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बावरीपंथ

'बावरी' शब्द का सामान्य अर्थ होता है - 'पगली' अर्वा 'बावली'। इस पंर् में व्यक्तिगत सदाचार और
नैततकता की ओर अतिक ध्यान तदया गया है । इसी कारण इस पंर् में आचार और आचरण की शुद्धता
अपना तवशेष महत्त्व रखती है । पंर् के प्रचार और प्रसार में सािकों तर्ा तशष्ों ने तवशेष ध्यान नहीं
तदया। इसी कारण इस पंर् का तवशेष प्रसार नहीं हो सका।
स्थापना
इस पंर् की सं स्र्ातपका बावरी सातहबा र्ीं। इनसे पहले इस सम्प्रदाय या पंर् की संघटन रूपरे खा क्या
र्ी, इस तवषय में अतिक ज्ञात नहीं है । बावरीपंर् के तवषय में तलखने वाले, कवतयत्री बावरी सातहबा का
तनम्नतलक्तखत सवैया उद् िृत करते हैं । इस सवैया से बावरी शब्द का अर्थ कुछ अतिक स्पष्ट हो जाता हैं -
"बावरी रावरी का कतहये , मन ह्वै के पतंग भरै तनत भााँ वरी।
भााँ वरी जानतहं संत सुजान, तजन्हें हरर रूप तहये दरसावरी।
सााँ वरी सूरत मोतहनी मूरत, दै करर ज्ञान अनंत लखावरी।
खााँ व री स ह
ं तेहारी प्रभू , गतत रावरी दे क्तख भई मतत बावरी।"
कवतयतत्र तनवेदन करती है तक "प्रभु ! आपकी लीला के सम्बन्ध मैं क्या कहाँ ? मेरा मन तो आपके चारों
ओर पतंग के सदृश भााँ वरें , चक्कर लगाया करता है । इस भााँ वर लगाने का रहस्य केवल उसी को
उद्भातसत है , तजसने आपकी रूप-मािुरी का पान तकया है । स गन्ध खाकर कहती हाँ तक आपकी
गतततवति दे खकर मैं तो बावली हो गयी हाँ ।" अत: बावली या बावरी शब्द का यहााँ पर अर्थ होता है , ब्रह्म
की अद् भुत लीला दे खकर चतकत रह जाने वाली क्तस्र्तत।
साधक
बावरी सातहबा से पहले इस तवचारिारा का पोषण करने वाले तीन सािक हुए, परं तु इन सािकों ने न
तो संघटन की ओर ध्यान तदया और न ही प्रचार की ओर। बावरी सातहबा का आतवभाथ व इन सािकों के
अनंतर चतुर्थ स्र्ान पर आता है । ये सािना के क्षेत्र में बडी कुशल र्ीं। इसीतलए इनके अनंतर होने वाले
सािकों ने इस पंर् का नाम बावरीपंर् रखा। पंर् के छठे व्यक्ति यारी साहब ने पंर् को सुव्यवक्तस्र्त रूप
प्रदान तकया और इसके प्रचार के तलए भी प्रशंसनीय प्रयत्न तकया।
शिष्य परम्परा
बावरी सातहबा की परम्परा का प्रारम्भ गाजीपुर तजले के पटना गााँ व के तनवासी रामानन्द से माना जाता
है । रामानन्द के तशष् दयानन्द हुए और दयानन्द के तशष् मायानन्द। मायानन्द के अनंतर बावरी
सातहबा का स्र्ान है । बावरी की प्रेरणा और दीक्षा से बीरू साहब ने सािना में ख्यातत प्राक्ति की। बीरू
साहब के बाद यारी साहब या यार मुहम्मद, केसोदास, बूला साहब (1632 से 1709 ई.), गुलाल साहब
(मृत्यु 1759 ई.), भीखा साहब (मृत्यु 1791 ई.), चतुभुथज साहब (मृत्यु 1818 ई.), नरतसंह साहब (मृत्यु 1892
ई.), जै नारायण साहब (मृत्यु 1924 ई.) आतद प्रतसद्ध तवचारक और संत हुए। इन्होंने बावरीपंर् की
परम्पराओं को बल तदया।
प्रचार-प्रसार
बावरी पंर् में व्यक्तिगत सदाचार और नैततकता की ओर अतिक ध्यान तदया गया है । इसी कारण इस
पंर् में आचार और आचरण की शुद्धता अपना तवशेष महत्त्व रखती है । इस पंर् के प्रचार और प्रसार में
सािकों तर्ा तशष्ों ने तवशे ष ध्यान नहीं तदया। इसी कारण इस पंर् का तवशेष प्रसार नहीं हो सका।
परं तु इतना अवश्य है तक इस पंर् ने अच्छे तवचारक और कतवयों को जन्म तदया, तजनमें यारी साहब,
बूला साहब, जगजीवन साहब, गुलाल साहब, पलटू साहब तर्ा भीखा साहब का नाम तवशेष आदर के
सार् तलया जाता है । इस पं र् के कतवयों पर वेदां त और सूफी दशथन का काफी प्रभाव पडा।
अजपाजाप की शिया
बावरी पंर् में अजपाजाप की स्वातभक तिया के बहुत महत्त्व तदया गया है । सद् गुरु की कृपा से अगम्य
ज्योतत तर्ा परम तत्त्व की उपलक्ति होती है । स्वानुभूतत, सुरतत-शब्दयोग या चतु र्थ पद की प्राक्ति
सद् गुरु की कृपा और तनदे श के द्वारा हो सकती है । सु रतत का सम्बन्ध काल या शब्दतत्त्व के सार् जोड
रखना तनतां त आवश्य है । ब्रह्म का साक्षात्कार नाम-जप से होता है । सुरतत-शब्दयोग, इस प्रकार के
साक्षात्कार में बडा सहायक है । योग का सच्चा ज्ञाता ही इस सुरतत-शब्दयोग के रहस्य को समझ
सकता है । आत्म-तवचार ज्ञानयोग की आिारतशला है । आत्मानुभूतत एवं एकतानता आत्म-तवचार के
तबना सम्भव नहीं है । सत्संग की मतहमा अवणथनीय है । ब्रह्म ही अतवनाशी दू ल्हा है । वह चेतन एवं तनरं तर
शून्य है । एक ही तत्त्व की अनेकरूपता सवथत्र प्रततभातसत है । सोना एक ही होता है , परं तु उससे तनतमथत
आभूषणों के आकार-प्रकार में तवतभन्नता होती है । उसी प्रकार एक ही सवाथ त्मा समस्त सृतष्ट का मूल
स्त्रोत है । बावरी पंर् के उज्ज्वल रत्न पलटू साहब ने ब्रह्म की अद्वै त सत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है तक,
"जोई जीव सोई ब्रह्म एक है "। संक्षेप में बावरी सातहबा में आध्याक्तत्मक दीवानापन, यारी साहब में सू फी
संस्कार, गुलास एवं भीखा साहब में वेदां ती तत्त्व तर्ा पलटू साहब में ये सभी तत्त्व समंतवत होकर
अतभव्यि हुए हैं ।
कशव
बावरी पंर् में प्राय: डे ढ़ दजथ न उत्कृष्ट कतव हुए। इनमें तवशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -
1. बीरू साहब
2. यारी साहब
3. केशवदास
4. बूला साहब
5. गुलाल साहब
6. भीखा साहब
7. पलटू साहब
रचनाएँ
यारी साहब की कतवताओं का संग्रह 'रत्नावली' और केशवदास का 'अमीघूाँट' प्रयाग (इलाहाबाद) से
प्रकातशत हो चुका है । बूला साहब का 'शब्दसागर', गुलाल साहबकी बानी भी उि प्रेस से प्रकातशत
हुई है । गुलाल साहब की दो और पुस्तकों 'ज्ञानगुतष्ट' तर्ा 'राम सहस्त्रनाम' का उल्ले ख हुआ है । भीखा
की 'राम कुण्डतलयााँ ', 'राम सहस्त्रनाम', 'रामसबद', 'रामराग', 'रामकतवत्त' तर्ा 'भगतवच्छावली' का
प्रकाशन वेलवेतडयर प्रेस से 'भीखा साहब की बानी' नाम से हो चुका है । हरलाल साहब के नाम पर चार
ग्रंर् 'शब्द', 'चतुरमासा', 'कुण्डतलयााँ ' तर्ा 'पदसंग्रह' प्रतसद्ध हैं । पलटू साहब की कतवताओं का संग्रह
तीन भागों में प्रयाग के वे लवेतडयर प्रेस से प्रकातशत हुआ है । इसमें लगभग 1000 पद संग्रहीत हैं ।
नेवलदास, खेमदास, दे वीदास, पहलवानदास, दे वकीनन्दन आतद की रचनाएाँ अप्रकातशत हैं । इनमें से
पलटू साहब सबसे सामर्थ्थवान कतव र्े। इनमें प्रचुर काव्य प्रततभा र्ी। तवचारों की स्पष्टता और भावों
की सुष्ठु अतभव्यंजना इनकी तवशेषता है ।

स्रोतः-
http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E
0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%A5#cite_note-aa-1
भगवतीप्रसाद शुक्ल, बावरी-पंर् के तहन्दी-कतव : लखनऊ तवश्वतवद्यालय द्वारा स्वीकृत शोि-प्रबन्ध,
आयथ बुक तडपो, 1972, प्रर्म संस्करण

http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/177316/5/05_chapter%201.pdf

Singh, Krishna
Bhurkuda ki sant parampara ka ek samajshastriya vishleshan Siddhpeeth ke pachchis
upshakhaon mein Niwas karne wale 200 santo par aadhrit Adhyayan
http://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/181948

Sant kavi bhikha sahib

Singh, Kanchan
http://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/177316

Bavri Panth Aur uski sant parampara Ek aitihasik Adhyayan, Sharma, Neelam
http://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/182514

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