड़ा। उस
नौजवान क बुलेट तारागढ़ के घुमावदार रा त से हो होकर दौड़ी जा रही थी। पहाड़ के
ऊपर सपाट मैदान था िजस पर एक छोटी सी आबादी बसी थी। रात को खाने के बाद
बेगम जान मेरे साथ टहलने आ गई। स ाट के महल क खि डत दीवारे पीली रोशनी म
चमक रही थी। हम एक बुज पर बैठे गये।
“ कतना खूबसूरत नजारा दखता है ना यहाँ से शहर का”मने कहा।
“इस शहर से इतना दल मत लगा । बाहर से देखने पर यह िजतना दलकश
है, अंदर से उतना ही दलफरे ब” बेगम जान ने कहा
“अ छा”
“यहाँ कतने ही लोग होठ पर अ जयाँ िलये, हाथ म म त के धागे या
शुकराने क चादर िलये, कभी यास म डू बे तो कभी रहमत क बा रश म सराबोर होने
चले आते है। कहते है बेऔलाद िज लेलाही क औलाद भी यह आकर नसीब ई थी। यहाँ
मने कतने ही फक र को बादशाह तो बादशाह को फक र होते देखा है”
“तुम जानते हो इस शहर को हयात शहर य कहते है?” बेगम जान ने अपनी
ही बात काटते ए पूछा।
“ यादा तो नह , पर इतना ज र जानता ँ क हयात जंदगी का उदू ल ज
है।”
“ठीक फरमाया। यहाँ आकर कोई समझ नह पाता क कब यह शहर उनक
िज दगी बन गया। थोड़े ही दन म यह शहर उ ह काटने को दौड़ता है। फर भी लोग न
जाने यूँ यहाँ खंचे चले आते ह।" बेगम जान अपने ही अंदाज़ म शहर के बारे म बता रही
थी। उधर बीवर पल के दूसरी और से ेन का हॉन सुनाई देने लगा था। ेन के आने क
आवाज़ सुनकर बेगम जान एकदम से चुप हो गयी।
“तुम वो पुल से गुजरती ई जलती बुझती रोशिनय वाली ेन देख रही हो!”
“खुदा के वा ते ेन का िज न क िजए” बेगम जान हड़बड़ाकर वहाँ से दूर
चली गई। ऊँचाई से शहर ब त ही खूबसूरत दखाई पड़ रहा था। नाग पहाड़ पर हाल ही
म बनाया गया अजयमे मारक दूिधया रोशनी से सराबोर था। उधर बेगम जान इस
शहर िजतनी ही गुमशुदा, खोई सी बुज के दूसरी ओर खड़ी थी। एक पतीस साल क जवान
औरत। िज मानी तौर पर क ँ तो उसके बोशीदा ल ब ओर सुख गाल क लाली अब भी
बरकरार थी। ेन के िज से उसका हड़बड़ा जाना मेरी समझ से बाहर था। वो नौजवान
देखने म उसका शौहर लगता था पर मने उसे कह भी रिजया से बात करते नह
देखा........ना हवेली पर, ना रा ते म और ना ही घर पर। उसक चु पी मेरे दमाग म
खलल डाल रही थी। रिजया घर जा चुक थी। म अपने ही सवाल म गुम तारागढ़ के
घुमावदार रा त पर थोड़ा आगे िनकल आया। रात के नौ बज चुके थे। ऊपर तक वापस
पैदल जाना अब मेरे िलये मुि कल होता जा रहा था। थोड़ा आगे चलकर मने एक
मोटरसाइ कल को हाथ दया।
“भाई! ऊपर तक िल ट िमल सकती है?”
“िमल सकती है, पर एक शत पर”
“वो या?”
“आप मुझे भाई नह , भाईजान कहोगे” उसक शत सुनकर मेरी हंसी छू ट
पड़ी।
"ठीक है भाईजान"। वो नौजवान, बेगम जान के साथ रहने वाला नौजवान ही
था।
“तुम बेगम जान के शौहर हो?” मने पूँछा। उसने कोई जवाब नह दया।
घर प च ँ कर उसने मुझे अपना कमरा दखाया और नमाज के िलये िनकल गया। साढ़े दस
बजे रिजया खाना लेकर मेरे कमरे म दािखल ई।
“खाने के अलावा या हािजर कया जाऐ आपक िखदमत म?”
“जी! यही काफ है|”
“शरमाइऐ नह .............फरमाइये। कोई भी शौक हो-औरत, मद,
नशा...........या कु छ और। सब इसीिलए तो आते ह यहाँ। रात को उधर िच ती बाजार म
िज म िबकते है। गो त के िहसाब से रे ट। आिखर शौक बड़ी चीज है।” बेगम जान पास
वाले सोफे पर बैठी लगातार बोले जा रही थी।
“जी माफ क िजये ।इन चीज म मेरी कोई दलच पी नह है|” बेगमजान क
फलोसो फकल बात मेरी समझ के बहार थी पर उसक बात िछपी टीस मुझे कचोट रही
थी|
“यहाँ लोग सवाली बनकर कम, अपनी यास बुझाने यादा आते ह”
“आपके शौहर नह दखे कही” मेरे मुंह से अनायास ही िनकल गया। मेरा सवाल
सुनकर बेगमजान एकदम से चुप हो गई और उठकर कमरे से बाहर चली गयी। ऐसा भी
नह था क मने कोई जाती सवाल पूछ िलया था। खैर मने कोई ित या नह दी।
“आपको कु छ चािहए हो तो शोएब को आवाज दे दीिजयेगा” बाहर से बेगमजान
क आवाज़ थी। उस नौजवान का ही नाम शोएब है, यह अब मुझे पता था। बेगम जान का
घर उसक हवेली के अलट िब कु ल ख ता हाल था। हवेली पर जहाँ बेगम जान एक खुले
खयालात वाली औरत मालूम पड़ती थी, वही घर पर एक तंग हालात से जूझती ई एक
आम औरत। घर पु तैनी था। घर का रोगन पपड़ी बन कर जगह-जगह से उखड़ आया था।
उ -दराज कवाड कसी क द तक होने पर जोर से चूँऽऽऽ करके बोल पड़ता था। बेड के
ठीक उ र म िखड़क म एक बड़ा सुराख बना आ था, िजसे बाहर का नजारा साफ-साफ
देखा जा सकता था। बेगम जान के जाते ही दरवाजा जोर से चूँऽऽऽ क आवाज करके बंद हो
गया।
रात को म खुले आसमान के नीचे ही सोया। अगली सुबह ज दी ही मेरी आँख खुल
गयी ।आसमान म म म-म म टारे टम टमा रहे थे। थोड़ी देर बाद बेगमजान चाय लेकर
कमरे म दािखल ई।
“पहाड़ी र ते पर गाड़ी चला सकते हो?”
"िबलकु ल! बड़े आराम से।"
“ठीक है! हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाओ। िच ती बाज़ार चलना है।" म शोएब
क बुलेट लेकर बेगम जान के साथ िच ती बाज़ार के िलये िनकल गया। हमारी गाडी
िच ती बाजार म उनक पु तैनी कबुतरगाह पर क । अ दुल हमारे प च ँ ने से पहले ही
वहाँ मौजूद था। अ दुल ने अनाज का बारदान बेगम जान को थमा दया। बेगमजान ने
थोड़ा-थोड़ा करके अनाज पूरे चबूतरे पर फै ला दया। कबूतर के साथ-साथ तोते, फाखता,
िगलह रयाँ भी अनाज चुगने आ गये थे।
“ये मेरे शौहर के वािलद क कबूतरगाह है। उ ह कबूतर से ब त लगाव था”
“अब नह आते वो?”
“अब वो खुदा से दो गज जमीन क फ रयाद के अलावा कु छ नह कर सकते।
एक हादसे म उनके आधे िज म क हरकत चली गई। हवेली पर वो खाँसने क आवाज
उ ह क थी।”
“ओह|”
बेगम जान िजतनी संजीदा औरत थी, उतनी ही मुँहफट। कभी-कभी तो
उसक बात मुझे थ पड़ क तरह लगती। सुबह दस बजे हम वापस अपने टू र पर िनकल
गये। हम ढ़ाई दन के झ पड़े के र ते िच ती दरगाह से होकर नूरजहाँ क झालर और
बादशाह क कचहरी जाना था। आज सड़क पर वाहन क आवाजाही यादा थी। सड़क
पर जगह-जगह झ डे और हो ड स लगे ए थे।
“पता है, आज हमारे शहर म कौन आ रहा है?” उसने मेरी ओर देखते ए
पूँछा। मने गदन िहलाकर अपनी नामालूमी जता दी।
“िह दु तान के होने वालेवजीरे -आला। वो यहाँ िसयासत क बात करगे।
बदलाव क बात करगे | अमन क बात करगे। फर फरकापर त उसमे चंगारी लगा दगे।
फर कोई और आयेगा। चंगारी शोला बना जायेगी और लोग बा द। अगले कु छ महीन
तक शहर सुलगता रहेगा। लोग िह दु-मुि लम हो जा गे। कु छ मार दये जायगे, कु छ खुद-
ब-खुद मर जायगे।”
फर थोड़ा क कर- “इन िसयासतदान क बनाई मजहबी दीवार को िगराने
म हम साल लग जायगे| ले कन हम फर से उठ खड़े ह गे| अपने शहर के टु कड़ो को
समेटगे। कु छ साल फर ख़ामोशी छा जाएगी। फर कोई और आएगा। और ये िसलिसला
चलता रहेगा|”
असल मायन म हयात शहर मु तसर िह दु तान था। जहाँ हर कोई थोड़ा
िह दु थोड़ा मुि लम था। यहाँ िच ती दरगाह क अजान और तीथराज के मं दर क
घं टय क िमठास सभी के दल म घुली ई थी। हम िच ती दरगाह प च ँ चुके थे।
“यही वो दर है जहाँ यास द रया से िमलती है और ह अपने िपया से|”
बेगन जान आगे बढ़ते ए हरे क इमारत के बारे म बताती जा रही थी। िच ती दरगाह का
हानी नजारा ह क सुकून देने वाला था। िच ती दरगाह के बाद हम बादशाह क
कचहरी होते ए नूरजहाँ क झालर प च ँ ।े शाम तक हमारा टू र पूरा हो चुका था। मने
अपने ू के साथ न जाकर उस शाम बेगम जान के साथ ही कने का फै सला कया। हम
वापस तारागढ़ आ गये। दन ढल चुका था। म पहाड़ी पर टहलने िनकल पड़ा। बेगम जान
मेरे पीछे थी।
“ये टू टी ई दीवारे और वो बुज देख रहे हो ना, ये हमारे स ाट के महल क
च द जम दोज िनशािनयाँ ह। उस समय स ाट ने सूखे से िनजात पाने के िलये पहाड़ क
तली म चार तालाब खुदवाये थे|” वो इशारे से पहाड़ क तली म एक खाई क ओर इशारा
करते ए बोली।
“ ेट”
“आज के वजीरे -आला होते तो..................हमारे िलये क के िसवा कु छ न
खुदवाते।” वह जोर से हँसने लगती है| एक बात तो म अ छी तरह से जान चुका था क
बेगम जान और िसयासत का छ ीस का आँकड़ा है।
“वो नौजवान कौन है?”
“मेरा शौहर नह है।......................यही सुनना चाहते हो ना” उसक आँखे
मेरी आँख म देख रही थी। मेरी नजर झुक गई। हम अिह ता-अिह ता आगे बढ़ने लगे।
उधर बीवर पुल पर ेन क सीटी सुनाई दे रही थी।
“कल तुमने ेन का िज कया था न” वो फर से थोड़ी देर के िलए चुप हो
जाती है। “जब भी यहाँ से गुजरती ई ेन देखती ँ तो लगता है जैसे ये ेन पुल से न
गुजर कर मेरे दल से गुजर रही है|” एक पल के िलये वो ऊपर आसमान क ओर देखने
लगती है। फर अपने आँसू प छकर हँसने लगती है।
आसमान म तारे िनकल आये थे। हम वापस लौट आये। अगली सुबह 11 बजे
मेरी ेन थी। म नौ बजे ही तारागढ़ से िनकल िलया बेगम जान मुझे टेशन तक छोड़ने
आई थी। ेन आने म चालीस िमनट का समय था। हम वे टंग हाल म ेन का इं ताजार कर
रहे थे। बेगम जान मेरी बगल वाली सीट पर बैठी थी।
“कोई परे शानी?” मने उसक उदासी का सब पूँछना चाहा। उसने बुझे चेहरे से
मेरी ओर देखा। फर इधर-उधर देखने लगी।
“आज से ठीक दस बरस पहले क बात है। ईद से ठीक एक दन
पहले.............11 अ टू बर, 2007, हाँ यही दन था। शोएब क नयी-नयी जॉब लगी थी।
दो दन बाद उसे जॉइ नंग के िलये जाना था।”
म चुपचाप उसक बात सुन रहा था।
“मेरे शौहर अपने वािलद के साथ शुकराने क नमाज के िलये िच ती दरगाह गये
ए थे। शाम के 6 बजने को थे। म स ाट महल के बुज पर बैठी बीवर पुल से गुजरती ई
ेन को देख रही थी। तभी एक जोरदार धमाका आ। िच ती बाजार से लाल गुबार उठा
और पूरे शहर म कोहराम मच गया। चार ओर पुिलस और ए बूलेस क सायरने बज
उठी। म दौड़कर अपने घर प च ँ ी और टीवी ऑन कया|”
फर वो एक पल के िलये खामोश हो गई। गुबार का सुखपन उसक आँख म
उतर आया था।
“िच ती दरगाह म ला ट आ था। टीवी न पर मेरे शौहर क
लाश थी। उनके वािलद का कटा पैर कह नह िमला। शोएब उनके टु कड़े समेट कर लाया।
सुनने म आया क वो धमाका कु छ िसयासतगद क शह पर कु छ अमनपर त दंगाईय ने
कया था। पूरे शहर म मार-काट मच गई। शोएब ने नौकरी जॉइन नह क । उसक जबान
पर ताला लग गया।”
11 बज चुके थे। लेटफाम नं. एक पर मेरी ेन ने चलने क सीटी दे दी थी।
म अपना लगेज उठाकर लेटफाम क ओर चल पड़ा। बेगम जान अपने प लू म मुँह िछपाये
रो रही थी। उसक खामोश चीख गूँज रही थी। “इस शहर से दल मत लगाना। यह बाहर
से देखने पर िजतना दलकश है, अ दर से उतना ही दलफरे ब।”

◆ ◆ ◆
म ई र तो नह

फर से सी पी आर क नाकाम सी कोिशश करके म बुत सा अपनी कु स म धंस


गया। आज फर कसर आई सी यू म मेरे एक मरीज ने कसर क असहनीय पीड़ा से अपना
पीछा छु ड़ा िलया था ।पर मेरे चेहरे पर भावुकता या दद का कोई िनशान नह था।
अनायास ही मेरी दांयी आँख से एक आंसू मेरी पलक पर आकर ठहर गया। मने उसे अपने
सफ़े द कोट क बांह से प छने क कोिशश क पर वो जस का तस बना रहा।
"तुम मुझे प छकर अपने िन ु रपन को िछपाना चाहते हो!"
"नह ! ऐसा नह है। म तो बस ऐसे ही...."कहते कहते मेरा शरीर कु स म एक
इं च और धंस गया।
"बोलते य नह ? तु हारे ज़ बात मर गए ह या तु ह खुदा होने का भरम है?"
म अपने आंसु क बात को अनदेखा करके अपने काम म लग गया।
"कु छ बोलते य नह ? या रोज रोज ये मौत का तांडव देखकर तु ह पीड़ा नह
होती या फर.... तुम इं सािनयत भूल चुके हो?"
मेरे आंसू मेरी पलक पर फ़ै ल कर मेरी चु पी तोड़ने का भरसक य कर रहे थे।
मने अपनी पलक मूँद ली। फर एक गहरी सांस छोड़कर मृतक का डेथ
स ट फके ट भरने म लग गया। पर वो आंसू थे क पलक को छोड़ने का नाम ही नह ले रहे
थे।
"मेरे रोने या बोलने से कु छ नह होने वाला ि य!
ये तुम भी जानते हो क ई र ऐसे मरीज के जीवन क डोर ब त पहले ही काट
चुका होता है। ये तो हम लोग ह क इनक साँस को ढील दए जा रहे ह... दए जा रहे
ह...कु छ पल ...घंटे.... दन....महीने"
मेरे ल ज़ म अधीरता छलकने लगी थी।
"म ई र तो नह .ँ ..पर म रोज ई र को चुनौती देता ।ँ म रोज इनक छाती
दबा-दबा कर ई र को चंद साँसे...घंटे... दन...या फर से जीवन लौटाने को मजबूर करता
।ँ "
मेरे आंसू मेरे ल ज़ क लड़खड़ाहट और आँख के लालपन से मेरी भावुकता का
अंदाजा लगाने क कोिशश कर रहे थे।
"म िन ु र नह ँ ि य!
म रोज अपने दुधमुह ब े से वादा करके िनकलता ँ क म आज फर से कसी के
जीवन म
उस के जैसी ही मु कान लौटाने क कोिशश क ँ गा"
मेरे ल ज़ क लड़खड़ाहट बढ़ चली थी।
"तुम समझ सकते हो ... कतना खौफनाक होता होगा ये मंज़र....पर म रोता नह
ँ ि य"
मेरे आंसू मेरे ल ज़ के पीछे िछपी िसस कय को सुनकर त ध थे।
"तुम समझ सकते हो ि य ...."
म सभी फाइल को िस टर को स पकर घर के िलए िनकल पड़ा। हॉि पटल के
बाहर सावन पुरे शहर को िभगोने म लगा था। मेरी आँखे भी सावन क फु हार के साथ
बरबस ही बरसने लगी थी....और मेरे आंसु का नमक न पानी मेरी पलक से फसल कर
मेरे होठ पर ठहर गया था|
◆ ◆ ◆
सनोबर

नू रजहाँ क बारादरी के ठीक उ र म ि थत है िव टो रया हॉि पटल। िव टो रया


हॉि पटल-शहर का सबसे बड़ा खैराती हॉि पटल। हयात शहर के गरीब और बेसहारा
लोग के िलए शमशान जाने से पहले एक आिखरी उ मीद। वैसे बाक खैराती अ पताल
से इतर यहाँ के डॉ टर लोग काफ अ छे है।
आज सुबह से ही वाड नं. 33 म काफ गहमागहमी है। वाड नं. 33 -कसर वाड। सीिनयर
रे िजडट सुबह का राऊंड लेकर वापस ओ. पी. डी. म लौट चुके है। जूिनयर डॉ टर ूटी
म म मरीजो का आज का ीटमे ट लान िलख रहे है। कसर मतलब ककरोग, सुनने म तो
लाइलाज रोग है, पर ऐसा नह है। मरीज अगर शु आती टेज म पूरा इलाज ले तो कसर
का पूण उपचार संभव है। पर जैसा क पूरे भारत म होता है, मरीज सबसे पहले झाड़-फूँ क
वाले ओझा के पास जाता है, वहाँ आराम न िमला तो मौह ले के झोला छाप के पास। अगर
वहाँ भी इलाज नह आ तो आयुवद, हो योपैथ से होते ए सबसे आिखर म प च ँ ते है
हमारे यहाँ तब तक हमारे पास कु छ यादा ऑ सन नह बचते। वजह- तब तक कसर पूरे
शरीर म फै ल चुका होता है। फर भी हम लोग दन-रात लगे रहते ह।
म ीटमे ट फाइल िस टर को स पता ।ँ
“दस न बर के क मो लगनी है, सात को Ondensetron ऐड कया है TDS. दो
न बर के Enema. बाक सब CST… CST eryc Continue same treatment. म
वापस ूटी म म आ गया। थोड़ी देर बाद िस टर ूटी म म आती है।
“सर! यारह न बर Back Pain क क पलेन कर रहा है।” िस टर बोलती है।
“उसके तो मोफ न चल रही है ना”
“हाँ सर....... सर वो वी. आई. पी. पेशंट है। कसी IAS का र तेदार है, आप एक बार
देख लेते तो ठीक रहता|”
“ठीक है! म देखता ।ँ ”
म 11 न बर मरीज को देखता ँ और ीटमे ट रवाइज करके वापस ूटी म म लौट
आता ।ँ थोड़ी देर बाद 11 न बर बेड के पास िस टंग बच पर बैठी लड़क ूटी म म
आती है।
“मरीज या लगता है तु हारा”
“वो मेरे बाबा ह। I mean- पापा।” वो बोलती है।
“तु हे पता है उ ह कौन-सा कसर है?”
“जी पता है- म टीपल मायलोया।”
“देख ! उ ह म टीपल मायलोया है- एक तरह का लड कसर, िजसका पूरा इलाज संभव
नह है, िसफ रोकथाम क जा सक है।”
“ले कन दद का तो कोई इलाज होगा।”
“हमारे शरीर म लड से स हि य क Marrow म बनती ह। पर इनके Marrow म
नामल से स न बनकर कसर सेल बन रही है और यही इनके दद क वजह है। हम दद के
िलए अभी मोफ न दे रहे है, बाक क मो लगने पर दद म आराम आ जायेगा।” मेरे जवाब
से संतु होकर वह जाने लगती है।
“ को!” म आवाज देता ।ँ
“जी”
“तु हारे प रवार म IAS कौन है?”
“जी, कोई नह ”
“ फर िस टर..............।”
“जी उ ह मने ही बोला था। मुझे लगा था IAS बोलने पर हमे Priority िमलेगी” कहकर
वो गदन झुका लेती है।
“तु ह टाफ से या हमारे इलाज से कोई िशकायत है?”
“जी नह ।”
“देखो! हमारे िलये सब मरीज बराबर है। हम अपनी ओर से इलाज म कोई कसर नह
छोड़ने। यहाँ और भी मरीज भत है। यह बात तु ह समझनी पड़ेगी।”
वो चली जाती है। थोड़ी देर बाद िस टर ने बताया क वो उ ह सॉरी बोलकर गयी है। म
अपने काम म लग जाता ।ँ अगले दन क मो लगने के बाद वो मरीज िड चाज हो जाता
है।
ऐसा कम ही होता है क कसी मरीज या उसके कसी र तेदार का चेहरा हमारी नजर म
अटक जाये। उस दन िस टर ने बताया था क सर! इस लड़क के साथ कसी को नह
देखा। ना घरवाल कोए ना ही कसी र तेदार को। ऐसा अनमूमन सरकारी अ पताल म
कम ही देखने को िमलता है। यहाँ हरदम एक मरीज के साथ दहाई म र तेदार उपल ध
रहते ह, िजनम से अिधकतर को मरीज या उसके मज से कोई मतलब नह रहता। इनका
िसफ एक ही काम होता है- वहाँ बैठकर मौह ले भर क पंचायत करना। और मरीज को
दो-पाँच दन भत रहना पड़े तो ये मोह ले के एक-दो कुँ वार का र ता ज र प ा करवा
देते ह। कु छ तो मरीज क ख ता हालत का फायदा उठाकर उसक लड़ कय का र ता
कसी ऐरे -गैरे से कराने से भी नह चूकते। पर इस के स म ऐसा नह था और यही बात मुझे
खटक रही थी
तीन दन बाद। म रात दस बजे हैड ऑफ िडपाटमे ट को Evening over देने क तैयारी
कर रहा था। तभी वह लड़क हाथ म एडिमशन फाइल िलये ूटी म म ए टर करती है।
“सर! New Admission"
“आ गई तुम”
“आपने ही तो D4 क मो क डेट दी थी”
“ठीक है। ये जाँचो के संपल िभजवा और ये दवा लानी है” म जाँच क पच और
ेि सन िलखकर उसे पकड़ा देता ।ँ
“और सुनो! मरीज को मेल वाड म सात न बर बेड पर िलटा ।” म अपने काम म लग
जाता ।ँ वो मरीज को सात न बर बेड पर िलटाकर दवा लेने चली जाती है| वो प ह
िमनट बाद वापस लौटी। म घर जाने क तैयारी कर रहा था।
“सर को! खैराती धमशाला तक म भी आपके साथ चलती ।ँ “
म दो सैक ड के िलए का। वो मेरे साथ चलने लगी।
“नाम या है तु हारा?”
“सनोबर”
“मोमडन हो?”
“नह ”
“नाम तो मोमडन है|”
“घर वाल ने यही नाम रखा है|”
“Okey पढ़ाई?”
“Human Psychology म एम.ए. कर रही ”ँ
“Good! घर म कौन-कौन ह?”
“सब है। भैया-भाभी, माँ, ताई-माँ, दीदी”
“वाड म तो कसी को नह देखा मने!”
”माँ और दीदी के अलावा कसी को मतलब नह है उनसे” बोलकर उसने गदन झुका ली।
“वैसे मतलब तो हम भी नह है पर................।”
“मतलब?” मने पूँछा
“म उ ह पस द नह करती”
“अजीब लड़क हो। अपने बाबा को हाथ म िलये-िलये घूम रही हो और कह रही
हो..............मतलब नह है।
Are yo Mad?
"Yes, I am"
खैराती धमशाला आ चुक थी। Just wait कहकर वो अ दर चली गयी। थोड़ी देर बाद
धमशाला म म लेने का फाम लेकर वापस लौटी।
“फाम पर साइन कर दीिजए। डॉ टर के साइन िबना म नह िमलेगा।
“तुम अगर यहाँ कोगी तो मरीज के पास कौन के गा”
“आपको लगता है आपके हॉि पटल के लेट-बाथ म कोई नहा-धो सकता है?”
“तु ह इसक िशकायत हैड ऑफ िडपाटमे ट या अ पताल शासन को करनी चािहए।”
उसने फाम मेरे हाथ म दे दया। मैने साइन कर दये। वो वाड म वापस लौट गयी। म घर
आ गया।
पहली मुलाकात म ही वो मुझे िम टी रयस सी लगी। खाना खाकर म िब तर पर लेट गया
पर आँख से न द नदारद थी। उसके नाम से लेकर उसका प रवार और उसक बात ने मेरे
दलो- दमाग म खलबली मचा रखी थी।
“एक लड़क जो अपने िपता से नफरत करती है, वो भला उसका इलाज य करायेगी”
“आप और आपके ये मरीज” मेरी वाइफ करवट बदलकर सो गई। शायद म न द म बड़बड़ा
रहा था। अगली सुबह म वाड म प च ँ ा। लड़क वहाँ नह थी। मने वाड का राऊँड िलया
और ओ. पी. डी. म चला गया। दो बजे तक म ओ. पी. डी. म ही रहा। उस दन मेरी
Evening Duty थी, सो म हॉ टल म खाना खाकर वापस वाड म आ गया। सनोबर वह
थी। वो ूटी म म आ गई।
“मु ा लब चलोगे?”
“5 िमनट” मने हाथ से इशारा कया। मैने फाइल का काम िनपटाया और िस टर से कटीन
जाने क बोलकर उसके साथ मु ा लब आ गया। मु ा लब कोई ेडीशनल लब नही
था। मु ा लब एक मॉडन चाय क थड़ी थी। रै गंग के दौर म कसी जूिनयर क यहाँ आप-
पास फटकने तक क िह मत नह होती थी पर रै गंग बैन होने के बाद सब बदल गया। अब
वहाँ कोई भी आ सकता था पर अब भी यादातर क टमर मेिडकल टू डे ट या डॉ टर ही
होते थे। उसने अपनी जी स क पोके ट से िसगरे ट िनकालकर जलायी और गहरा कष लेकर
धुँआ ऊपर आसमान क ओर छोड़ दया।
“तुम िसगरे ट भी पीती है?”
“हाँ! या लड़ कयाँ िसगरे ट नह पी सकती?”
“पी सकती है, पर या तु ह पता है तु हारे बाबा के कसर का एक कारण मो कं ग भी रहा
है”
“नह , उसे समो कं ग से कसर नह आ। उ ह मेरी ब दुआ लगी है।”
“तु हारी बात से सर दुखता है मेरा। हमेशा बेिसर-पैर क बात करती हो”
“वो तो है। पता है मु ा भाई ने एक बात कही थी अगर कोई तु हारे एक गाल पर थ पड़
मारे तो तु हे दूसरा गाल भी आगे कर देना चािहए। पर मेरा मानना है क अपना पूरा
िज म उसके आगे कर दो। हो सकता है वो तु ह मार ही डाले, पर आिखर म जब वो थक
जाऐगा, तब वो खुद-ब-खुद मर जायेगा।”
“पहली बात तो ये क ये बात महा मा गाँधी ने कही थी, मु ाभाई ने नह । दूसरा-तु हारी
बात मेरे सर के ऊपर से जा रही ह।”
उसक िसगरे ट ख म हो चुक थी।
“वाड म सब ठीक हो तो थोड़ा आगे तक चले ?’’
उसने पूँछा।
“एक िमनट!’’ मैने िस टर को फोन कर वाड का जायजा िलया। वाड म सब ठीक था।
“ठीक है। अब चलते है|” मैन दो िच स के पैकेट िलये और हम बारादरी क ओर चल पड़े।
“तु ह मेरे नाम का मतलब पता है?”
“ह म..........कु छ कु छ............. Pine Tree को उदू म सनोबर करते है”
“िब कु ल सही। कभी िशमला गये ह गे तो देखा होगा, बफ से ढके पहाड़ पर सनोबर के
जंगल ब त खूबसूरत लगते ह। नुक ले-सुईनुमा प से लथपथ, बफ क चादर ओढ़े सीधे-
सपाट। पर कभी सोचा है सनोबर या सोचता है?”
“नह ”
“असल म सनोबर कु छ नह सोचता, िसफ सहता है। िब कु ल मेरी तरह। उसे पता है, ये
जानलेवा खूबसूरती एक दन उसक जान ले लेगी।”
हम कदम-कदम बारादरी पर टहल रहे थे।
“लोग बफ म िलपटे सनोबर को देखकर खुश होते ह पर सनोबर िसफ इं तजार कर रहा
होता है, सद के आिखरी िहमपात का, जो उसके सारे प े िगरा देगा। सनोबर नंगा हो
जायेगा- िब कु ल सड़क के अगल-बगल डेरा डाले इन बेसहारा िभखा रय क तरह। वो
िबना उफ तक कये ठठु रता रहता है। इं तजार करता हैए ग मय का जब वह आजाद
हो जायेगा अपने नंगेपन से।
उसी दाशिनकता भरी बात अब भी मेरे िलये पहेली ही थी।
“चलो अब वापस चलते है” मने कहा।
“हाँ! चलो। बाबा को हाजत भी आयी होगी। वाड म आकर म अपने काम म लग गया।
उसके बाबा वाड म दो दन भत रहे। म वाड म अ सर उससे बात करने से कतराता और
वैसे उसे इतना टाइम भी नही िमल पाता था। वो दौड़ी-भागी ई सी आती। जाँचे जमा
कराती, दवा लाती और दन भर अपने बाबा क सेवा म लगी रहती। ऐसा करीब छः
महीने तक चलता रहा। वो आती। अपने बाबा को क मो चढ़वाती और चली जाती।
म सैक ड ईयर म आ गया था। पूरा वाड अब नये जूिनयस के हवाले था। एक दन म ओ.
पी. डी. म बैठा था। वो बदहवास सी मेरे पास आई।
“Sir! I need Your help”
“मेरे बाबा सी रयस ह और मेल वाड म एक भी बेड खाली नह ह।”
”ठीक ह, म कु छ करता ।ँ तुम उ ह लेकर आ ” मैने उनके वाइट स चेक कये। वाकई म
उसके बाबा क हालत सी रयस थी। मने उ ह ICU म भत ले िलया। उनके पूरे शरीर म
सूजन थी। शायद कडनी ठीक से काम नह कर रही थी। दद भी मोफ न देने के बावजूद
क ोल नह हो रहा था।
“शायद इनक कडनी ठीक से काम नह कर रही है। सोनो ाफ करानी पड़ेगी” मने उसे
सोना ाफ और जाँच क पच भरकर पकड़ा दी। वो ेचर को घसीटती ई उ ह
सोना ाफ के िलये ले गयी। म वापस ओ. पी. डी. आ गया। दो दन म उनके पैर क
सूजन कम हो गई और पेशाब भी ठीक से आने लगा था।
संडे का दन था। यारह बजे ओ.पी.डी. ख म ई| मेरे साथ वाले सभी जा चुके थे। म
कसी काम से वाड म ही का आ था। वो मेरे पास आई और बोली-
“मु ा लब?”
“ठीक है, चलो।” म उसके साथ हो िलया।
“वैसे तु हारी आँख म काजल अ छा लगता है। लगाया करो।”
“म मेक अप नह करती, और By the way ! ये काजल नह आिखरी िहमपात का संकेत
है।”
“ऐसा नह है। तु हारे बाबा क Condition अब पहले से ठीक है।”
“ह म..............”मु ा लब आ गया था।
उसने अपनी िसगरे ट जला ली। एक कोने म खाली टेबल देख, हम वहाँ बैठ गये। थोडी देर
वो िबना पलक झपकाये मुझे देखती रही। उसक छोटी-छोटी आँखे आज बड़ी ही खूबसूरत
लग रही थी।
“आपको लट करना नह आता या?”
“ये कै सा Question है?”
“ िबलकु ल सीधा Question है, आपक ही तरह”
“म शादीशुदा ।ँ ”
“हाऊ वीट..........। मुझे तो लगा था क तुम कहोगे क मेरी श ल तु हारी ए स-गल े ड
से ब िमलती है। उसक बात सुनकर मेरे चेहरे पर ह क सी मु कान दौड़ गयी।
“ये सच है। तु हारी श ल मेरी ए स-गल े ड से ब िमलती है।”
“सच म ! ओह माई गोड ! वो िलखिखलाकर हँस पड़ी।
“वैसे मुझे तु हारे जैसे लड़के का हमेशा इं तजार रहेगा।” वो सी रयस थी।
“वैसे बाबा अब दो-चार दन से यादा नह चलगे ना”
“कु छ कह नह सकते। सोनो ाफ क रपोट के अनुसार उनक एक कडनी काम नह कर
रही है।” मैने जवाब दया। मेरा जवाब सुनकर वो चुप हो गई उसक आँख म आँसू आ
गये। उसने बोलना शु कया .
“म अपने बाबा क नाजायज औलाद ।ँ बाबा ाईमरी कू ल म मा टर ह। माँ को दूसरी
बार भी लड़का न होने पर उ ह ने दूसरी शादी कर ली। हम घर से बाहर िनकाल दया
गया। तब से लेकर आज तक वो कभी भी हमसे िमलने नही आये। हम उनक श ल तक से
नफरत हो गयी। एक दन पता चला क उ ह कसर है। उनके बेटे-बे टय ने उ ह मरने के
िलये अके ला छोड़ दया। उनक दूसरी बीवी अपने मायके चली गयी। मु ाभाई ने कहा था
क अगर कोई आप के एक गाल पर थ पड़ मारे तो हम अपना दूसरा गाल भी आगे कर
देना चािहए। म उ ह उनक नफरत से सौ गुणा यार देना चाहती ।ँ िपता एक बरगद के
पेड़ क तरह होता है। थोड़े दन म ही आिखरी िहमपात होगा। उनके बेट को उनक
जगह नौकरी िमल जायेगी। म आजाद हो जाऊँगी।” उसक आँख से काजल आँसू के
साथ धुलकर बह चला था।
तीन दन बाद म दो दन क छु ी लेकर कसी काम से गाँव आ गया। उसके बाबा क
हालत टेबल थी। छु य के बाद वापस जाकर देखा तो आई. सी. यू. म उसके बाबा का
बेड खाली था। मने िस टर से पूँछा तो िस टर ने एक िचट मेरे हाथ म थमा दी।
“आिखरी िहमपात हो गया डॉ टर साहब। सनोबर अब पूरी तरह आजाद है। कभी
रणतभँवर घूमने आ तो ज र याद करना। म होटल टाइगर ू म रसे सिन ट क
जॉब करती ।ँ

सनोबर।
मेरी आँख के सामने िशमला का दृ य उभर आया। बफबारी हो रही है और Pine Tree
मजबूती से खड़ा है। ................नंगा.........िब कु ल नंगा।

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