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प्रेमचंद
ह द
ं ीकोश
www.hindikosh.in
Vardan
By Premchand
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has expired.
ह द
ं ीकोश
Hindikosh.in
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Contents
1. वरदान .................................................................................................... 4
2. वैराग्य ..................................................................................................... 7
3. नये पडोससयों से मेल-जोल ..................................................................... 14
4. एकता का सम्बन्ि पुष्ट ोता ै ............................................................. 17
5. सशष्ट-जीवन के दृश्य .............................................................................. 22
6. डडप्टी श्यामाचरण .................................................................................. 28
7. ननठुरता और प्रेम ................................................................................... 36
8. सखखयााँ ................................................................................................. 39
9. ईष्याा ..................................................................................................... 46
10. सुशीला की मत्ृ यु .................................................................................. 52
11. ववरजन की ववदाई................................................................................ 58
12. कमलाचरण के समत्र ............................................................................. 61
13. कायापलट............................................................................................ 66
14. भ्रम .................................................................................................... 73
15. कताव्य और प्रेम का संघर्ा .................................................................... 78
16. स्ने पर कत्ताव्य की ववजय ................................................................. 85
17. कमला के नाम ववरजन के पत्र ............................................................. 91
18. प्रतापचन्र और कमलाचरण ................................................................ 108
19. द:ु ख-दशा........................................................................................... 114
20. मन का प्राबल्य ................................................................................. 120
21. ववदर्
ु ी वज
ृ रानी .................................................................................. 125
22. मािवी .............................................................................................. 130
23. काशी में आगमन............................................................................... 136
24. प्रेम का स्वप्न ................................................................................... 148
25. ववदाई ............................................................................................... 159
26. मतवाली योधगनी................................................................................ 168
प्रेमचंद
वरदान
ववन््याचल पवात मध्यरात्रत्र के ननववड अन्िकार में काल दे व की भांनत खडा था।
उस पर उगे ु ए छोटे -छोटे वक्ष
ृ इस प्रकार दष्ष्टगोचर ोते थे, मानो ये उसकी
जटाएं ै और अष्टभुजा दे वी का मष्न्दर ष्जसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु
की मन्द-मन्द तरं गों में ल रा र ी थीं, उस दे व का मस्तक ै मंहदर में एक
खिलसमलाता ु आ दीपक था, ष्जसे दे खकर ककसी िुंिले तारे का मान ो जाता
था।
‘माता! आज बीस वर्ा से कोई मंगलवार ऐसा न ीं गया जबकक मैंने तुम् ारे
चरणो पर ससर न िुकाया ो। एक हदन भी ऐसा न ीं गया जबकक मैंने तुम् ारे
चरणों का ध्यान न ककया ो। तुम जगताररणी म ारानी ो। तुम् ारी इतनी सेवा
करने पर भी मेरे मन की असभलार्ा परू ी न ु ई। मैं तम्
ु ें छोडकर क ां जाऊ?’
‘माता। मैंने सैकडों व्रत रखे, दे वताओं की उपासनाएं की’, तीथायाञाएं की, परन्तु
मनोरथ पूरा न ु आ। तब तुम् ारी शरण आयी। अब तुम् ें छोडकर क ां जाऊं?
तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की ै । क्या मैं तम्
ु ारे दरबार से
ननराश ो जाऊं?’
सव
ु ामा इसी प्रकार दे र तक ववनती करती र ी। अकस्मात उसके धचत्त पर अचेत
करने वाले अनुराग का आक्रमण ु आ। उसकी आंखें बन्द ो गयीं और कान में
ध्वनन आयी
सुवामा रोमांधचत ो गयी। उसका हृदय िडकने लगा। आज बीस वर्ा के पश्चात
म ारानी ने उसे दशान हदये। व कांपती ु ई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, व
म ारानी दें गी’ ?
‘ ां, समलेगा।’
‘न ीं।’
‘इन्द का बल।’
‘न ीं।’
‘सरस्वती की ववद्या?’
‘न ीं।’
‘व क्या ै ?’
‘सपत
ू बेटा।’
‘न ीं।’
‘न ीं।’
‘न ीं।’
***
2. वैराग्य
मंश
ु ीजी को स्वभावत: बच्चों से ब ु त प्रेम था। मु ल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-
वारर से असभससंधचत ोते र ते थे। जब वे घर से ननकलते थे तब बालाकों का
एक दल उसके साथ ोता था। एक हदन कोई पार्ाण-हृदय माता अपने बच्वे को
मार थी। लडका त्रबलख-त्रबलखकर रो र ा था। मुंशी जी से न र ा गया। दौडे,
बच्चे को गोद में उठा सलया और स्त्री के सम्मख
ु अपना ससर िक
ु हदया। स्त्री
ने उस हदन से अपने लडके को न मारने की शपथ खा ली जो मनष्ु य दस
ू रो के
बालकों का ऐसा स्ने ी ो, व अपने बालक को ककतना प्यार करे गा, सो
अनुमान से बा र ै । जब से पुत्र पैदा ु आ, मुंशी जी संसार के सब कायो से
अलग ो गये। क ीं वे लडके को ह ड ं ोल में िल
ु ा र े ैं और प्रसन्न ो र े ैं।
क ीं वे उसे एक सन्
ु दर सैरगाडी में बैठाकर स्वयं खींच र े ैं। एक क्षण के सलए
भी उसे अपने पास से दरू न ीं करते थे। वे बच्चे के स्ने में अपने को भल
ू
गये थे।
सुवामा ने लडके का नाम प्रतापचन्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ी उसमें गुण
भी थे। व अत्यन्त प्रनतभाशाली और रुपवान था। जब व बातें करता, सन
ु ने
वाले मग्ु ि ो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पष्ु ट कक
द्ववगुण डीलवाले लडकों को भी व कुछ न समिता था। इस अल्प आयु ी में
उसका मुख-मण्डल ऐसा हदव्य और ज्ञानमय था कक यहद व अचानक ककसी
अपररधचत मनुष्य के सामने आकर खडा ो जाता तो व ववस्मय से ताकने
लगता था।
इस प्रकार ं सते-खेलते छ: वर्ा व्यतीत ो गये। आनंद के हदन पवन की भांनत
सन्न-से ननकल जाते ैं और पता भी न ीं चलता। वे दभ
ु ााग्य के हदन और
ववपष्त्त की रातेंैं, जो काटे न ीं कटतीं। प्रताप को पैदा ु ए अभी ककतने हदन
ु ए। बिाई की मनो ाररणी ध्वनन कानों मे गूंज र ी थी छठी वर्ागांठ आ प ुं ची।
छठे वर्ा का अंत दहु दा नों का श्रीगणेश था। मंश
ु ी शासलग्राम का सांसाररक सम्बन्ि
केवल हदखावटी था। व ननष्काम और ननस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करते थे।
यद्यवप प्रकट व सामान्य संसारी मनुष्यों की भांनत संसार के क्लेशों से
क्लेसशत और सुखों से वर्ात दृष्ष्टगोचर ोते थे, तथावप उनका मन सवाथा उस
म ान और आनन्दपूवा शांनत का सुख-भोग करता था, ष्जस पर द:ु ख के िोंकों
और सख
ु की थपककयों का कोई प्रभाव न ीं पडता ै।
माघ का म ीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा ु आ था। रे लगाडडयों में
यात्री रुई की भांनत भर-भरकर प्रयाग प ुं चाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के
वि
ृ -ष्जनके सलए वर्ो से उठना कहठन ो र ा था- लंगडाते, लाहठयां टे कते
मंष्जल तै करके प्रयागराज को जा र े थे। बडे-बडे सािु-म ात्मा, ष्जनके दशानो
की इच्छा लोगों को ह मालय की अंिेरी गुिाओं में खींच ले जाती थी, उस
समय गंगाजी की पववत्र तरं गों से गले समलने के सलए आये
ु ए थे। मुंशी
शासलग्राम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले-- कल स्नान ै ।
सव
ु ामा-- सारा मु ल्ला सन
ू ा ो गया। कोई मनष्ु य न ीं दीखता।
मुंशी-- तुम चलना स्वीकार न ीं करती, न ीं तो बडा आनंद ोता। ऐसा मेला
तुमने कभी न ीं दे खा ोगा।
सव
ु ामा- ऐसे मेला से मेरा जी घबराता ै।
वैसे तो मुंशी जी के गुप्त ो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े
आंसू, उन आढनतयों और म ाजनों के नेत्रों से धगरते थे, ष्जनके लेने-दे ने का
लेखा अभी न ीं ु आ था। उन् ोंने दस-बार हदन जैसे-जैसे करके काटे , पश्चात
एक-एक करके लेखा के पत्र हदखाने लगे। ककसी ब्रह्मभोज मे सौ रुपये का घी
आया ै और मूल्य न ीं हदया गया। क ी से दो-सौ का मैदा आया ु आ ै।
बजाज का स स्रों का लेखा ै । मष्न्दर बनवाते समय एक म ाजन के बीस स स्र
ऋण सलया था, व अभी वैसे
ी पडा ु आ ै लेखा की तो य दशा थी। सामग्री
की य दशा कक एक उत्तम ग ृ और तत्सम्बष्न्िनी सामधग्रयों के अनतररक्त
कोई वस्त न थी, ष्जससे कोई बडी रकम खडी ो सके। भ-ू सम्पष्त्त बेचने के
अनतररक्त अन्य कोई उपाय न था, ष्जससे िन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।
सव
ु ामा-- ां गांव बेच डालंग
ू ी।
मोटे राम-- य तो बडे अिसोस की बात ोगी कक ऐसे उपकारी पुरुर् के लडके-
बाले द:ु ख भोगें ।
मोटे राम-- तुम् ारे सलए रुपये की क्या कमी ै ? मुंशी जी के नाम पर त्रबना
सलखा-पढ़ी के पचास जार रुपये का बन्दोस्त ो जाना कोई बडी बात न ीं ै।
सच तो य ै कक रुपया रखा ु आ ै , तुम् ारे मुं से ‘ ां’ ननकलने की दे री ै।
मोटे राम-- ां, बात-की-बात में रुपया एकत्र ो गया। सा ब का इशारा ब ु त था।
मोटे राम-- सुवामा, तुम् ारी बुद्वव क ां गयी? भला, सब प्रकार के द:ु ख उठा
लोगी पर क्या तुम् ें इस बालक पर दया न ीं आती?
मोटे राम की यचोट ब ु त कडी लगी। सुवामा सजलनयना ो गई। उसने पुत्र
की ओर करुणा-भरी दृष्ष्ट से दे खा। इस बच्चे के सलए मैंने कौन-कौन सी
तपस्या न ीं की? क्या उसके भाग्य में द:ु ख ी बदा ै । जो अमोला जलवायु के
प्रखर िोंकों से बचाता जाता था, ष्जस पर सूया की प्रचण्ड ककरणें न पडने पाती
थीं, जो स्ने -सुिा से अभी ससंधचत र ता था, क्या व
आज इस जलती ु ई िूप
और इस आग की लपट में मरु िायेगा? सुवामा कई समनट तक इसी धचन्ता में
बैठी र ी। मोटे राम मन- ी-मन प्रसन्न ो र े थे कक अब सिलीभत ू ु आ। इतने
में सुवामा ने ससर उठाकर क ा--ष्जसके वपता ने लाखों को ष्जलाया-खखलाया, व
दस
ू रों का आधश्रत न ीं बन सकता। यहद वपता का िमा उसका स ायक ोगा, तो
स्वयं दस को खखलाकर खायेगा। लडके को बुलाते ु ए ‘बेटा। तननक य ां आओ।
कल से तुम् ारी समठाई, दि
ू , घी सब बन्द ो जायेंगे। रोओगे तो न ीं?’ य
क कर उसने बेटे को प्यार से बैठा सलया और उसके गल
ु ाबी गालों का पसीना
पोंछकर चुम्बन कर सलया।
प्रताप-- क्या क ा? कल से समठाई बन्द ोगी? क्यों क्या लवाई की दक
ु ान पर
समठाई न ीं ै?
प्रताप-- म बडे ोंगे, तो उसको ब ु त-सा रुपया दें गे। चल, टख। टख। दे ख मां,
कैसा तेज घोडा ै।
इसके पन्र वें हदन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास स स्र रुपये प्राप्त ु ए कुल
ऋण चुका हदया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच हदया गया। मकान में भी
सुवामा ने भीतर से ऊाँची-ऊाँची दीवारें खखंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर
हदये। एक में आप र ने लगी और दस
ू रा भाडे पर उठा हदया।
***
3. नये पड़ोसियों िे मेल-ज़ोल
मुंशी संजीवनलाल, ष्जन् ोंने सुवाम का घर भाडे पर सलया था, बडे ववचारशील
मनुष्य थे। प ले एक प्रनतष्ष्ठत पद पर ननयुक्त थे, ककन्तु अपनी स्वतंत्र इच्छा
के कारण अिसरों को प्रसन्न न रख सके। य ां तक कक उनकी रुष्टता से
वववश ोकर इस्तीिा दे हदया। नौकर के समय में कुछ पंज
ू ी एकत्र कर ली थी,
इससलए नौकरी छोडते ी वे ठे केदारी की ओर प्रवत्ृ त ु ए और उन् ोंने पररश्रम
द्वारा अल्पकाल में ी अच्छी सम्पष्त्त बना ली। इस समय उनकी आय चार-
पांच सौ माससक से कम न थी। उन् ोंने कुछ ऐसी अनुभवशासलनी बुवि पायी थी
कक ष्जस काया में ाथ डालते, उसमें लाभ छोड ानन न ोती थी।
मंश
ु ी संजीवनलाल का कुटुम्ब बडा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दीं, पर इस
समय माता-वपता के नयनों की पुतली केवल एक पुञी ी थी। उसका नाम
वज
ृ रानी था। व ी दम्पनत का जीवनाश्राम थी।
प्रतापचन्र और वज
ृ रानी में प ले ी हदन से मैत्री आरं भ ा गयी। आिे घंटे में
दोनों धचडडयों की भांनत च कने लगे। ववरजन ने अपनी गडु डया, खखलौने और
बाजे हदखाये, प्रतापचन्र ने अपनी ककताबें , लेखनी और धचत्र हदखाये। ववरजन
की माता सुशीला ने प्रतापचन्र को गोद में ले सलया और प्यार ककया। उस हदन
से व ननत्य संध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत ोता था
कक दोनों भाई-बह न ै । सश
ु ीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार
करती। घंटों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को दे खा करती, ववरजन भी कभी-कभी
प्रताप के घर जाती। ववपष्त्त की मारी सुवामा उसे दे खकर अपना द:ु ख भूल
जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन
ब लाती।
एक हदन मंश
ु ी संजीवनलाल बा र से आये तो क्या दे खते ैं कक प्रताप और
ववरजन दोनों दफ्तर में कुससायों पर बैठे ैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ र ा ै और
ववरजन ध्यान लगाये सुन र ी ै । दोनों ने ज्यों ी मुंशीजी को दे खा उठ खडे
ु ए। ववरजन तो दौडकर वपता की गोद में जा बैठी और प्रताप ससर नीचा करके
एक ओर खडा ो गया। कैसा गण ु वान बालक था। आयु अभी आठ वर्ा से
अधिक न थी, परन्तु लक्षण से भावी प्रनतभा िलक र ी थी। हदव्य मख
ु मण्डल,
पतले-पतले लाल-लाल अिर, तीव्र धचतवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल उस
पर स्वच्छ कपडे मुंशी जी ने क ा-- य ां आओ, प्रताप।
मुंशी जी मस्
ु कराकर बोले-- ां। वे खूब बोलती थीं।
अभी उनके मुं से पूरी बात भी न ननकलने पायी थी कक प्रताप ष्जसका संकोच
अब गायब ो चला था, बोला- न ीं ववरजन तुम् ें भुलाते ैं ये क ाननया बनायी
ुई ैं।
मंश
ु ी--बेटी, तम
ु तो संस्कृत पढ़ती ो, य तो भार्ा ै।
ववरजन--तो मैं भी भार्ा ी पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी क ाननयां ैं। मेरी
ककताब में तो भी क ानी न ीं। क्यों बाबा, पढ़ना ककसे क ते ै ?
मंश
ु ी जी बंगले िांकने लगे। उन् ोंने आज तक आप ी कभी ध्यान न ी हदया
था कक पढ़ना क्या वस्तु ै । अभी वे माथ ी खुजला र े थे कक प्रताप बोल उठा-
- मुिे पढ़ते दे खा, उसी को पढ़ना क ते ैं।
ववरजन ससद्वान्त कौमुदी पढ़ र ी थी, प्रताप ने क ा--तुम तोते की भांनत रटती
ो।
***
4. एकता का िम्बन्ध पष्ु ट ह़ोता है
प्रताप बुद्ववमान लडका था। माता की दशा प्रनतहदन त्रबगडती ु ई दे खकर ताड
गया कक य बीमार ै । एक हदन स्कूल से लौटा तो सीिा अपने घर गया। बेटे
को दे खते ी सव
ु ामा ने उठ बैठने का प्रयत्न ककया पर ननबालता के कारण मछ
ू ाा
आ गयी और ाथ-पांव अकड गये। प्रताप ने उसं संभाला और उसकी और
भत्साना की दृष्ष्ट से दे खकर क ा--अम्मा तुम आजकल बीमार ो क्या? इतनी
दब
ु ली क्यों ो गयी ो? दे खो, तुम् ारा शरीर ककतना गमा ै। ाथ न ीं रखा
जाता।
प्रताप--माता, तुम मुि से ब ाना करती ो। तुम अवश्य बीमार ो। एक हदन में
कोई इतना दब
ु ल
ा ो जाता ै?
सव
ु ाता-- ( ं सकर) क्या तम्
ु ारे दे खने में मैं दब
ु ली ो गयी ूं ।
य सन
ु ते ी वज
ृ रानी दौडी और एक सांस में सव ु ामा के ससर ाने जा खडी ु ई।
दे खा तो व सुन्न पडी ु ई ै , आंखे मुंद ु ई ैं और लम्बी सांसे ले र ी ैं।
उनका ाथ थाम कर ववरजन खिंिोडने लगी-- चाची, कैसी जी ै , आंखें खोलों,
कैसा जी ै?
परन्तु चाची ने आंखें न खोलीं। तब व ताक पर से तेल उतारकर सव
ु ाम के
ससर पर िीरे -िीरे मलने लगी। उस बेचारी को ससर में म ीनों से तेल डालने का
अवसर न समला था, ठण्डक प ुं ची तो आंखें खुल गयीं।
सव
ु ामा-- तम
ु जाओ, उसके साथ खेलों, अब मैं त्रबल्कुल अच्छी ूं ।
दोनों स्त्रीयों में सशष्टाचार की बातें ोने लगीं। बातों-बातों में दीपक जल उठा।
ककसी को ध्यान भी न ु आकक प्रताप क ां ै । थोड दे र तक तो व द्वार पर
खडा रोता र ा,किर िटपट आंखें पोंछकर ड क्टर ककचलू के घर की ओर लपकता
ु आ चला। ड क्टर सा ब मंश
ु ी शासलग्राम के समञों में से थे। और जब कभी का
पडता, तो वे ी बुलाये जाते थे। प्रताप को केवल इतना ववहदत था कक वे बरना
नदी के ककनारे लाल बंगल में र ते ैं। उसे अब तक अपने मु ल्ले से बा र
ननकलने का कभी अवसर न पडा था। परन्तु उस समय मात ृ भक्ती के वेग से
उद्ववग्न
ोने के कारण उसे इन रुकावटों का कुछ भी ध्यान न ु आ। घर से
ननकलकर बाजार में आया और एक इक्केवान से बोला--लाल बंगल चलोगे?
लाल बंगला प्रसाद स्थान था। इक्कावान तैयार ो गया। आठ बजते-बजते
ड क्टर सा ब की किटन सुवामा के द्वार पर आ प ुं ची। य ां इस समय चारों
ओर उसकी खोज ो र ी थी कक अचानक व सवेग पैर बढ़ाता ु आ भीतर गया
और बोला--पदाा करो। ड क्टर सा ब आते ैं।
सव
ु ामा और सश
ु ीला दोनों चौंक पडी। समि गयीं, य ड क्टर सा ब को बल
ु ाने
गया था। सुवामा ने प्रेमाधिक्य से उसे गोदी में बैठा सलया डर न ीं लगा? मको
बताया भी न ीं यों ी चले गये? तुम खो जाते तो मैं क्या करती? ऐसा लाल
क ां पाती? य क कर उसने बेटे को बार-बार चूम सलया। प्रताप इतना प्रसन्न
था, मानों परीक्षा में उत्तीणा
ो गया। थोडी दे र में पदाा ु आ और ड क्टर सा ब
आये। उन् ोंने सव
ु ामा की नाडी दे खी और सांत्वना दी। वे प्रताप को गोद में
बैठाकर बातें करते र े । और्धिय साथ ले आये थे। उसे वपलाने की सम्मनत
दे कर नौ बजे बंगले को लौट गये। परन्तु जीणाज्वर था, अतएव पूरे मास-भर
सुवामा को कडवी-कडवी और्धियां खानी पडी। ड क्टर सा ब दोनों वक्त आते
और ऐसी कृपा और ध्यान रखते, मानो सुवामा उनकी बह न ै । एक बार सुवाम
ने डरते-डरते िीस के रुपये एक पात्र में रखकर सामने रखे। पर ड क्टर सा ब ने
उन् ें ाथ तक न लगाया। केवल इतना क ा--इन् ें मेरी ओर से प्रताप को दे
दीष्जएगा, व पैदल स्कूल जाता ै , पैरगाडी मोल ले लेगा।
ववरजन और उनकी माता दोनों सुवामा की शुश्रूर्ा के सलए उपष्स्थत र तीं। माता
चा े ववलम्ब भी कर जाए, परन्तु ववरजन व ां से एक क्षण के सलए भी न
टलती। दवा वपलाती, पान दे ती जब सुवामा का जी अच्छा ोता तो व भोली-
भोली बातों द्वारा उसका मन ब लाती। खेलना-कूदना सब छूट गया। जब सुवाम
ब ु त ठ करती तो प्रताप के संग बाग में खेलने चली जाती। दीपक जलते ी
किर आ बैठती और जब तक ननरा के मारे िुक-िुक न पडती, व ां से उठने का
नाम न लेती वरन प्राय: व ीं सो जाती, रात को नौकर गोद में उठाकर घर ले
जाता। न जाने उसे कौन-सी िुन सवार ो गयी थी।
एक हदन वज
ृ रानी सुवामा के ससर ाने बैठी पंखा िल र ी थी। न जाने ककस
ध्यान में मग्न थी। आंखें दीवार की ओर लगी ु ई थीं। और ष्जस प्रकार वक्ष
ृ ों
पर कौमदु ी ल राती ै , उसी भांनत भीनी-भीनी मस्
ु कान उसके अिरों पर ल रा
र ी थी। उसे कुछ भी ध्यान न था कक चाची मेरी और दे ख र ी ै । अचानक
उसके ाथ से पंखा छूट गया। ज्यों ी व उसको उठाने के सलए िुकी कक
सुवामा ने उसे गले लगा सलया। और पुचकार कर पूछा--ववरजन, सत्य क ो, तुम
अभी क्या सोच र ी थी?
ववरजन ने माथा िक
ु ा सलया और कुछ लष्ज्जत ोकर क ा-- कुछ न ीं, तम
ु को
न बतलाऊंगी।
सव
ु ामा-- मैं तो क दं ग
ू ी।
***
5. सिष्ट-जीवन के दृश्य
हदन जाते दे र न ीं लगती। दो वर्ा व्यतीत ो गये। पष्ण्डत मोटे राम ननत्य प्रात:
काल आत और ससिान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उनका आना केवल ननयम
पालने के े तु ी था, क्योकक इस पुस्तक के पढ़न में अब ववरजन का जी न
लगता था। एक हदन मंश
ु ी जी इंजीननयर के दितर से आये। कमरे में बैठे थे।
नौकर जत
ू का िीता खोल र ा था कक रधिया म र मस्
ु कराती ु ई घर में से
ननकली और उनके ाथ में मु छाप लगा ु आ सलिािा रख, मुं िेर ं सने
लगी। ससरना पर सलखा ु आ था-श्रीमान बाबा सा की सेवा में प्राप्त ो।
मंश
ु ी--अरे , तू ककसका सलिािा ले आयी ? य मेरा न ीं ै।
मुंशी--ककसने हदया।
प्रशष्स्त दे खते ी मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद ोने लगी।किर तो उन् ोंने
एक ी सांस में भारी धचट्रठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के
ं सते ु ए नंगे-पांव
भीतर दौडे। प्रताप को गोद में उठा सलया और किर दोनों बच्चों का ाथ पकडे
ु ए सुशीला के पास गये। उसे धचट्रठी हदखाकर क ा--बूिो ककसी धचट्ठी ै?
मंश
ु ी जी--पचास रुपये , दि
ू के िोये ु ए।
मुंशी जी-- मुकरने वाले को कुछ क ता ूं , अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपाँष्ु जया
समि सलया ै ?
सुशीला-- ले लूंगी, क े दे ती ूं ।
मंश
ु ीजी-- ााँ- ााँ, ले लेना, प ले बता तो स ी।
सश
ु ीला-- लल्लू का ै लाइये नोट, अब मैं न मानंग
ू ी। य क कर उठी और
मुंशीजी का ाथ थाम सलया।
सश
ु ीला-- वचन न ीं हदया था? अभी से ववचलने लगे।
सश
ु ीला चककत ोकर बोली-- ववजरन की? किर उसने दौडकर पनत के ाथ से
धचट्ठी छीन ली और भौंचक्की ोकर उसे दे खने लगी, परन्तु अब भी ववश्वास
आया।ववरजन से पूछा-- क्यें बेटी, य तुम् ारी सलखी ै?
इसी प्रकार काल बीतता चला गया, ववरजन का बार वां वर्ा पण
ू ा ु आ, परन्तु
अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल् े के सामने बैठन का कभी
अवसर ी न आया। सुवामा ने एक हदन उसकी माता ने क ा-- बह न ववरजन
सयानी ु ई, क्या कुछ गुन-ढं ग ससखाओगी।
सश
ु ीला--क्या क ूं , जी तो चा ता ै कक लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक
जाती ूं ।
सश
ु ीला--कुछ न ीं आलस आ जाता ै।
सुवामा--तो य काम मुिे सौंप दो। भोजन बनाना ष्स्त्रयों के सलए सबसे
आवश्यक बात ै।
सश
ु ीला--अभी चल्
ू े के सामन उससे बैठा न जायेगा।
दस
ू रे हदन से ववरजन भोजन बनाने लगी। प ले दस-पााँच हदन उसे चूल् े के
सामने बैठने में बडा कष्ट ु आ। आग न जलती, िूंकने लगती तो नेञों से जल
ब ता। वे बट
ू ी की भांनत लाल ो जाते। धचनगाररयों से कई रे शमी साडडयां
सत्यानाथ ो गयीं। ाथों में छाले पड गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दरू ो
गये। सव
ु ामा ऐसी सश
ु ीला स्ञी थी कक कभी रुष्ट न ोती, प्रनतहदन उसे
पुचकारकर काम में लगाय र ती।
प्रताप--सच।
दस
ू रे हदन नौ बजे ववरजन ने प्रताप को भोजन करने के सलए बुलाया। उसने
जाकर दे खा तो चौका लगा ु आ ै । नवीन समट्टी की मीठी-मीठी सग
ु न्ि आ र ी
ै । आसन स्वच्छता से त्रबछा ु आ ै । एक थाली में चावल और चपानतयााँ ैं।
दाल और तरकाररय ॉँ अलग-अलग कटोररयों में रखी ु ई ैं। लोटा और धगलास
पानी से भरे ु ए रखे ैं। य स्वच्छता और ढं ग दे खकर प्रताप सीिा मुंशी
संजीवनलाल के पास गया और उन् ें लाकर चौके के सामने खडा कर हदया।
मंश
ु ीजी खश
ु ी से उछल पडे। चट कपडे उतार, ाथ-पैर िो प्रताप के साथ चौके
में जा बैठे। बेचारी ववरजन क्या जानती थी कक म ाशय भी त्रबना बुलाये पा ु ने
ो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के सलए भोजन बनाया था। व उस हदन ब ु त
लजायी और दबी ऑ ंखों से माता की ओर दे खने लगी। सुशीला ताड गयी।
मुस्कराकर मुंशीजी से बोली--तुम् ारे सलए अलग भोजन बना ै । लडकों के बीच
में क्या जाके कूद पडे?
वज
ृ रानी ने लजाते ु ए दो थासलयों में थोडा-थोडा भोजन परोसा।
***
6. डिप्टी श्यामाचरण
डडप्टी श्यामाचरण की िाक सारे नगर में छायी ई थी। नगर में कोई ऐसा
ाककम न था ष्जसकी लोग इतनी प्रनतष्ठा करते ों। इसका कारण कुछ तो य
था कक वे स्वभाव के समलनसार और स नशील थे और कुछ य कक ररश्वत से
उन् ें बडी घण
ृ ा थी। न्याय-ववचार ऐसी सक्ष्
ू मता से करते थे कक दस-बा र वर्ा के
भीतर कदाधचत उनके दो- ी चार िैसलों की अपील ु ई ोगी। अंग्रेजी का एक
अक्षर न जानते थे, परन्तु बैरष्स्टरों और वकीलों को भी उनकी नैनतक प ुं च और
सूक्ष्मदसशाता पर आश्चया ोता था। स्वभाव में स्वािीनता कूट-कूट भरी थी। घर
और न्यायालय के अनतररक्त ककसी ने उन् ें और क ीं आते-जाते न ीं दे खा।
मश
ु ीं शासलग्राम जब तक जीववत थे, या यों कह ए कक वतामान थे, तब तक
कभी-कभी धचतववनोदाथा उनके य चले जाते थे। जब वे लप्त ो गये, डडप्टी
सा ब ने घर छोडकर ह लने की शपथ कर ली। कई वर्ा ु ए एक बार कलक्टर
सा ब को सलाम करने गये थे खानसामा ने क ा-- सा ब स्नान कर र े ैं दो
घंटे तक बरामदे में एक मोढे पर बैठे प्रतीक्षा करते र े । तदनन्तर सा ब ब ादरु
ाथ में एक टे ननस बैट सलये ु ए ननकले और बोले--बाबू सा ब, मको खेद ै
कक आपको ामारी बाट दे खनी पडी। मिु े आज अवकाश न ीं ै । क्लब-घर जाना
ै । आप किर कभी आवें ।
मंश
ु ीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका सािाचरण गत वर्ा डडग्री प्राप्त
करके इस समय रूडकी कालेज में पढाता था। उसका वववा ित पुर-सीकरी के
एक रईस के य ां आ था। मंिली लडकी का नाम सेवती था। उसका भी वववा
प्रयाग के एक िनी घराने में ु आ था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक
अवववाह त था। प्रेमवती ने बचपन से ी लाड-प्यार करके उसे ऐसा त्रबगाड हदया
था कक उसका मन पढने-सलखने में तननक भी न ीं लगता था। पन्र वर्ा का ो
चुका था, पर अभी तक सीिा-सा पत्र भी न सलख सकता था। इससलए व ां से
भी व उठा सलया गया। तब एक मास्टर सा ब ननयुक्त ु ए और तीन म ीने
र े परन्तु इतने हदनों में कमलाचरण ने कहठनता से तीन पाठ पढे ोंगें । ननदान
मास्टर सा ब भी ववदा ो गये। तब डडप्टी सा ब ने स्वयं पढाना ननष्श्चत
ककया। परन्तु एक ी सप्ता में उन् ें कई बार कमला का ससर ह लाने की
आवश्यकता प्रतीत ु ई। साक्षक्षयों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं
के तत्व को समिना कहठन न ीं ै , ष्जतना ककसी ननरूत्सा ी लडके के यमन में
सशक्षा-रूधचत उत्पन्न करना ै।
ब ू -- कूछ नतलक-द े ज भी ठ रा
सेवती-- कुछ हदनों घर में खूब िूमिाम र े गी। भाभी गीत गायेंगी। म ढोल
बजायेंगें। क्यों भाभी ?
सेवती-- तुम तो तननक-सी ं सी में रूठ जाती ो। जरा व गीत गाओं तो—तुम
तो श्याम बडे बेखबर ो’। इस समय सुनने को ब ु त जी चा ता ै । म ीनों से
तम्
ु ारा गाना न ीं सन
ु ा।
सेवती-- लो, अब तुम् ारी य ी चाल अच्छी न ीं लगती। मेरी अच्छी भाभी,
तननक गाओं।
चन्रा-- मैं इस समय न गाऊंगी। क्यों मुिे कोई डोमनी समि सलया ै ?
तम
ु तो श्याम बडे बेखबर ो...तम
ु तो श्याम।
आप तो श्याम पीयो दि
ू के कुल् ड, मेरी तो पानी पै गुजर-पानी पै गुजर ो।
तुम तो श्याम...
दि
ू के कुल् ड पर व ं स पडी। प्रेमवती भी मस्
ु करायी, परन्तु चन्रा रूष्ट ो
गयी। बोली –त्रबना ं सी की ं सी में न ीं आती। इसमें ं सने की क्या बात ै ?
सेवती-- आओ, म तुम समलकर गायें।
चन्रा-- तो में क्यों छे डती ो ? में गाना न ीं आता, तो कोई तुमसे ननन्दा
करने तो न ीं जाता।
चन्रा-- अच्छा गा दं ग
ू ी। ॅसने को जी चा ता ै न? ॅस लेना।
सेवती-- प ले गा दो तो सलख।ंू
सेवती-- तम्
ु ारी शपथ, सलख दं ग
ू ी, गाओ।
अष्न्तम शब्द कुछ ऐसे बेसुरे ननकले कक ॅसी को रोकना कहठन ो गया। सेवती
ने ब ु त रोका पर न रुक सकी। ॅसते- ॅसते पेट में बल पड गया। चन्रा ने
दस
ू रा पद गाया:
‘लुगइयााँ’ पर सेवती ाँसते- ाँसते लोट गयी। चन्रा ने सजल नेत्र ोकर क ा-अब
तो ब ु त ॅस चुकीं। लाऊाँ कागज?
सेवती--दि
ू के कुल् ड।
सेवती--दो-दो लग
ु इय ।
***
7. ननठुरता और प्रेम
ननदान वववा को केवल पांच हदन र गये। नातेदार और सम्बन्िी लोग दरू
तथा समीप से आने लगे। ऑगन में सन्
ु दर मण्डप छा गया। ाथ में कंगन बॅि
गये। य कच्चे घागे का कंगन पववत्र िमा की थकडी ै , जो कभी ाथ से न
ननकलेगी और मंण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक ै , जो
जीवनपयान्त ससर से न उठे गी। आज संध्या को सुवामा, सुशीला, म ाराष्जनें
सब-की-सब समलकर दे वी की पूजा करने को गयीं। म ररयां अपने िंिों में लगी
ु ई थी। ववरजन व्याकुल ोकर अपने घर में से ननकली और प्रताप के घर आ
प ुं ची। चतहु दा क सन्नाटा छाया ु आ था। केवल प्रताप के कमरे में िंि
ु ला प्रकाश
िलक र ा था। ववरजन कमरे में आयी, तो क्या दे खती ै कक मेज पर लालटे न
जल र ी ै और प्रताप एक चारपाई पर सो र ा ै । िुंिले उजाले में उसका
बदन कुम् लाया और मसलन नजर आता ै । वस्तुऍ सब इिर-उिर बेढंग पडी
ु ई ै । जमीन पर मानों िूल चढ़ी ु ई ै । पुस्तकें िैली ु ई ै । ऐसा जान पडता
ै मानों इस कमरे को ककसी ने म ीनों से न ीं खोला। व ी प्रताप ै , जो
स्वच्छता को प्राण-वप्रय समिता था। ववरजन ने चा ा उसे जगा दं ।ू पर कुछ
सोचकर भूसम से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रखने लगी। मेज पर से िूल
िाडी, धचत्रों पर से गदा का परदा उठा सलया। अचानक प्रतान ने करवट ली और
उनके मुख से य वाक्य ननकला-- ‘ववरजन। मैं तुम् ें भूल न ीं सकता’’। किर
थोडी दे र पश्चात-‘ववरजन’। क ां जाती ो, य ी बैठो ? किर करवट बदलकर-‘न
बैठोगी’’? अच्छा जाओं मैं भी तुमसे न बोलूंगा। किर कुछ ठ रकर-अच्छा जाओं,
दे खें क ां जाती ै। य क कर व लपका, जैसे ककसी भागते ु ए मनुष्य को
पकडता ो। ववरजन का ाथ उसके ाथ में आ गया। उसके साथ ी ऑखें खुल
गयीं। एक समनट तक उसकी भाव-शून्य दृवर्ट ववरजन के मुख की ओर गडी
र ी। किर अचानक उठ बैठा और ववरजन का ाथ छोडकर बोला-तम
ु कब आयीं,
ववरजन ? मैं अभी तुम् ारा ी स्वप्न दे ख र ा था।
***
8. िखियााँ
चन्रा--तम
ु ने तो धचटठी पढी थी, आज ी आने को सलखा था न ?
इतने में कमला और उपादे वी दोनों आ प ुं ची। चन्रा ने घूंघट ननकाल सलया और
िशा पर आ बैठी। कमला उसकी बडी ननद ोती थी।
सेवती--जीजा को मैने दे खा ै । भैया के वववा में आये थे। बडं ॅसमुख मनुष्य
ैं।
कमला--पावाती उन हदनों पेट में थी, इसी से मैं न आ सकी थी। य से गये तो
लगे तुम् ारी प्रशंसा करने। तुम कभी पान दे ने गयी थी ? क ते थे कक मैने ाथ
थामकर बैठा सलया, खूब बातें ु ई।
रूष्क्मणी--लडकोरी ै न ?
चन्रकंु व--दल्
ू ा सबसे अच्छा व , जो मुं से बात ननकलते ी पूरा करे ।
रामदे ई--तुम अपनी बात न चलाओं। तुम् ें तो अच्छे -अच्छे ग नों से प्रयोजन ै,
दल्
ू ा कैसा ी ो।
सीता--न जाने कोई पुरूर् से ककसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता ै । क्या संकोच
न ीं ोता ?
रूष्क्मणी-तम
ु बपरु ी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पछ
ू े ?
रानी--क्या करूं, ननगोडी नाइन से ककसी प्रकार पीछा न ीं छूटता था। कुसम
ु की
म आयी तब जाके जूडा ब िा।
सीता--तुम् ारी जाककट पर बसल ारी ै।
मािवी--उसी बडे कमरे में । जीजा पगडी ब िे ै , भैया कोट पह ने ैं , मुिे जीजा
ने रूपया हदया। य क कर उसने मठ
ु ी खोलकर हदखायी।
य क ती ु ई सेवती चन्रा के कमरे में जाकर बोली--लो भाभी। तुम् ारा सगुन
ठीक ु आ।
***
9. ईष्याा
सश
ु ीला के सलए ववरजन से वप्रय जगत में अन्य वस्तु न थी। ववरजन उसका
प्राण थी, ववरजन उसका िमा थी और ववरजन ी उसका सत्य थी। व ी उसकी
प्राणािार थी, व ी उसके नयनों को ज्योनत और हृदय का उत्सा थी, उसकी
सवौच्च सांसाररक असभलार्ा य थी कक मेरी प्यारी ववरजन अच्छे घर जाय।
उसके सास-ससुर, दे वी-दे वता ों। उसके पनत सशष्टता की मनू ता और श्रीरामचंर
की भांनत सश
ु ील ो। उस पर कष्ट की छाया भी न पडे। उसने मर-मरकर बडी
समन्नतों से य पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कक इन रसीले नयनों वाली,
अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पयान्त आंखों से अदृश्य न ोने दं ग
ू ी।
अपने जामाता को भी य ी बल
ु ाकर अपने घर रखूंगी। जामाता मुिे माता क े गा,
मैं उसे लडका समिूगी। ष्जस हृदय में ऐसे मनोरथ ों, उस पर ऐसी दारूण
और हृदयववदारणी बातों का जो कुछ प्रभाव पडेगा, प्रकट ै।
ां। न्त। दीना सुशीला के सारे मनोरथ समट्टी में समल गये। उसकी सारी
आशाओं पर ओस पड गयी। क्या सोचती थी और क्या ो गया। अपने मन को
बार-बार समिाती कक अभी क्या ै , जब कमला सयाना ो जाएगी तो सब
बरु ाइयां स्वयं त्याग दे ना। पर एक ननन्दा का घाव भरने न ीं पाता था कक किर
कोई नवीन घटना सूनने में आ जाती। इसी प्रकार आघात-पर-आघात पडते गये।
ाय। न ीं मालूम ववरजन के भाग्य में क्या बदा ै ? क्या य गुन की मूनता, मेरे
घर की दीष्प्त, मेरे शरीर का प्राण इसी दष्ु कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत
करे गी ? क्या मेरी श्यामा इसी धगद्व के पाले पडेगी? य सोचकर सुशीला रोने
लगती और घंटों रोती र ती ै । पह ले ववरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी हदया
करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न क ती। उसका मं दे खते ी उसे याद
आ जाती। एक क्षण के सलए भा उसे सामने से अदृश्य न ोने दे गी। यहद जरा
दे र के सलए व सुवामा के घर चली जाती, तो स्वयं प ुं च यजाती। उसे ऐसा
प्रतीत ोता मानों कोई उसे छीनकर ले भागता ै । ष्जस प्रकार वाधिक की छुरी
के तले अपने बछडे को दे खकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता ै , उसी प्रकार
ववरजन के दख
ु का ध्यान करके सुशीला की आंखों में संसार सूना जाना पडता
था। इन हदनों ववरजन को पल-भर के सलए नेत्रों से दरू करते उसे व कष्ट और
व्याकुलता ोती,जो धचडडया को घोंसले से बच्चे के खो जाने पर ोती ै।
ष्जस हदन वज
ृ रानी को ज्ञात ो जाता कक आज प्रताप त्रबना भोजन ककये स्कूल
जा र ा ै , उस हदन व काम छोडकर उसके घर दौड जाती और भोजन करने
के सलए आग्र करती, पर प्रताप उससे बात न करता, उसे रोता छोड बा र चला
जाता। ननस्संसदे व ववरजन को पूणत
ा :ननदोर् समिता था, परन्तु एक ऐसे
संबि को, जो वर्ा छ: मास में टूट जाने वाला ो, व प ले ी से तोड दे ना
चा ता था। एकान्त में बैठकर व आप- ी-आप िूट-िूटकर रोता, परन्तु प्रेम के
उद्वेग को अधिकार से बा र न ोने दे ता।
एक हदन व स्कूल से आकर अपने कमरे में बैठा ु आ था कक ववरजन आयी।
उसके कपोल अश्रु से भीगे ु ए थे और व लंबी-लंबी सससककयां ले र ी थी।
उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी ननराशा छाई ु ई थी और उसकी दृष्ष्ट कुछ
ऐसी करूणोंत्पादक थी कक प्रताप से न र ा गया। सजल नयन ोकर बोला--‘क्यों
ववरजन। रो क्यों र ी ो ? ववरजन ने कुछ उतर न हदया, वरन और त्रबलख-
त्रबलखकर रोने लगी। प्रताप का गाम्भीया जाता र ा। व ननस्संकोच ोकर उठा
और ववरजन की आंखों से आंसू पोंछने लगा। ववरजन ने स्वर संभालकर क ा--
लल्लू अब माताजी न जीयेंगी, मैं क्या करूं ? य क ते-क ते किर सससककयां
उभरने लगी।
सव
ु ामा ने क ा--बह न। आंखें खोलों। लल्लू खडा ै।
सुशीला ने आंखें खोल दीं और दोनों ाथ प्रेम-बा ु ल्य से िैला हदये। प्रताप के
हृदय से ववरोि का अष्न्तम धचह्न भी ववलीन ो गया। यहद ऐसे काल में भी
कोई मत्सर का मैल र ने दे , तो व मनुष्य क लाने का कदार न ीं ै । प्रताप
सच्चे पत्र
ु त्व-भाव से आगे बढ़ा और सश
ु ीला के प्रेमांक में जा सलपटा। दोनों आिे
घंण्टे तक रोते र े । सुशीला उसे अपने दोनों बां ों में इस प्रकार दबाये ु ए थी
मानों व क ीं भागा जा र ा ै। व इस समय अपने को सैंकडों नघक्कार दे र ा
था कक मैं ी इस दखु खया का प्राण ारी ूं । मैने ी द्वेर्-दरु ावेग के वशीभूत
ोकर इसे इस गनत को प ुं चाया ै । मैं ी इस प्रेम की मूनता का नाशक ूं ।
ज्यों-ज्यों य भावना उसके मन में उठती, उसकी आंखों से आंसू ब ते। ननदान
सुशीला बोली--लल्लू। अब मैं दो-एक हदन की ओर मे मान ूं । मेरा जो कुछ
क ा-सनु ा ो, क्षमा करो।
प्रताप का स्वर उसके वश में न था, इससलए उसने कुछ उतर न हदया।
सुशीला किर बोली--न जाने क्यों तुम मुिसे रूष्ट ो। तुम मारे घर न ी आते।
मसे बोलते न ीं। जी तम्
ु ें प्यार करने को तरस-तरसकर र जाता ै । पर तम
ु
मेरी तननक भी सुधि न ीं लेते। बताओं, अपनी दखु खया चाची से क्यों रूष्ट ो ?
ईश्वर जानता ै , मैं तुमको सदा अपना लडका समिती र ी। तुम् ें दे खकर मेरी
छाती िूल उठती थी। य क ते-क ते ननबालता के कारण उसकी बोली िीमी ो
गयी, जैसे क्षक्षनतज के अथा ववस्तार में उडनेवाले पक्षी की बोली प्रनतक्षण
मध्यम ोती जाती ै -य ां तक कक उसके शब्द का ध्यानमात्र शेर् र जाता ै।
इसी प्रकार सुशीला की बोली िीमी ोते- ोते केवल सांय-सांय र गयी।
***
10. िि
ु ीला की मत्ृ यु
सुवामा ने रोते ु ए अपने ाथों से स ारा दे कर उसे तननक उठा हदया। प्रताप
और ववरजन सामने खडे थे। सुशीला ने मुंशीजी से क ा--‘मेरे समीप आ जाओ’।
मुंशीजी प्रेम और करूणा से ववहृल ोकर उसके गले से सलपट गये और गदगद
स्वर में बोले--‘घबराओ न ीं, ईश्वर चा े गा तो तम
ु अच्छी ो जाओगी’।
सुशीला ने ननराश भाव से क ा--‘ ’ आज अच्छी ो जाउं गी। जरा अपना पैर
बढ़ा दो। मैं माथे लगा लूं।
मंश
ु ीजी ह चककचाते र े । सव
ु ामा रोते ु ए बोली--‘पैर बढ़ा दीष्जए, इनकी इच्छा
पूरी ो जाये।
तब मुंशीजी ने चरण बढा हदये। सुशीला ने उन् ें दोनों ाथों में पकड कर कई
बार चूमा। किर उन पर ाथ रखकर रोने लगी। थोडे ी दे र में दोनों चरण उष्ण
जल-कणों से भीग गये। पनतव्रता स्त्री ने प्रेम के मोती पनत के चरणों पर
ननछोवर कर हदये। जब आवाज संभली तो उसने ववरजन का एक ाथ थाम कर
मंश
ु ीजी के ाथ में हदया और अनत मन्द स्वर में क ा-स्वामीजी। आपके संग
ब ु त हदन र ी और जीवन का परम सुख भोगा। अब प्रेम का नाता टूटता ै ।
अब मैं पल-भर की और अनतधथ ूं । प्यारी ववरजन को तुम् ें सौंप जाती ूं । मेरा
य ी धचहृन ै । इस पर सदा दया-दृष्ष्ट रखना। मेरे भाग्य में प्यारी पुत्री का सुख
दे खना न ीं बदा था। इसे मैने कभी कोई कटु वचन न ीं क ा, कभी कठोर दृष्ष्ट
से न ीं दे खा। य मरे जीवन का िल ै । ईश्वर के सलए तम
ु इसकी ओर से
बेसुि न ो जाना। य क ते-क ते ह चककयां बंि गयीं और मूछाा-सी आ गयी।
म राष्जन-- मको बेटी की भांनत मानती थीं। भोजन कैसा ी बना दं ू पर कभी
नाराज न ीं ु ई। जब बातें करतीं, मुस्करा के। म राज जब आते तो उन् ें जरूर
सीिा हदलवाती थी।
मंश
ु ीजी--तम्
ु ारी बात और मैं न मानंू ?
मंश
ु ीजी--ऐसी बात न क ो, दे खो ववरजन रोती ै।
मुंशीजी--कभी न ीं।
सश
ु ीला ने अपने सख
ू े कपोल मश
ु ींजी के अिरों पर रख हदये और दोनों बां ें
उनके गले में डाल दीं। किर ववरजन को ननकट बुलाकर िीरे -िीरे समिाने लगी-
दे खो बेटी। लालाजी का क ना र घडी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना।
गृ का सारा भर अब तुम् ारे ी माथे ै । अब तुम् ें कौन सभांलेगा ? य क
कर उसने स्वामी की ओर करूणापूणा नेत्रों से दे खा और क ा-- मैं अपने मन की
बात न ीं क ने पायी, जी डूबा जाता ै।
सुशीला--तुम मरे ो कक न ीं ?
अंिेरा ो चला था। सारे ग ृ में शोकमय और भयाव सन्नाटा छाया ु आ था।
रोनेवाले रोते थे, पर कण्ठ बांि-बांिकर। बातें ोती थी, पर दबे स्वरों से।
सश
ु ीला भसू म पर पडी ु ई थी। व सक ु ु मार अंग जो कभी माता के अंग में पला,
कभी प्रेमांक में प्रौढा, कभी िूलों की सेज पर सोया, इस समय भसू म पर पडा
ु आ था। अभी तक नाडी मन्द-मन्द गनत से चल र ी थी। मुंशीजी शोक और
ननराशानद में मग्न उसके ससर की ओर बैठे ु ए थे। अकस्समात ् उसने ससर
उठाया और दोनों ाथों से मुंशीजी का चरण पकड सलया। प्राण उड गये। दोनों
कर उनके चरण का मण्डल बांिे ी र े। य उसके जीवन की अंनतम कक्रया थी।
रोनेवालो, रोओ। क्योंकक तम
ु रोने के अनतररक्त कर ी क्या सकते ो? तम्
ु ें
इस समय कोई ककतनी ी सान्त्वना दे , पर तुम् ारे नेत्र अश्रु-प्रवा को न रोक
सकेंगे। रोना तुम् ारा कताव्य ै । जीवन में रोने के अवसर कदाधचत समलते ैं।
क्या इस समय तुम् ारे नेत्र शुष्क
ो जायेगें? आंसुओं के तार बंिे ु ए थे,
सससककयों के शब्द आ र े थे कक म राष्जन दीपक जलाकर घर में लायी। थोडी
दे र पह ले सश
ु ीला के जीवन का दीपक बि
ु चक
ु ा था।
***
11. ववरजन की ववदाई
एक हदन सन्ध्या का समय था। ववदाई को केवल तीन हदन र गये थे। प्रताप
ककसी काम से भीतर गया और अपने घर में लैम्प जलाने लगा कक ववरजन
आयी। उसका अंचल आंसुओं से भीगा ु आ था। उसने आज दो वर्ा के अनन्तर
प्रताप की ओर सजल-नेत्र से दे खा और क ा--लल्लू। मुिसे कैसे स ा जाएगा ?
प्रताप के नेत्रों में आंसू न आये। उसका स्वर भारी न ु आ। उसने सुदृढ भाव से
क ा--ईश्वर तम् ु ें िैया िारण करने की शष्क्त दें गे।
थोडी दे र में पालकी द्वार पर आयी। ववरजन पडोस की ससत्र्यों से गले समली।
सव
ु ामा के चरण छुए, तब दो-तीन ष्स्त्रयों ने उसे पालकी के भीतर त्रबठा हदया।
उिर पालकी उठी, इिर सुवामा मूष्च्छा त ो भूसम पर धगर पडी, मानों उसके
जीते ी कोई उसका प्राण ननकालकर सलये जाता था। घर सूना ो गया। सैकंडों
ष्स्त्रयों का जमघट था, परन्तु एक ववरजन के त्रबना घर िाडे खाता था।
***
12. कमलाचरण के समत्र
चन्दल
ू ाल--समत्र, तुम बडे भाग्यवान ो।
मजीद--तो भई, य दोस्ती ककस हदन काम आयेगी। एक नजर में भी हदखाओं।
चन्दल
ू ाल--दोस्ती में क्या पदाा ? अंग्रेजो को दे खों,बीबी डोली से उतरी न ीं कक
यार दोस्त ाथ समलाने लगे।
मजीद--भई कमलाचरण, बुरा मानने की बात न ीं, अब इस वक्त तुम् ारा िजा
ै कक दोस्तों की िरमाइश पूरी करो।
चन्दल
ू ाल--वा मेरे शेर। ये ी मदों की सी बातें ै । तो म लोग बन-ठनकर आ
जायॅ, क्यों?
सैयद--तो आज ी ठ री न।
इिर तो शराब उड र ी थी, उिर ववरजन पलंग पर लेटी ु ई ववचार में मग्न ो
र ी थी। बचपन के हदन भी कैसे अच्छे ोते ैं। यहद वे हदन एक बार किर आ
जाते। ओ । कैसा मनौ र जीवन था। संसार प्रेम और प्रीनत की खान थी। क्या
व कोई अन्य संसार था ? क्या उन हदनों संसार की वस्तुए ब ु त सुन्दर ोती
थी? इन् ीं ववचारों में ऑख िपक गयी और बचपन की एक घटना आंखों के
सामने आ गयी। लल्लू ने उसकी गडु डया मरोड दी। उसने उसकी ककताब के दो
पन्ने िाड हदये। तब लल्लू ने उसकी पीठ मं जोर से चुटकी ली, बा र भागा।
व रोने लगी और लल्लू को कोस र ी थी कक सवामा उसका ाथ पकडे आयी
और बोली--क्यों बेटी इसने तुम् ें मारा ै न ? य ब ु त मार-मार कर भागता
ै । आज इसकी खबर लेती ं , दे खूं क ां मारा ै । लल्लू ने डबडबायी ऑखों से
ववरजन की ओर दे खा। तब ववरजन ने मस्
ु करा कर क ा--मि
ु े उन् ांने क मारा
ै । ये मुिे कभी न ीं मारते। य क कर उसका ाथ पकड सलया। अपने ह स्से
की समठाई खखलाई और किर दोनों समलकर खेलने लगे। व समय अब क ां।
रात्रत्र अधिक बीत गयी थी, अचानक ववरजन को जान पडा कक कोई सामने वाली
दीवार िमिमा र ा ै । उसने कान लगाकर सन
ु ा। बराबर शब्द आ र े थे। कभी
रूक जाते किर सुनायी दे त।े थोडी दे र में समट्टी धगरन लगी। डर के मारे ववरजन
के ाथ-पांव िूलने लगे। कलेजा िक-िक करने लगा। जी कडा करके उठी और
म राष्जन चतर स्त्री थी। समिी कक धचल्लाऊंगी तो जाग ो जायेगी। उसने सुन
रखा था कक चोर पह ले सेि में पांव डालकर दे खते ै तब आप घुसते ै । उसने
एक डंडा उठा सलया कक जब पैर डालेगा तो ऐसा तानकर मारूंगी कक ट ग टूट
जाएगी। पर चोर न पांव के स्थन पर ससर रख हदया। म राष्जन घात में थी ी
डंडा चला हदया। खटक की आवाज आयी। चोर ने िट ससंर खीच सलया और
क ता ु आ सुनायी हदया--‘उि मार डाला, खोपडी िन्ना गयी’। किर कई मनुष्यों
के ॅसने की ध्वनन आयी और तत्पश्चात सन्नाटा ो गया। इतने में और लोग
भी जाग पडे और शेर् रात्रत्र बातचीत में व्यतीत ु ई।
म ाराष्जन –- मेरी जान में तो छोटे बाबू थे। मैंने जो लकडी मारी थी, व उनके
ससर में लगी। ससर िूला ु आ ै।
इतना सन
ु ते ी ववरजन की भक
ृ ु टी चढ़ गयी। मख
ु मंडल अरुण ो आया। क्रुद्व
ोकर बोली –- म राष्जन, ोश संभालकर बातें करो। तुम् ें य
क ते ु ए लाज
न ीं आती? तम् ें मेरे सम्मुख ऐसी बात क ने का सा स कैसे ु आ? साक्षात ्
मेरे ऊपर कलंक का टीका लगा र ी ो। तुम् ारे बुढ़ापे पर दया आती ै , न ीं तो
अभी तुम् ें य ां से खडे-खडे ननकलवा दे ती। तब तुम् ें ववहदत ोता कक जीभ को
वश में न रखने का क्या िल ोता ै ! य ां से उठ जाओ, मि
ु े तम्
ु ारा मंु
दे खकर ज्वर-सा चढ़ र ा ै । तुम् ें इतना न समि ् पडा कक मैं कैसा वाक्य मुं
से ननकाल र ी ूं । उन् ें ईश्वर ने क्या न ीं हदया ै ? सारा घर उनका ै । मेरा
जो कुछ ै , उनका ै । मैं स्वयं उनकी चेरी ूं । उनके संबंि में तुम ऐसी बात
क बैठीं।
***
13. कायापलट
चन्दल
ु ाल –- चैन कर र ा ै पट्ठा। जब से सन्
ु दरी घर में आयी, उसने बाजार की
सरू त तक न ीं दे खी। जब दे खीये, घर में घस
ु ा र ता ै । खब
ू चैन कर ले यार!
कमला -– चैन क्या खाक करुं ? य ां तो कैद में िंस गया। तीन हदन से बोडडिंग
में पडा ु आ ूं ।
मजीद -- अरे ! खद
ु ा की कसम?
रामसेवक –- खब
ू उडे। व मछ
ु ं दर सप
ु ररण्टे ण्डण्ट िल्ला र ा ोगा।
‘मि
ु े ज्ञात न ीं था, अब ध्यान रखंग
ू को जब कमला चारपाई पर लेटा तो
सोचने लगा –- यार, आज तो बच गया, पर उत्तम तभी ो कक कल बचूं। और
परसों भी म ाशय की आंख में िल
ू डालं।ू कल का दृश्य वस्तत
ु :दशानीय ोगा।
पतंग आकाश में बातें करें गे और लम्बे -लम्बे पें च ोंगे। य ध्यान करते-करते
सो गया। दस
ू रे हदन प्रात: काल छात्रालय से ननकल भागा। सुहृदगण लाल डडग्गी
पर उसकी प्रतीक्षा कर र े थे। दे खते ी गदगद् ो गये और पीठ ठोंकी।
प्रेमवती -– (ववस्मय से) मैंने तुम् ारी कोई चीज़ न ीं छुई! क्या ु आ?
कमला –- (त्रबगडकर) िूठों के मुख में कीडे पडते ैं। तुमने मेरी वस्तुएं न ीं छुई
तो ककसको सा स ै जो मेरे कमरे में जाकर मेरे कनकौए और चखखायां सब
तोड-िोड डाले, क्या इतना भी न ीं दे खा जाता।
प्रेमवती -– ईश्वर साक्षी ै । मैंने तुम् ारे कमरे में पांव भी न ीं रखा। चलो, दे खूं
कौन-कौन चीज़ें टूटी ैं। य क कर प्रेमवती तो इस कमरे की ओर चली और
कमला क्रोि से भरा आंगन में खडा र ा कक इतने में मािवी ववरजन के कमरे
से ननकली और उसके ाथ में एक धचट्टी दे कर चली गयी। सलखा ु आ था--
‘अपराि मैंने ककया ै । अपराधिन मैं ूं । जो दण्ड चा े दीष्जए’।
“वप्रयतम,
य कोप ककस पर ै ? केवल इसीसलए कक मैंने दो-तीन कनकौए िाडृ डाले? यहद
मि
ु े ज्ञात ोता कक आप इतनी-सी बात पर ऐसे क्रुद्व ो जायेंगे, तो कदावप उन
पर ाथ न लगाती। पर अब तो अपराि ो गया, क्षमा कीष्जये। य प ला
कसूर ै
आपकी
वज
ृ रानी।”
कमलाचरण य पत्र पाकर ऐसा प्रमुहदत ु आ, माने सारे जगत की संपष्त्त प्राप्त
ो गयी। उत्तर दे ने की इच्छा ु ई, पर लेखनी ी न ीं उठती थी। न प्रशष्स्त
समलती ै , न प्रनतष्ठा, न आरं भ का ववचार आता, न समाष्प्त का। ब ु त चा ते
ैं कक भावपण ू ा ल ल ाता ु आ पत्र सलखंू, पर बद्
ु वव तननक भी न ीं दौडती।
आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मुखत
ा ा और ननरक्षरता पर रोना आया।
शोक ! मैं एक सीिा-सा पत्र भी न ीं सलख सकता। इस ववचार से व रोने लगा
और घर के द्वार सब बन्द कर सलये कक कोई दे ख न ले।
तीसरे प र जब मंश
ु ी श्यामाचरण घर आये , तो सबसे प ली वस्तु जो उनकी
दृष्ष्ट में पडी, व आग का अलावा था। ववष्स्मत ोकर नौकरों से पूडा-य
अलाव कैसा?
मंश
ु ीजी-- कबत
ू र क ााँ गये?
क ार--सब उडा हदये, एक भी न ीं रखा। कनकौए सब िाड डाले, डोर जला दी,
बडा नुकसान ककया।
क रों ने अपनी समि में मार-पीट का बउला सलया। बेचारे समिे कक मंश
ु ीजी
इस नुकासन के सलये कमलाचरण को बुरा-भला क ें गे, परन्तु मंशीजी ने य
समाचार सुना तो भैंचक्के-से र गये। उन् ी जानवरों पर कमलाचरण प्राण दे ता
था, आज अकस्मात ् क्या कायापलट ो गयी? अवश्य कुछ भेद ै । क ार से
क ा- बच्चे को भेज दो।
अब जाकर दब
ु वुा ि कमलाचरण ने वपता की इस घबरा ट का अथा समिा।
दौडकर उनसे सलपट गया और बोला-- आपको भ्रम ु आ ै । आपके ससर की
कसम, मैं ब ु त अच्छी तर ू ाँ ।
वज
ृ रानी की ववदाई के पश्चात सुवामा का घर ऐसा सूना ो गया, मानो वपंजरे
से सुआ उड गया। व इस घर का दीपक और शरीर की प्राण थी। घर व ी ै,
पर चारों ओर उदासी छायी ु ई ै । र नेचाला वे ी ै । पर सबके मुख मसलन
और नेत्र ज्योनत ीन ो र े ै । वाहटका व ी ै , पर ऋतु पतिड की ै । ववदाई
के एक मास पश्चात्र मश
ंु ी संजीवनलाल भी तीथायात्र करने चले गये। िन-संपष्त्त
सब प्रताप को ससमापत कर दी। अपने सग मग
ृ छाला, भगवद् गीता और कुछ
पुस्तकों के अनतररक्त कुछ न ले गये।
प्रताचन्र की प्रेमाकांक्षा बडी प्रबल थीं पर इसके साथ ी उसे दमन की असीम
शष्क्त भी प्राप्त थी। घर की एक-एक वस्तु उसे ववरजन का स्मरण कराती
र ती थी। य ववचार एक क्षण के सलए भी दरू न ोता था यहद ववरजन मेरी
ोती, तो ऐसे सुख से जीवन व्यतीत ोता। परन्तु ववचार को व टाता र ता
था। पढ़ने बैठता तो पुस्तक खुली र ती और ध्यान अन्यत्र जा प ुं चता। भोजन
करने बैठता तो ववरजन का धचत्र नेत्रों में किरने लगता। प्रेमाष्ग्न को दमन की
शष्क्त से दबाते-दबाते उसकी अवस्था ऐसी ो गयी, मानो वर्ों का रोगी ै
प्रेसमयों को अपनी असभलार्ा परू ी ोने की आशा ो यान ो, परन्तु वे मन- ी-
मन अपनी प्रेसमकाओं से समलने का आनन्द उठाते र ते ै । वे भाव-संसार मे
अपने प्रेम-पात्र से वाताालाप करते ैं , उसे छोडते ैं , उससे रुठते ैं , उसे मनाते ै
और इन भावों में उन् ें तष्ृ प्त ोती ै और मन को एक सख
ु द और रसमय काया
समल जाता ै । परन्तु यहद कोई शष्क्त उन् ें इस भावोद्यान की सैर करने से
रोके, यहद कोई शष्क्त ध्यान में भी उस वप्रयतम का धचत्र ् न दे खने दे , तो उन
अभागों प्रेसमयों को क्या दशा ोगा? प्रताप इन् ी अभागों में था। इसमें संदे
न ीं कक यहद व चा ता तो सुखद भावों का आनन्द भोग सकता था। भाव-
संसार का भ्रमणअतीव सख
ु मय ोता ै , पर कहठनता तो य थी कक व
ववरजन का ध्यान भी कुष्त्सत वासनाओं से पववत्र रखना चा ता था। उसकी
सशक्षा ऐसे पववत्र ननयमों से
ु ई थी और उसे ऐसे पववत्रत्माओं और नीनतपरायण
मनुष्यों की संगनत से लाभ उठाने क अवसर समले थे कक उसकी दृष्ष्ट में ववचार
की पववत्र्ता की भी उतनी ी प्रनतष्ठा थी ष्जतनी आचार की पववत्रता की। य
कब संभव था कक व ववरजन को-ष्जसे कई बार बह न क चक
ु ा था और ष्जसे
अब भी बह न समिने का प्रयत्न करता र ता था- ध्यानावस्था में भी ऐसे भावों
का केंर बनाता, जो कुवासनाओं से भले ी शुद्व ो, पर मन की दवू र्त आवेगों
से मुक्त न ीं ो सकते थे जब तक मुन्शीजी संजीवनलाल ववद्यमान थे, उनका
कुछ-न-कुछ समय उनके संग ज्ञान और िमा-चचाा में कट जाता था, ष्जससे
आत्मा को संतोर् ोता था ! परन्तु उनके चले जाने के पश्चात आत्म-सुिार का
य अवसर भी जाता र ा।
सुवामा उसे यों मसलन-मन पाती तो उसे ब ु त द:ु ख ोता। एक हदन उसने क ा-
यहद तुम् ारा धचत्त न लगता ो, प्रयाग चले जाओ व ााँ शायद तम्
ु ारा जी लग
जाए। य ववचार प्रताप के मन में भी कई बार उत्पन्न ु आ था, परन्तु इस
भय से कक माता को य ां अकेले र ने में कष्ट ोगा, उसने इस पर कुछ ध्यान
न ीं हदया था। माता का आदे श पाकर इरादा पक्का ो गया। यात्रा की तैयाररयां
करने लगा, प्रस्थान का हदन ननष्श्चत ो गया। अब सुवामा की य दशा ै कक
जब दे खखए, प्रताप को परदे श में र ने-स ने की सशक्षाएं दे र ी ै -बेटा, दे खों
ककसी से िगडा मत मोल लेना।िगडने की तुम् ारी वैसे भी आदत न ीं ै,
परन्तु समिा दे ती ू ाँ। परदे श की बात ै िंू क-िंू ककर पग िरना। खाने-पीने में
असंयम न करना। तुम् ारी य बरु ी आदत ै कक जाडों में सांयकाल ी सो जाते
ो, किर कोई ककतना ी बुलाये पर जागते ी न ीं। य स्वभाव परदे श में भी
बना र े तो तुम् ें सांि का भोजन का े को समलेगा? हदन को थोडी दे र के सलए
सो सलया करना। तुम् ारी आंखों में तो हदन को जैसे नींद न ीं आती।
उसे जब अवकाश समला, बेटे को ऐसी समयोधचत सशक्षाएं हदया करती। ननदान
प्रस्थान का हदन आ ी गया। गाडी दस बजे हदन को छूटती थी। प्रताप ने
सोचा- ववरजन से भें ट कर ल।ूं परदे श जा र ा ू ाँ। किर न जाने कब भें ट ो।
धचत को उत्सुक ककया। माता से क बैठा। सुवामा ब ु त प्रसन्न ु ई। सुवामा
ब ु त प्रसन्न ु ई। एक थाल में मोदक समोसे और दो-तीन प्रकार के मरु ब्बे
रखकर रधियाको हदये कक लल्लू के संग जा। प्रताप ने बाल बनवाये, कपडे
बदले। चलने को तो चला, पर ज्यों-ज्यों पग आगे उठाता ै , हदल बैठा जाता ै।
भांनत-भांनत के ववचार आ र े ै । ववरजन न जाने क्या मन में समिे, क्या सन
समिे। चार म ीने बीत गये, उसने एक धचट्ठी भी तो मुिें अलग से न ीं सलखी।
किर क्योंकर क ूं कक मेरे समलने से उसे प्रसन्नता ोगी। अजी, अब उसे तम्
ु ारी
धचन्ता ी क्या ै ? तुम मर भी जाओ तो व आंसू न ब ाये। य ां की बात और
थी। व अवश्य उसकी आाँखों में खटकेगा। क ीं य न समिे कक लालाजी बन-
ठनकर मुिे ररिाने आये ैं। इसी सोच-ववचार में गढ़ता चला जाता था। य ााँ
तक कक श्यामाचरण का मकान हदखाई दे ने लगा। कमला मैदान ट ल र ा था
उसे दे खते ी प्रताप की व दशा ो गई कक जो ककसी चोर की दशा ससपा ी को
दे खकर ोती ै िट एक घर कर आड में नछप गया और रधिया से बोला- तू
जा, ये वस्तए
ु ाँ दे आ। मैं कुछ काम से बाजार जा र ा ू ाँ। लौटता ु आ जाऊाँगा।
य क कर बाजार की ओर चला, परन्तु केवल दस ी डग चला ोेेगा कक
वपर म री को बुलाया और बोला- मुिे शायद दे र ो जाय, इससलए न आ
सकूाँगा। कुछ पूछे तो य धचट्ठी दे दे ना, क कर जेब से पेष्न्सल ननकाली और
कुछ पंष्क्तयां सलखकर दे दी, ष्जससे उसके हृदय की दशा का भली-भंनत पररचय
समलता ै।
तुम् ारा
प्रताप”
ववरजन ने घडी पर दृष्ष्ट डाली, आठ बजने वाले थे। प्रेमवती के पास जाकर
बोली -– माता! लल्लू आज प्रयाग जा र े ैं, हद आप क ें तो उनसे समलती
आऊं। किर न जाने कब समलना ो, कब न ो। म री क ती ै कक बस
मुिसेसमलने आते थे, पर सडक के उसी पार से लौट गये।
प्रेमवती -– अच्छा, तो जाओ, पर संध्या तक लौट आना। गाडी तैयार करवा लो,
मेरी ओर से सुवामा को पालगन क दे ना।
***
15. कताव्य और प्रेम का िंघर्ा
प्रताप-- उस समय लौट जाने का ष्जतना द:ु ख मुिे ु आ, मेरा धचत्त ी जानता
ै । तुमने उस समय तक मेरे पास कोई पत्र न भेजा था। मैंने सि, अब सि
ु
भल
ू गयी।
कमला और वज
ृ रानी में हदनोंहदन प्रीनत बढ़ने लगी। एक प्रेम का दास था, दस
ू री
कत्ताव्य की दासी। सम्भव न था कक वज
ृ रानी के मुख से कोई बात ननकले और
कमलाचरण उसको पूरा न करे । अब उसकी तत्परता और योग्यता उन् ीं प्रयत्नों
में व्यय ोती थी । पढ़ना केवल माता-वपता को िोखा दे ना था। व सदा रुख
दे ख करता और इस आशा पर कक य काम उसकी प्रसन्न्त का कारण ोगा,
सब कुछ करने पर कहटबद्व र ता। एक हदन उसने मािवी को िुलवाडी से िूल
चुनते दे खा। य छोटा-सा उद्यान घर के पीछे था। पर कुटुम्ब के ककसी व्यष्क्त
को उसे प्रेम न था, अतएव बार ों मास उस पर उदासी छायी र ती थी। वज
ृ रानी
को िूलों से ाहदा क प्रेम था। िुलवाडी की य दग
ु ना त दे खी तो मािवी से क ा
कक कभी-कभी इसमं पानी दे हदया कर। िीरे -िीरे वाहटका की दशा कुछ सि
ु र
चली और पौिों में िूल लगने लगे। कमलाचरण के सलए इशारा ब ु त था। तन-
मन से वाहटका को सुसष्ज्जत करने पर उतारु ो गया। दो चतुर माली नौकर
रख सलये। ववववि प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पुष्प और पौिे लगाये जाने लगे।
ॉँ
भ नत-भ ॉँ
नतकी घासें और पष्त्तय ॉँ गमलों में सजायी जाने लगी, क्याररय ॉँ और
रववशे ठीक की जाने लगीं। ठौर-ठौर पर लताऍ ं चढ़ायी गयीं। कमलाचरण सारे
हदन ाथ में पस्
ु तक सलये िुलवाडी में ट लता र ता था और मासलयों को
वाहटका की सजावट और बनावट की ताकीद ककया करता था, केवल इसीसलए
कक ववरजन प्रसन्न ोगी। ऐसे स्ने -भक्त का जाद ू ककस पर न चल जायगा।
एक हदन कमला ने क ा-आओ, तुम् ें वाहटका की सैर करााँऊ। वज
ृ रानी उसके
साथ चली।
च दॉँ ननकल आया था। उसके उज्ज्वल प्रकाश में पष्ु प और पत्ते परम
शोभायमान थे। मन्द-मन्द वायु चल र ा था। मोनतयों और बेले की सुगष्न्ि
मष्स्तर्क को सुरसभत कर र ी थीं। ऐसे समय में ववरजन एक रे शमी साडी और
एक सुन्दर स्लीपर पह ने रववशों में ट लती दीख पडी। उसके बदन का ववकास
िूलों को लष्ज्जत करता था, जान पडता था कक िूलों की दे वी ै । कमलाचरण
बोला--आज पररश्रम सिल ो गया।
तीन वर्ा व्यतीत ो गये। व उनके जीवन के तीन शुभ वर्ा थे। चौथे वर्ा का
आरम्भ आपष्त्तयों का आरम्भ था। ककतने ी प्राखणयों को सांसार की सुख-
सामधग्रय ॉँ इस पररमाण से समलती ै कक उनके सलए हदन सदा ोली और रात्रत्र
सदा हदवाली र ती ै । पर ककतने ी ऐसे तभाग्य जीव ैं , ष्जनके आनन्द के
हदन एक बार त्रबजली की भााँनत चमककर सदा के सलए लप्ु त ो जाते ै ।
वज
ृ रानी उन् ीं अभागें में थी। वसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु चल र ी थी।
सरदी ऐसे कडाके की पडती थी कक कुओं का पानी जम जाता था। उस समय
नगरों में प्लेग का प्रकोप ु आ। स स्रों मनुष्य उसकी भें ट ोने लगे। एक हदन
ब ु त कडा ज्वर आया, एक धगल्टी ननकली और चल बसा। धगल्टी का ननकलना
मानो मत्ृ यु का संदश था। क्या वैद्य, क्या डाक्टर ककसी की कुछ न चलती थी।
सैकडो घरों के दीपक बुि गये। स स्रों बालक अनाथ और स स्रों वविवा ो
गयी। ष्जसको ष्जिर गली समली भाग ननकला। प्रत्येक मनष्ु य को अपनी-अपनी
पडी ु ई थी। कोई ककसी का स ायक और ह तैर्ी न था। माता-वपता बच्चों को
छोडकर भागे। स्त्रीयों ने परु र्ों से सम्बन्ि पररत्याग ककया। गसलयों में , सडको
पर, घरों में ष्जिर दे खखये मत
ृ कों को ढे र लगे ु ए थे। दक
ु ाने बन्द ो गयी।
द्वारों पर ताले बन्द ो गया। चुतुहदा क िूल उडती थी। कहठनता से कोई
जीविारी चलता-किरता हदखायी दे ता था और यहद कोई कायावश घर से ननकला
पडता तो ऐसे शीघ्रता से प व उठाता मानों मत्ृ यु का दत
ू उसका पीछा करता आ
र ा ै । सारी बस्ती उजड गयी। यहद आबाद थे तो कत्रब्रस्तान या श्मशान। चोरों
और डाकुओं की बन आयी। हदन–दोप र तोल टूटते थे और सूया के प्रकाश में
सेंिें पडती थीं। उस दारुण द:ु ख का वणान न ीं ो सकता।
वज
ृ रानी ने जब य
बात सुनी तो उसे ब ु त द:ु ख ु आ। वज
ृ रानी यद्यवप
समिती थी कक कमला का ध्यान पढ़ने में न ीं लगता; पर जब-तब य अरुधच
उसे बरु ी न लगती थी, बष्ल्क कभी-कभी उसका जी चा ता कक आज कमला का
स्कूल न जाना अच्छा था। उनकी प्रेममय वाणी उसके कानों का ब ु त प्यारी
मालम
ू ोती थी। जब उसे य ज्ञात ु आ कक कमला ने प्रयाग जाना अस्वीकार
ककया ै और लालाजी ब ु त समि र े ैं , तो उसे और भी द:ु ख ु आ क्योंकक
उसे कुछ हदनों अकेले र ना स य था, कमला वपता को आज्ञज्ञेल्लघंन करे , य
सह्रय न था। मािवी को भेजा कक अपने भैया को बुला ला। पर कमला ने जग
से ह लने की शपथ खा ली थी। सोचता कक भीतर जााँऊगा, तो व अवश्य प्रयाग
जाने के सलए क े गी। व क्या जाने कक य ााँ हृदय पर क्या बीत र ी ै । बातें
तो ऐसी मीठी-मीठी करती ै , पर जब कभी प्रेम-परीक्षा का समय आ जाता ै
तो कत्ताव्य और नीनत की ओट में मुख नछपाने लगती ै । सत्य ै कक स्त्रीयों में
प्रेम की गंि ी न ीं ोती।
मिगााँव
‘वप्रयतम,
कैसी मूखत
ा ा ै ! कैसी समथ्या भष्क्त ै ! ये भावनाऍ ं हृदय पर वज्रलीक ो गयी
ै । बालक बीमार ु आ कक भूत की पूजा ोने लगी। खेत-खसल ान में भूत का
भोग ज ााँ दे खखये, भत ू दीखते ैं। य ॉँ न दे वी ै , न दे वता। भत
ू - ी-भत ू ों का ी
साम्राज्य ैं। यमराज य ॉँ चरण न ीं रखते, भूत ी जीव- रण करते ैं। इन
भावों का ककस प्रकार सुिार ो ? ककमधिकम
तुम् ारी
ववरजन
(2)
मिगााँव
प्यारे ,
ब ु त हदनों को पश्चात ् आपकी पेरम-पत्री प्राप्त ु ई। क्या सचमचु पत्र सलखने का
अवकाश न ीं ? पत्र क्या सलखा ै , मानो बेगार टाली ै । तम् ु ारी तो य आदत
न थी। क्या व ॉँ जाकर कुछ और ो गये ? तुम् ें य ॉँ से गये दो मास से
अधिक ोते ै । इस बीच मं कई छोटी-बडी छुहट्टय ॉँ पडी, पर तुम न आये। तुमसे
कर बााँिकर क ती ू ाँ - ोली की छुट्टी में अवश्य आना। यहद अब की बार
तरसाया तो मिु े सदा उला ना र े गा।
लो, अब ववदा ोती ू ाँ। तुम् ारा समय ननरथाक बातो में नष्ट ु आ। क्षमा करना।
तुम् ें पत्र सलखने बैठती ू ाँ , तो लेखनी रुकती ी न ीं। अभी ब ु तेरी बातें सलखने
को पडी ैं। प्रतापचन्र से मेरी पालागन क दे ना।
तम्
ु ारी
ववरजन
(3)
मिगााँव
प्यारे ,
तुम् ारी, प्रेम पत्रत्रका समली। छाती से लगायी। वा ! चोरी और माँु जोरी। अपने न
आने का दोर् मेरे ससर िरते ो ? मेरे मन से कोई पूछे कक तुम् ारे दशना की
उसे ककतनी असभलार्ा प्रनतहदन व्याकुलता के रुप में पररणत ोती ै । कभी-कभी
बेसुि ो जाती ू ाँ। मेरी य दशा थोडी ी हदनों से ोने लगी ै । ष्जस समय
य ााँ से गये ो, मुिे ज्ञान न था कक व ााँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम् ीं
सच और मैं ी िूठ। मुिे बडी प्रसन्नता ु ई कक तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द
ककये। पर प्रतापचन्र को व्यथा हदखाये। वे पत्र बडी असाविानी से सलखे गये ै ।
सम्भव ै कक अशुद्ववयााँ र गयी ों। मिे ववश्वास न ीं आता कक प्रताप ने
उन् ें मूल्यवान समिा ो। यहद वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते ैं कक उनके
स ार से मारे ग्राम्य-जीवन पर कोई रोचक ननबन्ि सलख सकें, तो मैं अपने को
परम भाग्यवान ् समिती ू ाँ।
कल य ााँ दे वीजी की पूजा थी। ल, चक्की, पुर चूल् े सब बन्द थे। दे वीजी की
ऐसी ी आज्ञा
ै । उनकी आज्ञा का उल्लघंन कौन करे ? ु क्का-पानी बन्द ो
जाए। साल-भर मं य ी एक हदन ै , ष्जस गााँवाले भी छुट्टी का समिते ैं।
अन्यथा ोली-हदवाली भी प्रनत हदन के आवश्यक कामों को न ीं रोक सकती।
बकरा चढा। वन ु आ। सत्तू खखलाया गया। अब गााँव के बच्चे-बच्चे को पूणा
ववश्वास ै कक प्लेग का आगमन य ााँ न ो सकेगा। ये सब कौतुक दे खकर
सोयी थी। लगभग बार बजे ोंगे कक सैंकडों मनुष्य ाथ में मशालें सलये
कोला ल मचाते ननकले और सारे गााँव का िेरा ककया। इसका य अथा था कक
इस सीमा के भीतर बीमारी पैर न रख सकेगी। िेरे के सप्ता ोने पर कई
मनुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोडे िूल,पान, चावल, लौंग आहद
पदाथा पथ्
ृ वी पर रख आये। अथाात ् अपने ग्राम की बला दस
ू रे गााँव के ससर डाल
आये। जब ये लोग अपना काया समाप्त करके व ााँ से चलने लगे तो उस
गााँववालों को सन
ु गन
ु समल गयी। सैकडों मनष्ु य लाहठयााँ लेकर चढ़ दौडे। दोनों
पक्षवालों में खूब मारपीट ु ई। इस समय गााँव के कई मनुष्य ल्दी पी र े ैं।
तुम् ारी
ववरजन
(4)
मिगााँव
प्यारे
तम
ु पार्ाणहृदय ो, कट्टर ो, स्ने - ीन ो, ननदा य ो, अकरुण ो िठ
ू ो ो! मैं
तुम् ें और क्या गासलयााँ दाँ ू और क्या कोसाँू ? यहद तुम इस क्षण मेरे सम्मुख
ोते, तो इस वज्रहृदयता का
उत्तर दे ती। मैं क
र ी ू ाँ , तुतम दगाबाज ो। मेरा क्या कर लोगे ? न ीं आते
तो मत आओ। मेरा प्रण लेना चा ते ो, ले लो। रुलाने की इच्छा ै , रुलाओ।
पर मैं क्यों रोँऊ ! मेरी बला रोवे। जब आपको इतना ध्यान न ीं कक दो घण्टे
की यात्रा ै , तननक उसकी सुधि लेता आाँऊ, तो मुिे क्या पडी ै कक रोँऊ और
प्राण खोँऊ ?
ऐसा क्रोि आ र ा ै कक पत्र िाडकर िेंक दाँ ू और किर तुमसे बात न करुं । ााँ !
तम
ु ने मेरी सारी असभलार्ाएं, कैसे घल
ू में समलायी ैं ? ोली! ोली ! ककसी के
मुख से य शब्द ननकला और मेरे हृदय में गुदगुदी ोने लगी, पर शोक ! ोली
बीत गयी और मैं ननराश र गयी। पह ले य शब्द सन
ु कर आनन्द ोता था।
अब द:ु ख ोता ै । अपना-अपना भाग्य ै । गााँव के भूखे-नंगे लाँ गोटी में िाग
खेलें, आनन्द मनावें , रं ग उडावें और मैं अभाधगनी अपनी चारपाइर पर सिेद
साडी पह ने पडी र ू ाँ। शपथ लो जो उस पर एक लाल िब्बा भी पडा ो। शपथ
लें लो जो मैंने अबीर और गुलाल ाथ से छुई भी ो। मेरी इत्र से बनी ु ई
अबीर, केवडे में घोली गल ु ाल, रचकर बनाये ु ए पान सब तम्
ु ारी अकृपा का
रोना रो र े
ैं। मािवी ने जब ब ु त ठ की, तो मैंने एक लाल टीका लगवा
सलया। पर आज से इन दोर्ारोपणों का अन्त ोता ै । यहद किर कोई शब्द
दोर्ारोपण का मुख से ननकला तो जबान काट लाँ ग
ू ी।
लगभग तीन बजे रात्रत्र के िुण्ड ोली माता के पास प ु ाँचा। लडके अष्ग्न-क्रीडाहद
में तत्पर थे। मैं भी कई ष्स्त्रयों के पास गयी, व ााँ ष्स्त्रयााँ एक ओर ोसलयााँ गा
र ी थीं। ननदान ोली म आग लगाने का समय आया। अष्ग्न लगते ी ज्वाल
भडकी और सारा आकाश स्वणा-वणा ो गया। दरू -दरू तक के पेड-पत्ते प्रकासशत
ो गय। अब इस अष्ग्न-रासश के चारों ओर ‘ ोली माता की जय!’ धचल्ला कर
दौडने लगे। सबे ाथों में गे ू ाँ और जौ कक बासलयााँ थीं, ष्जसको वे इस अष्ग्न में
िेंकते जाते थे।
उस समय मेरे द्वार पर एक टाट त्रबछा हदया गया था। लालाजी मध्य में
कालीन पर बैठे थे। ककसान लोग घुटने तक िोनतयााँ बााँिे, कोई कुती पह ने कोई
नग्न दे , कोई ससर पर पगडी बााँिे और नंगे ससर, मुख पर अबीर लगाये- जो
उनके काले वणा पर ववशेर् छटा हदखा र ी थी- आने लगे। जो आता, लालाजी के
पैंरों पर थोडी-सी अबीर रख दे त। लालाली भी अपने तश्तरी में से थोडी-सी अबीर
ननकालकर उसके माथे पर लगा दे ते और मस्
ु कुराकर कोई हदल्लगी की बात कर
दे ते थे। व नन ाल ो जाता, सादर प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न ोकर आ
बैठता, मानो ककसी रं क ने रत्न- रासश पायी ै । मुिे स्पप्न में भी ध्यान न था
कक लालाजी इन उजड्ड दे ानतयों के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वताालाप कर
सकते ैं। इसी बीच में काशी भर आया। उसके ाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी।
व उसमें अबीर सलए ु ए था। उसने अन्य लोगों की भााँनत लालाजी के चरणों
पर अबीर न ीं रखी, ककं तु बडी िष्ृ टता से मुट्ठी-भर लेकर उनके मुख पर भली-
भााँनत मल दी। मैं तो डरी, क ीं लालाजी रुष्ट न ो जायाँ। पर व ब ु त प्रसन्न
ु ए और स्वयं उन् ोंने भी एक टीका लगाने के स्थान पर दोनों ाथों से उसके
मुख पर अबीर मली। उसके सी उसकी ओर इस दृष्ष्ट से दे खते थे कक ननस्संदे
तू वीर ै और इस योग्य ै कक मारा नायक बने। इसी प्रकार एक-एक करके
दो-ढाई सौ मनुष्य एकत्र ु ए ! अचानक उन् ोंने क ा-आज क ीं रािा न ीं दीख
पडता, क्या बात ै ? कोई उसके घर जाके दे खा तो। मुंशी जगदम्बा प्रसाद
अपनी योग्यता प्रकासशत करने का अच्छाअवसी दे खकर बोले उठे - जूर व दिा
13 नं. असलि ऐक्ट (अ) में धगरफ्तार ो गया। रामदीन पांडे ने वारण्ट जारी
करा हदया। रीच्छा से रामदीन पांडे भी व ााँ बैठे ु ए थे। लाला सने उनकी ओर
परम नतरस्कार दृष्ष्ट से दे खा और क ा- क्यों पांडज
े ी, इस दीन को बन्दीग ृ में
बन्द करने से तुम् ारा घर भर जायगा ? य ी मनुष्यता और सशष्टता अब र
गयी ै । तुम् ें तननक भी दया न आयी कक आज ोली के हदन उसे स्त्री और
बच्चों से अलग ककया। मैं तो सत्य क ता ू ाँ कक यहद मैं रािा ोता, तो
बन्दीग ृ से लौटकर मेरा प्रथम उद्योग य ी ोता कक ष्जसने मि ु े य हदन
हदखाया ै , उसे मैं भी कुछ हदनों लदी वपलवा दाँ ।ू तुम् ें लाज न ीं आती कक
इतने बडे म ाजन ोकर तुमने बीस रुपये के सलए एक दीन मनुष्य को इस
प्रकार कष्ट में डाला। डूब मरना था ऐसे लोभ पर! लालाजी को वस्तुत: क्रोि आ
गया था। रामदीन ऐसा लष्ज्जत ु आकक सब ससट्टी-वपट्टी भूल गयी। मुख से बात
न ननकली। चपु के से न्यायालय की ओर चला। सब-के-सब कृर्क उसकी ओर
क्रोि-पूणा दृष्ष्ट से दे ख र े थे। यहद लालाजी का भय न ोता तो पांडज
े ी की
ड्डी-पसली व ीं चूर ो जाती।
इसके पश्चात लोगों ने गाना आरम्भ ककया। मद में तो सब-के-सब गाते ी थे,
इस पर लालजी के भ्रात-ृ भाव के सम्मान से उनके मन और भी उत्साह त ो
गये। खूब जी तोडकर गाया। डिें तो इतने जोर से बजती थीं कक अब िटी और
तब िटीं। जगदम्बाप्रसाद ने द ु रा नशा चढ़ाया था। कुछ तो उनकें मन में स्वत:
उमंग उत्पन्न ु ई, कुछ दस
ू रों ने उत्तेजना दी। आप मध्य सभा में खडा ोकर
नाचने लगे; ववश्वास मानो, नाचने लग। मैंनें अचकन, टोपी, िोती और माँछ
ू ोंवाले
पुरुर् को नाचते न दे खा था। आि घण्टे तक वे बन्दरों की भााँनत उछलते-कूदते
र े । ननदान मद ने उन् ें पथ्
ृ वी पर सलटा हदया। तत्पश्चात ् एक और अ ीर उठा
एक अ ीररन भी मण्डली से ननकली और दोनों चौक में जाकर नाचने लगे। दोनों
नवयुवक िुतीले थे। उनकी कमर और पीठ की लचक ववलक्षण थी। उनके ाव-
भाव, कमर का लचकना, रोम-रोम का िडकना, गदा न का मोड, अंगों का मरोड
दे खकर ववस्मय ोता थां ब ु त अभ्यास और पररश्रम का काया ै।
रािा और तुलसा दोनों अपने घर गये। परन्तु थोडी दे र में तुलसा मािवी का
ाथ पकडे ाँसती ु ई मरे घर आयी बोली- इनसे पछ
ू ो, ये अब तक क ााँ थीं?
मािवी--य ीं तो थी।
मैं-- य ााँ क ााँ थीं? मैंने तो दोप र से न ीं दे खा। सच-सच बता दो मैं रुष्ट न
ोँऊगी।
अब ववदा ोती ू ाँ। अपराि क्षमा करना। तुम् ारी चेरी ू ाँ जैसे रखोगे वैसे र ू ाँगी।
य अबीर और गुलाल भेजती ू ाँ। य तुम् ारी दासी का उप ार ै । तुम् ें मारी
शपथ समथ्या सभ्यता के उमंग में आकर इसे िेंक न दे ना, न ीं तो मेरा हृदय
दख
ु ी ोगा।
तुम् ारी,
ववरजन
(5)
मिगााँव
‘प्यारे !
अनथाकारी दद
ु े व ने सारा खेल त्रबगाड हदया ! प्रात:काल स्त्रीयााँ गाती
ु ई जा र ी
थीं। सन्ध्या को घर-घर शोक छाया ु आ था। ककतना के ससर ल ू -लु ान ो गये,
ककतने ल्दी पी र े ैं। खेती सत्यानाश ो गयी। अनाज बिा के तले दब गया।
ज्वर का प्रकोप ैं सारा गााँव अस्पताल बना ु आ ै । काशी भर का भववष्य
प्रवचन प्रमाखणत ु आ। ोली की ज्वाला का भेद प्रकट ो गया। खेती की य
दशा और लगान उगा ा जा र ा ै । बडी ववपष्त्त का सामना ै । मार-पीट, गाली,
अपशब्द सभी सािनों से काम सलया जा र ा ै । दोंनों पर य दै वी कोप!
तम्
ु ारी
ववरजन
(6)
मिगााँव
मेरे प्राणधिक वप्रयतम,
तुम् ारी
ववरजन
(7)
मिगााँव
प्यारे ,
य ााँ इन हदनों मुगसलये ऊिम मचा र े ैं। ये लोग जाडे में कपडे उिार दे दे ते
ैं और चैत में दाम वसूल करते ैं। उस समय कोई ब ाना न ीं सुनते। गाली-
गलौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आते ैं। दो-तीन मनष्ु यों को ब ु त मारा।
रािा ने भी कुछ कपडे सलये थे। उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गासलयााँ दे ने
लगे। तुलसा ने भीतर से ककवाड बन्द कर हदये। जब इस प्रकार बस न चला, तो
एक मो नी गाय को खूट
ाँ े से खोलकर खींचते ु ए ले चला। इतने मं रािा दरू से
आता हदखाई हदया। आते ी आते उसने लाठी का व ाथ मारा कक एक
मगु सलये की कलाई लटक पडी। तब तो मग ु सलये कुवपत ु ए, पैंतरे बदलने लगे।
रािा भी जान पर खेन गया और तीन दष्ु टों को बेकार कर हदया। इतने काशी
भर ने आकर एक मुगसलये की खबर ली। हद लूराय को मुगासलयों से धचढ़ ै।
सासभमान क ा करते ैं कक मैंने इनके इतने रुपये डुबा हदये इतनों को वपटवा
हदया कक ष्जसका ह साब न ीं। य कोला ल सुनते ी वे भी प ु ाँच गये। किर तो
सैकडो मनष्ु य लाहठयााँ ले-लेकर दौड पडे। उन् ोंने मग
ु सलयों की भली-भााँनत सेवा
की। आशा ै कक इिर आने का अब सा स न ोगा।
तुम् ारी
ववरजन
***
18. प्रतापचन्र और कमलाचरण
प्रतापचन्र को प्रयाग कालेज में पढ़ते तीन साल ो चुके थे। इतने काल में
उसने अपने स पाहठयों और गुरुजनों की दृष्ष्ट में ववशेर् प्रनतष्ठा प्राप्त कर ली
थी। कालेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था ज ााँ उनकी प्रनतभा न प्रदसशात
ु ई ो। प्रोिेसर उस पर असभमान करते और छात्रगण उसे अपना नेता समिते
ैं। ष्जस प्रकार क्रीडा-क्षेत्र में उसका स्तलाघव प्रशंसनीय था, उसी प्रकार
व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और सूक्ष्मदसशाता प्रमाखणत थी। कालेज से
सम्बद्व एक समत्र-सभा स्थावपत की गयी थी। नगर के सािारण सभ्य जन,
कालेज के प्रोिेसर और छात्रगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का
उज्ज्वल चन्र था। य ां दे सशक और सामाष्जक ववर्यों पर ववचार ु आ करते थे।
प्रताप की वक्तत
ृ ाऍ ं ऐसी ओजष्स्वनी और तका-पण
ू ा ोती थीं की प्रोिेसरों को भी
उसके ववचार और ववर्यान्वेर्ण पर आश्चया ोता था। उसकी वक्तत
ृ ा और उसके
खेल दोनों ी प्रभाव-पूणा ोते थे। ष्जस समय व अपने सािारण वस्त्र पह ने
ु ए प्लेटिामा पर जाता, उस समय सभाष्स्थत लोगों की आाँखे उसकी ओर
एकटक दे खने लगती और धचत्त में उत्सकु ता और उत्सा की तरं गें उठने
लगती। उसका वाक्चातय
ु ा उसक संकेत और मद
ृ ल
ु उच्चारण, उसके अंगों-पांग की
गनत, सभी ऐसे प्रभाव-पूररत ोते थे मानो शारदा स्वयं उसकी स ायता करती
ै । जब तक व प्लेटिामा पर र ता सभासदों पर एक मोह नी-सी छायी र ती।
उसका एक-एक वाक्य हृदय में सभद जाता और मुख से स सा ‘वा -वा !’ के
शब्द ननकल जाते। इसी ववचार से उसकी वक्तत
ृ ाऍ ं प्राय: अन्त में ु आ करती
थी क्योंकक ब ु तिा श्रोतागण उसी की वाक्तीक्ष्णता का आस्वादन करने के सलए
आया करते थे। उनके शब्दों और उच्चारणों में स्वाभाववक प्रभाव था। साह त्य
और इनत ास उसक अन्वेर्ण और अध्ययन के ववशेर् थे। जानतयों की उन्ननत
और अवननत तथा उसके कारण और गनत पर व प्राय: ववचार ककया करता था।
इस समय उसके इस पररश्रम और उद्योग के प्ररे क तथा वद्ावक ववशेर्कर
श्रोताओं के सािव
ु ाद ी ोते थे और उन् ीं को व अपने कहठन पररश्रम का
पुरस्कार समिता था। ााँ, उसके उत्सा की य गनत दे खकर य अनुमान
ककया जा सकता था कक व ोन ार त्रबरवा आगे चलकर कैसे िूल-िूल लायेगा
और कैसे रं ग-रुप ननकालेगा। अभी तक उसने क्षण भी के सलए भी इस पर
ध्यान न ीं हदया था कक मेरे अगामी जीवन का क्या स्वरुप ोगा। कभी सोचता
कक प्रोिेसर ो जााँऊगा और खब
ू पस्
ु तकें सलखग
ूाँ ा। कभी वकील बनने की भावना
करता। कभी सोचता, यहद छात्रवष्ृ त्त प्राप्त ोगी तो ससववल सववसा का उद्योग
करुं गा। ककसी एक ओर मन न ीं हटकता था।
कमलाचरण ष्जस समय प्रयाग प ु ाँचा, प्रतापचन्र ने उसका बडा आदर ककया।
समय ने उसके धचत्त के द्वेर् की ज्वाला शांत कर दी थी। ष्जस समय व
ववरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस प ु ाँचा था और उससे भें ट ोते ी
ववरजन की दशा सुिर चली थी, उसी समय प्रताप चन्र को ववश्वास ो गया था
कक कमलाचरण ने उसके हृदय में व स्थान न ीं पाया ै जो मेरे सलए सरु क्षक्षत
ै। य ववचार द्वेर्ाष्ग्न को शान्त करने के सलए कािी था। इससे अनतररक्त
उसे प्राय: य ववचार भी उद्ववगन ककया करता था कक मैं ी सुशीला का
प्राणघातक
ू ाँ। मेरी ी कठोर वाखणयों ने उस बेचारी का प्राणघात ककया और
उसी समय से जब कक सश ु ील ने मरते समय रो-रोकर उससे अपने अपरािों की
क्षमा मााँगी थी, प्रताप ने मन में ठान सलया था। कक अवसर समलेगा तो मैं इस
पाप का प्रायष्श्चत अवश्य करुं गा। कमलाचरण का आदर-सत्कार तथा सशक्षा-
सि
ु ार में उसे ककसी अंश में प्रायष्श्चत को पण
ू ा करने का अपव
ू ा अवसर प्राप्त
ु आ। व उससे इस प्रकार व्यव ार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपने समय
का कुछ भाग उसकी स ायता करने में व्यय करता और ऐसी सुगमता से
सशक्षक का कत्तावय पालन करता कक सशक्षा एक रोचक कथा का रुप िारण कर
लेती।
कमला ने इिर सााँस तोडी और ववरजन एक भयानक स्वप्न दे खकर चौंक पडी।
सरयूदेवी ने ववरजन का सो ाग लूट सलया।
***
19. द:ु ि-दिा
सौभाग्यवती स्त्री के सलए उसक पनत संसार की सबसे प्यारी वस्तु ोती ै। व
उसी के सलए जीती और मारती ै । उसका ाँसना-बोलना उसी के प्रसन्न करने के
सलए और उसका बनाव-श्रंग
ृ ार उसी को लभ
ु ाने के सलए ोता ै । उसका सो ाग
जीवन ै और सो ाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त ै।
कमलाचरण की अकाल-मत्ृ यु वज
ृ रानी के सलए मत्ृ यु से कम न थी। उसके जीवन
की आशाएाँ और उमंगे सब समट्टी मे समल गयीं। क्या-क्या असभलार्ाएाँ थीं और
क्या ो गय? प्रनत-क्षण मत
ृ कमलाचरण का धचत्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता
र ता। यहद थोडी दे र के सलए उसकी ऑखें िपक जातीं, तो उसका स्वरुप
साक्षात नेत्रों कें सम्मुख आ जाता।
इस दघ
ु ट
ा नाओं ने उसके स्वभाव और व्यव ार में अकस्मात्र बडा भारी पररवतान
कर हदया।बात-बात पर ववरजन से धचढ़ जाती और कटूष्क्त्तयों से उसे जलाती।
उसे य भ्रम ो गया कक ये सब आपाष्त्तयााँ इसी ब ू की लायी ई ै । य ी
अभाधगन जब से घर आयी, घर का सत्यानाश ो गया। इसका पौरा ब ु त
ननकृष्ट ै । कई बार उसने खुलकर ववरजन से क भी हदया कक-तुम् ारे धचकने
रुप ने मि
ु े ठग सलया। मैं क्या जानती थी कक तम्
ु ारे चरण ऐसे अशुभ ैं !
ववरजन ये बातें सुनती और कलेजा थामकर र जाती। जब हदन ी बुरे आ गये,
तो भली बातें क्योंकर सन
ु ने में आयें। य आठों प र का ताप उसे द:ु ख के आंसू
भी न ब ाने दे ता। आाँसूं तब ननकलते ै । जब कोई ह तैर्ी ो और दख
ु को सुने।
ताने और व्यंग्य की अष्ग्न से ऑ ंसू जल जाते ैं।
मिगााँव में प्रेमवती ने एक अंिेर मचा रखी थी। असासमयों को कटु वजन
क ती। काररन्दा के ससर पर जूती पटक दी। पटवारी को कोसा। रािा अ ीर की
गाय बलात ् छीन ली। य ााँ कक गााँव वाले घबरा गये ! उन् ोंने बाबू रािाचरण से
सशकायत की। रािाचण ने य समाचार सुना तो ववश्वास ो गया कक अवश्य
इन दघ
ु ट
ा नाओं ने अम्मााँ की बवु ि भ्रष्ट कर दी ै । इस समय ककसी प्रकार इनका
मन ब लाना चाह ए। सेवती को सलखा कक तम
ु माताजी के पास चली जाओ और
उनके संग कुछ हदन र ो। सेवती की गोद में उन हदनों एक चााँद-सा बालक खेल
र ा था और प्राणनाथ दो मास की छुट्टी लेकर दरभंगा से आये थे। राजा सा ब
के प्राइवेट सेक्रटे री ो गये थे। ऐसे अवसर पर सेवती कैस आ सकती थी?
तैयाररयााँ करते-करते म ीनों गुजर गये। कभी बच्चा बीमार पड गया, कभी सास
रुष्ट ो गयी कभी साइत न बनी। ननदान छठे म ीने उसे अवकाश समला। व
भी बडे ववपष्त्तयों से।
सेवती ने ज्यों-त्यों करके य ााँ दो म ीने काटे । उसका धचत्त ब ु त घबराता। कोई
सखी-स े ली भी न थी, ष्जसके संग बैठकर हदन काटती। ववरजन ने तल ु सा को
अपनी सखी बना सलया था। परन्तु सेवती का स्भव सरल न था। ऐसी स्त्रीयों से
मेल-जोल करने में व अपनी मान ानन समिती थी। तल
ु सा बेचारी कई बार
आयी, परन्तु जब दख कक य मन खोलकर न ीं समलती तो आना-जाना छोड
हदया।
तीन मास व्यतीत ो चुके थे। एक हदन सेवती हदन चढ़े तक सोती र ी।
प्राणनाथ ने रात को ब ु त रुलाया था। जब नींद उचटी तो क्या दे खती ै कक
प्रेमवती उसके बच्चे को गोद में सलय चूम र ी ै । कभी आखें से लगाती ै ,
कभी छाती से धचपटाती ै । सामने अंगीठी पर लुवा पक र ा ै । बच्चा उसकी
ओर उं गली से संकेत करके उछलता ै कक कटोरे में जा बैठूाँ और गरम-गरम
लुवा चखू।ाँ आज उसक मुखमण्डल कमल की भााँनत खखला ु आ ै । शायद
उसकी तीव्र दृष्ष्ट ने य जान सलया ै कक प्रेमवती के शुष्क हृदय में प्रेमे ने
आज किर से ननवास ककया ै । सेवती को ववश्वास न ु आ। व चारपाई पर
पुलककत लोचनों से ताक र ी थी मानों स्वप्न दे ख र ी थी। इतने में प्रेमवती
प्यार से बोली- उठो बेटी ! उठो ! हदन ब ु त चढ़ आया ै।
य क ते-क ते उसकी ऑखें िपकने लगीं। सेवती घबरा गयी। माता ो त्रबस्तर
पर लेटा हदया और पख िलने लगी। उस हदन से प्रेमवती की य दशा ो गयी
कक जब दे खों रो र ी ै । बच्चे को एक क्षण सलए भी पास से दरू न ीं करती।
म ररयों से बोलती तो मुख से िूल िडते। किर व ी पह ले की सुशील प्रेमवती
ो गयी। ऐसा प्रतीत ोता था, मानो उसक हृदय पर से एक पदाा-सा उठ गया ै
! जब कडाके का जाडा पडता ै , तो प्राय: नहदयााँ बिा से ढाँ क जाती ै । उसमें
बसनेवाले जलचर बिा मे पदे के पीछे नछप जाते ैं, नौकाऍ ं िाँस जाती ै और
मंदगनत, रजतवणा प्राण-संजीवन जल-स्रोत का स्वरुप कुछ भी हदखायी न ीं दे ता
ै । यद्यवप बिा की चद्दर की ओट में व मिरु ननरा में अलससत पडा र ता था,
तथावप जब गरमी का साम्राज्य ोता ै , तो बिा वपघल जाती ै और रजतवणा
नदी अपनी बिा का चद्दर उठा लेती ै , किर मछसलयााँ और जलजन्तु आ ब ते
ैं, नौकाओं के पाल ल राने लगते ैं और तट पर मनुष्यों और पक्षक्षयों का
जमघट ो जाता ै।
***
20. मन का प्राबल्य
प्रतापचन्र अंिेरे में िीरे -िीरे जा र ा था। उसके पााँव पेग से न ीं उठते थे
क्योंकक पाप ने उनमें बेडडयााँ डाल दी थी। उस आ लाद का, जो ऐसे अवसर पर
गनत को तीव्र कर दे ता ै , उसके मुख पर कोई लक्षण न था। व चलते-चलते
रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। प्रेत उसे पास के खड्डे में कैसा
सलये जाता ै?
ववरजन एक सिेद साडी प ले, बाल खोले, ाथ में लेखनी सलये भसू म पर बैठी
थी और दीवार की ओर दे ख-दे खकर कागेज पर सलखती जाती थी, मानो कोई
कवव ववचार के समुर से मोती ननकाल र ा ै । लखनी दााँतों तले दबाती, कुछ
सोचती और सलखती किर थोडी दे र के पश्चात ् दीवार की ओर ताकने लगती।
प्रताप ब ु त दे र तक श्वास रोके ु ए य ववधचत्र दृश्य दे खता र ा। मन उसे बार-
बार ठोकर दे ता, पर य िाम का अष्न्तम गढ़ था। इस बार िमा का पराष्जत
ोना मानो हृदाममें वपशाच का स्थान पाना था। िमा ने इस समय प्रताप को
उस खड्डे में धगरने से बचा सलया, ज ााँ से आमरण उसे ननकलने का सौभाग्य न
ोता। वरन ् य क ना उधचत ोगा कक पाप के खड्डे सेबचानेवाला इस समय
िमा न था, वरन ् दष्ु पररणाम और लज्जा का भय ी था। ककसी-ककसी समय जब
मारे सदभाव पराष्जत ो जाते ैं , तब दष्ु पररणाम का भय ी में कत्ताव्यच्युत
ोने से बचा लेता ै । ववरजन को पीले बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके
हृदय की स्वच्छता और ववचार की उच्चता का पररचय दे र ा था। उसके
मुखमण्डल की उज्ज्वलता और दृष्ष्ट की पववत्रता में व अष्ग्न थी ; ष्जसने
प्रताप की दश्ु चेष्टाओं को क्षणमात्र में भस्म कर हदया ! उसे ज्ञान ो गया और
अपने आष्त्मक पतन पर ऐसी लज्जा उत्पन्न ु ई कक व ीं खडा रोने लगा।
इष्न्रयों ने ष्जतने ननकृष्ट ववकार उसके हृदय में उत्पन्न कर हदये थे, वे सब
इस दृश्य ने इस प्रकार लोप कर हदये, जैसे उजाला अंिेरे को दरू कर दे ता ै।
इस समय उसे य इच्छा ु ई कक ववरजन के चरणों पर धगरकर अपने अपरािों
की क्षमा मााँगे। जैसे ककसी म ात्मा संन्यासी के सम्मुख जाकर मारे धचत्त की
दशा ो जाती ै , उसकी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायष्श्चत के ववचार
उत्पन्न ु ए। वपशाच य ााँ तक लाया, पर आगे न ले जा सका। व उलटे पााँवों
किरा और ऐसी तीव्रता से वाहटका में आया और चा रदीवारी से कूछा, मानो
उसका कोई पीछा करता ै।
कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनााँए ो जाती ै , जो क्षणमात्र में मनष्ु य का रुप
पलट दे ती ै । कभी माता-वपता की एक नतरछी धचतवन पुत्र को सुयश के उच्च
सशखर पर प ु ाँचा दे ती ै और कभी स्त्री की एक सशक्षा पनत के ज्ञान-चक्षुओं को
खोल दे ती ै । गवाशील परु ु र् अपने सगों की दृष्ष्टयों में अपमाननत ोकर संसार
का भार बनना न ीं चा ते। मनुष्य जीवन में ऐसे अवसर ईश्वरदत्त ोते ैं।
प्रतापचन्र के जीवन में भी व शुभ अवसर था, जब व संकीणा गसलयों में
ोता ु आ गंगा ककनारे आकर बैठा और शोक तथा लज्जा के अश्रु प्रवाह त करने
लगा। मनोववकार की प्रेरणाओं ने उसकी अिोगनत में कोई कसर उठा न रखी थी
परन्तु उसके सलए य कठोर कृपालु गुरु की ताडना प्रमाखणत ु ई। क्या य
अनुभवससद्व न ीं ै कक ववर् भी समयानुसार अमत ृ का काम करता ै ?
***
21. ववदर्ु ी वज
ृ रानी
सेवती को आये दो- तीन हदन बीते थे। एक हदन ववरजन से क ा- मैं तम्
ु ें
ब ु िा ककसी ध्यान में मग्न दे खती ू ाँ और कुछ सलखते भी पाती ू ाँ। मुिे न
बताओगी? ववरजन लष्ज्जत ो गयी। ब ाना करने लगी कक कुछ न ीं, यों ी
जी कुछ उदास र ता ै । सेवती ने क ा-मैंन मानाँूगी। किर व ववरजनका बाक्स
उठा लायी, ष्जसमें कववता के हदव्य मोती रखे ु ए थे। वववश ोकर ववरजन ने
अपने नय पद्य सन ु ाने शुरु ककये। मख
ु से प्रथम पद्य का ननकलना था कक
सेवती के रोएाँ खडे ो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त न ु आ, व
तन्मय ोकर सुनती र ी। प्राणनाथ की संगनत ने उसे काव्य का रससक बना
हदया था। बार-बार उसके नेत्र भर आते। जब ववरजन चुप ो गयी तो एक समााँ
बाँिा ु आ था मानों को कोई मनो र राग अभी थम गया ै । सेवती ने ववरजन
को कण्ठ से सलपटा सलया, किर उसे छोडकर दौडी ु ई प्राणनाथ के पास गयी,
जैसे कोई नया बच्चा नया खखलोना पाकर र्ा से दौडता ु आ अपने साधथयों को
हदखाने जाता ै । प्राणनाथ अपने अिसर को प्राथाना-पत्र सलख र े थे कक मेरी
माता अनत पीडडता ो गयी ै , अतएव सेवा में प्रस्तुत
ोने में ववलम्ब ु आ।
आशा करता ू ाँ कक एक सप्ता का आकष्स्मक अवकाश प्रदान ककया जायगा।
सेवती को दे खकर चट आपना प्राथाना-पत्र नछपा सलया और मस्
ु कराये। मनष्ु य
कैसा िूता ै ! व अपने आपको भी िोख दे ने से न ीं चूकता।
सेवती-- तननक भीतर चलो, तुम् ें ववरजन की कववता सुनवाऊं, िडक उठोगे।
***
22. माधवी
भोली मािवी सोचने लगी, मैं कैसी भाग्यवती ूं । मुिे ऐसे स्वामी समलें गें ष्जनके
चरण िोने के योग्य भी मैं न ीं ूं , परन्तु क्या वें मुिे अपनी चेरी बनायेगें?
कुछ तो, मैं अवश्य उनकी दासी बनंग
ू ी और यहद प्रेम में कुछ आकर्णा ै , तो मैं
उन् ें अवश्य अपना बना लूंगी। परन्तु उस बेचारी को क्या मालूम था कक ये
आशाएं शोक बनकर नेत्रों के मागा से ब जायेगी ? उसको पन्र वां पूरा भी न
ु आ था कक ववरजन पर ग ृ -ववनाश की आपष्त्तयां आ पडी। उस आंिी के िोंकें
ने मािवी की इस कष्ल्पत पुष्प वाहठका का सत्यानाश कर हदया। इसी बीच में
प्रताप चन्र के लोप ोने का समाचार समला। आंिी ने जो कुछ अवसशष्ठ रखा
था व भी इस अष्ग्न ने जलाकर भस्म कर हदया।
परन्तु मानस कोई वस्तु ै , तो मािवी प्रतापचन्र की स्त्री बन चुकी थी। उसने
अपना तन और मन उन् ें समपाण कर हदया। प्रताप को ज्ञान न ीं। परन्तु उन् ें
ऐसी अमल्
ू य वस्तु समली, ष्जसके बराबर संसार में कोई वस्तु न ीं तल
ु सकती।
मािवी ने केवल एक बार प्रताप को दे खा था और केवल एक ी बार उनके
अमत
ृ –वचन सुने थे। पर इसने उस धचत्र को और भी उज्जवल कर हदया था, जो
उसके हृदय पर प ले ी ववरजन ने खींच रखा था। प्रताप को पता न ीं था, पर
मािवी उसकी प्रेमाष्ग्न में हदन-प्रनतहदन घुलती जाती ै । उस हदन से कोई ऐसा
व्रत न ीं था, जो मािवी न रखती ो , कोई ऐसा दे वता न ीं था, ष्जसकी व
पूजा न करती ो और व सब इससलए कक ईश्वर प्रताप को ज ां क ीं वे ों
कुशल से रखें। इन प्रेम–कल्पनाओं ने उस बासलका को और अधिक दृढ सुशील
और कोमल बना हदया। शायद उसके धचत ने य ननणया कर सलया था कक मेरा
वववा प्रतापचन्र से ो चुका। ववरजन उसकी य दशा दे खती और रोती कक य
आग मेरी ी लगाई ु ई ै । य नवकुसम ु ककसके कण्ठ का ार बनेगा? य
ककसकी ोकर र े गी? ाय रे ष्जस चीज को मैंने इतने पररश्रम से अंकुररत
ककया और मिुक्षीर से सींचा, उसका िूल इस प्रकार शाखा पर ी कुम् लाया
जाता ै । ववरजन तो भला कववता करने में उलिी र ती, ककन्तु मािवी को य
सन्तोर् भी न था उसके प्रेमी और साथी उसके वप्रयतम का ध्यान मात्र था–उस
वप्रयतम का जो उसके सलए सवाथा अपररधचत था पर प्रताप के चले जाने के कई
मास पीछे एक हदन मािवी ने स्वप्न दे खा कक वे सतयासी ो गये ै । आज
मािवी का अपार प्रेम प्रकट ंआ ै । आकाशवाणी सी ो गयी कक प्रताप ने
अवश्य संन्यास ते सलया। आज से व भी तपस्वनी बन गयी उसने सुख और
ववलास की लालसा हृदय से ननकाल दी।
ववरजन –- दे खो वत
ृ ान्त भी सलखा ै।
मािवी ने दस
ू रा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी’ शीर्ाक लेख समला थोडी दे र
तक दोंनों तन्मय ोकर य लेख पढती र ीं, तब बातचीत ोने लगी।
ववरजन -– मैं तो प्रथम ी जान गयी थी कक उन् ोनें अवश्य सन्यास ले सलया
ोगा।
मािवी पथ्
ृ वी की ओर दे ख र ी थी, मुख से कुछ न बोली।
मािवी -– ूं ।
ववरजन –- इश्वार उनकी स ायता करे । बडी तपस्या की ै ।(नेत्रो में जल भरकर)
कैसा संयोग ै। म और वे संग–संग खेले, संग–संग र े , आज वे सन्यासी ैं
और मैं ववयोधगनी। न जाने उन् ें म लोंगों की कुछ सि
ु भी ैं या न ीं। ष्जसने
सन्यास ले सलया, उसे ककसी से क्या मतलब? जब चाची के पास पत्र न सलखा
तो भला मारी सुधि क्या ोगी? मािवी बालकपन में वे कभी योगी–योगी खेलते
तो मैं समठाइयों कक सभक्षा हदया करती थी।
ववरजन --वक्तत
ृ ता की कैसी प्रशंसा की ै ! उनकी वाणी में तो प ले ी जाद ू
था, अब क्या पूछना! प्राण्नाथ केधचत पर ष्जसकी वाणी का ऐसा प्रभाव ु आ,
व समस्त पथ् ृ वी पर अपना जाद ू िैला सकता ै ।
ववरजन-- चल? माता ऐसा समाचार सुनकर कभी प्रसन्न न ीं ो सकती। दोंनो
स्त्रीयााँ घर से बा र ननकलीं। ववरजन का मुखकमल मुरिाया ु आ था, पर
मािवी का अंग–अंग र्ा ससला जाता था। कोई उससे पछ ू े –तेरे चरण अब पथ्
ृ वी
पर क्यों न ीं प ले ? तेरे पीले बदन पर क्यों प्रसन्नता की लाली िलक र ी ै?
तुिे कौन-सी सम्पष्त्त समल गयी? तू अब शोकाष्न्वत और उदास क्यों न
हदखायी पडती? तुिे अपने वप्रयतम से समलने की अब कोई आशा न ीं, तुि पर
प्रेम की दृष्ष्ट कभी न ीं प ु ची किर तू क्यों िूली न ीं समाती? इसका उत्तर
मािवी दे गी? कुछ न ीं। व ससर िक ु ा लेगी, उसकी आंखें नीचे िकु जायेंगी,
जैसे डसलयां िूलों के भार से िक
ु जाती ै । कदाधचत ् उनसे कुछ अश्रत्रु बन्द ु भी
टपक पडे; ककन्तु उसकी ष्जह्वा से एक शब्द भी न ननकलेगा।
मािवी प्रेम के मद से मतवाली ै । उसका हृदय प्रेम से उन्मत ैं। उसका प्रेम,
ाट का सौदा न ीं। उसका प्रेमककसी वस्तु का भूखा सन ीं ै। व प्रेम के बदले
प्रेम न ीं चा ती। उसे अभीमान ै कक ऐसे पवीत्रता परु
ु र् की मनू ता मेरे हृदय में
प्रकाशमान ै। य अभीमान उसकी उन्मता का कारण ै , उसके प्रेम का
पुरस्कार ै।
दस
ू रे मास में वज
ृ रानी ने, बालाजी के स्वागत में एक प्रभावशाली कववता सलखी
य एक ववलक्षण रचना थी। जब व महु रत ु ई तो ववद्या जगत ् ववरजन की
काव्य–प्रनतभा से पररधचत ोते ु ए भी चमत्कृत ो गया। व कल्पना-रुपी पक्षी,
जो काव्य–गगन मे वायुमण्डल से भी आगे ननकल जाता था, अबकी तारा बनकर
चमका। एक–एक शब्द आकाशवाणी की ज्योनत से प्रकासशत था ष्जन लोगों ने
य कववता पढी वे बालाजी के भक्त ो गये। कवव व संपेरा ै ष्जसकी वपटारी
में स पों के स्थान में हृदय बन्द ोते ैं।
***
23. कािी में आगमन
जब से वज
ृ रानी का काव्य–चन्र उदय ु आ, तभी से उसके य ां सदै व मह लाओं
का जमघट लगा र ता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएं थी उनके प्रबंि का
सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अनतररक्त अन्य नगरों से भी ब ु िा
स्त्रीयों उससे भें ट करने को आती र ती थी जो तीथायात्रा करने के सलए काशी
आता, व ववरजन से अवरश्य समलता। राज िमाससं ने उसकी कववताओं का
सवािंग–सुन्दर संग्र प्रकासशत ककया था। उस संग्र ने उसके काव्य–चमत्कार का
डंका, बजा हदया था। भारतवर्ा की कौन क े , यूरोप और अमेररका के प्रनतष्ष्ठत
कववयों ने उसे उनकी काव्य मनो रता पर िन्यवाद हदया था। भारतवर्ा में
एकाि ी कोई रससक मनष्ु य र ा ोगा ष्जसका पस्
ु तकालय उसकी पस्
ु तक से
सश
ु ोसभत न ोगा। ववरजन की कववताओं को प्रनतष्ठा करने वालों मे बालाजी का
पद सबसे ऊंचा था। वे अपनी प्रभावशासलनी वक्तत ृ ाओं और लेखों में ब ु िा उसी
के वाक्यों का प्रमाण हदया करते थे। उन् ोंने ‘सरस्वती’ में एक बार उसके संग्र
की सववस्तार समालोचना भी सलखी थी।
ववरजन –- कुन्ती ने सय
ू ा को बल
ु ाने के सलए ककतनी तपस्या की थी।
सीता –- बाला जी बडे ननष्ठूर ैं। मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं।
रुकमणी –- ईश्वर ने उनके ाथों में बडा यश हदया। दारानगर की रानी साह बा
मर चुकी थी सांस टूट र ी थी कक बालाजी को सूचना ु ई। िट आ प ुं चे और
क्षण–मात्र में उठाकर बैठा हदया। मारे मुंशीजी (पनत) उन हदनों व ीं थें। क ते
थे कक रानीजी ने कोश की कंु जी बालाजी के चरणों पर रख दी ओर क ा–‘आप
इसके स्वामी ैं’। बालाजी ने क ा–‘मि
ु े िन की आवश्यक्ता न ीं अपने राज्य में
तीन सौ गौशलाएं खल
ु वा दीष्जयें’। मख
ु से ननकलने की दे र थी। आज दारानगर
में दि
ू की नदी ब ती ैं। ऐसा म ात्मा कौन ोगा।
चन्रकाँु वरर-– गडूररयां भी अब ससन्दरू लगायेंगी। पासी लोग ठाकुर द्वारे बनवायंगें
?
रुष्क्मणी--
ााँ, जानती ू ाँ और न ीं जानती थी तो अब जान गयी। तम् ु ारे ठाकुर
सा ब (पनत) ककसी पासी से बढकर मल्ल –यद् ु व करें गें? य ससिा टे ढी पाग
रखना जानते ैं? मैं जानती ूं कक कोई छोटा –सा पासी भी उन् ें कााँख –तले
दबा लेगा।
ववरजन–-तम
ु लोग मेरे लालाजी को तो भल
ू ी गयी। ऋर्ीकेश में प ले लालाजी
ी से प्रतापचनर की भें ट ु ई थी। प्रताप उनके साथ साल-भर तक र े । तब
दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चले।
सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सुया बने ु ए ैं। अभी पचीसवें वर्ा में
ोगें ?
ववरजन कुछ सलख र ी थी, ाथों से लेखनी छूट पडी। मािवी उठकर द्वार की
ओर लपकी।
मािवी-- दे र ॉँ चलाँ ग
ो जायेगी, मैं इसी भ नत ू ी।
माध्वी मुस्कराकर बोली-- तुम मेरे ी संग र ना, मुिे सभलती र ना। मुिे
अपने हृदय पर भरोसा न ीं ै।
मािवी थोडी दे र के बाद ववरजन, सेवती, चन्रा आहद कई स्त्रीयों के संग सुवाम
के घर चली। वे व ॉँ की तैयाररय ॉँ दे खकर चककत ो गयीं। द्वार पर एक ब ु त
ॉँ
बडा चाँदोवा त्रबछावन, शीशे और भ नत-भााँ नत की सामधग्रयों से सस
ु ष्ज्जत खडा
था। बिाई बज र ी थी! बडे-बडे टोकरों में समठाइय ॉँ और मेवे रखे ु ए थे। नगर
के प्रनतष्ष्ठत सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पह ने ु ए स्वागत करने को खडे थे। एक
भी किटन या गाडी न ीं हदखायी दे ती थी, क्योंकक बालाजी सवादा पैदल चला
करते थे। ब ु त से लोग गले में िोसलय ॉँ डालें ु ए हदखाई दे ते थे, ष्जनमें बालाजी
पर समपाण करने के सलये रुपये-पैसे भरे ु ए थे। राजा िमाससं के प चों ॉँ लडके
रं गीन वस्त्र पह ने, केसररया पगडी बांिे, रे शमी िष्ण्डयां कमरे से खोसें त्रबगुल
बजा र े थे। ज्योंह लोगों की दृष्ष्ट ववरजन पर पडी, स स्रों मस्तक सशष्टाचार
के सलए िुक गये। जब ये दे ववयां भीतर गयीं तो व ां भी आंगन और दालान
नवागत विू की भांनत सुसष्ज्जत हदखे! सैकडो स्त्रीयां मंगल गाने के सलए बैठी
थीं। पष्ु पों की रासशयााँ ठौर-ठौर पडी थी। सव
ु ामा एक श्वेत साडी पह ने सन्तोर्
और शाष्न्त की मूनता बनी ु ई द्वार पर खडी थी। ववरजन और मािवी को
दे खते ी सजल नयन ो गयी। ववरजन बोली-- चची! आज इस घर के भाग्य
जग गये।
सुवामा ने रोकर क ा-- तुम् ारे कारण मुिे आज य हदन दे खने का सौभाग्य
ु आ। ईश्वर तुम् ें इसका िल दे ।
दोनों अभी इसी प्रकार बातें कर र ी थीं कक घण्टे और शंख की ध्वनन आने
लगी। िूम मची की बालाजी आ प ुं च।े स्त्रीयों ने मंगलगान आरम्भ ककया।
मािवी ने आरती का थाल ले सलया मागा की ओर टकटकी बांिकर दे खने लगी।
कुछ ी काल मे अद्वैताम्बरिारी नवयुवकों का समुदाय दखयी पडा। भारत सभा
के सौ सभ्य घोडों पर सवार चले आते थे। उनके पीछे अगखणत मनुष्यों का
िण्
ु ड था। सारा नगर टूट पडा। कन्िे से कन्िा नछला जाता था मानो समर
ु की
तरं गें बढ़ती चली आती ैं। इस भीड में बालाजी का मुखचन्र ऐसा हदखायी
पडताथ मानो मेघाच्छहदत चन्र उदय ु आ ै । ललाट पर अरुण चन्दन का
नतलक था और कण्ठ में एक गेरुए रं ग की चादर पडी ु ई थी।
सव
ु ामा द्वार पर खडी थी, ज्यों ी बालाजी का स्वरुप उसे हदखायी हदया िीरज
ाथ से जाता र ा। द्वार से बा र ननकल आयी और ससर िुकाये, नेत्रों से
मुक्त ार गूंथती बालाजी के ओर चली। आज उसने अपना खोया ु आ लाल पाया
ै । व उसे हृदय से लगाने के सलए उद्ववग्न ै ।
सव
ु ामा को इस प्रकार आते दे खकर सब लोग रुक गये। ववहदत ोता था कक
आकाश से कोई दे वी उतर आयी ै । चतुहदा क सन्नाटा छा गया। बालाजी ने कई
डग आगे बढ़कर मातीजी को प्रमाण ककया और उनके चरणों पर धगर पडे।
सुवामा ने उनका मस्तक अपने अंक में सलया। आज उसने अपना खोया ु आ
लाल पाया ै । उस पर आंखों से मोनतयों की वष्ृ ष्ट कर र ीं ै ।
इस उत्सा वद्ावक दृश्य को दे खकर लोगों के हृदय जातीयता के मद में मतवाले
ो गये! पचास स स्र स्वर से ध्वनन आयी-‘बालाजी की जय।’ मेघ गजाा और
चतुहदा क से पुष्पवष्ृ ष्ट ोने लगी। किर उसी प्रकार दस
ू री बार मेघ की गजाना
ु ई। ‘मुंशी शासलग्राम की जय’ और स स्रों मनुष्ये स्वदे श-प्रेम के मद से मतवाले
ोकर दौडे और सव ु ामा के चरणों की रज माथे पर मलने लगे। इन ध्वननयों से
सव
ु ामा ऐसी प्रमहु दतो र ीं थी जैसे म ु अर के सन
ु ने से नाधगन मतवाली ो
जाती ै । आज उसने अपना खोया ु आ लाल पाया ै । अमल् ू य रत्न पाने से व
रानी ो गयी ै । इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की रज लोगो के नेत्रों
का अंजन और माथे का चन्दन बन र ी ै।
अपव
ू ा दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनन उठती थी और स्वगा के
ननवाससयों को भातर की जागनृ त का शुभ-संवाद सुनाती थी। माता अपने पुत्र को
कलेजे से लगाये ु ए ै । ब ु त हदन के अनन्तर उसने अपना खोया ु आ लाल ै ,
व लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। िूल चारों और से ननछावर ो र े
ै । स्वणा और रत्नों की वर्ाा ो र ी ै । माता और पुत्र कमर तक पुष्पों के
समर
ु में डूबे ुए ै । ऐसा प्रभावशाली दृश्य ककसके नेत्रों ने दे खा ोगा।
***
24. प्रेम का स्वप्न
ववरजन सुवामा का असभप्राय समि गयी। बोली-चाची! य बात तो मेरे धचत्त में
पह ले ी से जमी ु ई ै । अवसर पाते ी अवश्य छे डूाँगी।
वज
ृ रानी-- आज उसे सारे हदन रोते ी बीता। ब ु त उदास हदखायी दे ती ै।
वज
ृ रानी-- (सोचकर) चचाा करने को तो मैं करुाँ , ककन्तु मािवी स्वयं ष्जस
उत्तमता के साथ य काया कर सकती ै , कोई दस
ू रा न ीं कर सकता।
सव
ु ामा-- व बेचारी मख
ु से क्या क े गी?
वज
ृ रानी-- उसके नेत्र सारी कथा क दें गे ?
वज
ृ रानी-- क ें गे क्या ? य तुम् ारा भ्रम ै जो तुम उसे काँु वारी समि र ी ो।
व प्रतापचन्र की पत्नी बन चक
ु ी। ईश्वर के य ााँ उसका वववा उनसे ो चक
ु ा
यहद ऐसा न ोता तो क्या जगत ् में पुरुर् न थे? मािवी जैसी स्त्री को कौन
नेत्रों में न स्थान दे गा? उसने अपना आिा यौवन व्यथा रो-रोकर त्रबताया ै।
उसने आज तक ध्यान में भी ककसी अन्य पुरुर् को स्थान न ीं हदया। बार वर्ा
से तपष्स्वनी का जीवन व्यतीत कर र ी ै। व पलंग पर न ीं सोयी। कोई
रं गीन वस्त्र न ीं प ना। केश तक न ीं गाँुथाये। क्या इन व्यव ारों से न ीं ससद्व
ोता कक मािवी का वववा ो चुका? हृदय का समलाप सच्चा वववा ै । ससन्दरू
का टीका, ग्रष्न्थ-बन्िन और भााँवर- ये सब संसार के ढकोसले ै।
सुवामा-- अच्छा, जैसा उधचत समिो करो। मैं केवल जग- ाँ साई से डरती ू ाँ।
रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे नछटके ु ए थे। मािवी वाहटका में अकेली
ककन्तु अनत दरू ैं। क्या कोई व ााँ तक प ु ाँ च सकता ै ? क्या मेरी आशाएाँ भी
उन् ी नक्षत्रों की भााँनत ै ? इतने में ववरजन ने उसका ाथ पकडकर ह लाया।
मािवी चौंक पडी।
मािवी-- कुछ न ीं, तो तारों को दे ख र ी ू ाँ। वे कैसे सु ावने लगते ैं, ककन्तु
समल न ीं सकते।
दोनों भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के ाथ की
रसोई ब ु त हदनों में प्राप्त ु ई। उन् ोंने बडे प्रेम से भोजन ककया। सुवामा
खखलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो ववरजन ने
मािवी से क ा- अब य ााँ कोने में मख
ु बााँिकर क्यों बैठी ो?
ववरजन-- मािवी! ऐसी ननराश न ो। क्या इतने हदनों का व्रत एक हदन में भंग
कर दे गी?
मािवी उठी, परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघों की काली-काली घटाएाँ
उठती ै और ऐसा प्रतीत ोता ै कक अब जल-थल एक ो जाएगा, परन्तु
अचानक पछवा वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भााँनत िट जाती ै,
उसी प्रकार इस समय मािवी की गनत ो र ी ै।
व शुभ हदन दे खने की लालसा उसके मन में ब ु त हदनों से थी। कभी व हदन
भी आयेगा जब कक मैं उसके दशान पाऊाँगी? और उनकी अमत ृ -वाणी से श्रवण
तप्ृ त करुाँ गी। इस हदन के सलए उसने मान्याएाँ कैसी मानी थी? इस हदन के
ध्यान से ी उसका हृदय कैसा खखला उठता था!
रात्रत्र भली-भााँनत आरा ो चुकी थी। सडक पर घंटों के शब्द सुनायी दे र े थे।
मािवी दबे पााँव बालाजी के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृदय िडक र ा
था। भीतर जाने का सा स न ु आ, मानो ककसी ने पैर पकड सलए। उल्टे पााँव
किर आयी और पथ् ृ वी पर बैठकर रोने लगी। उसके धचत्त ने क ा- मािवी! य
बडी लज्जा की बात ै । बालाजी की चेरी स ी, माना कक तुिे उनसे प्रेम ै ;
ककन्तु तू उसकी स्त्री न ीं ै । तुिे इस समय उनक ग ृ में र ना उधचत न ीं ै।
तेरा प्रेम तुिे उनकी पत्नी न ीं बना सकता। प्रेम और वस्तु ै और सो ाग और
वस्तु ै । प्रेम धचत की प्रवष्ृ त्त ै और ब्या एक पववत्र िमा ै । तब मािवी को
एक वववा का स्मरण ो आया। वर ने भरी सभा मे पत्नी की बााँ पकडी थी
और क ा था कक इस स्त्री को मैं अपने ग ृ की स्वासमनी और अपने मन की
दे वी समिता र ू ाँगा। इस सभा के लोग, आकाश, अष्ग्न और दे वता इसके साक्षी
र े । ा! ये कैसे शुभ शब्द ै । मि
ु े कभी ऐसे शब्द सुनने का मौका प्राप्त न
ु आ! मैं न अष्ग्न को अपना साक्षी बना सकती ू ाँ, न दे वताओं को और न
आकाश ी को; परन्तु ै अष्ग्न! ै आकाश के तारो! और े दे वलोक-वाससयों!
तुम साक्षी र ना कक मािवी ने बालाजी की पववत्र मूनता को हृदय में स्थान हदया,
ककन्तु ककसी ननकृष्ट ववचार को हृदय में न आने हदया। यहद मैंने घर के भीतर
पैर रखा ो तो ै अष्ग्न! तुम मुिे अभी जलाकर भस्म कर दो। े आकाश!
यहद तुमने अपने अनेक नेत्रों से मुिे ग ृ में जाते दे खा, तो इसी क्षण मेरे ऊपर
इन्र का वज्र धगरा दो।
मािवी कुछ काल तक इसी ववचार मे मग्न बैठी र ी। अचानक उसके कान में
भक-भक की ध्वनन आयीय। उसने चौंककर दे खा तो बालाजी का कमरा अधिक
प्रकासशत ो गया था और प्रकाश खखडककयों से बा र ननकलकर आाँगन में िैल
र ा था। मािवी के पााँव तले से समट्टी ननकल गयी। ध्यान आया कक मेज पर
लैम्प भभक उठा। वायु की भााँनत व बालाजी के कमरे में घस
ु ी। दे खा तो लैम्प
िटक पथ्
ृ वी पर धगर पडा ै और भत
ू ल के त्रबछावन में तेल िैल जाने के कारण
आग लग गयी ै । दस
ू रे ककनारे पर बालाजी सुख से सो र े थे। अभी तक
उनकी ननरा न खुली थी। उन् ोंने कालीन समेटकर एक कोने में रख हदया था।
ववद्युत की भााँनत लपककर मािवी ने व कालीन उठा सलया और भभकती ु ई
ज्वाला के ऊपर धगरा हदया। िमाके का शब्द ु आ तो बालाजी ने चौंककर आाँखें
खोली। घर मे िआ
ु ाँ भरा था और चतहु दा क तेल की दग
ु न्
ा ि िैली ु ई थी। इसका
कारण व समि गये। बोले- कुशल ु आ, न ीं तो कमरे में आग लग गयी थी।
बालाजी-- तम
ु बडे अवसर से आ प ु ाँची।
मािवी के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल नेत्र ोकर बोली-- ााँ, ो गया ै।
बालाजी-- और तम्
ु ारे पनत?
मािवी-- उन् ें मेरी कुछ सि
ु ी न ीं। उनका वववा मि
ु से न ीं ु आ।
मािवी-- दे श की सेवा।
मािवी का मख
ु मण्डल प्रेम-ज्योनत से अरुणा ो र ा था। बालाजी ने सब कुछ
सुना और चुप ो गये। सोचने लगे- य स्त्री ै ; ष्जसने केवल मेरे ध्यान पर
अपना जीवन समपाण कर हदया ै । इस ववचार से बालाजी के नेत्र अश्रप
ु ण
ू ा ो
गये। ष्जस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर हदया ो उसके सलए
एक मनुष्य के घैया को जला डालना कोई बात न ीं! प्रेम के सामने िैया कोई
वस्तु न ीं ै। व बोले- मािवी तुम जैसी दे ववयााँ भारत की गौरव ै । मैं बडा
भाग्यवान ू ाँ कक तुम् ारे प्रेम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे ाथ आ र ी ै ।
यहद तमु ने मेरे सलए योधगनी बनना स्वीकार ककया ै तो मैं भी तम् ु ारे सलए इस
सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता ू ाँ। ष्जसके सलए तुमने अपने को
समटा हदया ै ।, व तुम् ारे सलए बडा-से-बडा बसलदान करने से भी न ीं
ह चककचायेगा।
वज
ृ रानी-- सच, क्या बोले?
मािवी-- य न बताऊाँगी।
वज
ृ रानी को मानो पडा ु आ िन समल गया। बोली-- ईश्वर ने ब ु त हदनों में मेरा
मनारे थ पूरा ककया। मे अपने य ााँ से वववा करुाँ गी।
मािवी-- दे ख लेना।
मािवी-- बह न! मेरे भाग्य में प्रसन्नता सलखी ी न ीं! जो पक्षी बादलों में
घोंसला बनाना चा ता ै व सवादा डासलयों पर र ता ै । मैंने ननणाय कर सलया
ै कक जीवन की य शेर् समय इसी प्रकार प्रेम का सपना दे खने में काट दाँ ग
ू ी।
***
25. ववदाई
दस
ू रे हदन बालाजी स्थान-स्थान से ननवत
ृ ोकर राजा िमाससं की प्रतीक्षा करने
लगे। आज राजघाट पर एक ववशाल गोशाला का सशलारोपण ोने वाला था, नगर
की ाट-बाट और वीधथयााँ मुस्काराती ु ई जान पडती थी। सडृक के दोनों पाश्वा
में िण्डे और िखणयााँ ल रा र ी थीं। ग ृ द्वार िूलों की माला पह ने स्वागत के
सलए तैयार थे, क्योंककआज उस स्वदे श-प्रेमी का शुभगमन ै , ष्जसने अपना
सवास्व दे श के ह त बसलदान कर हदया ै।
र्ा की दे वी अपनी सखी-स े सलयों के संग ट ल र ी थी। वायु िूमती थी। द:ु ख
और ववर्ाद का क ीं नाम न था। ठौर-ठौर पर बिाइयााँ बज र ी थीं। परु
ु र्
सु ावने वस्त्र प ने इठालते थे। स्त्रीयााँ सोल श्रंग
ृ ार ककये मंगल-गीत गाती थी।
बालक-मण्डली केसररया सािा िारण ककये कलोलें करती थीं र पुरुर्-स्त्री के
मुख से प्रसन्नता िलक र ी थी, क्योंकक आज एक सच्चे जानत-ह तैर्ी का
शुभगमन ै ष्जसेने अपना सवास्व जानत के ह त में भें ट कर हदया ै।
कैसा धचत्ताकर्ाक दृश्य था। गीत यद्यवप सािारण था, परन्तु अनके और सिे
ु ए स्वरों ने समलकर उसे ऐसा मनो र और प्रभावशाली बना हदया कक पांव रुक
गये। चतुहदा क सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में य राग ऐसा सु ावना प्रतीत ोता
था जैसे रात्रत्र के सन्नाटे में बल
ु बल
ु का च कना। सारे दशाक धचत्त की भााँनत
खडे थे। दीन भारतवाससयों, तुमने ऐसे दृश्य क ााँ दे ख?
े इस समय जी भरकर
दे ख लो। तुम वेश्याओं के नत्ृ य-वाद्य से सन्तुष्ट ो गये। वारांगनाओं की काम-
लीलाएाँ ब ु त दे ख चुके, खूब सैर सपाटे ककये ; परन्तु य सच्चा आनन्द और
य सुखद उत्सा , जो इस समय तुम अनुभव कर र े ो तम् ु ें कभी और भी
प्राप्त ु आ था? मनमो नी वेश्याओं के संगीत और सन् ु दररयों का काम-कौतक ु
तुम् ारी वैर्नयक इच्छाओं को उत्तेष्जत करते ै । ककन्तु तुम् ारे उत्सा ों को और
ननबाल बना दे ते ैं और ऐसे दृश्य तुम् ारे हृदयो में जातीयता और जानत-
असभमान का संचार करते ैं। यहद तुमने अपने जीवन मे एक बार भी य दृश्य
दे खा ै , तो उसका पववत्र धच न तुम् ारे हृदय से कभी न ीं समटे गा।
अभी आाँगन में लोग शाष्न्त से बैठने भी न पाये थे कई मनुष्य दौडे ु ए आये
और बोल-पष्ण्डत बदलू शास्त्री, सेठ उत्तमचन्र और लाला माखनलाल बा र खडे
कोला ल मचा र े ैं और क ते ै । कक मा को बालाजी से दो-दो बाते कर लेने
दो। बदलू शास्त्री काशी के ववख्यात पंष्ण्डत थे। सुन्दर चन्र-नतलक लगाते, री
बनात का अंगरखा पररिान करते औश्र बसन्ती पगडी बााँिते थे। उत्तमचन्र
और माखनलाल दोनों नगर के िनी और लक्षािीश मनुष्य थे। उपाधि के सलए
स स्रों व्यय करते और मख्
ु य पदाधिकाररयों का सम्मान और सत्कार करना
अपना प्रिान कत्ताव्य जानते थे। इन म ापुरुर्ों का नगर के मनुष्यों पर बडा
दबवा था। बदलू शास्त्री जब कभी शास्त्रीथा करते, तो नन:संदे प्रनतवादी की
पराजय ोती। ववशेर्कर काशी के पण्डे और प्राग्वाल तथा इसी पन्थ के अन्य
िासमक्ग्िा तो उनके पसीने की जग रुधिर ब ाने का उद्यत र ते थे। शास्त्री
जी काशी मे ह न्द ू िमा के रक्षक और म ान ् स्तम्भ प्रससद्व थे। उत्मचन्र और
माखनलाल भी िासमाक उत्सा की मूनता थे। ये लोग ब ु त हदनों से बालाजी से
शास्त्राथा करने का अवसर ढूंढ र े थे। आज उनका मनोरथ पूरा ु आ। पंडों और
प्राग्वालों का एक दल सलये आ प ु ाँच।े
राजा सा ब के नेत्रों से अष्ग्न बरस र ी थी। बोले- इस पुरुर् से बातें करने में
अपनी अप्रनतष्ठा समिता ू ाँ। उसे प्राग्वालों के समू ों का असभमान ै परन्तु मै।
आज उसका सारा मद चूणा कर दे ता ू ाँ। उनका असभप्राय इसके अनतररक्त और
कुछ न ीं ॉँ पुत्र
ै कक वे आपके ऊपर वार करें । पर जब तक मै। और मरे प च
जीववत ैं तब तक कोई आपकी ओर कुदृष्ष्ट से न ीं दे ख सकता। आपके एक
संकेत-मात्र की दे र ै । मैं पलक मारते उन् ें इस दष्ु टता का सवाद चखा दं ग
ू ा।
बालाजी जान गये कक य वीर उमंग में आ गया ै । राजपूत जब उमंग में आता
ै तो उसे मरने-मारने क अनतररक्त और कुछ न ीं सूिता। बोले--राजा सा ब,
आप दरू दशी ोकर ऐसे वचन क ते ै? य अवसर ऐसे वचनों का न ीं ै । आगे
बढ़कर अपने आदसमयों को रोककये , न ीं तो पररणाम बुरा ोगा।
बालाजी य क ते-क ते अचानक रुक गये। समुर की तरं गों का भााँनत लोग
इिर-उिर से उमडते चले आते थे। ाथों में लाहठयााँ थी और नेत्रों में रुधिर की
लाली, मुखमंडल क्रुि, भक
ृ ु टी कुहटल। दे खते-दे खते य जन-समुदाय प्राग्वालों के
ससर पर प ु ाँच गया। समय सष्न्नकट था कक लाहठयााँ ससर को चुमे कक बालाजी
ववद्यत
ु की भााँनत लपककर एक घोडे पर सवार ो गये और अनत उच्च स्वर में
बोले:
‘भाइयो ! क्या अंिेर ै ? यहद मुिे आपना समत्र समिते ो तो िटपट ाथ नीचे
कर लो और पैरों को एक इंच भी आगे न बढ़ने दो। मुिे असभमान ै कक
तम्
ु ारे हृदयों में वीरोधचत क्रोि और उमंग तरं धगत ो र े ै । क्रोि एक पववत्र
उद्वोग और पववत्र उत्सा ै । परन्तु आत्म-संवरण उससे भी अधिक पववत्र िमा
ै । इस समय अपने क्रोि को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जानत के साथ
कुल का कत्ताव्य पालन कर चुके कक इस प्रकार प्राण ववसजान करने पर
कहटबद्व ो क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में धगरना चा ते ो? ये उलोग
तम् ारे स्वदे श बान्िव और तुम् ारे ी रुधिर ैं। उन् ें अपना शत्रु मत समिो।
यहद वे मूखा ैं तो उनकी मूखत
ा ा का ननवारण करना तुम् ारा कताव्य ैं। यहद वे
तम्
ु ें अपशब्द क ें तो तम
ु बरु ा मत मानों। यहद ये तम
ु से यद्
ु व करने को प्रस्तत
ु
ो तुम नम्रता से स्वीकार कर तो और एक चतुर वैद्य की भांनत अपने
ववचार ीन रोधगयों की और्धि करने में तल्लीन ो जाओ। मेरी इस आशा के
प्रनतकूल यहद तुममें से ककसी ने ाथ उठाया तो व जानत का शत्रु ोगा।
िमाससं -- ओ ो।
बालाजी–- स स्रों मनुष्य प्रवा की भें ट ो गये। सारा नगर नष्ट ो गया। घरों
की छतों पर नावें चल र ी ैं। भारत सभा के लोग प ु च गयें ैं और यथा
शष्क्त लोगों की रक्षा कर र ें ै , ककन्तु उनकी संख्या ब ु त कम ैं।
कुछ काल तक बालाजी ध्यान में मग्न र ें , तत्पश्चात बोले–मेरा जाना आवश्यक
ै । मैं तुरंत जाऊंगा। आप सहदयों की , ‘भारत सभा’ की तार दे दीष्जये कक व
इस काया में मेरी स ायता करने को उद्यत ् र ें ।
पल–भर में नगर में ये समाचार िैल गये कक सहदयों में बाढ आ गयी और
बालाजी इस समय व ां आ र ें ैं। य सुनते ी स स्रों मनुष्य बालाजी को
प ुं चाने के सलए ननकल पडे। नौ बजते–बजते द्वार पर पचीस स स्र मनुष्यों क
समुदाय एकत्र ् ो गया। सहदया की दघु ट
ा ना प्रत्येक मनष्ु य के मख
ु पर थी लोग
उन आपनत–पीडडत मनुष्यों की दशा पर स ानुभूनत और धचन्ता प्रकासशत कर र े
थे। सैकडों मनष्ु य बालाजी के संग जाने को कहटबद्व ु ए। सहदयावालों की
स ायता के सलए एक िण्ड खोलने का परामशा ोने लगा।
उिर िमाससं के अन्त: पुर में नगर की मुख्य प्रनतष्ष्ठत ष्स्त्रयों ने आज सुवामा
को िन्यावाद दे ने के सलए एक सभा एकत्र की थी। उस उच्च प्रसाद का एक-एक
कौना ष्स्त्रयों से भरा ु आ था। प्रथम वज
ृ रानी ने कई ष्स्त्रयों के साथ एक
मंगलमय सु ावना गीत गाया। उसके पीछे सब ष्स्त्रयां मण्डल बांि कर गाते –
बजाते आरती का थाल सलये सुदामा के ग ृ पर आयीं। सेवती और चन्दा
अनतधथ-सत्कार करने के सलए प ले ी से प्रस्तुत थी सुवामा प्रत्येक मह ला से
गले समली और उन् ें आशीवादा हदया कक तुम् ारे अंक में भी ऐसे ी सुपूत बच्चे
खेलें। किर रानीजी ने उसकी आरती की और गाना ोने लगा। आज मािवी का
मुखमंडल पुष्प की भांनत खखला ु आ था। मात्र व उदास और धचंनतत न थी।
आशाएं ववर् की गांठ ैं। उन् ीं आशाओं ने उसे कल रुलाया था। ककन्तु आज
उसका धचत्र उन आशाओं से ररक्त ो गया ैं। इससलए मुखमण्डल हदव्य और
नेत्र ववकससत ै । ननराशा र कर उस दे वी ने सारी आयु काट दी, परन्तु आशापूणा
र कर उससे एक हदन का द:ु ख भी न स ा गया।
वज
ृ रानी-- मैं क्या सहदया को लेकर चाटूंगी? भाड में जाय। मैं भी तो कोई ूं ?
मेरा भी तो उन पर कोई अधिकार ै ?
वज
ृ रानी -–तम्
ु ें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना। स स्रों मनष्ु य केवल
उनके भरासे पर जी र ें ैं। य न जायेंगे तो प्रलय ो जायेगा।
ववरजन –-आप।
रानीजी -– और तम
ु क्या करोगी?
ववरजन (िीरे –से)-- उसे न छडों। बेचार, अपने ्यान में मग्न ैं। सुवामा को
दे खा तो ननकट आकर उसके चरण स्पशा ककयें। सुवामा ने उन् ें उठाकर हृदय में
लगाया। कुछ क ना चा ती थी, परन्तु ममता से मुख न खोल सकी। रानी जी
िूलों की जयमाल लेकर चली कक उसके कण्ठ में डाल दं ,ू ककन्तु चरण थरााये
और आगे न बढ सकीं। वज
ृ रानी चन्दन का थाल लेकर चलीं, परन्तु नेत्र-श्रावण–
िन की भनत बरसने लगें । तब मािव चली। उसके नेत्रों में प्रेम की िलक थी
और मंु पर प्रेम की लाली। अिरों पर मह नी मस्
ु कान िलक र ी थी और मन
प्रेमोन्माद में मग्न था। उसने बालाजी की ओर ऐसी धचतवन से दे खा जो अपार
प्रेम से भरी ु ई। तब ससर नीचा करके िूलों की जयमाला उसके गले में डाली।
ललाट पर चन्दन का नतलक लगाया। लोक–संस्कारकी न्यूनता, व भी पूरी ो
गयी। उस समय बालाजी ने गम्भीर स स ली। उन् ें प्रतीत ु आ कक मैं अपार
प्रेम के समर
ु में व ां जा र ा ूं । िैया का लंगर उठ गया और उसे मनष्ु य की
भांनत जो अकस्मात ् जल में किसल पडा ो, उन् ोंने मािवी की बां पकड ली।
परन्तु ां :ष्जस नतनके का उन् ोंने स ारा सलया व स्वयं प्रेम की िार में तीब्र
गनत से ब ा जा र ा था। उनका ाथ पकडते ी मािवी के रोम-रोम में त्रबजली
दौड गयी। शरीर में स्वेद-त्रबन्द ु िलकने लगे और ष्जस प्रकार वायु के िोंके से
पष्ु पदल पर पडे ु ए ओस के जलकण पथ् ृ वी पर धगर जाते ैं, उसी प्रकार मािवी
के नेत्रों से अश्रु के त्रबन्द ु बालाजी के ाथ पर टपक पडे। प्रेम के मोती थें , जो
उन मतवाली आंखों ने बालाजी को भें ट ककये। आज से ये ओंखें किर न रोयेंगी।
***
26. मतवाली य़ोगगनी
मािवी प्रथम ी से मुरिायी ु ई कली थी। ननराशा ने उसे खाक मे समला हदया।
बीस वर्ा की तपष्स्वनी योधगनी ो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कक
या तो मन में कोई असभलार्ा ी उत्पन्न न ु ई, या ु ई दद
ु ै व ने उसे कुसुसमत
न ोने हदया। उसका प्रेम एक अपार समर ु था। उसमें ऐसी बाढ आयी कक
जीवन की आशाएं और असभलार्ाएं सब नष्ट ो गयीं। उसने योधगनी के से वस्त्र
पह न सलयें। व सांसररक बन्िनों से मुक्त ो गयी। संसार इन् ी इच्छाओं और
आशाओं का दस
ू रा नाम ैं। ष्जसने उन् ें नैराश्य–नद में प्रवाह त कर हदया, उसे
संसार में समिना भ्रम ैं।
मतवाली योधगनी को बालाजी के नाम से प्रेम था। व अपने पदों में प्राय: उन् ीं
की कीनता सुनाती थी। ष्जस हदन से उसने योधगनी का वेर् घारण ककया और
लोक–लाज को प्रेम के सलए पररत्याग कर हदया उसी हदन से उसकी ष्जह्वा पर
माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदों को सन
ु ने के सलए लोग सैकडों कोस
चले जाते थे। ष्जस प्रकार मुरली की ध्वनन सुनकर गोवपंयां घरों से वयाकुल
ोकर ननकल पडती थीं उसी प्रकार इस योधगनी की तान सुनते ी श्रोताजनों का
नद उमड पडता था। उसके पद सुनना आनन्द के प्याले पीना था।