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||गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपविका ||

||राम ||

विषयानुक्रमविका

विषय पदाङ्क विषय पदाङ्क

श्री गिेश-स्तुवत १ श्री राम स्तुवत ४३-४५

सूयय-स्तुवत २ श्रीराम-नाम-िन्दना ४६

वशि-स्तुवत ३-१४ श्रीराम-आरती ४७-


४८

दे िी-स्तुवत १५-१६ हररशङ्करी-पद ४९

गङ्गा-स्तुवत १७-२० श्रीराम-स्तुवत ५. ५६


यमुना-स्तुवत २१ श्रीरं ग-स्तुवत ५७-५९

काशी-स्तुवत २२ श्रीनर-नारायि-स्तुवत ६०

वििकूट-स्तुवत २३-२४ श्रीविन्दु माधि-स्तुवत ६१-६३

हनुमत्-स्तुवत २५-३६ श्रीरामिन्दना ६४

लक्ष्मि-स्तुवत ३७-३८ श्रीराम-नाम-जप ६५-


७०

भरत-स्तुवत ३९ विनयािली ७१-२७९

शिुघ्न-स्तुवत ४० ------

श्रीसीता-स्तुवत ४१-४२ ------


राग-सूिौ

आसािरी ६२, १८३-१८८ विहाग १०७-


१३४

कल्याि २०८-२११, २१४-२७९ भैरि २२,


६५-७३

कान्हरा २४, २०४-२०७ भैरिी १९८-


२०३

केदारा ४१-४४, २१२-२१३ मलार


१६१

गौरी ३१, ३६, ४५, १८९-१९७ मारु


१५

जैतश्री ६३, ८३-८४ रामकली ६-९, १६-२०,


४६-६१, १०६
टोड़ी ७८-८२ लवलत ७५-७७

दण्डक ३७ विभास ७४

धनाश्री ४-५, १. १२, २५-२९, सारं ग ३०,


१५५-१५७

३८-४०, ८५-१०५ सूहो विलािल


१३५-१३६

नट १५८-१६० सोरठ १६२-१७८

िसन्त १३-१४, २३, ६४ ------

विलािल १-३, २१, ३२-३५, १०७, ------


१३४, १३७-१५४, १७९-१८२ ------

||राम ||

||श्री हनुमते नमः ||

दो०

श्रीगुरु िरन सरोज रज, वनज मनु मुकुरु सुधारर.

िरनउँ रघुिर विमल जसु, जो दायकु फल िारर ||

िुद्धिहीन तनु जावनके, सुवमरौ पिन-कुमार.

िल िुद्धि विद्या दे हु मोवह, हरहु कलेस विकार ||

िौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर. जय कपीस वतहुँ लोक


उजागर ||
राम दू त अतुवलत िल धामा. अंजवन-पुि पिनसुत नामा
||

महािीर विक्रम िजरं गी. कुमवत वनिार सुमवत के संगी ||

कंिन िरन विराज सुिेसा. कानन कंु डल कंु वित केसा ||

हाथ िज्र और ध्वजा विराजै. काँधे मूँज जनेऊ साजै ||

संकर सुिन केसरीनंदन. तेज प्रताप महा जग िंदन ||

विद्यािान गुनी अवत िातुर. राम काज कररिे को आतुर


||

प्रभु िररि सुवनिे को रवसया. राम लखन सीता मन


िवसया ||

सूक्ष्म रुप धरर वसयवह वदखािा. विकट रुप धरर लंक


जरािा ||

भीम रुप धरर असुर सँहारे . रामिन्द्र के काज सँिारे ||

लाय संजीिन लखन वजयाये. श्रीरघुिीर हरवष उर लाये ||

रघुपवत कीन्ही िहुत िडाई. तुम मम वप्रय भरतवह सम


भाई ||

सहस िदन तुम्हरो जस गािैं. अस कवह श्रीपवत कंठ


लगािैं ||

सनकावदक ब्रह्मावद मुनीसा. नारद सारद सवहत अहीसा ||


जम कुिेर वदगपाल जहाँ ते. कवि कोविद कवह सके कहाँ
ते ||

तुम उपकार सुग्रीिवहं कीन्हा. राम वमलाय राज पद दीन्हा


||

तुम्हरो मंि विभीषि माना. लंकेश्वर भए सि जग जाना


||

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू. लील्यो तावह मधुर फल जानू


||

प्रभु मुविका मेवल मुख माही. जलवध लाँवघ गये अिरज


नाही ं ||

दु गयम काज जगत के जेते. सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||

राम दु आरे तुम रखिारे . होत न आज्ञा विनु पैसारे ||

सि सुख लहै तुम्हारी सरना. तुम रच्छक काहु को डरना


||

आपन तेज सम्हारो आपै. तीनो लोक हाँक ते काँपै ||

भूत वपसाि वनकट नवह आिै. महािीर जि नाम सुनािै


||

नासै रोग हरै सि पीरा. जपत वनरं तर हनुमत िीरा ||

संकट तें हनुमान छु डािैं. मन क्रम ििन ध्यान जो लािै


||
सि पर राम तपस्वी राजा. वतन के काज सकल तुम
साजा ||

और मनोरथ जो कोई लािै. सोइ अवमत जीिन फल पािै


||

िारो जुग परताप तुम्हारा. है परवसि जगत उवजयारा ||

साधु संत के तुम रखिारे . असुर वनकंदन राम दु लारे ||

अष्ट वसद्धि नौ वनवध के दाता. अस िर दीन जानकी माता


||

राम रसायन तुम्हरे पासा. सदा रहो रघुपवत के दासा ||

तुम्हरे भजन राम को पािै. जनम जनम के दु ख विसरािै


||

अंत काल रघुिर पुर जाई. जहाँ जन्म हरर-भक्त कहाई


||

और दे िता वित्त न धरई. हनुमत सेइ सिय सुख करई ||

संकट कटै वमटै सि पीरा. जो सुवमरै हनुमत िलिीरा ||

जै जै जै हनुमान गोसाई. कृपा करहु गुरुदे ि की नाई ||

जो सत िार पाठ कर कोई. छूटवह िंवद महासुख होई ||

जो यह पढै हनुमान िालीसा. होय वसद्धि साखी गौरीसा


||
तुलसीदास सदा हरर िेरा. कीजै नाथ हृदय महँ डे रा ||

दो०

पिनतनय संकट हरन, मंगल मूरवत रुप.

राम लखन सीता सवहत, हृदय िसहु सुर भूप ||

||इवत ||

वसयािर रामिन्द्र की जय. पिनसुत हनुमान की जय ||

उमापवत महादे ि की जय. िोलो भाइ सि संतन्ह की जय


||

||श्री सीतारामाभ्ां नमः ||

विनय-पविका

राग विलािल

श्रीगिेश-स्तुवत


गाइये गनपवत जगिंदन. संकर-सुिन भिानी नंदन ||१
||

वसद्धि-सदन, गज िदन, विनायक. कृपा-वसंधु, सुंदर


सि-लायक ||२ ||

मोदक-वप्रय, मुद-मंगल-दाता. विद्या-िाररवध, िुद्धि विधाता


||३ ||

माँगत तुलवसदास कर जोरे . िसवहं रामवसय मानस मोरे


||४ ||

सूयय-स्तुवत

दीन-दयालु वदिाकर दे िा. कर मुवन, मनुज, सुरासुर सेिा


||१ ||
वहम-तम-करर केहरर करमाली. दहन दोष-दु ख-दु ररत-
रुजाली ||२ ||

कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी. तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी
||३ ||

सारवथ-पंगु, वदब्य रथ-गामी. हरर-संकर-विवध-मूरवत


स्वामी ||४ ||

िेद पुरान प्रगट जस जागै. तुलसी राम-भगवत िर माँगै


||५ ||

वशि स्तुवत

को जाँविये संभु तवज आन.

दीनदयालु भगत-आरवत-हर, सि प्रकार समरथ भगिान


||१ ||
कालकूट-जुर जरत सुरासुर, वनज पन लावग वकये विष
पान.

दारुन दनुज, जगत-दु खदायक, मारे उ विपुर एक ही िान


||२ ||

जो गवत अगम महामुवन दु लयभ, कहत संत, श्रुवत, सकल


पुरान.

सो गवत मरन-काल अपने पुर, दे त सदावसि सिवहं समान


||३ ||

सेित सुलभ, उदार कलपतरु, पारिती-पवत परम सुजान.

दे हु काम-ररपु राम-िरन-रवत, तुलवसदास कहँ कृपावनधान


||४ ||

राग धनाश्री

दानी कहुँ संकर-सम नाही ं.

दीन-दयालु वदिोई भािै, जािक सदा सोहाही ं ||१ ||


माररकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रे ख भट माही ं.

ता ठाकुरकौ रीवि वनिावजिौ, कह्यौ क्ों परत मो पाही ं


||२ ||

जोग कोवट करर जो गवत हररसों, मुवन माँगत सकुिाही ं.

िेद-विवदत तेवह पद पुरारर-पुर, कीट पंतग समाही ं ||३


||

ईस उदार उमापवत पररहरर, अनत जे जािन जाही ं.

तुलवसदास ते मूढ़ माँगने, किहुँ न पेट अघाही ं ||४ ||

िािरो रािरो नाह भिानी.

दावन िड़ो वदन दे त दये विनु, िेद-िडाई भानी ||१ ||

वनज घरकी िरिात विलोकहु, हौ तुम परम सयानी.


वसिकी दई संपदा दे खत, श्री-सारदा वसहानी ||२ ||

वजनके भाल वलखी वलवप मेरी, सुखकी नही ं वनसानी.

वतन रं कनकौ नाक सँिारत, हौं आयो नकिानी ||३ ||

दु ख-दीनता दु खी इनके दु ख, जािकता अकुलानी.

यह अवधकार सौवपये औरवहं , भीख भली मैं जानी ||४


||

प्रेम-प्रसंसा-विनय-ब्यंगजुत, सुवन विवधकी िर िानी.

तुलसी मुवदत महे स मनवहं मन, जगत-मातु मुसुकानी ||५


||

राग रामकली

जाँविये वगररजापवत कासी. जासु भिन अवनमावदक दासी


||१ ||
औढर-दावन िित पुवन थोरें . सकत न दे द्धख दीन करजोरे
||२ ||

सुख-संपवत, मवत-सुगवत सुहाई. सकल सुलभ संकर-


सेिकाई ||३ ||

गये सरन आरवतकै लीन्हे . वनरद्धख वनहाल वनवमषमहँ कीन्हे


||४ ||

तुलवसदास जािक जस गािै. विमल भगवत रघुपवतकी पािै


||५ ||

कस न दीनपर ििहु उमािर. दारुन विपवत हरन


करुनाकर ||१ ||

िेद-पुरान कहत उदार हर. हमरर िेर कस भयेहु कृवपनतर


||२ ||
किवन भगवत कीन्ही गुनवनवध विज. होइ प्रसन्न दीन्हे हु वसि
पद वनज ||३ ||

जो गवत अगम महामुवन गािवहं . ति पुर कीट पतंगहु


पािवहं ||४ ||

दे हु काम-ररपु ! राम -िरन-रवत. तुलवसदास प्रभु ! हरहु


भेद-मवत ||५ ||

दे ि िड़े , दाता िड़े , संकर िड़े भोरे .

वकये दू र दु ख सिवनके, वजन्ह-वजन्ह कर जोरे ||१ ||

सेिा, सुवमरन, पूवजिौ, पात आखत थोरे .

वदये जगत जहँ लवग सिै, सुख, गज, रथ, घोरे ||२ ||

गािँ िसत िामदे ि, मैं किहँ न वनहोरे .


अवधभौवतक िाधा भई, ते वकंकर तोरे ||३ ||

िेवग िोवल िवल िरवजये, करतूवत कठोरे .

तुलसी दवल, रू
ँ ध्यो िहैं सठ साद्धख वसहोरे ||४ ||

वसि! वसि! होइ प्रसन्न करु दाया.

करुनामय उदार कीरवत, िवल जाउँ हरहु वनज माया ||१


||

जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-ररपु, मवहमा जान न


कोई.

विनु ति कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगवत न होई ||२


||

ररषय, वसि, मुवन, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीि जग


माही ं.
ति पद विमुख न पार पाि कोउ, कलप कोवट िवल जाही ं
||३ ||

अवहभूषन, दू षन-ररपु-सेिक, दे ि-दे ि, विपु रारी.

मोह-वनहार-वदिाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ||४ ||

वगररजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-वनिासी.

तुलवसदास हरर-िरन-कमल-िर, दे हु भगवत अविनासी


||५ ||

राग धनाश्री

१०

दे ि,

मोह-तम-तरवि, हर, रुि, संकर, शरि, हरि, मम


शोक लोकावभरामं.

िाल-शवश-भाल, सुविशाल लोिन-कमल, काम-सतकोवट-


लािण्य-धामं ||१ ||
कंिु-कंु दें दु-कपूयर-विग्रह रुविर, तरुि-रवि-कोवट तनु तेज
भ्राजै.

भस्म सिाांग अधाांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै


||२ ||

मौवलसंकुल जटा-मुकुट विद् युच्छटा, तवटवन-िर-िारर हरर-


िरि-पूतं.

श्रिि कंु डल, गरल कंठ, करुिाकंद, सद्धिदानंद


िंदेऽिधूतं ||३ ||

शूल-शायक वपनाकावस-कर, शिु-िन-दहन इि धूमध्वज,


िृषभ-यानं.

व्याघ्र-गज-िमय-पररधान, विज्ञान-घन, वसि-सुर-मुवन-


मनुज-सेव्यमानं ||४ ||

तांडवित-नृत्यपर, डमरु वडं वडम प्रिर, अशुभ इि भावत


कल्यािाराशी.

महाकल्ांत ब्रह्मांड-मंडल-दिन, भिन कैलास, आसीन


काशी ||५ ||
तज्ञ, सियज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भिदं शसंभि
पुरारी.

ब्रह्मेंि, िंिाकय, िरुिावि, िसु , मरुत, यम, अविय भिदं वघ्न


सिायवधकारी ||

अकल, वनरुपावध, वनगुयि, वनरं जन, ब्रह्म, कमय-


पथमेकमज वनवियकारं .

अद्धखलविग्रह, उग्ररूप, वशि, भूपसुर, सियगत, शिय


सिोपकारं ||७ ||

ज्ञान-िैराग्य, धन-धमय, कैिल्य-सुख, सुभग सौभाग्य


वशि! सानुकूलं.

तदवप नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भि, विमुख ति


पादमूलं ||८ ||

नष्टमवत, दु ष्ट अवत, कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी


शंभु-शरि आया.

दे वह कामारर! श्रीराम-पद-पंकज भद्धक्त अनिरत गत-भेद-


माया ||९ ||

भैरिरूप वशि-स्तुवत
११

दे ि,

भीषिाकार, भैरि, भयंकर, भूत-प्रेत-प्रमथावधपवत,


विपवत-हताय.

मोह-मूषक-माजायर, संसार-भय-हरि, तारि-तरि, अभय


कताय ||१ ||

अतुल िल, विपुलविस्तार, विग्रहगौर, अमल अवत धिल


धरिीधराभं.

वशरवस संकुवलत-कल-जूट वपंगलजटा, पटल शत-कोवट-


विद् युच्छटाभं ||२ ||

भ्राज वििुधापगा आप पािन परम, मौवल-मालेि शोभा


विवििं.

लवलत लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौवम हर


धनद-वमिं ||३ ||

इं दु-पािक-भानु-नयन, मदय न-मयन, गुि-अयन, ज्ञान-


विज्ञान-रूपं.
रमि-वगररजा, भिन भूधरावधप सदा, श्रिि कंु डल,
िदनछवि अनूपं ||४ ||

िमय-अवस-शूल-धर, डमरु-शर-िाप-कर, यान िृषभेश,


करुिा-वनधानं.

जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृदुलवित, अवजत,


कृत गरलपानं ||५ ||

भस्म तनु-भूषिं, व्याघ्र-िमायम्बरं , उरग-नर-मौवल उर


मालधारी.

डावकनी, शावकनी, खेिरं , भूिरं , यंि-मंि-भंजन, प्रिल


कल्मषारी ||६ ||

काल-अवतकाल, कवलकाल, व्यालावद-खग, विपुर-मदय न,


भीम-कमय भारी.

सकल लोकान्त-कल्ान्त शूलाग्र कृत वदग्गजाव्यक्त-गुि


नृत्यकारी ||७ ||

पाप-संताप-घनघोर संसृवत दीन, भ्रमत जग योवन नवहं


कोवप िाता.
पावह भैरि-रूप राम-रूपी रुि, िंधु, गुरु, जनक,
जननी, विधाता ||८ ||

यस्य गुि-गि गिवत विमल मवत शारधा, वनगम नारद-


प्रमुख ब्रह्मिारी.

शेष, सिेश, आसीन आनंदिन, दास टु लसी प्रित-


िासहारी ||९ ||

१२

सदा-

शंकरं , शंप्रदं , सज्जनानंददं , शैल-कन्या-िरं , परमरम्यं .

काम-मदमोिनं, तामरस-लोिनं, िामदे िं भजे भािगम्यं


||१ ||

कंिु-कंु दें दु-कपूयर-गौरं वशिं, सुंदरं , सद्धिदानंदकंदं .

वसि-सनकावद-योगी ंि-िृंदारका, विष्णु-विवध-िन्द्य


िरिारविंदं ||२ ||
ब्रह्म-कुल-िल्लभं, सुलभ मवत दु लयभं, विकट-िेषं, विभुं,
िेदपारं .

नौवम करुिाकरं , गरल-गंगाधरं , वनमयलं, वनगुयिं, वनवियकारं


||३ ||

लोकनाथं, शोक-शूल-वनमूयवलनं, शूवलनं मोह-तम-भूरर-


भानुं.

कालकालं, कलातीतमजरं हरं , कवठन-कवलकाल-कानन-


कृशानुं ||४ ||

तज्ञमज्ञान-पाथोवध-घटसंभिं, सियगं, सियसौभाग्यमूलं.

प्रिुर-भि-भंजनं, प्रित-जन-रं जनं, दास तुलसी शरि


सानुकूलं ||५ ||

१३

राग िसन्त

सेिहु वसि-िरन-सरोज-रे नु. कल्यान-अद्धखल-प्रद कामधेनू


||१ ||
कपूयर-गौर, करुना-उदार. संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार ||२
||

सुख-जन्मभूवम, मवहमा अपार. वनगुयन, गुननायक,


वनराकार ||३ ||

ियनयन, मयन-मदय न महे स. अहँ कार वनहार-उवदत वदनेस


||४ ||

िर िाल वनसाकर मौवल भ्राज. िैलोक-सोकहर प्रमथराज


||५ ||

वजन्ह कहँ विवध सुगवत न वलखी भाल. वतन्ह की गवत


कासीपवत कृपाल ||६ ||

उपकारी कोऽपर हर-समान. सुर-असुर जरत कृत गरल


पान ||७ ||
िहु कल् उपायन करर अनेक. विनु संभु-कृपा नवहं भि-
वििेक ||८ ||

विग्यान-भिन, वगररसुता-रमन. कह तुलवसदास मम


िाससमन ||९ ||

१४

दे खो दे खो, िन िन्यो आजु उमाकंत. मानों दे खन तुमवहं


आई ररतु िसंत ||१ ||

जनु तनुदुवत िंपक-कुसुम-माल. िर िसन नील नूतन


तमाल ||२ ||

कलकदवल जंघ, पद कमल लाल. सूित कवट केहरर, गवत


मराल ||३ ||

भूषन प्रसून िहु विविध रं ग. नूपूर वकंवकवन कलरि विहं ग


||४ ||
कर निल िकुल-पल्लि रसाल. श्रीफल कुि, कंिुवकलता-
जाल ||५ ||

आनन सरोज, कि मधुप गुंज. लोिन विसाल नि नील


कंज ||६ ||

वपक ििन िररत िर िवहय कीर. वसत सुमन हास, लीला


समीर ||७ ||

कह तुलवसदास सुनु वसि सुजान. उर िवस प्रपंि रिे


पंििान ||८ ||

करर कृपा हररय भ्रम-फंद काम. जेवह हृदय िसवहं


सुखरावस राम ||९ ||

दे िी-स्तुवत

राग मारू

१५
दु सह दोष-दु ख, दलवन, करु दे वि दाया.

विश्व-मूलाऽवस, जन-सानुकूलाऽवस, कर शूलधाररवि


महामूलमाया ||१ ||

तवडत गभायङ्ग सिायङ्ग सुन्दर लसत, वदव्य पट भव्य भूषि


विराजैं.

िालमृग-मंजु खंजन-विलोिवन, िन्द्रिदवन लद्धख कोवट


रवतमार लाजैं ||२ ||

रूप-सुख-शील-सीमाऽवस, भीमाऽवस, रामाऽवस, िामाऽवस


िर िुद्धि िानी.

छमुख हे रंि-अंिावस, जगदं विके, शंभु-जायावस जय जय


भिानी ||३ ||

िंड-भुजदं ड-खंडवन, विहं डवन मवहष मुंड-मद-भंग कर


अंग तोरे .

शुंभ-वनःशुंभ कुम्भीश रि-केशररवि, क्रोध-िारीश अरर-


िृन्द िोरे ||४ ||
वनगम-आगम-अगम गुविय! ति गुन-कथन, उवियधर करत
जेवह सहसजीहा.

दे वह मा, मोवह पन प्रेम यह नेम वनज, राम घनश्याम


तुलसी पपीहा ||५ ||

राग रामकली

१६

जय जय जगजनवन दे वि सुर-नर-मुवन-असुर-सेवि,

भुद्धक्त-मुद्धक्त-दायनी, भय-हरवि कावलका.

मंगल-मुद-वसद्धि-सदवन, पियशियरीश-िदवन,

ताप-वतवमर-तरुि-तरवि-वकरिमावलका ||१
||

िमय, िमय कर कृपाि, शूल-शेल-धनुषिाि,

धरवि, दलवन दानि-दल, रि-करावलका.

पूतना-वपंशाि-प्रेत-डावकनी-शावकनी-समेत,

भूत-ग्रह-िेताल-खग-मृगावल-जावलका ||२
||
जय महे श-भावमनी, अनेक-रूप-नावमनी,

समस्त-लोक-स्वावमनी, वहमशैल-िावलका.

रघुपवत-पद परम प्रेम, तुलसी यह अिल नेम,

दे हु ह्वै प्रसन्न पावह प्रित-पावलका ||३ ||

गंगा-स्तुवत

राग रामकली

१७

जय जय भगीरथनद्धन्दवन, मुवन-िय िकोर-िद्धन्दवन,

नर-नाग-वििुध-िद्धन्दवन जय जह्नु िावलका.

विस्नु -पद-सरोजजावस, ईस-सीसपर विभावस,

विपथगावस, पुन्यरावस, पाप-छावलका ||१


||

विमल विपुल िहवस िारर, सीतल ियताप-हारर,

भँिर िर विभंगतर तरं ग-मावलका.


पुरजन पूजोपहार, सोवभत सवस धिलधार,

भंजन भि-भार, भद्धक्त-कल्थावलका ||२ ||

वनज तटिासी विहं ग, जल-थल-िर पसु-पतंग,

कीट, जवटल तापस सि सररस पावलका.

तुलसी ति तीर तीर सुवमरत रघुिंस-िीर,

वििरत मवत दे वह मोह-मवहष-कावलका ||३


||

१८

जयवत जय सुरसरी जगदद्धखल-पािनी.

विष्णु-पदकंज-मकरं द इि अम्बु िर िहवस, दु ख दहवस,


अघिृन्द-वििाविनी ||१ ||

वमवलतजलपाि-अजयुक्त-हररिरिरज, विरज-िर-िारर
विपुरारर वशर-धावमनी.

जह्नु-कन्या धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरिोवि-


विद्दरवि, िहुनावमनी ||२ ||
यक्ष, गंधिय, मुवन, वकन्नरोरग, दनुज, मनुज मज्जवहं
सुकृत-पुंज युत-कावमनी.

स्वगय-सोपान, विज्ञान-ज्ञानप्रदे , मोह-मद-मदन-पाथोज-


वहमयावमनी ||३ ||

हररत गंभीर िानीर दु हुँ तीरिर, मध्य धारा विशद, विश्व


अवभरावमनी.

नील-पययक-कृत-शयन सपेश जनु, सहस सीसािली स्त्रोत


सुर-स्वावमनी ||४ ||

अवमत-मवहमा, अवमतरूप, भूपािली-मुकुट-मवनिंद्य िेलोक


पथगावमनी.

दे वह रघुिीर-पद-प्रीवत वनभयर मातु, दासतुलसी िासहरवि


भिभावमनी ||५ ||

१९

हरवन पाप विविध ताप सुवमरत सुरसररत.


विलसवत मवह कल्-िेवल मुद-मनोरथ-फररत ||१ ||

सोहत सवस धिल धार सुधा-सवलल-भररत.

विमलतर तरं ग लसत रघुिरके-से िररत ||२ ||

तो विनु जगदं ि गंग कवलजुग का कररत ?

घोर भि अपारवसंधु तुलसी वकवम तररत ||३ ||

२०

ईस-सीस िसवस, विपथ लसवस, नभ-पताल-धरवन.

सुर-नर-मुवन-नाग-वसि-सुजन मंगल-करवन ||१ ||

दे खत दु ख-दोष-दु ररत-दाह-दाररद-दरवन.

सगर-सुिन साँसवत-समवन, जलवनवध जल भरवन ||२ ||

मवहमाकी अिवध करवस िहु विवध हरर-हरवन.


तुलसी करु िावन विमल, विमल िारर िरवन ||३ ||

यमुना-स्तुवत

राग विलािल

२१

जमुना यों ज्ों ज्ों लागी िाढ़न.

त्यों त्यों सुकृत-सुभट कवल भूपवहं , वनदरर लगे िहु काढ़न


||१ ||

ज्ों ज्ों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़


न.

तुलवसदास जगदघ जिास ज्ों अनघमेघ लगे डाढ़न ||२


||

काशी-स्तुवत

राग भैरि

२२
सेइअ सवहत सनेह दे ह भरर, कामधेनु कवल कासी.

समवन सोक-संताप-पाप-रुज, सकल-सुमंगल-रासी ||१


||

मरजादा िहुँ ओर िरनिर, सेित सुरपुर-िासी.

तीरथ सि सुभ अंग रोम वसिवलंग अवमत अविनासी ||२


||

अंतराइन ऐन भल, थन फल, िच्छ िेद-विस्वासी.

गलकंिल िरुना विभावत जनु, लूम लसवत, सररताऽसी


||३ ||

दं डपावन भैरि विषान, मलरुवि-खलगन-भयदा-सी.

लोलवदनेस विलोिन लोिन, करनघंट घंटा-सी ||४ ||

मवनकवनयका िदन-सवस सुंदर, सुरसरर-सुख सुखमा-सी.

स्वारथ परमारथ पररपूरन, पंिकोवस मवहमा-सी ||५ ||


विस्वनाथ पालक कृपालुवित, लालवत वनत वगररजा-सी.

वसद्धि सिी, सारद पूजवहं मन जोगिवत रहवत रमा-सी


||६ ||

पंिाच्छरी प्रान, मुद माधि, गब्य सुपंिनदा-सी.

ब्रह्म-जीि-सम रामनाम जुग, आखर विस्व विकासी ||७


||

िाररतु िरवत करम कुकरम करर, मरत जीिगन घासी.

लहत परमपद पय पािन , जेवह िहत प्रपंि-उदासी ||८


||

कहत पुरान रिी केसि वनज कर-करतूवत कला-सी.

तुलसी िवस हरपुरी राम जपु, जो भयो िहै सुपासी ||९


||

वििकूट-स्तुवत

राग िसन्त

२३
सि सोि-विमोिन वििकूट. कवलहरन, करन कल्यान िूट
||१ ||

सुवि अिवन सु हािवन आलिाल. कानन विविि, िारी


विसाल ||२ ||

मंदावकवन-मावलवन सदा सी ंि. िर िारर, विषम नर-नारर


नीि ||३ ||

साखा सुसृंग, भूरुह-सुपात. वनरिर मधुिर, मृदु मलय


िात ||४ ||

सुक, वपक, मधुकर, मुवनिर विहारु. साधन प्रसून फल


िारर िारु ||५ ||

भि-घोरघाम-हर सुखद छाँह. थप्यो वथर प्रभाि जानकी-


नाह ||६ ||
साधक-सुपवथक िडे भाग पाइ. पाित अनेक अवभमत
अघाइ ||७ ||

रस एक, रवहत-गुन-करम-काल. वसय राम लखन पालक


कृपाल ||८ ||

तुलसी जो राम पद िवहय प्रेम. सेइय वगरर करर वनरुपावध


नेम ||९ ||

राग कान्हरा

२४

अि वित िेवत वििकूटवह िलु.

कोवपत कवल, लोवपत मंगल मगु, विलसत िढ़त मोह-


माया-मलु ||१ ||

भूवम विलोकु राम-पद-अंवकत, िन विलोकु रघुिर-


विहारथलु.
सैल-सृंग भिभंग-हे तु लखु, दलन कपट-पाखंड-दं भ-डलु
||२ ||

जहँ जनमे जग-जनक जगपवत, विवध-हरर पररहरर प्रपंि


छलु.

सकृत प्रिेस करत जेवह आस्रम, विगत-विषाद भये पारथ


नलु ||३ ||

न करु विलंि वििारु िारुमवत, िरष पावछले सम अवगले


पलु.

मंि सो जाइ जपवह, जो जवप भे, अजर अमर हर अिइ


हलाहलु ||४ ||

रामनाम-जप जाग करत वनत, मज्जत पय पािन पीित


जलु.

कररहैं राम भाितौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु


||५ ||

कामदमवन कामता, कलपतरु सो जुग-जुग जागत


जगतीतलु.
तुलसी तोवह विसेवष िूविये, एक प्रतीवत प्रीवत एकै िलु
||६ ||

हनुमत-स्तुवत

राग धनाश्री

२५

जयत्यंजनी-गभय-अंभोवध-संभूत विधु वििुध-कुल-


कैरिानंदकारी.

केसरी-िारु-लोिन िकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-


संतापहारी ||१ ||

जयवत जय िालकवप केवल-कौतुक उवदत-िंडकर-मंडल-


ग्रासकत्ताय.

राहु-रवि-शक्र-पवि-गिय-खिीकरि शरि-भयहरि जय
भुिन-भताय ||२ ||

जयवत रिधीर, रघुिीरवहत, दे िमवि, रुि-अितार,


संसार-पाता.
विप्र-सुर-वसि-मुवन-आवशषाकारिपुष, विमलगुि, िुद्धि-
िाररवध-विधाता ||३ ||

जयवत सुग्रीि-ऋक्षावद-रक्षि-वनपुि, िावल-िलशावल-िध-


मुख्यहे तू.

जलवध-लंघन वसंह वसंवहं का-मद-मथन, रजवनिर-नगर-


उत्पात-केतू ||४ ||

जयवत भूनद्धन्दनी-शोि-मोिन विवपन-दलन घननादिश


विगतशंका.

लूमलीलाऽनल-ज्वालमालाकुवलत होवलकाकरि लंकेश-लंका


||५ ||

जयवत सौवमि रघुनंदनानंदकर, ऋक्ष-कवप-कटक-संघट-


विधायी.

िि-िाररवध-सेतु अमर-मंगल-हे तु, भानुकुलकेतु -रि-


विजयदायी ||६ ||

जयवत जय िज्रतनु दशन नख मुख विकट, िंड-भुजदं ड


तरु-शैल-पानी.
समर-तैवलक-यंि वतल-तमीिर-वनकर, पेरर डारे सुभट
घावल घानी ||७ ||

जयवत दशकंठ-घटकिय-िाररद-नाद-कदन-कारन,
कालनेवम-हं ता.

अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूवम-पाताल-जल-


गगन-गंता ||८ ||

जयवत विश्व-विख्यात िानैत-विरुदािली, विदु ष िरनत िेद


विमल िानी.

दास तुलसी िास शमन सीतारमि संग शोवभत राम-


राजधानी ||९ ||

२६

जयवत मकयटाधीश , मृगराज-विक्रम, महादे ि, मुद-


मंगलालय, कपाली.

मोह-मद-क्रोध-कामावद-खल-संकुला, घोर संसार-वनवश


वकरिमाली ||१ ||
जयवत लसदं जनाऽवदवतज, कवप-केसरी-कश्यप-प्रभि,
जगदावत्तयहत्ताय.

लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हं स हनुमान
कल्यानकताय ||२ ||

जयवत सुविशाल-विकराल-विग्रह, िज्रसार सिाांग भुजदण्ड


भारी.

कुवलशनख, दशनिर लसत, िालवध िृहद, िैरर-


शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ||३ ||

जयवत जानकी-शोि-संताप-मोिन, रामलक्ष्मिानंद-िाररज-


विकासी.

कीस-कौतुक-केवल-लूम-लंका-दहन, दलन कानन तरुि


तेजरासी ||४ ||

जयवत पाथोवध-पाषाि-जलयानकर, यातुधान-प्रिुर-हषय-


हाता.

दु ष्टरािि-कंु भकिय-पाकाररवजत-ममयवभत् , कमय-पररपाक-


दाता ||५ ||
जयवत भुिननैकभूषि, विभीषििरद, विवहत कृत राम-
संग्राम साका.

जयवत पर-यिंमंिावभिार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यावद-


हं ता.

शावकनी-डावकनी-पूतना-प्रेत-िेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता
||७ ||

पुष्पकारूढ़ सौवमवि-सीता-सवहत, भानु-कुलभानु-कीरवत-


पताका ||

जयवत िेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, िे द-िे दांगविद


ब्रह्मिादी.

ज्ञान-विज्ञान-िैराग्य-भाजन विभो, विमल गुि गनवत


शुकनारदादी ||८ ||

जयवत काल-गुि-कमय-माया-मथन, वनश्चलज्ञान, व्रत-


सत्यरत, धमयिारी.

वसि-सुरिृंद-योगी ंि-सेिवत सदा, दास तुलसी प्रित भय-


तमारी ||९ ||

२७
जयवत मंगलागार, संसारभारापहर, िानराकारविग्रह पुरारी.

राम-रोषानल-ज्वालमाला-वमष ध्वांतर-सलभ-संहारकारी ||१


||

जयवत मरुदं जनामोद-मंवदर, नतग्रीि सुग्रीि-दु खःखैकिंधो.

यातुधानोित-क्रुि-कालाविहर, वसि-सुर-सज्जनानंद-वसंधो
||२ ||

जयवत रुिाग्रिी, विश्व-िंद्याग्रिी, विश्वविख्यात-भट-


िक्रिती.

सामगाताग्रिी, कामजेताग्रिी, रामवहत, रामभक्तानुिती


||३ ||

जयवतसंग्रामजय, रामसंदेसहर, कौशला-कुशल-


कल्यािभाषी.

राम-विरहाकय-संतप्त-भरतावद-नरनारर-शीतलकरि
कल्शाषी ||४ ||
जयवत वसंहासनासीन सीतारमि, वनरद्धख वनभयरहरि
नृत्यकारी.

राम संभ्राज शोभा-सवहत सियदा तुलवसमानस-रामपुर-विहारी


||५ ||

२८

जयवत िात-सं जात, विख्यात विक्रम, िृहद्बाहु, िलविपुल,


िालवधविसाला.

जातरूपािलाकारविग्रह, लसल्लोम विद् युल्लता ज्वालमाला


||१ ||

जयवत िालाकय िर-िदन, वपंगल-नयन, कवपश-ककयश-


जटाजूटधारी.

विकट भृकुटी, िज् दशन नख, िैरर-मदमत्त-कंु जर-पुंज-


कंु जरारी ||२ ||

जयवत भीमाजुयन-व्यालसूदन-गियहर, धनंजय-रथ-िाि-केतू.

भीष्म-िोि-किायवद-पावलत, कालदृक सुयोधन-िमू-वनधन-


हे तू ||३ ||
जयवत गतराजदातार, हं तार संसार-संकट, दनुज-दपयहारी.

ईवत-अवत-भीवत-ग्रह-प्रेत-िौरानल-व्यावधिाधा-शमन घोर
मारी ||४ ||

जयवत वनगमागम व्याकरि करिवलवप, काव्यकौतुक-कला-


कोवट-वसंधो.

सामगायक, भक्त-कामदायक, िामदे ि, श्रीराम-वप्रय-प्रेम


िंधो ||५ ||

जयवत घमायशु-संदग्ध-संपावत-निपक्ष-लोिन-वदव्य-दे हदाता.

कालकवल-पापसंताप-संकुल सदा, प्रित तुलसीदास तात-


माता ||६ ||

२९

जयवत वनभयरानंद-संदोह कवपकेसरी, केसरी-सुिन


भुिनैकभताय.
वदव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मिे, भक्त-संताप-विंतापहताय ||१
||

जयवत धमाथय-कामापिगयद, विभो ब्रह्मलोकावद-िैभि-


विरागी.

ििन-मानस-कमय सत्य-धमयव्रती, जानकीनाथ-िरिानुरागी


||२ ||

जयवत विहगेश-िलिुद्धि-िेगावत-मद-मथन, मनमथ-मथन,


ऊध्वयरेता.

महानाटक-वनपुन, कोवट-कविकुल-वतलक, गानगुि-गिय-


गंधिय-जेता ||३ ||

जयवत मंदोदरी-केश-कषयि, विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट


मानी.

भूवमजा-दु ःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी


||४ ||

जयवत रामायि-श्रिि-संजात-रोमांि, लोिन सजल,


वशवथल िािी.
रामपदपद्म-मकरं द-मधुकर पावह, दास तुलसी शरि,
शूलपािी ||५ ||

राग सारं ग

३०

जाके गवत है हनुमानकी.

ताकी पैज पूवज आई, यह रे खा कुवलस पषानकी ||१ ||

अघवटत-घटन, सुघट-विघटन, ऐसी विरुदािवल नवहं


आनकी.

सुवमरत संकट-सोि-विमोिन, मूरवत मोद-वनधानकी ||२


||

तापर सानुकूल वगररजा, हर, लषन, राम अरु जानकी.

तुलसी कवपकी कृपा-विलोकवन, खावन सकल कल्यानकी


||३ ||

राग गौरी
३१

तावकहै तमवक ताकी ओर को.

जाको है सि भाँवत भरोसो कवप केसरी-वकसोरको ||१ ||

जन-रं जन अररवगन-गंजन मुख-भंजन खल िरजोरको.

िेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-वसरमोर को ||२


||

उथपे-थपन, थपे उथपन पन, वििुधिृंद िँवदछोर को.

जलवध लाँवघ दवह लंक प्रिल िल दलन वनसािर घोर को


||३ ||

जाको िालविनोद समुवि वजय डरत वदिाकर भोरको.

जाकी वििुक-िोट िूरन वकय रद-मद कुवलस कठोरको


||४ ||

लोकपाल अनुकूल विलोवकिो िहत विलोिन-कोरको.


सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेिक रनरोरको ||५
||

भगत-कामतरु नाम राम पररपूरन िंद िकोरको.

तुलसी फल िारो करतल जस गाित गईिहोर को ||६ ||

राग विलािल

३२

ऐसी तोही न िूविये हनुमान हठीले.

साहे ि कहँ न रामसे , तोसे न उसीले ||१ ||

तेरे दे खत वसंहके वससु मेंढक लीले.

जानत हौं कवल तेरेऊ मन गुनगन कीले ||२ ||

हाँक सुनत दसकंधके भये िंधन ढीले.

सो िल गयो वकधौं भये अि गरिगहीले ||३ ||


सेिकको परदा फटे तू समरथ सीले.

अवधक आपुते आपुनो सुवन मान सही ले ||४ ||

साँसवत तुलसीदासकी सुवन सुजस तुही ले.

वतहुँ काल वतनको भलौ ं जे राम-रँ गीले ||५ ||

३३

समरथ सुअन समीरके, रघुिीर-वपयारे .

मोपर कीिी तोवह जो करर लेवह वभया रे ||१ ||

तेरी मवहमा ते िलै विंविनी-विया रे .

अँवधयारो मेरी िार क्ो, विभुिन-उवजयारे ||२ ||

केवह करनी जन जावनकै सनमान वकया रे .

केवह अघ औगुन आपने कर डारर वदया रे ||३ ||


खाई खोंिी माँवग मैं तेरो नाम वलया रे .

तेरे िल, िवल, आजु लौं जग जावग वजया रे ||४ ||

जो तोसों होतौ वफरौं मेरो हे तु वहया रे .

तौ कयों िदन दे खाितो कवह ििन इयारे ||५ ||

तोसो ग्यान-वनधान को सरिग्य विया रे .

हौं समुित साई-िोहकी गवत छार वछया रे ||६ ||

तेरे स्वामी राम से, स्वावमनी वसया रे .

तहँ तुलसीके कौनको काको तवकया रे ||७ ||

३४

अवत आरत, अवत स्वारथी, अवत दीन-दु खारी.

इनको विलगु न मावनये, िोलवहं न वििारी ||१ ||


लोक-रीवत दे खी सुनी, व्याकुल नर-नारी.

अवत िरषे अनिरषेहँ, दे वहं दै िवहं गारी ||२ ||

नाकवह आये नाथसों, साँसवत भय भारी.

कवह आयो, कीिी छमा, वनज ओर वनहारी ||३ ||

समै साँकरे सुवमररये, समरथ वहतकारी.

सो सि विवध ऊिर करै , अपराध विसारी ||४ ||

विगरी सेिककी सदा, साहे िवहं सुधारी.

तुलसीपर तेरी कृपा, वनरुपावध वनरारी ||५ ||

३५

कटु कवहये गाढे परे , सुवन समुवि सुसाई.


करवहं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ||१ ||


समरथ सुभ जो पाइये, िीर पीर पराई.

तावह तकैं सि ज्ों नदी िाररवध न िुलाई ||२ ||

अपने अपनेको भलो, िहैं लोग लुगाई.

भािै जो जेवह तेवह भजै, सुभ असुभ सगाई ||३ ||

िाँह िोवल दै थावपये, जो वनज िररआई.

विन सेिा सों पावलये, सेिककी नाईं ||४ ||

िूक-िपलता मेररयै, तू िड़ो िड़ाई.

होत आदरे ढीठ है , अवत नीि वनिाई ||५ ||

िंवदछोर विरुदािली, वनगमागम गाई.

नीको तुलसीदासको, तेररयै वनकाई ||६ ||

राम गौरी

३६
मंगल-मूरवत मारुत-नंदन. सकल-अमंगल-मूल-वनकंदन
||१ ||

पिनतनय संतन वहतकारी. ह्रदय विराजत अिध-विहारी


||२ ||

मातु-वपता, गुरु, गनपवत, सारद. वसिा समेत संभु,


सुक, नारद ||३ ||

िरन िंवद विनिौं सि काह. दे हु रामपद-नेह-वनिाह ||४


||

िंदौं राम-लखन-िैदेही. जे तुलसीके परम सनेही ||५ ||

लक्ष्मि-स्तुवत

दण्डक

३७
लाल लावडले लखन , वहत हौ जनके.

सुवमरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी ,

पालक कृपालु अपने पनके ||१ ||

धरनी-धरनहार भंजन-भुिनभार ,

अितार साहसी सहसफनके ||

सत्यसंध, सत्यब्रत, परम धरमरत ,

वनरमल करम ििन अरु मन के ||२ ||

रूपके वनधान, धनु-िान पावन,

तून कवट, महािीर विवदत, वजतैया िड़े रनके ||

सेिक-सुख-दायक, सिल, सि लायक,

गायक जानकीनाथ गुनगनके ||३ ||

भािते भरत के, सुवमिा-सीताके दु लारे ,

िातक ितुर राम स्याम घनके ||

िल्लभ उरवमलाके, सुलभ सनेहिस ,


धनी धन तुलसीसे वनरधनके ||४ ||

राग धनाश्री

३८

जयवत

लक्ष्मिानंत भगिंत भूधर, भुजग-

राज, भुिनेश, भूभारहारी.

प्रलय-पािक-महाज्वालमाला-िमन,

शमन-संताप लीलाितारी ||१ ||

जयवत दाशरवथ, समर-समरथ, सुवमिा-

सुिन, शिुसूदन, राम-भरत-िंधो.

िारु-िंपक-िरन, िसन-भूषन-धरन,

वदव्यतर, भव्य, लािण्य-वसधों ||२ ||

जयवत गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक,
विश्व-कंटक-कुवटल-कोवट-हं ता.

ििन-िय-िातुरी-परशुधर-गरिहर,

सियदा रामभिानुगंता ||३ ||

जयवत सीतेश-सेिासरस , विषयरस-

वनरस, वनरुपावध धुरधमयधारी.

विपुलिलमूल शादू य लविक्रम जलद-

नाद-मदय न, महािीर भारी ||४ ||

जयवत संग्राम-सागर-भयंकर-तरन,

रामवहत-करि िरिाहु-सेतु.

उवमयला-रिन, कल्याि-मंगल-भिन,

दासतुलसी-दोष-दिन-हे तू ||५ ||

भरत-स्तुवत

३९
जयवत

भूवमजा-रमि-पदकंज-मकरं द-रस-

रवसक-मधुकर भरत भूररभागी.

भुिन-भूषि, भानुिंश-भूषि, भूवमपाल-

मवन रामिंिानुरागी ||१ ||

जयवत वििुधेश-धनदावद-दु लयभ-महा-

राज-संम्राज-सुख-पद-विरागी.

खड् ग-धाराव्रती-प्रथमरे खा प्रकट

शुिमवत-युिवत पवत-प्रेमपागी ||२ ||

जयवत वनरुपावध-भद्धक्तभाि-यंवित-ह्रदय ,

िंधु-वहत वििकुटावि-िारी.

पादु का-नृप-सविि, पुहुवम-पालक परम

धरम-धुर-धीर, िरिीर भारी ||३ ||

जयवत संजीिनी-समय-संकट हनूमान


धनुिान-मवहमा िखानी.

िाहुिल विपुल परवमवत पराक्रम अतुल,

गूढ गवत जानकी-जावन जानी ||४ ||

जयवत रि-अवजर गन्धिय-गि-गियहर,

वफर वकये रामगुिगाथ-गाता.

माण्डिी-वित्त-िातक-निांिुद-िरन,

सरन तुलसीदास अभय दाता ||५ ||

शिुघ्न-स्तुवत

राग धनाश्री

४०

जयवत जय शिु-करर-केसरी शिुहन,

शिुतम-तुवहनहर वकरिकेतू.

दे ि-मवहदे ि-मवह-धेनु-सेिक सुजन-


वसद्धि-मुवन-सकल-कल्याि-हे तू ||१ ||

जयवत सिाांगसुदंर सुवमिा-सुिन,

भुिन-विख्यात-भरतानुगामी.

िमयिमायसी-धनु-िाि-तूिीर-धर

शिु-संकट-समय यत्प्रिामी ||२ ||

जयवत लििाम्बु वनवध-कंु भसंभि महा-

दनुज-दु जयनदिन, दु ररतहारर.

लक्ष्मिानुज, भरत-राम-सीता-िरि-

रे िु-भूवषत-भाल-वतलकधारी ||३ ||

जयवत श्रुवतकीवतय-िल्लभ सुदुलयभ सुलभ

नमत नमयद भुद्धक्तमुद्धक्तदाता.

दासतुलसी िरि-शरि सीदत विभो,

पावह दीनात्तय-संताप-हाता ||४ ||


श्रीसीता-स्तुवत

राग केदारा

४१

किहुँ क अंि, अिसर पाइ.

मेररऔ सुवध द्याइिी, कछु करुन-कथा िलाइ ||१ ||

दीन, सि अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ.

नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ||२ ||

िूविहैं ' सो है कोन' , कवहिी नाम दसा जनाइ.

सुनत राम कृपालुके मेरी विगरीऔ िवन जाइ ||३ ||

जानकी जगजनवन जनकी वकये ििन सहाइ.

तरै तुलसीदास भि ति नाथ-गुन-गन गाइ ||४ ||

४२
किहुँ समय सुवध द्ययािी, मेरी मातु जानकी.

जन कहाइ नाम लेत हौं, वकये पन िातक ज्ों, प्यास-


प्रेम-पानकी ||१ ||

सरल कहाई प्रकृवत आपु जावनए करुना-वनधानकी.

वनजगुन, अररकृत अनवहतौ, दास-दोष सुरवत वित रहत न


वदये दानकी ||

िावन विसारनसील है मानद अमानकी.

तुलसीदास न विसाररये, मन करम ििन जाके, सपनेहुँ


गवत न आनकी ||

श्रीराम-स्तुवत

४३

जयवत

सद्धिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलाितारी.

विकल ब्रह्मावद, सुर, वसि, संकोििश, विमल गुि-गेह


नर-दे ह-धारी. १.
जयवत

कोशलाधीश कल्याि कोशलसुता, कुशल कैिल्य-फल िारु


िारी.

िेद-िोवधत करम-धरम-धरनीधेनु, विप्र-सेिक साधु-


मोदकारी ||२ ||

जयवत ऋवष-मखपाल, शमन-सज्जन-साल, शापिश


मुवनिधू-पापहारी.

भंवज भििाप, दवल दाप भूपािली, सवहत भृगुनाथ नतमाथ


भारी ||३ ||

जयवत धारवमक-धुर, धीर रघुिीर गुर-मातु-वपतु-िंधु-


ििनानुसारी.

वििकूटावि विन्ध्यावि दं डकविवपन, धन्यकृत पुन्यकानन-


विहारी ||४ ||

जयवत पाकाररसुत-काक-करतूवत-फलदावन खवन गतय गोवपत


विराधा.
वदव्य दे िी िेश दे द्धख लद्धख वनवशिरी जनु विडं वित करी
विश्विाधा ||५ ||

जयवत खर-विवशर-दू षि ितुदयश-सहस-सुभट-मारीि-


संहारकताय.

गृध्र-शिरी-भद्धक्त-वििश करुिावसंधु, िररत वनरुपावध,


विविधावतयहताय ||६ ||

जयवत मद-अंध कुकिंध िवध, िावल िलशावल िवध, करन


सुग्रीि राजा.

सुभट मकयट-भालु-कटक-संघट सजत, नमत पद


राििानुज वनिाजा ||७ ||

जयवत पाथोवध-कृत-सेतु कौतुक हे तु, काल-मन अगम लई


ललवक लंका.

सकुल, सानुज, सदल दवलत दशकंठ रि, लोक-लोकप


वकये रवहत-शंका ||८ ||

जयवत सौवमवि-सीता-सविि-सवहत िले पुष्पकारुढ वनज


राजधानी.
दासतुलसी मुवदत अिधिासी सकल, राम भे भूप िैदेवह
रानी ||९ ||

४४

जयवत

राज-राजेंि राजीिलोिन, राम

नाम कवल-कामतरु, साम-शाली.

अनय-अंभोवध-कंु भज, वनशािर-वनकर-

वतवमर-घनघोर-खरवकरिमाली ||१ ||

जयवत मुवन-दे ि-नरदे ि दसरत्थके ,

दे ि-मुवन-िंद्य वकय अिध-िासी.

लोक नायक-कोक-शोक-संकट-शमन,

भानुकुल-कमल कानन-विकासी ||२ ||

जयवत श्रृंगार-सर तामरस-दामदु वत-


दे ह, गुिगेह, विश्वोपकारी ||.३ ||

सकल सौभाग्य-सौ ंदयय-सुषमारुप,

मनोभि कोवट गिाय पहारी ||३ ||

(जयवत) सुभग सारं ग सुवनखंग सायक शद्धक्त,

िारु िमायवस िर िमयधारी.

धमयधुरधीर, रघुिीर, भुजिल अतुल, .

हे लया दवलत भूभार भारी ||४ ||

जयवत कलधौत मवि-मुकुट, कंु डल, वतलक-

िलक भवल भाल, विधु-िदन-शोभा.

वदव्य भूषन, िसन पीत, उपिीत,

वकय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा ||५ ||

(जयवत) भरत-सौवमवि-शिुघ्न-सेवित, सुमुख,

सविि-सेिक-सुखद, सियदाता ||
अधम, आरत, दीन, पवतत, पातक-पीन

सकृत नतमाि कवह ' पावह' पाता ||६ ||

जयवत जय भुिन दसिारर जस जगमगत,

पुन्यमय, धन्य जय रामराजा.

िररत-सुरसररत कवि-मुख्य वगरर वनःसररत,

वपित, मज्जत मुवदत सँत-समाजा ||७ ||

जयवत ििायश्रमािारपर नारर-नर,

सत्य-शम-दम-दया-दानशीला.

विगत दु ख-दोष, संतोस सुख सियदा,

सुनत, गाित राम राजलीला ||८ ||

जयवत िैराग्य-विज्ञान-िारांवनधे

नमत नमयद, पाप-ताप-हताय.

दास तुलसी िरि शरि संशय-हरि,

दे वह अिलंि िैदेवह-भताय ||९ ||


राग गौरी

४५

श्री रामिंि कृपालु भजु मन हरि भिभय दारुिं.

निकंज-लोिन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुिं ||१


||

कंदपय अगवित अवमत छवि, निवनल नीरद सुंदरं .

पट पीत मानहु तवड़त रुवि शु वि नौवम जनक सुतािरं ||२


||

भजु दीनिंधु वदनेश दानि-दै त्य-िंश वनकंदनं.

रघुनंद आनँदकंद कोशलिंद दशरथ-नंदनं ||३ ||

वसर मुकुट कंु डल वतलक िारु उदारु अंग विभूषिं .

आजानुभुज शर-िाप-धर, संग्राम-वजत-खरदू षिं ||४ ||


इवत िदवत तुलसीदास शंकर-शेष-मुवन-मन-रं जनं.

मम ह्रदय कंज वनिास करु कामावद खल-दल-गंजनं ||५


||

राग रामकली

४६

सदा

राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु,
मूढ.मन िार िारं .

सकल सौभाग्य-सुख-खावन वजय जावन शठ, मावन विश्वास


िद िेदसारं ||

कोशलेन्द्र नि-नीलकंजाभतनु, मदन-ररपु-कंजह्रवद-िंिरीकं.

जानकीरिन सुखभिन भुिनैकप्रभु, समर-भंजन, परम


कारुनीकं ||२ ||

दनुज-िन धूमधुज, पीन आजानुभुज, दं ड-कोदं डिर िंड


िानं.
अरुनकर िरि मुख नयन राजीि, गुन-अयन, िहु मयन-
शोभा-वनधानं ||३ ||

िासनािृंद-कैरि-वदिाकर, काम-क्रोध-मद कंज-कानन-


तुषारं .

लोभ अवत मत्त नागेंि पंिानन भक्तवहत हरि संसार-भारं


||४ ||

केशिं, क्लेशहं , केश-िंवदत पद-िं ि मंदावकनी-मूलभूतं.

सियदानंद-संदोह, मोहापहं , घोर-संसार-पाथोवध-पोतं ||५


||

शोक-संदेह-पाथोदपटलावनलं, पाप-पियत-कवठन-
कुवलशरूपं.

संतजन-कामधुक-धेनु, विश्रामप्रद, नाम कवल-कलुष-भंजन


अनूपं ||६ ||

धमय-कल्िुमाराम, हररधाम-पवथ संिलं, मूलवमदमेि एकं.

भद्धक्त-िैराग्यं विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधन


अनेकं ||७ ||
तेन तप्तं, हुतं, दत्तमेिाद्धखलं, तेन सिय कृतं कमयजालं.

येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमवनशमनिद्यमिलोक् कालं ||८


||

श्वपि, खल, वभल्ल, यिनावद हररलोकगत, नामिल विपुल


मवत मल न परसी.

त्यावग सि आस, संिास, भिपास अवस वनवसत हररनाम


जपु दासतुलसी ||

४७

ऐसी आरती राम रघुिीरकी करवह मन.

हरन दु खदुं द गोविंद आनन्दघन ||१ ||

अिरिर रूप हरर, सरिगत, सरिदा िसत, इवत िासना


धूप दीजै.

दीप वनजिोधगत-कोह-मद-मोह-तम, प्रौढऽवभमान वितिृवत


छीजै. २.
भाि अवतशय विशद प्रिर नैिेद्य शुभ श्रीरमि परम
संतोषकारी.

प्रेम-तांिूल गत शूल संशय सकल, विपुल भि-िासना-


िीजहारी. ३.

अशुभ-शुभकमय-घृतपूिय दश िवतयका, त्याग पािक, सतोगुि


प्रकासं.

भद्धक्त-िैराग्य-विज्ञान दीपािली, अवपय नीराजनं जगवनिासं


||४ ||

विमल ह्रवद-भिन कृत शांवत-पययक शुभ, शयन विश्राम


श्रीरामराया.

क्षमा-करुिा प्रमुख ति पररिाररका, यि हरर ति नवहं


भेद-माया. ५.

एवह

आरती-वनरत सनकावद, श्रुवत, शेष, वशि, दे िररवष,


अद्धखलमुवन तत्व-दरसी

करै सोइ तरै , पररहरै कामावद मल, िदवत इवत


अमलमवत-दास तुलसी ||६ ||
४८

हरवत सि आरती आरती रामकी.

दहन दु ख-दोष, वनरमूवलनी कामकी ||१ ||

सुरभ सौरभ धूप दीपिर मावलका.

उड़त अघ-विहँ ग सुवन ताल करतावलका ||२ ||

भक्त-ह्रवद-भिन, अज्ञान-तम-हाररनी.

विमल विग्यानमय तेज-विस्ताररनी ||३ ||

मोह-मद-कोह-कवल-कंज-वहमजावमनी.

मुद्धक्तकी दू वतका, दे ह-दु वत दावमनी ||४ ||

प्रनत-जन-कुमुद-िन-इं दु-कर-जावलका.

तुलवस अवभमान-मवहषेस िहु कावलका ||५ ||


हररशंकरी पद

४९

दे ि-

दनुज-िन-दहन, गुन-गहन, गोविंद नंदावद-आनंद-


दाताऽविनाशी.

शंभु, वशि, रुि, शंकर, भयंकर, भीम, घोर,


तेजायतन, क्रोध-राशी ||१ ||

अनँत, भगिंत-जगदं त-अंतक-िास-शमन, श्रीरमन,


भुिनावभरामं.

भूधराधीश जगदीश ईशान, विज्ञानघन, ज्ञान-कल्यान-धामं


||२ ||

िामनाव्यक्त, पािन, परािर, विभो, प्रकट परमातमा,


प्रकृवत-स्वामी.

िंिशेखर, शूलपावि, हर, अनघ, अज, अवमत,


अविवछन्न, िृ शभेश-गामी ||३ ||
नीलजलदाभ तनु श्याम, िहु काम छवि राम राजीिलोिन
कृपाला.

किुं-कपूयर-िपु धिल, वनमयल मौवल जटा, सुर-तवटवन,


वसत सुमन माला ||४ ||

िसन वकंजल्कधर, िक्र-सारं ग-दर-कंज-कौमोदकी अवत


विशाला.

मार-करर-मत्त-मृगराज, िैनैन, हर, नौवम अपहरि


संसार-जाला ||५ ||

कृष्ण, करुिाभिन, दिन कालीय खल, विपुल कंसावद


वनियशकारी.

विपुर-मद-भंगकर, मत्तगज-िमयधर, अन्धकोरग-ग्रसन


पन्नगारी ||६ ||

ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर, परमवहत, ग्यान,


गोतीत, गुि-िृ वत्त-हत्ताय.

वसंधुसुत-गिय-वगरर-िज्र, गौरीश, भि दक्ष-मख अद्धखल


विध्वंसकत्ताय ||७ ||
भद्धक्तवप्रय, भक्तजन-कामधुक धेनु, हरर हरि दु घयट विकट
विपवत भारी.

सुखद, नमयद, िरद, विरज, अनिघ्यऽद्धखल, विवपन-


आनंद-िीवथन-विहारी

रुविर हररशंकरी नाम-मंिािली िं िदु ख हरवन, आनंदखानी.

विष्णु-वशि-लोक-सोपान-सम सियदा िदवत तुलसीदास


विशद िानी ||८ ||

५०

दे ि-

भानुकुल-कमल-रवि, कोवट कंदय प-छवि, काल-कवल-


व्यालवमि िैनतेयं.

प्रिल भुजदं ड परिंड-कोदं ड-धर तूििर विवशख िलमप्रमेयं


||१ ||

अरुि राजीिदल-नयन, सुषमा-अयन, श्याम तन-कांवत


िर िाररदाभं.
तत्प कांिन-िस्त्र, शस्त्र-विद्या-वनपुि, वसि-सुर-सेव्य,
पाथोजनाभं ||

अद्धखल लािण्य-गृह, विश्व-विग्रह, परम प्रौढ, गुिगूढ़,


मवहमा उदारं .

दु धयषय, दु स्तर, दु गय, स्वगय-अपिगय-पवत, भि संसार-पादप


कुठारं ||३ ||

शापिश मुवनिधू-मुक्तकृत, विप्रवहत, यज्ञ-रक्षि-दक्ष,


पक्षकताय.

जनक-नृप-सदवस वशििाप-भंजन, उग्र भागयिागिय-


गररमापहताय ||४ ||

गुरु-वगरा-गौरिामर-सुदुस्त्यज राज् त्यक्त, श्रीसवहत


सौवमवि-भ्राता.

संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज, दु ष्ट-िध-वनरत,


िैलोक्िाता ||५ ||

दं डकारण्य कृतपुण्य पािन िरि, हरि मारीि-मायाकुरं गं .


िावल िलमत्त गजराज इि केसरी, सुह्रद-सुग्रीि-दु ख-रावश-
भंगं ||६ ||

ऋक्ष, मकयट विकट सुभट उभ्दट समर, शैल-संकाश ररपु


िासकारी.

ििपाथोवध, सुर-वनकर-मोिन, सकुल दलन दससीस-


भुजिीस भारी ||७ ||

दु ष्ट वििुधारर-संघात, अपहरि मवह-भार, अितार कारि


अनूपं.

अमल, अनिद्य, अिै त, वनगुय ि, सगुयि, ब्रह्म सुवमरावम


नरभूप-रूपं ||८ ||

शेष-श्रुवत-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नही ं ति


िररिं.

सोइ राम कामारर-वप्रय अिधपवत सियदा दासतुलसी-िास-


वनवध िवहिं ||९ ||

५१
दे ि

जानकीनाथ, रघुनाथ, रागावद-तम-तरवि, तारुण्यतनु,


तेजधामं.

सद्धिदानंद, आनंदकंदाकरं , विश्व-विश्राम, रामावभरामं ||१


||

नीलनि-िाररधर-सुभग-शुभकांवत, कवट पीत कौशेय िर


िसनधारी.

रत्न-हाटक-जवटत-मुकुट-मंवडत-मौवल, भानु-शत-सदृश
उद्योतकारी ||२ ||

श्रिि कंु डल, भाल वतलक, भूरुविर अवत, अरुि अंभोज


लोिन विशालं.

िक्र-अिलोक, िैलोक-शोकापहं , मार-ररपु-ह्रदय-मानस-


मरालं ||३ ||

नावसका िारु सुकपोल, विज िज्रदु वत, अधर विंिोपमा,


मधुरहासं.

कंठ दर, वििुक िर, ििन गंभीरतर, सत्य-संकल्,

सुरिास-नासं ||४ ||
सुमन सुविविि नि तुलवसकादल-युतं मृदृल िनमाल उर
भ्राजमानं.

भ्रमत आमोदिश मत्त मधुकर-वनकर, मधुरतर मुखर


कुियद्धन्त गानं ||५ ||

सुभग श्रीित्स, केयूर, कंकि, हार, वकंकिी-रटवन कवट-


तट रसालं.

िाम वदवस जनकजासीन-वसंहासनं कनक-मृदुिद्धल्लत तरु


तमालं ||६ ||

आजानु भुजदं ड कोदं ड-मंवडत िाम िाहु, दवक्षि पावि


िािमेकं.

अद्धखल मुवन-वनकर, सुर, वसि, गंधिय िर नमत नर नाग


अिवनप अनेकं ||

अनघ अविवछन्न, सियज्ञ, सिेश, खलु सियतोभि-


दाताऽसमाकं.

प्रितजन-खेद-विच्छे द-विद्या-वनपुि नौवम श्रीराम


सौवमविसाकं ||८ ||
युगल पदपद्म, सुखसद्म पद्मालयं, विन्ह कुवलशावद शोभावत
भारी.

हनुमंत-ह्रवद विमल कृत परममंवदर, सदातुलसी-शरि


शोकहारी ||

५२

दे ि--

कोशलाधीश, जगदीश, जगदे कवहत, अवमतगुि, विपुल


विस्तार लीला.

गायंवत ति िररत सुपविि श्रुवत-शेष-शुक-शंभु-सनकावद


मुवन मननशीला ||१ ||

िाररिर-िपुष धरर भक्त-वनस्तारपर, धरविकृत नाि


मवहमावतगुिी.

सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मवदय दनुजेश उिरि


उिी ||२ ||

कमठ अवत विकट तनु कवठन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु -


सुख मुरारी.
प्रकटकृत अमृत, गो, इं वदरा, इं दु, िृंदारकािृंद-आनंदकारी
||३ ||

मनुज-मुवन-वसि-सुर-नाग-िासक, दु ष्ट दनुज विज-धमय-


मरजाद-हत्ताय.

अतुल मृगराज-िपुधररत, विद्दररत अरर, भक्त प्रहलाद-


अहलाद-कत्ताय ||४ ||

छलन िवल कपट-िटु रूप िामन ब्रह्म, भुिन पयांत पद


तीन करिं.

िरि-नख-नीर-िेलोक-पािन परम, वििुध-जननी-दु सह-


शोक-हरिं ||५ ||

क्षवियाधीश-कररवनकर-नि-केसरी, परशुधर विप्र-सस-


जलदरूपं.

िीस भुजदं ड दससीस खंडन िंड िेग सायक नौवम राम


भूपं ||६ ||

भूवमभर-भार-हर, प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर


भक्तहे तू.
िृद्धष्ण-कुल-कुमुद-राकेश राधारमि, कंस-िंसाटिी-धूमकेतू
||७ ||

प्रिल पाखंड मवह-मंडलाकुल दे द्धख, वनंद्यकृत अद्धखल मख


कमय-जालं.

शुि िोधैकघन, ज्ञान-गुिधाम, अज िौि-अितार िंदे


कृपालं ||८ ||

कालकवलजवनत-मल-मवलनमन सिय नर मोह वनवश-


वनविड़यिनांधकारं .

विष्णुयश पुि कलकी वदिाकर उवदत दासतुलसी हरि


विपवतभारं ||९ ||

५३

दे ि--

सकल सौभाग्यप्रद सियतोभि-वनवध, सिय, सिेश,


सिायवभरामं.

शिय-ह्रवद-कंज-मकरं द-मधुकर रुविर-रूप, भूपालमवि


नौवम रामं ||१ ||
सियसुख-धाम गुिग्राम, विश्रामपद, नाम सियसंपदमवत
पुनीतं.

वनमयलं शांत, सुविशुि, िोधायतन, क्रोध-मद-हरि,


करुिा-वनकेतं ||२ ||

अवजत, वनरुपावध, गोतीतमव्यक्त,


विभुमेकमनिद्यमजमवितीयं .

प्राकृतं, प्रकट परमातमा, परमवहत, प्रेरकानंत िंदे तुरीयं


||३ ||

भूधरं सुन्दरं , श्रीिरं , मदन-मद-मथन सौन्दयय-सीमावतरम्यं.

दु ष्प्राप्य, दु ष्पेक्ष्य, दु स्तक्य, दु ष्पार, संसारहर, सुलभ,


मृदुभाि-गम्यं ||

सत्यकृत, सत्यरत, सत्यव्रत, सियदा, पुष्ट, संतुष्ट,


संकष्टहारी.

धमयिमयवन ब्रह्मकमयिोधैक, विप्रपूज्, ब्रह्मण्यजनवप्रय, मुरारी


||५ ||
वनत्य, वनमयम, वनत्यमुक्त, वनमायन, हरर, ज्ञानघन,
सद्धिदानंद मूलं.

सियरक्षक सियभक्षकाध्यक्ष, कूटस्थ, गूढाविय, भक्तानुकूलं


||६ ||

वसि-साधक-साध्य, िाच्य-िािकरूप, मंि-जापक-जाप्य,


सृवष्ट-स्त्रष्टा.

परम कारि, कञ्ञनाभ, जलदाभतनु, सगुि, वनगुयि,


सकल दृश्य-िष्टा ||७ ||

व्योम-व्यापक, विरज, ब्रह्म, िरदे श, िैकंु ठ, िामन विमल


ब्रह्मिारी.

वसि-िृंदारकािृं दिंवदत सदा, खंवड पाखंड-वनमूयलकारी ||८


||

पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुि-सवन्नपातं.

ििन-मन-कमय-गत शरि तुलसीदास िास-पाथोवध इि


कंु भजातं ||९ ||

५४
दे ि--

विश्व-विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद,


व्यालाररगामी.

ब्रह्म, िरदे श, िागीश, व्यापक, विमल विपुल, िलिान,


वनिायनस्वामी ||१ ||

प्रकृवत, महतत्व, शब्दावद गुि, दे िता व्योम, मरुदवि,


अमलांिु, उिी.

िुद्धि, मन, इं विय, प्राि, वित्तातमा, काल, परमािु ,


विच्छद्धक्त गुिी ||२ ||

सियमेिाि त्विूप भूपालमवि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद,


विष्णो.

भुिन भिदं ग, कामारर-िंवदत, पदिं ि मंदावकनी-जनक,


वजष्णो ||३ ||

आवदमध्यांत, भगिंत! त्वं सियगतमीश, पश्यद्धन्त ये


ब्रह्मिादी.
यथा पट-तंतु, घट-मृवतका, सपय-स्त्रग, दारुकरर, कनक-
कटकांगदादी ||४ ||

गूढ़, गंभीर, गियघ्न, गूढाथयवित, गुप्त, गोतीत, गुरु,


ग्यान-ग्याता.

ग्येय, ग्यानवप्रय, प्रिुर गररमागार, घोर-संसार-पर, पार


दाता ||५ ||

सत्यसंकल्, अवतकल्, कल्ां तकृत, कल्नातीत, अवह-


तल्िासी.

िनज-लोिन, िनज-नाभ, िनदाभ-िपु, िनिरध्वज-


कोवट-लािण्यरासी ||६ ||

सुकर, दु ःकर, दु राराध्य, दु व्ययसनहर, दु गय, दु ियषय,


दु गायवत्तयहत्ताय.

िेदगभायभयकादभय-गुनगिय, अिाां गपर-गिय-वनिायप-कत्ताय ||७


||

भक्त-अनुकूल, भिशूल-वनमूयलकर, तूल-अघ-नाम पािक-


समानं.
तरलतृष्णा-तमी-तरवि, धरिीधरि, शरि-भयहरि,
करुिावनधानं ||८ ||

िहुल िृंदारकािृं द-िंदारु-पद-िं ि मंदार-मालोर-धारी.

पावह मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रित


राििारी ||९ ||

५५

दे ि--

संत-संतापहर, विश्व-विश्रामकर, रामकामारर,


अवभरामकारी.

शुि िोधायतन, सद्धिदानंदघन, सज्जनानंद-िधयन, खरारी


||१ ||

शील-समता-भिन, विषमता-मवत-शमन, राम, रमारमन,


रािनारी.

खड् ग, कर िमयिर, िमयधर, रुविरल कवट तूि, शर-


शद्धक्त-सारं गधारी ||२ ||
सत्यसंधान, वनिायनप्रद, सियवहत, सियगुि-ज्ञान-
विज्ञानशाली.

सघन-तम-घोर-संसार-भर-शियरी नाम वदिसेष खर-


वकरिमाली ||३ ||

तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप, तनभूप, तमपर,


तपस्वी.

मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोवध-मंदर,
मनस्वी ||४ ||

िेद विख्यात, िरदे श, िामन, विरज, विमल, िागीश,


िैकंु ठस्वामी.

काम-क्रोधावदमदय न, वििधयन, छमा-शांवत-विग्रह,


विहगराज-गामी ||५ ||

परम पािन, पाप-पुंज-मुंजािटी-अनल इि वनवमष


वनमूयलकत्ताय.

भुिन-भूषि, दू षिारर-भुिनेश, भूनाथ, श्रुवतमाथ जय


भुिनभताय ||६ ||
अमल, अवििल, अकल, सकल, संतप्त-कवल-विकलता-
भंजनानंदरासी.

उरगनायक-शयन, तरुिपंकज-नयन, छीरसागर-अयन,


सियिासी ||७ ||

वसि-कवि-कोविकानंद-दायक पदिं ि मंदात्ममनुजैदुयरापं.

यि संभूत अवतपूत जल सुरसरी दशयनादे ि अपहरवत पापं


||८ ||

वनत्य वनमुयक्त, संयुक्तगुि, वनगुयिानंद, भगिंत, न्यामक,


वनयंता.

विश्व-पोषि-भरि, विश्व-कारि-करि, शरि तुलसीदास


िास-हं ता ||९ ||

५६

दे ि--

दनुजसूदन दयावसंधु, दं भापहन दहन दु दोष, दपायपहत्ताय.


दु ष्टतादमन, दमभिन, दु ःखौघहर दु गय दु िायसना नाश कत्ताय
||१ ||

भूररभूषि, भानुमंत, भगिंत, भिभंजनाभयद, भुिनेश


भारी.

भािनातीत, भििंद्य, भिभक्तवहत, भूवमउिरि, भूधरि-


धारी ||२ ||

िरद, िनदाभ, िागीश, विश्वात्मा, विरज, िै कुण्ठ-मद्धन्दर-


विहारी.

व्यापक व्योम, िंदारु, िामन, विभो, ब्रह्मविद, ब्रह्म,


विंतापहारी ||३ ||

सहज सुन्दर, सुमुख, सुमन, शुभ सियदा, शुिसियज्ञ,


स्वछन्दिारी.

सियकृत, सियभृत, सियवजत, सियवहत, सत्य-संकल्,


कल्ांतकारी ||४ ||

वनत्य, वनमोह, वनगुयि, वनरं जन, वनजानंद, वनिायि,


वनिायिदाता.
वनभयरानंद, वनःकंप, वनःसीम, वनमुयक्त, वनरुपावध, वनमयम,
विधाता ||५ ||

महामंगलमूल, मोद-मवहमायतन, मुग्ध-मधु-मथन, मानद,


अमानी.

मदनमदय न, मदातीत, मायारवहत, मंजु मानाथ, पाथोजपानी


||६ ||

कमल-लोिन, कलाकोश, कोदं डधर, कोशलाधीश,


कल्यािराशी.

यातुधान प्रिुर मत्तकरर-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यिासी


||७ ||

अनघ, अिै त, अनिद्य, अव्यक्त, अज, अवमत अविकार,


आनंदवसंधो.

अिल, अवनकेत, अविरल, अनामय, अनारं भ,


अंभोदनादहन-िंधो ||८ ||

दासतुलसी खेदद्धखन्न, आपन्न इह, शोकसंपन्न अवतशय


सभीतं.
प्रितपालक राम, परम करुिाधाम, पावह मामुवियपवत,
दु वियनीतं ||९ ||

५७

दे ि--

दे वह सतसंग वनज-अंग श्रीरं ग! भिभंग-कारि शरि-


शोकहारी.

ये तु भिदवघ्रपल्लि-समावश्रत सदा, भद्धक्तरत, विगतसंशय,


मुरारी ||१ ||

असुर, सुर, नाग, नर, यक्ष, गंधिय, खग, रजवनिर,


वसि, ये िावप अन्ने.

संत-संसगय िेिगयपर, परमपद, प्राप्य वनप्राप्यगवत त्ववय


प्रसन्ने ||२ ||

िृि, िवल, िाि, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृध्र,


विजिन्धु वनजधमयत्यागी.

साधुपद-सवलल-वनधूयत-कल्मष सकल, श्वपि-यिनावद


कैिल्य-भागी ||३ ||
शांत, वनरपेक्ष, वनमयम, वनरामय, अगुि, शब्दब्रह्मैकपर,
ब्रह्मज्ञानी.

दक्ष, समदृक, स्वदृक, विगत अवत स्वपरमवत,


परमरवतविरवत ति िक्रपानी ||४ ||

विश्व-उपकारवहत व्यग्रवित सियदा, त्यक्तमदमन्यु, कृत


पुण्यरासी.

यि वतष्ठद्धन्त, तिेि अज शिय हरर सवहत गच्छद्धन्त


क्षीराद्धििासी ||५ ||

िेद-पयवसंधु, सुवििार मंदरमहा, अद्धखल-मुवनिृंद


वनमथयनकताय.

सार सतसंगमुद् धृत्य इवत वनवश्चंतं िदवत श्रीकृष्ण िैदवभयभताय


||६ ||

शोक-संदेह, भय-हषय, तम-तषयगि, साधु-सद् युद्धक्त


विच्छे दकारी.

यथा रघुनाथ-सायक वनशािर-िमू-वनिय-वनदय लन-पटु -िेग-


भारी ||७ ||
यि कुिावप मम जन्म वनजकमयिश भ्रमत जगजोवन संकट
अनेकं.

ति त्वद्भद्धक्त, सज्जन-समागम, सदा भितु मे राम


विश्राममेकं ||८ ||

प्रिल भि-जवनत िैव्यावध-भैषज भगवत, भक्त


भैषज्मिै तदरसी.

संत-भगिंत अंतर वनरं तर नही ं, वकमवप मवत मवलन कह


दासतुलसी ||९ ||

५८

दे ि--

दे वह अिलंि कर कमल, कमलारमन, दमन-दु ख, शमन-


संताप भारी.

अज्ञान-राकेश-ग्रासन विंधुतुद, गिय-काम-कररमत्त-हरर,


दू षिारी ||१ ||
िपुष ब्रह्माण्ड सुप्रिृवत्त लंका-दु गय, रवित मन दनुज मय-
रूपधारी.

विविध कोशौघ, अवत रुविर-मंवदर-वनकर, सत्वगुि प्रमुख


िेकटककारी ||२ ||

कुिप-अवभमान सागर भंयकर घोर, विपुल अिगाह, दु स्तर


अपारं .

नक्र रागावद-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल् िीिी-


विकारं ||३ ||

मोह दशमौवल, तद् भ्रात अहँ कार, पाकाररवजत काम


विश्रामहारी.

लोभ अवतकाय, मत्सर महोदर दु ष्ट, क्रोध पावपष्ठ-


वििुधांतकारी ||४ ||

िे ष दु मुयख, दं भ खर अकंपन कपट, दपय मनुजाद मद


शूलपानी.

अवमतिल परम दु जयय वनशािर-वनकर सवहत षडिगय गो-


यातुधानी ||५ ||
जीि भिदं वघ्र-सेिक विभीषि िसत मध्य दु ष्टाटिी
ग्रवसतविंता.

वनयम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-िश नाथ! अत्यं त


भीता ||६ ||

ज्ञान-अिधेश-गृ ह गेवहनी भद्धक्त शुभ, ति अितार भूभार-


हताय.

भक्त-संकष्ट अिलोवक वपतु-िाक् कृत गमन वकय गहन


िैदेवह-भताय ||७ ||

कैिल्य-साधन अद्धखल भालु मकयट विपुल ज्ञान-सुग्रीिकृत


जलवधसेतू.

प्रिल िैराग्य दारुि प्रभंजन-तनय, विषय िन भिनवमि


धूमकेतू ||८ ||

दु ष्ट दनुजेश वनियशकृत दासवहत, विश्वदु ख-हरि


िोधैकरासी.

अनुज वनज जानकी सवहत हरर सियदा दासतुलसी ह्रदय


कमलिासी ||९ ||
५९

दे ि--

दीन-उिरि रघुियय करुिाभिन शमन-संताप पापौघहारी.

विमल विज्ञान-विग्रह, अनुग्रहरूप, भूपिर, वििुध, नमयद,


खरारी ||१ ||

संसार-कांतार अवत घोर, गंभीर, घन, गहन


तरुकमयसंकुल, मुरारी.

िासना िद्धल्ल खर-कंटकाकुल विपुल, वनविड़ विटपाटिी


कवठन भारी ||२ ||

विविध वितिृवत-खग वनकर श्येनोलूक, काक िक गृध्र


आवमष-अहारी.

अद्धखल खल, वनपुि छल, वछि वनरखत सदा,


जीिजनपवथकमन-खेदकारी ||३ ||

क्रोध कररमत्त, मृगराज, कंदपय, मद-दपय िृक-भालु अवत


उग्रकमाय.
मवहष मत्सर क्रूर, लोभ शूकररूप, फेरु छल, दं भ
माजायरधमाय ||४ ||

कपट मकयट विकट, व्याघ्र पाखण्डमुख, दु खद मृगव्रात,


उत्पातकताय.

ह्रदय अिलोवक यह शोक शरिागतं, पावह मां पावह भो


विश्वभताय ||५ ||

प्रिल अहँ कार दु रघट महीधर, महामोह वगरर-गुहा


वनविड़ांधकारं .

वित्त िेताल, मनुजाद मन, प्रेतगनरोग, भोगौघ िृवश्चक-


विकारं ||६ ||

विषय-सुख-लालसा दं श-मशकावद, खल विद्धल्ल रूपावद


सि सपय, स्वामी.

ति आवक्षप्त ति विषम माया नाथ, अंध मैं मंद,


व्यालादगामी ||७ ||

घोर अिगाह भि आपगा पापजलपूर, दु ष्प्रेक्ष्य, दु स्तर,


अपारा.
मकर षड् िगय, गो नक्र िक्राकुला, कूल शुभ-अशुभ, दु ख
तीव्र धारा ||८ ||

सकल संघट पोि शोििश सिय दा दासतुलसी विषम


गहनग्रस्तं.

िावह रघुिंशभूषि कृपा कर, कवठन काल विकराल-


कवलिास-िस्तं ||९ ||

६०

दे ि--

नौवम नारायिं नरं करुिायनं, ध्यान-पारायिं, ज्ञान-मूलं.

अद्धखल संसार-उपकार-कारि, सदयह्रदय, तपवनरत,


प्रितानुकूलं ||१ ||

श्याम नि तामरस-दामद् युवत िपुष, छवि कोवट मदनाकय


अगवित प्रकाशं.

तरुि रमिीय राजीि-लोिन लवलत, िदन राकेश, कर-


वनकस-हासं ||२ ||
सकल सौ ंदयय-वनवध, विपुल गुिधाम, विवध-िेद-िुध-शंभु-
सेवित, अमानं.

अरुि पदकंज-मकरं द मंदावकनी मधुप-मुवनिृंद कुियद्धन्त पानं


||३ ||

शक्र-प्रेररत घोर मदन मद-भृगंकृत, क्रोधगत, िोधरत,


ब्रह्मिारी.

माकेण्डय मुवनिययवहत कौतुकी विनवह कल्ांत प्रभु


प्रलयकारी ||४ ||

पुण्य िन शैलसरर िविकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक


रूपं.

वसि-योगीन्द्र-िृंदारकानंदप्रद, भिदायक दरस अवत अनूपं


||५ ||

मान मनभंग, वितभंग, मद, क्रोधा लोभावद पियतदु गय,


भुिन-भत्ताय.

िे ष-मत्सर-राग प्रिल प्रत्यूह प्रवत, भूरर वनदय य, क्रूर कमय


कत्ताय ||६ ||
विकटतर िक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दपय कंदपय खर
खड् गधारा.

धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, ति के िराका ियं विगतसारा


||७ ||

परम दु घयट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! नवहं हाथ िर


विरवत-यष्टी.

दशयनारत दास, िवसत माया-पाश, िावह हरर, िावह हरर,


दास कष्टी ||८ ||

दासतुलसी दीन धमय-संिलहीन, श्रवमत अवत, खेद, मवत


मोह नाशी.

दे वह अिलंि न विलंि अंभोज-कर, िक्रधर-तेजिल


शमयराशी ||९ ||

६१

दे ि--
सकल सुखकंद, आनंदिन-पुण्यकृत, विंदुमाधि िं ि-
विपवतहारी.

यस्यांवघ्रपाथोज अज-शंभु-सनकावद-शुक-शेष-मुवनिृंद-अवल-
वनलयकारी ||१ ||

अमल मरकत श्याम, काम शतकोवट छवि, पीतपट तवड़त


इि जलदनीलं.

अरुि शतपि लोिन, विलोकवन िारू, प्रितजन-सुखद,


करुिािय शीलं ||२ ||

काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-िन-दहन पािक, मोह-


वनवश-वदनेशं.

िाररभुज िक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरवसजोपरर यथा


राजहं स ||३ ||

मुकुट, कंु डल, वतलक, अलक अवलव्रातइि, भृकुवट,


विज, अधरिर, िारुनासा.

रुविर सुकपोल, दर ग्रीि सुखसीि, हरर, इं दुकर-कंु दवमि


मधुरहासा ||४ ||
उरवस िनमाल सुविशाल निमंजरी, भ्राज श्रीित्स-लांछन
उदारं .

परम ब्रह्मन्य, अवतधन्य, गतमन्यु, अज, अवमतिल, विपुल


मवहमा अपारं ||५ ||

हार-केयूर, कर कनक कंकन रतन-जवटत मवि-मेखला


कवटप्रदे शं.

युगल पद नूपुरामुखर कलहं सित, सुभग सिाांग सौन्दयय िेशं


||६ ||

सकल सौभाग्य-संयुक्त िेलोक्-श्री दवक्ष वदवश रुविर


िारीश-कन्या.

िसत वििुधापगा वनकट तट सदनिर, नयन वनरखंवत नर


तेऽवत धन्या ||७ ||

अद्धखल मंगल-भिन, वनविड़ संशय-शमन दमन-


िृवजनाटिी, कष्टहत्ताय.

विश्वधृत, विश्ववहत, अवजत, गोतीत, वशि, विश्वपालन,


हरि, विश्वकत्ताय ||८ ||
ज्ञान-विज्ञान-िैराग्य-ऐश्वयय-वनवध, वसद्धि अविमावद दे
भूररदानं.

ग्रवसत-भि-व्याल अवतिास तुलसीदास, िावह श्रीराम


उरगारर-यानं ||९ ||

६२

इहै परम फलु, परम िड़ाई.

नखवसख रुविर विंदुमाधि छवि वनरखवहं नयन अघाई ||१


||

विसद वकसोर पीन सुंदर िपु, श्याम सुरुवि अवधकाई.

नीलकंज, िाररद, तमाल, मवन, इन्ह तनुते दु वत पाई ||२


||

मृदुल िरन शुभ विन्ह, पदज, नख अवत अभूत उपमाई.

अरुन नील पाथोज प्रसि जनु, मवनजुत दल-समुदाई ||३


||
जातरूप मवन-जवटत-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई.

जनु हर-उर हरर विविध रूप धरर, रहे िर भिन िनाई


||४ ||

कवटतट रटवत िारु वकंवकवन-रि, अनुपम, िरवन न जाई.

हे म जलज कल कवलत मध्य जनु, मधुकर मुखर सुहाई


||५ ||

उर विसाल भृगुिरन िारु अवत, सूित कोमलताई.

कंकन िारु विविध भूषन विवध, रवि वनज कर मन लाई


||६ ||

गज-मवनमाल िीि भ्राजत कवह जावत न पदक वनकाई.

जनु उडु गन-मंडल िाररदपर, निग्रह रिी अथाई ||७ ||

भुजगभोग-भुजदं ड कंज दर िक्र गदा िवन आई.

सोभासीि ग्रीि, वििुकाधर, िदन अवमत छवि छाई ||८


||
कुवलस, कंु द-कुडमल, दावमवन-दु वत, दसनन दे द्धख लजाई.

नासा-नयन-कपोल, लवलत श्रुवत कंु डल भ्रू मोवह भाई ||९


||

कंु वित कि वसर मुकुट, भाल पर, वतलक कहौं समुिाई.

अलप तवड़त जुग रे ख इं दु महँ, रवह तवज िंिलताई ||१०


||

वनरमल पीत दु कुल अनूपम, उपमा वहय न समाई.

िहु मवनजुत वगरर नील वसखरपर कनक-िसन रुविराई


||११ ||

दच्छ भाग अनुराग-सवहत इं वदरा अवधक लवलताई.

हे मलता जनु तरु तमाल वढग, नील वनिोल ओढ़ाई ||१२


||

सत सारदा सेष श्रुवत वमवलकै, सोभा कवह न वसराई.

तुलवसदास मवतमंद िं दरत कहै कौन विवध गाई ||१३ ||


राग जैतश्री

६३

मन इतनोई या तनुको परम फलु.

सि अँग सुभग विंदुमाधि-छवि, तवज सुभाि, अिलोकु


एक पलु ||१ ||

तरुन अरुन अं भोज िरन मृदु, नख-दु वत ह्रदय-वतवमर-


हारी.

कुवलस-केतु-जि-जलज रे ख िर, अंकुस मन-गज-िसकारी


||२ ||

कनक-जवटत मवन नूपुर, मेखल, कवट-तट रटवत मधुर


िानी.

वििली उदर, गँभीर नावभ सर, जहँ उपजे विरं वि ग्यानी


||३ ||

उर िनमाल, पवदक अवत सोवभत, विप्र-िरन वित कहँ


करषै.
स्याम तामरस-दाम-िरन िपु पीत िसन सोभा िरषै ||४
||

कर कंकन केयूर मनोहर, दे वत मोद मुविक न्यारी.

गदा कंज दर िारु िक्रधर, नाग-सुंड-सम भुज िारी ||५


||

कंिुग्रीि, छविसीि वििुक विज, अधर अरुन, उन्नत


नासा.

नि राजीि नयन, सवस आनन, सेिक-सुखद विसद हासा


||६ ||

रुविर कपोल, श्रिन कंु डल, वसर मुकुट, सुवतलक भाल


भ्राजै.

लवलत भृकुवट, सुंदर वितिवन, कि वनरद्धख मधुप-अिली


लाजे ||७ ||

रूप-सील-गुन-खावन दच्छ वदवस, वसंधु-सुता रत-पद-


सेिा.
जाकी कृपा-कटाच्छ िहत वसि, विवध, मुवन, मनुज,
दनुज, दे िा ||८ ||

तुलवसदास भि-िास वमटै ति, जि मवत येवह सरूप


अटकै.

नावहं त दीन मलीन हीनसुख, कोवट जनम भ्रवम भ्रवम भटकै


||९ ||

राग िसन्त

६४

िंदौ रघुपवत करुना-वनधान. जाते छूटै भि-भेद-ग्यान ||१


||

रघुिंस-कुमुद-सुखप्रद वनसेस. सेित पद-पंकज अज महे स


||२ ||

वनज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग. लािन्य िपुष अगवनत अनंग


||३ ||
अवत प्रिल मोह-तम-मारतंड. अग्यान-गहन-पािक प्रिंड
||४ ||

अवभमान-वसंधु-कंु भज उदार. सुररं जन, भंजन भूवमभार


||५ ||

रागावद-सपयगन-पन्नगारर. कंदपय-नाग-मृगपवत, मुरारर ||६


||

भि-जलवध-पोत िरनारविंद. जानकी-रिन आनंद-कंद


||७ ||

हनुमंत-प्रेम-िापी-मराल. वनष्काम कामधुक गो दयाल ||८


||

िेलोक-वतलक, गुनगहन राम. कह तुलवसदास विश्राम-धाम


||९ ||

राग भैरि

६५
राम राम रमु, राम राम रटु , राम राम जपु जीहा.

रामनाम-निनेह-मेहको, मन! हवठ होवह पपीहा ||१ ||

सि साधन-फल कूप-सररत-सर, सागर-सवलल-वनरासा.

रामनाम-रवत-स्वावत-सुधा-सु भ-सीकर प्रेमवपयासा ||२ ||

गरवज, तरवज, पाषान िरवष पवि, प्रीवत परद्धख वजय


जानै.

अवधक अवधक अनुराग उमँग उर, पर परवमवत पवहिानै


||३ ||

रामनाम-गवत, रामनाम-मवत, राम-नाम-अनुरागी.

ल्है गये, है , जे होवहं गे, तेइ विभुिन गवनयत िड़भागी


||४ ||

एक अंग मग अगमु गिन कर, विलमु न वछन वछन छाहैं .

तुलसी वहत अपनो अपनी वदवस, वनरुपवध नेम वनिाहैं ||५


||
६६

राम जपु, राम जपु, राम जपु िािरे .

घोर भि-नीर-वनवध नाम वनज नाि रे ||१ ||

एक ही साधन सि ररद्धि-वसद्धि सावध रे .

ग्रसे कवल-रोग जोग-संजम-समावध रे ||२ ||

भलो जो है , पोि जो है , दावहनो जो, िाम रे .

राम-नाम ही सों अंत सि ही को काम रे ||३ ||

जग नभ-िावटका रही है फवल फूवल रे .

धुिाँ कैसे धौरहर दे द्धख तू न भूवल रे ||४ ||

राम-नाम छावड़ जो भरोसो करै और रे .

तुलसी परोसो त्यावग माँगै कूर कौर रे ||५ ||


६७

राम राम जपु वजय सदा सानुराग रे .

कवल न विराग, जोग, जाग, तप, त्याग रे


||१ ||

राम सुवमरत सि विवध ही को राज रे .

रामको विसाररिो वनषेध-वसरताज रे ||२ ||

राम-नाम महामवन, फवन जगजाल रे .

मवन वलये, फवन वजयै, ब्याकुल विहाल रे ||३


||

राम-नाम कामतरु दे त फल िारर रे .

कहत पुरान, िेद, पंवडत, पुरारर रे ||४ ||

राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे .


राम-नाम तुलसीको जीिन-अधार रे ||५ ||

६८

राम राम राम जीह जौलौं तू न जवपहै .

तौलौं, तू कहँ जाय, वतहँ ताप तवपहै ||१ ||

सुरसरर-तीर विनु नीर दु ख पाइहै .

सुरतरु तरे तोवह दाररद सताइहै ||२ ||

जागत, िागत सपने न सुख सोइहै .

जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै ||३ ||

छूवटिेके जतन विसेष िाँधो जायगो.

ह्वे है विष भोजन जो सुधा-सावन खायगो ||४ ||

तुलसी वतलोक, वतहँ काल तोसे दीनको.


रामनाम ही की गवत जैसे जल मीनको ||५ ||

६९

सुवमरु सनेहसों तू नाम रामरायको.

संिल वनसंिलको, सखा असहायको ||१ ||

भाग है अभागेहको, गुन गुनहीनको.

गाहक गरीिको, दयालु दावन दीनको ||२ ||

कुल अकुलीनको, सुन्यो है िेद साद्धख है .

पाँगुरेको हाथ-पाँय, आँ धरे को आँ द्धख है ||३ ||

माय-िाप भूखेको, अधार वनराधारको.

सेतु भि-सागरको, हे तु सुखसारको ||४ ||

पवततपािन राम-नाम सो न दू सरो.


सुवमरर सुभूवम भयो तुलसी सो ऊसरो ||५ ||

७०

भलो भली भाँवत है जो मेरे कहे लावगहै .

मन राम-नामसों सुभाय अनुरावगहै ||१ ||

राम-नामको प्रभाउ जावन जूड़ी आवगहै .

सवहत सहाय कवलकाल भीरु भावगहै ||२ ||

राम-नामसों विराग, जोग, जप जावगहै .

िाम विवध भाल ह न करम दाग दावगहै ||३ ||

राम-नाम मोदक सनेह सुधा पावगहै .

पाइ पररतोष तू न िार िार िावगहै ||४ ||

राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँवगहै .


तुलवसदास स्वारथ परमारथ न खाँवगहै ||५ ||

७१

ऐसेह साहिकी सेिा सों होत िोरु रे .

आपनी न िुि, न कहै को राँडरोरु रे ||१


||

मुवन-मन-अगम, सुगम माइ-िापु सों.

कृपावसंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों ||२


||

लोक-िेद-विवदत िड़ो न रघुनाथ सों.

सि वदन दि दे स, सिवहके साथ सों ||३


||

स्वामी सरिग्य सों िलै न िोरी िारकी.

प्रीवत पवहिावन यह रीवत दरिारकी ||४ ||


काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी.

सुवमरे सकुवि रुवि जोगित जनकी ||५ ||

रीिे िस होत, खीिे दे त वनज धाम रे .

फलत सकल फल कामतरु नाम रे ||६ ||

िेंिे खोटो दाम न वमलै, न राखे काम रे .

सोऊ तुलसी वनिाज्ो ऐसो राजाराम रे ||७


||

७२

मेरो भलो वकयो राम आपनी भलाई.

हौं तो साई-िोही पै सेिक-वहत साई ||१


||

रामसों िड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो.


राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो
||२ ||

लोक कहै रामको गुलाम हौं कहािौं.

एतो िड़ो अपराध भौ न मन िािौं ||३ ||

पाथ माथे िढ़े तृन तुलसी ज्ों नीिो.

िोरत न िारर तावह जावन आपु सीिो ||४


||

७३

जागु, जागु, जीि जड़! जोहै जग-जावमनी.

दे ह-गेह-नेह जावन जैसे घन-दावमनी ||१ ||

सोित सपनेहँ सहै संसृवत-संताप रे .

िूड्यो मृग-िारर खायो जेिरीको साँप रे ||२


||
कहैं िेद-िुध, तू तो िूवि मनमावहं रे .

दोष-दु ख सपनेके जागे ही पै जावहं रे ||३


||

तुलसी जागेते जाय ताप वतहुँ ताय रे .

राम-नाम सुवि रुवि सहज सुभाय रे ||४


||

राग विभास

७४

जानकीसकी कृपा जगािती सुजान जीि,

जागी त्यावग मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे .

करर वििार, तवज विकार, भजु उदार रामिंि,

भिवसंधु दीनिंधु, िेद िदत रे ||१ ||

मोहमय कुह-वनसा विसाल काल विपुल सोयो,

खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे .


अि प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,

िासना, सराग मोह-िे ष वनविड़ तम टरे ||२


||

भागे मद-मान िोर भोर जावन जातुधान,

काम-कोह-लोभ-छोभ-वनकर अपडरे .

दे खत रघुिर-प्रताप, िीते संताप-पाप,

ताप विविध प्रेम-आप दू र ही करे ||३ ||

श्रिन सुवन वगरा गँभीर, जागे अवत धीर िीर,

िर विराग-तोष सकल संत आदरे .

तुलवसदास प्रभुकृपालु , वनरद्धख जीि जन विहालु,

भंज्ो भि-जाल परम मंगलािरे ||४ ||

राग लवलत

७५
खोटो खरो रािरो हौं, रािरी सौ,
ं रािरे सों िठ
ू क्ों
कहौंगो,

जानो सि ही के मनकी.

करम-ििन-वहये, कहौं न कपट वकये, ऐसी हठ जैसी


गाँवठ

पानी परे सनकी ||१ ||

दू सरो, भरोसो नावहं िासना उपासनाकी, िासि, विरं वि

सुर-नर-मुवनगनकी.

स्वारथ के साथी मेरे, हाथी स्वान लेिा दे ई, काह तो न


पीर

रघुिीर! दीन जनकी ||२ ||

साँप-सभा सािर लिार भये दे ि वदब्य, दु सह साँसवत कीजै

आगे ही या तनकी.

साँिे परौं, पाँऊ पान, पंिमें पन प्रमान, तुलसी िातक


आस

राम स्यामघनकी ||३ ||


७६

रामको गुलाम, नाम रामिोला राख्यौ राम,

काम यहै , नाम िै हौ किहँ कहत हौं.

रोटी-लूगा नीके राखै, आगेहकी िेद भाखै,

भलो ह्वे है तेरो, ताते आनँद लहत हौं ||१ ||

िाँध्यौ हौं करम जड़ गरि गूढ़ वनगड़,

सुनत दु सह हौं तौ साँसवत सहत हौं.

आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल,

लीन्हौ छीन दीन दे ख्यो दु ररत दहत हौं ||२ ||

िूझ्यौ ज्ौं ही, कह्यो, मैं हँ िेरो ह्वे हौ रािरो जू

मेरो कोऊ कहँ नावहं , िरन गहत हौं.

मी ंजो गुरु पीठ, अपनाइ गवह िाँह, िोवल

सेिक-सुखद, सदा विरद िहत हौं ||३ ||


लोग कहै पोि, सो न सोि न सँकोि मेरे

ब्याह न िरे खी, जावत-पाँवत न िहत हौं.

तुलसी अकाज-काज राम ही के रीिे-खीिे,

प्रीवतकी प्रतीवत मन मुवदत रहत हौं ||४ ||

७७

जानकी-जीिन, जग-जीिन, जगत-वहत,

जगदीस, रघुनाथ, राजीिलोिन राम.

सरद-विधु-िदन, सुखसील, श्रीसदन,

सहज सुंदर तनु, सोभा अगवनत काम ||१ ||

जग-सुवपता, सुमातु , सुगुरु, सुवहत, सुमीत,

सिको दावहनो, दीनिन्धु, काहुको न िाम.

आरवतहरन, सरनद, अतुवलत दावन,

प्रनतपालु, कृपालु, पवतत-पािन नाम ||२ ||


सकल विस्व-िंवदत, सकल सुर-सेवित,

आगम-वनगम कहैं रािरे ई गुनग्राम.

इहै जावन तुलसी वतहारो जन भयो,

न्यारो कै गवनिो जहाँ गने गरीि गुलाम ||३ ||

राग टोडी

७८

दे ि-

दीनको दयालु दावन दू सरो न कोऊ.

जावह दीनता कहौं हौं दे खौं दीन सोऊ ||१ ||

सुर, नर, मुवन, असुर, नाग, सावहि तौ घनेरे.

(पै) तौ लौं जौं लौं रािरे न नेकु नयन फेरे ||२ ||

विभुिन, वतहुँ काल विवदत, िेद िदवत िारी.


आवद-अंत-मध्य राम! साहिी वतहारी ||३ ||

तोवह माँवग माँगनो न माँगनो कहायो.

सुवन सुभाि-सील-सुजसु जािन जन आयो ||४ ||

पाहन-पसु, विटप-विहँ ग अपने करर लीन्हे .

महाराज दसरथके ! रं क राय कीन्हे ||५ ||

तू गरीिको वनिाज, हौं गरीि तेरो.

िारक कवहये कृपालु! तुलवसदास मेरो ||६ ||

७९

दे ि-

तू दयालु , दीन हौं तू दावन, हौं वभखारी.

हौं प्रवसि पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ||१ ||


नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो

मो समान आरत नवहं , आरवतहर तोसो ||२ ||

ब्रह्म तू, हौं जीि, तू है ठाकुर, हौं िेरो.

तात-मात, गुरु-सखा, तू सि विवध वहतु मेरो ||३ ||

तोवहं मोवहं नाते अनेक, मावनयै जो भािै.

ज्ों त्यों, तुलसी कृपालु ! िरन-सरन पािै ||४ ||

८०

दे ि--

और कावह माँवगये, को माँवगिो वनिारै .

अवभमतदातार कौन, दु ख-दररि दारै ||१ ||

धरमधाम राम काम-कोवट-रूप रूरो.

साहि सि विवध सुजान, दान-खडग-सूरो ||२ ||


सुसमय वदन िै वनसान सिके िार िाजै.

कुसमय दसरथके ! दावन तैं गरीि वनिाजै ||३ ||

सेिा विनु गुनविहीन दीनता सुनाये.

जे जे तैं वनहाल वकये फूले वफरत पाये ||४ ||

तुलसीदास जािक-रुवि जावन दान दीजै.

रामिंि िंि तू, िकोर मोवहं कीजै ||५ ||

८१

दीनिंधु, सुखवसंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई.

सुनहु नाथ ! मन जरत विविध जुर, करत वफरत िौराई


||१ ||

किहुँ जोगरत, भोग-वनरत सठ हठ वियोग-िस होई.


किहुँ मोहिस िोह करत िहु, किहुँ दया अवत सोई ||२
||

किहुँ दीन, मवतहीन, रं कतर, किहुँ भूप अवभमानी.

किहुँ मूढ, पंवडत विडं िरत, किहुँ धमयरत ग्यानी ||३ ||

किहुँ दे ि! जग धनमय ररपुमय किहुँ नाररमय भासै.

संसृवत-संवनपात दारुन दु ख विनु हरर-कृपा न नासै ||४


||

संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत, िहु भेषज-समुदाई.

तुलवसदास भि-रोग रामपद-प्रेम-हीन नवहं जाई ||५ ||

८२

मोहजवनत मल लाग विविध विवध कोवटहु जतन न जाई.

जनम जनम अभ्ास-वनरत वित, अवधक अवधक लपटाई


||१ ||
नयन मवलन परनारर वनरद्धख, मन मवलन विषय सँग लागे.

हृदय मवलन िासना-मान मद, जीि सहज सुख त्यागे ||२


||

परवनंदा सुवन श्रिन मवलन भे, ििन दोष पर गाये.

सि प्रकार मलभार लाग वनज नाथ-िरन विसराये ||३ ||

तुलवसदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहे तु श्रुवत गािै.

राम-िरन-अनुराग-नीर विनु मल अवत नास न पािै ||४


||

राग जैतश्री

८३

कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय.

अवत दु रलभ तनु पाइ कपट तवज भजे न राम मन ििन-


काय ||१ ||
लररकाई िीती अिेत वित, िंिलता िौगुने िाय.

जोिन-जुर जुिती कुपथ्य करर, भयो विदोष भरर मदन


िाय ||२ ||

मध्य ियस धन हे तु गँिाई, कृषी िवनज नाना उपाय.

राम-विमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, वनवसिासर तयौ वतहँ


ताय ||३ ||

सेये नवहं सीतापवत-सेिक, साधु सुमवत भवल भगवत भाय.

सुने न पुलवक तनु, कहे न मुवदत मन वकये जे िररत


रघुिंसराय ||४ ||

अि सोित मवन विनु भुअंग ज्ो, विकल अं ग दले जरा


धाय.

वसर धुवन-धुवन पवछताय मी ंवज कर कोउ न मीत वहत


दु सह दाय ||५ ||

वजन्ह लवग वनज परलोक विगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े


ठाँय.
तुलसी अजहुँ सुवमरर रघुनाथवहं , तर् यौ गयँद जाके एक
नाँय ||६ ||

८४

तौ तू पवछतैहै मन मी ंवज हाथ.

भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समुविधौं कत


खोित अकाथ ||१ ||

सुख-साधन हररविमुख िृथा जैसे श्रम फल घृतवहत मथे


पाथ.

यह वििारर, तवज कुपथ-कुसंगवत िवल सुपंथ वमवल भले


साथ ||२ ||

दे खु-राम-सेिक, सुवन कीरवत, रटवह नाम करर गान


गाथ.

हृदय आनु धनुिान-पावन प्रभु, लसे मुवनपट, कवट कसे


भाथ ||३ ||
तुलवसदास पररहरर प्रपंि सि, नाउ रामपद-कमल माथ.

जवन डरपवह तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ||४


||

राग धनाश्री

८५

मन! माधिको नेकु वनहारवह.

सुनु सठ, सदा रं कके धन ज्ो, वछन-वछन प्रभुवहं


सँभारवह ||१ ||

सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंवदर, सुंदर परम उदारवह.

रं जन संत, अद्धखल अघ-गंजन, भंजन विषय-विकारवह


||२ ||

जो विनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो िहै भि-पारवह.

तौ जवन तुलवसदास वनवस-िासर हरर-पद कमल विसारवह


||३ ||
८६

इहै कह्यो सुत! िेद िहँ .

श्रीरघुिीर-िरन-विंतन तवज नावहन ठौर कहँ ||१ ||

जाके िरन विरं वि सेइ वसवध पाई संकरहँ .

सुक-सनकावद मुकुत वििरत तेउ भजन करत अजहँ ||२


||

जद्यवप परम िपल श्री संतत, वथर न रहवत कतहँ .

हरर-पद-पंकज पाइ अिल भइ, करम-ििन-मनहँ ||३


||

करुनावसंधु, भगत-विंतामवन, सोभा सेितहँ .

और सकल सुर, असुर-ईस सि खाये उरग छहँ ||४ ||

सुरुवि कह्यो सोइ सत्य तात अवत परुष ििन जिहँ .

तुलवसदास रघुनाथ-विमुख नवहं वमटइ विपवत किहँ ||५


||
८७

सुनु मन मूढ वसखािन मेरो.

हरर-पद-विमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुि


सिेरो ||१ ||

विछु रे सवस-रवि मन-नैनवनतें, पाित दु ख िहुतेरो.

भ्रमत श्रवमत वनवस-वदिस गगन महँ , तहँ ररपु राहु िडे रो


||२ ||

जद्यवप अवत पुवनत सुरसररता, वतहुँ पुर सुजस घनेरो.

तजे िरन अजहँ न वमटत वनत, िवहिो ताह केरो ||३ ||

छु टै न विपवत भजे विनु रघुपवत, श्रुवत संदेहु वनिेरो.

तुलवसदास सि आस छाँवड करर, होहु रामको िेरो ||४


||
८८

किहँ मन विश्राम न मान्यो.

वनवसवदन भ्रमत विसारर सहज सुख, जहँ तहँ इं विन तान्यो


||१ ||

जदवप विषय-सँग सह्यो दु सह दु ख, विषम जाल


अरुिान्यो.

तदवप न तजत मूढ़ ममतािस, जानतहँ नवहं जान्यो ||२


||

जनम अनेक वकये नाना विवध करम-कीि वित सान्यो.

होइ न विमल वििेक-नीर विनु, िेद पुरान िखान्यो ||३


||

वनज वहत नाथ वपता गुरु हररसों हरवष हदै नवह आन्यो.

तुलवसदास कि तृषा जाय सर खनतवह जनम वसरान्यो ||४


||
८९

मेरो मन हररजू! हठ न तजै.

वनवसवदन नाथ दे उँ वसख िहु विवध, करत सुभाउ वनजै


||१ ||

ज्ो जुिती अनुभिवत प्रसि अवत दारुन दु ख उपजै.

ह्वे अनुकूल विसारर सूल सठ पुवन खल पवतवहं भजै ||२


||

लोलुप भ्रम गृहपसु ज्ौं जहँ तहँ वसर पदिान िजै.

तदवप अधम वििरत तेवह मारग किहुँ न मूढ़ लजै ||३ ||

हौं हार् यौ करर जतन विविध विवध अवतसै प्रिल अजै.

तुलवसदास िस होइ तिवहं जि प्रेरक प्रभु िरजै ||४ ||

९०
ऐसी मूढ़ता या मनकी.

पररहरर राम-भगवत-सुरसररता, आस करत ओसकनकी


||१ ||

धूम-समूह वनरद्धख िातक ज्ो, तृवषत जावन मवत घनकी.

नवहं तहँ सीतलता न िारर, पुवन हावन होवत लोिनकी ||२


||

ज्ो गि-काँि विलोवक सेन जड छाँह आपने तनकी.

टू टत अवत आतु र अहार िस, छवत विसारर आननकी ||३


||

कहँ लौं कहौं कुिाल कृपावनवध! जानत हौ गवत जनकी.

तुलवसदास प्रभु हरहु दु सह दु ख, करहु लाज वनज पनकी


||४ ||

९१

नाित ही वनवस-वदिस मर् यो.


ति ही ते न भयो हरर वथर जितें वजि नाम धर् यो ||१
||

िहु िासना विविध कंिुवक भूषन लोभावद भर् यो.

िर अरु अिर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग कर् यो


||२ ||

दे ि-दनुज, मुवन, नाग, मनुज नवहं जाँित कोउ उिर् यो.

मेरो दु सह दररि, दोष, दु ख काह तौ न हर् यो ||३ ||

थके नयन, पद, पावन, सुमवत, िल, संग सकल विछु र्


यो.

अि रघुनाथ सरन आयो जन, भि, भय विकल डर् यो


||४ ||

जेवह गुनतें िस होहु रीवि करर, सो मोवह सि विसर् यो.

तुलवसदास वनज भिन-िार प्रभु दीजै रहन पर् यो ||५ ||

९२
माधिजू, मोसम मंद न कोऊ.

जद्यवप मीन-पतंग हीनमवत, मोवह नवहं पूजैं ओऊ ||१ ||

रुविर रुप-आहार-िस्य उन्ह, पािक लोह न जान्यो.

दे खत विपवत विषय न तजत हौं, ताते अवधक अयान्यो


||२ ||

महामोह-सररता अपार महँ , संतत वफरत िह्यो.

श्रीहरर-िरन-कमल-नौका तवज, वफरर वफरर फेन गह्यो


||३ ||

अद्धस्थ पुरातन छु वधत स्वान अवत ज्ौं भरर मुख पकरै .

वनज तालूगत रुवधर पान करर, मन संतोष धरै ||४ ||

परम कवठन भि-ब्याल-ग्रवसत भयो अवत भारी.

िाहत अभय भेक सरनागत, खगपवत-नाथ विसारी ||५


||
जलिर-िृंद जाल-अंतरगत होत वसवमवट इक पासा.

एकवह एक खात लालि-िस, नवहं दे खत वनज नासा ||६


||

मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नवहं पािै.

तुलवसदास पवतत-पािन प्रभु यह भरोस वजय आिै ||७


||

९३

कृपा सो धौं कहाँ विसारी राम.

जेवह करुना सुवन श्रिन दीन-दु ख, धाित हौ तवज धाम


||१ ||

नागराज वनज िल वििारर वहय, हारर िरन वित दीन्हों.

आरत वगरा सुनत खगपवत तवज, िलत विलंि न कीन्हों


||२ ||
वदवतसुत-िास-िवसत वनवसवदन प्रहलाद-प्रवतग्या राखी.

अतुवलत िल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुवत साखी


||३ ||

भूप-सदवस सि नृप विलोवक प्रभु-राखु कह्यो नर-नारी.

िसन पूरर, अरर-दरप दू रर करर, भूरर कृपा दनुजारी ||४


||

एक एक ररपुते िावसत जन, तुम राखे रघुिीर.

अि मोवहं दे त दु सह दु ख िहु ररपु कस न हरहु भि-पीर


||५ ||

लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-िंधु खल मार.

तुलवसदास प्रभु यह दारुन दु ख भंजहु राम उदार ||६ ||

९४

काहे ते हरर मोवहं विसारो.


जानत वनज मवहमा मेरे अघ, तदवप न नाथ सँभारो ||१
||

पवतत-पुनीत, दीनवहत, असरन-सरन कहत श्रुवत िारो.

हौं नवहं अधम, सभीत, दीन ? वकधौं िेदन मृषा पुकारो


? ||२ ||

खग-गवनका-गज-ब्याध-पाँवत जहँ तहँ हौहँ िैठारो.

अि केवह लाज कृपावनधान ! परसत पनिारो फारो ||३


||

जो कवलकाल प्रिल अवत होतो, तुि वनदे सतें न्यारो.

तौ हरर रोष भरोस दोष गुन तेवह भजते तवज गारो ||४
||

मसक विरं वि, विरं वि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो.

यह सामरथ अछत मोवहं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु िारो


||५ ||
नावहन नरक परत मोकहँ डर, जद्यवप हौं अवत हारो.

यह िवड िास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो ||६


||

९५

तरु न मेरे अघ-अिगुन गवनहैं |

जौ जमराज काज सि पररहरर, इहै ख्याल उर अवनहैं ||१


||

िवलहैं छूवट पुंज पावपनके, असमंजस वजय जवनहैं |

दे द्धख खलल अवधकार प्रभूसों (मेरी) भूरर भलाई भवनहैं


||२ ||

हँ वस कररहैं परतीवत भगतकी भगत-वसरोमवन मवनहैं |

ज्ों त्यों तुलवसदास कोसलपवत अपनायेवह पर िवनहैं ||३


||

९६
जौ पै वजय धररहौ अिगुन जनके |

तौ क्ों कटत सुकृत-नखते मो पै, विपुल िृंद अघ-िनके


||१ ||

कवहहै कौन कलुष मेरे कृत, करम ििन अरु मनके |

हारवहं अवमत सेष सारद श्रुवत, वगनत एक-एक छनके ||२


||

जो वित िढ़ै नाम-मवहमा वनज, गुनगन पािन पनके |

तो तुलवसवहं ताररहौ विप्र ज्ों दसन तोरर जमगनके ||३


||

९७

जौ पै हरर जनके औगुन गहते |

तौ सुरपवत कुरुराज िावलसों, कत हवठ िैर विसहते ||१


||
जौ जप जाग जोग ब्रत िरवजत, केिल प्रेम न िहते |

तौ कत सुर मुवनिर विहाय ब्रज, गोप-गेह िवस रहते ||२


||

जौ जहँ -तहँ प्रन राद्धख भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते |

तौ कवल कवठन करम-मारग जड़ हम केवह भाँवत वनिहते


||३ ||

जौ सुतवहत वलये नाम अजावमलके अघ अवमत न दहते |

तौ जमभट साँसवत-हर हमसे िृषभ खोवज खोवज नहते


||४ ||

जौ जगविवदत पवततपािन, अवत िाँकुर विरद न िहते |

तौ िहुकलप कुवटल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगवत न लहते ||५


||

९८

ऐसी हरर करत दासपर प्रीवत |


वनज प्रभुता विसारर जनके िस, होत सदा यह रीवत ||१
||

वजन िाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रिल करमकी डोरी |

सोइ अविवछन्न ब्रह्म जसुमवत हवठ िाँध्यो सकत न छोरी


||२ ||

जाकी मायािस विरं वि वसि, नाित पार न पायो |

करतल ताल िजाय ग्वाल-जुिवतन्ह सोइ नाि निायो ||३


||

विस्वंभर, श्रीपवत, विभुिनपवत, िेद-विवदत यह लीख |

िवलसों कछु न िली प्रभुता िरु है विज माँगी भीख ||४


||

जाको नाम वलये छूटत भि-जनम-मरन दु ख-भार |

अंिरीष-वहत लावग कृपावनवध सोइ जनमे दस िार ||५ ||


जोग-विराग, ध्यान-जप-तप करर, जेवह खोजत मुवन ग्यानी
|

िानर-भालु िपल पसु पामर, नाथ तहाँ रवत मानी ||६


||

लोकपाल, जम, काल, पिन, रवि, सवस सि आग्याकारी


|

तुलवसदास प्रभु उग्रसेनके िार िेंत कर धारी ||७ ||

९९

विरद गरीिवनिाज रामको |

गाित िेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ||१ ||

ध्रुि, प्रहलाद, विभीषन, कवपपवत, जड, पतंग, पाडं ि,


सुदामको |

लोक सुजस परलोक सुगवत, इन्हमें को है राम कामको


||२ ||
गवनका, कोल, वकरात, आवदकवि इन्हते अवधक िाम
को.

िावजमेध कि वकयो अजावमल, गज गायो कि सामको


||३.

छली, मलीन, हीन सि ही अँग, तुलसी सो छीन


छामको.

नाम-नरे स-प्रताप प्रिल जग, जुग-जुग िालत िामको ||४


||

१००

सुवन सीतापवत-सील-सुभाउ.

मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ


||१ ||

वससुपनतें वपतु, मातु, िंधु, गुरु, सेिक, सविि, सखाउ.

कहत राम-विधु-िदन ररसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ||२


||
खेलत संग अनुज िालक वनत, जोगित अनट अपाउ.

जीवत हारर िुिुकारर दु लारत, दे त वदिाित दाउ ||३ ||

वसला साप-संताप-विगत भइ परसत पािन पाउ.

दई सुगवत सो न हे रर हरष वहय, िरन छु एको पवछताउ


||४ ||

भि-धनु भंवज वनदरर भूपवत भृगुनाथ खाइ गये ताउ.

छवम अपराध, छमाइ पाँय परर, इतौ न अनत समाउ ||५


||

कह्यो राज, िन वदयो नाररिस, गरर गलावन गयो राउ.

ता कुमातुको मन जोगित ज्ों वनज तन मरम कुघाउ ||६


||

कवप-सेिा-िस भये कनौड़े , कह्यौ पिनसुत आउ.

दे िेको न कछु ररवनयाँ हौं धवनक तूँ पि वलखाउ ||७ ||


अपनाये सुग्रीि विभीषन, वतन न तज्ो छल-छाउ.

भरत सभा सनमावन, सराहत, होत न हृदय अघाउ ||८


||

वनज करुना करतूवत भगत पर िपत िलत िरिाउ.

सकृत प्रनाम प्रनत जल िरनत, सुनत कहत वफरर गाउ


||९ ||

समुवि समुवि गुनग्राम रामके, उर अनुराग िढ़ाउ.

तुलवसदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ||१० ||

१०१

जाउँ कहाँ तवज िरन तुम्हारे .

काको नाम पवतत-पािन जग, केवह अवत दीन वपयारे ||१


||

कौने दे ि िराइ विरद-वहत, हवठ हवठ अधम उधारे .


खग, मृग, ब्याध, पषान, विटप जड़, जिन किन सुर
तारे ||२ ||

दे ि, दनुज, मुवन, नाग, मनुज सि, माया-वििस वििारे .

वतनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||३ ||

१०२

हरर! तुम िहुत अनुग्रह कीन्हो.

साधन-धाम वििुध दु रलभ तनु, मोवह कृपा करर दीन्हों


||१ ||

कोवटहुँ मुख कवह जात न प्रभुके, एक एक उपकार.

तदवप नाथ कछु और माँवगहौं, दीजै परम उदार ||२ ||

विषय-िारर मन-मीन वभन्न नवहं होत किहुँ पल एक.

ताते सहौ ं विपवत अवत दारुन, जनमत जोवन अनेक ||३


||
कृपा-डोरर िनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-िारो.

एवह विवध िेवध हरहु मेरो दु ख, कौतुक राम वतहारो ||४


||

हैं श्रुवत-विवदत उपाय सकल सुर, केवह केवह दीन वनहोरै .

तुलवसदास येवह जीि मोह-रजु, जेवह िाँध्यो सोइ छोरै ||५


||

१०३

यह विनती रघुिीर गुसाई.

और आस-विस्वास-भरोसो, हरो जीि-जड़ताई ||१ ||

िहौं न सुगवत, सुमवत, संपवत कछु , ररवध-वसवध विपुल


िड़ाई.

हे तु-रवहत अनुराग राम-पद िढ़ै अनुवदन अवधकाई ||२ ||

कुवटल करम लै जावहं मोवह जहँ जहँ अपनी िररआई.


तहँ तहँ जवन वछन छोह छाँवड़यो, कमठ-अंडकी नाई ||३
||

या जगमें जहँ लवग या तनुकी प्रीवत प्रतीवत सगाई.

ते सि तुलवसदास प्रभु ही सों होवहं वसवमवट इक ठाई ||४


||

१०४

जानकी-जीिनकी िवल जैहौं.

वित कहै रामसीय-पद पररहरर अि न कहँ िवल जैहौं ||१


||

उपजी उर प्रतीवत सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-विमुख न पैहौं.

मन समेत या तनके िावसन्ह, इहै वसखािन दै हौं ||२ ||

श्रिनवन और कथा नवहं सुवनहौं, रसना और न गैहौं.

रोवकहौं नयन विलोकत औरवहं, सीस ईस ही नैहौं ||३


||
नातो-नेह नाथसों करर सि नातो-नेह िहै हौं.

यह छर भार तावह तुलसी जग जाको दास कहै हौं ||४ ||

१०५

अिलौ नसानी, अि न नसैहौं.

राम-कृपा भि-वनसा वसरानी, जागे वफरर न डसैहौं ||१


||

पायेउँ नाम िारु विंतामवन, उर कर तें न खसैहौं.

स्यामरूप सुवि रुविर कसौटी, वित कंिनवहं कसैहौं ||२


||

परिस जावन हँस्यो इन इं विन, वनज िस ह्वे न हँ सेहौं.

मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपवत-पद-कमल िसैहौं ||३


||

राग रामकली
१०६

महाराज रामादर् यो धन्य सोई.

गरुअ, गुनरावस, सरिग्य, सुकृती, सूर, सील-वनवध,


साधु तेवह सम न कोई ||१ ||

उपल, केिट, कीस, भालु, वनवसिर, सिरर, गीध सम-


दम-दया-दान-हीने.

नाम वलये राम वकये परम पािन सकल, नर तरत वतनके


गुनगान कीने ||२ ||

ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, वपंगलै कौन मवत भगवत


भेई.

कौन धौं सोमजाजी अजावमल अधम, कौन गजराज धौं


िाजपेयी ||३ ||

पांडु-सुत, गोवपका, विदु र, कुिरी, सिरर, सुि वकये


सुिता लेस कैसो.

प्रेम लद्धख कृस्न वकये आपने वतनहुको, सुजस संसार


हररहरको जैसो ||४ ||
कोल, खस, भील, जिनावद खल राम कवह, नीि ह्वे
ऊँि पद को न पायो.

दीन-दु ख-दिन श्रीरिन करुना-भिन, पवतत-पािन विरद


िेद गायो ||५ ||

मंदमवत, कुवटल, खल-वतलक तुलसी सररस, भो न वतहुँ


लोक वतहुँ काल कोऊ.

नामकी कावन पवहिावन पन आपनो, ग्रवसत कवल-ब्याल


राख्यो सरन सोऊ ||६ ||

विहाग

राग ---------

विलािल

१०७

है नीको मेरो दे िता कोसलपवत राम.

सुभग सरोरुह लोिन, सुवठ सुंदर स्याम ||१


||
वसय-समेत सोहत सदा छवि अवमत अनंग.

भुज विसाल सर धनु धरे , कवट िारु वनषंग


||२ ||

िवललपूजा िाहत नही ं, िाहत एक प्रीवत.

सुवमरत ही मानै भलो, पािन सि रीवत ||३


||

दे वह सकल सुख, दु ख दहै , आरत-जन-िंधु.

गुन गवह, अघ-औगुन हरै , अस करुनावसंधु


||४ ||

दे स-काल-पूरन सदा िद िेद पुरान.

सिको प्रभु, सिमें िसै, सिकी गवत जान ||५


||

को करर कोवटक कामना, पूजै िहु दे ि.

तुलवसदास तेवह सेइये, संकर जेवह सेि ||६ ||


१०८

िीर महा अिरावधये, साधे वसवध होय.

सकल काम पूरन करै , जाने सि कोय ||१ ||

िेवग, विलंि न कीवजये लीजै उपदे स.

िीज महा मंि जवपये सोई, जो जपत महे स


||२ ||

प्रेम-िारर-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु.

संसय-सवमध, अवगवन छमा, ममता-िवल दे हु


||३ ||

अघ-उिावट, मन िस करै , मारै मद मार.

आकरषै सुख-संपदा-संतोष-वििार ||४ ||

वजन्ह यवह भाँवत भजन वकयो, वमले रघुपवत तावह.


तुलवसदास प्रभुपथ िढ् यौ, जौ लेहु वनिावह
||५ ||

१०९

कस न करहु करुना हरे ! दु खहरन मुरारर!

विविधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारर ||१ ||

इक कवलकाल-जवनत मल, मवतमंद, मवलन-मन.

तेवहपर प्रभु नवहं कर सँभार, केवह भाँवत वजयै जन ||२


||

सि प्रकार समरथ प्रभो, मैं सि विवध दीन.

यह वजय जावन ििौ नही ं, मै करम विहीन ||३ ||

भ्रमत अनेक जोवन, रघुपवत, पवत आन न मोरे .

दु ख-सुख सहौ,
ं रहौं सदा सरनागत तोरे ||४ ||
तो सम दे ि न कोउ कृपालु, समुिौं मनमाही ं.

तुलवसदास हरर तोवषये, सो साधन नाही ं ||५ ||

११०

कहु केवह कवहय कृपावनधे! भि-जवनत विपवत अवत.

इं विय सकल विकल सदा, वनज वनज सुभाउ रवत ||१ ||

जे सुख-संपवत, सरग-नरक संतत सँग लागी.

हरर! पररहरर सोइ जतन करत मन मोर अभागी ||२ ||

मै अवत दीन, दयालु दे ि सुवन मन अनुरागे.

जो न ििहु रघु िीर धीर, दु ख काहे न लागे ||३ ||

जद्यवप मैं अपराध-भिन, दु ख-समन मुरारे .

तुलवसदास कहँ आस यहै िहु पवतत उधारे ||४ ||


१११

केसि! कवह न जाइ का कवहये.

दे खत ति रिना विविि हरर! समुवि मनवहं मन रवहये


||१ ||

सून्य भीवत पर विि, रं ग नवहं , तनु विनु वलखा वितेरे.

धोये वमटइ न मरइ भीवत, दु ख पाइय एवह तनु हे रे ||२


||

रविकर-नीर िसै अवत दारुन मकर रूप तेवह माही ं.

िदन-हीन सो ग्रसै िरािर, पान करन जे जाही ं ||३ ||

कोउ कह सत्य, िठ
ू कह कोऊ, जुगल प्रिल कोउ मानै.

श्

तुलवसदास पररहरै तीन भ्रम, सो आपन पवहिानै ||४ ||

११२
केसि! कारन कौन गुसाई.

जेवह अपराध असाध जावन मोवहं तजेउ अग्यकी नाई ||१


||

परम पुनीत संत कोमल-वित, वतनवहं तुमवहं िवन आई.

तौ कत विप्र, ब्याध, गवनकवह तारे हु, कछु रही सगाई ?


||२ ||

काल, करम, गवत अगवत जीिकी, सि हरर! हाथ


तुम्हारे .

सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! वफरउँ न तुमवहं विसारे


||३ ||

जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे .

मन-िि-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुिीर वनहोरे ||४


||

जद्यवप नाथ उवित न होत अस, प्रभु सों करौं वढठाई.


तुलवसदास सीदत वनवसवदन दे खत तुम्हारर वनठु राई ||५
||ंं

११३

माधि! अि न ििहु केवह लेखे.

प्रनतपाल पन तोर, मोर पन वजअहुँ कमलपद दे खे ||१


||

जि लवग मै न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी.

ति लवग जो दु ख सहे उँ कहे उँ नवहं , जद्यवप अंतरजामी


||२ ||

तैं उदार, मैं कृपन, पवतत मैं, तैं पुनीत, श्रुवत गािै.

िहुत नात रघुनाथ! तोवह मोवह, अि न तजे िवन आिै


||३ ||

जनक-जनवन, गुरुिंधु, सुहृदकल-पवत, सि प्रकार


वहतकारी.
िै तरूप तम-कूप परौं नवहं , अस कछु जतन वििारी ||४
||श्

सुनु अदभ्र करुना िाररजलोिन मोिन भय भारी.

तुलवसदास प्रभु! ति प्रकास विनु, संसय टरै न टारी ||५


||

ष् ११४

माधि! मो समान जग माही ं.

सि विवध हीन, मलीन, दीन अवत, लीन-विषय कोउ


नाही ं ||१ ||

तुम सम हे तुरवहत कृपालु आरत-वहत ईस न त्यागी.

मैं दु ख-सोक-विकल कृपालु! केवह कारन दया न लागी


||२ ||

नावहं न कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना.


ग्यान-भिन तनु वदयेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना
||३ ||

िेनु करील, श्रीखंड िसंतवह दू षन मृषा लगािै.

सार-रवहत हत-भाग्य सुरवभ, पल्लि सो कहु वकवम पािै


||४ ||

सि प्रकार मैं कवठन, मृदुल हरर, दृढ़ वििार वजय मोरे .

तुलवसदास प्रभु मोह-सृंखला, छु वटवह तुम्हारे छोरे ||५ ||

११५

माधि! मोह-फाँस क्ों टू टै .

िावहर कोवट उपाय कररय, अभ्ंतर ग्रद्धि न छूटै ||१ ||

घृतपूरन कराह अंतरगत सवस-प्रवतविंि वदखािै.

ईध
ं न अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पािै ||२
||
तरु-कोटर महँ िस विहं ग तरु काटे मरै न जैसे.

साधन कररय वििार-हीन मन सुि होइ नवहं तैसे ||३ ||

अंतर मवलन विषय मन अवत, तन पािन कररय पखारे .

मरइ न उरग अनेक जतन िलमीवक विविध विवध मारे


||४ ||

तुलवसदास हरर-गुरु-करुना विनु विमल वििेक न होई.

विनु वििेक संसार-घोर-वनवध पार न पािै कोई ||५ ||

११६

माधि! अवस तु म्हारर यह माया |

करर उपाय पवि मररय, तररय नवहं जि लवग करहु न


दाया ||१ ||
सुवनय, गुवनय, समुविय, समुिाइय, दसा हृदय नवहं आिै
|

जेवह अनुभि विनु मोहजवनत भि दारुन विपवत सतािै ||२


||

ब्रह्म-वपयूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पािै |

तौ कत मृगजल-रूप विषय कारन वनवस-िासर धािै ||३


||

जेवहके भिन विमल विंतामवन, सो कत काँि िटोरै |

सपने परिस परै , जावग दे खत केवह जाइ वनहोरै ||४ ||

ग्यान-भगवत साधन अनेक, सि सत्य, िँठ


ू कछु नाही |

तुलवसदास हरर-कृपा वमटै भ्रम, यह भरोस मनमाही ं ||५


||

११७

हे हरर! किन दोष तोवहं दीजै |


जेवह उपाय सपनेहुँ दु रलभ गवत, सोइ वनवस-िासर कीजै
||१ ||

जानत अथय अनथय-रूप, तमकूप परि यवह लागे |

तदवप न तजत स्वान अज खर ज्ो, वफरत विषय अनुरागे


||२ ||

भूत-िोह कृत मोह-िस्य वहत आपन मै न वििारो |

मद-मत्सर-अवभमान ग्यान-ररपु, इन महँ रहवन अपारो


||३ ||

िेद-पुरान सुनत समुित रघुनाथ सकल जगब्यापी |

िेधत नवहं श्रीखंड िेनु इि, सारहीन मन पापी ||४ ||

मैं अपराध-वसंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी |

तुलवसदास भि-ब्याल-ग्रवसत ति सरन उरग-ररपु-गामी


||५ ||

११८
हे हरर ! किन जतन सुख मानहु |

ज्ों गज-दसन तथा मम करनी, सि प्रकार तुम जानहु


||१ ||

जो कछु कवहय कररय भिसागर तररय िच्छपद जैसे |

रहवन आन विवध, कवहय आन, हररपद-सुख पाइय कैसे


||२ ||

दे खत िारु मयूर ियन सुभ िोवल सुधा इि सानी |

सविष उरग-आहार, वनठु र अस, यह करनी िह िानी


||३ ||

अद्धखल-जीि-ित्सल, वनरमत्सर, दरन-कमल-अनुरागी |

ते ति वप्रय रघुिीर धीरमवत, अवतसय वनज-पर-त्यागी ||४


||

जद्यवप मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया |


तुलवसदास वनज गुन वििारर करुनावनधान करु दाया ||५
||

११९

हे हरर ! किन जतन भ्रम भागै |

दे खत, सुनत, वििारत यह मन, वनज सुभाउ नवहं त्यागै


||१ ||

भगवत-ग्यान-िैराग्य सकल साधन यवह लावग उपाई |

कोउ भल कहउ, दे उ कछु , अवस िासना न उरते जाई


||२ ||

जेवह वनवस सकल जीि सूतवहं ति कृपापाि जन जागै |

वनज करनी विपरीत दे द्धख मोवहं समुवि महा भय लागै ||३


||

जद्यवप भि-मनोरथ विवधिस, सुख इच्छत, दु ख पािै |

वििकार करहीन जथा स्वारथ विनु विि िनािै ||४ ||


हृषीकेश सुवन नाउँ जाउँ िवल, अवत भरोस वजय मोरे |

तुलवसदास इं विय-संभि दु ख, हरे िवनवहं प्रभु तोरे ||५


||

१२०

हे हरर ! कस न हरहु भ्रम भारी |

जद्यवप मृषा सत्य भासै जिलवग नवहं कृपा तुम्हारी ||१ ||

अथय अविद्यमान जावनय संसृवत नवहं जाइ गोसाई |

विन िाँधे वनज हठ सठ परिस पर् यो कीरकी नाई ||२


||

सपने ब्यावध विविध िाधा जनु मृत्यु उपद्धस्थत आई |

िैद अनेक उपाय करै जागे विनु पीर न जाई ||३ ||

श्रुवत-गुरु-साधु-समृवत-संमत यह दृश्य असत दु खकारी |


तेवह विनु तजे, भजे विनु रघुपवत, विपवत सकै को टारी
||४ ||

िहु उपाय संसार-तरन कहँ , विमल वगरा श्रुवत गािै |

तुलवसदास मैं-मोर गये विनु वजउ सुख किहुँ न पािै ||५


||

१२१

हे हरर ! यह भ्रमकी अवधकाई |

दे खत, सुनत, कहत, समुित संसय-संदेह न जाई ||१


||

जो जग मृषा ताप-िय-अनुभि होइ कहहु केवह लेखे |

कवह न जाय मृगिारर सत्य, भ्रम ते दु ख होइ विसेखे ||२


||

सुभग सेज सोित सपने, िाररवध िूड़त भय लागै |


कोवटहुँ नाि न पार पाि सो, जि लवग आपु न जागै ||३
||

अनवििार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी |

सम-संतोष-दया-वििेक तें, व्यिहारी सुखकारी ||४ ||

तुलवसदास सि विवध प्रपञ्च जग, जदवप िठ


ू श्रुवत गािै |

रघुपवत-भगवत, संत-संगवत विनु, को भि-िास नसािै


||५ ||

१२२

मै हरर, साधन करइ न जानी |

जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा वदरमानी ||१


||

सपने नृप कहँ घटै विप्र-िध, विकल वफरै अघ लागे |

िावजमेध सत कोवट करै नवहं सुि होइ विनु जागे ||२ ||


स्त्रग महँ सपय विपुल भयदायक, प्रगट होइ अवििारे |

िहु आयुध धरर, िल अनेक करर हारवहं , मरइ न मारे


||३ ||

वनज भ्रम ते रविकर-सम्भि सागर अवत भय उपजािै |

अिगाहत िोहोत नौका िवढ़ किहुँ पार न पािै ||४ ||

तुलवसदास जग आपु सवहत जि लवग वनरमूल न जाई |

ति लवग कोवट कलप उपाय करर मररय, तररय नवहं भाई


||५ ||

१२३

अस कछु समुवि परत रघुराया !

विनु ति कृपा दयालु ! दास-वहत ! मोह न छूटै माया


||१ ||

िाक्-ग्यान अत्यंत वनपुन भि-पार न पािै कोई |


वनवस गृहमध्य दीपकी िातन्ह, तम वनिृत नवहं होई ||२
||

जैसे कोइ इक दीन दु द्धखत अवत असन-हीन दु ख पािै |

विि कलपतरु कामधेनु गृह वलखे न विपवत नसािै ||३


||

षटरस िहुप्रकार भोजन कोउ, वदन अरु रै वन िखानै |

विनु िोले संतोष-जवनत सुख खाइ सोइ पै जानै ||४ ||

जिलवग नवहं वनज हृवद प्रकास, अरु विषय-आस मनमाही ं


|

तुलवसदास तिलवग जग-जोवन भ्रमत सपनेहुँ सुख नाही ं


||५ ||

१२४

जौ वनज मन पररहरै विकारा.


तौ कत िै त-जवनत संसृवत-दु ख, संसय, सोक अपारा ||१
||

सिु, वमि, मध्यस्थ, तीवन ये, मन कीन्हे िररआई.

त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अवह हाटक तृ नकी नाई ||२


||

असन, िसन, पसु िस्तु विविध विवधसि मवन महँ रह


जैसे.

सरग, नरक, िर-अिर लोक िहु, िसत मध्य मन तैसे


||३ ||

विटप-मध्य पुतररका, सूत महँ कंिुवक विनवहं िनाये.

मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अिसर पाये ||४


||

रघुपवत-भगवत-िारर-छावलत-वित, विनु प्रयास ही सूिै.

तुलवसदास कह विद-विलास जग िूित िूित िूिै ||५


||
१२५

मै केवह कहौं विपवत अवत भारी. श्रीरघुिीर धीर वहतकारी


||१ ||

मम हृदय भिन प्रभु तोरा. तहँ िसे आइ िहु िोरा ||२


||

अवत कवठन करवहं िरजोरा. मानवहं नवहं विनय वनहोरा


||३ ||

तम, मोह, लोभ, अहँ कारा. मद, क्रोध, िोध-ररपु मारा


||४ ||

अवत करवहं उपिि नाथा. मरदवहं मोवह जावन अनाथा ||५


||

मैं एक, अवमत िटपारा. कोउ सुनै न मोर पुकारा ||६


||
भागेहु नवहं नाथ! उिारा. रघुनायक, करहुँ सँभारा ||७
||

कह तुलवसदास सुनु रामा. लूटवहं तसकर ति धामा ||८


||

विंता यह मोवहं अपारा. अपजस नवहं होइ तुम्हारा ||९ ||

१२६

मन मेरे, मानवह वसख मेरी. जो वनजु भगवत िहै हरर


केरी ||१ ||

उर आनवह प्रभु-कृत वहत जेते. सेिवह ते जे अपनपौ िेते


||२ ||

दु ख-सुख अरु अपमान-िड़ाई. सि सम लेखवह विपवत


विहाई ||३ ||
सुनु सठ काल-ग्रवसत यह दे ही. जवन तेवह लावग विदू षवह
केही ||४ ||

तुलवसदास विनु अवस मवत आयै. वमलवहं न राम कपट-लौ


लाये ||५ ||

१२७

मै जानी, हररपद-रवत नाही ं. सपनेहुँ नवहं विराग मन माही ं


||१ ||

जे रघुिीर िरन अनुरागे. वतन्ह सि भोग रोगसम त्यागे


||२ ||

काम-भुजंग डसत जि जाही ं. विषय-नी ंि कटु लगत न


ताही ||३ ||

असमंजस अस हृदय वििारी. िढ़त सोि वनत नूतन भारी


||४ ||
जि कि राम-कृपा दु ख जाई. तुलवसदास नवहं आन उपाई
||५ ||

१२८

सुवमरु सनेह-सवहत सीतापवत. रामिरन तवज नवहं न आवन


गवत ||१ ||

जप, तप, तीरथ, जोग समाधी. कवलमत विकल, न कछु


वनरुपाधी ||२ ||

करतहुँ सुकृत न पाप वसराही ं. रकतिीज वजवम िाढ़त जाही ं


||३ ||

हरवत एक अघ-असुर-जावलका. तुलवसदास प्रभु-कृपा-


कावलका ||४ ||

१२९
रुविर रसना तू राम राम राम क्ों न रटत.

सुवमरत सुख-सुकृत िढ़त, अघ-अमंगल घटत ||१ ||

विनु श्रम कवल-कलुषजाल कटु कराल कटत.

वदनकरके उदय जैसे वतवमर-तोम फटत ||२ ||

जोग, जाग, जप, विराग, तप सुतीरथ-अटत.

िाँवधिेको भि-गयंद रे नुकी रजु िटत ||३ ||

पररहरर सुर-मवन सुनाम, गुंजा लद्धख लटत.

लालि लघु तेरो लद्धख, तुलवस तोवह हटत ||४ ||

१३०

राम राम, राम राम, राम राम, जपत.

मंगल-मुद उवदत होत, कवल-मल-छल छपत ||१ ||


कहु के लहे फल रसाल, ििुर िीज िपत.

हाहरर जवन जनम जाय गाल गूल गपत ||२ ||

काल, करम, गुन, सुभाउ सिके सीस तपत.

राम-नाम-मवहमाकी िरिा िले िपत ||३ ||

साधन विनु वसद्धि सकल विकल लोग लपत.

कवलजुग िर िवनज विपुल, नाम-नगर खपत ||४ ||

नाम सों प्रतीवत-प्रीवत हृदय सुवथर थपत.

पािन वकये रािन-ररपु तुलवसहु-से अपत ||५ ||

१३१

पािन प्रेम राम-िरन-कमल जनम लाहु परम.

रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ||१ ||


जोग, मख, वििेक, विरत, िेद-विवदत करम.

कररिे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ||२ ||

तुलसी सुवन, जावन-िूवि, भूलवह जवन भरम.

तेवह प्रभुको होवह, जावह सि ही की सरम ||३ ||

१३२

राम-से प्रीतमकी प्रीवत-रवहत जीि जाय वजयत.

जेवह सुख सुख मावन लेत, सुख सो समुि वकयत ||१ ||

जहँ जहँ जेवह जोवन जनम मवह, पताल, वियत.

तहँ -तहँ तू विषय-सुखवहं , िहत लहत वनयत ||२ ||

कत विमोह लट्यो, फट्यो गगन मगन वसयत.

तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्ों न सुधा वपयत ||३ ||


१३३

तोसो हौं वफरर वफरर वहत, वप्रय, पुनीत सत्य ििन कहत.

सुवन मन, गुवन, समुवि, क्ों न सुगम सुमग गहत ||१


||

छोटो िड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत.

अपनो अपनेको भलो कहहु, को न िहत ||२ ||

विवध लवग लघु कीट अिवध सुख सुखी, दु ख दहत.

पसु लौं पसुपाल ईस िाँधत छोरत नहत ||३ ||

विषय मुद वनहार भार वसर काँधे ज्ों िहत.

योही ं वजय जावन, मावन सठ! तू साँसवत सहत ||४ ||

पायो केवह घृत वििारु, हररन-िारर महत.

तुलसी तकु तावह सरन, जाते सि लहत ||५ ||


१३४

ताते हौं िार िार दे ि! िार परर पुकार करत.

आरवत, नवत, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ||१ ||

लोकपाल सोक-विकल रािन-डर डरत.

का सुवन सकुिे कृपालु नर-सरीर धरत ||२ ||

कौवसक, मुवन-तीय, जनक सोि-अनल जरत.

साधन केवह सीतल भये, सो न समुवि परत ||३ ||

केिट, खग, सिरर सहज िरनकमल न रत.

सनमुख तोवहं होत नाथ! कुतरुॡसुफरु फरत ||४ ||

िंधु-िैर कवप-विभीषन गुरु गलावन गरत.

सेिा केवह रीवि राम, वकये सररस भरत ||५ ||


सेिक भयो पिनपूत सावहि अनुहरत.

ताको वलये नाम राम सिको सुढर ढरत ||६ ||

जाने विनु राम-रीवत पवि पवि जग मरत.

पररहरर छल सरन गये तुलवसहु-से तरत ||७ ||

राग सुहो विलािल

१३५

राम सनेही सों तैं न सनेह वकयो.

अगम जो अमरवन हँ सो तनु तोवहं वदयो ||

वदयो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हे तु जो फल िाररको.

जो पाइ पंवडत परमपद, पाित पुरारर-मुराररको ||

यह भरतखंड, समीप सुरसरर, थल भलो, संगवत भली.

तेरी कुमवत कायर! कलप-िल्ली िहवत है विष फल फली


||१ ||

! ! ! !
अजहँ समुवि वित दै सुनु परमारथ.�

है वहत सो जगहँ जावहते स्वारथ ||

स्वारथवह वप्रय, स्वारथ सो का ते कौन िेद िखानई.

दे खु खल, अवह-खेल पररहरर, सो प्रभुवह पवहिानाई ||

वपतु-मातु, गुरु, स्वामी, अपनपौ, वतय, तनय, सेिक,


सखा.

वप्रय लगत जाके प्रेमसों, विनु हे तु वहत तैं नवह लखा ||२
||

! ! ! !

दू रर न सो वहतू हे रर वहये ही है .

छलवह छाँवड़ सुवमरे छोहु वकये ही है .

वकये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतवह भजै.

जगदीश, जीिन जीिको, जो साज सि सिको सजै ||

हररवह हररता, विवधवह विवधता, वसिवह वसिता जो दई.

सोइ जानकी-पवत मधुर मूरवत, मोदमय मंगल मई ||३ ||

! ! ! !
ठाकुर अवतवह िड़ो, सील, सरल, सुवठ.

ध्यान अगम वसिहँ , भेट्यो केिट उवठ ||

भरर अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह वसवथल सरीर सो.

सुर, वसि, मुवन, कवि कहत कोउ न प्रेमवप्रय रघुिीर


सो.

खग, सिरर, वनवसिर, भालु, कवप वकये आपु ते िंवदत


िड़े .

तापर वतन्ह वक सेिा सुवमरर वजय जात जनु सकुिवन गड़े


||४ ||

! ! ! !

स्वामीको सुभाि कह्यो सो जि उर आवनहै .

सोि सकल वमवटहै , राम भलो मन मावनहैं ||

भलो मावनहै रघुनाथ जोरर जो हाथ माथो नाइहै .

ततकाल तुलसीदास जीिन-जनमको फल पाइहै ||

जवप नाम करवह प्रनाम, कवह गुन-ग्राम, रामवहं धरर वहये.

वििरवह अिवन अिनीस-िरनसरोज मन-मधुकर वकये ||५


||
१३६

(१)

वजि जिते हररतें विलगान्यो. तितें दे ह गेह वनज जान्यो


||

मायािस स्वरुप विसरायो. तेवह भ्रमतें दारुन दु ख पायो ||

पायो जो दारुन दु सह दु ख, सुख-लेस सपनेहुँ नवहं वमल्यो.

भि-सूल, सोक अनेक जेवह, तेवह पंथ तू हवठ हवठ िल्यो


||

िहु जोवन जनम, जरा, विपवत, मवतमंद! हरर जान्यो


नही ं.

श्रीराम विनु विश्राम मूढ़! वििारु, लद्धख पायो कही ं ||

(२)

आनँद-वसंधु-मध्य ति िासा. विनु जाने कस मरवस


वपयासा ||
मृग-भ्रम-िारर सत्य वजय जानी. तहँ तू मगन भयो सुख
मानी ||

तहँ मगन मज्जवस, पान करर, ियकाल जल नाही ं


जहाँ.

वनज सहज अनुभि रूप ति खल! भूवल अि


आयो तहाँ ||

वनरमल, वनरं जन, वनरविकार, उदार, सुख तैं


पररहर् यो.

वनःकाज राज विहाय नृप इि सपन कारागृह पर्


यो ||

(३)

तैं वनज करम-डोरर दृढ़ कीन्ही ं. अपने करवन गाँवठ गवह


दीन्ही ं ||

ताते परिस पर् यो अभागे. ता फल गरभ-िास-दु ख आगे


||

आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ.

वसर हे ठ, ऊपर िरन, संकट िात नवहं पूछै कोऊ


||

सोवनत-पुरीष जो मूि-मल कृवम-कदय मािृत सोिई.


कोमल सरीर, गँभीर िेदन, सीस धुवन-धुवन रोिई
||

(४)

तू वनज करम-जालल जहँ घेरो. श्रीहरर संग तज्ो नवहं


तेरो ||

िहुविवध प्रवतपालन प्रभु कीन्हों. परम कृपालु ग्यान तोवह


दीन्हों ||

तोवह वदयो ग्यान-वििेक, जनम अनेककी ति सुवध


भई.

तेवह ईसकी हौं सरन, जाकी विषम माया गुनमई


||

जेवह वकये जीि-वनकाय िस, रसहीन, वदन-वदन


अवत नई.

सो करौ िेवग सँभारर श्रीपवत, विपवत, महँ जेवह


मवत दई ||

(५)

पुवन िहुविवध गलावन वजय मानी. अि जग जाइ भजौं


िक्रपानी ||
ऐसेवह करर वििार िुप साधी. प्रसि-पिन प्रेरेउ अपराधी
||

प्रेर् यो जो परम प्रिंड मारुत, कष्ट नाना तैं


सह्यो.

सो ग्यान, ध्यान, विराग, अनुभि जातना-पािक


दह्यो ||

अवत खेद ब्याकुल, अलप िल, वछन एक िोवल न


आिई.

ति तीव्र कष्ट न जान कोउ, सि लोग हरवषत


गािई ||

(६)

िाल दसा जेते दु ख पाये. अवत असीम, नवहं जावहं गनाये


||

छु धा-ब्यावध-िाधा भइ भारी. िेदन नवहं जानै महतारी ||

जननी न जानै पीर सो, केवह हे तु वससु रोदन


करै .

सोइ करै विविध उपाय, जातें अवधक तुि छाती


जरै ||
कौमार, सैसि अरु वकसोर अपार अघ को कवह
सकै.

ब्यवतरे क तोवह वनरदय! महाखल! आन कहु को


सवह सकै ||

(७)

जोिन जुिती सँग रँ ग रात्यो. ति तू महा मोह-मद मात्यो


||

ताते तजी धरम-मरजादा. विसरे ति सि प्रथम विषादा ||

विसरे विषाद, वनकाय-संकट समुवि नवहं फाटत


वहयो.

वफरर गभयगत-आितय सृंसवतिक्र जेवह होइ सोइ


वकयो ||

कृवम-भस्म-विट-पररनाम तनु, तेवह लावग जग िैरी


भयो.

परदार, परधन, िोहपर, संसार िाढ़ै वनत नयो


||

(८)

दे खत ही आई विरुधाई. जो तैं सपनेहुँ नावहं िुलाई ||


ताके गुन कछु कहे न जाही ं. सो अि प्रगट दे खु तनु माही ं
||

सो प्रगट तनु जरजर जरािस, ब्यावध, सूल


सतािई.

वसर-कंप, इद्धन्द्रय-सद्धक्त प्रवतहत, ििन काहु न


भािई ||

गृहपालहतें अवत वनरादर, खान-पान न पािई.

ऐवसहु दसा न विराग तहँ , तृष्णा-तरं ग िढ़ािई ||

(९)

कवह को सकै महाभि तेरे. जनम एकके कछु क गनेरे ||

िारर खावन संतत अिगाही ं. अजहुँ न करु वििार मन


माही ं ||

अजहुँ वििारु, विकार तवज, भजु राम जन-


सुखदायकं.

भिवसंधु दु स्तर जलरथं, भजु िक्रधर सुरनायकं ||

विनु हे तु करुनाकर, उदारे , अपार-माया-तारनं.

कैिल्य-पवत, जगपवत, रमापवत, प्रानपवत,


गवतकारनं ||
(१०)

रघुपवत-भगवत सुलभ, सुखकारी. सो ियताप-सोक-भय-


हारी ||

विनु सतसंग भगवत नवहं होई. ते ति वमलै ििै जि सोई


||

जि ििै दीनदलयालु राघि, साधु-संगवत पाइये.

जेवह दरस-परस-समागमावदक पापरावस नसाइये


||

वजनके वमले दु ख-सुख समान, अमानतावदक गुन


भये.

मद-मोह लोभ-विषाद-क्रोध सुिोधतें सहजवहं गये


||

(११)

सेित साधु िै त-भय भागै. श्रीरघुिीर-िरन लय लागै ||

दे ह-जवनत विकार सि त्यागै. ति वफरर वनज स्वरूप


अनुरागै ||

अनुराग सो वनज रूप जो जगतें विलच्छन


दे द्धखये.
सन्तोष, सम, सीतल, सदा दम, दे हिंत न
लेद्धखये ||

वनरमल, वनरामय, एकरस, तेवह हरष-सोक न


ब्यापई.

िैलोक-पािन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ||

(१२)

जो तेवह पंथ िलै मन लाई. तौ हरर काहे न होवहं सहाई.

जो मारग श्रुवत-साधु वदखािै. तेवह पथ िलत सिै सुख


पािै ||

पािै सदा सुख हरर-कृपा, संसार-आसा तवज


रहै .

सपनेहुँ नही ं सुख िै त-दरसन, िात कोवटक को


कहै ||

विज, दे ि, गुरु, हरर, संत विनु संसार-पार न


पाइये.

यह जावन तुलसीदास िासहरन रमापवत गाइये ||

१३७
जो पै कृपा रघुपवत कृपालुकी, िैर औरके कहा सरै .

होइ न िाँको िार भगतको, जो कोउ कोवट उपाय करै


||१ ||

तकै नीिु जो मीिु साधुकी, सो पामर तेवह मीिू मरै ||ट्

िेद-विवदत प्रहलाद-कथा सुवन, को न भगवत-पथ पाउँ धरै


? ||२ ||

गज उधारर हरर थप्यो विभीषन, ध्रुि अवििल किहँ न


टरै .

अंिरीष की साप सुरवत करर, अजहुँ महामुवन ग्लावन गरै


||३ ||

सों धौं कहा जु न वकयो सुजोधन, अिुध आपने मान जरै .

प्रभु-प्रसाद सौभाग्य विजय-जस, पांडिनै िररआइ िरै ||४


||

जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ , सो सठ वफरर तेवह कूप


परै .
सपनेहुँ सुख न संतिोहीकहँ , सुरतरु सोउ विष-फरवन फरै
||५ ||

है काके िै सीस ईसके जौ हवठ जनकी सीिँ िरै .

तुलवसदास रघुिीर-िाहुिल सदा अभय काहु न डरै ||६


||

१३८

किहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धररहौ नाथ सीस मेरे.

जेवह कर अभय वकये जन आरे , िारकल वििस नाम टे रे


||१ ||

जेवह कर-कमल कठोर संभुधन भंवज जनक-संसय मेट्यो.

जेवह कर-कमल उठाइ िंधु ज्ों, परम प्रीती केिट भेंट्यो


||२ ||

जेवह कर-कमल कृपालु गीधकहँ , वपंड दे इ वनजधाम वदयो.


जेवह कर िावल विदारर दास-वहत, कवपकुल-पवत सुग्रीि
वकयो ||३ ||

आयो सरन सभीत विभीषन जेवह कर-कमल वतलक


कीन्हों.

जेवह कर गवह सर िाप असुर हवत, अभयदान दे िन्ह दीन्हों


||४ ||

सीतल सुखद छाँह जेवह करकी, मेटवत पापो, ताप,


माया.

वनवस-िासर तेवह कर सरोजकी, िाहत तुलवसदास छाया


||५ ||

१३९

दीनदयालु, दु ररत दाररद दु ख दु नी दु सह वतहुँ ताप तई है .

दे ि दु िार पुकारत आरत, सिकी सि सुख हावन भई है


||१ ||
प्रभुके ििन, िेद-िुध-सम्मत, ' मम मूरवत मवहदे िमई है '
.

वतनकी मवत ररस-राग-मोह-मद, लोभ लालिी लीवल लई


है ||२ ||

राज-समाज कुसाज कोवट कटु कलवपत कलुष कुिाल नई


है .

नीवत, प्रतीवत, प्रीवत परवमत पवत हे तुिाद हवठ हे रर हई है


||३ ||

आश्रम-िरन-धरम-विरवहत जग, लोक-िेद-मरजाद गई है .

प्रजा पवतत, पाखंड-पापरत, अपने अपने रं ग रई है ||४


||

सांवत, सत्य, सुभ, रीवत गई घवट, िढ़ी कुरीवत, कपट-


कलई है .

सीदत साधु, साधुता सोिवत, खल विलसत, हुलसवत


खलई है ||५ ||
परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नवहं वसद्धि
सई है .

कामधेनु-धरनी कवल-गोमर-वििस विकल जामवत न िई है


||६ ||

कवल-करनी िरवनय कहाँ लौं, करत वफरत विनु टहल टई


है .

तापर दाँत पीवस कर मी ंजत, को जानै वित कहा ठई है


||७ ||

त्यों त्यों नीि िढ़त वसर ऊपर, ज्ों ज्ों सीलिस ढील दई
है .

सरुष िरवज तरवजये तरजनी, कुद्धम्हलैहै कुम्हड़े की जई है


||८ ||

दीजै दावद दे द्धख ना तौ िवल, मवह मोद-मंगल ररतई है .

भरे भाग अनुराग लोग कहैं , राम कृपा-वितिवन वितई है


||९ ||
विनती सुवन सानंद हे रर हँ वस, करुना-िाररट् भूवम वभजई
है .

राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-विजई


है ||१० ||

समरथ िड़ो, सुजान सुसाहि, सुकृत-सैन हारत वजतई है .

सुजन सुभाि सराहत सादर, अनायास साँसवत वितई है


||११ ||

उथपे थपन, उजारर िसािन, गई िहोरर विरद सदई है .

तुलसी प्रभु आरत-आरवतहर, अभयिाँह केवह केवह न दई


है ||१२ ||

१४०

ते नर नरकरूप जीित जग भि-भंजन-पद-विमुख


अभागी.

वनवसिासर रुविपाप असुविमन, खलमवत-मवलन,


वनगमापथ-त्यागी ||१ ||
नवहं सतसंग भजन नवहं हररको, स्त्रिन न राम-कथा-
अनुरागी.

सुत-वित-दार-भिन-ममता-वनवस सोित अवत, न किहुँ


मवत जागी ||२ ||

तुलवसदास हररनाम-सुधा तवज, सठ हवठ वपयत विषय-विष


माँगी.

सूकर-स्वान-सृगाल, सररस जन, जनमत जगत जनवन-दु ख


लागी ||३ ||

१४१

रामिंि! रघुनायक तुमसों हौं विनती केवह भाँवत करौ.


अघ अनेक अिलोवक आपने, अनघ नाम अनुमावन डरौं


||१ ||

पर-दु ख दु खी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नवहं हृदय


धरौं.
दे द्धख आनकी विपवत परम सुख, सुवन संपवत विनु आवग
जरौं ||२ ||

भगवत-विराग-ग्यान साधन कवह िहु विवध डहकत लोग


वफरों.

वसि-सरिस सुखधाम नाम ति, िेवि नरकप्रद उदर भरौं


||३ ||

जानत हौं वनज पाप जलवध वजय, जल-सीकर सम सुनत


लरौं.

रज-सम-पर अिगुन सुमेरु करर, गुन वगरर-सम रजतें


वनदरौं ||४ ||

नाना िेष िनाय वदिस-वनवस, पर-वित जेवह तेवह जुगुवत


हरौं.

एकौ पल न किहुँ अलोल वित वहत दै पद-सरोज सुवमरौं


||५ ||

जो आिरन वििारहु मेरो, कलप कोवट लवग औवट मरौं.


तुलवसदास प्रभु कृपा-विलोकवन, गोपद-ज्ों भिवसंधु तरौं
||६ ||

१४२

सकुित हौं अवत राम कृपावनवध! क्ों करर विनय सुनािौं.

सकल धरम विपरीत करत, केवह भाँवत नाथ! मन भािौ


||१ ||

जानत हौं हरर रूप िरािर, मैं हवठ नयन न लािौं.

अंजन-केस-वसखा जुिती, तहँ लोिन-सलभ पठािौं ||२


||

स्त्रिनवनको फल कथा तुम्हारी, यह समुिौं, समुिािौं.

वतन्ह स्त्रिनवन परदोष वनरं तर सुवन सुवन भरर भरर तािौं


||३ ||

जेवह रसना गुन गाइ वतहारे , विनु प्रयास सुख पािौं.


तेवह मुख पर-अपिाद भेक ज्ों रवट-रवट जनम नसािौं
||४ ||

' करहु हृदय अवत विमल िसवहं हरर' , कवह कवह


सिवहं वसखािौं.

हौं वनज उर अवभमान-मोह-मद खल-मंडली िसािौं ||५


||

जो तनु धरर हररपद साधवहं जन, सो विनु काज गँिािौं.

हाटक-घट भरर धर् यो सुधा गृह, तवज नभ कूप खनािौं


||६ ||

मन-क्रम-ििन लाइ कीन्हे अघ, ते करर जतन दु रािौं.

पर-प्रेररत इरषा िस किहुँ क वकय कछु सुभ, सो जनािौं


||७ ||

विप्र-िोह जनु िाँट पर् यो, हवठ सिसों िैर िढ़ािौ.

ताहपर वनज मवत-विलास सि संतन माँि गनािौं ||८ ||


वनगम सेस सारद वनहोरर जो अपने दोष कहािौं.

तौ न वसरावहं कलप सत लवग प्रभु, कहा एक मुख गािौं


||९ ||

जो करनी आपनी वििारौं, तौं वक सरन हौं आिौं.

मृदुल सुभाउ सील रघुपवतको, सो िल मनवहं वदखािौं


||१० ||

तुलवसदास प्रभु सो गुन नवहं , जेवह सपनेहुँ तुमवहं ररिािौं.

नाथ-कृपा भिवसंधु धेनुपद सम जो जावन वसरािौं ||११ ||

१४३

सुनहु राम रघुिीर गुसाई, मन अनीवत-रत मेरो.

िरन-सरोज विसारर वतहारे , वनवसवदन वफरत अनेरो ||१


||

मानत नावहं वनगम-अनुसासन, िास न काह केरो.


भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह वतल ज्ों िहु िारवन पेरो ||२
||

जहँ सतसंग कथा माधिकी, सपनेहुँ करत न फेरो.

लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, वतन्हसों प्रेम घनेरो ||३ ||

पर-गुन सुनत दाह, पर-दू षन सुनत हरख िहुतेरो.

आप पापको नगर िसाित, सवह न सकत पर खेरो ||४


||

साधन-फल, श्रुवत-सार नाम ति, भि-सररता कहँ िेरो.

सो पर-कर काँवकनी लावग सठ, िेंवि होत हवठ िेरो ||५


||

किहुँ क हौं संगवत-प्रभाितें, जाँउ सुमारग नेरो.

ति करर क्रोध संग कुमनोरथ दे त कवठन भटभेरो ||६ ||

इक हौं दीन, मलीन, हीनमवत, विपवतजाल अवत घेरो.


तापर सवह न जाय करुनावनवध, मनको दु सह दरे रो ||७
||

हारर पर् यो करर जतन िहुत विवध, तातें कहत सिेरो.

तुलवसदास यह िास वमटै जि हृदय करहु तुम डे रो ||८


||

१४४

सो धौ को जो नाम-लाज ते, नवहं राख्यो रघुिीर.

कारुनीक विनु कारन ही हरर हरी सकल भि-भीर ||१


||

िेद-विवदत, जग-विवदत अजावमल विप्रिंधु अघ-धाम.

घोर जमालय जात वनिार् यो सुत-वहत सुवमरत नाम ||२


||

पसु पामर अवभमान-वसंधु गज ग्रस्यो आइ जि ग्राह.


सुवमरत सकृत सपवद आये प्रभु, हर् यो दु सह उर दाह
||३ ||

ब्याध, वनषाद, गीध, गवनकावदक, अगवनत औगुन-मूल.

नाम-औटतें राम सिवनकी दू रर करी सि सूल ||४ ||

केवह आिरन घावट हौं वतनतें , रघुकुल-भूषन भूप.

सीदत तुलवसदास वनवसिासर पर् यो भीम तम-कूप ||५


||

१४५

कृपावसंधु! जन दीन दु िारे दावद न पाित काहे .

जि जहँ तुमवहं पुकारत आरत, तहँ वतन्हके दु ख दाहे ||१


||

गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कवप सिको ररपु-संकट मेट्यो.

प्रनत, िंधु-भय-विकल, विभीषन, उवठ सो भरत ज्ों


भेट्यो ||२ ||
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने िसािों.

भजन, वििेक, विराग, लोग भले, मैं क्रम-क्रम करर


ल्यािों ||३ ||

सुवन ररस भरे कुवटल कामावदक, करवहं जोर िररआई.

वतन्हवहं उजारर नारर-अरर-धन पुर राखवहं राम गुसाईं ||४


||

सम-सेिा-छल-दान-दं ड हौं, रवि उपाय पवि हार् यो.

विनु कारनको कलह िड़ो दु ख, प्रभुसों प्रगवट पुकार् यो


||५ ||

सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, वनठु र, दया वित नाही ं.

जाउँ कहाँ, को विपवत-वनिारक, भितारक जग माही ||६


||

तुलसी जदवप पोि, तउ तुम्हरो, और न काहु केरो.


दीजै भगवत-िाँह िारक, ज्ों सुिस िसै अि खेरो ||७
||

१४६

हौं सि विवध राम, रािरो िाहत भयो िेरो.

ठौर ठौर साहिी होत है , ख्याल काल कवल केरो ||१ ||

काल-करम-इं विय, विषय गाहकगन घेरो.

हौं न किूलत, िाँवध कै मोल करत करे रो ||२ ||

िंवद-छोर तेरो नाम है , विरुदै त िड़े रो.

मैं कह्यो, ति छल-प्रीवत कै माँगे उर डे रो ||३ ||

नाम-ओट अि लवग िच्यो मलजुग जग जेरो.

अि गरीि जन पोवषये पाइिो न हे रो ||४ ||

जेवह कौतुक िक/खग स्वानको प्रभु न्याि वनिेरो.


तेवह कौतुक कवहये कृपालु! ' तुलसी है मेरो' ||५ ||

१४७

कृपावसंधु ताते रहौं वनवसवदन मन मारे .

महाराज! लाज आपुही वनज जाँघ उघारे ||१ ||

वमले रहैं , मार् यौ िहै कामावद संघाती.

मो विनु रहै न, मेररयै जारैं छल छाती ||२ ||

िसत वहये वहत जावन मैं सिकी रुवि पाली.

वकयो कथकको दं ड हौं जड़ करम कुिाली ||३ ||

दे खी सुनी न आजु लौं अपनायवत ऐसी.

करवहं सिै वसर मेरे ही वफरर परै अनैसी ||४ ||

िड़े अलेखी लद्धख परै , पररहरै न जाही ं.


असमंजसमें मगन हौं, लीजै गवह िाही ं ||५ ||

िारक िवल अिलोवकये, कौतु क जन जी को.

अनायास वमवट जाइगो संकट तुलसीको ||६ ||

१४८

कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुिीर गुसाई.

सकुित समुित आपनी सि साइँ दु हाई ||१ ||

सेित िस, सुवमरत सखा, सरनागत सो हौं.

गुनगन सीतानाथके वित करत न हौं हौं ||२ ||

कृपावसंधु िंधु दीनके आरत-वहतकारी.

प्रनत-पाल विरुदािली सुवन जावन विसारी ||३ ||

सेइ न धेइ न सुवमरर कै पद-प्रीवत सुधारी.


पाइ सुसावहि राम सों, भरर पेट विगारी ||४ ||

नाथ गरीिवनिाज हैं , मैं गही न गरीिी.

तुलसी प्रभु वनज ओर तें िवन परै सो कीिी ||५ ||

१४९

कहाँ जाउँ , कासों कहौं, और ठौर न मेरे.

जनम गँिायो तेरे ही िार वकंकर तेरे ||१ ||

मै तौ विगारी नाथ सों आरवतके लीन्हें .

तोवह कृपावनवध क्ों िनै मेरी-सी कीन्हें ||२ ||

वदन-दु रवदन वदन-दु रदसा, वदन-दु ख वदन-दू षन.

जि लौं तू न विलोवकहै रघुिंस-विभूषन ||३ ||

दई पीठ विनु डीठ मैं तुम विस्व विलोिन.


तो सों तुही न दू सरो नत-सोि-विमोिन ||४ ||

पराधीन दे ि दीन हौं, स्वाधीन गुसाई.


िोलवनहारे सों करै िवल विनयकी िाई ||५ ||

आपु दे द्धख मोवह दे द्धखये जन मावनय साँिो.

िड़ी ओट रामनामकी जेवह लई सो िाँिो ||६ ||

रहवन रीवत राम रािरी वनत वहय हुलसी है .

ज्ों भािै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ||७ ||

१५०

रामभि! मोवहं आपनो सोि है अरु नाही ं.

जीि सकल संतापके भाजन जग माही ं ||१ ||

नातो िड़े समथय सों इक ओर वकधौं हँ .


तोको मोसे अवत घने मोको एकै तूँ ||२ ||

िड़ी गलावन वहय हावन है सरिग्य गुसाई.


कूर कुसेिक कहत हौं सेिककी नाई ||३ ||

भलो पोि रामको कहैं मोवह सि नरनारी.

विगरे सेिक स्वान ज्ों सावहि-वसर गारी ||४ ||

असमंजस मनको वमटै सो उपाय न सूिै.

दीनिंधु! कीजै सोई िवन परै जो िूिै ||५ ||

विरुदािली विलोवकये वतन्हमें कोउ हौं हौं.

तुलसी प्रभुको पररहर् यो सरनागत सो हौं ||६ ||

१५१

जो पै िेराई रामकी करतो न लजातो.


तौ तू दाम कुदाम ज्ों कर-कर न विकातो ||१ ||

जपत जीह रघुनाथको नाम नवहं अलसातो.

िाजीगरके सूम ज्ों खल खेह न खातो ||२ ||

जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो.

सीतापवत सनमुख सुखी सि ठाँि समातो ||३ ||

राम सोहाते तोवहं जौ तू सिवहं सोहातो.

काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ||४ ||

राम-नाम अनुरागही वजय जो रवतआतो.

स्वारथ-परमारथ-पथी तोवहं सि पवतआतो ||५ ||

सेइ साधु सुवन समुवि कै पर-पीर वपरातो.

जनम कोवटको काँदले हृद-हृदय वथरातो ||६ ||


भि-मग अगम अनंत है , विनु श्रमवह वसरातो.

मवहमा उलटे नामकी मुवन वकयो वकरातो ||७ ||

अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो.

होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल विधातो ||८ ||

जो मन-प्रीवत-प्रतीवतसों राम-नामवहं रातो.

नसातो

तुलसी रामप्रसादसों वतहुँ ताप -------||९ ||

नसातो

१५२

राम भलाई आपनी भल वकयो न काको.

जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ||१ ||

ब्रह्मावदक विनती करी कवह दु ख िसुधाको.


रविकुल-कैरि-िंद भो आनंद-सुधाको ||२ ||

कौवसक गरत तुषार ज्ों तवक तेज वतयाको.

प्रभु अनवहत वहत को वदयो फल कोप कृपाको ||३ ||

हर् यो पाप आप जाइकै संताप वसलाको.

सोि-मगन काढ्यो सही सावहि वमवथलाको ||४ ||

रोष-रावस भृगुपवत धनी अहवमवत ममताको.

वितित भाजन करर वलयो उपसम समताको ||५ ||

मुवदत मावन आयसु िले िन मातु-वपताको.

धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-वजता को ? ||६ ||

गुह गरीि गतग्यावत ह जेवह वजउ न भखा को ?

पायो पािन प्रेम ते सनमान सखाको ||७ ||


सदगवत सिरी गीधकी सादर करता को ?

सोि-सी ंि सुग्रीिके संकट-हरता को ? ||८ ||

अस काल-गहा

राद्धख विभीषनको सकै -----------को ?

तेवह काल कहाँ

आज विराजत राज है दसकंठ जहाँको ||९ ||

िावलस िासी अिधको िूविये न खाको.

सो पाँिर पहुँ िो तहाँ जहँ मुवन-मन थाको ||१० ||

गवत न लहै राम-नामसों विवध सो वसररजा को ?

सुवमरत कहत प्रिारर कै िल्लभ वगररजाको ||११ ||

अकवन अजावमलकी कथा सानंद न भा को ?

नाम लेत कवलकालह हररपुरवहं न गा को ? ||१२ ||


राम-नाम-मवहमा करै काम-भुरुह आको.

साखी िेद पुरान है तुलसी-तन ताको ||१३ ||

१५३

मेरे रािररयै गवत है रघुपवत िवल जाउँ |

वनलज नीि वनरधन वनरगुन कहँ , जग दू सरो न ठाकुर


ठाउँ ||१ ||

है घर-घर िहु भरे सुसावहि, सूित सिवन आपनो दाउँ |

िानर-िंधु विभीषन-वहतु विनु, कोसलपाल कहँ न समाउँ


||२ ||

प्रनतारवत-भंजन जन-रं जन, सरनागत पवि-पंजर नाउँ |

कीजै दास दासतुलसी अि, कृपावसंधु विनु मोल विकाउँ


||३ ||

१५४
दे ि ! दू सरो कौन दीनको दयालु |

सीलवनधान सुजान-वसरोमवन, सरनागत-वप्रय प्रनत-पालु


||१ ||

को समरथ सरिग्य सकल प्रभु, वसि-सनेह-मानस मरालु


|

को सावहि वकये मीत प्रीवतिस खग वनवसिर कवप भील


भालु ||२ ||

नाथ हाथ माया-प्रपंि सि, जीि-दोष-गुन-करम-कालु |

तुलवसदास भलो पोि रािरो, नेकु वनरद्धख कीवजये वनहालु


||३ ||

१५५

विस्वास एक राम-नामको |

मानत नवह परतीवत अनत ऐसोइ सुभाि मन िामको ||१


||
पवढिो पर् यो न छठी छ मत ररगु जजुर अथियन सामको
|

ब्रत तीरथ तप सुवन सहमत पवि मरै करै तन छाम को ?


||२ ||

करम-जाल कवलकाल कवठन आधीन सुसावधत दामको |

ग्यान विराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको


||३ ||

सि वदन सि लायक भि गायक रघुनायक गुन-ग्रामको |

िैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ||४ ||

को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको |

तुलवसवहं िहुत भलो लागत जग जीिन रामगुलामको ||५


||

१५६
कवल नाम कामतरु रामको |

दलवनहार दाररद दु काल दु ख, दोष घोर घन घामको ||१


||

नाम लेत दावहनो होत मन, िाम विधाता िामको |

कहत मुनीस महे स महातम, उलटे सूधे नामको ||२ ||

भलो लोक-परलोक तासु जाके िल लवलत-ललामको |

तुलसी जग जावनयत नामते सोि न कूि मुकामको ||३


||

१५७

सेइये सुसावहि राम सो |

सुखद सुसील सुजान सूर सुवि, सुंदर कोवटक काम सो


||१ ||

सारद सेस साधु मवहमा कहैं , गुनगन-गायक साम सो |


सुवमरर सप्रेम नाम जासों रवत िाहत िंि-ललाम सो ||२
||

गमन विदे स न लेस कलेसको, सकुित सकृत प्रनाम सो |

साखी ताको विवदत विभीषन, िैठो है अवििल धाम सो


||३ ||

टहल सहल जन महल-महल, जागत िारो जुग जाम सो |

दे खत दोष न रीित , रीित सुवन सेिक गुन-ग्राम सो


||४ ||

जाके भजे वतलोक-वतलक भये, विजग जोवन तनु तामसो |

तुलसी ऐसे प्रभुवहं भजै जो न तावह विधाता िाम सो ||५


||

राग नट

१५८

कैसे दे उँ नाथवहं खोरर |


काम-लोलुप भ्रमत मन हरर भगवत पररहरर तोरर ||१ ||

िहुत प्रीवत पुजाइिे पर, पूवजिे पर थोरर.

दे त वसख वसखयो न मानत, मूढ़ता अवस मोरर ||२ ||

वकये सवहत सनेह जे अघ हृदय राखे िोरर |

संग-िस वकये सुभ सुनाये सकल लोक वनहोरर ||३ ||

करौं जो कछु धरौं सवि-पवि सुकृत-वसला िटोरर |

पैवठ उर िरिस दयावनवध दं भ लेत अँजोरर ||४ ||

लोभ मनवहं निाि कवप ज्ों, गरे आसा-डोरर |

िात कहौं िनाइ िुध ज्ों, िर विराग वनिोरर ||५ ||

एतेहुँ पर तुम्हरो कहाित, लाज अँिई घोरर |

वनलजता पर रीवि रघुिर, दे हु तुलवसवहं छोरर ||६ ||


१५९

है प्रभु ! मेरोई सि दोसु |

सीलसी ंधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ||१ ||

िेष ििन विराग मन अघ अिगुनवनको कोसु |

राम प्रीती प्रतीवत पोली, कपट-करति ठोसु ||२ ||

राग-रं ग कुसंग ही सों, साधु-संगवत रोसु |

िहत केहरर-जसवहं सेइ सृगाल ज्ों खरगोसु ||३ ||

संभु-वसखिन रसन हँ वनत राम-नामवहं घोसु |

दं भह कवल नाम कंु भज सोि-सागर-सोसु ||४ ||

मोद-मंगल-मूल अवत अनुकूल वनज वनरजोसु |

रामनाम प्रभाि सुवन तुलवसहुँ परम पररतोसु ||५ ||


१६०

मैं हरर पवतत-पािन सुने |

मैं पवतत तुम पवतत-पािन दोउ िानक िने ||१ ||

ब्याध गवनका गज अजावमल साद्धख वनगमवन भने |

और अधम अनेक तारे जात कापै गने ||२ ||

जावन नाम अजावन लीन्हें नरक सुरपुर मने |

दासतुलसी सरन आयो, राद्धखये आपने ||३ ||

राग मलार

१६१

तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो |

तो सवह वनपट वनरादर वनवसवदन, रवट लवट ऐसो घवट को


तो ||१ ||
कृपा-सुधा-जलदान माँवगिो कहाँ सो साँि वनसोतो |

स्वावत-सनेह-सवलल-सुख िाहत वित-िातक सो पोतो ||२


||

काल-करम-िस मन कुमनोरथ किहुँ किहुँ कुछ भो तो |

ज्ों मुदमय िवस मीन िारर तवज उछरर भभरर लेत गोतो
||३ ||

वजतो दु राि दासतुलसी उर क्ों कवह आित ओतो |

तेरे राज राय दसरथके, लयो ियो विनु जोतो ||४ ||

रागसोरठ

१६२

ऐसो को उदार जग माही ं |

विनु सेिा जो ििै दीनपर राम सररस कोउ नाही ं ||१ ||

जो गवत जोग विराग जतन करर नवहं पाित मुवन ग्यानी |


सो गवत दे त गीध सिरी कहँ प्रभु न िहुत वजय जानी ||२
||

जो संपवत दस सीस अरप करर रािन वसि पहँ लीन्ही ं |

सो संपदा विभीषन कहँ अवत सकुि-सवहत हरर दीन्ही ||३


||

तुलवसदास सि भाँवत सकल सुख जो िाहवस मन मेरो |

तौ भजु राम, काम सि पूरन करै कृपावनवध तेरो ||४ ||

१६३

एकै दावन-वसरोमवन साँिो.

जोइ जाच्यो सोइ जािकतािस, वफरर िहु नाि न नािो


||१ ||

सि स्वारथी असुर सुर नर मुवन कोउ न दे त विनु पाये.

कोसलपालु कृपालु कलपतरु, िित सकृत वसर नाये ||२


||
हररहु और अितार आपने, राखी िेद-िड़ाई.

लै विउरा वनवध दई सुदामवहं जद्यवप िाल वमताई ||३ ||

कवप सिरी सुग्रीि विभीषन, को नवहं वकयो अजािी.

अि तुलवसवह दु ख दे वत दयावनवध दारून आस-वपसािी


||४ ||

१६४

जानत प्रीवत-रीवत रघुराई.

नाते सि हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ||१ ||

नेह वनिावह दे ह तवज दसरथ, कीरवत अिल िलाई.

ऐसेहु वपतु तें अवधक गीधपर ममता गुन गरुआई ||२ ||

वतय-विरही सुग्रीि सखा लद्धख प्रानवप्रया विसराई.


रन पर् यो िंधु विभीषन ही को, सोि हृदय अवधकाई
||३ ||

घर गुरुगृह वप्रय सदन सासुरे, भइ जि जहँ पहुनाई.

ति तहँ कवह सिरीके फलवनकी रुवि माधुरी न पाई ||४


||

सहज सरूप कथा मुवन िरनत रहत सकुवि वसर नाई.

केिट मीत कहे सुख मानत िानर िंधु िड़ाई ||५ ||

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु विभुिन वतहुँ काल न भाई.

तेरो ररनी हौं कह्यो कवप सों ऐसी मानही को सेिकाई


||६ ||

तुलसी राम-सनेह-सील लद्धख, जो न भगवत उर आई.

तौ तोवहं जनवम जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गिाँई ||७


||
१६५

रघुिर! रािरर यहै िड़ाई.

वनदरर गनी आदर गरीिपर , करत कृपा अवधकाई ||१


||

थके दे ि साधन करर सि, सपनेहु नवहं दे त वदखाई.

केिट कुवटल भालु कवप कौनप, वकयो सकल संग भाई


||२ ||

वमवल मुवनिृंद वफरत दं डक िन, सो िरिौ न िलाई.

िारवह िार गीध सिरीकी िरनत प्रीवत सुहाई ||३ ||

स्वान कहे तें वकयो पुर िावहर, जती गयंद िढ़ाई.

वतय-वनंदक मवतमंद प्रजा रज वनज नय नगर िसाई ||४


||

यवह दरिार दीनको आदर, रीवत सदा िवल आई.


दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरवत कराई ||५ ||

१६६

ऐसे राम दीन-वहतकारी.

अवतकोमल करुनावनधान विनु कारन पर-उपकारी ||१ ||

साधन-हीन दीन वनज अघ-िस, वसला भई मुवन-नारी.

गृहतें गिवन परवस पद पािन घोर सापतें तारी ं.२ ||

वहं सारत वनषाद तामस िपु, पसु-समान िनिारी.

भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमिस, नवहं कुल जावत वििारी ||३


||

जद्यवप िोह वकयो सुरपवत-सुत, कह न जाय अवत भारी.

सकल लोक अिलोवक सोकहत, सरन गये भय टारी ||४


||
विहँ ग जोवन आवमष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी.

जनक-समान वक्रया ताकी वनज कर सि भाँवत सँिारी ||५


||

अधम जावत सिरी जोवषत जड़, लोक-िेद तें न्यारी.

जावन प्रीवत, दै दरस कृपावनवध, सोउ रघुनात उधारी ||६


||

कवप सुग्रीि िंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी.

सवह न सके दारुन दु ख जनके, हत्यो िावल, सवह गारी


||७ ||

ररपुको अनुज विभीषन वनवशिर, कौन भजन अवधकारी.

सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ||८ ||

असुभ होइ वजनके सुवमरे ते िानर रीछ विकारी.

िेद-विवदत पािन वकये ते सि, मवहमा नाथ! तुम्हारी ||९


||
कहँ लवग कहौं दीन अगवनत वजन्हकी तुम विपवत वनिारी.

कवलमल-ग्रवसत दासतुलसीपर, काहे कृपा विसारी ? ||१०


||

१६७

रघुपवत-भगवत करत कवठनाई.

कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेवह िवन आई ||१


||

जो जेवह कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी.

सफरी सनमुख जल-प्रिाह सुरसरी िहै गज भारी ||२ ||

ज्ों सकयरा वमलै वसकता महँ, िलतें न कोउ विलगािै.

अवत रसस्य सूच्छम वपपीवलका, विनु प्रयास ही पािै ||३


||

सकल दृश्य वनज उदर मेवल, सोिे वनिा तवज जोगी.


सोइ हररपद अनुभिै परम सुख, अवतसय िै त-वियोगी ||४
||

सोक मोह भय हरष वदिस-वनवस दे स-काल तहँ नाही ं.

तुलवसदास यवह दसाहीन संसय वनरमूल न जाही ं ||५ ||

१६८

जो पै राम-िरन-रवत होती.

तौ कत विविध सूल वनवसिासर सहते विपवत वनसोती ||१


||

जो संतोष-सुधा वनवसिासर सपनेहुँ किहुकँ पािै.

तौ कत विषय विलोवक िँठ


ू जल मन-कुरं ग ज्ों धािै ||२
||

जो श्रीपवत-मवहमा वििारर उर भजते भाि िढ़ाए.

तौ कत िार-िार कूकर ज्ों वफरते पेट खलाए ||३ ||


जे लोलुप भये दास आसके ते सिहीके िेरे.

प्रभु-विस्वास आस जीती वजन्ह, ते सेिक हरर केरे ||४


||

नवहं एकौ आिरन भजनको, विनय करत हौं ताते.

कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ||५ ||

१६९

जो मोही राम लागते मीठे .

तौ निरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सि सीठे ||१ ||

िंिक विषय विविध तनु धरर अनुभिे सुने अरु डीठे .

यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उिीठे ||२ ||

तुलवसदास प्रभु सों एवह िल ििन कहत अवत ढीठे .

नामकी लाज राम करुनाकर केवह न वदये कर िीठे ||३


||
१७०

यों मन किहँ तुमवहं न लाग्यो.

ज्ों छल छाँवड़ सुभाि वनरं तर रहत विषय अनुराग्यो ||१


||

ज्ों वितई परनारर, सुने पातक-प्रपंि घर-घरके.

त्यों न साधु, सुरसरर-तरं ग-वनरमल गुनगन रघुिरके ||२


||

ज्ों नासा सुगंधरस-िस, रसना षटरस-रवत मानी.

राम-प्रसाद-माल जूठन लवग त्यों न ललवक ललिानी ||३


||

िंदन-िंदिदवन-भूषन-पट ज्ों िह पाँिर परस्यो.

त्यों रघुपवत-पद-पदु म-परस को तनु पातकी न तरस्यो ||४


||
ज्ों सि भाँती कुदे ि कुठाकुर सेये िपु ििन वहये हँ .

त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुित सकृत प्रनाम वकये हँ ||५


||

िंिल िरन लोभ लवग लोलुप िार-िार जग िागे.

राम-सीय-आस्रमवन िलत त्यों भये न स्रवमत अभागे ||६


||

सकल अंग पद-विमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है .

है तुलवसवहं परतीवत एक प्रभु-मूरवत कृपामई है ||७ ||

१७१

कीजै मोको जमजातनामई.

राम! तुमसे सुवि सुहृद सावहिवहं , मैं सठ पीवठ दई ||१


||

गरभिास दस मास पावल वपतु-मातु-रूप वहत कीन्हों.


जड़वह वििेक, सुसील खलवहं , अपराधवहं आदर दीन्हों
||२ ||

कपट करौ ं अंतरजावमहुँ सों, अघ ब्यापकवहं दु रािौं.

ऐसेहु कुमवत कुसेिक पर रघुपवत न वकयो मन िािौं ||३


||

उदर भरौं कोंकर कहाइ िेंच्यौं विषयवन हाथ वहयो है .

मोसे िंिकको कृपालु छल छाँवड़ कै छोह वकयो है ||४


||

पल-पलके उपकार रािरे जावन िूिी सुवन नीके.

वभद्यो न कुवलसहुँ ते कठोर वित किहुँ प्रेम वसय-पीके


||५ ||

स्वामीकी सेिक-वहतता सि, कछु वनज साँई-िोहाई.

मैं मवत-तुला तौवल दे खी भइ मेरेवह वदवस गरूआई ||६


||
एतेहु पर वहत करत नाथ मेरो, करर आये, अरु कररहैं .

तुलसी अपनी ओर जावनयत प्रभुवह कनौड़ो भररहैं ||७ ||

१७२

किहुँ क हौं यवह रहवन रहौंगो.

श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाि गहौंगो ||१ ||

जथालाभसंतोष सदा, काह सों कछु न िहौंगो.

पर-वहत-वनरत वनरं तर, मन क्रम ििन नेम वनिहौ ंगो ||२


||

परुष ििन अवत दु सह श्रिन सुवन तेवह पािक न दहौंगो.

विगत मान, सम शीतल मन, परगुन नवहं दोष कहौंगो


||३ ||

परहरर दे ह-जवनत विंता, दु ख-सुख समिुद्धि सहौ ंगो.


तुलवसदास प्रभु यवह पथ रवह अवििल हरर-भगवत लहौंगो
||४ ||

१७३

नावहं न आित आन भरोसो.

यवह कवलकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलवन फरो सो


||१ ||

तप, तीरथ, उपिास, दान, मख जेवह जो रुिै करो सो.

पायेवह पै जावनिो करम-फल भरर-भरर िेद परोसो ||२


||

आगम-विवध जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो.

सुख सपनेहु न जोग-वसवध-साधन, रोग वियोग धरो सो


||३ ||

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह वमवल ग्यान विराग हरो


सो.
विगरत मन संन्यास लेत जल नाित आम घरो सो ||४ ||

िहु मत मुवन िहु पंथ पुरानवन जहाँ-तहाँ िगरो सो.

गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंवह लगत राज-डगरो सो


||५ ||

तुलसी विनु परतीती प्रीवत वफरर-वफरर पवि मरै मरो सो.

रामनाम-िोवहत भि-सागर िाहै तरन तरो सो ||६ ||

१७४

जाके वप्रय न राम-िैदेही.

तवजये तावह

--------कोवट िैरी सम, जद्यवप परम सनेही ||१ ||

सो छाँवड़ये

तज्ो वपता प्रहलाद, विभीषन िंधु, भरत महतारी.


िवल गुरु तज्ो कंत ब्रज-िवनतद्धन्ह, भये मुद-मंगलकारी
||२ ||

नाते नेह रामके मवनयत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों.

अंजन कहा आँ द्धख जेवह फूटै , िहुतक कहौं कहाँ लौं ||३
||

तुलवस सो सि भाँवत परम वहत पूज् प्रानते प्यारो.

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ||४ ||

१७५

रहवन

जो पै -----रामसों नाही ं.

लगन

तौ नर खर कूकर सूकर सम िृथा वजयत जग माही ं ||१


||
काम, क्रोध, मद, लोभ, नी ंद, भय, भूख, प्यास
सिहीके.

मनुज दे ह सुर-साधु सराहत, सो सनेह वसय-पीके ||२


||

सूर, सुजान, सुपूत सुलच्छन गवनयत गुन गरुआई.

विनु हररभजन इँ दारुनके फल तजत नही ं करुआई ||३ ||

कीरवत, कुल करतूवत, भूवत भवल, सील, सरूप सलोने.

तुलसी प्रभु-अनुराग-रवहत जस सालन साग अलोने ||४


||

१७६

राख्यो राम सुस्वामी सों नीि नेह न नातो. एते अनादर हँ


तोवह ते न हातो ||१ ||

जोरे नये नाते नेह फोकट फीके. दे हके दाहक, गाहक


जीके ||२ ||
अपने अपनेको सि िाहत नीको. मूल दु हुँको दयालु दू लह
सीको ||३ ||

जीिको जीिन प्रानको प्यारो. सुखहको सूख रामसो


विसारो ||४ ||

वकयो करै गो तोसे खलको भलो. ऐसे सुसाहि सों तू


कुिाल क्ौं िलो ||५ ||

तुलसी तेरी भलाई अजहँ िूिै. राढ़उ राउत होत वफररकै


जूिै ||६ ||

१७७

जो तुम त्यागों राम हौं तौं नही ं त्यागो. पररहरर पाँय कावह
अनुरागों ||१ ||

सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाही ं. श्रिन-नयन मन गोिर


नाही ं ||२ ||
हौं जड़ जीि, ईस रघुराया. तुम मायापवत, हौं िस माया
||३ ||

हौं तो कुजािक, स्वामी सुदाता. हौं कुपूत, तुम वहतु


वपतु-माता ||४ ||

जो पै कहुँ कोउ िूित िातो. तौ तुलसी विनु मोल विकातो


||५ ||

१७८

भयेहँ उदास राम, मेरे आस रािरी.

आरत स्वारथी सि कहैं िात िािरी ||१ ||

जीिनको दानी घन कहा तावह िावहये.

प्रेम नेमके वनिाहे िातक सरावहये ||२ ||


मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको.

जल विनु थल कहा मीिु विनु मीनको ||३ ||

िड़े ही की ओट िवल िाँवि आये छोटे हैं .

िलत खरे के संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ||४ ||

यवह दरिार भलो दावहनेहु-िामको.

मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ||५ ||

कहत नसानी ह्वे ह्वे वहये नाथ नीकी है .

जानत कृपावनधान तुलसीके जीकी है ||६ ||

राग विलािल

१७९

कहाँ जाउँ , कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी.

विभुिन तुही गवत सि अंगहीनकी ||१ ||


जग जगदीस घर घरवन घनेरे हैं .

वनराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ||२ ||

गजराज-काज खगराज तवज धायो को.

मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ||३ ||

मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके.

वकये िहुमोल तैं करै या गीध-श्राधके ||४ ||

तुलसीकी तेरे ही िनाये, िवल, िनैगी.

प्रभुकी विलंि-अंि दोष-दु ख जनैगी ||५ ||

१८०

िारक विलोवक िवल कीजै मोवहं आपनो.

राय दशरथके तू उथपन-थापनो ||१ ||


सावहि सरनपाल सिल न दू सरो.

तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ||२ ||

ििन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं .

दे खे सुने जाने मैं जहान जेते िड़े हैं ||३ ||

कौन वकयो समाधान सनमान सीलाको.

भृगुनाथ सो ररषी वजतैया कौन लीलाको ||४ ||

मातु-वपतु-िन्धु-वहतु, लोक-िेदपाल को.

िोलको अिल, नत करत वनहाल को ||५ ||

संग्रही सनेहिस अधम असाधु को.

गीध सिरीको कहौ कररहै सराधु को ||६ ||

वनराधारको अधार, दीनको दयालु को.


मीत कवप-केिट-रजवनिर-भालु को ||७ ||

रं क, वनरगुनी, नीि वजतने वनिाजे हैं .

महाराज! सुजन -समाज ते विराजे हैं ||८ ||

साँिी विरुदािली न िवढ़ कवह गई है .

सीलवसंधु! ढील तुलसीकी िेर भई है ||९ ||

१८१

केह भाँवत कृपावसंधु मेरी ओर हे ररये.

मोको और ठौर न, सुटेक एक तेररये ||१ ||

सहस वसलातें अवत जड़ मवत भई है .

कासों कहौं कौन गवत पाहवनवहं दई है ||२ ||

पद-राग-जाग िहौं कौवसक ज्ों वकयो हौं.


कवल-मल खल दे द्धख भारी भीवत वभयो हौं ||३ ||

करम-कपीस िावल-िली, िास-िस्यो हौं.

िाहत अनाथ-नाथ! तेरी िाँह िस्यो हौं ||४ ||

महा मोह-रािन विभीषन ज्ों हयो हौं.

िावह, तुलसीस! िावह वतहँ ताप तयो हौं ||५ ||

१८२

नाथ ! गुननाथ सुवन होत वित िाउ सो.

राम रीवििेको जानौं भगवत न भाउ सो ||१ ||

करम, सुभाउ, काल, ठाकुर न ठाउँ सो.

सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो ||२ ||

जाँिौं जल जावह कहै अवमय वपयाउ सो.


कासों कहौं काह सों न िढ़त वहयाउ सो ||३ ||

िाप! िवल जाऊँ, आप कररये उपाउ सो.

तेरे ही वनहारे परै हारे ह सुदाउ सो ||४ ||

तेरे ही सुिाये सूिै असुि सुिाउ सो.

तेरे ही िुिाये िूिै अिुि िुिाउ सो ||५ ||

नाम अिलंिु-अंिु दीन मीन-राउ सो.

प्रभुसों िनाइ कहौं जीह जरर जाउ सो ||६ ||

सि भाँवत विगरी है एक सुिनाउ-सो.

तुलसी सुसावहिवहं वदयो है जनाउ सो ||७ ||

राग आसािरी

१८३
राम! प्रीवतकी रीवत आप नीके जवनयत है .

िड़े की िड़ाई, छोटे की छोटाई दू रर करै ,

ऐसी विरुदािली, िवल, िेद मवनयत है ||१ ||

गीधको वकयो सराध, भीलनीको खायो फल,

सोऊ साधु-सभा भलीभाँवत भवनयत है .

रािरे आदरे लोक िेद हँ आदररयत,

जोग ग्यान हँ तें गरू गवनयत है ||२ ||

प्रभुकी कृपा कृपालु! कवठन कवल हँ काल,

मवहमा समुवि उर अवनयत है .

तुलसी पराये िस भये रस अनरस,

दीनिंधु! िारे हठ ठवनयत है ||३ ||

१८४

राम-नामके जपे जाइ वजयकी जरवन.


कवलकाल अपर उपाय ते अपाय भये,

जैसे तम नावसिेको वििके तरवन ||१ ||

करम-कलाप पररताप पाप-साने सि,

ज्ों सुफूल फूले तरु फोकट फरवन.

दं भ, लोभ, लालि, उपासना विनावस नीके,

सुगवत साधन भई उदर भरवन ||२ ||

जोग न समावध वनरुपावध न विराग-ग्यान,

ििन विशेष िेष, कहँ न करवन.

कपट कुपथ कोवट, कहवन-रहवन खोवट,

सकल सराहैं वनज वनज आिरवन ||३ ||

मरत महे स उपदे स हैं कहा करत,

सुरसरर-तीर कासी धरम-धरवन.

राम-नामको प्रताप हर कहैं , जपैं आप,

जुग जुग जानैं जग, िेदहँ िरवन ||४ ||


मवत राम-नाम ही सों, रवत राम-नाम ही सों,

गवत राम नाम ही की विपवत-हरवन.

राम-नामसों प्रतीवत प्रीवत राखे किहुँ क,

तुलसी ढरैं गे राम आपनी ढरवन ||५ ||

१८५

लाज न लागत दास कहाित.

सो आिरन विसारर सोि तवज, जो हरर तुम कहँ भाित


||१ ||

सकल संग तवज भजत जावह मुवन, जप तप जाग िनाित.

मो-सम मंद महाखल पाँिर, कौन जतन तेवह पाित ||२


||

हरर वनरमल, मलग्रवसत हृदय, असमंजस मोवह जनाित.


जेवह सर काक कंक िक सूकर, क्ों मराल तहँ आित
||३ ||

जाकी सरन जाइ कोविद दारुन ियताप िुिाित.

तहँ गये मद मोह लोभ अवत, सरगहुँ वमटत न साित ||४


||

भि-सररता कहँ नाउ संत, यह कवह औरवन समुिाित.

हौं वतनसों हरर! परम िैर करर , तुम सों भलो मनाित
||५ ||

नावहं न और ठौर मो कहँ , ताते हवठ नातो लाित.

राखु सरन उदार-िूड़ामवन! तुलवसदास गुन गाित ||६ ||

१८६

कौन जतन विनती कररये.

वनज आिरन वििारर हारर वहय मावन जावन डररये ||१ ||


जेवह साधन हरर! ििहु जावन जन सो हवठ पररहररये.

जाते विपवत-जाल वनवसवदन दु ख, तेवह पथ अनसररये ||२


||

जानत हँ मन ििन करम पर-वहत कीन्हें तररये.

सो विपरीत दे द्धख पर-सुख, विनु कारन ही जररये ||३ ||

श्रुवत पुरान सिको मत यह सतसंग सुदृढ़ धररये.

वनज अवभमान मोह इररषा िस वतनवहं न आदररये ||४


||

संतत सोइ वप्रय मोवहं सदा जातें भिवनवध पररये.

कहौं अि नाथ, कौन िलतें संसार-सोग हररये ||५ ||

जि कि वनज करुना-सुभाितें, ििहु तौ वनस्तररये.

तुलवसदास विस्वास आवन नवहं , कत पवि-पवि मररये ||६


||
१८७

तावह तें आयो सरन सिेरें.

ग्यान विराग भगवत साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ||१


||

लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध ररपु वफरत रै वन-वदन घेरें.

वतनवहं वमले मन भयो कुपथ-रत, वफरै वतहारे वह फेरें ||२


||

दोष-वनलय यह विषय सोक-प्रद कहत संत श्रुवत टे रें.

जानत हँ अनुराग तहाँ अवत सो, हरर तुम्हरे वह प्रेरें ? ||३


||

विष वपयूष सम करहु अवगवन वहम, तारर सकहु विनु िेरें.

तुम सम ईस कृपालु परम वहत पुवन न पाइहौं हे रें ||४


||

यह वजय जावन रहौं सि तवज रघुिीर भरोसे तेरें.


तुलवसदास यह विपवत िागुरौ तुम्हवहं सों िनै वनिेरें ||५
||

१८८

मैं तोवहं अि जान्यो संसार.

िाँवध न सकवहं मोवह हररके िल, प्रगट कपट-आगार ||१


||

दे खत ही कमनीय, कछू नावहं न पुवन वकये वििार.

ज्ों कदलीतरु-मध्य वनहारत, किहुँ न वनकसत सार


||२.

तेरे वलये जनम अनेक मैं वफरत न पायों पार.

महामोह-मृगजल-सररता महँ िोर् यो हौं िारवहं िार ||३


||

सुनु खल! छल िल कोवट वकये िस होवहं न भगत उदार.


सवहत सहाय तहाँ िवस अि , जेवह हृदय न नंदकुमार
||४ ||

तासों करहु िातुरी जो नवहं जानै मरम तुम्हार.

सो परर डरै मरै रजु-अवह तें, िूिै नवहं ब्यिहार ||५ ||

वनज वहत सुनु सठ! हठ न करवह, जो िहवह कुसल


पररिार.

तुलवसदास प्रभुके दासवन तवज भजवह जहाँ मद मार ||६


||

राग गौरी

१८९

राम कहत िलु, राम कहत िलु, राम कहत िलु भाई रे .

नावहं तौ भि-िेगारर महँ पररहै, छूटत अवत कवठनाई रे


||१ ||

िाँस पुरान साज-सि अठकठ, सरल वतकोन खटोला रे .


हमवहं वदहल करर कुवटल करमिँद मंद मोल विनु डोला रे
||२ ||

विषम कहार मार-मद-माते िलवहं न पाउँ िटोरा रे .

मंद विलंद अभेरा दलकन पाइय दु ख िकिौरा रे ||३ ||

काँट कुराय लपेटन लोटन ठािवहं ठाउँ ििाऊ रे .

जस जस िवलय दू रर तस तस वनज िास न भेंट लगाऊ रे


||४ ||

मारग अगम, संग नवहं संिल, नाउँ गाउँ कर भूला रे .

तुलवसदास भि िास हरहु अि , होहु राम अनुकूला रे


||५ ||

१९०

सहज सनेही रामसों तैं वकयो न सहज सनेह.

तातें भि-भाजन भयो, सुनु अजहुँ वसखािन एह ||१ ||


ज्ों मुख मुकुर विलोवकये अरु वित न रहै अनुहारर.

त्यों सेितहुँ न आपने, ये मातु-वपता, सुत-नारर ||२ ||

दै दै सुमन वतल िावसकै, अरु खरर पररहरर रस लेत.

स्वारथ वहत भूतल भरे , मन मेिक, तन सेत ||३ ||

करर िीत्यो, अि करतु है कररिे वहत मीत अपार.

किहुँ न कोउ रघुिीर सो नेह वनिाहवनहार ||४ ||

जासों सि नातों फुरै , तासों न करी पवहिावन.

तातें कछू समि् यो नही ं, कहा लाभ कह हावन ||५ ||

साँिो जान्यो िठ
ू को, िठ
ू े कहँ साँिो जावन.

को न गयो, को जात है , को न जैहै करर वहतहावन ||६


||

िेद कह्यो, िुध कहत हैं , अरु हौहुँ कहत हौं टे रर.
तुलसी प्रभु साँिो वहतू, तू वहयकी आँ द्धखन हे रर ||७ ||

१९१

एक सनेही साविलो केिल कोसलपालु.

प्रेम-कनोड़ो रामसो नवहं दू सरो दयालु ||१ ||

तन-साथी सि स्वारथी, सुर ब्यिहार-सुजान.

आरत-अधम-अनाथ वहत को रघुिीर समान ||२ ||

नाद वनठूर, समिर वसखी, सवलल सनेह न सूर.

सवस सरोग, वदनकरुिड़े , पयद प्रेम-पथ कूर ||३ ||

जाको मन जासों िँध्यो, ताको सुखदायक सोइ.

सरल सील सावहि सदा सीतापवत सररस न कोइ ||४ ||

सुवन सेिा सही को करै , पररहरै को दू षन दे द्धख.


केवह वदिान वदन दीन को आदर-अनुराग विसेद्धख ||५ ||

खग-सिरी वपतु-मातु ज्ों माने, कवप को वकये मीत.

केिट भेंट्यों भरत ज्ो, ऐसो को कहु पवतत-पुनीत ||६


||

दे ह अभागवहं भागु को, को राखै सरन सभीत.

िेद-विवदत विरुदािली, कवि-कोविद गाित गीत ||७ ||

कैसेउ पाँिर पातकी, जेवह लई नामकी ओट.

गाँठी िाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरर खर-खोट ||८ ||

मन मलीन, कवल वकलविषी होत सुनत जासु कृत-काज.

सो तुलसी वकयो आपुनो रघुिीर गरीि-वनिाज ||९ ||

१९२

जो पै जानवकनाथ सों नातो नेहु न नीि.


स्वारथ-परमारथ कहा, कवल कुवटल विगोयो िीि ||१ ||

धरम िरन आश्रमवनके पैयत पोवथही पुरान.

करति विनु िेष दे द्धखये, ज्ों सरीर विनु प्रान ||२ ||

विवहत

िेद-----साधन सिै, सुवनयत दायक फल िारर.

विवदत

राम प्रेम विनु जावनिो जैसे सर-सररता विनु िारर ||३ ||

नाना पथ वनरिानके, नाना विधान िहु भाँवत.

तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम वदन-रावत ||४ ||

१९३

अजहुँ आपने रामके करति समुित वहत होइ.

कहँ तू, कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सि कोइ


||१ ||
रीवि वनिाज्ो किवहं तू, कि खीवि दई तोवहं गारर.

दरपन िदन वनहाररकै, सुवििारर मान वहय हारर ||२ ||

विगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु.

' पावह कृपावनवध' प्रेमसों कहे को न राम वकयो साधु


||३ ||

िालमीवक-केिट-कथा, कवप-भील-भालु-सनमान.

सुवन सनमुख जो न रामसों, वतवह को उपदे सवह ग्यान


||४ ||

का सेिा सुग्रीिकी, का प्रीवत-रीवत-वनरिाहु.

जासु िंधु िध्यो ब्याध ज्ों, सो सुनत सोहात न काहु ||५


||

भजन विभीषनको कहा, फल कहा वदयो रघुराज.

राम गरीि-वनिाजके िड़ी िाँह-िोलकी लाज ||६ ||


जपवह नाम रघुनाथको, िरिा दू सरी न िालु.

सुमुख, सुखद, सावहि, सुधी, समरथ, कृपालु, नतपालु


||७ ||

सजल नयन, गदगदवगरा, गहिर मन, पुलक सरीर.

गाित गुनगन रामके केवहकी न वमटी भि-भीर ||८ ||

प्रभु कृतग्य सरिस्य हैं , पररहरु पावछली गलावन.

तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पवहिावन ||९ ||

१९४

जो अनुराग न राम सनेही सों.

तौ लह्यो लाहु कहा नर-दे ही सों ||१ ||

जो तनु धरर, पररहरर सि सुख, भये सुमवत राम-


अनुरागी.
सो तनु पाइ अघाइ वकये अघ, अिगुन-उदवध अभागी ||२
||

ग्यान-विराग, जोग-जप, तप-मख, जग मुद-मग नवहं


थोरे .

राम-प्रेम विनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलवध-वहलोरे ||३


||

लोक-विलोवक, पुरान-िेवद सुवन, समुवि-िूवि गुरु-ग्यानी.

प्रीवत-प्रतीवत राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ||४ ||

अजहुँ जावन वजय, मावन हारर वहय, होइ पलक महँ


नीको.

सुवमरु सनेहसवहत वहत रामवहं , मानु मतो तुलसीको ||५


||

१९५

िवल जाउँ हौं राम गुसाई.


ं कीजे कृपा आपनी नाईं ||१ ||
परमारथ सुरपुर-साधन सि स्वारथ सुखद भलाई.

कवल सकोप लोपी सुिाल, वनज कवठन कुिाल िलाई ||२


||

जहँ जहँ वित वितित वहत, तहँ वनत नि विषाद


अवधकाई.

रुवि-भािती भभरर भागवह, समुहावहं अवमत अनभाई ||३


||

आवध-मगन मन, ब्यावध-विकल तन, ििन मलीन िुठाई.

एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ||४


||

१९६

काहे को वफरत मन, करत िहु जतन,

वमटै न दु ख विमुख रघुकुल-िीर.

कीजै जो कोवट उपाइ, विविध ताप न जाइ,


कह्यो जो भुज उठाय मुवनिर कीर ||१ ||

सहज टे ि विसारर तुही धौं दे खु वििारर,

वमलै न मथत िारर घृत विनु छीर.

समुवि तजवह भ्रम, भजवह पद-जुगम,

सेित सुगम, गुन गहन गंभीर ||२ ||

आगम वनगम ग्रंथ, ररवष-मुवन, सुर-संत,

सि ही को एक मत सुनु, मवतधीर.

तुलवसदास प्रभु विनु वपयास मरै पसु,

जद्यवप है वनकट सुरसरर-तीर ||३ ||

१९७

नावहन िरन-रवत तावह तें सहौ ं विपवत,

कहत श्रुवत सकल मुवन मवतधीर.

िसै जो सवस-उछं ग सुधा-स्वावदत कुरं ग,


तावह क्ों भ्रम वनरद्धख रविकर-नीर ||१ ||

सुवनय नाना पुरान, वमटत नावहं अग्यान,

पवढ़य न समुविय वजवम खग कीर.

िँधत विनवहं पास सेमर-सुमन-आस,

करत िरत तेइ फल विनु हीर ||२ ||

कछु न साधन-वसवध, जानौं न वनगम-विवध,

नवहं जप-तप, िस मन, न समीर.

तुलवसदास भरोस परम करुना-कोस,

प्रभु हररहैं विषम भिभीर ||३ ||

राग भैरिी

१९८

मन पवछतैहै अिसर िीते.


दु रलभ दे ह पाइ हररपद भजु, करम, ििन अरु ही ते
||१ ||

सहसिाहु दसिदन आवद नृप ििे न काल िलीते.

हम-हम करर धन-धाम सँिारे , अंत िले उवठ रीते ||२


||

सुत िवनतावद जावन स्वारथरत, न करु नेह सिही ते.

अंतहु तोवहं तजैं गे पामर! तू न तजै अिही ते ||३ ||

अि नाथवहं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दु रासा जी ते.

िुिे----काम अवगवन तुलसी कहुँ , विषय-भोग िहु घी ते


||४ ||

वक

१९९
काहे को वफरत मूढ़ मन धायो.

तवज हरर-िरन-सरोज सुधारस, रविकर-जल लय लायो


||१ ||

विजग दे ि नर असुर अपर जग जोवन सकल भ्रवम आयो.

गृह िवनता, सुत, िंधु भये िहु, मातु-वपता वजन्ह जायो


||२ ||

जाते वनरय-वनकाय वनरं तर, सोइ इन्ह तोवह वसखायो.

तुि वहत होइ, कटै भि-िंधन, सो मगु तोवह न ितायो


||३ ||

अजहुँ विषय कहँ जतन करत, जद्यवप िहुविवध डहँ कायो.

पािक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत िुिायौ ||४ ||

विषयहीन दु ख, वमले विपवत अवत, सुख सपनेहुँ नवहं


पायो.

उभय प्रकार प्रेत-पािक ज्ों धन दु खप्रद श्रुवत गायो ||५


||
वछन-वछन छीन होत जीिन, दु रलभ तनु िृथा गँिायो.

तुलवसदास हरर भजवह आस तवज, काल -उरग जग खायो


||६ ||

२००

ताँिे सो पीवठ मनहुँ तन पायो.

नीि, मीि जानत न सीस पर, ईस वनपट विसरायो ||१


||

अिवन रिवन, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हवहं


अपनायो ?

काके भये, गये सँग काके, सि सनेह छल-छायो ||२


||

वजन्ह भूपवन जग-जीवत, िाँवध जम, अपनी िाँह िसायो.

तेऊ काल कलेऊ कीन्हे , तू वगनती कि आयो ||३ ||


दे खु वििारर, सार का साँिो, कहा वनगम वनजु गायो.

भवजवहं न अजहुँ समुवि तुलसी तेवह, जेवह महे स मन लायो


||४ ||

२०१

लाभ कहा मानुष-तनु पाये.

काय-ििन-मन सपनेहुँ किहुँक घटत न काज पराये ||१


||

जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-िन आित विनवहं िुलाये.

तेवह सुख कहँ िहु जतन करत मन, समुित नवहं समुिाये
||२ ||

पर-दारा, परिोह, मोहिस वकये मूढ़ मन भाये.

गरभिास दु खरावस जातना तीब्र विपवत विसराये ||३ ||

भय-वनिा, मैथुन-अहार, सिके समान जग जाये.


सुर-दु रलभ तनु धरर न भजे हरर मद अवभमान गिाँये ||४
||

गई न वनज-पर-िुद्धि सुि ह्वे रहे न राम-लय लाये.

तुलवसदास यह अिसर िीते का पुवन के पवछताये ||५ ||

२०२

काजु कहा नरतनु धरर सार् यो.

पर-उपकार सार श्रुवतको जो, सो धोखेहु न वििार् यो


||१ ||

िै त मूल, भय-सूल, सोक-फल, भितरु टरै न टार् यौ.

रामभजन-तीछन कुठार लै सो नवहं कावट वनिार् यो ||२


||

संसय-वसंधु नाम िोवहत भवज वनज आतमा न तार् यो.

जनम अनेक वििेकहीन िहु जोवन भ्रमत नवहं हार् यो ||३


||
दे द्धख आनवक सहज संपदा िे ष-अनल मन-जार् यो.

सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल वहय हरर न सँभार्


यो ||४ ||

प्रभु गुरु वपता सखा रघुपवत तैं मन क्रम ििन विसार् यो.

तुलवसदास यवह आस, सरन राद्धखवह जेवह गीध उधार् यो


||५ ||

२०३

श्रीहरर-गुरु-पद-कमल भजहु मन तवज अवभमान.

जेवह सेित पाइय हरर सुख-वनधान भगिान ||१ ||

पररिा प्रथम प्रेम विनु राम-वमलन अवत दू रर.

जद्यवप वनकट हृदय वनज रहे सकल भररपूरर ||२ ||

दु इज िे त-मवत छावड़ िरवह मवह-मंडल धीर.


विगत मोह-माया-मद हृदय िसत रघुिीर ||३ ||

तीज विगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकंु द.

गुन सुभाि त्यागे विनु दु रलभ परमानंद ||४ ||

िौवथ िारर पररहरहु िुद्धि-मन-वित-अहं कार.

विमल वििार परमपद वनज सुख सहज उदार ||५ ||

पाँिइ पाँि परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप.

इन्ह कर कहा न कीवजये, िहुरर परि भि-कूप ||६ ||

छठ षटिरग कररय जय जनकसुता-पवत लावग.

रघुपवत-कृपा-िारर विनु नही ं िुताइ लोभावग ||७ ||

सातैं सप्तधातु-वनरवमत तनु कररय वििार.

तेवह तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ||८ ||


आठइँ आठ प्रकृवत-पर वनरविकार श्रीराम.

केवह प्रकार पाइय हरर, हृदय िसवहं िहु काम ||९ ||

निमी नििार-पुर िवस जेवह न आपु भल कीन्ह.

ते नर जोवन अनेक भ्रमत दारून दु ख लीन्ह ||१० ||

दसइँ दसहु कर संजम जो न कररय वजय जावन.

साधन िृथा होइ सि वमलवहं न सारं गपावन.११ ||

एकादसी एक मन िस कै सेिहु जाइ.

सोइ ब्रत कर फल पािै आिागमन नसाइ ||१२ ||

िादवस दान दे हु अस, अभय होइ िेलोक.

परवहत-वनरत सो पारन िहुरर न ब्यापत सोक ||१३ ||

तेरवस तीन अिस्था तजहु, भजहु भगिंत.

मन-क्रम-ििन-अगोिर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ||१४ ||


िौदवस िौदह भुिन अिर-िर-रूप गोपाल.

भेद गये विनु रघुपवत अवत न हरवहं जग-जाल ||१५ ||

पूनों प्रेम-भगवत-रस हरर-रस जानवहं दास.

सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, विषय-उदास ||१६ ||

विविध सूल होवलय जरे , खेवलय अि फागु.

जो वजय िहवस परमसुख, तौ यवह मारग लागु ||१७ ||

श्रुवत-पुरान-िुध-संमत िाँिरर िररत मुरारर.

करर वििार भि तररय, पररय न किहुँ जमधारर ||१८ ||

संसय-समन, दमन दु ख, सुखवनधान हरर एक.

साधु-कृपा विनु वमलवहं न, कररय उपाय अनेक ||१९ ||

भि सागर कहँ नाि सुि संतनके िरन.


तुलवसदास प्रयास विनु वमलवहं राम दु खहरन ||२० ||

राग कान्हरा

२०४

जो मन लागै रामिरन अस.

दे ह-गेह-सुत-वित-कलि महँ मगन होत विनु जतन वकये


जस ||१ ||

िं िरवहत, गतमान, ग्यानरत, विषय-विरत खटाइ नाना


कस.

सुखवनधान सुजान कोसलपवत ह्वे प्रसन्न, कहु, क्ों न होंवह


िस ||२ ||

सियभूत-वहत, वनब्ययलीक वित, भगवत-प्रेम दृढ़ नेम,


एकरस.

तुलवसदास यह होइ तिवहं जि ििै ईस, जेवह हतो


सीसदस ||३ ||
२०५

जो मन भज्ो िहै हरर-सुरतरु.

तौ तज विषय-विकार, सार भज, अजहँ जो मैं कहौं सोइ


करु ||१ ||

सम, संतोष, वििार विमल अवत, सतसंगवत, यर िारर


दृढ़ करर धरु.

काम-क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-िे ष वनसेष करर


पररहरु ||२ ||

श्रिन कथा, मुख नाम, हृदय हरर, वसर प्रनाम, सेिा कर


अनुसरु.

नयनवन वनरद्धख कृपा-समुि हरर अग-जग-रूप भूप


सीतािरु ||३ ||

इहै भगवत, िैराग्य-ग्यान यह, हरर-तोषन यह सुभ ब्रत


आिरु.

तुलवसदास वसि-मत मारग यवह िलत सदा सपनेहुँ नावहं न


डरु ||४ ||
२०६

नावहन और कोउ सरन लायक दू जो श्रीरघुपवत-सम विपवत-


वनिारन.

काको सहज सुभाउ सेिकिस, कावह प्रनत परप्रीवत


अकारन ||१ ||

जन-गुन अलप गनत सुमेरु करर, अिगुन कोवट विलोवक


विसारन.

परम कृपालु, भगत-विंतामवन, विरद पुनीत, पवततजन-


तारन ||२ ||

सुवमरत सुलभ, दास-दु ख हरर िलत तुरत, पटपीत सँभार


न.

साद्धख पुरान-वनगम-अगम सि, जानत िुपद-सुता अरु


िारन ||३ ||

जाको जस गाित कवि-कोविद, वजन्हके लोभ-मोह, मद-


मार न.
तुलवसदास तवज आस सकल भजु, कोसलपवत मुवनिधू-
उधारन ||४ ||

२०७

भवजिे लायक, सुखदायक रघुनायक सररस सरनप्रद दू जो


नावहन.

आनँदभिन, दु खदिन, सोकसमन रमारमन गुन गनत


वसरावहं न ||१ ||

आरत, अधम, कुजावत, कुवटल, खल, पवतत, सभीत


कहुँ जे समावहं न.

सुवमरत नाम वििसहँ िारक पाित सो पद, जहाँ सुर जावहं


न ||२ ||

जाके पद-कमल लुि मुवन-मधुकर, विरत जे परम


सुगवतहु लुभावहं न.

तुलवसदास सठ तेवह न भजवस कस, कारुवनक जो


अनाथवहं दावहन ||३ ||
राग कल्याि

२०८

नाथ सों कौन विनती कवह सुनािौं.

विविध विवध अवमत अिलोवक अघ आपने,

सरन सनमुख होत सकुवि वसर नािौं ||१ ||

विरवि हररभगवतको िेष िर टावटका,

कपट-दल हररत पल्लिवन छािौं.

नामलवग लाइ लासा लवलत-ििन कवह,

ब्याध ज्ों विषय-विहँ गवन ििािौं ||२ ||

कुवटल सतकोवट मेरे रोमपर िाररयवह,

साधु गनतीमें पहलेवह गनािौं.

परम िियर खिय गिय-पियत िढ्यो,

अग्य सियग्य, जन-मवन जनािौं ||३.


साँि वकधौं िठ
ू मोको कहत कोउ-

कोउ राम! रािरो, हौं तुम्हरो कहािौं.

विरदकी लाज करर दास तुलवसवहं दे ि!

लेहु अपनाइ अि दे हु जवन िािौ ||४ ||

२०९

नावहनै नाथ! अिलंि मोवह आनकी.

करम-मन-ििन पन सत्य करुनावनधे!

एक. गवत राम! भिदीय पदिानकी ||१ ||

कोह-मद-मोह-ममतायतन जावन मन,

िात नवह जावत कवह ग्यान-विग्यानकी.

काम-संकलप उर वनरद्धख िहु िासनवहं ,

आस नवहं एकह आँ क वनरिानकी ||२ ||

िेद-िोवधत करम धरम विनु अगम अवत,


जदवप वजय लालसा अमरपुर जानकी.

वसि-सुर-मनुज दनुजावदसेित कवठन,

ििवहं हठजोग वदये भोग िवल प्रानकी ||३ ||

भगवत दु रलभ परम, संभु-सुक-मुवन-मधुप,

प्यास पदकंज-मकरं द-मधुपानकी.

पवतत-पािन सुनत नाम विस्रामकृत,

भ्रवमत पुवन समवि वित ग्रंवथ अवभमानकी ||४ ||

नरक-अवधकार मम घोर संसार-तम-

कूपकही ं, भूप! मोवह सद्धक्त आपानकी.

दासतुलसी सोउ िास नवह गनत मन,

सुवमरर गुह गीध गज ग्यावत हनुमानकी ||५ ||

२१०

औरु कहँ ठौरु रघुिंस-मवन! मेरे.


पवतत-पािन प्रनत-पाल असरन-सरन,

िाँकुरे विरुद विरुदै त केवह केरे ||१ ||

समुवि वजय दोस अवत रोस करर राम जो,

करत नवहं कान विनती िदन फेरे .

तदवप ह्वे वनडर हौं कहौं करुना-वसंधु,

क्ोंऽि रवह जात सुवन िात विनु हे रे ||२ ||

मुख्य रुवि िवसिेकी पुर रािरे ,

राम! तेवह रुविवह कामावद गन घेरे.

अगम अपिरग, अरु सरग सुकृतैकफल,

नाम-िल क्ों िसौं जम-नगर नेरे ||३ ||

कतहुँ नवहं ठाउँ , कहँ जाउँ कोसलनाथ!

दीन वितहीन हौं, विकल विनु डे रे.

दास तुलवसवह िास दे हु अि करर कृपा,

िसत गज गीध ब्याधावद जेवह खेरे ||४ ||


२११

किहुँ रघुिंसमवन ! सो कृपा करहुगे.

जेवह कृपा ब्याध, गज, विप्र, खल नर तरे ,

वतन्हवह सम मावन मोवह नाथ उिरहुगे ||१ ||

जोवन िहु जनवम वकये करम खल विविध विवध,

अधम आिरन कछु हृदय नवह धरहुगे.

दीनवहत! अवजत सरिग्य समरथ प्रनतपावल,

वित मृदुल वनज गुनवन अनुसरहुगे ||२ ||

मोह-मद-मान-कामावद खलमंडली,

सकुल वनरमूल करर दु सह दु ख हरहुगे.

जोग-जप-जग्य-विग्यान ते अवधक अवत,

अमल दृढ़ भगवत दै परम सुख भरहुगे ||३ ||


मंदजन-मौवलमवन सकल, साधनहीन,

कुवटल मन, मवलन वजय जावन जो डरहुगे.

दासतुलसी िेद-विवदत विरुदािली,

विमल जस नाथ! केवह भाँवत विस्तरहुगे ||४ ||

राग केदारा

२१२

रघुपवत विपवत-दिन.

परम कृपालु, प्रनत-प्रवतपालक, पवतत-पािन ||१ ||

कूर, कुवटल, कुलहीन, दीन, अवत मवलन जिन.

सुवमरत नाम राम पठये सि अपने भिन ||२ ||

गज-वपंगला-अजावमल-से खल गनै धौं किन.

तुलवसदास प्रभु केवह न दीद्धन्ह गवत जानकी-रिन ||३ ||


२१३

हरर-सम आपदा-हरन.

नवह कोउ सहज कृपालु दु सह दु ख-सागर-तरन ||१ ||

गज वनज िल अिलोवक कमल गवह गयो सरन.

दीन ििन सुवन िले गरुड़ तवज सुनाभ-धरन ||२ ||

िुपदसुताको लग्यो दु सासन नगन करन.

' हा हरर पावह' कहत पूरे पट विविध िरन ||३ ||

इहे जावन सुर-नर-मुवन-कोविद सेित िरन.

तुलवसदास प्रभु को न अभय वकयो नृग-उिरन ||४ ||

राग कल्यान

२१४
ऐसी कौन प्रभुकी रीवत ?

विरद हे तु पुनीत पररहरर पाँिरवन पर प्रीवत ||१ ||

गई मारन पूतना कुि कालकूट लगाई.

मातुकी गवत दई तावह कृपालु जादिराइ ||२ ||

काममोवहत गोवपकवनपर कृपा अतुवलत कीन्ह.

जगत-वपता विरं वि वजन्हके िरनकी रज लीन्ह ||३ ||

नेमतें वससुपाल वदन प्रवत दे त गवन गवन गारर.

वकयो लीन सु आपमें हरर राज-सभा मँिारर ||४ ||

ब्याध वित दै िरन मार् यो मूढ़मवत मृग जावन.

सो सदे ह स्वलोक पठयो प्रगट करर वनज िावन ||५ ||

कौन वतन्हकी कहै वजन्हके सुकृत अरु अघ दोउ.

प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ||६ ||


२१५

श्रीरघुिीरकी यह िावन.

नीिह सों करत नेह सुप्रीवत मन अनुमावन ||१ ||

परम अधम वनषाद पाँिर, कौन ताकी कावन ?

वलयो सो उर लाइ सुत ज्ौं प्रेमको पवहिावन ||२ ||

गीध कौन दयालु, जो विवध रच्यो वहं सा सावन ?

जनक ज्ों रघुनाथ ताकहँ वदयो जल वनज पावन ||३ ||

प्रकृवत-मवलन कुजावत सिरी सकल अिगुन-खावन.

खात ताके वदये फल अवत रुवि िखावन िखावन ||४ ||

रजवनिर अरु ररपु विभीषन सरन आयो जावन.

भरत ज्ों उवठ तावह भैंटत दे ह-दसा भुलावन ||५ ||


कौन सुभग सुसील िानर, वजनवहं सुवमरत हावन.

वकये ते सि सखा, पूजे भिन अपने आवन ||६ ||

राम सहज कृपालु कोमल दीनवहत वदनदावन.

भजवह ऐसे प्षभुवह तुलसी कुवटल कपट न ठावन ||७ ||

२१६

हरर तज और भवजये कावह ?

नावहनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जावह ||१ ||

कनककवसपु विरं विको जन करम मन अरु िात.

सुतवहं दु खित विवध न िरज्ो कालके घर जात ||२ ||

संभु-सेिक जान जग, िहु िार वदये दस सीस.

करत राम-विरोध सो सपनेहु न हटक्ो ईस ||३ ||


और दे िनकी कहा कहौं, स्वारथवहके मीत.

किहु काहु न राख वलयो कोउ सरन गयउ सभीत ||४


||

को न सेित दे त संपवत लोकह यह रीवत.

दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीवत ||५ ||

२१७

जो पै दू सरो कोउ होइ.

तौ हौं िारवह िार प्रभु कत दु ख सुनािौं रोइ ||१ ||

कावह ममता दीनपर, काको पवततपािन नाम.

पापमूल अजावमलवह केवह वदयो अपनो धाम ||२ ||

रहे संभु विरं वि सुरपवत लोकपाल अनेक.

सोक-सरर िूड़त करीसवह दई काहु न टे क ||३ ||


विपुल-भूपवत-सदवह महँ नर-नारर कह्यो ' प्रभु पावह' .

सकल समरथ रहे , काहु न िसन दीन्हों तावह ||४ ||

एक मुख क्ों कहौं करुनावसंधुके गुन-गाथ ?

भक्तवहत धरर दे ह काह न वकयो कोसलनाथ! ||५ ||

आपसे कहुँ सौ ंवपये मोवह जो पै अवतवह वघनात.

दासतुलसी और विवध क्ों िरन पररहरर जात ||६ ||

२१८

किवह दे खाइहौ हरर िरन.

समन सकल कलेस कवल-मल , सकल मंगल-करन ||१


||

सरद-भि सुंदर तरुनतर अरुन-िाररज-िरन.

लद्धच्छ-लावलत-लवलत करतल छवि अनूपम धरन ||२ ||


गंग-जनक अनंग-अरर-वप्रय कपट-िटु िवल-छरन.

विप्रवतय नृग िवधकके दु ख-दोस दारुन दरन ||३.

वसि-सुर-मुवन-िृंद-िंवदत सुखद सि कहँ सरन.

सकृत उर आनत वजनवहं जन होत तारन-तरन ||४ ||

कृपावसंधु सुजान रघुिर प्रनत-आरवत-हरन.

दरस-आस-वपयास तुलसीदास िाहत मरन ||५ ||

२१९

िार हौं भोर ही को आजु.

रटत ररररहा आरर और न, कौर ही तें काजु ||१ ||

कवल कराल दु काल दारुन, सि कुभाँवत कुसाजु.

नीि जन, मन ऊँि जैसी कोढँ मेंकी खाजु ||२ ||


हहरर वहयमें सदय िूझ्यो जाइ साधु-समाजु.

मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, वतन्ह कह्यो कोसलराजु ||३ ||

दीनता-दाररद दलै को कृपािाररवध िाजु.

दावन दसरथरायके, तू िानइत वसरताजु ||४ ||

जनमको भूखो वभखारी हौं गरीिवनिाजु.

पेट भरर तुलवसवह जेंिाइय भगवत-सुधा सुनाजु ||५ ||

२२०

कररय सँभार, कोसलराय!

और ठौर न और गवत, अिलंि नाम विहाय ||१ ||

िूवि अपनी आपनो वहतु आप िाप न माय.

राम! राउर नाम गुर, सुर, स्वावम, सखा, सहाय ||२


||
रामराज न िले मानस-मवलनके छल छाय.

कोप तेवह कवलकाल कायर मुएवह घालत घाय ||३ ||

लेत केहररको ियर ज्ों भैक हवन गोमाय.

त्योंवह राम-गुलाम जावन वनकाम दे त कुदाय ||४ ||

अकवन याके कपट-करति, अवमत अनय-अपाय.

सुद्धख हररपुर िसत होत परीवछतवह पवछताय ||५ ||

कृपावसंधु! विलोवकये, जन-मनकी साँसवत साय.

सरन आयो, दे ि! दीनदयालु! दे खन पाय ||६ ||

वनकट िोवल न िरवजये, िवल जाउँ , हवनय न हाय.

दे द्धखहैं हनुमान गोमुख नाहरवनके न्याय ||७ ||

अरुन मुख, भ्रू विकट, वपंगल नयन रोष-कषाय.


िीर सुवमरर समीरको घवटहै िपल वित िाय ||८ ||

विनय सुवन विहँ से अनुजसों ििनके कवह भाय.

' भली कही' कह्यो लषन हँ हँ वस, िने सकल िनाय


||९ ||

दई दीनवहं दावद, सो सुवन सुजन-सदन िधाय.

वमटे संकट-सोि, पोि-प्रपंि, पाप-वनकाय ||१० ||

पेद्धख प्रीवत-प्रतीवत जनपर अगुन अनघ अमाय.

दासतुलसी कहत मुवनगन, ' जयवत जय उरुगाय' ||११


||

२२१

नाथ! कृपाहीको पंथ वितित दीन हौं वदनरावत.

होइ धौं केवह काल दीनदयालु! जावन न जावत ||१ ||


सुगुन, ग्यान-विराग-भगवत, सु-साधनवनकी पाँवत.

भजे विकल विलोवक कवल अघ-अिगुनवनकी थावत ||२ ||

अवत अनीवत-कुरीवत भइ भुइँ तरवन ह ते तावत.

जाउँ कहँ ? िवल जाउँ , कहँ न ठाउँ , मवत अकुलावत ||३


||

आप सवहत न आपनो कोउ, िाप! कवठन कुभाँवत.

स्यामघन! सी ंविये तुलसी, सावल सफल सुखावत ||४ ||

२२२

िवल जाउँ , और कासों कहौं ?

सदगुनवसंधु स्वावम सेिक-वहत कहुँ न कृपावनवध-सो लहौं


||१ ||

जहँ जहँ लोभ लोल लालििस वनजवहत वित िाहवन िहौं.


तहँ तहँ तरवन तकत उलूक ज्ों भटवक कुतरु-कोटर गहौं
||२ ||

काल-सुभाउ-करम विविि फलदायक सुवन वसर धुवन रहौं.

मोको तौ सकल सदा एकवह रस दु सह दाह दारुन दहौं


||३ ||

उवित अनाथ होइ दु खभाजन भयो नाथ! वकंकर न हौं.

अि रािरो कहाइ न िूविये, सरनपाल! साँसवत सहौ ं ||४


||

महाराज! राजीिविलोिन! मगन-पाप-संताप हौं.

तुलसी प्रभु! जि ति जेवह तेवह विवध राम वनरिहौं ||५


||

२२३

आपनो किहुँ करर जावनहौ.


राम गरीिवनिाज राजमवन, विरद-लाज उर आवनहौ ||१
||

सील-वसंधु, सुंदर, सि लायक, समरथ, सदगुन-खावन


हौ.

पाल्यो है , पालत, पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पवहिावनहौ


||२ ||

िेद-पुरान कहत, जग जानत, दीनदयालु वदन-दावन हौ.

कवह आित, िवल जाऊँ, मनहुँ मेरी िार विसारे िावन हौ


||३ ||

आरत-दीन-अनाथवनके वहत मानत लौवकक कावन हौ.

है पररनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भावन हौ ||४


||

२२४

रघुिरवह किहुँ मन लावगहै ?


कुपथ, कुिाल, कुमवत, कुमनोरथ, कुवटल कपट कि
त्यावगहै ||१ ||

जानत गरल अवमय विमोहिस, अवमय गनत करर आवगहै .

उलटी रीवत-प्रीवत अपनेकी तवज प्रभुपद अनुरावगहै ||२ ||

आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पवग पावगहै .

ऐसे गुन गाइ ररिाइ स्वावमसों पाइहै जो मुँह माँवगहै ||३


||

तू यवह विवध सुख-सयन सोइहै , वजयकी जरवन भूरर


भावगहै .

राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगवत-जोग जावगहै ||४


||

२२५

भरोसो और आइहै उर ताके.


कै कहुँ लहै जो रामवह-सो सावहि, कै अपनो िल जाके
||१ ||

के कवलकाल कराल न सूित, मोह-मार-मद छाके.

कै सुवन स्वावम-सुभाउ न रह्यो वित, जो वहत सि अँग


थाके ||२ ||

हौं जानत भवलभाँवत अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके.

उपल, भील, खग, मृग रजनीिर, भले भये करति काके


||३ ||

मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु


कृपाके.

तुलसी सुखी वनसोि राज ज्ों िालक माय-ििाके ||४ ||

२२६

भरोसो जावह दू सरो सो करो.


मोको तो रामको नाम कलपतरु कवल कल्यान फरो ||१
||

करम उपासन, ग्यान, िेदमत, सो सि भाँवत खरो.

मोवह तो ' सािनके अंधवह' ज्ों सूित रं ग हरों ||२ ||

िाटत रह्यो स्वान पातरर ज्ों किहुँ न पेट भरो.

सो हौं सुवमरत नाम-सुधारस पेखत परुवस धरो ||३ ||

स्वारथ औ परमारथ ह को नवह कंु जरो-नरो.

सुवनयत सेतु पयोध पषानवन करर कवप कटक-तरो ||४


||

प्रीवत-प्रतीवत जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो.

मेरे तो माय-िाप दोउ आखर हौं वससु-अरवन अरो ||५


||

संकर साद्धख जो राद्धख कहौं कछु तौ जरर जीह गरो.

अपनो भलो राम-नामवह ते तुलवसवह समुवि परो ||६ ||


२२७

नाम राम रािरोई वहत मेरे.

स्वारथ-परमारथ सावथन्ह सों भुज उठाइ कहौं टे रे ||१ ||

जनवन-जनक तज्ो जनवम, करम विनु विवधहु सृज्ो


अिडे रे.

मोहुँ सो कोउ-कोउ कहत रामवह को, सो प्रसंग केवह केरे


||३२ ||

वफर् यौ ललात विनु नाम उदर लवग, दु खउ दु द्धखत मोवह


हे रे.

नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अि हौं ििुर िहे रे ||३ ||

साधत साधु लोक-परलोकवह, सुवन गुवन जतन घनेरे.

तुलसीके अिलंि नामको, एक गाँवठ कइ फेरे ||४ ||


२२८

वप्रय रामनामतें जावह न रामो.

ताको भलो कवठन कवलकालहुँ आवद-मध्य-पररनामो ||१


||

सकुित समुवि नाम-मवहमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो.

राम-नाम-जप-वनरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ||२


||

नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ वसला सरोरुह जामो.

जो सुवन सुवमरर भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो


||३ ||

िालमीवक-अजावमलके कछु हुतो न साधन सामो.

उलटे पलटे नाम-महातम गुंजवन वजतो ललामो ||४ ||

रामतें अवधक नाम-करति, जेवह वकये नगर-गत गामो.


भये िजाइ दावहने जो जवप तुलवसदाससे िामो ||५ ||

२२९

गरै गी जीह जो कहौं औरको हौं.

जानकी-जीिन! जनम-जनम जग ज्ायो वतहारे वह कौरको


हौं ||१ ||

तीवन लोक, वतहुँ काल न दे खत सुहृद रािरे जोरको हौं.

तुमसों कपट करर कलप-कलप कृवम ह्वे हौं नरक घोरको हौं
||२ ||

कहा भयो जो मन वमवल कवलकालवहं वकयो भौ ंतुिा भौ ंरको


हौं.

तुलवसदास सीतल वनत यवह िल, िड़े ठे काने ठौरको हौं


||३ ||

२३०
अकारन को वहतू और को है .

विरद ' गरीि-वनिाज' कौनको, भौ ंह जासु जन जोहै ||१


||

छोटो-िड़ो िहत सि स्वारथ, जो विरं वि विरिो है .

कोल कुवटल, कवप-भालु पावलिो कौन कृपालुवह सोहै ||२


||

काको नाम अनख आलस कहें अघ अिगुनवन विछोहै .

को तुलसीसे कुसेिक संग्रह्यो, सठ सि वदन साईं िोहै


||३ ||

२३१

और मोवह को है , कावह कवहहौं ?

रं क-राज ज्ों मनको मनोरथ, केवह सुनाइ सुख लवहहौं


||१ ||

जम-जातना, जोवन-संकट सि सहे दु सह अरु सवहहौं.


मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल िारर न िवहहौं
||२ ||

खेवलिेको खग-मृग, तरु-कंकर है रािरो राम हौं रवहहौं.

यवह नाते नरकहुँ सिु या विनु परमपदहुँ दु ख दवहहौं ||३


||

इतनी वजय लालसा दासके, कहत पानही गवहहौं.

दीजै ििन वक हृदय आवनये ' तुलवसको पन वनियवहहौ'


||४ ||

२३२

दीनिंधु दू सरो कहँ पािो ?

को तुम विनु पर-पीर पाइ है ? केवह दीनता सुनािों ||१


||

प्रभु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ -जहँ वितवहं डोलािों.


इहै समुवि सुवन रहौं मौन ही, कवह भ्रम कहा गिािों
||२ ||

गोपद िुवड़िे जोग करम करौ,


ं िातवन जलवध थहािों.

अवत लालिी, काम-वकंकर मन, मुख रािरो कहािों ||३


||

तुलसी प्रभु वजयकी जानत सि, अपनो कछु क जनािों.

सो कीजै, जेवह भाँवत छाँवड छल िार परो गुन गािों ||४


||

२३३

मनोरथ मनको एकै भाँवत.

िाहत मुवन-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघावत


||१ ||

करमभूवम कवल जनम, कुसंगवत, मवत विमोह-मद-मावत.


करत कुजोग कोवट, कयों पैयत परमारथ-पद सांवत ||२
||

सेइ साधु-गुरु, सुवन पुरान-श्रुवत िूझ्यो राग िाजी ताँवत.

तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्ों दरपन मुख-कांवत ||३


||

२३४

जनम गयो िावदवहं िर िीवत.

परमारथ पाले न पर् यो कछु , अनुवदन अवधक अनीवत


||१ ||

खेलत खात लररकपन गो िवल, जौिन जुिवतन वलयो


जीवत.

रोग-वियोग-सोग-श्रम-संकुल िवड़ िय िृथवह अतीवत ||२


||

राग-रोष-इररषा-विमोह-िस रुिी न साधु-समीवत.


कहे न सुने गुनगन रघुिरके, भइ न रामपद-प्रीवत ||३
||

हृदय दहत पवछताय-अनल अि, सुनत दु सह भिभीवत.

तुलसी प्रभु तें होइ सो कीवजय समुवि विरदकी रीवत ||४


||

२३५

ऐसेवह जनम-समूह वसराने.

प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तवज सेित िरन विराने ||१ ||

जे जड जीि कुवटल, कायर, खल, केिल कवलमल-साने.

सूखत िदन प्रसंसत वतन्ह कहँ , हररतें अवधक करर माने


||२ ||

सुख वहत कोवट उपाय वनरं तर करत न पायँ वपराने.

सदा मलीन पंथके जल ज्ो, किहुँ न हृदय वथराने ||३


||
यह दीनता दू र कररिेको अवमत जतन उर आने.

तुलसी वित-विंता न वमटै विनु विंतामवन पवहिाने ||४ ||

२३६

जो पै वजय जानकी-नाथ न जाने.

तौ सि करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ||१ ||

जे सुर, वसि, मुनीस, जोगविद िेद-पुरान िखाने.

पूजा लेत, दे त पलटे सुख हावन-लाभ अनुमाने ||२ ||

काको नाम धोखेह सुवमरत पातकपुंज पराने.

विप्र-िवधक, गज-गीध कोवट खल कौनके पेट समाने ||३


||

मेरु-से दोष दू रर करर जनके, रे नु-से गुन उर आने.


तुलवसदास तेवह सकल आस तवज भजवह न अजहुँ अयाने
||४ ||

२३७

काहे न रसना, रामवह गािवह ?

वनसवदन पर-अपिाद िृथा कत रवट-रवट राग िढ़ािवह ||१


||

नरमुख सुंदर मंवदर पािन िवस जवन तावह लजािवह.

सवस समीप रवह त्यावग सुधा कत रविकर-जल कहँ धािवह


||२ ||

काम-कथा कवल-कैरि-िंदवन, सुनत श्रिन दै भािवह.

वतनवहं हटवक कवह हरर-कल-कीरवत, करन कलंक


नसािवह ||३ ||

जातरूप मवत, जुगवत रुविर मवन रवि-रवि हार िनािवह.


सरन-सुखद रविकुल-सरोज-रवि राम-नृपवह पवहरािवह ||४
||

िाद-वििाद, स्वाद तवज भवज हरर, सरस िररत वित


लािवह.

तुलवसदास भि तरवह, वतहुँ पुर तू पुनीत जस पािवह ||५


||

२३८

आपनो वहत रािरे सों जो पै सूिै.

तौ जनु तनुपर अछत सीस सुवध क्ों किंध ज्ों जूिै ||१
||

वनज अिगुन, गुनराम! रािरे लद्धख-सुवन-मवत-मन-रूिै.

रहवन-कहवन-समुिवन तुलसीकी को कृपालु विनु िूिै ||२


||

२३९
जाको हरर दृढ़ करर अंग कर् यो.

सोइ सुसील, पुनीत, िेदविद, विद्या-गुनवन भर् यो ||१


||

उतपवत पांडु-सुतनकी करनी सुवन सतपंथ डर् यो.

ते िैलोक्-पूज्, पािन जस सुवन-सुवन लोक तर् यो ||२


||

जो वनज धरम िेदिोवधत सो करत न कछु विसर् यो.

विनु अिगुन कृकलास कूप मद्धज्जत कर गवह उधर् यो ||३


||

ब्रह्म विवसख ब्रह्मांड दहन छम गभय न नृपवत जर् यो.

अजर-अमर, कुवलसहुँ नावहं न िध, सो पुवन फेन मर् यो


||४ ||

विप्र अजावमल अरु सुरपवत तें कहा जो नवहं विगर् यो.

उनको वकयो सहाय िहुत, उरको संताप हर् यो ||५ ||


गवनका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उिर् यो.

वतनको िररत पविि जावन हरर वनज हृवद-भिन धर् यो


||६ ||

केवह आिरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जावन पर् यो.

तुलवसदास रघुनाथ-कृपाको जोित पंथ खर् यो ||७ ||

२४०

सोइ सुकृती, सुवि साँिो जावह राम! तुम रीिे.

गवनका, गीध, िवधक हररपुर गये, लै कासी प्रयाग कि


सीिे ||१ ||

किहुँ न डग्यो वनगम-मगतें पग, नृग जग जावन वजते दु ख


पाये.

गजधौं कौन वदवछत, जाके सुवमरत लै सनाभ िाहन तवज


धाये ||२ ||
सुर-मुवन-विप्र विहाय िड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह
लीन्हो.

िायों वदयो विभि कुरुपवतको, भोजन जाइ विदु र-घर


कीन्हो ||३ ||

मानत भलवह भलो भगतवनतें, कछु क रीवत पारथवह जनाई.

तुलसी सहज सनेह राम िस, और सिै जलकी विकनाई


||४ ||

२४१

ति तुम मोहसे सठवनको हवठ गवत न दे ते.

कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुवन सादर आगे ह्वे लेते ||१
||

पाप-खावन वजय जावन अजावमल जमगन तमवक तये ताको


भे ते.

वलयो छु ड़ाइ, िले कर मी ंजत, पीसत दाँत गये ररस-रे ते


||२ ||
गौतम-वतय, गज, गीध, विटप, कवप, हैं नाथवहं नीके
मालुम जेते.

वतन्ह वतन्ह काजवन

--------------साधु-समाजु तवज कृपावसंधु ति ति


उवठगे ते ||३ ||

वतन्ह के काज

अजहुँ अवधक आदर येवह िारे , पवतत पुनीत होत नवहं


केते.

मेरे पासंगहु न पूवहहैं , ह्वे गये, है , होने खल जेते ||४


||

हौं अिलौं करतूवत वतहाररय वितित हुतो न रािरे िेते.

अि तुलसी पूतरो िाँवधहै , सवह न जात मोपै पररहास एते


||५ ||

२४२
तुम सम दी ंनिंधु, न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपवत
रघुराई.

मोसम कुवटल-मौवलमन नवहं जग, तुमसम हरर, ! न हरन


कुवटलाई ||१ ||

हौं मन-ििन-कमय पातक-रत, तुम कृपालु पवततन-


गवतदाई.

हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-वहत, वित यवह सुरवत किहुँ


नवहं जाई ||२ ||

हौं आरत, आरवत-नासक तुम, कीरवत वनगम पुरानवन


गाई.

हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन किन कृपा


विसराई ||३ ||

तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अवत दु द्धखत विविध श्रम


पाई.

यह वजय जावन दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुवि


प्रभुताई ||४ ||
२४३

यहै जावन िरनद्धन्ह वित लायो.

नावहन नाथ! अकारनको वहतु तुम समान पुरान-श्रुवत गायो


||१ ||

जनवन जनक, सुत-दार, िंधुजन भये िहुत जहँ जहँ हौं


जायो.

सि स्वारथवहत प्रीवत, कपट वित, काह नवहं हररभजन


वसखायो ||२ ||

सुर-मुवन, मनुज-दनुज, अवह-वकन्नर, मैं तनु धरर वसर


कावह न नायो.

जरत वफरत ियताप पापिस, काहु न हरर! करर कृपा


जुड़ायो ||३ ||

जतन अनेक वकये सुख-कारन, हररपद-विमुख सदा दु ख


पायो.

अि थाक्ो जलहीन नाि ज्ों दे खत विपवत-जाल जग


छायो ||४ ||
मो कहँ नाथ! िूविये, यह गवत सुख-वनधान वनज पवत
विसरायो.

अि तवज रौष करहु करुना हरर! तुलवसदास सरनागत


आयो ||५ ||

२४४

यावह ते मैं हरर ग्यान गँिायो.

पररहरर हृदय-कमल रघुनाथवह, िाहर वफरत विकल भयो


धायो ||१ ||

ज्ों कुरं ग वनज अंग रुविर मद अवत मवतहीन मरम नवहं


पायो.

खोजत वगरर, तरु, लता, भूवम, विल परम सुगंध कहाँ तें
आयो ||२ ||

ज्ों सर विमल िारर पररपूरन, ऊपर कछु वसिार तृन


छायो.
जारत वहयो तावह तवज हौं सठ, िाहत यवह विवध तृषा
िुिायो ||३ ||

ब्यापत विविध ताप तनु दारुन, तापर दु सह दररि सतायो.

अपनेवह धाम नाम-सुरतरु तवज विषय-ििूर-िाग मन लायो


||४ ||

तुम-सम ग्यान-वनधान, मोवह सम मूढ़ न आन पुरानवन


गायो.

तुलवसदास प्रभु! यह वििारर वजय कीजै नाथ उवित मन


भायो ||५ ||

२४५

मोवह मूढ़ मन िहुत विगोयो.

याके वलये सुनहु करुनामय, मैं जग जनवम-जनवम दु ख


रोयो ||१ ||
सीतल मधुर वपयूष सहज सुख वनकटवह रहत दू रर जन
खोयो.

िहु भाँवतन स्रम करत मोहिस, िृथवह मंदमवत िारर


विलोयो ||२ ||

करम-कीि वजय जावन, सावन वित, िाहत कुवटल मलवह


मल धोयो.

तृषािंत सुरसरर विहाय सठ वफरर-वफरर विकल अकास


वनिोयो ||३ ||

तुलवसदास प्रभु! कृपा करहु अि, मैं वनज दोष कछू नवहं
गोयो.

डासत ही गइ िीवत वनसा सि, किहुँ न नाथ! नी ंद भरर


सोयो ||४ ||

२४६

लोक-िेद हँ विवदत िात सुवन-समुवि.

मोह-मोवहत विकल मवत वथवत न लहवत.


छोटे -िड़े , खोटे -खरे , मोटे ऊ दू िरे ,

राम! रािरे वनिाहे सिहीकी वनिहवत ||१ ||

होती जो आपने िस, रहती एक ही रस,

दू नी न हरष-सोक-सांसवत सहवत.

िहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,

केह भाँवत काहकी न लालसा रहवत. ||२ ||

करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीि जग मायाते,

सो सभै भौ ंह िवकत िहवत.

ईसन-वदगीसवन, जोगीसवन, मुनीसवन ह,

छोड़वत छोड़ाये तें, गहाये तें गहवत ||३ ||

सतरं जको सो राज, काठको सिै समाज,

महाराज िाजी रिी, प्रथम न हवत.

तुलसी प्रभुके हाथ हाररिो-जीवतिो नाथ!

िहु िेष, िहु मुख सारदा कहवत ||४ ||


२४७

राम जपु जीह! जावन, प्रीवत सों प्रतीत मावन,

रामनाम जपे जैहै वजयकी जरवन.

रामनामसों रहवन, रामनामकी कहवन,

कुवटल कवल-मल-सोक-संकट-हरवन ||१ ||

रामनामको प्रभाउ पूवजयत गनराउ,

वकयो न दु राउ, कही आपनी करवन.

भि-सागरको सेतु, कासीह सुगवत हे तु,

जपत सादर संभु सवहत घरवन ||२ ||

िालमीवक ब्याध हे अगाध-अपराध-वनवध,

' मरा' ' मरा' जपे पूजे मुवन अमरवन.

रोक्ो विंध्य, सोख्यो वसंधु घटजहुँ नाम-िल,

हार् यो वहय, खारो भयो भूसुर-डरवन ||३ ||


नाम-मवहमा अपार, सेष-सुक िार िार,

मवत-अनुसार िुध िेदह िरवन.

नामरवत-कामधेनु तुलसीको कामतरु,

रामनाम है विमोह-वतवमर-तरवन ||४ ||

२४८

पावह, पावह राम! पावह रामभि, रामिंि!

सुजस स्रिन सुवन आयो हौं सरन.

दीनिंधु! दीनता-दररि-दाह-दोष-दु ख,

दारुन दु सह दर-दु ररत-हरन ||१ ||

जि जि जग-जाल ब्याकुल करम काल,

सि खल भूप भये भूतल-भरन.

ति ति तनु धरर, भूवम-भार दू रर करर,

थापे मुवन, सुर, साधु, आस्रम, िरन ||२ ||


िेद, लोक, सि साखी, काहकी रती न राखी,

रािनकी िंवद लागे अमर मरन.

ओक दै विसोक वकये लोकपवत लोकनाथ,

रामराज भयो धरम िाररहु िरन ||३ ||

वसला, गुह, गीध, कवप, भील, भालु, रावतिर,

ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन.

पील-उिरन! सीलवसंधु! ढील दे द्धखयतु,

तुलसी पै िाहत गलावन ही गरन ||४ ||

२४९

भली भाँवत पवहिाने-जाने सावहि जहाँ लौं जग,

जूड़े होत थोरे , थोरे ही गरम.

प्रीवत न प्रिीन, नीवतहीन, रीवतके मलीन,

मायाधीन सि वकये कालह करम ||१ ||


दानि-दनुज िड़े महामूढ़ मूँड़ िढ़े ,

जीते लोकनाथ नाथ! िलवन भरम.

रीवि-रीवि वदये िर, खीिी-खीवि घाले घर,

आपने वनिाजेकी न काहको सरम ||२ ||

सेिा-सािधान तू सुजान समरथ साँिो,

सदगुन-धाम राम! पािन परम.

सुरुख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोवह,

विवदत विसेवष घटघटके मरम ||३ ||

तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो,

दयामें िसत दे ि सकल धरम.

राम कामतरु-छाँह िाहै रुवि मन माँह,

तुलसी विकल, िवल, कवल-कुधरम ||४ ||

२५०
तौं हौं िार िार प्रभुवह पुकाररकै द्धखिाितो न,

जो पै मोको होतो कहँ ठाकुर-ठहरु.

आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,

राजा मेरे राजाराम, अिध सहरु ||१ ||

सेये न वदगीस, न वदनेस, न गनेस, गौरी,

वहत कै न माने विवध हररउ न हरु.

रामनाम ही सों जोग-छे म, नेम, प्रेम-पन,

सुधा सो भरोसो एहु, दू सरो जहरु ||२


||

समािार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,

नाथ ही के हाथ सि िोरऊ पहरु.

वनज काज, सुरकाज, आरतके काज, राज!

िूविये विलंि कहा कहँ न गहरु ||३ ||


रीवत सुवन रािरी प्रतीवत-प्रीवत रािरे सों,

डरत हौं दे द्धख कवलकालको कहरु.

कहे ही िनैगी कै कहाये, िवल जाउँ , राम,

' तुलसी! तू मेरो, हारर वहये न हहरु'


||४ ||

२५१

राम! रािरो सुभाउ, गुन सील मवहमा प्रभाउ,

जान्यो हर, हनुमान, लखन, भरत.

वजन्हके वहये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,

लसत सरस सुख फूलत फरत ||१ ||

आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ, पवत,

ते सनेह-सािधान रहत डरत.

सावहि-सेिक-रीवत, प्रीवत-पररवमवत, नीवत,

नेमको वनिाह एक टे क न टरत ||२ ||


सुक-सनकावदक, प्रहलाद-नारदावद कहैं ,

रामकी भगवत िड़ी विरवत-वनरत.

जाने विनु भगवत न, जावनिो वतहारे हाथ,

समुिी सयाने नाथ! पगवन परत ||३ ||

छ-मत विमत, न पुरान मत, एक मत,

नेवत-नेवत-नेवत वनत वनगम करत.

औरवनकी कहा िली ? एकै िात भलै भली,

राम-नाम वलये तुलसी ह से तरत ||४ ||

२५२

िाप! आपने करत मेरी घनी घवट गई.

लालिी लिारकी सुधाररये िारक, िवल,

रािरी भलाई सिहीकी भली भई ||१ ||


रोगिस तनु, कुमनोरथ मवलन मनु,

पर-अपिाद वमथ्या-िाद िानी हई.

साधनकी ऐसी विवध, साधन विना न वसवध,

विगरी िनािै कृपावनवधकी कृपा नई ||२ ||

पवतत-पािन, वहत आरत-अनाथवनको,

वनराधारको अधार, दीनिंधु, दई.

इन्हमें न एकौ भयो, िूवि न जूझ्यो न जयो,

तावहते विताप-तयो, लुवनयत िई ||३ ||

स्वाँग सूधो साधुको, कुिावल कवलतें अवधक,

परलोक फीकी मवत, लोक-रं ग-रई.

िड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये वदन,

महाराज! केह भाँवत नाम-ओट लईः ||४ ||

राम! नामको प्रताप जावनयत नीके आप,

मोको गवत दू सरी न विवध वनरमई.


खीवििे लायक करति कोवट कोवट कटु ,

रीवििे लायक तुलसीकी वनलजई ||५ ||

२५३

राम राद्धखये सरन, राद्धख आये सि वदन.

विवदत विलोक वतहुँ काल न दयाल दू जो,

आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु विन ||१ ||

लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,

नाथ! पै अनाथवनसों भये न उररन.

स्वामी समरथ ऐसो, हौं वतहारो जै सो. तैसो,

काल-िाल हे रर होवत वहये घनी वघन ||२ ||

खीवि-रीवि, विहँ वस-अनख, क्ों हँ एक िार,

' तुलसी तू मेरो' िवल, कवहयत वकन?

जावहं सूल वनरमूल, होवहं सुख अनुकूल,


महाराज राम! रािरी सौ,
ं तेवह वछन ||३ ||

२५४

राम! रािरो नाम मेरो मातु-वपतु है .

सुजन-सनेही, गुरु-सावहि, सखा-सुहृद् ,

राम-नाम प्रेम-पन अवििल वितु है ||१ ||

सतकोवट िररत अपार दवधवनवध मवथ,

वलयो कावढ़ िामदे ि नाम-घृतु है .

नामको भरो सो. िल िाररह फलको फल,

सुवमररये छावड़ छल, भलो कृतु है ||२ ||

स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,

राम-नाम साररखो न और वहतु है.

तुलसी सुभाि कही, साँविये परै गी सही,

सीतानाथ-नाम वनत वितहको वितु है ||३ ||


२५५

राम! रािरो नाम साधु-सुरतरु है .

सुवमरे विविध घाम हरत, पूरत काम,

सकल सुकृत सरवसजको सरु है ||१ ||

लाभहुको लाभ, सुखहको सुख, सरिस,

पवतत-पािन, डरहको डरु है .

नीिेहको ऊँिेहको, रं कहको रािहको,

सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ||२ ||

िेद ह, पुरान ह पुरारर ह पुकारर कह्यो,

नाम-प्रेम िाररफलहको फरु है .

ऐसे राम-नाम सों न प्रीवत, न प्रतीवत मन,

मेरे जान, जावनिो सोई नर खरु है ||३ ||


नाम-सो न मातु-वपतु, मीत-वहत, िंधु-गुरु,

सावहि सुधी सुसील सुधाकरु है .

नामसों वनिाह नेहु, दीनको दयालु! दे हु,

दासतुलसीको, िवल, िड़ो िरु है ||४ ||

२५६

कहे विनु रह्यो न परत, कहे राम! रस न


रहत.

तुमसे सुसावहिकी ओट जन खौटो-खरो,

कालकी, करमकी कुसाँसवत सहत ||१ ||

करत वििार सार पैयत न कहँ कछु ,

सकल िड़ाई सि कहाँ ते लहत ?

नाथकी मवहमा सुवन, समुवि आपवन ओर,

हे रर हारर कै हहरर हृदय दहत ||२ ||


सखा न, सुसेिक न, सुवतय न, प्रभु आप,

माय-िाप तुही साँिो तुलसी कहत.

मेरी तौ थोरी है, सुधरै गी विगररयौ, िवल,

राम! रािरी सों, रही रािरी िहत ||३ ||

२५७

दीनिंधु! दू रर वकये दीनको न दू सरी सरन.

आपको भले हैं सि, आपनेको कोऊ कहँ ,

सिको भलो है राम! रािरो िरन ||१ ||

पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, वनवसिर,

काँि ते कृपावनधान वकये सुिरन.

दं डक-पुहुवम पाय परवस पुनीत भई,

उकठे विटप लागे फूलन-फरन ||२ ||

पवतत-पािन नाम िाम ह दावहनो, दे ि!


दु नी न दु सह-दु ख-दू षन-दरन.

सीलवसंधु! तोसों ऊँिी-नीवियौ कहत सोभा,

तोसो तुही तुलसीको आरवत-हरन ||३ ||

२५८

जावन पवहिावन मैं विसारे हौं कृपावनधान!

एतो मान ढीठ हौं उलवट दे त खौरर हौं.

करत जतन जासों जोररिे को जोगीजन,

तासों क्ोंह जुरी, सो अभागो िैठो तोरर हौं


||१ ||

मोसो दोस-कोसको भुिन-कोस दू सरो न,

आपनी समुवि सूवि आयो टकटोरर हौं.

गाड़ीके स्वानकी नाई,


ं माया मोहकी िड़ाई,

वछनवहं तजत, वछन भजत िहोरर हौं ||२ ||


िड़ो साई-
ं िोही न िरािरी मेरीको कोऊ,

नाथकी सपथ वकये कहत करोरर हौं.

दू रर कीजै िारतें लिार लालिी प्रपंिी,

सुधा-सो सवलल सूकरी ज्ों गहडोररहौं ||३ ||

राद्धखये नीके सुधारर, नीिको डाररये मारर,

दु हँ ओरकी वििारर, अि न वनहोररहौं.

तुलसी कही है साँिी रे ख िार िार खाँिी,

ढील वकये नाम-मवहमाकी नाि िोररहौं ||४ ||

२५९

रािरी सुधारी जो विगारी विगरै गी मेरी, .

कहौं, िवल, िेदकी न लोक कहा कहै गो ?

प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,

दु हँ भाँवत दीनिन्धु ! दीन दु ख दहै गो ||१ ||


मैं तो वदयो छाती पवि, लयो कवलकाल दवि,

साँसवत सहत, परिस को न सहै गो ?

िाँकी विरुदािली िनैगी पाले ही कृपालु !

अंत मेरो हाल हे रर यौं न मन रहैगो ||२ ||

करमी-धरमी, साधु-सेिक, विरत-रत,

आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहै गो ?

तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,

लटे लटपटे वन को कौन पररगहै गो ? ||३ ||

काल पाय वफरत दसा दयालु ! सिहीकी,

तोवह विनु मोवह किहँ न कोऊ िहै गो.

ििन-करम-वहये कहौं राम ! सौ ंह वकये,

तुलसी पै नाथके वनिाहे ई वनिहै गो ||४ ||

२६०
सावहि उदास भये दास खास खीस होत,

मेरी कहा िली ? हौं िजाय जाय रह्यो हौं.

लोकमें न ठाउँ , परलोकको भरोसो कौन ?

हौं तो, िवल जाउँ , रामनाम ही ते लह्यो हौं


||१ ||

करम, सुभाउ, काम, कोह, लोभ, मोह, -

ग्राह अवत गहवन गरीिी गाढ़े गह्यो हौं.

छोररिेको महाराज, िाँवधिेको कोवट भट,

पावह प्रभु ! पावह, वतहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ||२


||

रीवि-िूवि सिकी प्रतीवत-प्रीवत एही िार,

दू धको जर् यो वपयत फूँवक फूँवक मह्यो हौं.

रटत-रटत लट्यो, जावत-पाँवत-भाँवत घट्यो,

जूठवनको लालिी िहौं न दू ध-नह्यो हौं ||३


||
अनत िह्यो न भलो, सुपथ सुिाल िल्यो,

नीके वजय जावन इहाँ भलो अनिह्यो हौं.

तुलसी समुवि समुिायो मन िार िार,

अपनो सो नाथ ह सों कवह वनरिह्यो हौं ||४


||

२६१

मेरी न िनै िनाये मेरे कोवट कलप लौं,

राम ! रािरे िनाये िनै पल पाउ मैं.

वनपट सयाने हौ कृपावनधान ! कहा कहौं ?

वलये िेर िदवल अमोल मवन आउ मैं ||१ ||

मानस मलीन, करति कवलमल पीन,

जीह ह न जप्यो नाम, िक्ो आउ-िाउ मैं.

कुपथ कुिाल िल्यो, भयो न भूवलह भलो,

िाल-दसा ह न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ||२ ||


दे खा-दे खी दं भ तें वक संग तें भई भलाई,

प्रकवट जनाई, वकयो दु ररत-दु राउ मैं.

दोष

राग रोष----पोषे, गोगन समेत मन,

िे ष

इनकी भगवत कीन्ही इनही को भाउ मैं ||३ ||

आवगली-पावछली, अिहँ की अनुमान ही तें,

िूवियत गवत, कछु कीन्हों तो न काउ मैं.

जग कहै रामकी प्रतीवत-प्रीवत तुलसी ह,

िठ
ू े -साँिे आसरो साहि रघुराउ मैं ||४ ||

२६२

कह्यो न परत, विनु कहे न रह्यो परत,

िड़ो सुख कहत िड़े सों, िवल, दीनता.

प्रभुकी िड़ाई िड़ी, आपनी छोटाई छोटी,


प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ||१ ||

दु ह ओर समुवि सकुवि सहमत मन,

सनमुख होत सुवन स्वामी-समीिीनता.

नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरर माथ नाये,

नीिऊ वनिाजे प्रीवत-रीवतकी प्रिीनता ||२ ||

एही दरिार है गरि तें सरि-हावन,

लाभ जोग-छे मको गरीिी-वमसकीनता.

मोटो दसकंध सो न दू िरो विभीषि सो,

िूवि परी रािरे की प्रेम-पराधीनता ||३ ||

यहाँकी सयानप, अयानप सहस सम,

सूधौ सतभाय कहे वमटवत मलीनता.

गीध-वसला-सिरीकी सुवध सि वदन वकये,

होइगी न साई सों सनेह-वहत-हीनता ||४ ||


सकल कामना दे त नाम तेरो कामतरु,

सुवमरत होत कवलमल-छल-छीनता.

करुनावनधान ! िरदान तुलसी िहत,

सीतापवत-भद्धक्त-सुरसरर-नीर-मीनता ||५ ||

२६३

नाथ नीके कै जावनिी ठीक जन-जीयकी.

रािरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम वलयो,

रुविर रहवन रुवि मवत गवत तीयकी ||१ ||

कुकृत-सुकृत िस सि ही सों संग पर् यो,

परखी पराई गवत, आपने हँ कीयकी.

मेरे भलेको गोसाई ! पोिको, न सोि-संक,

हौंहुँ वकये कहौं सौ ंह साँिी सीय-पीयकी ||२ ||

ग्यानह-वगराके स्वामी, िाहर-अंतरजामी,


यहाँ क्ों दु रैगी िात मुखकी औ हीयकी ?

तुलसी वतहारो, तुमही ं पै तुलसीके वहत,

राद्धख कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी


||३ ||

२६४

मेरो कह्यो सुवन पुवन भािै तोवह करर सो.

िाररह विलोिन विलोकु तू वतलोक महँ ,

तेरो वतहु काल कहु को है वहतू हरर-सो ||१


||

नये-नये नेह अनुभये दे ह-गेह िवस,

परखे प्रंपंिी प्रेम, परत उघरर सो.

सुहृद-समाज दगािावजहीको सौदा-सूत,

जि जाको काज ति वमलै पाँय परर सो ||२


||
वििुध सयाने, पवहिाने कैधौं नाही ं नीके,

दे त एक गुन, लेत कोवट गुन भरर सो.

करम-धरम श्रम-फल रघुिर विनु,

राखको सो होम है , ऊसर कैसो िररसो ||३ ||

आवद-अंत-िीि भलो भलो करै सिहीको,

जाको जस लोक-िेद रह्यो है िगरर-सो.

सीतापवत साररखो न सावहि सील-वनधान,

कैसे कल परै सठ! िैठो सो विसरर-सो ||४ ||

जीिको जीिन-प्रान, प्रानको परम वहत,

प्रीतम, पुनीतकृत नीिन वनदरर सो.

तुलसी! तोको कृपालु जो वकयो कोसलपालु,

वििकूटको िररि िेतु वित करर सो ||५ ||

२६५
तन सुवि, मनरुवि, मुख कहौं ' जन हौं वसय-
पीको' .

केवह अभाग जान्यो नवहं , जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न


नीको ||१ ||

जल िाहत पािक लहौं, विष होत अमीको.

कवल-कुिाल संतवन कही सोइ सही, मोवह कछु फहम न


तरवन तमीको ||२ ||

जावन अंध अंजन कहै िन-िावघनी-घीको.

सुवन उपिार विकारको सुवििार करौ ं जि, ति िुवध िल


हरै हीको ||३ ||

प्रभु सों कहत सकुिात हौं, परौं जवन वफरर


फीको.

वनकट िोवल, िवल, िरवजये, पररहरै ख्याल अि


तुलवसदास जड़ जीको ||४ ||

२६६
ज्ों ज्ों वनकट भयो िहौं कृपालु! त्यों त्यों दू रर
पर् यो हौं.

तुम िहुँ जुग रस एक राम! हौं हँ रािरो, जदवप अघ


अिगुनवन भर् यो हौं ||

िीि पाइ एवह नीि िीि ही छरवन छर् यो हौं.

हौं सुिरन कुिरन वकयो, नृपतें वभखारर करर, सुमवततें


कुमवत कर् यो हौं ||२ ||

अगवनत वगरर-कानन वफरयो, विनु आवग जर् यो


हौं.

वििकूट गये हौं लद्धख कवलकी कुिावल सि, अि अपडरवन


डर् यो हौं ||३ ||

माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरर खर् यो हौं.

िीन्हों िोर वजय माररहै तुलसी सो कथा सुवन प्रभुसों गुदरर


वनिर् यो हौं ||४ ||

२६७
पन करर हौं हवठ आजुतें रामिार पर् यो हौं.

' तू मेरो' यह विन कहे उवठहौ न जनमभरर, प्रभुकी


सौकरर वनर् यो हौं ||१ ||

दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं.

उदर दु सह साँसवत सही िहुिार जनवम जग, नरकवनदरर


वनकर् यो हौं ||२ ||

हौं मिला लै छावड़हौं, जेवह लावग अर् यो हौं.

तुम दयालु, िवनहै वदये, िवल, विलँि न कीवजये, जात


गलावन गर् यौ हौं ||३ ||

प्रगट कहत जो सकुविये, अपराध-भर् यो हौं.

तौ मनमें अपनाइये, तुलसीवह कृपा करर, कवल विलोवक


हहर् यो हौं ||४ ||

२६८
तुम अपनायो ति जावनहौं, जि मन वफरर पररहै .

जेवह सुभाि विषयवन लग्यो, तेवह सहज नाथ सौ ं नेह छावड़


छल कररहै ||१ ||

सुतकी प्रीवत, प्रतीवत मीतकी, नृप ज्ों डर डररहै .

अपनो सो स्वारथ स्वावमसों, िहुँ विवध िातक ज्ों एक


टे कते नवहं टररहै ||२ ||

हरवषहै न अवत आदरे , वनदरे न जरर मररहै .

हावन-लाभ दु ख-सुख सिै समवित वहत-अनवहत, कवल-


कुिावल पररहररहै ||३ ||

प्रभु-गुन सुवन मन हरवषहै , नीर नयनवन ढररहै .

तुलवसदास भयो रामको विस्वास, प्रेम लद्धख आनँद उमवग


उर भररहै ||४ ||

२६९

राम किहुँ वप्रय लावगहौ जैसे नीर मीनको?


सुख जीिन ज्ों जीिको, मवन ज्ों फवनको वहत, ज्ों
धन लोभ-लीनको ||१ ||

ज्ों सुभाय वप्रय लगवत नागरी नागर निीनको.

त्यों मेरे मन लालसा कररये करुनाकर! पािन प्रेम पीनको


||२ ||

मनसाको दाता कहैं श्रुवत प्रभु प्रिीनको.

तुलवसदासको भाितो, िवल जाउँ दयावनवध! दीजे दान


दीनको ||३ ||

२७०

किहुँ कृपा करर रघुिीर! मोह वितैहो.

भलो-िुरो जन आपनो, वजय जावन दयावनवध! अिगुन


अवमत वितैहो ||१ ||

जनम जनम हौं मन वजत्यो, अि मोवह वजतैहो.


हौं सनाथ ह्वे हौ सही, तुमह अनाथपवत, जो लघुतवह न
वभतैहो ||२ ||

विनय करौ ं अपभयहु तें, तुम्ह परम वहतै हो.

तुलवसदास कासों कहै , तुमही सि मेरे, प्रभु-गुरु, मातु-


वपतै हो ||३ ||

२७१

जैसो हौं तैसो राम रािरो जन, जवन पररहररये.

कृपावसंधु, कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरवन आपनी


ढररये ||१ ||

हौं तौ विगरायल और को, विगरो न विगररये.

तुम सुधारर आये सदा सिकी सिही विवध, अि मेररयो


सुधररये ||२ ||

जग हँ वसहै मेरे संग्रहे , कत इवह डर डररये.


कवप-केिट कीन्हे सखा जेवह सील, सरल वित, तेवह
सुभाउ अनुसररये ||३ ||

अपराधी तउ आपनो, तुलसी न विसररये.

टू वटयो िाँह गरे परै , फूटे हु विलोिन पीर होत वहत कररये
||४ ||

२७२

तुम जवन मन मैलो करो, लोिन जवन फेरो.

सुनहु राम! विनु रािरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहँ वहतु


मेरो ||१ ||

अधम

अगुन-अलायक-आलसी जावन-------अनेरो.

अधनु

स्वारथके सावथन्ह तज्ो वतजराको-सो टोटक, औिट उलवट


न हे रो ||२ ||
भगवतहीन, िेद-िावहरो लद्धख कवलमल घेरो.

दे िवनह दे ि! पररहरयो, अन्याि नवतनको हौं अपराधीसि


केरो ||३ ||

नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहाित िेरो.

जगत-विवदत िात ह्वे परी, समुविये धौं अपने, लोक वक


िेद िड़े रो ||४ ||

ह्वे है जि-जि तुमवहं तें तुलसीको भलेरो.

दे ि

वदन-ह-वदन-----विगरर है , िवल जाउँ , विलंि वकये,


अपनाइये सिेरो ||५ ||

दीन

२७३

तुम तवज हौं कासों कहौं, और को वहतु मेरे ?

दीनिंधु! सेिक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह केवह


केरे ||१ ||
िहुत पवतत भिवनवध तरे विनु तरर विनु िेरे.

कृपा-कोप-सवतभायह, धोखेहु-वतरछे ह, राम! वतहारे वह हे रे


||२ ||

जो वितिवन सौ ंधी लगै, वितइये सिेरे.

तुलवसदास अपनाइये, कीजै न ढील, अि वजिन-अिवध


अवत नेरे ||३ ||

२७४

जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ दे ि! दु द्धखत-दीनको ?

को कृपालु स्वामी-साररखो, राखे सरनागत सि अँग िल-


विहीनको ||१ ||

गवनवह, गुवनवह सावहि लहै , सेिा समीिीनको.

अधम

-----अगुन आलवसनको पावलिो फवि आयो रघुनायक


निीनको ||२ ||
अधन

मुखकै कहा कहौं, विवदत है जीकी प्रभु प्रिीनको.

वतह काल, वतहु लोकमें एक टे क रािरी तुलसीसे मन


मलीनको ||३ ||

२७५

िार िार दीनता कही, कावढ़ रद, परर पाहँ .

हैं दयालु दु नी दस वदसा, दु ख-दोष-दलन-छम, वकयो न


सँभाषन काहँ ||१ ||

जन्यो

तनु-------कुवटल कीट ज्ों, तज्ों मातु-


वपताहँ .

जनतेऊ

काहे को रोष, दोष कावह धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुित


छु इ सि छाहँ ||२ ||
दु द्धखत दे द्धख संतन कह्यो, सोिै जवन मन माँह.

तोसे पसु-पाँिर-पातकी पररहरे न सरन गये, रघुिर ओर


विनाहँ ||३ ||

तुलसी वतहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीवत


विनाह.

नामकी मवहमा, सील नाथको, मेरो भलो विलोवक अि तें


सकुिाहुँ , वसहाहँ ||४ ||

२७६

कहा न वकयो, कहाँ न गयो, सीस कावह न


नायो ?

राम रािरे विन भये जन जनवम-जनवम जग दु ख दसह


वदवस पायो ||१ ||

आस-वििस खास दास ह्वे नीि प्रभुवन जनायो.

हा हा करर दीनता कही िार-िार िार-िार, परी न छार,


मुह िायो ||२ ||
असन-िसन विनु िािरो जहँ -तहँ उवठ धायो.

मान

मवहमा------वप्रय प्रानते तवज खोवल खलवन आगे, द्धखनु-


द्धखनु पेट खलायो ||३ ||

असु

नाथ! हाथ कछु नावह लग्यो, लालि ललिायो.

साँि कहौं, नाि कौन सो जो, न मोवह लोभ लघु हौं


वनरलज्ज निायो ||४ ||

मन

श्रिन-नयन-मग------लगे, सि थल
पवतयायो.

अग

मूड़ मारर, वहय हाररकै, वहत हे रर हहरर अि िरन-सरन


तवक आयो ||५ ||

दसरथके! समरथ तुही ं, विभुिन जसु गायो.


तुलवस नमत अिलोवकये, िाँह-िोल िवल दै विरुदािली
िुलायो ||६ ||

२७७

राम राय! विनु रािरे मेरे को वहतु साँिो ?

स्वामी-सवहत सिसों कहौं, सुवन-गुवन विसेवष कोउ रे ख


दू सरी खाँिो ||१ ||

दे ह-जीि-जोगके सखा मृषा टाँिन टाँिो.

वकये वििार सार कदवल ज्ों, मवन कनकसंग लघु लसत


िीि विि काँिो.२.

' विनय-पविका' दीनकी, िापु! आपु ही िाँिो.

वहये हे रर तुलसी वलखी, सो सुभाय सही करर िहुरर पूँवछये


पाँिो ||३ ||

२७८
पिन-सुिन! ररपु-दिन! भरतलाल! लखन!
दीनकी.

वनज वनज अिसर सुवध वकये, िवल जाउँ , दास-आस पूवज


है खासखीनकी ||१ ||

राज-िार भली सि कहैं साधु-समीिीनकी.

सुकृत-सुजस, सावहि-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गवत भये


गवत-विहीनकी ||२ ||

समय सँभारर सुधाररिी तुलसी मलीनकी.

प्रीवत-रीवत समुिाइिी नतपाल कृपालुवह परवमवत


पराधीनकी.३ ||

२७९

मारुवत-मन, रुवि भरतकी लद्धख लषन कही है .

कवलकालहु नाथ! नाम सों परतीवत-प्रीवत एक वकंकरकी


वनिही है ||१ ||
सकल सभा सुवन लै उठी, जानी रीवत रही है .

कृपा गरीि वनिाजकी, दे खत गरीिको साहि िाँह गही है


||२ ||

विहँ वस राम कह्यो ' सत्यहै , सुवध मैं हँ लही है '


.

रघुनाथ

मुवदत माथ नाित, िनी तुलसी अनाथकी, परी---------


सही है ||३ ||

रघुनाथ हाथ

||श्रीसीतारामापयिमस्तु ||

||इवतश्री ||

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