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लड़क
कहानी सं ह
से ख़ामोशी पसंद नह थी, िबलकु ल भी नही| अपार ऊजा से भरी, बेहद आकषक
उ ि क वािमनी थी िनिशथा| गे ए ँ रं ग क सुगढ़ कद-काठी म ढली अ हड
लड़क | जो भी उसे देखता, बस देखता रह जाता| नैन न भी एकदम तीखे-तराशे
ए, चंचल आँखे ढेरो सवाल िलए| सवाल तो जैसे हमेशा उसके होठ पर ही रहते थे|
उसका ान भी असीिमत था| इसिलए सवाल भी बौि क एवं रोचक होते थे| वैसे बेवकू फ
भरे सवाल क भी कमी नही थी उसके पास| यही वजह थी क वो अजनबी माहौल म भी
आसानी से ढल जाती थी|
म उससे पहली बार अपनी दीदी क शादी म िमला था और वो पागल लड़क
पहली ही मुलाकात म मुझसे उलझ पड़ी थी| उस समय म जयपुर रहकर डॉ टरी क वेश
परी ा क तैयारी कर रहा था| पढाई का दबाव यादा होने क वजह से म अपनी दीदी क
शादी म भी मंडप के दन प च ँ पाया था|
सभी लोग अपने-अपने कामो म त थे | काम क अिधकता के चलते माँ ने मुझे
भी काम पर लगा दया और वो भी िनिशथा के साथ| जब तक म गाँव म रहा, मुझे घर के
सारे काम आते थे पर अब लग रहा था मानो मुझे जंग लग गया है| ऊपर से उस पागल
लड़क क मजा कया हरकत....म फर भी अनमने मन से आटा छानने म लगा रहा| माँ ने
आटे क पूरी बोरी मुझे स प दी थी ...छानने के िलए| म साल भर शहर म रहकर शहरी रं ग
म रं ग-सा गया था| मुझे काम करता देख उसक हँसी नह क रही थी|
“तू तो शहर जाकर िबलकु ल हीरो बन गया रे ” उसने मुझे छेड़ते ए कह| “पहले तो
तू िब कु ल गाँवडेल था”
“तुमको काम करना है या नही“ मने िबगड़ते ए कहा|
“नह करना“
“नह करना तो चल! रा ता नाप अपना| परे शान मत कर मुझ“े
“नही जाती! तू या कर लेगा“
“ठीक है! मत जाओ| पर मुझे अपना काम करने दो“ कहकर म फर से अपने काम म
लग गया|
“ या- या होता है वहां तेरे शहर म“ उसने मुझे फर से उकसाते ए कहा|
“होने-वोने का तो मुझे पता नही..... म वहां िसफ पढाई करने गया ँ और पढाई ही
करता “ँ
“लड़ कयां भी पढती ह गी न तेरे साथ“??
“तू मुझे काम करने देगी या नह “??
“नह करने दूग ं ी......पहले मेरी बात का जवाब दे“ उसने अकड़ते ए कहा|
“नह बता रहा” मने भी उसी के लहजे म उसे जवाब दया|
“ठीक है मत बता| वो उठकर मटकती ई वहां से चली गई और जाते-जाते आटे से
भरी छलनी मेरे िसर पर डाल गई|
मुझे उस पर गु सा आ रहा था पर उसक चुहलबािजयाँ भी मन को भा रही थी| सो
मने उसे कु छ नह कहा....| म चुपचाप आटा छानने म लगा रहा| आधे घंटे म पूरा आटा छन
चुका था पर मेरी हालत भूत से भी बदतर हो चुक थी| उसका िगराया आ आटा अब भी
मेरे बाल से झड रहा था|
सो मने पहले नहाने का फै सला कया और टावल लेने भाभी के पास चला गया|
िनिशथा पहले से ही वहां ग पे हांक रही थी| मेरे जाते ही वह फर से शु हो गई|
“दीदी! इन जनाब को ताक म िबठाकर अगरब ी लगा दो| कोई भी काम तो ढंग से
करना नह आता इनको| मण भर आटा छानते-छानते मेरी तो कामर ही टू ट गई ” वो
कामर के हाथ लगाकर ऐसे अिभनय कर रही थी मानो पूरा आटा उसी ने छाना हो| भाभी
भी उसक बात पर मु कु रा रही थी|
“अब तू यहाँ खड़ा-खड़ा हमारी श ल या देख रहा है.... जा दो िगलास शरबत
बना ला हमारे िलए| देखा नही कतना काम कया है मने
“हाँ देखा है| ब त काम करती है तू” म भी उसे छेड़कर शरबत बनाने चला गया|
थोड़ी देर म म हम तीनो के िलए शरबत बना लाया|
“अरे वाह! तू तो ब त अ छा शरबत बनता है| तेरी वो तो ब त खुश रहेगी तेरे
साथ” कहकर वो फर से िखलिखलाकर हँस पड़ी|
“तू मार खाएगी या मेरे हाथ से” मने िचढ़ते ए कहा|
“ य अपने हाथ को क देते हो साब...बात नह करनी तो मत करो...हम तो चले”
फर वो हँसती हँसती बाहर चली गई|
“कौन है भाभी ये लड़क ”? मने भाभी से पूछा|
“ये! ये मेरी चचेरी बहन है| आज पहली बार अपने घर आई है|”
“छोरी तो ब त तीखी है भाभी ये”
“हाँ! तीखी तो है...पर दल क ब त साफ़ है”
“वो तो म देख ही रहा .ँ ..धेले का काम कया नह और छलनी भर आटा िसर पर
और डाल आई मेरे|”
मेरी बात सुनकर भाभी भी हँस पड़ी| फर म नहाने चला गया| घर के कामो म पूरा
दन कब िनकल गया, मुझे पता भी नही चला|
शाम को खाली बैठा देख िनिशथा फर से मुझे छेड़ने चली आई|
“ओ हीरो! मेहद ँ ी लगा देगा मेरे हाथ म”
“मुझे नह आता मेहद ँ ी लगाना”
“अरे लगा दे ना! भाव यू खा रहा है| दीदी कह रही थी क ब त अ छी मेहद ं ी
लगता है तू”
“ठीक है! लगा दूग ं ा पर पहले ॉिमस कर क आगे से इतनी मजाक नह करे गी”
“ओके ॉिमस एंड सॉरी...अब लगा दे” उसने मेहद ँ ी लगवाने के िलए अपने हाथ मेरे
आगे कर दए|
“अपने हाथो क लक र एक जैसी ह ना”
मने उसके हाथ क तुलना अपने हाथ क लक र से करते ए कहा|
“ह म.... ह तो एक जैसी ही| पर और भी कई लक र है जो तु हे नह दख रही|
“और कौनसी लक र है”?
“वो लक र ह.....समाज क ......रसूख क ...व क ” उसने मेरे बालो म अंगुिलयाँ
फराते ए कहा| उसक बाते मेरे सर के ऊपर से जा रही थी|
“अरे ! मने तु हारा नाम तो पूछा ही नह
“मेरा नाम! मेरा नाम है...िनिशथा....और तु हारा”
“मेरा नाम....पागल....सब इसी नाम से बुलाते ह मुझे” मने मुंह िपचकाते ए कहा|
“सच म पागल हो तुम तो| ओ हीरो! नाम बदल ले अपना वरना कुं वारा ही रह
जायेगा” वो फर से शु हो गई|
“मने मना कया था ना मजाक के िलए”
“सॉरी....अब ज दी से मेहद ँ ी लगा दे...सूखने म भी टाइम लगेगा|
फर कु छ सोचकर-
“म ढू ँढूँगी! एक अ छा सा नाम तु हारे िलए” उसने बड़ी मािनयत से कहा|
उसके एक हाथ म मेहद ं ी लग चुक थी |
“ठीक है पागल! अब म चलती |ँ ”
“अरे क तो सही” मने जबरज ती उसका दूसरा हाथ पकड़कर अपने बाजू म
िबठा िलया| उसने भी अपना हाथ छु ड़ाने क कोई कोिशश नह क |
“ऐ िनिश! याह करे गी मुझसे? मने थोडा मानी होते ए उससे पूछा|
मेरे इस सवाल से वो और भी यादा संजीदा हो गई| वो काफ देर तक मेरे चेहरे
क ओर देखती रही| फर एकदम से - ”कभी आइने म शकल देखी है अपनी...पढने-िलखने
का तो कोई काम है नह , जनाब चले याह रचाने” और बडबडाते-बडबडाते वहां से
उठकर चली गई|
िनिशथा बाहर से िजतनी मजा कया थी, अंदर से उतनी ही गंभीर....उसका
जीवन एक खुली कताब था| उसके बारे म सब को सबकु छ पता रहता था, मगर मुझे वो
हमेशा ही रह यमय लगती| म हमेशा उससे कहता था क िनिश! म तु हे कभी समझ नह
पाउँ गा और वो कहती...” या हािसल कर लोगे मुझे समझकर....म एक रे त क नदी
.ँ ..िसवा रे त के कु छ भी तो नह है मुझमे...िजतना मुझे पाने क कोिशश करोगे, उतनी ही
म तु हांरे हाथ से फसलती जाऊँगी|” म जब भी उसे समझने क कोिशश करता, वो उतना
ही मुझे और उलझा देती! मुझसे उ म तीन साल छोटी थी वो पर मुझसे कह यादा
समझ थी उसे|
कभी-कभी तो लगता था िनिशथा एक मृगमरीिचका है, िजसे म जब भी देखता
,ँ दीवाना आ जाता |ँ कभी-कभी लगता क वो िसफ एक म है, तभी उसक
चुहलबािजयाँ मुझे अपने खयालो से वापस ख च लाती और उसे म एकदम अपने करीब
पाता|
उस रात उसने मुझसे बात भी नह क | मुझे खुद पर गु सा आ रहा था क मने
मजाक करके उसे नाराज कर दया पर शायद नाराज होना तो उसने सीखा ही नही था|
अगली सुबह वो अपने गीले बाल को झड़कारती ई मेरे पास आई|
“ओ पागल! तेरे कये एक नाम सोचा है मने...और वो नाम ह िनिशथ”
“िनिशथ! ये कै सा नाम है? तु हे मतलब भी पता है िनिशथ का?” मने सवािलया
लहजे म पूंछा|
“हाँ! पता है| ये नाम मेरी क मत है...और आज से तुम मेरी क मत के साझेदार
ए”
“ठीक है! मै िनिशथ और तुम मेरी िनिशथा”
ओ हीरो! इतना आगे क मत सोच अभी| तु हे पता भी है कतने पापड़ बेलने
पड़गे मुझे पाने के िलए”
“बेल लूँगा, अगर तूने साथ दया तो”
ओ हीरो! ये आिशक बाद म झाड़ना...पहले मेरे साथ खेत पर चल...दीदी ने एक
काम बताया है और वो मुझे ख चकर अपने साथ ले गई|
रा ते भर वो बस अपनी ही गाती रही फर एकदम से संजीदा होकर –
“िनिशथ! चाहती तो म भी यही ँ क हमेशा तु हारी बनकर र ँ पर तुम मेरी
क मत म हो ही नह .....तुम डॉ टर बनोगे..... कसी डॉ टरनी से याह करोगे.....और
म....वह कहते-कहते फर से चुप हो गई |
“काश म िचिड़या होती.....मेरे भी पंख होते.....जहाँ जी करता..... व छंद उड़ती|
यहाँ....वहां| उस पेड़ क डाली पर हरी टहिनय के झुरमुट म मेरा घ सला होता.....न कोई
लाग-लपेट होती.....न ही कोई बं दश.....बस होती तो िसफ “ म ”|
“अरे ! तुमने वो गाना सुना है या? “म और मेरी आवारगी”
“नह तो” मने जवाब दया
“ओ हीरो! कभी कताब क दुिनया से बाहर िनकलकर भी देखा कर”...और फर
वो वही गाना गुनगुनाने लग गई|
मुझे कभी-कभी लगता क िनिश मानिसक प से बीमार है| नॉमल तो है ही नही|
हमेशा अपने नाम को कोसती रहती.....संगीत तो जैसे उसके रोम-रोम म बसा था| हमेशा
कोई ना कोई गाना उसके होठ पर रहता था| मेरे िलए एक अनबूझ पहेली थी िनिशथा|
“पहाड़ पर वो सुख लाल पलाश देख रहे हो, वो कोई और नह मेरी ही परछाई
है। इसक ही तरह मुझे भी कभी बहार नसीब नह ह गी| काश! म खुशबू
होती....िततिलय के संग खेलती....फू ल के घर म रहती....जो भी मेरे संपक म आता....बस
मुझमे ही खो जाता.... कतना अ छा होता ना”
“ओ पागल छोरी! अब सपनो क दुिनया से बाहर िनकल| भाभी का बताया काम
भी िनपटाना है ....देर हो गई तो माँ डांटेगी....ब त मेहमान है घर पर”
“माँ मुझे य डांटेगी....म तो खुद मेहमान .ँ ...मेहमान से भी कोई काम
करवाता है भला” वो मुझे स जी तोड़ने के काम म लगाकर फर से शु हो गई|
कतना बोलती थी वो| थकती भी नह थी पर उसक यही बात मुझे सबसे यादा
पसंद थी|
“िनिश! तू भी तुडवा न स जी” मने थोडा र े ट करते ए कहा|
“तु हे अपने सवाल का जवाब चािहए ना”
“हाँ चािहए! तो!”
“तो फर स जी तू ही तोड़ेगा, तभी म तेरे सवाल का जवाब दूग ँ ी|”
कतना लैकमेल करती थी वो| मुझे काम पर लगाकर पता नही वो खुद कहाँ
गायब हो गई| म अब स जी तोड़ चुका था| काम पूरा होते ही वो मेरे पास आई और मुझे
पास वाले नीम के पेड़ के नीचे ले गई| उसने अपना दुप ा मेरी आँख पर बाँध दया था|
पेड़ के पास ले जाकर उसने मरी आँख से दुप ा हटा िलया| उसने पेड़ के तने पर
कसी नुक ली चीज से “िनिश” िलखा था|
“ये या है”??
“ये हमारा नाम है....हम दोन का....ना िनिशथा, ना िनिशथ....िसफ “िनिश”
“कभी तुम जब बड़े डॉ टर बनकर यहाँ आओगे....तब याद तो करोगे....कोई
पागल “िनिश” भी थी”| उसक आँख म आंसू थे|
“तुम हमेशा ऐसी नीरस बाते ही य करती हो| म तो नह चाहता तुमसे दूर
होना”
“ले कन मेरे हीरो! मुझे पाने के िलए तु हे पहले डॉ टर बनना पड़ेगा”
“तो कर तो रहा ँ पढाई”
“ऐसे नह ! वादा करना पड़ेगा....अगर डॉ टर नह बन सके तो भूल जाना िनिश
को”
“हाँ िनिश! म बनूँगा डॉ टर...तु हारे िलए....कहते-कहते मेरी आँखे भर आई|
थोड़ी देर बाद हम वापस घर लौट आये|
दीदी क शादी हो गई| सारे मेहमान िवदा हो चुके थे पर िनिशथा कु छ दन के
िलए हमारे घर पर क गई| मेरे कहने पर| उसक चुहलबािजय के बीच वो स ाह कै से
बीत गया, मुझे पता ही नह चला|
उस दन दादाजी ने आहते म अलाव जला रखी थी| िनिश मेरी किजन क
साई कल मांग लायी थी....चलाने के िलए|
“ओ हीरो! मुझे साई कल चलाना िसखा ना”
“नह ! रहने दे....िगर जाएगी”
“तू है ना मुझे सँभालने के िलए” उसने फर से मुझे छेड़ दया| मने उसक
साई कल का हडल पकड़ रखा था और वो पैडल मार रही थी| एक हाथ से उसने मेरा
क धा पकड़ रखा था और वो आहते म गोल-गोल घूम रही थी|
“ले हीरो! अपना याह भी हो गया अब”
“ याह”??
“और नह तो या?? अि के पूरे सात फे रे जो िलए ह....वो भी साई कल
पर”.....और वो फर से हंसने लग गई|
“तो मैडम अब म आपक माँग भी भर दू”ँ ??
“उसके िलए तो डॉ टर बनना पड़ेगा” कहकर वो भाभी के पास भाग गई|
सही तो कहा था उसने...वो साई कल पर अलाव के चार ओर गोल-गोल ही तो
घूम रही थी| अनजाने म ही सही....उस दन हमने सात फे रे भी िलए थे|
उसके साथ हंसते-खेलते दो स ाह से भी यादा समय बीत गया था| अब मुझे
वापस जयपुर आना था| वापस जयपुर आने से पहले म उसके िलए एक माला लेकर आया
था| उसने भी माला मेरे हाथ से पहनी थी|
“ये लो अब मंगलसू भी पहना दया तुमने”
माला पहनते समय भी उसने अपना जुमला मार दया|
“तुम कभी सी रयस भी होती हो या”? मने खीजकर पुछा|
“सी रयस ही तो .ँ ...कह रही ँ न.....डॉ टर बन जाओ बस”....कहकर वो वहां से
चली गई|
म फर से जयपुर आकर अपनी पढाई म त हो गया| िनिशथा एवं उसक बात
पर व क गद जम गई| सब कु छ फर से पहले क तरह सामा य हो गया| पढाई-पढाई म
वो साल भी बीत गया|
अब मुझे आगे क पढाई के िलए कोटा जाना था| उस दन भी िनिशथा का फोन
आया था| उस दन भी उसने डॉ टर बनने क याद दलाकर फोन रख दया| कोटा जाने के
बाद भी मुझे िनिशथा से कया वादा हर व घूमता रहता| मने सालभर जमकर पढाई क |
उस साल मेरा डॉ टरी म चार-चार जगह नंबर पड़ा....पर मने घर के नजदीक “स ाट
पृ वीराज चौहान मेिडकल कोलेज, हयात शहर“ चुना|
मेरे हयात शहर आने से पहले िनिशथा मुझसे िमलने हमारे घर आई थी| शायद
हमारी िज़ दगी क वो आिखरी मुलाकात थी|
“मुझे पूरा यक न था तुम अपना वादा ज़ र पूरा करोगे”
“नह िनिश! तु हांरे िबना म ये सब नही कर पाता”
“अब भी इरादा है मुझसे याह करने का”
िनिश ने मेरा हाथ अपने हाथ म लेकर पुछा| उसक आवाज म अजीब सा ठहराव
था|
“हाँ िनिश!”
“भूल जाओ इन बात को....ये मुम कन नही है”| कतना बदल चुक थी वो अब
तक....वो अ हड़पन, चुहलबािजयाँ पता नह कहाँ खो गई थी| िब कु ल संजीदा हो चुक
थी अब|
उसने दो पल के िलए मेरी आँख म देखा| वही जाने-पहचाने भाव, िज ह म कभी
पढ नह सका था.... फर वो वहां से चली गई और जाते-जाते एक कागज का टु कड़ा मेरे
हाथ म थमा गई|
म बुत सा वही ँ खड़ा रहा| पहली मुलाकात से लेकर अब तक का हर ल हा मेरी
आँख के सामने तैर रहा था|
“मेरे िलए शरबत नह बनाओगे या डॉ टर साब”?? उसने िवदा लेने से पहले
अपनी आिखरी फरमाइश क | उसक आवाज म पहले जैसी चुहलबाजी नह थी.... बस था
तो एक डर....एक दद ....एक ठहराव| उसके बाद िनिशथा चली गई....मेरी िज़ दगी
से...हमेशा-हमेशा के िलए|
उसका वह ख़त...मेरे उन सभी सवाल का जवाब था िजनक वजह से िनिशथा
मुझे मेशा एक पहेली लगती थी|
िनिशथ ,
मुझे पूरा यक न था...तुम अपना वादा ज र पूरा करोगे....म भी यही चाहती
थी क तुम डॉ टर बनो....अपने िलए....अपने घर वालो के िलए....तु हारी डॉ टरी मेरे
यार का तोहफा है| म कहती थी न क मेरा नाम मेरी क मत है| िनिशथ......
मतलब......म यराि का वह सं मण काल जब एक ितिथ दूसरी ितिथ म बदलती है....पर
मेरे िलए यह सं मण काल दो ज म का है| पता नह कसने ये समाज बनाया....धम
बनाया....जाितयां बनाय ....इससे भी जी नह भरा तो गो बना दए....िजनके िहसाब से
हम एक दुसरे के कभी नही हो सकते..... कम से कम इस ज म तो नह .....तु हारी वो माला
हमेशा मेरे गले म मंगलसू बनकर रहेगी....हमने अि के सात फे रे िलए ह....कहने म यह
मजाक लगे....पर मेरे िलए तो िसफ वही सच है| यह ज म तो मेरे िलए एक
अिभशाप....एक बोझ है...िजसे मुझे ढोना ही पड़ेगा|
सुनो! तुम अगले ज म म मेरे िनिशथ ही बनना....और म
बनूँगी....तु हारी....िसफ तु हारी....म इं तजार क ँ गी तु हारा....तुम आओगे ना....मेरी
मांग भरने....म राह देखूंगी तु हारी|
हर ज म म िनिशथा ही बनू,ँ इतनी भी बदनसीब नह ँ म|
◆ ◆ ◆
हयात शहर
को ईऔरभीहोते
शहर िसफ एक शहर नह होता। उसम कु छ खुशबुएँ होती ह, कु छ याद होती ह
ह कु छ रं ग . िज़ दगी के । हयात शहर -मेरी याद का शहर। हयात शहर
मेरे िलए हमेशा से ही मेरी मेहबूबा क तरह रहा है। म हयात शहर क सात ऋतु का
सा ी रहा ँ पर पीछे मुड़कर देखता ँ तो लगता है मान स दयाँ बीत गयी ह । ये बयानी
िसफ मेरी ही नह बि क उन तमाम फ ड़ िमज़ाज यायावर क भी है िज ह ने हयात
शहर को िजया है - थोड़ा या यादा। हयात शहर आज भी एक दलकश न म क तरह
मेरी शि सयत के प पर ज़ंदा है। कई बार तो लगता है क हयात शहर एक बेजान
िम ी क टु कड़ा न होकर हाड.माँस का साँस लेता पुतला है। िच ती दरगाह और तीथराज
उसके दो सुडोल उरोज़ ह तो स ाट का कला उसका ताज। आनासरोवर उसका पेड़ है तो
हम उस पर रगने वाले परजीवी।
उस दन हमारी कार स कट हाउस के सामने क । मेरे साथ मेरा NRI ू था जो
साझा सां कृ ितक िवरासत िवषय पर अ ययन के िलए हयात शहर आया आ था। चेक-
इन फॉमिलटीज के बाद हम अपने - अपने कमर म चले गए। थोड़ी देर बाद मेरे कमरे के
दरवाजे पर द तक ई। दरवाजे पर चौक दार था, िजसे मैन ही बुलवा भेजा था। हम
दोन बात करते -करते स कट हाउस के िपछले िह से म आ गए। यहाँ से पूरे शहर का
नज़ारा देखा जा सकता था।
उस दन क खूबसूरत शाम हयात शहर को अलिवदा कहने जा रही थी। अनमना-
सा सूरज भी लाल-पीला होकर नाग पहाड़ क ओट म िछपने जा रहा था। ढलती शाम और
नाग पहाड़ क परछाई आना-सरोवर म िसमटती जा रही थी। धूसर बगुले और तरह -
तरह के वासी प ी सरोवर के उथले पानी म अपनी उपि थित दज करा रहे थे।
“यहाँ हमेशा ऐसा ही नज़ारा रहता है?” मने चौक दार से पूँछा।
“हाँ साहेब। जैसे - जैसे शाम ढलती है वैसे - वैसे यहाँ का नज़ारा जवाँ होने लगता है।
ये पंछी भी हमारी तरह दूर देश से सवाली बनकर यहाँ आते ह और फर अपने देश लौट
जाते ह। कु छ हमेशा के िलए यह के होकर रह जाते ह। हर शाम सरोवर कनारे चौपाटी
सजती है। बड़ा ही खूबसूरत शहर है हमारा” चौक दार ने अपनी बात पूरी क ।
“वैसे म यहाँ पहले भी कई बार आ चूका ।ँ सब कु छ देखने - घूमने के बाद भी
लगता है जैसे कु छ छू ट गया है। पता नह ऐसा या जादू है यहाँ क फ़ज़ा म, क हर बार
खंचा चला आता ”ँ
“यहाँ आने पर सबको ऐसा ही लगता है साहेब।“ चौक दार अपने कोट क जेब से
एक िविज टंग काड िनकालता है।
“इनसे िमिलएगा साहेब। बड़ी ही दलच प औरत है। इनसे बेहतर गाइड नह
िमलेगा आपको शहर म"
चौक दार ने काड मेरे हाथ म थमा दया। काड पर बेगम जान िलखा आ था। साथ ही
एक मोबाइल न बर भी।
“ ेट|” मने काड अपने वॉलेट म रख िलया। आसमान म िसतारे अपनी
धमाचौकड़ी मचने आ चुके थे। शहर ने शाम क लाल चुनरी उतारकर रं गीन रोशनी क
काली चादर ओढ़ ली थी।
अगली सुबह म चौक दार के बताये पते पर िनकल पड़ा। िच ती माकट क तंग
गिलयां मेरे िलए अजनबी नह थी। काफ पूछताछ के बाद म एक तीन मंिज़ला हवेलीनुमा
ईमारत पर प च ं ा। िच ती बाजार सजने लगा था। दुकानवाले ज़ायरीन को फू ल और
चदर खरीदने के िलए आवाज़ दे रहे थे। गुलाब के फू ल क खुशबू और इ क महक ने
ग दी नािलय क बदबू को ढक िलया था। हवेली के दरवाजे पर खड़े गाड को चौक दार
क दी ई पच दखाकर म सी ढ़य से ऊपर बढ़ गया। सी ढ़यां तीसरी मंिजल पर एक बड़े
से बरामदे म ख़ म होती थी। हाल क सजावट और न ाशी मुगिलया अंदाज़ म क गयी
थी। सभी कोन और झरोख के चर ओर बूटेनुमा अरबी म आयत उके री ई थी। फश पर
एक लाल ईरानी कालीन िबछी ई थी जो बेगम जान के शाही अंदाज़ को बयाँ करती थी।
सामने बालकनी म एक पतीस.चालीस साल क औरत कसी से फोन पर बात करने म
मशगूल थी। उसने हाथ से मुझे सोफे पर बैठने का इशारा कया। सोफे के बाज़ू म रकॉडर
पर बेगम अ तर क ठु मरी बज रही थी।
थोड़ी देर बाद वो मेरे सामने के सोफे पर आकर बैठ गयी।
“कोई तकलीफ तो नह ई यहाँ तक प च ँ ने म”
“जी यादा नह ! बस एक जगह फसलकर क चड म िगरने से बाल - बाल बचा
और र ते भर माल नाक से नह हटा” मेर जवाब सुनकर उसे हंसी आ गयी।
“आप ही बेगम जान ह? मने सकु चाते ए पूछा।
“कोई शक?” वो हंसने लगती है|
वो नौकर को इशार म कु छ बताती है। थोड़ी देर बाद नौकर त तरी म चाय, कु छ
फल और दो जाम सजाकर ले आता है।
“जी म शराब नह पीता।”
“तक लुफ न क िजये। यहाँ सब चलता है।”
एक बारगी तो मुझे लगा क म शायद कसी गलत पते पर आ गया।
“अ दुल चचा देखना शोएब आया क नह ” बेगम जान नौकर को आवाज देती
है। नौकर बालकनी म जाकर नीचे खड़ी मोटर साइ कल को देखता है।
“गाड़ी अभी तक तो नह आयी बेगम।”
“ठीक है उसके आने तक आप अ बा का याल रिखयेगा।”
“जी बेगम।” नौकर, शायद उसी का नाम अ दुल है, सीढ़ीय से ऊपरी माले पर
जाता है। वहाँ से कसी के खाँसने क आवाजे आ रही थी।
“खलल के िलए माफ चाहती ।ँ कु छ दन से अ बा जान के आधे शरीर म कोई
हरकत नह ह। शोएब उनक तीमारदारी करता है। आज शायद आने म लेट हो गया। खैर
छोिडए, आप बताइए। हयात शहर म दलच पी क कोई ख़ास वजह?”
“कोई वजह नह है। बस यहाँ बार-बार आना अ छा लगता है”
“ठीक है। दो घंटे बाद हमारी गाड़ी आपको स कट हाउस प च ँ जाएगी। तब
तक आप भी तैयार हो लीिजये|” सुबह दस बजे हमारा ू मण के िलये िनकल पड़ा।
रिजया बेगम भी हमारे साथ थी। हमारी गाड़ी नागपहाड़ के घुमावदार रा त पर सरपट
दौड़ी जा रही थी।
“ये नाग जैसा फल उठाये पहाड़ देख रहे हो, यह नाग पहाड़ है। कहते ह इसी
पहाड़ क एक क दरा म गु विश ने वष तक तप कया था। स दय पहले जब लुटेरे
गौरी ने िह दु तान पर आ मण कया था, तब स ाट ने कु छ दन इसी क दरा म िछपकर
िबताये थे” बेगम जान पहाड़ पर एक गुफा क ओर इशारा करते ए बताती है। सड़क के
दोन तरफ घना जंगल था। बंदर, लंगूर सड़क के ऊपर तक फै ले पेड़ पर उछल-कू द कर रहे
थे। तकरीबन आधे घ टे बाद हमारी गाड़ी एक सूखे से तालाब पर क । सड़क के दूसरी
ओर सरोवर क ओर इशारा करते ए, भीमताल िलखा आ था। टू टी ई छत रय को
पार करते ए हम घाट पर प च ँ े।
“ये बूढ़ा सरोवर है। बूढ़ा इसिलये क अब यहाँ कोई नह आता। पानी सूखने के
बाद सब इसे छोड़ नये सरोवर क ओर मुड़ गये। ठीक वैसे ही जैसे शादी के बाद ब े माँ-
बाप को छोड़ कर बीवी के साथ त हो जाते है। कहते है गुमनामी के दन म पाँडव यहाँ
अपनी यास बुझाते थे।”
एक मुि लम औरत का दूसरे मजहब क इतनी गहरी जानकारी रखना दल-
च प था। शाम को रे तीले धोर के बीच के प फायर का ो ाम था। दूसरे गाइड ने मेरे
साथी ू के िलये नशे का ब दोब त कर दया था। सभी नाच-गाने म त थे। बेगम जान
ने अपने कसी जानकार को वहाँ बुलवा िलया था। उसका घर तारागढ़ पहाड़ पर था।
बेगम जान मेरे िलये दलच पी का िवषय थी सो म भी उसके साथ िनकल पड़ा। उस
नौजवान क बुलेट तारागढ़ के घुमावदार रा त से हो होकर दौड़ी जा रही थी। पहाड़ के
ऊपर सपाट मैदान था िजस पर एक छोटी सी आबादी बसी थी। रात को खाने के बाद
बेगम जान मेरे साथ टहलने आ गई। स ाट के महल क खि डत दीवारे पीली रोशनी म
चमक रही थी। हम एक बुज पर बैठे गये।
“ कतना खूबसूरत नजारा दखता है ना यहाँ से शहर का”मने कहा।
“इस शहर से इतना दल मत लगा । बाहर से देखने पर यह िजतना दलकश
है, अंदर से उतना ही दलफरे ब” बेगम जान ने कहा
“अ छा”
“यहाँ कतने ही लोग होठ पर अ जयाँ िलये, हाथ म म त के धागे या
शुकराने क चादर िलये, कभी यास म डू बे तो कभी रहमत क बा रश म सराबोर होने
चले आते है। कहते है बेऔलाद िज लेलाही क औलाद भी यह आकर नसीब ई थी। यहाँ
मने कतने ही फक र को बादशाह तो बादशाह को फक र होते देखा है”
“तुम जानते हो इस शहर को हयात शहर य कहते है?” बेगम जान ने अपनी
ही बात काटते ए पूछा।
“ यादा तो नह , पर इतना ज र जानता ँ क हयात जंदगी का उदू ल ज
है।”
“ठीक फरमाया। यहाँ आकर कोई समझ नह पाता क कब यह शहर उनक
िज दगी बन गया। थोड़े ही दन म यह शहर उ ह काटने को दौड़ता है। फर भी लोग न
जाने यूँ यहाँ खंचे चले आते ह।" बेगम जान अपने ही अंदाज़ म शहर के बारे म बता रही
थी। उधर बीवर पल के दूसरी और से ेन का हॉन सुनाई देने लगा था। ेन के आने क
आवाज़ सुनकर बेगम जान एकदम से चुप हो गयी।
“तुम वो पुल से गुजरती ई जलती बुझती रोशिनय वाली ेन देख रही हो!”
“खुदा के वा ते ेन का िज न क िजए” बेगम जान हड़बड़ाकर वहाँ से दूर
चली गई। ऊँचाई से शहर ब त ही खूबसूरत दखाई पड़ रहा था। नाग पहाड़ पर हाल ही
म बनाया गया अजयमे मारक दूिधया रोशनी से सराबोर था। उधर बेगम जान इस
शहर िजतनी ही गुमशुदा, खोई सी बुज के दूसरी ओर खड़ी थी। एक पतीस साल क जवान
औरत। िज मानी तौर पर क ँ तो उसके बोशीदा ल ब ओर सुख गाल क लाली अब भी
बरकरार थी। ेन के िज से उसका हड़बड़ा जाना मेरी समझ से बाहर था। वो नौजवान
देखने म उसका शौहर लगता था पर मने उसे कह भी रिजया से बात करते नह
देखा........ना हवेली पर, ना रा ते म और ना ही घर पर। उसक चु पी मेरे दमाग म
खलल डाल रही थी। रिजया घर जा चुक थी। म अपने ही सवाल म गुम तारागढ़ के
घुमावदार रा त पर थोड़ा आगे िनकल आया। रात के नौ बज चुके थे। ऊपर तक वापस
पैदल जाना अब मेरे िलये मुि कल होता जा रहा था। थोड़ा आगे चलकर मने एक
मोटरसाइ कल को हाथ दया।
“भाई! ऊपर तक िल ट िमल सकती है?”
“िमल सकती है, पर एक शत पर”
“वो या?”
“आप मुझे भाई नह , भाईजान कहोगे” उसक शत सुनकर मेरी हंसी छू ट
पड़ी।
"ठीक है भाईजान"। वो नौजवान, बेगम जान के साथ रहने वाला नौजवान ही
था।
“तुम बेगम जान के शौहर हो?” मने पूँछा। उसने कोई जवाब नह दया।
घर प च ँ कर उसने मुझे अपना कमरा दखाया और नमाज के िलये िनकल गया। साढ़े दस
बजे रिजया खाना लेकर मेरे कमरे म दािखल ई।
“खाने के अलावा या हािजर कया जाऐ आपक िखदमत म?”
“जी! यही काफ है|”
“शरमाइऐ नह .............फरमाइये। कोई भी शौक हो-औरत, मद,
नशा...........या कु छ और। सब इसीिलए तो आते ह यहाँ। रात को उधर िच ती बाजार म
िज म िबकते है। गो त के िहसाब से रे ट। आिखर शौक बड़ी चीज है।” बेगम जान पास
वाले सोफे पर बैठी लगातार बोले जा रही थी।
“जी माफ क िजये ।इन चीज म मेरी कोई दलच पी नह है|” बेगमजान क
फलोसो फकल बात मेरी समझ के बहार थी पर उसक बात िछपी टीस मुझे कचोट रही
थी|
“यहाँ लोग सवाली बनकर कम, अपनी यास बुझाने यादा आते ह”
“आपके शौहर नह दखे कही” मेरे मुंह से अनायास ही िनकल गया। मेरा सवाल
सुनकर बेगमजान एकदम से चुप हो गई और उठकर कमरे से बाहर चली गयी। ऐसा भी
नह था क मने कोई जाती सवाल पूछ िलया था। खैर मने कोई ित या नह दी।
“आपको कु छ चािहए हो तो शोएब को आवाज दे दीिजयेगा” बाहर से बेगमजान
क आवाज़ थी। उस नौजवान का ही नाम शोएब है, यह अब मुझे पता था। बेगम जान का
घर उसक हवेली के अलट िब कु ल ख ता हाल था। हवेली पर जहाँ बेगम जान एक खुले
खयालात वाली औरत मालूम पड़ती थी, वही घर पर एक तंग हालात से जूझती ई एक
आम औरत। घर पु तैनी था। घर का रोगन पपड़ी बन कर जगह-जगह से उखड़ आया था।
उ -दराज कवाड कसी क द तक होने पर जोर से चूँऽऽऽ करके बोल पड़ता था। बेड के
ठीक उ र म िखड़क म एक बड़ा सुराख बना आ था, िजसे बाहर का नजारा साफ-साफ
देखा जा सकता था। बेगम जान के जाते ही दरवाजा जोर से चूँऽऽऽ क आवाज करके बंद हो
गया।
रात को म खुले आसमान के नीचे ही सोया। अगली सुबह ज दी ही मेरी आँख खुल
गयी ।आसमान म म म-म म टारे टम टमा रहे थे। थोड़ी देर बाद बेगमजान चाय लेकर
कमरे म दािखल ई।
“पहाड़ी र ते पर गाड़ी चला सकते हो?”
"िबलकु ल! बड़े आराम से।"
“ठीक है! हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाओ। िच ती बाज़ार चलना है।" म शोएब
क बुलेट लेकर बेगम जान के साथ िच ती बाज़ार के िलये िनकल गया। हमारी गाडी
िच ती बाजार म उनक पु तैनी कबुतरगाह पर क । अ दुल हमारे प च ँ ने से पहले ही
वहाँ मौजूद था। अ दुल ने अनाज का बारदान बेगम जान को थमा दया। बेगमजान ने
थोड़ा-थोड़ा करके अनाज पूरे चबूतरे पर फै ला दया। कबूतर के साथ-साथ तोते, फाखता,
िगलह रयाँ भी अनाज चुगने आ गये थे।
“ये मेरे शौहर के वािलद क कबूतरगाह है। उ ह कबूतर से ब त लगाव था”
“अब नह आते वो?”
“अब वो खुदा से दो गज जमीन क फ रयाद के अलावा कु छ नह कर सकते।
एक हादसे म उनके आधे िज म क हरकत चली गई। हवेली पर वो खाँसने क आवाज
उ ह क थी।”
“ओह|”
बेगम जान िजतनी संजीदा औरत थी, उतनी ही मुँहफट। कभी-कभी तो
उसक बात मुझे थ पड़ क तरह लगती। सुबह दस बजे हम वापस अपने टू र पर िनकल
गये। हम ढ़ाई दन के झ पड़े के र ते िच ती दरगाह से होकर नूरजहाँ क झालर और
बादशाह क कचहरी जाना था। आज सड़क पर वाहन क आवाजाही यादा थी। सड़क
पर जगह-जगह झ डे और हो ड स लगे ए थे।
“पता है, आज हमारे शहर म कौन आ रहा है?” उसने मेरी ओर देखते ए
पूँछा। मने गदन िहलाकर अपनी नामालूमी जता दी।
“िह दु तान के होने वालेवजीरे -आला। वो यहाँ िसयासत क बात करगे।
बदलाव क बात करगे | अमन क बात करगे। फर फरकापर त उसमे चंगारी लगा दगे।
फर कोई और आयेगा। चंगारी शोला बना जायेगी और लोग बा द। अगले कु छ महीन
तक शहर सुलगता रहेगा। लोग िह दु-मुि लम हो जा गे। कु छ मार दये जायगे, कु छ खुद-
ब-खुद मर जायगे।”
फर थोड़ा क कर- “इन िसयासतदान क बनाई मजहबी दीवार को िगराने
म हम साल लग जायगे| ले कन हम फर से उठ खड़े ह गे| अपने शहर के टु कड़ो को
समेटगे। कु छ साल फर ख़ामोशी छा जाएगी। फर कोई और आएगा। और ये िसलिसला
चलता रहेगा|”
असल मायन म हयात शहर मु तसर िह दु तान था। जहाँ हर कोई थोड़ा
िह दु थोड़ा मुि लम था। यहाँ िच ती दरगाह क अजान और तीथराज के मं दर क
घं टय क िमठास सभी के दल म घुली ई थी। हम िच ती दरगाह प च ँ चुके थे।
“यही वो दर है जहाँ यास द रया से िमलती है और ह अपने िपया से|”
बेगन जान आगे बढ़ते ए हरे क इमारत के बारे म बताती जा रही थी। िच ती दरगाह का
हानी नजारा ह क सुकून देने वाला था। िच ती दरगाह के बाद हम बादशाह क
कचहरी होते ए नूरजहाँ क झालर प च ँ ।े शाम तक हमारा टू र पूरा हो चुका था। मने
अपने ू के साथ न जाकर उस शाम बेगम जान के साथ ही कने का फै सला कया। हम
वापस तारागढ़ आ गये। दन ढल चुका था। म पहाड़ी पर टहलने िनकल पड़ा। बेगम जान
मेरे पीछे थी।
“ये टू टी ई दीवारे और वो बुज देख रहे हो ना, ये हमारे स ाट के महल क
च द जम दोज िनशािनयाँ ह। उस समय स ाट ने सूखे से िनजात पाने के िलये पहाड़ क
तली म चार तालाब खुदवाये थे|” वो इशारे से पहाड़ क तली म एक खाई क ओर इशारा
करते ए बोली।
“ ेट”
“आज के वजीरे -आला होते तो..................हमारे िलये क के िसवा कु छ न
खुदवाते।” वह जोर से हँसने लगती है| एक बात तो म अ छी तरह से जान चुका था क
बेगम जान और िसयासत का छ ीस का आँकड़ा है।
“वो नौजवान कौन है?”
“मेरा शौहर नह है।......................यही सुनना चाहते हो ना” उसक आँखे
मेरी आँख म देख रही थी। मेरी नजर झुक गई। हम अिह ता-अिह ता आगे बढ़ने लगे।
उधर बीवर पुल पर ेन क सीटी सुनाई दे रही थी।
“कल तुमने ेन का िज कया था न” वो फर से थोड़ी देर के िलए चुप हो
जाती है। “जब भी यहाँ से गुजरती ई ेन देखती ँ तो लगता है जैसे ये ेन पुल से न
गुजर कर मेरे दल से गुजर रही है|” एक पल के िलये वो ऊपर आसमान क ओर देखने
लगती है। फर अपने आँसू प छकर हँसने लगती है।
आसमान म तारे िनकल आये थे। हम वापस लौट आये। अगली सुबह 11 बजे
मेरी ेन थी। म नौ बजे ही तारागढ़ से िनकल िलया बेगम जान मुझे टेशन तक छोड़ने
आई थी। ेन आने म चालीस िमनट का समय था। हम वे टंग हाल म ेन का इं ताजार कर
रहे थे। बेगम जान मेरी बगल वाली सीट पर बैठी थी।
“कोई परे शानी?” मने उसक उदासी का सब पूँछना चाहा। उसने बुझे चेहरे से
मेरी ओर देखा। फर इधर-उधर देखने लगी।
“आज से ठीक दस बरस पहले क बात है। ईद से ठीक एक दन
पहले.............11 अ टू बर, 2007, हाँ यही दन था। शोएब क नयी-नयी जॉब लगी थी।
दो दन बाद उसे जॉइ नंग के िलये जाना था।”
म चुपचाप उसक बात सुन रहा था।
“मेरे शौहर अपने वािलद के साथ शुकराने क नमाज के िलये िच ती दरगाह गये
ए थे। शाम के 6 बजने को थे। म स ाट महल के बुज पर बैठी बीवर पुल से गुजरती ई
ेन को देख रही थी। तभी एक जोरदार धमाका आ। िच ती बाजार से लाल गुबार उठा
और पूरे शहर म कोहराम मच गया। चार ओर पुिलस और ए बूलेस क सायरने बज
उठी। म दौड़कर अपने घर प च ँ ी और टीवी ऑन कया|”
फर वो एक पल के िलये खामोश हो गई। गुबार का सुखपन उसक आँख म
उतर आया था।
“िच ती दरगाह म ला ट आ था। टीवी न पर मेरे शौहर क
लाश थी। उनके वािलद का कटा पैर कह नह िमला। शोएब उनके टु कड़े समेट कर लाया।
सुनने म आया क वो धमाका कु छ िसयासतगद क शह पर कु छ अमनपर त दंगाईय ने
कया था। पूरे शहर म मार-काट मच गई। शोएब ने नौकरी जॉइन नह क । उसक जबान
पर ताला लग गया।”
11 बज चुके थे। लेटफाम नं. एक पर मेरी ेन ने चलने क सीटी दे दी थी।
म अपना लगेज उठाकर लेटफाम क ओर चल पड़ा। बेगम जान अपने प लू म मुँह िछपाये
रो रही थी। उसक खामोश चीख गूँज रही थी। “इस शहर से दल मत लगाना। यह बाहर
से देखने पर िजतना दलकश है, अ दर से उतना ही दलफरे ब।”
◆ ◆ ◆
म ई र तो नह
सनोबर।
मेरी आँख के सामने िशमला का दृ य उभर आया। बफबारी हो रही है और Pine Tree
मजबूती से खड़ा है। ................नंगा.........िब कु ल नंगा।