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या ा का मह व

दे श +अटन इन दो श द म सं ध होने से बना है एक नया श द – दे शाटन। ‘दे श’ कसी ऐसे वशेष भू –


भाग को कहा जाता है , िजसे कृ त ने अपने व भ न और व वध प वाले, व भ न और व वध
कार क संप य से संप न बनाया होता है । उ ह ं के कारण एक ह दे श का भाग या ांत दसू रे भाग
या ांत से अलग कहलाता है । इसे हम कृ त वारा दे श का भौगो लक वभाग और वै वधय भी
कहलाता है , जो अपने आप म संपण
ू एवं मह वपण ू हुआ करता है ।

दे शाटन म दस ू रा मु य श द है – ‘ अटन’ िजस का सामा य अथ है , घम


ू ना - फरना और तरह – तरह
के य का अवलोकन करना। इस कार ‘दे श ‘ और ‘ अटन’ से मलकर बने इस श द ‘ दे शाटन ‘ का
अपना यापक और वशेष अथ हो जायेगा ाकृ तक और भौगो लक व भ नताओं – व वधताओं से
संप न अपने दे श के अलग – अलग भू -भाग , ांत का मण करके वहां के प – रं ग, रहन-सहन,
र ती–नी तय , आ द को दशन करना उ ह नकट से दे ख सन ु कर वहां क वशेषताओं को जानना। जहाँ
तक सी मत या यापक अथ म दे शाटन के उ दे य योजन या लाभ आ द का न है वह चाहे अपने
दे श के व भ न भाग या ांत का कया जाये अथवा संसार के व भ न दे श का उनम समानता ह
रहती है । यि त दोन दशाओं म समान प से लाभाि वत होता है , जब क दे शाटन से व भ न दे श क
वशेषताएँ दे खी और समझी जा सकती है ।

अटन या मण चाहे दे श म कया जाये चाहे सार धरती पर बसे दे श म, अनेक लाभ नि चत प से
ा त हुआ करे ह। दे शाटन से मनोरं जन का पहला मखु एवं वा य लाभ तो हुआ ह करता है , यि त
के मन- मि त क म जो अनेक कार क िज ासाज य कृ तयां रहा करती ह, उनका हल भी होता है ।
इसी कार जैसे क कहावत बनी हुई है ऊँठ को अपनी उचाई क वा त वकता का एहसास तभी हो जाता
है , जब वह पहाड़ के नचे से गज ु रता होता है अथात अपने – आप को बड़ा व वान ानवान और
जानकार मानने वाला यि त दे श – वदे श म घम ू कर जान पता है क वा तव म वह कतना अ प
है । इस कार दे शाटन यि त के अपने स ब ध म पास रखे गए म – नवारण का भी एक कारण
बनकर उसे जीवन क व त वक धरातल पर ले अपने का सख ु द, शां त द कारण बन जाया करता है ।

दे शाटन करने वाला यि त कृ त के व भ न और व वध व प के साथ सा ा कार कर पाने का


सौभा य भी सहज ह ा त कर लेता है । वह दे ख पाता है क कृ त ने कह ं तो हर – भर और बफानी
पवतमालाओं से धरती को ढक रखा है । वहां क पवतमालाओं क बफ – ढं क चो टयां इतनी ऊँची ह क
उ ह पार कर पाना य द संभव नह ं तो क ठनतम काय आव यक है । इसी कार कह ं खी – सख ू ी गरम
और नंगी पवतमालाएं ह जहाँ छतराये पेड़ – पौध, वन प तय आ द वयं भी छाया के लए तरसा
करती ह ल बे – चौड़े, धलु – माट आँख – सर म झ कने को आतरु रे तीले ट ल वाले रे ग तान
दखाई दे कर क त क बनावट कर आ चय करने को बा य कर दया करते ह कह ं आर – पार , ि ट
रे ग तान दखाई दे कर कृ त क बनावट कर आ चय करने को बा य कर दया करते ह कह ं आर –
पार, ि ट सीमा के भी उस पार तक फैले सागर – जल का व तार अपनी उ ाल तरं ग से मन को मोह
लया करता है ।

इसी कार कह ं तो हमेशा बसंत का गल


ु ज़ार रहता है और कह ं सद के कोप से पल भर के लए मिु त
नह ं मल पाती। कह ं वषारानी क रम झम पायल बोर कर दे ने क सीमा तक बजती रहती है और कह ं
स त गम से याकुल चेतना उसक कुछ बौछार पाने को तरस जाती ह। दे शाटन करके ह इन
व वधताओं को जाना और अनभ ु व कया जा सकता है । दे शाटन करते समय व भ न रं ग – प और
बनावट वाले लोग तो दे खने – सनु ने को मलता ह ह। उनके रं ग – बरं गे वेश – भष
ू ा, रहन – सहन,
र ती – रवाज , उ सव – योहार , भाषा- बो लय , स यता, सं कृ तय के प भी उजागर होकर मन
को मु ध कर लया करते ह । इस सबसे अटन करने वाला यि त व भ न और व वध जानका रय
का चलता – फरता ान भंडार बन जाया करता है । वह सख ु – दःु ख क हर ि त थ का सामना कर
पाने म समथ, उदार- दय सबक सहायता करने को हमेशा त पर रहना भी सीख लेता है । इस लए
अवसर और सु वधा जट ु ाकर दे श – वदे श का अटन अव य करना चा हए । मानवीयता को व तार
दे शाटन का सवा धक े ठ लाभ कहा – माना जा सकता है ।

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